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सोमवार, 21 सितंबर 2020

Born Again 🔱🙏" मानव - पद " को प्राप्त करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ! [ Attaining the " Rank of Human" is our birthright !]

स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा 
 
    [ महामण्डल में 'Be and Make ~ C-in-C, Dy. C-in-C परम्परा'  की अवधारणा] 

1. "उपनिषदों की शिक्षा ~ अर्थात 'शीक्षा' [दीर्घ 'ई' कार के साथ शिक्षा ] ही समाधान है ! "[दीर्घ 'ई' कार के साथ शिक्षा वह प्रशिक्षण है -जो मनुष्य को रोबोट नहीं, हृदयवान मनुष्य बनाता है।महामण्डल ब्लॉग : मंगलवार, 8 अगस्त 2023

2. भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द  द्वारा कैप्टन सेवियर को दिया गया नेतृत्व का विचार / [18 A] স্বামীজির দেওয়া আদর্শ / The idea of leadership given by Swami Vivekananda to Captain Sevier/ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना / স্বামী বিবেকানন্দ প্রদত্ত নেতৃত্বের আদর্শ / ब्रह्मरूपी सिंह-शावक की धुन - देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालात् निर्गच्छति। 
Vivek- Jivan (Vivek-Anjan) ब्लॉग/शनिवार, 15 अगस्त 2020/  

3. Born Again 🔱🙏141th, SPTC : 19-20 July, 2014 ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के १४१ वें स्पेशल आवधिक प्रशिक्षण शिविर पर रिपोर्ट . 
' Vivek- Jivan (Vivek-Anjan)/शनिवार, 26 जुलाई 2014/

4.Born Again 🔱🙏 गुरु-परम्परा में समत्व भाव की मूर्ति (Statue of Equality) श्री रामानुजाचार्य की शिक्षाओं पर स्वामी विवेकानन्द के उद्गार /सनातन धर्म का पनुर्जागरण -3/  महामण्डल ब्लॉग /मंगलवार, 15 अगस्त 2023/

5. Born Again 🔱🙏दुर्लभ-त्रय/ " विवेकानन्द और युवा आन्दोलन " /(समस्त 43 निबन्ध/ प्रकाशक का निवेदन।
 Vivek- Jivan (Vivek-Anjan) ब्लॉग /बुधवार, 8 फ़रवरी 2012/
   
6. Born Again 🔱🙏विश्व के महान शिक्षक निर्माण की वेदान्त परम्परा : स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर  'Be and Make ~ C-in-C, Dy. C-in-C वेदांत परम्परा' में   लीडरशिप ट्रेनिंग। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में समर्थ, स्वयं तरकर दूसरों को पार ले जाने में समर्थ।  " मानव - पद " ( Rank of Human- brahmvid)  भ्रममुक्त ,जीवनमुक्त, de -hypnotized सिंहशावक नेता ,गुरु, शिक्षक पद को  प्राप्त करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है ! 
>>>तत्त्वमसि महावाक्य (Tatvamasi):  तत्त्वमसि (तत् त्वम् असि) भारत के शास्त्रों व उपनिषदों में वर्णित महावाक्यों में से एक है, यह महावाक्य ब्रह्म और आत्मा की एकता का बखान करता है।  जिसका शाब्दिक अर्थ है, वह तुम ही हो। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। यह मंत्र गुजरात प्रान्त के द्वारका धाम या शारदा मठ का भी महावाक्य तत्त्वमसि (तत् त्वम् असि) है, जो कि पश्चिम दिशा में स्थित भारत के चार धामों में से एक है। अगर इस एक वाक्य को ही अनुसरण करते हुए अपनी जीवन की परम स्थिति का अनुसंधान कर लें, तो आपका यह जीवन सार्थक हो जाएगा। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं।

सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।

'तत् त्वम् Sसि' का  ज्ञान प्रदान करने में सक्षम  नेताओं के निर्माण के लिए  रामानुज जैसा 'कर्म और भक्ति' का समन्वय करने वाले प्रशिक्षण का  प्रमुख विषय  होगा, बुढ़ापे में जीवन सूना-सूना सा  क्यों प्रतीत होता है ? मानव जीवन को बहुमूल्य क्यों कहा जाता है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ?  जीवन क्या है  ?
 "3 फ़रवरी,1900 ई० को पसाडेना, कैलिफोर्निया में " School of Humanistic Studies : मानवतावादी अध्ययन स्कूल - शेक्सपियर क्लब, में स्वामी विवेकानन्द द्वारा महामण्डल के 'Be and Make वेदान्त आन्दोलन ' के अनुसार गायक ऋषियों के निर्माण की गुरु परम्परा, जीवन्मुक्त योगियों, भ्रममुक्त- जीवनमुक्त शिक्षकों,  'नेतावरिष्ठ-उपनेता वरिष्ठ निर्माण की वेदान्त परम्परा।'  विषय पर दिया गये अंग्रेजी भाषण का हिन्दी भावानुवाद। (वि०सा० ख० 7/177/(Volume 4, Lectures and Discourses)] 

बारह बरस गुरुकुल में वेद आदि ग्रंथों का अध्ययन करके श्वेतकेतु अपने पिता ऋषि उद्दालक आरुणि के पास लौटा। श्वेतकेतु ने कड़ी मेहनत से जो ज्ञान पाया, उसका उसके मन में अहंकार हो गया। ब्रह्मज्ञानी ऋषि उद्दालक अपने पुत्र में पनप चुके इस अहंकार को भांप गए। उससे सवाल किया।

‘पुत्र, यह बताओ क्या तुमने वह ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया, जिसके जानने के बाद, जो कुछ भी अज्ञात है, रहस्यमय है, वह सब समझ में आ जाता है। जिसे जानने के बाद कुछ और जानने को बचा नहीं रहता, क्या ऐसा कोई उपदेश तुम्हारे आचार्य ने तुम्हें दिया है? श्वेतकेतु की जिज्ञासा बढ़ी। वह पिता से पूछता है- यह ब्रह्म ज्ञान किस प्रकार का ज्ञान है?

ब्रह्म ज्ञान का विस्तार समझाते हुए ऋषि उद्दालक कहते हैं, ‘मिट्टी के रूप को पूरी तरह जान लेने से उससे बनी हुई किसी भी वस्तु को जाना जा सकता है। मिट्टी के लोंदे से बने हुए बर्तनों में मिट्टी ही मूल तत्व है। बर्तन तो मिट्टी को वाणी द्वारा दिया हुआ सिर्फ नाम है। सत्य तो केवल मिट्टी ही है।’

ऋषि ने आगे कहा, ‘इसी तरह सोने से बने हुए कंगन में सोना ही मूल तत्व है। उससे बने हुए आभूषण तो वाणी द्वारा दिए गए अलग-अलग नाम हैं। सत्य तो केवल सोना ही है। लोहे से बने हुए पदार्थ के लिए भी यही सत्य है। वैसे ही नाम और रूप के पार देखने पर पूरे संसार का जो मूल तत्व लक्षित होता है वह ब्रह्म है।
श्वेतकेतु को अपनी भूल समझ में आ गई। वह अपने पिता से आग्रह करता है कि इस ज्ञान को विस्तार से समझाएं।

ऋषि उद्दालक अपने पुत्र की जिज्ञासा देख प्रसन्न होते हैं। उसे सबसे गूढ़, सबसे रहस्यमयी ब्रह्म ज्ञान का उपदेश देने का भरोसा दिलाते हुए कहते हैं, ‘मधुमक्खी कितने ही फूलों से रस लेकर शहद बनाती है। कोई नहीं बता सकता कि शहद की कौन-सी बूंद किस फूल के रस से बनी है। कितनी ही नदियों का जल समुद्र में मिलता है, कोई नहीं बता सकता कि समुद्र की कौन-सी बूंद किस नदी से आई है।

वैसा ही संबंध जीव और ब्रह्म का भी है। जब तक जीव ब्रह्म में लीन नहीं होता, नाम और रूप के कारण दोनों में भेद दिखाई देता है। हर जीव के साथ यही होता है। चाहे वह मनुष्य हो, शेर हो, भालू हो या कोई कीड़ा। नाम और रूप के खो जाने पर जो रहता है, वही ब्रह्म है और वही तुम भी हो श्वेतकेतु।’

छांदोग्य उपनिषद में ऋषि उद्दालक, ब्रह्म और आत्मा की एकता इस प्रकार अपने पुत्र श्वेतकेतु को समझाते हैं। उनके उपदेश का सार है, ‘तत् त्वम असि’। वह जो जगत का कारण है, जिससे संपूर्ण जगत प्रकाशमान है, एक मात्र सत्य है, वह ब्रह्म तुम ही हो। ‘तत् त्वम असि’ एक महावाक्य है। इसे उपदेश वाक्य कहा गया है, क्योंकि ऋषि इस सूत्र के द्वारा शिष्यों को ब्रह्म का उपदेश देता है। यह पश्चिम में स्थित द्वारिका मठ का भी आधार वाक्य है।

‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे’ ऐतरेय उपनिषद का यह सूत्र भी ब्रह्म और आत्मा की एकता की बात कहता है। जैसी सृष्टि है, वैसा ही जीव है। जो संसार बाहर है, वही संसार जीव के अंदर भी है। कबीर, आत्मा और ब्रह्म की तुलना बूंद और समुद्र से करते हुए कहते हैं -

  बूंद समानी समुंद में, जानत है सब कोई, 
समुंद समाना बूंद में, बूझे बिरला कोई।

यह तो सभी जानते हैं की बूंद समुद्र में समाई हुई है, लेकिन कोई बिरला ही देख पाता है की समुद्र भी बूंद में समाया हुआ है।

 गुरु नानक कहते हैं - सागर मही बूंद बूंद मही सागरू, कवणु बूझे बिधि जाणै- बूंद में ही सागर है और सागर में ही बूंद यह कोई कैसे जाने और किस विधि समझे।

स्वामी रामतीर्थ ने इसी सिद्धांत को अपनी कविता में कुछ यूं लिखा है :

जो तू है सो मैं हूं, जो मैं हूं सो तू है,
न कुछ आरज़ू है, न कुछ जुस्तजू है। 

बसा राम मुझ में, मैं अब राम में हूं,
न इक है ना दू है, सदा तू ही तू है।।

विवेकचूड़ामणि में ‘तत् त्वम असि’ की व्याख्या में शंकराचार्य ने लिखा है, ‘जो जातियों से परे है, जो नीतियों से परे है, जो कुल गोत्र से परे है, जो नाम और रूप से परे है, जो गुण-दोष से परे है, जो देश और समय से परे है और किसी भी विषय से परे है, ऐसा जो ब्रह्म है, वही तुम हो।'
अद्वैत के इतर अन्य दर्शनों में भी इस महावाक्य की व्याख्या की गई है।

रामानुजाचार्य (रामानुज) यह स्वीकार करते है मोक्ष प्राप्ति का सीधा साधन ज्ञान ही है किन्तु वे ज्ञान का तादात्य भक्ति से स्थापित करते हैं। कर्म तथा ज्ञान द्वारा ही भक्ति का उदय होता है। मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा आवश्यक मानी गयी है। कृपा केवल भक्ति के माध्यम से ही मिल सकती है।  इस कारण उनका मत विशिष्टाद्वैत (Qualified Monism) कहा जाता है।
 ईश्वर की भक्ति उसमें पूर्ण समर्पण (प्रपत्ति) तथा उसका निरन्तर स्मरण है। यह भक्ति एक विशेष प्रकार का ज्ञान है जो सामान्य ज्ञान से भिन्न है।  ईश्वर के स्वभाव का प्रेमपूर्वक ध्यान करना ही भक्ति है। भक्ति के लिए बातें आवश्यक बतायी गयी हैं—(1) मन को पूर्णरूपेण ईश्वर में केन्द्रित करना तथा (2) भगवान के स्वरूप का ज्ञान।

  रामानुज सामान्य तथा विशेष भक्ति में विभेद स्थापित करते हुये कहते हैं कि सामान्य भक्ति ईश्वर का निरन्तर ध्यान है, जबकि विशेष भक्ति ईश्वर का ज्ञान है। प्रपत्ति तथा सतत ध्यान से परम भक्ति (ईश्वर के ज्ञान)का  उदय होता है। रामानुज कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग में समन्वय स्थापित करते हैं तथा भक्ति को परम साध्य मानते है। 

रामानुज का मत है कि ईश्वर की कृपा प्राप्त करना ही मोक्ष का सर्वोत्तम साधन है इसके लिये साधक को ईश्वर में अपने को पूर्ण समर्पित करना होता है। इस पूर्ण समर्पण को प्रपति अथवा 'शरणागति' कहा गया।  शरणागत जीव को ईश्वर ही अपनी कृपा-दृष्टि प्रदान करता है और ऐसा भक्त उसका परमप्रिय पात्र बन जाता है। ईश्वर साधक की भक्ति ओर प्रपत्ति से प्रसन्न होकर उसकी सभी भव-बाधाओं को दूर कर देता है तथा उसे अपनी शरण में ले लेता है। यही मोक्ष  की अवस्था है इस प्रकार जहाँ शंकर ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार  करते हैं वहाँ रामानुज भक्ति को वह स्थान देते ह

  उपनिषदों में ब्रह्म तथा आत्मा सम्बन्धी अभेदसूचक वाक्य 'तत्वमसि'  रामानुज इसकी व्याख्या इस प्रकार  करते हैं। 

"ऐतदात्म्यं इदं सर्वम्। तत्सत्यम्। स आत्मा। तत्वमसि श्वेतकेतो" 

 -छांदोग्य उपनिषद (VI.8.7)

उनके अनुसार इस वाक्य का अर्थ यह कदापि नहीं है कि व्यक्ति के अन्तर में स्थित आत्मा ही ब्रह्म है। बल्कि इसका अर्थ यह है कि तत् अर्थात् वह सर्वज्ञ परमात्मा और त्वम् अर्थात् वह परमात्मा जो अचेतन शरीर से युक्त जीव के रूप में स्थित है, दोनों एक है। यहाँ एक ही ब्रह्म के दो विभिन्न रूपों में एकता स्थापित की गयी है, न कि ब्रह्म  तथा आत्मा में । इस प्रकार रामानुज का मत विशिष्टाद्वैत अर्थात् अद्वैत में द्वैत का मत है। इसमें तीन तत्वों को नित्य माना गया है ईश्वर (ब्रह्म), जीव (आत्मा) तथा प्रकृति परमतत्व की कल्पना तीन तत्वों की संगठित समष्टि के रूप में की गयी है। ईश्वर एक होते हुए भी चित् जीव तथा अचित् प्रकृति से विशिष्ट या समन्वित है। वह इस समष्टि का आंतरिक नियन्ता अथवा उसकी परमात्मा है जो चित् तथा अचित् की एकता को बनाये रखता है। प्रकृति के तीन गुण है— सत्व, रज तथा तम। इसी कारण सभी सांसारिक वस्तुओं में इन तीनों गुणों का मिश्रण देखने को मिलता है। प्रलयावस्था में जब प्रकृति सूक्ष्म रूप से ईश्वर में विद्यमान रहती है तब उसे 'अव्यक्त' कहा जाता है। ईश्वर की इच्छा होते ही यह तीन तत्वों में विभाजित हो जाती है- तेज, जल तथा पृथ्वी इनमें क्रमशः सत्व, रज तथा तम, ये तीनों गुण पाये जाते हैं। रामानुज मायावाद को मानते हैं किन्तु उनका मत शंकर के मायावाद से भिन्न है। शंकर के मायावाद की तो वे कटु आलोचना करते हैं। उनके अनुसार इनका कोई आधार नहीं है। 'माया' से रामानुज का तात्पर्य ईश्वर की सृजन-शक्ति (Power of Creation) से है ।  माया का अर्थ अद्भुत विषयों का सृजन करने वाली शक्ति' है।

माधवाचार्य वेदांत के द्वैत दर्शन के प्रमुख दार्शनिक हुए हैं। द्वैत दर्शन में जीवात्मा का ब्रह्म से स्वतंत्र अस्तित्व है। उन्होंने व्याकरण के बहुत छोटे-से फेर से इस महावाक्य का बिलकुल ही अलग अर्थ प्रस्तुत किया। ‘स आत्मा अतत् त्वम् असि’- वह आत्मा तुम नहीं हो। मायावाद के खंडन में उन्होंने इस महावाक्य के अर्थ में कहा की ‘जीव ब्रह्म का सेवक है’।

अक्षर पुरुषोत्तम परंपरा में पुरुषोत्तम, अक्षर, ईश्वर, माया और जीव पांचों का स्वतंत्र और अनंत अस्तित्व है। जीव माया से तभी मुक्त हो सकता है, जब वह पुरुषोत्तम की उपासना कर अक्षर स्वरूप हो जाता है।

शुद्धाद्वैत में ‘ब्रह्मसत्यं जगत्सत्यं अंशोजीवोहि नापरः’ कहा गया है, जिसका अर्थ है - ब्रह्म सत्य है, जगत सत्य है, जीव ब्रह्म का अंश है। यहां ब्रह्म स्वतंत्र तत्व है। जीव उसका अंश है और अनेक होकर प्रकट होता ब्रह्म भी मिथ्या नहीं है।

वेदांत दर्शन की सभी शाखाओं ने अपने सिद्धांतों के अनुसार इस महावाक्य की व्याख्या की है। बाइबल में अपने विरोधियों को समझाते हुए ईसा मसीह कहते हैं, ईश्वर की सत्ता यहां वहां कहीं बाहर नहीं, वह तुम्हारे भीतर है। कबीर इसी ईश्वर की सत्ता के बारे में कहते हैं :

पीर मरे पैगम्बर मरिहैं, मरिहैं ज़िंदा जोगी। 
चंदा मरिहैं सूरज मरिहैं, मरिहैं धरणि आकासा। 
नाम अनाम अनंत रहत है, दूजा तत्व न होइ। 

सत्य का ज्ञान बांचने वाले पीर पैगंबर मर जाते हैं। योगी मर जाते हैं। एक समय आएगा जब सूरज, चांद, धरती, आकाश जैसी अटल और अमर्त्य दिखने वाली वाली चीजें भी नहीं रहेंगी। नाम अकेला तत्व है जो हमेशा रहेगा। यही वह तत्व है, जिसके मिलने पर और कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता।

[साभार /आवाज़ : रोहित उपाध्याय/ https://navbharattimes.indiatimes.com/navbharatgold/spirituality/one-of-the-the-pillar-of-hindu-dharma-is-tatvamasi/story/76372281.cms]
 
 कर्म का रहस्य ( Secret of Work) :
स्वामी जी कहते हैं - " शायद तुम सभी ने यह अनुभव किया होगा कि - मनुष्य जब बुरे कर्मों को करता रहता है (महामण्डल में आने से पहले), तो क्रमशः वह अधिकाधिक बुरा बनता जा रहा था और इसी प्रकार जब वह अच्छे कार्य (5 अभ्यास) करने लगता है, तो दिनोदिन सबल होता जाता है और उसकी प्रवृत्ति (tendency) सदैव सत्कार्य करने की ओर झुकती जाती है। " 

 महामण्डल का सदस्य बन जाने के बाद सत्कार्यों को करने के प्रति हमारे झुकाओ (tendency) का तीव्रीकरण कैसे हो गया ? इसकी व्याख्या केवल एक ही वैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर की जा सकती है कि -'we can act and react upon each other.' प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे के मन पर क्रिया-प्रतिक्रिया करने में समर्थ है ! जब मैं कोई कार्य करता हूँ , तो कहा जा सकता है कि मेरा मन एक विशेष प्रकार की कंपनावस्था में होता है; उस समय अन्य जितने मन उस प्रकार की अवस्था में होंगे , उनकी यह प्रवृत्ति (tendency) होगी कि वे मेरे मन से प्रभावित हो जायें।
  सोनोमीटर प्रयोग जैसा - यदि एक कमरे में भिन्न भिन्न वाद्य-यंत्र एक सुर (Be and Make) में बाँध दिये जायें , तो तुम सबने देखा होगा कि एक को छेड़ने से अन्य सभी की प्रवृत्ति उसी प्रकार का सुर निकालने की होने लगती है। इसी प्रकार जो-जो  मन एक ही सुर में बँधे हैं, उन सबके ऊपर एक विशेष विचार का समान प्रभाव पड़ेगा।  
 स्वामी विवेकानन्द श्री सिंगरावेलु मुदलियार उर्फ़ 'किडी' को 3 मार्च 1894 को लिखित एक पत्र में कहते है - .... मैं तुमसे यहाँ तक सहमत हूँ कि [माँ जगदम्बा या अपने इष्टदेव पर] श्रद्धा (faith-विश्वास जन्य भक्ति ) रखने से एक अद्भुत अन्तर्दृष्टि मिलती है , और केवल विश्वास से ही मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। पर उससे धर्मान्धता उत्पन्न होकर उन्नति में बाधा पड़ने की आशंका रहती है।  ज्ञानमार्ग (सांख्य ) अच्छा है, परन्तु उसके शुष्क तर्क (dry intellectualism -IQ,तार्किक बुद्धिवाद) में परिणत हो जाने का डर रहता है। प्रेम (राधा-कृष्ण भक्ति ) बड़ी ही उच्च वस्तु है , पर निरर्थक भावुकता या रसिकता (meaningless sentimentalism) में परिणत होकर उसके विनष्ट होने का भय रहता है। 
    हमें इन सबका समन्वय ही अभीष्ट है - 'A harmony of all these is the thing required.' श्री रामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत में बहुत कम आते हैं। परन्तु उनके जीवन और उपदेश को आदर्श के रूप में सामने रखकर हम ईश्वरत्व प्राप्ति (निःस्वार्थपरता) की ओर आगे बढ़ सकते हैं ! यदि हम में से प्रत्येक व्यक्तिगत रूप से उस आदर्श [नवनीदा ] की पूर्णता को अपने जीवन  में प्रकटित न कर सकें , तो भी हम उसे सामूहिक रूप से परस्पर एक दूसरे के परिमार्जन , संतुलन , आदान-प्रदान, से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई व्यक्तियों के समूह द्वारा साधित होगा और यह अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों (भावप्रचार परिषद आदि) की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा। 
 पाप या अधर्म वही है , जो उन्नति में (स्वार्थशून्य होने में ) बाधा डालता हो, या पतन में (पशु जैसा घोर स्वार्थी बनने में ) सहायता करता हो ;  और  धर्म वही है , जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि में सहारा मिले।
 
 " शिक्षा का अर्थ है , उस पूर्णता की अभिव्यक्ति , जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है !"
 
" धर्म का अर्थ है उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति , जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।  
अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक /नेता का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है।  जैसा मैं सर्वदा कहा करता हूँ - हस्तक्षेप बंद करो (शाकाहारी -मांसाहारी /विवाहित -अविवाहित प्रत्येक अपना मार्ग स्वयं चुन ले। ) सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है रास्ता साफ़ कर देना -शेष सब भगवान (शिवजी स्वयं) करते हैं।   
Education is the manifestation of the perfection already in man.
Religion is the manifestation of the Divinity already in man.
Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest.

जो शुभ कर्मों (साप्ताहिक पाठचक्र) में भी कुछ न कुछ अशुभ तथा अशुभ कर्मों (कोरोना - वेबिनार) में भी कुछ न कुछ शुभ देखता है, वास्तव में उसीने कर्म का रहस्य समझा है। हम चाहे निरंतर कार्य करते रहें , परन्तु कर्मफलों में इस शुभ और अशुभ के अपरिहार्य साहचर्य का अंत नहीं होगा। तब फिर पूर्णता (perfection) का अर्थ क्या है ? सच पूछा जाय तो 'पूर्ण जीवन ' (Perfect life या आदर्श जीवन) शब्द ही स्वविरोधात्मक ( "square circle" जैसा contradiction in terms) है
 जीवन कोई आसानी से चलने वाला सरल चीज नहीं है - यह तो एक प्रकार का मिश्रित परिणाम है। बहिर्जगत और अन्तर्जगत का घोर संघर्ष ही जीवन कहलाता है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक बाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरन्तर संघर्ष है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब यह संघर्ष समाप्त  जायेगा , तो जीवन का भी अन्त हो जायेगा।  
84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य शरीर प्राप्त होता है, तो क्या हमलोग केवल इन्द्रिय-लोलुप मनुष्य बनने के लिये ही संघर्ष कर रहे थे ? 
      तब हमारे सैकड़ो वर्ष तक का प्रयास क्या व्यर्थ हो गया ? क्या कभी इन्द्रियाँ जीवन का लक्ष्य हो सकती हैं? क्या भोग-सुख मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य हो सकता है ? यदि डार्विन के विकासवाद का सिद्धान्त 'मानव-शरीर' को पशुओं से श्रेष्ठ नहीं मानता, तब यह कहा जा सकता है कि मानवशरीर प्राप्त करना ही एक बड़ी भयंकर भूल है।  ' बार-बार जन्म लेना और मर जाना' - क्या ऐसा जीवन आत्मा का लक्ष्य हो सकता है ? यदि मनुष्य का भाग्य यही है, तब तो इससे अच्छा तो यह होता कि हम वृक्ष और पत्थर या कुत्ते -बिल्ली ही बने रहते। 
[मानव,पशु ,वृक्ष-शरीर~ What are we here for?]       
क्या तुमने कभी गाय को झूठ बोलते सुना है ? अथवा वृक्ष को चोरी करते देखा है ? वे पूर्ण मशीने हैं। वे भूल नहीं करते। वे ऐसे संसार में रहते हैं , जहाँ सब कुछ पूर्ण हैलेकिन हम मनुष्य-शरीर धारण करके यहाँ,  इस भारतभूमि पर किस लिए आये हैं ?  What are we here for? हम यहाँ मुक्ति के लिये आये हैं।[देहध्यास के भ्रम से मुक्त होने, D- Hypnotized हो कर जीवनमुक्ति का आनन्द लेने के लिए आये हैं।] ज्ञान के लिये आये हैं। हम अपने को मुक्त करने के लिये ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। हमारा जीवन मुक्ति के लिए एक विश्वव्याप्त चीत्कार है। क्या कारण है कि पौधा बीज से उगता है , धरती को चीर कर अंकुरित हो जाता है और अपने को आकाश में उठाता है ? तुम्हारा जीवन भी क्या है ? मुक्ति के लिये संघर्ष है। प्रकृति हमें चारों ओर से दमित करने का प्रयत्न कर रही है , और एक अंतर्निहित शक्ति, आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है। प्रकृति के साथ संघर्ष चल रहा है। बाह्य-प्रकृति और अन्तःप्रकृति के उस दबाव को हटाकर , अपनी अंतर्निहित दिव्यता (आत्मशक्ति) को प्रकट कर देना ही जीवन है। ~ Life is the unfoldment and development of a being under circumstances tending to press it down.
     मुक्ति के लिए इस संघर्ष में बहुत सी वस्तुयें कुचल जायेंगी और टूट जायेंगी। [मुक्ति के लिए इस संघर्ष में = मानव-पद को प्राप्त करने की चेष्टा में, परम् सत्य को जानने की चेष्टा में , अपने यथार्थ स्वरुप को जानने की चेष्टा में , पहले एक प्रकाश-स्तम्भ जैसे मार्गदर्शक नेता /गुरु /जीवनमुक्त शिक्षक स्वामी विवेकानन्द को आदर्श चुन लेना होगा ,और पुराने फ़िल्मी आदर्श अमिताभ-रेखा -जया के स्वप्न से जाग उठना होगा, 
दुर्गा, काली , कृष्ण में श्रद्धा रखते हुए भी अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव का भक्त बन जाने पर, मानव-पद प्राप्त हो जाने पर, कितनी ही- देहध्यास जन्य पुरानी मान्यतायें ~  यथा मैं हिन्दू , राजपूत हूँ , बिहारी हूँ , पुरुष/स्त्री देह/भेंड़ हूँ का देहाध्यास समाप्त हो जायेगा। ] और यही तुम्हारे सभी दुःखों का (मृत्यु भय का भी) वास्तविक कारण है। कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में बहुत सी धूल और गर्द भी उठेगी। प्रकृति कहती है , "मैं विजयी होऊँगी !" आत्मा कहती है -"विजयी मुझे होना है." प्रकृति कहती है , " ठहरो ! मैं तुम्हें भेंड़ बनाये रखने के लिए अब कुछ अभूतपूर्व सुखभोग (मिल्क-टॉफी) दूँगी। " आत्मा (सिंहशावक) को थोड़ा मजा आता है , क्षण भर के लिए वह धोखे में पड़ जाती है; पर दूसरे ही क्षण वह मुक्ति के लिए फिर से चीत्कार करने लगती है। 
क्या तुमने युगों से प्रत्येक हृदय में उठ रहे इस , इस अविराम चीत्कार की ओर कभी ध्यान दिया है ? हम कभी गरीबी से धोखा खा जाते हैं। हम धनवान बनते है और धन से धोखा खाते हैं। [गरीब किन्तु ईमानदार टीचर के घर में जन्म लेते हैं तब्ब  .....  हम प्रयत्न करके धनवान बनते हैं, माँ -ठाकुर-स्वामीजी के 'भक्त' = 'विदेह' नहीं बनते इसलिए धन से धोखा खाते हैं।] हम अज्ञानी हैं। हम पढ़ते और जानते हैं , और ज्ञान से भी धोखा खाते हैं। [हम तो बड़े भारी पण्डित हो गए -इस अहं से धोखा खाते हैं।
      कोई मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं होता, और ... यह एक विश्वसनीय संकेत भी है !! अनन्त मानवात्मा स्वयं अनन्त के अतिरिक्त और किसी वस्तु से कभी संतुष्ट नहीं हो सकती।.... अनन्त इच्छा केवल अनन्त ज्ञान से संतुष्ट हो सकती है , उससे कम से नहीं। संसार आएंगे और चले जायेंगे। उससे क्या ? आत्मा रहती है और सदा विस्तार को प्राप्त होती है। संसारों को आत्मा में आना होगा। संसारों को आत्मा में ,समुद्र की बूँद की भाँति विलीन हो जाना होगा। और ऐसा यह संसार ही जीवात्मा का लक्ष्य बने !  ३/१७३  
[पशु पूर्ण हैं, वृक्ष पूर्ण हैं --ईश्वर भी पूर्ण हैं ; उन्हें और कुछ नहीं बनना है । लेकिन मनुष्य चाहे तो मानुषराक्षस या देवमानव के रूप में अपना शरीर त्याग सकता है।-कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये,  ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।
(What is the goal of life? Is enjoyment the goal of life? Were it so, it would be a tremendous mistake to become a man at all. ...  What a mistake then to become a man! Vain have been my years — hundreds of years — of struggle only to become the man of sense-enjoyments. Can senses ever be the goal? Can enjoyment of pleasure ever be the goal? Can this life ever be the goal of the soul?  it would just mean that we go back to being trees and stones and things like that. Did you ever hear a cow tell a lie or see a tree steal? They are perfect machines. They do not make mistakes. They live in a world where everything is finished. What are we here for? We are here for freedom, for knowledge. We want to know in order to make ourselves free. That is our life: one universal cry for freedom. What is the reason the . . . plant grows from the seed, overturning the ground and raising itself up to the skies? What is your life? The same struggle for freedom. Nature is trying all around to suppress us, and the soul wants to express itself. The struggle with nature is going on. Many things will be crushed and broken in this struggle for freedom. That is your real misery. Large masses of dust and dirt must be raised on the battlefield. Nature says, "I will conquer." The soul says, "I must be the conqueror." Nature says, "Wait! I will give you a little enjoyment to keep you quiet." The soul enjoys a little, becomes deluded a moment, but the next moment it [cries for freedom again]. Have you marked the eternal cry going on through the ages in every breast? We are deceived by poverty. We become wealthy and are deceived with wealth. We are ignorant. We read and learn and are deceived with knowledge. No man is ever satisfied. That is the cause of misery, but it is also the cause of all blessing. That is the sure sign. How can you be satisfied with this world? . . . If tomorrow this world becomes heaven, we will say, "Take this away. Give us something else."  The infinite human soul can never be satisfied but by the Infinite itself .... Infinite desire can only be satisfied by infinite knowledge — nothing short of that. Worlds will come and go. What of that? The soul lives and for ever expands. Worlds must come into the soul. Worlds must disappear in the soul like drops in the ocean. And this world to become the goal of the soul!  (The Practice of Religion.Volume 4) हिन्दी खंड ३ /धर्म की साधना -१/
 Goal of Life: Each Soul is potentially divine. The goal is to manifest this divinity within by controlling nature, external and internal. Do this either by work, or worship, or psychic control, or philosophy---by one or more or all of these--and be free. )    
Life is not a simple and smoothly flowing thing, but it is a compound effect. This complex struggle between something inside and the external world is what we call life.  Life itself is a state of continuous struggle between ourselves and everything outside. So it is clear that when this struggle ceases, ther`e will be an end of life." 
 युवा महामण्डल (Organization and Anthem ~ संगठन और संघमंत्र ) की आवश्यकता :दुनिया की सहायता करके हम अपनी ही सहायता  करते हैं। (By helping the world we help ourselves.) :
[2]
अनासक्ति ही पूर्ण देहध्यास के त्याग (स्वार्थशून्यता) में परिणत हो जाता है !
(NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION.)
 
 दूसरों के लिये किये गये कार्य का मुख्य फल है - आत्मशुद्धि याने आत्मपहचान !  दूसरों के प्रति निरन्तर शुभ कर्म करते रहने से हमारा हमारा क्षुद्र अहंकार (देह और मन या नाम-रूप में आसक्ति) क्रमशः दूर होती जाती है। और यह अहमविस्मृति ही एक बहुत बड़ी शिक्षा है , जो हमें जीवन में सीखनी है। परोपकार का प्रत्येक कार्य , सहानुभूति का प्रत्येक विचार , दूसरों की सहायतार्थ किया गया प्रत्येक कर्म , प्रत्येक निःस्वार्थ शुभ कार्य हमारे क्षुद्र अहंभाव को प्रतिक्षण घटाता रहता है , और हम में यह भावना उत्पन्न करता है कि हम तो उपासक (सेवक-worshipper) हैं और यह जगत हमारा उपास्य (worshipped) है ! और इसलिये यह सब कार्य (महामण्डल आंदोलन से जुड़े रहना) सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा है। ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों इस बिन्दु पर मिलते हैं। यह सम्पूर्ण आत्मत्याग (अहमविस्मृति) ही सारी नैतिकता की नींव है। पशु , मनुष्य, देवता (पैगम्बर -नेता -जीवनमुक्त शिक्षक या गुरु विवेकानानन्द, नवनीदा, या अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) सबके लिए यही एक मूलभाव है , जो समस्त नैतिक विधानों में व्याप्त है। 
 राजर्षि (Poet King -राजाकवि)  भर्तृहरि- एक राजा थे और साथ में एक कवि भी ।   कहा जाता है कि कतिपय अनुभवों के पश्चात् उनके मन में वैराग्यभाव जाग गया और उन्होंने राजपाठ अपने छोटे भाई (कदाचित् विक्रमादित्य) को सोंपकर संन्यास ग्रहण कर लिया । उनकी रचनाओं में से एक, शतकत्रयम्, काफी चर्चित रही है, जिसके तीन खंड हैं: नीतिशतकम्, शृंगारशतकम् एवं वैराग्यशतकम् । प्रत्येक में सौ से कुछ अधिक श्लोक सम्मिलित हैं । भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम् (75) में मनुष्यों की चार श्रेणियाँ बताई गयी हैं।
  
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परितज्य ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
   ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।।
 
You will find various classes of men in this world. First, there are the God-men, whose self-abnegation is complete, and who do only good to others even at the sacrifice of their own lives.These are the highest of men. If there are a hundred of such in any country, that country need never despair. But they are unfortunately too few.Then there are the good men who do good to others so long as it does not injure themselves. And there is a third class who, to do good to themselves, injure others.  It is said by a Sanskrit poet that there is a fourth un-namable class of people who injure others merely for injury's sake. Just as there are at one pole of existence the highest good men, who do good for the sake of doing good, so, at the other pole, there are others who injure others just for the sake of the injury. They do not gain anything thereby, but it is their nature to do evil.
 
