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शनिवार, 7 जुलाई 2018

श्रीश्री रामकृष्ण महिमा : अक्षय कुमार सेन :

भारत के पुनरुज्जीवित होने का उपाय-श्रीरामकृष्ण महिमा का श्रवण! 
 'श्रीरामकृष्णचरित-महाकाव्य' - 'श्रीश्रीरामकृष्णपूँथी' के लेखक, तथा  भगवान श्री रामकृष्णदेव के गृहस्थ शिष्यों में से एक श्री अक्षय कुमार सेन का नाम सर्वजन विदित है। उन्होंने अपने इस दूसरे ग्रन्थ 'श्रीश्रीरामकृष्ण -महिमा' में श्रीश्रीरामकृष्णदेव की आश्चर्यजनक लीलाओं की श्रेष्ठता तथा उनके उदार और सार्वभौमिक उपदेशों को सरल और बोधगम्य तथा सहज वार्तालाप और प्रश्नोत्तरी के रूप में प्रस्तुत किया है।
सुनले रामकृष्ण-कथा जीवन जुड़ाय एमनि मीठे। 
पाषाने जल झरे भाई मरा गाछ मंजरे उठे! 
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के अमृतमय उपदेश इतने मधुर हैं कि, उनका श्रवण करने से अचेतन मनुष्य में चैतन्य जाग्रत हो जाता है, मानो वह पुनरुज्जीवित हो उठता है। पत्थल बन चुके हृदय से भी प्रेम का झरना फूट पड़ता है; और मृत पेड़ में भी मंजर निकल आते हैं।  
लोग इस बात पर शंका करते हैं कि क्या अनन्त, सर्वव्यापी भगवान्‌ भी नर शरीर धारण करके धरती पर अवतरित होते हैं ? यदि वे सर्वशक्तिमान हैं, तो उनको अवतार लेने की क्या जरूरत है ? क्या अपने संकल्प-मात्र से सर्वशक्तिमान भगवान साधुओं की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना नहीं कर सकते ? यदि हमलोग निर्गुण निराकार, सर्वव्यापी और हमारे सौरमण्डल सहित सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का कुशल संचालन करने में समर्थ, सर्वशक्तिमान ब्रह्म,गॉड या अल्ला समझते हैं; तो फिर ऐसा क्यों समझते हैं कि, अनन्त होकर वे बाकी सब कुछ तो कर सकते हैं, किन्तु कभी सान्त नर शरीर धारण करके धरती पर अवतरित नहीं हो सकते ? यदि भगवान अपने संकल्प-मात्र से सब कुछ करने में समर्थ हैं, तो वे स्वयं धरती पर मानव शरीर धारण करके अवतरित होने में क्यों समर्थ नहीं हो सकते ? जब हमलोग यह कहते हैं कि कण कण में भगवान हैं, तो फिर अवतार लेने का क्या कारण है ? इसका कारण बतलाते हुए भगवान (गीता ४ । ८) स्वयं कहते हैं -
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
                                   धर्मसंस्थापनार्थाय    संभवामि   युगे   युगे ॥                                         
साधुओं का परित्राण अर्थात भक्तों (हीरो/लीडर्स) की रक्षा, दुष्टों का विनाश, और धर्म संस्थापन के उद्देश्य से भगवान हर युग में अवतार लेते हैं। दुष्टों का विनाश करना, भक्तों की रक्षा करना । इसका अर्थ यह नहीं कि दुष्टों को मार देना और भक्तों को न मरने देना, किन्तु  भक्त भी तो मर जाते हैं ?  यहाँ रक्षा का अर्थ भक्तों के शरीरों को ‘है ज्यों-का- त्यों  कायम रखना’‒यह नहीं है ।  शरीर तो नष्ट होने वाली चीज है‒ इसका अर्थ है ‘उनके भावों की रक्षा ।’ भक्त की दृष्टि में शरीर का कोई मूल्य नहीं है । वहाँ मूल्य है ‘भगवद्‌भक्ति’ का । भगवान्‌ की तरफ चलने वाले भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए भगवान 'वराह-नरसिंह' रूप में प्रकट हो गए थे! भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं । उस लीला को गा-गाकर भक्त लोग मस्त होते रहते हैं ।
भगवान्‌ की चर्चा चलती है, कथा चलती है, लीला चलती है । यह सब अवतार होने से ही हो सकता है । तो लोग गा-गाकर संसार से स्वयं तरते जाते हैं, और दूसरों का भी मार्गदर्शन करते हते हैं । भगवान् इस तत्त्वको जानते हैं । इस वास्ते अवतार लेकर लीला करते हैं और संत-महात्मा भी इस वास्ते भगवच्चर्चा करते हैं । 
श्रीरामकृष्ण वचनामृत का प्रारम्भ मास्टर महाशय (Mahendranath Goupta, 'M')  गोपी-गीत से करते हुए कहते हैं :
तव कथामृतं तप्तजीवनं  कविभिरीडितं  कल्मषापहम् ।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥
  गोपियाँ कहती हैं - 'तव कथा अमृतं',  प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी अमृत स्वरूप है । अमृत पान करने का अर्थ अनन्त काल तक इसी शरीर को जीवित रखना नहीं है। अमर होने का अर्थ है साश्वत-जीवन की प्राप्ति। हजारों वर्ष पूर्व भी जिन मनुष्यों ने ईश्वर की अनुभूति कर ली थीं, उन्हें साश्वत जीवन प्राप्त हुआ है, उनका जीवन अमर हो गया है !
जो आपकी कथामृत या 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत' को कहते हैं, सुनते हैं, विचार करते हैं, वे ‘भूरिदाः’ बहुत देनेवाले हो जाते हैं, अर्थात वे देने वाले भी हैं और लेने वाले भी हैं । मानो सुनने वालों को देते हैं और स्वयं सुन-सुन कर-पुनरावृत्ति करके लेते हैं । सुनने वालों को लाभ होता है,  तो क्या कहने वालों को नहीं होता ? होता ही है। (उन्हें भी अपना ईश्वरत्व कभी विस्मृत नहीं होता ?) इस वास्ते भगवान् अवतार लेकर लीला करते हैं। 
और भक्तों की रक्षा क्या है ? स्वामी विवेकानन्द के गुरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव युगावतार के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे ईश्वरत्व की जीवन्त प्रतिमूर्ति थे। अपने साधनामय जीवन के द्वारा उन्होंने वेदों -उपनिषदों में वर्णित आध्यात्मिक सत्यों की प्रत्यक्ष अनुभूति की थी। श्री रामकृष्णदेव का विग्रह आनन्दमय है। उनके आत्मानुभूति संपन्न जीवन ने देश-विदेश के हजारो -लाखों लोगों के जीवन को इश्वरोन्मुखी बना दिया है।] 
[पाठक और प्रबोध - दो थियेटर आर्टिस्ट या रंगमंच के अभिनेता हैं, और प्रसिद्द बंगला नाटककार गिरीश घोष को अपना गुरु मानते हैं। गिरीश घोष के थियेटर में जब 'चैतन्यलीला नाटक' का मंचन किया गया था, उस समय इन दोनों ने थियेटर हॉल में भगवान श्री रामकृष्ण परमहंसदेव का दर्शन किया था। उनकी चरणधूलि को माथे से लगाया था और उनका भोगप्रसाद भी ग्रहण किया था। (श्रीरामकृष्ण वचनामृत में भी इस घटना का वर्णन आया है। *] दोनों मित्र वार्तालाप कर रहे हैं :-
प्रबोध : " गिरीश चन्द्र घोष, आचार्य केशव सेन, स्वामी विवेकानन्द जैसे बहुत विद्वान् लोग भी श्रीरामकृष्ण देव को  अपना गुरुदेव मानते हैं। कहते हैं, वे बहुत बड़े साधु हैं। किन्तु साधु-संन्यासी लोग जिस प्रकार गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं जटाजूट रखते हैं, शरीर पर राख लगाए रहते हैं, वैसा तो कोई भी लक्षण परमहंस ठाकुर में दिखाई नहीं पड़ता ?  और एक चीज इनमें दिखाई देती है, कि इनमें संन्यासी-साधुओं जैसा कोई अभिमान या अहंकार भी नहीं है। बल्कि, उल्टे किसी के प्रणाम करने से पहले, वे स्वयं ही लोगों को प्रणाम  करते हैं। 
"उनका चेहरा कितना आकर्षक है ! दो लाल-लाल होठ हैं, दो घुमावदार ऑंखें हैं, चेहरे पर तेज है, फिर उन्हीं आँखों के भीतर एक नशा भी है। देखते ही मनुष्य का मन उनके श्रीचरणों में लोट जाता है। उनके बोल कितने मीठे लगते हैं। कितना सुन्दर गाते हैं। इतना सुन्दर गीत तो भाई मैंने और कहीं नहीं सुना है। 
हमलोगों के थियटर जगत में तो अभी एक से बढ़कर एक गायक कलाकार हैं, और पहले भी कितने थे; सबों का गाना सुना है, किन्तु उनके ऐसा हृदय से गाने वाला और कोई नहीं है। आजकल सभी लोग परमहंस ठाकुर की महिमा का गायन करते हैं !
 चाहे कोई कितना भी बद्धजीव क्यों न हो, जितनी देर तक वह उनके साथ रहता है, उतनी देर तक आनन्द के सागर में तैरता रहता है, या कभी डुबकी भी लगा लेता है। यदि आप देव-मानव श्रीरामकृष्णदेव की विविध लीलाओं को अपने हृदय से देखते हैं, तथा उनके अमृतमय उपदेशों का श्रवण करते हैं, तो यह निश्चित है कि आप में नव जीवन के कोपल प्रस्फुटित हो जायेंगे। क्योंकि प्रभु श्रीरामकृष्णदेव का जीवन वृतान्त इतना मधुर है, कि उसे सुनने-पढ़ने वाला व्यक्ति भ्रममुक्त होकर  (डीहिप्नोटाइज्ड) अपने यथार्थ स्वरुप से जुड़ जाता है। भाइयो, इस कथा को सुनने मात्र से ही पत्थर बन चुके हृदय में भी प्रेम का झरना फूट पड़ता है, और मृत पेड़ में भी मंजर निकल आते हैं। 
पाठक :  - देखो प्रबोध, हमलोगों ने सभी प्रकार के नशे को आजमाकर देख लिया है, चलो अब एक नये प्रकार के नशे को आजमाया जाय ! जब किसी नशे को पकड़ा जाता है, तो थोड़े दिनों तक तो बहुत मजा आता है, फिर वह नशा अपना आकर्षण खो देता है। फिर किसी नए नशे की तलाश शुरू हो जाती है। हमलोगों ने सभी प्रकार के नशे को आजमा कर देख लिया है, सिर्फ गाँजा (तम्बाकू) का नशा ही शेष रह गया है,किन्तु लगता है कि अब यह भी छूट ही जायेगा !  
[धूम्रपान (?) करते हुए दोनों अभिनेताओं में वार्तालाप चल रहा है। बातचीत के क्रम में परमहंसदेव पर बात निकली।]
प्रबोध :  ठाकुर रामकृष्ण परमहंस देव में और एक अदभुत शक्ति है - जानते हो वह क्या है ? मैंने सुना है कि पहले वे जब रानी रासमणि द्वारा निर्मित दक्षिणेश्वर कालीमंदिर के पुजारी थे; तब पूजा करते करते, एक दिन कृपा करके माँ काली स्वयं उनके सम्मुख प्रकट हो गयी थीं ! और अब वे जैसे ही उनको याद करते हैं, या माँ काली को पुकारते हैं, वैसे ही माँ उनके समक्ष प्रकट हो जाती है, और उनके साथ बातचीत भी करती हैं। एक दिन अपने थियेटर में अभिनेत्रियों को देखकर 'माँ आनन्दमयी माँ आनन्दमयी' बोलते हुए बेहोश हो गए थे, फिर थोड़ी देर बाद कुछ बुदबुदाते (muttering) हुए न जाने क्या कह रहे  थे। 
पाठक : अरे वह बेहोशी नहीं है, उसको समाधि में जाना (ट्रांस में चला जाना या खो जाना ) कहते हैं। और जो तुम बुदबुदाना समझ रहे हो, उस समय वे माँ जगदम्बा के साथ वार्तालाप कर रहे होते हैं। मैंने सुना है कि वे अन्तर्यामी हैं, और सब कुछ जान लेते हैं, माँ जगदम्बा ही उनको सबकुछ बतलाते रहती हैं ! लिखना पढ़ना तो नहीं जानते, किन्तु बड़े बड़े बुद्धिजीवी, विद्वान् और पण्डित भी उनके सामने हार मान लेते हैं। 
प्रबोध : [आश्चर्य से] -अच्छा ! भाई जब वे लिखना पढ़ना नहीं जानते तब बड़े बड़े पण्डितों को कैसे हरा देते हैं ?
पाठक : जिनकी बातचीत साक्षात् माँ जगदम्बा के साथ होती हो, बोलो वे स्वयं कौन हैं ? उनको नामी गिरामी विद्वानों के साथ अधिक शास्त्रार्थ करने की आवश्यकता नहीं होती। उस समय क्या होता है, सुनो ! पण्डित और विद्वान् लोग पहले तो दूर से ही बड़ा कूद-फाँद करते हुए आते हैं, और उनके साथ खूब तर्क-वितर्क करते हैं। किन्तु जैसे ही कोई अपनी सीमा का अतिक्रम (Excess) करने लगता है, तब ठाकुर परमहंसदेव तुरन्त उसको स्पर्श कर देते हैं, और स्पर्श होते ही पण्डित लोग भौंचक्के रह जाते हैं। 
प्रमोद : फिर क्या होता है ?
पाठक : उसके बाद गर्जन-तर्जन करना तो दूर रहा, कोई हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगता है, कोई चरणों में लौटने लगता है, कोई बोलता है -'मुझे चैतन्य दो' , कोई रोने लगता है, आदि आदि। 
प्रमोद :अच्छा भाई, जिनको वे इस प्रकार स्पर्श कर देते हैं, वे लोग तो कुछ अवश्य देखते होंगे ? तुमने इस बारे में कुछ सुना है कि वे क्या देखते हैं ? 
पाठक : हाँ, सुना है ; कोई शिव जी को देखता है, कोई कालीजी को, कोई राम को देखता है, कोई कृष्ण को देखता है, फिर कोई कुछ ऐसा कुछ देख लेता है कि मौन हो जाता है ! कुछ बोल नहीं पाता। कितने ही लोग इस साधु के वश में आ गए हैं! देखो न हमलोगों के आँखों के सामने ही गिरीश बाबू क्या थे और क्या बन गए हैं ! गिरीश बाबू तो कोई वैसे सरल आदमी नहीं थे, किसी के भी आगे सिर नहीं झुकाते थे। यह सोंचकर कि अपने रिश्तेदारों के घर जाने से बड़े लोगों, -जैसे मौसा, फूफा, मामा इत्यादि को तो प्रणाम करना ही पड़ेगा; उन्होंने रिस्तेदार के घर में जाना ही छोड़ दिया था। वे पहले घोर नास्तिक भी थे। यदि बाघ भी घर में खाने के लिए घर में घुस जाये तो भी भगवान का नाम मुख से नहीं लेते थे। साधु-संन्यासी को देखते ही नाराज हो जाते थे, किसी को अपने घर में आने नहीं देते थे। घर पूजा के लिये बनवायी गयी देव-देवी की मूर्तियों को देखकर फरसा से काट देते थे। तुम भी तो सब कुछ देखे हो, जब ठाकुर पहली बार ठाकुर थियेटर गए थे तो कितना दुर्वचन कहा था ? उसके बाद ठाकुर परमहंस देव ने अपना मंत्र पढ़ते हुए जैसे ही उनका स्पर्श किया -तुरंत उनके वश में आ गए। और अब गिरीश बाबू उनको भगवान कहते हैं। 
प्रमोद : अच्छा भाई, क्या अन्य किसी व्यक्ति को भी जानते हो- जिसके साथ ऐसा हुआ हो ?
पाठक : हाँ, हाल ही में पंडित शशधर तर्कचूड़ामणि जी के भाषण को सुनकर पूरा शहर दीवाना हो जाता था। जो कोई उनके भाषण को सुनता वही वाह वाह बोल पड़ता था। उसके बाद परमहंस ठाकुर उनके घर जाकर उनसे मिले और स्पर्श करके कुछ बोल दिए। 
प्रमोद : फिर क्या हुआ ?
पाठक : उसके बाद और क्या -जैसे ही उनको स्पर्श किये , वैसे ही वे गूँगा बन गए। वही शशधर पंडित कितने दिनों तक परमहंस ठाकुर के पीछे पीछे चक्कर काटते फिरते थे। क्या देखे थे कोई जान नहीं सका। 
प्रमोद : और किसी के बारे में जानते हो ?
पाठक  : कई ऐसे लोग हैं, समय मिलने पर उनके विषय में बताऊंगा। 
प्रमोद : तुमने इतनी बातें कहाँ से सुनी ?
पाठक : अरे भाई, आजकल जहाँ कहीं भी जाता हूँ, हर जगह ठाकुर परमहंस देव की ही चर्चा होती है। 
प्रमोद : अभी ये ठाकुर कहाँ हैं ?
पाठक : सुना है कि आजकल वे काशीपुर के एक उद्यान भवन में रह रहे हैं। उनके गले में कष्ट हुआ है, इसलिए उनके भक्त लोग उन्हें वहां रखकर चिकत्सा करवा रहे हैं। बीमारी बहुत गंभीर है। सुना है की शहर के डॉक्टर कबिराज सब हार मान चुके हैं। डॉक्टर महेन्द्र लाल सरकार भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। 
प्रमोद : चलो, थोड़ा चलकर ठाकुर परमहंसदेव को देख आते हैं, बीमारी बहुत गंभीर है, सुनकर दिल घबड़ा रहा है। 
पाठक : मेरा भी हाल वैसा ही है,चलो चलते हैं। दोनों चलपड़ते हैं, अभी लगभग दोपहर बीतने वाला है, थोड़ा आगे बढ़ते ही दोनों को भूख लग गयी। 
प्रमोद : भाई , भूख से अब चला नहीं जा रहा है, डेढ़ कोश से भी अधिक रास्ता बाकी है। दोनों में से किसी के पास एक पैसा भी नहीं है। जब चल पड़े हैं, तो जैसे भी हो जायेंगे जरूर। तुम क्या उनलोगों के बारे में कुछ बतलाओगे जिनको ठाकुर ने स्पर्श करके गूँगा बना दिया है। बताओ न, ठाकुर स्वयं जितने सुंदर हैं, उनकी बातें भी सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं।
 पाठक : मैं एक दिन बाबू दत्त के भांग-मोदक वाले के अड्डे पर गया था। वहां बहुत से लोग ठाकुर परमहंस देव के विषय में चर्चा कर रहे थे। एक आदमी कह रहा था कि केसव सेन ने इतने शिष्य बनाये हैं, इंग्लैण्ड जाकर भाषण से बड़े बड़े साहब लोगों को भी मोहित कर लेते हैं, यहाँ भारतवर्ष में कई स्थानों में ब्रह्मसमाज के कितने केंद्र खोल चुके हैं। उनके भाषणों में ऐसी शक्ति है कि सुनते ही लोग उनके वशीभूत हो जाते हैं। याद है बिडन गार्डन में एक दिन उनका भाषण हुआ था, कितनी भीड़ उमड़ आयी थी। उसके बाद एक दिन ठाकुर परमहंसदेव के साथ केशव बाबू की मुलाकात हो जाती है। 
प्रमोद : मुलाकात होने पर क्या हुआ ?
पाठक : उस आदमी ने बताया कि कुछ दिनों तक ठाकुर के सतसंग को सुनने के बाद केशव बाबू का मोड़ घूम गया, वह केशव एक दूसरे केशव में रूपातंरित हो गए। अपने शिष्यों के साथ दक्षिणेश्वर आने जाने लगे। कभी कभी ठाकुर को अपने निवास स्थान पर भी बुलाने लगे। इस प्रकार क्रमशः केशव बाबू की भाषण कला कहाँ खो गयी,और पहले जिस मूर्ति पूजक ठाकुरदेव को मूर्ख समझते थे, अब उन्हीं के चरणों में बैठकर, उनके उपदेशों को बड़े ध्यान से सुनते रहते हैं। एकदिन परमहंसठाकुर ने केशबाबू से कहा -' केशव,तुम कैसे भाषण देते हो, थोड़ा मुझे भी सुनाओ न।' तब केशव बाबू ने कहा -'महाशय, लोहार के घर में सूई बेचने कौन जायेगा ?' 
प्रमोद : कितने आश्चर्य की बात है ! एक तरफ काली का पुजारी एक ऐसा ब्राह्मण है, जो लिखना पढ़ना भी नहीं जानता, उसके समाने केशव बाबू के जैसा प्रकाण्ड विद्वान् और विख्यात व्यक्ति है, तब भी इस मूर्तिपूजक और अनपढ़ ब्राह्मण से परास्त कैसे हो गए ? शहर में तो और भी कितने हजार ब्राह्मण पुजारी हैं, संस्कृत टोल के अध्यापक गण हैं, किन्तु इनके ऐसा तो कोई नहीं है।
पाठक : तुमने तो पहले खुद कहा था कि ठाकुर परमहंसदेव काली के पुजारी थे। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हो गयी थीं, और एक बार बुलाने से भी आ जाती थीं, और उनके साथ बातचीत करती थी। माँ काली के साथ जिसकी बातचीत होती हो, उसके साथ क्या किसी दूसरे व्यक्ति की तुलना कभी हो सकती है ? ठाकुरदेव तो ईश्वर को जानने वाले मनुष्य हैं । 
प्रमोद : अच्छा, ठाकुर माँ काली की पूजा करते करते माँ काली का दर्शन प्राप्त कर लिए, और कोलकाता शहर में जो इतनी काली जी मूर्तियां स्थापित हैं, हर जगह पर तो कोई न कोई ब्राह्मण ही पुजारी हैं, माँ को अच्छी तरह से सजाते हैं,अच्छा भोग चढ़ाते हैं, उनके साथ ऐसा क्यों नहीं होता ? अन्य किसी मंदिर का पुजारी भी ठाकुरदेव के जैसा सामर्थ्यवान  हो ऐसा भी सुनने में नहीं आता। कालीघाट तो एक पीठस्थान है, -माँ जाग्रत हैं, वहाँ से भी तो ऐसी कोई सूचना नहीं आयी है। 
पाठक : गीता ४/११ में भगवान ने कहा है - 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।' अर्थात जो व्यक्ति जिस वस्तु को प्राणपण से पाना चाहता है, उसको वही वस्तु प्राप्त होती है'- ठाकुर परमहंसदेव माँ काली की पूजा करने के लिए पुजारी बने थे, माँ काली का दर्शन पाने की आशा से उनका पुजारी बने थे। माँ के साथ बातचीत करने के लिए उनके पुजारी बने थे। इसीलिए माँ काली ने उनकी पूजा ग्रहण की थी, उनको अपना दर्शन दी थीं, उनके साथ बातचीत करती थीं, और पुकारते ही आकर उनके साथ बातचीत करती थीं। और बाकी पुजारी लोग तो केवल ऊपर ऊपर से भक्तिभाव दिखाते हैं। 
जो पुजारी लोग केवल भक्ति का ढोंग करते हों वैसे पुजारियों को पुजारी नहीं, -बल्कि पूजा के अरि कहना चाहिए । इसीलिये, माँ भी इन लोगों की पूजा को उसी भाव से ग्रहण करती हैं ; और जो पुजारी लोग माँ के चरणों की भक्ति, या माँ के साथ बातचीत करने के बदले, उनसे 'चावल-केला' -चाहते हैं, उनको वही चीज प्राप्त होती है। और जो लोग माँ काली की पूजा के सरकारी-नाजिर (बैलिफ) होते हैं, उनके साथ माँ स्वयं बातचीत करती हैं, और उनके लिए पुजारी का कर्मकांड समाप्त हो जाता है।  [ bailiff- या सरकारी कारिंदा-जो रिट लिखता है और अरेस्ट ऑर्डर देता है, - जिसको दक्षिणा के बदले में -in return- भावमुख रहने का चपरास प्राप्त हो जाता  है, मानवजाति के वैसे 'वुड बी लीडर्स ' -या भावी मार्गदर्शक नेताओं के साथ- माँ काली स्वयं बातचीत करती है, और तब उनके लिए वैधिक पूजा का कर्मकाण्ड समाप्त हो जाता है। ] 
प्रमोद : भाई, हम दोनों तो इतने दिनों से एक ही साथ रहे हैं, तुम इन सब गूढ़ बातों को कैसे समझ गए ? मुझे क्यों कुछ समझ में नहीं आया? 
पाठक : मुझे भी पहले कुछ समझ में नहीं आता था, किन्तु जिस दिन ठाकुर परमहंसदेव थियेटर में आये थे, उस दिन अपने दाहिने पैर को आगे बढ़ाकर समाधिस्थ हो गए थे, और गिरीश बाबू पुकार कर कहने लगे -'अरे जो कोई जहाँ हो,जल्दी आकर चरणधूलि ले लो !' मैं झटपट दौड़ कर आया और उनकी चरणधूलि ली, (उस समय मेरी आँखों में एक बूँद अश्रु भी छलक आये थे) और बोला था -'ठाकुर, कृपा करो।' उसके बाद से ही मुझे तात्विक बातें कुछ कुछ समझ में आने लगी हैं, और भीतर से अलग किस्म का महसूस होता है। ठाकुर की कृपा को समझ पा रहा हूँ। और एक आनन्द की बात यह है कि मैं जो ठाकुर की बातें अब सुनता या कहता हूँ,उन्हें पहले मैं जानता तक नहीं था। पर अब वह सब गूढ़ और आश्चर्यजनक रहस्य भी मुझे समझ में आने लगा है।
प्रमोद : यह जो तुमने कहा कि मुझे भीतर से अलग किस्म का महसूस होता है, क्या महसूस होता है ? खोल कर बताओ।
पाठक : मैंने जो कहा था, उससे अधिक कुछ नहीं कह सकता। ऐसा समझ सकते हो कि पहले जैसे मैं गहरी निद्रा में था, और नींद टूट गयी है !
प्रमोद : तुम्हारी बातें मुझे रहस्यमयी लग रही हैं, कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ, -बताओ न भाई,मैं भी तुम्हारे जैसा ही इन बातों को कैसे समझ पाउँगा ? 
पाठक : चलो न, हमलोग तो ठाकुर के पास ही जा रहे हैं, मैं भी कुछ मांगूंगा तो तुम भी कुछ माँग लेना। 
प्रमोद : मैं भगवान से क्या माँगूँगा, कुछ समझ में नहीं आता, तुम्हीं बतादो न। 
पाठक : जिनके पास जा रहे हो, वे ही बतला देंगे , मंगवा देंगे।  ऐसी है रामकृष्ण की महिमा -उनके उपदेशों की ऐसी महिमा है ! प्रबोध और पाठक ठाकुर के विषय में जितना अधिक गहराई से चर्चा कर रहे हैं, उतना ही उन दोनों में 'चैतन्य का प्रकटन' हो रहा है। 
अवतार वरिष्ठ 'रामकृष्ण-नाम' ही,अपनेआप में एक महामंत्र है ! रामकृष्ण-लीला का कीर्तन करते करते ही जीवों का चैतन्य प्रकट हो जाता है। लकड़ी से लकड़ी पर घर्षण करने से जैसे सर्वग्रासी अग्नि उत्पन्न होती है; ठीक उसी प्रकार रामकृष्ण-लीला आंदोलन में जुड़ जाने से 'तमोनाशी- चैतन्य' का उदय, अर्थात सम्मोहित अवस्था से डीहिप्नोटाइज्ड-अवस्था में ले जाने में सक्षम 'चैतन्य' का उदय हो जाता है। [उसी प्रकार, गृहस्थ लोकशिक्षकों के निर्माण के उद्देश्य स्थापित 'महामण्डल' भी 'ईश्वर का एक संगठन अवतार' है, तथा 'रामकृष्ण -विवेकानन्द भक्तिवेदान्त-प्रशिक्षण परम्परा' में चरित्रनिर्माण आन्दोलन (युवा प्रशिक्षण शिविर, पाठचक्र आदि) के द्वारा 'भावी गृहस्थ-लोकशिक्षकों का निर्माण' करना ही, उसका तमोनाशी -चैतन्य या अंतर्निहित दिव्यता को जाग्रत-और अभिव्यक्त करा देने में समर्थ साधन-भजन है।] 
प्रमोद : तुमने जो यह कहा था कि ठाकुर परमहंस देव का सानिध्य पाकर 'केशव बाबू का मोड़ घूम गया' था 'उसको मैं ठीक से समझा नहीं, थोड़ा खोलकर कहो न।
पाठक : जिस व्यक्ति ने यह बात मुझसे कही थी, तब मैं भी तुम्हारे जैसा नहीं समझ सका था, और उनसे पूछा था। उन्होंने जो बताया मैं भी ठीक से समझ नहीं सका। उन्होंने कहा था, कि केशव बाबू पहले ब्रह्म -ब्रह्म या 'निराकार निराकार' करते रहते थे, अब माँ माँ करते हैं। अर्थात -केशव बाबू अपनी रूचि के अनुसार एक मार्ग से जा रहे थे, ठाकुर परमहंसदेव ने देखा कि लक्ष्य तक पहुँचने के लिए,  जिस मार्ग से वे जा रहे थे वो मार्ग उनके अनुकूल नहीं था, इसलिए उन्होंने उसी समय उन्होंने केशव बाबू के मोड़ को घुमा दिया और उनको ठीक मार्ग पर चला दिया। 
प्रमोद : थोड़ा और विस्तार से समझाओ। 
पाठक : सुनो एक उदाहरण से समझाता हूँ। मानलो कि एक नौका है, जिस पर कोई माँझी नहीं है, और जोर का तूफान आ गया है। नौका सही दिशा -गलत दिशा कुछ नहीं मान रही है, तूफान जिस दिशा में लिए जा रहा है,(पाश्चत्य सभ्यता की आँधी जिस दिशा में ले जा रही थी) नौका उसी दिशा में बहती चली जा रही है। तूफान से टकरा कर या पहाड़ से टकरा कर उसका टूट जाना निश्चित है। उस समय यदि कोई सिद्धस्थ माँझी लपक कर नौका पर चढ़ जाये, तो वह माँझी क्या करेगा ? मांझी तुरंत पतवार को पकड़ कर सही दिशा में मोड़ देगा। केशव बाबू बड़े ठाकुर-अनुरागी व्यक्ति थे, और रस्ते से भटक कर चक्कर खा रहे थे,अतः ठाकुर ने उनको सही मार्ग दिखला दिया। और उन्हने उनकी रूचि को उनके लिए जो हितकर दिशा थी, उसी  दिशा में मोड़ घुमा दिया था।
ठाकुर रामकृष्णदेव गले के कष्ट से लगभग दस महीने तक अन्न नहीं खा सके थे, सेवक लोग तरल के रूप में जब कुछ मुख में डालने का प्रयत्न करते तो उसका अधिकांश भाग मुख से गिर जाता था, थोड़ा सा ही पेट में पहुँच पाता था। इसलिए उनके सेवक उनके भोजन को कुछ गाढ़ा बना दिया करते थे। आज तकलीफ अधिक थी, इसलिए नाममात्र मुख में डाले हैं, और बाकी कटोरे में पड़ा था। ठाकुर दोतल्ले पर स्थित जिस कमरे में थे, उसके सभी दरवाजे और खिड़कियाँ बंद थीं। फिर भी भक्तवत्सल ठाकुर यह जान गए कि प्रबोध और पाठक उनका दर्शन करने के लिए आये हैं, और उन्हें बहुत भूख लगी हुई है। ठाकुर ने एक सेवक से कहा, 'देखो तो नीचे अभी अभी जो दो लड़के आये हैं, उनको जल्दी यहाँ बुलाकर ले आओ। ' सेवक उन दोनों भाग्यवान लोगों को साथ लेकर, उनके कमरे में जैसे ही प्रविष्ट हुए, उन्होंने कहा 'आओ आओ मैं तुम दोनों के लिए भोजन लेकर बैठा हूँ , तुमलोगों को बहुत भूख लगी है न, खाओ -खाओ !' दोनों ने ठाकुर ठाकुर को प्रणाम करके उनकी चरणधूलि ली और आनन्द से भरकर महाप्रसाद से अपना पेट भर कर खाने लगे। 
भक्तिमान और हृदयवान पाठकों -इस दृश्य को थोड़ा अपने हृदय -पट पर चित्रित करके देखिए। नित्य की अपेक्षा लीला कितनी मधुर है ! 
जो वाणी और मन से अगोचर हैं, परुषोत्तम हैं, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी हैं,पूर्ण ब्रह्मसनातन हैं,अनादि, अनन्त, अखण्ड -सच्चिदानन्द हैं, वे ही आज इस मृत्यु लोक के रंगमंच पर काशीपुर उद्यान भवन में, रामकृष्णलीला के अंतिम दृश्य में कितना शानदार अभिनय कर रहे हैं ! वेशभूषा में दीनता, हीनता ,रहने के बावजूद जीवों के कल्याण के लिए अपार करुणा है। शरीर दुर्बल होकर कंकाल जैसा हो गया है। वाणी मन के अगोचर होकर भी जीव को शिक्षा देने के लिए ठीक उनके जैसा होकर-वास्तव में वे क्या हैं,यह बात समझा दे रहे हैं। प्रबोध और पाठक को माध्यम बनाकर आज जो खेल उन्होंने दिखाया, उसे सुनकर कौन पत्थर दिल आज पसीज नहीं जायेगा। जगदीश्वर को सर्वशक्तिमान जानकर भी, मनुष्य जिस बुद्धि (या कूबुद्धि) से अवतारवाद का विरोध करता है, उस बुद्धि को मैं 'शुद्ध-बुद्धि' नहीं मान सकता, ऐसी बुद्धि को दूर से ही नमस्कार कर लेना बेहतर है ! 
रामकृष्णदेव का आनन्दमय विग्रह है। चाहे कोई कितना भी बद्धजीव क्यों न हो, जितनी देर तक वह उनके साथ रहता है, उतनी देर तक आनन्द के सागर में तैरता रहता है, या कभी डुबकी भी लगा लेता है। रामकृष्ण ठाकुर की कष्ट-निवारण महिमा को हम लोगों ने बार बार देखा है। 
पाठक और प्रबोध ने पेटभरकर प्रसाद ग्रहण किया। बाद में विदाई के समय ठाकुर के सामने हाथों को जोड़ कर नेत्रों में अश्रु लिए बोले, ' ठाकुर ऐसी कृपा कीजिये ताकि आपकी चरणों में प्रेम बुद्धि बनी रहे। ' ठाकुर चुप करके बैठे रहे ,फिर थोड़ा हँसे। उनकी हंसी भुवन-मोहिनी थी ,जो उसे देख लिया है वह उस हंसी को किसी जन्म में भी भूल नहीं सकता। वही हँसता चेहरा दिखलाया। ये लोग भर रास्ता ठाकुर की बात करते हुए घर पहुंचे। उसके बाद कुछ दिनों के भीतर सुने कि ठाकुर अब लीलाधाम पर नहीं हैं ! खबर सुनने के कुछ दिनों तक हाय हाय किये फिर स्थिर हो गए। 
[पेज /१०/लास्ट पारा] रामकृष्णदेव की कृपा से 'मोड़ घूम जाने' के रहस्य को समझ लेने के बाद- इन दोनों थियेटर के अभिनेताओं की पुरानी आदतें भी सुधरने लगीं।  गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए 'निवृत्ति अस्तु महाफला' करने के प्रति समझ बढ़ गयी, स्त्री-पुत्र के प्रति कर्तव्य बोध का जागरण हुआ। नशा-भांग का सेवन कम होता गया।  रामकृष्णदेव के उपदेशों को सुनने का अवसर मिलने पर ध्यान से सुनते हैं, ठाकुर के भक्तों को देखने पर श्रद्धा-भक्ति करते हैं। ठाकुर के महोत्स्व में सहयोग देते हैं। भक्तों के संग मिलकर 
रामकृष्ण-लीला का गायन करते हैं। अपने थियेटर के मेकअप रूम में ठाकुर का चित्र रखते हैं,और नाटक
के दिन सुन्दर सुन्दर फूलों की माला से चित्र को सजाते हैं।  हर बार ग्रीन रूम से मंच पर अभिनय करने जाने के पहले ठाकुर को प्रणाम करते हैं। अभिनेत्रियों को भी ठाकुर की भक्ति करने के लिए कहते हैं, बीचबीच में एक साथ बैठकर ठाकुर के गुणों की कथा सुनते हैं। इस प्रकार इनके हृदय में क्रमशः ठाकुर प्रति प्रेम का जन्म हो जाता है। 
इसी प्रकार बारह-तरह वर्ष बीत जाते हैं। अब उनकी समझ में आता है कि जिस ठाकुर को उन्होंने देखा था, जिसकी इतनी भक्ति करते हैं, वे कोई साधारण ठाकुर तो एकदम नहीं हैं ! ये कोई साधारण गुरु नहीं हैं, इनकी महिमा तो देश-देशान्तर में फैलती जा रही है। इंग्लैण्ड और अमेरिका जैसे बड़े बड़े देशों में 'रामकृष्ण -नाम की पताका' उड़ रही है। बड़े बड़े झुण्ड बनाकर साहेब लोग ठाकुर के लीला-स्थली को देखने के लिए आ रहे हैं। इंग्लैण्ड के सबसे बड़े विद्वान् (मैक्समूलर, रोम्यांरोला आदि) उनकी जीवनी लिख रहे हैं, उनकी शिक्षाओं को आंदोलन के रूप फैला रहे हैं। ठाकुर के शिष्य लोग विश्वविजयी बन रहे हैं, साधारण मनुष्य जिस कार्य को करने की कल्पना नहीं कर सकता, वैसे वैसे कार्य हो रहे हैं। यह सब देखने-सुनने उनके मन में भी श्रीरामकृष्ण लीला को सुनने की इच्छा प्रबल हो गयी।  
एक दिन ईश्वर के अनुग्रह से उनकी मुलाकात (visitation) श्रीश्रीरामकृष्णदेव के किसी शरणागत भक्त (सरकारी नाजिर) के साथ हो गयी। 
 [वास्तव में 'गुरु-शिष्य भक्ति-वेदान्त परम्परा' में मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने की,'BE AND MAKE  निवृत्ति अस्तु महाफला-  चरित्र-निर्माण पद्धति ' को पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से भगवान् एक आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में हर युग में अवतार लेते हैं । इस चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य निर्माणकारी शिक्षा पद्धति का सम्पूर्ण विश्व में प्रचार-प्रसार केवल भगवान के जगतगुरु रूपी आध्यात्मिक शिक्षक, नेता या अवतार ही कर सकते हैं।यह कार्य बिना अवतार के नहीं हो सकता । २५ जनवरी १९८७ को 'उसकी' मुलाकात 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर भक्तिवेदान्त लोकशिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित, मानवजाति के एक मार्गदर्शक नेता, लोकशिक्षक,माँ सारदा के भक्त/ सरकारी नाजिर या चपरास प्राप्त हीरो/वीर/भक्त कैप्टन सेवियर के अवतार नवनीदा से हो गयी। जिनके भगीरथ प्रयास से महामण्डल संगठन को १९६७ में कोलकाता में अवतरित होना पड़ा। और विगत ५१ वर्षों से महामण्डल का वज्रांकित ध्वज युवा प्रशिक्षण शिविर में फहराया जा रहा है। ]
मुलाकात होने पर उनसे कहा -'महाशय, क्या आप हमलोगों को ठाकुर की कुछ बात सुनायेंगे, हमलोगों के मन ठाकुर की बातों को सुनने की प्रबल इच्छा हो रही है। जब ठकुर के उस भक्त ने देखा कि थियेटर में काम करने वाले (पुराने नशेड़ी) व्यक्तियों के भीतर रामकृष्ण-विवेकानन्द भक्ति परम्परा की धारा को बहते देखा तो नेत्रों में आँसू आ गए (दादा सिनेमा हॉल के गेटकीपर की उत्सुकता पर चर्चा करते थे) और बोले - "देखो भाई, मैं तो एक मूर्ख आदमी हूँ, अवतार वरिष्ठ  राकृष्णदेव की महालीला पर मैं कैसे बोल पाउँगा? 
किन्तु उन्होंने कृपा करके जो कुछ मुझे दिखाया, सुनाया या अनुभव करवा दिया है, वही बात मैं कहूंगा,तुम लोग अपना प्रश्न पूछो!  
पाठक :आप लोग रामकृष्णदेव को जो भगवान कहते हैं , क्या सचमुच में वे भगवान हैं ?
