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रविवार, 3 मार्च 2019

मनःसंयोग-4 [ 29-12 -2018 :चौथा सत्र गंगाधरपुर कैम्प : The Best Class of Nda]

चौथा सत्र: बंदर के समान चंचल किन्तु मानवजाति के सबसे महत्वपूर्ण संसाधन (human resource) 'मन' को वश में लाने की वैज्ञानिक पद्धति है अष्टांग योग:  मन का चंचल होना खराब नहीं है,मन यदि चंचल नहीं होता तो कोई भी आविष्कार नहीं हो सकते थे। ज्ञान-लाभ भी नहीं होता, हम किसी भी योजना को साकार रूप नहीं दे सकते थे। किसी भी मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति (human resource) है उसका मन ! क्योंकि उसमें अनन्त शक्ति है, किन्तु उसका सदुपयोग करने के लिए पहले मन को प्रशिक्षित करना अनिवार्य है। मन में छिपे षड रिपुओं के कारण मन का दूषित और अतिरिक्त चंचल हो जाना खराब है।  उसकी अतरिक्त चंचलता को कैसे दूर किया जाता है ? शरीर की मलिनता, चित्त की मलिनता, और वाणी मलिनता को दूर करके ही मन को वश में लाया जा सकता है। मन को शुद्ध या पवित्र बनाकर की अतरिक्त चंचलता को कैसे दूर किया जाता है ? यही सीखना आवश्यक है। महर्षि पतंजलि ने हजारों साल पहले एकाग्रता -पद्धति का आविष्कार किया था। अष्टांगयोग वह साधना मार्ग है जिसमें आठ साधनों का वर्णन मिलता है जिससे साधक शरीर व मन की शुद्धि करने के परिणामस्वरूप एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त कर जीवन के किसी भी क्षेत्र में (लौकिक या आध्यात्मिक) सफलता को प्राप्त कर सकता है। स्वामी विवेकानन्द '3H' की मलिनता को दूर करने के लिए स्वामी जी अपने जीवन में '3P' -purity-patience-perseverance को (पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय को) धारण करने की बात कहते थे। ‘अष्टांग’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है अर्थात् अष्ट + अंग, जिसका अर्थ है आठ अंगों वाला। साधनपाद 2.29 में योग के आठ अंगों के विषय में कहा गया है -यम से लेकर समाधि तक ये आठ योग के अङ्ग‌ हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तथा समाधि (ये) आठ अङ्ग हैं। भारत सरकार ने शिक्षा मंत्रालय (Ministry of Education) का नाम बदलकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय (human resource development ministry) कर दिया है। महामण्डल ने विद्यार्थियों और युवाओं के लिए उपयोगिता को देखते हुए अष्टांग योग को पाँच अंगों में बॉंटा है:अष्टांग योग के पहले दोनों अंग -  'यम और नियम' का अभ्यास प्रतिमुहूर्त सातो दिन -24 घंटे,7 X 24 करते रहना है। "आसन, प्रत्याहार,धारणा"  का अभ्यास दिन भर में दो बार सुबह और शाम करना होगा। 
(i) यम क्या है ? जो अवांछनीय कार्यों से मुक्ति दिलाता है, निवृति दिलाता है वह यम कहलाता है। पातंजल योग सूत्र -2/30 में  पांच प्रकार के यमों का वर्णन मिलता है- अहिंसा सत्यास्तेतय ब्रहमचर्यापरिग्रहा यमा: । अर्थात - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम है।  वे अहिंसा आदि यम जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित (सभी अवस्थाओं में पालन करने योग्य‌) सब प्राणियों के लिए हितकारी महान् कर्त्तव्य हैं।  अर्थात् सब प्राणियों के साथ इन यमों का पालन करने से मनुष्य का जीवन महान् बनता है। इसका पालन किये बिना कोई भी समाज सुखी नहीं हो सकता। महर्षि पतंजलि ने 5 यम का पालन करने को सार्वभौम महाव्रत कहा है। ये महाव्रत तब बनते हैं जब इन्हें जाति, देश, काल तथा समय की सीमा में न बांधा जाये। 
1. अहिंसा :- शरीर, वाणी, तथा मन से -अर्थात मन,वचन कर्म से किसी को नुकसान पहुँचाने की बात भी न सोचना।  सब काल में समस्त प्राणियों के साथ वैरभाव (= द्वेष) छोड़कर प्रेमपूर्वक व्यवहार करना। जब कोई साधक अहिंसा में पूर्णतः स्थित हो जाता है, तो उसके निकट रहने वाले सभी प्राणियों की हिंसा बुद्धि दूर हो जाती है। यह अहिंसा का परिणाम है।
2. सत्य - सदा सत्य पथ पर चलना। सत्य का अर्थ है- मन, वचन और कर्म में एकरूपता।  जैसा देखा, सुना, पढ़ा, अनुमान किया हुआ ज्ञान मन में है, वैसा ही वाणी से बोलना और शरीर से आचरण में लाना। जब मनुष्य निश्‍चय करके मन, वाणी तथा शरीर से सत्य को ही मानता बोलता और करता है तो वह जिन जिन उत्तम कार्यों को करना चाहता है वे सब सफल होते हैं। ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी बोलता है, वह फलित होने लगता है अर्थात वह वाक् सिद्ध हो जाता है।
3. अस्तेय - बिना पूछे या जोर-जबरदस्ती से किसी की वस्तु को ले लेना चोरी-डकैती है, चोरी-डकैती  की बात मन में भी न लाना। जब मनुष्य निश्‍चय करके मनन वाणी तथा शरीर से चोरी छोड़ देता है तब सब उत्तम उत्तम पदार्थ यथायोग्य प्राप्त होने लगते हैं | अर्थात् ईश्‍वर की और से ज्ञान-विज्ञान, बल, आनन्द आदि तथा मनुष्यों की और से भी श्रद्धावश उस योगी को भोजन वस्त्र, धनादि सब प्रकार के पदार्थ प्राप्त होते हैं। 
4 . ब्रह्मचर्य - मन को ब्रह्म( ईश्वर) परायण बनाये रखना ही बर्ह्मचर्य है। मन-वचन-कर्म से सदैव पवित्र रहना, गंदे विचारो, कथनों और कर्मों से बचे रहना। यदि शरीर और मन से पवित्र न रहे तो ऊर्जा बर्बाद होगा। ब्रहमचर्य की प्रतिष्ठा होने पर साधक को वीर्य लाभ होता है। वीर्य लाभ होने से साधना के अनुकूल गुण समूह पैदा होते है। जिससे योगाभ्यासी को आत्मज्ञान प्राप्त होता है।मन, वाणी तथा शरीर से संयम करके ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले व्यक्ति का दो प्रकार का बल बढ़ता है, एक शारीरिक दूसरा बौद्धिक; इनके बढ़ने से मनुष्य आनन्द में रहता है। 
5. अपरिग्रह - संचय वृत्ति का त्याग ‘अपरिग्रह’ है। उपहार में कोई चीज प्राप्त हो जाये, इसकी इच्छा न करना। किन्तु कोई व्यक्ति यदि प्रेम से कुछ देना चाहे तो विवेक-विचार करने के बाद लिया जा सकता है। एपीजे कलाम बचपन में बहुत गरीब थे। पर उनके पिता बड़े चरित्रवान थे इसलिए अपने गाँव के मुखिया थे। एक दिन उनकी अनुपस्थिति में कोई व्यक्ति एक टोकरी भरकर कुछ सामान पहुँचा दिया तो अब्दुल कलाम ने उसको रख लिया। इस पर उनके पिता ने समझाया, वो किस मंसा से उपहार लाया है, इसको समझे बिना किसी से कुछ उपहार न लेना। जाओ इसको वापस कर दो। या आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। अपरिग्रह में अच्छी प्रकार से प्रतिष्ठित हो जाने पर जन्म-जन्मान्तर का ज्ञान प्राप्त होता है। इसका अर्थ हुआ कि पूर्वजन्म- में हम क्या थे, कैसे थे। इस जन्म की परिस्थितियॉं ऐसी क्यों हुई एवं हमारा भावी जन्म कब,कहॉं, कैसा होगा ? इस ज्ञान का उदय होना अपरिग्रह साधना द्वारा ही सम्भव होता है। यह जन्म (शरीर) क्या है, मैं शरीर हूँ या आत्मा हूँ, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाउँगा, मुझे क्या करना चाहिए, मेरा क्या सामर्थ्य है इत्यादि विषयों को जानने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है। 
(ii) नियम क्या है ? नियम का तात्पर्य आन्तरिक अनुशासन से है। नियमों के अन्तर्गत शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणीधान आते हैं। अपने जीवन में इस अनुशासन को उत्पन्न और विकसित करना आवश्यक है। यम व्यक्ति के जीवन को सामाजिक एवं वाह्य क्रियाओं के सामंजस्य पूर्ण बनाते है और नियम उसके आन्तरिक जीवन को अनुशासित करते हैं।
1. शौच -शौच का अर्थ है परिशुद्धि, सफाई, पवित्रता। न खाने लायक चीज को न खाना, निन्दितों के साथ संग न करना और अपने धर्म में रहना शौच है। शौच मुख्यत: दो है बाह्य और आभ्यान्तर।  शुद्धि दो प्रकार की है, पहली बाह्य और दूसरी आन्तरिक शुद्धि। शरीर, वस्त्र, पात्र, स्थान, खानपान तथा धनोपार्जन को पवित्र रखना 'बाह्य शुद्धि ' है तथा विद्या, सत्संग, स्वाध्याय्, सत्यभाषण व धर्माचरण से मन-बुद्धि आदि अन्तःकरण को पवित्र करना 'आन्तरिक शुद्धि' है। बार-बार बाह्य शुद्धि करने पर भी जब साधक व्यक्ति को अपना शरीर गन्दा ही प्रतीत होता है, तो उसकी अपने शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रहती और वह दूसरे व्यक्ति के शरीर के साथ अपने शरीर का सम्पर्क नहीं करता, क्योंकि वह जान लेता है कि अन्यों के शरीर भी मलादि से भरे हुए हैं। अंहकार, राग, द्वेष, ईर्ष्या , काम, क्रोध आदि मलों को दूर करना आन्तरिक पवित्रता कहलाती है।आन्तरिकशुद्धि करने से साधक की बुद्धि बढ़ती है, मन एकाग्र तथा प्रसन्न रहता है, इन्द्रियों पर नियन्त्रण होता है तथा वह आत्मा-परमात्मा को जानने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है। 
2. सन्तोष‌ - अपने पास विद्यमान ज्ञान, बल तथा साधनों से पूर्ण‌ पुरुषार्थ करने के पश्‍चात् जितना भी आनन्द विद्या, बल, धनादि फलरूप में प्राप्त हों उतने से ही सन्तुष्ट रहना, उससे अधिक की इच्छा न  करना। माँ सारदा इसको सबसे बड़ा धन कहती थीं। हरिइच्छा-हरिकृपा,मेरी माँ कहती थी -संतोष के डाली पर मेवा फलता है! सन्तोष को धारण करने पर व्यक्ति की विषयभोगों को भोगने की इच्छा नष्ट हो जाती है और उसको शान्तिरूपी विशेष सुख की अनुभूति होती है। 
3. तप - अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक या मानसिक अधिक से अधिक कष्ट, प्राप्त हो, उसे सहर्ष करने का नाम ही ‘तप’ है।उत्तम-श्रेय को प्राप्त करने में बाधा को हटाने और कर्त्तव्य-कर्मों को करते हुए भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, हानि-लाभ, मान-अपमान आदि द्वन्दों को प्रसन्नता पूर्वक सहन करना।  तपो द्वन्दसहनम् - सब प्रकार के द्वन्दों को सहन करना तप है।तपस्या का अनुष्ठान करने वाले का शरीर, मन तथा इन्द्रियाँ बलवान् एवं दृड़ होते हैं, तथा वे उस तपस्वी के अधिकार में आ जाते हैं।
4. स्वाध्याय - वैसे पुस्तकों का अध्यन करना, वैसे जीवन का दर्शन करना जिससे पवित्रता में वृद्धि हो। विशेष रूप से अवतारों के जीवन-उपदेशों को पढ़ना।स्वाध्याय का तात्पर्य है आचार्य विद्वान तथा गुरूजनों से वेद उपनिषद् दर्शन आदि मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन करना।यह एक अर्थ है। स्वाध्याय का दूसरा अर्थ है स्वयं का अध्य यन करना यह भी स्वाध्याय ही है। [स्वाध्यायात् इष्टदेवतासंप्रयोगाः] स्वाध्याय करने से [] ईश्‍वर के साथ सम्बन्ध होता है। स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति की आध्यात्मिक पथ पर चलने की श्रद्धा, रुचि बढ़ती है तथा वह ईश्‍वर के गुण, कर्म, स्वभावों को अच्छी प्रकार जानकर उसके साथ सम्बन्ध भी जोड़ लेता है।
5. ईश्‍वरप्रणिधान -  ईश्वर की उपासना को ईश्वर प्रणिधान कहते है। यदि ईश्वर की धारणा नहीं हो तो किसी पैगम्बर या अवतार के शरणागत होना।  राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, पैगम्बर मोहम्मद, कबीर, गुरु/महापुरुषनानक के शरणागत होना और उनसे प्राप्त ओम् आदि (बीजमंत्र या अल्ला के) पवित्र मन्त्रों का जप करना तथा आत्म चिन्तन करना। ईश्वर प्रणिधान या अवतार वरिष्ठ के भक्ति-विशेष से ईश्वर की अनुकम्पा् होती है। उस अनुभव से योग के समस्त अनिष्ट दूर हो जाते है तब योग सिद्धि में नहीं होता, योगी शीघ्र ही योगसिद्धि को प्राप्त कर लेता है। सर्वव्यापक, सर्वज्ञ ईश्‍वर मुझे देख, सुन, जान रहा है, यह भावना भी मन में बनाये रखना, 'ईश्‍वरप्रणिधान' के अन्तर्गत आती है। [सुनसान जगह में भी कबूतर के गले को शिष्य काट नहीं सका ? ईश्‍वर को अपने अन्दर बाहर उपस्थित मानकर तथा ईश्‍वर मुझे देख, सुन, जान रहा हैं, ऐसा समझने वाले की समाधी शीघ्र ही लग जाती है | (देखें सूत्र 2/32)] 
(iii) आसन क्या है ? (Seating posture):  चंचल मन को वशीभूत करने की साधना अष्टांग योग का तीसरा चरण है आसन। आसन में बैठकर प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार, प्रातः काल और संध्या में करना चाहिये। यदि संध्या में समय न मिले तो रात में सोने से पहले। जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरन्तर परमसत्य (अवतार वरिष्ठ/महापुरुष) का चिन्तन किया जा सके उसे ही आसन समझना चाहिए। बैठने का स्थान शान्त और परिवेश स्वच्छ होना चाहिये। स्वयं भी हाथ- मुँह धोकर, या स्वच्छ होकर शान्त भाव से बैठना चाहिये। 
मन को एकाग्र करना है, तो उसे ढूँढ़ने के लिये किसी पहाड़ पर या गुफ़ा में नहीं जाना पड़ता। मन सदैव हमारे साथ ही रहता है।  फिर भी शान्त और एकान्त वातावरण में मौन होकर बैठने से मन की गहराइयों में उतरना सहज हो जाता है।  किसी भी ढंग से बैठकर मन की स्थिति देखी जा सकती है। लेकिन हमारे बैठने का ढंग (आसान) यदि ऐसा हो कि कुछ ही समय के बाद शरीर में इधर-उधर दर्द न होने लगे, यदि ऐसा होगा तो हमारा मन बार- बार उसी कष्ट की ओर चला जायगा। इसीलिये यथोचित आसन (Proper Posture) में बैठना आवश्यक हो जाता है।
बाबू  की भाँति पालथी मारकर सुखासन में बैठा जा सकता है। अथवा उसी प्रकार तनाव-मुक्त होकर बैठे हुए एक पैर के तलुए को दूसरे पैर के जाँघों पर रखकर बैठने से थोड़ी देर तक सुकून के साथ बैठा जा सकता है। इसको ही 'पद्मासन' कहते हैं। लेकिन जिनको इस प्रकार बैठने  अभ्यास नहीं है, उन्हें दोनों पैरों को इस प्रकार रखने से कष्ट हो सकता है। इसलिए वे अगर  एक ही पैर को दूसरे पैर की जंघा पर रख 'जेन्टिल मैन' की तरह सुखासन में बैठें तो आराम मिलता है और कुछ देर तक, निश्चिन्त होकर बैठना सहज हो जाता है। इस मुद्रा में बैठने को 'अर्धपद्मासन' कहते हैं।इस आसन में बैठने से एक सुविधा और होता है कि कमर, मेरुदण्ड और ग्रीवा (गर्दन) को एक सीध में रहता है। कमर और रीढ़ की हड्डी (मेरुदण्ड ) को सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज रूप में चलता रहता है। हमें तो स्वाभाविक रूप से चंचल और विभिन्न विषयों में दौड़ने वाले मन को पकड़ कर अपने सामने उपस्थित करना है। इसीलिये शरीर, साँस-प्रस्वांस  या अन्य किसी बात की तरफ मन को जाने देना उचित नहीं होगा। गर्दन को सीधा रखते हुए दृष्टि को जमीन के सामानांतर (Parallel to the ground) रखना अच्छा होता है। नहीं तो कुछ ही समय बाद गर्दन में भी दर्द हो सकता है। फिर दोनों हाथों को एक दूसरे पर फैला कर, इस प्रकार ....  धीरे से गोद में रख लेना चाहिये। ऐसा न होने पर कुछ ही देर में थकावट का अनुभव होगा, और मन उसी ओर चला जायेगा।  बैठने का ढंग ऐसा होना चाहिये कि बैठने के बाद शरीर में किसी पीड़ा का अनुभव नहीं हो, और कुछ समय तक स्थिर होकर सुखपूर्वक बैठा जा सके। 
महर्षि पतंजलि आसन को परिभाषित करते हुए कहते हैं - स्थिरसुखमासनम्। |46|  [स्थिरसुखम्] जिसमें सुखपूर्वक शरीर की स्थिरता हो [आसनम्] वह आसन है | प्रत्याहार और धारणा के लिए ( एकाग्रता का अभ्यास करने के लिए) जिस स्थिति में सुखपूर्वक, स्थिर होकर बैठा जाय, उस स्थिति का नाम 'आसन' है सुखपूर्वक बैठने का आसन, जैसे पद्मासन, सिद्धासन, ताकि शरीर में तनाव न हो। हाथ, पैर, गर्दन, सिर, आदि अङ्गों को न हिलाने डुलाने से तथा अनन्त (= सर्वव्यापक) परमात्मा में मन को स्थिर करने से आसन सिद्ध=स्थिर होता है।  आसन का अच्छा अभ्यास हो जाने पर योगाभ्यासी को उपासना काल में तथा व्यवहार काल में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्द्व कम सताते हैं, तथा योगाभ्यास की आगे की क्रियाओं को करने में सरलता होती है।
इस तरह अर्ध-पद्मासन की मुद्रा में बैठ जाने  यह तो निश्चित हो गया कि अब शरीर के चलते मन को विचलित नहीं होना पड़ेगा, लेकिन अन्य बाहरी विषय मन को प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रकार बैठ जाने से स्वाद एवं स्पर्श इन्द्रिय की तरफ मन के खिंच जाने की सम्भावना तो नहीं रह जाती, लेकिन कहीं से अचानक कोई अप्रिय गंध आ जाये, तो मन विचलित हो सकता है। इसीलिये किसी सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती कि भीनी-भीनी सुगन्ध यदि नासिका तक आती रहे तो अच्छा है। क्योंकि मन भीनी- भीनी सुगंध से प्रसन्न रहता है। किन्तु दोनों कान तो खुले हैं, उनमे विभिन्न प्रकार के शब्द, गीत या बातचीत आदि सुनाई पड़ सकती है। इन्हें रोकने का कोई उपाय तो नहीं है, फिर मैं इतना कर सकता हूँ कि उस ओर मन को नहीं जाने दूंगा ! अंत में आँखों को बन्द कर लेने से अन्य कोई वाह्य 'रूप' भी मन को प्रभावित नहीं कर सकेगा। इसलिए एक बार अपने आदर्श (युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द) कि छवि को ध्यान से निहार कर नेत्रों को मूंद लेना अच्छा है। यही है -सम्यक आसन।  एकाग्रता का अभ्यास या 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास प्रारम्भ करने से पूर्व सम्यक आसन और स्वच्छ परिवेश का यही महत्व है। स्वच्छ, पवित्र परिवेश में बैठकर सबसे पहले सर्वमंगल की प्रार्थना करनी चाहिए।  
(iv) प्राणायाम क्या है ? प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है। प्राण + आयाम । प्राण का अर्थ होता है, जीवनी शक्ति, आयाम का अर्थ है उसे लम्बे समय तक रोकना अर्थात प्राणवायु का निरोध करना ‘प्राणायाम’ कहलाता है। आसन पर स्थिरता से बैठकर अपने श्वास-प्रश्वास की स्वाभाविक गति के नियमन करना -अर्थात गहरा साँस लेना और छोड़ देना ‘‘प्राणायाम " है। किसी आसन पर स्थिरतापूर्वक बैठने के पश्चात मन की चंचलता को रोकने के लिए श्‍वास-प्रश्‍वास की गति को विधिपूर्वक, विचार से, यथाशक्ति रोकने स्वरूप जो क्रिया की जाती है, उसका नाम प्राणायाम है। [गहरी स्वांस-प्रश्वांस के आसन कपाल-भाति, अनुविलोम, बटरफ्लाई के अलावा प्राणवायु को रोकने का अभ्यास (प्राणायाम) किसी योग्य गुरु के निर्देशन के बिना कभी नहीं करना चाहिए , क्योंकि गलत ढंग से प्राणवायु को रोकने से दिमाग बिगड़ भी सकता है। ऐसा करने से स्वामी जी ने मना किया है। इस प्रकार अर्ध-पद्मासन में बैठकर धीरे-धीरे लंबा स्वांस लेना और छोड़ना  यथेष्ट होता है। (रेचक-पूरक-कुम्भक-प्राणायाम न करके केवल कपालभाँति और अनुलोम-विलोम कर लेना यथेष्ट होता है।) 
(v.) प्रत्याहार (i) मन को देखना :(Watch your Mind: withdrawal of senses) प्रत्याहार का अर्थ है आहरण करना या खींचना।  प्रत्याहार का पहला चरण है मन को देखना मन अर्थात दृश्य को देखने के लिए स्वयं को उससे भिन्न द्रष्टा साक्षी चेतना में अवस्थित रखना होगा। मन को यदि देखना हो तो,मन को बाह्य विषयों से खींचकर अन्तर्मुखी करना,अपने सामने बैठाना बहुत आवश्यक है! [यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः।-पंचतंत्र अर्थात यत्न करने पर भी यदि काम सिद्ध न हो रहा हो, तो आत्मनिरीक्षण करो और देखो कि दोष कहाँ रह गया था? 
इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " अतएव मनःसंयम (concentration एकाग्रता या धारणा) का पहला सोपान यह है कि कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो। मन सतत चंचल है। वह बन्दर की तरह सदा कूद-फाँद रहा है। यह मन -मर्कट जितनी इच्छा हो, उछल-कूद मचाय, कोई हानि नहीं ; धीर भाव से प्रतीक्षा करो और मन की गति देखते जाओ। लोग जो यह कहते हैं कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है, यह बिल्कुल ठीक है। जब तक मन कि क्रियाओं पर नज़र न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे। मन को इच्छानुसार घूमने दो।सम्भव है, बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आयें। तुम्हारे मन में इतनी असत भावनाएँ आ सकतीं हैं कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे। परन्तु देखोगे, मन के ये सब खेल दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं, दिन पर दिन मन कुछ कुछ स्थिर होता जा रहा है। पहले कुछ महीने देखोगे, तुम्हारे मन में हजारों विचार आयेंगे, क्रमशः वह संख्या घटकर सैंकडो तक रह जायेगी। फ़िर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जायगी, और अन्त में मन पूर्ण रूप से वश में आ जायगा। पर हाँ, हमें प्रतिदिन धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा। " (१:८७)          
बाह्य वस्तुओं को हमलोग आँखों से देखते हैं। लेकिन मन को तो चर्म-चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। क्योंकि मन तो अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है। इसलिये उसको किसी सूक्ष्म माध्यम से ही देखना होगा। परन्तु मन के जैसी सूक्ष्म, दूसरी कोई सूक्ष्म वस्तु तो है ही नहीं।  इसीलिये मन को मन के द्वारा ही देखना पड़ता है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" बाह्य जगत् के व्यापारों का पर्यवेक्षण करना अपेक्षाकृत सहज है, क्योंकि उसके लिए हजारों यन्त्र निर्मित हो चुके है, पर अन्तर्जगत के व्यापार को समझने में मदद करनेवाला कोई भी यन्त्र नहीं।..किन्तु फ़िर भी हम यह निश्चयपूर्वक जानते हैं कि किसी विषय का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए मन का पर्यवेक्षण करना अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि उचित विश्लेषण के बिना कोई भी विज्ञान निरर्थक और निष्फल होकर केवल बेबुनियाद (भित्तिहीन) अनुमान में परिणत हो जाता है।...द्रष्टा-मन ही अपने दृश्य-मन के अन्दर चल रहे व्यापारों का निरिक्षण-परिक्षण य़ा पर्यवेक्षण करने वाला यंत्र है। मनोयोग  की शक्ति का सही-सही नियमन कर जब उसे अन्तर जगत् की ओर परिचालित किया जाता है, तभी वह मन का विश्लेषण कर सकती है, और तब उसके प्रकाश में हम यह सही सही समझ सकते हैं कि अपने मन के भीतर क्या घट रहा है।" (१:३९)
शुरू -शुरू में यह सुनकर विस्मय होना स्वाभाविक है कि 'मन (reflected consciousness) की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) कैसे संभव है ? किन्तु जाने-अनजाने हमलोग प्रायः यही तो सदैव करते रहते हैं। जब हम किसी विषय पर बहुत तल्लीन हो कर विचार कर रहे होते हैं या गहन चिन्तन में डूबे रहते हैं, तब हमें यह भी याद नहीं रहता कि हम विचार कर रहे हैं। हम उन विचारों में ही खो जाते हैं।  जब अकस्मात हमारी तंद्रा टूटती है, तब हम स्वयं अवाक् होकर सोचने लगते हैं कि अरे ! क्या मैं ही इतनी देर से इस विषय पर चिन्तन कर रहा था ? अर्थात उस समय अचानक हमारी दृष्टि मन कि ओर पड़ती है। कौन से माध्यम से यह दृष्टि पड़ी तथा यह स्मरण हुआ कि अरे! मैं ही इतनी देर से विचार कर रहा था-निश्चित रूप से मन के माध्यम से, मन के ऊपर हमारी दृष्टि पड़ी ? मानो मन (reflected consciousness) का ही एक अंश इससे बाहर निकल कर, थोड़ा परे हट कर साक्षी चेतना ( (witness consciousness) के रूप में बैठकर शेष मन के कार्यों का अवलोकन कर रहा हो । अब उपरोक्त रीति से अर्धपद्मासन में बैठ जाने के बाद, इसी प्रकार द्रष्टा-मन या व्यक्तिपरक मन (Subjective Mind) की सहायता से दृश्य-मन या विषयाश्रित मन (Objective Mind) की गतिविधियों को थोड़ी देर तक पर्यवेक्षण करना है। मन में उठने वाले विचारों, चित्त की चंचलता को, और विभिन्न विषयों में मन के इधर-उधर भागने को ग़ौर से देखना होगा। एक चलचित्र की तरह न जाने क्या-क्या हमारे मन में चल रहा होता है,या अंकित रहता है। कितने शब्द, कितने चित्र, कितनी यादें और न जाने क्या- क्या! कभी-कभी तो हमें स्वयं ही अवाक् रह जाना पड़ता है कि अरे ! मेरे मन में क्या ऐसे-ऐसे विचार भी भरे हुए थे? 
इस प्रकार द्रष्टा-मन की सहायता से दृश्य-मन की गतिविधियों का थोड़ी देर पर्यवेक्षण करने के बाद, हमें वास्तविक कार्य की ओर एक कदम और आगे बढ़ना होगा। अब थोड़ी देर मन को उसकी मनमानी वस्तुओं की ओर जाने की छूट देने बाद, उसे समझा-बुझाकर अपने नियंत्रण में रहने को कहना होगा, उसे और मनमाने विषय अथवा वस्तु पर भटकने की छूट नहीं देनी होगी, इधर-उधर दौड़ने से रोकना होगा। मन पर धीरे धीरे विवेक-अंकुश का प्रयोग करना होगा। उससे कहना होगा -  नहीं अब तुम्हें पहले जैसा इधर-उधर दौड़ने नहीं दिया जायगा।  मन को एक बालक के समान सलाह देनी होगी। मन तो मेरा ही एक शक्तिशाली उपकरण (Powerful Instrument) या साधन है, अतः उसे मेरी आवश्यकता और प्रयोजनीयता के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। अतः अब मन के ऊपर अपना प्रभुत्व जमाना होगा। हमने शुरू से ही उस पर शासन नहीं चलाया जिसके फलस्वरूप वह इतना शरारती हो गया है कि मेरी कोई बात सुनना ही नहीं चाहता, हर समय मनमानी करने पर उतारू रहता है। मन के साथ एक बालक के समान या  एक मित्र के समान बात-चीत करनी होगी। कहना होगा- मेरे मन ! शान्त होओ ! इतना दौड़ते रहना ठीक नहीं है। आज तक तेरा कहना मानकर मैं भटक रहा था, अब तू एक बार मेरा कहना मानकर तो देख ! शास्त्र के वचन तो मानकर तो देख कि नरक में भी वैसा दुःख नहीं जैसा  चित्त के घोर चंचल रहने से होता है। और वैसा सुख स्वर्ग में भी नहीं जैसा निश्चल चित्त में प्रकट होता है। ऐ मन ! तेरा चंचल होना तेरा और मेरा विनाश है और तेरा स्थिर होना हम दोनों के परम् कल्याण का हेतु है। अतः ऐ मेरे मन मान जा। इसी में तेरा कल्याण है। अब तुम्हें  मेरा आदेश पालन करने के लिये किसी आदेशपाल (अर्दली) की तरह सदैव तत्पर रहना होगा। 
इसे प्रेमपूर्वक सिखाने से यह सीख सकता है और हमारी बात मानने लगता है।श्रीयोगवाशिष्ठ ग्रन्थ में मन के साथ बातचीत करने का तरीका बतलाते हुए वशिष्ठजी कहते हैं- ‘हे रामजी ! फिर उस महीपति ने अपने मन से कहा- ‘‘ऐ मेरे मन ! आज तक मैं तेरे कहने में रहा और तूने जो कहा वह मैंने स्वीकार किया। तूने जो वासना की वह मैंने पूर्ण की। ऐ मेरे मन !   ऐ मन ! तू शान्त हो जा। राज्य तेरा नहीं। पुत्र-परिवार तेरा नहीं। यह शरीर भी तेरा नहीं। जिसका सब कुछ है वह परमात्मा तेरा है। ऐ मेरे चित्त ! तू उसी परमात्मा में शान्त हो जा। तेरा भला होगा।’ऐ मेरे चित्त ! तेरा सच्चा राज्य तो आत्मा का राज्य है। इस जनकपुरी में तो कई राजा आये। जिसने यहाँ राज्य किया वह जनक कहलाया। तू कब तक इस झूठे पद-प्रतिष्ठा पृथ्वी-राज होने का गर्व करके अपने को धरती का राजा मानेगा ? तू इस पृथ्वी का पति नहीं, महिपति नहीं, तू तो इस पृथ्वी का एक ग्रास मात्र है। तेरे जैसे तो कई राजा आ-आकर इस पृथ्वी में दफनाये गये। उनकी हड्डियाँ भी गल गईं। 'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोय।एक दिन ऐसा आयगा मैं रौंदूगी तोय।।' 
 हर व्यक्ति जो (जीवन के किसी भी कार्य में सफलता पाने के लिये, या ज्ञान प्राप्त करने के लिए) मन को एकाग्र करने की पद्धति सीखना चाहता है, वह चाहे किसी भी धर्म से सम्बन्धित हो, चाहे वह किसी भी संप्रदाय से सम्बन्धित हो, चाहे वो किसी भी देश से सम्बंधित हो, उसे प्रत्याहार के बारे में जरूर मालूम होना चाहिये। क्योंकि बिना प्रत्याहार को जाने आप कभी अपने मन को एकाग्र कर ही नहीं सकते हैं। मन को एकाग्र करने के लिए प्रत्याहार को जानना बड़ा आवश्यक है। 
प्रत्याहार है क्या ? देखिये, जब हम जीवन जीते हैं, तो हम information gather करते हैं।  जीवन जीने के लिए हम जानकारी इकट्ठा करते हैं। जैसे आँख से मैं देख रहा हूँ, नाक से मैं सूँघ रहा हूँ, कानों से मैं सुन रहा हूँ, और कानों से balance -सन्तुलन भी हो रहा है -दो कानों से। जिह्वा है, उससे मैं स्वाद भी ले रहा हूँ। और जो मेरी skin है, हम सब की, उससे मैं स्पर्श की अनुभूति करता हूँ। हम सब इसी तरह से करते हैं। ये normal phenomenon है human being के लिए, प्रत्येक मनुष्य के लिए यह सामान्य घटना है। अब, जो मेरी awareness है, जिसको मैं कहता हूँ -'चेतना'; जिससे मुझे पता लग रहा है, कि मैं हूँ! आपकी जो awareness है, जिससे आपको पता लग रहा है कि आप हैं। 'वो' awareness , सारी की सारी -इन पाँच इन्द्रियों के अन्दर distribute हो रही है। 
मेरी awareness मेरी आँख के through देख रही है। मेरी awareness मेरे कान के through सुन रही है,जिह्वा के through स्वाद ले रही है, नाक के through सुगन्ध ले रही है और skin के through 
स्पर्श (ठंढा-गर्म) को महसूस कर रही है, ऐसे ही आपकी awareness भी कर रही है। यानि कि, मैं अपनी awareness को, limited कर रहा हूँ। इन सब चीजों के अंदर। क्योंकि "by force ", mind जो है -ऐसा करने को मजबूर कर रहा है। कि मैं limited हूँ (M/F भेंड़ हूँ ?) जबकि जो मेरा pure/true nature (शुद्ध स्वरुप) है, आपका जो pure/true  nature है , वो unlimited है। अब, आप अपने मन को एकाग्र करना चाहते हैं, आप एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं। प्रत्याहार क्या होता है; कि withdrawal of senses. यदि मैं अपनी awareness को इन पाँच senses से हटा लूँ तो ? क्योंकि अभी तक जो भी experience होते हैं, वे इन पाँच senses को ले के होते हैं। पाँच senses से जो भी information, collect हो रही है, gather हो रही है; चाहे वो enjoyment को लेके हो, चाहे वो dis -enjoyment (boredom)को लेके हो, चाहे वो स्पर्श (sex) को लेके हो, चाहे वो स्वाद को लेके हो। वो जो information है, वो जो enjoyment है, वो information के रूप में मेरे mind (चित्त में) में रसा-बसा हुआ है। यानि कि मैं five senses का use कर रहा हूँ, आनन्द लेने के लिए-'सुख' लेने के लिए। आनन्द नहीं कहूँगा। सुख लेने के लिए और दुःख भी उन five senses से महसूस कर रहा हूँ। मानलीजिए कि अभी जिस कमरे में मैं बैठा हूँ, यहाँ air conditioning चल रही है, तो मुझे माने मेरी त्वचा को आराम मिल रहा है ; तो वो सुख है। अगर यहाँ पर Heat बढ़ जाती है, तो वो दुःख हो जायेगा। लेकिन माध्यम क्या हुआ ? वो मेरी त्वचा हुई ! 
