कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

🔱सर्वश्रेष्ठ समाज सेवा है - 'Be and Make ' 🔱

[कांकुरगाछी, योगोद्यान मठ में आयोजित रामकृष्ण मठ और मिशन के 16 वें अध्यक्ष श्रीमत स्वामी स्मरणानंद जी की स्मरण-सभा में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के उपाध्यक्ष श्री दीपक कुमार सरकार महाशय का वक्तव्य - (25 मिनट 46 सेकण्ड से) तैत्तरीय उपनिषद के ब्रह्मानन्द वल्ली का शान्ति पाठ से प्रारम्भ हुआ।] 

🔱सर्वश्रेष्ठ समाज सेवा है - 'Be and Make'🔱 

हरिः ॐ। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ हरिः ॐ  तत् सत्। 

हे ईश्वर ! आप हम दोनों (गुरु-शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करें। आप हम  दोनों का साथ-साथ पालन-पोषण करें।  हम एक साथ शक्ति एवं वीर्य अर्जित करें।  हमारा अध्ययन हम दोनों के लिए तेजस्वी हो, प्रकाश एवं शक्ति से परिपूरित हो। हम कदापि परस्पर द्वेष न करें। ॐ शान्तिः! शान्तिः! शान्तिः! (सर्वत्र शान्ति रहे।)

ठाकुर, माँ, और स्वामीजी के (रातुल / लाल रंग से रंगे चरणों) श्री चरणों में मैं अपना प्रणाम निवेदन करता हूँ, प्रणाम निवेदन करता हूँ - श्रीमत स्वामी स्मरणानन्द जी के चरणों में, जिनकी स्मृति में आज यह स्मरण सभा आयोजित हुई है। प्रणाम निवेदन करता हूँ सभा में उपस्थित श्रीमत स्वामी विमलात्मानन्द जी, अध्यक्ष ,कांकुरगाछी योगोद्यान मठ , के चरणों में। प्रणाम करता हूँ आज के सभापति श्रीमत स्वामी लोकोत्तरानन्दजी महाराज, अध्य्क्ष कामारपुकुर, रामकृष्ण मठ और मिशन  को, अपनी आंतरिक शुभेच्छा और श्रद्धा अर्पित करता हूँ हमारे प्रिय डाक्टर बाबू' डाक्टर विश्वजीत घोष दस्तीदार महाशय को। यहाँ उपस्थित समस्त संन्यासियों तथा ब्रह्मचारियों को भी मैं अपना प्रणाम और शुभेच्छा ज्ञापित करता हूँ। सभा में उपस्थित समस्त सुधिवृन्द (विद्वत मण्डली ?) को मैं अपना आंतरिक नमस्कार एवं शुभेच्छा ज्ञापित करता हूँ।  

पूजनीय महाराज (जयराम महाराज-श्रीमत स्वामी स्मरणानन्द जी महाराज) क्योंकि रामकृष्ण मठ मिशन के संन्यासी थे इसलिए उनके आध्यात्मिक जीवन पर चर्चा होना ही स्वाभाविक है। बेलुड़ मठ में भी इस पर चर्चा हुई थी, और अभी अभी महाराज ने भी उस विशेष पहलु पर हमलोगों का ध्यान आकर्षित किया है। किन्तु, मैं इस बात को जोर देकर का सकता हूँ कि आप में से बहुत से लोग यह नहीं जानते होंगे कि; उनके जैसा एक विद्वान् संन्यासी जिन्होंने रामकृष्ण मठ मिशन के साथ 72 वर्षों तक संन्यास जीवन का पालन किया है; उन्होंने अपने वास्तविक जीवन में, सामाजिक जीवन में भारतवर्ष के कल्याण के लिए, विशेष रूप से युवा सम्प्रदाय के कल्याण लिए, इतना महान काम कर गए हैं, कि वह इतिहास में सदैव एक उदाहरण बना रहेगा। 

     कोलकाता का अद्वैत आश्रम 5 नम्बर , डेही एंटली रोड (Dehi Entally Road) पर जहाँ अवस्थित है - उसके ठीक  पहले 'देब लेन' में हम लोगों का पैतृक निवास है। हमलोगों के 'डेही एंटली रोड मुहल्ले' में रहने वाले देव नारायण बाबू के घर के एक सदस्य उपेन्द्र नारायण देव स्वामी विवेकानन्द के सहपाठी थे। उन्होंने दानपत्र में लिखकर जो मकान रामकृष्ण मिशन को दान में दिया था, आज से लगभग 60 वर्ष से अधिक पहले उस मकान को तोड़ कर एक नया मकान जब बना, तब  मैं स्कूल का छात्र था और 7 वीं या 8 वीं कक्षा में पढ़  था। कौतुहल वश मैंने अपने पिताजी और घर के बड़े लोगों से मैंने पूछा था कि यहाँ क्या होगा ? उन्होंने बताया कि इसमें रामकृष्ण मिशन का एक केन्द्र खुलेगा। 

          मेरी आँखों के सामने- शायद 1960-61 में उस केन्द्र का उद्घाटन हुआ था।  प्रथम तल्ले पर Book Publishing Center (पुस्तक प्रकाशन केन्द्र) का कार्यालय था, दूसरे तल्ले पर एक तरफ सभागार (auditorium) था और दूसरी तरफ पुस्तकालय (library) था।  हम लागों ने कौतुहल वश वहां जाना आना शुरू कर दिया। छात्र जीवन के समय "Postage Stamp " (डाक टिकट) संग्रह करने के प्रति मेरा बहुत आकर्षण था; डाकटिकट संग्रह करना ही मेरा शौक (Hobby) था। और चूँकि अद्वैत आश्रम अनेक देशों से जुड़ा हुआ था, इसलिए वहाँ अनेक देशों से पत्र आते रहते थे। वह समय कम्प्यूटर युग का नहीं था, ईमेल प्रारम्भ नहीं हुआ था, मोबाईल का युग नहीं था । [महाराज एकटक होकर सुन रहे थे। ] उस समय केवल टेलीग्राम होता था या टेली फैक्स होता था, या फिर डाक के माध्यम से पत्रों  का आदान-प्रदान होता था। उसी डाकटिकट संग्रह करने की दृष्टि से वहाँ जाना -आना शुरू किया।   उस समय श्रीमत स्वामी अद्वयानन्द जी महाराज (अर्धेन्दु महराज) अद्वैत आश्रम के मैनेजर थे - बहुत दिनों पूर्व ही उनका शरीर चला गया है। वहाँ जाने पर वे हमलोगों को कुछ Voluntary work करने का मौका भी देते थे। महाराज बोलते थे नया लाइब्रेरी बना है, तुम लोग लाइब्रेरी में आते रहना। यहाँ आकर तुमलोग कैटलॉग बनाना , इंडेक्स बनाने का काम करना।  

   'उपेन बाबू' के दानपत्र में लिखे एक शर्त के अनुसार, उस समय मानसेवा रूप से कुछ राहत कार्य (Relief Work)  प्रति माह एक विशेष तिथि पर वर्ष भर चलता रहता था। हमलोग भी volunteer (स्वयं सेवक) के रूप में काम करते थे। स्कूल या घर के काम करने के बाद जितना समय बचता था हमोग सेवा कार्य में अपना पूरा सहयोग करते थे। शाम के 4.30 बजे अद्वैत आश्रम में छुट्टी हो जाती थी, ऑफिस बंद हो जाता था , अभी भी वही नियम चल रहा है। उस समय महाराज के साथ उतनी घनिष्टता नहीं हुई थी, क्योंकि उस समय वे भीतर वाले कमरे में बैठते थे। और उस कमरे को वे लोग PB कमरा कहते थे। PB का अर्थ समझता नहीं था; बहुत दिनों बाद मैंने महाराज से पूछा -महाराज PB का क्या अर्थ है ? अर्धेन्दु महाराज ने कहा -प्रबुद्ध भारत। प्रबुद्ध भारत पत्रिका को वे लोग संक्षेप में P.B कहते थे।  अर्धेन्दु महाराज प्रबुद्ध भारत पत्रिका के प्रकाशन के साथ जुड़े हुए थे, किन्तु तब हमलोगों का उनके साथ कोई घनिष्ट  परिचय नहीं हुआ था। 

  और तीन-चार साल बाद - जब  हमलोग थोड़े बड़े हो गए थे और हायर सेकण्ड्री का एग्जाम देने वाले थे। तब 1964 में पार्क सर्कस मैदान में जहाँ  स्वामी जी की शतवार्षिकी के अवसर पर मुख्य कार्यक्रम आयोजित होने वाला था वहाँ  exhibition तथा  auditorium के लिए एक विशाल पण्डाल का निर्माण किया गया था।  उस समय हमलोगों को वहां स्वैच्छिक सेवा  (voluntary service) करने का अवसर प्राप्त हुआ था। वह कार्यक्रम बहुत अच्छा और लम्बा  चला था। और उस समय साम्प्रदायिक घटनावश वहाँ एक दंगा # होने से कुछ विघ्न भी हुआ था, किन्तु उस प्रसंग को नहीं उठा रहा हूँ। उसके बाद शायद 1965 में अर्धेन्दु महाराज बदली होकर कमार पुकुर आश्रम चले गए। 

          उनके जाने के बाद पूजनीय जयराम महाराज ने अद्वैत आश्रम में मैनेजर का पदभार ग्रहण किया। इस समय उनके साथ हमलोगों का बहुत घनिष्ट परिचय हो गया। वे हमलोगों से किसी मित्र के समान व्यवहार करने लगे। महाराज थोड़ी देर पहले कह रहे थे कि जयराम महाराज बहुत सरल थे, किन्तु वे कितने सरल थे इसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। मैंने हिसाब लगाकर देखा है, वे मुझसे लगभग 17 -18 वर्ष बड़े थे। किन्तु हमलोगों के साथ मित्र के समान मिलते थे। ऐसी कोई बात नहीं हो सकती जिसको मैं महाराज के साथ शेयर नहीं करता होऊंगा। स्कूल के मित्रों के साथ भी जिस बात का उल्लेख नहीं होता हो, वो भी उनके साथ शयेर करता था। कहाँ गया था, किसके साथ था,सारा दिन समय कैसे बिताया, किसने क्या कहा, किस क्लास में क्या गड़बड़ी हुई है, लड़कों ने क्या-क्या है -सब कुछ उनको बताता था। और जो कुछ मैं कहता  उन्हीं बातों में से कुछ बातों को उठाकर, वे ठीक जगह पर सुधार (correction) भी कर देते थे। सामाजिक जीवन में या प्रैक्टिकल लाइफ में  जीवनगठन के लिए क्या -क्या आवश्यक है -इसे इतने आश्चर्यजनक रूप से समझा देते थे, कि उनको सामने से नहीं देखने पर विश्वास नहीं किया जा सकता। इतने दिनों बाद भी , 60 वर्ष पहले की बातों का स्मरण करने से कितने  अद्भुत अनुभूति होती है, आप लोग भी समझ सकते हैं। यहाँ मैं कोई बात अपने मन से बनाकर नहीं कह रहा हूँ।  60 वर्ष पहले की उतनी पुरानी बातों को मैं कैसे याद रख सकता हूँ , इसलिए कहीं मैं भूल न जाऊँ इसलिए आपके सामने प्रस्तुत करने के लिए मैं कुछ बातों को date के हिसाब से लिख कर लाया हूँ। किन्तु उनके साथ इतनी अन्तरंगता थी, इतने घनिष्ट रूप से मिलना होता था कि मेरी आँखों के सामने अब भी वे सजीव दृश्य के रूप में जागृत हैं। जो हो हायर सेकण्ड्री की शिक्षा पद्धति 1964 में नई नई शुरू हुई थी उसके अनुसार 11 वीं पास करने के बाद कॉलेज में नाम लिखवाया जा सकता था। मैं साइंस लेकर पढ़ रहा था , मुझे स्कॉटिश चर्च कॉलेज में नाम लिखाने का अवसर प्राप्त हुआ। 1964 -1965 तक कॉलेज का पढाई ठीक-ठाक चलता रहा। लेकिन 1966-67 के मध्य में पढ़ाई करते समय यह खबर फैली की पश्चिम बंगाल में , विशेष रूप से उत्तरबंगाल के नक्सलबाड़ी नामक स्थान से एक आन्दोलन शुरू हुआ है। (34 मिनट 13 से रिकॉर्डिंग सहीहुआ। ) तब मुझे उतनी जानकारी नहीं रहती थी , इतनी मैचुरिटी भी नहीं थी। लेकिन इतना जानता था कि वह आन्दोलन 'कृषक आन्दोलन ' के नाम से शुरू हुआ था। किन्तु 'नक्सलबाड़ी कृषक आन्दोलन' के कुछ नेताओं के दिमाग में पता नहीं किस कीड़े ने काटा कि अद्भुत रूप से उनलोगों ने पूरे कृषक आन्दोलन को युवा सम्प्रदाय के उग्र असन्तोष से जोड़ दिया।  यहीं से आन्दोलन का turning point आया और किसान आंदोलन हिंसक दिशा में मुड़ गया। 

      सम्पूर्ण रूप से विन्ध्वसक काण्ड शुरू हुआ , दिन दहाड़े सड़क पर ही पुलिस का खून किया जाने लगा। विभिन्न स्थानों पर सरकारी सम्पत्तियों में आग लगा देने का काम शुरू हो गया। हम लोगों के कॉलेज में प्रोफेसर लेक्चर दे रहे हैं और उग्रवादी लोग क्लास में घुस कर ब्रेनवाश करने के लिए तोड़-फोड़ का लेक्चर देने लगा । उन लोगों का मुख्य अड्डा था प्रेसीडेन्सी कॉलेज और कोलकाता यूनिवर्सिटी। वहाँ से स्कॉटिश चर्च कॉलेज ज्यादा दूर नहीं पड़ता है। जब तब उनलोग हमारे कॉलेज के युवाओं पर अटैक करने लगा , और क्रमशः ये सब बढ़ता चला गया। घोर  चिंता का विषय बन गया, सभी लोग इस समस्या पर चर्चा तो करते थे , किन्तु किसी के पास इसका समाधान नहीं था। या समाधान के लिए कोई चेष्टा भी नहीं करता था। 

  देखिये ठाकुर की क्या अद्भुत लीला थी ! हमने अपने आँखों के सामने देखा था -यदि उस समय का नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन उतना उग्र और विध्वंसक छात्र आन्दोलन में नहीं बदल गया होता तो महामण्डल का गठन भी नहीं हुआ होता। मैं आपको इस युवा संगठन के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि बतला रहा हूँ; कि हमलोग ऐसा क्यों विश्वास करते हैं कि- " महामण्डल का गठन भगवान श्रीरामकृष्ण देव की इच्छा, जगतजननी माँ सारदा देवी के आशीर्वाद तथा स्वामी विवेकानन्द की उत्प्रेरणा  (inspiration) से हुआ है ! बेलपत्र के तीन पत्तों के समान इन त्रिदेवों के बिना महा-मण्डल का आविर्भाव होना असम्भव था। उस समय के युवाओं के लिए यह एक बहुत चुनौती पूर्ण कार्य (Challenging-Job) था !

       (35 मिनट 56 सेकण्ड) इन सब घटनाओं को देखकर महाराज (स्वामी स्मरणानन्द जी -जयराम महाराज) बहुत दुखित और व्यथित हुए थे। तब उनके साथ स्वामी अनन्यानन्द जी (गोविन्द महाराज) बहुत क्लोजलि होकर काम करते थे।  स्वामी अनन्यानन्द जी PB के सम्पदाक थे। महामंडल के जन्म के समय अलापी/अलोपी महाराज (श्रीमत स्वामी चिदात्मानंद जी) अद्वैत आश्रम के अध्यक्ष ( प्रेसिडेन्ट) थे। बाद में, उन्हें सहायक सचिव के रूप में बेलूर मठ में स्थानांतरित कर दिया गया। उन्हें अलापी महाराज के नाम से जाना जाता था; वे भी बहुत पवित्र और सच्चे मनुष्य थे -बिल्कुल माँ सारदा के जैसे ! बिल्कुल माँ सारदा की ही प्रतिमूर्ति -थोड़ा भी बढ़ाकर नहीं कह रहा हूँ। इन  सभी महाराज लोगों का ह्रदय अंदर से मड़ोड़ रहा था , अत्यन्त व्यथित था। हमने अपने आँखों के सामने देखा था - वे सभी चाहते थे कि युवाओं को बचाने के लिए कुछ करना जरुरी है।

     उनलोगों की व्याकुलता और ह्रदय की व्यथा को देखकर शायद  ठाकुर देव ने ही भीतर से उन लोगों से कहा था, कि खून-हत्या का जवाब हमलोग भी खून- हत्या से नहीं दे सकते। इसके प्रतिवाद का सही तरीका है स्वामी विवेकानन्द का- " Man- Making and Character- Building Education" (मनुष्य निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा) युवाओं के बीच इसके प्रचार-प्रसार के लिए कुछ करना होगा। लेकिन तुरंत ही स्वामी स्मरणानन्द जी और स्वामी अनन्यानन्द जी दोनों सम्मिलत रूप से कहने लगे कि, यह काम संन्यासियों के माध्यम से होने वाला नहीं है  [ इसका यदि कारण यदि ठीक से समझना हो तो "जीवन नदीके .... (पृष्ठ 126) पर विस्तार से देख सकते हैं] गृहस्थ के द्वारा ही गृहस्थ लोगों के बीच स्वामीजी की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करना होगा 

     क्या करना होगा और कैसे करना होगा ? युवाओं को दोषी ठहराने से कोई लाभ नहीं होगा , ये नेता लोग युवाओं का ब्रेन वाश कर रहे हैं। नक्सल नेताओं द्वारा युवाओं पर आक्रमण हो रहा है, उनको डराया -धमकाया जा रहा है। समाज के तानेबाने को चूर-चूर किया जा रहा है। ऐसा नहीं चलने दिया जा सकता। इसलिए उनको स्वामीजी के उपदेशों को सुनाना पड़ेगा। स्वामीजी ने कहा था हमलोग नया भारत गढ़ेंगे, किसके द्वारा ? -युवाओं के द्वारा। ऐसा युवा चाहिए जो देश-प्रेमी होगा, जो बिल्कुल निष्कपट होगा , जो ईमानदार होगा और जो होगा 100 % निःस्वार्थपर ! (गृहस्थ नेता को भी भीतर से पूर्ण त्यागी अर्थात निःस्वार्थपर होना होगा। उसे तीनों ऐषणाओं में से किसी एक में भी आसक्ति नहीं रखनी होगी।) क्योंकि स्वामी जी ने कहा है  -"केवल वही जीवित है , जो दूसरों के लिए जीता है। शेष तो मृत से भी अधम हैं !"  

     अब असली रहस्य पर आ रहा हूँ , महाराज [स्वामी अनन्यानन्द जी (गोविन्द महाराज) जो पत्रिका के सम्पादक थे) उन दिनों उनके पास जाते थे नवनीदा (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय महाशय) जो सरकारी सचिवालय में कार्य करते थे; और उन दिनों वेदान्त मठ जाया करते थे। एक दूसरे सज्जन उषा दा  (श्री उषा रंजन दत्त) भी वहाँ वेदान्त मठ जाया करते थे।  वहां उषा दा से उनका परिचय हुआ। उषा दा की यह आदत थी कि मठ -मिशन में जहाँ कही अच्छा भाषण होता वे जाते रहते थे। उन्होंने एक दिन नवनी दा से कहा - चलिए न गोलपार्क में स्वामी रंगनाथानंदजी आये हैं , वे वहां के सेक्रेटरी हैं तथा बहुत अच्छा भाषण करते हैं, आपको अच्छा लगेगा। नवनी दा वहाँ गए , उनका भाषण सुना। अच्छा लगा , एक दिन गए -दो दिन गए। वे महाराज के साथ मिलकर बातचीत किये। उनसे मिलकर नवनीदा को बहुत अच्छा लगा। महाराज उनको रोज आने के लिए इन्वाइट किये वे अक्सर गोलपार्क जाने लगे। 

1964 में पार्क सरकस मैदान में स्वामी जी की जन्म शतवार्षिकी के समय, टिकट काउंटर के रुपए -पैसों को रखने की जिम्मेदारी स्वामी भाष्यानंद जी ने ही नवनीदा पर सौंपी थी। उस समय भाष्यानंद जी गोलपार्क में असिस्टेन्ट सेक्रेटरी थे। बाद में अमेरिका - शिकागो में उनकी बदली हो गयी थी। किन्तु स्वामी भाष्यानंद जी ने अभी तक किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं देखा था-जिसने स्वामी विवेकानन्द को देखा हो। रंगनाथानन्द जी यह जानते थे कि नवनीदा के पितामह ने, बहुत कम उम्र में ही स्वामी विवेकानन्द का दर्शन किया था। इसलिए उनके पास जाने की इच्छा उनलोगों ने व्यक्त की। जब उनसे मिलने के लिए वे लोग नवनीदा के घर खड़दह गये थे, तब अद्वैत आश्रम से उन लोगों के साथ गोविन्द महाराज और जयराम महाराज भी गए थे। वहाँ जब उनलोगों में बातचीत हुई तो नवनीदा को ज्ञात हुआ कि जयराम महाराज अद्वैत आश्रम में मैनेजर हैं। उन्होंने नवनीदा को अद्वैत आश्रम आने का निमंत्रण दिया। 

    उनलोगों के मन में उस समय से ही मन में  यह विचार चल रहा था कि युवाओं को किस प्रकार संगठित किया जाये ? वहाँ यह चर्चा चलना प्रारम्भ हुआ। मैं भी वहाँ जाता रहता था , मेरे कान में भी यह बात गयी। मैं बहुत ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि क्या बातचीत चल रही है , किन्तु बातचीत लगातार चल रही थी। एक दिन 25 अक्टूबर 1967 को , कन्वेनर कौन ? श्रीमत स्वामी स्मरणानन्दजी  ने मीटिंग बुलवाया, First Meeting Was Convent by Him।  दिन लिख कर लाया हूँ , भूल नहीं जाऊँ। हमलोगों के पास मिनट्स है, रिजोलुशन है । जयराम महाराज ने स्वयं एक मीटिंग आहूत किया था , किनको बुलाया था ? उनके जो लोग परिचित रामकृष्ण मिशन के भक्त मण्डली थे और जिन्हें रामकृष्ण-विवेकानन्द भावधारा या दर्शन का ज्ञान भी था। और बुलवाया गया था रामकृष्ण मिशन के साथ जुड़े , कुछ युवा संगठन - जैसे एक युवा संगठन न्यू बैरकपुर में था। एक संगठन बैरकपुर में था। एक था भद्रकाली , हुगली में। एक संगठन  बाग बजार का भी था। इस प्रकार मिशन के साथ संयुक्त कुछ संस्थाएं थीं , जिन्हें बुलवाया गया था। उस समय तक भावप्रचार परिषद का गठन नहीं हुआ था। सिमित संख्या के लोगों को बुलाकर उन लोगों के साथ बैठक में महाराज ने परामर्श के बाद तय किया गया कि कोई रचनान्त्मक कदम उठाना होगा।  विभिन्न प्रांतों के गाँव -गाँव में मुहल्ले -मुहल्ले में स्वामीजी का भाव युवाओं के भीतर युवाओं के द्वारा ही प्रचारित तथा प्रसारित कर देना होगा।  इस प्रकार महामण्डल के - Be and Make ' आन्दोलन या मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन का सूत्रपात हुआ था। एक संगठन बन गया और नाम भी दिया गया -सम्पूर्ण भारतवर्ष में काम होगा ,विवेकानन्द का नाम होगा - क्योंकि वे इस आंदोलन के आदर्श होंगे। युवाओं का संगठन होगा इसलिए इसके नाम युवा भी रहेगा। महामण्डल क्यों ? इसलिए की सभी स्थान के लोगों को लेकर होगा , अतएव नाम दिया गया -अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल। नाम थोड़ा बड़ा हो गया पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। प्रिंसिपल श्री ओमियो मुजमदार बड़े प्रसिद्द विद्वान् व्यक्ति थे, दार्शनिक भी थे उनको प्रेसिडेन्ट बनाया गया। और सबों ने प्रस्ताव दिया कि नवनी बाबू आप इसके सेक्रेटरी बनिये। नवनीदा सेक्रेटरी बने , काम भी शुरू हुआ। किन्तु मैंने अपनी आँखों से देखा है दिन पर दिन महामण्डल के friend-philosopher and guide' की भूमिका में जयराम महाराज स्वयं थे, उन्होंने अपने हाथों से इस संगठन को खड़ा किया है।

