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सोमवार, 25 मार्च 2024

🕊🏹कर्म से आनन्द की प्राप्ति (Happiness acquired through Work) 🕊🏹 🕊कर्म ही व्यक्ति के भाग्य और जीवन का निर्माण करते हैं।

कर्म का चरित्र पर प्रभाव 

[KARMA IN ITS EFFECT ON CHARACTER]

   >>जीवन में सक्रियता [घोर कर्मठता ] अच्छी बात है, लेकिन व्यक्ति अगर स्वयं को समझ नहीं रहा है, या अपने बारे में नहीं सोच रहा है अथवा अपनी क्षमताओं एवं सीमाओं से अवगत नहीं है। वैसे कार्य कर रहा है जिससे बेहतर करने की क्षमता उसके अंदर है, तो यह जीवन की एक बड़ी विडंबनापूर्ण स्थिति है। आज हर व्यक्ति इसका शिकार है। केवल सांसारिक चीजों की ओर आकृष्ट है। [केवल सांसारिक चीजों टाका -माटी या कामिनी ऐषणाओं की ओर आकृष्ट है।] वह निजी हितों और स्वार्थों में दौड़ रहा है। अपने लाभ के लिए जायज -नाजायज कार्य कर रहा है। इस तरीके से जीवन जीने वाले भ्रमित हैं। [इस तरह से जीवन जीने वाले हिप्नोटाइज्ड या सम्मोहित सिंह-शावक हैं।] ऐसे भ्रम जीवन में एक बार प्रविष्ट होने के बाद पीछा नहीं छोड़ते। अंतिम साँस तक वे मनुष्य को घेरे रहते हैं। एक तरह से वे ऐषणाएँ (कामिनी-कांचन या नामयश में घोर आसक्ति) जीवन की तमाम सरसता को ही लील लेते हैं। इन स्थितियों से मुक्ति पाने के लिए जरुरी है ध्यान की अवस्था में उतरना। [हिप्नोटाइज्ड अवस्था या M/F शरीर समझने की सम्मोहित अवस्था से मुक्ति /मोक्ष पाने के लिए जरुरी है ध्यान की अवस्था उतरना अर्थात -ध्यान से निर्विकल्प समाधि की अवस्था में पहुँच जाना।] स्वयं को जानने एवं स्वयं से साक्षात्कार करने के लिए हमें नए सिरे से विचार करना होगा। इस प्रचलित घेरे से बाहर आना होगा तभी हम अपने जीवन को सफल एवं सार्थक कर पाएंगे। मनुष्य जब स्वयं से साक्षात्कार करेगा तो वह अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव भी करेगा। यह प्रेरणा जीवन में अभ्युदयकारी परिवर्तन लाती है। इससे व्यक्ति सांसारिक राग-विषयों से ऊपर उठ जाता है। वह अनागत (मृत्यु ?) के भय से मुक्त होता है।

 हम सभी समाज के अभिन्न अंग हैं। हमारी हर अच्छी और हर बुरी बात का समाज पर अच्छा और बुरा असर होता है। इसलिए सन्त (महात्मा ,नेता ,पैगम्बर, अवतार,  महापुरुष,जीवन-मुक्त शिक्षक लोग)  व्यक्तिगत स्तर की शुचिता (purity) और सर्व-कल्याण (universal welfare) की भावना पर जोर देते हैं । संसार-सागर में रहते हुए व्यक्तिगत प्रलोभनों से ऊपर उठना मुश्किल है। यह मुश्किल आसान करता है -ध्यान !  ध्यानस्थ के लिए शेष संसार के सम्बन्ध कुछ मायने नहीं रखते। (जिस ध्यान में संसार सम्पर्क समाप्त हो जाता है, उसका उदाहरण है बिले का ध्यान - -साँप गुजर गया बिले को पता ही नहीं चला!) यह स्थिति मनुष्य को किसी और ही लोक में ले जाती है जहां उसे परम सुख का  (परमानन्द का) अनुभव होता है, जिस सुख के आगे संसार के सारे सुख गौण हैं। व्यक्ति का स्वयं से साक्षात्कार नहीं हो पाना ही हमारी एक प्रमुख समस्या है। ऐसा मनुष्य बेवजह भाग-दौड़ में लगा रहता है। अपने हितों के लिए एक घेरे में लगातार चक्कर लगाता रहता है। ध्यान वह अवस्था है जिसमें सही अर्थों में व्यक्ति का स्वयं से साक्षात्कार होता है।   --~ {ललित गर्ग -प्रवक्ता.कॉम}

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मन की अचेतन भूमि (जन्मजात प्रवृत्ति) एवं यह सज्ञान या चेतन भूमि (युक्ति-तर्क की भूमि) ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है। मन इन दोनों भूमियों से भी उच्चतर भूमि पर विचरण कर सकता है। उस भूमि को अतिचेतन भूमि कहते हैं, वही समाधि नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था है। " (१/६२) अर्थात चेतन (जाग्रत) , अवचेतन (स्वप्न) और अचेतन (सुषुप्ति) अवस्था से परे समाधि नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था या समाधिस्थ अवस्था ही वह 'तुरीय (चतुर्थ) अवस्था' है जिसमें सही अर्थों में व्यक्ति का स्वयं से साक्षात्कार होता है। 

🔘परा विद्या और अपरा विद्या (मन को एकाग्र करना) दोनों सीखना आवश्यक है !: 

भारत के सभी धर्मों व संप्रदायों का यही मानना है कि मन अत्यंत चंचल है, इसलिए उसकी चंचलता को दूर करने के लिए मन को एकाग्र करना अत्यंत आवश्यक है। मन की एकाग्रता के बगैर जीवन के किसी भी क्षेत्र में मनुष्य को सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। हमारी चित्त नदी (= हमारी मनोवृत्तियाँ) उभयतो वाहिनी है - इसीलिए हमारे चित्त में अच्छी-बुरी (श्रेय-प्रेय, स्वार्थपर -निःस्वार्थपर) अनेक प्रकार की मनोवृत्तियाँ पनपती रहती हैं। उन चित्तवृत्तियों (मनोवृत्तियों) का निरोध करने से जब मन की एकाग्रता की शक्ति द्वारा प्रचण्ड इच्छाशक्ति का विकास होता है तब समाधि (योग) नामक उपरोक्त पूर्ण एकाग्र अवस्था प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ सूर्य की फैली हुई किरणों के सामने जब एक आतिशी शीशा उसके सामने रखा जाता है तब उसकी किरणों एक बिंदु पर केंद्रित हो जाती हैं और उनमें इतनी शक्ति आ जाती है कि जिस स्थान पर भी वह सूर्य बिंदु केंद्रित होता है वहीं अपनी शक्ति से अग्नि प्रज्ज्वलित कर देता है। इसी प्रकार जो भी मनुष्य अपनी बिखरी हुई शक्तियों को जितना अधिक एकाग्र कर लेता है, उसको उतनी ही अधिक सफलता मिलती है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति को बचपन से ही अपने मन पर नियंत्रण करने के लिए अभ्यास करना चाहिए। मन को नियंत्रित करना मुश्किल अवश्य होता है, किंतु नामुमकिन बिल्कुल नहीं होता।

Swami Vivekananda Thoughts : विद्या दो प्रकार की होती है: 1. अपरा विद्या (Physics) 2. परा विद्या (Meta Physics):  उपनिषदों में परा और अपरा विद्या में भेद बतलाया गया है।  उपनिषदें ‘अपरा विद्या’, निम्नतर ज्ञान और ‘परा विद्या’, उच्चतर ज्ञान में अंतर करते हैं। अपरा विद्या से तात्पर्य वेदों और विज्ञानों में उपलब्ध ज्ञान से है। परा विद्या अविनाशी परमेश्वर और आत्मा के दिव्य स्वरूप का ज्ञान देती है। जिस विद्या से 'अक्षरब्रह्म' का ज्ञान होता है, वह 'परा' विद्या है और  जिससे ऋग, यजु, साम, अथर्व, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद और ज्योतिष का ज्ञान होता है, वह 'अपरा' विद्या है। 'अपरा विद्या' : जिसमें जानने वाला और जाना जाने वाला अलग-अलग होता है।  अपरा विद्या वह विद्या है, जो स्वप्न की बुद्धि से उत्पन्न होती है तथा निराकार तक का ज्ञान देती है। अविद्या या अपरा विद्या त्याज्य नहीं क्योंकि ईश्वर ने मनुष्य को कर्म करने के लिए ही इस लोक में भेजा है और कर्म बिना तो किसी की जीवन यात्रा सम्भव ही।

नहींकुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥

( ईश० २) इसका भावार्थ यह कि इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है,इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है,इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य कर्म में लिप्त नहीं होता।

मित्रोंअपरा विद्या के द्वारा भौतिकवाद का पूरा ज्ञान मिलता है और भौतिकवाद का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना अध्यात्म को जानना असम्भव है। अपरा विद्या का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना परा विद्या (अध्यात्म विद्या) को जानना असम्भव है। प्रकृति का सम्पूर्ण रहस्य जाने बिना परा प्रकृति और परब्रह्म को जानना असम्भव है।

'परा विद्या" :भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में,परा विद्या से तात्पर्य स्वयं को जानने (आत्मज्ञान) या परम सत्य को जानने से है। उपनिषदों में इसे उच्चतर स्थान दिया गया है। दूसरी विद्या अपरा विद्या है। वेदान्त कहता है कि जो आत्मज्ञान पा लेते हैं उन्हें कैवल्य की प्राप्ति होती है,वे मुक्त हो जाते हैं और ब्रह्म पद को प्राप्त होते हैं। शौनक ने जब अंगिरस से पूछा,- “कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति” (महोदय, वह क्या है जिसके विज्ञात होने पर सब कुछ विज्ञात हो जाता है? तो उन्होने उत्तर दिया:-“द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च। तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।अथ परा यया तदक्षरमधिग्म्यते॥” –(मुण्डकोपनिषद्)(दो प्रकार की विद्याएँ होतीं हैं जिन्हें ब्रह्मविदों ने बताया है,परा विद्या और अपरा विद्या।ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद और अथर्ववेद,शिक्षा,कल्प,व्याकरणं,निरुक्तं,छन्द, ज्योतिष-ये अपरा विद्या हैं।और परा विद्या वह है जिसके द्वारा वह “अक्षर”(नष्ट न होने वाला) जाना जाता है।)‘अलौकिक’ या ‘पारलौकिक‘ शब्द भी इसके लिए प्रयुक्त होता है।मित्रों श्रीसद्गुरु भगवान की कृपा से कुछ उपनिषदों के अध्ययन/पाठ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उपनिषद् की दृष्टि में अपरा विद्या निम्न श्रेणी का ज्ञान मानी जाती हैं।मुण्डक उपनिषद (१/१/४) के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है।परा विद्या ही श्रेष्ठ ज्ञान है क्योंकि इसके द्वारा अविनाशी ब्राह्मतत्व का ज्ञान प्राप्त होता है।“सा परा,यदा तदक्षरमधिगम्यते।

जिसमें जानने वाला और जाना जाने वाला अलग-अलग नहीं होता। इसमें अपना ज्ञान है, ब्रह्म-ज्ञान है। परा का अर्थ वह विद्या, जो इस नश्वर ब्रह्मांड से परे का ज्ञान दे। उपनिषद में कहा गया है कि परा विद्या वह विद्या है, जो जागृत बुद्धि है और उसी से अक्षर ब्रह्म को जाना जाता है (मुण्डक. 1/1/5)।   

भक्त के लिए पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक ही है।  एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छिन्न धारा में गिरता है उसी प्रकार जब मन भगवान के सतत चिंतन में लग जाता है तो पराभक्ति की अवस्था प्राप्त हो जाती है। भगवान के प्रति अविच्छिन्न आसक्ति के साथ हृदय और मन का इस प्रकार अविरत और नित्य स्थिर भाव ही मनुष्य के हृदय में भगवत्प्रेम का सर्वोच्च प्रकाश है। मुंडक उपनिषद में कहा गया है - ब्रह्मज्ञानी के मतानुसार परा और अपरा, ये दो प्रकार की विद्याएं जानने योग्य हैं। अपरा विद्या में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा (उच्चारणादि की विद्या), कल्प (यज्ञपद्धति), व्याकरण, निरुक्त (वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ बताने वाला शास्त्र), छंद और ज्योतिष आदि हैं तथा परा विद्या द्वारा उस अक्षर ब्रह्म का ज्ञान होता है। इस प्रकार परा विद्या स्पष्टत: ब्रह्मविद्या है

देवीभागवत में पराभक्ति की यह व्याख्या है कि-एक बर्तन से दूसरे बर्तन में तेल डालने पर जिस प्रकार एक अविच्छिन्न धारा में गिरता है, उसी प्रकार जब मन भगवान के सतत चिंतन में लग जाता है तो पराभक्ति की अवस्था प्राप्त हो जाती है। भगवान के प्रति अविच्छिन्न आसक्ति के साथ हृदय और मन का इस प्रकार अविरत और नित्य स्थिर भाव ही मनुष्य के हृदय में भगवत्प्रेम का सर्वोच्च प्रकाश है। अन्य सब प्रकार की भक्ति इस पराभक्ति अर्थात रागानुगा भक्ति की प्राप्ति के लिए केवल सोपान स्वरूप है।

जब इस प्रकार का अपार अनुराग मनुष्य के हृदय में उत्पन्न हो जाता है, तो उसका मन निरंतर भगवान के स्मरण में ही लगा रहता है, उसे और किसी का ध्यान ही नहीं आता। भगवान के अतिरिक्त वह अपने मन में अन्य विचारों का स्थान तक नहीं देता और फलस्वरूप उसकी आत्मा पवित्रता के अभेद्य कवच से रक्षित हो जाती है। वह तामसिक एवं भौतिक समस्त बंधनों को तोड़कर शांत और मुक्त भाव धारण कर लेती है। ऐसा ही व्यक्ति अपने हृदय में भगवान की उपासना कर सकता है। उसके लिए अनुष्ठान पद्धति, प्रतिमा, शास्त्र और मत-मतांतर आदि अनावश्यक हो जाते हैं, उनके द्वारा उसे कोई लाभ नहीं होता।

भगवान की इस प्रकार की उपासना करना सहज नहीं है। साधारणतया मानवी प्रेम वहीं लहलहाते देखा जाता है, जहां उसे दूसरी ओर से बदले में प्रेम मिलता है और जहां ऐसा नहीं होता, वहां उदासीनता आकर अपना अधिकार जमा लेती है। ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं, जहां बदले में प्रेम न मिलते हुए भी प्रेम का प्रकाश होता हो। उदाहरणार्थ हम दीपक के प्रति पंतगे के प्रेम को ले सकते हैं। पतंगा दीपक से प्रेम करता है और उसमें गिरकर अपने प्राण दे देता है। इस प्रकार प्रेम करना उसका स्वभाव है। केवल प्रेम के लिए प्रेम करना संसार में निस्संदेह प्रेम की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है और यही पूर्ण निस्वार्थ प्रेम है। इस प्रकार का प्रेम जब आध्यात्मिकता के क्षेत्र में कार्य करने लगता है, तो वहीं हमें पराभक्ति में ले जाता है।

अपरा विद्या (Physics) में अपरा प्रकृति (Nature) का वर्णन, बिन्दु विस्फोट सिद्धांत (Big Bang Theory)कृष्ण विवर सिद्धान्त (Black Hole Theory), गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त(Theory of gravity), सृष्टि तथा प्रलय (Creation and Destruction), प्रकृति के द्वारा सृष्टि वर्णन (Creation from Nature), प्रकृति के तीन गुण सत्त्व-रज-तम की सृष्टि, काल(समय)-कर्म-स्वभाव की सृष्टि महत्तत्व (cosmic intellect), अहंकार (cosmic ego), मन (cosmic mind), इन्द्रियाँ (senses), पंच तन्मात्रा (five subtle elements), पाँच महाभूत (five gross elements) पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु- आकाश की सृष्टि, प्रकृति के सभी तत्त्वों द्वारा विराट ब्रह्माण्ड (Universe) की सृष्टि का विस्तार से वर्णन है॥  भौतिकवाद (Materialism-अर्थकरि विद्या) का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किये बिना अध्यात्म (Spirituality) को जानना असम्भव है। 

अध्यात्म विद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम्॥ (गीता)

सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी।

संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी॥ (दुर्गा सप्तशती)

भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद भगवद् गीता के दशम अध्याय विभूतियोग में श्लोक न .32 में परा विद्या का वर्णन करते हुए कहते हैं ''अध्यात्म विद्या विद्यानाम्'' अर्थात् मै समस्त विद्याओं में अध्यात्म विद्या (परा विद्या -Meta Physics) हूँ॥ परा विद्या को ही ''अध्यात्म विद्या, ब्रह्मविद्या तथा परा विज्ञान'' कहा गया है॥ परा विद्या के द्वारा मूल प्रकृति एवं परब्रह्म का पूर्ण ज्ञान होता है इसीलिए इसे ''ब्रह्मविद्या'' भी कहा जाता है॥

दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में परा विद्या(Meta Physics) का वर्णन किया गया है। मूल प्रकृति भगवती राजराजेश्वरी महात्रिपुरसुन्दरी ही सनातनी परा विद्या हैं॥ परा विद्या सनातनी ब्रह्मविद्या है। परा विद्या संसार के बन्धन से मुक्ति देने वाली सनातनी अध्यात्म विद्या है॥ परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीश्वरी हैं॥

अध्यात्म विद्या सम्बन्धी ग्रंथ विशेष रूप से ब्रह्मसूत्र(वेदान्त दर्शन) परा विद्या का स्वरूप है॥ ब्रह्ममीमांसा(वेदान्त सूत्र) के द्वारा ही परब्रह्म एवं परा प्रकृति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है॥ वेदान्त में ब्रह्म के बारे में विस्तार से मीमांसा की गयी है इसीलिए वेदान्त को ''ब्रह्मसूत्र या ब्रह्ममीमांसा'' कहा गया है। ब्रह्मसूत्र और श्रीमद भगवद् गीता में सनातन परब्रह्म और परा प्रकृति का विस्तार से वर्णन है, सनातन ब्रह्म को प्राप्त करने तथा मोक्ष (ब्रह्मनिर्वाण) प्राप्त करने के सनातन मार्ग का वर्णन है॥

वेदान्त साधना (मनःसंयोग या अष्टांग योग) करते हुए निर्विकल्प समाधि के द्वारा परब्रह्म एवम् परा प्रकृति का एकत्व का अनुभव एवं साक्षात्कार होता है तभी परा विद्या में पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है॥ वेदान्त दर्शन के प्रस्थानत्रयी के अन्तर्गत ब्रह्मसूत्र एवं श्रीमद भगवद् गीता का विशेष महत्व है इसीलिए श्रीमद भगवद् गीता को ''ब्रह्मविद्या योगशास्त्र'' कहा गया है परा विद्या के द्वारा साधक को जीव और ब्रह्म की एकता का अनुभव होता है, सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि प्राप्त होती है, परम पुरुष (पुरुषोत्तम) (Supreme Person) और परा प्रकृति (Superior Nature) में कोई भेद नहीं है दोनों एक ही है, अभेद हैं ऐसा सत्य ज्ञान प्राप्त होता है॥ साधक गुणातीत हो जाता है, स्थितप्रज्ञ हो जाता है॥

🔘 नंदलाला ! हरि का प्यारा नाम है।

श्री राधे गोविंदा, मन भज ले हरि का प्यारा नाम है.... 

गोपाला हरि का प्यारा नाम है, नंदलाला ! हरि का प्यारा नाम है। 

मोर मुकुट, सिर गल बनमाला, केसर तिलक लगाए, केसर तिलक लगाए

वृंदावन की कुंज गलिन में सबको नाच नचाए। 

गिरिधरनागर कहती मीरा, सूरुप श्यामल भाया, सूरुप श्यामल भाया

तुकाराम और नामदेव ने विट्ठल-विट्ठल गाया। 

तुकाराम और नामदेव ने विट्ठल-विट्ठल गाया। ... 

श्री राधे गोविंदा, मन भज ले हरि का प्यारा नाम है.... 

गोपाला हरि का प्यारा नाम है, नंदलाला हरि का प्यारा नाम है। 

नरसिंह ने करताल बजा के साँवरिया को रिझाया, साँवरिया को रिझाया,

शबरी ने अपने हाथों से प्रभु को बेर खिलाया। 

श्री राधे गोविंदा, मन भज ले हरि का प्यारा नाम है.... 

राधा शक्ति बिना ना कोई श्यामल दर्शन पाए, श्यामल दर्शन पाए

आराधनकर राधे-राधे कान्हा भागे आएँ। 

वृन्दावन के एक संत की कथा है।  वे श्री कृष्ण की आराधना करते थे। किन्तु उन्हें लगा कि  निष्क्रय ब्रह्म  का सतत ध्यान करना, या निर्गुण -निराकार सर्वव्यापी परमात्मा  पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना अत्यन्त कठिन है।  परन्तु लीला विशिष्ट ब्रह्म का सतत ध्यान हो सकता है। उन्होंने संसार को (हिरण्यकशिपु को या स्वयं को जो खुद को M/F शरीर समझकर कामिनी -कांचन और मिथ्या नामयश में अहं की आसक्ति को)  भूलने की एक युक्ति की।  मन को सतत श्री कृष्ण का स्मरण रहे, उसके लिए महात्मा ने प्रभु के साथ ऐसा सम्बन्ध जोड़ा कि " मै नन्द हूँ, बाल कृष्ण लाल मेरे बालक है। " वे महात्मा (महापुरुष) परमात्मा (माँ काली या कृष्ण अवतार)  के साथ पुत्र का सम्बन्ध जोड़ कर संसार को भूल गये।  परमात्मा के साथ तन्मय हो गये, श्री कृष्ण को पुत्र मानकर लाड लड़ाने लगे। वे लाला को लाड लड़ाते, यमुना जी स्नान करने जाते तो लाला को साथ लेकर जाते। भोजन करने बैठते तो मथुरा के लाला को (या  अयोध्या के श्रीराम लला को ? या कामारपुकुर के 'गदायी' को ) साथ लेकर बैठते। ऐसी भावना करते कि कन्हैया मेरी गोद में बैठा है। कन्हैया मेरे दाढ़ी खींच रहा है। श्री कृष्ण को पुत्र मानकर आनद करते। श्री कृष्ण के उपर इनका वात्सल्य भाव था।

🔘Mental service : महात्मा (महापुरुष-प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न-बुद्ध या ईसा जैसे नेता) श्री कृष्ण की मानसिक सेवा करते थे। सम्पूर्ण दिवस मन को श्री कृष्ण लीला में तन्मय रखते, जिससे मन को संसार का चिंतन करने का अवसर ही न मिले। महात्मा ऐसी भावना करते कि कन्हैया मुझसे केला मांग रहा है। 'बाबा! मुझे केला दो', ऐसा कह रहा है। महात्मा मन से ही कन्हैया को केला देते।  महात्मा समस्त दिवस लाला की मानसिक सेवा करते और मन से भगवान को सभी वस्तुए देते। 

[विष्णु पुराण के अनुसार - भगवान विष्णु के दस अवतार हैं : मत्स्य,कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम,कृष्ण, गौतम बुुद्ध, और कल्कि। पहले तीन अवतार, अर्थात् मत्स्य, कूर्म और वराह प्रथम महायुग अर्थात सत्य युग या कृत युग में अवतीर्ण हुए। नरसिंह, वामन, परशुराम और राम दूसरे अर्थात् त्रेतायुग में अवतरित हुए। कृष्ण और बलराम द्वापर युग में अवतरित हुए। इस समय चल रहा युग कलियुग है और भागवत पुराण की भविष्यवाणी के आधार पर इस युग के अंत में कल्कि अवतार होगा। इससे अन्याय और अनाचार का अंत होगा तथा न्याय का शासन होगा जिससे सत्य युग की फिर से स्थापना होगी।

 🔘🕊🏹कर्म ही व्यक्ति के भाग्य और जीवन का निर्माण करते हैं।

 ॐ नमः शिवाय

समय का इकतारा जब बोले, जल, थल, नभ मैं मधुरस घोले,ॐ नमः शिवाय .......

जग के दुःख संताप रे मनवा, जब तुझको तडपाये, (2)

मोह माया के जूठे बंधन, जब तुझको भरमाये

जपना मुखसे होले होले ..........ॐ नमः शिवाय .......

जप तप में ही सच्चा सुख है, क्या लेना छल बल से,

पतित पावन नाम है उसका,

उसके नाम के जल से, जीवन की चदरिया धोले, ..............ॐ नमः शिवाय .......

कर्म ही सच्चा ज्ञान योग है, कर्म ही कर जीवन मैं,

करले कर्म की उत्तम खेती, दुनिया के उपवन मैं,

दया धरम का बीज तू बोले .................ॐ नमः शिवाय .......

स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि ‘अपने विचारों पर नियंत्रण रखो नहीं तो वे तुम्हारा कर्म बन जाएंगे और अपने कर्मो पर नियंत्रण रखो नहीं तो वे तुम्हारा भाग्य बन जाएंगे।’ कर्म ही व्यक्ति के भाग्य और जीवन का निर्माण करते हैं।

‘तुलसी’ काया खेत है, मनसा भयौ किसान। 

पाप-पुन्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान॥ 

भावार्थ:-  गोस्वामी जी कहते हैं कि शरीर मानो खेत है, मन मानो किसान है। जिसमें यह किसान पाप और पुण्य रूपी दो प्रकार के बीजों को बोता है। जैसे बीज बोएगा वैसे ही इसे अंत में फल काटने को मिलेंगे। भाव यह है कि यदि मनुष्य शुभ कर्म करेगा तो उसे शुभ फल मिलेंगे और यदि पाप कर्म करेगा तो उसका फल भी बुरा ही मिलेगा।

‘तुलसी’ साथी विपति के, विद्या, विनय, विवेक। 

साहस, सुकृत, सुसत्य-व्रत, राम-भरोसो एक॥ 

भावार्थ:-  गोस्वामी जी कहते हैं कि विद्या, विनय, ज्ञान, उत्साह, पुण्य और सत्य भाषण आदि विपत्ति में साथ देने वाले गुण एक भगवान् राम के भरोसे से ही प्राप्त हो सकते हैं।

 तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए। 

अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए।

इस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान पर भरोसा करें और भयमुक्त होकर शांति से सोएं। कुछ भी अनावश्यक नहीं होता और अगर कुछ अनिष्ट घटना होनी है तो वह होकर ही रहती है इसलिए बेकार की चिंता और उलझन को अपने मन में पैदा नहीं करना चाहिए।

आवत हिय हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह। 

‘तुलसी’ तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह॥ 

हमारे देश में अतिथि देवो भव की परम्परा थी । गोस्वामी तुलसीदास जी का यह दोहा आज के युग में पूरा उतरता है। कोई अनजान तो दूर अपना सुपरिचित व्यक्ति घर में आ जाता है तो परिवार के सदस्यों के माथे पर सिकन पड़ जाती है। उन्हीं लोगों के लिए यह लिखा गया है। गोस्वामी जी कहते हैं कि किसी आगंतुक को देखकर जहां प्रसन्नता नहीं होती, उनके आंखों से स्नेह की वर्षा नहीं होती, वहां कभी नहीं जाना चाहिए। भले ही उनके घर में सोने की वर्षा क्यों न हो?

मुखिया (Leader,नेता) मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।  

पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।। 

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला है, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है।  

तुलसी जब पैदा हुए, जग हँसे तुम रोये। 

ऐसी करनी कर चलो, तुम हँसो जग रोये।।  

साभार @@@https://leverageedu.com/blog/hi/tulsidas-poems-in-hindi/ 

🔘>>>'त्रय दुर्लभं' मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या है ? जीवन को सार्थक करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जीवन क्या है ? स्वयं को पहचानना और स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार जीवन की सार्थकता है। जब हम अपने भीतर झांकते हैं और जीवन को समझने की चेष्टा करते हैं तो हमारी स्थिति बहुत भिन्न हो जाती है। इससे बड़ा दूसरा कार्य क्या हो सकता है कि व्यक्ति जीवन को ही समझ ले। यह समझ में आने के बाद अवश्य वह अपनी सार्थकता की ओर बढ़ेगा। कम-से-कम उस ओर बढ़ने की संभावनाएं तो बनेगी। इन संभावनाओं का अपना महत्व होता है।   अन्तस् में विचारों के जन्म के बाद व्यक्ति जब इस प्रवाह में शामिल हो जाता है तो उसके ज्ञानचक्षु खुलने लगते हैं। अंधेरे के, अज्ञानता के, भ्रम के बादल छंट जाते हैं। उजास हमारे भीतर एक सुख-शांति और आनन्द भर देता है।

 हमारा जीवन हमारा अपना जीवन तो है ही, समाज में भी उसकी कुछ जगह है और समाज को हमारा जीवन भी कुछ प्रभावित करता हैं समाज के चरित्र में हमारा चरित्र भी समाहित होता है। यह ठीक उस तरह से है जैसे हम सभी की अच्छाइयां समाज की अच्छाइयां हैं। हमारी बुराइयां समाज की भी बुराइयां हैं। क्योंकि हम सभी समाज के अभिन्न अंग हैं। हमारी हर अच्छी और हर बुरी बात का समाज पर अच्छा और बुरा असर होता है। इसलिए व्यक्तिगत स्तर की शुचिता और सर्व-कल्याण की भावना पर जोर दिया जाता है।

🔘"प्राण जाए पर वचन न जाए" इस कथन का उद्गम कब हुआ और किसने किया?