यानि मैंने अपनी awareness को limited करके त्वचा पर छोड़ दिया है।प्रत्याहार में withdrawal of senses; जो हमारा awareness, हमारी चेतना sense के अन्दर घुसी हुई है, जैसे मैंने त्वचा के माध्यम से बताया। कि sense के माध्यम से, sense के through हम उस awareness का enjoy कर रहे हैं। अब हम sense से, सारी senses से - उस awareness को निकाल दें तो जो happening (घटना)  होगी, तो जो mind की conditioning (ट्रेनिंग) होगी वो क्या होगी ? वो होगा प्रत्याहार ! जब हम न सूंघ रहे होंगे, और न हम स्वाद ले रहे होंगे, न हम स्पर्श का मजा ले रहे होंगे, न हम देख रहे होंगे न हम सुन रहे होंगे। वो condition (वैसी अवस्था) जो कि आमतौर पर ऐसा नहीं होता है। कभी भी हमारे अन्दर विचार चल रहा होता है , तो वो five senses को लेकर चल रहा होता है। सुख या दुःख को लेकर चल रहा होता है, negative या positive को (नकारात्मक या सकारात्मक को) लेके चल रहा होता है। जब ये सारे के सारे जो विचार हैं (लालच -इच्छा) बिल्कुल समाप्त हो जायेंगे, बिल्कुल खत्म हो जायेंगे। और मेरी  awareness भी five senses से withdraw हो जाएगी, (प्रत्याहृत या वापस लौट आएगी),  five senses से अपनी चेतना को, अपनी awareness को मैं निकाल लूँगा, mind को free कर दूँगा। तो जो stage होगी वो प्रत्याहार की अवस्था होगी। जब mind को five senses से free कर दिया जायेगा, तो जो stage पैदा होगी, वो प्रत्याहार होगी। प्रत्याहार को बोलते हैं - withdrawal of senses! यहाँ तक मेरी कोशिश है। प्रयत्न है। 
धारणा : अब पतंजलि योग सूत्र के मुताबिक यम-नियम-आसान-प्राणायाम -प्रत्याहार के बाद छठा अंग है - धारणा। मन (चित्त-awareness) को एक विशेष स्थान पर स्थिर करने का नाम ‘धारणा’ है। यह वस्तुत: मन की स्थिरता- 'एकाग्रता' (concentration) का घोतक है। महर्षि पतंजलि द्वारा धारणा का निम्न लक्षण बतलाया गया है-‘‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’’। 3/1 यो0 सू0अर्थात - (बाहर या शरीर के भीतर कही भी) किसी एक स्थान विशेष (देश) में चित्त को बांधाना धारणा कहलाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब किसी देश विशेष में चित्त की वृत्ति स्थिर हो जाती है और तदाकार रूप होकर उसका अनुष्ठान होंने लगता है तो वह ‘धारणा’ कहलाता है।
 हमारे सामान्य दैनिक जीवन में विभन्न प्रकार के विचार आते जाते रहते है। दीर्घकाल तक स्थिर रूप से वे नहीं टिक पाते और मन की सामान्य एकाग्रता केवल अल्प समय के लिए ही अपनी पूर्णता में रहती है। इसके विपरीत धारणा में सम्पूकर्णत चित्त की एकाग्रता की पूर्णता रहती है।  प्रत्याहार यदि लम्बे समय तक रहे, यानि की मन के अन्दर कुछ भी न रहे। प्रत्याहार यदि लम्बे समय तक रहे; तो मन शून्य (vacuum- शून्य स्थान) हो जाना चाहेगा। दादा कहते थे - nature abhors vacuum ! अर्थात प्रकृति शून्य स्थान से विद्वेष (नफरत) करती है ! इसलिए उस खाली स्थान को भरने के लिए दौड़ पड़ती है। इसीलिए जब मन इन्द्रिय विषयों से निकल कर सामने आ जाये तो उसको बैठने के लिए अपने हृदयमें विराजित आदर्श (इष्टदेवता) का चयन पहले से कर लेना चाहिए। प्रत्याहार और धारणा तक हमें प्रयास (वैराग्य सहित अभ्यास) करना पड़ता है। इच्छाशक्ति और संकल्प के बल पर प्रत्याहार होने तक हम प्रयास कर रहे हैं, उसके बाद फिर प्रत्याहार भी happen होगा। प्रत्येहार जब  continuous निरंतर रहने लगेगा तब 
concentration या धारणा की happening होगी, घटना होगी। उसके बाद ध्यान घटित होगा। जो ये प्रत्याहार की process घटित होगी तभी, धारणा (concentration) घटित होगा। otherwise धारणा में कभी नहीं बढ़ पाएंगे। possibility ही नहीं है एकाग्रता में बढ़ने की। 
तो प्रत्याहार का मतलब है- बाह्य जगत से इन्द्रियों को वापस खींच लेना - withdrawal of senses from outer world ! अथवा अपनी चेतना को इन्द्रियों से निर्लिप्त कर लेना, अथवा वापस खींच लेना।  or withdrawal of my awareness from the senses! अपने senses से, अपनी इन्द्रियों से चेतना (awareness) को निकाल लेना प्रत्याहार कहलाता है। उसे -चेतना को इन्द्रियों से मुक्त कर देना -प्रत्याहार कहलाता है। (एकाग्रचित्त होना,संकेंद्रण-चित्त को समेट कर pointed बना लेना) धारणा यदि लम्बे समय तक रहे तो वो हो जाती है ध्यान। तो ध्यान करते नहीं हैं, ध्यान होता है। धारणा के बाद हमारा प्रयास खत्म हो जाता है। उसके बाद आता है ध्यान और समाधि, जो करने की चीज नहीं है, वह स्वयं घटित होती है।  
इसलिए कह रहा हूँ, जो एकाग्रता की शक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, वे चाहे किसी भी धर्म से हों, किसी भी सम्प्रदाय से हों, किसी भी देश से हों, उनके लिए ये जानना बड़ा आवश्यक है, कि प्रत्याहार होता क्या है ? जब तक आप सोंच रहे हैं, तबतक mind work कर रहा है। mind को thought से release करना है। mind को senses से release करना है, उसके बाद mind को sources of information से release करना है। तो प्रत्याहार घटित होगा। जब प्रत्याहार घटित होगा लम्बे समय तक, तो बड़ा ग़जब सा experience आपको होगा। बड़ा उम्दा experience होगा आपको। वो experience मैं शब्दों में नहीं बता सकता, क्योंकि शब्दों में बताया ही नहीं जा सकता। 
जिस दिन आपने प्रत्याहार का ही अनुभव कर लिया, वो दिन आपके लिए अनोखा होगा। एक शांति mind रुकेगा उस वक्त। mind रुकेगा तो ही प्रत्याहार होगा। एक अजीब तरह का उत्साह एक अजीब तरह का enjoy एक अजीब तरह की शांति आपके मन के अंदर पैदा होगी। एक खालीपन भी पैदा होगा। मन का वो खालीपन, याद रखिये आपको आगे लेकर जायेगा। तो withdrawal of senses जब होगा तब प्रत्याहार की happening होगी। 
योग के पास प्रत्याहार करवाने के कई तरीके हैं, योग के तकनीक है।  चेतना को बाह्यजगत से क्रमिक अभ्यास द्वारा हटाकर अंतर्मुख करने की विधि– योगनिद्रा का प्रथम भाग है।लेकिन जो best possible way है - प्रत्याहार का जो बड़ी आसानी से हो सकता है, और कोई भी जिसे कर सकता है, वो है-योगनिद्रा  योगनिद्रा हमें बड़ी आसानी से प्रत्याहार के रास्ते पर लेके जाती है, हमें पता ही नहीं चलता, कब प्रत्याहार हो जाता है !अगर योगनिद्रा सही ढंग से की जाय तो hundred percent कोई न कोई experience देखे जाते हैं। ऐसा हो ही नहीं सकता कोई experience उस दिन न हो। 
super best method है योगनिद्रा , मुंगेर स्कूल ऑफ़ योगा का वीडियो कानों पे लगाकर आप इसका अभ्यास कर सकते हैं। याद रखिये बिना प्रत्याहार के एकाग्रता नहीं हो पायेगा, कभी भी सम्भव नहीं है। धारणा शक्ति या concentration का मजा चखना है, तो पहले प्रत्याहार का मजा चखिए। withdrawal of senses का मजा चखिए, उस condition को महसूस कीजिये कि जब किसी प्रकार की सोंच न हो तब mind क्या release करता है, तब आप क्या महसूस करते हैं , क्योंकि उसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता। जब आप महसुसु करेंगे तो पूरा विश्रांति का अनुभव करेंगे, पूरा relaxed'ness को महसूस करेंगे। पूरा relaxation महसूस करेंगे। उस दिन आपका जो उत्साह जो joyfulness होगी, जो प्रसन्नता होगी वो बिल्कुल अलग होगी, दूसरों को भी दिखाई देगी, उन्हें प्रभावित भी करेगी। दूसरे भी कहेंगे कि आज आप प्रसन्न लग रहे हैं, आज आप अच्छे लग रहे हैं। ये था आजका मेरा विषय जिसे मैंने आपको समझा दिया है। फिर भी यदि कोई बात रह गयी हो, जो आपको समझ न आयी हो -तो प्रश्न्नोत्तरी की कक्षा में उसे स्पष्ट करूँगा। पत्र के माध्यम से भी हम जुड़े रह सकते हैं। (किन्तु योगनिद्रा की प्रक्रिया भी किसी योग्य गुरु के सानिध्य में ही करनी पड़ती है, जिसमें -अधिक सम्भावना आशाराम/रजनीश जैसे गुरु ही मिलेंगे ?)  [आचार्य हरीश-बिहार स्कूल ऑफ़ योगा]
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " जो इच्छा मात्र से अपने मन को (मस्तिष्क में स्थित) समस्त स्नायू केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है, उसीका प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है-एक ओर आहरण करना अर्थात खींचना। मन कि बहिर्गति को रोककर, इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमे कृतकार्य होने पर हम यथार्थ में चरित्रवान होंगे; .... इससे पहले तो हम मशीन (रबोट) मात्र हैं। " (१:८६)
जिस योगी का प्रत्याहार सिद्ध हो जाता है उसकी इन्द्रियाँ  अत्यन्त वश में हो जाती हैं अर्थात् उसको इन्द्रियजय की प्राप्ति होती है। यहां इतना विशेष स्मरण रहे कि रूप-रस -शब्दादि विषयों में आसक्ति के अभाव का नाम इन्द्रियजय है। गृहस्थों के लिए निषिद्ध कर्मों का त्याग कर देना अर्थात शास्त्र-विरुद्ध या निषिद्ध कर्मों से निवृत्ति हो जाने और वेदाविरूद्ध कर्मों में प्रवृत्ति रहने को इन्द्रियजय कहा गया है। राग द्वेष से रहित केवल मध्यस्थभाव से विषयों में प्रवृत्ति को इन्द्रियजय कहते हैं।  जिस तरह एक स्वस्थ शरीर में विषैले तत्व (toxins)और रोगाणुओं (pathogens) की  प्रतिरोधक क्षमता होती है, उसी तरह एक स्वस्थ मन में भी 'कामिनी -कांचन ' के नकारात्मक संवेदी लालच/ प्रलोभन का प्रतिरोधक क्षमता रहती है। प्रत्याहार सिद्ध होने से तुम्हारी इन्द्रियां तुम्हारी सुनने लगती हैं, तुम उनके द्वारा शासित नहीं होते हो। इससे मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त हो जाता है, और उसकी ऊर्जा संगठित होकर एकरूप हो जाती है। तुम्हारे भीतर एक उत्साह, प्रेम और ऊर्जा का उत्थान बना रहता है, यह प्रत्याहार का प्रभाव है। विषय भोगों में नहीं फंसते हैं। अपनी इच्छा से इन्द्रियों को जहाँ लगाना चाहें लगा सकते हैं। पूर्ण एकाग्रता से ध्यान कर सकते हैं। आत्म दर्शन के अधिकारी बन जाते हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -  " इच्छाशक्ति ही जगत में अमोघ शक्ति है। प्रबल इच्छाशक्ति का अधिकारी मनुष्य एक ऐसी ज्योतिर्मयी प्रभा अपने चारों ओर फैला देता है कि दूसरे लोग स्वतः उस प्रभा से प्रभावित होकर उसके भाव से भावित हो जाते हैं। इच्छा-शक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही वह सारा रहस्य है। "महामण्डल व्यक्तित्व-क्रांति करना चाहता है,वह वैसे व्यक्तित्व सम्पन्न नेताओं/ शिक्षकों का निर्माण करना चाहता है, जो मनःसंयोग सीखकर (इन्द्रियों को जीतने वाला बनकर) इन्द्रियजय करके अपने संगियों पर जादू सा कर देता हो,और वे भी मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में समर्थ हो जाएँ। प्रत्याहार अगर एक वाक्य में परिभाषित करू तो इंद्रियों का अंतर्मुख होना ही प्रत्याहार है।
            स्वामी शिवानन्द -के अनुसार ' प्रत्याहार' को ही योग कहा जाता है, क्योंकि यह योग साधना में सबसे महत्वपूर्ण अंग है।' अष्टांग योग के सभी अंगों में प्रत्याहार को बहुत कम योग-शिक्षक परिभाषित कर पाते हैं। बहुत कम शिक्षक स्वयं योग-साधना के रूप में सुबह-शाम दो बार प्रत्याहार का अभ्यास कर पाते हैं।  
प्रत्याहार (ii) मन को आदेश देना :मन (awareness-चेतना) को विषयों में जाने से खींचकर सामने लाना फिर उसको वैकल्पिक आहार ग्रहण करने के लिए बालक के समान समझाना और न माने तो कड़क आदेश देना, अथवा इच्छाशक्ति (विवेक-प्रयोग) से मनुष्य बनने का संकल्प-ग्रहण करना। इसीको 
[Autosuggestion: आत्‍मसुझाव,स्‍वसम्‍मोहन] विवेक-प्रयोग द्वारा 'Selection of ideal' या आदर्श-चयन कहते हैं।  
मन में निरंतर विद्यमान रहने वाले भावों (सद्संकल्पों-विवेकज ज्ञान से उत्पन्न संकल्प) की प्रबलता का नाम ही इच्छाशक्ति है। मन के भीतर पहले इच्छा का जन्म होता है, फिर उस इच्छा को पूर्ण करने का संकल्प मन में उठता है। फिर प्रयत्न के द्वारा हम उस संकल्प को कार्य में रूपांतरित कर लेते हैं। इसलिये मन में उठने वाले विचारों एवं इच्छाओं को बहुत सावधानी के साथ विवेक-प्रयोग करके केवल उन्हीं इच्छाओं को प्रश्रय देना उचित होगा जो आपात मधुर फल देने वाले न हो, क्योंकि उसका परिणाम बाद में बुरा भी हो सकता है। सद्संकल्पों या उच्च भावों को इच्छा शक्ति के रूप में बदलने का साधन है- स्वपरामर्श (Autosuggestion)!  इस प्रक्रिया में व्यक्ति सदैव यह चिंतन करता रहता है- में इन्द्रियां नहीं हूं, में मन नहीं हूं, में क्रोध नहीं हूं, में लोभ या मान नहीं हूं। नेति-नेति करते चले जाएं। नेति-नेति करते-करते शेष रहेगा-केवल चैतन्य (अविनाशी ईश्वर-existence -consciousness -bliss)। में चैतन्य हूं, केवल चैतन्य हूं और उसके आलावा कुछ नहीं हूँ। यही है विवेकज-ज्ञान ! किन्तु विवेक-प्रयोग करने के लिये पहले अपने चंचल मन को थोड़ा शान्त करना होगा, उसको अपने सामने बैठा कर उससे बातचीत करनी होगी। प्रत्याहार का मोटा स्वरूप है संयम रखना, इन्द्रियों पर संयम रखना। 
उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मीठा बहुत खाता है कुछ समय बाद वह अपनी मीठा खाने की आदत में तो संयम ले आता है परन्तु अब उसकी प्रवृति नमकीन खाने में हो जाती है। यह कहा जा सकता है कि वह पहले भी और अब भी अपनी रसना इन्द्रिय पर संयम रख पाने में असफल रहा। उसने मधुर रस को काबू करने का प्रयत्न किया तो उसकी इन्द्रिय दूसरे रस में लग गर्इ। इसी भांति अगर कोर्इ व्यक्ति अपनी एक इन्द्रिय को संयमित कर लेता है तो वह अन्य इन्द्रिय के विषय (देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्श  करना आदि) में ओर अधिक आनन्द लेने लगता है।  हर आदमी यही कहता है कि मन नहीं मानता, मन ही ले जाता है, मन ही लाता है, मन नचा रहा है, मैं क्या करूँ? मैं तो चाय बन्द करना चाहता हूँ लेकिन मन मानता ही नहीं। मन को रोके बिना इन्द्रियाँ काबू में नहीं आ सकती। कैसे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, इस बात को प्रत्याहार में समझाया है। एक को रोकते हैं तो दूसरी इन्द्रिय तेज हो जाती है। दूसरी को रोकें तो तीसरी, तीसरी को रोकें तो चौथी, तो पाँचों ज्ञानेनिद्रयों को कैसे रोकें? अगर एक इन्द्रिय को रोकने में ही बड़ी कठिनार्इ है तो पाँचों ज्ञानोन्द्रियों को रोकना तो बहुत कठिन हो जायेगा। सन्त तुलसीदास ने कहा है -"अली-मृग-मीन-पतंग गज-जरै एक ही आँच, तुलसी वे कैसे जियें -जिन्हें जरावे पाँच ? " ठाकुर देव कहते थे - "पंच भूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे ! "  

इसके लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण देकर हमें समझाया जाता है जैसे जब रानीमक्खी कहीं जाकर बैठ जाती है तो उसके इर्द-गिर्द सारी मक्खियाँ बैठ जाती हैं। उसी प्रकार से हमारे शरीर के अन्दर मन है। वह मन (awareness) रानी मक्खी है और 5 ज्ञानेन्द्रियाँ और 5 कर्मेन्द्रियाँ बाकी मक्खियाँ हैं। रानी मक्खी को उड़ाकर ले जाओ और वहाँ पर बिठाओ जहाँ पर वास्तव में बिठाना चाहिये। उस रानी मक्खी को आज तो हम न जाने किस-किस जड़ वस्तु में बिठा रहे हैं। रानी मक्खी को वहाँ से उड़ा दो, और उड़ा के वहाँ बिठा दो जहाँ पर उसको इच्छित रस (वैकल्पिक आहार) प्राप्त हो जाये। संसार में से उस रानी मक्खी को हटाकर भगवान के नाम (साक्षी चेतना -witness-consciousness अथवा माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस के गुरु-प्रदत्त नाम!) में बिठा दो। फिर यह अनियंत्रित (अविवेक-पूर्ण) देखना, सूंघना व छूना आदि सब बन्द हो जायेंगे। 
प्रत्याहार की सिद्धि के बिना हम अपने मन को पूर्णत्या परमात्मा में नहीं लगा सकते। महर्षि व्यास के अनूसार - इंद्रियाँ अपने विषय से असम्बद्ध हैं, जैसे मधुमक्खियाँ रानी मधुमक्खी का अनुकरण करती हैं। राजा मन के निरोध होने से इन्द्रियों का भी निरोध हो जाता है। योग की इस स्थिति को ही प्रत्याहार कहा जाता है। चेतना (awareness) नाम-रूप दृष्टिगोचर वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहती हैं और चित्त उसका माध्यम बनता है,और यह ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त होता है। विषय (कामिनी-कांचन) में अत्यधिक आसक्ति होने के कारण हमारा चित्त (awareness) उसमें भटक जाता है  जब इंद्रियाँ विषयों को छोड़कर विपरीत दिशा में मुड़ती हैं तो प्रत्याहार होता है। 
अर्थात इंद्रियों की बहिर्मुखता का अंतर्मुख होना ही प्रत्याहार है। योग के उच्च अंगों के लिए अर्थात धारणा, ध्यान तथा समाधि के लिए प्रत्याहार का होना आवश्यक है।  प्रत्याहार में इंद्रियों व कमेंद्रियों को उनके विषयों से संयोग होने से रोककर उन्हें अंतर्मुखी करना है। ऐसा नहीं होता की प्रत्याहार से आँखे कोई दृश्य नहीं देखती ,कान कोई शब्द नहीं सुनते या नाक कोई गंध ग्रहण नहीं करते, त्वचा से स्पर्श नहीं होता या जीभ किसी रस का ग्रहण नहीं करती है। प्रत्याहार का साधक सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखता,सब कुछ सुनते हुए भी कुछ नहीं सुनता ,सब कुछ सुंघते हुए भी कुछ नहीं सूंघता,उसी प्रकार सब कुछ स्पर्श व रस ग्रहण करता हुआ भी कुछ नहीं करता। अर्थात वह सब कुछ देखता भी है। सुनता भी है सूंघता भी है और स्पर्श भी करता है व रस भी ग्रहण करता है। परन्तु रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श (कामिनी-कांचन या दृश्य) के प्रति उसकी कोई भी मनोवृत्ति नहीं  होती, उनमें कोई आसक्ति नहीं होती। किसी भी भाव में उसकी कोई निजी आसक्ति नहीं होती। 
