ब्रह्मानन्दे आत्मानन्दोनाम - द्वादशः परिच्छेदः । [90 -श्लोक]
अध्याय 12
[87 or 90 -श्लोक]
आत्मानन्द - स्वयं का आनन्द
जैसा कि पिछले अध्याय में बताया गया है, योगी को ब्रह्मानंद का अनुभव होता है। इस अध्याय में अज्ञानी व्यक्ति द्वारा अनुभव किए जाने वाले आनंद का परीक्षण किया गया है।
नन्वेवं वासनानन्दाद्ब्रह्मानन्दादपीतरम् ।
वेत्तु योगी निजानन्दं मूढस्यात्रास्ति का गतिः ॥ १॥
** (प्रश्न): यह ठीक है कि पूर्वोक्त तरीके से कोई योगी [ब्रह्मानंद एवं वासनानन्द से भिन्न ] अपने वास्तविक स्वरुप के आनंद का अनुभव कर सकता है, जो सुषुप्ति अवस्था के मानसिक निष्क्रियता (mental quiescence) से भिन्न है, किन्तु इस जगत में अज्ञानी व्यक्ति की क्या गति होगी ?
✅** (Question): A Yogī can enjoy the natural bliss of the Self which is different from the bliss of mental quiescence and the bliss of deep sleep; but what will happen to the ignorant man? ✅
धर्माधर्मवशादेष जायतां म्रियतामपि ।
पुनः पुनर्देहलक्षैः किं नो दाक्षिण्यतो वद ॥ २॥
** (उत्तर): अज्ञानी प्राणी असंख्य शरीरों में पैदा होते हैं और वे बार-बार मरते रहते हैं - यह सब उनके धार्मिक या अधर्मी कर्मों के कारण होता है। बताओ ,तब उनके प्रति सहानुभूति रखने का क्या उपयोग है ? ✅
** (Reply): The ignorant are born in innumerable bodies and they die again and again – all owing to their righteous or unrighteous deeds. What is the use of our sympathy for them?
अस्ति वोऽनुजिघृक्षुवाद्दाक्षिण्येन प्रयोजनम् ।
तर्हि ब्रूहि स मूढः किं जिज्ञासुर्वा पराङ्मुखः ॥ ३॥
** (शंका) :क्यों ,सदगुरु अपने अज्ञानी शिष्यों की सहायता करने की इच्छा के कारण भी तो उनके लिए कुछ कर सकता है।
(उत्तर) : तब तो आपको यह बताना होगा कि क्या वे आध्यात्मिक सत्य सीखने के लिए इच्छुक हैं या अनिच्छुक हैं ?
** (Doubt): Because of the desire of the teacher to help his ignorant pupils he can do something for them. (Reply): Then you must tell whether they are willing to learn the spiritual truth or are averse to it. ✅
उपास्तिं कर्म वा ब्रूयाद्विमुखाय यथोचितम् ।
मन्दप्रज्ञं तु जिज्ञासुमात्मानन्देन बोधयेत् ॥ ४॥
** यदि वे अभी भी बाह्य वस्तुओं [ऐषणा -कामिनी-कांचन] में आसक्त हैं, तो उनके लिए कोई उपयुक्त प्रकार की पूजा या अनुष्ठान निर्धारित किया जा सकता है। दूसरी ओर, यदि वे आध्यात्मिक रूप से कमजोर होते हुए भी - सत्यार्थी हैं ! जिज्ञासु हैं, यानी परम् सत्य को जानने की तीव्र इच्छा रखते हैं, तो उन्हें आत्मानंद के ज्ञान में प्रशिक्षित किया जा सकता है।
** If they are still devoted to external objects, some suitable kind of worship or ritual can be prescribed for them. If, on the other hand, they, though spiritually dull, desire to learn the truth, they can be instructed in the knowledge of the bliss of the Self. ✅
बोधयामास मैत्रेयीं याज्ञवल्क्यो निजप्रियाम् ।
न वा अरे पत्युरर्थे पतिः प्रिय इतीरयन् ॥ ५॥