भक्त : पहले तुमलोग मेरी एक बात का उत्तर दो, फिर मैं बताऊंगा। तुम भगवान किसे कहते हो? तुम्हारे मतानुसार भगवान क्या हैं ?
पाठक : मेरे मत से भगवान सबसे महान और सर्वशक्तिमान हैं ! वे इच्छामात्र से सब कुछ कर सकते है। वे ही इस विश्व-ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। राम भगवान हैं, कृष्ण भगवान हैं; मैं इतना  समझता हूँ। 
 भक्त :   रामकृष्णदेव भी वही हैं।
पाठक :  कहां, हमलोग तो वैसा कुछ भी नहीं समझ पा रहे हैं । क्या आप समझा सकते हैं? रामकृष्ण भगवान हैं, इस बात का प्रमाण क्या है?
भक्त : प्रमाण है रामकृष्णलीला - का दर्शन और उनकी कृपा! भगवान (सत्य नारायण) जब अवतार बनकर आते हैं, तब उनका एक ही लक्षण होता है। जानते हो वह क्या है ? जिस देह में भगवान होने का थोड़ा भी लक्षण न दिखाई पड़ता हो, वही देहधारी भगवान के अवतार होते हैं। अवतार (चरवाहे गोपाल) में ऊपर से तो कोई लक्षण दिखाई ही नहीं पड़ता। अवतार तो उपलब्धि और साक्षात्कार के विषय हैं। जब उनसे साक्षात्कार होता है, या उनका दर्शन प्राप्त होता है, तभी उनको जाना जा सकता है। 
वे लक्षणातीत हैं -यही उनका लक्षण है। ईश्वर के संबंध में मेरी यही धारणा है। परमहंसदेव अवतार के तीन लक्षण बतलाते थे। पहला लक्षण यह है कि: जिस शरीर के माध्यम से प्रेम-भक्ति की बाढ़ आती हो, जो दिनरात ईश्वर प्रेम में विह्वल रहता हो, वही देहधारी ईश्वर का अवतार होता है! जब तक स्वयं ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो जाता, तब तक इस लक्षण को कोई पहचान भी नहीं सकता। 
दूसरी उपमा देते थे कि अवतार 'अचिने गाछ मतो' -अर्थात अवतार उस पेड़ के समान है जिस पेड़ को कोई पहचान ही न सके! एक प्रकार का पेड़ होता है, जिसको कोई पहचान ही नहीं पाता, उसी का नाम है -'अनजाना पेड़!' 
फिर उन्होंने पहरेदारी करते समय चौकीदार के हाथ में पकड़ा हुआ लालटेन की उपमा देकर कहते थे, उनको देखा भी जा सकता है, और पहचाना भी जा सकता है। चौकीदार रात्रि में गली-मुहल्ले में घूमघूम कर पहरा देने के लिए अपने हाथ में एक लालटेन रखता है, उसको अँधेरे की बत्ती कहते हैं। इस लालटेन का एक गुण यह है कि जिसके हाथ में यह होता है, वह इस लालटेन के द्वारा सभी को देख सकता है, किन्तु उसको कोई नहीं देख पाता। तथापि यदि पहरेवाला चौकीदार उस लालटेन को यदि अपनी तरफ घुमा दें- केवल तभी उनको देख लेने के बाद पहचाना भी जा सकता है।  पेज-१३/ ठीक उसी प्रकार, वही चैतन्यमय नरदेहधारी (नवनीदा ?) भगवान श्रीरामकृष्णदेव जिस शक्ति से स्वयं को छुपाकर इस सम्पूर्ण जीवजगत को देख रहे हैं, यदि वही चैतन्य टोर्च का मुख अपने चेहरे की तरफ अपने चेहरे को दिखाने की कृपा करें, तभी कोई मनुष्य उनका दर्शन कर सकता है, और पहचान सकता है। 
यहाँ एक और बात तुम लोगों से कहता हूँ सुनो - दूसरे अवतारों के जैसा रामकृष्णदेव को पहचान पाना बहुत कठिन है ! इस अवतार में रजोगुण का ऐश्वर्य थोड़ा भी नहीं है, यहाँ तो 'আগাগোড়াआदि से अन्त तक (from beginning to end)  केवल शुद्ध-सतोगुण का ऐश्वर्य ही देखने को मिलता है। भक्तिभाव की दीनता को धारण करके सतोगुण के ऐश्वर्य को पहचान पाना, और उसके शरणापन्न हो जाना अत्यन्त कठिन है। 
इस बार की नरलीला में अघासुर-बकासुर जैसे राक्षसों के विध्वंश का दृश्य नहीं है, और न ताड़का-पूतना जैसी किसी राक्षसी के वध की कथा सुनने को मिलती है। यह सब दृश्य आँखों से देखकर और कान से सुनकर लोग अवतार को थोड़ा बहुत समझ भी सकते हैं, किन्तु यहाँ केवल सत्व का ही ऐश्वर्य है, उनको इस चर्मचक्षु से या बाहरी कानों से देखा -सुना नहीं जा सकता।  इसके लिए तो स्वतंत्र (भक्ति से उपजे) आँख और कान चाहिये। इस बार तो भगवान के खजाने में जितने भी हीरे -जवाहरात थे रत्न और मणि थे, जो पहले महासागर के जल में ही छुपे रह गए थे -उसकी ही डकैती हो गयी ! रामकृष्णदेव अपने शरीर के माध्यम से अनगिनत दुःसाध्य साधन-मंथन के द्वारा उस खजाने के समस्त हीरे -जवाहरात को बाहर निकाल कर चना -चबेना जैसा जगत में बिखेर दिए हैं।
रामकृष्णदेव ने अभी की लीला में जो कुछ मुझे दिखाया और समझाया है, उसकी सहायता से मैं स्पष्ट रूप से देख सकता हूँ कि वे स्वयं ही वह भगवान हैं, भगवान के अवतार हैं। जगत के ईश्वर हैं, पूरी दुनिया के मालिक हैं, सर्वशक्तिमान वही राम, वही कृष्ण, वही काली, वही अखण्ड-सच्चिदानन्द -मन, बुद्धि के अगोचर या परे 'अद्वैत' होकर भी मन-बुद्धि से गोचर हैं ! तुम्हारे और मेरे लिए उनको जानने का सबसे सरल उपाय है-उनकी लीला का दर्शन और उनके अमृतमय उपदेशों का श्रवण ! 
पाठक : श्रीरामकृष्णदेव की लीला का दर्शन या श्रवण किस प्रकार किया जाता है ?
भक्त/वीर/हीरो : जैसे किसी सुन्दरी के रूप का वर्णन सुनते सुनते उसके विषय में एक भाव की उत्पत्ति होती है, उसके बाद उस भाव के आधार पर मन में उस सुंदरी की एक छवि बस जाती है। उसी प्रकार रामकृष्ण लीला प्रसंग-वचनामृत आदि सुनते-पढ़ते ; हृदय में उनके लीला की एक संवेदना (भावमुख रहो ! Feeling-अहसास) उत्पन्न हो जाती है, उसी अनुभूति के बाद लीला के कुछ छवियां ऐसी  बन जातीं हैं, जिसकी गहरी छाप चित्त पर पड़ जाती है, और जो निकाले नहीं निकलती ! यह छवि देख पाने से ही यह समझ जाओगे कि जो मनुष्य ऐसी लीला कर सकता है, वास्तव में वह कौन है !! 
पाठक : रामावतार कृष्णावतार में सैंकड़ों ऐसी आश्चर्य जनक घटनाएं देखने को मिलती हैं -जिसको देखने सुनने से समझा जा सकता है के वे अवतार थे -जैसे पत्थर की मूर्ति देवी अहिल्या बन गयी, गोबर्धन-पर्वत को ऊँगलीपर उठा लिया, कृष्ण-काली बन गए, पूतना राक्षसी को एक शिशु ने मार दिया, कंस का वध हुआ, युद्ध क्षेत्र में गीता का उपदेश दिया -इस रामकृष्ण-अवतार वैसा कुछ हुआ है ? 
माँ का भक्त : इन सब घटाओं से भी अधिक आश्चर्य जनक अनेकों घटनाएं, रामकृष्णावतार में भी  हुई हैं। आज तक जितने भी अवतार हुए हैं, उन सबों ने मिलकर जितना कुछ किया है, रामकृष्णदेव वह सब करके उससे अधिक कुछ नया खेल भी दिखलाये हैं ! तुमने जिन अवतारों का उल्लेख किया, उनकी लीलाओं-पूतनावध,कालियामर्दन आदि कथा को सुना है, इसीलिए वे भगवान हैं -इस बात पर विश्वास करते हो। उसी प्रकार जब तुमलोग रामकृष्णदेव की लीला को भी सुनोगे, तब रामकृष्ण्देव कौन हैं -यह समझ सकोगे। जब तुम लोग राम और कृष्ण के अवतार होने पर विश्वास रखते हो, तब रामकृष्णदेव की लीला को भी आसानी से समझ जाओगे।
जो व्यक्ति किसी एक अवतार को समझ लेता है, वह प्रत्येक अवतार को समझ सकता है। जिसको किसी एक अवतार में विश्वास नहीं है, उसको किसी भी अवतार में विश्वास नहीं है। जिस प्रकार समुद्र के रत्न जल की सतह पर तैरते नहीं रहते, जल के भीतर रहते हैं, गोता लगाकर जैसे उन रत्नों को प्राप्त किया जाता है। उसी प्रकार रामकृष्णलीला-सागर में गोता लगाओ, बहुत सारे-ढेरों निधि या खजाना मिलेगा, और तब उनको 'रत्नाकर' के रूप में पहचान सकोगे। 
पाठक : आपने जो यह कहा कि समस्त अवतारों ने जितना किया है, रामकृष्णदेव ने वह सब करके उन सबसे कुछ अधिक किया है। तो क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि रामकृष्णदेव अन्य अवतारों से बड़े हैं-अवतार-वरिष्ठ हैं ? 
भक्त : जिस देश और धर्म में अभी तक जितने भी अवतारों (पैगंबरों/या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं)
ने जन्म लिया है, समस्त अवतारों में उसी एक नारायण का अवतरण हुआ है। उनके नाम-रूप और लीला मात्र में भिन्नता है। जिस युग में और जिस स्थान में जिस प्रकार की लीला दिखाना आवश्यक होता है, उस समय एक अवतार आकर वही कार्य करते हैं। सत्य नारायण के प्रत्येक अवतारों में समस्त कार्यों को करने की शक्ति रहती है, किन्तु समस्त अवतारों के लिए एक ही जैसे कार्यों को कार्य करने की आवश्यकता नहीं होती है। तुम इस बात को अपने रंगमंच के दृष्टान्त से समझ सकते हो। 
तुम्हें 'पता' है कि किसी नाट्यरचना (drama) में कई तरह के अभिनय होते हैं, किन्तु यदि तुम केवल एक कमेडियन (विदूषक) की भूमिका को ही निभाते हो। पर यदि निर्देशक (director) यदि तुमसे राजा की, या शिवजी की या अर्जुन के जैसा वेश बनाकर एक्टिंग करने को कहे -तो क्या नहीं कर सकोगे ? कर सकते हो, किन्तु इस कमेडियन का अभिनय करने में, उस सब पात्रों का अभिनय करना तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं है; उसी प्रकार सर्वशक्तिमान नारायण जिस अवतार में जो कार्य करना आवश्यक होता है, वही सब कार्य करते हैं। किन्तु इस रामकृष्ण-अवतार में, उन्हें विगत समस्त आदर्श अवतारों के खेल को दिखाना आवश्यक था, इसलिए सब खेल दिखलाये हैं। किन्तु नारायण के अवतारों कोई छोटा या बड़ा नहीं होता।
पाठक : आपकी बातों को सुनने से बड़ा अच्छा महसूस हो रहा है,मानो भगवान रामकृष्णदेव को ही देख रहा हूँ। हमलोगों ने उनको १२-१३ वर्ष पहले देखा था, उनको छूआ भी था -पर उससे हुआ क्या ?
भक्त : उनका दर्शन करने से (या महामण्डल में ३० साल तक रहने से) भी मेरा कुछ नहीं हुआ, ऐसी बात मन में भी नहीं लानी चाहिये। तुमलोगों बहुत कल्याण हुआ है, पर तुम अभी समझ नहीं पा रहे हो। दुर्लभ वस्तु (फ्री में प्राप्त २ किडनी -पानी -धूप) यदि किसी को आसानी से प्राप्त हो जाये, तो वह उसके वास्तविक मूल्य को समझ नहीं पाता। मनुष्य प्रारम्भ में ठाकुर-माँ-स्वामी की की कृपा के उस मूल्य को समझ भी नहीं सकता, (जिसके चलते वह महामण्डल से जुड़ सका) । 
तुमलोगों को क्या मिला है सुनोगे ? तुमलोग भवबन्धन से मुक्त हो गए हो, तभी तो उनकी कृपा को प्राप्त किये हो, और रामकृष्णदेव की महान लीला को सुनने के लिए लालायित हुए हो! और सर्वोपरि बात तो यह है कि अब तुमलोग उनके स्वरुप को जानने के लिए उतकण्ठित (Eager) हो गए हो ! किसी मनुष्य का इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है ? ईश्वरीय कथाओं का श्रवण, ईश्वर का दर्शन -मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य भी तो यही है।
साधारणतौर से मनुष्य कामिनी-कांचन (लस्ट ऐंड लूकर) का गुलाम होता है, हमेशा कामिनी -कांचन को प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है। तुमलोग भी जन्मजन्मांतर से वैसे ही मनुष्य थे, और जिस कार्य (कर्म -सत्य को जानने की उतकण्ठा) के फलस्वरूप (काम-कांचन में आसक्ति को छोड़ कर) श्रीभगवान के चरण-कमलों में आसक्त हुए हो, उस कार्य का नाम ही है -रामकृष्णदर्शन !(विवेकदर्शन के  निरंतर अभ्यास का फल है साक्षात् ब्रह्म रामकृष्णदेव-ज्ञान प्राप्ति, ब्रह्मविद बन जाना !)
पाठक : हमलोगों ने रामकृष्णदेव का दर्शन तो १२-१३ वर्ष पहले ही कर लिया था, किन्तु मुझे अब वचनामृत सुनने और उनकी श्रीमूर्ति को फूलों से सजाने की इच्छा हो रही है -ऐसा क्यों ?
भक्त : 'ফল সময়সাপেক্ষ' इसके उत्तर में रामकृष्णदेव कहते थे,किसी मकान के दुछत्ती पर बीज रखा हुआ था, समय के प्रवाह में  कई वर्षों के बाद वह मकान ध्वस्त हो गया, तब हवा -पानी लगने से उस बीज में से अंकुर फूट पड़ा। तुम लोगों के साथ भी यही बात है, अभी समय हुआ है; फल ठीक समय पर ही प्राप्त होता है -फल समयसापेक्ष है! 
पाठक : आपकी बातों को सुनने से, हमलोगों में उम्मीद की किरणें फूट रही हैं, हृदय और मन शीतल हो रहा है। 
भक्त : गुरु-शिष्य भक्तिवेदान्त नेतृत्व परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त भावी लोकशिक्षक या नेता) : मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वह मेरी बात नहीं है-सब उन्हीं जगतगुरु रामकृष्णदेव की बातें हैं। अभी केवल मेरे मुख से निकल रही हैं। जैसे छत पर बाघ के मुख वाला पाइप बाहर निकला रहता है, वर्षा होने पर लोग कहते हैं कि बाघ के मुख से जल निकल रहा है। किन्तु वह तो बाघ के मुख का जल नहीं होता, वह आकाश का जल होता है। मेरी अपनी कोई बात, शक्ति, बुद्धि इत्यादि कुछ भी नहीं है, जो भी शक्ति है, सब उन्हीं की है। 
रामकृष्णदेव किसी अभय-प्रदान करने वाली-मृत्यु के भय से भी मुक्त कर देने वाली सत्ता (काली) का नाम है, उसी नाम की महिमा से तुम्हारे भीतर उम्मीद जग रही है। रामकृष्णदेव आनन्दमय हैं, उनकी लीला-कथा में आनन्द का झरना फूट पड़ता है, इसलिए तुमलोगों को आनन्द मिल रहा है। तुमलोग भाग्यवान हो कि तुमलोगों ने उनका (नवनीदा का) प्रत्यक्ष दर्शन किया है। उनको छूआ है, उनके महाप्रसाद को धारण किया है, तुमलोगों को तो लीलाप्रसंग सुनने से आनन्द होगा ही। 
उनकी लीला-कथा के श्रवण-कीर्तन का एक ऐसा प्रभाव है कि कोई अतिबद्ध जीव भी उसको सुन ले, या कीर्तन करे, तो वह भी आनन्द के सागर में तैरने लगेगा। संक्षेप इतना कहूंगा कि जगत में ऐसा एक भी जीव नहीं है, जो सरल मन से रामकृष्ण-नाम जपे और उसको परमानन्द की प्राप्ति न हो। अभी तक जगत में एक भी ऐसे पाप की रचना नहीं हुई है, जो केवल एक बार सरल मन से रामकृष्ण का नाम लेने से उसी क्षण जल कर राख न बन सके। और जगत में अभीतक ऐसे त्रिताप की रचना भी नहीं हुई है जो एकबार प्रभु रामकृष्ण का नाम करने शीतल न हो जाती हो ! 
पेज/१७/ पाठक : जिन लोगों ने रामकृष्णदेव का दर्शन तो किया है, किन्तु वे ही भगवान हैं -इस प्रकार से पहचान नहीं सके हैं, तब ऐसी अवस्था में उन सब दर्शकों को ईश्वर-दर्शन हुआ या नहीं ?
भक्त -नेता : उनलोगों को भी भगवान का दर्शन हुआ है। कल्पना करो कि तुम ठंढ के समय रात के समय कश्मीर पहुँचते हो। तुम परदेशी हो और एक निवासस्थान खोज रहे हो, इसी दौरान शहर के बीच एक कोतवाल  मिलता है, जो तम्हें एक निवासस्थान का पता बतला देता है। वह कोतवाल कौन था -जानते हो ? वह तो कश्मीर के राजा थे ! पर कोतवाल के वेश में अपने विश्वासी एक -दो लोगों को अपने जैसा ही वेश बनाकर नगर-भ्रमण कर रहे हैं। अब यदि तुम से कोई पूछे कि जिसने आपको रहने का स्थान बतला दिया था वे कौन थे ? तुम उनको पहचान नहीं सके , किन्तु क्या कह सकते हो कि वे राजा नहीं थे ? वे थे तो राजा ही किन्तु कोतवाल के वेश में थे। 
उसी प्रकार रामकृष्णदेव हैं तो सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड के राजा, किन्तु अभी केवल रामकृष्ण वेश में हैं।(और
विवेकानन्द के गुरु 'रामकृष्ण' का वेश धारण करके लीला कर रहे हैं ?)! वे भी अपने साथ रहने वाले लीला-पार्षदों को अपने ही जैसा 'मनुष्य' का वेश पहना कर इस 'धरती' नामक शहर में आये हैं। अब विचार करके देखो -कि रामकृष्णदेव के दर्शन से उन्हें भगवान-दर्शन हुआ था या नहीं ? 
पाठक : वाह, अत्यंत सुंदर रूपक, बहुत आनन्ददायक उपमा। अच्छा, यदि पहचाने बिना ही किसी को ईश्वर का दर्शन प्राप्त हो जाये, तो क्या उसे -ईश्वरदर्शन (कार्य का) का फल प्राप्त होता है ? 
भक्त: तन्दुर की भट्ठी के निकट कोई व्यक्ति सो रहा हो, और गहरी निद्रा में उसका हाथ तन्दुर की भट्ठी से छू जाये, तो उसका हाथ जलेगा या नहीं ? जैसे अनजाने में भी आग में हाथ डालने से जल जाता है, उसी प्रकार अनजाने में भी ईश्वर का दर्शन करने से -ईश्वरदर्शन कार्य क्यों नहीं होगा ?

पाठक : आपकी बातों को सुनकर मेरे प्राण छटपटा रहे हैं, मेरी इच्छा हो रही है, कि मैं इसी समय श्रीरामकृष्ण को पहचान जाऊँ ! कृपया बताइये कि उनको पहचानने का उपाय क्या है ?
भक्त : मैं तुम्हारे आग्रह और (सत्य को जानने की) उत्कण्ठा को देखकर यह अच्छीतरह से समझ चुका हूँ कि तुम्हारे ऊपर रामकृष्णदेव की अपार कृपा है। इसीलिए मैंने कहा था कि नारायण के अवतार का कोई विशेष लक्षण नहीं होता, (उनके सिर पर दो सिंघ नहीं निकल आते हैं) वे जिसको पहचनवा देते हैं, वही उसको पहचान पाता है। नहीं तो भला कौन ससीम/उन्हें असीम को/ पहचान सकता है ? श्रीरामकृष्णदेव के श्रीमुख से सुना है कि राम जब वन को गए थे , तब उनको केवल सात ऋषि ही पहचान सके थे कि, वे वही सनातन-पूर्णब्रह्म 'नारायण' हैं, और अन्य दूसरे लोग यही समझते थे कि वे तो -राजा दशरथ के पुत्र हैं! 
प्राचीन संस्कृत नाटक 'श्रीकृष्ण-रहस्य' में वर्णन मिलता है कि कौरवों की सभा में इस बात पर बहुत चर्चा हुई थी कि श्रीकृष्ण भगवान हैं या नहीं ? और इसी प्रश्न पर काफी वाद-विवाद हुआ था। 
पाठक : जब परमहंसदेव ऐसी वस्तु हैं , तब उनके बारे में लोग इतनी विपरीत बातें क्यों करते हैं ? कोई उनको महापुरुष कहता है, कोई स्वामी-रामकृष्ण कहता है,कोई उनको सिद्धमहात्मा कहता है, और कोई कोई तो उनके बारे में ऐसी बात भी कहता जिसको मुख से बोला भी नहीं जा सकता, और कानों से सुना भी नहीं जा सकता ! 
भक्त : मनुष्य आकृति में एक जैसा दिखने पर भी भिन्न भिन्न स्वभावों वाला होता है। जिसकी जैसी उपलब्धि होती है, जिसके भीतर जो वस्तु रहती है, वह उसी ढंग की बात करता है। रामकृष्णदेव एक कहानी कहते थे - कोई महापुरुष भावसमाधि में मग्न होकर बाहरी होश खोकर रास्ते के किनारे पड़े हुए थे। इस समय किसी संन्यासी ने उनकी अवस्था को पहचान लिया कि ये कोई महापुरुष हैं। सन्यासी ने उनके चरणों की धूल ली। और उनकी सेवा के लिए समाधि से व्युत्थान की अवस्था में आने की प्रतीक्षा, वहीँ बैठकर करने लगे। कुछ समय के बाद एक शराबी वहाँ आ पहुँचा और डोलते- लड़खड़ाते एकबार खड़ा होकर महापुरुष को देखकर बोला -वाह रे भाई , मेरे जैसा तुम भी पी कर फ़्लैट हो गया ? ठाकुर और एक कहानी सुनाते थे, जो सूत का व्यापार करता है, वह सूत को देखकर ही बोल सकता है कि कौन सा सूत किस नंबर का है। संन्यासी दूसरे संन्यासी को देखते ही पहचान जाते हैं ! 
एक दूसरी उपमा -जिसने मूली खाई है, उसके पेट में मूली गज गज करती रहती है, और जब भी वह डकार लेगा उससे केवल मूली की गंध बाहर निकलेगी।उसी प्रकार जिसके मन-प्राण और पेट में केवल कामिनी-कांचन भरा हुआ है, जो लोग संसारी कीड़े जैसे हैं, या बद्ध जीव हैं, उनके मुख से अविद्या जन्य विकार के आलावा और क्या निकलेगा ?  
वैसे लोगों की बातें सुनने के बाद कान को हाथों बंद करना चाहिए, या बिना देरी किये उस स्थान को छोड़ देना चाहिए। ईश्वर और अविद्यामाया (कामिनी -कांचन) ये दोनों अलग अलग (श्रेय-प्रेय) वस्तुएं हैं, इन दोनों में जो जिसको मन-प्राण से चाहता है, उसको वही वस्तु प्राप्त होती है। जिस प्रकार कोई नदी दोनों किनारों को एक साथ मिलाकर नहीं बह सकती, उसी प्रकार जीव दोनों 'रवि-रजनी' को एक साथ नहीं प्राप्त कर सकता। इच्छा हो तो अमीरी लो, नहीं हो तो फकीरी लो, হয় তেতলা নাও, নয় গাছতলা নাও। जो लोग कामिनी-कांचन को जीवन का उद्देश्य मान लिए हैं, उनके लिए ईश्वर के पथ पर बढ़ने में काँटे ही काँटे मिलेंगे। कामिनी-कांचन में एक नशा है, जो लोग उसके पीछे अत्यन्त आसक्त होकर फंस जाते है (वर्णाश्रम धर्म भूल जाते हैं), और इसी नशे में इतने प्रमत्त (Intoxicated) हो जाते हैं,कि अपना सिर भी नहीं उठा पाते हैं। जिस प्रकार शैवाल (moss या सेवार) जल को ढंक लेता है, बादल जिस प्रकार चन्द्रमा को छुपा लेता है, उसी प्रकार माया ईश्वर को छुपा लेती है। जॉन्डिस (पीलिया) हो जाने के बाद रोगी को केवल पीला ही दीखता है,उसी प्रकार माया रूपी जॉन्डिस से ग्रस्त रोगी को दुनिया में 'कामिनी -कांचन' रंग के सिवा और कोई दूसरा रंग दिखाई ही नहीं देता। 
अविद्यामाया के नशे की एक दूसरी महिमा सुनो, इस नशे का आदि बन जाने या वशीभूत (addicted) हो जाने पर, यह माया बुद्धि को तुरन्त भ्रमित (विमूढ़ confused) कर देती है। और मनुष्य के ज्ञान-इन्द्रियों (sense organ) की बली लेकर मनुष्य को तुरन्त भेंड़ बना देती हैं।  उन्हें यह जानने भी नहीं देती कि उनकी आत्म-श्रद्धा तो लुट चुकी है और उनकी (हिप्नोटाइज्ड बुद्धि के) जादू में फंसकर उनका नरकवास (perdition)चल रहा है !  और एक उदाहरण , किसी पागल व्यक्ति से , या जिसे भूत ने पकड़ा हो उससे यदि पूछा जाय कि, भाई तुम कैसे हो ? तो जैसे वह कहता है -मैं बिल्कुल ठीक हूँ ! आई एम फाइन ! उसी प्रकार ये काम-कांचन पर दीवाने ये संसारी लोग भी कहते हैं, मैं बिल्कुल ठीक हूँ ! आई एम फाइन !
इन उदाहरणों से तुम्हें अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा। 
ठीक से विवेक-विचार करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचोगे कि कामिनी-कांचन का नशा उतरे बिना, ईश्वर के मार्ग पर चलने का अथवा अपने अंतर्न्हित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने का कोई उपाय नहीं है। ऐसा व्यक्ति किसी सिद्ध महापुरुष को देखने पर उसके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना तो दूर की बात है, उलटे उससे कपटी ढोंगी कहता है -'सौ सौ चूहे खा के बिल्ली चली हज को ?' जो लोग घोर बद्ध जीव होते हैं, वे लोग ही परमहंस देव को कुवाक्य बोलते हैं। 
पाठक : यह नशा उतरता कैसे है ? 
भक्त : रामकृष्ण देव ने एक बहुत अच्छी दवा बतला दी है। आजकल यह दवा उनकी कृपा से बहुत आसानी से मिल जाती है। 'ओषधटि साधु-संग।' अर्थात कामिनी-कांचन में आसक्ति को कम करने की चिकत्सा है सच्चे संन्यासियों के सानिध्य में रहना। ठाकुर का दृष्टान्त (The parable of Thakur) : यदि कोई व्यक्ति भाँग या गाँजा का नशा पीकर होश हवाश खो बैठे, तो जैसे उसको चावल का धोया हुआ जल पिलाने से नशा उतर जाता है। ठीक उसी प्रकार जिन लोगों अविद्या माया (कामिनी-कांचन) के नशे में अपना होशो-हवाश खो दिया है (दिमागी रूप से अवसादग्रस्त या पागल जैसे बन गए हैं) , उनके लिये 'साधु-संग'  (महामण्डल का वार्षिक कैम्प और साप्ताहिक पाठचक्र) एक दम काँके मेंटल हॉस्पिटल (या डॉक्टर के.के.सिन्हा) से इलाज करवाने जैसा है। 
पाठक : तो क्या काम-कांचन का नशा उतारने के लिये जिसने विवाह किया है, बाल बच्चे हैं, विषय आदि हैं, जो नौकरी या बिजनेस करता है, उसे वह सब क्या छोड़ देना पड़ेगा ? 
भक्त : वैसा क्यों ? रामकृष्णदेव ने गृहस्थों को तो कामिनी-कांचन का बिल्कुल त्याग कर देने के लिये नहीं कहा है! हाँ, यह उन्होंने कामिनी-कांचन में आसक्ति को त्याग करने के लिये (इन्द्रिय विषयों में लालच को कम करने के लिए) अवश्य कहा है। उन्होंने कहा है कि 'काम-कांचन के अन्तरे ठायीं दीयो ना'-अर्थात 
कामनी -कांचन को कभी अपने हृदय के आसन पर मत बैठने देना। কাম-কাঞ্চনের উপর ভেসে বেড়িও। 'काम-कांचनेर ऊपर भेसे बेड़ियो' -अर्थात कामिनी -कांचन की गुलामी करनी छोड़ देना, उसके ऊपर नाव के समान तैरते रहना। जैसे जल के ऊपर नाव तैरती रहती है, तो उससे नाव को कोई नुकसान नहीं पहुँचता है। किन्तु यदि नाव के भीतर ही जल घुस जाय, तब तो नाव का विनाश (ruination) ही हो जाता है। 'धर्मपत्नी के ईश्वरलाभेर सहाय मने करो' -अर्थात अपनी धर्मपत्नी (कामिनीको ईश्वर-प्राप्ति में सहायक (या अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने में-supporter) समझो। एक-दो बच्चे हो जाने के बाद भाई-बहन जैसे रहते हैं, उसी प्रकार से रहो, और दोनों सर्वदा भगवान की सेवा करते रहो।
 'धर्मपत्नीर साहवासे कौन दोष हय ना' - अर्थात अपनी धर्मपत्नी के साथ सम्बन्ध रखने में कोई दोष (गलत) नहीं होता। जितने भी पारिवारिक मित्र या रिश्ते-नाते हैं, दुःख-कष्ट आने पर सेवा और सहायता करते हैं। यदि तुम इस रास्ते से हट कर कोई दूसरा रास्ता अपनाओगे तो यह सब सुविधा नहीं रहेगी, किन्तु आवश्यकतायें तो बनी रहेंगी।
 'कांचन के डाल -भातेर जोगाड़ मने करो' -अर्थात कांचन रूपी माया को दाल-भात या ब्रेड-ऐंड-बटर का जोगाड़ समझो। ईश्वर प्राप्ति करने के लिये या अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिए घर-परिवार के बीच रहना बहुत सुरक्षित स्थान है। रामकृष्णदेव परिवार में रहने को किले में रहने से तुलना करते थे। जैसे किसी किले के भीतर रहते हुए युद्ध करने से शत्रुओं की गोलीबारी या हथियारों से शरीर पर घाव लगने का खतरा नहीं रहता, भूख-प्यास लगने पर भोजन -पानी की व्यवस्था हो जाती है। और दूसरी तरफ काम-क्रोध आदि शत्रुओं से युद्द भी किया जा सकता है। उसी प्रकार घर में राशन-पानी का संचय रहने से ठीक समय पर भोजन प्राप्त हो जाता है।
किन्तु इसके भीतर एक थीम (विषय topic) है - 'आगे संसार के चिनते हय' -अर्थात पहले परिवार को पहचान लेना पड़ता है, और तभी गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया जाता है, अन्यथा आगे चलकर भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कच्चे मनुष्य (कच्चा मैं के साथ) का गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना और हाथों में तेल लगाए बिना कटहल काटना -दोनों एक ही बात है। जैसे हाथों में तेल लगाकर कटहल काटने से उसका गोंद (glue) हाथों से चिपक नहीं पाता, उसी प्रकार-'मने ज्ञान-भक्ति माखिये संसारे प्रवेश'अर्थात मन में ज्ञान-भक्ति का तेल मलने के बाद ही गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहिए। ठाकुर का गृहस्थों के लिए सबसे बड़ा उपदेश (महावाक्य) है -'आगे ज्ञान भक्ति अर्जन,पश्चात संसारे प्रवेश'(আগে জ্ঞান ভক্তি অর্জন, পশ্চাৎ সংসারে প্রবেশ।) अर्थात 'पहले ज्ञान-भक्ति का अर्जन उसके पश्चात् गृहस्थ जीवन में प्रवेश !'
ठाकुरदेव का उपदेश है -'गाये हलूद माखा थाकले जेमन कुमिरेर भय थाके ना'"शरीर पर यदि हल्दी का उबटन लगा हुआ रहे,तो फिर नदी में घड़ियाल का भय नहीं रह जाता।"  उसी प्रकार विवाह के पहले ही , मन को यदि ईश्वर के आधुनिक अवतार श्रीरामकृष्णदेव की  ज्ञान-भक्ति (रूपी हल्दी का उबटन)  से सराबोर कर लिया जय तो फिर विवाहित जीवन  में  भी 'कामिनी-कांचन' में आसक्त हो जाने  का भय नहीं रह जाता।(इसलिए भारतीय विवाह परम्परा में विवाह के पूर्व लड़का-लड़की शरीर में हल्दी का उबटन लगाने की परम्परा है क्योंकि 'গায়ে হলুদ মাখা থাকলে যেমন জলে কুমিরের ভয় থাকে না')
ठाकुरदेव का दूसरा दृष्टान्त (रूपक parable) है - 'लुक्का-चोरी के खेल' में जो लड़का पहले बूढी (Old lady) को छू लेता है, उसको फिर चोर बनने का भय नहीं रहता। उसी प्रकार ईश्वर लाभ करके (आधुनिक में भगवान श्रीरामकृष्णदेव ही अवतार हैं यह पहचान लेने के बाद परिवार में रहने से भी उसको चोर नहीं बनना पड़ता है। 
[उसी प्रकार सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध या माँ जगदम्बा के स्वरुप को (घनीभूत चैतन्य) या आधुनिक अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण देव के नाम को जान लेता है, और जानकर जो सदा 'भावमुख' बना रहता है, उसको फिर संसार में या गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी 'कामिनी -कांचन' में आसक्त नहीं होना पड़ता या 'लस्ट-लूकर' का  गुलाम नहीं बनना पड़ता।] 
ठकरदेव एक दृष्टान्त और भी देते थे - 'जैसे लकड़ी के खम्भे को पकड़ कर गोल-गोल घूमने से चक्कर खाकर गिर पड़ने का भय नहीं रहता।' उसी प्रकार भगवान को पकड़ कर (=अवतार =लोकशिक्षक = मानवजाति का मार्गदर्शक नेता =माँ काली से चपरास प्राप्त ब्रह्म, स्वामी विवेकानन्द के गुरु, अवतार वरिष्ठ भगवान रमकृष्णदेव को पकड़ कर) यदि कोई घर-परिवार में रहे, तो फिर उसके पतन की कोई आशंका नहीं रहती। 
इसी प्रसंग में ठाकुर देव एक और दृष्टान्त देते थे - ' जैसे मानलो कि दूर देहात से कोई व्यक्ति हाथ में एक सूटकेस और एक छाता लेकर कोलकाता शहर देखने के लिए आया है। सूटकेस में उसके कपड़े तथा अन्य जरूरत के सामान हैं, और यह शहर तो बहुत बड़ा है। और वह दूर देहात से आया हुआ है, इस शहर के लिए बिल्कुल नया है, यहाँ का वह जो कुछ भी देखता है, वही उसको आश्चर्य जनक वस्तु लगती  है;वाह -वाह करके इधर-उधर घूमते देखते संध्या हो गयी। तब कहाँ जायें, रात कहाँ बितायेगा, इसकी ही चिंता करते हुए, किसी मकान के ओसारे पर बैठ गया, और विचार करते करते थोड़ी देर में ही दिनभर घूमते रहने से थकाहारा होने के कारण हटाथ उसकी आंखे लग गयी, वह सो गया। एक उचक्का ने देखा की यह आदमी तो बहुत बड़ा बेवकूफ है,बेपरवाही से सूटकेस और छाता उठाकर चलता बना। जब उस व्यक्ति की नींद टूटी तब उसने देखा कि वह तो लुट चुका है ! ठीक इसी प्रकार जो लोग विवाह रूपी नये शहर में आये हैं, और यदि अपने आश्रय को पहले से निश्चित किये बिना, इधर-उधर (ससुराल-साले -सालियों के चक्कर में)घूमते रहेंगे तो उनकी हालत भी ठीक इसी व्यक्ति की तरह होगी।  दुनिया में बहुत सावधानी से चलना पड़ता है। कामिनी-कांचन के साथ खेल करना और साँप के साथ खेलना दोनों एक बराबर है। गुरुदेव से महामंत्र और महाऔषधि को सीखे बिना ही, कामिनी-कांचन के साथ खेल करने पर जीवन बचने की कोई सम्भावना नहीं है। 
पाठक : गुरु क्या यह सब भी बतला देते हैं ? किन्तु मेरे गुरु ने तो एक मंत्र के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा ! तो क्या महाशय गुरु भी अलग अलग किस्म के होते हैं ? 
भक्त : तुमने जो कहा उसे मैं समझ सकता हूँ। तुमने जिस ढोंगी गुरुओं द्वारा प्रचलित गुरु-शिष्य प्रथा की बात की है, वह क्या है जानते हो ? जैसे एक अँधा का हाँथ पकड़ कर दूसरे अँधे का चलना, इसके परिणाम स्वरुप दोनों का पतन होना स्वाभाविक है। किन्तु यदि शिष्य प्रबल ईश्वर का प्रेमी हो, तो अपने प्रेम के बल से वह उसी गुरु के भीतर से वास्तविक गुरु को प्रकट करवा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुरु एक अलग चीज है, और वास्तविक गुरु एक अलग वस्तु हैं। वास्तविक गुरु कौन हैं -जानते हो भाई ? इष्टदेव की मूर्ति (ठाकुर देव) ही वास्तविक गुरु हैं। 
कल्पना करो कि किसी पक्षी ने एक अंडा दिया। कुछ समय तक उस अंडे को सेने के बाद अंडे से एक चूजा बाहर निकला। यहाँ भी ठीक वैसा होता है। गुरु ने कान में कोई मंत्र दिया, उस मंत्र में ही एक इष्ट (मेरे भगवान का नाम) भी हैं। अब उस मंत्र का जप-ध्यान पूजन इत्यादि करते करते उसी बीज मंत्र के भीतर से शावक रूपी इष्टदेव की मूर्ति प्रकट हो जाती है। जब इष्टदेव प्रकट हो गए, तो फिर गुरु और नहीं रहते। चूजे के निकल जाने पर जैसे अंडा नहीं रहता
पाठक : यदि गुरु और इष्ट अलग अलग हैं तो आपलोग परमहंसदेव को क्या मानते हैं ?
भक्त : यहाँ पर एक ही आधार में गुरु और इष्ट दोनों हैं। जितने दिनों तक पकड़ में न आकर खेल करते हैं, उतने दिनों तक गुरु हैं; जब पकड़ में आ जाते हैं तब इष्ट हो जाते हैं। उस अवस्था (अंडा-चूजा) में जैसे इष्ट की प्राप्ति हो जाने पर गुरुरूप (अंडा) नहीं रहता, यहाँ वैसा नहीं है -इष्ट प्राप्त हो जाने के बाद भी रामकृष्णरूप रहता है ! 
पाठक : गुरु किसे कहते हैं ?
