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रविवार, 21 जनवरी 2018

[स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग -बच्चों के लिए सरल नाटकीय अंदाज में ]

     'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग' 
दृश्य :
[सिमुलिया मोहल्ले में दत्त परिवार का विशाल भवन/विश्वविख्यात संन्यासी विवेकानन्द के पिता -' विश्वनाथ दत्त'  कोर्ट जाने के लिये निकल रहे हैं / नौकर निवारण कोट ठीक करेगा / झाड़ देगा/ विश्वनाथ टाई बांधेंगे। टाई बांधने के क्रम में नौकरानी लक्ष्मी गृहस्वामी का टिफिन लाकर रखेगी।] 
लक्ष्मी : मालिकबाबू का टिफिन गाड़ी में रख देना-ठीक से रखना कहीं ज्यादा हिलडुल न करे। 
विश्वनाथ : क्या रे लक्ष्मी, छोटी मालकिन पूजा पर बैठ गई है क्या ? उसको एक जरुरी बात कहना था। 
लक्ष्मी : नहीं , वे तो अभी रसोई में ही हैं , बुला दूँ क्या ? 
विश्वनाथ : अच्छा रहने दो, आज तो सोमवार है, तुम्हारी छोटी मालकिन का उपवास है। बल्कि तुम्हीं थोड़ा ध्यान देना ताकि वो समय से थोड़ा शर्बत-वर्बत पी ले। 
निबारण : मालिकबाबू, मालिकन माँ थोड़ा कैसी कैसी लग रही हैं न ? 
विश्वनाथ : 'कैसी कैसी लग रही हैं ' -माने ?
निबारण : कैसा मानो थोड़ा गंभीर-गंभीर सी हो गयी हैं, मालिकन-माँ का मन जैसे कहीं खोया खोया रहता है, लगता है किसी सोंच में डूबी रहती हैं। 
लक्ष्मी : तुम तो नहीं समझ सके,किन्तु मैं समझ सकती हूँ कि रानीमाँ का मन कहाँ है !
निबारण : हूँह - लगता है तुम तो अगमजानी है, सब जानती है-बता तो उनका मन कहाँ है ?
लक्ष्मी : मालकिन का मन मानो ईश्वर चिंतन में डूबा हुआ है -मुख केवल शिव या महादेव ही निकलता है। ... मालकिन को अभी तक केवल लड़की ही है न, इसीलिए वे एक लड़का चाहती हैं। इसीलिये रातदिन पूजाघर और शिवमन्दिर एक कर दी है। भगवान को बहुत कस के पकड़ लिया है। लड़के का मुख देखे बिना मालकिन माँ का मन शांत नहीं होगा । 
विश्वनाथ : निबारण, तू तो लक्ष्मी से हार गया। लक्ष्मी ने बिल्कुल सही समझा है। क्योंकि लक्ष्मी तो हमेशा उसके निकट रहती है। इसलिए उसके मन की बात को समझ लिया है। 
(भुवनेश्वरी का प्रवेश/ कंधे का गाउन और पान का डिब्बा विश्वनाथ के हाथ में देंगी/ लक्ष्मी का प्रस्थान)
भुवनेश्वरी : निबारण, साईस को कहना कि घोड़ों को दोपहर के समय पास वाले खुले मैदान में ले जाकर थोड़ा घुमा-फिरा लाये। 
(निबारण सिर हिलाकर , टिफिन लेकर प्रस्थान करेगा। )
विश्वनाथ: तुमसे कहना भूल गया था, काशी के बीरेश्वर शिवमंदिर में पूजा करने की व्यवस्था हो गयी है। 
पूजा के साथ नित्य होम करने की व्यवस्था भी है। तुम्हारी चिट्ठी मिलने के बाद बड़ी बुआजी ने सारी व्यवस्था ठीक कर दी है। 
भुवनेश्वरी : यह सब स्वयं महादेव की कृपा है। उनकी कृपा न हो तो, क्या हम स्वयं शिवस्थान में जाकर, उनकी पूजा कभी कर सकते हैं !
विश्वनाथ : अरे तुमने तो उनका पत्र ही नहीं देखा है। नहीं समझने के कारण निबारण ने वह पत्र मेरे टेबल पर रख दिया था। (चिट्ठी पकड़ा कर) अच्छा, तो अब निकलता हूँ ! (विश्वनाथ का प्रस्थान) 
(भुवनेश्वरी चुपचाप गर्दन झुकाती हैं, चिट्ठी को बार बार सिर से छुआने के बाद खोल कर पढेंगी)
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २ :
 [शिवलिंग -पूजा के आसन पर भुवनेश्वरी प्रार्थना रत है ]
भुवनेश्वरी : हे भगवान शंकर, तुम्हारी कृपा से सब कुछ पा लिया है। भगवान तुल्य पति मिला है, कोठी -मकान, सन्तान सब कुछ दिए हो। तो फिर पुत्र पाने की इच्छा क्यों दे दिए ? मेरी तो सभी बेटियाँ साक्षात् लक्ष्मी हैं। फिर भी तुमने क्यों एक पुत्र पाने की कामना दे दिया भगवान ? मैं क्यों इस प्रकार पुत्र पाने की इच्छुक हो गयी भगवान ? मैं जानती हूँ प्रभु कामना अच्छी चीज नहीं है। तुम मेरे मन से इस कामना को दूर कर दो। और यह नहीं कर सकते तो पुत्र-मुख का दर्शन करवा कर इस वासना को मिटा दो ! मेरे मन की चंचलता को मिटा दो प्रभु ! (भुवनेश्वरी धनुष की तरह झुककर प्रणाम करेगी)
(थोड़ी देर बाद दो लड़कियों का प्रवेश होगा -... हारामणि बड़ी और स्वर्णमयी छोटी है)
हारामणि : माँ -कितनी रात हो चुकी है , तुम सोओगी नहीं माँ ?
भुवनेश्वरी : तुम लोग सो जाओ, बिटिया मैं अभी थोड़ा पूजाघर में ही सोऊंगी। 
स्वर्णमयी : माँ , क्या आज तुम कुछ खाओगी नहीं ? 
भुवनेश्वरी : नहीं माँ , आज तो व्रत रखा है, व्रत करने से भूख नहीं लगती है माँ -तुमलोग जाकर सो जाओ। अमृत और हाबु लोग सब सोने के लिए गए क्या ?
हारामणि : हाँ, सभी सो गए हैं। केवल पिताजी के कमरे में लालटेन जल रही है , वे अभीतक पढ़-लिख रहे हैं। 
स्वर्णमयी : अच्छा माँ, पिताजी इतनी पढाई-लिखाई क्यों करते हैं ?
भुवनेश्वरी : वो सब काम के लिए लिखना पढ़ना है। तुम्हारे पिता तो वकील हैं, इसीलिये उनको कानून की जानकारी रखनी पड़ती है। और कानून का क्या कोई अंत होता है बेटी। सभी कानूनों की सही जानकारी होनी चाहिए -इसलिए पहले थोड़ा पढ़ न लें तो हाईकोर्ट में बहस कैसे करेंगे ? (लक्ष्मी का प्रवेश)
.... अरे देखो लक्ष्मी आ गयी है, लक्ष्मी इन लोगों को सुला देने तक तुम वहीँ बैठना। जब वे सो जाएँगी तब तुम सोने जाना। निबारण को गेट-दरवाजा सब ठीक से बंद करने को कह देना। मैं आज पूजाघर में ही सोऊंगी, समझी !
लक्ष्मी : अच्छा, मालकिन-माँ, आओ तुम लोग -चलो सोने। 
स्वर्णमयी : माँ , आज लक्ष्मी दीदी को वही लाक्षणिक मैदान वाली कहानी (তেপান্তরের মাঠের গল্প' )-
सुनाने के लिए कहो न, माँ ।
भुवनेश्वरी : (हँसते हुए ठुड्डी पकड़कर) ठीक है वही कहानी कहेगी ।
लक्ष्मी : चलो आज तुमलोगों को 'लाक्षणिक -उष्णकटबंधीय -मैदान ' की कहानी सुनाऊँगी।
 [बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ३ :
[भुवनेश्वरी चटाई पर नींद में सोई हुई है। शिव भगवान के पास से एक ज्योति निकल कर भुवनेश्वरी के चेहरे पर पड़ेगी। भुवनेश्वरी  (मानो ) जाग उठती है और भगवान शंकर की ओर देखती है। भगवान शिव की मूर्ति के बदले जीवंत शिव विग्रह को बैठे मुद्रा में देखेंगी। जीवन्त शिव फिर धीरे धीरे भुवनेश्वरी की तरफ बढ़ने लगेंगे, ... । 
शिव : माँ , क्या तुमने मुझे पुकार रही थी माँ ? 
भुवनेश्वरी : हाँ -हाँ बाबा भोले, कितने दिन से तो तुमको ही पुकार रही थी बाबा ! 
शिव : इसीलिए तो मैं अभी तुम्हारे पास खुद आया हूँ !
भुवनेश्वरी : क्या तुम सचमुच आये हो -बाबा ? (व्याकुल दृष्टि )
शिव : सचमुच नहीं, तो और क्या ? सत्य,सत्य एक दम सत्य -(दोनों हांथों को फैलाकर) 
'अभी मुझे गोद में लेलो माँ !'
 (भुवनेश्वरी भी दोनों हाथ फैला देगी )
[बत्ती बुझेगी]
[अँधेरे मंच पर जीवंत शिव अंतर्धान हो जायेंगे/ शिवमूर्ति के स्थान पर पुनः मूर्ति दिखाई देगी/ मंच पर प्रकाश आने पर ......] 
भुवनेश्वरी भावावेश में डगमगाते कदमों से शिव की मूर्ति के पास आकर बैठेंगी -व्याकुल दृष्टि से देखेंगी। नैपथ्य से आवाज -'अभी मुझे गोद में लेलो माँ !' .....'अभी मुझे गोद में लेलो माँ !'.... 'अभी मुझे गोद में लेलो माँ !.....' भुवनेश्वरी शिव-वेदी को दोनों हाथों से पकड़ लेंगी और मूर्छित हो जाएँगी ! 
[ बत्ती  बुझेगी ]
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दृश्य ४:
 [जाड़े की सुबह-१२ जनवरी १९६३ ,पौष संक्रान्ति का पुण्य प्रभात : वातावरण में सुबह की धुनें और नदी की कलकल ध्वनि/ बाद में शंख और उलूध्वनि/ उसके बाद दूर से आती हुई धीमे स्वर में संगीत:
"क्षात्रवीर्य ब्रह्मतेज मूर्ति धरिया एलो एबार। 
गगने पवने उठिलो रे ओई माभय माभय हुंकार" 
(ক্ষাত্রবীর্য ব্রহ্মতেজ মূর্তি ধরিয়া এলো এবার!গগনে পবনে উঠিল রে ওই মাভৈ মাভৈ হুহুঙ্কার!") मंच पर प्रकाश होने पर दिखाई देगा - भुवनेश्वरी बिछावन झाड़ रही हैं इत्यादि / पालना झूल रहा है/ पालने के दो तरफ भुवनेश्वरी की दोनों कन्याएं -हारामणि और स्वर्णमयी खड़ी है/ विश्वनाथ गाउन पहन कर बैठे हैं/ अख़बार देख रहे हैं ]
स्वर्णमयी : भाई तो देखने में एकदम कृष्ण भगवान जैसा लगता है -नहीं रे दीदी ?
हारामणि : मुझको देखने में एकदम भगवान शंकर ऐसा लगता है -देखती नहीं है -इसकी ऑंखें कितनी बड़ी बड़ी और खींची हुई हैं ! 
स्वर्णमयी : अच्छा , पिताजी आप बताइये भाई देखने में किसके जैसा लगता है ? मैं कहती हूँ भगवान श्रीकृष्ण के जैसा है, और दीदी कह रही है भगवान शंकर की तरह है। 
विश्वनाथ : ऐसी बात है , तबतो मुझे एक दम ध्यान से देखना होगा। (देखने के बाद) मैं कहूंगा कि देखने में यह इशू के जैसा है। मदर मेरी की गोद में इशू के जैसा लगता है। 
हारामणि : बिल्कुल नहीं इशू के सिर के बाल तो भूरेभूरे हैं, भाई के बाल तो काले हैं। 
विश्वनाथ : क्यों -महादेव के बाल भी तो भूरे हैं !
हारामणि : तो क्या -(चाचा कालीप्रसाद का प्रवेश) उसको देखने से मुझे तो भगवान शंकर जैसा ही लगता है। 
कालीप्रसाद : तुमलोग चाहे जो बोलो, किन्तु मैं कहता हूँ कि देखने में वह बिल्कुल तुम्हारे बाबा दुर्गाप्रसाद की तरह है। तुम्हारे बाबा दुर्गाप्रसाद ही जब पारिवारिक मोह को नहीं त्याग सके, तब उन्होंने ही फिर से जन्म ग्रहण किया है। 
(इसी समय निबारण आकर खबर देगा कि मुअक्किल आये हैं, और विश्वनाथ को बुला कर ले जायेगा)
स्वर्णमयी : छोटे बाबा , हमलोगों के बाबा क्यों मर गए थे ?
हारामणि : अरे, मरे नहीं थे, बाबा तो संन्यासी हो गए थे। बाबा के बारे में हमलोगों को भी कुछ बताइये न छोटे बाबा। 
कालीप्रसाद : बहुत लम्बी कहानी है। तुमलोग सुनोगी - तो बैठ जाओ। तुमलोगों के बाबा (इसी समय लक्ष्मी आकर खड़ी होगी और कमरे की चाभी मांगेगी। भुवनेश्वरी चलो मैं देती हूँ कहकर प्रस्थान ) जब विश्वनाथ का जन्म हुआ, तो उसीके बाद तुम्हारे बाबा के मन में संसार से वैराग्य हो गया। उसको संसार त्याग कर संन्यासी बन जाने की इच्छा हुई। हम सभी लोगों ने मना किया। हमने कहा -विवाह किये हो, बाल-बच्चे हैं, अब ये कैसी बातें कर रहे हो ? किन्तु एकदिन सचमुच घर छोड़कर चले गए। 
कई वर्षों बाद गंगासागर दर्शन करने के लिए आये थे, पास के ही एक मित्र के घर में ठहरे थे। अपने मित्र को समझा दिए थे कि उनके आने की बात वे किसी से कहेंगे नहीं। किन्तु उनके मित्र ने हमलोगों को उनके आने की सूचना दे दी थी। हम लोग उनको समझाबुझाकर अपने घर पर ले आये थे। फिर से कहीं चले न जायें इसी भय से गेट पर ताला लगा दिया गया था। किन्तु तीन दिनों तक उन्होंने कुछ भी नहीं खाया -पीया।केवल कमरे के एक कोना में बैठकर जप करते रहते थे। तब घर के सभी लोग डर गए कि जबरदस्ती उनको कितने दिन रखा जा सकेगा। बाद में ताला खोल दिया गया। उसी दिन संध्या के समय किसी को बताये बिना फिर चले गए। उसके बाद से भैया फिर कभी लौटकर घर की तरफ नहीं देखे। 
हारामणि : शायद बाबा संन्यासी होकर काशी में रहते थे न छोटे बाबा ?
कालीप्रसाद : बाद में हम सभी लोग एकबार काशी गए थे। विश्वनाथ की माताजी, भी गयी थीं। एक दिन टिपटिप वर्षा हो रही थी, संध्या होने को थी। भाभी जी - माने विश्वनाथ की माँ अकेले बाहर निकली थी। कहीं ठोकर खाकर गिर पड़ी थी। पास में ही चट्टान पर एक साधु बैठा हुआ था। 'मायी जी गिर पड़ी हैं' -कहते हुए दौड़ कर आये। विश्वनाथ की माँ उठाया और चेहरे पर जल के छींटें मारने लगे। बाद में लालटेन आने पर विश्वनाथ की माँ ने देखा -वह साधु कोई और नहीं, उनका पति दुर्गाप्रसाद ही थे। दुर्गाप्रसाद ने भी उनको पहचान लिया था , इसीलिये तुरन्त वहाँ से दूर भाग गए। 
उसके बाद पूरे काशी में ढूँढ -ढांढ की गयी, किन्तु दादा कहीं मिले ही नहीं। उसी दुःख से भाभी जी और अधिक दिनों तक जीवित न सकीं। भाभी के मरने के समय विश्वनाथ की आयु कितनी होगी -यही कोई ७/८ साल रही होगी। उसके बाद से तो मैं ने ही तुम लोगों के पिता को अपने गोद-पीठ पर पालपोस कर बड़ा किया है। (भुवनेश्वरी का प्रवेश) हाँ बहु, तुम्हारे बेटे का चेहरा एक दम दुर्गाप्रसाद के जैसा है। तुमलोग उसका नाम दुर्गाप्रसाद रखो। 
भुवनेश्वरी : काकाबाबू, किन्तु उसने तो काशी के वीरेश्वर शिव के आशीर्वाद से जन्म ग्रहण किया है। इसीलिए मैंने उसका नाम 'वीरेश्वर' रखने का निश्चय किया है। 
हारामणि : हाँ, हाँ वीरेश्वर -यही नाम अच्छा है -बहुत सुंदर नाम है। 
स्वर्णमयी : मैं भाई उतना बड़ा नाम पुकार नहीं सकुंगी। 
भुवनेश्वरी : ठीक है तुम उसके नाम को छोटा करके- 'वीरे' कहकर पुकारना। 
कालीप्रसाद : वाह -'विश्वनाथ का बेटा वीरेश्वर' - इस नाम को रखने से कौन असहमत होगा। 
[बत्ती बुझेगी]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -१. 'बच्चों की जिद अन्तर्निहित शक्ति का परिचायक' 
दृश्य ५:
[संध्या का समय है/ भुवनेश्वरी दोनों बेटियों हारामणि और स्वर्णमयी को पढ़ा रही हैं,.... विश्वनाथ का प्रवेश] 
विश्वनाथ : बिले कहाँ है ?