श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकांड में इस चौपाई का वर्णन हुआ है, दशरथ जी कैकेयी से यह बात कह रहे हैं-

झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू॥

रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई।। 

भावार्थ:-मुझे झूठ-मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल में सदा से यह रीति चली आई है कि प्राण भले ही चले जाएँ, पर वचन नहीं जाता॥

तुलसी की रामायण बोले, "रामचरित अपनाओ" ... 

'नर' तन राम हैं, नारी सीता, समझो रे, 

नर-नारी नर तन राम हैं, नारी सीता, समझो रे, नर-नारी। 

धर्म-कर्म की मर्यादा में जीवन सफल बनाओ -

तुलसी की रामायण बोले, "रामचरित अपनाओ" ...

मंगल हो आदर्श जीवन का जीवन हो सुखकारी। 

मात -पिता, गुरु भ्रात से प्रेम की सोई प्रीति जगाओ।

तुलसी की रामायण बोले, "रामचरित अपनाओ" ...

लोक और परलोक सुधारो राम की शरण में आकर। 

आये जग में, जाओ जगसे 'राम' का चरित संजोकर। 

रामचरित की बनकर शोभा, महको और महकाओ।  

तुलसी की रामायण बोले, "रामचरित अपनाओ" ...

राजा होकर रंक रहे जो , बने जगत हितकारी। 

राजा होकर रंक रहे जो , बने जगत हितकारी। 

एक नजर से सबको देखे , बनके राम पुजारी।। 

अन्यायी को दण्डित करके , सबको न्याय दिलवाओ।

तुलसी की रामायण बोले, "रामचरित अपनाओ" ...

 'नर' तन राम हैं, नारी सीता, समझो रे, नर-नारी नर्तन राम हैं, नारी सीता, समझो रे, नर-नारी। 

धर्म-कर्म की मर्यादा में जीवन सफल बनाओ -

तुलसी की रामायण बोले, "रामचरित अपनाओ" ...

🔘मनुष्य और दैत्यराज हिरण्यकशिपु में विवेक : हिरण्यकशिपु का शाब्दिक अर्थ है "सोने के बाल" (कनक-कशिपु या हिरण्य "सोना" कशीपु "बाल"), और अक्सर इसकी व्याख्या ऐसे व्यक्ति के चित्रण के रूप में की जाती है जो धन और कामुक सुखों का (-कामिनी -कांचन का wealth and sensual pleasures) शौकीन है। विष्णु पुराण  के अनुसार , हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष विष्णु के द्वारपाल जय और विजय हैं, जो चार कुमारों के श्राप के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर पैदा हुए थे । सत्य युग के अन्त में , हिरण्य कशिपु और हिरण्याक्ष - जिन्हें एक साथ हिरण्य कहा जाता था - दिति ( दक्ष की एक बेटी ) और ऋषि कश्यप से पैदा हुए थे । 

हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या द्वारा ब्रह्मा को प्रसन्न करके यह वरदान प्राप्त कर लिया कि न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात में, न घर के अंदर न बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से उसक प्राणों को कोई डर रहेगा। इस वरदान ने उसे अहंकारी बना दिया और वह अपने को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीन लिया और तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। वह चाहता था कि सब लोग उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें। उसने अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया। 

 हिरण्यकशिपु का सबसे बड़ा पुत्र प्रह्लाद, भगवान विष्णु का उपासक था और यातना एवं प्रताड़ना के बावजूद वह विष्णु की पूजा करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह अपनी गोद में प्रह्लाद को लेकर प्रज्ज्वलित अग्नि में चली जाय क्योंकि होलिका के पास एक चादर था जिसे वरदान था कि वह अग्नि में नहीं जलेगा। जब होलिका ने प्रह्लाद को लेकर अग्नि में प्रवेश किया तो प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ पर होलिका जलकर राख हो गई। 

अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेशद्वार की चौखट पर, जो न घर का बाहर था न भीतर, गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, आधा मनुष्य, आधा पशु जो न नर था न पशु ऐसे नरसिंह के रूप में अपने लंबे तेज़ नाखूनों से जो न अस्त्र थे न शस्त्र और उसका पेट चीर कर उसे मार डाला।  इस प्रकार अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण हिरण्य- कशिपु भयानक अंत को प्राप्त हुआ

🔘हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष का देहान्तरण गमन> जय-विजय के पूर्व जन्म की कथा। (Transmigration of Hiranyakashipu and Hiranyaksha) : 

ऐसा कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष अपने पूर्वजन्म में भगवान विष्णु के द्वारपाल दो भाई थे और उनके नाम थे जय और विजय । एक बार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र और भगवान विष्णु के प्रथम अवतार चार कुमार -[सनकादि ऋषि (सनकादि = सनक + आदि) से तात्पर्य ब्रह्मा के चार पुत्रों सनक, सनन्दन, सनातन व सनत्कुमार] भगवान विष्णु के दर्शन करने बैकुण्ठ आए। जय और विजय ने उन्हें रोक दिया जिससे क्रोधित होकर चार कुमारों ने उन्हें श्राप दिया कि "हे मूर्खों भगवान विष्णु के साथ रहने का [C-IN-C नवनीदा के साथ रहने का] तुम में अभिमान हो गया है हम तुम्हें श्राप देते हैं कि तुम तीन जन्म असुर जाति में रहोगे"। क्षमा मांगने पर भगवान विष्णु ने सनाकादि ऋषियों से कहा कि " तीन जन्म तक ये लोग असुर जाति में रहेंगे और मुझसे वैर रखते हुए भी मेरे ध्यान में लीन रहेंगे, मेरे द्वारा इनका संहार होने पर ये दोनों इस धाम में पुनः आ जाएंगे।‌ इस श्राप के फल स्वरूप जय और विजय ही सतयुग , त्रेता युग और द्वापर युग में असुर जाति में जन्मे

सतयुग

सतयुग में जय हिरण्यकशिपु और विजय हिरण्याक्ष के रूप में धरती पर पैदा हुए। उस जन्म में इनके पिता महर्षि कश्यप और माता दिति थे। हिरण्याक्ष का वध भगवान विष्णु ने वराह के रूप में और हिरण्यकशिपु का वध नरसिंह रूप में किया।

त्रेतायुग

त्रेतायुग में जय रावण और विजय कुंभकर्ण के रूप में धरती पर पैदा हुए। उस जन्म में इनके पिता महर्षि विश्रवा और माता कैकसी थे। उस जन्म में इन दोनों का वध भगवान विष्णु ने राम रूप में किया था।

द्वापरयुग

द्वापर युग में जय और विजय दोनों भगवान विष्णु के फुफरे भाइयों के रूप में पैदा हुए। जय का जन्म शिशुपाल के रूप में और विजय का जन्म दंतवक्र के रूप में हुआ था। उस जन्म में  जय के उस जन्म के पिता राजा दंभघोष और माता सुतसुभा थे और विजय की माता का नाम श्रुतदेवी और पिता का नाम वृद्धशर्मा था। उस जन्म में इन दोनों का वध भगवान विष्णु ने कृष्ण रूप में किया था।

🔘*श्रद्धा का लोप : आत्मश्रद्धा : हिमालय के एक साधु ने कहा था - दो ही रास्ते हैं , महात्मा जी -जानो या मानो ! अमेरिका के लोग अब धर्म *(Religion) नहीं कहते हैं -धर्म या आध्यात्मिकता को भी Faith कहते है- किसी पर विश्वास का पथ - कोई सृष्टिकर्ता हैं ? इसे जान लो या मान लो।  जानते नहीं हैं तो मानते भी हैं या नहीं ?   

ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी। 

अपरस रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी॥ 

पुरइनि-पात रहत जल-भीतर ता रस देह न दाग़ी। 

ज्यों जल मांह तेल की गागरि बूँद न ताके लागी॥ 

प्रीति-नदी में पाँव न बोर्यो, दृष्टि न रूप परागी। 

सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी॥ - सूरदास

--व्यंग में गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव, तुम्हीं सबसे अच्छे और भाग्यशाली हो जो समस्त प्रेम-सूत्रों से अनासक्त हो और किसी में भी तुम्हारा मन अनुरक्त नहीं है। तात्पर्य यह है कि तुम अत्यंत अभागे हो जो प्रेम-रस को नहीं समझते। तुम्हारी दशा तो उस कमल-पत्र की भाँति है जिसने जल के भीतर रहते हुए भी जल से अपने शरीर में दाग़ नहीं लगाया। आशय यह है कि तुम रहते तो श्रीकृष्ण [माँ काली] के निकट हो, लेकिन उनके प्रेम से सदैव अनासक्त रहे। यही नहीं, जैसे जल में तेल की गगरी को डुबा दिया जाए तो उस पर जल की एक बूँद भी नहीं रुकती। तुम प्रेम के संबंध में क्या जानो जब कि तुमने कभी न तो प्रेम की नदी में अपने पाँव को निमज्जित किया और न श्रीकृष्ण के सौंदर्य पराग में तुम्हारी दृष्टि ही अनुरक्त हुई। सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि सबसे पगली और भोली-भाली हम अबलाएँ ही हैं जो गुड़ और चींटी की भाति श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी में चिपट गईं।  

*घट में राधा,घट में गोपी,, घट में गोकुल धाम.....*

*भीतर झाँक के देख रे बन्दे....मिलेगें सुन्दर श्याम................*

*मन ही काशी ..मन ही मथुरा...इनमें बहती गँगा यमुना.....मन में तीर्थ धाम......*

*भीतर झाँक के देख रे बन्दें*

*मिलेगें सुन्दर श्याम.*

*प्रीत करे और दुःख नहीं होये - मन अनुरागी , तन वैरागी ...... भजन  lyric  

*जो सुख चाहे तो दुःख से गुजर इंसान समय (महाकाल) पहचान ,जीवन नहीं रोने के लिए हिम्मत के पुतले ..... भजन lyric/ 

श्रीराम (मर्यादा पुरुषोत्तम)  + श्रीकृष्ण (लीला पुरुषोत्तम) = अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण ! 

* राम लहर में जो कोई डूबा हुआ वो सागर पार। 

* मन ही काशी मन ही मथुरा , मन ही गंगा मन ही जमुना  मन ही तीरथ धाम। 

I bow down to all my Guru's who have guided me in my journey .... 

....... पिता के मृत्यु के बाद 'मूर्तिपूजा विरोधी नरेन्द्रनाथ' बिना प्रमाण माँ काली में विश्वास कैसे करें ? 1883 -े1884 तक श्रीराकृष्ण को कोलकाता के प्रबुद्ध वर्ग ने अच्छी तरह से जान लिया था। "...... वह अन्धा है- एकदम अन्धा है, जो समय का (महाकाल का) संकेत नहीं देख सकता , और न समझ सकता। क्या देख्ग्ते नहीं सुदूर गाँव का निर्धन ब्राह्मण माँ-बाप से पैदा हुआ बालक गदायी आज उन्हीं पाश्चात्य देशों में प्रत्यक्ष पूजित हो रहा है, जो अनेक सदियों से मूर्तिपूजा के विरुद्ध आवाज उठाते आ रहे हैं ?" [जैसे आज मोदीजी के मार्गदर्शन में -UAE के अबुधाबी में 700 करोड़ की लागत से 120 फिट ऊँचा मन्दिर बन गया  है ! अयोध्या, काशी , मथुरा और भोजशाला पुनरज्जिवित हो रहा है। वि ० च ० -69,73 पेज 'धर्मभाव संचारित करने की शक्ति' को संचय से पहले ही खर्च नहीं करना है। सगुण साकार- में विश्वासी  (भक्त काली महाराज-अजपअगसु) को पलभर में अद्वैतवादी ज्ञानयोगी बनाने की भूल नहीं करनी है।] नेता बनने के पहले, निर्विकल्प समाधि का अनुभव करने के पहले स्वयं उन स्वामीजी को -'जिसने जीवों का उद्धार करने के लिए देह धारण की है ' (अनूदत्ता को VPe से P,GS) बनने और बनाने की पात्रता अर्जित करने के लिए इतनी कठोर तपस्या करनी पड़ी थी, तो मेरे जैसे PR को -दूसरा PR निर्माण करने की पात्रता के लिए कितनी कठोर तपस्या करनी होगी ?  स्वामी जी के परिव्राजक जीवन की अवस्था के बाद  9/11 से पहले मई 1893 में अमेरिका (शिकागो) पहुँचना, बिना -पैसे और उचित गर्म कपड़े के -15 में रात बिताना -अजूबा बनकर धनी महिलाओं का संग, शिकागो पहुँचने पर परिचय पत्र और पता खो जाना,               

🔘*ध्यान शिव (guru) का किया जाता है, भक्ति  श्रीराम लला/ श्रीनंद लाला की जाती है।

 शिव का ध्यान किये बिना राम की भक्ति प्राप्त नहीं होती है। [जैसे। ...... वैसे ही स्वामी विवेकानन्द का ध्यान किये बिना अर्थात अनुसरण किये बिना अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण देव और जगतजननी माँ सारदा देवी की भक्ति - (अर्थात माँ काली  और गुरु माँ तारा में अभेद दृष्टि) प्राप्त नहीं होती है। ध्यान शिव (गुरु विवेकानन्द ?) का किया जाता है , भक्ति श्रीराम लला की (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव की ?... नाचो रे गदायी !) की जाती है।  

 ध्यानमूलं गुरोर्मूर्ति: पूजामूलं गुरो: पदम्।

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरो: कृपा।।

       गुरुमूर्ति का ध्यान (यहाँ गुरु के रूप का ध्यान नहीं कहा गुरुमूर्ति - स्वामीजी की परिव्राजक मूर्ति (आकृति या वेश-भूषा) ही सब ध्यानों का मूल है।  गुरु के चरणकमल की पूजा ही सब पूजाओं का मूल है, गुरुवाक्य ही सब मन्त्रों का मूल है और गुरु की कृपा ही मुक्ति प्राप्त करने का प्रधान साधन है। [अर्थात .... गुरु की कृपा ही मुक्ति प्राप्त करने का (भेंड़त्व सम्मोहन M/F से सिंह-शावक के मुक्ति प्राप्त करने का) प्रधान साधन है।] 

🔘*महादेव जी ने बताई पार्वती जी को गुरु की महिमा -एक बार पार्वतीजी ने महादेवजी से गुरु की महिमा बताने के लिए कहा। तब महादेवजी ने कहा।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर:।

गुरु: साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:।।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येनं तस्मै श्रीगुरवे नम:।।

गुरु ही ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु ही शिव और गुरु ही परमब्रह्म है; ऐसे गुरुदेव को नमस्कार है। अखण्ड मण्डलरूप इस चराचर जगत में व्याप्त परमात्मा के चरणकमलों का दर्शन जो कराते हैं; ऐसे गुरुदेव को नमस्कार है।

🔘गुरु ब्रह्मांड के दूसरी ओर का द्वार है

जो लोग भगवान की पूजा करते हैं वे बार-बार जन्म और मृत्यु, सृजन के बाद सृजन के तीन लोकों के भीतर रहते हैं।

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।

रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।8.18।।

प्रजापति (ब्रह्मा) के दिन में और रात्रि में जो कुछ होता है उसका वर्णन किया जाता है --, दिन के आरम्भ काल का नाम अहरागम है। ब्रह्मा के दिन के आरम्भ काल में अर्थात् ब्रह्मा की 100 वर्ष परिमित आयु के प्रत्येक दिन में त्रिलोक की उत्पत्ति और प्रत्येक रात में त्रिलोक का प्रलय होता है। प्रबोध काल में अव्यक्त से -- प्रजापति की निद्रावस्था से  -- स्थावरजङ्गमरूप समस्त प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं -- प्रकट होती हैं। जो व्यक्त या प्रकट होती है उसका नाम व्यक्ति है। तथा रात्रि के आने पर -- ब्रह्मा के शयन करने के समस्त उस पूर्वोक्त अव्यक्त नामक प्रजापति की निद्रावस्था में ही समस्त प्राणी लीन हो जाते हैं।

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।

रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।8.19।।

न किये कर्मों का फल मिलना और किये हुए कर्मों का फल न मिलना इस दोष का परिहार करने के लिये,  बन्धन और मुक्ति का मार्ग बतलाने वाले शास्त्रवाक्यों की सफलता दिखाने के लिये और अविद्यादि पञ्चक्लेश मूलक कर्मसंस्कारों के वश में पड़कर पराधीन हुआ प्राणी समुदाय बारंबार उत्पन्न हो- हो कर लय हो जाता है।  -- इस प्रकार के कथन से संसार में वैराग्य दिखलाने के लिये यह कहते हैं --, जो पहले कल्प में था वही -- दूसरा नहीं -- यह स्थावरजङ्गमरूप भूतों का समुदाय ब्रह्मा के दिन के आरम्भ में बारंबार उत्पन्न हो,हो कर दिन की समाप्ति और रात्रि का प्रवेश होने पर पराधीन हुआ ही बारंबार लय होता जाता है, और फिर उसी प्रकार विवश होकर दिन के प्रवेशकाल में पुनः उत्पन्न होता जाता है।

।।8.19।। इन दो श्लोकों में ब्रह्मा जी का कार्य -भार एवं कार्य-प्रणाली तथा सृष्टि की उत्पत्ति और लय का वर्णन किया गया है। यहाँ कहा गया है कि दिन में जो कि एक सहस्र युग का है वे सृष्टि करते हैं और उनकी रात्रि का जैसे ही आगमन होता है वैसे ही सम्पूर्ण सृष्टि पुनः अव्यक्त में लीन हो जाती है। 

सामान्यतः जगत् में सृष्टि शब्द का अर्थ होता है किसी नवीन वस्तु की निर्मिति। परन्तु दर्शनशास्त्र की दृष्टि से सृष्टि का अभिप्राय अधिक सूक्ष्म है तथा अर्थ उसके वास्तविक स्वभाव का परिचायक है। एक कुम्भकार मिट्टी से  घट का निर्माण कर सकता है लेकिन लड्डू का नहीं।  निर्माण की क्रिया किसी पदार्थ विशेष (उपादान कारण कच्चा माल जैसे दृष्टान्त में मिट्टी) से एक आकार को बनाती है जिसके कुछ विशेष गुण होते हैं। भिन्न- भिन्न रूपों को पुनः विभिन्न नाम दिये जाते हैं। विचार करने पर ज्ञात होगा कि जो निर्मित नाम-रूप है वह अपने गुण के साथ पहले से ही अपने कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान था। 

मिट्टी में घटत्व था किन्तु लड्डुत्व नहीं इस कारण मिट्टी से घट की निर्मिति तो हो सकी परन्तु लड्डू का एक कण भी नहीं बनाया जा सका। अतः वेदान्ती इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सृष्टि का अर्थ है अव्यक्त नाम रूप और गुणों का व्यक्त हो जानाकोई भी व्यक्ति (बुद्ध -ईसा) वर्तमान में जिस स्थिति में रहता दिखाई देता है वह उसके असंख्य बीते हुये दिनों का परिणाम है। भूतकाल के विचार भावना तथा कर्मों के अनुसार उनका वर्तमान होता है। मनुष्य के बौद्धिक विचार एवं जीवन मूल्यों के अनुरूप होने वाले कर्म अपने संस्कार उसके अन्तःकरण में छोड़ जाते हैं। यही संस्कार उसके भविष्य के निर्माता और नियामक होते हैं। 

    जिस प्रकार विभिन्न जाति के प्राणियों की उत्पत्ति में सातत्य का विशिष्ट नियम कार्य करता है उसी प्रकार विचारों के क्षेत्र में भी वह लागू होता है। मेढक से मेढक की मनुष्य से मनुष्य की तथा आम्रफल के बीज से आम्र की ही उत्पत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार शुभ विचारों से सजातीय शुभ विचारों की ही धारा मन में प्रवाहित होगी और उसमें उत्तरोत्तर बृद्धि होती जायेगी। मन में अंकित इन विचारों के संस्कार इन्द्रियों के लिए अव्यक्त रहते हैं और प्रायः मन बुद्धि भी उन्हें ग्रहण नहीं कर पाती। ये अव्यक्त संस्कार ही विचार शब्द तथा कर्मों के रूप में व्यक्त होते हैंसंस्कारों का गुणधर्म कर्मों में भी व्यक्त होता है। उदाहरणार्थ किसी विश्रामगृह में चार व्यक्ति ~ चिकित्सक, वकील, सन्त, और डाकू सो रहे हों तब उस स्थिति में देह की दृष्टि से सबमें ताप श्वास रक्त मांस अस्थि आदि एक समान होते हैं। वहाँ डाक्टर और वकील या सन्त और डाकू का भेद स्पष्ट नहीं होता। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्टता को हम इन्द्रियों से देख नहीं पाते तथापि वह प्रत्येक में अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती है उनसे उसका अभाव नहीं हो जाता है। उन लोगों के अव्यक्त स्वभाव क्षमता और प्रवृत्तियाँ उनके जागने पर ही व्यक्त होती हैं। विश्रामगृह को छोड़ने पर सभी अपनी अपनी प्रवत्ति के अनुसार कार्यरत हो जायेंगे। अव्यक्त से इस प्रकार व्यक्त होना ही दर्शनशास्त्र की भाषा में सृष्टि है। सृष्टि की प्रक्रिया को इस प्रकार ठीक से समझ लेने पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सृष्टि और प्रलय को भी हम सरलता से समझ सकेंगे। 

>>>समष्टि मन (ब्रह्माजी) अपने 100 वर्ष की आयु के दिन की जाग्रत् अवस्था में सम्पूर्ण अव्यक्त सृष्टि को व्यक्त करता है और रात्रि के आगमन पर भूतमात्र अव्यक्त में लीन हो जाते हैं। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस पर विशेष बल देते हुये कहते हैं कि वही भूतग्राम पुनः पुनः अवश हुआ उत्पन्न और लीन होता है। अर्थात् प्रत्येक कल्प के प्रारम्भ में नवीन जीवों की उत्पत्ति नहीं होती।इस कथन से हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि किस प्रकार मनुष्य अपने ही विचारों एवं भावनाओं के बन्धन में आ जाता है।  ऐसा कभी नहीं हो सकता कि कोई पशु प्रवृत्ति का व्यक्ति जो सतत विषयोपभोग का जीवन जीता है, और अपनी वासनापूर्ति के लिए निर्मम और क्रूर कर्म करता है ; वह रातों रात सर्व शुभ गुण सम्पन्न व्यक्ति बन जाय। ऐसा होना सम्भव नहीं चाहे उसके गुरु कितने ही महान् क्यों न हों अथवा कितना ही मंगलमय पर्व क्यों न हो और किसी स्थान या काल की कितनी ही पवित्रता क्यों न हो। जब तक शिष्य में दैवी संस्कार अव्यक्त रूप में न हों तब तक कोई भी गुरु उपदेश के द्वारा उसे तत्काल ही सन्त पुरुष नहीं बना सकता

      यदि कोई तर्क करे कि पूर्व काल में किसी विरले महात्मा में किसी विशिष्ट गुरु के द्वारा तत्काल ही ऐसा अभूतपूर्व परिवर्तन लाया गया।  तो हमको किसी जादूगर के द्वारा मिट्टी से लड्डू बनाने की घटना को भी स्वीकार करना चाहिए। लड्डू बनाने की घटना में हम जानते हैं कि वह केवल जादू था दृष्टिभ्रम था और वास्तव में मिट्टी से लड्डू बनाया नहीं गया था। इसी प्रकार जो बुद्धिमान लोग जीवन के विज्ञान को समझते हैं और गीताचार्य के प्रति जिनके मन में कुछ श्रद्धा भक्ति है।  वे ऐसे तर्क को किसी कपोलकल्पित कथा से अधिक महत्व नहीं देंगे। ऐसी कथा को केवल काव्यात्मक अतिशयोक्ति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो शिष्यों द्वारा अपने गुरु की स्तुति में की जाती हैं।

>>>वही भूतग्राम का अर्थ है वही वासनायें। जीव अपनी वासनाओं से भिन्न नहीं होता। वासनाक्षय के लिए जीव विभिन्न लोकों में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करता है। इसमें वह अवश है। अवश एक प्रभावशाली शब्द है जो यह सूचित करता है कि अपनी दृढ़ वासनाओं के फलस्वरूप यह जीव स्वयं को अपने भूतकाल से वियुक्त करने में असमर्थ होता है। 

      जब हम ज्ञान के प्रकाश की ओर पीठ करके चलते हैं तब हमारा भूतकाल का जीवन हमारे मार्ग को अन्धकारमय करता हुआ हमारे साथ ही चलता है। ज्ञान के प्रकाश की ओर अभिमुख होकर चलने पर वही भूतकाल नम्रतापूर्वक संरक्षक देवदूत के समान आत्मान्वेषण के मार्ग में हमारा साथ देता है। एक देह को त्यागकर जीव का अस्तित्व उसी प्रकार बना रहता है जैसे नाटक की समाप्ति पर राजा के वेष का त्याग कर अभिनेता का। नाटक के पश्चात् वह अपनी पत्नी के पति और बच्चों के पिता के रूप में रहता है। एक देह विशेष को धारण कर कर्मों के रूप में अपने मन की वासनाओं या विचारों का गीत गाना ही सृष्टि है और उपाधियों को त्यागने पर विचारों का अव्यक्त होना ही लय है। 

वीणावादक अपने वाद्य के माध्यम से अपने संगीत के ज्ञान को व्यक्त करता है।  किन्तु जब वीणा को बन्द कर दिया जाता है तो उस वादक का संगीतज्ञान अव्यक्त अवस्था में रहता है। मनुष्य का बाह्य जगत् से सम्पर्क होने या उसकी वासनायें अर्थात् अव्यक्त निरन्तर परिवर्तित होता रहता है। यह पहले भी कहा जा चुका है कि यह निरन्तर परिवर्तन एक अपरिवर्तनशील नित्य अविकारी अधिष्ठान के बिना ज्ञात नहीं हो सकता। उसी अधिष्ठान पर इस परिवर्तन का आभास होता है। वह नित्य अधिष्ठान क्या है जिस पर इस सृष्टि का नाटक खेला जाता है

 ||8.20 || जैसे कक्षा में पढ़ाये गये विषय ज्ञान के लिए श्यामपट अधिष्ठान है वैसे ही इस सृष्टि के लिए यह चैतन्य तत्त्व आधार है। इस सत्य को नहीं जानना ही अविद्या है जो इस परिवर्तनशील नामरूपमय सृष्टि को व्यक्त करती है। पुनः पुनः सर्ग, स्थिति और लय को प्राप्त होने वाली इस अविद्याजनित सृष्टि से परे जो तत्त्व है उसी का संकेत यहाँ सनातन अव्यय भाव इन शब्दों द्वारा किया गया है। क्या यह अव्यक्त ही परम तत्त्व है अथवा इस सनातन अव्यय से परे श्रेष्ठ कोई भाव जीवन का लक्ष्य बनने योग्य है ? 

 ।।8.21।।अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्। यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।वही जो वह अव्यक्त अक्षर ऐसे कहा गया है उसी अक्षर नामक अव्यक्तभाव को परम -- श्रेष्ठ गति कहते हैं। " तद विष्णो परमं पदम् " जिस परम भाव को प्राप्त होकर (मनुष्य) फिर संसार में नहीं लौटते वह मेरा परम श्रेष्ठ स्थान है अर्थात् मुझ विष्णु का परमपद है। बालक 'गदाई' ही  गदाधर भगवान विष्णु हैं! उन्हीं का विष्णुपद मन्दिर गया में है 

बी गीता 8.18-19. अव्यक्त से सभी व्यक्त (संसार) "दिन" के आगमन पर आगे बढ़ते हैं; "रात" के आगमन पर वे वास्तव में उसी में विलीन हो जाते हैं जिसे अव्यक्त (निराकार ईश्वर) कहा जाता है। हे अर्जुन, बार-बार जन्म लेने वाले प्राणियों की यही भीड़ असहाय होकर (अव्यक्त में) विलीन हो जाती है ) रात के आने पर, और दिन के आने पर सामने आता है!

>>माया :  श्री हरि कहते हैं, यह अविद्या माया ही व्यक्ति पर अज्ञान थोपती है और उन्हें कर्म और धर्म में उलझा देती है। गुरु अपने शिष्य के हृदय को प्रकाशित करता है। इसलिए, प्रत्येक देहधारी मनुष्य को एक गुरु की आवश्यकता होती है, और जब तक आपको पूर्ण या पूर्ण गुरु नहीं मिल जाता तब तक गुरु के बिना नहीं रहना चाहिए। अग्नि देव ब्रह्मा के गुरु हैं, बृहस्पति शिव जी के गुरु हैं, वशिष्ठ श्री राम जी के गुरु हैं और दुर्वासा श्री कृष्ण के गुरु हैं (दुर्वासा ऋषि श्री कृष्ण जी के आध्यात्मिक गुरू थे {ऋषि संदीपनी श्री कृष्ण के अक्षर ज्ञान करवाने वाले शिक्षक (गुरू) थे।} , नारद उमा के गुरु हैं आदि।

कबीरा कहे ~  राम कृष्ण से को बड़ा, तिन्हूं भी गुरु कीन्ह।

 तीन लोक के वे धनी, गुरु आगै आधीन।।

 कबीर जी ने कहा है कि आप श्री राम तथा श्री कृष्ण जी से (या अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण से)  तो किसी को बड़ा नहीं मानते। जब ये तीन लोक के मालिक (धनी) होकर भी अपने गुरु जी के आगे नतमस्तक होते थे। इसलिए सर्व मानव को गुरु बनाना अनिवार्य है।

संत कबीर कहते हैं - भगवान राम और भगवान कृष्ण जैसा महान कौन हो सकता है? हालाँकि वे तीन लोकों के स्वामी थे, फिर भी उन्हें सतगुरुओं की शरण लेने की आवश्यकता  महसूस हुई।(राम जी के लिए वशिष्ठ और भगवान श्रीकृष्ण के गुरु महर्षि सांदीपनि थे। सांदीपनि ने ही श्रीकृष्ण को 64 कलाओं की शिक्षा दी थी। मध्य प्रदेश के उज्जैन में गुरु सांदीपनि का आश्रम है। अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के प्रथम गुरु भैरवी ब्राह्मणी, और अद्वैत वेदान्त के गुरु तोतापुरी थे।)  जब इन  महान अवतारों का यही हाल है तो सद्गुरु के बिना सामान्य मनुष्य का क्या हाल हो सकता है? इसलिए सतगुरु के आशीर्वाद के बिना किसी भी प्रकार की पूजा हमें काल के बंधन से मुक्त करने में मदद नहीं कर सकती

ऐसे गुरु होते हैं जो ईश्वर की पूजा करते हैं और उनके अधीन होते हैं। ऐसे गुरु होते हैं जो ईश्वर के तुल्य होते हैं, वे महा योगेश्वर और जगत गुरु और अवतार होते हैं। एक गुरु है जो भगवान की पूजा नहीं करता है लेकिन उसने अमरलोक के शाश्वत भगवान को देखा है, वह सत्य की आध्यात्मिक शक्ति के साथ आता है, वह असली सतगुरु है।

देवी देवल जगत में, कोटिन पूजे कोय। 

सतगुरु की पूजा किये, सबकी पूजा होय।

सतगुरु की भक्ति समस्त ब्रह्माण्ड की भक्ति के समान है। इसलिए सतगुरु की ही पूजा करो। सतगुरु परमपुरुष को धारण करता है इसलिए; यह परम पुरुष-सत्य के शाश्वत स्वामी की भक्ति है..

