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गुरुवार, 30 नवंबर 2023

🕊🏹 स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित "स्वदेश मंत्र " की व्याख्या : विश्वमित्र -भारतवर्ष ! 🕊🏹 (Swamiji's Contemporary India : स्वामीजी का वर्तमान भारत )🕊🏹"विज्ञान पर विश्वास और आस्था (आत्मा) पर भरोसा (आशा ,श्रद्धा) "🔆


 स्वामीजी का समकालीन भारत  

 [Swamiji's Contemporary India]

('স্বামীজির বর্তমান ভারত')

{महामण्डल की बंगला पुस्तिका: 'स्वमीजिर वर्तमान भारत' का हिन्दी अनुवाद }

भूमिका 

   'स्वामीजी का समकालीन भारत'  शीर्षक यह  निबंध स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित मूल ग्रंथ 'वर्तमान भारत' (विवेकानन्द साहित्य ,खंड-9) पर कोई समालोचनात्मक निबंध नहीं है।  बल्कि श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय द्वारा लिखित यह पुस्तिका 'स्वमीजिर वर्तमान भारत' स्वामीजी द्वारा लिखित मूल पुस्तक 'वर्तमान भारत ' पुस्तक का संक्षिप्त और कई जगहों पर उसका सरलीकृत रूप मात्र है।  

     स्वामीजी की ऋषि दृष्टि दुनिया के प्रत्येक विषय को उसकी गहराई में पहुँचकर देखने में समर्थ थी, तथा उसके मर्म को सामान्य जनों के लिए उपलब्ध बना देती थी। सम्पूर्ण विश्व का धर्म , दर्शन , इतिहास, कला , साहित्य, सभ्यता-संस्कृति , विज्ञान ---कोई भी विषय ऐसा नहीं है , जिसके तह तक स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि न गयी हो। स्वामी विवेकानन्द ने किसी अन्वेषक (researcher)  की  तरह कहीं बैठकर मनुष्य की सत्ता (उसका यथार्थ स्वरुप) , उसका मन , उसका समाज, मानव समाज की उन्नति, रीति-नीति तथा उसका परिवर्तन,  सामाजिक क्रम-विकास तथा उसके नियमों का विश्लेषण  नहीं किया था, बल्कि देखने मात्र से ही वे समस्त विषय उनकी तात्क्षणिक प्रज्ञा (instantaneous intelligence) के समक्ष स्वतः उद्भाषित हो उठते थे! योगियों के इस  क्षमता या तकनीक (technology- विज्ञान) को ही (योगसूत्र 3. 54 : विभूतिपाद) में 'विवेकज-ज्ञान' या तारक ज्ञान अर्थात उद्धारक ज्ञान भी कहा गया है-

 "तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।।" योगसूत्र 3. 54 ।।    

सूत्रार्थ :- योगी की स्वयं की सामर्थ्यता ( योग्यता ) से उत्पन्न होने वाला, जो सभी पदार्थों के विषयों को, उनके सभी कालों ( भूत, वर्तमान व भविष्य ) को जानने वाला होता है । और यह सब बिना किसी क्रम अर्थात विभाग के ही पैदा होने वाला ज्ञान होता है । जिसे विवेक से उत्पन्न ज्ञान कहा जाता है।

व्याख्या :-  इस सूत्र में विवेक से उत्पन्न ज्ञान की चार विशेषताओं का वर्णन किया गया है। इस विवेक से उत्पन्न हुए ज्ञान की चार विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है :-तारक, सर्व विषय, सर्वथा विषय, अक्रम। 

1. तारक :- तारक से अभिप्राय उस ज्ञान से है जो योगी की स्वयं की बुद्धि से उत्पन्न होता है । उस ज्ञान का अन्य कोई माध्यम नहीं होता । साधना के उच्च स्तर पर जब साधक पर वैराग्य के भाव को प्राप्त हो जाता है । तब उसे इस प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति होती है । तारक को तारने वाला अर्थात इस संसार रूपी सागर को पार करवाने वाला भी कहा जाता है । यही ज्ञान योगी को कैवल्य की प्राप्ति करवाता है ।

2. सर्व विषय :- सर्व विषय का अर्थ होता है जो समस्त विषयों का साक्षात्कार कर सके । सर्व विषय शब्द का प्रयोग यहाँ पर सभी मोक्ष प्राप्त करवाने वाले पदार्थों के सन्दर्भ में प्रयोग किया गया है । अर्थात जो- जो पदार्थ योगी को मोक्ष प्रदान करवाने वाले होते हैं । उन सभी पदार्थों (धर्म, अर्थ और काम में अनासक्ति आदि) के विषयों का ज्ञान साधक को हो जाता है ।

3. सर्वथा विषय :- सर्वथा का अर्थ है सभी कालों अर्थात समय में सब पदार्थों को जानने वाला । विवेक जनित ज्ञान से योगी को सभी कालों में सब पदार्थों की सभी अवस्थाओं की जानकारी हो जाती है । सभी काल का अर्थ होता है पदार्थ की भूतकाल में क्या स्थिति थी ? वर्तमान समय में क्या स्थिति है ? और भविष्य में उसकी क्या स्थिति होगी ? आदि सभी अवस्थाओं का उसे भली – भाँति ज्ञान हो जाता है ।

4.अक्रम :- अक्रम का अर्थ होता है बिना क्रम अर्थात बिना किसी विभाग के । यह विवेक से उत्पन्न ज्ञान क्रम की सीमा से परे ( रहित ) होता है । क्रम में एक के बाद दूसरी अवस्था का ज्ञान होता है । जैसे सुबह के बाद दोपहर, दोपहर के बाद सांयकाल व सांयकाल के बाद रात्रि का ज्ञान होता है । लेकिन विवेक जनित ज्ञान के उत्पन्न होने से योगी को एक साथ ही सभी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । इसके लिए किसी क्रम की आवश्यकता नहीं रहती ।

इस प्रकार इस विवेक जनित ज्ञान से उपर्युक्त चार प्रकार की विशेषताएँ योगी में आती हैं । यह ज्ञान की उच्च अथवा सर्वोच्च अवस्था होती है । इसके जानने के बाद अन्य किसी को जानने की आवश्यकता नहीं रहती । यही ज्ञान योगी को कैवल्य की प्राप्ति करवाता है । ]

              विवेकानन्द साहित्य (10 खण्ड) का अधिकांश हिस्सा उनके  द्वारा दिए गए  मौखिक भाषणों का ही है।  किन्तु जो थोड़ा-कुछ उन्होंने स्वयं अपने हाथों से लिखा है - 'वर्तमान भारत' निबंध उनमें से एक है।  उनकी यह रचना पहले सर्वप्रथम रामकृष्ण मठ और मिशन की पाक्षिक पत्रिका ' उदबोधन' में  धारावाहिक रूप से लगातार प्रकाशित हुई थी;  बाद में इसको पुस्तक का रूप दिया गया था। [ बताते चलें कि 14  जनवरी, 1899 को मकर -संक्रांति के शुभ मुहूर्त पर कुमारी मैक्लॉड तथा अन्य एक-दो शिष्यों द्वारा दिए गए दान से एक मुद्रणालय खरीदकर 'उद्बोधन' नामक एक बंगाली पाक्षिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। स्वामी जी के गुरुभाई  स्वामी त्रिगुणातीतानंद को पत्रिका के व्यवस्थापन एवं प्रकाशन का कार्य सौंपा गया था।]

         जब 1905 ई० में यह धारावाहिक रचना पुस्तकाकार में पहली बार  प्रकाशित हुई थी, तब उनके एक और गुरुभाई स्वामी सारदानन्दजी ने इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखा था - " प्रस्तुत पुस्तक 'वर्तमान भारत' स्वामी विवेकानन्द की सर्वतोमुखी प्रतिभा द्वारा प्रस्तुत बंगाली साहित्य का एक अमूल्य रत्न  है। " स्वामी जी ने अपने परिव्राजक जीवन में, पर्यटन के दौरान दीर्घ दिनों तक  गर्वित राजाओं के राजमहलों से लेकर गरीब प्रजा की कुटियों तक, सभी प्रकार के मनुष्यों के साथ समदर्शी दृष्टि से [नारायण दृष्टि, वेदान्त डिण्डिम 'जीवो ब्रह्म नापरः' भाव से ]  मेल-जोल किया था।

 भारत तथा उसके विभिन्न प्रांतों में प्रचलित रीति-रिवाज, आचार -व्यवहार  और इस प्रकार सम्पूर्ण राष्ट्रीय चरित्र का उन्होंने अंतहीन अध्यन किया था और पूर्ण रूप से उसके निरपेक्ष स्वरुप का  दर्शन किया था । उसके कारण उनके मन में अपने देशवासियों के प्रति असीम प्रेम और उनके दुःख के प्रति एक गहरी सहानुभूति उनके हृदय में उमड़ गयी थी; और उसके परिणामस्वरूप उनके मन में भविष्य के भारत का जो चित्र अंकित हुआ था , यह पुस्तिका 'वर्तमान भारत ' उसी का परिचय कराने वाली पुस्तक है। 

      राज-परिवर्तन होने के बाद, आमतौर से वहां के पुराने शासन काल में लिखित इतिहास को बदलने की एक प्रवृत्ति  दिखाई देती है।  किन्तु, यहाँ उस तरह की कोई सम्भावना नहीं है, क्योंकि इस रचना को ' मन और मुख ' एक करके ही लिखा गया है।  इसलिए इस पुस्तक में मिथ्या प्रशंसा (flattery) का पूर्ण आभाव है , किन्तु कहीं कहीं सत्य कटुवाक्य (harsh words of truth) भी देखने को मिलता हैं।  यहाँ एक और बात स्मरण रखना जरुरी है।  लगभग 100 वर्षों पूर्व लिखा होने से भी,  इसमें प्रस्तुत मानव-इतिहास की धारा का विश्लेषण सर्वकालिक है। अतएव हमलोगों के  समकालीन भारत या हमारे  समय के 'वर्तमान भारत ' की पतनावस्था के कारणों एवं उससे बाहर निकलने के उपायों को जानने के लिए 'स्वामी विवेकानन्द के समकालीन भारत ' का अध्यन करना बहुत लाभदायक सिद्ध होगा। 

      जब यह रचना पहली बार प्रकाशित हुई थी, उस समय भी इस निबंध के भाषा की जटिलता और समझने में अस्पष्टता (incomprehensibility) को लेकर प्रबुद्ध समाज में एक चर्चा चली थी। और उस समय तो इसकी भाषा को लेकर बहस उठना बहुत स्वाभाविक भी था।  क्योंकि उस समय संस्कृत या अंग्रेजी भाषा पर पकड़ होना तो दूर की बात थी, बंगाल में भी बंगला भाषा में साहित्यिक गोष्ठियों के आयोजन की बहुत कमी थी।  इस पुनर्लिखित संकलन में, इसकी भाषा और विश्लेषण की जटिलता बहुत व्यापक रूप में  दूर न होने पर भी, उसे यथासंभव सरल बनाने की कोशिश की गयी है। इस संक्षिप्त पुस्तिका को पढ़कर  यदि वर्तमान भारत के थोड़े से युवा भी, स्वामी विवेकानंद के भारत- दर्शन से  थोड़ा भी आलोक यदि प्राप्त कर सकें, तो इसके प्रकाशन का परिश्रम सार्थक होगा। 

स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित और युवाओं के द्वारा बार बार सुना गया विख्यात 'स्वदेश मन्त्र ' इस 'वर्तमान-भारत ' पुस्तिका का अंतिम अध्याय है। 

प्रकाशक 

मई -1994.  
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" स्वदेश मन्त्र" 

(हिन्दी में)

" हे भारत ! यह परानुवाद ,परानुकरण , परमुखापेक्षा ,इन दासों की सी दुर्बलता ,इस घृणित ,जघन्य निष्ठुरता से ही, तुम बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करोगे ? क्या इसी लज्जास्पद कापुरुषता से, तुम वीरभोग्या स्वाधीनता प्राप्त करोगे ?
हे भारत ! मत भूलना की ,तुम्हारी नारी जाति का आदर्श -सीता,सावित्री और दमयन्ती है। मत भूलना कि , तुम्हारे उपास्य -उमानाथ ! सर्वत्यागी शंकर हैं ! 
मत भूलना कि ,तुम्हारा विवाह ,धन,और तुम्हारा जीवन ,इन्द्रिय-सुख के लिए ,अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नही है ! मत भूलना कि ,तुम जन्म से ही माता के लिए ,बलिस्वरूप रखे गए हो ! मत भूलना, कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया कि छाया मात्र है ! मत भूलना, कि नीच,अज्ञानी ,चमार और मेहतर; तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं !
हे वीर ! साहस का अवलम्बन करो ,गर्व से बोलो , कि मै भारतवासी हूँ ! और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। तुम गर्व से कहो, कि अज्ञानी भारतवासी ,दरिद्र भारतवासी ,ब्राह्मण भारतवासी ,चांडाल भारतवासी सब मेरे भाई हैं ! 
तुम भी कटिमात्र वस्त्रावृत हो कर ,गर्व से पुकार कर कहो, कि भारतवासी मेरे भाई हैं ! भारतवासी मेरे प्राण हैं! भारत के सभी देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं! भारत का समाज मेरी शिशुशय्या ,मेरे यौवन का उपवन और मेरे वार्धक्य कि वाराणसी है।  
भाई,बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है ! भारत के कल्याण में, मेरा कल्याण है । और रात-दिन कहते रहो कि ; हे गौरीनाथ ! हे जदम्बे ! मुझे मनुष्यत्व दो ! माँ ! मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो! माँ, मुझे मनुष्य बना दो !

----स्वामी विवेकानन्द  ।



[Swadesh Mantra in English]

" O India! Forget not that the ideal of thy womanhood is Sita, Savitri, Damayanti; forget not that the God thou worshippest is the great Ascetic of ascetics, the all-renouncing Shankara, the Lord of Umâ; 
forget not that thy marriage, thy wealth, thy life are not for sense-pleasure, are not for thy individual personal happiness; forget not that thou art born as a sacrifice to the Mother's altar; forget not that thy social order is but the reflex of the Infinite Universal Motherhood; 
forget not that the lower classes, the ignorant, the poor, the illiterate, the cobbler, the sweeper, are thy flesh and blood, thy brothers. Thou brave one, be bold, take courage, be proud that thou art an Indian, and proudly proclaim, "I am an Indian, every Indian is my brother."
Say, "The ignorant Indian, the poor and destitute Indian, the Brahmin Indian, the Pariah Indian, is my brother."
Thou, too, clad with but a rag round thy loins proudly proclaim at the top of thy voice: "The Indian is my brother, the Indian is my life, India's gods and goddesses are my God. 
India's society is the cradle of my infancy, the pleasure-garden of my youth, the sacred heaven, the Varanasi of my old age." Say, brother: "The soil of India is my highest heaven, the good of India is my good,"
 and repeat and pray day and night, "O Thou Lord of Gauri, O Thou Mother of the Universe, vouchsafe manliness unto me! O Thou Mother of Strength, take away my weakness, take away my unmanliness, and make me a Man!"
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🔱🙏स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित स्वदेश मंत्र की व्याख्या 🔱🙏   

  जिन शब्दों पर मनन करने से त्राण मिलता है उसी को "मंत्र " कहा जाता है। मनन करने में सुविधा हो इसी कारण मंत्र को संक्षिप्त ही रखा जाता है, किंतु उसका अर्थ तथा प्रभाव गंभीर सुदूर प्रसारी होता है। 
यह भारत (मोदियुग से तुरंत पहले की अवस्था) -- भी स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त " स्वदेश-मन्त्र " का मनन और तदनिर्देषित आचरण करने से भारत अपना खोया हुआ प्राचीन गौरव पुनः प्राप्त कर पुनः एक महान राष्ट्र (विश्वमित्र -भारतवर्ष ) बन सकता है। जिस प्रकार कुरुक्षेत्र में अर्जुन को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर, भगवान श्री कृष्ण ने ललकारते हुए कहा था- 

क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
               क्षुद्रं  हृदयदौर्बल्यं  त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।। गीता २/ ३

