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गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

🙋"स्वामी विवेकानन्द की संघभावना 🙋अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल

 प्रकाशक का प्रस्तुतीकरण

स्वामी विवेकानन्द ने अनुभव किया ​​था कि समाज तथा भारत का वास्तविक कल्याण इसके नागरिकों के जीवन गठन और चरित्र-निर्माण पर निर्भर करता है। सामाजिक कल्याण की योजनाओं का अनुपालन  अथवा समुचित संचालन सम्मिलित प्रयासों से ही संभव है। लेकिन भारत में मिलकर काम करने की शक्ति का नितांत अभाव है। इसलिए उन्होंने अपने पत्रों और भाषणों में युवाओं को इस संबंध में प्रोत्साहित किया और संघ के प्रबंधन के बारे में विस्तार से निर्देश भी दिए। उनके प्रेरक भाषणों के अंश यहां संग्रहीत हैं।

मुझे आशा है कि यह पुस्तिका उन युवाओं का मार्गदर्शन करेगी और उन्हें प्रेरित करेगी जो देश के काम में लग रहे हैं।

यह पुस्तिका श्री रामकृष्ण सेवा समिति, गुंटूर जिला द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक- ' Vivekananda on Organization and Organized Work' (विवेकानंद ऑन ऑर्गनाइजेशन एंड ऑर्गनाइज्ड वर्क/श्री बी.एस.आर. अंजनेयुलु द्वारा संकलित।  प्रकाशक श्री रामकृष्ण सेवा समिति बापतला - 522 101) की मदद से तैयार की गई है। उन्हें धन्यवाद।

प्रकाशक

दिसंबर 2019

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विषयसूची


1)संगठन

2) योग्य कार्यबल

3) कुछ चेतावनी संकेत

4) प्रशिक्षण

5) योजना का कार्यान्वयन

6) लोक कल्याण

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स्वामी विवेकानन्द की संघभावना 

[संगठन और संगठित प्रयास पर स्वामी विवेकानन्द के विचार]

[Swami Vivekananda's views on organization and organized effort]  

1. 

संगठन 

" एक Organized Society चाहिये। तुम लोग संघबद्ध हो जाओ, तो यह सबसे अच्छी बात होगी। नये पथ- ['Be and Make'] की खोज निस्सन्देह एक बड़ी बात है, किन्तु उस मार्ग को स्वच्छ और प्रशस्त और सुन्दर बनाना उतना ही कठिन कार्य है। " (खंड-४/३२९-स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र 1895) 

"अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी, जिसमें कहा गया है - 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।  देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।' - हम सब एक साथ चलें, आपस में संवाद करें, हमारे मन एकमत हों। क्योंकि प्राचीन काल में [देव संस्कृति में प्रशिक्षित आचार्यदेव के युग में] एकमत होने के कारण ही देवता लोग यज्ञ में अपना -अपना भाग प्राप्त करने में समर्थ हुए थे। देवगण मनुष्यों के द्वारा उपासना करने योग्य इसीलिए बने क्योंकि वे एकचित्त थे ! एकमत हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। " ('भारत का भविष्य' खंड ५,पृष्ठ -१९२)  

" भारत में जिस एक चीज का हममें अभाव है, वह है एकता तथा संगठन-शक्ति, और उसे प्राप्त करने का प्रधान उपाय है आज्ञा-पालन ! Remember it is the person, the life, which is the secret of power — nothing else. याद रखो - मनुष्य (the person-पैगम्बर) और उसका जीवन ही शक्ति का रहस्य है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं। " (डॉ० नन्जुन्दा राव को लिखित पत्र -१४ अप्रैल,१८९६)

" इच्छाशक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है। यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति-संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। " ('भारत का भविष्य' खंड ५,पृष्ठ १९१ -१९२) 

" हमें अपनी शक्तियों का समन्वय  किस सम्प्रदाय-निर्माण के लिए संगठित नहीं करना है, आध्यात्मिक विषय से जुड़े कार्य के लिए भी नहीं , बल्कि ऐसा केवल भौतिक पहलू को सामने रखकर करना है। [Be and Make' आन्दोलन को भारत के गाँव -गाँव तक पहुँचा देने के लिए ??]  एक जोरदार प्रचार-कार्य का समारम्भ करना होगा। एक साथ मिलकर संगठन-कार्य में जुट जाओ।"- (३० नवम्बर, १८९४ को आलासिंगा को लिखित पत्र) 

" संगठन शब्द का अर्थ है श्रम का विभाजन। हर कोई अपने हिस्से का काम करता है, और सभी हिस्से एक साथ मिलकर समन्वय (harmony-एकता, समरसता, मधुर सम्बन्ध) का आदर्श व्यक्त करते हैं। " [आलमबजार मठ के गुरुभाइयों को लिखित। " खंड ??? ]

[The term organisation means division of labour. Each does his own part, and all the parts taken together express an ideal of harmony. . ..]

[যে কোনোরূপ হোক , সংঘের যাহাতে দৃঢ় প্রতিষ্ঠা ও উন্নতি হইতে পারে , তাহা করিতেই হইবে ; আর আমরা ইহাতে নিশ্চয়ই কৃতকার্য হইব -নিশ্চয়ই। -স্বামী বিবেকানন্দ /(পত্রাবলী পৃষ্ঠা ২২১) ]   

" पुरुष तथा नारी (M/F), दोनों ही आवश्यक हैं। आत्मा में नारी-पुरुष का भेद नहीं है। हजारों की संख्या में पुरुष तथा नारी चाहिए, जो अग्नि की तरह हिमालय से कन्याकुमारी तथा उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक तमाम दुनिया में फ़ैल जायेंगे। हमें संगठन चाहिए, आलस्य को दूर कर दो। फैलो ! फैलो! अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ। " (ग्रीष्म १८९४ में आलमबाजार मठ के गुरुभाइयों को लिखित पत्र ) 

" त्यागी हुए बिना तेजस्विता नहीं आने की। कार्य आरम्भ कर दो। दूसरों में जागृति उत्पन्न करो, यही तुम्हारा काम है। जहाँ भी जाओ, वहीं तुम्हें एक स्थायी प्रचार-केन्द्र खोलना होगा। तभी व्यक्तियों में परिवर्तन आएगा। " (पत्रावली -२५ सितम्बर, १८९४)

" पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, विशाल बुद्धि और सर्वजयी इच्छाशक्ति। इन गुणों से सम्पन्न मुट्ठी भर आदमियों को यह काम करने दो और सारे संसार में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो जायेगा।" (खंड -४/पेज -२७५ , ई० टी० स्टर्डी को लिखित पत्र-24 अप्रैल,1895)  

" न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाकचातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुद्ध जीवन , एक शब्द में अनुभूति, आत्मसाक्षात्कार को विजय मिलेगी।" ४/३६६ 

["प्रत्येक देश में सिंह जैसी दस-बारह आत्मायें होने दो, जिन्होंने अपने बन्धन तोड़ डाले हैं , जिन्होंने 'अनन्त' का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं , न बल की , न नाम की - और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे। यही रहस्य है। पतंजलि कहते हैं - "जब मनुष्य समस्त अलौकिक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्ममेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह ईश्वर का दर्शन करता है , वह परमात्मा बन जाता है , और दूसरों को तद्रूप बनने में सहायता करता है। " (४/ ३३६ पत्र 9 अगस्त 1895/स्टर्डी को लिखित) ] 

" चट्टान की तरह दृढ़ रहो। सत्य की हमेशा जय होती है। श्रीरामकृष्ण की सन्तान निष्कपट एवं सत्यनिष्ठ रहे, शेष सबकुछ ठीक हो जायेगा। शायद हमलोग उसका फल देखने के लिए जीवित न रहें; परन्तु जैसे इस समय हम जीवित हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि देर या सबेर इसका फल अवश्य प्रकट होगा।  भारत को नव विद्युत् -शक्ति की आवश्यकता है, जो राष्ट्रीय धमनी में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है और होगा। निःस्वार्थभाव से काम करने में सन्तुष्ट रहो और अपने प्रति सदा सच्चे रहो। पूर्ण रूप से शुद्ध दृढ़ और निष्कपट रहो , शेष सब कुछ ठीक हो जायेगा। पवित्र बनो, ईश्वर पर विश्वास रखो, हमेशा उस पर निर्भर रहो - फिर तुम्हारा सब ठीक जायेगा - कोई भी तुम्हारे विरुद्ध कुछ न कर सकेगा। " (३/३४४-अलसिंगा को पत्र 1894 ) 

" किसीको उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिये। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जबतक वे सही मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं , तब तक उनके कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई गलती नजर आये , तो नम्रतापूर्वक गलती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड़ है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बड़ा हाथ है। "(४/३१५- लेटर स्वामी ब्रह्मानन्द 1895) 

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2. 

प्रशिक्षित एवं योग्य/उपयुक्त चालक दल

'Trained and Qualified Crew'

[" It is the Duty of the Teacher always to turn the "right sort" out of the most "unrighteous sort" of persons. "- अत्यन्त 'अनुपयुक्त' व्यक्तियों में से 'उपयुक्त' का निर्माण करना ही आचार्यदेव (जीवन्मुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर) का सदा से कर्तव्य रहा है।"पत्र 25 अप्रैल, 1895, श्रीमती ओली बुल को लिखित/खंड ४/पेज२७८ / स्वामीजी श्रीमती ओलीबुल को माँ कहते थे।]

" नेतृत्व : लीडरी करना बड़ा कठिन काम है - दासस्य दासः - 'दासों का दास' और हजारों आदमियों का मन रखना। 'jealousy and selfishness ' - ईर्ष्या और स्वार्थपरता जब जरा भी न हो, तभी तुम नेता बन सकते हो।" (स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित पत्र-1894, खंड ३/३६०) 

"  जो सबका दास होता है, वही उनका सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच -नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है , जो ऊँच -नीच सोचने के लिए, कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है। " (खंड ४/४०२ -,27 अप्रैल,1896 को लिखित पत्र / आलमबजार मठ के अपने गुरुभाइयों को लिखित)

" यदि तुम शासक बनना चाहते हो, तो सबके दास बनो। यही सच्चा रहस्य है। तुम्हारे वचन यदि कठोर भी होंगे, तब भी तुम्हारा प्रेम अपना प्रभाव दिखायेगा। मनुष्य प्रेम को पहचानता है, चाहे वह किसी भी भाषा में व्यक्त हुआ हो।  " (खंड 2/३५९ / स्वामी शिवानन्द को लिखित। ) 

[কতকগুলো চেলা চাই -fiery young men (অগ্নিমন্রে দীক্ষিত যুবক) বুঝতে পারলে ? - intelligent and brave (বুদ্ধিমান ও সাহসী), যমের মুখে যেতে পারে , সাঁতার দিয়ে সাগর পারে যেতে প্রস্তুত। Hundreds (শত শত) এ রকম চাই , মেয়ে মদ্দ both (দুই) প্রানপনে তারই চেষ্টা কর। 1894 आलम बजार मठ के गुरुभाई ] 

" याद रखो कि न धन का कोई मूल्य है, न नाम का, न यश का, न विद्या का -केवल चरित्र ही कठिनाइयों के दुर्भेद्य पत्थर की दीवारों को चीर कर, उसके भीतर से गुजर सकता है। " (खंड २/३६३ /1894 स्वामी ब्रह्मानन्द को पत्र।)

" भ्रातृगण (भाईयों), बिना विरोध के कोई भी अच्छा काम नहीं हो सकता। जो अन्त तक प्रयत्न करते हैं, उन्हें ही सफलता मिलती है। [जो अमृत मिलने तक सागरमंथन करते हैं -अवश्य सफल होते हैं।] (खंड २/३४२ /9 अप्रैल, 1894 को आला सिंगा पेरुमल को लिखित पत्र।)   

" मैंने अपने जैसे क्षुद्र जीवन में अनुभव कर लिया है कि उत्तम लक्ष्य, निष्कपटता और अनन्त प्रेम से  विश्व-विजय की जा सकती है। ऐसे गुणों से सम्पन्न एक भी मनुष्य करोड़ो पाखण्डी एवं निर्दयी मनुष्यों की दुर्बुद्धि को नष्ट कर सकता है। " (खंड ६/३०७/श्रीमती सरला घोषाल को लिखित -6 अप्रैल, 1897) 

 "चित्त में अहंकार न आने पावे, एवं ह्रदय से प्रेम दूर न होने पावे। तुम्हारा नाश होना क्या सम्भव है ? मा भै: ! मा भै:! जय काली , जय काली ! विपत्ति की सम्भावना दूर हो चुकी है। (खंड -७/ ३९१- 20 नवम्बर, 1899.स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)

" यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो, तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। " (खंड ४-३२० / 1895 स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित।)

" मन की प्रवृत्ति के अनुसार काम मिलने पर अत्यन्त मूर्ख व्यक्ति भी उसे कर सकता है। लेकिन सब कामों को जो अपने मन के अनुकूल बना लेता है, वही बुद्धिमान है। कोई भी काम छोटा नहीं है, संसार में सबकुछ बटबीज की तरह है, सरसों जैसा क्षुद्र दिखाई देने पर भी अति विशाल बट-वृक्ष उसके अन्दर विद्यमान है। बुद्धिमान वही है जो ऐसा (अंतर्निहित दिव्यता को) देख पाता है और सब कामों को महान बनाने में समर्थ है। " (खंड/६-३५१ -11 जुलाई, 1897.स्वामी शुद्धानन्द को लिखित। ) 

" शनैः पन्थाः इत्यादि , सब अपने समय होगा। जब कोई बड़ा काम होता है, जब नींव पड़ती है या मार्ग बनता है, जब दैवी शक्ति की आवश्यकता आवश्यकता होती है - तब एक या दो असाधारण मनुष्य विघ्न और कठिनाइयों के पहाड़ को पार करते हुए चुपचाप और शान्ति से काम करते हैं। जब सहस्रों मनुष्यों का लाभ होता है, तब बड़ा कोलाहल मचता है और पूरा देश प्रशंसा से गूँज उठता है। परन्तु तबतक वह यंत्र तीव्रता से चल चुका होता है और कोई बालक भी उसे चलाने का सामर्थ्य रखता है या कोई भी मूर्ख उसकी गति में वृद्धि कर सकता है। किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि एक या दो गाँवों का जो उपकार हुआ है, वह अनाथालय जिसमें बीस-पच्चिस अनाथ ही हैं तथा वे ही १०-२० कार्यकर्ता नितान्त पर्याप्त हैं और यही वह केन्द्र बनाता है, जो कभी नष्ट होने का नहीं। यहाँ से लाखों मनुष्यों को समय पर लाभ पहुँचेगा।  अभी हमको आधे दर्जन सिंह चाहिए, उसके बाद सैंकड़ों गीदड़ भी उत्तम काम कर सकेंगे। " (खंड -७ /४११ , 21 फरवरी, 1900. को स्वामी अखण्डानन्द को लिखित पत्र।)  

" संसार छः श्रद्धालु मनुष्यों - आत्मविश्वासी मनुष्यों का इतिहास है , छः गंम्भीर शुद्ध चरित्रवान मनुष्यों (मानहुँषों) का इतिहास है। हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता है - अनुभव करने के लिए हृदय की , कल्पना करने के लिए मस्तिष्क की, और काम करने के लिए हाथ की। " (खंड-४/२७१- भक्तियोग के पाठ। भारत का कल्याण ही : संसार का उपकार है !)

परिचालना :  " ऐसा यंत्र खड़ा करो जो कि अपने आप चलता रहे, चाहे कोई मरे अथवा जीवित रहे। हमारे इण्डिया का यह एक महान दोष है कि हम कोई स्थायी संस्था नहीं बना सकते हैं- — and the reason is that we never like to share power with others and never think of what will come after we are gone." और उसका कारण यह है कि दूसरों के साथ हम कभी अपने उत्तरदायित्व का बँटवारा नहीं करना चाहते और हमारे बाद क्या होगा - यह भी नहीं सोचते। " (खंड-६/४०८ -स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र। )

     "एक की मृत्यु हो जाने से अन्य कोई व्यक्ति, दूसरा एक ही क्यों - आवश्यकता पड़ने पर दस व्यक्ति, कार्य करने को प्रस्तुत रहे। दूसरी बात यह कि कोई भी व्यक्ति तबतक अपनी पूरी शक्ति के साथ कार्य नहीं करता है, जब तक उसमें उसकी रूचि न पैदा की जाय ; सभी को यह बतलाना उचित है कि कार्य तथा सम्पत्ति में प्रत्येक का ही हिस्सा है एवं कार्य-प्रणाली में अपना मत प्रकट करने का सभी को अधिकार है , एवं अवसर रहते ही यह हो जाना चाहिए। " एक के बाद एक प्रत्येक व्यक्ति को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य देना, परन्तु हमेशा एक कड़ी नजर रखना जिससे आवश्यकता पड़नेपर तुम नियंत्रण कर सको ; तब कहीं कार्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति का निर्माण हो सकता है।  (खंड-६/४०८ -स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र। )

" श्रम के बाद विश्राम और विश्राम के बाद श्रम करने से ही भली भाँति कार्य हो सकता है। 'The best work is only done by alternate repose and work. (खंड ६/३९९ पत्र स्वामी रामकृष्णानन्द। )

" जिस समय जिस काम के लिए प्रतिज्ञा करो , (या वचन दो) ठीक उसी समय उसे करना ही चाहिए , नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है। रूपये-पैसे की बात में पत्र मिलते ही अतिशीघ्र उत्तर देना चाहिए।' (खंड -४/३५५- स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित) "

" भारत में जो काम साझे में होता है वह एक दोष के बोझ से डूब जाता है। हमने अभीतक व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं विकसित किया। अपने वास्तविक अर्थ में व्यवसाय व्यवसाय ही है, मित्रता नहीं , जैसी की हिन्दू कहावत है -'मुँहदेखी -ठकुर सोहाती' नहीं होनी चाहिए। अपने जिम्मे जो हिसाब-किताब हो, वह बहुत हिसाब/सफाई से रखना चाहिए और कभी एक कोष का धन किसी दूसरे काम में कदापि न लाना चाहिए , चाहे दूसरे क्षण भूखे ही क्यों न रहना पड़े। यही है व्यावसायिक ईमानदारी। दूसरी बात है कार्य करने की अटूट शक्ति होनी चाहिए। जो कुछ तुम करते हो, उस समय के लिए उसे ही अपनी पूजा समझो।' (26 अगस्त, 1896. डॉ. नंजुंदाराव को लिखित) 

[সঙ্ঘবদ্ধ হয় কাজ করবার ভাবটা আমাদের চরিত্রে একেবারে নাই , এটা যাতে আসে -তার চেষ্টা করতে হবে। এটি করবার রহস্য হচ্ছে ঈর্ষ্যার অভাব। সর্বদাই তোমার ভ্রাতার মতে মত দিতে প্রস্তুত থাকতে হবে - সর্বদাই যাতে  মিলে মিশে শান্তভাবে কাজ হয়, তার চেষ্টা করতে হবে। এটাই সংঘবদ্ধ হয় কাজ করবার সমগ্র রহস্য। সাহসের সঙ্গে যুদ্ধ কর। জীবন তো ক্ষণস্থায়ী -একটা মহৎ উদ্দেশ্যে জীবনটা সমর্পন কর। (পত্রাবলী-পেজ ১৬৮)]

" हाय ! सदियों की घोर ईर्ष्या द्वारा हम जर्जर हो रहे हैं, हम सदा एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या का भाव रखते हैं ! क्यों अमुक व्यक्ति हमसे बढ़ गया ? क्यों हम अमुक से बड़े न हो सके ? सर्वदा हमारी यही चिंता बनी रहती है। ईर्ष्या-द्वेष छोड़ो, तभी तुम उन महान कर्मों को कर सकोगे, जो अभीतक बाकी पड़े हैं। (खंड-५/३३ -वेदान्त जफना का भाषण )     

" एक Organized Society चाहिये। तुम लोग संघबद्ध हो जाओ, तो यह सबसे अच्छी बात होगी। नये पथ की खोज निस्सन्देह एक बड़ी बात है, किन्तु उस मार्ग को स्वच्छ और प्रशस्त और सुन्दर बनाना उतना ही कठिन कार्य है। " [(खंड-४/३२९-स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र 1895)]

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3.      

कुछ चेतावनी संकेत (PITFALLS)

" भाई, सब दुर्गुण मिट जाते हैं, पर वह अभागी ईर्ष्या नहीं मिटती ...!  हमारी जाती का वही दोष है। केवल परनिन्दा और ईर्ष्या। 'हम बड़ा !' - हमसे बड़ा कोई दूसरा न होने पाए। (रामकृष्णानंद को लिखित 19 मार्च, 1894.) 