 कबीर कहते हैं. -- 'सत पुरुष को जानसी,  तिसका सतगुरु नाम। ' परमपुरुष को पूर्ण रूप से जानने वाला गुरु ही सतगुरु कहा जा सकता है। एक सच्चा सतगुरु सत्य, शाश्वत चौथे विश्व और उसके शाश्वत भगवान का ज्ञाता है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।2.16।।

असत् वस्तु का तो अस्तित्व नहीं है और सत् का कभी अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का ही तत्त्व,  तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देखा गया है।।

वेदान्त शास्त्र में सत्, असत् , मिथ्या का विवेक अत्यन्त वैज्ञानिक पद्धति से किया गया है। असत् वस्तु वह है जिसकी भूतकाल में सत्ता नहीं थी और भविष्य में भी वह नहीं होगी परन्तु वर्तमान में उसका अस्तित्व प्रतीत सा होता है। माण्डूक्य कारिका की भाषा में जिसका अस्तित्व प्रारम्भ और अन्त में नहीं है वह वर्तमान में भी असत् ही है हमें दिखाई देने वाली वस्तुयें मिथ्या होने पर भी उन्हें सत् माना जाता है। स्वाभाविक ही 'सत्य ' वस्तु वह है जो भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों में भी नित्य अविकारी रूप में रहती है। 

शरीर मन और बुद्धि इन जड़ उपाधियों के साथ हमारा जीवन परिच्छिन्न है क्योंकि इनके द्वारा प्राप्त बाह्य विषय भावना और विचारों के अनुभव क्षणिक होते हैं। इन तीनों में ही नित्य परिवर्तन हो रहा है। एक अवस्था का नाश दूसरी अवस्था की उत्पत्ति है। परिभाषा के अनुसार ये सब असत् हैं।मणियों को धारण करने वाले एक सूत्र के समान हममें कुछ है जो परिवर्तनों के मध्य रहते हुये विविध अनुभवों को एक साथ बांधकर रखता है। सूक्ष्म विचार करने पर यह ज्ञान होगा कि वह कुछ अपनी स्वयं की चैतन्य स्वरूप आत्मा है। जीवन जो कि अनुभवों की एक धारा है योग है इस चैतन्य के कारण ही सम्भव है। बाल्यावस्था युवावस्था और वृद्धावस्था में होने वाले अनुभवों को यह चैतन्य ही प्रकाशित करता है। अनुभव आते हैं और जाते हैं। जिस चैतन्य के कारण मैंने सबको जाना जिसके बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है वह चैतन्य आत्मा जन्म और नाश से रहित नित्य सत्य वस्तु है। तत्त्वदर्शी पुरुष इन दोनों सत् और असत् आत्मा और अनात्मा के तत्त्व को पहचानते हैं। इन दोनों के रहस्यमय संयोग से यह विचित्र जगत् उत्पन्न होता है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।।

।।4.34।। उस (ज्ञान) को (गुरु के समीप जाकर) साष्टांग प्रणिपात,  प्रश्न तथा सेवा करके जानो;  ये तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुष तुम्हें ज्ञान का उपदेश करेंगे।।

शिष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिये गुरु में मुख्यत दो गुणों का होना आवश्यक है (क) आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान तथा (ख) अनन्त स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थिति। इन दो गुणों को इस श्लोक में क्रमश ज्ञानिन और तत्त्वदर्शिन शब्दों से बताया गया है। केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रकाण्ड पंडित बना जा सकता है लेकिन योग्य गुरु नहीं। शास्त्रों से अनभिज्ञ आत्मानुभवी पुरुष मौन हो जायेगा क्योंकि शब्दों से परे अपने निज अनुभव को वह व्यक्त ही नहीं कर पायेगा। अत गुरु का शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मनिष्ठ होना आवश्यक है। उपर्युक्त कथन से भगवान् का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी और तत्त्वदर्शी आचार्य द्वारा उपादिष्ट ज्ञान ही फलदायी होता है और अन्य ज्ञान नहीं। 

जिस प्रकार जल का प्रवाह ऊपरी धरातल से नीचे की ओर होता है उसी प्रकार ज्ञान का उपदेश भी ज्ञानी गुरु के मुख से जिज्ञासु शिष्य के लिये दिया जाता है। इसलिये शिष्य में नम्रता का भाव होना आवश्यक है जिससे कि उपदेश को यथावत् ग्रहण कर सके। परिप्रश्नेन प्रश्नों के द्वारा गुरु की बुद्धि मंजूषा में निहित ज्ञान निधि को हम खोल देते हैं। एक निष्णात गुरु शिष्य के प्रश्न से ही उसके बौद्धिक स्तर को समझ लेते हैं। शिष्य के विचारों में हुई त्रुटि को दूर करते हुए वे अनायास ही उसके विचारों को सही दिशा भी प्रदान करते हैं। प्रश्नोत्तर रूप इस संवाद के द्वारा गुरु के पूर्णत्व की आभा शिष्य को भी प्राप्त हो जाती है इसलिये हिन्दू धर्म में गुरु और शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर की यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है जिसे सत्संग कहते हैं। विश्व के सभी धर्मों में शिष्य को यह विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है। वास्तव में केवल वेदान्त दर्शन ही हमारी बुद्धि को पूर्ण स्वतन्त्रता देता है। सेवया गुरु को फल फूल और मिष्ठान आदि अर्पण करना ही सेवा नहीं कही जाती। यद्यपि आज धार्मिक संस्थानों एवं आश्रमों में इसी को ही सेवा समझा जाता है। गुरु का अनुसरण ही सच्चा स्मरण है। गुरु के उपदेश - 'Be and Make ' को ग्रहण करके उसी के अनुसार आचरण करने का प्रयत्न ही गुरु की वास्तविक सेवा है। इससे बढ़कर और कोई सेवा नहीं हो सकती। 

श्री कृष्ण कहते हैं कि उनके चरणों में समर्पण करो और उनकी सेवा करो ( BG-4.34), उनके पास व्यक्तिगत आत्मा को मन और माया की पकड़ से हमेशा के लिए मुक्त करने की आध्यात्मिक शक्ति है। जिन पर कृपा होती है वे तीनों लोक छोड़कर चौथे (तुरीय) शाश्वत लोक अमरलोक में प्रवेश करते हैं। वे जन्म और मृत्यु के सागर, इस संसार-सागर में कभी नहीं लौटते हैं। (B.G.8.20-21)

परस्तास्मात् तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तत्सनातनः। 

यः स सर्वेषु भूतेषु नष्टत्सु न विनश्यति।।8.20।।

(B.G. ~ 8.20–21) लेकिन वास्तव में, अव्यक्त (निराकार) से भी ऊंचा, एक और अव्यक्त (निराकार-  सनातन अव्यक्त भाव ) शाश्वत मौजूद है, जो सभी प्राणियों के नष्ट होने पर नष्ट नहीं होता है। जो लोग इस (चतुर्थ -तुरीय) तक पहुँच जाते हैं वे (जन्म और मृत्यु के इस चक्र में) वापस नहीं लौटते हैं।

पूर्ण गुरु भगवान से भी ऊपर होता है- उसका भगवान के किसी भी धर्म से कोई संबंध नहीं होता है और न ही वह किसी भी धर्म के खिलाफ होता है, "गुरु ही भदे गोविंद से" संत कबीर। ऐसा गुरु ही सतगुरु होता है, जो अपने शिष्य को स्थाई मोक्ष देने की शक्ति रखता है। एकलव्य की तरह ध्यान करो, लेकिन सतगुरु का।

"है यहाँ सतगुरु बिना कोई, मोक्ष का दाता नहीं|" …..कबीर

"ध्यान मूलम् गुरु रूपम्, पूजा मूलम् गुरु पादुकम्,

मंत्र मूलम् गुरु वाक्यम्, मोक्ष मूलम् गुरु कृपा।" 

गुरु के रूप का ध्यान करो, उनके पवित्र चरणों की पूजा करो, और उनके वचन को मंत्र के रूप में लो, उनकी कृपा से शाश्वत मोक्ष प्राप्त करो। 

🔘*‘गुरु’ शब्द का अभिप्राय :

जो अज्ञान के अंधकार से बंद मनुष्य के नेत्रों को ज्ञानरूपी सलाई से खोल देता है, वह गुरु है। जो शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का सिंचन करता है, वह गुरु है। जो शिष्य को धर्म, नीति आदि का ज्ञान कराए, वह गुरु है। जो शिष्य को वेद आदि शास्त्रों के - 4 महावाक्यों के रहस्य को समझाए, वह गुरु है।

 जो विश्व कल्याण का भाव रखते है, "सर्वे भवन्तु सुखिनः" का भाव रखते हैं ,  वहीं सद़गुरु कहलाते है। गुरु एक सर्वव्यापक शक्ति है। गुरु एक व्यक्ति होता हुआ भी केवल व्यक्ति नहीं होता। गुरु का एक व्यक्त रूप, अव्यक्त रूप व व्यक्तात्मक रूप होता है। शिष्य अपनी श्रद्धा व पात्रता के अनुसार ही गुरु तत्व का साक्षात्कार कर पाता है। 

स्वामी विवेकानन्द अपने गुरुभाई स्वामी अखण्डानन्द जी को 1894 में लिखित एक पत्र में कहते हैं - " The The Geruâ robe (guru robe) is not for enjoyment . It is the banner of heroic work. You must give your body, mind, and speech to "the welfare of the world". You have read— " मातृदेवो भव, पिरृदेवो भव — Look upon your mother as God, look upon your father as God" — but I say "दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव — The poor, the illiterate, the ignorant, the afflicted — let these be your God." Know that service to these alone is the highest religion.

 🔘*गेरुआ वस्त्र (या गुरु का चोला आचार्य शिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय के पौत्र C-IN-C  नवनी दा की पोशाकभोग के लिए नहीं है। यह वीरतापूर्ण कार्य का झण्डा है। कई जन्मों से तो तीनों ऐषणाओं के चक्कर में जीवन को नष्ट करते चले आ रहे हो , कम से कम इस जन्म के अपने शरीर , मन और वाणी (ह्रदय -3H) को 'जगतहिताय ' (अर्थात भारत के कल्याण के लिए) अर्पण कर दो ! तुमने पढ़ा है " - "मातृदेवो भव, पिरृदेवो भव " अपनी माता को ईश्वर समझो, अपने पिता को ईश्वर समझो - परन्तु मैं कहता हूँ," दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव — गरीब (मानसिक रूप से दरिद्र-हिरण्यकशिपु), मूर्ख (सम्मोहित सिंह शावक) और दुःखी --इन्हें ही अपना ईश्वर मानो। इनकी सेवा करना ही परम् धर्म समझो। " ~     स्वामी विवेकानंद] 

गुरुपूजा का अर्थ

गुरुपूजा का अर्थ किसी व्यक्ति का पूजन या आदर नहीं है वरन् उस गुरु की देह में स्थित ज्ञान का आदर है, ब्रह्मज्ञान का पूजन है।

गुरु गोविन्द दोउ खड़े काके लागूं पांय।

बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय।।

माता-पिता जन्म देने के कारण पूजनीय हैं किन्तु गुरु धर्म और अधर्म का ज्ञान कराने से अधिक पूजनीय हैं। परमेश्वर के रुष्ट हो जाने पर तो गुरु बचाने वाले हैं परन्तु गुरु के अप्रसन्न होने पर कोई भी बचाने वाला नहीं हैं। गुरुदेव की सेवा-पूजा से जीवन जीने की कला के साथ परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाई पड़ जाता है।

* अमल अचल मन त्रोन समाना। 

सम जम नियम सिलीमुख नाना॥

कवच अभेद बिप्र गुर पूजा।

एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥ लंका काण्ड -5॥

भावार्थ:-निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन- ...  अभेद्य कवच है। .... अर्थात्–वेदज्ञ ब्राह्मण (स्वामी विवेकानन्द ?) ही गुरु है, उन गुरुदेव की सेवा करके, उनके आशीर्वाद के अभेद्य कवच से सुरक्षित हुए बिना संसार रूपी युद्ध में विजय प्राप्त करना मुश्किल है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥

गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा क्यों कहते हैं?

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को भगवान वेदव्यास का अवतरण पृथ्वी पर हुआ था इसलिए यह व्यासपूर्णिमा कहलाती है। व्यासजी ऋषि वशिष्ठ के पौत्र व पराशर ऋषि के पुत्र हैं।

व्यासदेवजी गुरुओं के भी गुरु माने जाते हैं। वेदव्यासजी ज्ञान, भक्ति, विद्वत्ता और अथाह कवित्व शक्ति से सम्पन्न थे। इनसे बड़ा कवि मिलना मुश्किल है। उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र’ बनाया, संसार में वेदों का विस्तार करके ज्ञान, उपासना और कर्म की त्रिवेणी बहा दी, इसलिए उनका नाम ‘वेदव्यास’ पड़ा। पांचवा वेद ‘महाभारत’ और श्रीमद्भागवतपुराण की रचना व्यासजी ने की। अठारह पुराणों की रचना करके छोटी-छोटी कहानियों द्वारा वेदों को समझाने की चेष्टा की। संसार में जितने भी धर्मग्रन्थ हैं, चाहे वे किसी भी धर्म या पन्थ के हों, उनमें अगर कोई कल्याणकारी बात लिखी है तो वह भगवान वेदव्यास के शास्त्रों से ली गयी है। इसलिए कहा जाता है–‘व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्’ अर्थात् जगत में सबकुछ व्यासजी का ही उच्छिष्ट है।

गुरुपूर्णिमा मनाने का कारण

आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन सभी अपने-अपने गुरु की पूजा विशेष रूप से करते हैं। यह सद्गुरु के पूजन का पर्व है, इसलिए इसे गुरुपूर्णिमा कहते हैं। जिन ऋषियों-गुरुओं ने इस संसार को इतना ज्ञान दिया, उनके प्रति कृतज्ञता दिखाने का, ऋषिऋण चुकाने का और उनका आशीर्वाद पाने का पर्व है गुरुपूर्णिमा। यह श्रद्धा और समर्पण का पर्व है। गुरुपूर्णिमा का पर्व पूरे वर्षभर की पूर्णिमा मनाने के पुण्य का फल तो देता ही है, साथ ही मनुष्य में कृतज्ञता का सद्गुण भी भरता है।

  🔘स्वामी विवेकानन्द के दर्शन से विवेक-स्रोत उदघाटित हो जाता है ! महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर प्रथम प्रमाणिक व्याख्या “व्यास भाष्य” के रूप में प्राप्त होती है। व्यास भाष्य से तात्पर्य है- व्यास के द्वारा महर्षि पतञ्जलि के योग सूत्र पर दी गयी व्याख्या। पतंजलि योग-सूत्र "अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्-निरोधः॥1.12॥ पर व्यासदेव अपने भाष्य में मन के बहिर्मुखी प्रवाह को अन्तर्मुखी बनाने का सरल उपाय बताते हुए कहते हैं- 'अथासां निरोधे क उपायः ? इति—" चित्त-नदी नामोभयतो वाहिनी । वहति कल्याणाय, वहति पापाय च । या तु कैवल्य-प्राग्-भारा विवेक-विषय-निम्ना, सा कल्याण-वहा । संसार-प्राग्-भाराविवेक-विषय-निम्ना पाप-वहा । तत्र वैराग्येण विषय-स्रोतः खिलीक्रियते, विवेक-दर्शनाभ्यासेन विवेक-स्रोत उद्घाट्यत इत्य् उभयाधीनश् चित्त-वृत्ति-निरोधः ॥१२॥

मन की 'स्वाभाविक चंचलता तथा अच्छी और बुरी मनोवृत्तियाँ  चित्त-नदी के प्रवाह के नाम से जानी जाती है जो कि दोनों दिशाओं  में (उभयतः वाहिनी ~ उर्ध्व और निम्न दिशा में) बहने वाली है। यह प्रवाह श्रेय (कल्याणाय) की दिशा में भी बहती है, और (च) अशुभ या पाप (पापाय) की ओर भी बहती है। 

विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति' -- चित्तनदी की धारा जब विवेकविषय, विवेक के क्षेत्र (विषय)  की ओर झुका (निम्ना) है,अर्थात विख्याति या विवेकशील ज्ञान, जो किसी व्यक्ति को "बुद्धि " (प्रकृति ,नश्वर-अहं) और "पुरुष" (शाश्वत-साक्षी आत्मा ) के बीच के अंतर को अनुभव करने की अनुमति देता है; वह धारा (सा) 'कैवल्यप्राग्भारा' कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली है और कल्याण-वहा धारा है।

 'अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति'-  दूसरी ओर यह धारा जब अविवेक के क्षेत्र में, अर्थात जब बुद्धि (प्रकृति-मिथ्या अहं-हिरण्यकशिपु) और पुरुष (साक्षी आत्मा-या दासो अहं का भाव ) के बीच रहने वाले अंतर का अनुभव नहीं करने की दिशा में झुकी होती है, वह 'संसारप्राग्भारा प्रवाह' या निम्नोमुखी धारा - स्वयं को केवल शरीर (M/F) समझने बुराई की ओर, अगले जन्म में संसार या देहान्तरण-गमन (Transmigration-M /F गमन) की ओर ले जाने वाली पाप-वहा धारा है। [Transmigration- M/F गमन/या Transgender- विपरीत लिंग व्‍यवहारोत्‍सुकता या हिजड़े की मानसिकता की ओर ले जाने वाली पाप-वहा धारा है।] 

 उस (तत्र) 'संसारप्राग्भारा प्रवाह ' बाह्य वस्तुओं या विषयों  की ओर बहने वाली- देहान्तरण-गमन धारा पर (वैराग्येण खिलीक्रियते) वैराग्य (पूर्ण त्याग या ऐषणाओं से अनासक्ति पूर्वक) का फाटक लगाकर विषयस्रोत को मन्द बनाते हुए शक्तिहीन किया जाता है; तथा विवेक-दर्शन का अभ्यास या विवेकशील ज्ञान पर चिंतन-मनन करते रहने (डिस्क्रिमिनेटीव-नॉलेज विवेकज-ज्ञान या गुरु स्वामी विवेकानन्द की छवि पर -प्रत्याहार धारणा का अभ्यास जन्य ध्यान करते रहने ) के परिणामस्वरूप एक दिन संसार की ओर- देहान्तर गमन (Transmigration - M/F गमन) की ओर ले वाली अविवेकी मनोवृत्तियॉँ (चित्तवृत्ति) निरुद्ध हो जाती हैं और विवेकस्रोत उद्घाटित हो जाता है।

 इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः =इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः अर्थात संसार या देहान्तरण गमन की ओर ले जाने वाली  अर्थात M/F विषयों में दौड़ने वाली प्रवृत्तियों का दमन, वैराग्य, (प्रॉपेनसिटी) मनोवृत्तिओं पर अंकुश रखना, मनोवृत्तिओं का निरोध या उभयतो वाहिनी चित्तनदी के प्रवाह पर नियंत्रण रखना,  लालच का "त्याग" और "सेवा" यानि विवेक-दर्शन का अभ्यास द्वारा विवेकज -ज्ञान (डिस्क्रिमनेशन) अर्थात बुद्धि (प्रकृति, मिथ्या अहं)  -पुरुष (साक्षी चैतन्य विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की M/F के बदले दासो अहं बन जाने की क्षमता प्राप्त करने) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है। (गृहस्थ के लिए त्याग का अर्थ है तीनों ऐषणाओं में अनासक्ति) और  'विवेक-दर्शन' के विधिवत-प्रशिक्षण (गुरुगृह वास या छः दिवसीय निर्जनवास) तथा अभ्यास (सेवा) पर निर्भर है। 

* विवेकदर्शन अभ्यासेन विवेक स्रोत उद्घाट्यते "~  इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो  व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'विवेक-प्रयोग' शक्ति  ही सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है ! तथा एक दिन  (१२ जनवरी १८६३) को यह  'विवेक-प्रयोग' शक्ति स्वयं को स्वामी विवेकानन्द के रूप में आविर्भूत करेगी; तब उनके मूर्त रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा !

🔘‌जात्यन्तरपरिणामः‌ ‌प्रकृत्यापूरात्‌ ‌(4-2)   पदच्छेद:- जाति-अन्तर-परिणाम: प्रकृति,आपूरात् ॥ शब्दार्थ :- जाति ( शरीर व इन्द्रियों में ) अन्तर ( बदलाव  ) प्रकृति ( प्रकृति की ) आपूरात् ( पूर्णता के ) परिणाम ( परिणाम अथवा फल से होता है। ) सुत्रार्थ - प्रकृति की पूर्णता से योगी के शरीर व उसकी इन्द्रियों में जो परिवर्तन होता है । वह जात्यन्तर परिणाम कहलाता है ।[ 'जाति- अन्तर' अर्थात मनुष्य (M/F देहान्तरण गमन)  से भिन्न जाति में परिवर्तन-पशु जाति में या राक्षस हिरण्य कशिपु में परिवर्तन या देहान्तरण गमन/  परिणाम- फल/प्रकृति- उपादान कारण (प्रकृति- बुद्धि की) आपूरात्- आपूरण होने से।] "शरीर एवं इन्द्रियों का एक वर्ग, प्रजाति, या वर्ण से अन्य में  (मनुष्य, राक्षस या देवता में)  रूपांतरण या भिन्न जाति में परिवर्तन प्रकृति उपादान कारण -(बुद्धि - मिथ्या अहं) के आपूरण (superposition) से संभव होता है ।"

निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतीनां वरणभेदस्तु तत: क्षेत्रिकवत्।। 4-3 ।।

(https://drsomveeryoga.com/yoga-sutra-4-3/)

शब्दार्थ :- निमित्तम् ( धर्म या शिक्षा जो कार्य को पूरा कराने में सहायक होते हैं ) प्रकृतिनाम् ( वह प्रकृतियों अर्थात जो शरीर के उपादान कर्ता हैं ) अप्रयोजकम् ( उनको चलाने वाले अथवा उनके संचालक नहीं हैं बल्कि ) तत: ( वह तो केवल ) वरणभेद: ( बाधाओं या रुकावटों को दूर करने वाले होते हैं ) क्षेत्रिकवत् ( खेत में काम करने वाले किसान की तरह )

सूत्रार्थ :- धर्म और शिक्षा आदि जो निमित्त पदार्थ होते हैं वह इस प्रकृति के संचालक नहीं होते । वह तो मात्र प्रकृति के कार्य हैं । वे योगी के मार्ग में आने वाली बाधाओं को उसी प्रकार दूर करते हैं । जैसे खेत में पानी देते हुए एक किसान पानी व खेत के बीच आने वाली बाधाओं को रस्ते से हटाता है ।

व्याख्या :- इस सूत्र में धर्म और शिक्षा आदि कारकों को योग मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने वाला बताया है। जिस प्रकार एक किसान अपने खेत में पानी देते हुए पानी और खेत केे बीच में आने वाली सभी रुकावटों को हटाने का काम करता है । जब किसान खेत में पानी की सिंचाई करता है तो पहले वह एक क्यारी ( खेत के एक छोटे भाग को ) को पहले भरता है । और जब उस क्यारी में पानी भर जाता है । तब वह उस क्यारी और दूसरी क्यारी के बीच में आने वाले मेड़ ( दो क्यारियों के बीच होने वाली मिट्टी की मोटी परत ) को तोड़ देता है । जिससे पानी का बहाव दूसरी क्यारी की तरफ हो जाता है । और इस प्रकार दूसरी क्यारी में भी पानी बिना किसी बाधा के आसानी से पहुँच जाता है ।

🔘जन्मौषधिमन्त्रतप: समाधिजा: सिद्धयः ।। 4-1 ।।

शब्दार्थ :- जन्म ( जन्मजात अर्थात जन्म से ही ) औषधि ( औषधियों अथवा रसायनों के सेवन से) मन्त्र ( मन्त्रों के उच्चारण द्वारा ) तप: ( द्वन्द्वों को सहने से ) समाधिजा: ( धारणा, ध्यान व समाधि से ) सिद्धयः ( अनेक सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं )

सूत्रार्थ :- जन्मजात, औषधियों के सेवन से, मन्त्रों के जप से, तप का पालन करने से और समाधि का पालन करने से योगी में अनेक सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं ।

व्याख्या :-  यह योगसूत्र के अन्तिम पाद ( कैवल्य पाद ) का प्रथम सूत्र है । जिसमें योगी द्वारा प्राप्त की जाने वाली पाँच प्रकार की सिद्धियों का वर्णन किया गया है ।

1 . जन्म से उत्पन्न सिद्धि :- जन्म से उत्पन्न सिद्धि का अर्थ है जिस सिद्धि को प्राप्त करने के लिए इस जन्म में कोई विशेष प्रयास अथवा कोशिश नहीं की गई हो । वह जन्मजात सिद्धि कहलाती है । इसके पीछे साधक के पूर्व जन्म के संस्कार उत्तरदायी होते हैं । जिन साधकों ने पूर्व जन्म में बहुत अच्छे कर्म किए होगें । उसे उनके फल का कुछ अंश ( भाग ) अगले जन्म में भी मिलता है । समाधिपाद के उन्नीसवें सूत्र में भवप्रत्यय योगी की जो बात कही गई है । वह पूर्व जन्म पर ही आधारित है । भवप्रत्यय का अर्थ होता है ऐसे योगी जिनकी साधना बहुत उच्च कोटि की होती है । लेकिन समाधि प्राप्त होने से ठीक पहले शरीर का त्याग ( मृत्यु ) हो जाता है । तब ऐसे साधकों की साधना अगले जन्म में वहीं से शुरू होती है । जहाँ पर पिछले जन्म में खत्म हुई थी । अतः इस प्रकार से बहुत सारे योगी साधकों को जन्म से ही सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है ।

2.औषधियों से उत्पन्न सिद्धि :- कुछ सिद्धियाँ औषधियों के प्रयोग से भी उत्पन्न होती हैं । आयुर्वेद में रसायन के प्रयोग से शरीर में अनेक प्रकार की शक्तियों को उत्पन्न किया जा सकता है । जिससे बूढ़ा आदमी भी जवान दिखने लगता है । इस प्रकार दिव्य रसायनों व औषधियों के प्रयोग से च्वयन ऋषि ने अपने आप को पुनः जवान कर लिया था । इस प्रकार औषधियों के प्रयोग से भी सिद्धियों की प्राप्ति होती है ।

3.मन्त्रों से उत्पन्न सिद्धि :- मन्त्र साधना की उपयोगिता का अनुमान हम तन्त्रशास्त्रों में वर्णित मन्त्र योग से ही लगा सकते हैं । मन्त्र योग हमारी तन्त्र साधना का एक अभिन्न अंग है । जिसकी साधना करके हम अपने मन, बुद्धि, इन्द्रियों को अपने अधीन कर लेते हैं । जिससे हमें एकाग्रता की प्राप्ति होती है । इन मन्त्रों से हमारे चित्त व हमारी इन्द्रियों में नई ऊर्जा का संचार होता है । जिसे मन्त्र से उत्पन्न शक्ति अथवा सिद्धि कहा जाता है ।

4.तप से उत्पन्न सिद्धि :- तप का अर्थ है द्वन्द्वों को सहना । यह द्वन्द्व सर्दी- गर्मी, भूख- प्यास, लाभ- हानि व मान- अपमान के रूप में हमें परेशान करते रहते हैं । लेकिन जब हम शास्त्रों के अनुसार तप का पालन करते हैं । तब उस तप से हमारे चित्त की पूरी शुद्धि होती है । जिससे हमारे अन्दर द्वन्द्वों को सहने की सामर्थ्यता अर्थात ताकत आती है । इसे तप से उत्पन्न सिद्धि कहते हैं ।

5.समाधि से उत्पन्न सिद्धि :- धारणा, ध्यान व समाधि का एक साथ प्रयोग करना संयम कहलाता है । जब- जब उस संयम का प्रयोग योगी किसी भी पदार्थ में करता है । तब- तब योगी को अद्भुत शक्तियों व सिद्धियों की प्राप्ति होती है । जिनका वर्णन पूरे विभूतिपाद में किया गया है । उन सभी सिद्धियों को समाधि से उत्पन्न सिद्धियाँ कहा जाता है ।