प्रथम तो वे ‘सत्पुरुष’ या देव-मानव (God-men, whose self-abnegation is complete) हैं, जो पूर्ण आत्मत्यागी होते हैं (जिनका व्यष्टि अहं सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो चुका है) , वे अपने जीवन की भी बाजी लगाकर दूसरों का भला करते हैं। (दूसरों के हित के लिए स्वार्थ का ही त्याग कर जाते हैं।) ये सर्वश्रेष्ठ (Best) पुरुष हैं। यदि किसी देश में ऐसे 100 मनुष्य भी हों , तो फिर उस देश को फिर किसी बात की चिन्ता नहीं। परन्तु खेद है , ऐसे जन वास्तव में बिरले ही होते हैं । अर्थात स्वार्थशून्य लोगों की संख्या बहुत ही कम ही होती है। 
दूसरे वर्ग में ‘सामान्य’ जन (good men) आते हैं, जो इस बात का ध्यान रखते हैं कि अपनी स्वार्थसिद्धि से दूसरों का अहित तो नहीं हो रहा है । वे दूसरों की भलाई तब तक करते हैं, जब तक उनकी स्वयं की कोई हानि न हो। अर्थात् वे स्वार्थ तथा परार्थ क बीच तालमेल बिठाकर चलते हैं । अधिसंख्य जन इसी प्रकार के होते हैं । 
और तीसरे वे आसुरी प्रकृति के लोग हैं, जो अपनी भलाई के लिये दूसरों की हानि तक करने में नहीं हिचकते।  जो इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि क्या उनकी स्वार्थपूर्ति अन्य लोगों के हित की कीमत पर तो नहीं हो रही है । यानी दूसरे का नुकसान हो भी रहा हो तो कोई बात नहीं अपना तो फायदा है । ऐसे लोगों की संख्या कम ही रहती है पर वे समाज में होते अवश्य हैं । और आज के भोगयुग में इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है । राजाकवि इनको ‘मानुषराक्षस’ (Manush Monster) की संज्ञा देते हैं।   
राजाकवि भर्तृहरि कहते हैं वे तीन प्रकार के लोगों का वर्ग-नामकरण तो सरलता से कर लेते हैं। किन्तु एक चौथी श्रेणी के मनुष्य भी होते हैं जिसको हम कोई नाम नहीं दे सकते। ये लोग ऐसे होते हैं कि अकारण ही दूसरों का अनिष्ट केवल अनिष्ट करने के लिये ही करते रहते हैं। जिस प्रकार निःस्वार्थपरता के सर्वोच्च स्तर को प्राप्त हो चुके देव-मानव या नेता भला करने के लिये ही भला करते हैं, उसी प्रकार सबसे निम्नस्तर पर ऐसे लोग (पशुमानव-Beasts ) भी हैं, जो केवल बुरा करने के लिये ही दूसरों का बुरा करते रहते हैं। कहा जाता है कि रोम के ‘नीरो’ नाम का एक बादशाह किसी-किसी आदमी को भूखे शेर से लड़ने अखाड़े में छोड़ देता था और उस लड़ाई का आनंद उठाता था । ऐसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता - लेकिन वे आदत (Bad tendencies, बुरी प्रवृत्ति- bad propensities, ) से लाचार होते हैं। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ' Upon ages of struggle a Character is built'. -अर्थात ' युगों-युगों तक संघर्ष करने के बाद ही एक चरित्र का निर्माण होता है '। अतः सत्चरित्र का निर्माण करनेके लिए अपने मन के साथ हमारा संघर्ष निरंतर, आजीवन चलते रहना चाहिए , क्षण भर कि लापरवाही भी चरित्र-निर्माण कि प्रक्रिया को ध्वस्त कर सकती है। '         
[जीवन सूना भक्ति बिना , भक्ति सूनी ज्ञान बिना ]
       
' विवेकानन्द - दर्शनम् ' : [अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित।   In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his. इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]
 
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||

नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||

सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
 
' विवेकानन्द  वचनामृत '-14
 
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नूनमुभे तु कर्मणि ।
   प्रवृत्तिः स्वार्थ बुद्ध्याश्च निवृत्तिस्तद्विसर्जने ।।
 
' Both Pravritti and Nivritti are of the nature of work.  The one is Pravritti,....the natural tendency of every human being; taking everything from everywhere and heaping it around one centre, that centre being man's own sweet self..... Nivritti is the fundamental basis of all morality and all religion, and the very perfection of it is entire self-abnegation, readiness to sacrifice mind and body and everything for another being. ' (NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION)
संस्कृत में दो शब्द हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति, और दोनों कर्म स्वरुप हैं । प्रवृत्ति का अर्थ है 'revolving towards' -किसी वस्तु की तरफ गमन;  और निवृत्ति का अर्थ है - ' revolving away ' किसी वस्तु से निवर्तन या प्रत्यागमन। ' किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन "revolving towards" का अर्थ है हमारा यह संसार यह 'मैं ' और 'मेरा' ~ "I and mine”; इस 'मैं ' के नाम-यश , धन-सम्पत्ति, वंशविस्तार [तीन ऐषणाएँ] को बढ़ाते रहने का यत्न करना। जो कुछ मिले, उसीको पकड़ रखना- 'grasping nature' सदैव सभी वस्तुओं को इस 'मैं '-रूपी केन्द्र में ही संगृहीत करना -इसीका नाम है प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति ही मनुष्य मात्र का स्वाभाविक भाव है - चारो तरफ से जो कुछ मिले उसे उठा लेना और इस "myself" - मिथ्या अहं (man's own sweet self) रूप केंद्र में संगृहीत करते जाना।  
जब यह अहंवृत्ति ( "I and mine” ~ tendency) घटने लगती है, जब इस क्षुद्र अहं से निवृत्ति या "going away from काचा आमी " का उदय होता है , तभी नैतिकता और धर्म का आरम्भ होता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही कर्मस्वरूप हैं। एक असत कर्म है और दूसरा सत  कर्म है। निवृत्ति ही सारी नैतिकता एवं सारे धर्म की नींव है ,और इसकी पूर्णता ही सम्पूर्ण आत्मत्याग है। जिसके प्राप्त हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिए अपना तन-मन-धन यहाँ तक कि अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है। ( This Nivritti is  entire self-abnegation, readiness to sacrifice mind and body and everything for another being.) और जब कोई व्यक्ति उस अवस्था को प्राप्त हो जाता है ,तभी उस व्यक्ति को कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त होती है। यह अच्छे कार्यों का सर्वोच्च फल है।

ज्ञानी (निवृत्ति मार्गी या कर्मसंन्यासी-
philosopher), कर्मी- (प्रवृत्ति मार्गी कर्मयोगी, the worker) , और  उपासक (the devotee) तीनों एक ही अवस्था को प्राप्त होते हैं, और वह अवस्था है ~ ' entire self-abnegation !'  यानि देह को ही आत्मा समझने के भ्रम - 'देहाध्यास' का पूर्णतः त्याग। (all meet at one point, that one point being self-abnegation.) 
एक उपासक (worshipper) अपने हृदय में निरंतर ईश्वरी भाव एवं साधुभाव (Idea of God and a surrounding of good-अर्थात माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं से एकत्व का भाव) रखते हुए अंत में उसी एक स्थान पर पहुँचता है और कहता है - " हे ईश्वर (माँ जगदम्बा के अवतार ठाकुर देव), तेरी इच्छा पूर्ण हो। " (Thy will be done on earth as it is in heaven.  माउन्ट 6:10) वह अपने व्यष्टि अहं के लिए कुछ भी बचा नहीं रखता। यही है देहाध्यास का सम्पूर्ण त्याग ' entire self-abnegation!' 
    एक ज्ञानी (philosopher-कर्मसंन्यासी) भी अपने ज्ञान (आत्मबोध) द्वारा देखता है कि उसका यह तथा-कथित भासमान 'अहं ' (seeming self is a delusion देहाध्यास = मैं सिंह नहीं भेंड़ हूँ सोचकर मृत्यु भय से में -में करना) केवल एक भ्रम है ; और इस तरह वह उसे बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता है। यह भी देहाध्यास के त्याग (self-abnegation) के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।अतएव हम देखते हैं कि कर्म , भक्ति और ज्ञान तीनों इस रूपांतरित अहं -विराट मैं, में  आकर मिल जाते हैं। 
      प्राचीन काल के बड़े बड़े धर्मप्रचारकों ने जब हमें यह सिखाया कि- ' God is not the world' " ईश्वर जगत से भिन्न है, जगत से परे है ", तो उसका तात्पर्य यही था। जगत एक चीज है और ईश्वर दूसरी , और यह भेद बिल्कुल सत्य है। " What they mean by world is selfishness. Unselfishness is God." जगत से उनका तात्पर्य है स्वार्थपरता। स्वार्थशून्यता ही ईश्वर है  कोई मनुष्य चाहे रत्नखचित सिंहासन पर आसीन हो , सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से स्वार्थरहित है, तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपडी में ही क्यों न रहता हो , चीथड़े क्यों न पहनता हो ,सर्वथा-दीनहीन ही क्यों न हो पर यदि वह स्वार्थी है , तो हम कहेंगे कि वह संसार में घोर रूप से डूबा हुआ है।  
हम किस प्रकार कर्म करें ? ....हमारे कर्म का लक्ष्य भोग (Enjoyment ) नहीं होना चाहिये।  पहले अहंभाव को नष्ट कर डालो , और फिर समस्त संसार को आत्मस्वरूप देखो , जैसा की प्राचीन ईसाई भी कहा करते थे - "The old man must die." ' उस बूढ़े आदमी को मरना ही चाहिये। ' यहाँ बूढ़े आदमी का अर्थ है -, यह स्वार्थपर भाव कि यह संसार [मिल्क-चॉकलेट] हमारे भोग के लिए बना है।
 [ Enjoyment should not be the goal. First kill your self and then take the whole world as yourself; as the old Christians used to say, "The old man must die." This old man is the selfish idea that the whole world is made for our enjoyment.] 
 राजर्षि जनक एक बहुत बड़े राजा थे और विदेह नाम से प्रसिद्द थे। 'विदेह ' का अर्थ है -"without a body" - 'शरीर से पृथक। ' यद्यपि वे राजा थे , फिर भी उन्हें इस बात का तनिक भी भान न था कि वे शरीर हैं। उन्हें तो सदा यही स्मरण बना रहता था कि वे आत्मा (spirit) हैं !... अतएव हमने देखा कि जिस मनुष्य ने स्वयं पर (मन पर) अधिकार प्राप्त कर लिया है [देहाध्यास या मिथ्या अहं का त्याग कर दिया है।] , उसके ऊपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती , उसके लिए किसी प्रकार दासता [मन की गुलामी ] शेष नहीं रहती। (मनःसंयोग का अभ्यास करते -करते एक दिन)  उनका मन अपनी ही चहार दीवारी को तोड़ कर स्वतंत्र हो जाता है।और केवल ऐसे ही पुरुष संसार में रहने योग्य हैं। 
( Thus the man that has practiced control over himself cannot be acted upon by anything outside; there is no more slavery for him. His mind has become free. Such a man alone is fit to live well in the world.)
        जिन लोगों ने अपने मन पर विजय नहीं प्राप्त की है, उनके लिए यह संसार या तो बुराइयों से भरा है; या अधिक से अधिक अच्छाइयों और बुराइयों का एक सम्मिश्रण है। परन्तु हम यदि मन पर विजय प्राप्त कर लें , तो यही संसार सुखमय हो जाता है। यदि हम भी इस 'विदेह ' अवस्था को प्राप्त करने के लिए अपने को प्रशिक्षित करना चाहते हैं , तो हम चाहे जिस अवस्था से प्रारम्भ करें , यह निश्चित है कि हमें अंत में पूर्ण आत्मत्याग का लाभ होगा ही। और ज्यों ही इस कल्पित 'अहं ' (देहाध्यास) का नाश हो जायेगा , त्योंही वही संसार जो हमें पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता था , अब स्वर्गस्वरूप और परमानन्द से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा। यहाँ की हवा तक मधुमय हो जाएगी और प्रत्येक व्यक्ति भला प्रतीत होने लगेगा। यही है कर्मयोग की चरम गति और यही है उसकी पूर्णता की सिद्धि। 
(To those who have not controlled their own minds, the world is either full of evil or at best a mixture of good and evil. This very world will become to us an optimistic world when we become masters of our own minds. 
 If we are genuine Karma-Yogis and wish to train ourselves to that attainment of this (Videha) state, wherever we may begin we are sure to end in perfect self-abnegation; and as soon as this seeming self has gone, the whole world, which at first appears to us to be filled with evil, will appear to be heaven itself and full of blessedness. Its very atmosphere will be blessed; every human face there will be god. Such is the end and aim of Karma-Yoga, and such is its perfection in practical life.) 
अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग (Robert Browning :1812- 1889) ने कहा है-
  " Progress, man's distinctive mark alone , 
 Not God's, and not the beast's; 
God is, they are, Man partly is, and wholly hopes to be."
 
.....  But what is the benefit of repeating this quotation of Robert Browning like a parrot and only hoping; Why can't we try to transform into God today and now ?
Let us listen to what Swami ji says in this regard - " If the room is dark, the constant feeling and repeating of darkness will not take it away, but bring in the light (Thakur first ). 
 Let us say, "We are" and "God is" 
and "We are God (=100% unselfish)",
 "Shivoham, Shivoham", and march on. 
First, let us be Gods (100% unselfish), 
and then help others to be Gods  (100% unselfish). 
"Be and make." Let this be our motto. 
 
Say not man is a sinner. Tell him that he is a God. Even if there were a devil, it would be our duty to remember God always, and not the devil.  Bring forth the power of the spirit (Lighthouse : 100% unselfish Leader / Teacher/C-IN-C), and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself. Bring in the light; the darkness will vanish of itself. 
Let the Lion of Vedanta  roar ~"Be and make" 
 
 the foxes will fly to their holes. "   
 
[REPLY TO THE MADRAS ADDRESS/Volume 4 ]  
रॉबर्ट ब्राउनिंग (Robert Browning :1812- 1889) के उपरोक्त पंक्तियों को हिन्दी में अनुवाद करें तो इसका अर्थ होगा -

 कमल के फूल की तरह खिल उठना - विकास (Evolution) 
न 'ईश्वर' की और न 'पशुओं' की, 
यह केवल - 'मानव' की है विशिष्ट पहचान ! 
ईश्वर हैं पूर्ण (100% निःस्वार्थता), पशु भी हैं (100% स्वार्थपरता ),
 मनुष्य आंशिक रूप से है - निःस्वार्थ !
 लेकिन , पूर्ण रूप से (100% निःस्वार्थता ~ ईश्वर) बन जाने की आशा करता है ! "

आइए सुनते हैं कि स्वामी विवेकानन्द इस संबंध में क्या कहते हैं - " यदि कोठरी में अंधकार है , तो सदा अंधकार का अनुभव करते रहने और अंधकार अंधकार चिल्लाते रहने से वह दूर नहीं होगा , बल्कि प्रकाश (ठाकुरदेव) को भीतर ले आओ , तब वह दूर हो जायेगा। 'This is what we shall say' ..... हम यही कहें -
" हम हैं " और " ईश्वर हैं " - 
और हम ईश्वर (100% निःस्वार्थपर) हैं।
 'शिवोहं शिवोहं कहते हुए आगे बढ़ते चलो। 
पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। 
तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर (100% निःस्वार्थपर) बनाने में सहायता देंगे।
'बनो और बनाओ ' -  यही हमारा मूलमंत्र रहे !
*****

Let us say, "We are" and "God is" 
and "We are God" 
"Be and make." Let this be our motto. 

किसी भी मनुष्य को (अंगुलिमाल को भी) पापी मत कहो। उसे यही बताओ कि वह तो अव्यक्त ब्रह्म है ! भले ही वह शैतान- (इब्लिश) के रूप में ही हमारे सामने क्यों न खड़ा हो, हमारा कर्तव्य यही होगा कि हम लीला 'अंगुलिमाल और इब्लिश ' के भीतर भी अव्यक्त पूर्णता या ईश्वर (नित्य) का ही दर्शन करें , शैतान का नहीं। प्रत्येक मनुष्य  के तीन पहलु हैं , भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक। अपने आध्यात्मिक शक्ति अर्थात आत्मा की शक्ति का विकास करो और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में [पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक] उसे ढाल दो और भारत को जिस स्थिति की आवश्यकता  है, वह उसे आप ही आप प्राप्त हो जाएगी।  प्रकाश को ले आओ , अंधकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा।  
{नवनीदा जैसा लाईट हॉउस = 100% निःस्वार्थ  होने से वज्रतुल्य अप्रतिरोध्य वेदान्त केसरी  घोषणा करे ~" Be and Make"; (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण -परम्परा" में प्रशिक्षित  ब्रह्मविद नेता C-IN-C,  जीवनमुक्त शिक्षक, जो मनुष्य स्वयं ईश्वर बन चुका है , वह यदि घोषणा करे - ' बनो और बनाओ !'  सियार अपने बिलों में छिप जायेंगे।} 
इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जाएगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड़ नहीं है -- बड़े आदमी वो हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं - यही सदा से होता आया है -- एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हजारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोsहम् शिवोsहम् (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो- मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ।) मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा।" ]   

"वेदान्त केसरी गर्जना करे - 'बनो और बनाओ !'
 सियार अपने बिलों में छिप जायेंगे।"
Let the Lion of Vedanta roar  - 'Be and make!"
Foxes will fly to their holes.  

[Non -attachment is complete self-abnegation and (100%) unselfishness is God. लेकिन जो लोग महामण्डल आंदोलन से जुड़ चुके  हैं, उनके लिए रॉबर्ट ब्राउनिंग की इस उक्ति को तोते की तरह जीवनभर दोहराते रहने और सिर्फ़ आशा करते रहने से क्या फायदा ?  हम यथाशीघ्र स्वयं को ईश्वर  में रूपांतरित होने का प्रयत्न क्यों नहीं कर सकते? ( अर्थात अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं में, 100% निःस्वार्थ मनुष्य में रूपांतरित होने का प्रयत्न क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि- "अनासक्ति ही पूर्ण आत्मत्याग है !" ३/५९
[3]
 सारा रहस्य अभ्यास में ही है !
(The whole secret is in practicing)
   पहले श्रवण करो , फिर मनन करो और फिर अभ्यास करो। यह बात प्रत्येक योग के सम्बन्ध में सत्य है। पहले तुम इसके बारे में सुनो (स्वाध्याय करो) और समझो कि इसका (प्रवृत्ति धर्म - कर्मयोग और निवृत्ति-धर्म कर्मसंन्यास का) मर्म क्या है। यदि कुछ बातें आरम्भ में स्पष्ट न हों , तो निरंतर श्रवण एवं मनन करने से वे स्पष्ट हो जाती हैं। गीता, उपनिषद के गूढ़ रहस्यों को एक ही बार में समझ लेना उतना सहज नहीं है। फिर भी उसकी सही व्याख्या तो आखिर तुम्हीं है।
" First you have to hear, then think, and then practice. This is true of every Yoga. You have first to hear about it and understand what it is; and many things which you do not understand will be made clear to you by constant hearing and thinking. It is hard to understand everything at once. The explanation of everything is after all in yourself.
सारा रहस्य अभ्यास में ही है; वास्तव में कभी कोई व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं सिखाता , हममें से प्रत्येक को अपने आपको सिखाना होगा। बाहर के गुरु/नेता (external teacher) तो केवल उद्दीपक मात्र हैं , जो हमारे अन्तस्थ गुरु (internal teacher विवेकप्रयोग शक्ति/ power of perception and thought ) को सब विषयों का मर्म समझने के लिए उद्बोधित कर देते हैं। तब बहुत सी बातें हमारी स्वयं की विचार-शक्ति से स्पष्ट हो जाती है। और फिर उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं।
The whole secret is in practicing. No one was ever really taught by another; each of us has to teach himself. The external teacher offers only the suggestion which rouses the internal teacher to work to understand things. Then things will be made clearer to us by our own power of perception and thought, and we shall realise them in our own souls . 
सारा रहस्य अभ्यास में ही है, और यह अनुभूति (आत्मानुभूति जन्य प्रबल विवेकप्रयोग शक्ति)  ही हमारी प्रबल इच्छा-शक्ति (power of will) में परिणत हो जाती है। पहले वह (चार महावाक्य की समझ) भावना (feeling) होती है , फिर प्रबल इच्छा (अन्तर्निहित दिव्यता को व्यव्हार में अभिव्यक्त करने की willing) , और इस इच्छा-शक्ति से कर्म करने की वह प्रचण्ड शक्ति पैदा होती है , जो तुम्हारी प्रत्येक नस , प्रत्येक शीरा और प्रत्येक पेशी में प्रवाहित होकर तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर को इस निष्काम कर्मयोग~ 'Be and Make - आंदोलन' का एक यंत्र बना देती है। और इसके फलस्वरूप हमें अपना वांछित पूर्ण आत्मत्याग (पूर्ण देहाध्यास का त्याग-perfect self-abnegation, भ्रममुक्ति) एवं परम् निःस्वार्थता (utter unselfishness) प्राप्त हो जाती है।
The whole secret is in practicing. and that realisation will grow into the intense power of will. First it is feeling, then it becomes willing, and out of that willing comes the tremendous force for work that will go through every vein and nerve and muscle, until the whole mass of your body is changed into an instrument of the unselfish Yoga of work, [ निष्काम कर्मयोग~ 'Be and Make']  and the desired result of perfect self-abnegation and utter unselfishness is duly attained.
पूरा रहस्य अभ्यास में है: यह आध्यात्मिक लब्धि (Spiritual Quotient 'SQ' =perfect self-abnegation and utter unselfishness ) -`लब्ध्वा। ... किसी जाति -धर्म , मत या विश्वास पर नहीं है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख , ईसाई या बौद्ध -इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। प्रश्न तो यह है कि क्या तुम स्वार्थशून्य हो? यदि तुम हो , तो चाहे तुमने एक भी धार्मिक ग्रन्थ का अध्यन न किया हो ,चाहे तुम किसी भी गिरजा या मन्दिर में न गए हो , फिर भी तुम पूर्णता (भ्रममुक्त अवस्था-D-Hypnotized state) को प्राप्त कर लोगे।
पूरा रहस्य अभ्यास में है। हमारा प्रत्येक योग बिना किसी दूसरे योग की सहायता के भी मनुष्य को पूर्ण बना देने में समर्थ है। क्योंकि सभी योग-मार्ग का लक्ष्य एक ही है।कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - सभी मोक्ष-लाभ के लिए सीधे और स्वतंत्र उपाय हो सकते हैं।
          श्रीमद् भगवद्गीता 5/(1-3)  में अर्जुन ने कहा —  हे कृष्ण ! पहले आप मुझसे सन्न्यासम् — संन्यास लेने  ;  कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं। क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है ??  श्रीभगवान् ने उत्तर दिया — मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग (निवृत्ति धर्म ) तथा भक्तिमय-कर्म ( कर्मयोग या प्रवृत्ति धर्म ) दोनों ही उत्तम हैं। किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है। जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन ! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त (भेंड़त्व से d-Hypnotized) हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -

 "सांख्ययोगौ  पृथक्  बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।"
एकं अपि आस्थितः सम्यक् उभयोः विन्दते फलं।। 
*शब्दार्थ*
सांख्य– भौतिक जगत् का विश्लेषात्मक अध्ययन; योगौकर्मयोग या भक्तिपूर्ण कर्म ; पृथक्– भिन्न; बालाः– अल्पज्ञ; प्रवदन्ति– कहते हैं; न– कभी नहीं; पण्डिताः– विद्वान जन; एकम्– एक में; अपि– भी; आस्थितः– स्थित; सम्यक्– पूर्णतया; उभयोः– दोनों को; विन्दते– भोग करता है; फलम्– फल। 
*अनुवाद*
 अज्ञानी ही कर्मयोग ( भक्तिपूर्ण कर्म) को भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है। 
~ केवल बालक अर्थात् बालबुद्धि के या नासमझ लोग ही कर्मयोग (प्रवृत्ति-धर्म) और सांख्य (कर्मसंन्यास-निवृत्ति धर्म ज्ञानयोग) को  परस्पर विरुद्ध समझते हैं, ज्ञानी नहीं। ज्ञानी यह जानता है कि यद्यपि ऊपर से योग-मार्ग एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं , लेकिन अंत में वे मानवीय पूर्णता के एक ही लक्ष्य - स्वार्थशून्यता की ओर ले जाते हैं। 
*तात्पर्य* भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा (परम् सत्य-विष्णु ) को प्राप्त करना है।  भौतिक जगत् की आत्मा विष्णु या परमात्मा हैं। भगवान् (श्रीरामकृष्णदेव) की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है।  एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है।  सांख्यदर्शन का वास्तविक छात्र (एथेंस का सत्यार्थी) जगत् के मूल अर्थात् विष्णु को ढूँढता है; और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है ~ शिव ज्ञान से जीवसेवा। अतः मूलतः इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है।  जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं हैं, किन्तु जो विद्वान है वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है।  
स्वार्थशून्य होने के दो उपाय : स्वार्थशून्य होने अर्थात अपने व्यष्टि अहं (कच्चा मैं) को माँ जगदम्बा के मातृ हृदय के सर्वव्यापी विराट अहं (पक्का मैं) में परिवर्तित करने के दो उपाय हैं। एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है। एक है सभी कर्मों में कर्तृत्व के अभिमान का त्याग और दूसरा है फलासक्ति के कारण उत्पन्न होने वाली चिंताओं का त्याग जिसे दूसरे शब्दों में कहेंगे भोक्तृत्व के अभिमान का त्याग। प्रथम उपाय को कहते हैं सांख्य (कर्मसंन्यास- ज्ञानयोग या निवृत्ति धर्म) तथा दूसरे को कर्मयोग  (प्रवृत्ति-धर्म)। इस जगत में कर्मसंन्यास , निवृत्ति-मार्ग या सांख्य मार्ग का अनुसरण करने के अधिकारी पुरुषों की संख्या बहुत थोड़ी होती है। अधिकांश लोगो के लिए संन्यासी बनना संभव नहीं होता है। अत्यन्त मेधावी पुरुष ही संपूर्ण विश्व में हो रहे कर्मों का अवलोकन कर इस कर्तृत्त्व के अभिमान को त्याग सकता है। यदि साधक के रूप में हम कर्तृत्व अभिमान अथवा फलासक्ति को त्यागते हैं तो हमें एक ही लक्ष्य प्राप्त होता है
और अपने इस क्षुद्र अहं या व्यष्टि अहं (दृश्य-reflected consciousness) को द्रष्टा-भाव (witness consciousness) से देखने का अभ्यास कैसे किया जाता है , मनःसंयोग कैसे किया जाता है यह सीखना ही एक बहुत बड़ी शिक्षा है , जो हमें जीवन में सीखनी है। दूसरों को मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने या मोहनिद्रा से जगाने का प्रयत्न करते रहने का फल यह होता है कि हम स्वयं मोहनिद्रा से सदा के लिए जाग्रत या भ्रममुक्त (d-Hypnotized) हो जाते हैं। भारत कल्याण के लिए किये जाने वाले कर्म का मुख्य फल है -आत्मशुद्धि याने आत्मपहचान ! अर्थात हमारा क्षुद्र व्यष्टि अहं (कच्चा मैं) माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट मैं -बोध (पक्का मैं) में रूपांतरित हो जाता है।   
  
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
    एकं संख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। ५ ।।
यत् — जो; सांख्यैः — सांख्यदर्शन के द्वारा; प्राप्यते — प्राप्त किया जाता है; स्थानम् — स्थान; तत् — वही; योगैः — भक्तिपूर्ण कर्म (कर्मयोग) द्वारा; अपि — भी; गम्यते — प्राप्त कर सकता है; एकम् — एक; साङ्ख्यम् — विश्लेषणात्मक अध्ययन को; च — तथा; योगम् — भक्तिमय कर्म को; च — तथा; यः — जो; पश्यति — देखता है; सः — वह; पश्यति — वास्तव में देखता है। 
तात्पर्य — जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन ( सांख्य ) द्वारा प्राप्य स्थान भक्तिपूर्ण कर्मयोग द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तिपूर्ण कर्मयोग को एक-समान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।
   सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
    योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति ।। ६ ।।
सन्न्यासः — संन्यास आश्रम; तु — लेकिन; महा-बाहो — हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; दुःखम् — दुःख; आप्तुम् — से प्रभावित; अयोगतः — भक्ति के बिना; योग-युक्तः — भक्ति में लगा हुआ; मुनिः — चिन्तक; ब्रह्म — परमेश्वर को; न चिरेण — शीघ्र ही; अधिगच्छति — प्राप्त करता है। 
तात्पर्य — भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता। परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त कर लेता है।
लेकिन भेंड़त्व के सम्‍मोहन के प्रभाव से मुक्‍त हुए बिना [De-hypnotized अवस्था या परमहंस अवस्था को प्राप्त किये बिना;  जब अधूरी इच्छाओं के साथ ही किसी मानव-शरीर की मृत्यु हो जाती है , तब उसमें रहने वाली जीवात्मा का क्या होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण गीता (8.25) में कहते हैं -  
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।
धूमः रात्रिः तथा कृष्णः षण्मासाः दक्षिणायनम् तत्र चान्द्रमसं ज्योतिः योगी प्राप्य निवर्तते।। गीता 8/25|| (निवर्तते = पुनः आगच्छति ।) अर्थ : धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन के छः महीने (देहाध्यास) में प्रयाण करने वाला योगी चन्द्र ज्योति को प्राप्त कर वापिस लौट आता है।
धूम (Smoke), रात्रि (night time), कृष्णपक्ष (dark fortnight) और दक्षिणायन (six months of the southern solstice) ये सब अविद्या (अज्ञान), आसक्ति (attachment) और मदहोशी (passion-उत्कट इच्छा) की डिग्री को निरूपित करते हैं, और पितृलोक प्राप्ति का मार्ग बताने वाले हैं।  
व्याख्या : जैसे साल के छ महीने उत्तरायण के होते हैं, वैसे ही दक्षिणायन के होते हैं। लेकिन यहाँ दक्षिणायन शब्द केवल प्रतीक मात्र है, असलियत में यहाँ दक्षिणायन का अर्थ देहाध्यास से है। देहाध्यास का मतलब है जब व्यक्ति में मोह-माया के कारण राग और द्वेष बना रहता है, आसक्ति और अहंकार मरते समय भी बाकी रह जाता है फिर अनेक अधूरी इच्छाओं के साथ जब शरीर की मृत्यु होती है, उस समय व्यक्ति को सब कुछ धुंएँ जैसा दिखाई देने लगता है अर्थात कुछ भी यथार्थ नहीं दिखता। आँखों के आगे अमावस्या की काली रात के सामान अन्धेरा छा जाता है। इस अवस्था में जब व्यक्ति शरीर छोड़ता है, तब वह कुछ समय के लिए चंद्र ज्योति को प्राप्त कर, अपने कर्मों फलों के आधार पर फिर से इस धरती पर जन्म लेता है और जब तब मुक्त न हो जाय तब तक जन्म-मरण का यह चक्र चलता रहता है।
 पुनरावृत्ति के मार्ग को पितृयाण (पितरों का मार्ग- the path of the ancestors which leads to rebirth) कहते हैं। इसका अधिष्ठाता देवता है चन्द्रमा जो  जड़ पदार्थ का प्रतीक और विषयोपभोग का अधिष्ठाता है। उसके अनुग्रह से कुछ काल तक स्वर्ग सुख भोगने के पश्चात् जीव को पुनः र्मत्यलोक में आना पड़ता है। यहाँ  यह बताया गया है कि निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील साधक परम लक्ष्य को प्राप्त होता है।  और भोग की कामना करने वाला पुरुष भोग के पश्चात् पुनः शरीर को धारण करता है,  जहाँ वह चाहे तो अपना उत्थान अथवा पतन कर सकता है। 
 जो लोग उपासनारहित पुण्य कर्मों को जिनमें समाज सेवा तथा यज्ञयागादि कर्म भी सम्मिलित हैं- करते हैं वे मरणोपरान्त पितृलोक को प्राप्त होते हैं। जिसे प्रचलित भाषा में स्वर्ग कहते हैं। पुण्यकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त इस स्वर्गलोक में विषयोपभोग करने पर जब पुण्यकर्म क्षीण हो जाते हैं, तब इन स्वर्ग के निवासियों को अपनी अवशिष्ट वासनाओं के अनुसार उचित शरीर को धारण करने के लिए पुनः संसार में आना पड़ता है। उस देह में ही उनकी वासनाएं व्यक्त एवं तृप्त हो सकती हैं।
*सन्त सर्वथा निश्चिन्त* :  
भले ही उस ज्ञानी का शरीर आज इसी क्षण छूट जाय, या फिर यह चिर कल तक युगपर्यन्त टिका रहे ।
भले ही उसका शरीर ग्रीषम ॠतु में छूटे या फिर वर्षा ॠतु में । या फिर शरद, शिशिर, हेमन्त या वसन्त - किसी भी ॠतु में छूटे ।
भले ही सूर्य के दक्षिणायन रहते हुए यह शरीर छूटे या उत्तरायण रहते हुए । या सर्प के काटने से, सिंह के खाने से या बिजली गिरने से छूटे ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - क्योंकि ‘आत्मा एक तथा अखण्ड’ - यह जानते हुए सभी ज्ञानी सन्त अपनी देह के विषय में असंदिग्ध(निश्चिन्त) रहते हैं ॥२॥  

The whole secret is in practicing.  This attainment (SQ-100% unselfishness ) does not depend on any dogma, or doctrine, or belief. Whether one is Christian, or Jew, or Gentile, it does not matter. Are you unselfish? That is the question. If you are, you will be perfect without reading a single religious book, without going into a single church or temple. 

The whole secret is in practicing.  Each one of our Yogas is fitted to make man perfect even without the help of the others, because they have all the same goal in view. The Yogas of work, of wisdom, and of devotion are all capable of serving as direct and independent means for the attainment of Moksha. "Fools alone say that work and philosophy are different, not the learned.” The learned know that, though apparently different from each other, they at last lead to the same goal of human perfection.  (NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION. Volume 1, Karma-Yoga)
(Smoke, night time, the dark fortnight and the six months of the southern solstice  denote the degree of ignorance , attachment and passion. There are smoke and dark coloured objects throughout the course. There is no illumination when one passes along this path. It is reached by ignorance. Hence it is called the path of darkness or smoke.)
The main effect of work done for others is to purify ourselves. By means of the constant effort to do good to others we are trying to forget our-selves; this forgetfulness of self is the one great lesson we have to learn in life. Every act of charity, every thought of sympathy, every action of help, every good deed, is taking so much of self-importance away from our little selves and making us think of ourselves as the lowest and the least, and, therefore, it is all good. Here we find that Jnâna, Bhakti, and Karma — all come to one point. Self-abnegation is the basis of all morality ; you may extend it to men, or animals, or angels, it is the one basic idea, the one fundamental principle running through all ethical systems.


[4]
भौतिकवाद  और अध्यात्मवाद  परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि   एक दूसरे के पूरक हैं।  
(Materialism and spiritualism are not contradictory, 
but complement each other.)

