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गुरुवार, 2 नवंबर 2017

महर्षि कपिल का परिणामवाद

हमारा यह स्थूल शरीर और दृष्टिगोचर विश्व-ब्रह्माण्ड अस्तित्व में कैसे आ गया ? आइये इस रहस्य को हम आधुनिक युग में में ईश्वर (ब्रह्म) के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण द्वारा भारत की प्राचीन ' गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा' में  प्रशिक्षित एवं आधुनिक युग में मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, लोक-शिक्षक,या 'वेदाध्यापक' (टीचर ऑफ़ वेदान्ता) स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं -
 " भगवान कपिल ही दर्शन शास्त्र के पितामह हैं, वे व्यासदेव से भी प्राचीन हैं, इसीलिये हम उनकी बात सुनने के लिये बाध्य हैं। कपिल का 'सांख्य-दर्शन' ही विश्व का ऐसा सर्वप्रथम दर्शन है, जिसमें 'युक्ति-विचार पद्धति' से जगत् की उत्पत्ति और लय के सम्बन्ध में विचार किया गया है। विश्व के प्रत्येक तत्त्व जिज्ञाषु- वैज्ञानिक को उनके प्रति श्रद्धांजली अर्पित करनी चाहिये।" (४:२०४) " 
 " ... वयोवृद्ध और अत्यन्त पवित्र महर्षि भी इन प्रश्नों (सृष्टी-रचना के सिद्धान्त) का समाधान करने में असमर्थ हो रहे हैं; पर तभी एक ' युवक ' - उनके बीच खड़ा हो कर घोषणा करता है- ' हे अमृत के पुत्र सुनो, हे दिव्यधाम के निवासी सुनो - मुझे मार्ग मिल गया है ! जो अंधकार या अज्ञान के परे है, उसे जान लेने पर ही हम मृत्यु के परे जा सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है। " (श्वेताशतर२/५/३-८) (वि० सा० ख० २:५८)
" कपिल का प्रधान मत है, 'परिणाम-वाद'। इस कार्य-कारण वाद या ' परिणाम- वाद ' से तात्पर्य है- 'कार्य' भी अन्य रूप में परिणत ' कारण ' मात्र ही है। जैसे ' घड़ा ' कार्य है, और ' मिट्टी ' है उसका कारण। कपिल के अनुसार अव्यक्त प्रकृति से ले कर चित्त,मन, बुद्धि, अहंकार तक कोई भी वस्तु पुरूष अर्थात भोक्ता या प्रशासक नहीं है। स्वरूपतः मन में चैतन्य नहीं है; किन्तु हम देखते हैं कि वह तर्कना करता है।अतएव उसके परे, निश्चित रूप से ऐसी कोई ' सत्ता ' होनी चाहिए, जिसका आलोक- महत्, बुद्धि, अहं-ज्ञान और अन्य परवर्ती परिणामों में व्याप्त है। इस सत्ता को कपिल ' पुरूष ' कहते हैं, वेदान्ती उसी को 'आत्मा' कहते हैं।...बुद्धि स्वतः क्रियाशील नहीं है- उसकी पृष्ठ भूमि में जो पुरूष विद्यमान हैं, उसीसे मानो उसमे कार्यशीलता आती है। " (४:२१२) 

" हमारे दो जगत हैं, बाह्य-जगत और अन्तर्जगत। यह सम्पूर्ण बाह्य-जगत्, अन्तर्जगत् या सूक्ष्मजगत् का स्थूल विकास मात्र है। विकसित होने या अभिव्यक्त होने की प्रक्रिया की सभी अवस्थाओं में सूक्ष्म को 'कारण' और स्थूल को 'कार्य' समझना होगा। इस नियम से, बाह्य-जगत् कार्य है और अन्तर्जगत् कारण। " (१:४२)
' बाह्य-जगत्'  तो तुम्हे अपने मन के अध्यन में प्रेरित करने के लिए एक उद्दीपक तथा अवसर मात्र है। सेब के गिरने ने न्यूटन को एक उद्दीपक प्रदान किया, उसने अपने मन का अध्यन किया और गुरुत्वाकर्षण का नियम मिल गया। ' (३:४)
 " एक पत्थर गिरा और हमने प्रश्न किया- इसके गिरने का कारण क्या है? हम यह निश्चित रूप से जानते हैं कि - बिना कारण कुछ कुछ भी घटित नहीं होता। मेरा अनुरोध है कि इस ' क्यों ' कि धारणा को खूब स्पष्ट रूप से समझ लो। जब हम यह प्रश्न करते हैं कि यह घटना क्यों हुई? तब यह मान लेते हैं, कि सभी घटनाओं का एक ' क्यों ' रहता ही है। अर्थात उसके घटित होने के पूर्व और कुछ अवश्य हुआ होगा, जिसने कारण का कार्य किया। इसी पूर्ववर्तिता और परवर्तिता के अनुक्रम को ही ' निमित्त ' अथवा कार्य-कारणवाद कहते हैं। " (२:८६) 
" शापेनहावर ने यह निष्कर्ष निकला कि ' इच्छा ' (Will) ही सभी चीजों का कारण है। ' होने ' की इच्छा से ही हमारी अभिव्यक्ति होती है"- किन्तु हम इससे इन्कार करते हैं। वास्तव में इच्छा और प्रेरक-नाड़ी (Motor-nerve) एक रूप है। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो इसमे इच्छा की कोई बात नहीं होती, जब इसकी संवेदनायें मस्तिष्क में स्थित दर्शन इन्द्रिय तक पहुँचती हैं- तब प्रतिक्रिया स्वरूप बुद्धि निर्णय करती है - 'यह करो ' अथवा ' यह न करो '। अहं तत्व की इस अवस्था को ही इच्छा कहते हैं। इच्छा का एक भी कण ऐसा नहीं है, जो प्रतिक्रिया का फल न हो। अतएव ' इच्छा ' के पूर्व बहुत सी वस्तुयें रहनी आवश्यक हैं। यह ' इच्छा ' अहं तत्व से निर्मित कोई प्रतिक्रिया मात्र है। और अहं तत्व का सृजन - उससे भी ऊँची वस्तु बुद्धि से होती है। और वह बुद्धि भी अविभक्त प्रकृति का परिणाम है। मनुष्य में महत्, महान् तत्व ( the  Great Principle) या बुद्धि (the Intelligence) सम्बन्धी बात को समझना बहुत आवश्यक है। " (वि० सा० ख ० ४: २०४ )
" देश-काल-निमित्त या नाम-रूप के साँचे से जब ' वह ' जो इच्छा रूप में परिणत हो जाता है, जो पहले इच्छा के रूपमें नहीं था, परन्तु बाद में देश-काल-निमित्त के साँचे में पड़ने से जो मानवीय इच्छा हो गया, वह अवश्य स्वाधीन है। और जब यह इच्छा इस वर्तमान नाम-रूप या देश-काल-निमित्त के साँचे से मुक्त हो जायगी तो ' वह ' पुनःस्वतंत्र हो जाएगा। " (३:६९) 
" अतएव ' इच्छा ' के पूर्व बहुत सी वस्तुयें जरुरी है। यह इच्छा- अहं तत्त्व से निर्मित कोई प्रतिक्रिया मात्र है। औरअहं तत्व का सृजन उससे भी ऊँची वस्तु बुद्धि से होती है। और यह बुद्धि भी अविभक्त प्रकृति का परिणाम है।"(४:२०४)
" इसे (परिणामवाद E=M को) समझना तुम्हारे लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि समस्त विश्व में कोई ऐसा दर्शन नहीं है जो कपिल का ऋणी न हो। पाइथागोरस भारत आये और उन्होंने इस दर्शन का अध्यन किया। और वही ग्रीक लोगों के दार्शनिक विचारों का समारंभ था। " (४:२०४) 
" आधुनिक विकास-वाद का सिद्धांत कहता है, हर कार्य पूर्ववर्ती कारण की आवृत्ति मात्र है। परिस्थिति या परिवेश के कारण रूप-परिवर्तन होता है। योनी-परिवर्तनों के कारण को खोजने सृष्टि से बाहर जाने की जरुरत नहीं है। कार्य में ही कारण श्रृंखला विद्यमान है। विश्व का मूल कारण, ऐसी कोई शक्ति नहीं है, या कोई सत्ता नहीं है, जो इससे अलग रह कर रिमोट से इसको चला रही है। " (२:२८२)
" क्रमविकास-वाद क्या है? उसके दो अवयव क्या हैं ? एक है प्रबल अन्तर्निहित शक्ति, जो अपने को व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, और दूसरा है बाहर की परिस्थितियाँ, जो उसे अवरुद्ध किए हुये है, या वह परिवेश है जो उसे व्यक्त होने नहीं देता। अतः इन परिस्थितियों से युद्ध करने केलिये यह ' शक्ति ' नये नये शरीर धारण कर रही है। एक अमीबा इस संघर्ष में एक और शरीर धारण करता है, और कुछ बाधाओं पर जय-लाभ करता है, और इस प्रकार भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हुये अन्त में मनुष्य में परिणत हो जाता है। " (२:९१)
" प्रकृति या Nature का अधिक वैज्ञानिक नाम है- ' अव्यक्त '। जो अभिव्यक्त या प्रकट नहीं या भेदात्मक नहीं है, उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुये हैं। उसीसे अणु-परमाणु, जड़-पदार्थ, शक्ति, मन, बुद्धि सब प्रसूत हुये हैं। सांख्यों ने अव्यक्त का लक्षण बताया है, त्रि-शक्तियों की (तीन शक्ति -सत्, रज, तम) साम्यावस्था। जब आकर्षण-शक्ति (Centripetal-force) अर्थात ' तमस ' और विकर्षण-शक्ति (Centrifugal-force) अर्थात ' रजस ' - जब पूरी तरह से ' सत्व ' के द्वारा संयत रहतीं हैं, अथवा पूर्ण साम्य की अवस्था में रहतीं हैं, तब सृष्टि का अस्तित्व नहीं रहता। किन्तु यह साम्यावस्था ज्योंही नष्ट होती है, उनका संतुलन भंग हो जाता है, और उनमे से एक शक्ति दूसरे से प्रबलतर हो उठती है, त्योंही गति (प्राण) का आरम्भ होता है और सृष्टि होने लगती है ।" (४:१९३)
" प्रकृति या अव्यक्त ...एक सर्वव्यापी जड़-राशिस्वरूप है। इसी अव्यक्त या प्रकृति में बाह्य-जगत् के समस्त वस्तुओं के ' कारण ' विद्यमान हैं। व्यक्त अवस्था की सूक्ष्म दशा को- ' कारण ' कहते हैं, यह उस वस्तु की अन्-अभिव्यक्त अवस्था है, जो अभिव्यक्ति को प्राप्त होती है।...कारण में प्रत्यावर्तन का नाम ही विनाश है। " (४:२०१)
 ' नाशः कारणलयः ' - नाश (मृत्यु) का अर्थ है कारण में लय हो जाना। (वि० सा० ख० २:१०१) 
" अव्यक्त (Nature) अर्थात एक अखण्ड, अविभक्त (द्रव्य या ) जड़-राशि के उस सर्वव्यापी विस्तार की कल्पना करो - जो प्रत्येक वस्तु की प्रथम अवस्था है, और यह उसी प्रकार परिवर्तित होने लगता है, जिस प्रकार दूध परिवर्तित हो कर दही बन जाता है। ब्रह्माण्ड (Cosmos) में इस Nature या अव्यक्त की प्रथम अभिव्यक्ति को सांख्य के शब्दों में-' महत्' कहा जाता है।' महत् ' तत्त्व का शाब्दिक अर्थ है, 'द अल्टीमेट सोर्स' (The Ultimate Source) ' महान आधारभूत कारण - हम इसे बुद्धि (Intelligence) कह सकते हैं। अर्थात प्रकृति में जो प्रथम परिवर्तन हुआ उससे ' बुद्धि ' की उत्पत्ति हुई। 
मैं उस ' महान आधारभूत कारण ' या महत् को अंग्रेजी में चेतना, होश,या आत्म-चेतना (Self-Consciousness) नहीं कह सकता, क्योंकि वह ग़लत होगा। चेतना तो इस ' सार्वभौम बुद्धि ' का अंशमात्र है। महत् तत्व सर्वव्यापी है, चेतन (जाग्रतअवस्था -Consciousness), अवचेतन (स्वप्नावस्था Sub-Consciousness), अचेतन (सुषुप्ति -Unconsciousness)और अतिचेतन(तुरीयावस्था Super-Consciousness) सब (मन-बुद्धि के सारे स्तर) इसके अर्न्तगत आ जाते हैं। इसीलिये इस महत् या बुद्धि के 'अल्टीमेट सोर्स' या महान आधारभूत कारण के लिए चेतना की किसी अकेली अवस्था मात्र के लिए प्रयुक्त करना पर्याप्त नहीं माना जाएगा। फ़िर यह महत् पदार्थ या ' बुद्धि ' जब (दूध से दही के समान) स्थूलतर पदार्थ (Grosser Matter) में परिवर्तित होता है, तब प्रकृति या अव्यक्त के दुसरे परिवर्तन को 'अहं-तत्व' (Egoism) कहते हैं।
फिर यह अव्यक्त (नेचर या प्रकृति) अपने तीसरे और अन्तिम परिवर्तन में स्वयं को -' सार्वभौम संवेदक इन्द्रियों' (Universal Sense-Organs) तथा 'सार्वभौम तन्मात्राओं' (Universal Fine-Particles)  के रूप में अभिव्यक्त करती है। और ये अन्तिम वस्तुएं पुनः संयुक्त हो कर इस स्थूल-' बाह्य जगत् ' में परिणत हो जातीं हैं। इस प्रकार वह सूक्ष्म ' महत् ' तत्त्व ही बाह्य ' जगत् ' के रूप में परिणत हो गया है। जड़-पदार्थों और मन में परिणामगत भेद के अतिरिक्त कोई भेद नहीं है। सूक्ष्म एवं स्थूल स्वरूप में एक ही पदार्थ है, एक ही दुसरे में बदल जाता है। ... मन (mind) और मस्तिष्क(Brain) में अन्तर नहीं है, दोनों जड़ पदार्थ हैं, मन सूक्ष्म जड़ है, मस्तिष्क स्थूल जड़ है। " (वि० सा० ख० ४: २०२)
" सत्व,रज और तम- जगत के उपादान हैं, जिनसे समग्र विश्व विकसित हुआ है। कल्प के प्रारम्भ में ये साम्यावस्था में रहते हैं। सृष्टि का आरम्भ होने पर ही ये उपादान परस्पर अनन्त प्रकार से संयुक्त हो कर इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं। इसका प्रथम विकास महत् अथवा सर्वव्यापी बुद्धि है, और उससे अंहकार की उत्पत्ति होती है। अंहकार से मन अथवा सर्वव्यापी मनस-तत्व  का उद्भव होता है। इस अहंकार से ही, मस्तिष्क में अवस्थित ज्ञान और कर्म के इन्द्रियों या स्नायू-केन्द्रों तथा तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। तन्मात्राओं को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता, किन्तु वे जब स्थूल परमाणु बन जाते हैं, तब हम उन्हें अनुभव और इन्द्रियगोचर कर सकते हैं। बुद्धि, अंहकार और मन - इन तीन माध्यमों से कार्य करने वाला, ' चित्त ' - ही प्राण नामक शक्तियों की सृष्टि कर के उन्हें परिचालित कर रहा है। तुम्हे इस कुसंस्कार को अवश्य त्याग देना चाहिए कि प्राण केवल श्वास-प्रश्वास (Breath) है, श्वास-प्रश्वास तो प्राण का कार्य मात्र है। प्राण ही वायु पर कार्य कर रहा है, वायु प्राण के ऊपर नहीं। " (४:२११)
" प्राण का अभिप्राय है ऊर्जा (Energy)- जो सभी तरह की गति या सम्भाव्य गति, शक्ति या आकर्षण के रूपों में अपने को अभिव्यक्त करता है। "(४:१५२)
"आजकल हम जिसे जड़-पदार्थ (matter) कहते हैं, उसे प्राचीन हिंदू भूत अर्थात बाह्य तत्व कहते थे। उनके मतानुसार एक तत्व नित्य है, शेष सब इसी एक से उत्पन्न हुए हैं। इस मूल तत्व को ' आकाश ' की संज्ञा प्राप्त है। आजकल ईथर शब्द से जो भाव व्यक्त होता है, यह बहुत कुछ उसके सदृश है, यद्दपि पुर्णतः नहीं। इस मूलभूत आकाश-तत्व के साथ प्राण नाम की आद्य उर्जा भी रहती है। प्राण (Energy) और आकाश (Matter) संघटित और पुनः संघटित हो कर शेष तत्वों (वायु,अग्नि,जल,पृथ्वी) का निर्माण करते हैं। कल्पान्त में सबकुछ प्रलयगत हो कर आकाश और प्राण में लौट जाता है। " (४:१९४) 
" ब्रह्माण्ड में जो उर्जा व्याप्त है, उसका नाम है प्राण और वह इन भूतों में शक्ति के रूप में निवास करती है। प्राण के प्रयोग का महान उपकरण है मन। मन भी भौतिक पदार्थ है। मन से परे है आत्मा, जो प्राण को धारण करता है। आत्मा वह ' विशुद्ध बुद्धि ' है जिससे प्राण नियंत्रित और निर्दिष्ट होता है। मन अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थ है, जो प्राण को अभिव्यक्त करने का एक उपकरण है। अभिव्यक्ति के लिए  ऊर्जा या शक्ति (Energy) को भौतिक पदार्थ (Matter) की आवश्यकता होती है। " (४:९७) 
" कॉस्मिक-प्लान या ब्रह्माण्ड का विधान है-' यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे ' - जो ब्रह्माण्ड में है, वह अवश्य पिण्ड में भी होगी। (What is in The Cosmos must also be microcosmic.) उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति (Individual) को लो; उसमे निहित वह भौतिक प्रकृति (अव्यक्त) इस ' सार्वभौम-बुद्धि ' या महत् के एक लघु कण में परिवर्तित हो जाती है। फ़िर उस सार्वभौम बुद्धि का एक लघु कण ' अहं-तत्त्व ' में परिणत हो जाता है, यह ' अहं ' ही उस व्यक्ति के स्थूल एवं सूक्ष्म भौतिक शरीर का संयोजन और निर्माण करते हैं। " (४:२०३)
" मैं तुम लोगों को देख रहा हूँ। इस दर्शन-क्रिया के लिए किन किन बातों की आवश्यकता है ? पहले तो आँख --आँखें रहनी ही चाहिए। मेरी अन्य सब इन्द्रियाँ भले ही अच्छी रहें, पर यदि मेरी आँखें न हों, तो मैं तुम लोगों को न देख सकूँगा। अतएव पहले मेरी आँखें अवश्य रहनी चाहिए। दुसरे, आंखों के पीछे और कुछ रहने की आवश्यकता है, और वास्तव में वही तो दर्शन-इन्द्रिय है। यह यदि हममे न हो, तो दर्शन -क्रिया असंभव है। 
वस्तुतः आँखें इन्द्रिय नहीं हैं, वे तो दृष्टि की यंत्र मात्र हैं। यथार्थ इन्द्रिय आंखों के पीछे, हमारे मस्तिष्क में अवस्थित इसका नाड़ी-केन्द्र (Optic- nerve) है। यदि यह केन्द्र किसी प्रकार नष्ट हो जाये, तो दोनों आँखें रहते हुए भी मनुष्य कुछ देख न सकेगा।अतएव दर्शन क्रिया के लिए इस असली इन्द्रिय का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है। हमारी अन्यान्य इन्द्रियों के बारे में भी ठीक ऐसा ही है। बाहर के कान धवनी-तरंगों को भीतर ले जाने के यन्त्र मात्र हैं, पर उस ध्वनी-तरंग को मस्तिष्क में अवस्थित उसके नाड़ी-केन्द्र या श्रवण - इन्द्रियों तक अवश्य पहुंचना चाहिए।
 पर इतने से ही श्रवण-क्रिया पूर्ण नहीं हो जाती। कभी-कभी ऐसा होता है कि पुस्तकालय में बैठ कर तुम ध्यान से कोई पुस्तक पढ़ रहे हो,घड़ी में बारह बजने का टंकार पड़ता है, पर तुम्हे वह ध्वनी सुनायी नहीं देती। क्यों ? वहाँ ध्वनी तो है, वायु-स्पन्दन, कान और केन्द्र भी वहाँ हैं और कान के मध्यम से मस्तिष्क में अवस्थित उसके नाड़ी-केन्द्र तक स्पन्दन पहुँच भी गए हैं, पर तो भी तुम उसे सुन नहीं सके। किस चीज कि- कमी थी ? इस इन्द्रिय के साथ मन का योग नहीं था। 
अतएव हम देखते हैं कि मन का रहना भी नितान्त आवश्यक है। पहले चाहिए यह बहिर्यंत्र, जो मानो विषय को वहन करके नाड़ी-केन्द्र या इन्द्रिय के निकट ले जाता है। फ़िर(स्थूल शरीर में अवस्थित) उस इन्द्रिय (Optic-nerve) के साथ (सूक्ष्म-शरीर में अवथित) मन को भी  युक्त रहना चाहिए। जब मस्तिष्क में अवस्थित इन्द्रिय से मन का योग नहीं रहता, तब कर्ण-यन्त्र और मस्तिष्क के केन्द्र पर भले ही कोई विषय आकर टकराये, पर हमें उसका अनुभव न होगा। 
मन भी केवल एक वाहक है, वह इस विषय की संवेदना को और भी आगे ले जा कर बुद्धि को ग्रहण कराता है। बुद्धि उसके सम्बन्ध में निश्चय करती है, पर इतने से ही नहीं हुआ। बुद्धि को उसे फ़िर और भी भीतर ले जाकर (स्थूल और सूक्ष्म दोनों) शरीर के राजा आत्मा के पास पहुँचाना पड़ता है। उसके पास पहुँचने पर वह आदेश देती है, ' हाँ, यह करो' या 'मत करो'। तब जिस क्रम में वह विषय संवेदना आत्मा तक गयी थी, ठीक उसी क्रम से वह बहिर्यंत्र में आती है- पहले बुद्धि में, उसके बाद मन में, फ़िर मस्तिष्क-केन्द्र में और अन्त में बहिर्यंत्र में; तभी विषय-ज्ञान की क्रिया पूरी होती है। " (२: १०९-१०)
" ये सब यंत्र आँख, कान, नाक आदि और उनका मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्र अथवा ' इन्द्रिय ' मनुष्य के स्थूल देह में अवस्थित है, पर मन और बुद्धि नहीं। मन और बुद्धि तो उसमें है, जिसे हिंदूशास्त्र - 'सूक्ष्म-शरीर' कहते हैं और इसाई शास्त्र 'आध्यात्मिक-शरीर' कहते हैं। वह इस स्थूल शरीर से अवश्य बहुत ही सूक्ष्म है, परन्तु फ़िर भी आत्मा नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार शरीर कभी सबल कभी दुर्बल होता है, उसी प्रकार मन भी कभी सबल कभी निर्बल हो जाता है। अतः मन आत्मा नहीं है, क्योंकि आत्मा कभी जीर्ण या क्षयग्रस्त नहीं होती। आत्मा इन सबके अतीत है। "(२:११०)
"जब मन किसी बाह्य-वस्तु का अध्यन करता है, तब वह उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है, और स्वयं लूप्त हो जाता है। यह 'मन' आत्मा का ' दिव्य चक्षू ' है ! हमारा  मन उस  स्फटिक खंड के समान है, जो अपने निकट की वस्तुका रंग ग्रहण कर लेता है। हम लोगों ने शरीर का रंग ग्रहण कर लिया है,अर्थात शरीर के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लिया है, और भूल गये हैं कि हम क्या हैं। ....हम लोग उसी प्रकार शरीर नहीं हैं, जिस प्रकार स्फटिक ' लाल फूल ' नहीं है।... आत्मा की स्वस्थतम अवस्था - तब है जब वह 'स्व' का चिन्तन कर रही हो और अपनी गरिमा में स्थित हो।" (४:१३१)
" मनुष्य दिव्य है, यह दिव्यता ही हमारा स्वरूप है। अन्य जो कुछ है वह अध्यास मात्र है। उसके दिव्य स्वरूप का कभी भी नाश नहीं होता। यह जिस प्रकार ' परम-संत ' में है, वैसे ही ' महा-अधम ' व्यक्ति में भी है। हमे अपने इसदेव-स्वभाव का केवल आह्वान करना होगा, और वह स्वयं ही अपने को प्रकट कर देगा। चकमक पत्थर और सूखी- लकड़ी में आग रहती है, पर उस आग को बाहर निकालने के लिये घर्षण आवश्यक था। नीचे धरती पर रेंगने वाला क्षुद्र कीड़ा और स्वर्ग का श्रेष्ठतम देवता इन दोनों में ज्ञान का भेद प्रकार्गत नहीं, परिणाम गत है। " (२:१८२)
" अगर कोई व्यक्ति हत्यारा है, तो उसमे प्रतिफलक (मन-दर्पण) बुरा है, न कि आत्मा। दूसरी ओर अगर कोई साधू है तो उसमे प्रतिफलक शुद्ध है। सत्ता केवल एक ही है जो कीट से लेकर पूर्णतया विकसित मनुष्य (बुद्ध या ईशा) तक में प्रतिबिम्बित है। इस तरह सम्पूर्ण विश्व एक एकत्व, एक सत्ता है- भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक, हर दृष्टि से। इस एक सत्ता को ही हम विभिन्न रूपों में देखते हैं। " (२:११२)
" जगत को विचार कि दृष्टि से देखने पर.… प्रतीत होगा कि, इसका एक-एक आदमी एक-एक विशेष मन है। तुम एक मन हो, मैं एक मन हूँ, प्रत्येक व्यक्ति केवल एक मन है। फ़िर इसी जगत को ज्ञान कि दृष्टि से देखने पर,.... अर्थात जब आंखों पर से मोह का आवरण हट जाता है, जब मन शुद्ध और पवित्र हो जाता है, तब यही पहले के एक-एक मन उसी अखंड पूर्णस्वरूप 'पुरूष' के विभिन्न रूप प्रतीत होते हैं।" (२:३२) 
 " अहं को निकाल डालो , उसका नाश कर डालो, उसे भूल जाओ, अपने द्वारा ईश्वर को कार्य करने दो- यह उन्ही का कार्य है,उन्हें ही करने दो।...." पहले अपने (मन) को जीत लो , फ़िर सम्पूर्ण जगत तुम्हारे पैरों के नीचे आ जायगा ।" (७:२२)
." तुच्छ अहं को नष्ट कर डालो , केवल महत अहं को रहने दो। हम अभी जो कुछ हैं, वह सब अपने चिन्तन का फल है। इसलिए तुम क्या चिन्तन करते हो, इस विषय में ध्यान दो, विशेष ध्यान रखो। शब्द-वाणी तो गौण वस्तु हैं। चिन्तन ही बहुकाल स्थाई है और उसकी गति भी दूर व्यापी है। हम जो कुछ चिन्तन करते हैं, उसमे हमारे चरित्र की छाप लग जाती है."(७:२२).... 
" जितनी बार तुम कहते हो, ' तू नहीं मैं' ; उतनी बार तुम अनन्त को यहाँ ( अपने देह-मन के माध्यम से) अभिव्यक्त करने का व्यर्थ में प्रयास करते हो। इसी से संसार में प्रतिद्वंदिता, संघर्ष और अनिष्ट की उत्पत्ति होती है। पर अन्त में 'मिथ्या-मैं' का त्याग होगा, यह 'मैं' मर जायगा। इस तुच्छ पृथक अहंता को नष्ट होना ही चाहिए।" (२:१७७)
" यह जो (अमुक नाम वाले व्यक्ति) के रूप में मेरा नाम- रूपात्मक चेहरा दिख रहा है, इसके पीछे जो असीम विद्यमान है, उसी ने अपने को बहिर्जगत में व्यक्त करने के लिए जैसा रूप धारण करने कि इच्छा की थी- उसी का परिणाम है। इस (नाम-रूपात्मक)- 'मैं' को फ़िर पीछे लौट कर अपने अनन्तस्वरूप में मिल जाना होगा."(२:१७६) 
..." अहं - ही वह वज्रदृढ़ प्राचीर है, जिसने हमे बद्ध कर रखा है, और भोग वासना है लाख फन वाला सर्प , हमे उसे कुचलना ही होगा."(७:२३)..
" प्रत्येक वस्तु क्रम-परिवर्तन शील है। यह सारा विश्व ही परिवर्तन शीलता का एक पिंड है।आज के पर्वत कल समुद्र थे , और कल वहां पुनः समुद्र दिखाई देगा।  एकमात्र ईश्वर ही ऐसा है, जिसमे कभी परिवर्तन नहीं होता, हम उसके जितने समीप लौटेंगे, प्रकृति का अधिकार हम पर उतना ही कम होता जायगा,उतना ही कम परिवर्तन या विकार हम में होगा। और जब हम उस तक पहुंच जायेंगे- तो हम प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेंगे, प्रकृति के सारे व्यापार हमारे अधीन हो जायेंगे,और हम पर उनका कोई प्रभाव न पडेगा।"(३:१०६)
" हमारा यह शरीर वृद्धि और क्षय के नियमों से बद्ध है, - जिसकी जन्म और वृद्धि है, उसका क्षय भी अवश्यमेव होगा। परन्तु देहमध्यस्त आत्मा तो असीम एवं सनातन है, वह अनादी और और अनन्त है। ...काल कि गति काशाश्वत सत्ता पर कोई असर नहीं होता।....मानव-बुद्धि के लिये सर्वथा अगम्य जो 'अतीन्द्रिय-भूमि ' है, वहाँ न तो 'भूत' है न 'भविष्य'। वेदों का कथन है कि मानव कि आत्मा अमर है। "(१:२५४)
'सूक्ष्म-शरीर' क्या है ? " मन, अहं-बोध, मस्तिष्क स्नायु-केन्द्र या इन्द्रिय, और प्राण - इन सबके संयोग से ' सूक्ष्म-शरीर ' बनता है, जिसे इसाई दर्शन में मानव का आध्यात्मिक देह कहते हैं।  इस देह (सूक्ष्म शरीर या मन ) को ही उद्धार और दण्ड प्राप्त होता है, इसका ही बार- बार जन्म और पुनर्जन्म होता है। " (४:२१३)
"परन्तु मुझमे कुछ अहं था, इसीलिए उस समाधि कि अवस्था से लौट आया था." (६:९९)...
" जब मैं लड़ता हूँ , कमर कस कर लड़ता हूँ- इसके मर्म को समझता हूँ। श्री रामकृष्ण के दासानुदासों में से कोई न कोई मुझ जैसा अवश्य बनेगा, जो मुझे समझेगा। "(६:३८३)
" इस जन्म-मृत्यु की समस्या की यथार्थ मीमांसा के लिए यदि यम के द्वार पर जा कर भी सत्य का लाभ कर सको तो निर्भय ह्रदय से वहाँ जाना उचित है। भय ही मृत्यु है। भय से पर हो जाना चाहिए। अपने मोक्ष तथा परहित के निमित्त आत्मोसर्ग करने के लिए अग्रसर हो जाओ। ...दधिची के समान औरों के लिए अपना हाड-मांस दान कर दो। जो ब्रह्मज्ञ हैं, जो अन्य को भय से पार ले जाने में समर्थ हैं,वे ही यथार्थ गुरु हैं। "(६:३३)
" यह मानव आत्मा देह से देहान्तर में संक्रमित हो रही है, इस प्रवास में वह कितने ही भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हुई है एवं होगी। आध्यात्मिक विकास के उस महान नियमानुसार वह अधिकाधिक अभिव्यक्त हो रही है। परन्तु जब वह सम्पूर्ण अभिव्यक्त हो जायेगी, तब उसमे और अधिक परिणाम न होगा। (१:२५४)
" (यदि कार्य-कारण वाद या परिणाम वाद सच है) तो हमे अपने पूर्व जन्मों का कुछ भी स्मरण क्यों नहीं है?मनः समुद्र की उपरी सतह का नाम ही चेतन अवस्था है। किन्तु उसकी गहराई में (अवचेतन मन में) संचित है, मानव के समस्त सुखात्मक और दुखात्मक अनुभव। मानव आत्मा कुछ ऐसी वस्तु पाने की इच्छा करती है, जोअचल हो, अविनाशी हो। जबकि हमारा यह शरीर और मन ही क्या, नाना रूपात्मक यह समस्त प्रकृति ही अनवरत परिवर्तनशील है। पर हमारी अन्तरात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा (या तड़प) यही है, कि उसे कुछ ऐसा प्राप्त हो जाये, जिसका परिवर्तन नहीं होता, जो चिर(शान्ति) पूर्णता को पा चुकी हो। और यही है उस असीम के लिये मानवात्मा कि अभीप्सा ! हमारा नैतिक और मानसिक विकास (अर्थात चरित्र-निर्माण) जितना ही सूक्ष्मतर होता जायेगा, उस अपरिवर्तनशील सत्ता के प्रति हमारी अभीप्सा (व्याकुलता) भी उतनी ही दृढ़ होती जायेगी। "(१:२५५)
" हमारे ऋषि तो यह कहते हैं, कि इन्द्रियजन्य सुखों में तृप्त रहना उन कारणों में से एक है, जिसने सत्य और हमारे बीच परदा सा डाल दिया है। केवल कर्म-कांडों में रूचि, इन्द्रियों में तृप्ति तथा नाना प्रकार मतवादों ने हमारे और सत्य के बीच एक आवरण डाल रखा है।' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' - सत्ता केवल एक है, ऋषिगण उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।...सत्य तो चिरकाल से ही विद्यमान था, केवल इस (नाम-रूप) के आवरण ने ही उसे ढँक रखा था। " (१:२५५) 
"हम विश्व के रहस्य को हल करने की चेष्टा करते हैं। ऐसा लगता है कि यह सब हमे अवश्य जान लेना चाहिए, हमे ऐसा कभी महसूस नहीं होता कि 'ज्ञान' कोई प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है। ....किन्तु अति बलवान इन्द्रियाँ मनुष्य की आत्मा को, 'अवशीभूत मन' - रूपी शत्रु की सहायता से बाहर की विषयों में खींच लातीं हैं। और मनुष्य ऐसे स्थान में सुख की खोज करने लगता है, जहाँ वे हैं ही नहीं, जहाँ वह उन्हें कभी पा नहीं सकता। ...हम कुछ कदम आगे जाते हैं, कि अनादी-अनन्त कालरुपी प्राचीर व्यवधान बन जाता है; जिसे हम लाँघ नहीं सकते। कुछ दूर बढ़ते ही असीम देश का व्यवधान खड़ा हो जाता है, फ़िर यह सब कार्य-कारण रूपी दीवार द्वारा सुदृढ़ रूप से सीमा-बद्ध है !...तो भी हम संघर्ष करते हैं !" (२:७४)
" इन्द्रियपरायण जीवन से अतीत होने की हमारी असमर्थता, और शारीरक विषय-भोगों के लिये उद्यम ही संसार में सभी प्रकार के आतंकों (भ्रष्टाचार) तथा दुखों का कारण है। "(४:११४)
." हमारे चारो ओर अनेक मोह रूपी जाल हैं, कुछ क्षण के लिए हमे प्रतीत होता है कि हम स्वर्गीय दिव्य ज्योति में तन्मय हो जाएंगे , परन्तु कुछ ही देर बाद कोई दृश्य या स्मृति हमारे पाशविक भाव को भड़का देती है।" (७:२४९)
" वास्तव में पाशविक भाव के उपर विजय प्राप्त कर लेने, तथा जन्म-मरण के प्रश्न को सुलझा लेने और श्रेय -प्रेय के बीच के भेद को जान लेने कि अपेक्षा और श्रेष्ठ है ही क्या ?"(७:२५०)
" स्वाधीनता ही उच्च जीवन की कसौटी है।आध्यात्मिक जीवन उस समय प्रारम्भ होता है, जिस समय तुम अपने को इन्द्रिय बन्धनों से मुक्त करलेते हो। जो इन्द्रियों के अधीन है, वही संसारी है, वही दास है। " (४:४३)
" एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिये - अविराम चेष्टा कर रही है, और बाह्य परिवेश उसको दबाये रखने के लिये प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जानेकी इस चेष्टा का नाम ही जीवन है।" (विवेकानन्द चरित-पृष्ठ १०८)
"सच पूछा जाय तो 'पूर्ण-जीवन' शब्द ही स्वविरोधात्म्क है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक वाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरन्तर संघर्ष है।" (३:५९)
 " मैं जीवन से उच्चतर कोई वस्तु हूँ; जीवन सदैव दासता है। हम (और जीवन ) सदा घुल-मिल जाते हैं। "(४:१३६) 
" हम सबों में मुक्ति की भावना-स्वाधीनता की भावना हुआ करती है, उसी से यह संकेत मिलता है कि हमारे अन्तराल में, शरीर(Hand) और मन (Head) से परे भी कुछ और है। हमारी अन्तर्यामी आत्मा(Heart) स्वरूपतः स्वाधीन है और वही हममे मुक्ति की इच्छा जाग्रत करती है। " (१:२५६)
" प्रकृति हमे चारो ओर से दमित करने का प्रयास कर रही है, और आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है। प्रकृति कहती है - ' मैं विजयी होउंगी ' ; आत्मा कहती है- ' विजयी मुझे होना है '। प्रकृति कहती है- ठहरो, मैं तुम्हे चुप रखने के लिये थोड़ा सुख भोग दूंगी। आत्मा को थोड़ा मज़ा आता है, क्षण भरके लिये वह धोखे में पड़ जाती है, पर दुसरे ही क्षण वह फ़िर मुक्ति के लिये चीत्कार कर उठती है।" (३:१७३) 
" हम वस्तुतः वही अनन्तस्वरूप हैं- अपने उसी अनन्त स्वरूप को अभिव्यक्त कर रहे हैं। यहाँ तक तो ठीक है। पर इसका क्या मतलब कि, जब तक हम सब पूर्ण नहीं हो जाते, अनन्त क्रमशः अधिकाधिक व्यक्त होता रहेगा ? पूर्णता का अर्थ है-अनन्त , और अभिव्यक्ति का अर्थ है- ससीम। तो क्या हम असीम रूप से ससीम बन जायेंगे ? पर यह स्वविरोधी वाक्य है।  (तात्पर्य यह है कि )....हम अपने ईश्वर भाव को भूल कर, पशु जैसे हो गये थे। अब हम फ़िर उन्नत्ति के मार्ग पर चल रहे हैं, और इस बंधन से बाहर होने का प्रयत्न कर रहे हैं, हम प्राणपन से उसकी चेष्टा कर रहे हैं,....पर अन्त में एक समय आएगा, जब हम देखेंगे कि - जब तक हम इन्द्रियों के गुलाम बने हुए हैं, तब तक पूर्णता कि प्राप्ति असंभव है। तब हम अपने मूल अनन्तस्वरूप कि ओर लौटना शुरू करेंगे। यही त्याग है, यही नैतिकता है। "(२:१७५)
" यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फ़िर से प्राप्त कर लेने के लिये सतत् चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रहती हैं। चित्त में बाहर जाने और विषय भोगों में चिपके रहने की जो प्रवृत्ति है- उसका दमन करना होगा और उसके बहिर्मुखी प्रवाह (पर वैराग्य का फाटक लगा कर, या लालच को कम करके ) को आत्मा की ओर मोड़ देना होगा। यही योग का पहला सोपान है। "(१:११८)
" असीम शक्ति का एक स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। और ज्यों ज्यों यह फैलता है, त्यों त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है, वह उनका परित्याग कर उच्चतर शरीर धारण करता है। यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता या प्रगति का इतिहास। वह भीमकाय ' प्रोमिथियस ' (एक यूनानी देवता जिसने olampious से चुराई हुई अग्नि मनुष्य को दिया और जिसे दंड स्वरूप जंजीरों में जकड़ दिया गया) मानो अपने को बंधन मुक्त कर रहा है। " (९:१५६)
" मेरी ही यह 'विश्वजनीन बुद्धि' - क्रमसंकुचित हुई थी, और वही क्रमशः अपने को अभिव्यक्त कर रही है, जब तक कि वह पूर्ण मानव में परिणत नहीं हो जाती। फ़िर वह अपने उत्पत्ति-स्थान में लौट जायगी , ब्रह्मलीन हो जायेगी । धर्म तत्वज्ञ इस विश्वव्यापी बुद्धि को ही ईश्वर कहते हैं।" (२:१०६)
" हमारे इस अविराम,कठोर जीवन-संग्राम का लक्ष्य है, अंत में उनके निकट पहुँच कर उनके साथ एकीभूत हो जाना। " (४:५०)
" पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बंद हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है, यदि कोई इस बाधा को दूर कर सके तो, उसकी स्वभाविक पूर्णता अपनी शक्ति के बल से अभिव्यक्त होगी ही। मनःसंयोग का अभ्यास और चरित्र निर्माण की साधना ही उस पूर्णता के किवाड़ को खोल देता है, जो हमारा स्वभाव है,वह दिव्यता प्रकट हो जाती है।" (१:२०६)
 " स्वयं 'व्यास देव' भी पूर्णत्व प्राप्त करने में , पूर्ण रूप से सफल न हो सके थे, परन्तु उनके पुत्र - ' शुकदेव' जन्म से ही सिद्ध थे।......जो मनुष्य ' विदेह' बन चुका है; जिस मनुष्य ने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, ( मन को पूरी तरह से जीत लिया है ) उसके उपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिए किसी भी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती। उसका मन स्वतन्त्र हो जाता है- और केवल ऐसा पुरूष ही संसार में रहने के योग्य है। "(३:६६)
 " जो पूर्ण है , वह किसी के द्वारा कभी अपूर्ण कैसे हो सकता है? जो मुक्त है, वह कभी बंधन में कैसे पड़ सकता है? तुम कभी बंधन में नहीं थे। तुम पूर्ण हो, ईश्वर पूर्ण है, तुम सब पूर्ण हो, सत्ता एक ही हो सकती है, दो नहीं। पूर्ण को कभी अपूर्ण नहीं बनाया जा सकता।......तुम लक्ष्य तक पहुंच चुके हो-जो भी गन्तव्य है। मन को कदापि न सोंचने दो कि - तुम लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाये हो। हम जो कुछ सोंचते हैं, वही बन जाते हैं। यदि तुम अपने को हीन पापी सोंचते हो तो, तुम अपने को सम्मोहित कर रहे हो।...यह सब कौतुक है। " (९:१४३)
" पूर्णता का मार्ग यह है कि, स्वयं पूर्णता को प्राप्त होना ,तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्णता को प्राप्त होने में सहायता करना। फिर मैं भैंस के आगे बीन बजा कर - समय, स्वास्थ्य और शक्ति का अपव्यय क्यों करूँ? "(२:३३२)
" पूर्ण ( या असंख्य) में पूर्ण का भाग दो, पूर्ण जोडो , पूर्ण से पूर्ण में गुना करो, पूर्ण ही रहेगा।" 
 ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुद्च्च्यते ।   
  पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिष्यते । । 
(संस्कृत भाषा - पूर्णांग भाषा है !) (१०:११७)
" जीवन का अर्थ ही वृद्धि अर्थात विस्तार यानि प्रेम है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, यही जीवन का एकमात्र नियम है, और स्वार्थपरता ही मृत्यु है। परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना ही मृत्यु है। ...जीसमे प्रेम नहीं वह जी भी नहीं सकता। ( ३:३३३)
" एकमात्र परोपकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकि सब कुकर्म है। " (४:२९८)
" जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों कि सेवा में न्योछावर कर दिया जाये।"(४:५८)
 " तुमलोग चारो ओर फ़ैल जाओ , अर्थात जगह जगह शाखाएं स्थापित करने का प्रयत्न करो। मौका खाली न जाने पाये, मद्रासियों (हर प्रांत वालों), से मिल कर जगह जगह समिति आदि की स्थापना करनी होगी। ( हिन्दी में महामंडल पुस्तिकाओं- पत्रिकाओं ) के ग्राहक क्यों नहीं बढ़ रहे ? अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति न मिली, तो न सही, दो-चार बार नर्क ही जाना पडे,तो हानि क्या है ? क्या यह बात असत्य है ?--
-'मनसी वचसी काये पुण्यपियूष पूर्णाः,त्रिभुवनम उपकारश्रेणीभिः प्रीण यन्तः । 
परगुण परमाणुंग पर्वतीकृत्य नित्यं,निजहृदि विकसंतः सन्ति सन्तः कियन्तह।।
अर्थात ऐसे साधू कितने हैं, जिनके कार्य , मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं, और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन की प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणु तुल्य - अर्थात अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर अपने हृदयों का विकास साधन करते हैं ? श्री परमहंस देव के प्रति श्रद्धासम्पन्न १० व्यक्ति भी जहाँ हैं, वहीं एक सभा स्थापित करो। हरी-सभा इत्यादि को धीरे धीरे स्वाहा करना होगा।
'परोपकाराय हि सतां जीवितं , परार्थ प्राग्य उत्सृजेत -' साधुओं का जीवन परोपकार के लिए ही है, प्राज्ञ व्यक्तियों को दूसरों के लिए सब कुछ न्योच्छावर कर देना चाहिए।" (४:३०७)
" बुद्धदेव की जीवनी, ' ललित-विस्तार ' के प्रसिद्द गीत में कहा गया है - बुद्ध ने मनुष्य जाती के परित्राता  या मार्गदर्शक ' नेता ' के रूप में जन्म लिया; किन्तु जब राज-प्रासाद की विलासिता में वे अपने को भूल गये, तब उनको जगाने के लिये देवदूतों ने एक गीत गाया, जिसका मर्मार्थ इस प्रकार है - ' हम एक प्रवाह में बहते चले जा रहे हैं; हम अविरत रूप से परिवर्तित हो रहे हैं- कहीं निवृत्ति नहीं है, कहीं विराम नहीं है; सारा संसार मृत्यु की ओर चला जा रहा है-सभी मरते हैं ! हमारी सभी प्रगति, व्यर्थ का आडम्बरी जीवन, हमारे समाज-सुधार ! हमारी विलासिता, हमारे ऐश्वर्य, हमारा ज्ञान - इन सबकी मृत्यु ही एक मात्र गति है ! हम क्यों इस जीवन में आसक्त हैं ? क्यों हम इसका परित्याग नहीं कर पाते ?... यह हम नहीं जानते ! और यही माया है !! " (२:४७)
" भारतीय कुशल-प्रश्न है, ' आप स्वस्थ तो हैं ? '- जिसका अर्थ है आप अपने में स्थित हैं या देह में?...ध्यान करने का तात्पर्य है- आत्मा का अपने में (या स्व में) स्थित होने के लिए यत्न करना। "
" आगे बढ़ो ! सैकड़ो युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ! सत्य के एक शब्द का भी लोप नहीं हो सकता। सत्य अविनाशी है, पुण्य अनश्वर है,पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहोये। ... सदाचार सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते, और भलाई करने वालों को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं- ऐसे ' मृत-जड़पिण्डों ' के भीतर क्या तुम प्राण का संचार कर सकते हो ? क्या ' तुम ' उस वैद्य की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उदण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने की कोशिश करता हो ? भारत को नव-विद्युत की आवशयकता है, जो राष्ट्र की धमनियों में नविन चेतना कासंचार कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है, और होगा। " ( ३:३४४)
'गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा' के अनुसार चपरास प्राप्त वेदाध्यापकों  या मानव-जाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने की अनिवार्यता पर स्वामी विवेकानन्द जी के विचार :
 " मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता है !"- इस कथन का अर्थ यह नहीं कि, हमे किसी बाहरी सहायता कि आवश्यकता ही नहीं है।..जब ऐसी सहायता प्राप्त होती है तो, उसकी उन्नति वेगवती हो जाती है, और अंत में साधक पवित्र एवं सिद्ध बन जाता है। यह संजीवनी-शक्ति पुस्कों से नहीं मिल सकती। इस शक्ति कि प्राप्ति तो एक आत्मा, एक दूसरी आत्मा से ही कर सकती है, अन्य किसी से नहीं। "(वि०सा० ख० ४:२५)
" जिन्हों ने धर्म-लाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं। वे ही मनुष्य जाती के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं।" (७:२६७)
" मनुष्य को पहले चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए और उसके बाद फल स्वयं मिल जाता है। ...अतः अपने विचारों का दूसरो में प्रचार करने के लिए जल्दी नहीं करनी चाहिए, पहले हमारे पास देने के लिए कुछ होना चाहिए। "(७:२५८)
 " प्रथम तुम स्वयं आत्मज्ञानी हो जाओ तथा संसार को कुछ देने के योग्य बन जाओ और फ़िर संसार के सम्मुख देने के लिए खडे होओ ।"(७:२६०)
" स्वयं आध्यात्मिक सत्य कि उपलब्धी करने और दूसरों में उसका संचार करने का एक मात्र उपाय है- हृदय और मन कि पवित्रता।"(४:२२)
" शिक्षा (=शीक्षा) देना केवल लेक्चर देना नहीं है, और न सिद्धांत बघारना ही शिक्षा है, इसका अर्थ है -सम्प्रेष्ण !" (७:२५८)
विद्या-गुरुमुखी: " जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है, वह गुरु (नेता ) कहलाता है। और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है, उसे शिष्य (या भावी वेदाध्यापक या वुड बी लीडर) कहते हैं।"(४:१७).
 " सच्चे गुरु वह हैं , जिनके द्वारा हमको अपना आध्यात्मिक जन्म प्राप्त हुआ है। वे ही वह साधन हैं , जिसमे से हो कर आध्यात्मिक प्रवाह हम लोगों में प्रवाहित होता है।" (७:१००)॥ 
" एक लोकप्रिय गीत , जो मेरे गुरु देव सदा गाया करते थे, मुझे इस समय याद आ रहा है- ' दिल जिस से मिल जाता है, वह जन अपनी आंखों से व्यक्त कर देता है !   हैं ऐसे दो-एक जन , जो करते विचरण - जगत की अनजानी राहों पर.' (७:३६९)...
" गुरु वह आभामय चेहरा है, जिसे ईश्वर हम तक पहुँचने के लिए धारण करता है। जब हम एकटक उसे निहारते हैं तो, धीरे-धीरे वह चेहरा गिर जाता है और ईश्वर प्रकट हो जाते हैं।" (३:१९९)
गुरु (या नेता) का चुनाव करते समय पहले उनको जाँच कर देखो, जो वे कहते हैं स्वयं उनका जीवन उस प्रकार का है या नहीं ? कथनी और करनी में कहीं अन्तर तो नहीं है ? हर एक आदमी गुरु होना चाहता है। एक भिखारी भी चाहता है कि लाखों का चेक दान में काट कर देदे। जैसे हास्यास्पद ये भिखारी हैं, वैसे ही ये गुरु भी हैं।"(४:१९) 
 " बहुत से लोग ऐसे हैं, जो स्वयं तो बडे अज्ञानी हैं, परन्तु फ़िर भी अंहकार वश अपने को सर्वज्ञ समझते हैं; इतना ही नहीं , बल्कि दूसरो को भी अपने कन्धों पर ले जाने को तैयार रहते हैं। इस प्रकार जो स्वयं अँधा है वही अन्य अंधों का अगुवा- 'पथ प्रदर्शक' (नेता)  बन जाता है, फलतः दोनों ही गड्ढे में गिर पड़ते हैं।"