जिस प्रकार फसल को पानी की पर्याप्त मात्रा मिलने से फसल अच्छी होती है । उसी प्रकार जन्म, औषधि आदि सिद्धियों के द्वारा  योग मार्ग में आने वाली बाधाएँ दूर होने से योग साधना को पोषण ( उचित खुराक ) मिलता है । जिससे योगी को साधना में आसानी से सफलता मिलती है । जैसे ही साधना में आने वाली रुकावटें हट जाती हैं। वैसे ही साधना में सिद्धि प्राप्त होने का मार्ग अपने आप खुल जाता है । 

   योग सूत्र में उपाय कहा है- "अभ्यास वैग्याभ्यां तन्निरोधः ! और यह सच है कि उन्हीं का जीवन सफल और सार्थक है, जो सदैव स्व-परामर्ष और आत्म-मूल्यांकन पद्धति के अनुसार छोटी से छोटी बातों में भी आत्म निरीक्षण करते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति कभी भी अपने मन के गुलाम नहीं बनते। बल्कि मन और इन्द्रियों पर काबू प्राप्त करके उसके स्वामी बन जाते हैं !  अनेक विभूतियां (महापुरुष, नेता , पैगम्बर) हमें मन को एकाग्र करने के लिए प्रेरित अवश्य करती हैं, जिन्होंने अपने मन को एकाग्र कर जीवन के सफर में सफलताएं हासिल कीं थीं। हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानंद को भी अनेक प्रलोभन दिए गए किंतु ये सब प्रलोभन उनके सामने व्यर्थ साबित हुए। क्योंकि वे स्वयं 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित थे, इसीलिए मन पर नियंत्रण कर उसके दास नहीं बल्कि स्वामी बन चुके थे।

 स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मनुष्य और पशु में मुख्य अन्तर उनकी मन की एकाग्रता की शक्ति में है। किसी भी प्रकार के कार्य में सारी सफलता इसी एकाग्रता का परिणाम है। पशु में मन की एकाग्रता की शक्ति बहुत कम होती है। जो लोग पशुओं को कुछ सिखाते हैं। उन्हें पता है कि पशु को जो बात सिखायी जाती है, उसे वह लगातार भूलता जाता है। वह एक बार में किसी एक वस्तु पर देर तक चित्त को एकाग्र नहीं रख सकता। मनुष्य और पशु में यही अन्तर है – मनुष्य में चित्त की एकाग्रता की शक्ति अपेक्षाकृत अधिक है। एकाग्रता की शक्ति में अन्तर के कारण ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से भिन्न होता है।"

इसी एकाग्रता के महत्व को रेखांकित करते हुए स्वामीजी कहते हैं- " अर्थ का उपार्जन हो, चाहे भगवद आराधना हो- जिस काम में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह कार्य उतने ही अधिक अच्छे प्रकार से सम्पन्न होगा।  द्वार के निकट जाकर पुकारने य़ा खटखटाने से जैसे द्वार खुल जाता है, उसी भाँति केवल इस उपाय से ही प्रकृति के भण्डार का द्वार खुल कर प्रकाश बाढ़ के रूप में बाहर आता है। " 

"अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य है – उनको शिक्षा देना, उनमें उनकी खोई हुई जातीय विशिष्टता का विकास करना। ... उनमें उच्च विचार उत्पन्न कर दो – उन्हें उसी एक सहायता की जरूरत है, इसके फलस्वरूप बाकी सब कुछ आप ही हो जायेगा। हमें केवल रासायनिक पदार्थों को इकट्ठा भर कर देना है, रवा बंध जाना तो प्राकृतिक नियमों से ही साधित होगा। हमारा कर्तव्य है, उनके दिमागों में विचार भर देना – बाकी वे स्वयं कर लेंगे। ... इसलिए अगर पहाड़ मुहम्मद के पास न आये, तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना पड़ेगा। अगर गरीब लड़का शिक्षा ग्रहण करने के लिए न आ सके, तो शिक्षा को ही उसके पास जाना पड़ेगा।"

"एक विचार लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ – उसी का चिन्तन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसीमें जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वाङ्ग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है; और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है। शेष सब तो बातें करने वाले मशीन मात्र है। यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें गहराई तक जाना होगा। "(२/८१)

[साभार@@ -विवेकानंद निशुल्क शिक्षा केंद्र रानीगंज। बरदाही काली मंदिर, रानीगंज/Bardahi Kali Mandir, Raniganj, West Bengal/ India, /https://www.facebook.com/vnskraniganj/?locale=hi_IN]

स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि ‘अपने विचारों पर नियंत्रण रखो नहीं तो वे तुम्हारा कर्म बन जाएंगे और अपने कर्मो पर नियंत्रण रखो नहीं तो वे तुम्हारा भाग्य बन जाएंगे।’ कर्म ही व्यक्ति के भाग्य और जीवन का निर्माण करते हैं। 

सद्सद विवेक : मनुष्य का मन अनंत शक्तियों का भंडार है, लेकिन उसकी सबसे बड़ी शक्ति है- विवेक  (सद‍् और असद् में विवेक- प्रयोग शक्ति) ।  विवेक ही हमारी वह शक्ति है, जो सत्प्रेरणा देती है और उचित निर्णय करने में सहायक होती है। यह संरक्षक सत्ता प्रत्येक मनुष्य के अंत:करण में है। यदि मनुष्य विवेक के प्रकाश में चलता रहे, तो बुद्धि निर्णय करने में सफल रहती है। दुख-कष्टों की संभावना कम होकर संशय मिट जाते हैं। महाभारत में वेदव्यास ने लिखा है कि समस्त प्राणियों में मनुष्य से श्रेष्ठ कोई भी प्राणी नहीं है, क्योंकि मनुष्य में विवेक एक ऐसी शक्ति है, जो अन्य प्राणियों में नहीं है। इसी के आधार पर मनुष्य अन्य प्राणियों को अपने वश में कर सकता है, जबकि अन्य प्राणी मनुष्य को अपने वश में नहीं कर सकते। इस आधार पर यह मान लिया गया कि मनुष्य कुछ भी करे, कुछ भी खाए और कुछ भी पिए, उसके लिए सब ठीक है। इस मान्यता का मनुष्य ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए दुरुपयोग किया।

      "  जितनी भी शक्तियाँ मनुष्य के चरित्र को प्रभावित करती हैं, उन सबमें कर्म की शक्ति (पाँचो कर्मेन्द्रिय के कर्म - दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, स्वाद और गन्ध की शक्ति) सबसे अधिक प्रबल होती है; जिसे मनुष्य को स्वयं सम्भालना (manage करना) पड़ता है। [Karma in its effect on character is the most tremendous power that man has to deal with.] मनुष्य, मानो एक प्रकार के आकर्षण-केंद्र जैसा है, जो ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियों को अपनी ओर खींच रहा है, तथा इस केन्द्र में उन सबों को संयुक्त कर एक प्रबल विद्युत् प्रवाह (big current) के रूप में पुनः बाहर भेज रहा है। [Man is, as it were, a center, and is attracting all the powers of the universe towards himself, and in this center is fusing them all and again sending them off in a big current....] शुभ-अशुभ, सुख-दुःख, सब उसकी ओर दौड़े जा रहे हैं, और उससे लिपटे जा रहे हैं। और वह ( विवेक-प्रयोग द्वारा -अच्छे विचार- अच्छे कर्म -अच्छी आदत द्वारा सद्प्रवृत्ति की) उस प्रबल धारा का निर्माण करता है, जिसे चरित्र कहते हैं, और उसी चरित्र को बाहर प्रेषित करता है। [ Good and bad, misery and happiness, all are running towards him and clinging round him; and out of them he fashions the mighty stream of tendency called character and throws it outwards.] जिस प्रकार किसी चीज को [सद‍् और असद् विचार द्वारा निर्मित में से किसी भी चरित्र को] अपनी ओर खींच लेने की शक्ति मनुष्य में है, उसी प्रकार उसे बाहर भेजने की शक्ति भी मनुष्य में है।" [As he has the power of drawing in anything, so has he the power of throwing it out.]   

 "संसार के सारे क्रियाकलाप,  मनुष्य की इच्छा शक्ति का प्रकाश मात्र है। इस युग में विज्ञान के जो विभिन्न चमत्कार दिख पड़ रहे हैं, जिन वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण मनुष्य का जीवन उन्नत और सुखी हुआ है, चिकित्सा के क्षेत्र में जिन औषधियों के आविष्कारों से मनुष्य रोग-मुक्त हुआ है, उन सबके पीछे किसी एक या एकाधिक व्यक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति अवश्य रही है। जिस व्यक्ति ने अपने मन में यह दृढ़ संकल्प कर लिया था कि किसी खास रोग को दूर करने का उपाय वह अवश्य खोज निकालेगा। अनेक प्रकार के यंत्र, युद्धपोत आदि सभी मनुष्य की इच्छा शक्ति के विकास मात्र हैं। मनुष्य की यह इच्छाशक्ति चरित्र से उत्पन्न होती है और वह चरित्र कर्मों से गठित होता है। ( and this will is caused by character, and character is manufactured by Karma.) 

अतएव कर्म (श्रेय-प्रेय विवेक-प्रयोग के बाद) जैसा होगा, इच्छा- शक्ति का विकास भी वैसा ही होगा। संसार में प्रबल इच्छा शक्ति संपन्न जितने महापुरुष हुए हैं, वे सभी उत्कृष्ट कर्मी थे। उनकी इच्छाशक्ति ऐसी थी कि वे संसार को भी उलट-पुलट कर सकते थे। यह शक्ति उन्हें युग-युगांतर तक निरंतर कर्म करते रहने से प्राप्त हुई थी। बुद्ध एवं ईसा मसीह में जैसी प्रबल इच्छाशक्ति थी, वह एक जन्म में प्राप्त नहीं की जा सकती और उसे हम आनुवंशिक शक्तिसंचार भी नहीं कह सकते, क्योंकि हमें ज्ञात है कि उनके पिता कौन थे। हम नहीं कह सकते कि उनके पिता के मुंह से मनुष्य जाति की भलाई के लिए शायद कभी एक शब्द भी निकला हो। जोसेफ (ईसा मसीह के पिता) के समान तो असंख्य बढ़ई आज भी हैं, बुद्ध के पिता के सदृश लाखों छोटे-छोटे राजा हो चुके हैं। अत: यदि वह बात केवल आनुवंशिक शक्तिसंचार के कारण हुई हो, तो इसका स्पष्टीकरण कैसे कर सकते हैं कि इस छोटे से राजा को, जिसकी आज्ञा का पालन शायद उसके स्वयं के नौकर भी नहीं करते थे। ऐसा एक सुंदर पुत्र-रत्न लाभ हुआ, जिसकी उपासना लगभग आधा संसार करता है?

इसी प्रकार जोसेफ नामक बढ़ई (काष्ठशिल्पी) तथा संसार में लाखों लोगों द्वारा ईश्वर के समान पूजे जाने वाले उसके पुत्र ईसा मसीह के बीच जो अंतर है, उसका स्पष्टीकरण क्या हो सकता है ? आनुवंशिक शक्तिसंचार के सिद्धांत द्वारा तो इसका स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। बुद्ध और ईसा इस विश्व में जिस महाशक्ति का संचार कर गए, वह आई कहां से? उसका उद्भव कहां से हुआ? इतनी दृढ़ इच्छाशक्ति का संचय कैसे हुआ ? अवश्य युग-युगांतरों से वह उस स्थान में ही रही होगी और क्रमश: प्रबलतर होते-होते अंत में वही दृढ़ इच्छाशक्ति बुद्ध तथा ईसा मसीह के रूप में समाज में प्रकट हो गई और आज तक चली आ रही है। यह सब कर्म द्वारा ही नियमित होता है। यह सनातन नियम है कि जब तक कोई मनुष्य किसी वस्तु का उपार्जन न करे, तब तक वह उसे प्राप्त नहीं हो सकतीसंभव है, कभी-कभी हम इस बात को न मानें, परंतु आगे चलकर हमें इसका दृढ़ विश्वास हो जाता है।

  एक मनुष्य चाहे समस्त जीवन भर धनी होने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करता रहे, हजारों मनुष्यों को धोखा दे, परंतु अंत में वह देखता है कि वह संपत्तिशाली होने का अधिकारी नहीं था। तब जीवन उसके लिए दुखमय और दूभर हो उठता है। हम अपने भौतिक सुखों के लिए भिन्न-भिन्न चीजों को भले ही इकट्ठा करते जाएं, परंतु वास्तव में जिसका उपार्जन हम अपने कर्मों द्वारा करते हैं, वही हमारा होता है। 

        गीता (2.50) का कथन है - " योग: कर्मसु कौशलम्" ‘कर्मयोग का अर्थ है- कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना।’ [With regard to Karma-Yoga, the Gita says that it is doing work with cleverness and as a science; by knowing how to work, one can obtain the greatest results.]  समस्त कर्मों का उद्देश्य है मन के भीतर पहले से ही स्थित अनन्त शक्ति को प्रकट कर देना- आत्मा को जाग्रत कर देना। प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्ण शक्ति और पूर्ण ज्ञान विद्यमान है। भिन्न-भिन्न कर्म इन महान शक्तियों को जाग्रत करने तथा बाहर प्रकट कर देने में साधन मात्र बनते हैं। 

>>There cannot be work without a motive: "मनुष्य विभिन्न प्रकार की  अभिप्रेरणा (motive-प्रयोजन) से प्रेरित होकर कार्य करता है। प्रयोजन (मंशा) के बिना कार्य नहीं हो सकता। (Man works with various motives. There cannot be work without motive.) अपनी-अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य नाना प्रकार के कार्य करता है। कुछ लोग नाम-यश चाहते हैं, तो कुछ पैसा चाहते हैं। कुछ लोग अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, तो कुछ अपने बाद अपना नाम छोड़ जाने के लिए यत्न करते रहते हैं। कुछ लोग अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुष्ट कर्म कर चुकने के बाद - प्रायश्चित के रूप में एक मन्दिर बनवा देते हैं या स्वर्ग प्राप्ति के लिए- पुरोहितों को धन देते हैं। 

>>(salt of the earth) : कुछ ऐसे नर -रत्न (salt of the earth) होते हैं जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम- यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। वे जानते हैं कि नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य [भीष्म परमार DAV स्कूल और K.RAI शिशु मन्दिर] बहुत शीघ्र फलित नहीं होता है। ये चीजें (मान-प्रतिष्ठा, नाम-यश) मनुष्य को तब प्राप्त होती हैं जब वे जिंदगी की आखरी घड़ियाँ गिन रहे होते हैं। इसीलिए विवेकी लोग जो शुभ (श्रेय) में विश्वास करते हैं और उससे प्रेम करते हैं, केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उनके कर्म से दूसरों की भलाई होती है।  वे उच्चतर स्तर की समाज सेवा - गरीबों के प्रति भलाई ,या मानव-जाति की (ज्ञान -चक्षु खोलने में?) सहायता के लिए अग्रसर होते हैं। 

यदि कोई मनुष्य, बिना किसी प्रयोजन के - बिल्कुल नि:स्वार्थ भाव से काम करे, तो क्या उसे कोई फलप्राप्ति नहीं होती? असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल (जीवनमुक्ति-आत्मसाक्षात्कार) की प्राप्ति  होती है। और सच पूछा जाए, तो नि:स्वार्थता अधिक फलदायी होती है, पर इसका अभ्यास करने का धैर्य बहुत थोड़े से लोगों में (अवतार वरिष्ठ, नेता, पैगम्बर आदि में) होता है।  

 "प्रेम (Love), सत्य (truth) तथा नि:स्वार्थता (unselfishness) जैसे सद्गुण केवल नैतिकता सम्बन्धी आलंकारिक वर्णन मात्र नहीं हैं, बल्कि अंतर्निहित शक्ति (पूर्णता -दिव्यता) की महान अभिव्यक्ति होने के कारण वे हमारे सर्वोच्च आदर्श हैं। यदि बिना भविष्य का चिंतन किये, बिना स्वर्ग-नरक की परवाह किये मनुष्य पांच मिनट भी नि:स्वार्थ भाव से काम कर सके, तो उसमें एक 'महापुरुष' [ जीवनमुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर]  बन सकने की सम्भावना है। यद्यपि इसे कार्यरूप में परिणत करना कठिन है।  फिरभी अपने ह्रदय के अन्तस्तल [ठाकुर, माँ, स्वामीजी -नवनीदा को देखकर] हम इसका महत्व समझते हैं - और जानते हैं कि इससे क्या मंगल होता है।

      हमारी सभी पाँचों इन्द्रियाँ - कर्म करने साधन, बहिर्मुखी हैं, मन की सारी बहिर्मुखी गति  किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य [इन्द्रिय भोग की दिशा में ] की ओर दौड़ती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है। परन्तु यदि मन की बहिर्मुखी गति को अन्तर्मुखी बनाने के लिए उसका निग्रह किया जाये, मनःसंयोग पद्धति का यदि विधिवत अभ्यास किया जाये [स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर 'Be and Make वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' के प्रशिक्षण द्वारा  यदि मन और इन्द्रियों की इस बहिर्मुखी गति को संयमित करना सीख लिया जाय (self-restraint- 24 X 7 यम, नियम का पालन और दो बार आसन-प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास किया जाय।] तो इससे जिस महान इच्छा-शक्ति का प्रादुर्भाव होता है उसके द्वारा ऐसे महापुरुष चरित्र (नेता, पैगम्बर या जीवनमुक्त शिक्षक) का निर्माण हो सकता है, जो अपने ज्ञान से बुद्ध या ईसा (नवनीदा जैसा) संपूर्ण जगत को  रोशन कर सकता है। इसके लिए- (शिव ज्ञान से जीव सेवा : त्याग और सेवा के लिए)  किन्तु प्रबल आत्म-संयम की जरूरत पड़ती है। मूर्खों को इस रहस्य का पता नहीं रहता, परन्तु फिर भी वे मनुष्य-जाति पर शासन करने के इच्छुक रहते हैं। यदि वह निःस्वार्थ कर्म करता रहे और प्रतीक्षा करे, और इस मूर्खता जन्य जगत-शासन भाव को संयत करता रहे , तो इस भाव के समूल नष्ट होते ही वह संसार में एक शक्ति बन जायेगा। परन्तु जिस प्रकार कुछ पशु अपने से दो-चार कदम आगे कुछ नहीं देख सकते, इसी प्रकार हममें से ज्यादातर लोग दो-चार वर्ष के आगे भविष्य नहीं सकते। भविष्य की कल्पना के बारे में अधिकांश लोग नितांत अदूरदर्शी होते हैं। हम सभी में दूरदर्शिता के लिए पर्याप्त धैर्य नहीं रहता और इसीलिए हम अनैतिक और नकारात्मक कर्म करने लगते हैं। यह हमारी कमजोरी है। शक्तिहीनता है। 

     समाज-सेवा के अत्यंत निम्नतम (दिखावटी या लोकलुभावन) अथवा सामान्य से सामान्य कर्मों को भी हमें कभी तिरस्कार या घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। जो मनुष्य किसी श्रेष्ठ आदर्श को नहीं जानता (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा और SV जैसे किसी श्रेष्ठ आदर्श को नहीं जानता) उसे स्वार्थदृष्टि से ही, नाम-यश के लिए ही - काम (रिलीफ वर्क या अन्नदान-वस्त्रदान आदि) करने दो। प्रत्येक मनुष्य को क्रमशः उच्चतर स्तर की समाज-सेवा  की ओर बढ़ने तथा उन्हें समझने का प्रयत्न (शिवज्ञान से जीवसेवा के मर्म को समझने का प्रयत्न) करते रहना चाहिए। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"- 'हमें कर्म करने का अधिकार है, कर्मफल में हमारा कोई अधिकार नहीं।" (गीता-2.47) यदि तुम किसी मनुष्य की सहायता सचमुच करना चाहते हो, तो इस बात की कभी चिंता न करो कि उस व्यक्ति का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा होना चाहिए। यदि तुम कोई श्रेष्ठ और उत्तम कार्य करना चाहते हो, तो यह कभी मत सोचो कि उसका फल क्या होगा? कर्मयोगी को सदैव कर्म करते रहना चाहिए। आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शांति व निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म करते रहने तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल जैसी शान्ति एवं निस्तब्धता  का अनुभव करते हैं। ऐसे व्यक्ति आत्मसंयम (24 X 7 यम -नियम और दोबार मनःसंयोग) का रहस्य जान कर अपने मन के ऊपर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं

      परन्तु हमें आरम्भ से ही आरम्भ करना पड़ेगा , जो कार्य हमारे सामने आये , उसे अपने हाथ में लें और अपने को प्रतिदिन क्रमशः निःस्वार्थ बनाने का यत्न करें। [ घोर स्वार्थपरता अर्थात  पशुता से मनुष्य बने और मनुष्य देवत्व अर्थात पूर्णतः निःस्वार्थ बनने का प्रयत्न करते रहें।] हमें कर्म करते रहना चाहिए तथा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारी प्रेरक शक्ति क्या है, हमारा  वास्तविक (प्रयोजन- Motive) क्या है ? ऐसा होने पर हम देखेंगे कि आरम्भिक वर्षों में प्रायः हमारे सभी कार्यों के पीछे का हेतु या प्रयोजन (motives) स्वार्थपूर्ण ही रहता है। किन्तु अध्यवसाय के साथ कर्म में लगे रहने से यह स्वार्थपरायणता (पशुता) क्रमशः नष्ट हो जाएगी। और अन्त में वह समय आ जायेगा - जब हम वास्तव में स्वार्थरहित होकर -  होकर कार्य करने योग्य हो सकेंगे।  हम सभी यह आशा कर सकते हैं कि जीवन-पथ में संघर्ष करते करते किसी न किसी दिन वह समय अवश्य आएगा , जब हम पूर्ण रूप से निःस्वार्थ (100 % निःस्वार्थ) बन जायेंगे ; और ज्योंही हम उस अवस्था को प्राप्त कर लेंगे , हमारी समस्त शक्तियाँ केन्द्रीभूत हो जाएँगी तथा हमारा आभ्यन्तरिक ज्ञान (दिव्यत्व-ब्रह्मत्व) प्रकट हो जायेगा। 

इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि - कोई भी व्यक्ति यदि पूर्ण रूप से नि:स्वार्थ होकर कर्म करेे, तो वह एक महापुरुष बन सकता है-अर्थात मानवजाति का मार्गदर्शक नेता- जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर बन सकता है !

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>>>*साभार ~ @Bijay Krishna Pandey* *卐~卐 *श्री दादूवाणी दर्शन* 卐~卐* 卐*Shri Daduvani Darshan*卐 परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी...ठाकुर देव के भक्त मिश्रा साहब जो इसाई बन गए थे (मिश्रा साहब Prabhudayal Mishra-DNM $ sons) प्राइवेट लिमिटेड फर्म में भी CO/या MD का पद काबिल समझकर जिसको मिलता है - उसे दुबारा  चुनाव के समय हटाया भी जा सकता है !]    

शास्त्र कहते हैं .... कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में, संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां सबसे महानतम युद्ध हुआ था। उसने इधर-उधर देखा और सोचने लगा कि क्या वास्तव में यहीं युद्ध हुआ था...? यदि युद्ध हुआ था तो जहां वो खड़ा है ... उसके नीचे की जमीन रक्त से सराबोर होनी चाहिए.., क्या वो आज उसी जगह पर खड़ा है ... जहां महान पांडव और कृष्ण खड़े थे ..? 

तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने नरम और शांत स्वर में कहा "आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे !" संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच में से दिखाई देने वाले भगवा वस्त्र पहने एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया। "मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां आये हैं, लेकिन आप उस महाभारत युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते .. जब तक आप ये नहीं जानते हैं कि असली युद्ध है क्या ।" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा। 

"तुम महाभारत का क्या अर्थ है - जानते हो ?" महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है,लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है। वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फसा कर मुस्कुरा रहा था। 

"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि इस ग्रन्थ में दर्शन क्या है ?" संजय ने निवेदन किया। ज़रूर, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं !दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण ..., और क्या आप जानते हैं .. कि कौरव क्या हैं ? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।

कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं ... जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं। लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं। ...पर क्या आप जानते हैं कैसे ? संजय ने फिर से ना में सर हिला दिया। "जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं !" 

यह कह वह वृद्ध व्यक्ति बड़े प्यार से मुस्कुराया और संजय अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा। .. कृष्ण (गुरु विवेकानन्द के गुरु अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण) आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश है और यदि आप अपने जीवन को उसके हाथों में सौंप देते हैं ... तो आपको चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है । संजय लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया। 

"फिर" कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं, अगर विकार रूपी कौरव अधर्मी एवम् दुष्ट प्रकृति के हैं ?" वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा। "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति (अपने तथाकथित शुभचिन्तकों के प्रति) आपकी धारणा बदलती जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था ... कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे.... अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं। 

और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी एहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़े होने का (बुद्ध और ईसा जैसा महापुरुष बनने का) सबसे कठिन हिस्सा है .. और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है।

संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था बल्कि इसलिए कि वह जो समझ ले कर यहां आया था वो एक एक करके धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा -"इस कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है ? "आह!" वृद्ध ने कहा। "आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचा के रखा हुआ है।

कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है,वह इच्छा है, वह आप का ही एक हिस्सा है। ....लेकिन वो अपने प्रति अन्याय महसूस करता है,और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई ना कोई कारण और बहाना बनाता रहता है। क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?" संजय ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारे विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठने का प्रयास करने लगा।

और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया वो वृद्ध व्यक्ति कहीं धूल के गुबारों के मध्य विलीन हो चुका था। लेकिन जाने से पहले वो जीवन का वो दिशा एवम् दर्शन दे गया था जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।

[#साभार #Rakesh_Saxena]

>>>महाभारत का कर्ण कौन है ? महाभारत के कर्ण को समझने के लिए पहले यह समझना होगा कि महाभारत के पाण्डव कौन हैं? पाण्डव और कुछ नहीं हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं। पाँच इन्द्रियों के पाँच विषय हैं - दृष्टि ( रूप- sight), श्रवण (शब्द -hearing), स्पर्श (touch), स्वाद ( रस या taste), गन्ध (smell), शब्द (श्रवण या hearing) | और कर्ण कौन है ? (Who is Karna of Mahabharata?*Karna is the brother of your senses,* *He is the desire,* *He is a part of you...**कर्ण पाण्डव का अर्थात आपकी इंद्रियों का छठा भाई है,* *वह इच्छा (मन) है,**कर्ण हमारे मन में छुपे हमारी पाँच इन्द्रिय विषयों- दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, स्वाद और गन्ध  को भोगने की इच्छा का नाम है। *वह आप का ही एक हिस्सा है....अर्थात कर्ण हमारी इन्द्रियों का छठा भाई (मन) या इच्छा का नाम है - यह मन हमारा ही हिस्सा है (आत्मा का यंत्र है। किन्तु श्रवण,मनन, निदिध्यासन नहीं करने से अपनी बड़ाई सुनने की इच्छा कर्ण को (मन को) चंचल बनाये रखती है) इसलिए कर्ण हमेशा अपने प्रति अन्याय महसूस करता है। और हमारे विरोधी विकारों के साथ (रिपुओं के साथ) खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई ना कोई कारण और बहाना बनाता रहता है।  *But he feels injustice towards himself* *And seems to be standing with your opposing vices* * And all the time he keeps making some reason or the other to stand with the thoughts of vices.**Doesn't your desire keep motivating you to get carried away by the vices or adopt them?*)  *क्या आपकी इच्छा, आपको, विकारों के वशीभूत हो कर* *उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है ?"* 

>>और कौरव क्या हैं ? कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं ... जो हमारी इंद्रियों को भोग के लिए उकसाते रहते हैं, उन पर निरंतर हमला करते रहते हैं। **लेकिन हम उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते हैं...* "जब कृष्ण हमारे शरीर रूपी रथ के सारथि बनते हैं !" कृष्ण (C-IN-C नवनीदा) ही हमारी आंतरिक आवाज, हमारी आत्मा, हमारे मार्गदर्शक नेता हैं। और यदि  अपने जीवन को हम उनके हाथों में सौंप देते हैं ... तो मुझे चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है । (क्योंकि विवेकानन्द स्कन्द है और स्वयं माँ सारदा देवी स्कन्दमाता हैं !) जब जीवन में किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर मनुष्य अपने मार्ग पर अग्रसर होता है तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके लक्ष्य से भिन्न अनेक आकर्षक और प्रलोभित करने वाली योजनाएं (तीन ऐषणाएँ) उसके समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं, जिनके चिन्तन में वह अपनी शक्ति का अपव्यय करके थक जाता है। और इस प्रकार अपने चुने हुए कार्य को भी सफलतापूर्वक करने में असमर्थ हो जाता है। उन्नति में बाधक ऐसे विघ्न से सुरक्षित रहने के लिए आत्मसंयम- (3H विकास के 5 अभ्यास)अत्या-वश्यक है। 

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 🔘>>स्वपरामर्ष ( Autosuggestion) एवं आत्ममूल्यांकन (Self-evaluation) पद्धति में प्रशिक्षण की अनिवार्यता। :

 कई व्यक्ति भरपूर सुख-सुविधाओं के बावजूद अपने जीवन से असन्तुष्ट रहते हैं। ऐसा क्यों है? क्या धन, पद, सम्मान, ऐश्वर्य और सुख-सुविधाएं जीवन को आनन्द नहीं दे पा रहे हैं? जीवन में ऐसी क्या कमी रह जाती है, जिसके कारण सुख की तलाश पूरी ही नहीं होती। इसका कारण है कि सुख की तलाश की दिशा सही नहीं है, हम सुख बाहर खोजते हैं, जबकि वह भीतर विद्यमान है। हम सुख भौतिकता में खोजते हैं जबकि सुख वहां नहीं है। आज का मनुष्य एक ध्येय लेकर चलता है और वह है उसका अपना आर्थिक लाभ, भौतिक आकांक्षाएं और इन्हीं की उधेड़बुन में वह सब कुछ भूल जाता है और गोरखधंधों में जुता रहता है। यही से समस्याओं का शुरूआत होती है।

     मनुष्य जीवनभर यही सीखने की कोशिश करता रहता है कि दूसरों के साथ कैसे रहे, दूसरों से कैसा व्यवहार हो, दूसरों को कैसे प्रभावित किया जाये, लेकिन वह यह नहीं सीख पाता कि अपने साथ कैसे रहे, स्वयं से स्वयं का व्यवहार कैसा हो, स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार कैसे किया जाये यही स्थिति हमारी समस्याओं की जड़ है। मनुष्य बहुत सारे कार्य करता है। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च जाता है, गीता, कुरान, बाइबिल, गुरुवाणी भी जपता है। अपने शरीर की भी अवहेलना करके भी भाग-दौड़ में लगा रहता है। उसका सारा ध्यान संसार पर केन्द्रित होता हैं। भटक रहे हैं इधर-उधर। वे दिशाहीनता के शिकार हैं। अपने सुख और आनन्द के लिए एक घेरे में लगातार चक्कर लगा रहे हैं। जबकि सुख का स्रोत वहां है ही नहीं

किसी व्यक्ति के स्वयं के साक्षात्कार न होने को दो तरह से समझा जा सकता है। पहले तो इस तरह के व्यक्ति स्वयं को समझ नहीं रहे हैं । वे सक्रिय हैं और खूब सक्रिय हैं। पर्याप्त कार्य कर रहे हैं। चूंकि वे स्वयं के बारे में भी कभी सोचते ही नहीं हैं अथवा वे अपनी क्षमताओं व सीमाओं से अवगत नहीं हैं। इसलिए अपनी धुन में, अपनी दिशा में घूम रहे हैं । जबकि अपने गुण या दोषों को खोजकर उसी अनुसार आगे बढ़ना चाहिए। क्योंकि जो कार्य कर रहे हैं उनसे बेहतर करने की सामर्थ्य /क्षमता / सम्भावना हमारे भीतर विद्यमान है। 

स्वयं को जानने व स्वयं से साक्षात्कार करने के लिए हमें नए सिरे से विचार करना होगा। इस प्रचलित घेरे से बाहर आना होगा। महामण्डल द्वारा निर्देशित स्वपरामर्ष और आत्ममूल्यांकन पद्धति द्वारा अपने आप में सुधार करते हुए हम न केवल अपनी परेशानियों और समस्याओं के हल कर सकेंगे, बल्कि सुख और आनन्द का भी अनुभव प्राप्त कर सकेंगे। दुनिया को जानने और स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार के बीच उचित संतुलन जरूरी है। दुनिया में स्वयं को स्थापित करने के लिए दुनिया को जानना भी जरूरी है । जगत को जानकर मनुष्य उसमें अपने होने को प्रमाणित करता है। अपने होने को प्रमाणित तो किया ही जाना चाहिए। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।

Mishra Sahib (Prabhudayal Mishra-DNM $ sons) — Native of North West India. On the day of one brother's marriage, the sudden death of that brother and another brother causes disillusionment in his heart. Even though he was a Brahmin, he was attracted to Christ and became a Christian. But hidden under his Sahebi dress was a royal garment. He belonged to the Quaker community. He had earlier received divyadarshan of thakur Sri Ramakrishna. After finding thakur at the age of 35, he received thakur's  darshan at a rented house in Shyampukur. He was blessed to witness the manifestation of Jesus in Bhavastha Thakur .