भक्त : गुरु एक हैं, गुरु साक्षात् ईश्वर ही हैं। भगवान से भिन्न गुरुपद-वाच्य दूसरा और कोई नहीं है। (जिसको अपना मार्गदर्शक नेता मानते हो और नवनीदा कहते हो, वे भगवान परमहंसदेव से भिन्न और कोई नहीं हैं !) किन्तु ऐसे गुरु को प्राप्त करने के दूसरे मार्ग के जो सभी उपदेष्टा दिखाई देते हैं, उनको उपगुरु कहते हैं। उन उपगुरूओं में सभी मनुष्य ही हों, ऐसी बात नहीं है, उनके भीतर वृषभ भी हो सकते हैं, पक्षी-चील्ह पक्षी भी हो सकते हैं, वृक्ष-लता आदि भी हो सकते हैं,या कोई देव-देवी भी हो सकते हैं। ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर चलते समय इन सब के साथ संबन्ध रहता है, किन्तु जिस समय गुरु (अवतार) मिल जाते हैं, तब उनके साथ कोई विशेष संबन्ध नहीं रहता। तब केवल गुरु और शिष्य (वुड बी लीडर) रह जाते हैं।
उपगुरु के साथ कितने दिनों तक सम्बन्ध रहता है, और कब उतना विशेष सम्पर्क नहीं रहता -इसको एक दृष्टान्त समझते हैं। किसी दूल्हे का जब कहीं विवाह तय हो जाता है, तब हो सकता है कि उस गाँव का कोई अन्य किसी जाति का कोई दूसरा पुरुष, या महिला पहले अगुआ बनकर बातचीत आरम्भ करते हैं। उनको देखकर वह दूल्हा मन ही मन उनका सम्मान, यह सोंच करता है कि जिस गाँव में मेरा विवाह होने वाला है, इनका घर भी उसी गाँव में है ! फिर उस दूल्हे का घर-द्वार को देखने के लिए लड़की पक्ष के पड़ोसी लोग आते हैं। तब वह दूल्हा पहले आये हुए अगुआ (घटक matchmaker) को छोड़कर पड़ोसियों को मन ही मन यह सोंचकर सम्मान करता है कि जिस घर में उसका विवाह होने वाला है, ये लोग उनके पड़ोसी हैं। उसके बाद जब छेका करने का समय आ जाता है, तो लड़की के पिता, चाचा, मामा या भाई इनलोगों के आने की आवश्यकता होती है। अब वह दूल्हा पड़ोसियों को छोड़कर लड़की के पिता, मामा या भाई आदि को पहचानता है। विवाह हो जाने के बाद सबको छोड़ देता है, और केवल दूल्हा-कन्या ही रह जाते हैं। यहाँ भी ठीक उसी प्रकार, गुरु (अवतार रूपी नेता -नवनीदा)  मिल जाने के बाद उससे बड़ा और कोई नहीं रहता। उस समय केवल गुरु और शिष्य रह जाते हैं। 
रामकृष्णदेव कहते हैं - 'गुरु (लीडर) घटक हैं'। नायक -नायिका का मिलाप करवा देने के लिए जैसे एक घटक की आवश्यकता (matchmaker) होती है, उसी प्रकार भगवान और जीव के मिलन में गुरु की आवश्यकता होती है। वही गुरु हैं -रामकृष्णदेव ! तुमने सुना होगा कि वे कृपा करके जिसको एक बार केवल छू देते थे , वह तत्काल अपने गुरु को उनके भीतर ही देखने लग जाता था। यदि वे स्वयं भगवान नहीं होते , तो किसकी इतनी मजाल है कि वह दूसरे को भगवान दे सके ? वे शक्तिपात से या 'स्पर्श के द्वारा शक्ति देकर' स्वयं के स्वरुप को दिखला देते थे।  
रामकृष्णदेव कैसे गुरु हैं, तुम्हें संक्षेप में कहता हूँ - कोई व्यक्ति यदि एक बार रामकृष्णदेव को पकड़े फिर उनको छोड़ दे (कामिनी -कांचन के मोह में पड़ जाये) तो भी, कृपालु भगवान (अवतार) उसको नहीं छोड़ते हैं। वह यदि उनको भूल भी जाये, किन्तु वे उसको नहीं भूलते हैं। रामकृष्णदेव को कोई एक बार अपना मित्र समझकर मित्रता के बंधन में बाँध ले फिर उस बंधन को खोल भी दे -किन्तु वे नहीं खोलते हैं। रामकृष्णदेव के साथ जिसका एकबार छूआ-छुई हो चुका हो, और यदि वह पुनः कामिनी कांचन में आसक्त होना चाहें तो उस मार्ग पर केवल कांटे ही कांटे मिलेंगे। 
रामकृष्णदेव की भावावेश में कही गयी शपथ (महावाक्य) है - 'आमी जा के धरब, ताके निजेर बरन धरिये छाड़बो' - अर्थात मैं जिसको पकडूँगा उसको अपने आनन्द के रंग में रंग ही दूँगा! उड़हुल के फूल के सामने स्फटिक को रखने से स्फटिक भी लाल वर्ण का हो जाता है। दूसरी भावावेश की उक्ति है -'आमी जात-सांप, जाके एक बार छोबलाबो, ताके तीन डाकेर बेशी आर डाकते हबे ना!'-अर्थात 'मैं गेहुँअन साँप हूँ, जिसको एक बार ड्स लूँगा उसको तीन बार से अधिक पुकारना नहीं पड़ेगा।
रामकृष्णदेव जिसके गुरु बन जाते हैं, उसके कर्म छूट जाते है, उसेके फिर अन्य कोई कार्य नहीं रह जाता। 
उसको केवल आनन्द से दोनों हाथ उठाकर ताली बजाकर उनका नाम-गुण कीर्तन करना ही एकमात्र कार्य रह जाता है। उसके लिये नाव घाट से बन्ध जाती है। वह सर्वदा अपने समक्ष उस घाट को भी देख सकता है, नाव को भी देख सकता है, और कर्णधार को भी देख सकता है। वह अपने मन में अपनी इच्छा के अनुसार खेलता हुआ घूमता है। वह मन ही मन यह समझता है कि जब मन (इस शरीर को छोड़कर) चला जायेगा, तो वह भी चला जायेगा। उसे अब दुनिया में खेलने से भय नहीं लगता। पहले आँखों को मूँदकर खेलते समय बहुत बार गिरा है, अब खोलकर खेलना सीख लिया है। पहले यह संसार उसके लिए धोखे की चट्टी थी, अभी यह संसार आनन्द की तीर्थ स्थान बन गया है। 
तुमलोग भी तो अब थोड़ा बहुत समझने लगे हो, नजरें उठाकर देखो रामकृष्णदेव क्या हैं ! वे केवल तुम्हारे और मेरे गुरु ही नहीं हैं, वे जगतगुरु हैं। जैसे चन्दा मामा सबों के लिये मामा ही होते हैं, रामकृष्णदेव भी चन्दा मामा हैं -सबों के लिए एक समान माँ जगदम्बा है ! 
पाठक : हाँ, रामकृष्णदेव साक्षात् ईश्वर हैं ! तो ईश्वर-दर्शन का फल क्या होता है ?
भक्त : परमहंसदेव के महाविश्वासी भक्त नाट्यकार गिरीश घोष जैसे कवि साहित्यकार ने एक पुस्तक लिखी है 'कृष्ण-दर्शनेर फल -कृष्ण-दर्शन।' मुझे भी यही समझ में आता है। 
पाठक : यह तो बहुत आशा-भरोसा जगा देने वाली बात है। क्या हमलोग पुनः रामकृष्णरूप का दर्शन कर सकते हैं ?   
भक्त : निश्चित रूप से दर्शन कर सकते हो। देखने के लिए व्याकुल होने से ही देख सकोगे। उनके विग्रहरूप को भी देख सकोगे , उसके अलावा अन्य जो रूप है वह भी देख सकोगे। वे रूपों के समुद्र हैं, उनके कई रूप हैं। 
पाठक : हमलोगों ने रामकृष्णदेव के महासमाधि का समाचार सुना था। उनका श्रीअस्थिकलश जिस दिन कांकुरगाँछि में रामबाबू के बगीचे में समाधि देने के लिए ले जाया गया था,उस दिन हमलोग भी थे। वह शरीर तो नष्ट हो गया है , उस शरीर को पुनः कैसे देख सकते हैं ? 
भक्त : भाई, तुम रामकृष्णदेव को मनुष्य समझकर यह बात कह रहे हो। तुमको मैंने बार बार बताया कि वे ईश्वर हैं ! रामकृष्णरूप उनका विग्रह रूप है। उनका शरीर पंचभौतिक होने से भी पंचभौतिक नहीं है। रामकृष्णदेव का शरीर चिन्मय शरीर है। शुद्ध चैतन्य ही घनीभूत होकर देह बन गया है। उनके शरीर का अनु-परमाणु भी चैतन्यमय है , वह हमने अपनी आँखों से देखा है। उनके नरलीला का अवसान हो गया है, किन्तु देह का अवसान नहीं हुआ है। विभुविलास का शरीर कभी नष्ट नहीं होता। भगवान तो भक्तवांच्छा -कल्पतरु हैं, भक्तों की इच्छा को पूर्ण करने के लिए मूर्तरूप धारण करते हैं, और उस विग्रहरूप को वे कभी नष्ट नहीं करते हैं, और वैसा करने का उनको अधिकार भी नहीं है। भगवान का विग्रहरूप भगवान का नहीं होता -वह भक्तों का है। 
तुम्हारे संदेह को दूर करने के लिए परमहंसदेव के एक भक्त की कथा सुनाता हूँ, -उनका नाम था श्रीदुर्गाचरण नाग ! ये ठाकुर के लीलावसान के बाद अत्यन्त अधीर हो गए थे। अन्न-जल लेना छोड़ दिया। तीन-चार दिनों तक उपवास करने के बाद इसकी सुचना नरेन्द्रजी (स्वामी विवेकानन्द जी) को मिली। नरेन्द्रजी का हृदय अत्यंत कोमल था, दुर्गाचरण के घर पहुंचकर उन्होंने देखा कि वे मरणासन्न अवस्था पड़े हुए हैं। नरेन्द्रजी ने उनको खिलाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु खिला नहीं सके। फिर बोले अच्छा मुझे कुछ खाने को दें। दुर्गाचरण ने तुरंत बाजार से एक ठोंगा भोजन मंगवा दिए। नरेन्द्रजी जी जिस कचोड़ी से एक काटा खाकर, या जलेबी से एक काटा खाकर उनके हाथ में देते वे उसको तुरंत खा लेते। नरेन्द्रजी का पेट भरा हुआ था, कितना खाते ! बचे हुए भोजन को दुर्गाचरण के हाथों में खाने के लिए पकड़ा दिए। उसके बाद उन्होंने -'हाय रे मेरे फूटे नसीब ' यह बोलते हुए तेजी से जाकर पूरा ठोंगा गंगा जी में फेंक दिए। 
[ ........ फिर साथियों ने दूसरे दिन खिलाना चाहा तो भी नहीं खाये, ठाकुर ने जब देखा की दुर्गाचरण नाछोड़बन्दा है, तब उनको अपना दर्शन दिए -फिर उन्होंने भात खाया। उनकी लीला -कथा का जो कोई श्रवण करेगा या बोलेगा उसका जीवन धन्य हो जायेगा।  रामकृष्णपूँथी में विस्तार से अनेको ...... उदाहरण हैं ...... ]
पाठक : आपने जो कहा कि रामकृष्णदेव का रामकृष्णरूप के आलावा और एक रूप है -वह कैसा है ? वे रूप के समुद्र कैसे हैं ?
भक्त : रामकृष्णरूप हमलोगों का प्रिय रूप है। यह उनका विग्रह रूप है, और दूसरा एक सर्वव्यापी विराट रूप है ! उनका निराकार भाव भी है। फिर उन्होंने कहा है, साकार निराकार से भिन्न भगवान का एक अन्य रूप भी है। भक्त लोग उनके विग्रह रूप के आलावा अन्य कोई रूप देखना नहीं चाहते, किन्तु वे कुछ न कुछ दिखाए बिना छोड़ते नहीं हैं। 
पाठक: विग्रहरूप रामकृष्णरूप तो समझ गया, हमलोगों ने यही रूप देखा भी है, किन्तु विराटरूप कैसा होता है ?
भक्त : इस जीव -जगत में तुम जो कुछ भी देख रहे हो, वही उनका विराट रूप है। वही एक विग्रहरूप- धारी जगतगुरु रामकृष्णदेव विराट रूप में अनेक हो गए हैं ! स्थावर-जंगम-वृक्ष-लता-गिरी -नदी -अनिल (वायु),-अनल (अग्नि) और जितने भी प्राणी देख रहे हो, या सुन रहे हो, वह सबकुछ वे ही हुए हैं। उनको छोड़के और कोई नहीं है, कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है सब वे ही हैं।
पाठक : आप क्या शास्त्रों की बातें सुना रहे हैं, और ईश्वर के स्थान पर रामकृष्ण नाम बैठा दे रहे हैं ?या आपने जो देखा है उसका बयान कर रहे हैं ?
भक्त : रामकृष्णदेव की अपार महिमा है, रामकृष्णदेव ईश्वर है, वे सर्वेश्वर हैं, राजराजेश्वर हैं ! तुम्हें यह शास्त्रों की बात लगती है , शास्त्र किसे कहते हैं, मैंने उसका नाम तक नहीं सुना है। रामायण -महाभारत भी नहीं पढ़ा है। जिस समय मेरी आयु ३० वर्ष की थी, मैंने रामकृष्णदेव का दर्शन किया था। उस समय तक मैं यह भी नहीं जानता था कि कौरव-पाण्डव आदि रामायण के पात्र थे या महाभारत के ? एक दिन ठाकुर ने मुझसे पूछा -" तुम क्या ब्राह्म हो ?' मैं उनकी बात का उत्तर नहीं दे सका। मैं तबतक ब्राह्म किसे कहते हैं यह भी नहीं जानता था। और शैव-शाक्त-वैष्णव क्या होता है-यह सब भी नहीं जानता था। किन्तु मेरे गाँव के गुरु ने मेरे कान में कृष्ण-मंत्र दिया था। मैंने गुरु से कहा था मैंने मंत्र तो बोला किन्तु कृष्ण का दर्शन कहाँ हुआ ? उन्होंने कहा उसके लिए तुमको पुश्चरण करना होगा, और भी बहुत कुछ करना होगा। .... मैंने बहुत कुछ किया भी। किन्तु रामकृष्णदेव का तीन दिन दर्शन करके ही समझ गया कि यदि कोई कृष्ण को दिखला सकते हैं तो केवल यही सकते हैं। उस समय तक मैं बिलकुल नहीं जानता था कि जो कृष्ण हैं -वे ही रामकृष्ण हैं ! 
पेज/३२ / अंग्रेजी का बड़ाअक्षर पढ़ने को सीखे बिना छोटाअक्षर पढ़ना मुश्किल है,उसी प्रकार पहले विग्रह रूप को समझे बिना विराट रूप को नहीं जाना जा सकता ! मैंने जो देखा है -सुनो, यदि असंख्य प्रकार के छोटे बड़े घड़े को समुद्र के जल में डुबाकर रखा जाय, तो जिस प्रकार प्रत्येक कुम्भ में समुद्र का ही जल भर जाता है, अब इसमें पूर्ण और अंश किस जल को कहोगे ? उसी प्रकार रामकृष्णदेव (=शाश्वत अखण्ड सच्चिदान्द चैतन्य) को मैंने प्रत्येक वस्तु के भीतर ओतप्रोत देखा है ! और यह जो छोटे बड़े कुम्भ देख रहे हो, साइज के अनुसार किसी में कम जल अंटता है, किसी में अधिक जल अंटता है - वह केवल शक्ति का खेल मात्र है !
 जल में कुम्भ -कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी,
 फूटा कुम्भ जल, जल ही सामना; यह तत्व कथौ ज्ञानी !
पाठक : यदि प्रत्येक कुम्भ अर्थात जीव में उसी समुद्र का जल भरा है, तो जीवों में कोई भला है कोई बुरा है, सत, असत, बज्र मूर्ख (घास काटने वाला घसियारा जिसको देखकर ठाकुर को समाधि हो गयी थी ?) तो कोई बुद्धदेव है, इतने प्रकार का अन्तर क्यों है ? 
भक्त : वह गुणों के कारण है। रामकृष्णदेव कहते हैं -जल मात्र ही नारायण है! तथापि जल कई प्रकार का होता है। किसी जल से केवल हाथ-पैर धोये जा सकते हैं, किसी जल से स्नान किया जाता है, कोई जल इतना पवित्र होता है कि उसका एक बूँद पान करने या स्पर्श करने से जन्मजन्मान्तर का पाप कट जाता है, फिर ऐसा भी जल जिसको छूआ नहीं जाता। उसी प्रकार राम सभी घट में हैं, कहीं साधू राम हैं, कहीं लम्पट राम हैं, कहीं चोर राम हैं। किसी राम को सम्मान करना पड़ता है, किसी राम से बच के चलना पड़ता है। 
 रामकृष्णदेव श्यामा माँ का दृष्टान्त देते हुए कहते थे - 'सर्वघटे विराज करे,इच्छामयी इच्छा जेमन'  
 (সর্বঘটে বিরাজ করে, ইচ্ছাময়ীর ইচ্ছা যেমন) वे माँ श्यामा ही किसी मंदिर में कटार धारण करके खड़ी हैं, कहीं नवव्याहता धर्मपत्नी होकर कोने में घूँघट डाले बैठी हैं, और कहीं बारामदे में खड़ी होकर हाथों में हुक्का लिये खड़ी हैं। पर जब तक रामकृष्णदेव की कृपा नहीं होती, तब तक यह सब शक्ति -माँ जगदम्बा का ही खेल है, यह सब किसी के समझ में नहीं आता। 
पाठक : भगवान ही जब सब कुछ बने हैं, और वे चैतन्यस्वरूप हैं, तो लोहा या पहाड़ जैसी जड़ वस्तुओं में चैतन्य (एनर्जी) क्यों दिखाई नहीं देता? जब की मनुष्यों का शरीर अवश्य जड़ है, किन्तु उसके कार्यों को देखकर उसके भीतर चल रहे चैतन्य के खेल को देखा जा सकता है 
भक्त : दूध से चाहे खीर,दही, मक्खन या घी के किसी अवस्था में भी रूपान्तरित क्यों न किया जाय, सबों के भीतर वही दूध है, या प्रत्येक वस्तु उसी दूध की अन्य रूप है , उसी प्रकार एक मूल चैतन्यस्वरूप भगवान से जो कुछ बना है, और उन सभी वस्तुओं में वे ही ओतप्रोत हैं, या दृष्टिगोचर प्रत्येक वस्तु उसी चैतन्य का अन्य रूप है। वे ही आधार हैं, और वे ही आधेय हैं। स्थूलवस्था में शरीर के उपादान होकर देह बने हैं, और सूक्ष्म रूप में देही या आत्मा हो गए हैं। 
अव्यक्त प्रकृति माँ आद्यशक्ति जगदम्बा ही सृष्टि-रचना के समय चैतन्य की अति सूक्ष्मावस्था महाकाश और महाप्राण में परिणत हो जाती हैं। महाकाश की स्थूल अवस्था है आकाश, आकाश की स्थूल अवस्था वायु,वायु की स्थूल अवस्था अग्नि, अग्नि की स्थूल अवस्था जल, और जल की स्थूल अवस्था है -पृथ्वी। उसी प्रकार मनुष्य के शरीर रूप धारण करते समय परमात्मा सूक्ष्मावस्था हैं, उनकी स्थूल अवस्था है जीवात्मा, जीवात्मा की स्थूल अवस्था है -चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार; चारों को मिलाकर अन्तःकरण कहते हैं, उसकी स्थूल अवस्था है, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, और उसकी स्थूल अवस्था है -पंचभौतिक शरीर ! माया शक्ति का खेल अदभुत है ! 
 पाठक : पहले आपने कहा था सब भगवान का खेल है, अभी कह रहे हैं माया का खेल है ? हमने तो सुना है कि माया का अर्थ होता है, जो होती ही नहीं हो, या एक वस्तु को गलती से (mistakenly) 
दूसरी वस्तु समझ लेना (रज्जु-सर्प), या अनित्य (destructible-नश्वर) है, या जादुई (Magical) चीज है? 
भक्त : मन आदि से परे (beyond) अति सूक्ष्मतम चैतन्यस्वरूप भगवान (ब्रह्म) जिस शक्ति से स्थूल होकर इस जिव-जगत के रूप में परिणत (या व्यक्त) हो जाते हैं, उस शक्ति का ही नाम माया है। जिस प्रकार भगवान सत्य और नित्य हैं, उसी प्रकार माया भी सत्य और नित्य (अविनाशी) हैं। सत्य और नित्य वस्तु जिसका जन्म होता है, वह क्या कभी असत्य और अनित्य हो सकती है ? यह मायाशक्ति ही ब्रह्म की लीलाशक्ति है ! इसी शक्ति की सहायता से वे लीला करते हैं। मायाशक्ति ईश्वर के अधीन होने पर भी, उनकी महिमा ईश्वर से अधिक है।
 पेज/३४/ मायाशक्ति का खेल नहीं रहे तो ईश्वर की सत्ता को ईश्वर से भिन्न और किसी के द्वारा उनकी उपलब्धि करने का कोई उपाय नहीं है। लीलाशक्ति के खेल के बिना सृष्टि ही नहीं है, अर्थात यह जीवजगत नहीं है। यदि जीव न रहे तो ईश्वर होकर के भी नहीं हैं ! 
जैसे जन्मांध व्यक्ति के लिए पूर्णिमा का प्रकाश /ज्योत्स्ना नहीं है, उसी प्रकार मनुष्य की रचना न हो या जीव के अनस्तित्व (non-existence) हो जाने से -ईश्वर की सत्ता होकर भी नहीं रहेगी। मायाशक्ति (माँ जगदम्बा) सृष्टि करके जीवों की जननी बनकर, पहले वे जीव को अपना मातृ -स्वरुप दिखला देती हैं, बाद में ईश्वर का दर्शन भी करवा देती हैं। जैसे दर्पण की सहायता से अपने चेहरे की प्रतिच्छाया को देखा जाता है, उसी प्रकार जीव माया से सृष्ट होकर उसी माया की सहायता से ईश्वर-दर्शन करता है। 
माया जब तक रास्ते के बीच से हट नहीं जाती जीव को ईश्वर दर्शन नहीं हो सकता! [और वह अहं ब्रह्मास्मि कह नहीं सकता!मायाशक्ति इच्छामयी हैं, लीलामयी हैं, एक होकर दो प्रकार से खेल दिखाती हैं। एक विद्याशक्ति बनकर और दूसरी अविद्याशक्ति बनकर। एक ही शक्ति के भीतर दो प्रकार के भाव -वह कैसा होता है जानते हो ? रामकृष्णदेव इस प्रसंग में बिल्ली की उपमा से समझाते थे -बिल्ली जिस दाँत से अपने बच्चों को पकड़कर  एक जगह से दूसरे सुरक्षित स्थान पर लेजाकर रखती है, उस समय उसके बच्चों के गले पर दाँत बिल्कुल नहीं गड़ते हैं, किन्तु उसी दाँत से जब किसी चूहे को पकड़ती है, उस चूहे की दुर्दशा की सीमा नहीं होती। उसी प्रकार उसी प्रकार महामायामाँ  जब अपनी विद्याशक्ति के द्वारा किसी मनुष्य को पकड़ती है  (या जिस बेटे को उन्नत मनुष्य बनाना चाहती है) तो उसको ईश्वर प्राप्ति के मार्गपर ले जाती है ! 
और जब माँ जगदम्बा किसी मनुष्य को अविद्याशक्ति के द्वारा पकड़ती हैं, तो जीव पूरी तरह से (मिथ्या/असत/काम-कांचन में,मोहब्बत हुई है ? दिल टूटा है ? नहीं- ? तो क्या गजल गाओगे ? हेमन्त दा ख़ामोशी का गाना -तुम्हारा इंतजार है -तुम पुकार लो !) आसक्त, सम्मोहित या हिप्नोटाइज्ड हो जाता है। या माँ जीव के हाथ-पैर में रस्सी से अर्थात त्रिगुण से बाँधकर संसार के मिथ्या लोभ में फँसा देती हैं ? एक ही ब्रह्म -हमारे प्रभु श्रीरामकृष्णदेव अपनी लीलाशक्ति-सर्वव्यापी विराट 'अहं' बोध या माँ जगदम्बा की सहायता से किस प्रकार परमारथ रूप से स्वयं विराटरुप धारण कर लेते हैं, यह तो हुई उसकी व्याख्या।
किन्तु ठाकुर देव जब अपने विग्रह-रूप में स्वयं उपस्थित थे, तब वे स्वयं स्वयं कहते थे -कि अपने निराकार अखण्ड-सच्चिदानन्द रूप में क्या और कैसे हैं, इस बात को वे भी मुख से कहकर नहीं समझा सकते! क्योंकि ब्रह्म आज तक जूठा नहीं हुआ। 
उस अवस्था में जीव-जगत नहीं होता, सृष्टि नहीं होती, सब कुछ उड़ जाता है-उस अवस्था में माया जैसा तुमने सुना है -कि माया जादू है - होती नहीं है। केवल गलती से या भ्रम में एक ही वस्तु को दूसरी वस्तु समझ लिया जाता है। किन्तु ब्रह्म के साथ उनकी शक्ति स्वाहा -स्वाधा रूप से सर्वदा रहती हैं। माया जादू-इंद्रजाल होकर भी सत्य है ! और सत्य होकर भी इन्द्रजाल है !: 
भक्ति और वेदान्त में समन्वय (reconciliation): इस विरोधाभास/पैराडॉक्स ऑफ़ ह्यूमन बींग्स की बहुत सुन्दर मीमांसा भगवान परमहंसदेव ने की है - 'जब मैं जीव-जगत को स्पष्ट रूप में देख पा रहा हूँ, तब उसको मिथ्या कैसे कह सकता हूँ ? फिर आचार्य शंकर के सिद्धान्त -'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' के अनुसार जीव -जगत फ़ाइनली रहते नहीं हैं, अभी दिख रहे हैं। अर्थात वह ब्रह्म (यानि मैं !) जो जीव -जगत रूप से दिख रहा है, वह ब्रह्म का परिणाम [दूध का दही बन जाने के जैसा] नहीं है, विवर्त है ! इन दोनों सिद्धान्तों का समन्वय या भक्ति और वेदान्त में समन्वय (reconciliation) कारी; ठाकुर का महावाक्य है - 'ता उ बटे, ना उ बटे' (তাও বটে, নাও বটে) 'ईश्वरीय अवस्थार इति हय ना' 
ईश्वरीय अवस्था का या अवतारों का कभी 'दी एंड' अर्थात ये (ठाकुर देव या अमुक पैगम्बर) ही अंतिम अवतार हैं, इसके बाद उनका कोई अन्य विग्रहरूप नहीं होगा ऐसा सोंचना बिल्कुल अवैज्ञानिक सोंच है। भगवान यह है, इसके आगे (further) नहीं हैं, या हो नहीं सकते हैं, ऐसी बात कहने या दावा करने से तो ईश्वर की 'इति' (finished) हो गयी, उनको अनंन्त को सीमाबद्ध (Limited) कर देना होगा ! 'तिनि सब होते पारेन' -यही है ठाकुर का समन्वयकारी भक्ति-वेदान्त का सिद्धान्त। क्योंकि ब्रह्म के लिए अपनी जादुई शक्ति (महामाया )की सहायता से सबकुछ करना सम्भव है ! 
[ अर्थात उसके अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिए गुरु विवेकानन्द को चरित्र-निर्माण आंदोलन रूप गंगा -महामण्डल को उसके पास भेजना पड़ता है। माँ सार-दा शक्ति/बिना भगीरथी के पुकारे तो माँ गंगा भी धरती पर अवतरित नहीं होतीं ! बड़ोदा कैम्प यूनिवर्सिटी से मेल मिलने के बाद ! सोमनाथदा /१२-२-१८]ब्रह्माण्ड विज्ञान - कॉस्मोलॉजी: स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " अंग्रेजी के शब्द Nature या प्रकृति का सांख्य के अनुसार अधिक वैज्ञानिक नाम है -'अव्यक्त' जो अभीतक व्यक्त, प्रकट या प्रकाशित नहीं हुई है, किन्तु उसी सब पदार्थ उत्पन्न हुए हैं। उससे अणु-परमाणु, पंचभूत, शक्ति,प्राण, मन, बुद्धि सब प्रसूत हुए हैं। हमारे दार्शनिकों ने हजारों वर्ष पहले कहा था कि मन जड़ है। सांख्यों ने तीनों शक्तियों (गुणों) की साम्यावस्था को अव्यक्त कहा है। सत-रज और तम, तीन शक्तियों में से तमस -निम्नतम शक्ति है- आकर्षण-शक्ति स्वरुप।  रजस-शक्ति उससे उच्चतर है, जो विकर्षण स्वरुप गुण है। तथा आकर्षण और विकर्षण में संतुलन स्वरुप शक्ति का नाम सत्व-शक्ति है। अतः जब आकर्षण और विकर्षण की शक्तियाँ सत्व के द्वारा पूर्णतः नियंत्रित रहती हैं, अथवा पूर्ण साम्यावस्था में रहती हैं, तब सृष्टि का अस्तित्व नहीं होता। किन्तु ज्योंही यह साम्यावस्था नष्ट होती है, त्योंही उसका संतुलन भंग हो जाता है, ..... और सृष्टि होने लगती है। ४/१९३ 
" आजकल जिसे हम मैटर या जड़ कहते हैं, उसे हमारे पूर्वज बाह्यतत्व या पंचभूत कहते थे। जिस मूलतत्व से सभी पदार्थ उत्पन्न हुए हैं उस मूल तत्व को 'आकाश' का कहते हैं, और इस तत्व के साथ प्राण नाम की आद्य ऊर्जा या एनर्जी रहती है। जब यह सृष्टि निस्पन्द अवस्था में थी, इस प्राण की सत्ता तब भी थी। किन्तु उसमें कोई गति न थी -'आनीदवातं' -का अर्थ है, 'बिना स्पन्दन के अस्तित्वान था। स्पंदन का विराम हो चुका था। एक विशाल विराम के बाद जब कल्प का प्रारम्भ होता है, तब 'आनीदवातं' या निस्पन्द परमाणु स्पंदन आरम्भ कर देता है। और प्राण आकाश को आघात पर आघात प्रदान करता है। प्राण के बार बार आघात द्वारा आकाश से वायु अथवा वाइब्रेशन उत्पन्न होता है। वाइब्रेशन के तीव्र घर्षण से पहले अग्नि या तेज की उतपत्ति होती है, तब तेज घनीभूत होकर जल या अप अथवा तरल बन जाता है, अंत में यह तरल पदार्थ आकार या पृथ्वी का स्थूल रूप धारण करता है। आकाश मैटर की सहायता के बिना प्राण या एनर्जी स्वयं कार्य नहीं कर सकता। प्राण का ही एक विकार विचार है। तुमने जड़ पदार्थ के बिना शक्ति, या शक्ति के बिना जड़पदार्थ कभी नहीं देखा है। समस्त स्थूल पदार्थ या शरीर के उपकरण - ५ कर्मेन्द्रिय आदि सूक्ष्म तत्वों के परिणाम हैं। जिन्हें तन्मात्रा या सूक्ष्म कणिकायें कहते हैं। सूँघने की प्रक्रिया में -नाक के निकट फूल को लाने से, जो कुछ फूल से आता है, और जिसका हमारी नासिका से सम्पर्क होता है, उसे तन्मात्रा या पुष्प के अणु कहते हैं। दर्शन क्रिया या सूँघने की क्रिया में बाह्य इन्द्रियाँ, अन्तः इन्द्रियाँ और मन तीनों का सम्बद्ध होना आवश्यक है। झील के उदाहरण से मन को मनस वृत्तिमय चित्त या स्पंदनशील अर्थात अस्थिर या संकल्प-विल्प करने वाला कहा जाता है। चित्त-मन-बुद्धि अहंकार हमारा अंतःकरण कहते हैं। .... प्रकृति की यह सब परिवर्तन क्रिया आत्मा के विकास के लिए है; यह सारी सृष्टि आत्मा के हित के लिए है, जिससे वह मुक्तिलाभ कर सके या डीहिप्नोटाइज्ड हो सके ! "जिस प्रकार हमारा मन है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का भी एक मन है, यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ! ब्रह्माण्ड का एक स्थूल शरीर और उसके पीछे मन है , और उसके भी पीछे ब्रह्माण्ड का अहंकार है, और उसके पीछे महततत्व है।  यह सब कुछ प्रकृति या अव्यक्त में ही है।    ४/१९६-१९८/ 
" तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि इस ब्रह्माण्ड में इस प्रकृति/nature/या अव्यक्त की प्रथम अभिव्यक्ति सांख्य के शब्दों में 'महत' या बुद्धि कह सकते हैं। चेतना इस बुद्धि का अंश मात्र है। महत सर्वव्यापी है -चेतन,अवचेतन, अचेतन और अतिचेतन-मन की समस्त अवस्थायें आ जाती हैं। अतएव चेतना की किसी भी अवस्था को (तुरीयावस्था को भी), महत के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। महत या आद्यशक्ति माँ जगदम्बा से 'सर्वव्यापी विराट अहं-तत्व' की उत्पत्ति हुई है। एक अखण्ड सच्चिदानन्द सर्वव्यापी विराट अविभक्त की कल्पना करो, जो प्रत्येक वस्तु की प्रथम अवस्था है, जिसमें परिवर्तन होने लगता है। जिस प्रकार दूध परिवर्तित होकर दही बन जाता है, इस प्रथम परिवर्तन को महत कहते हैं। (वैसे ही ब्रह्म शक्ति बन जाते हैं ? ) महत पदार्थ के स्थूलतर पदार्थ में दूसरे परिवर्तन को सर्वव्यापी सार्वभौम या विराट अहं-तत्व'  कहते हैं, में परिवर्तित हो जाता है। फिर तीसरा परिवर्तन सार्वभौम संवेदक इन्द्रियों और सार्वभौम तन्मात्राओं (५ इन्द्रिय विषयों )के रूप में अभिव्यक्त होता है।४/२०३ ] 
अवतार विशेष का रूप विशेष रहता है। राम अवतार में 'रामरूप' और कृष्ण अवतार में 'कृष्णरूप', और इस बार रामकृष्ण अवतार में उनका ही 'रामकृष्णरूप' हुआ है। सभी अवतारों का एक जैसा वेश नहीं होता, और एक ही समान कार्य करने का तरीका भी नहीं होता। 
अवतार दो प्रकार के होते हैं, एक अवतार होता है धरती के बोझ को कम करने के लिए, साधुओं के परित्राण के लिए और दुष्टों का दमन करने के लिए। 
और दूसरे प्रकार के अवतार को 'आदर्श-अवतार' (नेता -लोकशिक्षक) कहते हैं। इस अवतार  का कार्य होता है, धर्मसंस्थापन करना, मनुष्य को शिक्षा देना, और पतितों का उद्धार करना अर्थात -'पशुमानव को देवमानव में उन्नत होने का प्रशिक्षण देना !' 
आदर्शावतार का ऐश्वर्य व्यक्त होकर भी नहीं रहता, वेशभूषा का ठाट-बाट (magnificence) रहते हुए भी नहीं रहता, रहता है तो केवल माधूर्य ! आदर्शावतार बिना किसी ऐश्वर्य के भी ऐश्वर्यवान होते हैं, और अरूप (निराकार) होकर भी रूपवान (साकार-भावमुख निराकारश्रीश्रीरामकृष्णपूँथी में कहा गया है -'आरे अविश्वासी मन कि कब तोमाके। चिरकाल मग्न तुमि सन्देहेर पाँके।' (আরে অবিশ্বাসী মন কি কব তোমাকে। চিরকাল মগ্ন তুমি সন্দেহের পাঁকে। पेज -३८
भगवान (सत्य नारायण) चाहे जो भी रूप क्यों न धारण करें, उनके उसी रूप में उनके समस्त रूप रहते हैं। जब बामन अवतार में तीन डेग पृथ्वी नाम लिए उस समय। ..... कर्ण से दान माँगने ब्राह्मण वेश धारण करके गए तो क्या उनके भीतर कृष्णरूप नहीं था ? कृष्णावतार में उनको हनुमान के लिए रामरूप दिखलाना पड़ा था। रामकृष्णदेव ने भी अनेक भक्तों को कई रूपों में दर्शन दिया था। श्रीश्रीरामकृष्णपूँथी में उन घटनाओं का विशेष रूप से वर्णन किया गया है। किन्तु श्रीरामकृष्णदेव के भक्त उनका रामकृष्णरूप छोड़ कर अन्य कोई रूप नहीं देखना चाहते हैं। 
एकबार ठाकुरदेव ने गिरीश बाबू से पूछा -' तुम क्या कोई रूप देखना चाहते हो ?' उनके भक्त ने उत्तर दिया -" आप उस रूप के भीतर रहिएगा न ?' भगवान को अन्य रूप में देखकर भगवान की परीक्षा लेने का विचार मन में उठना, अपने इष्टदेव अवतार वरिष्ठ भगवान रामकृष्ण देव पर अविश्वास करने के सिवा और कुछ नहीं है। (ভগবানের অন্য রূপ দেখে ভগবানকে পরীক্ষা করে নেয়া অপেক্ষা ভগবানের মনের অবিশ্বাস আর কিছুতেই নেই। पेज/३८ -४०/)
तथापि रामकृष्णदेव संदिग्ध चित्त वाले मनुष्यों का संशय मिटाने के लिए कई बार परीक्षा दी थी, कई रूपों को दिखाया था। रामकृष्णदेव का दर्शन करने से समस्त अवतारों का दर्शन करना हो जाता है। उनको समझ लेने से समस्त वेदों,उपनिषदों, पुराणों और जगत में जितने भी धर्म हुए हैं , उन सभी अवगत हुआ जा सकता है। रामकृष्णदेव के शरीर में सम्पूर्ण सृष्टि और विश्वब्रह्माण्ड है। अभीतक तो मैंने तुम्हें श्रीरामकृष्णदेव द्वारा कथित कुछ उक्तियों को सुनाया है, उनके समस्त अमृतवचन -वेदान्त के महावाक्य तुल्य हैं। अपनी उक्तियों में रामकृष्णदेव ने सार्वभौमिक धर्म के सार तत्वों को प्रकट कर दिया है।  
रामकृष्णदेव की सम्पूर्ण जीवन-लीला  आश्चर्य में दाल देने वाले अलौकिक कर्मों से (The miracle) या चमत्कार से भरी हुई है। उनमें दुनियावी चीज कुछ भी नहीं है। उनकी चर्चा तो अभी कुछ हुई ही नहीं है, जब मैं तुमको लीलाप्रसंग सुनाऊँगा तब तुम समझ जाओगे कि आज तक अर्थात रामकृष्णदेव के अवतीर्ण होने के पहले जितने अवतार हुए हैं, और उन्होंने जो कुछ किया है वह सब अकेले श्रीरामकृष्णदेव ने किया है ,और उससे भी कुछ अधिक किया है।  আ মরি কি মনোহর,সমাধিস্ত কলেবর ,নিশাকর বদন-মন্ডলে। 
पेज /४१/ एक गरीब ब्राह्मण के पुत्र, अनपढ़ और केवट जाति में जन्मी रानी रासमणि द्वारा निर्मित कालीमंदिर के पुजारी ब्राह्मण -ऐसे उपदेश दिये हैं, ऐसा जीवन दिखलाये हैं,कि उन अमृत वचनों और जीवन का थोड़ा आभास प्राप्त सम्पूर्ण विश्व के विकसित देशों के बड़े बड़े वैज्ञानिक, विद्वान्, धर्मज्ञ महापुरुष लोग उन पर मोहित हैं। उन विदेशियों में से कई लोग उनका लीलास्थान अर्थात किस कमरे में वे रहते थे,कहाँ बैठते थे, उनको अच्छी तरह से जानने वाला कौन व्यक्ति कहाँ रहते हैं, उनके साथ कौन लोग रहते थे ,उन स्थानों को देखने के लिए सात समुन्द्र पार से भी हजारों आदमी पहुँचते हैं। पंचवटी की माटी और पत्तों के दर्शन से भी मोक्ष प्राप्त होता है।....... 