** याज्ञवल्क्य ने अपनी प्रिय पत्नी मैत्रेयी को यह निर्देश देते हुए कहा था कि ‘पत्नी अपने पति से उसके लिए प्रेम नहीं करती।’
** Yājñavalkya instructed this by pointing out to his beloved wife, Maitreyī, that ‘a wife does not love her husband for his sake’. ✅
पतिर्जाया पुत्रवित्ते पशुब्राह्मणबाहुजाः ।
लोका देवा वेदभूते सर्वं चात्मार्थतः प्रियम् ॥ ६॥
** पति, पत्नी या पुत्र, धन या पशु, ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व, विभिन्न लोक, देवता, वेद, तत्व और अन्य सभी वस्तुएँ व्यक्ति को अपने स्वयं के लिए प्रिय हैं। ✅
** The husband, wife or son, riches or animals, Brahmanahood or Kshatriyahood, the different worlds, the gods, the Vedas, the elements and all other objects are dear to one for the sake of one’s own Self. ✅
बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि हर व्यक्ति दूसरों से केवल अपने सुख के लिए प्रेम करता है, न कि उस व्यक्ति के सुख के लिए जिससे प्रेम किया जाता है। पति, पत्नी, पुत्र, धन, पशु तथा अन्य सभी वस्तुओं से प्रेम केवल इसलिए किया जाता है क्योंकि वे सुख देती हैं। यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि जब किसी व्यक्ति की पत्नी या पुत्र उसकी इच्छा के विपरीत कार्य करते हैं, तो वह उन्हें पसंद नहीं करता। यहां तक कि एक कट्टर कंजूस व्यक्ति भी अपने जीवन को खतरे में डालने वाली बीमारी से खुद को ठीक करने के लिए अपना सारा धन खर्च करने को तैयार हो जाता है, जिससे यह पता चलता है कि उसका अपने प्रति प्रेम धन के प्रति प्रेम से अधिक महत्व- पूर्ण है। अन्य सभी वस्तुएं तभी तक प्रिय होती हैं जब तक वे व्यक्ति के अपने सुख में योगदान करती हैं। इसलिए अन्य सभी व्यक्ति और वस्तुएं केवल व्यक्ति के अपने सुख के साधन हैं, और उन्हें अपने लिए नहीं चाहा जाता; लेकिन सुख की इच्छा अपने लिए होती है, न कि किसी अन्य चीज के साधन के रूप में।
श्मश्रुकण्टकवेधेन बालो रुदति तत्पिता ।
चुम्बत्येव न सा प्रीतिर्बालार्थे स्वार्थ एव सा ॥ ९॥
जब कोई बच्चा अपने पिता द्वारा चूमा जाता है, तो वह पिता की दाढ़ी से चुभने के कारण दर्द महसूस करता है और रोता है, लेकिन पिता बच्चे को चूमता रहता है क्योंकि उसे ऐसा करने से खुशी मिलती है। - यह प्रेम बच्चे के लिए नहीं बल्कि अपने लिए है। ✅
** A child, when kissed by its father, may cry, being pricked by the latter’s bristly beard, still its father goes on kissing the child – it is not for its sake but for his own. ✅
यह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि सारा प्रेम केवल अपने सुख के लिए होता है। सुख के साधनों के प्रति प्रेम एक वस्तु से दूसरी वस्तु की ओर स्थानांतरित होता रहता है, लेकिन स्वयं के प्रति प्रेम हमेशा एक जैसा रहता है।
रोगक्रोधाभिभूतानां मुमूर्षा वीक्ष्यते क्वचित् ।
ततो द्वेषाद्भवेत्त्याज्य आत्मेति यदि तन्न हि । 26
** (संदेह): जब लोग बीमारी या क्रोध से अभिभूत हो जाते हैं और मरने की इच्छा करते हैं तो वे क्या स्वयं से घृणा करने लगते हैं ?
