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सोमवार, 11 जुलाई 2016

卐 卐卐 -1. 'नियत कार्य ' [ एक नया युवा आंदोलन-1.The Work] वेदान्त डिण्डिमः पर आधारित स्वामीजी की कुछ कवितायें 'प्रस्तावना एवं नियत-कार्य '

`एक नया युवा आन्दोलन'  

`A New Youth Movement ' 

प्रस्तावना 

      अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' के  प्रशिक्षण का कथ्यसूचक शब्द (theme word) है- 'Be and Make' ! अर्थात तुम स्वयं उन्नततर (आध्यात्मिक) मनुष्य बनो और दूसरों को भी उन्नततर (आध्यात्मिक) मनुष्य बनने में सहायता करो ! युवा प्रशिक्षण शिविरों में इसी मूल-विषय के ऊपर होने वाले चर्चाओं को महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका 'Vivek-Jivan' में  सम्पादकीय निबन्ध के रूप में क्रमवार ढंग से प्रकाशित किया गया था।  यह नया प्रकाशन उसी संवाद-पत्रिका में छपे कुछ सम्पादकीय लेखों का एक संकलन है। इन चयनित (selected) सम्पादकीय लेखों को क्रमवार ढंग से एक साथ मिलाकर पढ़ने पर महामण्डल का वास्तविक स्वरूप एवं उसके आविर्भूत होने की तार्किक पृष्ठभूमि, उसका आदर्श एवं उद्देश्य एवं तथा स्वामी विवेकानन्द द्वारा युवाओं को सौंपे गए कठिन कार्य  -'' The Task ''  तथा उसकी कार्यपद्धति का प्रामाणिक परिचय (authentic introduction) प्राप्त हो सकता है। 
     जो युवा महामण्डल से प्यार करते हैं तथा उसके चरित्र-निर्माण आन्दोलन को आगे बढ़ाने में रूचि रखते हैं उन्हें विशेष रूप से इस पुस्तिका के प्रत्येक निबंध को बहुत ध्यान पूर्वक पढ़ना चाहिये। और, जिस प्रकार कोई गाय चारा खाने के बाद पागुर ' Chew and Digest'  करके उसे अच्छी तरह से पचा लेती है, उसी प्रकार हमें भी प्रत्येक पैरा समाप्ति (paragraph break) के बाद थोड़ा रुक कर जो कुछ पढ़ें हैं, उतने अंश के मर्म पर चिंतन-मनन करके उसे आत्मसात करने की चेष्टा करनी चाहिये।
        तात्पर्य यह कि महामण्डल-आंदोलन के सभी वरिष्ठ कर्मियों (महामण्डल के कार्यकारिणी समिति के सभी सदस्यों) को, विशेष रूप से इस मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी आंदोलन के भावी नेताओं को (would be Leaders- अर्थात जीवनमुक्त शिक्षकों को) इस पुस्तिका में प्रकाशित प्रत्येक निबंध का गंभीरता से अध्यन करके इसके विचारों को आत्मसात कर लेना चाहिये। आशा की जाती है कि उनके अतिरिक्त अन्य वैसे लोग, जो भारत की  प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आधारित शिक्षा-पद्धति में भी अभिरुचि रखते हैं तथा रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त साहित्य को बड़े चाव से पढ़ते हैं; किन्तु अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के आदर्श , उद्देश्य और कार्यपद्धति तथा उसके आदर्शवाक्य- 'Be and Make' के मर्म से परिचित नहीं होने के कारण, अभी तक इस संगठन के साथ संयुक्त नहीं सके हैं, यह पुस्तिका उनके लिये भी विशेष लाभप्रद सिद्ध होगी।
     यदि हम अपने वर्तमान सामाजिक परिदृश्य तथा  विशेष रूप से युवा-वर्ग की वर्तमान अवस्था को गहराई से समझने का प्रयास करें, तो यह पुस्तिका हमारे युवाओं के मन में वैसे उपयोगी सकारात्मक विचारों को अवश्य उत्पन्न  (Provoke) कर देगी, जिन्हें आम तौर पर (vote bank politics के कारण) प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, किन्तु वे अपरिहार्य हैं। यदि वैसे प्रबुद्ध युवा जो वर्तमान में प्रचलित केवल नाम-यश पाने के उद्देश्य से और ' क्लबों ' के माध्यम से  की जाने वाली 'स्टिरियोटाइप समाजसेवा'  के अनुगामी न बनकर यदि सचमुच भारत माता को विश्वगुरु के आसन पर बैठाने के लिए कटिबद्ध हों , तो उन्हें युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त इस वैश्विक धर्मसूत्र (Universal Dharma Sutra)- 'Be and Make'  के ऊपर हमें नए सीरे से चिन्तन-मनन करना होगा तथा इस [आध्यात्मिक] मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में जुट जाना होगा। 
[अर्थात स्वामीजी के " वैश्विक धर्मसूत्र-Be and Make " का तात्पर्य हुआ  तुम स्वयं एक आध्यात्मिक मनुष्य बनो (पैगम्बर-जीवनमुक्त शिक्षक बनो) और दूसरों को भी आध्यात्मिक 'मनुष्य'(अर्थात पैगम्बर या मानवजाति का मार्ग-दर्शक नेता) बनाने में सहायता करो !" 'निवृत्ति अस्तु महाफला' का गूढ़ार्थ है तुम स्वयं ब्रह्मविद मनुष्य या ॐ के अर्थ को अपने अनुभव से जानने वाला एक आध्यात्मिक शिक्षक बनो ! और दूसरों को भी  चरित्रवान आध्यात्मिक शिक्षक जिसका मन-मुख-हाथ के कर्म एक हो बनने में सहायता करो। - के ऊपर हमें नए सीरे से चिन्तन-मनन करना ही होगा।]  
      इस महामण्डल पुस्तिका में व्यक्त कोई भी विचार (छपा हुआ विचार) किसी व्यक्ति विशेष  के मानव-मस्तिष्क में (इसके लेखक नवनीदा के मस्तिष्क में) उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! (No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.)  इस पुस्तिका के लेखों में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है! एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ जोड़ने का उद्देश्य स्वयं के लिये नाम-यश या और कुछ कमाना नहीं है, बल्कि स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अपने व्यवहारिक जीवन में प्रयोग द्वारा 'एक नये भारत का निर्माण' करने हेतु युवाओं को अनुप्राणित करने का एक विनम्र प्रयास है।
       इसीलिये यदि किसी नए शब्द- निर्माण (coinage) की अनुमति दी जाये, तो इस पुस्तिका में वर्णित विचारों को ''Applied Vivekananda in the national context." -अर्थात `एक नये भारत का निर्माण करने के संदर्भ में अनुप्रयुक्त विवेकानन्द के विचार ' की संज्ञा दी जा सकती  कहा जा सकता है।
      इस पुस्तिका के हिन्दी अनुवादक का ऐसा मानना है कि,  इस पुस्तिका में व्यक्त `एक नये भारत का निर्माण करने के संदर्भ में अनुप्रयुक्त स्वामी  विवेकानन्द के विचारों ' को सही तरीके आत्मसात कर लेने पर  'स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' 'BE AND MAKE'- ( अर्थात निवृत्ति अस्तु महाफला) में प्रशिक्षित कोई भी भावी आध्यात्मिक शिक्षक (जीवनमुक्त शिक्षक, भावी पैगम्बर, Leader)-'बनो और बनाओ' पद्धति के तकनीक और महत्व को आसानी से समझ सकता है। महामण्डल की यह अंग्रेजी पुस्तिका 'A NEW YOUTH MOVEMENT' प्रथम बार सितम्बर, 1987 में प्रकाशित हुई थी, जो इस पुस्तिका के हिन्दी अनुवादक के लिए पहला वार्षिक महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर था। महामण्डल के द्वारा इसके प्रथम हिन्दी (अनुवाद) का प्रकाशन दिनांक -9 फ़रवरी 2015 को हुआ : (जब नवनीदा शरीर में थे ! और इस विषय पर उनके साथ पूरी चर्चा भी हुई थी!)  

[First English Publication -September 1987 
Printed by 
P.K. Das
Pelican Press
(जलसिंह प्रेस ?)
85 B.B. Ganguli Street

Calcutta-12] 

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल 
का 
हिन्दी प्रकाशन विभाग,
तारा टॉवर,
झुमरीतिलैया -825409
कोडरमा, झारखण्ड 
(मोबाईल : ९३८६६९९९ ४९ )
=======================================

🙏卐 'A NEW YOUTH MOVEMENT' (DESIGNED BY SWAMI VIVEKANANDA)

PREFACE 

     This new publication is a compilation of a few articles on a particular theme based on discussions in All India Youth Training Camps, often appearing as Editorials in 'Vivek-Jivan' -the bilingual monthly organ of the Mahamandal. These together may well serve the purpose of an authentic introduction to the Mahamandal - its ratiocinative background, Aims and Objectives, the Task and its Method of Work. 
      Those who are interested in the Mahamandal and its work should do well ' To Chew and Digest' the book. For them also who are not particularly interested in this organization, reading the volume will be worthwhile, it is expected. It may 'Provoke Thoughts'  which are not generally encouraged, but are unavoidable, if we want to view the general human scene today and particularly the condition of our own society. A fresh look, and not just a stereotyped estimate, at the prevailing condition is essential, if any constructive action is called for.
No idea here is an out-flow of any particular individual human brain. Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose : regeneration or ushering in a New India. If use of a new coinage is allowed , it may be said: Here is an attempt to study 'Applied Vivekananda in the national context. 

