(9)
नेतृत्व में स्वतंत्रता
Freedom in Leadership
[>>>#1. स्वामी विवेकानंद -कैप्टन सेवियर यम-नचिकेता प्रशिक्षण परम्परा' अर्थात "वेदान्त डिण्डिम लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा" एवं C-IN-C नवनी दा के नेतृत्व में गठित- "Be and Make : महामण्डल आन्दोलन" की मूल भावना एवं उसके उद्भव का प्रामाणिक इतिहास। : The Fundamental Spirit and the Authentic History of the "Be and Make Mahamandal Movement "]
महामण्डल संगठन से जुड़े विभिन्न केन्द्रों में कार्यरत नेताओं के लिए केवल इस आन्दोलन की मूल भावना #1 को पकड़े रहना ही आवश्यक है। यदि हमलोग इस 'Be and Make' आन्दोलन की पृष्ठभूमि में स्थित मूल भाव को किसी प्रकार पकड़ लें तो, उससे ही शेष कार्य पूरा हो जायेगा। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द द्वारा पूर्व-निर्धारित उद्देश्य 'भारत का कल्याण' के प्रति समर्पित किसी अखिल भारत युवा संगठन के समस्त कार्यक्रमों को इसके केन्द्रीय मुख्यालय से आदेश देकर लिखवाया नहीं जा सकता। महामण्डल की 'C-IN-C' परम्परा में प्रशिक्षित नेता का कार्य हर समय केवल आदेश देते रहना, नहीं होना चाहिए।
इस समय देश के 12 राज्यों में महामण्डल के 300 से भी अधिक विभिन्न शाखाओं (branches) में 'Be and Make' कार्य चल रहा है। किन्तु, कहाँ और किस केन्द्र को क्या-क्या कार्यक्रम चलाना होगा वैसा कोई आदेश हमलोग यहीं से नहीं देते रहते हैं। हमलोग उन केन्द्रों द्वारा भेजे गये रिपोर्टों में केवल इसी बात पर ध्यान देते हैं कि इनके द्वारा किये गए कार्यक्रम या योजना के क्रियान्वयन में महामण्डल आन्दोलन के मूल भावों तथा सिद्धांतों का (3H विकास के 5 अभ्यास) पालन किया गया है या नहीं ? इतना ध्यान रखना ही यथेष्ट होता है।
>>>2. 'विविधता में एकता' और 'धर्म के क्षेत्र में भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था' कायम रखने वाली रखने वाली प्राचीन भारतीय संस्कृति के आनन्द # से हम वंचित नहीं होना चाहते। ]
अलग-अलग केन्द्रों द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के तौर-तरीकों में अन्तर हो सकता है और वैसा होना भी चाहिए। किसी भी लक्ष्य तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हो सकते हैं- (As many faiths , so many ways : जितने मत, उतने पथ !) और इसमें कोई बुराई भी नहीं है बल्कि वैसा होना निश्चित रूप से ही अच्छा है। यहाँ तक कि परम सत्य के साथ एकत्व की अनुभूति के लिये भी विभिन्न मार्ग होते हैं। यदि सभी केन्द्रों पर एक ही ढंग से कार्य करने की पाबन्दी लगा दी जायेगी तो विभिन्न राज्यों के युवाओं के विविध चित्त-वृत्तियों तथा विविध सांस्कृतिक पहलुओं के अनुरूप जो नई-नई प्रणालियाँ तथा नियम आविष्कृत हो सकते हैं, वे हमेशा के लिए अज्ञात और अनाविष्कृत ही रह जाएंगे।
ऐसी स्थिति में परम सत्य को हर दृष्टि से जानने, समझने तथा अनुभव करने के आनन्द से हमलोग वंचित ही रह जाएंगे। इसीलिये हमारे देश में विशेष रूप से धार्मिक क्षेत्र में इसी प्रजातांत्रिक प्रणाली (democratic system) को स्वीकार किया जाता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं, वर्तमान युग में अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव ही ऐसे महान नेता हैं जिन्होंने भारत के आध्यात्मिक प्रजातंत्र को सम्पूर्ण विश्व में पुनः स्थापित कर दिया। उनके इस धराधाम पर अवतरित होने से पूर्व तक विश्व भर में धर्म, दर्शन, तात्विक ज्ञान तथा आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में भी घोर अराजकता का ही बोल-बाला था । परन्तु श्रीरामकृष्णदेव ने समस्त धर्मों (Religions) और आध्यात्मिकता (spirituality) के क्षेत्र में समन्वय लाकर, सम्पूर्ण विश्व के धार्मिक क्षेत्र में इस प्रजातांत्रिक प्रणाली को पुनः एक बार स्थापित कर दिया है।
