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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

मनःसंयोग-5 [30-12- 2018: पाँचवा और अंतिम सत्र : गंगाधरपुर युवा प्रशिक्षण शिविर]

8 मार्च 2019, श्री रामकृष्ण परमहंस जयंती :
1 . श्री रामकृष्ण परमहंस का जीवन और सन्देश 
(Life and message of Shri Ramkrishna Paramhans) 
बालक रामकृष्ण: देवी काली के अवतार और स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस का जन्म बंगाल के कामारपुकुर गांव में  फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, तदनुसार "18 फ़रवरी, 1836" के दिन हुआ था। एक बार गया के विष्णुपद मन्दिर में निवास के समय रात्रि में भगवान गदाधर जी ने क्षुदिराम को (श्रीरामकृष्ण के पिता को) स्वप्न में दर्शन देकर कहा-'मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूँगा।' तदनुसार ९ मास बाद जब पुत्र का जन्म हुआ तो क्षुदिराम ने उस बालक का नाम 'गदाधर' रखा। गाँव के लोग उसे 'गदाई' कह कर पुकारते थे। बाल्यावस्था में गदाई धनी-गरीब, बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सबका इतना प्यारा हो गया कि गाँव के लोग २४ घण्टे में कम से कम एक बार उसका दर्शन अवश्य करते थे। वह स्पृश्य-अस्पृश्य सबका दिया हुआ भोजन करता और लोग उसे प्रेम से खिलाते भी थे। विद्यालय जाकर भी उसने जोड़ सीखा पर घटाव नहीं सीखा , तथा अर्थकारी विद्या लेने से मना कर दिया। भगवान् की मूर्ति का निर्माण, भगवान् की लीला-उत्सव, रामायण, महाभारत की कथा का श्रवण, खेल, गीत आदि में उसका मन तीव्रता से रमता था। रामकृष्ण के अन्दर ऐसी प्रतिभा और ऐसा मनोहारी व्यक्तित्व था कि लोग उनके सामने नतमस्तक होकर उनकी बात को शिरोधार्य कर लेते थे। जनश्रुति के अनुसार यदि कभी किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर पर आयोजित विद्वत् सभा में विद्वानों का शास्त्रार्थ होता और तत्त्वसिद्धान्त का निर्णय न हो पाता तो १२-१३ वर्ष का बालक रामकृष्ण लोगों के बीच आकर ऐसी बात कह देता जो दोनों पक्षों को मान्य हो जाती और विद्वान् लोग सन्तुष्ट हो जाते।
अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव की नरलीला में दैव तथा पुरुषार्थ : श्री रामकृष्ण ने नरदेह धारण किया था इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वे सामान्य संसारी पुरुष भाव वाले व्यक्ति थे। उनका पुरुषभाव परमपुरुष का था। वे जब वृन्दावन में विचरण कर रहे थे तो उनके अन्दर समय-समय पर लीलापुरुषोत्तम योगेश्वर कृष्ण का भाव उद्दीप्त होता था। इसीलिये उस समय के लोग उनको अवतारी पुरुष मानते थे। इसका संकेत कभी-कभी वे बातचीत में दे देते थे। यथा - 'जैसे कभी-कभी राजा लोग अपने राज्य में भेष बदलकर घूमते हैं उसी प्रकार मैं भी भेष बदलकर आया हूँ। इस बार बहुत कम ही लोग मुझे पहचान सकेंगे।'' एक व्यक्ति से कहा-'मैंने चावल पका लिया है,तुम परोसे हुए भात की थाली लेकर खाने बैठ जाओ", " साँचा तैयार हो गया है, तुम लोग उसमें अपने मन को डाल दो तथा उसे गढ़ लो", (दादा ने एक पत्र में मुझे लिखा था) - "यदि स्वयं कुछ भी नहीं कर सको, तो मेरे ऊपर सब भार छोड़ दो। (मुझे अपना मुख़्तार बना लो। )", ''तुम्हें कुछ साधन-भजन नहीं करना होगा। यदि मुझ पर सोलह आना विश्वास रखोगे तो सब कुछ सिद्ध हो जायगा''~
 इत्यादि। दूसरी ओर अपने भक्तों (भावी लोकशिक्षकों) से कहते थे -"कामिनी-कांचन और कीर्ति को त्यागकर ईश्वर को पुकारो ", "एक-एक करके सब वासनाओं को त्याग दो, तभी अग्रसर हो सकोगे", "आँधी के सम्मुख जूठी पत्तल की तरह बने रहो ", "मैं सोलह आने कर चुका हूँ, तुम एक आना भर तो करो " ~ इत्यादि। .... इस प्रकार निर्भरता (दैव) तथा साधन (पुरुषार्थ) दोनों भावों में सामंजस्य बनाकर ही आगे बढ़ना चाहिए। क्योंकि व्यावहारिक जगत में सत्य (ईश्वर, या माँ काली) भी, अवस्था तथा अधिकारी भेद से विभिन्न आकार धारण करता है ! (लीलाप्रसंग -1,118 -122      
सब मत ईश्वर प्राप्ति के पन्थ हैं~सर्वधर्मसमन्वय श्री रामकृष्णदेव के आविर्भाव होने से पहले लोग यही समझते थे कि विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायिओं का 'धर्म' और 'ईश्वर' निश्चित रूप से अलग-अलग ही होते हैं। किन्तु स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण का मन सदा  सत्यान्वेषण में ही लगा रहता था,उनके भीतर से आवाज आयी - मगर ये तो अधूरा सच है, कि मेरी 'आत्मा' इस बात को स्वीकार नहीं करती। क्योंकि एक ही ईश्वर (माँ काली या आत्मा) तो किसी भी काल (जन्म) में कोई भी शरीर को धारण कर सकती है। इस परम् सत्य को उन्होंने 'हंस' की तरह जाना, और माना कि "वो " ~ जो 'राम' था और 'कृष्ण' भी वही था, वही इस जन्म में एक साथ बनकर आया श्री रामकृष्ण परमहंस ! 
श्रीरामकृष्ण को बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर है। वह अकेला और एक है। किन्तु उसका प्रकाश बहुविध है। वह साकार भी है और निराकार भी। वह व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। सब शास्त्र जूठे हो चुके हैं, क्योंकि बहुत से लोगों ने उनको अपने मुख से कहा है। किन्तु ब्रह्म कभी जूठा नहीं हुआ, क्योंकि वह वाणी से नहीं कहा जा सकता। माया चलते हुए साँप की तरह है और ब्रह्म स्थिर साँप की तरह। वह सर्वत्र और सबमें है। अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया।  साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं।  किसी भी मार्ग की साधना पद्धति सीखकर साधना करने से ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं।इसीलिए उन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया था, और कहा था 'जितने मत, उतने पथ !' अपने -अपने धर्म का पालन करो। किन्तु अन्य धर्मों से द्वेष मत करो। वितण्डा मत करो। दुर्जनों की संगति से बचो। साधक को एकान्त सेवन करना चाहिए। लाखों में कोई एक सिद्ध होता है। पहले ईश्वर की प्राप्ति करो, फिर संसार का सेवन करो। झूठे साधुओं से बचो। 
वैज्ञानिक दृष्टि से ईश्वर की खोज : उन्हें लगने लगा था कि यदि धर्म और ईश्वर जैसी कोई चीज है, तो उसे मनुष्य की अनुभूति पर भी खरा उतरना चाहिए। ईश्वर को देखने का यह विचार पहले तो एक जिद की शक्ल में आया, लेकिन वह बाद में एक भक्तिपूर्ण खोज में बदल गया। वे ईश्वर को ढूढ़ने लगे और उसके लिए तड़पने लगे। ईश्वर की  खोज में काली -मंदिर की पुरोहिती छोड़कर पास के एक निर्जन जंगल में जाकर साधना करने  लगे।उन्हें लगा कि ईश्वर यदि है तो उसे वे अपनी आंखों से देखकर रहेंगे।  ईश्वर-दर्शन की बेचैनी और अधीरता बढ़ने लगी थी और उनका व्यवहार असामान्य होने लगा था।  इसी असामान्य व्यवहार को किसी ने धर्मोन्माद का नाम दिया, तो किसी ने भोलेपन का ? रामकृष्ण के भोलेपन की एक और खासियत थी कि वे जीवन को बिना किसी तनाव के बिल्कुल हल्के-फुल्के और मज़ेदार अंदाज में जीते थे। जब जो धुन सवार हो जाती थी, उसे प्रायोगिक तौर पर करके देख लेने का प्रयास करते थे। ऐसी बालसुलभ जिज्ञासा थी जैसे कोई बच्चा आग की चमक से आकर्षित होकर उसे छूने से भी परहेज न करे। 
टाका माटी ~ माटी टाका प्रयोग : एक दिन रामकृष्ण गंगा के किनारे एक हाथ में मिट्टी और दूसरे हाथ में रानी विक्टोरिया की मुहर लगे चाँदी के सिक्का लेकर सोचने लगे-' कि जिस प्रकार यह मिट्टी जड़ है। इससे धान गेहूँ पैदा हो सकता है पर सच्चिदानन्द नहीं मिल सकते। उसी प्रकार रानी विक्टोरिया की मुहर लगे इस सिक्के से सामान खरीदा जा सकता है, दश प्राणियों का भोजन भी चल सकता है; किन्तु सच्चिदानन्द नहीं मिल सकते। अत: मिट्टी और रुपया दोनों समान है।' यह सोचकर उन्होंने दोनों को गंगा जी में फेंक दिया और तब से वे चाँदी धातु से रुपया तो क्या, किसी भी समान को हाथ से नहीं छुआ। बाद में तो स्थिति यह हो गयी कि यदि वे किसी धातु बने लोटे को भी लेना चाहते तो उन्हें बिच्छू के डंक मारने जैसा अनुभव होता था, और उनका हाथ टेढ़ा हो जाता था।  धर्म और ईश्वर संबंधी अपनी जिज्ञासाओं को लेकर भी रामकृष्ण पर यही प्रायोगिकता सवार थी।  उनके मन में आया कि यदि इस संसार को चलाने वाली सत्ता एक ही है, तो फिर ये वैदिक, इस्लाम और ईसाइयत जैसे अलग-अलग रास्ते क्यों बने हैं ? और यदि ये सभी मार्ग सच्चे हैं तो ईश्वर-दर्शन के लिए इनमें से जो रास्ता सबसे आसान है, वही क्यों न लिया जाए। 
इसी क्रम में गोविंद राय नाम के एक सूफी साधक ने उन्हें इस्लाम की ओर प्रेरित किया। अल्लाह का नाम उनकी जुबां पर ऐसा चढ़ा कि उन्होंने इस्लाम को आत्मसात कर लिया। वे बाकी सब कुछ भूल गए। उनका बोल-चाल, वेश-भूषा और रहन-सहन पूरी तरह मुसलमानों का सा हो गया. पांचों वक़्त की नमाज और बाकी समय अल्लाह की रटन।  इस तरह उन्हें ईश्वर और आत्मा के प्रति एकत्व-बोध की आनंदमय अनुभूति हुई। इसी तरह मणिम ल्लिक नाम के अपने एक भक्त के घर बाइबिल का पाठ सुनकर रामकृष्ण को ईसा मसीह के व्यक्तित्व ने आकर्षित किया। ईसा के 'त्याग और प्रेम' के संदेश ने भी उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया। इसके बाद उनका हावभाव बिल्कुल ईसा मसीह की तरह का होने लगा। ईसा के संदेशों को उन्होंने अपने जीवन में इस हद तक आत्मसात कर लिया था कि रोम्या रोलां ने उन्हें ‘ईसा मसीह के छोटे भाई’ की संज्ञा दी। 
निर्लोभी रामकृष्ण: लक्ष्मी नारायण नामक एक मारवाड़ी परमहंस को दस हजार रुपया देने के लिए कम्पनी का कागज लाया ताकि वह रुपया जमा कर उसके ब्याज से रामकृष्ण का खर्च आराम से चलता रहे। परमहंस ने रुपया लेना अस्वीकार कर दिया। उसके दुराग्रह पर परमहंस रोते हुए भवतारिणी से कहने लगे-'' माँ! तू ऐसे लोगों को यहाँ क्यों बुलाती है जो मुझे तेरे पास से हटाना चाहते हैं। जो मुझमें और तुझमें भेद डालना चाहते हैं वे मेरे पक्के बैरी हैं।'' यह कहते हुए वे समाधिस्थ हो गये। रानी रासमणि के जामाता मथुर बाबू, जिन्होंने परमहंस की तीर्थयात्रा के समय अस्सी हजार रुपये परमहंस के हाथों खर्च किये थे, भी जब पचास हजार रुपये कम्पनी के कागज पर लिख देना चाहते थे तो परमहंस उन रुपयों को किसी प्रकार लेने के लिये सहमत नहीं हुए।
वे बारम्बार यही शिक्षा देते थे कि - 'लज्जा -घृणा -भय' तथा जन्मगत जाति के कुल-शील आदि अष्ट पाशों का त्याग किये बिना कोई भी ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। एक बार उन्होंने अपने 'जन्म से ब्राह्मण होने के अहंकार' को नष्ट करने के लिए भी प्रयोग किया था। वे तत्कालीन समाज में कथित अछूत माने जानेवाले एक सफाई कर्मचारी (sweeper-मेहतर) के शौचालय (toilet) को मध्य रात में अपने बड़े बड़े जटाजूट से साफ कर आते थे। क्योंकि दिन में पूछने पर उस परिवार ने भारी पाप लगने के डर से उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया था।  कभी भिखमंगों की जूठी पत्तल शिर पर रखकर गंगा जी में फेंक आते। 
उन्होंने काली माँ से प्रार्थना की कि -'हे माँ ! तुम मुझे जो सिखाओगी मैं वही सीखूँगा।'  लोकशिक्षक/या जीवनमुक्त -नेता बनने के इच्छुक व्यक्ति को अपनी विवाहिता स्त्री के सिवा प्रत्येक महिला को मातृभाव से देखना अनिवार्य होता है। माँ जगदम्बा स्वयं श्री रामकृष्ण देव को भावमुख अवस्था  में रहने का आदेश देकर उनके जीवन का निर्माण मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेता/ के रूप में कर रही थी। माँ जगदम्बा ने परोक्ष रूप से उन्हें कामिनी-कांचन और कीर्ति से दूर रहने का उपदेश दिया। वे जब जिस मत के अनुसार ईश्वर-प्राप्ति की साधना करते उस समय उस मत का कोई सिद्ध गुरु कहीं न कहीं से उनके पास आ जाता अथवा उस विशिष्ट तस्वीर से ज्योति निकल कर रामकृष्ण के अन्दर समा जाती। 
[The Divine Mother asked Sri Ramakrishna not to be lost in the featureless Absolute but to remain, in bhavamukha, on the threshold of relative consciousness, the border line between the Absolute and the Relative. He was to keep himself at the "sixth centre" of Tantra, from which he could see not only the glory of the seventh, but also the divine manifestations of the Kundalini in the lower centres.....This is a unique experience in the recorded spiritual history of the world.]
स्त्री भाव वाले रामकृष्ण: अब यह बात उनके मन में समा गई कि स्त्री-पुरुष का भेद तो केवल शरीर के स्तर पर ही है, आत्मा के स्तर पर नहीं। और यदि सचमुच ऐसा है तो मैं ऐसी साधना क्यों न करूं जिससे स्त्री-पुरुष का भेद-भाव ही पूरी तरह से नष्ट हो जाए। फिर क्या था, उन्होंने इसकी प्रायोगिक साधना शुरू कर दी। ईश्वर के प्रति उनके मुख से केवल माँ जगदम्बा ,माँ भवतारिणी या माँ जैसे सम्बोधन ही निकलते थे। श्रीरामकृष्ण के भीतर स्त्री और पुरुष इन दोनों भावों का अदभुत समावेश था। बहुत छोटी अवस्था में उनके अन्दर स्त्रीभाव लक्षित हुआ था। किशोरावस्था में एक दिन रामकृष्ण किसी गाँव में घूमने गये। वहाँ इकट्ठे हुए लोगों में से एक आदमी शेखी मार रहा था कि -'मेरे घर का हाल समाचार कोई नहीं जान सकता।' रामकृष्ण ने यह सुना और स्त्रियों के कपड़े पहन कर जुलाहिन के वेश में उसके घर में प्रवेश कर गये। इन्हें देख और इनकी मीठी बातें सुनकर उस घर की सब औरतें और लड़कियाँ इनके पास आ गयीं एवं देर रात तक इनसे बातें करती रहीं। देर रात हो जाने के कारण रामकृष्ण के बड़े भाई जब इनका नाम पुकारते हुए खोजते-खोजते वहाँ पहुँचे तब 'गदाई' नाम सुनकर रामकृष्ण अन्दर से ही-'आता हूँ दादा' चिल्लाते हुए बाहर दौड़े। यह देख सारी स्त्रियाँ दंग रह गयीं। वे कहने लगीं-'यह क्या, यह तो लड़की नहीं लड़का है। हम लोग पहचान ही नहीं सके। आश्चर्य है।' यह सुनकर शेखी मारने वाला आदमी लज्जित हो गया।  
 श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग 1.344: साधारण अवस्था ( हिप्नोटाइज्ड अवस्था) में प्रत्येक मनुष्य अपने को स्त्री/पुरुष शरीर से जोड़ कर स्वयं को स्त्री या पुरुष ही समझता है, और एक देह के प्रति दूसरे देह के आकर्षण को ही 'प्रेम' समझता है ! किन्तु कुछ लोग अपनी प्रेमासक्ति को मात्र सांसारिक मोह-ममता ही नहीं समझते, अपितु अपनी उस (मूर्खता,दीवानगी, infatuation) को भी अलक्ष ईश्वर के प्रति समर्पण की एक उदात्त भावना, या 'अतीन्द्रिय प्रेम' का भी नाम दे देते  हैं। और उसका यशोगान भी करने लगते हैं। किन्तु इस बात को समझने में देर नहीं लगती कि उनका वह 'तथाकथित अतीन्द्रिय प्रेम' वास्तव में स्थूल देह-बुद्धि तथा सूक्ष्म भोग-लालसा से रहित नहीं है। भक्तिग्रन्थों के अनुसार केवल श्रीराधारानी ने ही अपने जीवन में यथार्थ अतीन्द्रिय प्रेम की पराकाष्ठा का अनुभव कर, उसका पूर्ण आदर्श जगत के सामने रखा है। श्रीराधारानी की कृपाकटाक्ष के बिना भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन असम्भव है - यह जानकर श्रीरामकृष्ण देव श्रीराधा जी की उपासना में प्रवृत्त हुए थे। इसके लिए सबसे पहले उन्होंने अपने आपको पुरुषत्व से (अर्थात शरीर के मिथ्या अभिमान-अहं बोध से) उबारना चाहा।  रामकृष्ण ने अपने मन को आदेश दिया कि वह केवल यह सोचने लगे कि उनका शरीर पुरुष-शरीर नहीं, बल्कि स्त्री-शरीर है। वे महिलाओं के जैसे ही कप़ड़े पहनने लगे, उन्हीं की तरह बोलने लगे. पुरुषों की तरह का सारा काम छोड़ दिया और महिलाओं के बीच ही जाकर रहने लगे। एक समय ऐसा भी आया जब वे स्त्री-पुरुष का भेद पूरी तरह से भूल गए। लेकिन यह भी एक विचित्र बात थी कि ईश्वर की कल्पना और बाद में उसकी अनुभूति रामकृष्ण ने स्त्री (शक्ति) के रूप में ही की !और अविलम्ब ही श्रीराधारानी का दर्शन प्राप्तकर वे कृतार्थ हुए थे। उन्होंने मृत्यु की छाया से परे, अमृत, अमरत्व की अनुभूति प्राप्त कर ली। श्रीराधाकृष्ण की मूर्ति भी अन्य मूर्तियों की भाँति उनके श्रीअंगों से मिल चुकी थी। उन्होंने अपने को श्रीराधारानी के रूप में निरंतर अनुभव किया था। उस समय उनके शरीर में स्त्रियों जैसे लक्षण भी उभर आये थे..... या मतिः सगतिर्भवेत ? उपनिषदों में कहा गया है कि 'मन इस शरीर  सृष्टि करता है' - मनुष्य के वर्तमान शरीर का आकार उसके मन की तीव्र -इच्छा या वासना के अनुसार ही स्त्री-पुरुष ( (M/F) के रूप में परिणत हुआ है। भावमुख अवस्था  में रहते हुए, मधुरभाव की साधना करने के बाद श्रीरामकृष्ण देव के मन में यह बात समा गयी कि M/F या स्त्री-पुरुष का भेद अथवा लिंगभेद तो केवल स्थूल जगत, व्यक्त जगत, दृष्टिगोचर जगत या भावजगत में ही है। अर्थात श्रीराधा-कृष्ण (या जीव -ब्रह्म, प्रकृति -पुरुष) का अन्तर तो केवल स्थूल- शरीर के स्तर पर ही है, आत्मा (existence-consciousness-blissके स्तर पर नहीं ! मधुरभाव की साधना के समय उन्होंने छः महीने रमणिवेश में अवस्थान किया था। और उस समय उनका वार्तालाप, चलना-फिरना, हास्य, कटाक्ष एवं शरीर मन का प्रत्येक आचरण बिल्कुल स्त्रियों के जैसे हो गए थे। मथुरबाबू के घर के स्त्रीसमाज में ही उठते बैठते थे। चलते समय औरतों की भाँति उनका बायाँ पैर स्वतः पहले आगे बढ़ता चला जाता था। अंतःपुर में रहने वाली महिलायें उनके काम-गंध रहित पवित्र चरित्र (विषय-वासना रहित पवित्र चरित्र) से परिचित रहने के कारण उनको पहले ही देवता के सदृश देखा करती थीं। उनके सम्मुख कोई लज्जा, संकोच, पर्दा नहीं करती थीं। इससे सिद्ध होता है कि उनके हृदय में " भीतर एक प्रकार का तथा बाहर दूसरे प्रकार का भाव " कभी विद्यमान नहीं था। "  
भैरवी ब्राह्मणी के आगमन के समय ठाकुर का मन ईश्वर के मातृभाव के अनुचिंतन में निमग्न था (अर्थात अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी मातृहृदय के विराट अहं बोध के साथ एकत्व के अनुचिंतन में निमग्न था।) उस समय ठाकुरदेव जगत के समस्त जीवों में विशेष रूप से स्त्री-मूर्तियों के अंदर श्री जगदम्बा की अभिव्यक्ति को साक्षात् देख पाने में समर्थ थे। अतः भैरवी ब्राह्मणी को देखते ही, उन्होंने क्यों उनको माँ कहकर सम्बोधित किया था, और बालक की भाँति उनकी गोद में बैठकर उनके हाथों से भोज्य-पदार्थों को क्यों ग्रहण किया था?
 जब तक श्रीरामकृष्ण ने स्वयं मधुरभाव की साधना करके नहीं देख लिया, उन्हें 'मधुरभाव' क्यों अच्छा नहीं लगता था ? ...  यह सब स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। एक बार भैरवी ब्राह्मणी जब राधाभाव में आविष्ट होकर, मधुरभावात्मक-गीत गाने लगीं, तब श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा था कि मुझे यह भाव अच्छा नहीं लगता , कृपा करके आप मुझे केवल मातृभावत्मक-गीत ही सुनाइए। इस प्रकार ब्राह्मणी ने जब ठाकुर के मानसिक स्थिति का यथार्थ परिचय प्राप्त कर लिया (अर्थात भैरवी ब्राह्मणी रूप धारिणी माँ जगदम्बा ने जब ठाकुर के हृदय की अटूट-पवित्रता की परीक्षा लेकर देख लिया) तब ठाकुर को प्रसन्न करने के लिए गोपाल के प्रति यशोदा के हृदय के गंभीर उछ्वासपुर्ण भजन सुनाने लगीं।
(He saw and felt the figure of Radha disappearing into his own body.He realized Amrita, Immortality, beyond the shadow of death.After this vision", he used to say, "I came to realize that Bhagavan, Bhakta, and Bhagavata — God, Devotee, and Scripture — are in reality one and the same.)
मधुरभाव की साधना के बाद,1865 ई० में जब ठाकुर देव की आयु 29 वर्ष थी, उनके हृदय में सर्वभावातीत अद्वैत वेदान्त साधना' की प्रबल प्रेरणा उपस्थित हुई। और दक्षिणेश्वर की अदभुत माँ भवतारिणी जगदम्बा ने अपने पुत्र रामकृष्ण के हृदय में उपजी उस प्रबल प्रेरणा को पूर्ण करने के लिए, अद्वैत वेदान्त के आचार्य श्रीमत तोतापुरी जी को (बिना उनके जाने ?) तत्काल दक्षिणेश्वर बुलवा लिया।  "श्रीमद तोतापुरी जी से अद्वैत वेदान्त दीक्षा ग्रहण करने के क्रम में, जब श्री रामकृष्ण ने, नाम-रूप के स्वप्नमय जगत में अपनी एकमात्र आसक्ति- 'माँ जगदम्बा' की मूर्ति को भी, विवेक (विवेकज -ज्ञान?) के खड्ग से दो टुकड़े कर दिए; तब फिर उनके मन में कोई विकल्प न रहा। तीव्रगति से उनका मन समग्र 'नाम-रूप' के स्वप्न-राज्य से परे चला गया और वे समाधि में निमग्न हो गए।"
[The last barrier fell. My spirit at once soared beyond the relative plane and I lost myself in samadhi.]
...... "जैसे ही ममतामयी जगतजननी का मूर्त रूप मेरे सामने उपस्थित हुई, मैंने अपनी विवेक- प्रयोग शक्ति का उपयोग एक खड्क के रूप में किया, और उसके द्वारा उस मूर्ति के दो टुकड़े कर दिए। तब फिर मेरे मन को नाम-रूप के जगत से बाँधे रखने वाली आखिरी बाधा भी समाप्त हो गयी। मेरी आत्मा (अहं रहित शुद्ध बुद्धि ?) एकाएक सापेक्षिक जगत (देश-काल-निमित्त) से ऊपर उड़ चली; और मैं समाधि में लीन हो गया ! समाधि से वापस लौटने पर उनकी समझ में आया; कि " भावातीत अद्वैत राज्य का भूमानन्द ही सीमाबद्ध होकर भावराज्य के दर्शन-स्पर्शन आदि सम्भोगानन्द के रूप में अभिव्यक्त है। इसलिए भाव तथा भावातीत(स्थूल -सूक्ष्म) ये दोनों राज्य कार्य-कारण सम्बन्ध से सदा जुड़े हुए हैं। " (लीलाप्रसंग1.364) 
"The sinless Pure Soul, hypnotized by Its own maya, experiences the joys of heaven and the pains of hell.But these experiences based on the duality of the subject-object relationship are unreal." 
निष्पाप (sinlessऔर पवित्र आत्मा, अपनी ही माया शक्ति से सम्मोहित होकर कभी स्वर्ग के सुख का आनन्द लेती है, तो कभी नरक की पीड़ा का अनुभव करती है। किन्तु स्वयं को अविनाशी ब्रह्म से पृथक नश्वर (M/F) शरीर समझने की द्वैत बुद्धि में आधारित जो द्रष्टा और दृश्य का संबन्ध है, वह अवास्तविक है।
यहाँ तक कि अपने इष्टदेव का दर्शन किसी अन्य शरीर के रूप में होना भी अन्ततोगत्वा एक भ्रमपूर्ण अनुभव ही है। जब कोई व्यक्ति माया के (माँ सारदा की कृपा से सातवें) पर्दे को वेध कर, ब्रह्म के साथ अपने अद्वैत के अनुभव को पुनः आविष्कृत कर लेता है, तब वह व्यक्ति मुक्त (भ्रममुक्त या Dehypnotized) हो जाता है ! अपने व्यष्टि अहं (काचा आमी) और माँ जगदम्बा (माँ सारदा देवी) के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध के एकत्व को जानकर, उसे अक्षय शान्ति की अनुभूति होती है। और केवल तभी वह व्यक्ति जन्म-मृत्यु की कपोल-कल्पना (fiction) से परे होकर अमर हो जाता है ! तथा अपने ही अज्ञान (अविद्या) के कारण जो आत्मा अभी सम्मोहित (hypnotized) अवस्था में है, उसे उस अतिचेतन अवस्था में पहुँचकर विसम्मोहित (dehypnotizeकर लेना ~ ही सभी धर्मों का अंतिम लक्ष्य है। अंतरिक्ष (Space -देश) अनस्तित्व (nothingness) में ओझल हो जाता है, काल को नित्यता (eternity-अकाल,माँ काली) के द्वारा निगल लिया जाता है; और कारण-कार्य का सिद्धान्त (causation) अतीत का एक सपना बन जाता है। केवल अस्तित्व है। आह! जिस अवस्था में आत्मा (अहं-रहित शुद्ध बुद्धि) शुद्ध आत्मा (Pure-consciousness) के साथ अपने ऐक्य की अनुभूति कर रही होती है- उस परमानन्द की अवस्था का वर्णन कौन कर सकता है? आत्मा को अनुभव हो जाता है कि - ब्रह्म, अखण्ड सच्चिदान्द (Existence-Consciousness -Bliss Absolute) ही एकमात्र सत्य (निरपेक्ष) है! उस परमसत्य में न कोई समय है, न देश है, न कारण-कार्य सम्बन्ध है, न द्वैत या भेद है ! (no causality-न वह सिद्धांत रहता है कि सब कुछ का एक कारण होता ही है,no multiplicity- और न भेदज्ञान रहता है ! किन्तु समाधि से लौटने पर) यह अविस्मरणीय बोध होता है कि माया (माँ सारदा) की अगम्य शक्ति (इन्स्क्रूटबल पॉवर inscrutable Power) से देश-काल और निमित्त (time, space, and causality) आदि की सृष्टि होती है; और 'एक' ब्रह्म ही 'अनेक' नाम-रूपों में भासने लगता है !! शाश्वत चैतन्य स्पंदन ( The eternal Spirit) या 'एक' अपरिवर्तनशील आत्मा ही परिवर्तनशील समय (देह-मन) में आबद्ध अनेक नाम-रूपों प्रकट हो जाती है। और जो अविनाशी आत्मा है, वही नश्वर देह-मन में आबद्ध होकर अपने को जन्म-मृत्यु के नियम से बँधा हुआ समझने लगती है। और जो अचल (Changeless -अपरिवर्तनीय) है, वही आत्मा सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु आदि परिवर्तनशीलता का भोग करने लगती है! 
[इसीलिए ठाकुर ने विवेक-खड़क द्वारा माँ जगदम्बा की मूर्ति के दो टुकड़े कर दिए थे ? इस ज्ञानमयी दृष्टि से देखने पर सारे जीव तो आत्म-तत्व (existence-consciousness-bliss) ही हैं! अतः एक मनुष्य और और दूसरे मनुष्य के बीच जाति -धर्म, भाषा-वेशभूषा, रंग-रूप या लिंग के आधार पर किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं होना चाहिए।
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अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव माया को (जगतजननी को) ब्रह्म की रहस्यमयी और प्रभावशाली अभिव्यक्ति के रूप में देखते थे, तथा उनके प्रति सदैव प्रेम और श्रद्धा से विभोर होकर रहते थे। उनके लिये माया स्वयं ईश्वर थी, क्योंकि उनके लिए सब कुछ सत्य (ईश्वर) ही था; क्योंकि वे अपनी दृष्टि को 'भगवानमयी' बनाकर जगत को भगवानमय देखते थे। वे माया (शक्ति) को ब्रह्म का ही एक अन्य चेहरा मानते थे। भावातीत (transcendental -अतीन्द्रिय) अवस्था की ऊँचाइयों पर पहुँच कर उन्होंने यह अनुभव किया  था कि नाम-रूप के रहस्यमय नुखौटों से ढँका नीचे का यह भाव-राज्य और (ऊपर का) भावातीत राज्य परस्पर कारण-कार्य नियम से बँधे हुए हैं।  [What he had realized on the heights of the transcendental plane, he also found here below, everywhere about him, under the mysterious garb of names and forms.]
उनका मानना था कि विभिन्न नाम-रूप के मुखौटों की निर्मात्री, या विभिन्न देह-मन रूपी वस्त्रों की शक्तिशाली बुनकर~  जगतजननि माँ काली के अलावा अन्य कोई नहीं है। आदिशक्ति माँ जगदम्बा को आप परम् ब्रह्म से भिन्न नहीं कह सकते, जैसे आप अग्नि की दाहिका शक्ति को अग्नि से भिन्न नहीं कह सकते। वह माँ जगदम्बा ही जगत को अपने भीतर से बाहर निकालती हैं, और फिर उसे अपने भीतर खींच लेती हैं। जिस प्रकार कोई मकड़ी अपने भीतर से जाले को निकाल कर, उसे पुनः अपने भीतर समेट लेती है। वे माँ गदम्बा ही विश्व-ब्रह्माण्ड की माँ है, तथा योग की आत्मा और वेदान्त के ब्रह्म के साथ अभिन्न (identical) हैं ! एक शाश्वत विधि-निर्मात्री (Lawgiver) के रूप में वे, नियम को बनाती और तोड़ती रहती हैं; उनकी आज्ञा और इच्छा से कर्म अपना फल देता है। 
   भयादस्याग्निस्तपति   भयात्तपति  सूर्य:।    
                                 भयादिन्द्रश्च  वायुश्च मृत्युर्धावति  पंचम ।। - कठोपनिषद् ॥२ ॥३. ३ ॥ 
अस्य भयात् अग्नि: तपति =इसके भय से अग्नि तपता है ; भयात् सूर्य तपति = भय से सूर्य तपता है ; च भयात् इन्द्र: वायु: =और भय से इन्द्र, वायु ; च पञ्चम: मृत्यु: धावति = और पाँचवाँ मृत्युदेवता दौड़ता है अर्थात कार्य में प्रवृत्त होता है। ...गुरु यम/मानवजाति के मार्गदर्शक नेता/ उपदेश करते हैं कि हे स्नातक विद्वानों ! तुम उसकी उपासना करो, जिसने सूर्य-चन्द्रमा को निर्माण किया है।  और जो इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय का कारण है। इसी आत्मा [परब्रह्म भगवान श्रीरामकृष्ण की शक्ति माँ सारदा] के भय से अग्नि तपता है ,इसी के भय से सूर्य तपता है। तथा इसी आत्मा के भय से इंद्र ,वायु और पांचवाँ मृत्यु दौड़ता है। 
उस आत्मा की शक्ति माँ जगदम्बा ही इस समस्त सृष्टि की स्वामिनी हैं। जिसके नियम इतने कठोर हैं कि उनका पालन न करने पर सभी को कठोर यातनाएं सहन  करनी पड़ती हैं। वह शक्ति किसी को क्षमा नहीं करती , न किसी पे प्रसन्न हो कर अपने नियमों को तोड़कर किसी को मनमाना करने की छूट ही देती है। जिस किसी ने भी उसके नियमों का उल्लंघन किया या निषिद्ध कर्म किया उसे ही दण्डित ही होना पड़ा है। माँ जगदम्बा काली के भय से ही सभी देवगण ,अग्नि ,सूर्य,इंद्र, वायु आदि अपने -अपने कर्तव्यों में लगे रहते हैं। यहाँ तक की मृत्यु को भी उनकी आज्ञा का  पालन करना पड़ता है। यदि माँ जगदम्बा ने इतने कठोर नियम न बनाये होते, तो इस सृष्टि का सुचारू रूप से संचालन करना सम्भव ही नहीं था।  
आद्यशक्ति माँ जगदम्बा काली के इच्छा /नियम से ही पाँच वस्तुएं गति करती हैं कोई उनको इस नियम से पृथक नहीं कर सकता। क्योंकि माँ की इच्छा सर्वोपरि है, उनका भय अति महान है। उनके नियम से अग्नि की शिखा ऊपर को चलती है। यदि लाखों - करोड़ौ मनुष्य मिलकर भी प्रयत्न करें तो शिखा नीचे की ओर नहीं चल सकती। सूर्य माँ काली के नियम में कार्य करता है, सूर्योदय का जो समय निश्चित है, करोड़ो मनुष्य अथवा संसार के बड़े - बड़े राजा भी उसमें हेरफेर नहीं कर सकते । तड़ित (Lightning) या "आकाशीय बिजली" वायुमण्डल में विद्युत आवेश का डिस्चार्ज होना (एक वस्तु से दूसरी पर स्थानान्तरण) और उससे उत्पन्न कड़कड़ाहट (thunder) को तड़ित कहते हैं। यह तड़ित भी माँ काली के नियंत्रण में चलती है, जो बड़ी से बड़ी वस्तुओं को फाड़कर निकल जाती है। कोई अन्य शक्ति उसे रोककर उसकी गति और दिशा को परिवर्तन नहीं कर सकती। ---बारिश के दौरान बादलो के अंदर ऊपर और नीचे की तरफ गर्म और ठंडी हवाओ की टक्कर होती है(साधारण शब्दों में)/जिसे आम तौर पर बादलो की टक्कर भी कहा जाता है।इससे उनमे स्थैतिक आवेश आ जाता है। ऊपर की तरफ धन और निचे पृथ्वी की तरफ ऋण आवेश।---पृथ्वी(ground)की सतह पर इससे प्रेरण (induction) के कारण धन आवेश (बादल के विपरीत)आ जाता है। बादल के निचले सिरे पर ऋण और पृथ्वी के ऊपरी सिरे पर धन आवेश है।जब ये चमक के साथ बिजली गिरेगी तो उसका ताप 27000 डिग्री सेल्शियस होगा। बिजली पहले चमकती है ,बादलो की गड़गड़ाहट बाद में सुनाई देती है क्योंकि प्रकाश की गति, ध्वनि की गति से अधिक होती है ! इसलिए वैज्ञानिक लोग आकाशीय विद्युत से रक्षा के लिये ऊँचे भवनों के सबसे ऊपरी हिस्से में तड़ित चालक (Lightening rod or lightening conductor) लगाने, बादलों के गरज के वक्त घर से बाहर न निकलें और पेड़ों से भी दूर रहने की सीख देते हैं। वायु भी माँ काली के इच्छा/नियम के अनुसार ही चलती है, जिस समय वायु पूर्व की ओर चल रही हो, कोई मनुष्य उसे पश्चिम की ओर नहीं चला सकता। मृत्यु भी माँ काली के नियंत्रण में कार्य करता है, संसार के बड़े - बड़े सम्राट, नेता या अवतार भी मृत्यु को रोक नहीं सकते।  मतलब यह है कि माँ काली के नियम को रोकने का साहस किसी में नहीं है। ऐसी परम महिमामयी माँ सारदा देवी का अंचल श्रद्धा पूर्वक पकड़ने वाला पुत्र /भक्त/हीरो क्या नहीं प्राप्त कर सकता है? वैसे तो माँ जगदम्बा के द्रोही -अनेक राक्षस भी हो चुके हैं, कुछ अब भी हैं, पर उनमें से कुछ तो जेल में जा चुके हैं, और कुछ जाने के लिए तैयार बैठे हैं। माँ सारदा देवी सर्वशक्तिमान हैं, किन्तु दयालु भी हैं- इसलिए उनकी जो सन्तान चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की चेष्टा में लगा रहता है, माँ उसको मृत्यु के भय से मुक्त और विसम्मोहित भी कर देती हैं। कोई भी मनुष्य निषिद्ध कर्मों का त्याग और अपने स्वधर्म का पालन करके अर्थात चरित्रवान मनुष्य बनके ही अपने जीवन को सार्थक बना सकता है, किन्तु माँ जगदम्बा की इच्छा के विरुद्ध चलने में सब नष्ट हो जाता है। 
कठोपनिषद  का सीधा -सीधा सन्देश यह है कि हम अपने बच्चों को बचपन से ही चरित्र निर्माण की ये बातें सिखाएं ताकि अन्तः प्रकृति या मनुष्य का अनियंत्रित मन विषय-भोगों की लालच में बहक कर कहीं उसको पशु न बना दे। योग दर्शन के द्वितीय अध्याय में अष्टांग योग साधना की " यम-नियम/आसन-प्रत्याहार-धारणा " तक का पालन करने से प्राप्त होने वाली सिद्धियों का वर्णन है। सत्य की आराधना करने वाले के मुख से निकले हुए शाप-वरदान सफल होते हैं। अहिंसा की साधना करने वाले से हिंसक जीव भी बैर त्याग देते हैं । ब्रह्मचर्य का पालन करने से तेजस्विता मिलती है। अस्तेय वृत्ति धारण करने से बहुमूल्य रत्नों के समान वस्तुएं उपलब्ध होती हैं। अपरिग्रह सध जाने पर जन्म-जन्मान्तरों का तथा भूत-भविष्य-वर्तमान का ज्ञान हो जाता है। शौच (पवित्रता) की साधना हो जाने पर घृणा तथा पर इन्द्रिय-विषय संसर्ग से छुटकारा मिलता है। अन्तःकरण की पवित्रता से मन की प्रसन्नता, एकाग्रता, इंद्रियों पर विजय और आत्म साक्षात्कार करने की क्षमता प्राप्त होती है ।  संतोष धारण करने से सर्वोंत्तम सुख मिलता है । तपः साधना अर्थात निषिद्ध कर्मों का त्याग कर देने से मल दोष दूर हो जाने पर अणिमा, लघिमा, महिमा आदि आठ शारीरिक सिद्धियां प्राप्त होती हैं । स्वाध्याय से इष्टदेव का साक्षात्कार होता है। ईश्वर प्रणिधान से ~ अर्थात किसी महापुरुष या अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण के चरणों में आत्मसमर्पण कर देने से समाधि लग जाती है । आसन सध जाने से सर्दी गर्मी आदि के द्वंद्व, दुःख नहीं पहुंचते । प्राणायाम से पाप और अज्ञान का आवरण मिटता है। प्रत्याहार के अभ्यास से इंद्रियां वश में हो जाती हैं । धारणासु च योग्यता मनसः ~ अर्थात 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास से हम मन को एकाग्र करने में समर्थ हो जाते हैं।  इसीलिए हमें महामण्डल द्वारा निर्देशित  5 अभ्यास का पालन करते हुए 'Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition' से जुड़े रहना चाहिए। और स्वामी विवेकानन्द के मनुष्य निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षापद्धति का प्रचार-प्रसार करने में जी -जान से जुट जाना चाहिए। भारत का भाग्य है -विश्वगुरु बनना!   
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प्रश्न -माँ की ममता में ईश्वर का प्रेम शायद रह सकता हो, किन्तु चोर और वैश्या की पापवृत्ति में भी ईश्वर का प्रेम और आकर्षण कैसे रह सकता है ? पाप (vice)और पुण्य (virtue) क्या है ? 