PUBLISHER 
September,1987  
Printed by 
P.K. Das
Pelican Press
85 B.B. Ganguli Street
Calcutta-12


`एक नया युवा आंदोलन !'

 [स्वामी विवेकानन्द द्वारा अभिकल्पित- 'A New Youth Movement'] 
 
विषय-सूचि 

१. नियत कार्य (The Work)
२. उन्नततर मनुष्यों का उन्नततर समाज (Tend Individuals, Tend Society) 
३. आत्मा और हृदय (Heart and Soul) 
४. संगठन और लीडरशिप की अनिवार्यता (The Need of Organization and Leadership) 
५. बिखरी हुई इच्छाशक्ति का समन्वय  (Will and Unite)  
६. मनुष्य बनो और बनाओ का निहितार्थ (Implication of 'Be and Make')
७. शरीर-मन-हृदय का सामंजस्य पूर्ण विकास (For Total Development)
८. सौंपा हुआ कार्य तथा क्रियान्वन पद्धति (The Task and the Way)  
९. हमारी सीमा (Our Limitation)
१०. लक्ष्य (परम-सत्य) तक पहुँचने का मार्ग (The Object and the Way)
११. लक्ष्य और मार्ग की पुनर्व्याख्या (The Way Further Explained) 
१२. क्या आवश्यक है ? (What is Essential) 
१३. महामण्डल की भूमिका (The Role of the Mahamandal) 
१४. कार्य की योजना (The Plan of Work)
१५. उद्देश्य और कार्यपद्धति (The Idea and the Method)
१६. स्व-परामर्श (Speaking to Ourselves)
१७. हमारा कर्तव्य (Our Duties) 
१८. हमें क्या चाहिये ? (What is Wanted) 

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卐🙏एक नया युवा आंदोलन !卐🙏

1.

नियत कार्य 

(The Work )
 
        >>"The Work"  undertaken with adequate understanding of ॐ it has a better chance for success.
     यह बात कई लोगों को समझ में नहीं आती कि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल आखिर  करना क्या चाहता है ? इस विषय पर विगत कई वर्षों में महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका 'विवेक-जीवन' तथा अन्य दूसरी महामण्डल पुस्तिकाओं में बहुत कुछ लिखा गया है, इसके  ऊपर कई युवा सम्मेलनों, प्रशिक्षण शिविरों एवं अन्यत्र भी बहुत कुछ कहा गया है। उन सबको यहाँ दोहराना संभव नहीं है, किन्तु जो लोग महामण्डल कार्य में लगे हुए हैं, उनके लाभ के लिये प्रमुख बातों की पुनरावृत्ति संक्षेप में की जा सकती है। यदि इस पुस्तिका का अध्यन करने से, महामण्डल के कार्यों के बारे में दूसरे लोगों की समझ भी स्पष्टतर होती है, तो वह एक अतिरिक्त लाभ होगा। भारत के कल्याण के लिये जितना कुछ किए जाने की जरूरत है, वह सब पूरा कर देने का दायित्व कोई व्यक्ति या कोई एक संगठन नहीं उठा सकता। गीता (१८.२५) में  कहा गया है -

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।18.25।।

जो कर्म परिणाम (अनुबन्धं या consequence), हानि, हिंसा और सार्मथ्य (पौरुष) का विचार न कर केवल मोहवश आरम्भ किया जाता है, वह कर्म तामस कहलाता है। और तामसिक कर्म सदैव दूसरों के लिये हानिकारक होता है। अतएव किसी कार्य के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं (pros and cons) को समझे बिना, तथा सफलता की सम्भावना आदि विषयों का गहराई से विवेचना किये बिना, अर्थात कार्य के परिणाम, धन और ऊर्जा के व्यय आदि का आकलन बिना ही क्रियान्वित करने के लिए कूद पड़ना बुद्धिमानी का कार्य नहीं कहा जा सकता। 
छान्दोग्य उपनिषद् में भी कहा गया है -- " नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति " -(01.01.10) जिस कार्य को पर्याप्त समझ, श्रद्धा, विश्वास और आवश्यक जानकारी (required knowhow) प्राप्त करने के बाद, उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को समझते हुए प्रारम्भ किया जाता है , वह कार्य अति बलवान होकर उत्तम फल प्राप्त कराते हैं। अर्थात जिस कार्य को विद्या की सहायता से पर्याप्त समझ, श्रद्धा और विश्वास के साथ -साथ उपनिषदों के ज्ञान और ध्यानपूर्वक किया जाता है, कार्य अधिक प्रभावशाली होता है, या उस कार्य में सफलता मिलने की सम्भावना अधिक होती है। 
    >>The work of building individual life of the youth is the the key to solving all other bigger problems. 
        इसलिए महामण्डल ने भारत की  बेरोजगारी और निरक्षरता को दूर करने या देश की जनसंख्या में वृद्धि के साथ लाखों लोगों के अच्छे स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने जैसी बड़ी बड़ी योजनाओं की जिम्मेवारी स्वयं के ऊपर नहीं ली है।  इतने बड़े-बड़े कार्यों को करने के बजाय इसने कार्य का एक छोटा सा क्षेत्र - युवाओं का 'जीवन गठन ' करना चुन लिया है। क्योंकि हमलोग आज जिन बड़ी-बड़ी समस्याओं - से जूझ रहे हैं, उनके हल की एकमात्र कुंजी व्यक्ति-जीवन का निर्माण, विशेष रूप से युवाओं का चरित्र-निर्माण करते हुए  देश में 'चरित्रवान- मनुष्यों' की संख्या में वृद्धि करना है।
        यह परियोजना अन्य किसी के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं स्वामी विवेकानन्द के द्वारा ही बनाई गई है। उन्होंने सदैव समस्यायों के मूल में पहुंचकर , उसके जड़ पर कार्य करने के लिए प्रेरित किया है और भावी युग के उन्नतर मनुष्यों का एक प्रारूप प्रस्तुत करते हुए , उसके निर्माण की पद्धति भी हमें बतलाई है। इसीलिए महामण्डल उनके दिखाये गये मार्ग का अनुसरण करने का प्रयत्न कर रहा है। अन्य तथाकथित समाजसेवी संगठनों द्वारा युवा शक्ति को नियंत्रित के उद्देश्य से प्रत्यक्षतः 'युवा कल्याण ' के नाम पर जिस प्रकार के आयोजन (युवा महोत्सव आदि) किये जाते हैं, उसी तर्ज पर महामण्डल भी जिस-तिस व्यक्ति (या संगठन) से कोई परियोजना उधार लेने में कोई दिलचस्पी या इरादा नहीं रखता। 
>>>No other service to society is more beneficial than, building our  own life properly.  
 महामण्डल केवल स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित मार्ग का ही अनुसरण करना चाहता है ! निस्संदेह यह कार्य सबसे कठिन कार्यों में से एक है ! [यह कार्य (गणपति बप्पा मोरिया, छठ-पूजा में रोड-घाट पर झालर लटका देने आदि से बिपरीत] यह एक ऐसा असामान्य कार्य है, जो किसी का ध्यान अपनी ओर नहीं खींचता। लोगों से इस कार्य के लिए सहानुभूति या प्रशंसा भी नहीं मिलती। किन्तु यदि कोई सच्चा कार्यकर्ता स्वचयनित कठिन कार्य के महत्व को समझता है तो वह निश्चित रूप से दूसरों की वाहवाही लेना निरर्थक समझेगा। समाज में सभी की भलाई के लिए अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गढ़ लेना ही सबसे बड़ी समाज सेवा है। इससे बढ़कर अन्य कोई समाज सेवा नहीं है। यदि किसी युवक के पास एक स्वस्थ-सबल शरीर और सभी का कल्याण करने की दृढ़ इच्छाशक्ति के आलावा अन्य कोई पूंजी न भी हो, किन्तु उसे अपने आदर्श, उद्देश्य और निर्भीक प्रयास के प्रति अटल विश्वास हो तो वह उसी ठोस बुनियाद पर अपने जीवन का निर्माण कर सकता है। अपना सुन्दर चरित्र गढ़ लेने के बाद अगर वह चाह ले तो कोई पूँजी निवेश किये बिना ही दूसरों को भी मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता कर सकता है। और यदि कोई व्यक्ति पूरी ईमानदारी के साथ 'बनो और बनाओ' के कार्य को निरंतर जारी रखता हो तो इसी से समाज की अंततोगत्वा बहुत बड़ी सेवा की जा सकेगी।
 >>Any action with a selfish motive  is far inferior. 
इसीलिए हमें दूरदर्शी होना चाहिए।  यदि हम पहले इस कार्य (चरित्रवान मनुष्य बनने का कार्य) को किये बिना सीधा समाज सेवा में कूद पड़ेंगे तो वह निम्न स्तर की समाज-सेवा होगी। गीता में कहा गया है - 
 दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
            बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।2.49।।