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तैत्तरीय उपनिषद की शिक्षा और शीक्षा

तैत्तिरीय उपनिषद : संपूर्ण शिक्षा की गवाही (भाग 1)

साभार लेखक: साधु भद्रेशदास, पीएच.डी., डी.लिट.

भारत के पास शिक्षा की प्राचीन विरासत है। भारतीय शिक्षा सदा ही परंपरा से शिक्षक केंद्रित यानी आचार्य केंद्रित रही है और उसे पुन: आचार्य केंद्रित ही किए जाने की आवश्यकता है। शिक्षा को शिक्षक के स्थान पर प्रशासक और मानव -संसाधन मंत्रालय के सचिव तथा मुखिया लोग तय करें, यह तो अंग्रेजी काल से चला था और यह परंपरा भारत की ज्ञान परंपरा (श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण -परम्परा -Be and Make') को नष्ट करने वाली प्रमाणित हुयी है। भारतीय शिक्षा के स्वरूप और लक्ष्यों का निर्धारण भारत के ज्ञानियों (आध्यात्मिक गुरुओं) के द्वारा ही हो, ऐसी व्यवस्था करना शासन का कर्तव्य है। ऐसी समृद्ध वेदान्त शिक्षा परंपरा का (अपरा और परा विद्या का एक साथ) पुन: उत्कर्ष ही भारतीय शिक्षा के लक्ष्य होने चाहिए।

हमारे जिस परंपरागत शैक्षणिक ढांचे को अंग्रेजों ने बलपूर्वक तथा योजना पूर्वक तोड़ा और फिर 15 अगस्त 1947 ईस्वी के बाद उस परंपरा गत शिक्षा के ढांचे को टूटा फूटा और बिखरा ही रहने दिया गया, उसे फिर से नए उत्साह के साथ प्रामाणिक रूप में रचे जाने की आवश्यकता है। वस्तुत: शिक्षा के लक्ष्य ज्ञानी लोग ही तय कर सकते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तत्वावधान में भारत के श्रेष्ठ विद्वानों का एक वृहद निकाय व्यापक विचार-विमर्श करें और वेदों उपनिषदों पुराणों महाकाव्यों आदि के परंपरागत विद्वानों तथा अन्य सभी ज्ञान धाराओं के मुखिया लोगों और ज्ञानी लोगों और भारतीय कला रूपों तथा शिल्प परंपराओं के ज्ञानी और हुनरमंद व्यक्तियों तथा अन्य समूहों के प्रतिनिधियों का एक समवाय हो और उसमें शिक्षा के नए स्वरूपों के विषय में सर्व अनुमति के आधार पर एक प्रामाणिक स्वरुप विकसित किया जाए।

वैदिक शिक्षण और शिक्षा की गुरु-शिष्य परम्परा इसका एक शानदार उदाहरण है। भारत में शिक्षा का जिस प्रकार और विस्तार हुआ वह आश्चर्यजनक है। भारतीय शिक्षा में विविधता और विशालता दोनों जुड़ी हुई हैं। वैदिक साहित्य पर दृष्टि डालने से इसका अनुभव सहज ही हो जाता है। इससे भी बढ़कर इसकी सबसे बड़ी विशिष्टता यह है कि यह असंतुलित या आंशिक नहीं है बल्कि सर्वांगीण और पूर्ण है। यह निष्फल या कुछ सीमा तक ही फलदायी नहीं है, बल्कि अनन्त फल देने वाला है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह जीवित है, अध्यात्मविद्या के साथ जीवित है, ब्रह्मविद्या के साथ जीवित है। आइए तैत्तिरीय उपनिषद पर विचार करके इस दिलचस्प वैदिक शिक्षा पर एक नज़र डालें।

तैत्तिरीय उपनिषद:-'शी'क्षावल्ली:

एक परिचय

यजुर्वेद और याज्ञवल्क्य ऋषि...वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषियों तथा उपदेष्टा आचार्यों में महर्षि याज्ञवल्क्य का स्थान सर्वोपरि है। ये महान अध्यात्म-वेत्ता, योगी, ज्ञानी, धर्मात्मा तथा श्री रामकथा के मुख्य प्रवक्ता हैं। भगवान सूर्य की प्रत्यक्ष कृपा इन्हें प्राप्त थी। पुराणों में इन्हें ब्रह्मा जी का अवतार बताया गया है।

यजुर्वेद का संबंध यज्ञ से है... ज्ञान को कर्म में परिणित करना इसका उद्देश्य है। कर्म के लिए प्रेरित करने वाला शास्त्र होने के कारण ही इसे कर्मवेद के रूप में भी पहचाना जाता है...शुक्ल यजुर्वेद का चालिसवाँ अध्याय "ईशोपनिषद" के नाम से प्रसिद्ध है। ईशोपनिषद् के दूसरे मंत्र में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने को कहा गया है:

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ ( ईशोपनिषद्-2)  

इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीने की इच्छा करनी चाहिये। हे मानव! तेरे लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न किसी और प्रकार का नहीं है, इस प्रकार कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता।

यजुर्वेद मुख्यत: अध्वर्यु पुरोहितों की दिग्दर्शिका है; जो कर्मकांडों के नियमों का पालन करते थे। यजुर्वेद संहिता के दो भाग हैं: 1.कृष्ण यजुर्वेद 2. शुक्ल यजुर्वेद। महर्षि याज्ञवल्क्य के द्वारा वैदिक मन्त्रों को प्राप्त करने की रोचक कथा पुराणों में प्राप्त होती है... वेदव्यास जी ने अपने शिष्य वैशम्पायन को यजुर्वेद सिखलाया। याज्ञवल्क्य वेदाचार्य महर्षि वैशम्पायन के शिष्य थे। इन्हीं से उन्हें मन्त्र शक्ति तथा वेद ज्ञान प्राप्त हुआ। वैशम्पायन अपने शिष्य याज्ञवल्क्य से बहुत स्नेह रखते थे और इनकी भी गुरु जी में अनन्य श्रद्धा एवं सेवा-निष्ठा थी; किंतु दैवयोग से एक बार गुरु जी से इनका कुछ विवाद हो गया, जिससे गुरु जी रुष्ट हो गये और कहने लगे- 'मैंने तुम्हें यजुर्वेद के जिन मन्त्रों का उपदेश दिया है, उन्हें तुम उगल दो।' गुरु की आज्ञा थी, मानना तो था ही। निराश हो याज्ञवल्क्य जी ने सारी वेद मन्त्र विद्या का वमन कर दिया, जिन्हें वैशम्पायन जी के दूसरे अन्य शिष्यों ने तित्तिर(तीतर पक्षी) बनकर श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लिया अर्थात वे वेद मन्त्र उन्हें प्राप्त हो गये। 

यजुर्वेद की वही शाखा जो तीतर बनकर ग्रहण की गयी थी, इसलिए इसका नाम  "तैत्तरीय संहिता" हुआ। जो बाद में 'तैत्तिरीय शाखा' के नाम से प्रसिद्ध हुई। बुद्धि की मलिनता के कारण यजुषों का रंग काला पड़ गया, इसी लिए यह  "कृष्ण यजुर्वेद" के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कृष्ण यजुर्वेद में छंदोबद्ध मंत्रों के अलावा गद्यात्मक टिप्पणी भी हैं। इसकी चार शाखाएँ हैं : 1.तैत्तिरीय संहिता 2.मैत्रायणी संहिता 3.काठक संहिता 4.कपिष्ठल संहिता।

याज्ञवल्क्य जी अब देवज्ञान से शून्य हो गये थे, गुरुजी भी रुष्ट थे, अब वे क्या करें? तब उन्होंने प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्यनारायण की शरण ली और उनसे प्रार्थना की कि "हे भगवन! हे प्रभो! मुझे ऐसे यजुर्वेद की प्राप्ति हो, जो अब तक किसी को न मिली हो।" भगवान सूर्य ने प्रसन्न हो उन्हें दर्शन दिया और अश्वरूप धारण कर यजुर्वेद के उन मन्त्रों का उपदेश दिया, जो अभी तक किसी को प्राप्त नहीं हुए थे। ये मंत्र ही शुक्ल यजुर्वेद कहलाये। अश्वरूप सूर्य से प्राप्त होने के कारण शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा 'वाजसनेय' और मध्य दिन के समय प्राप्त होने से 'माध्यन्दिन' शाखा के नाम से प्रसिद्ध हो गयी। इस शुक्ल यजुर्वेद-संहिता के मुख्य मन्त्रद्रष्टा ऋषि आचार्य याज्ञवल्क्य हैं।इस प्रकार शुक्ल यजुर्वेद हमें महर्षि याज्ञवल्क्य जी ने ही दिया है। इसकी दो प्रमुख शाखाएँ हैं- 1.माध्यन्दिन 2. काण्व ।  आज प्राय: अधिकांश लोग इस वेद शाखा से ही सम्बद्ध हैं और सभी पूजा अनुष्ठानों, संस्कारों आदि में इसी संहिता के मन्त्र विनियुक्त होते हैं। रुद्राष्टाध्यायी (शत रुद्रीय) नाम से जिन मन्त्रों द्वारा भगवान रुद्र (सदाशिव)- की आराधना होती है, वे इसी संहिता में विद्यमान हैं। इस प्रकार महर्षि याज्ञवल्क्यजी का लोक पर महान उपकार है।

इस संहिता का जो ब्राह्मण भाग 'शतपथ ब्राह्मण' के नाम से प्रसिद्ध है और जो 'बृहदारण्यक उपनिषद' है, वह भी महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा ही हमें प्राप्त है। बृहदारण्यक उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद की और कठोपनिषद, तैत्तिरीयोपनिषद, श्वेताश्वेत उपनिषद, मैत्रायणी और कैवल्य उपनिषद कृष्ण-यजुर्वेद की उपनिषद हैं । गार्गी, मैत्रेयी और कात्यायनी आदि ब्रह्मवादिनी नारियों से जो इनका ज्ञान-विज्ञान एवं ब्रह्मतत्व-सम्बन्धी शास्त्रार्थ हुआ... वह भी प्रसिद्ध ही है। याज्ञवल्क्यजी विदेहराज जनक-जैसे अध्यात्म-तत्त्ववेत्ताओं के ये गुरुपद्भाक रहे हैं। इन्होंने ही प्रयाग में भारद्वाज जी को श्री रामचरित मानस सुनाया

कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के अंतर्गत तैत्तिरीय आरण्यक के सातवें आठवें और नवम अध्याय को तैत्तिरीय उपनिषद कहा जाता है। तैत्तिरीय उपनिषद को तीन खंडों में विभाजित किया गया है, प्रत्येक को 'वल्ली' कहा जाता है। इनमें से सातवें अध्याय को उपनिषद में 'शीक्षा-वल्ली *,के नाम से जाना जाता है। बाद वाले को आनंदवल्ली और तीसरा भृगुवल्ली है। आइए हम इन तीनों वल्लियों के उपदेशों और सार को देखें।

 इस शी'क्षा-वल्ली  का प्रथम अनुवाक मंगलाचरण की तरह है। उपदेश देने से पहले ऋषि अपने और शिष्य के दोनों के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं - ॐ 'शन्नो मित्र: शं वरुण:। 'ॐ' इस परमेश्वर के नाम का स्मरण करके उपनिषद का आरम्भ किया जाता है। नः = हमारे लिए दिन और प्राण के अधिष्ठाता मित्र देवता  - शं यानि कल्याणप्रद हों, तथा रात्रि और अपान के अधिष्ठाता वरुण भी कल्याणप्रद हों। " शन्नो भवत्वर्यमा। शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः। शन्नो विष्णुरुरूक्रमः।'  (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/1)। इस अनुवाक में उन सभी देवताओं से जिन्हें परमात्मा ने सृष्टि का प्रबंधन करने के लिए नियुक्त किया है, यथा- मित्र, वरुण, अर्यमा, बृहस्पति और अन्य देवता, आप सभी से अनुरोध है कि सभी देवगण हमारे लिए आनंद और कल्याण का स्रोत बनें और हर किसी पर शांति की वर्षा करें। इस उपनिषद के प्रारम्भ में संपूर्ण सृष्टि की भलाई के लिए परमात्मा से की गई यह प्रार्थना भारतीय आध्यात्मिक चिंतन का महान एवं अद्वितीय गुण है। सबके हर दुख का निवारण, परम आनंद की अनुभूति, परम शांति की प्राप्ति- यही हिंदू सनातन चिंतन की दिशा रही है। आइए अब इस मंत्र में एक अन्य संदेश को देखें। 'नमो ब्रह्मणे' - उपरोक्त समस्त देवताओं के आत्मस्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ। 'नमस्ते वायो'। समस्त प्राणियों में सूत्रात्मा प्राण के रूप में व्याप्त उन परमेश्वर की वायु के नामसे स्तुति करते हैं - हे सर्वशक्तिमान सबके प्राणस्वरूप वायुमय परमेश्वर ! तुम्हें नमस्कार है। 

गुरु-शिष्य के रूप में अव्यक्त से प्रकट 'व्यक्ति' को सम्मान देना - 

नमन करने के बाद अब गुरु अपने शिष्य के प्रति श्रद्धा अर्पित कर रहा है-'त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि' - 'त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/1)। तुम्हीं समस्त प्राणियों के प्राणस्वरूप प्रत्यक्ष ब्रह्म हो, अतः मैं तुम्हीं को प्रत्यक्ष ब्रह्मके नामसे पुकारूँगा। 'ऋतम् वदिष्यामि;' मैं 'ऋत' नाम से भी तुम्हें पुकारूँगा , क्योंकि समस्त प्राणियों के लिए जो कल्याणकारी नियम हैं , उस नियमरूप 'ऋत' (यम +नियम) के तुम्हीं अधिष्ठाता हो।' सत्यं वदिष्यामि' - तथा मैं तुम्हीं को 'सत्य' नाम से पुकारूँगा ; क्योंकि सत्य [सत -असत -मिथ्या विवेक या यथार्थ भाषण] के अधिष्ठाता देवता तुम्हीं हो।  

जीवनमुक्त शिक्षक, नेता के सत्य-पालन की प्रतिज्ञा :

'मैं केवल शाश्वत सिद्धांत- चार महावाक्य ही बोलूंगा। मैं सत्य बोलूंगा (अर्थात् मैं केवल विवेक-स्रोत  और श्रद्धा जागृत करने की शिक्षा दूँगा -मिथ्या सिद्धांत नहीं सिखाऊंगा)' (तैत्तिरीय उपनिषद्ः 1/1)।  सत्य बोलना एक उपदेशक, शिक्षक या नेता की पहली आवश्यकता है। इन शब्दों के साथ ऋषि ने सत्य बोलने की प्रतिज्ञा की है। यहाँ, ऋषि एक उपदेशक, एक जीवनमुक्त शिक्षक, एक नेता है और परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य-इन्द्रियगोचर सत्य दोनों की)  शिक्षा देना उसका कर्तव्य है। झूठ बोलना पाप है, लेकिन झूठ सिखाना घोर पाप होगा। यह वैदिक गुरु-शिष्य संवाद की एक विशेष विशेषता है। शिक्षक शिष्य और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझता है। वह अपना कर्तव्य समझता है। वह इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि एक दूषित शिक्षा एक शिष्य के जीवन को कितना तबाह कर सकती है और पूरे समाज को प्रभावित कर सकती है।

इसके अलावा, जीवनमुक्त शिक्षक नवनीदा जैसे एक ईमानदार व्यक्ति को सहनशील भी होना चाहिए। ह जानता है कि सच बोलने पर उसे कभी-कभार प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ सहनी पड़ेंगी।-शिव के समान विष को गले में धारण करना ही पड़ेगा। सच्ची बात जरूर बोलें पर कड़वी सच्चाई बिल्कुल नहीं बोले। इसी कारण से, समाज में ऐसे सत्यनिष्ठ, ईमानदार और सहिष्णु गुरुओं/नेताओं/ पैगम्बरों, जीवनमुक्त शिक्षकों के निर्माण की निरंतर आवश्यकता को जानकर, शिक्षण ऋषि प्रार्थना करते हैं, 'तन्मामवतु। तद वक्तारं अवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारं।  - 'वह सर्वशक्तिमान सर्वव्यापी परमेश्वर मुझे सत -आचरण करने अर्थात चरित्रवान मनुष्य बनने, सत्य-बोलने और सत -विद्या (परा -विद्या, चार महावाक्यों को) ग्रहण करने की शक्ति करके -इस जन्म-मृत्यु रूप संसार चक्र से मेरी रक्षा करे ; तथा मेरे आचार्य को इनसब का उपदेश देकर सर्वत्र उस सत्य का - 'मनुष्य बनो और बनाओ' प्रशिक्षण -पद्धति का प्रचार-प्रसार करनेकी शक्ति प्रदान करके वक्ता की अर्थात मेरे आचार्य देव की रक्षा करें।  मेरी रक्षा करे और मेरे आचार्य की रक्षा करे। इन वाक्यों को दुबारा कहने का अभिप्राय शांतिपाठ की समाप्ति का द्योतक है।  ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः। भगवान श्रीरामकृष्ण देव शान्ति स्वरुप हैं, श्री श्री माँ सारदा देवी  शान्ति स्वरुप हैं, स्वामी विवेकानन्द  शान्ति स्वरुप हैं !   (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/1)। इस प्रकार, किसी की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने का कारण अंततः समाज को सुशिक्षित रखना ही है। इस प्रकार, यह मंत्र उस आदर्श दृष्टिकोण को दर्शाता है जो एक शिक्षक को अपना पाठ शुरू करने से पहले रखना चाहिए।

यहां अक्षरब्रह्म और परब्रह्म दोनों की अभिव्यक्ति का संकेत दिया गया है। गुणातीत गुरु के प्रति अभिव्यक्ति की इस भावना को विकसित करना चाहिए और बार-बार मजबूत करना चाहिए। गुरु स्वयं अक्षरब्रह्म हैं, और परब्रह्म निरंतर उनके भीतर निवास करते हैं। इस प्रकार, इस वाक्य का तात्पर्य है कि हमें सर्वोच्च दिव्यता के साथ प्रकट गुरु की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि वह गुरु ही अक्षरब्रह्म और परब्रह्म का प्रकट रूप है। शांति के लिए इस प्रार्थना में, हम जीवनमुक्त शिक्षक , नेता या  ऋषि के महान आचरण का भी अनुभव करते हैं।

मैं अक्षरब्रह्म और परब्रह्म को नमन करता हूं।  केवल एक शब्द, 'ब्रह्मणे' का उपयोग करते हुए, उपदेशक ऋषि दो दिव्य अस्तित्वों अक्षरब्रह्म और परब्रह्म को नमन करते हैं।  इसका कारण यह है कि इस उपनिषद में बाद में 'ब्रह्मविद्याप्नोति परम' और 'सत्यं ज्ञानम् अनंत ब्रह्म'  (तैत्तिरीय उपनिषद: ब्रह्मानन्द- वल्ली 2/1) जैसे कथनों में अक्षरब्रह्म को 'ब्रह्मणे' शब्द का उपयोग करने का उल्लेख है, जबकि 'आनंदो ब्रह्मेति व्यजानात' (तैत्तिरीय उपनिषद: भृगुवल्ली 3/6) जैसे कथन परब्रह्म को 'ब्रह्मण' शब्द का उपयोग करने के लिए संदर्भित करते हैं। इस प्रकार अक्षरब्रह्म और परब्रह्म दोनों के लिए सामान्य शब्द 'ब्रह्मण' का उपयोग करते हुए, ऋषि इन दोनों दिव्य अस्तित्वों को ध्यान में रखते हुए 'नमो ब्रह्मणे' शब्दों का उपयोग करते हैं - 'मैं अक्षर-पुरुषोत्तम को नमन करता हूं'।

   उपनिषद् ब्रह्मविद्या के शास्त्र हैं। उपनिषद स्वयं ब्रह्मविद्या को परिभाषित करते हैं - 'येनाऽक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्।' - 'जिससे अक्षर अर्थात् अक्षरब्रह्म और पुरुष अर्थात् परब्रह्म को उनके तत्त्व से जाना जाता है, वह ब्रह्मविद्या कहलाती है।' (मुंडक उपनिषद: 1/2/13) इस कारण से, तैत्तिरीय उपनिषद में, ब्रह्मविद्या की इन दोनों दिव्य अस्तित्वों को याद किया गया है और ब्रह्मविद्या पर उपदेश शुरू करने से पहले उन्हें प्रणाम किया गया है।

'शिक्षा' शब्द का एक विशेष अर्थ

यहाँ 'शिक्षा' का अर्थ दण्ड नहीं, बल्कि शिक्षा है और उसमें भी एक विशेष प्रकार की शिक्षा - वह शिक्षा जो वेदों के अध्ययन में काम आती है। हमारे वेद विशेष ज्ञान के सागर हैं। एक सच्चा वैज्ञानिक बनने के लिए व्यक्ति को इनका विस्तार से अध्ययन करना चाहिए। इनका अध्ययन करने के लिए सबसे पहले इनकी देखभाल करनी होगी।

हमारी प्राचीन परम्पराओं के अनुसार वेदों को ज्यों का त्यों सुरक्षित रखने की एक विशेष विधि प्रचलित रही है। यह विधि व्यवस्थित उच्चारण और दोहराव की है। हजारों साल पहले, जब लेखन अच्छी तरह से स्थापित नहीं हुआ था, हमारे वेदों को इस उच्चारण और दोहराने की विधि द्वारा संरक्षित किया गया था। इस प्राचीन परंपरा का फल प्रामाणिक मंत्रों का विशाल संग्रह है जो आज हमें वेदों में मिलता है। उच्चारण और पुनरावृत्ति की इस विधि को भली-भांति समझाने वाला विज्ञान 'शिक्षा' है। इस उपनिषद में यह बताया गया है।

'शिक्षां व्याख्यास्यामः'(तैत्तिरीय उपनिषद्ः 1/2)।'अब हम शिक्षा की व्याख्या करेंगे'। इस प्रस्ताव के साथ, ऋषि शिक्षा के मुख्य विषयों को सूचीबद्ध करते हैं:'वर्णः स्वरः। मात्रा बलम्। साम सन्तानः। इत्युक्तः शिक्षाध्यायः।' वर्ण का अर्थ है अक्षर। स्वरः का अर्थ है स्वर। इसमें स्वर जैसे 'अ - ए', 'इ - आई', 'उ - उ', 'ऋ - रु' आदि और व्यंजन जैसे 'क - का', 'ख - खा', 'ग गा', 'घ -घा' आदि शामिल हैं।  वेदों के मंत्रों का उच्चारण ठीक से हो सके, इसके लिए शिक्षा ग्रंथों में सबसे पहले बताया गया है कि स्वर और व्यंजन मुंह या गले के किस भाग से उत्पन्न होते हैं, साथ ही उनकी उत्पत्ति कैसे होती है। और उनका असली उच्चारण वास्तव में क्या है। साम संतानःसाम का अर्थ है अक्षरों के उच्चारण की समानता। सन्तानः का अर्थ है शब्दों को उनके क्रम के अनुसार उच्चारण करने की प्रणाली। इसे संहिता के नाम से भी जाना जाता है। मंत्रों के उच्चारण के साथ-साथ मंत्रों के गायन को सक्षम बनाने के लिए स्वरों की भी अद्भुत व्यवस्था है। मात्रा का अर्थ है अवधि।  यहां वैदिक मंत्रों में स्वरों का उच्चारण कितनी अवधि तक करना चाहिए, यह बताया गया है। ह्रस्व (छोटा) और दीर्घ (लंबा) जैसी अवधियां उच्चारण की लंबाई दर्शाती हैं। बलम् का अर्थ है वह बल या प्रयत्न जिससे मंत्र के अक्षरों का उच्चारण करना चाहिए। इस प्रकार, वैदिक शिक्षा ग्रंथ वैदिक मंत्रों के उच्चारण के पहलुओं की विस्तृत व्याख्या देते हैं जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए।

स्वाभाविक रूप से, कोई भी वेदों के उच्चारण के लिए इस पूरी प्रणाली की आवश्यकता पर सवाल उठा सकता है। उत्तर सीधा है। हमारे वेद कोई साधारण पुस्तक नहीं, ईश्वरीय शास्त्र हैं। हमें अपने प्रश्न का उत्तर तब मिलेगा जब हम हजारों साल पहले के बारे में सोचें जब ज्ञान को लिखकर सुरक्षित रखने का कोई तरीका नहीं था। वेद शाश्वत सिद्धांतों का - अर्थात महावाक्यों का -इन्द्रियातीत सत्यों का सागर हैं। प्रत्येक वाक्य एक शाश्वत सिद्धांत है- महावाक्य है। इन सिद्धांतों को संरक्षित करने के लिए, हमारे पूर्वजों ने पहले इनका सही उच्चारण करना आवश्यक समझा, क्योंकि वेदों का पाठ मंत्रों के रूप में किया जाता है। वैदिक मन्त्रों की रचना शब्दों से हुई है। और अक्षरों से शब्द बनते हैं। यदि मंत्रों के शब्दों का उच्चारण या क्रम बदल दिया जाए तो सिद्धांत बदल सकते हैं * या लुप्त हो सकते हैं। इस कारण से, वैदिक स्कूलों ने सबसे पहले अपने छात्रों को शिक्षा के बारे में सिखाया। [  महर्षि पतंजलि ने अपने भाष्य में कहा है - 'यथेन्द्रशत्रुः स्वरतो अपराधात।' - जैसे 'इन्द्रशत्रु' शब्द में स्वर की अशुद्धि हो जाने के कारण 'वत्रासुर' स्वयं ही इन्द्र के हाथ से मारा गया। ]     