इसीलिये महामण्डल के प्रत्येक शाखा में प्रजातांत्रिक प्रणाली के अनुसार ही समस्त कार्यक्रमों को चलाना चाहिए तथा उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता भी दी जानी चाहिए। केवल इसका ध्यान रखना चाहिए कि आन्दोलन अपनी मूल भावना 'Be and Make' से कभी भी विचलित न हो। [ केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि गीता और उपनिषद (वेदान्त) की शिक्षाओं में आधारित महामण्डल के "निर्भय मनुष्य बनो और बनाओ" आन्दोलन (Mahamandal's 'Be and Make fearless Men' Movement) के माध्यम से -'भयमुक्त और प्रेममय मनुष्य' - अर्थात 'ब्रह्मविद' नेता-पैगम्बर या जीवनमुक्त शिक्षक' बनने और बनाने के मूल उद्देश्य से कभी भी विचलित न हो।]
इस आदर्श को किसी भी मूल्य पर न तो छोड़ना चाहिए न ही हल्का करना चाहिए, न ही उसे नीचा करना चाहिए। यह सावधानी सदा बनाये रखनी चाहिए । किन्तु जहाँ तक आयोजनों का ब्यौरा विस्तार पूर्वक देने का प्रश्न है, उनके ऊपर कोई भी दबाव नहीं डालना चाहिए । केन्द्रों को अन्य राज्यों के या विभिन्न शाखाओं के महामण्डल कार्यक्रमों में किसी भी प्रकार की कट्टरता का लबादा ओढ़ाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए।
🔱>>>3. महामण्डल की प्रत्येक शाखा का नेता अनूठा होगा, किन्तु मुख्यालय के द्वारा निर्देशित वित्तीय-अनुशासन आदि के प्रति निष्ठावान होगा, तथापि मुख्यालय एवं विभिन्न राज्यों की शाखायें परस्पर कार्बन कॉपी नहीं बनेंगी। ]
नेतृत्व के क्षेत्र में भी इसी सिद्धान्त का पालन होना चाहिए। प्रत्येक नेता को सभी दृष्टि से एक समान या किसी एक की ही कार्बन कॉपी होने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए। किसी विशेष नेता की वेशभूषा, हावभाव से समान प्रतीक चिह धारण करने की भी आवश्यकता नहीं है। यदि सभी नेता एक ही प्रकार के हो जायेंगे तो उनके द्वारा सर्वोत्तम कार्य नहीं हो पायेगा । यदि विभिन्न केन्द्रों के माध्यम से महामण्डल की योजनाओं को क्रियान्वित करने में 300 से भी अधिक नेता (PR) लगे हुए हों तथा केन्द्रीय संगठन [महामण्डल मुख्यालय ] की कार्यकारिणी समीति के कार्यों का निरीक्षण और प्रबन्धन की जिम्मेदारी भी इन्हीं के ऊपर हो; एवं ये सभी 300 नेता प्रत्येक दृष्टि से एक-दूसरे के कार्बन कॉपी जैसे दिखते हों - तो हो सकता है कि कुछ लोग बोल पड़ें वाह ! क्या खूब ! बड़ा ही अच्छा कार्य हुआ है, सचमुच सभी के सभी मूल प्रति [CINC नवनीदा] की सच्ची प्रतिलिपि [धोती-चादर-चश्मा में अनिन्दो] जैसे ही दिखते हैं । तो हम निश्चिन्त हुए ! अब हमारा मूल आदर्श निश्चित ही अक्षुण्ण बना रहेगा। परन्तु ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है।
क्योंकि यदि प्रत्येक नेता अपने आप में अनूठा हो तथा सभी चरित्र के विभिन्न गुणों से समान रूप से विभूषित रहें एवं सभी नेता महामण्डल के मूल सिद्धांत से पूर्ण परिचित हों तो महामण्डल आन्दोलन जिस उद्देश्य के प्रति समर्पित हो कर कार्यरत है उसका परिणाम भी निश्चित ही उत्तम कोटि का होगा। जब एक ही उद्देश्य को धरातल पर उतारने के लिये, विविध प्रतिभासंपन्न 300 नेता महामण्डल के कार्यक्रमों तथा योजनाओं को अपने-अपने ढंग से क्रियान्वित करने में लग जायेंगे तो एक ही आदर्श कई रूपों में जनता के सामने प्रकट होगा।