।।2.49।। "हे अर्जुन, निःस्वार्थ भाव से किए गए कर्म की तुलना में (स्वार्थ की इच्छा से किया गया) सकाम कर्म अत्यन्त निकृष्ट हैं।  स्वार्थ से प्रेरित होकर कर्म करने वाले कृपण या छोटे-मन वाले (दीन) होते हैं। क्योंकि स्वार्थ के लिए किया गया कोई भी कार्य बहुत ही हीन होता है।" 
       यदि हम अपने जीवन का निर्माण ठीक ढंग से कर लेते हैं, तो हमारी अंतर्निहित पवित्रता और शक्ति के विषय में धारणा और अधिक स्पष्ट धारणा हो जायेगी। फिर यह जान लेने के बाद कि वही पवित्रता और शक्ति सभी के भीतर विद्यमान है, तब हमारा निःस्वार्थ कर्म सबों के भीतर विद्यमान 'पवित्रता और शक्ति' की पूजा (सेवा) बन जायेगा। ऐसा ही कर्म मनुष्य जीवन को सार्थक बना सकता है। 
>>>We want to rush to the college before we finish the school.
गीता: में कहा गया है -
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।

[यतः प्रवृत्तिः भूतानां येन सर्वं इदं ततम् , स्वकर्मणा तम् अभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।] 
।।18.46।। जिस परमात्मा (=आत्मा=जन्मादि अस्य यतः)  से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा (आत्मा) का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है
साधारण व्यक्ति जैसे ही स्वामी विवेकानन्द के नाम से जुड़े किसी संगठन के विषय में सुनता है, तो उनकी कल्पना शक्ति उसे समाज के अंतिम सिरे पर स्थित पददलित और दीन-हीन मनुष्यों की सेवा के क्षेत्र में ले जाती है। यह सही है कि स्वामी जी ऐसे कार्य होते हुए देखना भी चाहते थे। किन्तु उन्होंने इस प्रकार के कार्य को आरम्भ करने से पहले आत्मविकास कर इन कार्यों को सम्पादित करने योग्य बनने का जो निर्देश दिया है उसे हम प्रायः भूल जाते हैं।
    प्राथमिक शिक्षा या स्कूली शिक्षा समाप्त किये बिना ही हमलोग कॉलेज में प्रवेश लेने के लिये दौड़ पड़ते हैं। और हमारी बुद्धि हमें यहीं धोखा दे जाती है! इसीलिये भगवान श्रीकृष्ण हमें समत्वबुद्धि की शरण लेने का उपदेश देते हैं;  और उपनिषद के ऋषि हमें विद्या की शरण में जाने की सीख देते हैं ! स्वामी विवेकानन्द की परियोजना (Be and Make) गीता और उपनिषद द्वारा निर्देशित उपरोक्त प्रस्तावों का पूर्णरूपेण अनुसरण करती है! यही कारण है कि उनके द्वारा निर्देशित समाज सेवा, अन्य सभी प्रकार की समाज सेवा से बिल्कुल भिन्न है। महामण्डल थोक भाव में विदेशों से आयातित समाज सुधार के सिद्धान्तों एवं समाजसेवी संस्थाओं की कार्य पद्धति का अनुसरण नहीं करता, बल्कि स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त योजना का ही अनुसरण करना चाहता है। 
     समस्याओं का तत्काल निदान करने के पक्ष में दिया गया तर्क बहुत कमजोर है तथा ऐसी सोच समत्वबुद्धि (equanimity) की कमी के कारण उत्पन्न होती है। कोई मूलयवान वस्तु प्राप्त करनी हो तो हमें उसका उचित मूल्य चुकाने के लिए भी अवश्य तैयार रहना चाहिए। साधारण मनुष्य केवल जिस स्थूल समाज सेवा को समझ पाते हैं, (इन्द्रिय-गम्य समाजसेवा जैसे -अन्नदान, वस्त्रदान, रिलीफ-वर्क, या मोतियाबिंद का ऑपरेशन आदि) वे सभी अच्छे कार्य हैं, किन्तु महामण्डल समस्त पीड़ित मानवता की दशा को सुधारने के लिए बड़े पैमाने पर उस प्रकार के कार्यों को करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर कभी नहीं लेगा। और हमलोग इस बात को समझ सकते हैं कि, इस प्रकार के 'लोक दिखावे की समाज-सेवा '(जैसे रिलिफ-वर्क, भवन और हॉस्पिटल आदि बनवाने) से अपने को अलग रखने में, हमारे संगठन की  विफलता तो कतई नहीं है।
यदि युवाओं को (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ) प्राथमिक शिक्षा देने का कार्य पहले किया जाये तो वे युवा जब अपनी आजीविका के लिए या स्वैच्छिक सेवा के लिए जिस किसी भी कार्य-क्षेत्र में जायेंगे तो वे वहाँ सभी मायनों में हज़ार गुना अधिक सच्ची समाज सेवा करने में समर्थ होंगे।
किन्तु, इसके बिना कोई भी समाज सेवा का कार्य सफल नहीं हो सकेगा। 
    महामण्डल ने अपनी अल्प-क्षमता के अनुसार समाज सेवा के कार्य को केवल अपने साध्य को पाने का एक साधन के रूप में ही ग्रहण करता है।  इसने जिस कार्य को अपने लक्ष्य के रूप में चुना है उसे पूरा करने की तकनीकी जानकारी भी है। और अब तो उसका परिणाम भी साफ- साफ दिखाई पड़ने लगा है। महामण्डल  ने केवल स्वामी विवेकानन्द के परमर्शों को स्वीकार करके मात्र उन्हीं के बताये रास्ते पर चलने का निर्णय ले लिया है !
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 वेदान्त डिण्डिमः 
और सभी शास्त्रों के सार (त्याग) के महत्व को समझ लेने के बाद महामण्डल  समाज सेवा के समस्त कार्यों को को केवल ' त्याग' अर्थात गृहस्थों के लिए -'निवृत्ति अस्तु महाफला' की समझ में उपनीत होने का उपाय के रूप में ही ग्रहण करता है। 
    
तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद । 
नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति 
श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति 
खल्वेतस्यैवाक्षरस्योपव्याख्यानं भवति ॥  
***छान्दोग्य उपनिषद्  (१.१. १०)॥
[{i}. तेन उभौ कुरुतः यश् च एतद् एवं वेद यश् च न वेद ।
 {ii}. नाना तु विद्या च अ-विद्या च ।
{iii}. यद् एव विद्यया करोति श्रद्धया उपनिषदा तद् एव वीर्यवत्तरं भवति (विद्यया=विज्ञानेन= विशेष-विज्ञानेन सन् यदेव करोति, श्रद्धया=आस्तिक्यबुद्ध्या, उपनिषदा = उपासनेन चोपलक्षितः; तदेव कर्म वीर्यवत्तरं भवति ।) 
{iv}. इति खल्व् एतस्य एव अ-क्षरस्य उपव्याख्यानं भवति ॥] "
 - अर्थात कोई ऐसा सोच सकता है कि ओम के रहस्य को जाने वाला (ब्रह्मवेत्ता) और दूसरा ओम के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर एक ही तरह का यज्ञ- "Be and Make " करे तो उसमें दोनों को समान फल मिलेंगे। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। विद्या और अविद्या दोनों भिन्न हैं, अतः ब्रह्म का ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं। ओम  के ज्ञान, श्रद्धा और देवताओं ( deities = ईश्वर की मूर्ति पर मनःसंयोग, या विवेकदर्शन के अभ्यास ) की साधना से बहुत अधिक उत्तम फल प्राप्त होते हैं। यह ओम की विस्तृत व्याख्या है।"
{ii}. नाना तु विद्या च अ-विद्या च .... ईशा.उपनिषद मंत्र ११ में कहा गया है -
                              “विद्यां च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्याया मृत्युँ तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥”
(विद्यां च अविद्यां च यः तद् उभयं सह वेद, सह अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ।) 
अर्थात्-’जो विद्या और अविद्या, को साथ-साथ जानता है, वही अविद्या द्वारा मृत्यु को पार कर विद्या की शक्ति से अमृतत्व को प्राप्त करता है । हमें सम्यक रूपसे अविद्यामाया की मदद लेते हुए विद्यामाया का साथ देना चाहिये। यदि हम  केवल विद्या की उपासना करेंगे तो जीवन की मूलभूत आवश्यकतायें भोजन, वस्त्र ,आवास आदि कौन जुटायेगा? इन्हें आवश्यकतानुसार प्राप्त करने के लिये ही अविद्या का सहारा लेना पड़ता है । किन्तु यदि केवल अविद्या की उपासना करेंगे तो यहीं फंसे रहेंगे । सापेक्ष सत्य को स्थिर सत्य मान बैठने की प्रवृत्ति ही माया बन्धन है। व्यक्ति जब इस परिवर्तनशील जगत के किसी अनुभव विशेष को परम सत्य मान बैठता है, तो वह भ्रम में होता है, माया-पाश में बँधा होता है।  अविद्या का अर्थ सांसारिक ज्ञान (सापेक्षिक सत्य या परिवर्तनशील सत्य का ज्ञान) होता है, तथा विद्या का अर्थ आत्म-ज्ञान ( निरपेक्ष सत्य या अपरिवर्तनशील सत्य का ज्ञान ) होता है। अविद्या से मृत्यु को पार करके हमे विद्या द्वारा अमृत या ज्ञान प्राप्ति करनी चाहिए। अर्थात  विद्या और अविद्या मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए।
           स्वामी विवेकानन्द  कहते हैं, " इस जगत में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं जो पूरी तरह से बुरा (शैतान ) हो, जिसे अच्छे मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य में रूपान्तरित नहीं किया जा सकता हो; क्योंकि ब्रह्म  ही वह अंतिम सत्य हैं, जिनसे सम्पूर्ण जगत अभिव्यक्त हुआ है। नीचे दिये चित्र में- यह ब्रह्म (a) दी एब्सोल्यूट, (c) टाइम-स्पेस-कॉज़ेशन देश-काल-निमित्त (कारणत्व ; कारण-कार्य संबंध) में से होकर आने से (b) जगत या दी यूनिवर्स बन गया है। यही अद्वैतवाद की मूल बात है। हम देश-काल-निमित्त रूपी चश्मे से ब्रह्म (प्रेम और पवित्रता की प्रतिमूर्ति श्रीरामकृष्ण के चित्र ) को देख रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है, वहाँ देश-काल-निमित्त नहीं है। काल वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन है, न विचार। देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई बाह्य परिणाम नहीं है। और जहाँ सत्ता केवल एक है, वहाँ कार्य-कारणवाद भी नहीं  सकता; क्योंकि निमित्त ब्रह्म के नाम-रूप में अधःपतित होने के बाद ही होता है, उससे पहले नहीं। और हमारी इच्छा, वासना आदि जो कुछ है, वे सब उसके बाद ही आरम्भ होते हैं। " २/८५] 
     वेदान्त डिण्डिमः ~ " ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या। " इसे दर्शनशास्त्र में माया-वाद (या विवर्तवाद)  कहा गया है। ‘ अघटन घटना पटियसि माया'   अर्थात् ‘‘जो है, वह न होने और जो नहीं है, उसे होने जैसा अनुभव कराने वाली  सत्ता-  माया कहलाती है।"जो लोग मायावाद का अर्थ यह समझते हैं कि यह संसार माया है यानी असत् है, है ही नहीं, वे न तो माया का अर्थ जानते, नहीं, मायावाद का स्वरुप समझते हैं। 
 आचार्य शंकर, जैसे जिन विद्वानों ने अपने वेदान्त डिण्डिमः में जगत को मिथ्या कहा है, वे यह तब कह पाये जब उन्होंने आत्मसाक्षात्कार कर लिया। आत्मसाक्षात्कार का अनुभव कर लेने के बाद ही कोई कह सकता है - 'मैं सत्य  हूँ, मैं मुक्त हूँ असत्य  से!' अपने अज्ञान का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। वेदान्त के आचार्य अथवा दार्शनिक-ऋषि लोग इस 'दृष्टिगोचर जगत' को कभी 'असत्य' नहीं कहते हैं, वे इस विश्व-ब्रह्माण्ड को ‘सापेक्षिक सत्य‘ कहते हैं जो विद्यामाया और अविद्यामाया के (के नियमों के)  द्वारा अपना अस्तित्व (संतुलन?) बनाये रखता है। जगत की सत्ता है ही नहीं, ऐसा वेदान्तविद् (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य ) कभी नहीं कहते । वे मात्र यही कहते हैं कि जगत की व्यावहारिक सत्ता है । निरपेक्ष दृष्टि से वह सत्य नहीं है, किन्तु वह असत्य भी नहीं है। यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वेदान्त में 'मिथ्या' का अर्थ ‘असत्’ नहीं, अपितु अनिर्वचनीय होता है । 
सामान्य अर्थो में जिसे सत्य कहा जाता है, वह वास्तव में सापेक्षिक सत्य है। इस सापेक्षिक सत्य को निरपेक्ष सत्य के जैसा बोध कराने वाली शक्ति का नाम माया है !  ‘सत्य‘ सदैव अपरिवर्तनशील होता है, प्रत्येक स्थिति में एक सा, एकरस। परन्तु सापेक्ष-सत्य या 'मिथ्या' निरंतर परिवर्तनशील होता है। जो अपरिर्विर्तत रहता है उसे निर्पेक्ष सत्य या पूर्ण सत्य - अविनाशी है; और जो परिवर्तित होता है उसे सापेक्षिक सत्य (नश्वर) कहते हैं। इस सृष्टि का नाम जगत इसीलिये पड़ा कि यहाँ हर वस्तु निरन्तर गतिशील है। पारमार्थिक दृष्टि से जगत सत्य नहीं है, न ही असत्य है अपितु वह ‘मिथ्या’ है । 
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卐 स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित कुछ कवितायें 
Swami Vivekananda was a 'Heart-whole Man'

       यह स्वामी विवेकानंद का आध्यात्मिक शक्ति से मंडित, निर्भीक और तेजोदीप्त व्यक्तित्व ही था, जिसने गुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारत की दीन-दुखी जनता में एक नई शक्ति का संचार कर दिया।और इस शक्ति के केंद्र में था उनका भावावेगमय हृदय, [ दिलबस्तगी-ऐसी स्थिति, जिसमें दिल किसी काम या बात में सुखद रूप से बँधा अर्थात लगा हो या लगा रहे, - तुच्छ इन्द्रियविषयों में आसक्ति से मुक्त ह्रदय] जिसके भीतर से ऊर्जा का अनवरत विकिरण होता था। उन्हें पढ़ते हुए लगता है, जैसे उनके भीतर हर वक्त एक ऊर्जा-भट्ठी जलती थी। इसलिए अपने रोजमर्रा के जीवन में वे जो कुछ भी कहते, वह काव्यमय था। उनका हर कथन, चिंतन, बोलचाल की भंगिमा, सबमें एक विदेह कवि का वास था। उनके निकट के सभी लोगों ने यह अनुभव किया कि उनका समूचा व्यक्तित्व जितना लोकोत्तर था, उतना ही काव्यमय भी।
        इसी काव्य-रस के कारण उनके व्याख्यान सीधे दिल में उतरते हैं और मन को आंदोलित कर देते हैं। देर तक मन पर उनका प्रभाव छाया रहता है। कभी-कभी तो अवाक् कर देने की हद तक। स्वामी विवेकानंद पराधीनता की पीड़ा और अपमानों से व्यथित भारतीय जनता में एक नया आत्मविश्वास जगाने के लिए आए थे। और उनकी कविताएँ भी, जो शक्ति के विस्फोट की तरह हैं, हमें अपने आपको पहचानने और पूर्ण शख्सियत हासिल करने के लिए ललकारती हैं। शायद इसीलिए विवेकानंद की कविताओं को पढ़े बिना उनकी शक्ति के उद्गम और गहरी आध्यात्मिक विकलता को समझा ही नहीं जा सकता।
       आज भी पुस्तकों में उन्हें पढ़ते हुए हम जैसी इलेक्ट्रिक शॉक जैसी भावनात्मक थरथराहट महसूस करते हैं, उससे कल्पना की जा सकती है कि उन्हें साक्षात् सुननेवाले किस तरह के गहरे चमत्कारिक प्रभाव से गुजरे होंगे। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और  सुमित्रानंदन पन्त  द्वारा अनूदित विवेकानंद की कविताओं को पढ़ते हुए लगता है, मानो उसमें स्वामी विवेकानंद की भावाकुलता में निराला और पंत के हृदय का आलोड़न भी आकर मिल गया हो। यह भी एक पावन संगम ही है, एक साथ कई महा नदियों का संगम। इसलिए इन कविताओं के हिंदी अनुवाद को पढ़ने का आनंद ही कुछ और है।
स्वामी विवेकानंद की एक छोटी सी, पर सुंदर कविता ‘समाधि’ मूल रूप से बँगला में लिखी गई थी। और इसमें गहन मुक्ति-क्षण का वह उदात्त चित्र है, जिसमें सूर्य, चंद्र सभी विलीन हो जाते हैं। एक अचरज भरा संसार जहाँ सूर्य भी नहीं है, ‘ज्योति—सुंदर शशांक नहीं, छाया सा व्योम में’ यह विश्व नजर आता है। स्वामी विवेकानंद की एक छोटी सी, लेकिन यादगार कविता है, जिसमें समाधि की सर्वोच्च अवस्था का चित्र है। एक ऐसी निर्विकल्प समाधि, जिसमें सूर्य, चंद्र सब विलीन हो जाते हैं ; और रह जाती है केवल महा आनंद की अनुभूति। सचमुच एक ऊँचे आध्यात्मिक अनुभव की बड़ी विरल अभिव्यक्ति है यह—

