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मंगलवार, 24 जुलाई 2018

'कामातुराणां न भयं न लज्जा' : बिल्वमंगल कथा

बिल्वमंगल
अर्थातुराणां न सुखं न निद्रा,कामातुराणां न भयं न लज्जा ।
विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा,क्षुधातुराणां न रुचि न बेला ॥
[अर्थातुर = अर्थ + आतुर=अर्थातुर = धन के प्रति घोर रूप से आसक्त व्यक्ति  (obsessed by wealth)/ कामातुर = काम + आतुर= कामातुर= अत्यधिक कामेच्छा से ग्रस्त व्यक्ति ( a person obsessed with excessive sexual urge ) /विद्यातुर = विद्या + आतुर = ब्रह्मज्ञान (परम सत्य) को प्राप्त करने के लिए घोर आग्रही व्यक्ति (सत्यार्थी) / क्षुधातुर = क्षुधा + आतुर =क्षुधातुर =भूख से पीड़ित व्यक्ति (person suffering from hunger )]
अर्थातुर को, धन के लोभी मनुष्य को सुख और निद्रा नसीब नहीं होते; कामातुर को-अर्थात अत्यधिक कामेच्छा से ग्रस्त व्यक्ति को  समाज का भय और लज्जा नहीं होते । विद्यातुर -ब्रह्मज्ञान या 'विवेकज-ज्ञान' प्राप्त करने के घोर आग्रही व्यक्ति को सुख व निद्रा नहीं होते और भूख से पीड़ित व्यक्ति को रुचि या समय का भान नहीं रहता । 
यह कहानी एक भारतीय ग्रन्थ 'भक्तमाल' से ली गयी है। किसी गाँव में एक ब्राह्मण युवक रहता था, उसका नाम बिल्वमंगल था। महाकामी (हद से ज्यादा, excessive कामेच्छा द्वारा ग्रस्त)  बिल्वमंगल अपनी पत्नी होते हुए भी एक दूसरे गाँव की दुश्चरित्रा स्त्री  के फंदे में बुरी तरह फस गया था। दोनों गाँव के बीच बड़ी नदी थी और वह युवक प्रतिदिन एक छोटी सी नाव से नदी पार करके अपनी प्रेमिका के पास जाता था। एक दिन उस युवक को अपने पिता के श्राद्धकर्म करना था, इसलिये उस दिन वह जा नहीं सकता था, पर उसका मन अपनी प्रेमिका से मिलने के लिए छटपट कर रहा था। किन्तु पिता के श्राद्धकर्म को छोड़ कर वह जा नहीं सकता था। हिन्दू समाज में यह कार्य अनिवार्य अनुष्ठान (Mandatory ceremony) माना जाता है। वह मन ही मन क्रोध से उबल रहा था, परन्तु विवश था। जैसे-तैसे ब्राह्मणों को झटपट भोजन करवा कर श्राद्ध अनुष्ठान किसी प्रकार समाप्त करते करते रात्रि हो गयी। बिल्‍वमंगल अपनी पत्नी का त्याग करके घनघोर अन्धकार में ही दौड़कर नदी के किनारे पहुँचा। भगवान की माया अपार है। अकस्‍मात् प्रबल वेग से तूफ़ान आया और उसी के साथ मूसलाधार वर्षा होने लगी। नदी में भी भयंकर लहरें उठ रही थीं। ऐसे में नदी पार करना बहुत खतरनाक था। उस समय वहाँ कोई नौका भी उपलब्ध नहीं थी। केवट इतने भयभीत थे कि कोई नदी पार करने को तैयार नहीं हुआ। किन्तु उसे तो जाना ही था, क्योंकि उसका  हृदय तो कभी का धर्म-कर्म से शून्‍य (विवेक-शून्यहो चुका था। उसका मन मतवाला हो रहा था, उस स्त्री के प्रेम में तड़प रहा था, अतः उसने हर हाल में जाने का निश्चय कर लिया। 
