⚜️️श्री रामकृष्ण का मुख्य सन्देश ⚜️️
(-स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्य्क्ष, अद्वैत आश्रम , मायावती !)
इसी बात को श्रीरामकृष्ण, भगवान श्रीरामकृष्ण एक सुंदर कहानी के माध्यम से हमारे सामने रखते हैं। बहुत ही सुन्दर ये कहानी है , जिसको हमलोग वचनामृत में पढ़ते हैं। वहाँ पर श्रीरामकृष्ण कहते हैं, इसी विषय को हमारे सामने रखते हुए श्री रामकृष्ण कहते हैं, कि एक व्यक्ति था जो कि एक बार वह अपने गाँव से शहर की ओर चल पड़ा। उसको शहर में कुछ काम था। और शहर काफी दूर था तो अपने ग्राम से अपने गाँव से, अपना सामान लेकर के वो शहर की ओर चल पड़ा। क्योंकि उस शहर में उसको कई दिनों तक रुकने की बात थी, इसलिए उसके पास काफी सामान था , जिसे उसने सर के ऊपर उठा रखा था। तो बोझा लेकर के वो शहर की ओर चल पड़ा। काफी दिनों के सफर के बाद वो शहर पहूँचा। शहर पहुँच कर के, शहर का जो चकाचौंध , झकमक करने वाला जो दृश्य था, उस दृश्य को देखकर के वो मोहित होने लगा। (15:06)
लेकिन, उसके अंदर एक विचार आया ; कि पहले मैं अपना डेरा का व्यवस्था कर लूँ। पहले मैं अपना निवास स्थान खोज लूँ। पहले एक कमरे की व्यवस्था कर लूँ , जहाँ पर अपने सामान को मैं रख पाऊँ। और अपने आप को भी थोड़ा हाथ-पैर-मुँह धोकर के थोड़ा सा तजा होकर के फिर मैं इस शहर को देखने के लिए बाहर जाऊँगा। तो पहले ऐसे एक निवास स्थान को खोज लूँ। तो इस विचार से (उचित-अनुचित) यह व्यक्ति पहले यहाँ-वहाँ खोज करके, काफी प्रयास करके उसको एक डेरा मिल जाता है। एक निवास स्थान मिल जाता है; उस निवास स्थान में वह अपना सामान रख देता है। और तरोताजा होकर के , फिर दुबारा उस निवास स्थान से बाहर निकलता है, इस शहर के अच्छी- अच्छी चीजों को देखने के लिए। बिल्कुल मुक्त होकर के, उसके हाथ में जो सामान था , वो सब कुछ वह अपने निवास स्थान में रख चुका था। और अब बिल्कुल मुक्त होकर के, निश्चिन्त होकर के , निर्लिप्त होकर के उस शहर में वो घूमने लगा- शहर के अच्छे-अच्छे दृश्यों को देखने के लिए। (16:27)
तो इस प्रकार से जब वो शहर में घूम रहा था तब उसी समय उसका एक मित्र वहां पर मिला। वह मित्र भी अपने गाँव से वहाँ पर पहुँचा था, जिसके हाथ में काफी सामान था। और वह भी उसी दिन वहाँ पर आया था। लेकिन वो मित्र शहर के इन दृश्यों को देख रहा था ; सर के ऊपर सामान को ढोते हुए। काफी कष्ट में, काफी मुसीबत में वह एक निवास स्थान को पाये बगैर , इस सामान को अपने सर पर लिए हुए। उस शहर के विभिन्न दृश्यों को देखने में लगा हुआ था। तो उस वक्त ये जो पहला व्यक्ति है, वह इस मित्र से कहता है- 'अरे भाई ! पहले अपने डेरा का व्यक्स्था कर लो। पहले अपने निवास स्थान को खोज लो। सामान को वहाँ रख दो। और फिर ताजा होकर के इस शहर को देखने के लिए बाहर निकलो। ये सामान का जो बोझ अपने सर पर लेकर के जो तुम यहाँ वहाँ घूम रहे हो , कैसे तुम इस शहर का उपभोग कर पाओगे? तो पहले अपने निवास स्थान को खोज लो।' तो ये कहानी है। (17:45)