इस दुनिया में विचारधारा के दो खेमे हैं- एक भौतिकवाद का और दूसरा अध्यात्मवाद का। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद दो ऐसे दृष्टिकोण हैं जो मानव-जीवन को प्रभावित करते हैं। अनेकानेक वैज्ञानिक एवं समाजिक उन्नति के उपरांत भी यह व्यापक वर्गीकरण, आज भी सर्वथा मान्य है । इसका कारण तर्क सम्मत है क्योंकि समस्त प्राणीमात्र दो वस्तुओं से ही निर्मित है - एक पंचमहाभूत का बना हुआ नश्वर जड़ शरीर तथा दूसरा अविनाशी दिव्य, शाश्वत, चिन्मय ईश्वर का अंश-आत्मा ।  भौतिकवाद का आग्रह है कि दुनिया में जो कुछ सार है, वह जड़ पदार्थ ही है। अध्यात्मवाद का आग्रह है कि जगत का सार तो आत्मा है। दोनों दृष्टिकोण एकांगी हैं। कोई कितना ही अध्यात्मवादी हो, भौतिकता के बिना उसका काम नहीं चलेगा। पदार्थ के बिना यह जीवन चल नहीं सकता। अध्यात्म का एकतरफा आग्रह भी जटिलता पैदा करता है। एक ओर धर्म सिखाता है कि त्याग करो, और दूसरी ओर कहता है कि साम्राज्य की प्राप्ति और भोग- ये सब धर्म के ही फल हैं। एक ओर धर्म कहता है कि अनासक्त रहो, ब्रह्मचारी बनो। और दूसरी ओर कहता है कि सुंदर स्त्री का मिलना धर्म का ही फल है। कितना विरोधाभास है!धार्मिक लोग भी यह मान लेते हैं कि संसार में जो अच्छी वस्तुएं प्राप्त होती हैं, वे सब धर्म के कारण ही होती हैं। लेकिन तब क्या मात्र पदार्थ की उपलब्धि ही धर्म की परिणति है? सुंदर स्त्री की प्राप्ति भी धर्म से होती है और ब्रह्मचारी बनना भी धर्म से होता है। स्त्री प्राप्ति और स्त्री त्याग- दोनों धर्म से होते हैं। 

इस युग में तृष्णा का बहुत विकास हुआ है। मनुष्य सोचता है कि युवा अवस्था में ही  धर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह जीवन के लिए अनिवार्य भी नहीं है। यह तो रिटायरमेन्ट के बाद , बुढ़ापे या अवकाश  में करने की चीज  है। ऐसा सोच कर वह अपने सामाजिक जीवन में स्वार्थपूर्ण संबंधों को प्राथमिकता देता है। इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आना चाहिए।  धर्म [ शिक्षा =चरित्रनिर्माण और मनुष्य निर्माण ] बूढ़ों या निकम्मों का कर्म नहीं है, यह जीवन की अनिवार्यता है। धर्म क्या है , इस विषय पर विदुरनीति (७/७२ गीता प्रेस) में कहा है -
न तत्परस्य संदध्यात्‌ प्रतिकूलं यदात्मनः।
 संग्रहेण एषः धर्मः स्यात् कामादन्यः प्रवर्तते ।

'संग्रहेणैष धर्मः' ~ अर्थात जैसा व्यवहार तुम अपने साथ नहीं चाहते, वैसा व्यवहार दूसरों के साथ मत करो। जो व्यवहार अपने लिए प्रतिकूल हो वह दूसरे के लिए भी नहीं करना चाहिए ~  संक्षेपतः यही धर्म है। और कामना से प्रेरित होकर, यदि इसके विपरीत आचरण करो तो अधर्म की प्रवृत्ति होती है। 
वास्तव में यह सामाजिक सौहार्द , मानसिक शांति और सफलता का सूत्र है।  जिस समाज के सदस्य एक-दूसरे की पीड़ा का अनुभव करते हैं, कठिनाइयों का अनुभव करते हैं, वहीं वास्तव में समाज बनता है। जहां प्रत्येक व्यक्ति केवल अपनी चिंता करता है, वहां समाज कैसे बनेगा? नैतिकता  के विकास का प्रश्न सामाजिक प्रश्न है। आध्यात्मिकता वैयक्तिक होती है, किंतु आध्यात्मिकता से हीन व्यक्ति स्वतंत्र भाव से नैतिक नहीं हो सकता। नैतिकता का अखंड रूप है -भौतिक आकर्षण से मुक्ति। प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है। सुख का मूल है- शांति और शांति का मूल है- भौतिक आकर्षण से बचना। भौतिकता के प्रति जितना अधिक आकर्षण होगा उतना ही नैतिक पतन होगा। भोगवादी संस्कृति और पदार्थवाद के पीछे काम, अर्थ और स्वार्थ की प्रेरणा बलवती रहती है। जब तक पदार्थवादी दृष्टि-कोण रहेगा, तब तक मानवीय संबंधों में, सामाजिक संबंधों में सुधार नहीं किया जा सकता। पदार्थ का स्वभाव है कि वह दूसरे को सहन नहीं कर सकता। 
आज का युवा शारीरिक या बौद्धिक-लब्धि (IQ) की दृष्टि से बहुत समृद्ध है, पर भावनात्मक-लब्धि (E.Q) और आध्यात्मिक -लब्धि (SQ) दृष्टि से समृद्ध नहीं है। स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के अनुसार श्रद्धा का अर्थ है आत्मविश्वास और आत्मविश्वास का अर्थ है -ईश्वर में विश्वास ! अतएव शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास -3H विकास में संतुलन स्थापित कर ही सामाजिक विषमताओं और विद्रूपताओं को कम किया जा सकता है। जीवन को सफल बनाने के लिए भौतिकवाद और अध्यात्मवाद दोनों का समन्वय बहुत जरूरी है। दोनों के एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि सहायक हैं। दोनों एक दूसरे की जरूरत है। 
भौतिकवाद का बहिष्कार करने पर शरीर का काम नहीं चलेगा और अध्यात्मवाद को छोड़ें तो हृदय (आत्मा) का विकास नहीं होगा। इस तरह शरीर की सुरक्षा के लिए भौतिकवाद को स्वीकार करना होगा।  भौतिकवादी अध्यात्मवाद को ठुकराएंगे, तो उनकी उच्छृंखलता बढ़ेगी। इसके परिणामस्वरूप विश्व में अशांति और दुख बढ़ेगा। स्वार्थ बढ़ेगा। सब कुछ पाने के बाद भी जीवन में शांति और सुख नहीं होगा। यह संतुष्टि अध्यात्म से मिल सकती है। भौतिकवाद के प्रति आसक्त न रहें, केवल शरीर के निर्वाह के लिए इसका उपयोग करें। इसे अंतिम सत्य मानने की वजह से चारों तरफ अपराध, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, लूट, डकैती हो रही हैं। मन की विकृति को अध्यात्म से ही ठीक किया जा सकता है और बुराइयों को समाप्त कर सकते हैं।
जीव-जगत और ईश्वर को देखने के -दृष्टिकोण या विचार-धारा के भ्रम के (प्रवृत्ति धर्म -कर्मयोग और निवृत्ति धर्म- सांख्ययोग को परस्पर विरोधी मान लेने के) कारण आदमी शांति की प्राप्ति के लिए  इधर-उधर भटकता है, जबकि वह तो उसके भीतर है। तेल तिलों में होता है, धूलि कणों में नहीं। मक्खन दूध में होता है, पानी में नहीं। वैसे ही शांति आत्मस्थ होती है, परस्थ नहीं। शांति कोई दूसरा नहीं दे सकता। इन भौतिक पदार्थों में जो सुख और शांति का अनुभव होता है, वह क्षणिक है। संयोग वश है। संयोग से मिले सुख का वियोग अवश्यंभावी है। इसलिए अपने भीतर की ओर झांकने का प्रयास करो और धर्म यानि शिक्षा के वास्तविक स्वरूप को आत्मसात करो।
 भारतीय संस्कृति में अध्यात्म के साथ भौतिक जीवन को साधते हुए अध्यात्मिक मूल्यों पर चलने का सन्देश दिया गया है।  राजा जनक ने चक्रवर्ती होते हुए भी आत्मतत्व को जाना, और विदेहराज जनक के नाम से प्रसिद्द थे ।  श्री कृष्ण द्वारकाधीश थे लेकिन महाराजा होते हुए भी योगेश्वर कहे जाते है।  'तेन त्यक्तेन भूञ्जीथाः'  -इसका अर्थ है  हे मनुष्यों, तुम त्यागपूर्वक भोगों को भोगो। जरुरत से ज्यादा संग्रह मत करो। अपने कर्म को भी साधन बनाते हुए उस सत्य की तरफ आगे बढ़ते रहना। इस एक मंत्र में भारतीय संस्कृति समाहित है।  'तेन त्यक्तेन भूञ्जीथाः ' का अर्थ है -   कि हमारे जीवन का केंद्र ईश्वर होना चाहिए और भारत ने इसी दर्शन पर चलकर भौतिकता की ज़मीन पर अध्यात्म की इमारत खड़ी की। जो तुमने भोग लिया उसे दूसरों के लिय छोड दो। यदि ऐसा न करोगे, स्वयं ही भोगते रहोगे तो एक दिन तुम भोगों सहित नष्ट हो जाओगे। आखिर में तुमको त्यागना ही पड़ेगा। मृत्यु तुमसे सब कुछ छुडा लेगी।  ईश्वर सर्वव्यापक है, भौतिक जगत में रहते हुए भी अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को न भूलना, और सांसारिक लोभ लालच में न फसना।   “सब तज हरि भज” इसका अर्थ ये नहीं कि घर बार ही छोड़ दिया जाये आशय यह है कि घरबार में रहते हुए भी जीवन के परम लक्ष्य को न भूलना। सन्त कबीर कहते हैं -
 कबीर रेख सिन्दूर की, काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा,  दूजा कहाँ समाई ।

भावार्थ: कबीर  कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है – वहां काजल नहीं दिया जा सकता।  और जहाँ काजल लगाते हैं वहाँ सिंदूर नहीं लगा सकते।  जब नेत्रों में राम (स्वयं ठाकुर) विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?  
 जिस अन्य वस्तु (नाम-रूप या शरीर ) में हम आसक्त हो जाते अपनापन जोड़ लेते हैं, उसमें मोह का होना स्वाभाविक है। मोह के कारण उसे (भेँड़त्व को) त्यागने में बहुत कष्ट होता है। यही बात तुलसीदासजी ने कही। “मोह सकल व्याधिन कर मूला। तिहिते उपजत है बहु शूला” मोह से छुटकारा त्याग की भावना से ही सम्भव है। इसीलिए यह मंत्र कहता है, भोगों में फॅसो मत, भोगो ज़रूर, फिर इन्हें त्यागते हुए आगे बढ़ो। ज्ञानी लोग भोगों को चखकर तुरन्त त्याग देते हैं, अति की ओर नहीं जाते। भारत के अध्यात्म और धर्म का यही मर्म है।
 वेद (मुंड.१ मुं.२ खंड. १२ मंत्र​) कहते हैं - 
 " परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्य कृतः कृतेन ।
 तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समितपाणिः क्षोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥ 
[परीक्ष लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणः निर्वेदम् आयात्। कृतेन अकृतः न अस्ति तत् - विज्ञानार्थं सः समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं गुरुम् एव अभिगच्छेत् ॥  
The seeker of the Brahman, having put to the test the worlds piled up by works, arrives at world-distaste, for not by work done is reached He who is Uncreated. For the knowledge of That, let him approach, fuel in hand, a Guru, one who is learned in the Veda and is devoted to contemplation of the Brahman.
ब्रह्म-जिज्ञासु (ब्राह्मण) कर्म-संचित लोकों की परीक्षा करके संसार के फीकेपन (निर्वेद) का अनुभव करता है, क्योंकि  ''कृत " के द्वारा (अथवा, बनाये गया के द्वारा) 'उस' तत्व की उपलब्धि नहीं हो सकती जो 'अकृत' है। अथवा सृष्ट (शरीर-मन-बुद्धि)  के द्वारा उस तत्व की उपलब्धि नहीं हो सकती  जो असृष्ट है, सृष्ट पर आधारित नहीं है। (.... यह तो केवल माँ जगदम्बा की कृपा पर निर्भर करता है।) " अतः वह उस 'परतत्त्व' (परम् सत्य) के ज्ञान के लिए वह  हाथ में समिधा धारण करके वेदविद् (श्रोत्रिय-ब्रह्मविद) एवं ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाये।
"वेदों को मथने (अर्थात वेदों में लिखित क्रियाओं का प्रयोगात्मक रूप से अवलोकन करने) के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमें ऐसे संत (TEACHER ?) को पूर्ण समर्पण करना पड़ेगा, जिसे समस्त शास्त्रों वेदों का ज्ञान हो तथा जो भगवान् के दर्शन भी कर चुका हो।  " शास्त्र वेद हमें सैद्धांतिक ज्ञान देते हैं और संत उस सैद्धांतिक ज्ञान का विस्तार कर उसे क्रियात्मक रूप में ढालने में हमारी सहायता करते हैं। अतः सभी जीवों का परम चरम लक्ष्य, आनंद प्राप्ति, वास्तव में आध्यात्मवाद के बिना संभव ही नहीं है। 
[अतः किसी ब्रह्म-जिज्ञासु (ब्राह्मण या एथेंस के सत्यार्थी) को युवा अवस्था में ही (श्रवण -मनन -निदिध्यासन) की व्यावहारिक पद्धति सीखने के लिये किसी ब्रह्मनिष्ठ गुरु   (अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण) ठाकुर- निष्ठ गुरु विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त - 'Be and Make' परम्परा में प्रशिक्षित और  " मानव " पद को प्राप्त शिक्षक /नेता (C-IN-C) नवनीदा के पास या  महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर पास जाये ।]
[5 ]
" महामंडल के अवतरण की पृष्ठभूमि"
Background of the Mahamandal's Incarnation 
 
  1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्त करने के बीस साल बाद 1967 में स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा को युवाओं के बीच फैला देने के उद्देश्य से, महामंडल की स्थापना हुई थी।  इस युवा संगठन के आविर्भूत होने का मुख्य कारण 1967 के आसपास ही उत्तरी बंगाल के एक गाँव नक्सलबाड़ी से प्रारम्भ हुआ एक  'किसान आन्दोलन' (Agrarian Movement) था।  जो आगे चलकर भारत के कुछ अन्य  पूर्वी राज्यों - उड़ीसा , छत्तीसगढ़ , बिहार तथा दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों -विशेष रूप से आन्ध्र प्रदेश तक फ़ैल गया था।  (शायद इसी कारण महामण्डल के सबसे अधिक केन्द्र, पश्चिमी भारत की अपेक्षा, पूर्वी भारत के इन्हीं राज्यों में  सक्रीय भी है?)    25 मई, 1967 को नक्सलबाड़ी में भूमि विवाद के बाद एक जमींदार के भाड़े के लोगों ने एक किसान पर हमला किया। किसानों ने एकजुट होकर जमींदारों से लोहा लेने की ठानी। यहीं से पूरे बंगाल में चारु मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल की अगुवाई में नक्सलवाद की चिंगारी भड़की, जो आज देश की सबसे खतरनाक समस्या बन गई है। 1940 के दशक से प्रारम्भ हुआ झारखण्ड आन्दोलन कई अवस्था से गुजरता हुआ 2000 में बिहार से अलग राज्य की रचना के बाद समाप्त हुआ। छोटा नागपुर के उराओं, मानकी - मुण्डा और हो आदिवासी जातियों ने इसमें हिस्सा लिया था। 1967 के आम चुनाव के बाद ग्यारह राज्यों में पहली बार कांग्रेस की केन्द्रीकृत शासन को चुनौती देते हुए संविद सरकारें बनी थीं।  उन दिनों युवा -समुदाय  कुछ  स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर, जल्दीबाजी या हड़बड़ी में - In a hurry - पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन का कार्य शुरू किये बिना ही तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था। और उस संकट की घड़ी में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' नामक इस युवा संगठन को आविर्भूत होना पड़ा था। इसके पीछे भावना यह थी कि इस संगठन  माध्यम से स्वामी विवेकानन्द की " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी " शिक्षा को युवाओं के बीच फैला दिया जाय।
    जिस समय (1967 के आसपास) जब कुछ स्वार्थी राजनीतिज्ञों के बहकावे में आकर युवासमुदाय - In a hurry (जल्दीबाजी में) अपने चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन के कार्य को शुरू करने के पहले ही, तोड़-फोड़ के द्वारा व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था।] उस समय - A young man in discipline, अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित एक युवा ~ नवनीदा ( श्री नवनी हरण मुखोपाध्याय) महामंडल के संस्थापक सचिव जो कई बार यहां भी पधार चुके हैं; तथा 'रामकृष्ण मिशन परम्परा'  (Ramakrishna Mission Order) के कुछ वरिष्ठ संन्यासियों ने परस्पर चर्चा करके एक युवा संगठन स्थापित करने का निर्णय लिया। और स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकारी विचार-धारा को युवाओं के बीच फैला देने का एक आंदोलन प्रारम्भ किया ।  इस प्रकार वर्ष 1967 के आखरी तिमाही में आयोजित प्रथम बैठक में इस आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। और जहाँ तक मुझे याद है वह 25 अक्टूबर की तिथि थी । 
    पहली बैठक के चार-पाँच महीने बाद जनवरी 1968 में दूसरी बैठक भी अद्वैत आश्रम में ही आयोजित आयोजित हुई। उस बैठक में आमंत्रित अन्य व्यक्तियों के साथ रामकृष्ण मिशन के कुछ बहुत ही वरिष्ठ संन्यासी, जैसे रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष स्वामी भूतेशानन्द,  महासचिव स्वामी अभयानन्द एवं सहायक महासचिव स्वामी रंगनाथानन्द ,जो आगे चलकर रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष भी बने --उपस्थित थे। बैठक में चर्चा चली कि, मनुष्य का 'ढाँचा' प्राप्त करने से ही कोई व्यक्ति " मनुष्य" नहीं बन जाता , बल्कि ~ "धर्मेण हीनाः पशुभिः सामना" - धर्म (शिक्षा) या 'चरित्र' के बिना मनुष्य भी पशुतुल्य है।  अतः उन सभी वरिष्ठ संन्यासियों ने हमें यही परामर्श दिया कि इस संगठन का उद्देश्य स्वामी विवेकानन्द की ' मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का युवाओं के बीच प्रचार -प्रसार करना होना चाहिये, ताकि सुन्दरतर मनुष्यों के निर्माण से सुन्दरतर समाज को निर्मित किया जा सके। महामण्डल  की स्थापना के पीछे यही भावना क्रियाशील है। 
    अगला काम इस बात पर चिंतन (contemplate) करना था कि हमलोग तो स्कूल -कॉलेज खोलने वाले हैं नहीं, फिर युवाओं के बीच स्वामी जी की मावतावादी शिक्षा [Humanistic education=the process of receiving or giving systematic instruction, especially at a elementary school or university.] याने मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षाओं [ शिक्षा =भौतिक ,लौकिक, अपरा + शीक्षा=आध्यात्मिक ,अतीन्द्रिय या परा विद्या IQ +EQ +SQ ] को एक साथ फैला देने  उपाय क्या होना चाहिये? सम्पूर्ण भारत के युवाओं के बीच 'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा' (अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- में 'Be and Make') का प्रचार-प्रसार कैसे किया जा सकता है ? उनलोगों ने यह निर्णय लिया कि, इसके लिए महामण्डल के द्वारा ही (संन्यासियों के द्वारा नहीं), समय -समय पर युवा प्रशिक्षण शिविर (Youth Training Camps) आयोजित करना चाहिये।  तथा उन शिविरों में युवाओं का आह्वान कर उन्हें 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' प्रशिक्षण देना चाहिये। महामण्डल स्थापित होने के संभवतः पांच महीने बाद इसका प्रथम 'अखिल भारतीय युवा प्रशिक्षण शिविर ' बंगाल के अरियादह में आयोजित किया गया था।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार (शीक्षावल्ली-तैत्तरीय उपनिषद के अनुसार गुरुगृहवास - गुरु के जीवन को उदाहरण के रूप में सामने रखकर )   यथार्थ "मनुष्य" बनने के लिये युवाओं को छात्रजीवन में (किशोरावस्था में) ही उसके तीन प्रमुख अवयव - देह (Hand) , मन (Head) और हृदय (Heart) इन तीनों (3'H') को समानुपातिक रूप से विकसित करने (के 5 जरुरी अभ्यास) का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिये। युवाओं के पास एक ऐसा मजबूत  शरीर (strong body) होना चाहिये जिसमें प्रखर-बुद्धि से युक्त मन (Sharp intellect mind) का वास हो , और उसका हृदय विशाल (expanded heart) होना चाहिये। अर्थात उन्हें आत्मकेन्द्रित जीवन (self- centred life)  नहीं बिताकर दूसरों के कल्याण के लिये जीना चाहिये।      स्वामी जी कहते थे था - " वत्स , मैं युवाओं में जो देखना चाहता हूँ, वह है लोहे की मांसपेशियाँ और फौलाद के स्नायु , जिनके भीतर एक ऐसा मन वास करता हो , जो वज्र के उपादानों (thunderbolt=100 % unselfishness ) से गठित हुआ हो। बल और पौरुष ~ याने क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज ! " ५/३९८" My child, what I want is muscles of iron and nerves of steel, inside which dwells a mind of the same material as that of which the thunderbolt is made. Strength, manhood, Kshatra-Virya + Brahma-Teja." (1896 letter to Alasinga)]
स्वामी विवेकानन्द ऐसा मानते थे कि मनुष्य का 'मन' ही भौतिक जगत (शरीर)  और आध्यात्मिक जगत (आत्मा -हृदय) के बीच पूल का काम करता है। अतः जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये ,अर्थात भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में समन्वय रखने में सक्षम मनुष्य बनने के लिए विद्यार्थियों को सबसे पहले-' मन को एकाग्र कैसे करें' (how to concentrate the mind) ~ का प्रशिक्षण किसी योग्य शिक्षक से प्राप्त करनी चाहिये। अतएव सभी शिविरार्थी भाई इस  प्रशिक्षण -शिविर का प्रारम्भ  कल प्रातःकाल 'मन की एकाग्रता' पर एक कक्षा में भाग ले कर करेंगे।  चरित्र या धर्म ही वह वस्तु है जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। अतएव  तत्पश्चात मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के विभिन्न विषयों पर कक्षाएं आयोजित की जाएंगी। लेकिन मनुष्य बनने के लिये केवल सैद्धान्तिक विचारों को सुनते रहना ही पर्याप्त नहीं हैं , अतः उन सद्गुणों को अपने जीवन और व्यवहार में धारण करने की व्यावहारिक पद्धति (practical method ) भी यहाँ सिखाई जायेगी। इसलिए सभी शिविरार्थी भाइयों से मैं अपील करता हूँ , तुम इस शिविर के किसी भी कक्षा को मत छोड़ना। 
स्वामी विवेकानन्द अपने शिष्यों को (Would be Leaders या उपास्य को) 'Pearl Oyster ' (मोती वाले सीप) की  कहानी सुनाया करते थे। " शुक्ति (याने मोती वाले सीप) के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।"
      उसी प्रकार इस युवा प्रशिक्षण शिविर को भी आप मोतियों जैसे बहुमूल्य विचारों का संग्रह करने के एक दुर्लभ अवसर के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। यहाँ आप स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा रूपी मोतियों जैसी मूल्यवान विचारों को प्राप्त कर सकते हैं। ध्वजारोहण के साथ आज संध्या जब इस शिविर का उद्घाटन हुआ, विश्वास कीजिये ठीक उसी समय इस शिविर परिधि (camp periphery) के आकाश में स्वाति नक्षत्र तुंगस्थ हो चुका है, और इस शिविर की समाप्ति होने तक वहीं पर तुंगस्थ बना रहेगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप सभी शिविरार्थी भाई , स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' शिक्षाओं को ग्रहण करके अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये इस शिविर का अधिकतम लाभ उठाएंगे। " 
विशेष टिप्पणी (nota-bene N.B.) :  महामण्डल  के महासचिव श्री बीरेंद्र कुमार चक्रवर्ती  द्वारा सातवें अंतरराज्यीय युवा प्रशिक्षण शिविर 2019 के अवसर पर प्रदत्त अंग्रेजी भाषण  विवेक-अंजन के वार्षिकांक में 7 अगस्त 2020 को इंटरनेट पर प्रकाशित हुआ था। मुझे जैसे ही मिला मैंने उसे रनेनदा (श्री रनेन मुखर्जी, उपाध्यक्ष) को वॉट्सऐप से फॉरवर्ड कर दिया। अगले ही दिन उन्होंने लिखा -  [08/08, 08:27] Ranenda Watsap:
 " I found some apparent mistakes in the Inaugural speech of Birenda printed in it. On the upper part of the second column, it has been indicated the name of Swami Abhayananda as General Secretary. But he was never a G.S of RKM. At that time Swami Vireswrananda and Swami Gambhirananda were President and GS respectively. Sw. Abhayananda (Bharat Maharaj) was Manager. I feel you couldn't properly understand or the mistake was committed by the person who wrote the speech in longhand from the recorder.
But the above named senior monks did not take part in the January 1968 meeting of the Mahamandal, but they always guided us in different ways. Swami  Smarananda (Present President), Swami Budhananda (the then President, Advaita Ashrama), Swami Joyananda (Sukdev Maharaj) were generally attending our meetings held at Advaita including the second one. I was also generally attending such meetings almost from the beginning.... "
 ~ अर्थात  इसमें छपे बीरेनदा के उद्घाटन भाषण में मुझे कुछ स्पष्ट अशुद्धियाँ दृष्टिगोचर हुई हैं। इसमें स्वामी अभयानन्द को रामकृष्ण मिशन के महासचिव (General Secretary) के रूप में इंगित किया गया है। लेकिन वे  'RKM ' (रामकृष्ण मिशन) के महासचिव (GS) कभी नहीं रहे हैं। महामण्डल के दूसरी बैठक के समय स्वामी विरेश्वरानन्द रामकृष्ण मिशन के अध्यक्ष (President) , स्वामी गम्भीरानन्द महासचिव (GS) थे; और स्वामी अभयानन्द (भरत महाराज) प्रबन्धक (Manager) थे। और स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज उस समय सहायक महासचिव, (Assistant General Secretary Relief) त्राणकार्य  थे। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि या तो तुमने उनके कथन को ठीक से नहीं समझा , या जिस recorder (लेखक) ने उनके भाषण को आशुलिपि (shorthand)  में न लिखकर 'longhand' में लिखा है, उससे यह गलती हो गयी है। अगले अंक में इसका 'corrigendum' (शुद्धिपत्र) छाप देना।
उन्होंने आगे लिखा कि -  " But the above named senior monks did not take part in the January 1968 meeting of the Mahamandal, but they always  guided us in different ways." ..  लेकिन जनवरी 1968 में अद्वैत आश्रम में आयोजित महामंडल की दूसरी बैठक में रामकृष्ण मिशन के उपरोक्त वरिष्ठ संन्यासियों ने भाग नहीं लिया था, बल्कि वे हमेशा हमलोगों का विभिन्न तरीकों से मार्गदर्शन किया करते थे। हाँ, स्वामी स्मरणानन्द (रामकृष्ण मिशन के वर्तमान अध्यक्ष), स्वामी बुद्धानन्द (अद्वैत आश्रम के तत्कालीन अध्यक्ष) स्वामी जयानन्द (सुकदेव महाराज ?) अद्वैत आश्रम में आयोजित महामण्डल की बैठकों में अवश्य शामिल हुआ करते थे , और महामण्डल की दोनों बैठकों में  शामिल थे। 
     मिशन के उन वरिष्ठ संन्यासियों ने हमें परामर्श दिया कि, विभिन्न स्थानों में  रामकृष्ण- विवेकानन्द भावधारा  के अनुसार  विभिन्न स्थानों में कई युवा संगठन कार्य कर रहे हैं, और उनमे से कुछ लोग अद्वैत आश्रम के संपर्क में भी हैं।  उनमे से कुछ व्यक्तियों को बुला कर अद्वैत आश्रम में एक मीटिंग किया जाय, और उस बैठक में यह विचार किया जाय कि युवाओं को साथ में लेकर क्या कुछ किया जा सकता है ? इस प्रकार अद्वैत आश्रम में महामण्डल द्वारा आयोजित 1967 में  प्रथम बैठक में उपरोक्त संन्यासियों के आलावा, श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा से अनुप्रेरित तथा  कोलकाता के आसपास कार्यरत  6 युवाक्लब के कुछ प्रतिनिधि ही उपस्थित थे। और आम तौर पर, लगभग शुरू से ही  मैं भी महामण्डल की ऐसी समस्त बैठकों में उपस्थित रहा करता था। " ~ Sri Ranen Mukharjee. 
[6 ]
विवेक-जीवन नदी के हर मोड़ पर 
At every turn of the river Vivek- Jeevan
[Wednesday, 4 August 2010 / 43] 
" इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि ! " निबंध में नवनीदा लिखते हैं : ...उन दिनों (1967 के आस-पास ) भारत के कई प्रान्तों में, विशेष रूप से कलकत्ते में युवा वर्ग (Youth) के बीच एक विशेष प्रकार का अस्थैर्य (Unrest) दिखाई देने लगा था, मानो उनके मन को भीतर ही भीतर कोई चीज उद्वेलित कर रही हो- इस प्रकार के लक्षण दिखायी देने लगे थे। वे अब किसी की भी बात मान लेने को तैयार नहीं थे, कुछ भी सुनना नहीं चाहते थे। 
[महामण्डल की स्थापना 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बीस साल बाद वर्ष 1967 में हुई थी। और  लगभग उसी समय भारत के पूर्वी भाग (नक्सलबाड़ी) में एक " कृषक आंदोलन " (Agrarian Movement) भी  हुआ था।  जिसके बाद पश्चिम बंगाल, कुछ अन्य पूर्वी राज्यों (बिहार -उड़ीसा)  तथा दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों - विशेष रूप से आंध्र प्रदेश का उच्च शिक्षित युवावर्ग, खुद को ठगा हुआ और दिशाहीन महसूस करने लगा था। और हड़बड़ी में पहले अपने चरित्र-निर्माण और जीवनगठन का कार्य शुरू किये बिना ही, व्यवस्था-परिवर्तन के लिये उतावला हो रहा था। जिसके फलस्वरूप कई शिक्षित युवाओं का जीवन भी नष्ट होने के कागार पर पहुँच गया था।] 
..... अद्वैत आश्रम से पार्क-सर्कस तक जयराम महाराज ( स्वामी स्मरणानन्द, रामकृष्ण मिशन के वर्तमान अध्यक्ष)   एवं स्वामी अनन्यानन्द जी (गोविन्द महाराज) के साथ भ्रमण करने के क्रम में एक दिन अनन्यानन्द जी कहने लगे कि, " एक दिन एक लड़का मेरी ओर इशारा करके ; मेरी खिल्ली उड़ाते हुए कह रहा था- " बहुत खाता है न, इसीलिये ऐसा (मोटा-तगड़ा) हो गया है !"  चलते चलते महाराज (स्वामी अनन्यानन्दजी ) कह रहे थे -  "उस लड़के की बातों को सुन कर मेरे मन में विचार उठा, आज के युवाओं को यह क्या होता जा रहा है ? यह अच्छी बात नहीं हो रही है। युवाओं के बीच ऐसा कोई कार्य-क्रम अवश्य चलाना चाहिये जिससे उनमे आत्मश्रद्धा बढ़े। "   
उसके बाद उन दोनों ( स्वामी स्मरणानन्द जी एवं स्वामी अनन्यानन्द जी ) के बीच आपस में क्या बातें हुई होंगी इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। किन्तु बाद में एक दिन मुझ से उन्होंने कहा-" देखून नवनीबाबू, आमादेर  भक्तरा अनेकेई बलेन जे, आपनारा अनेक किछू करेछेन,किन्तु युवकदेर जोन्य  आपनारा किछू करछेन ना केनो  ? एई जे युवकरा विपथे चले जाच्छे, केमन हये जाच्छे, तादेर मध्ये कोन श्रृंखला बोध तो नेई-ई, कोन रकम एकटा नरम भावउ किछू नेई, सबई जेन भेंगेचूरे किछू एकटा करबे एरकम एकटा भाव, अस्थैर्य, एदेर जन्ये एकटा किछू हउआ दरकार ! " 
  " - देखिये नवनीबाबू, कई भक्त के मुख से हमलोग यह सुनते हैं कि, आप लोग बहुत से (समाजोपयोगी ) कार्यक्रम चलाते हैं, किन्तु युवाओं के लिये आपलोग क्यों कुछ नहीं कर रहे हैं ? ये जो युवकगण कुमार्ग पर चले जा रहे हैं, अजीब ढंग के होते जा रहे हैं, उन लोगों के भीतर किसी प्रकार का अनुशासन तो नहीं ही है, उनके व्यवहार में कहीं से थोड़ी सी विनम्रता भी नहीं झलकती- मालूम पड़ता है जैसे वे हड़बड़ी में (अपने चरित्र का गठन किये बिना ही) सब कुछ तोड़-फोड़ कर कुछ करना चाहते हैं, इन लोगों के लिये कुछ होना आवश्यक है!
तुरन्त फिर वे दोनों सम्मिलित रूप से कहने लगे, किन्तु यह कार्य रामकृष्ण मिशन के सन्यासियों के द्वारा  भी होने वाला नहीं है ! क्योंकि RK मिशन के संन्यासी (निवृत्ति मार्गी) लोग जैसे ही युवाओं के बीच - 'मन की  एकाग्रता  (मनः संयोग), विवेक-प्रयोग, चरित्र-निर्माण , जीवन गठन  ' आदि शैक्षणिक विषयों पर चर्चा करना प्रारम्भ करेंगे,  वैसे ही उनके मुण्डित मस्तक और गेरुआ वस्त्र आदि को देखकर, सामान्य (प्रवृत्ति मार्गी) युवाओं के मन में  हमलोगों द्वारा बचपन में सुनी हुई " दो छोटे भाई और गणित ट्यूटर "  की कहानी के समान- पहले से ही कुछ शंकायें उठने लगेंगी !.... उस बालकथा के अनुसार दो छोटे भाइयों को घर पर ही ट्यूशन देने के लिये एक मास्टर-साहेब आये थे। बारामदे में अपने स्थान पर बैठने के बाद  छत की ओर इशारा करते हुए बच्चों से पूछते हैं, " अच्छा , बताओ तो बच्चों बरामदे के छत में कितने बीम हैं, और कितनी सिल्लियाँ लगी हैं ?" एक भाई (दोनों भाई एक ही कक्षा में पढ़ते थे ) अपने दूसरे भाई को कुहनी मारते हुए कहता है- " अरे भैया, कुछ समझ रहे हो ? ये मास्टर साहेब तो हमें गणित सिखायेंगे रे!" 
बचपन में यह किस्सा सुना था। उसी प्रकार युवाओं के मन में भी शंका होगी कि, पता नहीं इन लोगों असली उद्देश्य क्या है ? सन्यासियों के पास जाने से ही वे लोग हमलोगों को भी सन्यासी बना देंगे य़ा अन्य कुछ बना देंगे। अतः युवा लोग संन्यासियों द्वारा आयोजित किसी शैक्षणिक कार्यक्रम में सम्मिलित ही नहीं होना चाहेंगे।  इसलिए यह कार्य सन्यासियों के माध्यम से नहीं हो सकता है। संन्यासी नहीं, बल्कि गृही-संसारी होकर भी देशभक्त तथा अनुशासित जीवन जीने वाले  कुछ चुने हुए युवा  यदि सामने आयें,  और इस कार्य को करने का बीड़ा स्वयं उठा लें- तब उसका कुछ फल हो सकता है। यही है इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि !  
      आपस में निर्णय लिया गया कि,  विभिन्न स्थानों में ठाकुर-स्वामीजी के भाव ( रामकृष्ण- विवेकानन्द भावधारा ) के उपर विभिन्न स्थानों में कई छोटे छोटे संगठन जो कार्य कर रहे हैं, और उनमे से जो लोग यहाँ (अद्वैत आश्रम में ) आना-जाना  करते हैं उनमे से कुछ व्यक्तियों को बुला कर अद्वैत आश्रम में एक मीटिंग किया जाय, और उस बैठक में यह विचार किया जाय कि युवाओं को साथ में लेकर क्या कुछ किया जा सकता है ?
उस प्रथम बैठक में कितने लोग आये थे, मुझे ठीक से याद नहीं है; फिर भी अगर बहुत होंगे तो बारह-चौदह व्यक्ति से अधिक नहीं रहे होंगे।  वे लोग आये आपस में विचार-विमर्श हुआ, बैठक में मैंने भी अपना मन्तव्य रखा.वे सभी लोग मेरे लिये अपरिचित थे और मैं भी उनके लिये अपरिचित था.उनमे से कोई भी व्यक्ति मुझको नहीं पहचानते थे. वे लोग बोले आपने अभी जो कहा वह तो बड़ी अच्छी बात है. एक इससे भी बड़ी बैठक बुलवाई जाये. और उस आगामी मीटिंग को आहूत करने के लिये वे लोग बोले, " हमलोग आपको ही कन्वेनर बनाते हैं | " ( उसी " पहली- बैठक " के बाद क्या स्वामीजी ने आपको पकड़ा था ? वहाँ पर बैठक वाले कमरे में स्वामीजी का कौन सा चित्र लगा हुआ था ?) 
कन्वेनर बनकर फिर से एक नोटिस देकर पुनः कुछ और लोगों को दूसरी बैठक में  बुलाया गया. दुबारा एक मीटिंग हुई, उसमे भी कितने लोग उपस्थित थे मुझे ठीक से याद नहीं किन्तु शायद पच्चीस- तिस लोग रहे होंगे. उस दिन की बैठक के बाद यह तय किया गया कि एक " युवा-संगठन " को स्थापित किया जायेगा !
जिस प्रकार स्वामीजी की भावधारा के निर्मित होने के पीछे ठाकुर हैं (श्रीरामकृष्ण के द्वारा दक्षिणेश्वर में दी गयी शिक्षा है), माँ हैं ( माँ सारदा देवी की प्रेरणा और हिम्मत बढ़ाने की कृपा है ) ठीक उन्ही भावों की बुनियाद पर, युवाओं का जीवन-गठन करना अनिवार्य है- और इसी कार्य को पुरा करने के लिये यह संस्था गठित की जाएगी ! उस संस्था का नाम क्या होगा ? यही प्रश्न जब मुझ से पूछा गया तो मैंने कहा, ' देखिये नाम के विषय में मुझे ज्यादा कुछ कहना नहीं है कि 'यह नाम' रखना होगा य़ा 'वह नाम' रखना होगा- "गोलाप जे नामे डाको, गन्ध वितरे ! " ~ अर्थात गुलाब को चाहे किसी भी नाम से पुकारो, वह तो सुगंध ही विखेरता है ! 
फिर भी, मेरा केवल यही कहना है कि, इस संघ के नाम में ' विवेकानन्द ' नाम  एवं ' युवा संस्था ' यह दोनों रहना आवश्यक है; अर्थात ' विवेकानन्द युवा ' - इतना रहना आवश्यक है. एक व्यक्ति ने कहा यदि इसको ' महामण्डल ' कहा जाय ? मैंने कहा, कहिये. उसके बाद चर्चा होने लगी कि इस संस्था की ' परिधि ' - कहाँ तक होगी ? यह संस्था कितने प्रान्तों में कार्य करेगी ? मैंने कहा कि, " देखून जदि एई काज करते हय, एकटा बड़ काजेई हात दिते जाउया हछे बले मने हय- एटा एकटा शुधू कलकाता वा शुधू पश्चिमबंगे करले फल हबे ना ! एटा सारा भारतवर्षे हउय़ा दरकार ! " 
 - देखिये, यदि हमलोग सचमुच ही इस कार्य को पुरा करने का बीड़ा उठा रहे हैं, तब तो मुझे यही अनुभव होता है कि, हमलोग किसी बहुत बड़े ( महान ) कार्य में हाथ डालने जा रहे हैं, अतः इस संस्था को केवल कलकाता य़ा केवल पश्चमी बंगाल तक ही सीमित कर देने से कोई विशेष फल नहीं होगा, इस कार्य को सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैला देना आवश्यक है ! "   तब सबों ने कहा कि ' अखिल भारत ' रखा जाय. मैंने कहा रखिये। इसी लिये बहुत बड़ा नाम रखा गया- " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " नाम के पीछे का इतिहास इतना ही है.
        उसके बाद चर्चा होने लगी महामण्डल की कार्यकारिणी समिति में किन -किन लोगों को रखा जाये? अमुक को लेने से कैसा होगा , उनको लेने से कैसा रहेगा आदि आदि। जो लोग वहाँ उपस्थित थे सबों को तो मैं पहचानता नहीं था, वे लोग ही कमिटी के सदस्य के लिए नामों का प्रस्ताव दे रहे थे। इसी प्रकार कुछ नामों को प्रस्तावित करके उनलोगों ने कहा, इन- इन लोगों को कमिटी में ले लिया जाय। फिर प्रश्न उठा कि प्रेसिडेन्ट कौन होंगे ? मुझसे राय माँगी गयी कि , प्रेसिडेन्ट  किनको बनाया जाय ?
         मैंने पूछा , आप लोग किस प्रकार के व्यक्ति को अपना प्रेसिडेन्ट बनाना चाहते हैं ? क्या ऐसे किसी व्यक्ति को संस्था का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं -जिसका बड़ा नाम-धाम है ? अथवा किसी ऐसे व्यक्ति को चाहते हैं जो अच्छा परामर्श दे सकते हों और आवश्यक्तानुसार कार्यकारिणी समिति की बैठकों में भी सम्मिलित हो  सकते हों ? बोले, हाँ उसी प्रकार के व्यक्ति को चाहते हैं।  मैंने कहा कलकाता के विख्यात लोगों में से कुछ लोगों- जैसे रमेश मजुमदार महाशय ***, सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय  महाशय आदि के साथ मेरा परिचय है।  अन्य कुछ लोग जैसे उस समय के विश्वभारती के उप-आचार्य (Vice -chancellor) कालिदास भट्टाचार्य थे. वे कहीं पर व्याख्यान दे रहे थे, उनके व्याख्यान को सुन कर मैंने कहा, आपका व्याख्यान तो मुझे बहुत ही अच्छा लगा है, किन्तु समूचा भाषण तो याद रह नहीं पायेगा। मुझे आपके व्याख्यान को पढने की इच्छा हो रही है। विश्व - भारती के वाईस चांसलर वे अपने क्लास के लिये जितना लेक्चर लिख कर लाये थे, सम्पूर्ण नोट (प्रबन्ध) को मुझे सौंप दिये- जबकि वे मुझे पहचानते तक नहीं थे. वे बोले, " आप इसको पढने के बाद, इस नोट को डाक से भिजवा दीजियेगा। "  फिर मैंने उसे पढ़ लेने के बाद डाक से भेज दिया. इसी प्रकार से, उस तरह के कई प्रसिद्ध व्यक्तियों के साथ मेरा परिचय था। 
जिस प्रकार रमेश मजुमदार महाशय के साथ- जितना परिचय था उसी के आधार पर ' महामण्डल ' गठित हो जाने के बाद जब स्वामीजी के जन्मदिवश के उपलक्ष्य में एक (महामण्डल द्वारा आयोजित प्रथम) शोभा-यात्रा (जुलुस) की समाप्ति के बाद सभा को आयोजित करने की बात उठी।  तब किसी ने कहा, उस अवसर पर कौन से विशिष्ठ व्यक्ति लेक्चर देंगे ? तब दो-चार लोगों के नाम सामने आये. परन्तु बहुत से लोगों को वे नाम जँचे नहीं .  तब मैंने कहा, क्या रमेश मजुमदार महाशय यदि व्याख्यान दें तो ठीक होगा ? सभी खुश हो गये- अरे अरे रमेश मजुमदार महाशय के बोलने से नहीं होगा ? ठीक है, तो मैं उनको कहूँगा।
वे आयेंगे क्या ?  
मैंने कहा, मैं उम्मीद रखता हूँ कि उनको अनुरोध करने से वे आयेंगे. रमेश मजुमदार महाशय को एक फोन किया।  उधर से बोले, ' नवनी, क्या समाचार ? 'मैंने बताया, हमलोगों का स्वामी विवेकानन्द के नाम पर युवाओं के लिये  इस प्रकार का एक संघ स्थापित किया है, हमलोग मैदान ( कलकाता का मयदान - धरम-तल्ला) में स्वामीजी का जन्मदिन मनाना चाहते हैं, वहाँ पर एक सभा होगी; क्या आप उस सभा में बोलने के लिये आयेंगे ?" हाँ, निश्चय ही आऊंगा ! कब होने वाला है ? " मैंने तारीख बतला दिया। उन्होंने फिर पूछा - " मयदान में कहाँ पर होगा ?  मैंने कहा ठीक मनुमेंट के नीचे।  तो फिर आपको लाने के लिये मैं किसी को भेज दूंगा. वे बोले, ' नहीं, नहीं, किसीको भेजने की जरुरत नहीं है, ठीक मनुमेंट के नीचे  ही तो ?  मैं खुद वहाँ पहुँच जाऊंगा! '  वे स्वयम वहाँ आये और व्याख्यान देकर चले गये- इसी तरह का परिचय था। किन्तु मैदान ( जहाँ प्रतिदिन मेला जैसा भीड़ रहता है, राजनितिक नेताओं का ही भाषण हुआ करता है उस धरमतल्ला मैदान) में स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिन के अवसर पर एक आम सभा आयोजित करने का अनोखा विचार (हसरत-अरमान) सबसे  पहले  स्वामी रंगनाथानान्दजी के मन में आया था।
एक दिन उन्होंने मुझसे कहा - " Nabani , bring Swami Vivekananda to maidan ! "  नबनी, धर्मतल्ला मैदान में प्रतिदिन मेला के रूप में जो एक छोटा भारत दिखाई देता है ; वहाँ पर केवल राजनीतिक मीटिंग होते हुए ही लोगों ने देखा है, तुम वहाँ पर स्वामीजी को ले आओ !  वहाँ उपस्थित साधारण जन -समुदाय के बीच स्वामीजी की वाणी को सुनाओ ! तब से शुरू होकर (?-प्रथम शोभा यात्रा ?) आज तक, कितने ही वर्ष बीत चुके हैं- उस ' आम-सभा ' मे सभी प्रकार के सामान्य लोग उपस्थित रहते हैं, और स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं व्यक्ति सचमुच लाभ उठा सकते हैं, वहाँ होता चला आ रहा है।  किन्तु हाल-फ़िलहाल में, एक-दो वर्षों से, वह सभा धरमतल्ला में न होकर हेदुआ में ( स्वामीजी के घर के निकट ) आयोजित होती है।
[7] 
 "School of Humanistic Studies "
"मानवतावादी अध्ययन स्कूल के अध्यापकों का प्रशिक्षण "
[42 जीवन नदी -"Training of teachers of the School of Humanitarian Studies"]
 
