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शुक्रवार, 20 अक्तूबर 2023

🔱(9) नेतृत्व में स्वतंत्रता/ Freedom in Leadership/ नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

(9) 

 नेतृत्व में स्वतंत्रता

 Freedom in Leadership

[>>>#1. स्वामी विवेकानंद -कैप्टन सेवियर यम-नचिकेता प्रशिक्षण परम्परा' अर्थात  "वेदान्त डिण्डिम लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा" एवं C-IN-C नवनी दा के नेतृत्व  में गठित-  "Be and Make : महामण्डल आन्दोलन"  की मूल भावना एवं उसके उद्भव का प्रामाणिक इतिहास। : The Fundamental Spirit and the Authentic History of the "Be and Make Mahamandal Movement "]  

        महामण्डल संगठन से जुड़े विभिन्न केन्द्रों में कार्यरत नेताओं के लिए केवल इस आन्दोलन की मूल भावना #1  को पकड़े रहना ही आवश्यक है। यदि हमलोग इस 'Be and Make' आन्दोलन की पृष्ठभूमि में स्थित मूल भाव को किसी प्रकार पकड़ लें तो, उससे ही शेष कार्य पूरा हो जायेगा। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द द्वारा पूर्व-निर्धारित उद्देश्य 'भारत का कल्याण' के प्रति समर्पित किसी अखिल भारत युवा संगठन के समस्त कार्यक्रमों को इसके केन्द्रीय मुख्यालय से आदेश देकर लिखवाया नहीं जा सकता। महामण्डल की  'C-IN-C' परम्परा में प्रशिक्षित नेता का कार्य हर समय केवल आदेश देते रहना, नहीं होना चाहिए।

        इस समय देश के 12 राज्यों में महामण्डल के 300 से भी अधिक विभिन्न शाखाओं (branches) में 'Be and Make' कार्य चल रहा है। किन्तु, कहाँ और किस केन्द्र को क्या-क्या कार्यक्रम चलाना होगा वैसा कोई आदेश हमलोग यहीं से नहीं देते रहते हैं। हमलोग उन केन्द्रों द्वारा भेजे गये रिपोर्टों में केवल इसी बात पर ध्यान देते हैं कि  इनके द्वारा किये गए कार्यक्रम या योजना के क्रियान्वयन में महामण्डल आन्दोलन के मूल भावों तथा सिद्धांतों का (3H विकास के 5 अभ्यास) पालन किया गया है या नहीं ? इतना ध्यान रखना ही यथेष्ट होता है।

>>>2. 'विविधता में एकता' और 'धर्म के क्षेत्र में भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था' कायम रखने वाली रखने वाली प्राचीन भारतीय संस्कृति के आनन्द # से हम वंचित नहीं होना चाहते। ] 

          अलग-अलग केन्द्रों द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के तौर-तरीकों में अन्तर हो सकता है और वैसा होना भी चाहिए। किसी भी लक्ष्य तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हो सकते हैं- (As many faiths , so many ways : जितने मत, उतने पथ !) और  इसमें कोई बुराई भी नहीं है बल्कि वैसा होना निश्चित रूप से ही अच्छा है। यहाँ तक कि परम सत्य के साथ एकत्व की अनुभूति के लिये भी विभिन्न मार्ग होते हैं। यदि सभी केन्द्रों पर एक ही ढंग से कार्य करने की पाबन्दी लगा दी जायेगी तो विभिन्न राज्यों के युवाओं के विविध चित्त-वृत्तियों तथा विविध सांस्कृतिक पहलुओं के अनुरूप जो नई-नई प्रणालियाँ तथा नियम आविष्कृत हो सकते हैं, वे हमेशा के लिए अज्ञात और अनाविष्कृत ही रह जाएंगे। 

           ऐसी स्थिति में परम सत्य को हर दृष्टि से जानने, समझने तथा अनुभव करने के आनन्द से हमलोग वंचित ही रह जाएंगे। इसीलिये हमारे देश में विशेष रूप से धार्मिक क्षेत्र में इसी प्रजातांत्रिक प्रणाली (democratic system) को स्वीकार किया जाता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं, वर्तमान युग में अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव ही ऐसे महान नेता हैं जिन्होंने भारत के  आध्यात्मिक प्रजातंत्र को सम्पूर्ण विश्व में पुनः स्थापित कर दिया। उनके इस धराधाम पर अवतरित होने से पूर्व तक विश्व भर में धर्म, दर्शन, तात्विक ज्ञान तथा आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में भी घोर अराजकता का ही बोल-बाला था । परन्तु श्रीरामकृष्णदेव ने समस्त धर्मों (Religions) और आध्यात्मिकता  (spirituality) के क्षेत्र में समन्वय लाकर, सम्पूर्ण विश्व के धार्मिक क्षेत्र में इस प्रजातांत्रिक प्रणाली को पुनः एक बार स्थापित कर दिया है। 

         इसीलिये महामण्डल के प्रत्येक शाखा में प्रजातांत्रिक प्रणाली के अनुसार ही समस्त कार्यक्रमों को चलाना चाहिए तथा उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता भी दी जानी चाहिए।  केवल इसका ध्यान रखना चाहिए कि आन्दोलन अपनी मूल भावना  'Be and Make' से कभी भी विचलित न हो। [ केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि गीता और उपनिषद (वेदान्त) की शिक्षाओं में आधारित महामण्डल के "निर्भय मनुष्य बनो और बनाओ" आन्दोलन (Mahamandal's  'Be and Make fearless Men' Movement) के माध्यम से -'भयमुक्त और प्रेममय मनुष्य' - अर्थात  'ब्रह्मविद' नेता-पैगम्बर या जीवनमुक्त शिक्षक' बनने और बनाने के मूल उद्देश्य से कभी भी विचलित न हो।]

 इस आदर्श को किसी भी मूल्य पर न तो छोड़ना चाहिए न ही हल्का करना चाहिए, न ही उसे नीचा करना चाहिए। यह सावधानी सदा बनाये रखनी चाहिए । किन्तु जहाँ तक आयोजनों का ब्यौरा विस्तार पूर्वक  देने का प्रश्न है, उनके ऊपर कोई भी दबाव नहीं डालना चाहिए । केन्द्रों को अन्य राज्यों के या विभिन्न शाखाओं के महामण्डल कार्यक्रमों में किसी भी प्रकार की कट्टरता का लबादा ओढ़ाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए

🔱>>>3. महामण्डल की प्रत्येक शाखा का नेता अनूठा होगा, किन्तु मुख्यालय के द्वारा निर्देशित वित्तीय-अनुशासन आदि के प्रति निष्ठावान होगा, तथापि मुख्यालय एवं विभिन्न राज्यों की शाखायें परस्पर कार्बन कॉपी नहीं बनेंगी। ] 

         नेतृत्व के क्षेत्र में भी इसी सिद्धान्त का पालन होना चाहिए। प्रत्येक नेता को सभी दृष्टि से एक समान या किसी एक की ही कार्बन कॉपी होने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। किसी विशेष नेता की वेशभूषा, हावभाव से समान प्रतीक चिह धारण करने की भी आवश्यकता नहीं है। यदि सभी नेता एक ही प्रकार के हो जायेंगे तो उनके द्वारा सर्वोत्तम कार्य नहीं हो पायेगा । यदि विभिन्न केन्द्रों के माध्यम से महामण्डल की योजनाओं को क्रियान्वित करने में 300 से भी अधिक नेता (PR) लगे हुए हों तथा केन्द्रीय संगठन [महामण्डल मुख्यालय ] की कार्यकारिणी समीति के कार्यों का निरीक्षण और प्रबन्धन की जिम्मेदारी भी इन्हीं के ऊपर हो;  एवं ये सभी 300 नेता प्रत्येक दृष्टि से एक-दूसरे के कार्बन कॉपी जैसे दिखते हों - तो हो सकता है कि कुछ लोग बोल पड़ें वाह ! क्या खूब ! बड़ा ही अच्छा कार्य हुआ है, सचमुच सभी के सभी मूल प्रति [CINC नवनीदा] की सच्ची प्रतिलिपि [धोती-चादर-चश्मा में अनिन्दो] जैसे ही दिखते हैं । तो हम निश्चिन्त हुए ! अब हमारा मूल आदर्श निश्चित ही अक्षुण्ण बना रहेगा। परन्तु ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है। 

     क्योंकि यदि प्रत्येक नेता अपने आप में अनूठा हो तथा सभी चरित्र के विभिन्न गुणों से समान रूप से विभूषित रहें एवं सभी नेता महामण्डल के मूल सिद्धांत से पूर्ण परिचित हों तो महामण्डल आन्दोलन जिस उद्देश्य के प्रति समर्पित हो कर कार्यरत है उसका परिणाम भी निश्चित ही उत्तम कोटि का होगा। जब एक ही उद्देश्य को धरातल पर उतारने के लिये, विविध प्रतिभासंपन्न 300 नेता महामण्डल के कार्यक्रमों तथा योजनाओं को अपने-अपने ढंग से क्रियान्वित करने में लग जायेंगे तो एक ही आदर्श कई रूपों में जनता के सामने प्रकट होगा। 

     एक ही व्यंजन भले ही वह कितना भी महंगा और स्वादिष्ट क्यों न हो सभी लोगों को संतुष्टि नहीं प्रदान कर सकता । किन्तु, इसके विपरीत यदि सस्ता व्यंजन ही हो, पर उसमें विविधता रहे तो सभी लोग अपनी-अपनी रूचि के अनुसार भोजन करके संतुष्ट हो जायेंगे। स्वयं श्रीरामकृष्णदेव भी कहा करते थे- "मिश्रीकन्द को एक ही ढंग से क्यों खाना चाहिए? मैं जानता हूँ कि सत्य केवल एक है, परन्तु मैं उसी सत्य के विभिन्न स्वादों का आनन्द पाना चाहूँगा।"