" हे अर्जुन! ऐसे विषम समय में  आर्यों को शोभा न देने वाला, स्वर्ग-विरोधी और अपकीर्ति प्रदान करने वाला मोह तुम में कहाँ से आ गया है? गांडीवधारी पार्थ! नपुंसकों के जैसा आचरण तुझे शोभा नहीं देता, अतः ह्रदय की इस दुर्बलता को त्याग कर उठ खड़े हो जाओ! 
     उसी प्रकार जब हजारों वर्षों की गुलामी के फलस्वरूप सभी भारतवासी हताश और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे, तब स्वामी विवेकानन्द ने भी ठीक श्रीकृष्ण के अंदाज में भारतवासियों को ललकारते हुए अपनी समस्त दुर्बलताओं  को त्याग  देने का आह्वान जिस " स्वदेश-मंत्र " के माध्यम से किया था - आइये उस मंत्र में प्रयुक्त शब्दों पर मनन किया जाय:- 
 "परानुवाद",अर्थात दूसरों की हर बात में हाँ में हाँ मिलाना, चाटुकारिता।  "परानुकरण"- दूसरे (पाश्चात्य देश) की चाल-ढाल, वेश-भूषा का अन्धानुकरण करते हुए," परमुखापेक्षी होना" मतलब आत्मविश्वास खो कर हर बात के लिए पश्चिम (उस समय इंग्लैण्ड आज अमेरिका) का मुख देखने वाली मानसिकता। ये सभी शब्द उन भयंकर मानवीय  दुर्बलताओं के नाम  हैं, जो केवल दासों (गुलाम-जाति) में ही पायी जाती  हैं
जो स्वयं को " उच्च शिक्षित और बुद्धिजीवी " समझ कर फूले नहीं समाते,  जरा आत्म-विश्लेष्ण कर के देखें, कि उन्होंने थोड़ा अर्थ कमाने वाली विद्या के साथ साथ,  धर्म के विषय में जो  कुछ अल्प-ज्ञान अर्जित किया  है, उसको  उन्होंने कहीं अपनी स्वार्थबुद्धि से  प्रेरित होकर, या सिर्फ इसीलिए तो अर्जित तो नहीं किया है कि  अपने अन्य भाइयों की अपेक्षा उन्हें  कुछ विशेषाधिकार भोगने (लाल बत्ती की गाड़ी) का अवसर मिल  जायेगा ?
 "घृणित और जघन्य निष्ठुरता " से बड़े बड़े अधिकार प्राप्त करने की इच्छा का तात्पर्य-  यही है कि स्वयं को ' कुलीन ' वंश में उत्पन्न समझने वाले लोग, उन मनुष्यों के प्रति  जो  सामाजिक स्तर पर हम से पिछड़ गए हैं , मन में घृणा रखते हुए, हृदयहीन होकर उनके साथ निष्ठुर व्यवहार करते हैं, उनका शोषण और तिरस्कार रूपी जघन्य वृत्तियों का अवलंबन करते रहते हैं;  क्या इस प्रकार का आचरण करने से उन्हें कभी उच्चाधिकार प्राप्त हो सकता है? यह तो वीरता नहीं कापुरुषता है।
 यदि हम सचमुच सम्मान और बड़े-बड़े अधिकार पाना चाहते हों तो हमें समदर्शी बनना होगा, और दूसरों को भी अपने ही जैसा मनुष्य समझ कर, सबों को अपना ही जानते हुए, एकात्मता एवं सहानुभूति को अपनाते हुए इस क्षूद्र स्वार्थ-बुद्धि को त्याग देना होगा। इसके लिये पहले हमें अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखने की विद्या अर्जित करनी होगी।  दूसरों को सम्मान देने और सबों का कल्याण करने में तत्पर व्यक्ति को ही उच्चाधिकार प्राप्त होता है। मन और इन्द्रिय के दासों को उच्चाधिकार नहीं मिल सकता। स्वतंत्र तो वही है जो अपने इन्द्रिय-मन का गुलाम नहीं है, जिसने अपने मन को जीत लिया है, जो निजी स्वार्थ और कामना-वासना का दास नहीं है वही बड़े-बड़े अधिकार प्राप्त करने का योग्य पात्र है
         भगवान श्री कृष्ण ने जिस कापुरुषता को आर्यों (श्रेष्ठ जनों) के लिए अनुपयुक्त और अपकीर्तिकर कहते हुए धिक्कारा था, उसी को स्वामीजी "लज्जाकर" कहते हैं। ये दुर्बलताएं हैं, अर्थात मनुष्य होकर भी ' मन और इन्द्रियों गुलाम ' बने रहना ही लज्जाकर कापुरुषता है, जिन्हें दूर करना होगा। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष में भी स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ' दुर्बल तथा कापुरुष  ' मनुष्यों  के द्वारा स्वाधीनता कि प्राप्ति और रक्षा भी सम्भव नहीं  है। केवल वैसे वीर पुरूष-ही व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वाधीनता का उपभोग कर सकते हैं जिन्होंने अपने मन पर विजय प्राप्त कर लिया हो। इसिलिये स्वमीजी ने अन्यत्र कहा था-" वीरानामेव करतल गता मुक्तिः ।" अर्थात मुक्ति (देहाध्यास के भ्रम से मुक्ति की अवस्था) भी केवल वीर पुरुष ही प्राप्त कर सकते हैं
      वर्तमान-भारत जिन मनुष्योचित मूल्यों को भूलता जा रहा है, स्वामीजी यहाँ उसका स्मरण भी करा देते हैं। अन्यत्र उन्हों ने कहा है- " जिस देश  में नारी जाती का आदर्श सुरक्षित नहीं रह पाता, उस देश का अधोपतन हो जाता है।" सतीत्व और मातृत्व के आदर्श को बचाये रखकर नारियों में जागृति लानी होगी, तभी उनका जीवन आलोकित होगा तथा भारत का भविष्य और भी उज्ज्वल होगा।  पर साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि नारियों का वास्तविक कल्याण, नारियों द्वारा ही सम्पादित होगा। इसीलिए यहाँ वे भारत की नारी-जाती के "सतीत्व" की गौरवपूर्ण आदर्श प्रतीकों -सीता, सावित्री,दमयंती के नामों का स्मरण भी करा देते हैं।  पश्चिमी संस्कृति के अन्धानुकरण की दौड़ में फंस कर यदि नारी-जाती के सतीत्व गुण के इन महान आदर्शों को त्याग दिया गया तो भारत का पुनरुत्थान कभी सम्भव न होगा। 
      "रामायण" तथा "महाभारत" आदि शास्त्रों को हमारे देश भारतवर्ष के राष्ट्रीय इतिहास के रूप में मान्यता प्राप्त है। नारी-आदर्श के तीनों उज्ज्वल नामों को स्वामीजी ने अपने इन्हीं ऐतिहासिक ग्रंथों से उधृत किया है। रामायण में 'सीता' के सतीत्व का अपूर्व वर्णन मिलता है, तथा महाभारत में- 'सावित्री' और 'दमयंती' के भव्य आदर्श को चित्रित किया गया है। सनातन भारतीय जीवन के इतिहास में इन तीनों सतियों के नाम, चिर काल से अमलिन और अक्षुण बने हुए हैं।
       एक स्थान पर स्वामीजी कहते हैं- " महिमामयी सीता साक्षात् पवित्रता की अपेक्षा अधिक पवित्रतरा हैं, वे तो सहिष्णुता की चरम आदर्श हैं।" उन्हों ने सीता, सावित्री, दमयन्ती आदि नामों के साथ-साथ लीलावती, खना, मीरा, मैत्रेयी, गार्गी, झाँसी-की-रानी, आदि भारतीय नारी आदर्शों का उल्लेख बहुत श्रद्धा के साथ किया है। स्वामीजी अन्यत्र कहते हैं-" नारी-चरित्र के जितने भी आदर्श गुण हैं, वे सभी एक साथ 'माता सीता' के चरित्र में दृष्टिगोचर होते हैं।" फ़िर उन्हों ने -सीता, सावित्री और दमयन्ती इन तीन नामों का क्यों उल्लेख किया? क्योंकि इन तीनों नारी-आदर्शों में जो गुण मूल रूप में विद्दमान है, वह गुण है-"पवित्रता"। इनकी पवित्रता सैंकडों दुःखद परीक्षाओं से गुजरने पर भी कहीं पराभूत नहीं होती।
      सीता तो जन्म-दुःखिनी ठहरीं, परन्तु कोई भी दुःख उन नित्य-साध्वी, नित्य विशुद्ध-स्वभाव को आदर्श-पत्नी सत्ता से विचलित न कर सका। जबकि सावित्री और दमयन्ती जन्म-दुःखिनी नहीं  थीं, दोनों राजमहलों में पलीं और बढी थीं। किंतु सावित्री ने मन ही मन एक बार जब 'सत्यवान' को अपना पति मान लिया और  बाद में ज्ञात हुआ कि वर्ष के अंत में उनके पति का शरीर नहीं रहेगा, तब भी अपनी एकनिष्ठ पवित्रता को उन्हों ने नहीं त्यागा। पति से वियोग हो जाने के पश्चात् वह भी 'नचिकेता' के समान यमराज के समक्ष पहुँच कर उनकी जिज्ञाषा को संतुष्ट कर अपने पति के प्राण वापस लौटा लाती हैं। 
  उधर दमयन्ती सुख-चैन से रहने कि आश ले कर 'रजा नल ' के साथ विवाह करतीं हैं, किंतु सर्वस्व हार चुके 'राजा-नल' के वन-गमन में उनकी अनुगामिनी होकर जाती हैं। तथा राजा नल के द्वारा वन में त्याग दिए जाने पर भी वे अपने पतिव्रत-धर्म कि अवमानना नहीं करतीं,  बल्कि अपनी सहिष्णुता और एकनिष्ठता के बल पर, 'बुद्धि-योग' का सहारा ले कर अपने पति का प्रत्यावर्तन सम्भव कर लेतीं हैं। जीवन-वृतांतों में विभिन्नता रहने पर भी ये तीनों नारियाँ-पातिव्रत्य,सहिष्णुता, और मातृत्व में अनन्या स्मरणीय,पूज्या तथा आदर्शस्वरूपा हैं। ये ही भारतीय नारियों के लिए मूल प्रेरक आदर्श उदाहरण हैं।
    भारत को उसके उपास्य देवता- "भगवान शंकर" के अनुकरणीय लक्षणों का स्मरण कराते हुए, उसे पुनः 'शिवत्व' या कल्याण की उपासना करने का निर्देश देते हैं। इनकी उपासना करने की सर्वश्रेष्ठ विधि है-अपने जीवन में 'त्याग' को धारण करना।  परम कल्याण की प्राप्ति सर्वस्व-त्याग से ही होती है, इसीलिए हमें अपने उस 'क्षुद्र-अहम्' (कच्चा मै) को त्याग देना चाहिए जो सदैव अपने भोगसुख, स्वार्थ, पशुप्रवृत्ति, निष्ठुरता और इन्द्रियों की गुलामी में ही आसक्त रहना चाहता है। क्योंकि इस 'क्षुद्र-अहम्' को त्याग देने पर ही परम-कल्याण या 'सार्वभौमिक-कल्याण'-"शिवत्व " की प्राप्ति हो सकती है। इसीलिए - "सर्वत्यागी भगवान 'शंकर' ही भारत के आदर्श या उपास्य देवता हैं।  [अपने क्षुद्र अहंकार को त्याग कर पुरुषार्थ करने के लिए 'बाबा बौखनाग' # रूपी भगवान शंकर की शरण में जाने के बाद ही 41 मजदूर सकुशल बाहर निकले।]
    शक्ति के बिना कोई भी वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती, अतः शक्ति के महत्व को इंगित कराने के लिए कहा- " उमानाथ सर्वत्यागी भगवान शंकर" अर्थात वे परम-कल्याण रूपी शिव केवल "उमा" या शक्ति की कृपा से ही मिल सकते हैं। उपनिषदों में भी 'उमा हैमवती' के रूप में शक्ति के आविर्भूत होने की कथा मिलती है।  इसी कारण स्वामीजी हमें अपने प्राचीन शत्-शास्त्रों को विस्मृत करने से मना करते हैं। सांसारिक-जीवन में धन-अर्जन, विवाह, इन्द्रिय-सुख आदि के अवसर प्राप्त हो जाते हैं; परन्तु हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए की ये सभी (धर्म, अर्थ और काम) केवल अपने निजी सुख-भोग प्राप्त करने के लिए नहीं है। ये सब भी समाज और देश का मंगल करने हेतु प्राप्त हुए हैं। मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन जाने-अंजाने आजन्म मातृभूमि की सेवा में समर्पित है, बलिस्वरूप है। 
क्योंकि यह सृष्टि कल्याणस्वरूप शंकर या ईश्वर की शक्ति- 'महामाया-उमा' की रचना है। यह मानव-समाज, देश, जगत सबकुछ उन्ही का प्रतिबिम्ब (परछाई या छाया) मात्र है। वे ही आदि-शक्ति, जगत-प्रसविनी, जगत-जननी माँ -'जगदम्बा' हैं। वस्तुतः "माता जगदम्बा" ही हमारी; "भारत-माता" हैं। यदि हम जन्म-जन्मान्तर तक स्वयं को उन्ही 'राष्ट्र-माता' के चरणों में समर्पित कर दें, अपने 'क्षुद्र-अहं ' को बलिस्वरूप बना कर सारे भारतवासियों के मंगल साधना का व्रत उठा लें; तभी समाज का यथार्थ कल्याण हमसे सम्भव होगा,और हमारा जीवन भी धन्य हो जाएगा। 
   इस 'दृष्टि '  को प्राप्त कर लेने पर [जगत ईश्वर (नारायण-नारायणी)से भरा हुआ है- इस दृष्टि को प्राप्त कर लेने पर ], हम फ़िर किसी को भी अपने से हीन समझ कर उसे अज्ञ, मूर्ख, नीच-जाती, अनार्य या मलेच्छ जैसे नामों से कैसे सम्बोधित कर सकते हैं? फ़िर हम किसी भी मनुष्य को उसकी,"जाति-धर्म" के आधार पर - " ये लोग हमारे नहीं हैं " कह कर अपने से भिन्न कैसे समझ सकते हैं? यही परम-उदार ज्ञानमयी दृष्टि सम्पूर्ण जगत को 'ब्रह्ममय' देखने लगती है।  यही दृष्टि कहती है- " कोई पराया नहीं, सम्पूर्ण जगत तुम्हारा अपना है।"...नीच जाति, मूर्ख, अज्ञ, दरिद्र, मोची और मेहतर सभी- "तुम्हारे रक्त " तथा तुम्हारे ही 'भाई' हैं। " 
        परानुकरण करने में रत तात्कालीन-भारत (स्वामीजी का समकालीन भारत) "- स्वयं को भारतवासी कहने में भी संकोच करने लगा था, इसीलिए स्वामीजी साहसपूर्वक,गर्व के साथ स्वयं को "भारतवासी" कहने का निर्देश देते हैं।  चूँकि "समदर्शन " के इस सिद्धांत का आविष्कार प्राचीन काल में भारतवर्ष में ही हुआ है, इसी आध्यात्मिक ज्ञान के गौरव से भर कर घोषणा करने के लिए कहते हैं- " गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूँ ; और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है।" यह राष्ट्रीय एकता, राष्ट्र-पुनर्गठन, तथा एकत्वबोध का अनुपम सूत्र है। यहाँ मूर्ख, दरिद्र, ब्राह्मण, चाण्डाल सभी 'एकाकार' हो जाते हैं, वे सब मेरे भाई हैं, मेरे ही प्राणस्वरूप हैं। 
      विदेशियों के बहकावे में आकर अपने देश के जाग्रत देवी-देवताओं (बाबा बौखनाग) को भूल मत जाना, वे सब हमारे सर्वमंगलदाता ईश्वर हैं, सर्वगत स्वरूप में 'वे' ही विराजित हैं। भारत के समाज में (रैट माइनर्स में ?)  इतनी क्षमता है कि वह हमारे शैशव, यौवन, और बृद्धावस्था की समस्त आकांक्षाओं को पुरा कर सकता हैपरमुखापेक्षी होने कि आवश्यकता नहीं है। यदि कहीं स्वर्ग है, तो देश कि मिट्टी ही स्वर्ग है। सम्पूर्ण भारत के कल्याण में ही मेरा व्यक्तिगत कल्याण भी निर्भर करता है। 
इस मंत्र में व्यक्ति का निजी शुभ-अशुभ पुरी तरह से देश के शुभाशुभ के साथ एकाकार हो गया है, इसीलिए यह स्वदेश-मंत्र है।  इसी मंत्र के अनुचिंतन से भारत का पुनरुत्थान होगा, अतः हमे इसी मंत्र का ध्यान करना चाहिए। इसिके लिए हमे एकाग्र मन से 'उमानाथ' के श्री चरणों में दिन-रात प्रार्थना करनी चाहिए। शक्तिस्वरूपा महामाया जगदम्बा से प्रार्थना है कि हमारी अकर्मण्यता, कापुरुषता आदि को दूर कर दें। एक बार फ़िर से भारतवर्ष अपनी तमोगुण जन्य पशुता और जड़ता के ऊपर विजय प्राप्त  कर- " मननशील, मनीषी, मुनि " बन जाये। भारत ने जिस आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, आत्म-निर्भरता को खो दिया था उसे पुनः प्राप्त करने के लिए हमलोगों को 'जगदम्बा' से केवल इतनी ही  प्रार्थना करनी है कि- " माँ मुझे मनुष्य बना दो !" अर्थात हे माँ ! तू मुझे भी ऐसे  "मनुष्यत्व" का अधिकारी बना दे, जो अपनी शक्ति को जान ले,जो सब को अपना समझे, जो त्याग करने में समर्थ हो, जो परहित के लिए अपने प्राणों को भी न्योछावर करने को भी तत्पर रहे
इसी मंत्र की साधना करने से ऐसे हजारों "नवीन मनुष्यों " -का निर्माण किया जा सकता है, जो यह विश्वास करेगा  कि बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानवमात्र का अधिकार है। और उस अध्यात्म विद्या के प्रचार-प्रसार द्वारा भारत की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाकर ही वर्तमान भारत (हमलोगों के समकालीन भारत) को विश्व-मित्र (गुरु) भारत में रूपांतरित किया जा सकता है। 
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(श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय लिखित मूल बंगला पुस्तिका- " स्वामिजीर वर्तमान भारत " के १२ वें परिच्छेद का हिन्दी भावानुवाद ) [बंगला भाषा में मई 1994 में प्रकाशित और 27 नवमबर 2023- 18 जनवरी, 2020 में हिन्दी में अनुवादित] 
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'स्वामी विवेकानन्द का समकालीन भारत'

[एक]

   स्वामी विवेकानन्द का 'वर्तमान भारत ' उनकी मौलिक रचनाओं में से एक है। स्वामी जी द्वारा मूल बंगला भाषा में लिखित यह रचना सबसे पहले मार्च, 1899 ई ० (बंगाब्द 1312) में 'उद्बोधन' पत्रिका में धारावाहिक रूप से 7  अंकों में प्रकाशित हुई थी। बाद में इन रचनाओं को एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तिका में स्वामी विवेकानन्द के इतिहास बोध या इतिहास दर्शन का अद्भुत परिचय प्राप्त होता है।
     'ऐतिहासिक विश्लेषण (Historical Analysis) प्रणाली '  की दृष्टि से यदि देखा जाय तो यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि, तो इस निबंध में जो चर्चा का विषय है, वह विज्ञान-आधारित (Scientific History) है; एवं  ऐतिहासिक युग से वर्तमान काल तक सम्पूर्ण भारत के इतिहास का एक जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करता है।  इसलिए , इस छोटी सी पुस्तिका में प्राग-ऐतिहासिक काल (Prehistoric Era) से लेकर वर्तमान युग तक के मानव सभ्यता की ऐतिहासिक -धारा की पृष्ठभूमि में भारत के इतिहास की एक आदर्श और सम्पूर्ण छवि  प्रस्फुटित हुई  है। भारतवर्ष  की वह छवि जो ' अन्वेषणशील यशोलिप्स सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न'  पश्चिमी शोधकर्ताओं और वामपन्थी इतिहासकारों की के लिए अभी तक अगोचर थी, भारत की वही  गौरवपूर्ण छवि भी इस ग्रन्थ के पाठकों के लिए  इन्द्रियगोचर प्रतीत होने की सम्भावना है। 
      'इतिहास' को कभी केवल बीते हुए कल की कहानी मात्र ही नहीं समझना चाहिए। (ইতিহাস শুধু অতীত কখন নয় " - History is not just the past) इतिहास-लेखन का सच्चा दायित्व है - वर्तमान में खड़े होकर अतीत की घटनाओं का सिंहावलोकन करते हुए, उससे शिक्षा ग्रहण कर भविष्य के सही मार्ग का संकेत देना। स्वामी विवेकानन्द के इस निबन्ध में हमलोग भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जिस प्रकार यथार्थ रूप में और स्पष्टता पूर्वक देख सकते हैं, वैसा कहीं और देख पाना बहुत कठिन है। 
       प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी अपनी जाति या राष्ट्र के वास्तविक इतिहास के विषय में समुचित ज्ञान का रहना , उसके व्यक्तिगत और सामुहिक उन्नति के लिए आवश्यक है। इस पुस्तिका में भारतीय सामाजिक संरचना का इतिहास , उसका वर्गीकरण, विशेष युग में विशेष वर्गों का प्रभुत्व (dominance), श्रेष्ठता  (supremacy) और प्रभाव (influence), उनके दोषो और गुणों का विश्लेषण, पूरे समाज पर उसका परिणाम , व्यक्ति और समाज का परस्पर सम्बन्ध, तथा भविष्य के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश, मानवीय मनीषा के सचेतन प्रयत्न की आवश्यकता और भविष्य का दिशानिर्धारण की ऐतिहासिक-वैज्ञानिक प्रक्रिया आदि विषय सन्निवेशित किये गए हैं।
       स्वामी जी ने जिस युग के भारत को अपना समकालीन भारत या 'वर्तमान भारत ' कहा था , उससे हमलोगों के समकालीन भारत (आज के भारत) की अवस्था में कोई विशेष मौलिक परिवर्तन न दिखने से भी, स्वामी जी के इस निबंध की उपयोगिता में रंचमात्र की कमी नहीं हुई है। इस पुस्तिका में सन्निवेशित स्वामी जी के विचारों का क्रमवार ढंग से समीक्षा करना ही इस निबंध का उद्देश्य है।

[दो ]

    वैदिक पुरोहितों की शक्ति (ब्राह्मणों की शक्ति) मंत्रबल में थी। यज्ञ करते समय वे देवताओं का आह्वान वैदिक मंत्रों से किया करते थे। उनके मंत्रबल से देवता लोग स्वर्ग को छोड़कर, उनके द्वारा आहुति के रूप में अर्पित भोज्य और पेय ग्रहण करते और उनके यजमानों को वांछित फल प्रदान करते थे। इससे राजा और प्रजा दोनों ही अपने  सांसारिक सुख के लिए,  इन ब्राह्मण पुरोहितों का मुँह जोहा करते थे। जिसके परिणाम स्वरुप सामान्य जनता 'मनुष्य -बल' की अपेक्षा 'दैव-बल'  पर अधिक निर्भरशील हो गयी थी। पुरोहित लोग राजाओं को कभी डर दिखाकर आज्ञाएँ देते, कभी मित्र बनकर सलाह देते, कभी चतुर नीति की जाल बिछाकर (Network expansion) उन्हें फँसाते थे। इसलिए  इन सबके आलावा उनका यश और उनके पूर्वजों की कीर्ति  की आकांक्षा से राजा लोग इन पुरोहितों की कृपा पर निर्भर थे। [राठौर, चौहान, शिशोदिया, लोहतमियां, ढेकहा आदि वर्गीकरण  इन्हीं पुरोहितों की लेखनी के अधीन थी। क्योंकि वे ही उस समय के इतिहासकार भी थे। ९/२०१]  
     एक ओर  'राजरवि' (सूर्य तुल्य राजा लोग) कभी राज्य-रक्षा के नामपर, कभी अपने भोग-विलास के लिए, तो कभी अपने परिवार की पुष्टि के लिए और सबसे बढ़कर पुरोहितों के तुष्टिकरण के लिए, सूर्य की भाँति ही अपनी प्रजा के धन को सूखा दिया करते थे। फिर, 'वैश्य' लोग तो मानों राजा के लिए दुधारू गायों (milch cows) जैसे थे, अर्थात उनके धन का मुख्य स्रोत थे। शोषण के लिए कर उगाहने में मतामत प्रकट करने का कोई अधिकार प्रजावर्ग के पास नहीं था। प्रजा अपने सामर्थ्य को यदा-कदा अप्रत्यक्ष और अव्यवस्थित रूप प्रकट किया करती थी। " २०२ ]  
       इस पुस्तिका के प्रारम्भ में ही स्वामी विवेकानन्द जिस 'शक्तितत्व' को प्रस्थापित करना चाह रहे हैं , वह यही है कि प्रजा अपनी शक्ति के अस्तित्व के विषय में बिल्कुल अनजान थी और आज भी वह अपनी शक्ति (व्यष्टि वोट/एक वोट  की समष्टि शक्ति) के प्रति अनभिज्ञ है।  जिस कौशल से छोटी छोटी शक्तियाँ , एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए, आपस में मिलकर (व्यष्टि शक्तियों के एकीकरण द्वारा) प्रचण्ड ऊर्जा का केंद्र बन जाती हैं उस सहमति या सम्मिलित बुद्धि की शक्ति (मतैक्य -विद्या) कहते हैं, उस 'संयुक्त उद्यम' (संघ-शक्ति) का घोर अभाव था।
उस कौशल से अनभिज्ञ रहने के कारण छोटी छोटी शक्तियों (व्यष्टि शक्तियों) के सम्मिलन से जिस प्रचण्ड शक्ति का निर्माण होता है, उससे लोग परिचित नहीं थे।   प्रजा के लिए यह सम्भव ही नहीं था कि वह ऐसी शिक्षा प्राप्त कर पाती, जिससे कि वह cooperative बनाकर या आपस में मिलकर (समष्टि शक्ति) के प्रयास से लोकहित के कार्यों में अपना नियोग कर पाती। 
       अथवा राज-कर के रूप में लिए गए प्रजाधन (टैक्स आदि) या अपने ही धन पर अपना मालिकाना हक  रखने की बुद्धि उसमें उत्पन्न होती। अर्थात यह कि साधारण जनता के कल्याण के उद्देश्य से राष्ट्र के बजट या आय -व्यय के नियमन करने का अधिकार प्राप्त करने की इच्छा और उस प्रकार की  शिक्षा प्राप्त करने की सम्भावना भी उस समय के प्रजा वर्ग के पास नहीं था ।
   राज-कार्य में वार्षिक आम बजट बनाकर, प्रजा से अनुमति लेने की पद्धति --जो आजकल के प्रजातांत्रिक व्यवस्था का मूलमंत्र है, --' इस देश में प्रजा का शासन , प्रजा के द्वारा और प्रजा के हित के लिए होगा ' --(government of the people of this country must be by the people and for the good of the people") — तात्कालीन भारत में वह नहीं थी, वैसी बात नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि ग्राम-पंचायतों में गणतांत्रिक शासन-पद्धति का बीज अवश्य था; और अब भी अनेक स्थानों में है।  पर वह बीज जहाँ बोया गया, वहाँ वह अंकुरित ही नहीं हो सका । और यह प्रजातांत्रिक विचारधारा गांव की पंचायतों "Government by the Five" को छोड़कर आम जनता तक कभी पहुँच ही न सकी।
      प्रजा का कल्याण करने वाले राजा बिल्कुल नहीं थे, ऐसा नहीं था पर उनकी संख्या बहुत थोड़ी थी। फिर कोरी पुस्तकों के नियमों में (संविधान, या मनुस्मृति में लिखित नियमों में) तथा उनके क्रियान्वन में ,आकाश -पाताल का अन्तर होता है। सभी के लिए कानून एक जैसा नहीं था। इसी लिए कई स्थानों में राजा लोग रक्षक नहीं रहकर भक्षक बन गए थे। दूसरी ओर देवतुल्य राजाओं के द्वारा बड़े यत्न से पाली हुई प्रजा कभी स्वायत्त शासन या 'self - government' चलने की पद्धति सीख ही नहीं पाती। हर बात में सदा राजा का मुँह ताकने के कारण वह धीरे धीरे कमजोर और निकम्मी हो जाती है। ऐसा  पालन और रक्षण ही बहुत दिनों तक रहने से, प्रजा की सत्यानाश का वही कारण बन जाता है। 
[ तीन ]

