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सोमवार, 20 मई 2019

हमारे लिए करनीय - "Be as if moonstruck"

[भूमिका : स्वामी रंगनाथानन्द जी  (1908-2005) महाराज ने  'युवा महामण्डल' कार्यकर्ताओं की एक बैठक (1967) में जो भाषण दिया था, उसीके आधार पर लिखित महामण्डल की बंगला पुस्तिका -" आमादेर करनीय" ('আমাদের করণীয়') का हिन्दी भावानुवाद। पूज्य महाराज रामकृष्ण मिशन के 13 वें अध्यक्ष थे, उनका जन्म केरल प्रान्त के त्रिक्कूर गाँव में हुआ था। उनका पूर्व नाम शंकरन कूट्टी था। उन्होंने मात्र 17 साल की उम्र में रामकृष्ण संघ में योगदान दिया था, एवं 1926 में श्री रामकृष्णदेव के लीला-पार्षद स्वामी शिवानन्द से वे मंत्र-दीक्षा लाभ किया था। 
इस व्याख्यान---'आमादेर करनीय' में पूज्य महाराज जैमिनी सूत्र (पूर्व-मीमांसा)---'अथातो धर्म जिज्ञासा'..... जानने की प्रथम जिज्ञासा .....अब हमारे लिये क्या करनीय है ? का उल्लेख करते हुए -महामण्डल के कर्मियों को (भारत के भावी शिक्षकों/नेताओं को) यह कह रहे हैं कि जीवन के किसी भी कर्मक्षेत्र में उतरने से पहले उन्हें क्या करना चाहिये ? कोई युवा जीवन के किसी भी क्षेत्र को अपने कैरियर के रूप में चुनना चाहता हो, अथवा समाज-सेवा या राजनीति के क्षेत्र में उतरने का निश्चय ही क्यों न करता हो, उसे पहले गीता और उपनिषद की शिक्षाओं पर आधारित स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान 'कर्म रहस्य'  को समझने के बाद ही अपने कार्य का प्रारम्भ करना चाहिए। 
क्योंकि कर्म (धर्म या कर्तव्य) एक विस्तृत अर्थ वाला शब्द है। वेद के प्रारम्भ में ही यज्ञ-कर्म  की महिमा का वर्णन है। वैदिक परिपाटीमें यज्ञ का अर्थ देव-यज्ञ ही नहीं है, वरन् इसमें मनुष्य के प्रत्येक प्रकार के कार्यों  का  (श्राद्ध आदि कर्म का भी) समावेश हो जाता है। उदाहरणार्थ -- बढ़ई जब वृक्ष की लकड़ी से कुर्सी अथवा मेज बनाता है तो वह यज्ञ ही करता है। वृक्ष का तना जो मूल रूप में ईधन के अतिरिक्त, किसी भी उपयोगी काम का नहीं होता, उसे बढ़ई ने उपकारी रूप देकर मानव का कल्याण किया है। अत: बढ़ई का कार्य भी यज्ञरूप ही है। एक अन्य उदाहरण ले सकते हैं। कच्चे लौह को लेकर योग्य वैज्ञानिक और कुशल शिल्पी एक सुन्दर कपड़ा सीने की मशीन बना देते हैं। इस कार्य से मानव का कल्याण हुआ। इस कारण यह भी यज्ञरूप है।
गाँधीजी ने कहा था स्वामी विवेकानन्द को पढ़ने से मेरी देशभक्ति 1000 गुना बढ़ गयी। नेताजी सुभाष तो अपने को स्वामी विवेकानन्द का अनुयायी ही मानते थे। और जवाहरलाल नेहरू ने 'डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया' में लिखा था, 'विवेकानन्द ने दुःखी और हतोत्साहित भारतवासियों  के हृदय में उत्साह की ऊर्जा भरने वाले  एक 'टॉनिक' का काम किया। समस्त भारतियों को उन्होंने यह विश्वास दिला दिया कि उनके अतीत की जड़ें अत्यंत गौरवशाली और  बहुत मज़बूत हैं,  जिन पर वो गर्व कर सकते हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।"
रोमां रोलां ने  उनके बारे में कहा था-"उनके जैसा कोई द्वितीय व्यक्ति होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। स्वामी विवेकानन्द के चेहरे में प्रत्येक व्यक्ति  अपने नेता (इष्टदेव) का दिग्दर्शन करता था। वे वास्तव ईश्वर के प्रतिनिधि थे, माँ काली (ठाकुरदेव) से चपरास प्राप्त नेता थे, इसलिए  देखने मात्र से, सब किसी पर प्रभुत्व स्थापित कर लेना उनकी विशिष्टता थी। एक बार हिमालय प्रदेश में एक अनजान यात्री ने जैसे ही उन्हें देखा - वह ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा- ओह मेरे ‘शिव !’ उस व्यक्ति को ऐसा प्रतीत हुआ मानो, उसके आराध्य देव 'भगवान शिव 'ने स्वयं अपने हाथों से अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।" 
" रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक (नेता) प्रशिक्षण परम्परा" --- अथवा  'Be and Make Leadership Training Tradition ' में प्रशिक्षित शिक्षक (नेता या जीवन्मुक्त शिक्षक, पैगम्बर ) " बनने और बनाने " के लिए मानो ~ "Be as if moonstruck" दीवाने हो जायें ! और भारत के प्रत्येक राज्य में हमारे लिए यही करनीय है !]
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'मनुष्य' शरीर प्राप्त हो जाने के बाद -
अब हमारे लिये क्या करनीय है ?
 (अथातो धर्म जिज्ञासा - जानने की प्रथम जिज्ञासा)
आज के भारत का युवा-समाज यदि स्वामी विवेकानन्द के विचारों के आलोक में देश की समस्याओं का निदान ढूँढ़ने की चेष्टा करें, तो उन्हे एक नई ऊर्जा प्राप्त होगी।  हमारे देश में समाज-सेवा तथा राजनीति के क्षेत्रों में आज कई 'युवा संगठन' (youth associations) क्रियाशील हैं। यदि उन संगठनों के युवा सदस्य गण कार्यक्षेत्र में उतरने से पहले स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकों को अच्छी तरह से पढ़ने के बाद (--विशेष रूप से 'कर्म-रहस्य' तथा 'भारत में विवेकानन्द' को पढ़ने के बाद) भारत के राष्ट्रीय आदर्श एवं भारत के भविष्य के बारे में उनकी विचारधारा से परिचित होकर, तदानुसार देश-सेवा या जनता-जनार्दन की सेवा में अपने को समर्पित कर देने (न्योछावर कर देने) के लिए -लौलीन (Zealous-तत्पर) होते, तो देश की प्रगति और भी तीव्र गति से हो सकती थी।  परन्तु, अभी तक वैसा हो नहीं सका है। 
हमारे देश के  (विशेषतः पश्चिम बंगाल के) न्यूज़ पेपर में समाज-सेवा और राजनीति के क्षेत्र के साथ जुड़े  युवा संगठनों के द्वारा संचालित कार्यक्रमों के विषय में आये दिन जो समाचार छपते रहते हैं, उनको पढ़ने से यह समझ में नहीं आता कि, वे स्वामी विवेकानन्द  के बारे में,  कुछ जानते भी हैं या नहीं ? हमारे देश के कुछ युवा-संगठन [ जैसे - 'नेहरू युवा केन्द्र' या J.N.U. के 'वामपंथी युवा संगठन' आदि ] ---तो ऐसा भी कहते हैं कि, " विवेकानन्द तो मात्र एक धर्म-विशेष के गुरु थे, एक हिन्दू संन्यासी थे।  हमलोग तो सार्वजनिक राजनीति (Public politics) के क्षेत्र में कार्य करते हैं। हमलोग भला 'हिन्दू संन्यासी विवेकानन्द' से क्या सीख सकते हैं ?"
 किन्तु दुःख के साथ कहना पड़ता है, वे यह नहीं जानते कि स्वामी विवेकानन्द ने भारत के आवाम या जन-साधारण की समस्याओं को (Public problem) को केवल संकीर्ण धार्मिक दृष्टिकोण (religious perspective) से ही नहीं देखा था; बल्कि 'समग्र दृष्टिकोण' (overall perspective) से देखा था;-अर्थात प्रत्येक मनुष्य (चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय में क्यों न जन्मा हो)  वस्तुतः क्या है ? इस नजरिये से देखा था। और कहा था -'Each Soul is Potentially Divine ~ प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' और सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रति स्वामी विवेकानन्द का यही तो  विशिष्ट योगदान है !
[अतः स्वामी विवेकानन्द के नाम के पहले 'हिन्दू संन्यासी' होने का तगमा (simile) लगा देना, सम्पूर्ण  मानव-जाति  के कल्याण में उनके इस विशिष्ट योगदान (special- contribution) को गौण बना देने का दुष्प्रयास मात्र है। ]      
स्वामी विवेकानन्द ने कन्याकुमारी में भारत के अंतिम शिलाखण्ड पर बैठकर बिल्कुल एक अलग ही प्रकार का ध्यान किया था। साधारण तौर से कोई साधक या भक्त अपने इष्टदेव (ईश्वर) का  ध्यान करते हैं, किन्तु स्वामी विवेकानन्द के ध्यान का विषय था -'मनुष्य'! इस युग के इस 'नये मनुष्य' ने (would be Leader या जीवनमुक्त लोक-शिक्षक ने) कन्याकुमारी के शिलाखण्ड पर तीन दिनों तक बैठकर, इसी विषय पर ध्यान किया था- कि भारत के जो 80 प्रतिशत गरीब अवाम हैं, दीन-दुःखी और पददलित मनुष्य हैं, उनका उद्धार किस प्रकार किया जा सकता है? 
