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बुधवार, 5 सितंबर 2018

$$$ नवनीदा और अद्वैत आश्रम मायावती का सम्बन्ध

" मने राखबे तुमि एक जन শিক্ষক ! "                    
[आध्यात्म के बिना शिक्षा असम्पूर्ण है! Education without Spirituality is incomplete:  (আধ্যাত্মিকতা ছাড়া শিক্ষা অসম্পূর্ণ/ठाकुर की टीकाधारी सोनार की कथा -केशब ?गोपाल ! हरि -हरि ! हर-हर ! मुख में राम बगल में छूरी ? जिसके हाथ में होगी लाठी क्या भैंस वही ले जायेगा ? बल-बुद्धि में सबल मनुष्य क्या दुर्बल का शोषण करेगा?
 किन्तु मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता या जीवनमुक्त शिक्षक हमें बताते हैं कि 'किसी मनुष्य के पास यदि संसार की सारी संपत्ति है, किन्तु आध्यात्मिक शक्ति नहीं, तो वह सब किस काम की?  जिस तरह पाश्चात्य जाति ने बहिर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व लाभ किया है, उसी तरह प्राच्य जाति ने भी अंतर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व लाभ किया है ! ये दोनों ही भाव महत्वपूर्ण तथा गौरवशाली हैं ! किन्तु दोनों एक दूसरे को स्वप्न-राज्य में विचरण करने वाले समझते हैं।अतः यह ठीक ही है कि जब कभी मानवसमाज को आध्यात्मिक सामंजस्य की आवश्यकता होती है, तो उसका आरम्भ प्राच्य से ही होता है। साथ ही यह भी ठीक है कि यदि प्राच्य को भौतिक-समृद्धि लाने के लिए मशीन बनाने के सम्बन्ध में सीखना हो,तो वह पाश्चात्य के पास ही बैठकर सीखे। परन्तु यदि पाश्चत्य को मानसिक शांति पाने के लिए ईश्वर, आत्मा तथा वेदान्त के रहस्यों को जानने की आवश्यकता हो तो उसे प्राच्य के पास बैठकर सीखना होगा। वर्तमान सामंजस्य इन दोनों आदर्शों का - भौतिक समृद्धि (विज्ञान) और आध्यात्मिकता का समन्वय तथा मिश्रण रूप होगा।
हममें से कुछ लोगों ने यदि आचार्य शंकर का नाम सुना भी है, तो दूसरों की सुनी-सुनाई बातों को दुहराते हुए कहते हैं- ' शंकर ने तो जगत को बिलकुल उड़ा दिया था।' यदि उन्होंने जगत को ही उड़ा दिया था, तो अपने ज्ञान का प्रचार उनहोंने कहाँ किया था ?  उन्होंने कहा था- वेदों में दो प्रकार के धर्मों का उल्लेख है, एक है प्रवृत्ति का धर्म और दूसरा है निवृत्ति का धर्म। एक किनारे पर भोग है, तो दूसरे किनारे पर त्याग है। 
केन्द्रापसारी बल (Centrifugal force) और केंद्राभिसारी बल (centripetal force) दो प्रकार के बलों के प्रभाव से यह विश्व, समाज स्थितावस्था में बना रहता है, या यथापूर्व स्थिति (status quo) बनाये रखता है। ये दोनों हैं, इसीलिये मनुष्यों का समाज अपना संतुलन (Equilibrium) बनाये रखता है। जैसे हवाई जहाज अपने दोनों पंखों पर भारसंतुलन बना कर उड़ान भरता रहता है। उसी प्रकार धर्म के भी दो पक्ष हैं- 'भोग और त्याग ', इन दोनों की सहायता से मानव-समाज साम्यावस्था में रहता है। एक को भी छोड़ देने से दूसरा पक्ष या समाज चल नहीं सकता। त्यागमार्ग-विहीन समाज केवल भोग के उपर निर्भर होकर चल नहीं सकता है। उसी प्रकार सम्पूर्ण भोग-विहीन समाज भी संभव नहीं है। आवश्यकता दोनों में सामंजस्य रखने की है। 
 जब कभी इस सामंजस्य में असन्तुलन आने के कारण  धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, धर्म और चरित्र का पतन हो जाने के कारण मानव समाज और देश को भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है। देश की सामाजिक व्यव्स्थाएँ अस्तव्यस्त हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप देश में हिंसा,चोरी, लूट-पाट, कत्ल, झूट, छल, कपट आदि का आतंक छा जाता है। जिससे मानव जीवन अशान्त और दुखमय हो जाता है, तब उसके निवारण हेतु माँ जगदम्बा की इच्छा से, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद,या  आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द, जैसे अवतारों (या लोकशिक्षकों) का आविर्भाव होता है, अथवा महामण्डल (या विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ?) जैसे आध्यात्मिक शिक्षकों का निर्माण करने वाले किसी युवा संगठन का आविर्भाव अनिवार्य हो जाता है।