" कुछ अपवाद -स्वरूप आत्माएँ , पहले से ही मुक्त हैं, और जो संसार की भलाई के लिए, संसार को सहायता देने के लिए यहाँ जन्म लेतीं हैं। वे पहले से ही मुक्त होतीं हैं, उन्हें अपनी मुक्ति की चिंता नहीं होती, वे केवल दूसरो की सहायता करना चाहती हैं। वे तो उन अभिनेताओं के समान हैं, जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चुका है। "(७:८)॥
"साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, वे हैं- इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्य्मिकता प्रदान कर सकते हैं। वे गुरुओं के भी गुरु हैं। हम उनकी उपासना किए बिना रह नहीं सकते, हम उनकी उपासना करने को विवश हैं। "(४:२५) 
..."ईश्वर है पारस मणि, उसके स्पर्श से मनुष्य एक क्षण में सोना बन जाता है."(७:१३) ..." एक सच्चा गुरु शिष्य से कहेगा- जा अब और पाप न कर। और शिष्य अब पाप नहीं कर सकता।"(३:१९८) 
...वे उन प्रथम दीपों के समान हैं, जिनसे अन्य दीप जलाये जाते हैं,..उनके सम्पर्क में आने वाले मनो उनसे अपना दीप जला लेते हैं, परन्तु वह 'प्रथम दीप' अमंद ज्योति से जगमगाता रहता है।" (३:१९६)
" बौद्धों कि एक उदार प्रार्थना है- ' पृथ्वी के सभी पवित्र मनुष्यों के समक्ष (मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं के समक्ष ) मैं नतमस्तक हूँ।'... जब तुम जैसे पवित्र और आनंदित लोगों के दर्शन मिलते हैं -जिसके मस्तक पर प्रभु अपनी ऊँगली से 'यह मेरा है' स्पष्ट रूप से अंकित कर दिए होते हैं तब मुझे इस प्रार्थना के सही अर्थ का बोध होने लगता है। "(२:३३३) 
.." पैगम्बर धर्म का प्रचार करते हैं, किंतु ईसा, बुद्ध, श्री रामकृष्ण आदि के समान अवतार पुरूष धर्म प्रदान करते हैं। उनका मात्र एक स्पर्श, या एक दृष्टि-पात ही पर्याप्त होता है। इसाई धर्म में इसी को - पवित्र आत्मा की शक्ति (Power of holy ghost) को दूसरो में संचारित करना (by the lying of hands) कहते हैं। प्रभु ईसा ने अपने शिष्यों के भीतर सचमुच शक्ति का संचार किया था। इसी को गुरु-परम्परा गत शक्ति कहते हैं। यही यथार्थ 'Baptism' दीक्षा है और अनादी काल से चली आ रही है। "(७:१४)....
" श्री रामकृष्ण देव जैसे पुरुषोत्तम ने इससे पहले जगत में और कभी जन्म नहीं लिया। संसार के घोर अंधकार में अब यही महापुरुष ज्योतिस्वरूप हैं। इनकी ही ज्योति से मनुष्य संसार-समुद्र के पार चले जायेंगे।"(६:४७,४९)
" श्रीरामकृष्ण के जीवन का पूर्वार्ध धर्मोपार्जन में लगा रहा तथा उत्तरार्ध उसके वितरण में।....दूसरों के प्रति उनमे अगाध प्रेम था।" (७:२६५)......" श्री रामकृष्ण का संदेश है-' प्रथम स्वयं धार्मिक बनो और सत्य की उपलब्धी करो। उनका सिद्धांत था कि, मनुष्य को प्रथम चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जब तुम्हारा चरित्र रूपी कमल पूरी तरह खिल जायगा ,तब देखोगे कि सारे फल तुम्हे अपने-आप प्राप्त हो रहे हैं."(७:२५८) 
" आधुनिक संसार के लिए श्री रामकृष्ण का संदेश यही है---' मतवादों,आचारों, पंथों, तथा गिरजाघरों एवं मन्दिरों की चिंता न करो। प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सार वस्तु ; अर्थात आत्म-तत्व विद्यमान है, इसकी तुलना में ये सब तुच्छ हैं, और मनुष्य के अंदर यह भाव जितना ही अधिक अभिव्यक्त होता है, वह उतना ही जगत् कल्याण के लिए सामर्थ्यवान हो जाता है। प्रथम इसी धर्म-धन का उपार्जन करो, किसी में दोष मत खोजो, क्योंकि; ' सभी मत , सभी पथ ' अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय , वरन इसका अर्थ होता है-'आध्यात्मिक-अनुभूति।' जिन्हें अनुभव हुआ है, वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्य जाती के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं-- केवल वे ही ज्योति की शक्ति हैं।" (७:२६७)
"श्री रामकृष्ण ने अपने पूजा-पाठ का प्रचार करने का उपदेश मुझे कभी नहीं दिया। वे साधना पद्धति, ध्यान-धारणा तथा अन्य ऊँचे धर्म भावों के सम्बन्ध में जो सब उपदेश दिए हैं, उन्हें पहले अपने में अनुभव कर के, फ़िर सर्व-साधारण को उन्हें सिखाना होगा। 'मत अनंत हैं; पथ भी अनंत हैं '। सम्प्रदायों से भरे जगत में और एक नवीन सम्प्रदाय पैदा कर देने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ। "
" यह ख्याल रखना कि इन सारे कार्यों की देख-भाल तुमको ही करनी होगी, पर 'नेता' बन कर नहीं 'सेवक' बन कर।"(२:३९४)...
" मेरा सिद्धांत है कि प्रत्येक अपनी सहायता आप करता है। नारी या पुरूष एक दूसरे पर शासन क्यों करें ? प्रत्येक स्वतंत्र है। यदि कोई बंधन है, तो वह प्रेम का। नारियाँ स्वयं अपने भाग्य का विधान कर लेंगी, पुरुषों का स्त्रियों के भाग्य का विधान अपने हाँथ में रखना- नारियों कि अवमानना है। ....मैं ऐसी गलती के साथ प्रारम्भ नहीं करना चाहता, क्योंकि यही गलती फ़िर समय के साथ बडी होती जायगी , इतनी बडी कि अन्ततोगत्वा उसके अनुपात को सम्भालना असम्भव हो जाएगा ।अतः यदि स्त्रियों के कार्य में पुरुषों को लगाने की भूल मैंने की , तो स्त्रियाँ कभी भी मुक्त न हो सकेंगी - वह एक खानापूर्ति जैसा कार्य होगा। माँ (श्रीसारदा देवी) हमारी 'संघ-नेत्री' हैं, पर वे कभी हम पर शासन नहीं करतीं। "(१० :२०)
" स्त्रीयों में जो ईश्वरत्व वास करता है, उसे हम कभी ठग नहीं सकते।...वह सदैव ही अचूक रूप से बेईमानी तथा ढोंग को पहचान लेता है।...पश्चिम में स्त्रियों की पूजा प्रायः उनके तारुण्य तथा लावण्य के कारण होता है। किंतु पथ-प्रदर्शकों (यथार्थ नेताओं) के लिए प्रत्येक स्त्री का मुखार्विन्द , उस आनन्दमयी माँ का ही मुखार्विन्द है."(७:२५७)
" श्री रामकृष्ण माँ सारदा से कहते हैं - ' जगन्माता ने मुझे यह समझा दिया है कि, वह प्रत्येक स्त्री में निवास करती है, और इसीलिए मैं हर स्त्री को माँ रूप में देखता हूँ। यही एक दृष्टि है, जिससे मैं तुम्हे भी देख सकूंगा, परन्तु यदि तुम्हारी इच्छा मुझे संसाररूपी मायाजाल में खींचने की हो, क्योंकि मेरा तुमसे विवाह हो चुका है, तो मैं तुम्हारी सेवा में उपस्थित हूँ।' माँ बोली -' आपको सांसारिक जीवन में घसीटने कि मेरी इच्छा कदापि नहीं है, बस, इतना ही चाहती हूँ कि मैं आपके समीप रहूँ,आपकी सेवा करूं तथा आपसे शिक्षा ग्रहण करूं।' (७:२५४) 
" ह्रदय सरोवर में एक अष्टदल रक्त-वर्ण कमल है, धर्म उसका मूल देश है, ज्ञान उसकी नाल है, योगी कि अष्ट-सिद्धियाँ उस कमल के आठ दलों के समान हैं, और वैराग्य उसके अंदर की कर्णिका है। जो योगी अष्ट सिद्धियाँ आने पर भी उनको छोड़ सकते हैं, वे ही मुक्त हो सकते हैं। इसीलिए अष्ट-सिद्धियों को बाहर के आठ दलों के रूप में, तथा अंदर कि कर्णिका को 'परम वैराग्य' - अर्थात अष्ट सिद्धियाँ आने पर भी, उनके प्रति वैराग्य के रूप में वर्णन किया है। विषय की लालसा, भय और क्रोध छोड़ कर जो प्रभु के शरणागत हुए है,उन्हीं में तन्मय हो गए हैं, जिनका ह्रदय पवित्र हो गया है, वे भगवान के पास जो कुछ चाहते हैं, भगवान उसी समय उसकी पूर्ति करते हैं। अतः तुम उनसे कहो, हे प्रभु -तुम मुझे ,भक्ति दो, विवेक दो , वैराग्य दो ,ज्ञान दो। "(१:१०४)
" तमेवैकं जानथ आत्मानम् अन्या वाचो विमुंचथ "- (मुण्डक उ ० २। २। ५ ) अर्थात- उसका, केवल उसका ध्यान करो अन्य सब बातों को त्याग दो।" जो लोग केवल उन्ही की चर्चा करते हैं, वे भक्त को मित्र के समान प्रतीत होते हैं। और जो लोग अन्य विषयों की चर्चा करते हैं , वे उसको शत्रु के समान लगते हैं। उस प्रियतम का चिन्तन हृदय में सदैव बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। ...इसको 'तद अर्थप्राणसंस्थान ' कहा है। तदियता तब आती है जब, साधक श्री भगवान् के चरण-कमलों को स्पर्श कर लेता है, तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है, सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। "(४:५५)
[ 'BE AND MAKE ' का अर्थ है , गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा में स्वयं एक वेदाध्यापक (पैगम्बर, नेता, लोक-शिक्षक)  बनो और दूसरों को भी वेदाध्यापक बनने में सहायता करो ! ]  ..." अंगूर कि लता पर जिस प्रकार गुच्छों में अंगूर फलते हैं, उसी प्रकार भविष्य में सैंकडो ईसाओं का आविर्भाव होगा."(७:१२)
" जिस देश में ऐसे मनुष्य जितनी अधिक संख्या में पैदा होंगे, वह देश उतनी ही उन्नत अवस्था को पहुँच जायगा।....वे चाहते थे कि तुम अपने भाई-स्वरूप समग्र मानवजाति के कल्याण के लिए सर्वस्व त्याग दो। 'universal brotherhood' पर सेमीनार नहीं करो,अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखा दो। त्याग तथा प्रत्यक्ष अनुभूति का समय आ गया है, और इनसे ही तुम जगत के सभी धर्मों में सामंजस्य देख पाओगे।"(७:२६८) 
इस प्रकार हमलोग यह समझ सकते हैं कि सांख्य शास्त्र का उद्देश्य तत्वज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्त करना या डीहिप्नोटाइज्ड होना है ! (अर्थात अपने -पराये के भ्रम से मुक्त होना है।) कपिलवस्तु, जहाँ बुद्ध पैदा हुए थे, कपिल के नाम पर बसा नगर था। इससे कम-से-कम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि बुद्ध के पहले कपिल का नाम फैल चुका था।
निस्संदेह भगवान कपिल ही दर्शन शास्त्र के पितामह हैं ! जो हमें सृष्टि के 'देश-काल -निमित्त' टाइम-स्पेस एण्ड कॉज़ैशन में कॉज़ैशन (the act of causing something to happen) या 'अल्टीमेट सोर्स ऑफ़ क्रिएशन' सृष्टि के महान आधार भूत कारण 'महत तत्व' को सांख्य की दृष्टि से समझने में सहायता करते हैं !
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शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