" हमारे उपनिषद कितने ही मत्वपूर्ण क्यों न हों , अन्यान्य जातियों के साथ तुलना में हम अपने पूर्वज ऋषियों पर कितना ही गर्व क्यों न करें, मैं तुमलोगों को स्पष्ट रूप से बतला देता हूँ कि हम दुर्बल हैं, अत्यन्त दुर्बल हैं। प्रथम तो हमारी शारीरिक दुर्बलता। यह शारीरिक दुर्बलता कम से कम हमारी एक तिहाई दुःखों का कारण है। हम आलसी हैं , हम कार्य नहीं कर सकते। हम पारस्परिक एकता स्थापित नहीं कर सकते , हम एक दूसरे से प्रेम नहीं करते, हम बड़े स्वार्थी हैं , हम तीन मनुष्य एकत्र होते ही एक दूसरे से घृणा करते हैं। ईर्ष्या करते हैं। हमारी इस समय ऐसी अवस्था है कि हम पूर्ण रूप से असंगठित और घोर स्वार्थी हो गए हैं।"  (भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव -खंड-५/१३७)

[ভারতবর্ষে তিনজন লোকও পাঁচ মিনিট কাল এক সঙ্গে মিলিয়া -মিশিযা কাজ করিতে পারে না।  প্রত্যেকেই ক্ষমতার জন্য কলহ করিতে শুরু করে -ফলে সমগ্র প্রতিষ্ঠানটিই দুরবস্থায় পতিত হয়। (পত্রাবলী, পেজ ১০৭)  

" परस्पर विवाद करना तथा आपस में निन्दा करना हमारा जातीय स्वभाव है। आलसी, कर्महीन , कटुभाषी, ईर्ष्यापारायण, डरपोक तथा विवादप्रिय -यही तो हम बंगालियों की प्रकृति है। मेरा भाई /मित्र कहकर परिचय देने वाले को पहले इस आदत को त्याग देना होगा। " (20 दिसम्बर, 1896.स्वामी ब्रह्मानंद को /खंड -५/३९७ )

" पाँच आदमी के साथ मिलकर कोई काम करना हमलोगों की आदत नहीं। हमारी इसीलिए इतनी दुर्दशा हो रही है। जो आज्ञा का पालन करना जानते हैं , वे ही आज्ञा देना भी जानते हैं। पहले आदेश-पालन करना सीखो। इन सब पाश्चात्य राष्ट्रों में स्वाधीनता का भाव जैसा प्रबल है, आदेश-पालन करने का भाव भी वैसा ही प्रबल है। और ये गुण हममें बिल्कुल ही नहीं है। " {खंड -४/३६० 13 नवंबर, 1895मूल बंगाली में अखंडानंद को लिखित }

"हम ऐसे शक्तिहीन हैं कि यदि हम किसी विषय की चर्चा शुरू करते हैं तो उसीमें हमारा सारा बल लग जाता है और कोई काम करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता। " {६-३१०} 

" स्वयं कुछ करना नहीं और यदि दूसरा कुछ करना चाहे , तो उसका मखौल उड़ाना हमारी जाति का एक महान दोष है और इसी से हमारी जाति का सर्वनाश हुआ है। हृदयहीनता तथा उद्यम का आभाव सब दुखों का मूल है। अतः उन दोनों को त्याग दो। " (24 जनवरी, 1896. स्वामी योगानन्द को लिखित) 

" पीठ पीछे किसीकी  निन्दा करना महापाप है। इससे पूरी तरह बचकर रहना चाहिए। मन में कई बातें आती हैं, परन्तु उन्हें प्रकट करने से राई का पहाड़ बन जाता है। यदि क्षमा कर दो और भूल जाओ, तब उन बातों का अन्त हो जाता है।' (खंड -३/३९१-11 अप्रैल, 1895.स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)

" तुमलोगों को मैं निम्नलिखित बातें बतलाना चाहता हूँ --

1. पक्षापात ही सब अनर्थों की मूल है, यह न भूलना। अर्थात यदि तुम किसीके प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रेम -प्रदर्शित करते हो , तो याद रखो, उसीसे भविष्य में कलह का बीज जन्म लेगा। (खंड -४/३१२-ग्रीष्म १८९५ वराहनगर मठ के गुरुभाइयों के लिए।)  

 2. यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। 

3.दूसरों के दोषों को सर्वदा सहन करना, लाख अपराध होने पर भी उसे क्षमा करना। यदि निःस्वार्थभाव से तुम सबसे प्रेम करोगे, तो उसका फल यह होगा कि सब कोई आपस में प्रेम करने लगेंगे। एक का स्वार्थ दूसरे पर निर्भर है, इसका विशेष रूप से ज्ञान होने पर सब लोग ईर्ष्या को त्याग देंगे; आपस में मिल-जुल कर किसी कार्य को सम्पादित करने की भावना हमारे जातीय चरित्र में सुलभ नहीं है ; अतः अपने [घर,बिजनेस या] संघ में इस प्रकार की भावना को जाग्रत करने के लिए तुम्हें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ेगा तथा उसके लिए हमें धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा भी करनी होगी। (खंड-४/३१३-पत्र 1895) 

**Servant leadership : " यह ख्याल रखना कि इन सारे कार्यों की देख-भाल तुमको ही करनी होगी - 'नेता' बनकर नहीं, सेवक बनकर। क्या तुम्हें मालूम है कि नेतृत्व की भावना के थोड़ा सा प्रकट होते ही -लोगों में  [कजन में] ईर्ष्या की भावना को जाग्रत कर सारा काम बिगाड़ देता है ? सबकी सब बातें मान लेने को तैयार रहो, बस, इतना ख्याल रखो कि सब मित्र मिलजुल कर कार्य करें।  समझते हो भाई ? (खंड-२/३९४ -31 अगस्त, 1894 को अलासिंगा पेरुमल को लिखित) 

" पूर्णतः निःस्वार्थ हो, स्थिर रहो , और काम करो। हम बड़े बड़े काम करेंगे , डरो मत। सबके सेवक बनो। और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो , क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज बर्बाद हो जाएगी। यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा।"  (खंड -४/२८४/ 6 मई, 1895. आलासिंगा को लिखित पत्र)

"पहले से ही बड़ी बड़ी योजनाएं न बनाओ , धीरे धीरे कार्य प्रारम्भ करो -जिस जमीन पर खड़े हो, उसे अच्छी तरह से पकड़कर क्रमशः ऊँचे चढ़ने की चेष्टा करो। तुम्हारा मार्ग खुल जायेगा। ' (खंड -३/३८६/ आलासिंगा पेरुमल को लिखित पत्र 6 मार्च, 1895)

" मैं चाहता हूँ कि तुम लोग (काम करते करते ) मर जाओ, फिर भी तुम्हें संग्राम करना होगा ! सिपाही की तरह आज्ञा-पालनार्थ अपनी जान तक दे दो एवं निर्वाणलाभ करो , किन्तु कायरपन को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया जा सकता। "  (खंड -७/ ३९२ /21 नवम्बर, 1899/स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)  

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4.

प्रशिक्षण 

"লম্বা প্ল্যানে এখন কাজ নাই , যাহা under existing circumstances possible (বর্তমান অবস্থায় সম্ভব)হয় তাহাই করিবে। ক্রমে ক্রমে the way will open to you. (তোমার পথ খুলিয়া যাইবে।) (পত্রাবলী ৬০৫)  

 "আমাদের কাজ হওয়া উচিত প্রধানতঃ শিক্ষাদান - চরিত্র এবং বুদ্ধিবৃতির উৎকর্ষ সাধনের জন্যে শিক্ষা বিস্তার।" (বিবেকানন্দ -পত্রাবলী পৃষ্ঠ ৫৭৫) 

" जहाँ तक हो सके, कम से कम खर्चे में अधिक से अधिक स्थायी सत्कार्य की प्रतिष्ठा करना ही हमारा ध्येय है। अब तुम समझ ही गए होगे कि तुमलोगों को स्वयं ही मौलिक ढंग से सोचना चाहिए , नहीं तो मेरी मृत्यु के बाद सब कुछ नष्ट हो जायेगा। उदाहरण के लिए यह कर सकते हो कि इसी विषय पर विचार करने के लिए एक सभा का आयोजन करो कि अपने कम से कम साधनों द्वारा हम किस प्रकार श्रेष्ठतम स्थायी फल प्राप्त कर सकते हैं। "  (11 जुलाई, 1897/ स्वामी शुद्धानन्द को लिखित-खंड ६/351-52)  

" जब तक तुम निश्चित रूप से यह न जान लो कि वह संगठन के लिए हितकर होगा, तब तक अपने मन का भेद न खोलो। बड़े से बड़े शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शब्दों का व्यहार करो।  Everything proceeds slowly, by degrees—patience, purity, perseverance--- सभी काम धीरे धीरे होते हैं। धैर्य,पवित्र और अध्यवसाय बनाये रहो !"  (स्वामी अभेदानन्द को लिखित -1894/ खंड २/350 -51) 

"चालाकी से कोई बड़ा काम पूरा नहीं हो सकता। प्रेम, सत्यानुराग और महान वीर्य की सहायता से सभी कार्य सम्पन्न होते हैं।'तत्‌ कुरु पौरुषं'- इसलिए परुषार्थ को प्रकट करो।' (खंड -४/३१६-1895 स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखीत)   

" सभी के आंतरिक प्रयास के बिना क्या कोई कार्य हो सकता है ? " उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति  लक्ष्मीः ' - उद्योगी पुरुषसिंह ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है। 'पीछे की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है - आगे बढ़ो। हमें अनन्त शक्ति, अनन्त उत्साह , अनन्त साहस तथा अनन्त धैर्य चाहिए, तभी महान कार्य सम्पन्न होगा। दुनिया में आग (प्राण ?) फ़ूंकनी है ! (खंड -५/४०३ / स्वामी अभेदानन्द को लिखित)

[ধৈর্য ধরে থাকা এবং মৃত্যু পর্যন্ত বিশ্বস্ত হয়ে থাকা নিজেদের মধ্যে বিবাদ করো না।  টাকাকড়ির লেনদেন বিষয়ে সম্পূর্ণ খাঁটি হও। তাড়াহুড়ো করে টাকা রোজগারের চেষ্টা করো না -ও সব কর্মে হবে। আমরা এখনও বড় বড় কাজ করব ,জেনো। বিশ্বাস ও দৃঢ়তার সহিত লেগে থাকা। সত্যনিষ্ঠ , সাধু ও পবিত্র হও , আর নিজেদের না=ভেতর বিবাদ করো না। ঈর্ষাই আমাদের জাতির ধ্বংসের কারন (পত্রাবলী ৩৯৯)

[মানুষই তো টাকা করে। টাকায় মানুষ করে , এ কথা কবে কোথায় শুনেছিস ? তুই যদি মন মুখ এক করতে প্যারিস কোথায় ও কাজে এক হতে প্যারিস তো জলের মত টাকা আপনা -আপনি তোর পায়ে এসে পড়বে।  (বাণী ও রচনা ৯ম খন্ড পেজ ৬) ]

[ধীর,নিস্তব্ধ অথচ দৃঢ়ভাবে কাজ করতে হবে। খবরের কাগজে হুজুক করা নয়। সর্বদা মনে রাখবে নাম যশ আমাদের উদ্দেশ্য নয়। (পত্রাবলী পেজ ৭২) ]  

[দুইটি  জিনিস  হইতে বিশেষ সাবধান থাকবি - ক্ষমতাপ্রিয়তা ও ঈর্ষা। সর্বদা আত্মবিশ্বাস অভ্যাস করিতে চেষ্টা কর। (পত্রাবলী পেজ -২১২) ] 

[যতদিন তোমরা পরস্পরের উপর ভেদবুদ্ধি না করিবে , ততদিন প্রভুর কৃপায় 'রণে -বনে পর্বত মস্তকে বা '  তোমাদের কোন ভয় নাই। श्रेयांसि बहु बिघ्नानी ; (ভালো কাজে অনেক বিঘ্ন হয়ে থাকে) ইহা তো হইবেই। অতি গম্ভীর বুদ্ধি ধারণ কর।  বালবুদ্ধি জিবে কে বা কি বলিতেছে , তাহার খবরমাত্রও লইবে না। উপেক্ষা, উপেক্ষা, উপেক্ষা ইতি। এই কথা মনে রেখো -দুটা চোখ , দুটা কান , কিন্তু একটা মুখ। উপেক্ষা , উপেক্ষা, উপেক্ষা। न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति ॥ आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करने वाले योगी का न तो इस लोक में और न ही परलोक में विनाश होता है। গীতা) (পত্র পেজ -১৫৩)     

[সকল কাজেই একদল বাহবা দেবে , আর একদল দুশমনাই করবে। আপনার কার্য করে চলে যাও --কারুর কথার জবাব দেবার অবশ্যক কি ? सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥ अंततः सत्य की ही जय होती है न कि असत्य की। यही वह मार्ग है जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) ऋषीगण जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। (পত্রাবলী পেজ ১৯০) ]

" हमेशा याद रखो कि अब हम संसार की दृष्टि के सामने खड़े हैं और लोग प्रत्येक काम और वचन का निरीक्षण कर रहे हैं। यह स्मरण रखकर काम करो। ( (खंड -४/३१९-1895 स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखीत)  

" हर [नए? मौलिक] काम को तीन अवस्थाओं में से गुजरना होता है -उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है , लोग उसे निश्चय ही गलत समझते हैं। इसलिए (काँ-छुटभइयों के) विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं ; परन्तु मुझे दृढ़ और पवित्र होना चाहिए और भगवान (अवतार वरिष्ठ) में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे। " (खेतड़ी के महाराज को लिखित - 9 जुलाई, 1895.खंड-४/३३०) 

[আমার সব আশা -ভরসা তোমাদের উপর। কাজ করে যাও। -স্বাধীন ভাবে তোমাদের কাজে অগ্রসর হও। (পত্রাবলী পেজ ২২৮)

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5.

योजना का कार्यान्वयन

 "We, as a nation, have lost our individuality and that is the cause of all mischief in India. We have to raise the masses"- एक जाति की हैसियत से हमने अपनी जातीय विशेषता को खो दिया है और यही हमारे देश में चल रहे सारे अनर्थ का कारण है। हमें हमारी इन जाति को उसकी खोई हुई जातीय विशेषता को वापस ला देना है और अनुन्नत लोगों को (शूद्र लोगोंको) उठाना है। हिन्दू,मुसलमान, ईसाई सभी ने उन्हें पैरों तले रौंदा है। इसे करने के लिए पहले 'मनुष्य' चाहिये, फिर धन। (खंड -२/३३८ -स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित /19 मार्च, 1894 )

"भाई, शक्ति के बिना जगत का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि सब देशों में हमारा देश ही सबसे शक्तिहीन है , पिछड़ा हुआ है ? इसका कारण यही है कि यहाँ शक्ति की अवमानना होती है। " (स्वामी शिवानन्द को लिखित -1894 / खंड २/३५९ -३६१)

[প্রবল বিশ্বাসই বড় বড় কার্যের জনক। এগিয়ে যাও, এগিয়ে যাও। দরিদ্র ও পদদলিতদের  আমরণ সহানুভূতি ও সহায়তা করিতে হইবে - ইহাই আমাদের মূলমন্ত্র। (বাণী ও রচনা , ৬ষ্ঠ খন্ড পেজ - ৩৯৩) ]

[কারও সমালোচনার দরকার নেই। তোমার যদি কিছু ভাব দেবার থাকে তা শিক্ষা দাও , তার ওপর আর এগিও না। (পত্রাবলী পেজ -২৪৬) ] 

[পেছু দেখতে হবে না - forward (এগিয়ে চল।)অনন্ত বীর্য, অনন্ত উৎসাহ , অনন্ত সাহস ও অনন্ত ধৈর্য চাই , তবে মহাকার্য় সাধন হবে। দুনিয়ার আগুন লাগিয়ে দিতে হবে।(পত্রাবলী পেজ -৩৭১)

[উন্নতি সব সময় ক্রমশঃ ধীর গতিতে হইয়া থাকে। সব সামাজিক রীতিনীতি অল্পবিস্তর অসম্পূর্ন বলিয়া এগুলির ত্রুটি দেখাইয়া দেওয়া খুবই সোজা। কিন্তু তিনিই মনুষ্যজাতির যথার্থ কল্যাণকামী যিনি মানুষ জে -কোন সমাজ ব্যবস্থার মধ্যেই জীবন যাপন করুক না কেন, তাহার অপূর্নতা দূর করিয়া দিয়া তাহাকে উন্নতির পথে অগ্রসর করাইযা দেন , ব্যক্তির উন্নতি হইলেই সমাজ ও জাতির উন্নতি হইবে।  ( বাণী ও রচনা ১০ ম খন্ড , পৃষ্ঠ ২১০ )  

[প্রাচ্য ও পাশ্চাত্যের মূল পার্থক্য এই যে পাশ্চাত্যদেশে জাতীয়তাবোধ আছে , আর আমাদের তাহা নাই। অর্থাৎ শিক্ষা ও সভ্যতা এখানে (পাশ্চাত্যে) সর্বজনীন -জনসাধারন অনুপ্রবিষ্ট। ভারতবর্ষের ও আমেরিকার উচ্চবর্ণের মধ্যে খুব বেশি পার্থক্য নাই সত্য , কিন্তু উভয় দেশের নিম্নবর্ণের মধ্যে বিশাল পার্থক্য বিদ্যমান। ...এ দেশের শিক্ষিত নর-নারীর সংখ্যা অত্যন্ত বেশি। (পত্রাবলী ১৪২)  

"নীতিনিপুণ ব্যক্তিগণ নিন্দাই করুন বা সুখ্যাতিই করুন , লক্ষ্মী আসুন বা চলিয়া যান , মৃত্যু আজই হউক বা শতাব্দান্তে হউক , তিনিই ধীর , যিনি ন্যায় পথ হইতে এক পাও বিচলিত হন না। ' উঠ , জাগো , সময় চলিয়া যাইতেছে , আর আমাদের সমুদয় শক্তি বৃথা বাক্য ব্যয়িত হইতেছে। উঠ , জাগো -সামান্য সামান্য বিষয় ক্ষুদ্র ক্ষুদ্র মটমতান্তর লইয়া বৃথা বিবাদ পরিত্যাগ কর। তোমাদের সম্মুখে খুব বড় বড় কাজ রহিয়াছে , লক্ষ লক্ষ মানুষ ক্ৰমশঃ ডুবিতেছে, তাহাদের উদ্ধার কর । (বাণী ও রচনা ৫ম খন্ড পৃষ্ঠ ২৬২)  

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6. 

साधारण जनता की उन्नति का प्रावधान

" अपने तन मन और वाणी को 'जगत्हिताय' अर्पित करो। तुमने पढ़ा है - मातृदेवो भव, पितृदेवो भव- 'अपनी माता को ईश्वर समझो , अपने पिता को ईश्वर समझो ' -परन्तु मैं कहता हूँ -दरिद्रदेवो भव , मूर्खदेवो भव -गरीब , निरक्षर ,मूर्ख और दुःखी , इन्हें अपना ईश्वर मानो। इनकी सेवा करना ही परम् धर्म समझो। " -(खंड-३/३५७ - स्वामी अखण्डानन्द को लिखित -1894)   

" जिस देश की जनता में विद्या-बुद्धि का जितना ही अधिक प्रचार है , वह  देश उतना ही उन्नत है। - a nation is advanced in proportion as education and intelligence spread among the masses. भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या-बुद्धि, राज-शासन और दम्भ के बल से मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में रखी गयी है। 'If we are to rise again, we shall have to do it in the same way, i.e. by spreading education among the masses.' यदि हमें फिर से विकसित देश बनना है तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा, अर्थात जनता में विद्या/शिक्षा  का प्रसार करना होगा।  (खंड -६/३१० -24 अप्रैल, 1897.श्रीमती सरला घोषाल को लिखित )

" मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है , उनकी शिक्षा गरीब से गरीब, और हीन से हीन को दी जाये और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाये। जात-पाँत रहनी चाहिए या नहीं , महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए या नहीं , मुझे इनसे कोई वास्ता नहीं। Liberty of thought and action is the condition of life, of growth and well being.  'विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन , उन्नति और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है। ' जहाँ यह स्वंत्रता नहीं है , वहाँ व्यक्ति,जाति, राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी। (24 जनवरी, 1894.मद्रासी शिष्यों को लिखित /खंड २/३२१ ) 

" यथार्थ राष्ट्र जो झोपड़ियों में बसता है , अपना मनुष्यत्व विस्मृत कर चुका है , अपना व्यक्तित्व खो चुका है। हिन्दू, मुसलमान , ईसाई -हरेक के पैरों तले कुचले गए हमारे ग्रामवासी यह समझने लगे हैं कि जिस किसी के पास पर्याप्त धन है , उसीके पैरों तले कुचले जाने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। "They are to be given back their lost individuality. They are to be educated. "--उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व (अर्थात खोया हुआ आत्मविश्वास) वापस करना होगा। उन्हें शिक्षित करना होगा।  (खंड -२ /३६५ / 20 जून, 1894.-श्री हरिदास विहारीदास देसाई को-दिवान जी को लिखित)  

" मैं न कोई तत्व-ज्ञानी (metaphysician) हूँ, न दार्शनिक हूँ और न सिद्ध पुरुष हूँ। मैं निर्धन हूँ और निर्धनों से प्रेम करता हूँ। भारत के 20 करोड़ नर- नारी जो सदा गरीबी और मूर्खता के दलदल में फँसे हैं, उनके लिए किसका ह्रदय रोता है ? वे अन्धकार से प्रकाश में नहीं आ सकते [असतो मा सद्गमय -मृत्योर मा अमृतं गमय भूल गए हैं] उन्हें इसकी शिक्षा प्राप्त नहीं होती। -उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें शिक्षा देने के लिए द्वार-द्वार घूमेगा ? ये ही तुम्हारे ईश्वर हैं , ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। निरन्तर इन्हीं के लिए सोचो , इन्हीं के लिए काम करो। उसीको मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका ह्रदय गरीबों के लिए द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है।  मेरा ह्रदय इतना भाव-गदगद हो गया है कि मैं उसे व्यक्त नहीं कर सकता, तुम्हें यह विदित है, तुम उसकी कल्पना कर सकते हो। जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे , तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघाती समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है , परन्तु जो उनपर तनिक भी ध्यान नहीं देता ! वे लोग जिन्होंने गरीबों को पीसकर धन पैदा किया है और अब ठाठबाट से अकड़कर चलते हैं , यदि उन बीस करोड़ देशवासियों के लिए कुछ नहीं करते, तो वे घृणा के पात्र हैं।    (खंड -३/३४५ / शिकागो, 1894. आलासिंगा को लिखित )  