पेज/४३/एक दिन दक्षिणेश्वर में ग्रीष्मकाल के समय पंचवटी के शीतल छाँव के नीचे रामकृष्णदेव के पास उनके कई भक्त बैठे हुए थे। ईश्वरीय चर्चा हो रही थी तब बातचीत में दक्षिणेश्वर, ऐंड़दह, बराहनगर में रहने वाले बाशिन्दों की बातें उठीं। यहाँ के लोग ठाकुरदेव के ऊपर 'जटिला -कुटिला' भाव रखते थे। इसीलिए किसी भक्त ने जिज्ञासा वश इसका कारण जानना चाहा, और पूछा -" कितने दूर दूर से लोग यहाँ आकर शांति प्राप्त करते हैं, और जो यहाँ के बासिन्दे हैं वे क्यों नहीं आते हैं ? " ठाकुर ने इसके उत्तर में सामने रस्सी से बँधी एक गाय की ओर संकेत किया। जितनी दूर तक गंगा के किनारे हरी घास थी, रस्सी की लम्बाई उतनी ही थी। किन्तु गाय गंगा के जल की ओर देखते हुए पानी पीने के लिए छटपटा रही थी। उस समय गाय को देखकर प्रश्न का उत्तर किसी के समझ में नहीं आया। किन्तु रामकृष्णदेव की महिमा देखो -उसी समय अचानक चार-पांच छुट्टा गाय कहीं से पहुँच गयीं और गंगा के पानी में उतर कर भरपेट जल पीया फिर मैदान में आ गयीं। 
पेज /४४/तब ठाकुर ने समझाया कि , इस गाय को भारी प्यास लगी है, किन्तु बन्धी हुई है, इसलिये इतने नजदीक जल रहने से भी पी नहीं सक रही है ! और ये सब गायें खुली हुई थीं, इसीलिये जैसे ही प्यास महसूस हुआ पानी पीकर चली गयीं। यहाँ के लोग भी बन्धे हुए हैं, इसीलिये मुझतक आ नहीं पा रहे हैं। दूसरा उदाहरण देते थे -'दीपक तले अँधेरा' उसी प्रकार महापुरुषों के निकट रहने वाले लोग उनको पहचान नहीं पाते, जबकि दूर के लोग 'रोम्याँरोला और मैक्समुलर उसके विचारों को सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। .......जीवके  चार प्रकार के होते हैं-- नित्यमुक्त, मुक्त, मुमुक्षू और बद्ध। नित्यमुक्त लोग वास्तव में माया के जाल में (कामिनी-कांचन) फँसते ही नहीं हैं। मुक्त जाल काटकर भाग जाता है। मुमुक्षु इसके लिए प्रयास करता है कि जाल कैसे काटा जाये?बद्ध जाल में फंसा रहता है, किन्तु भागने की कोई चेष्टा नहीं करता, उलटे कीचड़ में मूँह छुपाना चाहता है। बद्ध जीव का लक्षण है -कि उसे कामिनी-कांचन के आलावा दुनिया में और भी चीजें हैं, यह बात उसकी बुद्धि में जाती ही नहीं। आहार-निद्रा-भय -मैथुन को ही बंकिमचंद्र जैसे विद्वान् भी जीवन का मुख्य उद्देश्य समझते थे! 
भूत लोग जैसे रामनाम सुन ही नहीं सकते उसी प्रकार बद्ध जीव भी भगवान की चर्चा जहाँ होगी वहाँ कान नहीं देगा, सोने लगेगा। या बोलेगा ये सब सुनकर क्या होगा ? चलो क्लब में थोड़ा मजे कर आया जाये ! कोई बोलेगा चलो घर का कामकाज देखा जाय, ये सुनने का अभी नहीं है, यह तो बुढ़ापे में सुनने की बातें हैं। कोई राधा-कृष्ण प्रेम की गलत व्याख्या करते हैं, यदि इन लोगों के सामने साक्षात् कृष्ण या काली जी आ जाएँ, तब भी ये उनपर विश्वास नहीं करेंगे। बल्कि पूछेंगे किस थियेटर में काम करते हो ? 
पेज/४५/अवतार में विश्वास होना बहुत कठिन है। डाक्टर सरकार इतने विख्यात डाक्टर थे, उन्होंने ठाकुर से कहा था कि जिस राम ने बाली को छुपकर मारा था, पाँच महीने की गर्भवती सीता का प्रतीत्याग कर वन में भेज दिया था, ऐसे राम को मैं भगवान नहीं कह सकता !
फिर जो व्यक्ति जितनी ऊँची डिग्री ले लेता है, उसमें पाण्डित्य का अभिमान भर जाता है। जो लोग विद्याध्यन के बाद निरहंकार हो जाते हैं, उनके अध्यन को ही अध्यन कहा जा सकता है। इस प्रकार की विद्या का अध्यन अविद्या की गाँठ को खोल देता है। विद्या का उद्देश्य ही वह है ! -'सा विद्या या विमुक्तये' क्योंकि 'विद्या महाविद्या के देखिये देय' - विद्या महाविद्या का दर्शन करवा देती है। किन्तु यदि किसी व्यक्ति में पाण्डित्य का अहंकार/अभिमान आ जाता है, उसमें अविद्या की पकड़ और जानलेवा हो जाती है। इस विद्या का अहंकार जिस व्यक्ति को होता है , उसे यह पता भी नहीं चलने देती कि उसका सबकुछ बर्बाद हो गया है। अहंकार ही ईश्वर के मार्ग का एक मात्र काँटा है। यह अहंकार ही दुर्बुद्धि अविद्या है। इसलिए अज्ञान के काँटे को ज्ञान के काँटे से निकालकर-फिर दोनों काँटों को फेंक देना पड़ता है !
पाठक : अच्छा ठाकुरदेव को भी ['ईश्वर-लाभ ' की?] परीक्षा देनी पड़ी थी ? वे कैसे परीक्षा दे पाते थे ? 
भक्त : रणकृष्णदेव के बड़े भाई रानी रासमणि के जिद पर माँ भवतारिणी का पुजारी पद ग्रहण कर लिया था। उस समय ठाकुर बीच बीच में बड़े भाई के साथ रहते थे। एक दिन वे घूम रहे थे रानी के दामाद मथुर बाबू, रामकृष्ण के दिव्य व्यक्तित्व को देखकर एकदम आकृष्ट हो गए। पूछने पर उनको पता चला कि बड़े चट्टोपाध्याय के छोटे भाई हैं। उन्होंने ठाकुर अपने पास बुलाकर उन्हें भी पुजारी पद ग्रहण करने के लिए उनके बड़े भाई जिद किये। जब उनके बड़े भाई ने ठाकुर से मथुर बाबू की इच्छा के विषय में कहा , तो छोटे भाई ने बड़े भाई से कहा -
[तपन कुमार चट्टोपाध्य द्वारा लिखित पुस्तक बच्चो के नाटक का दृश्य -२० शुरू] -' मैं किसी रसूखदार आदमी के पास जाकर नौकरी देने के लिए नहीं कह सकता।' मथुर बाबू ने बहुत प्रयास किया किन्तु ठाकुर नौकरी करने को तैयार नहीं हुए। ठाकुर रामकृष्णदेव बचपन से ही देवी देवताओं की सुंदर सुंदर मिट्टी की मूर्ति गढ़ने में माहिर थे।' मिट्टी की मूर्ति को चक्षुदान करने में श्री ठाकुरदेव की एक विशेष महिमा और शक्ति थी। जब ठाकुर किसी मूर्ति की आँखों को खोलते थे तो मूर्ति जीवन्त हो उठती थी। उनके गाँव में पूजा के समय जब मूर्ति बनाई जाती, तो पहले गदाई  ठाकुर को दिखलाना आवश्यक माना जाता था। ठाकुर के बचपन का नाम गदाई था। वे प्रतिमा गठन में कहाँ भूल थी, उसको बतला देते थे। किन्तु 'चक्षुदान' का कार्य वे स्वयं अपने हाथों से नहीं कर देते किसी के मन को तृप्ति नहीं होती थी। 
उनके भाई जहाँ रहते थे वहाँ रामकृष्ण गंगा की मिट्टी से एक शिव और एक नन्दी की मूर्ति को बना कर रख दिए थे। संयोगवश उस मूर्ति पर मथुर बाबू की नजर पड़ गयी। उनको शिव और वृषभ की मूर्ति बिल्कुल जीवंत प्रतीत हुई। तथा किसने उस मूर्ति को गढ़ा है, उसकी जानकारी लेकर रानी को मूर्ति दिखलाये और कहा जिसने इस मूर्ति को गढ़ा है, और इतने अच्छे से मूर्ति की आँख को बनाई है - यदि इस व्यक्ति को माँ काली की पूजा में नियुक्त किया जाय, तो ये बहुत जल्दी माँ काली को जाग्रत कर देंगे। यही सोंचकर उन्होंने ठाकुर के बड़े भाई से कहा ' आपको अपने भाई को भी माँ काली की पूजा में रखना ही होगा। ' बार बार जिद करने पर बड़े भाई ठाकुर से कहना ही पड़ा। उन्होंने कहा कि हृदु यदि मेरे साथ रखो , तो मैं रह सकता हूँ। इस प्रकार दोनों को मासिक वेतन पर नियुक्त कर दिया गया। 
पेज/४७/ बीचबीच में मथुरबाबू ठाकुर के पास आकर ईश्वरीय कथा और उनके मधुर कंठ से गीत सुनते थे। इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए। पहले ठाकुर माँ काली के वेशकार बने थे। प्रतिदिन माँ काली को नये नये वेश में सजाते थे। मथुरबाबू और रानी मूर्ति की सज्जा को देखकर आश्चर्य-चकित हो जाते थे। उसके बाद ठाकुर ने देवी की पूजा करने के कार्य को अपने हाथों में लिया। हर रोज पूजा करते समय उनके मन में तरह तरह के विचार उठने लगे। बीचबीच उन्हें ऐसा लगने लगा जैसे बाह्यजगत का अस्तित्व ही नहीं हो।, फिर कभी कभी उनको अपने शरीर का बोध भी नहीं रह जाता था। मन हमेशा माँ के पीछे पीछे घूमता रहता, और जिह्वा व्याकुल होकर माँ माँ पुकारती थी। कभी माँ माँ कहकर इतना रोते कि आँखों के जल से मिटटी भींग जाती। कभी माँ के शरीर पर केवल चंवर ही डुलाते रहते तो कभी मक्खन-मिश्री लेकर कहते -'ले माँ तू खा माँ तू खा ले। कहकर माँ काली के मुख के पास रखकर खड़े रहते। 
कभी कभी पूजा करते समय माँ के चरणों में फूल न चढ़ा कर अपने माथे पर रखकर बाह्यज्ञान खोकर बैठे रहते ,कभी माँ काली साँस ले रही है या नहीं देखने के लिए अपने हाथ नाक पास रखते। किसी दिन आरती के समय घडीघंटा की आवाज रुक जाने के बाद भी उनके हाथ में पड़ा दीपक का स्टैंड रुकने का नाम नहीं लेता। ठाकुर मानव चाबी वाली गुड़िया बन जाते।कालीमंदिर के दूसरे ब्राह्मणों ने उनको पागल समझना शुरू कर दिया। इतने दिनों तक भगवान भी साधारण मनुष्यों के लिए एक मनुष्य ही थे, अब पागल समझे जाने लगे! जिसका स्वाभाव आम लोगों से नहीं मिलता लोग उसको पागल ही समझने लगते हैं। क्रमशः ठाकुर को भाव-समाधि दिन भर में कई कई बार होने लगी। अब मंदिर के ब्राह्मणों ने यह निश्चित मान लिया कि ठाकुर पागल हो गए हैं। मथुरबाबू के पास उनकी शिकायत करने लगे। मथुरबाबू को उन्हें कुछ कहने का साहस नहीं होता। 
पेज/४८/रामकृष्णदेव की महिमा ! इस समय दक्षिणेश्वर में एक ब्राह्मणी आ गयीं। वे अद्भुत क्षमता रखती थीं, भक्तिग्रन्थ, पुराण, तंत्र सब उन्हें कंठस्थ था। तांत्रिकमत में जितनी साधना पद्धति है, सब उन्हें विशेष रूप से ज्ञात था। उनके बारे में ठाकुर ने कहा था कि वे चुर्वेद-मूर्तिमती थीं। ब्राह्मणी ने ठाकुर में के शरीर में उठने वाले भाव -महाभाव को देखकर ही पहचान लिया था कि वे भगवान हैं, और कालीमंदिर में यह बात सब को सुनाने लगी। किन्तु पहले पहल ब्राह्मणी की बात को किसी ने स्वीकार नहीं किया। किन्तु जब शास्त्रों से इसके प्रमाण में बड़े बड़े श्लोकों को उधृत करने लगीं तब मथुरबाबू चौंक पड़े। शास्त्रों में ब्राह्मणी की विलक्षण पारदर्शिता को देखकर मथुरबाबू अवाक् हो गए, और परीक्षा लेने के लिए बड़े बड़े पंडितों की सभा बुलाकर उनसे निर्णय लेने को कहे। ब्राह्मणी के कंठ में जैसे सरस्वती का आविर्भाव हो गया। कोई पंडित उनको शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर सका। शास्त्रों में भाव-महाभाव आदि के लक्षण बताये गए हैं, सभी ने महाभाव के समय ठाकुर के शरीर के लक्षणों को शास्त्रों से मिलाकर देखा और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ठाकुर के सभी लक्षण भगवान से मिलते हैं। फिर भी उन्होंने ठाकुर को भगवान के रूप में स्वीकार नहीं किया। पंडितों के पराजित होने से और ब्राह्मणी के विश्वास को देखकर मथुरबाबू को बहुत विश्वास हुआ और ठाकुर के प्रति उनकी श्रद्धा भक्ति बढ़ गयी। तब उन्होंने ठाकुर को कालीपूजा करने के काम से मुक्त कर दिया। और जिस प्रकार माँ काली की सेवा का इंतजाम था, वही व्यवस्था ठाकुर की सेवा के लिए कर दिए। और अपने बैठक खाने के दोतल्ले पर उनको रहने की व्यवस्था कर दिए। 
पेज/४९/ जो हो,मनुष्य का मन ठहरा - मथुरबाबू के मन में भी बीचबीच में संदेह उठ खड़ा होता था। उनकी परीक्षा लेने के लिए रात के समय परमसुन्दरी वैश्याओं को उनके कमरे में भेज दिया। तब जैसे कोई बच्चा निर्जन में अचानक भयंकर राक्षसी को देखकर माँ माँ पुकारने लगता है, उसी प्रकार ठाकुर भी माँ माँ कर के बाह्यज्ञान शून्य हो गए। 
पाठक : फिर वे वैश्यायें क्या करती थीं?
भक्त : कोई वैश्या डर कर भाग जाती, कोई खड़े खड़े रोने लगती थी। मथुरबाबू ने एक बार वैश्या भेजकर ठाकुर की बहुत कड़ी परीक्षा ली थी। एक वैश्या अप्सरा जैसा ऋषियों के मन को भी हिला देने में सक्षम थी, उसके साथ प्लान बनाये कि 'तुम अमुक दिन संध्या के समय अपने जैसी और एक सुंदरी वैश्या  सजा कर अपने घर में तैयार रखना। मैं छोटे भट्टाचर्जि को साथ में लेकर आऊँगा। अभी तक कोई उसके मन को हिला नहीं सकी है, यदि तुम कर सको तो तुम्हें विशेष पुरष्कार दूंगा। ' उसने कहा यह कौन सी बड़ी बात है, कितने लोगों को बहका दिया है। यह भी जरूर फंस जायेंगे। ' ठाकुर को बहलाकर वहां ले गए और उनके उसके कमरे में अकेला छोड़कर बाहर निकल गए। किन्तु ठाकुर कमरे में घुसकर माँ का भजन गाते हुए समाधिस्त हो गए। और ठाकुर दिगंबर हो गए। वैश्यायें हवा करने लगी, कोई मुख पर पानी छिड़कने लगी, कोई मथुरबाबू को पुकारने लगी। फिर उन्हें बहुत डाँटा कि ऐसा क्यों किया ?  ठाकुर को घर ले आये। फिर लाज से ठाकुर के सामने नजरें चुराने लगे। क्योंकि भगवान के सिवा और कौन बच सकता था? 
पाठक : क्या कांचन में आसक्ति की परीक्षा भी ली गयी थी ? 
भक्त -मथुरबाबू ने स्वयं ५०,००० देकर देखा, मारवाड़ी ने १०,०००/
पाठक : भगवान का दर्शन करने से तो संदेह दूर हो जाता है , हमेशा निकट रहकर भी मथुरबाबू को इतना संदेह क्यों था ? 
भक्त : मथुरबाबू माँ काली के परमभक्त थे, जन्मजन्मांतर से माँ के भक्त थे, इस समय रामकृष्ण लीला में अपनी भूमिका निभा रहे थे। उनके मन में कोई संदेह नहीं था किन्तु जीव को शिक्षा देने के लिए ठाकुर मथुरबाबू के मन में संदेह पैदा करके इस प्रकार खेल कर रहे थे। वे दिखला रहे हैं कि मनुष्य की दुर्बलता कितनी दूर तक देख सकती है। वे दिखला रहे हैं कि मनुष्य का मन किस प्रकार देखता है, और अपनी परीक्षा देकर दिखलाते हैं। भगवान नरदेह में आकर कैसे लीला करते हैं, दिखला रहे हैं। भाई मनुष्यों के भीतर जो यह मन नामकी चीज है, वह बड़ी भयंकर चीज है।
 फिर यदि यही मन सीधा हो जाये तो इससे बड़ा मित्र मनुष्य का और कोई नहीं है !     
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मन क्या है ?   ' मन' कहने से हमारा तात्पर्य क्या है ? उसे तो देखा नहीं जा सकता, उसे मुट्ठी में भी नहीं पकड़ा जा सकता, तथापि मन के विषय  में हर कोई जानता है कि - मन है । 'मन नहीं है'  - ऐसी बात तो कोई नहीं कहता। यहाँ मेरा मन नहीं लग रहा है, मन घबड़ा रहा है, मन प्रसन्न है या दुःखी है- मन के विषय में ऐसी कितनी ही बातें हमलोग निरंतर कहते हैं। किन्तु यह मन है क्या चीज़ ? हमलोग भली-भाँति जानते हैं कि मन है। 'मन में याद नहीं है', 'मन में याद है ' --इस प्रकार बहुधा कहा जाता है। मन के बारे में इतना कहने-सुनने पर भी हम मन को ठीक से समझ क्यों नहीं पाते हैं ? 
भारत के प्रसिद्ध जादूगर श्री पी.सी. सरकार का नाम हम सभी ने सुना है। पी.सी.सरकार सभी प्रकार के जादू जानते हैं, किन्तु जादू का खेल अकेले नहीं हो सकता, इसलिये उनको अपने सहयोगीयों या किसी जमूरे को अपना वह जादू सिखाना पड़ता है। जो लोग जादू सीखते हैं, उनमें से दो-एक व्यक्ति इन्द्रजालिक विद्या में इतने गहराई तक उतर जाते हैं कि वे लगभग पीसी सरकार के समतुल्य ही बन जाते हैं। यहाँ भी उसी प्रकार श्रीरामकृष्णदेव की एक शक्ति है, उस शक्ति का स्वभाव है - दुनिया में केवल जादू का खेल दिखाना।
यह शक्ति अपने जिन सहयोगीयों के साथ जादू का खेल दिखाती हैं, उसका मुख्य जमूरा है -यह मन ! मन ही उस शक्ति का सरदार जमूरा है। मन के खेल को यदि हमलोग देखने में सक्षम हो जाएँ, समझने में समर्थ हो जाएँ, तभी हमलोग जगत के खेल को भी देख सकेंगे और समझ सकेंगे। हमारा मन एक भारी मजेदार चीज है। इसका एकमात्र कार्य है खेलना ! प्रत्येक मनुष्य के भीतर, प्रत्येक प्राणी के भीतर यह मन अलग अलग प्रकृति (ढंग या behaviour) के खेल करता है। इसके खेल भी मिश्रित प्रकार के होते हैं, देखने पर आसानी से समझ में नहीं आता। कि यह सब एक ही विराट मन के खेल हैं।
यह मन एक होकर भी अलग अलग ढंग के खेल दिखाने के लिये अनेक बन गया है। जन्म-जन्मान्तर तक खेलने से भी इसका खेल खत्म नहीं होता। एक शरीर में जितना सम्भव हो, उतना खेलता है, और उस शरीर के नष्ट होने के बाद वह अपने खेल के सामग्री को लेकर फिर एक दूसरे ताजे शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। उस शरीर में फिर खेल करता है। मन के सोने के लिए एक स्लीपिंग बेड है ! जब तक वहाँ पहुँचकर वह 'गहन सुषुप्ति' (पवित्रीकरण,cleansing) में नहीं सो जाता, तब तक उसके खेल का खत्म नहीं होता। किन्तु उस बिस्तर पर सो जाने के बाद फिर नहीं उठता। 
मन का कोई एक विशेष रंगरूप  (appearance) या निश्चित प्रवृत्ति (disposition) नहीं है। यह मन जिस जिस स्त्री/पुरुष शरीर में खेल करता है,उस उस शरीर का रंगरूप  ही मन का भी रंगरूप हो जाता है, और उसकी प्रवृत्ति ही मन की प्रवृत्ति बन जाती है। इस सब को देखसुन कर मन को समझना पड़ता है।मन शरीर के भीतर रहकर अपने मर्जी के अनुसार खेल कर रहा है। किन्तु उसको यदि देखना चाहें, या उसको पकड़ना चाहें, तो ऐसा छुप जाता है कि ; कि त्रिभुवन में खोजने से भी दिखाई नहीं पड़ता, और पकड़ में भी नहीं आता। इस प्रकार वह मन जो छुप जाता है, यह भी उसका खेल है। 
मन के लिए हमलोग Head कहते हैं, किन्तु मन शरीर के भीतर सर्वव्यापी रूप से रहता है, जैसे तिल के भीतर तेल रहता है; हम यह नहीं कह सकते कि अमुक जगह में तेल नहीं है। मन यदि शरीर से निकल जाये या, शरीर के किसी भाग से निकल जाये तो शरीर या शरीर का वह भाग जड़ हो जाता है। पीसी सरकार के जादू में घोड़ा का खेल भी होता है, आपने देखा होगा ? मन भी उसी प्रकार घोड़े का खेल दिखाता है। घोड़ों को उसने पूरी तरह से वश में कर रखा है, घोड़ों को वह जैसा आदेश देता है, घोड़े उसकी बात मानते हैं। यह मन मानो उन घोड़ों का प्राण है।  घोड़े जब अस्तबल में रहते हैं, तब मानो मृत जैसा रहता है। और मन जैसे ही लगाम पकड़ कर उनकी पीठ पर चढ़ता है, वह तुरन्त तीव्र गति से दौड़ने लगता है। मन के पाँच घोड़े हैं, जिनके नाम हैं - आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। यदि इनकी पीठ पर मन नहीं चढ़े, तो कोई घोडा कुछ कार्य नहीं कर सकता। आँख देख नहीं सकता, कान सुन नहीं सकता, नाक सूँघ नहीं सकता, त्वचा को हार्ड सॉफ्ट का अनुभव नहीं होता। 
जैसे समुद्र में कई प्रकार के रत्न हैं, वैसे ही मन-समुद्र में भी कई चीजें चीजें छुपी हुई हैं। वे हैं विभिन्न विषयों के ज्ञान। मन इन्द्रिय रूपी घोड़ों पर चढ़कर जो कुछ भी देखता-सुनता और सीखता है, वह सब पाँच विषयों का ज्ञान है। मन उन विषयों के ज्ञान एक एक करके संचित करता हुआ, सागर की भाँति अपने भीतर रख लेता है। और उसको जब जिन चीजों की आवश्यकता होती है,उस समय वह स्वयं गोताखोर बन अपने भीतर ही डुबकी मार कर, उन सब चीजों को उठा लाता है। जब मन गोताखोर का कार्य करता है, उस समय लोग उसे स्मृति कहते हैं। 
डबल प्रेजेन्स ऑफ़ माइंड : फिर जो मन अच्छा-बुरा, सद-असद निर्णय लेने के लिए, दो भागों में बँट कर तर्क करता है, और अन्त निर्णय लेता है, तब उसको बुद्धि कहा जाता है। फिर जब यह मन चित्रकार बनकर सभी विषयों के चित्र अपने भीतर बनाता है, तब उसका नाम चित्त होता है। और जब करने वाले की शक्ति को भूल कर मतवाले के जैसा हर समय 'मैं-मैं' करता रहता है, उस मन को अहंकार कहते हैं। मन के पास सजावट-श्रृंगार की बहुत सी वस्तुयें भी हैं। जिस प्रकार नाटक का अभिनेता तरह तरह के पोशाक पहन कर दर्शकों के सामने विभिन्न प्रकार के रूप धर कर विचित्र प्रकार का अभिनय दिखाता है। उसी प्रकार मन भी विभिन्न प्रकार के भेष बना लेता है, और अलग अलग ढंग के खेल दिखाता है -स्वांग रचता है। 
मन जब काम-क्रोध-लोभ-मद-मोह-मात्सर्य आदि के पोशाक को पहन कर अपना जो भी कल्पित आकृति और चरित्र धारण करके अभिनय करता है, वह सब घृणास्पद और राक्षसी रूप और खलनायक (रावण villain) का चरित्र होता है। फिर जब इन सब आकृति और चरित्र को त्याग कर (सत्यान्वेषी या) ईश्वर के भक्त का रूप धारण कर (भगवान श्रीरामकृष्ण देव की पूजा) करने में प्रवृत्त (Motivated) हो जाता है, उस समय वह स्वयं शिवालय में स्थित देवप्रतिमा (हीरो या भक्त) का रूप धारण कर लेता है। मन का राक्षसी रूप देही (आत्मा या मनुष्य) का परमशत्रु है और देवप्रतिमा (राम) का रूप देही का परममित्र है। मन का राक्षसी रूप , या मलीन रूप है यह जीव को बद्ध (हिप्नोटाइज्ड) कर देता है, और देव-प्रतिमा का रूप और चरित्र (रामभक्त हनुमान या राम का रूप-ढंग ) जीव को मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है। मलीन अवस्था में मन का स्वभाव कैसा रहता है , जानते हो ? -श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, 'ठीक कुत्ते की पूँछ के समान। ' खींचे रखो तब तक तो सीधा रहता है, और जैसे ही छोड़ दो, उसी समय कुण्डली-कृत  (spiral) चक्राकार हो जाता है ! 
मन की दो अवस्था है -मलीन (मोहजनित मल लागे विविधविधि कोटि जतन नहीं जाहिं) और शुद्ध। जब तक मन मलीन अवस्था में है, तब तक मन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। शुद्ध अवस्था में यदि उसको यदि भगवान श्रीरामकृष्णदेव के चरणकमलों से बाँध कर रख दिया जाय, तब वह ठीक रहता है , नहीं तो संसार में विचरण करने के लिए छोड़ देने पर वह फिर से मलीन अवस्था (अपवित्र अवस्था) में चला जाता है। श्रीरामकृष्णदेव कहते थे , जैसे हाथी को नहला-धुलाकर हाथीशाला में बाँध दिया जाय तब तो वह साफ-स्वच्छ रहता है। यदि कहीं खुले ही छोड़ दिया जाय तो फिर से वह अपने शरीर को फिर से गंदा कर लेता है। 
शुद्ध अवस्था में मन का नाम फिर मन नहीं रह जाता , तब उसका नाम चैतन्य हो जाता है। चैतन्य हो जाने के बाद जिस चैतन्य के कारण यह जगत चैतन्यमय दिखाई देता है, उस चैतन्यमय का साक्षात्कार प्राप्त करता है। फिर वह नीचे उतर कर कभी बदमाशी (villainousness) नहीं दिखा पाता। मन का एक स्वभाव है कि तुम उसको जिसके साथ रख दोगे, वह उसी के जैसा बन जाता है। जड़ के साथ रखो तो जड़ बन जायेगा, चैतन्य के साथ रखो तो चैतन्य बन जायेगा। जैसे लकड़ी के कोयले चार्कोल को मिट्टी पर रख दो, तो मिट्टी के जैसा ठंढा रहेगा, उसको यदि आग में डाल दो तो आग जैसा हो जायेगा। 
जैसे वीणा के तार पर झंकार देने से, अलग अलग धुन (melody) निकलते हैं,उसी प्रकार मन भी अपनी मर्जी से झंकृत होकर विभिन्न धुनों में गाता रहता है। जीव का शरीर मन के लिये एक वीणा के जैसा है। शरीर चार प्रकार का है -स्थूल, सूक्ष्म, कारण और महाकारण।
जिस समय  मन स्थूल-शरीर को लेकर खेलता है,उस समय वह केवल 'कामिनी -कांचन' के पीछे पीछे घूमता है। उस समय 'लस्ट ऐंड लूकर' को छोड़कर दुनिया में कोई अन्य वस्तु भी है, वह उसकी बुद्धि को सूझता ही नहीं है। उस समय वह केवल आहार-निद्रा-भय-मैथुन ही जानता है, केवल खाना, सोना और इन्द्रियसेवा करना ही जानता है।
जिस समय मन सूक्ष्म-शरीर को लेकर खेलता है, उस समय देही का शरीर गर्म हो जाता है। उस समय देही मन -दृश्य मन को देखने में सक्षम हो जाता है। तब वह मन के साथ युद्ध करने में समर्थ हो जाता है ! इस युद्ध में कभी हार जाता है, और कभी जीत जाता है। देही के सामने स्वयं को प्रकट कर देही के साथ युद्ध करके मजे लेता है। मन जब कारण-शरीर में रहता है, तब शिष्ट और शान्त भाव में रहता है, और देही को ईश्वर-दर्शन का आनन्द भोग करवाता है। और महाकारण में जाने पर स्वयं सो जाता है, और जीव को भी सुला देता है। इस सुषुप्ति की अवस्था में मन अपना रूप-गुण-वर्ण सबकुछ भूल जाता है,और देही (जीवात्मा) को परम् शान्ति की अवस्था में ले जाता है। 
सितार भी एक वाद्ययंत्र है, इसमें जैसे सोलह स्क्रीन (पर्दा) होता है, और प्रत्येक पर्दा से भिन्न भिन्न धुनें  निकलती हैं, उसी प्रकार शरीर रूपी सितार में सात पर्दा है। इन सभी पर्दों में संयुक्त होकर मन अलग अलग धुनों में गाता रहता है। 'परमहंसदेव' कहा करते थे - 'पहले वाले तीन पर्दों में एक गला (gorge, कण्ठ) बन गया है। मन जब इन तीन पर्दों में बजता है, उस समय देही को एकदम बेसुरा 
(disharmonious) बना देता है। उस समय 'देही का लक्ष्य' केवल आहार,निद्रा भय और इन्द्रियसेवा रहता है। देही (जीवात्मा) कामिनि-कांचन को ही अपने छाती की पसली (chest rib) समझता है,और अचेतावस्था (unconscious) में या बेहोशी की हालत में रहता है। 
मन जब चौथे पर्दे तक उठ जाता है, उस समय देही की तन्द्रा थोड़ी थोड़ी टूटने लगती है; अभी सो गया है, फिर तुरन्त आश्चर्य से चौंक उठता है। इस समय उसके समझ में यह बात आ जाती है कि इस संसार में 'कामिनी -कांचन' को छोड़कर (barring) और भी अधिक मजे की चीजें हैं ! यह चौथा पर्दा चेतन का निवास-स्थान है। इस स्थान से देही को ईश्वरीय राज्य की झलक मिलने लगती है। यह झलक पहले पहल निमिष मात्र के लिए, पलक झपकने तक क्षणस्थायी बिजली के जैसी होती है। यहाँ किन्तु बेहोश होकर सो जाने का अवसर नहीं होता। इसी अवस्था में कुछ दिनों तक रहने के बाद, देही का शरीर थोड़ा और गर्म होता है। पहले ईश्वर के राज्य की जो झलक मद्धिम सी थी, वह अब ज्योति के जैसी दिखती है। किन्तु चंचलता और स्थायित्व के सम्बन्ध में कोई खास अन्तर नहीं पड़ता है। इसीलिये भगवान की कथा को एकाग्रमन से सुन नहीं पाता। मन साधारण मक्खी की तरह कभी मिठाई के डिब्बे पर बैठता है, फिर मेहतर के गंदगी वाले घड़े पर भी बैठता है। 
मन जब पाँचवें सोपान में उठ जाता है, तब देही का पहले वाला स्वाभाव (Ligament) लगभग बदल जाता है। उस समय उसको देखने से पहले वाला मनुष्य के रूप में पहचाना नहीं जा सकता। अब वह फिर से कामिनी-कांचन में सोना नहीं चाहता। किसी शराबी को शराब के लिए लालसा होती है, उसको भी उसी प्रकार ईश्वरीय कथा श्रवण और नाम-कीर्तन की लालसा रहती है। अब उसका मन, मन के जैसा बन जाता है। अब उसने अविद्या माया के विकट फ़ांस को देख लिया है, मन की दौड़ कहाँ तक है, समझ में आ गया है ! मन के साथ युद्ध करना सीख लिया है। कबीर कहते हैं --'माया महा ठगनी हम जानी।। तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी।। भगतन की भगतिन वे बैठी बृह्मा के बृह्माणी।। कहे कबीर सुनो भई साधो यह सब अकथ कहानी।। 
मन जब छठे सोपान तक उठ जाता है, उस समय देही ईश्वर का दर्शन में समर्थ हो जाता है , किन्तु ईश्वर को छू नहीं पाता। श्रीरामकृष्ण कहते थे -'जैसे किसी लालटेन के भीतर प्रज्वलित दीपशिखा को लालटेन के बाहर से देखा जा सकता है, किन्तु छूते समय लालटेन का सीसा बाधक हो जाता है। उसी प्रकार इस स्थान पर बैठकर देही ईश्वर को देख तो सकता है, किन्तु छू नहीं सकता, एक आवरण रोक देता है। यह अवस्था देही की दुर्लभ अवस्था है। ठाकुर कहते थे कि पाँच के  घर और छः के घर में गोटी खेलने में बहुत मजा है।अर्थात छः के घर में पहुँचकर ईश्वर का दर्शन (भगवान श्रीरामकृष्णदेव का दर्शन) करता है,फिर पाँच के घर में नीचे उतर कर उस दर्शन का कीर्तन करता है। इसके नीचे अर्थात चौथे सोपान पर मजा लेने की आदत छूट गयी है। अब इसके ऊपरी सोपान अर्थात सातवें सोपान में मन के उठने पर, देही में भोग का आस्वादन करने की शक्ति नहीं रहती। यहाँ मन खो जाता है और देही को समाधि हो जाती है। इसको ही मन का लय होना कहते हैं। जैसे एक बूँद गंगाजल अपना रूप गुण खोकर गंगा के जल में मिल गया है। मनरूपी नमक का पुतला गंगा के पानी में जाकर गल जाता है, इतने जन्मजन्मांतर से जिस मन का खेल चल रहा था -वह खेल समाप्त हो जाता है! 
भगवान श्रीरामकृष्ण के दर्शन और उपदेश का ऐसा गुण है कि किसी भी बेहोश बद्ध जीव को होश हो जाता है, सोया हुआ मनुष्य जाग उठता है , मूर्ख व्यक्ति ज्ञानी बन जाता है, लंगड़ा पहाड़ पर चढ़ जाता है, गूँगा बोलने लगता है। ठाकुर कहते थे, किसी कमरे में हजारों वर्षों से अँधेरा हो तो जाने में भी हजारों वर्ष नहीं लगते, दियासलाई की एक तीली जलाते ही सारा कमरा आलोकित हो उठता है। उसी प्रकार स्वामीजी के महावाक्य 'Be and Make' को सुनने और उनकी कृपा होते ही किसी व्यक्ति के अनन्त काल से अँधेरी कुटिया क्षणमात्र में प्रकाशित हो जाती है। 
क्या मन ही सबकुछ है ? क्या मन के ऊपर भगवान श्रीरामकृष्णदेव का कोई आधिपत्य नहीं है ? नहीं, मन सर्वेसर्वा नहीं है, सर्वेसर्वा तो रामकृष्णदेव हैं ! जिस प्रकार मन ज्ञान-इन्द्रिय आदि घोड़ों के मुख में लगाम डालकर उसपर सवारी करता है, उसी प्रकार भगवान श्रीरामकृष्णदेव मन के मुख में लगाम डालकर उसकी पीठ पर सवारी करते हैं। ठाकुर मन को जो करने का आदेश देते हैं ,वह वही करता है। जैसे किसी हांड़ी में आलू-परवल डालकर चूल्हे में आँच देने से थोड़ी देर के बाद आलू-परवल कूदने लगते हैं। किन्तु उनका कूदना उनकी शक्ति से नहीं होता, वे अग्नि की शक्ति से कूदते हैं। उसी प्रकार शरीर रूपी हांड़ी के भीतर मन-बुद्धि जो उछलते कूदते रहते हैं, वह रामकृष्णदेव की शक्ति के बल पर ही कूदते हैं। ठाकुरदेव कहते थे माँ काली की शक्ति से कूदते हैं।           
जिस प्रकार यीशु स्वयं ही वह 'पिता' बनकर, हर बात में पिता की शक्ति, पिता की इच्छा, पिता की महिमा, पिता की दोहाई देते थे, उसी प्रकार श्रीरामकृष्ण वही माँ बनकर, वही राम बनकर, वही कृष्ण बनकर -माँ की शक्ति, माँ की इच्छा, माँ की महिमा कहते थे, कभी कृष्ण की इच्छा कृष्ण की  शक्ति कहते थे, या कभी राम की शक्ति या राम की इच्छा कहते थे। वे अन्य नामों की दोहाई अवश्य देते थे किन्तु मुझे दिखलाया है कि वे स्वयं ही वे सब बने थे। एक समय श्रीरामकृष्ण को  विग्रह रूप में देखा था, अभी उनको विराट रूप में देखता हूँ। मैं काली को भी नहीं जानता, राम को भी नहीं जानता, और कृष्ण को भी नहीं जानता। मैं केवल रामकृष्ण को जानता हूँ। फिर रामकृष्ण को अपने हृदय में धारण कर के माँ सारदा को भी जानता हूँ, स्वामी विवेकानन्द को भी जानता  हूँ,काली को भी जानता हूँ, राम को भी जानता हूँ, कृष्ण को भी जानता हूँ -'नवनीदा' को भी जानता हूँ ! तुम ईश्वर के किसी भी नाम को लो -मैं उसी नाम भीतर श्रीरामकृष्ण को ही देखता हूँ। इसलिये पृथक -पृथक समस्त 'अहं'-बोध या मन भी उसी रामकृष्ण रूपी सर्वव्यापी विराट 'अहं' -बोध के अंश हैं ! 
एक ही वस्तु को हमलोग विभिन्न नामों से पुकार रहे हैं। श्रीरामकृष्णदेव ही परमात्मा हैं, वे ही जीवात्मा, वे ही मन इत्यादि जो कुछ भी गो-गोचर वस्तु है -हैं ! वे ही कभी घोड़ा के रूप में दिखाई देते हैं कभी सवार के रूप में। जैसे किसी नाटक में किसी व्यक्ति को भूत का रोल करना हो, तो वे हैं तो मनुष्य ही किन्तु हाथ-मुँह पर कालिख मल कर भूत बन जाता है। उसी प्रकार आत्मा अपने शरीर पर कीचड़ लगाकर मन बन जाता है और खेल दिखाता है। फिर यही वस्तु कुछ उपाधियों को ग्रहण करके जीवात्मा बन जाता है। यह समस्त खेल, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार -स्मृति सब कुछ श्रीरामकृष्णदेव का ही गोपनीय खेल है, जब तक वे स्वयं इस रहस्य को प्रकट न कर दें -कोई उनके विराट स्वरुप को देख नहीं सकता। 
मनको (दृश्य मन को) और देही को (द्रष्टा मन को) जो अलग अलग वस्तुओं के रूप में देखता है -वह कौन है ? वे यह देही (जीवात्मा बना हुआ परमात्मा) स्वयं श्रीरामकृष्णदेव ही हैं ! वे अपने आप को स्वयं ही देखते हैं। जो इतने दिनों तक मन के साथ तादात्म्य करके अपने शरीर पर कीचड़ मल कर खेल दिखाता आ रहा था; (२४ सितम्बर १०५०-१९८५-१९९४-१९ जनवरी २०१८) अब उसने शरीर के कीचड़ को धो-पोंछकर, मन को पवित्र कर लिया है,और  उसी शुद्ध मन के माध्यम से अपनेआप को स्वयं ही देख रहा है ! जिस समय वह स्वयं को स्वयं ही देखने लगता है, योगी लोग उस अवस्था को आत्मदर्शन की अवस्था कहते हैं! यह दर्शन भी मन के माध्यम से ही होता है, किन्तु इन्द्रिय रूपी घोड़े नहीं रहते हैं। यहाँ सबसे मजे की बात यह होती है कि जो एक पृथक 'अहं'-बोध 'मैं' 'मैं' बोलते हुए गर्जन-तर्जन करता रहता था, वह ऐसा भागता है कि उसका कहीं नामो-निशान भी नहीं रहता (उसका गंध तक नहीं बचता या घ्राण शक्ति ही चली जाती है ?)-त्रिभुवन में खोजने से भी नहीं मिलता। इस समय मन के घोड़ों का खेल एकदम स्थिर हो जाता है।वह खेल मानो कभी था ही नहीं। वहाँ सुख-दुःख, अच्छा बुरा कुछ भी नहीं रहता, चाहे वह अवस्था कुछ ही क्षणों के लिए ही क्यों न हो! 