‘समाधि’ 

सूर्य भी नहीं है, ज्योति-सुन्दर शशांक नहीं,
छाया सा व्योम में यह विश्व नज़र आता है। 

मनोआकाश अस्फुट भासमान विश्व वहाँ,
अहंकार स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। 

धीरे-धीरे छायादल लय में समाया जब,
धारा निज अहंकार मंद गति बहाता है। 

बंद वह धारा हुई, शून्य में मिला है शून्य,
‘अवांगमनसगोचरं’, वह जाने जो ज्ञाता है। 

जिसे अध्यात्म-जगत् में इंद्रियातीत अनुभव कहते हैं, स्वामी विवेकानंद अपनी भाषा-समाधि के जरिए मानो उसे भी शब्दों में बाँधने का जोखिम उठाते हैं। यों अपने को समेटकर जिस शून्य की अभिव्यक्ति कोई महत्तर योगी करता है, विवेकानंद का कवि उसे बड़ी ही सहज भाषा में व्यक्त कर देता है।
*****
इसी तरह एक और अपेक्षाकृत छोटी कविता ‘जाग्रत देवता’ 9 जुलाई, 1897  को अलमोड़े से एक अमेरिकन मित्र को लिखी गई थी। यह बड़ी उदात्त भावभूमि की कविता है। पर उतनी ही सहज भी। इस कविता में विवेकानंद ने उस देवता की पूजा का आग्रह किया है, जो सब दीवारों और बंधनों से परे है, यहाँ तक कि धर्म के घेरे में भी वह नहीं आता। इसलिए कि वह हर मनुष्य के साथ है और उसके भीतर समाया हुआ है। एक तरह से विवेकानंद की यह कविता मनुष्य और मनुष्यत्व की प्रतिष्ठा की कविता है, जो बड़े ही सहज शब्दों में सामने आती है—

जाग्रत देवता
वह, जो तुममें है और तुमसे परे भी,
जो सबके हाथों में बैठकर काम करता है,
जो सबके पैरों में समाया हुआ चलता है,
जो तुम सबके घट में व्याप्त है,
उसी की आराधना करो और
अन्य प्रतिमाओं को तोड़ दो!
जो एक साथ ही ऊंचे पर और नीचे भी है;
पापी और महात्मा, ईश्वर और निकृष्ट कीट
एक साथ ही है,
उसीका पूजन करो-
जो दृश्यमान है,
ज्ञेय है,
सत्य है,
सर्वव्यापी है,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो!
जो अतीत जीवन से मुक्त,
भविष्य के जन्म-मरणों से परे है,
जिसमें हमारी स्थिति है
और जिसमें हम सदा स्थित रहेंगे,
उसीकी की आराधना करो,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो!
ओ विमूढ़! जाग्रत देवता की उपेक्षा मत करो,
उसके अनंत प्रतिबिम्बों से से ही यह विश्व पूर्ण है.
काल्पनिक छायाओं के पीछे मत भागो,
जो तुम्हें विग्रहों में डालती है;
उस परम प्रभु की उपासना करो,
जिसे सामने देख रहे हो;
अन्य सभी प्रतिमाएं तोड़ दो!
*****
स्वामी विवेकानंद की एक और छोटी सी कविता ‘प्याला’ मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई थी। कविता प्रतीकात्मक है, हलकी रहस्यात्मकता लिये हुए भी। पर फिर भी, निगूढ़ नहीं। सीधी, सुलझी हुई व्यंजना है। इस संसार में से हर व्यक्ति के हाथ में इच्छाओं का जो कभी न भरनेवाला प्याला है। कविता में उसका बिंब है। सभी उसी प्याले की माया से भ्रमित हैं। इसीलिए ईश्वर तक पहुँचने की राह इतनी कष्टकर और बाधाओं से भरी हुई है। और उससे भी बड़ा सत्य तो यह है कि राह के ये पत्थर स्वयं प्रभु ने रखे हैं, क्योंकि वह चाहता है कि हम मुश्किलों का सामना करना सीखें और यह भी जान लें कि सत्य हमेशा दुर्गम रास्तों पर चलकर ही हासिल होता है—

प्याला
यही तुम्हारा प्याला है,
जो तुम्हें शुरु से मिला है,
नहीं, मेरे वत्स! मुझे ज्ञात है-
यह पेय घोर कालकूट,
यह तुम्हारी मंथित सुरा- निर्मित हुई है,
तुम्हारे अपराध, तुम्हारी वासनाओं से,
युग-कल्पों-मन्वन्तरों से.
यही तुम्हारा पथ है- कष्टकर, बीहड़ और निर्जन,
मैंने ही वे पत्थर लगाये, जिन्होंने तुम्हें कभी बैठने नहीं दिया,
तुम्हारे मीत के पथ सुहावने और साफ-सुथरे हैं,
और वह भी तुम्हारी ही तरह मेरे अंक में आ जायेगा। 

हालाँकि रास्ता कितना ही दुर्गम क्यों न हो, ईश्वर की करुणा भरी आँख हम पर है और वह चाहता है कि हर बाधा पार करके हम उस तक पहुँचें। हमें उस तक पहुँचना ही होगा, क्योंकि इसके बगैर किसी की मुक्ति संभव नहीं है। हर मान-अपमान में, बगैर यश और गौरव की परवाह किए हमें यह यात्रा जारी रखनी होगी। यों इसका एक आसान तरीका यह भी है कि हम बाहर से अपनी दृष्टि भीतर की ओर फेर लें। अगर आँख बंद करें, तो उस करुणामय को हम अपने सामने पाएँगे। कविता की ये पंक्तियाँ कितनी शीतल और शांतिमयी हैं—

किन्तु, मेरे वत्स, तुम्हें तो मुझ तक यह यात्रा करनी ही है। 
यही तुम्हारा काम है, जिसमें न सुख है, न गौरव ही मिलता है,
किन्तु, यह किसी और के लिए नहीं, केवल तुम्हारे लिए है। 
और मेरे विश्व में इसका सीमित स्थान है, ले लो इसे। 
मैं कैसे कहूँ कि तुम यह समझो,
मेरा तो कहना है कि मुझे देखने के लिए नेत्र बंद कर लो। "
 
अध्यात्म की गहन लोकोत्तर अनुभूति को थोड़े से शब्दों में कैसे बाँधा जा सकता है, यह कविता इसकी मिसाल है।

*****
‘शांति’ कविता का मिजाज कुछ भिन्न है। विचार से बोझिल नहीं, बल्कि एकदम सीधी-सहज थिराई हुई अभिव्यक्ति। इस कविता में विवेकानंद बडे़ सुंदर अल्फाज में सुंदरता, प्रेम, गीत और ज्ञान को व्याख्यायित करते हुए शांति को अंतिम आश्रय बताते हैं, जो जीवन का चरम लक्ष्य है। यह कविता न्यूयॉर्क के रिजले मनर में सन् 1899 में अंग्रेजी में लिखी गई थी और आज भी बड़ी ताजगी भरी लगती है—

‘शांति’ 
सुंदरता वह है जो देखी न जा सके,
प्रेम वह है जो अकेला रहे,
गीत वह है जो जिए बिना गाए,
ज्ञान वह है जो कभी जाना न जाए।

जो दो प्राणों के बीच मृत्यु है,
और दो तूफानों के बीच एक स्तब्धता है। 
वह शून्य जहाँ सृष्टि आती है,
और जहाँ वह लौट जाती है। 

वहीं अश्रुबिंदु का अवसान होता है
प्रसन्न रूप को प्रस्फुटित करने को,
वही जीवन का चरम लक्ष्य है, और शांति ही एकमात्र शरण है।

कहना न होगा कि शांति यहाँ स्थूल अर्थ में नहीं, बल्कि एक समाधि की अवस्था है। यह वह भावनात्मक क्षण है, जब इंद्रियाँ शांत हो जाती हैं और मन किसी उच्चतर अवस्था में पहुँच जाता है। शांति की इस अवस्था में शून्य से जनमी यह सृष्टि दो तूफानों के बीच की स्तब्धता की तरह, फिर शून्य में लौटती नजर आती है और जीवन की हलचलें थम जाती हैं।