पास ही लकड़ी का एक कुन्दा बहता चला जा रहा था, उसने उसे पकड़ लिया और उसी के सहारे वह नदी भी पार कर गया। दूसरे किनारे पर पहुँचकर उसने उस कुन्दे को निकालकर तट पर डाल दिया और अपनी प्रेमिका के घर पहुँच गया। घर के द्वार बन्द थे। उसने द्वार खटखटाया, किन्तु इतने जोर का तूफान बह रहा था कि किसीने उसकी पुकार न सुनी। वह घर के चारों ओर घूमा और अन्त में उसे दीवार पर रस्सी जैसी वस्तु लटकती हुई दिखाई दी। उसने उस रस्सी को पकड़ लिया, और मन ही मन बोला , 'ओह, मेरी प्रेमिका ने मेरे ऊपर जाने के लिये रस्सी लटका रखी है !' उसी रस्सी के सहारे वह दीवार पर चढ़ गया, और दूसरी ओर पहुँच गया। तभी उसका पाँव फिसला, वह गिर पड़ा, गिरने से ध्वनि हुई और घर के लोग जग गए। वह स्त्री बाहर आयी, तो अपने प्रेमी को बेहोश पड़ा पाया। किसी तरह उसे होश में लायी, तब उसे अनुभव हुआ कि उसके प्रेमी के देह से भयानक दुर्गन्ध आ रही थी। उसने पूछा तुम्हें क्या हो गया है ? तुम्हारे शरीर से इतनी दुर्गन्ध क्यों आ रही है ? तुम घर कैसे आये ? क्यों, क्या तुमने मेरे लिए रस्सी नहीं लटका रखी थी ? स्त्री ने हँसते हुए कहा, यहाँ तुम्हारी प्रेमिका कौन है ? हमलोग तो तुमसे धन पाने के लिए प्रेमिका होने नाटक करते हैं। तुम क्या यह सोंचते हो कि मैं तुम्हारे लिये रस्सी लटकाऊँगी ? तुम तो बहुत बड़े मूर्ख हो ! तुमने नदी कैसे पार की ? 'क्यों, मैंने एक बहते कुन्दे को पकड़ लिया था। स्त्री ने सुनकर कहा, चलो जरा दिखाओ तो। 
वह रस्सी एक नाग था, भयानक विषधर, जिसके एक दंश से मृत्यु निश्चित थी। जिस समय रस्सी समझकर उसकी पूँछ पकड़ी थी, उस समय उसका सिर बिल में था और वह भीतर जा रहा था। प्रेम में पागल होकर ही उसने यह कार्य किया था। जब विषधर का सिर बिल में हो और शरीर बाहर, और उसे पकड़ा जाय तो वह कदापि अपना सिर बाहर न निकालेगा। इसीलिये वह युवक उसके सहारे ऊपर चढ़ गया। लेकिन बोझ और खिंचाव से वह विषधर मर गया था। फिर स्त्री ने पूछा, तुम्हें लकड़ी का कुन्दा कहाँ मिला ? 'वह तो नदी में ही बह रहा था। वास्तव में वह जिसे कुन्दा समझ रहा था , वह एक दुर्गन्धपूर्ण मृत शरीर था। इसीलिए उसके शरीर से इतनी भयानक दुर्गन्ध आ रही थी। 
स्त्री ने युवक की ओर देखकर कहा, मैंने कभी प्रेम में विश्वास नहीं किया। हमलोग कभी नहीं करते। किन्तु यह यदि प्रेम नहीं है, तो भगवान  बचाये ऐसे प्रेम से ! हमलोग प्यार किसे कहते हैं, यह नहीं जानते। लेकिन तुमने अपने हृदय में मुझ जैसी स्त्री को स्थान क्यों दिया ? मेरे जैसी स्त्री के प्रेम में पागल होकर द्वार खटखटाने के लिए तू मध्यरात्रि में इतना साहस कर सकता है, तो हे दोस्त ! तुमने यदि अपने हृदय में भगवान (माँ जगदम्बा के अवतार)को स्थान दे दिया होता, तो शायद तुम एक महान संत/ शिक्षक/नेता बन जाते! इन बातों को सुनकर उस युवक के सिर पर मानो वज्रपात हो गया। मन में एक बिजली सी कौंधी और कुछ क्षणों के लिये मानों उसको अन्तर्दृष्टि प्राप्त हो गयी। क्या सचमुच मेरे हृदय में ही भगवान हैं ? स्त्री ने कहा, " हाँ, हाँ मेरे मित्र, भगवान वहीँ हैं !'