उत्तर में स्वामीजी बतलाते हैं - " हमारी मानसिक एवं शारीरिक प्रवृत्तियों का (2'H' का) उचित उपयोग ही पुण्य है, और उनका अनुचित उपयोग एवं क्षय ही पाप है। जड़ (Matter) और चेतन (ऊर्जा, Energy) यद्यपि भिन्न मालूम होते हैं, तथापि वे एक ही तत्व के दो रूप हैं। हम एक पदार्थ (पेड़ -पौधा) को जड़ मानने लगते हैं, क्योंकि उसमें निहित आत्मतत्व कुछ कम मात्रा में प्रकट हुआ है, और जहाँ वह अधिक मात्रा में प्रकट हुआ है, उसे हम जीव मानने लगते हैं। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो पूर्णरूप से जड़ (absolutely matter) हो और सदा जड़ ही बनी रहेगी। जो शक्ति (ऊर्जा) जड़ जगत में गुरुत्वाकर्षण (शारीरिक आकर्षण) के रूप में प्रकट होती है, आध्यात्मिक साधना के उच्चतर स्तरों में वही शक्ति निःस्वार्थ प्रेम के रूप में अनुभूत होती है 
प्रश्न - मनुष्य के भीतर निषिद्ध कर्म करने की बुरी प्रवृत्ति या पविक प्रवृत्ति रहनी ही क्यों चाहिए ? जिस मनुष्य के पास विवेक-पर्योग शक्ति पहले से है, उसमें अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करने की बुरी प्रवृत्ति (bad tendencyक्यों और कहाँ से आ जाती है ? 
 स्वामी जी -यह निषिद्ध कर्म करने की बुरी प्रवृत्ति (Bad tendency) मनुष्य द्वारा पिछले जन्मों में किये कर्मों के परिणामस्वरूप आती हैं। इस जन्म में मनुष्य जैसा है, जो है, उसका कारण वह स्वयं ही है। इसीलिए इस जन्म में अपनी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण पाने और उनका उचित उपयोग करने के प्रशिक्षण (5 अभ्यास के प्रशिक्षण) के द्वारा हम उत्तम चरित्र गठन का सामर्थ्य प्राप्त कर सकते हैं।
 प्रश्न - क्या विवाह का उद्देश्य भी शिक्षा प्राप्त करना है ? .... तो आपकी राय में लड़के -लड़कियों का विवाह अधिक उम्र होने पर ही होनी चाहिए ?
स्वामी जी -अवश्य। पर विवाह करने के साथ ही साथ उन्हें अच्छी शिक्षा (3H विकास का प्रशिक्षण) भी दी जाये, नहीं तो असंयम और व्याभिचार को बढ़ावा मिलेगा। शिक्षा से मेरा तात्पर्य वर्तमान में प्रचलित शिक्षा प्रणाली की शिक्षा नहीं है। वरन सकारात्मक शिक्षा (शीक्षा) से है, केवल पुस्तकीय शिक्षा से नहीं। हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे आत्मश्रद्धा का विकास हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, उन्नत चरित्र का मनुष्य बनकर देश के युवक अपने पैरों पर खड़े होना सीखें। ८/२७७ [श्री सुरेन्द्र नाथ सेन की निजी डायरी से, रविवार, 23 जनवरी, 1898।]  
 (By education I do not mean the present system, but something in the line of positive teaching. Mere book-learning won't do.We want that education by which character is formed, strength of mind is increased, the intellect is expanded, and by which one can stand on one's own feet.)
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श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग -दूसरा खण्ड, पहला अध्याय:  

साधनार चरम फल सर्वभूते ब्रह्मदर्शन- अपनी दृष्टि को भगवनमयी बनाकर जगत को भगवानमय देखना साधना का परम् परिणाम है ! 
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे -"सर्व भूतों में ब्रह्मदर्शन अथवा ईश्वर का दर्शन (या माँ काली का दर्शन) सबसे उच्च और अन्तिम अवस्था है" - साधना (5 अभ्यास) में चरम उन्नति होने पर ही किसी मनुष्य के सौभाग्य से वह अवस्था उपस्थित होती है। हिन्दुओं के सर्वोच्च प्रामाणिक ग्रन्थ वेद, उपनिषद और गीता का भी यही कथन है। शास्त्रों का कथन है कि इस जगत में स्थूल -सूक्ष्म, चेतन-अचेतन जो कुछ तुम देख रहे हो, स्त्री-पुरुष, पशु, देवी-देवता, ईंट,पत्थर, लकड़ी  --ये सब एक अद्वितीय ब्रह्मवस्तु हैं ! [और तत्त्वमसि - तुम भी वही हो!] किन्तु अपने यथार्थ स्वरूप को नहीं जानने के कारण, तुम यह सोच रहे हो कि विभिन्न वस्तु तथा व्यक्तियों  के साथ तुम्हारा सम्पर्क है। 
प्रश्न : प्रत्येक नाम-रूप के भीतर यदि माँ काली (सच्चिदानन्द) ही उपस्थित हैं, तो उस ब्रह्मवस्तु (अस्ति -भाति -प्रिय) का हमें प्रत्यक्ष अनुभव क्यों नहीं हो रहा है ? 
उत्तर : तुम लोगों को भ्रम हो गया है। जब तक वह भ्रम दूर न होगा, तब तक तुम्हें यह पता कैसे चलेगा कि तुम अभी तक भ्रम में जी रहे थे ? यथार्थ वस्तु तथा अवस्था के साथ तुलना करने पर ही हम भीतर तथा बाहर के भ्रम को समझ पाते हैं। पूर्वोक्त भ्रम को जानने के लिए भी तुमको उस प्रकार का ज्ञान (सा विद्या या विमुक्तये ....) आवश्यक है।
प्रश्न : अच्छा, इस प्रकार का भ्रम होने का कारण क्या है ? तथा कब से हमें वह भ्रम हुआ है ? 
उत्तर : भ्रम का जो कारण सर्वत्र (रज्जु-सर्प आदि) देखने को मिलता है , वही यहाँ पर भी है -अर्थात अज्ञान (अविद्या) ! वह अज्ञान कब उपस्थित  हुआ, यह तुम कैसे जान सकते हो ? अज्ञान के अन्दर जब तक तुम स्वयं विद्यमान हो [माया के राज्य में हो ?], तब तक उसे जानने का प्रयास करना व्यर्थ है। जब तक हम स्वप्न देख रहे होते हैं, तब तक हमें वह सत्य ही प्रतीत होता रहता है। नींद खुलने पर जाग्रत अवस्था के साथ तुलना करने पर ही उसके मिथ्यात्व की धारणा होती है। [ जनक राजा का सपना ~ ये सच है ; या वो सच था ?]  
प्रश्न- तो फिर चरित्र-निर्माण का उपाय क्या है ? 
नेता/जीवन्मुक्त शिक्षक का उत्तर - उस अज्ञान (सम्मोहन) को दूर करना ही एकमात्र उपाय है। मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि उस अज्ञान या भ्रम को दूर किया जा सकता है। प्राचीन ऋषि-मुनि उस अज्ञान को दूर करने में समर्थ हुए थे एवं जिस उपाय से वह अज्ञान दूर किया जा सकता है - उस 'भ्रममुक्त शिक्षक बनो और बनाओ प्रशिक्षण पद्धति' को (Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition) भी वे बता गए हैं।" 
प्रश्न : अच्छा, उस उपाय (भ्रममुक्त शिक्षक प्रशिक्षण पद्धति) को सीखने या प्रशिक्षण लेने से पहले और भी एक-दो प्रश्न करने की इच्छा हो रही है। हम इतने सारे लोग (बहुसंख्यक लोग) जो कुछ देख रहे हैं, प्रत्यक्ष देख रहे हैं (कि सूर्य घूमता है पृथ्वी स्थिर है), उसे तो आप भ्रम बतला रहे हैं. और अल्पसंख्यक ऋषियों ने जगत को जिस रूप में (ब्रह्ममय या भगवानमय रूप में) इस जगत का प्रत्यक्ष किया, उसे ही सत्य कह रहे हैं - क्या यह सम्भव नहीं कि अल्पसंख्यक ऋषियों ने जो कुछ प्रत्यक्ष किया है , वही भ्रम हो ? 
उत्तर : बहुसंख्यक व्यक्ति जो विश्वास करेंगे, वही सर्वदा सत्य होगा -ऐसा कोई नियम नहीं है। चार महावाक्यों को जिन ऋषियों के द्वारा प्रत्यक्ष किया जाता है, उसको ही सत्य कहने का कारण यह है कि उस आत्मसाक्षात्कार के बल पर वे समस्त दुःखों से मुक्त, मृत्यु के भय मुक्त या अभिः बन जाते हैं। और उन्हें इस सृष्टिचक्र का लक्ष्य -'Man is marching towards perfection' यह रहस्य भी विदित हो जाता है। इसके अतिरिक्त यथार्थ ज्ञान (भ्रममुक्त अवस्था,या विसम्मोहित हो जाने के बाद जो ज्ञानमयी दृष्टि या भगवानमयी दृष्टि) प्राप्त होने के बाद मनुष्य की अन्तर्निहित दिव्यता ~ सहिष्णुता, सन्तोष, करुणा, विनयशीलता आदि चरित्र के 24 गुण विकसित होकर उसे अपूर्व रूप से उदार (नवनीदा के जैसा जीवन्मुक्त शिक्षक, नेता) बना देता है। तथा उनके पदचिन्हों का अनुसरण कर जो सिद्धिलाभ करते हैं (प्रमोददा आदि मुट्ठीभर लोग) उनके अंदर भी पूज्य नवनीदा जैसा परम् उदार जीवन अभी तक देखने में आता है। 
प्रश्न :अच्छा, हम सभी को एक ही प्रकार का भ्रम कैसे हुआ ? मैं जिसे पशु समझता हूँ, आप भी उसे पशु ही समझते हैं, मनुष्य नहीं समझते; अन्यान्य विषयों में भी यही बात है। फिर सबको एक ही प्रकार का भ्रम कैसे हुआ ? जबकि अंधरे में रस्सी को देखकर कुछ लोगों में भ्रमात्मक धारणा होने पर भी, दूसरे लोगों में उस रस्सी के प्रति सत्य-दृष्टि बनी रहती है, और सर्वत्र प्रायः ऐसा ही देखा जाता है। किन्तु यहाँ उस नियम का व्यतिक्रम क्यों हो रहा है ?   
उत्तर : (जैसे बहुसंख्यक लोग अब भी Hypnotized हैं, ठीक उसी प्रकार वे अल्पसंख्यक ऋषि भी एक दिन वैसे ही सम्मोहित थे। किन्तु )अल्पसंख्यक ऋषियों की गणना सर्वसाधारण के साथ नहीं करने के कारण ही तुम्हें यहाँ पर नियम का व्यतिक्रम दिखाई दे रहा है। अन्यथा इसका उत्तर पहले ही दिया जा चुका है। फिर भी तुम जो यह पूछ रहे हो कि सबको एक प्रकार का भ्रम कैसे हुआ ? [क्या कुँए में ही भाँग घुला हुआ है ?अल्पसंख्यक ऋषियों की दृष्टि निरंतर ज्ञानमयी बनी रहती है; किन्तु बहुसंख्यक सामान्य-मनुष्यों को एक ही प्रकार का भ्रम क्यों होता है ? 
इसके उत्तर में शास्त्रों का कहना है कि "एक असीम अनन्त समष्टि मने जगतरूप कल्पनार उदय होइयाछे"- এক অসীম অনন্ত সমষ্টি-মনে জগৎরূপ কল্পনার উদয় হইয়াছে" माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मन (माँ सारदा के सर्वव्यापी विराट हृदय का समष्टि 'अहं' बोध ?) में विभिन्न नाम-रूपमय जगत-कल्पना का उदय हुआ है। तुम्हारा, मेरा और जनसाधारण का व्यष्टि -मन (अहं) उसी एक विराट मन का अंश तथा अंगीभूत होने के कारण हमलोग एक ही प्रकार की कल्पना करने को बाध्य हैं। इसीलिए हम अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्येक पशु को पशु के अतिरिक्त और किसी रूप में देखने या कल्पना करने में समर्थ नहीं हैं। और इसलिए हमलोगों में से कोई एक साधक तो यथार्थ ज्ञान को प्राप्त कर (माँ का भक्त, माँ की कृपा से-आत्मसाक्षात्कार द्वारा मृत्यु को जीतकर अभिः बन जाता है) सब प्रकार के भ्रमों से मुक्त या DeHypnotized हो जाता है; किन्तु दूसरे लोग पहले से जिस प्रकार भ्रम में पड़े हुए हैं, वे उसी भ्रम में आजीवन पड़े रह जाते हैं ! 
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि (ब्रह्म या माँ जगदम्बा के) विराट मन में जगतरूप कल्पना का उदय होने पर भी वे (अवतार या भगवान श्रीरामकृष्णदेव,सिंहशावक ?) हम लोगो की तरह अज्ञान के बंधन में (देह-मन के जाल में) फंस कर निश्चेष्ट (भेंड़) नहीं बन जाते। बल्कि सर्वदर्शी (ब्रह्मवेत्ता) होने से वे अज्ञानजनित जगतकल्पना के भीतर तथा बाहर अद्वय ब्रह्मवस्तु (Existence-Consciousness-Bliss, सच्चिदानन्द) को ओतप्रोत रूप से विद्यमान देखते हैं। किन्तु हमलोगों के पास अभी ~ " विवेकज-ज्ञान से प्राप्त होने वाली ज्ञानमयी दृष्टि/ या इष्टदेव के दर्शन से प्राप्त होने वाली भगवानमयी दृष्टि" ~ नहीं रहने के कारण हमलोगों की बात शिक्षकों/नेताओं से स्वतः भिन्न है। जैसे श्रीरामकृष्णदेव कहते थे -" साँप के मुँह में विष रहता है, उसी मुँह से वह नित्य भोजन कर रहा है, किन्तु उससे साँप का कुछ नहीं बिगड़ता, किन्तु साँप जिसे काटता है, उसकी तो विष से तत्काल ही मृत्यु हो जाती है। " 
ब्रह्म के मन में उदय होने वाली जगतरूप कल्पना देश-काल (Space and Time) से अतीत है।प्रकृति अनादि है ! (জগৎরূপ কল্পনা দেশকালের বাহিরে বর্তমান - প্রকৃতি অনাদি : माया या काली~ अनादि हैं,'without beginning' हैं !).... नाम और रूप कहें अथवा देश व कालरूप पदार्थद्वय (प्राण और आकाश) कहें (E=Mc2), इन दोनों के न रहने से इस विविधतापूर्ण सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वेद-उपनिषद-गीता आदि शास्त्रों ने प्रकृति, माया (माँ काली) को अनादि अथवा कालातीत मानने की शिक्षा दी है। क्योंकि, जगतरूप कल्पना का प्रारम्भ - 'काल' शब्द से हमें जो बोध होता है, यदि उसके अंदर न हुआ हो, और यह दृष्टिगोचर जगत सचमुच मनःकल्पित ही हो, तो इसका निष्कर्ष यह होगा कि जगतजननी काली की रूप कल्पना के साथ ही साथ उसके आश्रित जगतरूप कल्पना भी इन सबके आश्रय विश्वमन (ब्रह्म) में विद्यमान है। किन्तु हमारा क्षुद्र व्यष्टि अहं (काचा आमी) दीर्घकाल से बार-बार लगातार उस मनःकल्पित (नश्वर) जगत को ही देखते रहने के कारण, जगत (देह-मन) को ही सत्य समझने आदत (Habit) , प्रवृत्ति (Propensity) बन चुकी है। और स्त्री-पुरुष प्रवृत्तियों का समूह (Agglomeration of Male-female Propensity) के बंधन में पड़कर, जगत के अस्तित्व (देह-मन) में ही उसकी दृढ़ धारणा बनी हुई है। तथा जन्मजन्मांतर से दीर्घकाल तक जगतरूप कल्पना (देह-मन ,2'H') के अतीत अद्वय ब्रह्मवस्तु (आत्मा 3rd'H') के साक्षात दर्शन (आत्मानुभूति) से वंचित रहने के कारण," यह जगत मनःकल्पित वस्तुमात्र है"~ इस सत्य को एकदम भूल चुका है, इसीलिए इस समय कोई भी मनुष्य यह अनुभव नहीं कर पा रहा है कि मैं अभी भ्रमग्रस्त (सम्मोहित) अवस्था में हूँ ! (पंचभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे!) क्योंकि यथार्थ वस्तु (निरपेक्ष सत्य-इन्द्रियातीत सत्य) तथा वर्तमान अवस्था (सापेक्षिक सत्य)के साथ तुलना करने पर (द्रष्टा-दृश्य विवेकज ज्ञान होने पर)  ही हम भीतर और बाहर के भ्रम को निरंतर स्पष्ट रूप से देख पाने में समर्थ होते हैं। 
प्रश्न : सच्ची साधना किसे कहते हैं ? और साधक कौन है ? 
उत्तर : "দেশকালাতীত জগৎকারণের সহিত পরিচিত হইবার চেষ্টাই সাধনা" देश-कालातीत जगत्कारण के साथ परिचित होने के प्रयास को ही साधना कहते हैं! अब हम स्पष्ट रूप से यह समझ सकते हैं कि जगत (M/F) के बारे में हमारी धारणा और बार-बार किये गए विषय-भोगों का अनुभव दीर्घकाल -संचित आदतों (प्रवृत्तियों) के फलस्वरूप हमारे चरित्र ने वर्तमान आकार को धारण किया है। अब हमें 'नाम-रूप', 'देश-काल', 'चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार' आदि जगत के अंतर्गत परिवर्तनशील विषयों से परे जो हमारा यथार्थ, अपरिवर्तनीय, 'सच्चिदानन्द- स्वरूप' है; उससे परिचित होना पड़ेगा। (যথার্থ জ্ঞানে উপনীত হইতে হইলে আমাদিগকে এখন নামরূপ, দেশ-কাল, মন-বুদ্ধি প্রভৃতি জগদন্তর্গত সকল বিষয়ের অতীত পদার্থের সহিত পরিচিত হইতে হইবে।) इस परिचय को प्राप्त करने प्रयास को (आत्मसाक्षात्कार के प्रयास, या ब्रह्म को जानने के प्रयास को) ही वेदों-उपनिषदों में साधना कहा गया है। और जो स्त्री-पुरुष इसी प्रयास में ज्ञात या अज्ञात रूप से लगे हुए हैं, उन्हीं को भारत में साधक कहते हैं। 
प्रश्न : उस इन्द्रियातीत सत्य का अनुसन्धान करने की साधना का मार्ग क्या है ? [भ्रममुक्त होने की पद्धति कौन कौन सी है ?] 
उत्तर :  'वास्तव में मैं कौन हूँ ?' इसे अपने अनुभव से जान लेने के मार्ग को शास्त्रों में 'नेति,नेति ' को ज्ञानमार्ग और 'इति,इति ' को भक्तिमार्ग कहा गया है। अन्य समस्त वस्तुओं की अपेक्षा हम अपने देह-मन के माध्यम से ही जगत में आसक्त हो गए हैं।  जगत के सम्बन्ध में पूर्वजन्मों के अभ्यास से जो स्वार्थमय तथा एकमात्र विषयभोग की धारणा (कामिनी-कांचन और कीर्ति =3'K' ~ में आसक्ति हो गयी है !) उस सामान्य धारणा, या विषय भोगों में लालच को क्रमशः कम करते हुए, पूर्णतया त्याग देने की प्रबल इच्छाशक्ति को ही शास्त्रों ने "वैराग्य" कहा है। विवेक-प्रयोग करते हुए 'मैं कौन हूँ ' ~ यह जान लेना ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है ! 3'K' में आसक्ति को पूर्णतया त्याग देने से ही मानव-मन की वृत्तियों का निरोध होने पर, पूर्ण वैराग्य होने पर ही मनुष्य निर्विकल्प समाधि का अधिकारी बनता है। अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव को अपना इष्ट अथवा मुक्ति तथा यथार्थ सत्य की प्राप्ति का प्रधान सहायक मानकर, उनके ही नाम-रूप में अनुरक्त होकर उनके चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से (या विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से) मानव-मन आसानी से निर्विकल्प अवस्था में पहुँच सकता है। श्रीगुरुदेव और माँ सारदा देवी की कृपा से साधक शीघ्र ही अद्वैत ज्ञान में अवस्थित होकर चिरशांति (अभिः) का अधिकारी बन जाता है।     
स्वामी-शिष्य प्रश्न -ठीक है, मान लिया कि मेरा वर्तमान बुरा चरित्र (bad tendency या पाशविक प्रवृत्ति) मेरे पिछले कर्मों का परिणाम है ; फिर इसकी शुरुआत कब हुई होगी ? और शुरुआत में ही किसी की प्रवृत्ति अच्छी तो किसी की बुरी क्यों रही होगी ?
स्वामी जी -तुम यह यह कैसे जानते हो कि सृष्टि का आदि है ?How do you know that there is a beginning?  वेद वाक्य (doctrine of the Vedas.) कहता है कि सृष्टि अनादि है! जब तक ईश्वर (माँ जगदम्बा) हैं, तब तक सृष्टि भी है।  उत्तर -तुम माया (जगतजननी के राज्य) में रहते हुए, यह प्रश्न कर रहे हो कि माया के परे क्या है ? जब तक तुम स्वयं माया के राज्य (Time-space-causation) में हो, तब तक यह प्रश्न कैसे कर सकते हो ? श्वेताश्वतर उपनिषद १/६ में कहा गया है -
सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते अस्मिन्हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे।
पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति॥
पदार्थ – अस्मिन् = इस; सर्वाजीवे = सबके जीवका रूप; सर्वसंस्थे = सबके आश्रय भूत; बृहन्ते = विस्तृत;ब्रम्हचक्रे = ब्रम्हचक्र रूप संसार चक्र में ; हंस = जीवात्मा (हं=जीव, सः=आत्मा); भ्राम्यते = घुमाया जाता है; (सः)= वह; आत्मानम् = आ[ने आपको; च = और; प्रेरितारम् = सबके प्रेरक परमात्मा को; पृथक = अलग-अलग; मत्वा = जानकर; तत: = उसके बाद; तेन = उस परमात्मा से जुष्ट = स्वीकृत होकर;अमृत्तत्त्वम् = अमृत तत्त्वम् को; एति = प्राप्त हो जाता है।
अर्थः अपने आपको (अपनी जीवात्मा को) और इस सृष्टि की स्वामिनी माँ जगदम्बा को पृथक्-पृथक् जानकर, उस जगतजननी की स्तुति करने-वाला, माँ सारदा देवी का भक्त या उपासक, उनकी कृपा से मोक्ष को प्राप्त करता है।
 उस ब्रह्म चक्र में जो सबका जीवन और आश्रय है हंस (यात्री जीवात्मा) भ्रमण कर रहा है। जब वह अपनी वैयष्टिक आत्मा (जीवात्मा) को पृथक् कर अपने स्वयं को प्रेरक शक्ति (माँ जगदम्बा) के रूप में अनुभव करने लगता है तब वह उसकी कृपा से अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है। [ ब्रह्म (=शक्ति) , जीव, माया, तीन तत्त्व हैं, तुम जीव हो और माया की ओर आनन्द ढूँढ़ रहे थे, ये गलत था। अब अबाउट टर्न हो जाओ और भगवान् की ओर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस की ओर) मुड़ जाओ। तो, वहाँ तुमको अमृतत्व मिल जायेगा, ये जन्म-मरण का चक्कर छूट जायेगा।स्वामी विवेकानन्द जी ने भी 'धर्म' की परिभाषा को अपने 'मेरे गुरुदेव' नामक निबंध  में दिया है--'मनुष्य को ईश्वर प्राप्त करना चाहिए, ईश्वर का अनुभव करना चाहिए, ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहिए तथा उससे बातचीत करनी चाहिए--यही  'धर्म' है ।' 
वस्तुत: जगत्‌ माया का प्रपंच है। वह क्षर और अनित्य है। किन्तु प्रत्येक जीवात्मा मूलत: ब्रह्मस्वरूपी है, परंतु माया के वशीभूत होने से वह अपने को ब्रह्म से पृथक्‌ (देह-मन) समझता है, और नाना प्रकार के कर्म करता है। और उनके फल भोगने के लिए पुन: पुन: जन्म धारण करता हुआ सुख दु:ख के आवर्त में अपने को घिरा पाता है।अपने को स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर (लिंग शरीर-M/F मानने वाला अहं-बोध) जो कर्मफल से लिप्त रहता है, उसके साथ जीवात्मा भी जन्मांतर में प्रवेश करता है। इस प्रकार यह संसार निरंतर चल रहा है। इसी ब्रह्मचक्र (श्वेता० उप० 1.6.) को दैवी माया  कहा गया है। श्वेता० उपनिषद में कथन आता है कि एक बार बहुत से ब्रह्मावेता आपस में विचार-विमर्श कर रहे हैं कि हमारा जन्म पृथ्वी की रचना एवं समय इत्यादि की रचना किसने की है। ॐ ब्रह्मवादिनो वदन्ति ...  किङ्कारणं ब्रह्म’ (श्वे. उ. १ । १) इत्युपक्रम्य ‘ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्’ (श्वे. उ. १ । ३) (ब्रह्म के जिज्ञासु) इस जगत् का कारण समझने का प्रयास करते है तो उन्हें तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) से आच्छादित परमेश्वर की माया ही इस ससार को प्रकट करती हुई दिखती है-
 ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्ह्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगूढाम्‌
 यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्येकः॥ श्वेता ०१/३ 
शब्दार्थ - तब ते = उन ब्रह्मवादी ऋषियों ने/ध्यानयोगानुगताः =ध्यान-योग में एकाग्रचित्त होकर स्वयं भगवान की सृजन-शक्ति को देखा जो/स्वगुणैः = उसके अपने गुणों में/निगुढाम् = छिपी हुई थी। अव्यक्त देवात्मशक्तिम् = परमात्मा की दिव्य शक्ति को/ अपश्यन् देखते हुए यह विचारने लगे कि यः जो महान् देव एकः अकेला ही तानि उन पूर्वोक्त कालात्मयुक्तानि - काल से लेकर आत्मा तक आठों निखिलानि समस्त कारणानि कारणों का अधितिष्ठति अधिष्ठाता है, वह निस्सहाय- अकेला ही जगत् का कारण है ।ध्यान योग की स्वानुभूति से प्रत्यक्ष देखा गया है कि सब का कारण ब्रह्म की शक्ति है और वही इन कथित कारणों की अधिष्ठात्री है। इस शक्ति को ही प्रकृति, प्रधान अथवा माया की अभिधा प्राप्त है। यह अज और अनादि है, परंतु परमात्मा के अधीन और उससे अस्वतंत्र है। 
ये वही एकमेवाद्वितीयं हैं जो काल, आत्मा तथा सभी कारणों के अधिपति हैं।जब तक अविद्या के कारण जीव अपने को भोक्ता, जगत्‌ को भोग्य और ईश्वर को प्रेरिता मानता अथवा ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान को पृथक्‌ पृथक्‌ देखता है, तब तक इस ब्रह्मचक्र से वह मुक्त नहीं हो सकता। सुख दु:ख से निवृत्ति तथा अमृतत्व की प्राप्ति का एक मात्र उपाय जीवात्मा और ब्रह्म का अभेदात्मक ज्ञान है। ज्ञान के बिना ब्रह्मोपलब्धि आकाश की चटाई बनाकर लपेटने जैसा असंभव है। (श्वेता -6.15.20) [गीता 18/61-62) तथा (श्वेताश्वतरोपनिषद् 1/6, 1/3 ) को  बार-बार पढे़-समझें और सच्चाई को अपनायें । ) 
।साभार https://hi.wikipedia.org/wiki/श्वेताश्वतरोपनिषद [श्री सुरेंद्र नाथ सेन-निजी डायरी 24 जनवरी, 1898.]
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हमारे शास्त्रों में स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीन प्रकार के शरीर बताये गए हैं, जो कि क्रमशः भौतिक शरीर, जीवात्मा और परमात्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक मनुष्य के शरीर में ही ये तीनों शरीर उपस्थित रहते हैं। इसीलिए व्यक्ति को ही परमात्मा कहा जाता है, लेकिन ऐसा तभी कहा जा सकता है जब वह अपना वास्तविक स्वरूप पहचान ले। बिना स्वरूप को पहचाने वह अपने आपको केवल स्थूल शरीर ही समझता रहता है। अपने वास्तविक स्वरूप वह तभी पहचान पाता है, जब वह विज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ते हुए परमात्मा तक पहुँच जाये। इस राह में आगे बढ़ना केवल परम पिता/माँ जगदम्बा के? हाथ में ही है, उसकी कृपा से ही ऐसा होना संभव हो सकता है, अन्यथा नहीं।  परमात्मा का ज्ञान ही उसे परमात्मा बना देता है। इसी बात को (मुण्डकo 3.1.1; श्वेताश्वतरo 4.6) की ऋचाओं  में बहुत सरल तरीके से समझाया गया है - 
  द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
 तयारन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यश्रत्रन्यो अभिचाकशीति ॥  
-(सयुजा) साथ रहने वाले (सखाया) मित्र के समान (द्वा) दो (सुपर्णा) पक्षी (समानम्) एक ही (वृक्षम्) वृक्ष को (परिषस्वजाते) आश्रय करते हैं (तयोः) उन दोनों में से (अन्यः) एक (जीवात्मा) (पिप्पलम् स्वादु) स्वादिष्ट फलों को (अत्ति) खाता है (अन्यः) दूसरा (अनश्नन्) न खाता हुआ (अभिचाकशीति) देखता है। 
इस मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं- परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति। मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है।प्रकृति रुपी वृक्ष पर दो सुपर्ण (आत्म-तत्व) हैं। दोनों सजातीय और सखा हैं। इसमें से एक (आत्म-तत्व) इस वृक्ष के फल स्वाद से खाता है और दूसरा आत्मतत्व केवल देखता है। एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखनेवाले दो पक्षी जीवात्मा (प्रतिबिंबित चेतना,reflected  consciousness, अहं -मन)  एवं परमात्मा (साक्षी चेतना witness consciousness), एक ही वृक्ष शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं । उन दोनों में से एक जीवात्मा तो उस वृक्ष के फल, कर्मफलों का स्वाद ले-लेकर खाता है । किंतु दूसरा, ईश्वर उनका उपभोग न करता हुआ-साक्षी बनकर केवल देखता रहता है। 
 एक वृक्ष है जिस पर फल आदि लगे हैं। एक पक्षी अर्थात् चेतनता युक्त सत्ता उसके फलों का रसास्वादन कर रही है। तथा तीसरी एक अन्य चेत्तनायुक्त सत्ता जो इस पहले पक्षी की मित्र है, व्याप्य व्यापक भाव से उससे संयुक्त है, वह कर्मों के फलों को न भोक्ती हुई केवल साक्षी है।  जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान्‌ और चेतन हैं। दोनों संसाररूपी वृक्ष पर स्थित हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार के फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नहीं। वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है।मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है।
इस शरीर (प्रकृति) रूपी वृक्ष पर बैठी हुई संसार में लिप्‍त मरणधर्मा जीवात्‍माऍं सुख-दु:ख रूपी फलों को भोगती हुई ...अपने शब्‍दों में परमात्‍मा की स्‍तुति करती हैं । जो सुपर्ण (आत्म-तत्व) ज्ञान से युक्त होकर निरन्तर मोक्ष का अधिकार पाना चाहता है, वह भुवनों के रक्षक उस परमात्मा से -जिसके अधिकार में अमृत का-कुंभ है, से प्रार्थना करता है कि- हे इन लोकों के स्‍वामी और जगत् के प्रभु सर्वज्ञ ईश्‍वर, मेरे जैसे अज्ञान से युक्‍त, अपरिपक्व स्थिती के जिज्ञासु साधक (एथेंस का सत्यार्थी को) मुक्त करो ! तब ऐसा परमात्म-तत्त्व उस जिज्ञासु के जीवन में इस प्रकार प्रवेश करता है, जिस प्रकार सूर्य-प्रकाश किरणों में सभी स्तरों पर प्रवेश करता है। वैसे ही यह परमात्मा (श्रीरामकृष्ण) साधक के जीवन में स्व-प्रकाश लेकर आविर्भूत हो जाते हैं। इस (संसार रूपी) वृक्ष पर प्राण रस का पान करने वाली, और बरिश के समस्त फलों का भोग करने वाली जो जीवात्मायें वंशविस्तार करने में, प्रजा वृद्धि करने में ही रत रहती हैं, कहा जाता है, उसको उस (परमात्मा) का ज्ञान नहीं होता। जो पिता (श्रीरामकृष्ण परमहंस) को नहीं जानते, वे वृक्ष में उपर जो मधुर फल भी लगे हुए हैं, वे उन मधुर मोक्ष (भ्रममुक्ति,d-hypnotized) रूपी फलों के आनन्‍द से वंचित रहते हैं।
स्वामी जी कहते हैं - "मनुष्य क्षण -काल के लिए अवाक् होकर उस दिव्य चिड़िया को देखता है कि वह तो शान्त और महिमामय है। वह खट्टे-मीठे कोई भी फल नहीं खाती ? वह अपनी महिमा में स्वयं आत्मतृप्त है, जैसा गीता 3.17 में कहा है - 
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
 आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
( यः  तु आत्मरतिः एव स्यात् आत्मतृप्तः च मानवः।  आत्मनि एव  च  सन्तुष्टः तस्य कार्यम् न विद्यते ) 'जो आत्मा में रत है, जो आत्मतृप्त है, और जो आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके करने के लिए और कौन सा कार्य शेष रह गया है ? वह वृथा कार्य करके क्यों समय गँवाये ? किन्तु विडंबना यह है कि एक बार अचानक ब्रह्म-दर्शन करने के पश्चात्, मनुष्य पुनः (उस दिव्य चिड़िया को) भूल जाता है, और पुनः जीवन के खट्टे -मीठे फल खाता है- और उस समय उसको कुछ भी स्मरण नहीं रहता। 
कदाचित कुछ दिनों के पश्चात् वह पुनः ब्रह्मदर्शन प्राप्त करता है, और जितनी चोट खाता है, उतना ही नीचे का पक्षी ऊपर बैठे हुए पक्षी के निकट आता जाता है। यदि वह संसार से लगातार तीव्र आघात पाता रहे, तो वह अपने साथी, अपने प्राण, अपने सखा उसी दूसरे पक्षी के निकट क्रमशः आता है। और वह जितना ही निकट आता है, उतना ही देखता है कि उस ऊपर बैठे हुए पक्षी की देह की ज्योति आकर उसके पंखों के चारों ओर खेल रही है। और वह जितना ही निकट आता जाता है, उतना ही रूपांतरण घटित होता है। धीरे धीरे जब वह अत्यंत निकट पहुँच जाता है, तब देखता है कि मानों वह क्रमशः मिटता जा रहा है-अंत में उसका पूर्ण रूप से लोप हो जाता है। उस समय वह समझता है- कि ओह ! उसका 'पृथक अस्तित्व ' तो कभी था ही नहीं !  वह तो उसी हिलते पत्तों के भीतर शांत और गंभीर भाव से बैठे हुए दूसरे पक्षी (साक्षी चेतना - witness consciousness) का प्रतिबिम्ब (प्रतिबिंबित चेतना - reflected  consciousness) मात्र था। उस समय वह जानता है कि वह स्वयं ही ऊपर बैठा हुआ पक्षी है, वह सदा से शांत भाव से बैठा हुआ था- यह उसकी महिमा है। वह निर्भय (अभीः) हो जाता है। उस समय वह सम्पूर्ण रूप से तृप्त होकर धीर और शांत भाव में निमग्न रहता है। इस रूपक के माध्यम से उपनिषद हमें द्वैत भाव से आरम्भ कर पूर्ण अद्वैत भाव में ले जाते हैं। (-भारतीय जीवन में वेदान्त का प्रभाव '5.131-134 )
            स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का सन्देश देता है। उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि उनके द्वारा समस्त संसार को पुनरुज्जीवित किया जा सकता है, उसे 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न किया जा सकता है। संसार भर में उपनिषद ही एकमात्र शास्त्र है जिसमें उद्धार (salvation) का जिक्र नहीं है, किन्तु मुक्ति (Liberation स्वाधीनता) का वर्णन है। दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों के मूल मंत्र हैं। और उपनिषद तुमको यह भी बतलाते हैं कि यह मुक्ति तुममें पहले से ही विद्यमान है। उपनिषद अपनी अदभुत भाषा में तुम्हें एक ऐसी वस्तु का दर्शन करा देते हैं, जो इन्द्रियग्राह्य नहीं है, जिसे तुम इन्द्रियों से नहीं देख सकते, फिर भी उस वस्तु के सम्बन्ध तुम्हें यह निश्चय हो जाता है कि उसका अस्तित्व है। संसार के किसी भी साहित्य में ऐसा स्थल कहाँ है जिसके साथ उपरोक्त श्लोक की तुलना हो सकती हो ? " उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । — Arise, awake and stop not till the desired end is reached.उठो, जागो, और जब तक तुम अपनी इष्टवस्तु (अभीः) को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक बराबर उसकी ओर बढ़ते जाओ। केवल हमारे ही शास्त्रों में ईश्वर के लिए 'अभीः' विशेषण का प्रयोग किया गया है। हमें 'अभीः' निर्भय होना होगा, तभी हम अपने संकल्प में सिद्धि प्राप्त करेंगे। " 5. 212
[सर्वप्रथम ऋग्वेद के प्रथम मण्डल/ सूक्त १/ १६४ में 'अभिः' शब्द का अर्थ "भयशून्य (fearless)" कहा गया है। जिसे बोलचाल की भाषा में "अभि" कहते हैं, जहाँ दूसरा 'ह' अनुच्चारित है। 'अभि' शब्द का एक अर्थ 'की ओर' (towards) भी हो सकता है,जैसे कि "अभिमुख"। इस शब्द का दूसरा अर्थ  "कोई डर नहीं" (अ =नहीं, भि= भय)। यह शब्द मृत्यु के डर से भी निर्भय हो जाने का सुझाव देता है। He also told a "Vedantist is to be Abhih, fearless". स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, “Fear is death, fear is sin, fear is hell, fear is unrighteousness, fear is wrong life.” "भय ही मृत्यु है, भय ही पाप है, भय ही नरक है, भय अधर्म है, और भयभीत होकर जीना ही गलत ढंग से जीवन जीना है।"
स्वामी विवेकानन्द  के अनुसार वेदों में वर्णित 'अभिः' शब्द का अर्थ "निडर" है। यहाँ "अभि" का उच्चारण करते हुए, दूसरा "ह" अनुच्चारित है। अतः "सच्चे वेदान्तवादी के लिए महामण्डल के आदर्श वाक्य - 'Be and Make' में 'Be' या 'बनो' का अर्थ है 'अभिः' (निडर) बनो -अर्थात आत्मसाक्षात्कार करके तुम स्वयं मृत्यु के भय से पार हो जाओ, और 'Make' ~ अर्थात दूसरों को भी भी मृत्यु-भय पर विजय प्राप्त करने में सहायता करो! 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, "..वीर्यवान बनो , दुर्बलता को त्यागो। मनुष्य प्रश्न करता है, क्या मनुष्य में दुर्बलता नहीं है? उपनिषद कहते हैं, अवश्य है, किन्तु अधिक दुर्बलता द्वारा क्या यह दुर्बलता दूर होगी? जगत् के साहित्य में केवल इन्हीं उपनिषदों में ईश्वर के लिये 'अभीः' (भयशून्य) शब्द का प्रयोग बार बार किया गया है !-संसार के अन्य किसी शास्त्र में ईश्वर अथवा मानव के प्रति 'अभीः' - 'भयशून्य' यह विशेषण प्रयुक्त नहीं हुआ है। 'अभीः' -निर्भय बनो और बनाओ !"  