कन्याकुमारी पहुँचने से पहले 'परिव्राजक' विवेकानन्द ने सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा की थी। और उन्होंने पाया था कि हमारे देशवासियों में आत्मशक्ति (संकल्प शक्ति-will power) और आत्मचैतन्य (श्रद्धा और विवेक अथवा Self-consciousness ) का अभी घोर अभाव हो गया है।  जिसके परिणामस्वरूप वे पशुओं के स्तर पर जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं। इसलिये विवेकानन्द के जीवन का उद्देश्य था -और जिसे सफल करने की जिम्मेदारी उन्होंने भावी पीढ़ी के युवाओं पर सौंप दी है; वह है: मनुष्य के भीतर जो आत्मशक्ति (हृदय का बल या संकल्प-शक्ति) प्रसुप्त अवस्था में है, उसको जाग्रत और विकसित कराकर,  मनुष्य को उसकी स्व-महिमा में प्रतिष्ठित होने के लिए अनुप्रेरित कर देना। हमारी राजनीति, हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी शिक्षानीति, हमारी संस्कृति, हमारा सब कुछ इसी उद्देश्य के द्वारा प्रभावित रहना चाहिए। 
 [भारत की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा (National Ambition): है - सम्पूर्ण मानव-जाती को यह शिक्षा देना कि प्रत्येक 'मनुष्य', चाहे वह किसी भी जाति और संप्रदाय में क्यों न जन्मा हो, प्रत्येक मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है 'masterpiece' -जो केवल अपने संकल्प शक्ति (will power) के बल से अपने बनाने वाले 'ब्रह्म' को भी जान सकता है।  हमारी राजनीति, हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी शिक्षानीति, हमारी संस्कृति, हमारा सब कुछ इसी उद्देश्य के द्वारा प्रभावित रहना चाहिए।]
भारत की इसी विदेश-नीति या विश्वगुरु बनने की भारत की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा (National Ambition) की ओर इंगित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " मैं जो अमेरिका गया था, वह मेरी या तुम्हारी इच्छा से नहीं हुआ , वरन भारतवर्ष के भगवान, माँ काली के अवतार, श्रीरामकृष्णदेव  - जो उसकी नियति (destiny) के नियामक भी हैं, उन्होंने मुझे अमरीका भेजा था !  और वे ही इसी भाँति सैंकड़ों प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षकों को संसार के अन्य सब देशों में भेजेंगे। इसे दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती। अतएव तुमको भारत के बाहर भी धर्म-प्रचार के लिए जाना होगा।" 5/118 (That I went to America was not my doing or your doing; but the God of India who is guiding her destiny sent me,and will send hundreds of such to all the nations of the world.)   
स्वामी जी द्वारा प्रदत्त सभी भाषणों का मुख्य स्वर वास्तव में एक ही है, और वह है: भारत की 'सनातन ऋषि परम्परा' (Be and Make ~ श्रुति-परम्परा " से प्राप्त " मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण पद्धति) के अनुसार; (पशु-स्तर में गिरे) मनुष्य को कैसे ऊपर उठाया जाये, कैसे उसको पुनः उसकी महिमा में, उसके मान-मर्यादा में प्रतिष्ठित कर दिया जाये। (এটি হলো স্বামীজীর মানবিক দৃষ্টিভঙ্গি।)मनुष्य-मात्र के प्रति स्वामी जी का यही दृष्टिकोण था। 
[मनुष्य मात्र को स्वामीजी इसी दृष्टिकोण से (एक जीवनमुक्त शिक्षक के दृष्टिकोण से) देखते थे ! सम्पूर्ण मानवजाति को (उसके जाति-नस्ल या धर्म का विचार किये बिना) स्वामी जी इसी नजरिये से- इसी करुणा-पूर्ण दृष्टि से देखते थे।इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था - ‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाये।] 
 हो सकता है कि वर्तमान युग (स्वाधीनता प्राप्ति के बाद के युग) में जन्मे  'समाजसेवी-क्लबों' के युवा नेतृत्व-वृन्द  अथवा  देश  के विभिन्न स्तर पर कार्य करने वाले राजनितिक नेतागण, स्वामी विवेकानन्द को जाने बिना भी  भारतवर्ष को जान लेने का दावा करते हों। किन्तु क्या  स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व , गाँधी, सुभाष, नेहरू सहित अनेकों पूर्ववर्ती  स्वाधीनता सेनानियों ने, स्वामीजी द्वारा अनुप्रेरित होकर देश की सेवा नहीं की थी; और क्या उन्होंने सम्पूर्ण देश को ही  स्वतंत्रता-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर नहीं करा दिया था?
आजकेउ स्वमीजीर भावधारा ग्रहण करा दरकार: 
जिस प्रकार हमारे स्वाधीनता सेनानियों और पूर्ववर्ती राजनितिक नेताओं ने विवेकानन्द-वेदान्त भावधारा से अनुप्रेरित होकर स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया था, और भारत को अंग्रेजों की  गुलामी से आजादी दिलवाई थी।  ठीक उसी प्रकार स्वाधीनता प्राप्ति के 20 वर्षों बाद (1967) में भी भारत को एक उन्नत राष्ट्र और विश्वगुरु बनाने के लिए भी स्वामी जी की भावधारा को ग्रहण करना आवश्यक है। विवेकानन्द साहित्य पढ़ने से (विशेषकर ५ वां खण्ड ), यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि स्वामीजी ने अपनी ऋषि-दृष्टि के  बल पर भारतवर्ष में विद्यमान दो अलग-अलग प्रकार की समस्याओं को देखा था। 
एक है अंतर्राज्यीय समस्या (Inland Problem-देश के विभिन्न राज्यों की अभिलाषाओं से जुडी हुई समस्याऔर दूसरी है अन्तरराष्ट्रीय-समस्या (International problem)| अर्थात देश में एक प्रकार की समस्या देश की गृह-नीति 'domestic policy' से सम्बद्ध है, तो दूसरी भारत के विदेश-नीति 'foreign policy' से जुड़ी हुई समस्या है। इन दोनों प्रकार की समस्याओं के बारे में  गहराई से चिंतन-मनन करने के बाद, स्वामीजी ने उसके समाधान रूप में  जो कार्यक्रम (programme, योजना) हमारे हाथों में सौंपा है, उसका सारांश (मुख्य बिन्दु ) यही है कि - " जिस आध्यात्मिक शक्ति या 'spiritual strength' एवं दार्शनिक शक्ति या 'philosophical strength' के बल पर हमलोग विगत 5000 वर्षों से जीवित हैं, उन्हीं की सहायता से हमलोग पहले देश की सभी अंतर्राज्यीय  समस्याओं को दूर कर लेंगे। तत्पश्चात पूर्वजों से विरासत में प्राप्त (श्रुति-परम्परा में या चपरास-परम्परा में प्राप्त) इसी बहुमूल्य आध्यात्मिक सम्पदा या 'spiritual treasure ' को हमलोग अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में भी उन्मुक्त कर देंगे। 
सारी दुनिया आज भारत से कुछ पाने की आशा कर रही है।आज भारत-दर्शन की यात्रा पर निकला कोई भी जिज्ञासु विदेशी पर्यटक, भारत की आध्यात्मिक सम्पदा ( spiritual treasure) का कुछ हिस्सा पाने के लिए लालायित है। विभिन्न देशों के खोजी व्यक्ति (सत्यार्थी) हमारे देश के गीता, उपनिषद, श्रीरामकृष्ण वचनामृत (The Gospel of Sri Ramakrishna) तथा श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग [अंग्रेजी में "Sri Ramakrishna The Great Master"- by Swami Saradananda, (translated by Swami Jagadananda)]आदि जीवनदायिनी पुस्तकों का अध्यन बड़े चाव से कर रहे हैं। अमेरिका के विश्वविद्यालयों की तरफ देखने से, उनकी इस आकांक्षा को आसानी से समझा जा सकता है। आज भारत से कुछ प्राप्त करने के लिए सम्पूर्ण विश्व में जो एक पिपासा (ज्ञान-पिपासा) दिखाई दे रही है, उस प्यास को यदि हमलोग बुझा नहीं सके तो, वे लोग भी उससे (भारत की प्राचीन श्रुति-परम्परा से) वंचित रह जायेंगे और हमलोग भी (विश्वगुरु के आसन से) वंचित (deprived) ही रह जायेंगे। 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " भारत को  अपना शरीर, अपने मन और अपने हृदय (3'H') को इतने सुन्दर रूप से विकसित करना होगा, ताकि हमारे पूर्वज ऋषियों से उत्तराधिकार में प्राप्त ('Be and Make श्रुति -परम्परा' में प्राप्त ) आध्यात्मिक ऊर्जा का अनुभव हमारे देश के साधारण मनुष्य (जनता जनार्दन-80 प्रतिशत गरीब अवाम हैं, दीन-दुःखी और पददलित मनुष्य) भी कर सकें। विदेशी लोग (Foreigners) भी भारत से इसी शक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं, इस आध्यात्मिक शक्ति  को प्रत्यक्ष करने (realize) करने के लिए वे लोग छटपट कर रहे हैं -(restless-या बेचैन हैं) !" 