>>>4. प्रत्येक शाखा के महामण्डल के नेता में 'स्वतंत्र' रूप से और 'स्व-विवेक' से निर्णय लेने की क्षमता रहना अनिवार्य है।   

      महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों को भी इसी प्रकार मूल आदर्श से विचलित हुए बिना यदि अपने-अपने ढंग से योजनाओं के क्रियान्वयन में स्वतंत्रता दे दी जाये तो उससे कोई हानि तो नहीं ही होगी उल्टे सभी स्वयं सोच-सोच कर नये-नये सिद्धांतों का आविष्कार करने में समर्थ होंगे। महामण्डल के सभी कर्मियों को स्वयं यह निर्णय करना होगा कि हम जिस ढंग से कार्यक्रम चला रहे हैं उससे महामण्डल आन्दोलन की मूल भावना कहीं आहत या हल्की तो नहीं हो रही है ? किसी भी कीमत पर ऐसा होने देने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। प्रत्येक महामण्डल शाखा के नेता में  स्व-विवेक से ही निर्णय लेने की क्षमता रहनी चाहिए। यह एक उत्तम प्रणाली है।

    हम कभी ऐसा नहीं कहते कि यहाँ केन्द्रीय मुख्यालय में कोई ऐसा व्यक्ति बैठा है, जो अकेले सभी प्रकार के निर्णय लेता रहेगा । आपलोग अपनी-अपनी समस्याओं को उसके समक्ष रखेंगे तथा अपने-अपने सुझाव भी दे सकेंगे पर निर्णय लेने का अधिकार केवल उसके ही हाथों में रहेगा।  वह जैसा भी आदेश जारी करेगा उसे सभी मानने के लिये बाध्य होंगे। - नहीं, यह हमारी कार्य पद्धति नहीं है।

      हमारी कार्य प्रणाली इस प्रकार है- आओ हम सभी एक साथ मिल-बैठकर किसी निर्णय पर पहुँचें । प्रत्येक व्यक्ति को अपना सुझाव देने की छूट है ताकि धीरे-धीरे इस प्रणाली के द्वारा सभी नेता उचित निर्णय लेने में समर्थ हो जायें । परन्तु किसी स्थान पर महामण्डल केन्द्र को प्रारम्भ करते समय जब वहाँ के नेताओं ने अभी-अभी निर्णय लेना शुरू ही किया हो तो महामण्डल के वरिष्ठ नेता (केन्द्रीय कार्यकारिणी समीति) बिना हस्तक्षेप किये, दूर से ही दृष्टि रखेंगे कि वहाँ के युवक नेतृत्व के सार को समझकर निर्णय लेने में समर्थ हैं या नहीं। थोड़ी दूर से ही यह परखते रहना है कि किसी वरिष्ठ नेता ('R-M' da) के द्वारा लिया गया कोई गलत निर्णय (पैसा लेकर या विदेशी फंड से चंदा कम्प्यूटर ट्रेनिंग) पूरे अभियान को ही विपरीत दिशा में तो नहीं ले जायेगा। इसी प्रणाली से अच्छा नेतृत्व उभर कर सामने आ सकता है।

>>>5. दूसरों से अधिक सुविधा पाना हमारा मकसद नहीं होगा, दूसरों अधिक सेवा करना हमारा मकसद होगा। 'सिरदार तब सरदार ' -राजनितिक नेताओं से भिन्न मलाई खाने में पीछे -सिर कटाने में आगे।  

          हमें स्वयं को सच्चे नेता में परिणत करने का अभियान निरन्तर चलाते रहना होगा। यही हमारा कर्तव्य भी है। हमें यही विचार करना चाहिए कि किस प्रकार मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवाएँ दे सकता हूँ। सभी सदस्यों को किसी न किसी सेवा कार्य में अपना योगदान अवश्य देना चाहिए, किन्तु उनमें से ही कुछ लोगों को इस प्रकार अवश्य ही सोचना चाहिए कि "मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करूंगा। सभी लोग तो थोड़ा-बहुत सेवा कार्य करते ही हैं किन्तु, मैं उतना करके ही संतुष्ट नहीं रहूँगा। क्या मुझे भी केवल इतना करके ही संतुष्ट हो जाना चाहिए?”

     महामण्डल का सदस्य बन जाऊँ, कुछ सेवा कार्य भी करूँ, ऐसी इच्छा रखना बहुत अच्छा है परन्तु, कम से कम इन सहकर्मियों में से कुछ लोगों के मन में ऐसी भावना भी रहनी चाहिए कि मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक जिम्मेवारी स्वयं आगे बढ़ कर उठा लूंगा। जिनमें अधिक कार्य क्षमता हो, उन्हें दूसरों का मार्गदर्शन करने के लिये स्वतः आगे आना चाहिए ताकि वे दूसरों को भी अधिक कार्य करने के लिए अनुप्रेरित कर सकें। उन्हें स्वयं आगे बढ़कर इस मनुष्य निर्माणकारी आन्दोलन को भारतवर्ष के कोने-कोने में फैला देने में समर्थ अधिक संख्या में प्रशिक्षित नेताओं का निर्माण करके, इस कार्य को अधिक से अधिक व्यापक बनाने में इस प्रकार सहायता करनी चाहिए जिससे कि यह आन्दोलन आगामी 10-20 वर्षों में ही हमारी मातृभूमि को पूरी तरह आप्लावित कर दे

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व्याख्या >>> #1: महामण्डल आन्दोलन के पीछे की मूल भावना > भारत के 12 राज्यों में महामण्डल के 300 केन्द्रों को संचालित करने वाली शाखाओं के संचालकों तथा सभी आंचलिक (Zonal) मार्गदर्शन समीति एवं 'अन्तर राज्यीय मार्गदर्शन समीति' [Inter-State Monitoring Committee] के समस्त नेताओं को महामण्डल मुख्यालय (Headquarter) : 6/1 A, Justice Manmatha Mukherjee Row, Kolkata - 700009) से या किसी एक नेता 'C-IN-C' (नवनीदा) के आदेश से  निर्देशित नहीं किया जा सकता। इसीलिए  सभी केन्द्र के नेता को महामण्डल आन्दोलन के पीछे की मूल भावना (fundamental Spirit of Mahamandal) को पकडे रहना तथा इसके आविर्भूत होने का प्रामाणिक इतिहास (authentic history) से परिचित होना आवश्यक है ।

      महामण्डल पुस्तिका 'A New Youth Movement' के प्रथम अध्याय में ही इस आन्दोलन के पीछे की मूलभावना को   स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यह आन्दोलन गीता और उपनिषदों की (वेदान्त डिण्डिम -ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या विवेक-प्रयोग )  प्रशिक्षण  के द्वारा स्वयं निर्भीक मनुष्य (ब्रह्मविद) बनो और दूसरों को भी निर्भीक (ब्रह्मविद) बनने में सहायता करो >  के वैज्ञानिक प्रस्ताव पर आधारित है। महामण्डल की अंग्रेजी पुस्तिका  " A NEW YOUTH MOVEMENT " में  नवनी दा लिखते हैं -  

  " कोई सामान्य व्यक्ति जैसे ही स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़े किसी संगठन के विषय में सुनता है, तो उनकी कल्पना शक्ति उसे समाज के अंतिम सिरे पर स्थित पददलित और दीन-हीन मनुष्यों की सेवा के क्षेत्र में ले जाती है। और यह सही भी है कि स्वामी जी ऐसे कार्य होते हुए अवश्य देखना चाहते थे। 

      किन्तु उन्होंने इस प्रकार के कार्य को आरम्भ करने से पहले आत्मविकास कर इन कार्यों को सम्पादित करने योग्य "मनुष्य" बनने का जो निर्देश दिया है उसे हम प्रायः भूल जाते हैं। प्राथमिक शिक्षा या स्कूली शिक्षा समाप्त किये बिना ही हमलोग कॉलेज में प्रवेश लेने के लिये दौड़ पड़ते हैं। और हमारी बुद्धि हमें यहीं धोखा दे जाती है! इसीलिये गीता (2.49) में  भगवान श्रीकृष्ण हमें  में  समत्वबुद्धि की शरण लेने का उपदेश देते हैं - 

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।

 बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।

 गीता (2.49)

[ दूरेण, हि, अवरं, कर्म, बुद्धियोगात्, धनञ्जय । बुद्धौ, शरणम्, अन्विच्छ, कृपणाः, फलहेतवः ॥]

 "हे अर्जुन, निःस्वार्थ भाव से किए गए कर्म की तुलना में (स्वार्थ/ऐषणाओं की इच्छा से किया गया) सकाम कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं।  स्वार्थ से प्रेरित होकर कर्म करने वाले कृपण या छोटे-मन वाले (दीन) होते हैं। क्योंकि स्वार्थ के लिए किया गया कोई भी कार्य बहुत ही हीन होता है।"  और उपनिषद के ऋषि [छान्दोग्य उपनिषद (1.1.10)] हमें विद्या की शरण में जाने की सीख देते हुए कहते हैं- 

"तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद,  

नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति। 

 श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति, 

खल्वेतस्यैवाक्षरस्योपव्याख्यानं भवति॥" 

छान्दोग्य उपनिषद (1.1.10)

       अर्थात कोई ऐसा सोच सकता है कि ओम के रहस्य को जाने वाला (ब्रह्मवेत्ता) और दूसरा ओम के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर एक ही तरह का यज्ञ- "Be and Make " करे तो उसमें दोनों को समान फल मिलेंगे। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। विद्या और अविद्या दोनों भिन्न हैं, अतः (ॐ  या) ब्रह्म का ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं।  

     यदि हम  केवल विद्या की उपासना करेंगे तो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें भोजन, वस्त्र ,आवास आदि कौन जुटायेगा? इन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के लिये अविद्या का सहारा भी लेना पड़ता है । अर्थात  विद्या (अर्थात योगविद्या -Eastern Mysticism)  और अविद्या (Western Science- Quantum Physics ) मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए। 