" मैं सर्वप्रथम इस देश के लोगों में रजोगुण की वृद्धि कर कर्म-तत्परता के द्वारा उन्हें इहलौकिक जीवन संग्राम करने (अभ्युदय) में समर्थ बनाना चाहता हूँ। देह (Hand) में शक्ति नहीं, हृदय (heart) में उत्साह नहीं, मस्तिष्क (Head) में प्रतिभा नहीं। क्या होगा रे इन जड़ पिण्डों से? इसलिए मैंने प्राणान्त प्रण किया है -वेदान्त के अमोघ मंत्र के बल से इन्हें जगाऊँगा। 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत !' -अर्थात उठो, जागो और ध्येय की प्राप्ति तक रुको मत - भयशून्यता के इस सन्देश को सुनाने के लिए ही मेरा जन्म हुआ है। (I am born to proclaim to them that fearless message --"Arise! Awake!") तुम लोग इस काम में मेरे सहायक बनो। भयशून्यता के इस सन्देश को, एक गाँव से दूसरे गाँव में, देश के कोने-कोने में- ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक सबको सुनाओ। प्रत्येक मनुष्य से कहो कि ' तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति छिपी हुई है, तुम सब अमर आनन्द के भागीदार हो!' " Tell each and all that infinite power resides within them, that they are sharers of immortal Bliss."इसी प्रकार पहले रजःशक्ति की उद्दीपना कर, जीवन संग्राम के लिए सबको कार्यक्षम बना, इसके पश्चात (चित्त शुद्धि होने के बाद) उन्हें परजन्म में मुक्ति प्राप्त करने की बात सुना।  6/155  
" If one man is made, it equals the result of a hundred thousand lectures. By degrees the heart has to be strengthened. यदि एक भी व्यक्ति यथार्थ 'मनुष्य' बन जाय तो लाख व्याख्यानों का फल हो। हृदय में धीरे धीरे बल लाना होगा ! (अर्थात अपने M/F वाले 'व्यष्टि अहं' को सर्वव्यापी विराट माँ जगदम्बा का मातृहृदय का 'समष्टि अहं' में रूपान्तरित कर क्रमशः हमें भी 'भ्रममुक्त मुनष्य', 'पूर्णहृदय वान मनुष्य' में 'heart whole man' में रूपान्तरित हो जाना होगा।)  'मन' और 'मुख' को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा।इसीको श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "allowing no theft in the chamber of thought"- अर्थात " भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये। 
" सब विषयों में हमें व्यावहारिक बनना होगा, अर्थात अपने अपने वर्णाश्रम या कार्यक्षेत्र में रहते हुए ही अंतर्निहित ब्रह्मत्व को व्यक्त करना होगा। केवल मतमतान्तरों ने देश को शिखंडी बना दिया है। श्री रामकृष्ण की जो यथार्थ संतानें होंगी, वे धर्म (अभ्युदय और निःश्रेयस) के व्यावहारिक पक्ष को जीवन में धारण करेंगी। लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य 'Be and Make' करते रहेंगे। ...  - 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:' अर्थात् शरीर (Hand) और मन (Head) में दृढ़ता न रहने से कोई भी इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता ('Heart whole man' ) -अर्थात 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' नहीं बन सकता। सर्वप्रथम पौष्टिक आहार और व्यायाम से शरीर को बलिष्ठ करना होगा तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन भी तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। शरीर दृढ़ और बलिष्ठ रहने से ही मन और मुख एक रहता है। "I am low (backward), I am low (dalit)"--'मैं हीन हूँ' 'मैं दीन हूँ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है। इसलिए अष्टावक्र संहिता 1.11 में शास्त्रकार ने कहा है - 
मुक्ताभिमानी  मुक्तो  हि  बद्धो  बद्धाभिमान्यपि । 
किम्वदन्तीति  सत्येयं या  मतिः  सा  गतिर्भवेत् ।। 
जिसके हृदय में मुक्ताभिमान सर्वदा जाग्रत है वह मुक्त हो जाता है और जो 'मैं बद्ध हूँ' ऐसी भावना रखता है, समझ लो कि उसकी जन्म-जन्मान्तर तक बद्ध दशा ही रहेगी । अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस (पारमार्थिक उन्नति) दोनों पक्षों में ही इस बात को सत्य जानना ।इस जीवन में जो सर्वदा हताशचित्त रहते हैं, उनसे कोई भी कार्य नहीं हो सकता । वे जन्म जन्म  'हाय, हाय'  करते हुए चले आते और चले जाते हैं ।  'वीरभोग्या वसुन्धरा'  अर्थात् वीर लोग ही वसुन्धरा का भोग करते हैं   -  यह वचन नितान्त सत्य है ।  वीर बनो,  सर्वदा कहो  'अभीः'  'अभीः'  -  मैं भयशून्य हूँ,  मैं भयशून्य हूँ । सब को सुनाओ,  'माभैः'  माभैः'  भय न करो, भय न करो ।  भय ही मृत्यु है,  भय ही पाप,  भय ही नरक, भय ही अधर्म तथा भय ही व्याभिचार है । जगत् में जो कुछ 'negative thoughts'  असत्यता,  मिथ्याभाव आदि है,  वह सब इस भयरूपी शैतान से उत्पन्न हुआ है ।  इस भय ने ही सूर्य के सूर्यत्व को, वायु के वायुत्व को, यम के यमत्व को अपने अपने स्थान पर रख छोड़ा है, अपनी अपनी सीमा से किसी को बाहर नहीं जाने देता ।
स्वामी जी फिर कहने लगे - इस मानवदेह को धारण करने के बाद तुमको कितने ही बार सुख-दुःख, अनुकूलता -प्रतिकूलता की लहरों पर उछाला जायेगा, परन्तु सदा याद रखना कि वे सब दृश्य क्षण-स्थायी हैं।(  In this embodied existence, you will be tossed again and again on the waves of happiness and misery, prosperity and adversity....)  उन सबसे कभी हार मत मानना। सर्वदा याद रखना " मैं परिवर्तनशील दृश्य नहीं अपरिवर्तनशील द्रष्टा (साक्षी चेतना -witness consciousness) हूँ ! मैं अजर, अमर, अविनाशी आत्मा (existence- consciousness-bliss) हूँ '-इस भाव को दृढ़ता  धारण कर जीवन बिताना होगा।"
  [There is nothing wonderful in this universe. Ignorance constitutes the only darkness, which confers all things and makes them look mysterious.... इस जगत में 'अलौकिक या चमत्कार' जैसी कोई वस्तु या घटना घटित नहीं होती।अज्ञता ही अंधकार है। अज्ञान के अंधकार में सबकुछ ढके रहने के कारण कुछ घटनायें (गंगाधरपुर कैप 2018 में वेश बदल कर माँ जगदम्बा का सामने आना और गर्म चादर माँगना ?) रहस्यमय प्रतीत होती हैं। साक्षी चेतना के सामने 'अघटन-घटनापटीयसी' जो माया है, वह भी लुप्त हो जाती है ! जिस 'एक' को जानने से सब कुछ जाना जाता है , उसको जानो ; उसके (शाश्वत चैतन्य के) विषय में चिंतन-मनन करते रहो। उस आत्मा के प्रत्यक्ष होने से शास्त्रों के अर्थ 'करामलकवत' प्रत्यक्ष होंगे। "- वार्ता एवं संलाप 6/ 95 -98]
[The first reference to the word "Abhi" is found in the ancient Hindu sacred text Rigveda book 1, hymn 164. The word frequently appears in the Vedas, Upnishad and Bhagavad Gita.According to Swami Vivekananda the meaning of the word "Abhih" mentioned in the Vedantas is "fearless." While pronouncing "Abhih," the second "h" is silent. He also told a "Vedantist is to be Abhih, fearless". The word “abhi” may mean “twoards”, as in “abhimukh”.The word may also mean “no fear” (a=no, bhi=fear). It suggests not to be afraid. Swami Vivekananda told, According to Swami Vivekananda the meaning of the word "Abhih" mentioned in the Vedantas is "fearless." While pronouncing "Abhih," the second "h" is silent. साभार https://en.wikipedia.org/wiki/]

Volume 7, Conversations And Dialogues:The Math is still situated in Nilambar Babu's garden house at Belur. It is the month of November. Swamiji is now much engaged in the study and discussion of Sanskrit scriptures. "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:-- the Atman is not to be gained by the weak." If there is no strength in the body and mind, the Atman cannot be realised. First you have to build the body by good nutritious food -- then only will the mind be strong. The mind is but the subtle part of the body. You must retain great strength in your mind and words. "I am low, I am low"-- repeating these ideas in the mind, man belittles and degrades himself. Therefore, the Shastra (Ashtavakra Samhita, I.11) says:Swamiji: By degrees the heart has to be strengthened. If one man is made, it equals the result of a hundred thousand lectures. Making the mind and lips at one, the ideas have to be practised in life. This is what Shri Ramakrishna meant by "allowing no theft in the chamber of thought". You have to be practical in all spheres of work. The whole country has been ruined by masses of theories. He who is the true son of Shri Ramakrishna will manifest the practical side of religious ideas and will set to work with one - pointed devotion without paying heed to the prattling of men or of society.] 
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6. अमेरिकी समाचार पत्र की रिपोर्ट
(American Newspaper Reports)
" भारत में जब किसी व्यक्ति में यह विश्वास उत्पन्न हो जाता है, कि वह आत्मा है और शरीर नहीं है, तब कहा जाता है कि वह धर्म-परायण है ~ इसके पहले नहीं। 
" In India if a man believes that he is a spirit, a soul, and not a body, then he is said to have religion and not till then. " 
" वेदों में कहा गया है - जो कोई भी मुझे प्रिय होता है, उसे मैं ऋषि या द्रष्टा बना देता हूँ ! और ऋषि बन जाना धर्म का सर्वस्व है। '
"Whomsoever I like," said the Vedas, "him I create a prophet," and to be a prophet was all there was of religion."
[जब किसी जीवनमुक्त/भ्रममुक्त /Dehypnotized/शिक्षक/ नेता/द्रष्टा/ऋषि  में यह विश्वास दृढ़ हो जाता है, कि वह M/F शरीर और मन (reflected Consciousness) नहीं है, वह आत्मा (Pure Consciousness or existence-consciousness-bliss) है ! तब कहा जाता है कि वह व्यक्ति धर्म-परायण है, अर्थात लोकशिक्षक बनने के योग्य है ; -इसके पहले नहीं। जो कोई मुझे प्रिय होता है, उसे मैं भ्रममुक्त या DeHypnotized, नेता /पैगंबर /जीवन्मुक्त शिक्षक बना देता हूँ ! और भ्रममुक्त /जीवन्मुक्त शिक्षक बन जाना धर्म का सर्वस्व है।  १०/२८२ /
[ Boston Herald/ May 17, 1894/ The religions of India] 
 स्वामी विवेकानन्द ने बताया कि " जब तक आत्मा यह नहीं समझ लेती कि उसे अपने पूर्ण सच्चिदान्द स्वरूप (Existence-consciousness -bliss)में स्थित होने के लिए किसी भी शरीर की सीमाओं में बंधे रहने की आवश्यकता नहीं है, तब तक वह  एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती रहती है। १०/२७९ 
"The soul, he added, passed from one body to another, until it had become a perfect spirit, able to do without the limitations of a body. . ."
[ जब तक मनुष्य इस भ्रम से मुक्त (Dehypnotized), नहीं हो जाता कि वह (परिवर्तनशील, नश्वर M/F) शरीर नहीं बल्कि अविनाशी और पूर्ण आत्मा (Existence-consciousness -bliss) है; जिसे परमानन्द का भोग करने के लिए किसी भी प्रकार के M/F शरीर-इन्द्रियों की आवश्यकता है ही नहीं, तब तक आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती रहती है !]
 [New York Daily Tribune/April 25, 1894/] 
" ब्राह्मण का जन्म ही ईश्वरोपासना के लिए हुआ है। जितना उच्चतर वर्ण होगा, उतने ही अधिक सामाजिक प्रतिबन्धों (श्राद्ध आदि नैमित्तिक कर्मों) का निर्वाह करना पड़ेगा। वर्ण-व्यवस्था ने ही (सदियों की गुलामी के बावजूद) हमें एक राष्ट्र के रूप में जीवित रखा है। यद्यपि वर्ण-व्यवस्था में दोष बहुत हैं, पर उनसे भी अधिक इससे लाभ है। " १०/२८० 
" The Brahmin is born to worship God, and the higher his caste, the greater his social restrictions are. Caste (वर्णाश्रम धर्म) has kept us alive as a nation, and while it has many defects, it has many more advantages.
शिक्षा के विषय में स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि भारत में शिक्षित व्यक्ति आचार्य बनते हैं, तथा उनसे कम शिक्षित व्यक्ति पौरोहित्य करते हैं। तथा उनसे कम शिक्षित व्यक्ति पौरोहित्य करते हैं। १०/२८१   
   [ गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित व्यक्ति या 'Be and Make Vedanta Leadership Training tradition ' में प्रशिक्षित व्यक्ति 'C-in-C' Commander in Chief. जीवन-मुक्त नेता/ शिक्षक/ बनते हैं। और पौरोहित्य वह वर्ग-विशेष है, जो इष्टदेव (अवतार वरिष्ठ)  की कृपा प्राप्त कराने में विभिन्न प्रकार के माध्यम के रूप में कार्य करता है।] 
"In reference to the matter of education, the speaker said that the- 'educated men of India become 'professors' (गुरु), while the less educated become priests.
[Boston Herald/ Tuesday, May 15, 1894/ The Manners and customs of India]
 भारत में संन्यासी (जीवन्मुक्त शिक्षक/नेता) होने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति इस विचार को ही अपने मन से निकाल दे, कि वह Body-mind complex है (या शरीर-अहं- मन की समष्टि है), वह अन्य मनुष्यों (जड़ M/F शरीर नहीं) को भी आत्मा (Pure Consciousness) समझे। अतः संन्यासी कभी विवाह नहीं कर सकता। (गृहस्थ होकर नेता/जीवन्मुक्त शिक्षक बनने के लिए अपनी स्त्री के अतिरिक्त प्रत्येक स्त्री को माँ जगदम्बा का रूप समझना अनिवार्य है।)  १०/२८३  
   " To become a monk in India it is necessary to lose all thought of the body; to look upon other human beings as souls. So monks can never marry. 
(Harvard Crimson/May 17, 1894/ Sects and doctrines in India/)
"संसार के सभी धर्म हमें यही शिक्षा देते हैं, कि अपने भाइयों की भलाई करो, उनकी निःस्वार्थ सेवा करो। इस सीख में आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। यह तो जीवन जीने की कला है ! अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए प्रकृति, ब्रह्माण्ड या हृदय की स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रसरण (expansion-विस्तार) करने की है,अतः विस्तार ही जीवन है, और हृदय को संकुचित कर लेना (घोर स्वार्थी बन जाना) ही मृत्यु है। यही बात धर्म पर भी लागु होती है। अपनी क्षुद्र स्वार्थपरता को त्यागो और दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करो। यही भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं। जिस क्षण यह प्रक्रिया बंद हो जाती है, हृदय का संकुचन होकर मृत्यु का पदार्पण होता है।" १०/२९०  
"All religions teach us to do good for our brothers. Doing good is nothing extraordinary — it is the only way to live. Everything in nature tends to expansion for life and contraction for death. It is the same in religion. Do good by helping others without ulterior motives. The moment this ceases contraction and death follow."" जीवन प्रेम है, और जब मनुष्य दूसरों के प्रति भलाई करना बंद कर देता है , तो उसकी आध्यात्मिक मृत्यु हो जाती है। Life is love, and when a man ceases to do good to others, he is dead spiritually." 
(Baltimore American/ Sunday, October 15, 1894/ Less doctrine and more bread/ अख़बार बाल्टीमोर अमेरिकी / रविवार, 15 अक्टूबर, 1894 / धर्म-सिद्धांत कम, रोटी अधिक/)       
" भगवान बुद्ध के धर्म का आधार यह था कि, मनुष्य के स्वार्थपरता की  चिकित्सा  जब तक प्रबुद्ध समाज धार्मिक नियमों और संस्थाओं के माध्यम से कड़े कानून बनाकर, मनुष्यों को डरा-धमका कर,या नरक का भय दिखाकर जबरदस्ती, उन्हें उनके पड़ोसियों के प्रति भलाई करने के लिए बाध्य करके करना चाहेगा;  तब तक कुछ नहीं किया जा सकता। दूसरों की चरित्रहीनता को खत्म  करने के लिए स्वयं भी चरित्रहीन  बन जाना उपाय  नहीं है। एकमात्र उपाय है चरित्रवान और निःस्वार्थी स्त्री-पुरुषों का निर्माण करना। तुम समाज में विद्यमान  बुराइयों (भ्र्ष्टाचार, आतंकवाद, बलात्कार आदि बुराइयों) को दूर करने के लिए कड़े-कड़े कानून तो बना सकते हो, पर उनसे कोई लाभ न होगा।केवल चरित्रवान और निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण करने से ही समाज का यथार्थ कल्याण होगा।  
 "बुद्ध ने देखा था कि भारत में ईश्वर और वेदान्तिक साम्यभाव पर बौद्धिक -चर्चा तो बहुत होती है, किन्तु इस वेदान्तिक साम्यभाव को व्यवहार में बहुत कम ही अपनाया जाता है। इसीलिए बुद्ध सदा इस 'मौलिक-सत्य' पर बल देते थे कि -" संसार को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए; हम स्वयं  शुद्ध और पवित्र बनें, साथ ही दूसरों को भी शुद्ध और पवित्र बनने में सहायता करें ! ('Be and Make'- let this be our motto.)उनका विश्वास था कि संसार में सदा से सिद्धान्त तो आवश्यकता से अधिक रहे हैं, किन्तु उन्हें व्यवहार में इक्के-दुक्के व्यक्तियों ने ही अपनाया है। वर्तमान समय में यदि भारत में एक दर्जन बुद्ध हो जाते बहुत अच्छा था और पाश्चत्य में एक बुद्ध का होना भी लाभदायक होता। १०/ २९२     
 " The remedy is not to place trick against trick and force against force. The only remedy is in making unselfish men and women. You may enact laws to cure present evils, but they will be of no avail. Buddha found in India too much talking about God and His essence and too little work. He always insisted upon this fundamental truth, that we are to be pure and holy, and that we are to help others to be holy also. He believed that there was always in the world too much theory and too little practice. A dozen Buddhas in India at the present time would do good, and one Buddha in this country would also be beneficial.
 "वेद इस सत्य को उद्घाटित करता है- कि मनुष्य एक आत्मा है जो शरीर में निवास करती है, शरीर मर जायेगा पर मनुष्य नहीं मरेगा।  आत्मा जीवित रहेगी !.. हमारे शरीर की गतियाँ हमारे मन द्वारा शासित होती हैं, और हमारा मन हमारे भीतर स्थित उस आत्मा द्वारा शासित होता है, जिसे ईसाई 'सोल' कहते हैं। १०/ २९८(ब्रुकलिन डेली ईगल, 31 दिसंबर, 1894 / द हिंदू व्यू ऑफ़ लाइफ)  
    " the Vedas... teach that man is a spirit living in a body. The body will die, but the man will not. The spirit will go on living. the movements of our bodies are controlled by our minds, and our minds are controlled by the spirit within us, which Christians cal l the soul.
 (Brooklyn Daily Eagle, December 31, 1894/ The Hindu View of Life)
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मूल बंगला में लिखित निबंध 'प्राच्य और पाश्चात्य' में स्वामी जी लिखते हैं ~~~ हमारे देश में मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा प्रधान  है, पाश्चत्य देश में धर्म की प्रधानता है। हम मुक्ति चाहते हैं, वे धर्म चाहते हैं। यहाँ धर्म शब्द का व्यवहार मीमांसकों (Mimâmsakas)* के अर्थ में हुआ है। 
[* आगे बढ़ने के पहले यहाँ मीमांसा का अर्थ क्या है और 'मीमांसक दर्शन' क्या है: इसे समझना आवश्यक है। मीमांसा शब्द का अर्थ है किसी तत्व का विचार, निर्णय या विवेचन, अथवा किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन। अनुमान, तर्क आदि द्वारा यह स्थिर करना कि कोई बात कैसी है । उदाहरण के लिए —'अश्लीलता' (obscenity) शब्द की मीमांसा (estimate, प्राकक्लन) करते  समय हमें केवल अपने पक्ष को न देखकर, दूसरे पक्ष को भी देखना चाहिए । पक्ष- प्रतिपक्ष को लेकर वेदवाक्यों में निहित अर्थ के विचार का नाम मीमांसा है। 
पाणिनि के अनुसार 'मीमांसा' का शाब्दिक अर्थ जिज्ञासा है। जिज्ञासा अर्थात् जानने की लालसा। मनुष्य जब इस संसार में अवतरित हुआ उसकी प्रथम जिज्ञासा यही रही थी कि अब, मनुष्य शरीर प्राप्त हो जाने के पश्चात् वह क्या करे और क्या न करे ? पूर्व-मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम जिज्ञासा। मीमांसा दर्शन का प्रधान उद्देश्य 'धर्म' या करणीय कर्म का निरूपण करना है। अतएव इस दर्शनशास्त्र का प्रथम सूत्र मनुष्य की इस इच्छा का प्रतीक है। महिर्ष जैमिनी ग्रन्थ का आरम्भ ही महिर्ष इस प्रकार करते है- 'अधातो धर्मजिज्ञासा।।' (प्रश्न—धर्म क्या है? उत्तर—वेद में जिन कर्मों के करने का आदेश है, अर्थात् वेद ने जिन कर्मों का करना मनुष्य जीवन के कल्याण के लिये बताया है वही धर्म है।  ‘विधि वचन’—जिन मेें सीधी रीति से किसी कर्म का करना कहा है। जैसे ‘संगच्छध्वम्’ (मिलकर रहो)। ऐसे मंत्रों पर कोई विवाद नहीं।) अर्थात मनुष्य का वह धर्म (गुण वैशिष्ट्य) क्या है, जिसके न रहने से मनुष्य पशु के समान हो जाता है ~ आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् | धर्मो हि तेषाम् अधिकोविशेषो धर्मेण हीना: पशुभि: समाना। खाना,सोना,डरना और वंशविस्तार करना ये समस्त जीवों की प्रवृति है, परन्तु धर्म (चरित्र) ही मनुष्यों और पशुओं को भिन्न करता है। जब मनुष्य धर्म के अनुसार जीवन-यापन करने लगता है तो उसके मन में दूसरी जिज्ञासा जो उठती है, वह है ब्रह्य -जिज्ञासा।  साधारणतः मीमांसा शब्द से पूर्व मीमांसा का ही ग्रहण होता है; उत्तर मीमांसा 'वेदांत' के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। 

ब्रह्यसूत्र (उत्तर मीमांसा) का प्रथम सूत्र ही है-'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।।' ब्रह्म को जानने की लालसा। पहली जिज्ञासा कर्म धर्म की जिज्ञासा थी (अर्थात कर्तव्य कर्म क्या है और निषिद्ध कर्म क्या है ? इस बात को जानने की जिज्ञासा थी और, दूसरी जिज्ञासा जगत् का मूल कारण जानने ज्ञान की थी। ब्रह्य की जिज्ञासा करने वाला यह जानने चाहते हैं कि मैं क्यों  उत्पन्न हुआ, और यह सब जगत क्या है, क्यों हैं? इत्यादि। 
चूँकि यह दर्शन वेद के परम ओर अन्तिम तात्पर्य का दिग्दर्शन कराता है, इसलिए इसे वेदान्त दर्शन के नाम से ही जाना जाता हैं। 
उत्तर मीमांसा (वेदान्त) के सिद्धान्त के अनुसार कर्मत्याग के पश्चात् ही आत्मज्ञान प्राप्ति का अधिकार है, किन्तु पूर्व मीमांसा दर्शन के अनुसार- ' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ इस वेदमंत्र के अनुसार मुमुक्षु जनों को भी कर्म करना चाहिए। निषिद्ध कर्मों का परित्याग करके, वेदविहित कर्म करने से कर्मबंधन स्वतः समाप्त हो जाता है। पूर्ममीमांसा में धर्म का विचार है अाैर उत्तरमीमांसा में ब्रह्म का। वेद के मुख्यत: दो भाग हैं। प्रथम भाग में 'कर्मकाण्ड' बताया गया है, जिससे कर्म करने के अधिकारी मनुष्य की प्रवृत्ति कर्म करने में होती है। द्वितीय भाग में 'ज्ञानकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की कर्म से निवृत्ति हो जाती  है। 
भारतीय दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों का हजारों वर्षो तक मंथन करने के परिणामस्वरूप जिस परिपक्व चिंतनधारा का आविर्भाव हुआ, उन्हीं षड्दर्शन पर आधारित धर्म को वैदिक धर्म, सनातन धर्म या हिन्दू दर्शन के नाम से जाना जाता है। इन्हें आस्तिक दर्शन भी कहा जाता है। दर्शन और उनके प्रणेता निम्नलिखित है। १ पूर्व मीमांसा: महिर्ष जैमिनी। २ वेदान्त (उत्तर मीमांसा): महिर्ष बादरायण। ३ सांख्य: महिर्ष कपिल। ४ वैशेषिक: महिर्ष कणाद। ५ न्याय: महिर्ष गौतम। ६ योग: महिर्ष पतंजलि।
वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ की महिमा का वर्णन है। अनुष्ठान के पूर्व धर्म का लक्षण, प्रमाण और साधन फल जानना आवश्यक है। वैदिक परिपाटीमें यज्ञ का अर्थ केवल देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों का समावेश हो जाता है। उदाहरणार्थ  कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सीने की मशीन बना देते हैं। इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ। इस कारण यह भी यज्ञरूप है। बढ़ई जब वृक्ष की उस लकड़ी से जो केवल ईंधन के रूप काम आता , उसी लकड़ी से उपयोगी कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है।
कुमारिल भट्ट के अनुसार:मनुष्य को अपने किए अच्छे बुरे कर्मो का फल अवश्य प्राप्त होता है। वर्तमान में किये हुए यज्ञादि कर्मों का फल भविष्य अथवा जन्मान्तर में कैसे प्राप्त होता है? इसे समझाने के लिए मीमांसक अपूर्व की कल्पना करते है। कुमारिल के अनुसार अपूर्व एक अदृश्य शक्ति है जो किसी कार्य को करने से उत्पन्न होती है। अपूर्व के ही कारण आत्मा को अपने कर्मों के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है। इससे कर्म और फल के बीच अपूर्व एक अदृश्य कड़ी है। कुमारिल के अनुसार मानवोचित कर्म (धर्म) के चार प्रकार हैं - 1. काम्य कर्म - किसी कामना की सिद्धि के लिये किए जाते हैं, जैसे स्वर्ग की इच्छा करने वाला व्यक्ति यज्ञ करे। 2. निषिद्ध कर्म - जिनका वेदों में निषेध माना गया है। 3. नित्य कर्म - जिनका प्रतिदिन करना आवश्यक माना गया है, जैसे संध्यावंदन आदि (योगाभ्यास, उपासना आदि)। 4. नैमित्तिक कर्म :  विशेष अवसरों पर किए जाते है, जैसे श्राद्ध आदि।
किन्तु महाभारत काल के बाद वैदिक धर्म में आयी भ्रान्तियों के परिणामस्वरुप यज्ञ का अर्थ पशु बली हो गया,  एवं मनुष्यों के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित 'वर्णाश्रम धर्म' (वर्ण व्यवस्था) का वेदों व शास्त्रों की मूल भावना के अनुसार पालन न होने के विरोध में बौद्ध व जैन मत का आविर्भाव हुआ।  बुद्धिज्म और जैनिज्म का मत यह था कि यदि सचमुच कोई ईश्वर होता तो गाय, बकरी, घोडे व भेड़ की वैदिक यज्ञों में हिंसा न होने देता। अतएव बुद्धिज्म और जैनिज्म मतों ने सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, मनुष्यों व प्राणियों के कर्मफल दाता ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने से ही इन्कार कर दिया।बौद्ध और जैन मतावलम्बियों ने 'अंहिसा' को अपना प्रमुख सिद्धान्त बनाया, और इस बात को दृष्टि से ओझल कर दिया, कि अहिंसा का प्रयोग कहाँ होना चाहिये और कहां नहीं।
बौद्ध व जैन मतों में प्रचलित अहिंसा का सिद्धान्त वेद, तर्क और युक्ति पर आधारित नहीं था, जिसके फलस्वरूप क्षत्रिय - जिनका कार्य देश की सीमाओं की रक्षा करना था, वे भी अहिंसक हो गए।  हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान व चीन आदि के अतीत और वर्तमान के व्यवहारों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि भारत की अहिंसा की नीति के ही कारण इन देशों द्वारा हमारे देश के विरुद्ध आक्रमण व अवांछनीय कार्यवाहियां की जाती रहीं है व अब भी की जा रही हैं। मुख्यतः पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध हिंसा की नीति पर दृष्टि डालें तो लगता है कि वह हमारी कमजोरियों के कारण ही ऐसा करता आ रहा व कर रहा है। संसार के अमेरिका, इजराइल, रुस व चीन आदि देशों के विरुद्ध इस प्रकार के षडयन्त्र एवं हिंसा की घटनायें करने का कोई देश व संगठन साहस नहीं कर सकता। इसका कारण इन देशों की अहिंसा के विरुद्ध अपराधियों को भयंकर दण्ड देने की नीति है। इसी का अनुसरण भारत को भी करना चाहिये, तभी भारत एक सुरक्षित व बलवान देश बनकर अपने सैनिकों व नागरिकों को सुरक्षित जीवन दे सकता है। अहिंसा का प्रयोग निर्बल, धार्मिक, सज्जन पुरुषों सहित मूक पशुओं व पक्षियों आदि पर किया जाना उचित होता है, परन्तु दुष्ट आतंकवादियों व उनको फंडिंग करने वाले देशों (पाकिस्तान और चीन जैसे देशों)  को यथायोग्य -अर्थात उन्हीं की भाषा में जवाब देकर - सर्जिकल स्ट्राइक करके, तथा विश्वमंच पर उनको isolate करने वाले व्यवहार व नीतियों से ही वश में किया जा सकता है। अन्यथा आतकवादियों, और उग्रवादियों के प्रति अहिंसा के परिणाम घातक होते हैं। पृथ्वीराज चौहान की आतंकवादियों द्वारा हत्या कर दिए जाने के बाद, हमारा देश अपना अतीत का शौर्य व गौरव भूल कर निर्बल हो गया और विदेशी आक्रांताओं को आसानी से विजय दिलाने वाला बन गया।
जब  बौद्ध व जैन मत के आविर्भाव से देश में सच्चे ईश्वर (विष्णु -शंकर या ब्रह्म के अवतार)  की उपासना अप्रचलित व न्यून होकर महात्मा बुद्ध और जैनधर्म के 24 तीर्थकंरों की मूर्तियों की पूजा आरम्भ हो गई। तब निर्गुण -निराकार ब्रह्म (existence-consciousness-bliss) के सगुन-साकार अस्तित्व मूर्त रूप माँ काली (अथवा उनके अवतार ~ राम,कृष्ण, बुद्ध, ईसा , मोहम्मद आदि अवतार) विषयक नास्तिकता को मिटाने के लिए पूर्व मीमांसा के आचार्य कुमारिल भट्ट  ने बौद्ध धर्म को भारत से समूल उखाड़ने के लिए बौद्धिक दिग्विजय का दिव्य अभियान चलाया। 
गौड़ पादाचार्य ने जो उपनिषद् पर कारिका लिखी है और जिनमें उसने मायावाद दर्शाया है उसी मायावाद के शस्त्र को लेकर कुमारिल स्वामी बौद्ध पण्डितों के पराजय के लिए निकल पड़े। कुमारिल स्वामी ने बौद्धमत का युक्ति और प्रमाण से उत्तम रीति से खण्डन किया। उनके साथ शास्त्रार्थ करके उन्हें पराजित किया। थोड़े ही समय तक प्रचार करने से कुमारिलाचार्य ने लोगों के कई संशय मिटाकर उनको वेद और ईश्वर का भक्त बना दिया। जहां इनके प्रचार से लोगों की श्रद्धा वैदिक साहित्य की ओर बढ़ी वहां साथ ही गौड़ पादाचार्य का मायावाद (नवीन वेदान्त) फैल गया।  बड़े-बड़े धनी और विद्वान् पुरुष कुमारिल स्वामी के अनुयायी बने। अमरावती का राजा भी इनका अनुयायी बन गया और देश में सर्वत्र आस्तिक-दर्शन की जयध्वनि हाने लगी। बाद में गुरुद्रोह के प्रायश्चित करने में अपने प्राणों को न्योछावर करके वेद धर्म रक्षार्थ प्रथम सर्वोच्च बलिदानी बने। कुमारिलाचार्य अपना काम करते हुए परलोक सिधार गये और शंकराचार्य के लिये काम करने की सड़क बांध गये। शंकराचार्य ने उनके (कुमारिलाचार्य के) काम की पूर्ति की ओर युक्ति तथा शास्त्रार्थ का अद्भुत शस्त्र लिये हुए प्रसिद्ध जैनी पण्डितों पर विजय प्राप्त की। आचार्य शंकर के उद्योग से अनेक जैनी लोग गायत्री मन्त्र पढ़ तथा यज्ञोपवीत धारण कर मानो शुद्ध होकर वैदिक धर्मी बन गये।] 
धर्म क्या है (What is Dharma): धर्म वह वस्तु है जो मनुष्य को इस लोक और परलोक में सुख-भोग करने के लिए प्रवृत्त करता है। (Dharma is that which makes man seek for happiness in this world or the next.) धर्म क्रियामूलक होता है -अर्थात धर्म मनुष्य को कर्म करने के लिए अनुप्रेरित करता है। इसकी ही प्रेरणा से मनुष्य रातदिन सुख-प्राप्ति की खोज में दौड़ता रहता है, तथा सुख पाने के लिए ही कर्म करता है।   
मोक्ष किसे कहते है (What is Mukti-Liberation) : मोक्ष वह वस्तु है, जो हमें यह शिक्षा देता है कि इस लोक के सुख-भोग में आसक्त रहना भी गुलामी है, तथा परलोक के सुख में भी। क्योंकि न तो यह लोक प्रकृति के नियम (laws of nature, जन्म-मृत्यु ?) के बाहर है, और न परलोक ही। इस लोक के सुख-भोग में आसक्त गुलाम मानो लोहे की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं, तो परलोक के सुख में आसक्त गुलाम मानो सोने की बेड़ियों में जकड़े गए हों। प्रकृति के नियम के अन्तर्गत होने से, कोई भी सुख हो वह नश्वर ही होता है, वह (कामिनी हो कांचन) सुख रहेगा नहीं। অতএব মুক্ত হতে হবে, প্রকৃতির বন্ধনের বাইরে যেতে হবে, শরীর-বন্ধনের বাইরে যেতে হবে, দাসত্ব হলে চলবে না। अतएव हमें इसी जीवन में (आत्मसाक्षात्कार करके) प्रकृति के बन्धनों से (अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से) मुक्त हो जाना होगा ! शरीर-मन की गुलामी से बाहर निकल जाना होगा, अर्थात स्वयं को मात्र नश्वर शरीर (M/F) मानने के भ्रम से मुक्त हो जाना होगा; आजीवन शरीर-इन्द्रियों का गुलाम बने रहने से काम नहीं चलेगा। यह मोक्षमार्ग (Mokshapath) केवल भारत में है, अन्यत्र नहीं ! इसलिए तुमने जो यह बात सुनी है कि मुक्त-पुरुष या (dehypnotized पुरुष) केवल भारत में ही हैं अन्यत्र नहीं; वह ठीक ही है।  किन्तु समय आने पर दूसरे देशों में भी ऐसे लोग होंगे और हमारे लिए यह आनन्द का विषय है।
                                         (प्रवृत्ति और निवृत्ति में सामंजस्य)  
भारतवर्ष में एक समय ऐसा था जब यहाँ धर्म और मोक्ष का सामंजस्य था। उस समय एक ओर जहाँ युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन, भीष्म, कर्ण थे तो दूसरी ओर व्यास, शुक, अष्टावक्र जैसे त्यागी ब्राह्मण थे।  क्षत्रिय से ब्राह्मण में उन्नत होने के आदर्श उदाहरण  विदेह राजा जनक आदि भी उपस्थित थे जो गृहस्थ और संन्यासी दोनों को चार पुरुषार्थों के सोपानों से मोक्षमार्ग में आरूढ़ होने के लिए प्रशिक्षित करने में समर्थ थे।(এককালে এই ভারতবর্ষে ধর্মের আর মোক্ষের সামঞ্জস্য ছিল তখন যুধিষ্ঠির, অর্জুন, দুর্যোধন, ভীষ্ম, কর্ণ প্রভৃতির সঙ্গে সঙ্গে ব্যাস, শুক, জনকাদিও বর্তমান ছিলেন। अर्थात प्रवृत्ति और निवृत्ति में सामंजस्य स्थापित करने में समर्थ नवनीदा/राजा जनक जैसे अनेकों जीवन्मुक्त गृहस्थ शिक्षक या नेता भारतवर्ष में उपलब्ध थे।)
किन्तु बौद्ध-जैन आदि के उत्थान युग में धर्म को (माने वर्णाश्रम धर्म या सनातन धर्म को) पूर्णतया अस्वीकार्य कर दिया गया, तथा अधिकारी भेद किये बिना मोक्षमार्ग ही प्रधान बन गया। [বৌদ্ধদের পর হতে ধর্মটা একেবারে অনাদৃত হল, খালি মোক্ষমার্গই প্রধান হল। बुद्धिज्म और जैनिज़्म के बाद धर्म की घोर उपेक्षा हुई। (अर्थात सनातन धर्म के चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, चार-वर्ण में आधारित 'वर्णाश्रम धर्म  की घोर उपेक्षा हुई।)  तथा 'अधिकारी-भेद ' देखे बिना केवल मोक्षमार्ग को साधना का प्रधान अंग बना दिया गया। .....यदि देश के सभीलोग मोक्ष-धर्मसमुह का अभ्यास करने में समर्थ हो जाएँ (यदि सभी मनुष्य निवृत्तिमार्ग के अधिकारी हो जाते), तब तो बहुत ही अच्छा होता; किन्तु वैसा होना सम्भव नहीं है। 
पहले भोग (enjoyment) किये बिना त्याग (renunciation ) नहीं होता, पहले भोग करो  तब त्याग होगा। নইলে খামকা দেশসুদ্ধ লোক মিলে সাধু হল—না এদিক, না ওদিক। धर्म (चार पुरुषार्थ और चार आश्रम वाले वर्णाश्रम धर्म) के अधिकारी-भेद के रहस्य को समझे बिना, जब देश के सभी लोग 'संन्यासी' बन गए तब वे इधर के रहे न उधर के। बौद्ध-प्रभुता के उत्कर्ष कालखण्ड (heyday) में जब प्रत्येक मठ में लाखों संन्यासी और संन्यासिनें एक साथ रहने लगे थे, ठीक उसी समय से हमारे देश ने बर्बादी की तरफ कदम बढ़ा दिया था। যখন বৌদ্ধরাজ্যে এক এক মঠে এক এক লাখ সাধু, তখনই দেশটি ঠিক উৎসন্ন যাবার মুখে পড়েছে। बौद्ध,जैन, ईसाई, मुसलमान सभी सम्प्रदायों में एक यह भ्रम है कि अधिकारी भेद देख बिना, सभी के ऊपर एक कानून और एक ही नियम लागु होना चाहिए। यह बिल्कुल गलत है; जाति और व्यक्ति के प्रकृति भेद से शिक्षा-व्यवहार के नियम सभी अलग अलग हैं। बलपूर्वक सभी के ऊपर एक ही नियम थोपने से क्या होगा ?
बौद्ध कहते हैं - 'चार पुरुषार्थों में 'मोक्ष' के सदृश और क्या है, संसार के सभी लोग मुक्ति प्राप्ति की चेष्टा में लग जाएँ' - तो क्या कभी ऐसा हो सकता है ?-तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे लिए वे सब बातें (संन्यासियों जैसा निर्जला एकादशी करना आदि)  बहुत आवश्यक नहीं हैं, तुम अपने धर्म का पालन करो। हिन्दू शास्त्र यही कहते हैं। [गीता 3.35- स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। अपने वर्णाश्रम धर्म के नियत कर्मों को दोषपूर्ण ढंग से संपन्न करना भी अन्य  के कर्मों को भलीभांति करने से श्रेष्ठ है। अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाना भी,  पराये कर्मों में प्रवृत होने की अपेक्षा अधिक उत्तम है ; क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है। তুমি গেরস্থ মানুষ, তোমার ওসব কথায় বেশী আবশ্যক নাই, তুমি তোমার স্বধর্ম কর’—এ-কথা বলছেন হিঁদুর শাস্ত্র। এক হাত লাফাতে পার না, লঙ্কা পার হবে!एक हाथ भी नहीं लाँघ सकते, लंका कैसे पार करोगे ? क्या यह ठीक है ?  (क्या ऐसी चेष्टा करना मूर्खता नहीं है ?) दो मनुष्यों का पेट तो भर नहीं सकते, दो आदमियों को अपने साथ लेकर, कोई सामान्य लोककल्याण का काम (Be and Make का प्रचार-प्रसार) तो कर नहीं सकते, पर मोक्ष प्राप्त करने के लिए दौड़ पड़े हो ? 
 हिन्दू शास्त्र कहते हैं, कि (चार पुरुषार्थों में क्रमानुसार) 'मोक्ष' अवश्य ही बहुत बड़ा है, किन्तु पहले धर्म (स्वधर्म का पालन) करना होगा। बौद्धों ने इसी स्थान पर भ्रम में पड़ कर अनेक उत्पात खड़े कर दिये। (अर्थात बौद्धों ने अधिकारी भेद पर विचार किये बिना, सबों पर संन्यास के नियम थोप दिए। )'अहिंसा ' ठीक है, 'निर्वैर' हो जाना अवश्य बड़ी बात है; कहने -सुनने में ये बातें अच्छी लगती हैं। किन्तु हमारे शास्त्रों की आज्ञा है -  तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर कोई एक थप्पड़ मारे और उसका जवाब यदि तुम दस थप्पड़ों से न दो, तो तुम पाप करते हो। मनुस्मृति में कहा गया है -
 गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् । 
आततायिनं आयान्तं हन्यादेवाविचारयन्।। 
अर्थात्; 'हत्या करने के लिए यदि कोई आये, तो ऐसे आततायी, आतंकवादी या दुष्ट मनुष्य (हाफ़िज सईद, मसूद अजहर आदि) को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरु है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान् ब्राह्मण (मुल्ला) है।' यही सत्य है, इसको भूलना नहीं चाहिए। "
(The Laws of Manu: One may slay without hesitation an assassin who approaches (with murderous intent), whether (he be one's) teacher, a child or an aged man, or a Brahmana deeply versed in the Vedas.) 
न ही लक्ष्मी कुलक्रमज्जता, न ही भूषणों उल्लेखितोपि वा ।
खड्गेन आक्रम्य भुंजीतः, वीर भोग्या वसुंधरा ।।
 अर्थात ना ही लक्ष्मी निश्चित कुल से क्रमानुसार चलती है, और ना ही आभूषणों पर उसके स्वामी का चित्र अंकित होता है । तलवार के दम पर पुरुषार्थ करने वाले ही विजेता होकर इस रत्नों को धारण करने वाली धरती को भोगते है । --अपने वीरत्व को प्रकट करो, साम-दाम-दण्ड -भेद की नीति को व्यवहार में उतरकर दिखाओ, तब तुम धार्मिक होंगे। और लात-घूँसे खाकर भी चुपचाप सहकर कायरों का जीवन बिताने से इस लोक में भी नरक भोगना होगा, और परलोक में भी वही होगा। यही शास्त्र का मत है।
 সত্য, সত্য, পরম সত্য—স্বধর্ম কর হে বাপু! ' हे बापू अर्थात हे रामचन्द्र, सबसे ठीक बात (सर्वश्रेष्ठ करणीय कर्म या धर्म) तो यही है कि तुम (देश-काल, परिस्थिति के अनुसार) अपने  स्वधर्म का पालन करो! किसी के साथ अन्याय मत करो, किसी पर अत्याचार मत करो, यथासाध्य परोपकार करो। किन्तु गृहस्थ के लिए अन्याय सहना भी पाप है, उसी समय उसका बदला चुकाने की चेष्टा करनी होगी। (तुम पहले किसी को नहीं मारना, किन्तु कोई यदि तुम्हें मारे तो उसका हाथ तोड़ देना ! -माँ की सीख) बड़े उत्साह के साथ इतना धन उपार्जन करने की चेष्टा तो करनी ही चाहिए जिससे तुम अपने घर-परिवार को अच्छी जिंदगी देने के साथ साथ, अन्य दस लोगों को भी नौकरी देने के योग्य बन सको। दस लोककल्याण के कार्य करने में भी समर्थ बनना होगा। यदि ऐसा नहीं कर सके तो तुम 'मनुष्य ' (हीरो/शिक्षक/नेता -माँ का बेटा) किस बात के ? जब तुम गृहस्थ धर्मसमुहों का ही पालन नहीं कर सके, फिर  'मोक्ष' की तो बात ही क्या!!  १०/५२ 
[ 'অহিংসা ঠিক, ‘নির্বৈর’ বড় কথা; কথা তো বেশ ' बौद्ध और जैन धर्म ऐसा मानते थे कि यदि सचमुच ईश्वर होते तो पशुओं की बली नहीं होने देते, इसलिए उन्होंने ईश्वर तथा अवतार के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया।  इसीलिए उन्हें नास्तिक दर्शन कहा जाता है। चूँकि यज्ञ में बलिप्रथा के विरोध में उनका जन्म हुआ था इसलिए वे केवल अहिंसा को ही परम् धर्म मानते थे। बौद्धों और जैनियों ने 'अंहिसा' को अपना प्रमुख सिद्धान्त बनाया, और इस बात को दृष्टि से ओझल कर दिया, कि अहिंसा का प्रयोग कहाँ होना चाहिये और कहां नहीं।  जबकि चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, और चार वर्ण की सामाजिक व्यवस्था को मानने वाला  सनातन धर्म या वर्णाश्रम धर्म यह कहता है,  कि अहिंसा का प्रयोग भी विवेक-प्रयोग करने के बाद ही करना चाहिए, विदेशी आक्रमण-कारियों, आतंकवादियों, उग्रवादियों को दण्ड देना ही क्षत्रियों का धर्म है।  जो कोई व्यक्ति अपने देश के लिए मर मिटने को तैयार है वह वीर है, चाहे वह किसी भी जाति या धर्म का क्यों ना हो उसे इस धरती का भोग करने का पूर्ण अधिकार है। वैसे यह मुहावरा  सबसे अधिक राजपूतों के द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। कुछ डरपोक/कायर लोग अपनी ऐ.सी. खोल में बैठे विमर्श करते हैं कि पड़ोसी के पास एटमबम है हम बर्बाद हो जाएंगे.. पर जब स्वाभिमान ही नहीं बचेगा तो जिओगे भी तो मुर्दा बनकर..। - ऐसे ही मुर्दा लोग युद्ध की विभीषिका से डरते और डराते हैं..पर देश का हर किसान और हर जवान चाहता है कि आरपार हो..जिएं या मरें..पर उससे पहले कुछ करें।जब भी योग्य ब्राह्मण क्षत्रियो को उचित धर्मबोध करवाएंगे तो अर्जुन के गांडीव से प्रलय बरसेगा और शत्रुओ का नाश होकर रहेगा।  ভোগ না হলে ত্যাগ হয় না, আগে ভোগ কর, তবে ত্যাগ হবে।  নইলে খামকা দেশসুদ্ধ লোক মিলে সাধু হল—না এদিক, না ওদিক। त्याग और सेवा भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं, किन्तु एक झटके में उस आदर्श में आरूढ़ होना सभी मनुष्यों के लिए सम्भव नहीं है। प्रवृत्ति से होकर भी निवृत्ति में आया जा सकता है, अतः अपनी धर्मपत्नी के सिवा अन्य स्त्रियों के माता के रूप में देखना चाहिए। इसलिए हमारा धर्म (सनातन वैदिक धर्म, वर्णाश्रम धर्म)  प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने में कोई बाधा खड़ा नहीं करता। भोगों की निस्सारता को अपने अनुभव से जान लो ! तब स्वतः त्याग हो जायेगा।) बौद्ध युग में अधिकारी भेद का विचार किये बिना, (चार आश्रम का भेद किये बिना) सभी लोगों को (M/F दोनों को एक साथ) संन्यास आश्रम में रहने की छूट दे दी गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि वे न तो इधर के रहे और न उधर के । अर्थात वे न तो निवृत्ति मार्ग के अधिकारी बन सके, और न प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने योग्य ही बन सके !तथा बुद्धिज्म और जैनिज्म के उत्थान के कारण वर्णाश्रम धर्म के माध्यम से जो चरित्र-निर्माण का कार्य चल रहा था, या शूद्र को ब्राह्मण में रूपान्तरित करने का कार्य चल रहा था, वह बंद हो गया।  वर्णाश्रम धर्म के इस यथार्थ मर्म को नहीं समझने के कारण भारत में वर्णाश्रम धर्म, सनातन वैदिक धर्म या आस्तिक दर्शन का अपमान होने लगा। जिसका परिणाम हुआ देश की दुर्गति, जिसकी चर्चा हम यत्र-तत्र सुनते रहते हैं, उसका वास्तविक कारण धर्म का अभाव है (वर्णाश्रम धर्म या सैनिकों के स्वधर्म के यथार्थ मर्म को नहीं समझना है।)बौद्ध राज में जिस समय एक-एक मठ में एक-एक लाख स्त्री-पुरुष संन्यासी के चोले में रहने लगे, ठीक उसी समय से देश पतन की ओर अग्रसर हो गया था। निष्काम करते हुए चित्तशुद्धि हुए बिना भ्रममुक्त या dehypnotized होने की बात सोंच भी कैसे सकते हो ?] 