1965 में दादा पहले 'रामनाम संकीर्तन ' में भाग लेने के लिए ' वेदान्त मठ ' जाया करते थे। वहाँ उषा दा (केष्टो दा) से परिचय हुआ। उन्होंने बताया कि स्वामी रंगनाथानन्द जी दिल्ली से बदली होकर गोलपार्क मिशन आश्रम को ज्वाइन किये हैं, और वे मानवतावादी शिक्षा (Humanistic education ) के असाधारण प्रवक्ता  हैं। नवनीदा फिर स्वामी रंगनाथानन्द के निकट सम्पर्क में आये , वे बोलते समय रीढ़ की हड्डी को बिल्कुल सीधी रखते थे। उन्होंने नवनीदा से कहा था - " Ph.D. मत करो स्वामीजी का काम करो। "  
नवनीदा को स्वामी सम्बुद्धानन्द के निकट सम्पर्क में रहने का अवसर तब प्राप्त हुआ था , जब वे विवेकानन्द शतवार्षिकी समारोह के सचिव पद पर थे। स्वामी सम्बुद्धानन्द जी श्रीरामकृष्ण देव ( ठाकुर) और माँ श्री श्री सारदा देवी के शतवार्षिकी समारोह के सचिव भी रह चुके थे। [ मेरे द्वारा गाँधी जी के विरुद्ध कुछ कहने पर दादा ने  कहा था , स्वामी सम्बुद्धानन्द जी ने भी एक बार कहा था - If Gandhi is Father of the nation than I am Grandfather of the nation .(अगर गांधी राष्ट्र के पिता हैं तो मैं राष्ट्र का दादा हूं।)
फिर  गोलपार्क रामकृष्ण मिशन के सचिव स्वामी भाष्यानंद के कहने पर वहाँ से संचालित होने वाले -" मानव-प्रकृति अध्येता विद्यालय " ~ "School of Humanistic Studies " ~ में प्रवेश लेकर लगभग 3 वर्ष तक मानवतावाद [" मानव" - पद पर आरूढ़ होने के जन्मसिद्ध अधिकार की प्राप्ति तथा उसकी पद्धति/ Attainment of birthright to ascend to the post of "Human",And its method. पर दिये जाने वाले व्याख्यानों को संचालित किया।
दादा लिखते हैं - " जितने दिनों तक शतवार्षिकी अनुष्ठान चलता रहा, मुझे  सन्यासियों के साथ ही रहना पड़ा।  कुछ दिनों बाद तो गोलपार्क में मेरा आना-जाना बहुत बढ़ गया. वहाँ पर  ' School of Humanistic Studies ' का प्रारम्भ हुआ था. लगभग एक वर्ष तक उसमे भी भर्ती हुआ. वहाँ पर संध्या के समय विभिन्न विषयों पर कुछ लेक्चर इत्यादि हुआ करता था.उसके प्रोग्राम को बहुत सुन्दर ढंग से निर्धारित किया गया था. वैसे अनेक विषयों को जिन्हें साधारणतया जान लेना सबों के लिये प्रयोजनीय होते हैं, ऐसे विषयों के ऊपर कई विशिष्ट वक्ता, इन विषयों में जो सम्यक जानकारी रखने वाले अध्यापक आदि थे, वैसे विषय पर उनसे व्याख्यान दिलवाया जाता था एवं उस भाषण का सारांश पहले से ही समस्त श्रोताओं में वितरित कर दिया जाता था. 
           कुछ दिनों तक इसी कार्य में संलग्न रहते रहते एक रोज भाष्यानन्दजी बोले, ( वे ही उस प्रोग्राम कि देखरेख किया करते थे ) - "नवनी अब तुम इस मावतावादी शिक्षा व्याख्यान माला (Humanitarian Education Lecture Series)के आयोजन का प्रभार ग्रहणकरो।" (You take charge of this.) इस प्रकार दादा तीन वर्षों तक इस " School of Humanistic Studies " - के समस्त कार्यक्रमों  को सन्चालित करना, उसकी व्यवस्था देखना आदि जैसे कार्यों में तन्मयता के साथ लगे रहे। वहाँ जो पब्लिक लेक्चर इत्यादि होते थे, उसमे जिन विद्वान् वक्ताओं को आमन्त्रित किया जाता था, उनको सम्मान पूर्वक साथ में ले आना, उनकी यथोचित आतिथ्य प्रदान ( आव-भगत) करना, उनको सभा-कक्ष में ले जाकर व्याख्यान दिलवाना, उनके वापसी का इन्तजाम करना।  यह सब देख कर बहुत से लोग यह सोचते थे कि, शायद मैं भी यहीं का एक कर्मचारी होऊँगा, य़ा इसमें संलग्न अन्य कोई कर्मी होऊँगा और क्या ! बहुत समय तक इसी प्रकार चला। 

 { Swami Bhashyananda: नवनीदा के घर खड़दह में जाने वाले प्रथम साधु स्वामी भाष्यानंद (1917-1996): महाराष्ट्र राज्य के अकोला में 18 अप्रैल, 1917 को जन्मे स्वामी भाष्यानंद को वसंत विश्वनाथ नेतु नाम दिया गया था। उनके पिता, विश्वनाथ वासुदेव नाटू, और उनकी माँ, अन्नपूर्णा, धार्मिक, रूढ़िवादी ब्राह्मण थे और उन्होंने बचपन में ही वैदिक अध्ययन शुरू कर दिया था। पांच साल की उम्र में उनके पिता ने उन्हें सिखाना शुरू किया कि ध्यान के लिए कैसे बैठना है। वसंत ने मध्य भारत में नागपुर विश्वविद्यालय से कला में अपना मास्टर प्राप्त किया, और उस समय किसी मान्यता प्राप्त भारतीय विश्वविद्यालय से संस्कृत में सर्वोच्च शैक्षणिक डिग्री प्राप्त की। कॉलेज से स्नातक करने से पहले, उन्होंने भाग लेना शुरू किया और अंत में लगभग 1936 में नागपुर में रामकृष्ण के आदेश में शामिल हुए। रामकृष्ण मठ और मिशन के तत्कालीन अध्यक्ष स्वामी विरजानंद के मार्गदर्शन में, उन्होंने कई वर्षों तक राज योग का अभ्यास किया। 1962 में उन्हें कलकत्ता स्थानांतरित कर दिया गया वामी रंगनाथनंद की सहायता करना के काम में रामकृष्ण मिशन इंस्टीट्यूट ऑफ कल्चर,जहाँ वह सहायक निर्देशक बने। 1964 में उन्हें स्वामी निखिलानंद की सहायता के लिए न्यूयॉर्क स्थानांतरित कर दिया गया, जहां वे अमेरिकी तरीकों से अच्छी तरह से समायोजित हो गए। और अंत में,28 जुलाई, 1965 को, स्वामी विश्वानंद के निधन पर, उन्हें शिकागो में विवेकानंद वेदांत सोसायटी का स्वामी-प्रभारी नियुक्त किया गया। ]               
 इसी बीच एक दिन भाष्यानन्दजी बोले, " नवनी, एक दिन तुमलोगों के घर जाऊंगा | "  मैंने कहा, "महाराज, यह तो मेरे लिये बहुत आनन्द की बात होगी | " इस पर उन्होंने कहा- " नहीं, तुम्हारे आनन्द के लिये नहीं जाऊंगा; मेरा कुछ अपना काम है." मैंने कहा, " जी बहुत, अच्छा !" वे बोले -" मैं अमेरिका जाने वाला हूँ. मुझको शिकागो भेजा जा रहा है. अमेरिका तो जा रहा हूँ, किन्तु अभी तक मैंने ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं देखा है- जिसने स्वामीजी को देखा हो !" शुनेछि तोमार ठाकुरदादा स्वामीजी के देखेछिलेन ! ताई तोमार ठाकुर दादा के देखते जाबो ! " (- मैंने सुना है कि तुम्हारे बाबा (पितामह) ने स्वामीजी को देखा था, इसीलिये तुम्हारे पितामह को देखने के लिये जाऊंगा !) इसके बाद मेरे घर जाने का एक दिन तय हो गया. उस दिन मेरे घर कौन-कौन गये थे सभी के नाम मुझे याद नहीं हैं, किन्तु ८-१० सन्यासी लोग मेरे घर पर आये थे.स्वामी रंगनाथानान्दजी भी आये थे. भाष्यानन्दजी का ट्रांसफर हो चुका था, इसीलिये उनकी जगह पर असिस्टेंट सेक्रेट्री होकर स्वामी अनन्यानन्दजी लन्दन से आये थे. वे, भाष्यानन्दजी, स्वामी निरामयानन्दजी, इत्यादि कई वरिष्ठ सन्यासी गण दो-तीन गाड़ियों में बैठ कर खड़दह आये थे।
 हमलोगों के देश में घर में पधारे हुए सन्यासियों की अभ्यर्थना जिस रीति से की जाती है, उसके अनुसार प्रवेशद्वार पर (उठाने ) उन सभी के चरणों को (पीतल के कठौते में रख कर) धोया गया.(फिर तौलिये से पोछ दिया गया). मेरे पितामह प्रत्येक साधु के गले में फूलों की माला पहना दिये. फिर उनलोगों के साथ पितामह की बातचीत होने लगी, उनलोगों की बैठक बहुत देर तक चली. सभी लोग एक साथ बैठ कर भोजन ग्रहण किये.भोजनोपरान्त वापस लौटते समय मोटा-मोटी यह जाना गया कि कौन कहाँ से आये थे. मालूम पड़ा कि दो सन्यासी अद्वैत आश्रम से आये थे.उनमे से एक सन्यासी, स्वामी स्मरणानन्दजी (जयराम महाराज )  अभी वर्तमान में (सन २०१० में ) " रामकृष्ण मठ मिशन " के 'सह-अध्यक्ष' (Vice -President ) हैं ! उस समय मैं उनको नहीं पहचानता था, उनके साथ मेरा परिचय नहीं हुआ था. उन्होंने कहा, " नवनिबाबू, आप अद्वैत आश्रम में क्यों नहीं आते हैं ? " मैंने कहा, महाराज बहुत से स्थानों में जाना सम्भव नहीं हो पाता, मैं तो पहले ( स्वामी रंगनाथानन्दजी के आने से पहले ) गोलपार्क भी नहीं जाता था. अभी रंगनाथानन्द जी के व्याख्यानों  को सुनने के लिये वहाँ जाता हूँ, और अन्यान्य स्थानों में भी कभी कभी गया हूँ. कुछ दिनों के बाद स्वामी अनन्यानन्दजी गोलपार्क से अद्वैत आश्रम में चले आये.
 किन्तु बाद में अद्वैत आश्रम में आना-जाना शुरू कर दिया. फलसवरूप अब प्रतिदिन गोलपार्क नहीं जा पाता था, ऑफिस के बाद रोज अद्वैत आश्रम ही जाया करता था, वह नजदीक भी पड़ता था. आते जाते ऐसा हो गया कि वहाँ पहुँचते ही तीसरे तल्ले पर लेजा कर कुछ चाय-वाय खिलाते थे. चाय-वाय करके संध्या के समय में जयराम महाराज और स्वामी अनन्यानन्दजी - ये दोनों व्यक्ति टहलने के लिये थोड़ा बाहर जाते थे. वे लोग अद्वैत आश्रम से निकलकर पार्क-सर्कस तक जाते थे, मैं भी उनके साथ जाया करता था.उनदिनों विशेष कर कलकत्ते में एवं अन्य भी कई जगहों पर, युवाओं के भीतर एक प्रकार का अस्थैर्य (छटपटाहट ) जैसा, मानो भीतर भीतर कहीं कुछ (परानुकरण की पराकाष्ठा के प्रति विक्षोभ ) चल रहा हो, ऐसा भाव परिलक्षित होने लगा था. 

जीवन नदी के हर मोड़ पर (44) में नवनीदा लिखते हैं -अद्वैत आश्रम में  जनवरी 1968 में आयोजित महामण्डल की दूसरी बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसार उस नव आविर्भूत युवा संगठन का नाम ' महामण्डल ' (अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) निर्धारित हो गया। प्रख्यात शिक्षाविद और प्रेसीडेन्सी कॉलेज कोलकाता, में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक अमियदा (श्री अमिय कुमार मजूमदार) महामण्डल के प्रथम अध्यक्ष बने। (उस समय अमियदा 'Indian Philosophical Congress' के सचिव थे तथा डॉ ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन उसके अध्यक्ष थे।)
 अब हमलोगों को स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा प्रणाली के अनुसार, अरियादह में महामण्डल का " प्रथम अखिल भारत वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर " शिविर आयोजित करने की तैयारी करनी थी। प्रश्न यह उठा कि उस नव आविर्भूत युवा संगठन-  'महामण्डल ' द्वारा  के आदर्श (Role Model) , उद्देश्य और पाठ्यक्रम  (Purpose and Syllabus-curriculum)  तथा प्रशिक्षक/नेता /शिक्षक कौन हों -संन्यासी या अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित कोई गृहस्थ ? 
..... दूसरी बैठक में उपस्थित सभी लोगों ने सर्वसम्मत निर्णय लिया कि - यह सब तय करने के लिये आगे जो कुछ भी सोचना या करना है , वह आपको ही (नवनीदा को ही) करना है ! फिर यही विचार मन में रात-दिन चलने लगा।  पहले मन में प्रश्न उठा कि इस ' युवा महामण्डल ' का आदर्श-पुरुष (Ideal-प्रेरणाश्रोत/ इष्ट) किसको बनाना चाहिये ?  स्वाभाविक उत्तर है कि युवा महामण्डल के आदर्श-पुरुष (प्रेरणाश्रोत/ इष्ट/ साँचा य़ा Role -Model ) तो चिर-युवा  स्वामी विवेकानन्द ही हो सकते हैं ! क्योंकि महामण्डल को स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा ~  " भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में समन्वय " की बुनियाद पर सम्पूर्ण भारत के युवाओं के बीच इस प्रकार का कार्य करना होगा जिससे उनके भीतर सुमति (सदबुद्धि) वापस आजाय, य़ा युवा-वर्ग सुमति ( आत्मश्रद्धा ) प्राप्त करने में सक्षम हो जाएँ ! इस युवा-संगठन का मूल कार्य तो यही है। इसीलिये उस नव आविर्भूत युवा संगठन-'महामण्डल' के आदर्श हैं  - स्वामी विवेकानन्द ! चूँकि दादा के घर जाने वाले प्रथम संन्यासी स्वामी भाष्यानंद जी अकोला , महाराष्ट्र से थे , और स्वामी रंगनाथानन्द जी तथा स्वामी स्मरणानन्द जी दक्षिण भारत से आते थे इसीलिए महामण्डल का  कार्यक्षेत्र य़ा  कार्य की परिधि को निर्धारित किया गया - सारा भारतवर्ष !  तथा प्रशिक्षण की भाषा -भारत की संपर्क भाषा हिन्दी को निर्धारित किया गया।
 अब प्रश्न उठा कि, स्वामीजी की शिक्षा पद्धति के अनुसार शिक्षा कैसे दी जाएगी ? हमलोग तो स्कूल, कालेज बनायेंगे नहीं।  तब यह तय हुआ कि, महामण्डल के द्वारा युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया जायेगा।  इसके लिये पहले युवाओं का आह्वान करके प्रशिक्षण शिविर परिसर में एकत्र करके रखा जायेगा।  फिर पूरे दिन का एक कार्यक्रम बना कर, उनको चरित्र-गठन किस प्रकार किया जाता है, चरित्र कहते किसे हैं, मनुष्य-निर्माण किस प्रकार होता है, कोई भी मनुष्य का ढाँचा रखने वाला व्यक्ति आखिर ' मनुष्य ' बनता किस प्रकार है, मनुष्य बन कर समाज के लिये क्या किया जा सकता है (सर्वोत्तम समाज-सेवा  किस प्रकार की जाती है) - इन सब विषयों की शिक्षा दी जाएगी।   
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह था कि युवा-प्रशिक्षण शिविर के लिए स्वामी विवेकानन्द निर्देशित प्रशिक्षण -पद्धति (शिक्षा प्रणाली) कैसी होनी चाहिये ? युवा -प्रशिक्षण का उद्देश्य, पाठ्यविषय और पाठ्यक्रम (syllabus and curriculum) क्या होना चाहिये?  यह संगठन किस प्रकार अपना कार्य करेगा ? स्वामीजी बार बार यही कहते थे कि, Man-making and Character Building Education - मनुष्य निर्माण एवं चरित्र-गठन करने वाली शिक्षा सभी युवाओं को देनी होगी ! क्योंकि प्रचलित शिक्षा व्यवस्था में युवाओं को चरित्र-निर्माण की पद्धति नहीं सिखाई जाती है।  
 आज (स्वतंत्र भारत में ) भी देश में ऐसी कोई राष्ट्रीय शिक्षा नीति नहीं है जिसमे - मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन कराने की शिक्षा देने की व्यवस्था हो, और पहले (गुलाम भारत में ) तो खैर ऐसी शिक्षा देने का सवाल ही नहीं था। उसके भी और पहले की तो -बात ही अलग थी। जिस समय में नेताजी सुभाष चन्द्र स्कूल में पढ़ते थे, या जब उन्हीं के जैसे अन्य लोग स्कूल में पढ़ते थे, जिन्होंने देश के लिये प्राण न्योछावर कर दिये थे , या त्यागने के लिये प्रस्तुत थे, उनके समय के शिक्षक लोग दूसरे ही ढंग की चीज (प्रेरणा) छात्रों को देते थे. किन्तु यह चीज (संजीवनी-बुट्टी 3 'H ' - विकास की शिक्षा ) तो उनके समय में भी नहीं थी !  इसी के पहले वाली शताब्दी के साठवें दशक तक, सत्तर के दशक तक भी नहीं था।  तब इसके ऊपर चिन्तन करना पड़ा, और (विवेकानन्द साहित्य का मन्थन कर) स्वामीजी द्वारा प्रदत्त मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-गठन की पद्धति ~ 'Be and Make' को ढूंढ़ कर महामण्डल की कार्यपद्धति के रूप में निर्धारित कर लिया गया। फिर यह तय हुआ कि "  स्वामी विवेकानन्द निर्देशित शिक्षा-प्रणाली " के अनुसार ' चरित्र-गठन ' एवं ' मनुष्य- निर्माण ' के कार्य को सारे भारतवर्ष में फैला देना, अर्थात भारत का कल्याण (Welfare of India) ही इस संघ का उद्देश्य होगा ! 
अब इसका एक Leaflet (पत्रक) लिखा गया और शिविर आयोजित होने से पहले ही उसको छपवा कर परिचित लोगों के बीच वितरित कर दिया गया। (सभी विद्यालयों , विश्वविद्यालयों में वह पत्रक, शिविर-नियमावली, आवेदन -प्रपत्र आदि को पोस्ट के द्वारा भेज दिया गया। (उस Leaflet का  प्रथम हिन्दी प्रारूप 1988 में तैयार किया गया ! ) फिर ' महामण्डल का आदर्श और उद्देश्य '  शीर्षक देकर एक छोटी सी पुस्तिका तैयार की गयी। 
ये सभी कार्य ऑफिस के टेबल पर बैठ कर ही करने पड़ते थे। बहुत से लोग पूछते थे- आप ऑफिस के कार्य कैसे निबटाते हैं ?  ऑफिस के काम की मैंने कभी उपेक्षा नहीं की है, उस समय तक नौकरी करते हुए मुझे कई वर्ष हो चुके थे।  क्योंकि बहुत कम उम्र में ही मुझे नौकरी में आना पड़ा था, एवं विभिन्न स्तर पर मैंने कार्य किया है। उस समय जितने कार्यों का दायित्व मेरे ऊपर था, उन समस्त कार्यों का उचित ढंग से निष्पादन करने में एक पुरा दिन लग जाना तो दूर रहा, सारे कार्य दिन के एक-चौथाई समय में ही समाप्त हो जाते थे। 
 निष्ठापूर्वक कार्यों का निष्पादन करने के फलस्वरूप मेरे कार्यालय के जो प्रधान थे, उन्होंने स्पष्ट आदेश दे रखा था कि, समस्त फ़ाइल चाहे जिस किसी के पास भी जाएँ, उसके  दस्तावेज य़ा विवरण एकबार इनके पास अवश्य भेजनी होगी।  उसके बाद ही कोई चिट्ठी डिसपैच के लिये भेजी जा सकेगी। बाद में मैंने हिसाब लगाकर देखा था कि, दिन भर में 150 के करीब फाइलें मेरे पास आया करती थीं।  किन्तु ऑफिस के किसी भी आज के फ़ाइल को, कल के लिये कभी पेन्डिंग नहीं छोड़ा। मैं यदि कभी यह पाता कि कोई आवश्यक फ़ाइल अपराह्न में तीन बजे आ गया है, तब मैं डिसपैच सेक्सन को खबर कर देता कि- ' पाँच बज जाने के बाद भी एक चपरासी को रोक लीजियेगा। और डायरेक्टर के स्टेनो-बाबू ( stenographer ) को ही बुलवा लेता था। क्योंकि डायरेक्टर ने बोल रखा था कि  आपको जब कभी जरुरत हो, मेरे साथ मिल सकते हैं।  
       उनको बुलवाकर साथ ही साथ उस फ़ाइल की उचित व्यवस्था करके पाँच बज जाने के बाद भी उसको भिजवा देना य़ा बहुत जरुरी फ़ाइल रहा तो जल्दी-जल्दी उसे  हाथो- हाथ राइटर्स बिल्डिंग में मिनिस्टर के पास य़ा सेक्रेटरी के पास ही सीधा भिजवा देता था।  मैंने स्वयं आजमा कर देखा है कि, पूरे दिन के एक-चतुर्थांश य़ा बहुत हुआ तो एक-तृतीयांश समय में ही सारे दिन का कार्य समाप्त  हो जाता था। 
 यदि किसी कार्य के लिये और भी कुछ जानकारी, य़ा और कुछ तत्थ्य संग्रह किये बिना पुरा करना सम्भव नहीं रहता तो, उनको कलेक्ट करने में जितना समय लगता, उतना ही समय तक उस फ़ाइल को अपने पास रखता था.इसीलिए कह सकता हूँ कि ऑफिस के काम के प्रति कोई लापरवाही दिखाए बिना, ऑफिस के टेबल पर बैठ कर ही  मनः संयोग , चरित्र-गठन , चरित्र के गुण आदि कई महामण्डल पुस्तिकाएँ लिखी गयीं हैं।  घर में वापस लौटने के बाद, रात्रि में भी काम करना पड़ता था, कभी कभी तो देर रात (डेढ़-दो बजे तक भी) तक काम करना पड़ता था।  
 ' स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित मनुष्य-निर्माण की पद्धति के अनुसार '  इस प्रकार से प्रशिक्षण देने की व्यवस्था महामण्डल के सिवा आज भी कहीं और नहीं है।  उस समय (1967 तक ) भी नहीं थी। मनुष्य-निर्माण की पद्धति आखिर है क्या ?  प्रशिक्षण के द्वारा धीरे धीरे मनुष्य कैसे बना जाता है ? स्वामीजी ने तो कहा है, बार बार कहा है कि,मनुष्य के तीन मौलिक components ( अवयव य़ा घटक) हैं-शरीर, मन और ह्रदय ! **  इनको ही हमलोगों के देश में - शरीर, मन और आत्मा भी कहा जाता है !  ये  तीन बातें पहले भी कही जाती थीं, पहले किसी ने कहा ही नहीं हो ऐसा नहीं है।  किन्तु स्वामीजी शरीर, मन, और आत्मा नहीं कहते थे।  क्योंकि- आत्मा  क्या है ? - इसको साधारण मनुष्यों को समझा देना उतना सहज नहीं है।  किन्तु  ह्रदय की भाषा को तो हर कोई समझ लेता है।  ह्रदय वह वस्तु है जिसे आत्मा को अभिव्यक्त करने वाला यन्त्र कहा जा सकता हैं, य़ा माध्यम भी कहा जा सकता है।  
किसी व्यक्ति की आत्मा किस प्रकार कार्य कर रही है, इसको उस मनुष्य के ह्रदय से समझा जा सकता है। मनुष्य का ह्रदय सहानुभूति-सम्पन्न रहना चाहिये, दूसरों के दुःख में दुखी होने वाला, दूसरों के आनन्द में आनन्दित होने वाला विस्तृत ह्रदय, समस्त विश्व के साथ (एकात्मता का बोध करने वाला ह्रदय) अपने को जुड़ा हुआ मानने वाला ह्रदय होगा।  प्रत्येक मनुष्य का ह्रदय इतना विस्तृत हो सकता है, कि वह समस्त विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव कर पाने में सक्षम होगा। 
 किन्तु केवल ह्रदय के विकास करने य़ा विस्तृत बना लेने से ही तो काम नहीं चलेगा।  ह्रदय को अपने भीतर धारण करने के लिये एक शरीर भी तो है ?  उसकी भी आवश्यकता रहती है.इसीलिये शरीर को शख्त, सबल, निरोग, कर्मठ रखना होगा।  शख्त, सबल, निरोग, कर्मठ शरीर बनाने के लिये क्या आवश्यक है ? नियमित रूप से व्यायाम आदि करना आवश्यक है।  इसीलिये खाली हाथ का व्यायाम आदि करने का प्रशिक्षण देना इस शिक्षा का एक अंग होगा। [महामण्डल के पूर्व उपाध्यक्ष में से एक - पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध बॉडी बिल्डर निलमोनी दास ('Iron-man' Nilmoni Das) महामण्डल के प्रथम शारीरिक प्रशिक्षक थे। अभी उनके सुपुत्र श्री स्वप्न दास हैं।] 
 उसी प्रकार हमलोगों का मन भी है; बल्कि मन ही तो सबकुछ है। हमारे शास्त्रों में  कहा गया है कि ~ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । मन  ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण है !  इस मन के द्वारा ही हमलोग प्रत्येक कार्य को करने में समर्थ होते हैं।  किन्तु हमलोग अपने मन की हमलोग कोई सुध नहीं लेते, उसका समुचित मूल्य नहीं समझते हैं।  इसीलिये मन हमलोगों के द्वारा उसकी जो इच्छा  हो वही करवा लेता है, और उसके बहकावे में आकार  हमलोग विवेक-विचार किये बिना ही मन जो कुछ चाहता है, उसीको पाने के लिये दौड़ जाते हैं।  हमलोग मन के दास बन गये हैं, किन्तु हमें मन को अपना दास बनाना होगा।  जिस प्रकार मनुष्य अर्थ का भी दास नहीं होता, उसका प्रभु होता है। किन्तु अभी रूपया ही मनुष्य का स्वामी बन गया है, रुपया मनुष्य का दास नहीं है। जिस प्रकार हम सभी लोग रूपये के दास बन गये हैं, उसी प्रकार हमसभी लोग मन के भी दास बन गये हैं।  मन हमारा दास नहीं है, वह हमारे आदेश के अनुसार कार्य नहीं करता। इसीलिये इस बिगड़े हुए मन को पहले अपने वश में लाना होगा !  मन को अपने वश में कैसे लाऊंगा, उसकी पद्धति क्या है ? इस पद्धति को प्रशिक्षण शिविर में सिखाया जायेगा। भारत के विभिन्न प्रान्तों से आये विभिन्न भाषा-भाषी मनुष्यों के साथ मिलकर शिविर के विविध कार्यक्रमों में भाग लेने से अनजाने ही हमारे ह्रदय का विस्तार भी हो जाता है।  
  इसीलिये मानवतावादी शिक्षा (Humanistic education) अर्थात मनुष्य-निर्माण पद्धति को स्वामीजी एक सूत्र में कहते हैं- 3H विकास ! ' HAND ' standing for the body, ' HEAD ' standing for one 's intellect and mind; तथा ' HEART ' या हृदय जो मनुष्य की आत्मा की अभिव्यक्ति का माध्यम/यंत्र है, जिसके द्वारा मनुष्य की आत्मा का परिचय प्राप्त होता है।  जैसे किसी किसी मनुष्य को ' महात्मा ' कहा जाता है - ' महात्मा ' का अर्थ क्या है ? वैसा मनुष्य  जिसका ह्रदय अति विस्तृत हो गया हो।  जो ह्रदय सबों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख जैसा अनुभव करने में समर्थ होता है, और जो दुःख-कष्ट में गिरा हुआ है, उसके दुखों को दूर करने के लिये, उसकी सहयता करने के लिये जिसका ह्रदय उसे प्रेरणा देता है, उदबुद्ध करता है, उसके ह्रदय का प्रेम जाग्रत हो जाता है. और वह अपने शरीर की शक्ति, अपना अर्थबल, सब कुछ को वह दूसरे मनुष्यों का दुःख-कष्ट दूर करने में व्यवहार करता है। (महात्मा गाँधी का प्रिय भजन था - वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर परायी जाने रे !  ) यही तो है- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा।  स्वामीजी इसी प्रकार का  मनुष्य (पूर्णतया निःस्वार्थपर )  - महात्मा  मनुष्य   य़ा चरित्रवान-मनुष्य का ही निर्माण करना चाहते थे।
" भौतिकवाद और अध्यात्मवाद में समन्वय "  का प्रशिक्षण देने वाला वेदान्त-केसरी /शिक्षक /नेता /गुरु (C-IN-C) संन्यासी हो या गृहस्थ ? दादा कहते थे तुम्हें कैम्प में आने वाले शिविरार्थियों को उपास्य और अपने को उपासक के रूप में देखते हुए, जैसे "सत्यनारायण कथा" के समय कहना पड़ता है - इहागच्छ इह तिष्ठ ॐ बृहस्पतये नमः बृहस्पतिमावाहयामि स्थापयामि । वैसे समझकर कहना पड़ेगा।  ईश्वरोन्मुख होनेके बाद मनुष्यको परमात्माके वास्तविक तत्वक परिज्ञान होने लगता है और फिर वह सदा सर्वदाके लिये जीवमुक्त हो जाता है, इसीलिये सारे कर्म शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार होने चाहिये।

{*** उपासक और उपास्य-खण्ड-3 , २१४ / Worshipper and Worshipped -E6/49) " हम उस मनुष्य को देखना चाहते हैं , जिसका विकास समन्वित रूप से हुआ हो -हृदय से विशाल , मन से उच्च और कर्म में महान। ( great in heart, great in mind, great in deed)  हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं , जिसका हृदय संसार के दुःख-दर्दों को गहराई से अनुभव करता हो , जो न केवल अनुभव करता हो,वरन उसके मूल कारण को खोज लेने में भी सक्षम हो। हम चाहते हैं ऐसा मनुष्य , जो यहाँ भी न रुके बल्कि उसके हाथ इतने सबल हों, वह उन दुःख के कारणों को दूर करने में समर्थ हो। हम मस्तिष्क (Head), हृदय (Heart) और हाथों (Hand) के ऐसे ही संयोजन (3H) को प्रत्येक युवा में देखना चाहते हैं। हम उस महाकाय मनुष्य का निर्माण क्यों न करें -जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान और प्रेमवान भी हो ? क्या यह असम्भव है ? निश्चय ही नहीं। यही है भविष्य का मनुष्य। इस समय ऐसे तीनों अवयवों के संतुलित विकास द्वारा निर्मित मनुष्य बहुत थोड़ी संख्या में हैं। लेकिन ऐसे मनुष्यों की संख्या तब तक बढ़ती रहेगी जब तक कि समस्त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता। ... धर्म (शिक्षा, निःस्वार्थपरता) वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में उन्नत कर देता है।  
(What we want is to see the man who is harmoniously developed . . . great in heart, great in mind, [great in deed] . . . . We want the man whose heart feels intensely the miseries and sorrows of the world. . . . And [we want] the man who not only can feel but can find the meaning of things, who delves deeply into the heart of nature and understanding. [We want] the man who will not even stop there, [but] who wants to work out [the feeling and meaning by actual deeds]. Such a combination of head, heart, and hand is what we want. Why not [have] the giant who is equally active, equally knowing, and equally loving? Is it impossible? Certainly not. This is the man of the future, of whom there are [only a] few at present. [The number of such will increase] until the whole world is humanized. Religion is the idea which is raising the brute into man, and man into God.)]         
[स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make' में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक /नेता (C-IN-C) बनने और बनाने को ही महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर के पाठ्यविषय और पाठ्यक्रम के रूप में निर्धारित कर लिया गया।]  
  