[25 अक्टूबर 1967 को .... जिस दिन संस्थापक व्यक्तिगत सदस्य (Founder individual Members) की बैठक में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को स्थापित करने का निर्णय लिया गया था, उस समय सभी सदस्यों की आयु 35 वर्ष या उससे अधिक थी। प्रथम महामंडल बैठक के संयोजक "Convener of the first Mahamandal meeting " पूज्य जयराम महाराज (स्वामी स्मरणानन्द जी महाराज) स्वयं उस समय 38 वर्ष के थे,अमियों दा (महामण्डल के संस्थापक अध्यक्ष) और नवनी दा (संस्थापक सचिव), नीलमणि दा (आयरन मैन) सभी 35 या उससे अधिक आयु के थे। तब जयराम महाराज ने ही first symbolic youth founder के तौर पर - 20 वर्ष के कॉलेज स्टुडेन्ट दीपक रंजन सरकार का नाम प्रस्तावित करते हुए कहा था - चुँकि यह संगठन युवाओं के लिए है , इसलिए संस्थापक सदस्यों में एक सदस्य इसको भी रखना चाहिए। महामण्डल कार्यालय में उस बैठक में लिए गए समस्त निर्णयों का मिनट्स और रिजोलुशन अब भी सुरक्षित है।] 

       इतने वर्षो बाद यह बात सुनकर बहुत अच्छा लगा। जयराम महाराज जिस समय जेनरल सेक्रेटरी थे, उनके जो सेवक लोग थे , दीप्ती महाराज को अलावा जो ब्रह्मचारी लोग आते थे, उनमें से एक का नाम यह शान्तनु महाराज।अभी अगरतल्ला में हैं। 27 तारीख को जब काम हो रहा था मुझे देखकर ही बोले - क्या हो ? तुम लोग तो अब पुनः अभिभावक हीन बन गया ? ठीक यही बात बोले ! पीछे से बोलते हैं तुमलोगों को तो उन्होंने अपने हाथों से तैयार कर गए हैं ! किन्तु सुंदर बात कहे , सुनकर मन को थोड़ा कष्ट भी हुआ। लेकिन बात तो ध्रुव सत्य थी। एक इतने बड़े संगठन के प्रमुख, इस उम्र में इतने वरिष्ठ ; काम का कितना दबाव उनपर रहता होगा -इसके बावजूद इतने गृहस्थ युवाओं में से कुछ के भीतर यह भाव प्रविष्ट करवा देना। और तिल -तिल करके एक अखिल भारत युवा संगठन को खड़ा कर देना -आप लोग आश्चर्य चकित हो जायेंगे। 

     ऑफिस नहीं था हमलोग का। तो उन्हीं के ऑफिस में महामण्डल का काम होगा। कितने दिनों तक ? लगभग एक-डेढ़ वर्ष तक। कितनी देर तक, कबसे  काम होगा ? साढे चार बजे अद्वैत आश्रम का काम समाप्त हो जाने के बाद। छुट्टी हो जाने के बाद रात 8 -9 बजे तक काम चलता रहता था। अंत में जयराम महाराज ने कहा चिदात्मानन्द जी (अलोपी महाराज) कह रहे हैं -नवनी बाबू यह तो अच्छा नहीं लगता है ; रामकृष्ण मिशन के एक ब्रांच में किसी प्राइवेट संगठन का ऑफिस चल रहा है, ठीक दिखाई नहीं पड़ताआपलोग एक ऑफिस की व्यवस्था कीजिये। लेकिन प्राइवेट संगठन को भाड़ा में ऑफिस कौन देगा ? जयराम महाराज महामण्डल के ऑफिस के लिए स्वयं  भाड़े का मकान खोजने लगे। 

     मैं उसी मुहल्ले में रहता था , मुझे कोई मकान नहीं मिला पर उन्होंने महामण्डल के लिए भाड़े पर एक ऑफिस वहीँ पर खोज लिया। 11 नंबर शम्भुबाबू लेन में 100 रुपया भाड़ा में एक मकान खोज दिया और कहा यदि आपलोग से भाड़ा की व्यवस्था नहीं होगी तो मैं ही दे दूंगा, लेकिन ऑफिस वहां सिफ्ट कर लीजिये। इस प्रकार काम शुरू हो गया। बाद में 1973 में हमलोग सियालदह वाले ऑफिस - 6/1 A, जस्टिस मन्मथ मुखर्जी रो, में चले गए। जहाँ हमलोगों का वर्तमान रजिस्टर्ड ऑफिस चल रहा है। वह हमलोगों के फॉउंडर उपाध्यक्षउपसचिव ? श्री तनुलाल पाल का मकान था। वे रामकृष्ण मठ मिशन के बहुत पुराने भक्त थे (स्वामीजी के गुरुभाई विज्ञान महाराज के शिष्य थे-104 वर्ष की आयु में उनका शरीर गया। ) 1967 में महामण्डल प्रितिष्ठित होने के समय ही उनकी उम्र भी काफी थी- 50 +? थी । 

         >>> মহামন্ডলের জন্ম আমার আঁতুর ঘরে ??? ! आपलोग सुनकर आश्चर्य चकित होंगे कि - स्वामी चिदात्मानन्द जी ? महामण्डल के प्रति किस भाषा में उदगार प्रकट करते थे - वे बहुत गर्व के साथ कहते थे - महामण्डल का जन्म हमलोगों के 'सूतिकागार' (शिशु -प्रसव का कमरा- बंगला आँतुर घर) में हुआ है ! स्पष्ट घोषणा करते थे उनकी भावना की क्या हम कल्पना भी कर सकते हैं ? कैसा अद्भुत प्रेम, कितनी अद्भुत करुणा, ठाकुर का (जयराम महाराज का ?) कितना अद्भुत आशीर्वाद ! जो हो, इस प्रकार युवाओं के बीच महामण्डल का कार्य शुरू हुआ।  स्वामी स्मरणानन्द जी ने बहुत सूक्ष्म बुद्धि का प्रयोग कर स्वामीजी की शिक्षाओं को या जंगल के वेदान्त को घर-घर तक पहुँचा देने के उद्देश्य से 1969 में स्वामी विवेकानन्द की उक्तियों का संकलन पुस्तक - "स्वामी विवेकानन्द -राष्ट्र को आह्वान"('Vivekananda- His Call to the Nation') बहुत कम मूल्य में केवल 25 पैसा में प्रकाशित करवाया था। साथ -साथ महामण्डल ने भी प्रयास किया और नवनीदा (श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय, महामण्डल के संस्थापक सचिव) ने बंगला में भी स्वामी जी की उक्तियों का एक संकलन पुस्तक लिखा - "जनगणेर अधिकार" (People's rights- জনগণের অধিকার- स्वामी विवेकानन्द) जो महामण्डल द्वारा जनवरी 1971 में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तिका के कवर पृष्ठ पर भगिनी निवेदिता द्वारा परिकल्पित (designed) और 'वज्र निशान अंकित' जो राष्ट्रीय ध्वज बनाया गया है, उसकी चित्रकारी श्री नित्यानन्द भकत द्वारा की गयी है। निवेदिता वज्र को पूर्ण आत्म-बलिदान का (100 % निःस्वार्थपरता का) प्रतीक-चिन्ह मानती थीं। उस पुस्तक का ऊपरी भाग लाल रंग में -नीचे सादा बोर्डर देकर बीच में वज्र का निशान देकर छपवाया गया था। मूल्य रखा गया आठ आना (2011 में 10 रुपया) 

      प्रश्न उठ सकता है - महामण्डल के द्वारा प्रकाशित "जनगणेर अधिकार" पुस्तक लाल रंग में क्यों छपा था ? कारण था उस समय पश्चिम बंगाल के कुछ सनकी नेता चीन के चेयर मैन को अपना चेयर मैन मान रहे थे और उसके "Red book"# (लाल किताब) के उक्तियों - "political power grows out of the barrel of a gun" का उपयोग करके युवाओं का ब्रेन वाश करते हुए उन्हें हिंसक आंदोलन में लिप्त रहना सिखा रहा थे। [Chairman of China's Red Book (Lal Kitab): Originally produced in 1964 an early version was titled 200 Quotations from Chairman Mao - it soon became a key feature of the leader's personality cult.]

           1964 में प्रकाशित चीनी चेयर मैन के 'लाल किताब' (Red book#) के विरुद्ध - counter में हम लोगों ने 1971 में स्वामी विवेकानन्द के शक्तिदायी विचारों से भरी  "जनगणेर अधिकार" नामक महामण्डल की लाल किताब (Red book) प्रकाशित कर दिया।  फिर क्या था; महामण्डल के भाइयों ने उसका वितरण करना शुरू किया। बस में, ट्रेन में, सड़क पर, गली के नुक्क्ड़ पर- जहाँ- तहाँ  हमलोगों ने बेचना शुरू कर दिया। हमारे भाइयों ने  लाल किताब के जवाब में स्वामीजी के शक्तिदायी विचार को भारत भर में फैलाना शुरू कर दिया। और जो 5 -6 संगठन उस दिन की बैठक में उपस्थित थे , उनके माध्यम से और छोटे -छोटे एक दिवसीय, दो दिवसीय शिविर युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से, गाँव -गाँव शहर-शहर में होने लगे। 

नवनीदा ने  यूथ कैम्प आयोजित करने में परिश्रम की पराकाष्ठा कर दी थी , उसके लिए उन्होंने आश्चर्यजनक कठोर परिश्रम किया था। तथा उनके साथ -साथ जयराम महाराज भी रहते थे। उन्होंने (जयराम महाराज ने) कितना कठोर परिश्रम  किया था उसकी कल्पना भी आप नहीं कर सकते। उन दिनों आज जैसी गाड़ियों की सुविधा नहीं थी। रामकृष्ण मठ मिशन में भी गाड़ी की इतनी सुविधा नहीं थी, अद्वैत आश्रम में भी अपनी कोई गाड़ी नहीं थी, और महामण्डल में तो गाड़ी रहने का प्रश्न ही नहीं था। नवनीदा के साथ वे लोकल ट्रेन से कहाँ नहीं चले गए थे - मेदनीपुर चले गए , बर्दवान चले गए, उत्तर 24 परगना चले गए थे, नदिया चले गए। हावड़ा , हुगली आदि विभिन्न स्थानों में गए थे। क्यों जाते थे ? ताकि स्वामीजी के कार्य के लिए युवा लोग संगठित होक उनको जब आमंत्रित करते थे वे हर जगह चले जाते थे। स्वामीजी के विचार सुनाने के लिए वे हर जगह जाते रहते थे। ऐसा भी समय हुआ है कि जयराम महाराज को कष्ट करके दूर देहात में जाने पर रात में उन्हें जमीन पर भी सोना पड़ा है। क्यों ? क्योंकि जयराम महाराज संन्यास के नियमों का कठोरता से साधन और पालन करते थे। वे गृहस्थ के बिछावन पर कभी नहीं सोते थे। 

         उनके परिश्रम की कल्पना भी नहीं हो सकती। कोलकाता में तो ये काम हुआ, पश्चिम बंगाल में भी हुआ -लेकिन इस काम को अन्य प्रान्तों में भी तो करना था। उनका परिचय उड़ीसा में श्री दिगम्बर पात्रा नामक एक ऐसे सज्जन से हुआ जो वहाँ के शिक्षा विभाग उच्च पदस्थ अधिकारी थे। उनके माध्यम से उड़ीसा का कोई ऐसा जिला नहीं है -जहाँ की यात्रा उन्होंने नहीं की होगी। साथ में रहते थे स्वामी रंगनाथानन्द जी -उनको लेकर भी उड़ीसा जाते थे। उड़ीसा के 20 -22 स्थानों में महामण्डल का केंद्र स्थापित हो गया। उड़ीसा के बाद चले गए आन्ध्र प्रदेश। बापतला, गुन्टूर , सिकंदराबाद, एर्नाकुलम, श्रीकाकुलम, विशाखापत्तनम कोई स्थान अछूता नहीं था। विभिन्न स्थानों घूमघूम कर युवाओं को Be and Make के लिए अनुप्रेरित करना -बहुत कठिन काम था। अच्छे अच्छे लड़के- उच्च शिक्षित और उच्च पदस्थ लड़के भी इस काम में लगे हुए थे। उनके त्याग का कहना ही क्या था - कितना कठोर था उनका ज्ञान-वैराग्य। इस बात का उल्लेख यहाँ करना ठीक नहीं होगा , लेकिन सिर्फ आपलोगों की जानकारी में देने के उद्देश्य से कहता हूँ। यह महामण्डल का काम नहीं है , हमारे मैनिफेस्टो ऐसा नहीं लिखा है - मेरे बारे गलत धारणा मत बनाइयेगा। इसी काम को करते करते युवाओं के भीतर। बहुत से युवाओं के भीतर इतनी त्याग और तितिक्षा की भावना जाग्रत हो गयी कि, ठाकुर माँ स्वामी जी के भावों से उद्बुद्ध होकर महामण्डल के कई सौ युवा भाईयों ने रामकृष्ण मिशन में अभीतक संन्यासी के रूप योगदान कर दिया है। और आज संन्यासी होकर रामकृष्ण मिशन में विभिन्न केन्द्रों में कार्यरत हैं।

    यह महामण्डल का काम नहीं है , किन्तु हो गया है। यह भी ठाकुर देव का ही आशीर्वाद है। आश्चर्यजनक बातें हैं। जो संगठन गृहस्थ लोगों के लिए बना है , घर में रहते हुए यह Be and Make का काम करना होगा । हमलोगों का यह शर्त में था -सर्वप्रथम  इसके सदस्यों को अराजनैतिक होना होगा, दूसरा शर्त था तुम घर में रहते हो। तो तुम्हारा एक दायित्व है - Primary Responsibility है। तुम्हें अपने माता-पिता की देखभाल करनी होगी, अपने भाई-बहनों की देखभाल करनी होगी। तुम यदि विवाहित हो तो तुम्हें तुम्हारे स्त्री और सन्तानों की देखभाल करनी होगी। तुम जिस पेशा से जुड़े हुए हो ,यदि युवा अवस्था में हो पढ़ाई -लिखाई कर रहे हो , विद्यार्थी हो तो तुम पढ़ाई की उपेक्षा नहीं कर सकोगे। तुम यदि शिक्षक हो , तो उस कार्य की अनदेखी नहीं कर सकते। 

   तुम यदि डॉक्टर हो, तुम यदि इंजीनियर हो , तुम यदि वकालत करते हो, तुम यदि बिजनेस में हो तो - अपने पेशे से जुड़े कार्यों को भलीभाँति पूरा करने के बाद -तुम्हारे पास 24 घंटे में से जो अतिरिक्त समय बचेगा, केवल उतना ही समय तुम महामण्डल को दोगे। महामण्डल को समय देने का तात्पर्य क्या हुआ ? तातपर्य है अपना समय अपने देश को देना। अपने बहुमूल्य समय में से कुछ समय निकाल कर अपने देश वासियों के कल्याण के लिए देना। नया भारत गढ़ने की यह नई पद्धति है - कितनी अद्भुत है सोचकर देखिये। किन्तु हाँ - एक और शर्त है , हमारा यह आंदोलन आध्यात्मिकता की बुनियाद पर खड़ा होगा। और इसी प्रकार स्पिरिचुअल आधार पर खड़े होकर अपने मातृभूमि के प्रति समर्पित भाव से समस्त कार्य करने होंगे। इसी प्रकार कार्य करते हुए फलस्वरूप आज के दिन महामण्डल कहाँ पहुँचा है जानते हैं ? आज भारतवर्ष में लगभग 300 से भी अधिक केंद्र हैं।  भारतवर्ष में पश्चिम बंगाल में तो है ही, इसके अलावा बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा , गुजरात , छत्तीस गढ़ , आंध्र प्रदेश, मध्यप्रदेश आदि विभिन्न राज्यों में हमारे लड़के काम करते जा रहे हैं।

       1967 से यह आंदोलन शुरू होकर अभी 2024- तक इस आंदोलन के 57 वर्ष बीत चुके हैं। इन विगत 57 वर्षों में कम से कम कई हजार युवा महामण्डल के माध्यम से अपना जीवन गठित कर सुनागरिक -भारत के प्रबुद्ध नागरिक बन चुके हैं। तब आप पूछेंगे यदि ऐसा है- हजारों युवा जब सुनागरिक बन चुके हैं तो, हमारे देश में ऐसी अराजकता क्यों है ? उसका उत्तर होगा - क्योंकि वैसा होना ही स्वाभाविक है ! स्वामीजी ने कहा था कुत्ते की टेंढ़ी पूँछ कभी सीधी नहीं होगी। संसार उसीकी गति से चलता रहेगा, और हमारा कार्य भी चलता रहेगा। इसीलिये महामण्डल के कार्य का कोई अंत नहीं है। स्वामीजी द्वारा युवाओं के ऊपर सौंपा गया यह कार्य- 'Be and Make ' - अर्थात तुम स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने सहायता करो,  बनाओ कार्य कभी समाप्त होने वाला नहीं है ! स्वामीजी का यह विचार - "मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण " (Man-Making and Character-Building) अनन्त काल तक चलता रहने वाला कार्य है। कोई व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता कि मैंने 15 या 20 वर्षों का एक कोर्स किया है ; महामण्डल के 20 कैम्प कर लिये हैं - अब मैं मनुष्य बन चुका हूँ। मनुष्य बनने और बनाने -(अर्थात बुद्ध और ईसा जैसा महापुरुष बनने और बनाने) का कोई अन्त नहीं है ! मनुष्य बन जाने के लिए सारा जीवन इस आंदोलन के साथ जुड़ा रहना होगा। जितने दिनों तक उसके प्राण है,अंतिम साँस तक इसके साथ जुड़े रहकर 3H विकास के 5 अभ्यास को सीखने की चेष्टा करते रहना होगा। 

    स्वामीजी के इस महावाक्य में केवल दो छोटे से शब्द हैं - Be and Make ! स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो। बहुत पहले जब मेरी आयु बहुत कम थी, छात्र जीवन में था  - नवनीदा से पूछने का मेरे में साहस नहीं था। तब मैंने जयराम महाराज को एक दिन अकेला पाकर उनसे पूछा था -महाराज यह  'Make' वाला कार्य कैसे होगा ? उन्होंने कहा था - तुम्हें इतना सोंचने की जरूरत नहीं है, पहले तुम स्वयं मनुष्य बनो। तुम्हारे जीवन को देखकर , दूसरे लोग Inspired -अनुप्रेरित हो जायेंगे। एक जीवन से दूसरा जीवन तैयार किया जाता है।  জীবন দিয়ে জীবন তৈরি করা যায় 'A Life can be built with another life'- जीवन गठन करने के लिए किसी को शिक्षा नहीं दिया जाता है मैं किसी को सीखा सकता हूँ - वह एक गलत धारणा है। 

    बहुत कुछ और बोलना था- लेकिन मेरा समय पूरा हो गया-60 वर्ष का इतिहास 15 मिनट में कहना सम्भव नहीं होता है। असम्भव है। केवल एक बात कहकर शेष करता हूँ -1916 में नवनीदा का शरीर जाने के बाद , जयराम महाराज 2017 में रामकृष्ण मठ मिशन के प्रेसिडेन्ट हो चुके थे !  तनु बाबू के बारे में पहले कहा था, तनु लाल पाल का मकान कुछ हिस्सा दूसरे लोगों के हाथ में था। हमलोग बहुत कष्ट करके 2018 में, उनलोगों से स्वयं चंदा इकट्ठा करके खरीद लिया गया। बाकि हिस्सा तनु दा ने दान में दे दिया। हमारे भाइयों ने ही चंदा इकट्ठा किया -लभग एक करोड़ रुपया के लागत से बना। महाराज सुनकर आश्चर्य चकित थे, उन्होंने  कहा था -इतना पैसा तुमलोग कहाँ से लाएगा ? उधार पसंद नहीं करते थे - तुमलोग कहीं से मत लेना। विशेष रूप से कोई बिल्डिंग बनाना ही वे पसंद नहीं करते थे। उन्होंने बार बार कहा था - किसी बड़े सेवा काम को हाथ में मत लेना। रामकृष्ण मिशन उसके लिए है - उसके साथ कभी तुलना मत करना। चूँकि हमलोग मिशन के साथ बहुत निकट से जुड़े हुए हैं, इसलिए उनसे Motivated होकर हमलोग भी कोई बड़ा Social Work करें। उन्होंने मना किया था। 

      उन्होंने बार बार कहा था, जब वे अस्वस्थ हो गये थे, तब भी कहा था -तुम्हारे महामण्डल का आदर्शवाक्य (motto) है 'Be and Make ' और रामकृष्ण मिशन का motto है - 'आत्मनो मोक्षार्थं जगत हिताय च " दोनों में मिलों का अन्तर है- Don't get Confused. भ्रमित मत होना। हॉस्पिटल बनाना, स्कूल -कॉलेज खोलना , विभिन्न प्रकार के रिलीफ वर्क या सोशल वर्क करना- ये सब तुम लोगों का काम नहीं है। मनुष्य बनो और बनाते चले जाओ -Be and Make! इससे ही नया भारत गढ़ेगा।  इससे बड़ा, सबसे बड़ा सामाजिक सुरक्षा,  welfare, समृद्ध देश का निर्माण नहीं हो सकता है। इससे बड़ा कोई सोशल वर्क नहीं किया जा सकता है- सर्वश्रेष्ठ समाज सेवा है - 'Be and Make ' जयराम महाराज महामण्डल भवन के शिलान्यास के समय वहां आये थे। 2018 के सितम्बर महीने में उन्हीं के हाथ से इस भवन की बुनियाद रखी गयी थी। सियालदह स्टेशन के निकट एक छोटी सो गली में स्थित एक छोटा भूमि खंड। बहुत कष्ट करके वे पहुँचे थे। 

उनके भीतर एक अद्भुत अनुभूति काम करती थी , हमलोगों ने देखा है महामण्डल का कोई लड़का उनसे मिलने गया है , कोई लड़का उनको प्रणाम करने आया है -सुनते ही वे व्यग्र हो उठते थे। भाइयों ने मुझे बताया कि झाड़ग्राम में एक नया टेकओवर हुआ है , महाराज वहां दीक्षा देने गए थे। उस समय सान्तनु महाराज भी वहीं पर थे। हमलोगों के कई सौ युवा भाई वहाँ महामण्डल के सदस्य हैं। कई स्थानों पर वहां पाठचक्र होता है। उनके सेवक ने बताया कि महाराज महामण्डल के लड़के लोग आये हैं। वे लम्बी यात्रा के बाद-4 -5 घंटा जर्नी से थोड़ा tired हो गए थे। भाइयों ने बताया की सुनते ही वे ताजा हो गए थे। 

