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शनिवार, 20 जून 2020

🔱वेदान्तडिण्डिमः पंचदशी का पंचकोश-विवेक 🔱विस्तारित कोरोना लॉकडाउन महोत्सव (2020) @ "Be and Make " Leadership Training] [Extended Corona Lockdown Festival (2020)

1. या मति सा गतिर्भवेत

>>>सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना : 

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥
 (ब्रह्मज्ञानावलीमाला)

ब्रह्म सत्य है, ब्रह्मांड मिथ्या है (इसे सत्य  या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र (सत् + शास्त्र ) के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा घोषित किया गया है। [ [(त् + श = च्छ) =व्यंजन संधि ].

Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.

वेदान्त का विवेक :> वेदांत की दृष्टि से तत्वबोध, आत्मबोध, का विवेक क्या है ? विवेक माने दो चीजों को अलग करना। वेदान्त में विवेक का अर्थ है - रज्जु-सर्प विवेक !  साँप -रस्सी ! आप चाहे ब्रह्म को जानो या न जानो, रज्जु -सर्प का अध्यन किये बिना वेदान्त को समझना असम्भव है। रस्सी और सर्प में क्या सम्बन्ध है? कुछ सम्बन्ध नहीं है। अधूरा ज्ञान समस्या है , कुछ है पर क्या है ? मालूम नहीं। रस्सी के आकार का क्या क्या हो सकता है ? मन ने अध्यारोपित किया - ये सांप है। अधिष्ठान ही सत्य है, अध्यारोपित वस्तु मिथ्या है -टॉर्च की रौशनी में प्रमाणित हुआ। नाम-रूप अध्यस्त है। अस्ति -भाति -प्रिय सत्य अधिष्ठान है
आध्यात्मिक यात्रा अनेक से प्रारम्भ होकर एक में समाप्त हो जाती है। और यह यात्रा देश-काल में नहीं होती।  इसमें कुछ प्राप्ति नहीं है। केवल अपने आप को पहचानना मात्र है। इस यात्रा को या इस मार्ग को लय -प्रक्रिया कहते हैं। इसी के द्वारा हम अनेकता से प्रारम्भ करके एक को पहचान लेते हैं। इसमें दो नहीं होता , श्रीरामकृष्णदेव कहते थे इस मार्ग पर चलने की पात्रता होनी चाहिए, मैं नहीं जानता पर सुना हूँ कि शेरनी का दूध केवल स्वर्ण के पात्र में (प्रशिक्षित मन में ) ही टिकता है ! नहीं तो खराब हो जाता है।

  जहाँ भी सम्बन्ध है, वहां संसार है -जब गुरु-शिष्य दोनों वाला अहं खत्म हो जाते हैं , तब तत्व प्रकट हो जाता है ! न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः. चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥ जहाँ तक सापेक्षिक सम्बन्ध -वहां तक संसार , गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी खत्म हो जाता है - गुरुर्नैव शिष्यः ! 
न्याय-शास्त्र का विवेक :  में आता है, तील-तण्डुल न्याय - तील को चावल से अलग करना। सांख्यों का विवेक है: सत -चित विवेक या जड़-चेतन विवेक ! अनुभव करने वाला चेतन है, जिसका अनुभव करता है वो जड़ है। मैं माइक का अनुभव कर रहा हूँ , माइक जड़ है , मैं चेतन हूँ।  मैं आपका अनुभव कर रहा हूँ , आप क्यों हँसे ? भक्ति का विवेक -प्रभु कथा मनुष्य के विवेक को जागृत करती है। 
 दर्पण के सामने जब हम खड़े हैं तो क्या प्रतिबिम्ब का जन्म हुआ ? दर्पण को यदि हटा लिया जाय , तब भी हम तो हैं न ? सवाल उठता है -प्रतिबिम्ब गया कहाँ ? क्या प्रतिबिम्ब हमसे निकला था कि मुझमें वापस आ गया ? प्रतिबिम्ब दीखता है, होता नहीं है ! उसी प्रकार से जीव भी दीखता है, होता नहीं है -ब्रह्म ही नाटक कर रहे हैं ! यही परमार्थ का बोधक है। फिर मैं मुक्त हूँ , मैं बंधन में हूँ के अहं के भ्रम से मुक्ति होकर सत्संग में समय बिताने की प्रेरणा मिली या नेतृत्व करने की प्रेरणा मिली ? तुम ही पति , पुत्र , पिता के रूप में प्रतीत हो रहे हो।    इसी तरह जीवो (पति)  ब्रह्मैव ना परा: जीव (पति) भी ब्रह्म (मनुष्य) ही है , कुछ दूसरा नहीं है ? पति भी मनुष्य ही है , जो पत्नी के सामने पति का रोल करता है, पिता के सामने पुत्र का रोल और पुत्र के सामने पिता का रोल करता है।  [9. 42 मिनट

>>>नेतृत्व के गुण :

 1.श्रद्धा के बिना : भक्ति में दृढ़ता नहीं आती :  हृदय में सत्संग-कैम्प -निर्जनवास -कैम्प सत्संग इससे अधिक महत्वपूर्ण और कुछ नहीं।  मैं मुक्त हूँ कि बंधन में हूँ ? यह सब मन से निकाल दो।  प्रशिक्षण परम्परा से निर्मित मन में ज्ञान प्रकट हो जाता है, ज्ञान बाहर से नहीं आता।  यूपी-बिहार के लेबर शनि-रवि को काम नहीं करते , वे कहते हैं, आज हमारा रामचरित-मानस के पाठ का समय है। कीर्तन-भजन वही करता है , जिसमें भक्ति है प्रेम है, बनिया बुद्धि नहीं है। 

2. वैराग्य के बिना : जगत को मिथ्या माने बिना के वेदान्त ज्ञान में प्रगति नहीं होती।  वेदान्त को बताना सिखाना सबसे आसान है , हम वही करते भी हैं। वेदांत पहले अपने जीवन में उतारना आवश्यक है। जो ज्ञान पचने के बाद बाहर आता है, वही दूसरों को प्रभावित कर सकता है।  नेता पश्यन्ति वाणी से बोलता है।  मन-मुख एक करके बोलना ? वैराग्य की पूर्णता में ईश्वर के ऐश्वर्य से भी वैराग्य हो जाता है। ईश्वर में जो भिन्न भिन्न सिद्धियाँ हैं, शक्तियां हैं, उससे भी हमारा वैराग्य हो गया।  शिरडी साईंबाबा की समाधि में शक्ति है, जीवनकाल में भी मन्नत पूरी कर देते थे।  किन्तु भक्त की उसी में आकर्षण हो जाती है।  

🔱3. जगत की Geo-political events (भू-राजनीतिक घटनाओं से :या किसी भी भू-राजनीतिक अनिश्चितता (geo-political uncertainty) जैसी जगत की किसी भी घटना (जैसे -हमास-इस्राइल युद्ध, रूस-यूक्रेन युद्ध, कतर की औकात और इंडियन नेवी अफसर) से मन में विक्षेप नहीं आने दो ! जगत ऐसा ही चलता रहेगा , अपना ध्यान प्रभु श्रीरामकृष्ण के चरणों का भक्त बनो और 'Be and Make ' में लगाना है। अपनी औकात को पहचानते हुए असंगता। सभी समाचार तटस्थ भाव से सुन लो,  पर अति सर्वत्र ब्रजयेत -किन्तु उससे असंग और उदासीन रहना अनिवार्य है। नहीं तो तुम अध्यात्म को छोड़कर राजनीति में फंस जाओगे।  डेमोक्रेसी अमेरिका में भी है और कम्युनिस्ट चाइना में भी डेमोक्रेसी है जहाँ एक्स प्रेसिडेन्ट गायब हो जाता है , दो महीना बाद मर  जाता हो , वहाँ के गोरमेंट से जनता दुखी रहती  है ? 
       🔱 4 . आशीर्वाद -अभिशाप देने वाले तुम कौन हो ? मरणासन्न मित्र की शय्या पर बैठकर महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप करना क्या उचित है ? नेता का मन-बुद्धि दर्पण के सामान है, उसके मन पर सुख-दुःख का प्रभाव नहीं होता।  किस व्यक्ति के लिए क्या उपचार योग्य और उचित है, वह प्रभु जानता है, उसमें हमको दखल देने की कोई आवश्यकता नहीं। सेवा करो, ईश्वर से सब के कल्याण की प्रार्थना करो , किन्तु वो भी उनकी आवश्यकता नहीं है, तुम्हारा हृदय बड़ा होगा। दया नहीं सेवा शिवज्ञान से जीवसेवा ! दुखी व्यक्तित्व का निर्माण कभी मत  होने देना। अपनी सुख-दुःख की  अनुभूतियों से (विवाह के अल्बम से) असंग और जगत की दुर्घटना ओं से उदासीन। 
     5.   अनुभूतियों से असंगता ये हमारा स्वरुप है।  सृष्टि-स्थिति-संहार को विक्षेप समझकर उससे असंग रहना है। अनुभूतियों का अल्बम नहीं बनाएंगे, प्रेमी -प्रेमिका के व्यक्तित्व का निर्माण करेंगे। विशुद्ध चेतना होकर M/F शरीर के जीवन में रहो लेकिन अनुभूतियों से असंग होकर रहो।
     6. तदा द्रष्टु स्वरूपे अवस्थानं ! शास्त्र -निषिद्ध कर्मों का त्याग कर दें।   किसी भी मार्ग पर गाड़ी चलायें उसके ट्रैफिक नियमों का पालन करें , अपने अपने स्वाभाविक धर्म का पालन करें।  ट्रैफिक रूल ड्राइवर पर लागू होते हैं, पैसेंजर पर लागू नहीं होते हैं। फ़ाईन ड्राइवर को ही भरना होगा।  जब  तक कर्ता पन का अभिमान है , तब तक धर्म के विधि-निषेध लागू होंगे। इसलिए कर्मफल को समझना आवश्यक है।  जिसने अपने को देह माना है, और कर्तृत्व अभिमान है , उसी पर धर्मशास्त्र के विधि-निषेध लागु होते हैं। जो जन्म के पहले भी था, मृत्यु के बाद भी रहेगा - वो जीव है। स्वप्न-पुरुष और जाग्रत पुरुष का कोई सम्बन्ध नहीं है।  चारो योग मार्गों का, प्रवृत्ति-निवृत्ति धर्म का ब्रह्मानुभूति में ही पर्यवसान होता है। 

         7. कर्म, धर्म , उपासना :  मन को लम्बे समय तक एकाग्र रखने के लिए धर्म के बाद उपासना आवश्यक है। USA  में नियम बहुत कड़ा है, उस डर से लोग नियमों का पालन करते हैं। यह जगत माँ जगदम्बा के भय से चल रहा है।   देहात्मभाव से उठने के लिये योगासन, व्यायाम , परेड , मॉर्निंग वॉक करो ! चारो मार्ग या योग के  यम-नियम-आसन -प्रत्याहार -धारणा ये बहिरंग  साधना है।
        8 . धारणा -ध्यान -समाधि अन्तरंग साधना है।  लॉकडाउन खत्म होने के बाद मैं निकल जाऊँगा हिमालय  -ये कल्पना में होती है। जीवन के हरेक अनुभव (१६ जनवरी सरस्वती पूजा BhTower and Towers Vivek  brother and sister with manager) अपने स्वरुप को लखाने के लिये ईश्वर की ओर दिया जा रहा है। लेकिन हम उसे ग्रहण नहीं करते , इसीलिए लगे रहो मुन्ना भाई।   

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम। 
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥' 

 भावार्थ. जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे राम जी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए। मन के चैतन्यी कारण को ही आध्यात्मिक साधना कहते हैं। श्रवण के समय लघुशंका -दीर्घशंका होगी तो क्या समझोगे ?   मनन के बाद निदिध्यासन -निरंतर लगे रहना, दृष्टि में परिवर्तन आ रहा है ? तब हम निदिध्यासन के मार्ग पर ठीक चल रहे हैं।  ओपन आई मेडिटेशन : चित्त वृत्तियाँ नहीं हैं , लेकिन आप सो नहीं रहे हो - तदा द्रष्टुं स्वरूपे अवस्थानं !  माला क्या पहने ये खत्म तब वेदान्त में शुरू होती है -श्रवण,मनन , निदिध्यासन। ज्ञान हमेशा वर्तमान में ही होता है। रसना पर मिठाई रखते ही , मीठा -नमकीन पता चल जाता है।  सुनते ही आपको अपने स्वरुप की झलक मिल जाती है।  हवा किसको कहते है ? सामने पहाड़ी पर जो पेड़ है, वो हिल रही है वो हवा के कारण हिल रही है।  एक ही सत्य को तीन लड़के तीन प्रकार से क्यों बताते हैं ? एक ही जीवन में -बचपन के पत्ते आये, झड़ गए।  यौवन -बुढ़ापा के पत्ते आये - झड़ गए फिर भी हम हैं ! 

     9.ईश्वर (माँ काली का ?) स्वरुप निष्ठुर है -लेकिन स्वभाव दयालू है : भक्त माँ जगदम्बा से न्याय नहीं माँगता है दया मांगता है। भगवान बद्रीनाथ में है या मेरे हृदय में हैं। ब्रह्म को जानना नहीं है, ब्रह्म हो जाना  है !  ब्रह्म मन से अनन्त गुना बड़ा है , उसका आकर है ही नहीं। जिस पानी को आकार हो जाता है उसी को बर्फ कहते हैं।  ठाकुर ही ब्रह्म हैं ! माँ काली जब अपने भक्त के हृदय में अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द -नवनीदा के रूप में प्रकट हो जाती हैं , तब उनका  स्वभाव दयालु है ! भक्तों के हृदय में सेवा, प्रेम की भावना के सिवा कुछ नहीं होता।  जब तक हम अपने को जीव समझते हैं, देह मानते हैं तबतक भक्ति की साधना करनी चाहिए। हमको उस विक्षेप-रहित स्थिति में पहुँचना है, जिसमें नेता/  (नवनीदा) रहते  हैं! 'मैं de -hynotized ' हो चूका हूँ', मैं भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त सिंहशावक हूँ - की भ्रान्ति को छोड़ कर सत्संग करने में 'कोरोना लॉकडाउन विस्तार [2020 ] का आनन्द' लो ! ईश्वर (माँ काली का ?) स्वरुप निष्ठुर है -लेकिन स्वभाव दयालू है !

10. किसी भी प्रकार से अपने क्रोध का समर्थन न करें !   प्रसन्न रहने का अभ्यास करना है।  जो हमको जीवन में आ रहा है वो ईश्वर का प्रसाद ही है।  जितना उल्टा-सीधा हुआ उसमें भी उनका अनुग्रह ही है  ब्रह्मज्ञ पुरुष के जीवन में ब्रह्माकार वृत्ति निरंतर बनी रहती है। जो हम हैं, उसीको केवल पहचान लेते हैं।  क्योंकि उसको अपने {C-IN-C} होने का भी अभिमान नहीं होता है, और  {C-IN-C} नहीं होने का भी अभिमान नहीं होता है ! अंग्रेजी आती है उसका अभिमान या अंग्रेजी नहीं आती है उसका अभिमान हमें पुनः भेंड़ बना देता है।  प्राप्तस्य प्राप्ति : अज्ञान के निवृत्ति का भी अभिमान नहीं होता।  पहले मैं अज्ञानी था अब ज्ञानी हुआ हूँ ? ! देह  की श्राद्ध परम्परा तात्पर्य जिन्दा में उससे अधिक सेवा करना समझना है। 
11.रमन महर्षि : पॉल ब्रंटन के माध्यम से माँ जगदम्बा ने रमण महर्षि को प्रसिद्द बनाया।  भारत में पुत्र पिता का होता है, माता का नहीं कहलाता। एक ही जमीन पर सभी प्रकार के बीज से-आम का , इमली का , सेव का पेड़ निकला है ,  उसके पेड़ निकलते हैं। क्या तीनो पेड़ पृथ्वी के हैं ? प्रकृति स्त्री है, पुरुष बीज है। कोई बड़ा -छोटा नहीं है।  बिना बीज के प्रकृति फलित नहीं हो सकती और बिना प्रकृति के बीज फलित नहीं हो सकता। कोई सिद्धि यदि हमें आध्यात्मिक मार्ग पर रखती है, तभी हम सही मार्ग पर हैं। जानवरों में हम कहते हैं -गाय का बछड़ा है।  कोई कहता है क्या सांढ़ का बछड़ा है ? '  साधारण रूप से कभी यह नहीं कहते थे कि - मैं ब्रह्म हूँ , या तुम ब्रह्म हो ! आप कौन हैं ? जो तुम देख रहे हो वही मैं हूँ ! कभी कहते -मैं चराचर का सेवक हूँ ! जगत को हम अपने ट्रेनिंग के अनुसार देखते हैं।  स्त्री वही है, जब उसका पिता देखेगा तब क्या देखेगा ? उसमें कन्या देखेगा।  पति देखेगा तो उसमें पत्नी देखेगा।  पुत्र माँ के रूप में देखेगा।  हम जगत को किस दृष्टि से देखते हैं ? हम पर निर्भर है। 
12. तीन प्रकार की शुद्धि के बाद नेता का जन्म :

(1) आधिभौतिक शुद्धि= नेता (C-IN-C) के माँ -बाप पवित्र हों। दादा के माता-पिता -बाबा -दादी पवित्र थे।  पवित्र कुल में नेता का जन्म होता है।  दादा का जन्म उच्च कन्नौजिया ब्राह्मण कुल में हुआ था ! बंगला रामयण के लेखक श्रीवास के वंश में हुआ था।   जहाँ कहीं इच्छा हो वहीँ विवाह न करें। हमलोग ' Seven generation of Dogs Pedigree' पने कुत्ते/घोड़े की वंशावली की सात पीढ़ी को महत्व देते हैं। जो मनुष्य हैं, उनका गोत्र क्यों न देखें ? संस्कार जन्म- जन्म से आते हैं।  ठाकुर के माता-पिता , स्वामीजी के माता पिता , माँ सारदा के माता-पिता सभी पवित्र थे।  
 (2) आधिदैविक शुद्धि = ईश्वर का अनुग्रह।  विवेकनन्द के अनुग्रह से मुझे दादा के और श्री गुरुदेव का सत्संग प्राप्त हुआ !  

(3) आध्यात्मिक शुद्धि = अपने शुद्ध चेतना (Pure Consciousness) में होना M/F शरीर से तादतम्य करके उसी उपाधि में नहीं। कुछ M/F बने ही  नहीं हैं, तो कोई वृत्ति नहीं होगी अर्थात मन चैतन्य हो गया।  

>>>पंचदशी : के 15  अध्याय हैं। इसमें 5 -5  के तीन खंड है। सत -चित -आनन्द की व्याख्या है। प्रथम खंड में 'सत ' शब्द की व्याख्या विवेक की दृष्टि से किया है। । दूसरे खंड में दीप (प्रकाश)  शब्द से चित की व्याख्या है।  तीसरे खंड में आनंद की मीमांसा की है। प्रथम अध्याय में तत्व-विवेक किया है यह  हमको चिंतन करने के लिए प्रवृत्त करता है। 
सच्चिदानन्द का  वास्तविक अर्थ क्या है ? इसको समझने के 15 अध्याय हैं। प्रथम मंत्र में गुरु की प्रार्थना और भगवान को स्मरण से प्रारम्भ करते हैं - नमः श्रीशङ्करानन्दगुरुपादाम्बुजन्मने | सविलासमहामोहग्राहग्रासैककर्मणे ||१|| संस्कृत का अध्यन करने से सूक्ष्म का आनंद मिलता है।  जो सीखना बंद कर देता है , वो बूढ़ा हो जाता है।  तो मैंने संस्कृत सीख ली क्योंकि सुना है स्वर्ग में संस्कृत बोला जाता है।  पर प्लान बी क्या है ? यदि नर्क जाना पड़ गया तो ? बोला -सिंधी मुझे आती है।  

 हम अपने को जो मान लेंगे वही बन जायेंगे, तो हम अपने को देह या जीव  क्यों मानें , सीधा  ब्रह्म ही क्यों न माने !!  सत्संग में सिखाया जाता है विवेक-प्रयोग कैसे किया जाता है ?  उस विवेक- विचार को चिन्तन कहते हैं, और हमें अभय प्राप्त होता है। परनिन्दा -परचर्चा से हम उपरत हो जाते हैं। पावन -प्रसंग है एकमेवाद्वितीय ब्रह्म का श्रवण -मनन - निदिध्यासन।  

        गोपीगीत में तप्तजीवनम की व्याख्या की गयी है। भगवान विष्णु जैसे नेता श्रीरामकृष्ण के चरित्र का श्रवण करने से आनन्द आता है। पुनर्जन्म के सिद्धि में नहीं पुनर्जन्म के निषेध में अपनी बुद्धि का प्रयोग करो। पुनर्जन्म पर विश्वास करने से ही मनुष्य नैतिक बनता है। आहार-निद्रा - भय -मैथुन पशु का धर्म है -गाय हिन्दू और बकरी मुसलमान नहीं होती।  स्वयं को आप क्या समझते हैं ? यदि हमने अपने देह माना है , या जीव माना है तो पुर्नजन्म को स्वीकार करो। देह को पाप-पुण्य नहीं लगता , जीव कर्म के अनुसार अगला जन्म पाता है।  यदि यह जगत मनःकल्पित है, तो अपने को हम देह -M/F क्यों माने ? मनुष्य हैं तो अपने को जीव मानते हैं, और पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं,  तब सद्कर्म से सद्चरित्र गठित करते हैं।  हम अपने को ब्रह्म ही क्यों न माने ?  यह केवल मानना है कि मैं ब्राह्मण या क्षत्रिय हूँ, देह का जन्म उस परिवार में हुआ होगा , पर मैं ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं हूँ। यानि ब्रह्म ही अभी गृहस्थ जीवन में पुत्र, पति , पिता और 'आदमी'  या मनुष्य का रोल कर रहा हूँ। 

    भावना ही करनी है, तो अपने को देह या जीव क्यों माने ? अपने को ही ब्रह्म ही मानलो - अहंब्रह्मास्मि ! निष्काम कर्म हो सकता है, निष्प्रयोजन कर्म नहीं होता।  अच्छा कर्म जीव माना है तो अपने को ब्रह्म क्यों न मानें ? तब जीव स्वर्ग-नरक से परे हो जायेगा।  अध्यात्म का लक्ष्य सिद्धि पाना नहीं है। महात्मा  हैं तो शाप क्यों देंगे ?  अन्य समझकर ही आशीर्वाद या शाप की बात मन में आएगी। मरता कौन है ? जन्म किसका हुआ था ? समस्या एक अवसर होता है।  कोरोना फेस्टिवल एक्सटेंडेड।  रोज मेकअप करके बाहर जाने की क्या जरूरत है ? ८० दिन में क्या सीखा ? मैं अभी मुक्त हूँ ! शादी पार्टी में कितने फालतू लोग इकट्ठा हो जाते हैं। व्यर्थ का व्यय से हम अपने को बचा सकते हैं।  देने में जो सुख होता है, लेने  में नहीं है।  मैं मुक्त हूँ यह अभिमान छोड़कर सत्संग में टाइम पास करो।  कैसे काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गछति धीमताम ! दुनिया हमको त्याग करे , उसके पहले हमको दुनिया का त्याग करना है !  सत्संग के बिना जीवन पूर्ण नहीं लगता।  अन्धश्रद्धा  के बिना भक्ति में दृढ़ता नहीं आती।  योग-क्षेम का वहन मैं करता हूँ ! -उस प्रभु पर सौंप कर आनंद में रहो। नचिकेता जैसी श्रद्धा -पहले पिता के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो गयी।   मनुष्य श्रद्धा के द्वारा किसी का नुकसान नहीं करता।  श्रद्धावान लभते ज्ञानं ! श्रद्धा और वैराग्य दोनों रहे तो वेदान्त ज्ञान में प्रगति संभव है। ईश्वर के  ऐश्वर्य से भी वैराग्य -चीनी छोड़ना घटिया वैराग्य। यथार्थ वैराग्य भोग वस्तु है, भोग की क्षमता है, पर भोग करने का विचार भी मन में नहीं उठता।


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2 . Santo Ke Saath Satsang 02 @ Corona Festival Extended 2020 (Hindi)
हमारे मन में यदि ये प्रश्न आता है कि जन्म किसका होता है ? या हमको यदि मृत्यु से डर क्यों लगता है ? तो इन दोनों का कारण क्या हो सकता है ? डर लगने का कारण है हम अपने को देह मानकर बैठे हैं ! जब हम महामण्डल के साप्ताहिक पाठचक्र या किसी सत्संग में जाते हैं , तब हम स्वीकार करते हैं कि हम जीव हैं, क्योंकि वहाँ कर्मफल भोग , पुनर्जन्म आदि पर चर्चा होती है।  तो हम श्रवण के बाद मनन नहीं करते और अपने को जीव मान लेते हैं, और यही गलती हो जाती है। अपने को जीव नहीं मानना है और मनन करना है कि जीव किसको कहते हैं ?  तब समझ में आ जाता है कि ब्रह्म ही डबल रोल कर रहा है, वही ट्रिपल रोल भी कर रहा है, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है।  अनन्त रोल कर सकता है। जैसे कान दिखा सकते हो, क्या वैसे जीव को दिखा सकते हो ? दिखाओ जीव कहाँ है ? जब अपने को जीव मान लेते हैं, तब ये प्रश्न आता है कि मरने के बाद पुनर्जन्म किसका होता है ? 3H ' का पहला Hand या देह का तो पुनर्जन्म नहीं हो सकता , क्योंकि देह तो जलकर राख हो गयी।  फिर दूसरा "H' हेड या मन का भी पुनर्जन्म नहीं हो सकता क्योंकि वह मन भी देह के बिना नहीं रह सकती है।  बल्ब को प्रकाशित होने के लिए बल्ब और बिजली दोनों चाहिए।  क्या यह जीव - तथाकथित-  [ Dy C-IN-C ] 'विजयकुमार सिंह' बिना देह के रह सकता है ? बल्ब के बिना प्रकाश भी नहीं रह सकती है, किन्तु यह बात हमारे मन में घर कर चुकी है कि मरने के बाद मेरा पुनर्जन्म भी अवश्य होगा ! जीव  के बारे में हम जिज्ञासा से मनन करेंगे कि शंकर ने बताया था - ' ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या , जीवो ब्रह्मैव ना परा: जीव भी ब्रह्म ही है , कुछ दूसरा नहीं है ?  जब हम जीव को स्वीकार करते हैं, पिछला जन्म अगला जन्म को स्वीकार करते रहेंगे तबतक हम जीव ही बने रहेंगे -  और यही परमार्थ तत्व का बोधक है ! अर्थात 3rdH के लिये (Heart) के लिए  न तो मृत्यु है, न जन्म है ! इसके बारे में केवल श्रवण-मनन-निदिध्यासन से ही सब समस्या का निराकरण हो सकता है।  
आध्यात्मिक उपलब्धि का तात्पर्य अपने में विशेषता का निर्माण करना नहीं है।  नवनीदा सबके दादा !  निवृत्ति-परायण (प्रसिद्धि भी नहीं चाहिए-वैराग्य ) और अभ्यासी बनो। अभ्यास और वैराग्य से मिथ्या व्यक्तित्व (परिच्छिन्नता -मैं इतना हूँ-पुनः )  वि-निर्मित हो सकता है। अभ्यास से तम्बाकू , चाय में चीनी डालने की आदत हुई तो , अभ्यास से ही उसको छोड़ा जा सकता है।  उच्च स्तर की शिक्षा लेने का अधिकार -स्वाध्याय  अपने मन को देखो। 

5 अभ्यास में आलस्य कभी नहीं करना। नहाते समय भद्रं कर्णेभिः का नियमित अभ्यास। मोहमुद्गर डेली पढ़ो।  कोरोना में बड़े -बड़े महल में झाडू -पोंछा लगाव , नयी गाड़ी जनवरी में खरीदी अब ४ महीने से पड़ी रहत्ती है। डर से हाथ धोकर पतला कर  लिया। अब जीवन का मकसद खोजो।  1986 का हरिद्वार कुम्भ मेला देवराहा बाबा से लेकर माँ की कृपा सब एक साथ। प्रश्नोत्तरी में जिज्ञासा से पूछा गया प्रश्न कम होता है, अधिकतर कम्प्लेन होते हैं।  अपने दृष्टिकोण के प्रति दुराग्रही एक ही चित्र का वर्णन भिन्न-भिन्न प्रकार से करेगा। ड्रॉइंग कम्पीटिशन में नकल नहीं हो सकती।  सब को अपना ड्रॉइंग खुद बनाना है। भविष्य को लेकर हम केवल चिंता ही कर सकते हैं, कोरोना कब तक चलेगा ? हम उसकी चिंता क्यों करें , हम तो अभी भी आनन्द में हैं।  कोरोना सार्वजनिक समस्या है, पत्नी से परेशान होना वैयक्तिक है। लॉकडाउन में हर पति झाड़ू -पोछा लगा रहा है।  टीचर /नेता वो है जो सभी बच्चों के सभी प्रकार के दृष्टिकोण को ठीक से समझ लिया था। और सब को ड्राइंग में पास कर दिया था।  माँ अन्नपूर्णा जगदम्बा की कृपा से : ओड़िया बाबा के शिविर में।  [42 मिनट ]  250 रूपये में भण्डारा चलता गया। अन्नपूर्णा ने अपना खजाना खोल दिया और साक्षात् सदाशिव (ओड़िया बाबा ?)  की सेवा करके  अपने को कृतार्थ बनाया !  पॉल ब्रंटन के माध्यम से माँ जगदम्बा ने रमण महर्षि को प्रसिद्द बनाया।  पानी की एक बून्द से यह शरीर बन गया - इससे बड़ा चमत्कार  क्या होगा ? सिद्धि देखकर स्थूल बुद्धि व्यक्ति आकर्षित हो जाता है।  मेरे जीवन में स्वामी जी ने स्वयं परिवर्तन किया,  चमत्कार का वर्णन करके अपना महत्व प्रकट करना आवश्यक नहीं , दादा ने दिशानिर्देश दिया। 
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Santo Ke Saath 05 @ Corona Festival Extended 2020 (Hindi)
निरुपाधिक सत्ता किसी से विशेष सम्बन्ध निर्माण नहीं करती।  

गीता 10 अध्याय में भगवान ने अपनी 72 विशेषतायें बतलायी थीं ! हमारा ध्यान विशेषता में चला जाता है, परमात्मा (दादा) को मिस कर देते हैं।  इन्द्रधनुष में रंगों की विशेषता क्यों खोजें।  सभी रंग (नाम-रूप ) अच्छे हैं ! सभी उसीके रूप हैं ! संन्यास दीक्षा में पहले रूप की विशेषता मिटा देते हैं।  दादा के श्वेत वस्त्र ही उनकी विशेषता थी ! निन्दा -स्तुति में सम  रहते थे।  सम्पूर्ण विश्व मुझमें है -यह कहने में भी रमण महर्षि को हिचक नहीं होती थी।अवतार ही ऐसा कह सकते हैं ! 
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥ भावार्थ:-मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परंतु हे हनुमान्‌! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥2॥सुंदरकाण्ड। 
दादा के साथ यात्रा , शयन किया , मानो उनकी गोद में क्रीड़ा हो।  उनकी निरपेक्षता , वेदान्त की गर्जना ! मुझे उनके निज जनों में एक स्थान प्राप्त हो गया था।  याद करके वाणी रुक जाती है ! जय ठाकुर देव ! निज जन माने तुमको अल्मोड़ा के आकर्षण का बंगला से हिंदी करना है - यह आदेश देने का अधिकार था।  जाओ दौड़ का नस्सी का डब्बा ले आओ , और फोन पर बीस्ट की गाली भी पड़ेगी। प्रेम स्वरूप दादा अनिर्वचनीय हैं।  मैं रूठता था , तो मना लेते थे ! "-तुम्हें मेरी याद नहीं आती ? मुझे तुम्हारी याद आती है ! " 