एक ही व्यंजन भले ही वह कितना भी महंगा और स्वादिष्ट क्यों न हो सभी लोगों को संतुष्टि नहीं प्रदान कर सकता । किन्तु, इसके विपरीत यदि सस्ता व्यंजन ही हो, पर उसमें विविधता रहे तो सभी लोग अपनी-अपनी रूचि के अनुसार भोजन करके संतुष्ट हो जायेंगे। स्वयं श्रीरामकृष्णदेव भी कहा करते थे- "मिश्रीकन्द को एक ही ढंग से क्यों खाना चाहिए? मैं जानता हूँ कि सत्य केवल एक है, परन्तु मैं उसी सत्य के विभिन्न स्वादों का आनन्द पाना चाहूँगा।"
>>>4. प्रत्येक शाखा के महामण्डल के नेता में 'स्वतंत्र' रूप से और 'स्व-विवेक' से निर्णय लेने की क्षमता रहना अनिवार्य है।
महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों को भी इसी प्रकार मूल आदर्श से विचलित हुए बिना यदि अपने-अपने ढंग से योजनाओं के क्रियान्वयन में स्वतंत्रता दे दी जाये तो उससे कोई हानि तो नहीं ही होगी उल्टे सभी स्वयं सोच-सोच कर नये-नये सिद्धांतों का आविष्कार करने में समर्थ होंगे। महामण्डल के सभी कर्मियों को स्वयं यह निर्णय करना होगा कि हम जिस ढंग से कार्यक्रम चला रहे हैं उससे महामण्डल आन्दोलन की मूल भावना कहीं आहत या हल्की तो नहीं हो रही है ? किसी भी कीमत पर ऐसा होने देने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। प्रत्येक महामण्डल शाखा के नेता में स्व-विवेक से ही निर्णय लेने की क्षमता रहनी चाहिए। यह एक उत्तम प्रणाली है।
हम कभी ऐसा नहीं कहते कि यहाँ केन्द्रीय मुख्यालय में कोई ऐसा व्यक्ति बैठा है, जो अकेले सभी प्रकार के निर्णय लेता रहेगा । आपलोग अपनी-अपनी समस्याओं को उसके समक्ष रखेंगे तथा अपने-अपने सुझाव भी दे सकेंगे पर निर्णय लेने का अधिकार केवल उसके ही हाथों में रहेगा। वह जैसा भी आदेश जारी करेगा उसे सभी मानने के लिये बाध्य होंगे। - नहीं, यह हमारी कार्य पद्धति नहीं है।
हमारी कार्य प्रणाली इस प्रकार है- आओ हम सभी एक साथ मिल-बैठकर किसी निर्णय पर पहुँचें । प्रत्येक व्यक्ति को अपना सुझाव देने की छूट है ताकि धीरे-धीरे इस प्रणाली के द्वारा सभी नेता उचित निर्णय लेने में समर्थ हो जायें । परन्तु किसी स्थान पर महामण्डल केन्द्र को प्रारम्भ करते समय जब वहाँ के नेताओं ने अभी-अभी निर्णय लेना शुरू ही किया हो तो महामण्डल के वरिष्ठ नेता (केन्द्रीय कार्यकारिणी समीति) बिना हस्तक्षेप किये, दूर से ही दृष्टि रखेंगे कि वहाँ के युवक नेतृत्व के सार को समझकर निर्णय लेने में समर्थ हैं या नहीं। थोड़ी दूर से ही यह परखते रहना है कि किसी वरिष्ठ नेता ('R-M' da) के द्वारा लिया गया कोई गलत निर्णय (पैसा लेकर या विदेशी फंड से चंदा कम्प्यूटर ट्रेनिंग) पूरे अभियान को ही विपरीत दिशा में तो नहीं ले जायेगा। इसी प्रणाली से अच्छा नेतृत्व उभर कर सामने आ सकता है।
>>>5. दूसरों से अधिक सुविधा पाना हमारा मकसद नहीं होगा, दूसरों अधिक सेवा करना हमारा मकसद होगा। 'सिरदार तब सरदार ' -राजनितिक नेताओं से भिन्न मलाई खाने में पीछे -सिर कटाने में आगे।