भुवनेश्वरी : वह सो रहा है। क्या वैसे ही आराम से सो रहा है? सारे दिन शरारतें करता रहता है, अभी सोने गया है। 
स्वर्णमयी : जानते हैं पिताजी, बिले आज गंदे नाले में कूद गया था। 
विश्वनाथ : नाले में कूदा था ? क्यों ! 
हारामणि : हमलोग सब सतघरवा खेल रहे थे। उसने कहा मुझे खेल में नहीं रखोगी ? जैसे ही हमने ना कहा, उसने गुस्से में आकर खेलने के घर का दाग सब मिटा दिया। और गोटी उठाकर भागने लगा। हमलोग भी क्यों छोड़ने लगे ? पीछे पीछे उसको पकड़ने के लिए दौड़े -उसने समझा अब बच नहीं सकता, इसलिये वह झट से गंदे नाले में कूद गया।   
विश्वनाथ : कौन सी नाले में ?
स्वर्णमयी : रोड के किनारे वाले बड़े नाले में !
विश्वनाथ : उसके बाद क्या हुआ ?
हारारानी : उसके बाद कहने लगा -मुझे पकड़ो न -पकड़ो ; कैसे पकड़ेगी ? मुझको पकड़ेगी तो तुमलोगों को भी नहाना पड़ेगा !
(निबारण का प्रवेश)
विश्वनाथ : सचमुच बिले नटखट हो गया है, किन्तु वैसा कहकर उसने तुमलोगों भी एकदम हैरानी में डाला है। 
निबरण : बिलेबाबू हमलोगों को भी कम परेशान नहीं करते हैं। मुहल्ले के जितने भी लड़के हैं, सबको अपने कमरे में बुला कर खेलते रहते हैं। दोपहर के समय में कहाँ थोड़ा सोने को मिलता है, किन्तु हर समय धपधप की आवाज आती रहती है। मना करने पर उल्टा कहता है -' मैं अभी राजा हूँ, तुरन्त अपने सिपाहियों से कहकर तुम्हारा सर उड़वा दूंगा। ' 
भुवनेश्वरी : बाप रे कितना जिद्दी है, जिस बात की जिद एक बार पकड़ लेगा वही करना होगा, ना करते ही लंकाकाण्ड करने लगेगा। घर की सारी चीजों  को बिल्कुल अस्तब्यस्त कर देगा। कहाँ तो जन्म लेने के लिए शिव से प्रार्थना की थी, लेकिन महादेव स्वयं न आकर न जाने कहाँ से एक भूत को भेज दिया है। 
विश्वनाथ : लेकिन तुमने तो उसका स्कूल भी छुड़वा दिया है !
भुवनेश्वरी: नहीं छुड़वा देती और उपाय क्या था बतलाओ। बहुत सी गंदी-भाषा और फूहड़ बातों को सीख कर याद कर रखा है,-और घर आकर वही सब बातें सबको बोलता है। 
विश्वनाथ : मैंने इसका एक उपाय सोचा है। बिले शरारती तो है, किन्तु बड़े लोगों की तरह उसमें आत्म-सम्मान का भाव है। मैंने सोंचा है कि उसके कमरे के दरवाजे पर वे बातें लिखवा दूंगा जो वह घर के लोगों से कहता है -उसके दोस्त लोग उसे देखेंगे तो उसको शर्म आएगी-तभी काम होगा ; ऐसा प्रतीत होता है। 
भुवनेश्वरी : आपकी जो अच्छा लगे, वैसा कीजिये, किन्तु मैं उसको स्कूल नहीं भेजूंगी। उससे अच्छा होगा कि घर में ही एक स्कूल खोलने की व्यवस्था की जाय। 
विश्वनाथ : उसमें क्या कठिनाई है ? भूपतीबाबू को कहकर भवन के किनारे वाले बारामदे में ही एक व्यवस्था हो जाएगी। हबु, तमु आदि तो हैं ही और १/२ लड़के भी आ जायेंगे। 
भुवनेश्वरी : अच्छा, जरा ये बताइये कि  ये इतना ज्यादा जिद्दी कैसे हो गया है ?
विश्वनाथ : वास्तव में यह जिद उसकी शक्ति का परिचायक है। उसमें चिंता करने की कोई बात नहीं है। उसके दिमाग को केवल थोड़ा ठंडा रखने की जरुरत है।  उसके मन को थोड़ा इस प्रकार से मोड़ देना होगा कि जिससे उसका क्रोध न बढे। 
भुवनेश्वरी :उसके दिमाग को ठंढा रखने का एक उपाय मैंने खोजा है। ऐसा सोंचकर कि, यदि ये सचमुच महादेव ही हो, तो उनके ही माथे पर मैं जल ढाल रही हूँ  -जब मैं ॐ नमः शिवाय , ॐ नमः शिवाय बोलते हुए १/२ लोटा जल ढाल देती हूँ, तो शिवनाम सुनते ही ये लड़का एकदम शांत हो जाता है। (भुवनेश्वरी भावविह्वल हो जएंगी ) .... जब उसको कहती हूँ कि - " देख बिले, अगर तू ऊधम मचायेगा, तो शिव जी तुमको कैलाश में आने नहीं देंगे।' यह सुनते ही वह किसी अज्ञात डर से चुप हो जाता है। कभी कभी पूछता है -'माँ क्या शरारत करने से मैं सचमुच ही कैलाश वापस नहीं जा पाउँगा ?'-क्या पता इस लड़के का क्या होगा !!
[बत्ती बुझेगी]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -२ - 'क्या दूसरों का छूआ खाने से जात चली जाती है ?'
दृश्य ६ : 
[विश्वनाथ दत्त का ड्राइंग रूम/ विश्वनाथ अकेले बैठकर कागज पत्तर देख रहे हैं, बिले को लेकर कालीप्रसाद का प्रवेश। बिले के हाथ में सन्देश का बॉक्स है, मुंह में संदेश भरा हुआ है। ]
कालीप्रसाद : देखो विश्वनाथ, तुम्हारा लड़का दिनोदिन बहुत हठी होते जा रहा है। यह देखो -मैं कह रहा हूँ मुँह से मिठाई को थू थू करके निकाल, निकाल दे मिठाई। 
बिले: नहीं, पहले बताइये कि क्यों नहीं खाऊंगा ? क्या कोई दूसरे जाति या धर्म के हाथ से सन्देश खा ले तो क्या वह मर जायेगा ? 
विश्वनाथ : (खड़े होकर) क्या हुआ काकाबाबू ?
कालीप्रसाद : तुम अपने मुवक्किलों को समझा नहीं सकते ? अभी अभी दाढ़ीवाला मुसलमान मुवक्किल बिले को बुलाकर सन्देश का यह डिब्बा दे गया है। मैं दौड़ कर खाने से मना करने जाने वाला ही था, कि इसने पहले ही मिठाई को अपने मुंह में भर लिया। (बिले को देखते हुए) .... अरे मुसलमान का छूआ मिठाई खायेगा, तो जात चला जायेगा रे ! 
विश्वनाथ : छोटे बच्चे के लिए जात की क्या बात है काकाबाबू ? रहमत चाचा उसको प्रेम करते हैं, इसीलिए उसके लिए मिठाई का डिब्बा लेकर आये थे।  
कालीप्रसाद : अरे तुम भी यही सब कहना शुरू कर दिया ? कहाँ, लड़के पर थोड़ा अंकुश रखने की बात है। देखो विश्वनाथ , तुम तो अपने काम से अक्सर बाहर रहते हो, तुम्हारा सब दायित्व मुझे ही देखना पड़ता है। आज मुसलमान का दिया मिठाई खा रहा है, कल मुसलमान के घर जाकर भात खायेगा, तब किन्तु परिवार की प्रतिष्ठा नहीं बचेगी। इसीलिए बचपन से ही थोड़ा शासन करना जरूरी है। 
विश्वनाथ : अच्छा काकाबाबू , आप अपना काम कीजिये ,मैं थोड़ा इसको समझा देता हूँ। (कालीप्रसाद का प्रस्थान ) देख बिले , ऐसा क्यों करता है, बोल ?
बिले : अच्छा पिताजी, हूँक्क़ा -क्या भुड़ुक भुड़ुक करके पीते हैं ?(हुक्का पीने का भाव प्रदर्शित करते हुए) 
विश्वनाथ : क्या तुम यह जानते हो कि यहाँ तीन हुँक्का क्यों रखा है ? 
बिले : क्यों ? 
विश्वनाथ : एक मुसलमान मुवक्किलों का है, एक हिन्दू का, एक क्रिश्चियन लोग का है। क्योंकि मेरे पास तो सब प्रकार के मुवक्किल आते हैं। अतः सभी के लिए अलग अलग हुँक्का रहता है। एक जात का हुँक्का दूसरा जात का आदमी नहीं छूता है। कहते हैं कि, मुसलमानों का हुँक्का यदि हिन्दू पी लेगा -तो उसकी जाति चली जाएगी। हिन्दू का हुँक्का यदि ईसाई पी ले तो उसकी जाति चली जाएगी। 
बिले : अच्छा तो ये बात है ? एक जाति का छुआ, यदि दूसरी जाति खा ले- तब उसकी जाति क्यों चली जाती है ?
विश्वनाथ : सभी लोग ऐसा ही कहते हैं। (हारामणि का प्रवेश ) 
हारामणि : बिले , बिले -तूँ यहाँ बैठा है-तुमको मैं कबसे ढूंढ़ रही थी ? जानते हैं पिताजी आज बिले ने कौन सा कारनामा किया है ? आज माँ ने उसको नए कपड़े पहनाये थे, उसने वह कपड़ा एक भिखारी को दे दिया है। भिखारी भी बदमास था, देखा कि कोई बड़ा आदमी सामने नहीं है, तो झट से लेकर भाग गया। 
बिले : नहीं , भिखारी बदमास नहीं था - वो तो गरीब था। उसने मुझसे कहा था -बबुआ , पहनने के लिए एक कपड़ा दोगे ? इसीलिए मैंने उसको अपना कपड़ा दे दिया। 
हारामणि : तो क्या तूँ अपना नया कपड़ा भी खोल कर दे देगा ? 
विश्वनाथ : ओहो ! तबतो आज बिलेबाबू ने आज वस्त्रहीन को वस्त्र दान किया है ! वाह ! देखना बड़ा होकर बिले एक बहुत बड़ा दाता बनेगा ! (विश्वनाथ बिले के सिर पर हाथ रखेंगे। )... अच्छा बिले बताओ तो तुम बड़े होकर क्या बनोगे ? 
बिले: मैं,... मैं पगड़ी पहना हुआ कोचवान बनूंगा ! मैं सामने बैठकर बग्घी चलाऊंगा। .... और सब को बैठाकर जोर से- टगबग,टगबग -टगबग ...एक दम दौड़ा दूंगा,... । 
हारामणि : लगता है , इसीलिए तुम कोचवान चाचा के साथ इतना मेलजोल रखता है!
बिले : नहीं ,... कोचवान चाचा तो बुड्ढे हैं। मेरा तो दोस्त है घोड़ों की देखभाल करने वाला साईस ! जानते हैं पिताजी , साईस चाचा भी मुझे 'दोस्त ' कहते हैं। 
हारामणि : तो, अभी खेलने चलेगा क्या ? 
बिले : नहीं -. 
हारामणि : तब मैं चलती हूँ। (हारामणि का प्रस्थान)
बिले : अच्छा पिताजी, माँ कहती है, कि हनुमान जी अमर हैं, क्या हनुमान जी अब भी जीवित हैं ?
विश्वनाथ : जब माँ कहती है, तब वही बात सही होगी। और हनुमान जी तो वैसे भी श्रीरामभक्त हनुमान के रूप में अमर हो ही गए हैं। 
बिले : अच्छा पिताजी कथावाचक पंडितजी कह रहे थे कि हनुमान जी केला खाना पसंद करते हैं -इसीलिए वे केले के बगीचे में रहते हैं। क्या यह बात सत्य है ? तबतो केला के बगान में जाने से अभी भी उनका दर्शन मिल सकता है ? 
विश्वनाथ : ओ, जब कथावाचक पंडितजी कह रहे थे , तो वही बात ठीक होगी। अच्छा अब मुझे ऑफिस जाने के लिए तैयार होना है, बिले बाबू अब तुम थोड़ा जाकर खेलो। (विश्वनाथ का प्रस्थान)
(बिले विचारमग्न मुद्रा में बैठा रहेगा। और धीरे धीरे जाकर एक एक करके तीनों हुक्के को पी कर देखेगा; इसी बीच विश्वनाथ आ जायेंगे ,..... बिले को देखकर ..)
विश्वनाथ : क्या रे बिले वहाँ क्या कर रहा है ? 
बिले : देख रहा हूँ कि जात जाता है या नहीं ?
विश्वनाथ : अच्छा ,.... 
[बत्ती बुझेगी]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -३- हनुमान जी अमर हैं !
दृश्य ७ :
[संध्या होने को है, भुवनेश्वरी तुलसी चौरे पर दिया जलाने में बेसुध हैं, निबारण का प्रवेश ,.... ]
निबारण : छोटेबाबू कहीं मिल नहीं रहे हैं। नीलू, शुब्बू लोगों में से किसी ने, दोपहर के बाद से उनको देखा ही नहीं है।
भुवनेश्वरी : इसका मतलब है कि वह किसी के साथ खेलने गया होगा। 
निवारण : लेकिन लक्ष्मी तो दीदीमाँ के घर जाकर देख आयी है, वहां भी नहीं हैं; क्या बड़े-मालिक से जाकर यह खबर कह दूँ ?
(लक्ष्मी का प्रवेश)
भुवनेश्वरी : अच्छा लक्ष्मी आ गयी , तुम जरा एक बार बोस लोगों के घर में है की नहीं देख कर आ तो!
लक्ष्मी : जाती हूँ मालकिन। (लक्ष्मी का प्रस्थान )
निबारण : मैं जरा दोतल्ले के छत पर देखकर आता हूँ। (निबारण का प्रस्थान)
[ बिले का प्रवेश , बिध्वंश की मुद्रा -किन्तु ऊपर से शान्त , भीतर से बेचैन हैं। ...]
बिले : जानती हो माँ, कथावाचक पंडितजी ने मुझसे झूठ कहा था ??? --(ऑंखें डबडबाई हैं)
भुवनेश्वरी : क्यों रे -अभी तक कहाँ था ? हमलोग सब ढूँढ ढूंढ़ कर परेशान हैं। 
बिले : मैं तो केले के वन में था। 
भुवनेश्वरी : केले के वन में था ! 
बिले : कथावाचक पंडितजी ने कहा था न कि हनुमान जी केला के बगीचे में रहते हैं, केला बगान में जाने से उनका दर्शन होता है। 
भुवनेश्वरी : ठीक है, किन्तु मुझसे बोलकर भी तो जा सकते थे?
बिले: माँ -कथावाचक पंडितजी ने क्या मुझसे झूठ कहा था ? 
भुवनेश्वरी: नहीं बेटे, वे भला झूठ क्यों बोलेंगे ? हनुमानजी तो राम के भक्त हैं न, हो सकता है कि आज उन्होंने ही उनको किसी काम से भेज दिया है। इसीलिए वे आज नहीं आ सके होंगे। .... तुम फिर किसी दिन जाना निश्चित रूप से उनका दर्शन होगा। 
बिले : माँ , मुझको एक राम-सीता की मूर्ति खरीद दोगी ? 
भुवनेश्वरी : जरूर खरीद दूंगी, बेटे कल ही निबारण को बाजार भेजकर तुम्हारे लिए मूर्ति मंगवा दूंगी। 
[बत्ती बुझेगी ]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -४ 'ध्यान -ध्यान ' का नया खेल !  
दृश्य ८ :  
[बिले और चार दोस्त एक साथ बिले के खेलने वाले कमरे में घुसते हैं, वहां राम-सीता की मूर्ति रखी रहेगी ]
बिले : देखो,भाई आज हमलोग एक नया खेल खेलेंगे। खेल का नाम है - 'ध्यान ध्यान ' खेल। मानलो कि यह जो रामसीता की मूर्ति रखी हुई है, तो हमलोगों को ऑंखें मूँदकर केवल रामसीता के बारे में ही सोचना होगा। जो जितनी देर तक उनका चिंतन कर सके ? थोड़ी देर तक करो - करने से देखोगे कि मन कैसा स्थिर हो गया है। मन में कोई दूसरी बात नहीं आएगी, देखोगे कि बहुत मजा आ रहा है। मैं कभी कभी यह खेल अकेले ही खेलता हूँ -बहुत अच्छा लगता है ! 