माँ और परम् मित्र की मृत्यु के बाद वैराग्य हो गया और सारा संसार नाशवान प्रतीत होने लगा। दादा एक आसन में घंटों बैठे रहते थे। 1987 बेलघड़िया कैम्प के बाद तीन दिन तक भावसमाधि बनी रही। आनन्द महाराज से मिला तब उन्होंने कहा था जय श्रीरामकृष्ण !  रोग नहीं है, भवरोग का निवारण है। स्वामीजी के समय में भयंकर प्लेग महामारी हुई हमारे समय में कोरोना हुआ।  दुनिया ऐसी ही रहेगी।  
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Panchadashi ch 1 Hindi Talk 1 of 6 @ Jaipur 2012 [Extended Corona Lockdown  Festival (2020)  @ "Be and Make Leadership Training " ]
 जो हमको समस्त कामनाओं से हमेशा के लिए छुटकारा दिला देते हैं, वही भव-वैद्य , नेता , शिक्षक [C-IN-C ] हैं !    मैं (अहं-बोध) को मिटाने की साधना शुद्ध अन्तःकरण में जिज्ञासा मैं कौन हूँ ? भगवान कौन है ? जीवन की प्रेरणा अब कामना , राग-द्वेष, नहीं रही सत्य को जानने की जिज्ञासा ही जीवन की प्रेरणा रही क्लास 9 से ।  1985 के बाद -  तब जीवन में साधु-संत आते हैं।  जो हमको मेरा स्वरुप लखा देंगे।  इच्छाओं को पूरा करने वाले , साईं बाबा। बिना मांगे, हमारे लिए जो श्रेयस है, पर अभी हम नहीं समझते उन सब प्रकार की इच्छाओं (Bh) को पूर्ण करवाकर , उसकी निस्सारता दिखाते हुए  इच्छाओं के परे ले जाने वाले ठाकुर ! हमारी भलाई इच्छाओं को पूर्ण करने में नहीं है। एक लाइन में जीवनी - अभी तक १०-२० नहीं लाखों इच्छाओं को पूर्ण किया है, किन्तु जीवन में पूर्णता , कृत-कृत्यता आयी क्या ? जो हमको कामनाओं से छुटकारा दिला देते हैं, वही भव-वैद्य , नेता , शिक्षक [C-IN-C ] हैं !  अन्तःकरण शुद्ध , कर्म और मनःसंयोग से चित्तशुद्धि हो गयी है, मन एकाग्र हो गया है - अब मैं जब और जिस विषय में चाहूँ अपनी इच्छा स्वातंत्र्य से अपने मन को उसी विषय जितनी देर चहुँ एकाग्र रख सकता हूँ।  हम जब चाहें हमारा मन मेरे सामने सेवा के लिए उपलब्ध है। अद्वैत की जिज्ञासा प्रकट होते ही हम मृत्यु भय से मुक्त हो जाते हैं।  भय से मुक्त होकर जीना वही जीना है। अब KG-1 , KG-2 नहीं चाहिए। बापे दी फूल कृपा हो गयी !  सबकुछ प्राप्त हो गया अब क्या चाहिए ? ऐसी अवस्था जिसकी हो गयी हो , उसके जीवन में 'पंचदशी' ग्रन्थ अवतरित हो जाता है ! जैसे माड़वाड़ी , गुजराती वैष्णवों के लिए एकादसी है, वैसे जिसके हृदय में तत्वज्ञान का प्रकाश पड़ने लगे उसके लिए पंचदशी है। ११ के बाद पंचदशी माने १५ , एकादशी के बाद  पूर्णमासी ! कठोपनिषद का अंतिम मंत्र = यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥  (जब हृदय की समस्त इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं तब मर्त्य अमर हो जाता है और इस जीवन में ब्रह्म की प्राप्ति कर लेता है।) जब हमारे हृदय से सभी कामनाएं सदा के लिए मिट गयी हैं -तब अध्यात्म की अमरत्व अवस्था प्राप्त होती है। (जब हृदय की समस्त सांसारिक ग्रन्थियाँ अलग हो जाती हैं तो मर्त्य अमर हो जाता है । यहीं समस्त शिक्षा का अन्त होता है।) गहरी नींद में हम सभी कामना रहित होने का अनुभव करते हैं, इसीलिए शिविर के मनःसंयोग कक्षा  में जम्हाई लेते हुए सो जाते हैं। गहरी नींद में एक भी इच्छा नहीं होती।  जो सो जाते हैं, वही ज्ञानी पुरुष हैं ! ! भगवान की प्राप्ति , सत्य का दर्शन माने इस कामना से हमेशा के लिए छुटकारा ! जो व्यक्ति अधिकारी नहीं है, उसको इस ग्रन्थ में रस नहीं आ सकता। अध्यात्म में कोटा सिस्टम का आरक्षण नहीं है। जो व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता सरकारी नौकरी के लिए फिट है ! पंचदशी ग्रन्थ यदि हमारे हाथ में आ गयी हो, तो इसका तात्पर्य यह कि भगवान की फूल कृपा हो गयी। 

नमन - मन ही मैं है अपना मैं मिट जाता है। गुरु /नेता / शिक्षक महाराज के चरणकमलों का नमन करने से  हमारे मोह भ्रम-रूपी ग्राह को समाप्त कर देना ही मेरे नेता नवनीदा का एक मात्र कार्य है। नेता /गुरु किसको कहते हैं ? जो हमारे अज्ञान को मिटा कर स्वरुप को लखा देता है , उसको नेता [C-IN-C ] कहते हैं ! भावी नेता को स्वरूपानन्द में प्रतिष्ठित करा देना ही नेता का कार्य है। 
तत्पादाम्बुरुहद्वङ्द्वसेवानिमर्लचेतसाम् | सुखबोधाय तत्त्वस्य विवेको अयं विधीयते ||२|| यदि हमने अपने नेता - नवनीदा की आज्ञा का बिना कहे पालन  सेवा की है ( नवनीदा की आज्ञा का बिना कहे पालन किया है ), तो मेरा चित्त अवश्य शुद्ध हो जायेगा। जिसमें तत्वज्ञान की जिज्ञासा प्रकट हो गयी वही शुद्ध अन्तःकरण है। चित्त शुद्धि अर्थात शुद्ध अन्तःकरण वो है जिसमें मैं मिट जाता है, और वहां परमात्मा प्रकट हो जाते हैं।  जिसके हृदय में सेवा भाव प्रकट हो , वहां अहं भाव रह ही नहीं सकता। " सो अनन्य  जाकें असि मति न टरइ हनुमंत। मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥" अर्थात और हे हनुमान ! अनन्य वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ , और यह चराचर (जड़-चेतन) जगत्‌ मेरे स्वामी भगवान्‌ का रूप है। अपमान के सुख-दुःख से अगर निवृत्त होना है, तो हृदय में सेवा भाव जाग्रत करना है। नौकर का अपमान होता ही नहीं है। यह बहुत सूक्ष्म और सिम्पल टेक्निक है। Mobile Temple Technic For Open Eyed Meditation : प्रोफेसनल सीक्रेट किसी को भी सम्बोधित करते समय बहुत आदर भाव के उपनाम से बुलायें। आदर से बुलाते हो , तो तुम्हारे हृदय में प्रसन्नता होती है।  नाम याद नहीं आया तो कहते हैं -भगवन आइये , महात्मा जी कैसे हो ?एकादसी वाले पेट खाली रखते दिमाग भरके रखते हैं, पंचदशी वाले दिमाग खाली रखते हैं पेट भर कर रखते हैं। माँ-बाप की सेवा होती है, उनके श्रेष्ठत्व को हमने पहचाना है। घर में रखे  कुत्ते की सेवा नहीं होती।  खुली आंखों के ध्यान के लिए मोबाइल मंदिर की तकनीक:  प्रत्येक देह एक चलन्त देवालय है। विग्रह के सामने जब हम आदर भाव से जाते हैं, तब हमें ही आनन्द प्राप्त होता है। बिग्रह को क्या फर्क पड़ता है ? जो द्वेष से विग्रह को तोड़ता है, उसके ह्रदय का नाश होता है।  मानवजाति के मार्ग-दर्शक नेता (श्रीविष्णु) श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीरामकृष्ण, विवेकानन्द , कैप्टन सेवियर , नवनीदा [C-IN-C] ....   के सच्चे भक्त [अनन्य सेवक ] की पूजा- अर्चा अथवा उपासना-पद्धति  मठों, मंदिरों तक आबद्ध नहीं होती।  उनके लिए प्रभु-सेवा का व्यापक अर्थ है, संपूर्ण विश्व के प्राणियों की सच्ची एवं निष्कपट सेवा । चराचर जगत्को परम प्रभु का व्यक्त रूप समझ कर उसकी सेवा करना मानो भगवान की  सेवा है । इसी लोक तथा इसी जन्म में समष्टि- हित के लिए प्राणपण से प्रयास करते रहना तथा सभी के कल्याण की निरंतर कामना करना भी तो भगवत्सेवा का ही एक विशदरूप है । प्रभु के अनन्य सेवक की दृष्टि में यह जगत् ‘सीय-राममय’ है । अतः, वह सहज ही इस जगत् को अपना सेव्य मानकर जीवन-यापन करता है। हम यदि सेवा करते हैं तो हृदय अपनेआप निर्मल हो जाता है - सेवा निर्मल चेतसाम्! इसीलिए भारत (गुरु-देश) के राष्ट्रीय आदर्श हैं - त्याग और सेवा ! उसके हृदय में तत्व का विवेक बहुत आसानी 'सुखबोधाय तत्त्वस्य विवेक' से हो जाता है। बोध स्वतः हो जाता है, ज्ञान समझने में बुद्धि लगानी पड़ती है। 


वेदान्त का विवेक है, साँप -रस्सी ! आप चाहे ब्रह्म को जानो या न जानो, रज्जु -सर्प का अध्यन किये बिना वेदान्त को समझना असम्भव है। रस्सी और सर्प में क्या सम्बन्ध है ? कुछ सम्बन्ध नहीं है।  जहाँ भी सम्बन्ध है, वहां संसार है -जब गुरु-शिष्य दोनों वाला अहं खत्म हो जाते हैं , तब तत्व प्रकट हो जाता है ! न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः. चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥ जहाँ तक सापेक्षिक सम्बन्ध -वहां तक संसार , गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी खत्म हो जाता है - गुरुर्नैव शिष्यः ! अधूरा ज्ञान समस्या है , कुछ है पर क्या है ? मालूम नहीं। रस्सी के आकार का क्या क्या हो सकता है ? मन ने अध्यारोपित किया - ये सांप है। अधिष्ठान ही सत्य है, अध्यारोपित वस्तु मिथ्या है -टॉर्च की रौशनी में प्रमाणित हुआ। नाम-रूप अध्यस्त है। अस्ति -भाति -प्रिय सत्य अधिष्ठान है। मायावती का नाम-रूप पार्क है न ? क्योंकि जगत को हमने अपरिवर्तनशील, अविनाशी सत्य माना है।  सब्दस्पर्शादयो वेद्यावैचित्र्याज्जागरे पृथक् | ततो विभक्ता तत्संवितैकरूप्यान्न भिद्यते ||३|| आध्यात्मिक यात्रा अनेक से प्रारम्भ होकर एक में समाप्त हो जाती है। और यह यात्रा देश-काल में नहीं होती। वस्तु में नहीं है।  इसमें कुछ प्राप्ति नहीं है। केवल अपने आप को पहचानना मात्र है। अनेकता को प्रकाशित करने वाली चेतना या संवित (pure consciousness) एक और अद्वितीय है ! अपनी बुद्धि को या व्यष्टि अहं को समष्टि बुद्धि या माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में समर्पित कर दिया, उसको शरणागति कहते हैं ! वैसा हो जाने पर हम नींद में जाने के स्थान पर प्रभु के साथ एक हो गए। इस यात्रा को या इस मार्ग को लय -प्रक्रिया कहते हैं। इसी के द्वारा हम अनेकता से प्रारम्भ करके एक को पहचान लेते हैं।  इसमें दो नहीं होता , श्रीरामकृष्णदेव कहते थे इस मार्ग पर चलने की पात्रता होनी चाहिए, मैं नहीं जानता पर सुना हूँ कि शेरनी का दूध केवल स्वर्ण के पात्र में (प्रशिक्षित मन में ) ही टिकता है ! नहीं तो खराब हो जाता है। इस एक को दो से गुणा नहीं किया जा सकता , या दो से उसको घटाया नहीं जा सकता।  ऐसा एक केवल अनन्त मात्र होता है। infinite (ईश्वर-नेता)  minus (-), plus (+) any thing continues to be infinite (ईश्वर-नेता ) ! एक ही तत्व उपाधि के कारण अनेक सा प्रतीत होता है। एक ही 'मनुष्य' पर ही पिता, पति , पुत्र की उपाधियाँ चढ़ा दी गयी है। इसमें सत्य मनुष्य है , उपाधियाँ सत्य नहीं हैं। अपने पिता के सामने आज्ञाकारी पुत्र का नाटक, पत्नी के सामने गुलाम का नाटक, अपने पुत्र के सामने हिटलर का नाटक करते हैं।  पत्नी मर गयी तो पति फिर भी रहता है न ? पर यदि मनुष्य ही मर गया तो तीन में किसी का अस्तित्व बचेगा क्या ? केवल जाग्रत में ही नहीं स्वप्न में भी यही बात सत्य है ! तथा स्वप्ने’त्र वेद्यं तु न स्थिरं जागरे स्थिरम् | तद्बेह्दो’तस्तयोः संविदेकरूपा न भिद्यते ||४|| स्वप्न में भी जो अनेकता प्रकाशित होती है, उसको प्रकाशित करने वाली संवित चैतन्य एक ही है। उगते सूर्य पर त्राटक के बाद सूर्य और दुनिया के प्रतिबिम्बों को प्रकाशित करने वाली सत्ता एक थी। जाग्रत पुरुष और स्वप्न पुरुष औपाधिक है , इनके पीछे चेतन सत्ता एक है। सुपोत्थितस्य सौष्प्ततमोबोधो भवेत्स्मृतिः | सा चावबुद्धविषया’वबुद्धं तत्तदा तमः ||५|| गहरी नींद में कुछ भी अनुभव नहीं था। स्मरण करने वाला और अनुभव करने वाला एक ही होना चाहिए।  मेरा बचपन की स्मृति सिर्फ मुझे होती है। लीला करो ! जो व्यक्ति सीखने को तैयार है, उसके ह्रदय में गुरु तत्व प्रकट हो गया है। कृष्णं वंदे जगतगुरुं -एक्सेप्ट धृतराष्ट्र !  
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Panchadashi ch 1 Hindi Talk 2 of 6 @ Jaipur २०१२  [Extended Corona Lockdown  Festival (2020)"Be and Make Leadership Training "] 
जगत निरंतर परिवर्तनशील है , इस बात को तभी सिद्ध किया जा सकता है, जब कोई ऐसी वस्तु हो जो अपरिवर्तनशील हो। सापेक्षिक गति का पता निरपेक्ष द्रष्टा या साक्षी चैतन्य को लगता है। उम्र बढ़ने पर शरीर और इन्द्रियों परिवर्तन आया ? हमारे विचारों में परिवर्तन आया , हमारे (priorities) या प्राथमिकताओं में परिवर्तन आया। छठा श्लोक स बोधो विषयाद्भिन्नो न बोधात्स्वप्नबोधवत् | एवं स्थान त्रये’प्येका संविद्तत्वद्दिनान्तरे ||६|| जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति और समाधि ये चारो अवस्था एक ब्रह्म की ही है ! ब्रह्म ज्यों का त्यों है - प्रशांति अपना स्वरुप है। केवल इतना ही पकड़ ले जो   जो बदलता नहीं वो सत्य है - मासाब्दयुगकल्पेषु गतागम्येष्वनेकधा | नोदेति नास्तमेत्यका संविदेषा स्वयंप्रभा ||७|| यह निरंतरता एक-दो दिन की बात नहीं , काल के मापने के जितने पैमाने हैं - मास, अब्द , युग , कल्प इतने समय से आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं आया। बदलाव में इतने अटक गए कि अपरिवर्तनशील पर दृष्टि जाती नहीं। वाश-बेसिन के सामने लगे मिरर पर देखो - 40 साल पहले ये बुढऊ ऐसा था क्या  ? दुनिया कितनी बदल गयी है, सबकी नजर इसी पर लगी रहती है। इस संवित चैतन्य का न तो उदय होता है , न अस्त होता है। इसका आदि और अंत सम्भव ही नहीं है। किसकी बात हो रही है ? किसी थर्ड परसन सिंगुलर नंबर की बात नहीं हो रही है। ये हमारी ही बात हो रही है।  क्या किसी को अपने जन्म का अनुभव हुआ है ? क्या किसी को अपने मृत्यु का अनुभव हुआ है ?    कभी क्या किसी को अपने अभाव का अनुभव  होता है ? - 'न उदेति न अस्तम एती'  ये तो अपनी ही बात हो रही है। एक बात और - 'संवित एषा स्वयं -प्रभा' जिसमें परिवर्तन हो रहे हैं , उसको मैंने कैसे जाना ? इन्द्रियों के माध्यम से जाना?  मन से जाना ? बुद्धि से जाना ? डॉक्टर के सर्टिफिकेट से जाना ? स्वयं -प्रभा ! जिस अनुभूति में जानना और होना एक होता है, 'where knowing is being ' उस अनुभूति को अपरोक्षानुभूति कहते हैं। वो अपना स्वरुप है। 
वाश-बेसिन के सामने लगे मिरर पर देखो - 40 साल पहले ये बुढऊ ऐसा था क्या  ? दुनिया कितनी बदल गयी है, सबकी नजर इसी पर लगी रहती है। इस संवित चैतन्य का न तो उदय होता है , न अस्त होता है। इसका आदि और अंत सम्भव ही नहीं है। किसकी बात हो रही है ? किसी थर्ड परसन सिंगुलर नंबर की बात नहीं हो रही है। ये हमारी ही बात हो रही है।  क्या किसी को अपने जन्म का अनुभव हुआ है ? क्या किसी को अपने मृत्यु का अनुभव हुआ है ?    कभी क्या किसी को अपने अभाव का अनुभव  होता है ? - 'न उदेति न अस्तम ेती'  ये तो अपनी ही बात हो रही है। एक बात और - 'स्वयं -प्रभा' जिसमें परिवर्तन हो रहे हैं , उसको मैंने कैसे जाना ? इन्द्रियों के माध्यम से जाना?  मन से जाना ? बुद्धि से जाना ? डॉक्टर के सर्टिफिकेट से जाना ? स्वयं -प्रभा ! जिस अनुभूति में जानना और होना एक होता है, 'where knowing is being ' उस अनुभूति को अपरोक्षानुभूति कहते हैं।  ये माइक है , इसको मैं जानता हूँ।  तो क्या जानता हूँ ? मैं माइक नहीं हूँ !   जिस किसी वस्तु को मैं जानता हूँ वो मैं नहीं हूँ। यह जो संवित या चैतन्य है वो सत्-स्वरुप है और चित-स्वरुप  है।  सत और चित, चेतना और सत्ता ये दो अलग नहीं है , एक ही है। जहाँ ये अलग हो जायेंगे वहां संसार शुरू हो जायेगा। 
संसार क्या है ? अपने से जो अन्य होता है, उसीके बारे में इच्छा होती है।  जहाँ इच्छा है वहां संसार है। हमको अपने बारे में इच्छा नहीं हो सकती , हम तो हैं ही। अन्य प्रतीति है, वास्तविकता नहीं है।  जगत प्रतीत होता है, जैसे हम देखते हैं - मृगतृष्णा (miraj waters )! वो कब दीखता है ? जब एक परिस्थिति विशेष हो।  जाग्रत अवस्था की जितनी उपलब्धियां है, ये परिस्थिति विशेष में ही होती हैं। जब तक हमारा स्थूल देह के साथ कोई तादात्म्य नहीं है, तब तक परिस्थिति विशेष का कोई प्रभाव नहीं होगा।  स्थूल देह से तादात्म्य नहीं हो तब जाग्रत अवस्था भी दृश्य है।  जैसे ही देह-इन्द्रियों से तादतम्य होगा जाग्रत जगत सत्य लगने लगेगा। जाग्रत अवस्था प्रतीति है, स्वप्नावस्था प्रतीति है , वास्तविक सत्य नहीं है। प्रातिभासिक सत्य है। सच्चे स्वरुप को लखाने के बाद , जो सत-चित स्वरुप है , वही आनंद  है। आनंद की परिभाषा क्या है ? जिस अनुभूति  में सत्ता और चेतना अलग अलग होते हैं , वो दुःख है। और जिस अनुभूति में सत्ता और चेतना एक होते हैं , उसको आनंद कहते हैं। रसगुल्ला सत्ता है, जिह्वा या रसना चेतना है , रसगुल्ला को जिह्वा पर रखा तो इनका भेद मिट गया। गहरी नींद में अन्य का अभाव होता है। गहरी नींद में सत और चित वहां एक होने से आनंद का अनुभव आता है। 
इयमात्मा परानन्दः परप्रेमास्पदं यतः | मा न भूवं हि भूयासमिति प्रेमात्मनीक्ष्यते ||८|| इयमात्मा परानन्दः - यह आत्म-तत्व परम् आनंद स्वरुप है। कारण बताते हैं -परप्रेमास्पदं यतः - क्योंकि अपने स्वरुप से (श्रीरामकृष्ण देव)  ही हम सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं ! बृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ऋषि अपनी पत्नी मैत्रेयी से कहते हैं, "आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।" संसार के प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुख के लिए ही पत्नी, पुत्र व धन प्रिय होता है। सबसे ज्यादा प्रेम हम अपने आप से करते हैं, क्योंकि हम परमानंद-स्वरुप हैं ! हम अपने से सबसे ज्यादा प्यार करते हैं, इसलिए कामना करते हैं कि मेरा नाम-रूपात्मक यह व्यक्तित्व हमेशा बना रहे ! इसलिए क्या करेंगे ? भगवान की माया कहो या  मायावती कहो ऐसी ही है - जैसा अपने बूत का पार्क बना देंगे ? हर जगह अपना नाम लगा देंगे। 
तत्प्रेमात्मार्थमन्यत्र नैवमन्यार्थमात्मनह् | अतसत्परमं तेन परमानन्दतात्मनः ||९||
निरंकुश तृप्ति : Unbridled fulfillment :  हमने अपने सच्चिदानन्द स्वरुप को पहचान लिया है। जिसको हम आत्मा कहते हैं, वो असल में परमात्मा है! परिपूर्णता का लक्षण किसी से पूछना नहीं पड़ता। प्रश्न का स्थान केवल मन होता है, परमात्मा में कोई प्रश्न नहीं होता।  किसी को भी लेकर कोई प्रश्न नहीं आएगा।  जहाँ परिपूर्णता है वहाँ इच्छा नहीं होती ! भारतीय माता का प्रेम- पेट भरते जाओ , खाएंगे तो मरेंगे न ! इसको अपनी बात मनवाने की जिद होती है।
अभाने न परं प्रेम भाने न विषये स्पृहा | अतो भाने’प्यभाता’सौ परमानन्दतात्मनः||११||
हमक अपने होने का भान ही नहीं है, यदि हमने अपने सच्चिदानंद स्वरुप को पहचान लिया है तो विषयों की इच्छा उठ ही नहीं सकती। प्रवचन करते समय मैं परम् वैरागी हूँ।  प्रवचन के बाद एक और कोठी, एक और आश्रम की इच्छा क्यों होती है ? उत्तर - जानते हुए भी हम अनजान हैं ? क्योंकि हम दुनियादारी में इतने लिप्त हैं, कि अपने स्वरुप को हम भूल गए। आपके जैसा मैं भी ब्रह्म हूँ तो लोग मुझे पहचानते क्यों नहीं ? देखो ब्रह्म ही ब्रह्म को पहचान सकते हैं, लोग तो भ्रम में हैं न ! जाग्रत में निष्ठा पक्की है, तो स्वप्न क्या देखे , उसपर क्यों चर्चा ? स्वप्न में देखे गए काली बिल्ली का दुःख चला जायेगा पिली बिल्ली का दुःख आ जायेगा। जिसको अपने स्वरुप में निष्ठा हो गया, वह गलत कदम उठा नहीं सकता या ईश्वर उसके कदम को बेताल नहीं पड़ने देते ?    उदाहरण देते हैं -अध्येतृवर्गमध्यस्थपुत्राध्ययनशब्दवत् | भाने’प्यभानं भानस्य प्रतिबन्धेन युज्यते ||१२|| मेरा बेटा भी कोरस ग्रुप सांग गा रहा था , पर शब्द ढक गया था कोई प्रतिबंधक बीच में आ गया। दुराग्रह ही हमारे जीवन का प्रतिबन्ध है।  ग्रुप के बाकी बच्चों का चैंटिंग बंद करा दो , तब मुझे मेरे बेटे की आवाज सुनाई देगी। मीरा बाई ने रूप गोस्वामी से कहा अब वृन्दावन में दो पुरुष हो गए ? भगवान की भक्ति का स्टेज परफॉर्मेंस नहीं होता। ... रंग दे चुनरी ईई। हम अपूर्ण ज्ञान में फंसे हुए हैं।  ये देह मैं हूँ , बाकि का देह मैं नहीं हूँ - यही ज्ञान की अपूर्णता है। अनादि अविद्या से हम हिप्नोटाइज्ड हो गए हैं। क्षण तत क्रम संयोगात - १ बोलकर १ के बाद २ मत गिनो। ... मन शांत हो गया। उन्मनी अवस्था - आत्मचिंतन में फंसे मत रहना। अपने सच्चिदानन्द स्वरुप का भान वैसे ही ढक जाता है, जैसे लहरों से समुद्र ढक जाता है। और पानी ढक जाता है समुद्र से। उसी प्रकार जीव , जगत, ईश्वर केवल औपाधिक भेद है। पिता, पुत्र, और पति एक ही मनुष्य की उपाधि है।              परमात्मा की उपलब्धि अप्राप्त की प्राप्ति नहीं है : याद स्मृति पहचान उसी की होती है पहले जिसका अनुभव हुआ है। प्रकृति या माया क्या है ? ये तो अपने आप में जड़ है। जड़ माया या प्रकृति जगत का निर्माण  कैसे कर लेती है ? यहाँ से दूसरा प्रसंग शुरू हुआ। जीवत्व मानसिक प्रक्रिया है , इसको परमात्मा से कुछ लेना देना नहीं है। जीव हर देह में अलग अलग नहीं होता ! जैसे बल्ब अनेक है, लेकिन उसमें प्रकाश एक है। उसी प्रकार से देह अनेक है, लेकिन उसमें जीवन एक है। उसका शब्द क्या है ?  जी-व-न जो जीव नहीं है, जीवन है। जीवन की अभिव्यक्ति सब में समान है। भूख-प्यास, काम -क्रोध , लोभ-मोह, अपना -पराया सब में सामान है। कौन सी विशेषता उसमें है ? इस प्रकृति में जब परमात्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है तो वह चेतन सी बन जाती है। सजीव और निर्जीव क्या है ?  चिदानन्दमयब्रह्मप्रतिबिम्बसमन्विता | तमोरजस्सत्वगुणा प्रकृतिर्दिविविधा च सा ||१५|| ये माया या प्रकृति त्रिगुणात्मिका है।  इस माया में जब परमात्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है -  तब इसमें रेफ्लेक्टेड चेतना प्रकट हो जाती है, वहां मन प्रकट हो जाता है।  जिस देह में मन को प्रकट करने की क्षमता है, उसे सजीव कहते हैं।  जिस देह में मन की प्रतिबिंबित चेतना को प्रकट करने की क्षमता नहीं है, उसको निर्जीव कहते हैं। शास्त्रों में तीन गुणों का जो गणित आता है, उसको भी ठीक से समझना चाहिए। सत्वशुद्ध्यविशुद्धिभ्यां माया’विद्ये च ते मते | मायाबिम्बो वशीकृत्य तां स्यास्तर्वज्ञ ईश्वरः ||१६||सत्व-रजस-तमस ये तीनों गुण दिखाई नहीं पड़ते हैं, परन्तु जब हम जगत का विश्लेषण करते हैं, तब इसमें केवल तीन पदार्थ दिखाई पड़ते हैं।  एक है जड़त्व , दूसरी है क्रिया , तीसरा है ज्ञान। जो जड़त्व का कारण है, उसको कहते हैं तमोगुण , जो क्रिया का कारण है , उसको कहते हैं रजोगुण , जो ज्ञान का कारण है , उसको कहते हैं सत्व गुण। कार्य को देखकर हमने त्रिगुणों को उसका कारण कहा है।  कारण से कार्य होता है , लेकिन दोनों एक दूसरे पर अवलम्बित है। तो दोनों का आधार इन दोनों से अन्य है ! पिता के कारण पुत्र , या पुत्र के कारण पिता ? अंडा पहले या मुर्गी पहले ? अंडा -मुर्गी का रिश्ता सापेक्षिक है वास्तविक नहीं है।  जैसे पुत्र नहीं होता तो पिताजी को पिताजी कहकर बुलाता कौन ? ये तीनों गुण समझाने के लिए है, नहीं तो जिंदगी भर इसीमे फंसे रहोगे।  हम तो बाबा सतोगुणी हैं, मास-मच्छी  नहीं खाते, हम तो घास खाते हैं। माया दो प्रकार की है - विद्या और अविद्या !  सत्वगुण प्रधान प्रकृति में  परमात्मा का प्रतिबिम्ब पड़ने से जो चेतना प्रकट हो जाती है,  उसको कहते हैं ईश्वर ! (माँ जगदम्बा) यह ईश्वर माया को अपने वश में रखकर सम्पूर्ण जगत का संचालन करती है। उसी के भय सूर्य तप्त है, वायु दौड़ता है, पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।  यह ईश्वर सर्वज्ञ है, सबके बारे में जानता है , और सर्वशक्तिमान है। अविद्या या जो दूसरे प्रकार की माया है - अविद्यावशगस्त्वन्यस्तद्वैचित्र्यादनेकधा | सा कारणशरीरं स्यात् प्राज्ञस् तत्रा भिमान वान् ||१७|| अविद्या प्रकृति में जो परमात्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है, उससे जो चेतना प्रतिबिंबित होकर व्यष्टि मन वाला जीव (प्रतिबिम्ब )  बना , वह माया को अपने वश में रखकर उसी के वश में चला जाता है। अनेकों नाम -रूपों में प्रकट होता है, उसी को कहते हैं -कारण शरीर। वैयक्तिक दृष्टि से जिसको कारण शरीर कहते हैं, समष्टिगत दृष्टि से उसीको ईश्वर (माँ काली ) कहते हैं ! ईश्वर में जीव-जगत भेद नहीं है, केवल उसने माया को अपने वश में रखा है। जैसे ईश्वर एक है, वैसे हमारे कारण शरीर भी एक है, किन्तु स्थूल शरीर अनेक है ! हमारे मन अनेक है , लेकिन हमारे गहरे नींद की अवस्था , हमारे कारण शरीर एक है। कारण शरीर में अन्य है ही नहीं तो अनेकता कहाँ से आएगी ? जैसे एक ही ईश्वर से ये सम्पूर्ण सृष्टि निर्माण होती है, उसी प्रकार एक ही कारण शरीर से ये सम्पूर्ण जीव -सृष्टि निर्माण हो जाती है। और इस गहरी निद्रा में कारण शरीर का अभिमानी जीव है, उसीको प्राज्ञ कहा जाता है।  एक हो गया सत्वगुण प्रधान ईश्वर, रजस -तमस प्रधान प्रकृति अविद्या हो गयी। जो समष्टि की दृष्टि से ईश्वर है, व्यष्टि की दृष्टि से उसीको कहेंगे कारण शरीर ! अब ये ईश्वर सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण क्यों करता है ?तमःप्रधानप्रकृतेस्तद्भोगायेश्र्वराज्ञया | वियत्पवनतेजो’म्बुभुवो भूतानि जज्ञिरे ||१८|| ईश्वर इस तमोगुण प्रधान प्रकृति को लेकर, जीव को भोगने के लिए  सम्पूर्ण पंचमहाभौतिक सृष्टि या जगत-ब्रह्माण्ड  का निर्माण करना शुरू कर देता है। नहीं तो जीव रहेगा कहाँ ? पंचमहाभूत - आकाश, वायु , अग्नि, जल (अम्बु) और पृथ्वी। अब इनका भोग करने के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता है - सत्वांशैः पञ्चभिस्तेषां क्रमाद्धीन्द्रियपञ्चकम् | श्रोत्रत्वगक्षिरसनघ्राणाख्यमुपजायते ||१९||प्रत्येक महाभाभूत के फिर तीन गुण जो गए।  सभी महाभूतों के सत्वगुण से ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकट हो जाती हैं। आकाश से मस्तिष्क में अवस्थित  श्रोत इन्द्रिय प्रकट हो गया , वायु से त्वचा-इन्द्रिय या स्पर्श इन्द्रिय प्रकट हो गया, अग्नि के सत्वगुण के द्वारा हमारी दर्शन-इन्द्रिय प्रकट हो गयी  [ऑप्टिक नर्भ -सत्वगुण प्रधान ?], जल के सत्वगुण के द्वारा हमारी रसना , रस -इन्द्रिय प्रकट हो गयी।  पृथ्वी के सत्वगुण द्वारा हमारी घ्राण-इन्द्रिय प्रकट हो गयीं। 
पंचभूतों के पंच रजोगुण से पंचकर्मेन्द्रिय प्रकट हो गए। पंचमहाभूतों के सत्वगुण का समष्टि इकट्ठा किया तो अन्तःकरण चतुष्टय पैदा हो गया। पंचमहाभूतों के रजोगुण को पंचीकृत किया अर्थात इकठ्ठा किया तो उदान -अपान -व्यान आदि पंच-प्राण पैदा हो गए ! इस प्रकार सभी प्राणियों में पंच -ज्ञाननेन्द्रिय , पंच -कर्मेन्द्रिय , पंच-प्राण और मन-बुद्धि-चित्त अहंकार आदि अन्तःकरण-चतुष्टय यह सभी भूत मात्र में सामान्य है - एक समान उपस्थित है। इसको कहते हैं कारणात्मिका स्थिति। यही कारणात्मिका स्थिति अव्यक्त है। जैसे डॉक्टर लोग पढ़ते हैं - 'embryology' (भ्रूणविज्ञान)  के अंतर्गत ६ सप्ताह के मानव भ्रूण के अंडाणु के निषेचन से लेकर शिशु के जन्म तक जीव के उद्भव एवं विकास का वर्णन होता है। इस सेल से पाचन-तंत्र विकसित होता है, क्यों होता है ? ये हमको नहीं पता हमको भी ऐसे ही बताया गया था। इस सेल से कैसे स्केलटन सिस्टम विकसित होगी, यह पढ़ाया जाता है। तो ये जो कारणात्मक स्थिति है , वो अव्यक्त है। जब ये कार्यात्मक हो गयी तो व्यक्त हो गयी। इन 19 की रचना से विषयों का भोग शुरू हुआ जिससे सुख-दुःख मिलना शुरू हो गया। चार्ट में माथा खपाने से अच्छा है - माँ की शरण में जाओ, प्रभु के गुण गाओ और दालरोटी खाओ ! स्थूल देह के बाद मन , बुद्धि के साथ 15 = 17 को लिंग देह, सूक्ष्म देह या जीव कहते हैं। जिस प्रकार हरेक बल्ब में प्रकाश है, उसी प्रकार हरेक स्थूल देह में सूक्ष्म देह है। मैं आपके दिमाग से- 'मैं एक जीव (भेंड़) हूँ ' की भ्रान्ति को हटाना चाहता हूँ ! जीव को हटाकर वहां परमात्मा की प्रतिष्ठा करना चाहता हूँ। मानलो एक बल्ब फ्यूज हो गया ! उसमें का लाइट निकल करके किसी दूसरे बल्ब में घुसेगा क्या ? एक देह नष्ट हो गया , उसमें का जीव निकला और ढूँढ रहा है - जाऊँ तो जाऊँ कहाँ ? (समझेगा, कौन यहाँ, दर्द भरे दिल की ज़ुबाँ जाएं तो जाएं कहाँ ...)  ये समझाने की प्रक्रिया है, लेकिन हम आजीवन इसी में फंसे रह जाते हैं। जीव नाम की कोई वस्तु नहीं है। युवा प्रशिक्षण शिविर में जीवन-मृत्यु की बात नहीं करेंगे , वहां बताना है , जीवन में लक्ष्य हो , उत्साह हो चरित्र हो। कोई जीवन का उद्देश्य हो , और सफलता हो। युवा -प्रशिक्षण शिविर में केवल छात्र ही प्रश्न पूछेंगे , बूढ़ों को प्रश्न नहीं पूछना है।  अयोग्य स्थान पर अयोग्य प्रश्न का उत्तर नहीं देना है। बुढऊ का प्रश्न होगा - मरने के बाद क्या होता है ? आप कैसे जाने ? आपके चेहरे को देखकर। आप जिन्दा थोड़े ही रह रहे हो ! बल्ब फ्यूज होने के बाद उसका लाईट कहाँ जाता है ? देह को जलाया या गाड़ा जायेगा। स्कूल में एक दिन की छुट्टी होगी। मरने के बाद आज तक कुछ हुआ नहीं , इस चक्कर से अपने को छुड़ाओ महाराज ! पिछले जन्म में मैं गधा था तो क्या हुआ ? अपने ब्रह्मस्वरूप को भूलकर हमलोग अपने को पापी -पापी कहकर अफ़सोस करते हैं- पुनरपि मरणम पुनरपि जननं -और कितने जन्म तक , केजेएनभाई कब तक वही खैनी-चुना रगड़ कर खाते रहोगे ? तुमने सुन सुन के दिमाग की खिचड़ी कर दी है। शास्त्रों में पहले जीव (कैप्टन सेवियर ) का प्रसंग इसलिए आता है कि हमको देहात्मभाव से ऊपर उठाना है। बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसा धिया | शरीरं सप्तदशभिः सूक्ष्मं तल्लिङ्गमुच्यते ||२३||
हमारे जीवन में दुःख का कारण कोई अन्य नहीं है। नॉर्मली हम अपने दुःख का कारण किसी अन्य को ही मानते हैं। सास-बहु जब तक एक दूसरे को अपने दुःख कारण समझती हैं, तब तक उनका अध्यात्म में प्रवेश नहीं होता पिछले जन्म में भी आप थे, उस जन्म के कर्मों का फल इस जन्म में और इस जन्म का फल भोगने के लिए अगला जन्म मिलेगा - तो मरा कौन? दुःख में सुमिरण सब करे , दुःख में करे न कोय ! कोरोना में अपने अविनाशी ईश्वर स्वरूप का स्मरण करें ! क्योंकि ब्रह्म आनंदस्वरूप है। जब इस BKS नाम-रूप वाले जीव का अनुसन्धान किया तो पता चला की यह जीव ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है। तो सबके सब प्रेम के ही पात्र हैं, सबके साथ प्रेम से ही रहना है। तत्व-विवेक प्रकरण में हमारा ध्यान नश्वर प्रकृति से खींचकर अविनाशी परमात्म स्वरुप पर किया गया है !  
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Panchadashi ch 1 Hindi Talk 3 of 6 @ Jaipur 2012 "Be and Make Leadership Training "