              25 अक्टूबर 1967 को अद्वैत आश्रम में आयोजित महामण्डल की प्रथम बैठक का उल्लेख करते हुए , नवनीदा अपनी पुस्तक ' जीवन नदी के हर मोड़ पर -43 ' में कहते हैं, रामकृष्ण मिशन के उन वरिष्ठ संन्यासियों ने हमें यह परामर्श दिया कि " जब आपलोग बहुत सारे समाजोपयोगी कार्यक्रम चलाते हैं , तब जो युवा कुमार्ग पर चले जा रहे हैं , अनुशासन और विनम्रता जिनमें नाममात्र की भी नहीं है , जो हड़बड़ी में सब कुछ तोड़-फोड़ कर तहस-नहस करने पर उतारू हैं , उन (भटके हुए) युवाओं को सन्मार्ग पर लाने के लिये कुछ करना- अब अत्यन्त आवश्यक हो गया है?  किन्तु याद रखिये कि यह कार्य रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों के माध्यम से भी होने वाला नहीं है। क्योंकि जैसे ही संन्यासी लोग युवाओं के बीच किसी शैक्षणिक कार्यक्रम को क्रियान्वित करने की चेष्टा करेंगे, तो उनके मुण्डित मस्तक आदि को देखकर , सामान्य युवाओं के मन में हमारे बचपन में सुनी हुई बालकथा -" दो बच्चे और गणित-ट्यूटर " के सामान -पहले से ही कुछ शंकायें उठने लगेंगी।
        उस बालकथा के अनुसार दो छोटे भाइयों को घर पर ही ट्यूशन देने के लिये एक मास्टर-साहेब आये थे। बारामदे में अपने स्थान पर बैठने के बाद छत की ओर इशारा करते हुए बच्चों से पूछते हैं, " अच्छा बच्चों , बताओ तो इस बरामदे के छत में कितने बीम हैं, और कितनी सिल्लियाँ लगी हैं ? "  एक भाई (दोनों भाई एक ही कक्षा में पढ़ते थे ) अपने दूसरे भाई को कुहनी मारते हुए कहता है- " अरे भैया, कुछ समझ रहे हो ? ये मास्टर साहेब तो हमें गणित सिखायेंगे रे!" उसी प्रकार मिशन के संन्यासियों द्वारा आयोजित किसी शैक्षणिक कार्यक्रमों में भाग लेने वाले युवाओं के मन में भी यह शंका उठेगी कि, पता नहीं इन लोगों असली उद्देश्य क्या है ? सन्यासियों के पास जाने से ही वे लोग हमलोगों को भी सन्यासी बना देंगे य़ा अन्य कुछ तो बना देंगे ? अतः युवा लोग उन कार्यक्रमों में सम्मिलित ही नहीं होना चाहेंगे।  इसलिए यह कार्य सन्यासियों के माध्यम से नहीं हो सकता है। संन्यासी नहीं, बल्कि गृही-संसारी होकर भी अनुशासित जीवन जीने वाले कुछ चुने हुए देशभक्त युवा यदि सामने आयें, और इस कार्य को करने का बीड़ा स्वयं उठा लें- तब उसका कुछ फल हो सकता है। यही है इस युवा-संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि ! "  (जी०न० पृष्ठ,125-126)  
[ज्ञातव्य प्रश्न - नवनीदा और आप किस यूथ -क्लब के सदस्य थे ? क्या दीपक दा, प्रणव दा भी उस बैठक में उपस्थित थे ? तो वे किस यूथ क्लब के सदस्य थे ? 2nd hand Jeep द्वारा कोलकाता से अल्मोड़ा तक की यात्रा में कौन कौन लोग नवनीदा के साथ थे ? जब अध्यक्ष पद के रमेश चन्द्र मजूमदार और सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय आदि के नाम पर चर्चा हुई , तब अमियो दा कैसे अध्यक्ष बने ?]
The whole secret is in practicing.  This attainment (SQ-100% unselfishness)
 
भागवत 2.1.6 में शुकदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं -
एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया।
जन्मलाभः परः पुंसामतो नारायणस्मृतिः।।

मुनष्य जन्म का यही इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो- ज्ञान से, भक्ति से अथवा अपने स्वधर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे।
सांख्यशास्त्र द्वारा तत्त्व का विश्लेषण होता है। प्रकृति और पुरुष तत्त्व का विश्लेषण होता है। देह-इन्द्रिय-मन-बुद्धि अहंकार क्या हैं, अहंतत्त्व -महत्तत्त्व अव्यक्त क्या हैं? पंच तन्मात्राएँ क्या हैं? इनमें अलग अजर-अमर अखण्ड आत्मा [पुरुष ] कौन है? इसी तरह प्रकृति-विकृति से विश्लिष्ट परमतत्त्व पुरुष में मन की एकाग्रता योग है। सांख्य-योग का भी इतना ही लक्ष्य है कि उस तत्त्व के श्रवण, मनन (सत्य-असत्य विचार), निदिध्यासन (अभ्यास)  में बुद्धि रम जाय। मानव जीवन प्राप्त करने का परम लाभ यही है कि अन्त में नारायण की स्मृति हो। श्रीशुकदेव जी महाराज कह रहे हैं, वैसे  किरातार्जुनीयम् 2/5 (किरात एक भील प्रजाति है) में यह भी कहा गया है कि-‘‘ ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्यावचने विपश्चितः।’’  गुण ग्रहण करने वाले विद्वान वक्तृविशेषनिःस्पृह होते हैं। कौन कह रहा है, इस पर ध्यान नहीं देते। वह क्या कह रहा है, इस पर ध्यान देते हैं।
[ महाकवि भारवि द्वारा सातवीं शती ई. में रचित किरातार्जुनीयम् ( किरात और अर्जुन की कथा) एक प्राचीन संस्कृत महाकाव्य है। यह काव्य किरातरूपधारी शिव एवं पांडुपुत्र अर्जुन के बीच के धनुर्युद्ध तथा वाद-वार्तालाप पर केंद्रित है ।  एक जंगली सुअर को तुमने नहीं मैंने मार गिराया इस दावे को लेकर अर्जुन का किरात (वनवासी एक जन जाति) रूपधारी शिव के साथ प(हले विवाद फिर युद्ध होता है, और अंत में शिव अपने असली रूप में प्रकट होकर आयुधों से अर्जुन को उपकृत करते हैं । ]
भौतिकवादी विषयों (लौकिक विषयों) में यद्यपि प्रायः ‘वक्तृविशेष निस्पृहता’ होती है, ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम्’, सुभाषित यदि बालक भी बोल रहा हो, गँवार भी बोल रहा हो तो ग्रहण करना चाहिए’ यही नीति काम करती है।  परन्तु अध्यात्मवादी विषयों में (वेदान्त में) वक्तृविशेषस्पृहा होनी ही चाहिये। कौन बोलता है? कोई श्रोत्रिय-ब्रह्मनिष्ठ बोल रहा है? इसलिये- मुण्डक (१. २. १२) में आध्यात्मिक शिक्षकों की योग्यता निर्धारतीत करने के लिए स्पष्ट कर दिया गया है - 
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।
तद्विज्ञानार्थ स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।।


~ अर्थात कर्म द्वारा प्राप्त हुए लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण (ब्रह्म-जिज्ञासु या एथेंस का सत्यार्थी ) पहले स्वयं निर्वेद-वैराग्य को प्राप्त हो जाय, क्योंकि संसार अकृत-नित्य पदार्थ नहीं है और कृत से हमें क्या प्रयोजन है? अतः उस नित्य-वस्तु का साक्षात-ज्ञान प्राप्त करने के लिये तो हाथ में समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास ही जाना चाहिये। 
`आचार्यवान् पुरुषो वेद’ [ छान्दोग्योपनिषद् 6.14.2 ]
स्वयमाचरते यस्मादाचारे स्थापयत्यपि।
आचिनीति च शास्त्रार्थानाचार्यस्तेन चैच्यते।।

 अर्थात जो शास्त्रों का संकलन करके वेद-वेदांगों का अध्ययन करके उसका शास्त्रार्थसार संग्रहीत करे और अन्यों में भी व्यवस्थापन कर, स्वयं भी वैसा ही आचरण करे, उसे आचार्य /नेता (C-IN-C) कहते हैं।
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोअपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोअस्य लब्धाअश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।
[ कठोपनिषद् 1.2.7-8 ]
( श्रवणाय अपि यः बहुभिः  न लम्यः, शृण्वन्तः अपि  बहवः  यम् न विद्युः।  आश्चर्यः अस्य वक्ता अस्य लब्धा आश्चर्यः ज्ञाता  कुशलः कुशलानुशिष्टः ॥  He that is not easy even to be heard of by many, and even of those that have heard they are many who have not known Him,-a miracle is the man that can speak of Him wisely or is skilful to win Him, and when one is found, a miracle is the listener who can know God even when taught of Him by the knower.
'''वह' (परतत्त्व) जिसका श्रवण भी बहुतों के लिए सुलभ नहीं है श्रवण करने वालों में से भी बहुत से लोग 'जिसे' जान नहीं पाते। 'उसका' ज्ञानपूर्वक कथन करने वाला व्यक्ति अथवा कुशलता से 'उसे' उपलब्ध करने वाला व्यक्ति होना एक आश्चर्यभरा चमत्कार है, तथा जब ऐसा कोई मिल जाये तो ऐसा श्रोता होना भी आश्चर्यपूर्ण है जो ज्ञानीजन से 'उसके' विषय में उपदेश ग्रहण करके भी 'ईश्वर' को जान सके। जो बहुतों को सुनने के लिये भी प्राप्त होने योग्य नहीं है, जिसे बहुत से सनुकर भी नहीं समझते, उस आत्मतत्त्व का निरूपण करने वाला भी आश्चर्य रूप है, उसको प्राप्त करने वाला भी कोई कुशल नेता / जीवनमुक्त शिक्षक होता है तथा कुशल आचार्य द्वारा उपदेश किया हुआ ज्ञाता भी आश्चर्य रूप है।
न नरेणावरेण प्रोक्ता एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अन्यन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति अणीयान्ह्यतर्क्यमनुप्रमाणात्।।

[ एषः अवरेण नरेण प्रोक्तः न सुविज्ञेयः भवति अनन्यप्रोक्ते अत्र गतिः न अस्ति। हि एषः अणुप्रमाणात् अणीयान् अपि च अतर्क्यम् ॥ An inferior man cannot tell you of Him; for thus told thou canst not truly know Him, since He is thought of in many aspects. Yet unless told of Him by another thou canst not find thy way there to Him; for He is subtler than subtlety and that which logic cannot reach.]
''अवर व्यक्ति (अल्पबुद्धिः ज्ञानहीन) तुम्हें 'उसके' विषय में बता नहीं सकता; उसके कथन किये जाने पर भी तुम वस्तुतː 'उसे' जान नहीं सकते क्योंकि 'उसका' बहुविध रूपों में चिन्तन किया जाता है। तथापि अन्य किसी के द्वारा 'उसके' विषय मे कथन के बिना तुम 'उस' तक पहुँचने का मार्ग भी नहीं पा सकोगे। कारण, 'वह' सूक्ष्मता से भी सूक्ष्मतर है तथा तर्क के द्वारा प्राप्य नहीं है। 

[8]
महामण्डल मानवतावादी शिक्षा का प्राथमिक विद्यालय है !  
Mahamandal: Primary School of Humanistic Studies  
महामण्डल : प्राइमेरी स्कूल ऑफ़ ह्यूमैनिस्टिक स्टडीज़

`मानवतावादी शिक्षा (शीक्षा -तैत्तरीय उपनिषद ) : एक परिचय ' [Humanistic education (also called Person-Centered Education) ] :
विश्व में प्रेम, शांति, व संतुलन के साथ-साथ मनुष्य जन्म को सार्थक करने के लिए मनुष्य में मानवीय गुणों का होना अति आवश्यक है। यदि मैं कहूं कि शुद्ध प्रेम में सभी मानवीय ही नहीं दिव्य गुणों का भी समावेश हो जाता है तो अनुचित नहीं होगा। आज भी हम देखते हैं कि जो कार्य किसी से न हो प्रेम से वह कार्य प्रायः हो ही जाता है।
दया- यदि देखा जाय तो मनुष्य ही नहीं जीव - जन्तु भी दया करते है। मनुष्य की तो बात ही क्या...उसके पास तो बुद्धि व विवेक दोनो हैं। क्षमा- क्षमा करना सदा मनुष्य की महानता को दर्शाता है। परन्तु क्षमा कायरता का रूप न ले इसका भी ध्यान रखना चाहिए।सहनशीलता- सहनशीलता से व्यर्थ व्यर्थ के झगड़े से मुक्ति मिलती है। यह दुःख में स्थिर रहने की शक्ति प्रदान करता है।शुद्धता- इस गुण से प्रभावित होकर मनुष्य अपने मन, तन, घर व समाज को साफ रखने का प्रयास करता है।सत्य- सत्यता का गुण उच्चकोटि का गुण है जिसका पालन उच्च आदर्श की ओर ले जाता है।
विवेक- विवेक गुण से मनुष्य उचित अनुचित का बोध करता है। मानवीय गुणों का सम्पूर्ण समावेश धर्म तत्व में समाया हुआ है।
सृष्टि की रचना के बाद ईश्वर ने जीवों का निर्माण किया, पेड़ पौधे फिर अतिसूक्ष्म जीवों के बाद बड़े जीव बनाये। अंत में मनुष्य का विकास किया जो बाकी जीवों से भिन्न था कारण सोचने और समझने की शक्ति, विचार की शक्ति। इन्ही विचारों की शक्ति से मानव में दया और करुणा का जन्म हुआ, यह शक्ति अद्वितीय थी उसे सही प्रकार से समझने के लिए और कल्याण के लिए ईश्वर ने वेदों की रचना की जिसके अनुसार मानवता वह सिद्धांत या विचारधारा है जिसमें मानव का हित सर्वोपरि माना जाता है। जिसमें सहानुभूति एक विशिष्ट गुण है, सहानुभूति दो शब्दों से मिल कर बना है ‘सह’ अर्थात साथ- साथ और ‘अनुभूति’ का अर्थ है अनुभव का बोध। इसप्रकार सहानुभूति का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति में एक प्रकार का अर्थात साथ-साथ अनुभव का बोध।
वेदों उपनिषदों में मानवता को सर्वोपरि माना गया है व मनुष्य को मानवता के गुण के साथ ही परिभाषित किया गया है। वेदों के अनुसार ‘‘मम व्रतं देवाः मम वाचं दिव्यं देवो हिरण्यम् गच्छाः।’’ वेद कहता है कि हे मानव ! तू अपनी मानवता को जानने का अवश्य प्रयास कर। 
ऋग्वेद 10/53/6 में स्पष्ट रूप से कहा गया है : तन्तु तन्वरन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान् ।अनुल्बणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ।। अर्थात: हे जीव! तू हमेशा कुछ न कुछ बुनता रहता है, अपने भाग्य को, भविष्य को, अपने जीवन को बुनता रहता है। जीवन इसके अतिरिक्त और क्या है कि मनुष्य अपने ज्ञान/समझ के अनुसार कुछ दूर तक देखता है और फिर उसके अनुसार कर्म करता है। इस तरह जीव अपने ज्ञान के ताने में कर्म का बाना डालता हुआ निरन्तर अपने जीवन-पट को बनाया करता है, किन्तु हे जीव ! अब तू अपना यह मामूली रद्दी कपड़ा बुनना छोड़कर दिव्य जीवन का खद्दर बुन, ‘‘दैव्य जन’’ को उत्पन्न कर। इसके लिए तुझे बड़ी सुन्दर और लंबी तानी करनी पड़ेगी। द्युलोक तक विस्तृत प्रकाशमान ताना तान। ऐसे दिव्य वस्त्र बनाने की लुप्त हुई कला की रक्षा इस प्रकार हो सकती है, अतः इस उद्योग में पड़कर तू उन ज्ञान-प्रकाश प्रणालियों की रक्षा कर, जिन्हें कि कलाविदों ने अपनी कुशल बुद्धि द्वारा बड़े यत्न से अविष्कृत किया था। ज्ञान के इस दिव्य ताने को तू फिर भक्ति के कर्म द्वारा बुन। इस ताने में भक्ति-रस से भिगोया हुआ अपने व्यापक कर्म का बाना डालता जा और ध्यान रख, तेरी बुनावट एकसार हो, कभी ऊँची-नीची या गठीली न हो। सावधान रहते हुए सदा उस ज्ञान के अनुसार ही तेरा ठीक-ठीक कर्म चले और वह कर्म सदा भक्ति से प्रेरित हो। इस सावधानी के लिए तुझे पूरा मननशील होना पड़ेगा, सतत विचार-तत्पर होना होगा, तभी यह दिव्य जीवन का सुन्दर पट तैयार हो सकेगा। अतः हे जीव! तू दिव्य जीवन बुनने के लिए उठ और इस लुप्त हो रही अमूल्य दिव्य कला की रक्षा कर।
संसार को सदा जिसकी आवश्यकता रही है और रहेगी तथा इस समय भी जिसकी अत्यंत आवश्यकता है उस तत्त्व का उपदेश इस मंत्र में किया गया है। वेदों में यदि और उपदेश न भी होते केवल यही मंत्र होता तब भी वेद संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों से उच्च रहते।
मनुष्य के लिए सुख, समृद्धि एवं शांति से परिपूर्ण जीवन के लिए सच्चरित्र तथा सदाचारी होना पहली शर्त है, जो उत्कृष्ट विचारों के बिना संभव नहीं है और यहीं से मानवता की शुरुवात होती है। अगर सड़क पर एक्सीडेंट की वजह से कोई तड़प रहा हो तो उसके दुखो की अनुभूति केवल मनुष्य को ही हो सकती है और वही उसे तत्काल सेवाएं देता है। यह अलग बात है कि आज कल लोग मानवता को भूलते जा रहे हैं लेकिन अगर मनुष्य में मानवता न हो तो वह नराधम बन जाता है।
यजुर्ववेद 36/18 कहता है : “मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे”अर्थात, सब को मित्र की स्नेहशील आँख से हम देखें। यहाँ तो वेद मनुष्य सीमा से भी आगे निकल गया प्रेम का अधिकारी केवल मनुष्य ही न रहा वरन सभी प्राणी हो गए, यह उचित भी है क्योंकि मनुष्य शब्द का अर्थ यास्क ने निरुक्त में लिखा है : ‘मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति’ (3/8/2) या, ‘मत्वा कर्माणि सीव्यति इति मनुष्य:’अर्थात जो विचार कर कर्म करे अन्धाधुन्ध कर्म न करे। कर्म करने से पूर्व जो भली प्रकार विचारे की मेरे इस कर्म का क्या फल होगा? किस-किस पर इसका क्या प्रभाव होगा? यह कर्म भूतों के दुःख प्राणियों की पीड़ा का कारण बनेगा या भुतहित साधेगा? वही मनुष्य है।
जब एक बार किसी ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’। इस पर आइन्स्टीन की बड़ी प्रशंसा हुई यहाँ जानने योग्य बात यह है कि आइन्स्टीन ने जो उत्तर दिया वही तो हजारों वर्ष पूर्व लिखे वेद कहते हैं ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’ (ऋग्वेद 9/63/5) अर्थात विश्व के सभी लोगों को श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाव वाले बनाओ। वेद शंखनाद करते हुए घोषित करते हैं : मनुर्भव – मनुष्य बनो
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।  अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। 
    मनुष्य का मूल स्वभाव धार्मिक होता है| कोई भी मनुष्य धर्म से पृथक होकर नहीं रह सकता| मनुष्य के अन्दर आत्मा का वास होता है जो की परमात्मा का अंश होती है| फिर मनुष्य धर्म और ईश्वर से अलग कैसे हो सकता है| मनुष्य का मूल अध्यात्म है और रहेगा| इस दुनिया की कोई भी चीज चाहे वो सजीव हो या निर्जीव, अपनी प्रकृति के विपरीत आचरण करके ज्यादा दिनों तक अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकती| जो मनुष्य अपनी मूल प्रकृति के विपरीत आचरण शुरू कर देते हैं उनका अंत हो जाता है| ये अंत भौतिक नहीं बल्कि आतंरिक होता है| मनुष्य अपनी काया से तो जीवित दिखता है परन्तु उसकी मानवता मर जाती है| वो पशु से भी बदतर हो जाता है|  
      धर्म की गलत व्याख्या करके कुछ लोग  अपनेआप को सबसे बड़ा बुद्धिमान समझ लेते हैं| दो-चार घटिया किस्म की किताबें पढ़ के ये खुद को दार्शनिक समझने लगते हैं| सत्य न कभी पराजित हुआ है और न कभी होगा।  धर्म ही जीवन का आधार है।  मनुष्य को मोहमाया के बंधनों से कोई मुक्त कर सकता है तो वो केवल धर्म है।  सच्चाई तो ये है की “मानवता” की शिक्षा भी मनुष्य को धर्म ने ही दी है।  धर्म ने ही मनुष्य को जीवमात्र से प्रेम करना सिखाया है।  ईर्ष्या, द्वेष जैसे दुर्गुणों के लिए धर्म में कोई स्थान नहीं है। इन चीजों से धर्म को यही “मानवतावादी” जोड़ते हैं और लोगों को भरमा के अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं।  
उद्देश्य (पुरुषार्थ ) का अर्थ : उद्देश्य एक पूर्वदर्शित लक्ष्य है जो किसी क्रिया को संचालित करता है अथवा व्यवहार को प्रेरित करता है। यदि लक्ष्य निश्चित तथा स्पष्ट होता है तो व्यक्ति की क्रिया-कलाप  उस समय तह उत्साहपूर्वक चलती रहती है, जब तक वह उस लक्ष्य ओ प्राप्त नहीं कर लेता। जैसे-जैसे लक्ष्य के निकट आता जाता है जब व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने को ही उद्देश्य की प्राप्ति कहतें हैं। संक्षेप में उद्देश्य की पूर्वदर्शित लक्ष्य है जिसको प्राप्त करने के लिए व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक उत्साह के साथ चिंतनशील रहते हुए क्रियाशील होता है। 
उद्देश्य का महत्व : जब व्यक्ति को किसी मनुष्य-जीवन के उद्देश्य का (चार पुरुषार्थों का) स्पष्ट ज्ञान होता है तो उसके मन में दृढ़ता तथा आत्मबल जागृत हो जाता है। इससे वह एकाग्र हो कर अपने कार्यों को पुरे उत्साह से करने लगता है। जिस शिक्षा का कोई उद्देश्य नहीं होता वह व्यर्थ है।  शिक्षा (=धर्म) के विशिष्ट उद्देश्य देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। बालक तथा शिक्षक दोनों को शिक्षा के उद्देश्य अथवा उद्देश्यों का स्पष्ट ज्ञान होना परम आवश्यक है। उद्देश्य के ज्ञान के बिना शिक्षक उस नाविक के समान होता है जिसे अपने लक्ष्य का ज्ञान नहीं तथा उसके विधार्थी उस पतवार-विहीन नौका का समान है जो समुद्र की लहरों के थपेड़े खाती हुई तट की ओर बढ़ती जा रही है।  
 मनुष्य-जीवन का  सार्वभौमिक उद्देश्य (चार पुरुषार्थ) मानव जाती पर समान रूप से लागू होती है। इन उद्देश्यों का तात्पर्य व्यक्ति में वांछनीय गुणों का विकास करना है। अत: इनका क्षेत्र विशिष्ट उद्देश्यों की भांति किसी विशेष स्थान अथवा देश तक सीमित न रह कर सम्पूर्ण मानव जाती है। सामान्य उद्देश्यों की प्रकृति भी विशिष्ट उद्देश्यों की भांती सीमित नहीं होती। अत: ये उद्देश्य सनातन, निश्चित तथा अपरिवर्तनशील होते है। संसार के सभी शिक्षा दर्शनों ने इन उद्देश्यों के सार्वभौमिक महत्वों को स्वीकार किया है। मानव के व्यक्तित्व का संगठन उचित शारीरिक तथा मानसिक विकास (मनःसंयोग) समाज की प्रगति, प्रेम तथा अहिंसा  (5 यम और 5 नियम ) आदि शिक्षा के कुछ ऐसे सार्वभौमिक उद्देश्य है जो, शिक्षा को सार्वभौमिक रूप प्रदान करते हैं
समाज वादियों के अनुसार व्यक्ति के अपेक्षा समाज बड़ा है। अत: वे शिक्षा सामाजिक उदेश्य पर विशेष बल देते हैं। उनका विश्वास है कि व्यक्ति सामाजिक प्राणी है। वह समाज से अलग रह कर अपना विकास नहीं कर सकता है। अत: उनके अनुसार व्यक्ति को अपनी वैयक्तिकता का विकास समाज की आवश्यकताओं तथा आदर्शों को ध्यान में रखते हुए करना चाहिये। ध्यान देने की बात है कि वैयक्तिक तथा सामाजिक उदेश्यों के बीच सन्तुलन तथा समन्वय स्थापित करने से व्यक्ति तथा समाज दोनों उन्नति की शिखर पर चढ़ते रहेंगे। 
 आदर्शवादीयों (वेदों ) के अनुसार पंचभौतिक तत्व नाशवान हैं। अत: वे भौतिक तत्वों की अपेक्षा विचार के महत्व को स्वीकार करते हैं। उनका अखण्ड विश्वास है कि व्यक्ति की आत्मा तथा परमात्मा का मिलन केवल विचारों के द्वारा ही हो सकता है। इस दृष्टि से आदर्शवाद सत्यं, शिवं तथा सुन्दरम् जैसे चिन्तन मूल्यों को प्रतिपादित करता है मूल्य अपरिवर्तनशील है। इनका पूर्ण ज्ञान होने से मानव को मोक्ष प्रप्त हो सकता है। अत: आदर्शवादी समाज में भौतिक जगत की अपेक्षा सार्वभौमिक मूल्यों की प्राप्ति पर बल दिया जाता है। जो समाज आदर्शवादी है, वहाँ की शिक्षा के निश्चित, सनातन तथा अपरिवर्तनशील सार्वभौमिक उदेश्य होते हैं। इन उदेश्यों से मानवीय गुणों का विकास होता है जिससे समाज प्रगति की ओर अग्रसर रहता है। 
देश के नीतिनिर्धारक (मोदी सरकार) समाज की निम्नलिखित भौतिक परिस्थितियों को आधार मानते हुए शिक्षा के लचीले, अनुकूलन योग्य तथा परिवर्तनशील  शील विशिष्ट उदेश्यों के लिए नई राष्ट्रीय-शिक्षा-नीति का निर्माण करते हैं जिससे बालक यथार्थ जगत के योग्य बनकर अपने व्यावहारिक जीवन की अनेक समस्याओं को सुलझाकर सुखी, सम्पन्न तथा प्रसन्न जीवन व्यतीत कर सके –
(1) जीवन दर्शन के दो प्रकार –भौतिकवादी समाज में भौतिक सम्पन्नता को प्रमुख स्थान दिया जाता है। ऐसे समाज में नैतिक आदर्शों, आध्यात्मिक मूल्यों, रचनात्मक कार्यों तथा विवेक आदि के विकास पर कोई ध्यान न देते हुए शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण केवल भौतिक सुखों की उन्नति के लिए किया जाता है जिससे वह समाज धनधान्य से परिपूर्ण हो जाये। शिक्षा का तात्पर्य जीवन के लक्ष्य को प्रभावित करना है। इसके लिए वह जीवन दर्शन से प्रभावित होती है। चूँकि उदेश्य का सम्बन्ध शिक्षा से है, इसलिए शिक्षा के उदेश्य भी किसी न किसी रूप में जीवन दर्शन से ही प्रभावित होते हैं तथा होते रहेंगे। यही कारण है कि जिस व्यक्ति (प्राच्य)  का जीवन दर्शन आध्यात्मिक रूप से उन्नत रहा है उसने शिक्षा के चरित्रगठन तथा नैतिक उदेश्य पर बल दिया हैइसके विपरीत जिस व्यक्ति (पाश्चात्य ) का जीवन दर्शन बाह्य जगत की पूर्णता रहा है उसने शिक्षा का उदेश्य जीवन को सुखी बनाना माना है। 
(2) राष्ट्रीय शिक्षा-नीति (National education policy) का उद्देश्य राजनितिक प्रगति पर निर्भर है –जनतंत्र वह आदर्श है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को एक सुखी, सम्पन्न तथा समृधिशाली जीवन व्यतीत करने के समान अवसर प्राप्त होते हैं, इसलिए जनतंत्रवादी समाज में प्रत्येक व्यक्ति को चिन्तन तथा मनन करने को पूर्ण स्वतंत्रता होती है। प्रत्येक व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह ऐसे कार्य करे जिनसे सबका भाला हो। ऐसे समाज में एक व्यक्ति दुसरे व्यक्ति का आदर करता है तथा प्रत्येक व्यक्ति एक-दुसरे के विकास में बाधक सिद्ध न होकर मेल-जोल के साथ रहते हुए कंधे से कन्धा मिला कर चलता है जिससे समाज दिन-प्रतिदिन उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहे। जिन देशों में जनतंत्र का बोलबाला है वहाँ पर “ उत्तम मनुष्य (ब्रह्मविद) का निर्माण या प्रबुद्ध नागरिक बनना “ ही शिक्षा का मुख्य उदेश्य होता है। अमरीका, इंग्लैंड, जापान , ऑस्ट्रेलिया , फ़्रांस तथा भारत आदि जनतांत्रिक देशों के उदाहरण इस सम्बन्ध में दिये जा सकते हैं। इसके विपरीत स्वेच्छाचारी राज्यों में चाहे वे राजतन्त्र हों अथवा तानाशाही, शिक्षा का उदेश्य “ शासकों के प्रति अपार श्रध्दा तथा उनकी आज्ञा का पालन करना “ ही होता है भ्रस्ट स्वेच्छाचारी (ढोंगी काँग्रेसी) , फासिस्ट (उत्तर कोरिया)  तथा साम्यवादी (चीन ) आदि सभी प्रकार की सकारों ने शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण अपने-अपने अलग-अलग लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सदैव अलग-अलग ढंगों से किया है।
 फासिस्ट समाज में राज्य को मुख्य तथा व्यक्ति को गौण स्थान प्राप्त होता है। ऐसे समाज अथवा राज्य में व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह सत्य की भलाई के लिए अपनी जान भी न्यौछावर कर दे। दुसरे शब्दों में फासिस्ट समाज में व्यक्ति की स्वतंत्रता उसका मौलिक अधिकार नहीं होता। उसका तो केवल मौलिक कर्त्तव्य ही होता है। फासिस्ट राष्ट्र के नागरिकों का मौलिक कर्त्तव्य है – अपने राज्य अथवा नेता की आज्ञा का पालन करना। यदि ऐसे समाज में व्यक्ति अपने नेता की आज्ञा का पालन नहीं करता तो उसे मौत के घात उतार दिया जाता है। हिटलर तथा मुसोलिनी ने आज्ञा पालन न करने वाले न जाने कितने व्यक्तिओं को मच्छर की तरह मसल दिया। इस प्रकार फासिज्म वह विचारधारा है जो व्यतिवाद, अन्तराष्ट्रीय, जनतंत्र तथा साम्यवाद का विरोध करती हुई संकुचित राष्ट्रीयता, नेतृत्व में अन्ध विश्वास तथा युद्ध की तैयारी में अटल विश्वास रखती है।  
 साम्यवादी समाज में प्रत्येक सरकारी फार्म तथा कारखानों को अपने यहाँ कार्य कनरे वाले श्रमिकों के बालकों की शिक्षा के लिए स्कूल खोलने अनिवार्य होते हैं। इन स्कूलों पर खर्चा तो सहकारी फार्मों तथा कारखानों को ही करना पड़ता है, परन्तु अधिकार शासक वर्ग का होता है। अत: शासक वर्ग आरम्भ से ही इन स्कूलों में पढ़ने वाले सभी बालकों को अपनी नीति के सम्बन्ध में परिचय करता है जिससे उन्हें साम्यवादी विचारधारा में अंधविश्वास हो जाये। ऐसे समाज में श्रम को विशेष महत्व दिया जाता है। अत: साम्यवादी देशों के स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को भी श्रमिक ही समझ जाता है
(3) प्रौधोगिकी उन्नति – आज के वैज्ञानिक युग में प्रौधोगिक उन्नति पर बल दिया जाता है। अमरीका, रूस, इंग्लैंड तथा जापान आदि देशों को केवल प्रौधोगिक उन्नति की दृष्टि से ही प्रगतिशील प्रशिक्षण को शिक्षा का महत्वपूर्ण उदेश्य माना है। जो देश प्रौधोगिक दृष्टि से पिछड़े हुए हैं वहां की शिक्षा का उदेश्य भी विज्ञान तथा प्रौधोगिक की शिक्षा देना हो सकता है। यही कारण है कि भारत में भी अब तकनीकी प्रशिक्षण के लिए विस्तृत सुविधायें दी जा रही है।
(4) सामाजिक तथा आर्थिक दशायें- शिक्षा के उदेश्यों के निर्माण में किसी देश की सामाजिक तथा आर्थिक दशाओं का भी गहरा हाथ होता है। जिन देशों की सामाजिक तथा आर्थिक दशायें सोचनीय होती है उन देशों विकसित करने के लिए “ कर्मठ नागरिकों का निर्माण करना तथा उनकी व्यवसायिक कुशलता में उन्नति करना “। आदि शिक्षा के उदेश्यों का निर्माण किया जाता है। हमारे देश में भी जब छात्रों को इस प्रकार का चारित्रिक प्रशिक्षण दिया जाता है कि वे नागरिक के रूप में देश की जनतांत्रिक तथा सामाजिक व्यवस्था में रचनात्मक ढंग से भाग लेते हुए अपनी व्यवहारिक एवं व्यवसायिक कुशलता में उन्नति कर सकें जिससे भारत सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से दिन-प्रतिदिन उन्नतिशील होता रहे। 
उपयुर्क्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि किसी राष्ट्र की शिक्षा-नीति  के उदेश्यों का निर्धारण  उस राष्ट्र के जीवन तथा समाज की आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है। जो देश भौतिक उन्नति की दौड़ में पिछड़ जाते हैं उनमें प्राय: शिक्षा के व्यवसायिक उदेश्य पर बल दिया जाता है जिससे वहाँ के व्यक्ति अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं ही करके अपने जीवन को सुखी बना सके। जैसे –हिटलर के समय में जर्मनी की शिक्षा का उदेश्य वहाँ की जनता में अपने देश के प्रति श्रद्धा, अपारभक्ति, तथा त्याग की भावना को ही विकसित करना था। इस उदेश्य का आशय यह था कि वहाँ की जनता आवश्यकता पड़ने पर अपने देश को प्रतिष्ठा तथा मान को बनाये रखने के लिए अपने जीवन की आहुति भी दें सकें।
प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा (हृदय ) का विकास होना परम आवयशक है।  व्यक्ति की जीवन का लक्ष्य है –जीवन की पूर्णता को प्राप्त करना। इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति में इतने ज्ञान की वृद्धि अवश्य हो जाये कि वह अनुशासित रहते हुए सत्यम, शिवम् तथा सुन्दरम् की प्राप्ति कर ले। यह बात भी शिक्षा के उदेश्यों पर निर्भर करती है। यदि शिक्षा के उदेश्य व्यक्ति को उक्त चिरन्तन सत्यों तथा मूल्यों के प्राप्त करने  में सहयोग प्रदान करते हैं तो वह अपने जीवन की पूर्णता को अवश्य प्राप्त कर लेगा।
शारीरिक ,मानसिक तथा अध्यात्मिक (3H) विकास:   शिक्षा के उद्देश्यों  का व्यक्ति के जीवन से अट्टू सम्बन्ध होता है।  सफल जीवन के लिए यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अच्छे-बुरे, सत्य-असत्य, नैतिक-अनैतिक, हितकर तथा अहितकर कार्यों और विचारों में अन्तर समझ सकें तथा उनका मुल्यांकन करके विवेक-प्रयोग की क्षमता विकसित हो जाएगी, अन्यथा नहीं।यदि शिक्षा के उद्देश्य व्यक्ति के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहेंगे तो निश्चित ही उसके व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास होता रहेगा।शिक्षा के उदेश्यों का व्यक्ति के मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की पूर्णता को आत्म-प्रकाशन, क्षमता तथा अनुभव का निरन्तर वृद्धि होते हुए ही प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति का यह अध्यात्मिक विकास उसी समय हो सकता है जब शिक्षा के उदेश्य उसके जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अन्सुअर बदलते रहें। इससे शिक्षा के उद्देश्यों तथा व्यक्ति के जीवन दोनों में समंजस्यपूर्ण सम्बन्ध बना रहेगा। यदि शिक्षा के उदेश्य व्यक्ति के जीवन की बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार नहीं बदलेंगे तो व्यक्ति का मानसिक तथा अध्यात्मिक विकास असम्भव है। 
शिक्षा का सही उदेश्य व्यक्ति में इतनी क्षमता पैदा कर सकते हैं कि वह जीवन की प्रत्येक आकस्मिक दुर्घटना तथा वैश्विक महामारी का भी सामान करके अपने आत्मविश्वास की सुरक्षा कर सकता है।
छात्रों में प्रशंसनीय आचरण तथा नैतिक चरित्र का विकास करना शिक्षा का मुख्य कर्तव्य है। इस महान कार्य की पूर्ति भी शिक्षा के वांछनीय उदेश्यों के बिना नहीं हो सकती। यदि शिक्षा के उद्देश्य धर्म तथा दर्शन पर आधारित होंगे तो उनका सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन से अत्यन्त प्रशंसनीय होगा। ऐसे उदेश्यों द्वारा प्रदान की हुई शिक्षा से बालकों में उत्तम आचरण के द्वारा उत्तम चरित्र को विकसित करने की इच्छा दिन-प्रतिदिन उत्पन्न होती रहेगी।
मानवतावादी शिक्षा [ह्युमनिस्टिक एजुकेशन (Humanistic Education)] यानि 'मनुष्य योनि' (मानव-प्रकृति) की महिमा आदि से  सम्बंधित शिक्षा (सभी धर्मों के प्रति एक मानवतावादी दृष्टिकोण-a humanistic approach to all religion), मानवतावाद (Humanism-ह्यूमेनिज्म, नियतिवाद -भाग्यवाद, भाग्य पर भरोसा करने का सिद्धान्त या अलौकिक मामलों के बजाय मानवीय गरिमा को मानवीय दृष्टिकोण से जोड़ने का एक दृष्टिकोण या प्रणाली। मानवतावादी विश्वास (श्रद्धा या आस्तिकता) मानव के संभावित मूल्य और अच्छाई पर जोर देते हैं, सामान्य मानवीय आवश्यकताओं पर जोर देते हैं, और मानव समस्याओं को हल करने के लिए पूरी तरह से तर्कसंगत तरीके की तलाश करते हैं। an outlook or system of thought attaching prime importance to human dignity rather than Fatalism or supernatural matters. Humanist beliefs stress the potential value and goodness of human beings, emphasize common human needs, and seek solely rational ways of solving human problems.) याने मानवजाति विज्ञान (ethnology- एथनोलॉजी, नृविज्ञान , आचार विज्ञान या चरित्र विज्ञान), मानवतावादी (ह्युमनिस्ट-Humanist), ~ मानवतावाद के सिद्धांतों का पैरोकार या अनुयायी। an Advocate or follower of the principles of humanism.मानवतावादी, मानवतावाद और मानव-प्रकृति से संबंधित शिक्षा सीधे और सहज रूप से वैदिक  संस्कृति और सभ्यता से संबंधित हैं।  'मानवतावाद' ~ शब्द इतालवी पुनर्जागरण (Italian Renaissance) के साथ जुड़ा हुआ,मानविकीकरण -अध्यन (Humanization-Study )के लिए एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमें छात्रों को जानकारी देने के लिए वैदिक साहित्य (गीता , उपनिषद , ब्रह्मसूत्र ) के अर्थों का उपयोग होता है  या मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया जाता हैइसके कारण मानव की गरिमा को बढ़ावा मिला । इस समय से  लोग शिष्टाचार का भी  पूरा ध्यान रखने लगे । उनका मानना था कि व्यक्ति को विनम्रता से बोलना चाहिए , ठीक ढंग से कपड़े पहनने चाहिए और परस्पर के प्रति सभ्य व्यवहार करना चाहिए।
अमेरिका के मनोवैज्ञानिक प्रोफेसर अब्राहम मैस्लो [Abraham Maslow  (1908 – 1970)] और कार्ल रोजर्स [Carl Rogers.(1902 –1987)] द्वारा प्रतिपादित मानवतावादी शिक्षा (जिसे व्यक्ति-केंद्रित शिक्षा) भी कहा जाता है। Both Rogers and Maslow's theories focus on individual choices, and neither asserts that biology is deterministic. Both emphasized free will and self-determination that each person has to become the best person they can be.रोजर्स और मास्लो दोनों  व्यक्तिगत विकल्पों के चयन के सिद्धांत पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और यह स्वीकार नहीं करते कि जीवविज्ञान (वंशानुक्रम)  नियतात्मक है। दोनों ने स्वतंत्र इच्छा और आत्मनिर्णय पर जोर दिया कि प्रत्येक व्यक्ति को सबसे अच्छा व्यक्ति बनना है जो वे बन सकते हैं।
   Rogers, advanced in this field, emphasized that humans are active and creative beings, who live and react in a subjective way to present-day perceptions, relationships and encounters. मनोविज्ञान के क्षेत्र में उन्नत प्रोफेसर रोजर्स ने इस तथ्य पर जोर दिया कि मनुष्य एक सक्रिय और रचनात्मक प्राणी हैं, जो वर्तमान में रहता है, और वर्तमान में हो रहे अनुभवों , नरनारी के रिश्तों और व्यक्ति - घटना के आकस्मिक मिलन होने से वह एक व्यक्तिपरक तरीके से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। 
[Updating Instinct - 'Auto update '(आत्म नवीनीकरण-Self rejuvenation ):  जीवन पुष्प का प्रस्फुटन : कार्ल रोजर्स को "मानवतावादी मनोविज्ञान का पिता" (Father of Humanistic Psychology) कहा जाता है।  उनकी प्रसिद्द पुस्तक है -'Learning to Feel - Feeling to Learn ' ;Humanistic Education for the Heart Whole Man,( संपूर्ण हृदय मानव बनने की मानवतावादी  शिक्षा)
मानवतावादी शिक्षा ने अपने अंतर्जगत और बाह्यजगत को आकार देने में व्यक्ति की सक्रिय भूमिका पर जोर दिया।  कार्ल रोजर्स का मानना ​​था कि , हम उस तरह के व्यक्ति बनने में सक्षम हैं जैसे हम बनना चाहते हैं। He coined the term "updating instinct", which refers to the basic instinct that people have to reach their maximum potential. उन्होंने  "अद्यतन करने की प्रवृत्ति" शब्द को गढ़ा, जो मनुष्यमात्र में विद्यमान उस मूल वृत्ति का द्योतक है ( संदर्भित करता है) जिसके कारण मनुष्य अपनी अधिकतम क्षमता (ब्रह्मविद मनुष्य बनने ) तक पहुँच सकता है। और अपने अंतर्निहित शक्ति (ब्रह्मत्व) को अभिव्यक्त कर सकता है। Through person-centered counseling and medical and scientific research, Rogers formed his theory of personality development.व्यक्ति-केंद्रित प्रशिक्षण और  वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से, रोजर्स ने अपने व्यक्तित्व विकास का सिद्धांत को मूर्त रूप दिया।
चार पुरुषार्थों में मनुष्य जीवन का लक्ष्य छिपा हुआ है। मनुष्य जीवन का एक मूल उद्देश्य है,  आत्म-बोध की प्रवृत्ति । जैसे यदि जन्मजात स्थितियां सही हैं तो एक कमल का  एक फूल  स्वाभाविक रूप से के कली के  रूप से विकसित होता  है, और   क्रमशः अपनी पूरी क्षमता तक पहुंचता है, याने पूर्णतया प्रस्फुटित हो जाता है।  लेकिन उसका प्रस्फुटन यदि पर्यावरण प्रतिबंधों द्वारा सीमित है, तो भी वह खिल सकता है यदि वह अपने परिवेश को अपने प्रयत्न से अच्छा बना सके। हम 'माली बनने और बनाने के  प्रशिक्षण के द्वारा परिवेश को (आसपास की स्थिति को) अच्छा  बनाकर  अपने आप को विकसित करके  भी पनप सकते  हैं और अपनी पूरी क्षमता तकपहुँच सकते  हैं -और अपने हृदय-कमल को पूर्णतया प्रस्फुटित करके अपने व्यष्टि अहं (मैं -मेरा )को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं ' बोध में परिणत कर सकते हैं। 
हालांकि, फूलों के विपरीत, मानव व्यक्ति की क्षमता अद्वितीय है, और हम अपने प्रारब्ध जन्य व्यक्तित्व के आधार पर अलग-अलग तरीकों से विकसित होने पर भी अपने भाग्य का निर्माण खुद  कर सकते  हैं। "There is a core tendency in the organism and an attempt to update itself, to sustain itself and to enrich the organism's experiences" "प्रत्येक जीव की  मूल प्रवृत्ति खुद को बनाए रखने, और खुद को अपडेट करने,  और जीव के अनुभवों को समृद्ध करने का प्रयास है। "हम अपने आप को जब जिस स्थिति में  देखते हैं, तब हम वैसा ही व्यवहार करते हैं , और  "क्योंकि मेरे अतिरिक्त और कोई भी नहीं जानता कि अमुक व्यक्ति या परिस्थित के आने पर  हम  कैसा  अनुभव करते हैं, इसलिए  हम अपने आप में स्वयं सबसे बड़े विशेषज्ञ हैं".
आत्म-विकास एक प्रक्रिया है, और किसी भी प्रक्रिया की तरह, एक निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आत्म-विकास आवश्यक है। आत्म-विकास की ख़ासियत यह है कि लक्ष्य हमेशा बदलते हैं, जागरूकता के स्तर के आधार पर, जोखिम लेने की क्षमता, आत्म-अनुशासन, आत्मविश्वास ... ये सभी मानदंड निर्धारित करते हैं कि हम अपने लिए क्या लक्ष्य निर्धारित करते हैं और कितनी जल्दी हम इस लक्ष्य तक पहुंचेंगे। 
आत्म-विकास में पहला कदम आत्म-खोज की प्रक्रिया है। हम इस दुनिया में अपनी पहचान बनाने का प्रयास करते हैं, अपनी मूर्तियों, आदर्शों, काम के सहयोगियों, अपने परिवार के सदस्यों (माता-पिता और परिवार जो हम पहले ही बना चुके हैं) के संबंध में, मानसिक, आध्यात्मिक शिक्षकों के संबंध में खुद को, मानसिक, समन्वय प्रणाली में स्थित करते हैं। आकाओं ... सामान्य तौर पर, हम इस सवाल का जवाब ढूंढ रहे हैं कि "मैं इस दुनिया में कौन हूं?" इस खोज में एक पल लग सकता है, लेकिन इसकी तैयारी ? यह कई वर्षों तक खींच सकता है
आत्मजागरूकता कैसे बढाएं -स्वयं का निरीक्षण कर अपने व्यक्तित्व को समझने के लिए हमें अपने मन की प्रकृति को समझने की आवश्यकता है । मन दो भागों से मिलकर बना है -चेतन मन तथा अवचेतन मन । अवचेतन मन विशाल है और इसमें विद्यमान संस्कारों को ढूंढ पाना तथा उनका विश्‍लेषण करना सरल नहीं है । ऐसा होने पर भी दिन में प्रायः कुछ घटनाओं तथा परिस्थितियों में मन में बवंडर मचता है और वह नकारात्मक प्रतिक्रिया देता है । परिणामस्वरूप व्यक्ति को कुछ मात्रा में अधीरता तथा भावनाएं जैसे असुरक्षा, डर अथवा क्रोध इत्यादि का अनुभव होता है । हममें से अधिकतर लोग अपने दैनिक जीवन में परिश्रम करते रहते हैं । हम रूककर यह आत्मविश्लेषण नहीं करते कि हमारे मन में उस परिस्थिति में वैसी भावना क्यों आई थी । वास्तव में, व्यक्ति के दैनिक जीवन की उन परिस्थितियों में मन की स्थिति से तथा घटनाओं पर नकारात्मक ढंग से प्रतिक्रिया देने के माध्यम से व्यक्ति की प्रकृति के बारे में जानने का एक झरोखा खुल जाता है (वास्तव में, व्यक्ति के दैनिक जीवन में, वैसी परिस्थितियों के माध्यम से, व्यक्ति का मन, परिस्थितियों तथा घटनाओं के प्रति नकारात्मक प्रतिक्रिया देकर अपने स्वभाव का झरोखा खोलता है तथा उसमें संस्कार प्रदान करता हैं I) । यदि कोई अपने दृष्टिकोण के प्रति सतर्क तथा निश्‍चित है, तब वह मन में खुले इस झरोखे का अनुसरण कर अपने अवचेतन मन तक पहुंच सकता है । परिणामस्वरूप, इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति आत्मजागरूक होने लगता है कि उसका मन कैसे कार्य करता है तथा विविध परिस्थितियों में कैसे प्रतिसाद देता है । इसे मेटाकोगनिशन कहते हैं, जिसका अर्थ है अपने विचार प्रक्रिया का भान होना तथा समझना । यह विशिष्ट प्रकार का स्व-विकास अपनी देह के प्रति भान होने तथा मानसिक स्थिति जिसमें विचार, कृत्य, धारणाएं, अनुभव तथा अन्यों के साथ बातचीत सम्मिलित है, से संबंधित है । इसलिए यह नकारात्मक भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं से निकलने का पहला चरण है ।
दूसरा कदम : मेरी कुछ खामियां हैं ~ दूसरा कदम खुद को स्वीकार करना है कि मेरे कुछ दोष हैं जो मुझे जीवन में अवांछनीय परिणामों और परिणामों की ओर ले जाते हैं। और यहाँ आत्म-स्वीकृति बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि हम खुद को स्वीकार करते हैं, तो आसपास के वास्तविकता के उद्देश्य से कोई समस्या नहीं है।
तीसरा कदम यह है कि यदि हम हार नहीं मानते हैं और अपनी कमियों को देखते हैं (यहाँ यह समझना महत्वपूर्ण है कि यह केवल हमारा व्यक्तिपरक मूल्यांकन है कि हमारी कमियाँ क्या हैं और हमारी ताकत क्या हैं), और हम यह सोचना शुरू करते हैं कि मैं इसे कैसे पसंद करूँगा ... यदि नहीं, तो कैसे? कई लोग अक्सर इस कदम पर रुक जाते हैं।क्योंकि हम जानते हैं कि हम कैसे नहीं चाहते, लेकिन हम यह भी नहीं सोचते कि हम क्या चाहते हैं। और फिर हम शिकायत करना शुरू कर देते हैं कि हमारा जीवन कितना बुरा है, क्योंकि हम हर उस चीज से घिरे हुए हैं जो हम नहीं चाहते हैं और जिसे हम टालना चाहते हैं। इस संदर्भ में, हमारे लिए यह जरूरी है कि हम पीड़ित होने से बचें, और दूसरों पर हमारे असंतोष के कारण के लिए जिम्मेदारी को स्थानांतरित न करें।
चौथा चरण : मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता : यह देखना है कि मैं किन तरीकों से वांछित परिणाम प्राप्त कर सकता हूं। जो मुझे चाहिए उसे बनने के लिए मुझे क्या करने की आवश्यकता है? और यहां हमारे रास्ते पर लोग, किताबें, फिल्में, महामण्डल प्रशिक्षण आदि हो सकते हैं जो हमारे लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विभिन्न विकल्प और तरीके दिखाते हैं। और अन्य लोगों माली /नेता  की मदद तभी प्रभावी होगी , जब कि हम पहले ही अपने दम पर पहले 3 चरणों से गुजर चुके हों। अन्यथा, यह पता चलेगा कि हम महसूस करते हैं और हमारे बारे में अन्य लोगों की अपेक्षाओं को सही ठहराते हैं, कि वे हमें कैसे देखना चाहते हैं, और यह आत्म-विकास से बहुत दूर है।
और शायद आप दूसरों की मदद के बिना कर सकते हैं, और यह पूरी तरह से सामान्य है। हालांकि, जब संभव के रूप में कई अलग-अलग विकल्पों पर विचार करने की आवश्यकता होती है, तो एक अलग, स्वतंत्र दृष्टिकोण बहुत उपयोगी है।
और आखिरी, पांचवां चरण कार्रवाई (5 अभ्यास) है। हम कोई भी प्रयास करते हैं, हम उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कदम उठाते हैं जो हम अपने लिए चरण 3 में निर्धारित करते हैं।और अंत में, हम फिर से चरण संख्या 1 पर जाते हैं। हम फिर से मूल्यांकन करना शुरू करते हैं कि हमने क्या हासिल किया है, हम क्या करने में सक्षम हैं, हम अपने आसपास के लोगों के सापेक्ष किस स्थान पर हैं। और वास्तव में, आत्म-विकास की प्रक्रिया अंतहीन है, हमेशा ऐसे आदर्श होंगे जिनके लिए हम प्रयास करते हैं, जिनकी तुलना में हम अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं।
आत्म-विकास क्या है?
आत्म-विकास अपने आप में निरंतर कार्य है, सभी का सुधार, आवश्यक व्यक्तित्व लक्षण का निर्माण। यह ठीक है क्योंकि एक व्यक्ति अपने दम पर आत्म-विकास में लगा हुआ है कि इस मार्ग पर बहुत सारी कठिनाइयां पैदा होती हैं। ऐसी सेवाओं के लिए कोई सरकारी एजेंसी जिम्मेदार नहीं है। यह स्कूलों या विश्वविद्यालयों में नहीं पढ़ाया जाता है। अधिकतम जो वे दे सकते हैं वह है होमवर्क या किताबों की उपाधियाँ जो एक्स्ट्रा करिकुलर तैयारी के लिए हैं।
दूसरों से बेहतर बनने की कोशिश करने की जरूरत नहीं है, भविष्य में आपको खुद से बेहतर बनने की जरूरत है। लेकिन Be and Make -Simultaneous Process या साथ -साथ चलने वाली प्रक्रिया है।
 प्रबुद्ध मनुष्य 'Enlightened Man' बनना और बनाना ~ 'Be and Makeअपने आप में एक  बहु-अनुशासनिक  (multidisciplinary) मानव विज्ञान (human science) है, जिसकी प्रेरणा का श्रोत मानव-मूल्यों को आत्मसात् करने (Values to Imbibe) में निहित है। मानव-विज्ञान की यह शाखा दर्शन (philosophy=विवेक-दर्शन), मनोविज्ञान (psychology), समाजशास्त्र (sociology), धार्मिक और सांस्कृतिक विज्ञान (religious and cultural sciences) को वैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित तथा सत्य -अनुसन्धान पद्धति से प्राप्त अंतर्दृष्टि को जोड़ती है।
मानवतावादी अध्ययन यह पता लगाता है कि कोई प्रबुद्ध मानव अस्तित्वपरक विषयों [existential anxiety, अस्तित्वपरक दुश्चिन्ताओ , existential psychology,अस्तित्वपरक मनोविज्ञान, existential thinking, अस्तित्वपरक चिंतन] एग्जिस्टेन्शियल स्टेटमेंट (existential statement) अस्ति कथन ~  आस्तिक्य बुद्धि, या श्रद्धा जैसे विषयों पर अपनी प्रतिक्रिया को किस प्रकार व्यक्त करता है? What makes life worth living? याने वह कौन सी वस्तु है जो मनुष्य को पशु से अलग करती है , और जीवन को जीने लायक बना देती है ? सुख (happiness) और समृद्धि (prosperity) का अर्थ क्या है?  नैतिकता   और आचार सम्बन्धी (ethical) कौन से श्रेष्‍ठतम विकल्प (choicest central site) प्रत्येक मनुष्य के लिए एक समान खुले हुए हैं ? कोई प्रबुद्ध मानव आकस्मिक आपदा, (कोविड -19 जैसे विश्वव्यापी महामारी pandemic ) और दुःख का सामना कैसे करता है ?
इसके अलावा मानवतावादी अध्ययन  महत्वपूर्ण समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक विषयों पर अनुसन्धान करता है। 'अनेकता में एकता ' का दर्शन करने वाले बहुलतावादी समाज ( pluralist society) को कौन सी शक्ति प्राप्त होती है ? हम शिशुओं के लालन-पालन (रानी मदालसा ~ care) और शिक्षा की गुणवत्ता को कैसे परिभाषित कर सकते हैं? हम सतत (imperishable-निवेदिता वज्र जैसे ) अक्षय विकास को कैसे प्राप्त हो  सकते हैं ? हम अपने मानवाधिकार को सुनिश्चित कैसे बना सकते हैं ?
मानवीयकरण (Humanisation) तथा जीवन-पद्धति  (way of Life) का तात्पर्य क्या है ? :
आधुनिक मानवतावाद (Contemporary humanism ) भारतीय सांस्कृतिक विचारों और मूल्यों की समृद्ध परंपरा के अनुरूप चरित्रवान (ब्रह्मविद) मनुष्यों का निर्माण करना जारी रखता है। मानवतावादी दृष्टिकोण के अनुसार संचालित जीवन के  लक्षण हैं, उस मनुष्य की अपनी द्रष्टा-दृश्य विवेक शक्ति द्वारा जगत का अवलोकन (observation ) तथा जागरूकता (awareness) के आधार पर अहं-वृत्ति का (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के मैं -बोध में ) रूपान्तरण एवं संवाद से किसी भी मसले को हल करने की क्षमता तथा धर्मान्धता (dogmatism) के प्रति वैरभाव (animosity)मानवीय माहात्म्य (human dignity-आत्मश्रद्धा) , न्याय और मुक्ति (freedom भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति) की अवधारणाएं मनुष्य निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैंआत्म-विकास के अभ्यास , शिक्षा, कला -सौंदर्य बोध और संस्कृति के महान मूल्यों का आत्मसातीकरण भी जीवन के प्रति एक मानवतावादी दृष्टिकोण विकसित करने में बहुत उपयोगी सिद्ध होते हैं। और विशेष रूप से जब कोई व्यक्ति प्रबुद्ध मनुष्य (enlightened या ब्रह्मविद) बन जाता है , तब मानवतावाद को वह स्पष्ट रूप से एक जीवन-दर्शन (philosophy of life) के रूप में देखने लगता है। उस जीवन-दर्शन में जीव और जगत का उद्देश्य भी स्पष्ट होने लगता है।
{Humanistic studies is a multidisciplinary human science for which humanist values are a source of inspiration. It combines insights gained from philosophy, psychology, sociology, religious and cultural sciences, theory of science and methodology.Humanistic Studies explores how people respond to existential issues.  What makes life worth living? What is the meaning of happiness and prosperity?  Which moral and ethical choices are open to us? How do we cope with suffering and sorrow?
Humanistic Studies furthermore explores important contemporary social, political and ethical issues.How can we define quality of care (Queen-Madalsa) and education?How can we pursue sustainable development? How can human rights be guaranteed?
Humanisation and meanings of life :
Contemporary humanism continues to build on a rich tradition of ideas and values.Characteristics of a humanist view of life are a reliance on one’s own powers of observation and comprehension, an orientation on dialogue and an aversion to dogmatism. The concepts of human dignity, justice and freedom play a pivotal role. Attaching great value to self-development, education, aesthetics and culture is also typical of a humanist attitude towards life. It is especially since the Enlightenment that humanism is explicitly viewed as a philosophy of life in which the human perspective is a defining factor in understanding and giving meaning to life and the world. 
स्वामी विवेकानन्द का मानवतावाद (Humanism of Swami Vivekananda):स्वामी विवेकानंद भारतीय सांस्कृतिक चेतना एवं चिंतन के आधार स्तंभ थे। उनका संपूर्ण जीवन मानव जाति की सेवा में व्यतीत हुआ। उन्होंने मानव-सेवा का यह संकल्प अपने गुरु श्री रामकृष्ण के चरणों में बैठकर प्राप्त किया था। स्वामी जी के मन में भारत का भूत, वर्तमान तथा भविष्य तो था ही, पर वे योग (निर्विकल्प समाधि ) में लीन रहने की तरफ बढ़ते जा रहे थे। स्वामी जी की उक्त प्रस्थान के तरफ जैसे ही उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस का ध्यान  गया। उन्होंने कहा, छी -छी नरेंद्र (विवेकानंद) क्या तुम अकेले ही परमानन्द में खोये रहना चाहते हो ? मैंने तो सोचा था कि तूँ एक दिन विशाल वटवृक्ष बनेगा। जिसके नीचे हजारों पक्षी घोसलों का निर्माण करेंगे। 
      विवेकानन्द का व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व मूलत: आध्यात्मिक था तथा उस अध्यात्मिकता के माध्यम से जो कार्य उन्होंने किया वो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक के साथ-साथ पूर्ण रूपेण भारतीय जीवन-मूल्यों से आप्लवित था। माँ काली (जगदम्बा) की भक्ति से प्रेरित होकर मानवजाति के हितार्थ जो कार्य उन्होंने किया वो अपने आप में एक उदाहरण ही है।  जब हम पहली बार  स्वामी जी के व्याख्यान ‘मेरी समर नीति’ को पढ़ते हैं; तब यह समझ पाते हैं कि  स्वामी विवेकानंद जी के संदर्भ में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने क्यों कहा था ”यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो स्वामी विवेकानंद का अध्ययन कीजिए। उनमें सबकुछ विधेयात्मक या भावात्मक कुछ भी नहीं ।” उसके बाद उनके व्याख्यान  " वर्तमान भारत " और " भारत का भविष्य " पर विचार करते हैं  तो  लगता है कि स्वामी जी स्वयं भी एक अवतारी पुरुष थे। इसलिए वे भारतीय संस्कृति तथा रामकृष्ण देव के संदेशों के प्रचारार्थ अमेरिका गए तब शिकागो के शून्य डिग्री तापमान पर भी, अपने संकल्प से  विचलित नहीं हुए।
स्वामी जी की एक बात को हमें ध्यान से समझने की जरूरत है कि जब उनको निम्न या नीच जाति का कहा गया, तो उन्होंने कहा मैं ”यदि मैं अत्यंत नीच तथा चाण्डाल होता, तो मुझे और अधिक आनंद आता, क्योंकि मैं उस महापुरुष का शिष्य हूँ जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण तथा सन्यासी होते हुए भी एक रात्रि में उस चांडाल का पैखाना हीं नही साफ किया, अपितु उसकी सेवा शुशुषा भी की। ताकि वे अपने को सबका दास बना सकें मैं उन्हीं महापुरुष के श्री चरणों को अपने मस्तक पर धारण किए हुए हूँ। वे ही मेरे आदर्श हैं। मैं उन्हीं आदर्श पुरुष के जीवन का अनुकरण करने की चेष्टा करूंगा। सबका सेवक बनकर ही एक सनातनी हिंदू अपने को उन्नत करने की चेष्टा करता है। स्वामी जी का यही मानवतावादी पक्ष है। जिसके बल पर वे  सम्पूर्ण भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के दिलों पर वे राज कर रहे हैं।
भारत की प्राचीन संत परंपरा (गुरु -शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ) का एकमात्र लक्ष्य यह समझा देना है कि व्यक्ति मनुष्य के चरित्र-निर्माण द्वारा सामाजिक परिवर्तन एकाएक नहीं हो सकता। यह धीरे-धीरे ही संभव है। क्योंकि "युगों -युगों तक संघर्ष करने के बाद ही एक चरित्र का निर्माण होता है।   शंकराचार्य, रामानुजाचार्य तथा मध्वाचार्य से चलकर रामानंद-सन्त कबीर  की परंपरा तक यह आंदोलन चला। समाज एकाएक नहीं बदलता उसमें कुछ रूढ़ियां, कुछ परंपराएं तथा कुछ सामाजिक मूल्य एवं मानदंड जो सामाजिक परिवर्तन में बाधक होते हैं। सच्चे समाज सुधारक एवं समाजसेवी निंदा में समय नहीं व्यतीत करते। वे यह नहीं कहते कि जो कुछ तुम्हारे पास है वो सभी फेंक दो तथा वह गलत है। स्वामी जी ने इन्हीं विचारों को आत्मसात किया था। स्वामी जी उस समय के जातिवादी व्यवस्था से सुपरिचित थे। आपका मानना था कि ब्राह्मण सात्विक प्रकृति के होते हैं। इसलिए वे आदर्श के पात्र हैं। वह आध्यात्मिक साधना में लिप्त एवं त्याग की मूर्ति होते हैं। ब्राह्मण के अंदर स्वार्थ नाम की कोई चीज नहीं होती। यदि हम राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 1) के शब्दों में कहें – 
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है, 
दया-धर्म जिसमें हो, वही पूज्य प्राणी है।
 