 'आध्यात्मिक शिक्षक' ही मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता हैं! काश ! कि हमभी मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं, अवतारों,पैगम्बरों या जीवन्मुक्त लोक-शिक्षकों की तरह जन्मजात रूप से वेदान्त के चार महावाक्यों की धारणा, केवल अपने कॉमन सेन्स या साधारण बुद्धि के बल पर ही करने में समर्थ होते ! किन्तु स्वामी विवेकानन्द की जागरण वाणी -'उठो-जागो! ' सुने बिना हमारी मोह निद्रा भंग नहीं होती।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "हमारे देश में सबसे अधिक आदर और सम्मान एक शिक्षक को मिलता है,तथा उनके प्रति हमारी ऐसी श्रद्धा रहती है कि शिक्षक मानो साक्षात् ईश्वर ही हैं ! जितनी श्रद्धा हमें अपने शिक्षकों  (जीवन्मुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता) के प्रति रहती है; उतनी श्रद्धा हमें अपने माता-पिता के लिए भी नहीं होती। माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं,किन्तु शिक्षक (नेता) हमें अपने जीवन में वेदान्त का अभ्यास सिखाकर मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। "
मानवजाति के महान मार्गदर्शक नेता, आध्यात्मिक शिक्षक आचार्य शंकर आचार्य शंकर ईश्वर के इस 'जगत-संचालन कानून' को एक सूत्र (Formula या नुस्खा) में इस प्रकार कहा है -
 दुर्जन: सज्जनो भूयात, सज्जन: शांतिमाप्नुयात्। शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥ 
दूर्जन लोग पहले सज्जन बन जाएँ, क्योंकि जो सज्जन हैं, वे ही शान्ति प्राप्त कर सकते  हैं। फिर जो शान्त हो चुके हैं वे समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेंगे। जो स्वयं मुक्त हो चुके हों, वे दूसरों को मुक्त करने की चेष्टा  करते हैं। 
मनुष्य दो प्रकार के होते हैं- सज्जन और दुर्जन। जन का अर्थ होता है-मनुष्य। सज्जन माने जो मनुष्य दूर्जन नहीं है।  बोलचाल की भाषा में ' सज्जनता ' कहने से हमलोग भद्रता समझते हैं।  किन्तु यथार्थ भद्रता तभी आती है, जब मनुष्य वास्तव में 'अच्छा' (अविनाशी) या 'ब्रह्म' के साथ अपने (आत्मा के) अद्वैत  को जानकर स्वयं अच्छा ('ब्रह्मविद') बन जाता है, उसे ही सूजन,सज्जन  या चरित्रवान मनुष्य कहा जाता है। जिनके परोपकारी व्यवहार से 'सू-जन' होने का परिचय मिलता है उसी को सज्जन कहते हैं। 
जबकि दूर्जन लोग कभी किसी का उपकार नहीं करना चाहते, फिर भी भावी नेता/आध्यात्मिक शिक्षक के लिये दूर्जनों से भी घृणा करना ठीक नहीं है। हमें उसके अज्ञान की गाँठ (Knot of Ignorance) काट देने की विद्या (५ अभ्यास) सीखनी होगी, उसके बुद्धि के भ्रम को मिटाकर (डीहिप्नोटाइज्ड) करके उसके बुद्धि का बन्धन (देहाध्यास, नाम-रूप, शरीर-मन के साथ तादात्म्य) खोल देना होगा तब वह भी सज्जन बन जायेगा। 
स्वामी जी के गुरु भाई स्वामी प्रेमानन्द जी ने एक बार कहा था - 'Before becoming a Monk, one should become a gentleman' - अर्थात संन्यासी बनने से पहले (निवृत्ति मार्ग के आध्यात्मिक शिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने से पहले) किसी व्यक्ति को सज्जन मनुष्य (gentleman) बनना चाहिये। 'उनका यह निर्देश प्रवृत्ति या निवृत्ति सभी मार्गों के वुड बी लीडर्स या भावी आध्यात्मिक शिक्षकों पर लागू होता है।
 [ 'but the teacher shows us the way to salvation'. अर्थात शिक्षक 'सिंह-शावक' को अपना स्वरुप पहचान कर 'भेंड़ होने के भ्रम से मुक्त', जागृत या डी-हिप्नोटाइज्ड (awakened-प्रबुद्ध) हो उठने का मार्ग दिखलाते हैं !]