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पहले ही कह चुका हूँ कि 'धर्म' कार्यमूलक (functional-वृत्तिमूलक) है। धार्मिक व्यक्ति की पहचान है, सदा कर्मशीलता (ever-functionalism)। इतना ही नहीं कई मीमांसक तो यह मानते हैं, कि वेदों में यदि कहीं कार्य करने से मना किया गया हो, वह प्रसंग वेद का अंग हो ही नहीं सकता। पूर्वमीमांसा के जैमिनी सूत्र 1.2.1 में कहा गया है-आम्नायस्य हि क्रियार्थत्वात्।' अर्थात सम्पूर्ण वेदों में कर्म करने का ही आदेश दिया गया है - “Entire Veda is to enjoin action.”कोई वेदान्तवाक्य यदि क्रियापरक न प्रतीत हो, कर्म से बिमुख होने की प्रेरणा देता हो, तो वह वेदान्तवाक्य अनर्थक तथा अप्रमाण है।  
''आम्नायस्य क्रियार्थत्वात् आनर्थक्यम् अतदर्थानाम्।' - अर्थात कर्म का प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियाँ ही सार्थक है, और वेदों का जो भाग यज्ञ आदि क्रिया के लिए नहीं है , वह निरर्थक है।  इस सूत्र से स्पष्ट सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण वेद साक्षात् व परम्परा से कर्म का वर्णन करता है न कि ब्रह्म का। " ॐकार का ध्यान करने से सब कामों की सिद्ध होती है, 'हरिनाम का जप करने से सब पापों का नाश होता है', 'शरणागत होने पर सब वस्तुओं की प्राप्ति होती है', शास्त्र की ये सारी अच्छी बातें अवश्य सत्य हैं, किन्तु देखा जाता है कि लाखों मनुष्य ॐकार का जप करते-करते मर जाते हैं, हरिनाम लेते हुए भाव-विभोर हो जाते हैं, रात-दिन 'प्रभु जो करें ' ही कहते -गाते हैं; लेकिन पाते हैं 'घोड़े का अण्डा।'  
प्रत्येक जीव शक्ति की (Energy-माँ जगदम्बा की सर्वव्यापी विराट अहं -बोध की) अभिव्यक्ति का एक एक केन्द्र है।  पूर्व जन्मों में किये गए कर्मफल से जो शक्ति संचित हुई है, उसीको लेकर हमलोग जन्मे हैं।  যতক্ষণ সে শক্তি কার্যরূপে প্রকাশ না হচ্ছে, ততক্ষণ কে স্থির থাকবে বল? जबतक वह शक्ति कार्यरूप में प्रकट नहीं होती, तब तक कौन स्थिर होकर रह सकेगा -बताओ तो ? (जब तक शरीर है, प्रारब्ध का नाश तो फल भोग करके ही करना होगा, कटहर के कोवा तू खईल टी मोटका मुंगरवा का होइ ?) तब तक भोग का नाश कौन करेगा?  ততক্ষণ ভোগ কে ঘোচায় বল? तब दुःख-भोग की अपेक्षा क्या सुख-भोग अच्छा नहीं ? कुकर्म की अपेक्षा क्या सुकर्म अच्छा नहीं है ? विवेक-प्रयोग पर एक रामप्रसादि गीत है - ‘ভাল মন্দ দুটো কথা, ভালটা তার করাই ভাল।’ ---' भाल मन्द दूटो कथा, भालटा तार कराई भाल '  -अर्थात अच्छी (Good deeds) और बुरी (Bad deeds) दो बातें हैं, उनमें से अच्छी बातें करनी ही उचित है। ' 
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अब 'अच्छा' क्या है ? (इसका निर्णय कैसे हो ?) ‘মুক্তিকামের ভাল’ 'मोक्षाकांक्षी' या मुक्ति चाहने वालों के लिए 'अच्छा कर्म ' से तात्पर्य एक प्रकार का है और  ‘ধর্মকামের ভাল’ 'धर्माकांक्षी' या धर्म चाहने वालों के लिए 'अच्छा कर्म' (Good deeds) का तात्पर्य दूसरे प्रकार का होता है। दोनों प्रकार के अधिकारीयों में सद्कर्मों के इसी पार्थक्य को गीता (12. 13, 2.3, और 11.33 ) में भगवान ने अच्छी तरह से समझा दिया है। क्योंकि इसी महासत्य के ऊपर हिन्दुओं का स्वधर्म और जाति-धर्म आदि निर्भर है।
[अधिकारी-भेद से सद्कर्मों के पार्थक्य के ऊपर ही हिन्दुओं का चार पुरुषार्थ,चार आश्रम, चार वर्ण आदि निर्भर है अर्थात सनातन 'वर्णाश्रम धर्म ' और 'स्वधर्म' निर्भर करता है। इसी अधिकारी भेद से सद्कर्मों के पार्थक्य को स्पष्ट करते हुए भगवान श्रीरामकृष्ण देव ने कहा है- 'सत्त्व, रज और तम के तारतम्य से मनुष्य भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं। वस्तुतः सभी जीवों का यथार्थ स्वरूप एक ही है। किन्तु अवस्था भेद (या अधिकारी भेद) से जीव चार श्रेणी (grade या दर्जे) के होते हैं- बद्ध (Hypnotized, slave of sense organs), मुमुक्षु (मोक्षाकांक्षी, Liberation Seeker), मुक्त (Liberated-DeHypnotized) और नित्यमुक्त (Permanently DeHypnotized/Liberated)! 
किसी मछुए ने नदी में जाल डाला। जाल में बहुत सी मछलियाँ फंसी। कुछ मछलियाँ तो जाल में पड़कर एकदम शान्त, निश्चेष्ट पड़ी रहीं -उन्होंने बाहर निकलने की कोशिश बिल्कुल नहीं की; कुछ ने भागने की बहुत कोशिश की, काफी उछलकूद मचाई किन्तु वे भाग न पाईं। और कुछ किसी तरह कूद-फाँद कर भाग निकलीं। इसी प्रकार संसार में भी तीन प्रकार के जीव होते हैं- बद्धजीव, जो (सम्मोहित अवस्था में स्वयं को M/F शरीर मानकर इन्द्रियों के गुलाम बने रहने में ही सन्तुष्ट रहते हैं) कभी मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करते, मुमुक्षुजीव -जो बंधन में होते हुए भी (Hypnotized होते हुए भी) मुक्त होने का (DeHypnotized होने का 5 अभ्यास) प्रयत्न करते हैं; और मुक्तजीव, वे हैं जिन्होंने मुक्ति प्राप्त कर ली है। (जिन्होंने बनो और बनाओ वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा या ' Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition ' में 5 अभ्यास की शिक्षा/प्रशिक्षण देने का चपरास प्राप्त कर लिया है।) ..... जीव वास्तव में सच्चिदानन्द स्वरूप है, किन्तु अहं-भाव (मैं-बोध) के कारण वह विभिन्न उपाधियों में उलझकर अपने यथार्थ स्वरूप को भूल बैठा है। एक एक उपाधि आती है, और उसके अनुसार जीव का स्वभाव बदलता जाता है। किसीने मॉडर्न फ़ैशन को अपनाकर जींस का पैन्ट-शर्ट और गॉगल्स पहना कि देखना उसके मुँह से अपने आप गुलजार द्वारा लिखित प्रेमगीतों की धुन अपने आप निकल पड़ती है। शूट-बूट धारण करते ही दुबला-पतला आदमी भी फूलकर कुप्पा हो जाता है, मुँह से सिटी बजाने लगता है, सीढियाँ चढ़नी हों तो साहबों की तरह उछल-उछलकर चढ़ता है। हाथ में पेन आते ही सामने चाहे जैसा भी कागज मिल जाय उसीपर सिग्नेचर करने लगता है। " अमृतवाणी पृष्ठ-१०-११/ 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " धर्म का अर्थ है आत्मा को आत्मा के रूप उपलब्ध कर लेना, न कि जड़ पदार्थ (शरीर-मन) को ही आत्मा समझते रहना। धर्म एक संवर्धन (growth) है -जो अधिकारी मनुष्य को शक्ति -प्रदान (empowerment) करता है। और प्रत्येक मनुष्य को इसका अनुभव स्वयं करके देख लेना चाहिए। (अर्थात स्वयं को अविनाशी आत्मा, या सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म के रूप में अनुभव कर लेना ही धर्म है न कि स्वयं को केवल नश्वर शरीर-मन या M/F ही समझते रहना।)...  प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक विशिष्ट स्वभाव होता है, (गुण वैशिष्ट्यस्वधर्म) होता है, जिसका पालन उसे अवश्य करना चाहिए, और मुक्ति का मार्ग (way to freedom) प्रत्येक को अपना-अपना स्वधर्म का पालन (प्रवृत्ति या निवृत्ति पालन) करने से ही प्राप्त होता है ! तुम्हारे लिए तुम्हारा मार्ग ही सर्वोत्तम है (तुम्हारे लिए प्रवृत्ति मार्ग ही सर्वोत्तम है -पर याद रखना कि 'निवृत्ति अस्तु महाफला।'), परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि औरों के लिए भी वह सर्वोत्तम है। 
सच्चा अध्यात्मवादी आत्मा को आत्मा के रूप में (Energy या माँ जगदम्बा के रूप में) देखता है। यह आत्मा (शक्ति) ही है जो प्रकृति को (जड़ शरीर और मन को) क्रियाशील करती है, परिवर्तनशील या नश्वर प्रकृति (शरीर और मन) के मध्य आत्मा ही सत्य है !(परिवर्तनशील मन और शरीर के मध्य आत्मा ही अपरिवर्तनशील अविनाशी है -परम् सत्य है !) इससे यह सिद्ध हो जाता है कि - कर्म प्रकृति में है  आत्मा में नहीं ! आत्मा सर्वदा एकाकार (same) रहती है, अपरिवर्तनशील और अनन्त (existence-consciousness-bliss) रहती है ! आत्मा (Energy) और जड़ पदार्थ (Matter,देह-मन) वस्तुतः एक ही है, परन्तु आत्मा (Energy) आत्मतया (as such-स्वरूपतः या उसी रूप में) कभी जड़-पदार्थ (Matter नश्वर देह-मन) नहीं बन जाती; और जड़ पदार्थ (नश्वर देह-मन) कभी अविनाशी आत्मा नहीं बन सकता। (केवल माँ काली से भावमुख अवस्था में रहने का चपरास प्राप्त करके व्यष्टि अहं को सर्वव्यापी विराट माँ जगदम्बा के अहं में रूपान्तरित किया जा सकता है!) आत्मा और प्रकृति १०/ ३०-३१/
 Spirit And Nature: Religion is the realisation of Spirit as Spirit; not Spirit as matter. Religion is a growth. Each one must experience it himself.... Each one has a special nature peculiar to himself, which he must follow and through which he will find his way to freedom....  You should never try to follow another's path, for that is his way, not yours... Your way is the best for you, but that is no sign that it is the best for others... The truly spiritual see Spirit as Spirit, not as matter. It is Spirit that makes nature move; It is the reality in nature... So action is in nature; not in the Spirit. Spirit is always the same, changeless, eternal. Spirit and matter are in reality the same; but Spirit, as such, never becomes matter; and matter, as such, never becomes Spirit. So action is in nature; not in the Spirit. Spirit is always the same, changeless, eternal.  So action is in nature; not in the Spirit. Spirit is always the same, changeless, eternal.Spirit and matter are in reality the same; but Spirit, as such, never becomes matter; and matter, as such, never becomes Spirit.]   
Be and Make -प्रशिक्षण परम्परा से अनुप्रेरित मुमुक्षु मनुष्य (Leader) और धर्मेच्छु मनुष्यों (Would be Leaders)  के धर्मसमुह में क्या अन्तर है ? इसको स्पष्ट करते हुए भगवान श्रीकृष्ण गीता 12. 13 में कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य से (अर्थात dehypnotize होने की अदम्य इच्छा, हिप्‍नोटिज्‍़म या सम्‍मोहन के प्रभाव से मुक्‍त होने की अदम्य इच्छा, या सम्‍मोहनावस्‍था से जाग उठने की अदम्य इच्छा से प्रेरित होकर) अद्वैत में स्थित हो जाता है, और कामिनी-कांचन की समस्त इच्छाओं का त्याग कर देता है।  तब  उसके लिए कोई पराया नहीं रह जाता, सभी मनुष्य जिसके लिए अपने हो जाते हैं; तब वैसे मुमुक्षु मनुष्य के लिए धर्मसमुह, (वैसे अक्षरोपासक यथार्थ ज्ञाननिष्ठ संन्यासियोंका जो साक्षात् मोक्षका कारणरूप 'अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्' इत्यादि धर्मसमूह) है उसका वर्णन करूँगा। इस उद्देश्यसे भगवान् कहना आरम्भ करते हैं -- 
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । 
                   निर्ममो निरहङकारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ Gita, XII.13.
जो समस्त भूतों को आत्मारूप से ही देखता है। जो सब भूतों में द्वेष भाव से रहित है,अर्थात् अपने लिये दुःख देने वाले भी किसी प्राणी से द्वेष नहीं करता। तथा मैत्र भाववाला है, जो मित्रता से युक्त है। अर्थात् सब के साथ मित्र- भाव से बर्तता है। जो करुणावान है, दीन-दुखियों पर दया करना करुणा है, जो उससे युक्त, तथा ममता से रहित, सुख-दुःखमें समान भाववाला और क्षमावान् है; तथा जो योगी सदा संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए है, दृढ निश्चयी है, और जिसने मन-बुद्धि मुझे समर्पित किये हैं, ऐसा मेरा भक्त मुझे प्रिय है।  अभिप्राय यह कि जो सब भूतों को अभय देने वाला संन्यासी है। तथा जो ममता से रहित और अहंकार से रहित है।  एवं सुख-दुःख में सम है। अर्थात् सुख और दुःख जिसके अन्तःकरण में राग-द्वेष उत्पन्न नहीं कर सकते। जो क्षमावान् है अर्थात् किसीके द्वारा गाली दी जाने पर या पीटे जाने पर भी जो विकाररहित ही रहता है। जो सचमुच 'मनुष्य ' (Leader) बन चुका है, वही मेरा प्रिय भक्त है 
किन्तु जो अभी बद्धजीव (Hypnotized) या धर्मेच्छु हैं, अर्थात जिनको 'स्वधर्म पालन'  करते हुए चार पुरुषार्थ के सोपानों- धर्म,अर्थ,काम से होते हुए मोक्षमार्ग (DeHypnotized होने के मार्ग) पर क्रमशः अग्रसर होना है, उनके (Would be Leaders के)  धर्मप्राप्ति के मार्ग (सद्कर्मों) को स्पष्ट करते हुए भगवान गीता 2.3 में कहते हैं - 
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्तवय्युपपद्यते। 
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥3॥
(पार्थ) हे अर्जुन! (क्लैब्यम्) नपुंसकता को (मा, स्म, गमः) मत प्राप्त हो (त्वयि) तुझमें (एतत्) यह (न, उपपद्यते) उचित नहीं जान पड़ती। जो आतंकवादी टेरेरिस्ट आदि हैं, उनको तो दण्ड देना ही उचित है, अतः मुमुक्षु वीर भक्त का आदर्श -नित्यमुक्त जीवों से अवश्य भिन्न होगा। इसलिए भगवान अर्जुन को उपदेश करते हुए आगे गीता 11. 33 में कहते हैं - 
'तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।11.33।।
अतएव तू उठ ! यश प्राप्त कर और शत्रुओं को जीतकर धन-धान्य से संपन्न राज्य को भोग। ये सब शूरवीर पहले ही से मेरे ही द्वारा मारे हुए हैं हे सव्यसाचिन् ! तू तो केवल निमित्त मात्र बन जा । अवश्य ही कर्म करने से कुछ न कुछ पाप भी होगा। मानलो को धन के उपार्जन में/ टेण्डर आदि लेने में  कुछ पाप हो ही गया, तो क्या फैक्ट्री बंद कर देना उचित होगा ? कितने लोग बेरोजगार हो जायेंगे ? बेरोजगार रहते हुए उपवास करने की अपेक्षा, क्या कर्म करना अच्छा नहीं है ? भले ही उस व्यापार कर्म में अच्छाई और बुराई का मिश्रण क्यों न हो ? गाय झूठ नहीं बोलती, दीवाल चोरी नहीं करती, पर फिर भी वे गाय और दीवाल ही रह जाती हैं। मनुष्य चोरी करता है, झूठ बोलता है, फिर भी वही मनुष्य देवता हो जाता है। 
जिस अवस्था में सत्वगुण की प्रधानता होती है, उस अवस्था में मनुष्य निष्क्रिय हो जाता है , तथा परम् ध्यानावस्था को प्राप्त होता है। जिस अवस्था में तमोगुण की प्रधानता होती है, उस अवस्था में भी वह निष्क्रिय हो जाता है, जड़ हो जाता है। अब बाहर से देखने पर दोनों अवस्था एक जैसी लगती है -कोई कैसे जानेगा कि, यह निष्क्रियता तमोगुण जन्य है या रजोगुण जन्य है ? इसका उत्तर होगा - 'फलेन परिचीयते वृक्षः' सत्त्व की प्रधानता में मनुष्य निष्क्रय होता है, शान्त होता है, पर वह निष्क्रयता महाशक्ति के केन्द्रीभूत होने से होती है, वह शान्ति महावीर्य की जननी है।उस महापुरुष को फिर हमलोगों की तरह हाथ-पाँव डुलाकर काम नहीं करना पड़ता (स्वयं अंडवियर -गंजी फींचना, मछरदानी टांगना नहीं पड़ता ?)| केवल इच्छा होने से ही सारे काम स्वतः सम्पूर्ण हो जाते हैं। वह पुरुष सत्वगुण प्रधान ब्राह्मण में उन्नत्त हो चुका है, अतः सबका पूज्य है। 'मेरी पूजा करो ' - ऐसा कहते हुए उसे दरवाजे दरवाजे घूमना नहीं पड़ता। जगदम्बा उसके ललाट पर अपने हाथ से लिख देती है -इस महापुरुष की सब लोग पूजा करो !' और जगत सिर नीचा करके इसे मान लेता है। वही व्यक्ति सचमुच मनुष्य है। 
और वे जो नाक-भौं सिकोड़कर पिनपिनाते -किटकिटाते हुए बात करते हैं, सात दिन के उपवास से बिल्ली की तरह जिनकी आवाज म्युं म्यूं निकलती है, जो फ़टे-पुराने चीथड़ों में लिपटे रहते हैं, जो सौ सौ जूते खाने पर भी सिर नहीं उठाते , उन्हीमें निम्नतम श्रेणी का तमोगुण प्रकट होता है। यही मृत्यु का चिन्ह है। वह सत्वगुण नहीं सड़ी दुर्गंध है। अर्जुन भी इसी अवस्था को प्राप्त हो रहे थे। इसीलिए तो भगवान को गीता सुनाने की आवश्यकता हुई। देखो तो भगवान पहले क्या कहते हैं - क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्तवय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥ (Gita, II. 3.) .... हे पृथानन्दन अर्जुन, इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो क्योंकि तुम्हारे लिए यह उचित नहीं है। हे परंतप हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता का त्याग करके युद्ध के लिये खड़े हो जाओ।और अन्त में कहते हैं -  'तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ (Gita, XI. 33.) अतएव तुम युद्धके लिये खड़े हो जाओ और यशको प्राप्त करो तथा शत्रुओंको जीतकर धनधान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन् तुम निमित्तमात्र बन जाओ। (बायें हाथ से भी बाण चलाने का अभ्यास होने के कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है।) 
बौद्ध, जैन आदि के फेरे में पड़कर पराक्रमी हिन्दू जाति तामसिक लोगों का अनुकरण कर रही है। पिछले हजार वर्षों से सारा भारत हरिनाम की ध्वनि से परिव्याप्त हो रहा है, किन्तु माँ जगदम्बा उस पर कान भी नहीं देती। वह सुने भी क्यों ? बेवकूफों (पप्पुओं) की बातें जब मनुष्य ही नहीं सुनते, तब वह तो ईश्वर है। वर्तमान धर्मेच्छु भारत के लिए गीता में कहे हुए भगवान के महावाक्यों- क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्तवय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥2. 3॥ का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करना ही कर्तव्य है ! 
11.ईसा मसीह और श्री कृष्ण के उपदेशों में भिन्नता 
अब पुनः हम प्राच्य और पाश्चात्य के लिए उपयुक्त अलग अलग धर्मसमूहों पर चर्चा करेंगे। पहले ही उनके उपदेशों में दिए गए धर्मसमूहों में एक मजे की बात को देखो।  এখন চলুক পাশ্চাত্য আর প্রাচ্যের কথা। প্রথমে একটা তামাসা দেখ। ... यूरोपवासियों के इष्ट-देवता (प्रभु यीशु) उपदेश देते हैं कि - " किसी के प्रति वैर-भाव मत रखो, यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे, तो दूसरा गाल भी उसकी ओर घुमा दो। सारे काम-काज बंद कर दो, और मोटरी -गठरी बाँध कर बैठ जाओ; क्योंकि यह दुनिया दो-चार दिनों में ही नष्ट हो जाएगी, और तुम्हारे उद्धार के लिए मैं फिर से जन्म लूँगा। (নির্বৈর হও, এক গালে চড় মারলে আর এক গাল পেতে দাও, কাজ কর্ম বন্ধ কর, পোঁটলা-পুঁটলি বেঁধে বসে থাক, আমি এই আবার আসছি, দুনিয়াটা এই দু-চার দিনের মধ্যেই নাশ হয়ে যাবে। আর আমাদের ঠাকুর বলছেন, মহা উৎসাহে সর্বদা কার্য কর, শত্রু নাশ কর, দুনিয়া ভোগ কর।
और हमारे इष्टदेव (श्री कृष्ण) ने उपदेश दिया है कि  'तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्'  बहुत उत्साह के साथ निरन्तर कर्म करते रहो, शत्रु का नाश करो, और दुनिया का भोग करो! 
किन्तु 'उल्टा समझलीं राम' वाली बात हो गयी, यूरोपवासियों ने ईसा की बात नहीं मानी। यूरोपियन लोग निरंतर महा-रजोगुणी बने रहे, महान कर्मी बन गए, और बड़े उत्साह से देश-देशान्तर में भोग और सुख का आनन्द लूटने में लग गए। (यही है - 'उल्टा नाम जपा जग जाना, बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।' जब बाल्मीकि जी राम का नाम नहीं कह सके तब उनके गुरु नारद जी ने विचार करके उनसे मरा-मरा जपने के लिए कहा।  और मरा रटते-रटते यही ‘राम’ हो गया और निरंतर जप करते-करते हुए वह ऋषि बाल्मीकि बन गए।  কিন্তু ‘উল্টা সমঝ‍্‍লি রাম’ হল; ওরা-ইওরোপীরা যীশুর কথাটি গ্রাহ্যের মধ্যেই আনলে না।)
और इधर हमलोग अपनी मोटरी-गठरी बाँधकर एक कोने में बैठकर रातदिन (मोहमुद्गर भाँजते हैं)   मृत्यु का आह्वान करते हैं, और गाते रहते हैं - 'कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी, हाथ किसी के न आनी। कुछ तेरा न मेरा ....
भज गोविंदं भज गोविंदं गोविंदं भज मूढमते l 
संप्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुक्रुंकरणे ll १ ll
 मूढ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णां l
 यल्लभसे निज कर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तं ll २ll
 नारी स्तनभर नाभीदेशं दृष्ट्वा मा गा मोहावेशं l 
एतन्मांस वसादि विकारं मनसि विचिंतय वारं वारं ll ३ ll 
नलिनी दलगत जलमति तरलं तद्वज्जीवितमतिशय चपलं l
 विद्धि व्याध्यभिमान ग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तं ll४ll
 यावद्वित्तोपार्जन सक्तः तावन्निजपरिवारो रक्तः l 
पश्चाज्जीवति जर्जर देहे वार्तां कोsपि न पृच्छति गेहे ll ५ ll 

..... अर्थात हर समय यही सोचते रहते हैं कि 'कमल के पत्ते पर पड़ा हुआ जल जितना तरल है, हमारा जीवन भी उतना ही क्षणभंगुर है। আর যমের ভয়ে হাত-পা পেটের মধ্যে সেঁধুচ্ছে। .... और यम के डर से हमारे हाथ-पैर ठण्ढे होकर पेट के भीतर घूँस जाते हैं। मृत्यु से इतना भयभीत होते देखकर यम को भी हमारे ऊपर क्रोध हो गया है, और उसने दुनिया भर के रोग हमारे देश में घुसा दिया है। गीता के उपदेशों को कहाँ के लोगों ने सुना ? यूरोपियनों ने ! तथा प्रभु ईसा के उपदेशों के अनुसार कौन लोग कार्य कर रहे हैं ?  वे लोग जो श्रीकृष्ण की सन्तानें हैं। इस विरोधाभास को अच्छी तरह से समझना होगा। (গীতার উপদেশ শুনলে কে? না ইওরোপী। আর যীশুখ্রীষ্টের ইচ্ছার ন্যায় কাজ করছে কে? না—কৃষ্ণের বংশধরেরা!! এ-কথাটা বুঝতে হবে।) 
मोक्षमार्ग का उपदेश (गुरु शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षकों द्वारा दिए गए उपदेश।) तो सर्वप्रथम वेदों (उपनिषदों) ने ही दिया था। उसके बाद चाहे बुद्ध को लो या यीशु को लो मोक्षमार्ग का उपलब्धि सबों को वहीँ से हुई है। वे (बुद्ध और ईसा) संन्यासी थे (अर्थात पहले मुमुक्षु थे और बाद में पुरुषार्थ करके भ्रममुक्त, मुक्त या DeHypnotized हो चुके थे) इसलिए उनका कोई शत्रु नहीं था, और वे सबसे प्रेम करते थे, उनके लिए - अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।' ये धर्मसमुह उन्हें शोभा देते थे। किन्तु सारी दुनिया को ज़बरदस्ती मोक्षमार्ग में खीँच लेने की चेष्टा क्यों होनी चाहिये ? क्या रगड़ने-घिसने से सुंदरता बढ़ती है, या रूप चमकता है, और पकड़-धकड़ कर कभी प्रेम होता है ? 
(ঘষে মেজে রূপ, আর ধরে বেঁধে পিরীত কি হয়?अब जरा आप यह बतलाइये कि जो मनुष्य मोक्ष नहीं चाहता, पाने के उपयुक्त भी नहीं है, उस श्रेणी के जीव के लिए (जो बद्धजीव, देहासक्त या Hypnotized है) बुद्ध और ईसा ने क्या उपदेश दिया था ? ~~~(निल बटे सन्नाटा) कुछ नहीं !! (बुद्ध या ईसा के मोक्ष मार्ग पर अधिकारी भेद, अवस्था भेद देखे बिना यदि  चले) या तो तुम्हें 'मोक्ष' मिलेगा या तुम्हारा 'सत्यानाश' हो जायेगा -बस यही दो बातें हैं। मोक्ष के अतिरिक्त अन्य तीनों पुरुषार्थों (धर्म-अर्थ-काम) के मार्ग बंद हैं। इस दुनिया का थोड़ा भी आनन्द लेने का तुम्हारे पास कोई अवसर नहीं है, यदि इसका प्रतिवाद करते हो, तो भी तुम्हें नुकसान सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। केवल वैदिक धर्म या सनातन धर्म में ही चार पुरुषार्थ~ धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष के साधन का उपाय है ( चार आश्रम, चार वर्ण है।) बुद्ध -जैन ने हमारा सर्वनाश किया और ईसा ने ग्रीस और रोम का। इसके बाद भाग्यवश यूरोपवासी प्रोटेस्टेण्ट हो गए। उन लोगों ने ईसा के धर्म को छोड़ दिया। और एक गहरी साँस लेकर भविष्य के प्रति निश्चिन्त हुए। वैसे ही भारत में कुमारिल भट्ट ने फिर से कर्म मार्ग को प्रतिष्ठित किया। शंकर, रामानुज ने चारों-पुरुषार्थों के सामंजस्य स्वरूप सनातन वैदिक धर्म का पुनः प्रवर्तन किया।  इस प्रकार हमारे देश के बचने का उपाय हुआ। किन्तु भारत में 30 करोड़ लोग हैं, देर तो होगी ! क्या 30 करोड़ लोगों को एक दिन में ब्रह्मज्ञान हो सकता है ? बौद्ध धर्म और वैदिक धर्म का उद्देश्य (निर्वाण -भ्रममुक्ति) एक ही है। पर बौद्ध धर्म का उपाय ठीक नहीं है। यदि उपाय ठीक होते तो हमारा यह सर्वनाश कैसे होता ? 'समय ने सब कराया ' -क्या यह कहने से काम चल जायेगा ? समय क्या कार्य-कारण के सम्बन्ध के बिना कार्य कर सकता है ?       
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अतएव वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म का साध्य (उद्देश्य) एक (मुक्ति)-होने पर भी उचित साधन (उपाय) के अभाव के कारण बौद्धों ने भारत को रसातल में पहुँचा दिया। यह बात शायद बौद्ध भाइयों को बुरी लग सकती है, किन्तु सच्ची बात तो कहनी ही पड़ेगी। सनातन वैदिक धर्म में 'मोक्ष' को अंतिम पुरुषार्थ माना गया है, वही उचित और ठीक है। (क्योंकि पात्रता के अनुसार ही अपने जीवन लक्ष्य का निर्धारण करना ही उचित और ठीक है। जाति-धर्म और स्वधर्म ही वैदिक धर्म और वैदिक समाज की भित्ति है। यह सुनकर कुछ मित्रों को (तथाकथित सेक्यूलर अर्बन नक्सल लोगों को) चोट पहुँच सकता है, वे कहेंगे कि मैं देश के लोगों (हिन्दुओं) की चापलूसी कर रहा हूँ। उनसे मैं एक बात पूछता हूँ कि उनकी चापलूसी करने से मुझे लाभ क्या है ? वे तो मुझे भूखे मरते देखकर भी एक मुट्ठी अन्न नहीं देंगे, उल्टे अनाथों और अकाल-पीड़ितों को खिलाने के उद्देश्य से विदेशों में वेदान्त का प्रचार करके जो धन मैंने एकत्र किया है, उसे भी हड़पने का प्रयत्न करते हैं। ..তবে তারা উন্মাদ হয়েছে, উন্মাদকে যে ঔষধ খাওয়াতে যাবে, তার হাতে দু-দশটা কামড় অবশ্যই উন্মাদ দেবে; তা সয়ে যে ঔষধ খাওয়াতে যায়, সে-ই যথার্থ বন্ধু। उनके ऊपर तो पागलपन सवार है। और जो उन पागलों को जबरन दवा खिलाने की चेष्टा करेगा, उसके हाथों को वे पॉँच-दस जगह अवश्य काटेंगे, पर उस दर्द को सहकर भी जो उन्हें दवा खिला देता है, वही उनका सच्चा मित्र है। 
यही जाति-धर्म, स्वधर्म (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में पहुँचना) ही सब देशों की सामाजिक उन्नति का साधन (उपाय) तथा मोक्ष का सोपान है। इस 'जाति-धर्म' और 'स्वधर्म' के नाश के साथ ही देश का अध:पतन हुआ है। किन्तु कुछ ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे (दलित-मुस्लिम एकता के नाम पर हिन्दुओं में फूट डालने वाले राजनीतक दलों के नेताओं) ने जातिधर्म, स्वधर्म का जो अर्थ समझा है वह केवल उल्टा उत्पात है, ऐरे-गैरे नेता जातिधर्म के बारे में खाक जानते है। वे अपने गाँव के आचार को ही सनातन वैदिक आचार समझते हैं। बस अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं, और विनष्ट हो जाते हैं। मैं गुणगत जाति की बात न कर वंशगत -जन्मगत जाति -प्रथा की ही बातें कर रहा हूँ !  আমি গুণগত জাতির কথা বলছি না, বংশগত জাতির কথা বলছি, জন্মগত জাতির কথা বলছি। यह मैं जानता हूँ कि गुणगत जाति -प्रथा ही पुरातन है, किन्तु दो चार पीढ़ियों में गुण ही वंशगत हो जाते हैं। ( अपने 'जाति, संस्कृति और समाजवाद' शीर्षक निबंध में स्वामी जी कहते हैं -  " एक जाति से दूसरी जाति में परिवर्तित हो जाना बिलकुल सम्भव है, और इसी महान् सत्य के आधार पर हिन्दू धर्म की वर्णाश्रम-प्रथा और स्वधर्म के सिद्धान्त आदि की स्थापना हुई है।") आक्रमण इसी प्राण-केन्द्र पर हुआ है, नहीं तो यह सर्वनाश कैसे हुआ ? गीता 3.24 में भगवान कहते हैं -(हमारा देश गुलाम कैसे बन गया था?)
सङ्करस्य च कर्ता स्याम् उपहन्याम् इमाः  प्रजाः।।
यदि मैं कर्म न करूँ तो ये समस्त लोक नष्ट हो जायेंगे और मैं वर्णसंकर का कर्ता तथा इस प्रजा का हनन करने वाला होऊँगा। '[ मानवजाति को प्रवृत्ति और निवृत्ति में सामंजस्य स्थापित करने का मार्ग दिखलाने अर्थात प्रेम भक्ति की शिक्षा देने के लिए ईश्वर हर युग मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं। अवतारी पुरुष (भ्रममुक्त या Dehypnotized नेता या जीवन्मुक्त शिक्षक) मनुष्य-देह में रहते समय जन्म से लेकर महापरिनिर्वाण तक जो कुछ कर्म करते हैं, वह सब जीव-कल्याण के लिए है। वे कर्म करके कभी थकते नहीं हैं। उनके साधन-भजन, त्याग-तपस्या, धर्माचरण , यहाँ तक कि दुष्टों के दमन के लिए जो युद्ध आदि कर्म होते हैं, उन सबके मूल में केवल जीव-कल्याण की इच्छा रहती है। उनके कर्मों को भक्ति शास्त्र में लीला कहा है। लौकिक दृष्टि से साधारण मनुष्य का कर्म तथा जीवन्मुक्त (भ्रममुक्त नेता/शिक्षक) का कर्म प्रायः एक ही प्रकार का होता है। किन्तु जीवनमुक्त महापुरुष (जीवनमुक्त शिक्षक) अपने  सभी कर्म निष्काम भाव से करते हैं, इस कारण उनके सभी कर्म यज्ञ हैं, अर्थात उनसे लोगों का कल्याण ही होता है। अतः आत्मज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद स्वयं को कर्म से कोई प्रयोजन न होने पर भी ज्ञानी पुरुष को कर्म करते रहना चाहिये। 
यह घोर वर्णसंकरता कैसे हो गयी ? गोरा रंग काला कैसे हुआ ? सत्त्वगुण -रजोगुणप्रधान तमोगुण कैसे हो गया ?(ब्राह्मण से क्षत्रिय में रूपान्तरण कैसे हो गया ?) --आदि आदि बातें किसी दूसरे प्रसंग में कही जाएँगी।  इस समय तो यही समझना है कि यदि जाति-धर्म ठीक रहे (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने में कोई बाधा न उत्पन्न की जाय।), तो देश का अधःपतन नहीं होगा। यदि यह बात सत्य है तो फिर हमारा अधःपतन कैसे हुआ ? निश्चित रूप से हमारा जाति-धर्म विनष्ट हो गया है। अतएव तुमलोग जिसे जातिधर्म (सबसे पहले मोक्ष -प्राप्ति, जबकि वह अंतिम सोपान है !) कहते हो, वह ठीक उसका उल्टा है। पहले अपने पुराणों शास्त्रों (गीता -उपनिषद आदि) को अच्छी तरह से पढ़ो, तब समझ में आएगा कि शास्त्रों में जिसे जातिधर्म (चार पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष ) कहा गया है, उसका सर्वथा लोप हो गया है। अब पुनः प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म में सामंजस्य कैसे स्थापित होगा, इसकी चेष्टा करो।  ऐसा होने से ही भारत का परम् कल्याण निश्चित है। मैंने जो कुछ सीखा या समझा है, वही तुमसे स्पष्ट कह रहा हूँ। मैं तो केवल तुम्हारे ही कल्याण के निमित्त विदेश से नहीं आया, कि मुझे तुम्हारी गदह -पचीसी (मूर्खतापूर्ण छुआछूत प्रथा) तक की वैज्ञानिक व्याख्या करनी होगी। विदेशी समाजसुधारकों को तुम्हारी क्या चिंता है ? थोड़ी वाहवाही ही उनके लिए यथेष्ट है। किन्तु तुम्हारे मुख पर कालिख पोती जाने से वह कालिख मेरे मुंह पर भी लगती है- उन लोगों का क्या होता है ?
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रविवार, 23 जनवरी 1898:  श्री सुरेंद्र नाथ सेन की निजी डायरी : - आज की बैठक में स्वामी जी ने अपने एक ब्रह्मचारी शिष्य (निवृत्ति मार्गी शिष्य)  को 'मुक्ति का वास्तविक स्वरूप' (Real Nature of Mukti) के विषय पर व्याख्यान देने का आदेश दिया।  तब एक पक्ष "अद्वैत और ज्ञान" को "भक्ति और द्वैत" से श्रेष्ठ बताने लगा। ...इस मतभिन्नता के कारण बहस को आवेगपूर्ण होते देखकर स्वामी विवेकानन्द ने कहा - " श्री रामकृष्ण देव कहते थे विशुद्ध ज्ञान और विशुद्ध भक्ति में कोई अंतर नहीं है। ज्ञान का अर्थ है- परोक्षरूप से जानना। विज्ञान का अर्थ है-साक्षात् प्रत्यक्ष रूप से जानना। विज्ञान के अनन्तर (भ्रममुक्त या dehypnotized के बाद)  जिस भाव का उदय होता है वही असली भक्ति है। विशुद्धज्ञान और भक्ति एक ही वस्तु है। 
भक्तियोग में ईश्वर को (अवतार वरिष्ठ को) ही मूर्तमान प्रेम माना गया है।  परमेश्वर के पूर्ण प्रेममय होने से, कोई व्यक्ति (स्वयं को M/F समझने वाला व्यष्टि अहं) यह भी नहीं कह सकता कि 'मैं' श्रीरामकृष्ण को प्रेम करता/करती  हूँ। [अर्थात कोई व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि समाधि अवस्था में मैंने आत्मसाक्षात्कार किया था ! क्योंकि समाधि-अवस्था में ब्रह्म या परमात्मा (existence-consciousness-bliss) का साक्षात्कार होता है, वह आत्मा (pure-consciousness) को होता है, व्यष्टि अहं-मन (reflected-consciousness) को नहीं ! क्योंकि प्रेम की सर्वोच्च अवस्था में झींगुर (व्यष्टि अहं) तो भौंरा (माँ जगदम्बा का सर्वव्यापी विराट अहं -बोध) बन चुका होता है ! One cannot even say, "I love Him", for the reason that He is All-Love.There is no love outside of Himself; the love that is in the heart with which you love Him is even He Himself.]  