पानू : लेकिन कितनी देर तक बैठना होगा ?
बिले : अरे पहले बैठो तो सही; -देखना , रीढ़ की हड्डी एकदम सीधी रख कर बैठना (सभी बैठ जायेंगे) एकदम महादेव की मूर्ति जैसे होकर बैठना है, और दोनों हाथों को गोद में रख लेना -देखो इस तरह। ...
शुब्बू : बिले , हाथ एकदम सीधा रखें तो क्या काम नहीं होगा ?
बिले : क्यों नहीं, जरूर होगा। चलो , अब सब कोई अपनी अपनी आँखों को मूँद लो, और रामसीता की मूर्ति को मन ही मन देखो। किन्तु उनके सिवा और कहीं मन को जाने मत देना। लो -ध्यान शुरू !
[थोड़ी देर बाद एक-एक करके सभी लड़के आँख झपकाने लगेंगे। थोड़ा थोड़ा आँखों को खोलेंगे और  तिरछी नजर से एक दूसरे को देखने की चेष्टा करेंगे--धीरे धीर एक साँप आयेगा,....साँप नीलू के पास आ जायेगा,....] 
नीलू : अरे साँप आया रे सांप ... । भागो। ... भागो (बिले को छोड़कर सभी उठ खड़े होंगे)  
हरिदास : अरे बिले, भागो रे; अरे सांप आया रे सांप आया। 
शुब्बू : (बिले को हिलाते हुए ) अरे बिले तुमको क्या हुआ ?
नीलू : अब क्या किया जाय , यह तो हिलताडोलता भी नहीं है !
पानू : चलो, चाची लोग को बुलाते हैं ! (सभी जाते हैं )
(नैपथ्य से )
नीलू : चाची जी, ... ओ चाची जी ?
शुब्बू : चाचा जी , ओ चाचा जी ?
हरिदास : ओ बड़ी माँ !
पानू : चाचाजी , ओ बड़ी माँ ! 
भुवनेश्वरी : क्या हुआ रे , क्यों चिल्ला रहे हो ?
हरिदास : सांप , सांप , ऊपर वाले घर में सांप है । 
पानू : और बिले आ नहीं रहा है, वहीँ बैठा हुआ है !! 
[सांप आकर बिले के सामने फन उठाकर बैठा रहेगा, उसके बाद धीरे धीरे वहाँ से चला जायेगा। बाद में विश्वनाथ और भुवनेश्वरी का प्रवेश- कुछ देर बाद चारो दोस्त और निबारण का प्रवेश]
भुवनेश्वरी : बिले , ओ बिले !
विश्वनाथ : बिले -अरे बिले ?
भुवनेश्वरी : (बैठकर -स्नेह पूर्वक ) बिले , ओ बिले !
बिले : (ऑंखें बड़ी बड़ी और अचंभित भाव से देखेगा) क्या हुआ माँ -हमलोग तो ध्यान ध्यान खेल रहे थे ? 
भुवनेश्वरी : खेलते समय जब सांप आ गया -तो क्या देखे नहीं थे ?
बिले : नहीं तो, सांप कब आया ?
विश्वनाथ : हाँ बेटे , एक नाग सांप आ गया था, अरे निबारण , देखो तो सांप कहाँ जाकर छुप गया है ? (बच्चों से ) तुमलोग नीचे जाओ -
बिले : लेकिन, मुझे कुछ पता ही नहीं चला ?
विश्वनाथ : चलो , सभी लोग नीचे चलो ! निबारण ठीक से देखकर छत का दरवाजा बंद कर देना। 
[ सभी का प्रस्थान -बत्ती बुझेगी ]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -४  भिखारियों को भी दान में नए वस्त्र दें !
दृश्य ९ :
 [दोपहर का भोजन होने के बाद रामायण पाठ की सभा/ भुवनेश्वरी , दो अन्य महिलाएं , दो वृद्धा, बिले, हारामणि ]

प्रथम वृद्धा : (रामचरितमानस से थोड़ा पढ़ लेने के बाद, भुवनेश्वरी की तरफ सरकाते हुए) अब तुम पढ़ो छोटी बहु। भुवनेश्वरी पढ़ना शुरू करेगी)
बिले : इस चौपाई का पाठ तो तुमने एक बार पहले भी किया था न माँ ?
भुवनेश्वरी : हाँ , वह तो बहुत दिन पहले की बात है, क्या तुम्हें अभी तक याद है ?
बिले : हाँ ! एकदम ,... मैं बोलकर सुना दूँ ?
(बिले पूरी चौपाई बोल देगा )
दूसरी वृद्धा : बहु -बिले को तो सब याद रहता है ? 
भुवनेश्वरी : हाँ दीदी, बिले की स्मरण शक्ति बहुत तीव्र है। जो भी एकबार मन लगाकर सुन लेता  है,फिर उसको भूलता नहीं है। 
हारामणि: जानती हो, बुआजी , उस दिन एक बाउल आया था, रामायण को गाकर सुना रहा था। एक-दो जगह पर गलत गाया , किन्तु बिले को तो पूरा रामायण याद है। बिले ने उसे ठीक करने को कह दिया। बाउल लेकिन आश्चर्यचकित हो गया था। 
भुवनेश्वरी : मेरे चचेरे श्वसुर ने अंतिम साँस लेने के पहले महाभारत सुनने की इच्छा व्यक्त की। उनके लड़के अमृत, नमु आदि में से किसी को साहस नहीं हुआ। अंत में बिले ही एक बड़ा महाभारत लेकर उनके सिर के पास बैठा। और इतने अच्छे स्वर में पढ़ा कि उनकी आँखों में आँसू आ गए थे। तब उन्होंने बिले को ढेरों आशीर्वाद दिए थे। उसी दिन सुबह में मेरे चचेरे श्वसुर का शरीर छूट गया था। 
(नैपथ्य से भिखारी की आवाज -थोड़ा भिक्षा दे दो माँ , ... ओ माँ भिक्षा दो माँ , .. बिले उठकर दौड़ेगा। पुनः भिखारी की आवाज : माँ -जननी। .... भिक्षा दे दो माँ )
भुवनेश्वरी : निबारण, ओ निबारण ,जल्दी यहाँ आओ (निबारण का प्रवेश ) भिखारी आया है, और बिले उसकी पुकार सुनकर दौड़ कर भागा है- देखो थोड़ा, पता नहीं उसको क्या दे डालेगा ? बल्कि उसको ऊपर वाले कमरे में ले जाओ।(गर्दन हिला कर सम्मति जताते हुए निबारण का प्रस्थान) 
[निबारण बिले का हाथ पकड़ कर ऊपर वाले कमरे में आया है}
निबारण : बिलेबाबू अभी मेरे साथ घर में बैठकर खेलेंगे। क्या ठीक है न ?
बिले : मैं अभी किसी के साथ नहीं खेलूंगा। 
निबारण : तब बिले बाबू ,तुम अभी क्या करोगे ?
बिले : मैं भिखारी के पास जाऊंगा। 
निबारण : तो ठीक है, मैं देखकर आता हूँ कि भिखारी अभी कहाँ है ? क्यों ?
बिले : मैं जाऊंगा !
निबारण : नहीं , तुम यहीं रुको मैं बस गया और आया ! 
(निबारण का जल्दी जल्दी प्रस्थान / नैपथ्य में दरवाजा बंद होने की आवाज / बिले के द्वारा दरवाजे पर ठकठकाना। .... घूम कर बोलना )
बिले : मुझको बंद करके भाग गया ? ठहरो दिखाता हूँ मजा ! (बिले आलमारी में से कपड़े निकालेगा/ ) और पुकार कर बोलेगा रुक जाओ, मैं तुमको कपड़ा दूंगा , इस खड़की के नीचे चले आओ ! (बिले कपड़े फेंकेगा ) खींचो , खींच लो ! (साड़ी-चादर के अंतिम भाग को भी जंगल  बाहर गिरते दिखाया जायेगा। बिले तालियाँ बजाते रहेगा )
[बुझेगी बत्ती ]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -५ 'वैज्ञानिक मानसिकता के साथ सत्य का अनुसन्धान'  
दृश्य १० : 
[ एक पतंग आकर मंच पर गिरेगा; बिले के चार दोस्त -मैंने पकड़ा है, मैंने पकड़ा है बोलेंगे, बाद में बिले का प्रवेश ]
नीलू : इसे मैंने पकड़ा है, इसे मैंने पकड़ा है। 
पानू : किन्तु इसे पहले मैंने लूटा था, पहले मैंने इस गुड्डी को पकड़ा था। ( गुड्डी को फेंक कर दोनों में हाथापाई, शुब्बू और हरिदास पतंग और डोरी को सँभालने लगते हैं -बिले बीचबचाव करके हाथापाई बंद करवाता है, हाथापाई रुकने के बाद,.... )
नीलू : बिले इस पतंग को पहले मैंने पकड़ा था। 
पानू : नहीं , बिले -मैंने पकड़ा है। 
बिले : हाँ , मान लिया कि तुम दोनों ने पहले पकड़ा है ! ठीक है ? (कटी हुई डोर को पकड़ कर ---)
पतंग है हेड और डोर है टेल ; अब बताओ हेड लोगे या टेल ? (सिक्का उछालेगा, हाथ में दबा लेगा)
पानू - मैं टेल  लूंगा। 
बिले -हेड पड़ा है, माने पतंग नीलू का और डोर पानू का हुआ। (शुबू और हरिदास पतंग और डोर नीलू और पानू को देंगे। )
हरिदास : एक सच्ची बात बताऊं बिले ? किन्तु पानू ने ही पतंग को पहले पकड़ा था। 
बिले : मान लिया कि सही है, तब भी दोस्ती निभाने के लिए फिफ्टी-फिफ्टी करना पड़ता है -समझे ! पतंग छोडो, चलो सभी मिलकर चम्पा के गाँछ पर झूला झूलते हैं। जानते ही इस चम्पा के गाछ पर जिस दिन
झूला झूलता हूँ उस दिन मुझे नींद नहीं आती है। 
शुब्बू : मेरा भी वही हाल है, रोज शाम को ४ बजते ही यह चम्पा गाछ मानो मुझे पुकारता है। 
हरिदास : बिले इस समय यदि इस चंपागाछ पर झूला जाय तो कैसा हो ?
बिले : अच्छा तो होगा, किन्तु जिसका ये गाछ है, वे झूला झूलने पर झमेला कर सकता है , ऐसे ही हमलोगों को कैसे टेढ़ी आंख से देखता है, नहीं देखते हो ?
नीलू : एक रस्सी टांगी जा सकती है, क्या कहते हो बिले ? 
बिले : तुम लोग अभी रस्सी पकड़ कर झूलो -मेरे लिए तो भाई ये दोनों पैर ही रस्सी हैं। डाल पर पैरों को अटकाकर झूलने में मुझे बड़ा मजा आता है। चलो चलें -
( नैपथ्य में -
नीलू: चढ़ो जल्दी चढ़ो ! 
पानू : अरे वो वाला डाल पतला है, उस पर मत चढ़ना। 
बिले: शुब्बू तुम और ऊपर मत चढ़ना।
बिले : यह देखो नील, जिम्नास्टिक देखो। 
हरिदास : यह देखो नीलू मैंने हाथ छोड़ दिया हूँ। 
शुब्बू : हुर्र र र / झींक चिका,झींक -चिका,झींक-चिका !  
नीलू : ये देखो बिले हाथ छोड़ दिया हूँ  . 
पानू : हरिदास और उस तरफ मत जाना। 
एकस्वर में : झींक -चिका, झींक -चिका, हुर्र .....  (वृद्ध रामरतन बाबू का प्रवेश) 
रामरतनबाबू : अरे -अरे फिर उसी चम्पा गाछ पर सब लटका है ? ये लड़का सब तो परेशान कर दिया है, जब तक कोई दुर्घटना नहीं घटेगा, देखता हूँ - ये सब मानने वाला नहीं है। या तो माथा फूटेगा नहीं तो हाथपैर टूटेगा। और मुहल्ले वाले हमलोगों को दोष देंगे। इन लोगों को थोड़ा डर दिखाना जरूरी है। .... अरे लड़कों सुनते हो ? इधर देखो, जरा मेरे पास आओ तो। सुनो रे सब -मैं तुमलोगों को डाँटूंगा नहीं -एक बात कहूंगा। सुनो , तुरंत नीचे आकर मेरी बात सुनो। उतर रहे हो सब के सब -ठीक है ! (सभी लड़के बाबा के पास आएंगे। )
हरिदास : क्या कहते हैं बाबा ?
रामरतन : वाह ,वाह तुमलोग तो बहुत अच्छे लड़के हो। सुनो मेरे बच्चों -आओ एक बात सुनाता हूँ। बहुत दिनों से मैं सोंच रहा था कि वह बात तुमलोगों को बता दूँ, किन्तु तुम विश्वास करोगे या नहीं यही सोंच कर नहीं कहता था। 
शुब्बू : कौन सी बात है बाबा ?
रामरतनबाबू : तुम सभी बहुत अच्छे लड़के हो -समझे। तुम लोगों को बुलाया -इसके लिए कुछ बुरा तो नहीं माने हो ? 
नीलू : नहीं बाबा बुरा क्यों मानेंगे ?
रामरतनबाबू : तब वह बात कह ही देता हूँ , क्यों ? 
बिले : हाँ , कहिये न ! 
रामरतनबाबू : बहुत दिन पहले की बात है। तब मेरी उम्र कितनी होगी ? यही तुमलोगों से थोड़ा अधिक। इस चम्पा गाछ के ठीक पीछे एक झपड़ी थी। उस समय यह जगह हमलोगों का नहीं था, बाद में खरीदा गया था। उस झोपड़े में एक ब्राह्मणी और उसका लड़का रहता था। ब्राह्मणी बहुत गरीब थी। बड़े होने पर उस लड़के का जनेऊ संस्कार करवाया। जनेऊ होने के बाद तीन दिनों तक घर में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है, यह बात तो तुम सब जानते होंगे ?
पानू : हाँ बाबा। 
रामरतनबाबू : लेकिन लड़के का भाग्य ऐसा था कि दो दिनों के बाद ही उसको तेज बुखार हो गया। डाक्टर बैद्य बीमारी को समझ पाते - कि तीसरे ही दिन लड़के की मृत्यु हो गयी। ब्राह्मण का लड़का यदि ब्रह्मचर्य के समय में ही मारा जाय , तो बड़ा अशुभ होता है।
शुब्बू: क्यों अशुभ मानते हैं -दददु ? 
रामरतनबाबू : क्योंकि ब्रह्मचर्य के समय मर जाने पर वह 'ब्रह्मदैत्य' बन जाता है। लेकिन वह लड़का भी इस चम्पा के गाँछ से बड़ा प्रेम करता था। इसलिये वह ब्रह्मदैत्य बनकर इसी चम्पा के गाँछ पर रहता है। .... हर समय तो दिखाई नहीं पड़ता, किन्तु रात ज्यादा होने के बाद दो-चार बार मैंने खुद अपनी आँखों से उसे देखा है। 
पानू : देखने में ब्रह्मदैत्य दीखता कैसा है दादू ?
रामरतन बाबू : बहुत लम्बा, गेरुआ पर मोटा जनेऊ और पैर में खड़ाऊं पहनता है। उसकी दोनों ऑंखें मानो आग का गोला जैसा लगता  है,... ओह देखने में बड़ा भयंकर लगता है ! (सभी के चेहरे पर प्रश्नवाचक भाव) वैसे तो वह किसी को कोई हानी नहीं पहुँचाता। किन्तु उसको तो चम्पा के गाछ से बड़ा प्यार था न ? इसीलिए इस चम्पा के गाछ को यदि कोई थोड़ा भी नुकसान पहुँचाता है, तो उसे बहुत गुस्सा आता है। और यदि डाली टूट गयी, तबतो बचने का कोई उपाय ही नहीं है -वह उसकी गर्दन मरोड़ कर अवश्य मार डालता है ! 
नीलू : अरे बाप, हमलोग तो ये सब जानते ही नहीं थे दादू !
शुब्बू : यदि हमलोग जानते कि इस गाछ पर ब्रह्मदैत्य रहता है, तो क्या हमलोग कभी इस पर चढ़ते ? क्या कहते हो ?
रामरतन बाबू : हाँ, बच्चों जहाँ जाने से खतरा हो, उससे तो सावधान रहना ही अच्छा है। तुमलोग मेरी बात सुनकर नाराज तो नहीं हुए ? 
पानू : अरे नहीं दादू।  आप तो हमलोगों के भले के लिए ही ये सब बता दिये। 
रामरतन बाबू : अच्छा, तुमलोग खेलो -मैं घर जाता हूँ (प्रस्थान )
हरिदास : बिले , भाई अबसे हमलोग कभी गाँछ पर नहीं चढ़ेंगे। 
शुब्बू : चलो, हमलोग यहाँ से भागें। 
बिले : अरे तुम लोग सब पक्के रूप से एक एक मूर्ख (?) हो -समझे ! हमलोगों को डराने के लिए ही -उन्होंने मनगढ़ंत कहानी सुना दिया है, और तुम सबने विश्वास भी कर लिया ? अरे गधों , यदि सचमुच उस गाछ पर ब्रह्मदैत्य होता -तबतो वह कब ही हमलोगों की गर्दन मड़ोड़ चूका होता ? आज के दिन रहने दे, कल तो इस गाछ पर जरूर चढ़ूंगा -देखना !