तो इस कहानी का मर्म क्या है ? इस कहानी के माध्यम से श्रीरामकृष्ण हम सभी को यह सन्देश देते हैं कि - देखिये, यह जो संसार है यह बिल्कुल उसी शहर के समान है। और यह जो शहर है। यह जो संसार है , यह जो विश्व है, यह हमारा स्थाई निवास स्थान नहीं है। हम यहाँ सिर्फ एक पर्यटक के समान हैं। थोड़ी देर के लिए हम यहाँ पर आये हैं। सिर्फ भ्रमण करने के लिए , यह हमारा स्थाई निवास स्थान नहीं है। हमारा जो स्थाई निवास स्थान है - वो बिल्कुल हमारे ह्रदय में है। जहाँ पर प्रभु परमेश्वर, भगवान, ईश्वर, आत्मा बसते हैं। (18:33)
तो श्रीरामकृष्ण कहते हैं , इस शहर में आये हो , तो पहले अपने हृदय में जो प्रभु का निवास स्थान है पहले, वहाँ पर डेरा जमा लो। वहाँ पर पहले प्रभु के चरण को स्पर्श कर लो। पहले अपने निवास स्थान को खोज लो। अपने हृदय के भीतर जो निवास स्थान है पहले उसको खोज लो।उसको खोजने के पश्चात् ; ईश्वर के चरण को स्पर्श करने के पश्चात्; फिर इस संसार रूपी शहर को देखने के लिए, या इससे व्यवहार करने के लिए तुम लग सकते हो। ईश्वर के चरणों को स्पर्श किये बगैर, अपने हृदय में, अपने उस स्थाई निवास स्थान को खोजे बगैर, अगर हम इस संसार के साथ व्यवहार शुरू कर देते हैं; इसके साथ अगर हम उलझना शुरू कर देते हैं , तो हम यहाँ पर खो जायेंगे। गुम हो जायेंगे। यही श्रीरामकृष्ण का मुख्य उपदेश है। (19:43)
तो वचनामृत में हम अक्सर हर दूसरे या तीसरे पन्ने पर श्री रामकृष्ण को ये कहते हुए देखते हैं कि, पहला भगवान फिर संसार। पहले भगवान, फिर संसार। भगवान को पहले पाना -श्रद्धा के द्वारा, भक्ति के द्वारा , ज्ञान के द्वारा। किसी भी तरीके से ; भगवान के साथ पहले संपर्क बना लेना, और उसके पश्चात् संसार के साथ व्यवहार करने से , हमें कोई चिंता नहीं है। लेकिन इस प्रभु परमेश्वर रूपी हमारी जो स्थाई निवास स्थान है, उस निवास स्थान को पाए बगैर अगर , हम संसार के साथ व्यवहार करना शुरू कर देते हैं, तो हमारा यहाँ पर गुम हो जाना यह निश्चित है। (20:37) तो ये श्रीरामकृष्ण का मुख्य उपदेश है, बार बार उनके वचनामृत में हम देखते हैं।
भग्वत गीता में एक श्लोक है, प्रसिद्द श्लोक है , यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- क्या कहते हैं?
