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गुरुवार, 4 जुलाई 2019

माँ

 यह लेख मेरे हृदय को इतना छू गया कि मैं  इसे Share करने से अपने को रोक नहीं कर सका ..... 
रामकृष्ण मिशन के एक 'संन्यासी महाराज' से कुछ दिनों पहले एक भक्त ने पूछा था - " महाराज, स्वाधीनता संग्राम के समय भारतीय उपमहाद्वीप में इतने महापुरुष कैसे जन्म लेते थे ? और अब वैसे महापुरुष क्यों जन्म नहीं लेते ?  
एक असाधारण उत्तर देते हुए महाराज ने कहा, "जैसे बड़े बड़े प्लेन जब आसमान में  उड़ते हैं, वे तो इच्छानुसार जहाँ कहीं भी उतर नहीं सकते ; उनके उतरने के लिए उपयुक्त एयरपोर्ट की आवश्यकता होती हैठीक उसी प्रकार एक समय था जब इस देश में उपयुक्त 'मातायें' हुआ करती थीं। अब वैसे एयरपोर्ट नहीं हैं, इसीलिये बड़े बड़े प्लेन उतरना चाहते हुए भी , उतर नहीं पाते हैं। 
आधुनिक मनो वैज्ञानिकों का भी यह मानना है कि, कोई सन्तान आगे चलकर कैसा मनुष्य बनेगा, यह  85 % निर्भर करता है --माँ के ऊपर। और उसका निर्धारण माँ के गर्भ में सन्तान आने से लेकर जन्म के 5 वर्षों के भीतर ही हो जाता है। सन्तान के गर्भ में रहते समय ही माँ के विचारों का, शब्दों का, पसन्द -नापसन्द का, रूचि , आदर्श आदि का प्रभाव उस शिशु के मन पर पड़ जाता है।
 माँ की परेशानी उसकी परेशानी। माँ की ख़ुशी, उसकी ख़ुशी।  माँ का भोजन, उसका भोजन । फिर उसके माँ की इच्छा, उसकी इच्छा क्यों नहीं होगी ? माँ का आदर्श (श्रीकृष्ण), उसके आदर्श।  माँ का जीवन लक्ष्य उसके सन्तान का जीवन लक्ष्य। गर्भ में रहते समय से ही उसकी शिक्षा भी 3 Idiots फिल्म की  All is Well के तरह प्रारम्भ हो जाती है। 
द्वापर युग की कौशल्या को हमलोग उनके पुत्र राम के कारण आज भी याद करते  हैं। इस युग भुवनेश्वरी देवी को इसलिये पहचानते हैं कि वे स्वामी विवेकानन्द की 'माँ' थीं ! प्रभावती देवी को पहचानते हैं, क्योंकि वे नेताजी सुभाष चन्द्र बसु की 'माँ' थीं। भगवती देवी को पहचानते हैं, क्योंकि वे विद्यासागर की 'माँ' थीं। उषा देवी (तेजपुर, आसाम में जन्म ग्रहण करने वाली उषारानी चट्टोपाध्याय) को पहचानते हैं, क्योंकि वे महामण्डल के संस्थापक सचिव नवनीदा की 'माँ' थीं। 
 युगों युगों से हमलोगों का मार्गदर्शन करने के लिए कई नेता /पैगम्बर/अवतार आते रहे हैं। उनलोगों ने बार बार हमसे कहा है कि तुम यदि अपने जीवन को सार्थक करना चाहते हो, तो 'इस'-पथ (त्याग और आध्यात्मिकता) का अनुसरण करो। किन्तु हमलोग उनकी बात नहीं सुनते बल्कि उनके विपरीत रास्ते पर चलते हैं। वर्तमान समय में कितने माता-पिता हैं, जो ऐसी सन्तान चाहते हैं ? ? हमलोग को अपनी वैज्ञानिक मानसिकता पर, अपने को आधुनिक मानने पर कितना गर्व करते हैं ! 
हमलोगों के भद्रता (courtesy) और सभ्यता की पहचान आलमीरे में सजे ढेरों पुस्तकों से, दीवालों में टंगी कई सर्टिफिकेट्स से, अच्छे रहन -सहन, बड़ा फ्लैट, मोटर और बंगला, सूट-बूट से , महँगी साड़ी और गहनो में, इंटरनेट, आई-फोन, आई-पैड, टैब, कैप्सूल ... आदि से होती है। किन्तु, एक छोटा सा देव-शिशु (सिंह -शावक) जो अपने अँधेरे संसार से  कितनी आशा लेकर इस जगत में आया हैं, क्या हम उन्हें सच्चा ज्ञानालोक प्राप्त करने का मार्ग बता पा रहे हैं ? 
उस सत्यानुसन्धान का मार्ग (निरपेक्ष सत्य को देखने का मार्ग) तो हमलोगों के लिए ही अज्ञात है ! छोटा सा नरेन (बिले) तो उस समय भी था, जिसने एक दिन कोई गलत कार्य कर दिया था। माँ ने उसके लिए उसे कोई फटकार नहीं लगाई, कोई दण्ड नहीं देती हैं, उसने क्या गलत किया-केवल उसे लिखकर उसके कमरे के दीवाल पर टाँग देती हैं। चंचल (Restless-अधीर) बिले का मन पढ़ाई करने में नहीं है, माँ स्वयं पढ़ रही हैं, बिले सुन रहा है -और उसे सब पाठ याद होता जाता है। माँ शिक्षा दे रही हैं -" बेटे , जीवन में जिसे सत्य के रूप में जान लेना , उस आदर्श को कभी मत छोड़ना। " इसीलिए तो बाद में हमलोग शिक्षा पाते हैं - " सत्य के लिए सब कुछ का त्याग किया जा सकता है, किन्तु और किसी भी चीज को पाने के लिए सत्य का त्याग नहीं किया जा सकता। " 
"मैंने अपनी माँ से जीवन में बड़ा बनने की सभी शिक्षाओं को बचपन में ही पायी है, इसीलिए अब मैं यह कह सकता हूँ कि  -'सत्य ही मेरा ईश्वर है, सम्पूर्ण विश्व मेरा देश है, जगत के सभी मनुष्य मेरे भाई हैं, मेरा ही खून है। " इसी को कहते हैं - सच्ची 'माँ' की शिक्षा !  
१४-१५ साल के सुभाष बोस अपनी माँ को पत्र में लिखते हैं - " माँ, तुम मुझसे क्या चाहती हो  ? क्या तुम यह चाहती हो कि मैं पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर बनूँ ? मेरे पास बहुत पैसा हो, मोटर-बंगले हों ? अथवा यह चाहती हो कि मैं विश्व का सबसे गरीब व्यक्ति भले बनूँ। किन्तु, मैं ऐसा मनुष्य -(विश्व का प्रधान सेवक) बनूँगा, जिसके आगे विश्व के सभी मनुष्य श्रद्धा के साथ अपना शीश झुकायेँगे ! " 
हममें से कितने माँ-बाप ऐसे हैं, जो सच्ची ईमानदारी के साथ अपने बच्चों में ऐसा साहस, उत्साह और प्रेरणा भर सकते हैं ? हमलोग तो अपने बच्चों को बस यही शिक्षा देते हैं -' केवल मन लगाकर पढ़ो,अच्छा  रिजल्ट करो- ताकि हमारे बच्चे रुपये कमाने वाले एक मशीन बन जायें। हम उन्हें यह सिखाते हैं कि वे कैसे झूठे (Liar) बन सकते हैं, वे कैसे और अधिक स्वार्थपर बन सकते हैं !छोटे शिशु के कोमल हृदय में इस 'विष-वृक्ष' को हमलोग ही लगा देते हैं। और जब वह सचमुच -एक असंवेदनशील, प्रेम-रहित, विवेक-रहित, मशीन के जैसा आचरण हमारे साथ भी करने लगता है, तो हमलोग अपनी छाती पीटते हैं, और युग खराब होने का रोना रोते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को एक ऐसे तीव्र गति से चलने वाले, किन्तु ब्रेक-रहित वाहन में बैठा हुआ महसूस कर रहा है, जिसकी गति हमेशा बढ़ती रहती है, कभी घटने का नाम नहीं लेती! हमलोग खुद तो डूब ही रहे हैं, और अपनी सन्तानों को भी -एक दूसरे ब्रेक-फेल हो चुके कार में बैठा दे रहे हैं। क्या यह गाड़ी तब रुकेगी -जब सबकुछ समाप्त हो जायेगा ??
 नहीं, क्योंकि भारत को प्राचीन काल से ही  " श्रुति परम्परा" के माध्यम से प्रवृत्ति और निवृत्ति में सन्तुलन बनाकर चलने का कौशल ज्ञात था! इसलिए अकूत धन-सम्पत्ति अर्जित करना भी कोई दोषपूर्ण कार्य नहीं माना जाता था।  क्योंकि वह धन अपने निजी भोगों या स्वार्थपूर्ण कार्यों में खर्च करने के लिए न होकर, सम्पूर्ण देश वासियों में उनकी आवश्यक्तानुसार वितरण करने के उद्देश्य से ही अर्जित किया जाता था। किन्तु 1000 वर्षों की गुलामी के कारण हमने प्रवृत्ति और निवृत्ति में संतुलन रखने के कौशल को खो दिया था। 
किन्तु 1967 में जिस 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का आविर्भाव हुआ, उससे जुड़े हुए युवा  ऐसे हैं - " जो स्वयं भी डूबना नहीं चाहते , और दूसरों को भी डूबने से बचा लेना चाहते हैं !" क्योंकि  महामण्डल -भारत की प्राचीन श्रुति परम्परा या "Be and Make-- Vedanta Leadership Training tradition" में आधारित अपने वार्षिक युवा प्रशिक्षण-शिविर या अंतर्राज्जीय प्रशिक्षण शिविर में ऐसे ही प्रशिक्षित -जीवनमुक्त नेताओं/शिक्षकों को निर्माण करने का कार्य विगत 52 वर्षों से करता चला आ रहा है। 
श्री रामकृष्ण देव कहते थे - " जब लकड़ी का बड़ा भारी कुन्दा पानी पर बहता है तब उस पर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु किसी सड़ियल लकड़ी पर कोई कौआ भी बैठ जाये , तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार जिस समय अवतार-पुरुष या कोई वैसा ही संगठन आविर्भूत होता है, उस समय उस संगठन का आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं ! परन्तु कोई अकेला सिद्ध व्यक्ति हो , तो काफी श्रम करने के बाद किसी तरह स्वयं तरता है। " 
"रेल का इंजन खुद भी गंतव्य को जाता है और अपने साथ माल से लदे कितने ही डिब्बों को खींच ले जाता है।  उसी प्रकार , अवतार या अवतारी संगठन पाप के बोझ से लदे संसरासक्त जीवों को 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' के माध्यम से ईश्वर (परमसत्य या माँ जगदम्बा) के निकट खींच ले जाते हैं।"
" चारदीवारी से घिरी हुई एक जगह थी। .... उसके भीतर क्या है इसका बाहर के लोगों को कुछ भी पता नहीं था। एक दिन चार जनों ने मिलकर सलाह की कि सीढ़ी लगाकर दीवार पर चढ़कर देखा जाय कि भीतर क्या है ? पहला आदमी सीढ़ी (गुरु) के सहारे दीवार पर जैसे ही चढ़ा , वैसे ही 'हा -हा ' कर हँसते हुए भीतर कूद पड़ा। क्या हुआ समझ न पाकर दूसरा आदमी भी दीवार पर चढ़ा और वह भी उसी प्रकार 'हा -हा' कर हँसते हुए भीतर कूद पड़ा। तीसरे आदमी का भी वही हाल हुआ। अन्त में चौथा आदमी चारदीवारी पर चढ़ा। उसने देखा कि भीतर दिव्य उपभोग की वस्तुओं से भरा एक अपूर्व शोभामय उपवन है। उसके मन में भी उन सुन्दर वस्तुओं का उपभोग करने की तीव्र कामना उठी। 
किन्तु दूसरों को भी साथ लेकर उसका आनन्द चखाने की इच्छा से, उसने उस कामना का दमन किया। और वह स्वयं नीचे उतर आया --तथा अब उसे जो भी दिखाई पड़ता -उसीको उस जगह के बारे में बताने लगता! ब्रह्मवस्तु भी इसी उपवन की तरह है, जो उसे एक बार देख लेता है वही आनन्दमग्न होकर उसमें विलीन हो जाता है। परन्तु जो विशेष शक्तिमान महापुरुष (ईश्वर-कोटि के) होते हैं, वे ब्रह्मदर्शन के पश्चात् वापस आकर लोगों को उसकी खबर बताते हैं, और दूसरों को साथ लेकर उस ब्रह्मानन्द में निमग्न होते हैं।
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এই লেখাটা পড়ে এত মন ছুঁয়ে গেল যে Share না করে পারলাম না.....রামকৃষ্ণ মিশনের একজন মহারাজকে কিছু দিন আগে প্রশ্ন করা হয়,"মহারাজ,এত মহাপুরুষ কিভাবে ভারতীয় উপমহাদেশে জন্ম নিতেন ?আর বর্তমানে কেন আর সেই মহাপুরুষরা জন্মায় না ?"
অসাধারণ উত্তরে মহারাজ বলেছিলেন,"আকাশে প্লেন ওড়ে,সে তো আর যেখানে সেখানে ইচ্ছামত নামতে পারে না !তার নামার জন্য উপযুক্ত এয়ারপোর্ট প্রয়োজন হয় !
ঠিক সেই রকম এক সময় ছিল যখন এই ভারতবর্ষে উপযুক্ত 'মা' ছিল।এখন সেই এয়ারপোর্ট নেই, তাই বড় বড় প্লেন আর নামতে চাইলেও পারছে না"।আধুনিক মনঃ বিজ্ঞানের মতে,সন্তান কেমন মানুষ হবে, সেটা ৮৫% নির্ভর করে মা-এর উপর।আর তা নির্ধারণ হয়ে যায়,মায়ের গর্ভে সন্তান আসাএবং জন্মের ৫ বছরের মধ্যে।মায়ের চিন্তা,কথা,ভালো লাগা- মন্দ লাগা,রুচি,আদর্শ,সন্তানের উপর দারুনভাবে প্রভাব ফেলতে থাকে গর্ভে থাকা অবস্থাতেই। 
মায়ের কষ্ট, তার কষ্ট। মায়ের আনন্দ, তার আনন্দ।মায়ের খাবার, তার খাবার।তাহলে মায়ের ইচ্ছা, তার ইচ্ছা হবে না কেন !!মায়ের আদর্শ, তার আদর্শ,মায়ের জীবনবোধ,সন্তানের জীবন বোধ হবে।সেখান থেকেই তার শিক্ষা শুরু 3 Idiots এর All is Well এর মত। 
আমরা আজও সে যুগের কৌশল্যাকে মনে রাখি পুত্র রামের কারণে।এ যুগে ভুবনেশ্বরী দেবীকে চিনি কারণ,তিনি স্বামী বিবেকানন্দের 'মা' ছিলেন।প্রভাবতী দেবীকে চিনি,কারণ তিনি নেতাজী সুভাষ চন্দ্র বসুর 'মা' বলে ভগবতী দেবীকে চিনি,কারণ তিনি বিদ্যাসাগরের 'মা' ছিলেন।সারদা দেবীকে মনে রেখেছি,কারণ তিনি রবীন্দ্রনাথ ঠাকুরের গর্ভধারিণী ছিলেন। যুগে যুগে কত মহাপ্রান এসেছেন আমাদের পথ দেখানোর জন্যে।বারে বারে তারা আমাদের বলেছেন,যদি জীবন সার্থক করতে চাও,তাহলে এই পথে এসো।আমরা তাদের কথা না শুনে,চলি উল্টো পথে।
এখন কার সময়ে কয়জন বাবা-মা আছেন,যারা এমন সন্তান চান ??আমাদের কি অহঙ্কার -আমরা আধুনিক,আমরা বিজ্ঞান মনস্ক l আমাদের ভদ্রতা -সভ্যতা গাদা-গাদা বই পড়ায়, অনেক সার্টিফিকেটে, ভাল রোজগারে,ফ্ল্যাট,গাড়ি-বাড়ি,স্যুট-বুট,দামি শাড়ি,গয়না,Internet,i-phone,i-pad,Tab, Capsule...etcকিন্তু.....কত আশা নিয়ে ছোট্ট দেব শিশুটি অন্ধকার জগৎ থেকে এলো,তাকে কি আমরা সত্যিকারের আলোর সন্ধান দিতে পারছি ? 
সে পথ তো আমাদেরই অচেনা।ছোট্ট নরেন (তখনও বিলে) একটা অন্যায় করল।মা তাকে কোন কটু কথা না বলে,কোনও শাস্তি না দিয়ে,একটা কাগজে সেটি লিখে ঘরে টানিয়ে দিলেন।দুরন্ত বিলের পড়ায় মন নেই,মা পড়ছেন,বিলে শুনছে,সব আয়ত্ত হয়ে যাচ্ছে।মা শিক্ষা দিচ্ছেন,"বাবা, জীবনে যেটা সত্য বলে জানবে, কখনও সেই আদর্শ থেকে সরে এস না।"তাই তো পরবর্তীতে আমরা পেলাম "সত্যের জন্যে সব কিছু ত্যাগ করা যায়,কিন্তু কোনও কিছুর জন্য সত্যকে ত্যাগ করা যায় না।""ছোট বেলায় মায়ের কাছেই জীবনে বড় হওয়ার সব শিক্ষা পেয়েছি,তাই বলতে পারি- সত্যই আমার ঈশ্বর,সমগ্র জগৎ আমার দেশ,জগৎ এর সবাই আমার ভাই,আমার রক্ত।"এই হল যথার্থ 'মা' এর শিক্ষা।
১৪ - ১৫ বছরের সুভাষ বসু 'মা' কে চিঠি লিখছেন-"তোমরা আমার কাছে কি চাও মা ?তোমরা কি চাও আমি লেখাপড়া শিখে ডাক্তার- ইঞ্জিনিয়ার হই।আমার অনেক টাকা,বাড়ি-গাড়ি হোক।নাকি এই চাও- আমি পৃথিবীর সবথেকে গরীব হব।কিন্তু এমন মানুষ হব,যেন শ্রদ্ধায় পৃথিবীর প্রতিটা মানুষ মাথা নিচু করে।"
ক'জন বাবা-মা আছি আমরা,সৎ সাহস নিয়ে আমাদের সন্তানদের এই উৎসাহ দিতে পারি! বলি শুধু পড়,ভালো রেজাল্ট করো,টাকা রোজগার করার একটা মেশিন হয়ে ওঠো।আমরা শেখাই,কি করে সে মিথ্যাবাদী হতে পারে,কি করে সে আরও স্বার্থপর হতে পারে। ছোট শিশুর কোমল অন্তরে এই 'বিষ-বৃক্ষ' আমরাই লাগিয়ে দিই। আর সত্যিই এক সময় যখন সে আবেগহীন,ভালবাসা হীন,বিবেকহীন মেশিনের মত আচরণ করে,তখন আমরা বুক চাপড়াই।আমরা প্রত্যেকেই দ্রুত গতির এক ব্রেকহীন গাড়িতে উঠেছি,যার গতি শুধু বাড়তে পারে কমে না।আমরা ভেসে চলেছি......সন্তানদেরও তুলে দিচ্ছি ব্রেক ফেল করা আর এক গাড়িতে।এই গাড়ি কখন থামবে.....??? যখন সব শেষ !!!"( সংগ্রহীত )ধন্যবাদান্তে 
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(बबुआ , मन से कबो हार ना मानलीं, तू जउन चाह लेब , ऊ हो जाई ! मन के हरले हार बा मन के जीतले जीत ! तोहार बाबूजी तो हमरा के देवघर न देखा पइलन, तूँ हमारा आपन गाड़ी से ले चलीह ! शरीर के खूब मजबूत बनाव , कोई के पहिले मत मरिह, बाकि कोई तोहरा के बिनाकारण मारे, तो ओकर हाथ तोड़ दीह ! --अरे माई, हम तोहरा हवाई जहाज से ले जाइब ; लेकिन तोहरा ओहिजे छोड़ देब , काहेकि तूँ हमरा के छोड़ के बाजार काहे गईल रहू ? ) 
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रविवार, 30 जून 2019