       इस निबंध में स्वामी विवेकानन्द यह दिखाना चाह रहे हैं कि बौद्ध-धर्म का अभ्युदय होने के साथ ही साथ पुरोहित शक्ति का ह्रास (ब्राह्मणों की शक्ति का ह्रास) और राजशक्ति ( क्षत्रियों की शक्ति) का विकास हुआ था। क्योंकि 'ब्राह्मण युग' में मनुष्य-बल के ऊपर दैव -बल को स्थान दिया जाता था। [ कारण, मानव-बल के केंद्र समझे जाने वाले राजा लोग, स्वयं उन्हीं पुरोहितों की कृपा के भिखारी थे।] वेदों में “ नहि मानुषात् श्रेष्ठतर हि किंचित। -अर्थात मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है " का आदर्श रहने पर भी उसे कार्य में परिणत नहीं किया जा सका था। किन्तु बौद्ध-धर्म ने यह सिद्ध कर दिया था कि - 'बुद्धत्व' प्राप्ति में मनुष्य मात्र का  अधिकार है !
      इसलिए इस नवीन युग में देवबल की अपेक्षा मानव-बल को अधिक सम्मान प्राप्त हुआ। स्वामी जी ने चुटकुले के रूप में इस बात का उल्लेख किया है कि बौद्धधर्म के उदय होने के साथ साथ वैदिक कर्मकाण्ड में कमी आने के कारण यज्ञ आहुती-भोजी देवताओं (oblation-eating gods) के स्वास्थ्य में अवनति होने से उनकी प्रतिष्ठा भी घट रही थी। इसीलिए, अब तो 'बुद्धत्व -प्राप्त ' (नवनी दा जैसे विवेकज -ज्ञान अथवा 'तारक ज्ञान' प्राप्त) नर -देव के चरणों  में सैकड़ों ब्रह्मा और इन्द्र तुल्य देवगण भी  सिर झुकाते हैं।  यह नया 'मनुष्य'  [ऐसे छे आज नतून मानुष देखबी यदि चले आये ! वेदान्त केसरी या ब्रह्मविद,जीवनमुक्त शिक्षक या नेता]  -इतना ज्ञान सम्पन्न होगा जो घोषणा करेगा कि  इस  'बुद्धत्वप्राप्ति पर' मनुष्य मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है', तथा प्रत्येक व्यक्ति इसी जीवन में इस अवस्था ('सद्गुरु' की सहायता से भ्रममुक्त अवस्था) को प्राप्त भी कर सकता है ! 
[The state of being a Buddha is superior to the heavenly positions of many a Brahmâ or an Indra, who vie with each other in offering their worship at the feet of the Buddha, the God-man! And to this Buddhahood, every man has the privilege to attain; it is open to all even in this life.]
    बौद्ध युग के 'पुरोहित' (भिक्षु)  गृहस्थ नहीं रहे  संसार-त्यागी हुए  वे अपने 'घरों' में नहीं 'मठों' में वास करते थे। इसलिए ये नए पुरोहित 'ब्राह्मण' की पदवी को प्राप्त करने के बाद भी, उनकी तरह निजकुल के स्वार्थ से प्रेरित होकर, अध्यात्म जैसी श्रेष्ठ विद्या (मनःसंयोग और चरित्रनिर्माण की विद्या) को केवल अपने कुल (या जाति-बिरादरी ) के लाभ के लिए उसका उपयोग करने के प्रति उदासीन थे। क्योंकि उन बौद्ध पुरोहितों (ब्रह्मविद या जीवनमुक्त शिक्षकों) के मन में भोग करने की इच्छा का सम्पूर्ण रूप से अभाव था। 
     इसलिए, इस युग में राजा (क्षत्रिय) को ब्राह्मण पुजारीयों के लिए 'मनोरंजन का जुगाड़ ' करने के माध्यम से अपनी शक्ति का उपयोग नहीं करना पड़ता था।  वैसे चक्रवर्ती सम्राट जिनका शासन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तृत था, क्षत्रिय शक्ति में विकास के साथ साथ जो क्षत्रिय राजा छोटी छोटी रियासतों पर राज्य करने वाले थे उन्हें, अपने बल से अधिकार में लेकर 'स्वच्छन्द विचरण ' करने लगे।  बौद्ध काल में सम्राट चन्द्रगुप्त और धर्माशोक आदि सार्वभौम राजाओं की तरह भारत का गौरव बढ़ाने वाले दूसरे कोई राजा भारत के सिंहासन पर नहीं बैठा जिससे भारत के गौरव में पर्याप्त वृद्धि हुई।  इसलिए अब ब्रह्मण्य -शक्ति से समन्वित वशिष्ठ या विश्वामित्र  समाज के मार्गदर्शक नेता नहीं रहे, बल्कि इस युग में वे चक्रवर्ती सम्राट ही मानव-शक्ति के केन्द्र बने। 
         जैन और बौद्ध भाव प्लावन के युग में पुरोहित वर्ग ( the priest class- बौद्धभिक्षु,  या जैन मुनि)  सांसारिक भोगों के प्रति पूर्ण रूप से उदासीन थे ; इस लिये ब्रह्मण्य पुरोहित शक्ति एवं क्षत्रिय शक्ति के बीच बहुत दिनों से, अपना प्रताप वृद्धि की चेष्टा में जो पर्तिस्पर्धा चली आ रही थी, उसकी कोई आवश्यकता नहीं बची; और कुछ समय के लिए विवाद थम जाने के फलस्वरूप दोनों विरोधी शक्तियां परस्पर सहायक होकर एक साथ मिलजुल कर रहने लगीं।  उधर  धार्मिक मामलों में वैदिक ब्राह्मणों के स्थान पर जब  बौद्ध भिक्षु  या श्रमण लोग आरूढ़ हो गये , तब उन बौद्ध भिक्षुओं या श्रमणों ने राजमहलों में अपनी शक्ति और महिमा को कभी बढ़ाने की चेष्टा नहीं की।  इसके कारण बौद्ध-विचारधारा के प्रभाव से राजा वर्ग की शक्ति (क्षात्रवीर्य ) पहले जैसी तीव्र रूप से प्रकाशित नहीं हुई। और राजशक्ति के केंद्र से दूर हो जाने के फलस्वरूप ब्राह्मण भी तेज से (ब्रह्मतेज से) रहित हो गए। 
      इसी युग के अन्त में 'आधुनिक हिन्दू धर्म और राजपूत (जरासन्ध) आदि जातियों का अभ्युत्थान हुआ। इन लोगों के हाथों में पड़ने के फल-स्वरूप भारत का राजदण्ड अपनी अखण्ड प्रतिष्ठा से गिरकर पुनः टुकड़े -टुकड़े हो गया। (ब्राह्मण और राजपूत शक्तियाँ) स्वार्थसिद्धि में एक दूसरे की सहायता करने, और विपक्षियों का दमन करने, तथा बौद्धों का नाम तक मिटा देने में अपनी शक्ति का क्षय करने के परिणाम स्वरुप, तथा धर्म के बहिरंग को लेकर  प्राचीन राजाओं के राजसूय आदि यज्ञों की थोथी या हास्योद्दीपक नकल [स्त्री-जनेऊधारी शतकुण्डी या हजार कुण्डी यज्ञों द्वारा]  करते रहने  के कारण,  हीन-वीर्य हिन्दू जाती (4000 उपजातियों में बँटी हुई हिन्दू जाती) पश्चिमागत (पश्चिम से आये हुए) मुसलमान आक्रमण-कारियों (Mohammedan invaders) द्वारा आसानी से पराजित हो गयी। 
         उसके साथ साथ जो पुरोहित शक्ति जैन और बौद्ध भावप्लावन के समय एकदम क्षीण होकर भारत के कर्म क्षेत्र से प्रायः लुप्त सी हो गयी थी, वह पहले जैसी प्रधानता प्राप्त करने के लिए उन बिधर्मियों की दासता को स्वीकार कर किसी तरह अपने प्राणों की रक्षा की थी ।उन मुस्लिम बर्बर सेनाओं, नवाबों के अधीन होकर उन्होंने उन विजयी जाति की घृणित रीती-नीतियों को बिना कोई द्विधा किये, अपने देश में भी प्रचलित कर दिया। और अपने पूर्वजों की विद्या, बल और सदाचार को बिल्कुल खोकर उन निरक्षर बर्बरों को प्रसन्न रखने के लिए , ठगने के सरल उपाय, मंत्र-तंत्र की शरण लेकर भारत के कई राज्यों को कुत्सित, गन्दे बर्बराचार का एक बड़ा दलदल बना दिया। इस प्रकार पुरोहित शक्ति ने स्वयं को और पूरे समाज को और भी अधिक वीर्यरहित बना दिया। 
          मुसलमानों की बादशाही के समय में इस पुरोहित शक्ति का फिर से सिर उठाना एक दम असम्भव हो गया था। (मुहम्मद साहब स्वयं पुरोहित शक्ति के कट्टर विरोधी थे। और  इस मूर्तिपूजक पुरोहितवाद  को समूल नष्ट करने के लिए उन्होंने कई कड़े नियम आदि भी बना दिए थे।) जिन इस्लामिक देशों में, जहाँ इस्लाम को राजधर्म माना जाता है, उन देशों के कानून के अनुसार वहाँ का राजा स्वयं वहां का प्रधान पुरोहित - या ख़लीफ़ा (धर्मगुरु भी) माना जाता है। उन कट्टर मुसलमानों के लिए यहूदी (Jew) या ईसाई (Christian) अधिक घृणा के पात्र नहीं हैं; क्योंकि वे भी हजरत मूसा और ईसा के अनुयायी है; इसीलिए वे केवल अल्पविश्वासी भर ही हैं। परन्तु हिन्दू लोग तो काफ़िर और मूर्ति-पूजक होने से इस जीवन में हलाल करने योग्य और मृत्यु के बाद अनन्त नरक के भागी समझे जाते हैं। " (९/२०६)  
{The Prophet Mohammed himself was dead against the priestly class in any shape and tried his best for the total destruction of this power by formulating rules and injunctions to that effect. इसलिए वैसे मुसलमान जो सूफी परम्परा से नहीं आते, और शरीअत की मनमानी व्याख्या भी करते रहते हैं। एक हदीस के मुताबिक़ पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हदीस-वर्णन- कर्ताओं को सख़्त चेतावनी दी थी कि- ‘‘जो व्यक्ति मुझ से संबंध लगाकर वह बात कहे जो मैंने नहीं कही, वह अपना ठिकाना जहन्नम (नर्क) में बना ले।’’  

अरब के अलेप्पी नगर में यहूदी संत सिम्शा बुनेग रहते थे। वे बड़े ही धनी और संयमी थे। एक दिन बादशाह ने उन्हें बुलाया और पूछा, ‘संसार में तीन पैगंबर हुए हैं- एक मूसा, जिन्होंने यहूदी धर्म चलाया। दूसरे ईसा, जिन्होंने ईसाई धर्म चलाया, और तीसरे मोहम्मद साहब, जिन्होंने इस्लाम धर्म चलाया। इनमें सबसे श्रेष्ठ और सच्चा धर्म कौन सा है?’ बादशाह ने सोचा था कि अगर संत सिम्शा किसी एक धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं तो दूसरे धर्मों का अपमान करने का इल्जाम लगाकर उनकी सारी संपत्ति हड़पी जा सकती है।
बादशाह की चालाकी संत की समझ में आ गई। वे बोले, ‘पहले एक कहानी सुनिए। एक व्यापारी के पास एक हीरा था, जिसे उसके तीनों पुत्र हड़पना चाहते थे। व्यापारी पशोपेश में था कि हीरा किसे दिया जाए। उसने हीरे के समान हूबहू दो नकली हीरे बनवाए। एक दिन तीनों पुत्रों को अलग-अलग बुलाकर उसने एक-एक हीरा उन्हें दे दिया, और उन्हें यह पता नहीं चलने दिया कि दूसरे बेटों को भी उसने हीरा दिया है। इस बात से बेखबर हर पुत्र यही सोचता था कि बाप ने खुश होकर हीरा उसे ही दिया है। असली हीरा किसके पास है, यह बात व्यापारी के अलावा और कोई नहीं जानता था।’
कहानी सुनाकर संत सिम्शा ने कहा, ‘यही बात तीनों धर्मों के बारे में भी है। हजरत मूसा, ईसा और पैगंबर, ये तीनों ईश्वर का पैगाम लेकर आए और उन्होंने अपने-अपने धर्म के रूप में इसका लोगों में प्रचार किया। इन धर्मों के अनुयायी अपने ही धर्म को सच्चा और श्रेष्ठ समझते हैं। लेकिन इन तीनों का कर्ता एक ही ईश्वर है और वही जानता है कि सच्चा धर्म कौन सा है। इसलिए हमें तो यही मानना पडे़गा कि प्रत्येक धर्म श्रेष्ठ है और उसकी दूसरे धर्म से तुलना नहीं की जा सकती।’}
   उस युग में राजशक्ति मुसलमान राजाओं के हाथों में चली गयी। जब राज शक्ति विधर्मी और भिन्न आचार वाले राजाओं के हाथों में चली गयी, तब इस देश की पुरोहित शक्ति, समाज-शासन के ऊँचे पद से और सम्पूर्ण हिन्दूजाति पर शासन करने के अधिकार से एकदम वंचित हो गयी। इसीलिए अब मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों के स्थान पर शरिया कानून की दण्डनीति आ डटी ! उसी युग में संस्कृत भाषा का स्थान भी अरबी और फ़ारसी भाषाओँ ने ग्रहण कर लिया। और संस्कृत भाषा अब गुलाम और घृणित हिन्दुओं के धार्मिक कृत्यों - विवाह या दाहसंस्कार आदि में काम आने वाले संस्कृत मंत्रों तक ही सिमट कर रह गयी। " ( ९/२०६) 

(चार)  

[जातिचतुष्टय का आधार- त्रिगुण ]

     स्वामी विवेकानन्द ने यह दिखाया था कि -पुरोहित शक्ति के दबाव के कारण राजशक्ति का विकास वैदिक काल में तथा उसके कुछ दिनों बाद तक न हो सका था। हमलोग यह देख चुके हैं कि बौद्ध विप्लव के फलस्वरूप, पुरोहित शक्ति के पतन के साथ-साथ ,  किस प्रकार सम्राट चन्द्रगुप्त के शासनकाल में भारत में राजशक्ति का पूर्ण विकास सम्भव हुआ था। बौद्ध साम्राज्य के पतन और मुसलमान साम्राज्य की स्थापना के बीच, राजपूतों ने राजशक्ति को पुनः स्थापित करने की चेष्टा की थी, किन्तु वह इसलिए सफल न हो सकी, क्योंकि पुरोहित शक्ति ने उसका साथ नहीं दिया, बल्कि तंत्र-मंत्र का हास्यास्पद सहारा लेकर, फिर से स्वयं नया जीवन पाने का प्रयत्न किया था। " ९/२०६] 
        यहाँ तक तो स्वामी विवेकानन्द ने भारत के इतिहास में ब्राह्मण और क्षत्रिय इन दो शक्तियों के द्वारा क्रमशः अपना अपना आधिपत्य स्थापित करने की चेष्टा और उसके परिणामों को दिखलाने की चेष्टा की है।  बौद्ध युग में राजपूतों और ब्राह्मणों का यह सत्ता-संघर्ष  इसी बीच कुछ समय के लिए सहअस्तित्व बनाये रखने की चेष्टा में परिणत होने से भी, थोड़ी सी सुविधा मिलते ही वह पुनः क्रियाशील हो उठा था, एवं मुसलमान साम्राज्य के शासन काल में पुरोहित (ब्रह्मतेज) और राजा (क्षात्रवीर्य)  की एकता को उन्होंने पूर्णतया नष्ट होते हुए भी  दिखलाया है। उसके भी पहले एक स्थान पर उन्होंने एक तृतीय श्रेणी- वैश्य वर्ग का उल्लेख भी किया था; जो राजा के खजाने को धन से भरने में उसकी सहायता तो करता ही था, किन्तु "राजरवी" (राजा) को सूर्य की भाँति  प्रजा का धन को शोख लेने में परोक्ष रूप से राजा की सहायता भी  करता था। अब इस तृतीय वर्ग [थर्ड फ्रंट-केजरीवाल] के अभ्युदय का समय आ जाता है। 
      स्वामी जी कहते हैं - "अति प्राचीन काल से धनधान्यपूर्ण भारत के स्वर्णकलश-जड़ित मन्दिर, इसकी प्रचुर धन-सम्पत्ति और इसकी हरी-भरी कृषि योग्य विशाल भूखण्ड विदेशियों के मन में इसपर अधिकार/लूटने  की लालसा उत्पन्न करती आ रही है। " इंग्लैण्ड का जो वैश्यकुल
धनवान होकर भी राजाओं की कौन कहे राजपरिवार के सदस्यों के सामने भी पहले सदा भयभीत हो हाथ जोड़े खड़े रहते थे, उन्हीं में से कुछ लोगों का व्यवसाय के उद्देश्य से एकत्रित होकर, ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक वणिक दल गठित करके सागर मार्ग से भारत आकर, कूटनीतिक बुद्धि और अर्थबल पर लम्बे समय से भारत पर राज कर रहे हिन्दू-मुसलमान राजाओं को धीरे धीरे अपने हाथ की कठपुतली बना लेना, राजा वर्ग से भी अपना दासत्व स्वीकार कराकर उनकी शूरता और विद्या को अपने लिए धन उपार्जन करने का मशीन बना लेने तथा सम्पूर्ण भारत पर राज्या-धिकार प्राप्त कर लेने की घटना को स्वामीजी ने अभिनव (innovative) और अकल्पनीय (unthinkable) कहा है। { From very ancient times, the fame of India's vast wealth and her rich granaries has enkindled in many powerful foreign nations the desire to conquer her. She has been, in fact, again and again, conquered by foreign nations. We are talking of the occupation of India by England.}
     स्वामी जी यहाँ दिखलाते हैं कि पूरे विश्व के इतिहास में  पहली बार समाज का शासन -सूत्र वैश्यों अर्थात वाणिज्य के माध्यम से  धनवान होने वाले इंग्लैण्ड प्रमुख (फ़्रांस, पुर्तगाल जैसे)  कुछ आधुनिक पाश्चात्य देश के हाथों में देखि जा सकती है।  अन्य सभी राष्ट्रों में समाज का नेतृत्व (सत्ता की बागडोर) प्रथम युग में ब्राह्मण या पुरोहित गोष्ठी (ग्रुप) के हाथों में थी। द्वितीय  युग में क्षत्रियों के अर्थात राजकुल के हाथों में यह नेतृत्व आया और चक्रवर्ती सम्राटों (या एकाधिकारी राजाओं) का आविर्भाव हुआ। इस तथ्य को उन्होंने भारत के लिए भी सही साबित किया है।  
       स्वामी जी के मतानुसार - " सत्व (शान्त ज्ञान सम्पन्न), रज (क्रियाशीलता , उद्यम) और तम (जड़त्व) ये तीन गुण सभी मनुष्यों में रहते हैं। तथा इन तीन गुणों के तारतम्य (कम-बेसी होने) से सभी समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के गुण रखने वाले चार श्रेणी या वर्ण के मनुष्य प्रत्येक सभ्य समाज में देखे जाते हैं।  फिर काल -प्रभाव और  देश-भेद से इन्हीं चार श्रेणी या वर्ण की संख्या और प्रताप दूसरों की अपेक्षा बढ़ या घट सकती है। [[According to the prevalence, in a greater or lesser degree, of the three qualities of Sattva, Rajas, and Tamas in man, the four castes, the Brahmin, Kshatriya, Vaishya, and Shudra, are everywhere present at all times, in all civilized societies.] परन्तु विश्व के इतिहास का ध्यानपूर्वक अध्यन करने से यह पता चलता है कि प्राकृतिक नियम के अनुसार ( यानि माँ जगदम्बा की इच्छा से ?) ब्राह्मण. क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र चारो जाति, समुदाय, श्रेणी या वर्ण क्रमानुसार एक के बाद दूसरा समाज पर अपना आधिपत्य स्थापित करेंगे। और समाज के  नियामक शक्ति बनकर पृथ्वी पर राज करेंगे। स्वामी विवेकानन्द के 'इतिहास दर्शन ' का एक मौलिक और अत्यंत मूल्यवान सिद्धान्त यह है कि - " प्रत्येक वर्ण के राजत्वकाल या प्रधानययुग में कुछ लोक-हितकारी और कुछ जन अहितकारी कार्य भी हो जाया करते हैं। " ९/२१० ] 
       स्वामीजी के मतानुसार प्राचीन ट्रॉय (Troy-एशिया माइनर का एक प्राचीन शहर जो ट्रोजन युद्ध का स्थल था) और कार्थेज (Carthage-आधुनिक ट्यूनिस के पास उत्तरी अफ्रीकी तट पर एक प्राचीन शहर राज्य) या वेनिस (Venice-इटली का एक शहर) तथा अन्य छोटे छोटे व्यापार करने वाले ये देश भी यद्यपि  बड़े ही प्रतापशाली हुए थे , तथापि वैश्यों का (बणिक शक्ति का) यथार्थ अभ्युत्थान इन देशों में नहीं हुआ था। इन सब देशों में क्षत्रिय ही प्रधान शक्ति थे। वैश्य उनके सहायक थे और उनकी आज्ञा का पालन करते थे।
      मिश्र आदि प्राचीन देशों में -  क्षत्रिय शक्ति की सहायता से ब्राह्मण-शक्ति थोड़े ही समय तक प्रधान शक्ति रही। उसके बाद वह राज-शक्ति के अधीन और उसकी सहकारी बनकर रहने लगी। चीन में धर्म और समाज-नीति सुधारक कन्फूशियस की प्रतिभा द्वारा गठित राजशक्ति (क्षत्रिय-वर्ग)  ढाई हजार वर्षों से भी अधिक काल से पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण शक्ति) को दबाये हुए है अपनी इच्छानुसार चलाती आ रही है। गत दो सौ वर्षों से तिब्बत के लामा लोग राजगुरु होकर भी सब प्रकार से चीनी क्षत्रिय -सम्राट के अधीन होकर दिन काट रहे हैं। [आज भी दलाई लामा भारत के धर्मशाला नामक स्थान में शरणार्थी रूप से रह रहे हैं। ] 
       उन्होंने यह भी दिखलाया है कि भारतवर्ष  में राजशक्ति या राजपूतों का अभ्युदय और विकास अन्यान्य प्राचीन सभ्य देशों की तुलना में, बहुत बाद में हुई। इसीलिए चीन, मिश्र, बेबीलोन आदि साम्राज्यों के बहुत दिनों बाद भारत में किसी क्षत्रिय साम्राज्य की स्थापना हो सकी । किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इस देश में सभ्यता भी उन देशों के बाद आयी होगी ! क्योंकि इस देश (भारत) में ब्राह्मणों (पुरोहित शक्ति) की प्रधानता बहुत दीर्घकाल से स्थायी बनी हुई थी। इसी प्रसंग में स्वामी जी यहूदी (Jew) समस्या की व्याख्या भी करते हैं। और कहते हैं कि - भारत के आलावा एक मात्र यहूदी जाति ही ऐसी है, जहाँ राजशक्ति (क्षत्रिय वर्ग ) अनेक प्रयत्न करने पर भी पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण वर्ग) पर अपना अधिकार बिल्कुल न जमा सकी। और वैश्य वर्ग ने भी उस देश में कभी प्रधान्य नहीं पाया। यद्यपि साधारण प्रजा (मुख्यतः शूद्र वर्ग ) ने पुरोहितों के बंधनों से छूटने की चेष्टा की थी। परन्तु भीतर में ईसाई (Christian) आदि धर्म सम्प्रदायों के साथ संघर्ष करने, और बाहर के महाबल-शाली  रोम -साम्राज्य के दबाव से वह यहूदी जाति मृतप्राय हो गयी। 
       स्वामी जी दिखलाते हैं कि इस तृतीय युग में अर्थात वैश्य शक्ति के अभ्युदय युग में -" इस नयी शक्ति के "प्रबल आघात से कितने ही राजमुकुट धूल में जा मिले " और कितने ही राजदण्ड (क्षत्रिय शक्ति) का प्रभाव सदा के लिए कम हो गया । जहाँ कहीं  क्षत्रियों का राज-सिंहासन किसी प्रकार यदि बचा भी रह गया तो उसका कारण क्षात्रशक्ति का प्रभाव नहीं था " वणिकों के प्रचुर धन से खरीदी हुई सामग्रियों के प्रभाव से वणिक लोग ही अमीर -उमरा बनकर अपना अपना गौरव दिखलाते रहते थे। वास्तव में ब्राह्मणो या क्षत्रियों का प्रधान्य नहीं था, वैश्य या बणिक  लोग ही बाणिज्य द्वारा प्राप्त धनराशि का मुकुट पहनकर कर राजा थे और उन राजाओं के सिंहासन के नियंता थे। 
      स्वामी जी के मतानुसार - "  इंग्लैण्ड द्वारा भारत पर विजय"  - जैसा हमलोग बचपन में सुना करते थे, ईसा मसीह या बाइबिल द्वारा भारत विजय नहीं है। और न पठान-मुगल आदि बादशाहों के विजय की भाँति ही है। अर्थात धर्म या ब्राह्मण-शक्ति या पुरोहित शक्ति अथवा किसी क्षत्रिय शक्ति की विजय हो, ऐसी बात भी नहीं है। यह विजय सिर्फ और सिर्फ वैश्य शक्ति के द्वारा प्राप्त विजय है। स्वामी जी के मतानुसार - " जिस शक्ति से इंग्लैण्ड ने भारत पर इस विजय को स्थापित किया था , उस इंग्लैण्ड की शक्ति-ध्वजाएं  ठगी और उसके फैक्ट्रियों की चिमनियाँ हैं, उसकी सेना व्यापारियों के जहाज ( cargo ship) पर लदे Product container हैं, उसकी लड़ाई का मैदान है वैश्विक बाजार (world market ), एवं इंग्लैण्ड की साम्राज्ञी स्वयं  'श्री देवी ' अर्थात लक्ष्मी हैं; क्योंकि " वाणिज्ये वसति लक्ष्मीः '- वाणिज्य  (व्यापार में)  में स्वयं लक्ष्मी निवास करती है ।"
[(क्योंकि सत्यानृतं तु वाणिज्यम् । वाणिज्य में सच और झूठ दोनों मिले होते हैं।) विवेक-जीवन ब्लॉग रविवार, 1 मार्च 2020/श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के पत्र : (47 -48) : "पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सत्य है: Yoga of Practice"] 
     भारत में जिस शक्ति की विजय हुई थी वह वैश्य शक्ति थी। उस शक्ति की क्रिया अपने देश का माल, भारत  के कोने से दूसरे कोने तक अनायास पहुँचाते रहने में है। व्यवसाय -वाणिज्य  में उत्पाद, धन और बणिक सर्वदा चलायमान रहते हैं, और परिणाम में विचारों का आदान -प्रदान भी होता रहता है। इसीलिए स्वामीजी ने भारत पर इंग्लैण्ड के अधिकार को एक बड़ी ही अभिनव (innovative)  घटना कहा है। तथा ऐसा व्यापार, जो वैश्य शक्ति को भारत जैसे विशाल देश पर अपना आधिपत्य ज़माने का अवसर प्रदान कर दे - विश्व के इतिहास में बिल्कुल अभूतपूर्व घटना है। इस नयी महाशक्ति (वैश्य शक्ति) के अभ्युदय के फल स्वरुप दो प्रकार की सभ्यताओं के संघर्ष के परिणाम स्वरुप भारत के समाज में आगे चलकर कौन कौन से नए विप्लव या परिवर्तन और साधित होंगे, इसका पूर्वानुमान वर्तमान भारत के पूर्वकालिक इतिहास को देखकर, लगा पाना सम्भव नहीं है। ऐतिहासिक शक्ति केंद्र के विस्तार के जिस सूत्र का उल्लेख स्वामी विवेकानन्द ने पहले किया था, केवल उसी के आधार पर इसके भावी परिणाम का अनुमान लगाना सम्भव है। 
        अर्थात, अभी तक यही देखा गया है, कि (माँ जगदम्बा की इच्छा से ही ) विश्व के विभिन्न देशों में  ब्राह्मण और क्षत्रीय - एक के बाद दूसरे का का प्राधान्य होता हुआ आया है। और चूँकि,  केवल  तृतीय युग में पहली बार पिछले युगों की ऐतिहासिक साक्ष्य  के बिना ही वैश्य शक्ति का उदय दिखाई दिया है। अतः इसी तर्क के आधार पर,  इस बात का अनुमान भी लगाया जा सकता है, कि इसके बाद वाले चौथे युग में - 'शूद्र-शक्ति' का प्रधान्य होना अवश्यम्भावी है !  स्वामी जी के द्वारा यहाँ उल्लेखित युक्तियों और तर्क से यही तात्पर्य निकलता है। 
  