[बत्ती बुझेगी ]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -६ 'जो दूसरों को बचाने के लिए 'जीता' है वही 'जीवित' है!
दृश्य ११ :
[बिले की पढ़ाई का कमरा/ भुवनेश्वरी कमरे को ठीक-ठाक  कर रही हैं, बिले,प्रिय, सैकत और पानू का प्रवेश/ सभी के हाथों में कोई खिलौना या गुड़िया है। ]
भुवनेश्वरी : क्यों बच्चों, क्या तुम लोग चरक -मेला देखकर लौट आये ?
प्रिय : जानती हो काकी माँ, बिले ने आज एक लड़के की जान बचाई है !
पानू : वह लड़का तो एकदम से कुचल ही जाता काकी माँ!!
भुवनेश्वरी : अरे,उसको  क्या हो गया था बेटे ?
सैकत : हम सभी लोग रोड के किनारे चलते हुए आ रहे थे, हमलोगों के दल का सबसे छोटा लड़का पल्टू पिछड़ गया था। और लापरवाही में रोड के बीचोबीच चला गया था। और एक टमटम बिल्कुल तेज गति से उसके एकदम नजदीक आ गया। 
पानू : रोड पर चलते सब लोग, अरे गया -अरे गया , गया बोलकर चिल्ला रहे थे। 
प्रिय : हमलोगों को तो पता ही नहीं था, बिले सबसे पीछे चल रहा था, अरे बिले -तुम बताओ न उसके बाद क्या हुआ था ?
बिले : मैंने देखते ही गुड़िया को बगल में दबाया और एकदम से कूद पड़ा -और पल्टू का हाथ पकड़ कर खींच लिया। और उसी क्षण वह टमटम भी गुजर गया। रोड पर चलने वाले दो आदमी आये और मुझे और पल्टू को उठाया-किन्तु मैंने गुड़िया को भी टूटने नहीं दिया। 
सैकत : यदि बिले की नजर नहीं पड़ती, तबतो आज पल्टू मर ही जाता था। 
प्रिय : रोड पर चलते हुए हुए लोगों ने बिले को खूब आशीर्वाद दिया। 
भुवनेश्वरी : हाँ बच्चों यही तो मनुष्य का कर्तव्य है, आशीर्वाद क्यों नहीं देंगे ? बिले, तुम हर समय इसी प्रकार मनुष्य बनने की चेष्टा करते रहना। 
प्रिय : काकीमाँ, बिले को हमलोग बहुत प्यार करते हैं, बिले तो हमलोगों का लीडर है !
भुवनेश्वरी : अच्छा, लेकिन तुमलोग अब अपने घर जाओ,बच्चों -घर पर तुमलोगों की माँ चिंता करती होंगी। 
प्रिय : ठीक है, चलता हूँ काकी माँ
सैकत : चलता हूँ चाची जी। 
पानू : चाची जी चलता हूँ ! (बिले सहित सबों का प्रस्थान )
[नरसिंह प्रसाद दत्त का प्रवेश, भुवनेश्वरी कुर्सी आगे रख देंगी]
भुवनेश्वरी : आइये आइये मास्टर साहेब, बिले आज चरक का मेला घूमने गया था। सब वापस आ गए हैं, आप बैठिये। 
मास्टर साहब, नरेन्द्र कहता है कि अंग्रेजी नहीं सीखेगा ? कहता है, यह तो विदेशी भाषा है, अंग्रेजों की भाषा को मैं क्यों सीखूं ? बल्कि -ब्रिटिश लोगों को ही हमारी बंगला और संस्कृत भाषा सीखनी चाहिए। बड़ा हो रहा न, अंग्रेजो के विरुद्ध कई प्रकार की बातें सुनता रहता है, न । आप थोड़ा उसको समझाइयेगा। 
नरसिंह : किन्तु उसकी अंग्रेजी तो अच्छी है। 
भुवनेश्वरी : अच्छी क्यों न होगी ? उसको तो मैंने खुद प्यारीचरण की फर्स्ट बुक को कंठस्थ करवा दिया था।नरसिंह : हाँ , समझा कर कहने से वो मान लेगा -लेकिन अब, जब उसने जिद पकड़ लिया है, तब कुछ दिन तक तो नहीं मानेगा। किन्तु उसके जैसी मेधा और स्मृति शक्ति बहुत कम दिखाई देती है। जिस पाठ को पढ़ने में दूसरों को तीन घंटा लगता है, उसके लिए आधा घंटा भी बहुत है। 
इसीलिए मुझको भी बहुत मिहनत नहीं करनी पड़ती है। उसके बदले मैं उसको पुराण-महाभारत की कहानियाँ सुनाता हूँ। देवताओं और देवी के कई स्त्रोत्र तो उसको कंठस्थ हैं ! 
भुवनेश्वरी : उसने तो आपसे संस्कृत का सही-सही उच्चारण करना भी सीख लिया है। 
नरसिंह : हाँ संस्कृत व्याकरण 'मुग्धबोध' के सारे सूत्र उसको कंठस्थ हैं। 
(नरेन्द्र का किताब-कॉपी लेकर प्रवेश , भुवनेश्वरी का प्रस्थान )
नरेन्द्र : इतिहास में यहाँ से १२ पेज तक, वहाँ से १५ पेज तक वहाँ से पढ़ लिया है ; भूगोल में पेज ९ से लेकर ११ पेज के अंत तक,बंगला में पेज १८ से आगे २० पेज तक और गणित के अध्याय ७ से २० का चिन्ह तक। (नरेन्द्र सोकर पढ़ेगा)  
नरसिंह : नरेन्द्र , तब तुम्हारे प्रिय विषय इतिहास को ही पढ़ते हैं। 
नरेन्द्र : ठीक है -पढ़िए [नरसिंह प्रसाद पढ़ने लगेंगे ,... ] 
नरसिंह : और एक बार पढूं क्या ?
नरेन्द्र : नहीं, अब मैं बोलूँगा। ... नरेंद्र मास्टरसाहब द्वारा पठित अंश को हूबहू सुनाने लगेगा। ... थोड़ी देर बोलने के बाद 
[बत्ती बुझेगी]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -७ 'बोटमैन किलिंग; हेल्प सर हेल्प। ' 
दृश्य १२ : 
[मंच पर नाव का ऊपरी हिस्सा नजर आ रहा है, मांझी पतवार चला रहा है, बिले और चार दोस्त गप कर रहे हैं। ]
प्रिय : जानते हो शुभम, चिंपांजी देखने में एकदम नीलू के जैसा लग रहा था !
शुभम : क्यों रे नीलू इतना चुपचाप क्यों बैठा है ?
नीलू : हमको भाई उल्टी करने जैसा मन हो रहा है। 
माझी १ : अरे लड़कों -तुमलोग मेटियाब्रुज क्या करने गया था रे ?
सुधीर : हमलोग चिड़ियाघर,zoo देखने के लिए गए थे। 
माझी १ : ओ इसीलिए, जानवर देखा है न , इसीलिए जानवर बन कर लौट रहे हो !
प्रिय : देखिये मांझी दादा हम सभी लोग अच्छे घरों के लड़के हैं, हमलोगों के साथ इस ढंग से बातचीत मत कीजिये। 
बिले : सभी लड़कों को एक ही जैसा समझियेगा तो बहुत बड़ी गलती करेंगे। 
माझी १ : हुंह , बड़ी बड़ी बात अपने पास रखो, अहिरीटोला आ गया है, पैसा निकालो !
नीलू : उयाक-ओ -ओ ओ ,...... 
माझी : अरे, सिर बाहर निकाल कर उल्टी करो !!
बिले : नहीं , वो सिर बाहर निकालेगा तो उसका सिर ज्यादा घूमने लगेगा। 
सुधीर : उसको ठीक से पकड़ लो। 
नीलू : उया ,.... ओक ,....... ओ,.... 
माझी : अरे सब बारह बजा दिया। अरे मुरली (माझी का साथी मुरली आगे आएगा) अरे, इसने तो शिकंजा के नीचे तक सब गंदा कर दिया है। 
मुरली : वो ठीक है, पानी मारना होगा , सब निकल जायेगा। 
माझी १ : तुमको पानी नहीं मारना है, इन बड़े बाप के बेटों को ही सब साफ़ करना पड़ेगा। (पतवार रखकर) अरे लड़कन सब साफ कर ! तभी उतरने दूंगा। 
नरेन्द्र : तो हमलोग अधिक भाड़ा दे देंगे , आप लोग पैसा देकर साफ करवा लीजियेगा।       
माझी १ : हुंह , भाड़ा अधिक देगा, कितना भाड़ा देगा रे ? दो दो रुपया करके लगेगा ! 
सैकत : इतना पैसा तो हमलोगों के पास नहीं है, चार आना भाड़ा है; तो अधिक से अधिक आठ आना हमलोग दे सकते हैं। 
माझी १ : ठीक है तब जितना उल्टी किया है, सब साफ करो !
प्रिय : हमलोग साफ नहीं कर सकेंगे। 
माझी १ : उल्टी कर सकेंगे -और सफाई नहीं कर सकेंगे ?
सैकत : हमलोगों ने कहा तो, कि आठ आठ आना करके दे देंगे ? -आप लोग साफ करवा लीजियेगा। 
माझी १ : नौका किनारे नहीं लगाऊंगा , पहले सफाई करो,जल्दी साफ कर। .. (माझी प्रिय को धक्का देता है )
प्रिय : हाथ उठाने की कोशिश भी मत कीजियेगा। 
माझी १ : उल्टी कर देगा , और सफाई नहीं करेगा ? और बोलेगा हाथ उठाने की कोशिश न करना ? चल -(फिर से धक्का देगा)
सुधीर : अरे यह क्या करते हो ? यह हो क्या रहा है ?
(तब तक नरेन् जम्प करके घाट पर कूद जायेगा और थोड़ी दूर में बैठे दो अंग्रेज सिपाही के पास जाकर बोलेगा ,.... 
नरेन्द्र - सार्जेन्ट साहेब , हेल्प सर हेल्प -बोटमैन विकेड, वन बॉय उयाक,....  उयाक,...  सर। बोटमैन किलिंग; हेल्प सर हेल्प।  बोट नॉट स्टॉपिंग, यु सर गो , प्लीज सर प्लीज।  
अंग्रेज सिपाही : ऑल राइट हम सब समज गया , अपने साथी से -प्लीज कम विथ मी , बोटमैन बदमासी कर रहा है ?
नरेंद्र : यस सर, यस सर
अंग्रेज सिपाही : बोटमैन को बंगला में क्या कहटा हाइ ? 
नरेंद्र: मांझी सर मांझी। 
सिपाही : अरे मांझी, बच्चा लोग को जल्दी उतार,नहीं तो अभी फाटक का बंदोबस्त कर देगा। 
माझी १,२: गल्ती हो गया सर, गल्ती हो गया सर ,.... (कान पकड़ कर उठक -बैठक करेगा)
नरेन्द्र : सर एक्स्ट्रा पैसा गीव ? 
सिपाही : नो एक्स्ट्रा पैसा !अरे जल्दी उतार , उतार जल्दी !
(मांझी पटरा लगाकर लड़कों को उतरने देगा, .... सभी लड़के एक एक करके उतरेंगे )
सिपाही : तुम्हारा नाम क्या है ?
नरेंद्र : नरेन्द्र नाथ दत्त।
सिपाही : तुम्हारा घर कहाँ है ?
नरेन्द्र : टेन मिनिट्स सर !
सिपाही : तुम बहुत बुद्धिमान लड़का है , तुम हमलोग को बहुत अच्छे लगे हो। मेरे पास सिनेमा का पास है , अगर चाहो तो आज का इवनिंग शो हमलोग के साथ देख सकते हो। 
नरेन्द्र : नो सर, इवनिंग टीचर सर !
सिपाही : ओ , ठीक है, ठीक है -कोई बात नहीं -पढ़ना-लिखना है ; तुम बहुत अच्छे स्टूडेंट हो और स्टूडेन्ट बनोगे। मैं तुमको ब्लेस करता हूँ !
नरेन्द्र : थैंक यु सर !
[बत्ती बुझेगी]

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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -८-  द्रष्टा और दृश्य मन की तकनीक से विशालतम डेल्टा वद्वीप का नाम बताना' 
दृश्य १३ : 
[क्लासरूम में कुर्सी पर मास्टर साहब बैठे हैं / कक्षा में दो बेंच पर ६ छात्र बैठे हैं / पिछले बेंच पर नरेन्द्र, हरिदास, सैकत, फुसफुसाकर आपस में बात कर रहे हैं। ]
मास्टर साहेब : जिस स्थान पर नदी जाकर समुद्र के साथ मिलती है, उस स्थान को मुहाना, 'एस्चूएरी' (estuary) या खाड़ी कहते हैं। तथा बहुत विशाल त्रिकोण धरती जो तीन और से जल और एक ओर स्थल से घिरा हो, उसको डेल्टा (Delta) या वद्वीप कहते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि तीन तरफ जल से भरे भूभाग को डेल्टा (वद्वीप) कहते हैं, समझ गए ? इस प्रकार हमारा देश भारतवर्ष एक विशाल वद्वीप है !इस पृथ्वी पर जितने भी वद्वीप हैं, उसमें सबसे बड़ा वद्वीप है -हमलोगों का यह भारतवर्ष ! (इसीलिए जम्बूद्वीपे भारत खण्डे =उपजाऊ डेल्टा भूमि कहा जाता है!) 
[चश्मा के फांक से देखते हुए, ......) कौन लड़का तब से बात कर रहा है रे ! कौन गप कर रहा है -उठो तो जरा देखें ?
सुधीर : पिछले बेंच में बैठकर गप कर रहा है सर। 
मास्टर साहेब : (पिछले बेंच पर बैठे हरिदास से ) अये लड़के , उठ -बातचीत कर रहे थे ?
हरिदास : नहीं सर !
मास्टरसाहब : तब मैं अभी क्या बतला रहा था, बोलो ,.... बोलो तो मुहाना किसको कहेंगे ?  
हरिदास : मुहाना , ओ मुहाना,..... वो तो मैं नहीं बतला पाउँगा सर। 
मास्टरसाहब : नहीं बतला पाउँगा सर ! तब गप क्यों लड़ा रहा था ? चलो -कान पकड़ कर बेंच पर खड़े हो जाओ। उसके बाद तुम बताओ (नरेन्द्र से) - तुम बतला सकते हो कि वद्वीप किसको कहते हैं ? 
नरेन्द्र : उस भूभाग को वद्वीप कहते हैं, जिसके तीन तरफ जल और एक तरफ स्थल हो। या तीन तरफ से जल और एक तरफ स्थल से घीरे भूभाग को वद्वीप कहते हैं। 
मास्टरसाहब : ठीक है -बैठ जाओ ! उसके बाद तुम (सैकत से) -तुम बताओ कि सबसे बड़े वद्वीप का नाम क्या है ? 
सैकत : मैं नहीं बतला पाउँगा सर। 
मास्टरसाहब : जब गप करने में लगे थे - तब बतला कैसे सकोगे ? चलो कान पकड़ो और बेंच पर खड़े हो जाओ। ..... अब कभी पढाई के समय गप मत करना। 
नरेद्र : मैं भी बेंच पर खड़ा हो जाऊँ सर ? 
मास्टरसाहब : नहीं, तुम क्यों खड़ा होगा ? तुम तो -जो मैं पढ़ा रहा था -पढ़े हो। 
नरेन्द्र : नहीं सर, क्लास में जो बतलाया गया उसको सुनने के साथ साथ, मैं ही उनके साथ गप भी कर रहा था ! वे लोग मेरी ही बातों को सुन रहे थे। इसलिए उनलोगों के खड़ा होने से पहले मेरा खड़ा होना उचित था। 
मास्टरसाहब : ओ , मतलब तुम्हीं बात कर रहे थे ? ठीक है; लेकिन तुमने सच बोल दिया है, इसलिए अब तुमको खड़ा नहीं होना पड़ेगा। सदा सत्य बोलना- तो बड़ी अच्छी आदत है !.... और किसी दिन ऐसी गलती मत करना। 
[बत्ती बुझेगी ]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -९  शिव ज्ञान से जीव सेवा 
दृश्य १४ : 
[ नरेन्द्र आदि के व्यायाम के लिये एक व्यायामशाला (जिमनेजियम) बन रहा है। एक झूलने का फ्रेम बनाया गया है। लड़का लोग झूले पर रस्सी बांधने में लगे हैं। वहां प्रिय, दाशरथि, सैकत, और नीलू हैं]
प्रिय : नहीं, लगता है हमलोगों की बुद्धि से नहीं होगा , समझे !
सैकत : नरेन् के पूजा वाले बरामदे जो नाटक हुआ था, वह तो बड़ा अच्छा जमा था, है न ।
नीलू : नरेन के छोटे चाचा के चलते तो सब बंद हो गया, भला हमलोगों की गलती क्या थी ?