  >>>(i.)  Swami Vivekananda's project "Be and Make" (स्वामी विवेकानन्द की परियोजना "Be and Make") : महामण्डल आन्दोलन की यह "Be and Make" परियोजना स्वामी विवेकानन्द द्वारा पूर्वनिर्धारित है तथा गीता और उपनिषद द्वारा निर्देशित उपरोक्त प्रस्तावों का पूर्णरूपेण अनुसरण करती है! यही कारण है कि उनके द्वारा निर्देशित समाज सेवा, अन्य सभी प्रकार की समाज सेवा से बिल्कुल भिन्न है। महामण्डल थोक भाव में विदेशों से आयातित समाज सुधार के सिद्धान्तों एवं समाजसेवी संस्थाओं की कार्य पद्धति का अनुसरण नहीं करता, बल्कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त योजना का ही अनुसरण करना चाहता है।   

>>>(ii.)  जानिबीघा कैम्प 2023 का आनन्द # उदाहरण के लिए पितृपक्ष श्राद्ध और 'हथिया नक्षत्र' के महत्व को हम नहीं समझ पाते यदि में गया के  विष्णुपद  गदाधर धाम मन्दिर के निकट- "यम -नचिकेता बैनर" के साथ आयोजित जानिबीघा कैम्प में  यदि सियालदह से दो ट्रेन कैंसल होने के बावजूद,  कोलकाता के त्रिभाषी स्पीकर अनूप दत्ता, प्रमोद दा, 'ब्रह्मविद धर्मेन्द्र ' के साथ  कार से कैम्प साइट नहीं पहुँचते।  लौटते समय अजय के कारबैटरी- टेस्ट  प्रकरण का अनुभव,  आनन्द सिंह फौजी के पिता बिडियो साहब की पालकी के बदले वोट मांगने के लिए कैम्प में  गया के '6time  MLA'  मिनिस्टर का protocol प्राप्त-चन्द्रवंशी प्रेम कुमार के 'आगमन' के आनन्द से भी वंचित रह जाते। ]    

>>>(iii.) महामण्डल की प्रत्येक शाखा का नेता अनूठा होगा, किन्तु मुख्यालय के द्वारा निर्देशित वित्तीय-अनुशासन आदि के प्रति निष्ठावान होगा, तथापि मुख्यालय एवं विभिन्न राज्यों की शाखायें परस्पर कार्बन कॉपी नहीं बनेंगी। ] 

>>>(iv.) प्रत्येक शाखा के महामण्डल के नेता में 'स्वतंत्र' रूप से और 'स्व-विवेक' से निर्णय लेने की क्षमता रहना अनिवार्य है।   

>>>(v.) दूसरों से अधिक सुविधा पाना हमारा मकसद नहीं होगा, दूसरों अधिक सेवा करना हमारा मकसद होगा। 'सिरदार तब सरदार ' -राजनितिक नेताओं से भिन्न मलाई खाने में पीछे -सिर कटाने में आगे।  

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व्याख्या >>> #2 1967 में स्थापित 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के उद्भव का प्रामाणिक इतिहास : "7th  Interstate Youth Training Camp- 2019" : आर.पी मोदी स्कूल,  झुमरीतिलैया (झारखण्ड) में आयोजित " सातवें अन्तर राज्जीय युवा प्रशिक्षण शिविर' के उद्घाटन सत्र में महामण्डल के तात्कालीन महासचिव (उस इन्टरस्टेट कैम्प के C-IN-C) श्री बिरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती द्वारा अंग्रेजी में प्रदत्त भाषण का हिन्दी अनुवाद : 

[N.B. '1967 में स्थापित महामण्डल आन्दोलन' के उद्भव का प्रामाणिक इतिहास विषय पर बीरेन दा द्वारा "7th इन्टरस्टेट कैम्प" में दिया गया अंग्रेजी भाषण। (यह भाषण केवल 'विवेक-अंजन के इंटरनेट संस्करण' पर ही पब्लिश हुआ था। उसका हिन्दी अनुवाद महामण्डल के मासिक पत्रिका 'विवेक -अंजन' में भी छपना चाहिए। इस पर एक बैठक अजय-रामचन्द्र जी मिश्र की उपस्थिति में आयोजित करना है।] 

      " मेरे आदरणीय और प्रिय  मित्र श्री बिजय सिंह के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ,   जिन्होंने 1987 से (उस समय झारखण्ड -बिहार एक ही राज्य था ) वास्तव में इस क्षेत्र में, तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में महामण्डल भावधारा का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया था। और तब से लेकर अभी तक महामण्डल एवं स्वामी विवेकानन्द विचारधारा को भारत के बड़े भूभाग तक फैला देने के लिये अथक परिश्रम करते चले आ रहे हैं। मैं अन्य सभी पूर्व वक्ताओं के प्रति भी अपना आभार और धन्यवाद व्यक्त करता हूँ , जिन्होंने अपने विचारों को इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया कि मुझे उनसे कुछ सीखने को मिला , और उन्होंने मेरे कार्य को भी आसान बना दिया है। 

    आमतौर से महामंडल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर के किसी भी उद्घाटन सत्र में, हमलोग लंबे भाषण की अनुमति नहीं देते हैं। क्योंकि शिविरार्थी लोग दूर-दराज के क्षेत्रों से आये हुए हैं, इसलिये वे थोड़ी थकान महसूस करते होंगे। उन्हें शाम को बहुत हल्का टिफिन प्रदान किया गया है, इसलिये अभी वे बेकल हैं। इसलिए मुझे लगता है कि भाषण को बड़ा करना जरूरी नहीं है, अतः मैं अपने वक्तव्य को बहुत संक्षेप में रखूँगा। क्योंकि अधिकांश campers नये हैं (पहली बार आये हैं), इसलिए इस शिविर के उद्घाटनकर्ता के रूप में ही नहीं, बल्कि इस संगठन के महासचिव (General Secretary) के रूप में- महामण्डल की मूल भावना (Fundamental Spirit) और आविर्भूत होने का प्रामाणिक इतिहास (authentic history) से मैं उनका परिचय कराना चाहूँगा 

       महामंडल की स्थापना स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा को युवाओं के बीच फैला देने के उद्देश्य से, 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने के बीस साल बाद 1967 में हुई थी।  इस युवा संगठन के आविर्भूत होने का मुख्य कारण 1967 के आसपास ही उत्तरी बंगाल के एक गाँव नक्सलबाड़ी से प्रारम्भ हुआ एक 'सशस्त्र' किसान आन्दोलन (Agrarian Movement)# था। जिसकी चिंगारी आगे चलकर भारत के कुछ अन्य  पूर्वी राज्यों - उड़ीसा , छत्तीसगढ़ , बिहार तथा दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों -विशेष रूप से आन्ध्र प्रदेश तक फ़ैल गया था। (शायद इसी कारण महामण्डल के सबसे अधिक केन्द्र, पश्चिमी भारत की अपेक्षा, पूर्वी भारत के इन्हीं राज्यों में  सक्रीय भी है?)

[>>> 'नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन' # :(Naxalbari Agrarian Movement) चीन में एक कम्युनिस्ट नेता हुए नाम था- माओ त्से तुंग।  माओ ने एक बार कहा था- 'एक चिंगारी सारे जंगल में आग लगा देती है। ' माओ वही नेता थे जिन्होंने चीन में सशस्त्र क्रांति की थी। पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी जिले में एक गांव पड़ता है- नाम है- नक्सलबाड़ी। नक्सलबाड़ी गांव में भी आज से 56 साल पहले, इसी तर्ज पर 1967 में  एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ था, जिसके बाद पूरे  भारत में माओवाद फैल गया। इसे 'नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन' कहा जाता है। आंदोलन के तहत, आदिवासी किसानों ने हथियार उठा लिए थे।  ये वो लोग थे जो माओ की विचारधारा को मानते थे। इसलिए इन्हें माओवादी भी कहा जाता है। नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत सन् 1967 मेंं बंगाल के गांव नक्सलबाड़ी से चारु मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल की अगुवाई में हुई थी । यह व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की शुरुआत थी । इसमें सरकारी कर्मचारी द्वारा किए गए अन्याय पर उसकी गोली मारकर हत्या कर वह जंगल में कूदकर फरार हो गया था, और पीड़ित ग्रामीण जनों का संगठन बनना शुरू हुआ जो इस तरह के सशस्त्र संघर्ष में तब्दील हो गया। 

आजादी एक लम्बे गौरवपूर्ण संघर्ष के बाद 1947 में आजादी  हासिल की गई थी और इससे करोड़ो लोगों का सपना पूरा हुआ था। लेकिन अंग्रेजों से आजादी के बीस साल बाद भी जब भारत में भ्रष्टाचार , भुखमरी , बेरोजगारी, शोषण  में कोई कमी न होते देखकर जनसाधारण और विशेष रूप से पढ़ा-लिखा युवावर्ग अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। भारत के पुनर्निर्माण की पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई गईं थीं , लेकिन उसमें किसानों  की समस्याओं पर कम ध्यान दिया गया। 

1967 के आम चुनाव के बाद ग्यारह राज्यों में पहली बार कांग्रेस की केन्द्रीकृत शासन को चुनौती देते हुए संविद सरकारें बनी थीं। बिहार में महामाया प्रसाद जैसे नेता भी मुख्यमंत्री बन गए थे। और कुछ  स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकरयुवा -समुदाय  जल्दीबाजी या हड़बड़ी में - In a hurry - पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन का कार्य शुरू किये बिना ही तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था। और उस संकट की घड़ी 1967 में में ही 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' नामक इस युवा संगठन को आविर्भूत होना पड़ा था। इसके पीछे भावना यह थी कि इस संगठन  माध्यम से स्वामी विवेकानन्द की " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी " शिक्षा को युवाओं के बीच फैला दिया जाय। ]