पाँच 

      अपनी इस रचना में स्वामी विवेकानन्द ने तटस्थ भाव से प्रत्येक वर्ग, वर्ण, समुदाय या जाति के गुण और दोषों का विश्लेषण भी किया है; तथा यह पाया है कि (ब्राह्मण युग ) में पुरोहित शक्ति  बुद्धिबल (intellectual strength) पर ही खड़ी थी, तथा इन्द्रयतीत सत्य को अपने हृदय में देख लेने की अनुभूति शक्ति (ह्रदय की शक्ति) के विकास परआधारित थी, न कि बाहुबल (physical strength) पर। इसके (ब्राह्मण शक्ति के) प्राधान्य युग में पारमार्थिक ज्ञान या सीखने की क्षमता में उन्नति होती रहती है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से ही धर्म या आध्यात्मिक जगत की सहायता और संवाद पाने के विषय में आग्रही होता है।" ( ९ / २१०) [The foundation of the priestly power rests on intellectual strength, and not on the physical strength of the arm. (4 /452) 
      इसीलिए पुरोहितों के आधिपत्य के साथ ही साथ समाज में इन्द्रियातीत सत्य या (पारमार्थिक) ज्ञान को जानने की विद्या, अथवा बहुमूल्य आध्यात्मिक विद्या (मनःसंयोग और चरित्रनिर्माण की प्रक्रिया ) का  प्रचार-प्रसार होता है।  क्योंकि जहाँ इन्द्रियों की गति नहीं है, जो 'सत्य' इन्द्रियातीत या मन और वाणी से भी परे है, उस आध्यात्मिक जगत (supersensuous spiritual world) की बातों को जानने और वहाँ की सहायता पाने के लिए साधारण मनुष्य सदा व्याकुल रहते हैं।और चूँकि वह इन्द्रियातीत सत्य,  इन्द्रिय गोचर बाह्य जड़ -जगत (स्थूल जगत) और आंतरिक मनोजगत (सूक्ष्म जगत) से भी परे है, इसलिए साधारण मनुष्य उस (पारमार्थिक) ज्ञान तक आसानी से स्वयं नहीं पहुँच सकते। इसीलिए सर्व  साधारण जनता  सत्वगुणी प्रधान , संयमी और मननशील  ब्राह्मण या पुरोहित (जीवनमुक्त शिक्षक , मार्गदर्शक नेता , गुरु) के शरण में आती है। क्योंकि केवल संयमी और मन-इन्द्रियों के पार देखने वाले सत्वगुणी पुरुष (ब्रह्मविद गुरु) ही इन्द्रियातीत सत्य के राज्य में जाते हैं, वहाँ का समाचार लाते हैं, और दूसरों को भी वहाँ पहुँचने का मार्ग दिखाते हैं। इस क्षमता से सम्पन्न पुरोहित या ब्राह्मण ही 'मानव समाज  के प्रथम गुरु , नेता और परिचालक' हैं ! इसीलिए इस शक्ति के अधिकारी पुरोहित (ब्रह्मविद-ब्राह्मण) साधारण मनुष्यों के द्वारा 'देवता' के समान पूजे जाते हैं। दूसरे वर्गों से पूजा , अर्थ और सेवा प्राप्त करते हैं। इसीलिए उनको खाद्य आपूर्ति के लिए अन्य कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता है। " (९/२१०) 
[(These great souls are the priests, the primitive guides, leaders, and movers of human societies. The priest knows the gods and communicates with them; he is therefore worshipped as a god.) 
      और चूँकि सब भोगों में अग्रभाग देवताओं को प्राप्य हैं, और देवताओं के मुख पुरोहित हैं।  समाज उन्हें जाने -अनजाने प्रचुर अवकाश देता है। इसलिए ब्राह्मणों को (ब्रह्मविद शिक्षकों/या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं को ) साधारण जनता की तरह  धन कमाने, सेवा पाने या अन्न की व्यवस्था करने के लिए , एड़ी -चोटी का पसीना एक कर जीविका नहीं प्राप्त करनी पड़ती है। इससे वे लोग चिन्तशील हुआ करते हैं। इसी कारण ब्रह्म-विद्या (ब्रह्म को जानने की विद्या) की उन्नति पहले-पहल पुरोहितों के प्राधान्य काल में होती है। 
        भयंकर सिंह जैसे राजा  (dreadful-खौफनाक क्षत्रिय) तथा उसके द्वारा शोषित भयाक्रान्त (terrified) भेंड़ों के झुण्ड जैसी प्रजा (अजा) के बीच में पुरोहित ही दण्डायमान रहने का सामर्थ्य रखते हैं। उनके हाथों में  आध्यात्मिक शक्ति (इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान, अद्वैत--बुद्धि) रूपी जो 'नियंत्रण छड़ी ' होती है, उसी के द्वारा वे  भयंकर शेर (राजा) की विनाशकारी छलांग पर अपना नियन्त्रण रखने में समर्थ होते है। इसीलिए , केवल पुरोहित ही अपनी आध्यात्म विद्या के बल से राजा  (dreadful-खौफनाक क्षत्रिय) को संयत रखते हुए प्रजा (अजा) का कल्याण करने में सक्षम होते हैं।
[ पुरोहित लोग (ब्रह्मतेज) ही खौफनाक क्षत्रिय राजा और राजा के भय से डरे -सहमे उसके द्वारा शोषित प्रजा (अजा) के बीच में खड़े होकर  राजा को अपने आध्यात्मिक विद्या के बल से शांत रखते हुए प्रजा का कल्याण करते हैं। त्यागनिष्ठ " पुरोहित (ब्राह्मण) प्रधान सभ्यता का प्रथम आविर्भाव, पशुत्व के ऊपर देवत्व का प्रथम विजय , जड़ के ऊपर चेतन का प्रथम अधिकार विस्तार , प्रकृति के गुलाम जड़पिण्ड रूपी मानवशरीर के भीतर अज्ञातरूप से जो सर्वोच्चता (supremacy-ब्रह्मत्व) छुपा हुआ है -उसका प्रथम विकास हुआ। " 
 There stands the priest between the dreadful lion — the king — on the one hand, and the terrified flock of sheep — the subject people — on the other. The destructive leap of the lion is checked by the controlling rod of spiritual power in the hands of the priest. vol -4 /453]
    चूँकि, विवेक-प्रयोग के द्वारा जड़ (नश्वर शरीर और मन) से चैतन्य (अविनाशी आत्मा ) को अलग- अलग पहचान पाने में,  सबसे पहले ब्राह्मण ही समर्थ होते हैं। इसलिए इन्द्रियातीत जगत का समाचार, इन्द्रयगोचर जगत तक पहुँचाने में भी सर्वप्रथम वे सफल होते हैं। अतः देवताओं की तरफ से मनुष्य के पास भेजा गया पहला सन्देशवाहक (देवदूत या पैगम्बर) भी पुरोहित (ब्राह्मण) ही हैं। इसलिए त्यागनिष्ठ पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण) के आधिपत्य युग में ही सभ्यता का प्रथम आविर्भाव होता है। और उनकी शिक्षा को अमल में लाने से ही पशुत्व के ऊपर देवत्व की प्रथम विजय , जड़ (matter) के ऊपर चैतन्य ( spirit)  का प्रथम अधिकार और प्रकृति के क्रीतदास (मन और इन्द्रियों के गुलाम) और जड़ पिण्डों जैसे मनुष्य शरीर में भी छिपे हुए ईश्वरत्व (अव्यक्त ब्रह्मत्व) का प्रथम विकास होता है। और चूँकि,  कितने ही कल्याणों के अंकुर - (भावी नेता) इन्हीं ब्राह्मणों के तपोबल , इन्हीं के विद्या-प्रेम , इन्हीं के त्याग और इन्हीं के प्राण-सिंचन से प्रस्फुटित होते हैं। इसीलिए सब देशों में पहली पूजा इन्हीं ने पायी है, और इसीलिए इनकी स्मृति भी हम लोगों के लिए पवित्र है। "(९/ २१०) 

[भगवान श्रीरामकृष्ण और भक्त (शिष्य-विवेकानन्द) के बीच का पुल (गुरु या नेता ) का काम भी वही पुरोहित (ब्राह्मण नेता  -नवनी दा ) करते हैं, इसलिए नवनीदा की स्मृति भी हमलोगों के लिए पवित्र है। and the first manifestation of the divine power which is potentially present in this very slave of nature) The priest is the first discriminator of spirit from matter,  the first to help to bring this world in communion with the next, the first messenger from the gods to man,  and the intervening bridge that connects the king with his subjects. The first offshoot of universal welfare and good is nursed by his spiritual power, by his devotion to learning and wisdom, by his renunciation, the watchword of his life, and, watered even by the flow of his own life-blood. It is therefore that in every land it was he to whom the first and foremost worship was offered. It is therefore that even his memory is sacred to us!]
          पर साथ ही पुरोहित शक्ति के आधिपत्य युग में दोष भी चला आता है। प्राण-स्फुरित होने के साथ ही साथ मृत्यु का बीज भी बोया जाता है। अंधकार और प्रकाश साथ ही साथ चलते हैं। (Darkness and light always go together.প্রাণস্ফূর্তির সঙ্গে সঙ্গেই মৃত্যুবীজ উপ্ত। অন্ধকার আলোর সঙ্গে সঙ্গে চলে। " ) समय के प्रवाह में विशेष अधिकारों का भोग करते करते पुरोहित (ब्राह्मण) भी अपनी त्यागनिष्ठा का परित्याग करके स्वार्थबुद्धि के द्वारा प्रेरित होने लगता है। इसका फल यह होता है कि कपटता, हृदय की घोर संकीर्णता, और सबसे अधिक हानिकारक प्रचण्ड ईर्ष्या से पैदा हुई असहिष्णुता आदी दुर्गुण उनमे चले आते हैं। इस घटना- चक्र में पड़कर मनुष्य का स्वभाव जैसा हो जाना चाहिए, वैसा ही , स्वभाव उन स्वार्थबुद्धि से प्रेरित ब्राह्मणों का भी हो जाता है। (९/२११) 
       अध्यात्म विद्या के अभ्यास में 'भाटा' (ebb tide) पड़ने तथा साधारण जनता के बीच उसके वितरण या प्रचार-प्रसार को बंद करके, गोपनीय बना लेने से, ( for want of proper exercise and diffusion')   ह्रदय विस्तार लिए उचित व्यायाम और हृदयवत्ता  का अभाव हो जाता है। ' और आध्यात्मिक विद्या (3H' विकास के 5 अभ्यास जैसे ब्रह्म को जानने की विद्या) को केवल पुरोहित कुल के हाथों में रखने के प्रति रुझान (tendency) या प्रवृत्ति दिखाई देने लगती है। वो कहते हैं न - " बिना अभ्यास और वितरण के प्रायः सभी विद्यायें नष्ट हो जाती हैं" (. All knowledge, all wisdom is almost lost for want of proper exercise and diffusion) शक्ति -संचय जितना आवश्यक है, शक्ति का प्रसार या वितरण भी उतना ही या उससे भी अधिक आवश्यक है
         हृदय रूपी ब्लडपम्पिंग मशीन में रक्त का एकत्र होना तो आवश्यक है, परन्तु उसका यदि सारे शरीर में संचालन न हुआ , तो मृत्यु निश्चित है। और आज सम्पूर्ण देश में जो चारित्रिक गिरावट दिखाई दे रही है, उस राष्ट्रिय चरित्र में पतन का और सामाजिक अवनति का मुख्य कारण बन जाती है। क्योंकि प्रायः सभी विद्याएं (अष्टांग-योग -पद्धति भी) उस विद्या के 'उचित अभ्यास और वितरण" के बिना नष्ट हो जाती हैं।' उसके बाद वह विद्याहीन, पुरुषार्थहीन होकर  - केवल अपने पूर्वजों का उपनाम  (surname - जैसे बनर्जी, मुखर्जी, चटर्जी या मिश्रा, पाण्डे, त्रिपाठी आदि कुलनाम) रखने वाला  पुरोहित अपने पुरोहित-कुल का पैतृक सम्मान और पैतृक आधिपत्य को बनाये रखने के लिए- जिस तिस उपाय से यत्न (चालाकी #) करता है। [# अर्थात भले ही वह स्वयं ब्रह्मविद न बन सका हो, पर चालाकी के द्वारा चेष्टा करता है कि व्यासपीठ पर केवल उसके पुरोहित कुल का कोई वंशधर ही बैठे।] इस अवस्था में ब्राह्मणों के साथ अन्य वर्गों या जातियों का संघर्ष  या विवाद शुरू हो जाता है। बाध्य होकर ब्राह्मणों में से अधिकांश लोगों को अब दूसरे वर्ण की वृत्ति या पेशा-रोजगार (सरकारी नौकरी,-निजी नौकरी, वकालत या बणिक  -वृत्ति) करनी पड़ती है। जिसके फलस्वरूप ब्राह्मणों की और भी अवनति हो जाती है। गुजरात के नागर ब्राह्मण (पुरोहित -व्यवसायी सम्प्रदाय) और केवल 'नागर' (जो राज-कर्मचारी, वकील या वैश्य -वृत्ति के हैं ) - कहे जाने वाले ब्राह्मणों का उदाहरण देकर स्वामी जी कहते हैं,'आधी यूरोपीय पोशाक और रहन-सहन , तथा सँवारे हुए बाल रखने वाले ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्व में समाज को विश्वास नहीं है। और इस प्रकार , अपने वंशगत पुरोहित -व्यवसाय को छोड़कर हजारों ब्राह्मण युवक अन्य जातियों की वृत्ति का अवलम्बन कर धनवान हो रहे हैं, साथ ही उन पुरोहित पूर्वजों के आचार -व्यवहार एकदम रसातल को जा रहे हैं। अटल प्राकृतिक नियमों के अनुसार ब्राह्मण जाति अपना समाधि-मन्दिर आप ही बना रही है। यहाँ स्वामी जी अपना मत प्रकट करते हुए (टिप्पणी करते हुए) कहते है - "और यही कल्याणकर है, क्योंकि प्रत्येक ऊँची जाति (अभिजात जाति ) के लिए अपने ही हाथों अपनी चिता बनाना प्रधान कर्तव्य है।" (९/२१३) ["Nature favors the dying out of the unfit and the survival of the fittest.....  It is good and appropriate that every caste of high birth and privileged nobility should make it its principal duty to raise its own funeral pyre with its own hands.4/458
      जिन ऐतिहासिक नियमों तथा शिक्षाओं को हमें (तथाकथित चक्रवर्ती, मुखर्जी , चटर्जी पांडे, मिश्रा, शर्मा, त्रिपाठी,आदि अभिजात कुल के पुरोहित को) अनिवार्य समझ कर ग्रहण कर लेना  चाहिए, स्वामी विवेकानन्द उपरोक्त उदाहरणों  के माध्यम से उसी विषय में  हमलोगों का ध्यान आकर्षित करना चाह रहे हैं। वे कहते हैं -" ब्राह्मणों ने अपनी उपार्जित ज्ञान शक्ति को केवल अपने भीतर आत्मगोपन करके रखा , और उस आध्यात्मिक विद्या  का वितरण नहीं किया, या उस ब्रह्मविद्या का विकिरण सामान्य मनुष्यों तक न करके [ दूसरों के भीतर भी उस विद्या-चर्चा  (3H विकास के 5 अभ्यास की प्रशिक्षण पद्धति) का समागम (Communion) नहीं  होने दिया]  ऐसा करके उन्होंने अपनी ही जाति और समुदाय का ही सर्वाधिक नुकसान पहुँचाया है ! तथा --similar situation या समान स्थिति में यही  अवस्था अन्य समस्त ऊँची जाति वाले समुदाय की होने वाली है।  कुछ समय तक किसी कुल-विशेष या जातिविशेष में विद्या और शक्ति का एकत्र होना समाज के कल्याण के लिए परमावश्यक है; परन्तु उन्हें सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि वह शक्ति पूरे समाज में वितरित करने के लिए ही संग्रहित हुई है। यदि ऐसा न हुआ तो, निश्चय ही वह समाज-शरीर तुरंत ही नष्ट हो जायेगा। " (९/२१३) 
          ब्राह्मणों में संचित शक्ति का आधार, वह बुद्धिबल था जो उन्हें तपस्या , संयम , त्याग और सत्य को अपने जीवन में धारण करने के लिए -लगातार Inspired' या उत्प्रेरित करती रहती थी। और इन सब शक्तियों का मूलाधार था त्याग। उन्हीं त्यागनिष्ठ ब्राह्मणों के आधिपत्य युग में -सभ्यता की कोपलें पहली बार प्रस्फुटित हुई थीं। किन्तु इस जगत में 'त्याग' के साथ ही साथ  एक और शक्ति कार्य करती है - वह है 'भोग'! स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित मानव-समाज के इतिहास का विश्लेषण और गहन चिंतन-मनन करने से, जिस महान  सत्य तक हमारी दृष्टि पहुँच ही जाती है, वह यह है --- कि बहुत लम्बे समय से मानव-समाज में  'त्याग और भोग' के बीच संघर्ष  (यानि देव और असुर के बीच संग्राम ?) चलता  चला आ रहा है। और जब इस संघर्ष में (देवासुर संग्राम में) त्याग की जीत होती है, तभी साधारण जनता का मंगल या कल्याण साधित होता है।  और जिस युग में भोग 'त्याग' को पराजित कर देता है, उस समय (प्रजा) साधारण जनता के दुःख में वृद्धि होती है। जिस समय कोई ब्राह्मण (नेता -जीवनमुक्त शिक्षक) त्याग की महिमा को भूलकर भोगवृत्ति को प्रश्रय देने लगता है, और स्वार्थ-परायण बन जाता है, उस समय पुरोहित शक्ति (ब्राह्मण) और समाज दोनों का अमंगल होता है। 
         स्वामी जी द्वारा प्रदत्त इसी ऐतिहासिक सूत्र का अनुसरण करके राष्ट्र-शक्ति के अभ्युदय (emergence of state power या संघशक्ति के अभ्युदय) के विषय में इस तथ्य  को भी समझा जा सकता है कि प्रजा-समष्टि की शक्ति का केन्द्र राजा (या संगठन का नेता) ही जनता जनार्दन का प्रधान सेवक होता है! " क्योंकि साधारण जनता (आम आदमी या प्रजा)  में त्याग की अपेक्षा भोग करने की प्रवृत्ति (tendency) ही प्रबल होती है ;  इसीलिए आम आदमी के अधिकारों (To protect the common right) की रक्षा के लिए यानि सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा के लिए  " समान प्रयत्न और समान आकूति (आकांक्षा) से प्रेरित होकर  व्यक्तिगत स्वार्थ को त्याग देने का भाव " -  प्राचीन युग बात तो दूर रही आज के समय में भी किसी भी देश में सम्यक रूप से उपलब्ध नहीं है।" (९/२१३) 
         स्वामीजी की स्पष्ट धारणा यह है कि - " समाज ही राजा रूपी शक्ति-केन्द्र की सृष्टि करता है। " इसलिए जो राजा प्रत्येक व्यक्ति को साधारण जनता (या संगठन) के कल्याणार्थ अपने क्षुद्र स्वार्थों को त्याग देने की शिक्षा देगा या बाध्य कर देगा, वही राजा प्रजा की भोग-विलास (enjoyment) की आकांक्षा को विधिपूर्वक नियंत्रण में रखते हुए सामान्य जनता की सुख के सम्भावना में वृद्धि कर सकेगा। (न खुद खायेगा न दूसरों को खाने देगा।) जिस प्रकार कोई यथार्थ ब्राह्मण (त्यागनिष्ठ गुरु या नेता) बचपन से ही ज्ञानेच्छा (अतीन्द्रिय सत्य को जानने की इच्छा) के द्वारा अभिप्रेरित (Motivated) होकर तपस्या और संयम की सहायता से  त्याग और सत्यमार्ग पर आजीवन यत्नपूर्वक चलने की कोशिश करता है। ठीक उसी प्रकार कोई क्षत्रिय (राजा) भी स्वभावतः ही भोगेच्छा के द्वारा अभिप्रेरित होकर ही कार्य करता है।  