सैकत : नरेन के दोनों चाचा हमलोगों के पीछे पड़े रहते हैं। हाबू चाचा के लड़के ने अपनी ही गल्ती से अपना हाथ तोड़ लिया था, और दोष मढ़ दिया गया हमलोगों के मत्थे ! व्यायामशाला को भी बंद करवा दिया। 
प्रिय : वास्तव में नरेन लोगों के साथ उसके चाचा लोगों का खूब झगड़ा होता है। नरेन् लोगों पर हमेशा कुपित रहते हैं। वही रोष अब हमलोगों पर भी पड़ रहा है। 
दाशरथि : इसीलिए तो बिले ने नवगोपाल बाबू से सहायता लिया है। यह व्यायामशाला बहुत बड़े आकार में बनाना होगा। यह नरेन् का सम्मान है। नरेन् ने दायित्व लिया है। मुहल्ले के सभी लड़के वहाँ आकर व्यायाम करेंगे-लाठी का खेल, कुस्ती, बॉक्सिंग सब कुछ रहेगा। नवगोपाल बाबू ने कहा है कि सारा खर्च-वर्च भी वे ही उठयेंगे ! 
(नरेन्द्र का प्रवेश)
नरेन : क्या रे , अभीतक रस्सी टांगने का काम नहीं हुआ, सब खड़ा होकर गप्पें मार रहा है। अरे रे , (झूले के पीढे की तरफ देखकर ) ऊपर की लकड़ी लगाने के पहले झूले बांध लेना चहाइए था , अब झूला बंधोगे कैसे ?
नीलू : यही बुद्धि तो हमलोगों के माथे में आ नहीं रही थी, इसीलिए तो बैठे हुए हैं। 
नरेन् : जब खूँटा गाड़ दिया है, तब पहले एक ऊँचे टूल का जोगाड़ करना होगा।  
दाशरथि : (दूर देखते हुए ) अरे एक बहुत लम्बा आदमी इसी तरफ आ रहा है। उसको कहो न हेल्प करने के लिए !
नीलू : अरे वो तो जहाज का कर्मचारी लगता है, उसका ड्रेस नहीं देखते हो ? 
सैकत : तो उससे क्या हुआ, उनलोग तो बहुत कठिन कठिन कार्य भी करता है। 
दाशरथि : अरे बाप ! ये तो गोरा अंग्रेज है। 
नरेंद्र : अरे तुमलोग हर अंग्रेज को देखकर इतना साहेब-साहेब क्यों करने लगता है ? देखता नहीं है कि ये आदमी गरीब है, तभी तो जहाज में खलासी काम करने जा रहा है ?
सैकत : चलो न बुलाते हैं,आ गया तो ठीक है, नहीं आया तो उसकी मर्जी ; कहकर देखने में क्या हर्ज है ?
(प्रिय और सैकत जाकर उस नाविक को ले आएंगे )
नाविक : क्या करना है ?
प्रिय : अंकल , इस झूले के दोनों रस्सी को बांध दीजियेगा ?
दाशरथि : एक रस्सी को यहाँ और दूसरों को वहाँ। 
नाविक : अभी हो जायेगा। (एक तरफ बांधेगा तब सैकत और दाशरथि झूले को उठाये रखेंगे। पर दूसरे तरफ बांधते समय ऊपर वाला बीम खुल जायेगा और नाविक के सिर पर लगने से वह बेहोश हो जायेगा)  
सैकत : अरे बाप ये तो बेहोश हो गया !
नरेंद्र : अंकल , अंकल 
नीलू : चलो रे ,हम लोग भाग जाते हैं !
नरेंद्र : प्रिय , थोड़ा पानी लाओ तो !
सैकत : अरे अंग्रेज आदमी है, मर-मरा गया तो पुलिस पकड़ेगी। इसलिए मैं घर भाग जाता हूँ। 
नरेंद्र : थोड़ा डाँटो तो उसको, अरे माथा फूट गया है, और खून निकल रहा है। 
दाशरथि : अरे नीलू,अरे सैकत ! नरेन बुला रहा है -ना , उनलोग चला गया। 
नरेंद्र : चला गया तो, जानेदे ; तुम जल्दी जाकर मणि डॉक्टर को बुला लाओ !
दाशरथि : यदि आना न चाहे तब ? (पानी की बाल्टी लिए प्रिय का प्रवेश )
नरेंद्र : बोलना, हमलोग आपकी फ़ीस देंगे। कहना कि विश्वनाथ दत्त का लड़का नरेन दत्त ने कहा है। कहना कि खून बंद नहीं हो रहा है-और सुनो , हमलोग इसको स्कूल के बरामदे में सुला देते हैं, डॉक्टर को वहीँ आने कहना। प्रिय , तुम यहाँ पर इस प्रकार दबाये रखो तो -तब तक मैं वहां कुछ बांधने की व्यवस्था करता हूँ। [नरेन अपने कमीज को फाड़ कर कस-कस कर पट्टी बांधेगा।]
[बत्ती बुझेगी ]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -१० 'साहस और एकाग्रता से भी अनिवार्य है -पवित्रता'
दृश्य १५ : 
[ जेनरल एसेम्ब्लीज़ इंस्टीच्यूशन का मेन गेट / नरेंद्र और ब्रजेन्द्र कॉलेज के भीतर से निकल कर गेट के बाहर खड़े होंगे। थोड़ी देर के बाद ही प्रिय और दाशरथि बाहर आएंगे। ]
(ब्रज अपने बैग से किताब बाहर निकालकर नरेंद्र को देगा )
ब्रज : देखो ये शैली की पोएट्री है, ये हीगल की फिलॉसफी है, और ये फ्रेंच रिवोल्यूशन का इतिहास है। 
दाशरथि : अरे ये सब कैसी किताबें है ?  
नरेंद्र : ये सब किताबें मन की भूख मिटाने के लिए हैं। केवल कॉलेज का सिलेबस पढ़ने से ही तो मन की भूख नहीं मिटती है ?
प्रिय : नरेन , तूँ कॉलेज में आते ही बहुत 'पॉपुलर' हो गया रे ? तू तो यहाँ का भी लीडर है !
दाशरथि : (प्रिय की तरफ इंगित करके ) क्या केवल लड़के ही इसको लीडर मानते हैं ? प्रोफेसर लोग भी नरेन् के विषय में चर्चा करते हैं। प्रिंसिपल हेस्टी साहेब नरेन की बारे में क्या बोले थे सुने हो ?
प्रिय: क्या बोले थे ?
दाशरथि : कह रहे थे, उन्होंने जर्मनी और इंग्लैण्ड के कई यूनिवर्सिटियों में पढ़ाया है, किन्तु फिलॉसफी में नरेन के जैसा तेज छात्र अभी तक कोई नहीं दिखा !
नरेंद्र : असली बात क्या है-जानते हो ? इस पृथ्वी पर विचार करने योग्य मूल वस्तु बहुत अधिक नहीं है। मैं उन्हीं मूल विचारों को समझने का प्रयास करता हूँ। प्रत्येक दर्शन के पक्ष और विपक्ष में दिए दोनों तर्कों को मन ही मन तुलना करके सजा लेता हूँ। और उसी के आधार पर समस्त प्रश्नों का उत्तर दे देता हूँ !
दाशरथि : किन्तु क्या सभी लड़के इस प्रकार तुलनात्मक विश्लेषण कर सकते हैं ? तुम्हारी मनःसंयोग शक्ति बहुत है, तभी तो ऐसा कर पाता है। तुमने तीन ही दिन में इंग्लैण्ड का इतिहास पढ़कर समाप्त कर दिया, क्या मैं वैसा कर पाता ?
ब्रज : मैं भी आश्चर्यचकित हो गया था, हमलोगों को तो केवल पढ़ने में ही तीन दिन बीत जाते। 
नरेन्द्र : देखो , जब छोटे बच्चे पढ़ना शुरू करते हैं तब -क ,ख एक एक अक्षर करके देखते हैं। फिर अक्षरों को जोड़कर शब्द का उच्चारण सीखते हैं; किन्तु थोड़ा बड़े हो जाने पर स्पेलिंग (शब्द-विन्यास) बोले बिना -पूरा शब्द एक साथ पढ़ सकते हैं। थोड़ा और बड़े हो जाने पर तीन-चार शब्द एक साथ दिखाई देने लगता है। उसी प्रकार मैं एक ही साथ पूरा पृष्ठ ही देख लेता हूँ। इसीलिए पन्नों को पलटने में जितना समय लगता है, उतने समय में ही पढ़ाई पूरी हो जाती है !
किन्तु इसमें कोई शक नहीं कि इस सब के मूल में मनःसंयोग का अभ्यास ही है। तुमलोगों को जरूर याद होगा कि एकबार मैंने एक लाठीभांजने में माहिर पहलवान की लाठी को ही तोड़ दिया था। 
प्रिय : अरे याद कैसे नहीं रहेगा !
नरेंद्र : जानते हो थोड़ी देर तक लाठी चलाने के बाद मैं केवल विरोधी के लाठी का मूवमेंट ही देख पा रहा था, विश्वास करो विरोधी के ऊपर तो मेरी दृष्टि थी ही नहीं। 
ब्रज : अरे, हमलोगों को तो कोई भी नया काम शुरू करने में संकोच होता है-तो हमलोग कैसे सीख पाएंगे? जानते हो दाशरथि , एक बार स्कूल में एक मास्टर साहेब का फेयरवेल होना था। नरेन को अंग्रेजी में भाषण देने के लिए कहा गया। नरेन ने खड़े होकर मास्टरसाहब के संबंध में इतना सुंदर भाषण दिया था , कि सभी आश्चर्यचकित हो गए थे। उस दिन सुरेन्द्र बनर्जी सभापति थे। उन्होंने नरेन से कहा था , तुम भविष्य में एक विश्विख्यात वक्ता बनोगे। 
प्रिय : नरेन,तुम जो इन सब कार्यों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हो, वह हमलोगों को बड़ा अच्छा लगता है; इसीलिए तुमको ही हमलोग अपना नेता मानते हैं !
नरेन्द्र : तुमलोग चाहे मनःसंयोग,साहस ये सब कितना भी कहो, किन्तु मुझे लगता है कि जीवन में पवित्रता (purity) ही सबसे बड़ा गुण है। इससे बड़ा गुण और कुछ भी नहीं है। कोई भाषण देने में निपुण हो,या कोई रट कर परीक्षा में अच्छा नंबर से पास करे, या लाठी के खेल में जीत हासिल कर ले, इस सब कोई बड़ाई नहीं है। असली चीज तो पवित्रता है! किसी व्यक्ति के भीतर जो कुछ भी महान शक्ति या अच्छाई है, उसको अभिव्यक्त करने के लिए सबसे पहले मन के पवित्रता की रक्षा करना अनिवार्य है। 
दाशरथि : इसीलिए तो तुम्हारी संगति में रहने से हमलोगों के मन में कोई बुरा विचार उठता ही नहीं है। ऐसा लगता है, मानो तुम अग्नि जैसे पवित्र हो ! तुम्हारे पास आने से मन में एक वीरत्व (हीरोइज्म) या  पराक्रम का भाव जाग उठता है। 
नरेन्द्र : मैं तो उन स्त्रियों जैसे चालढाल वाले लड़कों को देख भी नहीं सकता। अरे, जब एक पुरुष के शरीर में जन्म लिया हूँ, तो कोशिश करके लड़कियों के जैसा फैशन क्यों करूँ ? गर्दन झुका कर खड़े रहना, लड़कियों के समान नजरें झुका कर बातचीत करना, ये सब मुझे एकदम सहन नहीं होता है। आखिर क्यों एक वीर पुरुष के जैसा सिर उठाकर और आँखों से आँखे मिलाकर बात नहीं कर सकते ? अरे देखो, बात करते करते साढ़े पाँच तो बज गया।मुझे अभी चोर बगान में हरिदास के घर पर जाना पड़ेगा। उसको जो पढाई हुआ बतला देना होगा। मैं -चलता हूँ। 
प्रिय : (नरेंद्र को पीछे से पुकार कर ) नरेन , याद है न ; कल दाशरथि के घर पर संगीत सभा है। तुमको भी एक-दो गाना पड़ेगा। 
नरेंद्र : ठीक है -अब चलता हूँ !
दाशरथी : नरेन आजकल जैसा गाता है न -क्या कहें, एकदम बेजोड़ गाता है ! आजकल तो उसको ब्रह्मसमाज में जाकर गाने का निमंत्रण भी मिल रहा है। अक्सर ब्रह्मसमाज में गाने के लिए जाता रहता है। 
ब्रज : तुम तो कल आये नहीं थे , हिस्ट्री के सर भी नहीं आये थे , बेंच के ऊपर ही ठेका देकर नरेन का गाना शुरू हो गया। बाद वाले क्लास के प्रणव बाबू जब क्लास में आने लगे तो देखा गाना चल रहा है; वे बाहर ही खड़े होकर गाना सुनने लगे। क्लास में आने के बाद पूछ रहे थे कि गाना कौन गा रहा था ?
प्रिय : नरेन जब अपने पिताजी के साथ रायपुर गया था , उसी समय से उसने गाना शुरू किया है। उसने तो बहुत बड़े बड़े उस्तादों से शास्त्रीय संगीत सीखा है। लेकिन उसका तानपुरा , तबला सब पहले से ठीक करके रख लेना नहीं तो गुस्सा हो जायेगा। अब चलता हूँ !
दाशरथी : समय से थोड़ा पहले ही आ जाना, वाद्ययंत्रों का जुगाड़ करना है '
[बत्ती बुझेगी ]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -११ बड़ेबाबू गरीब छात्रों की फ़ीस माफ़ करें ! 
दृश्य १६ : 
[ कॉलेज का ऑफिस / कॉलेज के बड़े बाबू -राजकुमार बाबू के टेबल पर फाइल आदि रखा हुआ है/ कुर्सी पर बड़ाबाबू विराजमान नहीं हैं।  दूसरी तरफ चार छात्र -नरेन्द्र, ब्रज, दाशरथी, हरिदास आदि खड़े होकर बातचीत कर रहे हैं। ]
ब्रज : हरिदास तो पैसों का इंतजाम नहीं कर सका है। अब क्या होगा कहो तो ? वो तो एकदम हिम्मत हार गया है। कह रहा था कि शायद इस बार परीक्षा में नहीं बैठ पायेगा। 
नरेन्द्र : परीक्षा में नहीं बैठ पायेगा -माने ? यदि हमलोग परीक्षा में बैठेंगे -तो हरिदास भी बैठेगा !मैंने सब सुना है ; उसका ग्यारह महीने का फ़ीस बाकी है -यही तो ! उसके फ़ीस को माफ़ करवाना होगा। उसने  इग्ज़ैमिनेशन फ़ीस का जोगाड़ तो कर ही लिया है। 
दाशरथी : एक्चुली में हरिदास उतना मिलनसार नहीं है, बहुत कम बातचीत करता है। अरे पहले तो उसीको जाकर ऑफिस में कहना पड़ेगा। बाद में हम सभीलोग मिलकर रिक्वेस्ट कर देते !
नरेन्द्र : ठीक है, चलो देखते हैं क्या होता है,पहले मैं ही अप्रोच करूँगा , हरिदास तुम मेरे पीछे पीछे आना।(राजकुमार बाबू का प्रवेश )
राजकुमार : अरे तुम सब कमरे के बाहर जाकर खड़े रहो; एक एक करके भीतर आना। तुम सभी ने एप्लिकेशन ठीक से भर दिया है न ? (टेबल ठीक करते हुए ) कौन पहले आना चाहता है, चले आओ। 
[पहले ब्रज अपना एप्लिकेशन और पैसा जमा करेगा, उसके बाद नरेन्द्र और हरिदास को बुलाकर ले जायेगा; नरेंद्र अपना एप्लिकेशन और पैसा जमा कर देगा। ..... उसके बाद]
नरेन्द्र : बड़े बाबू , शायद हरिदास अपना फ़ीस नहीं दे सका है। उसका ११ महीने का फ़ीस बाकी है। उसने किन्तु एग्जामिनेशन फी का इंतजाम कर लिया है। आपको उसका मासिक शुल्क माफ़ कर देना होगा। उसको एग्जाम में बैठने का मौका देने से वह अच्छी तरह से पास हो जायेगा, और नहीं तो उसका पूरा साल ही बर्बाद हो जायेगा। 
राजकुमार : तुमको हरिदास बनकर उसका वकालत नहीं करना होगा। तुम अपना रशीद लेकर यहाँ से जाओ। मासिक शुल्क दिए बिना मैं किसी को एनुअल एग्जाम में बैठने नहीं दूंगा। 
नरेन्द्र : बड़ेबाबू , हरिदास की माँ घर-घर जाकर काम करती है। उसको थोड़ी सहायता करने से वह परीक्षा में अच्छा कर सकता था। 
राजकुमार : देखो -जो कुछ बोलना था मैंने पहले ही कह दिया है। इतने दिनों से क्या कर रहा था बताओ, अब चलो - यहाँ से ज्यादा बात मत बढ़ाओ-अरे इसके बाद कौन है; भीतर आओ -
[बाहर निकलकर .... मंच खाली ] 
[बत्ती बुझेगी] 
नरेन्द्र : सुनो हरिदास ,  वह बुड्ढा हमेशा से थोड़ा বিটকেল बोकरादि है , किन्तु मैं कहता हूँ -उसका उपाय भी खोज ही लूंगा। तुम एकदम मत घबड़ाना। मस्त रहो और पढ़ाई -लिखाई करते जाओ। यह बुड्ढा पूरा अफीमची है। रोज शाम को एक गली में अफीमची के अड्डा में जाता है, बेटा को वहीँ पकड़ना होगा। प्रेस्टीज बचाने के लिए देखना तुरन्त तैयार हो जायेगा। कॉलेज में जो अनुदान का पैसा आता है, वो तो गरीब छात्रों की मदद के लिए ही होता है। फ़ीस कैसे माफ़ नहीं करेगा ? हरिदास तुम एकदम दिल छोटा मत करना। मैं आज ही शाम को जाऊंगा। कल तक सुसमाचार दूंगा -उम्मीद है। चल। .... [बत्ती बुझेगी]
[शाम के समय / नरेन्द्र प्रतीक्षा कर रहा है, घड़ी देख रहा है। बड़ाबाबू को आते देखकर किनारे खड़ा हो जायेगा। किरानी बाबू चारो तरफ झाँकने के बाद घुसने जा ही रहा था कि अचानक नरेन सामने आ जाता है। ... ] 
नरेन्द्र : ओह बड़ेबाबू हैं, मैं नरेन्द्र -आपके साथ एक बात करनी थी। 
बड़ाबाबू : तो मेरे साथ भेंट करने यहाँ क्यों आये हो ?