        जिस समय (1967 के आसपास) जब कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर युवा-समुदाय - In a hurry (जल्दीबाजी में) अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन के कार्य को शुरू करने के पहले ही, तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। उस समय अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित एक युवा ~नवनीदा ( श्री नवनी हरण मुखोपाध्याय) महामंडल के संस्थापक सचिव  - A young man in discipline, जो कई बार यहां भी पधार चुके हैं; तथा 'रामकृष्ण मिशन परम्परा'  (Ramakrishna Mission Order) के कुछ वरिष्ठ संन्यासियों ने परस्पर चर्चा करके एक युवा संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया। और स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकारी विचार-धारा को युवाओं के बीच फैला देने का एक आंदोलन प्रारम्भ किया ।  इस प्रकार वर्ष 1967 के आखरी तिमाही में आयोजित प्रथम बैठक में इस आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। और जहाँ तक मुझे याद है वह 25 अक्टूबर,1967 की तिथि थी ।

      अद्वैत आश्रम में आयोजित पहली बैठक के चार-पाँच महीने बाद जनवरी 1968 में दूसरी बैठक आयोजित हुई। उस बैठक में आमंत्रित अन्य व्यक्तियों के साथ रामकृष्ण मिशन के कुछ बहुत ही वरिष्ठ संन्यासी, जैसे रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी भूतेशानन्दरामकृष्ण मिशन के  महासचिव स्वामी अभयानन्द एवं सहायक महासचिव स्वामी रंगनाथानन्द ,जो आगे चलकर रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष भी बने --उपस्थित थे। बैठक में चर्चा चली कि, मनुष्य का 'ढाँचा' प्राप्त करने से ही कोई व्यक्ति " मनुष्य" नहीं बन जाता , बल्कि ~ "धर्मेण हीनाः पशुभिः सामना" - धर्म (शिक्षा) या 'चरित्र' के बिना मनुष्य भी पशुतुल्य है।  अतः उन सभी वरिष्ठ संन्यासियों ने हमें यही परामर्श दिया कि इस संगठन का उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द की ' मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का युवाओं के बीच प्रचार -प्रसार करना होना चाहिये, ताकि सुन्दरतर मनुष्यों के निर्माण से सुन्दरतर समाज को निर्मित किया जा सके। महामण्डल  की स्थापना के पीछे यही भावना क्रियाशील है। "

    अगला काम इस बात पर चिंतन (contemplate) करना था कि हमलोग तो स्कूल -कॉलेज खोलने वाले हैं नहीं, फिर युवाओं के बीच स्वामी जी के मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षाओं को फैला देने  उपाय क्या होना चाहिये? सम्पूर्ण भारत के युवाओं के बीच 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा' (अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- में 'Be and Make') का प्रचार-प्रसार कैसे किया जा सकता है ? उनलोगों ने यह निर्णय लिया कि, इसके लिए महामण्डल के द्वारा ही (संन्यासियों के द्वारा नहीं), समय -समय पर युवा प्रशिक्षण शिविर (Youth Training Camps) आयोजित करना चाहिये।  तथा उन शिविरों में युवाओं का आह्वान कर उन्हें 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' प्रशिक्षण देना चाहिये। महामण्डल स्थापित होने के संभवतः पांच महीने बाद इसका प्रथम 'अखिल भारतीय युवा प्रशिक्षण शिविर ' बंगाल के अरियादह में आयोजित किया गया था।

      स्वामी विवेकानन्द के अनुसार यथार्थ "मनुष्य" बनने के लिये युवाओं को छात्रजीवन में (किशोरावस्था में) ही उसके तीन प्रमुख अवयव - देह (Hand) , मन (Head) और हृदय (Heart) इन तीनों (3'H') को समानुपातिक रूप से विकसित करने (के 5 जरुरी अभ्यास) का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिये। युवाओं के पास एक ऐसा मजबूत  शरीर (strong body) होना चाहिये जिसमें प्रखर-बुद्धि से युक्त मन (Sharp intellect mind) का वास हो , और उसका हृदय विशाल (expanded heart) होना चाहिये। अर्थात उन्हें आत्मकेन्द्रित जीवन (self- centred life)  नहीं बिताकर दूसरों के कल्याण के लिये जीना चाहिये।  

इस प्रशिक्षण -शिविर का प्रारम्भ सभी शिविरार्थी भाई कल प्रातःकाल 'मन की एकाग्रता' पर एक कक्षा में भाग ले कर करेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षित मनुष्य बनने के लिये सबसे अधिक जोर इसी विषय~ ' मन को एकाग्र कैसे करें' (how to concentrate the mind) पर दिया करते थे। तत्पश्चात मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के विभिन्न विषयों पर कक्षाएं आयोजित की जाएंगी। लेकिन मनुष्य बनने के लिये केवल सैद्धान्तिक विचारों को सुनते रहना ही पर्याप्त नहीं हैं , अतः उन सद्गुणों को अपने जीवन और व्यवहार में धारण करने की व्यावहारिक पद्धति (practical method ) भी यहाँ सिखाई जायेगी। इसलिए सभी शिविरार्थी भाइयों से मैं अपील करता हूँ , तुम इस शिविर के किसी भी कक्षा को मत छोड़ना।  
         स्वामी विवेकानन्द अपने शिष्यों को (Would be Leaders या उपास्य को) 'Pearl Oyster ' (मोती वाले सीप) की  कहानी सुनाया करते थे। " शुक्ति (याने मोती वाले सीप) के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।" 
      उसी प्रकार इस युवा प्रशिक्षण शिविर को भी आप मोतियों जैसे बहुमूल्य विचारों का संग्रह करने के एक दुर्लभ अवसर के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। यहाँ आप स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा रूपी मोतियों जैसी मूल्यवान विचारों को प्राप्त कर सकते हैं। ध्वजारोहण के साथ आज संध्या जब इस शिविर का उद्घाटन हुआ, विश्वास कीजिये ठीक उसी समय इस शिविर परिधि (camp periphery) के आकाश में स्वाति नक्षत्र तुंगस्थ हो चुका है, और इस शिविर की समाप्ति होने तक वहीं पर तुंगस्थ बना रहेगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप सभी शिविरार्थी भाई , स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' शिक्षाओं को ग्रहण करके अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये इस शिविर का अधिकतम लाभ उठाएंगे। "

[### The Inaugural Speech of Sri Birendra Kumar Chakraborty, General Secretary of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal delivered at the occasion of '7th Interstate Youth Training Camp- 2019' held at Jhumritelaiya, Jharkhand:-

        " Respected my beloved friend Sri Bijay Singh, who actually started spreading the ideas of Mahamandal in this area and country since 1987 and from then he has been working tirelessly covering a big part of India spreading the man-making  idea of Mahamandal and Swami Vivekananda. I also express my thanks and gratitude to all the speakers who all spoke so well that I have learned from them and they also reduced my task. 

          In the inaugural programs of Mahamandal, we do not permit any lengthy speeches. Since campers have come from different areas, They feel tired. They have been provided very light tiffin in the evening and now they are restless so I think that it is not necessary to make the speech lengthy and I would like to sum up in short.  I thought that not only as an inaugurator of the camp but as the General Secretary of this organization, I will introduce the Mahamandal to them because most of the campers are new. 
     Mahamandal was established in the year 1967, twenty years after attaining India's independence in 1947. The idea was to spread the man-making and character-building ideas of Swami Vivekananda among young men because of an Agrarian Movement #(in the year 1967) in the eastern part of India .
      Young men in around West Bengal and some other eastern states and some the south mostly in Andhra Pradesh. A young man in discipline and some senior monks of Ramakrishna Mission order and founder secretary of Mahamandal Sri Nabani Haran Mukhopadhyay who came here many times took the decision to establish an organization and started a movement to spread this man making and character building idea of Swami  Vivekananda among the young men. In this way, the work started in the later part of 1967. So far I remember that it was on the 25 of October. 
     The first meeting was held a four-five months later in January 1968. They sat together. A very senior monk, the president of Ramakrishna Mission, General Secretary Swami Abhayananda, Assistant General Secretary Swami Bhuteshananda, and a very senior monk Swami Ranganathananda who also subsequently became president of Ramakrishna Mission took part in that meeting. They all advised it will have to spread the man making ideas of Swami Vivekananda. This is the idea behind establishing Mahamandal. 
      Then the next was to contemplate what was the way? How was the idea to be spread? They decided that youth training camps should be organized periodically and in these training camps, man-making and character-building ideas will be taught. The first training camp was possibly held five months after Mahamandal started. According to Swami Vivekananda, the necessary things in order to be real men are simultaneous development of body, mind, and heart. Youth should have a strong body, intellectual mind, and an expanded heart. They should not leave self-centered life. They should lead a life for the sake of all. 
      In this camp, campers will start from tomorrow morning attending a class on the concentration of mind. Swami Vivekananda emphasized more to be educated on how to concentrate the mind. Various classes on man-making and character-building education will be held thereafter. Theoretical ideas are not enough, practical method is essential which will be also taught here. Therefore I appeal to all the campers not to miss any class of the camp. 
      Swamiji used to narrate a story of pearl oyster. Be like the pearl oyster. There is a pretty Indian fable to the effect that if it rains when the star Swati is in the ascendant, and a drop of rain falls into an oyster, that drop becomes a pearl. The oysters know this, so they come to the surface when the star shines and wait to catch the precious raindrop. When a drop falls into them, quickly the oysters close their shells and dive down to the bottom of the sea, there to patiently develop the drop into the pearl. 
       So this camp may be assumed this occasion where you can get the pearl-like valuable things to be absorbed. Believe, this evening, when the camp was inaugurated by flag hoisting, the Swati star has raised on the sky of this camp periphery and it will sustain till the end of the camp. I fervently hope, you all will take the maximum advantage of the camp to make your life better grasping the man making and character building ideas of Swami Vivekananda. "
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🔱(8) सभी गुणों को विकसित कीजिये / develop all qualities/ नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

(8)

 सभी गुणों को विकसित कीजिये  

develop all qualities 

>>> 1. 

