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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

$$$$$ भारत के पुनर्निर्माण में अद्वैत वेदान्त का प्रयोग'

[इस विषय में दो प्रश्न समाहित हैं- १ वेदान्त क्या है? २. भारत के पुनर्निर्माण में उसका उपयोग कैसे हो सकता है ?] 
वेदान्त क्या है ?: स्वामी विवेकानन्द के आविर्भूत होने से पहले ऐसा माना जाता था कि जिसको ' मैं नहीं समझ सकता हूँ, उसी को वेदान्त कहते हैं। जिसमें ऐसी गूढ़ बातें हैं, जिसे कोई साधारण गृहस्थ समझ ही न सके उसे वेदान्त कहते हैं। प्राचीन परम्परा के मंडलेश्वर साधुओं के द्वारा 5000 श्रोता मण्डली की भीड़ में लोगों के समक्ष वेदान्त को  इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता था -"ब्रह्म से आकाश आया, आकाश से वायु आया, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी आयी। " और दिल्ली की पंजाबी भक्त जनता, स्त्री/पुरुष दोनों पवित्र भाव से हाथ जोड़ कर सुनते थे। एक स्त्री श्रोता से किसी सच्चे संत ने पूछा माताजी इस प्रवचन सभा में आपने क्या सुना ? अरे इसमें महाराज जी ने वेदान्त की बहुत बड़ी बड़ी बातें कहीं थी; किन्तु  हम स्त्री लोग भला उन बड़ी बड़ी वेदान्त की बातों को कैसे समझ सकते हैं?
इसलिए साधारण गृहस्थ लोग ऐसा ही मानने लगे थे, कि जिसे मैं नहीं समझ सकता उसीको वेदान्त कहते हैं। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका के विश्वघर्म महासभा में उपनिषद के संस्कृत मंत्रों, 'उत्तिष्ठत जाग्रत' आदि को इतने सहज और सरल शब्दों में समझाया  -'उठो जागो और लक्ष्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो ! और भारत के ही नहीं विदेशों के भी लाखों विद्वान् उससे प्रभावित हो गए। जर्मनी के दार्शनिक शॉपेन हावर ने दाराशिकोह के पर्सियन अनुवाद का लैटिन अनुवाद पढ़कर अंग्रेजी में वेदान्त की व्याख्या लिखी है। और कहा है कि उपनिषदों से बढ़ कर विश्व का कोई साहित्य ऐसा नहीं है जो सम्पूर्ण मानवता को पुनरुज्जीवित करने में सक्षम हो।
आधुनिक युग में सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द के द्वारा ही वेदान्त की वैज्ञानिक व्याख्या की गयी है।स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के उद्भव पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं- " बहुत दूर, जहाँ न तो लिपिबद्ध इतिहास और न परम्पराओं का मन्द प्रकाश ही प्रवेश कर पाता है। अनन्त काल से वहाँ स्थिर उजाला होता रहा है, जो बाह्य परिस्थितिवश कभी तो कुछ धीमा पड़ जाता है और कभी अत्यन्त उज्जवल। किन्तु वह सदा शाश्वत और स्थिर रहकर अपना पवित्र प्रकाश केवल भारत में ही नहीं , बल्कि सम्पूर्ण विचार-जगत में अपनी मौन अननुभाव्य, शान्त फिर भी सर्वसक्षम शान्ति से उसी प्रकार भरता रहा है, जिस प्रकार उषाकाल की किरणें लोगों की दृष्टि बचाकर, चुपचाप गुलाब की सुंदर कलियों को खिला देती हैं।  यह प्रकाश उपनिषदों के तत्वों का, वेदान्त दर्शन का रहा है । 
" कोई नहीं जानता कि यह वेदान्त भारतभूमि में पहले-पहल कब उद्भव हुआ। फिर भी मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूँ कि यह वेदान्त, उपनिषद प्रतिपाद्य दर्शन, आध्यात्म राज्य का “प्रथम और अन्तिम विचार है जो मनुष्य को (ईश्वर के अवतारों से)  अनुग्रह के रुप में प्राप्त हुआ है”। वेदान्त एक ऐसा आध्यात्मिक सिद्धान्त है, जो किसी जाति विशेष या संप्रदाय विशेष की पैतृक-संपत्ति (legacy, बपौती) नहीं है। यह वेदान्त दर्शन किसी 'विशेष उपाधि वाले धर्म' (Denominational religion या सांप्रदायिक-धर्म) जैसे-  हिन्दू-मुसलमान, ईसाई,सिख आदि 'विशेष नाम वाले धर्मों' से पूरी तरह मुक्त है। सम्पूर्ण वेदान्त साहित्य में उपनिषद या रामायण -महारभारत में आपको कहीं किसी विशेष सम्प्रदाय का नाम या 'हिन्दू-धर्म ' जैसा शब्द भी कहीं लिखा हुआ नहीं दिखाई देगा।
वेदों के संरक्षण एवं सफलता की दृष्टि से, वेद के पठन-पाठन के क्रम  में वेदों के श्रवण एवं याद करने, तथा जीवन में उतारने का अत्यन्त महत्व है। क्योकि पहले मुद्रण की व्यवस्था न होने के कारण इन्हें  वेदों को एक दुसरे से सुन- सुनकर याद रखा गया।इस प्रकार "वेद" प्राचीन भारत के वैदिक काल की वाचिक-परम्परा (श्रवण-मनन-निदिध्यासन पद्धति का) श्रवण परम्परा (oral tradition) की अनुपम कृति है; जिसे श्रुति (गुरु शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा) भी कहते हैं -जो पीढ़ी दर पीढ़ी पिछले चार-पाँच हजार वर्षों से चली आ रही है।   इसीलिये UNESCO  ने 7 नवम्बर 2003 में ही वेदपाठ को (अर्थात श्रुति को) " मानवता की मौखिक एवं अमूर्त विरासत" की श्रेष्ठ कृति कहकर घोषित किया है।
'वेद' शब्द संस्कृत भाषाके 'विद्' धातु से निकला है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है -ज्ञान। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या'(ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) ब्रहविद (ब्रह्मज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। समस्त उपनिषद् ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत आते हैं । इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ है - 'ज्ञान के ग्रंथ'।  वेदान्त को सरल भाषा में परिभाषित करते हुए कहा गया है –"वेदान्तो नामोपनिषत् प्रमाणं तदुपकारीणि शारीरकसूत्रादीनि च ।" ... अर्थात 'उपनिषद् रुपी प्रमाण को वेदान्त कहते हैं 'और उसके सहायक ब्रह्मसूत्र आदि ग्रन्थ भी वेदान्त कहलाते हैं”। " उपनिषद एव प्रमाणं "– अर्थात उपनिषद ही वे प्रमाण हैं, जो हमें जीव-ब्रह्मैक्यं का बोध कराता है। ज्ञान का अंत, 'Height of knowledge' या ज्ञान के चरमोत्कर्ष को 'वेदान्त' या उपनिषद कहा जाता है। 'वेदान्त' का शाब्दिक अर्थ है -वेदों का ‘अन्त’| अर्थात् वेदों के विचारों का वह परिपक्व रूप जिसे महावाक्य कहते हैं,और जो जिज्ञासु  व्यक्ति को ज्ञान प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करता है।वेदादि के विधिपूर्वक अध्ययन, श्रवण -मनन तथा उपासना आदि के अन्त में जो तत्त्व जाना जाये उस तत्त्व का विशेष रूप से जिस ग्रंथ में निरूपण किया गया हो, उस शास्त्र को ‘वेदान्त’ कहा जाता है। 
 वेदों को अपौरुषेय यानि ईश्वर कृत (अवतार कृत) माना जाता है। " गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा" में जीवन्मुक्त ऋषियों के निकट बैठकर आविष्कृत ज्ञानराशि अनन्त (endless) हैं, तथापि उपनिषदों की संख्या 108 मानी जाती है। इनका समय निर्धारण निश्चित रुप से नहीं किया जा सकता किन्तु कुछ गौण उपनिषदों से इनके अर्वाचीन होने का संकेत मिलता है । इन 108 में से केवल 10 उपनिषदों को प्रमुख माना जाता है, क्योंकि आदि शंकराचार्य ने, ईश -कठ -केन-प्रश्न -ऐतरेय-तैतरेय -मुण्डक -माण्डूक्य -छान्दोग्य -बृहदारण्यक आदि 10 उपनिषद को ही महत्वपूर्ण मानकर उस पर अपना भाष्य लिखा है। इन्हीं 10 उपनिषदों के ऊपर अद्वैत वेदान्त आधारित है। छान्दोग्य और बृहदारण्यक विस्तृत उपनिषद हैं। कुछ पद्य में हैं, कुछ गद्य में हैं। ये 3000 से 5000 वर्ष पुराने भी हो सकते हैं।वेदान्त के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं - उपनिषद्, गीता एवं ब्रह्मसूत्र। वेदों को ‘'श्रुति'’ भी कहते हैं, जिसका अर्थ है 'सुना हुआ ज्ञान'। इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय (न्याय = तर्क) प्रस्थान कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है। भगवत गीता, ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषदों को मिला कर प्रस्थानत्रयी (three-fold canon of Vedanta) कहा जाता है। 
सभी उपनिषदों का विषय और उद्देश्य एक है -वह है इस विचार को स्थापित करना कि,जिस प्रकार मिट्टी के एक टुकड़े के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेने से हम संसार की सभी मिट्टी के बारे में हम ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं; उसी प्रकार ऐसा कोई तत्व अवश्य है -जिसको जान लेने से हम संसार की सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं ! "यथा सोम्य एकेन मृत्पिण्डेन सर्वं मृन्मयं विज्ञातं स्यात् । - छान्दोग्योपनिषत् ६-१-४॥ 
 वह तत्व क्या है ? सभी उपनिषदों में बतलाया गया है कि - एक मात्र 'ब्रह्म'(existence -awareness-bliss) ही इस समस्त संसार का आधारभूत सार है- “तुम जिसकी खोज में भटक रहे हो वह ब्रह्म तुम ही तो हो-तत्वमसि !”' एकं सद् वि‍प्रा बहुधा वदन्‍ति‍' (ऋग्‍वेद)|'अर्थात सत्य (pure consciousness) एक ही है जिसे ज्ञानी नाना प्रकार से (ब्रह्म-अल्ला -God) कहते हैं'। उस 'ब्रह्म' (परम सत्य, अल्ला -God) को जान लेने से हम संसार की सभी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं! सभी उपनिषदों का यही सार है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है,  जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द (Existence -Consciousness-Bliss) है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी (3rd' H की) मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव कर लेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय - " मृत्यु-भय तथा कामिनी-कांचन में आसक्ति' का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द (complete fulfillmentकी प्राप्ति हो जाती है ! (इसी देह में ईश्वर या परमसत्य की अनुभूति हो जाती है !) इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !" (१/४०)