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल: उद्देश्य और कार्यक्रम


स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- "मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये ! शेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी --'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न, दृढ-विश्वासी, निष्कपट- नवयुवकों की! ऐसे सौ मिल जायें तो संसार का कायाकल्प हो जाय। पहले उनके जीवन का निर्माण करना होगा। तब कहीं काम होगा।" - और बहुत संक्षेप में कहें तो यही महामण्डल का 'उद्देश्य और  कार्यक्रम' भी है।
(1)पृष्ठभूमि और महत्व (The Background ): किसी भी कार्य को करने के पहले मन में तत्सम्बन्धी विचार उठते हैं, तथा वे विचार सामाजिक परिवेश या आसपास के वातावरण से प्रभावित रहते हैं। सामाजिक वातावरण ही मनुष्य को गढ़ता है, और फिर वही मनुष्य अपने अपने विचारों के अनुरूप सामाजिक परिवेश का निर्माण करता है। इसीलिये मनुष्य द्वारा निर्मित समाज को निष्प्राण (Lifeless -बेजान,मुर्दा) नहीं कहा जा सकता। और जो कुछ सजीव (lively-जीवित,जानदार) है, या जिसमें भी जीवन है -वह पूर्णत्व प्राप्त करने की चेष्टा करता है। तथापि पूर्णत्व प्राप्ति के पथ पर अग्रसर होते समय किसी मनुष्य में अपूर्णता का दिखना बिल्कुल स्वाभाविक बात है।  
एक एक व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है, अतः व्यष्टि मनुष्य ही समाज का मूल उपादान है। यदि हमलोग  स्वस्थ और सुन्दरतर मनुष्यों से बना सुन्दरतर समाज को गठित करना चाहते हों, तब सुन्दरतर मनुष्यों का निर्माण करना ही मौलिक कार्य है। और फिर, सामाजिक जीवन-प्रवाह को निरंतर पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में ही गतिशील बनाये रखने के लिए, जिस उत्साह, उमंग (dynamism-जोश) की आवश्यकता होती है, वह स्वाभाविक रूप से समाज के युवावर्ग में ही निहित रहती है। इस प्रकार, हम देख सकते हैं कि, किसी भी समाज या राष्ट्र का भविष्य, उसके युवा समुदाय की चारित्रिक शक्ति और व्यक्तित्व विकास पर निर्भर करता है। 
तथापि, वर्तमान समय में  अपने देश के युवा समुदाय में -  ' मनुष्य जीवन के  उद्देश्य का अभाव  या लक्ष्यहीनता'  को देखने से  किसी भी  विचारशील व्यक्ति के हृदय को  कष्ट तो होता ही है। आज जो संकट युवा समुदाय के सामने आया है उसे-' युवोचित आदर्श का संकट' (Ideal Crisis या crisis of role model for youth) कहा जा सकता है। इस संकट ने युवाओं के मन में एक अनुकरणीय-आदर्श का चयन सम्बन्धी शून्यता उत्पन्न कर दी है। और इसके ही परिणामस्वरूप युवा जीवन में उथल-पुथल (Unrest),अशान्ति और उछश्रृंखलता दिखाई दे रही है। 
युवाओं की वर्तमान अवस्था को देखकर यह स्पष्ट रूप से यह समझा जा सकता है कि प्रचलित शिक्षा नीति (Prevailing education policy) उनके अन्तर्निहित 'मनुष्यत्व' को ( दोनों अस्तित्व-नश्वर और अविनाशी या 3'H' को) सामाजिक परिवेश के अनुरूप प्रस्फुटित या उन्मेषित करने में पर्याप्त रूप से कार्यकर नहीं है। 
इस विषय पर थोड़ी और गहराई से विचार करने पर, यह समझा जा सकता है कि इस अवस्था में परिवर्तन लाने का एकमात्र उपाय है, 'पूरक शिक्षा नीति' (supplementary education policy) के माध्यम से युवा समुदाय के समक्ष एक ऐसे आदर्श और जीवन मूल्य को प्रतिस्थापित करना जो एक ओर तो --पुरुषार्थ, आश्रमव्यवस्था और १६ संस्कार" में आधारित भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को समयानुकूल बनाकर उनके अन्तर्निहित मनुष्यत्व को उन्मेषित करती हो, तो दूसरी ओर  इतना सर्वजन -कल्याणकारी भी हो, कि वह युवा समुदाय को राजर्षि (राजा + ऋषि = राजर्षि, नेता या जीवनमुक्त शिक्षक) बनकर समाज की भलाई के लिये निःस्वार्थ क्रिया-कलाप (selfless activity) करने के लिए अनुप्रेरित भी करती हो
 क्योंकि, हम यदि आधुनिकता (वैज्ञानिक जागरूकता) को स्वीकार न करें , तो प्रगति करना सम्भव नहीं होगा, फिर अगर अपने गौरवशाली अतीत (आध्यात्मिक संस्कृति) से ही हमारा सम्पर्क विच्छिन्न हो जाये , तो उस प्रगति का कोई अर्थ नहीं निकलेगा। [ কেননা , নতুনকে গ্রহণ না করলে এগোনো সম্ভব নয় ; আর অতীতের সঙ্গে সকল সম্পর্ক ছিন্ন হলে অগ্রগতির কোন অর্থই থাকে না। ] 
इस प्रकार महामण्डल आंदोलन की पृष्ठभूमि ----वर्तमान सामाजिक अवस्था पर गहन चिन्तन का ऐसा परिणाम (मनोवैज्ञानिक प्रतिबिम्ब) है,  जिसने समस्या की व्यापकता (magnitude-गुरुत्व) की तुलना में संसाधन की अपर्याप्तता (Insufficiency) रहने के बावजूद;  इस आंदोलन के प्रणेताओं (initiators) को इस साहसिक कार्य (venture) की विभिन्न गतिविधयों में संलग्न रहने के लिए अनुप्रेरित किया है।  
[এই হল পশ্চাৎপট --একটি বাস্তব অবস্থার মানস প্রতিফলন ---যা সমস্যার বিরাটত্ব ও সংগতির অপ্রতুলতা সত্বেও কর্মপন্থার প্রবর্তকদের এই চেষ্টায় প্রনোদিত করেছে।]  
(2 ) अवधारणा (The Idea): 
1967 में स्थापित, "अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल" यह विश्वास करता  है कि आधुनिक भारत के देशभक्त और ऋषि (The patriot- prophet) स्वामी विवेकानन्द ने युवा समुदाय के समक्ष उन महान विचारों तथा आदर्शों (ideas and ideals) को  स्थापित किया है, जो उन्हें अपनी मातृभूमि और जनताजनार्दन की सेवा निःस्वार्थ भाव से करते हुए अपने प्राणों को भी न्योछावर कर देने को अनुप्रेरित कर सकता है। इसलिए महामण्डल का उद्देश्य 'व्यक्ति चरित्र-निर्माण में सहायक निःस्वार्थ समाज सेवा के माध्यम से भारत कल्याण'- का लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए [या पुरुषार्थ करने के लिएयुवा शक्ति को अनुप्रेरित और संगठित करना है  
महामण्डल से सम्बद्ध (affiliated) भारत के प्रत्येक युवा पाठचक्र तथा अनुमोदित (Approved)  केन्द्रों को एक ही आदर्श के झण्डे तले संघबद्ध करने के उद्देश्य से, उन सभी केंद्रों की गतिविधियों को  सुनियोजित कार्यमक्रम के अनुसार 'एक साथ मिलकर , एक पथ पर चलने वाले संगठन' के रूप में परस्पर सहयोग को हर सम्भव तरीके से विकसित करने में महामण्डल केन्द्रीय समीति ने प्रमुख भूमिका ग्रहण की है।  महामण्डल भारतवर्ष की सांस्कृतिक विरासत (श्रुति-परम्परा) में श्रद्धा रखता है, तथा जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर समस्त प्रकार के भेदभाव (discrimination) को अस्वीकार करता है।
'महामण्डल केन्द्रीय समीति'  भारत के हर प्रान्त में इस 'मनुष्य-निर्माण आंदोलन' को प्रसारित (expand) करने में समर्थ प्रशिक्षित शिक्षकों का निर्माण करने में युवा समाज की सहायता करती है। तथा इससे सम्बद्ध सभी केन्द्रों को 'एक साथ चलने, एक बात बोलने' की भावधारा के साथ जुड़े रहने के लिए हर सम्भव तरीके से परस्पर की सहायता करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। क्योंकि, स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में -" यदि भारत को महान बनाना है , उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है--संगठन की , शक्ति -संग्रह की ओर बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "5 /192 ( 'the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills.) अभी के लिए (provisionally) महामण्डल का कार्यक्षेत्र  सम्पूर्ण भारतवर्ष है।
(3) आदर्श और उद्देश्य (Aims and Objects):
यह कहने की आवश्यकता नहीं, कि हमारे युवाओं के चरित्र में आत्मानुशासन (self-discipline), टीमवर्क-कौशल (team spirit) एवं सर्वोपरि श्रद्धा की भावना को तत्काल प्रविष्ट कर देना अनिवार्य है।
उन्हें 'पूर्ण मनुष्यत्व' को प्रस्फुटित करने में सहायक 'विवेक-जीवन' का मार्ग (विवेकप्रयोग-पद्धति) दिखलाना आवश्यक है। [ পূর্ন মানবত্বের প্রস্ফুটয়নের সহায়ক 'বিবেক-জীবন ' --এর পথ এদের দেখাতে  হবে।" 'They need to be shown the way to a regulated life that would help in the blossoming of their personalities.]  -और यह तभी सम्भव है, जब उन्हें -'यथार्थ शिक्षा' कहने से जो तात्पर्य निकलता है - (जिस शिक्षा का उल्लेख तैत्तरीयोपनिषद में -'शीक्षा' -दीर्घ 'ई' की मात्रा लगाकर किया गया है।) वही 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र -निर्माणकारी शिक्षा' ' -'man-making and character-building education' उन्हें प्रदान की जाय; जो केवल विद्यार्थियों को शरीर, मानसिक-वृत्तियों तथा हृदय-विस्तार के (3'H') सुसमन्वित विकास के प्रशिक्षण द्वारा ही सम्भव है। यदि स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें, तो --"पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय , इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है , और सर्वोपरि है प्रेम (3'P'--- purity, patience and perseverance are the essentials to success and above all love.)    ये सारे गुण (3P-आदि 24 गुण) केवल बार-बार अभ्यास करते हुए अपने अचार-व्यवहार (conduct) के माध्यम से प्रकट करके ही अर्जित किये जा सकते हैं, क्योंकि गुणों को अपने आचरण में अभिव्यक्त करने से ही मनुष्य पूर्णता (perfection) की ओर अग्रसर हो सकता है।  
स्वामी विवेकानन्द जैसे, " Be and Make श्रुति-परम्परा" में  प्रशिक्षित देशभक्त -पैगम्बरों  (Patriot -Prophet ब्रह्मवेत्ता ऋषियों) मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का राष्ट्र निर्माण में बड़ा महत्व होता है। वे हमारे पथ-प्रदर्शक होते हैं। वे आकाश-दीप (lighthouse) की भाँति हमें दिशा-निर्देश देते हैं। 
स्वामी जी रामनाड में प्रदत्त भाषण में कहते हैं - " संन्यास ही हिन्दू जीवन का चरम आदर्श है। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो व्यक्ति चौथी अवस्था में (75 वर्ष के बाद?) संन्यास धारण नहीं करता, वह हिन्दू नहीं है और न उसे अपने को हिन्दू कहने का कोई अधिकार ही है। किन्तु हमारे जो भाई उच्चतम सत्य के अधिकारी अभी नहीं हुए हैं, उनके लिए अधिकारी का विचार न कर सभी के लिए एक ही मार्ग को थोप देना को कभी उचित नहीं कह सकते। भोग के द्वारा जिस समय हृदय के अन्तस्तल में यह धारणा जम जायेगी कि संसार असार है ! .... भोगों में कुछ नहीं रखा ! उसी समय उसका त्याग करना होगा। 
... मन इन्द्रियों की ओर (दिमाग में स्थित, स्नायुकेन्द्र nerve centers' की ओर) मानो चक्रवत (whirlpool-भंवर या विन्डोईया जैसा) अग्रसर हो रहा है, उसे फिर चक्रवत पीछे लौटाना होगा।
प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे निवृत्ति-मार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा, यही हिन्दुओं का आदर्श है। किन्तु कुछ भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चे को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। ... सभी समाजों में बालक के समान अज्ञानी लोग हैं, जिन्हें संसार की असारता को समझने के लिए पहले कुछ भोग करना पड़ता है। तभी वे वैराग्य धारण करने में समर्थ होंगे। हमारे शास्त्रों में (मनुस्मृति में ---निवृत्ति अस्तु महाफला का स्मरण -तेन त्यक्तेन भूंजीथ आदि) इन लोगों के लिए यथेष्ट व्यवस्था है। पर दुःख का विषय है कि परवर्ती काल में (हीनयान?) समाज के प्रत्येक मनुष्य को संन्यासी के नियमों में आबद्ध करने की चेष्टा की गयी। यह एक भारी भूल सिद्ध हुई ! भारत में जो दुःख और दरिद्रता दिखायी पड़ती है, उसका अधिकतर कारण यही भूल है। गरीबों-पददलितों के जीवन को इतने कड़े धार्मिक बन्धन में बाँधने की कोई आवश्यकता नहीं --फिर भी (ढोंगी बाबाओं के द्वारा) उनको नाना प्रकार के आध्यात्मिक और नैतिक नियमों में जकड़ने की चेष्टा की गयी।
 उनके कामों में हस्तक्षेप न करो -उनसे अलग रहो। उन्हें भी संसार का थोड़ा आनन्द लेने दो। देखोगे, वे क्रमशः उन्नत होते जा रहे हैं -और बिना किसी विशेष प्रयत्न के उनके हृदय में आप-ही -आप त्याग और सेवा (पूर्णत्व) का भाव जाग उठता है !" 
[ उपदेश का अपना महत्त्व होता है और इसका प्रभाव भी पड़ता है। परन्तु उपदेशक की कथनी और करनी में साम्य की आवश्यकता होती है तभी उनकी बातों का प्रभाव पड़ता है।आजकल टी.वी. पर धार्मिक उपदेशकों की बाढ़ सी आई हुई है। वे ऐसे दर्शाते हैं कि मानो भगवान ने उनको अपने विचारों ठेका दे रखा है। उपदेश देना बड़ा सरल है-- " पर उपदेश कुशल बहुतेरे,जे निज आचरहिं ते नर न घनेरे।"  ----(औरों को नसीहत, खुद मियां फजीहत !) इस कहावत का अर्थ है- दूसरों को उपदेश देना बड़ा अच्छा लगता है। उपदेशक को उपदेश देना बड़ा प्रिय होता है। किन्तु इन ढोंगी बाबाओं का अपना जीवन बड़ा भोग-पूर्ण है जबकि दूसरे लोगों को ये निवृत्ति की शिक्षा देते हैं। ये समझते हैं कि लोग इनकी बात पर आँख मूँदकर विश्वास कर लेंगे । किन्तु आज के युग के श्रोता भी बहुत समझदार हो गए हैं।  वे यह भी देखते ही हैं उपदेश देने वाले का जीवन किस प्रकार का है? वह किन बातों पर स्वयं अमल करता है और किन्हें केवल कहने तक सीमित रखता है? जब उपदेशक दूसरों को तो  -3P और 3H का उपदेश देता है,किन्तु स्वयं उन पर अमल नहीं करता, तब उसके उपदेश प्रभावहीन हो जाते हैं।] 
इसीलिये सम्पूर्ण भारत के युवाओं का चरित्र-निर्माण करना तभी सम्भव होगा, जब बहुत बड़ी संख्या में भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परम्परा [श्रुति परम्परा] में प्रशिक्षित शिक्षकों/नेताओ/ऋषियों का  निर्माण किया जाय। यह कार्य तभी सम्भव है , जब युवावर्ग शरीर को योग-व्यायाम के माध्यम से हृष्टपुष्ट रखते हुए, विज्ञान, साहित्य, दर्शन, मैनेजमेन्ट, रॉकेट साइंस आदि प्रचलित विषयों को पढ़ने के साथ-साथ,अपने को किसी ऐसे रचनात्मक कार्य में नियोजित करें, जिसमें जनताजनार्दन (M/F) की निःस्वार्थभाव से सेवा करने के अतिरिक्त, अपनी और कोई गुप्त स्वार्थपूर्ण मंशा छिपी हुई न हो ।
"स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो" - स्वामी जी के इस महान सन्देश के अनुसरण करने का यही एक मात्र पथ है।अतः प्रत्येक युवा  को -अपने "शरीर-मन और आत्मा के साथ" किसी निःस्वार्थ परोपकार के व्रत में लीन हो जाना चाहिये। केवल 'पुस्तकीय विद्या  (bookish learning ) के बल पर 'मनुष्य निर्माण ' करना कभी सम्भव नहीं है ! इसीलिए भारत में यह कहावत प्रचलित है ---"विद्या गुरु मुखी !" (केवल पुस्तकीय विद्या के बलपर ब्रह्मवेत्ता या सत्यद्रष्टा नेताओं/शिक्षकों का निर्माण करना असंभव है !)