परमेश्वर (श्रीरामकृष्ण-नाम) से असम्बद्ध किसी प्रेम का अस्तित्व नहीं है। वह प्रेमभाव जो तुम्हारे हृदय में है, जिसके द्वारा तुम उनसे प्रेम करते हो, वह प्रेमभाव भी तो परमेश्वर (ठाकुर) ही हैं। इसी प्रकार मनुष्य के मन में रहने वाली जो इच्छायें (लालसा), आकर्षण या प्रवृत्तियाँ हैं वे भी ईश्वर के ही रूप हैं। चोर चोरी करता है, वैश्या अपना शरीर बेचती है, माँ अपने बच्चे को प्यार करती है,(शनिवार के दिन शनिमंदिर के बगल में दीनदरिद्र भिखमंगे बैठे रहते हैं ?) - इन सब भावनाओं और वृत्तियों में भी ईश्वर ही हैं।  एक गैलेक्सी दूसरे गैलेक्सी को आकृष्ट करती है, उसमें भी ईश्वर ही है। सर्वत्र वही है। ज्ञानयोग के अनुसार भी -वही ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है। ज्ञान योग के सिद्धान्त के अनुसार दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर प्रत्येक नाम-रूप में उनका (सच्चिदानन्द ब्रह्म का) अनुभव किया जा सकता है। 
शुद्ध ज्ञान और शुद्ध भक्ति का सामंजस्य यहाँ (विसम्मोहन में) है - जगत ब्रह्ममय है ! हर रूप में तू हर वेश में तू तेरे नाम अनेक तू एक ही है ! जब कोई साधक भावावस्था (ठाकुर का नाम जपते हुए 'इश्के हकीकी' अर्थात् दैवी प्रेम की अवस्था) को प्राप्त होकर ब्रह्मानन्द में डूब जाता है, या समाधिस्थ हो जाता है, तब उसका द्वैत-भाव नष्ट हो जाता है, तब भक्त और भगवान एक हो जाते हैं।  ईश्वर के साथ अभिन्नता की अनुभूति या ईश्वर के साथ एकत्व की अनुभूति कर लेने के बाद; अद्वैतभाव से ध्यान करते समय - या खुली आँखों से ध्यान करते समय (सेवा-प्रेम करते समय) अद्वैतमार्गी भक्त यही देखता है कि 'परमेश्वर और मैं एक हूँ !' 
जब तक मनुष्य माया के राज्य में अवस्थान (माया के अधिकार क्षेत्र -M/F'शरीर' में अवस्थान) कर रहा है, तब तक उसमें द्वैत का भाव अवश्य बना रहेगा। जब तक हम (एक बार भी) माया पाश से मुक्त नहीं हो जाते तब तक हमारे भीतर द्वैत का भाव अवश्य बना रहेगा। देश-काल-निमित्त या नाम-रूप ही माया है। (सच्चिदानन्द समुद्र से पहले आकाश की उत्पत्ति हुई; आकाश का मतलब क्या है ? -कुछ नहीं, खाली जगह उसमें स्पर्श विषय वायु, वायु से अग्नि -रूप का विषय आदि पंचभूत -काल-निमित्त (Space-time-causation) ही माया है।
"  As long as one is within the region of Mâya, so long the idea of duality will no doubt remain. Space-time-causation, or name-and-form, is what is called Maya. When one goes beyond this Maya, then only the Oneness is realised, and then man is neither a dualist nor an Advaitist—to him all is One. ..... 
[जब तक हम निषिद्ध कर्मों से मुक्त नहीं हो जाते, तब तक हम स्वयं को M/F शरीर समझने के भ्रम से मुक्त या d-hypnotized भी नहीं हो सकते। और तब तक हमारे भीतर द्वैत का भाव  ('भय ' या भेंड़त्व का भाव इन्द्रिय-भोगों की लालसा या कामुकता) भी अवश्य बना रहेगा।] 
जब कोई व्यक्ति विद्या की देवी माँ सारदा की कृपा से निषिद्ध कर्मों का त्याग करके इस माया (carnal desire या जिस्मानी भोग की लालसा या घोर कामुकता) से मुक्त हो जाता है) तब उसे 'Onenessअर्थात 'जीव-ब्रह्म के एकत्व' की अनुभूति हो जाती है! तब न द्वैत रहता है और न अद्वैत उसके लिए सब एक हो जाता है। (तब उसे यह बोध होता है कि ब्रह्म और जगत, ईश्वर और लीला दोनों सत्य हैं !) 'ज्ञानी' और 'भक्त' में अन्तर केवल 'preparatory stage' या साधना की प्रारम्भिक अवस्था में ही प्रतीत होता है, एक परमेश्वर (नेता/गुरु अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) को अपने बाहर देखता है और दूसरा अपने अन्तर में। 
लेकिन भक्ति के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बिन्दु और है।  श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे कि भक्ति (प्रेम) की एक अवस्था और भी है, जिसे पराभक्ति कहते हैं;   वह है मुक्त हो जाने के बाद (भ्रममुक्त या d-hypnotized) के बाद परमेश्वर (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) के प्रेम में विभोर होकर रहना ! (Supreme Devotion-इश्के हकीकी झींगुर का भौंरे में अथवा हीर का राँझा में - रूपांतरित हो जाना ?
जो व्यक्ति मुक्त हो चुका है (माँ जगदम्बा की कृपा से जीवन्मुक्त या d-hypnotized हो चुका है।) उसे शुद्ध चैतन्य (ब्रह्म या pure -consciousness) की भक्ति में विभोर होकर रहने की क्या आवश्यकता है?क्या यह 'ज्ञान के बाद भक्ति'-- कुछ विरोधाभासी जैसा (paradoxical,लोक-विरुद्ध) प्रतीत नहीं होता?  इसका उत्तर केवल यही है कि जो मुक्त (जीवनमुक्त या विसम्मोहित) हो चुका है, वह (माँ जगदम्बा का बेटा ) सब नियमों से परे है। उसके विषय में यह प्रश्न नहीं उठता कि उसने ऐसा (Bh) ही क्यों किया, और वैसा क्यों नहीं किया ? मुक्त हो जाने के बाद भी कुछ लोग (भ्रममुक्त हो जाने के बाद भी कुछ नेता/शिक्षक लोग) भक्ति के माधुर्य का रसास्वादन करने के लिए, भक्ति भाव में विभोर होकर रहते हैं। " 8/273 
[It may seem paradoxical, and the question may be raised here why such a one who has already attained Mukti should be desirous of retaining the spirit of Bhakti? The answer is: The Mukta or the Free is beyond all law; no law applies in his case, and hence no question can be asked regarding him. Even becoming Mukta, some, out of their own free will, retain Bhakti to taste of its sweetness. 
Shri Surendra Nath Sen—from private dairy,Sunday, The 23rd January, 1898.
प्रश्न - जब चैतन्य महाप्रभु अपने को राधा का ही स्वरूप समझते थे, तो सर्वसाधारण में भी प्रेम के महान आदर्श 'राधा-प्रेम' का प्रचार क्यों नहीं करना चाहिए ?     
स्वामी जी - ईश्वर को पति रूप में भजने को ही चैतन्य-सम्प्रदाय में 'मधुरभाव' कहा जाता है: बंगाल और उड़ीसा के जनसाधारण के बीच इस राधाप्रेम (राधा का श्री कृष्ण के प्रति जो आध्यात्मिक प्रेम था।) के प्रचार का परिणाम क्या हुआ, वह तो देखो।...सारा उड़ीसा कापुरुषों (cowards-कायर, डरपोक) का देश बन गया है, और बंगाल इस राधाप्रेम के पीछे इन चार सौ वर्षों में पुरुषार्थ (manliness-बहादुरी) के तात्पर्य को ही लगभग भूल सा गया है। बंगाल के लोगों को बस रोना और आँसू बहाना आता है, यही उनका राष्ट्रीय चरित्र बन गया है। किसी देश केविचारों और भावों का दर्पण वहाँ का साहित्य ही होता है,...  इन चार सौ वर्षों में वीररस का एक काव्य तक तो रचा नहीं जा सका ! (आनन्दमठ ? की रचना भी ठाकुर की प्रेरणा से हुई ?)  
 प्रश्न : तो क्या गृहस्थों के लिए मधुरभाव, 'राधाप्रेम' या ईश्वर को पति मानकर भजन करने से भगवतप्राप्ति असम्भव है ?  फिर उस दिव्यप्रेम का अधिकारी कौन है ?
स्वामीजी - अवतारवरिष्ठ जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर साधारण गृहस्थों के लिए, खुली आँखों से ध्यान और सेवा करते समय 'राधाप्रेम' को आचरण में उतार कर दिखाना निस्संदेह असम्भव है ! और फिर इस कठिन मार्ग पर ही इतना बल क्यों ? क्या मधुरभाव से साधना करने के आलावा अन्य कोई भाव या सम्बन्ध नहीं है ? 
'There can be no love so long as there is lust—'जब तक हृदय में कामुकता के लिए तिलमात्र भी स्थान है, (निषिद्ध कर्मों के लिए-M/F होने में तिलमात्र भी अहं Bh, बचा हुआ है।) तब तक वह दिव्य प्रेम सम्भव नहीं। मानवों में जो अतिमानव है (mighty giants among men, ठाकुर जैसा महान त्यागी है) केवल वैसे इक्के-दुक्के व्यक्ति को उस दिव्य प्रेम का अधिकार है। यदि राधाप्रेम के इस उच्चतम आदर्श (अपने को राधा और सामने वाले को कृष्ण रूप में देखने का प्रेम) को आम जनता में भी प्रचलित करने की चेष्टा की जाय, तो वह प्रकारांतर से मनुष्य के हृदय में सांसारिक प्रेम (शारीरिक प्रेम) को ही उद्दीप्त करेगा।क्योंकि सेव्य (ईश्वर) को प्रियतम या प्रेमिका मानकर ध्यान करते करते साधारण मनुष्य अधिकांश समय अपनी ही प्रिया (Bh) के ध्यान में खोया रहेगा। और इसका परिणाम क्या होगा - यह स्पष्ट है। पहले हृदय के द्वार तो खुलने दो, (अर्थात पहले विवेक-दर्शन के अभ्यास से वासना और प्रेम में अन्तर करना तो सीख लो !)  शेष सब अपने आप ही आ जायेगा। लेकिन यह बात अच्छी तरह समझ लो कि जब तक कामना-वासना है (लस्ट और लूकर में आसक्ति है), तब तक उस "प्रेम " का आविर्भाव नहीं होगा। पहले अपनी इन्द्रियासक्ति, भोगों की लालसा का (carnal desires) का ही  त्याग या कामुकता का ही त्याग क्यों न करो ? 
तुम कहोगे - 'यह कैसे सम्भव है, मैं तो गृहस्थ हूँ। ' इसीको फालतू बकवास 'जल ताड़न ' कहते हैं। प्रवृत्तिमार्गी होने का अर्थ या गृहस्थ होने का अर्थ यह तो नहीं है कि कोई-personification of incontinence' मूर्तमानअसंयम बन जाये, या आजन्म वैवाहिक सुख का उपभोग करता रहे? और फिर किसी सामान्य पुरुष के लिए स्त्रियों के जैसा हावभाव दिखाना, स्वयं को स्त्री समझने लगना ताकि वह भी मधुर भाव का आचरण कर सके -बाल बढ़ाकर डांस करना क्या लज्जास्पद नहीं है ? .......क्या तुम्हारे अपने जीवन में  यह स्पष्ट नहीं हुआ है ? ) 
 [ Because one is a householder, does it mean that one should be a  personification of incontinence, or that one has to live in marital relations all one's life? And, after all, how unbecoming of a man to make of himself a woman, so that he may practice this Madhura love! ]
प्रश्न : तो फिर हम गृहस्थों को चैतन्य महाप्रभु का कौन सा विचार योग्य समझकर अपने जीवन में ग्रहण करना चाहिए, जिससे कि हमसे कोई भूल न हो?  
स्वामी जी : ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) की आराधना ज्ञानमिश्रित भक्ति के साथ करो। 'Keep the spirit of discrimination along with Bhakti.' किन्तु भक्ति करते समय पल भर के लिए भी विवेक का लोप न हो ! (शिव ज्ञान से जीव सेवा करते समय, खुली आँखों से ध्यान अर्थात मोहब्बत की राहों पे चलना सम्भल के।) इसके अतिरिक्त श्री चैतन्य से उनकी हृदयवत्ता, प्राणिमात्र के लिए उनकी प्रेममय दया, ईश्वर से उत्कट प्रेम करने का उनका तरीका सीखो, (व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपांतरित करने का तरीका सीखो।) 'and make his renunciation the ideal of your life.' और त्याग (निवृत्ति-भोगों का खत्म हो जाना) को अपने जीवन का लक्ष्य बनाओ।
 " मैंने (स्वयं) अपने जीवन को चैतन्य महाप्रभु के ज्वलन्त आदर्श -'Renunciation of Wealth and Lust' 'कामिनी-कांचन त्याग' के सांचे में ढालने के लिए (Be होने के लिए) आजीवन संघर्ष किया है,और जनसाधारण के जीवन को भी इसी आदर्श सांचे में गठित करने (Make) का प्रयत्न कर रहा हूँ ! श्री चैतन्य महाप्रभु तो महान त्यागी व्यक्ति थे, उनका कामिनी और इन्द्रियभोग (carnal appetites-M/F की जिस्मानी भूख) क्या नाता ? किन्तु उनके परवर्ती वैष्णव गुरुओं ने (आशारामों ने) सर्वप्रथम, चैतन्य महाप्रभु के जीवन में प्रतिष्ठित भारत के दोहरे राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और प्रेम (सेवा)' के 'त्याग पक्ष' (निषिद्ध कर्मों का त्याग या aspect of renunciation) पर विशेष जोर देने के बजाय, पूरा जोर जनसाधारण के बीच केवल 'प्रेम' के पहलू का प्रचार-प्रसार करने में लगा दिया। परिणाम यह हुआ कि साधारण जनता उस दैवीय प्रेम (high ideal of divine love, राधा-प्रेम या जीव-ब्रह्म ऐक्य के अनुभूति जन्य प्रेम में चैतन्य महाप्रभु विभोर होकर रहते थे और अपने को राधा का स्वरुप ही समझते थे।) के उच्च आदर्श को समझ नहीं सकी; और स्वाभाविक रूप से वह दिव्य प्रेम स्त्री-पुरुष के बीच का निकृष्टतम संबंध में बदल गया। जाग्रत में जो देख रहा हूँ,वह सत्य है-या जो स्वप्न में देखा वह सत्य है ?.
...  इसी वार्ता के मध्य स्वामी जी ने बतलाया कि इंग्लैण्ड से लौटते समय मैंने एक कुतूहली-स्वप्न (curious dream) देखा था। जब हमारा जहाज भूमध्यसागर (Mediterranean Sea) से होकर गुजर रहा था, मैंने देखा कि ऋषितुल्य (venerable) कोई वृद्ध व्यक्ति मेरे पास आकर खड़ा हो गया। और उसने कहा - 'Do ye come and effect our restoration.' 'तुम आओ, हमको पुनः प्रतिष्ठित कर दो ! मैं थेरापुत्तस (Therâputtas  or Theraputae) के प्राचीन पंथ का अनुयायी हूँ, जो प्राचीन भारतीय ऋषियों की शिक्षाओं (उपनिषदों) पर आधारित है। जिस सत्य और जिन आदर्शों का हमने प्रचार किया, ईसाई लोग उनका ईसा मसीह द्वारा प्रचलित किया जाना बताते हैं, पर सच तो यह है कि- 'ईसामसीह नाम का कोई व्यक्ति कभी जन्मा ही नहीं। 
यदि स्थान पर पुरातात्विक खुदाई की जाय तो इस बात को सिद्ध करने में सहायक कई प्रमाण यहाँ मिल जायेंगे। ' मैंने पूछा -'कौन सी जगह खुदाई करने पर वे अवशेष और प्रमाण मिलेंगे ? उस श्वेतकेसी वृद्ध ने तुर्की (Turkey) के पास का एक स्थान बताकर कहा -'यहाँ।' 
इतने में ही मैं जाग गया और तत्काल ऊपर जाकर मैंने कप्तान से पूछा कि जहाज इस समय कहाँ है ? जहाज के कप्तान ने हाथ से दिखाते हुए कहा -' देखो सामने तुर्किस्तान है और 50 नौटिकल माईल की दुरी पर वह क्रीट द्वीप (Island of Crete) दिखाई दे रहा है।'  क्या यह एक स्वप्न मात्र ही था या उस स्वप्न में कोई सत्य छिपा था ? कौन जनता है ! (८/२८२) 
स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं - वर्तमान ईसाई धर्म का उद्भव ' थेरापुत्त्स, अससिनी, मानिकी' आदि सम्प्रदायों के द्वारा हुआ है। थेरापुत्तस' शब्द प्राचीन बौद्ध सन्यासी सम्प्रदाय ' थेरापूत्त ' ( स्थिवीरपुत्र) से निकला है. दो हजार वर्ष पहले बौद्ध सन्यासी लोग भूमध्य सागर क्षेत्र में धर्म के उपदेशों का प्रचार करने के लिए गये थे।  ' अससिनी ' शब्द को उन्होंने सपने में सुना था या नहीं, यह स्वामीजी को ठीक से याद नहीं था, अनुमान से कहे थे. ' अससिनी ' लोग युहिदी धर्म के एक सम्प्रदाय थे, जो त्याग के उपर अधिक जोर देते थे.जिस समय ईसामसीह का जन्म हुआ था, ऐसा विश्वास किया जाता है, अर्थात आज २००० वर्ष पहले, उस समय भारतीय विचार का प्रभाव थेरापूत्त प्रचारकों के माध्यम से एसिनियों के उपर पड़ना असम्भव तो नहीं है, पर यह बात निश्चय से कहना भी मुश्किल है। मिस्र में टलेमी बादशाह के वक्त सम्राट अशोक ने धर्म प्रचारक भेजे थे। वे लोग धर्म प्रचार करते थे, रोग अच्छा करते थे, निरामिषी होते थे, विवाह नहीं करते थे, सन्यासी शिष्य करते थे। उन्हीं लोगों ने अनेक सम्प्रदायों की सृष्टि की - थेरापीउट, अससिनी, मानकी आदि आदि- जिनसे वर्तमान ईसाई धर्म का उद्भव हुआ. यही मिस्र, टलेमियों के राज्यकाल में, सर्व विद्याओं का केंद्र हो गया था। " (८/१८१)
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15. कुछ उल्लेखनीय स्वप्न ! 
[महामण्डल के द्विभाषी मुखपत्र (Vivek-Jivan August, 2011अंक में बंगला में प्रकाशित पूज्य नवनी दा का निबन्ध 'स्वप्नेर कथा'(স্বপ্নের কথা) पर आधारित ]  
उपरोक्त निबंध में स्वामी जी के इस स्वप्न का उल्लेख करते हुए दादा कहते हैं - हमलोगों में, ऐसा कौन होगा, जो स्वप्न नहीं देखता हो? कोई अपवाद नहीं होंगे, शायद ऐसा भी नहीं कहा जा सकता।  किन्तु अक्सर नीन्द टूट जाने के बाद स्वप्न में देखी गयी घटनायें याद नहीं रहती। परन्तु कभी कभी ऐसा स्वप्न भी दिखाई देता है, जिसका प्रभाव बहुत दिनों तक हमारे ऊपर बना ही रहता है।  यह भी सुनने में आता है कि, स्वप्न में देखी गयी कुछ कुछ घटनाएँ बाद में सच्चाई का पूर्वाभास साबित हुई हैं। 
श्रीरामकृष्ण के जन्म के पहले उनके पिताजी गया तीर्थ में एक स्वप्न देखे थे- नारायण स्वयं उनकी सन्तान बन कर आविर्भूत होना चाहते हैं। स्वामी विवेकानन्द की माँ भूवनेश्वरी देवी प्रतिदिन बहुत देर तक भगवान शिव की आरधना में तन्मय हो कर अपना समय व्यतीत करती थीं, एवं उनसे एक पुत्र सन्तान पाने की मन्नत मांगती थी. एकदिन पूजा-घर में ही उनको नीन्द आ गयी, उस समय स्वप्न में देखती हैं कि जटाजूटधारी  शिव उनके सामने आविर्भूत होकर शिशु का रूप धारण कर लेते हैं, मानों वे उनकी ही सन्तान हों।  इसीके कुछ दिनों बाद स्वामीजी का जन्म हुआ था। 
मन के जिस क्रियाकलाप को हमलोग थोड़ा जान पाते हैं, उसे मन का चेतन स्तर कहा जाता है। किन्तु मन केवल उतना ही नहीं है, उसका अधिकांश हिस्सा हमलोगों के सामान्य चेतना के स्तर से देख नहीं पाते हैं।  इसीलिए उसको मन का अवचेतन स्तर कहा जाता है।  मनोवैज्ञानिक लोग कहते हैं कि, अवचेतन मन में जो कुछ चलता रहता है, उसीका कुछ अंश स्वप्न में दिखने लगता है।  हमलोग सचेतन होकर जो कुछ सोचते हैं, मन में जो कामनाएँ दबी रह जाती हैं, मन रूपी कैमरा उसका एक फोटो खींच लेता है, और वही सब फोटो या कार्बन कॉपी अवचेतन मन में संचित रह जाता है। इसीलिए जो विचार, जो अनुभूति या तजुर्बा हमारे मन के उपर गहरी लकीरें डाल देते हैं, वे ही सब कई बार किसी न किसी तरीके से स्वप्न में दिखाई पड़ने लगते हैं।  नरेन्द्रनाथ जब तरुणाई में पदार्पण किये थे, तब कुछ समय तक रोज रात में एक ही स्वप्न देखते थे. पहले देखते कि वे राज-ऐश्वर्य और प्रभावशाली व्यक्तित्व के अधिकारी हैं, बाद में देखते कि वे एक महावैराग्यवान परिव्राजक सन्यासी हैं।  सम्भव है, उन दिनों उनके सामने ' बड़ा ' (बृहत-ब्रह्म) बनने के दो विकल्प खुले हुए थे, और उनका मन चाहता था कि इन दोनों में जो श्रेष्ठ मार्ग हो उसी को सारे जीवन के लिए चुन लिया जाय।हमारे पास दो विकल्पों (श्रेय और प्रेय) में से एक का चयन करने का अधिकार तो है, किन्तु उसका परिणाम सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकते हैं, और यह परिणाम समान रूप से लम्बे समय तक (जन्मजन्मांतर तक) भोगना पड़ता है! 
[गिल्गामेश की कहानी में इसी बात को दर्शाया गया है. क्योंकि गिल्गामेश, बहुत अभिमानी और दमनकारी था, वह एक अच्छा राजा होने में सक्षम नहीं था, इसीलिए उसके मित्र एन्किडू को राजा बनाया गया था. अपने दोस्त एन्किडू की मौत के बाद गिल्गामेश पाता है कि वह खुद भी मरने से डर रहा है।  यह डर ही गिल्गामेश को अमरत्व कि खोज में लगा देता है। उस समय लोग ऐसा मानते थे कि अमरत्व की शक्ति किसी स्त्री से ही प्राप्त हो सकती है, क्योंकि यह भी एक तथ्य है कि केवल स्त्रियाँ ही जननी बन सकती हैं, और पुन: संसार में ला सकती हैं। यह संकल्प ही उसे एक एक लंबे और थकाऊ यात्रा के बाद उस भूमि पर ले जाता है,जहां कोई नश्वर प्राणी उसके पहले नहीं गया था।] 
रविन्द्रनाथ टैगोर द्वारा बच्चों के लिए लिखी गयी प्रसिद्द हास्यरस कविता ' हिंग  टिंग छट् ' के पहले अनुच्छेद में हबूचन्द्र राजा के स्वप्न का वर्णन किया गया है। कविता का मुख्य विषय राजा के द्वारा देखे गए रहस्यमय सपने की सही व्याख्या क्या होगी, उसीका पता लगाने की जिम्मेदारी उसके 'गबूचन्द्र मंत्री' को सौंपी गयी है।स्वप्न-मंगल : सुंदर सपना: " रात में, स्वप्न देखा हबुचंद्र भूप (राजा), अर्थ उसका सोंच सोंच गबूचन्द्र चूप। हाबुचन्द्र राजा ने एक अद्भुत सपना देखा था, उसकी व्याख्या करने की व्यर्थ चेष्टा करने में देश के लोग हैरान-परेशान हो गये, तब यूरोपीय विद्वान लोगों ने आकर कहा- यह तो निरा सपना है- इसकी विवेचना या स्पष्टीकरण की क्या जरूत है ? तब सभा में उपस्थित लोगों को बहुत क्रोध हुआ, और वे कहने लगे - हमलोग अपनी धर्म-परायणता के लिए विश्व विख्यात राष्ट्र हैं, क्या सपना को भी सत्य नहीं मानें ? या सपना समझ कर भूल जाएँ ? ये लोग भरी दोपहरी में क्या डकैती डालना चाहते हैं ?
 "স্বপ্ন দেখেছেন রাত্রে হবুচন্দ্র ভূপ, অর্থ তার ভাবি ভাবি গবুচন্দ্র চুপ। শিয়রে বসিয়া যেন তিনটে বাঁদরে/উকুন বাছিতেছিল পরম আদরে-/একটু নাড়িতে গেলে গালে মারে চড়/চোখে-মুখে লাগে তার নখের আঁচড়/ সহসা মিলালো তারা, এল এক বেদে/ পাখি উড়ে গেছে বলে মরে কেঁদে কেঁদে/সমমুখে রাজারে দেখি তুলি নিল ঘাড়ে/ ঝুলায়ে বসায়ে দিল উচ্চ এক দাঁড়ে/নিচেতে দাঁড়ায়ে একা বুড়ি থুত্থুড়ি/হাসিয়া পায়ের তলে দেয় সুড়সুড়ি/রাজা বলে ‘কী আপদ’ কেহ নাহি ছাড়ে/ পা দুটা তুলিতে চাহে, তুলিতে না পারে/ পাখির মতন রাজা করে ছটফট/ বেদে কানে কানে বলে হিং টিং ছট/ স্বপ্নমঙ্গলের কথা অমৃতসমান/ গৌড়ানন্দ কবি ভনে শুনে পুণ্যবান’।
इस प्रकार के कूसंस्कारों से (स्वप्न को सच समझने के भ्रम से) बिलकुल दूर ही रहना चाहिए। हमें स्पष्ट विचारण क्षमता,तर्क की कसौटी पर परख कर निर्णय करने की क्षमता, या वैज्ञानिक मनोभाव अवश्य अर्जित करना चाहिए।  स्वामी विवेकानन्द स्वयं इसके उदहारण स्वरूप थे। उनका यह मानना था कि इस जगत में कोई भी घटना अलौकिक नहीं हो सकती है। किन्तु युक्ति-तर्क की कसौटी पर कसे बिना किसी घटना को झूठा या भ्रामक कह कर उड़ा देना भी वैज्ञानिक-मानसिकता अर्जित करने में एक प्रकार से  बाधक ही होती है। इसलिए स्वामीजी प्रत्येक घटना को तर्क की कसौटी पर कस कर ही स्वीकार करने के पक्षधर थे। ये सब तो नीन्द में सपना देखने पर चर्चा हुई। किन्तु कुछ लोग जाग्रत अवस्था को भी एक प्रकार का स्वप्न ही मानते हैं। अर्थात, इस समय हमलोग जितना जाग्रत हैं, उससे भी अधिक जाग्रत हो उठना मनुष्य के लिए सम्भव है ! रामचरित मानस में कहा गया है - उमा कहूँ मैं अनुभव अपना | सत्य हरिभजन जगत सब सपना ||**** भगवान शिव ने यहाँ अत्यंत गूढ़ रहस्य को बहुत ही सरलता से प्रतिपादित कर दिया है।  भगवान शिव पार्वती जी से कहते हैं कि हे उमा सुनो मैं तुम्हें अपना अनुभव बताता हूँ, ये कोई सुनी सुनाई बात नहीं है ये मेरा स्वयं का अनुभव है।  ये सारा संसार एक स्वप्न की भांति झूठ है। 
अर्थात जैसे हम सोते हुए सपना देखते हैं, उस सपने में अनेकों प्रकार के पदार्थ देखते हैं. और जब तक हम वो सपना देख रहे होते हैं तब तक सपने में दीखने वाली प्रत्येक वस्तु हमें सत्य ही लगती है, और हम अपने वास्तविक जगत को उस समय पूरी तरह भूल जाते हैं।  परन्तु जैसे ही हम जागते हैं तो सपने में देखे गये सभी पदार्थ अदृश्य हो जाते हैं क्योंकि वे वास्तव में कहीं नहीं है, वे तो बस हमारे मन में ही कल्पित हैं।  
ठीक इसी प्रकार आत्मा भी अपने मन में इस संसार रूपी सपने को देख रहा है।  जब तक आत्मा यह स्वप्न देखता है तब तक आत्मा को ये झूठा संसार ही सत्य लगता है।  क्योंकि उस समय वो अपना वास्तविक स्वरुप भूल जाता है (जैसे सोता हुआ व्यक्ति अपने शरीर को भूल जाता है और सपने में देखे गये शरीर को ही "ये मैं हूँ" ऐसा समझने लग जाता है।) किन्तु हरिभजन से जैसे ही उसका स्वप्न भ्रम दूर होता है वैसे ही उसे अपने वास्तविक अविनाशी स्वरुप की प्रतीति होने लगती है।  अतः मेरी दृष्टि में हरिभजन ही सत्य है क्योंकि केवल वही सत्य स्वरुप परमात्मा का बोध कराता है। 
और जब किसी किसी के जीवन में, वैसा जागरण घटित हो जाता है, तभी वह समझ पाता है कि - ओह ! सामान्य तौर पर जिसको हमलोग जाग्रत अवस्था (conscious state of mind) समझते हैं, वह भी मानो एक प्रकार से स्वप्न की ही अवस्था थी (dream state of mind)| और उसी अपने द्वारा बुने गए सपनों के महल में रहते हुए हमलोग कभी हम सुखद सपने देख रहे थे, तो कभी दुखद स्वप्न देख रहे थे। 
स्वप्नावस्था में जिस समय हमलोग नीन्द में स्वप्न देख रहे होते हैं, उस समय हमें ऐसा प्रतीत होता है, मानों हम जगे हुए ही हों।  पर जब सचमुच जाग उठते हैं, तभी तुलना करके समझ पाते हैं कि - (राजा जनक के जैसा-'ये सच कि वो सच?') ओह पहले वाला तो सपना था। इस प्रकार हम यह समझ सकते है कि 'जाग्रत अवस्था' के भी विभिन्न सोपान होते हैं।  मनुष्य जिस समय (स्थूल-सूक्ष्म -कारण शरीर की) जिस अवस्था में रहता है, उस समय वह केवल उसी अवस्था के विषय में सचेतन रहता है, और उसी को जागरण की एकमात्र अवस्था समझने की भूल करता है। ' Neuro scientist ' स्नायु वैज्ञानिक कहते हैं कि, अलग अलग अवस्था में हमारा मस्तिष्क अलग अलग तरीके से विचार कर सकता है।  सामान्य तौर पर हमलोग जिसको जाग्रत अवस्था कहते हैं, थोड़ा सा चिन्तन-मनन करने पर ही, हम देख पाएंगे कि जाग्रत अवस्था में  भी स्वप्न-अवस्था के जैसा ही मानों एक बाद एक करते हुए पर्दा  हटता जा रहा है। (स्वयं को मात्र M/F या शरीर-मन समझने का भ्रम हटता जा रहा है, और परमसत्य (इन्द्रियातीत) का साक्षात्कार होते ही हम पूर्णतः भ्रममुक्त या d-hypnotized हो जाते हैं।
अधिकांश मनुष्य सामान्यतः हिप्नोटाइज्ड या सम्मोहित अवस्था में अपने को M/F शरीर ही मानते हैं, और अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं (कामनाओं -वासनाओं) की पूर्ति होने और नहीं होने से जो आनंद और वेदना होती है, उन दोनों के साथ उठते -गिरते रहते हैं। जिस निर्झर का स्वप्न-भंग हो चुका होता है, जिन्होंने  सपने के महल से अपना सम्बन्ध काट लिया होता है, वैसे जीवन्मुक्त शिक्षक/नेता कहते हैं - ' तुम ने व्यर्थ में ही अपने को लघु बना रखा है, तुम लघु नहीं हो, तुम बृहत हो ! तुम क्षूद्र नश्वर शरीर मात्र नहीं हो, तुम अनन्त अविनाशी ब्रह्म (बृहत) हो, तुम महान हो, तुम तो अमृत के पुत्र हो, तुम तो अमर आनन्द के भागीदार हो! तुम अपने को पापी कैसे कहते हो ? स्वामी विवेकानन्द,१४ अगस्त, १९०० को पेरिस से भगिनी क्रिश्चिन को लिखित,  ' हे स्वप्न तू धन्य है !' (Thou Blessed Dream) नामक कविता में कहते हैं- 
क्योंकि  केवल तुम्हींमें जादू है, 
तुम्हारे स्पर्श से रेगिस्तान उपवन बनकर लहराता हैं।  
कड़कती बिजलियों का भीषण घोष मधुर संगीत में बदल जाता है,  
और मृत्यु एक सुखद मुक्ति बनकर आती है। 
 यह कुहर-जाल फैलाकर सब कुछ ढक दो,
इन तीखी रेखाओं को कुछ और मधुर करो, 
और जो खुरदरापन अनुभव हो, उसे और कोमल कर दो। 
 अच्छा या बुरा, समय बीतता ही जाता है-
कभी हर्षातिरेक से चेहरा चमक उठता है,
और कभी दुखों के सागर लहराने लगते हैं। 
यहीं, हम सभी सुख-दुःख से प्रभावित हो,कभी रोते और कभी हँसते हैं। 
हम अपने अपने रंग में होते हैं,और ये दृश्य अदल-बदलकर आते रहते हैं-
चाहे सुख चमके या दुःख बरसे। हे स्वप्न, तू धन्य है! 
अगस्त १८९८ में ' प्रबुद्ध भारत ' पत्रिका के मद्रास से अल्मोड़ा में स्थानांतरित होने के अवसर पर लिखित 'TO THE AWAKENED INDIA ' - ' प्रबुद्ध भारत - के प्रति ' अपनी कविता में कहते में हैं-
हे भारत ! जागो फिर एक बार ! यह तो केवल निद्रा थी, मृत्यु नहीं थी;
नवजीवन पाने के लिए,कमल नयनों के विराम के लिए उन्मुक्त साक्षत्कार के लिए। 
एक बार फिर जागो ! आकुल विश्व तुम्हें निहार रहा है,
हे सत्य ! तुम अमर हो !फिर से बढ़ो ! कोमल चरण ऐसे धरो कि -
एक रज-कण की भी शान्ति भंग न हो जो सड़क पर, नीचे पड़ा है. 
सबल, सुदृढ़, आनन्दमय, निर्भय, और मुक्त जागो, बढ़े चलो -
और उद्दत स्वर में बोलो -तेरा घर छूट गया, जहाँ प्यारभरे हृदयों ने तुम्हारा पोषण किया,
 और बड़े प्रेम से तुमको विकसित होते हुए भी देखा, 
किन्तु, भाग्य प्रबल है- यही नियम है-सभी वस्तुएँ उद्गम को लौटती हैं,
वहीँ, जहाँ से निकली थीं और नव शक्ति लेकर फिर निकल पडती हैं.
नये सिरे से आरम्भ करो, अपनी जननी-जन्मभूमि से ही,
जहाँ, विशाल मेघराशि से बद्धकटि, हिमशिखर,
 तुममें नव शक्ति का संचार कर चमत्कारों की क्षमता देता है, 
जहाँ स्वर्गिक सरिताओं का स्वर तुम्हारे संगीत को अमरत्व प्रदान करता है, 
जहाँ देवदारु की शीतल छाया में तुम्हें अपूर्व शान्ति मिलती है। 
और सर्वोपरी ! जहाँ शैल-बाला उमा, कोमल और पावन- विराजती हैं !
जो देवी, ' सर्वभूते शक्ति रूपेण संस्थिता ' होकर - 
सभी प्राणियों की शक्ति और जीवन हैं। 
जो सृष्टि के समस्त क्रिया-कलापों की मूलाधार हैं,
 जिनकी कृपा से सत्य के द्वार खुलते हैं,
 और जो अनन्त करुणा और प्रेम की मूर्ति हैं;
जो अजस्र शक्ति की स्रोत हैंऔर जिनकी अनुकम्पा से 
सर्वत्र एक ही सत्ता के दर्शन होते हैं.
तुम्हें उन सबका आशीर्वाद मिला है, जो महान द्रष्टा रहे है, 
जो किसी एक युग अथवा प्रदेश के नहीं रहे हैं, जिन्होंने जाति को जन्म दिया,
सत्य की अनुभूति की,साहस के साथ भले-बुरे सबको ज्ञान दिया। 
हे ' उनके ' दासों के दास ! तुमने '  उनके ' एकमात्र रहस्य को पा लिया है.
तब, हे मेरे प्यारे ! उनकी वाणी में बोलो-तुम्हारा कोमल और पावन स्वर !
देखो, ये दृश्य कैसे ओझल होते हैं,ये तह पर तह सपने कैसे उड़ जाते हैं,
और सत्य की महिमामयी आत्मा किस प्रकार विकीर्ण होती है !
 और संसार से कहो- ( सपने से ) जागो, उठो,  सपनों में मत खोये रहो !
यह सपनों की धरती है, जहाँ कर्म विचारों की सूत्रहीन मालाएँ गूंथता है,
वे फूल, जो मधुर होते हैं अथवा विषाक्त,जिनकी न जड़ें हैं, न तने, 
जो शून्य में उपजते हैं,जिन्हें सत्य पुनः प्रारम्भिक शून्य में ही विलीन कर देता है। 
साहसी बनो और सत्य के दर्शन करो, छायाभासों को शांत होने दो;
यदि सपने ही देखना चाहो तो-' शाश्वत-प्रेम ' और ' निष्काम- सेवा '
 के ही सपने देखो !
हमलोगों के पास भी  केवल वैसे  ही स्वप्न रहने चाहिए, जो हमें स्वप्नों के संसार (इश्के मजाजी) से परे, उच्चतर जागरण, उच्चतर सत्य (इश्के हकीकी) की धारणा कर सकने की क्षमता प्रदान कर सकते हों। वे सपने हैं - निःस्वार्थ सेवा और सीमाहीन प्रेम के सपने। उन्हीं सपनों में -भारत के राष्ट्रीय आदर्श -'त्याग और सेवा ' में विभोर रहते हुए  हम सभी लोगों का जीवन मंगलमय हो!  [पूज्य दादा ने अपना भौतिक शरीर छोड़ने से दस दिन पहले जमशेदपुर कैम्प से विदा होते समय क्या ठीक यही आदेश नहीं दे गए हैं? स्वयं से पूछो -নিজেকে জিজ্ঞাসা করবে -'আমি কী একটি বিষ্ট?' মনে করবে তুমি একজন শিক্ষক ! २४ जनवरी १८९८- Indian historian-सुरेन्द्रनाथ सेन डायरी/८-२७९ -२८० 
 [इश्के हकीकी:भक्ति वेदान्त का सिद्धान्त (अयोध्याकाण्ड 2.93) कहता है,'राम ब्रह्म परमारथ (परम् पुरुषार्थ) रूपा !'
राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥
सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥ 
भावार्थ:-हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥ श्री रामजी ही परमार्थस्वरूप (परमवस्तु-मुर्शिद आध्यात्मिक गुरु/मार्गदर्शक नेता/जीवन्मुक्त शिक्षक) में परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आने वाले) अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आने वाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य 'नेति-नेति' कहकर निरूपण करते हैं॥ (वर्तमान युग में 'अवतरवरिष्ठ श्री रामकृष्ण परमहंस के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ है (परम् पुरुषार्थ -मोक्ष है, और यह भ्रममुक्ति (d-hypnotized अवस्था, जाग्रत अवस्था में भी जगत को स्वप्न समझने की अवस्था)स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने से या विवेकनंद-दर्शन का अभ्यास करने से,प्राप्त होता है। ) 
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब जब बिषय बिलास बिरागा।।
 होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।। 
भावार्थ:-विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। 
इश्के मजाजी का अर्थ सतगुरू (अवतार/जीवन्मुक्त शिक्षक/नेता) के रूप में मजाज या देह का चोला पहनकर आयी हकीकत (परम् सत्य) का इश्क है। क्योंकि जब तक ईश्वर के किसी नाम-रूप का प्रेम न हो, अरूप के प्रति प्रेम (निर्गुण निराकार ब्रह्म, अस्ति- भाति-प्रिय या existence-consciousness-bliss)   किस प्रकार जागेगा? मूल रूप में आत्मा निराकार और प्रकाशमय है परन्तु मन व माया के देश में वह योगिन बनकर आयी है अर्थात माया के जगत् में आत्मा देह का चोला धारकर आयी है। यही कारण है कि रांझा परमात्मा (भगवान श्रीरामकृष्ण) को भी संसार में योगी बनकर आना पड़ता है।  परन्तु जब किसी 'हीर' को योगी के नक्शों विशेषताओं में से रांझा के नक्शों की झलक दिखायी देती है तो वह स्वतः योगी की ओर खिंची चली जाती है। उसके अंदर सदियों से सोयी दैवी प्रीति जाग उठती है बल्कि उसको पश्चाताप होता है कि योगी के प्रेम से पहले की आयु व्यर्थ चली गयी। 
शरीर में कैद आत्मा अदृष्ट और अगोचर प्रभु को प्यार नहीं कर सकती। परन्तु जब सतगुरू द्वारा दैवी प्रकाश सामने झरता हैं तो जीव का सहज ही उससे प्यार हो जाता है। इसी कारण कामिल फकीरों ने सतगुरू बनकर आये परमात्मा की बहुत महिमा कही है।  डा. अल्लामा इकबाल ने कहा है कि- "कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में, कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं मेरी जबीन-ए-नियाज़ में। -अर्थात चिर-प्रतीक्षित परम् सत्य (इन्द्रियातीत या तुरीय ब्रह्म,awaited reality/ truth),  हे गुप्त या निराकार हकीकत (ब्रह्म, निरपेक्ष सत्य) तू कभी मजाज देह का चोला पहनकर सामने आ क्योंकि तेरे इस रूप की प्रतीक्षा में हजारों सजदे तड़प रहे हैं ! (haqeeqat e muntazar = प्रतीक्षित सत्य/ ke = कि/libaas e majaaz me = भौतिक वस्र में/jabeen e niyaaz me = विनम्र माथे में)
 यदि किसी कामिल मुर्शिद की देह के प्रति प्यार हृदय में पैंदा हो जाये तो बड़े सौभाग्य की बात है। क्योंकि इश्के हकीकी तक पहुंचने का साधन इश्के मजाजी ही है। सूफिज़्म में इश्के मजाज़ी (शारीरिक प्रेम) को इश्के हकीकी (ईश्वरीय प्रेम या इश्के इलाही) से जोड़ने वाला पुल कहते हैं। इश्के मजाजी यानि सांसारिक प्रेम और इश्के हकीकी यानि अलौकिक अथवा आध्यात्मिक प्रेम। सांसारिक प्रेम धीरे-धीरे ईश्वरीय प्रेम में बदल जाये,यही सूफियों की नज़र में मानव जीवन की पूर्णता है। प्रेमी से बिना मिले वक्त नहीं कटता। यूँ तो सारे समय प्रेमी का ही तस्सवुर रहता है परन्तु फिर भी उसके भौतिक रुप से दर्शन होने जरुरी हो जाते हैं। 
कृष्ण के प्रति प्रेम (योग) और उनके वियोग में अपनी दशा का वर्णन करती गोपियाँ ऊधौ से शिकायत करती हुयी कहती हैं,  कि वियोग की अग्नि में हमारे शरीर इस कदर तप रहे हैं की शीतल जल भी शरीर को स्पर्श करते ही भाप बन कर उड़ जाता है। प्रेमी से बिना मिले वक्त नहीं कटता। यूँ तो सारे समय प्रेमी का ही तस्सवुर रहता है परन्तु फिर भी उसके भौतिक रुप से दर्शन होने जरुरी हो जाते हैं। दिल है सजदे में मगर, इश्क झुकता भी नहीं।व्यक्ति काम करता जाता है पर मन में प्रेमी अब भी मौजूद रहता है। व्यक्ति प्रभु की प्रार्थना में लीन होने की कोशिश करता है परन्तु प्रेमी से हो जाने वाला प्रेम अब भी दूर जाने को तैयार नहीं होता। मन दो हिस्सों में बँट जाता है। द्रष्टा मन (witness consciousness) और दृश्य मन 
(reflected consciousness) 
वियोग में व्यक्ति का अंहकार भी जाग उठता है और वह इसका प्रदर्शन सूक्ष्म तरीके से कर ही जाता है, जब वह एक तरह से अपनी दयनीय हालत का जिक्र भी करता है, और अपरोक्ष रुप से धमकी भी देता है कि वियोग की घडियाँ ज्यादा लम्बी खिंचने पर कहीं प्रेमी का ख्याल प्राथमिकता न खो दे। और कहीं वह खुद ही इस वियोग का शिकार न हो जाये। कितनी अजीब बात है कि दोनों प्रेमियों में से जो भी भावदशा की गम्भीर अवस्था से गुजर रहा होता है, वह चाहता है कि यही दशा उसके प्रेमी की भी हो जाये ! और अगर ऐसा नहीं होता और भावुकता का स्तर थोड़ा कम दिखायी देता है,तब वह प्रेमी तो उसे कठोर ह्रदय और न जाने क्या क्या कहा जाता है। कुछ तो बेवफा तक कहने की सीमा तक भी पहुँच जाते हैं। पर कहे गये सब शब्द वही भाव नहीं रखते जैसे कि वे आमतौर पर समझे जाते हैं। एक शायर ने ऐसी ही अवस्था पर क्या खूब कहा है।
मोह्ब्बत में बुरी नियत से कुछ सोचा नहीं जाता ,
कहा जाता है उसको 'बेवफा', समझा नहीं जाता।  
जब तक किसी के अंदर निःस्वार्थ प्रेम नहीं होगा वो परमात्मा से प्रेम नहीं कर सकता --जब तक खुदा की कायनात उसके बन्दों से प्यार न किया, तो रब से प्यार कहाँ होगा ------शिव ज्ञान से जीव सेवा (प्रेम-दीक्षा) न किया तो शिवजी से प्यार कैसे होगा? प्रेम के इन ढाई अक्षरों मे पूरी जीवन यात्रा तय हो जाती है।  प्रेम को परमात्मा या परमात्मा को प्रेम वो ही कह सकते हैं, जिन्होंने स्वयं को समग्रता  से कहीं समर्पित किया हो,खुदी को मिटा कर स्वयं के मिटने की हद तक प्रेम किया हो ! मिटा दे अपनी हस्ती को, अगर कुछ मरतबा चाहे !कि दाना खाक में मिलकर गुले गुलज़ार होता है !! दाने को, बीज को, गुले गुलज़ार होने के लिए, फलने-फूलने के लिए, एक बडा पेड बनने के लिए, पहले खाक में मिलना पडता है ! मिट्टी में मिलना पडता है ! अपनी हस्ती को, अपनी इज़्ज़त को, अपनी मान-मर्यादा को मिटाना पडता है ! तब जाकर कुछ मरतबा मिलता है, कुछ इज़्ज़त मिलती है, कुछ मान मिलता है ! 