तीसरे अनुवाक में वे इसका प्रयोजन बताते हैं कि- " सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसं। "    इससे गुरु और शिष्य दोनों का ब्रह्मवर्चस और ब्रह्म तेज बढ़ेगा, यशस्वी होंगे और शिक्षा के द्वारा लोकों के विषय में, ब्रह्मांड की ज्योतियों के विषय में, सभी प्रकार की विद्याओं के विषय में, विश्व की समस्त प्रकार की प्रजाओं के विषय में तथा शरीर और उसके स्थूल,सूक्ष्म तथा कारण इन सभी रूपों के विषय में और इस प्रकार लोक, प्रजा, ज्योति, विद्या और जीवात्मा के समस्त स्तरों और रहस्यों के विषय में वर्णन करेंगे।

शिक्षा की महिमा

आगे इसी अध्याय में नौवे अनुवाक में बताते हैं कि स्वाध्याय और प्रवचन के मुख्य फल हैं – ऋत अर्थात कॉस्मिक यानी ब्रह्मांडीय व्यवस्था के नियमों का ज्ञान, सत्य का ज्ञान और यथायोग्य सदाचार का पालन करने की सामर्थ्य , तप की शक्ति, आंतरिक शांति की सामर्थ्य , इंद्रिय निग्रह की सामर्थ्य, वेदों के पठन पाठन की सामर्थ्य, योग्य संतान प्रजनन की सामर्थ्य, कुटुंब की वृद्धि (प्रजाति) की सामर्थ्य, मनुष्यों के लिए आवश्यक समस्त व्यवहार की सामर्थ्य, यज्ञ की सामर्थ्य और अतिथियों की यथायोग्य सेवा की सामर्थ्य। जहां शिक्षा है, वहीं प्रगति और उत्थान है। जहाँ शिक्षा नहीं, वहाँ प्रगति नहीं; पतन होता है और समाज को दुःख का सामना करना पड़ता है। इसीलिए वैदिक काल से ही हमें निरन्तर अध्ययन की प्रेरणा मिलती रही है। यह इस उपनिषद में स्पष्ट है। मंत्र के शब्द हैं: 'ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च।' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/9)। स्वाध्याय का अर्थ है सीखने की क्रिया, अध्ययन करना; प्रवचन का अर्थ है सिखाना। इस प्रकार, शास्त्र हमें सिखाने और सीखने का आदेश देते हैं। हमें अपनी इस विरासत को; गुरु -शिष्य वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा को सदैव संजोकर रखना चाहिए

दीक्षांत भाषण

दीक्षांत समारोह की परंपरा हमारे यहां वैदिक काल से ही चली आ रही है। शिक्षावल्ली के 11वें अध्याय (अनुवाक) में इसका वर्णन आता है। हमारी वैदिक शिक्षा परम्परा के अनुसार विद्यार्थी निर्जन में या गुरुगृह वास करता हुआ आश्रम में रहता है। कई वर्षों तक, छात्र विभिन्न विषयों में अनुभवी शिक्षकों से सीखते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में दक्षता हासिल करते हैं। जब उनकी शिक्षा पूरी हो जाती है तो दीक्षांत समारोह आयोजित किया जाता है। शिक्षक स्वयं समारोहपूर्वक विद्यार्थियों की डिग्रियों की घोषणा करते हैं। यह दीक्षांत समारोह विद्यार्थियों की अंतिम कक्षा है। उस दिन से, ये प्रखर युवा आश्रम छोड़ देंगे और सभी की भलाई के लिए समाज में अपना पहला कदम उठाएंगे। वे एक नया जीवन शुरू करेंगे. इसलिए, शिक्षक बड़े प्यार से उन्हें सलाह के अपने आखिरी शब्द देते हैं। ये उपदेश ही दीक्षांत समारोह हैं। उनमें समस्त शिक्षा का सार समाहित है। आइए देखें कि इस उत्थानशील दीक्षांत समारोह में क्या शामिल है।

'वेदमनुत्व्याचार्योऽन्तेवसिनमनुशास्ति' - 'वेदमनुच्याचार्योऽन्तेवसिनमनुशास्ति' - 'शिक्षक उन छात्रों को निर्देश देते हैं जिन्होंने वेदों का अध्ययन पूरा कर लिया है' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)। वह उन्हें निर्देश देते हैं, 'सत्यं वद।' घर्मं चर। स्वाध्यायन् मा प्रमदः।' 'सच बोलो। अपने धर्म का पालन करो. अपनी पढ़ाई में कभी भी निष्क्रिय न रहें' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)। 'मातृदेवो भव. पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। 'अतिथिदेवो भव।'  - 'अपनी मां को देवी के समान जानो (यानी उनकी सेवा करो और उन्हें प्रसन्न करो जैसे कि वह देवी हों), अपने पिता को भगवान के समान जानो, अपने शिक्षक को जानो अतिथि को देवता के समान जानो, अतिथि को भी देवता के समान जानो' (तैत्तिरीय उपनिषदः 1/11)।

इस प्रकार, शिक्षावल्ली में, हम अपनी सनातन वैदिक परंपरा में जीवन पर महान दृष्टिकोण और समृद्ध दार्शनिक विचार देखते हैं।समस्त ज्ञान प्रदान कर आचार्य 11 वें अनुवाक में अनुशासन देते हैं –”सदा सत्यनिष्ठ रहना, इसमें प्रमाद नहीं करना। धर्ममय ही आचरण करना, इसमें प्रमाद नहीं करना। शुभ कर्मों में कभी प्रमाद मत करना। देव कार्य और पूर्वजों की परंपरा को आगे ले जाने के कार्य में कभी चूक नहीं करना तथा संतति परंपरा गतिमय रखना। ऐश्वर्य की साधना में कभी प्रमाद मत करना और स्वाध्याय तथा ज्ञान विस्तार में कभी चूक नहीं करना। माता, पिता, आचार्य और अतिथि को देवतुल्य मानना (विद्या, आयु, तप और आचरण में श्रेष्ठ व्यक्ति जब घर पर बिना आमंत्रण आ जाएँ, तो वे ही अतिथि कहलाते हैं। आजकल के गेस्ट या मेहमान को अतिथि नहीं कहते।)। जो निर्दोष कर्म हैं, उनका ही आचरण करना। हमारे भी जो सुचरित हैं, अच्छे आचरण हैं, उनका ही अनुसरण करना, अन्य आचरणों का नहीं। जो श्रेष्ठ विद्वान आयें, उन्हे आसन देना, विश्राम देना और श्रद्धापूर्वक दान देना। विवेकपूर्वक संकोच सहित अपनी आर्थिक स्थिति के अनुरूप दान देना चाहिए। जब जहां कोई दुविधा या शंका हो, तो उत्तम विचार वाले सदाचारी से परामर्श कर कर्तव्य का निश्चय करना। यही आदेश है। यही उपदेश है।”

 'यान्यानवद्यनि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। 'नो इतरानी।' - 'हे शिष्यों! केवल वही कार्य करें जो शास्त्र और समाज के अनुरूप हों। इसके विपरीत कार्य न करें' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)। 'यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि। नो इतरानी. ये के चास्मत्वत्रेयांसो ब्राह्मणाः। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यम्।' - 'इसके अलावा, केवल अपना अच्छा आचरण अपनाएं, और कुछ नहीं।' यहां से जाने के बाद यदि तुम्हें हमसे श्रेष्ठ कोई गुरु मिले तो उसका आदर करना, उसे आसन देकर प्रणाम करना।'' (तैत्तिरीय उपनिषद्ः 1/11) इस प्रकार अमूल्य शिक्षा देकर शिक्षक अंत में कहते हैं: 'एश आदेशः।' एष उपदेशः। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्।'  - 'यह हमारा अंतिम आदेश है। यही शिक्षा है. आगे बढ़ो, इसके अनुसार जियो' (तैत्तिरीय उपनिषद: 1/11)।

दीक्षांत भाषण के पूरा होने पर, शिक्षावल्ली शांति के लिए एक और प्रार्थना के साथ समाप्त होती है।इस प्रकार, तैत्तिरीय उपनिषद के इस अध्याय में, वेदों के अध्ययन के लिए उपयोगी शिक्षा की उचित व्याख्या दी गई है। इसीलिए उपनिषद के इस भाग को शिक्षावल्ली कहा जाता है

अनुवादक: साधु परमविवेकदास

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तैत्तिरीय उपनिषद

संपूर्ण शिक्षा की गवाही (भाग 2)

इस उपनिषद में, शिक्षावल्ली के बाद, हम आनंदवल्ली में आध्यात्मिकता - ब्रह्मविद्या - के उपदेश पाते हैं। आइए एक नजर डालते हैं.

ब्रह्मानन्द वल्ली (आनंदवल्ली) शान्तिपाठ करना आवश्यक है क्यों ? : 

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शांति, शांति, शांतिः। 

परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम दोनों परस्पर द्वेष न करें। उक्त तरह की भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है।

[May God protect both us disciple and teacher together. Let us both enjoy the fruits of learning together. Let us together get the power to attain education. May the study of both of us be brilliant. Let us not envy each other. The mind of the person having this kind of feeling remains pure. From a pure mind a pure future emerges.]

एक प्रतिज्ञा (promise,सम्भावना) : जो ब्रह्म को जानता है वह परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। 

जैसे ही आनंदवल्ली शुरू होती है, पहले शब्द अक्षर-पुरुषोत्तम सिद्धांत की शुरुआत करते हैं। तैत्तिरीय उपनिषद शिक्षावल्ली के शब्दों को तुरही बजाना शुरू करता है: 'ॐ ब्रह्मविद् आप्नोति परमम्'  - 'जो ब्रह्म, यानी अक्षरब्रह्म को जानता है, वह परम, यानी परब्रह्म को प्राप्त करता है' (तैत्तिरीय उपनिषद: ब्रह्मानन्द वल्ली 2/1) अक्षरब्रह्म को जानने का अर्थ केवल जानकारी नहीं, बल्कि बोध है, उनको अपने अनुभूति से जानना है।  हमें आत्मसाक्षात्कार करके ब्रह्मरूप या अक्षररूप बनना होगा। यह ब्रह्मरूप हो जाने वाले व्यक्ति के लिए परब्रह्म की प्राप्ति की प्रतिज्ञा है। यही बात अर्जुन को (गीताः 18/54) में समझाई गई थी: 

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।

समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।18.54।।

।।18.54।। ब्रह्मभूत (जो साधक ब्रह्म बन गया है), प्रसन्न मन वाला पुरुष न इच्छा करता है और न शोक, समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है।।

अहंकार और उसकी विभिन्न अभिव्यक्तियों (मनोवृत्तिओं) के परित्याग से साधक का चंचल मन शान्त हो जाता है। प्राय मन के असंयमित होने तथा जीवन के त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन के कारण ही अन्तकरण में विक्षेप और संभ्रम उत्पन्न होते हैं। उनकी निवृत्ति से मन आपेक्षिक शान्ति को प्राप्त करता है। कृत्रिम शान्ति को स्वाभाविक शान्ति में परिवर्तित करने के लिए शारीरिक प्रयत्नों की आवश्यकता नहीं होती। अपने यथार्थ स्वरूप का अनुभव हो जाने के बाद प्रयत्नपूर्वक प्राप्त की गयी शान्ति भी स्वाभाविक बन जाती है। इसके लिए तो मन की सतत सजगता की ही अपेक्षा होती है।

 प्राय यह देखा जाता है कि कर्तृत्व के अभिमान का त्याग करने पर भी साधक में यदि वैराग्य की कुछ न्यूनता हो,  तो उसके मन में भोक्तृत्व का अभिमान उत्पन्न हो जाता है। इसी भोक्तृत्वाभिमान के कारण अनेक साधकगण पुन भोगों में (तीनों ऐषणाओं में से किसी एक में ? -कमसेकम नाम -यश में ) आसक्त हो जाते हैं। इसीलिए  साधक को अत्यधिक सजग रहना चाहिए। कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों का नाश होना अनिवार्य है। 

इस श्लोक में प्रयुक्त ब्रह्मभूत शब्द उस साधक को दर्शाता है  जिसने अध्यात्म शास्त्र का श्रवण और मनन करके, गुरुदेव की असीम कृपा से अपने ब्रह्मस्वरूप को पहचान लिया है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि उसने ब्रह्मस्वरूप में निष्ठा प्राप्त कर ली है।  तथापि इस ज्ञान के कारण मन के विक्षेपों की संख्या घटती जाती है।

उपाधि के साथ तादात्म्य से ही विक्षेप उत्पन्न होते हैं परन्तु विवेकी पुरुष का प्रयत्न उस तादात्म्य की निवृत्ति के लिए ही होता है। जिस मात्रा में वह अपने विवेकी स्वरूप का भान बनाये रखने में समर्थ होता है, उसी मात्रा में उसका अन्तःकरण प्रसन्न  अर्थात् शान्त, शुद्ध और स्थिर रहता है।

उपर्युक्त गुणों को सम्पादित कर लेने पर साधक की विषयोपभोग की इच्छा समाप्त प्राय हो जाती है। वह भोग की आकांक्षा नहीं करता ( न कांक्षति)। इच्छा के न होने पर शोक का भी अभाव हो जाता है (न शोचति)। इष्ट फल के प्राप्त न होने पर अथवा उसके नष्ट हो जाने पर दुख अवश्यंभावी है। परन्तु विवेकी साधक इन दोनों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। 

 विषयों को भोगने की इच्छा (मिथ्या) अहंकार के धर्म है ~  शुद्ध आत्मा के नहीं। जिस विवेकी साधक का सुख बाह्य-विषय निरपेक्ष हो जाता है, वह अपने उस आत्मस्वरूप (सच्चिदानन्द) का दर्शन करता है- जो भूतमात्र की आत्मा है। अतएव वह अब समस्त भूतों के प्रति सम हो जाता है। उक्त गुणों से युक्त साधक मेरी परा भक्ति को प्राप्त कर लेता है।  इसके पूर्व एक सम्पूर्ण अध्याय में भक्तियोग का विस्तृत विवेचन किया गया था। भक्ति प्रेमस्वरूप है। प्रेम का मापदण्ड है प्रियतम के साथ तादात्म्य उस के साथ पूर्णत एकरूप हो जाना। इस पूर्ण तादात्म्य के लिए साधक का उपाधियों के साथ तादात्म्य तथा विषय संग सर्वथा समाप्त हो जाना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण के तीन श्लोकों में उल्लिखित गुणों से युक्त पुरुष ही परमात्मा की परा भक्ति का अधिकारी होता है।

(गीताः 18/54)। इसी कारण से, भगवान स्वामीनारायण इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि केवल ब्रह्मरूप बनने वाले को ही परमात्मा की भक्ति करने का अधिकार है। (वचनामृतं लोय 7)। इसके अलावा, अक्षरब्रह्म गुणातीतानंद स्वामी ने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को इसी सिद्धांत के साथ समझाया है: “हम दो चीजों को पूरा करने के लिए पैदा हुए हैं। एक तो अक्षररूप हो जाना; और दो, परमात्मा से जुड़ना” (स्वामिनी वोटो: 4/101)।इस प्रकार 'ब्रह्मविद्याप्नोति परम्' (तैत्तिरीय उपनिषदः 2/1) कहने से ऐसा लगता है जैसे ब्रह्मविद्या को उसकी संपूर्णता में संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत कर दिया गया है।

उपनिषद केवल यह कहकर नहीं रुकता कि परब्रह्म को पाने के लिए अक्षरब्रह्म को जानना आवश्यक है। जिससे अक्षरब्रह्म को आसानी से जाना जा सके, यह हमें अक्षरब्रह्म के दिव्य स्वरूप से भी परिचित कराता है। उपनिषद कहता है -सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म ! (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1)। अक्षरब्रह्म सत्यम् है, अर्थात् इसका स्वरूप और लक्षण सदैव विद्यमान रहते हैं, इनमें कोई परिवर्तन नहीं होता। अक्षरब्रह्म ज्ञानम् है, अर्थात यह ज्ञान का स्वरूप है, जो माया से सदैव निष्कलंक रहता है। यही कारण है कि ऐतरेय उपनिषद अक्षर-ब्रह्म की महिमा में गाता है - 'प्रज्ञानं ब्रह्म।'  (ऐतरेय उपनिषद: 2/1) । अक्षरब्रह्म अनन्तम् है। अनंत का अर्थ है जिसका अंत न हो, वह अनंत अर्थात अविनाशी है। अन्त का मतलब सीमा भी होता है, अनंत का मतलब बिना सीमा के होता है। अक्षरब्रह्म अपनी सर्वज्ञता से हर चीज़ में व्याप्त है और इसलिए अनंत है। अर्थात देश और काल की सीमा से परे है, सीमारहित है ! 

अक्षरब्रह्म के साथ परब्रह्म के आनंद का अनुभव

'यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन।' - जो मनुष्य हृदय रूपी गुफा में छिपे उस ब्रह्म को अपने अनुभव से - तत्वतः जान लेता है, 'सोऽश्नुते सर्वान् कामन् सह ब्राह्मण विपश्चितेति' - (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1)। वह व्यक्ति सबको भलीभाँति जाननेवाले उन ब्रह्म (शक्ति माँ काली) के साथ एकत्व  अनुभूति में रहता हुआ सब प्रकार के भोगों को अलौकिक ढंग से - अनुभव करता है। अर्थात सबकुछ ईश्वर का आवास है - इस बोध में निरंतर जागृत रहता हुआ, आवश्यक विषयों का सेवन त्यागपूर्वक (आसक्त होकर नहीं) करता है। यही उपदेश बी.गीता (6.31) में है - 

सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते।।6.31।।   

[सर्वभूतस्थितं यः मां भजति एकत्वम् आस्थितः सर्वथा वर्तमानः अपि सः योगी मयि वर्तते ॥] जो पुरुष अवतार वरिष्ठ के साथ एकत्वभाव में  स्थित होकर समस्त प्राणियों  में स्थित मुझे ( मुझ पूर्वजन्म के वासुदेव श्री रामकृष्ण को) भजता है, वह योगी सब प्रकार से वर्तता हुआ (रहता हुआ) मुझमें स्थित रहता है।

   "समाहित चित्त का योगी निरन्तर मेरा (परम् सत्य का) अनुसंधान करता है (भजता है)। फलत बाह्य जगत् में सब प्रकार के व्यवहार करता हुआ भी वह मुझमें ही स्थित रहता है।"

इस श्लोक का मुख्य प्रयोजन यह दर्शाना है कि कोई आवश्यक नहीं कि एक आत्मानुभवी पुरुष हिमालय की किसी अज्ञात गुफा में जाकर निवृत्ति का जीवन व्यतीत करेगा। भगवान् कहते हैं कि जीवन के समस्त सामान्य व्यवहार करता हुआ सभी परिस्थितियों में वह अपने स्वरूप के ज्ञान में स्थित रह सकता है।

 जब मनुष्य भवरोग का (तीनो ऐषणाओं में आसक्त होकर) रोगी हो जाता है तब उसे नित्य के कार्यों से निवृत्त होकर चिकित्सालय में (छः दिवसीय निर्जनवास में) रहने की आवश्यकता होती है, परन्तु पूर्ण स्वस्थ हो जाने के पश्चात् नहीं। स्वस्थ होकर तो वह पुन अधिक उत्साह के साथ अपना कार्य करने लगता है। इसी प्रकार विघटित व्यक्तित्व (disintegrated personality)  के पुरुष के लिए ध्यान-साघना (meditation)  का उपचार बताया जाता है। गुरुगृहवास में अष्टांग योग के अभ्यास से जब वह अपने स्वस्वरूप को पहचान कर दैवी सार्मथ्य प्राप्त कर लेता है;  तब वह निश्चय ही अपने पूर्व के कार्य क्षेत्र में जाकर कर्म करते हुए भी पूर्णत्व के ज्ञान को (100 % निःस्वार्थपरता को)  सुदृढ़ बनाये रख सकता है।  गीता का यही संदेश है कि समर्पण की भावना से किये गये कर्म आत्मोन्नति के साधन हैं। वास्तव में देखा जाय तो चिरस्थायी फलदायी कर्म कुशलतापूर्वक तभी किये जा सकते हैं जब कर्ता आत्मस्वरूप के ज्ञान में स्थित हो यहाँ ध्यान देने की बात है कि श्रीकृष्ण संभवत अर्जुन की अपेक्षा स्वयं को ही युद्ध की विपत्तियों में अधिक डाल रहे थे। रथ में बैठे योद्धा तक पहुँचने के पूर्व प्रतिपक्षी के बाण सारथि पर पहले प्रहार करते हैं। केवल समस्त संसार को मुग्ध कर देने वाली मन्द स्मिति के अतिरिक्त किसी अन्य शस्त्र को न लेकर श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में प्रवेश किया था। तत्पश्चात् वे ही सम्पूर्ण युद्ध के स्वामी और केन्द्र बिन्दु बने रहे और सम्पूर्ण महायुद्ध का घटनाचक्र उनके ही चारों तरफ घूमता रहा। इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मज्ञानी पुरुष किसी भी कार्यक्षेत्र में कर्म करते हुए भी अपने वास्तविक स्वरूप का भान रख सकता है। वह पूर्ण ज्ञानी योगी सब प्रकारसे बर्तता हुआ भी वैष्णव परमपदरूप मुझ परमेश्वरमें ही बर्तता है अर्थात् वह सदा मुक्त ही है उसके मोक्ष को कोई भी रोक नहीं सकता

इस मंत्र -  'सोऽश्नुते सर्वान् कामन् सह ब्राह्मण विपश्चितेति' - (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1)। का सार यह है कि जैसे अक्षरब्रह्म परमात्मा के परम आनंद का अनुभव करता है, वैसे ही उस ब्रह्मरूप भक्त को भी, जिसने उस अक्षरब्रह्म का अनुभव कर लिया है। यह उपनिषद हमें यह भी बताता है कि यदि कोई उस अक्षरब्रह्म को नहीं जानता तो क्या होता है। 'असन्नेव स भवति। असद्‌ ब्रह्मेति वेद चेत्' -(तैत्तिरीय उपनिषद: 2/6)। अर्थात्, जो अक्षरब्रह्म को अस्तित्वहीन मानता है, जो अक्षरब्रह्म के अस्तित्व को नहीं जानता, वह अपने अस्तित्व के उद्देश्य को खो देता है।

इस प्रकार, परब्रह्म को प्राप्त करने के लिए आवश्यक ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक अक्षरब्रह्म इकाई का वर्णन किया गया है।

>>'रसो वै सः' - वह परमात्मा आनंदमय है 

परमात्मा की महिमा यहां आनंदमय के रूप में गाई गई है। 'तस्माद्वा एतस्माद्' विज्ञानमयाद्‌। अन्योऽन्तर आत्मा आनंदमयः' - (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/5)। इस मंत्र में, विज्ञानमय शब्द आत्मा को संदर्भित करता है। परमात्मा परब्रह्म, जो सर्वज्ञ रूप से आत्मा के भीतर रहता है और सभी आत्माओं का आत्मा है, आनंद से भरा है। 'रसो वै सः' - वह परमात्मा आनंदमय है। (तैत्तिरीय उपनिषद्ः 2/7) इतना ही नहीं, 'रसं ह्येव लब्ध्वाऽनन्दि भवति' शब्दों के साथ । एष ह्येवाऽनन्दयाति'– 'रसम् ह्येव लब्ध्वा''नन्दि भवति, एषा ह्येव''नन्दयति'' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/7)। यह आनंदमय परमात्मा सभी के आनंद का कारण है। उसे प्राप्त करके ही आनंद की अनुभूति होती है। वह सबको आनंदित करने वाला है।

क्या परमात्मा के आनंद का वर्णन किया जा सकता है, जो सदैव आनंदमय है और सभी के आनंद का कारण है? वह आनंद कैसा है? किस हद तक? इस पर भी यहां चिंतन किया गया है.

परम आनंद पर चिंतन

'सैषाऽनंदस्य मीमांसा भवति' - 'आइए अब परम आनंद पर चिंतन करें' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/8)। इन शब्दों के साथ परमात्मा के आनंद को एक पैमाने का उपयोग करके मापने का एक सार्थक प्रयास किया गया है।  जिसमें मनुष्य के आनंद को 'एक आनंद'  (1H.P. जैसा) के रूप में गिना जाता है।

मनुष्य के आनंद को समझाते हुए उपनिषद कहता है: 'युवा स्यात् साघु युवाध्याकः। आशिष्ठो दृधिष्ठो बलिष्ठः। तसयेयं पृथिवी सर्व वित्तस्य पूर्णा स्यात्। स एको मानुष आनंदः।' - 'अगर कोई कम उम्र का युवक हो, अच्छा आचरण और स्वभाव वाला हो, वेदों का अध्यन कर चुका हो, और ब्रह्मचारियों को सदाचार की शिक्षा देने वाला हो।  बुद्धिमान हो, आशावादी हो, अछेकुल में उत्पन्न श्रेष्ठ पुरुष हो, निराशावादी न हो, इतना स्वस्थ हो कि सब कुछ खा सके और पचा सके, मजबूत शरीर के साथ-साथ मजबूत इरादों वाला भी हो।  इतना ही नहीं, यदि धन-सम्पत्ति से भरी यह सम्पूर्ण पृथ्वी उसकी हो जाती, अर्थात् यदि वह सारे जगत का सम्राट होता; यह सब एक साथ एक व्यक्ति में हो वह मनुष्य के लिए एक आनंद होगा।' इसके बाद कहते हैं, 'ते ये शतं मानुषा आनंदः।' स एको मनुष्यगण्घर्वाणाम् आनंदः।' - जो मनुष्ययोनि में उत्तम कर्म करके गंधर्व-भाव को प्राप्त हुए हों , उनको मनुष्य गंधर्व कहते हैं।  'ऐसे सैकड़ों मनुष्य के आनंद एक मनुष्यगंधर्व के एक आनंद के बराबर हैं' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/8)। मनुष्य-गंधर्वों के बाद देव-गंधर्व आते हैं, फिर पितृ, फिर आजानाज नामक देवता, फिर कर्म-देव, फिर अन्य देवता, फिर इंद्र, फिर बृहस्पति और प्रजापति। प्रत्येक प्राणी का 'एक आनंद' पूर्ववर्ती से सौ गुना अधिक है। अंत में, यह कहा गया है, 'ते ये शतं प्रजापतेरानंद:।' स एको ब्रह्म आनंदः।'  'ऐसे सैकड़ों प्रजापति के आनंद मिलकर अक्षरब्रह्म के एक आनंद हैं' (तैत्तिरेय उपनिषद: 2/8)। वास्तव में 'अनंतम ब्रह्म' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1) अक्षरब्रह्म के अनंत गुणों और शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है; इसलिए इसका आनंद भी अनंत है. लेकिन परमात्मा की महानता की श्रेष्ठता दिखाने के लिए, तुलना करने में मदद के लिए इसे अक्षरब्रह्म के एक आनंद के रूप में परिभाषित किया गया है।

इस प्रकार, मनुष्य से लेकर अक्षरब्रह्म तक, प्रत्येक इकाई के आनंद को पिछले से सौ गुना अधिक दिखाते हुए, यह परमात्मा के आनंद पर निष्कर्ष निकालते हुए कहता है: 'यतो वाचो निवर्तन्ते।' अप्राप्य मनसा सह' - (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/9)। परमात्मा का आनंद अवर्णनीय है, शब्द कम पड़ जाते हैं, यहां तक ​​कि मन भी अपर्याप्त है, मनके सहित सभी इन्द्रियाँ उसे न पाकर जहाँ से लौट आती है- अर्थात परमात्मा का आनंद असीमित है। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन इति।   परब्रह्म परमात्मा के उस आनंद को जाननेवाला ज्ञानी महापुरुष कभी किसी से भय नहीं करता , वह सर्वथा निर्भय हो जाता है। 

इस प्रकार, दूसरी वल्ली केवल परमात्मा के आनंदमय रूप और अनंत दिव्य आनंद (आनंद) का वर्णन करती है और इस प्रकार तैत्तिरीय उपनिषद की इस वल्ली को 'आनंदवल्ली' कहा जाता है।

उस परम आनंदमय परमात्मा की क्षमताओं का भी यहाँ वर्णन किया गया है।

सर्व विधाता सोऽकामयत्। बहु स्यां प्रजायेय। स तपस्तस्तप्त्वा। इदं सर्वमसृजत्। तत्सृष्ट्वा। तदेवानुप्रविशत्।।' - 'उस परम आनंदमय परमात्मा ने सृष्टि बनाने का संकल्प लिया। उस संकल्प के अनुसार उन्होंने इन सबकी रचना की और वे उस सृष्टि में व्याप्त हैं, अर्थात वे नियंत्रक और समर्थक के रूप में निवास करते हैं' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/6)। इस प्रकार, सदैव आनंदमय परमात्मा संपूर्ण सृष्टि का निर्माता, नियंत्रक और समर्थक है। 

इसके अलावा, 'भीषास्माद् वत: पवते।' भिषादेति सूर्यः। भीषास्माद्‌ अग्निश्रश्चेन्द्रश्च। मृत्युर्घवति पंचम इति' - 'यह उस आनंदमय परमात्मा के भय के कारण है कि हवा चलती है, सूर्य उगता है, और अग्नि और इंद्र जैसे देवता आज्ञाओं का पालन करते हैं। उन्हीं की आज्ञा से मृत्यु भी क्रियाशील रहती है' (तैत्तिरीय उपनिषदः 2/8)। ऐसा कहने पर परमात्मा की सत्ता स्थापित हो जाती है।