    और मैं तो खुद इसका साक्षी हूँ। मैं जब कभी उनके पास गया हूँ -समय या असमय भी,  चाहे वे बेलूर मठ में रहे हों या नरेन्द्रपुर में या सरिसा में या बड़नगर में और कहीं गए हों देखते ही महामण्डल की बात करते थे। 24 जुलाई 2023 को लास्ट बार मैं उनसे नरेन्द्रपुर में मिलने गया था। उस समय शरीर इतना अस्वस्थ नहीं था किन्तु थके हुए थे। शाम के समय restricted दर्शन की अनुमति थी। मैं उसके पहले चला गया। बोला दीप्ती महाराज से appointment लिया हूँ। उनके पैरों में बैठकर मैंने हाथ जोड़कर कहा था -महाराज आज मैं आपको छोड़ूँगा नहीं - आपको कमरे में जाने नहीं दूँगा। क्यों ऐसा बोला नहीं जानता। सेवक महाराज बोले एक घंटा विश्राम लेने के बाद अब वे प्रणाम में बैठेंगे -आप उनको छोड़ दीजिये। 

    नहीं उनको उत्तर देना ही होगा -मैं जानना चाहता हूँ कि महामण्डल के भाइयों के लिए क्या सन्देश है , आपको हर समय मिलना सम्भव नहीं होता है। केवल दो बात बोलना -"सभी सदस्यों को स्वामीजी की पुस्तकों को पढ़ने के लिए कहना। और  स्वामीजी के सन्देश को युवाओं के बीच जितना अधिक से अधिक हो सके प्रसारित कर सकते हो करते रहने को कहना। " महाराज ने अपने हाथों से हमलोगों को तैयार किया है न , महाराज ने  जीवन भर हमलोगों को इंस्पायर किया है न ? हर समय हमलोगों के साथ थे। मेरा दृढ़ विश्वास है कि वे इस समय भी हैं, और बाद के समय भी हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। महामण्डल को वे ही आगे ले जायेंगे - ॐ शान्ति,शान्ति , शांति। हरिः ॐ तत्सत।                                                                                       

=========

[#अंग्रेजी कविता- 'कॉसाबियांका ' (Casabianca)...पार्क सर्कस के उस साम्प्रदायिक घटना का जिसका जिक्र दीपक दा ने अपने भाषण में किया -  "उसका उल्लेख करते हुए नवनीदा ने जीवन नदी०-..पुस्तक पेज 119-22 में  लिखा है - " पार्क सर्कस मैदान में निर्मित जिस विशाल पण्डाल में वह भव्य कार्यक्रम इतने दिनों तक चलने वाला था,....  उसके विभिन्न टिकट काउंटर्स में टिकट देना, बेचे गए टिकटों का हिसाब रखना तथा बिक्री से आये समस्त रूपये -पैसों को संभाल कर रखना- अर्थात काउंटर्स संचालित करने का दायित्व मुझे दिया गया था। मेरे पास रुपयों से भरी एक बड़ी सी झोली हुआ करती थी -जिसमें कई प्रकार के ढेरसारे नोट एवं खुदरा पैसे आदि रखे होते थे। स्वामी भाष्यानंद जी प्रतिदिन कार्यक्रम प्रारम्भ होने से पहले अपनी गाड़ी से मुझे वहाँ पहुँचा देते थे, तथा कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात मुझे अपने साथ लेकर आते थे। ... उस दिन टिकटों की खूब बिक्री भी हुई थी। रुपयों से भरी एक लम्बी सी बोरी और बचे हुए टिकटों को लेकर आखिर मैं जाता भी तो कहाँ ? .... उसी बोरी को लेकर मैं मंच पर चढ़ गया तथा उसी बोरी को तकिया बनाकर सो गया। सुबह उस बोरी को किसी प्रकार खींचते हुए एक ट्राम पर चढ़ गया और मौलाली चला आया। निकट में ही सूर महाशय के मकान में स्वामीजी का शतवार्षिकी ऑफिस था। ..वहीं स्वामी समबुद्धानन्द जी के पास सारे रूपये जमा करवा दिए। .... उस दिन की घटना से मुझे बहुत अच्छी सीख मिली की कठिन परिस्थितियों में कार्य करते हुए भी -इतना निश्चिंत होकर रहा जा सकता है ! (सोया भी जा सकता है !) किसी भी परिस्थिति में घिरने पर भय का नामो-निशान नहीं रहेगा। किसी भी अभाव में पड़ने पर कष्टबोध नहीं होगा , और जो भी दायित्व सौंपा गया हो उस कर्तव्य का सम्पूर्णतया पालन कविता के  'कैसाबियांका' नामक उस आज्ञाकारी लड़के की तरह करना होगा। जिसकी सच्ची कहानी पर आधारित है अंग्रेजी कविता- 'Casabianca' (कैसाबियांका) कविता का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है " The poem starts: "The boy stood on the burning deck, Whence all but he had fled !" उस सच्ची कहानी के अनुसार कैसाबियांका इतना आज्ञाकारी था कि, जब सभी भाग गए थे लेकिन जहाज के जलते हुए डेक पर भी खड़े रहकर वह लड़का अपने पिता के आदेशों का इंतजार इसलिए कर रहा था, क्योंकि उसे यह नहीं मालूम था कि उसके पिता अब जीवित नहीं हैं।जहाज में आग लग गयी है, किन्तु जिसे जहाँ खड़े रहने के लिए कहा गया हो, उसे वहीं खड़ा रहना होगा। आग से डरकर भागना नहीं होगा, यदि हम ऐसा करने में समर्थ हो गए - तो उसी में है ब्रह्मानन्द (बृहद आनन्द) !" [(जीवन नदी०- पेज 119 -... [42] विवेक-जीवन ब्लॉग - 31 जुलाई 2010" कर्तव्य निष्ठा "नोट हिन्दी अनुवादक साभार //'कॉसाबियांका ' ]  

>>Vivekananda: His Call to the Nation  (Paperback-Ratings 5 & Best Reviews) :

"It is the Best Book I have ever read, and still keep reading..! It's really a wonderful inspiring book everybody should read. It's an extraction of Swami Vivekananda's Complete Works. I can say it's The Bhagavat of Hindus, the Quran for Muslims, and the Holy Bible for Christians.

Contents:

1. A Brief Life of Swami Vivekananda : स्वामी विवेकानन्द की संक्षिप्त जीवनी। 

2. Faith and strength : श्रद्धा और बल 

3. Powers of the Mind : मन की शक्तियाँ 

4. Man the Maker of His Destiny : मनुष्य -अपना भाग्यनिर्माता।  

5. Education And Society : शिक्षा और समाज 

6. Serve Man As God : मनुष्य की ईश्वरभाव से सेवा 

7. Religion and Ethics : धर्म और नीति 

8. India: Our Motherland : हमारी मातृभूमि भारत 

9. Other Exhortations : विविध उपदेश 

10. Context list (References) संदर्भ सूची

This is the best guide to make everyone realize their strengths oneself. Though there are translations available I suggest you read this book in your mother tongue with the English edition also. Swami Vivekananda Says "Never Say No. Never Say I can't even time and space are nothing compared to your nature. You can do anything and everything. You are Almighty..!"

There cannot be any other book better than this for the whole of humanity, particularly for the young generation. The book will serve the young mind to develop into a noble human being who will be able to live a life of contentment and will be able to contribute towards the welfare of humanity.

To build a Selfless youth and to lead the future one must read and make your friends read this book..! Get charged with the inspiring words of a great soul.

(Jagadish Appana Seo/Sep, 2013)

[1970 में नागपुर से हिन्दी भाषा में  प्रकाशित पुस्तक "विवेकानन्द - राष्ट्र को आह्वान" का मूल्य अभी 15 रुपया है। [ask why CW not available on Internet? बंगाली, मराठी, गुजराती में वि० साहित्य है, तो नागपुर-गोवा से हिन्दी में क्यों नहीं है ?]

===============











बुधवार, 10 अप्रैल 2024

🕊🏹"कर्म ~ Be and Make " से आनन्द की प्राप्ति-1 : 🕊🏹तैत्तिरीय उपनिषद का सार🕊🏹 Happiness acquired through The Work - "Be and Make " -1) कर्म का चरित्र पर प्रभाव [KARMA IN ITS EFFECT ON CHARACTER]🕊🏹

🕊🏹 तैत्तिरीय उपनिषद का सार 🕊🏹

Essence of The Taittiriya Upanishad 


परिचय (Introduction) :

1. प्रारम्भावस्था में वेद केवल एक ही था; वेद में अनेकों ऋचाएँ थीं, जो “वेद-सूत्र” कहलाते थे; वेद में यज्ञ-विधि का वर्णन है; साम (अर्थात गाने योग्य) पदावलियाँ है तथा लोकोपकारी अनेक ही छन्द हैं। इन समस्त विषयों से सम्पन्न एक ही वेद सत्युग और त्रेतायुग तक चलता रहा।  द्वापरयुग में महर्षि कृष्णद्वैपायन ने वेद को चार भागों में विभक्त किया। इस कारण महर्षि कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। संस्कृत में विभाग को “व्यास“ कहते हैं, अतः वेदों का व्यास करने के कारण कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। महर्षि वेद व्यास के चार प्रमुख शिष्य थे, उन्होंने  ने पैल को ऋग्वेद, वैशम्यापन को यजुर्वेद, जैमिनी को सामवेद और सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी थी । 

यजुर्वेद संहिता के दो भाग हैं: 1. कृष्ण यजुर्वेद 2. शुक्ल यजुर्वेद। यह उपनिषद कृष्ण-यजुर्वेद से संबंधित है। यजुर्वेद मुख्यत: अध्वर्यु पुरोहितों की दिग्दर्शिका (guide book) है; जो कर्मकांडों के नियमों का पालन करते थे। वैदिक कर्मकांड के चार मुख्य ऋत्विजों (पुरोहितों) में से मुख्य ऋत्विक/ ऋत्विज (C-IN-C) को अध्वर्यु कहा जाता है। 'अध्वर्यु' का अर्थ ही है 'यज्ञ करनेवाला'। वह अपने मुख से तो यज्ञ-मंत्रों का उच्चारण करता जाता है और अपने हाथ से यज्ञ की सब विधियों का संपादन भी करता है। अध्वर्यु का अपना वेद 'यजुर्वेद' है, जिसमें गद्यात्मक मंत्रों का विशेष संग्रह किया गया है और यज्ञ के विधानक्रम को दृष्टि में रखकर उन मंत्रों का वही क्रम निर्दिष्ट किया गया है।
यजुर्वेद और याज्ञवल्क्य ऋषि...यजुर्वेद का संबंध यज्ञ से है... ज्ञान को कर्म में परिणित करना इसका उद्देश्य है। कर्म के लिए प्रेरित करने वाला शास्त्र होने के कारण ही इसे कर्मवेद के रूप में भी पहचाना जाता है। वैशम्पायन के शिष्य याज्ञवल्क्य ऋषि थे, जिनसे वाद-विवाद होने के कारण याज्ञवल्क्य ने 'शुक्ल यजुर्वेद' को प्रसारित किया।...शुक्ल यजुर्वेद का चालिसवाँ अध्याय "ईशोपनिषद" के नाम से प्रसिद्ध है। ईशोपनिषद् के दूसरे मंत्र में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने को कहा गया है:

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ 

( ईशोपनिषद्-2)  

इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार ~ 'मनुष्य' (महापुरुष) बनो और बनाओ, का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म ~ "Be and Make " करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता

महर्षि याज्ञवल्क्य के द्वारा वैदिक मन्त्रों को प्राप्त करने की रोचक कथा पुराणों में प्राप्त होती है... वेदव्यास जी ने अपने शिष्य वैशम्पायन को यजुर्वेद सिखलाया। याज्ञवल्क्य वेदाचार्य महर्षि वैशम्पायन के शिष्य थे। इन्हीं से उन्हें मन्त्र शक्ति तथा वेद ज्ञान (महावाक्यों का ज्ञान) प्राप्त हुआ था। वैशम्पायन के शिष्य याज्ञवल्क्य ऋषि थे, जिनसे वाद-विवाद होने के कारण याज्ञवल्क्य ने 'शुक्ल यजुर्वेद' को प्रसारित किया। वैशम्पायन (C-IN-C) -अपने शिष्य याज्ञवल्क्य (Dy. C-IN-C) से बहुत स्नेह रखते थे और इनकी भी गुरु जी में अनन्य श्रद्धा एवं सेवा-निष्ठा थी।  किंतु दैवयोग से एक बार गुरु जी से इनका कुछ विवाद हो गया, जिससे गुरु जी (मुख्य ऋत्विक C-IN-C) रुष्ट हो गये और कहने लगे- 'मैंने तुम्हें यजुर्वेद के जिन मन्त्रों का उपदेश दिया है, उन्हें तुम उगल दो।' गुरु की आज्ञा थी, मानना तो था ही। निराश हो याज्ञवल्क्य जी ने सारी वेद मन्त्र विद्या का वमन कर दिया, जिन्हें वैशम्पायन जी के दूसरे अन्य शिष्यों ने तित्तिर (तीतर पक्षी) बनकर श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लिया अर्थात वे वेद मन्त्र (महावाक्य) उन्हें प्राप्त हो गये। ऐसा माना जाता है कि  तैत्तिरीय उपनिषद की रचना वर्तमान में हरियाणा के कैथल जिले में स्थित गाँव तितरम के आसपास हुई थी। याज्ञवल्क्य जी अब देवज्ञान से शून्य हो गये थे, गुरुजी भी रुष्ट थे ?, अब वे क्या करें? तब उन्होंने प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्यनारायण की शरण ली और उनसे प्रार्थना की कि "हे भगवन! हे प्रभो! मुझे ऐसे यजुर्वेद की प्राप्ति हो, जो अब तक किसी को न मिली हो।" 
        भगवान सूर्य ने प्रसन्न हो उन्हें दर्शन दिया और अश्वरूप धारण कर यजुर्वेद के उन मन्त्रों का उपदेश दिया, जो अभी तक किसी को प्राप्त नहीं हुए थे। ये मंत्र ही शुक्ल यजुर्वेद कहलाये। अश्वरूप सूर्य से प्राप्त होने के कारण शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा 'वाजसनेय' और मध्य दिन के समय प्राप्त होने से 'माध्यन्दिन' शाखा के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। इस शुक्ल यजुर्वेद-संहिता के मुख्य मन्त्रद्रष्टा ऋषि आचार्य याज्ञवल्क्य हैं। इस प्रकार शुक्ल यजुर्वेद हमें महर्षि याज्ञवल्क्य जी ने ही दिया है।  
      आज प्राय: अधिकांश लोग इस वेद शाखा से ही सम्बद्ध हैं और सभी पूजा अनुष्ठानों, संस्कारों आदि में इसी संहिता के मन्त्र विनियुक्त होते हैं। रुद्राष्टाध्यायी (शत रुद्रीय) नाम से जिन मन्त्रों द्वारा भगवान रुद्र (सदाशिव)- की आराधना होती है, वे इसी संहिता में विद्यमान हैं। इस संहिता का जो ब्राह्मण भाग 'शतपथ ब्राह्मण' के नाम से प्रसिद्ध है और जो 'बृहदारण्यक उपनिषद' है, वह भी महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा ही हमें प्राप्त है। बृहदारण्यक उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद की और कठोपनिषद, तैत्तिरीयोपनिषद, श्वेताश्वेतर उपनिषद, मैत्रायणी और कैवल्य उपनिषद कृष्ण-यजुर्वेद की उपनिषद हैं।  गार्गी, मैत्रेयी और कात्यायनी आदि ब्रह्मवादिनी नारियों से जो इनका ज्ञान-विज्ञान एवं ब्रह्मतत्व-सम्बन्धी शास्त्रार्थ हुआ... वह भी प्रसिद्ध ही है। याज्ञवल्क्यजी विदेहराज जनक-जैसे अध्यात्म-तत्त्ववेत्ताओं के ये गुरुपद्भाक रहे हैं। इस प्रकार महर्षि याज्ञवल्क्यजी का लोक पर महान उपकार है। वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों तथा उपदेष्टा आचार्यों में महर्षि याज्ञवल्क्य का स्थान सर्वोपरि है। ये महान अध्यात्म-वेत्ता, योगी, ज्ञानी, धर्मात्मा तथा श्री रामकथा के मुख्य प्रवक्ता हैं। इन्होंने ही प्रयाग में भारद्वाज जी को श्री रामचरित मानस सुनाया।भगवान सूर्य की प्रत्यक्ष कृपा इन्हें प्राप्त थी। पुराणों में इन्हें ब्रह्मा जी का अवतार बताया गया है।

[सारांश 1.  प्रवृत्ति मार्गी महर्षि याज्ञवल्क्य का अपने गुरु वैशम्पायन से किसी बात पर वाद-विवाद हो गया था।  उनके गुरु वैशम्पायन ने उनसे वह वेद वापस करने को कहा, जिसका अध्ययन उन्होंने उनके अधीन किया था -अर्थात 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ' में किया था। याज्ञवल्क्य ने पढ़ा हुआ यजुर्वेद उल्टी कर दिया। वैशम्पायन के शिष्य अन्य ऋषियों ने तीतर (पक्षी) का रूप धारण किया और वेद को निगल लिया, इस प्रकार बाहर फेंक दिया या उल्टी कर दी। इसलिए इसे तैत्तिरीय-संहिता के नाम से जाना जाने लगा।]

2.  तैत्तिरीय उपनिषद को तीन खंडों में विभाजित किया गया है, प्रत्येक को 'वल्ली' कहा जाता है। (1) शिक्षा-वल्ली ( निर्देश पर अनुभाग, the section on instruction) (2) ब्रह्मानंद-वल्ली या ब्रह्म के आनंद पर अनुभाग। (3) भृगु-वल्ली या भृगु पर अनुभाग।

शिक्षा-वल्ली

 ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः॥ शं नो भवत्वर्यमा॥ शं न इन्द्रो बृहस्पतिः॥ शं नो विष्णुरुरुक्रमः। नमो ब्रह्मणे॥ नमस्ते वायो॥ त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि॥ त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि॥ ऋतं वदिष्यामि॥ सत्यं वदिष्यामि॥ तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु॥ अवतु माम्‌। अवतु वक्तारम्‌।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
        इस शी'क्षा-वल्ली  का प्रथम अनुवाक मंगलाचरण  है। उपदेश देने से पहले ऋषि अपने और शिष्य के दोनों के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं। 'ॐ' इस परमेश्वर के नाम का स्मरण करके उपनिषद का आरम्भ किया जाता है। इस उपनिषद के प्रारम्भ में संपूर्ण सृष्टि की भलाई के लिए परमात्मा से की गई यह प्रार्थना भारतीय आध्यात्मिक चिंतन का महान एवं अद्वितीय गुण है। सबके हर दुख का निवारण, परम आनंद की अनुभूति, परम शांति की प्राप्ति- यही हिंदू सनातन चिंतन की दिशा रही है। 
...  ॐ 'शन्नो मित्र: शं वरुण:। नः = हमारे लिए,  दिन और प्राण के अधिष्ठाता मित्र देवता  - शं यानि कल्याणप्रद हों।  तथा रात्रि और अपान के अधिष्ठाता वरुण भी कल्याणप्रद हों। " शन्नो भवत्वर्यमा। शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः। शन्नो विष्णुरुरूक्रमः।'  (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/1)। इस अनुवाक में उन सभी देवताओं से जिन्हें परमात्मा ने सृष्टि का प्रबंधन करने के लिए नियुक्त किया है, यथा- मित्र, वरुण, अर्यमा, बृहस्पति और अन्य देवता, आप सभी से अनुरोध है कि सभी देवगण हमारे लिए आनंद और कल्याण का स्रोत बनें और हर किसी पर शांति की वर्षा करें। 
     आइए अब इस मंत्र में एक अन्य संदेश को देखें। 'नमो ब्रह्मणे' - उपरोक्त समस्त देवताओं के आत्मस्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ। 'नमस्ते वायो'। समस्त प्राणियों में सूत्रात्मा प्राण के रूप में व्याप्त उन परमेश्वर की वायु के नामसे स्तुति करते हैं - हे सर्वशक्तिमान सबके प्राणस्वरूप वायुमय परमेश्वर ! तुम्हें नमस्कार है। वास्तव में दृश्यमान ब्रह्म तुम्हीं हो । मैं तुम्हें ही सत्य कहूंगा। वह सत्य मेरी रक्षा करें। वह शिष्य की रक्षा करें। ॐ शांति, शांति, शांति!

>> 'ॐ-शांति' तीन बार क्यों कहा ?  क्योंकि 'ॐ-शांति' का तीन बार जाप करने से तीन प्रकार की बाधाएं दूर हो जाती हैं। आध्यात्मिक (हमारे स्वयं से), अधिदैविक (स्वर्ग से) और आधिभौतिक (जीवित प्राणियों से)।

>>> शांति मंत्र का उच्चारण देवताओं को प्रसन्न करता है। उनकी कृपा से आध्यात्मिक मार्ग सुगम हो जाता है। सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। आपने जो सीखा है उसे आप कभी नहीं भूलेंगे। आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। आपका ध्यान अच्छा रहेगा। 
>>> नमस्ते वायु ही क्यों ? क्योंकि वायु ही हिरण्यगर्भ या ब्रह्मांडीय प्राण है।

11. मित्र (सूर्यदेव), प्राण और दिन की गतिविधि के अधिष्ठाता देवता हैं। वरुण अपान और रात्रि की गतिविधि के अधिष्ठाता देवता हैं। अर्यमा (सूर्य) नेत्र और सूर्य के अधिष्ठाता देवता हैं। इंद्र शक्ति और हाथों के अधिष्ठाता देवता हैं। बृहस्पति वाणी और बुद्धि के अधिष्ठाता देवता हैं। विष्णु चरणों के अधिष्ठाता देवता हैं।

>>भारतीय शिक्षा -पद्धति का लक्ष्य है 'मनुष्य' (महापुरुष) निर्माण : तैत्तरीय उपनिषद के पहले खंड शिक्षा -वल्ली मेंआचार्य  [ 'अध्वर्यु'  'यज्ञ करनेवाला' मुख्य ऋत्विक, गुरु, मार्ग-दर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक (preceptor' C-IN-C अविनाशी सत्य (इन्द्रियातीत सत्य को जानने के पहले) सत्यार्थीयों (परम् सत्य के खोजी) को सबसे पहले अपरा विद्या और परा विद्या दोनों प्रकार की शिक्षा प्रदान करने में समर्थ वैदिक शिक्षा की गुरु-शिष्य परम्परा के महत्व को समझाते हैं।  

दोनों का अध्ययन तेजस्वी हो

जैसे अध्ययन और अध्यापन का विचार अलग-अलग नहीं किया जाता, एक साथ किया जाता है। ठीक वैसे ही आचार्य और छात्र का विचार भी एक साथ ही किया जाता है। एक साथ मिलकर किये जाने वाले अध्ययन-अध्यापन कार्य के सम्बन्ध में उपनिषद का शान्ति पाठ यह कहता है –

ॐ सहनाववतु। सहनौभुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। 
मा विद्विषावहै। ओम् शान्ति:शान्ति: शान्ति: ।।

हे परमात्मा! आप हम दोनों (गुरु-शिष्य) की साथ-साथ रक्षा करें, दोनों का साथ-साथ पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ बल सम्पादन करें। हम दोनों का अध्ययन तेजस्वी हों। हम परस्पर द्वेष न करें। सर्वत्र शान्ति रहे
आचार्य और छात्र की इस संयुक्त प्रार्थना में दोनों को शिक्षा का कार्य मिलकर करना है। दोनों का अध्ययन तेजस्वी होना चाहिए। और दोनों आपस में ईर्ष्या न करें। जब द्वेष भाव से शिक्षा कार्य होता है, तब विद्या दूषित होती है और सबको हानि पहुँचाती है। विद्या को शुद्ध और पवित्र बनाये रखने के लिए आचार्य और छात्र के अन्त:करण और व्यवहार शुद्ध होने चाहिए।