[महाराज जी के पीछे लगे सेठ जी का फोटो ढकवा दिया गया। पंचदशी के प्रथम अध्याय में हम तत्वविवेक पर चिंतन कर रहे हैं।  वेदान्त में रज्जु-सर्प तत्वविवेक के माध्यम से हमें दो प्रकार के वस्तुओं का ज्ञान दिया जाता है। एक प्रकार की वस्तु जो परिवर्तनशील होने से नश्वर है , उसको मैं समझना त्याग दें, और दूसरी वस्तु जो अपरिवर्तनशील , अविनाशी और शाश्वत है उसको अपने जीवन में उतारें। हमने पढ़ा -'सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है "Cigarette Smoking is injurious to health." ये ज्ञान ही तो है। यह ज्ञान पीने के लिए है कि छोड़ने के लिए ? उसी प्रकार से - 'अहं ब्रम्हास्मि' मैं सच्चिदानन्द हूँ ! ये ज्ञान किसलिए है ? लोगों को बताने के लिए ? नहीं अपने जीवन में उतारने के लिए वेदान्त के चार महावाक्य कहे गए हैं। वेदान्त के बारे में कई लोग पूछते हैं - वेदान्त क्या है ? जिनको समझ में नहीं आता उनको tv पर प्रवचन देने वाले बता देते हैं - 'Spirituality made complicated is Vedanta'' सरल आध्यात्मिकता को जटिल बना देना ही वेदांत है !' जिनको समझ में आता है, वे सद्गुरु या नेता बतलाते हैं - वेदान्त अर्थ है अपने अनुभवों का विश्लेषण ! और अपने अनुभवों का ऐसा विश्लेषण कि जो शास्त्र सम्मत हो। मुण्डकोपनिषत् १-२-१२ में कहा है - परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान्‌ ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन। तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्‌ समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्‌ ॥  ब्रह्म-जिज्ञासु (ब्राह्मण) कर्म-संचित लोकों की परीक्षा करके संसार के फीकेपन (निर्वेद) का अनुभव करता है, क्योंकि कर्मों को करने से ही 'उस' परम् सत्य की उपलब्धि नहीं हो सकती जो 'अकृत'  है। जिज्ञासोः सद्गुरुरेव गतिः > तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् । उस 'परतत्त्व' के ज्ञान के लिए वह (ब्राह्मण- ब्रह्म या परम् सत्य का जिज्ञासु , एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश) हाथ में समिधा धारण करके वेदविद् (श्रोत्रिय) एवं ब्रह्मनिष्ठ गुरु / नेता / 'Be and Make ' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नेता के पास जाये। 
हमने अपने जीवन में आज तक जो जो किया है, उसकी परीक्षा करो। परीक्षा करने के बदले हम, brooding bird, द्वा-सुपर्णा का चिंतन करने के बदले केवल -चिंता करते हैं, '' जाने कहाँ गये वो (Bh)  दिन ?"अगर द्रष्टा भाव से अपने जीवन के अनुभवों का परीक्षण करेंगे तो हृदय में वैराग्य का प्रकाट्य स्वभाविक है। संत तुलसीदास जी - रामचरितमानस में यही कहते हैं - "धर्म ते बिरति जोग ते ग्याना ! ज्ञान मोच्छप्रद बेद बखाना !! जाते बेगि द्रवऊं मैं भाई! सो मम भगति भगत सुखदाई !!  अर्थात :- प्रभु श्री राम कहते हैं कि, धर्म का पालन  करने से विरति होती है।  अर्थात प्रवृत्ति या निवृत्ति कोई भी धर्म हो ;  उसका निष्ठा पूर्वक पालन करने से, सांसारिक विषयों मैं मन लगना बंद हो जाता है. और योग से ज्ञान की प्राप्ति होती है. और जब परमात्मा का ज्ञान हो जाता है तो मोक्ष स्वतः हो जाता है. और प्रभु श्री राम कहते हैं कि, जिससे शीघ्र प्रसन्न होकर मैं ये सब प्रदान कर देता हूँ, वो सरल उपाय मेरी भक्ति है. यदि हमने 'महामण्डल के मार्गदर्शन में आध्यात्मिक जीवन जिया है -5 अभ्यास किये हैं, तो वैराग्य होना स्वाभाविक है। अगर हमने धर्म का जीवन जीया है, लेकिन आसक्ति खत्म नहीं हुई , तोंद निकल गया तो अपने आप को बेवकूफ बनाने सिवा कुछ नहीं है। दिन भर कुछ न खाकर भी रात में अधिक खाते होंगे। वेदान्त का तात्पर्य है अपनी अनुभूतियों का विश्लेषण करें। जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति और समाधि -ये सब आते जाते हैं, हम ज्यों के त्यों हैं। फिर ये जगत क्या है ? यह जगत परमात्मा की अनन्त शक्ति है। इसको कई नामों से सम्बोधित करते हैं। हिरण्यगर्भ और महततत्व - जब परमात्मा इस शक्ति को धारण करता है, लेकिन प्रकट नहीं होने देता तब उस परमात्मा को ईश्वर (माँ काली) कहते हैं ! फिर वह शक्ति प्रकट हो गयी लेकिन अभी पूरी तरह से प्रकट नहीं हुई सूक्ष्म रूप से हुई। तो इस माया को अपने भीतर रखने के सन्दर्भ से उसी ईश्वर (माँ काली) को हिरण्यगर्भ कहते हैं। और उसी शक्ति को महत-तत्व कहते हैं। हिरण्यगर्भ जब स्थूल जगत से तादात्म्य करता है, तब उसको वैश्वानर कहते हैं। जैसा ये समष्टि में है , वैसा ही व्यष्टि में है। जिसको समष्टि में ईश्वर कहते हैं उसीको व्यष्टि में प्राज्ञ कहते हैं ! जिसको समष्टि में हिरण्यगर्भ कहते हैं, उसको व्यक्ति में तैजस कहते हैं। जिसको समष्टि में वैश्वानर कहते हैं , उसीको व्यष्टि में विश्व कहते हैं। इस प्रकार से कारण -कार्य दोनों सामान ही है, फर्क इतना ही है कि जो कारण (ईश्वर या माया ) एक ही है, कार्य अनेक होते हैं। अनेकता से चलकरके एक में स्थित होना -ये आध्यात्मिक साधना है। जब तक इस एक में '१ -ॐ कार सत नाम ' में नहीं पहुंचेंगे जगत और उसकी झंझटें बनी रहेंगी। अतः एक में पहुँचने के लिए क्या करना है ? समझदारी के साथ अपने गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए इस अनेकता का त्याग करना है। 17 तत्व बताया वो बन जाता है सूक्ष्म शरीर -यह समष्टि को लेकर कहा है। डॉक्टर्स मुर्दा शरीर की चीड़फाड़ करके anatomy (शरीर रचना विज्ञान) सीखते हैं। यह anatomy सार्वभौम सिद्धान्त है, यूरोप -एशिया के मनुष्यों के लिए , हिन्दू-मुस्लिम शरीरों के लिए एक ही है। किसी ब्राह्मण की खोपड़ी में किडनी नहीं होती। -बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसा धिया | शरीरं सप्तदशभिः सूक्ष्मं तल्लिङ्गमुच्यते ||२३|| उसी प्रकार समष्टि के कारणात्मक शरीर , सूक्ष्म देह को हिरण्यगर्भ कहते हैं। यही हिरण्यगर्भ जब व्यष्टि में आ गया तो उसको प्राज्ञ कहते हैं। इसी एक में अनेकता प्रतीत होती है। जब हम अनेकता को नाम-रूप को सत्य मानते हैं, तब कहते हैं कि जीव सत्य है। सप्तदशी (17) को लिंग देह सूक्ष्म शरीर कहते हैं।  प्राज्ञस्तत्राभिमानेन तैजसत्वं प्रपद्यते | हिरण्यगर्भतामीशस्तयोर्व्यष्टिसमष्टिता ॥२४॥ फिर जो ईश्वर है वो प्राज्ञ बन गया और जो हिरण्यगर्भ है वो तैजस बन गया। ईश्वर में समष्टि -व्यष्टि (Totality-Individuality) का भेद नहीं है। हिरण्यगर्भ में आने के बाद ही समष्टि-व्यष्टि का भेद निर्माण होता है। हमारा स्थूल देह जाग्रत अनुभूतियाँ अलग अलग है, मानसिक अनुभूतियाँ (स्वप्न ) अलग अलग है, लेकिन गहरी नींद सबकी एक जैसी है, सामान्य है । सुषुप्ति में अन्य होता ही नहीं। हिरण्यगर्भ की स्थिति से समष्टि -व्यष्टि ,कार्य-कारण सम्बन्ध शुरू होता है। हिरण्यगर्भ सबके साथ तादात्म्य करके रहता है। हिरण्यगर्भ को सबका ज्ञान है, लेकिन व्यष्टि जीव को केवल एक शरीर का ज्ञान है। जीव बन गए अनेक और कारण ईश्वर या हिरण्यगर्भ बन गए एक। उसके बाद कहानी जारी है -तद् भोगाय पुनर्भोग्यभोगायतनजन्मने | पञ्चीकरोति भगवान्प्रयेकं वियदादिकम् ||२६|| जीव को भोग के लिए वस्तु , उपकरण , स्थान चाहिए। इसलिए भगवान ने पंच महाभूतों के तमोगुणी भाग को लेकर उनका पंचीकरण अर्थात स्थूलीकरण करना प्रारम्भ किया। स्थूलीकरण किसको कहेंगे ? जैसे पृथ्वी, स्थूल है हमको आँखों से दिखती है। पृथ्वी का जो गुणधर्म है, तन्मात्र है वो है गंध। पृथ्वी को हम ठोस रूप में देख सकते हैं, वैसे गंध को हम ठोस रूप में नहीं देख सकते हैं। इसी प्रकार जल ,अग्नि, वायु आकाश आदि पंचमहाभूतों के तमोगुणी भाग का स्थूलीकरण करने से पंचभौतिक जगत , पंचेन्द्रियग्राह्य जगत का निर्माण हुआ है। वेदान्त में समस्त ब्रह्माण्ड की सृष्टि प्रक्रिया को समझाने के लिये. पंचीकरण के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है।  पंचीकरण की प्रक्रिया क्या है ? अब उसका वर्णन करते हैं -द्विधा विधाय चैकैकं चतुर्धा प्रथमं पुनः| स्वस्वेतरद्वितीयांशैर्योजनात्पञ्च पञ्च ते ||२७|| अर्थः--एक-एक को दो बराबर भागों में विभक्त करके फिर पहले आधे अंश को चार-चार भागों में बाँटकर तथा पञ्चभूतों के अर्धांश में अपने को छोडकर द्वितीयार्धांशों के चतुर्थांश को मिला देने से पञ्चभूत पञ्च हो जाते हैं। यही पञ्चीकरण प्रक्रिया है।  वेदांतसार के अनुसार प्रत्येक स्थूल भूत में शेष चार भूतों के अंश भी वर्तमान रहते हैं । भूतों की यह स्थूल स्थिति पंचीकरण द्वारा होती हैं जो इस प्रकार होता है । पांचों भूतों को पहले दो बराबर बराबर भागों में विभक्त किया, फिर प्रत्येक के प्रथमार्द्ध को चार चार भागों में बाँटा । फिर इन सब बीसों को लेकर अलग रक्खा । अंत में एक एक भूत के द्वितीयार्ध में इन बीस भागों में से चार चार भाग फिर से इस प्रकार रक्खे कि जिस भूत का द्वितियार्ध हो उसके अतिरिक्त शेष चार भूतों का एक एक भाग उसमें आ जाय । ये कोई कठिन गणित का प्रश्न नहीं है, केवल समझाने की प्रक्रिया है, इसमें फंस कर यथार्थ स्वरुप को भूलना नहीं है। पंचमहाभूत को आकार से समझने के लिए 5 अण्डे बना दिए , वायु -आकाश नाम दे दिया , फिर उसको आधा -आधा काट दिया। काटने के बाद ऊपर वाले हिस्से को वैसा का वैसा रखो उसको टच नहीं करना। फिर प्रत्येक के नीचे का जो आधा भाग है , उसको चार भाग करो। तो नीचे का  जो एक-एक भाग है वह कितना होगा ? वह होगा १/८ (एक बटा आठ) अपना आधा होगा और १/८ करके दूसरे चार महाभूतों का होगा।  पाँचों भूतों के परस्पर मिलने की प्रक्रिया को पंचीकरण कहते हैं । जिस पदार्थ में जिस भूत की प्रधानता रहती है उसमें उस तत्त्व का 50 % भाग रहता है । शेष 50 % में बचे हुए चार तत्त्वों का बराबर-बराबर संयोग रहता है । मिलने की यह प्रक्रिया ‘पंचीकरण’ कहलाती है । उदाहरणार्थ – मिट्टी में आधा भाग पृथ्वी का है और शेष आधे भाग में जल, तेज, वायु और आकाश बराबर-बराबर भाग  में मिले हुए हैं ।इस प्रकार हरेक महाभूत में बाकि के भी महाभूतों के गुणधर्म आ जाते हैं , तब जाके इस स्थूल जगत का निर्माण सम्भव होता है। तैरण्डस्तत्र भुवनं भोग्यभोगाश्रयोद् भवः| हिरण्यगर्भः स्थूले’स्मिन्देहे वैश्वानरो भवेत् ||२८|| ब्रह्माण्ड बना ,14 भुवन बने , भोग्य विषय और इन्द्रियां बनी और देह का निर्माण हो गया। हर देह में जाकर हिरण्यगर्भ जाकर वैश्वानर बन गया। समष्टि में जिसको वैश्वानर कहते हैं , उसको व्यष्टि में विश्व कहते हैं। उसी तरह व्यष्टि की मानसिक अवस्था में तैजस बना। इस प्रकार यह परमात्मा (सिंह शावक) जीव भाव को (भेंड़त्व को) प्राप्त हो गया !  अब देह कितने प्रकार की है ? तैजसा विश्वतां याता देवतिर्यङ्नरादयः | ते पराग्दर्शिनः प्रत्यक्तत्त्वबोधविवर्जिताः ||२९|| तैजस  -विभिन्न देहों में विश्व बना और देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों की देह सृष्टि हुई। तो इन विभिन्न देहो अपना तादात्म्य करके यह अपने को सबसे से अलग मानने लग गया। अपना -पराया अलग अलग मानने लग गया। यहाँ तक भगवान की सृष्टि है। और ये सामन्य है। 
ऐसे समझे बिजली है परमात्मा , distribution center है ईश्वर , आपके घर का जो मीटर है, वो है हिरण्यगर्भ। जो अलग अलग बल्ब लगे हैं वो है जीव। है तो एक ही बिजली का खेल। उपाधियाँ भिन्न भिन्न हैं. इसी प्रकार से एक ही परमात्मा माया की उपाधि धारण करे तो ईश्वर (माँ काली ) कहा, महत-तत्व की उपाधि धारण करे उसको हिरण्यगर्भ कहा। विराट की उपाधि धारण की उसको वैश्वानर कहा। ये कारणात्मक स्थिति हो गयी तो उसका कार्य क्या है ? जो समष्टि में ईश्वर है , वो व्यष्टि में प्राज्ञ है। जो समष्टि में हिरण्यगर्भ है, वो व्यष्टि में तैजस है, जो समष्टि में वैश्वानर है वो व्यष्टि में विश्व है। इस प्रकार यह समष्टि और व्यष्टि समान है, एक ही है  और इन दोनों का आधार परमात्मा है , हमारा ध्यान परमात्मा की ओर ले जाना है। इसलिए ये सब प्रपंच है। और जीव की विशेषता क्या है ? 'ते पराग्दर्शिनः प्रत्यक्तत्त्वबोधविवर्जिताः' - ये जीव बहिर्मुखी होते हैं -पराञ्चि खानि व्यतृणात् स्वयंभू-स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् । कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥  इस श्लोक में, यम नचिकेता को आत्म ज्ञान की राह की सभी बाधाओं के बारे में बताने की कोशिश कर रहे हैं। वे कहते है कि हमलोग by default extrovert बनाये गए हैं। जब तक हम इन्द्रिय गोलकों में बैठेंगे बहिर्मुखी ही रहेंगे। पहले अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में लाओ नहीं तो बाहर भटकते रहोगे। खानि माने इन्द्रिय स्वयं प्रकट होनेवाले भगवान ने सभी इंद्रियों के द्वार बाहर की ओर जानेवाले ही बनाये हैं। इसलिए, मनुष्य इन्द्रियों द्वारा प्रायः बाहर की वस्तुओं को ही देखता, सुनता और महसूस करता है और वह हर इंद्रिय सुख का अनुभव करना चाहता है। लेकिन वह अपनी अंतरात्मा को नहीं जान पाता है। अर्थात जब तक आप अपनी इन्द्रियों के द्वारा अपनी सुख सुविधा वाली इच्छाओं से ही जुड़े रहते हैं, तब तक आप आत्म ज्ञान के मार्ग में आगे नहीं जा पाएंगे। इन बाधाओं को दूर करने के बाद ही आप अपने मार्ग में आगे बढ़ सकते हैं। हालाकि भले ही दुनिया की प्रकृति ऐसी हो, लेकिन कोई न कोई ऐसा भाग्यशाली बुद्धिमान मनुष्य (सच्चा साधक) अपनी चक्षु आदि इंद्रियों को नियंत्रित कर अमरपद को पाने की इच्छा करके, इन्द्रियों को  बाह्य विषयों से लौटाकर अपनी अंतरात्मा को महसूस करता है। मैं बिना पान के चुप रह सकता हूँ ! हमलोग छोटी छोटी बातों में परेशान रहते हैं, कोई सुबह अच्छी चाय नहीं मिली। 'प्रत्यक्तत्त्वबोधविवर्जिताः' जीवों को अपने सौन्दर्य का पता ही नहीं है। इसके लिए कुछ करना नहीं है, हमको केवल अपनी अनुभूतियों का विश्लेषण करना है। गहरी नींद में हम सभी को आनंद आता है। सोने के लिए तो हम तरसते हैं , सत्संग में भी आकर आनंद प्राप्त करते हैं। जबतक हम बहिर्मुखी रहेंगे जीवन में शांति नहीं। गीता 2 .66 में भगवान कहते हैं - अशांतस्य कुत: सुखम्।जिसके पास शांति नहीं उसको सुख नहीं। वास्तव में जीव नाम की वस्तु नहीं है, ये प्रक्रिया हम आपको बता रहे हैं। हमारा ध्यान प्रभु की तरफ नहीं है, हमारा ध्यान जीव की तरफ। जीव नाम की कोई वस्तु नहीं है, परमात्मा मात्र है। इसी को रटते मत रहो  - 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।' ये कहानी है। नहीं तो नेता से पूछोगे महाराज जी मेरा अगला जन्म क्या होगा ? ... गधे का होगा ? इन्द्र की अफ़सराएँ , अर्जुन सिंह पर लट्टू हो गयीं। मैं इंद्र का पुत्र हूँ , आप माँ सामान हो। शाप दे दिया अर्जुन को - तुम नपुंसक हो जाओगे ! तो स्वर्ग की अफ़सराओँ में , कबूतरों में , कुत्तों में मनुष्यों में रहने वाली कामवासना में क्या फर्क है ? जीवन सर्वसामान्य है, लेकिन हम फंसे हैं एक देह में। जीव बताने का तात्पर्य यही है कि हम देह से अन्य देहि है ! परमात्मा जब देह में मन के रूप में प्रकट होता है, तब उसको जीव कहते हैं ! उसी प्रकार बिजली जब बल्ब में प्रकाश के रूप में प्रकट होती है, तो उसको जिन्दा बल्ब कहते हैं। बल्ब फ्यूज हो गया तो उसका प्रकाश निकल कर क्या दूसरे बल्ब में जायेगा ? जीव की बात कहना केवल समझाने के लिये है, अपने को जीव मानकर रोते रहने की आवश्यकता नहीं है।  कुर्वते कर्म भोगाय कर्म कर्तुं च भुञ्जते| नद्यां कीटा इवावर्तादावर्तांतरमाशु ते| व्रजन्तो जन्मनो जन्म लभन्ते नैव निर्वृतिम् ||३०|| अब ये जो जीव है, ये कर्म में फंसा हुआ है - क्यों ? अविद्या -काम -कर्म तीनों को मिलाकर कहते हैं , हृदयग्रन्थि ! हमने अपने को जो अपूर्ण मान लिया था, उस अपूर्णता को मिटाने के लिये मन में जो चल-विचल है उसको कहते हैं कामना ! कामना के प्रभाव में आकर व्यक्ति पहले गरीबी हटाने की कामना में लग जाता है। कर्म करने से भोग , भोग करने से फिर कर्म ये 'vicious circle' दुष्चक्र चल गया। जीव आनन्द पाने के लिये कर्म करता है, उसे भोग करने में मजा आने लगता है। बहते हुए जल में भँवरों का निर्माण होता है, स्थिर सरोवर के जल में भँवरे नहीं बनती। समुद्र में भँवरे निर्मित नहीं होते। केवल जो बहती नदी है, उसमें भंवरें बनती हैं। बहते नदी में कोई कीड़ा बह रहा है, या व्यक्ति बह रहा है , यदि वह किसी भँवर (whirlpool) में फंस गया तो स्वयं बाहर नहीं निकल सकता , उसको बाहर से धक्का देकर बाहर निकालना पड़ता है। पंखे की गति centrifugal होती है भँवर की गति centripetal force (केन्द्राभिमुख) होती है , centrifugal नहीं होती।  इसलिए जो कीड़ा उस विशालाक्षी नदी के भँवर (Bh) में फंस जाता है , तो वह नीचे खींचा जाता है , मर जाता है। जीवन नदी की धारा भी एक दिशा में चल रही है , उस बहती हुई जीवन- नदी में देह रूपी एक भंवर आ गया ! उस देह के साथ तादात्म्य हो गया तो उस तादात्म्य के कारण वह नीचे खिंचा गया, अर्थात यह मनुष्य देह भाव से (M/F भाव से ) जीने लग गया। कुछ दिनों बाद यह देहात्मभाव का भँवर (whirlpool) छूट गया। शांति की साँस ली चलो बाबा इससे निकला तो सही ! तब तक सामने एक दूसरा भँवर खड़ा है। इस बार दूसरा देह धारण किया ! एक जन्म से दूसरा जन्म , दूसरे जन्म से तीसरा जन्म अखंड चल रहा है। और जीवन भर क्या किया ? केवल कर्म, कर्म, कर्म ! किस लिए सुख भोगने के लिए। सुख की आकांक्षा से कर्म करते हैं, लेकिन मिलता है केवल दुःख ! इसी क्रम में कैप्टन सेवियर ने विवाह किस लिए किया, दुःखी होने के लिए ? होते होंगे वो बात अलग है , लेकिन विवाह किया तो था सुखी होने के लिए। फिर divorce किस लिए करते हैं ? सुख के लिए कोई -कोई तो फिर दो-तीन शादी भी करते हैं। नौकरी, बिजनेस किस लिए किये हानि-लाभ  ,गृहस्थ धर्म का पालन किया तो सभी क्षेत्र में सफलता पाने के लिये मन कर्म में लगा हुआ था ! हमारे जीवन की जितनी प्रवृत्ति और निवृत्ति है वो सब सुख के लिए है। लेकिन हम थोड़ा भी देखते नहीं क्या सुख मिला ? फिर जब श्रीरामकृष्णदेव की कृपा हुई तब नेता/गुरु  स्वामी विवेकानन्द से मुलाकात हुई और कैप्टन सेवियर ब्राह्मण बने (ब्रह्म जिज्ञासु बने) तब कैप्टन सेवियर अन्तर्मुखी होकर अपनी अनुभूतियों का विश्लेषण करने लगे। यार जब मैं गहरी नींद में सोता हूँ , तब 'मैं' भी कुछ नहीं होता , किन्तु आनंद जरूर होता है। ये जो आनन्द आता है -कहाँ से आता है ? ये न तो इन्द्रियों से आता है, न धन-दौलत का है , न हमारी प्रसिद्धि नाम-जश का है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को आनंद आता है , ये कहाँ से आता है ? तब व्यक्ति अपने जीवन की जो धारा बहिर्मुखी थी, अधोमुखी थी उसको उल्टा करता है, उर्ध्वमुखी करता है। 'धारा' को उल्टा करना माने जीवन में 'राधा' रानी (माँ सारदा देवी) का आगमन हो जाता है ! माँ सारदा कौन है ? जिसको ठाकुर के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं। माँ सारदा देवी हमारे हृदय में प्रकट हो गयीं माने हमारे जीवन में तत्वचिंतन के सिवा और कोई प्रयोजन है नहीं। जब हम अपने स्वरुप में पहुंचना अपने जीवन का लक्ष्य बना लेंगे, तब यह बात समझ में आएगी कि यह जो जीव है, वो व्यक्ति नहीं है। यह केवल ब्रह्म  की (नेता के रूप में) अभिव्यक्ति है। आध्यात्मिक-जीवन का नक्शा simplest : व्यक्ति से हटो अभिव्यक्ति (-Be and Make ' आंदोलन के नेता) में आ जाओ; अभिव्यक्ति से हटो जो नेता (श्रीरामकृष्णदेव) अभिव्यक्त हो रहा है , वहां पहुँच जाओ। बल्ब से हटो (नाम-रूप से हटो)  प्रकाश (अस्ति -भाति -प्रिय) में आ जाओ। प्रकाश से हटो बिजली में (सच्चिदानन्द) में पहुंच जाओ। बल्ब के बिना प्रकाश नहीं, प्रकाश के बिना बल्ब नहीं , लेकिन बिजली को होने के लिए न तो बल्ब की आवश्यकता है, न प्रकाश की आवश्यकता है। अब करना क्या है > सत्कर्मपरिपाकात्ते करुणानिधिनोद्धृताः| प्राप्य तीरतरुच्छायां विश्रा यन्ति यथासुखम् ||३१|| यह जीव पहले तो उल्टे -सीधे कर्म करता है। सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली अब हज पर जाना उचित समझती है। मन चलो निजनिकेतने - एक चैंबर यहाँ का एक हिटलर का भी था। जिन कर्मों में प्रवृत्ति हमको अपने स्वरुप के पास ले जाती है , उसको सद्कर्म कहते हैं। जो प्रवृत्ति हमको अपने से दूर भटकाती है, वो दुष्कर्म है। 35 वर्ष की आयु 1985 में पहला सद्कर्म -'विवेकानन्द ज्ञान मंदिर ' युवा चरित्र-निर्माणकारी संस्था की स्थापना होती है। 1986 कुम्भ मेला में गुरु की खोज। 1987 में दीक्षा और बेलघड़िया कैम्प में नेता नवनीदा का सानिध्य मिलना। जब 35 वर्ष तक लगातार सत्कर्म करते रहे तब 'करूणानिधि ' (भगवान श्री रामकृष्णदेव) की कृपा से कोई न कोई साधु सन्त जीवन में अवतरित होकर पंचदशी के अर्थ की व्याख्या समझा देते हैं ! 
******ईश्वरानुग्रहादेव पुंसामद्वैतवासना।
महद्भयपरित्राणा द्वित्राणामुपजायते।। ईश्वर के अनुग्रह से ही मनुष्य के हृदय में अद्वैत वासना का उदय होता है। यह ईश्वर के अनुग्रह की पहचान है। अभिज्ञान है। हमारे ऊपर ईश्वर की कृपा हो रही है? हाँ हो रही है। कैसे हो रही है? हमारे हृदय में अद्वैत की भावना का उदय हो रहा है। महद्भयपरित्राणा - इससे जो संसार का जन्म, मरण का महान भय है, उससे रक्षा हो जाती है। परन्तु द्वित्राणामुपजायते - केवल दो-तीन व्यक्तियों को ही  होती है। किसी-किसी के हृदय में अद्वैत भावना का उदय होती है, नहीं तो अधिकांश किसी-न-किसी संकीर्ण भावना के वश मं हो जाते हैं। अद्वैत वासना संकीर्ण वासना नहीं है, उर्दीण वासना है। जिसमें अपने-पराये का कोई भेद हीं नहीं होता। यह भगवान सबको नहीं देते हैं, किसी-किसी को देते हैं। जब ठाकुर की कृपा हो जाती है , तब हमारे जीवन में अद्वैत को जानने की जिज्ञासा हो जाती है। नहीं तो हमेशा भगवान से माँगते रहेंगे -ये कर दो ,वो कर दो। भागवत में ऋषभदेव की संक्षेप में कथा है। वे राजा थे दस हजार साल तक राज किये, फिर जंगल में जाने पहले अपना राज्य अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को दे दिए। और साधना करने जंगल में चले गए। और फिर परमात्मा में लीन हो गए। moral of the story ' कहानी से शिक्षा क्या मिली ? 10,000 साल तक बिना किसी शत्रु के निष्कंटक होकर राज किया , फिर भी जीवन में कृत-कृत्यता का अनुभव नहीं हुआ। जगत की सम्पत्ति में धर्म-अर्थ -काम में कितना भी लगो आपको सम्पूर्णता नहीं आएगी। जब परिपूर्णता आने का समय आ जाता है, तब स्वामी अनुभवानन्द जी का सत्संग प्राप्त हो जाता है। सत्संग गत्वे निसंगत्वं, निसंगत्वे निर्मोहत्वम निर्मोहत्वे निश्चल तत्वम,निश्चल तत्वे जीवनमुक्ति भज गोविन्दम भज गोविन्दम ,गोविन्दम भज मूड मते। तब भगवान के भजन का अर्थ हृदय में प्रकट होता है ! तो फिर मुक्ति के लिए उलझन और भटकन कैसी? मुक्ति तो आप-हम सब का इन्तजार कर रही है। और जैसे - a worm caught up in a stream ' नदी के प्रवाह में फंसा कीड़ा एक भंवर (देह) से दूसरे भंवर (whirlpool-देह ) में घूमता रहता है ! उस कीड़े को भंवर में सेव किसी नेता ने निकाला और रख दिया जमीन पर  एक घने पेड़ की छाया में ! ( अंतिम जन्म में कैप्टन सेवियर से नवनीदा बन गये ? ) तब वो कीड़ा भगवान का कीर्तन करता है, नवनीदा ने बचा लिया। अब उनकी सेवा करो कैसे -गला दबाकर ? नहीं तो मातायें खिला-खिला कर मार डालना चाहती हैं।  प्यार-व्यार कुछ नहीं जिद होता है।  उपदेशमवाप्यैवमाचार्यात्तत्त्वदर्शिनः| पञ्चकोशविवेकेन लभन्ते निर्वृतिं पराम् ||३२|| दो प्रकार के आचार्य/नेता  होते हैं , एक होते हैं आचार्य -परम्परा के जो हम हैं ! और दूसरे होते हैं अवधूत परम्परा के , नाथ -सम्प्रदाय के या सिद्ध-मार्ग  परम्परा के। हमारे परम्परा के अनुसार शास्त्रों के अध्यन -अध्यापन के द्वारा में शिष्य को (भावी नेता को) धीरे धीरे उसका उद्धार करने की प्रक्रिया है। अवधूत मार्ग में पढ़ाते नहीं हैं, परिस्थिति निर्माण करके उसको सिखाते हैं। उस मार्ग में एक गुरु एक शिष्य एक साथ रहते है। सब लोगों के लिए ऐसे सिद्ध पुरुषों के साथ रहना असम्भव है। जो बहुत भाग्यवान है योगी आदित्यनाथ वही ऐसे सिद्ध पुरुषों के साथ रहकर अपने जीवन का उद्धार कर सकते हैं !