फल: आनंद की प्राप्ति

इस तरह, आनंदवल्ली 'ब्रह्मविद् आप्नोति परम' से शुरू होती है - 'जो ब्रह्म  को (आत्मा रूप से) जानता है, वह  परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1), और अक्षरब्रह्म के रूप का वर्णन करता है ताकि आसानी से पता चल सके।  इसके बाद, ब्रह्मरूप हो जाने वाले भक्त को परमात्मा का जो स्वरूप प्राप्त होता है, वह भी परमानंदमय बताया गया है। अब, निष्कर्ष निकालने के लिए, जो व्यक्ति इन उपदेशों को सही मायने में समझता है, उसे जो फल प्राप्त होता है, वह दिखाया जाता है। जो व्यक्ति वास्तव में उपरोक्त उपदेशों को समझता है वह 'प्रेत्य अस्मात लोकात अमृताः भवन्ति' या 'आनंदमयम् आत्मानम् उपसंक्राति' ब्रह्मरूप और  - 'सर्वदा आनंदमय आत्मा को उपसंक्राति-प्राप्त हो जाता है और सर्वोच्च आनंद का अनुभव करता है' (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/8)।

>>>साधना के अन्तिम सोपान- " शिवज्ञान से जीव सेवा "  को अगले श्लोक (18.55) में बताया गया है-

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।

ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।18.55।।

।।18.55।। (उस परा) भक्ति के द्वारा मुझे वह तत्त्वत: जानता है कि मैं कितना (व्यापक) हूँ तथा मैं क्या हूँ। (इस प्रकार) तत्त्वत: जानने के पश्चात् तत्काल ही वह मुझमें प्रवेश कर जाता है, अर्थात् मत्स्वरूप बन जाता है।।

 वही यह ज्ञाननिष्ठा आर्त आदि तीन भक्तियों की अपेक्षा से चतुर्थ परा भक्ति कही गयी है। उस,( ज्ञाननिष्ठारूप ) परा भक्ति से भगवान को  तत्त्व से जानता है जिससे उसी समय ईश्वर और क्षेत्रज्ञ-विषयक भेदबुद्धि पूर्णरूप से निवृत्त हो जाती है। इसलिये ज्ञाननिष्ठारूप भक्ति से मुझे जानता है यह कहना विरुद्ध नहीं होता। 

ऐसा मान लेनेसे वेदान्त, इतिहास, पुराण और स्मृतिरूप समस्त निवृत्तिविधायक शास्त्र सार्थक हो जाते हैं।  अर्थात् उन सबका अभिप्राय सिद्ध हो जाता है। आत्मा को जानकर ( तीनों तरहकी एषणाओं से ) विरक्त होकर फिर अनासक्ति के साथ कर्म (भिक्षाचरण) करते हैं।  कर्मों (में आसक्ति?) के त्याग का नाम संन्यास है। 

परमात्मा से परम प्रेम अर्थात् पूर्ण तादात्म्य ही परा भक्ति है। उस परा भक्ति से ही साधक भक्त परमात्मा को तत्त्वतः समझ सकता है। शास्त्र के श्रवण अध्ययन आदि से प्राप्त किया गया ज्ञान प्राय परोक्ष होता है। जब वह ज्ञान, विज्ञान अर्थात् स्वानुभव बन जाता है केवल तभी परमात्मा का यथार्थ बोध होता है। यावान् (मैं कितना हूँ) इसका अर्थ यह है कि परा भक्ति के द्वारा एक भक्त भगवान् के उपाधिकृत विस्तार को समझ लेता है। 

भगवान् की विभूतियों का वर्णन दसवें अध्याय में किया जा चुका है। यश्च अस्मि (मैं क्या हूँ) एक परम भक्त यह भी जान लेता है कि भगवान् का वास्तविक स्वरूप समस्त उपाधियों से वर्जित, निर्गुण निर्विशेष है।  सारांशतः भगवान् को तत्त्वत जानने का अर्थ उनके सर्वव्यापक एवं सर्वातीत इन दोनों ही स्वरूप को जानना है। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि सम्पूर्ण गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अपने लिए जो मैं शब्द का प्रयोग करते हैं,  वह अपने परमात्म स्वरूप की दृष्टि से ही कहते हैं, वसुदेव के पुत्र के रूप में नहीं।  

अत जब वे कहते हैं वह (साधक) मुझमें प्रवेश करता है;  तब उसका अर्थ किसी गृह में प्रवेश के समान न होकर साधक की आत्मानुभूति से है। भक्त का आत्मस्वरूप भगवान् के परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं है। यहाँ कथित प्रवेश ऐसा ही है जैसे स्वप्न द्रष्टा जाग्रत् पुरुष में प्रवेश करता है।  इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि एक साधन सम्पन्न उत्तम अधिकारी निदिध्यासन के द्वारा परमात्मा का अनुभव आत्मरूप से ही करता है, उससे भिन्न रहकर नहीं। जगत् के प्राणियों की सेवा के बिना ईश्वर की सेवा पूर्ण नहीं होती। 

अक्षरब्रह्म के दिव्य स्वरुप से परिचय

 शिक्षा वल्ली में वर्णित पुरुषार्थों को सम्पन्न कर चुके व्यक्ति में ही ब्रह्मानन्द की साधना और ज्ञान की सामर्थ्य आती है, अन्य में नहीं। वस्तुत: ब्रह्मानन्द का संबंध परा विद्या से है। तृतीय मुंडक में द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया वाला प्रख्यात मंत्र है जो आत्मा और परमात्मा संबंधी प्रभावशाली विवेचना है। इसलिए योग विद्या ही परा विद्या का मूल आधार है जिसके अनंत भेद या रूप संभव हैं। अत्यंत प्राचीन काल से भारत में यह ज्ञान था कि ज्ञान अनंत है। ब्रह्मानन्द वल्ली के आरंभ में ही उपनिषद मंत्र है – 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म' - (तैत्तिरीय उपनिषद: 2/1)।  ब्रह्म सत्य हैं, ज्ञान हैं, अनंत हैं। इसीलिए यहाँ विद्या के अनंत रूप सहज विद्यमान हैं। आयुर्वेद से लेकर योग तक प्रत्येक ज्ञान शाखा में ज्ञान के अनंत रूप वर्णित हैं। 

    इसीलिए यहाँ - हमारी पुण्य भूमि भारत वर्ष में विविध पंथ सहज स्वीकृत हैं। ठाकुर कहते थे - "जितने मत उतने पथ" -- परंतु उन सबका एक सामान्य आधार है, जो सार्वभौम है, यह भी प्रारम्भ से ज्ञात है। ये 5 यम - सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आस्तेय और अपरिग्रह को ही सामान्य धर्म या सार्वभौम नियम और मानव धर्म कहे गए हैं। अहिंसा अर्थात् किसी भी प्राणी या प्रकृति के किसी भी तत्व के प्रति द्रोह और द्वेष का सर्वथा अभाव, सत्य, संयम, अन्य के वस्तुओं के प्रति गिद्धदृष्टि नहीं रखना, मर्यादित भोग और उसके लिए मर्यादित संग्रह – ये पाँच सार्वभौम यम या मूल्य हैं। इन्हें ही सार्वभौम नियम/ या आधुनिक यूरोपीय पदावली में कहें तो सार्वभौम जीवन मूल्य कहते हैं।  इनके सर्वमान्य धर्म -Be and Make ' मनुष्य (महापुरुष) बनो और बनाओ ' आधार के साथ व्यक्ति, समूह, समाज और राष्ट्रों की अपनी विशेषताओं का सतत् संवर्धन ही अपरा विद्या का विस्तार है।  और जिन उपकरणों से अर्थात मन और बुद्धि की जिस सामर्थ्य से यह सब ज्ञान होता है, उस आत्मसत्ता के मूल स्वरूप का ज्ञान परा विद्या है।  

    जब किसी समाज में, संगठन में  या देश में आत्मसत्ता के स्वरूप का ज्ञान रखने वाले श्रेष्ठ लोग अधिक संख्या में होंगे और वे समाज में सम्मानित होंगे, तब वहाँ सभी मानस या बौद्धिक संरचनाएं ( mental or intellectual constructs) मर्यादित मान्य होंगी।  क्योंकि यह ज्ञात होगा कि वे परमार्थ रूप में अंतिम सत्य नहीं हैं, वे सब सापेक्ष सत्य हैं और परिवर्तनशील सत्य हैं। इसीलिए व्यक्ति, कुल, गोत्र, वर्ण, क्षेत्र, आदि सब से परे जो मूल तत्व है, उसके ज्ञान की साधना को परा विद्या कहा गया और उसके ज्ञाता ही सर्वमान्य रहे। इस प्रकार प्रारम्भ से ही भारत में परा और अपरा दोनों विद्याओं की साधना गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परंपरा रूप में प्रवाहित है औशिक्षा (= शीक्षा) वही है जो इन दोनों का ज्ञान दे। इसमें से परा विद्या का मूल ज्ञान सबको आवश्यक है, अत: योग और ध्यान की किसी न किसी पद्धति के द्वारा आत्मस्वरूप का ज्ञान सबके लिए सर्वोपरि मान्य रहा। जबकि अपने संस्कारों, सामर्थ्य  तथा प्रतिभा के अनुरूप अपरा विद्या के किसी  एक या कतिपय अनुशासनों में दक्षता को स्वधर्म माना गया। अत: सार्वभौम सामान्य धर्म और स्वधर्म, दोनों का ज्ञान प्रत्येक विद्यार्थी को कराना शिक्षा का भारतीय लक्ष्य है

>> भारतीय शिक्षा परम्परा के बारे में कुछ और बुनियादी तथ्य :(Some more basic facts) : यहाँ कुछ और आधारभूत तथ्य स्मरण कर लेना चाहिए। समस्त शिक्षा 'वृद्ध संवाद ' है। अर्थात ज्ञान की किसी न किसी शाखा या अनुशासन में उत्कर्ष प्राप्त अनुभवी परामर्श दाता अपने पूर्वज ऋषियों -मुनियों के द्वारा आविष्कृत [patriarch- पैट्रिआर्क- आचार्य, पूजनीय वृद्ध व्यक्ति ]  जो ज्ञान (महावाक्य) प्रदान किया गया, प्रस्तुत किया गया, उसे नयी पीढ़ी को देना ही शिक्षा का मूल आधार है।  वही शिक्षा है। इस प्रकार किसी भी समाज की सम्यक शिक्षा वह है जो नयी पीढ़ी को (भावी नेता को) सर्वप्रथम अपने ही समाज और राष्ट्र में (श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर परम्परा में) हुए ज्ञानियों  के द्वारा प्रस्तुत,  निरूपित और व्याख्यायित ज्ञान के स्वरूप ~मनुष्य (महापुरुष) बनो और बनाओ ~ 'Be and Make' को ठीक-ठीक  प्रदान करे। अर्थात् अपने वृद्धों से (पूजनीय आचार्यों से) संवाद करके (प्रश्नोत्तरी द्वारा) प्राप्त करें। 

      परंतु वर्तमान में 1947 ईसवी के बाद से जो लोग शासन में रहे, उन्होंने शिक्षा के नाम पर-भारत के विद्यार्थियों का संवाद  इंग्लैण्ड (या यूरोप) और बाद में संयुक्त राज्य अमेंरिका आदि पाश्चात्य देशों के अनुशासनों में वृद्धि प्राप्त या उत्कर्ष प्राप्त जो कुछ ज्ञानी लोग हैं, उनसे ही  बलपूर्वक कराया। उदाहरण के लिए इतिहास, राजनीति शास्त्र (political science) , अर्थशास्त्र (economics)  में, समाजशास्त्र (sociology), मनोविज्ञान (psychology)और शब्दशास्त्र (etymology-यास्क रचित-निरुक्त या शब्द व्युत्पत्ति विज्ञान,यास्क को शाकटायन का उत्तरा-धिकारी माना जाता है, जो वेदों के व्याख्यानकर्ता थे।) आदि में यूरोप के सयाने (उस्ताद?मौक्समुलर) लोग, वृद्ध लोग क्या क्या कहते रहे हैं और क्या कह रहे हैं, उसे ही भारत के विश्व-विद्यालयों में मूल रूप से पढ़ाया जाता है। और एकाध भारतीय विद्वानों (यास्क मुनि,  आचार्य चाणक्य, आचार्य शंकर या रामानुजाचार्य जैसे ब्रह्मविदों) के भी अंश मात्र शोभा या अलंकार की भांति उस विषय के साथ में प्रस्तुत कर दिए जाते हैं।  

      इसका अर्थ है कि भारत के सभी विद्यार्थियों को शासन के द्वारा (मानव-संसाधन मंत्रालय के द्वारा) यूरोप के और बाद अब संयुक्त राज्य अमेरिका के वृद्धों से संवाद करने को विवश किया जाता है। यह तो शिक्षा के प्रयोजन से रहित शिक्षा अर्थात -'मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माण पद्धति से ' रहित शिक्षा हुई। शिक्षा का मूल प्रयोजन है सर्वप्रथम अपने समाज और राष्ट्र के वृद्धों से- [श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित और C-IN-C का चपरास प्राप्त नवनीदा जैसे आचार्यों से] विद्यार्थियों का संवाद कराना। उनके ज्ञान ' Be and Make' को उन्हें प्रदान करना। इतिहास, पुराण, गणित, ज्योतिष, विज्ञान, आयुर्वेद, योगशास्त्र सहित समस्त भारतीय दर्शन शास्त्र, व्याकरण, भाषा शास्त्र, यास्क मुनि के निरुक्त आदि सभी रूपों में सबसे पहले अपने देश के ज्ञानियों को (नेताओं, पैगम्बरों, जीवनमुक्त शिक्षकों को) जानना आवश्यक है। फिर यूरो-अमेरिकी विद्वानों को भी अवश्य वे जानें।

अपरा विद्या के प्रत्येक अनुशासन में सर्वप्रथम विद्यार्थियों को अपने ही राष्ट्र और अपने ही समाज के वृद्धों के द्वारा जाने गए और प्रस्तुत किए गए ज्ञान को जानना चाहिए तथा सर्वप्रथम अपने ही वृद्धों से संवाद करना चाहिए। इसके बाद जैसा हमारे वृद्धों ने निर्देश दिया है, सारे संसार के भी वृद्धों से ज्ञान प्राप्त करना सहज स्वाभाविक है। अपनों से संवाद न करके केवल बाहरी वृद्धों के ज्ञान को जानना तो शिक्षा के प्रयोजन को नष्ट करना है। भारत के शास्त्र ज्ञान को, भारत के महान ज्ञानियों के ज्ञान को अपने विद्यार्थियों तक पहुंचाएं। यही भारतीय शिक्षा का मूल लक्ष्य है।

साभार /~ प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज-लेखक वरिष्ठ विचारक हैं | .@@@https://www.bhartiyadharohar.com/शिक्षा की वैदिक दृष्टि/

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तैत्तिरीय उपनिषद

संपूर्ण शिक्षा की गवाही (भाग 3)

इस प्रकार, हमने अब तैत्तिरीय उपनिषद में आनंदवल्ली का सार देखा है। अब तीसरे 'भृगुवल्ली' का सार देखें।

तैत्तिरीय उपनिषद के इस भाग के श्रोता भृगु हैं इसलिए इसे भृगुवल्ली कहा जाता है। वरुण देव ने अपने पुत्र भृगु ऋषि को जिस ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया था, इस वल्ली में उसीका वर्णन है। भृगुवल्ली का प्रारम्भ - 'अधीहि भगवः ब्रह्मेति।' शब्दों से होता है  - 'कृपया मुझे अध्यात्मविद्या सिखाएं' (तैत्तिरीय उपनिषद: भृगुवल्ली 3/1)। भृगु जब अपने पिता वरुण ऋषि के शिष्य बन गए तब  प्रसन्न होकर, उनके पिता अपने पुत्र और शिष्य को अध्यात्मज्ञान सिखाते हैं। चुकी भृगु ऋषि के पिता, वरुण, उन्हें यह ज्ञान दे रहे हैं, इसलिए 'सैषा भार्गवी वारुणी विद्या।' - 'इस विद्या को भार्गवी-विद्या और वारुणी-विद्या के नाम से भी जाना जाता है।(तैत्तिरीय उपनिषद: 3/6) 

[सा एषा भार्गवी वारुणी विद्या परमे व्योमन् प्रतिष्ठिता यः एवं वेद सः प्रतितिष्ठति। । (तैत्तिरीय उपनिषद: 3/6)  ~  यही है भार्गवी (भृगु की) विद्या, यही है वारुणी (वरुण की) विद्या जिसकी परम व्योम द्युलोकः में सुदृढ प्रतिष्ठा है। जो इस ब्रह्मविद्या को जानता है, उसको भी सुदृढ प्रतिष्ठा मिलती है। वह अन्न का स्वामी (अन्नवान्) एवं अन्नभोक्ता बन जाता है। वह प्रजा सन्ततिः से, पशुधन से, ब्रह्मतेज से महान हो जाता है, वह कीर्ति से महान् बन जाता है

सृजन, पालन और विघटन के आनंदमय सर्वकर्ता,

इससे पहले, आनंदवल्ली में, परमात्मा को आनंदमय बताया गया था, तथा आनन्दवल्ली में ही यह बताया गया कि जगत का निर्माता वह आनंदमय ब्रह्म ही है (श्रीरामकृष्ण देव ही परमात्मा, माँ काली या स्वामी विवेकानन्द ही सच्चिदानन्द है।) यहाँ, भृगुवल्ली में, वही उपदेश दिया गया है, लेकिन थोड़े अलग तरीके से। वल्ली की शुरुआत में, वरुण भृगु से कहते हैं: 'यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जन्मनि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञास्व' - 'तुम्हें उसे जानना चाहिए जिसके कारण सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिसके कारण सब कुछ जीवित और कायम है, और जिसमें सब कुछ प्रलय में समा जाता है' (तैत्तिरीय उपनिषद: भृगुवल्ली प्रथम अनुवाक - 3/1)। ऐसा कहकर वह फिर स्वयं ही कहता है कि यह ब्रह्म कौन है- आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्। आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। आनन्देन जातानि जीवन्ति। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति। 

 इस बार भृगु ने पिताके उपदेश पर गहरा विचार करके यह निश्चय किया कि 'आनन्द' ही 'ब्रह्म' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि केवल 'आनन्द' से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं तथा उत्पन्न होकर आनन्द के द्वारा ही ये जीवित रहते हैं तथा यहाँ से प्रयाण करके भी 'आनन्द' में ही ये समाविष्ट हो जाते है। अर्थात्, सदैव आनंदमय परमात्मा (श्री ठाकुरदेव , जगतजननी माँ सारदा और गुरु विवेकानन्द) ही सृष्टि, पालन और प्रलय का सर्वकर्ता है।  यही है भार्गवी (भृगु की) विद्या, यही है वारुणी (वरुण की) विद्या जिसकी परम व्योम द्युलोकः में सुदृढ प्रतिष्ठा है। जो यह जानता है, उसको भी सुदृढ प्रतिष्ठा मिलती है। वह अन्न का स्वामी (अन्नवान्) एवं अन्नभोक्ता बन जाता है। वह प्रजा सन्ततिः से, पशुधन से, ब्रह्मतेज से महान हो जाता है, वह कीर्ति से महान् बन जाता है।(तैत्तिरीय उपनिषद: भृगुवल्ली 3/6)। इस प्रकार, भृगुवल्ली का मुख्य विषय सदैव आनंदमय परमात्मा ही है।

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ केनोपनिषद (2.5)   

यदि व्यक्ति यहीं (इसी लोक में) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति का जीवन (अस्तित्व) सार्थक है, यदि यहीं उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में 'उस' एक का विवेचन कर, इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं।

निष्कर्ष

इस प्रकार हमने संक्षेप में तैत्तिरीय उपनिषद के सार पर चर्चा की है। हम कम से कम यह देख सकते हैं कि हमारी वैदिक शिक्षा प्रणाली केवल अपरा विद्या (सांसारिक ज्ञान) तक ही सीमित नहीं है। अध्यात्मविद्या, ब्रह्मविद्या, शिक्षा के हर क्षेत्र में संयुक्त है। और कोई भी शिक्षा जिसमें ब्रह्मविद्या शामिल है, निस्संदेह, सभी के लिए फायदेमंद, सर्व-मुक्तिदायक और पूरी तरह से आनंददायक है। सचमुच, यजुर्वेद में पाया जाने वाला यह तैत्तिरीय उपनिषद इसका अद्भुत उदाहरण है।

साभार : साधु भद्रेशदास, पीएच.डी., डी.लिट./अनुवादक: साधु परमविवेकदास

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🕊🏹तैत्तिरीय उपनिषद का सार🕊🏹

स्वामी शिवानंद द्वारा

Essence of The Taittiriya Upanishad - by Swami Sivananda

परिचय

1. महान ऋषि याज्ञवल्क्य का अपने गुरु वैशम्पायन से झगड़ा हुआ था। उनके गुरु वैशम्पायन ने उनसे वह वेद वापस करने को कहा, जिसका अध्ययन उन्होंने उनके अधीन किया था। याज्ञवल्क्य ने पढ़ा हुआ यजुर्वेद उल्टी कर दिया। वैशम्पायन के शिष्य अन्य ऋषियों ने तीतर (पक्षी) का रूप धारण किया और वेद को निगल लिया, इस प्रकार बाहर फेंक दिया या उल्टी कर दी। इसलिए इसे तैत्तिरीय-संहिता के नाम से जाना जाने लगा।

2. इस उपनिषद को वल्लि नामक खंडों में विभाजित किया गया है, अर्थात, (1) शिक्षा-वल्ली या निर्देश पर अनुभाग। (2) ब्रह्मानंद-वल्ली या ब्रह्म-आनंद पर अनुभाग। (3) भृगु-वल्ली या भृगु पर अनुभाग।

3. पहले खंड में गुरु, नेता या जीवनमुक्त शिक्षक, शिक्षार्थियों (अभ्यर्थियों) को भारत कल्याण के उपाय - चरित्र निर्माण पर स्पष्ट निर्देश देता है। वह उन्हें ब्रह्म-ज्ञान या आत्म-ज्ञान की प्राप्ति के लिए तैयार करने के लिए, मनुष्योचित आचरण या सही जीवन के नियम- श्रद्धा, 'निःस्वार्थपरता' आदि चरित्र के 24 गुण, विवेक-प्रयोग, आत्ममूल्यांकन एवं 3H विकास या मनःसंयोग के विषय में ज्ञान प्रदान करते हैं।

4. दूसरा खंड है ब्रह्मानन्दवल्ली, जो ब्रह्म के आनंद से संबंधित है। इस वल्ली में सृष्टि क्रम का वर्णन है।

5. तीसरा खंड भृगुवल्ली है - जो वरुण के पुत्र भृगु की कहानी से संबंधित है।  जिन्होंने अपने पिता के निर्देशों के तहत आवश्यक तपस्या से गुजरने के बाद आनंद या ब्रह्म को समझा। इस खण्ड में पाँच कोशों का वर्णन स्पष्ट रूप से दिया गया है।

शिक्षा-वल्ली

6. सूर्य (मित्र) हमारे लिए शुभ हो। वरुण हमारे लिए शुभ हो। सूर्य (अर्यमा) हमारे लिये कल्याणकारी हो। इन्द्र और बृहस्पति हमारे लिये कल्याणकारी हों। महान प्रगति वाले विष्णु हमारे लिए कल्याणकारी हों। ब्राह्मण को साष्टांग प्रणाम. हे वायु, तुम्हें प्रणाम! आप वास्तव में दृश्यमान ब्रह्म हैं। मैं तुम्हें दृश्यमान ब्रह्म का उदघोष करूंगा। मैं तुम्हें बस बुलाऊंगा. मैं तुम्हें सच्चा कहूंगा। वह मेरी रक्षा करें। वह शिक्षक की रक्षा करें। वह मेरी रक्षा करें। वह शिक्षक की रक्षा करें। ॐ शांति, शांति, शांति!

7. अनुवाक का अर्थ है वेदों का उपविभाग, खंड या अध्याय।

8. शांति मंत्र का उच्चारण देवताओं को प्रसन्न करता है। उनकी कृपा से आध्यात्मिक मार्ग सुगम हो जाता है। सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं. आपने जो सीखा है उसे आप कभी नहीं भूलेंगे। आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। आपका ध्यान अच्छा रहेगा.

9. वायु हिरण्यगर्भ या ब्रह्मांडीय प्राण है।

10. ॐ-शांति' का तीन बार जाप करने से तीन प्रकार की बाधाएं दूर हो जाती हैं। आध्यात्मिक (हमारे स्वयं से), अधिदैविक (स्वर्ग से) और आधिभौतिक (जीवित प्राणियों से)।

11. मित्र प्राण और दिन की गतिविधि के अधिष्ठाता देवता हैं। वरुण अपान और रात्रि की गतिविधि के अधिष्ठाता देवता हैं। अर्यमा (सूर्य) नेत्र और सूर्य के अधिष्ठाता देवता हैं। इंद्र शक्ति और हाथों के अधिष्ठाता देवता हैं। बृहस्पति वाणी और बुद्धि के अधिष्ठाता देवता हैं। विष्णु चरणों के अधिष्ठाता देवता हैं।

उपदेश

12. अब अंतिम निर्देश आता है जो उन दिनों छात्रों को तब मिलता था जब वे गुरु के अधीन अपनी पढ़ाई पूरी करते थे। वेदों की शिक्षा देकर गुरु शिष्य को उपदेश देता है।

13. सच बोलो. अपना कर्तव्य (धर्म) निभाओ। वेदों के अध्ययन से कभी विमुख न हों। गुरु को इच्छित शुल्क देकर अपनी संतान का सूत न काटें। सत्य से कभी विमुख न हों। कर्तव्य (धर्म) से कभी विमुख न हो। अपने कल्याण की कभी उपेक्षा न करें। अपनी समृद्धि की कभी उपेक्षा न करें। वेदों के अध्ययन व उनकी शिक्षाओं की कभी उपेक्षा न करें।

14. देवताओं और मनुष्यों के प्रति अपने कर्तव्यों से कभी विमुख न हो। माँ आपकी ईश्वर हो (मातृदेवो भव)। पितृदेवो भवः। गुरु तुम्हारा भगवान हो (आचार्यदेवो भव)। अतिथि तुम्हारा देवता हो (अतिथिदेवो भव)। केवल वही कार्य करें जो दोष रहित हों, अन्य नहीं। आपको केवल वही कार्य करने चाहिए जो हमारे लिए अच्छे हों, दूसरों को नहीं।

15. जो श्रेष्ठ ब्राह्मण हों, उनकी आसन आदि से सेवा करके उनकी थकान दूर करनी चाहिए।

16. श्रद्धापूर्वक दान देना चाहिए; इसे कभी भी बिना विश्वास के नहीं देना चाहिए। इसे भरपूर मात्रा में देना चाहिए, विनम्रता के साथ, श्रद्धा के साथ, सहानुभूति के साथ।

17 अब, यदि किसी कार्य या आचरण के संबंध में आपके मन में कोई संदेह उत्पन्न हो, तो आपको उन मामलों में उन ब्राह्मणों के समान व्यवहार करना चाहिए, जो विचारशील, धार्मिक, क्रूर नहीं और धर्म के प्रति समर्पित हैं।

18. अब जो पाप के दोषी हैं, उनके साथ वैसा ही व्यवहार करना जैसा वहां के ब्राह्मणों के साथ होता है, जो विचारशील, धार्मिक, क्रूर नहीं और धर्म के प्रति समर्पित हैं।

19. यह निषेधाज्ञा है. यही शिक्षा है. यही वेदों का रहस्य है। यह आदेश का शब्द है. इस पर नजर रखनी चाहिए. इस प्रकार यह विचार करने योग्य है।

ब्रह्मानंद-वल्ली

ओम। वह हम दोनों (शिक्षक और शिष्य) की रक्षा करें। ऐसा हो कि हम दोनों (मुक्ति के) आनंद का आनंद उठा सकें। आइए हम दोनों धर्मग्रंथों का सही अर्थ जानने का प्रयास करें। हमारी शिक्षा शानदार हो. हम कभी एक दूसरे से झगड़ा न करें! ओम शांति, शांति, शांति!