एक पुरानी फिल्म का गीत है -
मोहब्बत की राहों में चलना संभल के - यहाँ जो भी आया; गया हाथ मल के।
  न पायी किसी ने, मोहब्बत की मंज़िल कदम डगमगायें ज़रा दूर चल के।  
उपनिषद् कहती है - क्षुरस्य धार इव निशिता दुरत्यया !अर्थात – यह तेज छुरे की धार पर चलने जैसा दुष्कर है । ये इश्क नहीं आंसा बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। इस आग के दरिया में डूब के जाना है ! डूबने की शर्त पहले है ! डूबने का डर मन में रख कर इस दरिया में कूदना होगा ! और दरिया ? दरिया भी आग का ! तैर कर निकल गए तो उस पार, नहीं तो बंटा धार ! इसीलिए अमीर खुसरो कह गए-
खुसरो दरिया प्रेम का, वाकी उल्टी धार। 
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार। 
जिसके अंतर मे सिर्फ प्रेम हो --फिर वो प्रेम दुःख दे या सुख, सब अच्छा लगता है क्यूं की वो इश्के इलाही हो जाता है। और यही इश्के हकीकी की खूबसूरती भी है सब जानते हुये भी इश्क और सिर्फ इश्क ---आत्मा और परमात्मा ---रूहों का नाता। प्रेम केवल उस आदमी में होता है जिसको आनंद उपलब्ध हुआ हो। जो दुखी हो, वह प्रेम देता नहीं, प्रेम मांगता है, ताकि दुख उसका मिट जाए। प्रेम का अर्थ है: जहां मांग नहीं है और केवल देना है। और जहां मांग है वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है। हकीकत में इश्क किया नहीं जाता, इश्क जिया जाता है। दरअसल 'इश्क' अंधों का हाथी है। इसका पूर्ण स्वरुप शायद ही किसी ने देखा हो, जिस अंधे ने इस हाथी का जो हिस्सा पकड़ा उसने हाथी को वैसा ही परिभाषित कर दिया। प्रेम में पड़ा व्यक्ति तो सारे समय अपने प्रेमी के ही ख्याल और कल्पना में खोया रहता है और चाहता है कि उसकी इस दशा की खबर उसके प्रेमी तक पहुँचती रहे। टेलीपैथी से सबसे ज्यादा आशा प्रेमियों को ही होती है। प्रेमी की चाहत यही होती है कि उसकी हर भावना, हर सोच प्रेमी तक अनवरत रुप से पहुँचती रहे जिससे प्रेम और गाढ़ा होता जाये। इश्क भी व्यक्ति का शोधन करता है, उसे निखारता है क्योंकि उसका अहंकार कम से कम एक व्यक्ति के समक्ष तो उदासीन अवस्था में आ ही जाता है, और अपने से ज्यादा दूसरा और दूसरे से किया प्रेम महत्वपूर्ण हो जाता है।इसी अवस्था को बुल्ले शाह ने कहा है ---
राँझा राँझा कर दी नी मै आपे राँझा होई। 
राँझा मै बिच मै रांझे विच होर ख्याल न कोई।
हीर (भक्त) उस स्थिति में पहुँच गयी है जहाँ उसे खुद तो पता है कि उसका स्वतंत्र अस्तित्व खत्म हो गया है और सिर्फ उसके आराध्य देव ही हैं जो जीते हैं और अब वह दूसरों से भी आग्रह कर रही है या खुद ही मगन होकर गा रही है कि लोगों मैं तो रांझा रांझा का जाप करके रांझा ही हो चुकी हूँ तुम भी अब मुझमें हीर न देखना अब तुम उसे नहीं पाओगे।
पहुँचे हुये संतो, सिद्धों और सूफियों ने हमेशा अपने और प्रभु के बीच अद्वैत की कल्पना की है या बात की है या दुनिया को बताया है कि आत्मा परमात्मा के साथ एकाकार हो गयी है। सूफियों ने अपने को स्त्री रुप समझ कर प्रभू को पुरुष माना और इसी रुप में उसकी स्तुति की।वे लगातार स्तुति से, लगातार ध्यान से एक दशा ऐसी आ जाने का बखान करते रहे हैं जब दूसरा नहीं रहता या सिर्फ दूसरा ही रहता है और स्वयं के अहं का विलोपीकरण हो जाता है। कबीर ने भी कहा है-जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि है मैं नाहीं।सूफी तो गाते ही रहे हैं अपने खो जाने और अपने प्रियतम के ही रह जाने की गाथाऐं।  
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हम मनुष्य को उसकी पूणर्ता में कैसे जाने? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "मनुष्य का जो असल स्वरूप है, वह मन के अतीत है। मन तो उसके हाथों एक यंत्र स्वरूप है। उसीका चैतन्य इस मन के माध्यम से अनुस्रवित हो रहा है। जब तुम इस मन के पीछे द्रष्टारूप से स्थित हो जाते हो, तभी वह चैतन्यमय होता है। जब मनुष्य इस मन को बिल्कुल त्याग देता है, तो उस मन का सम्पूर्ण नाश हो जाता है, उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता। अब समझ में आया कि चित्त का क्या तात्पर्य है। वह मन का उपादान स्वरूप है, और वृत्तियाँ उस पर उठने वाली लहरें और तरंगे हैं। जब बाहर के कुछ कारण उस पर कार्य करने लगते हैं, त्योंही वह तरंग का रूप धारण कर लेता है। हम जिसे जगत कहते हैं, वह तो इन वृत्तियों की समष्टि मात्र है। १/११७ 
"अचेतन मन को अपने अधिकार में लाना हमारी साधना का पहला भाग है, दूसरा भाग है चेतन मन के भी परे चले जाना ! जिस प्रकार हमारा अचेतन (unconscious) मन, चेतन मन के नीचे --उसके पीछे रहकर कार्य करता रहता है, उसी तरह चेतन के ऊपर -उससे अतीत की भी एक (चतुर्थ) अवस्था है। जब मनुष्य इस अतिचेतन अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह मुक्त हो जाता है, ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है! तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति (अभिः या निर्भीकता) बन जाती है और 'Iron Bandage Becomes Liberty'--अज्ञान की लौह शृंखलायें मुक्ति बन जाती हैं।"
अष्टांगयोग  (प्रैक्टिकल साइकॉलजी'=व्यावहारिक वेदान्त, मनःसंयोग) अपने समूचे मन को -चेतन,अवचेतन के साथ-साथ अचेतन को भी नियंत्रित करने, अपने वश में रखने  की पद्धति सामने रखता है। ग्रन्थों में कहा है कि योगी वही है, जिसने दीर्घकाल तक मनःसंयोग का अभ्यास करके इस इन्द्रियातीत सत्य (प्रज्ञा) की अनुभूति कर ली है। अतिचेतन का यह असीम राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है !अतएव यह स्पष्ट है कि हमें दो कार्य अवश्य ही करने होंगे। एक तो यह कि इड़ा और पिंगला के प्रवाहों का नियमन करके अचेतन मन के कार्यों को नियंत्रित करना; और दूसरा, इसके साथ ही चेतन मन के भी परे चले जाना! अब सुषुम्णा का द्वार खुल जाता है और इस मार्ग में वह प्रवाह प्रवेश करता है, जो इसके पूर्व उसमें कभी नहीं गया था। वह (जैसा कि अलंकारिक भाषा में कहा गया है) धीरे- धीरे विभिन्न कमल चक्रों में से होता हुआ, कमल-दलों को खिलाता हुआ अन्त में मस्तिष्क (सहस्रार) तक पहुँच जाता है। तब योगी को अपने सत्यस्वरूप का ज्ञान हो जाता है, वह जान लेता है कि वह स्वयं ही परमेश्वर है! (यह जगत भी ब्रह्म ही है !)

 " यह जान सकने से कि सब कुछ अभ्यास का ही फल है, मन में शांति आती है। क्योंकि यदि हमारा वर्तमान स्वभाव केवल अभ्यासवश ही हो, तो हम चाहें तो किसी भी समय उस अभ्यास को नष्ट भी कर सकते हैं। हमारे मन में जो विचार धारायें बह जाती हैं, उनमें से प्रत्येक अपना एक चिन्ह या संस्कार छोड़ जाती हैं। हमारा चरित्र इन सब संस्कारों की समष्टिस्वरूप है। जब शुभ संस्कारों की समष्टि प्रबल होती है, सदगुण प्रबल होता है, तब मनुष्य सत हो जाता है। अर्थात अच्छे चरित्रवाला मनुष्य बन जाता है। यदि अशुभ संस्कार प्रबल हों , तो मनुष्य बुरे चरित्र का मनुष्य बन जाता है। यदि आनन्द का भाव प्रबल हो, तो मनुष्य सुखी होता है।
असत अभ्यास का एकमात्र प्रतिकार है, उसका विपरीत अभ्यास। हमारे चित्त में जितने असत अभ्यास संस्कारबद्ध हो गए हैं, उन्हें सत अभ्यास द्वारा नष्ट करना होगा। केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिंतन करो; असत अभ्यास को रोकने का बस, यही एक उपाय है।  ऐसा कभी मत कहो कि [अमुक धर्म या जाति के लोगों] के उद्धार की कोई आशा नहीं है। क्यों ? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का - कुछ अभ्यासों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास से दूर किये जा सकते हैं। चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है। और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है। इस वैराग्य को प्राप्त करने के लिए यह विशेष रूप से आवश्यक है कि मन निर्मल ,सत और विवेकशील हो।  १/१२३  
" कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद, उसके बाद की साधना अर्थात धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगा। धारणा का अर्थ है - 'मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना। ' देशबन्धः चित्तस्य धारणा।' अर्थात चित्त को देश-विशेष में बाँधना या स्थिर करना धारणा कहलाती है, अथवा चित्त का देश विशेष में बँध जाना (perception या अनुभूति जन्य अभिज्ञता ) ही धारणा  है। 'धारणा' विभूति की श्रेणी में आती है, योग का पाँचवाँ अंग प्रत्याहार सिद्ध होने जाने से- धारणा (Concentration) स्वतः घटित होती है। स्वामी जी ने लिखा है - 'अब हम विभूतिपाद में आते हैं !' शिव का शरीर पर शोभायमान भस्म को भभूत या विभूति कहते हैं। इसका दार्शनिक अर्थ यही है कि मिथ्या अहं जब ज्ञानाग्नि में जल कर भस्म हो जाता है, तब यह धारणा होती है कि जिस शरीर पर हम घमंड करते हैं, जिसकी सुविधा और रक्षा के लिए ना जाने क्या-क्या करते हैं, वह शरीर (नाम-रूप) क्षणभंगुर है नश्वर है। और आत्मा (अस्ति-भाति -प्रिय) अनंत है, अविनाशी है, इस सत्य का स्मरण निरंतर होता रहे इसलिए भस्म धारण किया जाता है।]
" एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जीओ। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सिद्ध होने का तरीका है। 
 मन को स्थानविशेष में धारण करने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि मन (चेतना awareness) को शरीर के अन्य सब स्थानों से (इन्द्रियों से) अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाये रखना। मान लो, मैंने मन को (अपनी चेतना को) हाथ में धारण किया। तब शरीर के अन्यान्य अवयव विचार के विषय के बाहर हो जायेंगे। जब चित्त अर्थात मनोवृत्ति (चेतना awareness) किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध रहती है, तब उसे धारणा कहते हैं। इस धारणा के अभ्यास के समय किसी कल्पना की सहायता लेने से काम अच्छा सधता है। मान लो,हृदय के एक बिन्दु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है। अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक पद्म की भावना करो और (तथा उस अष्टदल रक्तवर्ण कमल पर अपने इष्ट को बैठा हुआ देखने की) कल्पना करो कि वह आदर्श अविनाशी आत्म-ज्योति से पूर्ण है (वाइब्रेन्ट या जीवन्त है)-चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो । " (१:८७) 
धारणा का उद्देश्य है किसी ध्येय वस्तु पर चित्त को एकाग्र करना । इसके द्वारा मानसिक शक्ति के प्रवाह को एक ही विषय की ओर प्रेरित करना सम्भव हो जाता है। पिछले अध्याय में बताये गये विधियों के अनुसार मन को बार-बार समझा-बुझाकर नाना प्रकार के विषयों से खींच कर अपने सामने खड़ा करना होगा। परन्तु मन तो कभी खाली नहीं बैठता, उसे किसी न किसी वस्तु पर अवश्य ही लगाना पड़ेगा। इसीलिये मन में धारणा करने योग्य किसी-न-किसी वस्तु या विषय को पहले से निर्धारित कर लेना होगा। मन को अन्य विषयों से हटाते हुए, एक विशेष 'ध्येय-वस्तु' या विषय की ओर स्थिर करने को ही धारणा (Concentration) या एकाग्रता कहते हैं। 
पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ यम (इन्द्रियसंयम) और नियम का 24 X 7 प्रतिमुहूर्त अभ्यास करने से  प्रत्याहार स्वतः सिद्ध हो जाता है। और प्रत्याहार का अभ्यास करते रहने से  धारणा स्वतः  प्राप्त होती है। किन्तु यह ध्येय (ध्यान का विषय) क्या हो ? हम अपनी श्रद्धा के अनुसार किसी भी वस्तु का चुनाव कर सकते हैं। हम अपने मन को दीपक की लौ पर, दीवार पर वृत्त बनाकर उसके केन्द्र पर, या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) पर भी मन को लगाने का प्रयत्न कर सकते हैं। लेकिन किसी ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो। किसी ऐसे देवी-देवताओं, महापुरुष या इष्ट की मूर्ति या चित्र पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक सहज होता है, जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य (या परिक्रमा करने योग्य) मानते हैं- यथा, श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्ध, ईसा, पैगम्बर मोहम्मद,गुरु नानक, या काबा का मूर्त चित्र। ऐसे पवित्र ध्येय (मूर्त-आदर्श) पर मन को स्थिर रखने की चेष्टा करने से मनोविज्ञान के 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार उस आदर्श के सदगुणों (पवित्रता और प्रेम) का विचार भी हमारी कल्पना में आने लगते हैं। इसलिये किसी मूर्त-आदर्श पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक श्रेयस्कर होता है। 
           यदि अभी तक हमने किसी पूजनीय मूर्ति या श्रद्धेय महापुरुष को अपने आदर्श के रूप में सतत ध्यान करने का पात्र नहीं चयन किया हो तो अब बिना देर किये चयन कर लेना चाहिये। हमलोग चरित्र के गुणों को अपने में धारण कर यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हैं तथा देश-सेवा से जुड़कर अपना जीवन धन्य करना या सार्थक करना चाहते हैं। यदि ऐसा ही लक्ष्य है तो भारत सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति या जीवन्त छवि हमारे लिये एक अत्यन्त प्रेरणादायी आदर्श हो सकती है। जितना उनका धारणा-ध्यान सिद्ध था वैसा ही कर्म भी था। वे चरित्र के सभी गुणों के वे मूर्तरूप लगते हैं। फ़िर समस्त मानव जाति के लिए उनके ह्रदय कितना प्रेम था ! 
उन्होंने अपने उपदेशों में बहुत सरल भाषा में मनुष्य जीवन का उद्देश्य तथा यथार्थ मनुष्य बनने के उपाय ही नहीं सुझाया है- बल्कि वैसा करके और बनके  दिखा भी दिया है। उन्होंने मन या जगत का दास न बन कर संयमी बनने का निर्देश दिया है। मन को एकाग्र करने की शिक्षा को ही उन्होंने सर्वोपरि शिक्षा माना है। उन्होंने पाया था कि निःस्वार्थभाव से दूसरों की सेवा रत्ती भर करने से भी, हृदय में सिंह का सा बल चला आता है। 'हृदय वज्र के समान कठोर और पुष्प से भी कोमल' बन जाता है। अतः कठोर परिश्रम करो,'कर्म प्रधान विश्व रची राखा' जगत में कर्म किये बिना भगवान भी नहीं रह सकते, किन्तु कर्म करने का दिखावा भी मत करो, ईश्वर सब की नजरों से ओझल रहते हुए सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड को संचालित करते हैं। उन्हें कोई देख नहीं पाता।  
उन्होंने तैंतीस कोटि देवता पर विश्वास करने से पहले 'आत्मविश्वासी' बनने की शिक्षा दी है। उन्होंने कहा है-" मनुष्य सब कुछ कर सकता है, मनुष्य के लिए असंभव कुछ भी नहीं है।"वे मानव-मानव के बीच जाति या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं देखते थे। जाती, धर्म, शिक्षा, धन-संपत्ति आदि के आधार पर वे किसी भी मनुष्य को अपने से अलग नहीं मानते थे।उनके लिए सभी मनुष्य एक समान थे।  अतः किसी भी जाति और धर्म में जन्मा मनुष्य उन्हें अपना आदर्श मान सकता है और उनकी छवि पर 'मनः संयोग' का अभ्यास कर सकता है। 
मनःसंयोग का अभ्यास: स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तः-प्रकृति को वशीभूत करके इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयोग अथवा ज्ञान -इनमें से एक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त (भ्रममुक्त) हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है।  मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।" जो नित्यपरिवर्तनशील हो उसी को जगत या प्रकृति कहते है। बाह्य प्रकृति है 'देह' और और अन्तः प्रकृति है 'मन', और 'देही' का अर्थ होता है -देहधारी आत्मा। इस देही (आत्मा या ब्रह्म) जो अपरिवर्तनशील है, उसका निवास स्थान मन के भी पीछे हृदय में है। [बाह्य प्रकृति है देह -वह निरन्तर बदल रहा है, बचपन का शरीर (तीन बित्ता) युवावस्था में (साढ़े तीन हाथ) नहीं रहता। बचपन का शरीर वृद्ध होने तक इतना बदल जाता है कि यदि किसी 'अमुक बाबू' के शिशु-अवस्था से लेकर, उसी के चिता पर लेटे चित्र को क्रमवार ढंग से लगा दिया जाय, तो उसके बचपन के चित्र से वृद्धावस्था के चित्र में कोई समरूपता नहीं दिखाई देती है। तो क्या हमें रोने लगते हैं नहीं,जिस सहजता के साथ देही (आत्मा) बचपन के शरीर शरीर छोड़ कर यौवन के शरीर को ग्रहण करता है, फिर यौवन के शरीर को छोड़कर बुढ़ापे का शरीर ग्रहण करता है, ठीक उसी सहजता के साथ वह आत्मा  एक देह को छोड़कर दूसरी देह को ग्रहण करता है। गीता २/१३] पतंजलीयोगसूत्र १.२ में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- 'योगः चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात  चित्त की वृत्तियों (instinct या जन्मजात पाशविक वृत्तियों) का निरोध हो जाना (रुकना, हट जाना) ही  योग है।तथावर्तमान में हमारा जो मन बंदर के समान चंचल है, -असभ्य मन को सभ्य, सुसंस्कृत, (कल्चर्ड,सिवलाइज़्ड) बनाकर उसकी शक्ति को विकसित करने का उपाय भी यही है। यथार्थ मनुष्य, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य,सुसंस्कृत मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य बनने के लिये मन को अन्तर्जगत से जोड़ने का तरीका या 'योग' सीखना आवश्यक है। जो चित्त, जो मन हमेशा चंचल, विक्षुब्ध बना रहता है, यह चाहिए, वह चाहिये, यह लूँगा-वह लूँगा के लालच में पड़ा रहता है, उस मन को कभी सुसंस्कृत नहीं बनाया जा सकता है।जिस व्यक्ति को धारणा में सिद्ध प्राप्त हो जाती है, कहते हैं कि ऐसा योगी अपनी सोच या संकल्प मात्र से सब कुछ बदल सकता है। ऐसे ही योगी के आशीर्वाद या शाप फलित होते हैं। इस अवस्था में मन पूरी तरह स्थिर तथा शांत रहता है। जैसे क‍ि बाण के कमान से छूटने के पूर्व, कुछ देर के लिए लक्ष्य पर निगाहें बिल्कुल स्थिर हो जाती हैं, ठीक उसी तरह योगी के मन की अवस्था हो चलती है।  जबकि उसके एक तरफ संसार होता है तो दूसरी तरफ रहस्य का सागर रूपी लक्ष्य (अन्तर्निहित ब्रह्मत्व) पर नजर रहती है । यह मन के बंधन से मुक्ति - भ्रम या सम्मोहन से मुक्ति, या सिंह-शावक के भेंड़त्व की मान्यता से मुक्ति, या देहाध्यास के सम्मोहन से डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने की शुरुआत भी है। क्योंकि अष्टावक्र संहिता (१/११)  में कहा गया है - - 'या मति सा गतिर्भवेत ! ('मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥ स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥११॥)  धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। 
सन्तान भाव (दिव्यभाव की साधना ), 
मनःसंयोग अर्थात विवेकदर्शन का अभ्यास  
 मनःसंयोग का अभ्यास कैसे करना है ? महर्षि वेद व्यास ने योगसूत्र १. १२ के भाष्य में उसी पर प्रकाश डालते हुए  कहा है -
" चित्तनदी नाम उभयतोवाहिनी वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा।संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।। १२॥ 
"इति उभय अधिनः चित्त वृत्ति निरोधः"
'चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च। ' - अर्थात हमारे दो जगत हैं - अन्तर्जगत एवं बाह्यजगत। और हमारा चित्त "उभयतो वाहिनी नदी" यानि परस्पर दो विपरीत दिशाओं में प्रवाहित होने वाली अद्भुत नदी की तरह है। उसकी एक धारा कल्याण (good,श्रेय) की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप (evil अमंगल,या प्रेय-pleasant) की दिशा में प्रवाहित होती है। इसलिए हमारा मन निरंतर कभी बाह्य जगत में (कामिनी-कांचन में) तो कभी अन्तर्जगत में (अपने ब्रह्मस्वरूप में) दोलायमान रहता है। हमारा मन पेंडुलम के सामान बहिर्मुखी भी हो सकता है, और अंतर्मुखी भी हो सकता है। चित्त नदी उर्ध्वमुखी और निम्नमुखी दोनों दिशाओं में बहने वाली अद्भुत नदी के सामान है (जैसे गंगा नदी कहीं कहीं उत्तरवाहिनी भी हो जाती है ?) हमें किस और बहना है ....? कामिनी-कांचन दर्शन की दिशा या विवेक-दर्शन की दिशा में बहना है? -उस 'विवेक-प्रयोग' का अभ्यास वैराग्य के साथ साथ करें। 
चित्त-रूपी नदी जो 'उर्ध्वमुखी और निम्नमुखी' दो दिशाओं में बहती है, उसकी  कौन सी धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है ? किस प्रवाह को हम कल्याणकारी कहेंगे? 
' या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति'  -निश्चित रूप से (तु) 'विवेक विषय निम्ना' अर्थात मन की वह धारा जिसकी प्रवृत्ति (निम्ना-inclined,रुझान या झुकाव) विवेक(विवेकख्याति, विवेकज-ज्ञान i.e. Vivekakhyāti or discriminative knowledge) के प्रभावमण्डल (विषय sphere) की ओर झुकी हुई (निम्ना) होती है; जो किसी व्यक्ति को बुद्धि (प्रकृति, या प्रतिबिम्बित चेतना) और पुरुष (ब्रह्म,सच्चिदानन्द या साक्षी चेतना) के बीच अन्तर को समझने (perceive ,देखने) की अनुमति देती है; चित्त नदी की वह धारा कैवल्य ( Final Liberation मोक्ष या भ्रम-मुक्ति डीहिप्नोटाइज्ड होने) के पथ पर जाने का  नेतृत्व (prāgbhārā) या मार्गदर्शन करती है, वह धारा कल्याण (good) की दिशा में बहती है। 
[which allows a person to perceive the difference between Buddhi or intellect (intellect,reflected consciousness) and Puruṣa or Self--(viveka)(existence-consciousness-bliss,or-witness consciousness) flows (vahā) toward the good (kalyāṇa)|]  
कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली विवेकयुक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है। चित्त नदी के प्रवाह की जिस धारा की तली 'विवेकविषयनिम्ना' विवेक-प्रयोग के अभ्यास पर आधारित रहती है वह प्रवाह 'कैवल्यप्राग्भारा' है। वह प्रवाह - कैवल्य (साक्षी चेतना, witness consciousness) की ओर ले जाने वाली, विवेक-युक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है। व्यासदेव कहते हैं, चित्तनदी का जो प्रवाह हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी, वह धारा ' विवेक-विषय-निम्ना ' होगी। जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। यदि उसके प्रवाह की धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस अन्तर्मुखी या उर्ध्वमुखी चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में या अपने सच्चिदानन्द स्वरुप (existence-consciousness-bliss) को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं। किन्तु यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात चित्तनदी की धारा को यदि अविवेक के तली से होकर बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर, बाह्यमुखी या निम्नमुखी  बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है-पापवहा धारा ।
संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना पापवहा। (सा पापाय वहति।)-- दूसरी ओर, जिस व्यक्ति के मन की धारा या प्रवृत्ति का झुकाव (निम्ना) अविवेक के प्रभावमण्डल (विषय -sphere) से अनुप्रेरित रहेगी, वह उसे बुद्धि और पुरुष के अन्तर को समझने का अवसर ही नहीं देगी, वह धारा 'संसार-चक्र प्राग्भारा' - देहान्तरण (leading to transmigration -बार बार जन्म -मृत्यु के चक्र) प्रदान करने वाली अमंगल (evil पाप,प्रेय) की दिशा में बहती है। 
  संसार की ओर ले जानेवाली अविवेक से युक्त जो धारा है वह पाप के लिए बहती है (अवनति की ओर ले जाती है)। चित्त नदी के प्रवाह की वह धारा जिसकी तली 'अविवेक-विषयनिम्ना' अविवेक से युक्त होती है, -संसारप्राग्भारा; वह संसार की ओर ले जानेवाली, या निम्नमुखी दिशा में प्रवाहित होने वाली  धारा पाप के लिए बहती है (अवनति की ओर ले जाती है)। तब, चित्त के उस पापवहा प्रवाह को कल्याणवहा बनाने के लिए हमें  क्या करना होगा? 
व्यासदेव उपाय बतलाते हैं - जिस प्रकार डैम का फाटक गिरा कर, नदी की धारा को रोक दिया जाता है, उसी प्रकार अवनति या पाप की ओर ले जाने वाली चिन्तन धारा को, विषयस्रोत को या 'कामिनी-कांचन' में आसक्ति को वैराग्य के मनोभावरूपी फाटक से  निम्नमुखी पापवहा चिन्तन प्रवाह को  त्याग का मनोभाव बनाकर,रुद्ध कर देना होगा। मन को समझा-बुझाकर प्रत्याहार के अभ्यास- 'खीर में विष मिला हुआ है -विषय विष के समान त्याज्य है' इस प्रकार मन को सलाह देते रहने से, जब मन खाली हो जायेगा, विषयों से शून्य हो जायेगा और मन को बाह्यविषयों से खींच कर अपने सामने ले आना होगा। ऐसा हो जाने के बाद किन्तु  मन खाली बैठना नहीं चाहेगा, क्योंकि विज्ञान का नियम है -'Nature Avoids Vacuum' अर्थात प्रकृति पदार्थरहित शून्य को(vacuum) या निर्वात को, जहाँ हवा भी न हो वैसे स्थान को, या खालीपन को अमान्य (invalidate) करती है।  तब क्या करना होगा ?
श्री व्यासदेव कहते हैं -उसको निरंतर 'विवेकदर्शन का अभ्यास'- अर्थात स्वामी विवेकानन्द की मनोहारी छवि (शिकागो पोज वाली छवि) पर एकाग्र रखते हुए  जो स्वतः कल्याण की दिशा में बहने वाली चिन्तन धारा है, चित्तनदी के उस स्वतः कल्याणवहा स्रोत को उद्घाटित कर लेना होगा।  जिस व्यक्ति का चित्त इस प्रकार कल्याण मुखी हो जाता है, उसी मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहा जा सकता है। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। 'तत्र'- मन की जिस प्रवृत्ति-धारा (स्रोतः) का झुकाव कामिनी-कांचन आदि बाह्य वस्तुओं (objects विषय)  की ओर हो,उसे वैराग्य का फाटक लगाकर (renunciation-निवृत्ति अस्तु महाफला समझाकर) 'खिलीक्रियते'- शक्तिहीन (powerless ) बनाया जाता है। और कामिनी-कांचन का चिन्तन करने बदले 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से (स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करने से, अहं-मन मिट जाता है।) 'विवेकस्रोत' अर्थात 'विवेकज ज्ञान' (i.e. discriminative knowledge-- viveka) का दरवाजा 'उद्घाट्यते' (unlocked) खुल जाता है!

प्रत्याहार के द्वारा आँखों को मूँदकर मन को अपने सम्मुख खींच कर लाने के बाद उसे हृदय में विराजित स्वामी विवेकानन्द की सुदर्शन छवि (परिव्राजक/या शिकागो पोज वाली छवि) का दर्शन करने, अर्थात उस दास मन हृदय में विराजित स्वामी विवेकानन्द की उस  मनोहारी छवि पर ही निरंतर एकाग्र रहने का आदेश देना होगा।अर्थात उनकी छवि पर मन को धारण करने या एकाग्र करने का अभ्यास 'धारणा का अभ्यास ' करना होगा।  इसलिये उनकी छवि पर मनः संयोग का अभ्यास करने से- अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से हममें भी उन्हीं के जैसा आत्मविश्वास पैदा होगा। 
 इस प्रकार विवेक-दर्शन का अभ्यास, अर्थात द्रष्टा-दृश्य विवेक का अभ्यास करते हुए 'object' से या अहं -मन से अपने को या 'subject' को बिल्कुल पृथक देखने का अभ्यास करना होगा। विवेक-प्रयोग करते हुए स्पष्ट रूप यह समझ में आ जायेगा कि -"यह व्यष्टि 'अहं -मन' दृश्य है, प्रतिबिम्बित चेतना है -(object-Reflected Consciousness)है, और यह यथार्थ मैं (द्रष्टा, subject, मेरा स्वरुप सर्वव्यापी विराट माँ जगदम्बा का 'मैं'-बोध  स्वरूपतः उसका द्रष्टा (existence -consciousness-bliss, सच्चिदानन्द का मूर्तमान आदर्श स्वामी विवेकानन्द) का 'मैं ' है !  इस प्रकार ऑंखें खोलकर बाह्य जगत में भी निरंतर 'विवेकदर्शन' का अभ्यास करते रहने से एक क्षण ऐसा आता है जब अहं-मन (Reflected Consciousness) मिट जाता है ! और विवेकस्रोत या 'विवेकज-ज्ञान का स्रोत' उद्घाटित हो जाता है। अतएव हमलोगों को सप्ताह में 24 X 7 वैराग्य या 'यम और नियम' के अभ्यास द्वारा 'लस्ट और लूकर' में आसक्ति या लालच को क्रमशः थोड़ा कम करते जाने, तथा दिन में दो बार सुबह और शाम 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करते -करते क्रमशः चित्त की वृत्तियों का निरोध होकर विवेकस्रोत उद्घाटित हो जाता है। अर्थात ब्रह्म के साथ आत्मा के एकत्व का बोध हो जाता है। 
चित्त की वृत्तियों का निरोध करने का उपाय क्या है ?   निरंतर 'यम और नियम' के अभ्यास द्वारा 'लस्ट और लूकर' में आसक्ति या लालच को क्रमशः थोड़ा कम करते जाने, तथा दिन में दो बार सुबह और शाम 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से चित्त नदी की पापवहा निम्नमुखी धारा स्वतःउर्ध्वमुखी दिशा में प्रवाहित होने लगती है। व्यासदेव कन्क्लूड करते हुए,अन्तिम रूप से अपना निष्कर्ष देते हुए कहते हैं - इति उभयाधिनः चित्तवृत्ति-निरोधः"  'इति' इस प्रकार, मन की वृत्तियों (modifications of mind) का निरोधः (suppression) 'उभय अधिनः' दो साधनों पर निर्भर करता है - वे हैं अभ्यास और वैराग्य इन्हीं दो उपायों की सहायता से चित्त-वृत्तियों को शांत किया जा सकता है।  
महर्षि वेदव्यास ने वेदों की संहिता करके उसे चार भागों में बाँटा था, 'महाभारत' के इतिहास की रचना की थी, १८ पुराणों की रचना की थी। उन्होंने उपनिषदों के सार को संकलित करके 'ब्रह्मसूत्र' की रचना की थी, किन्तु यदि उन्होंने किसी एकमात्र शास्त्र पर भाष्य लिखा था, तो वह है -महर्षि पतंजली द्वारा रचित योग-सूत्र। उनके बाद आचार्य शंकर ने 10 प्रमुख उपनिषद, 'ब्रह्मसूत्र' और गीता पर भाष्य की रचना करके अद्वैत वेदान्त को स्थापित किया था। किन्तु पतंजलि के योगसूत्र पर आचार्य शंकर ने भी कोई भाष्य नहीं लिखा था। 'योग सूत्र' पर संस्कृत भाषा में लिखित व्यासदेव के भाष्य के बाद, युगनायक स्वामी विवेकानन्द ही भारत के पहले संन्यासी थे, जिन्होंने 'राज योग ' के नाम से योग-सूत्र पर अंग्रेजी भाषा में भाष्य लिख कर इस ब्रह्मविद्या को सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित किया था। 
पूज्य नवनी दा ने एक दिन मनःसंयोग की कक्षा में कहा था - मानो महर्षि वेदव्यास यह जानते थे, उनके जाने के ५००० वर्ष बाद बड़ी बड़ी आँखों वाले एक सुदर्शन पुरुष का जन्म होगा; और उनका नाम होगा 'विवेकानन्द!' जिन्हें भगवान श्री रामकृष्ण देव देश-विदेश में 'अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने की शिक्षा' देने का चपरास प्रदान करेंगे। ' और देश-विदेश में ब्रह्मवेत्ता मनुष्यों का निर्माण करने का प्रशिक्षण देने के लिये उन्हें राजयोग (पातंजल योगसूत्र) पर अंग्रेजी में भाष्य लिखना होगा। इसीलिये उन्होंने 'विवेक-प्रयोग' करने की बात न लिखकर; लिखा था -"विवेकदर्शना- भ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।"  [3H विकास के इसी मुख्य साधन को तरुणों- युवाओं के लिये और सरल करने के उद्देश्य से,  महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में ५ दैनन्दिन अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाता है।]  
 धारणा -२
तल्लीनता 
[परीक्षा और परिणाम]  
 हम यह कैसे जानेंगे कि मन की दृष्टि उसी ध्येय वस्तु (आराध्य-आदर्श) पर पड़ रही है? इसकी पहचान यही है कि मन जब किसी वस्तु पर पुर्णतः एकाग्र रहता है, या तल्लीन (engrossed) हो जाता है, तो उस समय मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं है। पहले से चयनित वह आदर्श ही मन के चिन्तन का एक मात्र विषय होता है। उस मूर्त आदर्श में जो उच्च-भाव हैं, बस उसी का चिन्तन चलता रहेगा। धीरे धीरे वे विचार स्पष्ट से स्पष्टतर होते जाते हैं और अन्य किसी तरह के विचार मन में नहीं उठते हैं। उस चयनित आदर्श के चिंतन में ही मन इतना तल्लीन (Engrossed) हो जाता है या डूब जाता है कि कितनी अवधि तक धारणा की गयी है, उसका पता ही नहीं चलता। नियमित रूप से इसी प्रकार थोड़ी देर तक लगातार एक ही विषय पर (विवेक-दर्शन पर ) मन को तल्लीन रखने में समर्थ होने से ही मनःसंयोग का अभ्यास करना कहा जाता है । 
 इसी प्रकार प्रतिदिन दो बार, प्रातः और संध्या में 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे अपनी इच्छानुसार मन को किसी भी वस्तु या विषय पर एकाग्र किये रखने की क्षमता बढ़ती जाती है। इसके साथ ही साथ किसी भी इन्द्रिय विषय से मन को खींच लेने की क्षमता भी प्राप्त होती है, क्योंकि मैं अनवरत मन के ऊपर अपनी इच्छा-शक्ति का प्रयोग (विवेक-प्रयोग) करने का अभ्यास करता रहा हूँ,  इसीलिये इच्छामात्र से मन को बहुत सारी चीजों से खींच कर हमेशा अपने समक्ष एक अनुशासित 'अर्दली' या अपने सबसे अच्छे मित्र के रूप में हमेशा अपने समक्ष खड़ा रख सकता हूँ। अब वह मेरी आज्ञा के बिना किसी भी विषय में नहीं जा सकता है।  
'धारणा' के अभ्यास को -अर्थात बार बार मन को इन्द्रियविषयों से खींच कर,थोड़ी देर तक पूर्व-निर्धारित मूर्त आदर्श में तल्लीन रखने की चेष्टा को मन का व्यायाम भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर के व्यायाम से शारीरिक शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, उसी प्रकार मन के व्यायाम से मानसिक शक्ति भी बलवती होती जाती है। जिस प्रकार शरीर को शक्तिशाली बनाने के लिये  पौष्टिक आहार होते हैं, उसी प्रकार मन को भी शक्तिशाली बनाने का आहार होता है। निरंतर पवित्र विचार या शुभ-संकल्प से मन को भरे रखना वह मानसिक पुष्टि है, जो  मन को हृष्ट-पुष्ट बनाये रखता है। श्रेष्ठ साहित्य पढ़ने, अच्छी संगति में रहने, शास्त्रार्थ या रचनात्मक विचारों का आदान-प्रदान तथा उच्च भावों का चिन्तन करने से मन को पौष्टिक आहार प्राप्त होता है। इसके साथ-साथ प्रतिदिन दो बार मन का व्यायाम अर्थात 'प्रत्याहार और धारणा' का नियमित अभ्यास करने से भी मन उन्नत और शक्तिशाली बनता है। 
 ऐसे शक्तिशाली मन को यदि संयमित करके वशीभूत कर लिया जाय तो उसके द्वारा सभी कार्यों में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। जिस व्यक्ति ने मन की गुलामी करनी छोड़ दी हो, जो स्वयं अपने मन का प्रभु हो गया हो,अर्थात जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसने वस्तुतः जगत को जीत लिया है। वह कहीं भी और कभी भी पराजित नहीं होता, क्योंकि वह मन की अनन्त शक्ति का अधिकारी बन जाता है। अब वह जिस किसी विषय में अपना मनोनिवेश करगा, वह विषय उसे पुरी तरह से ज्ञात हो जाएगा। इस वशीभूत मन की शक्ति की सहायता से हम अपने जीवन के उद्देश्य या लक्ष्य का चयन कर सकते हैं, तथा उस लक्ष्य को प्राप्त करने के उपयुक्त उपायों पर मनोनिवेश करने से, उस लक्ष्य को साधकर अपने जीवन को सार्थक या कृतार्थ कर सकते हैं। अपने वशीभूत मन की शक्ति का प्रयोग कर अपने चरित्र और जीवन को सुंदर रूप से गठित कर सकते हैं। इस प्रकार मनः संयोग का अभ्यास करने से कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में यथार्थ सुख, शान्ति और आनन्द का अधिकारी बन सकता है।
हमलोग अक्सर स्वामी विवेकानन्द के शब्दों को दुहराते हुए प्रार्थना करते हैं,माँ, मुझे मनुष्य बना दो!' "आमार धन आमार जीबन मायेर जन्नो बली प्रदत्त ! " किन्तु क्या यह प्रार्थना हम शुद्ध मन से करते हैं? क्या हम सचमुच ईमानदारी से यह चाहते हैं, कि हमें 'मनुष्य' बन जाना चाहिये ? और यदि हम यथार्थ मनुष्य नहीं बनना चाहते, तो इस प्रकार से प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता है ? ऐसी प्रार्थना का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में हमलोग मनुष्य कहलाने योग्य 'मनुष्य' नहीं बन सके हैं । समाज में कई लोग बिल्कुल पशु के समान हैं, वे बिल्कुल जानवरों की तरह व्यवहार करते हैं।समाज में यथार्थ मनुष्य कितने दिखाई देते हैं ? मन को वश में करना कठिन है, पर असम्भव नहीं है। समाधि लाभ शीघ्र प्राप्त करने के लिये योगी में उसके लिये तीव्र व दृढ़ इच्छा और अतिक्रियाशीलता होना आवश्यक है। प्रकृति के अनन्त शक्ति भण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्ति-लाभ किया जा सकता है ? योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है। वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते, दूसरी बातों के लिये एक क्षण भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। एकाग्रता का अर्थ ही है, शक्ति-संचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना।  महर्षि पतंजलि  मन को वश में करने का उपाय (नुस्खा) बतलाते हुए कहते हैं - 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।' और वर्तमान में जो मन बंदर के समान चंचल है, -असभ्य मन को सभ्य, सुसंस्कृत, (कल्चर्ड,सिवलाइज़्ड) बनाकर उसकी शक्ति को विकसित करने का उपाय भी यही है। यथार्थ मनुष्य, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य,सुसंस्कृत मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य बनने के लिये मन को अन्तर्जगत से जोड़ने का तरीका या 'योग' सीखना आवश्यक है। 
 धारणा से ही कठिन परीक्षा और सावधानी की शुरुआत होती है। यहीं से धर्म मार्ग का कठिन रास्ता शुरू होता है, जबकि साधक को हिम्मत करके और आगे रहस्य के संसार में कदम रखना होता है। कहते हैं कि यहाँ तक पहुँचने के बाद पुन: संसार में पड़ जाने से दुर्गति हो जाती है। ऐसे व्यक्ति को योगभ्रष्ट कहा जाता है, अब पीछे लौटना याने जान को जोखिम में डालना ही होगा। कहते हैं कि छोटी-मोटी जगह से गिरने पर छोटी चोट ही लगती है, लेकिन पहाड़ पर से गिरोगे तो भाग्य या भगवान भरोसे ही समझो। इसलिए 'जरा बच के'। यह बात उनके लिए भी जो योग की साधना कर रहे हैं और यह बात उनके लिए भी जो जाने-अनजाने किसी 'धारणा सिद्ध योगी' का उपहास उड़ाते रहते हैं। कहीं उसकी टेढ़ी नजर आप पर न पड़ जाए।
Open eyed meditation:  खुली आँखों से ध्यान : 'Do good and be good,Be brave Be moral'   -this is whole of religion ! सुख-दुःख मन की अवस्था है, परमानन्द प्राप्त करने के लिए प्रबल इच्छा-शक्ति और विवेक प्रयोग शक्ति को जाग्रत करके शुभ कर्म, शुभ संस्कार, शुभ चरित्र से अनन्त आनन्द की प्राप्ति!  " शान्तं, शिवम्, अद्वैतं, चतुर्थं मन्यते स आत्मा स विज्ञेयः!' तीन अवस्था को हम जानते हैं। जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्था का अनुभव हम सभी लोगों को होता है। चतुर्थ अवस्था को तुरीय कहा जाता है। वह साक्षी स्वरुप (witness Consciousness) ही मन /जगत का द्रष्टा है। वही आत्मा या ब्रह्म (Existence-consciousness-bliss) है। 
विवेकानन्द जी कहते हैं - " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का आभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४० ) 
उसको जानने की पद्धति है, "वैराग्य के साथ विवेक-दर्शन का अभ्यास" वैराग्य का फाटक लगाकर " विवेक-श्रोत " को उद्घाटित करने का विज्ञान (technique) को हमने सीखा है। इस क्षण का विवेक-दर्शन और आने वाले क्षण के विवेक-दर्शन के मध्य में मन को एकाग्र करने से अक्रम विज्ञान एक एक करके क्रमशः होने वाला ज्ञान नहीं, एक साथ उस वस्तु का ज्ञान हो जाता है , जिससे सब कुछ बना है। जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले को जान लेने पूरी मिट्टी का ज्ञान हो जाता है, जिनके आविर्भूत होने की जन्मतिथि से "सत्ययुग (Golden Age)" का प्रारम्भ हुआ है, उनको केवल प्रणाम करने और विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से मनुष्य तत्काल स्वर्ण में परिणत हो जाता हैं। नेकलेस-ब्रासलेट -रिंग सभी स्वर्ण हैं अनुभूति हो जाने से उत्पन्न विवेकज ज्ञान या ब्रह्म और आत्मा के अद्वैत का ज्ञान, प्राप्त होता है।जानत तुम्हीं तुम्ह वही जाई !  और हृदय रूप जिस कमरे में 1000 वर्षों से अँधेरा था, वहाँ विवेकज-ज्ञान का दीप जलते ही उजाला हो जाता है। मृत्यु का भय न जाने कहाँ चला जाता है। हृदय आनन्द से भर उठता है। बन और बना। आम खाकर मुँह न पोंछे, उस पार ले जाने वाला 'तारक ज्ञान' सबको दें।
 दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत् ।
सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी ॥ अपरोक्षानुभूतिः ॥११६॥  
दृष्टिं भक्तिमयीं कृत्वा पश्येद् भगवानमयं जगत् !  दृश्य अहं-मन को अपने इस प्रकार अलग मान कर उसे अपना दास बन लेना होगा। मैं जो चाहूँगा मन को वही करना होगा। 
'आज शीपेर मुखे पड़बे अमृत बिन्दु ! 'आज सीपियों के मुख में अमृत बिन्दु गिरेगा  (devolve-हस्तांरित होगा)।' सीपियों को यह मालूम होता है, कि स्वाति नक्षत्र कब उदित होगा, उस समय वे समुद्र की सतह पर आ जाती हैं, और मुँह खोल कर स्वाति-नक्षत्र के बून्दों की प्रतीक्षा करती रहती हैं। 

 भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह बात मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है। ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और  वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।"
हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। एक भाव को पकडो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रहते हैं, उन्हीं के ह्रदय में सत्य तत्त्व का उन्मेष होता है।...एक विचार लो उसी विचार को अपना जीवन बनाओ उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ। सब प्रकार की बकवास छोड़ दो। जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है, केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढो। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना (Be and Make?)  चाहें, तो हमे मन की गहराई तक जाना पड़ेगा। पुरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ- फ़िर मृत्यु भी आये, तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि - काम सधे या प्राण ही जायें। फल की ओर आँख रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ! " (१:८९-९०)
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 " वही आदमी प्रेम करता है, जो बस प्रेम करता है और किस-से ? का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि जो आदमी ‘किसी व्यक्ति विशेष से’ प्रेम करता है, वह शेष से क्या करेगा? वह शेष के प्रति घृणा से भरा होगा। जो आदमी ‘किसी का ध्यान’ करता है, वह शेष के प्रति क्या करेगा?"---ओशो !