 क्षत्रिय भी वही, जिसमें भरी हो निर्भयता की आग,
 सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग। 
 
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।

 
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुंज-कानन में।

समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।  
 
'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।

किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
 
'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला

'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।

स्वामी जी का भी यही मानना था कि मेरा आदेश है – चुपचाप बैठे रहने से काम न होगा। निरंतर उन्नति के लिए चेष्टा करते रहना होगा। ऊंची से ऊंची जाति से लेकर नीची से नीची जाति के लोगों को भी ब्राह्मण होने की चेष्टा करनी होगी। 
आज जहां चारों तरफ नारी स्वतंत्रता की बात हो रही है वहां आज से 80-90 वर्षों पूर्व स्वामी जी ने नारी मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया। स्वामी जी स्त्री शिक्षा के कट्टर समर्थक थे। आपका माना था कि गृहस्थी रूपी गाड़ी के नियमित सुव्यवस्थित तथा सुदृढ़ जीवन के लिए स्त्री-शिक्षा परमावश्यक है। इसमें शिल्प, विज्ञान, गृहकार्य, स्वास्थ्य के साथ सैन्य विज्ञान एवं राजनीति में शिक्षा के साथ प्रत्यक्ष कार्य के बिना संभव नहीं है। आपका मानना था कि स्त्री को इतनी शिक्षा दे दी जाए कि वो स्वयं अपने जीवन का निर्माण कर सकें। वस्तुत: यह शिक्षा ही है जो आत्म-रक्षा और आत्मबल को उत्पन्न कर सकती है। स्वामी जी ने कहा – हम चाहते हैं कि भारतीय स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जिससे वे निर्भय होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्य को भलीभांति निभा सके और संघमित्रा, अहिल्याबाई और मीराबाई आदि भारत की महान देवियों द्वारा चलायी गयी परंपरा को आगे बढ़ा सकें एवं वीर प्रसू माता मदालसा बन सकें।
कुल मिलाकर यदि यह कहा जाये कि स्वामी जी आधुनिक भारत के निर्माता थे, तो उसमें भी अतिशयोक्ति नहीं हो सकती। यह इसलिए कि स्वामी जी ने भारतीय स्वतंत्रता हेतु जो माहौल निर्माण किया उस पर अमिट छाप पड़ी। विचारों से ही प्रभावित होकर बंगाल के क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता का बिगुल फुंका तथा भारत माता स्वाधीन हुई। लेकिन 1000 साल की गुलामी से मुक्त होने पर भी आधुनिकता की होड़ और पाश्चत्य सभ्यता के अन्धानुकरण में तथाकथित सेक्युलर शिक्षा नीति में सन्त परम्परा [गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा] के 16 संस्कारों , 4 पुरुषार्थ , 4 वर्ण में आधारित भारतीय संस्कृति के विरूद्ध दुश्प्रचार के कारण हम अपने वेदों के नाम तक को भूल गए। अपनी सनातन वैदिक संस्कृति को महत्व नहीं देने से, हम जीवन के लक्ष्य और आदर्श ~ "तेन त्यक्तेन भुंजीथा " को भूलकर दिशाहीन यात्रा को ही प्रगति समझ बैठे। जिसके परिणाम स्वरुप आज जब चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। ऐसे समय में स्वामी जी के मानवतावाद के रास्ते पर चलकर ही भारत एवं विश्व का कल्याण हो सकता है। वे बराबर युवाओं से कहा करते थे कि हमें ऐसे युवकों और युवतियों की जरूरत है जिनके अंदर ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य - यानि ब्राह्मणों का तेज तथा क्षत्रियों का वीर्य दोनों उपस्थित हो। ऐसे केवल 100 मिल जाये तो हम सम्पूर्ण विश्व की चिंतनधारा को बदल डालें। युवा मित्रों! विवेकानंद को पढ़ने के साथ ही गुनने की जरूरत है। यह इसलिए कि वे हमें बुला रहे हैं कि आओ – आगे और अपनी भारतमाता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दो। 
[“वेद” शब्द “विद” धातु से बना है जिसका अर्थ होता है- “जानना।” और वेदान्त (उपनिषद) का अर्थ होता जानने का अन्त। अर्थात उस तत्व (आत्मा) को जान लेना ~ 'जन्माद्ययस्य यतः ' जिससे सबकुछ  निकला है, जिसमें सब कुछ स्थित है और जिसमेँ सबकुछ लीन हो जाता है। वेदों के नाम को याद रखने का सूत्र है -
 "सॉ -री अयजु" = सामवेद ,ऋग्वेद ,अथर्ववेद और  यजुर्वेदसामवेद:“साम” यानी “गान”. इसके मन्त्रों को देवताओं की पूजा के समय गया जाता था. भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में इसका बहुत योगदान है। सामवेद पाठ करने वाले ब्राह्मणों को उद्गाता कहते हैं। ऋग्वेद:ऐसा ज्ञान जो ऋचाओं से बना हो। यह चारों वेदों में सबसे पुराना है। ‘गायत्री मंत्र’ का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है, यह मंत्र सूर्य की प्रार्थना है। दसवें मंडल में- 'संज्ञान सूक्त' और  ‘पुरुष सूक्त‘ है। इसमें चार परुषार्थ , चार वर्णों  ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, चार आश्रम और सोलह संस्कार  का वर्णन मिलता है। अथर्ववेद: इसकी रचना अथर्व ऋषि के द्वारा हुई थी . इसका उपवेद आयुर्वेद है।  यजुर्वेद: “यजुष” यानी “यज्ञ”. इसमें विभिन्न यज्ञों को संपन्न करने की विधियों के बारे में बताया गया है।  यजुर्वेद कर्मकांड प्रधान ग्रंथ है। इसका पाठ करने वाले ब्राह्मणों को ‘अध्वर्यु‘ कहा जाता है। चार वेदों के संकलन कर्ता –वेदव्यास हैं !
वेदों का सार : यदि कोई नागरिक देश के सर्वोच्च पद पर आसीन है, तो वह शायद देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री है। लेकिन इससे भी ऊंचा एक पद है। वह है मानव-पद अर्थात ' ब्रह्मवेत्ता  ' पद - कोई भी पद परमात्मा या ब्रह्म से बड़ा नहीं हो सकता। वेदांत ही हमें आत्मा या परमात्मा से साक्षात करवाता है। 
वेदांत ज्ञानयोग की एक शाखा है, जो व्यक्ति को ज्ञान-प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है। इसका मुख्य स्रोत उपनिषद है, जो वेद और अरण्यक ग्रंथों का सार समझे जाते हैं। वैदिक साहित्य का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषद को वेदांत कहा जाता है। वेदांत का शाब्दिक अर्थ है- वेदों (ज्ञान) का अंत (अथवा सार)। वेदांत का मुख्य विषय है आत्मा का ज्ञान या अपने आत्मस्वरूप को पहचानना। आप जानेंगे कि आप वो नहीं हैं, जो आप समझते हैं कि मैं यह (नाम-रूप ) हूं। बजाय इसके आप प्रत्यक-आत्मा या आत्मा हैं, उन सबसे अलग जो आप नहीं हैं। वर्तमान में आप शरीर, इंद्रियों, मन और और भी कई चीजें, जिन्हें आप अपना समझते हैं, जिनसे आप अपना तादात्म्य स्थापित करते हैं, उन सबका नश्वर समुच्चय हैं। इन सब चीजों को जब आप निकाल देते हैं, तो जो रहता है, वह अविनाशी प्रत्यक-आत्मा (existence-consciousness-bliss) सच्चिदानन्द  है। आप वही  हैं...वही परम तत्व (witness consciousness) आपके भीतर है। 
 मानव के चार लक्ष्य हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन्हें पुरुषार्थ कहा जाता है। चौथा लक्ष्य ,अंतिम लक्ष्य-मोक्ष, सर्वोच्च लक्ष्य है, जिसे पाने में वेदांत (सन्त परम्परा ) मदद करता है।
किसी कर्मकाण्ड  (रस्म-रिवाज ) को संपन्न करने के बाद पुरोहित उससे मिलने वाले अद्भुत फलों की लंबी सूची आपके सामने रखते हैं-धन-धान्य, सेहत, संतति आदि आदि और अंत में यह गारंटी कि, ‘इन सब चीजों को भोगने के बाद, मरने पर आपको मोक्ष मिलेगा।’ इस तरह ऐसे सिस्टम्स हैं, जो मोक्ष का वादा उधारी पर करते हैं, एक पोस्ट डेट का चेक, जिसे मरने के बाद कैश करना है, जबकि वेदांत परम्परा में प्रशिक्षित कोई  शिक्षक,गुरु या नेता [नवनीदा जैसे पैगम्बर C-IN-C] मोक्ष की गारंटी इसी जन्म में लेता है। नवनीदा कहते थे ,"जो व्यक्ति Be and Make ' महामण्डल आंदोलन के (3H विकास के 5 अभ्यासों के) प्रचार -प्रसार में लगा रहेगा वह इसी जन्म में मुक्त हो जायेगा , उसे कोई अन्य साधना नहीं करनी पड़ेगी ~ ‘मैं अपना मोक्ष अपनी आंखों से देखता हूं।’ हम नहीं चाहते कि दूर भविष्य में किसी अनिश्चित काल में हमें अनजान मोक्ष मिले, बल्कि हम उसका प्रत्यक्ष अनुभव करें।  सभी संप्रदाय अथवा आध्यात्मिकता के परंपरागत स्कूल इस बात से सहमत हैं कि आत्म-ज्ञान से मोक्ष मिलता है। ज्ञान का मतलब है ‘जानकारी’। आत्म-ज्ञान का मतलब है, आत्मा को जानना, स्व को जानना।
मोक्ष का मतलब है बन्धन से मुक्ति :  बंधन मन की वह अवस्था है, जिसमें व्यक्ति अपने को केवल नश्वर शरीर या नाम-रूप (M/F आकृति) को ही ‘मैं’ और ‘मेरा’ के  रूप में सोचता है और हमेशा, दुख, चिंताएं, बेचैनी, अशांति, चीजों की तृष्णा आदि रखता है। ‘मैं’ और ‘मेरा’ की यह भ्रान्त धारणा (भावना) आपकी उच्च धरातल (सिंह शावक) से गिरावट (स्वयं को भेंड़ शिशु समझने ) को दर्शाती है। आपने,अपने चारों ओर स्वयं घेरा बना लिया है और ‘ मैं’-‘मेरा’ के दायरे में सिमट गए हैं, इस तरह आपने अपने आपको अपनी अपरिमितता से अलग कर लिया है. आँखों को हथेली से ढँक कर कह रहे हैं -बड़ा अँधेरा है। जब माया या भ्रांति के कारण उत्पन्न ‘मैं’ और ‘मेरा’ का भाव दूर हो जाता है और आपमें यह चेतना आती है कि ‘मैं उपाधि या मुझे दायरे में बांधने वाली बातों से स्वतंत्र हूं,’ और ‘मैं हर तरह से पूर्ण हूं’ , तो महत्वहीन होने का विचार बिल्कुल खत्म हो जाता है, और साथ ही उत्तेजनाएं, अशांति, दुख और और भी बहुत सारी तकलीफें समूल नष्ट हो जाती हैं। इस तरह आप बंधन से मुक्त हो जाते हैं। 
            किसी कमरे में यदि 1000 वर्ष से अँधेरा हो तो उसके जाने में 1000 वर्ष नहीं लगते। दीपक जलाते ही अँधेरा एक क्षण में चला जाता है विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव और जगतजननी माँ सरस्वती श्री श्री सारदा देवी को हृदय में धारण करते ही, या वेदान्त  के मर्म को (चार महावाक्य का श्रवण -मनन निदिध्यासन द्वारा) हृदय में धारण करते ही जन्मजन्मान्तर से छाया अँधेरा क्षण भर में दूर हो जाता है। और भेंड़त्व के सम्मोहन (मृत्यु भय) से आप सदा के लिए विसम्मोहित (De -Hypnotized) हो जाते हैं , और अपने यथार्थ स्वरुप (सच्चिदानन्द -existence-consciousness-bliss) में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। 
वेदांत (उपनिषद याने गुरु विवेकानन्द /नेता /जीवन्मुक्त शिक्षक के निकट बैठने) से परमानंद की प्राप्ति : सन्त परम्परा (श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा ~ या महामण्डल के स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर -'Be and Make' नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा) में प्रशिक्षित और अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित (पैगम्बर या C-IN-C) नवनीदा के निर्देशानुसार 3H विकास के 5 अभ्यास करने से और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने के आंदोलन में लगे रहने से, और सर्वोपरि माँ जगदम्बा की कृपा से आपको एक दिन परमानन्द की प्राप्ति  जाती है ! फिर माँ जगदम्बा की कृपा से आपका काम केवल दूसरों की आँखों को खोलना रह जाता है। 
जब तक परमानंद का अनुभव नहीं होता, नाक टीपने की साधना से कुछ नहीं मिलेगा। कोई भी ढोंगी गुरु अपने मुख से कह सकता है, ‘मैं मुक्त हूं या स्वतंत्र हूं। मैंने असीम खुशी पाई है।’ इस तरह की बकवास करने का कोई पैसा तो लगता नहीं? " तोता भी राम -राम रटता है , लेकिन बिल्ली के गला पकड़ते ही टायें- टायें करने लगता है। "  कोई भिखारी भी शेखी बघार सकता है.., कि ‘मैं लखपति हूं।’ दरअसल हमारे भीतर परमानंद प्राप्ति -भ्रममुक्त मुक्त हो जाने की अमूल्य दौलत होनी चाहिए। 
वेदांत सार क्या है : 9 उपनिषद [ ईश -केन -कठ -प्रश्न -मुण्डक -माण्डूक्य -ऐतरेय -तैत्तरीय -श्वेताश्वतर ]
में चार महावाक्यों की व्याख्या है - गीता, उपनिषद , ब्रह्मसूत्र पर होने वाली चर्चाओं को सुनना, मनन करना और अभ्यास करना , सर्वोपरि माँ जगदम्बा की कृपा  आपके भीतर पहले से विद्यमान पूर्णता (आध्यात्मिक अनुभव की दौलत) को अभिव्यक्त करा देती है। जिस व्यक्ति ने ससीम , नश्वर शरीर में रहते हुए भी , अविनाशी असीम ब्रह्म को जान लिया है , आत्मा को समझा है (ब्रह्मविद है ?)  और जो अपने शिष्यों को (भावी नेताओं को ) आत्मस्वरूप समझने का ज्ञान दे सकता है, वह नेता /पैगम्बर /सद्गुरु है। दूसरे शब्दों में नेता /गुरु / जीवनमुक्त शिक्षक (C-IN-C ) या पैगम्बर को ब्रह्म (आत्मा-इन्द्रियातीत सत्य ) का प्रत्यक्ष अनुभव होना चाहिए और उनमें अपना यह अनुभव औरों को देने की क्षमता भी होनी चाहिए। किसी ढोंगी का चुंबकीय व्यक्तित्व, ग्रंथों पर अधिकार, अच्छा वक्ता, मानसिक  शक्तियां या दूसरी योग्यतायें , उसके नेता /पैगम्बर / सद्गुरु होने के सूचक के रूप में नहीं ले सकते।
शिक्षा (=धर्म) आत्म साक्षात्कार है (Education/Relision  is self -realization): आत्मनिर्भर सज्जन मानव बनना जीवन का उद्देश्य है। जीवन मूल्य से सही दिशा मिलती है।  विद्यार्थियों के लिए अध्ययन के लिए कष्ट सहना तप है। उनकी दृष्टि ज्ञान और विद्या की आभा से ज्योतिर्मय होती है। शिक्षा नैतिकता है, जो मनुष्य, समाज का सृजन करती है। शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति है। ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है। जीवन का लक्ष्य विद्या स्वयं अमृत है। शिक्षा आत्म साक्षात्कार है। शिक्षा मनुष्य को सच्चरित्र और संसारोपयोगी बनाती है। शिक्षक शिष्य के मस्तिष्क में पहले से विद्यमान मेधा को विकसित करता है। वह ज्ञान और अनुशासन की भावना से चरित्र निर्माण करके एक पिता से बढ़कर सिद्ध होता है। 
वास्तविक शिक्षक (पैगम्बर -मानवजाति का मार्गदर्शक नेता - जीवनमुक्त): शिक्षक वही है जो स्वयं और विद्यार्थी को अज्ञानता से दूर करके पूर्णता देवत्व, प्रेम, एकता, पवित्रता, पांडित्य और ज्ञान का सटीक उदाहरण बनता है। शिक्षक निरंतर पारदर्शी और योग्य बनाता है।  शिक्षक की भावना आत्मिक ऊर्जा लेने के बजाय देने की होती है। परमानन्द से धनवान शिक्षक, आर्थिक रूप से निर्धन होकर भी वह विद्या देता है। शिक्षा देने वाले की उम्र बड़ी होती है। (आध्यात्मिक रूप से ) गरीब बच्चों की शिक्षा में योगदान करने वाले,सन्त -परम्परा तुलसी के राम ,  सूर के श्याम , कबीर के समर्थ रामदास , विवेकानन्द उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस , डॉ. राधाकृष्णन, अब्दुल कलाम, अध्यापक ही रहे।
 शिक्षा का अर्थ मनुष्य की दैवीय प्रकृति को पहचानना है। शिक्षक को स्वयं आचार्य होना चाहिए। आचार्य वह है जो अपने उपदेशों के अनुकूल आचरण करता हैअपने सदाचरण से शिक्षक बच्चों को समाजसेवा के लिए समर्थ, नैतिक और भाव से पूर्ण बनाता है। अध्यापक का दायित्व ही अपने ज्ञान से अपने शिष्य का पूर्ण विकास करना है। शिक्षक का धर्म है अपनी आंतरिक ज्योति से विद्यार्थी के मनस्थल को प्रकाशित करके सत्य का रूप दे, जिससे उसका अपना जीवन सार्थक हो जाए।  श्रेष्ठ अध्यापक मात्र एक विद्वान ही नहीं, बल्कि वह है जो निरंतर बिना किसी पुरस्कार की कामना के किसी शिष्य के उत्थान और कल्याण का ध्यान रखता है। 
 