" भारत के लाख लाख अनाथों के लिए कितने लोग रोते हैं ? हे भगवान ! क्या हम मनुष्य हैं ? तुमलोगों के घरों के चारों तरफ पशुवत जो भंगी-डोम हैं , उनकी उन्नति के लिए क्या कर रहे हो ? बताओ न। उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें 'दूर' 'दूर'  कहकर भगा देते हो। क्या हम मनुष्य हैं ? (28 दिसम्बर, 1893. हरिपद मित्र को लिखित )

["এখন হাজার চেষ্টা করলেও ভদ্রজাতেরা ছোট জাতদের আর দাবাতে পারবে না। এখন ইতর জাতদের ন্যায় অধিকার পেতে সাহায্য করলেই ভদ্রজাতদের কল্যাণ। বিবেকানন্দ (বাণী ও রচনা , ৯ম খন্ড , পেজ ১০৭) ]

[মতামত কি অন্তর স্পর্শ করে ?কার্য কার্য -জীবন জীবন - মতে -ফতে এসে যায় কি ? ফিলসফি , যোগ , তপ , ঠাকুর-ঘর , আলোচাল, কলা-মুলো- এসব ব্যক্তিগত ধর্ম , পরোপকারই সর্বজনীন মহাব্রত - আবাল বৃদ্ধ বনিতা আচণ্ডাল , আপশু , সকলেই এ ধর্ম বুঝিতে পারে - (বিবেকানন্দ পত্রাবলী-571)  

[বিদ্যাবুদ্ধি বাড়ার ভাগ -উপরে চাকচিক্য মাত্র ; সম্মস্ত শক্তির ভিত্তি হচ্ছে হৃদয়। হৃদয় যত দেখাতে পারবে ততই জয়। মস্তিষ্কের ভাষা কেউ কেউ বোঝে , হৃদয়ের ভাষা অব্রাহ্মসম্ভ পর্যন্ত সকলে বোঝে। তবে আমাদের দেশে মড়াকে চেতানো -দেরি হবে ; কিন্তু অপার অধ্যবসায় ও ধৈর্যবল যদি থাকে তো নিশ্চিত সিদ্ধি।] (পত্রাবলী পৃষ্ঠ ২৬৮)

[আমাদের mission (কার্য) হচ্ছে অনাথ , দরিদ্র , মূর্খ, চাষা তুশোর জন্য ; আগে তাদের জণ্যে করে যদি সময় থাকে তো ভদ্রলোকের জন্যে। ওরা যখন বুঝতে পারবে নিজেদের অবস্থা, উপকার এবং উন্নতির আবশ্যকতা। তখনই তোমার ঠিক ঠিক কাজ হচ্ছে জানবে।] (পত্রাবলী পৃষ্ঠ ৬৯৬)

[জনসাধারণকে যদি আত্মনির্ভরশীল হতে শেখানো না যায় , তবে জগতের সমগ্র ঐশ্বর্য ভারতের একটা ক্ষুদ্র গ্রামের পক্ষেও পর্যাপ্ত সাহায্য হবে না। আমাদের কাজ  হওয়া উচিত প্রধানতঃ শিক্ষাদান - চরিত্র এবং বুদ্ধি বৃত্তির উৎকর্ষ সাধনের জন্য শিক্ষা বিস্তার। (পত্রাবলী ৫৭৫)

[কোন দেশে কি হয় , কি হচ্ছে , এ দুনিয়াটা কি , তাদের যাতে চোখ খোলে , তাই চেষ্টা করো - -সন্ধ্যার পর , দিন দুপুরে -কত গরিব মূর্খ আছে , তাদের ঘরে ঘরে যাও - চোখ খুলে দাও। পুঁথি -পাতরার কর্ম নয় -মুখে মুখে শিক্ষা দাও। তারপর center এক্সটেন্টেড (কেন্দ্রের প্রসার ) কর। (পত্রাবলী পেজ ১৫৯)

[জনসাধারণের মধ্যে শিক্ষাবিস্তার করিতে হইবে। কিন্তু তাহাতেও অসুবিধা আছে। যদি আমরা গ্রামে গ্রামে অবৈতনিক বিদ্যালয় খুলিতে সক্ষমও হই , তবু দরিদ্রঘরের ছেলেরা সেসব স্কুলে পড়িতে আসিবে না ; তাহারা বরং ঐ সময় জীবিকার্জনের জন্যে হালচাষ করিতে বাহিরে হইয়া পড়িবে। আমি ইহারই মধ্যে একটি পথ বাহির করেছি। তাহা এই - যদি পর্বত মহম্মদের নিকট না-ই আসে , তবে মহম্মদকেই পর্বতের নিকট যাইতে হইবে। দরিদ্র লোকেরা যদি শিক্ষার নিকট পৌছিতে না পারে , তবে শিক্ষাকেই চাষির লাঙলের কাছে , মজুরের কারখানায় এবং অন্যত্র সব স্থানে যাইতে হইবে। (পত্রাবলী পেজ ১৪৩)  

[लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर , भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस  सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र उद्धार के सन्देश का , सेवा के सन्देश का , सामाजिक उत्थान के सन्देशका, समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। (पत्रा-१,८१ )

[যদি আমরা সকলেই অকুতোভয় হইয়া , হৃদয় কে দৃড় করিয়া ,ভাবের ঘরে এক বিন্দুও চুরি না করিয়া কাজে লাগিয়া যাই , তবে আগামী পঁচিশ বৎসরের মধ্যে আমাদের  সকল সমস্যার মীমাংসা হইয়া যাইবে। ] (বাণী ও রচনা ৫ম খন্ড , পেজ ৫৯)

[ অগ্নিমন্ত্রে দীক্ষিত একদল যুবক গঠন কর। তোমাদের উৎসাহাগ্নি তাহাদের ভিতর জ্বালিয়া দাও। আর ক্রমশঃ এই সংঘ বাড়াইতে থাকো , উহার পরিধি বাড়িতে থাকুক। পত্রিকা, সংবাদপত্র প্রভিতর পরিচালন ভাল , সন্দেহ নাই ; কিন্তু চিরকাল চিৎকার ও কলমপেশা অপেক্ষা প্রকৃত কার্য - যতই সামান্য হউক, অনেক ভাল।  (বাণী ও রচনা ৬ষ্ঠ খন্ড পেজ ৩৫৬)

" शिक्षा किसे कहते हैं ? क्या वह पठन -मात्र है ? नहीं।  क्या वह नाना प्रकार का ज्ञानर्जन है ? नहीं यह भी नहीं। (निर्जन-वास या Be and Make' गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में) जिस मनःसंयोग के प्रशिक्षण के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है वह शिक्षा कहलाती है। 

" हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े , बुद्धि विकसित हो , और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे। 

[হে বীরহৃদয় যুবকবৃন্দ ! বিশ্বাস কর - তোমরা বড় বড় কাজ করার জন্যে জন্মেছ। কুকুরের ঘেও ঘেও ডাকে ভয় পেয়ো না - আকাশ থেকে প্রবল বজ্রাঘাত হলেও ভয় পেয়ো না -খাড়া হয়ে ওঠ; ওঠে কাজ করো। (বাণী ও রচনা ৬ষ্ঠ খন্ড পেজ ৪৭৬ )  

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 https://cdn.vivekavani.com/wp-content/uploads/2022/10/Swami-Vivekananda-on-Organization-and-Organized-work.pdf

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बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

🙋स्वर्णिम युग के निर्माण के लिए युवा संगठन " पर स्वामी विवेकानन्द के विचार। Youth Unity Mission (YUM) for Be and Make 🙋चंदनपुर आनंद इंस्टीट्यूशन में एक दिवसीय शिविर

 प्रकाशक का प्रस्तुतीकरण

स्वामी विवेकानन्द ने अनुभव किया ​​था कि समाज तथा भारत का वास्तविक कल्याण इसके नागरिकों के जीवन गठन और चरित्र-निर्माण पर निर्भर करता है।   

सुधार अथवा समुचित संचालन सम्मिलित प्रयासों से ही संभव है। लेकिन भारत में मिलकर काम करने की शक्ति का नितांत अभाव है। इसलिए उन्होंने अपने पत्रों और भाषणों में युवाओं को इस संबंध में प्रोत्साहित किया और संघ के प्रबंधन के बारे में विस्तार से निर्देश भी दिए। उनके प्रेरक भाषणों के अंश यहां संग्रहीत हैं।

मुझे आशा है कि यह पुस्तिका उन युवाओं का मार्गदर्शन करेगी और उन्हें प्रेरित करेगी जो देश के काम में लग रहे हैं।

यह पुस्तिका श्री रामकृष्ण सेवा समिति, गुंटूर जिला द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तक- ' Vivekananda on Organization and Organized Work' (विवेकानंद ऑन ऑर्गनाइजेशन एंड ऑर्गनाइज्ड वर्क) की मदद से तैयार की गई है। उन्हें धन्यवाद।

प्रकाशक

दिसंबर 2019

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विषयसूची

1)संगठन

2) योग्य कार्यबल

3) कुछ खतरे के संकेत

4) प्रशिक्षण

5) योजना का कार्यान्वयन

6) लोक कल्याण

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स्वर्णिम युग के निर्माण के लिए युवा संगठन

Youth Unity Mission (YUM) for Be and Make ]

[मनुष्य बनने और बनाने के लिए - युवा एकता मिशन (YUM)]

Swami Vivekananda's views on youth organization 

 for creating a golden age.] 

1. 

संगठन 

" यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है, तो भी उसको हम केवल मनुष्य चरित्र में और उसके द्वारा ही जान सकते हैं। श्रीरामकृष्ण जैसा पूर्ण चरित्र कभी किसी महापुरुष का नहीं हुआ और इसीलिए हमें उन्हीं को केन्द्र बनाकर संगठित होना पड़ेगा। हाँ, हर एक आदमी उनको अपनी-अपनी भावना के अनुसार ग्रहण करे, इसमें कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए। चाहे कोई उन्हें ईश्वर माने, चाहे मुक्तिदाता (Saviour) या आचार्य, (विवेकानन्द के गुरु या आचार्यदेव माने !) या आदर्श पुरुष अथवा महापुरुष - जो जैसा चाहे। "  [What we believe in- 3 मार्च, 1894 को किडी या सिंगारवेलु मुदालियर को लिखित पत्र। खंड २/पेज -३२६] 

[God, though everywhere, can be known to us in and through human character. No character was ever so perfect as Ramakrishna's, and that should be the centre round which we ought to rally, at the same time allowing everybody to regard him in his own light, either as God, saviour, teacher, model, or great man, just as he pleases. ( What we believe in - Written to "Kidi" on March 3, 1894, from Chicago.)Volume 4, Writings: Prose]

"श्री रामकृष्ण का जीवन एक असाधरण ज्योतिर्मय दीपक (searchlight) है , जिसके प्रकाश में हिन्दूधर्म के विभिन्न अंग और आशय समझे जा सकते हैं। वे शास्त्रों में निहित सैद्धांतिक ज्ञान के (महावाक्यों के) प्रत्यक्ष उदाहरण स्वरूप थे। ऋषि , अवतार (या सत्यद्रष्टा पैगम्बर और नेता) हमें जो वास्तविक शिक्षा (तत्वमसि की शिक्षा) देना चाहते थे, उसे उन्होंने अपने जीवन द्वारा दिखा दिया है। शास्त्र मतवाद मात्र है, रामकृष्ण उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति। उन्होंने अपने 51 वर्ष की आयु में पाँच हजार वर्ष का 'राष्ट्रीय आध्यात्मिक जीवन' जिया (भारत के राष्ट्रीय आदर्श - 'त्याग और सेवा' स्थित national spiritual life जिया) और इस तरह वे भविष्य की सन्तानों के लिए -(Would be Leaders के लिये -भावी नेताओं या पैगम्बरों के लिए) अपने आप को एक शिक्षाप्रद उदाहरण बना गये।  (खंड ३/३३९/३० नवम्बर, १८९४ को आलासिंगा को लिखित पत्र   

 " रामकृष्ण परमहंस का अध्यन किये बिना वेद-वेदान्त, भागवत और अन्य पुराणों में क्या है -यह समझना असम्भव है। उनका जीवन भारतीय धार्मिक विचार समूह के लिए एक अनंत शक्तिसम्पन्न सर्चलाइट है। वे वेदों के और वेदान्त के जीवंत भाष्य थे। भारत के जातीय धार्मिक जीवन का एक समग्र कल्प उन्होंने एक जीवन में पूरा कर दिया था। भगवान श्रीकृष्ण का कभी जन्म हुआ था या नहीं, यह मुझे नहीं मालूम , और बुद्ध, चैतन्य आदि अवतार एकदेशीय है ; पर रामकृष्ण परमहंस सर्वाधुनिक हैं, और सबसे पूर्ण हैं - ज्ञान, भक्ति , वैराग्य, उदारता, और लोकहित चिकीर्षा के मूर्तिमान स्वरुप हैं। उनका नाम भले ही कम लोग जाने - परन्तु उनकी शिक्षा फलप्रद हो ! क्या वे नाम के दास थे ? भाई , चंद मछुओं और मल्हाओं ने ईसा मसीह को ईश्वर कहा था, परन्तु पण्डितों ने उन्हें मार डाला ; बुद्ध को उनके जीवन-काल में बनियों -चरवाहों ने मान लिया था परन्तु रामकृष्ण को उनके जीवन-काल में उन्नीसवीं सदी के अन्त में विश्वविद्यालय के भूत ब्रह्मदैत्यों ने ईश्वर कहकर पूजा की .... मैं परम् भाग्यवान हूँ कि मैं जन्म-जन्मान्तर से उनका दास रहा हूँ। उनका एक उपदेश भी वेद-वेदान्त से अधिक मूल्यवान है। तस्य दासदासदासस्य दासोऽहं !- मैं उनके दासों के दासों का दास हूँ ! " (खंड -२/३६० - पत्रावली 1894 -स्वामी शिवानन्द को लिखित)

[Without studying Ramakrishna Paramahamsa first, one can never understand the real import of the Vedas, the Vedanta, of the Bhâgavata and the other Purânas. His life is a searchlight of infinite power thrown upon the whole mass of Indian religious thought. He was the living commentary to the Vedas and to their aim. He had lived in one life the whole cycle of the national religious existence in India.              

" यद्यपि सब महापुरुषों का यथोचित आदर करना चाहिए , तथापि अब श्री रामकृष्ण की उपासना होनी चाहिए। दृढ़ निष्ठा के बिना पौरुष नहीं हो सकता। उसके बिना हनुमान जैसी शक्ति से कोई उपदेश नहीं कर सकता। फिर, पिछले महापुरुष अब कुछ प्राचीन हो चले हैं। अब नवीन भारत है, जिसमें नवीन ईश्वर , नवीन धर्म और नवीन वेद है। हे भगवान , भूतकाल पर निरन्तर ध्यान रखने की आदत से हमारा देश कब मुक्त होगा ? " (पत्रावली -27 अप्रैल, 1896 )   

" यदि हममें से प्रत्येक उस आदर्श की पूर्णता को व्यक्तिगत रूप में प्राप्त न कर सकें तो भी उसे सामूहिक रूप से (collectively) परस्पर एक दूसरे के परिमार्जन , संतुलन , आदान -प्रदान से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई एक व्यक्तियों द्वारा साधित होगा और अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा। " (3 मार्च, 1894 को किडी या सिंगारवेलु मुदालियर को लिखित पत्र। खंड २/पेज -३२६)   

[ And if amongst us, each one may not individually attain to that perfection, still we may get it collectively by counteracting, equipoising, adjusting, and fulfilling one another. This would be harmony by a number of persons and a decided advance on all other forms and creeds. (What we believe in- Written to "Kidi" on March 3, 1894)

"कोमल ह्रदय के व्यक्ति ही नूतन भाव की सृष्टि करते हैं। और कर्मप्रवण लोग इस भाव को चारों ओर फैला देते हैं। संत पॉल इस दूसरी कोटि के थे। इसलिए उन्होंने सत्य का आलोक चारों और फैलाया था। किन्तु अब सन्त पॉल का युग नहीं है। हमको ही आधुनिक जगत का नूतन आलोक- स्वरूप होना होगा। 'A self-adjusting organisation' एक स्व-समायोजनशील संगठन' हमारे युग की विशेष आवश्यकता है। जब ऐसा होगा, तब वही संसार का अन्तिम (सार्वभौमिक) धर्म होगा। संसार-चक्र चलेगा ही -हमें उसकी सहायता करनी होगी, बाधा देने से काम नहीं चलेगा। धार्मिक विचार-धाराओं की तरंग उठती है, गिरती है और उन सभी तरंगों के शीर्ष पर उस 'युग के पैगम्बर ' (“prophet of the period ” नेता-पथप्रदर्शक ) विराजते हैं। श्रीरामकृष्ण वर्तमान युग के लिए सबसे उपयुक्त धर्म 'Be and Make' [मनुष्य मानहूँष बनो और बनाओ !] की शिक्षा देने आये थे; जो हर किसी के लिए रचनात्मक (constructive) है, किसी के लिए भी विध्वंश-कारक (destructive) नहीं है। " (देववाणी -1 जुलाई, 1895/खंड ७/३३) 

" हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भाँति त्याग दो। सत्य तो बलप्रद है , वह पवित्रता है , वह ज्ञान स्वरुप है। " (५/१२० -मेरी क्रान्तिकारी योजना।)   

"आध्यात्मिक सत्य का (महावाक्यों का) अनंत समुद्र हमारे सामने पड़ा है, जिसका हमें आविष्कार करना है तथा जिसे हमें अपने जीवन में उतारना है। दुनिया ने हजारों पैगम्बरों को देखा है, पर उसे अभी और भी करोड़ों को देखना है।   प्राचीन काल में समाज के कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार खास-खास व्यक्ति ही पैगम्बर माने जा सकते थे। अब तो ऐसा समय आनेवाला है, जब समझा जाने लगेगा कि धार्मिक होने का अर्थ  पैगम्बर होना ही है; और तब तक कोई धार्मिक नहीं होता, जब तक वह पैगम्बर नहीं बन जाता। विद्यालयों तथा महाविद्यालयों को पैगम्बर बनाने के लिए प्रशिक्षण-केन्द्र होना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व को पैगम्बरों से भर देना होगा -और जब तक कोई पैगम्बर नहीं बनता, तब तक तो धर्म उसके लिए तुच्छ और महज मजाक का विषय रहेगा। " (खंड-2, २४३)

" जो सच्चे ह्रदय से भारत के कल्याण का व्रत ले सकें तथा उसे ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझें -ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मंत्र फूँक दो। भारतीय युवको पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है। गुरुजनों के अधीन हुए बिना कभी भी शक्ति केन्द्रीभूत नहीं हो सकती , और बिखरी हुई शक्तियों को केन्द्रीभूत किये बिना कोई महान कार्य नहीं हो सकता। कलकत्ते का मठ [सियालदह का सिटी ऑफिस 1/6A, जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो] प्रमुख केंद्र है ; सभी दूसरी शाखाओं के सदस्यों को चाहिए कि केंद्र की नियमावली के अनुसार एक साथ मिलकर दत्तचित होकर कार्य करें। ईर्ष्या तथा अहंभाव (conceit) को दूर कर दो -संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। हमारे देश में इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। (खंड-४/२८० )    

एक Organized Society चाहिये। तुम लोग संघबद्ध हो जाओ, तो यह सबसे अच्छी बात होगी। नये पथ की खोज निस्सन्देह एक बड़ी बात है, किन्तु उस मार्ग को स्वच्छ और प्रशस्त और सुन्दर बनाना उतना ही कठिन कार्य है। " (खंड-४/३२९-स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र 1895)   

"अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ गयी, जिसमें कहा गया है - 'संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।  देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।' - हम सब एक साथ चलें, आपस में संवाद करें, हमारे मन एकमत हों। क्योंकि प्राचीन काल में [देव संस्कृति में प्रशिक्षित आचार्यदेव के युग में] एकमत होने के कारण ही देवता लोग यज्ञ में अपना -अपना भाग प्राप्त करने में समर्थ हुए थे। देवगण मनुष्यों के द्वारा उपासना करने योग्य इसीलिए बने क्योंकि वे एकचित्त थे ! एकमत हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। " ('भारत का भविष्य' खंड ५,पृष्ठ -१९२)  

" भारत में जिस एक चीज का हममें अभाव है, वह है एकता तथा संगठन-शक्ति, और उसे प्राप्त करने का प्रधान उपाय है आज्ञा-पालन ! " (डॉ० नन्जुन्दा राव को लिखित पत्र -१४ अप्रैल,१८९६) 

" इच्छाशक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है। यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की, शक्ति-संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। " ('भारत का भविष्य' खंड ५,पृष्ठ १९१ -१९२) 

" हमें अपनी शक्तियों का समन्वय  किस सम्प्रदाय-निर्माण के लिए संगठित नहीं करना है, आध्यात्मिक विषय से जुड़े कार्य के लिए भी नहीं , बल्कि ऐसा केवल भौतिक पहलू को सामने रखकर करना है। [Be and Make' आन्दोलन को भारत के गाँव -गाँव तक पहुँचा देने के लिए ??]  एक जोरदार प्रचार-कार्य का समारम्भ करना होगा। एक साथ मिलकर संगठन-कार्य में जुट जाओ।"- (खंड -३/ ३३८/ ३० नवम्बर, १८९४ को आलासिंगा को लिखित पत्र

" संगठन शब्द का अर्थ है श्रम का विभाजन। हर कोई अपने हिस्से का काम करता है, और सभी हिस्से एक साथ मिलकर समन्वय (harmony-एकता, समरसता, मधुर सम्बन्ध) का आदर्श व्यक्त करते हैं। " [आलमबजार मठ के गुरुभाइयों को लिखित। " खंड ??? ]  

 [The term organisation means division of labour. Each does his own part, and all the parts taken together express an ideal of harmony. . . .]