    नेताओं के लिये आदर्श तो यही है कि उनमें केवल गुण ही गुण हों और दोष बिल्कुल ही न हो। यदि कोई व्यक्ति इस आदर्श पर खरा उतरता है तो वह व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ नेता बन सकता है । परन्तु ऐसा बन पाना कठिन है, फिर भी वैसा ही नेता बनने के प्रयास में हमें निरन्तर लगे रहना चाहिए । अब, हमलोग दूसरों का मार्गदर्शन करने योग्य नेता बनने के मर्म को समझते हैं। अतः सच्चा नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता अर्जित करने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहना चाहिए ।

>>>2. 

      हमें यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि मैं विशेषाधिकारों क उपभोग करने के लिये नेता नहीं बना हूँ या दूसरों से अपने को बड़ा दिखाने के लिए भी नेता नहीं बना हूँ। बल्कि, नेता बनकर दूसरों की और अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार मिलने से जो आनन्द प्राप्त होता है उसी आनन्द को पाने के लिये हमें नेता बनना चाहिए। हम सभी लोग दूसरों की सेवा करने के लिये ही महामण्डल के साथ जुड़े हैं, किन्तु नेताओं को विविध उपायों से दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है। यही वह विशेषाधिकार है जिसके आनन्द को प्राप्त करने के लिये हमें प्रयत्नशील रहना चाहिए । यदि नेता अपने इस उद्देश्य की स्पष्ट धारणा बनाने में सक्षम हो जायें तो वे भी सर्वश्रेष्ठ नेता बन सकते हैं।

>>>3. 

         सभी आवश्यक गुणों के साथ-साथ नेताओं में कुछ अतिरिक्त भी हो सकते हैं। जब तक किसी व्यक्ति में चरित्र के सारे आवश्यक गुण विकसित न हो जायें तबतक वह एक प्रभावशाली नेता के रूप में कभी कार्य नहीं कर सकता। यदि किसी व्यक्ति में मौलिक रूप से आवश्यक मनुष्योचित गुण जैसे चरित्रबल, आदर्श आदि को आत्मसात् करने की क्षमता, सही प्रेरणा देने की क्षमता ही न रहे तो वह कैसे दूसरों का नेतृत्व करने की कल्पना कर सकता है ? 

>>>4.  

         वह तो स्वयं को भी नेतृत्व नहीं दे सकता, और जो स्वयं को ही उचित राह नहीं दिखा सकता वह दूसरों का मार्गदर्शन कैसे कर सकता है ? परन्तु यदि ऐसे व्यक्ति को नेता बना दिया जाय तो क्या होता है ? अन्धेनैव नीयमान यथान्धाः । जब कोई अन्धा व्यक्ति अपनी अगुआई में कुछ अन्य अन्धों को राह दिखाने की चेष्टा करे तो क्या होगा ? जब मार्ग में कोई गड्ढा आ जायेगा तो सभी एक साथ उस गड्ढे में जा गिरेंगे। बहुत से क्षेत्रों में तो हमलोग भी उसी अन्धे के समान दूसरों को उपाय बताने लगते हैं। हमें स्वयं तो श्रेय प्रेय के बीच अन्तर करना नहीं आता पर हम समझते हैं कि इस संबंध में मैं भी दूसरों को शिक्षा दे सकता हूँ। ऐसा करने का दुःसाहस कभी नहीं करना चाहिए।

      इसीलिये हमलोगों में चरित्र के सभी आवश्यक गुण होने चाहिए। यदि हमने चरित्र के सभी मूलभूत गुणों को अच्छी तरह से अपना लिया है और दूसरों की अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार पाने के लिये भी प्रयत्नशील हैं तो हमलोग भी उत्तम श्रेणी के नेता हो सकते हैं। क्योंकि नेताओं का यह दायित्व है कि जिन लोगों को अभी तक सही नेतृत्व का रहस्य नहीं ज्ञात हो सका है, उन्हें अनुप्रेरित करें ताकि वे भी सच्चे नेत बनकर दूसरों को भी इसके लिये प्रोत्साहित करने में सक्षम बनें।

>>>5. 

         परन्तु इस कार्य को मूर्तरूप देने के लिये, हमें स्वयं दूसरों की अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील होना होगा। जब हम दूसरों से अधिक सेवा करेंगे तभी यह आशा कर सकते हैं कि हमें वैसा करते देख कुछ दूसरे व्यक्ति भी वैसा करने के लिये आगे बढ़ेंगे। यह कार्य तभी संभव है जब हम कुछ अतिरिक्त गुणों से भी पूर्ण बनें जिन्हें धारण करना निःसंदेह कठिन होता है। जैसे हमलोग विभिन्न विषयों के बारे में अध्ययन करके अपने सामान्य ज्ञान को दूसरों से अधिक बढ़ा सकते हैं। निश्चित रूप से हमारे अध्ययन का पहला विषय मानसिक एकाग्रत का विज्ञान ही होना चाहिए। उसी प्रकार शारीरिक दृष्टि से मजबूत बनने के लिये तथा अपने शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने के लिये योगासन, योग-व्यायाम तथा पौष्टिक आहार के विज्ञान पर लिखी हुई पुस्तकों का अध्ययन भी करना चाहिए। 

      साथ ही साथ उनका दैनन्दिन जीवन में उपयोग कर लाभ उठाना चाहिए । चरित्र निर्माण की वैज्ञानिक प्रणाली का अध्ययन करना चाहिए, लोगों को अन्य उपयोगी विषयों की जानकारी देकर अधिक से अधिक सेवा कैसे की जा सकती है, उन उपायों को जानने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। आम आदमी अभी जिन कठिनाईयों का सामना कर रहा है उनका आकलन करने की सही विधियों को सीखकर थोड़ी मात्रा में ही सही पर उन कठिनाईयों पर विजय पाने में उनकी सहायता करनी चाहिए। ये सभी साधारण कोटि की सेवायें हैं। इसीलिये हमें इतना करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए । 

       यदि हम अपने अन्दर उन अतिरिक्त गुणों को विकसित कर लें जिससे हमें दूसरों की अधिक सेवा करने की क्षमता और ऊर्जा प्राप्त होती है तो हम सच्चे नेता बन सकते हैं। अतिरिक्त ज्ञान पाने के लिये सभी नेताओं को अधिकाधिक विषयों का अध्ययन करना चाहिए। सामान्य ज्ञान बढ़ाने वाली पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए । विविध भाषाओं की जानकारी, महान धर्मो के विभिन्न पुराणों का अध्ययन, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विषयों की विभिन्न पुस्तकों का अध्ययन करना बहुत महत्वपूर्ण है । यदि कोई व्यक्ति अच्छा नेता बनना चाहता हो तो उसे समय निकालकर इन विषयों के अतिरिक्त जितना संभव हो उपयोगी विषयों का अध्ययन करते रहना चाहिए । 

       उसको विज्ञान तथा तकनीकी से संबंधित नये-नये आविष्कारों तथा शोधपत्रों का भी अध्ययन करना चाहिए। सभी प्रकार के ज्ञान की एक अच्छी पृष्ठभूमि रखते हुए यदि कोई नेतृत्व करने के लिये आगे बढ़े तो वह प्रत्येक क्षेत्र में जैसे योजना बनाने, उसको कार्यरूप देने, दिशा-निर्देश देने आदि में अपनी विद्या का उपयोग कर सकता है। इस प्रकार अधिकाधिक जानकारी के बल पर वह अधिक प्रभावशाली नेतृत्व प्रदान करने में समर्थ नेता बन सकता है। 

>>>6 . नेता के लिए अच्छा वक्ता होना भी अनिवार्य गुण है। 

       यदि कोई अच्छा नेता बनने की सारी योग्यताओं से युक्त हो, कई विषयों का ज्ञाता हो और वह दूसरों का मार्गदर्शन करे तो दूसरे लोग भी कार्य में लग सकते हैं पर कठिनाई तब सामने आती है जब उनको अच्छा बोलना नहीं आता या वे स्वयं को भली-भाँति अभिव्यक्त करने में विफल रह जाते हैं।  यदि ऐसी कमी किसी नेता में हो तो यह एक बहुत बड़ा अवगुण माना जायेगा। वैसे नेता को दूसरों के समक्ष अपने विचार को अभिव्यक्त करने की कला सीखने की अवश्य चेष्टा करनी चाहिए। 

       यह थोड़ा कठिन अवश्य है किन्तु, कोशिश करने से इस कौशल को भी सीखा जा सकता है। कुछ लोग स्वभाव से ही शर्मीले होते हैं तथा सोचते हैं कि अभ्यास नहीं रहने के कारण वे बोल नहीं सकते हैं परन्तु अपनी इस हिचकिचाहट को त्याग कर अवसर मिलते ही बोलने का अभ्यास करना चाहिए । नेताओं में केवल बोलने की ही नहीं, विभिन्न भाषाओं में लेख और निबन्ध आदि लिखने की योग्यता भी रहनी चाहिए । उनको अपने भाषण तथा लेखन कला में इतनी दक्षता अवश्य प्राप्त कर लेनी चाहिए कि जब वे अपने विचारों को दूसरों के सामने प्रकट करें तो दूसरे लोग उनकी बातों को आसानी से समझ लें

       अर्थात् प्रत्येक नेता को अपने श्रोताओं एवं पाठकों की मानसिक अवस्था का पूर्वानुमान लगाते हुए, उन्हें  उन्हीं की भाषा में समझाने की कला सीखनी चाहिए। उन्हें अपनी बातों को इस प्रकार रखना चाहिए जिससे सामने वाले व्यक्ति को उसे समझकर आत्मसात् करने में कोई कठिनाई नहीं हो। 

>>>7. नेता को स्वामी रंगनाथानन्द जी जैसा बोलने तथा लिखने दोनों विधाओं में समान रूप से निपुण होना चाहिए।  तथा श्रोता या पाठक की पाचन क्षमता को पहचान कर ही गरिष्ठ भोजन परोसना चाहिए। 