इसलिए, महामंडल का उद्देश्य है - भारतीय संस्कृति के पारंपरिक मूल्यों (श्रुति परम्परा में चार पुरुषार्थ, चार आश्रम और १६ संस्कार में समयानुकुल परिवर्तन के प्रशिक्षण) को बढ़ावा देना - जो विशेष रूप से स्वामी विवेकानन्द के 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी' आदर्श में सन्निहित है। यदि इन मूल्यों को विशेष तौर से युवा समुदाय के बीच प्रसारित कर दिया जाय, तथा युवाशक्ति को अनुशासित तरिके से निःस्वार्थ देशसेवा-- के माध्यम से राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में संयुक्त किया जाय -तो सुन्दरतर मनुष्यों का सुन्दरतर समाज निर्मित किया जा सकता है।
 (4) कार्यप्रणाली :  (The Method / line of action)
स्वामीजी कहते हैं कि -"विस्तृत कार्यप्रणाली के बारे में यही कहना है कि पीढ़ियों तक उसका अनुसरण करना होगा। ... अद्वैत वेदान्त की प्राचीन उपमा दी जाय तो कहना होगा कि - 'समस्त जगत अपनी माया से आप ही हिप्नोटाइज्ड हो रहा है।' और इच्छाशक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है। प्रबल इच्छाशक्ति का अधिकारी मनुष्य एक ऐसी ज्योतिर्मयी आभा अपने चारों ओर फैला देता है कि दूसरे लोग स्वतः उस प्रभा से प्रभावित होकर उसके भाव से भावित हो जाते हैं। ऐसे महापुरुष (या संगठन) हर युग में अवश्य ही प्रकट हुआ करते हैं। " 5 /191
" एक मन हो जाना ही सफलता का गुप्त रहस्य है " ५/१९२ --अतः इस 'प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न मनुष्य बनो और बनाओ'-Be and Make - की भावधारा के अनुरूप भारत में जितने भी संगठन  कार्यरत हैं, उन्हें महामण्डल पताका के नीचे संघबद्ध करना हमारा सबसे पहला कर्तव्य होगाबाद में इस मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन को अन्य देशों में भी फैलाया जा सकता है। बंगाल के कुछ निकटवर्त राज्यों में यह कुछ समय पूर्व प्रारम्भ हो चुका है । देश की कई शैक्षणिक और समाजसेवी संस्थायें ऐसा स्वीकार करती हैं कि महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य निश्चय ही ग्रहण करने के योग्य है। अतः उनकी अलग पहचान को छोड़े बिना, उद्देश्य के एकत्व और विकसित करने के लिए, अथवा यूँ कहें कि सम्मिलित प्रयास के द्वारा उद्देश्य को अधिक आसानी से रूपायित करने के लिए,  ये सभी संस्थायें  महामण्डल के साथ जुड़ सकते हैं। 
यदि वैसा कोई शैक्षणिक प्रतिष्ठान या कोई व्यक्ति महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर या अन्य किसी शिविर में एक बार आ सकें, तो वे लोग तुरन्त यह मूल्यांकन (Notice) कर सकते है कि -वे तो महामण्डल के सामूहिक कार्यक्रमों में संसूचित किसी न किसी कार्य को  पहले से ही कर रहे हैं, तथा वे इस प्रकार के कार्य-पथ पर चलने वाले कोई एकाकी यात्री मात्र नहीं हैं। जब वे लोग यह देखेंगे कि उनके ही जैसा कार्य अन्य स्थानों में भी चलाया  जा रहा है, तब  यह देखकर  उनलोगों के मन में भी उत्साह और साहस जाग उठेगा, कि उनका कार्य कोई बहुत नगण्य या संकीर्ण क्षेत्रीय सीमा के भीतर ही  आबद्ध नहीं है,  बल्कि एक ऐसे विराट कार्यक्रम (युवा आंदोलन) का हिस्सा हैं, जिसने अपनी गतिशीलता स्वतः ही अर्जित की है।
संगठनों के अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति निजीतौर से भी महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को पसन्द करते हों, तो वे अपने क्षेत्र में महामण्डल की शाखा स्थापित कर सकते हैं, अथवा इसी प्रकार के किसी अन्य नाम वाले युवा संगठन को स्थापित करने के बाद उसको महामण्डल के साथ संयुक्त कर सकते हैं। ऐसा कोई व्यक्ति यदि चाहे तो, महामण्डल के किसी भी कार्यरत शाखा की सदस्यता ग्रहण कर सकता है; अथवा चाहे तो महामण्डल के केन्द्रीय समीति [महामण्डल सिटी ऑफिस ,सियालदह स्टेशन के निकट] के दैनन्दिन कार्यों में सहायता देने के लिए भी आगे आ सकते हैं। 
उसी प्रकार विभिन्न शिक्षा संस्थानों से जुड़े छात्र और शिक्षकगण भी महामण्डल के साथ अपनी इच्छानुसार उपरोक्त किसी भी रूप से जुड़ सकते हैं; अथवा चाहें तो अपने संस्थान के भीतर या बाहर अपना एक 'ग्रुप' (study circle) भी बना सकते हैं।  जो आगे चलकर महामण्डल का अनुमोदित केन्द्र या approved केन्द्र के रूप में स्थापित हो सकते हैं। यदि उस ग्रुप के पुराने छात्र संस्थान से पढाई समाप्त कर उत्तीर्ण हो जाएँ, तो नये छात्र वहाँ की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बन सकते हैं।
(5) कार्य की भावना (The Spirit of Work)   
स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन के उद्देश्य के विषय में कई स्थानों पर कई प्रकार से अभिव्यक्त किया है। एक स्थान पर वे कहते हैं -" युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। " स्वामी जी ने स्वयं यह कहा था कि मेरे जीवन का व्रत हर स्थान मे पढ़े-लिखे युवाओं के दल को संगठित करना है। एवं वैसे युवादल को संगठित करने का अथक प्रयास करने के बावजूद वे मुट्ठीभर युवाओं को ही श्री रामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित कर सके थे। किन्तु स्वामी जी ने उसी समय महामण्डल के आविर्भूत होने की भविष्यवाणी  करते हुए, [अपने प्रवृत्ति-मार्गी (गृहस्थ) भावी शिक्षक शिष्य डॉ० नन्जुन्दा राव को 30 नवम्बर 1894 को लिखित] एक पत्र में कहा था  -" कुछ इने-गिने युवकों ने इस कार्य में अपने को झोंक दिया है, अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया है। परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। हम चाहते हैं कि ऐसे ही कई हजार मनुष्य आयें और मैं जानता हूँ कि वे आयेंगे !! " " A few young men have jumped in the breach, have sacrificed themselves. They are a few; we want a few thousands of such as they, and they will come." यही जो -- 'they will come' की भविष्यवाणी है - वैसे युवा आयेंगे कहाँ से ? 
ऐसे युवाओं का दल तो रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित किये जा सकते थे; किन्तु जो [निवृत्ति मार्ग के अधिकारी] युवा रामकृष्ण मिशन में अपना योगदान करेंगे; उनके जीवन का लक्ष्य होगा, व्रत होगा, आदर्श और आदर्शवाक्य होगा - " आत्मनो मोक्षार्थं जगदहिताय च।" किन्तु, ऐसे युवाओं की संख्या अभी कितनी है जो तीन पुरुषार्थ --'धर्म,अर्थ, काम' को छोड़कर सीधा चौथे पुरुषार्थ "मोक्ष" प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामी जी श्री रामकृष्णदेव के झण्डे तले एकत्रित करना चाहते थे, वे इस 'मनुष्य-निर्माणकारी भावान्दोलन' (Be and Make श्रुति परम्परा) के बाहर ही छूट जायेंगे। और स्वामी का यह मानना था कि गुण-दोष (निवृत्ति-प्रवृत्ति सम्बन्धी योग्यता)के आधार पर बहिष्कार कर देने (exclusion) के लायक तो कोई मनुष्य उनकी दृष्टि में है ही नहीं ! जब "प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है" - तब सभी जाति और धर्म के लोगों को, चाहे वे प्रवृत्ति के अधिकारी हो या निवृत्ति के; इस भावान्दोलन में स्वीकार करना होगा। 
उसी पत्र में स्वामी जी आगे कहते हैं -  " श्री रामकृष्ण के चरणों में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिन्दू समाज के रोम रोम में उन्हें भरना होगा। श्री रामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर (अपनी मुक्ति की बात भूलकर) संसार की मुक्ति के लिये अभियान पर निकल जाने वाला है कोई ? नाम और यश, ऐश्वर्य और भोग,यहाँ तक कि इहलोक और परलोक सारी आशाओं का बलिदान करके मानव-गरिमा की अवनति को रोकने वाला है कोई ? मुझे हर्ष है कि हमारे प्रभु ने तुम्हारे मन में उन्हीं में से एक होने का भाव भर दिया है। वह धन्य है जिसे प्रभु ने चुन लिया है !"
परन्तु मेरे बच्चे , इस मार्ग में [प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में लौटने के मार्ग में ] बाधाएँ भी कम नहीं हैं ! जल्दीबाजी करने से कोई काम नहीं होगा। हमारे गुरुदेव कहते थे -"कोई आत्महत्या करना चाहे, तो वह नहरनी से भी काम चला सकता है, परन्तु दूसरों को मारना हो (दूसरों के अहं को मारना हो ?) तो तोप-तलवार की आवश्यकता होती है। " पहले कर्म और साधना द्वारा अपने को पवित्र करो ! समय आने पर तुम्हें वह अधिकार (चपरास) प्राप्त हो जायेगा, जब तुम संसार त्यागकर (परिवार में आसक्ति को त्याग कर) चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार कर सकोगे। ... 'purity, patience and perseverance are the essentials to success and above all love.'  "पवित्रता , धैर्य और अध्यवसाय , इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है , और सर्वोपरि है प्रेम। " ..हमें तुम्हारे जैसे हजारों की आवश्यकता है, जो समाज पर टूट पड़ें और जहाँ कहीं जायें, वहीँ नए जीवन और नयी शक्ति का संचार कर दें। 
तुम यह देख सकते हो कि संसार के इतिहास में जितने भी मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता हुए हैं, (श्री राम, श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध, ईसा, पैगम्बर मोहम्मद, गुरु नानक .....श्री रामकृष्ण, विवेकानन्द, कैप्टन सेवियर, प्रधान सेवक-'C-in-C' नवनीदा  आदि.....) उन सबों ने बड़े बड़े स्वार्थ-त्याग किये और उनके शुभफल का भोग जनता-जनार्दन ने किया। अगर तुम अपनी मुक्ति के लिए सब कुछ त्यागना चाहते हो, तो फिर वह त्याग कैसा ? क्या तुम जगत के कल्याण के लिए अपनी मुक्ति को भी त्याग देने के लिए प्रस्तुत हो? 
तुम स्वयं अभी ही ब्रह्मस्वरूप हो, इसी विचार पर अपने मन को एकाग्र करो। तुम रामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है। तुम्हारे तीव्र वैराग्य से मुझे और भी आनन्द मिला। ईश्वर-प्राप्ति या सत्यलाभ का यह एक अनिवार्य अंग है । ईश्वर तुम्हारे शुभ संकल्पों का वेग उत्साह के साथ बढ़ाता रहे; परन्तु मेरे बच्चे , यहाँ कठिनाइयाँ भी हैं। अतः  किसी विवाहित भावी शिक्षक को शीघ्रता नहीं करनी चाहिए, दूसरे तुम्हें अपनी माता और स्त्री के समबन्ध में सहृदयतापूर्ण विचारों से काम लेना चाहिए। तुम तर्क कर सकते हो कि श्री रामकृष्ण के त्यागी सन्तानों (निवृत्ति मार्गी) ने संसार त्याग करते समय अपने माता-पिता की सम्मति की अपेक्षा नहीं की । [अथवा कह सकते हो कि राजकुमार सिद्धार्थ गौतम भी अपनी स्त्री यशोधरा और पुत्र राहुल को सोते हुए छोड़कर अपने घर से निकल गए थे ! किन्तु यदि सिद्धार्थ राजा के पुत्र नहीं होते तब उनकी पत्नी और पुत्र का लालनपालन कैसे होता ?] 
अतः तुम्हें घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं; मेरी राय में तुम्हें विवाहित होते हुए भी, कुछ दिनों के लिए ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिए। अर्थात कुछ समय के लिए स्त्री-संग छोड़कर (स्त्रियों में आसक्ति को त्याग कर) अपने पिता के घर में ही रहो; यही 'कुटीचक' अवस्था है। ... संसार की हित-कामना के लिये अपने महान स्वार्थ-त्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। अगर तुममें ज्वलंत आत्मविश्वास , सर्वविजयनि प्रेम, और सर्वशक्तिमयी पवित्रता है, तो तुम्हारे शीघ्र सफल होने में कुछ भी सन्देह नहीं। 
तन-मन और प्राणों का उत्सर्ग करके भी, श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने में लग जाओ, क्योंकि कर्म (कर्म-रहस्य को समझना) पहला सोपान है। खूब मन लगाकर संस्कृत का अध्यन करो और साधना का भी अभ्यास (महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास ) करते रहो। क्योंकि, तुम्हें मनुष्यजाति का भावी मार्गदर्शक नेता (जीवन मुक्त शिक्षक) होना है। तुम्हारा संकल्प शुभ है, तुम्हारी आशायें उच्च हैं, और घोर अन्धकार में डूबे हुए हजारों मनुष्यों को प्रभु के ज्ञानालोक के सम्मुख लाने का तुम्हारा लक्ष्य संसार के सब लक्ष्यों में महान है !तुम्हारे सामने अनन्त समय है; अतएव अनुचित शीघ्रता आवश्यक नहीं। यदि तुम पवित्र और निष्कपट हो, तो सब काम ठीक हो जायेंगे।  मैं जानता हूँ और ठीक जानता हूँ कि बड़े बड़े काम बिना स्वार्थ-त्याग के नहीं हो सकते। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि भारत माता अपनी उन्नति के लिए अपनी श्रेष्ठ सन्तानों की बलि चाहती है, और यह मेरी आंतरिक अभिलाषा है कि तुम उन्हीं में से एक सौभाग्यशाली होंगे। 3 /338 
इसीलिए महामण्डल का मनुष्य निर्माण आंदोलन जिन सामान्य कार्यक्रमों (common program of work) का अनुसरण करना चाहता है, उसमें वह उन सभी कार्यकलापों को करने के पीछे जो मनोभाव कार्य करता है, उसीके ऊपर अधिक जोर देना चाहता है। महामण्डल के क्रिया-कलापों में नवाचार (innovation ) या नवप्रवर्तन जैसी कोई बात नहीं है, लेकिन कोई भी कार्य जब किसी विशिष्ट भावना (particular spirit) के साथ किया जाता है, तब  उस कार्यकर्ता के चरित्र पर (चित्त पर) उसका एक विशिष्ट छाप (special mark) छोड़ जाता है। स्वामी जी ने 1894 में आलासिंगा को लिखित एक पत्र में कहा है :  " Upon ages of struggle a character is built." --युगों युगों तक कठोर संघर्ष करने के फलस्वरूप एक चरित्र का निर्माण होता है। " इसीलिए 'अन्तःप्रकृति और वाह्यप्रकृति' पर विजय प्राप्त करने के संग्राम को अभी से ही शुरू कर देने की आवश्यकता है। 
23 जून 1894 मैसूर के महाराज को लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं - " ह जीवन क्षणस्थायी है ,संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। शेष लोग तो मृत से भी अधम हैं। "३ /३७१ (the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive.)
"आओ, हम अपने साधनों को पूर्ण बना लें, फिर साध्य अपनी चिंता स्वयं कर लेगा। क्योंकि दुनिया पवित्र और अच्छी तभी हो सकती है, जब हम स्वयं पवित्र और अच्छे हों। वह है कार्य और हम हैं उसके कारण।  इसलिए आओ हम अपने को पवित्र बना लें ! आओ, हम अपने को पूर्ण बना लें! "(कर्म और उसका रहस्य ९/१८२)(Let us perfect the means; the end will take care of itself. For the world can be good and pure, only if our lives are good and pure. Therefore, let us purify ourselves. Let us make ourselves perfect.)