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।
9.18।।
कृष्ण कहते हैं - यह जो भगवान, प्रभु परमेश्वर हैं, वे कैसे हैं ? वे ही हमारी गति हैं। गति हैं , वो भर्ता हैं, वही हमारा भरण-पोषण करने वाले हैं। वो गति हैं, भर्ता हैं, फिर क्या हैं ? -वे ही हमारे प्रभु हैं। वही साक्षी हैं। वही हमारे अंदर बैठे हुए अन्तर्यामी साक्षी हैं। और वही हमारा निवास है, स्थाई निवास स्थान वही हैं। और शरणं सुहृत - वही हमारा शरण हैं ,और वही हमारा स्थाई मित्र हैं। और क्या ? ये भगवान जो हैं, वे प्रभव प्रलय स्थान हैं। वही प्रभव स्थान हैं , वहीं से ये पूरी जो जगत , संसार है , जो सृष्टि है , उसकी उत्पत्ति भी वहीं से होती है और उसका प्रलय भी वहीं पर होता है। प्रभवः प्रलयः स्थानं, और क्या ? यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है। निधानं- तथा पूरे सृष्टि का बीज वही है। तो पहले इस प्रकार का जो भगवत गीता में वर्णित प्रभु परमेश्वर, जो हमारे ह्रदय में बैठे हैं , पहले उसके साथ सम्पर्क बना लेना। यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यही जीवन का मुख्य उद्देश्य है। (22:31)
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।
केन उपनिषद में कहा गया है , 'यह' प्रभु परमेश्वर का ज्ञान अगर हम पा लेते हैं या उसके साथ हमारा अगर सम्बन्ध बन जाता है। तो मनुष्य जीवन का जो मुख्य उद्देश्य है , वह सफल हो गया। और अगर इसके साथ हम सम्बन्ध नहीं बना पाते हैं; सम्बन्ध न बनाकर के विश्व के साथ , जगत के साथ अगर हम उलझ जाते हैं, तो महती विनष्टि - तो महान विनाश हमारे सामने होगा। ये केन उपनिषद कहती है। (23:09)
इसी बात को भगवान शंकराचार्यजी भी बहुत ही सुन्दर तरीके से कहते हैं, उनका जो मोहमुद्गर बहुत सुन्दर है, वहाँ पर वे कहते हैं - यह जीवन कितना अल्प है , मनुष्य जीवन कितना छोटा है? इस छोटे से मनुष्य जीवन में अगर हम इस महत उद्देश्य को एक रूप न दें, तो बहुत गलती हमलोग कर रहे हैं। वे कहते हैं - ये जीवन कैसा है ?
नलिनी दल गत जलम अति तरलम् -
तद्वद जीवितम् अतिशय चपलम्।
- ये जो जीवन है -अतिशय चपलम्। ये अत्यंत ही चपल है - ये कभी भी खत्म हो सकता है। तो इसका उदाहरण वे देते हैं, जिस प्रकार से कमल का जो फूल होता है, और उसके जो पत्ते होते हैं, पत्तों पर पानी की जो छींटे होते हैं , पानी की जो बूँदें होती हैं, वह बिल्कुल कैसे चपल होता है। एक हल्की सी, एक मंद हवा भी अगर आ जाती है , तो वह बूँद जो है वह पत्ते पर से बिल्कुल फिसल करके गिर जाती है। उसी प्रकार है मनुष्य जीवन - अतिशय चपलम्। कब यह खत्म हो जाये यह कोई भी नहीं कह सकता। इसीलिए यह मनुष्य जीवन खत्म होने से पहले क्या करना है? भगवान श्रीशंकराचार्यजी कहते हैं -
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरणे ,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥१॥
मृत्यु बिल्कुल सामने खड़ी हुई है , हमें और कोई भी नहीं बचा सकता , इसलिए भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्, अर्थात भगवान को जान लो! भगवान के साथ सम्पर्क बना लो! यह जीवन खत्म होने पहले ईश्वर का ज्ञान प्राप्त कर लो। श्रद्धा के द्वारा , भक्ति के द्वारा और ज्ञान के द्वारा। तो ये है मूल सन्देश ! भगवान श्री रामकृष्ण का मूल सन्देश यही है, कि मनुष्य जीवन का जो मुख्य उद्देश्य वो है ईश्वर के साथ सम्बन्ध बना लेना। अपने 'ईश्वर स्वरूप' को पहचान लेना ! अपने भगवत स्वरुप को पहचान लेना। पहचान करके फिर इस संसार के साथ अगर हम व्यवहार करें, तब कोई चिंता की बात नहीं है। (25:37)