           क्योंकि किसी कमजोर पेट वाले व्यक्ति को गरिष्ठ भोजन परोस दिया जाये तो वह उसको पचा ही नहीं पायेगा । तब इससे उसको लाभ के बजाय हानि ही होने की अधिक संभावना रहेगी। जैसा कि श्रीरामकृष्णदेव और माँ सारदा अपनी संतानों से अक्सर कहा करते थे - "तुम्हें लोगों की अभिरूचि तथा पाचन शक्ति के अनुकूल ही भोजन परोसना चाहिए।" अतः प्रत्येक नेता में अपने सम्मुख उपस्थित लोगों की पाचन क्षमता को पहचान लेने की शक्ति अवश्य रहनी चाहिए। इसीलिये उनको यथासंभव सभी विषयों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए । नेता को अपनी बातों को समझाने के लिये बोलने तथा लिखने दोनों विधाओं में समान रूप से निपुण होना चाहिए तथा इन दोनों का निरन्तर अभ्यास करते रहने से ये क्षमतायें स्वतः विकसित होती जाती हैं।

        आप सभी ने 'स्वामी रंगनाथानन्दजी महाराज' का नाम अवश्य ही सुना होगा। वे अपनी भाषण तथा लेखन क्षमता के बल पर आज पूरे विश्व में जाने जाते हैं। उन्होंने कई देशों के विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों पर प्रबुद्ध श्रोतामण्डली के समक्ष कितने ही सारगर्भित व्याख्यान दिए हैं व्याख्यानों के क्रम में उन्होंने कई बार पूरे विश्व का भ्रमण किया था। उन्होंने बहुत से विश्वविद्यालयों में दीक्षान्त भाषण दिया था एवं वेदान्त तथा स्वामी विवेकानन्द के ऊपर विश्वप्रसिद्ध, सशक्त वक्ताओं में से एक माने जाते थे ।

      परन्तु वे स्वयं उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये कभी किसी विश्वविद्यालय में सामान्य विद्यार्थी बन कर नहीं गये थे। उनकी इच्छाशक्ति अत्यन्त प्रबल थी तथा अपने संकल्प पर अटल रहने की उनकी क्षमता अद्भुत थी, उन्होंने यह अद्भुत सामर्थ्य केवल, अध्ययन तथा श्रवण-मनन-निदिध्यासन द्वारा प्राप्त कर लिया था । वे अपने प्रवचनों द्वारा हर किसी को मंत्रमुग्ध कर देने की क्षमता रखते थे । उनका जीवन एक ऐसा आदर्श उदाहरण है, जिसका अनुसरण सभी भावी नेताओं को अवश्य करना चाहिए। यदि हमलोग भी एक सशक्त नेता बनना चाहते हैं तथा उसी श्रेणी के नेता बनना चाहते हैं, जिसकी हम अब तक चर्चा सुन रहे थे तो स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज के जैसा हमें भी प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न एवं दृढ़ संकल्पवान मनुष्य बनने की चेष्टा करनी चाहिए । 

>>>8. गुरुगिरि करने के लिए नहीं, स्वामीजी का दास बनकर बोलना चाहिए।   

     हमलोगों को सदैव यही ध्यान में रखकर बोलने का अभ्यास करना चाहिए कि मैं लोगों तक स्वामीजी के संदेश को पहुँचाने के लिये ही बोल रहा हूँ, अपना नाम-यश पाने की इच्छा से नहीं । पुरूषार्थ की शक्ति, पवित्रता, दूसरों की सेवा करने की शक्ति, आत्मत्याग करने की क्षमता, यहाँ तक कि दूसरों के कल्याण के लिये अपने प्राणों की भी बलि चढ़ा देने की शक्ति प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित है। स्वामी विवेकानन्द के इसी प्रकार के स्वानुभूत सत्य को जन-जन तक विशेषकर अपने युवा भाईयों तक पहुँचा देना चाहता हूँ। और केवल इसी कार्य को पूरा करने के लिये मैं भी एक कुशल वक्ता बनना चाहता हूँ ।  यदि कोई व्यक्ति इसी प्रकार की भावना से अनुप्रेरित होकर व्याख्यान देगा तो वह भी एक सशक्त वक्ता बन जायेगा तथा प्रत्येक श्रोता उसके विचारों को ध्यानपूर्वक सुनेगा, उससे प्रभावित और अनुप्रेरित होगा ।

        यदि कोई व्यक्ति धन कमाने की इच्छा से प्रेरित होकर समाचार पत्रों में स्तम्भ लिखे तो,  निश्चित ही वह पर्याप्त धन भी अर्जित कर सकता है तथा अच्छा लिख भी सकता है। इस प्रकार से कई लोग समाचार पत्रों में अक्सर अपनी लिखी हुई कोई कविता, लेख, निबंध, कथा, कहानी इत्यादि  छपवाते रहते हैं। परन्तु मैं अपने मन में इस प्रकार की इच्छा रखकर कभी भी लेखन नहीं करना चाहता हूँ, फिर भी न जाने कहाँ से और कैसे मुझमें भी लेख और निबंध आदि लिखने की प्रबल इच्छा जब-तब उठती रहती है। मैं इस प्रकार के विचारोत्तेजक लेख लिखना चाहता हूँ कि जो कोई उन्हें एक बार भी पढ़े उसके मन में भी देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा जागृत हो जाय। बस इसी इच्छा से प्रेरित होकर मैं लिखना चाहता हूँ मेरे मन में इससे वाहवाही प्राप्त करने या अन्य कोई अवार्ड प्राप्त करने या कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं है। 

       यदि कोई व्यक्ति इस भावना से विचार करता हो तो वह निश्चित ही एक सशक्त लेखक बन सकता है। अतः महामण्डल शिविर के लिए कोई अपील या विवेक-अंजन पत्रिका के लिए कोई लेख आदि लिखते समय सभी महामण्डल नेताओं को इसी तरह की भावना रखनी चाहिए । हम अपनी भाषण कला, लेखन कला तथा सीखने की कला को उन्नत करना चाहते हैं, हमलोग हर संभव उपाय से अपने को उन्नत बनाना चाहते हैं क्योंकि तभी और केवल तभी हमें दूसरों की अधिक सेवा करने का विशेषाधिकार प्राप्त हो सकेगा। सभी नेताओं के अन्दर ऐसी ही भावना रहनी चाहिए ।

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🔱(7) महामण्डल के नेताओं का उत्तरदायित्व/ Responsibility of the leaders of the Mahamandal/ नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

(7) 

महामण्डल के नेताओं का उत्तरदायित्व 

 [Responsibility of the leaders of the Mahamandal]  

क >>>1 .

          भारत को पुनरूज्जीवित करने के लिये स्वामीजी की शिक्षाओं को अपने आचरण में उतार लेना एक अत्यन्त ही कठिन दायित्व है जिसे पूरा करने का संकल्प महामण्डल ने लिया है। किसी बड़े कार्य को बहुत ताम-झाम के साथ भी आरंभ किया जा सकता है विशेषकर किसी सांसारिक समारोह को आयोजित करते समय बड़े ही ताम-झाम का सहारा लेना पड़ता है। सांस्कृतिक उत्सवों को भी अत्यन्त आडम्बरयुक्त प्रदर्शन के साथ आयोजित होते देखा जा सकता है किन्तु स्वामी विवेकानन्द तथा उनके सहकर्मियों ने अपने कार्य का प्रारंभ बहुत ही विनम्रता के साथ किया था, किन्तु समय के साथ-साथ उनका आन्दोलन विश्वसनीय और शक्तिसंपन्न होता चला गया। उसी प्रकार महामण्डल भी बहुत सामान्य स्तर से अपने कार्य को प्रारम्भ करके अपनी शक्ति को दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ाते रहने के लिये कृत संकल्प है। इसीलिये महामण्डल किसी प्रकार के प्रचार या लोक प्रसिद्धि से बचता है ।

>>>2. 

           महामण्डल के नेताओं को पहले अपने मनोभावों को जाँच लेना चाहिए। उन्हें स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि मैं इस "Be and Make आन्दोलन" से क्यों जुड़ना चाहता हूँ? मैं कहीं नाम यश या अन्य किसी व्यक्तिगत स्वार्थ को पूरा करने के लिये तो इस आन्दोलन में अपना योगदान नहीं कर रहा हूँ ? यदि ऐसी ही कोई इच्छा किन्हीं भाई के मन में दबी हो तो उनसे अनुरोध है कि वे महामण्डल को अकेला छोड़ दें तथा केवल इस अभियान को कमजोर बनाने के लिये ही स्वयं को इस आन्दोलन से न जोड़ें। 

>>>3.  

          पर यदि उनके हृदय में त्याग का भाव है तथा केवल राष्ट्र की सेवा करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य हो, विशेष रूप से सदियों से प्रताड़ित और पददलित मनुष्यों के प्रति उनके हृदय में प्रेम और सेवा की इच्छा हो या स्वामीजी के प्रति तथा उनके आदशों के प्रति उनमें श्रद्धा का भाव हो तो वैसे सभी भाईयों का इस आन्दोलन में स्वागत है ।

>>>4. 