विवेकानंद की एक और सुंदर कविता ‘मुक्ति’ 4  जुलाई, 1898  को अमेरिका के स्वतंत्रता दिवस पर लिखी गई थी। उस समय स्वामीजी अपने कुछ अमेरिकी मित्रों के साथ कश्मीर के पर्यटन पर थे। अचानक 4 जुलाई को सुबह उन्होंने अपने अमेरिकी शिष्यों को यह कविता सुनाकर सभी को चकित कर दिया। यह सुंदर कविता बाद में विवेकानंद की एक अनन्य शिष्या और प्रशंसक धीरा माता के पास सुरक्षित रही, और अद्वैत प्रकाशन द्वारा छपे विवेकानंद की कविताओं के संचयन में शामिल है—
‘मुक्ति’
ओ देवता, निर्बाध बढ़ो अपने पथ पर,
तब तक,
जब तक कि यह सूर्य आकाश के मध्य में न आ जाए। 
जब तक तुम्हारा आलोक विश्व में प्रत्येक देश में फलित न हो,
जब तक नारी और पुरुष सभी उन्नत मस्तक होकर यह नहीं देखें कि उनकी जंजीरें टूट गईं। 
और नवीन सुखों के वसंत में उन्हें नवजीवन मिला।
         यह कोई कम आश्चर्य की बात नहीं कि ४ जुलाई को ही, चार बरस बाद सन् १९०२ में विवेकानंद ने इस ऐहिक जीवन से मुक्ति प्राप्त की और महालोक में समा गए। मानो चार वर्ष पहले ही उन्होंने स्वयं अपना समाधि-लेख लिख लिया हो, जिसमें उनके पूरे जीवन-कार्यों और जीवन-लक्ष्य की एकदम मुकम्मल और सधी हुई अभिव्यक्ति है!
******
स्वामीजी की ऐसी ही भावदशा की एक और बड़ी महत्त्वपूर्ण कविता ‘मेरा खेल खत्म हुआ’ भी न्यूयॉर्क में ही लिखी गई थी, सन् 1895 के वसंत के दिनों में।  यह कविता भी मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी गई थी। कविता में सांसारिक सुखों की निष्फलता के गहरे अहसास के साथ ही उनकी मुक्ति की आकुलता देखते ही बनती है। वे समय की गति के साथ लहरों पर अनवरत तैरते हुए परेशान हैं, क्योंकि यह सब वृथा है, जो उन्हें अब जरा भी नहीं रुचता। जीवन में उठना और गिरना, लगातार चलते रहना और कहीं न पहुँचना, यह तो बड़ा थकाने वाला सिलसिला है। भीषण ताप जैसा। इसमें सुख कहाँ है, आनंद कहाँ है? कविता क्षिप्रता से भरी मुक्त लय में लिखी गई है और शब्द कहीं अधिक सहज और खुले हुए हैं—
‘मेरा खेल खत्म हुआ’ 

समय की लहरों के साथ,निरंतर उठते और गिरते, 
मैं चला जा रहा हूँ। 
जिंदगी के ज्वार-भाटे के साथ-साथ,
ये क्षणिक दृश्य एक पर एक आते-जाते हैं।
आह, इस अप्रतिहत प्रवाह से, कितनी थकान हो आई है मुझे,
ये दृश्य बिल्कुल नहीं भाते। 
यह अनवरत बहाव और पहुँचना कभी नहीं,
यहाँ तक कि तट की दूर की झलक भी नहीं मिलती।
कविता के अंत में वे अपनी मुक्ति-आकांक्षा को प्रकट करते हुए काल के उस पहिए का जिक्र करते हैं, जो बड़ी क्रूरता से हमें कहीं पटक देता है और हम लाचार होकर वहीं एक निरर्थक दिनचर्या का हिस्सा बनकर अपनी सारी शक्तियों को नष्ट कर देते हैं—

बहुत देर से उम्र को ज्ञान मिलता है,
जब पहिया हमें दूर पटक देता है। 
नए स्फूर्त जीवन अपनी शक्तियाँ इस चक्र को पिला देते हैं, 
जो चलता रहता है अनवरत, दिन पर दिन, वर्ष पर वर्ष।
यह केवल है माया का एक खिलौना,
झूठी आशाओं, इच्छाओं और सुख-दुःख के अरों से बना। 
यह पहिया,.....  
अंत में बहुत आर्त होकर विवेकानंद माँ जगदंबा को पुकारते हैं, ताकि वे निरर्थक यात्राओं, द्वंद्वों और भीषण ताप से बचाकर उन्हें सामने नजर आते किनारे पर पहुँचने में मदद करें—
मैं भटका हूँ, पता नहीं किधर चला जाऊँ, 
मुझे इस आग से बचाओ। 
रक्षा करो दयामयी माँ इन इच्छाओं में बहने से बचाओ, 
अपना भयावना रौद्रमुख न दिखाओ माँ ! 
यह मेरे लिए असह्य है, मुझ पर कृपा करो, दया करो। 
माँ, मेरे अपराधों को सहन करो।  
माँ, मुझे उस तट तक पहुँचाओ,जहाँ ये संघर्ष न हों। 
इन पीड़ाओं इन आँसुओं और भौतिक सुखों से परे, 
जिस विराट् की महानता  को, 
ये रवि, शशि, उडुगण और विद्युत् भी अभिव्यक्ति न देते। 
महज उसके प्रकाश का प्रतिबिंब लिये फिरते हैं,
ओ माँ, ये मृगपिपासा भरे स्वप्नों के आवरण, 
तुम्हें देखने से मुझे रोक न सकें, मेरा खेल खत्म हो रहा है,
 माँ, ये शृंखला की कडि़याँ तोड़ो, मुक्त करो मुझे।
कविता में व्याकुल कर देने वाली गहरी तड़प है और एक साधक के रूप में स्वामी विवेकानंद की आर्त पुकार हमारे भीतर हलचल मचा देती है। पर साथ ही, यह जीवन जीते हुए भी जीवन मुक्त होने की प्रेरणा भी देती है।
मूल रूप से बँगला में लिखी गई ‘नाचे उस पर श्यामा’ विवेकानंद की सर्वाधिक शक्तिमय और बहुचर्चित कविता है। अध्यात्म-पथ के साधक का गहरा अंतर्मंथन है इसमें। इसमें विवेकानंद मानो स्वयं को ही संबोधित कर, अपने आप को फटकारते हुए से कहते हैं—
‘नाचे उस पर श्यामा’

रे उन्मत्त, भुलाता है तू अपने को, न फिराता दृष्टि,
पीछे भय से कहीं देख तू, भीमा महाप्रलय की सृष्टि।
दुःख चाहता, बता उसमें क्या भरी नहीं है सुख की प्यास,
तेरी भक्ति और पूजा में चलती स्वार्थ सिद्धि की साँस।
छागकंठ की रुधिर धार से सहम रहा तू भ्रम संचार,
अरे कापुरुष, बना दया का तू आधार—धन्य व्यवहार।
फोड़ो वीणा, प्रेमसुधा का पीना छोड़ो, तोड़ो वीर,
दृढ आकर्षण है जिसमें, उस नारी माया की जंजीर।
बढ़ जाओ तुम उदधि ऊर्मि, गरज-गरज गाओ निज गान,
आँसू पीकर जीना, जाए देह हथेली पर लो जान।

आगे कविता का स्वर उद्बोधन से भरा हुआ है। अगर हम अपने सच्चे स्वरूप को जानें तो क्या सिर पर चक्कर काटते इस जाल को काट नहीं सकते? एक सच्चा साधक भी तो एक सच्चा वीर ही है और सच्चा वीर क्या कभी डरता है ?