इस आत्मदर्शन की अवस्था में भगवान श्रीरामकृष्णदेव किस रूप में दिखाई पड़ते हैं ? एक बार भगवान श्रीराम ने हनुमान जी से पूछा था -'हनुमान, तुम मुझे किस रूप में देखते हो ? हनुमान जी बोले -'देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि, जीवबुद्ध्या त्वदंशकः । आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः ।।  -अर्थात हे राम मैं जब स्वयं को एक देह के रूप देखता हूँ तो अपने को आपका दास समझता हूँ, जब मैं अपने को देही या जीवात्मा समझता हूँ तब आपको आत्मा के रूप में देखता हूँ। फिर जब मैं अपने आप को ही आत्मा (श्रीसच्चिदानन्द स्वरुप) में देखता हूँ, उस समय तो आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता , उस अवस्था में आपमें और मुझमें कोई अन्तर नहीं रहता। वहाँ पहुँचकर श्रीरामकृष्णदेव का विराट सच्चिदान्द स्वरूप ही दीखता है ! यह दर्शन आँखों के द्वारा नहीं बोध के द्वारा होता है। 
जीवन्मुक्त अवस्था (डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था) में मनुष्य इस संसार में किस प्रकार रहता है ? अब वह संसार रूपी पानी में तैरता रहता है, किन्तु उसके भीतर पानी नहीं घुस पाता है। अर्थात वह अब संसार के दुःख-सुख में पड़ने से भी चंचल नहीं होता, जैसे ध्रुवतारा कभी भगवान के लक्ष्य को नहीं खोता। उसका शरीर चाहे जिस दिशा में भी क्यों न जाये, उसका मन एकदम कम्पास के काँटे के समान ईश्वर के चरणकमलों में ही अँटका रहता है। यह परम शान्ति की अवस्था है। भगवान श्रीरामकृष्णदेव की अपार कृपा न होने से कोई मनुष्य इस अवस्था को प्राप्त नहीं होता। इस जीवन्मुक्त अवस्था में भी पृथक 'अहं'-बोध या 'मैं'-पन एकदम से लुप्त नहीं हो जाता, किन्तु अब उसका सिर्फ दाग भर रह जाता है, भगवान श्रीरामकृष्णदेव का दास बन कर रहता है ! 
यह पृथक 'अहं'-बोध या 'मैं'-पन क्या है ? बचपन से ही मनुष्य जो इस 'मैं' 'मैं' की रट लगाता रहता है, वह बड़ा बदमास मैं है। जैसे 'भकोलवा' पकड़ लेगा बोल कर डराने से, जैसे बच्चे डर जाते हैं, जबकि भकोलवा नामक कोई चीज होती ही नहीं है। उसी प्रकार 'मैं' 'मैं' कहते हुए मनुष्य जो चिल्लाता हुआ घूमता रहता है,किन्तु 'मैं' नामक कोई वस्तु होती ही नहीं है। जैसे जब बच्चा बड़ा हो जाता है, तब समझ लेता है कि 
जैसे 'भकोलवा' केवल एक भयवाचक शब्द मात्र है, उसी प्रकार ज्ञान होने पर व्यक्ति समझ जाता है कि
 'मैं' केवल एक अहंकार-वाचक शब्द मात्र हैं -यह 'कच्चा-मैं' भी 'भकोलवा' शब्द के जैसा मनगढ़न्त,
काल्पनिक या 'मिथ्या' है। ठाकुरदेव कहते थे , यह 'मैं'-पन क्या है, जानते हो ? -जैसे कोई प्याज होता है। प्याज का छिलका उतारते जाओ तो जैसे अन्त में जैसे प्याज ही नहीं रह जाता; उसी प्रकार शरीर क्या मैं है ?... से लेकर विचार करते करते 'मैं' को कहीं पाया नहीं जा सकता !    
मनुष्य जो  सीधे रास्ते को छोड़ कर जिस भूलभूलैया (labyrinth) में उलझा हुआ है, जो इस सर्वश्रेष्ठ योनि (শুদ্ধ ডাঙায়) को प्राप्त करके भी जन्म-मरण के चक्रव्यूह में फँसा हुआ है,और  दुःख-कष्ट भोग रहा है,
उसका मूल कारण इसी 'मैं'-नहीं (नाम-रूप), को 'मैं' हूँ- समझना है। यह ईश्वर से भिन्न पृथक 'मैं'-हूँ, यह समझ ही सम्पूर्ण अज्ञान है, और अविद्या माया की गाँठ है, यह बोध जिस व्यक्ति को हो जाता है, इसके होते ही-उसका सारा भ्रम चला जाता है। उसके लिए धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, पवित्रता-अपवित्रता, प्रवृत्ति-निवृत्ति (?) समान हो जाते हैं ! अब वह देख पाता है कि उसके गले का हार तो गले में ही है ! उसका पूजा, जप आदि सारे कर्मकाण्ड छूट जाते हैं। अब उसको हर-पार्वती का दर्शन सम्पूर्ण विश्व में अपने पिता-माता के रूप में होता है। इसके अतिरक्त और जो कुछ अनुभव होता है, वह उस अवस्था में पहुँचे बिना कोई नहीं समझ सकता। 
जो 'मैं'- 'मैं अमुक बाबू का लड़का हूँ, मैं अमुक हूँ, मुझको नहीं जानते .....आदि बातें रात-दिन सोंचता रहता है, वह 'मैं' वास्तव में क्या है-जानते हो ? " वह 'मैं' - 'वे' (ठाकुर) मात्र हैं !!"- किन्तु इस निष्कर्ष पर तर्क-शक्ति (rationality) के द्वारा नहीं पहुँचा जा सकता, हजार बार सुनने से भी समझ में नहीं आता, यदि स्वयं भगवान ही कृपा करके कभी स्वयं दिखा दें -या समझा दें, तभी मनुष्य समझ पाता है ! और समझ लेने के बाद वह व्यक्ति -'আমি'-হারা হয় - अर्थात 'मैं'-मुक्त हो जाता है ! इस विश्व-ब्रह्माण्ड में 'एक' (श्री ठाकुर) के सिवा दूसरी वस्तु नहीं है। 'एक ही अनेक बन गया है' -यह जीव-जगत जो कुछ भी हम देख रहे हैं, सब कुछ 'वे' - ही हैं। यह माया का खेल है कि बन्धन में भी जीव 'मैं' 'मैं' करता है। माया का ऐसा जादुई खेल है कि 'वे' (ठाकुर) ही 'यह' -'मैं' बने हैं, इस सत्य को जानने ही नहीं देती ! माया के खेल से प्राणी मोहित हैं। माया मरने के समय तक भी किसी प्राणी को अपना खेल समझने नहीं देती हैं! ये माया दुहरी नीति (dual policy) से खेल दिखाती हैं। एक है विद्या-माया और दूसरी है अविद्या माया। जो जीव अविद्या-माया के राज्य में रहते हैं, वे सदगुरु (लीडर, मार्गदर्शक नेता या लोकशिक्षक) के अभाव में कामिनी-कांचन में आसक्त होकर बेहोशी में खेलते रहते हैं। 
और जो लोग भगवान श्रीरामकृष्णदेव की कृपा से विद्या-माया (माँ सरस्वती =माँ सारदा देवी) के राज्य में चले आते हैं, उनको माँ अपना खेल दिखला देती है, और खेलाते हुए लक्ष्य में पहुँचा देती है। करोड़ों में कोई एक व्यक्ति भी इतना भाग्यवान विरला होता है। यदि कोई एक भी व्यक्ति मिल जाय तो वह माँ का प्यारा पुत्र या मातृभक्त होता है। किन्तु यह समझना होगा कि माँ प्रिय पुत्र होकर भी हँसने-रोने के खेल से मुक्त नहीं होते। 'जहाँ तक मैं-तूम का खेल चल रहा है, वहाँ तक माया का ही राज्य है !' ब्रह्मा, विष्णु, महेश से लेकर कीट पर्यन्त सभी माया के चक्रवात (Whirlwind) में फंसकर चक्कर काट रहे हैं। किन्तु इस बंधन में भी आनन्द होता है, दुःख नहीं होता। क्योंकि ये लोग माया का जादुई-खेल देखते हुए रोने-हँसने का अभिनय करते हैं। माँ के चंचल चरण के पीछे पीछे बस आनन्द से चलते जाते हैं ! अब वे 'मैं' 'मैं' नहीं करते - कहते हैं हे भगवान 'तूँ' ही है, 'तुम' 'तुम' करते हैं। बछड़े के जैसी दुर्दशा हुए बिना यह 'बदमाश मैं' नहीं सीधा होता। यह जो बदमाश -'मैं' या 'कच्चा मैं'-नामक चीज है, वह 'अहंकार' -स्वयं मूर्तिमान माया है ! किन्तु यह तभी तक रहती है, जब तक 'पक्का मैं' (भगवान श्रीरामकृष्ण के विराट रूप) का दर्शन नहीं होता। यह 'मैं' जब 'तूँ'- बन जाता है, तब फिर 'माया अहंकार' नहीं रह जाता। 'मैं' को जैसे ही पहचान लिया जाता है, अहंकार ऐसा भागता है कि सम्पूर्ण विश्व में खोजने से भी दिखलाई नहीं देता। क्योंकि तब यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि वही 'एकमेवाद्वितीय' सर्वशक्तिमान भगवान एक होकर भी माया की सहायता से जीव-जगत की सृष्टि करके असंख्य 'मैं' बनकर जादू का खेल दिखला रहे हैं। वे ही एकमात्र वस्तु हैं, अनन्त घट में व्याप्त होकर असंख्य मैं बन गए हैं। प्रत्येक घट में, प्रत्येक अवस्था में एक मात्र प्रभु श्रीरामकृष्णदेव ही हैं, दूसरा और कोई नहीं है! यह ज्ञान हो जाने पर 'बदमाश मैं' नहीं रहता, जो रहता है वह माँ जगदम्बा ही रहती है। 
इस 'मैं ' - का दर्शन ही आत्मदर्शन या आत्मसाक्षात्कार है ! आत्मदर्शन होते ही बदमाश 'मैं' भाग जाता है। जब कोई ज्ञानी 'मैं' को पहचान लेता है,तब कहता है-'सोअहं'! और भक्त लोग उसको माँ जगदम्बा या प्रभु श्रीरामकृष्ण कहते हैं। पूर्णज्ञान होने पर 'मैं' कैसे चला जाता है -जानते हो ? जैसे जब तक ठीक ठीक दोपहर का समय नहीं होता, अर्थात सूर्य जब तक एकदम सिर के उपर नहीं उठ जाता, तबतक वस्तु की एक छाया रहती है; किन्तु जैसे ही सूर्य माथे के ऊपर उठ जाता है, चारों ओर देखने से भी छाया दिखाई नहीं देती। उसी प्रकार ज्ञानसूर्य के पूर्णरूप से विकसित हो जाने पर 'बदमाश मैं' कहीं दिखलाई नहीं देता। उस समय यह स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है कि छाया के रूप में इतने दिनों तक बदमाश ही था। छाया जैसे मात्र छाया ही है, जो होने से भी अस्पृश्य (intangible, अमूर्त या न छूने योग्य है !) अतएव 'मैं' भी उसी प्रकार मिथ्या है।अज्ञान भ्रमित या हिप्नोटाइज्ड अवस्था में- 'मैं' छाया के रूप में रहता है; पूर्णज्ञान में छाया अर्थात यह बदमाश 'मैं' चला जाता है। तब रहते कौन हैं ? छाया ने जिसको पकड़ा था -केवल वे ही रह जाते हैं। किन्तु यह दर्शन अनवरत नहीं बना रहता, संसार (महामण्डल कार्य ?) के कार्यों में उतरते ही फिर से 'मैं' चला आता है। किन्तु अब उसमें जादू दिखाने (सिंह को भेंड़ बना देने) की क्षमता नहीं होती !
भक्त माँ सारदा को सगुण-साकार रूप में भी देखते हैं, और फिर विश्वमयी -ब्रह्ममयी भी देखते हैं। किसी व्यक्ति ने ठाकुरदेव से प्रश्न किया था कि 'ब्राह्मधर्म' और 'सनातन हिन्दू धर्म' में क्या अन्तर है ?
 उन्होंने कहा था -जहाँ सहनाई बजती है, वहाँ दो बजाने वाले रहते हैं- एक व्यक्ति केवल 'पों' को पकड़े रहता है, और दूसरा राग -रागिनी बजाता है। ब्राह्म लोग (निराकारवादी आर्यसमाज-ब्रह्मसमाज आदि) लोग पों पकड़े रहते हैं और साकारवादी लोग राग-रागिनी बजाते हैं। अर्थात भगवान के साकार-निराकार हर रूप का आनन्द लेते हैं।
'मैं' के मर जाने के बाद ही मुक्ति होती है ! भगवान रामकृष्ण का महावाक्य है - " मुक्त होबो कबे, 'आमि' जाबे जबे!" मैं अभी मुक्त हूँ या बन्धन में हूँ -(मैं अभी हिप्नोटाइज्ड अवस्था में हूँ या डीहिप्नोटाइज्ड हो गया हूँ ?) यह हमें कौन बतला देता है-जानते हो ? मन ! मन यदि तुमको यह समझा दे की तुम तो बद्ध जीव मात्र हो, तब तुम बद्ध हो; और मन यदि तुमको यह समझा दे कि तुम मुक्त हो -तब तुम मुक्त हो। सब मन का ही खेल है। 
मन और इन्द्रिय अलग अलग चीजें नहीं हैं, मन स्वयं ही इन्द्रिय बन गया है ! मन जब तक 'कामिनी-कांचन' में आसक्त या बद्ध रहता है, तबतक वह सर्वदा संशय-युक्त रहता है। इस बद्ध अवस्था में मन नाम संशय होता है, और मुक्त अवस्था में मन का नाम चैतन्य हो जाता है। मन और बुद्धि दो अलग अलग चीजें हैं, किन्तु शुद्धावस्था में दोनों एक हो जाते हैं, और तब मन का नाम चैतन्य हो जाता है। " भगवान मन-बुद्धि के द्वारा अगोचर होकर भी मन-बुद्धि से गोचर हैं" -इस विरोधाभासी कथन का तात्पर्य क्या है ? इसका अर्थ यही है कि मन के संशय-ग्रस्त अवस्था में अगोचर हैं, और शुद्धमन, शुद्धबुद्धि या चैतन्यावस्था में गोचर हैं। इस अवस्था में मन-बुद्धि (खण्ड -चैतन्य, पृथक 'अहं'-बोध) चैतन्यमय (ठाकुर) के साथ 'मिश्रित' या घुलमिल कर एक भी हो जा सकता है ! यह गाना ठाकुर अक्सर गया करते थे -'चरण कालो भ्रमर कालो, कालाय कालो मिशे गेलो' इत्यादि  "মজলো আমার মন-ভ্রমরা শ্যামাপদ-নীলকমলে।(শ্যামাপদ-নীলকমলে, -- কালীপদ-নীলকমলে। ४जून १८८३ )" 
यह मन जब 'श्यामा माँ के चरण कमलों में लीन हो जाता है, उस समय वह मन चैतन्यावस्था को प्राप्त हो जाता है, अर्थात उसका नाम तब मन नहीं रहता -तब उसका नाम शुद्धमन या चैतन्य हो जाता है। क्योंकि अभी उसका रंग और माँ काली के चरणों का रंग एक हो गया है ! संशयग्रस्त मन जब एकबार आत्मदर्शन करके जैसे ही चैतन्य हो गया, वैसे ही तुरन्त, उसी समय (Immediately) चैतन्यमय (ब्रह्म) उसको पकड़ लेते हैं। समरूप (Homogeneous या एक ही प्रकार का) न होने से कोई वस्तु दूसरी वस्तु के साथ मिश्रित नहीं होती ! दूध में घी भी होता है, किन्तु दूध घी के साथ मिश्रित नहीं होता, दूध के साथ दूध मिश्रित हो जाता है। दूध में घी डालने पर घी अलग तैरेगा। किन्तु यदि इस दूध को घी बना दिया जाय, तो दोनों की उभयवृत्तिता (ambivalence) समाप्त हो जाएगी और एकत्व हो जायेगा अर्थात घी घी में मिश्रित हो जायेगा। चैतन्यमय में माया मिश्रित होने से यह सृष्टि बनी है, जीव-जगत बन गया है। जीव-जगत माया विमुक्त होते ही चैतन्य हो जायेगा। इस अवस्था में बहुरूप (polymorphous) एक-रूप (Uniform) हो जाते हैं, वह किस प्रकार होता है, उसे केवल वे ही समझ सकते हैं। यह दुनिया उस एक-रूप के बहुरूप बनने के खेल को किस प्रकार देखती है ? मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार, आत्मा, जीवात्मा -यह सभी नाम उसी एक वस्तु (ब्रह्म भगवान श्रीरामकृष्णदेव: जो ब्रह्म बाह्य जगत ब्रह्माण्ड को नियंत्रित कर रहे हैं वे क्या मेरे अन्तर्जगत को नियंत्रित और व्यवस्थित नहीं कर सकते ? पर हमारा 'मैं' उनको अपने हृदय में आने नहीं देता !) के हैं ! 
आत्मा और जीवात्मा में क्या अन्तर है ? इन दोनों के सहारे ही मन का खेल चलता है। आत्मा को आत्मा भी कहते हैं, और परमात्मा भी कहते हैं। ब्रह्मज्ञानियों के लिए ब्रह्म, योगियों के लिए आत्मा और भक्तों के लिए जो भगवान हैं, ये तीनों एक ही वस्तु हैं, और एक के ही नाम हैं। बड़ी आग से जैसे असंख्य अग्निस्फुलिंग या चिनगारी (scintilla) की सृष्टि होती है; उसी प्रकार एक ही आत्मा या परमात्मा से असंख्य जीवात्माओं की सृष्टि होती है। एक ही आत्मा [परमात्मा] या सृष्टिकर्ता अपनी महाशक्ति 'माया' की सहायता से करोड़ो करोड़ भिन्न भिन्न जाति, आकृति के गुण और वर्णों के जीवात्माओं के रूप में परिणत हो जाते हैं। यदि परमात्मा को अनन्त-अपार समुद्र के रूप में कल्पना करें, तो असंख्य जीवात्मायें उसमें उसी प्रकार अवस्थित हैं, जैसे मानों करोड़ो करोड़ प्रकार के घड़े हैं औ इसी समुद्र के जल में निमग्न हैं। समुद्र के ही जल से भरे एक एक घड़े एक एक जीवात्मा हैं। जीवात्माओं के भीतर जो करोड़ों करोड़ प्रकार के शरीर, रूप, या आधारपात्र (लोटा,कटोरा,घड़ा आदि) बने हैं, वे भी इसी जल से बने हुए हैं। यह हमलोग सुन चुके हैं कि सूक्ष्म (गॉड-पार्टिकल) ही स्थूल (जीवजगत) बन गया है!  
जैसे भाप (steam) अत्यन्त सूक्ष्म है, यही बादल या मेघ बन जाता है, बादल से वर्षा, वर्षा से जल और जल से बर्फ (हिमखण्ड) बन जाता है; उसी प्रकार सूक्ष्म परमात्मा स्थूल होकर पात्र (विभिन्न आकार रंग-रूप के शरीर) बन गए हैं। और इस पात्र (हिमखण्ड) के भीतर जल के रूप में परमात्मा ही हैं। जीवात्मा का (हिमखण्डों का दिनेश मलिक ऑफ़ तपन-गोड़ाई, प्रतिमा दी नस्कर, रैली में बहुत अच्छा बोला) जन्म भी नहीं है, और मृत्यु भी नहीं है। जीवात्मा (हिमखण्ड) सागर के जल से उत्पन्न होता है, फिर सागर के जल में ही लीन हो जाता है। घड़े के भीतर जल रूपी जीवात्मा है, वह भी घड़े के टूटने पर जल में ही मिश्रित हो जाता है। उसी प्रकार घड़ा (शरीर -पंचभूत) भी स्थूल से सूक्ष्म होकर उसी जल में मिश्रित हो जाता है। मृत्यु क्या है-जानते हो ? जिस घड़े के टूटने से घड़े का जल सागर में मिलने के बाद पुनः एक दूसरे घड़े में प्रवेश करता है, उसका ही नाम मृत्यु है ! 
" जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर भीतर पानी,
फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।"
अर्थ :- जिस प्रकार सागर में मिट्टी का घड़ा डुबोने पर उसके अन्दर - बाहर पानी ही पानी होता है , मगर फिर भी उस घट ( कुम्भ ) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है, इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है, पानी पानी में मिल जाता है , सभी अंतर लुप्त हो जाते हैं।  ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुँ ओर चेतनता रूपी जल ही जल है, तथा हम जीव भी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान हैं ( कुम्भ हैं ), जो पानी से भरे हैं, अर्थात चेतना - युक्त हैं!  तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप - रंग - आकार - प्रकार ही हैं , इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा। जड़ता (संशय ग्रस्त मन या कच्चा 'मैं'-पन ) के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी।
जैसे परमात्मा की कल्पना समुद्र के रूप में की जाती है, उसी प्रकार परमात्मा या ब्रह्म को महाकाश भी कहा जाता है। भाप ही अपनी स्थूलवस्था में जिस प्रकार मेघ,वर्षा,पानी, बर्फ आदि बन जाता है,उसी
प्रकार महाकाश की स्थूलवस्था को पंचभूत कहते हैं। फिर यह पंचभूत पंचीकृत (सांद्रीकरण) होकर जीव-जगत बन जाता है। जिस प्रकार सूक्ष्म (वाष्प) से स्थूल (बर्फ), फिर स्थूल से सूक्ष्म बनने का खेल चलता रहता है, उसी प्रकार नित्य से लीला और लीला से नित्य होता रहता है। ब्रह्म से मनुष्य फिर मनुष्य से ब्रह्म बना जा सकता है। परमहंसदेव इसीको अनुलोम -विलोम कहा करते थे। [वचनामृत २६ अक्टूबर १८८४ /१८ अक्टूबर १८८५] उनकी एक बात और बहुत सुन्दर है -" जिसका नित्य है, उसी की लीला है, जिसकी लीला है, उसीका नित्य है!" इसीलिए ठाकुरदेव ने आचार्य शंकर की तरह जीव -जगत को कभी मिथ्या नहीं कहा।तथापि शंकर के मायावाद को उन्होंने बिल्कुल अस्वीकार भी नहीं किया है। 
जीवात्मा भी परमात्मा के सिवा अन्य कुछ नहीं है, वे परमात्मा ही जीवात्मा रूप में भास रहे हैं, अन्तर सिर्फ इस बात में है कि जीवात्मा में माया है, और परमात्मा ,माया से लिप्त नहीं है। माया की उपाधि को ग्रहण करके परमात्मा ही जीवात्मा बन गए हैं। माया के साथ रहते हुए भी परमात्मा को माया हिप्नोटाइज्ड नहीं कर सकती,जैसे साँप के मुख में विष होता है, किन्तु उससे साँप को कोई हानी नहीं होती। किन्तु वही माया जीव को सम्मोहित कर देती है ! परमात्मा साक्षीस्वरूप हैं, और जीवात्मा फलभोगी ! सुख-दुःख, पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा -जीवात्मा सबकुछ का भोग करते हैं, परमात्मा के निकट ये जा ही नहीं सकते। जैसे धुंए से रसोई का दीवाल काला हो जाता है, किन्तु आकाश में कोई दाग नहीं पड़ता। जो मायामुक्त परमात्मा है, वे शिव हैं, वे ही मायामुक्त जीवात्मा जीव बन जाते हैं। जीवात्मा जैसे ही माया का त्याग कर देता है, वह अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है; अर्थात जीवात्मा शिवत्व को प्राप्त हो जाता है। जीव शिव बनकर जन्म-मरण के भय से मुक्त हो जाता है। द्वासुपर्णा सयुजा सखाया [ -'শ্রী শ্রী রামকৃষ্ণ মহিমা '।একটি পাখি স্থির, ধীর, নড়ে চড়ে না,] नीचे वाला पक्षी सिद्धार्थ गौतम भी समय आने पर ऊपर वाले पक्षी 'गौतम बुद्द' में लीन हो सकता है।
परमात्मा निराकार भी हैं और साकार भी हैं। वे जिस किसी आधार में हैं, वह सभी आकार परमात्मा का ही आकार है। मनुष्य के आधार में मनुष्य के आधार में मनुष्याकार हैं, तो गाय के आधार में गाय के आकार में हैं। पेड़ के आधार में पेड़ के आकार में हैं। मन-बुद्धि के अगोचर होकर भी मन -बुद्धि से गोचर भी हैं। मनबुद्धि जबतक अशुद्ध है (संशयग्रस्त है) तबतक अगोचर हैं, उधर शुद्ध मन शुद्धबुद्धि (=तीसरी आँख)
से गोचर भी हैं। ठाकुर इस प्रकार सर्वधर्म समन्वय करके सार्वभौमिक धर्म की बुनियाद स्थापित कर दिए। 
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे यदि धन और पुत्र चाहते हो -तो वैद्यनाथधाम या देवघर जाओ,और यदि भगवान को चाहते हो तो यहाँ आओ ! ठाकुर से प्रार्थना करनी चाहिये - 'हे ठाकुर, तुम्हारे प्रति (शिव ज्ञान से जीव पूजा -बी ऐंड मेक'-आंदोलन के प्रति) मुझमें कभी अरुचि (distaste) उतपन्न न हो, और 'तुम्हारी सेवा-पूजा का परित्याग करने की इच्छा' कभी मन में आने न पाये। 
जो लोग ईश्वरलाभ कर चुके हैं, उनकी अवस्था कैसी होती है ? आलू-बैगन के सीझ जाने पर आलू-बैगन की अवस्था जैसी हो जाती है, ईश्वरलाभ होने पर मनुष्य की भी वैसी ही अवस्था होती है। ईश्वरलाभ हो जाने पर 'जैविक सोच' (पाशविक वृत्ति) नहीं रहती। उसका स्वाभाव दूसरी तरह का हो जाता है। जो सामान्य मनुष्य या बद्ध जीव हैं, वे उसको सनकी या पागल समझते हैं। उसमें उनकी कोई गलती भी नहीं है, क्योंकि जहाँ सारा शहर 'कामिनी -कांचन ' को लेकर व्यस्त है केवल एक व्यक्ति भिन्न प्रकार का है ? जब १० सामान्य लोगों के साथ एक व्यक्ति का स्वाभाव मेल नहीं खाता, तो सामान्य लोग उसको तपाकि-सनकी -पागल यही सब कहते हैं। समाज के बहुत थोड़े से लोग ही उसका सम्मान करते हैं। इन थोड़े से लोगों में जिनकी गिनती हो सकती है, वे स्वयं ईश्वर प्राप्त करने वाले साधक या सत्यार्थी होते हैं। वे लोग सत्य या ईश्वर की तलाश में हैं, किन्तु अभी तक प्राप्त नहीं किये हैं। ऐसे एक लाख साधकों में से कोई एक ईश्वर को प्राप्त कर पाता है।" [२८ जुलाई १८८५  লাখে  ঘুড়ি একটি কাটে,হেসে দাও মা হাত চাপড়ি] इसी से समझ लो कि समाज में मनुष्य कितने हैं और पशुमानव कितने हैं ! समुद्र जैसे समुद्र के रूप में अनादि अनन्त काल से पड़ा हुआ है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, उसी प्रकार ब्रह्म भी परमात्मा रूप में अनन्त काल से अपने निज-स्वरुप में विराजमान हैं। समुद्र जैसे तरंग उठते हैं , थोड़ी देर तक रहने के बाद सागर में लय हो जाते हैं, उसी प्रकार जगत की उतपत्ति-स्थिति-लय का खेल दिखाते हैं। (ধান আগুনে সিদ্ধ হলে তার যেমন অংকুরোৎপাদিকা শক্তি থাকে না)   
ब्रह्म ही मूलवस्तु हैं जो असंख्य नाम -रूप में जीवात्मा बन गए हैं ,  तो फिर मन-बुद्धि इत्यादि क्या हैं ? 
परमात्मा ने जीवात्मा को उनका अपना रस और सृष्टि के रस का सम्भोग करने के लिए मन,बुद्धि, इन्द्रिय आदि उपकरण दे दिए हैं। ये सभी रस सम्भोग के उपकरण हैं। जीवात्मा में माया रहने के कारण जीवात्मा परमात्मा से पृथक हो गया है। जीवात्मा स्वयं को पहचान नहीं पा रहा है कि वह वास्तव में कौन है ? वह माया में सम्मोहित होकर 'मैं' 'मैं' चिल्ला रहा है। रुपरसमय सृष्टि बनाकर परमात्मा उसीके भीतर छिप गए हैं। जीवात्मा ने रसमय जगत के साथ उसको भोग करने की इन्द्रियों को भी प्राप्त कर लिया है। वह इस जगत को ही सुख मानकर भोगों में लगा हुआ है। किन्तु जो सृष्टिकर्ता या ब्रह्म हैं, वे तो अपने द्वारा रचित सृष्टि को छोड़कर कहीं चले नहीं गए हैं, यदि कोई समयानुसार सत्य या ईश्वर का आभास प्राप्त कर लेता है, तब इन्हीं उपकरणों की सहायता से उन्हें प्राप्त भी कर लेता है। इन उपकरणों का सबसे बड़ा गुण यह है कि उनको तुम जिस दिशा में चलाने का अभ्यास करोगे वे सभी उसी दिशा में जायेंगे ! [या मति सा गतिर्भवेत, सिद्धिर्भवति तादृशी] रूप-रस में चलाओ , तो रूप-रस को ही दिखलायेंगे; यदि परमात्मा की दिशा में चलाओ तो उन्हीं का दर्शन करवा देंगे ! 
किन्तु उम्र अधिक होने के कारण, आदत यदि प्रवृत्ति बन गयी हो,रुपरस में ही डूबे रहने की आदत यदि प्रवृत्ति बन गयी हो तो फिर उस मन-बुद्धि को 'श्यामपदे नीलकमले' में डुबोना, माँ काली के काले श्रीचरणों में काले भ्रमर रूपी मन को बैठाना, उन्हें अन्तर्मुखी करना बहुत कठिन हो जाता है। एक बात स्मरण रखना होगा कि जीवात्मा के माया की धार में बहते रहने के कारण , मन-बुद्धि आदि सभी इन्द्रियाँ अपने आप में पूर्ण सामर्थ्यवान हैं, स्वाधीन हैं -किन्तु यह सत्य नहीं है। इन सभी घोड़ों के मुख का लगाम तो इनकी रचना करने वाले विधाता के हाथों में है। जब उनकी इच्छा होगी तब उनके इस नशे को दूर करने जो औषधि है, उन्हें देकर मन की उन्मत्तता की दिशा को मोड़ देंगे। उन औषधियों के नाम है -'विवेक-वैराग्य-ज्ञान-भक्ति!' जो मन-बुद्धि इस विशालाक्षी नदी के भँवर में लाकर डुबो रही थी, वही मन जीवात्मा का उद्धार करने वाला गुरु बन जायेगा। 
भक्ति क्या है ? भगवान का दर्शन और उनकी स्वार्थशून्य सेवा करने की वैसी दृढ़ प्रवृत्ति जो परनारी/पर-पुरुष से प्रेम करने में होती हो (intimate instinct-अवैध परकीया प्रेम जैसी?) यह प्रवृत्ति जिस मूलवस्तु से उत्पन्न होती है, उसका नाम है भक्ति। यह भक्ति जिस आधार में होती है, उसे भी वे बहुत प्यार करते हैं। इस भक्ति को प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं है, यह केवल भगवान (माँसारदा देवी) की कृपा पर निर्भर करती है। उनकी कृपा ही उनकी भक्ति है! वे अपनी इच्छा से इसे जीव को देते हैं। भगवान का स्वभाव ठीक किसी बच्चे के जैसा है, जैसे एक पिता ने अपने बच्चे को लड्ड़ू दिया है, लड़का उस लड्ड़ू को पकड़कर बैठा हुआ है। उस समय उस लड़के का पिता, या कोई अपना आदमी उससे लड्ड़ू माँगे, तो वह और छुपा लेता है। और रुहांसा होकर कहता है -मैं लड्ड़ू नहीं दूँगा ! उसके बाद जैसा बच्चों का स्वभाव होता है, रस्ते से जाते किसी अपरिचित व्यक्ति को बुलाकर उसके हाथ में लड्ड़ू दे देता है। भक्ति देने के मानले में भगवान का भी स्वभाव ऐसा है। वे (स्वामी विवेकानन्द जी)  किसी बिल्कुल बाहरी अपरिचित व्यक्ति को भक्ति देकर अपना बना लेते हैं। वे पहले भक्ति देते हैं, उसके बाद अपना भक्त बना लेते हैं ! भगवान श्रीरामकृष्णदेव के लिए यह भक्ति कसौटी का पत्थर जैसी थी। श्रीरामकृष्णदेव किसी को अपने मन के द्वारा पसंद होने पर अनुग्रह करते थे, अच्छा न लगने पर छोड़ देते थे। ठाकुर जिस किसी में भक्ति (सत्य-निष्ठा ?) देखते थे, उसी से प्रेम करते थे , चाहे वह किसी भी जाति-धर्म का क्यों न हो, या चाहे वह कोई वैश्या, कामुक (lecherous) या शराबी ही क्यों न हो !
रामकृष्णदेव स्वयं भगवान थे, इसका सबसे बड़ा प्रमाण उनकी भक्ति-प्रियता ही थी। जिस किसी आधार में भक्ति है , वहाँ वे मानो स्वयं निवास करते हैं। कोई ईश्वर -भक्त व्यक्ति चाहे किसी भी देश का क्यों न हो, उसके साथ ठाकुर रामकृष्ण का साक्षात् संबंध हुआ है। किन्तु भक्तिशून्य हृदय से दूर रहते थे। इधर बहुत दयालु हैं, किसी को भोजन नहीं मिला है, यह देखकर रो रो कर जमीन भिगा देते हैं, किन्तु भक्ति का दान करते समय कंजूस से भी कंजूस बन जाते हैं। भक्ति की प्रार्थना करने पर यह गीत गाते थे - [२५ फरवरी १८८३ আমি মুক্তি দিতে কাতর নই, আমি ভক্তি দিতে কাতর হই। কাঁচাগোল্লা भक्ति जो वस्तु है, ज्ञान भी वही वस्तु है, किन्तु आस्वादन में फर्क है। भक्ति केतारि और ज्ञान मिश्री है। भक्ति के साथ साथ जो ज्ञान रहता है उसको भक्ति-मिश्रित ज्ञान कहते हैं। भक्ति का प्रवेश केवल ड्राईंग रूम तक नहीं, भीतर तक है। 
जीवात्मा देह के भीतर प्रवेश कैसे करता है, और देह का त्याग कैसे करता है ?चन्द्र या सूर्य को ग्रहण के समय जब राहू पकड़ता है, तब चंद्रग्रहण के समय चंद्र के अंग में जो क्रिया दिखाई देती है, वह क्रिया ही राहु के चंद्र में प्रवेश या परित्याग का परिचायक होता है। उसी प्रकार देह के कुछ लक्षणों को देखकर जाना जाता है कि जीवात्मा कब शरीर में हैं, और कब देह का त्याग कर दिए हैं। जीवात्मा परमात्मा के हाथ का पुतला है। जीवत्मा स्वयं भी अपना जन्म-मरण नहीं जान पाता। जब तक माया का त्याग नहीं होता, उतने दिन तक घर के भीतर घुसने का उपाय नहीं है। 
माया जाती कैसे है ? माया को पहचान लेने से भाग जाती है-[ २७ अक्टूबर १८८२ ঠাকুর আমি যে মুচি ]  किन्तु एक बात है, जो मनुष्य को कामिनी-कांचन में सम्मोहित करके रखती हैं, वे अविद्या माया हैं। अविद्यामाया के जाते ही विद्यामाया का राज्य शुरू हो जाता है। इस राज्य का कभी अन्त नहीं होता। सुना है कि समाधिस्त होने पर ही विद्यामाया के पार हुआ जा सकता है। सब कुछ शक्ति का खेल है, सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड ही माँ राजराजेश्वरी का राज्य है। मूल परमाप्रकृति से ही सृष्टि निकली है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन्हीं के आज्ञा का पालन करते हैं। वे आदिपुरुष एकेश्वर जब, अवतार के रूप में अवतीर्ण होते हैं, तब उनको भी परमा प्रकृति के भीतर से अवतीर्ण होना पड़ता है,उनकी शक्ति से शक्तिमान होकर ही वे जादू दिखाते हैं, फिर उन्हीं के भीतर होकर ही तिरोहित होते है।
ठाकुर गाते थे - অনন্ত রাধার মায়া কহনে না যায়  ठाकुर कहते थे -प्रत्येक अवतार महाशक्ति रूपी सागर के एक एक बुल-बुला मात्र हैं ! वे ही देह और वे ही देही हैं, वे ही यंत्र हैं, वे ही यंत्री हैं। वे रथ हैं, और वे ही रथी हैं; वे ही प्रकृति हैं, वे ही पुरुष। सर्वशक्तिमान (all-powerful) माँ जगदम्बा ही हैं !['পথ ভাবে আমি দেব রথ ভাবে আমি,. মূর্তি ভাবে আমি দেব--হাসে অন্তর্যামী।] 
कभी हमलोग आत्मा या ब्रह्म को सर्वशक्तिमान कहते हैं, कभी शक्ति को -दोनों का अन्तर क्या है ? प्रकृति शक्ति ही यदि आधार और आधेय हैं, और जितनी भी सृष्ट वस्तुयें हैं सबकुछ यदि वे ही हैं - तो फिर पुरुष या ब्रह्म गये कहाँ ? ठाकुरदेव कहते थे - " जब तक गुरुदेव की कृपा से ईश्वरलाभ और आत्मदर्शन नहीं हो जाता, तब तक इन समस्त ईश्वरीय तत्व को समझ पाना बहुत कठिन और दुर्बोध्य है। 'যতদিন গুরুর কৃপায় ঈশ্বরলাভ ও আত্মদর্শন না হয়, ততদিন এ-সকল ঈশ্বরীয় তত্ব বড়ই জটিল ও দুর্বোধ্য'  /किन्तु एक बार ईश्वरदर्शन और आत्मदर्शन प्राप्त हो गया तो अन्तर्जगत के जितने भी सूक्ष्म तत्व हैं, वे सभी 'दिवालोक'- दिन के प्रकाश के समान प्रत्यक्ष हो जाते हैं और सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। उस एकमेवाद्वितीय वस्तु (ब्रह्म या सच्चिदानन्द) को तुम चाहे किसी भी नाम से क्यों न पुकारो वे एक के सिवा अन्य कोई वस्तु नहीं हैं ! उनकी दो अवस्थायें हैं - एक नित्य और दूसरा है लीला। जो पुरुष हैं , वे ही प्रकृति हैं। एक ही अनेक बने हैं, किन्तु दोनों में कोई भेद नहीं है। परमात्मा या ब्रह्म अपनी नित्यावस्था में कैसे हैं -यह केवल वे ही जानते हैं,कोई अपने मुख से नहीं बतला सकता;  किन्तु लीलावस्था में वही एक वस्तु अनेक बन गए हैं, इसलिये तुम उनको चाहे जिस नाम से भी क्यों न पुकारो , वे सब वे ही हैं। किन्तु लीलावस्था में अर्थात सृष्टि करने के लिए उनको भी शक्ति की आवश्यकता होती ही है। जैसे केवल मिट्टी से मूर्ति नहीं बन सकती, उसमें पानी मिलाना ही पड़ता है, उसी प्रकार लीला के क्षेत्र में अकेले ब्रह्म से कोई कार्य (सृष्टि) नहीं हो सकता। कार्य करने के लिए बल या शक्ति की विशेष आवश्यकता होती ही है ! वही एक वस्तु लीला के क्षेत्र में एक भाव से पुरुष और एक रूप में प्रकृति हो जाते हैं। जैसे गेहूँ पीसने का जांता  होता है,उसमे दो गोल पत्थर होता है। एक स्थापित रहता है, और एक उसके ऊपर रहता है। नीचे वाले पत्थर के ठीक बीचोबीच एक लकड़ी का कील है और ऊपरी पत्थर के ठीक बीचोबीच एक छेद होता है। छेद के भीतर कील को स्थापित कर देने पर, दोनों पत्थर एक साथ कार्य करने का अन्य कर्म-फल जैसे, गेहूँ ही रूपांतरित होकर आंटा प्राप्त होता है। उसी प्रकार एक ही वस्तु दो रूपों में परिणत होकर, दोनों के द्वारा संयुक्त रूप से किये गये कार्य का कार्यफल सृष्टि है! सृष्टि वह कार्य है जिसमें पुरुष और प्रकृति (आकाश और प्राण या 'मैटर और एनर्जी' दोनों की सहभागिता से सृष्टि का कार्य होता है। विज्ञान भी मानता है कि  E=Mहै; इसलिये मैटर को एनर्जी में कन्वर्ट किया जा सकता है  । जब परमाणु को अटॉमिक रिएक्टर में विखण्डित किया जाता है तो वह अनन्त ऊर्जा में रूपान्तरित हो जाता है। इसको तुम केवल पुरुष भी कह सकते हो, या केवल प्रकृति भी कह सकते हो। जहाँ पुरुष और प्रकृति इन दो रूपों में 'हर-पार्वती' बनकर क्रीड़ा (नाटक -अभिनय) में संलग्न (Engaged या प्रवृत्तहैं; वह उनकी लीलावस्था है। लीला में पुरुष की अपेक्षा शक्ति की क्रीड़ा ही विशेष रूप में परिलक्षित होती है। इस प्रसंग को ठाकुर ने उपमा देकर समझाया है -
- ঘরে যেমন একজন কর্তা আছেন,তিনি বুড়ো আর খুব গুড়ুক-খোর/ पत्नी मलकिनी चाहे कितनी भी माहिर हों, किन्तु मालिक को पूछे बिना कोई कार्य नहीं करती, उपाय भी नहीं है। मालिकिन जो भी करती हैं जाकर मालिक को बतला देती हैं -मालिक हुक्का पीते पीते केवल 'हूँ' बोल देते हैं। शादी के घर में जो लोग अतिथि आये हैं, वे केवल गृहणी को ही सबों की सेवा में व्यस्त देखते हैं, कर्ता हैं कि नहीं उनका लक्षण भी नहीं मिलता। सृष्टि-लीला के क्षेत्र में भी यही होता है, केवल शक्ति का खेल ही दिखाई देता है, माँ जगदम्बा का ही प्राधान्य दिखाई देता है। जांता की चक्की के दोनों पत्थरों में नीचे वाला पत्थर कोई क्रिया नहीं करता, वह केवल है -ऊपर वाला पत्थर ही गेहूं पीसने क्रिया करता है, और आटा बनने का कार्य होता रहता है। लीला के राज्य में भी पुरुष केवल हैं- भर; किन्तु समस्त क्रीड़ा केवल शक्ति की है। जब तक हमलोग 'मैं' और 'तुम' के राज्य में हैं, जब तक 'मैं' हूँ , तब तक माँ जगदम्बा के राज्य में हूँ। और उसपार -इस दृष्टिगोचर नामरूपात्मक जगत के परे (Beyond) में, अर्थात मन का नाश, पृथक 'अहं'-बोध के नाश (या प्रलय annihilation) के बाद क्या अवस्था होती है, या सन्तुलन की स्थिति कहाँ होती है, उसको मुख से बोलकर नहीं समझाया जा सकता। ब्रह्म या परमात्मा कब स्वामी और कब गृहणी बन जाते हैं ? निर्गुण अवस्था में स्वामी हैं, सगुण अवस्था में गृहणी हैं। लेकिन यह केवल 'एक' की ही 'दो भूमिकायें' हैं ! जो निर्गुण हैं, वे ही सगुण हैं। किन्तु निर्गुण का आस्वादन नहीं लिया जा सकता है, सगुण का आस्वादन लिया जा सकता है। 
पुनर्जन्म क्या है ? इसको समझाने के लिये ठाकुर एक कहानी कहते थे - "এক রাজার চারটি ছেলে শ্রীরামকৃষ্ণ, एक राजा के चार लड़के थे, एक दिन राजा के लड़के और नौकरों के लड़के एक साथ खेलने के लिए एकत्र हुए। राजा के बड़े लड़के ने कहा -आओ भाइयों मैं राजा हूँ। मंझले भाई ने कहा -मैं मंत्री हूँ; संझले भाई ने कहा -मैं सेनापति हूँ। राजा ऊँचे आसन पर बैठा, मंत्री हाथ जोड़कर सामने खड़ा हुआ, सेनापति दूसरे लड़कों को सैनिक बनाकर सेनापति बन गया। छोटा भाई यह सब देखने -सुनने के बाद बोला -नहीं भाई लोग यह खेल मैं नहीं खेलूँगा। तब बड़े भाई ने पूछा तुम कौन सा खेल खेलना पसंद करोगे ? तब उसने उत्तर दिया - 'तुम पीठ के बल लेट जाओ, मैं तुम्हारे पीठ पर कपड़ा फीचूँगा।' ठाकुर बोले यह छोटा लड़का पूर्व जन्म में धोबी था। कर्मफल से राजा के घर में जन्म मिला, किन्तु कपड़ा फींचने वाला पूर्वजन्म का संस्कार -इस जन्म में भी प्रभावशाली था। जीवात्मा पूर्वशरीर को त्याग कर दूसरा शरीर धारण करने पर भी उसके नए शरीर में पूर्व जन्म का स्वभाव बना रहता है। 
कर्म और स्वाभाव का कारण कौन है ? (मनुष्य के वर्तमान चरित्र का-कोई सत्यार्थी कोई अर्थार्थी क्यों है ?