         चूँकि, यह एक निर्विवाद तथ्य है कि दो मनुष्य प्रत्येक दृष्टि से बिल्कुल एक जैसा या, कार्बन कॉपी की तरह कभी नहीं हो सकते, इसीलिये महामण्डल के नेताओं की समझ में भी भिन्नता होना स्वाभाविक है। [दुर्योधन 100 भाई सारे एक समान दुष्ट, पाण्डव 5 भाई कोई किसी की कार्बन कॉपी नहीं फिर भी उद्देश्य के प्रति एक। ] किन्तु, किसी भी स्थिति में ये भिन्नताएँ एक सीमा से अधिक नहीं बढ़नी चाहिए। अन्यथा वे महामण्डल गान को संघगीत की भावना से न गाकर केवल मुख से ही उच्चरित करते रहेंगे। "हमारे मन एक समान हों, हमारे विचार एक समान हों, इसी भावना के कारण प्राचीन काल में देवता लोग मनुष्यों से प्राप्त वस्तुओं को आपस में बाँट लिया करते थे" - संघबद्ध रहने की इस मूल भावना में कभी भटकाव नहीं आने देना चाहिए ।

      अतः महामण्डल के नेताओं को संघबद्ध रहते हुए मन, वचन एवं कर्मों में वांछनीय एकत्व बनाये रखने के लिये निम्नलिखित गुणों को अवश्य अर्जित करना चाहिए:-

(1) नेताओं को सर्वदा यही भावना रखते हुए नेतृत्व करना चाहिए कि "मैं इनका सेवक हूँ, मालिक नहीं ।" यदि वह यह चाहता हो कि दूसरे भी उसकी आज्ञा का पालन करें तो उसे भी दूसरों की आज्ञा का पालन करने के लिये सदैव तत्पर रहना चाहिए ।

 (2) उसमें दूसरों के प्रति समुचित श्रद्धा का भाव रहना चाहिए तथा अपने सहकर्मियों के प्रति हार्दिक प्रेम रहना चाहिए। 

( 3 ) उसको अवश्य ही एक अति कर्मठ मनुष्य बनना चाहिए तथा लगातार अथक परिश्रम करने की क्षमता भी रखनी चाहिए।

(4) उसको बहुत ही धीर और शांतचित्त बनना चाहिए तथा किसी भी परिस्थिति में अपना सिर ठण्डा रखते हुए पूरे धैर्य के साथ निष्पक्ष निर्णय लेने में समर्थ होना चाहिए ।

( 5 ) उसमें किसी भी समस्या की तह में जाकर उसकी छुपी हुई जटिलता को स्पष्ट रूप से देखते हुए सोच-समझकर स्पष्ट निर्णय लेने में सक्षम होना चाहिए।

(6) इसी स्पष्ट निर्णय लेने की क्षमता को बिना एक क्षण भी विलंब किये तत्काल और सही समय पर उपयोग में लाना चाहिए।

 (7) उसका व्यवहार समय, स्थान तथा 'पात्र' (शठ के साथ ? टेरेरिस्ट के साथ) के अनुरूप उचित तथा संतुलित होना चाहिए। उसको भावावेश में आकर निर्णय नहीं लेना चाहिए ।

( 8 ) उसको आज्ञाकारी अवश्य होना चाहिए तथा संगठन के समस्त  नियमों- अधिनियमों का पालन उचित ढंग से करना चाहिए। इतना ही नहीं यदि वह यह चाहता हो कि उसके कनीय सहकर्मी उसके सभी निर्देशों का पालन करें तो उसको भी अपने से वरिष्ठ नेताओं की आज्ञा का पालन अविलंब तथा तत्परता के साथ करना चाहिए।

 (9 ) उसको सर्वदा महामण्डल का अनुशासन बनाये रखना चाहिए। उसका व्यवहार तथा वाणी हर समय संयमित रहना चाहिए ताकि महामण्डल के बाहर या भीतर उसके आचरण को देखकर लोग महामण्डल या उसके सदस्यों के प्रति कोई ओछी धारणा न बना लें

( 10 ) उसको स्वयं को आजीवन एक विद्यार्थी ही मानना चाहिए तथा सीखना ही उसका धर्म होन चाहिए । उसको हर परिस्थिति से कुछ-न-कुछ अवश्य सीखते रहने की चेष्टा करनी चाहिए।

(11) उसको महामण्डल के समस्त  क्रिया-कलापों की अद्यतन जानकारी रखने के साथ ही साथ स्थानीय, राज्यस्तरीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाचक्रों की विस्तृत जानकारी भी रखनी चाहिए। [भू-राजनीतिक अनिश्चितता (Geopolitical uncertainties)  और भू-राजनीतिक घटनाओं (Geopolitical events) के साथ-साथ राष्ट्रीय सेंसेक्स (Bombay Sensex) , आज का रुपया-डॉलर मूल्य, सोना और पेट्रोल मूल्य का ज्ञान भी रखना चाहिए। 

(12) महामण्डल से जुड़ जाने के बाद उसे अपने समस्त पुराने राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक तथा सैद्धांतिक (फिलिस्तीन -हमास-इजराईल के बारे में) पूर्वाग्रहों को अवश्य त्याग देना चाहिए

(13) स्वच्छता का गुण एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण है, सभी नेताओं को इसे अवश्य चरित्रगत करना चाहिए । उसको शरीर, वाणी, कर्म,रोकड़-बही तथा महत्वपूर्ण अभिलेखों को बिल्कुल स्वच्छ रखने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए ।

( 14 ) उसका जीवन सुव्यवस्थित होना चाहिए। यदि उसकी अपनी दिनचर्या ही सुव्यवस्थित न होगी तो वह कभी भी प्रभावोत्पादक नेता नहीं बन सकता ।

(15) एक सफल नेता के लिए मन, वचन और कर्म में एकत्व रखना आवश्यक है।

( 16 ) उसको दूसरों को किसी कार्य का आदेश देने के पहले स्वयं उस कार्य को दक्षता के साथ सम्पादित करने में सक्षम होना चाहिए ।

 ( 17 ) उसको सदैव यह विश्वास रखना चाहिए कि मैं अवश्य ही एक प्रभावी नेता बन सकता हूँ। उसको अपने पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिए ।

(18) जब तक दूसरों को उसके नेतृत्व की आवश्यकता अनुभव न हो, उसे एक अनुयायी ही बने रहना चाहिए।

( 19 ) किन्तु जब कभी भी उसकी सेवाएँ आवश्यक हो जायें तो चाहे उसको कोई विभागीय पद दिया गया हो या नहीं, स्वतः आगे बढ़कर अपनी सेवा समर्पित करनी चाहिए ।

 🔱(20) महामण्डल का बिल्ला प्राप्त नेता चुन लिये जाने पर इठलाते हुए स्वयं के दूसरों से श्रेष्ठ होने के विचार को भी मन में उठने नहीं देना चाहिए। 

🔱(21) उसे जोशीला या अतिरिक्त ऊर्जावान् होने के साथ-साथ आत्मसंयमी और विनयशील भी होना चाहिए ।

(22) उसे वाक्पटु अवश्य होना चाहिए पर बातूनी नहीं बन जाना चाहिए ।

( 23 ) उसको दूरदर्शी अवश्य होना चाहिए तथा आगे आने वाली या संभावित घटनाओं को पहले ही भाँप लेने में सक्षम होना चाहिए।

( 24 ) उसको विवेक अवश्य रखना चाहिए अर्थात उसमें श्रेय - प्रेय का अन्तर समझने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए ।

(25) उसको किसी भी कार्य के लिए पहले से ही पूर्ण योजना बना लेने में कुशल होना चाहिए।

 (26) उसे समाज सेवा के पीछे छिपे यथार्थ उद्देश्य को सदैव याद रखने में सक्षम होना चाहिए। 

( 27 ) उसे यह बात सदैव याद रखनी चाहिए कि, बाकि सबों ने अपना काम कर लिया है , लेकिन अपनी मातृभूमि के प्रति जितनी सेवा समर्पित करने की जिम्मेदारी उसे सौंपी गई है उतनी निर्धारित सेवा उसे स्वयं ही करनी होगी ।

( 28 ) उसे इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि विभिन्न कल्याणकारी कार्यक्रमों का कोई मूल्य नहीं है यदि उसका वास्तविक लक्ष्य मनुष्य निर्माण न हो।

(29) नेता को प्रतिदिन विवेकानन्द साहित्य का अध्ययन पूरी निष्ठा के साथ करनी चाहिए।

( 30 ) उसे 'विवेक जीवन को नियमित रूप से पढ़ना चाहिए तथा महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तिकाओं को एक बार पढ़कर बैठ नहीं जाना चाहिए बल्कि बार-बार उसका अध्ययन करना चाहिए ।

( 31 ) उसे महामण्डल मुख्यालय से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखना चाहिए तथा सर्वोपरि कार्य यही है कि स्वयं अपने हृदय को ही विशाल बनाने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए।


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गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

🔱(6)नेता भी बनाये जा सकते हैं /नेता केवल पैदा ही नहीं होते, बल्कि प्रशिक्षित भी किये जा सकते हैं ! (Leaders are not only born, but can be trained also ! ) / नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण / ( Leadership : Concept and qualities -নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী )

 (6)

नेता भी बनाये जा सकते हैं 

(नेता केवल पैदा ही नहीं होते, बल्कि प्रशिक्षित भी किये जा सकते हैं) 

(Leaders are not only born, but can be trained also !)

>>>1. नचिकेता वाली श्रद्धा ही चरित्रनिर्माण की आधारशिला है। 

        ऐसी मान्यता चल पड़ी है कि नेता बनाये नहीं जा सकते, नेता पैदा होते हैं, यदि कोई 'व्यक्ति' जन्मजात ही नेता न हो तो उसे नेता , बनाया नहीं जा सकता । परन्तु सच्चाई तो यह है कि नेता भी बनाये जा सकते हैं । चरित्र को लेकर भी जनमानस में इसी प्रकार का भ्रम फैला हुआ है। सामान्यतः लोग यही मानते हैं कि चरित्र भी हममें जन्म के साथ अन्तर्निहित रहता है । परन्तु चरित्र को भी गढ़ा जा सकता है। 

      तथापि यह बात भी सत्य है कि, 'कुछ नहीं' से 'कुछ' भी निर्मित नहीं किया जा सकता है। श्रद्धा (आस्तिक्य बुद्धि, आत्मविश्वास, आत्मसम्मान) ही वह वस्तु है, वह 'कुछ है' जिसे चरित्र निर्माण की आधारशिला कही जा सकती है। नेताओं को निर्मित करने वाला नींव का पत्थर भी यह श्रद्धा ही है। सच तो यह है कि चरित्र गठन और नेता का निर्माण दोनों की प्रक्रिया में कई बातें समान हैं। इसीलिये केवल चरित्रवान मनुष्य ही सच्चे नेता हो सकते हैं, तथा सच्चे नेताओं का निर्माण कर सकते हैं।

>>>2. 