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[सा विद्या या विमुक्तये : मनुष्य को मुक्ति दिलये वही विद्या है/$$$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना  'स्वामी विवेकानन्द तथा युवा समस्याएँ/ Tuesday, September 11, 2012] 
30 -12 -2005 : सरिसा आश्रम कैम्प में मनःसंयोग का अंतिम क्लास आज बंगला भाषा में हुआ /
 ‘ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि । सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत्।   अनिराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु । तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
आज जिस शांति मंत्र का पाठ हुआ था - उसमे ऋषि प्रार्थना करते हैं -‘हे परब्रह्म परमात्मन् ! मेरे सम्पूर्ण अंग, वाणी,प्राण, नेत्र, कान और सब इन्द्रियाँ तथा शक्ति परिपुष्ट हों । यह जो सर्वरूप उपनिषत्-प्रतिपादित ब्रह्म है, उसको मैं अस्वीकार न करूँ और वह ब्रह्म मेरा परित्याग न करे । उसके साथ मेरा अटूट सम्बन्ध हो और मेरे साथ उसका अटूट सम्बन्ध हो । उपनिषदोंमें प्रतिपादित जो धर्मसमूह हैं, वे सब उस परमात्मामें लगे हुए मुझमें हों, वे सब मुझमें हों । हे परमात्मन् ! त्रिविध तापोंकी शान्ति हो ।’ ब्रह्म मुझे अस्वीकार न करे, मैं ब्रह्म को अस्वीकार न करूँ।  उनकी सत्ता मुझमें आ जाये, जिसे मैं जीवन में प्रयोग कर सकूँ। " 
यह हमलोगों का परम् सौभाग्य ही है कि, विगत कुछ दिनों से हमलोग भगवान श्रीराकृष्ण देव-माँ श्रीसारदा देवी-और स्वामी विवेकानन्द के चरणों में बैठकर, इस देव-दुर्लभ मनुष्य जीवन को, जो हमें बिना मांगे ही मिल गया है उस मनुष्य-जीवन को सार्थक करने का सर्वोत्तम उपाय 'मनःसंयोग' पर चर्चा कर रहे हैं। मन को नियंत्रित करने की वह सार्वभौमिक तकनीक -पतंजलि योगसूत्र, जो हजारों वर्ष पहले हमारे देश में आविष्कृत हुई थी, और तबसे लेकर आज तक यह विद्या विश्व मानवता को पवित्रता करती चली आ रही है।जब यह सृष्टि बनी उस समय तो देवता लोग भी नहीं थे। सृष्टि से पहले क्या था ? यह सृष्टि कैसे बनी ? कोई नहीं जानता, किन्तु मनुष्य चाहे तो अष्टांगयोग सीखकर स्वयं इस रहस्य पर से पर्दा उठा सकता है। वह अपने बनाने वाले ब्रह्म को भी जान सकता है। यह वैज्ञानिक पद्धति केवल भारत वासियों को ही नहीं , बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति को मुक्ति दे सकती है,  उस वैज्ञानिक पद्धति के  भूल जाने के कारण सम्पूर्ण मानव- जाति के उससे वंचित हो जाने की सम्भावना थी।यदि मनुष्य योनि में जन्म लेकर, इसी जीवन में " ब्रह्मवेत्ता मनुष्य" नहीं बन सके तो यह अवसर भी व्यर्थ में नष्ट हो जायेगा।  इसीलिए किसी कवि ने कहा है - " किसी को देते नहीं देखा, किन्तु झोली भरी देखी! " अर्थात मनुष्य के उपयोग के लिए भूमि,जल, सूर्य (अग्नि), हवा, आकाश सब कुछ ईश्वर की कृपा से निःशुल्क मिला देखा। एक ही वस्तु विभिन्न रूपों में दिखाई दे रही है, एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में कोई भेद नहीं है, कोई बूढ़ी माता यदि कम्बल के आभाव में ठंढ से काँप रही हो, तो क्या उसका दुःख मेरे ह्रदय को द्रवित नहीं कर देता ?
स्वामी विवेकानन्द  के अनुसार  वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने का विज्ञान - 'मनःसंयोग' को  सीखना ही सम्पूर्ण शिक्षा का सार है। ग्रीक दार्शनिक अरस्तु Aristotle (384-322 B.C.) ने भी कहा था - "Educating the mind without educating the heart is no education at all." अर्थात ह्रदय को शिक्षित किये बिना (समानुभूति - Empathy) के लिए ह्रदय को प्रशिक्षित किये बिना मन को शिक्षित करने के  प्रयास को शिक्षा कहना ही गलत है।   
कितने वर्षों पूर्व स्वामीजी ने हमें चेतावनी दी थी।  किन्तु हमने उनके  परामर्श पर ध्यान नहीं दिया। वे कौन थे ? वे क्या कोई धर्मप्रचारक थे, ब्रह्मज्ञ पुरुष थे, या कोई देशभक्त थे ? उनको न तो ब्रह्मज्ञ होने की आवश्यकता थी, न नेता/धर्मप्रचारक बनने की आवश्यकता थी। जब वे विदेशों में गये थे, तो वहां उन्होंने वेदान्त और धर्म की बात की थी, परन्तु भारत लौटने के बाद देश के मनुष्यों को उनहोंने नवजागरण का सन्देश दिया था। भौतक विज्ञान के सहारे उन्नति- प्रगति -विकास के साथ आगे बढ़ते जाना होगा, किन्तु आगे की यात्रा शुरू करने के पहले एक बार सिंहावलोकन भी करना आवश्यक है।  यदि भारत की प्राचीन बिरासत 'वेदान्त ' की मजबूत नींव पर भविष्य का निर्माण नहीं किया तो हम उन्नत राष्ट्र नहीं बन पाएंगे , अमेरिका आदि पाश्चत्य देशों की तरह हमारा भी पतन हो जायेगा। 
 स्वामी विवेकानन्द को गुरु कहना आवश्यक नहीं है, उनका नाम-जप ध्यान करना भी जरुरी नहीं है - जिनका ध्यान करते हो, जिनकी पूजा करते हो, वही हो जाना पड़ेगा। ' देवो भूत्वा देवं यजेत '- अर्थात स्वयं देव बनकर देव का यजन करना चाहिये। सन्त/जीवन्मुक्त शिक्षक/ मानवजाति के मार्गदर्शक नेता  की मर्यादा में रहना सब के वश की बात नही । चोला बदल कर बाबा तो बन जाओगे पर  ब्रह्मवेत्ता -ब्रह्मज्ञ महापुरुष जैसे संस्कार  कहा से लाओगे..? 
“निरुक्त शास्त्र” के प्रणेता यास्क मुनि इसीलिए कहते हैं-जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात्‌ भवेत द्विजः।वेद पाठात्‌ भवेत्‌ विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।। अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है।सत्य यह हे कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं हे, कर्म से अर्थात चरित्रनिर्माण के प्रशिक्षण से कोई भी ब्राह्मण बन सकता हे यह सत्य हे। क्या स्वामीजी ने मानव कल्याण के लिये अपनी मुक्ति तक को विसर्जित नहीं कर दिया था ? भक्त प्रह्लाद ने भी अपनी मुक्ति त्याग कर दिया था. जब हिरण्यकश्यपू के वध के लिये नृसिंहावतार हुआ तो कोई भी देवी देवता उस भयंकर मूर्ति को शान्त करने के लिये उसके पास जाने में भी डर रहे थे, उनका उग्र रूप देखकर लक्ष्मी देवी भी शांत नहीं कर स्किन तो, प्रह्लाद को भेज गया. नृसिंह भगवान ने जब देखा कि नन्हा सा बालक मेरे चरणों में पड़ा है, तब उन्होंने प्रह्लाद को गोदी में उठा लिया और उसके सिर पर वात्सल्य से हाथ फेरने लगे।  उस समय प्रह्लाद ने ४० श्लोकों में जो भगवान की स्तुति की है, वह पूरा वेदान्त है।
 प्रह्लाद से ज्ञान की बातों को सुनकर नारायण बहुत प्रसन्न हुए और उनसे कोई भी वर मांगें को कहा।  तो प्रह्लाद ने कहा मेरी कोई निजी इच्छा नहीं है, मैं अपने लिये मुक्ति भी नहीं चाहता। कुछ लोग जंगल में जाकर मुक्ति के लिये तपस्या करते हैं, पर सब लोग यहाँ बंधन में पड़े रहेंगे, और मैं अपने लिये मुक्ति चाहूँगा, यह मुझसे नहीं होगा। स्वामीजी ने भी कहा है, मेरी मुक्ति की इच्छा की १४ पीढ़ियों का नाश हो गया है. और हमलोग क्या अपनी मुक्ति बात सोचेंगे ? 
स्वामी रंगनाथानन्द जी अभी शरीर में नहीं हैं। अंतिम समय में उनके एक सेवक ने पूछा था कि महराज मुझे फिर से कोई दूसरा शरीर तो नहीं धारण करना पड़ेगा ? अर्थात मेरा पुनर्जन्म तो नहीं होगा ? इस पर महराज ने कहा था, नहीं तुम्हें और जन्म नहीं लेना पड़ेगा, पर यदि तुम्हें जन्म लेना होगा तो मुझे भी लेना होगा। 
किन्तु माँ की जो सन्तानें पहले से हैं, और जो बाद में आयेंगे उन्हें कौन देखेगा? उनके लिये तो यह जीवन अर्पण करना होगा। उनकी सेवा कौन करेगा ? मुक्ति मत चाहो, माँ की संतानों की सेवा कैसे सदा सर्वदा होती रहे इसकी युक्ति खोजो। अपना भला करने से पहले दूसरों का भला करो। इन्द्रियों को भगवान ने इस प्रकार बनाया ही है कि वे हमें बहिर्मुखी बना देती हैं-
पराञ्चि खानि व्यतृणत् ‌ स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् ‍ पश्यति नान्तरात्मन् ‍।
                            कश्चिद्‌धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ‍ ॥  कठोपनिषद् ‍ २ .१ .१
स्वयं भू (स्वयं प्रकट होने वाले) परमेश्वर ने समस्त इन्द्रियों को बहिर्मुखी (बाहर विषयों की ओर जानेवाली) बनाया है। इसीलिए (मनुष्य) बाहर देखता है, अन्तरात्मा को नहीं (देखता)। अमृतत्व (अमरपद) की इच्छा करने वाला कोई एक धीर (बुद्धिमान् पुरुष) अपने चक्षु आदि इन्द्रियों को बाह्य विषयों से लौटाकर प्रत्यगात्मा (अन्त:स्थ,सम्पूर्ण विषयों को जानने वाला आत्मा) को देख पाता है। 
किन्तु अमृतत्व प्राप्त करने से भी ऊँची स्थिति में जाया जा सकता है, इससे भी बड़ी अवस्था में जाने का उपाय ठाकुर-माँ-स्वामीजी ने सिखाया है।  इसलिए  सामान्य मनुष्यों को सदमार्ग दिखने वाले नेता को, अमृतत्व को भी त्याग देना चाहिये। कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो ईश्वर का कार्य करने के लिये अमृतत्व को त्याग कर मृत्यु का वरण करने के लिये प्रस्तुत रहते हैं। दोनों में कौन महान है ? यदि मेरे द्वारा दूसरों की मुक्ति होती हो, तो मुझे अपनी मुक्ति भी नहीं चाहिये। 
वास्तव में हमलोग वही वस्तु हैं। पर मनुष्य योनि में जन्म लेने पर एकमात्र कार्य है, समय रहते -जीवन रहते समय ही उस तरह के मार्गदर्शक बनने लायक जीवन को गठित कर लो। अपनी शक्ति सदुपयोग 3H को सही रूप से विकसित करने में करो, उसे व्यर्थ के भोगों में नष्ट मत होने दो।  यदि हमलोग अपना एक भी दिन भोग में नष्ट कर देते हैं, तो वह दिन दुबारा लौट कर नहीं आएगा। 
समय रूपी काल देखते देखते शरीर को खा रहा है, आयु क्षीण हो रही है।  अबतक जितनी शक्ति को तुमने भोगों में नष्ट कर दिया, उतना तो चला गया. अब पुनः शक्ति का संचय कर 3H को सुन्दर रूप से गढ़ने का प्रयास करना होगा। ईश्वर लाभ ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है।  किन्तु अभी ईश्वर को तो जानता ही नहीं हूँ, उसको पाने की साधना करना कितना कठिन है।  इसीलिये जैसा स्वामीजी ने कहा है-प्रयत्न ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ईश्वर को चाहता भी कौन है ? यदि सचमुच ईश्वर सामने आकर खड़े हो जाएँ, तो पता नहीं किस रूप में खड़े होंगे, और हम उनको देखकर कहीं भयभीत तो नहीं हो जायेंगे ? पता नहीं उनके ८ हाथ होंगे, कि हजार हाथ होंगे ? एक ही वस्तु विभिन्न रूपों में दिखाई दे रही है, एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में कोई भेद नहीं है, कोई बूढ़ी माता यदि कम्बल के आभाव में ठंढ से काँप रही हो, तो क्या उसका दुःख मेरे ह्रदय को द्रवित नहीं कर देता ? माँ जगदम्बा न जाने किस दुखियारी बुढ़िया का भेष बनाकर घर के सामने वाले गेट पर बैठकर कहेगी- बहुत ठंढा लग रहा है, बेटा मारता है, खाने को भी नहीं देता। कमर को टेढ़ा करके बूढ़ी बनकर शिकायत करने आयेगी? जहाँ भी ह्रदय को बड़ा करने का अवसर मिले उसका सदूपयोग अवश्य करना चाहिये।
जब राक्षस महिषासुर दुर्गाजी से पराजित होने लगा तब भी अपनी चालाकी से बाज नहीं आया- उसने कहा माँ एक वर मुझे दो-तुम जहाँ भी रहो इसी तरह मैं तुम्हारे पैरों के नीचे पड़ा रहूँ।उसी लिये हमलोग आज भी जब दुर्गा पूजा करते हैं, तो उनके साथ साथ असुर की पूजा भी हो जाती है।  उसी तरह हमें भी प्रार्थना करना चाहिये कि माँ मैं जीवन भर तुम्हारे ही चरणों के तले पड़ा रहूँ। हमारा मन भी असुरों के जैसा है, माँ या तो तुम अपने अस्त्र से उसे मारो या मुझे अपने अस्त्र से उसे मारने में समर्थ बना दो।  श्रीचरणों का दर्शन करके मेरे मन की जो प्रवृत्ति है, वह सदा के लिये शान्त हो जाये। और सदा के लिये तुम्हारे चरणों में स्थिर हो जाये। भोगाकांक्षा, लोभ, कामना-वासना मुझे फिर से मोहित न कर ले।  मेरे मन की दृष्टि सर्वत्र निर्मल पवित्र बनी रहे।  जहाँ भी ह्रदय को बड़ा करने का अवसर मिले मेरा मन तत्काल ही उसका सहयोगी बन जाये। इसी लिये माँ मुझे पहले मनुष्य बना दो ! 3H के गठन में यदि हम स्वयं को नियोजित कर दें, तो हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं।  सबों की सेवा में अपने जीवन को अर्पित कर सकते हैं।  इसके लिए सर्वप्रथम हमें अपने मन की उदग्र वासनाओं को शान्त करना होगा। अशुभ इच्छाओं को उठने के पहले ही शुभ-संक्ल्प से रोक दूँगा। मैं अब से त्याग और सेवा का ही जीवन व्यतीत करूँगा, क्योंकि भोग में नहीं त्याग में ही अमृत है।  आग में घी डालने से आग और भड़कता है। भोग करने से विषय-वासना और भड़कती है, कम नहीं होती। 
सुखी व्यक्ति ही दूसरे को सुखी बना सकता है। यहाँ पर सुखका तात्पर्य परम सुख अर्थात् आनन्दसे है । जहां मन की गति‍ समाप्‍त हो जाती है, मैं और मेरा की अल्‍प स्थिति (व्यष्टि अहं) से जो परे स्थित है,परम सन्‍तोष तथा शन्ति की भावस्थिति को आनन्‍द नामक चित की अवस्था से अभिहित किया गया है। इन्द्रिय, मन, बुद्धि की वहाँ गति नहीं है। वो भूमा है। फिर भी आनंद के जितने स्तर हैं, उनमें सबसे निम्न स्तर है ज्ञानियों का ब्रम्हानंद— निर्गुण, निर्विशेष, निराकार ब्रम्हानंद। इसके बाद फिर सगुण साकार का आनंद प्रारम्भ होता है। उसमें भी अनेक स्तर हैं। माँ जगदम्बा के मातृहृदय का जो सर्वव्यापी विराट अहं (मैं-बोध) का भूमा का सुख, जहाँ अपना -पराया के भेद समाप्त हो जाता है, जो परमसुख है, आदिरूप है, वही मूल प्रकृति है, वही आनन्‍द है।
[ pravritti is to be engaged, nivritti is renunciation - I won't accept to enjoy and pravritti is to accept to enjoy . this started when the creator made whole world .
जब भगवान श्री रामकृष्ण बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय से मिलने गए तो पूछे कि तुम क्या करते हो ? उन्होंने कहा था -आहार, निद्रा, भय मैथुन। ठाकुर ने उनकी भर्तस्ना करते हुए कहा था -'देखता हूँ तुम बहुत छींछड़ा आदमी हो। ये वही बंकिमचन्द्र हैं जिन्होंने देश को वन्देमातरम गान दिया है। उनको हमलोग प्रवृत्तिमार्ग के ऋषि कह सकते हैं।
चरित्र गठन में डिग्री की आवश्यकता नहीं है। डिग्री के बिना भी चरित्र-गठन हो सकता है। चैतन्यदेव महापण्डित थे पर ठाकुर के पास कोई स्कूली शिक्षा नहीं थी। पुराणों में भी जितने महापुरुष हुए हैं, उनकी शिक्षा साधारण थी, किन्तु उन सबका चरित्र बहुत महान था।  value का अर्थ प्रतिष्ठा करना, मूल्यांकन करना होता है, value education किसे कहते हैं, मंत्री को भी नहीं पता है। अभी value education देने के नाम पर, सरकार ने  'Art of living ' की पुस्तिका सभी स्कूलों में वितरित किया गया है। एक हाईस्कूल के प्रधानापध्यापक ने सरकार से पूछा है, इस पुस्तक को पढ़ायेगा कौन ? इसमें केवल hints दिया हुआ है, पर इसकी व्याख्या कौन करेंगे ? मैं एकबार पाठचक्र जाने के लिए station पर खड़ा था, वहीँ एक teacher भी खड़ा था। उसका जब एक student वहाँ आया तो अपने जेब से एक सिगरेट निकाल कर दिया। दोनों एकसाथ प्लेटफॉर्म पर सिगरेट पीया। हमलोग बचपन की कविता में पढ़ते थे -
 माता-पिता-गुरु, माथार मणि!  अतिथियों जिनि, नारायण-नारायणी!

 चित्त विनोद के चक्कर में चित्त तो जड़ हो रहा है,काव्यशास्त्र विनोद क्या है कैसे जानेंगे ? लौकिक सुख तथा अलौकिक सुख दोनों प्रकार के सुखों (में आसक्ति को) को त्याग देने से जो आत्मबल प्राप्त होता है, वह जीवन को और अधिक ऊँचाई पर पहुंचा देता है।  इस त्याग से सबसे बड़ा आनन्द प्राप्त होता है।  हमारा लक्ष्य है, क्षूद्र अहं के त्याग से मिलने वाले भूमानन्द को प्राप्त करना। यदि किसी कुत्ते के पिल्ले या बिल्ली के बच्चे के सामने रोटी का एक टुकड़ा फेंक दो, तो वह कितने आनन्द से खता है ! उस दिन दो पिल्लों के सिर पर हाथ फेर दिया तो वे आनन्द से कितना नाचने लगे थे ? वे सोचे यहाँ मुझे भी कोई प्रेम करने वाला है ! हम उस सर्वव्यापी आनन्द को नहीं देख पाते हैं, जबकि जगत आनन्द से ही बना है, तैत्तिरीयोपनिषद (तैत्तिरियोपनिषद् ३-६)में कहा गया है- 'आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्' अर्थात् आनन्दको ही ब्रह्म समझो, ब्रह्म आनन्द स्वरूप है। आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते।आनन्देन जातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। आनन्द से ही सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं. और उसीमे जीवित रहते हैं, तथा इस लोक से प्रयाण करने के बाद आनन्द में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।  सबकुछ उसी आनन्द से आया है।  जगत सर्वदा आनन्दमय ही है, उसी आनन्द को जगत की हर घटना में हर वस्तु में देखो। दूसरों को दुःख-कष्ट में गिरा देखने से जो हमदर्दी या समानुभूति उत्पन्न होती है, वह भी आनन्द की ही अभिव्यक्ति है।  ऐसी अनुभूति मन को शान्त होने पर ही होती है। 
किन्तु मन को शान्त करना बहुत कठिन है। उसको वशीभूत करने के लिये, शम तथा दम  का अभ्यास हर क्षण करते रहना होगा।मन में लालच का भाव बने रहने से कामना-वासना बढ़ती ही जायेगी।  यम और नियम का अभ्यास आजीवन प्रतिमुहूर्त करना होगा।   - उन अपवित्र भावों को मन में उठने नहीं देते जो मन को गन्दा कर देती हों।  विवेक-प्रयोग करके उन्हें मन से निकाल फेंको। प्राणायाम करना आवश्यक नहीं है।  दिमाग बिगड़ सकता है, इसीलिये स्वामीजी ने मना किया है। दम किसे कहते हैं ? प्रत्याहार-धारणा के अभ्यास को ! इसके बिना कोई फल नहीं होगा।  रीढ़ की हड्डी को सीधा रखकर अर्ध पद्मासन या सुखासन में बैठो।  इस प्रकार बैठने से सांसों का आवागमन आसानी से होगा। अब अपने मन को दो भागों में बाँट दो। Objective mind या वस्तुनिष्ठ मन जो वाह्यविषयों में जा रहा है, और दूसरा Subjective mind,व्यक्तिपरक मन या आत्मनिष्ठ मन; जो वस्तुनिष्ठ मन की गतिविधियों को देखता रहता है. आँखों को मूंद लेने से एक मन जो Subjective mind या द्रष्टा-मन है, उसके द्वारा दूसरे मन जो Objective mindया दृश्य-मन है, को देखना सहजता से होने लगता है।
 यह एक बहुत मजेदार खेल की तरह है. जब विषयाश्रित मन में उठने वाले विचारों को देखोगे तो पाओगे कि तुम्हारा मन कभी कीचन में चला गया है, कभी क्रिकेट-मैदान में, कभी बाजार में चला गया और खोमचे वाले से गोलगप्पे खा रहा है; यह विषयाश्रित मन स्वाद (रूप-रस ) से लेकर विश्व-ब्रह्माण्ड तक दौड़ रहा है. यह सब ब्रह्म के ही मन में ही तो चल रहा है ? जब ' वे ' इस मन को देखने लगेंगे -तो जो कुछ सुन रहे हैं, पूरा मन उसी में रहेगा। जब Anesthesia या चेतनालोप कर देने वाली औषधि का अविष्कार नहीं हुआ था, तब किसी व्यक्ति की पीठ पर एक बड़ा सा Carbuncle नासूर (बल-तोड़ घाव) हो गया था।  डाक्टर लोगो ने बताया कि इसका operation (अस्रोपचार) करना होगा। इसमें आपको पीड़ा होगी, इसके लिये २ कम्पाउण्डर आपके हाथ-पैर को कसकर पकड़ कर खड़ा रहेगा। वे बोले आपलोग १५-२० मिनट के बाद आइये। वे आसन पर आँखों को मूँद कर बैठ गये. जब operation करके बैण्डेज बांध दिया गया. उसके बाद वे पूछते हैं -क्या अब आपलोग operation शुरू करने वाले हैं ? मैंने अपनी आँखों से ऐसे मनुष्य को देखा है, वे एक गृहस्थ व्यक्ति ही थे, कोई गेरुआधारी संन्यासी नहीं थे। गृहस्थ लोगों के द्वारा भी अपने मन को मुट्ठी में रखना संभव है ! १५-२० मिनट में ही उन्होंने अपने को इस प्रकार वश (ईष्ट देव में एकाग्र) में कर लिया था, कि उनके मन को operation का पता ही नहीं चला।
हमलोग भी स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को स्थिर करने का अभ्यास सीखकर अपने मन के स्वामी बन सकते हैं। जो बात मुझे अपने जीवन के अनुभव से समझ में आ गया है, वही दूसरों को बतलाता हूँ, पुस्तकों में अच्छी बातें हैं, उनको पढ़कर नहीं बोल रहा हूँ। स्वामी विवेकानन्द के जैसा दूसरा कोई आज तक नहीं जन्म लिया है। ठाकुर -माँ -स्वामी जी big mount of magnet बहुत बड़े चुंबक के पहाड़ जैसे हैं,उनके निकट जाने से ही लोहे की श्रृंखला जैसे इन्द्रियों के बंधन खुल जायेंगे ! जैसे कोई जहाज चुंबक के  बड़े पर्वत के निकट से गुजरेगा , तो जो तख्ते काँटी और स्क्रू से जोड़े गए हैं -वे सब खुल जायेंगे।  
 मन से कहो कि हे प्रिय दोस्त ह्रदय में आकर बैठो वहां स्वामीजी की छवि है, उसको देखो या कोई चाहे तो ईसामसीह के चित्र पर या त्रिमूर्तियों में से किसी एक पर मन को रख सकते हो. अमूर्त चेतो - अमूर्त या निराकार का ध्यान कैसे करोगे ? निराकार वस्तु का ध्यान करना संभव नहीं है, इसीलिये मूर्ति बनाकर उसके उपर ध्यान करना सरल हो जाता है. ध्यान करते हुए जब मन तल्लीन हो जाता है, तो वह मूर्ति भी विलीन हो जाएगी। मन लगाकर पढने से पढाई अच्छी होगी, मनोयोग से भोजन बनाने पर भोजन भी स्वादिष्ट बनता है. जब और जहाँ हम अपने मन को लगाना चाहूँगा मन को लगा दूँगा। ऐसा अभ्यास दिन में दो बार करो. यदि शाम के समय मनः संयोग करने का अवसर नहीं मिलता हो, तो सोने से पहले कम से कम ५ मिनट भी करो। Be a heart whole man - पूर्ण हृदयवान मनुष्य बन जाने का अर्थ है immense power for feeling the urgency of Be and Make ! Be और Make की तत्काल अनिवार्यता को हृदय में  महसूस करने की अपार शक्ति! मैं इस बड़े काम को अकेला नहीं कर पाउँगा, इसलिए एक मजबूत संगठन आवश्यक है।
बंकिमचन्द्र  ने लिखा है -  দেখ ভাই, কেহ একা নামিও না-ঐক্যেই বল-নহিলে আমরা কেহ নাই। देखो भाई कोई अकेले धरती पर मत उतरना, अकेले देखकर हमें लोग नगण्य समझेंगे। देखो, हम लोग वर्षा की नन्हीं नन्हीं बून्दों के सामान हैं, अकेले-अकेले हम कलियों के सूखे मुख को धो नहीं सकते हैं, एक हृदय  भर नहीं सकते। जो अकेला है, वह छोटा है, तुच्छ और नगण्य माना जाता है। जिसमें संघबद्धता का भाव नहीं, वही तुच्छ है। सुनो, भाइयों, कोई अकेले धरती पर मत उतरना, इस प्रचण्ड सूर्य की किरणें आधे रास्ते में ही हमें सुखा देंगी। दूसरी ओर यदि हम अनेक मिलकर एक हो जाएँ, तो पूरे धरती को डुबो सकते हैं।सबसे कहो आओ न भाइयों, हम सब एक साथ उतरें। इसलिए हम सबों का हृदय एक समान हो, हमारी आकुति -फलप्राप्ति समान हो। हम सभी एक ही बात कहें - 'मनुष्यों का कल्याण। ' बंकिमचन्द्र की कविता - वर्षा की बूंदों के जैसा सभी युवाओं को महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में ले आओ। देश की अवस्था बहुत खराब है। शक्ति को ही वीर्य कहते हैं। उसका व्यर्थ में अपचय मत करो। तुम युवा लोग मिलकर संघबद्ध होकर देश की हालत सुधारो। आतंकवाद और उग्रवाद से नया भारत नहीं बनेगा।  
[ দেখ, যে একা, সেই ক্ষুদ্র, সেই সামান্য। যাহার ঐক্য নাই, সেই তুচ্ছ। দেখ, ভাই সকল কেহ একা নামিও না-অর্দ্ধপথে ঐ প্রচণ্ড রবির কিরণে শুকাইয়া যাইবে,-চল, সহস্রে সহস্রে, লক্ষে লক্ষে, অর্ব্বুদে, অর্ব্বুদে এই বিশোষিতা পৃথিবী ভাসাইব। ]
गीता 3. 11 में भगवान ने कहा है -"परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।" ”यज्ञों के द्वारा (ज्ञान यज्ञों -युवा प्रशिक्षण शिविर और साप्ताहिक पाठचक्र द्वारा) प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सबों को सम्पन्नता प्राप्त होगी। समस्त यज्ञों का (कैम्पों -पाठ्चक्रों का) मुख्य प्रयोजन यज्ञपति (ठाकुर -माँ -स्वामी जी) को प्रसन्न करना है। जब ये यज्ञ सुचारू रूप से सम्पन्न किये जाते हैं, तो विभिन्न विभागों के अधिकारी देवता प्रसन्न होते हैं और प्राकृतिक पदार्थों का अभाव नहीं रहता। यज्ञों को सम्पन्न करने से (निष्काम कर्म Be and Make के साथ जुड़े रहने से)  अन्य लाभ भी होते हैं, जिनसे अन्ततः भवबन्धन से मुक्ति मिल जाती है।  यज्ञ से सारे कर्म पवित्र हो जाते हैं, जैसा कि वेदवचन है – 'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः |'  यज्ञ से मनुष्य के खाद्यपदार्थ शुद्ध होते हैं। पंचेद्रियों के माध्यम से जो आहरण किया जाता -उसे भोगने की तृष्णा से इन्द्रियों (अहं -मन) को कभी तृप्ति नहीं होती। केवल 20 % आहरण जिह्वा से होता है, 80 % आहरण नेत्र-त्वचा-कर्ण-नासिका के माध्यम से होता है। अतः शरीर-मन-वचन को समुचित पौष्टिकता प्रदान करने के उद्देश्य से केवल पौष्टिक आहार (शुद्ध भोजन) करने और 3'H' को स्वस्थ रखने का व्यायाम के द्वारा स्वस्थ रखने से मनुष्य-जीवन शुद्ध हो जाता है। जीवन शुद्ध होने से स्मृति के सूक्ष्म-तन्तु शुद्ध होते हैं और स्मृति-तन्तुओं के शुद्ध होने पर मनुष्य मुक्तिमार्ग का चिन्तन कर सकता है और ये सब मिलकर प्रत्याहार को सिद्ध कर देते हैं, और मन अंतर्मुखी होकर हृदय में विराजित अवतारवरिष्ठ का दर्शन करने से अज्ञान की गांठ कट जाती है, और मनुष्य भ्रममुक्त हो जाता है। जो आज के समाज के लिए सर्वाधिक आवश्यक है।
ह्रदय का व्यायाम करने से महत भाव मन में आते हैं। ह्रदय के लिये पौष्टिक आहार क्या है? जो लोग हृदयवान हैं, उनके जीवन-चरित्र की चर्चा करना पौष्टिक आहार है।  और इसका व्यायाम है, जैसे किसी की सहायता या सेवा करने का अवसर प्राप्त हो, अपनी इस दुविधा को त्याग दो कि इस व्यक्ति की आवश्यकता तो इतनी बड़ी है, थोड़ी सी सहायता से इसको क्या लाभ होगा ? ह्रदय को विशाल बनाने का अवसर मिलते ही, यथा-संभव सेवा करने में जुट जाओ।  मन को पवित्र रखो, मानस-तीर्थ में स्नान करने से अमृत मिलता है।  प्रार्थना-प्रयोग करके हृदय को द्रवित करने का संकल्प ग्रहण करो।  ह्रदय को द्रवित करने की प्रार्थना करो।  महामण्डल को स्थापित हुए ४६ वर्ष बीत चुके हैं, इसके लिए कोई प्रचार नहीं करते है, फिर भी पुरे भारत में इसकी ३१४ से अधिक शाखायें स्थापित हो चुकी हैं।  स्वामीजी ने कहा था, no news paper humbug -समाचारपत्र में फोटो छपवाने के पाखण्ड से कुछ नहीं होगा, प्रचार नहीं आचार करके दिखाना होगा। आजकल टी.वी. इन्टरनेट आदि पर जो दृश्य-संवाद आदि आते रहते हैं, उनको अधिक देखने से मनुष्य का मन और अधिक चंचल हो जाता है।  वहाँ कभी कोई अच्छा समाचार सुन भी लिये तो क्या होगा ? बिना कुछ खर्च किये हमें यह दुर्लभ मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है, इसके साथ साथ पौरुष भी मिला है. यदि मनुष्य हूँ, तो ह्रदय में प्रेम भी अवश्य रहेगा। हमारा ह्रदय प्रह्लाद के जैसा होना चाहिये जो दूसरों के दुःख से व्यथित होगा, ऐसा हमारा चरित्र बन जायेगा।
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Q and A at Sarisa Camp 2005:
1 . चरैवेति चरैवेति का अर्थ है -এগিয়ে যান ! Go ahead ! और आगे बढ़ो ! और आगे बढ़ो ! साधु ने लकड़हारे से कहा - और आगे बढ़ो, आगे चन्दन का वन मिलेगा। और आगे बढ़ो -आगे चाँदी की खानें मिलेगी। .... और आगे बढ़ो सोने की खाने मिलेंगी। ... और आगे बढ़ो -आगे हीरे की खानें मिलेंगी। .... और आगे जाओ -वहाँ साधु की कुटिया मिलेगी -जिसमें तुम चैतन्य प्राप्त कर लोगे।
2. प्रार्थना की शक्ति : ॐ भगवान का नाम है - ॐ कार के जप के साथ इसके अर्थ का चिन्तन इस प्रकार करना जिससे परमेश्वर के प्रति प्रगाढ़ प्रेम की भावना विकसित हो जाये ! प्रणव के जाप एवं स्मरण से ईश्वर के प्रति भक्ति एवं समर्पण बढता है। इसी को ईश्वर प्रणिधान भी कहा गया है ।स्वामी विवेकानन्द कहते हैं " ये मंत्र क्या हैं ? भारतीयदर्शन के अनुसार नाम और रूप ही इस जगत की अभिव्यक्ति के कारण हैं। किसी व्यक्ति के चित्त (व्यष्टि महत्) में विचार तरंगे पहले शब्द के रूप में उठती हैं और फिर बाद में तदपेक्षा स्थूलतर 'रूप' धारण कर लेती है । इसी प्रकार बृहत ब्रह्माण्ड में भी समष्टि-महत् (ब्रह्मा या हिरण्यगर्भ) ने अपने को पहले नाम (शब्द ब्रह्म 'ॐ') के, और फिर बाद में रूप -अर्थात इस परिदृश्यमान जगत के आकार में अभिव्यक्त किया है। ईश्वर पहले स्फोट-रूप  में परिणत हो जाता है, फिर स्वयं को उससे भी स्थूल इन्द्रियग्राह्य जगत के रूप में परिणत कर लेता है। और चूँकि किसी भी उपाय से हम शब्द को भाव से अलग नहीं कर सकते, इसीलिये यह 'ॐ' भी उस भव्य और नित्यस्फोट (बिग बैंग) से नित्यसंयुक्त है। अर्थात 'ॐ' और स्फोट अभिन्न हैं । इसीलिये हमारा ब्रह्माण्ड ऊर्जा-प्रधान है। 
- 20वीं सदी के प्रांरभ में मैक्स प्लांक ने सर्वप्रथम इलेक्ट्रान द्वारा उत्सर्जित एवं अवशोषित की जाने वाली ऊर्जा को ‘क्वांटा’ कहा । यह क्वाण्टम भौतिकी का प्रांरभ था।  आइन्सटीन के पदार्थ-ऊर्जा समतुल्य सिद्धांत (E=mc2) ने जहां पदार्थ और ऊर्जा का अंतर संबंध उजागर कर दिया, वहीं क्वाण्टम क्षेत्र पर ‘दृष्टाप्रभाव’ एवं ‘सापेक्षता के सिद्धांत’ (देश काल की सापेक्ष निर्मिती) ने भौतिकी को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ जगत के उद्भव, स्थिति एवं क्रियाविधि को जानने हेतु चेतना का अध्ययन ही अब एक मात्र संभावना है।
आइनस्टाइन ने साबित कर के दिखाया है कि द्रव्यमान (भौतिक पदार्थ) भी ऊर्जा का ही रूप हैं। द्रव्यमान m ऊर्जा की एक मात्रा E के तुलनीय हैं। उन्होंने E और m के परस्पर समंध को  E=mc² सूत्र की सहायता से प्रमाणित किया था। अत: ऊर्जा का परिमाण किसी वस्तु के द्रव्यमान और प्रकाश के वेग के गुणनफल के तुलनीय होता है। द्रव्यमान का मात्रक (यूनिट ऑफ़ पिण्ड Mass कि.ग्रा) और ऊर्जा का मात्रक (यूनिट ऑफ़ एनर्जी - जूल) के बीच परस्पर परिवर्तन का कारक c² है। मान लीजिये आपके पास एक ग्राम यूरेनियम (परमाणु-बम के निर्माण में उपयोग किया जाने वाला एक पदार्थ) है और यदि आप ऊर्जा-द्रव्यमान सूत्र की सहायता से पदार्थ की कुल ऊर्जा का कलन करेंगे तो वह लगभग 900000000000000000 जूल होगी!  एक बार आइंस्टीन से एक पत्रकार नें यह पूछा कि छोटे -छोटे कणों में छिपी इस महान ऊर्जा की ओर किसी अन्य वैज्ञानिक का ध्यान क्यों नही गया? उन्होंने जवाब दिया, ”इसका उत्तर बहुत आसान है। ऊर्जा का पता तब तक नहीं लग सकता, जब-तक वह बाहर नहीं आ जाती”। उन्होंने मजाकिया लहजे में यह भी कहा कि, ”अगर कोई धनवान व्यक्ति अपना धन खर्च ही न करे तो लोगों को उसकी सम्पत्ति का पता कैसे चल सकता है?”