खुली आँखों का ध्यान सीखने के लिए क्या करना है ? बिना कुछ किये, सहज मिल जाय वही परमात्मा है न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। क्रिया के द्वारा जो निर्माण होता है, क्रिया खत्म हो गयी खत्म हो जायेगा। खेचरी मुद्रा आदि करो , प्रत्याहार-धारणा तक मनःसंयोग करने की प्रक्रिया है। बाकी तीन होते हैं। करना नहीं पड़ता।  मेडिटेशन करो तो क्रिया खत्म होते ही मेडिटेशन खत्म हो जायेगा , खुली आँखों से ध्यान में रहो तो ध्यान कभी खत्म नहीं होगा। उस विद्या को सीखने के लिये किसी {C-IN-C} आचार्य-परम्परा में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक/नेता के पास जाना है , कैसे जाना है , और किसको जाना है, माने कौन उस विद्या का अधिकारी है ?  (मुण्डक॰ १ । २ । १२) में कहा गया है - "परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन । तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥  कर्म से प्राप्त किये जानेवाले लोकों की परीक्षा करके ब्राह्मण वैराग्य को प्राप्त हो जाय, यह समझ ले कि किये जानेवाले कर्मों से परमात्मतत्त्व नहीं मिल सकता । तब वह उस ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करनेके लिये हाथमें समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुके पास जाय ।’  जो शास्त्रों के ज्ञाता हैं ,केवल बाता ही नहीं करते उनका जीवन भी वैसा ही है।  मन -मुख एक करके जो बोले , वैसे नेता के पास जाय। बंगाल में 'व ' को 'ब' कहते हैं, दादा कहते थे - नेता को 'वक्ता' होना चाहिए 'बक्ता' -अर्थात बक-बक करने वाला नहीं होना चाहिए। किसी तत्वदर्शी आचार्य के पास गए , और उनसे 'पञ्चकोशविवेकेन' -पंचकोश में विवेक करने का प्रशिक्षण प्राप्त किया। ये पाँच कोश हैं -
                   अन्नमय कोश : अन्न तथा भोजन से निर्मित। शरीर और मस्तिष्क। यह प्रथम कोश है जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है। शरीर कहने का मतलब सिर्फ मनुष्य ही नहीं सभी वृक्ष, लताओं और प्राणियों का शरीर।‍ पहिले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ (Matter) को ही शक्ति (Energy) कहते हैं- अन्न रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस शरीर को पुष्‍ट और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है। इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की स्थिति क्या है। जड़बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने का होश नहीं जैसे पत्थर और पशु। 
          प्राणमय कोश - प्राणों से बना। स्वास लेने से हमारे अन्नमय कोश से जो स्पंदन बाहर तरफ़ जाता है उससे हमारे चारों तरफ़ तरंगों का क्रम बन जाता है, यही हमारा प्राणमय कोश होता है। मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ मनुष्य पूर्ण गहरा साँस लेता है तो उसका प्राणमय कोश उत्तम अवस्था में रहता है, नाड़ीशुद्धि - प्राणायम के सतत प्रयोग से प्राणमय कोश को स्वस्थ रखा जा सकता है।
             मनोमय कोश - मन से बना। हम जो देखते, सुनते हैं अर्थात हमारी इन्द्रियों द्वारा जब कोई सन्देश हमारे मस्तिष्क में जाता है तो उसके अनुसार वहाँ सूचना एकत्रित हो जाती है।  और मस्तिष्क से हमारी भावनाओं के अनुसार रसायनों का श्राव होता है जिससे हमारे विचार बनते हैं।  जैसे विचार होंते हैं उसी तरह से हमारा मन स्पंदन करने लगता है।  और इसप्रकार प्राणमय कोश के बाहर एक आवरण बन जाता है यही हमारा मनोमय कोश होता है l विज्ञानमय (बुद्धिमय) कोश - अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से बना। आनंदमय कोश - आनन्दानुभूति से बना।
अन्नं प्राणो मनो बुद्धिराननश्चेति पञ्च ते, कोशास्तैरावृतः स्वात्मा विस्मृत्या संसृतिं व्रजेत् ||३३||
उस आचार्य-परम्परा में प्रशिक्षित तत्वदर्शी आचार्य ने हमको बताया- 3'H' में कैसे हम देह (Hand) नहीं हो सकते, कैसे हम मन-बुद्धि और प्राण (Head) नहीं हो सकते , कैसे हम आनन्दमय कोश (Heart) नहीं हो सकते ? क्योंकि हमारे कारण वो है, उनके कारण हम नहीं हैं ! बिजली के कारण बल्ब है, बल्ब के कारण बिजली नहीं है। बिजली के कारण प्रकाश है, प्रकाश के कारण बिजली नहीं। यह जो परम् सत्य या निरपेक्ष स्वतंत्र सत्ता (existence -consciousness-bliss) है ,वो हमारा स्वरुप है। यही है पंचकोश विवेक! इस पंचकोश विवेक से किस प्रकार हमको अपने स्वरुप का ज्ञान कराते हैं ? इन्हीं पंचकोशों के साथ तादात्म्य करके यह आत्मतत्व (हम) अपने स्वरुप को भूल गया है -और 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं' बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार (देह रूपी भंवर whirlpool) से पार जा पाना बहुत कठिन है, यह जानकर पुकार उठता है - हे अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव कृपा करके मेरी रक्षा करो  
          अब एक एक कोश की बात करते हैं - स्यात्पञ्चीकृतभूतोत्थो देहः स्थूलोऽन्न संज्ञकः । लिङ्गे तु राजसैः प्राणैः प्राणः कर्मेन्द्रियैः सह ॥ ३४॥|सात्त्विकैर्धीन्द्रियैः साकं विमर्षात्मा मनोमयः,  । तैरेव साकं विज्ञानमयोधीर्निश्चयात्मिका ॥ ३५॥(https://sanskritdocuments.org/doc_z_misc_major_works/panchadashi.ht) स्थूलीकृत यह जो पंचमहाभूत है उससे निर्माण किया हुआ स्थूल अन्न से जो निर्मित स्थूल देह है, उसको अन्नमय कोष कहते हैं, सभी कोशों में 'मय ' प्रत्यय common है। यदि इस 'मय ' प्रत्यय को ठीक से समझलो तो सब समझ में आ जायेगा। 'मय' माने 'विकार' , अन्न का विकार हमारा यह स्थूल देह है। जगत के वायु का जो विकार है , वो हमारा प्राणमय कोश है। जगत के ज्ञान का विकार है वो मनोमय कोश है। विज्ञान का जो विकार है, वो विज्ञानमय कोश है। आनन्द का जो विकार है वो आनन्दमय कोष है। कैसे ? एक समझ लो सब समझ में आ जायेगा। माता -पिता ने अन्न खाया , उस अन्न का जो रस है उससे बीज बने। माँ के गर्भ में बच्चा पैदा हुआ। वहां माँ के आहार पर पलता है, बाहर आकर माँ के दूध चूसने लग जाता है। बड़ा हुआ तो अन्न खाने लग जाता है।  जिंदगी भर किया क्या ? अच्छे खाने को गोबर बनाता रहा ? फिर मरने के बाद ये जो स्थूल देह है, वो किसी अन्य का अन्न बन जाता है। माटी खाये जनवरा महा महोत्स्व होये ! इस प्रकार ये स्थूल देह अन्न का ही विकार है ! भागवत में कहा है - ताजा बनाया हुआ भोजन ७-८ घंटे ऐसे छोड़ दिया जाय तो सड़ने लग जाता है। उसी अन्न से बना हमारा यह स्थूल देह क्या हमेशा टिका रह सकता है ? तब करना क्या है ? स्वीकार करना है।  जो व्यक्ति वस्तुस्थिति को स्वीकार कर लेता है, उसके जीवन में दुःख आते हैं, लेकिन वो दुःखी नहीं होता। यदि वस्तुस्थिति स्वीकार नहीं किया तो हममें दुःख आएंगे और हम दुःखी होंगे।  हममें और (साधुसन्तों में) नेता में यही फर्क है। उनके जीवन में भी दुःख आते हैं, लेकिन वे दुःखी नहीं होते।  और हमारे जीवन में थोड़ा भी प्रतिकूल हो गया तो दुःखी बन जाते हैं। 
आगे कहते हैं लिंग -शरीर में तीन भाग हैं - लिङ्गे तु राजसैः प्राणैः प्राणः कर्मेन्द्रियैः सह' योग शास्त्र में आता है - 12 अंगुल = 1 बित्ता ! मणिपुरचक्र से अनाहत चक्र एक बित्ता पर है। अनाहत से विशुद्ध चक्र होता अपने हाथ से १२ अंगुली या एक बित्ता। विशुद्ध आज्ञा चक्र एक बित्ता। आज्ञाचक्र से सहस्त्रार वो भी 12 अंगुली , सहस्रार से १२ अंगुली ऊपर से परमात्मा जीव के देह में प्रवेश करते हैं ! नाक से 12 अंगुली परे जो हवा है, उसको वायु कहते है, और १२ अंगुली के भीतर के क्षेत्र में जो हवा है उसको ही प्राण कहते हैं। हवा का जो विकार है, उसको कहते हैं प्राण , प्राणमय-कोश। हवा तो सामान है, किन्तु भीतर जाने के बाद इस प्राणवायु  के 5 physiological systems बन जाते हैं : प्राण,अपान , व्यान, उदान और समान। पाँच प्राण और कर्मेन्द्रियों को मिलाकर प्राणमयकोश बन जाता है। फिर मनोमयकोश क्या है - मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियों को मिलाकर मनोमयकोश बना। इसकी विशेषता क्या है ? ये मनोमयकोश निश्चयात्मिका नहीं है, केवल संकल्प-विकल्प करता है। आज पाठचक्र में जाऊँ या नहीं जाऊँ ? अभी तक तो कैम्प में नहीं गया लेकिन लोग कहते हैं , जाना चाहिए तो चलो कैम्प में अपना नाम भेज देते हैं। या पाठचक्र का समय तो 6.30 बजे शाम का है, अभी तक चाय तो बनी नहीं, तो छोड़ो अगले पाठचक्र में चले जायेंगे। ये सारा खेल ,'मनुकि -मनुकी' कहकर बात करने वाला हमारा नौकर उसी  मनीरामकोश का है ! फिर विज्ञानमयकोश, विज्ञानात्मा -पाँच ज्ञानेन्द्रिय और बुद्धि से बना है। वहाँ निर्णय ले लिया नहीं, यदि जाना है तो जाना ही है ! यदि चाय नहीं बनी है, तो कोई बात नहीं वहाँ सुदीप को बोल देंगे थोड़ा चाय की व्यवस्था करो। निश्चय हो गया तो ये विज्ञानात्मा, निश्चयात्मक  विज्ञानमयकोश हो गया। 
अब जो हमारा पाँचवाँ आनन्दमयकोश है, उसमें आनन्द के तीन विकार आते हैं ,कहते हैं - कारणे सत्त्वमानन्दमयोमोदादिवृत्तिभिः । तत्तत्कोषैस्तु तादात्म्यादात्मा तत्तन्मयो भवेत् ॥ ३६॥ हमारे अन्तःकरण में आनन्द के तीन विकार आते हैं - प्रिय , मोद और प्रमोद ! किसी वस्तु के स्मरण से ख़ुशी होती है , तो उस स्थिति के आनन्द को कहते हैं प्रिय। उस वस्तु के भोग की उपलब्धि हो गयी, तब उस स्थिति को कहते हैं -मोद। सामने रखे रसगुल्ले की ओर सबकोई देख रहे हैं, कब प्रवचन खत्म हो , खत्म हुआ रसगुल्ले को मुँह में रख दिया -प्रमोद। आनन्द की इन तीन स्थितियों को कहते हैं आनन्दमयकोश। 
         इन पाँच कोशों के साथ तादात्म्य करके हम वैसे -वैसे जीने लग जाते हैं। जैसे जब मैं कहता हूँ -अभी तो मैं जवान हूँ ! यहाँ मैं का अर्थ क्या है ? स्थूलशरीर या अन्नमयकोश। जब मैं कहता हूँ कि- मैं भूखा हूँ ! वहाँ मैं का अर्थ हो गया प्राणमयकोश। अभी मैं दुःखी हूँ -तो मैं का अर्थ हो गया मनोमयकोश। जब मैं कहता हूँ - I am a self-made man , without parents I am born like an ameba ; by binary vision' जहाँ मैं -मैं पर जोर होता है , वे विज्ञानमयकोश। जब मैं कहता हूँ , हम तो बाबा 'happy-go-lucky' है। मैं तो लापरवाह, खुशमिजाज तरीके से जीने वाला अल्हड़ लड़का हूँ। ये हो गया आनन्दमयकोश। अब इन पाँचों में मैं कौन हूँ ? अंदर कोई एक है, या अंदर में poultry farm है ? कितना हम अपनेआप से बोलते हैं ? मौन का तात्पर्य बाहर बोलना बंद नहीं करना है, मौन का तात्पर्य अपनेआप से बोलना बंद कर देना है। जब हम अपनेआप से बोलना बंद कर देंगे तब हमको यह समझ में आएगा कि पंचकोशों का विवेक क्या है ?
                  तादात्म्यादात्मा तत्तन्मयो भवेत्' इन पंचकोशों से तादात्म्य किया तो क्या होता है ? अन्नमयकोश देह से तादात्म्य किया तो - हम अपने को 'देह' मानने लग जाते हैं ! देह माना तो बुढ़ापा और मृत्यु का डर ! 'प्राण' माना तो भूख और प्यास का डर , 'मन'  माना तो शोक और मोह (भेंड़त्व के hypnotism) का भय है। देह, प्राण और मन को लेकर इन 6 उर्मियों (ripplette -छोटी तरंगें ) का प्रभाव जहाँ होता है वो मर्त्यलोक है। और 6 उर्मियों का प्रभाव जहाँ नहीं होता है वो स्वर्गलोकस्वर्ग कोई स्थानविशेष (specific-
 Location) नहीं है, ये अनुभूति विशेष (specific experience) है। स्वर्ग के विषय में ये कल्पना मत करना कि वहां बड़े चौड़े सड़क हैं, और उसमें कोई गड्ढा नहीं है। कठोपनिषद 1.1.12 में नचिकेता कहते हैं - स्वर्गे लोके न भयं किञ्चनास्ति न तत्र त्वं न जरया बिभेति। उभे तीर्त्वाऽशनायापिपासे शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ हे यमराज  अर्थात हे गुरु महाराज ! ये बताइये की स्वर्गलोक में जहाँ आपका राज्य नहीं , वहाँ अन्नमयकोश की परेशानियों का डर नहीं है। वहां  न मृत्यु का भय है न बुढ़ापे का डर है। वहां प्राणमयकोश की परेशानियाँ भूख-प्यास वो नहीं हैं , मनोमय कोष की परेशानियाँ शोक और मोह नहीं है। तो ऐसी 6 बातें मिट गयी हैं तो हम स्वर्ग में हैं ! [ नचिकेत कहते हैं - मैं जानता हूँ कि स्वर्गलोक बड़ा सुखकर है? वहाँ किसी प्रकारका भी भय नहीं है। स्वर्गमें न तो कोई वृद्धावस्थाको प्राप्त होता है और न जैसे मर्त्यलोकमें आप (मृत्यु) के द्वारा लोग मारे जाते हैं वैसे कोई मारा ही जाता है। वहाँ मृत्युकालीन संकट नहीं है। यहाँ जैसे प्रत्येक प्राणी भूख और प्यास दोनोंकी ज्वालासे जलते हैं वैसे वहाँ नहीं जलना पड़ता। वहाँके निवासी शोकसे तरकर सदा आनन्द भोगते हैं।  परंतु वह स्वर्ग अग्निविज्ञानको जाने बिना नहीं मिलता। हे मृत्युदेव आप उस स्वर्गके साधनभूत अग्निको यथार्थरूपसे जानते हैं। मेरी उस अग्निविद्यामें और आपमें श्रद्धा है। श्रद्धावान् तत्त्व का अधिकारी होती है अतः आप कृपया मुझको उस अग्निविद्या का उपदेश कीजिये? जिसे जानकर लोग स्वर्गलोक में रहकर अमृतत्व को -- देवत्व को प्राप्त होते हैं। यह मैं आपसे दूसरा वर माँगता हूँ।]
       और फिर ये जो विज्ञानमयकोश (तर्जनी) है , इसको इन तीनों कोशों से हटा लेना है, और फिर अपने स्वरुप (अँगूठा) में समर्पित कर देना है। और इसको ही ज्ञानमुद्रा कहते हैं ! ज्ञानमुद्रा का अर्थ ये नहीं कि दादा की नकल करके अपनी  तर्जनी और अंगूठा सटाकर बीचबीच में नश्वार सूंघते रहना है। ज्ञानमुद्रा का अर्थ नश्वारमुद्रा नहीं है। कानीअंगुली =देह के साथ तादात्म्य कर लिया जवान बूढ़ा बन गया। अनामिका = प्राण के साथ तादात्म्य कर लिया भूखा-प्यासा बन गया। बीच की ऊँगली = मन के साथ तादात्म्य कर लिया शोक-मोह में फंस गया। इन तीनों से तादतम्य किया तो जीव है, इन तीनों से तादात्म्य छोड़ने का प्रयास किया तो साधक है, और तर्जनी (शुद्धबुद्धि) अपने स्वरुप (अँगूठा) में स्थित हो गया तो परमात्मा है। कितनी simple बात है। लेकिन पूरा जीवन कानी ऊँगली (देह) के भोगों में जा रहा है - फ़िगर की फ़िक्र पड़ी है ! ये देह के विकार चलते ही रहेंगे।
        अब - अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पञ्चकोष विवेकतः । स्वात्मानं तत उद्धृत्य परं ब्रह्म प्रपद्यते ॥ ३७॥  तीन बातें बताईं साधना का 'road-map' सड़क मानचित्र बता दिया कि अन्वय  -व्यतिरेक की प्रक्रिया से हम अपने को पंचकोशों से अलग करके, अपने स्वरुप को पहचान लें ! अन्वय-व्यतिरेक क्या है ? सभी आभूषणों में स्वर्ण का होना ये अन्वय है , और स्वर्ण में आभूषणों के होने से या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। ये स्वर्ण में आभूषणों का व्यतिरेक है। इससे conclusion (निष्कर्ष) क्या निकला ? स्वर्ण सत्य है , आभूषण स्वर्ण पर केवल नाम-रूप का अध्यारोप है। जब हम आभूषण को उठाते है तो स्वर्ण को ही स्पर्श कर रहे हैं , आभूषण किसको कहते हैं ? आभूषण= स्वर्ण + नाम + रूप + उपयोगिता ! यदि हम अपनी बुद्धि से उपयोगिता को हटा दें, नाम मिटा दें और रूप को गला दें ; तो स्वर्ण ज्यों-का -त्यों बचा रहेगा। अब अपने जीवन की अनुभूतियों का विश्लेषण करें। गहरी नींद में - हमारा क्या रूप है- हम बुढ़ऊ हैं कि जवान हैं? गहरी नींद में हमारा क्या नाम है - A है या B ? गहरी नींद में हम अमीर हैं कि गरीब हैं ? देखो भाई , नाम-रूप (अहं) नष्ट हो जाने के बाद भी जो बचा रहता है - वह आत्मा सत्य है ! अन्वय-व्यतिरेक की प्रक्रिया से कार्य-से कारण को निकाल कर यह सिद्ध करते हैं कि - कारण जो होता है वो कार्य से निरपेक्ष होता है। आप कोई आभूषण खरीदने जाओ और उसके रूप-रंग के डिजाइन को देखकर एकदम पागल हो जाओ , वहाँ दुकानदार अगर सिन्धी हो ? दो मित्र एक सिंधी एक बंगाली।  दोनों ने एक साथ सोने की दुकानें खोलीं. 8 -10 साल बाद फिर उस एरिया में गए। सिंधी की दुकान जबरदस्त बड़ी हो गयी , बंगाली की दुकान वैसी की वैसी। सेल्समैन सिप का फर्क होता है।बंगाली की दुकान में जाओ तो पहले प्रश्न पूछेगा - किस लिए चाहिए ? किसको देनी है ? सास को देनी है या बहु को देनी है ? और सिंधी के दुकान में रुमाल खरीदने जाओ , तो चार साड़ी खरीद लाओ। सिंधी पकड़ लेता है कि अम्मा को यह गहना पसंद है, भले इसमें सोना न हो ,तो इसको कटवाया जा सकता है। ये हार आपके गले में ऐसा लगता है कि साक्षात् उर्वशी आ गयी हो !! ये अम्मा नाम-रूप फंस गयी तो कट गयी ! इसी प्रकार से हम इस दुनिया (Bh) में जो फंसे हैं - केवल नाम-रूप से फंसे हैं। इससे अगर अपनेआप को बचाना है , तो हमारा ध्यान अनावश्यक से हटके जो आवश्यक है , उसमें रहना चाहिए। अनावश्यक स्वभाव है , आवश्यक स्वरुप है ! स्वाभाव को बदलना साधना है -argument करते हैं मेरा स्वभाव ही गुस्सा करने का है, इस स्वभाव को बदलकर स्वरुप में स्थित होना साधना है। लेकिन हम अपने स्वरूप का तिरस्कार करते हैं, और अपने स्वभाव का बड़ा आदर करते हैं। अपने हिटलर स्वभाव का त्याग करके अपने स्वरूप में निष्ठां प्राप्त करना ये आध्यात्मिक विद्या है। ये स्थिति आकाश से नहीं टपकेगी , अन्वयव्यतिरेकाभ्यां पञ्चकोष विवेकतः इसके लिए अब उच्च क्लास में अन्वय-व्यतिरेक की प्रक्रिया से पंचकोशविवेक- प्रयोग का अभ्यास करना होगा। 
देखो भाई, हमारी समस्या क्या है > हम दूसरों को सुधारना चाहते हैं,और हम कौन हैं ? हम अपने मन के गुलाम हैं ! दूसरे भी अपने मन के गुलाम हैं, तो एक गुलाम दूसरे गुलाम को सुधारना चाहता है। हम तो डूबे हैं, दूसरे को भी साथ लेकर डूबेंगे ! क्या करें ? स्वात्मानं तत उद्धृत्य परं ब्रह्म प्रपद्यते'- अपने को इन पंचकोशों से अलग करके रख दो ! तब समझ में आएगा कि हम न तो देह हैं, न जीव है -बल्कि माँ जगदम्बा का वो सर्वव्यापी विराट मैं है - जो सब में प्रकट हो रहा है। उपाधि के भेद से दिव्यता के प्राकट्य का भेद होता है। उपाधि बल्ब की है तो प्रकाश निकलेगा , उपाधि फैन की है तो गति निकलेगी , उपाधि फ्रिज की है तो ठंढक निकलेगी। उपाधि हीटर की है तो गर्मी निकलेगी। उपाधि माइक की है तो आवाज बड़ी निकलेगी। उपाधि के कारण बिजली थोड़े अलग अलग है। इसी प्रकार उपाधि पुरुष देह की है तो पुरुष के धर्म निकलेंगे , उपाधि स्त्री की है तो स्त्री देह के धर्म निकलेंगे। उपाधि गधे की है तो न्यूजपेपर खयेगा। भेद औपाधिक है, जिसकी उपाधि है उसमें कोई भेद नहीं है। हम दुनिया को वैसा ही देखते हैं, जैसे हम स्वयं होते हैं। मानलो हमने अपने को धन से जोड़कर अपने को अमीर या गरीब समझते हैं। यदि गरीब समझते हो , अधिक लोग मेरे जैसे गरीब हैं, बाकि लोग पैसे वाले हैं सब चोर हैं। देह के साथ जोड़ा तो दुनिया में पुरुष-स्त्री ही दिखेगी। अपने को यदि उम्र के साथ जोड़ा है, तो इस जगत में दो प्रकार के लोग हैं -जवान और बूढ़े। यदि हिन्दू समझते हैं -तो दुनिया में दो प्रकार के लोग हैं - Hindu and Non-Hindu ! और यदि हमने अपने स्वरुप को पहचाना है, तो हमें इस जगत में परमात्मा के सिवा अन्य किसी का दर्शन नहीं होगा। जिसको परमात्मा का दर्शन होता है वो सदा प्रसन्न रहता है। अन्वय-व्यतिरक विवेक-प्रयोग अपने पर लगानी है पब्लिक पर नहीं लगानी है। अन्वय-व्यतिरेक प्रक्रिया अपने जीवन में कैसे लागु करें ये कल देखेंगे जब आप फ्रेश होंगे। ॐ 
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Panchadashi ch 1 Hindi Talk 4 of 6 @ Jaipur 2012 वेदान्तडिण्डिमः
विचार और विकार में अन्तर :  जिन विचारों के द्वारा हम संसार में फंस जाते हैं , उनको कहते है विकार। और जिन विचारों के द्वारा हम अपनी उलझन से बाहर निकल आते हैं, उनको कहते हैं-चिंतन या विचार। किसी वस्तु को देखा यह विचार है , किन्तु उस वस्तु को किसी भी तरह लेना ही है ये विकार है। किसी दृश्य वस्तु को देखना विचार है , लेकिन देखने के बाद यदि उसके बहिर्गत भाग (प्रक्षेपण) में आकर्षण  where perception is followed by projection , हो उसको लेना ही है -इसको विचार नहीं विकार कहते हैं। नॉर्मली हमलोग विचार नहीं करते , विकारों के शिकार बन जाते हैं। इससे बचने के सत्संग में जाकर विवेक-विचार किसको कहते हैं ये सीखना पड़ता है। 
तुलसीदास जी महाराज कहते हैं - बिनु सत्संग विवेक न होई। रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।।' सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और भगवान श्रीरामकृष्णदेव की कृपा के बिना [ Be and Make आचार्य -परम्परा में प्रशिक्षित नेता 'C-IN-C' नवनीदा जैसे  सच्चे संत नहीं मिलते। अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा वस्तु-विचार करना चाहिए की यह वस्तु क्या है ? इसको जानने की प्रक्रिया को वेदांत में अन्वय-व्यतिरक प्रक्रिया कहते हैं। जैसे एक वस्तु 'स्वर्ण -आभूषण' का हम विश्लेषण करें तो उसमें -चार बातें मिलेंगी। उसमें पहला स्वर्ण है , उसका नाम है , तीसरा रूप है , चौथा उसकी उपयोगिता है। अब इन चारो में से सत्य क्या है ? स्वर्ण की सत्ता आभूषणों के नाम-रूप और उपयोगिता के बिना भी होती है। स्वर्ण; आभूषण-निरपेक्ष सत्ता है। यदि आभूषणों की बात करो तो सभी आभूषणों में स्वर्ण है। सभी आभूषणों में स्वर्ण का होना उसको अन्वय कहते हैं। लेकिन स्वर्ण की सत्ता आभूषणों से स्वतन्त्र है , उसको कहेंगे स्वर्ण में आभूषणों का व्यतिरेक है। इस सिद्धान्त को अपने जीवन में धारण करना है। 
      ताकि हमको यह पता चले कि हम स्वर्ण हैं कि आभूषण हैं ? मिटते हैं आभूषण , स्वर्ण नहीं मिटता है। इसी प्रकार मिटते हैं -'नाम-रूप' हम नहीं मिटते हैं। इसको समझने के लिए 'अन्वय-व्यतिरेक ' की प्रक्रिया विकार नहीं विचार इसीको हमें सीखना है। अन्वय-व्यतिरेक नाम की युक्ति से, पांच कोशो को आत्मा से पृथक् पहचान लेने वाला , या आत्मा (ब्रह्म) को उन पाँच कोशो से पृथक् पहचान लेने वाला ब्रह्मविद परब्रह्म ही हो जाता है। अपने जीवन में अन्वय -व्यतिरेक की प्रक्रिया का अभ्यास कैसे करना है यह बात  पञ्चदशी १:  तत्त्वविवेकः  अध्याय के ३८ वे श्लोक में अन्वय-व्यतिरेक की प्रक्रिया बताई है-अभाने स्थूलदेहस्य स्वप्ने यद्भानमात्मनः । सोऽन्वयो व्यतिरेकस्तद्भानेऽन्यानवभासनम् ॥ ३८॥  स्वप्नावस्था में हमारे इस स्थूल देह का भान तो नहीं होता, किंतु आत्मा का भान बना रहता है । स्थूल देह तो घर में अपने बिस्तर पर पड़ा है, और हम सपना देख रहे हैं -हम कार से शिमला घूम रहे हैं। और गाना गा रहे हैं -मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू ? और बिस्तर पर दोहर के अंदर ऐ.सी. की ठंढ से हु-हु-हु हो रहा है। स्वप्न की अनुभूति में (साक्षी के रुप में) अपना (आत्मा-witness consciousnessहोना यह अन्वय है। और स्वप्न देखते समय अपने स्थूल देह का भान नहीं रहना यह स्थूलदेह का 'व्यतिरेक' है , अर्थात छूट जाना कहलाता है। 