 और यह तभी सम्भव है जब हम 'त्याग और सेवा ' की भावना के साथ कार्य करने में समर्थ हों। " कभी भी यह मत सोचो कि 'तुम ' जगत को अच्छा और सुखी बना सकते हो। " (देववाणी 6 अगस्त 1895/ Never think, you can make the world better and happier.) 
" जो व्यक्ति मानवजाति की सेवा करना चाहते है , उनके लिए उचित है कि वे अपना सुख और दुःख, नाम और यश एवं सब प्रकार के स्वार्थ की एक पोटली बनाकर समुद्र में फेंक और तब ईश्वर (सत्य -माँ जगदम्बा) के समीप आयें। मानवजाति के सभी मार्गदर्शक नेताओ/ जीवनमुक्त शिक्षकों/ पैगम्बरों ने यही शिक्षा दी है, और स्वयं करके भी दिखाया है ! " (श्रीमती ओली बुल को लिखित पत्र/  "Those that want to help mankind must take their own pleasure and pain, name and fame, and all sorts of interests, and make a bundle of them and throw them into the sea, and then come to the Lord. This is what all the Masters said and did."( -letter to Mrs. BULL, 21st March, 1895. )
" अक्सर क्षद्म धर्मनिरपेक्ष लोग गाल बजाते हुए कहते हैं -' मैं पापी से घृणा नहीं करता, मैं तो पाप से घृणा करता हूँ !' परन्तु, कोई मुझे यदि एक ऐसा मनुष्य दिखा दे, जो सचमुच पाप को पापी से अलग करके देख सकता हो ; तो ऐसे मनुष्य को देखने के लिए मैं कितनी भी दूर जाने को तैयार हूँ ! ऐसा कहना सरल है,किन्तु इसे व्यवहार में लाना उतना सरल नहीं है। यदि हम सचमुच विवेक-प्रयोग के द्वारा द्रव्य (substance-वास्तविक पदार्थ , अस्तित्व) और उसके गुण (quality-विशेषता, धर्म या भूत-वैशिष्ट्य) को पृथक-पृथक रूप से देखने में सक्षम हो जाएँ, तब तो हम पूर्ण हो जाएँ; किन्तु इसे व्यवहार में उतार कर दिखा देना इतना सरल नहीं है। हम जितने ही शान्तचित्त होंगे , और हमारे स्नायु जितने संतुलित रहेंगे, हम उतने ही अधिक प्रेम सम्पन्न होंगे और हमारा कार्य भी उतना ही उत्तम होगा !
यह सुन्दर संसार बड़ा अच्छा है, क्योंकि इसमें हमें दूसरों की सहायता करने के लिए समय तथा अवसर मिलता है। संसार स्वयं पूर्ण है। पूर्ण होने का अर्थ यह है कि उसमें अपने सब प्रयोजनों को पूर्ण करने की क्षमता है। धन्य पाने वाला नहीं होता, देनेवाला होता है। इस बात के लिए कृतज्ञ होओ कि इस संसार में तुम्हें अपनी दयालुता का प्रयोग (विवेक-प्रयोग) करने और इसके माध्यम से स्वयं पवित्र और पूर्ण होने का अवसर प्राप्त हुआ। 
दूसरों के प्रति हमारे कर्तव्य का अर्थ है -दूसरों की सहायता करना। हम संसार का भला क्यों करें ? इसलिए कि देखने में तो हम संसार का उपकार करते हैं, परन्तु असल में हम अपना ही उपकार करते हैं। मनुष्य की सहायता द्वारा ईश्वर की उपासना करना ---क्या यह हमारे लिए परम सौभाग्य की बात नहीं है ?  हमें यह बात सदैव ध्यान में रखना चाहिये कि हमीं संसार के ऋणी है, संसार हमारा ऋणी नहीं। यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमें संसार में साक्षात् जनता-जनार्दन की कुछ सेवा करने का अवसर मिलता है ! क्योंकि एकमात्र इसी मार्ग (त्याग और सेवा के मार्ग) से हम पूर्णता प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। संसार की सहायता करने से हम वास्तव में स्वयं अपना ही कल्याण करते हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम दुर्बल के प्रति सहानुभूति रखें और एक अन्यायी के प्रति भी प्रेम रखें। यह संसार तो चरित्र -गठन के लिए एक विशाल नैतिक व्यायामशाला है। इसमें हम सभी को अभ्यास रूप कसरत करनी पड़ती है, जिससे हम आध्यात्मिक शक्ति से अधिकाधिक शक्तिमान बनते रहें। सबसे पहले मनुष्य यह जानले कि आसक्तिरहित होकर उसे किस प्रकार कर्म करना चाहिए, तभी वह दुराग्रह और मतान्धता से परे हो सकता है। जब हमें यह ज्ञात हो जायेगा कि संसार कुत्ते की टेढ़ी दुम की तरह है, और कभी भी सीधा नहीं हो सकता, तब हम दुराग्रही नहीं होंगे। " [हम स्वयं अपना उपकार करते हैं, संसार का नहीं/3 -54]
[You hear fanatics glibly saying, "I do not hate the sinner. I hate the sin," but I am prepared to go any distance to see the face of that man who can really make a distinction between the sin and the sinner. It is easy to say so. If we can distinguish well between quality and substance, we may become perfect men. It is not easy to do this. And further, the calmer we are and the less disturbed our nerves, the more shall we love and the better will our work be.First, we have to bear in mind that we are all debtors to the world and the world does not owe us anything. It is a great privilege for all of us to be allowed to do anything for the world. In helping the world we really help ourselves. "All this beautiful world is very good, because it gives us time and opportunity to help others." Why should we do good to the world? Apparently to help the world, but really to help ourselves. It is not the receiver that is blessed, but it is the giver. Be thankful that you are allowed to exercise your power of benevolence and mercy in the world, and thus become pure and perfect.  Is it not a great privilege to be allowed to worship God by helping our fellow men? Our duty is to sympathise with the weak and to love even the wrongdoer. The world is a grand moral gymnasium wherein we have all to take exercise so as to become stronger and stronger spiritually.  Karma-Yoga /WE HELP OURSELVES, NOT THE WORLD]
[भारत को उस नव विद्युत-शक्ति की आवश्यकता है, जो जातीय धमनी में नवीन स्फूर्ति उत्पन्न कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है और होगा। ... मैं फिर तुम्हें याद दिलाता हूँ -कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन --'तुम्हें कर्म का अधिकार है, फल का नहीं। ' चट्टान की तरह दृढ़ रहो। सत्य की हमेशा जय होती है। श्री रामकृष्ण की सन्तान निष्कपट और एवं सत्यनिष्ठ रहे, शेष सब कुछ ठीक हो जायेगा। ] 
(6) महामण्डल सदस्यों के लिए वैक्तिक कार्यक्रम  : महामण्डल के सभी सदस्यों के-व्यक्तित्व-विकास या '3H' विकास के लिये अनिवार्य रूप से करनीय 5 अभ्यास :
(i) प्रार्थना : जो लोग प्रार्थना (prayer-उपासना-पद्धति) में श्रद्धा-विश्वास रखते हैं, वे लोग प्रति दिन ईश्वर से प्रार्थना करेंगे;  ताकि वे इस प्रकार के कार्यों में संलग्न रह सकें, जो उन्हें अपना चरित्र निर्माण करने में सहायता करता हो। और जो लोग अभी तक [माँ जगदम्बा-जगत्जननी काली में] विश्वास नहीं करते, वे लोग भी मात्र कुछ दिनों तक प्रार्थना करके उससे लाभ पाने की चेष्टा कर सकते हैं। क्योंकि प्रार्थना मनुष्य की अपनी ही अन्तर्निहित अव्यक्त शक्ति को व्यक्त करवा देती है। इनमें से अलौकिक या पारगमन का कोई जादू नहीं है।[प्रार्थना आत्मा में ही निहित अव्यक्त शक्ति: the latent power in man himself -को प्रकट कर देती है, इसके भीतर कोई अतिप्राकृतिक (supernatural) या पारलौकिक (otherworldly) जैसी कोई बात नहीं होती।]
(ii) मनःसंयोग : जो 'बुद्धि' मनुष्य को चरित्र-निर्माण के उपयुक्त कार्यों से जुड़ने के लिए मार्गदर्शन करेगी, उस बुद्धि की बिखरी हुई शक्तियों को नियमित रूप से एकाग्रता के अभ्यास द्वारा 'तीक्ष्ण' या नुकीला करके रखना आवश्यक है। 
(iii) स्वाध्याय : हमलोग अपनी बुद्धि को जिस-'Be and Make' के कार्य में एकाग्र रखने की चेष्टा कर रहे हैं, उसमें विवेकानन्द साहित्य का अध्यन करने से हमें विशेष सहायता प्राप्त होगी। इसीलिये महामण्डल का प्रत्येक सदस्य प्रतिदिन अपना थोड़ा समय यदि स्वामी की पुस्तकों को पढ़ने में देगा, तो निश्चित रूप से उसे इसका लाभ प्राप्त होगा। नये सदस्य गण 'भारत में विवेकानन्द' (Lectures from colombo to Almoda, हिन्दी साहित्य का ५ वां खण्ड-),' पत्रावली ', 'स्वामी -शिष्य संवाद' , 'कर्मयोग' , 'वर्तमान भारत', 'भारत और उसकी समस्यायें', 'राष्ट्र को आह्वान' , 'जाती,संस्कृति और समाजवाद'. आदि पुस्तकों का पुनः पुनः अध्यन करके, इस  कार्य का प्रारम्भ कर सकते हैं।  
 (iv) व्यायाम : मन का स्वस्थ होना तभी सम्भव है, जब शरीर भी स्वस्थ होगा। इसलिए प्रत्येक सदस्य को समुचित व्यायाम या योगासनों के अभ्यास द्वारा अपना शरीर स्वस्थ और सबल रखने की चेष्टा प्रतिदिन करनी होगी। नियमित रूप से शारीरिक-व्यायाम आदि के लिए यदि सदस्यों को प्रशिक्षण दिया जा सकता हो, तो प्रत्येक केन्द्र में उसकी व्यवस्था भी की जा सकती है ।   
 (v) विवेक-प्रयोग : आज के बच्चे भविष्य के युवा हैं,अतः शिशु अवस्था से ही विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कुछ सोचने, बोलने करने का अभ्यास सीखना आवश्यक है। इसके लिय युवाकल्याण की योजना जिसमें युवा लोग भी संयुक्त रहते है, बच्चों के कल्याण पर भी पर्याप्त दृष्टि रखनी आवश्यक है। अतः किसी भी समाज-सेवी संगठन को अपने क्षेत्र के बच्चों और किशोरों के लिए भी एक समेकित कल्याण कार्यक्रम 'An integrated child-welfare scheme' के विषय में सोचना आवश्यक है। बच्चों को बचपन से ही खेल-कूद, ड्रिल (फ़ौजी शिक्षा कवायद), गीत-संगीत, नाटक, प्रार्थना आदि सर्वांगीण विकास (all round development) का अवसर प्राप्त होना चाहिये। सभी केन्द्रों के लिए उचित होगा कि वे अपने क्षेत्र के बच्चों, किशोरों और युवाओं के लिए एक व्यापक, आत्मानुशासित, स्व-अभिप्रेरित परियोजना (self-motivated activity) का प्रारम्भ करें। महामण्डल -- 'विवेक-वाहिनी', 'किशोर-वाहिनी' या 'सार्वजनिक प्राथमिक विद्यालय' आदि प्रारम्भ करने के लिए विस्तृत परामर्श देने के लिये प्रस्तुत है। इस तरह की परियोजना प्रत्येक स्थान में प्रारम्भ करना क्यों अनिवार्य है, इस विषय में बच्चों के अभिभावकों या माता-पिता के साथ सम्पर्क उन्हें राजी कराने (convince) का विशेष प्रयास होना चाहिये।  दूसरे स्थानों में परीक्षित उपायों के उदाहरण का उपयोग भी इस कार्य में किया जा सकता है।  
 महामण्डल सदस्यों के लिए सामूहिक कार्यक्रम 
 (vi) साप्ताहिक पाठचक्र : सच्ची देश-भक्ति अपने देश की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा में निहित विशेष मूल्यों की सही समझ से ही प्राप्त हो सकती है। और यह तभी सम्भव है जब युवाओं को भारत की सांस्कृतिक विरासत से परिचित होने का अवसर प्राप्त हो। लेकिन स्कूल -कॉलेज के सिलेबस या पाठ्यपुस्तकों में जो कुछ पढ़ाया जाता है, उसके द्वारा छात्रों को हमारी प्राचीन श्रुति-परम्परा से (या गीता -उपनिषद की शिक्षाओं से) परिचित होने का अवसर नहीं मिलता। अतः इस 'श्रुति परम्परा' (श्रवण-मनन-निदिध्यासन की परम्परा) से प्राप्त होने वाली शिक्षा  (या मनःसंयोग के प्रशिक्षण)  को न्यूनता-पूरक कक्षा ( supplementary classes) के रूप में दिये जाने की आवश्यकता है। इस कार्य को साप्ताहिक पाठचक्र (Study Circles-अध्यन मण्डल) के माध्यम से किया जा सकता है। प्रति सप्ताह एक निश्चित स्थान और समय पर सत्यान्वेषी -जिज्ञासु लोगों का एक समूह मिलेंगे , तथा 'Patriot-Prophet' देशभक्त -पैगम्बर स्वामी विवेकानंद के परिव्राजक चित्र के सामने बैठकर, तथा उनको ही अपना नेता/आदर्श/ शिक्षक मानकर पूरी श्रद्धा के साथ महामण्डल के संघमन्त्र को गाने के बाद उनके द्वारा रचित स्वदेश-मंत्र का पाठ होगा। तत्पश्चात सभी सदस्य महामण्डल की पुस्तिकाओं तथा विवेकानन्द साहित्य के चुने हुए अंश से श्रुति-परम्परा में श्रवण-मनन -निदिध्यासन करेंगे, ताकि राष्ट्र-निर्माण के कार्यों में अपना योगदान देने के योग्य सुन्दर चरित्र गठित हो सके। स्वामी विवेकानन्द की जीवनी (biography) और शिक्षाओं के साथ ही साथ महामण्डल की पुस्तिकाओं विशेष कर -' हमारे लिये करनीय' और महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा (memorabilia) " जीवन नदी के हर मोड़ पर" का गहराई से अध्यन और अनुशीलन करने के द्वारा इस कार्य का प्रारम्भ किया जा सकता है। 
(vii) संस्कृत भाषा का सम्मान :
स्वामी जी ने पिछड़ी जातियों में जन्मे लोगों में जातिगत आधार पर सामाजिक भेदभाव हटाने का उपाय बतलाते हुए कहा था -"संस्कृत में पांडित्य होने से ही भारत में सम्मान प्राप्त होता है। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से ही कोई तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं करेगा। यही एक मात्र रहस्य है, अतः इसे जानलो और संस्कृत पढ़ो।" हमारी सांस्कृतिक विरासत (श्रुति-परम्परा) में निहित जीवन-दायिनी शिक्षाओं के हृदय में प्रवेश करने का मार्ग संस्कृत-अध्यन है।(Sanskrit is the gate to inner recesses of our cultural heritage,and every effort should be made to learn the language to have a free access to its stores.) 
  इसीलिये अपने पूर्वज ऋषियों से विरासत में प्राप्त ज्ञान के इस अक्षुण्ण भण्डार पर यदि अधिकार पाना चाहें , तो इस संस्कृत-भाषा को सीखने का हर सम्भव प्रयास करना उचित है। 'संस्कृत' के अतिरिक्त विश्व की जितनी भाषाएँ हैं, उनकी भाषा पहले बनी है, व्याकरण बाद में बना है। किन्तु संस्कृत देवभाषा है, इसका व्याकरण पहले बना है, भाषा बाद में बनी है। इसीलिए यदि सभी सदस्यों को संस्कृत भाषा सीखनी है, तो प्रत्येक केंद्र में संस्कृत व्याकरण का प्राथमिक बुनियादी पाठ्यक्रम (elementary grammatical foundation course ) सिखाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। इसके साथ-साथ प्रत्येक केन्द्र में गीता और कुछ प्रमुख उपनिषदों (जिनपर आचार्य शंकर का भाष्य उपलब्ध है) के मुख्य विचारों से अवगत होने के लिए गीता-उपनिषद आदि के पठन-पाठन की व्यवस्था करना उचित होगा।