[যে কোনোরূপ হোক , সংঘের যাহাতে দৃঢ় প্রতিষ্ঠা ও উন্নতি হইতে পারে , তাহা করিতেই হইবে ; আর আমরা ইহাতে নিশ্চয়ই কৃতকার্য হইব -নিশ্চয়ই। -স্বামী বিবেকানন্দ /পত্রাবলী পৃষ্ঠা ২২১ ] 

" पुरुष तथा नारी (M/F), दोनों ही आवश्यक हैं। आत्मा में नारी-पुरुष का भेद नहीं है। हजारों की संख्या में पुरुष तथा नारी चाहिए, जो अग्नि की तरह हिमालय से कन्याकुमारी तथा उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक तमाम दुनिया में फ़ैल जायेंगे। हमें संगठन चाहिए, आलस्य को दूर कर दो। फैलो ! फैलो! अग्नि की तरह चारों ओर फैल जाओ। " (ग्रीष्म १८९४ में आलमबाजार मठ के गुरुभाइयों को लिखित पत्र ) 

त्यागी हुए बिना तेजस्विता नहीं आने की। कार्य आरम्भ कर दो। दूसरों में जागृति उत्पन्न करो, यही तुम्हारा काम है। जहाँ भी जाओ, वहीं तुम्हें एक स्थायी प्रचार-केन्द्र खोलना होगा। तभी व्यक्तियों में परिवर्तन आएगा। " (पत्रावली -२५ सितम्बर, १८९४)  

" पूर्ण निष्कपटता, पवित्रता, विशाल बुद्धि और सर्वजयी इच्छाशक्ति। इन गुणों से सम्पन्न मुट्ठी भर आदमियों को यह काम करने दो और सारे संसार में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो जायेगा।" (खंड -४/पेज -२७५ , ई० टी० स्टर्डी को लिखित पत्र-24 अप्रैल,1895)  

" न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाकचातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुद्ध जीवन , एक शब्द में अनुभूति, आत्मसाक्षात्कार को विजय मिलेगी।" ४/३६६ 

[प्रत्येक देश में सिंह जैसी दस-बारह आत्मायें होने दो, जिन्होंने अपने बन्धन तोड़ डाले हैं , जिन्होंने 'अनन्त' का स्पर्श कर लिया है, जिनका चित्त ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं , न बल की , न नाम की - और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे। यही रहस्य है। पतंजलि कहते हैं - "जब मनुष्य समस्त अलौकिक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्ममेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह ईश्वर का दर्शन करता है , वह परमात्मा बन जाता है , और दूसरों को तद्रूप बनने में सहायता करता है। " (४/ ३३६ पत्र 9 अगस्त 1895/स्टर्डी को लिखित) ]             

" चट्टान की तरह दृढ़ रहो। सत्य की हमेशा जय होती है। श्रीरामकृष्ण की सन्तान निष्कपट एवं सत्यनिष्ठ रहे, शेष सबकुछ ठीक हो जायेगा। शायद हमलोग उसका फल देखने के लिए जीवित न रहें; परन्तु जैसे इस समय हम जीवित हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि देर या सबेर इसका फल अवश्य प्रकट होगा।  भारत को नव विद्युत् -शक्ति की आवश्यकता है, जो राष्ट्रीय धमनी में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है और होगा। निःस्वार्थभाव से काम करने में सन्तुष्ट रहो और अपने प्रति सदा सच्चे रहो। पूर्ण रूप से शुद्ध दृढ़ और निष्कपट रहो , शेष सब कुछ ठीक हो जायेगा। पवित्र बनो, ईश्वर पर विश्वास रखो, हमेशा उस पर निर्भर रहो - फिर तुम्हारा सब ठीक जायेगा - कोई भी तुम्हारे विरुद्ध कुछ न कर सकेगा। " (३/३४४-अलसिंगा को पत्र 1894 ) 

" किसीको उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिये। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जबतक वे सही मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं , तबतक उनके कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई गलती नजर आये , तो नम्रतापूर्वक गलती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड़ है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बड़ा हाथ है। "(४/३१५- लेटर स्वामी ब्रह्मानन्द 1895) 

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2.

शिक्षक का काम  

प्रशिक्षित एवं योग्य कर्मी दल

'Trained and Qualified Crew'

"अत्यन्त 'अनुपयुक्त' व्यक्तियों में से 'उपयुक्त' का निर्माण करना ही नेता (जीवन्मुक्त शिक्षक, पैगम्बर, आचार्यदेव -CINC) का सदा से कर्तव्य रहा है।" It is the Duty of the Teacher always to turn the "right sort" out of the most "unrighteous sort" of persons. " 

[पत्र 25 अप्रैल, 1895, श्रीमती ओली बुल को लिखित/खंड ४/पेज२७८ / स्वामीजी श्रीमती ओलीबुल को माँ कहते थे।) ][लेकिन, माँ ! रामकृष्ण की कृपा से, जैसे ही मैं किसी मानवीय चेहरे (रदबीद) को देखता हूँ, मेरी सहज प्रवृत्ति उसे लगभग अचूक रूप से "पहचान" लेती कि 'हर भेष में' भगवान ही हैं! But, Mother, by the grace of Ramakrishna, as soon as I see a human face my instinct will almost infallibly "recognize" that 'in every disguise it is God!'] " 

नेतृत्व : लीडरी करना बड़ा कठिन काम है - दासस्य दासः - 'दासों का दास' और हजारों आदमियों का मन रखना। 'jealousy and selfishness ' - ईर्ष्या और स्वार्थपरता जब जरा भी न हो, तभी तुम नेता बन सकते हो।" (स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित पत्र-1894, खंड ३/३६०) 

"जो सबका दास होता है, वही उनका सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच -नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है , जो ऊँच -नीच सोचने के लिए, कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है। " (खंड ४/४०२ -,27 अप्रैल,1896 को लिखित पत्र आलमबजार मठ के  'Individual Members' व्यक्तिगत सदस्य या अपने गुरुभाइयों को लिखित व्यक्तिगत सदस्य /- या दादा के निकटस्थ सदस्यों को लिखित।)      

" यदि तुम शासक बनना चाहते हो, तो सबके दास बनो। यही सच्चा रहस्य है। तुम्हारे वचन यदि कठोर भी होंगे, तब भी तुम्हारा प्रेम अपना प्रभाव दिखायेगा। मनुष्य प्रेम को पहचानता है, चाहे वह किसी भी भाषा में व्यक्त हुआ हो।  " (खंड 2/३५९ / स्वामी शिवानन्द को लिखित। ) 

[हमें कुछ चेले भी चाहिए -fiery young men–(अग्निमन्त्र में दीक्षित वीर युवा) - इसका माने समझते हो भाई ? –intelligent and brave' - दिमाग के तेज और हिम्मत के पूरे, यम का सामना करनेवाले , तैरकर समुद्र पार करने को तैयार -समझे ? हमें ऐसे सैंकड़ो चाहिए -स्त्री और पुरुष -दोनों। जी-जान से इसीके लिए प्रयत्न करो। जिस किसी तरह से भी चेले बनाओ और हमारे पवित्र करने वाले साँचे में डाल दो " [खंड -३/ ३५४/1894 ग्रीष्म काल आलम बजार मठ के गुरुभाईयों (Individual members) को लिखित। .... কতকগুলো চেলা চাই -fiery young men (অগ্নিমন্রে দীক্ষিত যুবক) বুঝতে পারলে ? - intelligent and brave (বুদ্ধিমান ও সাহসী), যমের মুখে যেতে পারে , সাঁতার দিয়ে সাগর পারে যেতে প্রস্তুত। Hundreds (শত শত) এ রকম চাই , মেয়ে মদ্দ both (দুই) প্রানপনে তারই চেষ্টা কর 

याद रखो कि न धन का कोई मूल्य है, न नाम का, न यश का, न विद्या का -केवल चरित्र ही कठिनाइयों के दुर्भेद्य पत्थर की दीवारों को चीर कर, उसके भीतर से गुजर सकता है। " (खंड २/३६३ /1894 स्वामी ब्रह्मानन्द को पत्र।)

" Neither money pays, nor name, nor fame, nor learning; it is character that can cleave through adamantine walls of difficulties. Bear this in mind. . . ." (1894. Swami Brahmananda.)  

" मेरे भाई, बिना विरोध के कोई भी अच्छा काम नहीं हो सकता। जो अन्त तक प्रयत्न करते हैं, उन्हें ही सफलता मिलती है। [जो अमृत मिलने तक सागरमंथन करते हैं -अवश्य सफल होते हैं।] (खंड २/३४२ /9 अप्रैल, 1894 को आला सिंगा पेरुमल को लिखित पत्र।)   

[My brother, no good thing can be done without obstruction. It is only those who persevere to the end that succeed. . . .(9th April, 1894.)] 

" मैंने अपने जैसे क्षुद्र जीवन में अनुभव कर लिया है कि उत्तम लक्ष्य, निष्कपटता और अनन्त प्रेम से  विश्व-विजय की जा सकती है। ऐसे गुणों से सम्पन्न एक भी मनुष्य करोड़ो पाखण्डी एवं निर्दयी मनुष्यों की दुर्बुद्धि को नष्ट कर सकता है। " (खंड ६/३०७/श्रीमती सरला घोषाल को लिखित -6 अप्रैल, 1897) 

"वाह गुरु जी का खालसा, वाह गुरु की फ़तह ! मैं माँ का दास हूँ, तुम लोग भी माँ के दास हो - क्या हम नष्ट हो सकते हैं , भयभीत हो सकते हैं? चित्त में अहंकार न आने पावे, एवं ह्रदय से प्रेम दूर न होने पावे। तुम्हारा नाश होना क्या सम्भव है ? मा भै: ! मा भै:! जय काली , जय काली ! विपत्ति की सम्भावना दूर हो चुकी है। (खंड -७/ ३९१- 20 नवम्बर, 1899.स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)

[ I am the servant of the Mother, you are all servants of the Mother — what destruction, what fear is there for us? Don’t allow egoism to enter your minds, and let love never depart from your hearts. What destruction can touch you? Fear not. Victory to Kali! Victory to Kali! (20th November, 1899.) ] 

" यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो, तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। " (खंड ४-३२० / 1895 स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित।)

"Even if you are at your last breath, be not afraid. Work on with the intrepidity of a lion but, at the same time with the tenderness of a flower. "((Beginning of? 1895.)

" मन की प्रवृत्ति के अनुसार काम मिलने पर अत्यन्त मूर्ख व्यक्ति भी उसे कर सकता है। लेकिन सब कामों को जो अपने मन के अनुकूल बना लेता है, वही बुद्धिमान है। कोई भी काम छोटा नहीं है, संसार में सबकुछ बटबीज की तरह है, सरसों जैसा क्षुद्र दिखाई देने पर भी अति विशाल बट-वृक्ष उसके अन्दर विद्यमान है। बुद्धिमान वही है जो ऐसा (अंतर्निहित दिव्यता को) देख पाता है और सब कामों को महान बनाने में समर्थ है। " (खंड/६-३५१ -11 जुलाई, 1897.स्वामी शुद्धानन्द को लिखित। ) 

[Even the greatest fool can accomplish a task if it be after his heart. But the intelligent man is he who can convert every work into one that suits his taste. No work is petty. Everything in this world is like a banyan-seed, which, though appearing tiny as a mustard-seed, has yet the gigantic banyan tree latent within it. He indeed is intelligent who notices this (Inherent Divinity) and succeeds in making all work truly great.(11th July, 1897).

" शनैः पन्थाः इत्यादि , सब अपने समय होगा। जब कोई बड़ा काम होता है, जब नींव पड़ती है या मार्ग बनता है, जब दैवी शक्ति की आवश्यकता आवश्यकता होती है - तब एक या दो असाधारण मनुष्य विघ्न और कठिनाइयों के पहाड़ को पार करते हुए चुपचाप और शान्ति से काम करते हैं। जब सहस्रों मनुष्यों का लाभ होता है, तब बड़ा कोलाहल मचता है और पूरा देश प्रशंसा से गूँज उठता है। परन्तु तबतक वह यंत्र तीव्रता से चल चुका होता है और कोई बालक भी उसे चलाने का सामर्थ्य रखता है या कोई भी मूर्ख उसकी गति में वृद्धि कर सकता है। किन्तु यह अच्छी तरह समझ लो कि एक या दो गाँवों का जो उपकार हुआ है, वह अनाथालय जिसमें बीस-पच्चिस अनाथ ही हैं तथा वे ही १०-२० कार्यकर्ता नितान्त पर्याप्त हैं और यही वह केन्द्र बनाता है, जो कभी नष्ट होने का नहीं। यहाँ से लाखों मनुष्यों को समय पर लाभ पहुँचेगा।  अभी हमको आधे दर्जन सिंह चाहिए, उसके बाद सैंकड़ों गीदड़ भी उत्तम काम कर सकेंगे। " (खंड -७ /४११ , 21 फरवरी, 1900. को स्वामी अखण्डानन्द को लिखित पत्र।)  

[— all in good time. Many a little makes a mickle(बूँद बूँद से घड़ा भरता है)  . When a great work is being done, when the foundations are laid or a road constructed, when superhuman energy is needed — it is one or two extraordinary men who silently and noiselessly work through a world of obstacles and difficulties. When thousands of people are benefited, there is a great tomtoming, and the whole country is loud in notes of praise. But then the machine has already been set agoing, and even a boy can work it, or a fool add to it some impetus. Grasp this that, that benefit done to a village or two, that orphanage with its twenty orphans, those ten or twenty workers — all these are enough; they form the nucleus, never to be destroyed. From these, hundreds of thousands of people will be benefited in time. Now we want half a dozen lions, then excellent work will be turned out by even hundreds of jackals. . . (21st February, 1900.)] 

"किसी 'मनुष्य' को (मानहूँष को) नैतिक और पवित्र क्यों 'हो जाना' चाहिए? (अर्थात नैतिक और पवित्र मनुष्य बनने की उपयोगिता क्या है ?) क्योंकि इससे उसकी इच्छाशक्ति मजबूत होती है। त्याग (Renunciation) का अर्थ है संसार (कामिनी-कांचन) का त्याग करना। जब तक त्याग नहीं होता, (renunciation-तीनों ऐषणाओं में आसक्ति का त्याग नहीं होता) तब तक 'अहं' (स्वार्थपरता, M/F का देहाध्यास-the self) और उसे प्रेरित करने वाली वासना भिन्न होती है। अंततः वे एक हो जाते हैं, और मनुष्य तुरन्त पशु बन जाता है। अतएव 'त्याग की भावना से आवेशित' हो जाओ। (खंड -9/192 ज्ञान और कर्म/आत्मज्ञान और कर्म या आत्मविश्वास और कर्म ! 23 नवम्बर, 1895 को लंदन में दिए गए एक भाषण के लिए लिखित टिप्पणियाँ।)

["Why should a man Be moral and pure? Because this strengthens his will.  Renunciation is this giving up of the world. As long as renunciation is not there, the self and the passion animating it differ. Finally, they become identified, and the man becomes an animal at once. Become possessed with the feeling of renunciation." [(Volume 8, Jnana And Karma /(Notes of a lecture delivered in London, on November 23, 1895) भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं - त्याग और सेवा ! व्यक्तिगत संस्कार के लिए जीवन का विभाजन चार आश्रमों में किया गया है-उनका मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिक उत्कर्ष और भौतिक स्पृहाओं से (तीनों प्रकार की एषणाओं में आसक्ति से) मुक्ति पाना होता है। (निवृत्ति मार्ग के अधिकारी के लिए) - ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद सीधा संन्यास ग्रहण करना-और (प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी के लिए) गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में तीनों ऐषणाओं में आसक्ति का त्याग करना। अतएव श्रेय-प्रेय का विवेक करके त्याग और वैराग्य की भावना से अपने को अनुप्रेरित करते रहो।]   

 " संसार का इतिहास बुद्ध और ईसा जैसे व्यक्तियों का इतिहास है। 'The passionless and unattached do most for the world. ' वासनामुक्त तथा अनासक्त (त्यागी तथा ऐषणाओं से अनासक्त) व्यक्ति ही संसार का सर्वाधिक हित (कल्याण) करते हैं। He sees beyond the misery, "You, my brethren, are all divine." वह (बुद्ध या ईसा के जैसा आत्मज्ञानी व्यक्ति) मनुष्य को उसकी दयनीयता (misery-दुर्गति) के परे देख सकता है, और कहता है -तत्त्वमसि- मेरे बन्धुओं, तुम सब दिव्यात्मा हो ! आत्मा वह शान्ति है, जो शुभ और अशुभ दोनों ही से परे है। यह विश्व (नाम-रूप)तो विघटित हो रहा है मनुष्य ईश्वर के समीप खिंचता जा रहा है। एक क्षण के लिए वह 'सत्' बन जाता है, स्वयं ईश्वर ! उसके व्यक्तित्व का पुनर्विकास होता है - एक पैगम्बरऔर अब उसके सम्मुख संसार काँपता है। मूर्ख सोता है , जगता है तब भी मूर्ख रहता है। अचेतन (unconscious) व्यक्ति जब अतिचेतन (superconscious-मानहूँष) होकर जगता है, तो असीम शक्ति, पवित्रता और प्रेम से सम्पन्न 'देवमानव' बनकर लौटता है। अतिचेतन या दिव्यचेतन की यही उपयोगिता है। " (खंड -9/192-193/ ज्ञान और कर्म/आत्मज्ञान और कर्म या आत्मविश्वास और कर्म ! 23 नवम्बर, 1895 को लंदन में दिए गए एक भाषण के लिए लिखित टिप्पणियाँ।)

Wisdom (=आत्मज्ञान) can be practised even on a battlefield. युद्ध-क्षेत्र में भी ज्ञान का अभ्यास (practice-व्यवहार) सम्भव है। गीता का उपदेश उसी अवस्था में (आत्मस्थ होकर) दिया गया था। There are three states of mind: the active, the passive, and the serene.मन की तीन अवस्थायें है - सक्रीय (active-जागृत), निष्क्रिय (passive-अप्रतिरोधी) और शान्त (serene-स्तब्ध ?) । सक्रिय अवस्था की विशेषता है -तीव्र स्पंदन, निष्क्रिय अवस्था की विशेषता है - धीमा स्पंदन; तथा शांत अवस्था (योग या समाधि) की विशेषता है -सर्वाधिक प्रचण्ड स्पंदन ! समझो की आत्मा- रथी है, रथ में आरूढ़ है। शरीर ही रथ है, बाह्य इन्द्रियाँ घोड़े हैं , मन लगाम है और बुद्धि सारथि है। इसीके सहारे मनुष्य माया-सागर (देश-काल -निमित्त) को पार करता है। वह इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार करता है। परब्रह्म में अवस्थित हो जाता है। जबतक मनुष्य अपनी इन्द्रियों के अधीन है , तबतक वह संसारी है। जब वह इन्द्रियों को अपने अधीन कर लेता है , वह त्यागी हो जाता है। अर्जुन के सारथि कृष्ण ने अर्जुन को यह कहते सुना - " हम अपने शत्रुओं को क्षमा कर दें। " और उन्होंने उत्तर दिया -अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे । (श्लोक 2 -11)- बातें तो बड़े विवेकी पुरुष की सी करते हो, पर अर्जुन, तुम विवेकशील नहीं, कापुरुष हो। जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी जल से - 'untouched'-अछूता रहता है , वैसे ही इस संसार में आत्मा को (इन्द्रियों से अनासक्त) रहना चाहिए। यह कुरुक्षेत्र है - युद्धक्षेत्र है , इसमें युद्ध करके अपना मार्ग प्रशस्त करो। Life in this world is an attempt to see God. इस संसार में जीवन -हर वेश में सम्मुख खड़े मनुष्य में ईश्वर को देखने का प्रयास मात्र है !  'Make your life a manifestation of will strengthened by renunciation. ' अपने जीवन को त्याग से  (ऐषणाओं में अनासक्ति से परिपुष्ट) सुदृढ़ इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति का रूप दो। जैसे ही तुम तुम सोचोगे -' सोऽहम -मैं वही हूँ ,"I am He ", वैसे ही तुम्हें महान आनन्द और शांति की उपलब्धि होगी। कोई [ambc] मुझे शाप देता है ; फिर भी मुझे उसमें ईश्वर का दर्शन करना चाहिए।" (खंड-९/१९४-९५) ]           

" संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है, जिनमें आत्मविश्वास था। यह आत्मविश्वास ही 'Inherent divinity' को अन्तःस्थित देवत्व को (पूर्णता या 100 % निःस्वार्थपरता को) ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है; सर्व समर्थ हो जाता है। असफलता तभी होती है, जब तुम अंतःस्थ अमोघ शक्ति (इच्छाशक्ति) को अभिव्यक्त करने का यथेष्ठ प्रयत्न नहीं करते। जिस क्षण कोई व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है , उसी क्षण उसकी मृत्यु आ जाती है।  सभ्यता क्या है ? वह अन्तःस्थ देवत्व की अनुभूति है। अपने को अशरीरी अनुभव करो। शरीरबद्ध तुम कभी हुए ही नहीं। वह सब अन्धविश्वास था। समस्त दीन, पददलित , पीड़ित और व्याधिग्रस्त मानवों की दिव्य चेतना लौटा दो।"

      विवेक अनेकता में एकता (Oneness) की उपलब्धि कराता है। नास्तिकों और अज्ञेय-वादियों को समाज-कल्याण के लिए काम करने दो इस प्रकार भी ब्रह्म की प्राप्ति होती है। किन्तु एक बात से अपने को सावधान रखो : किसी की आस्था को विचलित मत करो। कोई व्यक्ति मूर्तिपूजक की अवस्था को पार कर गया या नहीं- इसकी कसौटी यह है:- " जब तुम 'मैं' कहते हो, तब तुम्हारे मन में तुम्हारा शरीर (M/F होने का भाव) आता है या नहीं ? यदि 'मैं' कहने पर तुम्हारे विचार में तुम्हारा शरीर आ जाता है, तो तुम अब भी मूर्तिपूजक हो।" 

[ज्ञान और कर्म: अर्थात आत्मज्ञान और कर्म या आत्मविश्वास और कर्म 23 नवम्बर, 1895 को लंदन में भाषण देने के पहले लिखित टिप्पणियाँ :खंड ९, १९५ -९६] (यदि bgt,bgbh  आदि यूनिट ने अपने  अकॉउन्ट सम्बन्धी त्रुटियों को दूर कर लिया हो और आगे भी साफ रखने का वचन देते हों तो उनको भी Relief Work करने दो इस प्रकार भी ब्रह्म की प्राप्ति होती है।और आजीवन दासो अहं ही कहते रहोगे।)]  

[The history of the world is the history of persons like Buddha and Jesus. The history of the world is the history of a few men who had faith in themselves. That faith calls out the divinity within. You can do anything. What is civilisation? It is the feeling of the divine within. Find yourself bodiless. You never had a body. It was all superstition. Give back the divine consciousness to all the poor, the downtrodden, the oppressed, and the sick.- (Notes of a lecture delivered in London, on November 23, 1895-Eng /Volume 8

संसार (भारत) को जो चाहिए, वह है व्यक्तियों (नेता -पैगम्बर) के माध्यम से विचार शक्ति। मेरे गुरुदेव कहा करते थे - " तुम स्वयं अपने चरित्र -कमल के फूल को खिलने में सहायता क्यों नहीं देते। भ्र्मर तब अपने आप आएंगे। संसार को ऐसे लोग चाहिए , जो ('T' ईसा के जैसा-शूली चढ़ाने वाले को भी क्षमा ?) ईश्वर के प्रेम में मतवाले हों। तुम पहले अपने में विश्वास करो, तब तुम ईश्वर में विश्वास करोगे। संसार छः श्रद्धालु मनुष्यों - आत्मविश्वासी मनुष्यों का इतिहास है , छः गंम्भीर शुद्ध चरित्रवान मनुष्यों (मानहुँषों) का इतिहास है। हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता है - अनुभव करने के लिए हृदय की कल्पना करने के लिए मस्तिष्क की, और काम करने के लिए हाथ की। " (खंड-४/२७१- भक्तियोग के पाठ। भारत का कल्याण ही : संसार का उपकार है !)  