बिल्वमंगल ने उसी क्षण उस स्त्री के घर का त्याग कर दिया, और चलते चलते एक जंगल में पहुँच गया। और ईश्वर से रो रो कर प्रार्थना करने लगा, 'हे ईश्वर मैं केवल तुम्हें चाहता हूँ, मेरा यह प्रचण्ड प्रेम प्रवाह किसी नश्वर मानव-शरीर में शांति नहीं पा सकता। मैं तो उस प्यार के सागर से प्रेम करना चाहता हूँ, जिस में मेरे प्रेम का यह वेगवती नदी जाकर एकाकार हो जाये। मेरे प्रचंड प्रेम की यह वेगवती नदी, किसी छोटे से तालाब में (क्षणभंगुर नाते-रिश्तों में) नहीं समा सकती। इसे तो असीम सागर ही चाहिये। प्रभो ! (माँ जगदम्बा !) तुम जहाँ कहीं भी हो,मेरे पास आओ। इसी प्रकार बहुत वर्षों तक जंगल में रहते हुए साधना (एकाग्रता का अभ्यास) करने के बाद, उसे ऐसा लगा कि अब उसका मन 'साम्यभाव' में स्थित हो चुका है। वह संन्यासी हो गया और शहर की ओर चल पड़ा। एक दिन वह एक नदी के किनारे बैठा था। एक स्नान घाट पर उसने एक बहुत सुन्दरी युवती को देखा, जो कि नगर के साहूकार की पत्नी थी। संयोगवश उसकी मुखाकृति भी उसी प्रेमिका के जैसी थी। उसे देखते ही वृद्ध संन्यासी के भीतर वही पुराना बिल्वमंगल फिर से जाग गया। काम-विकार ने बिल्वमंगल को अन्धा बना दिया। उसकी पुरानी आदत ने उसे अपने शिकंजे में झपेट लिया। प्रभुमय पवित्र जीवन बिताने का संकल्प और 'साम्यभाव' हवा हो गया। 'निवृत्ति अस्तु महाफला'   का उसका विवेक धुँधला हो गया। वह अपने मन को वश में नहीं रख पाया। योगी उसे एकटक देखता रहा, फिर उठ खड़ा हुआ और उस स्त्री के पीछे पीछे उसके घर तक चला गया। 
तभी उस स्त्री का पति आ गया और संन्यासी के गेरुआ वस्त्र को देखकर बोला, आइये महाराज हम आपकी क्या सेवा करें ?  योगी ने कहा मैं तुमसे एक भयानक वस्तु माँगना चाहता हूँ। 'आप आज्ञा करें, मैं एक गृहस्थ हूँ और मुझसे जो भी कोई वस्तु माँगता है, मैं देने को तत्पर रहता हूँ। ' " मैं तेरी पत्नी को देखना चाहता हूँ। " उस आदमी ने कहा, 'महाराज यह क्या ? फिर भी जब मैं और मेरी पत्नी पवित्र हैं, तो प्रभु सबकी रक्षा अवश्य करेंगे। आइये महाराज, भीतर आइये। " योगी भीतर आया और पति ने अपनी पत्नी का परिचय उससे करवाया। उस स्त्री ने पूछा मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूँ ? योगी उसे देखता रहा, देखता रहा; फिर बोला," माँ, क्या मुझे अपने बालों से दो काँटे दे सकोगी ? 'यह रहे काँटे !' उन काँटों को योगी ने अपनी दोनों आँखों में घुसेड़ लिया, और बोला, "हे मेरी धोखेबाज आँखें ! जहाँ हरिको देखना है, जहाँ प्रभु के दर्शन करने हैं, वहाँ हाड़माँस से बने स्त्री/पुरुष शरीर को देखती हो ? अब जाओ, तुम फिर कभी हाड़माँस का शरीर देखकर,उसे पाने का लालच नहीं कर सकोगी। अगर तुम्हें देखना ही है तो आत्मा की दिव्य आँखों से (निर्मल मन द्वारा) वृन्दावन के उसी चरवाहे को देखो। अहंकार का अन्धापन छोड़कर विवेकज-ज्ञान की शरण जाओ। अब से तुम्हारी ज्ञानमयी दृष्टि ही सब कुछ है,जगत को ब्रह्ममय देखो। (भेद मत देखो, देखोगे  कि  मनुष्य मात्र ही पूर्णता की ओर अग्रसर होने की चेष्टा कर रहा है। ) 
          लाठी टेकते-टेकते बिल्वमंगल जाने लगा।रास्ते में ठोकरें खाते-खाते आगे बढ़ने लगा। ईश्वर के मार्ग पर चलते-चलते कितनी भी ठोकरें खानी पड़े लेकिन वे सार्थक हैं। बिल्वमंगल गाँव से बाहर निकल गया। जंगल के रास्ते से जाते वक्त कुएँ जैसे खड्डे में गिर पड़ा। आसपास में कोई मनुष्य नहीं था। भगवान कुएँ के पास प्रकट हुए। बिल्वमंगल को बाहर निकाला। लाठी का आगे का छोर पकड़कर भगवान आगे-आगे चल रहे हैं।दूसरा छोर पकड़कर पीछे-पीछे बिल्वमंगल चल रहा है।
कहानी तो बताती है कि उसने ईश्वर को कृष्ण रूप में देखा था। तब एक बार उसे दुःख हुआ कि उसकी ऑंखें नहीं थीं, और वह केवल अंतर्दृष्टि से ही देख सकता था। उसके बाद उसने कृष्ण-भक्ति पर कई कविताएं लिखीं। संस्कृत में पुस्तकें लिखने वाले सभी लेखक सर्वप्रथम अपने गुरु को प्रणाम करते हैं। इसी तरह उसने भी अपने प्रथम गुरु के रूप में उस स्त्री को ही प्रणाम किया। [वी ० सा० ७/ १९४-९७ ]
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