  श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है - 'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः॥ ९.२८॥ ( -सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान्सरीसृप पशून्खगदंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥)  जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था।  तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म या ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।  इसी से मिलती-जुलती कथा बाइबिल और कुरान में भी है कि मनुष्य को ब्रह्मा जी ने अपने रूप में गढ़ा , और मनुष्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए।  और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था,उसने सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया।
इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। 
[ देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना, अर्थात गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन किये बिना, अर्थात प्रवृत्ति मार्ग की क्षणभंगुरता का अनुभव किये बिना, "निवृत्ति अस्तु महाफला की धारणा" नहीं कर सकते। अतः मुक्ति-लाभ या 'भ्रममुक्त अवस्था' भी प्राप्त नहीं कर सकते।]
जब हमें ऐसा महसूस होता है कि स्वयं को विश्व के अन्य मनुष्य के सुख-दुःख से काट कर एकाकी (isolated) बना लेना एक पाप है, तब हम सार्वजनिक कल्याण के कार्यों में स्वयं को खो देना चाहते हैं। हम अपने साथ दूसरे लोगों को जोड़ते चले जाते हैं, पहले अपने माता-पिता, बन्धु-बान्धव , जो हमारे अपने स्वजन सगे-संबंधियों में स्वयं को प्रसारित करने की चेष्टा करते हैं। अथवा (प्रवृत्ति मार्ग के अनुसार) विवाह होने के बाद जो नये नाते-रिश्ते बनते हैं, उनमें भी अपने को (अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं या स्वार्थी अहं) खो देना चाहते हैं। और इस प्रकार क्रमशः हमें बोध होता है कि हमारी सबसे बड़ी विजय तो स्वयं को जीत लेने में है। प्रवृत्ति-मार्ग की क्षणभंगुरता (आहार-निद्रा-भय -मैथुन की क्षणभंगुरता का) अनुभव प्राप्त करने के बाद शास्त्र वाक्य 'निवृत्ति अस्तु महाफला' के अनुसार नाम-रूप के देहाध्यास या अहंकार से परे चले जाने में है ! जिसके फलस्वरूप हम अपने कामोन्माद या अपने परिवेश के गुलाम न होकर, शरीर और मन के जाल को काट कर भ्रममुक्त हो जाते हैं,और  स्वयं के स्वामी बन जाते हैं। 
उन पवित्र त्रिदेवों के जीवन तथा 'अद्वैत दर्शन' की समरूपता पर चिंतन- मनन  करने से मनुष्य को यह प्रेरणा प्राप्त होती है कि, अपने 'स्व' को , यथार्थ 'मैं' -को, 'अर्थात मैं वास्तव में कौन हूँ ' - को जान लेने के लिये,  आत्मा या इन्द्रियातीत सत्य तक केवल ऊपर आरोहण ही नहीं करना है, अपितु साक्षात्कार करने के बाद पुनः सापेक्षिक सत्य तक जन्तु-जगत् तक नीचे भी उतरना पड़ता है। और भारत के राष्ट्रीय आदर्श ' त्याग और सेवा' के अनुसार 'दृष्टि ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद्ब्रह्ममयं जगत्' - जगत को ब्रह्ममय देखते हुए इसकी सेवा में ही अपने जीवन को न्योछावर करके मनुष्य जीवन को सार्थक किया जा सकता है। जबकि पाश्चात्य भौतिकवादी शिक्षा से प्रभावित आधुनिक युवा सोचते हैं कि इस संसार में यदि प्राप्त करने योग्य  कोई अमूल्य वस्तु है तो वह भौतिक शक्ति ही है, तथा उन्नति और सभ्यता का पैमाना इसके सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता। 
चाहे हम अपने 'स्व' (यथार्थ स्वरूप) को, 'मैं कौन हूँ ?' को गहराई से जानने की चेष्टा करें;  अथवा बाह्य प्रकृति को, दोनों अवस्थाओं में हमें उसी अनन्त-असीम (लिमिटलैस) का आह्वान सुनाई देता है। बाह्यजगत और अंतःजगत दोनों अथाह (fathomless) हैं, अतः इनकी गहराई को मापा नहीं जा सकता। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं, जो हमें इस मिथ्या व्यक्तित्व या नाम-रूप की सीमा में आबद्ध करना चाहती है। मानवजाति के जो मार्गदर्शक नेता अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा इस मिथ्या व्यक्तित्व के अहं-बोध में फँसी आत्मा को.  या शरीर और मन की जाल में फँसी हुई आत्मा को सिंहविक्रम से काटकर मुक्त हो जाने का मार्ग दिखलाते हैं, उनके जीवन से हमलोगों को भी मुक्त होने की प्रेरणा प्राप्त होती है।   
महामण्डल आन्दोलन की गहराई को समझने के लिये, हमें पहले आधुनिक युग में सम्पूर्ण मानवजाति के प्रथम मार्गदर्शक नेता, प्रथम आध्यात्मिक शिक्षक, आदि गुरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव- विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के मर्म को समझना होगा। अथवा आधुनिक युग की आवश्यकता के अनुसार, माँ जगदम्बा भवतारिणी की ही इच्छा से -श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व में  " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा- BE AND MAKE"-के अनुरूप  'निवृत्ति अस्तु महाफला' में  प्रशिक्षित गृहस्थ आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं  का निर्माण करने वाले 'महामण्डल' जैसे किसी अद्भुत (Wonderful ) युवा-संगठन का अविर्भूत होना भी अनिवार्य हो जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् में बड़े सुन्दर ढंग से कहा गया है -- " तेन उभौ कुरुतो यश्च एतद् एवं वेद यश् च न वेद। नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति, श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति'.... ॥ कोई कह सकता है कि ॐ  के रहस्य को जाने वाला  और दूसरा ॐ  के रहस्य को नहीं जानने वाला अगर यज्ञ करे तो उसमे समान फल मिलेंगे।  लेकिन नहीं, ऐसा नहीं है। [ॐ के] ज्ञान होने से और ज्ञान नहीं होने से फल भिन्न होते हैं। ॐ  के ज्ञान, श्रधा और देवतों की साधना से बहुत अधिक उत्तम फल प्राप्त होते हैं।   यही ॐ की विस्तृत व्याख्या है। "वही कार्य अधिक फलोत्पादक (efficient या प्रभावशाली) होता है, या उसी कार्य में सफलता मिलने की सम्भावना अधिक होती है, जिस कार्य को इस जगत के विषय में पर्याप्त समझ, (अर्थात माँ जगदम्बा ही जगत बन गयीं हैं ! ) श्रद्धा, विश्वास और सत्य-निष्ठा तथा रिक्वायर्ड नो-हाउ, (दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को 'ब्रह्ममय' अनुभव करने की तकनीकी जानकारी) के साथ प्रारम्भ किया जाता है।"ईशा उपनिषद, मंत्र ११ में कहा गया है - विद्या और अविद्या मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए। विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।[यः तद् उभयं विद्यां च अविद्यां च सह वेद, सः अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ।] 

 इस स्वधर्म पालन या गृहस्थ जीवन (प्रवृत्ति मार्ग)  में रहते हुए शास्त्रविहित कर्म-साधन (निष्काम कर्म ) के द्वारा प्रवृत्ति मार्ग के  क्षणभंगुर भोगों को अनुभव से तुच्छ समझकर क्रमशः त्याग करते जाने के साथ -ही-साथ, विद्याम् -- निरन्तर विवेक-प्रयोग और ब्रह्मविचार रूपी 'निवृत्ति अस्तु महाफला' का अभ्यास करते हुए शीघ्र 'आत्मा ही परमात्मा है' की अनुभूति करके अमृतम्-अश्नुते=अमृत को भोगता है! जबकि इस कर्म-रहस्य से अनभिज्ञ ज्ञानाभिमानी गृहस्थ मनुष्य निष्काम-कर्म को भी  ब्रह्मज्ञान में बाधक समझकर -बिना पात्रता अर्जित किये ही निवृत्ति मार्ग या संन्यास ग्रहण करने के लालच में अपने स्वधर्म का त्याग कर देता है- वह अमृत नहीं चख पाता ।  जो मनुष्य उन दोनों को विद्याम् - भगवद उपासना और अविद्याम् - निष्काम कर्म, तद -इन, उभयं - दोनों को साथ-साथ वेद = यथार्थतः जान लेता है, वह अविद्यया = वर्णाश्रमोचित कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं करता, बल्कि कर्तापन के अभिमान, रागद्वेष और फल-कामना से रहित होकर व्यावहारिक जीवन में धर्म का (अपने स्वधर्म का) पालन करता है, इस भाव से कर्म करने पर उसकी ऐहिक जीवन यात्रा सुखपूर्वक चलती है, उसका चित्त शुद्ध भी हो जाता है, और इसी अविद्या के सहारे वह मृत्युमय संसार से सहज ही तर जाता है। इसीलिये श्री रामकृष्णदेव कहते हैं, " ईश्वर (माँ जगदम्बा आश्रम, कोआलपाड़ा) में विद्या-माया और अविद्या -माया दोनों हैं। विद्या माया जीव को (क्रमशः) ईश्वर की ओर ले जाती है, और अविद्या-माया उसे ईश्वर से दूर। (श्री ठाकुर जी की ) भक्ति,विवेक, वैराग्य और ज्ञान - यह विद्या माया (श्री माँसारदादेवी माँ भवतारिणी) की कृपा से प्राप्त होता है। इन्हीं का आश्रय लेकर मनुष्य ईश्वर के समीप पहुँच सकता है। विद्या माया (विवेक-प्रयोग करने की शक्ति ) ही ब्रह्म का स्वरूप प्रकट कर देती है। माया की कृपा हुए बिना ब्रह्म को कौन जान सकता है ! माया से ही 'कारण -कार्य ' रूपी द्वैत-प्रपंच का उदय होता है, माया के परे जाने पर (तुरीय अवस्था में ) न भोक्ता रह जाता है, न भोग्य विषय। ईश्वर की शक्ति का ज्ञान हुए बिना ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता। "  [Women kinds of shakti (Nature and Actions) Sri Ramkrishna Paramahamsa:Some women are Vidya shakti who helps men in their God ward progress , and others are Avidya Shaktis who drag men towards  worldliness.The Vidya shaktis take small quantity of food , require a little sleep and have a naturally little attachment  to the senses. Their hearts are especially filled with joy to hear their husbands talk of God.They themselves talk of the Lord , and give their husbands a high spiritual impulse.They always protect husbands from mean inclinations and actions and assist them in all matters, so that they may be blessed by realizing god at last .The nature and actions of Avidya Shaktis , on the other hand , are of quite an opposite kind. They are seen to hanker after many physical comforts , such as food,sleep,etc., and their chief aim is to prevent their husbands from paying attention to anything except contributing to their own happiness.If their husbands speak to them about spiritual things, they become displeased and annoyed. As every women is a form of Shakti , they need to come out of ignorance understanding the ephemeral nature of material world and transform themselves as Vidya Shakti.] 