अमेरिका जाने से पहले, स्वामी जी ने कन्याकुमारी के शिलाखण्ड पर बैठकर जो ध्यान किया था,उसकी पृष्ठ-भूमि में थी सम्पूर्ण भारत की यात्रा करने से उपलब्ध अभिज्ञता ! (दीन-दुःखी और पददलित प्रत्येक मनुष्य के पीछे उसी सर्वव्यापी-विराट की अनुभूति। ) पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक, भारतवर्ष के हर कोने में यात्रा करके उन्होंने यह जाना था कि भारत का अतीत कितना गौरवशाली था, किन्तु हजारों वर्षों की गुलामी के कारण इसकी वर्तमान परिस्थिति क्या हो गयी है? उन्होंने देखा था कि देश की आम जनता कितने निम्नस्तर का जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं ! इस निम्न अवस्था में रहने के कारण मनुष्य की महिमा तो प्रकाशित नहीं हो पा रही है। अतएव सर्वप्रथम हमें अपने देशवासियों को ही उसकी स्व- महिमा में (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य की अवस्था में) प्रतिष्ठित करना होगा। 
तभी देश की आध्यात्मिक उन्नति होगी। और उसके ठीक पीछे-पीछे सामाजिक उन्नति (social progress), आर्थिक विकास (financial development) और शैक्षणिक प्रगति ( improvement of education) भी चली आयेगी। 'भारत के जो 80 प्रतिशत गरीब अवाम हैं, दीन-दुःखी और पददलित मनुष्य हैं, उनकी क्या-क्या  समस्यायें हैं, आदि  मुद्दों के ऊपर, आज हमलोग जो चर्चा किया करते हैं, उन सबके विषय में प्राथमिक जानकारी भी हमें सर्वप्रथम स्वामी जी के भाषणों से ही प्राप्त हुई है। तथा उन समस्त समस्याओं के निराकरण का उपाय भी हमें स्वामी विवेकानन्द से ही प्राप्त होता है। 
आगेकार दिने बांग्लादेश छील भारतवर्षेर नेता:(In earlier days, Bangladesh was the leader of India): स्वाधीनता प्राप्ति से पहले, जिस समय पूर्वी बंगाल धर्म के आधार पर भारत से अलग नहीं हुआ था, तब यह अविभाजित बंगाल (बांग्ला-देश) ही भारतवर्ष का नेता था। यहाँ के नेता और बुद्धिजीवी (Leaders and intellectuals) जो कुछ निर्देश करते थे, सम्पूर्ण भारतवर्ष उसको सिर-माथे पर ग्रहण करता था। अब (ममता बनर्जी के जंगलराज में) ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि हमारी आध्यात्मिकता चली गई है।  आज जब बंगाल की राजनीति ने दूसरा रूप (हिंसक राजनीति का रूप) धारण कर लिया है, तब इस प्रान्त के (अविभाजित बंगाल के) महापुरुषों की जीवनी और शिक्षाओं आदि का गहन दृष्टि से अध्ययन करने पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 
श्री रामकृष्णदेव तथा स्वामी विवेकानन्द की जीवनी (biography) और शिक्षाओं में राजनीतिक कार्यों से जुड़े विभिन्न मुद्दों- " जैसे नेता किसे कहते हैं, और नेता कैसा होना चाहिए ?" आदि विषयों पर स्पष्ट मार्गदर्शन की कोई कमी नहीं है।  हमारे देश का कोई व्यक्ति चाहे राजनीति के क्षेत्र में कार्य करने वाले किसी दल   राजीनीतिक नेता (Political Leader)  ही क्यों न हों, उसके कार्यों में 'जनता-जनार्दन के प्रति सेवा का भाव' तथा  'भारत-भक्ति  का भाव ' (patriotism , या राष्ट्र-प्रेम) तो अनिवार्य रूप से रहना ही चाहिए। (আমাদের দেশে রাজনৈতিক কাজ থাকলেও তাতে সেবার ভাব ও দেশপ্রেম থাকা দরকার।)  मैंने देखा है कि पूरे हिन्दुस्तान की राजनीति आज  बहुत हल्की हो चुकी है। सभी राजनितिक दलों के नेता परस्पर झगड़ने (बंगाल में सत्ता पाने के लिए हत्या तक कर देने) में व्यस्त हैं।  इसका मूल कारण हमारे देश के राजनेताओं में देशभक्ति (patriotism) और स्वदेशानुराग (nationalism) की घोर कमी हो गयी है। 
[1897 में अमेरिका से भारत वापस लौटने के बाद, स्वामी विवेकानन्द  ने देशवासियों को हर प्रकार की गुलामी (मन और इन्द्रियों की गुलामी तथा अंग्रेजों की गुलामी) से स्वाधीनता प्राप्त करने का आह्वान करते हुए 'कोलम्बो से अल्मोड़ा' तक की यात्रा के दौरान जितने बहुमूल्य भाषण दिए थे उन्हें 'भारत में विवेकानन्द " नामक पुस्तक या विवेकानन्द साहित्य के पाँचवे खण्ड समावेशित किया गया है। उन सभी भाषणों में भावी शिक्षकों /नेताओं के लिए 'जनता-जनार्दन की सेवा' एवं 'भारत-भक्ति ' के भाव अपने हृदय रखना क्यों अनिवार्य है, इन्हीं विषयों पर विस्तार से चर्चा की गयी है। अतएव भारत के समस्त देशभक्त युवाओं के लिए, स्वामी विवेकानन्द की उस विशिष्ट विचार-धारा से परिचित होने के बाद ही 'समाज-सेवा' के क्षेत्र में  अथवा सार्वजनकि राजनीति के क्षेत्र में उतरना ~ 'प्रथम -करनीय'  है !]   
स्वमीजीर भाषण संवलित बई 'भारते विवेकानन्द' पड़ले देखा जाबे: स्वामी जी के कई शक्तिदायी भाषणों से समावेशित पुस्तक 'भारत में विवेकानन्द' का अध्यन करने से दिखाई देगा कि, अपने  एक प्रसिद्द भाषण  " मेरी क्रन्तिकारी योजना"  में स्वामी जी कह रहे हैं - "लोग देशभक्ति की चर्चा करते हैं। वे क्या जाने की देशभक्ति क्या होती है ? मैं बतलाता हूँ कि भारत-भक्ति  किसे कहते हैं। " उसी भाषण में  यथार्थ देशभक्ति (real  patriotism ) पर चर्चा करते हुए विवेकानन्द आगे कहते हैं - हमारे जो देशवासी युगों युगों से दुःख-कष्ट की दशा में गिरे हुए हैं, क्या उनके लिए तुम्हारे हृदय में कोई सहानुभूति, या कोई feeling है ? " क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों सन्तानें आज पशुतुल्य हो गयी हैं ?.. क्या यह भावना तुम्हारे रक्त के साथ मिलकर तुम्हारी धमनियों में बहती है ? क्या यह भावना तुम्हारे हृदय के स्पंदन से मिल गयी है ?"  5/120]
'Feeling for the people '-देशवासियों के प्रति, हमारे 'जनता-जनार्दन' के प्रति- हृदय में सच्ची सहानुभूति का भाव रहना, यही सबसे बड़ी बात है। वे महामण्डल कर्मी जो "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में अथवा 'स्वदेश-मंत्र' और 'संघ-मन्त्र' की ~ 'Be and Make श्रुति-परम्परा ' में प्रशिक्षित शिक्षक/नेता हैं; क्या वे कभी अपने निजी स्वार्थ, तुच्छ इन्द्रिय-सुख, अपने स्वयं के नाम-यश के लिए  देश-सेवा (राजनितिक,आर्थिक,या शैक्षणिक क्षेत्र) का कोई भी कार्य कर सकते हैं? कदापि  नहीं!  यदि हमारी राजनीति की पृष्ठ्भूमि में, इस प्रकार का एक देशप्रेम (भारतमाता की भक्ति) स्थित रहे, तब वह राजनीति एक नई राजनीति (new-politics) का रूप धारण कर लेगी।
से राजनीति हबे सेवार राजनीति, क्षमतार राजनीति हबे ना : वह राजनीति अपने देशवासियों को 'जनता-जनार्दन' की दृष्टि से देखकर उनकी निःस्वार्थ भाव से सेवा और प्रेम करने की राजनीति होगी। सत्ता -सुख भोगने की राजनीती नहीं होगी। 
21 वीं सदी के भारत की नयी राजनीति दूसरों की तुलना में जनता-जनार्दन की 'अधिक सेवा करने की राजनीति'  होगी। 5 वर्ष में एक दिन भी छुट्टी लिए बिना काम करने की राजनीति होगी, 'सत्ता-सुख भोगने ' की या रक्षा सौदों में लाखों करोड़ का घोटाला करके लंदन में महल बनाने और स्विस बैंको में काला-धन जमा करने वाली राजनीति' नहीं होगी।
राजनीति करलेई आसे क्षमतार लोभ: लोक-व्यवहार के किसी भी क्षेत्र में राजनीति  करने (या राजकाज का काम सँभालने) से ही, 'देशभक्ति '  (patriotism) के  बदले -' साहबी'  (bossism)  या  'सत्ता -सुख भोगने का लालच' सामने चला आता है। समाज-सेवा या राजनीति के क्षेत्र में कार्य करने वाले अधिकांश लोग तो  सत्ता का सुख भोगने, नाम-यश प्राप्त करने अथवा जनता-जनार्दन का धन चोरी करने के उद्देश्य से ही राजनीति करते हैं।
 রাজনীতিতে ক্ষমতার দরকার আছে, কিন্তু কি জন্যে ক্ষমতা ? राजनीति करने में नेता के लिए सत्ता के शक्ति (किसी पद-विशेष के शक्ति power) की आवश्यकता है;  किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि उस नेता /शिक्षक को उस 'पद-विशेष'  में सन्निहित शक्ति किस  लिए चाहिए ? समाज का मंगल या भारत का कल्याण करने के उद्देश्य से, अपने  समाज की या जनता-जनार्दन की दूसरों की अपेक्षा अधिक सेवा करने के लिए ही 'पद-विशेष' में सन्निहित सांगठनिक शक्ति  या 'Organized power' की आवश्यकता होती है। 
मैं व्यक्तिगत तौर से युवा महामण्डल के कुछ सदस्यों को जानता हूँ। उनमें से अधिकांश  छोटे-मोटे काम-धंधों से जुड़े हुए लोग हैं, कोई दुकान में काम करता है, तो  कोई खेती करता है, कोई स्कूल या कॉलेज में पढ़ाई करता है। वे बड़े सामान्य लोग हैं (आम-आदमी) हैं।  किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने तो साधारण जनों में ही स्वतःस्फूर्त रूप (spontaneous) से विद्यमान असाधारण शक्ति का दर्शन किया था।  हमारे हृदय में  अन्तर्निहित इस अनंत शक्ति का श्रोत (विवेक-श्रोत, विवेकज-ज्ञान का श्रोत, निःस्वार्थपरता का श्रोत )  उद्घाटित होते ही, हमलोग वज्र के समान अप्रतिरोध्य (irresistible) बन जायेंगे, अपराजेय शक्ति (Invincible-Power) से भर उठेंगे ~ "अभिः" बन जायेंगे !