हमें स्वयं को सच्चे नेता में परिणत करने का अभियान निरन्तर चलाते रहना होगा। यही हमारा कर्तव्य भी है। हमें यही विचार करना चाहिए कि किस प्रकार मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवाएँ दे सकता हूँ। सभी सदस्यों को किसी न किसी सेवा कार्य में अपना योगदान अवश्य देना चाहिए, किन्तु उनमें से ही कुछ लोगों को इस प्रकार अवश्य ही सोचना चाहिए कि "मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करूंगा। सभी लोग तो थोड़ा-बहुत सेवा कार्य करते ही हैं किन्तु, मैं उतना करके ही संतुष्ट नहीं रहूँगा। क्या मुझे भी केवल इतना करके ही संतुष्ट हो जाना चाहिए?”
महामण्डल का सदस्य बन जाऊँ, कुछ सेवा कार्य भी करूँ, ऐसी इच्छा रखना बहुत अच्छा है परन्तु, कम से कम इन सहकर्मियों में से कुछ लोगों के मन में ऐसी भावना भी रहनी चाहिए कि मैं दूसरों की अपेक्षा अधिक जिम्मेवारी स्वयं आगे बढ़ कर उठा लूंगा। जिनमें अधिक कार्य क्षमता हो, उन्हें दूसरों का मार्गदर्शन करने के लिये स्वतः आगे आना चाहिए ताकि वे दूसरों को भी अधिक कार्य करने के लिए अनुप्रेरित कर सकें। उन्हें स्वयं आगे बढ़कर इस मनुष्य निर्माणकारी आन्दोलन को भारतवर्ष के कोने-कोने में फैला देने में समर्थ अधिक संख्या में प्रशिक्षित नेताओं का निर्माण करके, इस कार्य को अधिक से अधिक व्यापक बनाने में इस प्रकार सहायता करनी चाहिए जिससे कि यह आन्दोलन आगामी 10-20 वर्षों में ही हमारी मातृभूमि को पूरी तरह आप्लावित कर दे ।
<<<<<<<<<<<<0000000========0000000>>>>>>>
व्याख्या >>> #1: महामण्डल आन्दोलन के पीछे की मूल भावना > भारत के 12 राज्यों में महामण्डल के 300 केन्द्रों को संचालित करने वाली शाखाओं के संचालकों तथा सभी आंचलिक (Zonal) मार्गदर्शन समीति एवं 'अन्तर राज्यीय मार्गदर्शन समीति' [Inter-State Monitoring Committee] के समस्त नेताओं को महामण्डल मुख्यालय (Headquarter) : 6/1 A, Justice Manmatha Mukherjee Row, Kolkata - 700009) से या किसी एक नेता 'C-IN-C' (नवनीदा) के आदेश से निर्देशित नहीं किया जा सकता। इसीलिए सभी केन्द्र के नेता को महामण्डल आन्दोलन के पीछे की मूल भावना (fundamental Spirit of Mahamandal) को पकडे रहना तथा इसके आविर्भूत होने का प्रामाणिक इतिहास (authentic history) से परिचित होना आवश्यक है ।
महामण्डल पुस्तिका 'A New Youth Movement' के प्रथम अध्याय में ही इस आन्दोलन के पीछे की मूलभावना को स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यह आन्दोलन गीता और उपनिषदों की (वेदान्त डिण्डिम -ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या विवेक-प्रयोग ) प्रशिक्षण के द्वारा स्वयं निर्भीक मनुष्य (ब्रह्मविद) बनो और दूसरों को भी निर्भीक (ब्रह्मविद) बनने में सहायता करो > के वैज्ञानिक प्रस्ताव पर आधारित है। महामण्डल की अंग्रेजी पुस्तिका " A NEW YOUTH MOVEMENT " में नवनी दा लिखते हैं -
" कोई सामान्य व्यक्ति जैसे ही स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़े किसी संगठन के विषय में सुनता है, तो उनकी कल्पना शक्ति उसे समाज के अंतिम सिरे पर स्थित पददलित और दीन-हीन मनुष्यों की सेवा के क्षेत्र में ले जाती है। और यह सही भी है कि स्वामी जी ऐसे कार्य होते हुए अवश्य देखना चाहते थे।
किन्तु उन्होंने इस प्रकार के कार्य को आरम्भ करने से पहले आत्मविकास कर इन कार्यों को सम्पादित करने योग्य "मनुष्य" बनने का जो निर्देश दिया है उसे हम प्रायः भूल जाते हैं। प्राथमिक शिक्षा या स्कूली शिक्षा समाप्त किये बिना ही हमलोग कॉलेज में प्रवेश लेने के लिये दौड़ पड़ते हैं। और हमारी बुद्धि हमें यहीं धोखा दे जाती है! इसीलिये गीता (2.49) में भगवान श्रीकृष्ण हमें में समत्वबुद्धि की शरण लेने का उपदेश देते हैं -