इसी एकाग्रता के अभ्यास की पद्धति -मनःसंयोग, नहीं जानने के कार हम लोग अभी केवल घड़े (जगत) को देखते हैं, किन्तु  मिट्टी (ब्रह्म existence-consciousness -bliss) को नहीं देखते। जब हम घड़े पर मन को एकाग्र करना सीख जायेंगे, तब हमारे समक्ष घड़े (जगत) की वास्तविकता मिट्टी (ब्रह्म) है, यह सत्य भी उद्द्घाटित हो जायेगा। ज्ञानमयी दृष्टि से जगत ब्रह्ममय दिखाई देगा, और  भक्तिमयी दृष्टि से जगत भगवानमय दिखाई देगा। 
 कभी कभी उपनिषद् शब्द का प्रयोग उन ग्रन्थों के लिए भी होता है जो वेदों के अन्तर्गत नहीं आते हैं, जैसे “गीता” । उपनिषद यदि गाय हैं, तो उसका दूध है भगवत गीता। और दूहने वाले हैं -भगवान श्रीकृष्ण।क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत गीता-'The Song of God' में समस्त उपनिषदों के सार को संचित किया है। इसलिए गीता को भी वेदान्त कहा जाता है। बादरायण व्यास ने ब्रह्म-सूत्र की रचना की है जिसमें 555 सूत्र हैं, जिसे  वेदान्त सूत्र, शारीरक सूत्र, शारीरक- मीमांसा या उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है। उन सूत्रों में उपनिषदों के सिद्धान्तों को अत्यन्त संक्षेप में, सूत्र रूप में संकलित किया गया है। आधुनिक भारत के मनीषियों के अनुसार  समस्त उपनिषदों के सार ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' को ही वेदान्त दर्शन का आधार माना जाता है। किन्तु उन वेदान्त सूत्रों के ऊपर पर सामान्य जनों में बहुत अधिक चर्चा नहीं की जाती क्योंकि सामान्य लोगों को वे सूत्र थोड़ा शुष्क जैसे प्रतीत होते है।
 इसीलिए भारतीय वेदान्त परम्परा में  किसी व्यक्ति को  गुरु या आचार्य बनने के लिये वेदान्त की पुस्तकों पर टीकाएँ या भाष्य लिखने पड़ते हैं। आचार्य शंकर द्वारा ब्रह्मसूत्र पर लिखे भाष्य को अद्वैत वेदान्त का मौलिक ग्रन्थ माना जाता है। इस 'व्यास सूत्र' या 'ब्रह्मसूत्र' के ऊपर प्रचीन व्याख्याकारों द्वारा की गयी व्याख्याओं से ही भारत में तीन प्रकार की दार्शनिक पद्धतियों एवं सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई है -द्वैत, विशिष्टाद्वैत तथा अद्वैत। इनकी अति प्रचीन व्याख्याऐं तो लुप्त हो गयीं। किंतु अर्वाचीन काल में बौद्ध धर्म के उत्थान के बाद,  शंकराचार्य द्वारा उसी ब्रह्मसूत्र के भाष्य के आधार पर, रामानुजन ने विशिष्टाद्वैत की तथा मध्वाचार्य ने द्वैत मत की पुन:स्थापना की। आत्मा व परमात्मा का द्वैत (अलग–अलग होना) न माननेवाले मनुष्य को 'अद्वैतवादी' कहा जाता है! अधिकांश भारतीय द्वैत एवं विशिष्टाद्वैत के अनुयायी हैं। अद्वैतवादियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। किन्तु ये सभी वेदान्ती तीन बातों में एक मत हैं। ये सभी ईश्वर पर, वेद के श्रुत रूप पर तथा सृष्टि-चक्र (अर्थात पुनर्जन्म) पर विश्वास करते हैं।  इसलिए इन दिनों भारतीय चिंतन धारा में जन्मे जितने भी दार्शनिक सप्रदाय (बौद्ध, जैन, सिख,कबीरपंथी आदि सम्प्रदाय) हैं वे सभी 'वेदान्त दर्शन' के अन्तर्गत आते हैं। 
वेदों के चार महावाक्य हैं जो ब्रह्म और आत्मा के एक होने का प्रतिपादन करते हैं।
१.लक्षणा वाक्य (Defining Sentence) 'प्रज्ञानं ब्रह्म' - प्रज्ञा रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है !  पहला महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद में उद्धृत किया गया है, जिसे ' लक्षणा वाक्य' भी कहा गया है।इसका संबंध ब्रह्म की शाश्वत चैतन्यता (स्पंदन-pure consciousness) से है, क्योंकि इसमें ब्रह्म को चैतन्य (शाश्वत स्पंदन) के जैसा अनुभव करने वाले ऋषि ने परिभाषित करने की चेष्टा करते हुए कहाब्रह्म अनुभूत-ज्ञान (Consciousness )है। 
२. अनुभव वाक्य (Experience’s Sentence) 'अहं ब्रह्मास्मि '- मै ब्रह्म हूँ। ....(I am Brahman)] दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। इसकी खासियत यह है कि इसमें यह जताने की कोशिश की गई है कि हम सभी ब्रह्म (अहं ब्रह्मास्मि) हैं। इसे ' अनुभव वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है।
३.उपदेश वाक्य (The Sermon Sentence) 'तत्वमसि' - तत त्वम असि - वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (You are That ) तीसरा महावाक्य सामवेद के छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है। इसे उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही, परस्पर व्यवहार करते समय वह दूसरों के प्रति आदर और श्रद्धा की भावना को भी पैदा करते हैं। इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इस लिए इसे 'sermon sentence' या धर्मोपदेश वाक्य या 'उपदेश वाक्य' भी कहा जाता है। 
४.अनुसन्धान वाक्य (Research Sentence).- अयं आत्मा ब्रह्म - अर्थात 'यह आत्मा ब्रह्म है।' चौथा महावाक्य अथर्ववेद के मुंडक उपनिषद से लिया गया है। इसमें ऋषि कहते हैं कि -'अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति (witness consciousness) ही 'आत्मा' है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है।  यह महावाक्य ही आत्मा और ब्रह्म के अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और हमें ब्रह्म (larger reality,बृहद या शाश्वत सत्य) का अनुसन्धान करने के लिये अनुप्रेरित करता है। It prompts us to explore Brahman (big reality, large or eternal truth), hence it is also called 'research sentence'. इसलिए इसे 'अनुसंधान वाक्य' भी कहा जाता है। 
उपनिषद के ये चार महावाक्य संम्पूर्ण मानव जाति को पुनरुज्जीवित (revivify) करने के लिये रामबाण दवा  या संजीवनी बूटी के समान हैं। चारों महावाक्य - 'यह जगत भी ब्रह्म ही है ' इसी महासत्य का प्रतिपादन करते हैं।  जिन्हें हृदयंगम कर लेने पर प्रत्येक मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है,और  देहाध्यास के भ्रम से (disenchanted) मुक्त होकर मृत्यु के भय को सदा के लिए समाप्त कर सकता है! 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " तुमने उस सिंह-शावक की कहानी पढ़ी होगी ?  जिसे जब सिंह ने भेंड़ों की तरह में-में करते और मृत्यु के भय से थर-थर करते देखा तो उसे उस सिंह-शिशु पर तरस आ गया। सिंह-गुरु ने सोचा कि भ्रम में पड़े सिंह-शावक के देहाध्यास (सम्मोहन या अविवेक) को दूर करने के लिये, सबसे पहले उसमें 'द्रष्टा-दृश्य तादात्म्य विवेक' जाग्रत करके उसे डीहिप्नोटाइज करना होगा। जीवन्मुक्त सिंह-गुरु उस सिंह-शावक को डीहिप्नोटाइज ( 'D-hypnotize') करने के लिये एक तालाब के किनारे ले गया।  उसका भेंड़पना (देह्ध्यास) मिट गया; और फिर वह भेंड़ों  झुण्ड में न लौटकर अपने परमहंस सिंह-गुरु के संग वन की ओर चल पड़ा। कथा में वर्णित सिंह- जीवन्मुक्त गुरु या समर्थ मार्गदर्शक 'नेता' का प्रतीक है, जो अपने 'ब्रह्मचारी' अर्थात आत्मजिज्ञासु शिष्य को 'द्रष्टा -दृश्य विवेक' के तीन मौलिक नियमों' को समझाकर उसका देहाध्यास का सम्मोहन दूर करके उसे ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और बनाने का मार्ग दिखला सकता है। प्रस्थानत्रयी को सरलता पूर्वक समझाने के लिए कुछ छोटी-छोटी पुस्तकें,Vedanta Introductory text ' या 'वेदांत परिचयात्मक सूत्र' के रूप में लिखी गयी हैं, उनको वेदान्त प्रकरण ग्रन्थ  कहते हैं। जिनमें से प्रमुख ग्रंथों के नाम है विद्यारण्य स्वामी द्वारा रचित  'दृग दृश्य विवेक'  अथवा  'वाक्य-सुधा। ' ['विवेक चूड़ामणि' , 'अपरोक्षानुभूति','वेदान्त सार',  'उपदेश सहस्री', 'आत्मबोध', 'वाक्य-वृत्ति' आदि अन्य प्रमुख प्रकरण ग्रन्थ हैं।] वेदान्त प्रकरण ग्रंथों की वैज्ञानिकअवधारणा  अद्वैत वेदान्त को समझने में हमारी सहायता करते हैं। जैसे आचार्य शंकर द्वारा रचित 'भज गोविन्दम' को 'मोह मुदगर' - अर्थात हिप्नोटाइज्ड अवस्था को तोड़ने वाला हथोड़ा भी कहा जाता है। उसी प्रकार 'दृग-दृश्य विवेक' (Vedanta Introductory Text ) प्रकरण ग्रंथ का एक और नाम 'वाक्य सुधा' भी है।  क्योंकि वेदों के चार महावाक्यों का मंथन करने से जो 'दृग-दृश्य विवेक ' प्रकरण ग्रंथ रूपी अमृत या वाक्य सुधा (sentence nectarप्राप्त हुई है,वह  संम्पूर्ण मानव जाति को पुनरुज्जीवित (revivifyकरने के लिये रामबाण दवा या मृतसंजीवनी-सुधा  के समान हैं  
'दृग-दृश्य विवेक' ग्रंथ के केवल प्रथम श्लोक की व्याख्या (तथा आगे के 30 श्लोकों में उसके उदाहरण) 
को  किसी जीवन मुक्त शिक्षक के मार्गदर्शन में श्रवण-मनन-निदिध्यासन करके हृदयंगम कर लेने पर कोई मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है। और देहाध्यास के भ्रम से (disenchanted) मुक्त होकर मृत्यु के भय को सदा के लिए समाप्त कर सकता है!