स्वामीजी चेयेछिलेन संगठन :  स्वामी विवेकानन्द कुछ ऐसे ही अंग्रेजी पढ़े-लिखे किन्तु पूर्णतः निःस्वार्थपर (वज्र के समान अप्रतिरोध्य) युवाओं को संघ-बद्ध करना चाहते थे। व्यक्तिगत रूप से हमलोगों के बीच कई अच्छे लोग या चरित्रवान मनुष्य हैं; (कुछ  ब्रह्मवेत्ता,जीवन-मुक्त,उत्साही और साहसी युवा भी हैं) जिन्होंने अपने देह-मन और हृदय की शक्ति को विकसित किया है। किन्तु संघ-शक्ति (संघ की ताकत) नहीं रहने के कारण, एक अकेले व्यक्ति के रूप में हमलोग शक्ति-हीन (Powerless) हो जाते हैं। और अपने लक्ष्य (NARA- राष्ट्रीय महत्वाकाकंक्षा और क्षेत्रीय अभिलाषा ) को भूलकर इधर-उधर (तरह तरह के क्लबों में ?) भटकने लगते हैं। वास्तव में हम लोग अपने एकमात्र लक्ष्य - श्रेष्ठ भारत का निर्माण या भारत का  कल्याण करने के लिए, अपने आस-पास रहने वाले 5 -10 युवाओं को अपने साथ जोड़कर, उन्हें एक 'संगठित शक्ति' या 'organaized  strength' के रूप में गठित नहीं कर पा रहे हैं।
अमेरिका पहुँचने पर स्वामी जी ने इस असाध्य-साधिनी सांगठनिक शक्ति  या  'organizing power' का अनुभव किया था। उन्होंने ने यह देखा था कि वहाँ के समाज में व्याप्त किसी समस्या को हल करने के लिए यदि कोई युवा (नेता) उठ खड़ा होता है, तथा  उस कार्य को आगे बढ़ाने में दूसरों की सहायता चाहता है, तब पाँच दिनों के भीतर ही वह सभी को अपने साथ खड़ा पाता है। उत्साह वर्धक बात यह है, कि हाल के वर्षों में इस 'राष्ट्रीय संघ-शक्ति' को हमलोग भारत में भी थोड़ा विकसित होता देख रहे हैं। इस विषय पर चर्चा करते समय सबसे पहले 'रामकृष्ण मठ और मिशन '(Ramakrishna Math and Mission) की सांगठनिक क्षमता  का उल्लेख करना पड़ता है। यह विशाल संस्था  दुनिया के विभिन्न देशों में अलग-अलग तरीकों से अपना काम कर रही है। इस संस्था  में कम आयु के अनगिनत युवा संन्यासी के रूप में अपना योगदान करते हैं।  यहाँ जिनको संन्यासी के रूप में योगदान करने का अवसर दिया जाता है, उनमें से किसी की उम्र तीस वर्ष से अधिक नहीं होती।पाश्चात्य देशों की जिस सांगठनिक शक्ति को, कुछ परिमाण में अर्जित कर सकने में हमने   सफलता पायी है। उस  'शक्ति' का आविष्कार  स्वामी विवेकानन्द ने ही किया था।  
 देशे राजनैतिकेर दरकार आछे सत्य, तबे अधिकतर प्रयोजन शिक्षकेर: राजनीति के क्षेत्र में भी हमलोग (तथाकथित) राष्ट्रकल्याण-कामी या जन-हितकारी होने का दावा करने वाले कई राजनितिक दलों को उभरता हुआ देख रहे हैं। किन्तु उनके क्रिया-कलापों में जो अनियमितता (errata) या व्यतिक्रम (deviation) आदि देखने को मिलते हैं, उसका मुख्य कारण कार्यक्षम (competent) सांगठनिक शक्ति का अभाव है, चारित्रिक अनुशासन का अभाव है।  हमलोगों का दुर्भाग्य यह है कि हम सभी लोग राजनितिक व्यक्ति जैसे (धूर्त और घोर स्वार्थी) बनते जा रहे हैं। हम सभी लोग एक राजनेता  (politician) की तरह व्यवहार करते हैं; सामने झूठी विनशीलता दिखलाते हैं, और पीठ-पीछे निंदा करते-सुनते रहते हैं।  यह ठीक है कि देश में राजनीतिज्ञों  की आवश्यकता है, किन्तु आज एक 'शिक्षक' (जीवनमुक्त शिक्षक) के रूप में प्रशिक्षित राज-नेताओं की जरूरत उससे कहीं ज्यादा है !
समस्त देशे आज शिक्षा देवार के आछे ? सम्पूर्ण देश में (कोने-कोने में पहुंचकर) सभी युवओं को एकत्रित कर उन्हें  'स्वदेश-मंत्र' और 'संघ-मन्त्र' की श्रुति-परम्परा~ Be and Make!' में प्रशिक्षित करने  में  (या Leadership Training देने में) विवेकानन्द युवा महामण्डल के जैसा दूसरा और कौन संगठन समर्थ है ? 
जातिर यथार्थ शिक्षक हते हबे राजनीतिक'देर :  देश के सभी क्षेत्रों में काम करने वाले राजनीतिक पंडितों (political pundits) या मैनेजमेन्ट के गुरु लोगों को ही इस अभाव की पूर्ति करनी होगी। राजनेताओं को (अथवा  महामण्डल के लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षित नेताओं  को) ही राष्ट्र का सच्चा शिक्षक (चपरास प्राप्त जीववन-मुक्त शिक्षक) बनना पड़ेगा। जिस दिन हमारे देश के सभी राजनीतिज्ञ लोग (राज-काज सँभालने में सक्षम व्यक्ति लोग) एक शिक्षक (या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) बन जायेंगे,  जिस दिन राजनीति,  शिक्षानीति - राष्ट्रजीवन के हरेक क्षेत्र में- सर्वत्र, स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त महावाक्य, भारत-निर्माण सूत्र  ~ 'Be and Make' का प्रयोग होने लगेगा, उस दिन हमलोग एक समृद्ध और श्रेष्ठतर भारतवर्ष का सुंदर रूप देख सकेंगे ।  
आमि किछु दिन पूर्वे साऊथ कानाडा -महिषूर देशे **-अनेक दूरे गियेछिलाम: कुछ ही दिनों पहले मैं भारत से बहुत दुरी पर स्थित एक 'महिषासुर के देश' में ** ~ 'South Canada' गया था। 
[आगे बढ़ने से पहले यहाँ यह समझना आवश्यक है कि स्वामी रंगनाथानन्द जी दक्षिण कनाडा को भारत से बहुत दूरी पर स्थित महिषासुर का देश क्यों कह रहे हैं ? वह इसलिए कि, जिस प्रकार लक्ष्मी और सरस्वती दोनों दृष्टि से विकसित होने के कारण, दक्षिण भारत के जिस शहर मैसूर को धन और शिक्षा की दृष्टि से,भारत के शेष राज्यों की तुलना में अत्यंत विकसित शहर माना जाता है। उसी प्रकार साऊथ कनाडा को भी लक्ष्मी और सरस्वती दोनों दृष्टि अत्यन्त विकसित शहर माना जाता है। 
मैंगलोर एक बंदरगाह शहर (port city) है, और भारत में कर्नाटक राज्य के तटीय क्षेत्र में दक्षिण कन्नड़ जिले का मुख्यालय है।  मैंगलोर भारत में सबसे तेजी से विकासशील शहरों में से एक है। मैंगलोर को कर्नाटक में 'शिक्षा का पालना' (Cradle of Education) के रूप में भी जाना जाता है। 
यहाँ  16 Engineering college, 6 Medical, 3 Dental, 12 MBA, 11फिजियोथेरेपी (Physiotherapy), 8 Hotel Management and 58 Graduation colleges हैं। यहाँ अवस्थित मणिपाल विश्वविद्यालय को Manipal Academy of Higher Education (MAHE) के नाम से भी जाना जाता है। कर्नाटक के कुछ सर्वश्रेष्ठ मेडिकल कॉलेज भी मणिपाल विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं। यह विश्वविद्यालय विभिन्न क्षेत्रों - जैसे आर्किटेक्चर, dentistry, दंत चिकित्सा, engineering, hospitality, management (प्रबंधन) आदि में विभिन्न यूजी, पीजी और अनुसंधान पाठ्यक्रम प्रदान करता है। कई बहुराष्ट्रीय निगम (multinational corporations) और घरेलू निगम (domestic corporations)  मंगलोर में आज अपनी शाखाएँ खोल रहे हैं। 
उस  'मैसूर' शहर का नाम, असुर महिषासुर के नाम पर रखा गया है। इसीलिए Mysore को 'city of buffalo Demon' भी कहा जाता है।  मैसूर को पहले येम्‍मे नाडु या भैसों की धरती कहा जाता था जो बाद में यह महिषा नाडु हो गई और बाद में वो नाम मैसूर में तब्दील हो गया। 14 वीं शताब्दी तक यह ईरान के खाड़ी देशों 'Persian Gulf states'  के साथ व्यापारिक सम्बन्ध रखने वाला एक महत्वपूर्ण  बंदरगाह था। किन्तु अपनी रणनीतिक अवस्थिति (strategic location) के कारण 16 वीं शताब्दी के मध्य में इसपर पुर्तगालियों द्वारा कब्जा कर लिया था।  18th century में इसके ऊपर एक तरफ जहाँ हैदर अली और टीपू सुल्तान का शासन था, तो दूसरी तरफ अंग्रेजों का शासन था।
 (पुराणिक कथाओं के अनुसार महिषासुर एक असुर था। महिषासुर सृष्टिकर्ता ब्रम्हा का महान भक्त था और ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को परेशान करने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर कब्ज़ा कर लिया तथा सभी देवताओं को वहाँ से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुँचे। सारे देवताओं ने फिर से मिलकर उसे फिर से परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गये।कोई उपाय न मिलने पर देवताओं ने उसके विनाश के लिए देवी दुर्गा का सृजन किया, जिसे शक्ति और पार्वती के नाम से भी जाना जाता है। देवी दुर्गा ने महिषासुर पर आक्रमण कर उससे नौ दिनों तक युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध किया। इसी उपलक्ष्य में हिंदू भक्तगण दस दिनों का त्यौहार दुर्गा पूजा मनाते हैं और दसवें दिन को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है।  महिषासुर का वध देवी चामुंडेश्‍वरी ने किया था, मैसूर की एक पहाड़ी पर चामुंडेश्वरी माता का मंदिर है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह वही जगह है जहां मां चामुंडेश्वरी देवी ने महिषासुर नाम के दैत्य का वध किया था। )] 
সেখানকার ম্যাঙ্গালোর , মণিপাল প্রভৃতি জায়গায় যে সব শিক্ষাবিদরা রয়েছেন :
['महिषासुर का देश' का विशेषण लगाकर धन की देवी  लक्ष्मी और विद्या की देवी सरस्वती दोनों दृष्टि से अत्यंत विकसित राज्य की राजनीती के महत्व को समझा लेने के बाद, अब स्वामी रंगनाथानन्द कहते हैं :]   भारत में मैसूर में स्थित Mangalore, Manipal आदि जैसे अत्यन्त विकसित शहर में गुणवत्ता की दृष्टि से जिस स्तर के तीक्ष्ण मेधा सम्पन्न शिक्षाशास्त्री (शिक्षा के क्षेत्र में राजकाज देखने वाले-मैनेजमेन्ट पण्डित) आदि होते हैं, उसी स्तर के  साऊथ कनाडा के जितने महानतम् शिक्षाशास्त्री (academician ) आदि हैं, वे मुझसे मिलने आये थे। मैंने उनलोगों को जब यहाँ के स्वामी विवेकानन्द के  'Be and Make श्रुति परम्परा' में  आधारित, युवा महामण्डल और उसके मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण आंदोलन के विषय में समझाया, तब मेरी बातों को सुनकर वे अत्यंत प्रोत्साहित (Encouraged) हुए हैं। ( তাঁরা এই জাতীয় সংস্থার গুরুত্ব উপলব্ধি করে আমাদের সঙ্গে সম্পর্ক রাখার ইচ্ছাও প্রকাশ করেছেন। ) उन लोगों ने जब  इस संगठन के 315 केन्द्रों के माध्यम से क्रियाशील इस 'राष्ट्रीय युवा संगठन' (national youth organization) के 'अखिल भारतीय स्वरूप' के महत्व को समझा, तब उन लोगों ने इस संगठन के साथ जुड़ने की इच्छा भी व्यक्त की है।
 তাঁরা বলেছেন , যুব সমাজের অজস্র মানসিক দুর্ঘটনার অন্যতম কারন সাধারণ রাজনীতি। उन लोगों का कहना है कि वहां के युवा समाज में व्याप्त की कई मानसिक बिमारियों (अवसाद और आत्महत्या की प्रवृत्ति आदि दुर्घटनाओं) का एक मुख्य कारण है - वहाँ की साधारण राजनीति (General politics) है। उनका यह मानना था कि युवाओं की असीम ऊर्जा  को जब तक राष्ट्र-निर्माण के लिए रचनात्मक मनोभाव (Constructive attitude) ग्रहण करने के लिए अनुप्रेरित नहीं किया जायेगा, तब तक उस प्रकार की मानसिक दुर्घटनाओं से बचने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। राष्ट्र-निर्माण की समस्त रचनात्मक योजनाओं में  -Be and Make' के उद्देश्य से देश की सम्पूर्ण युवाशक्ति को किस प्रकार संगठित किया जा सकता है- इसी विषय पर उन लोगों के साथ मेरे कई टेलीफोन वार्ता और पत्राचार आदि भी हो चुके हैं।
आमार इच्छा, समस्त देशे जेन एई संघेर शाखा गड़े उठे :  मेरी इच्छा है कि विश्व के समस्त देशों में इस 'विवेकानन्द युवा महामण्डल' की शाखायें स्थापित हो जायें। मेरी इच्छा है कि हमारे देश का युवा-समाज "श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त 'भारत के राष्ट्रीय आदर्श' ~ " त्याग और सेवा "  की धारा में तीव्रता लाने के लिये, अर्थात 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य'  सम्पन्न मनुष्य 'बनने और बनाने' के लिए~ मानो (as if) उन्मत्त हो जायें!  