[ इसीलिए " धर्म , मंत्र और शास्त्र के बल से बलवान , शापरूपी अस्त्र से सज्जित , तथा सांसारिक स्पृहाशून्य तपस्वियों के भ्रू-भंग के सामने प्रतापी राजाओं का काँपना भारतवासी सनातन काल से देखते आये हैं। (जैसे दुर्वाशा मुनि के सामने सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र का काँपना) फिर सेना और शस्त्रों से सजे हुए वीर राजाओं के अकुण्ठित वीर्य और एकाधिकार के सामने प्रजा का -सिंह के सामने बकरियों की भाँति -सिर झुकाये खड़े रहना भी उन्होंने अवश्य देखा था। ९/२०७]  
                  इसलिए त्यागनिष्ठ ब्राह्मण (कुलगुरु या नेता) का प्रभाव क्षत्रिय राजा के ऊपर जितने दिनों तक कार्य करता रहता है, उतने दिनों तक राजा की भोगेच्छा भी नियंत्रित रहती है और प्रजा का कल्याण संभव होता रहता है। किन्तु ब्राह्मण जब स्वयं स्वार्थी होकर अपने प्रभाव को खो देते हैं, तब क्षत्रिय राजा अपने पूर्ण प्रभुत्व में अपनी भोगक्षाओं की पूर्ति करने में व्यस्त हो जाते हैं। और जैसे ही कोई ब्राह्मण  उस राजा की भोगेच्छा  में बाधा डालने की चेष्टा करे तो उसका सत्यानाश निश्चित है। यदि वह विनीत होकर, राजा की आज्ञाओं को शिरोधार्य करे , तभी वे सकुशल रह सकते हैं। आमतौर पर समाज में  " ब्राह्मणों के प्राधान्य काल में जिस प्रकार ज्ञानेच्छा का पहला उन्मेष होता है ..... उसी प्रकार क्षत्रियों के प्रभुत्वकाल में लौकिक भोगेच्छा की पुष्टि और उसकी सहायक विद्या समूह  (शिल्प कला आद्यौगिक विधाओं आदि) की सृष्टि तथा उन्नति होती है। और उसके साथ ही साथ पर्ण कुटियों के स्थान पर अट्टालिकाएँ बनने लगती हैं, औद्योगिक तकनीक की उन्नति होती है, वास्तुकला, सुंदर मूर्तियाँ, मधुर संगीत,  वाद्य यंत्र, महीन रेशमी कपड़े, आदि उत्पादों का पृथ्वी पर आगमन होता है। इसके कारण क्षत्रियों के आधिपत्य युग में ग्राम का गौरव जाता रहा और उसके बदले वड़े बड़े नगरों का आविर्भाव (Advent)  होता है ।" ९/२१४ ] 
        हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है, इसीलिए स्वार्थ-पूर्ति ही स्वार्थ-त्याग का पहला शिक्षक है। बड़े बड़े नगरों के अत्यधिक भोग-सुखों की व्यर्थता का अनुभव कर चुकने के बाद, जब राजाओं के मन में  (राजा ययाति की तरह ) भोगों के प्रति तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो जाता है;  तब वे राजा भी विषय-भोगों से ऊबकर अध्यात्म-विद्या के विषय की गंभीर आलोचना करने में ध्यान देने लगते हैं। गीता और उपनिषदों पर चर्चाएं होने लगती हैं। आध्यात्म विद्या पर गहरे चिंतन-मनन के फलस्वरूप  पुरोहितों के मंत्र-तंत्र आधारित कर्मकाण्ड को देखकर उन राजाओं में पुरोहितों (तांत्रिक) के प्रति अत्यन्त घृणा का भाव उत्पन्न होने लगा ।  --अत्यधिक भोगों की प्रतिक्रिया स्वरूप जब राजा के मन में भी वैराग्य उत्पन्न हो गया, तब आध्यात्मिक शक्ति से वंचित (Deprived) और उनके ऊपर ही आश्रित ब्राह्मण लोग विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर्म-काण्डों में प्रवृत्त हो गये । किन्तु उनके यजमान (क्षत्रिय) को अब उन कर्मकाण्ड के ढोंग में कोई रूचि नहीं थी। फलस्वरूप ब्रह्मणों का वह रोजगार भी चला गया । 
           इसीलिए पुरोहित शक्ति तब अपने प्राचीन कर्मकाण्डों (यज्ञ -बली आदि) की रक्षा करने के लिए कटिबद्ध हो गयी। जिसके फलस्वरूप पुरोहित शक्ति (त्याग विद्या -निवृत्ति मार्ग ) और राज शक्ति (भोग विद्या-प्रवृत्ति मार्ग) के बीच जो नया विवाद उत्पन्न हुआ उसने भारी कलह का रूप धारण कर लिया। [जिसका परिचय बौद्ध और जैन धर्मं के अभ्युदय से  (राजा + ऋषि ) राजर्षि जनक जैसे बाहुबल और आध्यात्मिक बल -सम्पन्न राजा की राज्य सभा में  वेद-उपनिषद पर होने चर्चाओं को देखने से प्राप्त होता है। (King Janaka was backed by Kshatriya prowess as well as spiritual power. वहां जो ब्राह्मण तर्क में हार जाते थे तब उन्हें जेल में डाल दिया जाता था -अष्टावक्र मुनि के पिता को भी जेल भेज दिया था।)] इस प्रकार हम देखते हैं कि भोगविद्या और त्याग विद्या ' लौकिक और आध्यात्मिक ' (अभ्युदय और निःश्रेयस) दोनों विद्यायें प्रथम अवस्था में ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों में ही केन्द्रीभूत होती हैं । 
          हमारे शास्त्रोक्त चार पुरुषार्थ भी प्रवृत्ति (धर्म,अर्थ और काम) से होकर निवृत्ति (मोक्ष या बुद्धत्व प्राप्ति) में  बाधा नहीं देते। (क्योंकि मोक्ष या बुद्धत्वप्राप्ति को सभी के लिए अनिवार्य नहीं किया गया है।) किन्तु पूर्व में उल्लेखित ऐतिहासिक सूत्रानुसार, उसके बाद के युग में जब इन दोनों विद्याओं (प्रवृत्ति-निवृत्ति मार्ग) के अभ्यास और वितरण-पद्धति में युगानुकूल परिवर्तन नहीं करने के कारण वे साधारण मनुष्यों में संचारित न हो सकीं। इसलिए, हमारे पूर्वजों की जो विद्या (चारपुरुषार्थ वाली वर्णाश्रमधर्म की विद्या) प्रत्येक वर्ग को 'लौकिक अभ्युदय और निःश्रेयस ' दोनों प्रदान करने में समर्थ थी उस समस्त विद्या को जब राजा साधारण जनता तक संचारित करने में असफल हो गए तो राजा भी स्वयं उस विद्या से (कर्म और ज्ञानयोग की शीक्षा से) वंचित हो गया, तब साधारण जनता (प्रजा) अपनी उन्नति के प्रत्येक कार्य के लिए  पूर्ण रूप से राजा (सरकार) का मुँह देखने लगी।  [अर्थात जब राजर्षि जनक (राजा + ऋषि) जैसे राजा भी,  चार पुरुषार्थ , चार आश्रम , सोलह संस्कार में आधारित सामाजिक व्यवस्था के आधार पर प्रवृत्ति मार्ग (भोगेच्छा) से निवृत्ति मार्ग (त्यागेच्छा) में आने की पद्धति - 3'H' विकास के 5 अभ्यास पद्धति का प्रचार-प्रसार करने में असफल हो गए। तब  हमारे पूर्वजों की वह विद्या जिसे चार पुरुषार्थ में आधारित 'वर्णाश्रम धर्म' कहा जाता है, वह सम्पूर्ण भारत का कल्याण करने में सफल न हो सकीं। इसके फलस्वरूप  साधारण जनता (प्रजा) अपनी उन्नति के प्रत्येक कार्य के लिए  पूर्ण रूप से राजा (सरकार) का मुँह देखने लगी। ] इसके ही फलस्वरूप प्रजावर्ग के साथ शासक वर्ग का संघर्ष प्रारम्भ हो गया। क्योंकि यह संघर्ष (Clash -विरोध या टकराव) साधारण जनता के साथ होता है , इसलिए इसके जय -पराजय के ऊपर ही सामाजिक अवस्था और सभ्यता की अवस्था (पतन या उन्नति ) भी निर्भर करती है। 
        यहाँ पहुंचकर स्वामी जी, वर्णाश्रम समाज-व्यवस्था  के विषय में  एक अन्य गंभीर तत्व  को उपस्थापित करते हैं। वह यह कि विभिन्न समाजों की अपनी अलग अलग एक प्राण-शक्ति होती है।  जो उस समाज, देश या कौम की प्राणस्वरूप होती है।  उस प्राणशक्ति पर आघात पड़ने से, अथवा  उसके दुर्बल व क्षीण होने से समाज -शरीर भी दुर्बल होकर नाना व्याधियों से ग्रसित हो जाता है। और साधरण जनता की अवस्था में अवनति दिखाई पड़ने लगती है।  लेकिन प्राण शक्ति ठीक रहने से सब -कुछ ठीक-ठाक बना रहता है। 
     जिस देश की जो प्राणशक्ति है, उस रुझान के अनुकूल योजना बनाकर कार्य करने से जनता और समाज अधिक उन्नत होता है, और वह योजना (बाबा बौखनाथ की भक्ति में आधारित टनेल खुदाई में फंसे 41 मजदूरों की मुक्ति योजना 17 दिन बाद) भी  सफल हो जाती है।  इसीलिए समाज में परिवर्तन या उन्नति की समस्त योजनाएं राष्ट्र के प्राणशक्ति में आधारित होना आवश्यक है।  इसके अतिरिक्त आम जनता के लिए भी वही सामाजिक परिवर्तन या उन्नति बोधगम्य तथा स्वीकार्य  होती है, जिसे वे राष्ट्र की जीवनी-शक्ति के अनुरूप या उसका पोषण करने वाली समझते हैं। 
        किसी समाज या देश की इच्छा या आकांक्षा के प्रकटीकरण  को उस समाज की भाषा का नाम दिया जा सकता है, जिसे वह समाज अच्छी तरह से समझता है। भारतवर्ष की उस प्राणशक्ति को स्वामी जी ने धर्म (आध्यात्मिकता) कहा है।  इस गहन सिद्धांत  को स्वामी जी ने इस प्रकार अभिव्यक्त किया था -"क्योंकि भारतवर्ष (केवल कृषि-प्रधान देश ही नहीं) एक धर्म-प्राण देश भी है, अर्थात इसका प्राण धर्म में बसता है।  इसलिए धर्म ही इस देश की भाषा है, इसके समस्त उद्यमों (पहलकदमी) का लिंग या चिन्ह है।" इसीलिए भारत की सामाजिक व्यवस्था में परविर्तन लाने के लिए जितने भी आंदोलन या विप्लव बार-बार किये गए हैं, वे सभी धर्म के नाम से ही हुए हैं; उन सब आंदोलनों के पीछे, सदैव हमारे राष्ट्र की प्राणशक्ति -धर्म को देखा जा सकता है।" 
          किसी अन्य देश में यह राष्ट्रिय प्राण-शक्ति राजनीति हो सकती है, या समाजनीति हो सकती है या अन्य कुछ (व्यापार) हो सकती है,  किन्तु भारत के लिए  वह प्राणशक्ति  धर्म या आध्यात्मिक चेतना ही है। इसको स्पष्ट करते हुए स्वामी जी ने कहा था, " शासनकर्ता राजा (सरकार) और शासित साधारण जनता (प्रजा) के बीच पूर्वोल्लिखित विप्लव या सत्ता और प्रजा का संघर्ष भारत में भी बार- बार होता रहा  है, किन्तु वे सारे विवाद धर्म को ही आधार बनाकर धर्म का अवलंबन (खालसा पंथी-सिक्ख, कबीरपंथी मुस्लिम, बौद्ध या जैन और हिन्दू के अद्वैत का अवलंबन) करके ही सुलझा भी लिया गया है। " उदाहरण के लिए उन्होंने - चार्वाक, जैन और बौद्ध, शंकर, रामानुज और चैतन्य आंदोलन, कबीर, नानक, ब्रह्मसमाज, आर्यसमाज आदि आंदोलनों का उल्लेख करते हुए कहा था कि,  इन सभी सम्प्रदायों के आविर्भाव को ऊपरी तौर से देखने पर, वहाँ " धर्म की उत्ताल तरंगे " ही वज्र की भाँति गर्जन करती हुई दिखाई देती हैं, किन्तु वास्तव में उन समस्त (धार्मिक -आन्दोलनों या Be and Make विप्लव) के माध्यम से 
सामाजिक नैतिक अभावों की आपूर्ति ही हुई है। " (९/२१५) 
         इसी प्रसंग में प्राचीन धर्म की पतित अवस्था में अपनी -अपनी जाति या वर्ण के स्वार्थ को किसी भी प्रकार पूर्ण करने के लिए कटिबद्ध होकर निरर्थक कर्मकाण्ड करने और  'कष्ट साध्य पुरुषार्थ " (धर्म, अर्थ और काम) का पूर्णतया वहिष्कार करने की प्रवृत्ति की स्वामी जी निन्दा करते हैं। वे कहते हैं - "  यज्ञ आदि के नाम पर 'कुछ अर्थहीन शब्दों के उच्चारण' से ही यदि सारी कामनायें सिद्ध होती हैं, तो फिर अपनी इष्ट-सिद्धि के लिए कौन कष्ट-साध्य पुरुषकार (manliness) का सहारा लेगा ? और यदि यह रोग सारे समाज-शरीर में प्रवेश कर जाय तो समाज बिल्कुल उद्यमहीन होकर विनष्ट हो जायेगा। इसीलिए धार्मिक विप्लव के रूप में प्रत्यक्षवादी चार्वाकों # की चुभने वाली चुटकियाँ शुरू हुईं। " [चार्वाक सम्प्रदाय #-who believed only in the reality of sense-perceptions and nothing beyond. केवल इन्द्रियगोचर सत्य को ही सत्य समझते थे, इसलिए इन्द्रियातीत सत्य की खोज करने में उनकी कोई रूचि नहीं थी। ] 
       इन समस्त धार्मिक विप्लव के समसामयिक (Contemporary) युग में उस विप्लव की प्रयोजनीयता , और कार्यकारिता आदि को यद्यपि बहुत संक्षेप में, तथापि बहुत कुशल तर्क की सहायता से उन्होंने दिखाया है। प्राचीन धर्म में आयी गिरावट के फलस्वरूप जब ब्राह्मणों के .. पशुमेध, नरमेध , अश्वमेध आदि यज्ञ के विस्तृत कर्मकाण्ड से भारत भूमि रक्तरंजित हो रही थी, तब जैन और बौद्ध विप्लव (क्षत्रिय विप्लव) ने जैसे साधारण जनता का उद्धार किया था। उसी प्रकार,  कुछ समय बाद जब देश में प्रचलित बौद्ध धर्म का महान सदाचार घोर अनाचार में परिणत हो गया और साम्यवाद (universal all-embracing spirit of equality) की अधिकता से उस सम्प्रदाय में आये हुए विभिन्न बर्बर जातियों के पैशाचिक नृत्य से समाज काँपने लगा।  उस समय आचार्य शंकर और रामानुज की अथक चेष्टा से समाज की रक्षा हो सकी। स्वामी जी का यह मानना था कि  -" उनके बाद यदि कबीर, गुरु नानक ,गुरु गोविन्द सिंह , चैतन्य सम्प्रदाय, ब्रह्मसमाज और आर्य समाज का यदि जन्म न होता , तो अधिकांश हिन्दुओं जबरन धर्मान्तरण हो जाता और आज भारत में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमान और ईसाईयों की संख्या निःसन्देह बहुत अधिक होती। " ९/२१६ ] 
       प्रत्येक वस्तु की तरह धर्म  में भी 'सार और असार (अफ़ीम) ' मिश्रित है। सार को छोड़कर असार के आडम्बर में मन को निवेशित करने से अच्छी वस्तु भी शुभ फल नहीं देते, धर्म भी नहीं। यह सिद्धान्त इसी ऐतिहासिक पर्यालोचना से प्राप्त होता है। दूसरी ओर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि धर्म ( अर्थात बाबा बौखनाथ में आस्था रखने के साथ-साथ पुरुषार्थ भी करते रहना) ही भारत की यथार्थ उन्नति और परिवर्तन करने  में सक्षम है। 

[ छह ]

(व्यक्ति और समाज के बीच परस्पर सम्बन्ध के विषय में स्वामीजी की धारणा।) 

   स्वामी जी ने व्यक्ति और समाज के बीच परस्पर सम्बन्ध के विषय में अपने विचारों को बड़े स्पष्ट रूप रखते हुए कहा था- " समष्टि (समाज) के जीवन में व्यष्टि (व्यक्ति) का जीवन है; समष्टि के सुख में व्यष्टि का सुख है। समष्टि के बिना व्यष्टि का अस्तित्व ही असम्भव है;  यही अनन्त सत्य जगत का मूल आधार है। अनन्त (समष्टि) के साथ सहानुभूति रखते हुए उसके सुख में सुख और उसके दुःख में दुःख मानकर धीरे धीरे आगे बढ़ना ही व्यष्टि का एकमात्र कर्तव्य है। और कर्तव्य ही नहीं, इस नियम का उलँघन (अपवाद) करने से उसकी मृत्यु होती है। और उसका पालन करने से उसे अमृतत्व की प्राप्ति होती है। " ९/२१६
     प्रत्येक मनुष्य की जो एक सामाजिक प्राणी है, उस 'मनुष्य'  के सचेतन -प्रयास (कर्तव्य) की दिशा क्या होनी चाहिए  ?  यह बात यहाँ आकर  बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। मनुष्य के इस कर्तव्यबोध का आधार है वेदान्तिक सत्य - सभी मनुष्यों का एकत्व, ' the unity of all human beings'-- या अनेकता में एकता के तत्व को समझ बूझकर (Consciously) इसी एकत्व (सर्वेभवन्तु सुखिनः की भावना) को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा, समाज के कल्याणकारी इतिहास की रचना में सहायक होती है। इस वेदान्तिक एकत्व के सत्य - की अनुभूति ही हमलोगों के भीतर सभी मनुष्यों के प्रति-भाव को संचारित करती है। और केवल अपने ही लोगों को नहीं, बल्कि पराये लोगों का मंगल या सभी मनुष्यों के मंगल, या समष्टि के कल्याण के लिए स्वयं को पूर्णतः निःस्वार्थपर बना लेने के लिए अनुप्रेरित करती है। 
       जब कोई मनुष्य इन दो गुणों - 'प्रेम और निःस्वार्थपरता' ( universal love and self-denying compassion for all) को एक ही साथ वर्जित (Exclude) कर देता है, और स्वार्थ के द्वारा चालित होकर प्रेम के बदले घृणा को प्रश्रय देने लगता है, तब इसके परिणाम-स्वरूप समाज में बहुत सारा कचरा (रूपी ढोंगी शुभचिंतक उसके इर्दगिर्द) आ कर जमा हो जाता है। किन्तु " समाज की आँखों पर बहुत दिनों तक पट्टी नहीं बाँधी जा सकती। समाज के ऊपरी हिस्से में कितना ही कूड़ा-करकट क्यों न इकट्ठा हो गया हो, परन्तु उस ढेर के नीचे प्रेमरूपी निःस्वार्थ सामाजिक जीवन का प्राण-स्पंदन होता ही रहता है। सब कुछ सहने वाली पृथ्वी की तरह भारतीय समाज भी बहुत सहता है। परन्तु एक न एक दिन वह जागता ही है, और उस जागृति के वेग से युगों की एकत्र मलिनता तथा स्वार्थपरता दूर जा गिरती है। " (९/ २१६)
      समाज विज्ञान का एक और गहन सत्य स्वामी जी की दृष्टि में उदभासित हो उठता है - " हम मनुष्य हजारों बार ठगे जाकर भी इस महान सत्य में विश्वास नहीं रखते। पागलों की तरह हम लोग कल्पना करते हैं कि हम प्रकृति को (माँ जगदम्बा को) धोखा दे सकते हैं। हमलोग अत्यन्त अल्पदर्शी हैं, समझते हैं कि स्वार्थ-साधन ही मनुष्य जीवन का चरम उद्देश्य है। हमें यह बात स्मरण नहीं रहती कि - विद्या, बुद्धि, धन , जन , बल, वीर्य जो कुछ प्रकृति (माँ जगदम्बा) हमलोगों के पास एकत्र करती है, वह फिर बाँटने के लिए है; सौंपे हुए धन में आत्म-बुद्धि हो जाती है, और बस इसी प्रकार हमारे विनाश का सूत्रपात होता है। " क्योंकि राजा (क्षत्रिय) जो प्रजा-समष्टि का शक्ति-केन्द्र है, वह बहुत जल्दी भूल जाता है कि शक्ति उसमें इसीलिए संचित हुई है कि वह फिर लोगों में हजार गुनी बंट जाय। ' राजा के स्वार्थी हो जाने से ' पालन के स्थान पर पीड़न ' चला आता है और 'रक्षण की जगह भक्षण' भी आप ही आप आ जाता है। (९/२१७) 
      इस अवस्था में यदि समाज बलहीन रहा (हिन्दू संगठित नहीं रहा -यदि अब भी जातियों में बँटा रहा)  तो सबकुछ चुपचाप सह लेता है। और राजा -प्रजा दोनों ही हीन से हीनतर अवस्था में गिरकर शीघ्र ही किसी दूसरी बलवान जाति के शिकार बन जाते हैं। (कश्मीरी पंडितों को भारत में ही रिफ्यूजी बनकर रहना पड़ता है।) पर यदि समाज शरीर बलवान रहा ( विवेकानन्द भक्त महामण्डल की शाखाएं सब जगह फ़ैल गयीं, तब) --शीघ्र ही अत्यंत प्रबल प्रतिक्रिया उपस्थित होती है - जिसकी चोट से छत्र , दण्ड , चँवर आदि बहुत दूर जा गिरते हैं, और (नेशनल हेराल्ड रूपी) सिंहासन  अजायबघर में रखी हुई पुरानी अनूठी वस्तुओं के सदृश हो जाता है। अभी के समय में 'राजा ' कहने का अर्थ प्राचीन इतिहास से भिन्न, राजशक्ति ( किसी संगठन को चलाने की शक्ति) या राष्ट्र शक्ति -वह चाहे जैसे भी 'नेता' के हाथों में हो, उसी के सन्दर्भ में कही हुई बात ,-समझना होगा। 
  