IQ, EQ और SQ को समझना (Understanding IQ, EQ and SQ) :
शारीरिक बौद्धिकता ( Physical Intelligence) : विवेकी आहार (Prudent diet) या  पौष्टिक आहार ( nutritious food ), नियमित रूप से सन्तुलित व्यायाम (Consistent balance exercises),  उचित विश्राम ( Proper rest), शिथलीकरण (relaxation) पसीना लाना और विश्राम करना जैसे तकनीकों का प्रयोग ,तनाव प्रबंधन और रोकथाम (stress management and prevention) 
मानसिक बुद्धिमत्ता (Mental intelligence-=IQ: मन का पौष्टिक आहार और व्यायाम ; स्वाध्याय - सतत, व्यवस्थित, अनुशासित अध्ययन और व्यायाम मनःसंयोग के अभ्यास से आत्म जागरूकता का संवर्धन ,Practive of Mental Concentration for development of self awareness, दूसरों को आत्मजागरूकता का प्रशिक्षण देकर, स्वयं निरंतर आत्मजाग्रत रहना सीखना ( learning by teaching = Learning to be self-aware, by training others to be self-aware) और दूसरों की निःस्वार्थ सेवा करके दृष्टि को ज्ञानमयी बनाने का प्रशिक्षण लेना ( learning by doing.=Take training to make the vision enlightening by doing selfless service to others)
भावनात्मक बुद्धिमत्ता (Emotional intelligence-EQ): आत्म जागरूकता (Self awareness), व्यक्तिगत प्रेरणा (Personal motivation), आत्मानुशासन या स्व विनियमन (Self regulation), सहानुभूति, परानुभूति ,  हमदर्दी , समानुभूति, परदुःख कातरता (empathy), सामाजिक कौशल (Social skills

सिमरूँ माँ सारदा सरस्वती तोहि भवानी
अनुभव प्रकट करो मम वाणी

सर्व वाग् भूषण दूषण परिहारी
भक्ति ज्ञान वैराग बखानी
 
सर्व भाषा की तुम हो जननी
तुम्ही सकल विद्या की खानी 

 
 गिर कर  रसीली प्रेम रस भीनी
कविता सुंदर होए  प्रभु कहानी


दास माता यही वर मांगे
वाणी प्रसिद्ध होए प्रमाणी  

मातृभक्त नेता को मीठी बोली बोलने की आदत डाल लेनी चाहिए ! सोचसमझकर बोलना एक अच्छी आदत है, इसको प्रवृत्ति बना लेने से  नए शत्रु नहीं बनते , पुराने शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। जो बीत गयी उसे क्या रोना , जब भोर भई तो क्या सोना ? भारती = जो माँ सरस्वती की कृपा से धन्य हो चुका है , और जगतजननी भारत माता का भक्त है।  सुब्रह्मण्य भारती का तमिल वन्देमातरम ! 
 
जो बीत गया उसे क्या रोना
जब भोर भई  तब क्या सोना

होकर प्रेम मगन  करले हरि का भजन
भरले नैन गगरिया रे  ..... 

 
 सीताराम कहो राधेश्याम कहो, रामकृष्ण कहो
 बीती जाए उमरिया रे। ...... 

तूने गर्भ में प्रभु से किया था वादा ,
मै भजन करूँगा हर लो बाधा
आके भूल गया सुख में फूल गया
तेरी बदली नजरिया रे
 
 सीताराम कहो राधेश्याम कहो, रामकृष्ण कहो
 बीती जाए उमरिया रे। ...... 
 


 तूने जोड़ा यहाँ परिवार बड़ा
पाया धन वैभव अधिकार बड़ा
हुआ अभिमानी मति बोरानी
चला खोटी डगरिया रे 
 
 सीताराम कहो राधेश्याम कहो, रामकृष्ण कहो
 बीती जाए उमरिया रे। ......  


जो बीत गया उसे क्या रोना
जब भोर भई  तब क्या सोना

होकर प्रेम मगन  करले हरि का भजन
भरले नैन गगरिया रे  ......

 
 सीताराम कहो राधेश्याम कहो, रामकृष्ण कहो
 बीती जाए उमरिया रे। ...... 
 
आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता (Spiritual Intelligence): अखण्डितत्व (Integrity - हृदय की समग्रता या सम्पूर्णता ,शराफत या सत्यनिष्ठा =) अर्थात चरित्रनिर्माण ( Character building ), जीवन का अर्थ (जीवन का उद्देश्य-चार पुरुषार्थ ), आवाज (आत्म ज्ञान और अन्य के लिए प्रेरित)। Integrity, Meaning of life ( Purpose of life ),अन्तर्मन की आवाज (Voice of conscience ) आत्मबोध , स्वयं  परमानन्द की प्राप्ति और दूसरों को ब्रह्मविद बनने , आत्मबोध प्राप्त प्रबुद्ध नागरिक बनने के लिए अनुप्रेरित करना (आत्म ज्ञान और दूसरे को प्रेरित करना Self Enlightenment and motivate to other ) .
 
IQ क्या होता है? : (Critical ‘trait’ for Leadership) 
 वह अंक जो सामान्‍य बु‍द्धि के अनुपात में किसी व्‍यक्ति विशेष की बुद्धि को सूचित करे, उसे बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient-IQ) हैं। बुद्धि-लब्धि (इंटेलिजेंस-क्वोशन्ट) वह अंक (score) है जो किसी व्यक्ति की तर्कसंगत विचार क्षमताओं (Common sense -व्यावहारिक बुद्धि , सामान्य बुद्धि,अनुभवजनित समझ)
को मापता है, नेतृत्व (अवतारवरिष्ठ ठाकुर देव, पैगंबर , नेता /गुरु विवेकानन्द /जीवनमुक्त शिक्षक/नवनीदा )  के लिए एक महत्वपूर्ण 'गुण' माना जाता है। {Intelligence Quotient which measures rational thought abilities, is considered a critical ‘trait’ for leadership. }
बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient) : जब कोई व्यक्ति अपनी बुद्धिमत्ता को विकसित कर लेता है ~ [अर्थात प्रतिबिंबित चेतना (reflected consciousness) को साक्षी चेतना (witness consciousness) में रूपांतरित कर लेता है, या अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को, माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट मैं -बोध में रूपांतरित कर लेता है !! ] , तब उसको किसी वस्तु का विश्लेषण करने , उसकी  पूरी जानकारी प्राप्त करने तथा  उसमें सुधार लाने/संशोधित करने का उपाय क्षणमात्र में -एक झलक देखकर ही, उसकी मन (आत्मा के दिव्य चक्षु) के सामने कौंध उठता है। (उदाहरण -कृष्ण की खण्डित मूर्ति का बिसर्जन करने बजाय ठाकुर देव ने अकाट्य तर्क द्वारा अपने मूर्ति कौशल से पुनः जोड़ दिया था ?) उन महापुरुषों की कल्पना शक्ति (Power of imagination) या अमूर्त विचारों के सार को समझने की शक्ति विकसित हो जाती है।और वे जीवन के किसी भी अनुभव से महत्वपूर्ण शिक्षा ( learn significant lessons from experience) ग्रहण करते हैं। हालांकि, शोध से पता चला है कि जीवन को सार्थक बनाने के लिए केवल बुद्धिलब्धि या बुद्धिमत्ता ही  पर्याप्त नहीं है।
अत्यन्त बुद्धिमान लोग ( IQ लेवल बहुत अधिक ) होने पर भी हमेशा दुनिया के सबसे सफल और खुशहाल लोग नहीं होते हैं। मजे की बात यह है कि कोई जरुरी नहीं कि वैसे लोग ही विश्व के इतिहास को बदल देने की क्षमता भी रखते हों , तथापि उनमें से कुछ ऐसे हुए भी हैं। किन्तु आज के अधिकांश  मनोवैज्ञानिक और न्यूरोसाइंटिस्ट भावनात्मक लब्धि (Emotional Quotient -EQ) को विकसित करने की आवश्यकता पर अधिक जोर दे रहे हैं। उनका मानना है कि 'मानव जीवन को सार्थक करने के उद्देश्य से ' बुद्धिमत्ता या बुद्धिलब्धि ( IQ) को सफलतापूर्वक उपयोग में लाने के लिए भावनात्मक लब्धि (Emotional Quotient -EQ) एक प्राथमिक अनिवार्यता है ! उच्च EQ वाले लोग अपनी भावनाओं को प्रभावी ढंग से नियंत्रित रखने में सक्षम होते हैं, और साथ ही साथ दूसरों के साथ भी सफलतापूर्वक सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने में समर्थ होते हैं। क्योंकि उनको माँ सारदा देवी के वेदांत ज्ञान  - " यदि जीवन में शांति चाहती हो बेटी , तो किसी का दोष मत देखो ; कोई पराया नहीं सभी अपने हैं , सबको अपना बनना सीखो " में अटल विश्वास होता है। 
"Animals and humans have a tendency to act irrationally when certain emotions arise in their consciousness. " पशुओं और मनुष्यों की चेतना (प्रतिबिंबित चेतना) में जैसे ही किसी भावना का उदय होता है , तब उनमे समान रूप से तत्क्षण अविवेकपूर्ण ढंग से (श्रेय-प्रेय का विचार किये बिना ) कार्य करने की प्रवृत्ति (आहार-निद्रा -भय -मैथुन की प्रवृत्ति tendency) उत्पन्न हो जाती है । मानसिक तनाव, क्रोध और दुश्चिंता जन्य व्यग्रता के समय में, बुद्धि का उपयोग (विवेक-प्रयोग) करना कठिन हो जाता है। " Thus, EQ deals with the human side of life and how we effectively function in the environments surrounding us. " इस प्रकार हम देख सकते हैं कि भावनात्मक लब्धि (EQ) जीवन के मानवीय पक्ष के साथ जुड़ी हुई वस्तु है।और इसके ऊपर यह निर्भर करता है कि हम परिवेश और परिस्थितियों के दबाव को दूर हटाकर कैसे अपनी अंतर्निहित ब्रह्मत्व को व्यक्त करने में प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया करने में समर्थ जाते हैं। 
 कंप्यूटर में भी कुछ हद तक IQ की शक्ति होती है। कोई यह तर्क दे सकता है कि पशुओं में भी तो  IQ और EQ दोनों प्रकार की शक्ति होती है। तब वह कौन सा विशेष गुण है , जो मनुष्यों को पशुओं और रोबोट या कम्प्यूटर से अलग करता है?  और यहीं पर आध्यात्मिक लब्धि (Spiritual Quotient - SQ) की अवधारणा का अविष्कार होता है। "IQ and EQ help us in our present situations, but SQ is all about transformation."  IQ और EQ हमारी वर्तमान परिस्थितियों और परिवेश के दबाव को दूर हटाने में हमारी मदद करते हैं, लेकिन SQ हमारी दृष्टि को ही रूपांतरित करके, दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत बना देता है।
(ब्रह्मजिज्ञासु , सत्यार्थी के ब्रह्मविद या ब्रह्मवेत्ता- The spiritualist, बन जाने के  बाद ) ब्रह्मवादी मनुष्य की दृष्टि ज्ञानमयी हो जाती है , इसलिए वह पंचभौतिक स्थूल जगत के और गहरे स्तर (सूक्ष्म स्तर ) डुबकी लगाकर स्वयं को पहचान कर (आत्मस्वरुप में स्थित होकर ) प्रश्न करता है -मैं वास्तव कौन हूं, मेरी जरूरतें क्या हैं, अब मुझे पुरुषार्थ के किस उद्देश्य को प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए, और अब क्या करने से मुझे वास्तव में परमानंद प्राप्त होगा ? ऊपरी तौर से देखने पर ये सरल प्रश्न प्रतीत हो सकते हैं , लेकिन जब हम स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा के आलोक में (3H-की दृष्टि ) से अपना विश्लेषण करते हैं, तब हम कितनी बार विवेक-प्रयोग करके यह देखते हैं कि हम जिन चीजों को पाने के लिए दौड़ हैं , क्या वे सचमुच हमारे लिए सन्तोषप्रद ( fulfilling) , आवश्यक (necessary) और मानवोचित गुणों के संवर्धन में सहायक हैं ? हमारा जीवन अक्सर यह प्रश्न पूछने में व्यतीत होता है कि ' कैसे ' ~ ‘how’ मेरी तीनों ऐषणायें पूरी हो सकती हैं ? लेकिन आध्यात्मिक लब्धि (SQ) तब हमारा प्रश्न होता है `क्यों ' ~ ‘why’ मुझे अब भी ऐषणाओं के पीछे भागते रहना चाहिए ? 
IQ हमारी संज्ञानात्मक योग्यता (cognitive ability : बोधशक्ति, परोक्षज्ञान , इन्द्रियातीत ज्ञान उपलब्धि की योग्यता ) को मापता है लेकिन केवल पाण्डित्य -परिधान (academic costume) या संज्ञानात्मक बुद्धि उन भावनात्मक चुनौतियो- जिनका सामना हम सभी को अपने दैनन्दिन जीवन में करना पड़ता है; उसके समाधान के लिए जो हम सभी को अपने दैनिक जीवन के दौरान सामना करना पड़ता है  , बहुत कम सामग्री प्रदान करती है । अतएव केवल IQ को मापना पर्याप्त नहीं है; संपूर्ण  को (3H की शक्ति)~IQ और EQ और SQ को (Power of 3H)  मापना अधिक अचूक  और निश्चयात्मक (conclusive )है, एक  समग्रतात्मक दृष्‍टिकोण (holistic approach) प्रदान करता है । 
भावनात्मक लब्धि (Emotional Quotient-EQ ): एक ऐसा शब्द है जिसका उपयोग अन्य कारकों का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया जाता है जो स्वस्थ संबंधों और हर दिन के जीवन के लिए उचित और सकारात्मक प्रतिक्रिया देने की क्षमता पैदा कर सकता है।
यह भावनाओं (emotions) को पहचानने और उन्हें प्रबंधित (managing ) करने के बारे में है।भौतिक अभिव्यक्ति के बिना भावनाएं विचारों का संग्रह हैं। भावनाओं के बारे में बात करने का मतलब है कि हमारे पास भावनाओं के लिए एक समझ और एक भाषा होनी चाहिए फिर हमें अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए। EQ खुद को समझने के बारे में है कि हम दूसरों से कैसे संबंधित हैं और दूसरे हमें कैसे समझते हैं। ईक्यू हमें यह समझने में भी मदद करता है कि दूसरे कैसे महसूस कर रहे हैं और हमें अधिक पूर्ण और गहरे संबंधों को विकसित करने में सक्षम बनाता है। यह सब आवश्यक है यदि हम संघर्ष का प्रबंधन और समाधान करने में सक्षम हैं और जब यह रोज़मर्रा की स्थितियों में सहयोगात्मक और सामूहिक रूप से कार्य 
करता है)।
आध्यात्मिक लब्धि (Spritual Quotient) :  SQ को सही रूप में परिभाषित करना बहुत कठिन है। लेकिन हमें इस बात को भी स्पष्ट रूप से समझ लेने की आवश्यकता है कि, SQ का किसी संगठित धर्म (organised religion-ब्रांडेड धर्म,मजहब या सम्प्रदाय ) से कोई सम्बन्ध नहीं है। SQ उत्तरों से अधिक प्रश्नों के बारे में है। इसको समझाने के लिये कहानियों (सिंहशावक हरि) , कविता, रूपक  (metaphor :ब्रम्हावलोक धिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवा ) , अनिश्चितता और विरोधाभास (paradox ~ वज्र से भी कठोर और फूल से भी कोमल हृदय )  जैसे उदाहरणों का सहारा लेना पड़ता है। SQ का सबसे बड़ा गुण प्रज्ञा (wisdom) है। एसक्यू के उपादान अद्वैत ज्ञान या वेदांत ( knowing the limits of your knowledge) जन्य साहस, अखंडता, अंतर्ज्ञान, करुणा, सहानुभूति जैसे मूल्य हैं। SQ का अर्थ ~ दूसरों ने आपको अभी तक जो कुछ भी सिखाया है; उसको भुला देना (unlearning) भी हो सकता हैजीवन के मुद्दों [ life issues -चार पुरुषार्थ ,चार आश्रम , चार वर्ण , १६ संस्कार ] आदि  पर सवाल उठाना; माया के पर्दे के पीछे क्या छिपा है ? पार्श्व में देखने की विचारधारा, पिंजरे के बाहर निकली हुई सोच। स्थितियों और मुद्दों को अलग तरह से देखना;सभी संभावनाओं की अधिक समझ होना। जीवन के प्रति एक समग्र दृष्टिकोण  रखने में आध्यात्मिकता  एक अनिवार्य घटक है।  सभी कला रूपों में इसकी रचनात्मकता अभिव्यक्ति मिलती है।  SQवह फलक  है जो हमारी सचेतन बुद्धि और हमारी कर्म में कुशलता  का एक साथ पालन करता है।
जब बाकी सब कुछ विफल हो जाता है तो अध्यात्म हमें भीतर से सम्हालता है; आध्यात्मिकता हमें सपने देखने, खुद की इच्छा और खुद को ऊपर उठाने की अनुमति देती है।
आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता को सामाजिक और भावनात्मक बुद्धिमत्ता के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है।यह निर्धारित करना मुश्किल है, लेकिन निम्नलिखित प्रश्नावली हमें दूसरों के साथ  , ब्रह्मांड और खुद के साथ संपर्क में लाने में सहायता करने का एक प्रयास है। आप माता-पिता के रूप में आध्यात्मिक ज्ञान की समझ के आसपास के मुद्दों की खोज के लिए एक प्रारंभिक बिंदु के रूप में इस प्रश्नावली का मुकाबला करना चाहते हैं।
अपने स्कोर को 1-5 के पैमाने पर चिह्नित करें जहां 5 का मतलब है कि आप पूरी तरह से बयान से सहमत हैं और 1 का मतलब है कि आप पूरी तरह से असहमत हैं।
1. My life has a sense of complete and positive purpose to it.मेरे जीवन का एक पूर्ण और सकारात्मक लक्ष्य है।

             2. I feel a great connection to and often feel 'at one' with the universe and/or God.   2. मैं सम्पूर्ण ब्रह्मांड  / या भगवान श्री रामकृष्ण के साथ 'एकत्व ' का अनुभव करता हूं।
             3. I understand and have a deep knowledge of myself. I do what I say and express this in my being.मैं खुद को गहराई से जानता और समझता हूं। मेरा मन और मुख एक है , मैं जो कहता हूं वही करता हूं और अपने अस्तित्व में इसे व्यक्त करता हूं।
             4. I am known for my playful, irrepressible and bubbling sense of humour and childlike (but not childish) view of the world.4. मैं अपने आनन्दी स्वाभाव , अदम्य और संक्रामक हास्य के लिए एवं जगत को एक बच्चे जैसा सरल (लेकिन बचकानी समझ नहीं) दृष्टि से देखने के लिए जाना जाता हूँ।  
             5. I am deeply at peace with myself.5. मैं स्वयं के साथ गहरी  शांति में अवस्थित रहता हूँ।
             6. Other life forms generate in me a sense of awe, wonder, love and respect.6. अन्य सभी प्राणियों के समस्त नाम-रूपों  के  लिए मेरे  मन में विस्मय, आश्चर्य, प्रेम और सम्मान की भावना उत्पन्न होती है।
             7. I achieve the right balance of appropriate caring for others.7. मैं दूसरों की उचित देखभाल करते समय  सही संतुलन हासिल करता हूं। शिव ज्ञान से जीव सेवा का भाव रखता हूँ।
             8. I enjoy serving all people to the best of my ability and at every opportunity.
 मुझे अपनी क्षमता के अनुसार और हर अवसर पर सभी लोगों की सेवा करने में आनंद आता है।             9. I am amazed at my capacity.  मैं अपनी निःस्वार्थ सेवा क्षमता पर आश्चर्यचकित हूं।

for wonder. Scoring 4's and 5's indicates a high SQ (spiritual quotient) Scoring 1's and 2's indicates a low SQ (spiritual quotient)  
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बुद्धि -लब्धि (IQ) से जुड़ी शिक्षा ही चरण-दर-चरण सिद्धान्त आधारित शिक्षा (अष्टांग योग) है। जीवन में सफल होने के लिए, आपको " अपने कमरे में सबसे चतुर व्यक्ति " (smartest guy in the room ) नहीं होना चाहिए, बल्कि आपको पर्याप्त स्मार्ट (smart enough) बनना होगा। पर्याप्त स्मार्ट (smart enough) किसे कहेंगे ?  यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस तरह के संगठन का नेतृत्व कर रहे हैं। [आपका संगठन आध्यात्मिक ( spiritual) है या भौतिक (corporeal-कॉर्पोरीअल) ?इस समय हम शक्ति के केवल उसी रूप से सचेतन हैं जो हमारे अनेक - विध कार्यों को धारण करनेवाले हमारे स्थूल मन, स्नायविक सत्ता और भौति शरीर में गठित हुआ है। जो स्पर्शनीय सुख (कण्डु या दिनाय ) को या शारीरिक भोगों को ही सुख समझता है , आध्यात्मिक सुख या ब्रह्मानन्द का उसे कोई अनुभव नहीं हुआ है ! 
 IQ associated learning is step-by-step rule based learning. To be successful, you don’t have to be the smartest guy in the room, but you have to be smart enough. What ‘smart enough’ is depends on what kind of organization that you’re leading.
 
भावनात्मक बुद्धिमत्ता ( Emotional intelligence ) EQ: भावनात्मक बुद्धिमत्ता स्वयं का आकलन करने की क्षमता (आत्ममूल्यांकन या आत्मनिरीक्षण करने की क्षमता) है। आप अपनी भावनाओं पर जितना अधिक नियंत्रण रखने में सफल होते हैं , दूसरों की भावनाओं का आकलन, उपयोग और नियंत्रण करने की क्षमता भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। मूल रूप से, यदि आपके पास भावनात्मक बुद्धिमत्ता ( EQ)है, तभी आपके पास दूसरों की भावनाओं को देखने, समझने, उपयोग करने और प्रबंधित करने की क्षमता प्राप्त होती है।
इस बारे में बहुत से लोगों का यह तर्क है कि क्या यही "वास्तविक" बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient-IQ) नहीं है ? [There are lots of arguments about whether this is “real” intelligence,] परन्तु हममें से अधिकांश लोग उनलोगों को जानते हैं , जिनके पास भावनात्मक बुद्धिमत्ता सामान्य से अधिक है , और वे इसके महत्व के प्रति निरंतर सचेष्ट रहते हैं। अतः नेतृत्व में सफलता के लिए  EQ को पुनः नेतृत्व का एक अपेक्षित गुण  माना जाता है। (Again, EQ is considered a requisite for success in leadership.)अनुसंधान बताता है कि आईक्यू आपको जीवन में केवल 20 प्रतिशत तक की सफलता में मदद कर सकता है।बाकी 80 प्रतिशत सफलता आपके ईक्यू पर निर्भर करती है। (The research shows that IQ can help you to be success to the extent of 20 percent only in life.The rest of 80 percent success depends on your EQ. So EQ is a huge areas to promote our brain.)
आध्यात्मिक बुद्धिलब्धि (Spiritual Quotient) SQ: कुछ लोग इसको सामाजिक बुद्धिमत्ता (Social intelligence) भी कहते हैं। क्योंकि इसमें दक्ष नेता ही समाज-व्यवस्था (16 संस्कार , चार पुरुषार्थ , चार आश्रम , परस्पर परिवर्तन शील चतुर्वण व्यवस्था आदि ) के जटिल सामाजिक नेटवर्क (जाल) के महत्व को समझकर सही तरीके से सम्भाल सकते हैं , प्रबंधित कर सकते हैं , और मार्गदर्शन दे सकते है। इसीलिए इसको अंतर्वैयक्तिक बुद्धिमत्ता ( ‘interpersonal intelligence.’ सेव्य-सेवक भाव ) भी कहते हैं। वैश्विक संगठनों (UNO) के नेताओं और आभासी टीमों (एक ऐसा भौतिक या आभासी केंद्रीयकृत संचय - स्थल जहाँ डेटा का भंडारण, प्रबंधन और प्रसार तथा किसी व्यापार विशेष संबंधित ज्ञान की किसी विशेष शाखा के बारे में सूचना को व्यवस्थित किया जाता है।)  के परियोजना प्रबंधकों को इस एसक्यू को सफल होने की आवश्यकता होती है।
is the ability to understand, manage, and navigate complex social networks. It is also called ‘interpersonal intelligence.’ Leaders of global organizations and project managers of virtual teams require this SQ to be successful. 
कुछ लोग कहते हैं कि ऑटिस्टिक बच्चों की सामाजिक बुद्धि कम होती है। (autistic child मंदबुद्धि, लकवा, कंपन व अन्य अनियमित गतिविधियां, देखने-सुनने के दोष, व्यवहारगत दोष जैसे कि आत्मलीनता आदि। ) As the world has grown more complex, as organizations have grown, changed, evolved, this intelligence has become more important.Perhps the most controversial of the ‘Q’s', spiritual intelligence is defined as “the adaptive use of spiritual information to facilitate everyday problem solving and goal attainment."  5 components of spiritual intelligence: The capacity to transcend the physical and material. The ability to experience heightened states of consciousness. The ability to sanctify everyday experience. The ability to utilize spiritual resources to solve problems. The capacity to be virtuous.
जैसे-जैसे दुनिया अधिक जटिल हो गई है, जैसे-जैसे संगठन विकसित हुए हैं, बदले हैं, विकसित हुए हैं, यह आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। Ps Q 'की सबसे विवादास्पद Perhps, आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता को "रोजमर्रा की समस्या को हल करने और लक्ष्य प्राप्ति की सुविधा के लिए आध्यात्मिक जानकारी का अनुकूल उपयोग" के रूप में परिभाषित किया गया है।आध्यात्मिक बुद्धि के 5 घटक: भौतिक और सामग्री को पार करने की क्षमता। अनुभव करने की क्षमता चेतना की बढ़ी हुई अवस्थाएँ हैं। रोजमर्रा के अनुभव को पवित्र करने की क्षमता। समस्याओं को हल करने के लिए आध्यात्मिक संसाधनों का उपयोग करने की क्षमता। गुणी होने की क्षमता।
In Hindu scriptures we find references to mainly three types of happiness:
1. Physical (bhautika) happiness, which arises from comforts of life, sensual enjoyment, and bodily pleasures.
2. Mental (manasika) happiness, which arises from sense of fulfillment and freedom from worries, afflictions, and anxieties.
3. Spiritual (adhyatmika) happiness, which arises from freedom from the cycle of births and deaths, and union with the Paramātmā.
an embodied being's ultimate purpose is enjoyment of supreme bliss as a free soul. it should be pursued as part of a way of life in which liberation or union with the Paramātmā should be the highest goal.  
The most intelligent people are not always the most successful and happy people in the world. Interestingly, they aren’t necessarily the people that change the world either (although some of them have). Psychologists and neuroscientists are increasingly talking about the need for Emotional Quotient (EQ). According to them, EQ is a basic requirement for successful utilization of IQ. Those with high EQ’s are able to effectively handle their own emotions, and simultaneously interact and relate with others successfully.

Animals and humans have a tendency to act irrationally when certain emotions arise in their consciousness. In times of stress, anger and anxiety, intelligence is difficult to access. Thus, EQ deals with the human side of life and how we effectively function in the environments surrounding us.
To some extent computers have the power of IQ. One could argue that animals have the power of IQ and EQ. So what sets humans apart? This is where the notion of SQ comes in – Spiritual Quotient.