आत्मत्याग करले 'आत्मा' ओ 'व्यक्तित्व' के उपलब्धि करा जाय आत्मोसर्ग (self-sacrifice) कर देने ~ से 'आत्मा' और 'व्यक्तित्व' की उपलब्धि की जा सकती है। (Self and personality can be realized if you give up your ego !) कोई युवा/शिक्षक/नेता जनता-जनार्दन की सेवा करने अथवा भारत कल्याण करने के उद्देश्य से, जैसे ही आत्मोसर्ग (Self-sacrifice) कर देने (नवनीदा के शब्दों में अपने हृदय को भी उखाड़ कर फेंक देने के लिए तत्पर हो जाता है), के लिए उद्दत हो जाता है, वैसे ही वह 'आत्मा' और 'व्यक्तित्व' की उपलब्धि कर लेता है। छोटा 'मैं'-बोध (क्षुद्र अहं) को त्याग देने से बड़ा 'मैं' (अपने ब्रह्म-स्वरुप का)  का साक्षात्कार हो जाता है ! [ अर्थात उसके क्षुद्र -व्यष्टि अहं का रूपांतरण माँ जगदम्बा के मातृहृदय के 'सर्वव्यापी विराट अहं' में हो जाता है। ]  और उसके साथ ही साथ जनता-जनार्दन की सेवा का भाव;  एक  'by-product' - (उपोत्पाद) के रूप में प्राप्त होता है।

[उदाहरण के लिए जैसे 'भात' बनाते समय 'माड़' का या शक्कर बनाते समय 'इथेनॉल' उपोत्पाद के तौर पर निर्माण होता है। (While making sugar Ethenol is produced as a by-product.) ठीक वैसे ही जब कोई व्यक्ति अपने सच्चिदानन्द स्वरूप (existence-consciousness-bliss) का साक्षात्कार कर लेता है, तब उसको वैसा 'अभीः सम्पन्न व्यक्तित्व' या वैसा अद्भुत लीडरशिप क्वालिटी प्राप्त होता है, जो अपने संगियों पर जादू सा कर देता है! क्योंकि तब - 'अपनी दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत  ब्रह्ममय देखते ही', उसमें जनता-जनार्दन की सेवा करने भाव -या सोज़-ए -मुहब्बत (प्रेम का जूनून) by-product या उपोत्पाद के रूप में प्राप्त होता है। इसी अवस्था को प्राप्त होने के बाद उर्दू के प्रसिद्द सूफ़ी शायर फ़ैज़ अहमद फैज ने कहा था- 
" आइए हाथ उठाएँ हम भी, 
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं।  
हम जिन्हें सोज़े-मुहब्बत के सिवा, 
कोई बुत, कोई ख़ुदा याद नहीं। "
विगत 70 वर्षों से यही कहानी गढ़ी जा रही थी, या यही 'narrative' सेट किया जा रहा था कि केवल मार्क्सवादी हिंसक क्रांति के द्वारा ही इस अमीरी और गरीबी की खाई को पाटा जा सकता है। किन्तु अब 
2019 के संसदीय चुनाव के बाद उन राजनेताओं की राजनीति बदली हुई प्रतीत हो रही है,जो स्वामी विवेकानन्द को अच्छी तरह से पढ़ने के बाद राजनीति के क्षेत्र में उतरे हैं। क्योंकि वे यथार्थ रूप में नेता से अधिक एक शिक्षक बनने के प्रयास में लगे हैं। उनका मानना है कि, भारत में केवल दो ही जातियाँ हैं, एक गरीब और दूसरी अमीर। जो समृद्ध और ईमानदार टैक्स पेयर हैं, वे गरीबों को गरीबी हटाने में स्वेच्छा से धन देकर (या गैस -सब्सिडी लौटकर) उनकी सहायता करेंगे।
उसी प्रकार जो आध्यात्मिक दृष्टि से धनीव्यक्ति/ शिक्षक, ब्रह्मविद, पैगम्बर या नेता हैं वे, उस जनता-जनार्दन की जो आध्यात्मिक दृष्टि से दरिद्र और मन-इन्द्रियों द्वारा पददलित होकर पशुतुल्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनकी सेवा - 'शिव ज्ञान से जीव-सेवा' के रूप में करेंगे। अर्थात उन्हें सर्वश्रेष्ठ-दान अध्यात्म विद्या का दान करेंगे। इसीलिए सूफ़ी परम्परा के शायर फैज को भी जब आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त हो गयी, तब प्रेम के जूनून से भरकर उन्होंने कहा था -   
" जिन की आँखों को रुख़-ए-सुब्ह का यारा भी नहीं, 
उन की रातों में कोई शम्अ मुनव्वर कर दें।  
जिन के क़दमों को किसी रह का सहारा भी नहीं, 
उन की नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें। " 
(रुख़-ए-सुब्ह -सुबह का चेहरा,यारा-शक्ति,जोर मुनव्वर -रौशन, रह -टिकना )] 
विकसित और विकासशील समस्त देशों के प्रबुद्ध नागरिकों ने वेदान्त के विषय में सुना है, तथा वे इसकी 'Be and Make श्रुति-परम्परा' में प्रशिक्षित भी होना चाहते हैं : मैंने स्वयं वहाँ जाकर देखा और समझा है कि अमेरिका कितना बड़ा एक धनी देश है। इसके बावजूद  भारतीय आध्यात्मिकता (Indian spirituality) के विषय में आधारित किसी भी व्याख्यान (discourse, प्रवचन) को सुनने के लिए, अमेरिकी विश्वविद्यालयों  के छात्रों में  कितनी  प्रचण्ड अभिरुचि और कितना अपरिसीम (immense) आग्रह रहता  है! प्रत्येक वर्ष मैं इंग्लैंड भी जाता हूं; वहां के विश्वविद्यालयों के छात्रों की भी ऐसी ही अवस्था है। वहाँ के युवक और युवतियाँ गीता, उपनिषद, श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द की जीवनी और शिक्षाओं को सुनने और समझने के लिए बहुत उत्सुकता से आगे आते हैं।  तथा उसमें दी गयी शिक्षाओं को ही आधुनिक युग के सबसे प्रगतिशील ताकत (most progressive force) के रूप में स्वीकार करते हैं। कुछ दिन पहले मैं अफगानिस्तान गया था -यद्यपि वह तो एक मुस्लिम देश (Islamic State) है। तथापि उस देश की सरकार, काबुल यूनिवर्सिटी और भारतीय दूतावास (Indian Embassy) के निमंत्रण पर मैं वहाँ गया था, तथा नौ दिनों तक वहां प्रवास किया था। वहाँ के विश्वविद्यालय में मैंने भाषण भी दिए थे। अफगानिस्तान के जितने भी शिक्षित और महत्वपूर्ण व्यक्ति (prominent person) हैं, उन सबों ने वेदान्त (अद्वैत आश्रम, मायावती, अल्मोड़ा?) के विषय में सुना है। तथा वे सभी " Be and Make श्रुति-परम्परा" (अथवा 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ) में प्रशिक्षित भी होना चाहते हैं। 
 तांरा ए सब भावधारा चान : एक दिन एक अफगान मुसलमान मेरे पास आया और बोला , " स्वामी जी, बीस साल पहले, जब मेरी पोस्टिंग तुर्किस्तान में थी, तब एक दिन अचानक मेरे हाथों में एक पुस्तक चली आयी। वह पुस्तक स्वामी विवेकानन्द की थी। उस पुस्तक को पढ़ने से मुझे असीम आनन्द की प्राप्ति हुई है। वे कितने महान शिक्षक हैं !  (भारत के राष्ट्रीय आदर्श  'त्याग और सेवा' पर आधारित) उनका दर्शन कितना अदभुत (आश्चर्यजनक) है !