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महामंडल में नेतृत्व प्रशिक्षण के लिए विषय - सूची:
1. वेदान्त एक परिचय : (Vedanta: An Overview) वेदों के चरमबिन्दु को वेदान्त कहते हैं। सम्पूर्ण मानवजाति का कल्याण के उद्देश्य से सभीजाति और धर्म के लोगों को ब्रह्मविद्या का अध्यन करने के लिए अनुप्रेरित करता है। वेदान्त वह मनोविज्ञान है जो मनुष्य को सामान्य सांसारिक स्तर से ऊपर उठाकर उन्नत आध्यात्मिक मनुष्य में रूपांतरित करता है। परमसत्य, सर्वोच्च शाश्वतसत्य, ब्रह्म, सच्चिदानन्द या (existence-consciousness-bliss) को समझने की तर्कसंगत विधि (rational method) को वेदान्त कहते हैं। वेदान्त मानव के अनुभव की पराकाष्ठा (culmination) है, और उसकी ज्ञान शक्ति (faculty of knowledge) का अन्त है। यह बृहत्तम (greatest) और सर्वोच्च ज्ञान है। यह ज्ञान (Wisdomभारत के प्राचीन ऋषियों के समक्ष प्रकट (revealed) हुआ था। जैसे न्यूटन ने सेव के नीचे गिरने की घटना पर मन को एकाग्र करके बाह्य प्रकृति के नियम (गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त) को आविष्कृत किया था, उसी प्रकार ऋषियों ने अपने हृदय में विद्यमान शाश्वत सत्य (ब्रह्म, ईश्वर या अवतार) पर मन को एकाग्र करके अन्तःप्रकृति के (आध्यात्मिक जगत के) शाश्वत नियमों को आविष्कृत किया था। इसलिए उन्हें महावाक्य भी कहा जाता है।  
प्राचीन काल के ऋषियों और मनीषियों (महर्षि पतंजलि आदि) ने चंचल मन को एकाग्र करने और उसे वशीभूत करने की पद्धति पर कई परीक्षण और अनुसन्धान (researches) किये थे, तथा निष्कर्ष के रूप में प्राप्त अपने 'आध्यात्मिक अनुभवों' [योगः चित्तवृत्ति निरोधः' आदिको सम्पूर्ण जगत के कल्याण के लिए सूत्र के रूप में, जगत के सम्मुख रख दिए थे।
ये सभी सूत्र 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में स्थापित प्राधिकरण द्वारा स्वीकृत सूत्र [authoritative. तोतापुरी-रामकृष्ण, रामकृष्ण-विवेकानन्द आदि परम्परा में चपरास प्राप्त] हैं। अतः मनःसंयोग के प्रारंभिक प्रयोगों (preliminary experiments) को एक बार और करके देखने में ही हमें अधिक समय नहीं लगाना चाहिये। इन परीक्षणों और अनुसन्धानों को स्वयं करने के लिए हमलोगों का पूरा जीवन-काल भी पर्याप्त नहीं है। सूत्र के रूप में प्राप्त प्राचीन ऋषियों के ये अनुभव हमारे लिए बना-बनाया (ready-made) छोटे कैप्सूल की तरह कारगर हैं। हमें सारे कुतर्कों को छोड़कर केवल अटूट श्रद्धा और भक्ति के साथ उनके निर्देशों (गुरु-शिष्य परम्परा में प्राप्त यम-नियम आदि निर्देशों-5 अभ्यासों) का पालन करना होगा। केवल तभी हमलोग आध्यात्मिक मार्ग में थोड़ी प्रगति कर सकते हैं, और मानवजीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।देहाध्यास के भ्रम से, पूर्णतया मुक्त हो जाने के लिए मन को एकाग्र करने की पद्धति और तकनीक (technique ) को हमें विद्यार्थी जीवन में ही सीख लेनी चाहिए। हमें दासत्व की आदत को, मन की गुलामी के कारणों को तथा मन की गुलामी से मुक्त हो जाने की पद्धति सीख लेनी चाहिए। हमें अपने जीवन का खोजपूर्ण अध्यन करना होगा, तथा इसके रहस्यों को जान लेना होगा।        
2. हम अपनी दिव्यता से अनजान क्यों हैं? माया की अवधारणा। 
(Why Are We Unaware of our Divinity?The Concept of Maya, If you cut the branches of a tree, again they will grow. So you must pluck out the root itself. )
माया का स्वरूप: The Nature of Maya: माया त्रिगुणात्मिका है। तमोगुण जीव को अंधकार और जड़ता में बांध देता है। रजोगुण से जीव आवेग में आकर क्रियाकलाप करने लगता है। सतोगुण ही पवित्रता और अन्तर्हित दिव्यता से संयुक्त करता है। तुम स्वयं अविद्या में रहते हुए अपने स्वयं के दोषों का पता नहीं लगा सकते। किसी व्यक्ति या जीव में रहने वाली अविद्या को ही 'माया' कहा जाता है। हमलोग हमेशा यह सोचते हैं, कि मैं स्वयं सभी प्रकार के दोषों से मुक्त हूँ। हम सोचते हैं कि मैं सभी प्रकार के गुणों से भरपूर हूँ। तथा मैं ही इस जगत का सबसे उत्तम मनुष्य हूँ ! यही माया है। 
जगत को ही शाश्वत- सत्य मानने वाले व्यक्ति के लिए माया भी सत् या सत्य ही होती है। नित्य-अनित्य, श्रेय-प्रेय, शाश्वत -नश्वर का पृथक करने वाला विवेकी मनुष्य या विवेक-दर्शन करने का अभ्यासी व्यक्ति माया को  'अनिवर्चनीय' (inexpressible) कहता है। जीवन्मुक्त मनुष्यों के लिए या डीहिप्नोटाइज्ड ब्रह्मविद व्यक्तियों के लिए, जो स्वयं को सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म से अभिन्न समझते हैं, उनके लिए माया तुच्छ ? है -या कुछ भी नहीं है। 
जिस प्रकार किसी वृक्ष के जड़ को ही उखाड़ लेने से पूरे वृक्ष को नष्ट किया जा सकता है, उसी प्रकार केवल अविद्या और अज्ञान को नष्ट कर देने से, इस संसार-चक्र के स्रोत को, मन में बैठी हुई वासनाओं, तृष्णाओं, इच्छाओं और कामनाओं को, पूर्णतः (in toto) नष्ट किया जा सकता है। किन्तु यदि केवल वृक्ष की डाली को ही काटा जाय तो, तो वे फिर से बढ़ेंगे। इसलिये यदि वासना के सम्पूर्ण वृक्ष को ही नष्ट करना हो, तो उसे जड़ से उखाड़ना होगा। उसी प्रकार अविद्या को केवल अपरिवर्तनशील सत्य या अविनाशी ब्रह्म (existence-consciousness-bliss) के ज्ञान द्वारा, और निषिद्ध कर्मों का त्याग करके ही नष्ट किया जा सकता है। अविद्या को अविनाशी या ब्रह्म के ज्ञान द्वारा नष्ट किया जा सकता है, न कि गृहस्थों के लिए शास्त्र-सम्मत प्रवृत्तिधर्म का पालन किये बिना, इन्द्रियों का अविवेकपूर्ण अंधाधुंध दमन (indiscriminate  suppressionके द्वारा। अविद्या का नाश हो जाने से , राग-द्वेष का भी नाश हो जायेगा और अस्मिता -अभिनिवेश जन्य सभी क्लेशों का अंत हो जायेगा। राग और द्वेष अविद्या या अज्ञान के ही रूप-परिवर्तन (modificationsहैं, और स्वयं (अविनाशी आत्मा को या सिंहशावक को) को नश्वर M/F शरीर (भेंड़)  मानने से उत्पन्न होते हैं।     
ब्रह्मज्ञान के अभाव को अज्ञान या अविद्या कहा जाता है। अपने यथार्थ स्वरूप या ब्रह्मस्वरूप के विषय में  अनजान रहने को ही अज्ञान (Ajnana) कहा जाता है। जिस प्रकार पहाड़ की मिट्टी से जन्म लेने वाले वृक्ष पहाड़ को ही छिपा देते हैं, जिस प्रकार सूर्य के ताप से उत्पन्न मेघ स्वयं सूरज को ही छिपा देते हैं , उसी प्रकार मेरी ही आत्मा या ब्रह्म की शक्ति (Power of witness consciousness) से उत्पन्न अज्ञान (Ajnana) उस साक्षी चैतन्य या ब्रह्म को छिपा देते हैं।  
माया की दो शक्तियाँ हैं - आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति। विक्षेप शक्ति से विश्वब्रह्माण्ड का सृजन होता है, वह कोई समस्या नहीं है। आवरण शक्ति ही मूल अज्ञान (Moola-Ajnana) है, जो अंतर्निहित आत्मा के ऊपर आवरण डाल देती है। 
विश्वब्रह्माण्ड का प्रक्षेपण : The Projection of the World: बाह्य जगत में कुछ कार्य प्रकृति के नियमानुसार होते रहते हैं। प्रातः काल में पुष्प खिल जाते हैं, नदी का जल बहता रहता है।गर्मी के दिनों में पूरी धरती शुष्क हो जाती है। पुनः जैसे ही वर्षा होती है, बीज अंकुरित हो जाते हैं , और पौधे निकल आते हैं। वर्षा होने से पूर्व वे पौधे अव्यक्त अवस्था (unmanifested state) में रहते हैं। उसी प्रकार जो जगत अभी व्यक्त अवस्था में दृष्टिगोचर हो रहा है, वह जगत पहले अव्यक्त अवस्था में था। और कल्प का अंत होने पर यह जगत फिर से अव्यक्त अवस्था में चला जायेगा। और पुनः व्यक्त होगा। यह विश्वब्रह्माण्ड माया से, या ईश्वर के कारण-शरीर से (the causal body of Isvara) से उत्पन्न हुआ है, और कल्प के अंत में यह पुनः ईश्वर में ही वापस लौट जायेगा। 
पृथ्वी के सभी धर्म ऐसा मानते हैं, कि हमारा यह शरीर पंच भूतों (5 elements ) से बना है -आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्व से बना हुआ है। ये सभी पंचभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश सभी आत्मा या ब्रह्म की शक्ति माया से ही उत्पन्न हुए हैं। पृथ्वी तत्व की तुलना में जल तत्व अधिक सूक्ष्म और सर्वव्यापी (pervasive) है, जल की अपेक्षा अग्नि अधिक सूक्ष्म और व्यापक है। अग्नि की अपेक्षा वायु अधिक सूक्ष्म और व्यापक है। वायु की तुलना में आकाश तत्व अधिक सूक्ष्म और व्यापक है। यदि हम चमेली के कुछ फूलों को इस मेज पर रखते हैं, तो उसकी सुगंध (fragrance) पूरे कमरे में फैल जाती है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि फूल की तुलना में सुगंध अधिक व्यापक (pervasive) है। 
फूल एक ही स्थान पर रखे हुए हैं, लेकिन उसकी सुगंध सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो जाती है। पृथ्वी की तुलना में वाष्प की नमी अधिक व्यापक है। सूर्य की किरणे जिसमें ताप भी छिपा रहता है, धुप में कागज जलता नहीं गर्म हो जाता है, किन्तु कन्वेक्स लेंस से किरणों को केन्द्रीभूत करने पर कागज जल उठता है। अतः अग्नि तत्व जल तत्व से अधिक व्यापक है। आकाश तत्व को अन्य चार तत्वों का मातृ -तत्व (MATTER -mother -substance) कहा जाता है, क्योंकि वह सर्वव्यापक ( all-pervading) है। बाकी के चारों तत्व सर्वव्यापी आकाश में ही निहित हैं। 