मन: कामना-वासना, प्रवृत्ति अर्थात भोग-विलास की पक्की आदत, या इन्द्रिय सुख पाने की इच्छा। देहत्याग करते समय जीव यदि कोई इच्छा लेकर मर जाये, तो उस इच्छा को पूरा करने के लिए उसे फिर से जन्म लेना ही पड़ेगा। और यदि भगवान श्रीरामकृष्णदेव का नाम जपते हुए या उनका स्मरण करते हुए अपना शरीर त्याग दे, तो फिर उसको दुबारा जन्मग्रहण नहीं करना पड़ता है। साधना का यही उद्देश्य है कि अंतिम क्षणों में उनकी याद आये। क्योंकि मन हिप्नोटाइज्ड अवस्था हमेशा संकल्प-विकल्प द्वारा ऐहिक सुख भोगने की कल्पना करता रहता है,-जैसे क्या करने से 'उतना धन' तो होइये जायेगा, कैसे अख़बार में नाम-फोटो के साथ छप जायेगा, लड़का होगा, बड़ा मकान और गाड़ी भी हो जायेगा-इत्यादि। कल्पना की क्रिया नींद में जाने के बाद भी नहीं रूकती। कुम्हार के चक्के जैसा कल्पना का चक्का रातदिन घूमता रहता है। इसकी घूर्णन क्रिया को रोक देने का नाम ही निवृत्ति है।  
प्रवृत्ति से निवृत्ति में आने का दो उपाय है : पहला उपाय है नाम कीर्तन,भगवान की सेवा, साधु-संग (पाठचक्र या निवृत्ति मार्गी संन्यासी विवेकानन्द की संगति-विवेकदर्शन का अभ्यास), बीचबीच में निर्जनवास अर्थात कैम्प में रहना, और प्रार्थना करना ! बोलना होगा -" हे माँ -ठाकुर आपके सिवा मेरा कोई नहीं है, जो हैं भी वे केवल चार दिनों के लिए हैं। और कहना होगा -मुझे भक्ति दो, भक्ति को छोड़कर और कुछ मैं नहीं चाहता हूँ। भक्ति के बल से मेरा मन हमेशा तुम्हारे 'श्यामा पदे -नीलकमले' में निमग्न रहे। मजलो आमार मन-भ्रमरा श्यामापदे-नीलकमले। चरण कालो भ्रमर कालो, कालाय कालो मिशे गैलो। और दूसरा उपाय है 'विवेकदर्शन।' या मनःसंयोग ! इस संबन्ध में ठाकुर कहते थे -'छोटी छोटी इच्छाओं को भोग कर लेना, और बड़ी वासनाओं को विवेकप्रयोग द्वारा मन से ही निकाल बाहर करना। प्रवृत्ति से निवृत्ति में आने की प्रक्रिया को ठाकुर 'মনের মোড় ফিরিয়ে দেওয়া।' मन के मोड़ को U-टर्न में घुमा दो, निम्नमुखी प्रवाह को उर्ध्वमुखी बना दो। मन जा रहा था पूर्णिमा टॉकीज के तरफ उसको महामण्डल ऑफिस के तरफ मोड़ देने को ही ठाकुर 'मोड़ फिरानो' कहते थे। 
मन के मोड़ को उर्ध्व दिशा में मोड़ने के लिए -मन जिसके साथ घूम रहा था, वहां से खींचकर उसको विवेकदर्शन में लगाना होगा। पहले मन में जो 'भोग'-संकल्प रहता था, उसके विपरीत 'त्याग और सेवा' का संकल्प लाना होगा। मन जिन रूपदर्शन आदि कार्यों में पहले व्यस्त रहता था,वहाँ से खींचकर भिन्न कार्य में 'विवेकदर्शन' में नियोजित कर देना होगा। क्योंकि मन ही सबकुछ का मूल कारण है। या मति सा गति भवेत' मन को मोड़ देने से पाँचों घोड़ों की दिशा भी मुड़ जाएगी। अब फ़िल्मी संगीत से अधिक भजन सुनने को मन करेगा, शस्त्रीय संगीत अच्छा लगने लगेगा। शरीर और इन्द्रियों को वेदोक्त 'मदिरा-उन्मत्त-बंदर' की उपमा के समान मन ही नचा रहा है! वह जो कह रहा है, शरीर को वही करना पड़ रहा है। 
मन को अपने से अलग मानकर, मन के साथ बातचीत करना होगा, उसको जिद्दी बच्चे को जैसे समझाया जाता है, वैसे ही समझाना पड़ेगा। उसको कहना होगा अरे उस दिशा में मत जाओ, उस वस्तु को मत चाहो। उसको पाने की इच्छा भी मत करो। उन महापेटू इन्द्रियों की संगति त्याग दो। यहाँ बैठो, मेरी बात सुनो और अपने हृदय में ही स्थित विवेकानन्द स्वामी का दर्शन करो, विवेकदर्शन का अभ्यास करो। इसीका नाम है 'मोड़ घुमा देना। '
 जिस प्रकार प्रवृत्ति के मार्ग में 'चीफ़एमऑफ़लाइफ ' को प्राप्त करने के लिए नेपोलियन हिल की पुस्तक 
'लॉ-ऑफ़-सक्सेस' के अनुसार 'ऑटोसजेशन' या चमत्कार का संकल्प लिया जाता है,फिर मास्टर-माइंड ग्रुप बनाकर कार्य किया जाता है, तो निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होती है। उसी प्रकार निवृत्ति-मार्ग से सर्वोच्च वस्तु को पाने के लिए 'चमत्कार का संकल्प', पाठचक्र का संग और ५ अभ्यास का पालन करने से कोई भी व्यक्ति निश्चित रूप से यथार्थ मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य में रूपान्तरित हो सकता है। अन्तर केवल मनुष्य जीवन के चरम लक्ष्य-'चीफ़ एम ऑफ़ लाइफ'  को समझने में हैं। मन का एक स्वाभाव है-जैसे जल ही मछली का जीवन है, उसी प्रकार विषयों में ही मन का प्राण बसता है। किन्तु एक बार उसको यदि विषयों को विष जैसा समझकर त्याग करने को राजी करवा कर 'विवेकदर्शन' के लिए घुमा सकें, तो फिर वह इन्द्रिय विषयों में जाना ही नहीं चाहेगा। घोर प्रवृत्ति के मार्ग से U-टर्न देकर यदि उसको निवृत्ति के मार्ग या उर्ध्वमुखी मार्ग पर ले आया जाय, तो फिर वह प्रवृत्ति के मार्ग पर -अधोमुखी या बहिर्मुखी मार्ग पर जाना ही नहीं चाहेगा। तथापि जन्म-जन्मान्तर की आदत रहने के कारण स्वाभाविक रूप से कभी कभी बहिर्मुखी भी हो जायेगा, किन्तु उसकी यूबीएस निस्सारता का अनुभव कर लेने के बाद तुरंत ही वापस लौट आएगा, और निवृत्ति के मार्ग पर तीन-गुनी शक्ति से अग्रसर होगा। जैसे लॉन्ग-जम्प या हाई-जम्प करते समय खिलाड़ी पहले कुछ कदम पीछे तक चलके जाता है, फिर वहाँ से दौड़ कर एक छलाँग में बड़ा सा खन्दक भी पार कर जाता है। उसको देखकर ऐसा प्रतीत होगा कि प्रवृत्ति के मार्ग (यूबीएस) पर गया ही इसीलिये था कि शरीर मन का जोर बढ़ जाये, इच्छाशक्ति प्रबल हो जाये। किन्तु एक अन्तर है कि लॉंगजम्प करते समय व्यक्ति स्वेच्छा से पीछे हटता है,और आत्मदर्शन करने के बाद पुनः बहिर्मुखी होना फिर अन्तर्मुखी होना विद्या माया, माँ जगदम्बा की इच्छा से पुनः हिप्नोटाइज्ड हो जाने के बाद होता है। 'बी ऐंड मेक' आंदोलन में लगे रहने से ये सब विषय स्वतः समझ में आने लगता है। उस अवस्था को भोगे बिना इस गूढ़ तत्व को समझा नहीं जा सकता। महामण्डल के चरित्रनिर्माण आंदोलन से जुड़े रहना अत्यन्त आवश्यक है। कार्य करते समय गल्ती से प्रवृत्ति मार्ग पर स्लीप कर गए, थे लेकिन फिर कार्य द्वारा ही निवृत्ति मार्ग पर लौट आया हूँ ! तथापि यह स्वीकार करना होगा कि प्रवृत्ति से निवृत्ति तक आने में जो अभ्यास करना पड़ता है, उसमें कष्ट और परिश्रम करना पड़ता है। मैं दो कि.मी. चलकर प्रवृत्ति मार्ग से यूबीएस सिनेमा हॉल गया,
वहाँ जाकर भुक्तभोगी होने के बाद यह समझ में आया कि यह तो अशांति-अपमान का स्थान है। शांति का स्थान कहाँ है, अनुसन्धान करने पर समझ में आया कि महामण्डल ऑफिस जाने के सिवा और कोई उपाय नहीं है। यात्री बने बिना पर्यटन के विषय में गहरी अनुभूति नहीं होती। उसी प्रकार महामण्डल आंदोलन से जुड़े बिना इन बातों का ज्ञान नहीं होता। इसीलिए ठाकुर कहते थे - সাধনসাগরে না ডুব দিলে রতন মেলে না। ५ अभ्यास किये बिना सिद्धि नहीं हो सकती। कर्म करना ही होगा,भाँग को भी सिद्धि कहते हैं, लेकिन भांग भांग चिल्लाने से नशा नहीं होता खाना पड़ता है, तब नशा होता है। कर्म ही प्रवृत्ति और निवृत्ति का मूल है। निःस्वार्थ कर्म हमें अहं से मुक्त करता है। 
ईश्वरलाभ का सहज उपाय क्या है ? ठाकुर इस सम्बन्ध में एक गीत गाते थे -[२० अक्टूबर १८८४ হরিসে লাগি রহরে ভাই, তেরা বনত বনত বনি যাই।] मोहग्रस्त बुद्धि की अपवित्रता, कपटता, चुतराई का परित्याग करके भगवान में लगे रहो, तभी तुम भगवान को पा सकोगे। भगवान के किस रूप से लगा रहूँ? जिस अवतार को भी मानो उनको जीवित -जाग्रत मानकर उनको सजाओ उनकी सेवा करो। ठंढ में गर्म कपड़ा दो। भोग चढ़ाओ। जो कृष्ण से प्रेम करते हों, उनकी संगति करो। 
क्या मैं जो ठाकुर को भोग लगाऊँगा , मेरे छूये हुए अन्न को ठाकुर खायेंगे ? इस विषय में कोई सन्देह मत करो -ठाकुर को मीठे पान का जो भोग लगाया जाता है, ठाकुर उसे खाकर अमृत बना देते हैं, मैंने भी उनका पान-प्रसाद चखा है ! उनकी कृपा से मेरा यह सन्देह मिट गया है। भगवान तो करुणासागर हैं, दयानिधि हैं -पापकर्मों से मन चाहे जितना भी अशुद्ध या काला क्यों न हो गया हो, वह करुणासागर के लिए कुछ भी नहीं है। यदि किसी सरोवर में एक स्याही की बोतल उड़ेल दो, तो क्या स्याही कहीं रहती है ? वह सरोवर के जल से मिलकर सरोवर का जल हो जाता है ! क्या ओस (Dew) की एक बूँद भी सूर्यदेव के निकट पहुँच सकती है। कब उड़ गया पता भी नहीं चलता है। जो भगवान कारागार में जन्म लेते हैं, जो भगवान नरसिंह मेहता का भात भरने जा सकते हैं, शबरी के जूठे बेर खाते हैं, गोप बालकों का जूठा खाते हैं, जो भगवान अपना रक्त देकर जगत का पालन करते हैं, वे तुमसे कहीं एक कोई भूल हो गयी है, तो क्या भगवान उसकी जाँच-पड़ताल करने के लिए बैठे हैं ? भगवान श्रीरामकृष्ण पर यह लांछन कभी नहीं लगाना चाहिए। उनकी दया कितनी अपार -असीम है, यदि इसका थोड़ा भी आभास लोगों को हो जाता तो कोई उनको प्रणाम भी नहीं करता ! अपने माँ-बाप जैसे बिना प्रणाम-या परिक्रमा किये ही अपने बच्चों पर अपनी जान छिड़कते हैं-ठाकु-माँ -स्वामीजी हमारी दुर्बलताओं को समझते हैं। वे ठीक उसी प्रकार हमारा जितना भी दोष हो उसे ग्रहण नहीं करते हैं।  जैसे बेटा में जितना भी दोष क्यों न हो, माँ उसको देखती भी नहीं ! अपनी रची सृष्टि के ऊपर उनके वात्सल्य की कोई सीमा नहीं है -इसको मैं खूब अच्छी तरह से अनुभव किया हूँ,जानता हूँ। भगवान श्रीरामकृष्णदेव के दर्शन का फल अत्यन्त आश्चर्यजनक है ! (ठाकुर के विराट सच्चिदानन्द स्वरुपदर्शन का फल अदभुत है !) जैसे सूखा हुआ पत्ता प्रचण्ड अग्नि में - क्षणमात्र में जलकर राख बन जाता है ; उसी प्रकार उनके दर्शनमात्र से करोड़ों -करोड़ जन्मों के समस्त पाप बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं। पाप-नष्ट होने के साथ ही साथ और एक चीज नष्ट हो जाती है -जानते हो वह क्या है ? वह है 'पुनर्जन्म का अंकुर' ! ईश्वर (माँ जगतजननी ठाकुर-सर्वव्यापी विराट 'अहं') का दर्शन हो जाने के बाद पुनर्जन्म नहीं होता -प्रारब्ध नष्ट हो जाने के बाद नया शरीर धारण नहीं करना पड़ता। (জয় জগৎজীবন
 জগবন্ধু বারেক হেরিলে মুখ -ইন্দু ) पाप-मुक्त हो जाने के बाद जब अन्तःकरण पवित्र हो जाता है, तब जीव पुनः पाप कर ही नहीं सकता। 
जीवों के ऊपर यदि भगवान की इतनी दया है, तो लोगों को रोग, शोक, गरीबी से इतना कष्ट क्यों भोगना पड़ता है?  -वे उन्हें इन कष्टों से मुक्त क्यों नहीं कर देते ? यदि कोई अपने हाथों से नाला काटकर बाढ़ के पानी को अपने घर में ढुका ले तो इसमें भगवान का क्या दोष है ? कर्म का फल होता ही है, कर्ता को कर्मों का भोग करना ही पड़ता है ! कर्म के नियम को मानते हो ? उन्होंने जिन कर्मों का निषेध किया है वही कर्म हमलोग करते हैं। वे कहते हैं -आग में हाथ मत डालो, तुम आग में हाथ डालोगे तो हाथ जलेगा ही। उन्होंने विवेक-प्रयोग करने की शक्ति दी है, भला -बुरा क्या है समझ सकते हो, तब तुम सत्य की तरफ जाओगे या असत्य के साथ ही बने रहोगे ? जिस प्रकार के जंतु के साथ रहोगे तो साहचर्य के नियमानुसार उसके पास जो होगा, वही तो पाओगे ! साँप के साथ रहोगे तो विष मिलेगा, कामधेनु के साथ रहोगे तो खीर मिलेगा!
कामिनी -कांचन में आसक्ति साक्षात् अविद्या की मूर्ति है-सर्पणी है; तुम हमेशा उसी के फ़िराक में लगे  हो, उसके संग रहते हो,तो उसके परिणामस्वरुप (consequently) रोग,शोक, दुःख के सिवा और क्या मिलेगा ? जो व्यक्ति सर्वदा 'सर्वसन्तापनाशिनी, कामधेनुरूपा माँ जगदम्बा' के चिंतन-स्मरण लगे रहोगे अवश्य ही शान्तिरूपी-खीर प्राप्त करोगे ! गुरु, मानवजाति के मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द कहते हैं सम्पूर्ण जगत में एकमात्र भगवान श्रीरामकृष्णदेव के सिवा और कहीं शांति-सुख प्राप्त होने की आशा नहीं है! 
किन्तु असहाय-मनुष्य (आदर्श रहित -गुरुरहित-मनुष्य) कामिनी-कांचन के चकाचौंध से इतना भ्रान्त, और बहरा या हिप्नोटाइज्ड हो जाता है कि साक्षात् सोने जैसे भगवान श्रीरामकृष्णदेव की तरफ मुड़ता ही नहीं है। वह उनके रूप को नहीं देखता, उनके उपदेशों को नहीं सुनता। जब मनुष्य अपने स्वरुप से गिर कर एकदम कीड़ों के जैसा किलबिल करने लगता है, पशु जैसा हो जाता है, तब दया के सागर स्वयं मनुष्य शरीर धारण करके अवतरित होते हैं, तब भी वह ऑंख उठाकर उनकी तरफ नहीं देखता। तब दया से भरे भगवान जीवों की दुर्दशा को देखकर इतने व्याकुल हो जाते हैं कि, स्वयं जीवों के दरवाजे दरवाजे पर घूम घूम कर 'उठो जागो' की आवाज लगाते हैं-अरे तुम आत्मा हो जिसे शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि नहीं जला सकती। वेदान्त के चार महावाक्यों को सुनाने के लिए 'स्वदेश-मन्त्र' भी सुनाते हैं। 'संगछ्ध्व -संवदध्वं' का महत्व समझाते हैं। जब जीव भगवान को ऐसा 'ना-छोड़-बन्दा' देखता है -तो क्या करता है, जानते हो भाई? भगवान को ही पागल समझकर -उनकी हर बात को हँसी में उड़ा देता है। (यही हमारे समाज का सबसे भयानक रोग है।)  इसी मनुष्य के पास इतनी बुद्धि है कि, उसी के सहारे आकाश में उड़ रहा है, पैदल जाने में दो वर्ष लगते, उतनी दुरी तीन दिनों में तय कर लेता है। हजारों मिल दूर से वॉट्सऐप के द्वारा देखकर बातचीत कर सकता है, अपनी महाशक्ति से पाँचो भूतों को अपने गुलाम के जैसा खटा रहा है। नींद भगाने की दवा खाकर इन्द्रियविषयों का भोग करता है। अंगहीन को अंग बना देता है, और भी अद्भुत अविष्कार कर रहा है। मानव-निर्मित परमाणु बम के भय से पृथ्वी कांप रही है; किन्तु जैसे ही ईश्वर की बात शुरू होती है, वही बुद्धि कलाबाजी करने लगती है ! कुशवाहा भाइयों को हल-कुदाल को खेती करते देखेंगे तो लगेगा कि साक्षात् भीम है, किन्तु क ख सीखते समय बुद्धि निकलती ही नहीं है, ईश्वर-प्रसंग सुनते समय जीव की बुद्धि ऐसी ही हो जाती है। 
जीव अपना मंगल, सच्चा सुख कहाँ है पहचान नहीं पाता। जब सुख के कारण जान लेगा, तब दुनिया के समस्त नश्वर वस्तुओं को त्याग कर शाश्वत भगवान के निकट जाने का प्रयास करेगा। समस्त वेद-पुराण कहते हैं कि सांसारिक वस्तुओं से किसी को कोई सुख प्राप्त नहीं होता। जो व्यक्ति 'वीमेन ऐंड गोल्ड' में आसक्त हो जाता है, वह अन्त में अत्यन्त कष्ट में मरता है। इसीलिए कबीर कहते थे -
चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय। 
दो पाटन के बीच में,साबुत बचा न कोय।।
अर्थ - चलती चाकी देखकर (लोगो की जिंदगी चलती देखकर), कबीर साहब को रोना आता है। क्यों की इस चलने वाली जिंदगी में सब को एक दिन छोड़कर जाना है। जिंदगी और मौत ये दो पाटो(चक्की के दो पत्थर) के बीच में सभी पीस पीसकर एक दिन ख़त्म होना है। कुछ लोग इस सच्चाई को जानते हुये भी अनजान बनते है।

 चाकी 'चाकी' सब कहे, और 'किली' कहे न कोय। 
जो 'कीली' से लाग रहे, बाको बाल ना बाका होए ।।
अर्थ - चाकी की तो सब बात करते है, लेकीन जो चाकी को घुमाने वाली किली (चाकीको घुमानेवाला डंडा) है, उसकी कोई बात नहीं करता।ये किली ही चाकी को घुमाती है। गेहूँ के जो दाने किली के आस पास या अत्यन्त निकट जाकर किली से चिपक जाते हैं,वे किली अत्यन्त निकट में होने के कारण पिसे नहीं जाते है । बाकी के सारे दाने पीस कर पाउडर बन जाते हैं ! जांता में जैसे किली रहती है, वैसे ही किसी न किसी रूप में जगत में (पिता-माता-गुरु-साधु-सन्यासिनी या लोकशिक्षक/लीडर रूप में) भगवान भी अवश्य रहते हैं ! तुम यदि संसार में रहते समय भगवान (अवतार नवनीदा या महामण्डल अवतार) से चिपके रहो तो पीसने से बच जाओगे। [महामण्डल अवतार  में किली का मतलब value system/morality/character या चरित्र-निर्माण के ५ अभ्यास हैं, अगर हमारा चरित्र मजबूत है, (मजबूत चरित्र =किली =विवेकदर्शन में चिपकी हुई बुद्धि है) तो फिर हमारा बाल भी कोई बाका नहीं कर सकता। हम इस चलती फिरती जिंदगी में आनेवाली हर मुश्किलो का, यहाँ तक कि मृत्यु के भय का भी आसानी से सामना कर सकते है।
भगवान ने श्रेय-प्रेय विवेक देकर मनुष्य को जगत में भेजा है, यदि तुम अविनाशी आत्मा को छोड़ कर नश्वर शरीर-मन से ही चिपके रहो, आत्मा की ओर देखो ही नहीं तो भगवान क्या करेंगे ? भगवान (आत्मा ) तो कल्पतरु है -इससे जो माँगोगे वही मिलेगा ! 
चोर डकैत जब माँ काली की पूजा करके वर मांगता है, तो क्या माँ कहती हैं कि तुमको वर नहीं दूंगी ! मानस-पूजा के लिए चोर और साधु दोनों को वर देती हैं। उन्होंने कर्म के साथ फल को भी बाँध दिया है। चोर (लालू) चोरी का फल पाता है, साधु अपनी आराधना का फल पाता है। अब यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव अपने दोषो से कष्ट पाता है,और भगवान दया के सागर हैं ! श्रीरामकृष्ण देव कहते थे -'सिद्धावस्था में जीव का स्वभाव बालकों के जैसा हो जाता है; সিদ্ধাবস্থায়ে জীবের বালকের মতো স্বভাব হয়। साधु या भक्तो की तरह बालक भी बड़े सरल होते हैं। शिशु सत-रज-तम तीन गुणों में से किसी के अधीन नहीं होता। 
यदि कोई कृष्ण या बुद्ध का अनुरागी है ,तो क्या वह श्रीरामकृष्ण को भी भगवान मान सकता है ? यदि कोई व्यक्ति सचमुच राम, कृष्ण,बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, या नानक का सच्चा भक्त होगा वही श्रीरामकृष्ण के पास आ सकता है। क्योंकि जो कृष्ण थे वे ही इस युग में श्रीरामकृष्ण बने हैं ! दोनों में अन्तर सिर्फ इतना है कि इस लीला में उन्होंने बहुत जोरदार अभिनय किया है, और सजावट को बिल्कूल बदल दिए हैं। किन्तु जिस व्यक्ति को अपना स्वरुप श्रीरामकृष्णदेव बतला देते या दिखा देते हैं, वह यही देखता है कि एक ही दूध कभी मक्खन, कभी दही, कभी मलाई, कभी राबड़ी, कभी घी बन जाता है। चाहे दही कहो, या मक्खन बोलो या घी कहो - सभी एक ही दूध की विभिन्न अवस्थाएं हैं !
'आशिक है- तो माशूक को हर रूप में पहचान ! 
किन्तु यह चुनौती स्वीकार करना सबके लिए आसान भी नहीं है। क्योंकि अन्तर केवल उसके आकार और स्वाद में है। ठीक उसी प्रकार भगवान चाहे जिस रूप में भी क्यों न आयें, अपने भीतर रूह में वे वही ब्रह्म या अल्ला ही होते हैं ! रामकृष्णदेव अन्तर्यामी हैं, वे प्रत्येक मनुष्य के हृदय में विद्यमान हैं। जिस किसी रूप में या जिस किसी भाव से सरल हृदय से जो व्यक्ति सत्य को पाने या भगवान को पाने का विचार एकबार भी किया है, उसको रामकृष्णदेव के पास आना पड़ा है और आना पड़ेगा! रामकृष्णदेव ने भावावेश में आकर बार बार कहा है -जिस व्यक्ति ने सच्चे हृदय से एकबार भी सत्य, परमात्मा या परब्रह्म को जानने या पाने की इच्छा की होगी, उसके यहाँ (महामण्डल कैम्प में) आना ही पड़ेगा ! 
जो व्यक्ति रणकृष्णरूप से भिन्न अन्य रूप (ईसा या बुद्ध रूप) को देखने का आकांक्षी है, उसको रामकृष्णदेव अपने पास खींच लेने के बाद क्या करते हैं ? पहले तो वे भक्त के अभीष्ट या मनोग्रहीत (Obsessed) रूप के बारे में चर्चा करेंगे, उनके गुणों की चर्चा करेंगे, उनके लीला के सार्वजनिक और गुप्त बातों को भक्त को सुनायेंगे। इससे उस भक्त के हृदय में अपने मनोवांछित रूप को देखने के प्रति लालसा और अधिक बढ़ जाएगी। उसके बाद जब ठाकुर देखते हैं कि भगवान/या सत्य को जानने के प्रति इसका आकर्षण बहुत अधिक बढ़ गया है, तब भक्त जिस इन्द्रियातीत अवस्था में जाना चाहता है, या जिस रूप को देखना चाहता था, उस पूजित रूप-'परम-सत्य' को दिखा देते हैं। किन्तु उस यात्राक्रम या साधनाकाल में उस भक्त को यह कभी जानने भी नहीं देंगे कि उस भक्त का अभीष्ट रूप स्वयं रामकृष्णदेव का ही भिन्न रूप (विराट और सर्वव्यापी रूप) है। वे इस प्रकार की लीला (अभिनय) क्यों करते हैं, समझते हो भाई ? क्योंकि ठाकुर किसी के भाव को नष्ट नहीं करना चाहते थे। जो व्यक्ति कृष्ण से प्रेम करते थे, उनके सामने वे केवल कृष्ण की कथा, कृष्णलीला का माधुर्य वर्णन, कृष्णसंगित पर चर्चा करते थे। जो ईश्वर के कालीरूप से प्रेम करते थे, उनके केवल काली की चर्चा करते थे, और श्यामा-संगित गाते थे! 
जो निर्गुण -निराकारवादी थे, उनके समक्ष 'चरम-वेदान्त' पर चर्चा करते थे,जो ईश्वर के सगुण-साकार रूप पर चर्चा करते थे। रामकृष्णदेव का सिद्धान्त यह था कि कोई व्यक्ति चाहे जिस किस रूप या भाव से ईश्वर का भक्त है -तो उतना ही उसके ईश्वरलाभ के लिए यथेष्ट है। जो व्यक्ति चाहे जिस मार्ग से, जिस उपाय से भी ईश्वर का संधान करेगा वह एक सत्यस्वरूप परमात्मा, ईश्वर -अल्ला या गॉड के पास पहुँचेगा। ठाकुर रामकृष्ण का यह सर्वसम्मत, असाम्प्रदायिक, सार्वभौमिक, सार्वलौकिक विचार का माधुर्य उनके लिये विभिन्न प्रकार के साकारवादी, योगमार्गी, वेदान्ती, दरवेश, ईसाई सभी धर्म मार्गों का समन्वय हुआ था। आधुनिक युग में सभी मतों,सभी मार्गों, सभी सम्प्रदायों में वेदान्तिक समन्वय श्रीरामकृष्णदेव के मूर्त विग्रह से ही प्रथम बार प्रचार प्रसार हुआ था इसीलिये उनका नाम धर्मविवाद-भंजक जगतगुरु है। जो कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी जाति या धर्म को मानने वाला क्यों न हो, उसी को पूर्णता तथा अपने इष्टदेव (सत्य) की प्राप्ति हुई है। जब कोई व्यक्ति श्री भगवान के रामकृष्णदेव (के परमसत्य) से भिन्न किसी दूसरे रूप का दर्शन करने के लिए, मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्णदेव के प्रदर्शित मार्ग द्वारा उनके साथ चलना शुरू करता है,तो पहले वह उन्हें समझने और पहचानने में असमर्थ हो जाता है। किन्तु बाद में जब श्रीरामकृष्ण की कृपा से उनके सर्वव्यापी विराट रूप का दर्शन कर लेता है, तभी वह समझ पाता है कि रामकृष्ण कौन है ! 
क्या समझते हैं ? क्या पहचानते हैं ? वे यही समझते हैं, और प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं कि जिसके पास रामकृष्णदेव पहुँचा दिये हैं, वे जो वस्तु हैं और रामकृष्णदेव भी वही वस्तु हैं ! किन्तु आकार-भेद भाव-भेद में और आस्वादन में थोड़ा फर्क रहता है। आस्वादन में अन्तर का तात्पर्य है -भावों का भेद यह क्या है जानते हो ? कहीं भगवान-बोध रहेगा , कहीं भगवान बोध नहीं रहेगा। जैसे मानलो तुम कृष्ण को सखा भाव से देखते हो, पर यदि तुम्हें कहीं कन्हैया मिल जायेगा तो क्या तुम उसे प्रणाम करोगे ? या उसके चरणों में दोनों हाथ जोड़ कर सिर झुकाओगे ? तुम जैसे अपने दोस्त के साथ जैसा व्यवहार करते हो, एक साथ बैठकर खाते हो, ठीक वैसा व्यवहार करोगे -किन्तु रामकृष्णदेव के प्रति गुरु-भाव, नेता अर्थात भगवान का भाव प्रबल रहेगा। यद्यपि दोनों वही एक वस्तु हैं- यह बात अच्छी तरह से समझ में आ जायेगा, तथापि आकार, रूप और भाव का पार्थक्य -बस इतना अन्तर रहेगा। 
क्या सभी रूप उसी एक सत्य वस्तु के हैं ? हर नाम-रूप के पीछे वही एक भगवान हैं ? काली, कृष्ण, राम, शिव, राधा, सीता इत्यादि जितने भी आकार और रूप हैं क्या सभी एक ही भगवान के हैं ? साकार जो वस्तु हैं -क्या निराकार भी वही वस्तु हैं ? क्या भगवान अपने भक्तों की कामना को पूर्ण करने के लिए चिरकाल से, सर्वदा इन सब विविध रूपों में विद्यमान हैं ? जैसे थियेटर में एक ही व्यक्ति को दो-तीन भूमिकायें निभानी हों, कभी राजा का वेश धारण करना हो, या किसी रोल में शहर-कोतवाल (सिटी एस.पी) की भूमिका निभानी हो; या कैदी की भूमिका करनी हो -किन्तु यदि एक ही लड़के को किसी सीन में राजा, कोतवाल और कैदी तीनों की उपस्थित आवश्यक हो, तो क्या एक ही व्यक्ति द्वारा एक ही समय में तीनों भूमिकाएं निभा सकेगा ? एक व्यक्ति बार बार विभिन्न रूपों में विभिन्न वेश धरकर आ सकता है ,किन्तु एक ही समय में एक व्यक्ति एक रूप के आलावा अन्य किसी रूप में नहीं आ सकता। यदि एक भगवान (अद्वैत वस्तु) विभिन्न रूपों और आकृति में सर्वदा और सर्वत्र समानभाव में विद्यमान रहने में असमर्थ हों -तो उन्हें भगवान कैसे कहेंगे ? विष्णुसहस्र नाम में भगवान का एक विशेषण अनन्त है -इसका क्या अर्थ है जानते हो भाई ? वे अनन्त एक प्रकार से नहीं हैं, वे अनन्त प्रकार से अनन्त हैं। भगवान के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है ! भगवान क्या हैं ? भगवान के आलावा अन्य किसने जाना है, और कौन जान सकता है ? 
रामकृष्णदेव भक्तमण्डली को अनन्त का आभास देने के लिए कहते हैं - वहाँ जाने के रस्ते के दोनों ओर। .. एक सेर के लोटे में क्या पांच सेर दूध अंट सकता है ? 
Last word : अंतिम-बात: वेदान्त -  जो साकार में हैं, वे ही निराकार में भी हैं ! जिसने साकार रूप धारण किया है, उसी का एक सर्वव्यापी विराट निराकार रूप भी है ! साकार और निराकार दोनों वे ही हैं। इन दो रूपों के आलावा यदि और जो कुछ भी है, वे सब भी वे ही हैं। एक के अलावे कोई दूसरी वस्तु तो है नहीं, इसलिये जितने प्रकार की बातें सुनते हो, जो कुछ भी देखते हो, सब उन्हीं की हैं। जो आधार (container या पात्र, मैटर) हैं, वे ही आधेय (content, अन्तर्वस्तु या निहितवस्तु,एनर्जी-यूबीएस) हैं! जो अद्वैत (एनर्जी) हैं वे ही द्वैत (मैटर) हैं !  'द्वैताद्वैत' दोनों उसी एक [सच्चिदानन्द रूप तुम्हारे प्रभु करो सब दुःख दूर हमारे] का जादू है। जो भाग्यवान जीव सच्चा द्वैतवादी (वैष्णव -शाक्त -शैव ) है, वही सच्चा अद्वैतवादी भी है। सच्चा अद्वैतवादी (आचार्य शंकर) कभी शक्ति की निन्दा नहीं करता; कहता है 'हर-पार्वती' तो हमारे माँ-बाप हैं ! यथार्थ द्वैतवादी (प्रवृत्तिमार्गी-गृहस्थ) और यथार्थ अद्वैतवादी (निवृत्तिमार्गी-संन्यासी) कोई वास्तविक असादृश्य (disparity-अन्तर) नहीं है ! इस प्रातिभासिक अन्तर के बीच जो उसी एक का खेल जो देख सके हैं, उनको ही ठीक ठीक ब्रह्मदर्शन या अद्वैतज्ञान हुआ है ! एक ही अनेक हो गया है, बहुत्व में एक का ही अस्तित्व है, अनेक (3H) में एक (हृदय) की ही सत्ता है,  'unity in diversity' 'यूनिटी इन डाइवर्सिटी 'अनेकता में एकता'  भारत की विशेषता' है, इसी बोध (असली समझ अनुभूति-जन्य ज्ञान, विवेकज ज्ञान) को अद्वैतज्ञान कहते हैं, इस ज्ञान को प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति (किसी भी धर्म या जाति में जन्मा व्यक्ति) 'शिवत्व-अवस्था' अर्थात 'देवदुर्लभ-अवस्था' (इन्द्र-वरुण -अग्नि-मरुत के लिए भी दुर्लभ अवस्था) को प्राप्त होता है। अर्थात इस अवस्था को  प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति सिद्धार्थ गौतम से 'गौतमबुद्ध' की अवस्था में उन्नत हो सकता है ! वैसा उन्नत मनुष्य या विकसित मनुष्य बन सकता है, जिसको देखकर पूजा करने का मन करे ! पूज्य नवनीदा कहते थे मनुष्य बनने का अर्थ है ऐसा मनुष्य बनना - जिससे मिलने के बाद ऐसा महसूस हो कि 'इनसे' मिलकर मेरा जीवन सार्थक हो गया !