विवेकानन्द प्राइवेट आई.टी.आई, हज़ारीबाग में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर का रेडिओ रिपोर्ट

(महामण्डल समाचार) : स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार प्रसार करने हेतु विगत ९ जुलाई २०१७, रविवार (गुरु-पूर्णिमा) के दिन 'विवेकानन्द प्राइवेट आई० टी० आई' कोर्रा रोड, जबरा, हज़ारीबाग (झारखण्ड) में अखिलभारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्वारा एक दिवसीय  प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया। इस शिविर में स्थानीय एवं दूर दूर से आये विवेकानन्द युवा महामण्डल की शिक्षाओं से प्रभावित होकर लगभग १२२ तरुण प्रशिक्षुओं ने शैक्षणिक वातावरण के अलोक में भाग लिया
शहर के अन्य गणमान्य लोगों के आलावा इस शिविर में जमशेदपुर से आये अपूर्व दास, झुमरीतिलैया से आये महामण्डल के विजय कुमार सिंह, अजय अग्रवाल, अजय पाण्डेय, सुदीप विश्वास, विष्णुदेव यादव, गया से धनेश्वर पण्डित, जय प्रकाश मेहता, अमित कुमार, एवं हज़ारीबाग के गजानन्द पाठक की सराहनीय भूमिका रही। इस शिविर में विवेकानन्द एवं अन्य महापुरुषों से सन्दर्भित पुस्तकों का एक बुक-स्टॉल भी लगाया गया। 
कार्यक्रम की विधिवत शुरुआत संघ-मन्त्र एवं महामण्डल गान स्वदेश-मन्त्र के साथ हुई। स्वागत भाषण दिया गजानन्द पाठक ने..."अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल युवाओं के अन्दर आत्मविश्वास पैदा करने का कार्य करता है। उसको अपने अन्दर की शक्ति को पहचानने की एक दिशा देता है, कैसे वह अपने अन्दर की शक्ति को पहचान सकता है। उसके अन्दर जो अनन्त शक्ति छिपी हुई है,स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के आधार पर उन्हें यह बताया जाता है कि तुम्हारे अन्दर एक दिव्यत्व भरा हुआ है, एक आध्यात्मिक शक्ति भरी हुई है। जिसके माध्यम से तुम अपना जीवन बना सकते हो, अपने जीवन की सारी  समस्याओं का समाधान कर सकते हो। अपने रोजगार के साधन के साथ-साथ परिवार, समाज और देश के कल्याण के लिये भी अपने जीवन को आगे बढ़ा सकते हो (देश की सेवा में अपने जीवन को समर्पित कर सकते हो)!"
झुमरीतिलैया के विवेकानन्द युवा महामण्डल के अध्यक्ष विजय कुमार सिंह अपने विचारों के साथ...." बिना चरित्र के अगर कोई मनुष्य होगा तो वह पशु के सामान होगा। इसीलिये सबसे पहले चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करना ये महामण्डल का उपाय है। और हमारे आदर्श हैं स्वामी विवेकानन्द। वे भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श हैं। १९८४ में ही भारत सरकार ने स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श घोषित किया है। चरित्र-गठन के लिये एक साँचा की आवश्यकता होती है। युवाओं के रोल-मॉडल हैं, हमारे आदर्श हैं विवेकानन्द, उनके साँचे में अपने जीवन को हमलोगों को गढ़ना है। 
हमारा आदर्श वाक्य है -"BE AND MAKE "; यह महावक्य भी स्वामी जी का दिया हुआ निर्देश है ! जैसे वेदान्त महावाक्यों के बड़े गहरे अर्थ होते हैं, वेदान्त के चार महावाक्य हैं -"अहंब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" इत्यादि; ठीक वैसे ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित इस महावाक्य "बनो और बनाओ" का भी बहुत गहरा अर्थ है। 
"BE AND MAKE " का गहरा महत्व यह है कि हमलोग केवल साढ़े-तीन हाथ के शरीर मात्र ही नहीं हैं।जैसे हमलोग केवल सॉलिड को देख पाते हैं,स्थूल देख पाते हैं; लेकिन सूक्ष्म को नहीं देख पाते हैं। हमलोगों ने फिजिक्स में पढ़ा है कि पदार्थ की तीन अवस्थायें होती हैं -ठोस,तरल और गैस। बर्फ को हमलोग देख सकते हैं, मुट्ठी में पकड़ सकते हैं। पानी को भी देख सकते हैं, किन्तु मुट्ठी में नहीं पकड़ सकते। किन्तु गैस या वायु  को न तो हमलोग देख सकते हैं और न मुट्ठी में पकड़ ही सकते हैं।  फिर भी कोई यह नहीं कह सकता कि हवा नहीं होती है ? 
विवेकानन्द के गुरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, " जिस प्रकार पानी जमकर बर्फ बन जाता है, उसी प्रकार निराकार, अखण्ड, सच्चिदानन्द ब्रह्म ही साकार रूप धारण कर लेता है। जैसे बर्फ पानी से ही पैदा होती है, पानी में ही रहती है, और पानी में ही मिल जाती है; वैसे ही ईश्वर का सगुण-साकार रूप भी निर्गुण-निराकार ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, उसी में अवस्थित रहता है तथा उसी में विलीन हो जाता है।" (अमृतवाणी/साकार और निराकार/२३०) 
उसी प्रकार हमारे तीन कम्पोनेंट्स हैं - शरीर, मन और हृदय। शरीर स्थूल होता है, इसलिये हमलोग उसको देख पाते हैं, मन अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु है इसलिये उसको देख नहीं पाते, किन्तु अनुभव करते हैं कि मेरा मन है। सभी लोग नवयुवकों को उपदेश देते हैं कि मन लगा कर पढ़ो ! किन्तु कोई यह नहीं सिखलाता कि किसी इच्छित विषय में मन को लगाया कैसे जाता है ? शिक्षा (युवा-प्रशिक्षण) का प्रथम कार्य यह है कि वह प्रत्येक नवयुवक को उसके मन की बनावट और मन को एकाग्र करने की पद्धति से उसका परिचय करा सके। और यह तभी सम्भव है, जब शिक्षा हमें मन को (सूक्ष्म वस्तु को) देखने की प्रक्रिया की सम्यक जानकारी प्रदान करे। 
और हृदय, हार्ट हम लोग बोलते हैं; यह उससे भी सूक्ष्म वस्तु है- वास्तव में वो आत्मा है। लेकिन अभी हमलोग उसको समझ नहीं पायेंगे; इसीलिये स्वामी जी उसको हार्ट बोले क्योंकि अनुभव करने या फील करने की शक्ति हृदय में होती है। अतः मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया को सरल करते हुए स्वामी जी ने कहा - 3'H';  हैण्ड -हेड एण्ड हार्ट् का डेवलपमेन्ट करो -मनुष्य विकसित हो जायेगा, मनुष्य निकलेगा, मनुष्य प्रगट हो जायेगा। वह 'मनुष्य' जो 'ब्रह्म' को-अर्थात अपने बनाने वाले को भी जान सकता है
आधुनिक युग में 'ब्रह्म' के अवतार, जगतगुरु भगवान श्रीरामकृष्णदेव कहते थे - " वह मनुष्य धन्य है जिसका शरीर, मन और हृदय (3'H') तीनों ही समान रूप से विकसित हुए हैं। सभी परिस्थितियों में वह सरलता के साथ उत्तीर्ण हो जाता है। उसके हृदय (Heart) में भगवान के प्रति सरल विश्वास और दृढ़ श्रद्धा-भक्ति होती है; साथ ही उसके आचार-व्यवहार में भी कहीं कोई कमी नहीं होती। माता-पिता और गुरुजनों के सम्मुख वह वह विनयी और आज्ञाकारी होता है। पड़ोसियों के प्रति वह दया और सहानुभूति रखता है। आत्मीय-स्वजन और मित्रों को वह अतिशय प्रिय प्रतीत होता है, क्योंकि उसके हाथ (Hand) सदैव मदद करने को तैयार रहते हैं। सांसारिक व्यवहार के समय वह पूरा-पूरा व्यवसायी होता है, विद्वान् पण्डितों की सभा में वह सर्वश्रेष्ठ विद्वान् सिद्ध होता है। वाद-विवाद में अकाट्य युक्तियों द्वारा वह अपनी तीक्ष्ण बुद्धि (Head) का परिचय देता है।  पत्नी के सामने वह मानो साक्षात् मदन-देवता होता है। इस तरह का मनुष्य वास्तव में सर्वगुण-सम्पन्न (ऑल अराउन्डर) होता है ! " अमृतवाणी /८०]   
इसलिये महामण्डल का उद्देश्य है -भारत का कल्याण, उपाय है -चरित्र-निर्माण, आदर्श हैं -स्वामी विवेकानन्द, आदर्श वाक्य है -"BE AND MAKE" और हमारा अभियान मन्त्र है - " चरैवेति चरैवेति !" . ये ऐक्चुअली ऐतरेय ब्राह्मण का एक मंत्र है। जिसमें कहा गया है, कि जो युग परिवर्तन होता है वह व्यक्ति के विचारों में (विचार जगत में) होता है। "  
जानिबिघा, गया से आये धनेश्वर पण्डित ने भी अपने विचार कुछ यूँ व्यक्त किये - " मेरा गाँव पहले बिल्कुल नक्सल प्रभावित था, पूरा मतलब ग्रसित था। लोगों को आने-जाने के लिये सुविधा भी नहीं था, वहाँ रोड भी नहीं था। इसलिये मैंने बचपन से सोंचा कि झुमरीतिलैया जाकर कुछ पढ़लिख कर गाँव के लिये कुछ अच्छा किया जाय। वहीँ झुमरीतिलैया के युवा प्रशिक्षण शिविर में स्वामी विवेकानन्द का जो भी शिक्षा वहाँ पहले से प्रचलित है, उसका ज्ञान और ये चीज मिला। (मनुष्यत्व-उन्मेषकारी और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा पद्धति है उससे परिचय हुआ।) तो सोंचा कि स्वामी विवेकानन्द की मार्गों को शिक्षाओं को अपने गाँव में कैसे बताया जाये ? 
अशिक्षित आदमी है, वहाँ के लोग तो पढ़े-लिखे भी नहीं हैं; तब १९९५ में मैंने एक स्कूल की स्थापना की जिसका नाम था-'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर।' उसके बाद जो है, लगभग २०० लड़का सेकेण्ड डे से आना शुरू किये। पूरे एरिया में पूरे पंचायत में सब उसका नाम जान गया। और स्वामी विवेकानन्द का नाम घर घर में फोटो, घर घर में उनकी पूजा और घर घर में उनके प्रति लोगों की चाहत बढ़ गयी।
और इस तरह जो है, अभी प्रत्येक वर्ष लगभग सौ-सवा सौ छात्र-छात्रायें मैट्रिक के परीक्षा में बैठते हैं। इसमें ८० से ९० परसेंट रिजल्ट अच्छा होता है। इसबार का रिजल्ट ९९ परसेंट सही गया। ६० परसेंट फर्स्ट डिवीजन और ४० परसेंट सेकण्ड डिवीजन में पास हुए हैं। १९९५ से अभी तक देखा गया है कि गाँव की ५-६ लड़कियाँ जो वहाँ पढ़ी हैं, शिक्षामित्र में नौकरी पा गयी हैं। मिल्ट्री में १०-२० लड़के गए हैं। मतलब प्रत्येक वर्ष ४-५ लड़के रेलवे में या अन्य जगह नौकरी पा जाते हैं। किन्तु नौकरी करने के बाद भी जो स्वामी जी का भाव है, उसे नहीं छोड़ते हैं, और स्कूल में आकर फ्री में पढ़ाते हैं। स्कूल में आकर धन्य भाव से सहयोग देते हैं। बहुत से कार्यों में हमलोगों को सहयोग देते हैं। आप समझिये कि २०-२५ साल पहले तक कोई नहीं जानता था कि स्वामी विवेकानन्द क्या हैं। और अभी घर घर में पूरा गया डिस्ट्रिक्ट में इस स्कूल का नाम लोग जान गया है।"  इस आयोजन में अजय पाण्डेय के द्वारा भजन-गीत भी प्रस्तुत किये गए-"हमारे विचार में सब जीव एक हैं, ऐक्य विधान के मंत्र को गाकर देवगन तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे।"  जिसे लोगों ने खूब सराहा। 
नेशनल यूथ अवार्ड से सम्मानित जय प्रकाश मेहता ने महामण्डल की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा -" जानिबिघा एम्० सी०सी० का गढ़ बन गया था। सारे लोग का जीना दूभर हो गया, मतलब वह गाँव उन लोगों के कैम्प में तब्दील हो गया था। विवेकानन्द मन्दिर स्कूल के थ्रू से जब काम शुरू हो गया, काम भी बहुत अच्छा हुआ। उस समय वहाँ की डी०एम० थीं राजबाला वर्मा, (जो अभी झारखण्ड की चीफ सेक्रेटरी हैं?) हमलोगों ने सप्ताह में दो दिन बच्चों को स्कूल में नहलाने-धुलाने का रूटीन काम शुरू किया। बच्चों से हमलोग फ़ीस के रूप में पैसा नहीं गोबर से बना हुआ गोईंठा और अनाज में कुछ भी ले लेते थे। तो यह सब काम देखकर वहाँ की डी०एम० हमलोगों के साथ पैदल चलकर के पूरे गाँव में घूमी और स्कूल के प्रभाव को देखी तो उन्होंने  ने उस गाँव पर पुलिसिया कार्रवाई करना बन्द कर दिया। उन्होंने कहा कि पुलिस कार्रवाई की जरूरत नहीं है, ये लोग जो अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की तरफ से गाँव में जो स्कूल चलाने का काम कर रहे हैं, उसी से यहाँ शान्ति आयेगी। 
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय की अनुसंशा पर "राष्ट्रीय युवा पुरुष्कार" से मुझे सम्मानित किया गया। किन्तु हमारा उद्देश्य पुरुष्कार लेना नहीं है, वास्तव में गुमनाम होकर के काम करना है। जो काम किया जाय उसके पीछे नाम-यश पाने का उद्देश्य न रहे, लेकिन राष्ट्र को समर्पित काम होता रहे। जो बोला जाता है, सही रूट में या जड़ पर पानी देना चाहिये पत्तों पर नहीं। और चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करना ही भारत कल्याण के जड़ पर कार्य करना है। [ समाज-सेवा हमलोगों के लिये 'हृदयवान मनुष्य' (ब्रह्मविद मनुष्य) बनने का उपाय है, इसलिये इस समाज-सेवा "BE AND MAKE" शिक्षा पद्धति का प्रचार-प्रसार करने का उद्देश्य हमारे अपने हृदय को विकसित करके स्वयं यथार्थ मनुष्य बन जाना है!]" 
जानिबिघा, गया से आये अमित कुमार ने भी महामण्डल के आदर्शों की सराहना करते हुए कहा - " बोला गया कि भारत के कल्याण का जो भी कर्तव्य है, वह राष्ट्र के युवाओं पर टिका हुआ है।  किसी राजनितिक कार्यकर्ता ***को सम्बोधित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा कहा था, "My politics is God !"
अगर तुमलोगों को देश की आजादी चाहिये तो मैं केवल आठ दिन में दिला सकता हूँ। लेकिन उस आजादी की रक्षा करने वाले मनुष्य कहाँ हैं, उसे सम्भाल कर रखने वाले मनुष्य कहाँ हैं ? इसलिये पहले चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करो। 
और ये काम केवल युवाओं से ही होना सम्भव है। क्योंकि आज का जो जेनेरेशन है, युवाओं की जो पीढ़ी है उसी की आबादी देश में सर्वाधिक है, इसीलिये चरित्र-निर्माण का काम भी युवाओं के ऊपर टिका हुआ है। क्योंकि युवाओं के अन्दर वो जोश होती है, करने की वो क्षमता होती है ,जो किसी भी काम को क्षण भर में कर सकती है। 
लेकिन वैसा नेता नहीं होना चाहिये जो हमारे काम को ईमानदारी पूर्वक कर नहीं पाये, अपने देश को सही ढंग से जो सम्भाल नहीं पाये, वैसे नेता नहीं चाहिये। भले ही वह अपने देश का कमान सम्भाल लिया हो, जिला का कमान सम्भाल लिया हो या राज्य का कमान संभाल लिया हो, वो अपने देश और समाज की सेवा सही ढंग से नहीं कर सकते हैं।
***स्वामी विवेकानन्द ने ९ सितम्बर १८९५ को अलासिंगा पेरुमल को लिखित एक पत्र में कहा था- कायर तथा मूर्खतापूर्ण राजनितिक बकवासों के साथ मैं अपना कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। किसी प्रकार की राजनीति में मुझे विश्वास नहीं है। ईश्वर तथा सत्य ही जगत में एकमात्र राजनीति है, बाकी सब कूड़ा-करकट है। " ४/३४६ 
(I have nothing to do with cowards or political nonsense. I do not believe in any politics. God and Truth are the only politics in the world, everything else is trash.
इसलिये अपने देश का कोई सही रूप में कल्याण करना चाहे, या अपने देश में से भ्रष्टाचार को हटाना चाहे, तो उसके लिये हमें भ्रष्ट नेताओं की नहीं, चरित्रवान नेताओं की आवश्यकता है। युवाओं में से ही कुछ सही नेतृत्व देने वाले नेताओं का (लोकशिक्षकों का) निर्माण करना होगा। इस संस्था में हम बचपन से , लगभग १५ वर्षों से जुड़े हुए हैं। यहाँ हमलोगों को यही सीख मिलती है कि जो हमारे युवा लोग हैं, उन्हें देश के कल्याण के लिये इस मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन का कमान भी संभाल लेना होगा। " 
इसके बाद अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के द्वारा आयोजित एक दिवसीय प्रशिक्षण शिविर पूर्णाहुति के साथ सम्पन्न हुआ कि स्वामी विवेकानन्द के द्वारा बताये गए रास्ते पर चलकर देश के युवा विश्व भर में अपनी अलग पहचान बनायेंगे :  
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥***
इस मंत्र का सरल अर्थ है कि वह (परब्रह्म) पूर्ण है। यह (कार्यब्रह्म-जगत) भी पूर्ण है। पूर्ण में से पूर्ण ही उत्पन्न होता है। और यदि [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म] में से पूर्ण को निकाल लें (अपने मे लीन कर लें), तो भी पूर्ण [परब्रह्म] ही शेष बचता है। त्रिविध ताप की शांति हो। ***
[***इस मन्त्र में निर्गुण और सगुण दोनों ही सिद्धांतो का, विचारधाराओं का अद्भुत मेल है।  'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते' वास्तव में कोर्डिनेट ज्योमेट्री का एक सिद्धान्त है, जिसमें कहा गया है कि अनन्त में से अनन्त को घटा देने पर लास्ट में अनन्त ही शेष रहता है अर्थात 'ब्रह्म' आदि, मध्य और अन्त, सभी काल में पूर्ण है।  ब्रह्म की सत्ता अखण्ड है। जैसे १ पर इस निर्गुण शून्य को रख देने से १० संख्या स्वतः बन जाती है। किन्तु इस '१' के अभाव में समस्त सृष्टि '०' शून्य है। मृत है, प्रलायावास्था में है, मूल्यहीन है ; तथा '१' के साथ रहने पर वही मूल्यवान है, सजीव है। इस लिये '१०' नाम-रूपमय सृष्टि का वाचक है। इस १० में सम्मिलित '१' ब्रह्म और आत्मा दोनों का प्रतिधित्व करता है।  सब कुछ अपने अन्दर समेट कर एक '१' रहा भी, और नहीं भी रहा, वह अनेक '१०' बन गया, जगत बन गया, सृष्टि बन गया। सृष्टि के प्रारम्भ में वह 'ब्रह्म' अकेला था, सृष्टि रचना के बाद भी, ब्रह्म ही आनन्द रूप है।] 
आप सुन रहे थे अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा एक दिवसीय प्रशिक्षण शिविर पर आधारित 
रेडिओ रिपोर्ट। वाचन एवं संकलन था परमेन्द्र कुमार मिश्रा का, प्रस्तुति मन्मथ नाथ मिश्र की,और इस कार्यक्रम के संयोजक थे डॉक्टर अकलू चौधरी आकाशवाणी का ये हज़ारीबाग केन्द्र है fm १०२.१ मेगा हर्ज पर।   
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शुक्रवार, 19 मई 2017

अधिकांश युवा स्वामी विवेकानन्द के प्रति क्यों आकर्षित हो जाते हैं ?