       अब आगे कहते हैं -  लिङ्गभाने सुषुप्तौ स्यादात्मनो भानमन्वयः । व्यतिरेकस्तु तद्भाने लिङ्गस्याभानमुच्यते ॥ ३९. गहरी नींद में अपने होने का भान होता है कि मैं हूँ। किसी को भी अपने अभाव का अनुभव आज तक नहीं आया। अन्यथा नींद से उठने के बाद मुझे अच्छी नींद आयी थी -ये किसने कहा ? यह बात जाग्रत पुरुष (विश्व) नहीं कह सकता , क्योंकि जाग्रत पुरुष  गहरी नींद में अभाव को प्राप्त हो गया था। गहरी नींद में स्थूलदेह और सूक्ष्म देह के साथ हमारा तादात्म्य नहीं है, फिर भी हम होते हैं। गहरी नींद में भी सुषुप्ति अवस्था के साक्षी के रुप में अपना होना यह अन्वय है। और गहरी नींद में जाग्रत (विश्व) और स्वप्न (तैजस-लिंगदेह) का अभाव (अप्रतीति) है , वह व्यतिरेक हो गया। अर्थात उस समय आत्मा का भान होते रहने पर भी लिंगदेह की प्रतीति न होना, लिंगदेह का 'व्यतिरेक' हो गया। निष्कर्ष यह निकला कि हमारी सत्ता स्थूल देह पर निर्भर नहीं है। यदि नाम-रूप में फंसे तो तत्व को भूल गए। [ दो जोक्स - मुर्दागाड़ी का उद्घाटन कौन करना चाहेगा ? सोने की बनी राम-रावण की मूर्ति में से किसको लोगे ? भारी कौन है ? नाम-रूप के आधार पर या स्वर्ण के भार के आधार पर ? स्वर्ण का होना राम-रावण के आकार पर निर्भर नहीं करता। राम बनने से स्वर्ण पवित्र नहीं होता , और रावण बनने से स्वर्ण अपवित्र नहीं होता।] उसी प्रकार से एक ही चेतन सत्ता ब्राह्मण-क्षत्रिय,वैश्य-शूद्र चाहे किसी भी स्थूल देह में रहे उसमें कोई अंतर नहीं आता। कन्हैया ने मिट्टी खायी तो उनके माता ने कहा -लगता है पिछले जन्म ये कहीं सूअर (वाराह) तो नहीं था ? तो श्रीकृष्ण डर गये -कहीं अम्मा ने पहचान तो नहीं लिया ? क्योंकि पहले वाराह अवतार अपना ही था ! 
होना और बनना (Being and Becoming)  : तो इस अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा हम ये सीखते हैं -कि महत्व की वस्तु क्या है ? जैसे स्वर्ण और आभूषण -इसमें महत्व की वस्तु क्या है ? महत्व की वस्तु है स्वर्ण नाकि आभूषण। इसी प्रकार से जब हम दुःखी होते हैं -तो थोड़ा इधर ध्यान देना ....  कि कौन दुःखी हो रहा है ? हम कहते तो हैं -हम दुःखी हैं , लेकिन जो दुःखी है वो कौन है ? बहुत सरल है इसको समझना - या तो हम पति के रूप में दुःखी हैं , या पत्नी के रूप में दुःखी हैं , या सास-बहू के रूप में दुःखी हैं। जब तक हम 'somebody' कोई न कोई व्यक्ति-देह होते हैं, तबतक हमारे मन में विचार आते हैं। विचारों का प्रारम्भ 'somebody' से होता है। हम कुछ न कुछ बने -ये जो बनावटी व्यक्तित्व है वो 'temporary' है -अनित्य या काल्पनिक है। लेकिन उसी को हमने सत्य या नित्य मानकर के रखा है। और मनुष्य बनने के बजाय यदि और कुछ भी 'बने' (पति-पत्नी या बिजनेसमैन या डॉक्टर-इंजीनियर उपाधि में आसक्त बनकर)  मनःसंयोग का अभ्यास (प्रत्याहार -धारणा) का अभ्यास करने के बजाय यदि -ध्यान और समाधि का अभ्यास करना शुरू कर दिया, तो जीवन-लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकोगे। गहरी नींद में हम जो कुछ बने थे वे सब बनावटी काम स्वतः समाप्त हो जाते हैं। गहरी नींद में हम कुछ भी बनते नहीं केवल होते हैं। होना स्वर्ण है, बनना आभूषण है। जाग्रत में हम होते हैं , लेकिन बनते हैं जाग्रत पुरुष (विश्व). हम जाग्रत पुरुष होते हैं लेकिन बनते हैं, 'पति-पत्नी,सास-बहू।' ये जो बनावटी उपाधि (व्यक्तित्व) है यही हमको परेशान करने वाला है। अन्वय-व्यतिरेक करने में कोई नियम, स्नान-ध्यान पालन नहीं करना , गलतफहमी होते ही उसको दूर कर लो। यही वेदान्त की सुंदरता है। केवल सावधान रहो , सतर्क होकर देखो ये दुःख किसको आया ? सब शांत हो जायेगा। सावधानी से जीना इसको कहते हैं -साधना।
       हमारे होने के लिए स्थूल देह की आवश्यकता नहीं है । सुषुप्ति अवस्था में हमारा स्थूल शरीर और सूक्षंम शरीर के साथ हमारा तादात्म्य नहीं रहता फिर भी हम बने रहते हैं। निष्कर्ष ये कि हमारा स्वरुप या हमारी सत्ता स्थूल और सूक्ष्म देह से निरपेक्ष है। इसलिए पहले जो हम अपने को स्थूल शरीर से अलग समझे ये आध्यात्मिक साधना नंबर एक ! आगे कहते हैं - तद्विवेकाद्विविक्ताः स्युः कोषाः प्राणमनोधियः । ते हि तत्र गुणावस्थाभेदमात्रात्पृथक्कृताः ॥ ४०॥ आपने तो कहा था पंचकोश का विवेक करेंगे , उसमें सूक्ष्म देह कहाँ से आ गया ? अब ध्यान से समझो - अन्नमयकोश (स्थूल शरीर, समझने के लिये) कानीऊँगली और हमारा आनन्दमयकोश या कारणशरीर (समझने के लिये अँगूठा) दोनों एक है ! अब जो सूक्ष्म शरीर है, उसके तीन भाग हैं - प्राणमय,मनोमय और विज्ञानमय कोश ! तीनो को मिलाने से बन जाता है सूक्ष्म शरीर। इसलिए सूक्ष्म शरीर या लिंगदेह का विवेक कर लेने से ही प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय ये तीनों ही कोश विविक्त हो जाते हैं । जर्मनी की एक अम्मा ने मुझसे कहा स्वामीजी यदि आप मेरे जीवन में आप 40 साल पहले आ जाते मैं तीन बार तलाक नहीं लेती। अब पछतावा हो रहा है, की तलाक लेने में गलती मेरी थी। जब आपने पहली बार शादी की तब आप थी पत्नी नंबर 1 (W-1) और आपका पति था (H-1), फिर आपने दूसरीबार शादी की तब (W -2) और (H-2) उसको भी छोड़ दिया। अब आपने तीसरी बार शादी की तो (W-3) और (H-3), अब प्रश्न उठता है - W1=W2=W3 तीनो अवस्था एक समान है या अलग -अलग ? चिंतन करो - पहली शादी के साथ (W-1) का जन्म हुआ और तलाक के साथ उसकी मृत्यु हो गयी। फिर दूसरी शादी के बाद (W -2) का जन्म हुआ फिर उसकी मृत्यु हो गयी। यही कहानी तीसरी  (W-3) की भी है। प्रश्न ये उठता है 3W के equal या समरूप होने की बात तो तब उठेगी , जब वे सत्य हों तब न ? अर्थात पत्नी नाम की कोई वस्तु हो तब न ? समझो मैं पत्नी हूँ। और भगवान की दया से मेरा पति मर गया , तो उसकी चिता के साथ 'मैं ' जो पत्नी था, वो पत्नी चली गयी,मैं ज्यों का त्यों
        तो ये जो पतिपत्नी,भाईबहन , सासबहू, पितापुत्र ये सब केवल औपाधिक अब्भिव्यक्तियाँ है सत्य नहीं। उन सभी अभिव्यक्तियों का आधार है -स्थूल शरीर। पहले अपने को स्थूलशरीर समझने के भ्रम को हटाना होगा। सुंदरकाण्ड 58 में संत तुलसीदास जी कहते हैं - " सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥ समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥ इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक संबंधों का केंद्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥ तो हमने जगत की वस्तुओं को संग्रह करने की इच्छा से और व्यक्तियों के साथ सम्बन्ध के डोरी से बाँध रखा है, पहले उस भ्रम से अपने-आप को छुड़ाना है। तब अन्वय-व्यतिरेक की बात समझ में आएगी। गहरी नींद में या स्वप्न में जब देह के साथ हमारा तादात्म्य नहीं होता , तब भी हम होते हैं, यह समझकर मैं स्थूल शरीर नहीं हूँ, मैं स्थूल शरीर से भिन्न कुछ अन्य हूँ -- यह बात समझ में आ गयी। 
               जैसे ही हमने यह स्वीकार कर लिया  कि मैं स्थूल शरीर से भिन्न हूँ , तब इस सम्पूर्ण जाग्रत अवस्था के जगत का कोई माने नहीं है। क्योंकि जाग्रत अवस्था का जगत सत्य तब होता है, जब स्थूल शरीर के साथ हमारा तादात्म्य होता है, अन्यथा नहीं । 
                 तो फिर (ज्ञान होने पर) इस जगत में कैसे रहें ? दादा ने कहा था-'कर्णाटककर-नाटकअ ! don't become serious ! आने-जाने वाली स्थितियों को बहुत गंभीरता से मत लो। रामलीला , कृष्णलीला , अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण लीला-प्रसंग तीन भागों में यही तो चल रही है ! हम कहते हैं ईश्वर की लीला चल रही है , किन्तु नेता के पास गए बिना इसका रहस्य समझ में नहीं आता। जरा 'नारद का माया-दर्शन ' की कथा का स्मरण करें।  ... आधे घंटे में 12 वर्ष गुजर गए और नारद विलाप करके रो रहे थे तब , उनकी पीठ पर हाथ रखकर भगवान पूछते हैं - पानी ले आये नारद ? नारद ने पूछा तो अभी-अभी जो मैंने देखा वो क्या था ? भगवान ने कहा तुम ही तो माया (Bh)  देखना चाहते थे न ? जो सच न होते हुए भी सत्य जैसी प्रतीत होती है, उसको माया कहते हैं। जैसे यह नामपट्ट टेबल के ऊपर है , वैसे किसी व्यक्ति के ऊपर पति की उपाधि लगी रहती है क्या ? [भले उसके चेहरे को देखकर समझ में आये ?] किसी मनुष्य को ही हम पति कहते हैं , किन्तु हमारा ध्यान उस व्यक्ति पर न होकर उसकी उपाधि पर होता है। अपनी उपाधि पत्नी पर ध्यान है , तो उसको पति कहा। अपनी सत्ता 'शरीर' नहीं है, यह बताने के लिए हम कहते हैं -कि हम स्त्री-पुरुष नहीं , हम 'जीव ' हैं। अपनी सत्ता शरीर-निरपेक्ष है इसे अभिव्यक्त करने के लिये हम कहते हैं कि हम जीव हैं। किन्तु क्या हमें इस बात को सत्य मान लेना चाहिए कि हम जीव ही हैं ? जीव क्या है , यह 'जीव' की उपाधि से परमात्मा की अभिव्यक्ति है। अर्थात 'जीव' कोई व्यक्ति ,नहीं है। 'पति' कोई वैक्तिक नाम नहीं है - राष्ट्रपति होने के लिये 'पुरुष ' होने की जरूरत नहीं है। 'पति' केवल एक position है ,यह केवल एक सामान्य संज्ञा है- it is common noun ! और चुकि हरेक 'पति' दुःखी होता , इसीलिये तुम भी दुःखी हो -यह एक सामान्य बात है - so you are alright, चिंता करने की जरूरत नहीं है। फिर वह निश्चिन्त हुआ कि मेरे जैसे और भी दुःखी लोग हैं।
         दुखी होने वाला यह जो पति-पत्नी है, उसको आप जीव समझ लो। और इस जीव का जो आधार है मनुष्य (M/F) उसको आप ब्रह्म समझलो। एक उपाधि को धारण किया पतिनंबर-1 पैदा हुआ , जीव-1, उसने इस देह का त्याग कर दिया और दूसरे देह में प्रवेश किया। दूसरे शरीर को धारण कर लिया तो दूसरा पति बन गया। जो मनुष्य पहले पतिनंबर-1 था ,वही  पतिनंबर-2 ,पतिनंबर-3 बना है। इसमें वह मनुष्य सत्य है या पति सत्य है ? पति केवल अभिव्यक्ति (manifestation) है - व्यक्ति (individual-अनन्त जिसमें कुछ जोड़ा या घटाया न जा सके) नहीं हैउसी प्रकार से जीव केवल अभिव्यक्ति है व्यक्ति नहीं है, परमात्मा सत्य (ब्रह्म) है। अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा इसी प्रकार सत्य तक पहुंचा जाता है। इस 'जीव' को स्वीकार कर लेने के बाद स्थूल शरीर और जगत के साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं। 
                 फिर हमारा सम्बन्ध है , पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म , स्वर्ग-नरक , कर्म का नियम और पिछले जन्म और अगले जन्म के साथ। अब इस पर ध्यानपूर्वक चिंतन शुरू करो, मन जब आँखों से प्रकट होता है, तब उसको दृष्टि कहते हैं, वही मन जब कानों से प्रकट होता है तब उसको श्रवण शक्ति कहते हैं। तो ये दृष्टि व्यक्ति है कि अभिव्यक्ति है ? अब इसी सिद्धांत को आगे बढ़ाओ। चेतन सत्ता जब पुरुष शरीर से अभिव्यक्त होती तो उसके माध्यम से पुरुष धर्म की अभिव्यक्ति (दाढ़ी बढ़ना, आदि पितृधर्म की अभिव्यक्ति ) होती है। वही चेतन सत्ता जब स्त्री शरीर से अभिव्यक्त होती तो उसमें से स्त्री धर्म (मातृधर्म) की अभिव्यक्ति होती है। तो इसके अनुसार ये चेतन सत्ता क्या पति-पत्नी है ? ये तो उपाधि के गुण-धर्म हैं। इसलिए जब वह चेतन सत्ता मन के रूप में किसी शरीर से प्रकट हुई तब उस देह को सजीव कहते हैं। और यदि किसी कारण से यह शरीर, उस चेतन सत्ता को मन के रूप में प्रकट नहीं कर सका , तो उसी शरीर को निर्जीव कहते हैं। तो जीव कौन है ? जीव है ये मन , मन क्या है? जैसे बल्ब में प्रकाश ! उसी प्रकार से शरीर में मन है। और इस मन के कारण जीवन प्रकट होता है। तो 'जीव ' के रहने का स्थान कहाँ बचा ? इसीलिए वेदान्त का श्रवण-मनन-निदिध्यासन यदि सदा करते रहो , तो जीवन का सम्पूर्ण बोझ उतर जाता है। किसी छोटे से बोझ को भी यदि लम्बे समय तक पकड़े रहो, तो हल्का बोझा भी भारी प्रतीत होने लगता है। यही तो संसार है, किसी भी सांसारिक वस्तु की आसक्ति से चिपके मत रहो, अपने को खाली करो महाराज। जितना कम बोझा (सांसारिक जिम्मेदारियाँ) रहेगा उतना हम तत्व के पास हैं। इसप्रकार स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर से अलग होकर हमने अपनी सत्ता को पहचाना। 
अब तक हमने जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति को समझा अब आते हैं समाधि में ; अगले श्लोक को देखें -सुषुप्त्यभाने भानन्तु समाधावात्मनोऽन्वयः । व्यतिरेकस्त्वात्मभाने सुषुप्त्यनवभासनम् ॥ ४१॥ समाधि की अवस्था में अपना होना -- इसका भान रहता है। लेकिन समाधि की अवस्था में जाग्रत पुरुष (विश्व) , स्वप्न पुरुष (तैजस)  और सुषुप्ति पुरुष (प्राज्ञ ) बिल्कुल होता ही नहीं है। समाधि में जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति के नहीं होने को कहेंगे उनका व्यतिरेक और समाधि अपने होने को कहेंगे अन्वय।[ समाधि के समय सुषुप्ति का अभान हो जाने पर भी आत्मा का भान होते रहना, आत्मा का 'अन्वय' कहाता है । तथा उस समय आत्मा का भान होते रहने पर भी सुषुप्ति का भास न होना सुषुप्ति का 'व्यतिरेक' कहाता है।]  अब सबको जोड़ लो तो -जो समाधि में है , लेकिन जिसकी समाधि कभी लगती नहीं और टूटती नहीं यह अखण्ड अविकारी अनन्त सत्ता है -वही हमारा स्वरुप है। लेकिन हमने आवश्यक को महत्व न देकर , अनावश्यक को महत्व दिया है , हमने नामरूप को महत्व दिया है-हमने महत्व दिया है राम को या रावण (पुतले) को किन्तु स्वर्ण को महत्व नहीं दिया है। रंगमंच पर राम ने रावण को मार दिया , वैसे ही पर्दा गिर गया। लेकिन ऐक्टिंग करने वाले पात्रों में कोई अंतर नहीं आया। उसी तरह हमको भी लीला अपने किरदार निभाने हैं। लेकिन -'we don't act but react ! start acting stop reacting! एक्टिंग के लिये थोड़ी सावधानी - यथामुञ्जादिषीकैवमात्मा युक्त्या समुद्धृतः ।शरीरत्रितयाद्धीरैः परं ब्रह्मैव जायते ॥ ४२॥ मूंज (सरकंडा) एक प्रकार की घास है, जो १०-१५ फुट ऊँची होती है, जिससे रस्सी बनाई जाती है। उसके बीच में जो सींक होती है वह बड़ी खतरनाक होती है। चुभ जाये तो घाव हो जाता है। इसलिए उसके पत्तियों को बहुत सावधानी से निकालना पड़ता है। उसी प्रकार तीन शरीरों की आसक्ति से, या पंचकोशों  के तादतम्य से अपने (आत्मा ) को धीरे धीरे, उसी उपरोक्त 'अन्वय- व्यतिरेक नाम की युक्ति' सेअलग करना है, कहीं चोट न लगे। और फिर अपने स्वरुप में निष्ठा प्राप्त करना है। जो धीर मनुष्य नश्वर तीन शरीरों से भिन्न अविनाशी आत्मा का साक्षात्कार कर लेता, उस समय उसका आत्मा परब्रह्म (परमात्मा) ही हो जाता है। [मूँज  में सी सींक की तरह जब धीर लोग तीनों शरीरों में से अपने आत्मा का उद्धार (उपरोक्त अन्वय व्यतिरेक नाम की) युक्ति से कर लेते हैं तब उस समय उनका आत्मा परब्रह्म ही हो जाता है ।] अभी जो आप अनुभव कर रहे हैं, यह अनुभूति 24 X 7 बनी रहती है। केवल पहचानना मात्र है - 'this is that !' आध्यात्मिक साधना कुछ बनने के लिए नहीं करना पड़ता है, बल्कि अभी तक शरीर की दृष्टि से जो कुछ बन गए हैं , उससे छुटकारा पाने के लिए करना पड़ता है। नीचे वाला पक्षी शुरू से ही ऊपर वाला पक्षी ही था लेकिन अपने को पहचानता नहीं था। (not becoming but unbecoming what we are till today !)न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः। (उस) अमृतत्व को सम्यक् रूप से (ब्रह्म को जानने वालों ने) केवल त्याग के द्वारा ही प्राप्त किया है। 
यदि हमारे हृदय में भगवान श्री रामकृष्णदेव या (ब्रह्म, परम् सत्य) का माहात्म्य प्रकट हो गया तो जगत के प्रति वैराग्य स्वाभाविक है। जब तक हमारा अन्तःकरण यह सवीकार नहीं करेगा कि जगत में सबसे मूलयवान वस्तु, अपने ब्रह्म स्वरुप में स्थित होना ही है, तब तक जीवन में वैराग्य नहीं होगा। विवेकानन्द अपने गुरु के कहने पर माँ काली के पास गए कुछ माँगने के लिए , क्योंकि उनके घर की परिस्थिति बहुत ख़राब हो गयी थी। माँ के सामने १५-२० मिनट खड़े रहे, किन्तु एक भी माँग उनके मुख से नहीं निकली। जैसे रावण जब-जब राम का रूप धारण करता तब काम भाग जाता था। जब हमारे हृदय में तत्व (ईश्वर) के प्रति महात्म्य प्रगट हो गया तो जगत के प्रति वैराग्य - byproduct है,स्वाभाविक है। इसीलिए किसी नेता/जीवन्मुक्त शिक्षक को अपने वैराग्य का अभिमान नहीं हो सकता । वैराग्य किस वस्तु से हुआ इस मिथ्या जगत का। क्या अपनी गंदगी के त्याग का कभी अभिमान हो सकता है ? (मैं HOD प्रोफेसर होकर भी ट्यूशन नहीं पढ़ता , पीएचडी होकर भी मैंने शादी नहीं की !) जिसको अपने वैराग्य का अभिमान हो गया वो सही वैराग्य नहीं है। दुनिया के प्रति आकर्षण बना रहेगा।  
                       तुलसी दास जी कहते हैं - ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥ कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥ ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान कहना चाहिए जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो।॥4॥ 
      हमको पहले बताया था कि किसी तत्वदर्शी ,ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के पास जाकर वेदान्त के चार महावाक्यों का उपदेश ग्रहण करना चाहिये। और अपने स्वरूप  को पहचानना है। वेदान्त के आचार्य उपदेश देते है - तत त्वमसि ! नेता के जिस उपदेश (महावाक्य) के द्वारा 'ब्रह्मात्मैक्य-बोध की सिद्धि' होती है उसको ही महावाक्य कहते हैं। प्रथम -चरण first stage में हमने अन्वय-व्यतिरेक विवेक-पद्धति द्वारा अपने को पंचकोशों से अलग करके- आत्मरूप से  पहचान लिया। अब ये जो 'मैं ' -स्थूल शरीर नहीं, प्राण नहीं , मन नहीं,  बुद्धि नहीं आनन्दमय-कोश नहीं , क्या यह 'मैं '-per head ' एक है ? या अलग अलग है ? क्या प्रत्येक व्यक्ति में एक ही तत्व प्रकट हो रहा है ? इस जिज्ञासा में पहुंचना वेदान्त का second stage है। ये चिंतन करना है कि क्या एक ही मैं सबमें प्रकट हो रहा है ? चिंतन करने से यह अनुभव होगा कि माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट अहं या मैं ही प्रत्येक व्यक्ति में प्रकट हो रहा है। अलग अलग देवालयों में अलग अलग देव नहीं बैठे हैं, सभी में मैं ही प्रकट हो रहा हूँ। अर्थात परमात्मा का प्राकट्य और परमात्मा , अर्थात  बिजली और बिजली का प्राकट्य कैसे पता चलेगा ? बिजली (electricity) है कि नहीं , कैसे पता चलेगा ? जब हम बल्ब के सुइच को ऑन करते हैं, तो उसके प्रकाश से ही बिजली को पहचानते हैं न ? हमने बिजली की सत्ता को उसके प्राकट्य से ही पहचाना है न ? बल्ब नहीं है, तो ऊँगली लगा के देखो ? वहां भी जब shock लगेगा बिजली का झटका लगेगा तब पता चलेगा कि हाँ इसमें बिजली है। जैसे हम बल्ब के प्रकाश से बिजली की सत्ता को ग्रहण करते हैं, उसी प्रकार जब अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा विराट और सर्वव्यापी अहं में रूपांतरित कर लेंगे तब हम परमात्मा (ब्रह्म) को ग्रहण करेंगे। किन्तु जब तक हमने इस अभिव्यक्ति को , अपने 'मैं' को (या व्यष्टि अहं) को व्यक्ति (M/F) समझ रखा है, तो संसार शुरू हो गया। और इस व्यक्ति को (XYZ नाम-रूप वाले बल्ब या 'व्यष्टि अहं' को ब्रह्म (समष्टि अहं) की अभिव्यक्ति के रूप में पकड़ लिया है - तो उस अवस्था का वर्णन गीता 9 . 29 में करते हैं -' न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।' फिर न तो कोई मेरा है , न तो कोई पराया है - 'समोऽहं सर्वभूतेषु' ! बिजली के लिए जो मंदिर के बल्ब है वो पवित्र है और जो toilet का बल्ब है वो अपवित्र है ? या दोनों में कोई अन्तर नहीं है ? जैसे- जैसे अपने ज्ञान में (समझदारी में) सूक्ष्मता बढ़ेगी वैसे वैसे हम निर्गुण-निराकार तत्व (existence-consciousness-bliss ) सच्चिदानन्द के समीप पहुँच जाते हैं। अब आगे इसी ब्रह्मात्मैक्य बोध की बात बता रहे हैं - परापरात्मनोरेवं युक्त्या सम्भावितैकता
तत्त्वमस्यादिवाक्यैः सा भागत्यागेन लक्ष्यते ॥ ४३॥ जीवात्मा और परमात्मा के ऐक्य को हमें अपने जीवन में प्रस्थापित करना है। भगवान शंकर ने कहा है -ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ॥ ब्रह्म वास्तविक है, ब्रह्मांड मिथ्या है (इसे वास्तविक या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। यह वेदांत द्वारा डंके की चोट पर घोषित किया गया है। [Brahman is real, the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.] बल्ब का जो प्रकाश है , वो बिजली की ही अभिव्यक्ति ही है। यह बल्ब यदि फ्यूज हो जाय तो बिजली का कोई नुकसान नहीं। जैसे जैसे हम अपने स्वरुप में निष्ठां प्राप्त करेंगे तो ये अभिव्यक्तियाँ (Bh -आकर्षण) हमको परेशान नहीं करेंगी।  
CAUSALITY (कारण-कार्य-सिद्धान्त) : को समझना माने जगत के उपादान कारण और निमित्त कारण को समझना, इसीको कारणता का सिद्धांत भी कहते हैं। 'तत त्वमसि' महावाक्य में भाग-त्याग लक्षणा क्या? तत और त्वम् की एकता को प्रस्थापित करना है। जो परमात्मा के सबसे नजदीक है, वो है तत त्वमसि महावाक्य का उपदेश। पहले 'तत' शब्द की व्याख्या करते हैं - जगतो यदुपादानं मायामादाय तामसीम् निमित्तं शुद्धसत्त्वां तामुच्यते ब्रह्म तद्गिरा ॥ ४४॥ परमात्मा ने जब तामसिक माया को ग्रहण किया और इस जगत का उपादान कारण बना , परमात्मा ही जगत बना। और उसी परमात्मा ने जब सात्विक माया को ग्रहण किया और इस जगत का निमित्त कारण बना , तत्त्वमसि महावाक्य के 'तत' पद का ये अर्थ है। घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण (material cause)  है , और कुम्हार को कहते हैं निमित्त कारण (efficient cause)। इस जगत का उपादान कारण वही परमात्मा है , जिसने माया के तामसिक भाग को ग्रहण किया और स्वयं मिट्टी (पंचभूत) बन गया। माने परमात्मा ही जगत बना। जैसे समुद्र ही लहर बना , जैसे पानी ही समुद्र बना , जैसे पानी ही बादल बना। तो जब हम शिवलिंग को स्पर्श करते हैं, तो साक्षात् भगवान को ही स्पर्श करते हैं, जब हम गीता को स्पर्श करते हैं, तो साक्षात् भगवान को ही स्पर्श करते हैं। जब ये ज्ञान प्रकट हो जाता है, तब सबके प्रति आदर-सत्कार , सेवा और प्रेम , स्वाभाविक हो जाता है। हमारे पुराने संस्कार में कागज पर पैर लग जाये तो उठाकर प्रणाम करते हैं, कि विद्या है। पैसे पर लग गया नमस्कार कर अपने जेब। जैसे ही हमारे अन्तःकरण में यह ज्ञान दृढ़ हो जायेगा कि परमात्मा ही जगत का उपादान कारण है, एकदम पूरी दृष्टि ही बदल जाएगी, व्यवहार बदल जायेगा।