आचार्य और छात्र का परस्पर भाव

जैसे लोक मान्यता में कहावत है –“बेटा बाप से सवाया” अर्थात् पिता से पुत्र सवाया होना चाहिए। यही अपेक्षा शिक्षा क्षेत्र से भी है कि गुरु से शिष्य आगे जाना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब एक आचार्य ज्ञान के क्षेत्र में तेजस्वी छात्र के हाथों पराजित होने की चाह रखे। 
आचार्य के लिए कहा भी है –“शिष्यात् इच्छेत् पराजयम्।”
इसी प्रकार छात्र के लिए अपेक्षित है कि वह अपने आचार्य को भगवान सदृश मानें। इसलिए ही गुरु को साक्षात परब्रह्म मानने वाला श्लोक हमारे साहित्य में है –
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु:गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नम:।।
ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम् ! 
मन्त्र मूलं गुरु: वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरु कृपा !! 
गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही शिव है। गुरु ही साक्षात परमात्मा है, उस गुरु को नमन करता हूँ। 
जब अपने आचार्य के लिए शिष्य के मन में श्रद्धा का भाव एवं उनके प्रति पूर्ण समर्पण होता है, तभी गुरु उसे अपने से सवाया गढ़ता है। आज हम ऐसे ही गुरु और शिष्य की आदर्श जोड़ी के जीवन प्रसंगों से प्रेरणा प्राप्त करेंगे।

श्री रामकृष्ण और नरेन्द्र

बात है 13 सितम्बर 1893 की। आज से लगभग 127 वर्ष पहले, अमेरिका के शिकागो शहर में विश्व धर्म सम्मेलन हो रहा था। भारत का एक युवा संन्यासी उस धर्म सभा में अपनी बात रखने के लिए खड़ा हुआ। उसने सभा को सम्बोधित किया, “मेरे प्यारे अमेरिकन भाइयों और बहनो!” सम्बोधन सुनते ही तालियों की जो गड़गड़ाहट शुरु हुई वह दो मिनट तक बजती ही रही। इस युवा संन्यासी ने गुलाम देश भारत के श्रेष्ठ तत्त्वज्ञान की दुन्दुभी बजाई और आध्यात्मिक विजय प्राप्त की।

ये आध्यात्मिक विजय प्राप्त करने वाले युवा संन्यासी थे स्वामी विवेकानन्द और इन्हें इस योग्य बनाने वाले गुरु थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस। माँ काली के अनन्य भक्त श्री रामकृष्ण परमहंस गुरु थे तो विश्व विजयी विवेकानन्द उनके शिष्य थे। गुरु और शिष्य की यह जोड़ी अपने आप में अनूठी है।

रामकृष्ण वैसे तो माँ काली के सामान्य भक्त माने जाते थे परन्तु उन्होंने सभी धर्मों की पद्धति के अनुसार साधना कर उनके भगवानों को भी पाया था। और इस बात की प्रत्यक्ष अनुभूति की थी कि ईश्वर एक ही है, लोग उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। उनमें अनेक सिद्धियाँ थीं, किन्तु वे तो सिद्धियों से ऊपर उठ चुके थे। उन्होंने समाधी की अन्तिम स्थिति प्राप्त करली थी, इसलिए वे परमहंस कहलाये

उनके शिष्य विवेकानन्द जिनके बचपन का नाम था, नरेन्द्र। शिष्य के नाते नरेन्द्र कैसा था? विलक्षण बुद्धि का धनी, तर्क की कसौटी पर कसकर मानने वाला। जो भी मिलता उससे सीधा प्रश्न पूछते, “आपने भगवान को देखा है ?” कोई भी इस प्रश्न का उत्तर हाँ देने वाला नहीं मिला। ऐसे तर्कवान नरेन्द्र को जब पहली बार एक पागल से दिखने वाले पूजारी ने रामकृष्ण ने कहा – “हाँ, मैने देखा है। क्या मुझे भी दिखा सकते हो? हाँ, दिखा सकता हूँ। परन्तु तुम्हें दक्षिणेश्वर आना पड़ेगा।

बस यहीं से चुम्बकीय आकर्षण का प्रभाव चालू हो गया।अब नरेन्द्र का प्रतिदिन दक्षिणेश्वर जाने का क्रम शुरु हो गया। कभी नरेन्द्र नहीं जा पाता तो रामकृष्ण व्याकुल हो जाते। एक बार अज्ञानवश नरेन्द्र गुरु से रूठ गये, परन्तु अधिक समय तक रूठे रह न सके। ऐसा अनन्य प्रेम था दोनों में, एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता था।

नरेन्द्र एक दिन रामकृष्ण के सामने बैठे ईश्वर विषयक चर्चा कर रहे थे। उन्होंने अचानक नरेन्द्र के भ्रूमध्य में अपना अंगूठा रखा, अंगूठे का स्पर्श होते ही नरेन्द्र चीखा मुझे बचाओ-मुझे बचाओ! ज्योंही अंगूठा हटा त्योंही नरेन्द्र शान्त व सहज हो गया। उसने पूछा आप मुझे कहाँ ले जा रहे थे? गुरु ने कहा, बस इतने में घबरा गया। अरे! तुझे तो बहुत आगे तक जाना है। यह था, एक गुरु का तार्किक शिष्य को बोया, अनुभूत उत्तर

ऐसे ही एक दिन नरेन्द्र ने घर की आर्थिक कठिनाइयों से तंग आकर गुरु से कहा, आप तो माँ काली से बात करते हो। जरा मेरे लिए भी माँ से कहो ना कि घर में दो समय के भोजन की व्यवस्था ठीक हो जाय। गुरु जानते थे कि इसका मूर्ति में विश्वास नहीं है। इसलिए उन्होंने कहा, मुझे क्यों कहता है? जा तू ही माँ से माँग ले। नरेन्द्र को यों माँ से माँगने में संकोच हो रहा था, परन्तु गुरु ने उसे विश्वास दिलाया कि जा, माँ तुझे अवश्य देगी। गुरु के आग्रह पर नरेन्द्र पहली बार माँ से माँगने गया, परन्तु अर्थ के स्थान पर माँ से ज्ञान, भक्ति और वैराग्य माँगकर लौट आया। गुरु ने उसे तीन बार भेजा, परन्तु उसने तीनों ही बार ज्ञान, भक्ति व वैराग्य ही माँगा। इस प्रकार उन्होंने नरेन्द्र के हृदय में श्रद्धा का बीज बोया

एक शिष्य के रूप में नरेन्द्र ने भी गुरु सेवा में कोई कमी नहीं रखी। गुरु के अन्तिम समय में उन्हें कैंसर का फोड़ा हो गया था। उसमें से दुर्गन्ध युक्त पीप निकला करती थी। इसलिए दूसरे शिष्य उनकी सेवा से कतराते और दूर ही रहते। एक दिन नरेन्द्र ने सब शिष्यों के सामने एक प्याले में फोड़े में से पीप निकाली और बिना नाक-भौंह सिकोड़े वह पीप पी गये। शिष्य यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह गये। ऐसी अनन्य गुरु भक्ति थी नरेन्द्र में। तभी तो रामकृष्ण ने अपना सबकुछ नरेन्द्र में संक्रान्त कर दिया।

गुरु ने नरेन्द्र को ज्ञान की भट्टी में तपा कर ऐसा विवेकानन्द बना दिया कि वे शिकागो विश्वधर्म सम्मेलन में उस वेदान्त रूपी फौलादी तलवार के द्वारा अन्य मत-मतन्तरों के अज्ञान जनित तर्कों को काट कर भारतीय वेदान्त की पताका फहराने में विजयी हुए।

गुरु का नरेन्द्र को गढ़ने का ऐसा ही एक प्रसंग ध्यान में आता है। रामकृष्ण परमहंस सभी शिष्यों को उपदेश दे रहे थे। वे समझा रहे थे कि जीवन में सही अवसर आते हैं, किन्तु व्यक्ति ज्ञान व साहस की कमी के कारण उस अवसर का लाभ नहीं उठा पाता। शिष्यों को उनकी बात का मर्म समझ में नहीं आ रहा था। परमहंस यह बात जान गये। उन्होंने नरेन्द्र से पूछा, मान ले तू मक्खी है। तेरे सामने अमृत से भरा कटोरा रखा है। बता तू उस कटोरे में कूदेगा या किनारे बैठ कर अमृतपान करेगा? नरेन्द्र बोला मैं किनारे बैठकर अमृतपान करूँगा, यदि बीच में कूद पड़ा तो डूबकर मर जाऊँगा। सभी शिष्य नरेन्द्र का उत्तर सुनकर सन्तुष्ट हुए और उसकी प्रशंसा करने लगे। परन्तु रामकृष्ण जोर से हँसे, अरे मुर्ख! जिस अमृत को पीकर तू अमर हो जायेगा, उसमें डूबने से डरता है? जब अमृत में डूबने का अवसर मिल रहा है, तब मृत्यु का डर क्यों? अमृत पीने से तू वैसे ही अमर हो जायेगा। देखो! कुछ लोग तो अज्ञानवश अवसर को पहचान ही नहीं पाते। जो कुछ पहचान लेते हैं, वे साहस न होने से उसका लाभ नहीं ले पाते। तब जाकर शिष्यों को गुरु की बात समझ में आई।

यदि हम भी आध्यात्मिक क्षेत्र में सफल होना चाहते हैं तो हमें उस काम के प्रति पूर्ण समर्पण करने का, सही अवसर पहचानने का और लाभ लेने का साहस होना चाहिए। गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण के बिना ज्ञान और साहस नहीं मिलते।
नरेन्द्र जैसे शिष्य और रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु की जब जोड़ी बनती है, तभी विश्व में भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा होती है। आओ!हम इस अमूल्य स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make ' को जागृत करें और माँ भारती को फिर से जग में शिरमौर बनायें।
>> दूसरी  कथा है, रामानुज की। रामानुज का जीवन प्रारम्भ से ही घोर विपत्तियों में से गुजरा। इन विपत्तियों ने उनके जीवन को उज्ज्वल बना दिया। बहुत छोटी आयु में ही इनके पिता परलोक वासी हो गये। इन्होंने कांची जाकर यादवप्रकाश जी से  विद्याध्ययन किया और आचार्य रामानुज कहलाये। आपने ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम एवं दिव्यप्रबन्धम् की टीका लिखी।

आचार्य रामानुज ने अपने गुरु श्रीयतिराजजी से संन्यास की दीक्षा ग्रहण की। तिरुकोट्टियूर के महात्मा नाम्बि ने इन्हें अष्टाक्षर मंत्र (ॐ नमो नारायणाय) की दीक्षा दी। दीक्षा के साथ ही चेतावनी भी दी कि यह गुरु मंत्र परम गोपनीय नारायण मंत्र है। अनधिकारी को इसका श्रवण नहीं करना चाहिए। इस मंत्र के श्रवण मात्र से अधम से अधम प्राणी भी बैकुण्ठ के अधिकारी हो जाते हैं

गुरु के आदेशानुसार गुरु मंत्र किसी को भी बताना अपराध था। किन्तु आचार्य रामानुज तो उसी समय मंदिर के शिखर पर पहुँच गये और आवाज दे दे कर लोगों को जमा कर लिया। फिर जोर से बोलकर कहने लगे – सुनो-सुनो! सब लोग सुनो और याद कर लो। मैं तुम्हें भगवान नारायण का अष्टाक्षर मंत्र सुना रहा हूँ – “ॐ नमो नारायणाय।” इस मंत्र को सुनने से ही प्राणी बैकुण्ठ का अधिकारी हो जाता है। इस प्रकार हजारों लोगों को उन्होंने मंत्र सुना दिया।

गुरु को जब इस बात का पता चला तब वे बहुत क्रोधित हुए। रामानुज को बुलाया और कहा – तुमने यह क्या कर दिया? मेरी आज्ञा भंग करने का फल तुम जानते हो? इस तरह कोई मंत्र घोषणा की जाती है?

गुरुदेव! आपकी आज्ञा भंग करके मैं नरक में जाऊँगा, यही तो? परन्तु हजारों लोग यह मंत्र सुनकर श्री हरि के धाम पधारेंगे! मैं अकेला ही तो नरक की यातना भोगूँगा। इस अमूल्य ज्ञान को पाकर केवल मेरा कल्याण हो? इसके स्थान पर मुझे भले ही नरक मिले, किन्तु शेष सब लोगों का कल्याण होना अधिक श्रेष्ठ है।

गुरु ने रामानुज का उत्तर सुना तो गदगद हो गये। उन्हें अपने गले लगाते हुए कहने लगे, “तुमने तो मेरी आँखें खोल दी। सच में आचार्य तो तुम्हीं हो!” इन्हीं आचार्य ने आगे चलकर विशिष्टाद्वेत मत की स्थापना की और रामानुजाचार्य नाम से विख्यात हुए।

[साभार / https://rashtriyashiksha.com/remove-a-lot-of-fear-from-childrens-heads/– वासुदेव प्रजापति @@@(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।) भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-18 (आचार्य और छात्र सम्बन्ध)/ ] 

>>अनुवाक का अर्थ है किसी ग्रंथ विशेषतः वेदों का उपविभाग, कोई अध्याय या प्रकरण। यहाँ वे भारत का कल्याण करने की पात्रता अर्जित करने के लिए, अपने शिष्यों को सर्वप्रथम 
आत्मश्रद्धा, विवेक -प्रयोग और आत्ममूल्यांकन द्वारा आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के योग्य सदाचारी, 3H में विकसित,'निःस्वार्थपरता' आदि चरित्र के 24 गुण से सुशोभित मनुष्य (महापुरुष) बनने और बनाने (Be and Make) के लिए चरित्र-निर्माण की पद्धति का, या  सही जीवन के नियम-(Rules of right conduct ) का स्पष्ट निर्देश प्रदान करते हैं। 

>> 'अब हम शिक्षा की व्याख्या करेंगे'। इस प्रस्ताव के साथ, ऋषि शिक्षा के मुख्य विषयों को सूचीबद्ध करते हैं: ॐ शीक्षां व्याख्यास्यामः। वर्णः स्वरः। मात्रा बलम्‌। साम सन्तानः। इत्युक्तः शीक्षाध्यायः॥ (शिक्षा वल्ली 2. 1) 
ॐ। हम शिक्षा की अर्थात् मौलिकतत्त्वों की व्याख्या करेंगे। 'वर्ण' तथा 'स्वर', 'सुरतारत्व' (मात्रा) तथा 'प्रयास' (बल), 'समतान' (साम) तथा 'सातत्य' (सन्तान) इन छहों में हमने शिक्षा के अध्याय का कथन किया है।
 वर्ण का अर्थ है अक्षर। स्वरः का अर्थ है स्वर। वेदों के मंत्रों का उच्चारण ठीक से हो सके, इसके लिए शिक्षा ग्रंथों में सबसे पहले बताया गया है कि स्वर और व्यंजन मुंह या गले के किस भाग से उत्पन्न होते हैं, साथ ही उनकी उत्पत्ति कैसे होती है। और उनका असली उच्चारण वास्तव में क्या है।  इसमें स्वर जैसे 'अ - ए', 'इ - आई', 'उ - उ', 'ऋ - रु' आदि और व्यंजन जैसे 'क - का', 'ख - खा', 'ग गा', 'घ -घा' आदि शामिल हैं।  साम  = साम का अर्थ है अक्षरों के उच्चारण की समानता। सन्तानः का अर्थ है शब्दों को उनके क्रम के अनुसार उच्चारण करने की प्रणाली। इसे संहिता के नाम से भी जाना जाता है। मंत्रों के उच्चारण के साथ-साथ मंत्रों के गायन को सक्षम बनाने के लिए स्वरों की भी अद्भुत व्यवस्था है। मात्रा का अर्थ है अवधि।  यहां वैदिक मंत्रों में स्वरों का उच्चारण कितनी अवधि तक करना चाहिए, यह बताया गया है। ह्रस्व (छोटा) और दीर्घ (लंबा) जैसी अवधियां उच्चारण की लंबाई दर्शाती हैं। बलम् का अर्थ है वह बल या प्रयत्न जिससे मंत्र के अक्षरों का उच्चारण करना चाहिए। इस प्रकार, वैदिक शिक्षा ग्रंथ वैदिक मंत्रों के उच्चारण के पहलुओं की विस्तृत व्याख्या देते हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए।
स्वाभाविक रूप से, कोई भी यह सवाल उठा सकता है कि वेदों के उच्चारण के लिए इस प्रकार के प्रणाली की क्या आवश्यकता थी । उत्तर सीधा है। हमारे वेद कोई साधारण पुस्तक नहीं, ईश्वरीय शास्त्र हैं।  वेद इन्द्रियातीत सत्यों का, शाश्वत सिद्धांतों का अर्थात महावाक्यों का सागर हैं। इसका प्रत्येक वाक्य एक शाश्वत सिद्धांत है- महावाक्य है। हमें अपने प्रश्न का उत्तर तब मिलेगा जब हम हजारों साल पहले के बारे में सोचें जब ज्ञान को लिखकर सुरक्षित रखने का कोई तरीका नहीं था। इन सिद्धांतों को संरक्षित करने के लिए, हमारे पूर्वजों ने पहले इनका सही उच्चारण करना आवश्यक समझा, क्योंकि वेदों का पाठ मंत्रों के रूप में किया जाता है। वैदिक मन्त्रों की रचना शब्दों से हुई है। और अक्षरों से शब्द बनते हैं। यदि मंत्रों के शब्दों का उच्चारण या क्रम बदल दिया जाए तो सिद्धांत बदल सकते हैं * या लुप्त हो सकते हैं। इस कारण से, वैदिक स्कूलों ने सबसे पहले अपने छात्रों को शिक्षा के बारे में सिखाया।  (महर्षि पतंजलि ने अपने भाष्य में कहा है - 'यथेन्द्रशत्रुः स्वरतो अपराधात।' - जैसे 'इन्द्रशत्रु' शब्द में स्वर की अशुद्धि हो जाने के कारण 'वत्रासुर' स्वयं ही इन्द्र के हाथ से मारा गया। ) 

>> तैत्तरीय उपनिषद, शिक्षा-वल्ली के तीसरे अनुवाक में वे इसका प्रयोजन बताते हैं कि- " सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्‌। " हम दोनों (आचार्य एवं शिष्य) एक साथ यश लाभ करें, एक साथ ब्रह्मतेज  (ब्रह्मवर्चस) प्राप्त करें। इसके पश्चात् हम संहिता के गहन अर्थ की व्याख्या करेंगे और शिक्षा के द्वारा लोकों के विषय में, ब्रह्मांड की ज्योतियों के विषय में, सभी प्रकार की विद्याओं के विषय में, विश्व की समस्त प्रकार की प्रजाओं के विषय में तथा शरीर और उसके स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण इन सभी रूपों के विषय में और इस प्रकार लोक, प्रजा, ज्योति, विद्या और जीवात्मा के समस्त स्तरों और रहस्यों के विषय में वर्णन करेंगे।  जिसके पाँच प्रमुख विषय (अधिकरण) हैं; 'लोकों' से सम्बन्धित (अधिलोकम्)ː 'ज्योतिर्मय अग्नियों' से सम्बन्धित (अधिज्योतिषम्)ː 'विद्या' से सम्बन्धित (अधिविद्यम्)ː 'सन्तति' (प्रजा) से सम्बन्धित (अधिप्रज्ञम्)ː 'आत्मा' से सम्बन्धित (अध्यात्मम्)। इन्हें 'महासंहिता' कहा जाता है।
>>महामण्डल के पाठचक्र या 'SPTC' में आचार्य का प्रवचन, दोनों पीढ़ियों को  (वर्तमान PR और भावी PR को) जोड़ने वाला होता है; ताकि दोनों में आत्मिक सम्बन्ध हों ! 

आज के समय में सामान्य व्यक्ति भी यह कहता है कि हमारे जमाने में आचार्य-छात्र सम्बन्ध जितने मधुर थे, वैसे आज नहीं हैं। हम अपने आचार्यों का बहुत अधिक सम्मान करते थे, कभी भी उनकी आज्ञा नहीं टालते थे। किन्तु आज तो ये सम्बन्ध बहुत अधिक बिगड़ गये हैं। अपने अध्यापक का आदर करना तो दूर, उनकी अवहेलना करना, उनके सामने बोलना तथा उनके साथ अभद्र व्यवहार करना सामान्य बात हो गई है, जो बिल्कुल अपेक्षित नहीं है।
ऐसे समय में (आज जब महामण्डल के) नई पीढ़ी को आचार्य और छात्रों के मध्य सम्बन्ध ऐसे क्यों हो गये हैं? कैसे होने चाहिए? दोनों के सम्बन्ध आत्मीय होना क्यों आवश्यक है? तथा ऐसे सम्बन्धों के परिणाम क्या होते हैं? इत्यादि बातों की जानकारी करवाना छात्र, आचार्य एवं देश तीनों के लिए हितकारी है।
आचार्य और छात्र के मध्य आदान-प्रदान होता है। आचार्य ज्ञान देता है और छात्र ज्ञान लेता है। शिक्षा के माध्यम से ज्ञान का आदान-प्रदान होता है। इससे ही ज्ञान परम्परा बनती है। अर्थात् ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होता है। इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से दो पीढ़ियों में ज्ञान सम्बन्ध बनता है और ज्ञान परम्परा का प्रवाह अखण्ड चलता रहता है। लेकिन आज इस मूल बात को भुला दिया गया है। 
शिक्षा के माध्यम से ज्ञान सम्बन्ध बनाने के स्थान पर व्यावसायिक सम्बन्ध बना लिए हैं। ज्ञान का स्थान पैसों ने/या नाम यश ने ? ले लिया है। जब सम्बन्धों का आधार पैसा/या नाम-यश होता है तो दोनों पक्ष अपना-अपना हित साधने में लगते हैं। जब किसी भी एक पक्ष को लगता है कि मेरा शोषण हो रहा है तब वह दूसरे पक्ष से द्वेष करने लगता है, और उनके सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। आज आचार्य व छात्र के मध्य सम्बन्ध बिगड़ने का मुख्य कारण यही है। तैत्तिरीय उपनिषद, शिक्षावल्ली के तीसरे अनुवाक में इस वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण प्रक्रिया (Be and Make) को बहुत अच्छी तरह समझाया गया है

"अथाधिविद्यम्। आचार्य पूर्वरूपम्। अन्तेवासी उत्तर रूपम्। विद्या सन्धि:। प्रवचनम् सन्धानम्।"

(शिक्षा वल्ली, अनुवाक 3. 1)

-अर्थात तत्पश्चात् विद्या-विषयक। आचार्य पूर्व-रूप है; अन्तेवासी (शिष्य) उत्तर-रूप है; विद्या सन्धि है और प्रवचन संयोजक (या सन्धान) है। इतना ही है अधिविद्यम्
यहाँ आचार्य पूर्व पीढ़ी का तथा छात्र आगामी पीढ़ी का प्रतिनिधि है। इन दोनों पीढ़ियों को जोड़ने वाला पाठचक्र (प्रवचन) अर्थात् महामण्डल पुस्तिकाओं का अध्ययन-अध्यापन है। और विद्या सन्धि है अर्थात् परिणाम है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में विशेष बात यह है कि अध्ययन और अध्यापन दो स्वतन्त्र क्रियाएँ नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलुओं के समान परस्पर जुड़े हुए, एक ही  हैं। तृतीय मुण्डक के "द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया" मंत्र की तरह आचार्य और छात्र भी परस्पर एक ही हैं
आचार्य और छात्र का सम्बन्ध आत्मिक होना चाहिए, आज की तरह भौतिक या व्यावसायिक नहीं। शिक्षा (पाठचक्र या महामण्डल का PR) ज्ञान के क्षेत्र से सम्बन्धित है और आत्मा ज्ञानस्वरूप है। दोनों के मध्य ज्ञान का आदान-प्रदान होता है, इसलिए यह सम्बन्ध आत्मिक ही बनता है। परन्तु आज ज्ञान को आत्मा से न जोड़कर पैसों से/या नाम-यश से  जोड़ दिया है। यही कारण है कि दोनों के सम्बन्ध आत्मिक के स्थान पर व्यावसायिक हो गये हैं, इसलिए पुन: आत्मिक सम्बन्ध को सुदृढ़ करना तथा इसे सही स्वरूप में स्थापित करना चाहिए ।

>>>द्वैत से अद्वैत की ओर : जब तक जीवन में द्वैत समाप्त नहीं होता, हमारा जीवन प्रतिक्रियात्मक (Reactionary) होता है। व्यक्ति जीवन की यात्रा, द्वैतवाद की भावना से शुरू होकर धीरे-धीरे, विष्टाद्वैत में फिर अद्वैत तक पहुँचती है। यह प्रभु को और स्वयं को (अर्थात द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया को) अलग अलग ढंग से देखने की सोच है, नजर है या दृष्टि है । हनुमान जी  राम को अपना परिचय (पहचान) देते हुए कहते हैं -  

देहबुद्ध्या तु दासोऽस्मि जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।

आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः॥

[“हे भगवान, जब मैं अपने आप को अपने शरीर के साथ पहचानता हूं, तो मैं आपका सेवक (द्वैत) हूं। जब मैं खुद को व्यक्तिगत आत्मा मानता हूं, तो मैं आपका हिस्सा (विशिष्टाद्वैत) हूं। लेकिन जब मैं खुद को आत्मा के रूप में देखता हूं, तो मैं आप (अद्वैत) के साथ एक हो जाता हूं।''
Hanumana introduces himself to Rama:- In terms of existential consciousness, I am your servant. By metaphysical consciousness, I am your smallest particle. By spiritual consciousness, I am none other, only you. Such is my conviction. 