[सात]

    इस रचना के अंतस्तल में यद्यपि वेदान्त बुद्धि जन्य शान्त रस ( परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान प्राप्त होने पर, मन को जो शान्ति मिलती है वहाँ पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है,  जहाँ पर न दुःख होता है, न ही द्वेष होता है मनुष्य का मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है और मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है।)  हर जगह विद्यमान है।  तथापि घने जंगल में पेड़ों के बीच से छन छन कर आने वाले सूर्य के किरणों की तरह, हास्यरस भी स्वामी जी की इस रचना में पर्याप्त है। किन्तु कहीं कहीं करुणरस की हल्की ध्वनि भी है जो वीभत्सरस के सामने पड़कर पल भर में ही निस्तब्ध हो जाती है। 
      इस राजशक्ति (क्षत्रिय शक्ति) के बाद ही वैश्य-शक्ति का उत्थान या उद्भव होता है। " वैश्य कहता है, 'पागल, जिसको तुम 'अखण्डमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम' कहते हो वह मुद्रा-रूपी अनन्त शक्तिवान मेरे हाथों में है। देखो इसकी बदौलत मैं भी सर्वशक्तिमान हूँ। ब्राह्मणों , तुम्हारा तप-जप,  विद्या-बुद्धि मैं इसके प्रभाव से अभी कैसे मोल ले लेता हूँ। और क्षत्रियों तुम्हारा अस्त्र,शस्त्र, तेज वीर्य भी इसकी कृपा से मेरी सहायक बन जाती है। ये जो तुम बड़े बड़े कल-कारखाने आदि देख रहे हो, वे मेरे मधु के क्षत्ते हैं। वह देखो, असंख्य शूद्ररूपी मक्खियाँ उसमें रात-दिन मधु एकत्र करती हैं। परन्तु वह मधु कौन पियेगा ? - मैं ! " (९/२१८) 
   आत्मरक्षा करने के विषय में सभी वैश्य एकमत रहते हैं, क्योंकि " वैश्यों को सदा इस बात का डर लगा रहता है कि कहीं उस धन को ब्राह्मण ठग नहीं ले, और क्षत्रिय जबरदस्ती छीन न ले। इसी कारण वैश्य लोग अपनी रक्षा के लिए सदा एकमत रहते हैं। अपने रूपये के बल से राज-शक्ति को दबाये रखने के लिए वह सदा व्यस्त रहता है। परन्तु उसकी यह इच्छा बिल्कुल नहीं होती कि यह राज-शक्ति क्षत्रिय कुल से शूद्र कुल (श्रमिक वर्ग) में चली जाये। किन्तु वैश्य या वणिक लोग व्यापार करने के लिए एक देश से दूसरे देशों तक जाते रहते हैं, " जिसके फलस्वरूप जो विद्या , सभ्यता और कला-कौशल ब्राह्मणों और क्षत्रियों के अधिकार में समाज के केंद्रस्थल में जमा हुआ था , वह सर्वत्र संचारित होने लगा। 

[आठ ]
 
    किन्तु स्वामी विवेकानन्द के हृदय की समस्त सहानुभूति मानो शूद्रकुल (श्रमिक वर्ग) के प्रति थी। वे भारत के भावी नेताओं से कहते हैं - "जिनके शारीरिक परिश्रम के बल पर ब्राह्मणों का आधिपत्य , क्षत्रियों का ऐश्वर्य और वैश्यों का धन-धान्य निर्भर करता है, वे आज कहाँ हैं और किस स्थिति में हैं ? समाज का मुख्य अंग होकर भी जो लोग सदा सब देशों में - 'जघन्य प्रभवो हि सः' कहकर पुकारे जाते हैं, उनका क्या हाल है ? जो लोग समाज के समस्त ऐश्वर्य के मूल कारण हैं, वे लोग ही चिरकाल से उत्पीड़ित (oppressed), उपेक्षित , अपमानित (humiliated) किये जाते रहे हैं-उनकी यह अवस्था स्वामीजी  के लिए बिल्कुल असहनीय थी। इतना ही नहीं अंग्रेजों के शासनकाल में तो मानो सभी भारतवासी ही शूद्रत्व की अवस्था तक पदावनत (Degraded) हो चुके हैं, स्वामी जी के लिए सबसे बड़े दुःख की बात तो यह थी।  
         उनके प्रति अपनी गहरी सहानुभूति से उत्पन्न वेदना को स्वामी जी ने कैसी सुन्दर भाषा में व्यक्त किया था --" इस देश का हाल क्या कहा जाय ? शूद्रों की बात तो अलग रही, भारत का ब्राह्मणत्व अभी गोरे अध्यापकों में है, और उसका क्षत्रियत्व चक्रवर्ती अंग्रेजों में है। उसका वैश्यत्व भी अंग्रेजों के नस नस में है। भारतवासियों के लिए तो केवल भारवाही पशुत्व अर्थात शूद्रत्व ही रह गया है। घोर अंधकार ने अभी सबको सामान भाव से ढँक लिया है। अभी चेष्टा (पुरुषार्थ) में दृढ़ता नहीं है, उद्यम में साहस नहीं है, मन में बल नहीं है, अपमान में घृणा नहीं है, दासत्व में अरुचि नहीं है, हृदय में प्रीति नहीं है और प्राण में आशा नहीं है। और है क्या ? केवल प्रबल ईर्ष्या, स्वजातिद्वेष, दुर्बलों का जैसे-तैसे नाश करने और कुत्तों की तरह बलवानों के तलवे चाटने में है। इस समय तृप्ति , धन और ऐश्वर्य का नंगा प्रदर्शन करने में है, भक्ति स्वार्थ-साधन में है, ज्ञान अनित्य वस्तुओं के संग्रह में है, योग पैशाचिक आचार में है, कर्म दूसरों के दासत्व (नौकरी करने ?) में है, सभ्यता विदेशियों की नकल करने में है, वाक्पटुता कटुभाषण में है, और भाषा की उन्नति धनिकों की बेढंगी खुशामद में या जघन्य अश्लीलता के प्रचार में है। जब सारे देश में शूद्रत्व भरा हुआ है, तो शूद्रों के विषय में अलग से क्या कहा जाय। " ९/२१९ ]

     स्वामीजी के समकालीन (वर्तमान) भारत का कैसा सटीक चित्रण है ! ( -বর্তমান ভারতের কি নিখুঁত চিত্রণ !) केवल इतना ही नहीं यह अवस्था आज भी समानरूप में अधिक रूप में सत्य है। केवल इतना ही नहीं , स्वाधीनता के 70 साल बाद आज भी यही अवस्था समान रूप से या उससे भी अधिक सत्य है। किन्तु स्वामी जी ने वर्तमान भारत की वस्तुस्थिति का केवल पूर्ण चित्रांकन ही नहीं किया था, वे तो इस चित्र में वर्णित उत्पीड़ित और शोषित, भारत की साधारण जनता को इससे बाहर निकलने का मार्ग भी दिखलाना चाहते थे
        स्वामी विवेकानन्द ने देखा था कि यह शूद्र जाति दूसरे देशों में यद्यपि थोड़ा जाग उठी है;  किन्तु जाग उठने के बावजूद , जिस एकत्व-बोध (समत्व बोध ?) को अर्जित किये  बिना उनका वह जागरण मुक्ति में सहायक नहीं बन सकता , स्वामी जी उसी राष्ट्रिय एकता को स्थापित करने वाले महत्वपूर्ण सूत्र की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करना चाहते थे, इसलिए वे कहते हैं - " अन्य देशों के शूद्र-कुल की नींद कुछ टूटी सी है, पर उनमें विद्या नहीं है। ... उनकी जनसंख्या यदि अधिक ही है, तो क्या ? जिस (वेदान्तिक अद्वैत) एकत्व के बल से दस मनुष्य, लाख मनुष्यों की शक्ति अर्जित कर लेते हैं , वह 'एकता' अभी शूद्रों से कोसों दूर है। इसलिए शूद्र जाति मात्र इसी प्राकृतिक नियम- स्वजातिद्वेश, के अनुसार अभी तक पराधीन है।' (९/२१९)  यहाँ केवल हमें स्वामी जी सहानुभूति ही नहीं दिखाई देती , बल्कि समस्याओं या वर्तमान अवस्था का ऐतिहासिक विश्लेषण तथा उसके भी ऊपर, वे इस अवस्था से बाहर निकलने का मार्ग भी दिखला देते हैं। 
[जिस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह  "वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह" और  "सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं! "  का जयघोष करते थे , उसी प्रकार स्वामी जी अपने गुरु श्रीरामकृष्णदेव के नाम का जयघोष करते हुए - नेता,ब्राह्मण, जीवनमुक्त शिक्षक, ब्रह्मविद या बुद्धत्वप्राप्त मनुष्य  बनने और बनाने की प्रशिक्षण पद्धति  "Be and Make " बतला रहे हैं।] 
       इस युग में विभिन्न वर्णों के मनुष्यों के धर्म को अन्य वर्णों में जन्मे व्यक्तियों में संचारित होता हुआ देख कर वे आशावान हो जाते हैं। कहते हैं - " परन्तु फिर भी आशा है। काल के प्रभाव से ब्राह्मण आदि वर्ण भी शूद्रों का नीच स्थान प्राप्त कर रहे हैं, और शूद्र जाति ऊँचा स्थान पा रही है। शूद्रों से भरे , रोम के दास यूरोप ने क्षत्रियों का बल प्राप्त कर लिया है।  ... और नगण्य जापान हवा की तरह शूद्रत्व को झाड़ता हुआ ऊँची जातियों के गुणों पर अधिकार ले रहा है। महा बलवान चीन हमलोगों के सामने ही बड़ी शीघ्रता से शूद्रत्व प्राप्त कर रहा है। यहाँ ग्रीस (यूनान) और इटली तो क्षत्रियत्व के गुणों को अर्जित कर रहे हैं,किन्तु तुर्क, स्पेन आदि निम्न निचले स्तर पर क्यों जा रहे हैं? इसका कारण भी विचारणीय है। " (९/२१९)
         इस प्रकार एक ही नजर में  विभिन्न राष्ट्रों के उत्थान और पतन के कारणों को समझ लेना बहुत कठिन है। किन्तु , स्वामी विवेकानन्द की समकालीन वैश्विक इतिहास का विश्लेषण करने और निरीक्षण करने की यही शक्ति, आधुनिक इतिहासकारों को, आश्चर्यचकित कर देती है। शूद्रत्व के कारणों का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैं - " युगों से पिसते आ रहे शूद्र मात्र ही या तो कुत्तों की तरह धनवानों, दबंगों के तलवे चाटने वाले बन गए है, या वे हिंस्र पशुओं की तरह निर्दयी (खतरनाक) बन  गए है। फिर बहुत दीर्घ समय से उनकी अभिलाषायें निष्फल होती आ रही हैं, इसलिए उनमें संकल्प की दृढ़ता और अध्यवसाय जैसे चारित्रिक गुण उनमें बिल्कुल नहीं है। "
         इसके पहले उन्होंने , जिस राष्ट्रिय एकता के महत्व को समझाया  था , उसे समझ जाने के परिणाम स्वरुप  स्वामी जी की धारणा थी कि - " एक ऐसा समय आएगा, जब शूद्रत्व के गुणों के साथ ही समाज पर शूद्रों का आधिपत्य होगा। " अर्थात आजकल  शूद्र जाति जिस प्रकार वैश्यत्व या क्षत्रियत्व के गुणों को अर्जित कर  अगड़े-पिछड़े को लड़वाने में अपना बल दिखला रहे हैं, उस प्रकार के जोर-जुल्म से नहीं, बल्कि अपने शूद्रोचित धर्म-कर्म के साथ ही समाज पर शूद्रों का आधिपत्य हो जायेगा।
         स्वामी जी की यह धारणा थी कि ... समाजवाद (Socialism) इसकी उत्पत्ति यूरोप में 1835 में हुई थी, इसके अनुसार देश के मूलधन और भूमि का स्वामित्व समाज का हो, न कि किसी व्यक्तिविशेष का, जो शासन प्रणाली रूस और चीन में अब भी अन्य रूप में चल रहा है। अराजकतावाद (Anarchism, अर्थात मनुष्य यदि अपनी प्रकृति के अनुसार ही चलना शुरू कर दे तो राजशासन या कानून की आवश्यकता नहीं है, 1814 में इसका जन्म हुआ।  नाइलहिज्म (Nihilism) - या विनाशवाद रूस में 1862 में जन्मा जिसके मतानुसार तीन चीजें मिथ्या हैं - ईश्वर, राजा का शासन और विवाह ? आदि सम्प्रदाय- भविष्य में सत्य सिद्ध होने वाली इसी धार्मिक -विप्लव की आगे-आगे चलने वाली ध्वजायें हैं। विश्व इतिहास का गहन विश्लेषण करने के बाद, स्वामी जी ने अपनी रचना में -दिखलाया है कि " समाज का नेतृत्व विद्या या ज्ञान-बल से बली ब्राह्मणों के अधिकार में हो, या बाहुबल के बली क्षत्रिय के अधिकार में हो, धन-बल से बली वैश्यों के अधिकार में ही क्यों न हो, .. उस शक्ति का आधार या उत्स तो शोषित प्रजा -मुख्यतः शूद्रकुल ही है।" (९/२२१ )
       अतः " शासक वर्ग (चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो या वैश्य ही क्यों न हो) , इस शक्ति का उत्स या आधार (प्रजावर्ग) से अपने को जितना ही अलग रखेगा, या अपनी एक अलग पहचान बनाये रखना चाहेगा (जो जितना वीआईपी कल्चर रखेगा), उतना ही वह दुर्बल होगा। वे कहते हैं - " यह मानों माया की (माँ जगदम्बा की) ऐसी विचित्र लीला है कि जिनसे (प्रजा से ) प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से, छलबल -कौशल से (अन्ना -केजरी कट्टर ईमानदार फार्मूला )  यह शक्ति अर्जित होती है , उसी जनता अपना मालिक मानने, या जनता (आम-आदमी) को जनार्दन समझने की भावना वैसे सभी शासकों के मन से शीघ्र ही समाप्त हो जाती है। " 
     और पुरोहित शक्ति जैसे ही अपने को प्रजा वर्ग से अलग करती है, उसी समय प्रजा से अपने को जोड़े रहने वाली क्षत्रिय शक्ति, पुरहितों को  (ब्राह्मणों को) शक्तिहीन करके या पराजित करके समाज का नेतृत्व करने की क्षमता से निष्कासित कर देती है। फिर उसी प्रकार, जब क्षत्रिय लोग भी , अपने को समाज का सर्वसमर्थ मुखिया मानकर, अपने और अपनी प्रजा के बीच लम्बी दुरी बना लेते हैं, तब साधारण प्रजा से कुछ अधिक सहायता पाने वाले वैश्य-कुल, राजशक्ति को (क्षत्रिय को) या तो नष्ट कर डालते हैं या अपने हाथ की कठपुतली बना लेते हैं।  
       इस समय जब वैश्यकुल (ईस्ट इंडिया कंपनी) अपनी स्वार्थसिद्धि कर चुका है, इसलिए प्रजा को अनावश्यक समझकर वह अपने को प्रजा के सुख-दुःख से अपने अलग समझ रहा है, और प्रजाकुल (मुख्यतः शूद्रकुल ) से अपने को सम्पूर्णतः अलग कर लेने की चेष्टा कर रहा है, ... उस समय स्वामीजी बिल्कुल स्पष्ट रूप से देख पा रहे थे कि अब यह वैश्यशक्ति भी खुद अपनी मृत्यु का बीज बो रहा है। (और ठीक 50 वर्ष बाद उन्हें भारत छोड़कर भागना पड़ेगा। फिर यह भी दिखाते हैं कि " साधारण प्रजा ( मुख्य रूप से शूद्र ) ही देश की सारी शक्ति का आधार है, किन्तु जाति -धर्म के नाम पर उन्होंने आपस में इतना भेद कर रखा है कि वह अपने सब अधिकारों से वंचित है। और जब तक ऐसा भाव रहेगा तब तक उसकी यही दशा रहेगी। वे सुख-शांति से वंचित ही रहेंगे। " ९/222 ] 
        राष्ट्रीय एकता के उपादानों का विश्लेषण करके स्वामीजी एक सिद्धान्त देते हुए कहते हैं -  " एक सामान विपदा और घृणा ही सामूहिक प्रेम और सहानुभूति का कारण होती है। " जिनकी विपत्ति एक है , जिनकी घृणा एक है , उनके भीतर ही परस्पर प्रेम और सहानुभूति का जन्म होता है। यह नियम सभी जीवों पर लागु होता है। जंगली पशु भी इस नियम वश एकत्रित होते हैं , और सर्व जीवों में श्रेष्ठ मनुष्य भी इसी नियमवश एकत्रित होकर एक राष्ट्र या एकदेशवासी में परिणत होते हैं। समाज-गठन का प्राथमिक स्थूल कारण यहां प्रकाशित है। जिन देशों को एक ही प्रकार की विपत्ति- इस्लामिक आतंकवाद का सामना करना पड़ता है, जिनकी घृणा और नापसन्द के विषय एक होते हैं (हमाज -इस्राइल युद्ध, बंगाल में मूर्तिपूजा में विघ्न और केरल में कांग्रेसियों द्वारा गौहत्या) उन देशों या व्यक्तियों के बीच परस्पर सहानुभूति और प्रीति का जन्म होता है। - जिस नियम से हिंस्र पशु दलबद्ध होकर शिकार करते फिरते हैं, उसी नियम से - सभी प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य भी मिलकर रहते तथा जाति या राष्ट्र का संगठन करते हैं। "९/ २२२]
     हिन्दू- राष्ट्र गठन का प्राथमिक स्थूल कारण यहाँ आकर प्रकट हो जाता है। इतिहास से उदाहरणों को उठाकर स्वामी जी ने दिखलाया है कि - " इसी स्वजाति प्रेम और परजाति विद्वेष ने प्रतिद्वंद्विता की सृष्टि कर , ईरान -द्वेषी यूनान को , कार्थेज -द्वेषी रोम को (ट्यूनिस के पास उत्तरी अफ्रीकी तट पर एक प्राचीन शहर राज्य को संदर्भित करता है; फोनीशियनों द्वारा स्थापित; रोमनों द्वारा नष्ट और पुनर्निर्मित जिसे 697 में अरबों द्वारा नष्ट कर दिया गया ।) , काफ़िर -द्वेषी अरब जाति को, मूर -द्वेषी स्पेन को , स्पेन- द्वेषी फ़्रांस को, फ़्रांस -द्वेषी इंग्लैण्ड और जर्मनी को तथा इंग्लैण्ड द्वेषी अमेरिका को उन्नति के शिखर पर चढ़ाया है। "
      [भारतवर्ष को बुद्धत्व प्राप्त नर देवता (विश्व मित्र) बनने और बनाने  के समय को और नजदीक लाने के उद्देश्य से C-IN-C नवनी दा ने 1967 में " स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त लीडरशिप (शिक्षक- प्रशिक्षण) C-IN-C परम्परा में  भारत के युवाओं को लीडरशिप ट्रेनिंग देकर इससे बाहर निकलने के  उस मार्ग को उद्घाटित कर देते हैं। और भारत में वह समय 2014 में आ जाता है, जब -130  करोड़ भारत वासी को जनार्दन मानकर, 'जनता जनार्दन की सेवा' करने का गुण, या ठाकुर की भाषा में 'शिवज्ञान से जीवसेवा' का गुण आने के साथ ही एक चाय बेचने वाले शूद्र (किन्तु ब्रह्मणत्व में प्रतिष्ठित) लड़के 'नरेन्द्र मोदी' का भारत पर आधिपत्य हो जाता है। क्योंकि वे भी 'समत्व' (ब्रह्मत्व, बुद्धत्व या विश्व-मित्र सबका साथ सबका विकास) में प्रतिष्ठित थे - 

समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्। 
                 विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति॥ 

(गीता- १३- २७)॥ 

परमात्मा सभी जीवों में एक से स्थित हैं। विनाश को प्राप्त होते इन जीवों में जो अविनाशी उन परमात्मा को देखता है, वही वास्तव में देखता है।] 

[नौ ]