वह श्रेय-प्रेय विवेक-विचार करके उतना ही ग्रहण करता है , जितना अपना धर्म पालन के लिए उसे अनिवार्य प्रतीत होता है शत्रु को तलवार लेकर आते हुए देखकर भी वह बिना किसी भय के युद्ध करता है। वह ईश्वर द्वारा प्रदत्त इस शरीर की रक्षा के लिए ,ईश्वर द्वारा प्रदत्त कर्तव्य कर्म समझकर, अपना बचाव करता है। परन्तु उस बचाव में उसका अपना कोई भाव नहीं होता। शरीर भी ईश्वर प्रदत्त है ,कर्म भी ईश्वर (माँ जगदम्बा) प्रदत्त है ! और मृत्यु भी ईश्वर प्रदत्त। शरीर-मन का जीवन-मरण खेल है, उसके यथार्थ स्वरूप का (आत्मा-चैतन्य का) न जीवन है और ना ही मृत्यु है। मन (चेतना awareness) को विषयों में जाने से खींचकर अंतर्मुखी करने के लिए, भीतर की यात्रा के लिए जो वैकल्पिक आहार है उसे ही प्रत्याहार कहते हैं। प्रत्याहार ही मन, शरीर और इन्द्रियों को इकठ्ठा कर उन्हें सम्पूर्ण और शुद्ध चेतना (pure consciousness) के साथ एकरूप कर देता है। तुम्हें एक गहरे प्रत्याहार (धारणा- ध्यान) के बाद यह अनुभव भी होता है कि  तुम पूर्ण हो और एकरूप हो। जीसस ने भी कहा कि मैं मनुष्यों को पूर्ण बनाने आया हूँ।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमारे सामने बहुत बड़ा कार्य है, और इसमें सर्वप्रथम और सबसे महत्व का काम है-अपने उन सहस्रों सुप्त संस्कारों पर अधिकार जमाना, जो अभी अनैक्षिक सहज क्रियाओं में परिणत हो गए हैं।" ३/१२०  इन्द्रियों को रोकना हो तो अन्दर भूख उत्पन्न करनी होगी। इनको जीतना हो तो तपस्या करनी पड़ती है और तपस्या के पीछे त्याग की भावना लानी पड़ती है। त्याग की भावना और तपस्या को हमने साथ में जोड़ लिया तो हम इन्द्रियों को जीतने में सक्षम हो जायेंगे। वैसे हम तपस्या बहुत करते हैं। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो तपस्या करता ही न हो। पैसे की भूख है तो हम पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं। कहाँ-कहाँ से लाते हैं। क्या-क्या करते हैं। सुबह से लेकर रात्रि में सोने तक और जब से होश (देहाध्यास) में हैं तब से आज तक हम उसी के लिए लगे हैं।  प्राणी जन्म लेने के बाद जैसे जैसे युवा होता जाता है इस स्थावर-जंगम नाम-रूप के जगत में उसके मन का विचरण भी बढ़ता जाता है। प्रायः मन बाहरी विषय वस्तुओं में रमा रहता है परन्तु जब तुम ध्यान के दौरान मन को बाहरी वातावरण से समेट कर भीतर किसी वस्तु में अटका देते हो उसे ही प्रत्याहार कहते हैं। इसे मन के लिए एक वैकल्पिक आहार भी कह सकते हैं। एक ऐसा विकल्प जिस से मन भीतर की ओर आने लगे।
 कोई भी मदारी या सर्कस का रिंगमास्टर चेतन होता है, इसीलिए वह अन्य चेतन जीवों जैसे भालू, बन्दर, तोता, हाँथी आदि को नचाता है, उससे सर्कस के करतब करवा लेता है। लेकिन कोर्इ जड़ किसी चेतन को नचा दे, तब समझना बड़ा कठिन हो जाता है। लेकिन हो यही रहा है। हम अपने जड़ मन को अपने अधिकार में नहीं रख पा रहे हैं। बल्कि यह जड़ मन हमें नचा रहा है। क्योंकि र्इश्वर को प्राप्त करने की ऐसी भूख नहीं है, जैसी भूख इन्द्रिय विषयों -कामिनी-कांचन के लिए है। जब र्इश्वर को प्राप्त करने के लिए भूख नहीं है, तो हम इन्द्रियों के ऊपर संयम नहीं कर पायेंगे ।  प्रत्याहार का जो best known तरीका है, प्रत्याहार का जो best practical application है -प्रत्याहार का जो सबसे अच्छा व्यावहारिक अनुप्रयोग है, जिससे प्रत्याहार हो सकता है - वो है मार्गदर्शक गुरु से सीखकर अवतार के नाम का बीजमंत्र जप करना। वैसे प्राणायाम से भी प्रत्याहार हो सकता है, किन्तु जप करने से स्वतः कुम्भक का अनुभव होता है, और एक दिन आसानी से प्रत्याहार भी घटित हो जाता है। माँ काली के भक्त तथा बंगाल के कवि रामप्रसाद गाते थे - 
मन रे कृषिकाज जानो ना, मन रे कृषिकाज जानो ना।
 एमन मानव जमिन रईलो पतित, आबाद करले फलत सोना।
काली नामे दाओ रे बेड़ा, फसल तच्छरूप हबे ना,  
काली नामे दाओ रे बेड़ा, फसल तच्छरूप हबे ना। 
 'मन रे कृषिकाज जानो ना, मन रे कृषिकाज जानो ना।'
[মন রে কৃষিকাজ জানো না,মন রে কৃষিকাজ জানো না।এমন মানব জমিন রইল পতিত,আবাদ করলে ফলত সোনা।কালী নাম দাও রে বেড়া,ফসলে তছরুপ হবে না।সে যে মুক্তকেশী শক্ত বেড়া-তার কাছেতে যম ঘেঁষে না।অদ্য কিংবা শতাব্দান্তে,বাজেয়াপ্ত হবে জানো না।এখন আপন একতারে মন রে, চুটিয়ে ফসল কেটে নে না।গুরুদত্ত বীজ রোপন ক’রে,ভক্তিবারি সেঁচে দে না।একা যদি না পারিস, মন –রামপ্রসাদকে সঙ্গে নে না।]  
अर्थात - 'मन, तुम 'कृषिकाज' - 'कृषि-कार्य करना'(farming-किसानी करना) नहीं जानते ? ऐसा बहुमूल्य मानव-शरीर रूपी जमीन (ढाँचा) मिला था ऊसर रह गया ?  यदि उसमें खेती करते तो सोने जैसी फसल उग सकती थी! 'काली नामे दाओ रे बेड़ा, फसल तच्छरूप हबे ना' - अर्थात 'काली-नाम' में भक्ति का घेरा (fence -बाड़) दे दो। फसल (crop-उपज) को क्षति (तच्छरूप) नहीं पहुँचेगी। 
" से जे मुक्तकेशी शक्त बेड़ा, तार काछेते यम घेंशे ना।   से जे मुक्तकेशी शक्त बेड़ा, तार काछेते यम घेंशे ना। " 'वे' तो खुले बालों वाली हैं ( माँ काली) तो मुक्तकेशी हैं काल को भी खा जाती हैं -सर्वव्यापी विराट 'अहं' -बोध या मातृहृदय वाली माँ जगदम्बा हैं!) हर ओर फैली हुई सुदृढ़ बाड़ (strong fencing) हैं, उनके पास तो यम (मृत्यु का देवता) फट्क भी नहीं सकता! " 
अद्य किंवा शताब्दान्ते , बाजेयाप्तो हबे जानो ना।
एखन आपन एकतारे मन रे, चुटिये फसल केटे ने ना। " 
मृत्यु आज ही होगी या 100 साल की आयु बीत जाने के बाद होगी, पर एक दिन शरीर की आयु को जब्त कर लिया जायेगा, क्या तुम यह नहीं जानते ? अभी, और इसी समय मन रे ! तुम अपने हृदय में विराजित माँ जगदम्बा से (existence- consciousness-bliss,सच्चिदानन्द स्वरुप) से जुड़ जाओ, और शांत होकर फसल को काट लो न। अरे दुःखी मन !  तुम कृषि कर्म (farming-किसानी करना) नहीं जानते ?  "गुरुदत्त बीज रोपन क'रे, भक्तिबारि सेंचे दे ना। एका यदि ना पारिस, मन -रामप्रसाद के सङ्गे ने ना।"  'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द 'BE AND MAKE ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में जो मंत्ररूपी बीज तुम्हें अपने जीवनमुक्त गुरुदेव से प्राप्त हुआ है, उसको भक्ति के जल सींच (irrigation) दो न। और यदि अकेले तुम इस कार्य करने में समर्थ नहीं हो, तो मन - तुम रामप्रसाद को (अपने व्यष्टि अहं को ) भी अपने साथ रखकर (आदर्श चयन का वैकल्पिक आहार - ठाकुर, माँ सारदा देवी, स्वामीजी) की भक्तिबीज को जल से सिंचाई करने में लग जाओ। 
[ एक फ़िल्मी गाना है - दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना, जहाँ नहीं चैना वहाँ नहीं रहना। दुखी मन…दर्द हमारा कोई न जाने, अपनी गरज के सब हैं दीवाने। किसके आगे रोना रोएं, देस पराया लोग बेगाने। दुखी मन…लाख यहाँ झोली फैला ले, कुछ नहीं देंगे इस जग वाले। पत्थर के दिल मोम न होंगे,चाहे जितना नीर बहाले। दुखी मन…अपने लिये कब हैं ये मेले, हम हैं हरेक मेले में अकेले। क्या पाएगा उसमें रहकर जो दुनिया जीवन से खेले। दुखी मन…फ़िल्म: फंटूश (1956)/गायक: किशोर कुमार/ संगीतकार: एस. डी. बर्मन/गीतकार: साहिर लुधियानवी/ अदाकार: देव आनंद, शीला रमानी।  
प्रत्याहार का कोई सीधा और बिल्कुल स्पष्ट एक ही मार्ग क्यों व्याख्यायित नहीं है ? विवेक-प्रयोग के विषय में अष्टावक्र जी ने कहा  है - मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥१-११॥ स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है ।।११।। वेदों के चार सन्देशों को महावाक्य कहा जाता है।और महावाक्यों पर केवल श्रद्धा रखना ही यथेष्ट होता है -हमलोग स्वयं के विषय में जैसा सोचते हैं -वैसा ही बन जाते हैं ! क्योंकि यह जगत मनःकल्पित है!! स्वामीजी कहते थे- " या मतिः सगातिर्भवेत" You become what you think." - जिसकी जैसी मति उसकी वैसी गति होती है। जिसकी मति मन या प्रवृत्ति या प्रबल-इच्छा) जैसी होती है, उसकी वैसी गति होती है। भारत में एक किम्वदंती प्रचलित है कि भौंरा किसी विशेष कीड़े (झींगुर) को पकड कर अपने घर में ले आता है, और उसे बंद करके बहुत पिटाई करता है। फिर दरवाजा बंद करके घर के चारो और गुण-गुण करके चक्कर काटता रहता है। घर में बंद झींगुर डर के मारे तीव्रवेग से भौंरे के बारे में सोचता रहता है, और अंत में स्वयं भौंरा बन जाता है। 
श्रीरामकृष्ण देव [29 मार्च 1883 समाधितत्व-सविकल्प और निर्विकल्प ] कहते थे न " सुना नहीं ? भौंरे की चिन्ता करते करते झींगुर भौंरा ही बन जाता है? वह अनुभव कैसा होता है जानते हो ? मानो हण्डी की मछली को गंगा में छोड़ दिया हो।"
(सविकल्प) अमृत - क्या जरा भी अहंकार नहीं रह जाता ? 
श्रीरामकृष्ण - ...'मैं' और 'तुम ' इन दोनों के रहने ही से स्वाद मिलता है। कभी कभी इस 'अहं' को भी वे मिटा देते हैं।  ...तब क्या अवस्था होती है, यह कहा नहीं जा सकता ! नमक का पुतला समुद्र नापने गया था। ज्योंही समुद्र में उतरा कि गल गया। ' तदाकाराकारित  ' हो गया ! अब लौटकर कौन बतलाये कि समुद्र कितना गहरा है !" 
इसीलिये धारणा करने के पहले आदर्श-चयन बहुत सतर्क होकर करना चाहिये। हमारी चेष्टा यह होनी चाहिये कि भय और शत्रुता से नहीं,बल्कि अपने मंगल और सभी मनुष्यों के कल्याण के शुभ संकल्प के साथ अपने आदर्श में हमारा मन निरन्तर नियोजित रहे। मन में निरंतर विद्यमान रहने वाले भावों (सद्संकल्पों) की प्रबलता का नाम ही इच्छा शक्ति है। मन के भीतर पहले इच्छा का जन्म होता है, फिर उस इच्छा को पूर्ण करने का संकल्प मन में उठता है। फिर संकल्प को हमलोग प्रयत्न (ऑटो-सजेशन) के द्वारा कार्य में रूपांतरित कर लेते हैं। इसलिये मन में उठने वाले विचारों एवं इच्छाओं को बहुत सावधानी के साथ विवेक-प्रयोग करके केवल उन्हीं इच्छाओं को प्रश्रय देना उचित होगा जो आपात मधुर फल देने वाले न हो, क्योंकि उसका परिणाम बाद में बुरा भी हो सकता है।
श्रीमद् भागवत में भी कहा है-यत्र तत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया।स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् भयाद् वापि याति तत्तत् स्वरूप ताम्।।व्यक्ति अपने सम्पूर्ण मन को  स्नेहवश, या शत्रुतावश या भये से जहाँ जहाँ या जिस किसी आदर्श पर एकाग्र किये रहता है, उसका मन वैसा ही आकार धारण कर लेता है, वह उसीको स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।   "यतो यतो मनशचरति मनशचंचलमस्थिरम्।  ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत।।"और जैसे जैसे मन विचरण करता है वैसे वैसे ही वह चंचल व अस्थिर भी होता जाता है अतः उन उन विषयों से मन को नियंत्रित करते हुए अपने वश में लाना चाहिए। इसी को प्रत्याहार कहा गया है। अनुभवी साधको के अनुसार प्रत्याहार योग का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।
 "चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा" स्वयं को विसम्मोहित ( डी-हिप्नोटाइज) करने के लिए सर्वप्रथम ऑटो-सजेशन फॉर्मूला , (स्वाध्याय)प्रपत्र का अभ्यास करके चरित्रवान मनुष्य बन जाने का संकल्प ग्रहण करता है; और  स्वयं को रात-दिन सुनाता रहता है -  "अब लौं नसानी, अब न नसैहों। रामकृपा 'भव-निसा' सिरानी जागे फिर न 'डसैहौं' ॥ पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।"  उसको समझाना होगा - 'भाई मन जो विषय पहले पहल तो सुखकर लग रहा है, बाद में हानिकारक या बहुत बुरा परिणाम दे सकता है। या जो पहले भी कड़ुआ खराब और बाद में भी खराब फल देता है। या ऐसा भी हो सकता है, कि पहले स्वादिष्ट नहीं लगता किन्तु उसका फल बाद में बहुत अच्छा मिलता है। जिसका परिणाम अन्त में सुखद होता है, वैसे ही विचारों को पुष्ट करने की चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकार के चिन्तन को हमलोग विवेक-प्रयोग कहते हैं। 
 यह विज्ञान वह विज्ञान है जो मनुष्य को सच्ची प्रसन्नता देता है, इस आनन्द दायनी विज्ञान के प्रचारक -शिक्षक बनिये और बनाइये, ताकि अन्य लोग भी उस आनन्द को चख सकें। यही लीडरशिप ट्रेनिंग का लक्ष्य है। एकाग्रता 5 चरणों में स्वतः प्राप्त होती है !] जब यम-नियमादिकों के अनुष्ठान द्वारा संस्कृत हुआ चित्त विषयों से विमुक्त होकर स्थित हो जाता है जब चित्त के अधीन अपने २ विषयों में संचार करने वाली इन्द्रियें भी विषयों से विमुख होकर स्थित हो जाती हैं।  इस प्रकार इन्द्रियों की वाह्म विषयों से विमुख होकर चित्तस्थिति के समान जो स्थिति है उसी को “प्रत्याहार” कहते हैं।। तात्पर्य्य यह है कि इन्द्रियों का वाह्म विषयों में जाना सहजस्वभाव है, उस सहज स्वभाव के विपरीत अन्तर्मुख होने को प्रत्याहार कहते हैं।।
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[29-12-2005:चौथे सत्र में पूज्य नवनी दा का व्याख्यान : 'सरिसा आश्रम कैम्प' ( Fourth session Navni da: Sarisa Ashram Camp):
पूज्य दादा अष्टांग योग के पाँच अंगों को  " जीवन्मुक्त वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा" में 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' बनो और बनाओ'- "Be and Make Heart Whole Man" की तकनीक (Leadership Training) कहते थे। आज उन्होंने अपने व्याख्यान का प्रारम्भ इस प्रकार किया - " ॐ वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता | मनो मे वाचि प्रतिष्ठितम् | आविरावीर्म एधि | वेदस्य मे आणीस्थः | श्रुतं मे मा प्रहासीः | अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामि | ऋतं वदिष्यामि | सत्यं वदिष्यामि | तन्मामवतु | तद्वक्तारमवतु | अवतु माम्।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||" 
[-अर्थात  हे अवतार वरिष्ठ (ठाकुर देव) ! मेरी 'वाणी मन में' - स्थित हो, और 'मन वाणी में' स्थित हो जाये (मैं  कभी भाव के घर में चोरी न करूँ।) हे ज्योतिस्वरूप परमेश्वर ! आप मेरे लिये प्रकट हो जाइये ! हे मेरे मन और वाणी तुम वेद विषयक ज्ञान को प्राप्त कराने में सक्षम बनो। ' श्रुतं मे मा प्रहासीः' - गुरुमुख से सुना हुआ तथा अनुभव-जन्य ज्ञान मेरा त्याग न करे। अपने यथार्थ-स्वरुप का मुझे कभी विस्मरण न हो।  मैं केवल यह चाहता हूँ कि 'अनेन अधीतेन' -इसी अध्यन में - केवल ब्रह्म-विद्या के पठन-पाठन में ' अहो रात्रान सन्दधामि ' दिन-रात एक कर दूँ। मैं अपनी वाणी से केवल 'ऋत' विवेक-सम्पन्न वचनों को ही बोलूँगा, वस्तुनिष्ठ स्तर पर कोई चीज जैसी हो वैसी कहना ऋत कहा गया है। (जैसे स्वरूपतः प्रत्येक मनुष्य अव्यक्त ब्रह्म है!) मैं सर्वदा सत्य ही बोलूँगा अर्थात जो सुना और समझा हुआ भाव है -['जड़ कुछ नहीं, सब कुछ चैतन्य है,' E=M है] ठीक उसी दृष्टि से 'तेषु आत्मदेवता बुद्धिः ' -सभी छात्रों में देवता-बुद्धि रखकर वेदाध्यापक बनने की शिक्षा दूँगा। वह धर्म वह सत्य मेरी रक्षा करे। वक्ता की रक्षा करे। हे ओंकार स्वरूप परमात्मन् ! मेरे श्रोता (शिष्य) की तथा वक्ता- शिक्षक दोनों की रक्षा करें। दोनों के बीच; -वक्ता और श्रोता के बीच मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा का विनमय ऐसा हो जो गुरू-शिष्य, अपने-पराये तथा विश्वभर के लिए शान्ति के सन्देश वाहिका हो। ] 
पाश्चत्य शिक्षापद्धति के लागु होने के बाद, जबसे भारतीय सांस्कृतिक जीवन मूल्यों- 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव ' जैसे उच्च भावों का शिक्षा से सम्बन्ध समाप्त हो गया है, तबसे परिवार समाज और विद्यालय का परिवेश बालकों के नैतिक एवं चारित्रिक विकास में सहायक सिद्ध नहीं हो रहे हैं। जिसके फलस्वरूप देशवासियों का नैतिक -मानदण्ड बहुत नीचे गिर गया है। स्वामी विवेकानन्द ने एक नव-विवाहित अमेरिकन दम्पति को बताया था, कि आपके देश में तो एक दर्जी (Tailor) भी किसी व्यक्ति को सभ्य और सुसंस्कृत बना सकता है, किन्तु भारत में 'विद्या गुरुमुखी ' मानी जाती है। भारत का मत है कि गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित शिक्षकों/ नेताओं के प्रशिक्षण से ही मनुष्य चरित्रवान, सभ्य और सुसंस्कृत - अथवा 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' (Heart Whole Man) बन सकता है। जिसको 'man with capital 'M' यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा -पद्धति कहते हैं।इस हार्ट्-होल मैन 'विशाल-उदार हृदय का मनुष्य' (भ्रममुक्त /डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य) बनाने में समर्थ भारतीय शिक्षा-पद्धति के पार्थक्य को दिखलाने के लिए ही तैत्तरीय उपनिषद में 'श'दीर्घिकार -लगाकर इस पद्धति को 'शीक्षावल्ली' कहा गया है ! क्योंकि भारतीय मनीषा यह जानती है कि यह दृष्टिगोचर जगत, यह सब कुछ पूर्ण से, शाश्वत चैतन्य (eternal Vibration) से सब कुछ क्रमविकसित होकर आया है - ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||-वह सत्यस्वरूप परमात्मा (ठाकुर) पूर्ण हैं, यह जगत भी पूर्ण ही है; क्योंकि यह पूर्ण से ही निकला है. कॉर्डिनेट ज्योमेट्री में हम पढ़ते हैं, पूर्ण (अनन्त) से पूर्ण निकाल लेने पर पूर्ण (अनन्त) ही बचता है ! हमारे - आपके त्रिविध तापों की शांति हो!'संपूर्ण विश्व को एक परिवार' मानने की भावना,या 'वसुधैव कटुम्बकम्' की अवधारणा ही भारतीय संस्कृति की विशेषता है। 'Unity in Diversity' या अनेकता में एकता को देखने वाली दृष्टि ही भारत की विशेषता है ! 'सा विद्या या विमुक्तये'- अर्थात वह शिक्षा ही यथार्थ 'शीक्षा' है, जो किसी व्यक्ति को 'अयं निजः परोवेति' के भ्रम से मुक्त मनुष्य (डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य) बना देती हो!अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।। यह मेरा है, यह पराया है, ऐसे विचार तुच्छ या निम्न कोटि के व्यक्ति करते हैं। इस 'शीक्षा' में प्रशिक्षित व्यक्ति सम्पूर्ण विश्व को ही अपना परिवार समझता है। 
 किन्तु स्वयं पुरुषार्थ और प्रयत्न करके ही भ्रममुक्त (d-hypnotized) मनुष्य या ' पूर्ण हृदयवान मनुष्य' (Heart-Whole Man) बना जा सकता है।  मनुष्य भी पशु के जैसा आहार,निद्रा, भय और वंश-विस्तार करते हुए एक दिन बूढ़ा होकर मर जाने के लिये बाध्य नहीं है। मनुष्य योनि सर्व-श्रेष्ठ योनि है, वह भोग योनि नहीं है,मनुष्य अपने 'गुरु विवेकानन्द' से विवेक-प्रयोग करने की विद्या सीखकर आंशिक मनुष्य और आंशिक पशु की मिली-जुली अवस्था से पूर्ण-मनुष्य में उन्नत हो सकता है। पशुओं का अन्तःकरण मनुष्यों के जैसा उन्नत नहीं होता कि वे भी अपने गुरु के पास जाकर शाश्वत और नश्वर में विवेक-विचार करना सीख सकें। इसलिये वे जीवन भर पशु के जैसा-आहार,निद्रा, भय और मैथुन करते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। 
स्वामीजी (गुरु विवेकानन्द) कहते हैं- " मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसको अभिव्यक्त करना ही धर्म है। असीम शक्ति का स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान ( बीज में वृक्ष के जैसा-क्रमसंकुचित) है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। ...यही है मनुष्य का,धर्म का, सभ्यता या प्रगति (क्रम-विकास) का-इतिहास !" 