अस्तित्वगत चेतना की दृष्टि से मैं आपका सेवक हूं। आध्यात्मिक चेतना से, मैं तुम्हारा सबसे छोटा कण हूँ। आध्यात्मिक चेतना से, मैं कोई और नहीं, केवल आप ही हूं। ऐसा मेरा विश्वास है। 
एक बार जब लक्ष्मणजी नागपाश में बन्ध गए थे, गरुड़ जी के आगमन पर नाग लोग भयभीत होकर भागने लगे। गरुड़ की भक्ति पर प्रसन्न होकर श्री विष्णु के रूप में उनके समक्ष आविर्भूत हुए। और उन्हें यह समझा दिया कि जो विष्णु हैं , वे ही श्रीरामचन्द्र के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। जो राम हैं, वे ही विष्णु हैं। यह सब समझ में आ जाने पर भी मनुष्य में जबतक देह-बुद्धि बनी रहती है , तब तक जिस शरीर के द्वारा उस पर गुरुशक्ति की कृपा होती है, उस शरीर का ही अवलंबन कर गुरु-पद पूजन करने के अतिरिक्त उसके लिए और कोई दूसरा उपाय नहीं है।  इसलिए अत्यन्त विनम्रता से हनुमानजी ने कहा - 

श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि। 

तथापि मम सर्वस्वः रामः कमललोचनः।।

अब इसको विस्तार से समझते है । यदि हम परमात्मा को एक अस्तित्व के तौर पर सर्वत्र विद्यमान (सर्वव्यापक) सत्ता के रूप में देखते है तभी हम अपने अंदर निराकार की सोच लाते है।एक ऐसी परम सत्ता जिसका कोई ओर-छोर नहीं, एक ऐसी सत्ता जो सर्वत्र है सर्वव्यापक है । आप भी उसी में हैं, आप कैसे देखेंगे अपने ही अस्तित्व को ? यदि हमें एक खिडकी से पूरे आकाश को देखना चाहे तो क्या देख पाएंगे ?  नहीं, क्योंकि वो आकार नहीं है । आपने अधूरा देखा । आप उसे पूरा देख ही नहीं सकते ।  आप हाथ जितना खोलोगे आकाश उतना बड़ा । मुट्ठी भींच लो, आकाश नहीं है। हम अस्तित्व (ब्रह्म) में ही जीते है, उसके बारे में कहेंगे कैसे ।
इसमें एक चीज ध्यान देने जैसी है, वह यह कि परमात्मा (ब्रह्म) हर वस्तु में है भी और नहीं भी है । जैसे वह शरीर में है भी और नहीं भी, मन में है भी और नहीं भी- थोड़ा गहरा दर्शन है । जैसे जल की एक लहर और बूंद अलग- अलग है और नहीं भी । फिर कोई छोटी लहर है , कोई बड़ी लहर है। जीवन में जो लोग केवल शरीर के स्तर पर जी रहे हैं वे तमोगुणी हैं।  जो अन्दर उतरा आत्मा के थोड़ा और करीब आया किन्तु मन (चित्त -मन -बुद्धि -अहंकार) में उलझकर रह गया तो वह है रजोगुणी और यदि उससे आगे प्रभु (आदर्श, इष्टदेव या गुरुदेव) के ध्यान में उतरा और प्रभु ने उसके अपने स्वरुप को , अपने आपको जनवाया, तब वह आत्मा के धरातल पर आया, उसकी सोच और दृष्टि सतोगुणी हो गयी!   
आप देखते होंगे आज के समाज में 55 (80) साल के वृद्ध भी अभी तक मूर्ति पूजा में फंसे है। जीवन में ध्यान नहीं, है समझ में गहराई नहीं,ऊपर ऊपर तैर रहे है, अंदर गये ही नहीं, मोती कैसे मिले ? और हाँ उनकी समझ को इतना भ्रमित कर दिया गया है कि कृष्ण की कथा में भी वह कहानी में उलझे है । छू तक नहीं पाते वह उस अनुभूति को जो समाधि पायी उन्होंने । ये बिलकुल वैसा ही है जैसे एक बुजुर्ग पहली कक्षा की पढाई करे। उम्र बीती है, अनुभव नहीं बढा । जीवन को गुना नहीं किया सिर्फ काटा है । यात्रा नही की, चले है सिर्फ जैसे मन ने चलाया वैसे और पुजारी ने समझाया वैसे
ये जीवन एक यात्रा है सगुण साकार से (द्वैत से) निर्गुण निराकार (अद्वैत) को पाने तक की । हम मूर्ति पूजा करें, कोई मतभेद नहीं है।  लेकिन हम जैसे-जैसे अपनी उम्र के पड़ाव को पार करते जाये,  साथ साथ अपने आप को उतारे उस अस्तित्व में परम के क्योंकि पहुंचना तो सही मायने में यही है। यही तो है यात्रा परम की ।
गीता में प्रभु कहते है कि अगर देखने की नजर रखता है तो देख कुछ भी अलग अलग नहीं है । ना सांख्य-योग ना कर्म योग, ना भक्ति योग । सब एक ही तो है । नजर बना देखने की । अगर कोई कर्त्ता है ही नहीं तो परमात्मा की तरफ किस रास्ते से पहुंचे वह, ये फैसला भी तो परमात्मा का ही है । वह कुछ करता ही नहीं, करवा तो प्रभु रहे है । 
आदमी अपने जीवन में जब ये मानना शुरू कर देता है कि वह कर्त्ता है;  तब वह सत्य से दूर असत्य को गले लगाता है।  जो ये मानता है कि यात्रा तेरी, मै तेरा, समा ले मेरे छोटे से दिये की टिमटिमाती लौ को अपने परम प्रकाश में । सोच उसकी ही सही है । सत्य साथ है उसके, क्योंकि वह  किसी भी तरह के बंधन में (पंचभूतों के फन्दे में-ब्रह्म पड़े कांदे) नहीं है।
भला-बुरा सब तुझे अर्पण, मै हूँ नहीं कुछ, न श्रेष्ठ, न दीन, हर दम एक सा, जैसा हूँ, तेरा हूँ । सारा खेल भाव का है । प्रभु की लीला है सगुण और निर्गुण । इसको हम एक तरीके से और कह सकते है कि सब ‘भाव’ चित्त का है । जैसी जिसकी पात्रता वैसा उसका दर्जा । किस श्रेणी का बनाया हमने अपने आपको, प्रभु ने क्या पात्रता मांगी थी हमसे, सिर्फ इतना ही तो, जैसा भेजा था इस दुनिया में निर्दोष वैसे ही बने रहे हम । सब खो दिया हमने । हम अपने आपको बुद्धिमान कहते है । कहाँ है बुद्धिमता ? सब कुछ धीरे-धीरे अवगुणों से ढँक दिया हमने ।
 दिल्ली में जो कुछ घटा कैसे याद करें हम उसको ?  ये सब लीला थी प्रभु की, एक सन्देश था तारा संयुक्त परिवार (जनमानस) के लिए  ? कर्त्ता का क्या मतलब है, सब कुछ तो लीला है प्रभु की। सिर्फ कर्म करने का अधिकार है हमें, वह भी अकर्त्ता बनकर, यही सच है । हमेशा हम करें  सगुण से निर्गुण की यात्रा यानि शरीर से आत्मा की ओर चलें। हम जिये उस अनुभूति में उस परम को हर पल हर क्षण। [हम निरन्तर शरीर से आत्मा की ओर चलें ,अर्थात सगुण साकार से निर्गुण-निराकार की यात्रा करते रहें और  -हर पल हर क्षण हम उस अनुभूति में जियें।]
>>> अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा :
भक्ति शास्त्रों की ऐसी मान्यता है कि ईश्वर के चार विग्रह हैं - नाम, रूप, लीला और धाम। (विग्रह =किसी देवी-देवता की मूर्ति जब शास्त्रोक्त विधि से मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठित हो जाती है, तब उसे अमुक देवता का विग्रह कहा जाता है।किसी व्यक्ति या प्राणी की मूर्ति या फोटो को विग्रह नहीं कहा जाता है। इसका अभिप्राय है कि नाम के रूप में भी ईश्वर ही है, इसी प्रकार स्वरूप, कथा तथा धाम के रूप में भी ईश्वर ही है। इनमें चारों का अथवा किसी एक का आश्रय (चिंतन) ग्रहण करने वाला व्यक्ति जीवन में कृत कृत्यता की प्राप्ति कर सकता है। 
गोस्वामी जी का मार्ग निर्गुण-सगुण समन्वयवादी है, इसलिये वे दोनों का समर्थन करते हुए कहते हैं कि दोनों एक हैं।  किन्तु यदि मुझसे पूछा जाय कि दोनों में कौन श्रेष्ठ है, तो मैं यह कहूँगा कि, यह जो रामनाम है, यह दोनों से भी अधिक श्रेष्ठ है।

“अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा।।
मोरे मत बड़ु नाम दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें”।।

(श्री राम चरित मानस, बाल काण्ड)

भावार्थ:-निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है॥

इस प्रकार उन्होंने अपनी स्पष्ट घोषणा कर दी कि मेरी दृष्टि में रामनाम सर्वश्रेष्ठ है। सगुण रूप से राम नाम कैसे बड़ा है? उन्होंने कहा, कि जो कार्य भगवान राम अवतार लेकर करते हैं, वे कार्य रामनाम के द्वारा, और भी अधिक सरलता से संपन्न हो जाते हैं।
जब गोस्वामी जी से प्रश्न किया गया कि, आप जीवन में निर्गुण को महत्त्व देते हैं या सगुण को? उन्होंने जवाब दिया कि, मैं दोनों को स्वीकार करता हूँ, तथा दोनों को ठहराने के लिये मैंने दो स्थान चुन लिए हैं।

हिय निरगुन नयननि सगुण - 

यानी हृदय में निर्गुण को ठहराया और नेत्रों में सगुण को बसा लिया है। अब आँखें बन्द करो तो निर्गुण का ध्यान जनित आनन्द लो, आँखें खोलो तो सगुण रूप की झाँकी का सुख प्राप्त करो

‘रसना नाम सुनाम’-
जब उनसे सवाल किया गया कि दोनों में अधिक किसको मानते हैं? तो बोले, इन दोनों की अपेक्षा जो तीसरा है, मैं उसको अधिक महत्त्व देता हूँ- यानी हृदय में निर्गुण, नेत्रों में सगुण तथा जिह्वा पर राम नाम। 

हिय निरगुण, नयननि सगुण, रसना नाम सुनाम।
मनहुँ पुरट, संपुट लसत, तुलसी ललित ललाम।।

जैसे, स्वर्ण की मंजूषा में (सोने के डिब्बे में) कोई रत्न रख दिया जाय, तो महत्त्व तो रत्न (हिरा) का है। यानी, रत्न हीरा तो राम नाम है, और सगुण, निर्गुण तो मंजूषा के बाहरी, भीतरी डिब्बे हैं। इस प्रकार राम नाम के प्रति उन्होंने अपनी महत्त्व-बुद्धि प्रगट किया।
     आज के दौर में बहुत से लोग परमात्मा को सगुण रूप में पूजते है और बहुत से निर्गुण रूप में । सगुण रूप में पूजने का सीधा सीधा मतलब होता है कि हम परमात्मा को एक आकर में देखते है। आप अपनी-अपनी सोच के हिसाब से परमात्मा को देखते है । हम श्री कृष्ण/रामलला को उस रूप में देखते है , जिस रूप में हमें बताया गया, दिखाया गया, चित्रित किया गया और हमारे द्वारा मूर्तिवत रूप दे दिया गया उन्हें, जिन्हें हम पूजते है; ये एक रूप , आकार या  सगुण साकार ब्रह्म की सगुण पूजा है । जब भी हम ब्रह्म को एक शरीर में मूर्त रूप में देखते है तो हमारी यह तमोगुणी सोच है या हमारी यह तमोगुणी दृष्टि है क्योंकि इस दृष्टि का धरातल यहाँ (M/F) शरीर है! ( यहाँ हमारी सोच या हमारी नजर तमोगुणी है; क्योंकि इस नजर का धरातल यहाँ पंचभौतिक (M/F) नश्वर शरीर है। नजरें बदली तो नजारे बदल गए , कश्ती का मुख मोड़ा तो किनारे बदल गए।) और यदि हम अपने मन  के धरातल पर प्रभु को देखते है तो ये हमारी रजोगुणी दृष्टि है। और जब हम ब्रह्म को अपनी आत्मा के धरातल पर देखते है (परमात्मा या ठाकुरदेव, गुरुदेव को हम अपनी आत्मा के धरातल पर देखते है) तो ये सतोगुणी दृष्टि है । ये अलग अलग ढंग से देखने की नजर है, आँख है प्रभु को देखने की ।

>>'द्वा सुपर्णा का ऊपर वाला पक्षी ' (गुरु, ईश्वर या स्वर्ग) के ऊपर होने की धारणा गलत नहीं है ! 
         " ईश्वर या स्वर्ग ऊपर है " यह धारणा गलत नहीं है। यह स्वत: मन और बुद्धि से उठने वाली स्वाभाविक चेतना है। शरीर में *दो हृदय* होते हैं एक छाती की बायीं तरफ तथा दूसरा सिर में। यह सनातन का सार है, इसका संकेत हमें तैत्तरीय उपनिषद शिक्षा-वल्ली के छठे अनुवाक में उपलब्ध होता है। सिर वाले हृदय को उपनिषदों में अन्त:हृदय भी कहा गया है।
  " स य एषोऽन्तरहृदय आकाशः। ....  अन्तरेण तालुके।  या नाड़ी सुषुम्ना नाम तालुके अन्तरेण यः एषः स्तनः इव अबलम्बते तस्य च अन्तरेण गता यत्र असौ केशान्तः विवर्तते तत्र शीर्षकपाले।"  (तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली -1,अनुवाक-6 ) 
यह अन्त:हृदय कहां है ? इसका भी वर्णन वहां किया है। दोनों तालुओं के बीच यह जो स्त्री के स्तन जैसा लटक रहा है, वही "इन्द्रयोनि" अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग सुषुम्ना नाड़ी आती हैं। यह ही उस ऐश्वर्य सम्पन्न हृदय के निर्माण में आधार स्तम्भ है। यह हृदय वहाँ ही है जहाँ सिर के कपाल के कुछ स्थान को छोड़कर चूड़ाकर्म संस्कार में मुण्डन किया जाता है। इसी हृदय में जाकर आत्मा (नर) परमात्मा (नारायण) में प्रतिष्ठित होती है। हमने परम्परा से अपने पूर्वजों से जो सुना है कि "ईश्वर हृदय में निवास करता है" यह वही हृदय है। यद्यपि ईश्वर सर्वव्यापक होने से सर्वत्र विद्यमान है फिर इसी जगह पर उसका साक्षात्कार होने से यहीं उसका निवास मानकर ऐसा कहा जाता है। 
छाती में भी एक अन्य हृदय होता है, समान्य रूप से हम सब इस हृदय के बारे में जानते हैं। सामान्य अवस्था में इसी हृदय में आत्मा का निवास होता है जब यौगिक क्रियाओं के माध्यम से वह दिव्य आत्मा अपने निवास स्थान छाती वाले हृदय से परमात्मा का साक्षात्कार के लिए चलता है तो वह अपने स्थान से सिर वाले हृदय की ओर जाता है जो कि ऊपर की ओर ही होता है, इसलिए योगियों को ईश्वर ऊपर की ओर ही अनुभूत होता है। 
इस प्रकार हमनें अपने पूर्वजों से जो उनकी अनुभूति सुनी है कि "ईश्वर ऊपर है", वह सत्य है। ईश्वर का साक्षात्कार करने वाले हमारे पूर्वज ऋषियों ने उपनिषदों में इस विषय पर लिखा है कि- "शतञ्चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्द्धानमभिनिःसृतैका तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥ " (छान्दोग्य ८.६.६ , कठ ० २.३.१६) अर्थात् हृदय की १०१ नाड़ियां हैं, उनमें से एक मूर्द्धा (खोपड़ी) की ओर गई है उस एक नाड़ी के द्वारा (उत्क्रमण करके) ऊपर की ओर गमन करके आत्मा अमृत पद (मोक्ष, स्वर्ग, ईश्वर आदि ) को प्राप्त करता है। उत्क्रमण नीचे से ऊपर की ओर ही होता है इसलिए ईश्वर ऊपर ही मिलता है, उसका साक्षात्कार ऊपर ही होता है। [साभार @@@Anuj Kumar/ Gurukul kangri, Haridwar at Gurukul Kangri Vishwavidyalaya, Haridwarhttps://www.linkedin.com/posts/anuj-kumar-]

>>गुरु-परम्परा से प्राप्त होने वाली शिक्षा की महिमा: 

      शिक्षावल्ली के नौवे अनुवाक में  मंत्र के शब्द हैं: 'ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/9)। सनातन धर्म या वैदिक धर्म  में ऋत के विचार का बड़ा महत्व है। ऋत का अर्थ होता है जगत की व्यवस्था या ब्रह्मांडीय व्यवस्था  के नियमों का ज्ञान (Riuta means knowledge of the Rules of the Cosmic System) - सूर्य, चन्द्रमा, तारे, दिन ,रात आदि इसी नियम द्वारा संचालित हैं।  संसार के सभी पदार्थ परिवर्तनशील हैं किंतु परिवर्तन का नियम भी  अपरिवर्तनीय नियम से बंधा होने के कारण सूर्य-चंद्र अपने अपने मार्ग पर गतिशील हैं।  संसार में जो कुछ भी है वह सब ऋत के नियम से बँधा हुआ है।  देवताओं से प्रार्थना की जाती थी कि वे हम लोगों को ऋत के मार्ग पर ले चलें तथा अनृत के मार्ग से दूर रखें । ऋत को वेद में सत्य से पृथक् माना गया है। ऋत वस्तुत: सत्य का नियम है। अत: ऋत के माध्यम से सत्य की प्राप्ति (इन्द्रियगोचर सत्य के नियम और इन्द्रियातीत सत्य के नियम की उपलब्धि ) स्वीकृत की गई है। और स्वाध्याय का अर्थ है सीखने की क्रिया, महावाक्यों का अध्ययन करना और प्रवचन का अर्थ है सिखाना। इस प्रकार शास्त्र हमें सिखाने और सीखने का आदेश देते हैं। जैसे स्वामी विवेकानन्द हमें या ऋत मार्ग से (यानि 3H का विकास करते हुए) मनुष्य बनने और बनाने- Be and Make का आदेश देते हैं । अतः हमें अपनी इस विरासत को; गुरु -शिष्य वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा को सदैव संजोकर रखना चाहिए। 
नौवें अनुवाक में ऋषि बताते हैं कि 'स्वाध्यायप्रवचने च' अर्थात स्वाध्याय करने और प्रवचन सुनने के मुख्य फल क्या हैं ? स्वाध्याय करने गुरु-परम्परा से प्राप्त होने वाली शिक्षा-साप्ताहिक पाठचक्र में नियमित रूप से और समय पर पाठचक्र में भाग लेने से - ऋत यानी ब्रह्मांडीय व्यवस्था  के नियमों का ज्ञान (Rita means knowledge of the rules of the cosmic system) होता है। सत्य का ज्ञान और यथायोग्य सदाचार का पालन करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है।  तप की शक्ति, आंतरिक शांति का सामर्थ्य , इंद्रिय निग्रह की शक्ति, वेदों के पठन पाठन की सामर्थ्य, योग्य संतान प्रजनन का सामर्थ्य, कुटुंब की वृद्धि (प्रजाति) की सामर्थ्य, मनुष्यों के लिए आवश्यक समस्त व्यवहार की सामर्थ्य, यज्ञ का सामर्थ्य और अतिथियों की यथायोग्य सेवा की सामर्थ्य। जहां शिक्षा है, वहीं प्रगति और उत्थान है। जहाँ मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माकरी शिक्षा नहीं होती , वहाँ प्रगति नहीं; पतन होता है और समाज को दुःख का सामना करना पड़ता है। इसीलिए हमें निरन्तर चरित्र-निर्माण के लिए स्वाध्याय करने और प्रवचन सुनने  की प्रेरणा  वैदिक काल से ही मिलती रही है। यह इस उपनिषद में स्पष्ट है। 
    >>>महामण्डल का मनुष्य -निर्माण आन्दोलन : तैत्तरीय उपनिषद्, गीता या योगसूत्र की शिक्षाओं पर आधारित है। क्योंकि सभी शास्त्रों में व्यक्तिगत अनुशासन,संयम, नियम, सद -आचरण, जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण की ज़रूरत पर बल दिया गया है।   प्राचीन काल से आजतक व्यक्ति के कर्ममय जीवन के किसी भी क्षेत्र में - सांसारिक लक्ष्य या आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में इनको निष्ठा के साथ मान कर ही जीवन के उच्चतम शिखर तक पहुँचा जा सकता है।
व्यक्ति (आदमी) का चरित्र और आचरण कुछ हद तक जन्मजात होता है या  पूर्व जन्म के कर्मों के कारण पूर्व से ही गढ़ा होता है। पर इस जन्म की संगति, परिवार, एवं शिक्षा और फिर स्व-निर्माण की प्रक्रिया (3H -विकास प्रशिक्षण) द्वारा सद गुणों से भरे जीवन या दुर्गुणों में लिप्त जीवन की नींव भी डाली जा  सकती है।
कठोपनिषद् में स्पष्ट निर्देश है कि किस प्रकार के व्यक्ति आत्मा जानने में असमर्थ ही रहेंगे -
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्‌ ॥
‘ न अविरतः दुश्चरितां,  न अशान्तः,  न असमाहितः,  न वा अशान्तमानसः,  प्रज्ञानेन अपि एनम् आप्नुयात् "  (कठ - २.२४)
''जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, या जिसने बुरे आचरणों से विरक्त होकर उनका त्याग नहीं कर दिया हो, परमात्मा पर विश्वास न होने के कारण जो सदा अशान्त रहता हो, जो अपने मन को एकाग्र (समाहित) करने का अभ्यास नहीं करता, अथवा जिसका मन शान्त नहीं है; ऐसा मनुष्य 'सूक्ष्म बुद्धि' के द्वारा आत्मविचार करते रहने पर भी परमात्मा को नहीं पा सकता। 
ईशोपनिषद का पहला श्लोक कहता है -
 ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥१॥
इस ब्रह्मांड के सभी चर अचर ईश्वर का है और हर व्यक्ति त्याग कर जीवन का आनन्द ले। और किसी अन्य के, यहाँ तक की अपने भी धन का लोभ नहीं करे, क्योंकि वह तो ईश्वर का है।