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
गीता (2.49)
[ दूरेण, हि, अवरं, कर्म, बुद्धियोगात्, धनञ्जय । बुद्धौ, शरणम्, अन्विच्छ, कृपणाः, फलहेतवः ॥]
"हे अर्जुन, निःस्वार्थ भाव से किए गए कर्म की तुलना में (स्वार्थ/ऐषणाओं की इच्छा से किया गया) सकाम कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं। स्वार्थ से प्रेरित होकर कर्म करने वाले कृपण या छोटे-मन वाले (दीन) होते हैं। क्योंकि स्वार्थ के लिए किया गया कोई भी कार्य बहुत ही हीन होता है।" और उपनिषद के ऋषि [छान्दोग्य उपनिषद (1.1.10)] हमें विद्या की शरण में जाने की सीख देते हुए कहते हैं-
"तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद,
नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति।
श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति,
खल्वेतस्यैवाक्षरस्योपव्याख्यानं भवति॥"
छान्दोग्य उपनिषद (1.1.10)
अर्थात कोई ऐसा सोच सकता है कि ओम के रहस्य को जाने वाला (ब्रह्मवेत्ता) और दूसरा ओम के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर एक ही तरह का यज्ञ- "Be and Make " करे तो उसमें दोनों को समान फल मिलेंगे। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। विद्या और अविद्या दोनों भिन्न हैं, अतः (ॐ या) ब्रह्म का ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं।
यदि हम केवल विद्या की उपासना करेंगे तो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें भोजन, वस्त्र ,आवास आदि कौन जुटायेगा? इन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के लिये अविद्या का सहारा भी लेना पड़ता है । अर्थात विद्या (अर्थात योगविद्या -Eastern Mysticism) और अविद्या (Western Science- Quantum Physics ) मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए।
>>>(i.) Swami Vivekananda's project "Be and Make" (स्वामी विवेकानन्द की परियोजना "Be and Make") : महामण्डल आन्दोलन की यह "Be and Make" परियोजना स्वामी विवेकानन्द द्वारा पूर्वनिर्धारित है तथा गीता और उपनिषद द्वारा निर्देशित उपरोक्त प्रस्तावों का पूर्णरूपेण अनुसरण करती है! यही कारण है कि उनके द्वारा निर्देशित समाज सेवा, अन्य सभी प्रकार की समाज सेवा से बिल्कुल भिन्न है। महामण्डल थोक भाव में विदेशों से आयातित समाज सुधार के सिद्धान्तों एवं समाजसेवी संस्थाओं की कार्य पद्धति का अनुसरण नहीं करता, बल्कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त योजना का ही अनुसरण करना चाहता है।
>>>(ii.) जानिबीघा कैम्प 2023 का आनन्द # उदाहरण के लिए पितृपक्ष श्राद्ध और 'हथिया नक्षत्र' के महत्व को हम नहीं समझ पाते यदि में गया के विष्णुपद गदाधर धाम मन्दिर के निकट- "यम -नचिकेता बैनर" के साथ आयोजित जानिबीघा कैम्प में यदि सियालदह से दो ट्रेन कैंसल होने के बावजूद, कोलकाता के त्रिभाषी स्पीकर अनूप दत्ता, प्रमोद दा, 'ब्रह्मविद धर्मेन्द्र ' के साथ कार से कैम्प साइट नहीं पहुँचते। लौटते समय अजय के कारबैटरी- टेस्ट प्रकरण का अनुभव, आनन्द सिंह फौजी के पिता बिडियो साहब की पालकी के बदले वोट मांगने के लिए कैम्प में गया के '6time MLA' मिनिस्टर का protocol प्राप्त-चन्द्रवंशी प्रेम कुमार के 'आगमन' के आनन्द से भी वंचित रह जाते। ]
>>>(iii.) महामण्डल की प्रत्येक शाखा का नेता अनूठा होगा, किन्तु मुख्यालय के द्वारा निर्देशित वित्तीय-अनुशासन आदि के प्रति निष्ठावान होगा, तथापि मुख्यालय एवं विभिन्न राज्यों की शाखायें परस्पर कार्बन कॉपी नहीं बनेंगी। ]