[Religion is the manifestation of the natural strength that is in man. A spring of infinite power is coiled up and is inside this little body, and that spring is spreading itself. ...This is the history of man, of religion, civilization, or progress.(evolution)
 गुरु स्वामी विवेकानन्द ने इसी अंश से पूर्ण मनुष्य बनने की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहा था-" मनुष्य तीन प्रकार के गुणों से निर्मित है,पाशविक, मानवीय और दैवी। जो तुममें दैवी गुण बढ़ाता है वह पूण्य है और जो तुममें पशुता बढ़ाता है वह पाप है।  तुमको पाशविक वृत्ति को समाप्त कर 'मनुष्य ' बनना चाहिये -अर्थात प्रेममय तथा उदार होना चाहिये। इससे भी उपर उठकर तुम्हें शुद्ध आनन्द, सच्चिदानन्द, अदाहक अग्नि के समान, अद्भुत प्रेममय  किन्तु मानवीय प्रेम की दुर्बलता से रहित, दुःख की भावना से (मान-अपमान से) रहित बनना चाहिये।" 
 अंग्रेजी के कवी Robert Browning (7 May 1812 – 12 December 1889) की प्रसिद्ध कविता है  -   " Progress, man's distinctive mark alone,Not God's, and not the beasts: God is, they are;Man partly is, and wholly hopes to be. " - - उन्नति या तरक्की - केवल मनुष्यों की ही विशिष्ट पहचान है,  न तो पशु प्रजाति तरक्की कर सकते हैं, और न ईश्वर। ईश्वर तो पूर्ण ही हैं,  वे सदा स्व-महिमा में स्थित हैं। और पशु-प्रजातियाँ भी उम्र भर पशु ही रहते हैं। एकमात्र मानव-प्रजाति ही ऐसी है, जो धर्म की सहायता से पशु से मनुष्य में और मनुष्य से ईश्वर में उन्नत हो सकती है। क्योंकि मनुष्य बन जाने के बाद इच्छा होती है कि ईश्वर (पूर्णतः निःस्वार्थ ) बन जाएँ। अर्थात उन्नति,आरोहण या संसार-सागर से पार-गमन (crossing) की चेष्टा करने की आवश्यकता ईश्वर को  नहीं है, पशुओं में तो इसकी क्षमता भी नहीं है,यह केवल मनुष्यों का ही वैशिष्ट्य है। ईश्वर तो पूर्णता में ही विराजमान रहते हैं, उनके आरोहण (ascension) का तो प्रश्न ही नहीं उठता। पशु की प्रजातियाँ (गाय-भैंसें,गधे आदि) ' सतयुग ' में जैसे थे, आज तक  वैसी ही हैं। किन्तु अपूर्ण होने पर भी मनुष्य पूर्णता में पहुँचने की आशा लेकर उन्नति के लिये प्रयत्न करता है। उर्दू के प्रसिद्द शायर जलालुद्दीन रूमी का एक प्रसिद्द नज्म है -
'आदमी की तरक़्क़ी' 
(मनुष्य का क्रमविकास) 
१.बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया
  डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?" 
" बेजान चीज़ों से मर गया, पौधा बन गया;
 फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया। 
  हैवानों से मर गया और 'आदमी ' हो गया. 
 डरूँ क्यों, कि कब। ...... 
अगली दफ़े आदमियों के बीच से मर जाऊँ; 
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ।
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना; 
क्युंके सिवा 'उस' के हर शै को है फ़ना हो जाना।
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा।
फिर जो सोच में नहीं आता, मैं 'वो' (ब्रह्म)  हो जाऊँगा !!
इसका तात्पर्य यह है कि खनिज, उद्भिज, पौधा, स्थावर-जंगम, पशु आदि योनियों से उन्नत होते हुए अन्त में यह मनुष्य का शरीर प्राप्त हुआ है। किन्तु यही अन्त नहीं है, क्रम-विकास अब भी चलना चाहिये। मनुष्य को धर्म (अर्थ-काम-मोक्ष) के मार्ग पर चलते हुए मनुष्य को देवता (ब्रह्म) में विकसित हो जाना चाहिये। देवता बन जाने के लिये स्वर्ग -नरक जाने की आवश्यकता नहीं है। Heart whole Man, man with capital 'M', d-hypnotized, भ्रममुक्त मनुष्य,  (100 में 85 खा जाने वाला PM नहीं) शतप्रतिशत निःस्वार्थपर मनुष्य अथवा 'देवता जैसा मनुष्य' बनकर भी धरती पर ही रहा जाता है। 
स्वामी विवेकानन्द का युवाओं के प्रति आह्वान था- Be and Make ! वास्तव में यह वेदान्त के चार संस्कृत महावाक्यों जैसा अंग्रेजी का एक महावाक्य है इस महावाक्य में स्वामी जी ने हमें सर्वप्रथम 'Be'- होने का अर्थात 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' (Heart whole Man-या शतप्रतिशत निःस्वार्थपर मनुष्य) बनने का आदेश दिया है, अगले ही शब्द में वैसा मनुष्य बनने का उपाय बताते हुए कहते हैं- 'Make ! ' वे कहते हैं -'अपने भीतर ब्रह्म-भाव को जाग्रत रखने का सबसे सरल तरीका है, दूसरों को इस कार्य में सहायता करना।' तुम स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने और दूसरों को मनुष्य बनाने के प्रयत्न (पुरुषार्थ चतुष्टय ) में आगे बढ़ो! आगे बढ़ो! 'चरैवेति चरैवेति !' क्योंकि 'पूर्णहृदयवान सच्चा मनुष्य' बन जाना यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। यह कैसे सम्भव होता है ? यह सम्भव होता है -3'H' का विकास करने से। वैराग्य सहित अभ्यास करने से मन (awareness-चेतना) की अनन्त शक्ति को अपने वश में ले आने से सबकुछ सम्भव हो जाता है। उसका उपाय बतलाते हुए 'सरस्वतीरहस्योपनिषत्' में कहा गया है -  
देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।
        यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ ३१ ॥ 
 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः । 
           क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२ ॥‘
उस परमात्मतत्त्व [स्वामी विवेकानन्द,सच्चिदानन्द, विवेकज-आनन्द या 'existence-consciousness -bliss'] की ओर दृष्टि जाते ही, दृष्टि ज्ञानमयी या विवेक-सम्पन्न दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। और मिथ्या देहाध्यास (स्त्री-पुरुष शरीर में) 'मैं'-पन का मिथ्या अहं चला जाता है। हृदय की ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं, सब संशय मिट जाते हैं और सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’ और पूर्ण का साक्षात्कार होते ही यह अनुभव हो जाता है, कि मैं भी पूर्ण हूँ, क्योंकि अखण्ड चैतन्य (witness- consciousness -bliss) का खण्ड नहीं हो सकता।  
' जन्माद्यस्य यतः ' - जिससे सबकुछ निकला, जिसमें सबकुछ स्थित है और जिसमें सबकुछ लीन हो जाता है; इस सृष्टि के आदि में जो मूल वस्तु है, उसी का एक कण या एक अंश हमलोग भी हैं।  उस मूल शक्ति का कम या ज्यादा अंश होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।  यदि उस शक्ति के एक कण का भी स्वाद हमें मिल गया है, तो क्या हम अब भी पहले जैसा २ पैरों से चलने वाला पशु-मानव बने रह सकते हैं? सभी जीवों में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो अपने सिर को उठाकर आसमान में ध्रुव तारे तक निहार सकता है। ईश्वर या अल्लाह-परवरदिगार को इंगित करने के लिये उपर क्यों देखते हैं ? इसलिये नहीं कि वे उपर में कही बैठे हुए हैं; बल्कि इसलिये कि वे बृहद अर्थात ब्रह्म हैं, असीम हैं, धरती की सीमा तक ही सीमित नहीं हैं।  
अनंत की अवधारणा : आकाशगंगा, मिल्की वे, क्षीरमार्ग या मंदाकिनी हमारी गैलक्सी को कहते हैं जिसमें पृथ्वी और हमारा सौरमंडल स्थित है। पुराणों में आकाशगंगा को "क्षीर" (यानि दूध) कहा गया है।  भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी कई सभ्यताओं को भी आकाशगंगा दूधिया लगी। "गैलॅक्सी" शब्द का मूल यूनानी भाषा का "गाला" शब्द है, जिसका अर्थ भी दूध होता है। फ़ारसी में  "दूध" के लिए शब्द संस्कृत के "क्षीर" से मिलता-जुलता सजातीय शब्द "शीर" है और आकाशगंगा को "राह-ए-शीरी" कहा जाता है। अंग्रेजी में आकाशगंगा को "मिल्की वे" (Milky Way) कहा जाता है, जिसका अर्थ भी "दूध का मार्ग" ही है।
इस ब्रह्मांड/सृष्टि में सबसे विस्मयकारी दृश्य है- आकाशगंगा (गैलेक्सी) का दृश्य। रात्रि के खुले (जब चंद्रमा न दिखाई दे) आकाश में प्रत्येक मनुष्य इन्हें नंगी आँखों से देख सकता है। देखने में यह हल्के सफेद धुएँ जैसी दिखाई देती है, जिसमें असंख्य तारों का बाहुल्य है। यह आकाश गंगा टेढ़ी-मेढ़ी होकर बही है। इसका प्रवाह उत्तर से दक्षिण की ओर है। पर प्रात:काल होने से थोड़ा पहले इसका प्रवाह पूर्वोत्तर से पश्चिम और दक्षिण की ओर होता है।

[जब ऐल्बर्ट आइंस्टीन ने सन्‌ 1905 में सापेक्षता का अपना खास सिद्धांत प्रकाशित किया, तब उसका और बाकी वैज्ञानिकों का विश्‍वास था कि इस अंतरिक्ष में सिर्फ एक मंदाकिनी है, यानी हमारी आकाशगंगा। दरअसल तब उन्हें अंतरिक्ष की क्षमता का अंदाज़ा ही नहीं था! आज माना जाता है कि अंतरिक्ष में 100 अरब से भी ज़्यादा मंदाकिनियाँ हैं, जिनमें से कुछ में अरबों तारे हैं। जैसे-जैसे बेहतरीन टेलिस्कोप इस्तेमाल किए जा रहे हैं, वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष में नयी-नयी मंदाकिनियाँ भी मिलती जा रही हैं।जब हम टेलिस्कोप से आकाश के तारों को निहारते हैं, तो हम क्या देखते हैं? हम देखते हैं कि मंदाकिनियों, तारों और ग्रहों में एक बहुत बड़ी और बेहतरीन व्यवस्था है। ये बिना एक-दूसरे से टकराए तय गति में घूमते रहते हैं। अंतरिक्ष में ऐसी व्यवस्था किसी विस्फोट से या बिना किसी योजना के अपने आप नहीं हो सकती। इसलिए हमें खुद से पूछना चाहिए कि ऐसी व्यवस्था की शुरूआत करने के लिए कौन-सी शक्ति  इस्तेमाल की गयी होगी? पर उस शक्ति को विज्ञान की बिनाह पर या सिर्फ किसी प्रयोग के ज़रिए पहचानना हम इंसानों के बस में नहीं। वेद कहते हैं कि वह परमेश्‍वर की पवित्र शक्‍ति है, जो जगतजननी है। ] 
 [2007 में आकाशगंगा पर हुए शोध में पृथ्वी से लगभग 7500 प्रकाश वर्ष दूर मिल्की वे या आकाशगंगा में 'HE 1523-0901' ("एच॰ई॰ १५२३-०९०१") नामक एक लाल रंग विशाल तारे की आयु १३.२ अरब साल अनुमानित की गयी, इसलिए आकाशगंगा कम-से-कम उतना पुराना तो है ही।]  देखने में आकाश गंगा के तारे परस्पर संबद्ध से लगते हैं, पर यह दृष्टि भ्रम है। एक दूसरे से सटे हुए तारों के बीच की दूरी अरबों मील हो सकती है। इसी कारण से ताराओं के बीच तथा अन्य लंबी दूरियाँ प्रकाशवर्ष में मापी जाती हैं। एक प्रकाशवर्ष वह दूरी है जो दूरी प्रकाश एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड की गति से एक वर्ष में तय करता है। उदाहरण के लिए सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सवानौ करोड़-मील है, प्रकाश यह दूरी सवा आठ मिनट में तय करता है। अत: पृथ्वी से सूर्य की दूरी सवा आठ प्रकाश मिनट हुई। 
मान लीजिए, ब्रह्मांड के किसी और नक्षत्रों आदि के बाद बहुत दूर दूर तक कुछ नहीं है, लेकिन यह बात अंतिम नहीं हो सकती है। यदि उसके बाद कुछ है तो तुरंत यह प्रश्न सामने आ जाता है कि वह कुछ कहाँ तक है और उसके बाद क्या है? इसीलिए हमारे पूर्वज ऋषियों ने इस ब्रह्मांड को अनादि और अनंत माना। ब्रह्माण्ड की कोई सीमा नहीं होती ये अनंत है। क्योंकि सोचिये की पृथ्वी से 'एक्स' दुरी पर किसी बिंदु को हम ब्रह्माण्ड की सीमा माने, तो उससे १ मीटर आगे क्या होगा ? उसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते, और यही है अनंत का एहसास। 
ब्रह्म और शक्ति (शिव-पार्वती) के बिना ब्रह्माण्ड की कल्पना करना, या जगतजननी माँ जगदम्बा के बिना जगत की कल्पना करना,अथवा ईश्वर में विश्वास करना या नहीं करना, अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव को मानना या नहीं मानना- यह मनुष्य (स्वामी विवेकानन्द जैसे ब्रह्मज्ञ महापुरुष) की व्यक्तिगत अवधारणा पर निर्भर करती है। स्टीफन हॉकिंस और अधिकतर वैज्ञानिक भगवान को नहीं मानते हैं। पीटर हिग्स भी नहीं मानते, इसमे कोई आश्चर्य नहीं है। वह उनकी अपनी मान्यता है। उनका यह मानना है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड मे सिर्फ दो ही चीजें है, पदार्थ (Matter) और ऊर्जा (Energy)। आईन्सटाइन ने प्रमाणित किया कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही है और इनका एक से दूसरे रूप मे परिवर्तन संभव है। 
वैज्ञानिकों का मानना है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड दो प्रकार के कणो से बना है, फर्मीयान (आकाश ?) और बोसान (प्राण ?)।फर्मीयान कण पदार्थ बनाते है और बोसान कण ऊर्जा। अधिकतर बोसान कण का द्रव्यमान नही होता है,इसमे फोटान भी है। फोटान बोसान का एक प्रकार है जो विद्युत-चुंबक बल का वाहक कण है।  विज्ञान ने इधर हाल में ही, १-२ वर्ष पूर्व (2004 ई० में) यह स्वीकार किया है कि गैलेक्सी या ब्रह्माण्ड केवल एक ही नहीं है। किन्तु मूर्ख ठाकुर ने बहुत पहले ही बता दिया था कि ब्रह्माण्ड केवल एक नहीं है, वेश्री रामकृष्ण देव कहते थे कि आद्द्या शक्ति ने ऐसे बहुत से ब्रह्माण्ड बनाये हैं ! Milky Way के बारे में ३-४ साल पहले Astronomy के वैज्ञानिकों ने बताया कि प्रत्येक आकाशगंगा में अलग अलग सौर-मण्डल भी होते हैं। जबकि इसके कितने ही पहले ठाकुर ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था ! 