प्रेरणाप्रद दीक्षांत भाषण 

दीक्षांत समारोह की परंपरा हमारे यहां वैदिक काल से ही चली आ रही है। शिक्षावल्ली के 11 वें  "अनुवाक" में इसका वर्णन आता है। हमारी वैदिक शिक्षा परम्परा के अनुसार विद्यार्थी निर्जन में या गुरुगृह वास करता हुआ आश्रम में रहता है। कई वर्षों तक, छात्र विभिन्न विषयों में अनुभवी शिक्षकों से सीखते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में दक्षता हासिल करते हैं। जब उनकी शिक्षा पूरी हो जाती है तो दीक्षांत समारोह आयोजित किया जाता है। शिक्षक स्वयं समारोहपूर्वक विद्यार्थियों की डिग्रियों की घोषणा करते हैं।  यह दीक्षांत समारोह विद्यार्थियों की अंतिम कक्षा है। उस दिन से, ये प्रखर युवा आश्रम छोड़ देंगे और सभी की भलाई के लिए समाज में अपना पहला कदम उठाएंगे। वे एक नया जीवन शुरू करेंगे। इसलिए, शिक्षक बड़े प्यार से उन्हें उपदेश के अपने आखिरी शब्द देते हैं। ये उपदेश ही दीक्षांत समारोह हैं। उनमें समस्त शिक्षा का सार समाहित है। आइए देखें कि इस प्रेरणाप्रद दीक्षांत समारोह (Uplifting Convocation) में क्या शामिल है।
     जिन्होंने वेदों का (अर्थात चार महावाक्यों का) अध्ययन पूरा कर लिया है, उन छात्रों को गुरु (जीवनमुक्त शिक्षक या नेता) निर्देश देते हैं  - 'वेदमनुत्व्याचार्योऽन्तेवसिनमनुशास्ति।' ~ ‘सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः।सत्यान्न प्रमदितव्यम्‌। धर्मान्न प्रमदितव्यम्‌। कुशलान्न प्रमदितव्यम्‌। भूत्यै न प्रमदितव्यम्‌। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्‌ । (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)।
वह उन्हें निर्देश देते हैं, -सत्य बोलो, अपने धर्म के मार्ग पर चलो, वेदों के स्वाध्याय में अवहेलना मत करो। अपने आचार्य को उनका इष्ट धन लाकर देने के बाद तुम अपनी पुत्र परम्परा के दीर्घ सूत्र को नहीं काटोगे। सत्य के विषय में तुम प्रमाद मत करना। अपने कर्तव्य के विषय में तुम असावधान मत होना। कुशलता के सम्बन्ध में तुम असावधान मत होना। अपनी उन्नति, वृद्धि एवं उद्यम के प्रति असावधान मत होना। वेदों के स्वाध्याय (सीखना) एवं प्रवचन (सिखाना) के विषय में प्रमाद मत करना। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्‌। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि। यान्यस्माकं सुचरितानि।तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि। देवों अथवा पितरों के प्रति अपने कर्तव्यों में अवहेलना मत करना। तुम्हारे पिता तुम्हारे लिए देवतुल्य हों तथा तुम्हारे माता देवीतुल्या हों जिनकी तुम आराधना करते हो। अपने आचार्य की देवसमान सेवा करो तथा घर आये अतिथि की देवसमान अभ्यर्थना करो। लोगों के सम्मुख हो कर्म अनिन्द्य हैं तुम केवल उन्हीं कर्मों को सयत्न करना, अन्यान्य कर्मों को नहीं। हमने जिन सत्कर्मों को किया है वे ही तुम्हारे द्वारा धर्म-समान करणीय (उपास्य) हैं, अन्य कोई नहीं। ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम्‌। श्रद्धया देयम्‌। अश्रद्धयाऽदेयम्‌। श्रिया देयम्‌। ह्रिया देयम्‌। भिया देयम्‌। संविदा देयम्‌। ...... " (शिक्षावल्ली =११.१,२,३॥) 
      जो भी ब्रह्मचारी हमसे अधिक श्रेष्ठ एवं महान् हों तुम्हें उनको आसन देकर सम्मानित एवं परितृप्त करना चाहिये। तुम्हें श्रद्धा एवं आदरपूर्वक दान करना चाहिये; अश्रद्धा से तुम नहीं दोगे। (तुम श्री-सम्पत्ति के अनुरूप दान करोगे)*। तुम सलज्जभाव से दान करोगे, तुम सभय दान करोगे; तुम संविदभाव से (सहदयता एवं सहानुभूतिपूर्वक) दान करोगे। 
इसके अतिरिक्त यदि तुम्हें अपने कर्म तथा कर्मपथ (आचरण) के विषय में शंका हो तो जो भी ब्राह्मण वहाँ हों जो सुविचारशील हों भक्त हों, दूसरों से संचालित न हों धर्मपरायण हों, कठोर एवं क्रूर न हों, जैसा वे उस विषय में आचरण करे वैसा ही तुम करो। और यदि कोई व्यक्ति दूसरों के द्वारा अभियुक्त तथा अपराधी घोषित हो तो उसके साथ भी तुम उसी प्रकार आचरण करो जैसा उसके प्रति वे सब ब्राह्मण करते हैं जो सुविचारवान् श्रद्धावान् हैं, दूसरो के द्वारा संचालित नहीं हैं, धर्मपरायण हैं, जो कठोर एवं कूर नहीं हैं।  इस प्रकार अमूल्य शिक्षा देकर शिक्षक अंत में कहते हैं: 'एश आदेशः।' एष उपदेशः। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्।' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)। यह हमारा विधान तथा उपदेश हैं। ये ही परम 'आदेश' हैं। (यही वेदों का उपनिषद् (अन्तर ज्ञान) है। इसी ज्ञान के अनुसार तुम धर्म का पालन करोगे। हाँ, निश्चित रूप से यही शिक्षा है , जो धर्मपूर्वक करणीय है।  दीक्षांत भाषण के पूरा होने पर, शांति के लिए एक और प्रार्थना के साथ शिक्षावल्ली  समाप्त होती है। 

बृहदारण्यक उपनिषद् का प्रेरणाप्रद दीक्षान्त भाषण 

बृहदारण्यक उपनिषद् में कहानी है - जिसमें ब्रह्मा के पास देवता, दानव और मानव तीनों पुत्र गये उपदेश लेने। देव, मनुष्य और असुर - इन प्रजापति (ब्रह्मा जी) के तीन पुत्रों ने पिता प्रजापति (ब्रह्माजी) के यहाँ ब्रह्मचर्यवास किया।  ब्रह्मचर्यवास कर चुकने पर जब वे उनसे अलग होने लगे- तब देवों ने कहा, ‘आप हमें अन्तिम शिक्षा दीजिये।'  प्रजापति ने देवताओं से ‘द’ अक्षर कहा और पूछा ‘समझ गये क्या?’ इस पर उन्होंने कहा, ‘समझ गये, आपने हमसे दमन करो ऐसा कहा है।’ तब प्रजापति ने कहा, ‘ठीक है, तुम समझ गये’ ॥१॥ दमन करो अर्थात् इन्द्रिय निग्रह करो, क्योंकि देवता स्वभाव से अदान्त (अजितेन्द्रिय) होते है, इसलिए दमनशील बनो।
फिर प्रजापति (ब्रह्मा) से मनुष्यों ने कहा, ‘आप हमें अन्तिम उपदेश कीजिये।’ प्रजापति ने उनसे भी ‘द’ अक्षर कहा और पूछा ‘समझ गए क्या?’ इस पर उन्होंने कहा, ‘समझ गये, आपने हमसे दान करो ऐसा कहा है।’ तब प्रजापति ने कहा, ‘ठीक है, तुम समझ गये’ ॥२॥ दान करो अर्थात् मनुष्य स्वभावतः लोभी और मरने के बाद क्या फल मिलेगा यह नहीं सोचता। इसलिए यथाशक्ति संविभाग करों-दान दो। यह मनुष्य के अर्थात् स्वयं के हित की बात है।
 फिर प्रजापति से असुरों ने कहा, ‘आप हमें अन्तिम उपदेश कीजिये।’ प्रजापति ने उनसे भी ‘द’ अक्षर कहा और पूछा ‘समझ गए क्या?’ इस पर उन्होंने कहा, ‘समझ गये, आपने हमसे दया करो ऐसा कहा है।’ तब प्रजापति ने कहा, ‘ठीक है, तुम समझ गये।' 
' दया करो' अर्थात् राक्षस ज़न, स्वभाव से क्रूर और हिंसापरायण होते है, इसीलिए उन्हें सदैव दूसरों पर दया और करुणा करते रहना चाहिए। 
इसप्रकार प्रजापति ने अपने तीन पुत्रों- देव, मनुष्य,और असुरों को कहा जब वे उनसे अलग होने लगे और पूछें कि हमें अपनी अन्तिम शिक्षा दीजिये। उन्होंने कहा, ‘द द द इति दाम्यत दत्त दयध्वमिति तदेतत्त्रय शिक्षेद्दमं दानं दयामिति।’ (बृहदारण्यकोपनिषद् अध्याय ५, ब्राह्मण १,२,३) 
प्रजापति के इस अनुशासन का मेघगर्जनारूपी दैवी वाक् आज भी बरसात में बिजली (दामिनी-वज्र) की गर्जना में ईश्वरीय आवाज़ बन द, द, द …में निहित होती है- पहला ‘द’ देवों को दम (आत्म संयम), दूसरा ‘द’ मनुष्यों को दान, और तीसरा ‘द’ असुरों को दया या करुणा करते रहने की सीख देता है। That very thing is repeated even today by the heavenly voice, in the form of thunder, as “Da,” “Da,” “Da,” which means: “Control yourselves,” “Give,” and “Have compassion.” यह आज के सभी मनुष्यों के लिये भी है, क्योंकि हम में ही दैविक, राजसिक, एवं आसुरी प्रवृति के लोग है। "द द द इस प्रकार अनुवाद करती है, अर्थात् दमन करो, दान करो, दया करो। अतः दम, दान और दया- इन तीनों को सीखे देती हैं। 
क़रीब क़रीब सब मुख्य उपनिषदों की उद्धृति यहाँ दी गई है। सोचिये हज़ारों पहले सिद्ध ब्रह्म ज्ञानी ऋषियों ने समाज के लोगों से कैसे जीवन आचरण की उम्मीद की गई थी आज भी कितना सार्थक है एक अच्छे समाज, राष्ट्र एवं विश्व के लिये।

*अब अंतिम निर्देश आता है जो उन दिनों छात्रों को तब मिलता था जब वे गुरुगृह-वास (या अपने परिवार से दूर निर्जन में) में रहते हुए " गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा "  के अधीन अपनी पढ़ाई पूरी करते थे। वेदों की शिक्षा देकर गुरु शिष्य को उपदेश देता है। 

[श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-परम्परा में मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन Be and Make' के शिक्षार्थियों को ठाकुर देव का  (Uplifting Convocation) प्रेरणाप्रद अन्तिम उपदेश था - " दया नहीं सेवा, शिव ज्ञान से जीव सेवा ! "  उदाहरण के लिए महामण्डल के Be and Make 'आन्दोलन से जुड़े कर्मियों को, प्रेरणाप्रद ध्वजारोहण समारोह (Flag hoisting ceremony' and flag down ceremony of ABVYM Youth Training Camp) 1987 में बेलघड़िया में आयोजित महामण्डल के छः दिवसीय वार्षिक शिविर के अंतिम दिन "फ्लैग डाउन समारोह" के अवसर पर CINC नवनीदा द्वारा दिया गया अंतिम भाषण The Exhortation, भारत के राष्ट्रीय आदर्श "त्याग और सेवा ! दया नहीं सेवा, शिव ज्ञान से जीव सेवा ! रूपी धर्म का प्रचार करते हुए मर जाओ !"

13. सच बोलो. अपना कर्तव्य (धर्म) निभाओ। वेदों के अध्ययन से कभी विमुख न हों। गुरु को इच्छित शुल्क देकर अपनी संतान का सूत न काटें। सत्य से कभी विमुख न हों। कर्तव्य (धर्म) से कभी विमुख न हो। अपने कल्याण की कभी उपेक्षा न करें। अपनी समृद्धि की कभी उपेक्षा न करें। वेदों के अध्ययन व उनकी शिक्षाओं की कभी उपेक्षा न करें।
14. देवताओं और मनुष्यों के प्रति अपने कर्तव्यों से कभी विमुख न हो। माँ आपकी ईश्वर हो (मातृदेवो भव)। पितृदेवो भवः। गुरु तुम्हारा भगवान हो (आचार्यदेवो भव)। अतिथि तुम्हारा देवता हो (अतिथिदेवो भव)। केवल वही कार्य करें जो दोष रहित हों, अन्य नहीं। आपको केवल वही कार्य करने चाहिए जो हमारे लिए अच्छे हों, दूसरों को नहीं।
15. जो श्रेष्ठ ब्राह्मण हों, उनकी आसन आदि से सेवा करके उनकी थकान दूर करनी चाहिए।
16. श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिए; इसे कभी भी बिना विश्वास के नहीं देना चाहिए। इसे भरपूर मात्रा में देना चाहिए, विनम्रता के साथ, श्रद्धा के साथ, सहानुभूति के साथ।
17 अब, यदि किसी कार्य या आचरण के संबंध में आपके मन में कोई संदेह उत्पन्न हो, तो आपको उन मामलों में उन ब्राह्मणों के समान व्यवहार करना चाहिए, जो विचारशील, धार्मिक, क्रूर नहीं और धर्म के प्रति समर्पित हैं।
18. अब जो पाप के दोषी हैं, उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना जैसा वहां के ब्राह्मणों के साथ होता है, जो विचारशील, धार्मिक, क्रूर नहीं और धर्म के प्रति समर्पित हैं।
19. यह निषेधाज्ञा है. यही शिक्षा है. यही वेदों का रहस्य है। यह आदेश का शब्द है. इस पर नजर रखनी चाहिए. इस प्रकार यह विचार करने योग्य है।

>> प्रार्थना का महत्व :  हर व्यक्ति को किसी न किसी तरह की प्रार्थना अवश्य करनी चाहिये।  ये प्रार्थनाऐं अगर आपकी सब कामनाओं में सफलता नहीं दिलाये, पर फिर भी एक दैविक शक्ति में विश्वास बहुत आत्म बल बढ़ाता है, संतोष भी मिलता है। उस दैवी शक्ति को हम किसी नाम से पुकारे,  पर दैविक हस्तक्षेप का भी एक महत्वपूर्ण आख़िरी स्थान ज़रूर होता है। अगर हम विगत जीवन की घटाओं को सोच कर देखें तो हमारे नियत कामों की सफलता में सब अन्य बातों के साथ कभी कभी यही दैव (प्रार्थना शक्ति) किसी बड़ी विपदा से हमारी रक्षा भी करता है । भगवत् गीता के अध्याय 18 में 13 और 14 वें श्लोक में इसकी समुचित व्याख्या है-
 "हे महाबाहो ! समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए ये पांच कारण सांख्य सिद्धांत में कहे गये हैं, जिनको तुम मुझसे भलीभांति जानो। (गीता 18.13)  
सारांश में  कर्म सम्पादन के पाँच कारण हैं (1) शरीर (2) कर्ता - जीव का दासो अहं वाला भाव (3)  ज्ञानेन्द्रियाँ (4)  कर्मेन्द्रियाँ तथा (5) तथा पाँचवा हेतु दैव योग ('सर्वे भवन्तु सुखिनः' प्रार्थना की अनन्त शक्ति।) है ....जब अन्त में लगता है कि सब करके की भी एक कार्य क्यों पूरा नहीं हुआ ? तो पता चलता है उसी दैव योग के चलते ही हम एक बार नहीं कई-कई बार भयंकर हादसे से बच गये। (गीता 18.14)   

प्रात:स्मरण स्तोत्र ||•••

जब आदि गुरु शन्कराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा । बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है…  यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।  यह स्वामी विवेकानन्द की पसंदीदा प्रार्थना थी जिसे वे अक्सर गाते थे।

मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |
न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:
चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु: न वा पञ्चकोशः |
न वाक्पाणिपादौ न च उपस्थ पायु
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||2||
न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम ||3||
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं
न मंत्रो न तीर्थं न वेदों न यज्ञः |
अहम् भोजनं नैव भोज्यम न भोक्ता
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||4||
न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:
पिता नैव मे नैव माता न जन्म |
न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||
अहम् निर्विकल्पो निराकार रूपो
विभुव्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम |
सदा मे समत्वं न मुक्ति: न बंध:
चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||6||

"प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुराद आत्म तत्वम्" यह संस्कृत भाषा में आदि शंकराचार्य द्वारा लिखित और संगीतबद्ध सुबह की एक सुंदर प्रार्थना है। यह चिंतन के लिए एक प्रार्थना है जो हमें याद दिलाती है कि हम कौन हैं।

प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्त्वं
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं
तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसङ्घः ॥१॥

(पदच्छेद:- प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरत् आत्म-तत्त्वम् सत्-चित्-सुखम् परम-हंस-गतिम् तुरीयम्। यत् स्वप्न-जागर-सुषुप्तिम् अव-एति नित्यम् तद् ब्रह्म निष्-कलम् अहम् न च भूत-सङ्घः। )

अर्थ – मैं प्रात:काल, हृदय में स्फुरित होते हुए आत्मतत्त्व का स्मरण करता/करती हूँ, जो सत, चित और आनन्दरूप है, परमहंसों का प्राप्य स्थान है और जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं से विलक्षण है, जो स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत अवस्था को नित्य जानता है, वह स्फुरणा रहित ब्रह्म ही मैं हूँ, पंचभूतों का संघात (शरीर) मैं नहीं हूँ।

प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं
वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण ।
यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचं_
स्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्र्यम् ॥२॥

(पदच्छेद: -प्रातः भजामि मनसा वचसाम् अगम्यम् वाचः विभान्ति निखिलाः यत्-अनुग्रहेण। यत् न इति न इति वचनैः निगमाः अवोचन् तम् देव-देवम् अजम् अच्युतम् आहुः अग्र्यम्।)
 
अर्थ – जो मन और वाणी से अगम्य है, जिसकी कृपा से समस्त वाणी भास रही हैं, जिसका शास्त्र “नेति-नेति” कहकर निरूपण करते हैं, जिस अजन्मा देवदेवेश्वर अच्युत को अग्रय (आदि) पुरुष कहते हैं, मैं उसका प्रात:काल भजन करता/करती हूँ

प्रातर्नमामि तमसः परमर्कवर्णं
पूर्णं सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् ।
यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौ
रज्ज्वां भुजङ्गम इव प्रतिभासितं वै ॥३॥

(पदच्छेद:-प्रातः नमामि तमसः परम् अर्क-वर्णम् पूर्णम् सनातन-पदम् पुरुष-उत्तम-आख्यम्।यस्मिन् इदम् जगत् अशेषम् अशेषमूर्तौ रज्ज्वां भुजङ्गम् इव प्रतिभासितं वै।) 

अर्थ – जिस सर्वस्वरुप परमेश्वर में यह समस्त संसार रज्जु में सर्प के समान प्रतिभासित हो रहा है, उस अज्ञानातीत, दिव्यतेजोमय, पूर्ण सनातन पुरुषोत्तम को मैं प्रात:काल नमस्कार करता/करती हूँ।

श्लोकत्रयमिदं पुण्यं लोकत्रयविभूषणम् ।
प्रातःकाले पठेद्यस्तु स गच्छेत्परमं पदम् ॥४॥

पदच्छेद:-श्लोक-त्रयम् इदम् पुण्यम् लोक-त्रय-विभूषणम्। प्रातःकाले पठेत् य: तु स: गच्छेत् परमम् पदम्। 

अर्थ – ये तीनों श्लोक तीनों लोकों के भूषण हैं, इन्हें जो कोई प्रात:काल के समय पढ़ता है, उसे परमपद (पूजा मूलं परमहंस गुरुपदम) की प्राप्ति होती है। 

=======

संसार के करतार का साकार न होता / ('मोहन मोहनी ' के रचयिता -बिन्दु जी)

संसार के करतार का साकार न होता,
तो उसका ये संसार भी साकार न होता।

साकार से जाहिर है निराकार की हस्ती,
साकार न होता तो निराकार न होता।

हम मान भी लेते कि वो दृष्टि से परे है,
आँखों में उसका अगर चमत्कार न होता।

व्यापक ही सही सबमें वो रहता मगर कहाँ,
रहने को अगर जिस्म का आधार नहीं होता।

आँखों से कभी निकलते नहीं ‘बिन्दु’ के मोती,
निर्गुण से सगुण का बँधा तार न होता॥

[जीवन परिचय बिन्दुजी (1893- 1964) वृंदावन स्थित प्रेम धाम आश्रम के संस्थापक जन्म स्थान -अयोध्या, उत्तर प्रदेश। कुछ प्रमुख कृतियाँ- मोहन मोहनी, मानस माधुरी, राम राज्य, कीर्तन मंजरी, राम गीता, विविध। ]

4.  तैत्तरीय उपनिषद का दूसरा खंड है ब्रह्मानन्दवल्ली, जो ब्रह्म के आनंद से संबंधित है। वस्तुत: ब्रह्मानन्द का संबंध परा विद्या से है। मुण्डकोपनिषद् के तृतीय मुंडक में द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया वाला प्रख्यात मंत्र है जो आत्मा (नर) और परमात्मा (नारायण) संबंधी प्रभावशाली विवेचना है। 
"द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।

तयोः अन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति, अन्यः तु अनश्नन् अभिचाकशीति ॥

       - (श्वेताश्वतरोपनिषद्/ मुण्डकोपनिषद्)

दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, जो साथ-साथ रहने वाले तथा परस्पर सखा हैं, समान वृक्ष पर ही आकर रहते हैं; उनमें से एक- ~ पिप्पलं स्वादु अत्ति' उस वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, दूसरा ~ अनश्नन् अभिचाकशीति' खाता नहीं है, केवल अपने सखा को देखता है  (प्रभु जगन्नाथ की तरह! ... कौन मेरे पास आ रहा है ?)। 
तत्वतः ब्रह्म और जीव (मनुष्य) परस्पर अभिन्न सत्ता हैं ! इस हेतु परमात्मा ही हमारा सच्चा और श्रेष्ठ मित्र है !
[नारायण विष्णु-माँ लक्ष्मी के अवतार वरिष्ठ -ठाकुर जी और माँ सारदा देवी हमारे अपने माता -पिता है और नेता विवेकानन्द हमारे अपने बड़े भईया ही नहीं -हमारे सर्वश्रेष्ठ बन्धु भी हैं ! जिन्होंने हमें यह बताया कि- "प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है " अर्थात नर में ही नारायण (ठाकुर देव) अव्यक्त रूप से विद्यमान हैं! इसलिए केवल प्रेमवश वे हमें महापुरुष (ब्रह्मविद) बनाने के लिए भेंड़ों के झुण्ड से (पूर्वाश्रम के संसारी मित्रों के संगत से) खींच कर महामण्डल में ले आये हैं! वे अभी दूसरे युवाओं को भी खींच रहे हैं ! क्योंकि उन्होंने कहा था -" I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere until the world shall know that it is one with God." [Volume 5, Sayings and Utterances (44).जीर्ण वस्त्र की तरह शरीर का त्याग कर देने के बाद ~"Be and Make" का निःस्वार्थ कर्म करने में यह आनन्द 100 की आयु तक जी कर 'मर जाने' के बाद नहीं, हमें तभी प्राप्त होता है जब हम अपने अनुभव से यह जान लेते हैं कि-तत्वतः ब्रह्म (नारायण) और जीव (नर अर्थात मनुष्य) परस्पर अभिन्न सत्ता हैं; इस हेतु हमारे "प्राणों के प्राण परमात्मा" ही हमारा सच्चा और श्रेष्ठ मित्र है।" (अर्थात ठाकुर-माँ हमारे माता-पिता हैं और स्वामीजी हमारे बन्धु हैं !) ब्रह्मानन्द की प्राप्ति और आत्मज्ञान प्राप्त करने का सामर्थ्य शिक्षा वल्ली में वर्णित पुरुषार्थों - मनुष्यनिर्माण और चरित्रनिर्माणकारी प्रशिक्षण को सम्पन्न कर चुके - श्रद्धावान,  विवेकज ज्ञान प्राप्त, और चरित्रवान (सदाचारी) व्यक्ति  में ही आता है, अन्य में नहीं। [ अन्य युवा तो ~  सुमित्रानंदन पंत द्वारा  भावी पत्नी के प्रति लिखित गीत - " प्रिये, प्राणों की प्राण" न जाने किस गृह में अनजान, छिपी हो तुम, स्वर्गीय-विधान! में ही अटक जाते हैं।]
ब्रह्मानन्द वल्ली के आरंभ में ही उपनिषद मंत्र है – सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म। ब्रह्म सत्य हैं, ज्ञान हैं, अनंत हैं। अत्यंत प्राचीन काल से भारत में यह ज्ञान था कि 'ज्ञान अनंत' है। इसलिए योग विद्या (अष्टांग योग, योग-सूत्र या ध्यान-समाधि) ही परा विद्या का मूल आधार है; जिसके अनंत भेद या रूप संभव हैं।  यह भी प्रारम्भ से ही ज्ञात है। इसीलिए यहाँ विद्या के अनंत रूप सहज विद्यमान हैं। आयुर्वेद से लेकर योग तक प्रत्येक ज्ञान शाखा में ज्ञान के अनंत रूप वर्णित हैं। इसीलिए हमारे देश में विविध पंथ सहज स्वीकृत हैं। श्रीरामकृष्ण कहते थे- 'जितने मत उतने पथ। ' परंतु उन सब पंथों का एक सार्वभौम व्रत या सामान्य आधार है 5 'यम' -अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा: ।। (साधन-पाद, योगसूत्र 2. 30) 
शब्दार्थ :- अहिंसा ( किसी भी प्राणी को पीड़ा न पहुँचाना ) सत्य ( जो जैसा हो उसे वैसा ही कहना ) अस्तेय ( चोरी न करना ) ब्रह्मचर्य ( मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन व 5 इन्द्रियों का संयम ) अपरिग्रह ( उपहार में कुछ पाने की कामना -अनावश्यक पदार्थों का संग्रह न करना )
सूत्रार्थ :- सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय और अपरिग्रह को यम कहते हैं।  किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचाना, जो जैसा लगे उसे वैसा ही बताना, किसी दूसरे की वस्तु को बिना पूछें न लेना, मोक्ष कारक ग्रन्थों का अध्ययन व  अपनी गुप्तेन्द्रियों पर संयम रखना व अनावश्यक वस्तुओं व पदार्थों का संग्रह न करना । ये पाँच यम के प्रकार कहे गए हैं । जो सभी पंथों में पाये जाते हैं। 
जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमा महाव्रतम् ।। 31 ।।
शब्दार्थ :- जाति ( कोई प्राणी विशेष ) देश ( कोई स्थान विशेष ) काल ( कोई पर्व या तिथि विशेष ) समय ( कोई अवसर विशेष ) अनवच्छिन्ना: ( इन सब बाधाओं से रहित ) सार्वभौमा: ( सभी परिस्थितियों में पालन करने के योग्य ) महाव्रतम् ( ये महाव्रत हैं । )
सूत्रार्थ :- ये अहिंसा आदि महाव्रत सभी जाति विशेष, स्थान विशेष, पर्व या तिथि विशेष व किसी भी अवसर विशेष आदि बाधाओं से रहित सभी परिस्थितियों में पालन करने योग्य होने से महाव्रत कहलाते हैं ।
व्याख्या :- इस सूत्र में यमों का पालन सभी अवस्थाओं में करने योग्य बताया गया है । ऊपर वर्णित सभी यम तभी महाव्रत कहलाते हैं, जब बिना किसी जाति, स्थान, काल व समय के बन्धन के सभी अवस्थाओं में इनका पालन समान रूप से किया जाए । या आधुनिक यूरोपीय पदावली में कहें तो 5 सार्वभौम मूल्य  (universal values) हैं। इन्हें ही सामान्य धर्म, सार्वभौम धर्म या मानव धर्म (human religion) भी कहा जाता हैं।  अहिंसा अर्थात् किसी भी प्राणी या प्रकृति के किसी भी तत्व के प्रति द्रोह और द्वेष का सर्वथा अभाव, सत्य-निष्ठा , इन्द्रिय-संयम, आस्तेय -अन्य के वस्तुओं के प्रति गिद्धदृष्टि नहीं रखना, ब्रह्मचर्य अर्थात मर्यादित भोग और उसके लिए मर्यादित संग्रह – ये पाँच सार्वभौम यम या मूल्य हैं। एवं  इन 5 सर्वमान्य या सार्वभौम धर्म - (universal religion)  का पालन करते हुए प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र की अपनी विशेषताओं का सतत् संवर्धन ही अपरा विद्या का विस्तार है। और जिन उपकरणों से अर्थात एकाग्र और वशीभूत मन - बुद्धि की जिस सामर्थ्य से यह सब ज्ञान होता है, उस आत्मसत्ता के मूल स्वरूप का ज्ञान परा विद्या है।
जब किसी संगठन, समाज या राष्ट्र में आत्मसत्ता के स्वरूप का ज्ञान रखने वाले श्रेष्ठ लोग अधिक संख्या में होंगे और यदि वह संगठन, समाज और राष्ट्र उन्हें (मार्गदर्शक नेता विवेकानन्द को) उचित सम्मान भी देगा, तब उस संगठन,समाज या राष्ट्र की सभी मानस संरचनाएं,(mental or intellectual constructs) मर्यादित मान्य होंगी।  क्योंकि उन्हें (उस संगठन के  यह ज्ञात होगा कि - नित्य परिवर्तनशील जगत में 'Nothing is permanent except change' क्योंकि जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है वह परमार्थ रूप में अंतिम सत्य नहीं हैं, वे सब सापेक्ष सत्य हैं और परिवर्तनशील सत्य हैं। [संयुक्त राष्ट्र में भारत की वर्तमान स्थायी प्रतिनिधि (P.R. या Permanent Representative) के रूप में नियुक्त  1987 बैच की IFS (भारतीय विदेश सेवा अधिकारी) रुचिरा कंबोज पहली महिला हैं, जिन्होंने 1 अगस्त, 2022 को इस पद का कार्यभार संभाला।] 
इसीलिए व्यक्ति, कुल, गोत्र, वर्ण, क्षेत्र, आदि सब से परे जो मूल तत्व है, उसके ज्ञान की साधना को परा विद्या कहा गया और उसके ज्ञाता ही सर्वमान्य रहे। इस प्रकार प्रारम्भ से ही भारत में परा और अपरा दोनों विद्याओं की साधना परंपरा प्रवाहित है और शिक्षा (शीक्षा) वही है जो इन दोनों का ज्ञान दे। इसमें से परा विद्या का मूल ज्ञान सबको आवश्यक है, अत: योग और एकाग्रता (ध्यान ) की किसी न किसी पद्धति के द्वारा आत्मस्वरूप का ज्ञान सबके लिए सर्वोपरि मान्य रहा। जबकि अपने संस्कारों, सामर्थ्य तथा प्रतिभा के अनुरूप अपरा विद्या के किस एक  या एकाधिक अनुशासनों में दक्षता को स्वधर्म माना गया। अत: सामान्य या सार्वभौम धर्म और स्वधर्म, दोनों का ज्ञान प्रत्येक विद्यार्थी को कराना शिक्षा का भारतीय लक्ष्य है।
यहाँ कुछ और आधारभूत तथ्य स्मरण कर लेना चाहिए। समस्त शिक्षा पूर्वज संवाद (Ancestors dialogue) है। अर्थात अपने पूर्वज ऋषियों के द्वारा ज्ञान-विज्ञान की किसी न किसी शाखा में जो उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त किया गया था, उसे नयी पीढ़ी तक पहुँचा देना ही शिक्षा का मूल आधार है।  वही शिक्षा -पद्धति तैत्तरीय उपनिषद की भृगुवल्ली में है। इस प्रकार किसी भी समाज की सम्यक शिक्षा वह है जो सर्वप्रथम अपने ही परिवार, समाज और राष्ट्र में हुए अपने वृद्धों से संवाद करें। अर्थात पूर्वज ऋषियों -मुनियों (ज्ञानियों) के द्वारा जो ज्ञान (वैदिक महावाक्य के रूप में) प्रस्तुत, निरूपित और व्याख्यायित हुआ था ज्ञान के उसी स्वरूप को ठीक-ठीक नयी पीढ़ी को प्रदान करे। परंतु वर्तमान में 1947 ईसवी के बाद से जो लोग शासन में रहे, उन्होंने शिक्षा के नाम पर यूरोप और बाद में संयुक्त राज्य अमेंरिका के जो कुछ शाखाओं में उत्कर्ष प्राप्त ज्ञानी लोग हैं, उनसे ही भारत के विद्यार्थियों का संवाद बलपूर्वक कराया। उदाहरण के लिए history में, political science, , economics  अर्थशास्त्र में, समाजशास्त्र (sociology)  में, मनोविज्ञान (psychology), निरुक्त ( शब्दशास्त्र,etymology) आदि में यूरोप के सयाने लोग, वृदध लोग क्या क्या कहते रहे हैं और क्या कह रहे हैं, उसे ही भारत के विश्वविद्यालयों में मूल रूप से पढ़ाया जाता है और मात्र शोभा या अलंकार की भांति यास्क मुनि और कौटिल्य जैसे एकाध भारतीय विद्वानों के भी अंश उस विषय में प्रस्तुत कर दिए जाते हैं। इसका अर्थ है कि भारत के सभी विद्यार्थियों को शासन के द्वारा यूरोप के और बाद में संयुक्त राज्य अमेरिका के वृद्धों से संवाद करने को विवश किया जाता है। यह तो शिक्षा के प्रयोजन -[मनुष्य निर्माण ] से रहित शिक्षा हुई। 
शिक्षा का मूल प्रयोजन है सर्वप्रथम अपने समाज और राष्ट्र के पूर्वजों से (महापुरुषों -मार्गदर्शक नेताओं या ऋषि -मुनियों से) विद्यार्थियों का संवाद कराना। उनके ज्ञान को उन्हें प्रदान करना। अपरा विद्या के प्रत्येक अनुशासन में सर्वप्रथम विद्यार्थियों को अपने ही राष्ट्र और अपने ही समाज के वृद्धों के द्वारा जाने गए और प्रस्तुत किए गए ज्ञान को जानना चाहिए तथा सर्वप्रथम अपने ही वृद्धों से संवाद करना चाहिए। इसके बाद जैसा हमारे वृद्धों ने निर्देश दिया है, सारे संसार के भी वृद्धों से ज्ञान प्राप्त करना सहज स्वाभाविक है।  इतिहास, पुराण, गणित, ज्योतिष, विज्ञान, आयुर्वेद, योगशास्त्र सहित समस्त भारतीय दर्शन शास्त्र, व्याकरण, भाषा शास्त्र आदि सभी रूपों में सबसे पहले अपने देश के ज्ञानियों को जानना आवश्यक है। फिर यूरो-अमेरिकी विद्वानों को भी अवश्य वे जानें। जिन क्षेत्रों में भारतीय ऋषि और भारतीय गुरुजन सर्वश्रेष्ठ मान्य है, उन क्षेत्रों में भी पहले हमारा ज्ञान वहाँ विद्यार्थियों को नहीं दिया जाता।  
इस वल्ली में सृष्टि क्रम का वर्णन है।

5. तीसरा खंड भृगुवल्ली है - जो वरुण के पुत्र भृगु की कहानी से संबंधित है।  जिन्होंने अपने पिता के निर्देशों के तहत आवश्यक तपस्या से गुजरने के बाद आनंद या ब्रह्म को समझा। इस खण्ड में पाँच कोशों का वर्णन स्पष्ट रूप से दिया गया है। भृगुवल्ली को वरुण के प्रवर्तक होने से वारुणी उपनिषद् या वारुणी विद्या भी कहते हैं। 
भृगुबल्ली में गृहस्थों, किसानों को कुछ निर्देश हैं जो सबके लिये ही हैं- अन्नं न निन्द्यात्।…. (७.१) तुम अन्न की निन्दा नहीं करोगे; कारण, वह तुम्हारे श्रम का व्रत है।(८.१)’अन्नं न परिचक्षीत…’तुम अन्न का तिरस्कार नहीं करोगे। (९.१) अन्नं बहु कुर्वीत।…तुम अन्नवृद्धि तथा अन्न-संचय करोगे।(१०.१)’वसतौ कम् चन न प्रात्यचक्षीत’-तुम अपने आवास में आये किसी भी व्यक्ति की अवमानना नहीं करोगे।

ब्रह्मानंद-वल्ली

हरिः ॐ। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
ओम। वह हम दोनों (शिक्षक और शिष्य) की रक्षा करें। ऐसा हो कि हम दोनों (मुक्ति के) आनंद का आनंद उठा सकें। आइए हम दोनों धर्मग्रंथों का सही अर्थ जानने का प्रयास करें। हमारी शिक्षा शानदार हो. हम कभी एक दूसरे से झगड़ा न करें! ओम शांति, शांति, शांति!
हरिः ॐ। सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
हरिः ॐ। 'वह' हम दोनों की एक साथ रक्षा करे। 'वह' एक साथ हम दोनों को अपने अधीन कर ले। हम एक साथ शक्ति एवं वीर्य अर्जित करें। हमारा अध्ययन हम दोनों के लिए तेजस्वी हो, प्रकाश एवं शक्ति से परिपूरित हो। हम कदापि विद्वेष न करें। ॐ शान्तिः! शान्तिः! शान्तिः!

ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम्‌। तदेषाऽभ्युक्ता। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।
ॐ। ब्रह्मवेत्ता 'परम तत्त्व' को ( परमात्मा को)  प्राप्त करता है; क्योंकि प्राचीन ऋचाओं में यही कथन है। उसके विषय मे यह [ श्रुति ] कही गयी है- ‘ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है ।
 यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्‌। सोऽश्नुते सर्वान्‌ कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति॥
'' जो व्यक्ति सत्ता की हृद्गुहा में निहित 'उसको' खोज लेता है 'उसके' ही प्राणियों को परम व्योम में 'उसे' पा लेता है, वही समस्त कामनाओं को परितृप्त करता है तथा वही उस विज्ञानमय तथा बोधपूर्ण 'अन्तरात्मा' के साथ 'ब्रह्म' में निवास करता है।
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः। आकाशाद्वायुः।वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्‌भ्यः पृथिवी।पृथिव्या ओषधयः। ओषधीभ्योऽन्नम्‌। अन्नात्पुरुषः। 
यही हैं 'आत्मा' 'आत्मतत्त्व'। इसी 'आत्मतत्त्व' से आकाश उत्पन्न हुआ; तथा आकाश से वायु; वायु से अग्नि; तथा अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई; जल से पृथ्वी की, पृथ्वी से औषधियों की, एवं औषधियों से अन्न और अन्न से मनुष्य की उत्पत्ति हुई। वास्तव में यह मनुष्य, यह मानव सत्ता अन्न के रस से, उसके तत्त्व से ही निर्मित है। 
स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। तस्येदमेव शिरः। अयं दक्षिणः पक्षः। अयमुत्तरः पक्षः। अयमात्मा। इदं पुच्छं प्रतिष्ठा।तदप्येष श्लोको भवति।
और यह जिसे हम देख रहे हैं, उसका शिर है, और यह उसका दक्षिण पक्ष है तथा यह उसका वाम पक्ष है; तथा यह उसका अन्तरात्मा है एवं यह है उसका निम्नांग जिस पर वह स्थिर रूप से प्रतिष्ठित रहता है। जिसके विषय में 'श्रुति' का यह वचन है।

23. ब्राह्मण आपका अपना स्व या आत्मा है। यह ज्ञान की वस्तु नहीं हो सकती. यह सदैव साक्षी विषय है।
24. ब्रह्म को जानने का अर्थ है ध्यान और निर्विकल्प-समाधि के माध्यम से पूर्ण-चेतना के साथ एकरूप होना,

मनुष्य के पांच कोष

25. पृथ्वी पर मौजूद सभी प्राणी भोजन से पैदा हुए हैं। फिर वे भोजन द्वारा जीवित रहते हैं: फिर, फिर, भोजन (पृथ्वी) पर वे अंत में जाते हैं। तो, वास्तव में भोजन सभी प्राणियों में सबसे बड़ा है। इसलिए इसे सभी के लिए औषधि कहा जाता है। जो लोग अन्न को ब्रह्म मानकर उसकी पूजा करते हैं, उन्हें सारा अन्न प्राप्त होता है। अन्न से ही सभी प्राणियों का जन्म होता है; पैदा होने के बाद, वे भोजन से बढ़ते हैं। भोजन प्राणी भी खाते हैं और वह भी उन्हें खाता है। इसलिए इसे अन्न कहा जाता है। अन्न के रस से बनी उस (आत्मा) के अलावा, भीतर एक और आत्मा है, जो प्राण से बनी है। उसी से यह भर जाता है. यह प्राणमय बिल्कुल पुरुष स्वरूप है। इसका मानव स्वरूप पूर्व के मानव स्वरूप के अनुरूप है। उसमें से प्राण ही प्रधान है; व्यान दक्षिणपंथी (पक्ष); अपान वाम पंख (पक्ष); अकासा ट्रंक (शरीर); पृथ्वी, पूँछ, सहारा।
26. अन्नमय कोस प्राणमय और शेष चार कोस से व्याप्त है। प्राणमय कोस तीन कोस, मनोमय दो कोस और विज्ञानमय एक कोस से व्याप्त है।
27. प्राण से ही देवता जीवित रहते हैं, मनुष्य और पशु भी जीवित रहते हैं। प्राण वस्तुतः प्राणियों का जीवन है। इसलिए इसे सार्वभौम जीवन अथवा सबका जीवन कहा जाता है। जो लोग प्राण की पूजा करते हैं वे संपूर्ण जीवन अवधि या जीवन की पूर्ण अवधि प्राप्त करते हैं।
28. उस पूर्व (अन्नमयात्मा) का यह (प्राण-मयात्मा) आत्मा है। प्राण से निर्मित प्राणमय स्वंय से भिन्न मन से निर्मित एक और स्वंय है। उस स्वनिर्मित मन से यह (प्राणमय) भर जाता है। मनुष्य का स्वरूप भी यही है। इसका मानव स्वरूप पूर्व के अनुरूप है। इसमें यजुस प्रमुख है। रिक दाहिनी ओर (पंख) है। समन बायां भाग (पंख) है, निषेधाज्ञा (आदेश) धड़ (शरीर) है। अथर्वंगिरस पूँछ है, आधार है।
29. मनोमय स्व प्राणमय का आंतरिक स्व है। यह प्राणमय कोश में व्याप्त है।
30. जहाँ तक पहुँचे बिना ही सारी वाणी मन के साथ वापस लौट जाती है, जो उस ब्रह्म के आनंद को जानता है, उसे किसी भी समय डर नहीं लगता। यह मन पूर्व की मूर्त आत्मा है। प्राणमय में से, यह, अर्थात् मनोमय, स्वयं है, जिसके शरीर में प्राणमय है।
31. मन से बनी आत्मा से भिन्न एक और आंतरिक आत्मा है जो ज्ञान (विज्ञान) से बनी है। उसी से ये भर जाता है. इसमें मनुष्य का आकार भी है। उस मानव आकृति के अनुसार ही इसका मानव रूप है। आस्था इसका सिर है. धार्मिकता (ऋतम्) दाहिना पक्ष या पंख है। सत्य (सत्यम्) बायां भाग या पंख है। योग (एकाग्रता, ध्यान) तना (स्वयं) है। शक्ति (महास) पूँछ है, आधार है।
32. मनोमय-कोश वृत्ति या विचारों से बना है। यह प्राणमय-कोश से भी सूक्ष्म है। यह प्राणमय-कोश को नियंत्रित करता है। तो यह प्राणमय-कोश का आंतरिक स्व है।
33. ज्ञान कर्म के साथ-साथ यज्ञ भी कराता है। सभी देवता ज्ञान को सबसे बड़े ब्रह्म के रूप में पूजते हैं। यदि कोई मनुष्य ज्ञान को ब्रह्म के रूप में जानता है, और यदि वह इससे विमुख नहीं होता है, तो वह शरीर में अपने पापों का त्याग करके सभी इच्छाओं को प्राप्त कर लेता है।
34. उस (पूर्व) में से, यह वास्तव में आत्मा है। इस आत्मा से भिन्न, ज्ञान से निर्मित (विज्ञानमय) भीतर एक और आत्मा है, जो आनंद से निर्मित है। उसी से यह भर जाता है. इसमें मनुष्य का आकार भी है। उस मानव आकृति के अनुसार ही इसका मानव रूप है। इसमें प्रेम (प्रिया) प्रधान है। जॉय (मोडा) दाहिनी ओर (पंख) है। डिलाइट (प्रमोदा) बाईं ओर (पंख) है। आनंद (आनंद) तना (स्वयं) है। ब्रह्म पूँछ है, सहारा है।
35. प्रिया किसी सुखद वस्तु को देखने में प्रेम है. मोडा आनंद है, वस्तु पर कब्ज़ा करने के बाद संतुष्टि। प्रमोद आनंद है, महान संतुष्टि है, वही आनंद तीव्र है जो तृप्त इच्छाओं से उत्पन्न होता है।
36. जन्म और मृत्यु अन्नमय-कोश के गुण हैं।
37. भूख और प्यास प्राणमय-कोश के गुण हैं।
38. मोह (भ्रम) और सोका (दुःख) मनोमय कोश के गुण हैं।
39. आत्मा सदैव शुद्ध और अनासक्त है। यह शाद-उर्मिस या संसार के सागर की छह लहरों से बिल्कुल मुक्त है। जन्म, मृत्यु, भूख, प्यास, मोह और दुःख।
40. अन्नमय-कोश स्थूल भौतिक शरीर का निर्माण करता है। प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय-कोश सूक्ष्म शरीर या सूक्ष्म शरीर (लिंग-शरीर) का निर्माण करते हैं। आनंदमय-कोश कारण शरीर (करण-शरीरा) का गठन करता है।
41. जाग्रत अवस्था में तीन शरीर कार्य करते हैं। स्वप्न अवस्था में सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर कार्य करते हैं। गहरी नींद के दौरान यह आनंदमय-कोश का पतला पर्दा है जो व्यक्तिगत आत्मा को परमात्मा या ब्रह्म से अलग करता है। आनंदमय-कोश गहरी नींद के दौरान संचालित होता है।

सृष्टि की उत्पत्ति

42. यदि कोई ब्रह्म को अस्तित्वहीन जानता है तो वह स्वयं अस्तित्वहीन हो जाता है। यदि वह ब्रह्म को अस्तित्व में जानता है, तो वे उसे अस्तित्व में जानते हैं।
43. अत: शिष्य के निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं: क्या वह, जो नहीं जानता, इस संसार को छोड़कर वहाँ जाता है? अथवा क्या वह, जो संसार छोड़ने के बाद जानता है, उसे प्राप्त करता है?
44. उस ने चाहा, मैं बहुत होऊं, मैं उत्पन्न होऊं। उन्होंने तप किया. तपस्या करके उन्होंने यह सब कुछ सामने लाया। बाहर लाकर उस ने उस में प्रवेश किया; इसमें प्रवेश करके, वह वह बन गया जो प्रकट है और जो प्रकट नहीं है, परिभाषित और अपरिभाषित, निवास और अप्रवास, ज्ञान और अज्ञान, सत्य और असत्य, और यह सब जो विद्यमान है। इसलिए इसे अस्तित्व कहा जाता है.
45. शुरुआत में, यह वास्तव में अस्तित्वहीन था। उसी से अस्तित्व का जन्म हुआ। वह अपने आप ही निर्मित हो गया। इसलिए इसे स्वनिर्मित कहा जाता है। यह जो स्वयं निर्मित था, यही सार है। इस सार को प्राप्त करके, मनुष्य धन्य हो जाता है, यदि हृदय की गुहा में आनंद मौजूद नहीं होता तो कौन जीवित रहता और सांस लेता! यह ब्रह्म आनंद प्रदान करता है। जब कोई उस ब्रह्म के साथ एकता प्राप्त कर लेता है जो अदृश्य, निराकार, अपरिभाषित, निवासहीन है, तो वह भय से मुक्त हो जाता है। हालाँकि, जब कोई ब्रह्म में थोड़ा सा भी भेद करता है, तो उसके लिए भय होता है। वह ब्रह्म ही भेद करने वाले के लिए भय का कारण बन जाता है। और प्रतिबिंबित नहीं करता.