जागो वीर, सदा ही सिर पर काट रहा है चक्कर काल,
छोड़ो अपने सपने भय क्यों काटो-काटो यह भ्रमजाल।

दुख भार इस भव के ईश्वर, जिनके मंदिर का दृढ द्वार,
जलती हुई चिताओं में है, प्रेत-पिशाचों का आगार।

सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार,
वीर डराए कभी न, आए अगर पराजय सौ-सौ बार।

चूर-चूर हो स्वार्थ, साध सब न हृदय हो महाश्मशान,
नाचे उस पर श्यामा, लेकर घन रण में निज भीम कृपाण।

कविता में दुष्टों के दलन के लिए भीषण रण में हाथों में कृपाण लिये नाचती काली का चित्र हृदय में एक गहरा प्रकंप पैदा करता है। विवेकानंद की इस आवेगपूर्ण कविता में शक्ति और औदात्य का एक चमत्कारी सहमेल-सा है, जिसे पढ़ते हुए रोम खड़े हो जाते हैं। खासकर ‘नाचे उस पर श्यामा...!’ पंक्ति का प्रभाव इतना गहरा है कि एक बार सुनने के बाद बार-बार मन में नए-नए ढंग से यह कविता गूँजती है। और निश्चित रूप से, एक सच्चे मनुष्य के लिए आत्मिक सहारा भी बनती है।
स्वामी विवेकानंद की कविताओं में ‘संन्यासी का गीत’ बहुत प्रसिद्ध कविता है, जिसमें उनका समूचा व्यक्तित्व और चिंतन बहुत सघन रूप में सामने आता है। इसे उन्होंने जुलाई, 1895 में न्यूयॉर्क के थाउजेंड आइलैंड पार्क में लिखा था। कविता मूल रूप में अंग्रेजी में लिखी गई थी और उसे लिखा जाना एक घटना थी। स्वामीजी अपने कुछ प्रिय शिष्यों के साथ कुछ समय के लिए वहाँ रहे थे। उस दौरान वह सुरम्य स्थल मानो गुरु और शिष्यों की गहन आध्यात्मिक अनुभूतियों का आश्रम बन गया। वहाँ के सुंदर प्राकृतिक सौंदर्य के बीच निरंतर गुरु और शिष्यों का निराला आध्यात्मिक संवाद चलता रहा, जिसमें उनके कुछ शिष्यों को तो यीशु की झलक दिखाई दी। गहरी जिज्ञासाएँ और समाधान। यह स्वामीजी के अमेरिकी शिष्यों के लिए एक विरल और कभी न भूलने वाला अनुभव था। स्वयं विवेकानंद मानो एक लोकोत्तर अनुभव से गुजर रहे थे। वहीं शिष्यों से गहन आध्यात्मिक संवाद के बीच अचानक स्वामीजी कुछ समय के लिए वहाँ से चले गए। उसी समय उन्होंने यह विलक्षण आवेगपूर्ण कविता ‘संन्यासी का गीत’ लिखी, जिसमें एक संन्यासी के रूप में उनके कठिन आदर्शों की एक झाँकी बड़े सुंदर और सघन रूप में सामने आती है—
‘संन्यासी का गीत’

छेड़ो हे वह तान, अनंतोद्भव अबंध वह गान,
विश्व-ताप से शून्य गह्वरों में गिरि के अम्लान,
निभृत अरण्य प्रदेशों में जिसका शुचि जन्मस्थान। 
जिनकी शांति न कनक काम, यश, लिप्सा का निश्वास,
भंग कर सका, जहाँ प्रवाहित चित का अविलास,
स्रोतस्विनी उमड़ता जिसमें वह आनंद अयास,
गाओ बढ़ वह गान, वीर संन्यासी, गूँजे व्योम।
ॐ तत्सत ॐ ।
कविता की ये पंक्तियाँ लगता है, जैसे किसी अरण्य में गूँजती हजारों बरस पुरानी यज्ञ और आहुति की ध्वनियाँ हमारे कानों में पड़कर हमें विकल कर रही हों। क्योंकि ये केवल ध्वनियाँ ही नहीं हैं, उनके भीतर एक स्रोतस्विनी का उमड़ता हुआ आवेग और आनंद भी है। और मुक्तिबोध से शब्द उधार लें, तो ‘एक पुकारती हुई पुकार’ है इसमें! पूरी कविता में यही गूँज, यही पुकार है।
कविता आगे और गहनतम होती जाती है। एक संन्यासी का जीवन निभृत अरण्य प्रदेशों की महाशांति में गूँजते किसी अलौकिक गान की तरह है, जिससे दिशाएँ गूँज उठती हैं और जिसका आनंद भीतर समाता नहीं है। विश्व-ताप से शून्य गिरि गह्वरों में उस अलौकिक गान, उस आनंद का जन्मस्थान बताते हैं। आगे विवेकानंद उस मुक्ति की व्यर्थता की बात करते हैं, जिसकी तलाश में हमारा पूरा जीवन चला जाता है। सच तो यह है कि हम माया के बंधनों से मुक्त हो ही कैसे सकते हैं, जबकि खुद हमने अपने हाथों से पाश (आवरण और विक्षेप ) को पकड़ रखा है

कहाँ खोजते उसे सखे, इस पार कि या उस पार?,
मुक्ति नहीं है यहाँ, वृथा सब शास्त्र, देवगृहद्वार।
व्यर्थ यत्न सब, तुम्हीं हाथ में पकड़े हो वह पाश,
खींच रहा जो साथ तुम्हें तो उठो बनो न हताश।
छोड़ो कर से दाम, कहो संन्यासी विहँस रोम—
ॐ तत्सत ॐ ।
सच पूछिए तो मुक्ति उन्हीं के पास है, जो कभी मुक्ति-मुक्ति की रट नहीं लगाते। वह धार्मिक कर्मकांडियों और मंदिर-मठों के उच्च-भ्रू वाले अहंकारियों को नहीं, बल्कि उन सीधे-सरल लोगों को मिलती है, जो सुख-साधन जोड़ने की परवाह नहीं करते। वे दूब के नरम पलंग पर सोते हैं और प्रकृति में व्याप्त दिव्य आनंद की स्रोतस्विनी से अपने हृदय का संबंध जोड़ लेते हैं—

मत जोड़ो गृह-द्वार, समा तुम सको कहाँ आवास,
दूर्वादल हो तल्प तुम्हारा, गृहवितान आकाश।

खाद्य स्वतः जो प्राप्त, पक्व या इतर, न दो तुम ध्यान,
खानपान से कलुषित होती आत्मा वह न महान।

जो प्रबुद्ध हो, तुम प्रवाहिनी स्रोतस्विनी समान,
रहो मुक्त निर्द्वंद्व, वीर संन्यासी छेड़ो तान।
ॐ तत सत् ॐ ।
इससे भी बड़ी बात है निंदा और स्तुति में सम रहना। तभी तो हम उस महापाश को खोल पाएँगे, जिसने हमारी आत्मा को जकड़ा हुआ है। उसी पाश से मुक्त होना ही सच्चे आनंद से जुड़ जाना है। लगता है, भगवद्गीता का सारा मर्म ही इन पंक्तियों में उतर आया है। और हम स्वामी विवेकानंद के शब्दों में स्वयं श्रीकृष्ण का ही यह गीता-संदेश सुन रहे हैं—

विरले ही तत्त्वज्ञ करेंगे शेष अखिल उपहास,
निंदा भी, नरश्रेष्ठ, ध्यान मत दो निबंध अयास।

यत्र-तत्र निर्भय विचरो तुम, खोलो माया-पाश,
अंधकार पीडि़त जीवों के दुःख से बनो न भीत।

सुख की भी मत चाह करो, जाओ हे रहो अतीत,
द्वंद्वों से सब, रटो वीर संन्यासी मंत्र पुनीत।

ॐ तत्सत ॐ ।
और जीवन जीते हुए भी मुक्ति का यह अहसास विरला है, जिसमें मैं-तुम या जीव और ईश्वर का फर्क भी विलीन हो जाता है। सब कुछ एक लोकोत्तर आनंद में समा जाता है। इन पंक्तियों को पढ़ते हुए लगता है, मानो स्वामी विवेकानंद खुद अपने जीवन का मर्म बता रहे हों—

इस प्रकार दिन-प्रतिदिन जब तक कर्मशक्ति हो क्षीण,
बंधनमुक्त करो आत्मा को, जन्म-मरण हों लीन।