(viii) विवेकानन्द सार्वजिक पुस्तकालय : जहाँ सम्भव हो सके, उन सभी केन्द्रों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी हुई पुस्तकों, श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त भावधारा से सम्बन्धित पुस्तकों पर आधारित छोटे छोटे पुस्तकालय  (Libraries) तथा वाचनालय (Reading room) भी स्थापित किये जा सकते हैं। स्कूल -कॉलेज के छात्रों के लिए उपयोगी पाठ्यपुस्तकों (Textbooks) को भी उसमें संग्रहित करने पर विचार किया जा सकता है।
(ix) प्राथमिक चिकित्सा: स्थानीय प्रयोजनीयता तथा उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप अन्य समाजोपयोगी कार्य भी हाथ में लिए जा सकते हैं। जैसे प्रत्येक केन्द्र के कुछ सदस्य प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण (first aid training) प्राप्त कर सकते हैं, और जब कभी वहाँ कोई आकस्मिक जरूरत आ जाने पर वे पीड़ित लोगों की सेवा में आगे आ सकते हैं। स्थानीय डॉक्टर एवं प्राथमिक उपचार से परिचित कुशल कम्पाउण्डर्स(skilled Compounder) की सहायता से अन्य प्रकार के चिकित्सा योजनाओं को भी हाथ में लिया जा सकता है। इसके माध्यम से 'होम्योपैथिक दातव्य औषधालय', 'शिशु टीकाकरण केन्द्र' या अन्य प्रकार के 'बाल कल्याण' के कार्यों को किया जा सकता है। गरीब-मुहताज (indigent) बच्चों के बीच दूध वितरण, अन्य खाद्य वस्तुओं, कपड़ों, पुस्तकों आदि का वितरण करने से उन्हें बहुत लाभ प्राप्त हो सकता है। कभी कभी मृत शरीर का अंतिम संस्कार करना भी विशेष कल्याणकारी हो सकता है।  
(x) प्रौढ़ शिक्षा (adult education): अशिक्षा को मिटाने में सफल होने के लिए, इस समस्या पर दोनों ओर से हमला करने की जरूरत है। कामकाजी वयस्क, जिन्हें कभी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला, यदि उस शिक्षा को उनके निकट उपलब्ध कर दिया जाये, तो वे भी यथार्थ जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं। निरक्षरता की समस्या के इस पहलु को दुरुस्त करने के लिए, प्र्रौढ़ शिक्षा केन्द्र को विशेष रूप से झुग्गियों या ग्रामीण क्षेत्रों के निकट स्थापित किया जा सकता है। 
(xi) अवैतनिक कोचिंग : जिन छात्रों को स्कूल में दाखिला लेने का अवसर मिलता भी है, वे भी किन्तु हमेशा अपने पाठ्यक्रम को लेकर सहज नहीं होते। कई छात्रों को स्कूल में पढ़े विषयों को समझने के लिये बाहरी सहायता की  आवश्यकता महसूस होती है। लेकिन कई छात्रों के पास घर में आकर ट्यूशन पढ़ाने लायक शिक्षकों को वेतन देने लायक पैसे नहीं होते। इसीलिए यदि महामण्डल के सभी केन्द्रों में निःशुल्क कोचिंग केन्द्र की व्यवस्था की जाय तो उससे विद्यार्थियों को बहुत लाभ पहुँच सकता है। हर्ष का विषय है कि कई केन्द्रों में यह परियोजना अच्छी तरह चल रही है।
ऊपर में जिन कार्यक्रमों को सूचीबद्ध किया गया है, वे केवल हृदयविस्तार के अनेक सांकेतिक उपायों में से कुछ प्रमुख उपाय मात्र हैं।
(7) समर्पित कार्यकर्ता (Dedicated Workers): यदि उपरोक्त कार्यों को सभी सदस्य परस्पर सहयोग की भावना के साथ मिलजुल कर करते रहें, तब इसीके माध्यम से समर्पित कार्यकर्ताओं का एक ऐसा दल गठित हो जायेगा, जो व्यक्तिगत स्वार्थ को देखने के बजाय जनता-जनार्दन की सेवा को ही सर्वोच्च स्थान देंगे। वे कार्यकर्तागण स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए स्वयं एक प्रबुद्ध नागरिक (Enlightened Citizen ) बनने की चेष्टा करेंगे तथा एक श्रेष्ठतर समाज के निर्माण में दूसरों की सहायता करेंगे। वे न केवल स्वयं इस तरह के काम में संलग्न रहेंगे,अपितु समय-समय पर दूसरे केन्द्रों द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठानों में भाग भी लेंगे ताकि एक दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान करके अन्य स्थानों पर चलाये जा रहे विभिन्न कार्य-दिशा (line of action) के साथ परिचित हो सकें। ऐसा करने से भारत के विभिन्न राज्यों में स्थापित महामण्डल केन्द्रों के सदस्यों के बीच क्रमशः एक स्वाभाविक भ्रातृभाव (brotherhood) भी जाग उठेगा। 
(8) महामण्डल विचारधारा का प्रसार (Diffusion of the Idea):  महामण्डल के सभी केन्द्र एवं प्रशिक्षित सदस्य अन्यान्य क्षेत्रों में अपने परिचित मित्रों, रिश्तेदारों आदि के साथ सम्पर्क करके उन्हें भी इसी विचारधारा के अनुसार अपने स्थानों में नये नये केन्द्र खोलने के लिए राजी कर सकते हैं। अथवा इसी भावधारा [विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" अथवा  -" Be and Make  Leadership Training Tradition "] का अनुसरण करने वाली किसी अन्य संस्था को महामण्डल के साथ 'सम्बद्ध ' कर उसे भी केन्द्रीय सामान्य कार्यक्रमानुसार अपने कार्यक्रम को चलाने के लिए राजी करा सकते हैं। व्यक्तिगत सम्पर्क के आधार पर यह उम्मीद की जा सकती है कि कई स्कूल -कॉलेज के छात्र-शिक्षक इस कल्याणकारी मनुष्य-निर्माण और राष्ट्र-निर्माण के रचनात्मक प्रयास में किसी कार्यरत शाखा या नवप्रतिष्ठित केन्द्र के माध्यम से इसके प्रसार में सहयोग देंगे। 
(9) महामण्डल के केन्द्र : इसके वास्तविक अंग ( Its units : The Real Limbs) :
महामण्डल से सम्बद्ध शाखायें ही इसके वास्तविक अंग (Limbs-अवयव) हैं। उनके माध्यम से ही महामण्डल की जीवनीशक्ति विभिन्न कार्यक्रम के द्वारा अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त और प्रसारित करती है। महामण्डल का केन्द्रीय कार्यालय ( सिटी ऑफिस से कार्यरत महामण्डल की केन्द्रीय समिति) इन समस्त केन्द्रों को जोड़ने वाली ताकत (Connective energy) है, जिसके माध्यम से महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य वास्तविक धरातल पर रूपायित हो रहे हैं। इसलिए महामण्डल के सभी केन्द्र मानो किसी विशाल जीव के सजीव अंग-प्रत्यंग की तरह कार्य करते हैं। वर्तमान में भारत के छह राज्यों में यह कार्य चल रहा है। मार्च 1972 में, इस तरह के कुल 69 केंद्र थे। जनवरी 1975  तक भारत के 6 राज्यों--प० बंगाल, त्रिपुरा, आसाम, बिहार, उड़ीसा, आँध्रप्रदेश और दिल्ल में इसके 64 अनुमोदित (affiliated) केन्द्र कार्यरत थे।अभी जून 2019 में भारत के 12 राज्यों में 315 से अधिक अनुमोदित केन्द्र कार्यरत हैं। 
(10) क्रियाकलाप (activities)
महामण्डल के विभिन्न केंद्रों में जो प्रमुख कार्य किये जाते हैं, उनमें से कुछ प्रमुख गतिविधियां इस प्रकार है: छात्र प्रशिक्षण केंद्र, वयस्क शिक्षा केंद्र, खेल, ड्रिल, पाठ-चक्र, योग-व्यायाम प्रशिक्षण केंद्र, पुस्तकालय,झुग्गी-झोपडी उन्नयन, दूध वितरण केंद्र, छात्र सहायता केंद्र, प्राथमिक चिक्तिसा केंद्र, संगीत प्रशिक्षण केंद्र, होमिपैथी दातव्य औषधालय केंद्र, सामान्य सहायता, पत्रिका प्रकाशन, कुटीर-उद्योग प्रशिक्षण और उत्पादन केंद्र, छात्रावास आदि। इन सब कार्यों के अलावा, लगभग प्रत्येक केंद्र में -सांस्कृतिक कार्यक्रम, विशेष दिनों का पालन , संस्था के प्रचार के उद्देश्य से सार्वजनिक सभा, शैक्षणिक प्रतियोगिता, एवं उत्स्व आदि मनाये जाते हैं। दरिद्रनारायण सेवा, वस्त्र वितरण, प्राकृतिक आपदायें आने पर गरीबों और असहायों की सेवा, तथा अन्य सभी प्रकार के सेवाकार्य महामण्डल के केन्द्र अकेले या मिलजुल भी कर सकते हैं। यदि पश्चिम बंगाल के बाहर,भारत के  विभिन्न  राज्यों में स्थापित महामण्डल केन्द्र आवश्यक्ता-नुसार किसी भी विशिष्ठ गतिविधि को संचालित करना चाहें तो, महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय से सम्पर्क करने पर, " Be and Make  Leadership Training Tradition " में प्रशिक्षित नेताओं/ शिक्षकों के नाम और मोबाईल नंबर आदि प्राप्त किये जा सकते हैं। 
 (11) आवधिक विशेष शिक्षा और समीक्षा शिविर (P. S.T. C):इसके अलावा विभिन्न राज्यों में कार्यरत महामण्डल केन्द्रों के स्थायी प्रतिनिधि, सचिव या जिज्ञासु सदस्यो के लिये महामंडल प्रशिक्षण भवन, कोन्नगर (Mahamandal training Hall) में आवधिक प्रशिक्षित शिक्षक सम्मेलन (Periodical Trained Teachers Conference) की व्यवस्था की जाती है, जिसमें विद्वान् शिक्षक [महामण्डल श्रुति -परम्परा" में प्रशिक्षित सभी विषयों के वरिष्ठ शिक्षाविद/ब्रह्मविद शिक्षक] उपस्थित रहते हैं, तथा हमारे मनुष्य-निर्माण आंदोलन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण  विषयों पर चर्चा करते हैं। इस सम्मेलन में प्रत्येक केन्द्र के प्रशिक्षित शिक्षकों या कार्यकर्ताओं को  महामण्डल केन्द्रीय समिति के प्राधिकारी वर्ग (authorities) के साथ विचारों के आदान-प्रदान का अवसर प्राप्त होता है। जब विभिन्न राज्यों में कार्यरत कोई केन्द्र अपने जिला-स्तरीय, राज्य स्तरीय या अन्तराज्जीय  कोई युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित करते हैं, तो महामण्डल केन्द्रीय कार्यालय से उपुक्त वक्ताओं को भेजने की व्यवस्था की जाती है।
(12) वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर (Annual Youth Training Camp):
महामण्डल का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण सामूहिक प्रयास है -इसका "वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर " जहाँ प्रशिक्षणार्थियों को मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव -'शरीर -मन और हृदय' को सतुंलित रूप से विकसित कराकर उन्हें एक चरित्रवान मनुष्य, देशभक्त और जिम्मेदार नागरिक (Enlightened citizen) बनने का अवसर प्राप्त होता है।
इस शिविर के सामान्य प्रशिक्षण कार्यक्रम के अन्तर्गत - मनःसंयोग (mental Concentration), योग और शारीरिक व्यायाम, ड्रिल-परेड, प्राथमिक उपचार प्रशिक्षण (first aid training), खेल-कूद , प्रार्थना संगीत,    फिल्म-प्रदर्शन, तथा भारतीय सांस्कृतिक विरासत, सभ्यता और दर्शन, सामाजिक नैतिकता, और श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त विचारधारा आदि विषयों व्याख्यान आदि आयोजित किये जाते हैं। यहाँ सभी प्रशिक्षणार्थियों को यथार्थ आत्मविकास करने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है। यह शिविर विभिन्न राज्यों से आये प्रशिक्षणार्थियों  तथा विशिष्ठ शिक्षकों के बीच सप्रेम एकत्व और भ्रातृत्वबोध जाग्रत कर देता है; तथा यह आध्यात्मिक सम्बन्ध बहुत प्रगाढ़ और दीर्घस्थायी होता है। 
वार्षिक शिविर में अंश-ग्रहण करने वाले कई लोगों ने शिविर से लौटने के बाद अपने अपने क्षेत्रों में इसी "महामण्डल श्रुति परम्परा" या विचारधारा के अनुरूप महामण्डल के केन्द्र को स्थापित किया है, अपने पहले से चल रही किसी संस्था को महामण्डल के साथ सम्बद्ध करवा लिया है। युवाओं के जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव जो दृष्टिगोचर होता है वह मनःसंयोग, प्रार्थना और विशिष्ठ ढंग की सेवाकार्य (गार्ड-ड्यूटी आदि) प्रशिक्षण का परिणाम है। 
ये सभी विषय शिविर-दिनचर्या एवं प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में इस प्रकार अन्तर्निहित हैं कि जो उन्हें 'सार्वदेशिक शिक्षा 'Universal education' का व्यावहारिक रूप दिखाई देता है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी आदतें, उनका चरित्र और उनके विवेकपूर्ण चिंतन-प्रवाह के निर्माण में दूरगामी प्रभाव उत्पन्न हो जाता है; और उन्हें अपने जीवन का एक निश्चित लक्ष्य और उद्देश्य निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होता है। 
इस प्रशिक्षण-प्रणाली में जिस प्रक्रिया अभ्यास करना उन्हें सिखाया जाता है, वे अभ्यास उनके ऊपर थोपा गया हो, ऐसा उन्हें प्रतीत नहीं होता, बल्कि वे इसे अपने लिए अत्यन्त लाभकारी समझकर स्वाभाविक रूप से ग्रहण करते हैं। 
 यह उम्मीद की जाती है कि भविष्य में और भी अधिक संख्या में कार्यालय लोग हमारे वार्षिक शिक्षण शिविर का लाभ उठाएंगे, जहां उनसे किसी भी विषय पर ऑंखें मूँदकर विश्वास करने के लिए नहीं कहा जाता, या जबरन थोपने की चेष्टा नहीं की जाती। बल्कि उन्हें स्वैच्छिक आत्मानुशासन का अभ्यास करने की अनिवार्यता  को समझने में उनको सहायता दी जाती है। इस वार्षिक शिविर के अलावा, कई केंद्रों के द्वारा  स्थानीय स्तर पर या जिला स्तर पर युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन भी किया जाता है, जिससे और अधिक संख्यक युवा इस "महामण्डल श्रुति-परम्परा " में आयोजित शिक्षा का आस्वादन कर सकते हैं।
(13)'विवेक-जीवन' /'विवेक-अंजन'
 स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं तथा महामण्डल के उद्देश्य का प्रचार करने तथा समस्त केन्द्रों के बीच परस्पर सहयोग की भावना को विकसित करने के लिए, महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय के द्वारा युवाओं को 'विवेक-जीवन ' अर्थात विवेक-प्रयोग का जीवन जीने की प्रेरणा देने के उद्देश्य से एक द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगाली) मासिक मुखपत्र 'विवेक-जीवन’ प्रकाशित किया जाता है। तथा महामण्डल के झुमरीतिलैया , कोडरमा, झारखण्ड शाखा से एक मासिक मुखपत्र 'विवेक-अंजन ' का प्रकाशन भी किया जाता है। 
 (14) महामंडल के हिन्दी प्रकाशन  :  
 महामंडल की समस्त पुस्तिकाओं का तथा इसकी संवाद पत्रिका 'विवेक- अंजन' का अध्यन करने से युवाओं को अपना सुन्दर जीवन गठित करने में बहुत सहायता मिलेगी।  प्रत्येक जाति और धर्म के युवा इससे लाभान्वित होंगे।  यहाँ तक कि जो युवा भाई किसी धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करते किन्तु भारत से प्यार करते हों तो उनको भी इन पुस्तिकाओं के अध्यन से बहुत लाभ होगा। किशोरावस्था अथवा कम उम्र में मानव जीवन का मूल्य तथा चरित्र-गठन की अनिवार्यता समझ में नहीं आती।  और उम्र बढ़ जाने के बाद उस दिशा में प्रयत्न करने पर हताशा ही हाथ लगती है।  यदि कम उम्र में ही कोई तरुण इन पुस्तिकाओं का अध्यन कर लें, तो उनके लिए वैसी सम्भावना नहीं रहेगी।  इन पुस्तिकाओं का अध्यन करने तथा उनमें दिए गये परामर्शों को अमल में लाने पर युवाओं के जीवन में विफलता कभी नहीं आ सकती।
महामण्डल द्वारा  हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकों की सूचि :
1. महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की आत्मकथा -
"जीवन नदी के हर मोड़ पर "
------- ------------100/=