आनंद की उन्नति

46. उसके भय से हवा बहती है। उसके भय से ही सूर्य उगता है। उसके भय से पुनः इन्द्र, अग्नि और मृत्यु अपने-अपने कर्तव्य पर चले जाते हैं।
47. मान लीजिए कि एक युवा है, एक अच्छा युवा, शास्त्रों में पारंगत, अनुशासित, दृढ़ निश्चयी और बहुत मजबूत। मान लीजिए कि यह सारी पृथ्वी धन-संपत्ति से परिपूर्ण है। यह मानव आनंद की एक इकाई है। यही मानव आनंद का पैमाना है।
48. मानव आनंद का सौ गुना मानव गंधर्वों के आनंद का इकाई-माप है और वेदों के एक श्लोक का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।
49. मानव गंधर्वों के आनंद का सौ गुना, दिव्य गंधर्वों के आनंद का इकाई-माप है, और वेदों के एक श्लोक का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।
50. दिव्य गंधर्वों के आनंद का सौ गुना, लंबे समय तक रहने वाले संसार में रहने वाले पितरों के आनंद की इकाई है, और वेदों में छंद एक व्यक्ति का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।
51. लंबे समय तक रहने वाले पितरों के आनंद का सौ गुना, स्वर्ग में पैदा हुए देवताओं के आनंद का इकाई-माप है, और वेदों में छंदित एक व्यक्ति का आनंद भी है, जो मुक्त है अरमान।
52. स्वर्ग में जन्मे देवताओं के आनंद का सौ गुना, कर्म-देवों के रूप में जाने जाने वाले देवताओं के आनंद का इकाई-माप है, जो अपने बलिदान कर्मों से देवता बन गए हैं, और एक छंद का आनंद भी है वेद, जो इच्छाओं से मुक्त है।
53. कर्म-देवों के नाम से जाने जाने वाले देवताओं के आनंद का सौ गुना, देवताओं के आनंद का इकाई-माप है, और वेदों के एक छंद का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है। देवताओं के आनंद का सौ गुना इंद्र के आनंद की इकाई-माप है, और वेदों के एक श्लोक का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।
54. इंद्र के आनंद का सौ गुना बृहस्पति के आनंद की इकाई-माप है, और वेदों के एक श्लोक का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।
55. बृहस्पति के आनंद का सौ गुना, प्रजापति के आनंद का इकाई-माप है, और वेदों के एक छंद का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।
56. प्रजापति के आनंद का सौ गुना ब्रह्म के आनंद की इकाई-माप है, और वेदों में छंदित व्यक्ति का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।
57. वह जो मनुष्य में है (पुरुष), और वह जो सूर्य में है, एक ही हैं। जो इसे जानता है, वह इस संसार से विदा होकर पहले अन्न से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है, फिर प्राण से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है, फिर मन से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है, फिर बुद्धि से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है और अंत में बुद्धि से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है। परम आनंद।
58. जो ब्रह्म के आनंद को जानता है, जिससे सभी शब्द मन सहित उस तक पहुंचे बिना ही लौट जाते हैं, वह किसी भी चीज़ से नहीं डरता।
59. इस प्रकार के विचार निश्चय ही उसे कभी व्यथित नहीं करते; मैंने वह काम क्यों नहीं किया जो अच्छा है? मैंने पाप क्यों किया है?
60. जो इस प्रकार जानता है वह इन दोनों को आत्मा मानता है। वास्तव में, वह इन दोनों को आत्मा मानता है, जो इसे जानता है।
61. ऋषि सर्वत्र अपने स्वरूप को ही देखता है। उसे लगता है कि जो कुछ भी मौजूद है वह और कुछ नहीं बल्कि उसकी अपनी आत्मा है। इसलिए उसे किसी भी चीज़ से कोई डर नहीं लगता.
62. ब्रह्म का ज्ञाता मानता है कि अच्छे और बुरे एक ही आत्मा की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं। सद्गुण और पाप उसे प्रभावित नहीं करते। वे अगले जन्म उत्पन्न नहीं कर सकते. उसे एहसास होता है कि वह अकर्ता और अभोक्ता है। वह जानता है कि आत्मा क्रियाहीन है और मन ही सभी कार्यों का कर्ता है। उसकी न कोई इच्छा है, न अहंकार, न कामना।

भृगु-वल्ली

63. वरुण के पुत्र भृगु अपने पिता के पास पहुंचे और कहा: हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिए।

64. उन्होंने (वरुण ने) उनसे (भृगु से) यह कहा: भोजन, प्राण, आंखें, कान, मन और वाणी ब्रह्म हैं।

65. उस ने उस से आगे कहा, जिस से ये प्राणी उत्पन्न हुए हैं; जिससे उत्पन्न होकर ये प्राणी जीवित रहते हैं; जिसमें, प्रस्थान करते समय, वे प्रवेश करते हैं और तुम्हें जानना चाहते हैं कि वह ब्रह्म है।

66. उन्होंने (भृगु ने) तपस्या की ।

67. तपस्या करके उन्होंने जान लिया कि अन्न ही ब्रह्म है; क्योंकि भोजन से ही इन सभी प्राणियों का जन्म हुआ है; भोजन से, जब वे पैदा होते हैं, तो क्या वे जीवित रहते हैं; और, भोजन में चले जाने के बाद, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

68. यह जानकर वह फिर अपने पिता वरुण के पास जाकर बोला; हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिये।

69. उन्होंने (वरुण ने) उससे कहा; तपस्या के द्वारा तुम ब्रह्म को जानना चाहते हो। तपस्या ही ब्रह्म है.

70. उन्होंने तपस्या की ।

71. तपस्या करने के बाद, (भृगु) ने जान लिया कि प्राण ही ब्रह्म है; क्योंकि प्राण से ही इन सभी प्राणियों का जन्म होता है; जन्म लेने के बाद, वे प्राण द्वारा जीते हैं; और प्राण में प्रस्थान करके, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

72. यह जानने के बाद, वह फिर से आगे जानने के लिए अपने पिता वरुण के पास गया और कहा; हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिये।

73. उन्होंने (वरुण ने) उससे कहा; तपस्या के द्वारा तुम ब्रह्म को जानना चाहते हो। तपस्या ही ब्रह्म है.

74. भृगु ने तपस्या की और तपस्या करने के बाद विश्लेषण और विचार-विमर्श के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राण (जीवन) ही ब्रह्म है। लेकिन वे इस निष्कर्ष से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने सोचा कि यह प्राण ब्रह्म नहीं हो सकता, क्योंकि यह अबुद्धिमान है, प्रभाव है, कारण है, आदि और अंत है। इसलिए वह आगे की रोशनी पाने के लिए फिर से अपने पिता के पास गया। और उसके पिता ने, फिर से, उसे तपस्या द्वारा इसे जानने के लिए कहा।

75. तब भृगु ने तपस्या से समझा कि मन ही ब्रह्म है, क्योंकि मन से ही इन सभी प्राणियों का जन्म हुआ है; जन्म लेने के बाद, वे मन से जीते हैं; और चले जाने के बाद, मन में, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

76. यह जानने के बाद, वह फिर से आगे जानने के लिए अपने पिता वरुण के पास गया और कहा; हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिये।

77. उन्होंने (वरुण ने) उससे कहा; तपस्या द्वारा ब्रह्म को जानने का प्रयत्न करो। तपस्या ही ब्रह्म है.

78. उन्होंने तपस्या की,.

79. भृगु ने सोचा कि मन केवल अनुभूति का एक अंग या साधन है, इसकी कोई आत्म-प्रकाश नहीं है, इसकी शुरुआत और अंत है, और इसलिए यह ब्रह्म, अकारण नहीं हो सकता है। इसलिए उन्होंने आगे की शिक्षा के लिए फिर से अपने पिता से संपर्क किया। तपस्या करने के लिए कहे जाने पर, वह इसे फिर से करता है।

80. तब उन्हें समझ आया कि ज्ञान ही ब्रह्म है; क्योंकि ज्ञान से ही इन सभी प्राणियों का जन्म होता है; वे उत्पन्न होकर ज्ञान से जीवित रहते हैं; और, ज्ञान में चले जाने के बाद, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

81. यह जानने के बाद, वह इसे और जानने के लिए अपने पिता वरुण के पास गया और कहा; हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिये।

82. उन्होंने (वरुण ने) उससे कहा: तपस्या द्वारा ब्रह्म को जानना। तपस्या ही ब्रह्म है.

83. उन्होंने फिर से तपस्या की।

84. भृगु को पता चला कि उनकी खोज उन्हें पूर्ण संतुष्टि नहीं दे सकती और वह ज्ञान ब्रह्म नहीं हो सकता। उनका विचार था कि ज्ञान ही जीव के सभी कर्मों का कारक है और कर्मों के फल का भोक्ता भी है। अत: वह पुनः रोशनी पाने के लिए अपने पिता के पास गया। और उन्हें जो सलाह मिली, वह फिर से, तपस्या करने की थी।

85. तब उन्होंने तपस्या से समझा कि आनंद ही ब्रह्म है; क्योंकि आनंद से ही सभी प्राणियों का जन्म होता है; जन्म पाकर वे आनंद से जीते हैं; और, प्रस्थान करने के बाद, आनंद में, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

86. यह भृगु द्वारा सीखा गया और वरुण द्वारा सिखाया गया ज्ञान है। यह परम आकाश (हृदय) में स्थापित है। जो इस प्रकार जानता है वह ब्रह्म के साथ एक हो जाता है। वह अन्न का स्वामी और अन्न का भक्षक बन जाता है। वह संतान, पशु और आध्यात्मिक तेज में महान हो जाता है। वह प्रसिद्धि में महान हो जाता है।

भोजन के संबंध में निषेधाज्ञा

87. भोजन के बारे में बुरा न बोलें। वह तुम्हारी प्रतिज्ञा होगी.

88. प्राण (जीवन) भोजन है. शरीर भोजन का भक्षक है। शरीर प्राण में स्थित है। प्राण शरीर में स्थिर है। तो इस प्रकार भोजन में भोजन निश्चित होता है। जो यह जान लेता है कि भोजन ही भोजन में स्थिर है, वह भली प्रकार स्थापित हो जाता है। वह अन्न का स्वामी और अन्न का भक्षक बन जाता है। वह संतान, पशु और आध्यात्मिक तेज में महान हो जाता है। वह प्रसिद्धि में महान हो जाता है।

आठवां अनुवाक

89. भोजन का तिरस्कार न करें। यही व्रत है. जल ही भोजन है. अग्नि अन्न-भक्षक है। जल में अग्नि स्थिर है। अग्नि में जल स्थिर है। अतः भोजन में भोजन निश्चित है। जो यह जानता है कि भोजन ही भोजन में स्थिर है, वह भली-भांति स्थापित है। वह अन्न से समृद्ध हो जाता है और अन्न का भक्षक बन जाता है। वह संतान, पशु और आध्यात्मिक तेज में महान हो जाता है। वह प्रसिद्धि में महान हो जाता है।

90. प्रचुर मात्रा में भोजन इकट्ठा करें (गरीबों और यात्रियों को बांटने के लिए)। यही व्रत है. पृथ्वी ही भोजन है. आकाश (ईथर) भोजन का भक्षक है। पृथ्वी में आकाश स्थिर है। आकाश में पृथ्वी स्थिर है। अतः भोजन में भोजन निश्चित है। जो यह जानता है कि भोजन इस प्रकार भोजन में ही स्थित है, वह अच्छी तरह से स्थापित है। वह अन्न से समृद्ध हो जाता है और अन्न का भक्षक बन जाता है। वह संतान, पशु और आध्यात्मिक तेज में महान हो जाता है। वह प्रसिद्धि में महान हो जाता है।

91. पृथ्वी आकाश में स्थित है जो उसके ऊपर और नीचे है। पृथ्वी चारों ओर से आकाश से ढकी हुई है। अतः पृथ्वी अन्न है और आकाश अन्न भक्षक है। ईथर आधार या पात्र है।

92. भोजन के बिना कोई भी ध्यान संभव नहीं है. भोजन को ईश्वर या ब्रह्म मानकर उसका ध्यान करना चाहिए। इसकी पूजा और महिमा की जानी चाहिए.

93. जो कोई आश्रय मांगे, उसे न ठुकराओ। यही व्रत है. इसलिये मनुष्य को किसी भी प्रकार से अधिक भोजन प्राप्त करना चाहिये। वे कहते हैं: खाना तैयार है. अगर खाना बेहतरीन तरीके से बनाया जाए तो उसे (मेहमान को) खाना भी बेहतरीन तरीके से दिया जाता है. अगर खाना मीडियम तरीके से बनाया गया है तो उसे भी मीडियम तरीके से खाना दिया जाता है. यदि भोजन निम्नतम ढंग से बनाया जाता है तो उसे भोजन भी निम्नतम ढंग से दिया जाता है।

94. जो इस प्रकार जानता है, उसे वैसे ही परिणाम प्राप्त होते हैं।

ब्रह्म पर ध्यान

95. ब्रह्म वाणी में संरक्षक के रूप में, प्राण और अपान में अधिग्रहणकर्ता और संरक्षक के रूप में, हाथों में क्रिया के रूप में, पैरों में गति के रूप में, गुदा में स्राव के रूप में रहता है। इस प्रकार मनुष्य के संबंध में ब्रह्म का ध्यान है।

96. अब स्वर्ग के संदर्भ में चिंतन आता है जैसे बारिश में संतुष्टि, बिजली में शक्ति, मवेशियों में प्रसिद्धि, सितारों में रोशनी, संतान, अमरता और जनन अंग में खुशी, आकाश में सब कुछ। .

97. उसे उस (ब्राह्मण) का सहारा मानकर ध्यान करना चाहिए। वह अच्छे से समर्थित हो जाता है। उसके पास भोजन और वस्त्र जैसे जीवनयापन के सभी साधन होंगे। उसे महान के रूप में उस पर ध्यान करने दें। वह महान बन जाता है. उसे मन के रूप में उस पर ध्यान करने दो। वह विचारशील हो जाता है. उसे उस पर आराधना के रूप में ध्यान करने दें। सभी इच्छाएँ उन्हें प्रणाम करती हैं। उसे सर्वोच्च के रूप में उस पर ध्यान करने दें। वह सर्वोच्चता की उपस्थिति बन जाता है। उसे उस पर विनाशकारी पहलू के रूप में विचार करने दें। वे सभी शत्रु जो उससे घृणा करते हैं और वे प्रतिद्वंद्वी जिन्हें वह पसंद नहीं करता, उसके चारों ओर मर जाते हैं।

98. वह जो मनुष्य में है और वह जो सूर्य में है दोनों एक ही हैं। जो इस प्रकार जानता है, वह इस संसार से प्रस्थान कर अन्नमय स्व को प्राप्त करता है, फिर प्राणमय स्व को प्राप्त करता है, फिर मनोमय स्व को प्राप्त करता है, फिर विज्ञानमय स्व को प्राप्त करता है, फिर आनंदमय स्व को प्राप्त करता है, जो उसे पसंद है वह खाता है और उसके अनुसार रूप धारण करता है। कामना करता है, दुनिया भर में यात्रा करता है, और निम्नलिखित साम गीत गाता है:

99. हे अद्भुत! मैं भोजन हूं, मैं भोजन हूं, मैं भोजन हूं; मैं अन्न का भोक्ता हूं, मैं अन्न का भोक्ता हूं, मैं अन्न का भोक्ता हूं। मैं यश का रचयिता हूं, मैं यश का रचयिता हूं। मैं प्रसिद्धि का लेखक हूं. मैं सत्य का पहला जन्म हूं। देवताओं से भी पहले, मैं समस्त अमरता का केंद्र हूँ। जो मुझे देता है, वह अवश्य बचाता है। जो अन्न खाता है, मैं अन्न उसे खाता हूँ। मैंने यह सारा संसार जीत लिया है। मैं सूर्य के समान प्रकाशमान हूँ। जो इस प्रकार जानता है वह उपरोक्त फल प्राप्त करता है। यह उपनिषद है.

100. यह जीवनमुक्ता का सबके साथ एकता का गीत है। ऋषि अपनी एकता का अनुभव व्यक्त करते हैं।

साभार @@@@https://www.sivanandaonline.org/?cmd=displaysection&section_id=586

==========

🕊🏹समय बड़ा हरजाई , समय से कौन लड़ा मेरे भाई 🕊🏹

संतोभाई  समय बड़ा हरजाई    ..१ 

राम अरु लछमन  बन बन  भटके संगमे जानकी माई,  

कांचन मृगके पीछे दौड़े  सीता हरण  कराई। …संतोभाई। …२ 

सुवर्णमयी  लंका रावणकी  जाको समंदर खाई 
दस मस्तक बीस भुजा कटाई  इज़्ज़त खाक मिलाई , संतोभाई   ,३ 
राजा युधिष्ठिर  द्यूतक्रीड़ामे  हारे अपने भाई  
राज्यासन धन सम्पत्ति  हारे द्रौपदी वस्त्र  हराई  ,,संतोभाई  ..४ 
योगेश्वरने गोपीगणको  भावसे दिनी विदाई 
बावजूद  अर्जुन था रक्षक  बनमे गोपी लुंटाई   ,,,संतोभाई  ५

जब तक रहो दुनियामे ज़िंदा  काम करो मेरे भाई ,  

इतना ज़्यादा  काम न करना  काम तुझे खा जाई  ..संतोभाई  ६ 

लिखना पढ़ना काव्य बनाना येतो है चतुराई,  

काम  क्रोध मन बश कर  लेना  अति कठिन है  भाई  ..संतोभाई ७ 

प्रेमका तंतु अति नाजुक है मत तोड़ो झटकाई 

टूट जाने पर  जुड़ता नही है  जुड़े तो गाँठ  रहजाई  ..संतोभाई  ..८ 

शेरको दंडवत प्रणाम करे  और चूहा डराने जाई

ऐसेभी इन्सान होते है  लोमड़ी जैसे भाई   ,,,संतोभाई  ….९ 

सब कोई सहायक सबल जनके निर्बलके न सहाई  

पवन झगावत अगनजवाला दीपक देत  बुझाई   …संतोभाई  .... १०  

स्टेशन ऊपर नरेंद्र मोदी बेचता था वो चाई, 

 समयने उसको साथ दिया तब  प्रधान मंत्री हो जाई। .संतोभाई  ..११ 

======

नर में है नारायण
nar me hai narayan

काशी घुम ले मथुरा घुम ले,
घुम ले चाहे वन वन...-2
नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण

ओ नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण
बोलो जय नारायण ओ बोलो जय नारायण

ओ बोलो जय नारायण ओ बोलो जय नारायण...2 बार 


पहन के भगवा तिलक लगा के बने तू संत ज्ञानी। 
हो गया मस्त मलंग, न पीड़ा किसी की तूने जानी।। 
विभूत मंडल गले में माला, विभूत मंडल गले में माला
व्यर्थ है माथे चन्दन। नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण हो..
नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण
बोलो जय नारायण ओ बोलो जय नारायण
ओ बोलो जय नारायण बोलो जय नारायण......

दया धर्म चाहे दान करो, ये किसी काम नहीं आते। 
दीन दुखी निर्धन को जब तक, गले से नहीं लगाते।।  
मेरा नारायण होता है पर, मेरा नारायण होता है
इसी बात में प्रसन्न। 
नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण
ओ नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण
बोलो जय नारायण ओ बोलो जय नारायण
ओ बोलो जय नारायण बोलो जय नारायण .....

ईश्वर के हैं बंदे सब को रूप उसी का मानो। 
ईश्वर के हैं बंदे सब को रूप उसी का मानो। 
ना कोई ऊंचा ना कोई निचा, सबको एक ही मानो।। 
सबको एक ही मानो, सबसे उत्तम पूजा यही है। 
सबसे उत्तम पूजा यही है,सबसे बड़ा ये धन। 
नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण। 
ओ नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण
बोलो जय नारायण ओ बोलो जय नारायण
ओ बोलो जय नारायण बोलो जय नारायण....

काशी घुम ले मथुरा घुम ले, घुम ले चाहे वन वन। 
काशी घुम ले मथुरा घुम ले, घुम ले चाहे वन वन
नर में है नारायण बंदे नर में है नारायण........

श्रेणी- विष्णु भजन/ साभार
 @@@@https://www.bhajanganga.com/bhajan/lyrics/id/22851/title/nar-me-hai-narayan
========
आँख कभी जब खुले रात में परमहंस को ध्याए
"सोहम हंसम, हंसम सोहम" अंतर नाद गुनाए
दिन जाए, दिन आए
दिन जाए, दिन आए
उस दिन की क्या गिनती?
जो दिन भजन किए बिन जाए
दिन जाए, दिन आए
दिन जाए, दिन आए
प्रथम किरण आने से पहले पुण्य प्रभाती गाए
जागो जग जीवन जन नायक वसुधा तुम्हे जगाए
...वसुधा तुम्हे जगाए
दिन जाए, दिन आए
उस दिन की क्या गिनती?
जो दिन भजन किए बिन जाए
दिन जाए, दिन आए
उषत्काल जब नए दिवस का उज्वल सूर्य उगाए
जल देकर जीवन दाता को सविनय शीश झुकाए
...सविनय शीश झुकाए
दिन जाए, दिन आए
उस दिन की क्या गिनती?
जो दिन भजन किए बिन जाए
दिन जाए, दिन आए
आँख कभी जब खुले रात में परमहंस को ध्याए
"सोहम हंसम, हंसम सोहम" अंतर नाद गुनाए
...अंतर नाद गुनाए
दिन जाए, दिन आए
उस दिन की क्या गिनती?
जो दिन भजन किए बिन जाए
दिन जाए, दिन आए
दिन जाए, दिन आए
(गीतकार: हृदयनाथ मंगेशकर / पं. नरेंद्र शर्मा/ स्वर-लता दीदी ! )