नरेंद्र : कॉलेज में तो बात करने से कोई फायदा नहीं हुआ ? तब क्या करता ? आप तो रोज इस गली में आते हैं। ... ?
बड़ाबाबू :तब क्या चाहते हो -अब  कहोगे भी ?
नरेन्द्र : हरिदास का ११ महीना का जो फ़ीस बकाया है, उसको माफ़ करना होगा। बहुत मुश्किल से वो परीक्षा फि देदेगा। यदि माफ़ नहीं करेंगे तो, आप इस गली में आते हैं, यह बात पूरे कॉलेज में फ़ैल जाएगी। बड़ाबाबू : बेटे गुस्सा मत करो, तुम जैसा कहोगे , वैसा ही होगा। जब तुम कह रहे हो, तो क्या मैं इंकार कर सकता हूँ ?
नरेन्द्र : यही बात यदि आप पहले ही कह देते तो बात खत्म हो जाती। 
बड़ाबाबू : अरे तुमने सभी लड़कों के सामने मुझसे कहा था, इसीलिए उस समय मैंने मना कर दिया था। अब तुम मत आना मैं सब व्यवस्था कर दूंगा। 
नरेन्द्र : ठीक है -मैं निश्चिन्त हो जाऊँ न ?
बड़ाबाबू : अरे वह भी कोई कहने की बात है , आराम से घर जाओ बच्चे , हरिदास को कल ही मेरे पास भेज देना। 
(नरेन्द्र का प्रस्थान और बड़ाबाबू फिर चारोतरफ देखकर अफीम के अड्डे में घुसते हैं। )
[बत्ती बुझेगी ]
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -१२ सत्य क्या है और उसे किस उपाय से देखें ? 
दृश्य १७ :
 [नरेन की दीदी माँ का घर / चौकी पर नरेन ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। पास में एक तानपुरा। पानी की सुराही/फर्श पर दरी बिछी है. छोटा टेबल -अलमारी में बिखरी किताबें/ अस्त-व्यस्त कमरा]
दाशरथी : (बाहर से पुकारेगा) नरेन , घर पर हो क्या ? (नरेन का ध्यान भंग होगा) क्या रे गाना गा रहा था ? (दाशरथी उसके चौकी पर बैठेगा। )
नरेंद्र : गाना गाने के सिवा और चारा क्या है ? ये तो है दूध के स्वाद को मट्ठा से पूर्ण करना। 
दाशरथि : अरे क्या बात है ? जो संगीत तुम्हें इतना प्रिय है -उसीको अभी मट्ठा कह रहे हो !
नरेन्द्र : जो पाना चाहता हूँ , वह मिलता कहाँ है ? 
दाशरथी : नरेन इधर तुम बदले बदले से लगते हो, अब तुम्हारी बातें मेरे दिमाग में घुसती ही नहीं है। 
नरेंद्र : क्या मेरे माथा में ही घुस रहा है। जो कुछ पढ़ा या जाना है -सब दूसरों के मन की बातें हैं-मानो कुछ भी मेरे मन के साथ मेल नहीं खा रहा है। 
दाशरथी : सुनता हूँ कि आजकल तुम फिलॉसफी बहुत अधिक पढ़ रहे हो ?
नरेन्द्र : हाँ , पढ़ रहा हूँ, किन्तु उससे उलझन और भी अधिक बढ़ गयी है। शॉपन हावर कुछ कहते हैं, तो स्पेन्सर एक दूसरी ही बात कहते हैं। कांट यह कहते हैं, तो हेगल एक दूसरी ही बात कहते हैं। पाश्चात्य दार्शनिकों का मनोविज्ञान जितना भी पढ़ा हूँ , उसमें काम की कोई बात नहीं है। ऐसा नहीं लगता कि इनमें से कोई भी मनीषी परमसत्य को ठीक ठीक जान सका है ! 
दाशरथी :कई सत्यद्रष्टा महापुरुष (ऋषि) तो भारत में ही जन्मे हैं ! और तुमको क्या कहूं -क्या तुमको ये दब नहीं पता है ? तुम तो स्वयं इतना पढ़ते और जानते हो ! (ब्रज का प्रवेश-सुराही से पानी पियेगा)
नरेन्द्र : केवल पढ़ने से ही तो काम नहीं चलता, मैं किसी ऐसे व्यक्ति को देखना चाहता हूँ , जो मुझे यह बतला सके कि 'सत्य'- यह है ! (अपरिवर्तनशील , शाश्वत जिसे देखने के बाद एथेंस का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था !) और इस उपाय के द्वारा उस सत्य को देखा जा सकता है !
ब्रज : मैंने तो तुमसे कहा था कि एकबार जाकर केशव सेन के मिलो। केशव सेन तो तुमको देखते ही लोक लेंगे। क्या तुम उनके 'यंग बंगाल ' में जाना पसन्द करोगे ? यदि तुम उसके मेंबर बनोगे तो तुम्हारे साथ
हमलोग भी उसके मेंबर बन जायेंगे। क्या रे दाशु तुम भी तैयार हो न ?
नरेन्द्र : अरे क्या तुम लोग नहीं जानते कि मैं तो पहले ही 'जेनरल ब्रह्मो समाज ' का मेम्बर बन गया हूँ। महर्षि के साथ जान-पहचान भी किया हूँ। 
ब्रज : क्या तुम महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर की बात कह रहे हो ? 
दाशरथि : जानते हो ब्रज आजकल नरेन् हमलोगों को बताये बिना ही बहुत कुछ कर रहा है ! 
ब्रज: यही तो देख रहा हूँ, क्या तुमको पता है ? नरेन आजकल शाकाहारी बन गया है, और जमीन पर तकिये के बिना सोया करता है ? 
दाशरथी : अरे, ऐसी बात है क्या ?
ब्रज : तब यह बताओ कि देवेन ठाकुर के साथ तुम्हारी क्या बातचीत हुई ? 
नरेन्द्र : जब उनसे मिलने पहुँचा, तो वे गंगा जी में एक बजरा पर बैठे हुए थे। मैं उनसे मिलने अकेले ही पहुंचा था। मैंने उनसे पूछा कि क्या आपने ईश्वर को देखा है ?
ब्रज : तब उन्होंने क्या कहा ? 
नरेन्द्र : उत्तर न देकर -उन्होंने प्रश्न को ही मोड़ दिया, और कहा - (जाओ पिप्पल पेंड़ के निच्चे !) ' लड़के, तुम्हारी ऑंखें योगियों जैसी हैं, तुम्हारे लक्षण अच्छे हैं। तुम यदि ध्यान करो, तब तुम एक दिन ईश्वर का साक्षात्कार कर लोगे। '
ब्रज : फिर क्या हुआ ?
नरेन्द्र : उसके बाद और क्या ? उन्होंने सत्योपलब्धि के कुछ अभ्यास बतला दिए, मैं उसीका अभ्यास कर रहा था। 
दाशरथी : अब समझा, -तो तू इसीलिए अपना घर छोड़ कर दीदीमाँ  के घर में रहता है, और बिना तकिये के ही सोते हो ?
नरेन्द्र : हाँ रे , यह घर बिल्कुल एकांत और सुनसान है। 
दाशरथि : तब बताओ - साधना में प्रगति कहाँ तक हुई ?
ब्रज : सुनता हूँ कि ध्यान करने से कुछ दर्शन -वरसन भी होते हैं ?
नरेन्द्र : हाँ , कुछ कुछ दर्शन तो होता ही है। एक दिन ध्यान करते करते देखता हूँ कि पूरा कमरा ही ज्योतिर्मय हो उठा है, और एक संन्यासी कमरे के इस दीवार के पास से निकल कर मेरी ओर ही चले आ रहे हैं ! गेरुआ पहने हुए हैं और हाथ में कमण्डल है। मैं उनको देखता रहा, वे भी मीठी मुस्कुराहट के साथ मेरी ओर देखते रहे, और चेहरा एक दम प्रशांत है। ... किन्तु अचानक मैं भयभीत हो गया और दौड़ कर कमरे से बाहर निकल गया ! किन्तु दुबारा कभी उस मूर्ति का दर्शन नहीं मिला -अब ऐसा लगता है कि उस दिन मुझे भगवान बुद्ध का दर्शन प्राप्त हुआ था ! 
ब्रज : नरेन , तुम हमलोगों से कितने नजदीक हो, किन्तु मुझे लगता है कि तुम हमलोगों से कितने दूर हो -आकाश के चाँद का प्रतिबिम्ब जल पर पड़ता है, और मछलियाँ समझती हैं कि यह चाँद भी उन्हीं में से एक है, इसलिए उस प्रतिबिम्ब के साथ मछलियाँ खेल करती हैं -किन्तु नहीं जानतीं कि वह चाँद है, और उसका स्थान तो आकाश में है ! 
[बत्ती बुझेगी] 
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -१३ 'जनक-राजा महा तेजा'
दृश्य १८ : 
[दत्त निवास -विश्वनाथ दत्त का ड्राईंग रूम/ एक गरीब आदमी को पर्स से कुछ रुपया निकाल कर दे रहे हैं। ] 
विश्वनाथ : देखो , कहीं झूठ तो नहीं बोल रहे हो ? 
सूको : नहीं, दत्त मालिकबाबू , आपसे झूठ बोलूँगा तो मेरी यह जीभ न गिर जाएगी ? 
विश्वनाथ : ईश्वर जाने, पत्नी बीमार है, उसीके लिए दवा खरीदोगे न ?
(जी मालिक बोलकर, दरवाजे पर खड़े नरेन्द्र देखते हुए थोड़ा भय और संकोच के साथ प्रस्थान।)थोड़ी देर बाद नरेन्द्र का प्रवेश : जी,क्या आपने मुझे बुलाया था ? 
नरेन्द्र : आप इसको फिर पैसा दे रहे हैं -ये लोग झूठ बोलकर पैसा माँगते हैं , और उसका देशी पाउच पी लेते हैं। 
विश्वनाथ : मैं क्या यह बात नहीं जानता हूँ ? जानबूझकर भी देता हूँ। शराब पीने के लिए ही देता हूँ। तुम अभी क्या समझोगे ? संसार के दुःख को भूल जाने के लिए ये लोग दारू पीते हैं ! तू जिस दिन इनके मन के संताप को अपने प्राणों से अनुभव करेगा, उस दिन तू भी देगा ।
[उसी समय रामचन्द्र दत्त का प्रवेश: सिमुलिया मुहल्ले में ही उनका मकान है। वे श्रीरामकृष्णदेव के विशिष्ट भक्त हैं। डॉक्टरी की शिक्षा प्राप्त कर मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। उन्होंने खुद कमाकर यह मकान बनवाया था। इस मकान में श्रीरामकृष्ण देव (नवनीदा) कुछ एक बार आये थे। रामचन्द्र गुरुदेव की कृपा लाभ कर ज्ञानपूर्वक संसारधर्म का पालन करने की चेष्टा करते हैं ! (अर्थात प्रवृत्ति मार्ग में रहते हुए भी-निवृत्ति अस्तु महाफला पर निरन्तर विवेक-प्रयोग करते रहते हैं।) उनका मकान भक्तों का अड्डा है। वैशाख पूर्णिमा को श्रीरामकृष्ण प्रथम बार उनके मकान में आये थे। अब भी उस दिन को वहाँ उत्स्व मनाया जाता है।]
विश्वनाथ : हाँ, एक बात कहने के लिए तुझे बुलाया था; और अभी राम भी आ गया है ; चलो अच्छा हुआ, राम के सामने ही कहता हूँ। बैठो हे राम ! नरेन् तुम्हारे लिए मैंने एक दुल्हन देखी है। तुमको यदि पसन्द हो, तो अगले अगहन में ही विवाह की तारीख तय करना चाहता हूँ। दुल्हन पक्ष के लोग बहुत आग्रह कर रहे हैं। लड़की देखने-सुनने में बुरी नहीं है, और बहुत सुलक्षणा तो है ही। किन्तु रंग उतना गोरा नहीं है। इसीलिए १०,००० रुपया दहेज़ भी देना चाहता है। परिवार धनी होने के साथ साथ शिक्षित भी है। 
नरेन्द्र : किन्तु मैंने तो विवाह न करने का निश्चय किया है !
विश्वनाथ : किन्तु सोंचो , ऐसा अच्छा सम्बन्ध छोड़ने से हो सकता है, कि बाद में अफ़सोस करना पड़े ! उनलोग बी.ए. पास करने के बाद बैरिस्टरी पढ़ने के लिए तुमको इंगलैण्ड भेजना चाहते हैं। मुझे तो लगता है कि उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेना ही बुद्धिमानी का काम होगा ! तो तुम क्या सोचते हो, तुम भी बताओ न राम। 
राम : मुझे भी तो नरेन के लिए यही रिस्ता सबसे अच्छा लग है, इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि लड़की भी कलकत्ते की ही है, और तुम्हारे घर के सभी लोगों से परिचित भी है। 
नरेन्द्र : पिताजी , मैं अपने जीवन को थोड़ा अलग ढंग से जीना चाहता हूँ !
विश्वनाथ : 'अलग ढंग से जीना चाहता हूँ ' ....? लेकिन, अलग ढंग से जीने के लिए विवाह करने में क्या हानी है ? हमलोग तो तुम्हारा सब कुछ जानते हैं , तुम्हें जो अच्छा लगता हो, उसी ढंग से तुम अपना जीवन बिताओ न। ..... मना कौन कर रहा है ? तुम्हारे ब्रह्मसमाज के देवेन्द्र नाथ ठाकुर और केशवबाबू भी तो दोनों पक्ष एक साथ देख रहे हैं। एक हाथ से परिवार चला रहे हैं, और दूसरे हाथ से धर्मकर्म सबकुछ कर रहे हैं। 
राम : मेरे गुरुदेव श्री रामकृष्ण देव कहते हैं, " संसार (परिवार) में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा ? 
जनक राजा को हुआ था।'  मनोयोग और कर्मयोग। पूजा,तीर्थ, जीवसेवा आदि तथा गुरु के अनुसार कर्म करने का नाम है -कर्मयोग।  जनक राजा आदि जो कर्म करते हैं, उसका नाम भी कर्म योग है। योगी लोग जो अपने इष्टदेव का स्मरण-मनन करते हैं उसका नाम है मनोयोग। ( वचनामृत 1885, 22 फ़रवरी)
लोग कहते हैं राजा जनक के दोनों हाथों में दो तलवार रहता था, एक ज्ञान का और दूसरा कर्म का. एक तरफ राजा थे , तो दूसरी ओर ऋषि भी थे! वैसे तो रामप्रसाद ने कहा था -প্রসাদ বলেছেন- এই-সংসার ‘ধোঁকার টাটি’ यह घर-संसार (परिवार में रहना) 'धोखे की जगह ' है।  परन्तु ईश्वर (माँ जगदम्बा,सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध) के चरण कमलों में भक्ति होने पर -यह संसार ही मौज की जगह हो जाती है, इसलिए वे कह सकते थे -एई संसार मजार कुटी। आमि खाई-दाई आर मजा लूटी।।  - अर्थात यह संसार आनन्द की कुटिया है। यहाँ मैं खाता, पीता और मजा लूटता हूँ।
'जनक राजा महातेजा , तार किसे छीलो त्रुटि।
से 'ये -दिक्', 'उ-दिक'- 'दु- दिक' रेखे, खेये छीलो दूधेर बाटी।। 
(জনক রাজা মহাতেজা, তার কিসের ছিল ক্রটি।
                   সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।)         
जनक राजा महातेजस्वी थे। उन्हें किस बात की कमी थी ? उन्होंने दोनों बातों (विद्या-अविद्या) को सँभालते हुए दूध पीया था।..... अर्थात अन्तर्हित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त किया था ?  जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी साधना (५ अभ्यास) में कोई कसर नहीं थी, उसने यह (अन्तःप्रकृति) और वह (बाह्य-प्रकृति) दोनों को वशीभूत करके 'दूध का प्याला' पीया था (भावमुख रह सकते थे ?)! (वचनामृत 1882, 27 अक्टूबर/श्री केशव सेन के साथ नौका विहार/बंगला कथामृत पेज -८९) 
नरेन्द्र : किन्तु मुँह से बोल देने से ही तो कोई राजा जनक नहीं बन जाता ! 'भक्त, अर्थात वीर (जय भवानी, जय शिवाजी हीरो) हुए बिना भगवान तथा संसार दोनों ओर ध्यान नहीं रख सकता। 'ऐसा कहा जाता है कि जनक राजा ने पूर्व जन्मों में बहुत तपस्या की थी ! साधन-भजन के बाद सिद्ध होकर संसार में रहे थे। 
विश्वनाथ : देखो नरेन, बचपन से ही मैंने तुमलोगों को सब चीज के बारे में पूरी स्वाधीनता दी है, मैंने कभी तुमलोगों पर बलपूर्वक कुछ थोपा नहीं है; और आज भी जबरदस्ती कोई बात नहीं मनवाऊँगा। तुम्हारे विचार-विवेक पर मुझे पुरा विश्वास है। इसीलिए निर्णय करने का पूरा भार तुम्हारे ही ऊपर सौंपता हूँ ! 