(उत्तर): ऐसा नहीं है. यहां तक कि जब कोई व्यक्ति गरीबी, बीमारी, अपमान या किसी अन्य कारण से अपना जीवन समाप्त करना चाहता है, तो वह शरीर से छुटकारा पाना चाहता है, स्वयं से नहीं। इसलिए स्वयं ही सभी के लिए सबसे प्रिय है।** (Doubt): People begin to hate the Self when they are overpowered by disease or anger and wish to die. (Reply): This is not so. ✅
बाधमेतावता नात्मा शेषो भवति कस्य चित् ।
गौणमिथ्यामुख्यभेदैरात्मायं भवति त्रिधा ॥ ३६॥
** ठीक है, लेकिन ये ग्रंथ आत्मा को कम महत्वपूर्ण साबित नहीं करते। यह याद रखना चाहिए कि 'स्व' शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया जाता है, प्रतीकात्मक (figurative -गौण), भ्रामक, मायावी (illusory -मिथ्या, सम्मोहित) और मौलिक (fundamental-आधारभूत, मुख्य)। ✅
** All right, but these texts do not prove the Self to be less important. It is to be remembered that the word ‘Self’ is used in three senses, figurative (gauṇa), illusory (mithyā) and fundamental (mukhya). ✅
देवदत्तस्तु सिंहोऽयमित्यैक्यं गौणमेतयोः ।
भेदस्य भासमानत्वात्पुत्रादेरात्मता तथा ॥ ३७॥
** 'देव-दत्त एक सिंह है' (Deva-datta is a lion)कहने में, देवदत्त नामक व्यक्ति की पहचान सिंह के रूप में करना अलंकारिक है। इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि देवदत्त में भेंड़ के (जैसा में -में करने का?) नहीं, बल्कि सिंह के कुछ गुण जैसे - साहस, ऐश्वर्य आदि विद्यमान हैं। क्योंकि भेंड़ और सिंह के बीच का अंतर भी स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। शास्त्रों में कभी-कभी पुत्र की पहचान उसके पिता की आत्मा के रूप में की जाती है। यह पहचान आलंकारिक है।
स्याद्व्याघ्रः संमुखो द्वेष्यो ह्युपेक्ष्यस्तु पराङ्मुखः ।
लालनादनुकूलश्चेद्विनोदायेति शेषताम् ॥ ५०॥
जब बाघ मनुष्य का सामना करता है, तो उससे घृणा की जाती है; जब वह दूर होता है, तो उसकी उपेक्षा की जाती है; और जब उसे वश में कर लिया जाता है और मित्रवत बना दिया जाता है, तो वह प्रसन्नता का कारण बनता है; इस प्रकार वह मनुष्य से संबंधित हो जाता है और उससे प्रेम किया जाता है।
When a tiger confronts man, it is hated; when it is away, it is disregarded; and when it has been tamed and made friendly, it causes joy; thus it is related to him and is loved. ✅
जब किसी पद [post-BDO] को गलत तरीके से मनुष्य (व्यक्ति -पोस्टमास्टर) मान लिया जाता है तो उसकी पहचान भ्रामक होती है। शरीर और मन के साथ स्वयं की पहचान जो पाँच कोशों का निर्माण करती है, इसी श्रेणी में आती है।
When a post is wrongly taken to be a man the identification is illusory. The identification of the self with the body and mind which constitute the five sheaths falls under this category.