"What the world wants is thought power through individuals. My Master used to say, “Why don’t you help your own lotus flower to bloom? The bees will then come of themselves.” The world needs people who are mad with love of God. You must believe in yourself, and then you will believe in God. The history of the world is that of six men of faith, six men of deep pure character. We need to have three things; the heart to feel, the brain to conceive, the hand to work. First we must go out of the world and make ourselves fit instruments. Make yourself a dynamo." [Volume -6/144-45)  page -On Doing Good to the World/ Lessons On Bhakti-Yoga/The Yoga Through Devotion. ] 

" चाहे हजार गुना तात्विक ज्ञान क्यों न रहे - प्रत्यक्ष रूप से किये बिना कोई कार्य सीखा नहीं जाता। इसीलिए मैं election, accounts and discussion (SPTC) को नियमित रूप से आयोजित करने के लिए बार बार कहता हूँ कि जिससे और लोग भी कार्य करने के लिए तैयार रहें। एक की मृत्यु हो जाने से अन्य कोई व्यक्ति, दूसरा एक ही क्यों - आवश्यकता पड़ने पर दस व्यक्ति, कार्य करने को प्रस्तुत रहे। दूसरी बात यह कि कोई भी व्यक्ति तबतक अपनी पूरी शक्ति के साथ कार्य नहीं करता है, जब तक उसमें उसकी रूचि न पैदा की जाय ; सभी को यह बतलाना उचित है कि कार्य तथा सम्पत्ति में प्रत्येक का ही हिस्सा है एवं कार्य-प्रणाली में अपना मत प्रकट करने का सभी को अधिकार है , एवं अवसर रहते ही यह हो जाना चाहिए। " एक के बाद एक प्रत्येक व्यक्ति को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य देना, परन्तु हमेशा एक कड़ी नजर रखना जिससे आवश्यकता पड़नेपर तुम नियंत्रण कर सको ; तब कहीं कार्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति का निर्माण हो सकता है। ऐसा यंत्र खड़ा करो जो कि अपने आप चलता रहे, चाहे कोई मरे अथवा जीवित रहे। हमारे इण्डिया का यह एक महान दोष है कि हम कोई स्थायी संस्था नहीं बना सकते हैं और उसका कारण यह है कि दूसरों के साथ हम कभी अपने उत्तरदायित्व का बँटवारा नहीं करना चाहते और हमारे बाद क्या होगा - यह भी नहीं सोचते। " (खंड-६/४०८ -स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र। )

["Any amount of theoretical knowledge one may have; but unless one does the thing actually, nothing is learnt. I refer repeatedly to election, accounts, and discussion so that everybody may be prepared to shoulder the work. If one man dies, another — why another only, ten if necessary — should be ready to take it up. Give a responsible position to everyone alternately, but keep a watchful eye so that you can control when necessary; thus only can men be trained for the work. Set up such a machine as will go on automatically, no matter who dies or lives. We Indians suffer from a great defect, viz we cannot make a permanent organisation — and the reason is that we never like to share power with others and never think of what will come after we are gone." (Letter To Swami Brahmananda/1st August, 1898.)

" श्रम के बाद विश्राम और विश्राम के बाद श्रम करने से ही भली भाँति कार्य हो सकता है। 'The best work is only done by alternate repose and work. (खंड ६/३९९ पत्र स्वामी रामकृष्णानन्द। )

"हिन्दू जाति में व्यवहार- कुशलता बिल्कुल ही नहीं है। जिस समय जिस काम के लिए प्रतिज्ञा करो , (या वचन दो) ठीक उसी समय उसे करना ही चाहिए , नहीं तो लोगों का विश्वास उठ जाता है। रूपये-पैसे की बात में पत्र मिलते ही अतिशीघ्र उत्तर देना चाहिए।' (खंड -४/३५५- स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)   

[Practical wisdom is altogether wanting in the Hindu race, I see. Whenever you promise to do any work, you must do it exactly at the appointed time, or people lose their faith in you. Money matters require a speedy reply. . .letter to राखाल- 4th October, 1895.]

" भारत में जो काम -संयुक्त प्रयास से होता है वह एक दोष के बोझ से डूब जाता है। हमने अभीतक व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं विकसित किया। अपने वास्तविक अर्थ में व्यवसाय व्यवसाय ही है, मित्रता नहीं , जैसी की हिन्दू कहावत है -'मुँहदेखी -ठकुर सोहाती' नहीं होनी चाहिए। अपने जिम्मे जो हिसाब-किताब हो, वह बहुत हिसाब/सफाई से रखना चाहिए और कभी एक कोष का धन किसी दूसरे काम में कदापि न लाना चाहिए , चाहे दूसरे क्षण भूखे ही क्यों न रहना पड़े। यही है व्यावसायिक ईमानदारी। दूसरी बात है कार्य करने की अटूट शक्ति होनी चाहिए। जो कुछ तुम करते हो, उस समय के लिए उसे ही अपनी पूजा समझो।' (खंड -५/३७० 26 अगस्त, 1896. डॉ. नंजुंदाराव को लिखित

[All combined efforts in India sink under the weight of one iniquity — we have not yet developed strict business principles. Business is business, in the highest sense, and no friendship — or as the Hindu proverb says “eye-shame” — should be there. One should keep the clearest account of everything in one’s charge — and never, never apply the funds intended for one thing to any other use whatsoever — even if one starves the next moment. This is business integrity. Next, energy unfailing. Whatever you do let that be your worship for the time. (-26th August, 1896/letter)    

[সঙ্ঘবদ্ধ হয় কাজ করবার ভাবটা আমাদের চরিত্রে একেবারে নাই , এটা যাতে আসে -তার চেষ্টা করতে হবে। এটি করবার রহস্য হচ্ছে ঈর্ষ্যার অভাব। সর্বদাই তোমার ভ্রাতার মতে মত দিতে প্রস্তুত থাকতে হবে - সর্বদাই যাতে  মিলে মিশে শান্তভাবে কাজ হয়, তার চেষ্টা করতে হবে। এটাই সংঘবদ্ধ হয় কাজ করবার সমগ্র রহস্য। সাহসের সঙ্গে যুদ্ধ কর। জীবন তো ক্ষণস্থায়ী -একটা মহৎ উদ্দেশ্যে জীবনটা সমর্পন কর। পত্রাবলী ]

" सत्यनिष्ठ, पवित्र और निर्मल रहो, तथा आपस में न लड़ो। हमारी जाति का रोग ईर्ष्या ही है। "(खंड -४/३६९ -आलासिंगा को लिखित 20 दिसंबर, 1895  )  

एक Organized Society चाहिये। तुम लोग संघबद्ध हो जाओ, तो यह सबसे अच्छी बात होगी। नये पथ की खोज निस्सन्देह एक बड़ी बात है, किन्तु उस मार्ग को स्वच्छ और प्रशस्त और सुन्दर बनाना उतना ही कठिन कार्य है। " [(खंड-४/३२९-स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र 1895)]

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3.      

कुछ चेतावनी संकेत

[मनुष्यों के चार प्रकार – सत्पुरुष (मानहूँष), साधारण मनुष्य, मानुषराक्षस लेकिन चौथे प्रकार के मनुष्य को क्या नाम दूँ मुझे नहीं मालूम।  

एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परितज्य ये,

सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये ।

तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये,

ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।। 

(भर्तृहरि-नीतिशतकम् – 75)

जो दूसरों के हित के लिए अपने स्वार्थ को ही त्याग देते  हैं, वे सज्जन (मानहूँष) हैं। ऐसे जन वास्तव में बिरले ही होते हैं । दूसरी ओर जो लोग बिना अपने स्वयं के हित को चोट पहुँचाए दूसरों की सहायता करते हैं, वे साधारण मनुष्य होते हैं।  जो इस बात का ध्यान रखते हैं कि अपनी स्वार्थसिद्धि से दूसरों का अहित तो नहीं हो रहा है ।अर्थात् वे स्वार्थ तथा परार्थ क बीच तालमेल बिठाकर चलते हैं । अधिसंख्य जन इसी प्रकार के होते हैं । जो लोग अपने स्वयं के हितों के लिए दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं, वे मनुष्यों की आड़ में राक्षस हैं।  यानी दूसरे का नुकसान हो भी रहा हो तो कोई बात नहीं अपना तो फायदा है । लेकिन हम यह नहीं जानते कि जो लोग बिना किसी भी लाभ के बिना किसी उद्देश्य के दूसरों को नुकसान पहुँचानेवालों को क्या कहे। उन लोगों को वह किस नाम से पुकारे जिनकी प्रवृत्ति परहित के विरुद्ध कार्य करने की रहती है भले ही इससे उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो ।]

" Poet King /राजा-कवि भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है -ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।।  भाई, सब दुर्गुण मिट जाते हैं, पर वह अभागी ईर्ष्या नहीं मिटती ...!  हमारी जाती का वही दोष है। केवल परनिन्दा और ईर्ष्या। 'हम बड़ा !' वे सोचते हैं कि हमही बड़े हैं - दूसरा कोई बड़ा न होने पावे। (खंड-२/३३६ /रामकृष्णानंद को लिखित 19 मार्च, 1894.

[ये निध्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे — We do not know what sort of people they are who for nothing hinder the welfare of others” (Bhartrihari). Brother, we can get rid of everything, but not of that cursed jealousy. . . . That is a national sin with us, speaking ill of others, and burning at heart at the greatness of others. Mine alone is the greatness, none else should rise to it!! (19th March, 1894).]

" हमारे उपनिषद कितने ही मत्वपूर्ण क्यों न हों , अन्यान्य जातियों के साथ तुलना में हम अपने पूर्वज ऋषियों पर कितना ही गर्व क्यों न करें, मैं तुमलोगों को स्पष्ट रूप से बतला देता हूँ कि हम दुर्बल हैं, अत्यन्त दुर्बल हैं। प्रथम तो हमारी शारीरिक दुर्बलता। यह शारीरिक दुर्बलता कम से कम हमारी एक तिहाई दुःखों का कारण है। हम आलसी हैं , हम कार्य नहीं कर सकते। हम पारस्परिक एकता स्थापित नहीं कर सकते , हम एक दूसरे से प्रेम नहीं करते, हम बड़े स्वार्थी हैं , हम तीन मनुष्य एकत्र होते ही एक दूसरे से घृणा करते हैं। ईर्ष्या करते हैं। हमारी इस समय ऐसी अवस्था है कि हम पूर्ण रूप से असंगठित और घोर स्वार्थी हो गए हैं।"  (भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव -खंड-५/१३७)

" in spite of the greatness of the Upanishads, in spite of our boasted ancestry of sages, compared to many other races, I must tell you that we are weak, very weak. First of all is our physical weakness. That physical weakness is the cause of at least one-third of our miseries. We are lazy, we cannot work; we cannot combine, we do not love each other; we are intensely selfish, not three of us can come together without hating each other, without being jealous of each other. That is the state in which we are — hopelessly disorganised mobs, immensely selfish, fighting each other for centuries '(VEDANTA IN ITS APPLICATION TO INDIAN LIFE)

' परस्पर विवाद करना तथा आपस में निन्दा करना हमारा जातीय स्वभाव है। आलसी, कर्महीन , कटुभाषी, ईर्ष्यापारायण, डरपोक तथा विवादप्रिय -यही तो हम बंगालियों की प्रकृति है। मेरा भाई /मित्र कहकर परिचय देने वाले को पहले इस आदत को त्याग देना होगा। " (20 दिसम्बर, 1896.स्वामी ब्रह्मानंद को /खंड -५/३९७ )

[Quarrelling and abusing each other are our national traits. Lazy, useless, vulgar, jealous, cowardly, and quarrelsome, that is what we are, Bengalis. Anyone who wants to be my friend must give up these. (20th December, 1896.To Swami Brahmananda)

" चार आदमी के साथ मिलकर कोई काम करना हमलोगों की आदत नहीं। हमारी इसीलिए इतनी दुर्दशा हो रही है। जो आज्ञा का पालन करना जानते हैं , वे ही आज्ञा देना भी जानते हैं। पहले आदेश-पालन करना सीखो। इन सब पाश्चात्य राष्ट्रों में स्वाधीनता का भाव जैसा प्रबल है, आदेश-पालन करने का भाव भी वैसा ही प्रबल है। और ये गुण हममें बिल्कुल ही नहीं है। " {खंड -४/३६० 13 नवंबर, 1895मूल बंगाली में अखंडानंद को लिखित }

"It is not at all in our nature to do a work conjointly. It is to this that our miserable condition is due. He who knows how to obey knows how to command. Learn obedience first. Among these Western nations, with such a high spirit of independence, the spirit of obedience is equally strong. We are all of us self-important–which never produces any work. Great enterprise, boundless courage, tremendous energy, and, above all, perfect obedience–these are the only traits that lead to individual and national regeneration. These traits are altogether lacking in us. [(13th Nov., 1895{original in Bengali} Akhandananda)

"हम ऐसे शक्तिहीन हैं कि यदि हम किसी विषय की चर्चा शुरू करते हैं तो उसीमें हमारा सारा बल लग जाता है और कोई काम करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता। " {६-३१०} " चाँदी के छः सिक्कों के लिए अपने बाप और भाई के गले पर चाकू फेरनेवाले लाखों आदमी भारत के सिवा और कहाँ मिल सकते हैं ? शिक्षा और आत्मविश्वास से उनका अन्तर्निहित ब्रह्मभाव जाग गया है , जबकि हमारा ब्रह्मभाव क्रमशः निद्रित -संकुचित होता जा रहा है।  {६/३११}अब उपाय है - शिक्षा का प्रसार। पहले आत्मज्ञान। इस जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से निहित है ; चींटी से लेकर ऊँचे से ऊँचे सिद्ध पुरुष तक सभी में वह आत्मा विराजमान है (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ) अंतर केवल उसके प्रकटीकरण के तारतम्य में /भेद में है। 'वरण भेदस्तु ततः क्षैत्रिकवत। ' (पातंजल योगसूत्र /कैवल्य पाद) - किसान जैसे खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दूसरे खेत में चला जाता है, वैसे ही आत्मा भी आवरण टूटते ही प्रकट हो जाती है।" {६/३१२} (भारत को जिस शिक्षा की आवश्यकता है- श्रीमती सरला घोषाल को लिखित -24 अप्रैल, 1897.का पत्र।)

[ We are so devoid of strength that our whole energy is exhausted if we undertake to discuss anything, none is left for work. Where, except in India, can be had millions of men who will cut the throats of their own fathers and brothers for six rupees?The Shraddha which is the keynote of the Veda and the Vedanta — the Shraddha which emboldened Nachiketâ to face Yama and question him, through which Shraddha this world moves the annihilation of that Shraddha!अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति— "The ignorant, the man devoid of Shraddha, the doubting self runs to ruin."  The remedy now is the spread of education. First of all, Self-knowledge. infinite power is latent in this Jivatman (individualised soul); from the ant to the perfect man there is the same Âtman in all, the difference being only in manifestation. "As a farmer breaks the obstacles (to the course of water)" (Patanjali's Yoga-Sutra, Kaivalsapâda, 3). From the highest god to the meanest grass, the same power is present in all — whether manifested or not. We shall have to call forth that power by going from door to door.] 

" स्वयं कुछ करना नहीं और यदि दूसरा कुछ करना चाहे , तो उसका मखौल उड़ाना हमारी जाति का एक महान दोष है और इसी से हमारी जाति का सर्वनाश हुआ है। हृदयहीनता तथा उद्यम का आभाव सब दुखों का मूल है। अतः उन दोनों को त्याग दो। " (24 जनवरी, 1896. स्वामी योगानन्द को लिखित) 

[We would do nothing ourselves and would scoff at others who try to do something — this is the bane that has brought about our downfall as a nation. Want of sympathy and lack of energy are at the root of all misery, and you must therefore give these two up. (24th Jan., 1896.)]

" पीठ पीछे किसीकी  निन्दा करना महापाप है। इससे पूरी तरह बचकर रहना चाहिए। मन में कई बातें आती हैं, परन्तु उन्हें प्रकट करने से राई का पहाड़ बन जाता है। यदि क्षमा कर दो और भूल जाओ, तब उन बातों का अन्त हो जाता है।' (खंड -३/३९१-11 अप्रैल, 1895.स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित)

[ Know that talking ill of others in private is a sin. You must wholly avoid it. Many things may occur to the mind, but it gradually makes a mountain of a molehill if you try to express them. Everything is ended if you forgive and forget.(11th April, 1895.)]  

    " तुमलोगों को मैं निम्नलिखित बातें बतलाना चाहता हूँ --

1. पक्षापात ही सब अनर्थों की मूल है, यह न भूलना। अर्थात यदि तुम किसीके प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रेम -प्रदर्शित करते हो , तो याद रखो, उसीसे भविष्य में कलह का बीज जन्म लेगा। (खंड -४/३१२-ग्रीष्म १८९५ वराहनगर मठ के गुरुभाइयों के लिए।)  

 2. यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। 

3.दूसरों के दोषों को सर्वदा सहन करना, लाख अपराध होने पर भी उसे क्षमा करना। यदि निःस्वार्थभाव से तुम सबसे प्रेम करोगे, तो उसका फल यह होगा कि सब कोई आपस में प्रेम करने लगेंगे। एक का स्वार्थ दूसरे पर निर्भर है, इसका विशेष रूप से ज्ञान होने पर सब लोग ईर्ष्या को त्याग देंगे; आपस में मिल-जुल कर किसी कार्य को सम्पादित करने की भावना हमारे जातीय चरित्र में सुलभ नहीं है ; अतः अपने [घर,बिजनेस या] संघ में इस प्रकार की भावना को जाग्रत करने के लिए तुम्हें अत्यधिक परिश्रम करना पड़ेगा तथा उसके लिए हमें धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा भी करनी होगी। .....[नवनीदा ???] श्रीरामकृष्ण जौहरी थे, इस बारे में अब भी यदि किसीको सन्देह हो, तो उसमें तथा एक पागल में क्या अन्तर है ? (खंड-४/३१३-पत्र 1895) 

**Servant leadership : " यह ख्याल रखना कि इन सारे कार्यों की देख-भाल तुमको ही करनी होगी - 'नेता' बनकर नहीं, सेवक बनकर। क्या तुम्हें मालूम है कि नेतृत्व की भावना के थोड़ा सा प्रकट होते ही -लोगों में  [कजन में] ईर्ष्या की भावना को जाग्रत कर सारा काम बिगाड़ देता है ? सबकी सब बातें मान लेने को तैयार रहो, बस, इतना ख्याल रखो कि सब मित्र मिलजुल कर कार्य करें।  समझते हो भाई ? (खंड-२/३९४ -31 अगस्त, 1894 को अलासिंगा पेरुमल को लिखित) 

" पूर्णतः निःस्वार्थ हो, स्थिर रहो , और काम करो। हम बड़े बड़े काम करेंगे , डरो मत। सबके सेवक बनो। और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो , क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज बर्बाद हो जाएगी। यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा।"  (खंड -४/२८४/ 6 मई, 1895. आलासिंगा को लिखित पत्र)  

[ধীরে ধীরে - মহাকার্য় ধীরে ধীরে হয়। ধীরে ধীরে বারুদের স্তর পুঁততে হয় ; তারপর একদিন এক কনা আগুন -আর সমস্ত উচ্ছসিত হয় ওঠে।] 

" मैं चाहता हूँ कि तुम लोग (काम करते करते ) मर जाओ, फिर भी तुम्हें संग्राम करना होगा ! सिपाही की तरह आज्ञा-पालनार्थ अपनी जान तक दे दो एवं निर्वाणलाभ करो , किन्तु कायरपन को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया जा सकता। "  (खंड -७/ ३९२ /21 नवम्बर, 1899/स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित)  

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4.