व्याख्या >>> #2 1967 में स्थापित 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के उद्भव का प्रामाणिक इतिहास : "7th Interstate Youth Training Camp- 2019" : आर.पी मोदी स्कूल, झुमरीतिलैया (झारखण्ड) में आयोजित " सातवें अन्तर राज्जीय युवा प्रशिक्षण शिविर' के उद्घाटन सत्र में महामण्डल के तात्कालीन महासचिव (उस इन्टरस्टेट कैम्प के C-IN-C) श्री बिरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती द्वारा अंग्रेजी में प्रदत्त भाषण का हिन्दी अनुवाद :
[N.B. '1967 में स्थापित महामण्डल आन्दोलन' के उद्भव का प्रामाणिक इतिहास विषय पर बीरेन दा द्वारा "7th इन्टरस्टेट कैम्प" में दिया गया अंग्रेजी भाषण। (यह भाषण केवल 'विवेक-अंजन के इंटरनेट संस्करण' पर ही पब्लिश हुआ था। उसका हिन्दी अनुवाद महामण्डल के मासिक पत्रिका 'विवेक -अंजन' में भी छपना चाहिए। इस पर एक बैठक अजय-रामचन्द्र जी मिश्र की उपस्थिति में आयोजित करना है।]
" मेरे आदरणीय और प्रिय मित्र श्री बिजय सिंह के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने 1987 से (उस समय झारखण्ड -बिहार एक ही राज्य था ) वास्तव में इस क्षेत्र में, तथा देश के कुछ अन्य राज्यों में महामण्डल भावधारा का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया था। और तब से लेकर अभी तक महामण्डल एवं स्वामी विवेकानन्द विचारधारा को भारत के बड़े भूभाग तक फैला देने के लिये अथक परिश्रम करते चले आ रहे हैं। मैं अन्य सभी पूर्व वक्ताओं के प्रति भी अपना आभार और धन्यवाद व्यक्त करता हूँ , जिन्होंने अपने विचारों को इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया कि मुझे उनसे कुछ सीखने को मिला , और उन्होंने मेरे कार्य को भी आसान बना दिया है।
आमतौर से महामंडल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर के किसी भी उद्घाटन सत्र में, हमलोग लंबे भाषण की अनुमति नहीं देते हैं। क्योंकि शिविरार्थी लोग दूर-दराज के क्षेत्रों से आये हुए हैं, इसलिये वे थोड़ी थकान महसूस करते होंगे। उन्हें शाम को बहुत हल्का टिफिन प्रदान किया गया है, इसलिये अभी वे बेकल हैं। इसलिए मुझे लगता है कि भाषण को बड़ा करना जरूरी नहीं है, अतः मैं अपने वक्तव्य को बहुत संक्षेप में रखूँगा। क्योंकि अधिकांश campers नये हैं (पहली बार आये हैं), इसलिए इस शिविर के उद्घाटनकर्ता के रूप में ही नहीं, बल्कि इस संगठन के महासचिव (General Secretary) के रूप में- महामण्डल की मूल भावना (Fundamental Spirit) और आविर्भूत होने का प्रामाणिक इतिहास (authentic history) से मैं उनका परिचय कराना चाहूँगा ।
महामंडल की स्थापना स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा को युवाओं के बीच फैला देने के उद्देश्य से, 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने के बीस साल बाद 1967 में हुई थी। इस युवा संगठन के आविर्भूत होने का मुख्य कारण 1967 के आसपास ही उत्तरी बंगाल के एक गाँव नक्सलबाड़ी से प्रारम्भ हुआ एक 'सशस्त्र' किसान आन्दोलन (Agrarian Movement)# था। जिसकी चिंगारी आगे चलकर भारत के कुछ अन्य पूर्वी राज्यों - उड़ीसा , छत्तीसगढ़ , बिहार तथा दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों -विशेष रूप से आन्ध्र प्रदेश तक फ़ैल गया था। (शायद इसी कारण महामण्डल के सबसे अधिक केन्द्र, पश्चिमी भारत की अपेक्षा, पूर्वी भारत के इन्हीं राज्यों में सक्रीय भी है?)