     कोई व्यक्ति या राष्ट्र एकाकी होकर जीवित नहीं रह सकता या उन्नति नहीं कर सकता। समाज से वियुक्त होकर (दूधदेने वाले यादव जाति के बिना) तो अपने प्राणों की रक्षा करना भी कठिन है। इसीलिए 'व्यष्टि' के स्वार्थ (निजी-स्वार्थ) को कम करते हुए, 'समष्टि' के स्वार्थ पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसीलिए सच्चा स्वार्थबोध, हमें क्षुद्र स्वार्थों को त्याग देने की शिक्षा देता है। इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वामी जी अपनी भाषा में कहते हैं - " Self-love is the first teacher of self-renunciation. The joining of friendly hands in mutual help for the protection of this self-interest is seen in every nation, and in every land.]" स्वार्थ ही स्वार्थ-त्याग का प्रधान शिक्षक है। " निःसंदेह , इस स्वार्थ की परिधि विभिन्न लोगों के लिये भिन्न-भिन्न  होती है। ( Of course, the circumference of this self-interest varies with different people.)  तथापि, हमें यह बात एक दिन समझ में आ ही जाती है, कि 'स्वजाति (अपने गोत्रज- agnate #) के स्वार्थ में ही अपना स्वार्थ है, 'स्वजाति के कल्याण में ही अपना कल्याण है। ' (भारत का कल्याण मेरा कल्याण है !) इसलिए राष्ट्रीय एकता, सहयोग, सहकारित्व का भाव (Cooperative culture), परस्पर मिलकर एक हो जाना (merger) देश की तरक्की के लिए बहुत आवश्यक है। किन्तु उन्होंने भारतवर्ष में इस समझ का अभाव देखा था, इसलिए क्षोभ व्यक्त करते हुए कहा था - " वंश-विस्तार करनेऔर किसी प्रकार अपना पेट भरने का अवसर पाने (आहार,निद्रा ,भय , मैथुन) से ही हम भारतवासियों की पूरी स्वार्थसिद्धि हो जाती है। और जो उच्च वर्ण के लोग हैं, वे इससे अधिक केवल इतना चाहते हैं कि -उनके धर्माचरण में कोई बाधा न पड़े। इसके अतिरिक्त उनकी मानों और कोई आकांक्षा ही नहीं है।" (९/२२२)  
[ agnate # : अपने गोत्रज या हिन्दू जाति या वैसे मुसलमान जो इस बात पर गर्व करती हो कि मेरे पूर्वज मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम थे जो अरब से नहीं आये थे, और जो स्वयं भगवान (सर्वशक्तिमान) होकर भी सर्वत्यागी शंकर को ही अपना उपास्य देवता समझते थे। वैसे भारतमाता की जय बोलने वाले बुद्धिमान हिन्दू-मुसलमानों की एकता में ही सम्पूर्ण भारतवर्ष का कल्याण है। हमने परिच्छेद 5 में देखा था कि संघमन्त्र, संघशक्ति राष्ट्र-शक्ति के उद्भव (emergence of state power) को स्वामी जी द्वारा प्रदत्त इसी ऐतिहासिक सूत्र का अनुसरण करके,भी समझा जा सकता है। " क्योंकि साधारण जनता में त्याग की अपेक्षा भोग करने की प्रवृत्ति (tendency) ही प्रबल होती है, इसीलिए सार्वजनिक अधिकारों की रक्षा के लिए (To protect the common right)- " समान प्रयत्न, समान आकूति (आकांक्षा)" रखते हुए व्यक्तिगत स्वार्थत्याग का भाव --  प्राचीन युग बात तो दूर , आज के समय भी किसी भी देश में सम्यक रूप से उपलब्ध नहीं है।" (९/२१३) ]
     यहाँ प्रसंगवश 'अंग्रेज शासन -प्रणाली  का उल्लेख ' करते हुए स्वामी जी कहते हैं- "पाटलिपुत्र साम्राज्य (मगध साम्राज्य) के पतन के बाद सम्पूर्ण भारतवर्ष पर एक ऐसे शक्तिशाली और सर्वव्यापी शासन-तन्त्र का प्रभाव दिखाई देता है, जैसा प्रभाव इस देश में कभी नहीं हुआ। वैश्य-आधिपत्य वाले शासन-तंत्र की जिस चेष्टा से उस देश का माल, अन्य देशों में पहुँचाया जा रहा है, उसी चेष्टा के फलस्वरूप पाश्चात्य संस्कृति की भावराशि भी बलपूर्वक भारत की अस्थि-मज्जा (bone and marrow of India) में प्रविष्ट होती जा रही है, उन भावों में कुछ तो बहुत ही लाभदायक हैं, कुछ हानिकारक हैं। " फिर भी, स्वामी जी यही देखते हैं कि, इन समस्त घटनाओं तथा  इन समस्त वैचारिक -संघर्षों के परिणाम स्वरूप भारत अपनी दीर्घ कालीन निद्रा को त्याग कर, धीरे धीरे जाग्रत हो रहा है। और इस नवजागरण बेला में, यदि भारतवासियों से कुछ भूलें भी हो जाती है, तो उससे इस राष्ट्र की कोई बहुत बड़ी हानि होने की सम्भावना नहीं है । "इसके कारण को स्पष्ट करते हुए, स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हमारे अब तक किये गए सभी कार्यों में भूल-भ्रम-प्रमाद ही हमारे सर्वोत्तम शिक्षक रहे हैं। (इंद्रियातीत) सत्य का पथ उसी (प्रजाति) को मिलता है, जिससे भूलें होती हैं। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो केवल  सत्यान्वेषण की प्रथम अवस्था में भ्रमवश इन्द्रियगोचर सत्य को ही एकमात्र सत्य समझने की भूल करता है, किन्तु विवेक जाग्रत होते ही परम् सत्य को प्राप्त कर सकता है।  वृक्ष से भूल नहीं होती, पत्थर को भ्रम नहीं होता, पशुओं को भी कभी प्रकृति के निश्चित नियमों का उल्लंघन करते (transgress) नहीं देखा जाता है। लेकिन, सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही ऐसा एकमात्र प्राणी है, जो पूर्णतः निःस्वार्थी बनने की चेष्टा में हजारों भूलों को करते-करते बुद्धत्व को प्राप्त कर एक दिन बुद्ध या नरदेव (God-on-earth) बन जाता है।  

      यदि जागने से लेकर सोने तक के हमारे सभी क्रिया-कलापों को दूसरे लोग ही निश्चित कर दे, मुण्डन संस्कार , यज्ञोपवीत संस्कार आदि से लेकर, दाहसंस्कार तक और राजशक्ति दबाव डालकर हमें उन कठोर नियमों के बंधन में और ज्यादा जकड़ दें, तब फिर हमलोगों को अपनी स्वतंत्र चिंतन क्षमता को विकसित करने का अवसर कैसे मिलेगा ? सब कुछ नियम से बंधा हो, और यही अवस्था दीर्घ दिन से चलते रहने से 'मननशीलता' जो मनुष्य का परिचय है - जिसके रहने से ही मनुष्य को मनीषी और ऋषि-मुनि आदी कह कर उसका परिचय दिया जाता है।  वही परिचय लुप्त होने के कागार तक आ पहुँचा और देश में तमोगुण या जड़ता का आविर्भाव हुआ। और इन्हीं सब वैचारिक संघर्षों के बीच धर्मनेता और समाज-नेता समाज के लिए और भी कड़े कानून बनाने में व्यस्त हो गए !
         इस सबको देखकर स्वामी जी बड़े क्षोभ से प्रश्न करते हैं -  ("What makes a man a genius, a sage? Isn't it because he thinks, reasons, and wills? Without exercise, the power of deep thinking is lost. Tamas prevails, the mind gets dull and inert, the spirit is brought down to the level of matter. ")  
" कोई मनुष्य प्रतिभाशाली या ऋषि कैसे बन जाता है ? क्या इसलिए नहीं कि वह विवेक-प्रयोग करता है, और अपनी इच्छा-शक्ति के विकास और प्रवाह पर अपना पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेता है? क्या हम नहीं जानते कि मनःसंयोग (प्रत्याहार-धारणा) का अभ्यास नहीं करने से शाश्वत-नश्वर (जड़-चेतन) में 'विवेक-प्रयोग' करने की शक्ति ही लुप्त हो जाती है ? क्या ऐसा नहीं कि स्वयं को जड़ शरीर और मन समझ लेने से, जड़ता का जो गुण -'तमस ' है, वह हम पर हावी हो जाता है ? हमारा मन उत्साह-हीन और निष्क्रिय हो जाता है और आत्मा ( Consciousness) जड़ पदार्थ के स्तर तक नीचे गिर जाती है ? (Yet, even now) इतना सब कुछ हो जाने पर भी, प्रत्येक धर्म-नेता (मुल्ला-पंडित) और समाज-नेता समाज के लिए नियम बनाने (फ़तवा जारी करने) में ही व्यस्त है! देश में क्या नियमों की कमी है ? नियमों से पीसकर समाज जो अधोगति को प्राप्त हो रहा है, उसे कौन समझता है ? " (९/२२३)
     यहाँ स्वामी जी अंग्रेज शासन (English rule) के सम्बन्ध में और एक ऐतिहासिक सत्य की ओर वे हमारी दृष्टि को आकृष्ट करते हैं। वे कहते हैं -" सम्पूर्ण स्वाधीन और स्वेच्छाचारी सम्राट  जिस देश में अधिष्ठित हैं, उनके अधीन विजित जाति विशेष घृणा का पात्र नहीं होती हैं। शक्तिशाली सम्राट की सब प्रजायें समान अधिकार रखती हैं--अर्थात किसी भी प्रजा को राज-शक्ति पर नियमन करने कोई अधिकार नहीं होता। परन्तु जहाँ प्रजा-नियंत्रित  राजशाही या कोई प्रजातन्त्र विजित जाति पर राज्य करता है, (जैसे इंग्लैण्ड) तब- वहाँ विजयी और विजितों के बीच बड़ा अन्तर हो जाता है। और जो शक्ति, विजितों के हित-साधन में पूरी तरह लगायी जाने से, थोड़े ही समय में  विजित जाति का बहुत कल्याण कर सकती थी, उस शक्ति का बहुत सा हिस्सा विजित जाति को जबरन अपने वश में रखने की चेष्टा में ही खर्च किया जाता है, और इस प्रकार वह व्यर्थ नष्ट हो जाती है।" उदाहरण स्वरुप स्वामी जी, प्रजातान्त्रिक रोम और रोमन सम्राट के अधीन रोम के द्वारा जीते देशों की विजातीय प्रजा (Foreign subjects) की अवस्था के बीच पार्थक्य का उदाहरण देते हुए कहते हैं- " विजयी और विजित जाति के बीच घृणा दोनों का अमंगल ही करती है। उसी प्रकार स्वजाति (भारत वासियों) में भी (जाति -धर्म के नाम पर) यदि परस्पर के प्रति घृणा का भाव हो, तो उससे भी समाज के सभी लोगों (हिन्दू -मुसलमान दोनों) को हानि ही पहुँचती है।
        " यदि कोई अंग्रेज किसी (मुसहर -भुइयाँ) भारतीय को 'नेटिव ' अर्थात 'कलुआ' या असभ्य कहकर घृणा व्यक्त करे तो उससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि, हमलोगों में तो उससे कहीं अधिक जातिगत घृणा-बुद्धि पहले से ही है। पूर्वी आर्याव्रत में सब जातियाँ जो सामाजिक उन्नति के लिए आपस में कुछ सद्भाव रखती दिख पड़ती है, किन्तु महाराष्ट्र के ब्राह्मण  'मराठा ' जाति की स्तुति जिस रूप से करने लगे हैं, उसे छोटी जातियों के लोग अभी तक निःस्वार्थ भाव का फल नहीं समझते हैं। उसमें स्वामी जी ने निम्नजाति के लिए जिस घृणा भाव को अनुभव किया था, शायद उन्होंने देखा था कि पूर्वी आर्याव्रत में वह भाव अवर्तमान है। ???? -- । " ९/२२४ ]
         अंग्रेज भी यह समझ गए थे कि यदि भारत साम्राज्य उनके हाथ से निकल गया तो अंग्रेज जाति का विनाश हो जायेगा। अतः भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए -अंग्रेज जाति के 'गौरव' को भारतवासियों के हृदय सदा जाग्रत रखना अनिवार्य होगा। इस बात को स्वामीजी ने अंग्रेजों की बुद्धि के क्रमविकास के रूप लक्ष्य किया था।  किन्तु स्वामी जी का विचार यह था कि,  अंग्रेजों ने जिस वीर्य , अध्यवसाय और एकान्त स्वजाति-प्रेम के बल पर इस देश को हथिया लिया है, और जिस वाणिज्य-बुद्धि से उन्होने भारत जैसे सब प्रकार के धन-धान्य उत्पन्न करने वाले देश को भी अंग्रेजी माल का बाजार बना रखा है,' अंग्रेज यदि अपने किसी भी क्षेत्र में प्राप्त 'गौरव ' पर व्यर्थ में शोरगुल मचाने के बजाए,  इन सब चारित्रिक गुण, जो उनमें सन्निहित थे, उसका विकास और रक्षा करने की चेष्टा करते , तो वह चेष्टा अधिक फलदायक हो सकती थी।  स्वामी जी का मानना था कि, अंग्रेजों ने अध्यवसाय , स्वजाति प्रेम तथा विज्ञान का सहारा लेकर जिस वाणिज्य -बुद्धि के बल पर भारत पर विजय प्राप्त कर लिया था, उनमें यदि वे गुण उनमें वैसे ही बने रहते, तो वह ऐसे अन्य कई विजय को सम्भव बना सकती थे। किन्तु ये गुण यदि घट जाएँ तो अपने गौरव (mere preservation of meaningless "prestige".) को लेकर शोरगुल करते रहे, तो उससे विजयी या विजित दोनों में किसी का भला नहीं हो सकता। 

[दस] 

    इसी प्रसंग में, भारतीय- संस्कृति का एक और दुर्बोध्य तत्व (सिद्धान्त)- 'जाति-प्रथा' के ऊपर भी थोड़ा प्रकाश डालते हुए, स्वामी  विवेकान्द कहते हैं - भारत में जो जातिचतुष्टय -बाह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि प्रचलित है, वैसी व्यवस्था सभी देशों में है। हमारे देश में पहले गुणानुसार वर्ण-व्यवस्था ही प्रचलित थी। बाद में यह जन्मगत जाति -व्यवस्था में परिणत हो गयी।किन्तु , विश्व के दूसरे देश चूँकि इस गुणगत # जातिव्यस्था में निहित तत्वों  से परिचित नहीं थे, इसलिए वहाँ इसे कभी जन्मगत जाति -व्यवस्था में रूपांतरित नहीं किया जा सका। 
[गुणगत # सांख्य शास्त्र में 'गुण' शब्द प्रकृति के तीन अवयवों के अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रकृति सत्त्व, रजस् तथा तमस् (माया ) इन तीन गुणोंवाली है। गुणों की साम्यावस्था का ही नाम प्रकृति है इन तीनों गुणों से अलग प्रकृति कुछ भी नहीं है। इसी कारण प्रकृति को त्रिगुणात्मिका कहते हैं। इन गुणों की प्रधानता के आधार पर व्यक्तियों की प्रकृति, आहार, कर्म आदि का भी विभाग किया जाता है। परंतु सांख्य के अनुसार पुरुष या आत्मा गुणातीत है। योग के अनुसार ईश्वर भी इन गुणों से परे है (जो मनुष्य विवेक-प्रयोग नहीं करके माया (गुणों) का खिलौना बन जाता है) , उसको सारे क्लेश, सांसारिक आनंद आदि का अनुभव गुणों के कारण होता है, अत: योग का चरम लक्ष्य निस्त्रैगुण्य अवस्था में पहुँचना माना गया है।] 
       यह जाति तत्व इतना दुर्बोध्य विषय है कि , अन्यत्र स्वामी जी कहते हैं - 'दस लाख में कोई एक व्यक्ति ही इस गुणगत 'जाति चतुष्टय ' के सिद्धान्त को समझ सकता है। ' गुणगत-जातिप्रथा, जो सभी देशों में प्रचलित है; तथा पहले इस देश में भी प्रचलित थी, तथा जन्मगत- जातिप्रथा जो इस समय देश में प्रचलित है - इन दोनों में ही कुछ गुण और कुछ दोष हैं।  अपनी इस रचना में स्वामी जी ने उस विषय पर भी थोड़ा प्रकाश डाला है। किन्तु इस रचना का मुख्य स्वर यही है कि -  सभी समाजों में प्रत्येक जाति के गुण और दोषों के आधार पर क्रमानुसार जिस प्रकार एक एक जाति का आधिपत्य होता चला आ रहा है , उसी प्रकार भविष्य में शूद्र जाति का भी अभ्युत्थान और समाज पर आधिपत्य होना निश्चित है
          इस देश में गुणगत या गुणानुसार जो वर्ण-व्यवस्था प्राचीन काल में प्रचलित थी, उसीके चलते शूद्रकुल की कभी उन्नति न हो सकी।  शूद्रकुल का गुण (धर्म) शरीरिक श्रम करना था, दूसरों के लिए श्रम करते हुए वे सदैव शूद्र ही बने रह गए। यदि शायद ही कभी (কালেভদ্রে-rarely) एक-दो असाधारण मनुष्य शूद्रकुल में उत्पन्न भी होते, तो उच्च वर्ण उन्हें तुरंत ही महर्षि आदि की उपाधियाँ देकर अपनी मण्डली में खींच लेता था। इसलिए शूद्रकुल की विद्या का प्रभाव और धन का हिस्सा अन्य जातियों के ही काम आता था। उनके सजातीय (शूद्र लोग) उनकी विद्या, बुद्धि, और धन से कुछ लाभ नहीं उठा पाते थे। इतना ही नहीं , यदि उच्च वर्णों में यदि कोई गुणहीन पैदा हो जाता, तो उस निकम्मे मनुष्य को भी वे शूद्रकुल में ही मिला दिया करते थे।
     इसका उदाहरण देते हुए स्वामीजी कहते हैं - "वशिष्ठ , नारद , सत्यकाम जाबाल , व्यास , कृप , द्रोण, कर्ण, बिदुर आदि ने अपनी विद्या या वीरता के प्रभाव से ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व प्राप्त किया था किन्तु इससे उनकी अपनी अपनी जाति या समुदाय उनके द्वारा अर्जित गुण का अंशभागि कभी नहीं हो सके। इसीलिए आधुनिक भारत में जातिप्रथा इतनी कड़ी बना दी गयी है कि, शूद्रकुल में उत्पन्न बड़े से बड़ा व्यक्ति (मंत्री या करोड़पति) को भी अपना समाज छोड़ने का अधिकार नहीं हैजिसके फलस्वरूप उसकी विद्या-बुद्धि और धन उसी जाति में रह जाता है, तथा उन्हीं लोगों के समाज का कल्याण करने में प्रयुक्त होता है। इसीलिए , जाति चाहे जो भी हो (irrespective of caste,জাতি-নির্বিশেষে ), यदि देश में सभी के लिए एक ही कानून लागू हों, तो विद्या का प्रचार होने से, निम्नतर जातियों का अधिक विकास होना सम्भव हो जायेगा। [जब तक भारत में बिना जाति की परवाह किये दण्ड -पुरस्कार देनेवाला राजशासन (मोदी-शासन ?) रहेगा, तब तक निम्न जातियों की इसी प्रकार उन्नति होती रहेगी। ] 
[ग्यारह]

     वैश्य युग में विभिन्न विचारों का संचार होने के फलस्वरूप परस्पर के बीच विभिन्न  विचारों के प्रभाव और क्रिया के विश्लेषण के प्रसंग में स्वामीजी भारत में आये एक नवजागरण का उल्लेख करते हुए कहते हैं - " विदेशी विचारों के साथ संघर्ष करते हुए भारत धीरे धीरे जग रहा है, इस थोड़ी सी जाग्रति के फलस्वरूप स्वतंत्र विचार का थोड़ा उदय भी होने लगा है। " लेकिन, इसी असाधारण स्वतन्त्र-सोंच क्षमता में थोड़ी सी वृद्धि होने के साथ साथ एक प्रकार का द्वन्द्व या संघर्ष भी दिखाई देता है। 
    " एक ओर आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान है, जिसकी चमक सैकड़ों सूर्यों की ज्योति की तरह आँखों में चकाचौंध पैदा कर देती है; तो दूसरी ओर हमारे पूर्वजों द्वारा उद्घाटित देवदुर्लभ अध्यात्मतत्व है, अपूर्व वीर्य और उनकी अमानवी प्रतिभा की अद्भुत कथाएं हैं। [एक ओर नये नये अदब-कायदे ,तथा नये नये फैशन , जिनके अनुसार सज-धज कर हमारे सामने आजकल की विदुषी नारी काफी निर्लज्जता पूर्ण स्वतन्त्रता से घूमती फिरती हैं। परन्तु फिर वह दृश्य बदलकर इसके स्थान पर एक दूसरा गंभीर दृश्य आ जाता है, और वह है नाक से लिलार तक सिंदूर लगाए - सीता , सावित्री , व्रत-उपवास, तपोवन, जटाजूट, वल्कल , गैरिक वस्त्र , कौपीन , समाधि एवं आत्मोलब्धि की (त्रिगुणातीत होने की?)  सतत चेष्टा। " ]   

        इन दोनों भिन्न विचार-धाराओं  के संघर्ष के बीच में फंसकर वर्तमान भारत मानो एक बार सोचता है कि " भविष्य के संदिग्ध पारमार्थिक - हित (राम) के मोह में पड़कर मैं इस लोक से प्राप्त होने वाले (भौतिक सुख) का व्यर्थ में कहीं नाश तो नहीं कर रहा हूँ ? ( अबतक तो मुझे न माया मिली ,न राम ही मिले ?) फिर मंत्रमुग्ध की तरह सुनता है- 

इति संसारे स्फुटत्रदोषः कथमिह मानव तव सन्तोषः
— (मोहमुद्गर-13)