गीता 9/10 में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - 
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।  
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।९/१० ।। 
हे कौन्तेय! मेरी अध्यक्षता में बहिरंग प्रकृति या माया शक्ति चर-अचरसहित सम्पूर्ण जगत् को प्रसव करती है, इसी कारण से यह जगत् पुनः पुनः परिवर्तित (उत्पन्न) होता है॥ मतलब प्रकृति को सृष्टी का सृजन एवं सञ्चालन करने का समग्र कार्यभार सौपते हुए, ईश्वर (भगवान शिव शंकर) अध्यक्ष के रूप में अर्थात बिना व्यवधान के प्रकृति (माँ जगदम्बा पार्वती /माँ काली) को अपना काम करने देते है। किन्तु हमलोग प्रकृति के कुछ रहस्यों-नियमों को जान लेने के बाद ही  हम समझ बैठते हैं कि हमने 'ब्रह्म' को ही जान लिया हैं! गीता के अगले 9/11 श्लोक में भगवान कहते हैं अवजानन्ति मां मूढा मानुषी तनुमाश्रितम् ।  परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ।।९/११ ।। पर मूढ (अविवेकी) लोग मुझे केवल मनुष्यदेह-धारी (नश्वर शरीर) समझ लेते हैं, और भूतमात्र के बीजरुप मेरे अविनाशी ईश्वरीय भावको नहीं समझते । [ मेरे (अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस के) परमभाव को न जानने वाले मूढ (स्टीफ हाकिंस जैसे अविवेकी वैज्ञानिक) लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योग माया से संसार के उद्धार के लिये मनुष्य रूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर (ठाकुर देव) को साधारण मनुष्य मानते हैं । ] इन तथ्यों पर कुछ विचार कीजिये और फिर देखिये की ईश्वर या ब्रह्म के अस्तित्व से सम्बंधित आपकी सोच पर क्या प्रभाव पड़ता है?
मनुष्य पशुओं की तरह केवल नीचे ही नहीं देखता अनन्त विशाल ब्रह्माण्ड की तरफ भी अपनी दृष्टि उठा सकता है।  हमारे मन की दृष्टि पुरे विश्व-ब्रह्माण्ड में कहीं भी जा सकती है। इस विश्व-ब्रह्माण्ड की धारणा करने की बुद्धि केवल मनुष्यों के पास ही है, वह अंतरिक्ष को समझ सकता है, उपर की ओर भी देख सकता है।  उत्तर आकाश में ध्रुव-तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले सप्त-ऋषि मण्डल की चाल का अध्यन करने के लिये प्लैनेटोरियम बना सकता है। आखिर नासा के वैज्ञानिकों ने भी तो मन को ही एकाग्र करके मंगल ग्रह पर अपने घुमक्कड़ रोकेट 'क्यूरिऔसिटी' ('जिज्ञासा') को मंगल ग्रह पर उतार ही दिया है।Atom का विस्फोट करना सीख लिया है। किन्तु विज्ञान कभी यह नहीं बता सकता कि मनुष्य के हृदय में Empathy या समानुभूति का विकास कैसे होता है ? एक साल पहले जो सुनामी आयी थी, उसे शायद दुर्नामी कहना ही ठीक होगा, जिसमें २.५० लाख मनुष्यों की मृत्यु हो गयी थी। २. ४३ लाख लोग बेघर हो गये थे, अभी दुनिया में उसके मेमोरियल स्तम्भ बन रहे हैं।  लेकिन सम्पूर्ण जगत में कोई भी ऐसा वैज्ञानिक नहीं था जो उसकी कोई warning नहीं दे सकने में समर्थ हो।  तमिलनाडु में आज भी बहुत से परिवारों के सिर पर छत नहीं है, वहां केवल R.K.Mission ने ही त्राण कार्य (relief and rehabilitation work) चलाया है। आज के पेपर में एक माँ का चित्र छपा है, सुनामी के एक वर्ष बाद भी एक माँ अपने बेटा-बेटी का चित्र लेकर जो एक साल पहले सुनामी में बह गए थे,उन्हें आज भी खोज रही है।  ऐसा सोचकर देखो कि वह चित्र किसी दूसरी माँ के बच्चों का नहीं है, मेरे अपने ही बेटे-बेटियों का या माँ-बाप का चित्र है।
 पूज्य नवनी दा कहते जा रहे थे - " इस प्रकार की समानुभूति Empathy के साथ सोचने का प्रयत्न करो, ह्रदय का विस्तार करने के लिये उसमें जो प्रेम है, भगवत-प्रीति है, जब तक जीवन मिला है, हर मनुष्य में उस प्रेम को देखने की कोशिश करते जाना। दूसरों के आनन्द को भी अपना आनन्द समझना। मृत्यु तो एक दिन जरुर आयेगी। अभी जब प्रार्थना के समय मनन कर रहा था, विचार आया यदि इसी समय मैं मर भी गया तो गया होगा ? बहुत सन्तोष और आनन्द से चला जाऊंगा। मैंने अपने जीवन को बर्बाद तो नहीं किया  है, (बल्कि मैंने तो अपने जीवन को मानवकल्याण में न्योछावर किया है) ! 
शरीर को ही मैं (M/F)समझना केवल भ्रम है, जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम हो जाता है। भ्रम से ही कोई पराया दीखता है, अपने से भिन्न दीखता है, इसी भ्रम से भय होता है। उपनिषदों में कहा गया है कि - 'द्वितीया द्वै भयं भवति' दो के रहने से ही सारी खुराफात होती है,जबतक साधककी दृष्टि में अन्य (अपने से भिन्न या परायेपन)  की सत्ता रहती है, तबतक उसके भीतर संशय और भ्रम बना रहता है। 'तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥ ' जब सभी एक हो गए तो डर किसका? इस भ्रम जनित भय को सदा के लिये हटा देना ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता है।  
 मैं क्या केवल एक शरीर हूँ ? वास्तव में मैं कौन हूँ ? मेरे भीतर जो अखण्ड अविनाशी सत्ता है, उसका ज्ञान बहुत आसानी से प्राप्त नहीं होता है।  किन्तु उसको खोज निकालने का आत्मविश्वास हममें अवश्य रहना चाहिये। यह आत्मविश्वास केवल श्रद्धावान मनुष्य में ही होता है। श्रद्धा का अर्थ है -आस्तिक्य-बुद्धि। मेरे भीतर अजर-अमर अविनाशी आत्मा है, इसी दृढ़ विश्वास को श्रद्धा कहते हैं। जिस मनुष्य में (आत्म) श्रद्धा होती है, उसी मनुष्य को (आत्म) विश्वास होता है। 
उर्दू के लोकप्रिय शायर असरारुल हक़ मजाज़ की प्रसिद्द नज्म है - 'ख्वाबे-सहर'! उसमें वे कहते हैं- 
" जहने इंसानी ने अब, औहाम के जुल्मान में,जिंदगी की सख्त तूफानी अंधेरी रात में।कुछ नहीं तो कम से कम ' ख्वाबे सहर ' - देखा तो है ! जिस तरफ देखा न था अब तक, उधर देखा तो है। खूब पहचान लो 'असरार' हूँ मै, 'जिनसे-उल्फत' (प्रेम नामक वस्तु) का तलबगार हूँ मै। ख्वाबे-इशरत (आनन्द का स्वप्न) में है 'अरबाबे-खिरद' (बुद्धिजीवी) और इक शायरे बेदार हूँ मै।मजाज़ धर्म के परदे में चलने वाले फरेब, शोषण और गैरबराबरी को बेपर्द करते हुए आगे कहते हैं -ऐब जो हाफिज-ओ-खय्याम मै था, हाँ कुछ उसका भी गुनाहगार हूँ मै। हूरो-गिलमां का यहाँ जिक्र नहीं,'नौ-ए-इंसा' (मनुष्य-मात्र) का परस्तार (उपासक) हूँ मै।"]  ( जन्नत में  ७२ कुंवारी और सुन्दर हूरें, शराब की नदी और  साथ में सुन्दर अल्पायु के लडके (नौकर)भी दिए जायेंगे जिन्हें “गिलमा ” कहा जाता है) 
हमलोगों को भी 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' बनना होगा तभी हम विश्व का कल्याण या मंगल करने अपना योगदान दे सकते हैं।'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' बनने और बनाने वाली प्राचीन भारतीय शिक्षापद्धति 'अष्टांगयोग' के पाँच अंगों के प्रशिक्षण को महामण्डल में 'Be and Make वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा' या 'Leadership Trainingकहा जाताहै। 
मन का एक नाम आत्मा भी होता है, मन ही मेरा बन्धु है,और मन ही मेरा शत्रु भी है। क्योंकि अपरिष्कृत मन में ही अपवित्र विचार, असद संकल्प, असद इच्छायें, कामना-वासना, मोह और लालच का भाव हर समय बना रहता है; जिसके कारण हमारा जीवन पशुओं के समान आहार-निद्रा-भय -मैथुन में ही नष्ट हो जाता है। गीता 6.5 में कहा गया है - उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ जिसका संधि है -
उद्धरेत् आत्मना आत्मानम् न आत्मानम् अवसादयेत् ।
आत्मा एव हि आत्मनः बन्धुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः ॥
आत्मा के द्वारा आत्मा को ऊपर उठाये (मुक्त करे), आत्मा को भोग या हठपूर्वक दमन के द्वारा अध:पतित और खिन्न न होने दे; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है, आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। अर्थात स्वयं के द्वारा ही स्वयं को मन की गुलामी मुक्त कर लीजिये। क्योंकि जब हम मन को अपने वश में ले आते हैं, तो वह हमारा मित्र बन जाता है, और वही मन जब तक वशीभूत नहीं हो जाता हमारा सबसे बड़ा शत्रु बना रहता है। 'अहं से वयम' तक की यात्रा 'spiritual evolution' आध्यात्मिक क्रमविकास की यात्रा - अर्थात क्षुद्र व्यष्टि अहं-बोध या मैं-पन को माँ जगदम्बा  के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के समष्टि अहं-बोध तक की यात्रा में ; अथवा कच्चा मैं को पक्का मैं में रूपान्तरित करने की यात्रा में - अपने हृदय को विशाल , उदार , उच्च और महान heart whole Man बन जाने तक की यात्रा में अवशिभूत मन ही सबसे बड़ा शत्रु है, किन्तु वशीभूत मन हमारा सबसे बड़ा मित्र है। 
मन को वशीभूत करने की की वैज्ञानिक पद्धति का को ' अष्टांग ' कहा जाता है।  इसमें ' शम -दम '  बहुत आवश्यक है।' आचार्य शंकर ने 'यम-नियम ' को ही " शम "  कहा है, तथा बहिर्मुखी मन को इन्द्रियों से खींचकर या अंतर्मुखी करके, उसको साक्षी चेतना (witness consciousness- हृदय में विद्यमान  स्वामी विवेकानन्द) के दर्शन में मन को एकाग्र करने के अभ्यास, अर्थात 'प्रत्याहार और धारणा' के अभ्यास को " दम " कहा है। केवल नाक से प्राण-वायु लेने -छोड़ने को ही योग नहीं कहा जाता है।  योग को परिभाषित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं -आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ।। ६/३२ ।। आत्मा-उपम्येन – अपनी तुलना या अपनी सादृश्यता से;सर्वत्र =संपूर्ण भूतों में; समम् =सम; पश्चति = देखता है; य: = जो योगी अर्जुन;वा =और; सुखम् = सुख; यदि वा =अथवा; दु:खम् =दु:ख को (भी) (सब में सम देखता है); स: = वह; योगी =योगी; परम: = परम श्रेष्ठ; मत: = माना गया है।हे अर्जुन! जो योगी समस्त भूतों की तुलना स्वयं से करके समस्त जीवों के सुख-दुःख को अपने ही सुख-दुःख के ऐसा देखने में समर्थ होते हैं, वही सर्व-श्रेष्ठ योगी है-ऐसा मेरा मत है! इसी को योग कहा जाता है, ऐसा भगवान का मत है ! बाबा रामदेव जो आसन-व्यायाम सिखाते हैं, उसको ' योगा ' नहीं कहा जाता है, किसी को भी पराया नहीं मान कर सभी के सुख-दुःख में समानुभूति या Empathy करते हुए सबके साथ एक हो जाना,जुड़ जाना ही योग है। 
मनोनिग्रह या दम का अभ्यास सुबह-शाम दो बार आसन पर बैठकर ही करना चाहिये।  बैठने का सरल आसन है-सुखासन या अर्ध-पद्मासन। किन्तु प्रणायाम नहीं करना है,  क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने चेतावनी देते हुए कहा है कि - बिना योग्य गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से दिमाग बिगड़ भी सकता है। आसन में बैठने के बाद मन को देखते रहने की कोशिश करते रहनी चाहिये, इसके लिये मन को ही विचार पूर्वक दो भागों में- 'द्रष्टा मन' (seer, साक्षी चेतना, witness- consciousness] और दृश्य मन (seen-प्रतिबिंबित चेतना , reflected - consciousness) में विभक्त कर लेना होगा। इस प्रकार द्रष्टामन के द्वारा दृश्यमन को देखते रहने का अभ्यास (प्रत्याहार) एक बहुत मनोरंजक खेल बन जाता है, मन के द्वारा ही मन को देखने में बहुत मजा आएगा। 
नेत्रों को मूंद कर देखो तुम्हारा वस्तुनिष्ठ मन ' Objective mind ' अभी कहाँ है ? धरती पर है, या सैर करता हुआ सितारों पर चला गया है ? किस वस्तु को भोगने या पाने की इच्छा आती है? या किसी आदत को त्यागने की इच्छा आती है ? आधा घन्टा या एक घन्टा तक ध्यान में बैठने की कोई जरुरत नहीं है। प्रतिदिन केवल १०-१५ मिनट तक आसन पर बैठकर मन का खेल देखते रहने का अभ्यास करने से ही द्रष्टा मन (साक्षी चेतना witness consciousness) को यह पता चल जायेगा कि देखो भला क्या यही है मेरा दृश्य मन (reflected consciousness) है ? इतने दिनों से मैं इसको खिलाता पिलाता आया हूँ, इसकी हर बात को मानता रहा हूँ, पर यह तो मेरी एक बात नहीं सुनता है, यह मन मुझको कहाँ ले जाना चाहता है? यदि मैं इस प्रतिबिम्बित चेतना (दृश्य मन)  को अपनी मनमानी करने की छूट देते रहूँ तो यह अनियंत्रित मन शत्रु बन कर मुझे ही बर्बाद कर देगा। मन की दुर्दान्त शक्ति को देखकर क्या ऐसा नहीं लगता कि कोई कद्दावर कुत्ता अपने मालिक को ही चेन सहित घसीटकर अपने पीछे लिये जा रहा है ? कुत्ता यदि दुम को हिलाये तो ठीक है, किन्तु यदि दुम ही कुत्ते को हिलाने लगे तो कितना हास्यास्पद दृश्य होगा ?
इसलिए विवेक-प्रयोग के महत्व पर प्रकाश डालते हुए योगवशिष्ठ ग्रंथ में कहा गया है - 
शुभाशुभाभ्यां मार्गाभ्यां वहन्ती वासनासरित् ।
पौरुषेण प्रयत्नेन योजनीया शुभे पथि। 
वासना रूपी नदी शुभ और अशुभ दो मार्गों से बहती है। अपने पुरुषार्थ के द्वारा प्रयत्न करके उसे शुभ मार्ग में ही बहाना चाहिये।वासना नदी (चित्तनदी) दो मार्गों (श्रेय-प्रेय) में बहती है, एक अच्छी (श्रेय) , दूसरी बुरी (प्रेय) । अपने पौरुष (व्यक्तिगत प्रयास) के द्वारा, उसको श्रेय मार्ग से प्रवाहित होने का आदेश देना चाहिए। यदि कोई शुभ वासना मन में उठे तो जल्दी से जल्दी उसमें प्रवृत्त होने का यत्न करो। हो सके तो कुछ न कुछ उसी समय कार्यारम्भ कर दो। अशुभ वासनायें मन में उठे तो उन्हें रोकना और किसी तरह उसमें प्रवृत्त न होना और शुभवासना उठें तो यथाशीघ्र प्रवृत्त होने का प्रयत्न करना, यही पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ का स्वरूप यही है कि जब कोई अशुभ वासना उठे तो मन को दुसरे तरफ लगाओ या फिर उस कार्य को टालने का प्रयत्न करो। अभी थोड़ी देर में कर लेंगे, फिर कर लेंगे, कल कर लेंगे - इस प्रकार मन को समझाते हुए कुछ समय बिता दो, तो वह वासना अवश्य ही शिथिल पड़ जायगी। 
हीरे का खान प्राप्त हो जाने के बाद जब उस संत ने फिर कहा - "चरैवेति -चरैवेति" आगे बढ़ो -आगे बढ़ो तब उसका अर्थ था,  तुम हीरे का खान प्राप्त कर चुके हो,जब तुम हीरे का व्यापार कर सकते हो तो कोयले की दलाली करके क्यों हाथ काला करते हो? जब तुम परमात्मा की विधिवत् आराधना करके अनन्त आनन्द की प्राप्ति कर सकते हो तो इस क्षणभंगुर इन्द्रिय सुखों के साधन संग्रह करने में क्यों अहर्निश परेशान हो? थोड़ा विवेक-प्रयोग शक्ति (विचारशक्ति) से काम लो ; काल के प्रवाह में आँख बन्द करके मत वह चलो। जब मनुष्य विवेक-दृष्टि संपन्न हो जाता है, तब उसे संसार ऐसा लगता है जैसा जादूगर का रुपया।
 लाखों रुपये का ढेर लगा हो और कह दिया जाय कि यह जादूगर का रुपया है, तो यदि कोई कैसा भी लालची - लोभी हो तो भी उसकी दृष्टि उसे रुपये के प्रति नहीं जाती। इसी प्रकार जो विवेक-दृष्टि संपन्न हो जाता है वह संसार में किसी भी वस्तु के प्रति राग नहीं रखता। संसार से सर्वथा राग रहित होकर जब मनुष्य दीनावस्था में भगवान् को पुकारता है तब वह दीनबन्धु भगवान् की दयालुता का पात्र होता है। बस, दीन बनने की देर है, दीनदयाल तो तुम्हें उठाने के लिये तैय्यार ही हैं।
दिन - रात तो अपने समय पर बीतते जायेंगे, परन्तु तुम्हें एक - एक क्षण का दुरुपयोग करके अपनी (थोड़ा विचार - शक्ति से काम लो ; काल के प्रवाह में आँख बन्द करके मत वह चलो। दिन - रात तो अपने समय पर बीतते जायेंगे, परन्तु तुम्हें एक - एक क्षण का सदुपयोग करके अपनी (3H की) उन्नति करनी है।
अतः परमात्मपरायण रह कर स्वधर्मानुकूल आचरण करो - यही सर्वोंन्नति का मार्ग है।  [ पुरुषार्थ (व्यक्तिगत प्रयत्न) दो प्रकार के कहे जाते हैं: शास्त्रों के विरुद्ध कर्म या निषिद्ध कर्म और शास्त्र के अविरुद्ध कर्म -निषिद्ध कर्म का फल अशुभ (disaster) होता है, और शास्त्र सम्मत कर्म (परुषार्थ चतुष्टय) का फल परम् सत्य (ultimate truth) की प्राप्ति होती है। ] स्वधर्म पालन और भगवान का स्मरण सदा करते रहो। जिस वर्ण में हो और जिस आश्रम में हो, उसी के अनुसार स्वधर्म पालन करो और हर समय भगवान् का स्मरण करते रहो। धर्महीन शिक्षा होने के कारण लोगों को कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक कम हो गया है। सत्संग की कमी के कारण चरित्र - हीनता फैली है। हर समय बिस्तर बाँधे तैयार रहो। न जाने किस समय वारण्ट आ जाय। मृत्यु का वारन्ट गिरफ्तारी वारन्ट होता है, उसमें फिर अपील का गुंजाइश नहीं होती, तुरन्त सब छोड़ कर चलना पड़ेगा। जो जहां है वहीं पड़ा रह जायगा। पहले से तैयार रहोगे तो चलते समय कष्ट नहीं होगा। यदि सतर्क नहीं रहोगे तो नीचे गिरने से बच नहीं सकते। संसार का प्रवाह ऐसा है कि नीचे की ओर ही ले जाता है। 
" एक साधू जब गंगा-स्नान करके आश्रम में लौटते तो एक स्त्री रस्ते के किनारे में खड़ी रहती और बहुत सम्मान के साथ हाथ जोड़ कर पूछती महाराज क्या आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर देंगे ? किन्तु साधू उसकी तरफ देखे बिना ही आगे बढ़ जाते थे, हे दिन वैसा ही होता रहा. एक दिन उनके जाने का भी समय आ गया. अपने शिष्यों को बुलाकर उन्होंने कहा, आज मेरे जाने का दिन आ गया है, आज ही इस नश्वर शरीर का त्याग कर दूँगा। गंगा-स्नान से आते समय एक स्त्री रोज कोई प्रश्न पूछना चाहती थी, किन्तु मैं उसकी ओर देखता तक नहीं था।  उसको थोड़ा बुला कर ले आओ।  वह स्त्री उनके पास आई, प्रश्न पूछा और उत्तर सुनकर चली गयी।  उनके एक शिष्य ने पूछा आप इतने बड़े महात्मा है, आज तो आप जा रहे हैं, उस औरत को आपने आज क्यों बुलाया ? 