ब्रह्म या परमात्मा (Supreme Being) से पंचभूत प्रक्षेपित हुए हैं। महततत्व से सर्वप्रथम आकाश तत्व का जन्म होता है। बाकी के चार भूतों का आवास स्थान आकाश या अंतरिक्ष (space) ही है। आकाश एक बहुत विशाल बर्तन या पात्र (container) के जैसा है। प्राण की सहायता से आकाश में गति उत्पन्न होती है। उस गति को वायु (air) कहा जाता है। वायु के गतिशील होने से ताप उत्पन्न होता है, और वायु से अग्नि का जन्म होता है। इसीलिए वायु के बिना अग्नि जल नहीं सकती। अग्नि ठंढी होने पर जल बन गयी। और जल के जम जाने से पृथ्वी बन गयी।   
शरीर के आवरण (कोष) The Sheaths of the Body: व्यक्ति की आत्मा पांच आवरण से (पंच कोषों से)  ढकी हुई है। उनके नाम हैं -अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष अन्तःकरण (internal organ) के चार रूप हैं -चित्त (मन वस्तु ), मन, बुद्धि और अहंकार। अहंकार ( the ego) का सम्बन्ध बुद्धि (intellect) के साथ रहता है। उनका निवास स्थान सूक्ष्म शरीर (subtle body) के विज्ञानमय कोष में रहता है। मन (Manas) का सम्बन्ध चित्त से रहता है, उनका निवास स्थान मनोमय कोष है। सूर्य (sun) की किरणें बुद्धि को उज्ज्वल बनाती हैं। सूर्य का ताप प्राण में ऊष्मा का संचार करता है, और इस प्रकार शरीर की गर्मी बनी रहती है। मन आत्मा और जगत के बीच उस पुल के जैसा कार्य करता है , जिसका एक पाया आत्मा में और दूसरा पाया जगत में होता है। जिस प्रकार यह मन आत्मा और प्राण के बीच एक विभाजक दीवार (dividing wall) की तरह काम करता है, उसी प्रकार प्राण (प्राण वायु vital air या energy ऊर्जा) भी मन और शरीर के बीच चारदीवारी (boundary-wall) है। 
मन से श्रेष्ठ बुद्धि है। तथा बुद्धि (intellect) अग्नि तत्व (fire-principle) से बनी हुई है। मन से नीचे प्राण है, वह प्राण भी अग्नि तत्व से बनी हुई ऊर्जा (या ऊष्मा) है। मन से परे जो बुद्धि है, वह अग्नि तत्व से बनी है, और मन के नीचे जो प्राण है, वह भी अग्नि तत्व से बनी हुई है। इस प्रकार अग्नि (ऊपर की बुद्धि) और अग्नि (नीचे प्राण) के बीच मन (जल) है। मन के अधिष्ठाता देवता चंद्रमा (चंद्र) हैं। इस मन को (कामना- वासना रूपी जल को) विवेक-विचार (विवेकयुक्त बुद्धि रूपी अग्नि) के द्वारा सूखा दिया जाय, या प्राण की अग्नि (प्राणायाम) के द्वारा सूखा दिया जाय तो मनुष्य अनन्त शांति और अनन्त आनन्द (existence-consciousness -bliss) को प्राप्त कर सकता है।        
समाधि : Samadhi : उस चतुर्थ अवस्था (Fourth State) या तुरीय अवस्था को कहते हैं जो शुद्ध चेतना (Pure Consciousness) है, या परम् निरपेक्ष सत्य (Supreme Absolute) है; जहाँ प्रातिभासिक चेतना (Apparent consciousness) का लेषमात्र भी नहीं होता। राज-योग में साधक निरोध-समाधि का अभ्यास करते हैं। ज्ञान-योग के साधक वेदान्ती लोग बाधा -समाधि का अभ्यास करते हैं। 
नरोदय-समाधि की प्रथा में राज योगी एक रूप पर ध्यान केंद्रित करके मन के सभी वृत्तियों को रोक देता है। निरोध समाधि के अभ्यास में राज योगी किसी एक रूप पर मन को एकाग्र करते हुए मन की अन्य समस्त वृत्तियों को रोक देते हैं। बाधा-समाधि का अभ्यास करते हुए ज्ञान -योगी समस्त मिथ्या नाम-रूपों का परित्याग करते हुए एक मात्र सार वस्तु अर्थात, सत-चित-आनंद ब्रह्म को ग्रहण करता है जो इन सभी नामों और रूपों का आधार (substratum) है। ज्ञान योगी की साधना में व्यापकता होती है, वे चलते समय भी खुली आँखों से ध्यान करते हैं। वे जहां भी देखते हैं, उसी एक अंतर्निहित सार वस्तु (underlying 
essence) या ब्रह्म को देखने की कोशिश करते हैं, तथा विविध नामों और रूपों को अस्वीकार करते है। वे चलते-फिरते, समस्त आवश्यक कार्यों को सम्पादित करते हुए भी निरंतर सहज-समाधि (Sahaja-Samadhi) की अवस्था में रहते हैं। किन्तु राज -योगी दिन भर में केवल दो बार आसन में बैठकर 'प्रत्याहार और धारणा ' का अभ्यास करता है। यम-नियम का पालन राज-योगी को 24 X 7 करना होता है।उसे किसी पूर्व निर्धारित आदर्श को हृदय में धारण करके, स्थिर होकर एक निश्चित मुद्रा में बैठकर मन को एकाग्र रखने का अभ्यास करना पड़ता है। कोई राज-योगी चलते हुए भी प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास नहीं कर सकता। किन्तु मनःसंयोग का अभ्यास करते करते, वह राज-योगी भी एक दिन खुली आँखों से ध्यान करने अर्थात भक्तिमयी दृष्टि से भगवान श्रीरामकृष्ण और माँ सारदादेवी को देखने और उनसे बातचीत करने में सक्षम हो जाता है। वेदान्त में ध्यान को 'निदिध्यासन' कहा जाता है। और अपने स्वरूप पर निरंतर निदिध्यासन का अभ्यास साधक को बहुत सहजता से आत्म-साक्षात्कार या निर्विकल्प समाधि की ओर ले जाता है। जिस व्यक्ति को एक बार निर्विकल्प समाधि की अनुभूति हो जाएगी, वह दुबारा फिर अपने को स्त्री-पुरुष के मूर्त रूप में बन्धा हुआ नहीं समझेगा। उसका पुनः शरीर-धारण करना केवल लोक-कल्याण के लिए होगा। 
3. दुःख की समस्या: कर्मवाद और पुनर्जन्म का सिद्धान्त। ( The Problem of Suffering:Karma and Reincarnation): हमलोग पूर्व जन्म में अपने कर्मों (कार्यों actions) के कारण ही इस धरती पर पैदा हुए हैं। हमारा यह वर्तमान शरीर और मन की यह स्थिति (सत्य का खोजी मन) दोनों हमारे पिछले कर्मों के परिणाम हैं। What is Karma? कर्म क्या हैं ?[The Chakra or Wheel of Vasana, Karma, Bhoga] :
सर्वप्रथम हमारे मन में एक विचार उठता है , हमारे मन में पहले एक वासना या इच्छा (desire)पैदा होती है। फिर हम उस वस्तु को प्राप्त करने के लिये बल का प्रयोग करते हैं, या उसे पाने का प्रयास करते हैं। यह प्रयास करना ही कर्म है। क्योंकि मन की कल्पना (विचार) ही शारीरिक क्रिया के द्वारा साकार रूप ग्रहण करती है, अतः कह सकते हैं कि विचार ही वास्तविक कर्म है। शारीरिक प्रचेष्टा तो मन में उठने वाले विचारों की अभिव्यक्ति मात्र है। तब हम उस वस्तु का आनन्द लेते हैं। यही भोग है।  बार बार किया गया यह भोग वासना को और अधिक दृढ़ और सशक्त बना देता है। " वासना, कर्म और भोग का चक्र" निरंतर घूमता रहता है। वेदान्त कहता है -संन्यासी होने के अधिकारी हो, तो भोगों को पूर्णतया त्याग दो। किन्तु यदि सामान्य गृहस्थ बनने के अधिकारी हो, त्यागपूर्वक भोग करने का अभ्यास करो। श्रेय-प्रेय और शाश्वत -नश्वर का विवेक-प्रयोग करते हुए क्रमशः अनासक्त होने के लिए 'निवृत्ति अस्तु महाफला' का
का अभ्यास करो।
केवल त्याग के द्वारा ही आत्मा की अनुभूति की जा सकती है। हमलोगों ने पिछले लाखों जन्मों में इन्द्रिय विषयों का सुख भोग किया है। हमलोगों ने इस जीवन में भी कितने वर्षों तक इन्द्रिय-विषयों को भोग करके देख लिया है। यदि दो-तीन बच्चे हो जाने के बाद भी हमलोगों में संतुष्टि नहीं आयी हो, अब भी हमलोगों की  पाशविक वृत्ति शांत नहीं हुई हो, तो अब कब आएगी ? जैसे रेगिस्तान की मृगमरीचिका में एक बून्द भी जल नहीं है, वैसे ही इन्द्रिय विषयों का सुख भी विष के समान है। किन्तु इन्द्रियाँ हमें अब और बहका नहीं सकतीं। विवेक और वैराग्य के भाव को विकसित करना होगा। हमें अपनी आत्मा का साक्षात्कार करना होगा। केवल तभी हमें शाश्वत संतुष्टि, चिरस्थायी शांति और अमर आनंद मिलेगा। हे सांसारिक प्राणियों, मोह निद्रा से, अज्ञान की निद्रा से- 'जाग जाओ !' और जब तक लक्ष्य न मिले रुको मत !  जिस प्रकार पेट पर जलता हुआ चारकोल रखने से उसे दूर फेंकने की व्यग्रता होगी, संसार की जल्रति हुई अग्नि को भी हमें इसी दृष्टि से देखना चाहिए। हमें ऐसा महसूस करना चाहिए कि मानो हम संसार की आग में भून रहे हैं। वैराग्य और मुमुक्षुत्व (मुक्ति की तड़प -strong yearning for liberation) की भावना हमारे मन में उदित हो  नई चाहिए। अपने को बचाने के किये अपने गुरु ,नेता या शिक्षक से मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। इन्द्रियाँ महापेटू हैं, इन्द्रिय विषयों का भोग करते रहने से वासना और तृष्णा नहीं मिटते, उल्टा इनमें आसक्ति मन को अत्यधिक चंचल बना देते है।  विषय -भोग की इच्छा की संतुष्टि नहीं भोगने से नहीं होती। इसके अलावा, तृष्णा ऊर्जा को नष्ट करती है और इंद्रियों को कमजोर करती है।
जब हमलोग सपने देखते हैं, तो हम एक घंटे के भीतर पचास साल की घटनाओं को भी देख सकते हैं। उस समय हमें सचमुच ऐसा लगता है कि वास्तव में पचास साल बीत चुके हैं। कौन सी चेतना का समय सही है, एक घंटे तक चलने वाली जाग्रत-चेतना (waking consciousness)  का समय, या स्वप्न की चेतना (dreaming consciousness)का 50 साल का समय ? दोनों सही हैं। जाग्रत अवस्था और स्वप्न अवस्था एक ही मन की विभिन्न अवस्थाएं हैं। दोनों एक जैसी हैं। अंतर केवल इतना है कि जाग्रत अवस्था एक दीर्घ स्वप्न है, लम्बे समय तक चलने वाला सपना है। जब हमलोग परम् सत्य, या पर-ब्रह्म की उपलब्धि करेंगे तब हमें यह अनुभव होगा कि पृथ्वी पर हमारा यह मनुष्य रूप से जीवन धारण करना मन का केवल एक शानदार सपना ( fantastic dream) ही है। 