...  मैंने धीरे से कहा, उन्हीं विवेकानन्द द्वारा स्थापित एक संगठन हिन्दुस्तान में है, जिसका नाम रामकृष्ण मिशन है। और मैं उसी रामकृष्ण मिशन का एक सदस्य (13 वां अध्यक्ष) हूँ।  इस बात को सुनते ही वे मानो ख़ुशी से उछल पड़े -और अत्यन्त हर्षित होते हुए कहा - " कितने आश्चर्य की बात है ! हम दोनों एक ही गुरु के शिष्य हैं !! "  मैं विवेकानन्द का शिष्य हूँ, और आप भी विवेकानन्द के शिष्य हैं !"ये सज्जन अफगान सरकार के पर्यटन विभाग  (tourism department)में एक अफसर हैं। मैंने वहाँ इस तरह के कितने ही विशेषाधिकार प्राप्त (राज-काज सँभालने में सक्षम)  लोगों  के साथ वार्तालाप किया है। मैंने देखा है कि श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द जैसे  जीवन्त व्यक्तित्व (जीवनी) के विषय में तथा उनके द्वारा प्रदत्त  आधुनिक, प्रगतिशील और तर्कसंगत (rational) शिक्षाओं को वे लोग चाव से सुनते हैं; और सुनने के  साथ ही साथ उनके प्रति ये लोग आकृष्ट हो जाते हैं।
किन्तु एतो सबे शुरू - परेर शताब्दीते अभावनीय घटना घटबे:  वहाँ से लौटने के बाद 'अद्वैत आश्रम' से तीन हजार रूपये मूल्य की पुस्तकें काबुल भेज दी गयीं। अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे अत्यंत विकसित और अफगानिस्तान जैसे विकासशील मुस्लिम देशों  के लोग भी आज  विवेकानन्द सहित्य, गीता, उपनिषद जैसी पुस्तकों का अध्यन करने लगे हैं। लेकिन यह तो केवल शुरुआत है - (अभी तो पार्टी शुरू हुई है) अगली शताब्दी (21 वीं शदी) में, बहुत सी अकल्पनीय घटनाएं (unthinkable events) घटेंगी!
देश की समस्त समस्याओं को हल करने की कुँजी है -'आध्यात्मिक शक्ति':यह कहना सही है कि आज हमारे देश में (नारी असम्मान, दलित-स्वर्ण संघर्ष आदि) अनगणित समस्याएं हैं, तथा उन्हीं समस्याओं को लेकर (वर्णाश्रम-धर्म आदि के प्रति) हमारी बहुत सी शिकायतें भी हैं। लेकिन हमारे पास समस्याओं को हल करने, और उन शिकायतों को दूर करने की शक्ति भी है। (क्योंकि इसमें दोष धर्म का नहीं, जाति-धर्म के नाम पर समाज में विभाजन पैदाकर नेतागिरी करने वाले दुष्ट राजनीतिज्ञों का है।) विदेशों में भी समस्याएं हैं। लेकिन हमलोगों की तरह उनके पास, समस्त समस्याओं को हल करने में सक्षम- 'आध्यात्मिक-बल' (spiritual strength) कहाँ हैं? जब मैं American University के छात्रों से, उनके देश में परिव्याप्त समस्याओं के ऊपर चर्चा कर रहा था, तब उनलोगों ने तर्क देते हुए कहा था कि -"समस्यायें तो आपके देश में भी हैं; वहाँ इतनी गरीबी है, इतना अधिक पिछड़ापन है। हमलोगों ने कोलकाता के सड़कों पर दयनीय अवस्था में कई गिरे-पड़े कई लोगों को देखा है।"
तफात टा कोथाय ? तब मैंने कहा था - " यह बात बिल्कुल सही है कि जिस प्रकार आपके देश में समस्यायें हैं, उसी प्रकार हमारे देश में भी समस्यायें हैं। किन्तु आपके देश की समस्याओं और हमारे देश की समस्याओं में थोड़ा अन्तर है। वह अन्तर कहाँ है?" यद्यपि वेदान्त श्रुति-परम्परा में आधारित हमारे देश की संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है। तथापि हमारी उस प्राचीन संस्कृति (ancient culture) के अभ्यन्तर में प्रचण्ड आत्मविश्वास (will power, संकल्प-शक्ति,इच्छा-शक्ति या आत्मबल ) भरा हुआ  है। 
[ऋषि-परम्परा में आधारित हमारी संस्कृति कितनी प्राचीन है ?- जितनी प्राचीन यह सृष्टि है ! इसे स्पष्ट रूप से समझने के लिए  गीता अध्याय 14 का 3, 4,5 श्लोक और अध्याय 4 का 4 से लेकर 7 श्लोक तक देखें।]
किन्तु हमारा शरीर अत्यंत दुर्बल है, और अत्यंत प्राचीन होने से हमारी सामाजिक संरचना जराजीर्ण हो चुकी है। और जो प्रचण्ड आत्मविश्वास हमारे भीतर भरा हुआ है, उसको विकसित या अभिव्यक्त करने के लिए ~ 'एक स्वस्थ, सशक्त और सुन्दर समाज' का निर्माण करना ही हमारी समस्या है। [अर्थात मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षकों /जिनका मन-मुख एक होता है, वैसे -जीवनमुक्त नेताओं - का निर्माण करना  ही हमारी प्रमुख समस्या है। क्योंकि उन्नत मनुष्यों से निर्मित समाज को ही स्वस्थ और सुन्दर समाज कहा जा सकता है।]  
और आपकी समस्या यह है कि- आपलोगों का शरीर तो बहुत बलिष्ठ है,आप लोगों का समाज भी बहुत उन्नत है, आपके देश की आर्थिक भित्ति अत्यन्त सुदृढ़ है। किन्तु आपलोगों के पास -आत्मबल  (हृदय का बल या संकल्प शक्ति) बिल्कुल भी नहीं है। इसीलिये आपलोगों को अविनाशी 'आत्मा' नामक किसी नयी वस्तु की खोज करनी पड़ रही है, किन्तु उसको प्राप्त कर पाना बहुत कठिन है,  क्षुरे की धार पर चलने के समान कठिन है। 
 उन लोगों ने मेरे तर्क को स्वीकार करते हुए कहा - " Finding a soul is more difficult than finding a body ." निःसन्देह  शरीर को खोज पाने की तुलना में आत्मा को खोज पाना अत्यन्त कठिन है। [निस्संदेह सूक्ष्मातिसूक्ष्म और बृहद से भी बृहद आत्मा को खोज पाना, स्थूल शरीर को खोजने की तुलना में  ज्यादा कठिन है।"इसीलिए अभी जिनेवा के पास फ्रांस-स्विट्जरलैंड सीमा पर पृथ्वी के 175 मीटर (574 फीट) नीचे स्थित, 'हिग्स बोसोन' यानी ईश्वरीय कण (God Particle-जिससे सबकुछ निकला है, जिसमें सबकुछ स्थित है, और जिसमें सबकुछ लीन हो जाता है) की खोज करने वाली मशीन लार्ज हेड्रोन कोलाइडर (LHC) को दो साल के लिए बंद किया गया है। एलएचसी का संचालन कर रही प्रयोगशाला सर्न के मुताबिक, अब 2021 में पुनः इसका परिचालन शुरू होगा। इस छुट्टी के दौरान इसे अपग्रेड किया जाएगा।]

उभय शक्ति से शक्तिमान भारत : दूसरी ओर हमारी आत्माशक्ति (हृदय का बल) तो बिल्कुल ठीक है, किन्तु उसको धारण करने वाला शरीर पूरी तरह से दुर्बल है।  और इस दुर्बल शरीर को स्वस्थ-सबल बना लेना ही हमारी समस्या है। और इसका समाधान (3'H' विकास के 5 अभ्यास) भी बहुत सरल है। इस तथ्य ( विवेक-दर्शन का अभ्यास और वैराग्य: उभयाधिनः चित्तवृत्ति निरोधः ) को अच्छी तरह से समझ-बूझ कर  यदि हमलोग काम में लग जायें; तभी दोनों शक्तियों से शक्तिमान भारत विश्व के समस्त देशों के बीच श्रेष्ठ और सम्मानजनक आसन (विश्वगुरु का आसन) अर्जित  कर सकेगा।  अतीत काल में स्वामी विवेकानन्द ने इसी काम को किया था, और भविष्य में  हमलोगों को (भारत के भावी शिक्षकों को या - Would be Leaders को) भी यही काम करना होगा। 
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  [शब्द भी एक तरह का भोजन है। किस समय कौन सा शब्द परोसना है, वो समझ जाएँ , तो दुनिया में उससे बढ़िया रसोइया कोई नहीं।  सुप्रभात ! শব্দও  একটি ধরনের খাদ্য। কোন শব্দটি , কোন সময়ে পরিবেশন করা উপযুক্ত আছে, যে ব্যক্তি এইটা বুঝে যায়, তখন গোটা বিশ্বে  তার চেয়ে ভাল কোন শেফ নেই। শুভ সকাল।] 
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"আমাদের করণীয়" -স্বামী রঙ্গনাথানন্দ। 
[মহামণ্ডল কর্মীদের সভায় প্রদত্ত ভাষণ অবলম্বনে ]
আজ ভারতবর্ষের যুবকরা স্বামী বিবেকানন্দের চিন্তার আলোকে যদি দেশের সমস্যাগুলি নিরীক্ষণ করেন, তবে তাঁরা একটা নতুন শক্তি পাবেন। আমাদের দেশে রাজনৈতিক ও সামাজিক ক্ষেত্রে অনেকগুলি যুবক সঙ্ঘ আছে। তাঁরা যদি স্বামীজীর বইগুলো ভালো করে পড়ার পর ভারতের সংস্কৃতি ও ভারতের ভবিষ্যৎ  সম্পর্কে তাঁর চিন্তাধারা অনুযায়ী দেশ সেবার কাজে উদ্যোগী হতেন তবে দেশের উন্নতি আর ও ত্বরাণ্বিত হতো। এখনো সেটা হয় নি। আমাদের এই বাংলাদেশে যে সব যুব সংগঠনের কথা খবরের কাগজে পড়ি , তাঁরা স্বামীজী কিছু জানেন কিনা বুঝতে পারি না। 
কেউ কেউ এ রকম ও বলেন , " স্বামীজী শুধু একটা ধর্ম সম্প্রদায়ের গুরু। " 
"তিনি আমাদের কথা কি বলবেন ? আমরা তো রাজনৈতিক ক্ষেত্রে কাজ করি। তাঁর কাছে থেকে আমরা কিই বা পাবো ? কিন্তু আক্ষেপের বিষয় , তাঁরা জানেন না যে , স্বামী বিবেকানন্দ আমাদের দেশের সমস্যাগুলো সার্বিক দৃষ্টিকোণ থেকে দেখেছেন , শুধু মাত্র ধর্মীয় দৃষ্টিকোণ থেকে দেখেন নি। এ হচ্ছে তাঁর বিশেষ অবদান। কন্যাকুমারীতে বসে তিনি সম্পূর্ণ আলাদা রকমের ধ্যান করেছিলেন।  সাধারণ সাধক বা ভক্ত ঈশ্বরের ধ্যান করেন, কিন্তু তাঁর ধ্যানের বিষয় ছিল 'মানুষ।' এ যুগের এই নতুন মানুষটি কন্যাকুমারীতে অনেকক্ষন বসে এই দেশের গরিব, দুঃখী , পদদলিত মানুষের কি করে উদ্ধার হবে - সেই ধ্যানই করেছিলেন। 
 সমস্ত দেশ ভ্রমন করে মানুষের মধ্যে আত্মশক্তি  ও আত্মচৈতন্যের অভাব তিনি দেখেছিলেন , দেখেছিলেন মানুষকে পড়ে থাকতে - জানোয়ারের মতো নীচে পড়ে থাকতে।  তাই তাঁর জীবনের উদ্দেশ্য - যা সফল করার দায়িত্ব দিয়ে গেছেন যুব সমাজের উপর - তা হলো:  মানুষের মধ্যে যে আত্মশক্তি রয়েছে , তার ঘটিয়ে তাকে মহত্বে প্রতিষ্ঠিত করার অনুপ্রেরণা দেওয়া। আমাদের রাজনীতি , আমাদের অর্থনীতি , আমাদের শিক্ষা , আমাদের কৃষ্টি, -আমাদের সব কিছু এই উদ্দেশ্যের দ্বারা প্রভাবিত হওয়া চাই।
 সমস্ত ভাষণে স্বামীজীর মূল বক্তব্য প্রকৃত পক্ষে একটি -ই , আর তা হলো :মানুষকে  কি করে তোলা যায়, কি করে তাকে তার নিজস্ব মর্যাদায় , নিজস্ব মূল্যে পুনঃ প্রতিষ্ঠিত করতে পারা যায়। এটি হলো স্বামীজীর মানবিক দৃষ্টিভঙ্গি। আজকের যুব নেতৃবৃন্দ সহ দেশের বিভিন্ন স্তরের নেতারা স্বামীজিকে না জেনেও হয়তো দেশকে জানতে পারেন।কিন্তু গান্ধী, সুভাষ, নেহেরু প্রমুখ পূর্বসূরিরা কি স্বামীজীর দ্বারা প্রভাবিত হয় দেশের সেবা করেন নি, দেশকে স্বাধীনতা ও স্বাতন্ত্র্য অর্জনের পথে এগিয়ে নিয়ে যান নি ? 