तब उस साधू ने कहा जब तक साँस रुक नहीं जाता तबतक कोई यह दावा नहीं कर सकता कि मैंने - प्रत्याहार सिद्ध कर लिया है ! अर्थात मैंने इन्द्रियों को जीत लिया है ! मन का संयम करना बहुत कठिन है. मन को अर्थात अपनी चेतना (awareness) को स्पर्श-रूप-रस आदि इन्द्रिय विषयों से खींचकर अपने वश में कर लेना बहुत कठिन है। पर मैं तो मैं अब इस संसार को छोड़ने वाला हूँ, इसीलिये आज उसको बुलवाया। "
यह कहानी साधुओं को संयम सिखाते समय उन्होंने सुनाया था, जो स्वयं मूर्खों में सबसे बड़े मुर्ख थे, और ब्रह्मज्ञ थे। गुरु भाइयों को वेदान्त पढ़ाते समय कहते थे, मन को घर के कोने या सुनसान स्थान में बैठकर देखो। लाटू महाराज ने नरेन्द्र नाथ से कहा था, 'लोरेन भाई, यदि तुम मुझे वेदान्त नहीं सिखा सकते हो, तो कैसे कह सकते हो कि तुम्हें अद्वैत का बोध हुआ है ?  अपने जीवन के अन्तिम साँस तक पवित्रता और संयम रखना बहुत कठिन है, किन्तु जिस व्यक्ति में यह नहीं हो, तो जीवन का लक्ष्य, जिससे बड़ा लाभ और कुछ भी नहीं है, -' अपने जीवन को लोक-कल्याण में अपने भाइयों के कल्याण न्योछावर कर देना '-यह कभी संभव नहीं होगा।
इन्द्रियों की प्रवृत्तियाँ मनुष्य को बहिर्मुंखी बनाती हैं और बहिर्मुंखता में वासनाओं के चक्कर में पड़कर फिर अधिक विवेक-विचार करने की क्षमता नहीं रह जाती। इसलिये सदैव सतर्क रहने की आवश्यकता है।शेर यदि भेड़ों के झुंड में जाकर भें - भें करने लगे और उसी में सुख मानने लग जाय तो यह उसके लिये कितने लज्जा की बात होगी। इसी प्रकार भारतीय यदि अपने पुराने आध्यात्मिक और आधिदैविक सम्पत्तियों को भूल जाय और ऊपरी शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि की भौतिक सामग्री को प्राप्त करके ही सुख - संतोष मान लें तो यह उनका कितना पड़ा पतन है। परमात्मा अन्तर्यामी है। वह सबके हृदय में सदा विराजमान है। वह सबके सब कार्यों को देख रहा है। उसकी दृष्टि बचकर कोई कार्य नहीं किया जा सकता। किसी कार्य के लिये यह सोचना कि इसको कोई नहीं जानता,परमात्मा को अन्धा बनाना है। यह दूसरों को नहीं, अपने को धोखा देना है। परमात्मा को सर्वत्र उपस्थित मानोगे तो फिर तुमसे कोई पाप - कर्म नहीं होगा। इसलिये परमात्मा को व्यापक मानते हुये चरित्रवान् बनो, अपने आचरणों में पवित्रता लाओ, अपनी भावनाओं को शुद्ध बनाओ और स्वधर्मानुकूल व्यवहार करो।
 तभी तुमारा अन्तःकरण पवित्र होगा। अन्तःकरण की पवित्रता बढ़ने से तुम्हारे संकल्प में बल आयेगा, कार्य अधिक सुदृढ़ होंगे और परमात्मा में भी निष्ठा बढ़ेगी। परमात्मा में निष्ठा बढ़ने से हर प्रकार का मंगल होगा।
जिस आसन (पद -उपाध्यक्ष) पर बैठो उसे गन्दा न बनाओ जिस पद को स्वीकार करो उसको कलंकित मत करो। या तो किसी चीज को अपनाओ मत, और यदि अपनाते हो तो उसको ठीक से निबाहो। जो पद अपनाओ उसकी रक्षा करो। जिस कार्य को हाथ में लेते हो, उसकों विधानपूर्वक पूरा करने के लिये प्रयत्नशील रहो।  ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ या सन्यास जिस आश्रम को अपनाओ उसके नियमों का पालन करते हुए उसे गौरवपूर्ण ढङ्ग से निबाहो। कहीं ऐसा काम न कर बैठो कि तुम्हारा पद कलंकित हो जाय।बहिन - भाइयों से उत्तम प्रेमपुर्ण - व्यवहार रखो, जिससे भाई का पद कलंकित न हो।
 पत्नी से मर्यादापूर्ण उत्तम व्यवहार रखो, जिससे पति का पद कलंकित न हो। गुरु के साथ सदा विनम्र और पूज्यभाव रखो, जिससे तुम्हारा शिष्य का पद कलंकित न हो। देवत्व से मनुष्यत्व श्रेष्ठ है, उनसे पुरुषार्थ नहीं बन पड़ता। इसीलिये मनुष्य - योनि को श्रेष्ठ कहा गया है ; क्योंकि यहाँ पर मनुष्य पुरुषार्थवान् होकर इतना पुरुषार्थ कर सकता है कि साक्षात् परब्रह्म हो सकता है। देवता भी मनुष्य शरीर को प्राप्त करने के इच्छुक रहते हैं, क्योंकि मनुष्य - योनि सोने की डली (पासे) के समान है। शुद्ध सोना है, अभी आभूषण नहीं बना है। जितना अच्छा कारीगर मिल जाय उतना अधिक मूल्यवान् आभूषण बन सकता है। इसकी कीमत इतनी अधिक हो सकती है कि यह अनन्त मूल्यवान हो सकता है। देवता तो आभूषणरूप में हैं ; सोना के विशुद्ध रूप में नहीं। जो आभूषण बन गया उसका तो मूल्य निश्चित हो गया, अब उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। मनुष्य - योनि शुद्ध सोने का स्वरूप है। यदि कुशल कारीगर (सुयोग्य गुरु) प्राप्त हो जाय तो मनुष्य अनन्तानन्द स्वरूप साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हो सकता है और ऐसा होने में ही मनुष्य - योनि की चरितार्थिता है।मनुष्य - योनि को सर्वश्रेष्ठ कर्मयोनि कहा गया है। इसमें आकर प्रमाद नहीं करना चाहिये। सावधानी के साथ उत्तम पुरूषार्थ करना चाहिये। स्वधर्मानुष्ठान करते हुए पर्मात्मा में निष्ठा बढ़ाना ही उत्तम पुरुषार्थ है। प्रयत्न करो कि इसी जीवनकाल में परमात्मा का अभेद सम्बन्ध हो जाय। वेदशास्त्र पर विश्वास करते हुए वेदशास्त्रीय सिद्धान्तों को मानने वाले संत - महात्माओं और विद्वानों से सत्संग करो तो मनुष्य - जीवन सफल रहेगा। 
अज्ञान से मोहित हुआ जीव कर्म के बन्धनों में पड़ता है। अज्ञान ही भ्रम कहलाता है। इनकी निवृत्ति यथार्थ ज्ञान, निष्काम कर्म, भक्ति, योग से (परुषार्थ चतुष्टय के अनुसार स्वधर्म का पालन करने से)    से होता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिये शास्त्र और सद्गुरु की सहायता अपेक्षित है। बिना गुरु के कोई जीवन भर माथा रगड़े, परन्तु आत्मज्ञान नहीं हो सकता। नदी पार करने वाले दस पुरुषों के दृष्टान्त में जब तक एक महात्मा ने आकर उनका भ्रम दूर नहीं कर दिया, तब तक वे अपने एक साथी के डूबने के भ्रम में विलाप करते रहे।जब महात्मा ने गणना करवा कर बतलाया कि 'दशमस्त्वमसि' दसवें तुम हो, तब उनका शोक नष्ट हुआ। इसी प्रकार गुरु के द्वारा ही 'तत्वमसि' का यथार्थ बोध होता है। तरति शोकमात्मवित्' शोकोपलक्षित जो अज्ञान् है उसको आत्मवित् ही करता है। श्रुति कहती है -'आचार्यवान् पुरुषो वेद'अर्थात्, आचार्यवान् को ही ज्ञान होता है।इसलिये शोक - सागर, संसार - सागर पार होने के लिए आत्म - ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। एकान्तवास (निर्जनवास या महामण्डल का 6 दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर)  भगवान् के ढूँढ़ने का अच्छा साधन है। अतः एकान्त में (कैम्प में ) रह कर अनुभवी महात्मा बनो। इस प्रकार साधू - सन्यासी ही नहीं, संसारी भी कर सकते हैं, क्योंकि संसारियों से ही तो महात्मा होते हैं। इनकी कोई खदान नहीं,इन्हीं माताओं के पेट से महात्मा भी हुए हैं। आज जो दुराचार - पापाचार -में रत हैं, कल वे ही उच्च कोटि के महात्मा भी हो सकते हैं।
भगवान् के अस्तित्व और उसकी दयालुता में अपना विश्वास दृढ़ करो। धैर्यपूर्वक प्रारब्ध भोग करते हुये अपने - अपने वर्ण और आश्रम के धर्म का ठीक रूप से पालन करते जाओ। स्वधर्म का पालन करते रहने से अन्तःकरण पवित्र होगा और तभी आत्म - ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त होगी। संसार तो पहले से ही त्यक्त है। शब्द, रूप, रस, गन्ध आदि जितने पदार्थ हैं वे तो तुमसे अलग हैं ही, उनकी सत्ता ही तुमसे भिन्न है।जब संसार तुमसे अलग ही है तो उसको त्यागोगे क्या? तुम्हारे त्यागने के पहले ही वह तुम से त्यक्त है, अलग है। इसलिए किसी के त्याग की बात कहना या त्याग का भाव मन में बनाना मिथ्या दम्भ ही है। मरे को मारने से क्या गौरव? कोई मरे हुए शेर को गोली मार कर कहे कि मैने शेर का शिकार किया है - वह इसी तरह कीबात है, जिस प्रकार यदि कोई कहे कि मैने अमुक वस्तु का त्याग किया है। संसार में सब कुछ त्यक्त ही है, कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो त्यागने योग्य हो। स्वभाव से तो सभी कुछ तुमसे त्यक्त ही है। ग्रहण क्या करोगे? संसार में ग्रहण करने योग्य कुछ भी नहीं है, क्या ग्रहण करोगे? यह जो कुछ देख रहे हो, सब मदारी के रुपये के समान मिथ्या है, इसमें कोई तथ्य नहीं है। 
ज्ञान - प्राप्ति के लिये जगत -व्यवहार से (घर-गृहस्थी से) दूर भागने का आवश्यकता नहीं। संसार का व्यवहार तो चलाते रहो, परन्तु मन को उसमें न फँसाओ। संसार में जो राग (आसक्ति)  हो गया है वही (सुत -वित् -दारा-भवन में आसक्ति ही)  बन्धन का हेतु है, संसार बन्धन का हेतु नहीं है। अतः राग (सुत -वित् -दारा -भवन में आसक्ति)  का त्याग करके अक्षय सुख (ब्रह्ममय जगत या भगवानमय जगत) का अनुभव करो। हम किताबी बातें नहीं कहते, यह सब हमारी अनुभूत बातें हैं। यदि आप निष्ठा - पूर्वक इनका पालन करें तो अवश्यमेव सुखी हो सकते हैं।
गुरु बदलने में कोई पाप नहीं होता: कुछ लोग कहते हैं कि एक गुरु बना लिया तो दूसरा गुरु नहीं बनाना चाहिये। किन्तु यह कोई शास्त्र का सिद्धान्त नहीं है, मन - गड़न्त बात है। गुरु किया जाता है कल्याण के लिये। जब तक भगवद् प्राप्ति न हो जाय तब तक गुरु बदले जा सकते हैं। ऐसा तो कोई गुरु - भक्त नहीं देखा गया कि गुरु के बदलने के डर से हमेशा उसी क्लास में उसी गुरु से पड़ता रहे। 'क्लास' के परिवर्तन के साथ गुरु का परिवर्तन स्वाभाविक हो ही जाता है। पिछले गुरु की अवहेलना नहीं की जाती, उनका मान - सम्मान गुरु के रूप में ही किया जाता है किन्तु आगे की पड़ाई के लिये नये - नये गुरुओं का शिष्यत्व स्वीकार किया जाता है। व्यास - पुत्र शुकदेव जी ने अपने पिता से ज्ञान प्राप्त किया, फिर शंकर जी से ज्ञान प्राप्त किया और नारद जी से भी ज्ञान प्राप्त किया। अन्त में फिर जनके जी के पास भी शिक्षा लेने गये। इसलिये एक गुरु कर लिया है, दूसरा नहीं करेंगे -- यह बिल्कुल रद्दी बात है और कल्याण में बाधक है। इस प्रकार की थोथली बातों को लेकर जीवन को नष्ट नहीं करना चाहिये। 
जो भगवान् का भजन करता है उसका चरित्र उत्तम होना चाहिये। यदि चरित्र - हीन है तो उसे समझ लो कि भगवान् का भक्त नहीं है, लोगों को धोखा देने के लिये वह ऊपर से भक्ति का हाव - भाव दिखाता है। ऐसे धोखेबाज लोगों से स्वयं बचो और अपने सम्पर्कं की भोली - भोली धार्मिक जनता को भी बचाओ। मान - सम्मान उन्हीं का होना उचित है जो चरित्रवान् हैं।जब कोई भगवान् की भक्ति का उपदेश देता है, सत्संग करने का दावा करता है तो फिर उसको चरित्रवान् होना चाहिये। ऐसा ठीक नहीं कि घी का लड्डू टेढ़ा - मेढ़ा ; जब घी का लड्डू है तो उसका स्वरूप भी ठीक रहना चाहिये, टेढ़ा क्यों हो। तभी तो जनता को विदित होगा कि भगवान् का भजन - पूजन करने से पुराने पाप कटते हैं और वर्तमान के दुर्गुण भी छूटते हैं।सर्वत्र भगवान का भाव ही भक्तों का लक्षण।
संसार का अनुभव जीव अनेक जन्मों से करता चला आ रहा है।  विषयों को भोगकर इन्द्रियों को तृप्त करने की बात सोचना ऐसा ही है जैसे खुजलाकर खाज को अच्छा करने की आशा करना। संसार के व्यवहार उलझे हुए कच्चे सूत के समान हैं, जितना सुलझाने की चेष्टा करोगे उतने ही ये उलझेगें। इसलिये बुद्धिमानी पूर्वक संसार का व्यवहार चलाते हुए मुख्य बुद्धि पर्मार्थं में ही रखना चाहिये।दूसरों की बुराइयाँ मत देखो, अपने में ढुढ़ो कि कौन सी बुराई अभी तक है, उसे हटाने का प्रयत्न करो। अपने में दोष खोज - खोज कर निकाला तो कल्याण होगा।
संसार की ओर उसकी प्रवृत्ति स्वाभाविक हो गई है। इसको संसार से हटाकर परमात्मा की ओर लगाने में ही प्रयत्न करना है। पुरुषार्थ वास्तव में मन को संसार से रोकने के लिए करना है। भगवान का भजन - पूजन, चिंतन - कथन आदि होता रहे, इसी में मन घूमे तो कुछ समय में संसार से स्वतः हट जायगा, प्रत्याहार हो जायेगा। अवतारवरिष्ठ के नाम का जप करने को 'emancipation' का अर्थात मन के दासत्व से मुक्त होने का (भ्रममुक्त या d-hypnotized होने का) निश्चित उपाय (sure means)बतलाया गया है। भगवान के पास पहुँचना है तो उनके नाम का सहारा लो।  भगवान का नाम जपो, परन्तु विधि के साथ। जो सुखी है (अमृत चखा है) वही दूसरे को सुखी (अमर) बना सकता है। सुख चाहते हो तो सुख - सागर की ओर चलो। जो अपना लक्ष्य भूल गया, वह पथ - भ्रष्ट हो ही जायगा।  
भ्रमभंजक विवेक: आप लोग विचार कर देखिये कि रज्जु तो सबके लिये समान था, परन्तु जो प्रकाश में उसके यथार्थ स्वारूप को देख चुका था वह अंधेरे में उसका देखकर कम्पित नहीं हुआ। जो उसके स्वरूप को नहीं जानते थे वे हो भ्रम से उसे सर्प मानकर भयभीत और दुःखी हुये। यदि किसी प्रकार उन लोगों का भ्रम दूर हो जाता तो फिर उनके लिये दुःख का अस्तित्व ही नहीं रहता। इसका निष्कर्ष यही है कि दुःख का कारण है भ्रम। भ्रम की निवृत्ति हो सकती है, इसीलिये दुःख की भी निवृत्ति हो सकती है।भ्रम - नाश दो प्रकार से होता है। इसे समझने के लिये उसी रज्जुवत् सर्प के दृष्टांत को ले लीजिये। दीपक लेकर रज्जु के वास्तविक स्वरूप को देख लेने पर उसमें सर्प का भ्रम मिट सकता था। रस्सी से तो कोई भयभीत होता नहीं, केवल सर्प की कल्पना ही भय - कम्प का कारण थी। अतः अधिष्ठान का प्रत्यक्ष ज्ञान होने पर उसका अस्तित्व ही नहीं रहता। भ्रम - नाश का दुसरा उपाय है - जानने वाले की बात पर विश्वास करना। जिसने उस रज्जु को दिन के प्रकाश में ठीक - ठीक समझ लिया है, उसकी बात पर विश्वास करके भी भय को मिटाया जो सकता है।
विवेक  विचार पूर्वक प्रवृत्ति बनाने से ही मन स्मार्ग की ओर जाता है। मन की प्रवृत्ति जिधर होती है, वह स्वयं रास्ता निकाल लेता है। सारी बात मन के ऊपर ही निर्भर है। मन जैसा चाहता है वैसा ही मनुष्य कार्य करता है। प्रवृत्ति - निवृत्ति सब कुछ मन पर ही निर्भर है। विहित - अविहित कोई भी कैसा कार्य हो, यदि मन ने करने का निश्चय कर लिया तो वह उसका रास्ता निकाल ही लेता है। हम तो कहते हैं, पहले संसार को भज लो, फिर भगवान् को भजो तो संसार वाधक नहीं होगा। संसार का भजना यही हे कि इसके स्वरूप को जान लो। पहले संसार ही गुरु बनता है। कहीं कुटुम्बियों ने अपमान किया, कहीं पुत्र के द्वारा अपमान हुआ तो संसार से वैराग्य हो गया। मन जितना पवित्र होगा, प्रवृत्ति उतनी ही पवित्र होगी और कार्य उतने ही बलशाली और स्थायी होंगे। मन जितना मलिन और अपवित्र होगा, प्रवृत्ति भी उतनी ही दूषित होगी और कार्य भी उतने स्वल्प प्रभावशाली तथा उतने ही अस्थायी महत्व के होंगे।