 अपने अज्ञान (ignorance) को ब्रह्म- ज्ञान के द्वारा या अविनाशी आत्मा (Imperishable) के ज्ञान द्वारा जड़ से उखाड़ फेंको।  केवल तभी यह 'संसार -चक्र' जो मनुष्य को कर्म के बन्धनों में बाँध लेता है, हमारे लिए घूमना बंद कर देगा। और केवल तभी हमलोग 'आत्मवान' ( Knower of the Self.), या 'ब्रह्मवेत्ता' मनुष्य बन सकते हैं।  
Who is a Killer of Atman?'आत्महन्ता' कौन है ? आत्मा का हत्यारा कौन है? पाँच इन्द्रिय विषयों के भोगों में लिप्त होकर, आत्मा (साक्षी चेतना witness consciousness) को भूल जाना ही, आत्महंता बन जाना है। ईश्वर की कृपा से त्रये-दुर्लभं प्राप्त व्यक्ति - जिसे दुर्लभ मानव जन्म प्राप्त हो, मन की गुलामी से मुक्त होने की इच्छा भी हो, महापुरुष का आश्रय भी हो, किन्तु फिरभी वह यदि सहज -प्रवृत्ति के अनुसार  'महाफला निवृत्ति' को प्राप्त करने हेतु, अपनी आत्मा की मुक्ति का प्रयास नहीं करता, तो  वह   , वह व्यक्ति आत्महंता या आत्मा  का हत्यारा है।
4 आध्यात्मिक अभ्यास के चार योगमार्ग। (Spiritual Practice: The 4 Yogas) मन की एकाग्रता को प्राप्त करने के लिए उपासना का अभ्यास करें। उपासना कई प्रकार की होती है जैसे, प्रतीक-उपासना, प्रतिमा उपासना (worship of idol), पंचदेवताओं (गणेश, शिव, विष्णु, दुर्गा और सूर्य आदि) की उपासना, राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, जैसे अवतारों की उपासना। [अहं-आग्रह उपासना निर्गुण उपासना है। इसमें साधक अपने स्वयं की आत्मा का ध्यान ब्रह्म के रूप में करता है। वह अपनी व्यक्तिगत आत्मा और ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव करता है। वह पंच कोषों में आवृत्त आत्मा (body of five sheaths.) को अनावृत्त करने की चेष्टा करता है। इसीलिए इस उपासना को 'अहंग्रह' उपासना भी कहते हैं।]
उपनिषदों में प्रतीक-उपासना के कुछ 'उपासना वाक्य ' भी कहे गए हैं - जैसे 'अन्न ही ब्रह्म है। ' आकाश ही ब्रह्म है। ' सूर्य ही ब्रह्म है। ' मन ही ब्रह्म है। ' प्राण ही ब्रह्म है। ' ये सभी ब्रह्म के प्रतीक हैं। हमलोग इन प्रतीकों की उपासना द्वारा ब्रह्म की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं। हमें यह महसूस करना होगा कि ब्रह्म इन प्रतीकों में छिपा हुआ है। हमें यह सोचना होगा कि इन सभी प्रतीकों का अधिष्ठान या आधार (substratum) ब्रह्म है। ब्रह्म की उपासना के लिए ये कुछ उपाय कहे गए हैं। 
इन्द्रिय का संयम : Control of the Senses:
 ब्रह्म पर मन को केंद्रित करने में सक्षम होने के लिए, इन्द्रियों को पूरी तरह से नियंत्रित करना आवश्यक है।आंखें और कान भी उतने ही चंचल और शरारती होते हैं, जितनी शरारती और चंचल जिह्वा होती है। आंखें सर्वदा नए रूपों, नए दृश्यों, नए नाटकों या नये सिनेमा को, और नए स्थानों को देखना चाहती हैं, जिनके विषय में मन ने दूसरों के साथ बातचीत के क्रम में सुना है। अगर तुमने कश्मीर स्वयं नहीं देखा है, किन्तु जो लोग पहले कश्मीर जा चुके हैं, उनके मुख से जब  आप सुनते हैं कि, कश्मीर एक प्यारी जगह है। वहाँ के झरने, पहाड़ और हरी-भरी वादियाँ तो देखते ही बनती हैं। इस प्रकार के दृश्यों का वर्णन सुना- सुना कर मन आँखों को तब तक ललचा रहता है, जबतक वे वास्तव में कश्मीर देख नहीं लेतीं। अतः आँखों और कानों को उनके विषयों में जाने से रोकना चाहिए। स्पर्श इन्द्रिय और स्वाद इन्द्रिय को वश में करना सबसे कठिन हैं। जिस व्यक्ति के स्पर्श और स्वाद की इन्द्रियाँ तृप्त नहीं हुई हैं, वह व्यक्ति वेदांत साधना के अभ्यास के लिए अयोग्य माना जाता है। जो व्यक्ति साधन-चतुष्टय या साधना के चार साधनों का अच्छी तरह से अभ्यास करता है, केवल वैसे साधक ही वेदांत साधना का अभ्यास कर सकते हैं।
The Mind and its Works: मन और इसका कार्य : मन ही जगत है। मन ही इन्द्रियों और प्राणों को गतिशील बनाता है। इसलिए मन ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण है। वेदान्त का अध्ययन करने के लिए मन और उसके कार्यों का गहन अध्ययन करना आवश्यक है। मन के अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा या सोम हैं। चन्द्रमा शीतल है। इसकी रचना Apas-Tattva (जल-तत्व) से हुई है। जल की प्रवृत्ति नीचे की ओर बहने की होती है। उसी प्रकार मन की प्रवृत्ति भी सदैव निम्नमुखी या इन्द्रिय विषयों में दौड़ने  की रहती है।
दर्शन क्रिया कैसे होती है ? बाह्य कान, नेत्र-गोले आदि केवल सुनने और देखने के बाह्य उपकरण हैं। वे श्रवण और दर्शन की वास्तविक इन्द्रियाँ वे नहीं हैं। वास्तविक स्नायुकेन्द्र तो मस्तिष्क में होते हैं, या सही रूप से कहें तो हमारे सूक्ष्म शरीर (subtle body) में रहते हैं। यदि किसी कारण से मस्तिष्क में अवस्थित दृष्टि-तंत्रिका (ऑप्टिक नर्व) या श्रवण तंत्रिका प्रभावित हो जाये, तो नेत्र-गोलक और कान आदि रहने से भी न तो देख सकते हैं, न सुन सकते हैं। अन्य इन्द्रियों (रूप-रस-गंध-शब्द -स्पर्श आदि) के लिए भी ऐसा ही समझना चाहिए। दृश्य वस्तु के साथ मन का भी संयुक्त होना अनिवार्य है। स्वप्न देखते समय, बाह्य उपकरणों जैसे नेत्र-गोलक या कान आदि के अनुपस्थित रहने पर हमारा मन ही स्वयं समस्त इन्द्रियों के कार्य करने लगता है। स्वप्न देखते समय सभी इन्द्रियाँ मन में ही मिश्रित हो जाती हैं। वास्तव में यह मन ही है, जो सुनता है, स्वाद लेता है, महसूस करता है, आदि-आदि; इससे यह सिद्ध हो जाता है कि वास्तविक इंद्रियां भीतर या सूक्ष्म शरीर में हैं। तथा नेत्र-गोलक, जिह्वा, बाहरी कान, नाक, हाथ , पैर आदि हमारे उपकरण (instruments या करण) हैं। मन का कार्य है संकल्प-विकल्प करना।  मन का काम है संशय करना -जैसे मैं प्रयागराज जा सकता हूँ या नहीं ? फिर बुद्धि निर्णय लेती है कि मुझे इस बार प्रयागराज अवश्य जाना चाहिए। 'अहंकार' (the ego) झूठा दावा करता (arrogationहै। चित्त को मन वस्तु (mind stuff) कहते हैं, जिससे मन बनता है। हम जो कुछ भी सोचते, बोलते या करते हैं, उसके छाप या संस्कार चित्त रूपी भण्डार -गृह में संचित रह जाते हैं। चित्त में संचित ये संस्कार ही इन्द्रियों को कार्य करने के लिये उकसाते हैं, और आदेश देते हैं; उसके बाद इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। हमारे पैर चलने लगते हैं, ऑंखें देखने लगती हैं। जब हम प्रयागराज पहुँच जाते हैं, तब मन की वह वृत्ति (wave of thought, या विचारों का तूफान या चक्रवात) जो हमें प्रयागराज देखने के लिए/या रसगुल्ला खाने के लिय उकसा रहा था या उत्तेजित (agitate) कर रहा था, वह मनोवृत्ति शांत हो जाती है -लय को प्राप्त हो जाती है। और अपनी इच्छा के परितोषण (gratification) हो जाने के फलस्वरूप हमें एक अस्थाई शांति प्राप्त होती है। (सुख रसगुल्ले में नहीं मन की शांत अवस्था में है। ) कांसा धातु (bell metal) से बने बर्तन (कटोरे) पर ट्यूनिंग फोर्क (tuning fork-स्वरित्र द्विभुज) से प्रहार करने पर जैसे वह कटोरा कंपन करने (vibrate-स्पंदित होने) लगता है। किसी की गाली सुनकर या प्रशंसा को सुनकर, यदि हमें दुःख और सुख की अनुभूति होती है, तब हमलोगों का मन (चित्त) भी ठीक उसी प्रकार कंपायमान हो उठता है। प्रसंशा को सुनने से, या आनंद से मन का विस्तार होता है, किन्तु निंदा और दुःख से मन संकुचित हो जाता है। मन (अहं) ही माया का अतिसूक्ष्म रूप या (miniature-Maya) है। जिस समय मन के कार्य (functioning of the mind) रुक जाते हैं, और जब मन परम सत्य (Absolute-या existence-consciousness-bliss) में विलीन हो जाता है, उस समय आत्मसाक्षात्कार ( Self-realisation, आत्मानुभूति) होता है, या बुद्धत्व की प्राप्ति होती है। 
वेदान्त साधना की पद्धति : Method of Vedantic Sadhana: वेदान्त साधना के तीन चरण हैं श्रवण, मनन और निदिध्यासन। सत्य के स्वरूप को किसी जीवन्मुक्त गुरु के मुख से सुनने को श्रवण कहते हैं। किसी ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मनिष्ठ या जीवन्मुक्त गुरु के मुख से ही " अभेद -बोध -वाक्य" का श्रवण करना चाहिये। उसके बाद वेदान्त के चार महावाक्यों के मर्म को अच्छी तरह से समझने के लिए, वेदान्त परिचय ग्रंथ (Vedanta Introductory text -जैसे विवेक-चूड़ामणि, अपरोक्षानुभूति या दृग दृश्य विवेक आदि) प्रकरण ग्रंथों को ध्यानपूर्वक अध्यन करना चाहिए। 
वेदान्त ग्रन्थ दो प्रकार के होते हैं: प्रमाण -ग्रन्थ और प्रमेय-ग्रन्थ। (Vedantic Granthas are of two kinds:) वेदान्त के ऊपर लिखित हमेशा मानक भाष्यों (standard works)का ही अध्यन करना चाहिए। इस विषय पर लिखित किसी उत्कृष्ट और विस्तृत प्रकरण ग्रंथों का अध्यन बहुत सावधानी के साथ करना चाहिए। केवल तभी वेदान्त का सम्पूर्ण ज्ञान समझ में आ सकता है। 
मधुसूदन सरस्वती की अद्वैतसिद्धि, ब्रह्मसूत्र आदि को प्रमाण ग्रंथ कहते हैं। क्योंकि वे अन्य मतों का खंडन करते हैं और युक्ति- तर्क के आधार पर अद्वैत-तत्त्व को स्थापित करते हैं। जबकि योग वशिष्ठ,