श्रौत्या विचारदृष्ट्यायं साक्ष्येवात्मा न चेतरः ।
कोषान्पञ्च विविच्यान्तर्वस्तुदृष्टिर्विचारणा ॥ ५४॥
** श्रुति का अनुसरण करने वाली विवेक-चक्षु से यह स्पष्ट हो जाता है कि साक्षी-चेतना ही वास्तविक आत्मा है। विवेक का अर्थ है पांचों कोशों को अलग करना और भीतर के पदार्थ को देखना। 'आत्म' शब्द का प्राथमिक अर्थ शुद्ध, बिना शर्त साक्षी-चेतना या अद्वैत ब्रह्म है।
✅** Through the eye of discrimination following the Śruti it becomes clear that the witness-consciousness is the real Self. Discrimination means separating the five sheaths and seeing the inner substance. ✅
जब कोई व्यक्ति स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से यज्ञ करता है, तो उसे पता होता है कि उसका सूक्ष्म शरीर ही स्वर्ग जाएगा, न कि उसका भौतिक शरीर। इस प्रकार वह अपने सूक्ष्म शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है।
मुक्ति का आकांक्षी यह अनुभव करने का प्रयास करता है कि वह शुद्ध, निर्विकार आत्मा है। यहाँ 'आत्मा' शब्द का प्रयोग उसके मूल अर्थ में किया गया है।
साक्ष्येव दृश्यादन्यस्मात्प्रेयानित्याह तत्त्ववित् ।
प्रेयान्पुत्रादिरेवेमं भोक्तुं साक्षीति मूढधीः ॥ ५९॥
** बुद्धिमान व्यक्ति का मानना है कि साक्षी-चेतना, सभी वस्तुओं से अधिक प्रिय है। मंदबुद्धि मनुष्य यह मानता है कि पुत्र तथा अन्य वस्तुएँ अधिक प्रिय हैं तथा साक्षी-चेतना इन वस्तुओं के कारण सुख भोगती है। ✅
** The wise man holds that the witness-consciousness, is dearer than all objects. The dull-witted man maintains that son and other objects are dearer and that the witness-consciousness enjoys the happiness caused by these objects. ✅
सर्वोच्च प्रेम मूल आत्मा के प्रति महसूस किया जाता है। आत्मा से जुड़ी हर चीज़ से प्रेम किया जाता है, लेकिन उनके प्रति प्रेम सीमित होता है और उनके द्वारा खुशी देने पर निर्भर करता है। अन्य चीज़ों के लिए कोई प्रेम महसूस नहीं किया जाता।
यस्तु साक्षिणमात्मानं सेवते प्रियमुत्तमम् ।
तस्य प्रेयानसावात्मा न नश्यति कदाचन ॥ ६८॥
** जो साक्षी आत्मा को सभी वस्तुओं में सबसे प्रिय मानता है, वह पाएगा कि इस प्रियतम आत्मा का कभी विनाश नहीं होता। ✅
** He who contemplates the witness Self as the dearest of all objects will find that this dearest Self never suffers destruction. ✅
विभिन्न भोग-पदार्थों के प्रति प्रेम की मात्रा उनकी आत्मा से निकटता के अनुसार भिन्न-भिन्न होती है। धन से अधिक प्रिय पुत्र है, पुत्र से अधिक प्रिय अपना शरीर है, शरीर से अधिक प्रिय इन्द्रियाँ हैं, इन्द्रियों से अधिक प्रिय प्राण हैं तथा अन्य सभी वस्तुओं से अधिक प्रिय आत्मा है।
एक विवाहित दम्पति को पुत्र प्राप्ति की तीव्र इच्छा होती है तथा जब तक पत्नी गर्भवती नहीं हो जाती, तब तक वे बहुत दुखी रहते हैं। गर्भधारण के पश्चात सुरक्षित प्रसव की बड़ी चिंता रहती है। जब बच्चा पैदा होता है, तो उसके स्वास्थ्य के बारे में चिंता रहती है तथा यह भी कि उसकी दृष्टि, श्रवण आदि सभी क्षमताएं स्वस्थ रहेंगी या नहीं। जब बच्चा बड़ा होता है, तो यह चिंता रहती है कि वह बुद्धिमान होगा या नहीं तथा पढ़ाई में मेहनती होगा या नहीं। इसके पश्चात यह चिंता रहती है कि वह अच्छा कमाएगा तथा धनवान बनेगा या गरीबी में रहेगा तथा यह भी कि वह अच्छा नैतिक जीवन जीएगा या नहीं। यह भी चिंता रहती है कि वह स्वस्थ रहेगा तथा दीर्घायु होगा या असमय मर जाएगा। इस प्रकार माता-पिता के दुःखों का कोई अंत नहीं है।