*१/ नरेन्द्रनाथ को देखते ही श्रीरामकृष्ण उनके साथ चिरपरिचित की तरह सरल भाव से वार्तालाप करने लगे। संगीत और वार्तालाप समाप्त होने पर एकाएक श्रीरामकृष्ण उन्हें बुलाकर एकान्त में ले गये। भाव में विभोर हो उन्होंने नरेन्द्र का हाथ पकड़कर स्नेहपूर्ण गदगद कण्ठ से कहा -"तू इतने दिन तक मुझे भूलकर कैसे रहा ! कब से मैं तेरे आने की बाट जोह रहा हूँ। विषयी लोगों के साथ बात करते करते मेरा मुँह जल गया है। " ... देखते ही देखते श्रीरामकृष्णदेव हाथ जोड़कर सम्मान के साथ उन्हें सम्बोधित कर कहने लगे, " आमी जानी प्रोभू ... मैं जानता हूँ, तुम सप्तऋषि-मण्डल के ऋषि हो-नररूपी नारायण हो; जीवों के कल्याण की कामना से तुमने देह धारण की है। इत्यादि। यह कैसा विचित्र पागलपन है। मैं कहाँ विश्वनाथ दत्त का पुत्र नरेन्द्र, और कहाँ इनकी ये सब बातें !"पेज ५१/ 
श्रीरामकृष्ण पहले ही समझ गए थे कि इस युवक को समय आने पर जगत के सैकड़ों-हजारों धर्मपिपासु नरनारियों की आध्यात्मिक तृष्णा मिटानी होगी, पाश्चत्य सभ्यता के अनुकरण के गर्व से दिग्भ्रान्त स्वदेश-वासियों को लुप्तप्राय सनातन धर्म के पथ पर लौट आने के लिये पुकारना होगा। और सबसे बढ़कर, उन्होंने यह बात अच्छी तरह से समझ ली थी कि उनके जीवन में प्रकाशित "जितने मत उतने ही पथ" -रूपी सर्वधर्म-समन्वय के आदर्श के प्रचार कार्य में नरेन्द्रनाथ ही सबसे योग्य अधिकारी है। भविष्य में मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निमार्णकारी आन्दोलन को सम्पूर्ण विश्व में फैला देने में समर्थ भावी युवा-मण्डली के भावी नेता के रूप में उनका जीवन गठित करने के लिए, श्रीरामकृष्ण उन्हें सर्वमतों के आधारस्वरूप वेदान्त में वर्णित साधनमार्ग में परिचालित करने के लिये प्रयत्नशील हुए। 
पर नरेन्द्रनाथ बचपन में राम-भक्त थे किन्तु पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित होकर सगुण-निराकार के ध्यान में आस्था रखने वाले थे। उन्होंने अद्वैतवाद का ग्रहण काफी समय बाद किया। ब्रह्मसमाज के धर्ममत के अनुसार श्रीरामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रतिवाद करते हुए वे कह उठते - 'मैं ही ब्रह्म हूँ ' कहना -यह तो ईश-निन्दा है,इसके सदृश दूसरा पाप नहीं है। बार बार श्री ठाकुर के मुँह से सुनकर भी नरेन्द्रनाथ स्वयं इस बात पर विश्वास नहीं करते थे कि वे अधिकारी पुरुष हैं; और जगदम्बा के विशेष कार्य-सिद्धि के उद्देश्य से अवतीर्ण हुए हैं ! .... नरेन्द्र के मन में एक आँधी सी चलने लगी क्या श्री रामकृष्ण त्यागकुल-शिरोमणि, सरल,उदार, प्रेमिक पुरुष हैं या विकृतमस्तिष्क हैं ? वे क्या हैं ? कौन हैं वे ? क्यों वे मुझ जैसे क्षुद्र व्यक्ति के लिये सदा चिन्तित रहते हैं (तोमार एटा की होयेचे?) श्रीरामकृष्ण के अपूर्व, निष्काम प्रेम का कारण खोजते हुए उन्हें कोई युक्ति नहीं मिल रही थी। .... किसी प्रकार का निश्चय कर पाने में असमर्थ हो अस्थिर हो उठे , सतर्कता के साथ उनका निरीक्षण करने के लिये दक्षिणेश्वर आना-जाना करने लगे, यहाँ तक कि उनकी परीक्षा करने के लिये दक्षिणेश्वर में रात्रिवास भी करने लगे। 
एक दिन नरेन्द्रनाथ श्रीरामकृष्ण के सामने भक्तों के बीच बैठे थे। प्रसंगवश कहने लगे - "भाव में मैंने देखा, केशव ने जिस शक्ति के बल पर प्रतिष्ठा प्राप्त की है, नरेन्द्र में उस प्रकार की अठारह शक्तियाँ हैं। केशव और विजय के मन में ज्ञानदीप जल रहा है, नरेन्द्र में ज्ञानसूर्य विद्यमान है। ... इसके (उनके अपने शरीर के) भीतर जो है, वह शक्ति है। उसके (नरेन्द्र के) भीतर जो है, वह पुरुष है, वह मेरी ससुराल है।" 
इन बातों को सुनकर नरेन्द्र धीरे से हँस पड़े।  मन ही मन सोचा, फिर पागलपन शुरू हुआ ? सब जब चले गए तो श्रीरामकृष्ण एकटक से नरेन्द्रनाथ की ओर देख रहे थे; एकाएक आसन से उठकर उन्होंने अपना दाहिना चरण उनके कन्धे पर रखा। उसी समय नरेद्र का अभूतपूर्व भावान्तर हुआ। उन्होंने अनुभव किया, मानो उनके आसपास की दृश्यमान सभी वस्तुएं एक अनन्त सत्ता में विलीन हो गयीं, केवल वे अकेले रह गए, अंत में उनका 'मैंपन' भी विलीन होने लगा।  वे भय और विस्मय से चीत्कार कर उठे -'अजी, तुमने मेरा यह क्या किया ? मेरे माँबाप जो हैं !" श्रीरामकृष्ण के छाती पर हाथ रखते ही वे फिर से स्वाभाविक स्थित में आ गए। नरेन्द्रनाथ को अपने दृढ़हृदयता पर जो गर्व था, आज वह जड़मूल से चूर चूर हो गया। वे मातापिता की ममता से अंधे होकर, नामरूप की सीमा को तोड़कर योगियों को दुर्लभ चिदानन्द-समुद्र में न कूद सके। ... सोचने लगे जो महापुरुष केवल अपने स्पर्श से (केवल दृष्टि से भी ?) एक साधारण व्यक्ति को अनेक जन्मों की साधना के फलरूपी सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक सम्पद -समाधि-धन का अधिकारी बना सकते हैं, वे कभी पागल तो नहीं हो सकते ! उन्होंने फिर सोचा कहीं ये हिप्नोटाइज्ड करना तो नहीं जानते हैं ? अतः सावधान रहने लगे कि दुबारा वे इस प्रकार भवान्तर न कर दें ! " वि० चरित-पृ ० ५९-६०/  
 " श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग" नामक ग्रन्थ में नरेन्द्र के दक्षिणेश्वर आने से बहुत पहले घटे श्रीरामकृष्ण के एक दिव्यदर्शन की बात का उल्लेख करते हुए स्वामी सारदानन्दजी लिखते हैं - " श्रीरामकृष्णदेव ने कहा था - एक दिन देखता हूँ, मन समाधि-पथ में ज्योतिर्मय मार्ग से ऊपर उठता जा रहा है। चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रादि से भरे हुए स्थूल जगत को सरलता से लाँघकर वह पहले पहल सूक्ष्म भावजगत में प्रविष्ट हुआ। उस राज्य के उच्च से उच्चतर स्तरों पर वह जितना ही चढ़ने लगा, उतना ही विभिन्न देवी-देवताओं की भावघन विचत्र मूर्तियों को रास्ते के दोनों ओर देखने लगा। धीरे धीरे उस राज्य की चरम सीमा पर आ पहुँचा। वहाँ मैंने देखा, एक ज्योतिर्मय रेखा ने खण्ड और अखण्ड के राज्य को अलग अलग कर दिया है। 
उस रेखा को लाँघकर मन धीरे धीरे अखण्ड के राज्य में प्रविष्ट हुआ। मैंने देखा, वहाँ पर साकार कुछ भी नहीं है। दिव्य देहधारी देवीदेवतागण भी मानो वहाँ प्रवेश करते भयभीत होकर बहुत दूर नीचे अपना अपना अधिकार चला रहे हैं। परन्तु दूसरे ही क्षण देखा, दिव्य ज्योतिसम्पन्न सात श्रेष्ठ ऋषि वहाँ पर समाधिस्त होकर बैठे हैं। मैं समझ गया कि ज्ञान और पुण्य में, त्याग और प्रेम में इन्होने, मानवों की कौन कहे, देवीदेवताओं को भी दूर छोड़ दिया है। 
मैं विस्मित होकर इन ऋषियों की महानता के बारे में सोच ही रहा था कि एकाएक दीख पड़ा, सम्मुखस्थ अखण्ड के घर के भेद-रहित, समरस ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर दिव्य शिशु के रूप में परिणत हुआ। उस देवशिशु ने उनमें से एक के पास उतरकर अपनी अपूर्व सुललित बाहुओं से उनके गले को प्रेम के साथ लपेट लिया। इसके बाद वीणाध्वनि से भी सुमधुर अपनी अमृतमयी वाणी में प्रेम के साथ पुकार कर उन्हें समाधि से जगाने के लिये भरसक चेष्टा करने लगा। बालक के कोमल प्रेमपूर्ण स्पर्श से ऋषि समाधि से जागे और अर्धनिमीलित निर्निमेष नेत्रों से उस अपूर्व बालक की तरफ देखने लगे। उनके मुख का प्रसन्नोजज्वल भाव देखकर ऐसा लगा, मानो वह बालक बहु काल से उनका परिचित और हृदयनिधि ही हो। वह अद्भुत देवशिशु उस समय असीम आनन्द के साथ उनसे कहने लगा, 'मैं जा रहा हूँ। तुम्हें आना होगा !' उसके इस अनुरोध पर ऋषि ने कहा तो कुछ नहीं, परन्तु उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों ने उनके हृदय की सम्मति व्यक्त कर दी। बाद में उसी प्रकार सप्रेम दृष्टि से बालक को थोड़ी देर देखते देखते वे पुनः समाधिस्थ हो गए। उस समय मैंने विस्मय के साथ देखा, उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत होकर -विलोम मार्ग से धराधाम पर अवतरण कर रहा है। नरेन्द्र को देखते ही मैंने समझ लिया था कि यही वह दैवी पुरुष है। " (विवेकानन्द चरित पृ० ५२) 
*२/ आध्यात्मिक शक्ति (लीडरशिप पॉवर या गुरु शक्ति) का संचार :  - नरेन्द्रनाथ को योग्य लोकशिक्षक के रूप में गढ़ देना ही काशीपुर के इस चरण का एक विशेष उद्देश्य था। श्रीरामकृष्ण ने लीला संवरण करने से पहले ही  महाशक्ति की सहायता से अपने भावों के संवाहक नरेन्द्रनाथ में शक्ति संचारित कर दी थी। उसी शक्ति से शक्तिशाली होकर परवर्तीकाल में नरेन्द्र ने जगतकल्याण के कार्य में एक प्रचण्ड हलचल मचा दिया था। 
महासमाधि के तीन-चार दिन पहले की बात है (जमशेदपुर में ?) -जब ठाकुर और नरेन्द्र एकान्त में बातचीत कर रहे थे, तब एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई। परवर्तीकाल में नरेन्द्र ने स्वयं इस विषय में कहा है  " ठाकुर की देह जाने के तीन-चार दिन पहले उन्होंने मुझे अकेले में पास बुलाया। मुझे अपने सामने बिठाकर मेरी ओर अपनी दृष्टि निबद्ध रखते हुए वे समाधिमग्न हो गए।  मैंने अनुभव किया कि उनके शरीर से एक सूक्ष्म तेज विद्युत् की तरंग की भाँति एक शक्ति निकलकर मेरे शरीर में प्रविष्ट हो रही है। धीरे धीरे मैं अपना बाह्यज्ञान खो बैठा। मैं निश्चल हो गया। मुझे याद नहीं कितनी देर तक मैं इस प्रकार बैठा रहा। जब बाह्यचेतना लौटी तो देखा कि ठाकुर रो रहे हैं। मेरे पूछने पर वे बहुत प्यार से बोले - 'आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर हो गया हूँ।  इस शक्ति के द्वारा तू संसार का बहुत कार्य करेगा। कार्य समाप्त होने पर तू लौट जायेगा। 
श्रीरामकृष्णदेव की महासमाधि के दो दिन पूर्व की घटना है। नरेन्द्र सोच रहे थे - 'रामचन्द्र दत्त, गिरीश आदि भक्तगण जो श्रीरामकृष्ण को स्वयं भगवान मानते हैं , क्या यह सत्य है ? इतना कष्ट सहने वाले श्रीरामकृष्ण क्या सचमुच युगधर्म-प्रवर्तक अवतार पुरुष हैं ? तब उसी क्षण - अन्तर्यामी भगवान ने ऑंखें खोलकर पूर्ण दृष्टि से नरेन्द्र की ओर ताकते हुए कहा - " क्या नरेन् , अभी तक तुझे विश्वास नहीं हुआ ? अरे ! जो राम, जो कृष्ण, वही अबकी बार एक ही आधार में रामकृष्ण, तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं-साक्षात्!"  
इस घटना का उल्लेख करते हुए परवर्तीकाल में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " मैं तो यह सुनकर भौचक्का हो गया। प्रभु के श्रीमुख से बारम्बार सुनने पर भी हमें ही अभी तक पूर्ण विश्वास नहीं हुआ-सन्देह और निराशा में मन कभी कभी आन्दोलित हो जाता है-तो औरों की बात ही क्या ? अपने ही समान एक देहधारी एक मनुष्य को ईश्वर कहकर निर्दिष्ट करना और उस पर विश्वास रखना बड़ा ही कठिन है। सिद्धपुरुष या ब्रह्मज्ञ तक अनुमान करना सम्भव है। उनको चाहे जो कुछ कहो, चाहे जो कुछ समझो, महापुरुष मानो या ब्रह्मज्ञ -इसमें क्या धरा है ? परन्तु श्रीगुरुदेव जैसे पुरुषोत्तम ने इससे पहले जगत में और कभी जन्म नहीं लिया है। संसार के घोर अंधकार में यही महापुरुष "प्रकाशस्तम्भ-स्वरूप" मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हैं! इनकी ही ज्योति से मनुष्य संसार-समुद्र से पार चले जायेंगे। " ६/४९              
*३/ हुकुमनामा:  ११ फरवरी १८८६ श्रीरामकृष्ण ने एक पेन्सिल और कागज माँग लिया। उन्होंने एकाग्रता पूर्वक कागज के ऊपर लिखा - " जय राधे प्रेममयी नरेन शिक्षा देगा, जब घर और बहार हुँकार देगा। जय राधे। " उन्होंने बंगला भाषा में इस प्रकार लिखा था - " जय राधे प्रेममयी -नरेन शिक्षे दिबे जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे, जय राधे।" जगतपति श्रीरामकृष्ण (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) अपने द्वारा निर्वाचित पुरुष श्रेष्ठ (वुड बी लीडर) को लोकशिक्षा के लिये लिखित आदेश (हुकुमनामा या चपरास) देकर ही नहीं रुके। उन्होंने सहज भावावेग में उसी क्षण बयान के नीचे एक महत्वपूर्ण चित्र भी अंकित किया। वह चित्र बयान में छिपी भावनाओं के प्रकटीकरण से परिपूर्ण वह एक मनोहर रेखा चित्र था। श्री ठाकुर ने चित्र में एक 'आवक्ष मुखाकृति' बनायी। जिसके नेत्र विशाल और दृष्टि ठहरी हुई (Pacific या प्रशान्त) थी -मुखाकृति का अनुगमन करता हुआ लम्बी पूँछवाला धावमान एक मयूर पक्षी। मानो नव-निर्वाचित नेता (लोकशिक्षक) के पीछे चपरास (Passport अभयपत्र) प्रदानकर्ता स्वयं जगतपति जा रहे हैं। नरेन्द्रनाथ के पीछे श्रीरामकृष्ण हैं!" मास्टर महाशय ने अपनी डायरी में श्रीरामकृष्ण के लिखित बयान और अंकित चित्र का हूबहू नकल उतार कर रख लिया। इसके साथ ही लिखा - I take without leave as something too valuable to be lost. 
श्री रामकृष्ण महिमा का जो अनन्य उद्देश्य (Absolute purpose) था -वह था नवयुवकों की एक विशाल संख्या को " रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा" (BE AND MAKE)" में प्रशिक्षित कर के उन्हें आध्यात्मिक रूप से जागृत लोकशिक्षक (वैष्णव-जन" *४ / वुड बी वेदान्ती लीडर्स या टीचर्स) के रूप में रूपान्तरित कर देना। 
"वैष्णव जन तो तेने कहिये" गुजरात के संत कवि नरसी मेहता द्वारा रचित भजन है जो महात्मा गाँधी को बहुत प्रिय था। नरसी मेहता गुजरात में जन्मे अपूर्व कृष्ण भक्त हुए है जिन्होंने ना केवल कृष्ण के दर्शन किये थे बल्कि प्रभु ने उनकी पुत्री नानी बाई का भाई बन कर भात भी भरा था। इस भजन की प्रत्येक पंक्ति में मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं के चारित्रिक गुणों का वर्णन किया गया है :- 
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे ।
पर दुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....
अर्थात सही मायने में विष्णु-भक्त, लोकशिक्षक या नेता वही है - जो दुसरे व्यक्ति की पीड़ा को जान पाता है,और उसे तह दिल से दूर करने की कोशिश करता है। जानने का अर्थ यह नहीं की उसको पता है कि आपको क्या तकलीफ है, इसका अर्थ है कि जो अपने स्वयं की और किसी अनजाने-मनुष्य की , दोनों की पीड़ा को (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहने की पीड़ा को ) मन में केवल एक बार महसूस कर सके नहीं, बल्कि जो निरन्तर महसूस करता रहता हो। ऐसे मनुष्य को ही 'वैष्णव जन' अर्थात श्रीरामकृष्ण की सन्तान या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता समझना चाहिए |

सकल लोक माँ सहुने वन्दे, निन्दा न करे केनी रे। 
वाच काछ मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेरी रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....
वैष्णव -जन बिल्कुल अपने जैसा मनुष्य होने के कारण दूसरों को कभी पराया नहीं मानता, - मानवमात्र को ही अपना मानता है।  वह जब किसी सिंह-शावक को भेंड़ -शिशु होने के भ्रम में भयभीत होते देखता है; " पंचभूतों के फन्दे में फँसे ब्रह्म"  को रोता हुआ देखता है, तो बिल्कुल निःस्वार्थ भाव से उसको भ्रममुक्त करने या डीहिप्नोटाइज्ड  करने के लिये आगे बढ़ता है! उस समय उसे बहुत सतर्क रहना चाहिये। नेतागिरी या गुरुगिरि का भाव नहीं रखकर, स्वयं को उस प्रभु का सेवक मानकर उसकी सेवा करनी चाहिये।  दुःख में वह दुखी व्यक्ति की मदद करें किन्तु मन में स्वयं को उससे श्रेष्ठ समझने का भाव ना लाये, क्योकि 'होलियर देन दाऊ होने के भाव' को अहंकार बनने में समय नहीं लगता है। इसीलिये यदि भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा से किसी की सहायता करने का अवसर मिला हो, तो  उसको याद मत रखो भूल जाओ। क्योंकि 
नेकी कर कुए में डाल, 
किसी का भला करने का सौभाग्य मिले तो मत ठोको ताल  
सन्त तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में कहा है-आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥ सियाराम मय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥ चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अंडज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। सारे संसार में अनेको प्रकार के प्राणी हैं, पर वैष्णव जन कभी अपने प्रति, या दुसरो के प्रति बुरे स्वभाव वाले व्यक्ति की बुराई ना करें , क्योंकि अच्छे-बुरे सभी मनुष्य, अपने उसी स्वभाव से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, जो उन्हें राम ने दिया है। 'राम ही विपदा ,राम ही दुखी ,राम का सहारा और राम ही सुखी ! ' जिसके लिए सर्व जगत राम-मय हो गया है तो वह किसी की निंदा क्या करेगा। 
वाच काछ मन निश्चळ राखे, धन धन जननी तेनी रे॥ 
जो व्यक्ति अपनी दृष्टि ,कर्म या व्यवहार और वाणी से अपने मन को निश्छल रख सकता हो, ऐसे पुत्र को जन्म देने वाली जननी या माता धन्य है , माँ ! आप धन्य है।  क्योंकि  

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर स्त्री जेने मात रे ।
जिहृवा थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी - अर्थात जब व्यक्ति सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ अपने यथार्थ स्वरूप के एकत्व का अनुभव करके नन-डूएलिटी या 'अद्वैत-भाव ' का अनुभव कर लेता है, तब उसे जिस परमानन्द (भूमानन्द) की अनुभूति होती है, वह ब्रह्मानन्द (The Bliss of Brahman) ही मोहग्रस्त मनुष्य (हिप्नोटाइज्ड मनुष्य) को भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है। उसके सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य उस भूमानन्द (ब्रह्मानन्द) को अपने अनुभव से जान लेता है, जिस स्थान से मन के साथ वाणी भी लौट आती है; जो मन-वाणी से परे है- वह 'अभीः' हो जाता है -कभी किसी से भय नहीं करता ! और वह साम्य-भाव में स्थित हो जाता है, और समदृष्टि या ज्ञानमयी दृष्टि में अवस्थित होकर जगत को ब्रह्ममय देखता है। और स्वामी विवेकानन्द के स्वर में बोल उठता है, " आओ, हम सब आज से - इसी क्षण से धर्म को सहज बनाने की चेष्टा करें और उस सत्ययुग को धरती पर उतारने में सहायता करें, जब प्रत्येक मनुष्य एक उपासक (वर्शिपर) होगा और प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित सत्यता (दी रियलिटी इन एव्री मैन) ही उसकी उपासना का विषय (ऑबजेक्ट ऑफ़ वर्शिप) होगा।" (८/६३)
सभी को समान समझने वाला पुरुष के मन मे 'लस्ट और लूकर' के प्रति आसक्ति नहीं रहती, वासना और धन (कामिनी -कांचन) की प्यास नहीं रखता है; अर्थात जो अपनी कभी ना तृप्त होने वाली तृष्णा को त्याग चूका है, उसके लिये परस्त्री माता के समान हो जाती है। जिह्वा थकी असत्य न बोले-जिह्वा जप करके थकने के पश्चात असत्य नहीं बोलती है,जैसे थकने के बाद वीर भी अपने हथियार डाल देता है।  और  परधन नव झाले हाथ रे- ऐसी अवस्था में मनुष्य के हाथ दुसरे के धन को नहीं प्राप्त करता है यानि मिलने पर भी त्याग देता है। 
मोह माया व्यापे नहि जेने, दृढ वैराग्य जेना तन मा रे ।
राम नामशुं ताली लागी, सकल तीरथ तेना तन मा रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....
निरन्तर विवेक-दर्शन का अभ्यास और लालच को कम करते रहने का अभ्यास करने के कारण, जिस मनुष्य के मन में 'मोह–माया' रूपी दृढ़-माया, अर्थात आत्मा को भ्रमित कर देने वाली या हिप्नोटाइज्ड कर देने वाली माया-शक्ति भी जिसके मन में प्रविष्ट नहीं हो पाती; अर्थात जिसके मन में दृढ-वैराग्य का निवास हो गया है और,जिसकी अवतारवरिष्ठ प्रभु श्रीरामकृष्ण से लय/लौ लग गयी है , ऐसा वैष्णव भक्त (ठाकुर-माँ स्वामीजी की सन्तान) समस्त तीर्थ अपने तन में लिए होता है ! अर्थात ऐसे 'वैष्णव-पुरुष' [पूज्य नवनी दा जैसे होली ट्रायो के भक्त) के दर्शन से समस्त तीर्थो की यात्रा के समान पुण्यदायी होता है। 

वण लोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे ।।
भणे नर सैयों तेनु दरसन करता, कुळ एको तेर तार्या रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....
वणलोभी ने कपटरहित छे, काम क्रोध निवार्या रे। परन्तु वह लोभ और कपट से दूर हो और जिसके काम ( स्त्री संसर्ग से सुख की कामना ) और क्रोध दोनों ही निवृत हो चुके है; भणे नरसैयॊ तेनुं दरसन करतां, कुळ एकोतेर तार्या रे॥ ऐसे वैष्णव जन के दर्शन मैंने साक्षात् किये हैं,और अपने कुल की एक नहीं अनेकों पीढीयों को भव से तार दिया है।  
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[ रखतूराम जब अपने चाचा के साथ कलकत्ता आ गये तो उनके गाँव का एक आदमी फूलचन्द जो डॉ० रामचन्द्र दत्त का अर्दली थे, वह रखतूराम को उनके यहाँ गृहसेवक के रूप में रखवा दिए। और उनके चाचा वापस भतीजों के पास चले गए। रामचन्द्र उनको प्रेम से लाटू कहने लगे। डॉ० रामचन्द्र दत्त श्रीरामकृष्ण के पास १८७९ में आये। और उसी वर्ष उनके दीक्षित-भक्त हुए। और उसी वर्ष लाटू महाराज भी उनके दीक्षित शिष्य बने। वे थोड़े हट्ठे-कट्ठे थे और ताकतवर दीखते थे। ]    