उपनिषद, भगवद गीता आदि को प्रमेय ग्रंथ कहा जाता है, क्योंकि वे केवल अधिकार के साथ पूर्ण सत्य का वर्णन करते हैं। किन्तु किसी भी सिद्धान्त का खंडन या स्थापना करने के लिए तर्क नहीं करते हैं। वे सहज ज्ञान युक्त कार्य (intuitional  works) हैं, जबकि पहले वाले ग्रंथ बौद्धिक (intellectual) हैं।
वेदान्त साधना शुरू करने से पहले मन को शुद्ध और शांत बना लेना चाहिए। मन में इन्द्रिय भोग की वासना को रखना , उसी प्रकार घातक सिद्ध होगा जैसे काले नाग को अपने भीतर रखकर उसे दूध पीला रहे हों। जब तक मन में कामुक इच्छाएं बनी हुई हों, तब तक जीवन को खतरे से घिरा हुआ ही समझना चाहिए। इस कामना और वासना को विवेक-प्रयोग, वैराग्य तथा अपनी आत्मा पर मन को एकाग्र  रखने के अभ्यास द्वारा समाप्त कर दो।    
जगत सृष्टि की व्याख्या करने वाले श्रुति ग्रंथ, जो ऐसा कहते हैं कि ब्रह्म से आकाश आया, आकाश से वायु से, वायु अग्नि से, जल -पृथ्वी इत्यादि हुए ये बातें केवल नवसिखुआ लोगों को वेदान्त परम्परा की प्रारंभिक जानकारी देने के उद्देश्य से की जाती है। क्योंकि वे एक ही झटके में अजातवाद या क्रमविकास-वाद - और क्रमसंकोचवाद के सिद्धान्त को ग्रहण नहीं कर सकते हैं। जब कभी तुम वेदान्त के उस अंश को पढ़ो जहाँ सृष्टिक्रम की व्याख्या की गयी हो, तो सर्वदा यह स्मरण रखना कि यह सब केवल अध्यारोप हैं, जो ब्रह्म के ऊपर आरोपित हो गए हैं। इसे हमेश स्मरण रखना चाहिए। एक क्षण के लिये भी ऐसा मत सोचना की जगत वास्तविक है ! केवल अपवाद -युक्ति या आरोपित अध्यास के खण्डन द्वारा ही तुम कैवल्य -अद्वैत -सिद्धान्त की स्थापना कर सकते हो। यदि जगत को भी वास्तविक समझो, द्वैत को वास्तविक समझो, तो तुम्हें ब्रह्म के साथ आत्मा के अद्वैत का अनुभव कभी नहीं हो सकेगा।                                   
यदि अहंकार की अशुद्धता नष्ट हो जाती है, तो अन्य दो अशुद्धियां, अर्थात कामना -वासना (या इच्छा की अशुद्धता) और कर्म-माला (कर्मों की अशुद्धता) अपने आप नष्ट हो जाएंगे। यदि कोई व्यक्ति सचमुच जीवन्मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड ऋषि -ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन चुका है, तो उसके लिए प्रारब्ध कैसे बचा रह सकता है ? क्योंकि वह तो परम् सत्य या निरपेक्ष ब्रह्म के साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है।             
5 आध्यात्मिकता की मूल शर्तें: नैतिकता और नैतिक गुण। 
(Spiritual Basics: Ethical and Moral Virtues) 
वेदांत साधना में बाधाएं (Obstacles in Vedantic Sadhana)- अहंकार ही आत्म-साक्षात्कार होने में   सबसे बड़ी बाधा है। मुझे सब पता है। केवल मेरा विचार या राय ही सही है। मैं जो करता हूं, वही ठीक है। अमुक व्यक्ति को कुछ भी पता नहीं है। मेरी आज्ञा का पालन हर किसी को करना चाहिए। हर किसी को मेरी बात माननी चाहिए। मैं किसी भी तरह के चारित्रिक दोष से मुक्त हूं। मैं समस्त शुभ गुणों से परिपूर्ण हूं। मैं बहुत बुद्धिमान हूँ। वह व्यक्ति बहुत मूर्ख है। वह व्यक्ति एकदम मनहूस है। उस आदमी को कई दोष मिले हैं। मैं बुद्धिमान हूं। मैं सुंदर हूँ। इस प्रकार की भाषा केवल अहंकारी मनुष्य ही बोलते हैं।  यह राजसिक अहंकार का स्वभाव है। वैसा व्यक्ति अपने दोषों को छिपाता है। वह अपनी क्षमताओं और गुणों को बढ़ा चढ़ा कर कहता है और उन्हें विज्ञापित भी करता है। वह दूसरों को छोटा समझता है। वह दूसरों की निंदा करता है। वह दूसरों पर वैसे आरोप मढ़ता है, जो उन्होंने किये ही नहीं हैं। वह दूसरों में अच्छाई नहीं बल्कि बुराई ही देखता है। वह अपने विषय में कई अच्छे गुणों को आरोपित करता है, जो उसके पास हैं ही नहीं। वैसा व्यक्ति वेदान्त की साधना का अभ्यास नहीं कर सकता। वैसा मनुष्य ज्ञान-मार्ग के लिये अयोग्य है।
जीवों के संसार -चक्र का निर्माण राग और द्वेश पर ही आधारित रहते हैं। राग-द्वेष को परम ब्रह्म के ज्ञान की सहायता से नष्ट करना होगा। उचित-अनुचित विवेक, शाश्वत -नश्वर विवेक के माध्यम से या प्रतिपक्ष भावना के माध्यम से इन दो वृत्तियों को समाप्त कर देन चाहिए। भ्रम से मुक्ति सरलता के द्वारा, सावधानी से, पवित्रता से, षडरिपुओं के आवेग को नियंत्रित करके और नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा जैसे जीवन्मुक्त शिक्षकों और संतों के पदचिह्नों पर चलकर प्राप्त होती है। वेदान्तिक साधना करने या महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास करने से ब्रह्माकारा -वृत्ति उत्पन्न होती है। जब बाँस दूसरे बासों से टकराता है -तब आग पैदा होती है। बुरी आदतों के जंगल जल जाते हैं। ज्ञानाग्नि में जब सारे कर्म जलकर भष्म हो जाते हैं, तब आग स्वयं ठंढी हो जाती है। तथापि वह ब्रह्माकारा वृत्ति जो 'तत त्वमसि' जैसे महावाक्य पर मन को एकाग्र करने या स्वामी विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास करने से सात्विक-मानस में उत्पन्न  होती है, वह अविद्या या अज्ञान को नष्ट कर देती है, जिसके फलस्वरूप ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है। फिर अंत में जब परम् ब्रह्म का साक्षात्कार होता है तब ब्रह्माकारा वृत्ति भी स्वतः समाप्त हो जाती है।  
स्ट्राइकोनोस पोटेटोरम (Strychnos potatorum) का बीज (कतक या निर्मली के बीज) का लेई जल से समस्त कीचड़ को हटा देता हुई, और उस कीचड़ को  बर्तन के तली में बैठ जाने में सहायता करता है। जल से भरे हुए बर्तन में निर्मली को थोड़ा घिसकर लेप बनाकर डालने से जल की पूरी गन्दगी नीचे बैठ जाती है। जिससे जल निर्मल या स्वच्छ हो जाता है। इसलिए इसे निर्मली कहते हैं।फिर कीचड़ के साथ-साथ लेयी या पेस्ट भी ओझल हो जाता है।  कई लोग निर्मली की बीज (nirmali seeds) का प्रयोग पानी को साफ करने के लिए ही करते हैं।  ठीक उसी प्रकार ब्रह्माकारा-वृत्ति समस्त विषयाकारा वृत्तियों को नष्ट कर देती है, और अविनाशी ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर स्वयं भी नष्ट हो जाती है।
6. सर्वधर्म समन्वय का आधार : "सत्य एक है; पण्डितजन इसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं"
(The Harmony of Religions: "Truth is One;Sages Call It by Various Names"
7. अस्तित्व का एकत्व: विविधता में एकता। 
 (Unity of Existence: Unity in Diversity) 
8. ईश्वर का मानव रूप: अवतार की अवधारणा। 
( Human form of God: concept of avatar.)गुरु और शिष्य: The Guru and the Disciple: ऐसा वर्णन मिलता है कि प्राचीन युग में ब्रह्मविद्या प्राप्त करने का आकांक्षी व्यक्ति, या वुड बी लीडर अपने  आध्यात्मिक गुरु के पास हाथों में समिधा की लकड़ी लिए हुए गुरु के पास विनीत होकर जाते थे। यह क्या दर्शाता है? 
वह अपने आराध्य गुरु (preceptor-चपरास देने में समर्थ गुरु) से प्रार्थना करता है, हे आराध्य गुरु! आप अपनी कृपा से मेरे पापों और सांसरिक वासनाओं की गठरी को ज्ञान की अग्नि में जलाकर भस्म कर दीजिये।मेरे हृदय में आत्मा की दिव्य ज्योति को प्रज्ज्वलित कर दीजिये। मुझे परम् तत्व का साक्षात्कार करने में सक्षम बना दीजिये। स्वयं प्रकाश 'शुद्ध चेतना' (Self-effulgent Atman. आत्मा या pure consciousness) की अनुभूति करने में समर्थ बना दीजिये। मेरी इन्द्रियों, मन, प्राण और अहं को हव्य (Oblation) के रूप में ज्ञान की अग्नि में विसर्जित कर दो। मुझे ज्योतियों की ज्योति ( Light of lights!) के रूप में चमकने दो।
यह गुरु (माँ जगदम्बा) की कृपा ही है, जो शिष्य के हृदय में भरे अज्ञान के आवरण को हटा देती है। गुरु की कृपा सीधे शिष्य के हृदय में प्रवेश कर जाती है, और उसमें 'ब्रह्मकारा-वृत्ति' जागृत करती है। वे जीवन्मुक्त गुरु -जिनके लिए संसार का अस्तित्व नहीं होता, वैसे उच्चकोटि के ब्रह्मनिष्ठ गुरु शिष्य को प्रशिक्षण देने के लिए अपनी उत्कृष्ट अवस्था से नीचे उतर आते हैं। 
वेदान्तिक आचार: Vedantic Ethics:😊 A man of Viveka alone is fit for the practice of Vedantic Sadhana and a man of Viveka is always peaceful and joyful.] वैसा व्यक्ति जो हर समय खिन्न रहता हो (gloomy-उदास रहता हो), निराश रहता हो, हर समय मिर्चा खाय हुए जैसा चेहरा लटकाये रखता हो, दुःखी आत्मा मनुष्य कभी वेदान्ती नहीं बन सकता। उसे वेदान्त का अधिकारी व्यक्ति नहीं समझा जाता। जब किसी व्यक्ति की मानसिक अवस्था इतनी विषादपूर्ण हो तो  ऐसे आदमी को स्वयं को एक कमरे में बंद कर लेना चाहिए। क्योंकि वह अपनी उदासी से दूसरों को भी संक्रमित करने वाला स्रोत बन जाता है। ऐसे नकारात्मक व्यक्ति की संगति से दूर रहना चाहिए। अद्वैत -वेदान्त की साधना के अभ्यास के लिये, यदि उभयतोवहिनी चित्तनदी को विवेक-स्रोत की तली से प्रवाहित करना हो , तो विवेक-दर्शन का अभ्यास करने वाला व्यक्ति ही उसके लिए समर्थ होता है; और विवेकी मनुष्य हमेशा शांत और आनन्द से भरपूर रहता है।  यदि आप भी "विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" --Be and Make '-पद्धति के अनुसार [विवेकानन्द दर्शन या विवेक-प्रयोग द्वारा] 'ज्ञान योग' में प्रशिक्षित शिक्षक बनना और बनाना चाहते हों, तो हर समय आनन्दित (cheerful) रहें और हमेशा मुस्कुराते रहिये। मुस्कुराइये कि आप महामण्डल कैम्प में हैं !