आज चारों और ये जो कोरोना का महामारी हम देख रहे हैं, सारा मानवजाति , सारा विश्व इससे ग्रस्त है। सभी पीड़ित हैं, कितने लोगों की जानें चली गईं हैं इसमें। लोग भयग्रस्त हैं, चारों ओर लोग चिंतित हैं। पीड़ित हैं। ऐसी परिस्थिति में एक दृष्टिकोण यह है कि हम यह जानें कि इस शरीर के अतीत, इस मन के अतीत, इस बुद्धि के अतीत, हमारे ही भीतर एक ऐसी सत्ता है, जो कि अमर है। हमारी जो भगवत सत्ता है, उस भगवत सत्ता पर श्रद्धा रखें , उसके प्रति हमारा प्रेम हो। और उसके दृष्टिकोण से अगर हम इस महामारी को देखें, तो हम इस महामारी को भयमुक्त होकर के हम इसका सामना कर पायेंगे। और वह तभी सम्भव होगा , जब हमें , हमारे भीतर बैठे हुए इस प्रभु परमेश्वर पर, श्रद्धा हो। भक्ति हो। और उस आत्मा की अमरता के विषय में हमारे पास ज्ञान हो। (26:45 )
तो भगवान श्रीरामकृष्णदेव का मुख्य सन्देश यही है। कि मनुष्य जीवन का जो मूल लक्ष्य है - वो भगवत प्राप्ति है। और प्राप्त करने का मार्ग - श्रद्धा , भक्ति, और ज्ञान ये मार्ग हैं। और मनुष्य जीवन जीवन इसी के लिए ही है। इसको भूलकर के अगर हम इससे उलझ जाते हैं , तो हम इस संसार में खो जाते हैं। (27:13)
तो मैं भगवान श्रीरामकृष्ण से यही प्रार्थना करता हूँ कि वे हमारे अंदर उस प्रकार की श्रद्धा को निर्मित करें। हमें कृपाकर के हम सब के अंदर भक्ति का संचार करे, वह प्रेम भर दे -ईश्वर प्रेम भर दे! और हमारे अंदर और उसके स्वरुप का ज्ञान हमारे अंदर उस ज्ञान का उदय करा दे। यही हमारी उनसे प्रार्थना है ! धन्यवाद !! (27:40)
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“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।”
- अभिनंदन सम्बोधन
(i) >>श्रद्धा क्या है ? : संस्कृत शब्द का अर्थ है आस्तिक्य बुद्धि । 'अस्ति इति' का भाव आस्तिक्य बुद्धि है। आचार्य शङ्कर ने कहा है -गुरु और शास्त्र के वचनों पर सत्यत्व बुद्धि को श्रद्धा कहते हैं, और यह श्रद्धा ही मोक्षसिद्धि का मार्ग है। गीता भी एक शास्त्र है, जो हमें उस अतीन्द्रिय वस्तु, जो मन और इन्द्रियों के परे जो भगवत तत्व है, उस भगवत तत्त्व का ज्ञान करा देने वाले गुरु के ही समान एक साधन है, इसलिए उस पर श्रद्धा ही मोक्षसिद्धि का मार्ग। गीता के चतुर्थ अध्याय में भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है -" श्रद्धावान् लभते ज्ञानं ,तत्पर: संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां, शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।39।।
>>विवेक क्या है ? : नित्य-अनित्य विवेक , शाश्वत-नश्वर विवेक , श्रेय-प्रेय विवेक।
>> मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? : उसका उपाय बताते हुए भगवान श्रीरामकृष्ण देव बहुत सरल भाषा में कहते हैं - "पहले उस 'एक' ईश्वर को जानो; उसे जानने से तुम सभी कुछ को जान जाओगे। 'एक' के बाद शून्य लगाते हुए सैकड़ों और हजारों की संख्या प्राप्त होती है, परन्तु 'एक' को मिटा डालने पर शून्यों का कोई मूल्य नहीं होता। 'एक' ही के कारण शून्यों का मूल्य है। पहले 'एक' बाद में 'अनेक'! (अनेकता में एकता भारत की विशेषता।)
>>उस एक को जानने प्रक्रिया क्या है ?
- संतरे का रस निचोड़ने तथा आम का रस निचोड़ने की प्रक्रिया।
भारत सरकार के द्वारा घोषित राष्ट्रीय युवा आदर्श हैं-स्वामी विवेकानन्द ! इसलिए वे भारत के समस्त युवाओं के, या कहिये समस्त युवा हृदय व्यक्तियों के लिए एक 'मार्गदर्शक नेता' या गुरु के समान है। विष्णु-सहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम भी -'नेता' ही है!