2.  मनः संयोग ( एकाग्रता )..................8/=
3.जीवन गठन ........................................... 5/=
4. चरित्र गठन .  ......................................  8/= 
5. चरित्र के गुण .............................................12/= 
6. एक युवा आन्दोलन ...................................15/=
7. विवेकानन्द और युवा आन्दोलन ...............15/=
8. जिज्ञासा तथा समाधान ...............................10/=
9. अल्मोड़ा का आकर्षण .................................3/=
10.पुनरुज्जीवन के उपाय....................................1/=
11.नेतृत्व की अवधारणा एवं गुण-----------15/= 

12. युवा समस्या एवं स्वामी विवेकानन्द----- 10/= 
13. हमारे लिए करनीय --------------------5/= 
14 .स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-- 15/= 
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का हिन्दी प्रकाशन विभाग, झुमरीतिलैया, कोडरमा, झारखण्ड में निम्न पते से कार्यरत है:  
 Hindi publication division of the Mahamandal. 
Tara Tower, Jhumritelaiya, Koderma, Jharkhand . 
(15) युवाओं को आह्वान (An Appeal to the youth): 
हम उन सभी विचारशील नवयुवकों --जो स्वामी विवेकानन्द  के नेतृत्व में आस्था रखते हैं, जो मानवजाति को दिए गए उनके अमर सन्देशों तथा राष्ट्र की आत्मा को झंकिर्त कर देने में समर्थ उनके ' call to the nation' या राष्ट्र को आह्वान में विश्वास रखते हैं,---से यह अपील करते हैं, कि वे आगे आयें और ,महामण्डल में शामिल होकर सभी प्रकार के ' Newspaper Humbug'-अख़बारों में 'छपास' और 'दिखास' की प्रवृत्ति एवं  नाम-यश की कामना को त्यागकर 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकरी शिक्षा ' -' Man-making and Character-building education'- जो -सम्पूर्ण जगत की समस्त बुराइओं को समाप्त करने में सक्षम एकमात्र रामबाण औषधि है- के माध्यम से अपने  नये जीवन का श्रीगणेश (3H के विकास की शुरुआत) करने के लिए  नीरव भाव से कार्य करने में जुट जाएँ !कोई भी व्यक्ति अथवा  शैक्षणिक संस्थान या कोई समाज-सेवी संगठन यदि कार्य में रुचि रखते हों , तो आप महामण्डल के महासचिव (General Secretary) के साथ केंद्रीय कार्यालय के पते पर संपर्क कर सकते हैं। हमारा पता है --
 Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal. 
6/1A, Justice Manmatha Mukherjee Row, 
KOLKATA,

INDIA-700 009
 Phone : (033) 2350-6898, 2352-4714
E.mail-abvymcityoffice@gmail.com
Website: www.abvym.org  

(16) महामण्डल का संघमंत्र :
संगच्ध्वं संग्वदध्वं संग वो मनांसि जानताम् ।
देवा   भागं यथा   पूर्वे   संजानाना उपासते ।।

समानो मन्त्रः समितिः समानी ।
समानं मनः सः चित्त्मेषाम ।।

समानं मन्त्रः अभिम्न्त्रये वः ।
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

समानी व् आकुतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।
                                                                                    (ऋग्वेद :१०/१९१/२-४ ) 

भावार्थ : 
तुमलोग संघबद्ध हो जाओ, एक लय में बोलो , अपने  मानस समूह (विचारों) को समान रूप से जानो ।
 पुवर्ती देवता लोग [preceding- come before (something) in time]  जिस प्रकार हवि को समान रूप से बाँटकर ग्रहण करते थे, उसी प्रकार परस्पर की अवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए (धन आदि) ग्रहण करो ! 
उन लोगों के लिए प्रशस्ति (glorification-गुणकीर्तन , महिमागान) एक समान है, उनलोगों की सिद्धि (attainment-लाभ, उपलब्धि) एक समान है, उनके अन्तःकरण (मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार) एक समान हैं, उसी प्रकार तुम्हारे विवेकज-ज्ञान एक ही विषय मे एकीकृत हों ! हे देवगण, मैं भी तुम (सबों के) एकीकृत मन्त्र को मानो घनीभूत (consolidate) करते हुए अपना सुधार करता रहूँ; तुम सबों के सामान्य चित्र के समक्ष आहुति प्रदान करता हूँ। 
जैसे आपके संकल्प एक समान हैं, आपके हृदय-समूह एक समान हैं, उसी प्रकार हमारे अन्तःकरण समूह भी एक समान हो जाएँ। जो करने से हम सबों में परम एकत्व-बोध स्थापित होता है, वैसा ही हो !
हिन्दी अनुवाद

एक साथ चलेंगे ,एक बात बोलेंगे ।
 हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।।

देव गण जैसे बाँट हवि लेते हैं |
 हम सब सब कुछ बाँट कर ही लेंगे ।।

याचना हमारी हो एक अंतःकरण एक हो।
 हमारे विचार में सब जीव एक हों।

एक्य विचार के मन्त्र को गा कर। 
देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे।।

हमारे संकल्प समान, ह्रदय भी समान।
भावनाओं को एक करके परम ऐक्य पायेंगे।। 
एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे....... 

(17) महामण्डल पताका  :  
वज्रांकित ध्वज आयताकार (3: 2); गेरुआ कपड़े पर नीले रंग के रेशमी सूते कढ़ाई किया ' वज्र छाप' (त्याग और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक) होता है।  
 (18) महामण्डल का प्रतीक चिन्ह :
महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में भूगोलक के ऊपर रेखांकित भारतभूमि के कन्याकुमारी पर दण्डायमान  परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति उकेरी हुई है। इसके ऊपर देवनागरी अक्षरों में 'चरैवेति, चरैवेति' लिखा है और नीचे अंग्रेजी में: 'BE AND MAKE' लिखा है। शेष सर्कल में, दोनों तरफ  छोटे-छोटे  7-7 वज्रों से घिरा है। क्योंकि पूर्णतः निःस्वार्थ मनुष्य चाहे निवृत्ति मार्ग से निर्मित हुआ हो या प्रवृत्ति मार्ग से वह वज्र के जैसा अप्रतिरोध्य हो जाता है।
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অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল : উদ্দেশ্য ও কর্মসূচি
" চাই মানুষ।  অপর সবই জুটবে।  অভাব শুধু মানুষের।  চাই বলিষ্ঠ , বিশ্বাসী , সম্পূর্ণ অকপট যুবকের দল। চাই বীর্য , মনুষ্যত্ব --ক্ষাত্রবীর্যের সঙ্গে ব্রহ্মতেজে। "
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শ্রীগৌরাঙ্গ প্রেস প্রাইভেট লিমিটেড , কলিকাতা -৯ 