         अभी हम जगत के तरफ देखते हैं , भोग की दृष्टि से। जब हमें यह पता चलेगा कि जगत (Bh) साक्षात् परमात्मा है, तो संसार के प्रति भोग दृष्टि अपने आप खत्म हो जाती है। Bh ही माँ जगदम्बा है, यह दृष्टि आते ही भोगवृत्ति समाप्त हो जाएगी। darling के बदले दादीमाँ प्रकट हो जाएगी , वहां भोग प्रवृत्ति खत्म हो जाएगी। और दृष्टि में परिवर्तन आने से सेवा वृत्ति प्रकट हो जाएगी घटाकाश -फटाकाश का बकवास नहीं ज्ञान का प्रभाव अपने जीवन में दिखना चाहिए। 'तत' शब्द का तात्पर्य है जो इस जगत का उपादान कारण मिट्टी भी परमात्मा ही बना और जिसने ये दुनिया बनाई वह निमित्त कारण भी वही एक परमात्मा है। मिट्टी और कुम्हार अर्थात उपादान कारण और निमित्त कारण दोनों वही एक परमात्मा है। तत का अर्थ वो परमात्मा है जिसपर दो उपाधियाँ चढ़ा दीं -कुम्हार और मिट्टीजैसे आदमी पर दो उपाधियाँ चढ़ा दो , पत्नी को लेकर पति और पुत्र को लेकर पिता। वही एक आदमी पति भी बना और पिता भी बना। इसी प्रकार से एक ही परमात्मा जगत के रूप में दिख रहा है, और वही इस जगत का निर्माता भी है। यही मूल भेद है वेदान्त के प्रतिपादन में  तथा अन्य मतों में। अन्य मतों में भी ये मानते हैं कि भगवान जगत का निमित्त कारण है, और उसने मिट्टी (पंचभूतों ) से दुनिया बनाई ,लेकिन क्या वो मिट्टी भगवान से अलग है ? वेदान्त कहता है - मिट्टी भी वो है, और कुम्हार भी वो है ! इसको Technically कहते हैं - निमित्त अभिन्न उपादान कारण ! मिट्टी भी परमात्मा ,कुम्हार भी परमात्मा =निमित्त अभिन्न। इस दृष्टि से अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव को देखो -तब आपको गीता के 10 और 11 वें अध्याय का अर्थ समझ में आएगा। १०वें अध्याय में ठाकुर ने कहा -पहाड़ों में मैं हिमालय हूँ नदियों में मैं गंगाजी हूँ, पाण्डवों में मैं धनञ्जय हूँ ! क्योंकि परमात्मा ही सम्पूर्ण जगत को उपादान कारण के रूप में धारण कर रहा है। यह बात जब हमारे अन्तःकरण में बैठ जाएगी , और जब हम इस सम्पूर्ण जगत (Bh) को परमात्मा (शक्ति) की दृष्टि से देखेंगे तब जगत के प्रति भोगवृत्ति शांत होकर के सेवावृत्ति जाग्रत हो जाती है। तब ऐसे जो ' विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा'  में प्रशिक्षित नवनीदा जैसे सच्चे नेता [C-IN-C] है, वे गाँव -गाँव घूमकर सेवा करने का क्रेडिट नहीं लेते ! अर्थात मनुष्य बनो और आंदोलन का प्रचार -प्रसार करने का कोई Credit (गौरव या प्रसिद्धि) नहीं लेते हैं। मैंने महामण्डल की स्थापना की , मैंने सिटी ऑफिस बनाया , मैंने कोन्नगर महामण्डल बिल्डिंग बनाया , मैंने झुमरीतिलैया में वि० ज्ञा० म०  खोला, अरे कृष्णा,रामा , गोविन्दा ! बनाने वाला कोई और है [माँ ने (S.V ने) मेरे उद्धार के लिए मुझसे करवाया! ]निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।11.33।।!  हे सव्यसाचिन् तू केवल निमित्तमात्र बन जा। बायें हाथसे भी बाण चलानेका अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है। लेकिन हमको लगता है कि हमने 'ये' किया हमने 'वो' किया। तो तत्त्वमसि वाक्य में 'तत'  पद का अर्थ  [इस प्रकार 'पर' और 'अपर' आत्मा की एकता को युक्ति से अंगीकार किया गया । उसी एकता को 'तत्त्वमसि' आदि वाक्य भागत्याग लक्षणा से लक्षित कर रहे हैं । ] 
इसके बाद इस वाक्य में 'त्वं ' कहा -आप , तुम या मैं वो क्या है ? अब यदा मलिनसत्त्वां तां कामकर्मादिदूषितम् । आदत्ते तत्परं ब्रह्म त्वं पदेन तदोच्यते ॥ ४५॥ तब देखो माया के तीन गुण बताये थे -तामसिक माया और सात्विक माया को धारण करके परमात्मा यह जगत और इस जगत का निर्माता ईश्वर (माँ जगदम्बा ) बन गया। अब वही परमात्मा मलिन माया , माने जिस माया में रजोगुण का प्राधान्य होगा, वहाँ काम-क्रोध- लोभ -मद-मोह-मात्सर्य ये सब मनोविकार खड़ा हो जायेगा। इस रजोगुणि-माया को धारण करके वही परमात्मा जीव कहा जाता है। 
    Difference between Leader and would be Leader:  अब तीन बातें हो गयीं - जीव, जगत और ईश्वर ! एक ही परमात्मा ने जब नाम-रूप की उपाधि को धारण किया उसको जगत कहा। उसी परमात्मा ने जब निर्माता की उपाधि को धारण किया उसको ईश्वर कहा। उसी परमात्मा ने जब पंचकोशों की उपाधि को धारण किया उसको जीव कहा। अब हमारा ध्यान कहाँ है ? यदि हमारा ध्यान भेद में है, अनेकता (M/F) में है, तो हम परमात्मा को भूल जायेंगे। (और बस hypnotized हो जायेंगे) एक बार युवा प्रशिक्षण-शिविर में हम बच्चों को एक तत्व को पहचानने के विषय में बता रहे थे। मैंने उनसे पूछा बताओं हम सब में क्या-क्या भेद है , क्या -क्या फर्क है ? एक ने कहा- यहाँ कोई लड़का है, कोई लड़की है ये भेद है। v. good , तू बता - कोई लम्बा है कोई नाटा है। बहुत बढ़िया , तीसरे को पूछा तू बता - कोई गोरा है , कोई काला है, बहुत बढ़िया। अब तू बता - ... भेदों की तो झड़ी लग गयी। अब बताओ हम सब में सामान्य तत्व क्या है ? सबकी बोलती बंद , सभी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। एक छोटा सा बच्चा चुप बैठा था , मैंने पूछा चल तू बता। हम सभी के सभी बच्चे आप अकेले के कारण परेशान हैं। उसका ध्यान लोगों पर नहीं था उसका ध्यान परेशानी पर था , और उस वजह से हमारे पास पहुँच गए। इसीप्रकार जब हमारा ध्यान जगत के आकर्षणों से हट जायेगा ,अपने सुख-दुःख, तूतू -मैंमैं से हट जायेगा ,तब अपने आप प्रभु में निष्ठा हो जाती है। एक प्रभु को हम कभी जीव कहते हैं, कभी जगत कहते हैं, कभी ईश्वर कहते हैं। जैसे एक ही पानी को कभी समुद्र ,कभी लहरें कहते हैं, कभी बादल कहते हैं, और कभी सरोवर कहते हैं। पानी तो एक ही है। जब हम किसी को गाली देते हैं , तो सूद समेत वापस मिलता है। हमने एक परमात्मा को पहली गाली दी उसको 'जगत ' कह दिया ! दूसरी गाली दी 'ईश्वर' , तीसरी गाली दी -' जीव ' कहींका !!! जब हम किसी को गाली देते हैं, तो फल में दुःख ही मिलेगा न ? तो इस जगत को परमात्मा के रूप से देखो , जीवन में परिवर्तन आ जाता है , हम यथार्थ मनुष्य बन जाते हैं , चरित्र-निर्माण हो जाता है ! अपने को केवल स्थूल शरीर मानना बंद करो , अपने स्वरुप में निष्ठावान होकर रहो - जीवन की अभिव्यक्ति , चरित्र की अभिव्यक्ति अप्रतीम होती है ! ऐसे किसी व्यक्ति के माध्यम से जब परमात्मा प्रकट होता है तब उसको नेता [C-IN-C नवनीदा ] कहते हैं ! नेता और भावी नेता में इतना ही फर्क है ! हमारे माध्यम से जीव प्रकट हो रहा है, उनके नेता के माध्यम से परमात्मा प्रकट होता है। जीव जब प्रकट होता है , तब वो चाहता है, परमात्मा जब प्रकट होता है, तब वो देता है ! जब कुछ प्राप्त करने से ख़ुशी होती है , तब हम जीव (भावी नेता) हैं, और जब देने से Share करने से ख़ुशी होती है , तब हम परमात्मा (नेता) हैं। तत्त्वमसि महावाक्य के उपदेश का ये अर्थ है ! वेदान्त की साधना अपने साथ करनी है। और पंचकोश के विवेक से अपनेआप पहचान लेना है। और जगत के साथ व्यवहार की साधना वेदान्त की नहीं है, भक्ति की, प्रेम की , सेवा की , स्मरण की , (खुली आँखों से ध्यान करने) की साधना है। [महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास की साधना में ' Be ' की साधना करनी वेदान्त की दृष्टि से है अपने साथ पंचकोश विवेक करते हुए अपने-आप को पहचान लेना;  और 'Make ' की साधना है जगत के साथ व्यवहार की साधना है भक्ति की, प्रेम की , सेवा की स्मरण की] जब दोनों का संतुलन (Be and Make का संतुलन) बन जाता है , तब हम नेता का जीवन सहज जीने लगते हैं। जीवन जितना सहज होगा , प्रयत्न कम होगा , उतना हम अपने स्वरुप के पास होते जायेंगे। जहाँ जहाँ प्रयत्न करना पड़ता है, वहां वहां हम normal नहीं होते। जो व्यक्ति ऊँचा सुनते हैं, वे श्रवण में थक जाते हैं, क्योंकि उनकी श्रवण क्षमता normal नहीं है। जो जीवन में थक जाता है, वो जीव है, जो जीवन में कभी नहीं थकता वो मानवजाति का मार्गदर्शक नेता होता है। इसीलिए नेता कभी VRS नहीं लेते। नेता कभी बेटा -भाई के पास apply नहीं करते मुझे इतना पेंशन देदो। इतना ही दोगे ? मैं तो freedom fighter (स्वतंत्रता सेनानी) रह चुका हूँ , उसका पेंशन अलग से दो ? इसको साधना नहीं कहते ,अभी भी नेशन के लिए fight कर रहा हूँ। स्वरुप के साथ रहो , जीवन सहज बन जाता है, न उधो का लेना न माधो का देना। सदानन्द में रहने के लिए तत्त्वमसि का उपदेश दिया गया है, वो परमात्मा एक है, उपाधि के कारण अनेक नहीं बन गया है। तो इस उपदेश में तत और त्वम् का एकत्व कैसे है , इस पर कल विचार करेंगे। 
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Panchadashi ch 1 Hindi Talk 5 of 6 @ Jaipur 2012
               उपाधि के कारण एक ही तत्व पर अनेकता प्रतीत होती है, इसलिए एक ही सत्य है अनेक सत्य नहीं है , मिथ्या है। जैसे एक ही आदमी पिता, पुत्र और पति की उपाधियों के कारण तीन प्रकार से सम्बोधित किया जाता हैं, वो तीन नहीं है। लेकिन जो तीन नहीं हैं, वे ही दुःखी रहते हैं। पुत्र दुःखी होता है, पति तो दुःखी है ही , पिता दुःखी होता है, आदमी दुःखी नहीं होता। जो वास्तव में है नहीं , वो दुःखी हो रहा है -शराफत की हद है। इसी प्रकार एक ही परमात्म तत्व , जिसके ऊपर  उस पर नाम-रूप की उपाधी चढ़ा दी तो जगत कहा ,उसके ऊपर माया की उपाधि चढ़ा दी तो ईश्वर (माँ जगदम्बा) कहा, उसी के ऊपर पंचकोश की उपाधि चढ़ा दी तो जीव कहा। एक ही परमात्मा उपाधियों के कारण जीव , जगत और ईश्वर के रूप में प्रकट हो रहा है। इसमें केवल परमात्म-तत्व सत्य है, जीव-जगत -ईश्वर यह केवल औपाधिक है। 
       इस ज्ञान की उपयोगिता क्या है ? क्या करें इस ज्ञान से ? इतना ही समझें कि नाटक (लीला) नाटक है, नाटक में रोना नहीं है। रोने का पार्ट करना है, तब भी अंदर में हँसता है actor ! इसको सच समझकर , नारद की तरह ईश्वर की माया को देखकर , आधा घंटा =१२ साल देखकर रोने मत लगना तुम। वेदान्त में तत्त्वमसि के महावाक्य से यह उपदेश बताई जाती है। प्रकृति के तीन गुण सत्व,रजस , तमस , सत्वगुण की उपाधी से परमात्मा को ईश्वर कहते हैं, जो जगत का निर्माता है। तमोगुण की उपाधि से परमात्मा को जगत कहते हैं, जो जड़ है अर्थात निर्मित वस्तु है। फिर रजोगुण की उपाधि से उसी परमात्मा को जीव कहते हैं। तीन उपाधियाँ का निराकरण करें तो परमात्मा ज्यों-का त्यों बना रहेगा। निराकरण क्यों ? आभूषणों में स्वर्ण है , ये समझने के लिये क्या आभूषणों को गलाना जरुरी है ? घट के अंदर का आकाश और बाहर का आकाश एक ही है , क्या इसको समझने के लिए घड़े को तोडना जरुरी है ? जितना हमारी समझ सूक्ष्म हो जाएगी उतना हम अपने स्वरुप के पास होंगे। 
         और समझदारी से जीने को कहते हैं - living in meditation' ध्यान में रहना। दादा कहते थे महामण्डल में ध्यान नहीं सिखाया जाता , क्योंकि ध्यान करने की वस्तु नहीं है, ध्यान देने की वस्तु है। ध्यान करना मत कभी जीवन में ध्यान करना है। ध्यान देने का अर्थ - कभी दुःखी हो गए तो ध्यान दो कौन दुःखी है ? द्रष्टा या दृश्य ? जो दुखी है , उसका अन्वेषण शुरू करो, कौन दुःखी है ?  तो दुखी गायब हो जायेगा। तब हमको पता चलेगा कि सुखी -दुःखी होना केवल अपने मन की कल्पना है, वास्तविकता नहीं है। तत्वमसि वाक्य में तत का अर्थ है - तामसिक माया को धारण किया तो जगत कहा , परमात्मा को जगत का उपादान कारण कहा, यानि यह जगत परमात्मा ही है , यदि हमारी बुद्धि से नाम-रूप का माहात्म्य मिट जाये तो। हमारे शास्त्रों आता है -  अस्ति भाति प्रयं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् । आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम्   अर्थात जगत में ये 5 बाते हैं परम सत्ता के अस्ति = सत्, भाति = चित् , प्रिय = आनन्द (सच्चिदानन्द),  नाम और रूप ये पाँच अंश हैं। इनमें से प्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप है, शेष दो जगत् का रूप है। नाम रूप ही जगत कैसे है ?हम अपने को अमर बनाना चाहते हैं, क्योंकि किसी को अपने अभाव का , अपने नहीं होने का अनुभव होता ही नहीं। तो मृत्यु का भय क्यों होता है ? नाम-रूप के द्वारा हम अपने को अमर रखना चाहते हैं। तो क्या करेंगे ? पूरे UP में अपना statue लगा देंगे। भगवान की जो माया (वती) है न वो यही है। क्योंकि रूप रहना चाहिए।  और हर पुल -पुलिया पर मेरा नामपट्ट होना चाहिए ये पुल -नाली अमुक-अमुक ने बनाया , [जोक्स -जापान के मिनिस्टर का कोठी -समुद्र पर दृश्यमान पुल के ५० % U/P के मिनिस्टर का गंगाजी पर अदृश्य पूल का 100 %] हम भ्रम में पड़कर अमर रहना चाहते हैं नाम -रूप के द्वारा , जबकि नाम और रूप मिथ्या है। जहाँ नाम और रूप का त्याग होता है, वहां परमात्मा प्रगट होते हैं। 
        रुद्रप्रयाग को महत्वपूर्ण तीर्थ क्यों माना जाता है ? क्योंकि यहाँ दो नदियाँ आयी हैं, एक है अलकनन्दा और एक है मन्दाकिनी।  यहाँ तक दोनों नदियों का अलग -अलग अस्तित्व (नाम और रूप) रहता है। रुद्रप्रयाग में आकर दोनों नदियाँ मिल गयीं तो , यहाँ मन्दाकिनी ने अपना नाम-रूप त्याग दिया। उसके बाद वो केवल अलकनन्दा नाम से ही जानी जाती है। जहाँ नाम-रूप का त्याग होता है, वह परमात्मा के प्राकट्य का स्थान है। आगे चले जाओ देवप्रयाग में वहाँ अलकनन्दा और भागीरथी का संगम होता है , फिर दोनों नदियाँ अपने नाम-रूप त्याग देती हैं। फिर न तो आगे अलकनन्दा है, न भागीरथी है ; वहाँ से गंगाजी शुरू हो जाती हैं। इसलिए यह देवप्रयाग अत्यन्त पवित्र स्थान है , क्योंकि वहाँ परमात्मा प्रकट हो जाते हैं। 
          तो यह जो नाम-रूप में हम फंसे हैं , यही तो जगत है। जैसे ही हम नामरूप से ऊपर उठ गए वहीँ ब्रह्म है ! सभी के नमस्कार करने में भी अपना अपना ब्राण्ड होता है , कोई मुझे कहते हैं - जय श्रीरामकृष्ण , मैं कह्देता हूँ -जय श्रीराम! दुबारा बोलता है, बिजयदा जय श्रीरामकृष्ण मैं फिर कहता हूँ , जय श्रीराम! वे थोड़ा अपसेट हो जाते हैं! एक दूसरा ब्राण्ड आता है, वो कहता है -दादा हरिओम ! मैं उसको कहता रामराम जी रामराम ! हमने ब्रह्म पर अपना अपना ब्रांड लगा दिया है, और इसमें फंसे हैं ! नामरूप ही तो जगत है, जैसे ही हम नामरूप से ऊपर उठे की परमात्मा में (अपने ब्रह्मस्वरूप में) पहुंच गये।
       जब हमको कुछ मिलने के बाद आनन्द आता है , उस आनन्द का नाम है जीव (BKS)। जब कुछ देने से आनन्द आता है तब उस आनन्द का नाम है भगवान श्रीरामकृष्ण। देखो कितनी आसानी से हम जगत्कारण को , अपने स्वरुप को पहचान सकते हैं। हमको देवानन्द भी मालूम है, लेकिन 'देव ' कौन है मालूम नहीं है। जो प्राप्त करने के लिए परेशान है, वो जीव है , और जो देने के लिए तैयार है , वो परमात्मा है। इसीलिए ठाकुर को जो हमने अपने से दूर धकेल दिया था , उसको अपने हृदय में खोजो ! और अपने हृदय में खोजने के लिये अपने मिथ्या मैं को खो देना पड़ेगा (नाम-रूप को मैं मानने के भ्रम को खो देना पड़ेगा।) अब एक बार पिछले श्लोक को फिर देखें - यदा मलिनसत्त्वां तां कामकर्मादिदूषितम् ।आदत्ते तत्परं ब्रह्म त्वं पदेन तदोच्यते ॥ ४५॥ यही परमात्मा जब 'मलिन माया' जिसको अविद्या कहते हैं, अधूरा ज्ञान कहते हैं .....  की उपाधि धारण करता है, तब उसको जीव कहते हैं। और ये तत्वमसि -वाक्य में 'त्वं ' पद का वाच्यार्थ है। परमात्मा की तीन उपाधियों जीव , जगत और ईश्वर में से किसकी उपाधि को निकालने का अधिकार हमे है ? हमको अपनी टोपी उतारने का अधिकार है कि दूसरे की टोपी उतारने का अधिकार है ? दूसरों को हम टोपी चढ़ाते हैं। तो जगत के साथ हमको कुछ नहीं करना , ईश्वर के साथ हमको कुछ नहीं करना केवल अपने पंचकोशों की उपाधियों को निकाल देना है।
              जब जीव नहीं रहेगा , तब जगत नहीं , और जब जीव-जगत नहीं तब ईश्वर नहीं। उदाहरण के लिए फुटबॉल मैच के एक टीम ने दूसरे टीम को अपने से तगड़ा देखकर वाकओवर दे दिया , और दोनों टीमें चली गयी तो वहां अम्पायर क्या करेगा ? मूंगफली खायेगा ? उसी प्रकार जहाँ जीवभाव गायब हो गया , वहां जगत और ईश्वर दोनों गायब हो जाते हैं, रह जाता है केवल परमात्मा। हम अपनी दृष्टि के अनुसार जगत को देखते हैं,यदि हमने अपने को शरीर माना है, तो जगत को M/F शरीर के रूप में देखेंगे , यदि अपने को पढ़ा-लिखा माना है तो जगत को पढ़ालिखा-अनपढ़ के रूप में देखेंगे। हमने अगर अपने को हिन्दू माना है , तो जगत को हिन्दू -गैर हिन्दू के रूप में देखेंगे। जगत में हम वही देखते हैं, जो हमने अपनेआप को देखा है। यदि हमने अपने सच्चिदानन्द स्वरुप को देखा है , तो जगत भी परमात्मा के सिवा और कुछ नहीं दिखेगा। 
        अब 46 श्लोक में कहते हैं - त्रितयीमपि तां मुक्त्वा परस्परविरोधिनीम्अखण्डं सच्चिदानन्दं महावाक्येन लक्ष्यते ॥ ४६॥ यदि हम तीन प्रकार की माया के परे (त्रिगुणमयी माया के परे) चले जाएँ , तो हम एक ही परमात्मा को लखा रहे हैं। पानी, समुद्र, लहरें - इन तीनो शब्द का विश्लेषण करें , तो दिखेगा कि हम एक 'पानी ' को ही कभी समुद्र कहते हैं, कभी लहर कहते हैं। हमने ही पानी को दो उपाधियाँ दे दिए - एक समुद्र और दूसरा लहर, फिर दो नाम देने के पश्चात समुद्र को कहा कि ये कारण है, और लहरें कार्य हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पानी पर हमने कार्य-कारण अध्यारोपित किया है। वास्तव में देखा जाय तो जब हम लहरों को स्पर्श कर रहे हैं, तो पानी को ही स्पर्श कर रहे हैं, और समुद्र में डुबकी लगाते हैं, तो भी पानी को ही स्पर्श कर रहे हैं। 
       तो एक ही पानी को हमने तीन गालियाँ दी - पहली गाली उसको समुद्र कहा, दूसरी गाली उसको लहर कहा , तीसरी गाली उसको कार्य-कारण कहा। वास्तव में यह समुद्र ही लहर है , कार्य-कारण केवल हमारे मुख में हैं। असल में तो पानी है ! बम्बई में एक रिक्से पर लिखा था -मुझे रिक्सावाला कहो, भईया मत कहना ! बम्बई में भैसों के साथ रह कर दूध बेचने वाले जितने रहते हैं, वे सब UP के भईया होते हैं, इसलिए उनका वही चित्र है। भारत के अनेक प्रधानमंत्री UP के भईया लोग हुए हैं। [इस शिवसैनिक घमंड से देखने पर तो राम और कृष्ण को भी ये लोग भईया ही कहते या समझते होंगे ?] पानी को आप समुद्र क्या है, लहर क्या है -कितना भी समझाने का प्रयास करो -पानी को यह भेद दिखेगा ही नहीं। 
         संसार केवल परमात्मा में नहीं है, संसार केवल प्रकृति में नहीं है। पुरुष और प्रकृति जब ये दोनों मिलते हैं, तब संसार शुरू हो जाता है। इसलिए तीनो प्रकार की माया से मुक्त होना है, इनसे जब मुक्त हो गए तो उनका अधिष्ठान ज्यों-का त्यों है। गोवा में बीच के 1 किमी भीतर तक चलते जाओ , पानी कमर तक ही होता है। जैसे हम किसी को पूछते है , यहाँ समुद्र का पानी गहरा है या उथला है ? वास्तविकता क्या है ? पानी में ही समुद्र है ! हम पूछते हैं आभूषण में स्वर्ण है क्या ? वास्तविकता क्या है , स्वर्ण पर आभूषणों के नाम-रूप अध्यारोपित कर दिए हैं। 
                वेदान्तडिण्डिमः हम कहते हैं हम दुनिया में हैं - असल में क्या है , दुनिया हम में है जब हमने अपने मन को लपेट कर सिरहाने रख दिया और खर्राटे मार रहे , तब दुनिया कहाँ गयी ? और जैसे ही मन को खोल दिया तो पूरी दुनिया सामने आ गयी ! हमारी दृष्टि ही उल्टी हो गयी है - नजरों को बदला तो नजारे बदल गए , कश्ती का मुख मोड़ा तो किनारे बदल गएजैसे जैसे विवेक-प्रयोग की सूक्ष्मता बढ़ेगी वैसे वैसे यह बात समझ में आते जाएगी। क्या समझ में आएगा ? शरीर में हम नहीं है, हमारे कारण शरीर है। शरीर के कारण हम नहीं है, हमारे कारण शरीर और मन है। जैसे शरीर के साथ जब हमारा तादात्म्य नहीं रहता , जैसे गहरी नींद में और स्वप्न में तब भी तो हम बने रहते हैं न ? इसलिए जो तत्व देह और मन को प्रकाशित कर रहा है, वह देह-मन के द्वारा परिच्छिन्न नहीं हो रहा है। लेकिन हमारा ध्यान है -नामरूप में ! अपने स्वरुप में नहीं है।           Simple Technic for Open eyed Meditation : 'मन ' जिन्दा तभी तक रह सकता है जब इसको खुराक के रूप में कोई आकार (रूप)  और शब्द (नाम) दिया जाता रहे ! जबतक मन को नाम-रूप का आधार मिलता रहता है , तबतक मन जिन्दा रहता है। कैसे ? रूप अनेक है , अर्थात आकार अनेक है , और इन सभी आकारों को आधार (स्थान) देने वाला आकाश एक है, और निराकार है । मन को आकाश की धारणा कराते हैं। तंत्र-शास्त्र का एक ग्रन्थ है विज्ञान-भैरव। वहां ध्यान की प्रक्रिया इस प्रकार है -शांत बैठो और वहाँ बिल्कुल अँधेरा हो, ऑंखें खुली हों। ऑंखें हमेशा रूप-रंग को ही देखना चाहती हैं। अँधकार को ऑंखें नहीं देख सकतीं। फिर भी देखना हो रहा है ! जब देखना हो रहा है लेकिन देखने के लिए कोई वस्तु नहीं है ,वह जो अनुभूति है वो परमात्मा की अनुभूति है। 
         उसी प्रकार से शब्द को लें। शब्द अनेक है। 'राम,राम, राम -इन शब्दों का आधार .. शांति वो एक है। शब्द निर्माण होते रहते हैं , नष्ट हो जाते हैं। शांति निर्माण नहीं होती  नष्ट नहीं होती , अनादि -अनन्त है। पहले हमने अपने मन को दुनिया के शब्दों से हटाकर गुरु द्वारा प्रदत्त एवं निर्दिष्ट प्रक्रियानुसार 'अवतारवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्णदेव' के नाम के शब्दों पर मन को एकाग्र किया। फिर उस नाम से हट गए , फिर इस नाम का जो आधार है - शांति , उस पर मन को नियोजित कर दिया। जैसे ही अपने मन को शान्ति या निराकार पर लाये - तो मन गायब हो जाता है। लेकिन अपने होने का भान ज्यों-का-त्यों रहता है। श्री कृष्णमूर्ति इसको कहते थे - 'Object-less Awareness' अपना जो स्वरुप है, उसको मन-बुद्धि -इन्द्रियों के माध्यम से नहीं जाना जाता। यह प्रमाण-निरपेक्ष अनुभूति है। इसी बात को यहाँ - अखण्डं सच्चिदानन्दं महावाक्येन लक्ष्यते ॥ ४६॥ कहा जा रहा है ! तत् पद शोधनं और  त्वम् पद शोधनं : तद्पद शोधनं माने पहले भगवान को ढूँढ़ो।  ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥ पहले भगवान को ढूँढ़ो और 'त्वम्' पद के शोधनं का अर्थ है -शुद्धिकरणं ! हमारे मन पर पंचकोशों की उपाधि से तादतम्य करने की जो गंदगी लगी है , उसको साफ कर लें। अन्नमय ,प्राणमय , मनोमय, विज्ञानमय , आनन्दमय इन सभी कोशों का त्याग हो गया, अब जिसका त्याग नहीं हो सकता , जो बच रहता है वह परमात्मा (परम् सत्य) है ! और जो पकड़ में नहीं आता वो जगत है, पर हमलोग जगत को पकड़ना चाहते हैं, और परमात्मा का त्याग करना चाहते हैं। दोनों असम्भव है ! इसलिए तत्वमसि महावाक्य के द्वारा जीव-जगत -ईश्वर इन सब  उपाधियों का परित्याग करके अपने स्वरुप में निष्ठा प्राप्त करने का उपदेश दिया जाता है। क्योंकि अध्यारोप  एवं अपवाद की प्रक्रिया से 'तत्' और 'त्वम्' पदों के अर्थ का शोधन (यथार्थ बोध) भी सिद्ध हो जाता है। कैसे इसका उदाहरण देते हैं - सोऽयमित्यादिवाक्येषु विरोधात्तदिदन्त्वयोः । त्यागेन भागयोरेक आश्रयो लक्ष्यते यथा ॥ ४७॥  सोऽयं देवदत्त : सः अयं देवदत्तः  , में सः का अर्थ है -तत्कालिक देवदत्त और अयं का अर्थ है एतत्कालिक देवदत्त । दोनों को एक बतलाने के लिए तत्कालिक और एतत्कालिक विशेषण तो छूट जाएंगे पर देवदत्त विशेष्य बना रहेगा । यह वो देवदत्त है। This is that Devadutta, जिसमें दुरी , देरी और दूसरी ये भावना नहीं हो सकती है , वो परमात्मा है ! फिर हमें कभी ध्यान नहीं करना पड़ेगा , ऐसा प्रतीत होगा हर कदम पर माँ हाथ पकड़ कर आगे ले जा रही हैं ! ध्यान का तात्पर्य है - मैं को मिटाना। कर्म में , योग में और पाण्डित्य में मैं बना रहता है, केवल भक्ति में मैं समर्पित होता है। तब दूरी - नजदीकी , पराया -अपना , नाम-रूप इन सबसे हम मुक्त हो जाते हैं। तब जाकर हमको भगवान की लीला का दर्शन होता है, और भगवान की लीला में दुःख कहीं नहीं है, आनन्द ही आनन्द है।