ब्रह्म का स्वरूप: The Nature of Brahman: ब्रह्म ही निरपेक्ष अस्तित्व (Absolute-Existence) है, जो चेतना और आनन्द (consciousness and bliss) की प्रकृति है। जब अविनाशी आत्मा का  साक्षात्कार होने से अज्ञानता का आवरण दूर हो जाता है, अथवा ब्रह्मज्ञान के द्वारा अज्ञानता का पर्दा फाड़ दिया जाता है, तब यह विश्व - ज्ञानमयी-दृष्टि के समक्ष ब्रह्म के रूप में चमकता है। और भक्तिमयी-दृष्टि के समक्ष भगवान के रूप में दृष्टिगोचर होता है। See Brahman in everything.अपने गुरु में ब्रह्म को देखें , जगत में ब्रह्म को देखें, हर वस्तु में ब्रह्म को देखें। 
वास्तविकता तो यह है कि यह जगत ब्रह्म के सिवा कोई अन्य रचना (creation) नहीं है। अपरिवर्तनशील, शाश्वत, ब्रह्म (existence-consciousness-bliss) ही परिवर्तनशील, नश्वर जगत के रूप में दिखाई दे रहे हैं। यह जगत (नाम-रूप) ब्रह्म (अस्ति -भाति -प्रिय pure consciousness) के ऊपर 'अध्यारोप' के द्वारा अध्यस्त (superimposed अथवा आरोपित) है। इस आरोपित अज्ञान को अपवाद -युक्ति (नेति नेति) या द्रष्टा-दृश्य विवेकज ज्ञान के द्वारा जब अस्वीकार (negated) कर दिया जाता है, तब यह सम्पूर्ण जगत ही निरपेक्ष सत्य (Absolute Brahman.-सच्चिदानन्द -existence-consciousness-bliss) के रूप में अनुभूत होने लगता है। 
जैसे केवल रेलगाड़ी (train) चलती है, पर तुम नहीं चलते। जैसे नाव चलती है, पर तुम नहीं चलते। ठीक उसी प्रकार केवल शरीर-मन चल रहा है, किन्तु इसके भीतर बैठा (Indweller अन्तर में निवास करने वाला ब्रह्म) या साक्षी चेतना (witness consciousness) जो पूर्ण ब्रह्म या आत्मा (सच्चिदानन्द -existence-consciousness-bliss) से अभिन्न (identical) है - वह कभी नहीं चलता, वह तो बिना चले ही हर जगह पहुँच जाता है 'आत्मा ' शब्द का प्रयोग किसी जीव या व्यक्ति में रहने वाली आत्मा (soul)  के सन्दर्भ में किया जाता है। जबकि 'ब्रह्म' शब्द का उपयोग उसी आत्मा के सन्दर्भ में किया जाता है, जो इस ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं और सभी प्राणियों की आत्मा के रूप में होता है। 
ब्रह्म आनन्द-स्वरूप है ! Brahman is Bliss: कोई राजा अपनी लम्बी यात्रा से थका-मांदा रात्रि के समय अपने महल में लौटता है। वह बिल्कुल थक चुका था - 'dead tired' था। उसे तत्काल आराम की आवश्यकता थी। यहाँ तक कि उस समय वह अपनी महारानी से भी बात नहीं करना चाहता था। संसार की कोई भी वस्तु उस समय उसे कोई सुख नहीं दे सकती थी। उस समय वह केवल नींद का आनन्द (bliss of sleep.) का आनन्द लेना चाहता है। सुषुप्ति की अवस्था (deep sleep) में, जहाँ भोग करने की कोई भी वस्तु (रसगुल्ला आदि) नहीं होते हैं, उस गहरी नींद की अवस्था में 'आनन्द' की प्राप्ति कहाँ से होती है? गहरी नींद में -सुषुप्ति की अवस्था में राजा (The king या जीव) जब परमानन्द स्वरूप परमात्मा (All-blissful Supreme Soul) के सम्पर्क में रहता है, तब वह स्वयं को फिर से तरोताजा और शक्तिशाली बना लेता है। इस प्रकार ब्रह्म ही समस्त शांति और आनन्द (bliss) का स्रोत है। 
ईश्वर और जीव की अवधारणा (Isvara and Jiva) : किसी व्यष्टि आत्मा का कारण-शरीर (The causal body) और ईश्वर का कारण शरीर एक और अभिन्न ही है। जीवों के मामले में यह कारण शरीर व्यक्तिगत अविद्या (individual Avidya.) कहलाती है। जबकि ईश्वर का कारण शरीर सर्वव्यापी,विराट या ब्रह्माण्डीय (cosmic) होने के कारण माया कहा जाता है। जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था का अनुभव प्रत्येक जीव करता है, जाग्रत अवस्था का अनुभव करने वाले जीव को 'विश्व', स्वप्नावस्था में रहने वाले जीव को 'तैजस' और सुषुप्ति की अवस्था में रहने वाले जीव को 'प्रज्ञा' कहा जाता है।  जबकि ईश्वर को ब्रह्माण्डीय सिद्धान्त (Cosmic Principle) के रूप में देखें तो - उन अवस्थाओं से संबन्धित नाम हैं - विराट, हिरण्यगर्भ और ईश्वर ! जीव में कूटस्थ आत्मा ही ब्रह्म (सच्चिदानन्द existence-consciousness-blissहै। 
ज्ञानी का स्वभाव (The Nature of the Jnani):ज्ञान योगी किसी राज-योगी की तरह न तो प्रत्याहार का और न ही चित्तवृत्ति-निरोध का अभ्यास करता है। वह प्रत्येक नाम और रूप के पीछे अवस्थित  एकमेवाद्वित्य अखण्ड सच्चिदानन्द (existence-consciousness-bliss) के सार को निहारने की कोशिश करता है। वह ब्रह्म ही साक्षी चेतना (witness consciousness) के रूप में मन की समस्त वृत्तियों का साक्षी है। उस साक्षी चेतना के समक्ष आने से सभी वृत्तियाँ क्रमशः स्वतः समाप्त हो जाती हैं। ज्ञान योग की प्रणाली, खुली आँखों से ध्यान करने की प्रणाली सकारात्मक है, इसलिए इसे सम्यक दर्शन कहा जाता है। जबकि राज-योग की पद्धति नकारात्मक (निरोधात्मक) है।
विवेकी या ऋषि (sage) की दृष्टि में शरीर का अस्तित्व ही नहीं होता। तो फिर किसी ज्ञानी के लिए प्रारब्ध कर्म का क्या अर्थ रह जाता है ? ज्ञानी तो निरपेक्ष ज्ञान (परम् सत्य ब्रह्म या existence-consciousness-bliss) के साथ एक है, इसलिये उसके अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं होता। वह स्वयं ही 'शान्तं -शिवं -अद्वैतं' है।  वह जीवन्मुक्त है। वह इस शरीर में रहते हुए ही मोक्ष को प्राप्त हो चुका है, अर्थात डीहिप्नोटाइज्ड हो चुका है। उसका शरीर-मन जली हुई नारियल की रस्सी की तरह है, या उस तलवार की तरह है जो पारस-पत्थर के स्पर्श से सोने के तलवार में रूपांतरित हो चुका है। परम् ज्ञान (Supreme Wisdom) की अग्नि में उसका 'अहं' बिल्कुल दग्ध हो चुका है।
9. श्री तोतापुरी -श्रीरामकृष्ण वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा। 
(Shri Totapuri - Shri Ramakrishna Vedanta Teacher-Training Tradition)
10. स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर BE AND MAKE वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन। 
(Swami Vivekananda - Captain Sevier  BE AND MAKE Vedanta Leadership Training Tradition.)   

"दृग दृश्य विवेक "
(अर्थात द्रष्टा और दृश्य का पृथक्करण : Analysis of Seer and Seen*)
इस पुस्तक का प्रथम श्लोक समुद्र की तरह गहरा (profound) मंत्र है, और सम्पूर्ण मानवता के लिए परम् परमहितकारी है। इस मंत्र में मनुष्य के यथार्थ स्वरुप को जानने का कौशल (technique of realizing your true self) बतलाया गया है। 
रूपं दृश्यं लोचनं दृक्, तद्दृश्यं दृक्तु मानसम् ।
दृश्या धीवृत्तयः साक्षी, दृगेव न तु दृश्यते ॥ १॥
-इस श्लोक को चार चरणों में बाँट कर सामूहिक पाठ करके पहले यह समझना चाहिए कि रूप दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है। ये नेत्र-द्रष्टा भी मन की दृष्टि से दृश्य की श्रेणी में आ जाते हैं। उसी प्रकार मन शब्द से लक्षित उसकी समस्त वृत्तियॉँ (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार आदि) भी साक्षी की दृष्टि से दृश्य हैं। यह साक्षी किसी के द्वारा दृश्य नहीं बनता, अतः वह ही वास्तविक द्रष्टा है।  
१. रूपं दृश्यं लोचनं दृक्- श्लोक का पहला चरण कहता है, रूप (आकार या इन्द्रधनुष के 7 रंग) दृश्य है और नेत्र द्रष्टा है। अर्थात जो द्रष्टा (Subject) है,वह दृश्य (Object) से भिन्न या पृथक होता है। ऋषि हमसे इस सिद्धान्त पर ऑंखें मूंदकर विश्वास करने के लिए नहीं कह रहे हैं। हमलोग  केवल अपने सामान्य ज्ञान (Common Sense) या सामान्य बौद्धिक समझ (Intellectual understanding) के द्वारा ही समझ सकते हैं कि द्रष्टा, दृश्य वस्तु से पृथक है। यहाँ विश्वास के आधार पर ही किसी सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने की बात नहीं है। हर मनुष्य इस सिद्धान्त को अपनी बौद्धिक समझ के द्वारा समझ सकता है। इस नियम के अनुसार घड़ा दृश्य हैं और द्रष्टा -ऑंखें इनसे भिन्न हैं, इनको देखने वाली हैं। घड़े को ऑंखें देखती हैं, इसलिए ऑंखें घड़े से पृथक हैं यह हमलोगों का सामान्य अनुभव है, हम सामान्य बुद्धि से यह समझ सकते हैं। लेखक कहते हैं कि हमारे जीवन के प्रत्येक अनुभव में एक अनुभवकर्ता (experiencer) द्रष्टा तथा दूसरा अनुभव करने योग्य कोई भौतिक वस्तु या ज्ञेय पदार्थ (Object) अवश्य रहता है, जिसे किसी इन्द्रियों और मन की सहायता से देखा, चखा, सूँघा, सुना या छूआ,चखा,सूँघा जा सकता है। वेदान्त को समझने के लिए इतना सामान्य ज्ञान होना ही पर्याप्त है, इसी बौद्धिक समझ के सहारे आगे बढ़ते रहो।
इस प्रकार 'विवेक-प्रयोग' का पहला सिद्धान्त यह निकला कि " दृष्टा, दृश्य से बिल्कुल पृथक या अलग होता है।" यह कोई गूढ़ दार्शनिक बात नहीं है। इतना तो हम सभी केवल अपनी सामान्य बुद्धि के बल पर भी समझ सकते हैं। 
थोड़ा और गहराई से विचार करने से हम समझ सकते हैं कि-(Seer is one scenes are many अनुभव करने वाली ज्ञानेन्द्रियाँ एक हैं विषय अनेक हैं। ऑंखें केवल उन्हीं वस्तुओं को देख पाती हैं जो उससे दूर हों। ऑंखें अपने आप को सीधे या प्रत्यक्षतः नहीं देख सकती। क्योंकि अनुभव करने के लिए जो साधन या उपकरण (Instrument) हमें देखने के लिए उपलब्ध हैं, उन आँखों का अस्तित्व (entity-सत्ता) एक  है, जबकि दृश्य, नाम-रूप (रंग और आकृतियाँ) अनेक हैं। इस प्रकार दूसरा सिद्धान्त क्या निकला?   विवेक-प्रयोग का दूसरा सिद्धान्त यह हुआ कि द्रष्टा एक(One) है दृश्य अनेक (Many) हैं। अपनी आँखों को हमलोग केवल फोटो में या दर्पण में ही देख सकते हैं। किन्तु directly या प्रत्यक्षतः सीधे अपनी आँखों को नहीं देख सकते।  इसी प्रकार यहाँ स्थिर रूप से (constantबैठकर जो कुछ मैं देख रहा हूँ, वह दृश्य निरंतर परिवर्तन-शील है। लाइट बंद थी लाईट जल गयी। अभी इस हॉल में इतने लोग नहीं थे, कुछ देर बाद फिर इसमें दूसरे लोग चले आएंगे।  इससे तीसरा सिद्धान्त यह निकला कि, द्रष्टा अपरिवर्तनीय है और दृश्य निरंतर परिवर्तनशील है। इस प्रकार प्रथम श्लोक में विवेक-प्रयोग को समझने के तीन कार्यकारी नियम (Operating Rules) प्राप्त होते  हैं-
[Seen *In the experience of perception, advaita asserts the identity of Agent Karta and Action Karma or that of the Seer Drig and the Seen Drishya. अद्वैत वेदान्त दृढ़ता पूर्वक इस बात की घोषणा करता है कि इन्द्रिय विषयों (रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्श) का अनुभव करते समय अनुभवकर्ता the Seer की पहचान 'द्रष्टा' या Drig है और पंचेन्द्रियों के माध्यम से जो क्रिया होती है वह दृश्य the Seen है।]    
१. द्रष्टा दृश्य से अलग या भिन्न होता है। 
२. द्रष्टा एक (One) होता है दृश्य अनेक (Many) होते हैं।  
३. द्रष्टा सचेतन ( aware) और अपरिवर्तनीय (constant) होता है और दृश्य सापेक्षिक दृष्टि से उसकी अपेक्षा जड़ (inert) और परिवर्तनशील होता है।] [The seer is ‘aware’ and the seen relative to it is ‘inert’.] 