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উদ্দেশ্য ও কর্মসূচি (Objectives and programs)/ 
গোড়ার কথা :
যে কোন কাজের আগে থেকে চিন্তা , আর সে চিন্তাও পারিপার্শ্বিক অবস্থার দ্বারা প্রভাবিত হয়।  মানুষ সমাজেরই সৃষ্টি আবার মানুষই তার সমাজকে তার নিজের চিন্তা অনুসারে আকার দেয়। তাই মানুষের সমাজ প্রাণহীন নয় , আর যা কিছু প্রাণবান তাই পূর্ণতার জন্যে চেষ্টা করে , যদিও পূর্ণতার পথে অপূর্ণতার দেখা পাওয়া খুবই স্বাভাবিক। 
 সমাজের উপাদান ব্যষ্টি মানুষ। তাই সুস্থ ও সুন্দরতর সমাজ গঠনের যে কোন চেষ্টার মুলে থাকবে সুন্দরতর মানুষ তৈরির চেষ্টা। সমাজ জীবন প্রবাহকে অব্যহত রাখতে যে গতিশীলতার প্রয়োজন তা স্বাভাবিক ভাবেই তার যুবশক্তিতে নিহিত থাকে। তাই যে কোন সমাজ বা জাতির ভবিষ্যত নির্ভর করে তার যুব-সম্প্রদায়ের চরিত্রবল ও ব্যক্তিত্বের বিকাশের ওপর।  কিন্তু বর্তমানকালে আমাদের দেশের যুবসম্প্রদায়ের জীবনে উদ্দেশ্য ও লক্ষ্যহীনতা যে কোন চিন্তাশীল ব্যক্তিকেই ক্ষুন্ধ করে। আজ যে সঙ্কট তাদের সামনে দেখা দিয়েছে তাকে আদর্শের সঙ্কট বলা যেতে পারে ---যে সঙ্কট তাদের মনে একটা আদর্শগত শূন্যতার সৃষ্টি করেছে ; আর এরই ফলে দেখা দিয়েছে যুবজীবনে বিসৃতি ও অস্থিরয়া। 
অবস্থা দেখে স্পষ্টই বোঝা যায় যে, পারিপার্শ্বিকতার পরিপ্রেক্ষিতে মনুষ্যত্বের প্রস্ফুটোযনে বর্তমানে প্রচলিত শিক্ষাব্যবস্থা যথেষ্ট কার্যকর নয়। আর একটু গভীরভাবে বিষয়টি বিচার করলে বোঝা যায় যে, এ অবস্থা পরিবর্তনের একমাত্র উপায় হল--যুবসম্প্রদায়ের সামনে এমন একটি মূল্যবোধকে তুলে ধরা যা একদিকে ভারতের সুপ্রাচীন সাংস্কৃতিক ঐতিহ্যকে বহন করে আর অপরদিকে এমন ক্ল্যানোপযোগী হয় যে তা যুবসম্প্রদায়কে সমাজের উন্নতির জন্যে স্বার্থহীন কর্মের প্রেরণা দেয়। কেননা , নতুনকে গ্রহণ না করলে এগোনো সম্ভব নয় ; আর অতীতের সঙ্গে সকল সম্পর্ক ছিন্ন হলে অগ্রগতির কোন অর্থই থাকে না। 
এই হল পশ্চাৎপট --একটি বাস্তব অবস্থার মানস প্রতিফলন ---যা সমস্যার বিরাটত্ব ও সংগতির অপ্রতুলতা সত্বেও কর্মপন্থার প্রবর্তকদের এই চেষ্টায় প্রনোদিত করেছে।  
চিন্তা :
১৮৬৭ খ্রিস্টাব্দে গঠিত অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামণ্ডল মনে করে বর্তমান ভারতের দেশপ্রেমিক ও দ্রষ্টা স্বামী বিবেকানন্দ যুবসম্প্রদায়ের জন্যে সেই আদর্শ ও চিন্তাধারা তুলে ধরেছেন যা তাদের সত্যকার মনুষ্যত্বের প্রস্ফুটোয়নের সবচেয়ে উপযোগী এবং মাতৃভূমির স্বার্থহীন সেবায় আত্মোৎসর্গে তাদের উদ্বুদ্ধ করতে পারে। তাই এর উদ্দেশ্য হল যুবকল্যাণ তথা ব্যক্তিগত চরিত্রগঠনের সহায়ক স্বার্থগন্ধহীন সমাজসেবায় যুবসকিকে সংহত করা।  
মহামণ্ডল সংযুক্ত প্রতিষ্ঠানসমূহকে এক আদর্শে সংহত করার উদ্দেশ্যে সুচিন্তিত কর্মসূচি দিয়ে প্রতিটি সংযুক্ত সংস্থার কাজকে সুসংহত ও প্রসারিত করে , এবং সম্ভাব্য উপায়ে সর্বভাবে সাহায্য করে, এক-পথে-চলা সংঠন বা গোষ্ঠীগুলির পরস্পর সংযোগকারী সংস্থার ভূমিকা নিয়েছে।  কেননা , স্বামী বিবেকানন্দের কথায় ---' কার্য সিদ্ধির গোপন মন্ত্রটি হল সংহতি শক্তিসঞ্চয় ও উদ্দেশ্যের একতানতা। ' 
সমস্ত রকম সঙ্কীর্ণতার ভাবকে বর্জন করে সত্যিকারের জাতীয় সংহতি ও আন্তর্জাতিকতাবোধ জাগতে পারে তখনই যখন যুবগোষ্ঠী সামাজিক দায়িত্বববোধ থেকে গঠনমূলক কাজে আন্তরিকভাবে আত্মনিয়োগ করতে পারে। 
মহামণ্ডলের কার্যক্ষেত্র আপাতত সমগ্র ভারতবর্ষ। এ তার সংস্কৃতি ও এতিহ্যকে শ্রদ্ধা করে আর ধর্ম, জাতি , বর্ন বা বিশ্বাসের ভিত্তিতে সকল রকম বৈষম্যকে অস্বীকার করে। 
আদর্শ ও উদ্দেশ্য 
বলা বাহুল্য যে আমাদের যুবকদের মধ্যে নিয়মানুবর্তিতা, , যৌথ কর্মেষনা, ও সর্বোপরি শ্রদ্ধার ভাব অনুপ্রবেশের আশু প্রয়োজনীয়তা আছে। পূর্ন মানবত্বের প্রস্ফুটয়নের সহায়ক 'বিবেক-জীবন ' --এর পথ এদের দেখাতে হবে। "মনুষ্যত্ব -উন্মেষক ও চরিত্র-গঠনকারী ' শিক্ষার ইঙ্গিতার্থক দেহ ও মনোবৃত্তির সুষম সমুন্নতি -চেষ্টার মাধ্যমেই মাত্র এটি সম্ভব। ' স্বামী বিবেকানন্দের কথায় ---'পবিত্রতা,ধৈর্য ও অধ্যবসায় সিদ্ধিলাভের জন্যে একান্ত আবশ্যক এবং সর্বোপরি প্রেম।' 
একমাত্র আচরণ মধ্যে দিয়েই এই গুণগুলি লাভ করা যায়, কেননা চর্যাই মানুষকে পূর্নতা দেয়। অতএব , 'চরিত্র-গঠন' একমাত্র তখনই সম্ভব যখন কোন যুবক বিজ্ঞান, সাহিত্য, দর্শন ইত্যাদি চর্চা তথা অতীতের গৌরবোজ্জ্বল জাতীয় সংস্কৃতির আসাস্বাদনের সঙ্গে নিজের দেহকে পটু রেখে সকল রকম স্বার্থ-ইচ্ছা ত্যাগ করে, সেবার মনোভাব নিয়ে কোন গঠনমূলক কাজে নিজেকে নিয়োগ করবে। মাত্র পুঁথিগত বিদ্যায় কখনও 'মানুষ গড়া ' সম্ভব নয়। যুবকদের নিঃস্বার্থ পরোপকারব্রতে 'হৃদয়, আত্মা ও দেহ ' নিয়ে ডুবে যেতে হবে ! " নিজে মানুষ হও ও অপরকে মনুষ্যত্বলাভে সহায়তা করো " ---স্বামীজীর এই মহতী বাণীকে অনুসরণ করার এই একমাত্র পথ।
কাজেই মহামন্ডলের উদ্দেশ্য হল ভারতীয় সংস্কৃতির সনাতন মূল্যবোধকে --যা স্বামী বিবেকানন্দের 'মনুষ্যত্ব উন্মেষক ও চরিত্র-গঠনকারী ' আদর্শে বিশেষভাবে গ্রথিত ---বিশেষ করে যুব সম্প্রদায়ের মধ্যে ছড়িয়ে দেওয়া এবং যুবশক্তিকে সুশঙ্খলভাবে নিঃস্বার্থ দেশসেবার মধ্যে দিয়ে জাতিগঠনের কাজে সংহত করা, একমাত্র যার ফলেই সুন্দরতর  মানুষের এক সুন্দরতর সমাজ গড়ে উঠতে পারে। 
কর্মপদ্ধতি 
'এক মন হওয়াই সফলতার গুহ্য তত্ব। ' --এর জন্যে সর্বপ্রথম কর্তব্য প্রথমতঃ, এই দেশের সর্বত্র এই ভাবে কাজে লেগে আছেন এমন সকল প্রতিষ্ঠানকে একত্রিত করা। পরে এ কাজ অন্যান্য দেশেও ছড়িয়ে দেওয়া যাবে ! কাছাকাছির রাজ্যগুলিতেও কিছু কাজের ইতোমধ্যেই সূচনা হয়েছে। বহু শিক্ষা ও সমাজকল্যাণমূলক প্রতিষ্ঠান মহামন্ডলের আদর্শ ও উদ্দেশ্যকে নিশ্চয়ই গ্রহণযোগ্য বলে মনে করেন। নিজের স্বকীয়তা বর্জন না করেও এসকল প্রতিষ্ঠান উদ্দেশ্যের ঐক্য গঠনের তথা যৌথ প্রচেষ্টার মাধ্যমে উদ্দেশ্য রূপায়নের অধিকতর সুলভ সুযোগের জন্যে মহামন্ডলের সঙ্গে 'সংযুক্ত ' হতে পারেন। তাঁরা সঙ্গে সঙ্গেই লক্ষ্য করেন যে তাঁরা মহামন্ডলের যৌথ কর্মসূচির কোন না কোন কাজ হয়ত আগে থেকেই করছেন এবং এমন কাজের পথে তাঁরা একক যাত্রী নন। তাঁরা এই যোগের মাধ্যমে যেই দেখবেন অন্যত্র একই কাজ কুশলতার সঙ্গে চলছে , তৎক্ষণাৎ তাঁদের কাজেও একটা জোর আসবে , আর তাঁরা দেখবেন যে তাঁদের কাজ খুব নগন্য বা ক্ষুদ্র আঞ্চলিক সীমায় আবদ্ধ নয় , বরং নিজস্ব একটা গতিবেগ অর্জিত হয়েছে এমন একটা বিরাট কর্মসূচির অংশ বিশেষ। 
প্রতিষ্ঠান ছাড়া কোন ব্যক্তিও মহামণ্ডলের আদর্শ উদ্দেশ্যকে পছন্দ করলে তাঁর এলাকায় মহামন্ডলের শাখা স্থাপন করতে পারেন বা এই ধরনের কোন প্রতিষ্ঠান গেড়ে তাকে মহামন্ডলের সঙ্গে 'সানযুক্ত' করতে পারেন।এমন কোন ব্যক্তি মহামন্ডলের যে কোন বর্তমান শাখায়ও যোগ দিতে পারেন বা কেন্দ্রীয় সমিতির দৈনন্দিন কাজেও সহায়তা করবার জন্যে এগিয়ে আসতে পারেন। 
একই ভাবে শিক্ষা-প্রতিষ্ঠান সমূহের ছাত্র ও শিক্ষকরাও মহামণ্ডলে যোগ দিতে পারেন অথবা তাঁদের প্রতিষ্ঠানের ভেতরে বা বাইরে মহামণ্ডলের কেন্দ্র স্থাপন করতে পারেন। পুরানো ছাত্ররা প্রতিষ্ঠান থেকে বেরিয়ে গেলে নতুন ছাত্ররা তাঁদের স্থান নিতে পারেন। 
কাজের আদর্শ 
মহামণ্ডল যে সাধারণ কার্যসূচী অনুসরণ করে তাতে সে কাজগুলি করবার ভাবটির উপর বিশেষ জোর দিতে চায়। কাজের বিষয়গুলির মধ্যে বিশেষ নতুনত্ব কিছু নেই, কিন্তু যে কোন কাজ যে ভাবের সঙ্গে করা যায় সেই ভাবটির একটি ছাপ থেকে যায় কর্তার চরিত্রে। স্বামীজী বলেছেন : "যুগ যুগের কঠোর সংগ্রামের ফলে একটি চরিত্র গঠিত হয়। " কাজেই আমাদের এ আন্তর সংগ্রাম এখনই শুরু করা প্রয়োজন। " জীবন আল্প্-পরিসর , সংসারের অভিমান ক্ষণস্থায়ী ; তাই তাদের বাঁচাই সার্থক যারা পরের জন্যে বাঁচে, অন্যরা জীবিতের চেয়ে অধিক মৃত। " " এস , আমরা উপায়কে নির্দোষ করি, পরিণতি নিজের ভাবনা ভাববে। কেননা, জগৎ সৎ ও পবিত্র হবে তখনই যখন আমাদের জীবন সাধু ও পবিত্র হবে। কাজেই এস , আমরা আমাদের সংশোধন করি, আমাদের পূর্ন করে তুলি।' এবং তা সম্ভব একমাত্র যদি আমরা ত্যাগ ও সেবার ভাব নিয়ে কাজ করতে থাকি।
" কখনও ভেবো না , তুমি জগৎকে ভাল বা সুখকর করতে পার। " " আমাদের পরম সৌভাগ্য যে আমরা সেবা করার সুযোগ পাই , কেননা , একমাত্র সেই পথেই আমরা পূর্ণতার দিকে এগোতে পারি। "
কর্মসূচী 
(১) যাঁরা প্রার্থনায় বিশ্বাস রাখেন , তাঁরা প্রত্যহ প্রার্থনা করবেন যাতে তাঁরা এমন কাজে যূক্ত থাকেন যা তাঁদের চরিত্র গঠনের সহায়ক হয়। যাঁরা এতে এখনও বিশ্বাস করেন না, তাঁরা স্বল্পদিনের প্রার্থনায় সুফল পাবার চেষ্টা করতে পারেন, কেননা প্রার্থনা মানুষের নিজেরই অন্তর্নিহিত শক্তিকে জাগিযে তোলে।  এর মধ্যে অতিপ্রাকৃত বা লোকান্তরের কোন যাদু নেই। 
(২) স্বাধ্যায় : উপযুক্ত কাজে মানুষকে যে বুদ্ধি নিয়োগ করবে সেই বুদ্ধিকে উপযুক্ত চর্চার দ্বারা তীক্ষ্ন রাখা দরকার। আমরা আমাদের যে কাজে নিযুক্ত রাখার প্রয়াস নিচ্ছি তাতে স্বামী বিবেকানন্দের সকল লেখা আমাদের বিশেষ সহায়তা করবে। প্রত্যেক সভ্য তাই স্বামীজীর কোন না কোন লেখা যদি প্রত্যহ পাঠ করেন তবে অবশ্যই উপকৃত হবেন। 'ভারতে বিবেকানন্দ', 'পত্রাবলী', 'স্বামী শিষ্য সংবাদ ', 'কর্মযোগ', 'বর্তমান ভারত' ---এ বইগুলি পর পর পড়া দিয়ে এ কাজ আরাম্ভ করা যেতে পারে। 
(৩) ব্যায়াম : সুস্থ দেহেই সবল মনের কাজ করা সম্ভব। তাই প্রত্যেকের দেহকে সুস্থ ও সবল রাখার জন্যে প্রয়োজন অনুসারে ব্যায়ামাদির চর্চা রাখা উচিত। প্রত্যেকটি কেন্দ্রে শরীর-চর্চার জন্যে সভ্যদের কি সুযোগ করে দেওয়া যায় সে বিষয়ে চিন্তা করবেন। 
(৪) বিবেক-বাহিনী,কিশোর-বাহিনী, প্রাথমিক বিদ্যালয় : আজকের শিশূরাই ভবিষ্যতের যুবক। কাজেই যুবককল্যানের যে কোন পরিকল্পনাতে শিশূকল্যাণের দিকেও যথেষ্ট দৃষ্টি রাখা প্রয়োজন। সমাজসেবায় ব্রতী যে কোন সংস্থারই শিশূ এবং কিশোরদের জন্যে একটি সার্বিক কল্যাণসূচির বিষয় চিন্তা করা উচিত। ছোটদের সকল দিক দিয়ে বিকাশের সুযোগ থাকা দরকার, যেমন খেলাধুলা , ড্রিল , গান,নাটক,প্রার্থনা ইত্যাদি। সকল কেন্দ্রের উচিত হবে, শিশূ, কিশোর ও যুবকদের একটি স্বয়ংসম্পূর্ন স্বেচ্ছা-প্রনোদিত -নিয়মানুবর্তিতা-প্রকল্প কে কার্যকরী করা। মহামণ্ডল এ বিষয়ে বিশদভাবে পরামর্শ দিতে প্রস্তুত আছে। অভিভাবকদের সঙ্গে নিয়মিত যোগাযোগের মাধ্যমে এমন একটি প্রকল্পের অবশ্য প্রয়োজনীয়তার কথা বোঝাবার জন্যে বিশেষভাবে চেষ্টা করা উচিত। এ বিষয়ে স্থানান্তরের পরীক্ষিত আদর্শগুলিও কাজে লাগান যেতে পারে। ব্যয়হীন সার্বজনীন প্রার্থমিক শিক্ষার ক্ষেত্রেও যথেষ্ট কাজ করার সুযোগ রয়েছে। 
(৫) প্রৌঢ় শিক্ষা : নিরক্ষরতা দূরীকরণের চেষ্টাকে সফল করতে গেলে এ সমস্যাটিকে দুদিক থেকে আক্রমন করা দরকার। কর্মব্যস্ত বয়স্করা যাঁরা কখনও লেখাপড়ার সুযোগ পান নি সত্যকার দায়িত্বশীল নাগরিক হয়ে উঠতে পারেন যদি তাঁদের সে হারান সুযোগকে তাঁদের কাছে হাজির করা যায়। এই সমস্যার এ দিকটিতে কাজ করার জন্যে বয়স্ক শিক্ষন কেন্দ্র বিশেষ করে বস্তী এবং অনুন্নত এলাকাসমূহে স্থাপন করা যেতে পারে। 