अब कहते हैं -मायाविद्ये विहायैवमुपाधी परजीवयोः ।अखण्डं सच्चिदानन्दं परं ब्रह्मैव लक्ष्यते ॥ ४८॥  ईश्वर की माया और जीव की उपाधियों का त्याग कर दिया जाय, तो जो बचा रहता है वही परमात्मा है - ईश्वर की माया के उपाधि को हटाने का तात्पर्य है -भगवान श्रीरामकृष्णदेव के चरणों में समर्पित हो जाना। उनकी हाँ में हाँ मिलाओ तो आपको कभी दुःख होगा ही नहीं। परमात्मा के प्रति समर्पित होना माने -living at zero complaint level ! ' किसी से कोई गिला -शिकवा न हो , तो जीवन कितना सहज हो जाता है। जाड़े में ठंढ अच्छी लगे , गर्मी में गर्मी अच्छे लगे , वर्षा में बरसात अच्छी लगे , सरकारी नौकरों का करप्शन अच्छा लगे तब आपके दुःखी होने का कोई कारण नहीं रहेगा। 😀 जैसे ही व्यवस्था के कट्टर विरोधी हुए कि संसार शुरू हो जायेगा। इसीलिए गीता ७ /१४ में भगवान कहते हैं -  दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।  यह त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया, मेरी माया गुणमयी है, गुण माने रस्सी , बाँधने वाली है, बड़ी दुस्तर है। और रस्सी भी तीन प्रकार की है -सत्व-रजस तमस। इस रस्सी को तोड़ने का प्रयत्न मत करना , दुरत्या -माने इसके बाहर कोई (ज्ञानी भी) नहीं जा सकता। तो क्या करें ? -मामेव ये प्रपद्यन्ते। जो अपने आप को (अपने व्यष्टि अहं को मिटा सकते हैं, या विराट मैं में रपान्तरित कर लेते हैं) मुझमें समर्पित कर देते हैं, वही इस माया के परे जा सकते हैं। इसलिये जो सब धर्मों को छोड़कर अपने ही आत्मा मुझ मायापति परमेश्वर की ही सर्वात्मभाव से शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे सब भूतों को मोहित करने वाली इस माया से तर जाते हैं।  वे इसके पार हो जाते हैं अर्थात् संसारबन्धन से मुक्त हो जाते हैं।  मछुआरे के पैर से जो मछली चिपक गयी वह उसके फेंके जाल में नहीं फंसी , जो मछुआरे से दूर भागी  वे सब मछलियाँ जाल में फंस गयीं। जाल कभी फेंकने वाले के पैर को नहीं पकड़ सकता।  लहर समुद्र की गहराई नापना चाहती है, लेकिन अपने लेहरीपन को मिटाना नहीं चाहती। केवल अपनी अनुभूतियों का गहराई से विश्लेषण करो। आवृत्त चक्षु: अमृतत्व इच्छन् ' असली आनन्द बाहर नहीं, अपने भीतर है। जगत के साथ (महामण्डल के भाइयों के साथ खट-पट करके मत रहो -जो जैसा है बढ़िया है। वेदान्त का अध्यन तुमने किया है , या उसने (दी०सरकार) ने किया है ? मैंने किया है , तो समझ किसको होनी चाहिए ? Those who are at peace with themselves , they alone are at peace with the whole world . जो लोग स्वयं के साथ शांति की अवस्था में हैं, केवल वे ही पूरी दुनिया के साथ शांति की अवस्था में रह सकते हैं। किसी को कहो कि तुम सच्चिदानन्द हो , तो नहीं मानेगा , बहस करेगा।  कहो कि तुम बेवकूफ हो तो भी बहस करेगा कि इन्होने कैसे पहचाना ? 
         don't do meditation, PLAY meditation : पंचकोशों की उपाधि से अपने को हटा लेना - कैसे ? समझो मैं शरीर नहीं हूँ , तो इसका अनुभव क्या हुआ ? शरीर का यदि मान-अपमान हुआ तो मेरा नहीं हुआ। शरीर टूट गया तो मैं नहीं टुटा, शरीर का रंग काला तो मैं काला नहीं हूँ। चिंतन करो यदि मैं देह नहीं हूँ तो कौन हूँ ? शरीर का गुण-धर्म आकार है , तो मैं निराकार हूँ।  निराकार होने का अनुभव कैसा होगा ? आकाश निराकार है तो मैं आकाश हूँ- 'ख' हूँ। आकाश सभी आकारों को (M/F को) आधार देता है लकिन किसी के द्वारा प्रभावित नहीं होता। आकार अनेक है, आकाश एक है। सभी आकारों का जन्म-स्थिति -मृत्यु है, आकाश का जन्म-स्थिति -मृत्यु नहीं है। ..... इस अनुभव के लिए किसी इन्द्रियों की ,मन की आवश्यकता नहीं है। जो ज्यादा बुद्धिमान होते , वे बाल की खाल निकालते हैं, समझते नहीं कि बाल को खाल नहीं होती, और निकाले जा रहे हैं। यदि हम शरीर से भिन्न हैं, तो संसार के व्यक्तियों और वस्तुओं का संग्रह हम पर कोई प्रभाव नहीं डालेगा। किसी ने आपको कहा गदहा, तो दुःखी न होना उसने आपको (ब्रह्म को ) कम समझा है, बंद मुट्ठी सवा लाख की । 
           अब एक बड़ा विचित्र प्रश्न उठाते हैं , तत्त्वमसि वाक्य में किस ब्रह्म की बात हो रही है ? जो त्वम् है वो जीव है ,परमात्मा पर अविद्या की उपाधि से वो जीव बना परमात्मा । और वही परमात्मा माया की उपाधि से ईश्वर बना है। यदि हमने जीव की उपाधि का निराकरण कर लिया तो हम ईश्वर बनेंगे या परमात्मा बनेंगे? हम सविकल्प ब्रह्म की बात कर रहे हैं या निर्विकल्प ब्रह्म की बात कर रहे हैं ? सविकल्पस्य लक्ष्यत्वे लक्ष्यस्य स्यादवस्तुता ।निर्विकल्पस्य लक्ष्यत्वं न दृष्टं न च सम्भवि ॥ ४९॥ यदि सविकल्प ब्रह्म की बात कर रहे हैं , तो यही तो दुनिया है। निर्विकल्प वो जिसको लखाया नहीं जा सकता , जिसका न देखा जा सकता है। जहाँ मन,बुद्धि इन्द्रियों की पहुँच नहीं उसका अनुभव कैसे आएगा ? इसके उत्तर में कहते हैं, तुम्हारा प्रश्न गलत है -विकल्पो निर्विकल्पस्य सविकल्पस्य वा भवेत् । आद्ये व्याहतिरन्यत्रानवस्थात्माश्रयादयः ॥ ५०॥ निर्विकल्प में विकल्प कहाँ से आया ? इदं गुणक्रियाजातिद्रव्यसम्बन्धवस्तुषु । समन्तेन स्वरूपस्य सर्वमेतदितीष्यताम् ॥ ५१।  गुणक्रिया , जैसे मिठास किसी वस्तु का गुण होता है, रसगुल्ला मीठा है। मिठास उसका गुण है। ड्राइविंग एक क्रिया है, ड्राइविंग कोई वस्तु नहीं है। व्यक्ति के साथ गुण लगा दिया तो उसको ड्राइवर कहा। इसीप्रकार जब हम उपाधिया लगाएंगे तब उसको सविकल्प -निर्विकल्प कहेंगे। अन्यथा परमात्मा सविकल्प -निर्विकल्प के परे है। अब इसके निष्कर्ष पर आते हैं -विकल्पतदभावाभ्यामसंस्पृष्टात्मवस्तुनि । विकल्पितत्वलक्ष्यत्वसम्बन्धाद्यास्तु कल्पिताः ॥ ५२॥ ब्रह्म के लिए निर्विकल्प सविकल्प होना दोनों समान है।  जैसे आकाश के लिए पूर्व-पश्चिम दोनों सामान हैं। आकाश पर पूर्व-पश्चिम की कल्पना सूर्य -पृथ्वी की सापेक्षता से है। देह की उपाधि का त्याग करते ही गहरी नींद में दुनिया का सब बोझा हट जाता है। देहात्मभाव ही बोझा है। इसको त्याग देना साधना -है इत्थं वाक्यैस्तदर्थानुसन्धानं श्रवणं भवेत् । युक्त्या सम्भावितत्वानुसन्धानं मननन्तु तत् ॥ ५३॥ पहले बताया था आचार्य के पास जाकर उनका उपदेश श्रवण करना चाहिए। श्रवण किसको कहेंगे ? - इत्थं ,अभी तक जो हमने सुना है,तत्त्वमसि महावाक्य का श्रवण किया फिर उसके अर्थ का अनुसन्धान किया। संधान का अर्थ होता है जोड़ना , अनुसन्धान माने निरंतर जोड़ना। 
              अपने अब तक के जीवन की घटनाओं (Bh) पर विचार पूर्वक देखो - अपने जीवन का प्रत्येक अनुभव परमात्मा की उपलब्धि का साधन है। परमात्मा के सिवा कोई भी अनुभूति सम्भव नहीं है , कैम्प में माँ का चादर मांगना भी उनकी कृपा के बिना सम्भव नहीं है। हमलोग जगत के भोगों में , उपभोगों में , वस्तुओं में संग्रह में , सम्बन्धों में इतने फंस गए कि स्वरुप को भूल गए। यहाँ कहते हैं यदि ठीक से श्रवण किया-  तो इत्थं वाक्यैस्तदर्थानुसन्धानं श्रवणं भवेत् , उसी स्थान पर, उसी क्षण परमात्मा का प्राकट्य होता है , भगवान का दर्शन , वहां पहुंचकर या तब नहीं होता। परमात्मा नित्य उपलब्ध है -दिल के आईने में है तस्वीरें यार , जब जरा गर्दन झुकाई देख ली ! मूल गलती है अपने को शरीर मान लेना प्रज्ञाचक्षु महाराज सूरदास जी को जब हृदय में भगवान की लीला दिखती थी तब वे बाहर पद के रूप में प्रकट होते थे। उन्होंने भगवान (माँ काली) के दर्शन पहले बाहर नहीं किये थे अपने हृदय में किये थे। और हृदय में जो भगवान का दर्शन होता है, वही सत्य है। पहले भगवान ट्रेलर दिखाते हैं अपनी अनुभूति का। “सोइ जाने जेहि देहु जनाई। जानत तुमहिं तुमहिं होइ जाई।।” इस तरह भगवद्भक्ति से भगवत्कृपा और भगवान का ज्ञान होता है।भगवान अपनी कृपा से प्रकट होते हैं, अपनी साधना से खरीदे नहीं जाते। यह जो भक्ति का सिद्धांत है मैं को मिटाने का वही वेदान्त का भी है , अलग नहीं है। वेदान्त के मत से भी  "यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः” यह आत्मा व्याख्यान से नहीं मिलता, न बुद्धि से और न बहुत सुनने पढ़ने से। यह आत्मा जिसे चुनता है, जिस पर अनुग्रह करता है, उसी को प्राप्त होता है। इसलिए परमात्मा की अनुभूति आत्मस्वरूप से ही हो सकती है। - इत्थं वाक्यैस्तदर्थानुसन्धानं श्रवणं भवेत्। यदि इस प्रकार से 'तत्त्वमसि वाक्य के अर्थ का अनुसन्धान 'करें , तब उसको श्रवण कहते हैं। जब माता शबरी के पास भगवान राम पहुँच गए तो , उन्होंने अपना visiting card नहीं दिया था , माता शबरी ने देखते ही उनको पहचान लिया। जो अनुभूति प्रमाण निरपेक्ष होती है , वो परमात्मा का प्राकट्य है। सुनने के बाद मनन किसको कहते हैं युक्त्या सम्भावितत्वानुसन्धानं मननन्तु तत् - जब तक Bh ब्रह्मज्ञान = भगवान की कृपा में संदेह रहेगा तत तक वो ज्ञान अपूर्ण रहेगा।  पंचदशी शास्त्र की यही सुंदरता है -जैसे डिस्टेम्पर करने के पहले दीवाल को खरोच-खरोच कर कचरा गिराया जाता है, फिर pop भरकर तब पेण्ट किया जाता है।  उसी प्रकार तत्व को लेकर हमारे मन में जो जो शंकाएं उठ सकती हैं, उन सभी को पंचदशीकार ने उठायी हैं, और उनको खरोंच खरोंच कर हटा लेना तब उस पर ठाकुर-माँ -स्वामीजी की कृपा का रंग चढ़ेगा। 
      जोक्स - नहीं तो गंगा गए तो गंगादास , यमुना गए तो यमुनादास , और घर में आये तो फिर वही देवदास! ऐसे जो छुईमुई होते हैं, उसका कारण यही है कि उनकी बैठक पक्की नहीं है। तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः। वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2.61।। कर्मयोगी साधक उन सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें करके मेरे परायण होकर बैठे; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है।केवल श्रवण करने से कुछ नहीं होगा , श्रवण के पश्चात बैठकर उस पर निरंतर मनन करना आवश्यक है। मनन कैसे करें ? शास्त्रों में और आचार्य ने जो उपदेश दिया - श्रद्धा , विवेक और चारपुरुषार्थ से जीवन की सार्थकता उसको अपने जीवन में कैसे लागू करेंगे - महावाक्यों के प्रति जो Positive attitude है, हमारा जो सकारात्मक रवैया है , उसको कहते हैं मननं। यदि 1 घंटा श्रवण किया तो 22 . 5 घंटा मनन होता है। तब यदि आधे घंटे में 5 मिनट भी ध्यान लगा तो बहुत बड़ी उपलब्धि हो गयी। ऐसा निरंतर मनन चलता रहा, तो जैसा भक्ति शास्त्र में कहते हैं, मैं जहाँ देखूं मुझको हर जगह कृष्ण- कृष्ण दिखाई देते हैं, इसीको वेदान्त में मनन कहते हैं। (हर प्रकार की अनुभूति में - जो तत्व को पहचानने की क्षमता है, उस क्षमता को मनन कहते हैं --Bh , क्जन,अभ ,रन्द ,पद, अप, अ,सु में भी ठाकुर की लीला दिखती है) बुद्धि को जितना हम तीक्ष्ण रखेंगे उतना हम सजग होकर साधना करेंगे। तत्व के प्रति प्रेम होगा तो अपनेआप मनन होने लगेगा। 
          वेदान्त की तीसरी अन्तरंग साधना को कहते हैं -निदिध्यासन। ताभ्यां निर्विचिकित्सेऽर्थे चेतसःस्थापितस्य यत् । एकतानत्वमेतद्धि निदिध्यासनमुच्यते ॥ ५४॥ वृत्तियों की एकतानता - लगन से लग गए मुन्ना भाई ! इस एकतानता के विषय में तुलसीदास जी लिखते हैं - कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ।। लोभी को 24 घंटे बस पैसा कमाने की एक ही धुन लगी रहती है। उसके लिए समय, स्थान आदि किसी का भी बंधन नहीं होता। जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे राम जी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥ [पुत्र सपूत  वही होता है जो बाप की नहीं सुनता !] ॐ भद्रं कर्णेभिः। ... बात हो रही है , तो केवल तत्व की , दर्शन हो रहा है तो केवल तत्व का , जब हमारी वृत्ति इसी आनंद में मस्त हो रही हो तब इसी वृत्ति की एकतानता को कहते हैं-निदिध्यासन। जब तक निदिध्यासन नहीं होगा तबतक ध्यान की प्रक्रिया शुरू नहीं होती है। जब निदिध्यासन परिपक्व हो जाता है, तब मनुष्य ध्यान करता नहीं , ध्यान लग जाता है। जैसे प्यार  किया नहीं जाता , हो जाता है। वैसे ही ध्यान किया नहीं जाता हो जाता है
प्यार करने और होने में क्या फर्क है ? लड़का लड़की से प्यार करता है, और गिरता है। माँ -बेटे का प्यार होता है। माँ बेटे से प्यार करती नहीं है।  जो होता है उसमें 'मैं' नहीं होता। जो करता है, उसमें मैं होता है। जब हृदय में भगवान के प्रति प्रेम प्रकट होगा तब , उसमें 'मैं भगत हूँ' इस अहं  का निर्माण नहीं होगा।
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Panchadashi ch 1 Hindi Talk 6 of 6 @ Jaipur 2012
  पंचदशी के पंचकोश-विवेक पर दिए 54 वें श्लोक तक का सारसंक्षेप : पहले तो यदि हमने  गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए संसार में ठीक से रह लिया। तो हम 50 के बाद हम स्वाभाविक रूप से संसार से उपरत हो जाते हैं, frustrate या हताश होकर के नहीं , समझदारी के साथ। मनुष्य जगत से उपरत दो कारणों से हो सकता है, एक तो (सुशांतसिंह राजपूत की तरह)  frustration , निराशा , कुंठा या पराजय के कारण।  दूसरा Wisdom के कारण विवेकज-ज्ञान , प्रज्ञता , या बुद्धिमत्ता के कारण। जब व्यक्ति अपने जीवन की अनुभूतियों से यह समझ लेता है कि -निर्वेद माया  : संसार की क्षणभंगुरता तथा नश्वरता के कारण माया-मोह से उत्पन्न वैराग्य की भावना को निर्वेद कहते हैं। जब व्यक्ति अपने जीवन की अनुभूतियों से नाम-रूप की नश्वरता को समझ लेता है , तो उसके जीवन में वैराग्य सहज प्रकट हो जाता है। जागने का तात्पर्य ज्ञान से प्रबुद्ध होना है । सोना का लक्ष्यार्थ अज्ञान में डूबा रहना है । तुलसीदास जी ने सूत्र बताया है - धर्म ते विरति योग ते ग्याना।  ग्यान मोक्षप्रद वेद बखाना। धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया है। यदि हमने धर्म का जीवन जीया है , तो हमारे हृदय में वैराग्य का प्रकट होना स्वाभाविक है। धर्म क्या बताता है ? कर्म का नियम अटल है, जैसा कर्म होगा उसी के अनुसार पिछला जन्म अगला जन्म होगा। पुनर्जन्म , इसका अर्थ क्या निकला ? पहले भी हम थे बाद में भी हम रहेंगे।  [जब तक कर्मयोग (गृहस्थ धर्म का पालन) न होगा तब तक (योग ते ग्याना) ज्ञान न उत्पन्न होगा, और जब तक ज्ञान न होगा, तब तक मोक्ष न होगा। "धर्म" (विद्या) वह है..जो बांधता नहीं..अपितु मुक्त करता है..! "योग" वह है..जो "धर्म" को जीवन से जोड़ता है..! "ज्ञान" वह है..जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त कर देता है..!] तो ये दुनिया जो हमको सत्य लगती है, वो तब लगती है, जब हम अपने स्थूल शरीर को ही एकमात्र सत्य मान लेते हैं। इसलिए धर्म का जीवन यदि मेरे हृदय में वैराग्य प्रकट करता हो , तो यह पहचान है कि हमने धर्म का जीवन जिया है। हमने अपने गृहस्थ धर्म या कर्मयोग का पालन सही रूप से किया है। अब ऐसे व्यक्ति को आचार्य-परम्परा प्रशिक्षित नेता /शिक्षक/गुरु के पास जाकर Be and Make परम्परा में वेदान्त का प्रशिक्षण -अर्थात श्रवण , मनन और निदिध्यासन का प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए। क्योंकि अब उसको साधारण लोगों की तरह  पुष्टिमार्ग के (इन्द्रियग्राह्य जप-ध्यान के ) जीवन जीने में आनंद नहीं आता। तो ये अच्छा लक्षण है , बुरा नहीं। जब फल परिपक्व हो जाता है ,तो पेड़ से अपनेआप अलग हो जाता है न ? इसी प्रकार से जैसे जैसे हम अपने स्वरुप के पास पहुँचेंगे वैसे वैसे नाम-रूप के भोगों के प्रति हमारी आसक्ति खत्म होती जाती है। अब क्या करना है ? दो option या विकल्प है - या तो depressed उदासीन होकर के frustration में चले जाओ। या पहचानना है कि ये अच्छा लक्षण है, अब हमको यहाँ से अपने जीवन को मोड़ देना है - अधोमुखी से उर्ध्वमुखी यात्रा का प्रारम्भ करना है। अब सत्संग करो (कैम्प में प्रशिक्षण प्राप्त करो 5 अभ्यास में लगन से लगो।) ऐसा करने से - श्रवण, मनन , निदिध्यासन करने से अपने बारे में , ईश्वर के बारे में , जगत के बारे में , साधना के बारे में जो जो गलत धारणायें हैं, वे स्वतः समाप्त होने लगेंगी। यदि अभी तक मैंने स्वयं को केवल एक शरीर (M/F) समझकर जो कुछ भी किया था , वो सब व्यर्थ प्रतीत होने लगता है। अपने बारे में , ईश्वर के बारे में , जगत के बारे में , और साधना के बारे में इन चार प्रकार की गलत धारणाओं - को तोड़ने के लिए आचार्य शंकर ने भज-गोविन्दम या  मोह-मुदगर की रचना की है। मोह-मुदगर माने हमारे मोह पर प्रहार करने वाले स्त्रोत्र। जहाँ जाने से हमारे मोह (सम्मोहित अवस्था ) पर प्रहार होता है, उसको पाठचक्र या सत्संग कहते हैं। [ भाभी जी घर पर हैं ? के पात्र सक्सेना जी को थप्पड़ अच्छा क्यों लगता है?लंकिनी की तरह हनुमानजी का घूँसा पड़ने से सत्संग प्राप्त होता है ] सत्संग में जाने से हमारी जो गलत धारणायें थीं - हम देह हैं, ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं , वैश्य है , शूद्र है , अमीर है गरीब है , हिन्दू है मुसलमान है , married है unmarried है ये सब जो धारणायें हैं, वे केवल देहात्म भाव को लेकर ही होती हैं। और जबतक देहात्मभाव बना रहेगा , इन गलत धारणाओं का बोझ हमारे सर नहीं उतरेगा। इसलिए पहले किसी चपरास प्राप्त नेता के मुख से श्रवण करना आवश्यक है।  और जिस व्यक्ति को श्रवण में आनंद आने लग जाता है , उसकी गलत धारणायें आपने आप टूटने लगती हैं। एक ही विचार को लेकर उस पर जब दिनरात मनन करने की दृष्टि विकसित हो जाती है, तब आपको हर जगह वही ब्रह्म नजर आता है। जैसे तुलसीदास जी का मनन सूत्र - ' लोभी ही प्रिय जिमि दाम ' हमने कितनी बार पढ़ा है, लेकिन उसका प्रभाव हमारे जीवन से दिखना चाहिए। जब हम श्रवण के बाद यदि लगातार मनन कर रहे हों तो हमें अपने जीवन की  प्रत्येक अनुभूति (Bh -कैम्प) में ठाकुर -माँ -स्वामीजी का अनुग्रह दिखेगा। मन और इन्द्रियों के माध्यम से जो भी अनुभूतियाँ प्राप्त हो रही हैं, वे सत्य प्रतीत होती हैं, लेकिन होती नहीं। जब यह धारणा हृदय में पक्की होकर बैठ जाएगी तब , जगत की किसी घटना के द्वारा हम प्रभावित नहीं होंगे। तब जाकर तीसरी स्थिति आती है -निदिध्यासन। माने हमारे वृत्ति की तैल-धारवत एकतानता ! केवल परम् सत्य ब्रह्म के अन्वेषण में लगे हुए हैं इसीको कहते हैं -आत्मचिंतन या आत्मविश्लेषण, जहाँ अनात्म चिंतन का अभाव हो जाता है ! यहाँ ५४ वे श्लोक के 'निर्विचिकित्सेऽर्थे '  इस प्रकार 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यों के श्रवण-मनन द्वारा जीव-ब्रह्म एकत्व के बारे में कोई सन्देह नहीं रहा मन में। तब हमारा मन हमारी बुद्धि हमारी वृत्तियाँ केवल तत्व-चिंतन में ही लगी रहती हैं। जो पैसे खाने में लगें हैं, उनको थोड़े ऐसा लगता है , कि मैं केवल office hours में ही पैसे खाता हूँ , घर पर नहीं खाता हूँ ? उसी प्रकार जो आत्मचिंतन में लगे हैं, उनको अपने जीवन की प्रत्येक अनुभूति में माँ जगदम्बा के कृपा की अनुभूति  होती है महाराज !केनोपनिषद का मंत्र है -'प्रतिबोध विदितं मतं' परमात्मा की उपलब्धि प्रतिबोध= प्रत्येक अनुभूति में है। हमारी प्रत्येक अनुभूति में परमात्मा (ब्रह्म) ही प्रकट हो रहा है !
   जब एकबार मन में ये बात click हो जाती है , तब आपके अन्तःकरण से पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म , मैं -तूँ , ये जो सबका सब द्वंद्व और द्वैत का संसार है, हमेशा के लिए मिट जाता है। ऐसा निदिध्यासन दृढ़ होने के बाद हम ध्यान की प्रक्रिया को समझते हैं -श्लोक 55 को सुनकर आपको बड़ा आनंद आएगा - ध्यातृध्याने परित्यज्य क्रमाद्ध्येयैकगोचरम् । निर्वातदीपवच्चित्तं समाधिरभिधीयते ॥ ५५॥ अब समाधि किसको कहते है ? समाधि में या किसी भी प्रकार की अनुभूति के तीन अंग होते हैं - ध्यान का कर्ता , ध्यान की प्रक्रिया और ध्यान की वस्तु ! यहाँ कहा जा रहा है कि जब ध्यान कर्ता और ध्यान की प्रक्रिया समाप्त हो गयी , तब सिर्फ ध्यान की वस्तु ही बची रहती है। सोने के समय जब हम बिस्तर पर गए , तो मन में जप चलना शुरू हुआ - I want to sleep, I want to sleep, I want to sleep - मुझे नींद चाहिए , मुझे नींद चाहिए , मुझे नींद चाहिए ! थोड़ी देर बात  'I' और 'want' , 'मैं' और 'चाह' जब दोनों गायब हो जाते हैं , उसके बाद जो बचता है -उसीको 'नींद' कहते हैं ? इसी प्रकार से जब ध्यान करने वाला और ध्यान की प्रक्रिया -  ध्यातृध्याने परित्यज्य , जब दोनों समाप्त हो जाता है तब जो बचता है -वो परमात्मा (ब्रह्म, सच्चिदानन्द) है ! और परमात्मा के प्राकट्य का पहला लक्षण है कि जीवन में सहजता आ जाती है। महर्षि पतंजलि का एक बहुत सुन्दर सूत्र [योग सूत्र २-४७ ]  है - “प्रयत्न-शैथिल्य-अनंत-समाप्तिभ्याम”। प्रयत्न शैथिल्य—अर्थात प्रयास की शिथिलता। जितना हमारे जीवन में प्रयत्न होगा , उतना हम अपने साक्षी स्वरुप (witness consciousness) से दूर हैं ! जितना हम प्रयत्न रहित होंगे उतना हम normal (= स्वस्थ -अपने स्वरूप में स्थित) हैं ! योग के द्वारा अप्रयत्न होने की कला सीखने से व्यक्ति को अनंत के साथ पूरी तरह से एकाकार होने का अनुभव मिलता है। —पहली बात है, यदि तुम आसन की सिद्धि चाहते हो, जिसे पतंजलि आसन कहते हैं सुखद और स्थिरजब जीवन में सहजता आ जाती है, तब हम किसी के सामने कुछ भी prove करने या साबित करने की चेष्टा नहीं करते। आसन में बैठने से पहले प्रसन्न-चित्त होना चाहिए। प्रत्याहार-धारणा की प्रक्रिया को बोझ नहीं समझना चाहिए। मनःसंयोग के लिए हम कहाँ बैठे है ?