प्रशिक्षण 

"पहले से ही बड़ी बड़ी योजनाएं न बनाओ , धीरे धीरे कार्य प्रारम्भ करो -जिस जमीन पर खड़े हो, उसे अच्छी तरह से पकड़कर क्रमशः ऊँचे चढ़ने की चेष्टा करो। तुम्हारा मार्ग खुल जायेगा। रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ था।' (खंड -३/३८६/ आलासिंगा पेरुमल को लिखित पत्र 6 मार्च, 1895)

"আমাদের কাজ হওয়া উচিত প্রধানতঃ শিক্ষাদান - চরিত্র এবং বুদ্ধিবৃতির উৎকর্ষ সাধনের জন্যে শিক্ষা বিস্তার।" (বিবেকানন্দ -পত্রাবলী পৃষ্ঠ ৫৭৫) 

शिक्षा प्रदान करना हमारा पहला कार्य होना चाहिए - नैतिक (चरित्र-निर्माणकारी ) तथा बौद्धिक (अपरा और परा) दोनों ही प्रकार की।  (11 जुलाई, 1897/ स्वामी शुद्धानन्द को लिखित-खंड ६/-350:) 

" शिक्षा किसे कहते हैं ? क्या वह पठन -मात्र है ? नहीं।  क्या वह नाना प्रकार का ज्ञानर्जन है ? नहीं यह भी नहीं। (निर्जन-वास या Be and Make' गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में) जिस मनःसंयोग के प्रशिक्षण के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है वह शिक्षा कहलाती है। (इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास तभी फलदायक होता है जब उसके बहिर्मुखी प्रवाह को अन्तर्मुखी और एकाग्र करने से आत्मसाक्षात्कार होकर मन पूरीतरह से वशीभूत होजाता है। वह शिक्षा कहलाती है।) अब सोचो कि शिक्षा क्या वह है, जिसने इच्छाशक्ति को निरन्तर बलपूर्वक पीढ़ी दर पीढ़ी रोककर प्रायः नष्ट कर दिया है, जिसके फलस्वरूप स्वतः-स्फूर्त नए विचार (मौलिक विचार) की तो बात ही जाने दो , पुराने विचार भी (चार महावाक्य में श्रद्धा भी) एक एक करके लोप होते चले जा रहे हैं ; क्या वह शिक्षा है , जो मनुष्य को धीरे धीरे यंत्र बना रही है ? जो ऑटोमेटिक मशीन की तरह केवल सुकर्म ही क्यों न करता हो (मशीन की तरह तीन बार संध्या या 5 बार नमाज ही क्यों न पढ़ता हो), उसकी अपेक्षा अपनी स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति और बुद्धि से प्रेरित होकर - 'impelled by one's free will and intelligence' अनुचित कर्म करने वाला मेरे विचार से श्रेयस्कर है। (जैसे साधु और डकैत की कथा के अनुसार स्त्री को लूटते देखकर, एक डकैत ने 52 हत्या के बाद 53 हत्या को उचित समझा था ?) (खंड -७/३५९/ 23 दिसम्बर, 1898.श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखित पत्र-) 

[What is education? Is it book-learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education. Now consider, is that education as a result of which the will, being continuously choked by force through generations, is well-nigh killed out; is that education under whose sway even the old ideas, let alone the new ones, are disappearing one by one; is that education which is slowly making man a machine? It is more blessed, in my opinion, even to go wrong, impelled by one's free will and intelligence than to be good as an automaton. (letter written to Shrimati Mrinalini Bose from Deoghar (Vaidyanâth), on 23rd December, 1898.)

" समस्त धर्म/शिक्षा- और कुछ नहीं अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) की अन्तः अनुभूति (inner perception) मात्र है। जब मैं 'मनुष्य-निर्माणकारी धर्म /शिक्षा" जैसे शब्दों का प्रयोग करता हूँ , तो मेरा तात्पर्य न पुस्तकों से होता है, न विश्वासों से, न सिद्धान्तों से। मेरा तात्पर्य उस 'मनुष्य ' से होता है, जिसने अपने ह्रदय में स्थित उस 'अनन्त विद्यमानता' (infinite presence, Oneness) के कुछ अंश को जान लिया है, या पूर्णतया अनुभव कर लिया है। मैं जीवन भर जिस मनुष्य के चरणों में बैठा हूँ -और यह उनके कुछ विचार मात्र हैं [जैसे मानहूँष तो मानुष], जिनके प्रचार का मैं यत्न कर रहा हूँ - वे बहुत मुश्किल से अपना नाम लिख पाते थे। मैंने अपने जीवन उनके समान दूसरा मनुष्य नहीं देखा , जबकि मैंने पूरी दुनिया की यात्रा की है। जब मैं उस मनुष्य (पूर्णत्व प्राप्त या पूर्ण निःस्वार्थ मनुष्य) के बारे में सोचता हूँ , तो मैं अपने को मूर्ख जैसा अनुभव करता हूँ। क्योंकि मैं अब भी पुस्तकों [शास्त्रों] को पढ़ना चाहता हूँ, और उन्होंने कभी कोई पुस्तक (शास्त्र) नहीं पढ़ीं। दूसरों के जूठे प्लेट को चाटना वे नहीं चाहते थे। क्योंकि वे स्वयं अपनी पुस्तक थे। "[औपचारिक उपासना : 10 अप्रैल, 1900 को सैन फ्रांसिस्को में दिया गया भाषण/खंड-३/पेज-२२८ /] 

["The whole of religion/Education  is our own inner perception. When I use the words "man-making religion/Education", I do not mean books, nor dogmas, nor theories. I mean the man who has realised, has fully perceived, something of that infinite presence in his own heart. The man at whose feet I sat all my life—and it is only a few ideas of his that try to teach—could [hardly] write his name at all. All my life I have not seen another man like that, and I have travelled all over the world. When I think of that man, I feel like a fool, because I want to read books and he never did. He never wanted to lick the plates after other people had eaten. That is why he was his own book."

[Volume 6/page-64/ FORMAL WORSHIP/Lectures and Discourses (Delivered in San Francisco area, April 10, 1900)(साभार https://www.linkedin.com/pulse/swami-vivekanandas-ideas-education-relevance-today-ashok-banerji-phd/)]

" जहाँ तक हो सके, कम से कम खर्चे में अधिक से अधिक स्थायी सत्कार्य की प्रतिष्ठा करना ही हमारा ध्येय है। अब तुम समझ ही गए होगे कि तुमलोगों को स्वयं ही मौलिक ढंग से सोचना चाहिए , नहीं तो मेरी मृत्यु के बाद सब कुछ नष्ट हो जायेगा। उदाहरण के लिए यह कर सकते हो कि इसी विषय पर विचार करने के लिए एक सभा का आयोजन करो कि अपने कम से कम साधनों द्वारा हम किस प्रकार श्रेष्ठतम स्थायी फल प्राप्त कर सकते हैं। "  (11 जुलाई, 1897/ स्वामी शुद्धानन्द को लिखित-खंड ६/351-52)  

" 3H के साथ 3P भी बनाये रखो :  जब तक तुम निश्चित रूप से न जान लो कि वह संगठन के लिए हितकर होगा, तब तक अपने मन का भेद न खोलो। [रिलीफ वर्क प्रेमी -और शिक्षा प्रेमी, लाइफ बिल्डिंग और ऑफिस बिल्डिंग  - का नाम उजागर नहीं करो !] बड़े से बड़े शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शब्दों का व्यवहार करो। [जो तुमको शूली देने आये ? उसमें भी खुली आँखों से ईश्वर को देखते हुए] नाम-यश पाने और धन के भोग की इच्छा स्वतः ही जीव में है, उससे अगर दोनों पक्षों का काम चले तो सभी आग्रही होते हैं।  -दूसरों के थोडे से भी गुणों को सर्वदा पहाड़ की तरह (बहुत बड़ा) मानकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सत्पुरुष (संसार में) कितने हैं, अर्थात् ऐसे नेता/शिक्षक बहुत कम है, दुर्लभ हैं । मनसि वचसि काये पुण्य पीयूष पूर्णाः ,त्रिभुवनं उपकार श्रेणिभिः  प्रीणयन्तः।  परगुण परमाणून् पर्वती कृत्य नित्यं,निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।। (भर्तृहरि नीतिशतकम् ) - त्रिभुवन का उपकार करने मात्र की इच्छा केवल महापुरुषों (पैगम्बरों) को ही होती है। इसीलिए जड़बुद्धि , मूढ़मति (stupid, foolish-मिंटरन्ट) अनात्मदर्शी, तमसाच्छन्न-बुद्धि जीव को उसकी अपनी बाल चेष्टा करने दो। गर्म महसूस होने पर स्वयं ही भाग जायेंगे। चाँद पर थूकने की चेष्टा करें - 'शुभं भवतु तेषां '- उनका मंगल हो। अगर उनमें माल हो तो उनके साफल्य में बाधा कौन डाल सकता है ?  सभी काम धीरे धीरे होते हैं। धैर्य,पवित्र और अध्यवसाय बनाये रहो !"  Everything proceeds slowly, by degrees—patience, purity, perseverance..... (स्वामी अभेदानन्द को लिखित -1894/ खंड २/350 -51/पीदा/डीदा/रदा 

"चालाकी से कोई बड़ा काम पूरा नहीं हो सकता। प्रेम, सत्यानुराग और महान वीर्य की सहायता से सभी कार्य सम्पन्न होते हैं।'तत्‌ कुरु पौरुषं'- इसलिए परुषार्थ को प्रकट करो।' (खंड -४/३१६-1895 स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखीत)   

" सभी के आंतरिक प्रयास के बिना क्या कोई कार्य हो सकता है ? उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति  लक्ष्मीः ' - उद्योगी पुरुषसिंह ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है। 'पीछे की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है - आगे बढ़ो। हमें अनन्त शक्ति, अनन्त उत्साह , अनन्त साहस तथा अनन्त धैर्य चाहिए, तभी महान कार्य सम्पन्न होगा। दुनिया में आग (प्राण ?) फ़ूंकनी है ! (खंड -५/४०३ / स्वामी अभेदानन्द को लिखित)

[… Can anything be done unless everybody exerts himself to his utmost? “उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीः” etc.— “It is the man of action, the lion-heart, that the Goddess of Wealth resorts to.” No need of looking behind. FORWARD! We want infinite energy, infinite zeal, infinite courage, and infinite patience, then only will great things be achieved. . . .C/O E. T STURDY, ESQ.,HIGH VIEW, CAVERSHAM, READING/1896.]

[ धीरज रखो और मृत्युपर्यन्त विश्वासपात्र रहो। आपस में न लड़ो ! रूपये-पैसे के व्यवहार में शुद्ध भाव रखो। हम अभी महान कार्य करेंगे। जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हें सफलता मिलेगी।  ऋग्वेद के (Anid-avatam) आनीदवातम शब्द से असल में मुख्य प्राण की ओर संकेत है और 'अवातम' का मूल अर्थ है 'अचल' अर्थात 'स्पन्दन-रहित।' भाष्यकारों के अनुसार यह उस अवस्था का वर्णन है जिसमें विश्व-शक्ति या प्राण कल्प (सृष्टि चक्र, cycle of creation) के प्रारम्भ होने से पहले रहता है। किसी शब्द का अर्थ ('Be and Make' जैसे महावाक्य का अर्थ) हमारे ऋषियों के अनुसार लगाओ, यूरोपियन विद्वानों के अनुसार नहीं। वे क्या समझते हैं ? वीर और अभय बनो और मार्ग साफ हो जायेगा। Mind you, the Guru-Bhakta will conquer the world–this is the one evidence of history. याद रखो की 'गुरु-भक्त' विश्वविजयी होता है। यह इतिहास का एक प्रमाण है। आत्मविश्वास मनुष्य को सिंह बना देता है। सत्यनिष्ठ, पवित्र और निर्मल रहो, तथा आपस में न लड़ो। ईर्ष्या ही हमारे राष्ट्र के पतन का कारण है। " (खंड -४/ ३६८-६९/ 20 दिसम्बर, 1895 को आलासिंगा पेरुमल को लिखित।)              

ধৈর্য ধরে থাকা এবং মৃত্যু পর্যন্ত বিশ্বস্ত হয়ে থাকা নিজেদের মধ্যে বিবাদ করো না।  টাকাকড়ির লেনদেন বিষয়ে সম্পূর্ণ খাঁটি হও। 

" शिष्य:-ऐसा शिक्षक, उपदेशक (पैगम्बर) कहाँ जो लड़कपन से ही इन बातों को सुनाता और समझाता रहे ? आजकल का पठनपाठन केवल नौकरी पाने के लिए है। स्वामीजी:- इसलिए हम आये हैं (हम =विवेकानन्द, दादा या महामण्डल आविर्भूत हुआ है) शिक्षा के मर्म को दूसरे प्रकार से सिखलाने और दिखलाने के लिए। तुम सब इस तत्व को [तत्वमसि : मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा पद्धति कोहमसे सीखो ,समझो और अनुभव करो। फिर इस भाव को नगर नगर , गाँव गाँव , पुरवे पुरवे में फैला दो। --धन कहाँ से आएगा ?...मनुष्य ही तो रुपया पैदा करता है। रूपये से मनुष्य पैदा होता है , यह भी कहीं सुना है ? यदि तू अपने मन-वचन और कर्म को एक कर सके तो धन आप ही तेरे पास जलवत बह आएगा। " (स्वामी-शिष्य संवाद /खंड-६/१४) 

[ধীর,নিস্তব্ধ অথচ দৃঢ়ভাবে কাজ করতে হবে। খবরের কাগজে হুজুক করা নয়। সর্বদা মনে রাখবে নাম যশ আমাদের উদ্দেশ্য নয়। ]  

[Where should you go to seek for God — are not all the poor, the miserable, the weak, Gods? Why not worship them first? " ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने चले हो -ये सब गरीब, दुःखी , दुर्बल मनुष्य क्या ईश्वर नहीं हैं ? इन्हीं की पूजा पहले क्यों नहीं करते ? क्या तुम्हारे पास प्रेम है ? तब तो तुम सर्वशक्तिमान हो। क्या तुम सम्पूर्णतः निःस्वार्थ हो ? यदि हो ? तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है ? चरित्र की ही सर्वत्र विजय होती है। भगवान ही समुद्र के तल में भी अपनी सन्तानों की रक्षा करते हैं। Your country requires heroes; be heroes! तुम्हारे देश के लिए वीरों (पैगम्बरों) की आवश्यकता है - वीर (पैगम्बर) बनो !  इन दो चीजों से बचे रहना - क्षमताप्रियता और ईर्ष्या। सदा आत्मविश्वास का अभ्यास करना। (खंड -३/३२३ -३२४/ 27 अक्टूबर, 1894 को आलासिंगा को लिखित।)

["Take care of these two things--love of power and jealousy. Cultivate always "faith in yourself." 

"দুইটি  জিনিস  হইতে বিশেষ সাবধান থাকবি - ক্ষমতাপ্রিয়তা ও ঈর্ষা। সর্বদা আত্মবিশ্বাস অভ্যাস করিতে চেষ্টা কর।" 

{तुम्हारे देश को बहुत बड़ी संख्या में अग्निवीरों की अर्थात अग्निमन्त्र में दीक्षित पवित्र-चरित्र के नेताओं, पैगम्बरों की आवश्यकता है। (आचार्यदेव- CINC नवनीदा जैसे पैगम्बरों या जीवनमुक्त शिक्षकों/ की आवश्यकता है!)  "ज्ञान और चरित्र में कौन बड़ा है ? राजा और राजगुरु का चोरी का नाटक , फिर तीन हीरे राजा को वापस लौटाने पर राजा की प्रतिक्रिया की छोटी कहानी। If Wealth is lost nothing is lost, If Health is lost something is lost, If Character is lost everything is lost.] }   

" जब तक तुमलोगों में परस्पर के बीच (रिलीफ वर्क और शिक्षा दान, और मनुष्य-निर्माण और बिल्डिंग निर्माण को लेकर ?) भेदभाव न हो, प्रभु की कृपा से 'रणे वने पर्वतमस्तके वा - चाहे रण में, चाहे पर्वत के शिखर पर, तुम्हारे लिए कोई भी भय नहीं रहेगा। श्रेयांसि बहु विघ्नानी -श्रेष्ठ कार्य में अनेक विघ्न होते हैं। ' यह तो स्वाभाविक ही है। अतिगम्भीर बुद्धि धारण करो। बालक-बुद्धि जीव कौन [रा० टाइप], क्या कहता है, उस पर तनिक भी ध्यान न दो। उपेक्षा, उपेक्षा, उपेक्षा -यही उसका ईलाज है। हमेशा याद रखो -ऑंखें दो होती हैं और कान भी दो, परन्तु मुख एक ही होता है। उपेक्षा, उपेक्षा, उपेक्षा। न हि कल्याणकृत् कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति ॥ गीता ६/४०) ... आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करने वाले योगी का न तो इस लोक में और न ही परलोक में विनाश होता है। (खंड-२/ ३४८ -४९, स्वामी अभेदानन्द को लिखित -पत्र 1894)               

" वाह गुरु की फ़तह ! अरे भाई, "श्रेयांसि बहुविघ्नानि—महान कार्यों में कितने ही विघ्न आते हैं -उन्हीं विघ्नों की तीव्र प्रवाह में मनुष्य -निर्माण होता है ! ये बाधाएं ही हैं जो महान चरित्रों को जन्म देती हैं और उनका निर्माण करती हैं...सभी प्रयास (attempt-उद्योग) में एक समूह ऐसे लोगों का होगा जो वाहवाही देगा, और दूसरा समूह ऐसे लोगों का होगा जो व्यंग करेगा, नुक्स निकलेगा या दुश्मनी करेगा। अपना काम करते जाओ, किसीकी बात का जवाब देने से क्या काम ? सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।  - सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं, सत्य से ही देवयान मार्ग की गति मिलती है। (मुंडक, तृतीय 1.6) "Truth alone triumphs, not falsehood. Through Truth lies Devayâna, the path of gods"। সকল কাজেই একদল বাহবা দেবে , আর একদল দুশমনাই করবে। আপনার কার্য করে চলে যাও -](खंड -३/३०५ /25 सितम्बर, 1894. गुरुभाइयों को लिखित )       

" हमेशा याद रखो कि अब हम संसार की दृष्टि के सामने खड़े हैं और लोग प्रत्येक काम और वचन का निरीक्षण कर रहे हैं। यह स्मरण रखकर काम करो। ( (खंड -४/३१९-1895 स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखीत)  

" हर [नए? मौलिक] काम को तीन अवस्थाओं में से गुजरना होता है -उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है , लोग उसे निश्चय ही गलत समझते हैं। इसलिए (काँ-छुटभइयों के) विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं ; परन्तु मुझे दृढ़ और पवित्र होना चाहिए और भगवान (अवतार वरिष्ठ) में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे। " (खेतड़ी के महाराज को लिखित - 9 जुलाई, 1895.खंड-४/३३०

 [Each work has to pass through these stages — ridicule, opposition, and then acceptance. Each man who thinks ahead of his time is sure to be misunderstood. So opposition and persecution are welcome, only I have to be steady and pure and must have immense faith in God, and all these will vanish. . . . 9th July, 1895.] 

[আমার সব আশা -ভরসা তোমাদের উপর। কাজ করে যাও। -স্বাধীন ভাবে তোমাদের কাজে অগ্রসর হও। 

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5.

योजना का कार्यान्वयन

 "We, as a nation, have lost our individuality and that is the cause of all mischief in India. We have to raise the masses"- एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में हमने अपनी राष्ट्रीय विशेषता को खो दिया है और यही हमारे देश में चल रहे सारे अनर्थ का कारण है। हमें हमारी इन जाति को उसकी खोई हुई जातीय विशेषता को वापस ला देना है और अनुन्नत लोगों को उठाना है। इसे करने के लिए पहले 'मनुष्य' चाहिये, फिर धन। (खंड -२/३३८ -स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखित /19 मार्च, 1894 )  

" 'माँ ' का स्वरुप तत्वतः क्या है तुम लोग अभी नहीं समझ सके हो - तुममें से एक भी नहीं। किन्तु धीरे धीरे तुम जानोगे। भाई, शक्ति के बिना जगत का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि सब देशों में हमारा देश ही सबसे शक्तिहीन है , पिछड़ा हुआ है ? इसका कारण यही है कि यहाँ शक्ति की अवमानना होती है। उस महाशक्ति को भारत में पुनः जाग्रत करने के लिए माँ का आविर्भाव हुआ है। और उन्हीं को केंद्र बनाकर फिर से जगत में गार्गी, और मैत्रयी जैसी नारियों का जन्म होगा। शक्ति की कृपा के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। "    (स्वामी शिवानन्द को लिखित -1894 / खंड २/३५९ -३६१)

[প্রবল বিশ্বাসই বড় বড় কার্যের জনক। এগিয়ে যাও, এগিয়ে যাও। দরিদ্র ও পদদলিতদের  আমরণ সহানুভূতি ও সহায়তা করিতে হইবে - ইহাই আমাদের মূলমন্ত্র।  ]

[কারও সমালোচনার দরকার নেই। তোমার যদি কিছু ভাব দেবার থাকে তা শিক্ষা দাও , তার ওপর আর এগিও না।  ] 

[পেছু দেখতে হবে না - forward (এগিয়ে চল।)অনন্ত বীর্য, অনন্ত উৎসাহ , অনন্ত সাহস ও অনন্ত ধৈর্য চাই , তবে মহাকার্য় সাধন হবে। দুনিয়ার আগুন লাগিয়ে দিতে হবে।  

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6. 