        यदि मैं स्वयं को सन्मार्ग पर रखने में समर्थ हो सकता हूँ, तभी मैं दूसरों को भी सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा दे सकता हूँ। नेतृत्व करने के लिए जिन लोगों का आह्वान किया जा रहा है उनमें पहले से ही नेतृत्व का यह मूलभूत भाव होना चाहिए । नेतृत्व का यह भाव मनुष्य में तब जन्म लेता है जब चरित्र के कुछ गुण जैसे आत्मविश्वास, आत्मश्रद्धा, प्रेम तथा सहानुभूति एवं दूसरों को कष्ट से मुक्त कर देने की अदम्य इच्छा उसकी अधिकृत सम्पत्ति हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरों को अपना हृदय विशाल बनाने में हर संभव सहायता देने के पहले हमारे हृदय को विशाल होना चाहिए ।  नेता को स्पष्ट रूप से अपने उद्देश्य का ज्ञान होना चाहिए। तथा उस लक्ष्य को प्राप्त करने के उपायों को भी अवश्य जान लेना चाहिए । महामण्डल आन्दोलन का लक्ष्य अपने राष्ट्र को पुनरूज्जीवित करने एवं इसे आगे ले जाने में समर्थ नेताओं को तैयार करना है । हमें महामण्डल आन्दोलन की आत्मा को अवश्य समझ लेना चाहिए। 

    हम किसी बहुत ही चमत्कारी परिणाम पाने की इच्छा नहीं रखते हैं। बल्कि हमलोग स्वामीजी की शिक्षाओं को विनम्र ढंग से जन-जन तक पहुँचाना चाहते हैं। हमारे आन्दोलन का लक्ष्य है मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन लाकर, चरित्रवान नागरिकों का निर्माण करना और उसी प्रकार से पूरे समाज और राष्ट्र के चरित्र को उन्नत करना । निश्चित रूप से 'Be & Make' अर्थात 'मनुष्य बनो और बनाओ ' का यह अभियान, 'चरैवेति, चरैवेति' मंथर गति से चलेगा, इसमें समय लगना स्वाभाविक है

>>>3. 

     'आन्दोलन' शब्द के विषय में शिक्षित एवं प्रबुद्ध समाज में भी एक प्रकार की भ्रान्त धारणा घर कर गई है। अधिकांश लोग ऐसा मानते हैं कि किसी भी आन्दोलन को प्रभावकारी बनाने के लिये उसकी गति में तीव्रता का होना आवश्यक है। यदि कोई आन्दोलन धीमी गति से, किन्तु निश्चित दिशा में आगे बढ़ रहा हो तो,  उस आन्दोलन का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य ही नहीं होता है। व्यवहारिक रूप से इस प्रकार का विचार किसी आन्दोलन के दिशा या उद्देश्य के प्रश्न से ही हमें विमुख कर देता है। 

      जबकि सच्चाई तो यह है कि यदि किसी आन्दोलन का कोई लक्ष्य या पूर्व निर्धारित दिशा ही नहीं रहे तो वैसे आन्दोलन की तीव्रता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। क्या किसी लक्ष्यविहीन, उन्मत्त आन्दोलन [जैसे नक्सल ?] का जिसकी कोई दिशा भी निर्धारित न हो उसका कुछ मूल्य हो सकता है?  इसीलिये किसी भी अच्छे और कल्याणकारी आन्दोलन के लिये एक पूर्व निर्धारित लक्ष्य तथा सही दिशा में आगे बढ़ते रहना ही अधिक महत्वपूर्ण है, उसकी गति मंद हो या तीव्र उससे कोई अन्तर नहीं पड़ता

>>>4. 

         अपने राष्ट्र भारतवर्ष को पुनरूज्जीवित करने के लिये पहली आवश्यकता- यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करने की है; अर्थात आज के भारत की प्रथम आवश्यकता  बहुत बड़ी संख्या में आत्मविद (ब्रह्मविद-मनुष्यों का निर्माण करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ) जीवनमुक्त शिक्षकों की ही है। जबकि आज हमारे विकास तथा नवनिर्माण की सभी योजनाएँ मनुष्य के बाहरी ढांचे को परिवर्तित करने के लिये ही बनाई जा रही हैं और मनुष्य के अन्तःकरण में परिवर्तन लाने की ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। 

      महामण्डल आन्दोलन का लक्ष्य 'मनुष्य' के बाह्य ढांचे में बदलाव लाने के बजाय उसके अन्तःकरण को सुसंस्कृत बनाना है । निःसन्देह यह प्रक्रिया कभी तीव्र गति से नहीं चलायी जा सकती । किन्तु, एक बहुत बड़ी शंका यहाँ यह उठ खड़ी होती है कि क्या हमलोग अपने वर्तमान सीमित साधनों के बल पर (अन्तःकरण को सुसंस्कृत करने यानि मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देने में समर्थ सीमित संख्या में प्रशिक्षित और जीवनमुक्त शिक्षकों की बल पर देश के एक अरब चालीस करोड़ लोगों के अन्तःकरण को सुसंस्कृत करने के) अपने उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में थोड़ा भी आगे बढ़ पायेंगे ? इस स्थिति में हम अपने अन्दर नचिकेता जैसी श्रद्धा जाग्रत करने से बेहतर कुछ नहीं कर सकते। हमें भी नचिकेता के समान अपने अन्दर वह श्रद्धा सदैव जाग्रत रखना चाहिए कि "ठीक है हम सर्वश्रेष्ठ नेता (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ?) नहीं हैं परन्तु बिल्कुल ही निकृष्ट तो हम कभी भी नहीं हैं।"

 >>>5. 

          प्रत्येक युवा को अपनी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति को सुदृढ़ कर प्रचण्ड क्रियाशक्ति का पुंज बन जाना चाहिए | बिखरी हुई इच्छाशक्ति का समन्वय ही सफलता का रहस्य है। प्रत्येक युवा के भीतर अनन्त ऊर्जा सन्निहित है किन्तु उसे आवश्यकता उस चाबी की है (आत्मसाक्षात्कार की है) जिससे वह अपनी आन्तरिक ऊर्जा के द्वार को, बन्द हृदय के दरवाजे को खोलने में समर्थ हो जाये । सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए अनन्त ऊर्जा से भरपूर इन अलग-अलग हृदय केन्द्रों को एक समन्वयकारी सूत्र में पिरो देने की चेष्टा करनी होगी। अपने देशवासियों को शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक दुःखों से मुक्त कराने का तथा सम्पूर्ण राष्ट्र को पुनरूज्जीवित करने का यही एकमात्र उपाय है।

>>>6. 

        हमलोगों को निम्न कोटि की स्वाधीनता प्राप्त करके ही संतुष्ट नहीं बने रहना है। बल्कि अब हमें उच्च कोटि की स्वाधीनता प्राप्त करनी है । राजनैतिक स्वाधीनता से भी उच्चतर नैतिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता (योग-एकाग्रता -समाधि परमानन्द)  प्राप्त करने के लिए इस आन्दोलन को आगे बढ़ाते रहना होगा । राजनीतिक दृष्टि से स्वाधीन भारत में हमलोगों ने अभी तक स्वामीजी के उपदेशों की उपेक्षा ही की है और इसी कारण हम आज भी उच्चतर कोटि की स्वाधीनता से वंचित हैं। वर्तमान भारत में कितने ऐसे नेता हुए हैं जिन्होंने भारत की जनता के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया हो ? शायद एक भी नहीं । परन्तुः स्वामी विवेकानन्द बिल्कुल एक ऐसे ही मनुष्य थे। इसीलिये स्वामीजी ही आज भी हमारे नेता हैं। अपने देशवासियों को उच्च श्रेणी की स्वाधीनता दिलाने के लिये महामण्डल स्वामीजी के उपदेशों को जीवन में उतार कर 'यथार्थ मनुष्य बनो और बनाओ' का यह आन्दोलन विगत 56 वर्षों से चला रहा है

          इतना सब कुछ समझ लेने के बाद भी, क्या हमलोग पने निजी स्वार्थपूर्ण क्षुद्र इन्द्रिय विषय- भोगों के पीछे ही दौड़ते रहेंगे ? क्या हमलोग इतने तुच्छ हैं कि क्षणिक भोग-वासनाओं को तुष्ट करने में ही पूरा जीवन बिता देंगे ? विषय भोगों से तो मन की परितृप्ति तो कभी हो ही नहीं सकती, राजा ययाति की कथा से यह सीख लेकर;  हमें यह समझ लेना होगा कि स्थायी सुख केवल तभी मिल सकता है जब हम अपने सुख-दुःख को उन करोड़ों देशवासियों की हताशा और पीड़ा के साथ एक करके देखने में सक्षम हो जायेंगे।

>>>7. Long term plan- (B) of Mahamandal:महामण्डल की दीर्घकालिक योजना

       क्या महामण्डल देश की दशा सुधारने के लिये संसद भवन या विधान सभा में अपने सदस्यों MP/MLA के रूप में  भेजना चाहता है ? नहीं, ऐसे विचारों से महामण्डल का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है ? महामण्डल का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। यह समाज के ताने-बाने में परिवर्तन लाकर समाज के चेहरे को ही बदल डालना चाहता है महामण्डल की दीर्घकालिक योजना है। सुचरित्रसंपन्न, सदाचार से युक्त कुछ वैसे नेताओं को गढ़ लेने में सफलता पाई जाये जो दूसरों को भी अपना चरित्र गठन करने के लिये अनुप्रेरित करने में समर्थ हों फिर यही प्रक्रिया कुछ वर्षों के बाद देश में परिवर्तन ला कर उसे महानता के शिखर पर पहुँचा देगी 

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