(৬) যে সকল ছাত্র স্কুলে ভর্তি হওয়ার সুযোগ পেয়েছে তারাও কিন্তু সব সময় খুব নিশ্চিন্ত নয়। অনেক ছাত্রই স্কুলের পড়া তৈরির জন্যে বাইরের সাহায্যের প্রয়োজন বোধ করে। কিন্তু অনেক ক্ষেত্রেই বাড়িতে শিক্ষক নিযুক্ত করার আর্থিক সঙ্গতি থাকে না। কাজেই সকল কেন্দ্রে যদি বিনা বেতন শিক্ষনের ব্যবস্থা (सायंकालीन निःशुल्क कोचिंग केन्द्र):থাকে, যেখানে প্রথমতঃ স্কুলের ছাত্রদের যারা খরচ করতে পারে না তাদের পড়ায় সহায়তা করা হবে, তবে তা সমাজ কে যথেষ্ট সহায় করবে। আনন্দের কথা যে এই প্রকল্পটি বহু কেন্দ্রেই ভাল ভাবে চলছে। 
(৭) পাঠচক্র : দেশের বা জাতির বিশেষ মূল্যবোধের প্রকৃত অবগতি থেকেই সত্যকার দেশপ্রেম আসতে পারে। এবং তা সম্ভব তার নিজস্ব কৃষ্টিগত ঐতিহ্যের সঙ্গে পরিচয় থেকেই। স্কুল কলেজের পাঠ্যতালিকা থেকে এর যথোচিত পরিচয় হয় না। এখানে কিছু পরিপূরক দরকার। এ কাজ হতে পারে পাঠচক্র মাধ্যমে। যেখানে একদল আগ্রহী নিয়মিত মিলিত হবে এই উদ্দেশ্যে, এবং যথোচিত শ্রদ্ধার সঙ্গে প্রয়োজনীয় বিষয়সমূহের পড়াশোনা চালিয়ে যাবে যাতে তারা জাতিগঠনের কাজে নিজেদের নিয়োগ করবার জন্যে উপযুক্ত ভাবে তৈরি হতে পারে। আমরা স্বামী বিবেকানন্দের লেখাগুলি মনোযোগের সঙ্গে গভীরভাবে অনুশীলন করা দিয়ে একাজ আরাম্ভ করতে পারি। 
(৮) আমাদের কৃষ্টিগত ঐতিহ্যের অন্তঃস্থলে প্রবেশের পথ হল সংস্কৃত। তাই এর সম্ভারে হস্তক্ষেপের সহজ অধিকার লাভের জন্যে এই ভাষাটি শিখে নেবার জন্যে সর্বতোভাবে চেষ্টা করা উচিত। সংস্কৃত ব্যাকরনের বনিয়াদ আর উপনিষদ , গীতার মূল চিন্তাগুলির সঙ্গে পরিচয় করিয়ে দেবার জন্যে শিক্ষনের ব্যবস্থা করা যেতে পারে। 
(৯) প্রাথমিক চিকিৎসা : স্থানীয় প্রয়োজন ও অবস্থা অনুসারে অন্যান্য কাজও হাতে নেওয়া যেতে পারে। প্রতি কেন্দ্রের কয়েকজন সদস্য প্রাথমিক প্রতিবিধান বিষয়ে শিক্ষা নিতে পারেন এবং যখনই কোন প্রয়োজন হবে তাঁরা এগিয়ে আসবেন আর্তের সেবায়। অন্য্ প্রকার চিকিৎসা বিষয়ে সহাযতার প্রকল্পও হাতে নেওয়া যেতে পারে স্থানীয় ডাক্তার ও শিক্ষাপ্রাপ্ত কর্মীদের নিয়ে। এর মাধ্যমে হোমিওপেথিক দাতব্য চিকিৎসা , টিকা বা অন্য্ প্রকার শিশূকল্যাণের কাজ করা যেতে পারে। একটি সংস্থা এ বিষয়ে ভাল কাজ করছেন। দুঃস্থ ছোটদের মধ্যে দুধ বিতরণ , অন্য্ খাদ্যদ্রব্য , জামাকাপড় , বই বিতরণ, যথেষ্ট উপকার দিতে পারে। কখনও কখনও মৃতদেহ সৎকার বিশেষ কল্যাণকর হতে পারে। সরকারের সমাজকল্যাণ বিভাগের সৌজন্যে অনুন্নত এলাকার শিশূদের খাদ্য বিতরণ ব্যবস্থা কোন কোন কেন্দ্রে চলছে। 
(১০) যেখানে সম্ভব ভারতীয় সভ্যতা , স্বামী বিবেকানন্দের উপর বা স্বামীজীর লেখা , বা এই প্রকার বই নিয়ে ছোটখাটো গ্রন্থাগার স্থাপন করা যেতে পারে। স্কুল কলেজের ছাত্রদের জন্যে পাঠ্যপুস্তকাগার স্থাপনের পরিকল্পনাও বিবেচনা করা যেতে পারে। 
এটি কর্মসূচীর ইঙ্গিত দেওয়া একটা কাঠোমো মাত্র। 
নিষ্ঠাবান কর্মীদল 
এইভাবে, এই সব কাজের মধ্যে দিয়ে নিষ্ঠাবান কর্মীদল বেরিয়ে আসবে, যারা সকল সময়েই ব্যক্তিগত স্বার্থের চেয়ে সমাজের সেবাকেই উঁচুতে স্থান দেবে এবং স্বামী বিবেকানন্দের শিক্ষা কে অনুসৰণ করে সৎ সামাজিক হবার চেষ্টা করবে এবং অপরকে সুন্দরতর সমাজ গঠনের জন্যে সহায় করবে। তারা শুধুই এমন কাজে ব্যাপৃত থাকবে না , অন্যান্য কেন্দ্রে মাঝে মাঝে কর্মীরা যাতায়াত করবে যাতে পরস্পরের ভাবের আদানপ্রদান হয় আর বিভিন্ন কর্ম -পদ্ধতির সঙ্গে পরিচয় ঘটে। এইভাবে ধীরে ধীরে মহামন্ডলের সকল সভ্যের মধ্যে একটি প্রকৃত ভ্রাতৃত্ববোধও জেগে উঠবে। 
এই চিন্তাধারার প্রসার 
সকল কেন্দ্রে এবং সভ্য অন্যান্য অঞ্চলে তাঁদের পরিচিতদের সঙ্গে যোগাযোগ করে এই ভাবের কাজে প্রবর্তিত করার জন্যে অনুরোধ করতে পারেন বা এই ভাবধারার কোন সংস্থাকে মহামন্ডলের সঙ্গে 'সংযুক্ত' করে কেন্দ্রীয় সাধারণ কর্মসূচীর প্রনোদিত করতে পারেন। ব্যক্তিগত সংযোগের ফলে আশা করা যায় অবশ্যই বহু স্কুল কলেজের ছাত্র ও শিক্ষক এই মানুষ তথা জাতিগঠনমূলক শুভপ্রচেষ্টার সঙ্গে বর্তমান বা নবপ্রতিষ্ঠিত কেন্দ্রের মাধ্যমে সহযোগিতা করবেন। 
মহামন্ডলের প্রাকৃত কর্মকেন্দ্র 
1972-6-state-69 center : এই সংযুক্ত কেন্দ্র বা শাখাগুলোই মহামণ্ডলের প্রকৃত কর্মকেন্দ্র।  এগুলির মাধ্যমেই মহামণ্ডলের প্রাণের প্রকাশ, কর্মের দ্যোতনা, গতি, প্রসার, ও অস্তিত্ব। কেন্দ্রীয় সংঠন বা মহামণ্ডল এই সকল কেন্দ্রের সংযোজক শক্তি, যেগুলির মধ্যে দিয়েই মহামন্ডলের আদর্শ ও চিন্তাধারা বাস্তব রূপায়নের পথে যাচ্ছে। তাই এগুলি যেন এক বিরাট জীবদেহের সজীব প্রতঙ্গের মত। বর্তমানে ছয়টি প্রদেশে কাজ চলছে। মার্চ ১৯৭২ -এ মোট ৬৯ টি অন্তর্ভুক্ত কেন্দ্র ছিল। 
কার্যাবলী 
মহামন্ডলের কেন্দ্রগুলির মাধ্যমে যে সব কাজ হয়ে থাকে তার মধ্যে আছে : ছাত্র শিকক্ষন কেন্দ্র, বয়স্ক শিক্ষন কেন্দ্র , খেলাধুলা, ড্রিল, পাঠচক্র, শরীরচর্চা, কেন্দ্র, গ্রন্থাগার , বস্তীর কাজ, দুগ্দ্ধ বিতরণ কেন্দ্র, ছাত্র সহায়তা কেন্দ্র, প্রাথমিক প্রতিবিধান কেন্দ্র, সঙ্গীতচর্চা কেন্দ্র , চিকিৎসা কেন্দ্র, সাধারণ সহায়তা, পত্র-পত্রিকা প্রকাশন, কুটির-শিল্প শিক্ষন ও উৎপাদন কেন্দ্র , ছাত্রাবাস ইত্যাদি। তাছাড়া প্রায় প্রত্যেক কেন্দ্রেই সাস্কৃতিক অনুষ্ঠান, বিশেষ দিবসাদি পালন,সম্ভাব প্রচারের উদ্দেশ্যে সাধারণ সভা, শিক্ষামূলক প্রতিযোহিতা, এবং উৎসবাদি পালিত হয়ে থাকে। দরিদ্রনারায়ন সেবা, জামাকাপড় বিতরণ , দুর্গত ও নিঃসহায়দের সাহায্য দান প্রভৃতি সমাজসেবার কাজ যৌথভাবে বা এককভাবে বিভিন্ন কেন্দ্রের মাধ্যমে হয়ে থাকে। 
মহামন্ডলের বয়স্ক-শিক্ষন শিক্ষাপ্রাপ্ত সংগঠক, প্রাথমিক প্রতিবিধান শিক্ষক , শরীরচর্চা প্রণালী শিক্ষক, স্কাউটিং ও ব্রতচারী শিক্ষক, সঙ্গীত শিক্ষক প্রভৃতি আছেন বিভিন্ন কেন্দ্রকে এ সকল বিষয়ে সাহায্য করার জন্যে। 
সম্মিলন /PSTC/ 
এ সব ছাড়া মহামণ্ডল মধ্যে মধ্যে আলোচনা-চক্র বা 'শিক্ষা ও সমীক্ষা ' -এর ব্যবস্থা করে থাকেন এবং এ সব আসরে সকল কেন্দ্রের সভ্যরা উপস্থিত থাকেন। আমাদের কর্মধারা সঙ্গে সম্পর্কিত কোন কোন আকর্ষণীয় বিষয় নিয়ে বিশিষ্ট শিক্ষাবিদরা আলোচনা করে থাকেন। এখানে প্রতি কেন্দ্রের কর্মীরাও কখনও কখনও অন্যান্য কেন্দ্রের কর্মীদের সঙ্গে বা মহামামন্ডলের কর্তৃপক্ষের সঙ্গে তাঁদের ভাবের আদানপ্রদানের সুযোগ পেয়ে থাকেন। কেন্দ্র-গুলির আহুত স্থানীয় "শিক্ষা ও সমীক্ষা আসরে" ও মহামণ্ডল বক্তা পাঠিয়ে থাকেন। 
বার্ষিক শিক্ষন শিবির 
মহামন্ডলের সব চেয়ে বড় যৌথ কর্মপ্রচেষ্টা হল এর " বার্ষিক যুব শিক্ষন শিবির " -যেখানে শিক্ষার্থীদের দেহ ও মনের সমুন্নতি চেষ্টার মধ্যে একটা সুষম বিন্যাসের দিকে দৃষ্টি রাখা হয়। এই শিবিরের সাধারণ সূচীতে থাকে মনঃসংযোগ, শরীরচর্চা, ড্রিল, প্রাথমিক প্রতিবিধান শিক্ষা, খেলাধুলা, ব্রতচারী, স্কাউটিং, প্রার্থনা, চলচিত্র-প্রদর্শনী , এবং সভ্যতা ও সংস্কৃতি , সমাজ-দর্শন,নৈতিকতা, স্বাস্থ্য, দর্শন, সমাজব্যবস্থা, ও স্বামী বিবেকানন্দের চিন্তাধারার আলোচনা। এখানে শিক্ষার্থীরাও যথেষ্ট আত্মবিকাশের সুযোগ পান। এই শিবির এর শিক্ষার্থীদের মধ্যে ও পরিচালকদের মধ্যে একটি সপ্রেম একতা ও ভ্রাতৃত্ববোধের সৃষ্টি করে এবং এই আত্মিক যোগ দীর্ঘকাল স্থায়ী হয়।        এসব শিবিরে যাঁরা যোগ দিয়েছেন তাঁদের মধ্যে অনেকে এই ভাবধারায় নিজ নিজ এলাকায় কাজ আরম্ভ করেছেন এবং মহামণ্ডলের কেন্দ্রে স্থাপন করেছেন বা কোন সংস্থাকে মহামন্ডলের সঙ্গে সংযুক্ত করেছেন। যেটি বিশেষভাবে লক্ষণীয় সেটি যুবকদের মনে মনঃসংযোগ, প্রার্থনা , সেবাকার্য় বিষয়ের শিক্ষণগুলির ফল। এ বিষয়গুলি শিবিরের জীবনপদ্ধতির মধ্যে এমন ওতঃপ্রোতভাবে সংযুক্ত থাকে যা তাদের কাছে একটি 'সার্বিক শিক্ষন ' হিসাবে দেখা দেয় যার ফলে তাদের অভ্যাস , চরিত্র ও চিন্তাধারার গঠনে সুদূরপ্রসারী ফল সঞ্চার করে এবং তাদের জীবনে একটি উদ্দেশ্য ও লক্ষ্য স্থির করতে সহায়ক হয়। এই পদ্ধতি অনুসরণের ফলে এগুলি তাদের উপর চাপিয়ে দেওয়া হয় বলে মনে হয় না , বরং তারা এগুলি স্বাভাবিক ভাবেই যেন গ্রহণ করে। 
  আশা করা যায় ভবিষ্যতে আরও বেশী যুবকরা আমাদের বার্ষিক শিক্ষন শিবিরের সুযোগ গ্রহণ করবে , যেখানে কিছুই তাদের জোর করে গলাধঃকরন করান হয় না। বরং তাদের স্বেচ্ছাপ্রনোদিত নিয়মানুবর্তিতা অনুশীলনের প্রয়োজনীয়তা বোঝাবার সহায়তা করা হয়। 
তা ছাড়া বহু কেন্দ্রে স্থানীয় যুব শিক্ষন শিবিরের আয়োজন করে আরও অধিক সংখ্যক যুবককে এই শিক্ষার স্বাদ দিচ্ছেন। 
'বিবেক-জীবন '/ 'विवेक-अंजन' 
মহামণ্ডল থেকে যুবসম্প্রদায়কে 'বিবেক -জীবনে' উদ্বুদ্ধ করার জন্যে , স্বামীজীর শিক্ষা ও মহামন্ডলের উদ্দেশ্য প্রচারের জন্য ও কেন্দ্রগুলির মধ্যে যোগাযোগের উদ্দেশ্যে 'বিবেক-জীবন ' নামে একটি দ্বিপাতাযায় (ইংরেজি ও বাংলা) মাসিক মুখপত্র প্রকাশিত হয়ে থাকে। 
আহবান 
সমগ্র বিশ্বের মানবসমাজের সকল গ্লানির একমাত্র মহৌষধি 'মনুষত্ব-উন্মেষক ও চরিত্র-গঠনকারী শিক্ষার মাধ্যমে নবজীবনে উত্তরণের তথা সকল নাম , যশ ও প্রচারকে অগ্রাহ্য করে নীরবে কাজ করে যাওয়ার জন্যে আমরা সেই সকল চিন্তাশীল যুবককে মহামন্ডলে যোগ দিতে আহ্বান করি, যাঁরা স্বামী বিবেকানন্দের নেতৃত্বে বিশ্বাসী , যাঁদের হৃদয়তন্ত্রীতে অনুরণিত হয় স্বামীজীর মানুষের প্রতি আমার বাণী আর জাতির প্রতি তাঁর উদ্দাত্ত আহ্বান। 
যে কোন ব্যক্তি , শিক্ষাপ্রতিষ্ঠান বা সংস্থা এ বিষয়ে আগ্রহী হলে মহামণ্ডলের সম্পাদকের সঙ্গে কেন্দ্রীয় কার্যালয়ের ঠিকানায় পত্রে যোগাযোগ করতে পারেন। 
অখিল ভারত বিবেকানন্দ যুব মহামন্ডলের -
প্রার্থনা -গীতি 
তোমরা সম্মিলিত হও ; একবিধ বাক্য প্রয়োগ কর ; তোমাদের মনসমূহ সমানরূপে জ্ঞাত হউক। পূর্ববর্তী দেবগন যেরুপ সমচিত্ত হইয়া হবিরভাগ গ্রহণ করিয়াছিলেন, তোমরাও সেইরূপ (ধনাদি গ্রহণ কর.)। 
ইহাদের স্তুতি একরূপ, প্রাপ্তি একবিধ , অন্তঃকরণ একরূপ , বিচারজ জ্ঞান একবিষয়ে একীভূত হউক; আমিও তোমাদের তুল্যরূপ মন্ত্রকে (সকলের) ঐক্যবিধানের জন্যে সংস্কার করি; হে দেবগন , তোমাদের সকলের সাধারণ ছবির স্বারা আহুতি প্রদান করি। 
তোমাদের সঙ্কল্প সমান , তোমাদের হৃদয়সমূহ সমান ও তোমাদের অন্তঃকরণসমূহ সমান হউক। যাহাতে পরম ঐক্য হয় তাহাই হউক। 
মহামণ্ডল পতাকা 
মহামন্ডলের আয়তকার (৩:২) ; গেরুয়া কাপড়ের উপর নীল রঙে ছাপা বা সুতার কাজ করা বজ্র (ত্যাগ ও শক্তির প্রতীক)
মহামন্ডলের প্রতীক চিন্হ 
মহামণ্ডলের প্রতীকে ভূগোলকের ওপর রেখায়িত ভারতভূমির কন্যাকুমারীতে দন্ডায়মান স্বামী বিবেকানন্দের পরিব্রাজক মূর্তি। এর ওপরে দেবনাগরী অক্ষরে : 'चरैवेति , चरैवेति 'এবং নীচে ইংরেজিতে : 'BE AND MAKE' ;বৃত্তের বাকী অংশে ছোট ছোট ৭-৭ বজ্র দিয়ে ঘেরা। 
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