আজকেও স্বামীজীর ভাবধারা গ্রহণ করা দরকার। স্বামীজীর রচনাবলী পড়লে স্পষ্টই বুঝতে পারা যায় যে, স্বামীজী দূরদৃষ্টি নিয়ে ভারতের দু রকমের সমস্যা দেখেছিলেন। একটি হচ্ছে - অন্তর্দেশীয় সমস্যা , অপরটি হচ্ছে -আন্তরাষ্ট্রীয় সমস্যা।  অর্থাৎ 'domestic policy' সংক্রান্ত সমস্যা এবং 'foreign policy' সংক্রান্ত সমস্যা।  এই দু-রকমের সমস্যার কথা চিন্তা করে তিনি আমাদের হাতে যে programme বা কর্মসূচি তুলে দিয়েছেন , তার মূল কথা হলো এই - " যে আধ্যাত্মিক শক্তি বা spiritual strength এবং যে দার্শনিক শক্তি বা philosophical strength' নিয়ে আমরা পাঁচ হাজার বৎসর বেঁচে রয়েছি , সেগুলির সাহায্যেই আমরা দেশের সমস্যাগুলো দূর করবো। 
            তারপর আন্তরাষ্ট্রীয় ক্ষেত্রে এই আধ্যাত্মিক সম্পদ বা spiritual treasure আমরা উন্মুক্ত করে দেব। সমস্ত দুনিয়া আজ ভারত থেকে কিছু পাওয়ার জন্যে উন্মুখ হয়ে আছে। ভারত ভ্রমনরত যে-কোন বিদেশী আজ ভারত থেকে কিছু আধ্যাত্মিক সম্পদ পাওয়ার আকাঙ্ক্ষা রাখেন।
 দেশে দেশে মানুষ আমাদের গীতা, উপনিষদ, শ্রীরামকৃষ্ণ-কথামৃত (The Gospel of Sri Ramakrishna) প্রভৃতি বই আগ্রহ সহকারে পড়ছেন। আমেরিকার বিশ্ববিদ্যালয়গুলির দিকে তাকালেই একথা বুঝতে অসুবিধা হয় না। ভারত থেকে কিছু পাবার জন্যে সারা বিশ্বের এই পিপাসা যদি আমরা দূর করতে না পারি , তাহলে ওরাও বঞ্চিত থেকে যাবে, আমরাও বঞ্চিত থেকে যাবো।
স্বামী বিবেকানন্দ বলেছিলেন , ভারত কে তার শরীরে , তার মনে, তার হৃদয়ে এমন ভাবে তৈরি হতে হবে যেন আমাদের পূর্ব পুরুষদের কাছ থেকে পাওয়া আধ্যাত্মিক শক্তি দেশের সাধারণ লোক পর্যন্ত অনুভব করতে পারে। বিদেশের লোকও ভারতের কাছে থেকে এই শক্তি চায়; এই শক্তি অনুভব করার জন্যে তারা ব্যাকুল। 
আমেরিকা যাওয়ার আগে কন্যাকুমারীতে বসে স্বামীজী যে ধ্যান করেছিলেন তার পেছনে ছিল সমগ্র ভারত ভ্রমনের অভিজ্ঞতা। দেশের প্রতিটি প্রান্তে গিয়ে তিনি বুঝেছিলেন ভারত কি জিনিস, ভারতের পরিস্থিতিটা কি। তিনি দেখেছিলেন, মানুষ কত নীচে পড়ে আছে। এ অবস্থা থেকে মহত্ত্ব তো প্রকাশিত হচ্ছে না। আগে আমাদের মানুষকে মহত্বে প্রতিষ্ঠিত করতে হবে। তবেই দেশের আধ্যাত্মিক উন্নতি আসবে; আর পরে ঠিক পেছনে পেছনে আসবে সামাজিক উন্নতি, আর্থিক উন্নতি, শিক্ষার উন্নতি। যে সব সমস্যার কথা আজ আমরা আলোচনা করি, সেগুলোর উল্লেখ আমরা স্বামীজীর ভাষণেই পাই। সমস্যাগুলোর সমাধানও পাই তাঁর কাছ থেকে। 
আগেকার দিনে বাংলাদেশ ছিল ভারতবর্ষের নেতা। এখানকার নেতৃবৃন্দ ও বুদ্ধিজীবীরা যা বলতেন সারা ভারত তা গ্রহণ করতো। এখন সেটা হচ্ছে না, কারণ আমাদের আধ্যাত্মিকতা চলে গেছে। বাংলা যেখন অন্যরকম রূপ নিয়েছে। তাই গভীর দৃষ্টি নিয়ে দেশের সমস্ত দিক অধ্যয়ন করার আজ বিশেষ প্রয়োজন।
 ঠাকুর-স্বামীজীর জীবনী ও উপদেশে রাজনৈতিক কাজ সংশ্লিষ্ট বিভিন্ন বিষয়ে চিন্তার কোনো অভাব নেই। আমাদের দেশে রাজনৈতিক কাজ থাকলেও তাতে সেবার ভাব ও দেশপ্রেম থাকা দরকার। আমি দেখেছি সমস্ত হিন্দুস্তানে রাজনীতি খুবই হালকা হয়ে গেছে। রাজনীতিকরা সবাই ঝগড়াঝাঁটিতে ব্যস্ত। এর কারন patriotism বা দেশাত্মবোধের একান্ত অভাব।
 স্বামীজীর ভাষণ সম্বলিত বই 'ভারতে বিবেকানন্দ' পড়লে দেখা যাবে , স্বামীজী বলছেন , "তারা দেশপ্রেমের কথা বলছে। তারা কি জানে দেশপ্রেম ? আমি বলছি দেশপ্রেম কি জিনিস।" এই দেশপ্রেম সম্পর্কে তিনি বলছেন দেশের যে সমস্ত লোক যুগ যুগ ধরে কষ্টের মধ্যে পড়ে আছে, তাদের জন্যে কি আমাদের কোণ সহানুভূতি , কোণ feeling আছে ? 'Feeling for the people '- এইটেই হচ্ছে তাঁর সবচেয়ে বড়ো কথা। নিজের সুখ, নিজের আনন্দ , নিজের প্রতিষ্ঠার জন্যে আমরা কাজ করবো ? কখনই না। এই রকম একটা দেশপ্রেম যদি আমাদের রাজনীতির পেছনে থাকে , তবে সে রাজনীতি নতুন একটা রাজনীতি হয়ে যাবে। সে রাজনীতি হবে সেবার রাজনীতি, ক্ষমতার রাজনীতি হবে না। রাজনীতি করলেই আসে ক্ষমতার লোভ। অনেকে ক্ষমতার জন্যেই রাজনীতি করেন। রাজনীতিতে ক্ষমতার দরকার আছে, কিন্তু কি জন্যে ক্ষমতা ? সমাজের মঙ্গলের জন্যে সংগঠিত ক্ষমতা বা organized power - এর দরকার আছে। 
আমি যুব মহামণ্ডলের কয়েকজন সদস্যকে জানি। তাদের অনেকেই ছোট ছোট কাজ করে- কেউ দোকানে কাজ করে, কেউ বা স্কুলে কিংবা কলেজে পড়ে। তারা খুব সাধারণ। কিন্তু সাধারনের মধ্যে স্বামীজী অনায়াস অসাধারন শক্তি দেখেছিলেন। আমাদের অন্তর্নিহিত এই শক্তির কথা জানলেই আমরা অদম্য শক্তি পাবো। 
স্বামীজী চেয়েছিলেন সংঠন। ব্যক্তিগত ভাবে আমাদের মধ্যে অনেক ভালো লোক আছেন। কিন্তু সঙ্ঘশক্তি না থাকার জন্য ব্যক্তিগত ভাবে আমরা শক্তিহীন হয়ে পড়ি , এদিক-ওদিক ছোটাছুটি করি। প্রকৃতপক্ষে কোন একটা সংগঠিত শক্তি বা organaized strength আমরা গড়ে তুলতে পারছি না। আমেরিকায় গিয়ে স্বামীজী অসম্ভব রকম organizing power বা সাংগঠনিক ক্ষমতা দেখেছেন। সমাজে কোন সমস্যার সমাধানের জন্য কেউ যদি উঠে দাঁড়ান এবং তার জন্য অন্যান্যদের সাহায্য চান তবে পাঁচ দিনের মধ্যে সকলকে তিনি সঙ্গে পেয়েছেন। আশার কথা, সাম্প্রতিক ভারতবর্ষে আমরা এই জাতীয় সঙ্ঘশক্তি কিছুটা লক্ষ্য করছি। এ সম্পর্কে প্রথমেই রামকৃষ্ণ মঠ ও মিশনের কথা উল্লেখ করতে হয়। এই বৃহৎ সংস্থা পৃথিবীর বিভিন্ন প্রান্তে বিভিন্ন প্রকারে কাজ করে চলেছে। অসংখ্য অল্প বয়স্ক যুবক এই সংস্থায় সাধু হিসেবে যোগদান করেন। এখানে যাঁদের সাধু হিসেবে যোগদান করার সুযোগ দেওয়া হয় তাঁদের কারও বয়স ত্রিশের বেশি নয়। পাশ্চাত্ত দেশগুলির সঙ্ঘশক্তি আমরা কিঞ্চিৎ পরিমানে লাভ করতে সক্ষম হয়েছি। এই শক্তির সন্ধান দিয়েছেন স্বামী বিবেকানন্দ। 