         सुखासन का अर्थहम बच्चा होकर बैठे हैं, माँ सारदा देवी की गोद में। मतलब माँ मेरे साथ तब कोई डर नहीं है। बहुतों को मन को देखने से डर लगता है। फिर हमारे हृदय में ठाकुर विराजमान हैं , वे हमको प्रेरणा देंगे आगे क्या करना है, या नहीं करना है ? दूसरी बात इस समय हम - Mr. Nobody है ! माने हमने पूरे भूतकाल को दफ़ना दिया है - हम पिता-पुत्र, पति-पत्नी कुछ नहीं है ! जब हम मनःसंयोग के लिये बैठे हैं , तब हमारी उम्र एक क्षण की होती है , जैसे दूध पीते बच्चे की होती है। जब कुछ भी नहीं बनते , तब अगला चरण होता है, ध्यान के बाद, 15 मिनट बाद  हम क्या करेंगे ?... इसका कोई संकल्प नहीं लेना। ये सब बातें जब हो जाती हैं , तब मैं मनःसंयोग करने वाला हूँ यह भ्रान्ति मिट जाती है। जब नींद चाहने वाला मैं नहीं होगा तो चाह कहाँ होगी ? तब क्रमाद्ध्येयैकगोचरम् - तब ध्येय वस्तु ही एकमात्र बची रहेगी। यह अपने इन्द्रिय निरपेक्ष मन बुद्धि अपने होने का जो भान है , वह ब्रह्म है। निस्तरंग समुद्रवत - हम जो पहले मन के रूप में जीते थे वही मन अब चैतन्य सरूप हो गया। भगवान शंकराचार्य कहते हैं कि  चित्तं चित् विजानीयात् तकार-रहितं यदा । तकारो विषयाध्यास: जपारागौ यथा मणौ  यदि इस चित्त में से तकार याने अन्यत्व की कल्पना हटा दें तो वह चित् ही है। हमारा चित्त चैतन्य ही है यदि इसमें तकार माने विषयों को हटा दिया जाय। चित्त जिसे कहा जाता है, उस वस्तु के दो अवयव होते हैं, पहला चेतना (ध्यान-pure consciousness) और दूसरा वृत्ति (अहं)  । जब वृत्ति का निरोध हो जाता है, तो चित्त त-कार  से रहित चेतन-मात्र या चेतना-मात्र रहता है, जहाँ दृष्टा-दृश्य का भेद विलीन हो जाता है । it is unbecoming not becoming spiritual! फिर हमारा चित्त कैसा हो जाता है ?-निर्वात दीप वत चित्तं - निर्वात दीप की शिखा के समान स्थिर हो जाता है।इसमें हिलने की क्षमता तो है , लेकिन हिलने का कारण - हवा , नहीं रहने से वह स्थिर रहती है। नेता जड़ नहीं होते हैं, हर क्षण alert यानि चौकन्ना रहते हैं कि, इतने सावधान कि अन्तःकरण में एक भी Bh वृत्ति का प्रभाव नहीं हो ! समाधिरभिधीयते --चित्त की ऐसी अवस्था को समाधी कहते हैं। समाधि दो प्रकार की होती है - जड़ समाधि , जो बचपन में स्वामीजी को खेल-खेल में हुई थी कि उनके शरीर से सांप भी चला गया तो उनको कुछ पता नहीं चला। चेतन समाधि को भगवान गीता २.५५ में बताते हैं -  प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।श्री भगवान् ने कहा -- हे पार्थ, जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है; उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है। जैसे लहरों से रहित जो समुद्र है,वैसे ही कामना से रहित अन्तःकरण को ही परमात्मा कहते हैं। कथा उपनिषद ( कठोपनिषद) का श्लोक है -यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥   जब हृदय में वास करने वाली सारी इच्छाएं नष्ट हो जाती हैं तब यह नश्वर मनुष्य अमरत्व को प्राप्त कर लेता है और ब्रह्म स्वरूप हो जाता है ! जिसके हृदय में एक भी कामना का उदय नहीं होता , वह मनुष्य जीवित अवस्था में ही ब्रह्मलीन हो गया है -परमात्मा में मिल गया है। इस प्रकार की समाधि को चेतन समाधि कहते हैं। जड़ समाधि कइयों को बड़ा attract या आकर्षित करती है। जगत में सभी प्रकार की अनुभूतियाँ हो रही हैं - लेकिन अन्तःकरण कैसा है -दर्पण तुल्य ! दर्पण में सभी प्रकार के प्रिबिम्ब उभरते हैं , लेकिन एक भी प्रतिबिम्ब दर्पण को प्रभावित नहीं करता। अग्नि का प्रतिबिम्ब पड़े तो दर्पण जलता नहीं , जल  का प्रतिबिम्ब पड़े तो दर्पण गीला नहीं होता। वायु का प्रतिबिम्ब पड़े तो उड़ नहीं जाता। जिस ज्ञान में अनुभूतियाँ हैं , लेकिन किसी भी अनुभूति का कोई प्रभाव नहीं है , उसको चैतन्य समाधि कहते हैं। ऐसे नेता ध्यान करते नहीं ध्यान में जीते हैं। ध्यान में जीने की technics क्या हैं ? दुःखेषु अनुद्विग्न-मनाः, सुखेषु विगत-स्पृहः, वीत-राग-भय-क्रोधः मुनिः स्थितधीः उच्यते।2.56। दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है।  जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं। ऐसा जिसका जीवन है, वो समाधि में जी रहा है। वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है। आधे घंटे बैठ लेना यदि समाधि तो सभी भैसें महासमाधि में हैं ?  इसी देह से जब विकारी प्रकट होता है तब उसको जीव कहते हैं, और इसी देह से जब परमात्मा प्रकट होता है तब उसको वेदांत परम्परा प्रशिक्षित नेता /जीवनमुक्त शिक्षक कहते हैं। परमात्मा कहीं दूर में नहीं बैठा है , वो हृदय में बैठा suffocate हो रहा है , वो बाहर प्रकट होना चाहता है - और हम उसको कहते हैं -चुप यार इतनी जल्दी क्या पड़ी है ? उसको प्रकट होने दो तब चेतन समाधि समझ में आ जाएगी !
              अब कैसे पता चलेगा कि हमारी समाधि है या गहरी नींद तो नहीं है ?  वृत्तयस्तु तदानीमज्ञाता अप्यात्मगोचराः । स्मरणादनुमीयन्ते व्युत्थितस्य समुत्थितात् ॥ ५६॥ योग शास्त्र में नींद  परिभाषा है - अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा ॥ १/१०॥ शब्दार्थ-  अभाव की प्रतीति को आश्रय करने वाली; वृत्तिः =वृत्ति; निद्रा=निद्रा है। जो वृत्ति अभाव को अपना विषय बनाती है , उसको कहते हैं -निद्रा। इसमें ध्यान वृत्तियों पर है परमात्मा पर नहीं है। वेदान्त में कहा -जो जाग्रत , स्वप्न के अभाव को प्रकाशित करता है, लेकिन खुद जिसका अभाव नहीं है , वो निद्रा है। योग में प्रकृति को महत्व दिया है , वेदान्त में चैतन्य को महत्व दिया है। समाधि के बाद अनुभूतियों का स्मरण होता है। जगत में रहो लेकिन किसी भी कारण से विक्षेपित न होना , (t की मूर्ति कोई फेंक भी दे ? वहां से उठ जाना )  प्रकृति में तो विकृति होगी ही। वृत्तीनामनुवृत्तिस्तु प्रयत्नात्प्रथमादपि ।
अदृष्टासकृदभ्याससंस्कारः सचिराद्भवेत् ॥ ५७॥ ब्रह्माकारा वृत्ति को अखण्ड रखने के लिए पहले तो व्यक्ति को प्रयत्न करना पड़ता है। भगवान के नाम का कीर्तन करने से , भगवान के नाम का रस हृदय में प्रकट होता है, ये कल्पना नहीं है। लेकिन वो कीर्तन चॉकलेट खाने जैसे चाव से लेना होगा। [जोक्स -आयुर्वेद में कूटजारिष्ट , अशोकारिष्ट जैसी इतनी कड़वी दवा दे देंगे कि एक बोतल के बाद आप बोल देंगे मैं ठीक हो गया।] मन का नियत्रण दो प्रकार से होता है -  Discipline the mind , Educate the mind : मन को अनुशासित करें, मन को शिक्षित करें।
         कृपया ध्यान दें आध्यात्मिक मार्ग में कोई शॉर्टकट नहीं है : फिर अदृष्ट - पूर्व जन्म के सद्कर्मों का फल मन शांत रहता हैं , पूर्वजन्म के दुष्कर्मों का फल मन अत्यधिक विक्षेपित रहता है। मनुष्य देह लेने से पहले जो व्यक्ति नरक में था और फिर मनुष्य देह में आया। और जो  व्यक्ति पहले स्वर्ग में था, और फिर मनुष्य देह में आया , तो दोनों में फर्क क्या होगा ? जो नर्क से आया है, वो सब पर भौंकता रहेगा , चिल्लाता रहेगा , क्योंकि वही उसकी पुरानी आदत है। और जो पुण्य क्षय होने के बाद स्वर्ग से आया है , वो शांत रहेगा , प्रसन्न रहेगा। शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41।। योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को प्राप्त होकर वहाँ दीर्घकाल तक वास करके शुद्ध आचरण वाले श्रीमन्त (धनवान) पुरुषों के घर में जन्म लेता है। हमको अपना उद्धार करना है , जगत मेरे आसरे नहीं बैठा है। उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। There is no shortcut in the spiritual path, please! 
         मन की ऐसी अवस्था को प्राप्त करना हमारे जीवन का प्राथमिक लक्ष्य है -   यथा दीपो निवातस्थ इत्यादिभिरनेकधा ।भगवानिममेवार्थमर्जुनाय न्यरूपयत् ॥ ५८॥ छठे अध्याय में भगवान ने अर्जुन को यही उपदेश दिया है -यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।6.19।।जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगी के चित्त की वैसी ही उपमा कही गयी है।। 
अब इसके आगे की बात कहते हैं - अनादाविह संसारे सञ्चिताः कर्मकोटयः । अनेन विलयं यान्ति शुद्धो धर्मो विवर्धते ॥ ५९॥ मनुष्य के तीन अवयव हैं, जिस अवयव faculty का जो कार्य है , उस  कार्य का अभ्यास बंद कर दो तो वे काम करना बंद कर देते हैं।  कम्प्यूटर पर ब्लॉग लिखने के पहले दादा की समस्त पुस्तकों का अनुवाद मुझे अपने हाथ से लिखकर करना पड़ता था। लैपटॉप आ गया तो अब इस हाथ से लिखने का अभ्यास छूट गया। रमन महर्षि 18 वर्ष तक मौन साधना के बाद पहली बार चेष्टा करके भी बोल नहीं पाए इसको medical term में कहते हैं -unused atrophy.  (gradually decline in effectiveness or vigor due to under-use or neglect.) उसी प्रकार ध्यान की एकतानता लम्बे समय तक चली तो हमारे मन को जो बेमतलब पटर -पटर करने की आदत, बेमतलब विचार करने की आदत है, वो  छूट जाएगी। ये सोचने की आदत बचपन से ही लगी हुई है। दर्पण तुल्य मन से समाधि का अभ्यास होता है। जन्मजन्मांतर के अभ्यास से जो करोड़ो करोड़ कर्म-संस्कार संचित हो गए हैं वे सब निर्विकल्प समाधि के अभ्यास से नष्ट हो जाते है। इसका अभ्यास तुम करोगे नहीं , अपने सुख के लिए कहता हूँ - 'स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा'! अपने भूत काल के बारे में कभी कुछ मत कहो , दूसरों से उनके भूत काल के विषय में कुछ न पूछो। और अब कुछ बोलके दिखाओ - कुछ बोल ही नहीं सकोगे। वर्तमान में आने के बाद सब होना बंद जाता है। इसको मनोराज्य या habitual thinking कहते हैं, वह शांत हो जाता है। मनः संयोग करते समय KG-1 में मेरे साथ कल्पना नाम की एक लड़की पढ़ती थी , वो अभी कहाँ होगी ? ये चिंता क्यों है ? विचारों का व्यसन समाप्त होने से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। योग-विद लोग (ब्रह्मवेत्ता) इस समाधि को धर्म-मेघ समाधि कहते हैं - धर्ममेघमिमं प्राहुः समाधिं योगवित्तमाः । वर्षत्येष यतो धर्मामृतधाराः सहस्रशः ॥ ६०॥ धर्ममेघ समाधि में स्थित होकर हम नित्य-निरंतर उस अमृत का स्वाद लेते रहते हैं , जो केवल वर्तमान में ही होता है। केवल जो वर्तमान होगा , भूत -भविष्य के रहित तो उस वर्तमान को परमात्मा कहते हैं ! योग वेत्ताओं में श्रेष्ठ तत्त्वज्ञ इस निर्विकल्प समाधि को धर्ममेघ कहते हैं, क्यों कि यह धर्मरूप अमृत की हजारों धाराओं को बरसाने लगती है। क्योंकि अन्य समय हम वृत्तियों की कार में बैठकर भटकने लग जाते हैं। 
   साधना क्या है ? केवल वर्तमान में रहो ! विचार आते हैं , देश के काल के वस्तु के। इन तीनों विचारों में काल के विचार बड़े प्रबल होते हैं --" जाने कहाँ गये वो दिन ?" काली जी काल को खा गयीं !तुम तो जिन्दा हो? हमेशा पुरानी -पुरानी बातें habitual thinking, इससे अपने आप को बचाओ। इसको कहते हैं धर्ममेघ समाधि। यह अमृत धारा हजारों प्रकार से जीवन में प्रकट होती है। अमुना वासनाजाले निःशेषं प्रविलापिते । समूलोन्मूलिते पुण्यपापाख्ये कर्म सञ्चये ॥ ६१॥ जब यह धर्ममेघ समाधि हमेशा बनी रहती है , तब जितना भी वासना जाल है ; वे समस्त संस्कार हमेशा के लिए मिट जाते हैं। दो ही संस्कार चित्त में होते हैं - एक हैं पुण्य के संस्कार , दूसरे हैं पाप के संस्कार ! चरित्र-निर्माण पद्धति ये है - पापसंस्करों से निवृत्त होने के पुण्य कर्म करें। पुण्य -संस्कारों निवृत्त होने के लिए वो सभी के सभी माँ सारदा देवी के चरणों में अर्पित कर दें!  नहीं तो हम भी लोकेषणा में फंस कर डिंग हाकते हुए कहेंगे - मैं तो सुबह उठकर जल्दी नहाधोकर मेडिटेशन करता ,हूँ , मैं लोगों के जैसा थोड़े हूँ , मैं मास-मच्छी नहीं खाता हूँ ! मैं तो भेड़ों के साथ घास चरने निकल जाता हूँ , मैं, मैं, मैं यही भेंड़त्व है ! अपनी अच्छाई को लेकर अन्य को बुरा कहना , इससे बड़ा माया का trap और कोई नहीं है।   " कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ??16.15।। "मैं धनवान् और श्रेष्ठकुल में जन्मा हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है?",'मैं यज्ञ करूंगा', 'मैं दान दूँगा', 'मैं मौज करूँगा' - इस प्रकार के अज्ञान से वे मोहित होते हैं। जैसे पाप बंधन का कारण है , वैसे पुण्य भी बंधन का कारण है। ये सब जुड़वे होते हैं , जगत में केवल पाप नहीं हो सकता, जगत में केवल पुण्य भी नहीं हो सकता। एक सिक्के में दो साइड होनी ही चाहिए। जन्म-मृत्यु , पाप-पुण्य , धर्म -अधर्म हमेशा साथ -साथ चलते हैं, हमको इन सबके परे जाना है। 
हम सबका स्वरुप सच्चिदानन्द होते हुए भी हम सबको इसका भान क्यों नहीं होता ? इसका कारण पूर्वकर्मों के कुछ प्रतिबन्धक रहते हैं। वाक्यमप्रतिबद्धं सत्प्राक्परोक्षावभासिते । करामलकवद्बोधमपरोक्षं प्रसूयते ॥ ६२॥ प्रतिबन्ध क्या है > अविद्या , काम और कर्म ! हमने पंचकोश -विवेक करके अपने यथार्थ स्वरुप को पहचाना नहीं है, इसके कारण इच्छायें होती हैं, इसीलिए कर्म में फंसे रहते रहते हैं। इसके कारण महावाक्य तत्त्वमसि का उपदेश हमारे हृदय में नहीं उतरता था , उसका कारण यही था कि तब हमारा अन्तःकरण उस उपदेश को ग्रहण करने योग्य नहीं था हमारा मन disciplined and educated नहीं था ! इस लीडरशिप प्रशिक्षण में किसी प्रकार का reservation quota नहीं है। We have to deserve it ! हमें इस ज्ञान को ग्रहण करने योग्य बनना होगा। जैसे जैसे मन शुद्ध होता जायेगा , महावाक्यों का अर्थ इतना स्पष्ट होता जायेगा, जैसे हाथ पर किसीने आँवले का फल रख दिया हो
         परोक्ष ज्ञान किसे कहते है ?परोक्षं ब्रह्मविज्ञानं शाब्दं देशिकपूर्वकम् । बुद्धिपूर्वकृतं पापं कृत्स्नं दहति वह्निवत् ॥ ६३॥ परोक्ष ज्ञान का अर्थ ये है कि जो महावाक्य हमने अपने नेता/आचार्य {C-IN-C} के मुख से सुना है , लेकिन हमें उसका अभी (बोध) अनुभव नहीं हुआ है। केवल सुना है ,और गुरुवाक्य में मेरी श्रद्धा इतनी जबरदस्त है कि उसपर निष्ठा भी होने लगी है। यह परोक्ष ज्ञान पहले हमने जो जानबूझकर अच्छे-बुरे कर्म किये थे , उन कर्मों से छुटकारा दिलाता हैबुद्धिपूर्वकृतं पापं कृत्स्नं दहति वह्निवत्' - बुद्धिपूर्वक माने जानबूझकर जो भी बुरे कर्म किया है , वे सभी इस परोक्ष ज्ञान से धीरे -धीरे जलने लग जाते हैं। भूतकाल में किये गए पापकर्मों से छुटकारा पाने की एक ही सम्भावना है कि भूतकाल (पूर्वजन्म) को भूल जाओ। You can't undo your past ! आप अपने अतीत को पूर्ववत नहीं कर सकते! तो क्या कर सकते हैं ? जितना वर्तमानकाल में रहना शुरू करेंगे , उतना पुरानी बातें धीरे -धीरे भूल जायेंगे। 1.01.51 और पूर्व जन्म में किये बुरे कर्मों की ग्लानि का बोझ उतर जायेगा।  श्रवण-मनन -बिदिध्यासन करते रहो तो जो पुरानी गलतियाँ हैं, उससे हम बाहर निकलना शुरू हो जायेंगे। जगत कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता मैंने अपने जीवन में आज तक एक भी गलत काम नहीं किया है। जो कहता है , वो झूठ कहता है। और यही ज्ञान जब अपरोक्षानुभूति में बदल जाता है , तब अपरोक्षात्मविज्ञानं शाब्दं देशिकपूर्वकम् । संसारकारणाज्ञानतमसश्चण्डभास्करः ॥ ६४॥ अपरोक्ष ज्ञान क्या है ? जबतक अनुभूति नहीं एक उदाहरण से समझें। किसी सज्जन का नाम है पुरुषोत्तम ; उसकी पत्नी को पूछा - आप पुरोषत्तम को जानती हैं क्या ? हाँ मेरे पल्ले पड़े हैं। पत्नी की दृष्टि से पुरुषोत्तम का अर्थ - 'पल्ले पड़े हैं। ' उसके पुत्र से पूछो आप पुरुषोत्तम को जानते हैं क्या ? हाँ -हिटलर ! व्याकरणाचार्य से पूछो - पुरुसोत्तम हाँ ,षष्ठी तत्पुरुष समास (पीताम्बर: पीतम् अम्बरं यस्य सः) स्वामी नारायण के लोगो से पूछो -अक्षर पुरुषोत्तं ! और जिसका नाम पुरुषोत्तम है उसको पूछो - हाँ मैं पुरुषोत्तम हूँ न ! इसी प्रकार से यदि सच्चिदानन्द परमात्मा की बात हो रही है , तो मेरी ही बात हो रही है। इसको कहते हैं अपरोक्ष ज्ञान। उत्तरकाशी के पास ठंढ में एक महात्मा जी गीता के शंकरभाष्य का अध्यन   कर रहे थे , महाराज जी आपको पढ़ने की क्या जरूरत है ? उन्होंने उत्तर दिया बेटा मैं ये देख रहा हूँ कि मेरे बारे में लोगों ने क्या क्या लिखा है ? भगवतगीता में किसी दूसरे के बारे में नहीं लिखा महारज अपने बारे में ही लिखा है। उसको कहते हैं अपरोक्ष ज्ञान , जो स्वयं के बारे में है , नहीं तो क्या यह दूसरों को कहने के लिए  होता है ? 1.04  अपरोक्षात्मविज्ञानं शाब्दं देशिकपूर्वकम् - हमने यदि अपने आचार्य के मुख से महावक्यों को ठीक से सुना है , संसारकारणाज्ञानतमसश्चण्डभास्करः - तो वह 'तत्त्वमसि' महावाक्य उपदेश संसार का कारण जो अज्ञान (अविद्या) का अन्धकार है , उसको नष्ट करने वाला एकदम प्रदीप्त भास्कर यानि सूर्य है।             
        पंचदशी के 7 अध्याय में को तृप्ति-दीप कहते हैं -[तृप्तिदीपोनाम - सप्तमः परिच्छेदः] वहाँ 298 श्लोकों में बहुत विस्तार से यह बताया गया है कि शास्त्रों का अध्यन किस प्रकार करना चाहिये ? और उस पूरे अध्याय में उन्होंने बृहदारण्यक उपनिषद के केवल एक श्लोक [अयं अस्मि इति पुरुषः]  का वर्णन किया है - 1.06.20 आत्मानं चेद् विजानीयात् अयमस्मीति पुरुषः । किमिच्छन् कस्य कामाय शरीरमनुसंजरेत्। - यः मानवः प्रत्यगात्मानम् आत्मत्वेन जानाति, सः किं फलम् इच्छन्, कस्य कामस्य प्राप्त्यर्थम्' इदं शरीरम् अनु संज्वरेत् ?बृहदारण्यकोपनिषत् ४-४-१२/ यह श्रुति का वाक्य है - हमने अपनी असलियत को पहचान लिया। अपनी असलियत है एकमेवाद्वितीय सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा। यह जो पुरुष है, जो जीव है इसने अगर अपने स्वरूप को पहचान लिया तो क्या होगा? ‘यदि पुरुष आत्माको इस प्रकार विशेषरूपसे जान जाय तो फिर क्या इच्छा करता हुआ और किस कामनासे शरीरके तापसे अनुतप्त हो ? उसमें जीव की 7 स्थितियाँ बताई हैं -अविद्या , आवरण , विक्षेप , परोक्ष ज्ञान , फिर होता है अपरोक्षज्ञान, फिर होती है दुःखनिवृत्ति और सातवीं होती है निंकुशातृप्ति ! निरंकुशतृप्ति का अर्थ है -अपनी सहज स्थिति ; जिसमें दुःख का सम्पूर्ण अभाव है। और यह परमानन्द की अवस्था है, उसकी अनुभूति हममें से प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्भव है।     
{’तात्पर्य है कि आत्मा और परमात्मा‒दोनों निरोग  (अनामय) हैं । रोग केवल शरीरमें ही आता है । इसलिये कहा गया है‒‘शरीरं व्याधिमन्दिरम्’ । शरीरमें रोग दो प्रकारसे आते हैं‒प्रारब्धसे और कुपथ्यसे । पुराने पापोंका फल भुगतानेके लिये शरीरमें जो रोग पैदा होते हैं, वे ‘प्रारब्धजन्य’ कहलाते हैं । जो रोग निषिद्ध खान-पान, आहार-विहार आदिसे पैदा होते हैं, वे ‘कुपथ्यजन्य’ कहलाते हैं ।अतः पथ्यका सेवन करनेसे, संयमपूर्वक रहनेसे और दवाई लेनेसे भी जो रोग नहीं मिटता, उसको ‘प्रारब्धजन्य’ जानना चाहिये । दवाई और पथ्यका सेवन करनेसे जो रोग मिट जाता है, उसको ‘कुपथ्यजन्य’ जानना चाहिये । अल्मोड़ा से 8 अगस्त 1896 को श्री गुडविन को लिखे पत्र में स्वामीजी ने इस श्लोक को उद्धृत किया है। यह जो बृहदारण्यकोपनिषत् का एक मन्त्र है, इसका अध्यन किस प्रकार करना चाहिये इसके अध्यन की प्रक्रिया को पंचदशीकार ने सातवें अध्याय लगभग 300 श्लोकों में विस्तार से बताया है।    
[गीता 2.21 के वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्। हे पार्थ ! जो पुरुष इस आत्मा को अविनाशी,  नित्य और अव्ययस्वरूप जानता है,  वह कैसे किसको मरवायेगा और कैसे किसको मारेगा? आत्मा की वर्णनात्मक परिभाषा नहीं दी जा सकती परन्तु उसका संकेत नित्य अविनाशी आदि शब्दों के द्वारा किया जा सकता है। जो पुरुष अविनाशी आत्मा को जानता है वह कभी जीवन की वास्तविकताओं का सामना करने में शोकाकुल नहीं होता। आत्मा के अव्ययअविनाशी अजन्मा और शाश्वत स्वरूप को जान लेने पर कौन पुरुष स्वयं पर कर्तृत्व का आरोप कर लेगा भगवान् कहते हैं कि ऐसा पुरुष न किसी को मारता है और न किसी के मरने का कारण बनता है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि इस वाक्य का सम्बन्ध स्वयं भगवान् तथा अर्जुन दोनों से ही है। यदि अर्जुन इस तथ्य को स्वयं समझ लेता है तो उसे स्वयं को अजन्मा आत्मा का हत्यारा मानने का कोई प्रश्न नहीं रह जाता है।भगवान् नारायण 'ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्' इस कथनसे सांख्ययोगी ज्ञानियों और कर्मी अज्ञानियों का विभाग करके अलगअलग दो निष्ठा ग्रहण करवाते हैं। आत्मज्ञानी का संन्यास में ही अधिकार है कर्मों में नहीं। ऐसे ही अपने पुत्रसे भगवान् वेदव्यासजी कहते हैं कि ये दो मार्ग हैं इत्यादि तथा यह भी कहते हैं कि पहले क्रियामार्ग और पीछे संन्यास।जैसे अहंकारसे मोहित हुआ अज्ञानी मैं कर्ता हूँ ऐसे मानता है तत्त्ववेत्ता मैं नहीं करता ऐसे मानता है तथा सब कर्मोंका मनसे त्यागकर रहता है इत्यादि।यदि वे कहें कि ( मनबुद्धि आदि ) करणोंसे आत्मा अगोचर है इस कारण ( उसका ज्ञान नहीं हो सकता )तो यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि मनके द्वारा उस आत्माको देखना चाहिये यह श्रुति है अतः शास्त्र और आचार्यके उपदेशद्वारा एवं शम दम आदि साधनोंद्वारा शुद्ध किया हुआ मन आत्मदर्शनमें करण ( साधन ) है।] 
इत्थं तत्त्वविवेकं विधाय विधिवन्मनः समाधाय । विगलितसंसृतिबन्धः प्राप्नोति पारं पदं नरो न हिरात् ॥ ६५॥  इति तत्त्वविवेकः समाप्तः ॥ अर्थात यह जो तत्व-विवेक हमने इस अध्याय में पढ़ा है, इसको मनः समाधाय मन को पूरी तरह से इस पर एकाग्र करके ठीक से समझ लेने से, यह जो संसार का बंधन है , हम जो एक मिनट में सुखी और अगले ही क्षण दुःखी हो जाते हैं ; ये सबका सब तमाशा हमेशा के लिए मिट जायेगा। और आप मौज में रहना शुरू कर दोगे। इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयाऽनघ। एतत् बुद्ध्वा बुद्धिमान स्यात्। गीता 15.20।। यह गुह्यतम -- सबसे अधिक गोपनीय अर्थात् अत्यन्त गूढ़ रहस्य है। इस ज्ञान को गुह्य या रहस्य इस दृष्टि से नहीं कहा गया है कि इसका उपदेश किसी को नहीं देना चाहिये अभिप्राय यह है कि परमात्मा इन्द्रिय अगोचर होने के कारण कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों के द्वारा उसे अपनी बुद्धि से नहीं जान सकता है। अत वह उसके लिये रहस्य ही बना रहेगा। केवल एक शास्त्रज्ञ और आत्मानुभवी आचार्य के उपदेश से ही परमात्मज्ञान हो सकता है।
 ( पंद्रहवाँ ) अध्याय ही शास्त्र नामसे कहा गया है। क्योंकि इस अध्यायमें केवल सारे गीताशास्त्रका अर्थ ही संक्षेपसे नहीं कहा गया है? हे निष्पाप भारत ! इस प्रकार यह गुह्यतम शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको जानकर मनुष्य बुद्धिमान और कृतकृत्य हो जाता है। अन्य प्रकारसे नहीं। जिसने करनेयोग्य सब कुछ कर लिया हो? वह कृतकृत्य है? हे भारत क्योंकि तूने मुझसे यह परमार्थतत्त्व सुना है? इसलिये तू कृतार्थ हो गया है। 
इस सन्दर्भ में अर्जुन को निष्पाप कहकर संबोधित करना यह दर्शाता है कि वह आत्मज्ञान के योग्य है।अपने पुरुषोत्तम स्वरूप को जानने वाला पुरुष बुद्धिमान् बन जाता है। इसका अर्थ यह है कि इस ज्ञान के पश्चात् वह जीवन में वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को समझने में और कर्म से संबंधित निर्णय लेने में त्रुटि नहीं करता है। फलस्वरूप वह न स्वयं के लिये भ्रम और दुख उत्पन्न करता है और न ही समाज के अन्य व्यक्तियों के लिये। परमात्मा के ज्ञान का फल है कृतकृत्यता। मन में पूर्ण सन्तोष का वह भाव ! जो जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेने पर उदय होता है, कृतकृत्यता कहलाता है। तत्पश्चात् उस व्यक्ति के लिये न कोई प्राप्तव्य शेष रहता है और न कोई कर्तव्य। बुद्धिमत्ता यही है, कि अपने स्वरुप को पहचाने जिसमें दुःख का नामोनिशान नहीं है। इत्थं तत्त्वविवेकं विधाय -माने विधिवत मने शास्त्र-विहित तरीके से , यह समझना चाहिए कि स्थूल शरीर को रखने के लिये अन्न और जल की आवश्यकता है , प्राणमय शरीर को रखने के लिए वायु की आवश्यकता है , मनोमयकोश या मन को स्वस्थ रखने के लिये ठाकुरदेव के नाम-स्मरण की आवश्यकता है , बुद्धि को लक्ष्य में नियोजित रखने के लिए शास्त्रों के चिंतन-मनन की आवश्यकता है। और अपने को स्वस्थ रखने के लिए , अर्थात आत्मा में अवस्थित रहने के लिए परमात्मा में समर्पण की आवश्यकता है। यदि इस प्रकार से अपना जीवन नहीं जीया तो बस -पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे।  भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे ॥ भावार्थ  :----बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके रक्षा करो  ॥गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो ।क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ॥ नहीं तो फिर वही खैनी , वही चूना रगड़ते रहो खाते जाओ ! और फिर कहो कि मेरे मुँह में जी छाले आ गए ? अब कहीं दिमाग में भी आ गए तब पता चलेगा। ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||अर्थ:ॐ! पूर्ण है वह, पूर्ण है यह, पूर्ण से ही पूर्ण हो जाता है,पूर्ण में से पूर्ण लेकर, पूर्ण ही अवशेष रह जाता है ।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 
                                                            
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