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[प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।18.30।।।।18.30।। ।।18.30।।जो बुद्धि? प्रवृत्तिको -- बन्धनके हेतुरूप कर्ममार्गको और निवृत्तिको -- मोक्षके हेतुरूप संन्यासमार्गको जानती है। बन्ध और मोक्षके साथ प्रवृत्ति और निवृत्तिकी समानवाक्यता है? इससे यह निश्चय होता है कि प्रवृत्ति और निवृत्तिका अर्थ कर्म मार्ग और संन्यासमार्ग ही है। तथा कर्तव्य और अकर्तव्यको -- विधि और प्रतिषेधको? यानी करनेयोग्य और न करनेयोग्यको ( भी जानती है )। यह कहना किसके सम्बन्धमें है देशकाल आदिकी अपेक्षासे जिनके दृष्ट और अदृष्ट फल होते हैं? उन कर्मोंके सम्बन्धमें। तथा जो बुद्धि भय और अभयको(जानती है )। जिससे मनुष्य भयभीत होता है? उसका नाम भय है और उससे विपरीतका नाम अभय है उन दोनोंको? यानी दृष्टादृष्टविषयक जो भय और अभय हैं उन दोनोंके कारणोंको जानता है? एवं हेतुसहित बन्धन और मोक्षको भी जानती है? हे पार्थ वह बुद्धि सात्त्विकी है। पहले जो ज्ञान कहा गया है? वह बुद्धिकी एक वृत्तिविशेष है और बुद्धि वृत्तिवाला है। धृति भी बुद्धिकी वृत्तिविशेष ही है।हे पृथानन्दन जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिको? कर्तव्य और अकर्तव्यको? भय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जानती है? वह बुद्धि सात्त्विकी है।  हे पार्थ जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति? कार्य और अकार्य? भय और अभय तथा बन्ध और मोक्ष को तत्त्वत जानती है? वह बुद्धि सात्विकी है।।
इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द ने अरण्यों में अध्यन किये जाने वाले अद्वैत वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के लिए', प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी युवाओं को विद्या और अविद्या स्त्री का अंतर  'निवृत्ति अस्तु महाफला ' के जीवंत उदाहरण से समझाकर  ' विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर  'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा', में प्रशिक्षित भावी आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में 'लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित करने के लिए प्रवृत्तिमार्ग के (सप्तऋषियों में से एक ?) आध्यात्मिक शिक्षक कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर और श्रीमती एलिजाबेथ सेवियर को अमेरिका से अपने साथ लाये थे। और इसीकारण श्री रामकृष्णदेव एवं स्वामी विवेकानन्द के आशीर्वाद से तथा श्रीमाँ सारदादेवी की इच्छा से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल के संस्थापक तथा तीसरे महान शिक्षक- 'Sweetness and Love Personified',  ताजगी और प्रेम के मूर्तरूप, श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व (लीडरशिप) में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को, पूरे भारत के युवाओं में मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रचार-प्रसार करने के लिये, 1967 में आविर्भूत होना पड़ा।
आधुनिक युग के प्रथम आध्यात्मिक शिक्षक 'श्रीरामकृष्णदेव' का मुख्य कार्य 'भावी शिक्षकों को शिक्षित करना' है। हमलोग श्रीरामकृष्णदेव की जीवनी में पढ़ते हैं कि मानवजाति के मार्गदर्शक नेता -अर्थात आस्तिकता को पुनः प्रतिष्ठापित करने में समर्थ 'आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने की साधना'  के प्रारम्भ में ही श्रीजगन्माता से यह प्रार्थना की थी -  " माँ, मुझे क्या करना चाहिये यह मैं कुछ नहीं जानता हूँ; तू मुझे जो सिखायेगी, मैं वही सीखूँगा। " श्रीजगदम्बा के बालक श्रीरामकृष्णदेव, तब उनपर पूर्णतया निर्भर होकर उनकी ओर दृष्टि आबद्ध किये अपने दिन बिता रहे थे, तथा वे जहाँ, जैसे उनको घुमा-फिरा रहीं थी, परमानन्दित हो कर वे भी उनका अनुसरण कर रहे थे। 

त्यागीश्वर श्रीरामकृष्ण का युवाओं के प्रति  के प्रेम को देखकर बहुत से लोगों को आश्चर्य होता था। उनके लिए तो कोई भी वस्तु ऐसी नहीं थी, जिसे प्राप्त करने के लिये उनके मन में चाह उठती हो। फिर भी वे क्यों चाहते थे कि युवा लोग उनके पास आयें?  और कितने आश्चर्य की बात है, कि इसके लिये वे दक्षिणेश्वर की माँ भवतारिणी के निकट प्रार्थना भी करते थे ! भला उनका अपना कार्य क्या हो सकता था? फिर भी माँ काली के निकट प्रार्थना करते हैं, और व्याकुलता के साथ युवाओं के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्या वे बिना किसी उद्देश्य के ही युवाओं के साथ समय बिता रहे थे, उनको प्रशिक्षित करने में अथक परिश्रम कर रहे थे?