फिर न रहे गए मैं, तुम, ईश्वर, जीव या कि भवबंध,
मैं सबमें सब मुझमें—केवल मात्र परम आनंद।
कहो तत्त्वमसि संन्यासी, फिर गाओ गीत अमंद—
ॐ  तत्सत ॐ ।
किसी निर्जन वन में बहते झरने की तरह प्रशांति लिये इस कविता में हर पद की समाप्ति पर 
‘ॐ  तत्सत ॐ ’ की गंभीर आवृत्ति मानो उसे एक उदात्त भूमि पर पहुँचा देती है, जहाँ कविता में भावातीत समाधि का आनंद भी समा गया जान पड़ता है।
यह कविता एक तरह की गवाही भी है कि न्यूयॉर्क के एक अरण्य स्थल में, गुरु और शिष्यों का लोकोत्तर संवाद किस आध्यात्मिक ऊँचाई,  'देव-वाणी' पर पहुँच गया था। विवेकानंद के अमेरिकी शिष्यों के लिए यह गहन आध्यात्मिक अनुभव का क्षण था, स्वयं विवेकानंद के लिए भी। इसीलिए एक तरह की भाव समाधि के क्षण में थोड़ी देर के लिए शिष्य-मंडली को विस्मयाभिभूत छोड़कर, विवेकानंद वहाँ से अनुपस्थित हो जाते हैं। और इसी अबूझ भावदशा में एकांत में जाकर वे यह कविता लिखने के लिए प्रवृत्त होते हैं। यह विवेकानंद का अपना ढंग था, जिसमें उनके व्यक्तित्व की गूँज है। और वही गूँज, गौर से सुनें तो इस कविता के शब्द-शब्द में सुनाई देती है।
*****
हिंदी-जगत् के लिए यह आनंद की बात है कि स्वामी विवेकानंद ने हिंदी में भी एक प्रगीतात्मक कविता लिखी थी, ‘श्रीकृष्ण संगीत’। गीत में गोपिका प्रसंग के व्याज से गहरी भक्ति तन्मयता और बड़ी सुमधुर संगीतात्मकता है। यह लयात्मक रागबद्ध गीत अनायास स्फूर्त जान पड़ता है—
 ‘श्रीकृष्ण संगीत’
मुझे वारि बनवारी सैयाँ,
जाने को दे,
जाने को दे रे सैयाँ
जाने को दे। (आजपु भला।)
मेरो बनवारी बाँदि तुम्हारी
छोड़े चतुराई सैयाँ,
जाने को दे।
 ‘जमुना किनारे भरों गगरिया,
जोरे कहत सैयाँ,जाने को दे।
(आजपु भला,
मोरे सैयाँ।)
गीत की आखिरी पंक्तियों में गोपी की मान-मनुहार का पूरा दृश्य है, ‘जमुना किनारे भरों गगरिया/जोरे कहत सैयाँ,/जाने को दे।’इससे यह जरूर पता चलता है कि स्वामी विवेकानंद (नवनीदा)  बँगलाभाषी होते हुए भी हिंदी के महत्त्व को जानते थे, और उसमें अपने भावों को प्रकट कर सकने में निपुण थे। जाहिर है, इस भक्तिमय प्रगीतात्मक कविता का महत्त्व भी इस कारण कहीं अधिक बढ़ जाता है।
[साभार,[ ५४५ सेक्टर-२९, फरीदाबाद-१२१००८ (हरियाणा)]
दूरभाष : ०९८१०६०२३२७] 
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Tel: 09810602327 ] 
माँ काली और स्वामी विवेकानन्द :
           स्वामी विवेकानन्द ने भी माँ काली का दर्शन किया था ! सितंबर, 1899 में स्वामी विवेकानन्द कश्मीर में अमरनाथ जी के दर्शन के बाद श्रीनगर के क्षीर भवानी मंदिर में पहुंचे। वहां उन्होंने माँ काली का स्मरण कर समाधि लगा ली। एक सप्ताह तक उन्होंने नवरात्रि पर्व पर एकांत साधना की। प्रतिदिन वे एक बालिका में साक्षात काली माँ के दर्शन कर उसकी पूजा करते थे। 
      एक दिन उन्होंने श्रद्धालु जनों के बीच प्रवचन में कहा- माँ काली सृष्टि और विनाश, जीवन-मृत्यु, भले और बुरे, सुख और दुःख से युक्त संपूर्ण ब्रह्माण्ड  का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनका वर्ण काला दिखता है, पर अंतरंग द्रष्टा के लिए वह वर्णहीन हैं। स्वामी जी ने कहा, अत्याचारियों-दुर्जनों का संहार करते समय गले में मुण्डमाल  पहने, शस्त्र धारण किए, जिह्वा से टपकते रुधिर को देखकर अनायास आभास होता है कि वह आतंक की प्रतिमूर्ति हैं, जबकि वे भक्तों के लिए सौम्य और कृपामयी हैं। उन्होंने कहा, 'ब्रह्म' और 'काली', ईश्वर और उनकी क्रियाशक्ति- 'अग्नि' और उसका 'दाहिका शक्ति' के समान एक और अभेद हैं। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने मृत्यु से पूर्व कहा था, नरेन्द्र, माँ काली तेरा पग-पग पर साक्षात मार्गदर्शन करती रहेंगी। जीवन के अंतिम दिनों में स्वामी जी जिधर भी जाते, उन्हें माँ काली की उपस्थिति का बोध होता। उन्होंने अंग्रेजी में 'Kali: The Mother' शीर्षक एक कविता भी लिखी, जिसका निराला जी ने हिन्दी में अनुवाद किया।
[स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित कविता -'मृत्युरूपा माता' हिन्दी शीर्षक - "काली माता "!] 

 काली माता ! 

छिप गये तारे गगन के,बादलों पर चढ़े बादल,
काँपकर गहरा अंधेरा, गरजते तूफान में, शत। 
लक्ष पागल प्राण छूटे, जल्द कारागार से–द्रुम, 
जड़ समेत उखाड़कर, हर बला पथ की साफ़ करके।

शोर से आ मिला सागर,शिखर लहरों के पलटते, 
उठ रहे हैं कृष्ण नभ का, स्पर्श करने के लिए द्रुत,
किरण जैसे अमंगल की, हर तरफ से खोलती है। 

मृत्यु-छायाएँ सहस्रों, देहवाली घनी काली।
आधिन्याधि बिखेग्ती, ऐ नाचती पागल हुलसकर, 
आ, जननि, आ जननि, आ, आ!
नाम है आतंक तेरा,मृत्यु – तेरे श्वास में है,
चरण उठकर सर्वदा को विश्व एक मिटा रहा है,
समय को भी खा जाने वाली - काली ! तू है, सर्वनाशिनि,
आ, जननि, आ ! जननि, आ, आ!

साहसी, जो चाहता है-दुःख, मिल जाना मरण से,
नाश की गति नाचता है, माँ उसी के पास आयी।

साहसे जे दुःख दैन्य चाय , मृत्युरे जे बाँधे बाहुपाशे,  
काल-नृत्य कोरे उपभोग , मातृरुपा तारि काछे आसे। 

Who dares misery love,
And hug the form of Death,
Dance in destruction's dance
To him the Mother comes.

[সাহসে যে দুঃখ দৈন্য চায়, মৃত্যুরে যে বাঁধে বাহুপাশে,
কাল-নৃত্য করে উপভোগ, মাতৃরূপা তারি কাছে আসে।]

*****
बंगला भाषा में कविता का शीर्षक 

'मृत्यु रूपा माता'

निःशेषे  निभेछे तारादल , मेघ एसे आवरिछे मेघे,   
स्पन्दित ध्वनित अन्धकार , गरजिछे घूर्ण-वायुवेगे ! 
लक्ष लक्ष उन्माद परान , बहिर्गत बन्दीशाला होते , 
महावृक्ष समूले उपाड़ि ' फुत्कारे उड़ाये चले पथे !
समुद्र संग्रामे दिलो हाना , उठे ढेउ गिरीचूड़ा जिनि ' 
नभस्तल परशिते चाय ! घोररूपा हासिछे दामिनी ,  
प्रकाशिछे दिके दिके तार मृत्युरकालिमा माखा गाय। 

लक्ष लक्ष छायार शरीर ! दुःखराशि जगते छोड़ाय ,
नाचे तारा उन्माद ताण्डवे ; मृत्युरूपा माँ आमार आय ! 

करालि ! कराल तोर नाम , मृत्यु तोर निःश्वासे -प्रश्वासे ,  
तोर भीम चरण-निक्षेप प्रतिपदे ब्रह्माण्ड विनाशे ! 
काली , तूई प्रलयरूपिणी, आय माँ गो आय मोर पाशे।  

साहसे जे दुःख दैन्य चाय , मृत्युरे जे बाँधे बाहुपाशे,  
काल -नृत्य कोरे उपभोग , मातृरुपा तारि काछे आसे। 
 
মৃত্যুরূপা মাতা

নিঃশেষে নিভেছে তারাদল, মেঘ এসে আবরিছে মেঘে,
স্পন্দিত ধ্বনিত অন্ধকার, গরজিছে ঘূর্ণ-বায়ুবেগে!
লক্ষ লক্ষ উন্মাদ পরাণ, বহির্গত বন্দীশালা হতে,
মহাবৃক্ষ সমূলে উপাড়ি’ ফুৎকারে উড়ায়ে চলে পথে!
সমুদ্র সংগ্রামে দিল হানা, উঠে ঢেউ গিরিচূড়া জিনি’
নভস্তল পরশিতে চায়! ঘোররূপা হাসিছে দামিনী,
প্রকাশিছে দিকে দিকে তার মৃত্যুর কালিমা মাখা গায়।

লক্ষ লক্ষ ছায়ার শরীর! দুঃখরাশি জগতে ছড়ায়,
নাচে তারা উন্মাদ তাণ্ডবে; মৃত্যুরূপা মা আমার আয়!

করালি! করাল তোর নাম, মৃত্যু তোর নিঃশ্বাসে প্রশ্বাসে
তোর ভীম চরণ-নিক্ষেপ প্রতিপদে ব্রহ্মাণ্ড বিনাশে!
কালি, তুই প্রলয়রূপিণী, আয় মা গো আয় মোর পাশে।

সাহসে যে দুঃখ দৈন্য চায়, মৃত্যুরে যে বাঁধে বাহুপাশে,
কাল-নৃত্য করে উপভোগ, মাতৃরূপা তারি কাছে আসে।

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