[>>> 'नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन' # :(Naxalbari Agrarian Movement) चीन में एक कम्युनिस्ट नेता हुए नाम था- माओ त्से तुंग। माओ ने एक बार कहा था- 'एक चिंगारी सारे जंगल में आग लगा देती है। ' माओ वही नेता थे जिन्होंने चीन में सशस्त्र क्रांति की थी। पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी जिले में एक गांव पड़ता है- नाम है- नक्सलबाड़ी। नक्सलबाड़ी गांव में भी आज से 56 साल पहले, इसी तर्ज पर 1967 में एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ था, जिसके बाद पूरे भारत में माओवाद फैल गया। इसे 'नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन' कहा जाता है। आंदोलन के तहत, आदिवासी किसानों ने हथियार उठा लिए थे। ये वो लोग थे जो माओ की विचारधारा को मानते थे। इसलिए इन्हें माओवादी भी कहा जाता है। नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत सन् 1967 मेंं बंगाल के गांव नक्सलबाड़ी से चारु मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल की अगुवाई में हुई थी । यह व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की शुरुआत थी । इसमें सरकारी कर्मचारी द्वारा किए गए अन्याय पर उसकी गोली मारकर हत्या कर वह जंगल में कूदकर फरार हो गया था, और पीड़ित ग्रामीण जनों का संगठन बनना शुरू हुआ जो इस तरह के सशस्त्र संघर्ष में तब्दील हो गया।
आजादी एक लम्बे गौरवपूर्ण संघर्ष के बाद 1947 में आजादी हासिल की गई थी और इससे करोड़ो लोगों का सपना पूरा हुआ था। लेकिन अंग्रेजों से आजादी के बीस साल बाद भी जब भारत में भ्रष्टाचार , भुखमरी , बेरोजगारी, शोषण में कोई कमी न होते देखकर जनसाधारण और विशेष रूप से पढ़ा-लिखा युवावर्ग अपने को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। भारत के पुनर्निर्माण की पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई गईं थीं , लेकिन उसमें किसानों की समस्याओं पर कम ध्यान दिया गया।
1967 के आम चुनाव के बाद ग्यारह राज्यों में पहली बार कांग्रेस की केन्द्रीकृत शासन को चुनौती देते हुए संविद सरकारें बनी थीं। बिहार में महामाया प्रसाद जैसे नेता भी मुख्यमंत्री बन गए थे। और कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर, युवा -समुदाय जल्दीबाजी या हड़बड़ी में - In a hurry - पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन का कार्य शुरू किये बिना ही तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था। और उस संकट की घड़ी 1967 में में ही 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' नामक इस युवा संगठन को आविर्भूत होना पड़ा था। इसके पीछे भावना यह थी कि इस संगठन माध्यम से स्वामी विवेकानन्द की " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी " शिक्षा को युवाओं के बीच फैला दिया जाय। ]
जिस समय (1967 के आसपास) जब कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर युवा-समुदाय - In a hurry (जल्दीबाजी में) अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन के कार्य को शुरू करने के पहले ही, तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। उस समय अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित एक युवा ~नवनीदा ( श्री नवनी हरण मुखोपाध्याय) महामंडल के संस्थापक सचिव - A young man in discipline, जो कई बार यहां भी पधार चुके हैं; तथा 'रामकृष्ण मिशन परम्परा' (Ramakrishna Mission Order) के कुछ वरिष्ठ संन्यासियों ने परस्पर चर्चा करके एक युवा संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया। और स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकारी विचार-धारा को युवाओं के बीच फैला देने का एक आंदोलन प्रारम्भ किया । इस प्रकार वर्ष 1967 के आखरी तिमाही में आयोजित प्रथम बैठक में इस आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। और जहाँ तक मुझे याद है वह 25 अक्टूबर,1967 की तिथि थी ।