नहीं, भगवान श्रीरामकृष्णदेव का एक उद्देश्य अवश्य था, और वह उद्देश्य था - सम्पूर्ण विश्व का कल्याण ! और इसी कार्य में नेतृत्व प्रदान करने के लिये, वे युवाओं के आने की बाट जोह रहे थे। किन्तु वे तो, इस जगत का मंगल वैसे भी कर सकते थे-वे केवल अपने हाथों को आशीर्वाद की मुद्रा में उठा देते-- और पलक झपकते दुनिया का सब कुछ ठीक हो जाता- किन्तु वैसा वे करते क्यों नहीं हैं ? श्रीराकृष्णदेव कहते हैं- 'आइन एरुप आचे ' - अर्थात माँ जगदम्बा के विश्व-संचालन का कानून ही ऐसा है। वे उसी कानून के भीतर रहते हुए कार्य करना चाहते हैं। उस कानून को सीखने और सिखाने के उद्देश्य से ही श्रीरामकृष्ण की समस्त जीवन-लीला सम्पन्न हुई है। और अपने इसी कार्य का उत्तरदायित्व भावी-पीढ़ी को सौंपने के लिये, वे योग्य, युवा-शिष्यों के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। 
" त्याग और आध्यात्मिकता -ये दोनों ही भारत के महान आदर्श हैं ! ३/१३६] ये दोनों गुण मानो एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। यह 'त्याग' का गुण ही व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिक शिक्षक की निःस्वार्थ 'सेवा' के रूप में अभिव्यक्त होने लगता है। यह त्याग (निवृत्ति अस्तु महाफला) ही ईश्वरीय-कानून है। अर्थात इस त्याग के नियम का उलंघन नहीं किया जा सकता है। माँ जगदम्बा के इस कानून का उलंघन करने से अकल्याण अवश्य होता है। किन्तु कल्याण ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ! और जो यथार्थ में अच्छा है, वह अपरिवर्तनीय है, अविनाशी, नित्य, सत्य, ध्रुव है- इसीलिये कल्याण है। त्याग के इस नियम (कानून) के द्वारा ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य सिद्ध होता है। "त्याग की बात सुनते ही बहुत से लोग डर जाते हैं। जब मानवात्मा संसार की समस्त वस्तुओं से विमुख होकर गंभीर तत्वों के अनुसन्धान में लग जाती है, जब वह समझ लेती है कि नश्वर जड़ शरीर से तादात्म्य स्थापित कर लेने के कारण मैं स्वयं जड़ हुई जा रही हूँ और क्रमशः विनाश की ओर बढ़ रही हूँ-और ऐसा समझकर जब वह इन्द्रिय-विषयों से अपना मुँह मोड़ लेती है। तभी त्याग का आरम्भ होता है, तभी वास्तविक आध्यात्मिकता का विकास प्रारम्भ होता है। " ४/४५ ]" 
" पहले अज्ञान (अविद्या-Ignorance) का त्याग -अर्थात स्वयं के विषय में मिथ्या-धारणाओं का त्याग करना होगा, तभी सत्य अपने को प्रकाशित करने लगेगा। जब हम सत्य को दृढ़तापूर्वक पकड़े रहने में समर्थ हो जायेंगे, तब पहले हमने जो कुछ भी त्याग किया था (कामिनी कांचन में आसक्ति का त्याग किया था ?) वह अब एक नया रूप धारण कर लेगा, एक नये अलोक में प्रकट होगा, और ब्रह्ममय हो जायेगा। तब सब कुछ एक उदात्त भाव धारण कर लेगा। तब हम सभी पदार्थों को उनके सत्यालोक में समझ सकेंगे। किन्तु पहले हमें उन सबका त्याग करना होगा बाद में - सत्य का साक्षात्कार कर लेने के बाद; हम पुनः उन सबको ग्रहण कर लेंगे, पर अब ब्रह्म के रूप में। अतएव हमें सुख-दुःख सभी का त्याग करना होगा। 'सभी वेद जिसकी घोषणा करते हैं, सभी प्रकार की तपस्यायें जिनको प्राप्त करने के लिये की जाती हैं। जिसे पाने की इच्छा से लोग ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करते हैं,हम संक्षेप में उसीके संबंध में तुम्हें बतायेंगे, वह ॐ है ! वेदों में इसी ॐ शब्द की अतिशय महिमा और पवित्रता वर्णित है। " २/१७०
धर्मस्य तत्वं निहतो गुहायां -अतः चरित्र ही धर्म है की शिक्षा देने वाले 'शिक्षक' ही मानवजाति के यथार्थ मार्गदर्शक नेता हैं। धर्म (वेदान्त)  का उद्देश्य समाज का आध्यात्मिकीकरण करना है, विश्व के एकत्व (Oneness of Universe) की स्थापना करना है। धर्म (प्रवृत्ति और निवृत्ति) के दो पक्ष हैं - वैयक्तिक और सामाजिक: गीता, उपनिषद आदि में धर्म के वैयक्तिक और सामाजिक, दोनों पक्षों पर जोर दिया गया है। ईश्वर (माँ जगदम्बा)  केवल एक दूरस्थ विश्व-शासक ही नहीं हैं, अपितु हमलोगों की जन्मदात्री माता के जैसी  अत्यन्त घनिष्ठ मित्र और सहायक भी हैं। और यदि हम केवल उनके ऊपर विश्वास करें, उनके ऊपर भरोसा करें, तो मन पर (तुच्छ स्वार्थी अहंकार पर) विजय पाने में हमारी सहायता करने के लिए सदा तैयार रहतीं है।

क्योंकि स्वामी विवेकानन्द के अनुसार "धार्मिक मनुष्य वह नहीं, जो केवल 'प्रभु,प्रभु' की रट लगाता है, बल्कि वह है - जो उस परमपिता की इच्छा के अनुसार कार्य (निःस्वार्थ कर्म) करता है ! [भावी शिक्षक या नेता वह है जो युवा समाज में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने वाले महामण्डल द्वारा प्रतिपादित चरित्र-निर्माण आंदोलन के साथ जुड़ जाता है।] 
स्वामी विवेकानन्द शिक्षा और धर्म में बहुत अधिक अंतर नहीं मानते थे। कहते हैं - " शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता (Perfection) की अभिव्यक्ति, जो प्रत्येक मनुष्य में पहले से विद्यमान है। "धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व (Divinity) की अभिव्यक्ति जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है !"अतः दोनों स्थलों पर किसी 'शिक्षक' (पूर्णतः निःस्वार्थी मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट को हटा देना है। जैसा मैं सर्वदा कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो ! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है -रास्ता साफ़ कर देना -शेष सब भगवान ही करते हैं ! " २/३२८  
 स्वामी सारदानन्द द्वारा लिखित श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग में कहा गया है कि निवृत्तिमार्ग के सप्तऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द को, दूसरे भावी आश्चर्यजनक शिक्षक के रूप में गढ़ने के उद्देश्य से ही साम्यभाव में अवस्थित प्रथम युवा नेता श्री रामकृष्णदेव अपने साथ धरती पर लेकर अवतरित हुए थे। और उन्होंने निवृत्ति मार्ग के अधिकारी मनुष्यों को आध्यात्मिक-शिक्षक बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के लिये १८९७ ई ० रामकृष्ण -मठ एवं मिशन की स्थापना कर दी थी।  
स्वामी विवेकानन्द के शिष्य कप्तान जेम्स हेनरी सेवियर एवं श्रीमती  शार्लोट सेवियर
[ Captain James Henry Sevier, and Mrs. Charlotte Sevier (1847-1930, /83 years ) , disciple of Swami Vivekananda.