जिसको 'स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' कहते हैं उस Be and Make आध्यात्मिक शिक्षक या नेता -प्रशिक्षण की प्रक्रिया, लीडरशिप प्रशिक्षण प्रणाली क्या है ? उस 'Be and Make' लीडरशिप प्रशिक्षण प्रक्रिया के विषय में स्वामी जी कहते हैं कि- 'पहले जानो !' यह ज्ञान का विषय है। क्या जानो ? यह जानना है कि हम मृत्यु के परे हैं! हम सब। हम सभी मनुष्य मृत्यु के परे हैं। हमारा जो स्वरुप है, वह कभी नहीं मरता। मृत्यु सिर्फ शरीर की होती है, हमारी जो आत्मा है, जो हमारा स्वरुप है-वह शरीर-इन्द्रिय और मन से परे है। इस जड़ देह और मन के भीतर और पीछे उसकी जो आधारभूत सत्ता है, वह चेतन सत्ता है, वह कभी नहीं मरती। इस बात को पहले जानना है, ज्ञान के द्वारा, अनुभूति के द्वारा- इसको पहचानना है। जब हम यह जान जायेंगे कि 'हम अमर हैं'! तब, पहले 'वह जानकर के', उस ज्ञान (आत्म -ज्ञान) को प्राप्त करके - फिर हम इस संसार के साथ सम्बन्ध बना सकते हैं। (12 :56)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिये कोई भी आगे न बढ़ेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' का नाश कर डालो !"
"हम प्रभु के दास हैं, प्रभु के पुत्र हैं, प्रभु की लीला के सहायक हैं - यही विश्वास दृढ़ कर कार्यक्षेत्र में उतर पड़ो ! (हिन्दू धर्म और श्रीरामकृष्ण : १०/१३९)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " सत्य के दो भेद हैं : पहला, जो मनुष्य के पंचेन्द्रियों से एवं उन पर आधारित तर्कों से ग्रहण किया जाय, और दूसरा, जो अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा ग्रहण किया जाय।
इन्द्रियों के द्वारा संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' कहते हैं और दूसरे प्रकार से -अर्थात सूक्ष्म योगज शक्ति द्वारा संकलित ज्ञान को 'वेद' कहते हैं।
यह अतीन्द्रिय शक्ति, जिनमें आविर्भूत अथवा प्रकाशित होती है, उनका नाम ऋषि है , और उस शक्ति के द्वारा वे जिस 'इन्द्रियातीत सत्य' (अलौकिक सत्य) की उपलब्धि करते हैं, उसका नाम 'वेद' है।
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भगवान श्रीरामकृष्ण ने कहा है - " मनुष्य संसार में दो तरह की प्रवृतियाँ (चरित्र) लेकर जन्मता है-विद्या और अविद्या। विद्या मुक्ति के मार्ग में ले जाने वाली प्रवृत्ति है और अविद्या संसार-बंधन में डालने वाली। मनुष्य के जन्म के समय ये दोनों प्रवृत्तियाँ मानो खाली तराजू के पल्लों की तरह 'संतुलन' की स्थिति में रहती हैं। परन्तु शीघ्र ही मानो मनरूपी तराजू के एक पल्ले में संसार के भोग-सुखों का आकर्षण तथा दूसरे में भगवान का आकर्षण प्रतिष्ठित हो जाता है। यदि मन में संसार का आकर्षण अधिक हो तो अविद्या का पल्ला भारी होकर झुक जाता है और मनुष्य संसार में डूब जाता है। परन्तु यदि मन में भगवान के प्रति अधिक आकर्षण हो तो विद्या का पल्ला भारी हो जाता है और मनुष्य भगवान की ओर खिंचता चला जाता है। " (जीवन का उद्देश्य - अमृतवाणी -४)
'चरित्र-निर्माण की तकनीक ' को या 'मनुष्य बनने और बनाने' की तकनीक का स्वाध्याय आरम्भ करने से पहले, हमारे लिए 'चरित्र-निर्माण' या 'मनुष्य निर्माण' की प्रक्रिया से जुड़े कुछ पारिभाषिक शब्दों -'Technical terms' जैसे श्रद्धा, विवेक, गुरु (नेता) आदि शब्दों के अर्थ पर चिंतन कर लेना चाहिए।
The Essence of Sri Ramakrishna's Gospel - Part 1,by Swami Shuddhidananda
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