साधारण जनता की उन्नति का प्रावधान

" अपने तन मन और वाणी को 'जगत्हिताय' अर्पित करो। तुमने पढ़ा है - मातृदेवो भव, पितृदेवो भव- 'अपनी माता को ईश्वर समझो , अपने पिता को ईश्वर समझो ' -परन्तु मैं कहता हूँ -दरिद्रदेवो भव , मूर्खदेवो भव -गरीब , निरक्षर ,मूर्ख और दुःखी , इन्हें अपना ईश्वर मानो। इनकी सेवा करना ही परम् धर्म समझो। " -(खंड-३/३५७ - स्वामी अखण्डानन्द को लिखित -1894)  

" जिस देश की जनता में विद्या-बुद्धि का जितना ही अधिक प्रचार है , वह  देश उतना ही उन्नत है। - a nation is advanced in proportion as education and intelligence spread among the masses. भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की सम्पूर्ण विद्या-बुद्धि, राज-शासन और दम्भ के बल से मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में रखी गयी है। 'If we are to rise again, we shall have to do it in the same way, i.e. by spreading education among the masses.' यदि हमें फिर से विकसित देश बनना है तो हमको उसी मार्ग पर चलना होगा, अर्थात जनता में विद्या/शिक्षा  का प्रसार करना होगा।  (खंड -६/३१० -24 अप्रैल, 1897.श्रीमती सरला घोषाल को लिखित )   

" मेरा विचार है कि भारत और भारत के बाहर मनुष्य-जाति में जिन उदार भावों का विकास हुआ है , उनकी शिक्षा गरीब से गरीब, और हीन से हीन को दी जाये और फिर उन्हें स्वयं विचार करने का अवसर दिया जाये। जात-पाँत रहनी चाहिए या नहीं , महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए या नहीं , मुझे इनसे कोई वास्ता नहीं। Liberty of thought and action is the condition of life, of growth and well being.  'विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन , उन्नति और कुशल-क्षेम का एकमेव साधन है। ' जहाँ यह स्वंत्रता नहीं है , वहाँ व्यक्ति,जाति, राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी। .....   जीवन में मेरी एकमात्र आकांक्षा यही है कि एक ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च और श्रेष्ठ विचारों को (महावाक्यों को) सबके द्वार तक पहुँचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर लें। हमारे पूर्वज ऋषियों ने तथा अन्य देशों ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नो [शिक्षा क्या है ?-धर्म क्या है ? जन्म-मृत्यु ?] पर क्या विचार किया है, यह सर्वसाधारण को जानने दो। विशेषकर उन्हें यह देखने दो कि और लोग इस समय क्या कर रहे हैं और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो। (24 जनवरी, 1894.मद्रासी शिष्यों को लिखित /खंड २/३२१ 

" यथार्थ राष्ट्र जो झोपड़ियों में बसता है , अपना मनुष्यत्व विस्मृत कर चुका है , अपना व्यक्तित्व खो चुका है। हिन्दू, मुसलमान , ईसाई -हरेक के पैरों तले कुचले गए हमारे ग्रामवासी यह समझने लगे हैं कि जिस किसी के पास पर्याप्त धन है , उसीके पैरों तले कुचले जाने के लिए ही उनका जन्म हुआ है। "They are to be given back their lost individuality. They are to be educated. "--उन्हें उनका खोया हुआ व्यक्तित्व (अर्थात खोया हुआ आत्मविश्वास) वापस करना होगा। उन्हें शिक्षित करना होगा।  (खंड -२ /३६५ / 20 जून, 1894.-श्री हरिदास विहारीदास देसाई को-दिवान जी को लिखित)  

" मैं न कोई तत्व-ज्ञानी (metaphysician) हूँ, न दार्शनिक हूँ और न सिद्ध पुरुष हूँ। मैं निर्धन हूँ और निर्धनों से प्रेम करता हूँ। भारत के 20 करोड़ नर- नारी जो सदा गरीबी और मूर्खता के दलदल में फँसे हैं, उनके लिए किसका ह्रदय रोता है ? वे अन्धकार से प्रकाश में नहीं आ सकते [असतो मा सद्गमय -मृत्योर मा अमृतं गमय भूल गए हैं] उन्हें इसकी शिक्षा प्राप्त नहीं होती। -उन्हें कौन प्रकाश देगा, कौन उन्हें शिक्षा देने के लिए द्वार-द्वार घूमेगा ? ये ही तुम्हारे ईश्वर हैं , ये ही तुम्हारे इष्ट बनें। निरन्तर इन्हीं के लिए सोचो , इन्हीं के लिए काम करो। उसीको मैं महात्मा कहता हूँ, जिसका ह्रदय गरीबों के लिए द्रवीभूत होता है, अन्यथा वह दुरात्मा है।  मेरा ह्रदय इतना भाव-गदगद हो गया है कि मैं उसे व्यक्त नहीं कर सकता, तुम्हें यह विदित है, तुम उसकी कल्पना कर सकते हो। जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे , तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघाती समझूँगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है , परन्तु जो उनपर तनिक भी ध्यान नहीं देता ! वे लोग जिन्होंने गरीबों को पीसकर धन पैदा किया है और अब ठाठबाट से अकड़कर चलते हैं , यदि उन बीस करोड़ देशवासियों के लिए कुछ नहीं करते, तो वे घृणा के पात्र हैं।    (खंड -३/३४५ / शिकागो, 1894. आलासिंगा को लिखित )  

" भारत के लाख लाख अनाथों के लिए कितने लोग रोते हैं ? हे भगवान ! क्या हम मनुष्य हैं ? तुमलोगों के घरों के चारों तरफ पशुवत जो भंगी-डोम हैं , उनकी उन्नति के लिए क्या कर रहे हो ? बताओ न। उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें 'दूर' 'दूर'  कहकर भगा देते हो। क्या हम मनुष्य हैं ? (28 दिसम्बर, 1893. हरिपद मित्र को लिखित )  

["এখন হাজার চেষ্টা করলেও ভদ্রজাতেরা ছোট জাতদের আর দাবাতে পারবে না। এখন ইতর জাতদের ন্যায় অধিকার পেতে সাহায্য করলেই ভদ্রজাতদের কল্যাণ। বিবেকানন্দ ]

[মতামত কি অন্তর স্পর্শ করে ?কার্য কার্য -জীবন জীবন - মতে -ফতে এসে যায় কি ? ফিলসফি , যোগ , তপ , ঠাকুর-ঘর , আলোচাল, কলা-মুলো- এসব ব্যক্তিগত ধর্ম , পরোপকারই সর্বজনীন মহাব্রত - আবাল বৃদ্ধ বনিতা আচণ্ডাল , আপশু , সকলেই এ ধর্ম বুঝিতে পারে - বিবেকানন্দ পত্রাবলী ]

[বিদ্যাবুদ্ধি বাড়ার ভাগ -উপরে চাকচিক্য মাত্র ; সম্মস্ত শক্তির ভিত্তি হচ্ছে হৃদয়। হৃদয় যত দেখাতে পারবে ততই জয়। মস্তিষ্কের ভাষা কেউ কেউ বোঝে , হৃদয়ের ভাষা অব্রাহ্মসম্ভ পর্যন্ত সকলে বোঝে। তবে আমাদের দেশে মড়াকে চেতানো -দেরি হবে ; কিন্তু অপার অধ্যবসায় ও ধৈর্যবল যদি থাকে তো নিশ্চিত সিদ্ধি।]    

[আমাদের mission (কার্য) হচ্ছে অনাথ , দরিদ্র , মূর্খ, চাষা তুশোর জন্য ; আগে তাদের জণ্যে করে যদি সময় থাকে তো ভদ্রলোকের জন্যে। ওরা যখন বুঝতে পারবে নিজেদের অবস্থা, উপকার এবং উন্নতির আবশ্যকতা। তখনই তোমার ঠিক ঠিক কাজ হচ্ছে জানবে।]

[জনসাধারণকে যদি আত্মনির্ভরশীল হতে শেখানো না যায় , তবে জগতের সমগ্র ঐশ্বর্য ভারতের একটা ক্ষুদ্র গ্রামের পক্ষেও পর্যাপ্ত সাহায্য হবে না। আমাদের কাজ  হওয়া উচিত প্রধানতঃ শিক্ষাদান - চরিত্র এবং বুদ্ধি বৃত্তির উৎকর্ষ সাধনের জন্য শিক্ষা বিস্তার। 

[কোন দেশে কি হয় , কি হচ্ছে , এ দুনিয়াটা কি , তাদের যাতে চোখ খোলে , তাই চেষ্টা করো - -সন্ধ্যার পর , দিন দুপুরে -কত গরিব মূর্খ আছে , তাদের ঘরে ঘরে যাও - চোখ খুলে দাও। পুঁথি -পাতরার কর্ম নয় -মুখে মুখে শিক্ষা দাও। তারপর center এক্সটেন্টেড (কেন্দ্রের প্রসার ) কর। 

[জনসাধারণের মধ্যে শিক্ষাবিস্তার করিতে হইবে। কিন্তু তাহাতেও অসুবিধা আছে। যদি আমরা গ্রামে গ্রামে অবৈতনিক বিদ্যালয় খুলিতে সক্ষমও হই , তবু দরিদ্রঘরের ছেলেরা সেসব স্কুলে পড়িতে আসিবে না ; তাহারা বরং ঐ সময় জীবিকার্জনের জন্যে হালচাষ করিতে বাহিরে হইয়া পড়িবে। আমি ইহারই মধ্যে একটি পথ বাহির করেছি। তাহা এই - যদি পর্বত মহম্মদের নিকট না-ই আসে , তবে মহম্মদকেই পর্বতের নিকট যাইতে হইবে। দরিদ্র লোকেরা যদি শিক্ষার নিকট পৌছিতে না পারে , তবে শিক্ষাকেই চাষির লাঙলের কাছে , মজুরের কারখানায় এবং অন্যত্র সব স্থানে যাইতে হইবে।   ] 

[लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर , भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस  सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र उद्धार के सन्देश का , सेवा के सन्देश का , सामाजिक उत्थान के सन्देशका, समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। (पत्रा-१,८१ ) 

[যদি আমরা সকলেই অকুতোভয় হইয়া , হৃদয় কে দৃড় করিয়া ,ভাবের ঘরে এক বিন্দুও চুরি না করিয়া কাজে লাগিয়া যাই , তবে আগামী পঁচিশ বৎসরের মধ্যে আমাদের  সকল সমস্যার মীমাংসা হইয়া যাইবে। ]

অগ্নিমন্ত্রে দীক্ষিত একদল যুবক গঠন কর। তোমাদের উৎসাহাগ্নি তাহাদের ভিতর জ্বালিয়া দাও। আর ক্রমশঃ এই সংঘ বাড়াইতে থাকো , উহার পরিধি বাড়িতে থাকুক। পত্রিকা, সংবাদপত্র প্রভিতর পরিচালন ভাল , সন্দেহ নাই ; কিন্তু চিরকাল চিৎকার ও কলমপেশা অপেক্ষা প্রকৃত কার্য - যতই সামান্য হউক, অনেক ভাল।  

" शिक्षा किसे कहते हैं ? क्या वह पठन -मात्र है ? नहीं।  क्या वह नाना प्रकार का ज्ञानर्जन है ? नहीं यह भी नहीं। (निर्जन-वास या Be and Make' गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में) जिस मनःसंयोग के प्रशिक्षण के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है वह शिक्षा कहलाती है। 

" हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े , बुद्धि विकसित हो , और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे। 

" सारा संसार आलोक चाहता है - [अर्थात - अन्धकार से प्रकाश की ओर -मृत्यु से अमृतत्व की ओर जाना चाहता है। ] उसे भारत से बड़ी आशा है। एकमात्र भारत में ही यह आलोक है। यह आलोक रहस्य्पूर्ण निर्रथक धार्मिक अनुष्ठानों में या छल कपट में नहीं है। यह उन उपदेशों (चार महावाक्यों) में है जो यथार्थ धर्म के सार तत्व की महिमा की शिक्षा देती हैं। यही कारण है कि प्रभु ने इस राष्ट्र को इसके इतने सारे उतार-चढ़ावों के बावजूद आज भी सुरक्षित रखा है। अब वह समय -(2024 ?) आ उपस्थित हुआ है। मेरे वीरहृदय युवकों, यह विश्वास रखो कि अनेक महान कार्य करने के लिए तुम सब का जन्म हुआ है। कुत्तों के भूँकने से न डरो , नहीं - स्वर्ग के वज्र से भी न डरो। उठ खड़े हो जाओ।  और कार्य करते चलो। " (खंड-२/396 /31 अगस्त, 1894.आलासिंगा को लिखित

The whole world requires Light. It is expectant! India alone has that Light, not in magic, mummery, and charlatanism, but in the teaching of the glories of the spirit of real religion — of the highest spiritual truth (महावाक्य) . That is why the Lord has preserved the race through all its vicissitudes unto the present day. Now the time has come. Have faith that you are all, my brave lads, born to do great things! Let not the barks of puppies frighten you — no, not even the thunderbolts of heaven — but stand up and work!

[হে বীরহৃদয় যুবকবৃন্দ ! বিশ্বাস কর - তোমরা বড় বড় কাজ করার জন্যে জন্মেছ। কুকুরের ঘেও ঘেও ডাকে ভয় পেয়ো না - আকাশ থেকে প্রবল বজ্রাঘাত হলেও ভয় পেয়ো না -খাড়া হয়ে ওঠ; ওঠে কাজ করো।    

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স্বামী বিবেকানন্দের সংঘভাবনা : 

প্রকাশক : 

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল 

6/1 A, জাস্টিস মন্মথ মুখার্জী রো,

কলিকাতা - ৭০০০০৯

প্রথম প্রকাশ : ডিসেম্বর ২০১৯

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প্রকাশকের নিবেদন 

স্বামী বিবেকানন্দ অনুভব করেছিলেন, সমাজের কল্যাণ , উন্নতি বা তাকে ঠিকভাবে চালাতে হলে সংঘবদ্ধ চেষ্টার দ্বারাই তা সম্ভব। কিন্তু ভারতবর্ষে সঙ্ঘবদ্ধ হয়ে কাজ করবার শক্তির একান্ত অভাব। তাই তিনি তাঁর চিঠিপত্র ও বক্ত্রিতায় এ বিষয়ে যুবকদের উদ্বুদ্ধ করেছেন , এমনকি সংঘ পরিচালনার খুঁটিনাটি বিষয়েও নির্দেশ দিয়েছেন। তাঁর সেই প্রেরণাপ্রদ বাণীর কিয়দংশ এখানে সঙ্কলিত হল। 

যে সব যুবক দেশ গোড়ার কাজে নেমেছেন পুস্তিকাটি তাদের পথ দেখাবে ও প্রেরণা দেবে বলে আশা করি। 

পুস্তিকাটি প্রস্তুতিতে গুন্টুর জেলার শ্রীরামকৃষ্ণ সেবা সমিতি কৃতক প্রকাশিত ইংরেজি বই ' Vivekananda on Organization and Organized Work' -এর সহায় গ্রহণ করা হয়েছে। তাঁদের ধন্যবাদ জানাই। 

প্রকাশক 

ডিসেম্বর ২০১৯ 

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[2 अक्टूबर 2024 को चंदनपुर आनंद इंस्टीट्यूशन में एक दिवसीय शिविर/ One day camp at Chandanpur Anand Institution on 2nd October, 2024 / report on 3rd October 2024/ Teacher - Yugal Pradhan, Sukanto / 12 to 3.30 pm / Egra music / Digha Road -Egra Bus Stop / Inspite of Heavy rain on 2nd October -still 170 campers attended! Ranjeet Mahanti now Odisha in-charge.[श्रीरामकृष्ण का वेदान्त : लेखिका रंजीता साहा- झूमा, क्लोज़ टू नबनीदा,रनेन दा,   साऊथ कोलकाता भवानीपुर, यादवपुर, सुखेन-भूपेन -कम टू मेदनीपुर बाई जीप अपूर्वा, प्रमोद दा, दीपक दा।]  

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल  

      बड़कुमारदा शाखा। 

       (स्थापित -1984)  

समाज की इकाई है ;मनुष्य ! किन्तु हमलोग स्वामीजी के इस उपदेश को गंभीरता से लेने के बजाय केवल कुछ पश्चिमी शैली का किताबी ज्ञान प्राप्त करके भारतवर्ष को विकसित राष्ट्र बनाने में अधिक रुचि रखते थे। परिणामस्वरूप,स्वाभाविक अच्छे गुणों से विभूषित प्रबुद्ध नागरिकों का निर्माण नहीं हो सका। इसलिए आज (परिवार, समाज और) देश में सबसे बड़ी कमी चरित्रवान, ईमानदार, देशभक्त नागरिकों की है। 

तो अब उपाय? किसी को दोष दिए बिना अपना - अपना जीवन सुन्दर मनुष्य रूप (मानहूँष) से  गठित करना और दूसरों को 'मनुष्य' बनने में सहायता करना। यदि समाज में हममें से अधिकांश लोग- (सिंहभाग मनुष्य) अपने चारित्रिक दोषों से मुक्त होकर आत्मविश्लेषण द्वारा पवित्र मनुष्य बन सकें तो समाज और देश का सुधार होना- एक विकसित राष्ट्र का, महान भारत का निर्माण होना तय है।

इसका कोई विकल्प नहीं है ! 'Be and Make' के सिवा - मनुष्य बनने और बनाने के सिवा - इसका कोई विकल्प नहीं है ! स्वामी जी की इसी विचारधारा पर चलते हुए 1967 ई. से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल सम्पूर्ण भारत के विभिन्न राज्यों में 300 से अधिक केन्द्रों पर बालक, किशोर और युवाओं के बीच बिना किसी दिखावटी प्रचार-प्रसार के चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन (मनुष्य निर्माण) का कार्य कर रहा है।

महामण्डल की 'बड़कुमारदा शाखा' 1984 ई. से अपनी सीमित क्षमता के साथ इसी भावधारा को साकार रूप देने का कार्य कर रही है। इसी विचारधारा को प्रभावी रूप से साकार करने के लिए बुधवार 2 अक्टूबर 2024 को स्थानीय चंदनपुर आनंद इंस्टीट्यूशन में एक दिवसीय शिविर का आयोजन किया गया है। 9वीं कक्षा एवं उससे ऊपर के छात्र अथवा 14 वर्ष से अधिक आयु के युवाओं को कॉपी-कलम के साथ उक्त जीवन-गठन प्रशिक्षण शिविर (Life-building Training Camp) में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है। इस शिविर का उद्घाटन करेंगे गोलागढ़ श्रीरामकृष्ण चैरिटेबल ट्रस्ट के सचिव  स्वामी श्रद्धामयानन्द जी महाराज; एवं मुख्य अतिथि होंगे चंदनपुर आनंद इंस्टीट्यूशन के प्रिंसिपल श्री मन्मथ पाल महाशय। 

Public support (सार्वजनिक सहयोग) - शिविर को सफल बनाने के लिए सभी प्रकार के सहयोग की अत्यंत आवश्यकता है।

आपका सेवक 

श्री निताईचरण जाना, अध्यक्ष।

Mobile No -993-240-5463 

श्री सुनिर्मल जाना, सचिव

Mobile No -9609101746 

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, 

बड़कुमारदा शाखा। (स्थापित -1984)

शिविर के नियम-

1. उल्लिखित शर्तों के अनुसार इस शिविर में केवल पुरुष ही शामिल हो सकते हैं।

2. ज्वाइनिंग फीस 30 रुपये है। 

3. सुबह 10.30 बजे तक शिविर स्थल तक पहुंचना है और वहीं पर 11.30 बजे तक लंच लेना आवश्यक है। शिविर दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक चलेगा।

4. शिविर में नाम भेजने की अंतिम तिथि 30/09/2024 है।

5. सादे कागज में नाम, उम्र, कक्षा, मोबाइल नंबर, विद्यालय/संस्था प्रमुख की मुहर, और  हस्ताक्षर के साथ आवेदन पत्र भेजना आवश्यक है।

6. आप इटबाड़ीया से एगरा तक जाने वाले किसी भी ट्रैकर या बस से चंदनपुर आनंद इंस्टीट्यूशन पर उतर सकते हैं। आप खड़ूईमोड़ से टोटो के द्वारा भी शिविर-स्थल तक पहुँच  सकते हैं।

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TO- Bijay Kumar Singh: निमंत्रण पत्र:

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल

बड़कुमारदा शाखा

स्थापना - 1984

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महोदय/महोदया  

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के भावादर्श के अनुरूप विद्यार्थियों एवं युवाओं को अच्छा नागरिक बनाने के उद्देश्य से [चरित्रवान मनुष्य, प्रबुद्ध मनुष्य, या Enlightened Citizen- मानहूँष नागरिक बनाने के उद्देश्य से] बुधवार 02 अक्टूबर 2024 को दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक चंदनपुर आनंद इंस्टीट्यूशन में प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया जायेगा।

 गोलागढ़ श्री रामकृष्ण चेयरटेबल ट्रस्ट के सचिव परमपूज्य स्वामी श्रद्धामयानंद महाराज शिविर का उद्घाटन करेंगे। चंदनपुर आनंद संस्था के प्राचार्य श्री मन्मथ पाल मुख्य अतिथि का आसन सुशोभित करेंगे।

 विद्यालयों/संस्थानों के छात्रों , युवाओं से तथा आपसे अनुरोध है कि - इस शिविर में  सम्मिलित हों।

धन्यवाद

श्री नीताईचरण जाना, अध्यक्ष

श्री सुनिर्मल जाना,  संपादक

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल

बड़कुमारदा शाखा। 

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कैम्प का निमंत्रण पत्र: लिफ़ाफ़ा

प्रेषक

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल

बाराकुमारदा शाखा

स्थापना - 1984



वीर सेनापति के रूप में खड़े स्वामीजी का फोटो


माननीय,

श्री विजय कुमार सिंह, उपाध्यक्ष

पता - अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल

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Teacher : Yugal pradhan , Sukanto,12 to 3.30 pm / Egra  music/ Heavy rain on 2nd October -still 170 campers attended!    