किन्तु स्वामी विवेकानन्द जब परिव्राजक के रूप भारत परिक्रमा करने के बाद पाश्चात्य देशों में गए तो उन्हें यह अनुभव हुआ कि जगत में  प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी साधारण मनुष्यों की संख्या सर्वाधिक है। और मन को वश में करने की शिक्षा का यदि गृहत्यागी संन्यासी लोग देंगे, तो वे कन्फ्यूज्ड होकर सोचने लगेंगे कि, मन को वश में करने के लिए या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण लेने के लिये हमें भी संन्यास लेना होगा।जबकि मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण तो विद्यार्थी अवस्था में लेना आवश्यक है। 
इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द गृहस्थ जीवन के अधिकारी प्रवृत्तिमार्ग के अधिकारी युवाओं को 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा', या 'निवृत्ति अस्तु महाफला लीडरशिप ट्रेनिंग' में प्रशिक्षित करके ' अरण्यों में अध्यन किये जाने वाले अद्वैत वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के लिए', प्रवृत्तिमार्ग के सप्तऋषियों में से एक,प्रवृत्ति मार्ग के आध्यात्मिक शिक्षक कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर को अमेरिका से अपने साथ लाये थे। और इसीकारण श्री रामकृष्णदेव एवं स्वामी विवेकानन्द के आशीर्वाद से तथा श्रीमाँ सारदादेवी की इच्छा से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल के संस्थापक तथा तीसरे महान शिक्षक- 'Sweetness and Love Personified',  ताजगी और प्रेम के मूर्तरूप, श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व (लीडरशिप) में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को, पूरे भारत के युवाओं में मनुष्यनिर्माण तथा चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा प्रचार-प्रसार करने के लिये, 1967 में आविर्भूत होना पड़ा।
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[" কোনো রকমে অফিসে এসে মাইনেটা নিয়ে গেছি। গিয়ে ভীষণ শরীর কেমন করছে, ছাতে একখানা মাদুর পেয়ে রৌদ্রে পড়ে আছি। ১লা জানুয়ারি অজ্ঞান হয়ে গেলুম। তারপরে কিছু জানি না। ..... হঠাৎ মনে হল যে, আরে আমি কি যেন শুনতে পাচ্ছি, এ যেন আমার চেনা জিনিস, জানা জিনিস। কি ব্যাপার -নেতাজীর জন্মদিন, প্রসেশন যাচ্ছে। আরে আরে,কি হল কি হল ? -আমি গলা দিয়ে স্বর বার করার চেষ্টা করছি, বার করতে পারছি না। হাত নেড়ে বলছি আমার মনে হচ্ছে, আমি যেন বলছি, 'আমি বেঁচে আছি।' কিন্তু গলা দিয়ে আওয়াজ বেরোচ্ছে না।  আর এই যে 23 দিন ..... এর মধ্যে সব সময় স্বপ্ন দেখার মত হয়ে যাচ্ছে।  দেখতে দেখতে - এক জায়গায় দেখলুম আমি মারা গেছি। আমাকে সাজিয়ে গুজিয়ে অনেকে নিয়ে চলেছে। সবাই বিষন্ন।আমি সব দেখছি। কত দূর নিয়ে যাচ্ছে ! মাটী, আকাশ, গাছপালার পাতা, রং, ফুল অপূর্ব ! কি বড় বড় গাছে কি সুন্দর অচেনা ফুল। অনেক দূর ..... ........। একটু পাহাড়, উঠলো, ধীরে কিছুটা নীচে নেবে রাখল। চিতা সাজাল। শরীর চাপল, অগ্নি প্রদান হোল, শরীর পুড়ে ছাই উড়ে গেল। বহূ বছর পর মায়াবতীতে গিয়ে ঠিক ই সময় যা দেখেছিলুম সেই দৃশ্য দেখলাম। মায়াবতীর ওখানে গাছপালা, ফুল-ফল একটু ওপরে যে নীচু যায়গাটা যেখানে সেই সেভিয়ারের স্মৃতি ফলক আছে ঠিক সেইখানটা বলে মনে হোল। "