(विश्वनाथ का प्रस्थान: कबीर कहते थे 'निर्गुण तो है पिता हमारा और सगुण महतारी। काको निंदऊ काको बंदउँ दोनों पल्ले भारी। )
रामबाबू : देखो नरेन , मैंने तुम्हारी माँ से सबकुछ सुन लिया है। अगर तुमको केवल धार्मिक जीवन जीने की इच्छा है, तो ब्रह्मसमाज आदि में समय न बर्बाद करके, एक दिन दक्षिणेश्वर में मेरे गुरुदेव के पास चलो। उनसे जो कुछ तुमको प्राप्त होगा , वह और कहीं से प्राप्त नहीं होगा। 
नरेन्द्र : देखो रामदा ,मैंने कई गुरुओं को देखा है। और जितना भी देखता हूँ, उससे तो मेरी निराशा ही बढ़ती है। मैं फिर से निराश होना नहीं चाहता रामदा !  
रामबाबू : अरे तुम गलत समझ रहे हो। वे उस प्रकार के गुरुदेव नहीं हैं ! हमलोग उनको गुरुदेव मानते हैं। किन्तु वे गुरुगिरि नहीं करते। दीक्षा-टीक्षा कुछ नहीं देते। वे केवल ईश्वर को ही लेकर रहते हैं। और जीवों के कल्याण के लिए उनकी आँखों में कितनी व्याकुलता है, जब तुम स्वयं न देखलो विश्वास नहीं कर सकते!
नरेन्द्र : आपके गुरुदेव कौन हैं ?
रामबाबू : दक्षिणेश्वर के श्रीरामकृष्ण परमहंस। काली-मन्दिर में ही रहते हैं !
नरेन्द्र : रामकृष्ण परमहंस !
रामबाबू : हाँ -उनके निकट जाने से ही केशव सेन, विजय कृष्ण गोस्वामी, गिरीश घोष आदि के धार्मिक-जीवन में भी जान आ गया है ! मैं तो हर हफ्ते उनके पास जाता हूँ। 
नरेन्द्र : अच्छा क्या सुरेन मित्र के गुरुदेव भी वे ही हैं ?
रामबाबू : हाँ -हाँ। 
नरेन्द्र : ओहो , तबतो उनको मैंने भी एकबार देखा है ! उनको गाना सुनाने के लिए एकबार सुरेन बाबू मुझे बुलाकर ले गए थे। सुरेन बाबू के घर में बैठकर एकबार मैंने उनको गाना सुनाया है। उन्होंने मुझे दक्षिणेश्वर आने के लिए कहा था। लेकिन परीक्षा नजदीक आने के कारण फिर जाना सम्भव नहीं हुआ। 
रामबाबू : उन्होंने बुलाया था -और तुम नहीं गए ; तो चलो न एकदिन !
नरेन्द्र : अच्छा क्या उनको समाधि भी होती है ? कॉलेज में पढ़ते समय हेस्टी साहेब ने ही उसके संबंध में बतलाया था। 
रामबाबू : क्या बतलाया था ?
नरेन्द्र : हेस्टी साहेब क्लास में वर्ड्सवर्थ की कविता 'एक्सकर्शन' (पर्यटन) पढ़ा रहे थे। बता रहे थे कि गुलाब के फूल को देखकर वर्ड्सवर्थ का मन कहीं खो गया था ! मेरे यह पूछने पर कि मन का खो जाना क्या होता है ? उन्होंने कहा था कि मन के पूरी तरह मर जाने को ही समाधि कहते हैं; यदि तुमको कभी समाधि देखने की इच्छा हो, तो दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में जाकर श्रीरामकृष्ण परमहंस को देख आ सकते हो,उनको मुहुर्मुहुः समाधि होती है ! 
रामबाबू : (आगे बढ़कर नरेन के पीठ पर हाथ रखकर ) तब तुम और देरी मत करो ! चलो एकदिन मेरे साथ। या, नहीं तो अपने ही मुहल्ले के सुरेन मित्र के साथ ही घूम आओ !  
[बत्ती बुझेगी ]
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" ज्ञान कहता है, यह संसार धोखे की टट्टी है; और जो ज्ञान और अज्ञान के पार चले गए हैं, वे कहते हैं , यह आनन्द की कुटिया है ! वह देखता है ईश्वर (माँ जगदम्बा -सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध) ही जिव-जगत और चौबीस तत्व हुए हैं। यूबीएस -६०३ / 
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 'स्वामी विवेकानन्द के जीवन के प्रेरक प्रसंग'  -१४-'प्रभु आप ही नर-रूपी नारायण हैं !' 
दृश्य १९ : 
[दक्षिणेशर कालीमन्दिर में श्री रामकृष्ण का कमरा/ श्री रामकृष्ण चौकी पर बैठे हैं, सामने जमीन पर दरी के ऊपर - कुछ गृहस्थ भक्त, बैकुण्ठ , भोलानाथ, बाबूराम, रामलाल आदि बैठे हैं। ]
श्री रामकृष्ण : नाव कहाँ रहती है ?  
गृहस्थ भक्त : जी, नाव तो पानी में ही रहती है। 
श्रीरामकृष्ण : बिल्कुल सही ,नाव पानी में रहती है ! यदि नाव में पानी घुस जाये तो क्या होगा ? 
वैकुण्ठ : तब नाव डूब जाएगी !
श्री रामकृष्ण : हाँ -नाव में पानी घुसने से नाव डूब जायेगी ! अब सोंचो कि तुमलोग एक एक नाव हो ; और संसार (परिवार?) रूपी पानी में तैर रहे हो। अब यदि संसार तुम लोगों में घुस जाये ,तो क्या होगा ?
भोलानाथ : महाशय, डूब जायेंगे !
श्री रामकृष्ण : ठीक कहते हो। तुम संसार ,में रहो उसमें कोई दोष नहीं है। किन्तु ध्यान-विवेक रखना कि कहीं संसार ही तुममें न घुस जाये ! 
गृहस्थभक्त : महाराज , ऐसा कैसे हो सकता है ?[काजल की कोठरी में रहने से दाग लगता ही है ?]
श्री रामकृष्ण : क्यों नहीं होगा ? मानलो कि यहाँ दूध है, .... दूध को पानी में डाल दो तो क्या होगा ?
भोलानाथ : पानी में मिल जायेगा !
(नरेन्द्र दो दोस्तों - हरिदास और राजेन के साथ प्रवेश करके सामने बैठ जायेगा। )
श्री रामकृष्ण : अब यदि मानलो कि तुमने दूध में जोरन डाल कर दही जमा लिया , फिर दही को मथकर मट्ठा बनाया , फिर मट्ठे को मथकर मक्खन निकाल लिया। .... अब मक्खन को पानी में डाला, तो क्या वह फिर पानी में मिलेगा ? 
साधन करके कच्चे मन को पक्का बना लिया जाता है; यह हो जाने पर-'गोल थाके ना ' - फिर कुटिलता (षडरिपू) समाप्त हो जाती है। 
वैकुण्ठ : उसका उपाय ? 
श्रीरामकृष्ण : ईश्वर का नाम-गुण कीर्तन और साधुसंग। साधुओं के साथ रहने से मन पवित्र रहता है। साधु कौन है ? जानते हो ? (लीडर, नेता, गुरु , लोकशिक्षक ......नवनीदा) जो ईश्वर (भगवान श्रीरामकृष्ण-माँ-स्वामीजी) के साथ सम्बन्ध जोड़वा दें (communication या ऐक्य Communion) 
श्री रामकृष्ण : हाँ जी , आज क्या कोई थोड़ा संगीत नहीं सुनाएगा ? (सब की ओर देखते हुए) -आज तो कोई गवैया भी दिखाई नहीं दे रहा है। ये सब जो नए लड़के आये हैं क्या। ... तुमलोगों में से कोई गाना -वाना जानते हो ? 
राजेन: : (नरेन्द्र को दिखलाकर ) हाँ , यह जानता है; अरे नरेन बोलो न रे !   
हरिदास : महाराज , ये ब्रह्मसमाज में संगीत सुनाता है। 
श्रीरामकृष्ण : अच्छा , यह बात है ? लेकिन तुम्हारा नाम क्या है ?
नरेन्द्र : नरेन्द्रनाथ दत्त। 
श्री रामकृष्ण : अच्छा अच्छा - तब थोड़ा गाओ न। 
नरेन्द्र : (दोस्त के प्रति खीझ दिखाते हुए) जी, मैं अधिक संगीत नहीं जानता हूँ, बस दो-चार गाना सीख लिया हूँ। 
श्री रामकृष्ण : तब एक -दो गाना ही गाओ। 
नरेन्द्र : महाराज , नहीं गाने से -नहीं चलेगा ?
वैकुण्ठ : जब वे इतना कह रहे हैं, तब एक गाना सुना दो न। 
श्री रामकृष्ण : आओ बच्चे, तुम मेरे सामने आकर बैठो। 
वैकुण्ठ :ये भाई, आ जाओ. इनकी कोई अवज्ञा नहीं करता !
(वैकुण्ठ खिसक कर स्थान बना देगा, नरेन्द्र सामने जाकर बैठेगा)
[गाना शुरू होगा -'मन चलो निज निकेतने ' गाना सुनते सुनते श्री रामकृष्ण पहले पुलकित हैं। ..... वाह ,वाह बहुत अच्छा , वाह अच्छा। ... समाधिस्थ ! समाधि से नीचे उतरने के बाद अर्ध-निमीलित आँखों से। ... 
श्री रामकृष्ण : अरे तुम आये हो ? (अपने आप से) बहुत अच्छा गाते हो , .... आओ। .... मेरे साथ एक बार इधर आओ , .... कहाँ गए। (श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र का हाथ पकड़ कर )  ... चलो। ...दोनों का प्रस्थान।  [बत्ती बुझेगी ] 
[उत्तर वाला बरामदा : श्री रामकृष्ण नरेन्द्र को लेकर प्रवेश कर रहे हैं। ... ]
श्री रामकृष्ण : आओ बेटे आओ , ठहरो दरवाजा बाहर से बंद कर देता हूँ, (दरवाजा बंद करके आये। .. ) अब यहाँ केवल तुम हो और मैं हूँ ! अपने आदमी को इतने दिनों के बाद देखा हूँ। .... पूछता हूँ , क्या इतने दिनों के बाद आते हैं ? ... मैं तुम्हारे लिए कितनी देर से प्रतीक्षा कर रहा था, एक बार भी तुमने नहीं सोंचा ? .... इस बार तो मैं तुम्हारे लिए ही आया हूँ, ... हाँ रे भगवान क्या फल-मिठाई चाहते हैं ? भगवान केवल भक्ति चाहते हैं। अरे उन विषयी लोगों की बातें सुनते सुनते मेरे कान पक गए थे। अपने हृदय की बात खोलकर कहने योग्य आदमी नहीं मिलने से मेरा पेट फूल गया है। आज तुमसे भेंट होने के बाद जी खोल कर तुमसे बातें करने की इच्छा हो रही है। तू मेरी बात नहीं मानेगा? ...क्या रे बोलो ना , तू मेरी बात नहीं मानेगा ? (हाथ जोड़कर ) 'मैं जानता हूँ प्रभु -आप वही प्राचीन ऋषि नररूपी नारायण हैं। जीवों का दुःख दूर करने के लिए पुनः धरती पर जन्म ग्रहण किये हैं !' (दोनों फ्रिज )
पर्दा गिरेगा। .... समाप्त 
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 [एक बाउल गीत है - " सखी, मन की बात कैसे कहूं ? कहने की मनाही है ! 'मनेर कथा कईबो कि सेई कइते माना,.....दर्द को समझनेवाले के बिना प्राण कैसे बच सकेंगे ! दरदी नहोले प्राण बाँचे ना! जो मन का मीत होता है, वह देखते ही (नजरें मिलते ही) पहचान में आ जाता है! ... मनेर मानुष होय जे जना, नयने तार जायगो चेना, .....ऐसा तो कोई विरला होता है, जो निरन्तर आनन्द सागर बहता रहता हो ! .....से दू -एक जना, से जे रसे भासे प्रेमे डूबे।'  वचनामृत -४२१/ 
" एक स्त्री किसी मुसलमान को देखकर मुग्ध हो गयी थी, उसने उसे मिलने के लिए बुलाया। मुसलमान आदमी किन्तु अच्छा था, प्रकृति का साधु था। (प्रवृत्ति से निवृत्ति में आकर चरित्रवान मनुष्य बन गया था ?) उसने कहा -'আমি প্রস্রাব করব, আমার বদনা আনতে যাই।' आमि प्रस्राव कोरबो, आमार बदना आनते जाइ। ....  मैं पेशाब करूँगा, अपनी हण्डी ले आऊँ। ' उस स्त्री ने कहा -'हण्डी तुम्हें यहीं मिल जायेगी, मैं दूँगी तुम्हें हण्डी। ' उसने कहा - 'ना, सो बात तो नहीं होगी ! आमि जे बदनार काछे एकबार लज्जा त्याग कोरेचि, सेइ बदना ब्यवहार कोरबो, --आबार नूतन बदनार काछे निर्लज्ज होबो ना ! जिस हण्डी के पास मैंने एक दफे शर्म खोई, इस्तेमाल तो मैं उसी हण्डी का करूँगा- नयी हण्डी के पास दोबारा बेशर्म न हो सकूँगा। ' यह कहकर वह चला गया। औरत की भी अक्ल दुरुस्त हो गयी; हण्डी का मतलब वह समझ गयी। 

एक बाउल आया था, मैंने उससे पूछा - 'क्या तुम्हारा रस का काम हो गया ? कड़ाही उतर गयी ? रस को जितना ही जलाओगे, उतना ही रिफाइन (refine-परिष्कृत) होगा। पहले रहता है ईख का रस -फिर होता है राब-फिर उसे जलाओ -तो होती है चीनी-और फिर मिश्री। धीरे धीरे और भी साफ हो रहा है!  
बाउल जब सिद्ध हो जाता है, तब साईं होता है। तब सब अभेद हो जाता है। आधी माला गाय के हड्डियों की और आधी तुलसी की पहनता है। 'हिन्दुओं का नीर और मुसलमानों का पीर 'बन जाता है। शाक्त मत में सिद्धों को कौल कहते हैं। वेदान्त के मत से परमहंस कहते हैं। बाउल लोगों में साईं ही विकास की अन्तिम सीमा है। वैदिक मत में जिसे ब्रह्म कहते हैं, उसको वे अलख कहते हैं। साईं जो होते हैं , वे अलख जगाया करते हैं। जीवों के सम्बन्ध में वे कहते हैं -'जीव अलख से आते हैं और अलख में जाते हैं।' अर्थात जीवात्मा अव्यक्त से आता है और अव्यक्त में ही लीन हो जाता है। 
वे लोग पूछते हैं -'हवा की खबर जानते हो ?' अर्थात 'कुण्डलिनी के जागने पर, इड़ा,पिंगला और सुषुम्ना के भीतर से जो महावायु चढ़ती है उसकी खबर है? 'तुम स्वयं खाते हो या किसी को खिलाते हो ?'-इसका अर्थ यह हुआ कि जो सिद्ध होता है, वह अन्तर में ईश्वर को देखता है !