चित्तनदी की जो धारा गलत दिशा या प्रेय-मार्ग में प्रवाहित रहने की आदी हो गयी है, उसको श्रेय-मार्ग से प्रवाहित होने का आदेश सही तरिके से देना चाहिए, नहीं तो उसपर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इसीलिए योगवशिष्ठ में आगे कहा है -अशुभाच्चालितं याति शुभं तस्मादपीतरत् ।जन्तोश्चित्तं तु शिशुवत्तस्मात्तच्चालयेद् बलात्। योगवशिष्ठ .9 .27.32। अपवित्र विचारों की संगति या बुरे लोगों के संग को धीरे-धीरे छोड़ना पड़ता है, और इस प्रकार मन थोड़ा-थोड़ा करके उनसे दूर होता जाता है। बल-प्रयोग करने से  कहीं ऐसा न हो कि मन में हिंसक प्रतिक्रिया होने लगे। जैसे किसी बच्चे को प्रेम से समझाने से वह मान जाता है, लेकिन बलपूर्वक छीनने से वह नाराज हो जाता है। उसी प्रकार मन को भी श्रेय-मार्ग में बहने के लिए बलपूर्वक नियोजित नहीं करना चाहिए। 
समता साम्त्वनेनाशु न द्रागिति शनैः शनैः । 
पौरुषेणैव यत्नेन पालयेच्चित्तबालकम्।  .9 .27.33। 
चित्त को एक बच्चे की तरह झिड़क कर डांट-फटकार कर  बलपूर्वक अचानक नहीं सिखाया जाता है। धीरे धीरे सिखलाया जाता है , इसको अचानक इन्द्रियों से (प्रवृत्ति से) वापस (निवृत्ति में) नहीं लौटाया जा सकता। इसे पुरुषार्थ और प्रयत्न [ त्रिवर्ग  धर्म (सज्जनता और विवेक पूर्वक -अर्थ -काम का भोग करने के बाद उसकी व्यर्थता को व्यक्तिगत प्रयास से समझा देने]  के बाद ही अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष -मार्ग में नियोजित करना चाहिए। 
वासनौघस्त्वया पूर्वमभ्यासेन घनीकृतः ।
शुभो वाप्यशुभो वापि शुभमद्य घनीकुरु .9 .27.34। 
आपके पिछले अभ्यास से, एक ही काम को बार-बार करने के कारण तुम्हारी अच्छी और बुरी दोनों (श्रेय और प्रेय दोनों) आदतें घनीभूत होकर प्रवृत्ति बन गयी हैं। अब तुम्हें केवल अच्छी आदतों को घनीभूत करना होगा। 
पूर्वे चेद्घनतां याता नाभ्यासात्तव वासना ।
वर्धिष्यते तु नेदानीमपि तात सुखी भव। 9 .27.37।
अतीत से जमी हुई प्रवृत्ति की वासना पर जब तक निवृत्ति श्रेय आदतों को घनीभूत नहीं किया जाता, जब तक सत्प्रवृत्तियों के अच्छे अभ्यास से वर्धित नहीं कर लिया जाता, मन तुम आनंद से रहो।  
[मुक्तिकोपनिषद वास्तव में भगवान श्री राम द्वारा श्री हनुमान को दिया गया एक अद्भुत प्रवचन है, जिसमें मुक्ति (भ्रममुक्ति) प्राप्त कर के 'पूर्ण हृदयवान मनुष्य' बनने की तकनीक (विज्ञान) को रेखांकित किया गया है। हनुमान ने रामचंद्र से पूछा: प्रभु यह जीवमुक्ति और विदेह-मुक्ती क्या होती है? इस उपनिषद में पुरानी प्रवृत्तियों (old tendencies या गहरी वासनाओं) को वशीभूत करने (प्रत्याहार करने) के लिए पुरुषार्थ करने (व्यक्तिगत प्रयत्न करने) पर जोर दिया गया है। जो शास्त्रानुकूल पुरुषार्थ है वही पुण्य है और वही अभ्युदय, लौकिक उन्नति और मोक्ष का देने वाला है। मुक्तिकोपनिषत् में भी कहा गया है -प्रवृत्ति को अशुभ से रोक कर शुभ में लगाना -यही मुख्य पुरुषार्थ है। अशुभ वासनायें उठें तो मन को जप, कीर्तन या स्वाध्याय तोत्र या भगवच्चरित पाठ आदि में लगा देना चाहिये। यही उपनिषद का सिद्धन्त है -शुभाशुभाभ्यां मार्गाभ्यां वहन्ति वासना सरित।पौरुषेण प्रयत्नेन योजनीया शुभो पथि॥--मुक्तिकोपनिषत्। द्विविधा वासनाव्यूहः शुभश्चैवाशुभश्च तौ ।वासनौघेन शुद्धेन तत्र चेदनुनीयसे ॥ ३॥पौरुषेण प्रयत्नेन योजनीया शुभे पथि ।अशुभेषु समाविष्टं शुभेष्वेवावतारयेत् ॥ ६॥अशुभाच्चालितं याति शुभं तस्मादपीतरत् । पौरुषेण प्रयत्नेन लालयेच्चित्तबालकम् ॥७॥ ] 
 'तरति शोकमात्मवित्' आत्मज्ञानी ही शोक - सागर को पार करता है। इसीलिये शिष्य श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ के पास जाकर आत्म - ज्ञान प्राप्त करै - यह श्रुति का आदेश है। सिद्धान्त है कि 'जपतो नास्ति पातकम्' जप करने से पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये विहित प्रारब्ध को भोगो और अविहित को जप - तप से नष्ट करो। इस प्रकार विवेक से व्यवहार करोगे तो तरक्की करते जाओगे और यदि व्यवहार में सतर्क न रहे तो कूकर - शूकर की तरह कीचड़ में नीचे गिर जाओगे।
 समाधि - काल में प्राप्त किये हुये ज्ञान के बल से वह जगत-व्यवहार काल (Bh-त्याग) में भी कभी व्यथित नहीं होता ; क्योंकि जहाँ अज्ञानी लोग भय देखते हैं वहाँ भी ज्ञानी ईश्वर को देखता है। चराचर सम्पूर्ण जगत् का एकमात्र अधिष्ठान पर्मात्मा ही है। जैसे सर्प के अधिष्ठान रज्जु को जान लेने पर भय मिट जाता है, उसी प्रकार जगत् के अधिष्ठान परमात्मा को जान लेने पर भय के लिये कहीं स्थान ही नहीं रहता।एक ही चैतन्य (existence-consciousness-bliss) भिन्न - भिन्न नामों से पुकारा जाता है। परमात्मा (ब्रह्म या pure consciousness) ही सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मारुप (साक्षीचेतना- रूप witness consciousness) से व्याप्त है। आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं। जो आत्मा है वही चैतन्य जीव भी कहलाता है। भेद केवल उपाधि का है। उपाधि - युक्त चैतन्य ही जीव कहलाता है और सम्पूर्ण उपाधियों को त्याग देने पर वही चैतन्य आत्मा है। आत्मा और जीव का भेद ऐसा है जैसे धान और चावल का। जब तक एक भूसी बनी हुई है उसे धान कहा जाता है और जब उसकी भूसी हटा दी जाती है तब वही चावल कहलाता है। तत्वतः जो धान है वही चावल।धान और चावल का व्यावहारिक भेद : यह है कि धान में जल और मृत्तिका के योग से अंकुर उत्पन्न हो जाता है, परन्तु चावल चाहे जितने समय तक जल - मृत्तिका के संयोग में रहे उसमें अंकुर नहीं हो सकता। इसी प्रकार जब तक शुभाशुभ कर्मों का बन्धन है, तब तक वही चैतन्य जीव है और कर्म - बन्धन क्षीण होने पर वह शुद्ध - बुद्ध आत्मा है। जीव का पुनर्जन्म ही उसका अम्कुरित होना है। शुभाशुभ कर्म जीव के के लिये भूसी के समान है। भूसी हटा देने से फिर अंकुर नहीं हो सकता। अर्थात्, शुभाशुभ कर्मों का परित्याग हो जाने पर फिर पुनर्जन्म नहीं होता।जब तक भूसी लगी हुई है तब तक धान, धान ही है।
[साभार http://www.paulmason.info/gurudev/ श्रीमद् स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज, ज्योतिर्मठ, बदरिकाश्रम (हिमालय)] 
धारणा : निराकारवादी जो निराकार का ध्यान करते हैं, उस सम्बन्ध में हम उनसे पूँछते हैं कि क्या निराकार का ध्यान किया जा चकता है? कोई ध्येय बनाया जायगा तभी उसमें वृत्ति टिकेगी। पर जो निराकार है उसको ध्येय कैसे बनाया जा सकता हैं?निराकार का ध्यान नहीं बन सकता। यदि कोई कहता है कि निराकार का ध्यान होता है तो उसका कथन उसी प्रकार है जैसे कोई कहे कि बन्ध्या के पुत्र की बारात में जा रहे हैं। बन्ध्या के पुत्र ही नहीं होता तो उसकी बारात कैसी? निराकार की जब कोई रूप - रेखा ही नहीं तो उसका ध्येय कैसे बनेगा? वृत्ति को जमाने के लिये कुछ तो आधार चाहिये। जिसका आधार लोगे वही साकार होगा।कई लोग साकार निराकार का भेद मान कर बड़ा विवाद उठाते हैं। परमात्मा को यदि सर्व शक्तिमान् मानते हो तो फिर कैसे कह सकते हो कि वह साकार नहीं होता या निराकार ही रहता है। परमात्मा को सर्व शक्तिमान् मानते हुए यह कहना कि वह निराकार हो है, साकार नहीं होता, सर्वथा असंगत बात है। जब उसे सर्वतन्त्र स्वतन्त्र कहते हो तो फिर वह क्या नहीं हो सकता और क्या नहीं कर सकता ? क्या कोई निराकार लड़के से लाभ उठा सकता है? निराकार स्कूल में जाकर, कोई पड़ सकता है? निराकार कुर्सी पर कोई मिनिस्टर बैठ सकता है? निराकार औषधि से कोई रोगी अच्छा हो सकता है? निराकार भोजन से किसी की तृप्ति हो सकती है? निराकार बिलकुल बेकार चीज है, उससे कुछ भी काम नहीं हो सकता। इससे केवल निराकारवाद सर्वथा अमान्य है, सर्वथा बेकार है। यदि साकार रूप में भगवान् न आयें तो जगत् की व्यवस्था नहीं कर सकते। जो जैसी चीज होती है उसी रूप में उसकी व्यवस्था हो सकती है। जैसे हम यहाँ बैठे हैं, आप लोगों ने हमारे सामने माइक - स्पीकर लाकर रख दिया तो यदि हम मौन बैठे रहें तो आपको क्या लाभ होगा। निराकार का ऐसा ही स्वरूप है कि हम सर्वथा निश्चेष्ट मौन बैठे रहें। हमारे मौन बैठे रहने से आप लोगों को क्या लाभ हो सकता है? निराकार भगवान् से कोई लाभ नहीं होता, जब तक साकार रूप में न आयें। निराकार परमात्मा जब साकार रूप में प्रकट होता है तभी उसके निराकार रूप की प्रत्यक्ष सिद्धि होती है। काष्ठ को धर्षण करने से जब व्यापक निराकार अग्नि साकार रूप होकर एक वेष में प्रकट हो जाती है तभी प्रत्यक्ष रूप से यह निश्चय होता है कि काष्ठ में अग्नि थी।
 ' विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत' अर्थात जो कोई भी व्यक्ति स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करेगा, चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो या ईसाई हो, या चाहे नास्तिक ही क्यों न हो, उसको scientific experiment की तरह एक ही परिणाम प्राप्त होगा। स्वामीजी के दर्शन का अभ्यास करने से  विवेकस्रोत्र अवश्य उद्घाटित हो जायेगा ! 'पौरुषेण प्रयत्नेन लालयेच्चित्तबालकम्। ' (७/मुक्तिक उपनिषद्)Manliness अथवा पुरुषार्थ किसी कहते हैं ? मन में ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि मैं अपने मन को अवश्य वशीभूत कर सकता हूँ! यह कार्य निश्चित रूप से मेरे ही द्वारा होना संभव है, क्योंकि मैं अपने मन में त्याग का भाव रखता हुआ नियमित रूप से विवेक-दर्शन का अभ्यास करता हूँ. इसके लिये हमें प्रत्याहार का  अभ्यास करने का तरीका सीखकर, मन को किसी बालक के समान प्रेम के साथ विषयों की निस्सारता को समझाना होगा। वह समझ-बुझ कर भी शांत नहीं होगा, उधर फिर भी भागेगा क्योंकि कई जन्मों से मन का यही अभ्यास हो गया है, उसे फिर से बहुत नम्रता पूर्वक समझाते हुए अनुरोध करो, मेरे मन थोड़ा इधर आओ, यहाँ मेरे सामने बैठो तो सही- जोर-जबर्दस्ती करने से मन बिगड़ भी सकता है. इसप्रकार मन को विषयों में जाने से रोक कर, विषयों से खींचकर अपने ह्रदय-कमल में बैठे स्वामीजी के चित्र पर धारण करना चाहिये। विज्ञान का सिद्धान्त है - ' Nature abhors vacuum. ' - अर्थात प्रकृति शून्य (खालीपन) से नफरत करती है; और चूकि मन भी प्रकृति का ही अंश है, इसीलिये वह कभी खाली नहीं रहना चाहता, उसका स्वाभाव ही ऐसा है कि उसे विषयों से खींचने के साथ साथ ही वह कहीं न कहीं तुरन्त बैठना चाहता है। जब कोई अतिथि घर में आता है, तो उसे बैठने के लिये एक आसन अवश्य देते हैं। उसी प्रकार मन को भी कहाँ बैठायेंगे ? अपने सर्वाधिक परिचित, सबसे नजदीकी दोस्त लेकिन तत्वदर्शी महापुरुष -स्वामी विवेकानन्द की छवि पर ही मन को स्थिर करने का अभ्यास करेंगे। उसको समझायेंगे -' तुम क्यों इतना उछल-कूद मचा रहे हो ? क्यों इतना बिगड़ते जा रहे हो ? मेरे प्यारे दोस्त स्वामीजी के पास बैठो, तो तुम भी शान्त हो जाओगे। तुम इतने शक्तिशाली बन जाओगे, कि जो चाहो कर सकते हो। 
अभ्यास करते जाना और संसार के किसी भी वस्तु के लिये मन में थोडा भी लालच का भाव नहीं आने देना। कल मेरे पास कोई लड्डू लेकर आया था, और एक झोला भर कर मुझे देने लगा. मैंने अपनी माँ से भी कोई खाने की वस्तु कभी मांग कर नहीं खायी है, सिवाय तब जब माँ घर में माखन विलोती थी तब, मैं उसकी पीठ पर झूलता था, और वो स्वयं मुझे माखन खिल देती थी।  जो वस्तु सचमुच मेरे लिये आवश्यक होगी, या जरुरत की चीज होगी, वह खुद चलकर मेरे पास आ जाएगी ! आवश्यकता से अधिक पाने की लालच नहीं रखनी चाहिये। सुबह-शाम दो बार दम यानि प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करते रहना चाहिये। थोड़ा व्यायाम भी नियमित करना चाहिये। स्वामी सम्बुद्धानन्द जी महराज अपनी बाँहों का मसल दिखाकर कहते थे- नवनीहरण मुखोपाध्याय एइदिके आये, घुसी मार घुसीमार; मतलब जरा इसमें मुक्का मार कर देखो, ये बाजु फौलाद की तरह हैं या नहीं ? गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी, आवश्यकता से अधिक संग्रह करने की जरुरत नहीं है, जितना मिलता है, उतने से ही हो जायेगा।बहुत लोग शिकायत करते हैं कि ३ वर्ष से मनःसंयोग कर रहा हूँ, किन्तु अभी तक मन एकाग्र नहीं होता है. एक अमेरिकन साधू माँ की शतवार्षिकी के उपलक्ष्य में माँ के उपर कुछ विचार रखने आये थे. उन्होंने कहा कि मैं ध्यान सीखने के लिये गया था, उसके बाद के अनुभव तो सुना सकता हूँ, माँ के उपर कुछ नहीं कह सकूँगा। एक रोज वहाँ आश्रम में ध्यान के उपर महाराज का भाषण सुना तो उनसे उसकी विधि सिखाने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा यदि तुम अपना सबकुछ छोड़ कर यहीं आश्रम में रहने आ जाओ, तो मैं तुम्हें ध्यान करना सीखा सकता हूँ।  ६० साल पहले गरुआ मिला है, तब से रोज ध्यान कर रहा हूँ, पर अभी तक केवल २-४ सेकण्ड ही ध्यान का सही सही स्वाद प्राप्त कर सका हूँ। किन्तु आजकल तो 'योगा एंड मेडिटेसन' के नाम पर- 'थ्री डे मेडिटेशन कोर्स', 'वन डे कोर्स' या कोई कोई तो भारी फ़ीस लेकर 'मेडिटेशन इन जस्ट थ्री आवर्स' के नाम से भी अपनी दुकान चला रहे हैं।  जबकि जीवन भर परिश्रम करके, यदि २-३ सेकण्ड के लिये भी ध्यान लग गया तो, उससे जितना आनन्द मिलेगा, उसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। अभ्यास का क्या फल होता है, इस पर नजर मत रखना, आनन्द से जगत को ही गोविन्द देखकर सेवा करना। इसी भाव का अभ्यास करते करते थोड़ा स्वाद मिल जायेगा। उस समय ह्रदय आनन्द से भर उठेगा। यदि दुःख होगा भी तो केवल दूसरों को दुःख-कष्ट में गिरा देखने से दुःख होगा। अपने लिये तो ह्रदय में केवल आनन्द ही आनन्द भरा रहेगा ! क्योंकि हमारा स्वरुप ही आनन्दमय है ! ॐ
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