दुःखों से बचने का एकमात्र उपाय है कि व्यक्ति तथा वस्तुओं से आसक्ति न रखें तथा अपने प्रेम को स्वयं पर केन्द्रित करें। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि आसक्ति प्रेम से भिन्न है। आसक्ति व्यक्ति को उस व्यक्ति या वस्तु की दया पर छोड़ देती है, जिससे आसक्ति होती है। परन्तु प्रेम, जो परिभाषा के अनुसार किसी भी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य से मुक्त होता है, व्यक्ति को प्रेम की वस्तु से स्वतंत्र कर देता है। सभी जीवों के प्रति समान रूप से किया गया प्रेम श्रेष्ठ बनाता है।
परम आत्मा के प्रति प्रेम वस्तुतः सभी प्राणियों के प्रति प्रेम है, क्योंकि वे परम आत्मा से भिन्न नहीं हैं।
चूँकि आत्मा आनंद और चेतना दोनों की प्रकृति की है, इसलिए सवाल उठता है कि मन की सभी क्रियाओं में आनंद का अनुभव क्यों नहीं होता और केवल चेतना का अनुभव होता है। इसका उत्तर एक दीपक का उदाहरण लेकर दिया जा सकता है। जब एक दीपक जलता है तो वह गर्मी और प्रकाश दोनों उत्सर्जित करता है, लेकिन कमरे में केवल प्रकाश ही भरता है, गर्मी नहीं।
मैवमुष्णप्रकाशात्मा दीपस्तस्य प्रभा गृहे ।
व्याप्नोति नोष्णता तद्वच्चितेरेवानुवर्तनम् ॥ ७१॥
** (उत्तर): ऐसा नहीं है। एक कमरे में जलने वाला दीपक प्रकाश और गर्मी दोनों उत्सर्जित करता है, लेकिन केवल प्रकाश ही कमरे को भरता है, गर्मी नहीं; इसी तरह, यह केवल चेतना है जो वृत्ति को पूरा करती है (और आनंद को नहीं)। ✅
** (Reply): Not so. A lamp burning in a room emits both light and heat, but it is only the light that fills the room and not heat; similarly, it is only consciousness which accomplishes the Vṛttis (and not bliss).
जब आत्मा आनंद और चेतना दोनों है, तो ऐसा कैसे है कि जब मानसिक परिवर्तन में चेतना प्रकट होती है तो आनंद भी उसी समय प्रकट नहीं होता? इसका उत्तर यह बताकर दिया जा सकता है कि यद्यपि किसी वस्तु में रंग, गंध, स्वाद और स्पर्श होता है, लेकिन इनमें से केवल एक गुण को ही किसी विशेष इंद्रिय द्वारा पहचाना जाता है।
आद्ये गन्धादयोऽप्येवमभिन्नाः पुष्पवर्तिनः ।
अक्षभेदेन तद्भेदे वृत्तिभेदात्तयोर्भिदा ॥ ७४॥
** फूल की गंध, रंग और अन्य गुण फूल में एक दूसरे से अलग नहीं होते हैं। यदि यह कहा जाए कि इन गुणों का पृथक्करण इंद्रियों द्वारा होता है, तो हम इस बात से सहमत होते हैं कि चेतना और आनंद के बीच स्पष्ट अंतर वृत्ति (रजस या सत्व की प्रधानता) द्वारा उत्पन्न होता है। ✅** The odour, colour and other properties of a flower are not separate from one another in the flower. If it be said that the separation of these properties is brought about by the sense-organs, we rejoin that the seeming difference between consciousness and bliss is produced by (the predominance of Rajas or Sattva in) the Vṛttis. ✅
यह कहना सही नहीं है कि फूल के रंग, गंध और अन्य गुण एक दूसरे से भिन्न हैं और इसलिए दिया गया उदाहरण लागू नहीं होता क्योंकि आनंद और चेतना एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। फूल