 इसीलिये रामकृष्णदेव कहते थे -'अद्वैतज्ञान को आँचल में बाँधकर- जो इच्छा हो वही करो!' 'যা ইচ্ছা তাই কর' - का तात्पर्य यही है कि इस प्रकार (विवेकज-ज्ञान) से उपलब्ध अद्वैतज्ञान-विशिष्ट व्यक्ति 'जो जी में आये' वही कर बैठे -(आशाराम या राम-रहीम जैसा)-ऐसा हो ही नहीं सकता ! अर्थात उनके द्वारा अब जो कुछ कार्य होगा वह ठीक कार्य ही होगा, क्योंकि अब 'ताथइया-ताथइया, नाचे भोला' का पैर नृत्य करते समय बेताल पड़ने की सम्भावना ही नहीं होती ! ईश्वर की लीला अपरंपार है ! वह खेल भी अनन्त -अपरंपार है ! तुम शेष बची हुई आयु में जितने भी समय तक उनके खेल को क्यों न देखो - वह खेल निरंतर अनन्त-अपरंपार ही परिलक्षित होगा! समुद्र की गहराई में जितना ही प्रवेश किया जायेगा, तो जैसे समुद्र की महाकायता (gigantism) बढ़ती जाती है, उसी प्रकार भगवान के खेल को जितना ही देखा जायेगा, उनके खेल का रूप-रंग (appearance-प्रकटन) उतना ही बढ़ता जाता है। खेल का अलग अलग दृश्य (assorted) जैसे अनन्त हैं, प्रकटन का तरीका भी अनन्त है। मनुष्य की बुद्धि द्वारा अनन्त रूप-रंग की धारणा सम्भव नहीं है। शुकदेव भी अनन्त को देखकर अवाक् होकर अपना होश खो बैठते और मूर्छित हो जाते हैं। এই আত্মহারা কেমন জান? पृथक 'अहं'-बोध का मिट जाना,'होश खो देना'(Self-rescuer, आत्म-उद्धार) कैसा है जानते हो ? जैसे कलाल के यहाँ या शराब बेचने वाले की दुकान में ड्रम का ड्रम शराब से भरा होता है, उसमें से केवल एक बोतल पी कर ही जैसे कोई व्यक्ति अपनी शुधबुध खो बैठता है, अन्तर्हित अनन्त या परम् सत्य की एक झलक (Glimpse) पाने से भी व्यक्ति उसी प्रकार अपनी शुधबुध खो बैठता है ! 
अवतारवाद या साकारवाद को लेकर कई लोग विरोध करते हुए कहते हैं ,कि जो अनन्त और अखण्ड हैं, वे कभी ससीम या खण्ड नहीं हो सकते। इसीलिए अवतारवाद में या किसी मूर्तिविशेष में उस अनन्त अखण्ड को आरोपित (Impose) करना केवल भ्रमात्मक है। जो लोग ऐसी बातें कहते हैं, इसीसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी बुद्धि में अनन्त भाव का थोड़ा सा भी संकेत तक प्राप्त नहीं है। अनन्त के अर्थ को अभी तक उन्होंने नहीं जाना है ! वे भगवान के नाम अनन्त विशेषण के द्वारा विभूषित करते हैं, वह केवल बोलने भर के लिए अपने हृदय से वैसा मानते नहीं हैं ! जो अनन्त हैं वे हर प्रकार से और सभी अवस्थाओं में अनन्त हैं।रूप से अनन्त, भाव से अनन्त, गंध से अनंत, शब्द से अनंत, स्पर्श से अनंत हैं ! वे खण्ड और अखण्ड ,ससीम और असीम दोनों हैं ! जो अनन्त हैं, वे चाहे जिस रूप में या जिस सीमाविशिष्ट आकृति में ही परिणत क्यों न हों, उनका अनंतता (infiniteness) प्रत्येक अवस्था में विद्यमान रहती है। वे अपनी अनन्तता में जैसे अनन्त हैं, अपनी सीमाविशिष्ट खण्डता में भी ठीक उसी प्रकार अनन्त हैं। इसकी उपमा है 'गंगाजल' - जैसे हिमालय से गंगासागर तक प्रवाहित भागीरथी के जल की जो पवित्र-महिमा है, वही महिमा भागीरथी के किसी स्थान से निकाली गयी एक बूँद गंगाजल में विद्यमान है। जो जगदम्बा विश्ववासिनी हैं वे ही बिन्दुवासिनी भी हैं - विश्ववासिनी अवस्था में वे जैसी हैं, बिन्दुवासिनी अवस्था में भी वे ठीक वैसी ही हैं। [अवतार को यह सदैव याद रहता है, जीव भूल जाता है -गीता ४/५ बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।। ] लीलामयी कभी दिगंबरा हैं तो कभी सा-आम्ब्रा हैं ! तुम यदि फिल्म का अभिनेता बनकर किसी भी वेश को धारण कर लो - जो तुम्हारा 'तूमित्व' है वह सभी वेशों में एक समान ही रहेगा। ये सब बातें उनकी हैं जिन्होंने 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग ' के द्वारा प्रत्यक्ष दर्शन कर लिया है;  यह बात पुस्तक पढ़कर समझने और समझाने वाली बातें नहीं हैं ! असीम में यदि ससीम बन जाने की शक्ति न हो, तो उनकी असीमता कहाँ रही ? वे यदि केवल अनन्त हों और कुछ हो ही नहीं सकते -ऐसा कहना उनकी अनन्तता को एक क्षुद्र दायरे में बांध देना हुआ। साकार उपासकों को साकार -उपासना पद्धति या मनःसंयोग पद्धति में प्रशिक्षित करके भावी नेता/गुरु शिष्य को केवल द्वैतवाद की सीमा में ही बद्ध नहीं कर देते हैं ! 
रामप्रसादि संगीत है -[५ अगस्त १८८२ “প্রসাদ বলে মাতৃভাবে আমি তত্ত্ব করি যাঁরে ।সেটা চাতরে কি ভাঙব হাঁড়ি, বোঝ না রে মন ঠারে ঠোরে ৷৷" “রামপ্রসাদ মনকে বলছে -- ‘ঠারে ঠোরে’ বুঝতে। এই বুঝতে বলছে যে, বেদে যাঁকে ব্রহ্ম বলেছে -- তাঁকেই আমি মা বলে ডাকছি। যিনিই নির্গুণ, তিনিই সগুণ; যিনিই ব্রহ্ম, তিনিই শক্তি। যখন নিষ্ক্রিয় বলে বোধ হয়, তখন তাঁকে ‘ব্রহ্ম’ বলি। যখন ভাবি সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় করছেন, তখন তাঁকে আদ্যাশক্তি বলি, কালী বলি।আমি কালীব্রহ্ম জেনে মর্ম, ধর্মাধর্ম সব ছেড়েছি।“অধর্ম কিনা অসৎ কর্ম। ধর্ম কিনা বৈধী কর্ম -- এত দান করতে হবে, এত ব্রাহ্মণ ভোজন করাতে হবে, এই সব ধর্ম।”
१८ अक्टूबर १८८४ -আমার মন বুঝেছে প্রাণ বুঝে না, ধরবে শশী হয়ে বামন।।বিজয় --१९ अक्टूबर १८८४ / ধর্মাধর্ম ত্যাগ করলে কি বাকি থাকে?শ্রীরামকৃষ্ণ -- শুদ্ধাভক্তি। আমি মাকে বলেছিলাম, মা! এই লও তোমার ধর্ম, এই লও তোমার অধর্ম, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও; এই লও তোমার পাপ, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও; এই লও তোমার জ্ঞান, এই লও তোমার অজ্ঞান, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও! দেখ, জ্ঞান পর্যন্ত আমি চাই নাই। আমি লোকমান্যও চাই নাই। ধর্মাধর্ম ছাড়লে শুদ্ধাভক্তি -- অমলা, নিষ্কাম, অহেতুকী ভক্তি -- বাকি থাকে। 
३० जून १८८४ /কে জানে কালী কেমন, ষড়্‌ দর্শনে না পায় দরশন। সৃষ্টি স্থিতি প্রলয় যার কটাক্ষে হেরিয়ে।সে যে অনন্ত ব্রহ্মাণ্ড রাখে উদরে পুরিয়ে ৷৷দেবের দেব মহাদেব যাঁর চরণে লুটায়ে ৷৷বল দেখি মন সে বা কেমন, নাথের বুকে মারি লাথি ৷৷প্রসাদ বলে মায়ের লীলা, সকলই জেনো ডাকাতি।গান - আমি সুরা পান করি না, সুধা খাই জয় কালী বলে,প্রসাদ বলে এমন সুরা খেলে চতুর্বর্গ মিলে।শ্যামাপদ আকাশেতে মন ঘুড়িখান উড়তেছিল,কলুষের কুবাতাস পেয়ে গোপ্তা খেয়ে পড়ে গেল।যে দেশে রজনী নাই, সেই দেশের এক লোক পেয়েছি।গান - অভয় পদে প্রাণ সঁপেছি।আমি আর কি যমের ভয় রেখেছি ৷৷গান - কালীনাম কল্পতরু, হৃদয়ে রোপণ করেছি।গান - আপনাতে আপনি থেকো মন যেও নাকো কারু ঘরে।ঠাকুর গান গাহিয়া বলিতেছেন -- মুক্তি অপেক্ষা ভক্তি বড় --শুদ্ধাভক্তি এক আছে বৃন্দাবনে,গোপ-গোপী ভিন্ন অন্যে নাহি জানে।  ] रामप्रसाद ने जिस काली को ससीम रूप में देखा था, उसी काली ब्रह्ममयी देखा था। जगत्पूज्य व्यासदेव जो पुराणों के रचयीता थे उन्होंने ही फिर ब्रह्मसूत्र भी लिखा था। ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार शंकर और रामानुज हुए हैं। 
सामान्य विद्यार्थियों के बीच ईश्वर-तत्व के विषय बोलने के पहले ईश्वर-प्राप्ति (चरित्रगठन -आत्मसाक्षातकर) होना अनिवार्य है। ईश्वर लाभ होने के बाद कोई मौन हो जाते हैं, या कोई 'वुड बी लीडर' जब तक जीवित रहते हैं -बी ऐंड मेक -आंदोलन के शिक्षक बनकर सर्वदा सत्संग करते हैं। 
ईश्वर-लाभ, ईश्वर-दर्शन और ईश्वर तुल्य गुरु की आज्ञा -'चपरास ' प्राप्त हुए बिना ईश्वर (आत्मा) के विषय में किसी भी मतामत या महावाक्यों पर अपना अभिमत बताने का अधिकारी या नेता कोई नहीं बन सकता। जो लोग मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, या साकार उपासना के विरोधी (protester) हैं, वे किसी भी भाव के साधक या उपासक नहीं हैं। कोई किसी भी विचारधारा का विश्वासी हो, यदि वह सच्चा उपासक होगा, तो वह दूसरे किसी साईं-उपासक की निन्दा नहीं कर सकता। क्योंकि वे इस बात को अच्छीतरह से जानते हैं कि सभी भिन्न भिन्न तरीके से, भिन्न भिन्न मनोदशा (temperament) के अनुसार और विभिन्न पद्धतियों के अनुसार उसी एक 'जगदम्बा' की ही उपासना कर रहे हैं। दूसरा कारण यह कि वे अपने आंदोलन को लेकर इतने व्यस्त रहते हैं कि 'ब्रह्माकुमारी और आर्यसमाज' की तरफ देखने का अवसर नहीं मिलता। ठाकुर रामकृष्णदेव के मतानुसार किसी भी प्रकार की साकार-उपासना (छठपूजा -गणेश पूजा) का विरोध करना उनकी घोर अज्ञानता का परिचायक है।
ईश्वर-पन्थी (God fanatics) धार्मिक कट्टरपन्थियों के बीच परस्पर विरोध को समाप्त करने के लिए ही ठाकुर रामकृष्णदेव का अवतरण हुआ है।  यही उनके वचनामृत और लीलाप्रसंग के प्रत्येक शब्द में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है। चतुर विपरीत मत वाले की बातों को सुनकर यदि किसी सरल बुद्धि मनुष्य के मन में संदेह पैदा हो तो उसके लिए यथाशीघ्र गुरु के चरणों में आश्रय लेना चाहिये। गुरुवाक्य में (महावाक्य में) 
निष्ठा ही इस प्रकार के समस्त संदेहरूपी विषवृक्ष के लिए कुल्हाड़ी स्वरुप है ! श्रीगुरूपदानुरक्त आनन्द से भरे भक्त (भावी नेता-वीर -हीरो) इस सन्देह को भवव्याधि या भवरोग कहते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह मूर्तिपूजा में सन्देह ही वह तम का आवरण है जो भगवान (सत्य) को जीव के आँखों के सामने ओझल कर देता है। जिस हृदय-दर्पण में भगवान का रूप प्रतिबिम्बित होता है, उस दर्पण को यह सन्देह ही मलीन बनाये रखता है। सदगुरुदेव के साथ जुड़ जाने से और उनकी कृपा से जैसे सूर्योदय होने पर अँधेरा दूर हो जाता है, ठीक उसी प्रकार संदेह रूपी अँधेरा भी छँट जाता है। श्रीरामकृष्णदेव से जुड़ने के ५ साल के भीतर ही मेरे संशय चले गए थे, यह मैंने स्वयं अनुभव किया है। 
कोई निराकारवादी पण्डित यदि ईश्वर-तत्व [लोटा-ब्रह्म, थारी-ब्रह्म?]  को लेकर भयंकर तर्क-बितर्क करने लगता, तो बहस को छोड़कर ठाकुर उठ जाते, फिर भावेश में तुरंत लौट आते और उस तार्किक को केवल 'छू'-देते और पूछते -अभी तुम क्या कह रहा था, जरा फिर से कहो ? यह 'छू'-देना ही करुणा के सागर, दयानिधि अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव की अपार करुणा का प्रतीक है ! उनके छूते ही वह तार्किक तत्काल ऐसा हो जाता था सपेरा जब अपनी छड़ी से फणधारी नाग को पकड़ने से, वह केचुआ जैसा हो जाता है। वे कुछ देर तक ठाकुर को अपलक देखते रहते फिर कोई उनकी स्तुति करने लगता, तो कोई उनके चरणों को पकड़ कर रोने लगता, तो कोई 'देहि में चैतन्यम प्रभो !' कहकर शांत हो जाते थे, क्योंकि तत्काल उनकी आँखों के सामने से अविद्या माया का आवरण दूर हो जाता था। उसी प्रकार गृहस्थ लोगों को जन्म-जन्मान्तर तक तपस्या करने से भी जो अद्वैत शाश्वत चैतन्य तत्व की अनुभूति नहीं होती, वह श्रीरामकृष्णदेव और माँ सारदा की कृपा तथा स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा द्वारा स्थापित महामण्डल के चरित्रनिर्माण आन्दोलन का निष्ठावान कर्मी बनने से हो जाती है। महामण्डल शिविर में माँ सारदा -रामकृष्ण-विवेकानन्द के चित्र को देखने मात्र से प्रत्येक निष्ठावान कर्मी का संशय दयानिधि कल्पतरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव के आशीर्वाद रूपी चैतन्यदान से दूर हो जाता है !
श्री रामकृष्णदेव की महिमा देखो ! साधना करके भ्रमभंजन और महामण्डल करके भ्रमभंजन का अन्तर क्या है ? जैसे कुआँ खोदकर पानी पीना और गोमुख से गंगाजल पीना ! जिनके स्पर्श मात्र से जीव को चैतन्य हो जाता था, वे क्या वस्तु रहे होंगे? -इस सत्य को क्या साधारण जीव अपनी बुद्धि से समझ सकता है ? इसलिए एक बार मन प्राण लगाकर भगवान श्रीरामकृष्णदेव की जय ! बोलो ! जीव पी.एच.डी. की डिग्री लेकर भी (राज्य सभा?) चैतन्य के बिना पशु से थोड़ा उच्च अवस्था में है। अचैतन्य मनुष्य में चैतन्य को संचारित करना, और पाषाण बन चुकी अहिल्या में प्राण संचार करने में कोई अन्तर नहीं है। रामरूप में प्रभु ने केवल एक पाषाणी का मानवीनीकरण किया था, इस बार रामकृष्णरूप में वे अपार करुणा करके सैंकड़ों -हजारों पत्थर बन चुके हृदय को सचेतन करके , उसमें प्रेम के झरने को उन्मुक्त कर रहे हैं, यह उनकी अपार महिमा है। चैतन्य हो जाने पर जीव में कैसा परिवर्तन (Transition-संक्रान्ति) होता है -यह मुख से बोलने की बात नहीं है। इसलिये महामण्डल के माध्यम से होने वाली इन त्रिदेवों की लीला कहने -सुनने या पेपर में प्रचार करने की चीज नहीं है - केवल इसमें भाग लेकर देखने की चीज है।  
तोमादेर चैतन्य होक ! चैतन्य-प्राप्ति से क्या होता है ? चैतन्यप्राप्ति और महामाया की कृपाप्राप्ति एक ही बात है। यदि कोई गाँव का किसान यह पूछे कि पी.सी.सरकार के जादू में क्या दिखाया जाता है ? तो उसको हम क्या समझायेंगे ? यहाँ भी वही बात है , यह सृष्टि माया का रंगशाला (playhouse) है। इस जगत का नाम बाह्य जगत है, और हमारे भीतर जो जगत है, उसका नाम अन्तर्जगत है। बाह्यजगत अन्तर्जगत के प्रदर्शनों की विषय-सूचि (repertory) है। माँ रंगमयी ने इन दोनों जगत को जिस रंग से रंगा है, उसका नाम अवाक् (Speechless या विस्मय astonishment) रंग है। जैसे कोई व्यक्ति टिकट खरीदकर या फ्रीपास द्वारा रंगशाला में प्रवेश कर सकता है, उसी प्रकार बाह्यजगत से अन्तर्जगत में प्रवेश करने का 'एक मात्र उपाय माँ की कृपा' (graciousness) या चैतन्य है। चैतन्य हो जाने के बाद यही
बाह्यजगत फिर दूसरे प्रकार का दिखने लगेगा , यद्यपि अचैतन्यावस्था (हिप्नोटाइज्ड स्टेट) में देखा गया बाह्य जगत और चैतन्यावस्था (डीहिप्नोटाइज्ड) में दिखने वाला बाह्य जगत, एक ही है; तथापि चैतन्यावस्था में देखोगे कि उसका पहले वाला स्वभाव, चेहरा, रंगरूप एकदम दूसरे प्रकार का हो गया है। जब 'शिवत्व की प्राप्ति' हो जाती है,या जब नेत्र चैतन्य हो जाता है, उसमें आँखों को मूँद कर देखना होता है, खोलकर नहीं। इन दो चर्म चक्षुओं से नहीं तीसरी आँख से ही अवाक्-रंग को देखा जा सकता है। इस नेत्र से अँधेरे में या प्रकाश में एक समान देखा जा सकता है। 
मनःसंयोग : पहले हमलोग अपने को केवल हड्डी-मांस के पुतले समझते थे, यह समझते थे कि यह शरीर ही मैं हूँ, पुरुष/स्त्री हूँ। किन्तु वास्तविकता यह है कि 'तुम' और 'शरीर' दोनों अलग अलग चीजें हैं। इस शरीर के भीतर एक मन है, यह मन रात-दिन संकल्प-विकल्प करता रहता है। यह मन कभी कभी अपने को दो भागों में बाँट लेता है, और परस्पर झगड़ने लगता है। उस झगड़े में समझौता कराने के लिये विवाद के बीच एक और व्यक्ति प्रकट होता है। उस सत्ता में चीत्त, बुद्धि, अहंकार, जीवात्मा, परमात्मा, काम-क्रोध आदि छः शत्रु इस शरीर में रहते हैं, और कार्य करते हैं। ये सभी आश्चर्यचकित कर देने वाले 'अवाक् रंग' रात-दिन इस शरीर में रहते हैं, और कितने ही खेल करते हैं। किन्तु मनुष्य को इसका कुछ पता नहीं चलता। जैसे कठपुतली का खेल दिखाने वाला, विभिन्न युक्तियों (चतुराई या Tactics-) से पुतलियों को नचाता है। माँ रंगमयी जीव के शरीर के भीतर हजारों रंग के खेल दिखाती हैं। और अपनी इच्छानुसार समस्त देही को नचा रही है। देही के भीतर (पृथक 'अहं'-बोध में ) रहकर वे सृजन के समस्त खेल खिलवा लेती हैं, किन्तु इनकी महिमा/ प्रशस्ति (glorification) यह है कि वे अपनी रंजकता (Pigmentation) के कौशल के बारे में देही को कुछ भी जानने नहीं देती हैं। किन्तु जिस आधार पर माँ प्रसन्न होकर कृपा करके, उसे चैतन्य प्रदान कर देती हैं (डीहिप्नोटाइज्ड कर देती), और वह उनके खेल को देख सकता है। 
अवाक् रंग- माँ रंगमयी -सर्वव्यापी विराट 'अहं-बोध', इस सृष्टि के प्रत्येक शरीर में एक एक 'मैं'-बोध के रूप में विद्यमान हैं, प्रत्येक शरीर अहंकार में 'मैं' 'मैं' शोर करता हुआ आकाश फाड़ रहा है। किन्तु वास्तव में 'मैं' नाम का इतने अरब में 'मैं' नाम का कुछ भी नहीं हैं ! जो उस विराट मैं के बच्चे हैं, माँ की प्रसन्नता प्राप्त किये बिना उनको देखने का कोई उपाय नहीं है। 
लोग कहते हैं -उसके परिचित बहुत से लोग बहुत से हैं, अर्थात वह उन सबको पहचानता है। किन्तु वास्तव में वह न तो किसी को पहचानता है, न जानता है। यहाँ तक कि वह अपनी माँ, स्त्री, पुत्र, परिवार आदि को भी नहीं पहचानता है, बल्कि वह स्वयं को भी नहीं पहचानता है। वह कौन है, कहाँ से आया है, कहाँ है,कहाँ जायेगा, क्या करेगा -यह सब वह कुछ भी नहीं जानता। माँ रंगमयी की कृपा से प्रकट चैतन्य के बिना कुछ भी पहचानने या जानने का उपाय नहीं है। यह देवदुर्लभ चैतन्य रामकृष्णदेव के आकर्षक कृपा-कटाक्ष से जीव के भीतर प्रकट हो जाता था। चैतन्य ही भवसागर पार करने की एकमात्र नौका है, और उसके एकमात्र कर्णधार श्रीरामकृष्णदेव हैं। 
ठाकुर अंधे जीव को अपने अपार करुणा और महशक्ति का परिचय देने के लिए भावावेश में आकर बीच-बीच में कहते थे -जहरीला नाग साँप (nostrum/रामबाण दवा) यदि बेंग को पकड़ ले तो उसको अधिक से दो बार या तीन बार पुकारना पड़ता है; और जिसमें विष नहीं होता -जैसे डोड़वां,हरहरवा साँप यदि किसी बेंग को पकड़ले तब बेंग को अधिक देर तक पुकारना/छटपटाना पड़ता है। क्योंकि नाग/गेहुआँ के विष की शक्ति इतनी है कि बेंग तुरन्त बेहोश हो जाता है। इस उपमा द्वारा ठाकुर अपना परिचय देते हुए कहते थे मानो मैं उसी तीव्रविष वाले वर्ग का साँप हूँ- जिसको स्पर्श कर दूँगा उसको अधिक तर्क-वितर्क नहीं करना होगा, बहुत जल्दी उसका काम तमाम हो जायेगा !/कभी कहते थे स्फटिक के सामने/ गिरिशबाबू को कहे थे -अभी खा-पी कर भोग कर लो, बाद और नहीं हो सकेगा। ठाकुर परम् रूपवान थे,
दोनों कानों तक फैले अतिसुन्दर घुमावदार दो नेत्र थे और उन नेत्रों ऐसी मोहिनी शक्ति भी ऐसी थी कि  उन नेत्रों में जो कोई भी झाँक लेता- फिर उसका बचना मुश्किल था। রামকৃষ্ণ পুঁথি : মনপাখী দিয়ে ফাঁকি পালাতে না পারে।  অনিবার্য শরাঘাত সন্ধানিলে কারে। ধনুশের মারে আঁখি -শরে দেয় প্রাণ। আঁকিতে নারিনু বাঁকা আঁখির সন্ধান। 
रामकृष्णलीला को मुख से नहीं कहा जा सकता, यह लीला सुनने की चीज नहीं है, केवल देखने की वस्तु है। जो दिखाई देता है, वह बोलकर समझाया नहीं जा सकता। ठाकुर जिस प्रकार एक गुप्त-अवतार हैं, उनकी लीला भी उसी प्रकार की है। अदभुत खेल है। महाव्यक्त होकर भी महागुप्त है। अति सरल पोशाक में उनको समझना मुश्किल है। मानो अति सरल के भीतर कोई अत्यन्त घुमावदार अभिव्यक्ति हो, ठीक उतना ही मुश्किल है व्यक्त-अवतार में गुप्त-अवतार के भाव को समझ पाना। जब तक वस्तु प्रत्यक्ष न हो जाये, एक वस्तु में विपरीत भाव के खेल को समझा नहीं जा सकता। व्यक्त होकर भी गुप्त, सरल-सीधा होकर भी घुमावदार -बाह्यऐश्वर्य और अन्तरऐश्वर्य अलग अलग समझना मुश्किल। बाह्यऐश्वर्य के बल से पत्थर मनुष्य बन गया, काठ की नाव सोने की बन गयी, शिवधनुष बालक के हाथ लगते ही टूट गया। भयंकर राक्षसी ताड़का मर गयी। जल के ऊपर पत्थर तैरने लगे, कानी ऊँगली पर गोबर्धन पर्वत उठा लिया। दूध पीते पीते शिशु ने पूतना राक्षसी मारी गयी। वंशी की धुन से यमुनाजी का जल ऊपर उठ गया, तीन डेग में त्रिभुवन को नाप लिया गया। दाँत के ऊपर गोल पृथ्वी को उठा लिया, खम्भे से भगवान नरसिंह प्रकट हो गए इत्यादि सब बाह्य ऐश्वर्य के खेल हैं। यह खेल रामकृष्णलीला में उनके अधिकारक्षेत्र (domain) में होकर भी, नहीं दीखता। 
रामकृष्णावतार शुद्ध-सतोगुण का खेल है, जिसकी शक्ति से एक उपदेश को सुनकर भीतर में चिरनिद्रा में सोया सर्प जाग उठा, अवाक् -रंगालय का फाटक खुल गया, जिस वस्तु में जन्मजन्मांतर से आसक्ति थी, उसमें अनासक्ति हो गयी। जो अपने थे पराये हो गए, जो पराये थे अपने हो गए। मन की दिशा उर्ध्वमुखी हो गयी , करोड़ों जन्मों का मार्ग एक क्षण में बदल गया। इन्द्रियों को नया आहार प्राप्त हुआ ,जगत नए रूप में दिखने लगा, शरीर आत्मा से अलग हो गया , वेद पुराणों के रहस्य स्वयं प्रकट हो गए -महावाक्यों का व्यावहारिक उपयोग समझ में आ गया ! अनन्त रूप से खण्डित जगत अखण्ड होकर सामने खड़ा हो गया, एक ही वस्तु ॐ अनेक रूप रंग वर्ण गंध रस और शब्द में परिणत हो गया। अच्छा-बुरा एक ही बिछावन पर सो गया, और जिस भगवान के द्वार में प्रवेश करने से इन्द्र,सूर्य-चन्द्र, वायु,वरुण, यम इत्यादि भय से काँपते हैं, वही भगवान अपने से भी अधिक अपने बन गए ! यह सब रामकृष्णलीला का अन्तरऐश्वर्य है। बाह्य ऐश्वर्य काण्ड को समझना इन्द्रियों के अधिकार क्षेत्र में है, इसीलिए मुख से कहा जा सकता है। किन्तु अन्तर ऐश्वर्य काण्ड इन्द्रियों के विषय होकर भी उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं हैं। इसलिए उनका वर्णन नहीं हो सकता। इसीलिए कहना पड़ता है कि रामकृष्णलीला बोलने की वस्तु नहीं, केवल देखने की वस्तु है। जिस  व्यक्ति (नरेन्द्रनाथ) ने रामकृष्ण लीला को थोड़ा थोड़ा (little by little) करके समझा है, क्या वे रामकृष्ण के विषय एक ही शब्द -LOVE कहकर चुप नहीं हो गए थे ? क्या इस अवाक् रंग के विषय में रट करके कोई बोल सकता है ? या किसी को समझाया जा सकता है ?                   
रामकृष्णदेव व्यक्त होकर भी गुप्त,और अति सरल-सीधा होकर भी अत्यन्त घुमावदार हैं यह कैसी विचारधारा है ? ठाकुर का जन्मस्थान एक ऐसा स्थान है, जिस स्थान से आमजनता उनके जन्म से पूर्व परिचित होना चाहे -इसका कोई कारण नहीं। (झुमरीतिलैया माइका और रेडियो के लिए प्रसिद्द था।) उनके पिताजी का आवास, जहाँ प्रभु का जन्म हुआ था, वह उस गांव के भद्र-विनम्र लोगों का मुहल्ला था। उस गांव के एक भाग के निवासी बुनकर जुलाहे और डोम थे, जिसको हिन्दू लोग शूद्र कहते थे। निकट ही श्मशान था , नानाप्रकार के झुरमुठ से भरा, मृत शरीर लोलुप सियार, गिद्ध, कुत्ते घूमते रहते थे। नजदीक से एक नाला बहता था ,जहाँ शाम होने के बाद अकेले नहीं जाया जा सकता है। पिता के किसी धनी मित्र ने अपनी जायदाद में से सात पंजा जमीन दिया उसपर एक धन के आभाव में लकड़ी के बदले बाँस का छप्पर छोटा पूजा कमरा, रसोई, स्थान के आभाव में प्रभु ढेकी घर में अवतरित हुए। उनका पालन लोहारिन ने किया। नजदीक में सम्पत्ति वान लोगों के मकान भी थे, उनका परिवार बड़ा था -लड़के-बच्चे बहुत थे। बड़े होने पर उनके बच्चों के साथ दोस्ती न करके दोस्ती किये अति दुखी दीन मजदूरी करके खाने वाले के लड़कों को। उन्हीं के साथ खेलना गाय चराना। अभिभावक के जिद से पाठशाला गए किन्तु पढ़ने-लिखने में मन एकदम नहीं लगता था। थोड़ा वर्णपरिचय हुआ, नाम लिखना सीख लिया। केवट रानी के द्वारा स्थापित मंदिर  के पुजारी बने।उनके मंदिर का प्रसाद उच्च जाति के लोग ग्रहण नहीं करते थे। रानी रासमणि के द्वारा बनाये गए दक्षिणेशर के कालीमंदिर में प्रतिष्ठित माँ भवतारिणी और राधाकान्त की पूजा के साथ नित्य भोगप्रसाद की व्यवस्था की गयी थी। किन्तु सामाजिक रूढ़िवादिता के कारण, प्रसाद खाने वाले के अभाव में भोगप्रसाद को गंगाजी में बहा देना पड़ता था। 
ठाकुर महाप्रेम से जिस प्रकार माँ का वेश सजाकर उनकी पूजा किया करते थे वह अन्य पुजारियों के जैसी वैध कर्मकाण्डी पद्धति नहीं थी। इसीलिए कर्मकाण्डी पण्डितों ने उनको पागल घोषित कर दिया। फिर उनके बड़े भाई रामकुमार ठाकुर को गॉँव ले गए और उनका विवाह कर दिए। जिस परिवार की कन्या से विवाह हुआ वे भी गरीब थे। ठाकुर को उस समय के नियमानुसार दहेज़ देकर विवाह करना पड़ा -कम नहीं पूरे तीन सौ। ठाकुर कामिनी-कांचन की तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं देते थे, ऊपर से बीचबीच में भावावेश होता था बालक के जैसा तीनों गुणों से परे थे। लहबाबू से उधार लेकर गहना चढ़ाया गया, कलकत्ते जाकर अतिकठिन साधनभजन करने लगे। उनको लोग पागल समझने लगे। माँ काली उनके उपयोग की समस्त वस्तुओं को दे देती थी। उनके पास हाजरा नामक एक तपस्वी रहते थे,उन्होंने ठाकुर को समझाया कि आप तो समाधिपरायण सिद्ध पुरुष हैं, आप क्यों लोगों को समझाने के लिए उनके घर जाते हैं ? ठाकुर ने बच्चे जैसा विश्वास कर लिया, और पंचवटी के नीचे बैठकर मनन करने लगे। एकदम रो पड़े और तेज कदमों से लौटकर हाजरा से बोले -'अरे शाले मैं तुम्हारी बात नहीं मानूँगा कष्ट सहकर भी द्वार द्वार घूमकर दूसरों का उपकार करूँगा। 
यह युग 'निगुरा लोगों' का युग है। (मार्गदर्शक नेता विहीन -लोकशिक्षक विहीन) लोगों का युग है, इस युग में भगवान के विषय में चिंतन करना तो दूर की बात, ईश्वर है -इस बात पर विश्वास ही मनुष्य के भीतर नहीं है। करोड़ो लोगों में दो-चार लोग ही ऐसे मिलेंगे जिन्हें ईश्वर पर पूरा विश्वास है। बाकि लोग यही मान बैठे हैं कि अब ईश्वर-प्राप्ति का कोई मार्ग नहीं है। पुराणों आदि में या कथावाचकों के मुँह से रामायण, भागवत में ईश्वर-प्राप्ति की जो कहानी सुनाई जाती है, वह तो ५००० वर्ष पहले की बात है। उस समय यदि किसी को ईश्वरलाभ हुआ भी होगा तो अब वह अप्रासंगिक बात है। यह तो विज्ञान का युग है। आशाराम, रामरहीम जैसे ढोंगी गुरु केवल कर्मकाण्ड करके लोगों को मूर्ख बनाते हैं। इस युग में ठाकुर और महामण्डल को अवतरित होना पड़ा है। वह भी अत्यन्त सरल और आडंबर रहित वेश में। जो ज्ञानियों के ब्रह्म हैं, योगियों की आत्मा हैं, भक्त के भगवान हैं, जो माँ जगदम्बा, जिनसे सृष्टि निकली है उस आद्याशक्ति महादेवी के पति हैं, जो जीव-जगत का सृजन, पालन और संहार करने वाले एकमात्र महादेवता हैं, वे ही अभी इस दीन-निरक्षर ब्राह्मण के वेश में कंगाल के जैसा मनुष्यों के द्वार द्वार जाकर घूम रहे हैं; यह बात साधारण मनुष्य कैसे समझ सकता है ? भगवान जब लीला के वेश में अवतरित होकर अपने लीलाक्षेत्र में अवतरित होते हैं, उस समय उनको पहचान पाना बहुत कठिन है। क्योंकि व्यक्त 'ईश्वर' होकर भी गुप्त रूप से 'मनुष्य' (शिवत्व या बुद्धत्व प्राप्त यथार्थ ब्रह्मविद मनुष्य) बनने और बनाने की शिक्षा देते हैं। 
सर्वशक्तिमान भगवान के समस्त अवस्थाओं को समझने की तुलना में शरीर-धारण कर लीलाक्षेत्र में अवतरण कार्य को समझना बहुत गूढ़ (crypticया रहस्यपूर्ण कार्य) है, और आश्चर्यजनक है। ज्ञानियों और योगियों के लिए भगवान तेजोमय हैं और भक्तों के लिए वे रसोमय हैं ! इसीलिए ज्ञानी और योगी भगवान के केवल एक रूप का ही भोग करते हैं; किन्तु भक्त उनका नाना रूपों और नाना भावों में आनन्द लेते हैं। दो शहनाई वादक की उपमा एक केवल 'पों' दूसरा रागिनी बजाता है। ऐसा मत मान लेना कि भगवान भक्त को केवल अपना साकार रूप ही दिखलाते हैं; और कुछ नहीं दिखलाते -वे स्वयं ही जीव -जगत में परिणत हो गए हैं, जो वे स्वयं पंचभूत के साथ २४ तत्व बन गए हैं। फिर स्वयं जीवजगत में आत्मा रूप से विराजित भी हैं, यह भी दिखा देते हैं !!!! फिर उनका जो अलग से एक निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्द स्वरुप है उसको भी प्रकट कर देते हैं ! (किसी पौधे में फल पहले होता है फूल बाद में होता है !!) जो केवल ज्ञानी और भक्त होता है वह भक्त (वीर/लीडर/हीरो) के आनन्द का निशान (trace) भी नहीं खोज सकता है। रामजी ने परमभक्त हनुमान, प्रह्लाद, नवनी-माखन-भक्त-बिकु को अपना समस्त रूप नरसिंह-वराह रूप दिखला दिया था -तेजोमय और रसोमय,सगुण -निर्गुण  दोनों रूप दिखला दिया था! किन्तु हनुमान  ने अन्य दो ज्ञानियों और योगियों वाले भाव को न रखकर सेव्य-सेवक का भक्तिभाव दास भाव ही रखा था। एकबार माखन-भक्तिभाव का दासभाव का आस्वादन कर लेने पर, कोई व्यक्ति अन्य कहीं जाना ही नहीं चाहता। देवर्षि नारद का भी यही भाव है। उद्धवजी वृन्दाबन में गोपियों को योगतत्व खूब समझाया है कि एक वस्तु को मन को एकाग्र करने की पद्धति क्या है - किन्तु किसी गोपी ने सुना ही नहीं ! कृष्ण के विरह में उनके शरीर की चमड़ी सुख गयी है,सोने जैसी चमक अंगार हो गयी है, रो रो कर अंधी हो गयी हैं, किन्तु किसी ने अपनी आँखों को मूँद द्रष्टामन और दृश्यमन को समझने की चेष्टा नहीं की। जैसे मिश्री खा लेने के बाद रावा का गुड़ अच्छा नहीं लगता; उसीप्रकार जिसने आँखों को खोलकर जिसने एक बार भी भगवान का आनन्द लिया है, वह मर जाने के बाद भी आँखों को मूँद कर देखना नहीं चाहता। वे कहती हैं हमारा प्रॉब्लम दूसरा है -कृष्ण ऑंख खोलने के बाद भी मन से निकल ही नहीं रहे हैं ! जहाँ देखती हूँ कृष्ण ही नजर आ रहे हैं ! बलिहारी है ब्रज का भाव, जिसके सामने योग का आनन्द, ब्रह्म का आनन्द भी तुच्छ हो जाता है।রামকৃষ্ণ পুঁথি : অবিরত নানা ব্রত কঠোর সন্ন্যাস/ 
अन्तःकरण (मन-बुद्धि) चैतन्यमय हो गया =सोने का बन गया : देहधारी भगवान (समाधि जन्य अवतार भी ?) को पहचान पाना बहुत कठिन है। वे जिस भाव या रूप में क्यों न प्रकट हों, वे अगर पहचानने की शक्ति न दें तो कोई उन्हें नहीं पहचान सकता। केवल मात्र चैतन्य के द्वारा उन्हें पकड़ा जा सकता है। ठाकुर का शरीर घनीभूत चैतन्य है, जैसे जल ठंढ से जमकर बर्फ बन जाता है, ठीक उसी प्रकार भक्ति के ठंढ से चैतन्य ही जमकर प्रभु का शरीर बन गया है। इस देहधारी प्रभु को पकड़ने के लिए उनके द्वारा प्रदत्त चैतन्य ही एकमात्र उपाय है ! चैतन्य की सहायता से ही चैतन्यमय को जाना जाता है। भक्ति और चैतन्य में कोई अंतर् नहीं है। जो भक्ति है वही चैतन्य है। मनुष्य का मन-बुद्धि जबतक मलीन रहता है,तबतक वे स्वतंत्र-स्वभाव बंदर रहते हैं, इसलिए उसे मन-बुद्धि दोनों कहा जाता है। किन्तु भगवान की कृपा से निर्मल अवस्था में आने के बाद दोनों मिलकर एक हो जाते हैं। अब उनका पहले वाला नाम और स्वाभाव कुछ नहीं रहता , तब उनका नाम चैतन्य हो जाता है। चैतन्यवान व्यक्ति चैतन्य की सहायता से चैतन्यमय को पकड़ लेता है, और अचैतन्यवान लोग अविद्या के बाजार की वस्तुओं को 'लस्ट लूकर ' को पहचानते हैं, और केवल उसी में अटके रहते हैं। 
चैतन्यमय स्वयं अपनी कृपा से जीव के हृदय में चैतन्य जागृत कर पकड़ में आ जाते हैं। जिस 'देवेन्द्रबाबू ' के पकड़ में आ जाते हैं उसके लिए एक गीत गाते हैं -ওরে কুশীলব কি কর গৌরব? देहधारी लीलाक्षेत्र में जितने भी सामान्य वेश में क्यों न रहें, चैतन्यवान उनके स्व-स्वरुप को अच्छीतरह से देख सकते हैं। दीनवेश-धारी रामकृष्णदेव ही दीना-नाथ है ! ससीम में असीम को देखा जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति यह कल्पना करे कि अवतार रूपी ईश्वर रामकृष्णदेव यदि देखते देखते काली रूप में बदल जायें या अन्य किसी अमानवी शक्ति का परिचय दें तभी उनके भगवान होने पर विश्वास करूंगा -यह सोंच उनपर घोर अविश्वासी होने का परिचायक है। जिसको ईश्वर अवतार के एक रूप पर विश्वास नहीं है, उसको भगवान के किसी रूप पर विश्वास नहीं होगा
मनःसंयोग :मनुष्य की बुद्धि का फेर देखो -विशाल सागर को पार करने के लिए एक लकड़ी के तख्ते पर विश्वास कर रहा है, इस भयंकर भवसागर को पार करने के लिए अविद्या (कामिनी -कांचन) के हाथों में मन-प्राण से विश्वास कर रहा है। किन्तु विश्वविजेता स्वामी विवेकानन्द के भी गुरु हैं, श्रीरामकृष्णदेव यह जानबूझ कर भी, उनकी शरण में जाते समय मनुष्य इतनी आशंका, संदेह, तर्क उठ खड़े होते हैं ! इसलिये ठाकुर के चरणों में भक्ति चाहिए तो-स्वामीजी की बात ,.....  'मेरे जैसे लाखों विवेकान्द ठाकुर अपने कृपा कटाक्ष से पैदा कर सकते है 'पर विश्वास करके उन्हें निगल जाओ, चिबा कर खाने की चेष्टा मत करो ! तर्क-युक्ति की सहायता से ठाकुर पर विश्वास करने की चेष्टा करना ,चिबा कर खाना है। तुम जिस मन-बुद्धि के बल पर इन्द्रियातीत सत्य को जानने की चेष्टा कर रहे हो, उनके शरीर में इतनी शक्ति ही नहीं है कि 'देश-काल-निमित्त ' को भी लाँघ कर उनके पास भी पहुँच सकें ! भगवान, तर्क-युक्ति और निष्कर्ष (परिणाम -दूध से दही जैसा) के परे हैं ! वे मन-बुद्धि के अगोचर हैं -क्योंकि वे जड़ नहीं चेतन हैं ! तुम्हारी एकमात्र पूंजी तुम्हारा मन ही है, उस मन क्या दम है कि वह उनके निकट जा सके ? उनके निकट जाते समय मन पीछे ही छूट जायेगा, उस स्थान पर तर्क-युक्ति करने वाला ज्ञाता रहेगा ही नहीं। उसके लिए सहज सरल उपाय है निगल जाना अर्थात 'अर्थात तुम जो करो ठाकुर' -[Matthew 6.10/ 'Your kingdom come. Thy will be done, On earth as it is in heaven.] ... यही बोल कर सरल मन से उनके चरणों में शरण लो। उनको नहीं पा सकते, तो उनके नाम का आश्रय ग्रहण करो !