  यह संसार परिवर्तनशील होने के कारण नश्वर है, संसार में ये सब दोष--जन्म,जरा मृत्यु आदि भरे पड़े हैं, ऐ मनुष्यों , यहाँ और इसी जीवन में अविनाशी को प्राप्त किये बिना तुम्हें परमानन्द की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? संसार में इस जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हुए -सचमुच सन्तोष या परितृप्ति कहाँ है ? "Here, in this world of death and change, O man, where is thy happiness?"
      स्वामी जी ने कहा था - "Of the West, the goal is individual independence, the language money-making education, the means politics; of India, the goal is Mukti, the language the Veda, the means renunciation."   
'पाश्चात्य जगत का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वाधीनता है, भाषा अर्थकरि विद्या (money-making education) है, और उपाय राजनीति है। भारत का उद्देश्य (मोक्ष) मुक्ति है, भाषा वेद (शीक्षा) है -(Man-making education, अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने वाली शिक्षा है) और उपाय त्याग (धर्म) है। " (९/२२५) 
         जीवन के सभी क्षेत्रों में यही द्वन्द्व वर्तमान भारत के मन को द्विधाग्रस्त कर रहा है।  आधुनिक भारत कभी सोंचता है कि 'हम भारतियों को भी पति-पत्नी चुनने में पाश्चात्यों के समान पूरी स्वंत्रता मिलनी चाहिए। यही नहीं भाव, भाषा, आहार-विहार, स्त्री-पुरुषों के बीच मेल-जोल या आचार-व्यवहार आदि में कोई रोक-टोक नहीं होनी चाहिए। ऐसा होने से ही हमलोग उन लोगों के जैसा बलवीर्य सम्पन्न बन सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत की आज्ञा होती है, कि " विवाह इन्द्रिय-सुख के लिए नहीं है, वरन आर्य सन्तानोपत्ति के लिए है"(Marriage is not for sense-enjoyment, but to perpetuate the race. ... मुर्ख ! नकल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है ? बिना उपार्जन किये कोई वस्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है ? "एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य जातियाँ जो कुछ कह रही हैं, वही अच्छा है। यदि अच्छा नहीं है, तो वे बलवान कैसे हुए ? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है, पर क्षणिक होती है। बालक ! तुम्हारी ऑंखें चौंधिया रही हैं -सावधान ! "( ९/२२६) ] 
        तो क्या हमें पाश्चात्य जगत से कुछ भी सीखने को नहीं है ? स्वामी जी कहते हैं-' नहीं , सीखने को बहुत कुछ है। सीखने का प्रयत्न तो हमें जीवन भर करना चाहिए। प्रयत्न करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। श्री रामकृष्ण देव कहा करते थे, 'जब तक जिऊँ , तब तक सीखूं ' ("As long as I live, so long do I learn.) जिस व्यक्ति या समाज को कुछ सीखना नहीं है, वह मृत्यु के मुख में जा चुका है। सीखने को तो है, परन्तु भय भी है O India, this is your terrible danger -- "हे भारत ! उस विकट भय का कारण देखो  यह है-  कि पाश्चात्य जातियों की नकल करने की इच्छा हमलोगों में  इतनी प्रबल हो जाती है, कि भले-बुरे  का निश्चय,  शास्त्र सम्मत हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भारतीय भाव या आचार की प्रशंसा करें, वही अच्छा है, और वे जिसकी निन्दा करें , वही बुरा ! अफ़सोस ! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय- अपने आत्मविश्वास के अभाव का परिचय - और क्या होगा
          " पाश्चात्य लोग यदि मूर्ति-पूजा का मजाक उड़ाते हैं, और एकेश्वरवाद को कल्याण-प्रद बताते हैं, इसलिए क्या हमें अपने देव-देवियों (बाबा बौखनाग) को गंगा जी में फेंक देना चाहिये ? पाश्चात्य लोग जातिभेद को आपत्तिजनक (obnoxious) समझते हैं, इसलिए क्या सब वर्णों को मिला कर एक कर देना चाहिये ? हमे इस बात पर अवश्य चिंतन-मनन करना चाहिए कि कोई प्रथा क्यों चलनी चाहिए , या क्यों रुकनी चाहिए ? "  स्वामी जी कहते हैं - " हमारे यहाँ की नारियों की लज्जाशीलता , बाल्य विवाह , वेशभूषा , खाद्य , मूर्तिपूजा , देव-देवी , जातिप्रथा आदि को चूँकि गोरे लोग खराब समझते हैं, इसीलिए क्या हमलोगों को भी उन्हें खराब समझ लेना चाहिए ? नहीं , हमे अवश्य इसका प्रतिवाद करना चाहिए।" 
       इतना ही नहीं, पाश्चात्य समाज की प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर स्वामीजी कहते हैं, " पाश्चात्यों के अनुकरण पर गठित समाज इस देश में किसी काम का न होगा। जो लोग पाश्चात्य समाज में नहीं रहे हैं, वे बिल्कुल नहीं जानते कि स्त्रियों और पुरुषों के आपस में मिलने और स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा के लिए ने के लिए, पाश्चात्य समाज में कौन-कौन से नियम और निषेध (rules and prohibitions) आदि प्रचलित हैं। किन्तु, उन नियमों और निषेधों को जाने बिना ही, जिस परिवार के लोग अपनी स्त्रियों को पुरुषों से बिना-टोक के मिलने देते हैं, (या लव जिहाद करने का मौका देते हैं), उन लोगों से हमारी रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं है। ९/२२७) 
        " बलवानों या धनिकों की नकल करने की दौड़ में सभी साधारण मनुष्य शामिल हो जाते हैं, दुर्बल मात्र की यही इच्छा रहती है कि बड़े लोगों के गौरव की छटा उसके भी शरीर में कुछ लग जाये। भारतवासियों को (I. A. S. आदी को ) जब मैं 'टाई -कोट ' में देखता हूँ , तब समझता हूँ कि ये लोग शायद अपने को 'रूलर क्लास' का समझते हैं, और पददलित , विद्याहीन , दरिद्र भारतवासियों के साथ अपनी सजातीयता स्वीकार करने में लज्जित होते हैं। पाश्चात्य देशों में मैंने देखा है कि दुर्बल जातियों की सन्तान जब इंग्लैण्ड में (आजकल अमेरिका में) जन्म लेती है, तो अपने को वह स्पेनिश , पोर्तुगीज , यूनानी आदि --जो कुछ वह वास्तव में हो, उस रूप में अपना परिचय न बताकर, स्वयं को भी अंग्रेज ही बतलाते हैं। कई भारतीय लोग जब अंग्रेजी या यूरोपीय वेशभूषा और अचार-व्यवहार की नकल करते-करते, उसीमें रम जाते हैं, तब अपने को भारतीय कहने में उन्हें भी लज्जा होती है। जैसे चौदह सौ वर्ष तक हिन्दुओं के रक्त से पलकर भी पारसी लोग अपने को 'नेटिव ' नहीं मानते हैं "  फिर उन्हीं  पाश्चात्यों ने अब हमें यह भी सिखला दिया है कि यह जो 'केवल कमर में ही कपड़ा लपेटे रहने वाली ' - मूर्ख नीच जाति के (दलित हिन्दू) हैं, वे तो अनार्य (आदिवासी या द्रविड़) है, इसलिए वे लोग हमारे अपने नहीं हैं !!" (Again, the Westerners have now taught us that those stupid, ignorant, low-caste millions of India, clad only in loincloth, are non-Aryans. They are therefore no more our kith and kin!)
      इस भेद-बुद्धि की घोर भर्तस्ना करते हुए, स्वामीजी अपने इस निबंध के अंत में , इस मानसिकता से बाहर निकलने और ऊपर उठने के लिए एक अद्भुत मंत्र देते हैं, जो आज 'स्वदेश मंत्र ' के नाम से प्रसिद्द है। और जब प्रत्येक भारत संतान (हिन्दू -मुसलमान दोनों) इसका प्रतिदिन स्मरण और उच्चारण (Everyday remembrance utterance) करने लगेगा, तब यह देश यथार्थ रूप में  स्वाधीन हो जायेगा (अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा)! 

 [बारह]  
   
  स्वामी जी के लिए भारतवर्ष एक पुण्यभूमि थी। विदेश भ्रमण के बाद इसका प्रत्येक धूलकण उनको पवित्रता का प्रतीक प्रतीत होता था। ...   कलकत्ता-वासियों के अभिनन्दन पत्र का उत्तर देते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " मनुष्य अपनी व्यक्तिगत सत्ता को, अपनी व्यष्टि चेतना को सार्वभौम चेतना में विलीन कर देना चाहता है, वैराग्य के महाकाश में उड़ जाना चाहता है। वह अपने समस्त पुराने दैहिक संस्कारों को सम्पूर्ण रूप से छोड़ने की चेष्टा करता है, यहाँ तक की वह एक देहधारी संवेदनशील मनुष्य है, इसे भी भूल जाने की प्राण-पण चेष्टा करता है। परन्तु उसे अपने ह्रदय के अंतस्तल में सदा ही एक मृदु अस्फुट ध्वनि सुनाई पड़ती है, उसके हृदयतंत्री में मानो सदा एक ही धुन गूंजती रहती है, न जाने कौन रात- दिन उसके कानों में मधुर स्वर में कहता रहता है- "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी"। 

    इसी क्रम में आगे कहते हैं- " मातृभूमि से बाहर आने के पहले मैं भारत को प्यार करता था, अब तो भारत का प्रत्येक धुल-कण भी मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा मेरे लिए पावन है, अब भारत मेरे लिए तीर्थ है, मेरी पुण्यभूमि है।"  सारे पश्चिमी जगत का परिभ्रमण करने के बाद उन्होंने स्पष्ट रूप में देख लिया था कि पूरे विश्व में भारत ही एक मात्र ऐसा देश है जहाँ सम्पूर्ण-मानवता का कल्याण करने में सक्षम- "आध्यात्म-तत्व" का बीज पूर्णरूप से विकसित हुआ था और आज तक सुरक्षित है। विदेश-यात्रा के पूर्व, परिव्राजक बन कर उन्होंने भारत के गौरवशाली विरासत तथा उसके प्राचीन वैभवपूर्ण दीर्घकालीन इतिहास का गंभीर अनुसन्धान किया था और "वर्तमान-भारत" के पतनावस्था के मूल कारण को ढूंढ़ निकाला था। उन्होंने केवल वर्तमान-भारत के पतनावस्था का वर्णन करने में ही, अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर दी थी, बल्कि इसके- " पुनरुत्थान -मंत्र" कि भी रचना किये थे, जिसे आज " स्वदेश-मंत्र " के नाम से जाना जाता है, जो इस प्रकार है :-

স্বদেশ মন্ত্র

"হে ভারত ভুলিও না"

   “হে ভারত, এই পরানুবাদ, পরানুকরণ, পরামুখাপেক্ষা, এই দসসুলভ দুর্বলতা, এই ঘৃণিত জঘন্য নিষ্ঠুরতা-এইমাত্র সম্বলে তুমি উচ্চাধিকার লাভ করিবে? এই লজ্জাকর কাপুরুষতাসহায়ে তুমি বীরভোগ্যা স্বাধীনতা লাভ করিবে? হে ভারত, ভুলিও না—তোমার নারীজাতির আদর্শ সীতা, সাবিত্রী, দময়ন্তী; ভুলিও না—তোমার উপাস্য উমানাথ সর্বত্যাগী শঙ্কর; ভুলিও না-তোমার বিবাহ, তোমার ধন, তোমার জীবন ইন্দ্রিয়সুখের-নিজের ব্যক্তিগত সুখের জন্য নহে; ভুলিও না—তুমি জন্ম হইতেই ‘মায়ের’ জন্য বলিপ্রদত্ত; ভুলিও না―তোমার সমাজ বিরাট মহামায়ার ছায়ামাত্র; ভুলিও না—নীচজাতি, মূর্খ, দরিদ্র, অজ্ঞ, মূচি, মেথর তোমার রক্ত, তোমার ভাই! হে বীর, সাহস অবলম্বন কর; সদর্পে বল—আমি ভারতবাসী, ভারতবাসী আমার ভাই। বল—মূর্খ ভারতবাসী, দরিদ্র ভারতবাসী, ব্রাহ্মণ ভারতবাসী, চণ্ডাল ভারতবাসী আমার ভাই; তুমিও কটিমাত্র-বস্ত্রাবৃত হইয়া, সদর্পে ডাকিয়া বল―ভারতবাসী আমার ভাই, ভারতবাসী আমার প্রাণ, ভারতের দেবদেবী আমার ঈশ্বর, ভারতের সমাজ আমার শিশুশয্যা, আমার যৌবনের উপবন, আমার বার্ধক্যের বারাণসী; বল ভাই—ভারতের মৃত্তিকা আমার স্বর্গ, ভারতের কল্যাণ আমার কল্যাণ; আর বল দিন-রাত, ‘হে গৌরীনাথ, হে জগদম্বে, আমায় মনুষ্যত্ব দাও; মা, আমার দুর্বলতা কাপুরুষতা দূর কর, আমায় মানুষ কর।”
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हिन्दी अनुवादक  का मन्तव्य

 [>>प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्रनाथ मोदी के आने से पहले '10 मई 2013 से पहले का "वर्तमान भारत "(India After Independence and before Modi era) : इस निबंध के अनुवादक ने पहली बार 'स्वमीजिर वर्तमान भारत' नामक महामण्डल पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद ('स्वामी जी का समकालीन भारत') 10 मई 2013 को किया था।  'स्वमीजिर वर्तमान भारत' नामक बंगला पुस्तिका का अनुवाद आज 27 नवम्बर, 2023 (कार्तिक पूर्णिमा)  को पुनः करवा रहे हैं, उस समय का वर्तमान भारत कैसा है ....... ? स्वामी विवेकान्द के जीवन और सन्देश से अनुप्रेरित एक चाय बेचने वाला लड़का (शूद्र) श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भारत का प्रधान मंत्री बने हैं !
और जिसने अपने दूसरे टर्म में 2019 में, पुनः भारत का  प्रधान मंत्री बनते ही 70 वर्षों से चला आ रहे भारत के माथे पर लगे कलंक - धारा 370 और 35 A समाप्त कर दिया  हैं। सैंकड़ों वर्षों से चला आ रहा रामजन्मभूमि विवाद  भी सुप्रीम कोर्ट के सर्वसम्मत निर्णय से सुलझाया जा चुका है, और मन्दिर बनकर तैयार है, बालक राम की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा  22 जनवरी 2024 को तपस्वी (11 दिनों का व्रत) श्री नरेन्द्रनाथ मोदी द्वारा हो चुका है। मोदी जी के सत्ता में आने से पहले जहाँ - प्रतिदिन अख़बार में अरबों रूपये के सरकारी घोटालों और भ्रष्टाचार की चर्चा ही दिखाई थी वहीँ अब सारे घोटालेबाज जेल जा रहे हैं  , या उनकी सम्पत्ति ED द्वारा जब्त की जा रही है।  अब यंग इंडिया और एजेएल की 752 करोड़ की संपत्ति को नेशनल हेराल्ड केस में  ईडी ने जब्त कर लिया है। फलस्वरूप प्रत्येक भारतवासी को विदेशों में भी 'वन्दे मातरम' और 'भारत माता की जय' बोलने में गर्व का अनुभव कर रहा है। यद्यपि महामण्डल का राजनीती से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, तथापि  राजनीति -निरपेक्ष दृष्टि से देखने पर भी  -2013 ई० के पहले का भारत  (मोदी युग से पहले का भारत) की कैसी अवस्था थी ? उसके ऊपर  ..... के ऊपर विहंगम दृष्टि डालने से   नजर पड़ना बिल्कुल स्वाभाविक है।
      तब उसने देखा था कि इस - 2013 के पहले का वर्तमान भारत का ' तथाकथित ईमानदार' प्रधान-मंत्री, तो केवल नाईट-वाचमैन की भूमिका में है, और देश का वित्तमंत्री , गृहमंत्री , रेल-मंत्री, कानून-मंत्री, दूरसंचार मंत्री आदि महा-घोटाला और भ्रष्टाचार  में लिप्त हैं, वह उनको दूर से टॉर्च दिखा रहा है। सुप्रीम कोर्ट सीबीआई को पिंजड़े का तोता कहता है। पार्लियामेन्ट सेसन के अंतिम दिन, एक 'तथाकथित सेक्युलर पार्टी'  का एम.पी. जब हमारे राष्ट्र-गीत 'वन्दे मातरम' की अवमानना करके सदन से उठकर चला जाता है, तो पार्लियामेन्ट की स्पीकर उसे बिना कोई उचित सजा दिये ही पार्लियामेन्ट बन्द करने की घोषणा कर देती हैं ! 

        इस महामण्डल पुस्तिका 'स्वमीजिर वर्तमान भारत' (स्वामीजी का समकालीन भारत) के परिच्छेद 5 और 9 में युवाओं के द्वारा बार उच्चारित संघमन्त्र " संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् l देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ll " (10.191) की व्याख्या भी दीगयी है। ऋग्वेद का अंतिम सूक्त संगठन सूक्त  कहलाता है। - हम सब एक साथ चलें; एक साथ बोलें; हमारे मन एक हो ,(अर्थात प्रत्येक भारतवासी के मन में एक ही 'संकल्प' हो - समष्टि का कल्याण या भारत कल्याण हो l) प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा, इसी कारण वे सदैव वन्दनीय हैंl  
       अर्थात हमारे पूर्वज ऋषि लोग यह जानते थे कि समाज की क्रम-विकास धारा में (अभ्युदय-प्रवृत्ति) लौकिक उन्नति और (निःश्रेयस-निवृत्ति) आध्यात्मिक उन्नति दोनों महत्वपूर्ण हैं। समाज में 'त्यागेच्छा' के साथ -साथ 'भोगेच्छा' भी चलती है, और अधिकांश मनुष्यों के लिए चूँकि 'भोगेच्छा' ही प्रेरक शक्ति (motivational force) होती है। इसीलिए  संघमन्त्र के माध्यम से हमारे वैदिक ऋषियों का सन्देश यही है कि 'समष्टि' के कल्याण में ही 'व्यष्टि' का कल्याण है।इसी बात को स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित 'स्वदेश मन्त्र' के मर्म की सच्ची व्याख्या करते हुए महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय (15  अगस्त 1931 -26 सितम्बर 2016) द्वारा  इस रचना के अंतिम परिच्छेद (12 वें) में समझाया गया है।
        इस संक्षिप्त पुस्तिका का गहराई से अध्यन करके "मेरे समकालीन भारत " के थोड़े से हिन्दी-भाषी युवा भी वैराग्य पूर्वक विवेकानंद -दर्शन का अभ्यास करते हुए यदि' विवेकज-ज्ञान' प्राप्त कर सकें, तो इसके हिन्दी अनुवाद और प्रकाशन में लगे परिश्रम को सार्थक समझा जायेगा।

>>>"विज्ञान पर विश्वास और आस्था (आत्मा) पर भरोसा (आशा ,श्रद्धा) "[ Belief in science and hope on faith : मतलब आत्मविश्वास = अहंरहित पुरुषार्थ (egoless effort) में विश्वास आत्मा (ठाकुरदेव) पर भरोसा आशा ,श्रद्धा)]  
>>सिल्क्यारा टनल : मनुष्य के (अहंकार रहित) पुरुषार्थ का साथ आस्था (श्रद्धा) से जोरदार मिलन है - दीपावली की सुबह 12 नवंबर को निर्माणाधीन टनल का एक हिस्सा ढह गया था, जिससे लगभग 60 मीटर तक सुरंग के भीतर मलबा भर गया था। इस दौरान सुरंग में काम कर रहे 41 मजदूर सुरंग के अंदर ही फंस गए थे। सुरंग से मलबा हटाने और अंदर फंसे 41 मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए रेस्क्यू अभियान शुरू हुआ, लेकिन जैसे-जैसे मलबा हटाने लगे, वैसे ही ऊपर से और मलबा गिरने लगा। देश-विदेश से मशीन सिल्क्यारा पहुंचायी और रेस्क्यू अभियान ने जोर पकड़ा। तमाम बाधाएं आयी और रूक-रुक कर रेस्क्यू अभियान चलता रहा। अंत में जब मजदूरों तक पहुंचने में कुछ मीटर का फासला रह गया तो ऑगर ड्रिलिंग मशीन भी दम तोड़ गई। जिसके बाद रैट माइनर्स की टीम ने मैनुअल खुदाई कर मजदूर तक पहुंचाने का रास्ता बनाया। इस रेस्क्यू अभियान में ऑस्ट्रेलिया के टनल विशेषज्ञ अर्नोल्ड डिक्स के पहुंचने के बाद तेजी आ गई थी। यहां तकनीक के साथ आस्था के आगे भी लोगों ने घुटने टेके। वहीं, टनल के बाहर स्थापित किए गए बाबा बौखनाग के मंदिर को देखकर अर्नोल्ड डिक्स खुद को नहीं रोक पाए और सिल्क्यारा के भूमियाल देवता बाबा बौखनाग के दर पर पहुंचे। अर्नोल्ड डिक्स की यह दैवीय शक्ति के प्रति आस्था ही है कि 17 दोनों के जटिल रेस्क्यू ऑपरेशन की सफलता के लिए बाबा बौखनाग को धन्यवाद करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए वे मंदिर पहुंचे।
यमुनोत्री NH में बन रहे सिल्क्यारा सुरंग : इलाके के प्रमुख लोक देवता होने के चलते सुरंग परियोजना के शुरू होने से पहले सुरंग के मुंह के पास एक छोटा-सा बाबा बौखनाग का मंदिर बनाया गया था। यहां की परम्परा को सम्मान देते हुए काम में लगे अधिकारी और मजदूर बाबा की पूजा करने के बाद ही सुरंग के अंदर दाखिल होते थे और काम करते थे। स्थानीय लोगों का कहना था कि दिवाली से कुछ दिन पहले निर्माण कंपनी प्रबंधन ने मंदिर को वहां से हटा दिया था। लोगों ने बताया कि टनल के ठीक ऊपर भी जंगल में बौखनाग देवता का मंदिर है। टनल बनाने वाली कंपनी ने 2019 में इसे छेड़कर टनल बनाना शुरू किया और बदले में सुरंग के पास बाबा का मंदिर बनाने का वादा किया था। चार वर्ष बीत गए लेकिन अभी तक मंदिर नहीं बनाया। स्थानीय लोगों ने कई बार इससे जुड़े अधिकारियों को इसकी याद भी दिलाई, लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। इसके उल्ट सुरंग बन रहे साइट पर कुछ दिन पहले स्थानीय लोगों द्वारा बनाया गया बाबा का छोटा-सा मंदिर भी तोड़ दिया। जैसे से बाबा के मंदिर को तोड़ा गया तो लोग कहने लगे कि ये देवता का ही प्रकोप है कि यह सुरंग ढह गई। उनकी बात सुनी गई होती तो यह हादसा नहीं होता।
>>>Arnold Dix : कौन हैं अर्नोल्ड डिक्स? टनल में फंसे 41 मजदूरों को बचाने के लिए सरकार, सुरक्षाबलों, अजेंसियों के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय टनल एक्सपर्ट अर्नोल्ड डिक्स ने भी मदद की। अर्नोल्ड डिक्स परेशानियों में संयमित रहना जानते हैं। उनकी भाषा और बॉडी लैंग्वेज देखिए। वीडियो में अर्नोल्ड कह रहे हैं कि हम पहाड़ से अपने बच्चों को माँग रहे हैं, वो ऐन मौक़े पर हमसे खेल कर देता है,  मगर हमें उम्मीद बनाए रखनी है कि वो हमें बच्चों सौंप देगा। प्रकृति और पर्यावरण से यही हमें सीखना भी होता है। रामायण में श्रीराम ने समुद्र देव से भी कुछ ऐसे ही मदद माँगी थी, जब बात नहीं बनी तब हिंसा चुनी है और नतीजा निकल आया। पर्वत राज (बाबा बौखनाग -भोले शंकर) को मशीन की नहीं,अहंकार रहित इंसान की हिम्मत नापनी थी, कुछ दृढ़ लोगों ने हौसला दिखाया। जो मशीन ना कर पाई,  वो हाथों से कर दिखाया। 
बता दें, अर्नोल्ड जिनेवा में इंटरनेशनल टनलिंग एंड अंडरग्राउंड स्पेस एसोसिएशन के चीफ हैं। CERN (यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन) एक नई 100 किमी लंबी सुरंग, तथाकथित फ्यूचर सर्कुलर कोलाइडर (FCC) बनाने का काम किया है।  स्विस और फ्रांसीसी क्षेत्र में जिनेवा झील के तल पर फैली हुई हैं। 27 किमी की लंबाई के साथ, CERN सबसे बड़े कण त्वरक, लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर (LHC) का संचालन करता है। उन्हें अंडरग्राउंड इन्फ्रास्ट्रक्चर, बिल्डिंग्स और ट्रांसपोर्ट रिस्क के मामले में एक बेहतरीन विशेषज्ञ के तौर पर जाना जाता है। अर्नोल्ड को अपने कार्य क्षेत्र में प्रशंसनीय प्रदर्शन के लिए कई अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स से भी सम्मानित किया गया है। इसके अलावा, अर्नोल्ड एक भूविज्ञानी, वकील और इंजीनियर और भी हैं। उन्होंने इन तीनों क्षेत्रों में भी डिग्रीयां हासिल की हुई हैं। उन्होंने अपनी पढ़ाई ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया से पूरी की है। हालांकि,अपने 30 सालों अधिक लंबे करियर में अर्नोल्ड डिक्स ने कई भूमिकाएं निभाई हैं, जिनमें अधिकतर भूमिगत सुरक्षा से जुड़े हुए हैं। 
    भारत एक धर्मप्रधान देश है ! यहाँ गुरु-शिष्य परम्परा (भगवान शिव - भगवान श्री राम परम्परा में) अहंकार का त्याग करके चार पुरुषार्थ करने का प्रशिक्षण दिया जाता है, इसको प्रमाणित करते हुए - दीपावली के दिन हुए सुरंग हादसे को लोग बाबा बौखनाग देवता का प्रकोप मान रहे थे। इस स्थानीय देवता बाबा बौखनाग (भगवान शिव) को यहां के लोग आराध्य के तौर पर पूजते हैं। जब उत्तरकाशी के सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को निकालने के लिए किए जा रहे प्रयास बार-बार विफल हो रहे थे तब स्थानीय लोगों ने कहा कि इस कारण से बौखनाग देवता नाराज हैं, अगर इस ऑपरेशन को सफल करना है तो पहले उनको मनाना होगा।
Nov 28, 2023 को  उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री  पुष्कर सिंह धामी ने ट्वीटर पर लिखा - "बाबा बौख नाग जी की असीम कृपा, करोड़ों देशवासियों की प्रार्थना एवं रेस्क्यू ऑपरेशन में लगे सभी बचाव दलों के अथक परिश्रम के फलस्वरूप श्रमिकों को बाहर निकालने के लिए टनल में पाइप डालने का कार्य पूरा हो चुका है। शीघ्र ही सभी श्रमिक भाइयों को बाहर निकाल लिया जाएगा।" 
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