के गुण एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। यदि यह कहा जाए कि वे भिन्न हैं क्योंकि उन्हें विभिन्न इंद्रियों द्वारा पहचाना जाता है, तो यह बताना आवश्यक है कि इसी प्रकार मानसिक स्थिति की संरचना में अंतर के कारण आनंद और चेतना के बीच भी एक स्पष्ट अंतर होता है। जब मन में सत्वगुण प्रबल होता है, तो आनंद और चेतना दोनों प्रकट होते हैं, जबकि जब रजोगुण प्रबल होता है, तो केवल चेतना प्रकट होती है और आनंद अस्पष्ट हो जाता है।
यद्योगेन तदेवैति वदामो ज्ञानसिद्धये ।
योगः प्रोक्तो विवेकेन ज्ञानं किं नोपजायते ॥ ७८॥
** (उत्तर): जो लक्ष्य योग से प्राप्त होता है, वह विवेक से भी प्राप्त हो सकता है। योग ज्ञान का एक साधन है; क्या विवेक से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता?
✅** (Reply): The goal which is reached by Yoga can also be reached by discrimination. Yoga is a means to knowledge; doesn’t knowledge arise from discrimination? ✅
यत् साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
इति स्मृतं फलैकत्वं योगिनां च विवेकिनाम् ॥ ७९॥
** 'सांख्यों द्वारा प्राप्त स्थिति योगियों द्वारा भी प्राप्त की जाती है'। इस प्रकार गीता में योग और विवेक दोनों के फल की पहचान के बारे में कहा गया है। ✅
** ‘The state achieved by the Sāṅkhyas is also achieved by the Yogīs’. Thus it has been said in the Gītā about the identity of the fruit of both Yoga and discrimination (viveka). ✅
भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि मोक्ष के दो मार्ग हैं। एक योग मार्ग और दूसरा ज्ञान मार्ग।
न प्रीतिर्विषयेष्वस्ति प्रेयानात्मेति जानतः ।
कुतो रागः कुतो द्वेषः प्रातिकूल्यमपश्यतः ॥ ८२॥
** जो स्वयं को सबसे प्रिय जानता है, उसे किसी भी भोग्य वस्तु से प्रेम नहीं होता। तो उसका मोह कैसे हो सकता है? और जो अपने लिए कोई शत्रु वस्तु नहीं देखता, उसे घृणा कैसे हो सकती है? ✅
** One who knows the Self as the dearest has no love for any object of enjoyment. So how can he have attachment? And how can he who sees no object inimical to himself have any aversion? ✅
जो मनुष्य अपने आपको सबसे प्रिय जानता है, वह किसी भी बाह्य भोग की वस्तु की इच्छा नहीं करता, न ही उसे किसी वस्तु से द्वेष होता है, क्योंकि वह किसी भी वस्तु को अपने लिए प्रतिकूल नहीं मानता।
द्वैतस्य प्रतिभानं तु व्यवहारे द्वयोः समम् ।
समाधौ नेति चेत्तद्वन्नाद्वैतत्वविवेकिनः ॥ ८४॥
** यह कहा जा सकता है कि यद्यपि सापेक्ष अनुभव की दुनिया में दोनों द्वैत की अवधारणा को स्वीकार करते हैं, योगी को यह लाभ होता है कि समाधि की स्थिति में उसके लिए कोई द्वैत नहीं होता है।
हमारा उत्तर यह है कि जो अद्वैत का विवेक करता है, उसे उस समय द्वैत का अनुभव नहीं होता। ✅
** It may be said that though in the world of relative experience both accept the conception of duality, the Yogī has the advantage that there is no duality for him while in the state of Samādhi. Our reply is that he who practises discrimination about the non-duality does not experience duality at that time. ✅
अध्याय 12 का अंत
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