प्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक डाॅ. अमित गोस्वामी द्वारा मानवीय चेतना की व्याख्या इस प्रकार की गई है:-चेतना द्वारा क्वांटम तरंग को तोड़े जाने से दृष्टा - दृश्य का द्वन्द उत्पन्न होता है। यह असंख्य स्तरों पर एक साथ होने वाली घटना है।ज्ञातव्य हो कि वेद एवं उपनिषद अत्यंत सरल, काव्यात्मक भाषा में कहे गये है, जो ज्ञान एवं माधुर्य से परिपूर्ण है। अलबर्ट आइन्सटीन का कथन हैः- " If you can’t explain it simply, you don’t understand it well enough" अर्थात हम जितना अधिक जानते है उतना सरल बना सकते है।
मुण्डक उपनिषद (3.1-3) में मन व चेतना नामक दो पक्षियों के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। एक शाख पर बैठे यह दो पक्षी ‘अहं’ व ‘चेतना’ हैं। ‘अहं’ (reflected consciousness) संसार के अच्छे बुरे फल खाता है जबकि ‘चेतना’ (witness consciousness) मात्र दृष्टा है।
' आकाश शरीरं ब्रह्म'- वह ब्रह्म आकाश जैसे शरीर वाला है, (तैत्तिरीयोपनिषद्, 1.6)| एतस्मादात्मन् आकाशः सम्भूतः-यह आत्मा आकाश के रूप में उत्पन्न हुई (तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.1)| आकाशःआत्मा' आकाश आत्मा है, (तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.3)| संपूर्ण आकाश पर दृष्टाप्रभाव ‘महतत्व’(Cosmic Consciousness) है। तथा सापेक्षता से निर्मित क्षेत्र विशेष से दृष्टा का तादात्म्य, ‘व्यक्तिगत अहं’ का निर्माण है। जिस प्रकार ‘ब्रह्म’ एक अनंत संभावनाओं और सामर्थ्य से परिपूर्ण सृजनशील चेतना है, जो मात्र इच्छा (Pure Intention) ;द्वारा नानाविध प्रपंच निर्मित कर उन्हें अनुभव करता है, उसी प्रकार ‘व्यक्तिगत अहं’ मानवीय चेतना को अभिव्यक्त करता है। यह व्यक्तिगत स्तर पर अस्मितारूपी दृष्टाप्रभाव है।
उपनिषदों के अनुसार इस मानवीय चेतना का प्राकट्य एक शरीररूपी यंत्र द्वारा होता है जिसके पाँच विभाजन है (पंचकोश) ।इस उपकरण में व्याप्त चेतना की स्थूल से सूक्ष्मतम चार अवस्थाएं है (अयं आत्मा चुतष्पात - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय -माण्डूक्य उपनिषद- 2)।अर्थात ‘अहं’ इच्छा द्वारा दृश्य निर्मित कर जिस चेतना के सम्मुख प्रस्तुत करता है उसकी भी वेदांत अनुसार चार अवस्थायें है।सांख्य एवं औपनिषदिक दर्शन के अनुसार इस दृश्य का निर्माण पाँच इन्द्रियों एवं चित्त (मन, बुद्धि, अहं, मिश्रित अंतःकरण) द्वारा किया जाता है यहाँ चित्त, दृश्य की व्याख्या करता है। तथा दृश्य इसमें उठ रही वृत्तियाँ हैं (वृत्ति =निरंतर तरंगायित ऊर्जा। )चित्त, वृत्तियों को रूप, शब्द व अर्थ देता है -(Description of the energy, vibrating in different frequencies) ...जिसे चेतना द्वारा अनुभव किया जाता है ।उक्त मानवीय चेतना वस्तुतः ब्रम्हाण्डीय चेतना ही है।उदाहरणतः मनुष्य के शरीर की हर कोशिका जीवन की सम्पूर्ण इकाई है। जिसमें विद्यमान प्रज्ञा वस्तुतः ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा ही है।यह सभी कोशिकायें एक दूसरे के साथ सामंजस्य पूर्वक कार्य करते हुए अंततः मानव देह रूपी अति जटिल संरचना को आकार देती है तथा जीवन पर्यंत उसे संचालित करती है। यह समस्त कार्य हमारी बुद्धिमत्ता से नहीं बल्कि ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा से संपादित होता है । इसी तरह हमारा मस्तिष्क (Brain) तथा चित्त (Mind) भी ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा का ही हिस्सा है ।अगर ‘अहं’ प्रथक कर दें, तो मानव मस्तिष्क ब्रम्हाण्डीय प्रज्ञा के साथ लय में होगा । जिसे हम अंतर्ज्ञान (Intuition) अथवा वैश्विकबुद्धिमत्ता (Cosmic Wisdom) कहते हैं।‘अहं’ हमारी इच्छाओं और भोगेच्छाओं का समुच्चय मात्र है। यह ब्रम्ह चेतना के प्रकटीकरण ‘एकोहं बहुस्याम’ की एक इकाई अभिव्यक्ति है। यही अहं मानवीय चेतना का आधार है।
वेदांत का महानतम ज्ञान सरलतम शब्दों में है। वेदांत प्रणीत मानवीय चेतना एक दृष्टा चेतना है जिसे ‘आत्मा’ कहा गया है तथा परम चेतना को ‘ब्रह्म’ कहा गया है । आत्मा वस्तुतः ‘ब्रह्म’ ही है।‘ब्रह्मात्मैकबोधेन’ (विवेकचूणामणि - 58)यह ‘ब्रह्म चेतना’ एक निरंतर सृजनशील प्रक्रिया है, जो अनंत सामर्थ्य और अनन्त सृजन संभावना (Pure Potentiality and infinite creativity) की स्थिति है।यह शून्य (Absolute Void) से दृष्टाप्रभाव (Observer Effect) द्वारा उत्पन्न ऊर्जा (बिग-बैंग सिद्धांत अनुसार बिग-बैंग होते ही शून्य से पदार्थ एवं ऊर्जा उत्पन्न होती है) को कण एवं तरंग में विभाजित कर, समय एवं स्थान की (Time & space) ..सापेक्षता उत्पन्न करती है। इस सापेक्षता में कण को निर्दिष्ट (Locate) किया जा सकता है।शून्य (Void=The field of Consciousness) ;वह आकाश है, जहाँ सृजन होता है।यह ‘ब्रह्म चेतना’ स्वयं कालातीत (Timeless, Non Local) होती है।जबकि हमारी स्थिति एक सापेक्ष स्थिति है। यद्यपि हम सभी एक ही स्थान (Location) में है किन्तु इन्द्रियगत उपकरण (Sensory Artifact) के कारण अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। (आइन्सटीन, थ्योरी आॅफ रिलेटिविटी)यह सब विवरण उपनिषदों में मौजूद है। 
शक्ति को ही वीर्य कहा जाता है, आहारशुद्धौ चित्त शुद्धि व्यर्थ में वीर्य का नाश करके कोई लाभ नहीं होगा। पहले एक दीपक जलता है, उससे दूसरा दीपक जलता है। एक ही दीपक से एकसाथ 1000 दीपक नहीं जल सकता है। एक साथ 1000 मन को प्रदीप्त नहीं किया जा सकता है। हाँ electric current से 1000 लोगों को Electrocute किया जा सकता है। अचानक करंट प्रवाहित होने से बल्ब फ्यूज भी हो सकता है। एक साथ 1000 बल्ब को series में रखकर एक स्विच दबाने से सारे बल्ब  जल उठते हैं। पर उस करेंट के झटके से कई बल्ब फ्यूज भी हो सकते हैं। चैतन्य सबको एक साथ प्राप्त हो जाये यह आवश्यक नहीं है। 
आग का धर्म और बर्फ का धर्म तो उसका स्वाभाविक गुण है। किन्तु मनुष्य को निःस्वार्थपर होने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। चरित्र हर मनुष्य का स्वाभाविक गुण नहीं है। पशु-पक्षी-वृक्ष, आदि पहले से पूर्ण होते हैं। आग-पानी -बिजली पहले से पूर्ण है, किन्तु मनुष्य को विवेक-प्रयोग करके प्रचण्ड इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प के बलपर चरित्रवान मनुष्य बनना पड़ता है। चरित्रवान ,मनुष्य वही है जिसका विवेक हमेशा जाग्रत रहता है। स्वप्न में भी उससे बुरा काम नहीं हो सकता है। आदत ही पुराना होने से व्यसन (वासना) हो जाता है। व्यसन की गुलामी ही हमें पशु बनाये हुए है। सभी व्यसनों को एक एक करके तोड़ डालो। प्रचण्ड इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प के बल पर मनुष्य बन जाओ। सामूहिक ध्यान mass meditation  नहीं हो सकता है। mass prayer सामूहिक प्रार्थना हो सकती है। काली और नरेन्द्र एक साथ बैठकर ध्यान कर रहे थे। नरेन्द्र ने काली के शरीर को स्पर्श कर दिया। उसका सारा भाव नष्ट हो गया। ठाकुर ने सुना तो नरेन्द्र को डाँटा। उसका भाव क्यों खराब करते हो ? यदि तुम शरीर का स्पर्श न भी करो , एक मन के विचार-तरंगों का प्रभाव दूसरे मन पर अवश्य पड़ेगा। अभी तो मोबाईल का युग है, हमलोग ध्वनि तरंगों की सहायता से ही बात करते हैं। यदि एक साथ कई लोग बैठकर ध्यान करेंगे तो उनकी विचार तरंगे आपस में interfere करेंगी। इसलिए ग्रुप में बैठकर ध्यान करना सही तरीका नहीं है। अभी हाल में समाचार आया था कि भुवनेश्वर में 1 लाख लोग एक साथ बैठकर ध्यान किया है। कोई बता सकता है -What they got ?  महामण्डल में कोई भी Paid Worker नहीं होता है। इस तरह की दूसरी संस्था कहीं  नहीं है, अभी Australia में एक संस्था खुली है, वह भी चन्द वर्षों पहले खुली है।
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3. व्यक्तित्व और चरित्र में क्या अन्तर है ? आजकल कई क्लबों के द्वारा personality development course' व्यक्तित्व विकास पाठ्यक्रम, या व्यक्तित्व विकास पर संगोष्ठी (seminar) आयोजित की जाती है। तीन दिन या तीस दिन का कोर्स करके  पैसा कमाने के लिए सूट-बूट पहन लेने और अंग्रेजी बोलने को व्यक्तित्व विकास नहीं कहा जाता है। सूट-बूट वाला व्यक्तित्व विकास बाहर की वस्तु है, appearance या दिखावटी चमक है। everything that glitters are not gold ' हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती। जबकि चरित्र मनुष्य की आंतरिक वस्तु है, मन और हृदय के विकसित होने पर निर्भर करती है। चरित्र-निर्माण के लिए अर्थात मन और हृदय को विकसित करने के लिए कोई गोली (tablet) या शर्बत (syrup) नहीं उपलब्ध है। चरित्र बाहरी वेशभूषा, दाढ़ी-बाल के (style) या बोलने के अंदाज पर निर्भर नहीं करता है। चाणक्यशतकम् में कहा गया है - दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः। तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किंचिन्न भाषते॥  --अर्थात किसी सभा में लंबी शाल तथा खेस इत्यादि धारण करके  सज-धज कर बैठा मूर्ख भी दूर से देखने पर बहुत सुंदर दिखाई देते हैं । किंतु वह तभी तक सुंदर दीखते हैं जबतक कुछ बोलने के लिए वे अपना मुख नहीं खोलते, जैसे ही किसी विषय पर राय जाहिर करने के लिए अपना मुख खोलते हैं, उनकी मूर्खता पकड़ी जाती है। क्योंकि इस प्रकार की कोई भी, वाचिक या व्यवहारिक अभिव्यक्ति हमारे आंतरिक व्यक्तित्व (मन और हृदय के विकास) की कलई खोल ही देती है। हमारे बोलने, विचारने या आचरण से हमारे यथार्थ व्यक्तित्व का भंडाफोड़ तो हो ही जाता है। वास्तव में "चरित्र" ही हमारा समग्र "व्यक्तित्व" है। दिखावटी व्यक्तित्व के विकास से चलने का style बदलना cat walk करना यह सब दूसरों को दिखलाने के लिए है। 'self confidence and overconfidence' चरित्रवान मनुष्य में (के हृदय में) आत्मविश्वास कूटकूटकर भरा होता है, किन्तु वह अपने (देह-मन के) सामर्थ्य से अधिक बोलने या करने की चेष्टा नहीं करता। किन्तु जिस मनुष्य में (अपने ऊँचे खानदान, पद, उच्च डिग्री  या धन-दौलत के बल पर ) झूठा आत्मविश्वास या अति-आत्मविश्वास दिखलाने का भाव होता है वह अपनी औकात से अधिक (देह-मन,बुद्धि की क्षमता से अधिक) बोलने और करने की चेष्टा करता है। (मफलर-मैन,पप्पू राफेल इसके ही उदाहरण हैं ?) 
4. आत्मा क्या है ? किसी राज्य के राजा और प्रजा दोनों मूर्ख थे। राजा ने दरबार में उपस्थित एक संन्यासी से पूछा आप बतलाइये बुद्धिमान किसे कहते हैं ? संन्यासी ने कहा जो आत्मा को शून्य कहकर उड़ा देता है, वह मूर्ख है। शास्त्र और श्रुति में आत्मा को जानने की युक्ति बताई गयी है, जिससे आत्मा को समझने में सहायता मिल सकती है। किन्तु आत्मा को पुस्तकों को पढ़ कर और तर्क के द्वारा आत्मा को प्रमाणित नहीं किया जा सकता है। किसी ब्रह्मज्ञ-शास्त्रज्ञ गुरु से -चित्तवृत्ति निरोध के लिए निर्धारित साधन -पद्धति 'महापुरुष प्रणिधान' जानकर उसकी उपलब्धि स्वयं करनी पड़ती है। यह दृश्यमान जगत प्रपंच आत्मा (ब्रह्म) से ही उत्पन्न हुआ है, उसी में स्थित है, फिर उसी में लीन हो जाता है। किन्तु इन बातों को भाषण के द्वारा नहीं समझा या समझाया नहीं जा सकता है. इसकी अनुभूति करनी होती है। शास्त्रों में ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्नम ' या  'जन्मादि यस्य यतः ' आदि सूत्रों के द्वारा केवल उसका संकेत भर दिया जा सकता है।  एक बार किसी स्थान में पूछा गया था कि परमात्मा या ब्रह्म एक है, तो उससे इतनी आत्मायें छह अरब मनुष्य, और स्वयं भगवान होने का दावा करने वाले हजारों कैसे घूम रहे है  ? एक ही वस्तु (आत्मा) से इतनी सृष्टि निकली, इतने टुकड़े हो गये तब तो ब्रह्म भी खत्म हो गया होगा ? ब्रह्म या आत्मा अनन्त हैं, विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि अनन्त का अंश नहीं होता। अनन्त से अनन्त को निकालने से अनन्त ही बचता है। भगवान इतने अधिक हो गए हैं, उनके लिए एक showroom -प्रदर्शनी घर बनाने की आवश्यकता हो सकती है। आत्मा ही इस जगत का निमित्त और उपादान कारण दोनों हैं. जगत को निर्मित करने के लिये Raw Material जैसा अलग से कुछ नहीं है.आमतौर से हमलोग जीवात्मा को आत्मा कहते हैं, किन्तु जीव का शरीर भी एक मन्दिर है, जिसमें वही ब्रह्म अवस्थित हैं. 'प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥' फिर उसके परे भी जो कुछ है, वह ब्रह्म ही है. ' सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥  - समूचा विश्व ब्रह्माण्ड इसके एक पाद या एक अंश में अवस्थित है, उसके तीन पाद इसके परे हैं. आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। आत्मा का निरूपण श्रीमद्भगवदगीता या गीता में किया गया है। आत्मा को शस्त्र से काटा नहीं जा सकता, अग्नि उसे जला नहीं सकती, जल उसे गीला नहीं कर सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने शरीर को त्याग कर नवीन शरीर धारण करता है। तत्त्वमसि - वह तुम्हीं हो ! इससे अधिक नहीं कहूँगा।
5. धर्म क्या है ? कहा गया है- धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः।यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।।अर्थात्—‘जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं। ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। जिसमें प्रजा को एकसूत्रता में बाँध देने की ताकत है, वह निश्चय ही धर्म है।’ 'धारयति इति धर्म:!'  जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। जो हमारी रक्षा करता है -अर्थात हमें पशु या राक्षस बन जाने से बचाये रखता है। जो गुण हमें चौपाया जानवर (घोर-स्वार्थी)नहीं होने देता वही धर्म है। जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते हैं इत्यादि। धारण करना सही भी हो सकता है और गलत भी; तब हमें  क्या धारण करना चाहिए ?  विवेक-प्रयोग करने के बाद जो-जो गुण, कर्म और स्वभाव- जैसे 'निःस्वार्थपरता मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए उचित होते हैं' उनको धारण करने को धर्म की संज्ञा दी गयी है। यम-नियम को जीवन में धारण करना सार्वभौम व्रत है। यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।  धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है।  सृष्टि और स्वयं के हित और विकास में किए जाने वाले सभी कर्म धर्म हैं। धर्म की परिभाषा काल एवं परिस्थिति पर भी निर्भर करती है। परन्तु किसी भी परिस्थिति में इसका प्रयोग किसी भी जीवात्मा को हानि पहुंचने के लिए नहीं किया जा सकता है। क्योंकि ऐसा करना धर्म के मूल भावना के विरूद्ध है।
6. प्रश्न : जन्म के पहले मैं कहाँ था ? 
 गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को बोलते हैं, बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।४/५ ।। " हे परन्तप अर्जुन मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको तू नहीं जानता, किंतु मैं जानता हूँ. " बुद्ध को भी अपना ५०० पूर्व जन्म याद था. किन्तु हमलोगों को इस बहस में न पड़कर यह देखना चाहिये कि इस जन्म में मेरा क्या कर्तव्य है ? कण्ठ फूट जाने के बाद कोई तोता राम राम बोलना नहीं सीख पाता है. इसलिये तरुण या युवा अवस्था में हमलोगों का पहला कर्तव्य अपने जीवन को गठित करना, चरित्र-निर्माण करके यथार्थ मनुष्य बन जाना है। नहीं तो इस जन्म के बाद , या इस शरीर की मृत्यु हो जाने के बाद, जिस किसी शरीर में जाऊँगा, अथवा जहाँ कहीं भी (विदेहमुक्ति की अवस्था में ?) जाउँगा, जिस किसी योनि में जाऊंगा, वहाँ इसी शरीर को लेकर तो नहीं जा सकूँगा ?
7.   मेरा स्वरुप क्या है ? यह कोई ' कौन बनेगा करोड़पति ' में पूछा जाने वाला प्रश्न नहीं है. आत्मा बोल भी दिया जाय, तो तुम्हें इससे कोई लाभ नहीं होगा- इसकी स्वयं उपलब्धी करनी होगी। जगत और ब्रह्म स्वरूपतः  एक ही वस्तु है, ब्रह्म के सिवा अन्य कोई वस्तु नहीं है. ठाकुर ने कहा था - ' ब्रह्म ही वस्तु है बाकी सबकुछ अवस्तु है. ' वस्तु के उपर अवस्तु आरोपित है! किन्तु 'परिणाम वाद' और 'विवर्त-वाद' पर बहस करके इसे समझा नहीं जा सकता। द्रष्टा-दृश्य विवेक का अभ्यास करना होता है, यह सब मुख से कहने से कुछ नहीं होता। चरित्र गठन करने से ही पता चल सकता है. अपने स्वरुप की उपासना करो ! ऐसा किसने कहा ? इस शिविर में किसी की उपासना करना तो सिखाया नहीं जाता है. स्वामी विवेकानन्द से प्रेम करने को यदि उपासना समझते हो तो कर सकते हो. 
8.धार्मिक मनुष्य (Religious) और धर्म-निरपेक्ष (Secular) मनुष्य में क्या अंतर होता है ?
उत्तर : अंग्रेजी का रिलिजन शब्द ग्रीक रूट ' Rejoining ' से हुआ है, हमलोग ईश्वर से आये  हैं, और धर्म के मार्ग पर चलकर उनसे पुनः मिल जायेंगे। Secular का अर्थ है धर्म से अलग रहना ' To shun Religion' . धर्म निरपेक्षता शब्द का अविष्कार cunning politicians धूर्त राजनेताओं (भ्रष्ट कांग्रेसियों) ने हिन्दू-मुसलमानों के बीच झगड़ा करवाने के लिये किया है।  ठाकुर ने कहा है- मनुष्य को अपने जीवन आदर्श के रूप में सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्यन करने करने के बाद ' सर्वधर्म समन्वय ' को स्वीकार करना चाहिये। Secular शब्द को ' सर्वधर्म समभाव ' से परिभाषित करते हुए धर्म-निरपेक्ष होने की वकालत करने वाले धूर्त राजनीतिज्ञ (वामपंथी लोग) सोचते हैं- दुनिया के सभी धर्म बेकार हैं - इसलिये धर्म या आध्यात्मिकता और रूहानियत की बातों से भी जनता को दूर रखना चाहिये। ऐसी धर्मनिरपेक्ष वामपंथी मानसिकता ही वर्तमान समय में कुछ मनुष्यों को पशु या राक्षस बनाती जा रही है।
9. मनुष्य के ईश्वर बन जाने की सम्भावना ,जगत की समस्याओं में दब कैसे जाती है ?ईश्वर (की शक्ति माया) छुपने और छुपाने के खेल का expert - (विशेषज्ञ या माहिर) निपुण खिलाड़ी है। माया की दो शक्ति है -आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति। वह मनुष्य की संभावना को समस्याओं के आवरण में छुपा देता है।  बिलियर्ड बॉल की तरह समस्याओं से टकराते टकराते उन्हीं समस्याओं के बीच से ईश्वर स्वयं प्रकट हो जाता है। समस्याओं को हल करने के प्रयत्न में ईश्वरत्व  प्रकट हो जाता है।  [srs/kjs/skm/ugp/amb/ माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय का अहं-बोध प्रकट हो जाता है।]
अपने ही अंदर वह आनन्द को छुपाये हुए है, किन्तु मनुष्य को लगता है, नये साल को मनाने के लिये शराब पीने से आनन्द होगा। किन्तु जो विवेकी होता है, वह जानता है कि ' नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ! ' किन्तु बोतल नहीं नाचती, शराब के नशे में मनुष्य नाचने लगता है। हमलोगों के ह्रदय के अन्दर वह ईश्वर ही प्रेम (आनन्द) का चुम्बक बन कर छुप गया है; वही चुम्बक दूसरों के ह्रदय को खीँच रहा है. वास्तव में समस्यायें नहीं, आनन्द और प्रेम ही हमें खीँच रहा है; किन्तु हम दूसरों को अपना बनाने की कला नहीं जानते इसीलिये अपने रिश्तेदारों में., सास-बहु और साजिश जानते हैं, एक दूसरे में ईश्वर को देखना नहीं जानते।हमें अमृत का पुत्र कहने वाला यह धर्म  हमें किसी काली गुफा में नहीं ले जा रही है। धर्म और अध्यात्म का सही स्वरूप तो हमें प्रकाश की ऒर ले जाता है।
रूहानियत के नशे में सूफ़ी फ़क़ीर लोग भी नाचने लगते हैं, तो हमारे श्वेताश्वतरोपनिषद् के वेदान्ती ऋषि बोल उठते हैं - शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥ वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं-आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् । तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, तो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो। दूसरा कोई पथ नहीं ।'
 प्रत्येक मनुष्य अव्यक्त ब्रह्म है, मानव मात्र में वही विद्यमान हैं, इस सत्य को जबतक कोई व्यक्ति अपने पुरुषार्थ और माँ जगदम्बा की कृपा से स्वयं उपलब्धि नहीं कर लेता,तबतक समस्याओं को देखकर उसका विश्वास डोल जाता है, और वह डर कर पहले ही आक्रमण कर देता है. गुगली वाले गेन्द को देखकर जैसे बैट्स मैन डर जाता है,और जल्दी बल्ला चला देता है, या जल्दी रन पूरा करने के लालच में स्टम्प-आउट हो जाता है। गुगली गेंदों जैसी आती हुई समस्याओं को देखकर दौड़ो मत;गेन्द को खेल देना ही काफी है।  गेन्द को स्वीकार कर लेना - मारना नहीं है, बल्ला से केवल touch कर देना ही काफी है। समस्यायें खुद से नहीं आ रही हैं,  हमने जो आर्डर दिया था, वही पार्सल आ रहा है। पार्सल को खोलकर देखो, धैर्य है तो समस्याओं को दूर हटकर संभावनाएँ खुल जायेंगी; ईश्वर की लीला समझ में आ जाएगी।  प्रार्थना शुरू करके कम परिश्रम से ज्यादा आनन्द मिलने वाला है. अब हमलोग समस्या रूपी गुगली बॉल से घबड़ाने वाले नहीं हैं. क्या हममें अपने आप पर अकंप विश्वास है ? अटल विश्वास कभी काँप नहीं सकता है. हर समस्या के आने पर उसको खोलकर देखने की स्वीकारता ही उसकी चाभी है, जब तक कोई समस्या डरावनी लग रही है, तब तक हमारी प्रार्थना भी चलती रहनी चाहिये।पुरे वर्ष के लिये ३६५ प्रार्थनायें बनानी हैं, रोज एक नई प्रार्थना करनी है. हमारे A.C. से रूहानी हवा आनी चाहिये, गर्मी से राहत देने वाली हवा हमें नहीं चाहिये।  इसके अंदर (अपने हृदय की ओर इंगित करते हुए ?) किसको छुपाया है? यह बाहर से देखकर समझ ही नहीं आता।  "Believe, and You are Saved" (John 6:40) माँ जगदम्बा की कृपा में विश्वास करो, और तुम मरने से बच जाओगे, शाश्वत जीवन पाओगे। क्योंकि माँ जगदम्बा की यही इच्छा है कि जिसने उसके चपरास प्राप्त (भावमुखी रहने का चपरास) पुत्र अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण (विवेकानन्द) का दर्शन करेगा और उनमें विश्वास करेगा -" जो राम जो कृष्ण , वही रामकृष्ण ! " इस बात पर विश्वास करेगा उसे अनंत जीवन प्राप्त होगा। For this is the will of God, that every one who sees the Son and believes in him should have eternal life; and I will raise him up at the last day. स्वरुप के उपर जो निगेटिव राख जमा हो गया है, वह प्रार्थना के बल पर उड़ जायेगा। जो प्रार्थना हमारे ह्रदय चुम्बक को छू जाती हैं, वे अवश्य ही विश्वास की अनुभूति करता है -सेल्फ को रियालाइज करता है.हृदय से की गयी यह प्रार्थना - You are the light of my soul O Lord/
हे भगवान-श्रीरामकृष्ण तुम मेरी आत्मा की ज्योति हो !  "नव वर्ष की शुभकामना में बहुत कुछ छुपा हुआ है. हमें यह विचार करना चाहिये कि इस वर्ष हमने अपनी कितनी और कौन कौन सी संभावनाओं को अभिव्यक्त कर लिया है? Well Begun is half done' अच्छी शुरूआत तो आधा काम पूरा! इस कहावत का सच्चा मर्म केवल वह चरित्रवान व्यक्ति ही समझ सकता है, जिसका विवेक हर समय जाग्रत रहता हो! यदि सही दिशा में चलना शुरू कर दिया है (विवेकदर्शन का अभ्यास शुरू कर दिया है ? तो अब हमारे आगे मन का नाटक और अधिक चलने वाला नहीं है। जैसे काशी की ओर जाने से कोलकाता अपने दूर होता जाता है।  चरित्रवान मनुष्य वही है, जिसका विवेक सदा जाग्रत रहता है, स्वप्न में भी उससे कोई बुरा कार्य नहीं हो सकता है. आदत ही परिपक्व होकर व्यसन बन जाता है. व्यसन की गुलामी ही पशु बनाये रखती है. एक एक कर के समस्त व्यसनों को तोड़ डालो। प्रचण्ड इच्छा शक्ति और दृढ संकल्प के बल पर मनुष्य बन जाओ ! 
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1.आर काज नाइ माँ ज्ञान विचारे। दे माँ पागल करे, ब्रह्ममयी दे माँ पागल करे,माँ गो दे माँ पागल करे, आमाय दे माँ पागल करे,आमाय दे माँ पागल करे, आमाय दे माँ पागल करे। 
2. साधन करना चाही रे मनवा भजन करना (ॐ जपना चाहिए) चाहिये ।प्रेम लगाना चाही रे मनवा प्रीत करना चाहिये ।।नित नाहन से हरि मिले तो जल-जन्तु बहु होय ;फल मूल खाके हरि मिले तो भरे बान्दुर बाँद्राय ।।तुलसी पूजन से हरि मिले तो मैं पूजूँ तुलसी झाड़ ;पत्थर पूजन से हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ।।तीरण भखन से हरि मिले तो बहुत हैं मृगी अजा;स्त्री छोड़न से हरि मिले तो बहुत रहे हैं खोजा ।।दूध पीवन से हरि मिले तो बहुत रहे वत्स वाला ; ' मीरा ' कहे बिना प्रेम से नहीं मिले नन्दलाला ।।मनवा साधन करना चाहिये]
3.लक्ष प्राणेर दुःख यदि वक्षे रे तोर बाजे । मूर्त क'रे तोल रे तोरे सकल काजेर माझे ।१।जा छूटे जा उरे पागल, वज्र-रोले सबारे बल,उठ रे तोरा, मोछ आँखिजल, भोल रे अलीक लाजे ।२।प्राण दिये तोर ज्वले आगुन ज्वाला सकल घरे;स्वार्थ-द्वन्द्व मृत्युभीति छाई हये जाक पूड़े ।३।आबार चेये देखुक जगत, तोराउ मानुष तोराउ महत,आजउ तोदेर शिराय शिराय तप्त शोणित आछे ।४।-स्वामी चण्डिकानन्द/
4.आज थेके माँ आमी होबो तोर लक्खी छेले। आर दुष्टोमि कोरबो ना माँ, एबार आमी कोरबो माँ ठीक तोमार ही मनेर मोतून। जेखोन जेमन तेखोन तेमन बोले दिबे माँ, सदा थाकबि माँ अमार ही संगे। 
5.अनंत रूपिणी अनंत गुणवती अनन्त-नाम्नि गिरिजे माँ ।शिव-हृन्मोहिनि विश्व-विलासिनी रामकृष्ण-जय-दायिनी माँ ।।जगज्जननी त्रिलोकपालिनी विश्वसुवासिनी शुभदे माँ ।दुर्गतिनाशिनी सन्मतिदायिनी भोग-मोक्षसुख-कारिणि माँ ।।परमे पार्वति सुन्दरि भगवति दुर्गे भामति त्व मे माँ ।।प्रसीद मातर्नगेन्द्र-नन्दिनी चिरसुखदायिनी जयदे माँ ।।  অনন্তরূপিণী অনন্তগুণবতী অনন্তনাম্নী /दरबारी कानाड़ा-झाँपताल-  
6.सबारि माँ हये आजि के तूमि धराते एले/सबारि माँ हये आजि के तूमि धराते एले ।सबारि दुःखेते सदा भासिछ नयन जले ।१।देश-जाति भेद नाई, श्रीपदे सबारि ठाँई ।पापी तापी सबे तूमि ' बाछा ' बले कर कोले ।२।सब देश सब जाति ' माँ ' नामे उठिछे माति ।तोमारे करि' प्रणति सब दुःख जाय भूले ।३।' माँ ' नाम शिखाते सबे 'माँ ' हये ऐसेछ भवे ।मोरेउ शिखाउ तबे, आमि जे तोमारि छेले ।४।-स्वामी चण्डिकानन्द/ 
7. करुणा-पाथार जननी आमार/ 
8. सार देबे बोले एसेछे सारदा असार ए संसारे ।सार देबे बोले एसेछे सारदा असार ए संसारे ।सतेर जननी असतेर तिनि, माता गुरु एकाधारे ।।वासनार बसे फिरे फिरे आसि, सार भुले शुधु संग भालोबाशि;सपनेर घोरे कतो काँदि हासि भूले थाकि जननी रे ।।पेते चाओ जदि मन ए जीवने शान्तिर पारावार,भूलोना गो तार शेषे बोला बानी, दोष धरो आपनार,अपरेर दोष देखो ना गो जेनो, तोमारिइ जगत भूलो ना कखन,रुपे रुपे प्राणे जेने शेष करो, आसा जावा बारे बारे ।।भावानुवाद  ( पटदीप-एकताल)सार देने हेतु आयी है सारदा असार संसार में  ।सत असत की जननी वही माता गुरु एक ही में ।।वासना वश आऊं बार-बार मत्त रहूँ संग भूलकर सार,सपने में रोऊँ गाऊँ मैं कितना भूल जननी को रे ।।यदि चाहो मन इस जीवन में शान्ति अमिय पाना,भूलो न उनकी अन्तिम वाणी, दोष सदा देखो अपना ।दूसरे के दोष न कभी, तुम्हारा ही संसार भूलो न कभी,भव बन्धन तोड़ो अपने, देख माँ को सभी में ।।  (भैरवी-एकताल )
9. मा त्वं हि तारा, तुमि त्रिगुणधरा परात्परा ।/  मा त्वं हि तारा, तुमि त्रिगुणधरा परात्परा ।आमि जानि गो ओ दीनदयामयी, तुमि दुर्गमेते दुःखहरा ।।तुमि जले, तुमि स्थले, तुमि आद्यमूले गो मा ।आछो  सर्वघटे अक्षपुटे, साकार आकार निराकारा ।।तुमि संध्या, तुमि गायत्री, तुमि जगदधात्री गो मा ।अकूलेर त्राणकत्री सदाशिवेर मनोहरा ।।हिन्दी भावानुवाद  (भैरवी-एकताल )माँ तू ही तारा, तू त्रिगुणधरा परात्परा ।मैं जानूँ तू दीनदयामयी दुरूह दुःखहरा ।।जल में तू स्थल में तू सब के मूल में तू ही माँ ।घट-घट में, आँखों की पुतली में -तू ही विराजे, साकार आकार निराकारा ।।तू ही संध्या तू गायत्री तू ही जगदधात्री है माँ ।भवसागर की पारकर्त्री सदाशिव की मनोहरा ।।আমার মা ত্বং হি তারা, তুমি ত্রিগুণধরা পরাৎপরা. আমি জানি মা ও দীনদয়াময়ী তুমি দুর্গমেতে দুঃখহরা।তুমি জলে তুমি স্থলে তুমি আদ্যমূলে গো মা,আছ সর্বঘটে অর্ঘ্যপুটে সাকার আকার নিরাকারা।তুমি সন্ধ্যা তুমি গায়ত্রী তুমি জগদ্ধাত্রী গো মা অকুলের প্রাণকর্ত্রী সদা শিবের মনোহরা। (३)(मनोहरसाही-झपताल )
11. सकलि तोमारि इच्छा इच्छामयी तारा तुमि ।  सकलि तोमारि इच्छा इच्छामयी तारा तुमि ।तोमार कर्म तुमि करो माँ, लोके बोले करि आमि।।पंके बद्ध करो करि, पंगुरे लंघाओ गिरि,कारे दाओ माँ ब्रह्मपद, कारे करो अधोगामी ।।आमि यंत्र तुमि यंत्री, आमि घर तुमि घरनी,आमि रथ तुमि रथी, जेमन चालाओ तेमनि चलि ।।भावानुवाद -सभी  तेरी इच्छा है माँ इच्छामयी तारा तुम्हीं ।अपना कर्म तुम्हीं करती माँ लोग कहते करते हमहीं ।।फँसाती कीच में हाथी, लंघाती पंगु को गिरि ।देती हो किसी को ब्रह्मपद माँ, करती किसी को अधोगामी ।।मैं हूँ यंत्र तुम हो यंत्री, मैं हूँ घर तुम हो घरनी ।मैं हूँ रथ तुम हो रथी माँ, चलता जैसा चलाती माँ।।
12.(माँ तोर ) रंग देखे रंगमयी अवाक् ह्येछि/ (माँ तोर ) रंग देखे रंगमयी अवाक् ह्येछि हासिब कि काँदिब माँ वसे भावतेछि ।एतकाल रईलाम काछे, बेड़ाईलाम पाछे पाछे,बूझिते ना पेरे रंग हार मेनेछि ।विचित्र  एई भावेर खेला भांगो गड़ दूटि वेला,ठीक येन माँ पूतूल खेला बूझते पेरेछि ।-त्रैलोक्यनाथ सान्याल । 
13. माँ आछेन आर आमि आछि/ माँ आछेन आर आमि आछि भावना कि आछे आमार;मार हाते खाई परि, माँ नियेछेन आमार भार ।।(पड़े) संसार पाके घोर बिपाके जखन देखबि अंधकार,(देखबि) अन्धकार /
14 आमरा मायेर छेले, आमरा मायेर छेले |आमरा की कम आसुक ना म जिनब अवहेले ||पथेर परे विपद पेले दलते पारि पदतले |हुंकारेते सार शुकाय पहाड़ पड़े टले ||चन्द्र सूर्य ग्रह तारा, मायेर कथाय घुरछे तारा |ऐमन मायेर छेले मोरा दुर्बल के बोले ||मोदेर आबार पाप कोथाय, स्वर्ग  नरक के बलों चाय ?काज फुराले संध्याबेलाय माँ करिबे कोले ||मिश्र-दादरा 
15.ঠাকুর আমার মা এনেছে দেখবি যদি তায়,এমন স্নেহময়ী মা তো কেউ দেখেনি হায়।।স্বামীজীর মন্ত্র মোরা ভুলব না, স্বামীজীর স্বপ্ন মোরা ভুলব না।ভারতভূমি পুণ্যভূমি ভুলব না, ত্যাগ ও সেবা মন্ত্র মোদের -ভুলব না। - Song Written by  Swami বালভদ্রনান্দা/
16. पोहालो दुखरजनी, ग्यॅछे आमी आमी./
17.ॐ यथाग्नेर्दाहिका शक्तिः रामकृष्ण स्थिता हि या। सर्वविद्यास्वरुपाम् तां सारदां प्रणमाम्यहम् |
18.  शृण्वन्तु  विश्वे, अमृतस्य पुत्राः । आयेधामानि दिव्यान्वितस्तुः वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम् , आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् , तमेव विधित्वा अति मृत्युमेति , नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय । उत्तिष्ठत जाग्रत, प्राप्य वरान् निभोदत । मूर्तमहेश्वरमूज्ज्वल-भास्करमिष्टममर-नरवन्द्य्म।वन्दे वेदतनूमूज्झित-गर्हित-कांचन-कामिनी-बन्धम ।१ कोटिभानूकरदीप्तसिंहमहो ! कटितटकौपीनवन्तम , अभिरभी:-हूँकार-नादित-दिंग्मूख-प्रचण्ड-ताण्डव-नृत्यम ।२।भूक्ति-मूक्ति-कृपा-कटाक्ष प्रेक्षण मघद्ल-विदलन दक्षं,बालचन्द्रधर-मिन्दू- वन्द्य-मिह नौमी गुरुविवेकानन्दम।३।- 
अर्थात जो सूर्य के सदृश प्रदीप्त एवं देवताओं तथा मनुष्यों के वन्दनीय हैं, जिन्होंने काम-कांचन के प्रति मोह के बन्धन को त्याग दिया है, उन्हीं देवतनू मूर्तिमान महेश्वर मेरे ईष्ट-देव विवेकानन्द की मैं वंदना करता हूँ.।१। अहो: जो कोटि भास्कर के किरणों से मण्डित सिंह के सदृश शोभायमान हैं, जो (महावीर हनूमान की तरह)कटि पर केवल कौपीन पहनते हैं, तथा जो अभी: अभी: के हूंकार से दसों दिशाओं को निनादित करते हुए प्रचण्ड ताण्डव नृत्य करते हैं---- ।२।जिनके  कृपा-कटाक्ष से भोग एवं मोक्ष दोनों संभव हो जाते हैं, जो पाप के समूह को दलन करने में समर्थ हैं, जो शशि-कलाधारी हैं, शिवस्वरूप हैं, उसी ईन्दु के आराध्य गुरु रूपी विवेकानन्द को हमारा प्रणाम !३!  - शरतचन्द्र चक्रवर्ती /lyrics source :_http://vivek-jivan.blogspot.in/2012/03/8.html 
हमें उन राहों पर चलना है, जहाँ गिरना और संभलना है। हम है वो दिये औरों के लिये जिन्हें तूफ़ानों में जलना है। जब तक न लगन हो सीने में, बेकार है ऐसे जीने में। चढ़ना है हमें चंदा की तरह,सूरज की तरह नहीं ढ़लना है। मैं पास रहूँ या दूर रहूँ,ये बात अभी तुम से कह दूँ।  हँसना ही नहीं फूलों कि तरह,दीपक की तरह हमें जलना है। हमें उन राहों पर चलना है......फिल्म मासूम में गीतकार राजा मेहँदी अली खान। 
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[http://sanskaardhani.blogspot.com/आधुनिक विज्ञान के पास जगत को प्रतिपादित करने के तीन सिद्धांत है।]
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