2 अक्टूबर 2024 को चंदनपुर आनंद इंस्टीट्यूशन में एक दिवसीय शिविर

Alkhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal 

vill- Badkumarda Branch. 

(Established - 1984)

khadakpur-digha -Egra /bus stop

Chandanpur Anand Institution

Po : Chandanpur, 

Ps : Patashpur, 

Sub Division : Contai, 

Dist : Purba Medinipur, Contai, Midnapore - 721401

সমাজের একক হলো ; মানুষ। স্বামীজীর এই কথাকে আমূল না দিয়ে, কেবলমাত্র পাশ্চাত্য ভাবাপন্ন কতকগুলি কেতাবি বিদ্যা অর্জন করে ভারতবর্ষকে উন্নত করতে আমরা বেশি আগ্রহী ছিলাম।  ফলে প্রকৃত সুনাগরিক গুণসম্পন্ন মানুষ গড়ে ওঠেনি। তাই আজ অভাব হলো চরিত্রবান , সত্যনিষ্ঠ , দেশপ্রেমী মানুষের।  

তাহলে উপায়? কাউকে দোষারোপন না করে নিজ নিজ জীবন গড়ে তোলা এবং অপরকে মানুষ হতে সাহায়্য করা। আমরা সমাজের সিংহভাগ মানুষ যদি আত্ম বিশ্লেষণের মাধ্যমে নিজেদের ত্রুটি মুক্ত করে যথার্থ মানুষ হয়ে উঠতে পারি, তাহলে সমাজ তথা দেশ উন্নত হতে বাধ্য।

 এর কোনো বিকল্প নেই।  স্বামীজীর এই ভাবাদর্শকে পাথেয় করে ১৯৬৭ খিষ্টাব্দ হতে সারা ভারতবর্ষে বিভিন্ন রাজ্যে তিনশতাধিক কেন্দ্রে শিশু, কিশোর, যুবকদের নিয়ে কোনপ্রকার প্রচারের আলোয় না গিয়ে , মানুষ গড়ার কাজের প্রচেষ্টা, অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল করে চলেছে।    

বড়কুমারদা শাখা : ১৯৮৪ খ্রিষ্টাব্দ হতে অনুরূপ ভাবধারায় বড়কুমারদা শাখা তার সীমিত সামর্থ্যে কাজ করে চলেছে।   এই ভাবধারার সার্থক রূপায়ণে আগামী ২রা অক্টোবর, ২০২৪ বুধবার স্থানীয় চন্দনপুর আনন্দ ইনস্টিটিউশনে একদিনের শিবিরের আয়োজন করা হয়েছে। নবম শ্রেণী হতে তদুর্ধে অথবা ১৪ বৎসরের অধিক যুবকদের উক্ত শিবিরের হাতে কলমে ব্যক্তি জীবন গড়ার প্রশিক্ষণের জন্যে যোগদানের আহ্বান জানানো হচ্ছে| 

সর্বসাধারণের সহযোগিতা - উক্ত শিবিরটি সার্থক করতে সর্বসাধরনের সহযোগিতা সাহায্য একান্ত কাম্য।  

আপনাদের সেবক 

শ্রী নিতাইচরণ জানা, সভাপতি।

993-240-5463

শ্রী সুনির্মল জানা, সম্পাদক 

9609101746 

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল 

বড়কুমারদা শাখা।  

শিবিরের নিয়মাবলী - 

১. উল্লিখিত শর্তানুযায়ী কেবলমাত্র পুরুষেরা এই শিবিরে যোগদান করতে পারবেন। 

২. যোগদানের ফী ৩০ টাকা। 

৩. সকাল ১০.৩০ মিনিটের মধ্যে শিবিরে উপস্থিত হয়ে ১১.৩০ মিনিটের মধ্যে দুপুরের আহার গ্রহণ করা আবশ্যক। দুপুর ১২টা হতে বিকাল ৩টা পর্যন্ত শিবির চলবে। 

৪. শিবিরের নাম পাঠানোর শেষদিন ৩০/০৯/২০২৪। 

৫. সাদা কাগজ নাম , বয়স , শ্রেণী , মোবাইল নম্বর , বিদ্যালয় /প্রতিষ্ঠানের প্রধানের শীল, স্বাক্ষর আবেদন প্রয়োজন। 

৬. ইটবাড়িয়া হতে এগরা যে কোন ট্রাকরে , বাসে চন্দনপুর আনন্দ ইনস্টিটিউশনে নামা যাবে। খডুইমোড় হতে টোটো করে ও আসা যাবে।

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নিমন্ত্রণ পত্র : Envelop 

Sender  

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল

বড়কুমারদা শাখা 

স্থাপিত - ১৯৮৪ 

স্বামীজী স্ট্যান্ডিং ফোটো as বীর সেনাপতি  

মাননীয়,

শ্রী/শ্রীযুত - বিজয় কুমার সিংহ , Vice -President 

ঠিকানা - অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডল 

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নিমন্ত্রন পত্র :

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল

বড়কুমারদা শাখা 

স্থাপিত - ১৯৮৪

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মহাশয় /মহাশয়া,

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডলের ভাবাদর্শে, বড়কুমারদা শাখার পরিচালনায় আগামী ০২রা অক্টোবর, ২০২৪ বুধবার চন্দনপুর আনন্দ ইনস্টিটিউটিশনে দুপুর ১২ টা হতে বিকাল ৩টা পর্যন্ত ছাত্র ও যুবকদের নিয়ে সুনাগরিক হয়ে গড়ে তোলার লক্ষে একটি প্রশিক্ষণ শিবির অনুষ্ঠিত হবে। 

     শিবিরটি উদ্বোধন করবেন গোলাগড় শ্রীরামকৃষ্ণ চইরিটেবিল ট্রাস্টের সম্পাদক পরমপূজ্য স্বামী শ্রদ্ধাময়ানন্দ মহারাজ। প্রধান অতিথির আসন অলংকৃত করবেন শ্রী মন্মথ পাল , প্রধান শিক্ষক , চন্দনপুর আনন্দ ইনস্টিটিটিউশন। 

   বিদ্যালয় /প্রতিষ্ঠানের ছাত্র -যুবকদের ও আপনাদের যোগদানের আবেদন জানাই। 

ধন্যবাদন্তু 

শ্রী নিতাইচরণ জানা, সভাপতি 

শ্রী সুনির্মল জানা 

সম্পাদক 

অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল 

বড়কুমারদা  শাখা

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 कोन्नगर महामण्डल शाखा के सहायक सचिव श्री अभिजीत घोष महाशय द्वारा 27 जुलाई, 2024 को दिए गए भाषण का, सुदीप विश्वास द्वारा, 22 सितम्बर, 2024 को कोन्नगर में किये गए बंगला संकलन का हिन्दी अनुवाद  -    

আমরণ কাজ করে যাও - আমি তোমাদের সঙ্গে সঙ্গে রয়েছি, আর আমার শরীর চলে গেলেও আমার শক্তি তোমাদের সঙ্গে কাজ করবে। - স্বামী বিবেকানন্দ 

চরিত্র গঠন 

স্বামীজীর একটি কথা আছে মনের মত কাজ পেলে সবাই তা করতে পারে। কিন্তু কাজ সবসময় মনের মত নাও হতে পারে। সাংগঠনিক কাজ মনের মত না হলেও তা করা আমাদের একান্ত কর্তব্য। সাংগঠনিক কাজে শৈথিল্য দেখানোর অর্থ হলো - 'খাচ্ছে কিন্তু গিলছে না।' 

[आत्मश्रद्धा -आत्मसम्मान-स्वाभिमान ???]মহামন্ডল আসছি, শিবিরেও যোগদান যোগদান করছি কিন্তু চরিত্রগঠন ঠিকমতো করছি না। তাই আঁটটা আসছে না। ব্যক্তিগত জীবনে তার ছাপ পড়ছে। মহামন্ডলের কাজও নিজের কাজ। আমি আমার প্রয়োজনে মহামণ্ডল আসি, মহামণ্ডলের প্রয়োজনে আসি না। এই ভাব নিয়ে ঠিক ঠিক কাজ করতে হবে। তাতে আত্মশ্রদ্ধা বাড়বে। আর আত্মশ্রদ্ধা না থাকলে কোন কিছুই হবে না।   

আস্তিক্য বুদ্ধি, positive frame of mind -এসবের প্রয়োজন। যে খুব দুঃখী মানুষ তাঁর মনে অবিশ্বাস বাসা বাঁধে, বিশ্বাস চলে যায়। সবকিছুতেই সংশয় দেখা দেয়। সকলকে বিশ্বাস করা দরকার। যে নিজে মিথ্যা কথা বলেনা, সে সকলকে বিশ্বাস করে. সংগঠনে সদস্যদের নিজেদের মধ্যে বিশ্বাস থাকা দরকার। নিজেদের মধ্যে ঠোকাঠুকি চললে বুঝতে হবে পারস্পরিক অবিশ্বাস গেড়ে ওঠেছে। সব খারাব ভাব থেকে বেরোতে হবে। কেউ যদি না করে নিজেকেই করতে হবে।   

পরিষ্কার পরিচ্ছন্নতার ব্যাপারেও খুব ধ্যান দিতে হবে। সংগঠনের ঘর যেন খুব পরিছন্ন থাকে। সব জিনিস বেশ গুছিয়ে রাখতে হবে। চালাকির দ্বারা কোন কাজ করা সম্ভব নয়। অজুহাতকে দূরে সরিয়ে রাখতে হবে। সময়ের কাজ সময়ে শেষ করতে হবে। মহামন্ডল করবো অথচ অপদার্থ হবো এ হতে পারে না। 

      ক্রোধ যথাসাধ্য পরিত্যাগ করতে হবে। ক্রোধ প্রয়োগ করে সমালোচনা করা একেবারে বন্ধ করতে হবে। বার বার মনের মধ্যে সঙ্কল্প নিতে হবে। মনের মধ্যে বারে বারে  warning  দিতে হবে।     

    কোনোরকমের অশুভ বুদ্ধি মনের মধ্যে আসতে দেওয়া চলবে না। সৎ বুদ্ধি প্রয়োগ, সদালাপ , সদগ্রন্থ পাঠ ইত্যাদির মাধ্যমে এবং সাপ্তাহিক পাঠচক্রে নিয়মিত উপস্থিত থেকে সক্রিয় অংশগ্রহণ মাধ্যমে চরিত্রকে উন্নততর করে তুলতে হবে। এগুলো ঠিকমতো করলে চরিত্রগঠনের প্রথম ধাপে পা রাখলাম বলা চলে।  

[অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের , কোন্নগর শাখার সহকারী সাধারণ সম্পাদক শ্রী অভিজিৎ ঘোষ মহাশয়ের ২৭শে জুলাই ,২০২৪ তারিখে মহামণ্ডল ভবনে প্রদত্ত ভাষণের স্মৃতিলিখন।   ]        

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সূচিপত্র 

১) সংঠন 

২) যোগ্য কর্মীদল 

৩) কিছু বিপদ সঙ্কেত 

৪) প্রশিক্ষণ 

৫) পরিকল্পনার বাস্তবায়ন 

৬) জনসাধারণের উন্নতিবিধান 

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"मरते दम तक कार्य करते रहो – मैं तुम्हारे साथ हूँ और जब मैं चला जाऊँगा, तो मेरी आत्मा तुम्हारे साथ काम करेगी। "- स्वामी विवेकानंद 

[धन, नाम, यश और सुखभोग तो केवल दो दिन के हैं। संसारी कीट की भाँति मरने की अपेक्षा कर्त्तव्य क्षेत्र में सत्य का प्रचार करते हुए मर जाना कहीं अधिक श्रेष्ठ है- लाख गुना अधिक श्रेष्ठ है। आगे बढो।

" जीवन साइकिल की तरह है , संतुलन बनाये रखने के लिए चलते रहो !" - आइंस्टाइनउन्होंने यह बात 5 फरवरी 1930 को अपने बेटे एडुआर्ड को लिखे एक पत्र में लिखी थी।

    (महावाक्यों पर संदेह की स्थिति में भी - आगे बढ़ो। चाहे कुछ भी हो - आगे बढ़ो। जीवन साइकिल चलाने जैसा है: अगर हम चलते रहें तो हम गिरने से बच सकते हैं। केवल कुछ ही ट्रिक-राइडर स्थिर रह सकते हैं, और गिरे नहीं। इस तकनीक को “ट्रैक स्टैंड” या “स्टैंडस्टिल” कहा जाता है, लेकिन इसके लिए सावधानीपूर्वक अभ्यास की आवश्यकता होती है)। 

>>मैं जैसे ही  कुछ होने (becoming) की दौड़ छोड़ता हूँ - कुछ होने (becoming) की दौड़ जैसे ही जाती है, कि मैं हो आता (being) हूँ । और 'हो आना' [किसी एक M/F देह से, किसी एक नाम-रूप से आसक्ति विहीन 'ईश्वर'-शब्द और अर्थ की तरह अविभाज्य ]- पूरे अर्थों में  हो आना ही मुक्ति है। 

[अहमद नगरी नाम मोहम्मद , इतना पता मोहे दे गयो रे। पिया प्यारो हमारो दिल ले गयो रे ! ‘मुहम्मद’ का अर्थ होता है ‘जिस की अत्यन्त प्रशंसा की गई हो'।]  

(या मतिः सा गतिर्भवेत्-) " जो अपने को मुक्त कहता है, वही मुक्त होगा और जो यह कहता है कि मैं बद्ध हूँ , वह बद्ध ही रहेगा। मेरे मतानुसार अपने को दीन हीन समझना पाप तथा अज्ञता है। 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः'- दुर्बल व्यक्ति इस आत्मतत्व को प्राप्त नहीं कर सकता। " अस्ति ब्रह्म वदसि चेत् अस्ति भविष्यसि, नास्ति ब्रह्म वदसि चेत् नास्त्येव भविष्यसि। " (-तैत्तिरीयोपनिषद्)-यदि कहो कि ब्रह्म-आत्मा है, तो अस्ति स्वरुप हो जाओगे और यदि कहो कि ब्रह्म -आत्मा नहीं है, तो नास्ति -स्वरुप हो जाओगे। जो सदा अपने को दुर्बल समझता है, वह कभी भी शक्तिशाली नहीं बन सकता ; और जो अपने को सिंह समझता है, वह 'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी' - पिंजरे से सिंह की तरह इस जगत रूपी जाल को भेदकर, माया की सीमा (देश -काल-निमित्त) को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल जाता है । (स्वामी रामकृष्णानन्द को लिखितपत्रावली पृष्ठ ३२९ -) [वैराग्य न आने पर, त्याग न होने पर, भोगस्पृहा का त्याग*  न होने पर, क्या कुछ होना सम्भव है? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो।  (स्वामी शिष्य संवाद : खण्ड- 6, पृष्ठ 164)-[भोगस्पृहा ~ चौथेपन में चौधरी ब्रदर्स जगदीश दारुकामें ^*नाम-यश रूपी मिल्क-चॉकलेट की कामना से Bh/बड़ा अईला छाप दाग़/ धन में आसक्ति छोटा अईला   लग जाती है,  सेठ, भी कुछ लोग ईश्वर (समाधि) त्याग कर देते हैं।] भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द  * স্বামীজির দেওয়া আদর্শ * स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [18 A] 🔱🙏       

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भारत का कल्याण करने के उद्देश्य से श्री रामकृष्ण का कार्य करने के लिए युवा संघ क्यों बनाना चाहिए ?

" भारत में तीन मनुष्य एक साथ मिलकर पाँच मिनट के लिए भी कोई काम नहीं कर सकते। हर एक  मनुष्य अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है और अन्त में संगठन की दुरवस्था हो जाती है। ऐसे देश में ऐसे व्यक्तियों का एक संगठन निर्माण करना, जो (74 वर्षों से) परस्पर मतभेद रखते हुए भी अटल प्रेमसूत्र से बँधे हुए हों क्या एक आश्चर्यजनक बात नहीं है ? [२/३२५] 

" Be and Make ' पूर्णता का मार्ग यह है कि स्वयं पूर्णता को प्राप्त होना, तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्णता प्राप्त करने में सहायता करना। लोक-कल्याण (भारत का कल्याण) के बारे में मेरी धारणा यह है कि कुछ असाधरण योग्यता के मनुष्यों का निर्माण /विकास करूँ , न कि 'भैंस के आगे बीन बजाकर समय , स्वास्थ्य और शक्ति का अपव्यय करूँ। " [२/३३२] 

" शिक्षित युवकों को प्रभावित करो, उन्हें एकत्रित करो और संघबद्ध करो। बड़े बड़े काम केवल बड़े बड़े स्वार्थ-त्यागों से ही हो सकते हैं। स्वार्थपरता की आवश्यकता नहीं, नाम की भी नहीं , यश की भी नहीं। तेजस्वी युवकों का दल गठन करो और अपनी उत्साहाग्नि उनमें प्रज्ज्वलित करो। और क्रमशः इसकी परिधि का विस्तार करते इस संघ को बढ़ाते रहो। अपने भाइयों का नेता बनने की कोशिश मत करो , बल्कि उनकी सेवा करते रहो। नेता बनने की इस पाशविक प्रवृत्ति ने जीवनरूपी समुद्र में अनेक बड़े बड़े जहाजों को डूबा दिया है। " [२/३५६-३५७ ]   

" नेता - एक चरित्र, एक जीवन, एक केंद्र, एक ईश्वरीय पुरुष ही मार्गदर्शन करेंगे। इसी केंद्र के चारों ओर अन्य सभी उपादान एकत्र हो जायेंगे एवं एक प्रलयंकर महातरंग की तरह समाज पर जा गिरेंगे। वह केंद्र , मार्गदर्शक उस देवमानव का जन्म भारत में ही हुआ। वे थे महान नेता -श्री रामकृष्ण परमहंस। इसके लिए अब एक संगठन की आवश्यकता है। [२/३६७] 

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योग्य कर्मीदल का निर्माण 

" जो लोग ईश्वर [अवतार वरिष्ठ] के शरणागत हैं, धर्म, अर्थ काम तथा मोक्ष उन लोगों के पैरों तले हैं, मा भै: मा भै : - डरो मत ! सब कुछ धीरे धीरे हो जायेगा। बड़प्पन या अपने को बहुत बड़ा समझना, दलबंदी (गुटबाजी) या ईर्ष्या को सदा के लिए त्याग दो। पृथ्वी की तरह सबकुछ सहन करने की शक्ति अर्जन करो। यदि यह कर सको, तो दुनिया अपने आप तुम्हारे चरणों में आ गिरेगी। [३/३२०]          

" श्री रामकृष्ण परमहंस देव का आविर्भाव जगत का कल्याण [भारत का कल्याण] के लिए ही हुआ था। अपनी अपनी भावना के अनुसार उनको तुम मनुष्य, ईश्वर , अवतार [अवतार वरिष्ठ ] -जो कुछ कहना चाहो -कह सकते हो। 'जो कोई भी उनको प्रणाम करेगा, तत्काल वह स्वर्ण बन जायेगा। अब तक तुमने उनके नाम तथा अपने चरित्र का जो प्रचार किया है , वह ठीक है ; अब संगठित होकर प्रचार करो। [३/३०१] 

" मैं इस निष्कर्ष पर पहुँच गया हूँ कि संसार में केवल एक ही देश है, जो धर्म को समझ सकता है -वह देश है भारत ! हिन्दू अपनी सम्पूर्ण बुराइयों के बावजूद नीति एवं अध्यात्म में दूसरे राष्ट्रों से बहुत ऊँचे हैं। पाश्चात्य देशों के वीरोचित तत्वों को हिन्दुओं के शांत गुणों के साथ मिलाते हुए एक समय मानव-समुदाय की रचना की जा सकती है , जो इस संसार में अब तक पैदा हुई किसी भी जाति से यह समुदाय कई गुना महान होगा। " [३/३०२ ] 

" यदि किसी धर्म के आचरण से धन की प्राप्ति हो , रोग दूर होते हों , सौंदर्य तथा दीर्घजीवन लाभ की सम्भावना हो, तभी वे उस ओर झुकेंगे, अन्यथा नहीं। [३/३०४]

" सदा याद रखो कि श्री रामकृष्ण संसार (भारत) के कल्याण के लिए आये थे - नाम यश के लिए नहीं। वे जो कुछ सिखाने आये थे, केवल उसी का प्रसार करो। उनके नाम की चिंता न करो -वह अपने आप ही होगा। " [३/३११]  

" भारत ही हमारा कार्यक्षेत्र है, और विदेशों में हमारे कार्य का महत्व इतना ही है कि इससे भारत जाग्रत हो जाये। [३/३१६ ] 
 "संगठन एवं मेल ही पाश्चात्य देशवासियों की सफलता का रहस्य है। यह तभी सम्भव है, जब परस्पर भरोसा, सहयोग और सहायता का भाव हो। [३/३२८ ]