(विवेक-जीवन के पुराने पन्नों से: स्वामी बुद्धानन्द द्वारा लिखित): 
 १. स्वामी विवेकानन्द के प्रति नव-युवकों के आकर्षण का रहस्य:  (The secret of Vivekananda's charm:)
स्वामी विवेकानन्द प्रत्येक नवयुवक (young man,टीनेजर) को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं! शायद ही कोई किशोर ऐसा होगा जो उनके जीवन और शिक्षाओं के ऊपर लिखित कुछ पन्नों को पढ़ लेने के बाद, उन्हें प्रेम करने से स्वयं को रोक सकता हो ! स्वामी जी प्रत्येक नव-युवक के मन पर मानो एक जादू सा कर देते हैं; ऐसा क्या है उनमें ? 
सबसे पहले तो उनका शारीरिक शौष्ठव और चेहरे की सौम्यता-ऐसी है, जो हमारे मन को प्रचण्ड रूप से मोहित कर लेती है ! वे मानो 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' की जीवन्त मूर्ति हैं, प्रचण्ड ऊर्जा और निर्भयता के प्रतीक हैं! जरा उनकी आँखों में झाँकने की चेष्टा करो ! उनके "विशाल नेत्रों की स्थिर दृष्टि" मानो ऐसी भाषा में कुछ कहना चाह रही हैं, -जो अकथनीय (unspeakable ) या अनिर्वचनीय है ! 
हर व्यक्ति यही सोचता रह जाता है कि आखिर इस व्यक्ति की आँखों में ऐसा कौन सा जादू है, जिसकी ओर मेरा मन खिंचा चला जा रहा है ? हमलोग यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि, वह जीवित व्यक्ति कितना आकर्षणीय रहा होगा -जिसकी तस्वीर ऐसी है? 
हमलोग जल्दी ही यह समझ जाते हैं, कि उनकी सम्मोहन शक्ति, उनके शारीरिक आकर्षण में तो बिल्कुल नहीं है ! क्योंकि फिल्म-जगत में शारीरिक रूप से उनसे भी अधिक सुन्दर हीरो हो सकते हैं। किन्तु किसी भी फ़िल्मी हीरो या क्रिकेट प्लेयर के चित्र की तरफ बहुत अधिक देर तक देखते रहना हमलोग पसन्द नहीं करते। किन्तु स्वामी जी की छवि को निहारने से हमलोग कभी नहीं थकते। इसका क्या रहस्य है इसका रहस्य है, मानव-मात्र के प्रति उनका असीम प्रेम (unbounded love)! 
उनके हृदय का वही प्रेम, मानो उनकी आँखों से छलक कर, सीधा हमारे हृदय में प्रविष्ट हो जाता है, और हमलोगों के अन्तर्निहित उस आत्मा को झँकृत कर देता है, जो अत्यन्त महान है और जिसके विषय में हमें  अब तक पता ही नहीं था। उनके इस प्रेम के पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है, बल्कि इस प्रेम के पीछे है सम्पूर्ण निःस्वार्थपरता और पवित्रता ! तथा उसके भी पीछे है-वह सम्पूर्ण आध्यात्मिक जागृति (Complete Spiritual Illumination) जो 'विवेकज-ज्ञान' से उत्पन्न होती है ! 
तथा इन सबके अतिरिक्त एक वस्तु और है, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है ! हममें से जिस ने "श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग" (स्वामी सारदानन्द लिखित) को पढ़ लिया है, वे अवश्य जानते होंगे कि, "अपना शरीर त्यागने के पूर्व श्रीरामकृष्ण ने अपनी सम्पूर्ण आध्यात्मिक शक्तियों को 'नरेन्' (स्वामी विवेकानन्द) के भीतर ट्रांसमिट या संचारित कर दिया था !"  
इसके आलावा, उस 'पिक्चर ऑफ़ परफेक्शन' ( शिकागो पोज) को देखने मात्र से ही हमें ऐसा आश्वासन मिलता हुआ प्रतीत होता है कि, " मानव-मात्र में पूर्णत्व अन्तर्निहित है,आवश्यकता केवल उसके प्राकट्य की है।" अर्थात प्रत्येक मनुष्य में 'ब्रह्म' को जानकर, 'ब्रह्मविद' (भ्रममुक्त) मनुष्य बन जाने की सम्भावना छुपी हुई है !
[मनुष्य बनने के लिये सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित उस कहानी के मर्म को समझना आवश्यक है, जिसमें कहा गया है कि इब्लीस को छोड़ कर बाकी सभी फ़रिश्ते मनुष्य के सामने सर को क्यों झुकाते हैं? सभी प्राणियों में केवल मनुष्य को ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी क्यों कहा गया है ? (मुण्डक उप० ३.२.९) में कहा गया है -'ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति' अर्थात ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है! ब्रह्मविद मनुष्य बनने का तात्पर्य है- 'Realization of one's true nature as Sat- Chit-Ananda'! अपने सच्चे सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति। 
सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ नन-डूएलिटी या 'अद्वैत' का अनुभव होने के साथ ही साथ जिस परमानन्द (भूमानन्द) की अनुभूति होती है, वह ब्रह्मानन्द (The Bliss of Brahman) ही मोहग्रस्त मनुष्य (हिप्नोटाइज्ड मनुष्य) को भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है। उसके सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य उस भूमानन्द (ब्रह्मानन्द) को अपने अनुभव से जान लेता है, जिस स्थान से मन के साथ वाणी भी लौट आती है; जो मन-वाणी से परे है- वह 'अभीः' हो जाता है -कभी किसी से भय नहीं करता !]
२. भगवान श्री रामकृष्ण का नवयुवकों के प्रति असाधारण प्रेम : ( Bhgvan Sri Ramakrishna's extraordinary love for young people:)
यहाँ तक कि जब नरेन से स्वयं श्री रामकृष्ण देव भी पहली बार  मिले थे, तब वे भी उन्हें देखकर मानो मन्त्रमुग्ध से हो गए थे। उन्होंने अपनी प्रथम दृष्टि में ही नरेन्द्रनाथ की महान सम्भावना (great potential) को  पहचान लिया था; तथा वे यह भी जान गए थे कि उसके जन्म-ग्रहण करने का उद्देश्य क्या था ? *१/ 
उनके पास नरेन्द्रनाथ जब आये, उस समय उनकी आयु अठारह वर्ष थी, और जिस समय श्रीरामकृष्ण ने अपना शरीर छोड़ा उस समय वे मात्र तेईस वर्ष के एक युवा थे! प्रश्न उठ सकता है कि, मानवजाति के प्रथम भावी मार्गदर्शक वेदान्ती-नेता के रूप में उन्होंने एक तेईस वर्षीय नवयुवक नरेन का ही चयन क्यों किया था? जबकि श्री रामकृष्ण के पास तो कई वयोवृद्ध और ज्ञानी (आचार्य केशव सेन, गिरीशचन्द्र घोष, बिजय कृष्ण गोस्वामी, श्री महेन्द्रनाथ गुप्त-आदि), लोग आते रहते थे। 
किन्तु उन्होंने अपनी सम्पूर्ण आध्यात्मिक शक्ति*२/  को (चैतन्य हो -बोलकर स्पर्श करते ही, 'भ्रममुक्त' कर देने की जो स्पिरिचुअल पॉवर उन्हें माँ जगदम्बा, भैरवी ब्राह्मणी, तोतापुरी, सूफ़ी गोविन्द राय आदि से प्राप्त हुई थी) एक नवयुवक में ट्रांसमिट (संचारित) कर दिया। तथा अपनी सम्पूर्ण आध्यात्मिक सम्पदा
को विरासत के तौर पर उन्हें सौंपते हुए कहा - "आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर हो गया हूँ। इस शक्ति के द्वारा तू संसार का बहुत कार्य करेगा। कार्य समाप्त होने पर तू लौट जायेगा। " इस घटना का जिक्र करते हुए स्वामीजी परवर्तीकाल में कहते थे -" ठाकुर जिसे 'काली' 'काली' कहते थे, उनके लीलासंवरण से दो दिन पहले, वही इस शरीर में प्रविष्ट हो गयी है। "
ततपश्चात अपने युवा शिष्यों के दल का नेतृत्व -'लीडरशिप' उनके हाथों में सौंपते हुए कहा -" देख नरेन्, इन सब को तेरे हाथ सौंपे जा रहा हूँ क्योंकि इनमें तू ही सबसे अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली है। इनसे खूब स्नेह रखना और ऐसी व्यवस्था करना कि ये घर न लौटकर एक ही स्थान में रहते हुए, साधन-भजन में मन लगायें।" इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अपने वयोवृद्ध भक्तों पर उनकी कृपा नहीं थी, या उनलोगों में कोई आध्यात्मिक शक्ति संचारित नहीं की थी। किन्तु रामकृष्ण महिमा का जो अनन्य उद्देश्य (Absolute purpose) था- वह था नवयुवकों की एक विशाल संख्या को " BE AND MAKE" परम्परा (रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा) में प्रशिक्षित कर के उन्हें 'वुड बी लीडर्स ' आध्यात्मिक रूप से जागृत भावी लोकशिक्षकों के रूप में रूपान्तरित कर देना। 
और सम्पूर्ण विश्व में 'मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा पद्धति' का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ- जिन नवयुवकों के जीवन को, भावी लोक-शिक्षकों (वुड बी वेदान्ती लीडर्स या टीचर्सके रूप में गठित कर देने के उद्देश्य का जो 'Dynamic Part' गतिशील हिस्सा था; उस हिस्से का लीडरशिप प्रदान करने के लिये अपने समस्त भक्तों के बीच उन्होंने नवयुवक नरेन का चयन किया था। और भावी युवा लोकशिक्षकों के दल का नेतृत्व करने के लिये 'श्री रामकृष्ण पताका' (Main Standard-Bearer सैन्य परेडों में यूनिट का मुख्य मानक-ध्वज) को उनके हाथों में सौंप दिया था।  
इसके कारणों को स्पष्ट करते हुए श्री रामकृष्ण ने स्वयं कहा था, "जानते हो मैं इन लड़कों को क्यों पसन्द करता हूँ ? वे ताजा दूहे गये शुद्ध दूध जैसे होते हैं, जिसका उपयोग करने से पहले केवल थोड़ा उबाल लेने की जरूरत पड़ती है। किन्तु पानी मिले दूध को उबालने में समय बहुत अधिक लगता है; तथा उसमें ईंधन की खपत भी अधिक होती है। ठीक उसी प्रकार "श्रवण-मनन-निदिध्यासन वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान किशोरों और नवयुवकों की अंतश्चेतना को (Inner Consciousness ,अन्तर्निहित डिविनिटी या ब्रह्मत्व को) आध्यात्मिक निर्देशों (तत्वमसि आदि) के द्वारा आसानी से जागृत करया जा सकता है। किन्तु बड़ी उम्र में 'लस्ट और लूकर' में अत्यधिक आसक्त हो जाने के कारण वैसा कर पाना कठिन हो जाता है। 
ये तरुण और नव-युवक लोग नये मिट्टी के बर्तनों के समान होते हैं, और नए स्वच्छ मिट्टी की हाँडी में कोई व्यक्ति बिना कोई चिन्ता किये दूध को रख सकता है। इसके अतिरिक्त देवता के ऊपर भी केवल शुद्ध दूध ही चढ़ाया जाता है। जैसे  जिस पात्र का उपयोग एक बार दही ज़माने के लिये कर लिया गया हो, उसमें ताजे दूध रखने से व्यक्ति डरता है कि कहीं वह खट्टा तो नहीं हो जायेगा ?"           
३.महामण्डल की जड़ें कहाँ अवस्थित हैं? (Where are the roots of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal?)
यदि कोई यह पूछे कि अपने ५० वर्ष पूर्ण कर चुके, सम्पूर्ण भारत में इस मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा को एक आन्दोलन के रूप में प्रसारित करने वाले 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल' की जड़ें कहाँ हैं ? तो मैं यह कहूँगा कि महामण्डल की जड़ें , नवयुवकों के प्रति श्रीरामकृष्ण के उस 'प्रेम' में, उस 'विश्वास' में समाहित हैं, जिसे श्रीरामकृष्ण ने नरेन् के माध्यम से समस्त नवयुवकों पर किया था ! नवयुवकों के प्रति उनका प्रेम और भरोसा 'Love and Trust' कितना आश्चर्यजनक था ! यहाँ मुझे यह भी कहना चाहिये कि श्रीरामकृष्ण का वही प्रेम और विश्वास 'Love and Trust have Devolved upon you' तुम लोगों पर उतरा है !  
यदि कोई सत्यान्वेषी इस युवा-संगठन के आध्यात्मिक जड़ों (spiritual root) की खोज करने की चेष्टा करेगा, तो निश्चित रूप से वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि इस युवा-संगठन की जड़ें, श्रीरामकृष्ण का नवयुवकों के प्रति उसी प्रेम और भरोसे में (This Trust-' नरेन् जगत को 'BE AND MAKE' की शिक्षा देगा' इसी भरोसे में) समाहित हैं ! नवयुवकों के प्रति उनके (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव के)  इस अनूठे 'प्रेम और विश्वास' के महत्व को हमें सदैव स्मरण रखना चाहिये। 
क्योंकि इस युवा-संगठन के ऊपर ऐसा प्रेम और विश्वास किनका है ? " You know, millions in the world worship Sri Ramakrishna as God incarnate." हमलोग जानते हैं कि दुनिया के लाखों लोग विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण देव की पूजा आधुनिक युग में भगवान विष्णु के एक अवतार के रूप में करते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आधुनिक युग में विष्णु  के साक्षात अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण  का प्रेम हम लोगों पर उतरा है, उनका वह विश्वास हमें हस्तान्तरित कर दिया गया है! अर्थात स्वयं प्रभु ने भावी लोकशिक्षक के रूप में कार्य करने के लिये हमलोगों का चयन किया है ! प्रभु श्रीरामकृष्ण का ऐसा भरोसा प्राप्त होना-  एक अकथनीय आनन्द का विषय है, ईश्वर की देदीप्यमान महिमा है और अपने भक्तों पर उनकी असीम कृपा है।       
किन्तु हमें भी अपने उस दैवी -उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हो जाना चाहिये; कि स्वयं प्रभु श्रीरामकृष्ण ने हम लोगों पर 'मनुष्य' (ब्रह्मवेत्ता) बनने और बनाने' की कितनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है ! " That does not mean that you should feel that you are getting crushed"  किन्तु, महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का पालन करते समय हमारे हावभाव से ऐसा भी प्रकट नहीं होना चाहिये कि हमलोग (तो गृहस्थ हैं इसीलिये) मानो इस जिम्मेदारी के बोझ तले  दबे जा रहे हों। बल्कि, भगवान श्रीरामकृष्ण ने अपने काम के लिए 'मेरा' चयन, बिना मेरे जाने ही, कर लिया है, यह सोच कर ही हमलोगों का हृदय आनन्द से गदगद हो जाना चाहिये, हमारा मन उत्साह से भर उठना चाहिये !
४. वसीयत के रूप में प्राप्त स्वामी विवेकानन्द का हुकुमनामा : (Commandment of Swami Vivekananda received as a will! His Bequest)    
जो नवयुवक भारत के राष्ट्रीय युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द को अपने जीवन का ध्रुवतारा स्वीकार कर लेते हैं, उन्हें भावी लोक-शिक्षक (वुड बी लीडर्स, ब्रह्मविद मनुष्य, या वैष्णव-जन) बनने और बनाने की जिम्मेवारी भी स्वतः प्राप्त हो जाती है। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने -" इस आशंका से कि शिकागो की भयंकर ठंढ और भूख के कारण, कहीं उनका शरीर गुरुदेव के कार्य को पूरा किये बिना ही न छूट जाय "-अपनी उस आध्यात्मिक शक्ति को, जो उन्हें अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से वेदान्त परम्परा में या विरासत (legacy) के रूप में प्राप्त हुई थी; उसे एक वसीयत के रूप में आलासिंगा के माध्यम से सभी नवयुवकों को सौंपते हुए, (Bequeathing his Legacy mainly to the Youth) २० अगस्त १८९३ को  लिखित प्रसिद्द वसीयत पत्र में स्वामी जी कहते हैं :
  • (जो दूसरों के लिए नहीं जीते उन) तथाकथित अमीर लोगों पर भरोसा मत करना - वे तो मृत से भी ज्यादा अधम हैं ! भरोसा तुम लोगों पर है; गरीब, पद-मर्यादा रहित किन्तु विश्वासी (आस्तिक) तुम्हीं लोगों पर। 
  • ईश्वर पर भरोसा रखो ! किसी अन्य चालबाजी (गुटबाजी) की आवश्यकता नहीं; उससे कुछ नहीं होता। दुःखियों का 'दर्द' समझो और ईश्वर के पास सहायता की प्रार्थना करो - सहायता अवश्य मिलेगी !  
  • मैं बारह वर्ष तक हृदय पर बोझ लादे और सर में यह विचार  (भ्रममुक्त मनुष्य, लोक-शिक्षक, नेता बनने और बनाने का स्किम) लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर दर घूमा। हृदय का रक्त  बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश में सहायता माँगने आया । परन्तु भगवान (अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) अनन्त शक्तिमान हैं - मैं जानता हूँ, वे मेरी सहायता करेंगे।
  •  I may perish of cold or hunger in this land, but I bequeath to you, young men, this sympathy, this struggle for the poor, the ignorant, the oppressed.
  • मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु मेरे नवयुवको (महामण्डल के भावी नेताओं), मैं गरीब, भूखों और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ तुम सब इसी क्षण उस पार्थसारथी के मन्दिर में (श्रीकृष्ण आदि दशावतारों के मन्दिर में), जो गोकुल के दीन -हीन ग्वालों के सखा थे, जो अपने रामावतार में गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने में, नहीं हिचके। जिन्होंने अपने बुद्धावतार में अमीरों का निमंत्रण अस्वीकार करके एक वरांगना के भोजन का निमंत्रण स्वीकार किया और उसे उबारा।  
  • जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबली दो, अपने समस्त जीवन की बली दो - उन दीनहीनों और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। 
  • और तब अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ (अब सवासौ करोड़) देशवासियों के उद्धार-कार्य में न्योछावर कर देने का व्रत लो, जो दिनोदिन अवनति के गर्त में डूबते जा रहे हैं ! 
  • " भय ही मृत्यु है। भय से पार हो जाना चाहिये। आज से ही भयशून्य (भ्रममुक्त) हो जाओ। अपने मोक्ष तथा परहित  (भ्रममुक्त बनने और भ्रममुक्त बनाने) के निमित्त अपने जीवन को न्यौछावर करने के लिये अग्रसर हो जाओ। थोड़ी सी हड्डी तथा मांस का बोझ लिए फिरने से क्या होगा ? 
" पहले तो हममें वह 'क्षात्र-वीर्य' ही कहाँ है जो हर व्यक्ति को आत्मनियंत्रण, संयम, सेवा और आज्ञापालन सिखलाता है ? क्षात्रभाव  प्रभुत्व और आत्मतुष्टि पाने में नहीं है, वह आत्मत्याग में है। हमें दूसरों के हृदय और जीवन पर अधिकार पाने के पहले, आदेश मिलने पर अग्रसर हो अपने जीवन की बलि देने के लिये तैयार रहना चाहिये, पहले अपनी बलि देनी चाहिये।" (वि०के संग मे)
यही वह हुकुमनामा *३ / (commandment या चपरास) है, जिसे स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो धर्म-सम्मेलन में भाग लेने से बहुत पहले, भारत के युवा पीढ़ी के समस्त भावी लोकशिक्षकों (वुड बी लीडर्स) को एक लिखित वसीयत के रूप में सौंप दिया था !
५. युवा प्रशिक्षण का सार - विवेकदर्शन का अभ्यास और लालच को कम करना : (इति उभयाधिनः चित्तवृत्ति निरोधःThe Training: Practicing Prudence and Reducing Greed.) 
'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडर्स ट्रेनिंग ट्रेडिशन' वास्तव में एक आध्यात्मिक मनुष्य, लोकशिक्षक या वैष्णव-जन बनने और बनाने वाली वह परम्परा है, जो इस युवा महामण्डल को बिलॉन्ग करने वाले (जुड़े हुए) समस्त युवाओं को विरासत में प्राप्त हो जाती है ! अतः इस शिविर में भाग लेने आये सभी प्रशिक्षणार्थी भाइयों को यहाँ किस प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त होना चाहिये? 
निश्चित रूप से यह प्रशिक्षण 'मनुष्य निर्माण' के लिए ही होना चाहिये। 'Man-Making Training' या मनुष्य-निर्माणकारी प्रशिक्षण कहने से तात्पर्य यह नहीं है कि, यहाँ कोई दूसरा व्यक्ति तुमको मनुष्य बनाने जा रहा है; यह 'सेल्फ मैन मेकिंग ट्रेनिंग-ट्रेडिशन' या स्वयं ही स्वयं को यथार्थ मनुष्य के साँचें में ढाल लेने वाली प्रशिक्षण-परम्परा है। 
महामण्डल के वरिष्ठ भैया लोग यहाँ हमें ५ अभ्यास के द्वारा 3'H' -अर्थात शरीर-मन और हृदय को विकसित करके, यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने (Be and Make) के विषय में जानकारी, उत्साह, सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करेंगे। जहाँ कहीं उन्हें, तुम्हारे द्वारा किये जाने वाले अभ्यासों में त्रुटि दिखाई देगी, तो उसे दूर करने में, वे हमारी सहायता भी करेंगे। किन्तु इस 'सेल्फ-मैन-मेकिंग-स्किम' या 'आत्म-जीवनगठन' के खेल में मुख्य भूमिका- 'नायक' (हीरो) की भूमिका तो स्वयं हमलोगों को ही निभानी होगी। 
और इसके लिये पहले यह समझ लेना जरुरी है, कि तुम यहाँ किस प्रकार का मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने आये हो, चरित्रवान-मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति क्या है ? फिर उसे सीखने और उसका अभ्यास करने के लिये तुममें पर्याप्त उत्साह भी रहना चाहिये। 
[कुछ मूलभूत प्रश्नों.... के उत्तर, जैसे  इस पंचेन्द्रिय-ग्राह्य जड़ जगत के पीछे ऐसा कोई शक्तिमान पुरुष है या नहीं, जिसके इशारे पर जड़-समष्टि (गोचर भौतिक जगत) परिचालित हो रही है ?  इस मानव जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या धर्म, ईश्वर आदि बातें मानव मन की कल्पना से उत्पन्न आकाशकुसुम की तरह असत्य हैं ? हमें गुरु-शिष्य परम्परा या 'श्रवण-मनन -निदिध्यासन' परम्परा में स्वयं सीख लेना होगा    
अतः सबसे पहले तुम्हें अच्छी तरह से यह समझना होगा कि, इस मनुष्य निर्माण योजना या 'मैन-मेकिंग स्कीम ' के द्वारा- तुमसे किस प्रकार का मनुष्य बन जाने की अपेक्षा की जाती है ? स्वामी जी वास्तव में नवयुवकों को किस प्रकार के 'मनुष्य' के रूप देखना चाहते थे ? स्वामी विवेकानन्द प्रत्येक नवयुवक को एक विवेकी मनुष्य (लोक-शिक्षक) के रूप में विकसित होते हुए देखना चाहते थे।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं --" अपने चरित्र-कमल को विकसित करो, भ्रमर स्वयं आयेंगे। पहले अपने आप पर विश्वास करो, फिर ईश्वर पर। मुट्ठी भर शक्तिशाली मनुष्य विश्व को हिला सकते हैं। हमें (3'H' की) आवश्यकता है हृदय की, अनुभव करने के लिये, मस्तिष्क की, धारणा करने (conceive) के लिये, और मजबूत भुजा की, काम करने के लिये। अपने को कार्य का समर्थ साधन बनाओ। बुद्ध ने अपने को पशुओं के लिये समर्पित कर दिया था। जब हृदय और मस्तिष्क में मतभेद हो, तो हृदय का अनुगमन करो। कल का नियम था प्रतियोगिता। आज का नियम है सहयोग।" वि ० सा० ३ /प्रेम-धर्म / २७८ 
" सर्वप्रथम तुम्हें 'लस्ट ऐंड लूकर' से अर्थात स्पर्श-इन्द्रियों में आसक्ति और धन-लोलुपता से, अपने मन को अवश्य पृथक कर लेना होगा। ततपश्चात निरन्तर सत और असत (रीयल ऐंड अनरियल) के बीच विवेक-प्रयोग करते रहना होगा। अर्थात 'मैं शरीर नहीं हूँ- मैं सर्वव्यापी आत्मा ही हूँ,' ....... ऐसे विदेह भाव (दी मूड ऑफ़ बॉडि-लेसनेस) में विभोर होकर अवस्थान करना होगा।  इसी प्रकार से लगे रहने का नाम ही पुरुषकार (self-exertion — as distinguished from grace) है। इस पुरुषकार की सहायता से ही उन पर निर्भरता आती है, और इसे ही परमपुरुषार्थ  (the goal of human achievement. मोक्ष या भ्रममुक्ति के बाद माँ सारदा की कृपा से वैष्णव- जन बन जाना) कहते हैं। " ६/५१ 
(You must take off your mind from lust and lucre, (वासना और धन) must discriminate always between the real and the unreal-------must settle down into the mood of bodyless-ness  with the brooding thought that you are not this body, and must always have the realisation that you are the all-pervading Atman. Do not talk religion. We need a heart to feel, a brain to conceive, and a strong arm to do the work. Let the heart be opened first, and all else will follow of itself. Preach the highest truths. Everywhere is He. Be true to your mission. Remain pure always. Become a dynamo of spirituality.) 
" पहले हृदय के द्वार तो खुलने दो, शेष सब अपने आप ही आ जायेगा। लेकिन यह बात अच्छी तरह समझ लो कि जब तक कामना-वासना है (लस्ट और लूकर में आसक्ति है), तब तक उस "प्रेम " का आविर्भाव नहीं होगा। पहले अपनी इन्द्रियासक्ति, भोगों की लालसा का ही त्याग क्यों न करो ? तुम कहोगे - 'यह कैसे सम्भव है, मैं तो गृहस्थ हूँ। ' इसीको फालतू बकवास कहते हैं। गृहस्थ होने का अर्थ यह तो नहीं है कि कोई मूर्तमान असंयम बन जाये, या आजन्म वैवाहिक सुख का उपभोग करता रहे?" [२४ जनवरी १८९८- सुरेन्द्रनाथ सेन डायरी/८-२८०/ personification of incontinence, स्वयं से पूछो -'एम आई अ बीष्ट?' मने करबे तुमि एक जन शीक्खक ! पूज्य नवनी दा अपना शरीर छोड़ने से दस दिन पहले जमशेदपुर कैम्प से विदा होते समय क्या ठीक यही आदेश नहीं दे गए हैं? ]
[ ‘जानाति, इच्छति अथ करोति’  यह नियम है- पहले कोई जानता है, जानने के बाद इच्छा करता है, फिर उसे क्रिया रूप में परिणत करता है। यथा- ' ज्ञानजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः।' आरम्भ में सृष्टि रचना से पूर्व, एकमात्र आत्मा ही था। उससे अतिरिक्त अन्य कोई स्वतन्त्र वस्तु न थी।  ‘तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति ' इस तरह परमात्मा ने विचार किया ‘मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ।’अतः सृष्टि निर्माण के लिए सर्वज्ञ ईश्वर को भी ज्ञान,(विचार)इच्छा एवम् कर्म का अवलम्बन करना पड़ा।  इच्छा , ज्ञान और शक्ति ये तीन आवश्यक तत्व हैं जो उड़ान भरने के लिए जरूरी होते हैं। जिस कौम की इच्छाशक्ति ही मर जाती है वह अपने आप लुप्त हो जाती है।  
किन्तु यदि बिना प्रयोजन के कोई कर्म  किया जायेगा तो पानी पीटने (संस्कृत में ‘जल-ताड़न’ बोलते हैं) के समान वह कर्म भी निष्फल हो जायेगा, और शक्ति का अपव्यय होगा, सो अलग। इसलिए कोई भी कर्म प्रारम्भ करने के पूर्व यह विचार कर लेना चाहिए कि उससे किस प्रयोजन की सिद्धि होगी, उसमें क्या-क्या विघ्न पड़ेंगे और उन विघ्नों को हम कैसे पार करेंगे? वे लोग अधकचरे होते हैं जो निष्काम-कर्म  का नाम सुनकर ही चौंक जाते हैं। गीता १८/२५ में कहा गया है - 
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥[1]
प्रत्येक क्रिया का एक परिणाम होता है। दूध का मन्थन करने पर क्रीम निकलती है। दही के मन्थन से नवनीत निकलता है। मन्थन एक कर्म है। यदि आपको यह ज्ञात नहीं कि दूध-दही के मन्थन का परिणाम क्या होगा तो मन्थन-क्रिया निष्फल हो जायेगी।
इसलिए कोई कर्म करना (आजन्म विवाह-सुख भोग में संलिप्त रहना)हो तो पहले उसका अनुबन्धन समझना चाहिए। अनुबन्ध में चार बातें विचारणीय हैं। पहली बात यह कि हम कर्म के अधिकारी हैं कि नहीं? हमें अमुक कर्म करना चाहिए कि नहीं? अर्थात् उस कर्म में हमारा अधिकार होना चाहिए। दूसरे, कर्म को स्वरूप से जानना चाहिए। कर्म कैसे करना है यह यदि आपको ठीक-ठीक करना नहीं आता, तो उसमें लगकर आप उसको बिगाड़ देंगे। तीसरे, कर्म के प्रयोजन का विचार करना चाहिए। चौथे यह देखना चाहिए कि उस कर्म के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है। इस प्रकार अधिकार, विषय, प्रयोजन और सम्बन्ध इन चारों के ज्ञान का नाम अनुबन्ध है। साभार krishnakosh.org]
इसीलिए हमारे शास्त्रों में कहा गया है - 
" विवेकी सर्वदा मुक्तः संसारभ्रमवर्जितः ॥ 
कुछ भी सोचने -बोलने और करने के पहले सर्वदा विवेक-प्रयोग करने वाला मनुष्य हमेशा भ्रममुक्त मनुष्य की अवस्था में रहता है, जगत्प्रपंच या पंचभूतों के फन्दे में नहीं फंसता। उसे समझ में आ जाता है कि यह सारा जगत-प्रपंच परमात्मा का स्वरूप है। जीव भी परमात्मा का स्वरूप है, इसलिये भक्त प्रह्लाद प्रत्येक मनुष्य की विवेक-प्रयोग शक्ति को जागृत करने की प्रार्थना करते हुए कहते हैं :-
दुर्जनः सज्जनो भूयात् सज्जनः शान्तिमाप्नुयात्। 
शान्तो मुच्यते बन्धेभ्यः मुक्तस्त्वन्यान् विमोचयेत्।।
हे नाथ! दुर्जन प्राणी सज्जन बन जाँय। दुर्जन की दुर्जनता मिट जाय। सज्जन प्राणी शान्ति लाभ करें। शान्त प्राणी बन्धनों से मुक्त हो जायँ, अर्थात पंचभूतों के फन्दों से या भ्रम से मुक्त हो जायें। विमुक्त प्राणी दूसरों की मुक्ति के काम में लग जाँय। 
["May the wicked become good, may the good realize peace, may the peaceful be released from all bondage; and may the released redeem others.  अर्थात महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन के प्रचार-प्रसार में जुट जायें !   जो सिंह-शावक होकर भी, अपने को भेंड़ मानते हैं, अजर-अमर-अविनाशी  आत्मा होकर भी अपने को नश्वर शरीर (पंचभूत) मानते हों उन्हें, भ्रममुक्त करने के कार्य में लग जायें ! ]
"प्रत्यक्षानुभूति ही यथार्थ ज्ञान या धर्म है। (Perception is our only real knowledge or religion.) हममें से प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्यक्षानुभूति करनी होगी। आचार्य हमारे समीप केवल 'खाना ला सकते हैं'--इससे पुष्टि लाभ करने के लिये हमें स्वमेव खाना पड़ेगा। यदि तुम एक आत्मा को (अपनी आत्मा को) जान सके, तो तुम भूत, भविष्यत, वर्तमान सभी आत्माओं को जान सकोगे। " The concentrated mind is a lamp that shows us every corner of the soul." एकाग्र मन मानो एक प्रदीप है, जिसके द्वारा आत्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ! जब तुम्हें यह निश्चय हो जायेगा कि तुम्हारी आत्मा को कोई भी नहीं ले जा सकता, जब आत्मा हर कसौटी पर खरी उतरेगी, तब तुम उसे दृढ़भाव से पकड़े रहो, तथा सभी को यह आत्मतत्व सुनाते रहो ! शान्त रहकर संचय करो और आध्यात्मिकता के 'डाइनेमो' बन जाओ। "  देववाणी/७१-७३]         
हम सभी लोगों के पास, हमारी अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्ति (free will) या विवेक-प्रयोग करने की स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति होती है। हमलोगों ने बहुत जाँच-परख कर और अपने उच्चतम विचारों का प्रयोग करने के बाद ही, अपने जीवन में अनुकरणीय आदर्श (रोल मॉडल) के रूप में स्वामी विवेकानन्द का चयन किया है! इस प्रशिक्षण-शिविर में हमलोगों को किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा जबरदस्ती खींच कर नहीं लाया गया है। हमलोगों ने अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्ति (विवेकप्रयोग-शक्ति या free willसे प्रेरित होकर, स्वयं को अपने उस पसन्दीदा आदर्श-मनुष्य या रोल-मॉडल के साँचे में ढल जाने की अनुमति दी है, जो हमारी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने में, या उन्हें कार्यरूप में परिणत करने में समर्थ हैं ! 
पातंजलियोगसूत्र- "अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्-निरोधः ॥ " (१.१२) की व्याख्या करते हुए महर्षि वेदव्यास अपने भाष्य में कहते हैं, चित्त की वृत्तियों को निरुद्ध करने का उपाय क्या है - 'अथासां निरोधे क उपायः ? इति—
कि मन की अतिरिक्त चंचलता को वश में लाने का सबसे अच्छा उपाय है पूर्णत्व-प्राप्त जीवन या 'वैष्णव-जन' के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण या आदर्श स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना और साथ साथ वैराग्य अर्थात लालच को भी क्रमशः कम करते जाना। 
" चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च" -अर्थात चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है। " कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति"  -- कैवल्य (भ्रम-मुक्ति) की ओर ले जानेवाली विवेक-युक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है। जबकि अविवेक से युक्त संसार की ओर ले जानेवाली इच्छाशक्ति का प्रवाह - " संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति।"  वह धारा पाप के लिए बहती है (नीचे की ओर, अवनति की ओर ले जाती है)। अतः हमें कुछ भी सोचने, बोलने और करने के पहले विवेक-प्रयोग द्वारा यह जान लेना चाहिये; कि संसार की ओर प्रवाहित होने वाली धारा या 'इच्छामात्र' ही अविद्या (प्रेय)है।
"तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।" - तत्र = 'चित्तनदी' की उन दोनों धाराओं में से जिस धारा का प्रवाह (विषयस्रोतः) इन्द्रिय -विषयों की दिशा में है, या निम्नगामी दिशा में है। उस धारा के प्रवाह और वेग (Flow and velocity) को 'खिलीक्रियते' अर्थात उस धारा पर वैराग्य का फाटक लगाकर, (धारा को राधा बनाकर),उर्ध्वमुखी मोड़ लेना चाहिये। और तब आत्मा के स्वरुप जानने की इच्छा से 'विवेकदर्शनाभ्यासेन' - हृदय में विद्यमान स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर मन को एकाग्र करके उनका दर्शन या अवलोकन करने का अभ्यास करना चाहिये। मानो महर्षि व्यासदेव यह जानते थे कि स्वामी विवेकानन्द जैसे आकर्षक युवा-आदर्श एक दिन आएंगे, और मनःसंयोग की कक्षा में उनके चित्र पर प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करने से विवेकस्रोत उद्घाट्यते- उद्घाटित  जायेगा ! इस प्रकार हम देखते हैं कि -इति उभयाधिनः चित्तवृत्ति निरोधः!"  चीत्त नदी की धारा के निम्नगामी प्रवाह को उर्ध्वगामी बनाने की प्रक्रिया (या चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया (उभयाधिनः) " वैराग्य और विवेक-दर्शन के अभ्यास"- दोनों साधनों, पर निर्भर करता है।     
हमारे ऋषियों ने कहा है -‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। किन्तु हमारे शरीर की तरह ही मन भी तो एक जड़ वस्तु ही है। तो फिर यह जड़ ‘मन’ हमारे बंधन और ‘मोक्ष’ का कारण कैसे हो सकता है? 
मन आत्मा का दिव्य चक्षु है, अर्थात मन का संचालन तो आत्मा के अधीन है। आत्मा चाहेगा, तो मन से बंधन अथवा मोक्ष दोनों प्राप्त कर सकता है। 'विवेक-प्रयोग' आदि ५ अभ्यास नहीं करने के कारण, हमारी रूचि तो अभी " अविवेकविषयनिम्ना" है, हमारी रूचि तो अभी तक रसगुल्ला खाने में ही बनी हुई है, ईश्वर बनने और बनाने में (अर्थात भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने में,'BE AND MAKE' तथा 'चरैवेति चरैवेति' सत्ययुग लाने में ) हमारी रूचि नहीं है, और असली गड़बड़ी भी यही है। 
जैसे यह कह दिया जाता है, कि मेरी तो इच्छा है उठ जाने की, पर यह रजाई मुझे नहीं छोड़ रही। बस, हमें केवल इतना करना है कि ईश्वर (होली ट्रायो) के प्रति इच्छा पैदा करें, ईश्वर के प्रति रूचि बनाओ और उसको स्मरण करने का प्रयत्न करो। तो जैसे किसी घड़ी की बैटरी बदल देने के बाद वह निरन्तर सही दिशा में उर्ध्वमुखी दिशा में चलती है, यह मन रूपी भी घड़ी भी निरंतर सही दिशा में ही चलेगा। फिर अपनी संकल्प शक्ति या दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा मन में दूसरी बात नहीं उठायेंगे, ईश्वर की बात उठायेंगे। यदि हम बंधना चाहें, तभी यह जड़ मन हमें (मनुष्य को)  बाँध सकता है। पर यदि हम नहीं बंधना चाहें, तो यह हमें नहीं बाँध सकता है। 
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " Never say any man is hopeless, because he only represents a character, a bundle of habits, and these can be checked by new and better ones. Character is repeated habits, and repeated habits alone can reform character. " 
" ऐसा कभी मत कहो कि 'अमुक' के उद्धार की कोई आशा नहीं है। क्यों ? इसलिये कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का -कुछ (प्रेय) अभ्यासों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास (श्रेय अभ्यास) से दूर किये जा सकते हैं। चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है, और इस प्रकार के दो सत अभ्यास ही चरित्र में सुधार लाने की प्रक्रिया है। ('विवेकदर्शन का अभ्यास और लालच को कम करना' यही (१/१२३)
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते: हृदय में विद्यमान स्वामी विवेकानन्द की जीवंत मूर्ति पर एकाग्रता का अभ्यास करना ही विद्या (शिक्षा या श्रेय-मार्ग) है, जिसके द्वारा हमारा विवेकश्रोत- प्रेम उद्घाटित (unlocked) हो जाता है ! अर्थात मिथ्या अहं का ताला खुल जाता है, हमारे मोह का क्षय हो जाता है, और आत्मज्योति के प्रकाशित होते ही हृदय का सारा अँधेरा क्षणभर में दूर होने से हमलोग भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं; और इस प्रकार उस सिंह-शावक के भ्रम का नाश हो जाता है, जो अपने को भेंड़ समझकर भय से काँप रहा था
यहाँ महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तक जीवन नदी के हर मोड़ पर (पृष्ठ ४५-४८) से पूज्य नवनी दा के जीवन से जुड़ी एक घटना को उद्धृत किया जा सकता है - " एक बार जादवपुर यूनिवर्सिटी में  सेमिनार के बाद प्रश्नोत्तरी-सत्र में कुछ प्रश्नों के उत्तर महामण्डल के पूर्वाध्यक्ष श्री नीरदवरण चक्रवर्ती और कुछ प्रश्नों के उत्तर पूज्य नवनी दा दे रहे थे। इसी बीच थोड़ा वयोवृद्ध से दिखने वाले व्यक्ति, जिनको देखकर ही मुझे ऐसा लगा कि वे philosophy के कोई रिटायर्ड प्रोफ़ेसर होंगे, ने अपनी ऊँगली से मेरी ओर इंगित करके कहा, ' यह प्रश्न मैं आपसे कर रहा हूँ, आप ही इसका उत्तर दीजियेगा। ' 
मैं बहुत डर गया, ये इस प्रकार बोल रहे हैं, मैं तो कोई philosophy का प्रोफ़ेसर नहीं हूँ, कुछ भी नहीं जानता,बहुत हुआ तो दो-चार पृष्ठ कहीं से पढ़ लिया होऊँगा। पर उतना जानने से क्या होना था। वे बोले, " अच्छा आज सुबह से ही यहाँ स्वामीजी के विषय में जितने व्याख्यान दिये गये हैं, उसको सामग्रिक रूप से लेने पर यही अर्थ निकलता है कि, हमलोग आज सारा दिन वेदान्त-शिक्षा अर्थात आध्यात्मिक जागृति (स्पिरिचुअल अवेकनिंग) के विषय पर चर्चा किये हैं। तो आप यह बताइए कि वेदान्त के सार को अत्यन्त सरल भाषा में कहना हो तो उसे कैसे कहेंगे? " 
मैंने तो जितना थोड़ा-कुछ वेदान्त-दर्शन को समझा है, वह उतना ही है -जितना माँ सारदा ने मुझे बतलाया है; जो उन्होंने नहीं बतलाया, वह सब कुछ भी नहीं जानता हूँ ! 
 इसीलिये मेरे मुख से निकल गया " अच्छा यदि किसी बिल्कुल अनपढ़ ग्रामीण महिला के मुख से अत्यन्त ही सरल भाषा में निकले वेदान्त के सार को मैं उद्धृत करना चाहूँ, तो क्या यहाँ उपस्थित विद्वत-समाज मुझे उसकी अनुमति देंगे ? मेरे इतना कहते ही, कई लोग एक साथ बोल पड़े - " बोलिये, बोलिये। " 
उस समय मुख से निकला, ' मैंने कहा ' -- ऐसा बोल नहीं पा रहा हूँ| मेरे मुख से निकला कि- " उस अशिक्षिता ग्रामीण महिला का नाम है, श्रीश्री सारदा देवी, जिनको हमलोग मात्र श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव कि धर्मपत्नी के रूप में ही जानते हैं !" मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि माँ सारदा देवी द्वारा अत्यन्त सरल भाषा, जिससे अधिक सरल भाषा में कहा ही नहीं जा सकता, में दिये गये एक उपदेश - " जगत तोमार आपनार, केऊ पर नय !" को  अत्यन्त सरल भाषा में वेदान्त का सार (=आध्यात्मिक रूप से जागृत मनुष्य की पहचान)  कहा जा सकता है।
इतना सुनते ही सभी एक ही साथ हर्ष ध्वनी करने लगे- जिन्होंने प्रश्न किया था, वे आगे आकर मुझे बाँहों में भर लिये और जिस प्रकार हौले से कानों में कोई बात कही जाति है, उस प्रकार बोले- " आपनी ठाकुरेर कृपा पेयेछेन !" यह सब उस सेमिनार में हो रहा था, जिसमें श्रोता के रूप में फिलोसफी के छात्र- छात्राएं उपस्थित थे, फिलोसफी के अध्यापक- अध्यापिकाएं उपस्थित थे, और कुछ दूसरे लोग भी होंगे य़ा नहीं कह नहीं सकता।  सभी एक साथ,वाह-वाह अद्भुत कहते हुए महा-आनन्द में झूम उठे! " 
उसके बाद की एक घटना- और भी मजे की है :  लगभग एक-दो वर्ष के बाद अमिय दा के सभी परिचित लोगों ने यह तय किया कि उनके जन्म दिन के उपलक्ष्य में, उनके विवेकानन्द रोड स्थित घर पर एकसाथ जमा होकर- थोड़ी देर तक एक विचार-गोष्ठी जैसा कुछ करेंगे, जिसमे उनकी बातों पर चर्चा करेंगे-सुनेंगे। प्रत्येक ने मुझसे भी आने के लिये कहा।  
वहाँ पहुँचा तो उनलोगों ने मुझसे भी कुछ कहने का अनुरोध किये।  मैं सोंचने लगा, यहाँ बोलने के लायक क्या बोलना ठीक होगा ? तो वहाँ पर भी मैंने ग्राम्यभाषा में 'वेदान्त-दर्शन या आध्यात्मिक जागृति' की परिभाषा से सम्बन्धित इसी घटना को दुबारा कह सुनाया। वहाँ पर उस दिन बहुत थोड़े से ही लोग समवेत हुए थे, और उनमें से अधिकांश लोग फिलोसफी के प्राध्यापक लोग ही थे। उन्हीं लोगों में से किसी व्यक्ति ने मुझसे पूछा- 'आच्छा जिस व्यक्ति ने आपसे वाह प्रश्न किया था, क्या उस व्यक्ति को आप अभी पहचान पायेंगे ? मैंने कहा, 'अभी देख कर उनको पहचान पाउँगा य़ा नहीं, वह मैं अभी ठीक-ठीक कह नहीं पा रहा हूँ। यह सुनकर उन्होंने कहा - " वह व्यक्ति मैं ही हूँ!" यह एक अद्भुत घटना घटी थी। सब कुछ कितना आश्चर्यजनक है! इसीलिये केवल इतना सोंचता हूँ कि, उन लोगों की होली -ट्रायो (त्रिदेवों की) प्रसन्नता प्राप्त हो जाने से - उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता है !! 
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥
भावार्थ:- जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है,  उन परम आनंद स्वरुप श्रीमाधव (जिनकी कृपा से निरक्षर 'रख तू राम ', लाटू महाराज,और फिर स्वामी अद्भुतानन्द बन जाते हैं, उन परमानन्द स्वरूप भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस देव) की मैं वंदना करता हूँ॥
(By whose grace dumbs start talking, lame men climb mountains, I worship that Sri Krishna, the supreme bliss.)
अर्थात श्रीरामकृष्णदेव,माँ श्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द - गूँगे को वाक्शक्ति-सम्पन्न और लंगड़े को पर्वत पार कर जाने में समर्थ करते हैं  !" यह बात केवल मुख से कही जाने वाली कोई कहावत मात्र ही नहीं है, यह बात कितनी सत्य है, मैं स्वयं इस बात का अनुभव करता हूँ।  उन लोगों की कृपा होने से,  ऐसा सचमुच होता है, सचमुच होता है ! 
सचमुच ऐसा अनुभव करता हूँ,जीवन में कोई नैराश्य नहीं है, अन्य कोई आशा नहीं है।  कोई चाह बाकी नहीं है ! जीवन में धन्यता का अनुभव होता है,  जन्म लेना सार्थक हुआ मुझे ऐसा प्रतीत होता है ! कोई आभाव नहीं है, कोई आकांक्षा नहीं है! आनन्द से ह्रदय भरा हुआ है, आनन्द से छाती भरी हुई है ! ये त्रिदेव- ठाकुर, माँ, स्वामीजी ही सर्वदा मेरे धेय्य हैं, मन में यथासंभव इन्हीं लोगों का स्मरण सर्वदा बना रहता है, चलता रहता है। मेरा मन उनके स्मरण में न लगा रहता हो, ऐसी अवस्था बहुत कम, एकदम अल्प समय के लिये होती है। बैठने पर- नित्य उनके उपदेशों पर चिन्तन करने की आदत है, घर में रहते समय, ये जो घर के स्थापित देव-देवी हैं- उनकी संक्षेप में नित्य पूजा करने की आदत है। उन्ही के बीच ठाकुर, माँ, स्वामीजी की भी संक्षेप में नित्य पूजा करता हूँ| (पूजा करते समय) उन लोगों का ध्यान-मंत्र भी बोलना पड़ता है। 
किन्तु उनलोगों का ध्यान-मंत्र बोलने से (स्वच्छन्दे मानस चक्षे ) - - उन लोगों को, होली ट्रायो को ठाकुर-माँ-स्वामीजी को " मुक्त मानस नेत्रों से देखा जा सकता है, बिल्कुल स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है! ...इस बात को मैं पुस्तक से पढ़कर नहीं बोल रहा हूँ, किताब में पढ़ कर ' मानस-चक्षू ' की बात नहीं कर रहा हूँ! सचमुच अन्तर में एक आँख है, आन्तरिक जगत नाम की एक " वस्तु " होती है, जिसको अपने भीतर (अन्तर में झांक कर ) में देखा जाता है! इच्छा करने मात्र से ही वह (अन्तः चक्षु) प्राप्त होती है ! (होली ट्रायो के) शरीर में क्या रक्खा है ? उनके बाह्य-रूपाकृति में क्या रखा है ? वह भाव रूप के भीतर छुपा हुआ है ! उनलोगों को देख पाने में सक्षम-समर्थ बनने का अर्थ है- उनलोगों में अन्तर्निहित भाव का निरन्तर स्मरण-मनन। 
जिसका अर्थ होता है- वे जिस दृष्टि से मान-वमात्र को देखते थे, मानवमात्र के प्रति जैसा प्रेम-भाव उनलोगों (होली ट्रायो) में था, अर्थात  ठीक वही दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि)- अपने भीतर भी उत्पन्न करने में समर्थ होना ! वह भाव क्या है ? उसी भाव-दृष्टि की व्याख्या करते हुए स्वामीजी अपनी प्रसिद्द कविता 'सखा के प्रति ' में कहते हैं - 
'त्याग-भोग' -बुद्धिर बिभ्रम, 'प्रेम' 'प्रेम' --येई मात्र धन !
 जितने भी जीवंत रूपाकृति दिखाई दे रही है -सभी प्रेम द्वारा संचालित मूर्तियाँ हैं ! जिव-ब्रह्म, मानव-ईश्वर, भूत-प्रेत आदि देवगण, पशु-पक्षी, कीट-अणुकीट, येई प्रेम हृदये सबार। 'देव' 'देव'- बलो, आर कारा ? केबा बलो सबारे चालाये ? ' देव', 'देव ' जिसे तुम कहते, बताओ वह और कौन है ? कहो चलाता सबको कौन ? वह प्रेरक-शक्ति एकमात्र प्रेम है, तुम उस ' प्रेम-धन' (श्री रामकृष्ण) को लो पहचान !
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार मानवमात्र के प्रति यह प्रेम ही वेदान्त या आध्यात्मिक जागृति का सार है ! " ब्रह्म हते कीट-परमाणु, सर्वभूते सेई प्रेममय, मन प्राण शरीरअर्पण करो सखे, ये सबार पाए। "बोहुरूपे सोम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खुंजीछो ईश्वर ? जीबे प्रेम कोरे जेई जन, सेइ जन सेवीछे ईश्वर। " ९/३२४ 
जब विदेशों में स्वामी विवेकानन्द से श्री रामकृष्ण के ऊपर कुछ कहने के लिए बहुत जोर दिया गया था, तब उन्होंने केवल इतना कहा था -'Love', " ईश्वरः प्रेमस्वरुपः !" - ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं ! " उनका चिन्तन करना ' का अर्थ है, प्रेम से ह्रदय का भर जाना (परिपूर्ण हो जाना Be) एवं उसी प्रेम LOVE को सबों के भीतर प्रवाहित करा देना (make)! "
 सर्वभूते सेई प्रेममय, "- ( सब कुछ वे ही बने हैं !) " All are HE "- इस बात का बोध उस दिन हुआ था, जब उड़ीसा के किसी सुदूरवर्ती ग्राम (?) में शिविर-स्थल के सामने - " एक छोटी सी नदी है, उसके पीछे पहाड़ है, वहाँ ठाकुर के उपदेश कहते कहते ऐसा प्रतीत हुआ - मानो ये सारे मुखडे- यह पहाड़, यह नदी, हरी-हरी घासें, ये गाँछ-वृक्ष, यह नीला आसमान ! सबकुछ ठाकुर ( -माँ-स्वामीजी के ) के ही मुखड़े हैं! वे ही तो सब कुछ बन गये हैं ! 
(वास्तव में इसी बोध को वेदान्त या आध्यात्मिक जागृति कहते हैं !) यदि यह शरीर, ऐसा मन, ऐसा ह्रदय, ऐसी विद्या सबों के काम न आ सकी, सबों को हम यदि अपना न बना सके, इस आध्यात्मिक ज्ञान को यदि केवल अपने तक ही सीमित करके रखे रहें (निजेर कुक्षिगत करे), तो ऐसे मनुष्य जीवन से क्या लाभ ? न जाने कब शरीर का यह पिंजरा खुल जाये- और प्राण पखेरू उड़ जाएँ। या यह तन जल कर नौ सेर राख में बदल जाये- क्या रखा है ऐसे नश्वर मनुष्य-शरीर में ? अन्त में तो सब छोड़ना ही पड़ेगा। सब कुछ छोड़ना होगा, सब चला जायेगा, कुछ भी नहीं रहेगा। 
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था -'आत्मवत सर्वभूतेषु', क्या यह वाक्य केवल मात्र पोथी में निबद्ध रहने के लिये है ?... सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। जहाँ प्रेम है, वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है, वहीं संकोच। अतः प्रेम ही जीवन का एक मात्र विधान है। जो प्रेम करता है, जो दूसरों के लिये जीता है, वही तो जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक से भी अधम है ! They alone live who live for others. The rest are more dead than alive ." " (४:३१०) } " 
स्वामीजी के ये सन्देश रट करके (कंटस्थ करके) लेक्चर देने की चीज नहीं है। यह तो परमसत्य को जान लेने की अवस्था है, वेदान्त या आध्यात्मिक जागृति में अवस्थित होना या भ्रममुक्त होना है ! प्रबन्ध लिखने के लिये यह कोई अच्छा विषय ही नहीं है, तथापि इसी एक पंक्ति के ऊपर पुस्तक पर पुस्तक निकल रहे हैं, रिसर्च पेपर (शोध-पत्र) के ऊपर, पुनः रिसर्च पेपर निकल रहे हैं। इन सब पर अपना ज्ञान बघारते रहने से कुछ नहीं होगा। 
इसके बाद ( इस बात को अपने अनुभव से जान लेने के बाद) कि, " सबई तिनीई"- " सबकुछ वे ही बने हैं! - " मनुष्य को और क्या चाहिये ? हमें आत्मनिरीक्षण के कार्य में लगे रहना चाहिये, यह देखना चाहिये कि यह विद्या हमारे ह्रदय में बैठ गयी, य़ा नहीं ? जीवन में कार्यों में दैनिक दिनचर्या में, बातचीत करते समय, दूसरों के साथ परस्पर व्यवहार करते समय, अपने आचरण में वह " विद्या " (जो विनय देती है ! जो वस्तु हमें दूसरों को चोट पहुँचाने से अलग रखती है, वह धर्म या ' विद्या ददाति विनयम') दृष्टिगोचर भी हो रही है य़ा नहीं ? यदि व्यवहार करते समय यह विद्या - माँ का अत्यन्त सरल और मधुर ग्राम्य भाषा में दिया वेदान्त का सार उपदेश- " कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है। " हमलोगों के व्यवहार से नहीं झलके तो, वैसे तोता-रटन्त विद्या का कोई फल न होगा! सारी शिक्षा व्यर्थ हो जाएगी। (जी० नदी० हर मोड़ पर -४५,४८)
अभी तुमने जो ऐन्थम (संघमन्त्र) गया है, उसमें तुमने घोषणा की है - " हमलोग एक बात बोलेंगे, हमलोग एक ही मार्ग का अनुसरण करेंगे, हम सभी लोग संगठित होकर रहेंगे। " किन्तु सभी लोगों को संगठित कैसे किया जा सकता है ? हम सभी एक ही बात कैसे बोल सकते हैं ? इस विविधता पूर्ण जगत में इतनी सारी चीजें हैं (रंगरूप-जाति -भाषा-धर्म आदि चीजें हैं), इतने सारे आदर्श हैं !
 अतः एक ही बात बोलना और एक ही आदर्श का अनुसरण करना, केवल तभी सम्भव हो सकता है; जब वह आदर्श ,जीवन की समस्त छोटी छोटी अभिलाषाओं को पूर्ण करने (अभ्युदय-लौकिक उन्नति) के साथ साथ, उन सबसे परे (निःश्रेयस-मोक्ष या भ्रममुक्ति) भी प्रदान करने में समर्थ हो ! इसीलिये हम सभी लोग केवल तभी संगठित हो सकते हैं,और एक बात बोल सकते हैं, जब हमारा आदर्श भी सर्वोच्च हो, सर्वोच्च आदर्श से कमतर या छोटी (Anything lesser than the highest.) कोई अन्य वस्तु  प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूर्ण नहीं कर सकती ! और इस जगत में केवल एक वस्तु ऐसी है, जो प्रत्येक मनुष्य की जरूरतों को परिपूर्ण कर सकता है। और जो 'वस्तु' संसार के प्रत्येक मनुष्य की समस्त जरूरतों - अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को पूर्ण कर सकता हो - उसी को धर्म कहते हैं !  
६. धर्म क्या है ? (What is Dharma): महामण्डल का आदर्श उद्देश्य और कार्यक्रम का प्रचार प्रसार ही धर्म है !  
आजकल बहुत से ऐसे लोगों के द्वारा धर्म का प्रचार किया जा रहा है (जाकिर नाईक जैसे), जो वास्तव में धर्म का प्रचार न करके, विभिन्न प्रकार से धर्म को ही हतोत्साहित (डिस्करेज) करना चाहते हैं। किन्तु हमारे प्राचीन शिक्षकों ने (ऋषियों) हमें सिखलाया है कि - धर्म वह वस्तु है जो प्रत्येक मनुष्य को आगे बढ़ने में सहायता करता है !
[जैसे नाम वाला 'रिलिजन' हमें एक सीमित दायरे में बांध देता है, किन्तु धर्म वह वस्तु है जो हमें एक लक्ष्य की दिशा में,'advancement' में आगे बढ़ने में- अर्थात 'अभ्युदय से निःश्रेयस (मोक्ष/भ्रममुक्ति/माँ सारदा-काली की भक्ति) की दिशा में आगे बढ़ने में' हमारी सहायता करता है। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए, सभी  मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न या पुरुषार्थ करते हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति, निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य। एक  में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य (निवृत्ति मार्ग) में अपुनरावृत्ति। जो वस्तु अभ्युदय अर्थात लौकिक उन्नति और निःश्रेयस/मोक्ष= भ्रममुक्ति, Beatitude-परमानन्द की अवस्था- दोनों को प्रदान करता है, उसे धर्म कहते हैं।]   
जो वस्तु दूसरों को चोट पहुँचाने से दूर रहने में हमारी मदद करता है, उसी को धर्म कहते हैं । अर्थात जो ५ दैनन्दिन अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति के हृदय, मन और शरीर का विकास, आत्म-विकास ( या 3'H'-विकास) करने में तथा उसे  सुरक्षित रखने में सहायता करते हैं, उसी को धर्म कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो दैनंदिन अभ्यास प्रत्येक मनुष्य को उसकी अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करने, 'सेल्फ -फुलफिलमेन्ट' के लक्ष्य (भ्रममुक्त, निःस्वार्थपर मनुष्य=माँ सारदा देवी का भक्त) की ओर आगे बढ़ने में सहायता करता है, उसी को धर्म कहते हैं ! इसका तात्पर्य यह हुआ कि धर्म वह वस्तु है जो, अनिवार्य रूप से इस जगत के प्रत्येक मनुष्य के सर्वोच्च आत्महित को सिद्ध करने में सहायता करता हो !  
यदि कोई धर्म किसी व्यक्ति-विशेष के, उसके परिवार की, उसके कुटुम्ब-कबीले की, या उसके अपने देश की या राजनितिक दल के स्वार्थों,आकांक्षओं, अभिलाषाओं को ही पूर्ण करने में सक्षम हो,या किसी एक विशेष नाम वाले पंथ-सम्प्रदाय (मजहब) के सर्वोच्च आत्महित (highest self-interest ) को ही पूर्ण करने वाला हो, तो वैसे किसी धर्म से सम्पूर्ण मानवजाति का कल्याण नहीं हो सकता है।  
धर्म (अर्थात शिक्षा या 3H विकास के लिए ५ दैनंदिन अभ्यासों का प्रशिक्षण चाहिये) तो वैसा होना चाहिये , जिसका पालन करने से इस पृथ्वी का प्रत्येक मनुष्य अपनी अन्तर्निहित सम्पूर्ण पूर्णता को ('Whole Self-Fulfillment' क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज- दोनों को) पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करने में समर्थ हो जाये! और यही वह सर्वोच्च आदर्श है जिसे प्राप्त करने के लिये हम सभी लोग सम्मिलित हो सकते हैं, संगठित होकर प्रयास कर सकते हैं, एक ही स्वर बोल सकते हैं। और केवल तभी 'संगछ्ध्वं सङ्गवदध्वं' का स्वप्न भी साकार हो सकता है ! क्योंकि उस प्रकार के धर्म द्वारा इस जगत के प्रत्येक मनुष्य की सर्वोच्च आत्महित को परिपूर्ण किया जा सकता है।         
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने हमारे समक्ष दो उच्चतम आदर्श - " BE AND MAKE" इस सर्वोच्च आदर्श से छोटा कोई भी आदर्श हमारे लिये कारगर साबित नहीं होगा। हमलोग इसी प्रकार मनुष्यों के विचार-जगत में परिवर्तन लाकर स्वामी जी के इस कथन को सत्य प्रमाणित करेंगे कि, 'रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे'- अर्थात अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से ही सत्य युग का प्रारम्भ हो गया है ! इन दो जुड़वाँ सर्वोच्च आदर्शों से छोटा कोई भी आदर्श हमारे लिये कारगर साबित नहीं होगा।  
आये दिन हमलोग इस संसार में जितने भी प्रकार के झगड़े देखते हैं (पारिवारिक-झगड़े, सास-बहु, भाई-भाई, पिता-पुत्र के झगड़े, सामाजिक-राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय झगड़े, टेरेरिस्ट अटैक आदि), जिसके फल-स्वरूप कितनी ही प्रकार की समस्याओं का सामना या तो हमें आज करना पड़ रहा है, या भविष्य में करना पड़ेगा ! वे सभी समस्यायें उत्पन्न ही इसलिये होती हैं कि, हमलोग मनुष्य जीवन के सर्वोच्च आदर्श, का पालन हमलोग नहीं कर रहे हैं। (अर्थात धर्म के दोनों पक्षों -'अभ्युदय और निःश्रेयस' का अनुसरण हमलोग नहीं कर रहे हैं। कोई केवल 'अभ्युदय' में लगा है, तो कोई केवल 'निःश्रेयस' में।)
“मेरा विश्वास नवयुवकों पर है। इन्ही में से मेरे कार्यकर्ता निकलेंगे, जो अपने पराक्रम से विश्व को बदल देंगे।"   
७. शिक्षा का उच्चतम आदर्श : फिजिकल फ़िट्नेस के साथ विवेक-दर्शन में प्रशिक्षित मन ! (The Highest Ideal of Education: 'Physical Fitness with Trained mind in Prudence.' )  
अतः अब हमें यह अवश्य जान लेना चाहिये कि जीवन की पूर्णता का  सर्वोच्च आदर्श (नमूना) क्या है, तथा उस आदर्श के साँचे में हमलोग स्वयं को कैसे ढाल सकते हैं ? जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये, स्वामी विवेकानन्दबसे अधिक जोर फिजिकल फ़िट्नेस पर देते हैं, वे कहते हैं, "कमज़ोर बनना पाप है, शक्ति की उपासना करो, शकितमान बनो- 'नायं आत्मा बलहीनेन लभ्यः।' उन्होंने तो तो यहाँ तक कहा है कि -"गीता पाठ करने की अपेक्षा तुम फुटबाल खेल से स्वर्ग के अधिक समीप पहुँचोगे। " आदर्श-जीवन के ऊपर वैसे प्रवचन जिन्हें तुम समझ नहीं सकते, उन्हें सुनने की अपेक्षा तुम फुटबॉल खेलकर शीघ्र ही आदर्श-जीवन को प्राप्त कर सकोगे। इस लिये शारीरिक शक्ति की क्षमता को विकसित करने के लिये, जो कुछ भी आवश्यक शारीरिक व्यायाम आदि का प्रशिक्षण है-उसकी व्यवस्था यहाँ की गयी है। इसे हमें अपने दैनंदिन-अभ्यास का एक प्रमुख अंग के रूप में ग्रहण करना होगा। 
किन्तु अगर मानलो कि तुम पौष्टिक आहार और नियमित व्यायाम करके किसी जंगली भैंसे या सांढ़ जैसे बलवान बन भी गये, तो इससे किसी को  क्या फर्क पडेगा ? किसी बैल के जैसा दिमाग और साँढ़ जैसी ताकत को लेकर यदि तुम समाज की सेवा (सत्ययुग को पुनर्रस्थापित) करने जाओगे, तो इससे क्या तुन्हें या समाज को कोई लाभ पहुँचेगा ?  
इसीलिये, फिजिकल फ़िट्नेस के साथ साथ एक ट्रेन्ड माइन्ड का होना भी अत्यावश्यक (important) है। स्वस्थ और चुस्त शरीर के साथ तुम्हारे पास एक प्रशिक्षित मन का होना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उस प्रशिक्षित मन के द्वारा हमें उसमें अन्तर्निहित उसकी समस्त संभावनाओं (all the potentials) को विकसित कर लेना होगा। क्योंकि हमलोगों के मन में  " tremendous potentials " - आश्चर्यजनक सम्भावनायें हैं। 
एक ओर जहाँ उसमें परमाणु को भी विखण्डित (smash) कर देने की क्षमता है, तो दूसरी ओर उसमें आत्म-साक्षात्कार कर लेने ,(ब्रह्म को-अपने बनाने वाले को भी जान लेने) की क्षमता भी है।  आज तक मनुष्य ने जितने भी आविष्कार किये हैं, उसे उसने अपने मन की शक्तियों को एकाग्र करके ही प्राप्त किया है। यदि हमलोगों में मानसिक शक्ति, अर्थात अपने मन को एकाग्र करने की शक्ति नहीं होगी, तो हमलोग अपनी शारीरिक शक्ति का भी सही उपयोग नहीं कर सकेंगे। हमारे मन में अनन्त शक्ति है, जिसको विकसित करने से हमलोग अपनी शारीरिक-शक्ति (physical power) को नियन्त्रित करने की क्षमता भी प्राप्त कर सकते हो।  
किन्तु यह मानसिक शक्ति या एकाग्रता शक्ति भी तुम्हें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकेगी। क्योंकि इन्हीं मानसिक शक्तियों का प्रयोग करके लोग ऐसे-ऐसे विनाशकारी परमाणुविक हथियार तैयार रहे हैं, जो सम्पूर्ण मानव-सभ्यता के लिये आत्मघाती (self-destructive ) हैं। अतः, हमलोगों के लिये मानव-मन की एक विशेष उच्चतर शक्ति,(a Higher Faculty of Mind = धर्मो हि तेषाम् अधिको विशेषः।धर्म अर्थात " विवेकप्रयोग- शक्ति" को  पूर्णतः जागृत कर लेना आवश्यक है। जिसकी सहायता से हमलोग श्रेय-प्रेय (शाश्वत-नश्वर विवेक) के अन्तर को ठीक रूप में पहचान पायेंगे या डिस्क्रीमिनेट कर सकेंगे,और सही समय पर सही निर्णय लेकर, अपनी इच्छाशक्ति के प्रवाह और वेग की दिशा को प्रेय (अधोमुखी) दिशा से श्रेय या उर्ध्वमुखी दिशा में मोड़ सकने में समर्थ हो जायेंगे। महोपनिषद ४.११४ के अनुसार अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा मोह-अंधकार (हिप्नोटाइज्ड अवस्था) का क्षय करने वाली है, जबकि अन्य सांसारिक इच्छायें अविद्या है, जिसका नाश करना ही मोक्ष (भ्रममुक्ति की अवस्था) को प्राप्त होना है। 
इसी विवेक-प्रयोग या विवेक-दर्शन के अभ्यास द्वारा 'प्रेय' या 'प्लिजेन्ट रिपिटेड हैबिट्स' को 'श्रेय' अर्थात 'नियू ऐंड बेटर रिपिटेड हैबिट्स' में परिवर्तित करने के लिये, हमारे पास स्वस्थ शरीर के साथ 'विवेक-प्रयोग ' करने के लिए एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित मन का होना भी आवश्यक है।
इसीलिये स्वामी जी कहते हैं - " शिक्षा क्या है ? ( या धर्म क्या है ?) क्या वह पुस्तक-विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं।  जिस संयम के द्वारा (अर्थात विवेक-प्रयोग के द्वारा) इच्छाशक्ति का विकास और प्रवाह वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, (पत्थरबाजी रुक जाती है ), वह शिक्षा (या धर्म ) कहलाती है ! "         
जब हमारा मन विवेक-प्रयोग (विवेक-दर्शन) के लिये अच्छी तरह प्रशिक्षित हो जायेगा, तब हमलोग सहज तरीके से (spontaneously) यह अन्तर कर पायेंगे कि कौन सी चीज मेरे लिये (मेजर नितिन गोगोई या भारत के लिये-) अच्छी है, कौन सी चीज मेरे पड़ोसी (कश्मीरी पत्थरबाज या पाकिस्तान के लिये) के लिये अच्छी है, और कौन सी चीज सबों के लिये अच्छी है, और कौन सी चीज किसी के लिये भी अच्छी नहीं है ! 
८. 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा' के तहत आध्यात्मिक जागृति का प्रशिक्षण:  (Training for Spiritual Awakening: Under Ramakrishna-Vivekananda Vedanta Leaders Training Tradition!)
इसलिए,अपनी शारीरिक शक्ति (physical strength) को विकसित करने के साथ ही साथ, हमें अपनी  मानसिक शक्ति (mental power) को अर्थात निरन्तर विवेक-दर्शन के अभ्यास द्वारा 'विवेक-प्रयोग-क्षमता' (Power of Discrimination) को भी विकसित कर लेना होगा। तत्पश्चात, इन सब से बढ़कर जो सर्वोच्च शक्ति है, जिसे आध्यात्मिक जागृति (spiritual awakening या भ्रममुक्ति के साथ-साथ भक्ति) कहा जाता है, हमें उस शक्ति को भी विकसित करना होगा।
 यदि हमलोग केवल अपने इस साढ़े तीन हाँथ के पंचभौतिक शरीर या 'बॉडी-माइंड कम्प्लेक्स'- को ही सत्य की चरम सीमा या परम-सत्य (Ultimate Reality) मानकर, इसी के छोटे से दायरे-(आहार-निद्रा-भय-मैथुन) के चारों ओर घूमते रहेंगे, तो यह कभी नहीं जान पायेंगे कि-इस इन्द्रियगोचर साढ़े-तीन हाँथ के शरीर के पीछे कितनी अपार और विस्तीर्ण सत्ता (ब्रह्म vastness) अवस्थित हैं!   
तुम कह सकते हो, कि यदि मैं अपने हृदय के उस अनन्त विस्तार (अन्तर्निहित ब्रह्मत्व) को नहीं जानूँगा, तो इससे मुझे क्या फर्क पड़ेगा ? अभी हमलोग बहुत सी बातों को नहीं जानते हैं -जैसे 'पदार्थ की तीन अवस्थाओं -सॉलिड, लिक्विड, गैस के आलावा चौथी अवस्था -'प्लाज़्मा' भी होता है; किन्तु इस सत्यता से अभी हमलोग परिचित नहीं हैं। परन्तु जब हमलोग हाइयर फिजिक्स या अप्लाइड फिजिक्स पढ़ते हैं तब प्लाज्मा और क्वांटम फिजिक्स आदि विषयों को समझ पाते हैं। 
उसी प्रकार जो लोग ऋषि,पथ-प्रदर्शक, नेता या लोक-शिक्षक होते हैं, वे हृदय की संकीर्णता को हटाकर अनन्त तक विस्तृत करने की पद्धति को हमसे बेहतर तरीके से जानते हैं। मानवजाति के ऐसे ही मार्गदर्शक नेताओं को हमारे देश में-भगवान के अवतार, गुरु या लोकशिक्षक आदि कहा जाता है। अतः हमलोगों को उनके ही मुख से वेदान्त के महावाक्यों का श्रवण करना चाहिये, और उनके निर्देशन में ह्रदय को विकसित करने की पद्धति को भी सीखना चाहिये। और स्वामी विवेकानन्द ने वैसे ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, अपने गुरु, अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरणों में बैठकर, उनके मुख से आध्यात्मिक रूप से जागृत मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति का श्रवण किया है उसे सीखा है, तथा  महामण्डल के माध्यम से उसे नवयुवकों तक पहुँचा दिया है।   
जैसा कि हम सभी लोग जानते हैं, स्वयं स्वामी विवेकानन्द भी अपने जीवन के एक पड़ाव पर (१८ वर्ष की अवस्था में, जब उनका नाम नरेन्द्र था) आस्तिक मनुष्य नहीं थे - ईश्वर के अस्तित्व पर, वे पूर्ण रूप से विश्वास नहीं करते थे ! क्योंकि, उनका मन किसी भी वस्तु को वैज्ञानिक ढंग से जाँच-परख कर देख लेने के बाद ही, विश्वास करने के लिए प्रशिक्षित हुआ था।  इसलिये  एक दिन चुनौतीपूर्ण ढंग से अपने गुरु श्री रामकृष्ण से पूछा था - " क्या सचमुच कोई ईश्वर है ? महाशय, क्या आपने ईश्वर के दर्शन किये हैं ? 
श्री रामकृष्ण ने कहा, 'बेटा, मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं, तुम्हें जिस प्रकार प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, इससे भी कहीं स्पष्ट रूप से उन्हें देखा है !"
नरेन्द्र के विस्मय को सौगुना बढ़ाते हुए पुनः बोले - "क्या तुम भी देखना चाहते हो ? यदि तुम मेरे कहे अनुसार अभ्यास करो, तो तुम भी उन्हें देख सकते हो !"
और नरेन्द्रनाथ अपने गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस से प्रशिक्षित होकर, जब स्वयं ईश्वर के दर्शन कर लिये, केवल तभी उसने फैक्ट ऑफ़ गॉड'-'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' (ईच सोल इज पोटेंशियलि डिवाइन) या 'तत्वमसि' आदि महावाक्य ही जीवन का सर्वोच्च सत्य, या परमसत्य हैं।  तत्वमसिएकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति) 'ईश्वर की यथार्थता' को स्वीकार किया था ! 
और 'ईश्वर की इस यथार्थता' (This fact of God) को जाने-समझे बिना, हमलोग इस लौकिक (भौतिक) जीवन में चाहे और जो कुछ भी करने का प्रयत्न कर लें, किन्तु हम मानव-सभ्यता (human civilization) की समस्याओं को कभी हल नहीं कर सकते हैं।  अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि इस प्रशिक्षण शिविर में कुछ जिज्ञासु (सत्यान्वेषी किन्तु भक्त-हृदय) युवाओं को 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन वेदान्त परम्परा' या 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडर्स ट्रेनिंग ट्रेडिशन' के अन्तर्गत आध्यात्मिक रूप से जागृत लोकशिक्षक या नेता ('लीडर ऑफ़ द मैनकाइंड' Spiritually Awakened Leaders,वैष्णव-जन) बनने और बनाने का प्रशिक्षण भी दिया जाय। 
 यदि तुम उपनिषदों में वर्णित 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' में विश्वास करो, तो हमारे प्राचीन ऋषियों कहते हैं " प्रत्येक मनुष्य में चाहे वह इसे जानता हो या नहीं, उच्चतम आत्म-विकास कर लेने की सम्भावना, मानव-मात्र में अन्तर्निहित है। (highest self-development- पूर्णतया निःस्वार्थी मनुष्य, बन जाने की सम्भावना) 'तत्त्वमसि!' अर्थात 'मेरा यथार्थ स्वरूप और इस ब्रह्माण्ड का अन्तिम सत्य (ईश्वर)' दोनों एक और अद्वितीय वस्तु है ! जब कोई व्यक्ति 'श्रवण-मनन -निदिध्यासन वेदान्त परम्परा' में  जीवन की इस सत्यता को अपने अनुभव से जान लेता है, तो वह व्यक्ति उसी क्षण समस्त संशय या भ्रम से मुक्त हो जाता है,  ब्रह्मविद मनुष्य ब्रह्म ही हो जाता है।   
हो सकता है कि इस अवस्था (ब्रह्मानन्द की अनुभूति) को समझ पाना, अभी हमलोगों के लिये 'far cry' या दूर की कौड़ी' हो ! हो सकता है कि हमलोग आध्यात्मिक रूप से जागृत मनुष्य बन जाने के महत्व को इस समय नहीं समझ पा रहे हों ! (हो सकता है, बाउंसर-बॉल की तरह ये बातें हमारे सर के ऊपर से  निकल रहे हों।) परन्तु हमलोग यदि इस बात को अभी पूरी तरह से नहीं भी समझ पा रहे हो, तो भी उससे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। इस 'सुसमाचार' (The gospel) को जान लेना भी कम नहीं है, कि 'The Whole Human Personality' - सम्पूर्ण मानव व्यक्तित्व का एक 'DIMENSION' या आयाम (विस्तार या पहलू) ऐसा भी है ! 
श्री रामकृष्ण कहते थे -" मान हूँश तो मानुष!" - अर्थात जिस मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के इस विशिष्ट आयाम का बोध हो जाता है, उसी को 'मनुष्य' (भ्रममुक्त या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) कहते हैं !" इसलिये इस प्रशिक्षण के दौरान तुम्हें अपने 'horizon of mind ' - मानसिक क्षितिज को या अपनी मानवीय चेतना (human consciousness) के छोटे से दायरे को बदलकर (change करके) इसे अनन्त तक विस्तृत कर लेना होगा।(इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार करने के लिए मन की चहार दीवारी को भी फांद जाना होगा!) इसके तुम्हें अपनी बुद्धि की कुशाग्रता में वृद्धि करनी होगी, और इसके अतिरिक्त तुम्हें यह भी सीखना होगा कि 'what is called the control of the mind'. मन को अपने नियंत्रण में रखना या 'साम्यभाव की अवस्था' में रखना किसे कहते हैं। 
[रामचरितमानस में प्रसंग आता है : श्रीसीतारामजी को पृथ्वी पर ही सोये हुए देख कर और अयोध्या के राज महलों के सुखों की याद करते हुऐ निषादराज बड़ा भारी विलाप करने लगे तथा महारानी कैकेयी को कोसने लगे कि उन्होंने श्रीसीतारामजी को सुख के अवसर पर दुःख क्यों दे दिया ? तब श्रीलक्ष्मणजी ने संसार को स्वप्नवत असत्य बताते हुए सत्य-तत्त्व, परमार्थ का वर्णन किया और बताया कि परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीरामचन्द्रजी ही परमार्थ स्वरूप है। ये ही सगुण और ये ही निर्गुण हैं। वे ही (अपनी मर्जी से) मनुष्य बन कर लीला कर रहे हैं। (इनको कैकेयी आदि कोई भी दुख नहीं दे सकता आदि, सुखस्य दुःखस्य न कोपि दाता ... काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।) 
 किसी कमरे में यदि १००० वर्ष से अंधकार है, तो उसके जाने में भी १००० वर्ष नहीं लगते। केवल एक दीपक जलाओ l अंधकार स्वतः मिट जाएगा l अर्थात हृदय में विद्यमान आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार श्री रामकृष्ण पर मन को एकाग्र करने का प्रयास करें तो काम-क्रोध स्वतः भाग जायेगा। इसलिए ब्रह्मचर्य शब्द का ही विचार करो , ब्रह्म में चरना ही ब्रह्मचर्य है l किन्तु बिना किसी मार्गदर्शक नेता (गुरु) के स्वयं अपने बलबूते आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार को पहचान पाना बहुत कठिन है, क्योंकि  :- 
 * ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत बेद॥
भावार्थ:-जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह (सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा स्वयं) देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥ 
अतः हमें सबसे पहले आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ लोकशिक्षक स्वामी विवेकानन्द के चरणकमलों की वन्दना करनी चाहिये। क्योंकि उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि - " आधुनिक युग में भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस ही ब्रह्म के अवतार हैं ! -जो राम, जो कृष्ण -वही रामकृष्ण। इस बार दोनों एकसाथ, वेदान्त की दृष्टि से नहीं एकदम साक्षात् !"  
* बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥
भावार्थ:-मैं उन गुरु महाराज ( श्री रामकृष्ण परमहंस) के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में स्वयं हरि (भगवान विष्णु) ही हैं। और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समान हैं।
* ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥ 
भावार्थ:- ज्ञान का मार्ग कृपाण (दोधारी तलवार-Saber) की धार के समान है। हे पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती। 
*क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥
भावार्थ:-बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है? माया के वश रहने वाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है?
इसीलिये सन्त (नेता) तुलसीदास जी अपनी रचना 'सखा के प्रति' (अर्थात वुड बी लीडर्स के प्रति) कहते हैं -
* होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
'सखा परम परमारथु एहू।' मन क्रम बचन राम पद नेहू॥
भावार्थ:-विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी  के चरणों में प्रेम होना ( अर्थात आधुनिक युग के अवतारवरिष्ठ श्री रामकृष्ण के चरणों में प्रेम होना), यही सर्वश्रेष्ठ परुषार्थ या परमार्थ है ! 
किन्तु माँ जगदम्बा की कृपा प्राप्त किये बिना, अर्थात श्री श्री माँ सारदा से काम-वासना से मुक्त कर देने की प्रार्थना किये बिना भगवान श्रीरामकृष्ण (सगुण ईश्वर श्रीराम) के चरणों में अनुराग नहीं होता। और ब्रह्ममय जगत का अनुभव स्थायी नहीं होता, इसीलिए माँ जगदम्बा के सीता -रूप की वन्दना करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं - 
* उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्‌।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्‌॥
भावार्थ:-उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥ 
भगवती सीता जी की पति-परायणता, त्याग सेवा, संयम, सहिष्णुता, लज्जा, विनयशीलता भारतीय संस्कृति में नारी भावना का चरमोत्कृष्ट उदाहरण तथा समस्त नारी जाति के लिए अनुकरणीय है। मां सीता जी ने ही हनुमान जी को उनकी असीम सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर अष्ट सिद्धियों तथा नव-निधियों का स्वामी बनाया। 
 ‘‘अष्टसिद्धि नव-निधि के दाता। अस वर दीन जानकी माता॥’’
इससे यह स्पष्ट होता है कि माता जानकी ही जगत की उत्पत्ति, उसके पालन और संहार करने वाली हैं। यह सभी क्लेशों को हरती हैं एवं सभी प्रकार के कल्याणों को प्रदान करती हैं। 
ठीक उसी प्रकार आधुनिक युग में जगतजननी माँ सारदा की कृपा प्राप्त किये बिना श्री रामकृष्ण के चरणों में प्रेम नहीं हो सकता, इसलिये हे सखा- सर्वोच्च पुरुषार्थ मोक्ष का अर्थ केवल भ्रममुक्ति ही नहीं बल्कि माँ सारदा देवी की कृपा प्राप्त करना है! क्योंकि माँ सारदा ने रामेश्वरम के शिवमन्दिर में अपने मुख से स्वीकार किया था कि वे ही पूर्वजन्म में माँ सीता थीं।
माँ सारदा की शरण में जाने के पश्चात् और किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि माँ श्रीश्री सारदा देवी को प्रसन्न करने का अर्थ आधुनिक युग में 'अवतार वरिष्ठ' साक्षात् विष्णु-अवतार श्रीरामकृष्ण को प्रसन्न करना है। माता श्री सारदा का ध्यान सब कष्टों से निवृत्ति देने वाला एवं सारी मनोवांक्षाओं को पूर्ण कर सुख-शांति प्रदान करने वाला है।  इसीलिये श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने उनके प्रणाम मंत्र में लिखा है:- 
   नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते।    
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||

 शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वे स्वयं इतनी प्रकाशमयी हैं कि उनकी सन्तानों के हृदय में छाया मायारूपी अन्धकार (काम-क्रोध-लोभ-मद-मोह-मत्सर) स्वत: ही नष्ट हो जाता है।   
"Where ordinary consciousness discriminates the many, the seer experiences the One" : जहाँ साधारण चेतना (ordinary consciousness-अप्रशिक्षित चेतना) अनेकता को देखती है और अपने-पराये का पक्षपात करती है, वहीँ ऋषि-चेतना ( the Seer -सत्यद्रष्टा की प्रशिक्षित चेतना, पैगम्बर-चेतना) 'अनेकता में एकता' (यूनिटी इन डाइवर्सिटी) का अनुभव करती है। अर्थात निःस्वार्थी नेता या लोकशिक्षक की चेतना 'कोई पराया नहीं सभी अपने हैं' का अनुभव करती है ! और तब हमलोग यह भी समझ जाते हैं कि 'अनेकता में एकता' को देखना ही भारतीय संस्कृति क्यों है ! 
ऐसी अनुभूति के बाद उसका हृदय  'Eternal light' -शाश्वत ज्योति से प्रकाशित हो जाता है, उसके हृदय में जो १००० वर्षों का अँधेरा था, उसको जाने में भी हजार साल नहीं लगते, दीपक जलते ही वह अँधेरा क्षण भर में दूर हो जाता है ! और तब - 'You only dwell within Yourself, and only You know You:' उसके हृदय में 'केवल वह' ही होता है, वहाँ दूसरा कोई नहीं होता, और जिसे केवल 'वह' ही जानता है।  'Self-knowing, Self-known, You love and smile upon Yourself! 'और तब अपने सच्चे स्वरूप (आत्मा-परमात्मा के एकत्व या ब्रह्मत्व) को पहचान कर, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य होने या 'आत्मविदानन्द' होने के आनन्द से विभोर होकर वह स्वयं से (अपने सच्चे स्वरूप से प्रेम करने लगता है, और स्वयं को ही देख-देखकर मुस्कुराता रहता है ! उसका हृदय 'All-Encompassing Heart' बन जाता है,अनन्त तक - इतना विस्तृत हो जाता है, कि उसमें सभी समा सकते हैं, उसका हृदय 'all-embracing Beingness' सबों का आलिंगन करने वाला अस्तित्व बन जाता है,  और तब उसके मुख से स्वतः प्रार्थना के स्वर फूट पड़ते हैं  - "वसुधैव कुटुम्बकम्", "सर्वे भवन्तु सुखिनः", ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’!! 
" अयं निजो परो वेति गणना लघुचेतसाम्। 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥" 
(यह मेरा है, यह पराया है, ऐसे विचार तुच्छ या निम्न कोटि के व्यक्ति करते हैं। उच्च चरित्र वाले व्यक्ति समस्त संसार को ही कुटुम्ब मानते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम का मन विश्वबंधुत्व की शिक्षा देता है।)
                                   "ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥       
 "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी केवल मङ्गलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।" 
(Om, May All become Happy, May All be Free from Illness. May All See what is Auspicious, May no one Suffer. Om Peace, Peace, Peace.) 
ईश्वर के द्वारा प्राचीन युग से ही  सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्मिक रूप से जागृत करने का उत्तरदायित्व भारतवर्ष के ऋषियों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं  या लोक शिक्षकों के ऊपर सौंपा गया है-   
‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ 
सारी दुनिया को आध्यात्मिक रूप से जाग्रत करके प्रत्येक मनुष्य को श्रेष्ठ, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाओ ! प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान आत्मा ही परमात्मा है, इन्द्रियातीत सत्य, ब्रह्म या आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है ! इस सत्य को अपने अनुभव से नहीं जानने के कारण "पंचभूतों में फँसा हुआ ब्रह्म रो रहे हैं !" उन्हें आध्यात्मिक रूप जाग्रत करना ही स्प्रिचुअल लीडर्स या लोकशिक्षकों का उत्तरदायित्व है। 
वुड बी लीडर्स या भावी लोकशिक्षकों को सम्बोधित करते हुए स्वामी जी कहते हैं , " पहले हृदय के द्वार तो खुलने दो, शेष सब अपने आप ही आ जायेगा। लेकिन यह बात अच्छी तरह समझ लो कि जब तक हृदय में कामना-वासना है, तब तक उस "प्रेम " का आविर्भाव नहीं होगा। पहले अपनी इन्द्रियासक्ति, भोगों की लालसा का ही त्याग क्यों न करो ?"८/२८०]
" प्रत्येक लोकशिक्षक को 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं सर्वव्यापी आत्मा हूँ' -ऐसे विदेह भाव की अनुभूति तुम्हें निरन्तर महसूस होनी चाहिये, और इसी भाव में विभोर होकर अवस्थान करना चाहिये। इसी प्रकार से "दी मूड ऑफ़ बॉडि-लेसनेस" विदेह-भाव में लगातार अवस्थित रहने की चेष्टा का नाम ही पुरुषकार (self-exertion — as distinguished from grace) है। इस पुरुषकार की सहायता से ही उन पर (भगवान श्रीरामकृष्ण पर)  निर्भरता आती है, और इसे ही परमपुरुषार्थ (the goal of human achievement. मोक्ष या भ्रममुक्ति) कहते हैं। " ६/५१  
किन्तु क्या गृहस्थ होकर भी क्या लोकशिक्षक बना जा सकता ? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "गृहस्थ होने का अर्थ यह तो नहीं है कि कोई मूर्तमान असंयम (personification of incontinence) बन जाये, या आजन्म वैवाहिक सुख का उपभोग करता रहे?" (२४ जनवरी १८९८- सुरेन्द्रनाथ सेन डायरी/८-२८०] लोकशिक्षक या आध्यात्मिक रूप से जाग्रत मनुष्य की पहचान बतलाते हुए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं -

* एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥
भावार्थ:-इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥ 
 इसीलिये लीडरशिप ट्रेनिंग का क्लास बड़े सभागार में न होकर किसी ऐसे छोटे हॉल में होना चाहिये जहाँ वक्ता-श्रोता में आइ टू आइ कॉन्टैक्ट सम्भव हो !] 
९. सुसंगत विकास: [ऑडोटोरियम, किचेन, टॉयलेट, फिल्ड ड्यूटी आदि प्रशिक्षण द्वारा 3'H' शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक त्रिशक्तियों का सुसंगत विकास।] 
(Harmonious Development of 3'H 'Complex : Tri-powers through  Auditorium, Kitchen, Toilet, field duty training.)
हमारा मन ही वह साधन है ('कर्ता' नहीं है), जिसकी सहायता से हमें दुनिया के सारे काम करने पड़ते हैं। इसलिये इस मन में हमें श्रेष्ठतम विचारों को प्रविष्ट होने की अनुमति अवश्य देनी चाहिये। मन को अपने नियंत्रण में रखने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें विचारों को प्रविष्ट ही न होने दिया जाय। अतः मन के दरवाजों को कभी बन्द नहीं करना चाहिये। इस बात की चिन्ता मत करो कि वे विचार कहाँ से आ रहे हैं, श्रेष्ठ विचारों को सभी दिशाओं से आने की अनुमति देनी चाहिये।
किन्तु इसके साथ ही साथ निरंतर 'विवेक-प्रयोग' करने के लिए एक प्रशिक्षित मन भी अवश्य होना चाहिए। क्योंकि विवेक-प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षित केवल उन्हीं कुछ चयनित शुभ और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करता है, जो हमें आत्मोन्नति का मार्ग दिखलाती हैं। संकल्पात्मक कार्यों का नैतिक मूल्यांकन करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति को ही विवेक-प्रयोग करने की शक्ति (Power of Discrimination- शरीर-शरीरी विवेक) कहते हैं। जिसकी सहायता से हम उन श्रेष्ठतम विचारों को अलग से पहचान सकते हैं, जो हमें आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर रहने में सहायक हैं। 
जिन नवयुवकों ने इस शिविर में भाग लेने का निर्णय लिया है, उन्होंने तो पहले ही अपनी " संकल्पात्मक कार्यों का नैतिक मूल्यांकन करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति" या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति (Power of Discrimination) का परिचय दे दिया है। क्योंकि अनेक प्रकार के "श्रेय-प्रेय" विकल्पों में से स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्धारित शिक्षाओं और आदर्शों का अनुसरण करने का विकल्प चुन लेना, सर्वोत्तम विवेक-प्रयोग है। और जैसे जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ेगी तुम्हारे मन का दायरा या क्षितिज भी बढ़ता जायेगा, और तुम यह समझ जाओगे कि तुम्हारा यह चयन गलत नहीं था। फिर एक दिन ऐसा आएगा, जब तुम उस दिन को धन्य मानोगे जिस दिन तुमने विरोधाभासी आदर्शों वाले किसी अन्य संगठन द्वारा दिए गए नाम-यश के प्रलोभनों को ठोकर मारकर (राजनितिक दल,अर्धराज-नीतिक दल या तथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय समाज-सेवी क्लब को ठोकर मारकर) 'महामण्डल' से जुड़ने का निर्णय लिया था! 
क्योंकि महामण्डल ने स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त - 'BE AND MAKE' रूपी जिस जुड़वाँ आदर्श को हमारे समक्ष रखा है, वह प्रत्येक व्यक्ति -चाहे वह किसी भी जाति या धर्म में क्यों न पैदा हुआ हो, के सर्वोच्च लक्ष्य या उच्चतम अभिलाषा को परिपूर्ण कर देता है। "स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो " -इन जुड़वाँ आदर्शों में इतनी शक्ति है कि, यह हमारे अन्तर्निहित पूर्णत्व ('Self-Fulfillment' या ब्रह्मत्व) को ललकार कर प्रकट कर देता है! [अर्थात इस चरित्रनिर्माण आंदोलन से जुड़ा रहने वाला प्रत्येक युवा क्रमशः एक पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य, भ्रममुक्त, वैष्णव-जन, लोकशिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन जाता है।]       
यह उच्चतम आत्म-निर्भरता अर्थात  निरन्तर विदेहावस्था-भ्रममुक्त अवस्था में  बने रहने  (Highest Self-Fulfillment) का कौशल हमसे अपनी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनो आन्तरिक शक्तियों (faculties) को विकसित कर लेने की अपेक्षा रखती है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें अपने शरीर, मन और हृदय तीनों को (3'H' -'Hand-Head-Heart' को) पौष्टिक आहार और व्यायाम (पाँच अभ्यास) के द्वारा हृष्ट-पुष्ट बनाकर उन्हें सुसमन्वित ढंग से विकसित कर लेना होगा। अर्थात बाह्य और आन्तरिक शौच, दोनों का अभ्यास करना होगा , क्योंकि विनय पत्रिका में सन्त तुलसी दास कहते हैं -
 मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई । 
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥
किन्तु हमारे नवयुवक तो अभी यह भी नहीं जानते हैं, कि  3'H' की गन्दगी को स्वच्छ करने के लिये अपने हाथों को गन्दा कैसे किया जाता है।  "Our young boys do not know, how to dirt  their hands ?" यदि कोई नवयुवक ऐसे पिता का पुत्र है, जिसकी आमदनी कुछ हजार रूपये भी हो, तो उसे यह भी पता नहीं होता कि पानी से भरी हुई बाल्टी को कैसे उठाया जाता है ? अपने हाथों से अपने कमरे के फर्श पर झाड़ू कैसे लगाया जाता है ? अपने कपड़ों को स्वयं कैसे धोया और प्रेस किया जाता है? 
यहाँ महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' से पूज्य नवनी दा के जीवन की एक घटना का उल्लेख किया जा सकता है:" एक दिन देखता हूँ, मेरी माता जी घर से बाहर बागान में जो रसोईघर का ड्रेन या नाली निकलता था, उसे बैठकर साफ कर रही हैं। मैंने उन्हें प्रेम पूर्वक फटकारते हुए कहा -'आपको इस आयु में यह सब करने की क्या आवश्यकता थी, मुझे बुला लेतीं। ' इस माताजी ने हँसते हँसते कहा , " देखो बाइरे ड्रेन परिष्कार कोरबी आर भीतरे मोन परिष्कार कोरबी। " अर्थात देखो बेटे, बाहर हमेशा ड्रेन को स्वच्छ रखना तथा भीतर मन को हमेशा स्वच्छ रखना। मैं चुप हो गया, ठीक ही तो कह रही है, बाह्य शौच और आंतरिक शौच दोनों आवश्यक हैं; बाहर को भी गन्दा रखना उचित नहीं कहा जा सकता, और न भीतर को ही ! " (जी० नदी० पृष्ठ ३३)  
इसीलिये इस शिविर में हमें अपनी शारीरिक-मानसिक -आध्यात्मिक तीनों शक्तियों के सुसमन्वित विकास करने का अवसर मिले इसकी व्यवस्था की गयी है। यहाँ किचन (पाक-शाला), डायनिंग हॉल, फ़ूड डिस्ट्रीब्यूशन, टॉयलेट -बाथरूम क्लिंनिंग से लेकर पूरे परिसर की सफाई, ऑडोटोरियम, हॉस्पिटल, फिल्ड ड्यूटी आदि कई विभाग इतने तालमेल और निष्ठा के साथ काम करते हैं कि देख कर दंग हो जाना पड़ता है!इन विभिन्न विभागों में से किसी विभाग से जुड़ कर, हमें भी स्वयं अपने हाथों से कुछ काम करना अवश्य सीखना चाहिये। बल्कि उन कार्यों को भी करना चाहिये जिसे हमलोग 'छोटा काम' (Menial Work) कहते हैं। 
किसी भी काम को छोटा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि प्रोबेशनरी पीरियड में ( नवाभ्यास काल में संदीपनि आश्रम में कृष्ण-सुदामा जैसा) स्वयं अपने हाथों से अपना काम करने का प्रशिक्षण प्राप्त करना, भावी लोकशिक्षकों या वुड बी लीडर्स के जीवन का अत्यन्त गौरवशाली अवसर होता है। क्योंकि जो व्यक्ति (वुड बी लीडर्स) अपनी सेवा आप नहीं कर सकता, वह भला (नेता -वैष्णवजन-हरिजन बनने के बाद) दूसरों की सेवा कैसे कर पायेगा ?
१०. 'BE and MAKE' का जुड़वाँ आदर्श :  गृहस्थ हों या सन्यासी प्रत्येक को "Bloom Where You're Planted- 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' लोक-शिक्षक (वैष्णव-जन) बनने और बनाने की प्रेरणा देता है। (Twin Ideals:  BE and MAKE : "Bloom Where You're Planted- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" - be a Householder or a Sannyasin !)
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, " तुम इस जुड़वाँ आदर्श 'BE AND MAKE' को अपने सामने रखो, इसे ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लो। " अतः हमें सबसे पहले, अपने अंतर्निहित सर्वोच्च पूर्णता या ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिये, पाँच दैनन्दिन अभ्यासों का निष्ठापूर्वक पालन करना होगा। और उसके मार्ग में जो भी बाधाएँ आयें उन्हें धीरे से किनारे करके आत्म-विकास के मार्ग पर आगे बढ़ते रहना होगा। 
परन्तु कल्पना करें कि हम तो अपने आत्मविकास की चोटी (summit,मोक्ष या भ्रममुक्त अवस्था) पर पहुँच गये, किन्तु हमारे शेष दूसरे भाई, हमारे अपने देशवासी अब भी गरीबी-भुखमरी के कारण दुःख से गिड़गिड़ा रहे हैं; "पंच भूतों के फन्दों में फंसकर रो ही रहें हैं !"- तब हमारे ऐसे उपलब्धि से क्या लाभ हुआ? इसीलिये स्वामीजी कहते हैं,"जब तुम आत्मविकास (परमपुरुषार्थ) के पथ पर अग्रसर हो रहे हो, तो अपने आस-पास रहने वाले सभी भाइयों को भी अपने साथ लेकर आगे बढ़ो !" इसलिये "सेवा का भाव " हमलोगों के आदर्श जीवन का एक अपरित्याज्य (indispensable) हिस्सा, अविभाज्य अंग बन जाना चाहिये।
इस प्रकारअपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिये " स्वयं आत्मविकास करना तथा अपने आस-पास रहने वाले पाँच भाइयों को भी अपने साथ लेकर चलना" -यही दो कार्य है, जो स्वामी विवेकानन्द के द्वारा थाती के रूप में प्रत्येक व्यस्क, विचारशील, और आदर्शवादी नवयुवक को  सौंपे गए हैं! जो लोग इस शिविर में भाग लेने आये हैं, वे सभी ऐसे ही आदर्शवादी नवयुवक हैं। हम सभी को ये जुड़वाँ आदर्श -'BE AND MAKE' अत्यन्त प्रिय हैं, इसीलिये हमने इसे ही अपने जीवन-लक्ष्य के रूप में चुन लिया है!    
इसीलिये इस प्रशिक्षण शिविर में हमलोगों के ऊपर जिस विभाग में भी कार्य करने की जिम्मेदारी सौंपी जाय, या कोई कार्य करने को कहा जाय, तो उसे अपना कर्तव्य (पूजा) समझकर सहर्ष स्वीकार करना चाहिये। तथा इस प्रशिक्षण केन्द्र में हमलोग जितने दिनों तक एक साथ हैं, उस दौरान इसके सभी कार्यक्रमों में हमलोगों को पूरे दिल से, ध्यान-पूर्वक और प्रेम के साथ भाग भी लेना चाहिये। 
और इस शिविर से वापस लौट कर जब हमलोग पुनः अपने घर चले जायें, तो उन सभी अभ्यासों को याद रखना चाहिये, जिन्हें हमलोगों ने यहाँ सीखा है। तथा जब तक हमलोग अगले प्रशिक्षण शिविर में न चले आये, तब तक उन अभ्यासों को उसी बताये गए ढंग से विकसित करते रहने की चेष्टा भी करते रहना चाहिये। और जब इस प्रशिक्षण शिविर के आयोजक लोग तुम्हारे और अधिक खिले हुए चेहरों, तुम्हारे और अधिक विकसित व्यक्तित्व, स्वामीजी की शिक्षाओं और आदर्शों के विषय में तुम्हारी और अधिक स्पष्ट अवधारणा के साथ तुम्हें पुनः देखेंगे; तब उनके आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहेगा। 
इसके लिये क्या करना अनिवार्य होगा ? जब हम वापस लौट कर अपने घर चले जायें, तो अपने शैक्षिक विषयों का अध्यन (academic studies) के साथ साथ हमें नियमित रूप से स्वाध्याय करना होगा, अर्थात प्रतिदिन थोड़ा समय निकाल कर स्वामी विवेकानन्द के विचारों का, या महामण्डल पुस्तिकाओं का अध्यन भी करना होगा। किन्तु, अपने शैक्षिक विषयों के अध्यन की अथवा अपनी आजीविका चलाने के लिये तुम जो कुछ नौकरी या व्यापार  करते हो- उसकी, कभी उपेक्षा मत करना। कुछ नवयुवकों में ऐसी प्रवृत्ति भी देखी जाती है कि जब वे जीवन में किसी नये आदर्श को ग्रहण करते हैं, तब पहला काम वे यही करते हैं कि वे अपने शैक्षिक विषयों के अध्ययन की उपेक्षा करने लगते हैं।  
किन्तु हमें यह अवश्य याद रखना चाहिये कि यह कठिन प्रतिस्पर्धा की दुनिया है। और जब तक हमलोग अपने हेड और हैण्ड, विवेक-प्रयोग के लिये प्रशिक्षित मन के साथ साथ, शरीर को भी मजबूत और परिश्रमी नहीं बना लेते; चाहे जीवन के किसी भी कार्यक्षेत्र में क्यों न हों, वहाँ हम अपनी अच्छी छाप नहीं छोड़ सकते। शरीर और मन को लगाये बिना तो हम अपनी रोजी-रोटी भी नहीं कमा सकते। इसलिये हमें किसी वैसे संगठन से प्रशिक्षण नहीं लेना चाहिये जो हमें अपने गृहस्थ-जीवन के कर्तव्य या विद्यार्थी-जीवन के कर्तव्य की उपेक्षा करने की सीख देते हों ! वैसा करने से हमारा भविष्य बिगड़ जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता (३. ३५/१८.४५-४८) में कहा है - 
'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।' 
 यहाँ स्वधर्म का अर्थ किसी जाति विशेष में जन्म लेने पर प्राप्त होने वाले कर्तव्य से नहीं है। स्वधर्म का सही तात्पर्य है स्वयं की वासनायें। स्वयं की सहज और स्वाभाविक वासनाओं के अनुसार कार्य करने से ही जीवन में शांति और आनन्द सफलता और सन्तोष का अनुभव होता है एवं परधर्म का अर्थ है दूसरे के स्वभाव के अनुसार व्यवहार और कर्म करना जो भयावह होता है इसमें दो मत नहीं हो सकते।
अर्जुन ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही साहस और शूरवीरता का प्रदर्शन किया था और धनुर्विद्या में निपुणता भी प्राप्त की थी। अत युद्ध जैसा खतरनाक कर्म उसके स्वभाव के अनुकूल ही था। किन्तु अर्जुन ने संभवत अपने प्रारम्भिक शिक्षणकाल में यह सुना और समझा था कि संन्यास और त्याग का जीवन, किसी गृहस्थ के जीवन से श्रेष्ठतर है। इसीलिये कुरुक्षेत्र (युद्ध-भूमि) से पलायन करके गुफाओं में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की उसकी इच्छा हो रही थी। श्रीकृष्ण उसे स्मरण दिलाते हैं कि स्वधर्म पालन में कुछ कमी रहने पर भी उसी का पालन उसके आत्मविकास के लिये श्रेयष्कर है
अपने-अपने नियत कर्मों का पालन करने से मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है। अतः दोषयुक्त दीखने पर भी नियत कर्म अर्थात् स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये। हे कौन्तेय दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि सभी कर्म दोष से आवृत होते है।  जैसे धुयें से अग्नि। (साभार https://www.gitasupersite.iitk.ac.in)] 
इसीलियेमहामण्डल द्वारा निर्देशित आदर्श ' चरैवेति चरैवेति" अर्थात 'सेवा करो और प्रेरणा भरो' एक ऐसा कर्मयोग है जो समस्त वुड बी लीडर्स या भावी लोकशिक्षकों के लिये आसान है।  क्योंकि इसमें अपने स्वधर्म की उपेक्षा  शामिल नहीं है। हमलोग चाहे जीवन के किसी भी क्षेत्र में क्यों न कार्यरत हों, व्यापारी हों या नौकरी-किसानी आदि कार्य करते हों, या एक विद्यार्थी हों; हमें सदैव अपने कर्तव्य को सर्वोत्कृष्ट निष्ठा और सेवाभाव के साथ सम्पन्न करना चाहिये। अन्यथा, हमें अपने को स्वामी विवेकानन्द का एक अनुयायी कहने का कोई हक नहीं है। 
जो स्वामीजी का सच्चा अनुयायी होगा, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट सेवायें प्रदान करेगा।वह चाहे एक सफाई कर्मचारी हो, या सेनाध्यक्ष अथवा प्रोफेसर हो, किन्तु उसे अपने अपने कार्य-क्षेत्र में रहते हुए ही सर्वोत्कृष्ट सेवायें अवश्य प्रदान करनी चाहिये। इस समय तुम जहाँ खड़े हो, (अर्थात अभी जीवन के जिस क्षेत्र में भी तुम्हें क्यों न रखा गया हो) वहीं पर यदि तुम अपना सर्वश्रेष्ठ सेवा नहीं दे सके, तो भविष्य में तुम्हें जहाँ खड़ा होना होगा, वहाँ भी अपनी सर्वश्रेष्ठ सेवा नहीं दे पाओगे। 
प्रभु ईसामसीह द्वारा [बाइबिल : * 1 कुरिन्थियों 7/विवाह:20-24:] में कथित इस वचन *" ब्लूम व्हेयर यू आर प्लांटेड " -से भी यही शिक्षा मिलती है। 
[यदि तुम विवाहित हो तो उससे छुटकारा पाने का यत्न मत करो। यदि तुम स्त्री से मुक्त हो तो उसे खोजो मत। किन्तु यदि तुम्हारा जीवन विवाहित है तो तुमने कोई पाप नहीं किया है। हर किसी को उसी स्थिति में रहना चाहिये, जिसमें उसे बुलाया गया है। क्या तुझे दास के रूम में बुलाया गया है? तू इसकी चिंता मत कर। किन्तु यदि तू स्वतन्त्र हो सकता है तो आगे बढ़ और अवसर का लाभ उठा। क्योंकि जिसे प्रभु के दास के रूप में बुलाया गया, वह तो प्रभु का स्वतन्त्र सेवक है। इसी प्रकार जिसे स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में बुलाया गया, वह मसीह का दास है। परमेश्वर ने कीमत चुका कर तुम्हें खरीदा है। इसलिए मनुष्यों के दास मत बनो।  हे भाईयों, तुम्हें जिस भी स्थिति में बुलाया गया है, परमेश्वर के सामने उसी स्थिति में रहो।] स्वामी जी द्वारा कथित निम्न लिखित विचार भी अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार है। 
  • अपने में ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना।
  • मोहग्रस्त लोगों (हिप्नोटाइज्ड लोगों) की ओर दृष्टिपात करो। हाय ! हृदय-भेदकारी उनके करुणापूर्ण आर्तनाद को सुनो।  हे वीरों ! बद्धों को पाशमुक्त करने, दरिद्रों के कष्ट को कम करने, तथा अज्ञजनों का हृदयान्धकार दूर करने (भ्रममुक्त करने) के लिए आगे बढ़ो, 'डरो नहीं', 'डरो नहीं '- यही वेदान्त-दुन्दुभि का स्पष्ट उद्घोष है।  
  • "जिसमें जितनी निःस्वार्थता है वह उतना ही आध्यात्मिक है, तथा उतना ही श्रीशिवजी के समीप है।  "
  • " मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव-जीव में वे ही अधिष्ठित हैं, इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है।
११. विचारों की देखभाल : (मोबाईल-इंटरनेट जन्य विचार/ विवेकदर्शन जन्य  नितान्त आवश्यक:   क्योंकि " सो अ थॉट एंड यू रिप ऐन ऐक्शन.....हैबिट....कैरेक्टर ......ही  डेस्टिनी है !"  
( Take Care of Thoughts: Careful thinking of mobile-internet-based thoughts and judicious ideas.)
कुछ भी करने से पहले मन में विचार उठते हैं, फिर क्रिया होती है। इस प्रकार देख सकते हैं कि हमारे विचार ही हमारे कर्मों के बीज (germ,अंकुर) हैं। इसीलिये अच्छे बीजों की तरह ही अच्छे विचारों का चयन करना भी जरूरी है ! प्रसिद्द अंग्रेजी कहावत है -“ सो अ थॉट एंड यू रिप ऐन ऐक्शन....." -अर्थात हमलोग अपने मन में जिस प्रकार के विचारों को अंकुरित होने देंगे, या विचारों के जैसे बीज बोयेंगे वैसे ही कर्म काटेंगे।  जैसे कर्मों की बुआई करेंगे वैसी आदत काटोगे। जैसी आदतों को रोपेंगे वैसे ही चरित्र-रूपी फसल को काटेंगे। और जैसा चरित्र बोयेंगे वैसा ही भाग्य-रूपी फसल को काटोगे !
इसलिये इस युवा प्रशिक्षण शिविर (श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन) में श्रेष्ठ विचारों का (वेदान्त के महावाक्यों का) महत्व सबसे अधिक है। वेदान्त के चार महावाक्य ही वे सर्वोत्कृष्ट बीज हैं, जो हमारे मन में श्रेष्ठतम विचारों को उत्पन्न करने में सक्षम हैं। और उन विचारों का 'श्रवण-मनन और निदिध्यासन' करके हमलोग अपने जीवन को सुन्दर रूप में गठित कर सकते हैं। अतः हमें उन महावाक्यों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिये, और उन्हें अक्षरशः स्वीकार करना चाहिये।
किन्तु इसके साथ साथ हमें अपने मन के ऊपर बहुत सतर्क दृष्टि भी रखनी पड़ेगी कि, 'मेरा मन जो मेरा यंत्र या साधन है, कहीं मेरे ही साथ कोई ट्रिक, चालाकी या छल-कपट तो नहीं कर रहा है? हम दूसरों को जैसा उपदेश देते हैं, स्वयं वैसा करते हैं या नहीं ? (मुँह से बोलते हैं -मैं ब्रह्म हूँ, और कुसंग में पड़कर कहीं सिगरेट तो नहीं फूँक रहे हैं ?) केवल हमारे मन-वचन और कर्म में ही नहीं, हमारे सम्पूर्ण जीवन में सत्यनिष्ठा (Honesty-ईमानदारी) अवश्य व्याप्त हो जानी चाहिये।इस मामले में हमें बिल्कुल एक नये प्रकार का मनुष्य बन जाना चाहिये।          
हो सकता है, कि हमारे संगी-साथी हमें मूर्ख कहकर पुकारें, या नाना प्रकार के व्यंग-बाण चलायें; किन्तु हमें अपने सत्यनिष्ठा को कभी नहीं छोड़ना चाहिये। यदि परीक्षा-भवन में सभी लोग नकल कर रहे हों, तो हमें वहाँ भी ईमानदार रहने की चेष्टा करनी चाहिये। परिणामों का सामना करने के लिये हमारे पास वैसा चरित्र और साहस रहना चाहिये कि हमलोग निर्भीक होकर कह सकें - " हाँ, मैं स्वामी विवेकानन्द का अनुयायी हूँ, मैं ऐसा काम नहीं कर सकता। मैं स्वयं अपने प्रति, अपने शिक्षक (गुरु-पथप्रदर्शक स्वामी विवेकानन्द) के प्रति और अपने भाग्य के प्रति हर हाल में ईमानदार रहूँगा। "  
जो लोग अच्छी तरह से मन लगाकर पढ़ाई नहीं करेंगे, वे परीक्षा में भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकेंगे। फिर अपने भविष्य के जीवन में आने वाले उच्तर परीक्षा या इम्तहान का सामना कैसे करेंगे ? वे अपने भावी जीवन में सफल कैसे होंगे ?  इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि अच्छे विचारों का केवल एक बीज (२४ में से केवल एक चारित्रिक गुण - सत्यनिष्ठा) अंकुरित हो जाने के बाद हमारे भावी जीवन को किस हद तक परिवर्तित कर सकता है ! 
और हमें स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों से ऐसे कितने ही प्राथमिक रूप से महत्वपूर्ण (primarily important) विचार प्राप्त होते हैं, जो अंकुरित होने पर सुन्दर फल प्रदान कर के भविष्य में हमारे सुन्दर जीवन का निर्माण कर सकते हैं ! हमें उनके 'शक्तिदायी विचारों' का अध्यन अवश्य  करना चाहिये ।  स्वामीजी कहते हैं, "  केवल पाँच ही अच्छे विचारों को  लेकर, सोते-जागते सब समय उसी में विभोर होकर रहो। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वांग उसी के विचार से पूर्ण रहें।  दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का (चरित्रवान मनुष्य बन जाने का) उपाय है।" 
और श्री रामकृष्ण ने कहा है- " मुख से तबले के बोल निकाल लेना बहुत ही आसान है, किन्तु अपने हाथों के माध्यम से उन्हें निकाल पाना कठिन है। 
अतः सबसे महत्वपूर्ण काम है, हमलोग यहाँ चरित्र के २४ गुणों के विषय में जो कुछ सुनें हैं, उनमें से कुछ गुणों का चयन कर लेना चाहिये, और सोते जागते हर समय उसी भाव में विभोर होकर  (मैं शरीर नहीं, सर्वव्यापी आत्मा हूँ,... ऐसे विदेह-भाव में विभोर) रहना चाहिये। अर्थात उन ५ भावों को शरीर के स्नायुों से प्रवाहित करके उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन के व्यव्हार में अभिव्यक्त भी करते रहना चाहिये। इस प्रकार 
जिस दिन हमलोग यह समझ जायेंगे कि हमारे जाने बिना, हमें यहाँ क्या मिल गया है ? ('त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि' सुनाते समय केवल आइ कॉन्टैक्ट से ही भ्रममुक्त कर दिया गया है ?) तब हमलोग आज के दिन (९जुलाई २०१७ गुरुपूर्णिमा) को धन्य मानेंगे; और अपने आस-पास रहने वाले दस भाइयों को (जो " पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे" या "हिप्नोटाइज्ड सिंह-शावक" की अवस्था में हैं, जो स्वयं ब्रह्म होते हुए भी पंचभूतों के फन्दे में फंसे, जन्म-जरा-व्याधि-मृत्यु के दुःख और दैन्य से पीड़ित होकर रो रहे हैं को )    
एकत्र कर, थंडरबोल्ट की तरह इरिज़िस्टबल या अप्रतिरोध्य पूर्णतः निःस्वार्थपर मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन 'BE AND MAKE' का प्रचार-प्रसार करने के कार्य में जुड़ जायेंगे। " calling them to share the glad tidings you are in." 