20. ब्रह्म का ज्ञाता परमगति को प्राप्त होता है।

21. ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनंत है। जो इसे हृदय में छिपा हुआ जानता है, वह सर्वज्ञ ब्रह्म के रूप में अपनी सभी इच्छाओं को तुरंत और बिना किसी क्रम के महसूस करता है।

22. इस आत्मा से आकाश (ईथर) का जन्म हुआ है; अकासा से, वायु; वायु, अग्नि से; अग्नि, जल से; जल से, पृथ्वी से; पृथ्वी से, जड़ी-बूटियों, पौधों और सब्जियों से; जड़ी-बूटियों आदि से बने भोजन से; भोजन से, यार. इस प्रकार मनुष्य भोजन के सार से बना है। भौतिक अवतार के अपने हिस्से होते हैं, जैसे सिर, दाएं और बाएं हिस्से, धड़, आधार, आदि।

23. ब्राह्मण आपका अपना स्व या आत्मा है। यह ज्ञान की वस्तु नहीं हो सकती. यह सदैव साक्षी विषय है।

24. ब्रह्म को जानने का अर्थ है ध्यान और निर्विकल्प-समाधि के माध्यम से पूर्ण-चेतना के साथ एकरूप होना,

मनुष्य के पांच कोष

25. पृथ्वी पर मौजूद सभी प्राणी भोजन से पैदा हुए हैं। फिर वे भोजन द्वारा जीवित रहते हैं: फिर, फिर, भोजन (पृथ्वी) पर वे अंत में जाते हैं। तो, वास्तव में भोजन सभी प्राणियों में सबसे बड़ा है। इसलिए इसे सभी के लिए औषधि कहा जाता है। जो लोग अन्न को ब्रह्म मानकर उसकी पूजा करते हैं, उन्हें सारा अन्न प्राप्त होता है। अन्न से ही सभी प्राणियों का जन्म होता है; पैदा होने के बाद, वे भोजन से बढ़ते हैं। भोजन प्राणी भी खाते हैं और वह भी उन्हें खाता है। इसलिए इसे अन्न कहा जाता है। अन्न के रस से बनी उस (आत्मा) के अलावा, भीतर एक और आत्मा है, जो प्राण से बनी है। उसी से यह भर जाता है. यह प्राणमय बिल्कुल पुरुष स्वरूप है। इसका मानव स्वरूप पूर्व के मानव स्वरूप के अनुरूप है। उसमें से प्राण ही प्रधान है; व्यान दक्षिणपंथी (पक्ष); अपान वाम पंख (पक्ष); अकासा ट्रंक (शरीर); पृथ्वी, पूँछ, सहारा।

26. अन्नमय कोस प्राणमय और शेष चार कोस से व्याप्त है। प्राणमय कोस तीन कोस, मनोमय दो कोस और विज्ञानमय एक कोस से व्याप्त है।

27. प्राण से ही देवता जीवित रहते हैं, मनुष्य और पशु भी जीवित रहते हैं। प्राण वस्तुतः प्राणियों का जीवन है। इसलिए इसे सार्वभौम जीवन अथवा सबका जीवन कहा जाता है। जो लोग प्राण की पूजा करते हैं वे संपूर्ण जीवन अवधि या जीवन की पूर्ण अवधि प्राप्त करते हैं।

28. उस पूर्व (अन्नमयात्मा) का यह (प्राण-मयात्मा) आत्मा है। प्राण से निर्मित प्राणमय स्वंय से भिन्न मन से निर्मित एक और स्वंय है। उस स्वनिर्मित मन से यह (प्राणमय) भर जाता है। मनुष्य का स्वरूप भी यही है। इसका मानव स्वरूप पूर्व के अनुरूप है। इसमें यजुस प्रमुख है। रिक दाहिनी ओर (पंख) है। समन बायां भाग (पंख) है, निषेधाज्ञा (आदेश) धड़ (शरीर) है। अथर्वंगिरस पूँछ है, आधार है।

29. मनोमय स्व प्राणमय का आंतरिक स्व है। यह प्राणमय कोश में व्याप्त है।

30. जहाँ तक पहुँचे बिना ही सारी वाणी मन के साथ वापस लौट जाती है, जो उस ब्रह्म के आनंद को जानता है, उसे किसी भी समय डर नहीं लगता। यह मन पूर्व की मूर्त आत्मा है। प्राणमय में से, यह, अर्थात् मनोमय, स्वयं है, जिसके शरीर में प्राणमय है।

31. मन से बनी आत्मा से भिन्न एक और आंतरिक आत्मा है जो ज्ञान (विज्ञान) से बनी है। उसी से ये भर जाता है. इसमें मनुष्य का आकार भी है। उस मानव आकृति के अनुसार ही इसका मानव रूप है। आस्था इसका सिर है. धार्मिकता (ऋतम्) दाहिना पक्ष या पंख है। सत्य (सत्यम्) बायां भाग या पंख है। योग (एकाग्रता, ध्यान) तना (स्वयं) है। शक्ति (महास) पूँछ है, आधार है।

32. मनोमय-कोश वृत्ति या विचारों से बना है। यह प्राणमय-कोश से भी सूक्ष्म है। यह प्राणमय-कोश को नियंत्रित करता है। तो यह प्राणमय-कोश का आंतरिक स्व है।

33. ज्ञान कर्म के साथ-साथ यज्ञ भी कराता है। सभी देवता ज्ञान को सबसे बड़े ब्रह्म के रूप में पूजते हैं। यदि कोई मनुष्य ज्ञान को ब्रह्म के रूप में जानता है, और यदि वह इससे विमुख नहीं होता है, तो वह शरीर में अपने पापों का त्याग करके सभी इच्छाओं को प्राप्त कर लेता है।

34. उस (पूर्व) में से, यह वास्तव में आत्मा है। इस आत्मा से भिन्न, ज्ञान से निर्मित (विज्ञानमय) भीतर एक और आत्मा है, जो आनंद से निर्मित है। उसी से यह भर जाता है. इसमें मनुष्य का आकार भी है। उस मानव आकृति के अनुसार ही इसका मानव रूप है। इसमें प्रेम (प्रिया) प्रधान है। जॉय (मोडा) दाहिनी ओर (पंख) है। डिलाइट (प्रमोदा) बाईं ओर (पंख) है। आनंद (आनंद) तना (स्वयं) है। ब्रह्म पूँछ है, सहारा है।

35. प्रिया किसी सुखद वस्तु को देखने में प्रेम है. मोडा आनंद है, वस्तु पर कब्ज़ा करने के बाद संतुष्टि। प्रमोद आनंद है, महान संतुष्टि है, वही आनंद तीव्र है जो तृप्त इच्छाओं से उत्पन्न होता है।

36. जन्म और मृत्यु अन्नमय-कोश के गुण हैं।

37. भूख और प्यास प्राणमय-कोश के गुण हैं।

38. मोह (भ्रम) और सोका (दुःख) मनोमय कोश के गुण हैं।

39. आत्मा सदैव शुद्ध और अनासक्त है। यह शाद-उर्मिस या संसार के सागर की छह लहरों से बिल्कुल मुक्त है। जन्म, मृत्यु, भूख, प्यास, मोह और दुःख।

40. अन्नमय-कोश स्थूल भौतिक शरीर का निर्माण करता है। प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय-कोश सूक्ष्म शरीर या सूक्ष्म शरीर (लिंग-शरीर) का निर्माण करते हैं। आनंदमय-कोश कारण शरीर (करण-शरीरा) का गठन करता है।

41. जाग्रत अवस्था में तीन शरीर कार्य करते हैं। स्वप्न अवस्था में सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर कार्य करते हैं। गहरी नींद के दौरान यह आनंदमय-कोश का पतला पर्दा है जो व्यक्तिगत आत्मा को परमात्मा या ब्रह्म से अलग करता है। आनंदमय-कोश गहरी नींद के दौरान संचालित होता है।

सृष्टि की उत्पत्ति

42. यदि कोई ब्रह्म को अस्तित्वहीन जानता है तो वह स्वयं अस्तित्वहीन हो जाता है। यदि वह ब्रह्म को अस्तित्व में जानता है, तो वे उसे अस्तित्व में जानते हैं।

43. अत: शिष्य के निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं: क्या वह, जो नहीं जानता, इस संसार को छोड़कर वहाँ जाता है? अथवा क्या वह, जो संसार छोड़ने के बाद जानता है, उसे प्राप्त करता है?

44. उस ने चाहा, मैं बहुत होऊं, मैं उत्पन्न होऊं। उन्होंने तप किया. तपस्या करके उन्होंने यह सब कुछ सामने लाया। बाहर लाकर उस ने उस में प्रवेश किया; इसमें प्रवेश करके, वह वह बन गया जो प्रकट है और जो प्रकट नहीं है, परिभाषित और अपरिभाषित, निवास और अप्रवास, ज्ञान और अज्ञान, सत्य और असत्य, और यह सब जो विद्यमान है। इसलिए इसे अस्तित्व कहा जाता है.

45. शुरुआत में, यह वास्तव में अस्तित्वहीन था। उसी से अस्तित्व का जन्म हुआ। वह अपने आप ही निर्मित हो गया। इसलिए इसे स्वनिर्मित कहा जाता है। यह जो स्वयं निर्मित था, यही सार है। इस सार को प्राप्त करके, मनुष्य धन्य हो जाता है, यदि हृदय की गुहा में आनंद मौजूद नहीं होता तो कौन जीवित रहता और सांस लेता! यह ब्रह्म आनंद प्रदान करता है। जब कोई उस ब्रह्म के साथ एकता प्राप्त कर लेता है जो अदृश्य, निराकार, अपरिभाषित, निवासहीन है, तो वह भय से मुक्त हो जाता है। हालाँकि, जब कोई ब्रह्म में थोड़ा सा भी भेद करता है, तो उसके लिए भय होता है। वह ब्रह्म ही भेद करने वाले के लिए भय का कारण बन जाता है। और प्रतिबिंबित नहीं करता.

आनंद की उन्नति

46. उसके भय से हवा बहती है। उसके भय से ही सूर्य उगता है। उसके भय से पुनः इन्द्र, अग्नि और मृत्यु अपने-अपने कर्तव्य पर चले जाते हैं।

47. मान लीजिए कि एक युवा है, एक अच्छा युवा, शास्त्रों में पारंगत, अनुशासित, दृढ़ निश्चयी और बहुत मजबूत। मान लीजिए कि यह सारी पृथ्वी धन-संपत्ति से परिपूर्ण है। यह मानव आनंद की एक इकाई है। यही मानव आनंद का पैमाना है।

48. मानव आनंद का सौ गुना मानव गंधर्वों के आनंद का इकाई-माप है और वेदों के एक श्लोक का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।

49. मानव गंधर्वों के आनंद का सौ गुना, दिव्य गंधर्वों के आनंद का इकाई-माप है, और वेदों के एक श्लोक का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।

50. दिव्य गंधर्वों के आनंद का सौ गुना, लंबे समय तक रहने वाले संसार में रहने वाले पितरों के आनंद की इकाई है, और वेदों में छंद एक व्यक्ति का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।

51. लंबे समय तक रहने वाले पितरों के आनंद का सौ गुना, स्वर्ग में पैदा हुए देवताओं के आनंद का इकाई-माप है, और वेदों में छंदित एक व्यक्ति का आनंद भी है, जो मुक्त है अरमान।

52. स्वर्ग में जन्मे देवताओं के आनंद का सौ गुना, कर्म-देवों के रूप में जाने जाने वाले देवताओं के आनंद का इकाई-माप है, जो अपने बलिदान कर्मों से देवता बन गए हैं, और एक छंद का आनंद भी है वेद, जो इच्छाओं से मुक्त है।

53. कर्म-देवों के नाम से जाने जाने वाले देवताओं के आनंद का सौ गुना, देवताओं के आनंद का इकाई-माप है, और वेदों के एक छंद का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है। देवताओं के आनंद का सौ गुना इंद्र के आनंद की इकाई-माप है, और वेदों के एक श्लोक का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।

54. इंद्र के आनंद का सौ गुना बृहस्पति के आनंद की इकाई-माप है, और वेदों के एक श्लोक का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।

55. बृहस्पति के आनंद का सौ गुना, प्रजापति के आनंद का इकाई-माप है, और वेदों के एक छंद का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।

56. प्रजापति के आनंद का सौ गुना ब्रह्म के आनंद की इकाई-माप है, और वेदों में छंदित व्यक्ति का आनंद भी है, जो इच्छाओं से मुक्त है।

57. वह जो मनुष्य में है (पुरुष), और वह जो सूर्य में है, एक ही हैं। जो इसे जानता है, वह इस संसार से विदा होकर पहले अन्न से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है, फिर प्राण से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है, फिर मन से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है, फिर बुद्धि से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है और अंत में बुद्धि से बनी इस आत्मा को प्राप्त करता है। परम आनंद।

58. जो ब्रह्म के आनंद को जानता है, जिससे सभी शब्द मन सहित उस तक पहुंचे बिना ही लौट जाते हैं, वह किसी भी चीज़ से नहीं डरता।

59. इस प्रकार के विचार निश्चय ही उसे कभी व्यथित नहीं करते; मैंने वह काम क्यों नहीं किया जो अच्छा है? मैंने पाप क्यों किया है?

60. जो इस प्रकार जानता है वह इन दोनों को आत्मा मानता है। वास्तव में, वह इन दोनों को आत्मा मानता है, जो इसे जानता है।

61. ऋषि सर्वत्र अपने स्वरूप को ही देखता है। उसे लगता है कि जो कुछ भी मौजूद है वह और कुछ नहीं बल्कि उसकी अपनी आत्मा है। इसलिए उसे किसी भी चीज़ से कोई डर नहीं लगता.

62. ब्रह्म का ज्ञाता मानता है कि अच्छे और बुरे एक ही आत्मा की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं। सद्गुण और पाप उसे प्रभावित नहीं करते। वे अगले जन्म उत्पन्न नहीं कर सकते. उसे एहसास होता है कि वह अकर्ता और अभोक्ता है। वह जानता है कि आत्मा क्रियाहीन है और मन ही सभी कार्यों का कर्ता है। उसकी न कोई इच्छा है, न अहंकार, न कामना।

भृगु-वल्ली

63. वरुण के पुत्र भृगु अपने पिता के पास पहुंचे और कहा: हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिए।

64. उन्होंने (वरुण ने) उनसे (भृगु से) यह कहा: भोजन, प्राण, आंखें, कान, मन और वाणी ब्रह्म हैं।

65. उस ने उस से आगे कहा, जिस से ये प्राणी उत्पन्न हुए हैं; जिससे उत्पन्न होकर ये प्राणी जीवित रहते हैं; जिसमें, प्रस्थान करते समय, वे प्रवेश करते हैं और तुम्हें जानना चाहते हैं कि वह ब्रह्म है।

66. उन्होंने (भृगु ने) तपस्या की ।

67. तपस्या करके उन्होंने जान लिया कि अन्न ही ब्रह्म है; क्योंकि भोजन से ही इन सभी प्राणियों का जन्म हुआ है; भोजन से, जब वे पैदा होते हैं, तो क्या वे जीवित रहते हैं; और, भोजन में चले जाने के बाद, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

68. यह जानकर वह फिर अपने पिता वरुण के पास जाकर बोला; हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिये।

69. उन्होंने (वरुण ने) उससे कहा; तपस्या के द्वारा तुम ब्रह्म को जानना चाहते हो। तपस्या ही ब्रह्म है.

70. उन्होंने तपस्या की ।

71. तपस्या करने के बाद, (भृगु) ने जान लिया कि प्राण ही ब्रह्म है; क्योंकि प्राण से ही इन सभी प्राणियों का जन्म होता है; जन्म लेने के बाद, वे प्राण द्वारा जीते हैं; और प्राण में प्रस्थान करके, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

72. यह जानने के बाद, वह फिर से आगे जानने के लिए अपने पिता वरुण के पास गया और कहा; हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिये।

73. उन्होंने (वरुण ने) उससे कहा; तपस्या के द्वारा तुम ब्रह्म को जानना चाहते हो। तपस्या ही ब्रह्म है.

74. भृगु ने तपस्या की और तपस्या करने के बाद विश्लेषण और विचार-विमर्श के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राण (जीवन) ही ब्रह्म है। लेकिन वे इस निष्कर्ष से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थे. उन्होंने सोचा कि यह प्राण ब्रह्म नहीं हो सकता, क्योंकि यह अबुद्धिमान है, प्रभाव है, कारण है, आदि और अंत है। इसलिए वह आगे की रोशनी पाने के लिए फिर से अपने पिता के पास गया। और उसके पिता ने, फिर से, उसे तपस्या द्वारा इसे जानने के लिए कहा।

75. तब भृगु ने तपस्या से समझा कि मन ही ब्रह्म है, क्योंकि मन से ही इन सभी प्राणियों का जन्म हुआ है; जन्म लेने के बाद, वे मन से जीते हैं; और चले जाने के बाद, मन में, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

76. यह जानने के बाद, वह फिर से आगे जानने के लिए अपने पिता वरुण के पास गया और कहा; हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिये।

77. उन्होंने (वरुण ने) उससे कहा; तपस्या द्वारा ब्रह्म को जानने का प्रयत्न करो। तपस्या ही ब्रह्म है.

78. उन्होंने तपस्या की,.

79. भृगु ने सोचा कि मन केवल अनुभूति का एक अंग या साधन है, इसकी कोई आत्म-प्रकाश नहीं है, इसकी शुरुआत और अंत है, और इसलिए यह ब्रह्म, अकारण नहीं हो सकता है। इसलिए उन्होंने आगे की शिक्षा के लिए फिर से अपने पिता से संपर्क किया। तपस्या करने के लिए कहे जाने पर, वह इसे फिर से करता है।

80. तब उन्हें समझ आया कि ज्ञान ही ब्रह्म है; क्योंकि ज्ञान से ही इन सभी प्राणियों का जन्म होता है; वे उत्पन्न होकर ज्ञान से जीवित रहते हैं; और, ज्ञान में चले जाने के बाद, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

81. यह जानने के बाद, वह इसे और जानने के लिए अपने पिता वरुण के पास गया और कहा; हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दीजिये।

82. उन्होंने (वरुण ने) उससे कहा: तपस्या द्वारा ब्रह्म को जानना। तपस्या ही ब्रह्म है.

83. उन्होंने फिर से तपस्या की।

84. भृगु को पता चला कि उनकी खोज उन्हें पूर्ण संतुष्टि नहीं दे सकती और वह ज्ञान ब्रह्म नहीं हो सकता। उनका विचार था कि ज्ञान ही जीव के सभी कर्मों का कारक है और कर्मों के फल का भोक्ता भी है। अत: वह पुनः रोशनी पाने के लिए अपने पिता के पास गया। और उन्हें जो सलाह मिली, वह फिर से, तपस्या करने की थी।

85. तब उन्होंने तपस्या से समझा कि आनंद ही ब्रह्म है; क्योंकि आनंद से ही सभी प्राणियों का जन्म होता है; जन्म पाकर वे आनंद से जीते हैं; और, प्रस्थान करने के बाद, आनंद में, वे फिर से प्रवेश करते हैं।

86. यह भृगु द्वारा सीखा गया और वरुण द्वारा सिखाया गया ज्ञान है। यह परम आकाश (हृदय) में स्थापित है। जो इस प्रकार जानता है वह ब्रह्म के साथ एक हो जाता है। वह अन्न का स्वामी और अन्न का भक्षक बन जाता है। वह संतान, पशु और आध्यात्मिक तेज में महान हो जाता है। वह प्रसिद्धि में महान हो जाता है।

भोजन के संबंध में निषेधाज्ञा

87. भोजन के बारे में बुरा न बोलें। वह तुम्हारी प्रतिज्ञा होगी.

88. प्राण (जीवन) भोजन है. शरीर भोजन का भक्षक है। शरीर प्राण में स्थित है। प्राण शरीर में स्थिर है। तो इस प्रकार भोजन में भोजन निश्चित होता है। जो यह जान लेता है कि भोजन ही भोजन में स्थिर है, वह भली प्रकार स्थापित हो जाता है। वह अन्न का स्वामी और अन्न का भक्षक बन जाता है। वह संतान, पशु और आध्यात्मिक तेज में महान हो जाता है। वह प्रसिद्धि में महान हो जाता है।

आठवां अनुवाक

89. भोजन का तिरस्कार न करें। यही व्रत है. जल ही भोजन है. अग्नि अन्न-भक्षक है। जल में अग्नि स्थिर है। अग्नि में जल स्थिर है। अतः भोजन में भोजन निश्चित है। जो यह जानता है कि भोजन ही भोजन में स्थिर है, वह भली-भांति स्थापित है। वह अन्न से समृद्ध हो जाता है और अन्न का भक्षक बन जाता है। वह संतान, पशु और आध्यात्मिक तेज में महान हो जाता है। वह प्रसिद्धि में महान हो जाता है।

90. प्रचुर मात्रा में भोजन इकट्ठा करें (गरीबों और यात्रियों को बांटने के लिए)। यही व्रत है. पृथ्वी ही भोजन है. आकाश (ईथर) भोजन का भक्षक है। पृथ्वी में आकाश स्थिर है। आकाश में पृथ्वी स्थिर है। अतः भोजन में भोजन निश्चित है। जो यह जानता है कि भोजन इस प्रकार भोजन में ही स्थित है, वह अच्छी तरह से स्थापित है। वह अन्न से समृद्ध हो जाता है और अन्न का भक्षक बन जाता है। वह संतान, पशु और आध्यात्मिक तेज में महान हो जाता है। वह प्रसिद्धि में महान हो जाता है।

91. पृथ्वी आकाश में स्थित है जो उसके ऊपर और नीचे है। पृथ्वी चारों ओर से आकाश से ढकी हुई है। अतः पृथ्वी अन्न है और आकाश अन्न भक्षक है। ईथर आधार या पात्र है।

92. भोजन के बिना कोई भी ध्यान संभव नहीं है. भोजन को ईश्वर या ब्रह्म मानकर उसका ध्यान करना चाहिए। इसकी पूजा और महिमा की जानी चाहिए.

93. जो कोई आश्रय मांगे, उसे न ठुकराओ। यही व्रत है. इसलिये मनुष्य को किसी भी प्रकार से अधिक भोजन प्राप्त करना चाहिये। वे कहते हैं: खाना तैयार है. अगर खाना बेहतरीन तरीके से बनाया जाए तो उसे (मेहमान को) खाना भी बेहतरीन तरीके से दिया जाता है. अगर खाना मीडियम तरीके से बनाया गया है तो उसे भी मीडियम तरीके से खाना दिया जाता है. यदि भोजन निम्नतम ढंग से बनाया जाता है तो उसे भोजन भी निम्नतम ढंग से दिया जाता है।

94. जो इस प्रकार जानता है, उसे वैसे ही परिणाम प्राप्त होते हैं।

ब्रह्म पर ध्यान

95. ब्रह्म वाणी में संरक्षक के रूप में, प्राण और अपान में अधिग्रहणकर्ता और संरक्षक के रूप में, हाथों में क्रिया के रूप में, पैरों में गति के रूप में, गुदा में स्राव के रूप में रहता है। इस प्रकार मनुष्य के संबंध में ब्रह्म का ध्यान है।

96. अब स्वर्ग के संदर्भ में चिंतन आता है जैसे बारिश में संतुष्टि, बिजली में शक्ति, मवेशियों में प्रसिद्धि, सितारों में रोशनी, संतान, अमरता और जनन अंग में खुशी, आकाश में सब कुछ। .

97. उसे उस (ब्राह्मण) का सहारा मानकर ध्यान करना चाहिए। वह अच्छे से समर्थित हो जाता है। उसके पास भोजन और वस्त्र जैसे जीवनयापन के सभी साधन होंगे। उसे महान के रूप में उस पर ध्यान करने दें। वह महान बन जाता है. उसे मन के रूप में उस पर ध्यान करने दो। वह विचारशील हो जाता है. उसे उस पर आराधना के रूप में ध्यान करने दें। सभी इच्छाएँ उन्हें प्रणाम करती हैं। उसे सर्वोच्च के रूप में उस पर ध्यान करने दें। वह सर्वोच्चता की उपस्थिति बन जाता है। उसे उस पर विनाशकारी पहलू के रूप में विचार करने दें। वे सभी शत्रु जो उससे घृणा करते हैं और वे प्रतिद्वंद्वी जिन्हें वह पसंद नहीं करता, उसके चारों ओर मर जाते हैं।

98. वह जो मनुष्य में है और वह जो सूर्य में है दोनों एक ही हैं। जो इस प्रकार जानता है, वह इस संसार से प्रस्थान कर अन्नमय स्व को प्राप्त करता है, फिर प्राणमय स्व को प्राप्त करता है, फिर मनोमय स्व को प्राप्त करता है, फिर विज्ञानमय स्व को प्राप्त करता है, फिर आनंदमय स्व को प्राप्त करता है, जो उसे पसंद है वह खाता है और उसके अनुसार रूप धारण करता है। कामना करता है, दुनिया भर में यात्रा करता है, और निम्नलिखित साम गीत गाता है:

99. हे अद्भुत! मैं भोजन हूं, मैं भोजन हूं, मैं भोजन हूं; मैं अन्न का भोक्ता हूं, मैं अन्न का भोक्ता हूं, मैं अन्न का भोक्ता हूं। मैं यश का रचयिता हूं, मैं यश का रचयिता हूं। मैं प्रसिद्धि का लेखक हूं. मैं सत्य का पहला जन्म हूं। देवताओं से भी पहले, मैं समस्त अमरता का केंद्र हूँ। जो मुझे देता है, वह अवश्य बचाता है। जो अन्न खाता है, मैं अन्न उसे खाता हूँ। मैंने यह सारा संसार जीत लिया है। मैं सूर्य के समान प्रकाशमान हूँ। जो इस प्रकार जानता है वह उपरोक्त फल प्राप्त करता है। यह उपनिषद है.

100. यह जीवनमुक्ता का सबके साथ एकता का गीत है। ऋषि अपनी एकता का अनुभव व्यक्त करते हैं।

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🕊🏹समय बड़ा हरजाई , समय से कौन लड़ा मेरे भाई 🕊🏹

>> Is Time really painful ?: क्या समय सचमुच कष्टकारी है? या सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है ?

माँ काली - महाकाल - अकाल पुरुष > 'काल या समय का वैज्ञानिक और दार्शनिक दोनों दृष्टियों से महत्व है। समय (महाकाल) अदृश्य तो है ही, इसकी प्रकृति को समझना भी दुष्कर है

न कालो दण्डमुद्यम्य शिरः कृन्तति कस्यचित् ।

कालस्य बलमेतावत् विपरीतार्थदर्शनम् ॥ -- महाभारत, सभापर्व

काल किसी का डण्डे से किसी का सिर नहीं तोड़ता। (बल्कि) काल का बल यही है कि वह विपरीतार्थदर्शन कराता है (उल्टा दिखाता है / बुद्धिभेद करता है) जिससे मनुष्य को गलत रास्ता ही सही लगता है और वह अपने विनाश की ओर बढता है।)

पुरुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान। 

भीलन लूटीं गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण।।

वक़्त वक़्त की बात है । कभी कोई बलवान तो कभी कोई बलवान । समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता,कभी अच्छा समय रहता है और कभी समय विपरीत हो जाता है। व्यक्ति अपने अच्छे समय को पहचान कर उसका लाभ उठाकर सफलता को प्राप्त कर लेता है जिससे व्यक्ति का जीवन स्वर्णिम बन जाता है। इसके विपरीत जब समय अच्छा नही होता तब जो भी अच्छे कार्य किये जाते हैं उनका भी परिणाम अच्छा प्राप्त नहीं होता। प्रारब्ध से प्राप्त ऐसा समय किसी तरह काट कर,अच्छे समय की प्रतीक्षा करना ही उचित है समय भी क्रिया की दृष्टि से स्वतंत्र नहीं, बल्कि मानव द्वारा पूर्व में किए गए कर्मों के अनुसार संचालित होता है। मत कर घमंड इतना समय पर क्योंकि ,अगर आज समय तेरा है, तो कल मेरा है !

>>संत (= CINC नवनीदा जैसे जीवनमुक्त शिक्षक, नेता या पैगम्बर) अपने (ऐषणाओं के ) लिए नहीं संस्कृति, संस्कार व समाज की रक्षा के लिए जीता है। गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तीनों लोक में मेरे लिए कोई वस्तु अप्राप्त नही है। फिर भी मैं लोक कल्याण के लिए आलस्य रहित होकर कर्म करता हूं। ज्ञानी, विद्वान (ब्रह्मविद) व संत सभी महापुरूषों  को चाहिए कि वे अपने (बुद्ध और ईसा जैसे) चरित्र के माध्यम से कर्मों में आशक्त मनुष्यों को लोक कल्याण का पाठ - Be and Make  पढ़ाए। यह सर्वोत्तम निष्काम कर्मयोग है

मातुलो यस्य गोविन्दः, पिता यस्य धनञ्जयः।

अभिमन्युर्वधं प्राप्तः कालस्य कुटिला गतिः।

                             - नराभरण २७५

— श्रीकृष्ण जिसके मामा थे और अर्जुन पिता, उस अभिमन्यु का भी वध हुआ। काल की गति कुटिल है। 

संतो भाई समय बड़ा हरजाई  समयसे कौन  बड़ा  मेरे भाई।  

संतोभाई  समय बड़ा हरजाई    ..१ 

राम अरु लछमन  बन बन  भटके संगमे जानकी माई,  

कांचन मृगके पीछे दौड़े  सीता हरण  कराई। …संतोभाई। …२ 

सुवर्णमयी  लंका रावणकी  जाको समंदर खाई 

दस मस्तक बीस भुजा कटाई  इज़्ज़त खाक मिलाई , संतोभाई   ,३ 

राजा युधिष्ठिर  द्यूतक्रीड़ामे  हारे अपने भाई  

राज्यासन धन सम्पत्ति  हारे द्रौपदी वस्त्र  हराई  ,,संतोभाई  ..४ 

योगेश्वरने गोपीगणको  भावसे दिनी विदाई 

बावजूद  अर्जुन था रक्षक  बनमे गोपी लुंटाई   ,,,संतोभाई  ५

जब तक रहो दुनियामे ज़िंदा  काम करो मेरे भाई ,  

इतना ज़्यादा  काम न करना  काम तुझे खा जाई  ..संतोभाई  ६ 

लिखना पढ़ना काव्य बनाना येतो है चतुराई,  

काम  क्रोध मन बश कर  लेना  अति कठिन है  भाई  ..संतोभाई ७ 

प्रेमका तंतु अति नाजुक है मत तोड़ो झटकाई 

टूट जाने पर  जुड़ता नही है  जुड़े तो गाँठ  रहजाई  ..संतोभाई  ..८ 

शेरको दंडवत प्रणाम करे  और चूहा डराने जाई

ऐसेभी इन्सान होते है  लोमड़ी जैसे भाई   ,,,संतोभाई  ….९ 

सब कोई सहायक सबल जनके निर्बलके न सहाई  

पवन झगावत अगनजवाला दीपक देत  बुझाई   …संतोभाई  .... १०  

स्टेशन ऊपर नरेंद्र मोदी बेचता था वो चाई, 

 समयने उसको साथ दिया तब  प्रधान मंत्री हो जाई। .संतोभाई  ..११ 

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