 IQ and EQ help us in our present situations, but SQ is all about transformation. The spiritualist has the power to question on a deeper level – who am I, what are my needs, what goals should I be pursuing, and what will really make me happy. They may seem like simple questions, but if we analyse ourselves, how many times are we busily engaged in pursuing things without really questioning whether they are necessary, fulfilling and really adding value? Our lives are often centered around asking the question ‘how’, but SQ is all about asking the question ‘why’.
ध्रुपद गायन :  मानवचेतना को जाग्रत करने के उद्देश्य से, ध्रुपद -गायन प्राण स्पंदन को नाभि या ॐ कार से, मस्तिष्क, सहस्रार या ह्रींकार तक ले जाने की यात्रा है। शिव जी संगीत के प्रणेता है। डमरू के आविष्कार से उन्होंने नाद ब्रह्म को उत्पन्न किया था। और माता पार्वती को शयन अवस्था में देखकर रूद्र-विणा का आविष्कार किया था।  ध्रुपद गायन में मानव-चेतना को जाग्रत करने के लिए विणा-वादन भी अकाट्य रूप से जुड़ा रहता है। राग अड़ाना में शिव-स्तुति " शिव -शिव शंकर महादेव " भक्ति रसधारा बहा देती है।] 

 सहस्त्रार दर्शन की सिद्धि : के विषय में "छान्दोग्य उपनिषद" (अध्यायः :8  खण्डः :1  श्लोक संख्या :6 ) में कहा गया है - " तद्यथेह कर्मजितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोकः क्षीयते तद्य इहात्मानमनुविद्य व्रजन्त्येताँश्च सत्यान्कामाँस्तेषाँ सर्वेषु लोकेष्वकामचारो भवत्यथ य इहात्मानमनिवुद्य व्रजन्त्येतँश्च सत्यान्कामाँस्तेषाँ सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति ॥ ६ ॥"
 . अर्थ - सो जैसे यहाँ कर्म से प्राप्त लोक (क्षेत्रादि) क्षीण हो जाते हैं वैसे ही परलोक में पुण्य से उपार्जित लोक (भोग) क्षीण हो जाता है । सो यहाँ जो आत्मा की खोज किये बिना और इन सत्य कामनाओं को (जाने बिना) चले जाते हैं उनका सब लोकों में स्वतन्त्र गमन नहीं होता।  और जो यहाँ से, आत्मा और इन सत्य कामनाओं की खोज करके जाते हैं उनका सभी लोकों में स्वच्छन्द गमन होता है ।
अर्थात्, सहस्रार को प्राप्त कर लेने वाला योगी संपूर्ण भौतिक विज्ञान का अधिष्ठाता बन जाता है, सर्व समर्थ हो जाता है। "तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति" अर्थात् सहस्त्रार प्राप्त कर लेने वाला योगी संपूर्ण भौतिक विज्ञान प्राप्त कर लेने में समर्थ हो जाता है। 
 [अथात आत्मादेश एवात्मैवाधस्तादात्मोपरिष्टादात्मा पश्चादात्मा पुरस्तादात्मा दक्षिणत आत्मोत्तरत आत्मैवेदꣳ सर्वमिति स वा एष एवं पश्यन्नेवं मन्वान एवं विजानन्नात्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्दः स स्वराड्भवति तस्य सर्वेषु लोकेषु कामचारो भवति अथ येऽन्यथातो विदुरन्यराजानस्ते क्षय्यलोका भवन्ति तेषाꣳ सर्वेषु लोकेष्वकामचारो भवति ॥ २  आनन्दगिरिटीका (छान्दोग्य) ॥ ]
जैसे अंकगणित (arithmetic) में, भागफल शेष ( Quotient reminder ) का अर्थ है, दो पूर्ण संख्या (integers ) के भाग का ऐसा परिणाम जिसे एक पूर्णांक (integer quotient ) में नहीं दिया जा सकता तथा शेष कुछ राशि बच जाती है। उसी प्रकार (IQ) इंटेलिजेंस कोशेंट (Itelligence quotient) या बुद्धि लब्धि  कई अलग मानकीकृत परीक्षणों से प्राप्त एक गणना है जिससे मनुष्य की बुद्धि का आकलन किया जाता है।  IQ लेवलआपके सोचने-समझने की क्षमता और जानकारी के स्तर को बताता है। हमारा दिमाग किसी काम को कितने अच्छे तरीके से करता है, हम किसी समस्या का समाधान कितनी जल्दी और बेहतर तलाश सकते हैं, किसी सवाल का जवाब हम कितनी जल्दी और सटीक दे सकते है, ये सब IQ लेवल से तय होता है। IQ लेवल का मतलब होता है, किसी व्यक्ति में कितनी बुद्धि है, वह कितना जीनियस है और उसका दिमाग कितनी तेजी से काम करता है।  जो व्यक्ति मुश्किल सवाल भी आसानी से हल कर लेता है उसका आईक्यू लेवल बाकी लोगों से ज्यादा होता है, जैसे व्योमकेश बक्शी ! और कई लोग ऐसे भी होते हैं जो काफी दिमाग लगाने के बावजूद असफल रह जाते हैं, ऐसे व्यक्ति का आईक्यू सामान्य होता है।
      पहले ऐसा माना जाता था कि किसी भी बच्चे का जन्म एक निश्चित 'सहजज्ञान', बौद्धिक भागफल या लब्धि (a certain intelligence quotient) के साथ होता है। और वैज्ञानिक भी मानते थे कि किसी बच्चे का  IQ ज्यादा से ज्यादा 5 साल की आयु तक जितना विकसित होना है उतना तय हो जाता है। और  प्रत्येक व्यक्ति का IQ हमेशा एक जैसा ही रहता है यानी इसे बढ़ाया या घटाया नहीं जा सकता। मगर नए शोधों के अनुसार हमारा एक्सपीरियंस (दुःख-सुख के अनुभव से सीखना) भी हमारे इंटेलीजेंट कोशेंट पर पॉजिटिव प्रभाव डालता है। मतलब, हमें जितना अनुभव होगा हमारा आईक्यू भी उतना ही होगा। तथापि महामण्डल का अपने 50 साल से अधिक के अनुभव से यह एक परीक्षित सत्य (Tested Truth-जाँचा हुआ सत्य) है कि जैसे 'Body Exercise' शारीरक व्यायाम के द्वारा शारीरिक शक्ति को विकसित किया जा सकता है , उसी प्रकार  'Brain Exercise' या दिमागी एक्सरसाइज ~ मनःसंयोग (विवेकदर्शन के अभ्यास) या प्रत्याहार और धारणा के विधिवत पैक्टिस  द्वारा IQ स्तर को बढ़ाया भी जा सकता है।
बुद्धिलब्धि सूत्र (IQ Level formula) :  IQ की गणना करने के लिए किसी व्यक्ति की वास्तविक आयु (Real Age- chronological age, कालक्रमबद्ध आयु) को उसकी मानसिक उम्र (Mental Age) से भाग देकर 100 से गुणा किया जाता है। (Mental Age ÷ Physical Age × 100) 
उदहारण के तौर पर, अगर आपकी real age (Chronological age) 25 साल है और आपकी mental age 20 साल है तो आपका आईक्यू intelligent quotient = 25 ÷ 20 × 100 = 125 होगा। इस तरह भी आप अपना आईक्यू चेक कर सकते हैं। अगर आपका IQ level - IQ 110 - 120 है तो आप स्मार्ट हैं। अगर IQ 130 - 140 है तो वेरी स्मार्ट हैं , अगर आपका IQ 150 - 170 है तो आप जीनियस हैं। IQ 180+ सुपर जीनियस लोगों में होता है। 
जबकि विश्व के कुछ Super genius ' (अतिप्रतभाशाली) व्यक्तियों की सूचि में सापेक्षता के सिद्धांत (Theory of relativity) को विकसित करने वाले, नोबेल पुरस्कार विजेता अल्बर्ट आइंस्टीन ( Albert Einstein ) का नाम सबसे पहले सामने आता है, जिनका  'IQ level' 160-190 था। उनकी प्रतिभा और उपलब्धियां इतनी अपार थीं कि आज भी हम 'प्रतिभा' और 'आइंस्टीन ' को पर्यायवाची (Synonyms) शब्द के रूप में देखते हैं। उसीप्रकार महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग (Stephen Hawking) का नाम सामने आता है। लकवाग्रस्त होने के बावजूद उनके मस्तिष्क ने 154 -160  का 'IQ Level ' रिकॉर्ड किया था, जिससे दुनिया आश्चर्यचकित रह गयी। इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी , किन्तु लकवाग्रस्त व्यक्ति ने दुनिया के सामने यह साबित कर दिया कि किसी मनुष्य की शारीरिक अवस्था (physical conditions) भी उसके सपनों को साकार करने में बाधक नहीं बन सकतीं। और विश्व के सबसे बड़े शतरंज खिलाड़ि, 225 बार विश्वचैम्पियन का ख़िताब जीतने वाले,  गैरी कास्पारोव (Garry Kasparov) हैं; जिनका आईक्यू लेवल - 190 था।

मानसिक आयु (Mental Age) निकालने के लिए कई तरह के साइकोलॉजिस्ट टेस्ट (Psychologist Test) का इस्तेमाल किया जाता है।  किसी व्यक्ति के 'IQ level' को निर्धारित करने में कई तरह के तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे दृष्टि-तीक्ष्णता की जाँच (Visual acuity 'VA'- Test), वाग्व्यवहार परीक्षा (verbal tests), अमूर्त तर्कण योग्यता परीक्षा ( एब्सट्रैक्ट रीजनिंग ability test), आदि आदि। किसी व्यक्ति का 'IQ -स्तर' निर्धारित करने के लिए ऐसे कई कारक ( factors) हैं, जिसका ध्यान रखा जाता है। जैसे मृत्युदर (mortality-मृत्यु या मरणाधीनता का अनुपात), अस्वस्थता (morbidity-रुग्णता) का अनुपात , पालन-पोषण करने वाले अभिभावकों तथा जैविक माता-पिता ( biological parents) की सामाजिक स्थिति आदि-आदि ऐसे कारक (Factors) हैं - जो किसी व्यक्ति के 'IQ -स्तर' को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन परीक्षणों से होकर गुजरने पर 95% लोगों का सामान्य प्राप्तांक (general score )  70 से 130 के बीच रहता है। यह सब जानने के बाद हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने सहज बौद्धिक लब्धि के स्तर या 'IQ Level' को विकसित करना चाहेगा।

      IQ लेवल कैसे बढ़ाये? (How to Increase IQ Level ):

मनःसंयोग: प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास या विधिवत मनःसंयोग याने 'विवेक-दर्शन का अभ्यास ' न केवल तनाव को कम करता है बल्कि यह हमारे मष्तिष्क के काम करने की क्षमता को भी बढ़ाता है। जी हाँ, ध्यान मष्तिष्क में रक्त के प्रवाह में सुधार करता है, एकाग्रता बढ़ाता है, साथ ही याददाश्त में सुधार करता है। आप मनःसंयोग की मदद से भी अपना आईक्यू लेवल बढ़ा सकते हैं। 

  स्वाध्याय : गीता , उपनिषद, विवेकानन्द साहित्य और महामण्डल पुस्तिकाओं का अध्यन करने से दिमागी ज्ञान मजबूत होता है और हमारी याददाश्त भी तेज होती है। आप सद्ग्रन्थों  की मदद से भी अपना आईक्यू लेवल बढ़ा सकते हैं।

आहार-शुद्धि : स्वस्थ आहार का सेवन करें। अपने भोजन में प्रोटीन वाली चीजें शामिल करें। प्रोटीन सतर्कता और किसी समस्या को सुलझाने की क्षमता बढ़ाता है। साथ ही, विटामिन बी लें, यह हमारे मस्तिष्क में खून के प्रवाह को बढ़ाता है जिससे हमारा दिमाग सही से और तेजी से काम करता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है -पाँचो इन्द्रियों के द्वारा, विशेष रूप से आँख और कान के द्वारा हम जो आहार लेते है , उसको शुद्ध और पवित्र होना चाहिए। 

 Play Game: साथ ही, आप IQ Level increasing games खेलकर भी अपना आईक्यू लेवल बढ़ा सकते हैं।  Do exercise: व्यायाम भी हमारे IQ level को increase करने में सहायता करता है। व्यायाम से हमारे मष्तिष्क में खून का प्रवाह सही तरीके से होता है, इसलिए व्यायाम से हमारा दिमाग मजबूत होता है। Solve Puzzles: इसके अलावा, पहलियाँ सुलझाने से भी हमारा आईक्यू लेवल बढ़ता हैं। Solve the equation: IQ level increasing questions को हल करके अपना आईक्यू लेवल बढ़ा सकते हैं।

सावधानी :  यम-नियम का अभ्यास 24 X 7 करें , किन्तु मनःसंयोग का अभ्यास सुबह -शाम  5 -10 मिनट से अधिक देर तक नहीं करें। अपना दिमाग तेज करने यानी IQ लेवल बढ़ाने के लिए ये सब चीजें करने के अलावा अपने दिमाग को आराम भी दें। एक बात और, अपने दिमाग को तेज करने के चक्कर में अपने brain पर ज्यादा जोर न डालें, इससे आपका दिमाग फैल भी हो सकता है।

संवेगात्मक बुद्धि (E.I.) या बुद्धि लब्धि (E.Q.)लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या केवल 'IQ Level' का उच्च प्राप्तांक ही आपको अपने बिजनेस या जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने की गारंटी दे सकता है? मनुष्य के भीतर जन्मजात दैहिकलब्धि और बौद्धिक लब्धि (Intelligent Quotient -IQ) के अलावा और भी बहुत कुछ है। क्योंकि प्रेम में विफल होने या अन्य किसी कारण से उन्हें जीवन में एक बार असफलता हाथ लगती है, तो उस समय वे अपने को सम्भाल नहीं पाते हैं, और उनका दिल टूट जाता है -when they suffer broken heart' हौसला पस्त हो जाता है। अतः विवेक-प्रयोग के द्वारा भावावेश या चित्त-वृत्ति (emotions) को नियंत्रित करना बुद्धि को नियंत्रित करने से अधिक महत्वपूर्ण कार्य है।

  प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक जॉन कोटर (John Kotter) कहते हैं - " It is not the question of strategy that getting us into trouble, it is the question of emotions." —अर्थात यह रणनीति (strategy-युद्ध कौशल) का प्रश्न नहीं है, जो हमें परेशानी में डाल रहा है। बल्कि यह 'कर्म के रहस्य ' को समझकर विवेक-प्रयोग द्वारा अपने भावावेग को नियंत्रित करने का प्रश्न है।

 जीवन में 20% सफलता  IQ के कारण मिलती है जबकि 80% सफलता  EQ के कारण मिलती है।  इससे पहले बुद्धि लब्धि को ही सब कुछ माना जाता था। अब यह माना जाने लगा है कि एक अच्छी बुद्धि लब्धि वाला व्यक्ति अच्छी सफलता पा सकता है पर सबसे ऊपर पहुचने के लिए भावनात्मक समझ का होना भी जरूरी है। अच्छी भावनात्मक समझ रखने वाला व्यक्ति कभी भी क्रोध और खुशी के अतिरेक में आ कर अनुचित कदम नही उठाता है।

"90/10 का सिद्धान्त " (Theory of 90/10) :  कहता है कि हमारे जीवन का 10 प्रतिशत हिस्सा हमारे जन्मजात परिवेश और परिस्थितियों के अनुसार गठित होता है , और बाकी का 90 प्रतिशत इस बात निर्भर करता है कि जीवन में अचानक किसी सुखद या दुःखद परिस्थिति के उपस्थित होने पर आप अपनी प्रतिक्रिया कैसे व्यक्त करते हैं ?  [द्रष्टाभाव (द्रष्टा-दृश्य विवेक) से करते हैं या भोक्ता भाव से ? ] हमारे हाथों में जीवन के 10 प्रतिशत भाग को नियंत्रित करने का उपाय नहीं है , किन्तु अपने जीवन के 90 प्रतिशत भाग को हम स्वयं नियंत्रित कर सकते हैं ! 

जैसे हठात कोई बड़ा ऑर्डर हाथ से निकल गया , किसी स्नेही-स्वजन से वियोग या मनमुटाव हो गया , या किसी सनकी व्यक्ति ने आपकी खड़ी गाड़ी को ठोंक दिया , यहाँ तक कि किसी ऐसे वरिष्ठ सहकर्मी के साथ काम करने की नौबत आ जाये जो कभी आपके कार्यों की सराहना नहीं करता- उन विषम परिस्थितियों में भी आपकी विवेक-प्रयोग शक्ति ही यह निर्णय करेगी कि आपको 'कब' और 'क्या'  करना है ? आपके भावावेश या चित्त-वृत्ति को नियंत्रित करने वाली ' emotional intelligence ' भाव-विज्ञान प्रधान बुद्धि ('नित्य भी सत्य और लीला भी सत्य' का विज्ञान) द्वारा आप अपने जीवन 90 प्रतिशत हिस्से का स्वयं निर्माण कर सकते हैं। 

        'One wrong reaction can cause a chain reaction of bad incidences.' आपके द्वारा की गयी केवल एक अशुभ प्रतिक्रिया (one wrong reaction) या एक अविवेकपूर्ण प्रतिक्रिया कई अशुभ घटनाओं की एक श्रृंखला प्रतिक्रिया (chain reaction) का कारण बन सकती है। उदाहरण के लिये किसी सनकी लड़के ने मोटर-सायकिल से आपकी खड़ी गाड़ी को टक्कर मार दिया , आप बाहर निकल कर उस लड़के से मारपीट करने लगते हैं। तभी एक पुलिस वाला आता है, आपको अरेस्ट कर लेता है , या लड़का मर जाता है। तब आपको पछतावा होता है कि कार का उतना डेंटिंग-पेंटिग तो सिर्फ 1000 रुपया खर्च करने से भी हो सकता था? आपके साथ कब कोई घटना घटित हो जाएगी इस पर आपका नियंत्रण नहीं है ; किन्तु उसके बाद आप कैसी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे- पूर्णतः आपकी बुद्धि के निर्णय पर निर्भर करता है !   

         लेकिन 'व्यष्टि अहं' के लाभ-हानि से संचालित बुद्धि का निर्णय गलत भी हो सकता है। अतः आपके पास 'बुद्धि' के साथ -साथ 'विवेक' भी रहना चाहिये। आपको स्वयं से ही कुछ समीक्षात्म प्रश्न ( critical questions) पूछने चाहिये, उस Accident (अप्रत्याशित घटना) के समय मुझे उस प्रकार से प्रतिक्रिया क्यों करनी चाहिए थी ?  Is it necessary to get in a fight? क्या उस सनकी लड़के के साथ मारपीट करना जरुरी था ? क्या केवल फुफकार मारने से ही काम नहीं चल सकता था ? क्या मैं इस तुनकमिजाजी (quick-tempered-भावावेश या चित्त-वृत्ति) से छुटकारा नहीं पा सकता ? 

          IQ और EQ के अन्तर को हमारे प्रधानमंत्री (श्री नरेन्द्रमोदी जी) ने बड़े सरल ढंग से समझाया है।  IQ के विकसित होने का (खिलने का) जो सबसे बड़ा अवसर होता है ,वैज्ञानिक लोगों के अनुसार वह ज्यादा से ज्यादा 5 साल के पहले ही अंकुरित होना (पनपना) शुरू हो जाता है। बाद के जीवन में तो उसका प्रकटीकरण होता है। जैसे किसी तीन महीने के बालक को उसकी माँ झूले में लिटाकर अपना कोई काम करना चाहती है , तब झूले में ऊपर बन्धे हुए घुँघरू वाले खिलौने थप मारकर जाती है, तो उसमें से घुँघरू की आवाज आती है। तो वो तीन या पांच महीने का बच्चा भी देखता है , कि माँ ने उस खिलौने को हिलाया था तो घुँघरू की आवाज आयी। माँ तो अपने काम में लग गयी लेकिन बच्चा अपने पैर ऊपर कर-कर के उस घुँघरू तक पहुँचने की कोशिस करता है, ताकि घुँघरू बज जाये।  और इसीको  IQ कहते हैं। समझ में आया ? .. उस तीन महीने के बच्चे ने उस टेक्निक को पकड़ लिया , कि उस खिलौने पर थाप मारने से घुँघरू की आवाज आती है। वो ऊपर पैर मार-मार कोशिश करता रहेगा, और रोयेगा नहीं -कुछ नहीं करेगा , उसकी एकाग्रता या concentration उसी खिलौने में बना रहेगा। क्योंकि उसने देखा है कि माँ ने ऐसा किया था तो घुंघरू की आवाज आयी थी , जो की अच्छी लगी थी। वो हो गया  IQ ! अब मान लीजिए माँ को बहुत काम है। बच्चा अगर नींद से सो जाए तो अच्छा हो। और पास में बहुत अच्छी आवाज में गाने का कोई CD हो , वो झूले के पास लगा दे। ताकि वो गीत बजेगा तो बच्चा सो जायेगा। लेकिन बढ़िया से बढ़िया गीत हो, बढ़िया से बढ़िया शब्द हो , बढ़िया से बढ़िया संगीत हो -लेकिन बच्चा रोना बंद नहीं कर रहा है। तो माँ तुरंत कीचन से दौड़कर आती है , CD बंद करती है। और खुद अपनी फ़टी आवाज से ऐसे कुछ लोरी बनाकर गाने लगती है ; और बच्चा सो जाता है। ये है -EQ ! ये जो उसके Emotions हैं - आवाज नहीं , लहजा नहीं , शब्द नहीं, सुर नहीं स्वर नहीं - जो Emotions हैं वे कनेक्ट हैं ! इसलिये IQ और EQ दोनों का जीवन में संतुलित विकास अनिवार्य है। और ये भी सही है कि 'EQ' का बहुत बड़ा रोल होता है। 'EQ' Inspirations का सबसे बड़ा श्रोत होता है। Risk लेने की capacity भी 'EQ' से आती है। अब ये  'EQ' कैसे बढ़ता है ? अगर हम Blood Donation करने जाते हैं , तो चलो भाई किसी ने कहा है इसीलिए आज रक्त दान कर देता हूँ। लकिन जब बाद में पता चलता है कि , मेरे रक्त दान से उस व्यक्ति की जिंदगी बच गयी जो मेरा कोई अपना था या यार जिसको पहचानता था , मेरा रक्त उस दिन उसको काम आ गया उसका जीवन बच गया। तब मेरा IQ, EQ में converted हो गया।  क्यों ? उसके साथ मेरा emotional bonding था। हम जितना अधिक संवेदनाओं से संयुक्त कार्यों के साथ जुड़ते हैं - मैंने एक बार एक टीचर से पूछा था। उनका एक नियम था कि जिस किसी बच्चे का जन्मदिन होता था उससे वे आग्रह करते  थे कि तुम आज अपने परिवार के साथ किसी Orphanage में जाकर आओगे। या स्कूल आने से पहले किसी वृद्धाश्रम में किसी अस्पताल में  जाकर के आओगे। तुम्हारा जन्मदिन मैं तब मानूंगा जब तुम स्कूल आने से पहले वहाँ जाकर आओगे। उन्होंने अपने क्लास के बच्चों को ये आदत डाली थी। मैंने उनसे पूछा कि इसके पीछे आपका logic क्या है ? उन्होंने कहा उसकी IQ बढ़ाने के लिये मैं अपने क्लास में बहुत कुछ कर लूँगा ; लेकिन वो उसकी जिंदगी में उतना काम नहीं आएगा। लेकिन उसकी emotional bonding का या उसकी संवेदनाओं का विस्तार होना अधिक जरुरी है। इसलिए मैं बच्चों का जन्मदिन क्लास में ताली बजाकरके , केक काटकर , या टॉफी -चॉकलेट बाँट करके नहीं करता हूँ। मैं उसको जहाँ दर्द है, दुःख है , पीड़ा है संवेदना है , उस जगह पर जाने के लिए प्रेरित करता हूँ।और उसका जन्मदिन होने के कारण वह उस दिन बहुत ही Self-conscious होता है , उस दिन उसकी सारी मनःस्थिति स्वकेन्द्रित होती है ; और इसलिए वो जो भी करता है , वह बहुत ताकत के साथ Register होता है। अर्थात उसके चित्त पर एक गहरी लकीर पड़ जाती है। इसलिए मैं उस दिन उससे आग्रह करता हूँ , जिसदिन उसकी सबसे अधिक जाग्रत अवस्था है ; उस दिन उसको इन संवेदनाओं से - दूसरों के लिए जीने की संवेदना से जोड़ूँ।  

E.Q. गणना सूत्र और  बढ़ाने के तरीके: Emotional Quotient का मतलब सिर्फ दूसरों की तकलीफ़ों को समझना नहीं है। बल्कि उनके  दर्द और तकलीफ़ों को महसूस करना भी है। अधिकांश संगठन (युवा आंदोलन) के नेता , या परिवार के मुखिया इस लिये विफल नहीं होते कि उनके पास रणनीति का अभाव था , बल्कि इसलिए विफल होते हैं कि वे अपने संगठन के सहकर्मियों के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने में विफल रह जाते हैं। 'Emotional intelligence', भावावेश या चित-वृत्ति का नियंत्रण इस बात पर निर्भर करता है कि जीवन में किसी अप्रत्याशित घटना के घटित होने के बाद आप प्रतिक्रिया (react) किस प्रकार करते हैं ? 

Negative Emotions को कम करना, stress नहीं लेना, मुश्किल फैसले लेना, बुरे वक्त से लड़कर बाहर निकलना और  Reactive के बजाय pro-active बनकर Emotional intelligence को बेहतर किया जा सकता है। अपनी feelings and emotions में झाँकिए। देखिये कि आपकी feelings और behavior कैसे एक दूसरे से connect हैं। [E.Q. = संवेगात्मक आयु/वास्तविक आयु×100 ]                    

 आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता (Spiritual Intelligence  'S.I.')  या आध्यात्मिक लब्धि (SQ) : जीवन के सबसे मौलिक और बुनियादी प्रश्न ~" मैं कौन हूँ,  जगत क्या है, ईश्वर (माया)  या ब्रह्म कौन है ?"   प्रश्न स्वयं से पूछने ( the most fundamental and basic questions in life --  और उसका उत्तर मांगने के लिए आवश्यक बुद्धि को ही आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता (Spiritual Intelligence) या आध्यात्मिक लब्धि (SQ) कहते हैं।

निर्वाण-षटकम् : जब वेदान्त केसरी (the Lion of Vedanta) आदि गुरु शन्कराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु श्री गौड़पादाचार्य जी ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा। बालक शंकर ने अपना जो परिचय दिया था , वह परिचय ही बाद में ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आचार्य शंकर ने अपना परिचय जिस 'वेदांत केसरी ' के रूप में दिया उसको जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है… 
 
मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं,
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:,
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ

I am not mind, nor intellect, nor ego, nor the reflections of the inner self (chitta).I am not the five senses. I am beyond that. I am not the ether, nor the earth, nor the fire, nor the wind (the five elements).I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||

~ न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ… 

Neither can I be termed as energy (prana), nor five types of breath (vayus),nor the seven material essences, nor the five coverings (pancha-kosha). Neither am I the five instruments of elimination, procreation, motion, grasping, or speaking. I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||

न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…

I have no hatred or dislike, nor affiliation or liking, nor greed, nor delusion, nor pride or haughtiness, nor feelings of envy or jealousy. I have no duty (dharma), nor any money, nor any desire (kama), nor even liberation (moksha). I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||

~ न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…

I have neither merit (virtue), nor demerit (vice). I do not commit sins or good deeds,nor have happiness or sorrow, pain or pleasure.I do not need mantras, holy places, scriptures (Vedas), rituals or sacrifices (yagnas).I am none of the triad of the observer or one who experiences, the process of observing or experiencing, or any object being observed or experienced.I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.
           
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||

न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…

I do not have fear of death, as I do not have death.I have no separation from my true self, no doubt about my existence, nor have I discrimination on the basis of birth.I have no father or mother, nor did I have a birth.I am not the relative, nor the friend, nor the guru, nor the disciple.I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.

अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

~ मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…

I am all-pervasive. I am without any attributes and without any form. I have neither attachment to the world, nor to liberation (Mukti). I have no wishes for anything because I am everything, everywhere, every time, always in equilibrium. I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness.
इति श्रीमद जगद्गुरु शंकराचार्य विरचितं निर्वाण-षटकम् सम्पूर्णम्। 
 

 फिल्म मसान (2015) में कवि वरुण ग्रोवर की रचना है- 'मन कस्तूरी रे'      

पाट ना पाया मीठा पानी, ओर-छोर की दूरी रे। 

मन कस्तूरी रे, जग दस्तूरी रे, बात हुई ना पूरी रे। 

खोजे अपनी गंध ना पावे, चादर का पैबंद ना पावे। 

बिखरे-बिखरे छंद सा टहले, दोहों में ये बंध ना पावे। 

नाचे हो के फिरकी लट्टू, खोजे अपनी धूरी रे, मन कस्तूरी रे !

रेखाओं के पार नज़र को, जिसने फेंका अन्धे मन से। 

सतरंगी बाज़ार का खोला, दरवाज़ा फिर बिना जतन के। 

फिर तो झूमा बावल हो के, फिर तो झूमा बावल हो के। . 

सर पे डाल फितूरी रे, मन कस्तूरी रे...

उमर की गिनती हाथ ना आई, पुरखों ने ये बात बताई। 

उल्टा कर के देख सके तो, अम्बर भी है गहरी खाई।।

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प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो
समदर्शी प्रभु नाम तिहारो, चाहो तो पार करो


एक लोहा पूजा मे राखत, एक घर बधिक परो |
सो दुविधा पारस नहीं माने/देखत, कंचन करत खरो ||
प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो….


एक नदिया एक नाल कहावत, मैलो नीर भरो |
जब मिलिके दोऊ एक बरन भये, सुरसरी (गंगाजी) नाम परो ||
प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो...


एक जीव/(माया) एक ब्रह्म कहावत, सुर श्याम झगरो |
अब की बेर मुझे पार उतारो, नही पन जात तरो ||

प्रभु मेरे अवगुण चित ना धरो…. 

'वह पुरुषोत्तम मेरा यार' ~ सन्त चरणदास जी। 

वह पुरुषोत्तम मेरा यार, नेह लागि टूटे नहीं तार।   
तीर्थ जाऊँ न व्रत करूँ, चरण कमल को ध्यान धरूँ।।
  
प्रानपियारे मेरेही पास, बन बन माही न फिरूँ उदास। 
पढ़ूँ न गीता वेद पुरान, एकहु सुमिरूँ श्री भगवान।। 

औरन को नहि नाउ शीश, हरि ही हरि हैं बिसवे बीस।  
काहु की नही राखुँ आस, तृष्णा काटि दायी है फाँस। 

उद्यम करूँ ना राखूं दाम , सहजही ह्वै रहै पूरन काम। 
सिद्धि मुक्ति फल चाहु नाही, नित ही रहुँ हरि सनातन माही।।
 
गुरु सुकदेव यहि मोहि दीन,  चरणदास आनन्द लवलीन। (15 सितम्बर 2020)
 

आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता (Spiritual Intelligence या प्रज्ञता) की सरल परिभाषा है - (द्रष्टा-दृश्य विवेक, श्रेय-प्रेय विवेक प्रयोग करने के बाद) - न्यायोचित काम करना, उचित समय पर कर लेना , यथोचित जगह पर करना। doing the right thing, at the right time, at the right place.      जब हम अपने क्षुद्र व्यष्टि-अहं (कच्चा मैं) को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं '-बोध (पक्का मैं)  में रूपांतरित कर लेते हैं ; उस पक्का मैं द्वारा संचालित बुद्धि '3 Q’s (IQ, EQ, SQ) को ही   शुद्ध बुद्धि या विवेक-प्रयोग शक्ति युक्त बुद्धि कहते हैं। 

अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (चरम उपलब्धि ~ S.Q.) को व्यक्त करने के लिए हमें पहले अपनी अन्तःप्रकृति (internal environment -याने 'हम ' मन-बुद्धि -चित्त -अहंकार) और बाह्यप्रकृति  (external Environment - वह बाहरी दबाव जो हमारे जीवन को घेरे रहता है, और अंतर्निहित शक्ति को व्यक्त करने में बाधा खड़ी कर देता है, उसके दबाव को हटा देने में सक्षम होना।). (It is more than just knowing things.) यह सिर्फ पुस्तकीय जानकारी इकट्ठा करना नहीं है, बल्कि जिन्होंने अपनी अन्तः और बाह्य प्रकृति को वशीभूत कर लिया है, जो जीवनमुक्त शिक्षक (नेता, गुरु) हैं उनसे प्रशिक्षण प्राप्त करना होता है। 
मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं ~ देह , मन और हृदय (3H) , तथा मनुष्य का निर्माण (या व्यक्तित्व-विकास) इन तीनों की शक्तियों ~ शारीरिक शक्ति (Hand), मानसिक शक्ति (Head) और हृदय की शक्ति (आत्मबोध की शक्ति) को समानुपातिक ढंग से विकसित करने पर होता है। हमें यह समझना होगा कि मनुष्य के इन तीन प्रमुख अवयवों (3'H') में से किसी एक भी अवयव का यदि समानुपातिक विकास नहीं हुआ, या सुर नहीं मिलाया (unregulated रह गया), तो हमारे व्यक्तित्व का वह अवयव अन्य अवयवों की कीमत पर सुख भोगना चाहेगा। तीनों प्रमुख अवयवों को समान रूप से नियंत्रित करने की शक्ति को आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता ('SI'- Spiritual intelligence) आध्यात्मिक लब्धि (Spiritual Quotient- 'SQ' या आत्म बोध की शक्ति।) कहा जाता है। 
अपनी शारीरिक शक्ति के द्वारा आमतौर से ये चार काम -आहार (eating), निद्रा (sleeping) ,भय (defending) और मैथुन (procreation ,संतानोत्पत्ति)  तो मनुष्य भी करता है और पशु भी करते हैं। धर्म (या शिक्षा) ही वह वस्तु है जो मनुष्य को पशु से अलग बनाती है। मनुष्य अपनी मानसिक शक्ति के द्वारा परिवेश और परिस्थिति को बदलने के लिए  सकारात्मक सम्बन्ध (positive relationship) बनाने का प्रयास करता है और नकारात्मक लोगों ( negative ones-विकास में बाधक) को त्याग देता है। और हृदय या शुद्ध बुद्धि (intellect) का विकास आत्मबोध (ज्ञान) प्राप्त करने से होता है - अर्थात 'कोई पराया नहीं सभी अपने हैं' के बोध में प्रतिष्ठित होने से होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता 6 /22 में कहा है - " यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।"  जिस आत्मप्राप्तिरूप लाभ को प्राप्त होकर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ है ऐसा नहीं मानता।  दूसरे लाभ को स्मरण भी नहीं करता।  और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दु:ख से भी विचलित नहीं होता है। 

 स्वामी विवेकानन्द अपने शिष्यों को (Would be Leaders या भावी नेताओं को) 'Pearl Oyster ' (मोती वाले सीप) की  कहानी सुनाया करते थे। " शुक्ति (याने मोती वाले सीप) के समान बनो। भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बून्द किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की उपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बून्द की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बून्द पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।" 

  हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फिर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिल्कुल हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्व के विकास के लिये प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके, उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नये भाव का आश्रय लेना - इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी शक्ति ही इधर-उधर बिखर जायगी।
        एक भावधारा  को पकड़ो(श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द वेदान्त विचारधारा ~ 'Be and Make' को पकड़ो) उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव को लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं, उन्हीं के हृदय में सत्य-तत्व (दिव्यता) का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ, वहाँ का कुछ, इस तरह खटाई चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं, वे कभी कोई चीज पा सकते। कुछ देर के लिये नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो, किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता।   जो एक भाव को लेकर उसी में चिरकाल तक मत्त नहीं रह सकते, वे तो सदैव प्रकृति के दास (मन और इन्द्रियों के गुलाम) ही बने रहेंगे, और कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे। "
      जो सचमुच योगी होने (जीवनमुक्त शिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता ) होने की इच्छा करते हैं , उन्हें इस प्रकार के थोड़ा थोड़ा हर विषय को पकड़ने का भाव सदैव के लिये छोड़ देना होगा। एक विचार को लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ-उसी का चिन्तन करो, उसीका स्वप्न देखो, और उसी में जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क,स्नायु, शरीर के सर्वांग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है। और इसी उपाय से मानवजाति के बड़े बड़े मार्गदर्शक नेताओं की उत्पत्ति हुई है।  जिस नेता/शिक्षक  का अपना जीवन सुन्दर रूप से गठित न हुआ हो (मन-मुख एक न हो सका हो) , वे तो बस बोलने वाली मशीन (रॉबोट) के सामान है।  यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें गहराई तक जाना होगा।
         इसे कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन किसी तरह चंचल न किया जाय। जिनके साथ बातचीत करने पर मन चंचल हो जाता हो, उनका साथ छोड़ दो। तुम सबको मालूम है कि तुममें से प्रत्येक का किसी स्थानविशेष, व्यक्तिविशेष और खाद्यविशेष (मिल्क-चॉकलेट आदि) के प्रति एक विरक्ति का भाव रहता है। उन सबका परित्याग कर देना होगा । 
       ...जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं, अज्ञानी और आलसी हैं, जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता, जो लोग ब्रह्म या परम् सत्य की खोज में नहीं , केवल थोड़े से मजे के अन्वेषण में रहते हैं, उनके लिये धर्म और दर्शन भी केवल मनोरंजन का ही एक विषय होता है । जो सिर्फ थोड़े से आमोद-प्रमोद के लिये धर्म करने आते हैं, वे साधना में अध्यवसाय हीन हैं। वे धर्म की बातें सुनकर सोचते हैं, 'वाह ! ये तो बड़ी अच्छी बातें हैं'; पर इसके बाद घर पहुँचते ही सारी बातें  भूल जाते हैं। सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिये, मन का अपरिमित बल चाहिये। अध्यवसायशील साधक कहता है, " मैं चुल्लू में समुद्र पी जाऊंगा। मेरी इच्छामात्र से पर्वत चूर चूर हो जायेंगे। " इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त कर सकोगे। " (1/89-90)
स्वामी जी इष्टनिष्ठा (आदर्श निष्ठा) पर जोर देते हुए अन्यत्र कहते हैं - " हमें भगवत्प्राप्ति के विभिन्न मार्गों में से किसी भी मार्ग के प्रति घृणा नहीं करनी चाहिये , किसी के भी इष्टदेवता , आदर्श ,अवतार या पैगम्बर, या गुरु को अस्वीकार नहीं करना चाहिये । लेकिन , जबतक पौधा छोटा रहे , जब तक वह बढ़कर एक बड़ा पेड़ नहीं हो जाता , तब उसके चारों ओर घेरा बांध कर रखना आवश्यक होता है। उसी प्रकार आध्यात्मिकता (विवेक-दर्शन) का यह छोटा पौधा यदि आरम्भिक , अपरिपक्व दशा में ही विचारधारा और आदर्शों के सतत परिवर्तन के लिये खुला छोड़ दिया तो उसे जानवर लोग चर जायेंगे। बहुत से लोग 'धार्मिक उदारता' (Religious catholicity or tolerance) के नाम पर अपने आदर्श को अनवरत बदलते रहते हैं। (कभी स्वामीजी , कभी नेता जी तो कभी गाँधी जी को अपना आदर्श बनाते रहते हैं।) और इस प्रकार सदैव दूसरों द्वारा कही गयी नई नई बातों को सुनने के लिए लालायित रहना उनके लिए एक बीमारी जैसा , एक नशा जैसा बन जाता है। उनके लिये धर्म भी एक प्रकार से अफ़ीम के नशे के सामान है। और बस, (उस प्रवृत्ति या निवृत्ति धर्म के अंतिम-परिणाम को देखे बिना ही), उसका वहीं अन्त हो जाता है। भगवान श्री रामकृष्ण कहते थे ~ " कुछ मनुष्य दूसरी कोटि (ईश्वर-कोटि) के भी होते हैं, जिसकी उपमा भारतवर्ष में प्रचलित जनश्रुति 'मोती वाली सीपी' से दी जा सकती है। सीपी समुद्र की तह छोड़कर स्वाति नक्षत्र के पानी की एक बूँद लेने के लिये ऊपर समुद्र की सतह पर उठ आती हैं , और मुँह खोले हुए सतह पर तैरती रहती हैं। ज्यों ही उसमें उस नक्षत्र का एक बूँद पानी पड़ता है , त्यों ही वह मुँह बन्द करके एकदम समुद्र की तह में चली जाती हैं , और जब तक उस बूँद से एक सुन्दर मोती का निर्माण नहीं कर लेती , तबतक वहीं उसे तैयार करने में लगी रहती है। " मनःसंयोग के साधक के लिए आरम्भिक दशा में अपने चयनित आदर्श के प्रति यह एकनिष्ठा नितान्त आवश्यक है। हनुमान जी के समान उसे भी यह भाव रखना चाहिए -
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि।
तथापि मम सर्वस्वः रामः कमललोचनः॥
~ श्री हनुमान जी कहते हैं - " मैं यह जानता हूँ कि तात्विक दृष्टि से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु और श्रीराम एक और अभिन्न हैं, लेकिन मेरे सर्वस्व तो कमललोचन श्री राम ही हैं। ( Hanumân says, "Vishnu and Râma, I know, are one and the same, but after all, the lotus-eyed Rama is my best treasure." .... उसी प्रकार मैं यह जानता हूँ कि तात्विक दृष्टि से भगवान विष्णु ही श्रीराम और श्रीकृष्ण बने थे, किन्तु मेरे सर्वस्व तो कमर पर धोती लपेटने वाले युगावतार भगवान श्रीरामकृष्ण देव ही हैं; जिनकी जन्मतिथि से सतयुग का प्रारम्भ हो चुका है ! ) ४/३५] 
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