मन-बुद्धि (पृथक'अहं' बोध) जबतक शरीर पर कालिख लगाकर भूत बनकर बैंठा हुआ है, उतने दिनों तक उसका गर्जन-तर्जन (रेणुका !) चलता रहता है; और जब कालिख (या स्याही हत्या करने के बाद भी ?) धुल जाती है, उस समय मन-बुद्धि की अवस्था ठीक- 'मालिक का नमक खाया हुआ कुत्ता जैसे अपने मालिक का वफादार बन जाता है' - 'নিমকখেকো প্রভুপ্রয়াণ কুকুরের মতো।' जैसा हो जाता है। किसी मनुष्य पर जब कोई भूत चढ़ जाता है,और जब उपचार के बाद उसे छोड़ देता तब- दोनों परिस्थितियों में उसकी अवस्था कैसी होती है -यह भूलभुलैया पिक्चर में यूबीएस ने देखा है! मन की मलीन अवस्था और निर्मल अवस्था में मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार की वैसी ही हो जाती है। 
जिस मन को भूत ने पकड़ लिया है, उस भूत को छुड़ाने के लिये -अर्थात मलीन मन को निर्मल बनाने के लिए भगवान के नाम का शरण लेना एक आसान उपाय है ! निरंतर सरल भाव से भगवान का नाम जपते जपते कलुषित मन निर्मल बन जाता है। ठाकुर ने बार बार कहा है कि 'नाम की महिमा अपार है', राम से बड़ा राम का वह नाम जो गुरुमुख से प्राप्त हो ! नाम ही बीज है, नाम ही पेड़ है, नाम ही फल है ! नाम के भीतर भगवान स्वयं विद्यमान हैं ! लोकशिक्षा के लिए दादा रोज तीन बार नाम लेते थे। यह समाधि नाम के बल से भी प्राप्त होती है। ठाकुर एक वैष्णव साधु की उपमा देते थे - গৌর আমার মাতা হাতি/ क्रमशः यही बोलते बोलते 'आमार माता हाति' हो जाता था, 'माता हाति' फिर केवल 'हाती हाती' फिर केवल 'हा' बोलते ही समाधि में चला जाता था। नामकीर्तन को ही नारदीय भक्ति कहते हैं। हाथी के जैसे खाने और दिखाने के दो दाँत होते हैं, उसी प्रकार ठाकुर के भीतर पूर्ण ज्ञान और बाहर में लोकशिक्षा के लिए काली भक्तिभाव रहता था। [নামের ভরসা কালী করি গো তোমার/ আমি দূর্গা দূর্গা বলে মা যদি মরি/ সাধের পথে কিনবি হরি , সাধ কেন তোর হলো না] 
दादा कहते थे - तुमको गीता भी नहीं पढ़ना होगा, वेदान्त और सांख्य दर्शन भी नहीं देखना होगा, पंचतपा भी नहीं करना होगा, तीर्थ तीर्थ में चारधाम भी नहीं घूमना होगा, ध्यान-जप भी नहीं करना होगा, संन्यास भी नहीं लेना होगा,घर-परिवार भी नहीं छोड़ना होगा, घर-द्वारा -गाँव का त्याग भी नहीं करना होगा, दयानिधि खेवैया 'बी एण्ड मेक ' के धुन को पकड़े रहो, मुक्त हो जाओगे ! समय आने पर देख सकोगे कि ठकुर ने मुझे सभी बंधनों 'कामिनी-कांचन' से भी मुक्त कर दिया है ! सावधान महामण्डल को पकड़े रहो और जो इच्छा हो वही करो ! महामण्डल समस्त विपत्तियों से रक्षा करेगा। यदि बोलो मैं तो मलीन मन द्वारा परिचालित हूँ, कामक्रोध आदि के अधीन हूँ, और उससे उत्पन्न कितने पाप किये हैं -मैं कैसे शिक्षक बन सकता हूँ ?तो इसका मतलब यह है कि तुम अभीतक महामण्डल को नहीं समझे हो ? पुलिस-अदालत  न्याय करती है, रामकृष्णदेव दया करते हैं। रामकृष्ण रूपी महामण्डल के शरण में रहने से वे उस कर्मी को अपना हीरो बना देंगे यही नियम से वे बंधे हुए हैं।              
[জীব একান্ত বেবাগ হলে দেয়ার সাগর মূর্তি ধরে মানুষ মতো হয় বাগমানাতে আসেন....          
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " वे असहाय गरीब लोग कीड़े-मकोड़ों का सा या पशुओं जैसा जीवन बिता रहे हैं, उसका कारण अज्ञान है। कन्याकुमारी में माता के मन्दिर में बैठकर, भारत के अन्तिम चट्टान पर बैठकर, मैंने एक योजना सोच निकाली। सोचो, गाँव गाँव में कितने ही संन्यासी/ लीडर / लोकशिक्षक /नेता घूमते फिरते हैं, वे क्या काम करते हैं ? यदि कोई निःस्वार्थी परोपकारी संन्यासी गाँव गाँव में विद्यादान करता फ़िरे और भाँति भाँति के उपायों से मानचित्र, कैमरा, भू-गोलक (Globe) आदि के सहारे चाण्डाल तक सबकी उन्नति के लिये घूमता फ़िरे तो क्या या इससे समय पर मंगल होगा या नहीं ? 'यदि पहाड़ मुहम्मद के पास न आये,तो मुहम्मद ही पहाड़ के पास जायेगा।' गरीब लोग इतने बेहाल हैं कि वे स्कूलों और पाठशालाओं में नहीं आ सकते। एक राष्ट्र की हैसियत से हमने अपनी राष्ट्रिय-विशेषता को खो दिया है और यही सारे अनर्थ का कारण है। हमारा कार्य, भारतवर्ष को उसकी खोयी हुई राष्ट्रीय विशेषता को वापस लौटा देना है, और अनुन्नत लोगों को उठाना है। " इसके लिये स्वामी विवेकानन्द ( हितोपदेश से एक कथा ' मित्रलाभ ' को उद्धृत करते हुए) कहते हैं  'सन्निमित्ते वरं त्यागो विनाशे नियते सति।' - अरे जब मृत्यु निश्चित ही है,तो क्या किसी सत्कार्य के लिये  मर जाना श्रेयस्कर नहीं है ?  
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[माँ सारदा के भीतर श्रीजगदम्बा के साक्षात् आविर्भाव को प्रत्यक्ष करने के बाद, श्रीषोड़शी-महाविद्या के रूप में श्रीठाकुर ने उनका पूजन तथा आत्मनिवेदन किया। पत्नी के साथ पाँच महीने तक एक ही शय्या पर शयन किया। एवं पत्नी की शिक्षा, उनके चित्त की शांति तथा आनन्दवर्धन के निमित्त कभी कभी वे कामार-पुकुर तथा अपनी ससुराल जयरामवाटी में जाकर एक-दो महीने वहाँ भी रहे। दीपक में बाती किस तरह रखनी चाहिए, घर के लोग कौन कैसे हैं, तथा किनके साथ किस प्रकार का व्यव्हार करना चाहिए इत्यादि सांसारिक विषयों से लेकर भजन,कीर्तन, ध्यान, समाधि तथा ब्रह्मज्ञान तक की शिक्षायें श्रीमाँ को श्री ठाकुरदेव से ही प्राप्त हुई थीं। हममें से कितने लोग अपनी पत्नी इन विषयों की शिक्षा प्रदान करते हैं ? लीला २/१२८ 
" जिस विद्या को प्राप्त करने पर मनुष्य ईश्वर को पा सकता है, वही यथार्थ विद्या है ,और सब मिथ्या है। कोई केवल पण्डित हो, (बीए-एमए हो) परन्तु यदि विवेक-वैराग्य नहीं तो उसकी दृष्टि कामिनी-कांचन (लस्ट और लूकर) पर अवश्य रहेगी। गिद्ध बहुत ऊँचे उड़ते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि मरघट पर ही रहती है। वचनामृत ४१४/ 
" वैष्णव, शाक्त, शैव सब एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के भिन्न भिन्न मार्ग हैं। इसलिए जो सच्चे वैष्णव हैं, वे कभी शक्ति की निन्दा नहीं करते; कहते हैं, 'हर-पार्वती' हमारे माँ बाप हैं ! (अर्थात श्रीरामकृष्ण परमहंस  -माँ श्री सारदा देवी हमारे माँ बाप हैं ! और स्वामी विवेकानन्द जी हमारे बड़े भाई हैं ! ) 
माँ श्री सारदा देवी जब छोटी सी लड़की थीं , तभी यह समझ गयी थीं कि चन्दा मामा जैसे सभी के मामा हैं, वैसे ही स्वामी विवेकानन्द के गुरु अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव भी केवल मेरे,आपके गुरु ही नहीं हैं, वे तो जगतगुरु हैं !  अर्थात श्रीरामकृष्ण देव केवल भारतवासियों के ही नहीं, सम्पूर्ण मानवजाति के भावी मार्गदर्शक 'नेता' (वुड बी लीडरफ्रैंड-फिलॉस्फर-गाइड) हैं ! इसीलिए वे श्रद्धा पूर्वक अपने पति को पंखा झल रही थीं। 
" माया के इस संसार में विद्या और अविद्या दोनों ही हैं। परमहंस वह है, जो हंस की तरह दूध और पानी के एक साथ रहने पर भी पानी छोड़कर दूध निकाल लेता है।  चींटी की तरह बालू और चीनी के मिले रहने पर भी बालू में से चीनी निकाल ले सकता है। वचनामृत -४१७ /      

[" आगे फल,बाद में फूल: लौकी-कुम्हड़े की तरह"- फल के होने पर फूल गिर जाता है; भक्ति फल है कर्म फूल ! ५३५ / ईश्वरकोटि के मनुष्य (नवनी दा जैसे) संसार में आकर 'संकल्प से सिद्धि' अर्थात संकल्प लेकर 'साधारण आदमी से चरित्रवान मनुष्य' बन जाने के निमित्त जो मनःसंयोग आदि ५ अभ्यास करते हैं, वह केवल सामान्य लोगों को यह समझाने के लिए होता है कि इस विषय में इस प्रकार फल प्राप्त करने के लिए उन्हें भी इसी प्रकार प्रयत्न करना पड़ेगा। मानो उस ज्ञान को प्राप्त करने के 'फल' को- उन्होंने पहले से ही अपना रखा है। इस बात को सुनकर आश्चर्यचकित होने का कारण नहीं है, साधारण मनुष्य भी नित्यमुक्त और अवतार के अन्तर को इसी प्रक्रिया से गुजरने के बाद समझ पाता है।]
" बात यह है कि कामिनी -कांचन का त्याग हुए बिना कुछ होने का नहीं। मैंने तीन त्याग किये थे -जमीन, स्त्री और रुपया। भगवान रघुवीर के नाम की जमीन रजिस्ट्री कराने के लिए मुझे उस देश में (कामारपुकुर में) जाना पड़ा था। मुझसे दस्तखत करने के लिए कहा गया। मैंने दस्तखत नहीं किये। मुझे यह ख्याल था ही नहीं कि मेरी जमीन है! रजिस्ट्री अफिसवालों ने केशव सेन का गुरु समझकर मेरा खूब आदर किया था। आम ला दिए , परन्तु घर ले जाने का अधिकार नहीं था, क्योंकि संन्यासी को संचय नहीं करना चाहिए। वच-४२९ /
'कुम्हड़ा काटने वाले जेठजी' : विवेक-प्रयोग:  संसार के विषयों को 'विवेकपूर्वक भोगने' के लिये प्रवृत्त होने पर मन फिर उस विषय को त्याग देता है। सर्वदा विवेक-प्रयोग करते हुए मन को यह समझाना चाहिये कि 'मन तुम उस वस्तु को भोगना चाहते हो, इसे (मीट-मुर्गा) खाने की तुम्हारी इच्छा है, वह पहनना चाहते हो, किन्तु जिन पंचभूतों के द्वारा आलु,परवल। चावल,दाल इत्यादि का निर्माण हुआ है, उन्हीं से तुम्हारा और समस्त मानवों का शरीर भी बना है, तो फिर उन्हें प्राप्त करने के लिए इतना हायहाय क्यों करते हो ? उससे तो कभी सच्चिदानन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती ? इस प्रकार समझाने पर भी यदि मन मानने को तैयार न हो, तो विवेकपूर्वक दो-एक बार भोग लेने के पश्चात् उसे त्याग देना चाहिए। लीला २/१२५ 
वचनामृत २० अगस्त १८८३: मास्टर के मित्र हरिबाबू जो बहुत दिनों से विपत्नीक हैं श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए आये हैं। श्रीरामकृष्ण (हरिबाबू से)- तुम क्या काम करते हो ? उनकी ओर से मास्टर : 'ये ऐसा कुछ नहीं करते, पर अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि की बड़ी सेवा करते हैं। श्रीरामकृष्ण (सहास्य): यह क्या है ? तुम तो 'कुम्हड़ा काटने वाले जेठजी' बन गए ? तुम न संसारी हुए न हरिभक्त ! यह अच्छा नहीं। किसी किसी परिवार में कोई पुरुष ऐसा होता है, जो रातदिन लड़के-बच्चों से घिरा रहता है। वह बाहर वाले कमरे में बैठकर खाली तम्बाकू पिया करता है। निकम्मा ही बैठा रहता है। हाँ, कभी कभी अन्दर जाकर कुम्हड़ा काट देता है ! स्त्रियों के लिये कुम्हड़ा काटना मना है। इसलिये वे किसी बच्चे से कहती हैं, 'जेठजी को यहाँ बुला लाओ, वे कुम्हड़ा काट देंगे।' तब वह कुम्हड़े के दो टुकड़े कर देता है !! बस, यहीं तक मर्द वाला काम करता है। इसलिए उसका नाम 'कुम्हड़ा काटनेवाले जेठजी' पड़ा है। " तुम यह भी करो, वह भी करो। ईश्वर के चरण कमलों में मन रखकर संसार का कामकाज करो। और जब अकेले रहो तब भक्तिशास्त्र पढ़ा करो -जैसे श्रीमद्भागवत या चैतन्यचरितामृत आदि। " वचनामृत /२८९ ]
[पंद्रहवीं सदी में कविकंकण मुकुंददास चक्रवर्ती ने चंडीकाव्य बनाया जो आज भी लोकप्रिय है। इसमें तत्कालीन बँगला जीवन की अच्छी झलक देख पड़ती है। पद्यलेखक होते हुए भी वे एक तरह से बंकिमचंद्र तथा शरच्चंद्र चटर्जी के पूर्वग माने जा सकते हैं। बँगला के प्रथम महाकवि, जिनके संबंध में हमे कुछ जानकारी है, संभवत: कृत्तिवास ओझा थे (जन्म लगभग 1399 ई.)। संस्कृत रामायण को बँगला में प्रस्तुत करनेवाले (लगभग 1418 ई.) वे पहले लोकप्रिय कवि थे जिन्होंने राम का चित्रण वाल्मीकि की तरह शुद्ध मानव और वीर पुरुष के रूप में न कर भगवान के करुणामय अवतार के रूप में किया जिसकी ओर सीधी सादी भक्तिमय जनता का हृदय सहज भाव से आकर्षित हो सकता था।]
[प्रश्न : मोड़ घुमाना किसे कहते हैं ? और ठाकुरदेव कृपा करके किसी मनुष्य का मोड़ कैसे घुमा देते थे ? ठाकुर देव की कष्ट-निवारण महिमा को देखें !]
[प्रश्न : 'अवतार उपलब्धि ओ प्रत्यक्षेर विषय' (অবতার উপলব্ধি ও প্রত্যক্ষের বিষয়।)'  रामकृष्ण भगवान हैं, इस बात का प्रमाण क्या है?एक दिन विशाखापट्नम जाते समय भावी लोकशिक्षक को सिम्हाचलम पर्वत पर माँ जगदम्बा के कृपाप्राप्त भक्त नवनीदा के नरसिंह-वराह अवतार रूप का दर्शन प्राप्त हुआ! इस बात का प्रमाण क्या है? ]
[प्रश्न : मनःसंयोग पुस्तक के अनुसार कार्य क्या है ? यदि विवेकदर्शन ही मनुष्य का मुख्य कार्य है -तो इसका फल क्या है ? रामकृष्ण लीलाप्रसंग और वचनामृत में एकत्व का दर्शन का फल क्या है ?
[प्रश्न : मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य क्या है ?]
ठाकुरदेव की अमृतमय शिक्षायें : उपदेश महामंत्र या महवाक्य / 
'विवेक-दर्शन का फल समय सापेक्ष' होता है ! /
महावाक्य :'ईश्वर आर अविद्यामाया (कामिनी -कांचन में आसक्ति) ए दूटी जिनिस'  ঈশ্বর আর অবিদ্যামায়া (কাম-কাঞ্চন) এ দুটি জিনিস। /
महामंत्र ३. 'ओषधटि साधु-संग।'/
महामंत्र ४ : 'कामिनी-कांचन के अन्तरे ठायीं दीयो ना'/ 'काम-कांचनेर ऊपर भेसे बेड़ियो'/'धर्मपत्नी के ईश्वरलाभेर सहाय मने करो'/'कांचन के डाल -भातेर जोगाड़ मने करो' / धर्मरहित कामिनी माने धर्मपत्नी नहीं उप-पत्नी त्याज्य और अधर्म से कमाया गया धन ही त्याज्य हैं।  
[महामंत्र ५:'आगे संसार के चिनते हय' / - अर्थात शाश्वत आधुनिक अवतार और नश्वर शरीर के हृदय में बैठे ठाकुर को विवेक-प्रयोग -दर्शन से पहचान लेना होगा)  'आगे 'मने ज्ञान-भक्ति माखिये संसारे प्रवेश।ज्ञान भक्ति अर्जन,पश्चात संसारे प्रवेश'/ 
प्रकार- ''गाये हलूद माखा थाकले जेमन कुमिरेर भय थाके ना'/रामकृष्ण देव पर -मनःसंयोग द्वारा अवतार के प्रति ज्ञान-भक्ति रूपी हल्दी का उबटन लगाने की पद्धति सीखो।]/
[प्रश्न : आशाराम-रामरहीम जैसे ढोंगी गुरुओं द्वारा प्रचलित कनफुँकवा-गुरुपरम्परा के ढोंगी गुरुओं से बचने का उपाय क्या है ? चूजे के निकल जाने पर जैसे अंडा नहीं रहता।]/
[महावाक्य:'आमी जा के धरब, ताके निजेर बरन धरिये छाड़बो'/'आमी जात-सांप, जाके एक बार छोबलाबो, ताके तीन डाकेर बेशी आर डाकते हबे ना!']
[पेज/३३/महवाक्य : 'सर्वघटे विराज करे,इच्छामयी इच्छा जेमन'] /
 [पेज /३३ /  सांख्य-आधारित-भक्तिवेदान्त का सिद्धान्त 'राम ब्रह्म परमारथ रूपा ! ']
/ [प्रश्न : माया क्या है ? स्पष्ट कीजिये !/ 'ता उ बटे, ना उ बटे'/ 'ईश्वरीय अवस्थार इति हय ना']/प्रश्न :अवतार के दो प्रकार :पेज-३५ /
प्रश्न :ठाकुर-माँ -स्वामीजी के समधिस्त विग्रह की महत्ता (সমাধিস্ত কলেবর )/
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१. श्रीमान अक्षय कुमार सेन (1858-1923) का जन्म बांकुरा जिले के मोईनपुर गांव में हुआ था । पिता का नाम हलदर सेन और माता का नाम विधुमुखी देवी था। गहरा काला रंग, दुर्बल शरीर,कठोर आकृति के कारण मजाक मजाक में उनको शंखचूड़ (শাঁকচুন্নী) कहकर बुलाते थे। पूर्व जीवन में वे जोड़ासाँको 
कोलकाता के टैगोर परिवार के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे इसीलिये उनको 'अक्षय मास्टर' कहकर भी बुलाया करते थे।  अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद, उन्होंने दूसरी बार शादी की थी। बाद में जीवन में उन्होंने बसुमती पत्रिका के कार्यालय में नौकरी ग्रहण की थी। अक्षयकुमार ठाकुरदेव के गृहस्थ भक्तों में से एक थे। उन्होंने श्रीरामकृष्णदेव का प्रथम दर्शन देवेन्द्रनाथ मजूमदार के साथ १०० नंबर काशीपुर रोड में रहने वाले ठाकुरदेव के एक दूसरे गृहस्थ भक्त श्री महिमाचरण चक्रवर्ती के घर में (जहाँ नवनीदा का जन्म हुआ था) जाकर किया था, और उनकी कृपादृष्टि प्राप्त की थी। फिर उन्होंने दक्षिणेशर काली मन्दिर में  आना-जाना शुरू किया और कई बार उन्हें ठाकुरदेव के पवित्र सतसंग का अवसर मिला था। काशीपुर में १ जनवरी को रामकृष्ण जब कल्पतरू-अवतार लिए थे उस दिन वहाँ उपस्थित भाग्यवान लोगों में अक्षयकुमार भी एक थे। उस दिन अक्षयकुमार को अपने निकट बुलाकर उनके छाती पर हाथ रखा था और कान में महामन्त्र का दान किया था। बाद में स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा और देवेन्द्रनाथ मजूमदार के परामर्श तथा सर्वोपरि श्रीश्री माँ के आशीर्वाद से ठाकुरदेव की लीला पर आधारित काव्य 'श्रीश्री रामकृष्ण पूँथी' की रचना की थी। यह ग्रन्थ उनके जीवन की अमर रचना है। उनके द्वारा रचित दूसरा प्रसिद्द ग्रन्थ का नाम 'श्रीश्री रामकृष्ण महिमा' है। जिसका हिन्दी अनुवाद करने की चेष्टा यहाँ की गयी है। ये दोनों ग्रंथों के रचयिता होने के कारण श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त भावधारा से जुडी भक्तमंडली के बीच वे विशेष रूप से प्रसिद्द हैं।१६ अगस्त १८८६ को जब ठाकुरदेव की महासमाधि हुई थी, उस समय अक्षय भी उपस्थित थे। अक्षयकुमार ने अपना शेष जीवन अपने गाँव में व्यतीत किया था। 
२.ईश्वरचंद्र विद्यासागर (1820 - 1891) -का जन्म मिदनापुर जिले के वीरसिंह ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम ठाकुरदास बंद्योपाध्याय और माता का नाम भगवती देवी था। उनका बचपन बहुत आर्थिक अभाव में बीता था। किन्तु उनकी गरीबी शिक्षा प्राप्त करने के क्षेत्र में कभी बाधक नहीं बन सकी। बचपन से ही उनको एक मेधावी प्रतिभाशाली छात्र के रूप जाना जाता था। साहित्य, व्याकरण, अलंकार, वेदान्त, स्मृति आदि विभिन्न विषयों का गहरा ज्ञान था। असाधारण पाण्डित्य के लिए संस्कृत कॉलेज के अधिकारीयों की तरफ से उन्हें 'विद्यासागर' की उपाधि द्वारा अलंकृत किया गया था। 
ईश्वरचन्द्र का कर्मक्षेत्र बहुत विस्तृत था।उन्नीसवीं सदी में घटित बंगाल के पुनर्जागरण के इतिहास में उनके योगदान अविस्मरणीय है। माता-पिता के प्रति भक्ति, जनसाधारण के प्रति असीम करुणा, अजेय पौरुष, मनुष्य की महिमा से मण्डित व्यक्तित्व, अगाध पाण्डित्य,जैसे अनेकों गुण के रहने के कारण विद्यासागर महाशय बंगाल के इतिहास में अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। इसीलिए उन्हें आधुनिक बंगाली गद्य साहित्य के जनक के नाम से भी जाना जाता है। 'सीता का वनवास', 'कथा माला ', वर्ण-परिचय, जैसे अनेको चरित्रनिर्माणकारी कार्यों में उनका योग दान अविस्मरणीय है। संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल होने के अलावा, शिक्षा जगत के विभिन्न धाराओं के साथ भी उनका निकट संपर्क था। शिक्षा की गरिमा को प्रस्थापित करने के लिए उन्होंने  "मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूशन" की स्थापना की थी। इस विद्यालय को बाद में उन्होंने  एक कॉलेज के रूप में बदल दिया था। ५ अगस्त १८८२ को वचनामृत के लेखक श्री म की सहायता से श्री ठाकुरदेव के साथ विद्यासागर का सत्संग हुआ था। ठाकुरदेव स्वयं विद्यासागर के घर जाकर उनके साथ भेंट किये थे। इस मुलाकात का विवरण वचनामृत में विस्तार से दिया गया है। इस प्रसंग में यह कहना आवश्यक है कि विद्यासागर श्रीरामकृष्ण पर श्रद्धा रखते थे, और ठाकुर भी विद्यासागर को दया का सागर की उपमा देते थे।  विद्यासागर द्वारा स्थापित "मेट्रोपोलिटन स्कूल" की बउबाजार शाखा में श्री नरेन्द्रनाथ दत्त (बाद में स्वामी विवेकानन्द भी ) कुछ समय के लिए प्रधान शिक्षक के पद को अलंकृत किये थे।
३.महिमाचरण चक्रवर्ती : काशीपुर निवासी महिमाचरण वेदान्त के महावाक्यों पर चर्चा किया करते थे। वे श्री रामकृष्णदेव पर बहुत श्रद्धा रखते थे और अक्सर दीक्षिणेश्वर पहुंचकर उनका दर्शन किया करते थे। विभिन्न
धार्मिक मतवादों एवं शास्त्रों के अध्ययन में ही अपना समय  बिताया करते थे। उन्होंने संस्कृत और  इंग्लिश साहित्य के बहुत से ग्रन्थों का अध्ययन करके पाण्डित्य अर्जित किया था। उनमें और भी कई गुण थे।  लेकिन वे हर किसी के सामने अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करते हुए यह दिखाना चाहते थे कि वे बड़े बुद्धिमान, धार्मिक रूप से अत्यन्त उदार, तथा कई अदभुत गुणों के भण्डार हैं, और नाम-यश पाने की यही व्यग्र-इच्छा उनको कई लोगों के समक्ष हास्यास्पद बना देती थी। नरेंद्रनाथ और गिरीश घोष  उनके साथ तर्क उठा दिया करते थे। एक निःशुल्क विद्यालय की स्थापना करके , उन्होंने सामान्य जनता में शिक्षा का विस्तार करने में अपना योगदान दिया था। उनके घर में माँ अन्नपूर्णा की प्रतिमा स्थापित की गई थी। उनके पास अपना एक विशाल पुस्तकालय भी था। श्रीश्री ठाकुरदेव अक्सर उनसे प्रसिद्द वैष्णव ग्रन्थ  नारद-पंचरात्र के श्लोकों का पाठ करने को कहते थे, इस ग्रन्थ में दस महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गई है। इस कथा के अनुसार हरी का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है। इसके साथ साथ विशिष्टाद्वैत भक्तिवेदान्त के सिद्धान्त -'रामब्रह्म परमारथ रूपा ' आदि के ऊपर  भी चर्चा करवाया करते थे। विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि , रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित -भावी गृहस्थ लोकशिक्षकों का निर्माण करने के महान उद्देश्य से १९६७ में स्थापित 'अखिल भारत विवेकानन्द युवामहामण्डल' के संस्थापक सचिव एवं परवर्ती काल में अध्यक्ष पूज्य श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय  जी  का जन्म १०० नंबर काशीपुर रोड में अवस्थित श्री महिमाचरण चक्रवर्ती  के घर में ही १५ अगस्त १९३१ को हुआ था !
[नारद का अर्थ है नार अर्थ नारायण ( बुद्धि) द अर्थ देने वाला जो अपनी वीणा से श्री कृष्ण के नाम का प्रचार करे उसका नाम नारद है ओर जो श्री कृष्ण नाम की बुद्धि दे वही नारद है ! सबसे पुराना वैष्णव शास्त्र  " नारद पंचरात्र" इस शास्त्र को नारद जी ने पाँच रातों में " श्री राधा रानी की अनुपमय" लीला गायी थी।  नारद सूत्र के चौरासी सूत्र में से एक सूत्र में कहा है " यथा ब्रजगोपिकानाम" प्रेम की धरोहर और उच्चतम पराकाष्ठा नारद ने " गोपी अर्थात श्री राधा रानी को माना है।  नारद का अंतर मन " श्री राधा कृष्ण प्रेम रस से औतप्रौत है" स्वयं श्री कृष्ण के मन को नारद कहते है. 'नारदपंचरात्र' ग्रंथ में एक श्लोक आता हैः"देशत्यागो महानव्याधिः विरोधो बन्धुभिः सह।धनहानि अपमानं च मदनुग्रहलक्षणम्।।"'राजा को देश त्यागना पड़े, व्यक्ति को अपना घर, गाँव, नगर,देश छोड़ना पड़े, महारोग हो, बन्धुओं की ओर से विरोध हो, धन की हानि हो, अपमान हो, यह सब अगर एक साथ भी किसी व्यक्ति को होने लग जाये तो भी हे नारद ! यह समझ लेना कि उस पर यह भी मेरी कृपा है। ये मेरे अनुग्रह के लक्षण हैं।'संसार के दुःखों की मार लगने पर साधुताई का जीवन बिताए या फिर विवेक जागृत होने पर ऐसा जीवन बिताए यह मनुष्य के प्रारब्ध की बात है।जो पुण्यात्मा है वे विवेक से जाग जाते हैं और जिसके पुण्य कम हों उसे ठोकरें लगा-लगाकर भी परमात्मा उसे जगाने की व्यवस्था करता है। मरकर तो सभी ने छोड़ा है लेकिन जीते-जी आसक्ति छोड़नेवाला अद्वैतानन्द  के अनुभव को पा लेता है।
नारद-पंचरात्र के अनुसार,एक महाविद्या मॉं छिन्नमस्तादेवी अपने मस्तक को अपने खड़्ग से  काट अपने शरीर से छिन्न या अलग कर, अपने कटे हुए मस्तक को अपने हथो मे धारण की हुई दिखती हैं।  उनकी उपस्थिति दस महा-विद्याओ में पांचवी है। समस्त देवी देवताओं से अलग आद्या शक्तिमाँ जगदम्बा का ये  देवी छिन्नमस्ता स्वरुप अत्यंत घोर, डरावना, भयंकर तथा उग्र रूप है !  छिन्नमस्ता शब्दों दो शब्दों के योग से बना हैं: प्रथम छिन्न और द्वितीय मस्ता। दोनों शब्दों का अर्थ हैं, छिन्न : अलग तथा मस्ता : मस्तक, इस प्रकार जिन का मस्तक अलग हैं वो छिन्नमस्ता कहलाती हैं। देवी स्वयं ही तीनो गुणों; सात्विक, राजसिक तथा तामसिक, का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र से संबंधित हैं। सृजन तथा विनाश का संतुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं। देवी से सम्बंधित एक प्राचीन मंदिर रजरप्पा में हैं, जो भारत वर्ष के झारखंड राज्य के रामगढ़ जिले में हैं। देवी का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हें, इसे कोई सिद्ध साधक ही जान सकता हैं। देवी छिन्नमस्ता का घनिष्ठ सम्बन्ध, "कुंडलिनी" नामक प्राकृतिक ऊर्जा या मानव शरीर के एक छिपी हुई प्राकृतिक शक्ति से हैं। योग शास्त्रों के अनुसार तीन ग्रन्थियां ब्रह्मा ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद्र ग्रंथि को भेद कर योगी पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर पता हैं तथा उसे अद्वैतानन्द की प्राप्ति होती हैं। योगियों का ऐसा मानना हैं कि मणिपुर चक्र के नीचे के नाड़ियो में ही काम और रति का निवास स्थान हैं तथा उसी पर देवी छिन्नमस्ता आरूढ़ हैं तथा इसका ऊपर की ओर प्रवाह होने पर रुद्रग्रंथी का भेदन होता हैं। कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त करने हेतु या जगाने हेतु, योगिक अभ्यास, त्याग तथा आत्म नियंत्रण, जो कि योगिक क्रिया में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, देवी की शक्ति ही हैं। देवी, योग की उच्चतम स्थान पर अवस्थित हैं। ]
चीनी शेख़ी (श्रीनिवास शांक़़री) - श्रीनिवास या चिआ नामित समरपुकुर निवासी धर्माधिक व्यक्ति। चिने शेख़ानी बहुत उंचेच्यूर वाइश्नाब साधक था। गददादर की बालशोति समझ गई थी।
४.चीने शाँखारी (श्रीनिवास शंखारि) - कमारपुकुर निवासी श्रीनिवास या चीनू  एक अत्यंत धार्मिक व्यक्ति थे। ये बहुत उच्च श्रेणी के वैष्णव साधक थे। गदाधर एक अवतार हैं, इस सत्य को उन्होंने ठाकुरदेव के बचपन में ही पहचान लिया था। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि स्वयं चैतन्य महाप्रभु ही गदाधर के रूप में आविर्भूत हुए हैं।
वे अपने इष्टदेव के रूप में उनकी पूजा करते थे, और श्रीरामकृष्णदेव की बाललीला के संगी थे। वे सदैव श्रीमद भगवत गीता आदि धर्मग्रंथों का पाठ किया करते थे। बाद के दिनों जब गदाधर प्रभु श्रीरामकृष्णदेव बनजाने के बाद जब कामारपुकुर आया करते थे, तब भी वे अपने 'चीनूदादा' के साथ अपना मित्रवत सम्बन्ध ही बनाये रखते थे। चीनू ने लम्बी उम्र प्राप्त की थी, और अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक ठाकुर प्रति भक्ति-श्रद्धा रखते थे। 
চিনে শাঁখারি (শ্রীনিবাস শাঁখারি) -- শ্রীনিবাস বা চিনু নামে অভিহিত কামারপুকুর নিবাসী ধার্মিক ব্যক্তি। চিনে শাঁখারি খুব উঁচুদরের বৈষ্ণব সাধক ছিলেন। গদাধরের শৈশবেই চিনু তাঁহার দৈবী স্বরূপ বুঝিয়াছিলেন। তাঁহার দৃঢ় বিশ্বাস ছিল যে স্বয়ং চৈতন্যদেব গদাধররূপে আবির্ভূত হইয়াছেন। তিনি তাঁহাকে ইষ্টদেবতারূপে পূজা করিতেন ও তাঁহার বাল্যলীলার সঙ্গী ছিলেন। তিনি প্রত্যহ শ্রীমদ্ভগবদ্‌ গীতা ও অন্যান্য ধর্মগ্রন্থ পাঠ করিতেন। পরবর্তী কালে শ্রীরামকৃষ্ণরূপে ঠাকুর যখন কামারপুকুরে আসিতেন তখনও তিনি তাঁহার চিনুদাদার সহিত পূর্ববর্তী সম্পর্ক বজায় রাখিতেন। চিনু দীর্ঘজীবী ছিলেন এবং জীবনের শেষদিন পর্যন্ত ঠাকুরের প্রতি ভক্তিশ্রদ্ধা করিয়া গিয়াছেন।
http://www.ramakrishnavivekananda.info/kathamrita/unicodekathamrita/63_a_people_1202_1276.html
[VIVEKDISHA | Kathamrita - Kathamrita Prasanga Cross Reference/শ্রীশ্রীরামকৃষ্ণকথামৃত ও শ্রীশ্রীরামকৃষ্ণকথামৃত প্রসঙ্গের মধ্যে বিষয়গত সাদৃশ্য  অনুসারে নিচে একটি তালিকা দেওয়া হল।  
'The Gospel of Sri Ramakrishna' translated by Swami Nikhilananda and 'Sri Ramakrishna and His Gospel' written By Swami Bhuteshananda can be searched on the basis of dates.Ramakrishna Mission Vivekananda Educational and Research InstituteBelur Math, Howrah, India]
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Ramakrishna Mission : 
This monastic order serves as the main channel for the dissemination of the Avatar’s shakti and kripa, Power and Grace, for the welfare of humanity.  The flow of Divine Power and Grace is maintained by an unbroken lineage of Gurus , the guru-parampara.  It is this unbroken spiritual tradition that is behind the succession of the Presidents of Ramakrishna Sangha(लीडर इन महामण्डल)
                         Swami Smaranananda ji Maharaj was elected the President of Ramakrishna Math and Ramakrishna Mission at the meeting of the Board of Trustees of the Math and the Governing Body of the Mission held at Belur Math on 17 July 2017. He is the 16th President of the Order. We have five Vice-Presidents, who help the spiritual seekers by giving mantra-diksha.
                               The Ramakrishna Math is administered by a Board of Trustees.The Board of Trustees consists of senior monks of the Ramakrishna Order, chosen by a process of nomination-cum-election. Authority for ownership of property belonging to different Math centres in India, appointment of heads of centres, legal transactions, etc is vested in the Board of Trustees, who also take major policy decisions pertaining to the whole Ramakrishna Math. The Board of Trustees has an elected President, one or more Vice-Presidents, a General Secretary, one or more Assistant General Secretaries and a Treasurer.
The headquarters of Ramakrishna Math at Belur (popularly known as Belur Math) itself serves as the headquarters of Ramakrishna Mission.All letters regarding administrative matters of the Math or Mission are to be addressed to the General Secretary, who functions as the chief executive.
branch centre of Ramakrishna Math has as its head an Adhyaksha appointed by the Trustees.A branch centre of Ramakrishna Mission is governed by a Managing Committee appointed by the Governing Body of Ramakrishna Mission.       
               The Secretary of this Committee functions as the head of that branch.The Board of Trustees of Ramakrishna Math and the Governing Body of Ramakrishna Mission exercise their administrative functions through a set of office bearers appointed by them for a certain period. 
The main office bearers, who are common to both Math and Mission, are the President, the General Secretary, Assistant General Secretaries, and the Treasurer. 
The Present Members of the Governing Body and Board of Trustees:
Swami Smaranananda President
Swami Vagishananda Vice-President
Swami Prabhananda Vice-President
Swami Gautamananda Vice-President
Swami Shivamayananda Vice-President
Swami Suhitananda Vice-President
Swami Suvirananda General Secretary
Swami Abhiramananda Assistant General Secretary
Swami Balabhadrananda Assistant General Secretary
Swami Bodhasarananda Assistant General Secretary
Swami Tattwavidananda Assistant General Secretary
Swami Girishananda         Treasurer
Swami Bhajanananda/
Swami Divyananda/
Swami Jnanalokananda/
Swami Lokottarananda/
Swami Muktidananda/
Swami Sarvabhutananda/
Swami Vimalatmananda/
https://belurmath.org/board-of trustees/https://vivekdisha.in/rkmnews.php
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