রাজনৈতিক ক্ষেত্রেও আমরা অনেক কল্যাণকামী দলের অস্তিত্ব দেখতে পাচ্ছি। তাঁদের কাজ-কর্মের মধ্যে যে ত্রূটি বিচ্যুতিগুলি দেখা যায় , তার মূল কারন উপযুক্ত সঙ্ঘশক্তির অভাব, চরিত্রবলের অভাব। আমাদের দুর্ভাগ্য, আমরা সবাই রাজনৈতিক হয়ে যাচ্ছি। সব্বাই politician . দেশে রাজনৈতিকের দরকার আছে সত্য, তবে অধিকতর প্রয়োজন শিক্ষকের। সমস্ত দেশে আজ শিক্ষা দেওয়ার কে আছে ? ৰাজনৈতিকদের এই অভাব পূরণ করতে হবে। জাতির যথার্থ শিক্ষক হতে হবে ৰাজনৈতিকদের। যেদিন দেশের সমস্ত রাজনৈতিকরা শিক্ষক হবেন, যেদিন রাজনীতি , শিক্ষা সর্বত্র 'Be and Make ' এই মহান বাণীটি প্রযুক্ত হবে, সেদিন আমরা উন্নততর ভারতবর্ষের রূপ দেখতে পাবো। 
আমি কিছু দিন পূর্বে সাউথ কানাডা গিয়েছিলাম -মহীশূর দেশে -অনেক দূরে।
 সেখানকার ম্যাঙ্গালোর , মণিপাল প্রভৃতি জায়গায় যে সব শিক্ষাবিদরা রয়েছেন তাঁরা আমার কাছ থেকে স্বামীজীর আদর্শে গঠিত এখানকার যুব মহামণ্ডল ও তাদের কাজ কর্মের কথা শুনে উৎসাহিত হয়েছেন। তাঁরা এই জাতীয় সংস্থার গুরুত্ব উপলব্ধি করে আমাদের সঙ্গে সম্পর্ক রাখার ইচ্ছাও প্রকাশ করেছেন। তাঁরা বলেছেন , যুব সমাজের অজস্র মানসিক দুর্ঘটনার অন্যতম কারন সাধারণ রাজনীতি। এবং গঠনমূলক মনোভাব গ্রহণ না করলে এ থেকে রক্ষা পাওয়ার কোন উপায় নেই। জাতির গঠনমূলক কাজে কি করে সমস্ত যুবশক্তিকে একত্রিত করা যায় -সে সম্পর্কে তাঁদের সঙ্গে অনেক কথাবার্তা ও পত্র বিনিময় হয়েছে। আমার ইচ্ছা , সমস্ত দেশে যেন এই সঙ্ঘের শাখা গড়ে উঠে, যেন আমাদের দেশের যুব সমাজ ঠাকুর-স্বামীজীর ত্যাগ ও সেবার আদর্শে উন্মাদ হয়ে যায়। 
আত্মত্যাগ করলে আত্মা ও ব্যক্তিত্বকে উপলব্ধি করা যায়। ছোট অমিকে ত্যাগ করলে বড়ো আমির সঙ্গে পরিচয় ঘটে। আর সঙ্গে সঙ্গে by -product হিসেবে আসে সেবা।
আমি তো নিজে দেখেছি এবং বুঝেছি , আমেরিকা কত বড়ো একটা ধনী দেশ। কিন্তু ভারতীয় আধ্যাত্মিকতা বিষয়ক কোন আলোচনা শোনার জন্য আমেরিকার বিশ্ববিদ্যালয়গুলির ছাত্রদের কি অপরিসীম আগ্রহ ও একান্তিকতা ! প্রতি বৎসর আমি ইংল্যান্ড যাই ; সেখানেও একই অবস্থা। সেখানকার যুবক-যুবতীরা গীতা, উপনিষদ , ঠাকুর -স্বামীজীর কথা শোনার জন্য এগিয়ে আসে। তারা এ গুলোকেই সাম্প্রতিক কালের সব চেয়ে প্রগতিশীল শক্তি বলে মনে করে। কিছু দিন পূর্বে আফগানিস্তান গিয়ে ছিলাম -ওটা তো মুসলিম দেশ ! ও দেশের সরকার , কাবুল য়ুনিভার্সিটি ও ভারতীয় দূতাবাসের নিমন্ত্রণক্রমে ণ'দিন ওখানে ছিলাম। ওখানকার ইউনিভারসিটিতে ভাষণও দিয়েছিলাম। ওখানকার যাঁরা শিক্ষিত ও বিশিষ্ট ব্যক্তি তাঁরা সকলেই বেদান্তের কথা শুনেছেন। তাঁরা এ সব ভাবধারা চান। একজন আফগান মুসলিম আমার কাছে এসে বললেন , " স্বামী, বিশ বছর আগে আমি তুরকে ছিলাম। সেখানে হঠাৎ আমার কাছে একটা বই এল। বইটি হলো স্বামী বিবেকানন্দের।  তাঁর বই পড়ে আমি অশেষ আনন্দ পেয়েছি। কি মহান শিক্ষক ! অপূর্ব তাঁর দর্শন! 
আমি ধীরে বললাম , সেই বিবেকানন্দের গড়া একটা সংস্থা হিন্দুস্তানে আছে- তার নাম রামকৃষ্ণ মিশন। সেই রামকৃষ্ণ মিশনের সভ্য আমি। এই কথা শুনে তিনি দারুন খুশি হলেন; বললেন , " বড় চমৎকার ! আমরা দুজনে একই গুরুর শিষ্য। আমি বিবেকানন্দের শিষ্য , আপনিও বিবেকানন্দের শিষ্য ! " ভদ্রলোক আফগান সরকারের সফর বিভাগের একজন অফিসার। এ রকম অনেক লোকের সঙ্গে ওখানে আলাপ করেছি। দেখেছি শ্রী রামকৃষ্ণ -বিবেকানন্দের মতো সজীব , আধুনিক , প্রগতিশীল যুক্তিপূর্ন ব্যক্তিত্বের কথা তাঁরা শোনেন ; সঙ্গে সঙ্গে তাঁদের প্রতি এঁরা আকৃষ্ট হয়ে যান।
তারপর অদ্বৈত আশ্রম থেকে তিন হাজার টাকার বই কাবুলে পাঠিয়ে দেওয়া হলো। স্বামীজীর রচনাবলী , গীতা , উপনিষদ প্রভৃতি তারা পড়ছে। কিন্তু এতো সবে শুরু - পরের শতাব্দীতে অভাবনীয় ঘটনা ঘটবে ! আমাদের দেশে অসংখ্য সমস্যা আছে, আর এই সমস্যাগুলিকে কেন্দ্র করেই আমাদের যতো অভিযোগ। কিন্তু সমস্যাগুলো সমাধান করার শক্তিও আমাদের আছে। বিদেশেও সমস্যা আছে। কিন্তু আমাদের মতো আধ্যাত্মিক শক্তি তাদের কোথায় ? আমেরিকার বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্রদের যখন আমি তাদের দেশের সমস্যাগুলোর কথা বলেছিলাম , তখন তারা বলেছিল , " আপনাদের দেশেও সমস্যা আছে, - এত দারিদ্র্য , এত অনুন্নত অবস্থা। আমরা দেখেছি কোলকাতার রাস্তায় লোক পড়ে আছে। " তখন আমি বলেছিলাম , বেশ আপনাদের দেশে যেমন সমস্যা আছে , আমাদের দেশেও তেমনি সমস্যা আছে। তবে আপনাদের দেশে সমস্যার সঙ্গে আমাদের দেশের সমস্যায় একটু তফাৎ আছে। তফাৎটা কোথায় ? 
আমাদের সংস্কৃতি খুবই প্রাচীন। কিন্তু এই প্রাচীন সংস্কৃতির অভ্যন্তরে রয়েছে মহাপ্রাক্রমশালী আত্মশক্তি। আমাদের শরীর একেবারে দুর্বল , সমাজ জরাজীর্ন। যে আত্মশক্তি আমাদের ভেতর রয়েছে তার বিকাশের জন্য সুস্থ সবল সমাজ গড়াই আমাদের সমস্যা। আপনাদের সমস্যা -আপনাদের শরীর তো খুব ভালো , আপনাদের সমাজ উন্নত , আর্থিক বনিয়াদি সুদৃঢ়। কিন্তু আপনাদের আত্মবল বলে কিছু নেই। তাই আপনাদের নতুন আত্মার সন্ধান করতে হচ্ছে , যা পাওয়া খুবই কষ্টকর।
 তারা আমার যুক্তি স্বীকার করেছে , বলেছে , " Finding a soul is more difficult than finding a body ." দেহ জোগাড় করা থেকে আত্মা জোগাড় করা অনেক কঠিন। আমাদের আত্মার ঠিক আছে , কিন্তু দেহ একেবারে ভাঙা। এই ভাঙা শরীরকে সবল করাই আমাদের সমস্যা। আর এর সমাধানও খুব সহজ। এই কথা বুঝে যদি আমরা কাজ করতে পারি তবেই উভয় শক্তিতে শক্তিমান ভারত বিদেশের সম্ভ্রম অর্জন করতে পারবে। বিগত দিনে স্বামীজী এ কাজ করেছিলেন , আগামী দিনে আমাদের এ কাজ করতে হবে। 
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