"साईं या सिद्ध बाउल पूछता है - 'किस पैठ में हो ? -छः पैठ ? छहों चक्र भेदन हुआ ? अगर कोई कहे कि पाँचवे में हैं, तो समझना चाहिये कि विशुद्धि चक्र तक मन (पृथक अहं) की पहुँच है। उसके बाद ही निराकार (विराट 'अहं') के दर्शन होते हैं। 
उसके बाद ठाकुर आलाप लेते हुए गाते हैं - 'तदऊर्ध्वते आछे मागो अम्बुजे आकाश। से आकाश रुद्ध होलो सकलि आकाश !' -अर्थात उसके उर्ध्वभाग में कमल आकाश है, उस आकाश के अवरुद्ध हो जाने पर सब कुछ आकाश हो जाता है। "कड़ाही कब उतरेगी ? अर्थात साधना की समाप्ति कब होगी ? -जब इन्द्रियाँ जीत ली जाएँगी। जैसे जोंक पर नमक छोड़ने से वे आप ही छूटकर गिर जाती हैं, वैसे ही इन्द्रियाँ भी शिथिल हो जाएँगी। स्त्री के साथ रहता है, पर वह रमण नहीं करता। " 

[ वचनामृत १४ सितम्बर १८८४/ " जो नित्य में पहुँचकर लीला लेकर रहता है, उसका ज्ञान पक्का है, उसकी भक्ति भी पक्की है। नारदादि ने ब्रह्मज्ञान के पश्चात भक्ति ली थी, इसी का नाम विज्ञान है।" 
अधर सेन का कर्म: प्रवृत्ति या निवृत्ति ? वचनामृत ७ सितम्बर १८८४: अधर डिप्टी मैजिस्ट्रेट (डी.एम) है, तीन सौ तनख्वाह पाते हैं। ९मार्च १८८३ को पहली श्रीरामकृष्ण का दर्शन हुआ था। उनका मकान बेने-टोला, कोलकाता में है। उम्र-२९-३० के आसपास है। उन्होंने कलकत्ता म्यूंसिपल्टी के वाइस चेयरमैन के लिए अर्जी दी है, क्योंकि वहाँ हजार रूपये महीने की तनख्वाह है। इसके पैरवी के लिए अधर कलकत्ते के बहुत बड़े बड़े आदमियों से मिले थे। हाजरा ने कहा था, यदि तुम जरा माँ से कहो तो अधर का काम हो जायेगा। अधर ने भी कहा था। मैंने माँ से कहा था, 'माँ ,यह तुम्हारे यहाँ आया जाया करता है, अगर उसे जगह मिलनी है तो दे दो-' परन्तु इसके साथ ह मैंने माँ से यह भी कहा था कि माँ, इसकी बुद्धि कितनी हीन है ? ज्ञान और भक्ति की प्रार्थना न करके तुम्हारे पास यह सब चाहता है !
(अधर से) क्यों नीच प्रकृति के आदमियों के यहाँ इतना चक्कर मारते फिरे ? इतना देखा और समझा, सातों काण्ड रमायण पढ़कर सीता किसकी भार्या थी, इतना भी नहीं समझे? 
सांसारिक जीवन व्यतीत करने में मनुष्य को न जाने कितने आदमियों को खुश करना पड़ता है, उसके अतिरिक्त और भी न जाने क्या क्या करना पड़ता है। जिसका काम कर रहे हो, उसी का करो। लोग तो सौ-पचास रूपये की नौकरी के लिए (सरकारी नौकरी-चपरासी बनने के लिए ) जान दे देते हैं, तुम तो इतने बड़े पोस्ट पर हो ! तीन सौ महीना पाते हो। उस देश में लड़कपन के दिनों में मैंने ईश्वर घोषाल नामक एक डिप्टी को देखा था -' सिर पर हैट और गुस्सा नाक पर'; डिप्टी कुछ कम थोड़े ही होता है! जिसका काम कर रहे हो, उसी का करते रहो। एक ही आदमी की नौकरी से मन ऊब जाता है, फिर पाँच आदमियों की नौकरी क्यों करना चाहिए ?  
श्रीरामकृष्ण : निवृत्ति ही अच्छी है, प्रवृत्ति अच्छी नहीं। इस अवस्था (भावमुख) के बाद मुझे तनख्वाह के बिल पर दस्तखत करने के लिये कहा था! मैंने कहा यह मुझसे न होगा, मैं तो कुछ चाहता नहीं। तुम्हारी इच्छा हो तो किसी दूसरे को दे दो। एकमात्र ईश्वर का दास हूँ, और किसका दास बनूँ ?  
पिता का वियोग हो जाने पर (निवृत्ति मार्गी ऋषि) नरेन्द्र को बड़ी तकलीफ हो रही है। माता और भाइयों के भोजन-वस्त्र के लिए वे नौकरी की तलाश कर रहे हैं। विद्यासागर के बहुबाजार वाले स्कूल में कुछ दिनों तक उन्होंने प्रधान शिक्षक का काम किया था। 
अधर - अच्छा, नरेन्द्र कोई काम करेगा या नहीं ? 
श्रीरामकृष्ण - हाँ, करेगा। माँ और भाई जो हैं।
अधर - अच्छा, नरेन्द्रेर पंचास टाकाये उ चले, एकसौ टाकाये उ चले। नरेन्द्र एकसौ टाकार जन्ये चेष्टा कोरबे कि ना ? .... अर्थात नरेन्द्र का काम पचास रूपये महीने की नौकरी से भी चल सकता है, और सौ रूपये की नौकरी से भी ! तो नरेन्द्र को सौ रूपये की नौकरी के लिए चेष्टा करनी चाहिए या नहीं ? 
श्रीरामकृष्ण: विषयी लोग (लस्ट और लूकर में आसक्त लोग) ही अधिक से अधिक धन पाने की लालसा करते हैं। वे सोचते हैं -'बाप बड़ा न भईया, सबसे बड़ा रुपईया' -अर्थात ऐसी चीज और दूसरी न होगी। शम्भु ने कहा - 'यह सारी सम्पत्ति ईश्वर के श्रीचरणों में सौंप जाऊँ, मेरी बड़ी इच्छा है !' वे (हीरो -भक्त) विषय (अधिक से अधिक भोग-सुख) थोड़े ही चाहते हैं ? वे तो ज्ञान, भक्ति, विवेक, वैराग्य यह सब चाहते हैं।    
"सेजो बाबू ने मेरे नाम एक ताल्लुका लिख देने के लिए कहा था। मैंने काली-मंदिर से उनकी बात सुनी। सेजो बाबू और हृदय एक साथ सलाह कर रहे थे।  मैंने सेजो बाबू से जाकर कहा, 'देखो, ऐसा विचार मत करो। इसमें मेरा बड़ा नुकसान है। ' 
अधर: जैसी बात आप कह रहे हैं, सृष्टि के आरम्भ से अब तक ज्यादा से ज्यादा ६-७ लोग ही इस प्रकार के हुए होंगे। 
श्रीरामकृष्ण : क्यों, त्यागी हैं क्यों नहीं? जो लोग मन से भी ऐश्वर्य का त्याग (लस्ट और लूकर में आसक्ति का त्याग ) कर देते हैं, लोग उन्हें देखकर ही समझ जाते हैं ! फिर ऐसे भी त्यागी पुरुष हैं, जिन्हें लोग नहीं जानते। क्या उत्तर भारत में अब भी ऐसे पवित्र पुरुष नहीं हैं ? 
अधर: कलकत्ते में एक को जानता हूँ, उनका नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर है। 
श्रीरामकृष्ण: कहते क्या हो ! -उसने जैसा भोग किया वैसा (राजा ययाति के बाद ?) बहुत कम आदमियों को नसीब हुआ होगा। जब सेजो बाबू के साथ मैं उसके यहाँ गया, तब देखा छोटे-छोटे उसके कितने ही लड़के थे-डाक्टर आया हुआ था, नुस्खा लिख रहा था। जिसके आठ लड़के और ऊपर से उतनी ही लड़कियाँ हो, वह ईश्वर की चिंता न करे तो और कौन करेगा ? इतने ऐश्वर्य का भोग करके भी, अगर वह ईश्वर की चिन्ता न करता तो लोग कितना धिक्कारते ! 
निरंजन : किन्तु, द्वारकानाथ टैगोर का सारा कर्ज उन्होंने चुका दिया था।  
श्रीरामकृष्ण: चल, रख ये सब बातें। अब जला मत। शक्ति-सामर्थ्य के रहते भी जो बाप का किया हुआ कर्ज नहीं चुकाता , वह भी कोई आदमी है ? " हाँ यह बात और है कि संसारी लोग जहाँ, अन्त तक बिल्कुल डूबे रहते हैं, उनकी तुलना में वह बहुत अच्छा था-वैसे लोगों को शिक्षा मिलेगी। 
"यथार्थ त्यागी (निवृत्ति मार्गी) भक्त और संसारी भक्त (प्रवृत्ति मार्गी) में बड़ा अन्तर है। यथार्थ संन्यासी -सच्चा त्यागी भक्त -मधुमक्खी की तरह है। मधुमक्खी फूलों को छोड़कर और किसी चीज पर नहीं बैठती। मधु को छोड़कर और किसी चीज का ग्रहण नहीं करती। संसारी भक्त दूसरी मक्खियों के समान है, जो बर्फियों पर भी बैठती है और सड़े घावों पर भी। अभी देखो तो ईश्वरी भावों में मग्न है, थोड़ी देर में देखो तो कामिनी और कांचन को लेकर मतवाले हो जाते हैं। 
सच्चा त्यागी भक्त चातक के समान होता है। चातक स्वाति नक्षत्र के जल को छोड़कर और पानी नहीं पीता, सात समुद्र और तेरह नदियाँ भले ही भरे हों। वह दूसरा पानी हरगिज नहीं पी सकता। सच्चा भक्त कामिनी और कांचन को छू भी नहीं सकता, पास भी नहीं रख सकता, क्योंकि कहीं आसक्ति न आ जाये। "  
" एक कम उम्र का संन्यासी (रैक्वमुनि) किसी गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिये गया। वह जन्म से ही संन्यासी था। संसार की बातें कुछ न जानता था। गृहस्थ की एक युवती लड़की ने आकर भिक्षा दी। संन्यासी ने कहा -'माँ, इसकी छाती पर कितने बड़े बड़े फोड़े हुए हैं ?' उस  लड़की की माँ ने कहा -'नहीं महाराज, इसके पेट से बच्चा होगा, बच्चे को दूध पिलाने के लिये ईश्वर ने इसे स्तन दिये हैं। -उन्हीं स्तनों से बच्चा दूध पीयेगा।' तब संन्यासी ने कहा , 'फिर सोच किस बात की है ? मैं अब भिक्षा क्यों माँगूँ ? जिन्होंने मेरी सृष्टि की है, वे ही मुझे खाने को भी देंगे। ' 
" सुनो, जिस यार के लिये सब कुछ छोड़ कर स्त्री चली आयी है, उससे मौका आने पर वह अवश्य कह सकती है कि तेरी छाती पर चढ़कर भोजन-वस्त्र लूँगी। 
"न्यांगटा कहता था कि एक राजा ने सोने की थाली और सोने की गिलास में साधुओं को भोजन कराया था। काशी में मैंने देखा है, बड़े-बड़े महन्तों का बड़ा मान है, कितने ही पश्चिम के धनवान लोग उनके सामने हाथ जोड़े खड़े थे, और कह रहे थे -'कुछ आज्ञा हो !' 
" परन्तु जो सच्चा त्यागी भक्त है, यथार्थ संन्यासी है (चाहे गेरुआ पहने या नहीं ?) वह न सोने की थाली चाहता है, और न मान। परन्तु यह भी है कि ईश्वर उनके लिये किसी बात की कमी नहीं रखते। उन्हें स्वयं प्रयत्न करके जिस किसी भी चीज को पाने की जरूरत होती है, वे पूरी कर देते हैं। 
" आप हाकिम हैं -आपसे क्या कहूँ -जो कुछ मेरे लिये (मुझे भावमुख में अवस्थित रहने में मददत करने के लिए) अच्छा समझो, वही करो। मैं तो मूर्ख हूँ " 
अधर -(हँसते हुए, भक्तों से)- क्या ये मेरी परीक्षा ले रहे हैं ? 
श्रीरामकृष्ण -(सहास्य) -निवृत्ति ही अच्छी है। देखो न, मैंने दस्तखत नहीं किये। ईश्वर ही वस्तु हैं और सब अवस्तु ! 
"अपने भीतर अगर दर्शन हो जायें तब सब हो गया। उसके (अन्तर्निहित ब्रह्मत्व के) देखने के लिए ही साधना की जाती है। और उसी साधना के लिए मनुष्य-शरीर मिला है। जबतक सोने की मूर्ति नहीं ढल जाती तबतक मिट्टी के साँचे की जरूरत रहती है। सोने की मूर्ति बन जाने पर मिट्टी का साँचा फेंक दिया जाता है। ईश्वर के दर्शन हो जाने पर शरीर का त्याग किया जा सकता है। 
" वे केवल अन्तर में ही नहीं हैं, बाहर भी हैं। काली-मन्दिर में माँ ने मुझे दिखाया, सबकुछ चिन्मय है। माँ स्वयं सबकुछ बनी हैं -प्रतिमा, मैं, पूजा की चीजें, पत्थर -सब चिन्मय है ! 
" इसका साक्षात्कार करने के लिए ही साधन-भजन , नाम-गुण-कीर्तन आदि सब हैं। इसके लिये ही उनकी भक्ति करना है। वे लोग (लाटू आदि) अभी साधारण भावों (द्वैत भाव) को लेकर हैं-अभी उतनी ऊँची अवस्था नहीं हुई है। वे लोग भक्ति लेकर हैं, इसलिये उनसे 'सोअहं' आदि (अद्वैत-विशिष्टाद्वैत आदि) की बातें मत कहना।" 
श्रीरामकृष्ण रात में काली के प्रसाद की दो-एक पूड़ियाँ, खीर पाने के लिए आसन पर बैठे हैं। भक्तगण सन्देश तथा कुछ मिठाइयाँ ले आये थे। एक सन्देश लेते ही रामकृष्ण ने कहा, ‘এ কোন্‌ শালার সন্দেশ?’
 -- यह किसका सन्देश है ? इतना कहकर खीरवाले कटोरे से निकालकर उस सन्देश को नीचे डाल दिया। (मास्टर और लाटू से ‘ও আমি সব জানি। ওই আনন্দ চাটুজ্যেদের ছোকরা এনেছে -- যে ঘোষপাড়ার মাগীর কাছে যায়।’ .... ये सब 'विज्ञान' मैं जानता हूँ। आनन्द चटर्जी का लड़का ले आया है जो घोषपाड़ा -वाली औरत के पास जाता है। " लाटू ने एक दूसरी बर्फी देने के लिए पूछा। 
श्रीरामकृष्ण : किशोरी लाया है। 
लाटू -क्या इसे दूँ ? 
श्रीरामकृष्ण -(सहास्य) -हाँ। 
मास्टर अंग्रेजी पढ़े हुए हैं। श्रीरामकृष्ण उनसे कहने लगे - " सब लोगों की चीजें नहीं खा सकता, क्या तुम यह सब मानते हो ?
मास्टर :  देखता हूँ, सब धीरे धीरे मानना पड़ेगा।
श्रीठाकुरदेव - हाँ ! 
एक पौराणिक कहानी है कि,  राजा उत्तम को अपने एक दोष के दंड में नरक देखने की सजा सुनाई गयी. जब वे उधर से गुजरे, तो यातना पा रही आत्माओं को बहुत राहत मिली. वे चीख-चीख कर आग्रह करने लगीं कि राजा साहब यहां से न जाएं!... राजा उत्तम ने जानना चाहा, ऐसा क्यों हो रहा है. उनके साथ आये अधिकारियों ने बताया, आपके सदाचरण की वजह से इनकी यातना कम हो जाती है.अधिकारियों ने उन्हें वापस ले जाना चाहा और कहा, आपकी सजा पूरी हो गयी; आपको एक छोटी सी भूल के कारण नरक दर्शन का कष्ट भोगना था! अब वापस चलें. राजा ने लौटने से मना कर दिया और कहा, मेरे यहाँ रहने से यदि इन आत्माओं की यातना कम होती है तो जब तक इनको मुक्ति नहीं मिलेगी, मैं यहीं निवास करूँगा! स्वामी विवेकानंद जब निर्विकल्प समाधि में पहुँचते हैं और तपस्या के उस सुख से बाहर आना नहीं चाहते, तो रामकृष्ण परमहंस उन्हें फटकारते हैं, इतना स्वार्थी हो जाना चाहता है. तुझे दीन दुर्बल असहाय की सेवा करनी है; भटकी हुई जनता को राह दिखानी है. उन्होंने इस बात को जाना कि तपस्या की कसौटी समाज है।  सुख ग्रहण में नहीं, त्याग में है। 'अनामदास का पोथा'  उपन्यास में रैक्व मुनि गाड़ी के नीचे बैठ पीठ खुजलाते थे और ध्यान करते थे. उनके गुरु और माँ ने बताया, संसार त्याग एकांत साधना तप नहीं है. तपस्या वह है, जो समाज के बीच में रहकर हो. [दादा कहते थे चरित्र निर्माण जंगल के सुनसान में बैठकर पकाने की चीज नहीं है] गाड़ी के नीचे बैठ पीठ खुजलाने की अपेक्षा उसमें अन्न भरकर उस अन्न को भूखों तक पहुंचाएं, यह बड़ी तपस्या है! शायद इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने भारत के युवाओं पर एक टास्क सौंपा है,'अरण्य में जन्मे वेदान्त को मठों के चहारदीवारियों से छीन कर, वन से निकाल कर घर-घर में बिखेर देने का समय आ गया है, रामकृष्णदेव की जन्मतिथि से सत्ययुग का प्रारम्भ -महामण्डल के चरित्रनिर्माण आन्दोलन के रूप में हो चूका है! ]
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