और भारत के प्राचीन ऋषियों की तरह स्वयं ज्ञानामृत से परितृप्त होकर (भ्रममुक्त होकर-डीहिप्नोटाइज्ड होकर) उस अमृत का पान कराने के लिये, अपने उन भाइयों को आमन्त्रित करते हुए मेघ-गंभीर स्वर से पुकार कर कहेंगे -
" श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः । 
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् । 
तमेव विदित्वाSति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । 
(श्वेताश्वत्तरोपनिषद्-२/५ , ३/८)  
-' हे विश्व-वासी अमृत-पुरुषों के पुत्रगण, हे दिव्यधाम निवासी देवतागण, सुनो -मैंने आदित्य के समान दैदीप्यमान उस महान पुरुष  (श्रीरामकृष्ण के स्वरुप को या फैक्ट ऑफ़ गॉड ) को जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार के परे है। केवल उसे जानकर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त मृत्युंजय होने का अन्य कोई मार्ग नहीं।' 
' अमृत के पुत्रो '- "Children of immortal bliss" -- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम -अमृत के अधिकारी से आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दें. निश्चय ही हिन्दू किसी मनुष्य को भी पापी कहना अस्वीकार करता है.आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। " Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so " आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव-स्वरुप पर घोर लांछन है। आप उठें ! हे सिंहो ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनंदमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास है, न कि आप हैं दास जड़ के। 
 "your lives will be transformed." इस  प्रकार मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, 'वेदान्त- केसरी स्वामी विवेकानन्द' के लीडरशिप में हमलोगों का जीवन भी रूपान्तरित हो जायेगा।  और जो 'सिंह-शावक' (आत्मा) होकर भी अपने  को भेंड़ (केवल शरीर और मन) समझ रहा था , वह स्वयं भ्रममुक्त होकर दूसरों को भ्रम से मुक्त करने वाला लोक-शिक्षक (वैष्णव-जन, या नेता) बन जायेगा,  उसके जीवन में सत्ययुग चलने लगेगा। और हम सभी  उस सत्ययुग को धरती पर उतारने में सहायता करने के कार्य में जुट जायेंगे , 'जब विश्व का प्रत्येक मनुष्य एक उपासक होगा और प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित सत्यता (ब्रह्मत्व) ही उसकी उपासना का विषय होगा।" 
It is a great blessing before us all that this movement is on. And you are really blessed that you have responded to the call of the great Swamiji.
हमलोगों पर श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा देवी -स्वामी विवेकानन्द की असीम कृपा है, कि विगत ५० वर्षों से महामण्डल का यह मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन निरन्तर आगे बढ़ता जा रहा है। और तुमलोग सचमुच धन्य हो कि तुमने मानव-जाति के महान मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द के आह्वान का प्रति-उत्तर दिया है।      
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१. स्वामी विवेकानन्द के प्रति नव-युवकों के आकर्षण का रहस्य:
(The secret of His (Swami Vivekananda's) charm:)
२. भगवान श्री रामकृष्ण का नवयुवकों के प्रति असाधारण प्रेम :
( Bhgvan Sri Ramakrishna's extraordinary love for young people:)
३.महामण्डल की जड़ें कहाँ अवस्थित हैं? 
( Where are the roots of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal?)
४. वसीयत के रूप में प्राप्त स्वामी विवेकानन्द का हुकुमनामा : 
(Commandment of Swami Vivekananda received as a will! His Bequest)    
५. युवा प्रशिक्षण का सार - विवेकदर्शन का अभ्यास और लालच को कम करना :
 (The Training: Practicing Prudence and Reducing Greed.) 
६. धर्म क्या है ? 
(What is Dharma? 
७.शिक्षा का उच्चतम आदर्श : फिजिकल फ़िट्नेस के साथ विवेक-दर्शन में प्रशिक्षित मन ! 
(The Highest Ideal of Education: 'Physical Fitness with Trained mind in Prudence.' )  
८.'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा' के तहत आध्यात्मिक जागृति का प्रशिक्षण !
 (Training for Spiritual Awakening: Under Ramkrishna-Vivekananda Vedanta Leaders Training Tradition!)
९.सुसंगत विकास: [ऑडोटोरियम, किचेन, टॉयलेट, फिल्ड ड्यूटी आदि प्रशिक्षण द्वारा 3'H' शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक त्रिशक्तियों का सुसंगत विकास: ।] 
 (Harmonious Development of 3'H 'Complex : Tri-powers through  Auditorium, Kitchen, Toilet, field duty training.)
१०. 'BE and MAKE' का जुड़वाँ आदर्श :  गृहस्थ हों या सन्यासी प्रत्येक को "Bloom Where You're Planted- 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' लोक-शिक्षक (वैष्णव-जन) बनने और बनाने की प्रेरणा देता है। 
(Twin Ideals: BE and MAKE : "Bloom Where You're Planted- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" - be a Householder or a Sannyasin !)

११. विचारों की देखभाल : मोबाईल-इंटरनेट जन्य विचार/ विवेकदर्शन जन्य विचार की देखभाल नितान्त आवश्यक:  क्योंकि - " सो अ थॉट एंड यू रिप ऐन ऐक्शन.....हैबिट....कैरेक्टर ......ही  डेस्टिनी है !" 
 ( Take Care of Thoughts: Careful thinking of mobile-internet-based thoughts and judicious ideas.)