अद्वैत आश्रम में आयोजित पहली बैठक के चार-पाँच महीने बाद जनवरी 1968 में दूसरी बैठक आयोजित हुई। उस बैठक में आमंत्रित अन्य व्यक्तियों के साथ रामकृष्ण मिशन के कुछ बहुत ही वरिष्ठ संन्यासी, जैसे रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी भूतेशानन्द, रामकृष्ण मिशन के महासचिव स्वामी अभयानन्द एवं सहायक महासचिव स्वामी रंगनाथानन्द ,जो आगे चलकर रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष भी बने --उपस्थित थे। बैठक में चर्चा चली कि, मनुष्य का 'ढाँचा' प्राप्त करने से ही कोई व्यक्ति " मनुष्य" नहीं बन जाता , बल्कि ~ "धर्मेण हीनाः पशुभिः सामना" - धर्म (शिक्षा) या 'चरित्र' के बिना मनुष्य भी पशुतुल्य है। अतः उन सभी वरिष्ठ संन्यासियों ने हमें यही परामर्श दिया कि इस संगठन का उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द की ' मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का युवाओं के बीच प्रचार -प्रसार करना होना चाहिये, ताकि सुन्दरतर मनुष्यों के निर्माण से सुन्दरतर समाज को निर्मित किया जा सके। महामण्डल की स्थापना के पीछे यही भावना क्रियाशील है। "
अगला काम इस बात पर चिंतन (contemplate) करना था कि हमलोग तो स्कूल -कॉलेज खोलने वाले हैं नहीं, फिर युवाओं के बीच स्वामी जी के मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षाओं को फैला देने उपाय क्या होना चाहिये? सम्पूर्ण भारत के युवाओं के बीच 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा' (अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- में 'Be and Make') का प्रचार-प्रसार कैसे किया जा सकता है ? उनलोगों ने यह निर्णय लिया कि, इसके लिए महामण्डल के द्वारा ही (संन्यासियों के द्वारा नहीं), समय -समय पर युवा प्रशिक्षण शिविर (Youth Training Camps) आयोजित करना चाहिये। तथा उन शिविरों में युवाओं का आह्वान कर उन्हें 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' प्रशिक्षण देना चाहिये। महामण्डल स्थापित होने के संभवतः पांच महीने बाद इसका प्रथम 'अखिल भारतीय युवा प्रशिक्षण शिविर ' बंगाल के अरियादह में आयोजित किया गया था।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार यथार्थ "मनुष्य" बनने के लिये युवाओं को छात्रजीवन में (किशोरावस्था में) ही उसके तीन प्रमुख अवयव - देह (Hand) , मन (Head) और हृदय (Heart) इन तीनों (3'H') को समानुपातिक रूप से विकसित करने (के 5 जरुरी अभ्यास) का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिये। युवाओं के पास एक ऐसा मजबूत शरीर (strong body) होना चाहिये जिसमें प्रखर-बुद्धि से युक्त मन (Sharp intellect mind) का वास हो , और उसका हृदय विशाल (expanded heart) होना चाहिये। अर्थात उन्हें आत्मकेन्द्रित जीवन (self- centred life) नहीं बिताकर दूसरों के कल्याण के लिये जीना चाहिये।
" Respected my beloved friend Sri Bijay Singh, who actually started spreading the ideas of Mahamandal in this area and country since 1987 and from then he has been working tirelessly covering a big part of India spreading the man-making idea of Mahamandal and Swami Vivekananda. I also express my thanks and gratitude to all the speakers who all spoke so well that I have learned from them and they also reduced my task.