जो पत्र अपने पिताजी को दादा ने लिखा था डेटेड ? आस्क रनेन दा /मिन्टूदा / विवेकज ज्ञान या निर्विकल्प समाधि से पुनरुज्जीवित होने के बाद ?/ ऐसा प्रतीत हुआ यह शरीर मेरा नहीं है, माँ जगदम्बा का है, जो इसको निमित्त बनाकर कार्य कर रही हैं!  श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के सानिध्य में रहने का अवसर मुझे 1987 से 2016 तक प्राप्त हुआ है। वे किसी मनुष्य में कभी बुराई नहीं देखते थे, न किसी धर्म को कभी बुरा कहते थे। वे मूलतः यह विश्वास करते थे कि 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' यदि कोई मनुष्य बुरा कार्य कर बैठता है, तो उसका कारण वह मनुष्य नहीं, उसका बुरा चरित्र है। बी.बी.पी का संन्यास ग्रहण कर लेने के बाद, और 4 मार्च 2011 सुबह 5 बजे एम.एस. का निधन समाचार देते हुए दादा ने फोन पर कहा था -'अदर स्टेट्स में इस आंदोलन को फ़ैलाने में,अब तुम लोगों पर  (महामण्डल के झुमरीतिलैया शाखा पर) अधिक जिम्मेदारी है। ' जमशेदपुर इन्टरस्टेट कैम्प में कहा था 'निसिद्ध-कर्म' केवल पशु करते हैं, मनुष्य नहीं; " मने राखबे तुमि एक जन শিক্ষক ! " शिविर में तथा अन्य अवसरों पर उनके सानिध्य में रह कर मैंने यह जान लिया कि इस जीवन में ही मनुष्य आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। अतः पूज्य नवनीदा के जीवन की इन आश्चर्यजनक  घटनाओं को पढ़ने के बाद मुझे यह जानने की इच्छा हुई कि स्वामी विवेकानन्द के किस व्याख्यान को सुनकर उनकी शिष्यता ग्रहण की और अद्वैत आश्रम की स्थापना करने भारत चले आये ? उसकी सम्पूर्ण जानकारी मुझे अद्वैत आश्रम के वेबसाइट पर प्राप्त हो गयी।  [साभारhttp://www.advaitaashrama.org/advaita
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रनेनदा /6th इंटरस्टेट कैम्प वैज़ाग का प्रोग्राम अनिंदो ने बनाया , इस बात मेरे सिवा अन्य किसी से चर्चा नहीं करना। यह बात केवल मेरे और तुम्हारे बीच ही रहनी चाहिए। उसने लक्ष्मीनारायण का नंबर माँगा, फिर हमसे बोला कि सिटी ऑफिस, बीरेनदा, अपूर्वा से बात करके प्रोग्राम बनाया है। अपूर्व ने बाद में बताया कि उसकी बातचीत किसी से नहीं हुई है। मनःसंयोग का क्लास भी बीरेन दा को दे दिया था। उनका टिकट एक दिन पहले लौटने का है -उनको कैसे दोगे ? फिर उनका नाम हटा दिया।  अकादो प्रॉब्लम है - एक अतिउत्साह और दूसरा पोज मारने का। मैंने उसे प्यार से समझाकर यह कार्य करने से रोक दिया। भुवनेश्वर में १४-१५ को हमलोग के तर्ज पर 2 day कैम्प और मीटिंग कर रहे हैं। ओड़िया स्पीकर का नाम उसी दिन तय होगा। सतपथीजी भी एक्टिव हुए हैं -ऐसा साहूजी ने बताया। -अजय/ ]यदि खड़कपुर 'IIT' के गौतम साहा, अनिंदो , शुभेन्दु, अरुणाभ, अजय पाण्डे, रजत मिश्रा, यादवपुर के प्रशांत चक्रवर्ती, इसमें और अधिक नाम नहीं जोड़ना अच्छा, इनमें से किसी योग्य नेता के नेतृत्व में एक छोटा टीम तैयार किया जाय। एक ग्रुप बनाया जाय, जहाँ वे लोग आपस में चर्चा करके एक इन्डेप्थ नॉलेज का निर्माण करें, और फिर इसी ग्रुप के  ऊपर इंटरस्टेट मॉनिटरिंग का दायित्व दे दिया जाय तो कैसा होगा ? ये लोग अदर स्टेटस के कार्यकारी केंद्रों के साथ सम्पर्क रखेंगे। उनलोगों के द्वारा आयोजित प्रोग्राम में कौन कौन जायेगा, उसका निर्धारण करेंगे, उन केंद्रों से आये रिपोर्ट का उत्तर देंगे। किस राज्य में काम कैसे आगे बढ़ेगा इसको एक्सप्लोर करेंगे। महामण्डल के सेन्ट्रल ऑर्गनाइजेशन को अपने कार्यों के सम्बन्ध में पेरिओडिकल रिपोर्ट देंगे। महामण्डल को यदि अखिलभारत करना हो, तो ऐसा ग्रुप बनाने पर जोर देने की आवश्यकता है।  देश के स्वार्थ से ईगो -क्लैश बड़ा मुद्दा नहीं बनने देना चाहिए, वरिष्ठ भाईयों में कोई कोई शायद ऐसा सोचते हैं कि 'हमलोग नवनीदा के साथ बहुत वर्षों तक काम किये हैं, इसीलिए दूसरों की अपेक्षा नवनीदा को मैं अधिक जानता हूँ। ' किन्तु नवनीदा को जानना या नहीं जानना बड़ी बात नहीं  है, बड़ी बात तो यह है कि जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया था, उसको सफल करने के लिए,  सम्पूर्ण भारत में इसका प्रचार-प्रसार करने के लिए जो कुछ करना आवश्यक है, वही करना चाहिए।ऐसा ग्रुप बनाने से क्या नवनीदा नाराज हो जायेंगे ?
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