2. तद् दृश्यं दृक् तु मानसं- वह नेत्र भी दृश्य है,और मन उसका द्रष्टा है।  श्लोक के दूसरे चरण में थोड़ा और गहराई से विचार करते हैं तब पाते हैं कि ऑंखें भी दृश्य हैं, और मन उसका द्रष्टा बन है। कैसे? अपने मन के द्वारा जान रहा हूँ कि मेरी आँखों की अवस्था क्या है ? क्या बिना चश्में के मैं पढ़ सकता हूँ या नहीं ?-यह बात ऑंखें स्वयं नहीं जानती, हम लोग अपने मन के द्वारा ही अपनी आँखों की अवस्था को जानते हैं। इस प्रकार मन जब द्रष्टा बन जाता है, तब ऑंखें दृश्य बन जाती हैं। 
तब उस द्रष्टा मन के लिए नया नाम आता है -'knower' ज्ञाता, और ऑंखें ज्ञेय (known) बन जाती हैं। मन केवल आँखों की अवस्था का ही ज्ञाता नहीं है, बल्कि नाक -कान आदि पंचेन्द्रीय से युक्त शरीर के हर अंग की क्रिया का ज्ञाता है। मैं सूँघ पा रहा हूँ या नहीं ? यह कौन जनता है ? मन ही जानता है। सुन पा रहा हूँ या नहीं ? बाहर से पता नहीं चलता कि सामने वाला बहरा है या नहीं ?  'fair enough' - एकदम उचित बात है ! निष्कर्ष यह निकला की 'नेत्र आदि समस्त इन्द्रियों के सहित यह शरीर ज्ञेय है और मन उसका ज्ञाता है।  अब यहाँ भी विवेक-प्रयोग के तीनों कार्यकारी सिद्धांतों पर परख कर देखें। पहला कार्यकारी नियम लागु करके देखें- १. द्रष्टा दृश्य से अलग या पृथक होता है। क्या ज्ञाता मन ज्ञेय इन्द्रियों और शरीर आदि से पृथक है ? क्या मन आँखों से अलग है ? हमारा अनुभव कहता है कि हाँ है ! दूसरा सिद्धान्त लागु करें -२. द्रष्टा एक (One) होता है दृश्य अनेक (Many) होते हैं। क्या ज्ञाता मन एक है और ज्ञेय विषय अनेक हैं ? हाँ, हमारी समस्त इन्द्रियों तथा शरीर की अनेकों अवस्थाओं को जानने वाला मन एक है। तीसरा सिद्धान्त लागु करें - ३. द्रष्टा सचेतन ( aware) और अपरिवर्तनीय (constant) होता है और दृश्य सापेक्षिक दृष्टि से उसकी अपेक्षा जड़ (inert) और परिवर्तनशील होता है।] [The seer is ‘aware’ and the seen relative to it is ‘inert’.] शरीर-इन्द्रियों की अवस्थाएं निरंतर परिवर्तनशील हैं इसलिए जड़ 'inert'हैं, किन्तु उनकी अवस्थाओं को जानने वाला मन 'सापेक्षिक रूप से चेतन या 'aware' है इसलिए अपरिवर्तनशील (constant) है।
3. दृश्या धीवृत्तयः साक्षी- थोड़ा और गहराई में उतर कर देखते हैं, तब पता चलता है कि मन भी एक ज्ञेय पदार्थ (object) है जिसका कोई ज्ञाता या साक्षी है। (contents of our mind is also something that we know) मन में उठने वाले समस्त विचारों का भी एक द्रष्टा है, जिसे साक्षी चेतना (witness consciousness) कहते हैं।और यहीं से, प्रथम श्लोक के तीसरे चरण से वेदान्त का असली जादू (magic) शुरू हो जाता है।  क्योंकि मन में क्या चल रहा है, उसमें कैसे विचार उठ रहे हैं, मन में उठने वाले विचारों कोई साक्षी हर समय देख रहा होता है। अर्थात मन भी एक ज्ञेय पदार्थ है और इसका भी कोई ज्ञाता या साक्षी है। और यह साक्षी चेतना ही मन को भीतर से प्रकाशित कर रही है।  फिर मन की अवस्थाएं भी बदलती रहती हैं, (mind changes into mind -कभी प्रसन्न कभी उदास -होता रहता है, again it's obvious, फिर से यह स्पष्ट है। यहाँ कहा जा रहा है कि मन स्वयं एक दृश्य वस्तु है, क्या हम अपने मन की विभिन्न अवस्थाओं को नहीं जानते ?  हमलोग अक्सर कहते हैं - आपने जो कहा उसे मैं समझा या नहीं समझा ? मेरा मन उदास है या खुश है ? मेरे मन में क्या इच्छा उठी उसे मैं जान रहा हूँ। जब मैं किसी घटना को याद करता हूँ, तो क्या मैं नहीं जानता मैं कुछ याद कर रहा हूँ ? जब कोई चीज चाभी या नाम  याद नहीं आती तो क्या मैं यह नहीं जानता कि मेरी स्मरणशक्ति या यादाश्त 'memory' मुझे धोखा दे रही है ? इस प्रकार मन की समस्त क्रिआओं को मैं देख सकता हूँ ! 
इस प्रकार थोड़ा गहराई से चिंतन करने पर हम देखते हैं कि, मन की बुद्धि आदि वृत्तियों (चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार) का भी कोई साक्षी है, मन का भी कोई द्रष्टा है !  यदि मन एक दृश्य है, मन भी एक ज्ञेय वस्तु है, तो इस मन का भी कोई द्रष्टा या ज्ञाता होना ही चाहिये। There is a seer of the mind there is a knower of the mind, वह ज्ञाता या द्रष्टा कौन है ? उसे हम ठीक-ठीक नहीं जानते किन्तु उसे witness या साक्षी कह सकते हैं ! क्योंकि यह मन की समस्त गतिविधियों को देखता है , इसीलिए वह इसका साक्षी है। मन उस साक्षी के लिये दृश्य बन जाता है, और साक्षी उसका द्रष्टा है। 'Intro Inspection'अतः यह स्पष्ट हो गया कि मन भी कोई ऐसी वस्तु है, जिसे देखा जा सकता है, जाना जा सकता है।और इस कार्य को हम अभी तुरंत कर सकते हैं। (close your eyes and look into your mind) इसी समय आँखों को मूँद कर मन को देखने की चेष्टा करें कि इसमें क्या चल रहा है ?  आप इसे अभी करके देख सकते हैं। इसको ही 'Intro Inspection' या आत्मनिरीक्षण अथवा मनःसंयोग कहते हैं।ऑंखें और मन भी चुँकि परिवर्तनशील शरीर के ही अंग हैं, अतः द्रष्टा के रूप में उनको सापेक्षिक रूप से अपरिवर्तनशील कहा जाता है, जबकि दृश्य -शरीर-इन्द्रियां आदि निरंतर परिवर्तनशील है।  वैसे मन स्वयं भी अपनी अवस्थाओं में-चित्त, मन,बुद्धि अहं आदि अवस्थाओं में  परिवर्तनशील रहता है।
यह अन्तःकरण की वृत्तियों (मन-बुद्धि-अहंकार और चित्त) को देखने वाला साक्षी चैतन्य (witness consciousness) है वह कौन है ? क्योंकि वेदान्त का पहला सिद्धान्त कहता है कि द्रष्टा दृश्य से पृथक होता है। जैसे मेरी ऑंखें इस पुस्तक से एकदम पृथक हैं, इस बात को हम अपनी सामान्य बुद्धि (common sense) भी समझ लेते हैं। इस बात पर विश्वास करने की जरूरत नहीं पड़ती। मैं बिल्कुल जानता हूँ कि ऑंखें पुस्तक से पृथक हैं। उसी प्रकार हमें अपने अनुभव से बिल्कुल आश्वस्त होना पड़ेगा कि, हाँ मैं इस परिवर्तनशील शरीर और मन से बिल्कुल पृथक अपरिवर्तनीय अविनाशी साक्षी-चेतना हूँ। क्योंकि एकाग्रता का अभ्यास करते समय, 'intro- inspection ' या 'आत्म-निरीक्षण' करते समय, हमने देखा है कि यह मन भी अपने को दो भाग में बाँट कर, द्रष्टा मन से दृश्य मन को देख सकता है ? तो फिर हम यह क्यों समझें कि मन से भिन्न कोई दूसरा साक्षी-चैतन्य है, जो मन की गतिविधियों को देख रहा है? इस प्रश्न के उत्तर में वेदान्त कहता है कि, एकाग्रता का अभ्यास (प्रत्याहार -धारणा) करते करते (ध्यान के गाढ़ा तैलधारवत होने से) एक अवस्था ऐसी आती है, जब मन नहीं होता किन्तु तुम होते हो !
और सुषुप्ति की अवस्था इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जिसका अनुभव हम प्रतिदिन करते हैं। जब गहरी नींद में तुम नहीं थे, तो उस समय सोया कौन था ? तुम सोचते हो, इसमें क्या है - यह शरीर ही सोया पड़ा था। किन्तु जब तुम उठते हो तब कहते हो-मुझे बड़ी अच्छी नींद आयी, कुछ पता ही नहीं चला? किन्तु गहरी नींद की अवस्था में भी चेतना (awareness) अपने सापेक्षिक स्तर पर निरंतर क्रियाशील रहती है।जिस समय मन आत्म-निरीक्षण नहीं कर रहा होता है, क्या उस समय भी तुम अपने अपने मन को जान नहीं रहे होते हो ? ऐसी कोई शुध्द चेतना (pure consciousness) जरूर है, जो मन को निरंतर प्रकाशित (illumining) कर रही होती है। और उससे प्रकाशित होने के कारण ही मन, एक जड़ वस्तु होते हुए भी अपने को द्रष्टा-दृश्य में बांटकर आत्मनिरीक्षण कर सकता है। जड़ मन को आत्मनिरीक्षण की क्षमता कहाँ से प्राप्त हो रही है ? हम देखते हैं कि बुद्धि किसी भूली हुई कार की चाभी कहाँ रख दी है-उसको याद करने की कोशिश कर रही होती है उस समय भी मन में एक awareness या चेतना बनी रहती है। जैसे कोई सर्जन ऑपरेशन करते समय मन को पूरा एकाग्र कर लेता है, उस समय भी मन रहता है, किन्तु 'मैं' -पन का होश नहीं रहता। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि साक्षी चेतना (witness consciousness)
 मन (या व्यष्टि अहं) से बिल्कुल पृथक है। 
नाम -रूप या शरीर को ही मैं समझकर परिवर्तनशील संसार के साथ बहुत गहराई से आसक्त हो जाने (attachment) का उदाहरण, या जगत के साथ सबसे गहरी आसक्ति का उदाहरण, अपने शिशु के प्रति माँ की ममता से दिया जाता है। और बच्चे के प्रति उस प्रकार की ममता का होना, बच्चे के लिए अनिवार्य 
भी है। किन्तु जो माँ अपने बच्चे के बिना एक मिनट नहीं रह सकती ,वह माँ जब गहरी निद्रा में सो जाती है, तब बच्चे को, जगत को और यहाँ तक कि अपने शरीर को भी बिल्कुल भूल जाती है। और ऐसा हर रात में होता है। यही प्रमाण है कि तुम मन नहीं हो, मन के साक्षी हो, और साक्षी-चेतना (witness consciousness) सदैव मन (जड़) से पृथक होती है। वेदान्त कहता है - " तुम अपने मन के ज्ञाता हो, और ज्ञाता ज्ञेय से हमेशा अलग होता है!" 
हमारी सारी समस्यायें शरीर, मन या जगत में होती हैं। साक्षी चैतन्य उन समस्याओं से हमेशा पृथक और असङ्ग होता है। नाम-रूप वाले शरीर और मन को ही यथार्थ 'मैं' समझकर - हमलोग मेरी गरीबी, मेरी असफलता, मेरी इच्छा कहते हैं। -भले ही तुम उन्हें पकड़े रहो, उनमें कितना भी आसक्त हो जाओ, किन्तु वे तुम्हारे स्वरूप का हिस्सा नहीं हैं। तुम कितना भी पकड़े रहो, वह सब चला जायेगा। हमारे प्रतिदिन का अनुभव कहता है कि हर रोज रात्रि में नींद के समय सभी समस्याएं दूर हो जाती हैं। चाहे कोई व्यक्ति (the mind and body)  I.C.U. में सोया हुआ है (गहन चिकित्सा केन्द्र में सोया हुआ है) या अमेरिका के प्रेजिडेंट का body-mind देह-मन व्हाइट हॉउस में सोया हुआ है -गहन निद्रा या सुषुप्ति में दोनों की अवस्था एक सी होती है। उसी प्रकार संसार की (देह-मन की) समस्यायें हमसे बिल्कुल अलग हैं, किन्तु हम उन्हें पकड़े रहना चाहते हैं। 
जैसे बन्दर को पकड़ने के लिए मदाड़ी संकीर्ण मुंह वाले बर्तन में चना भर कर बन्दर के समक्ष रख देता है। और बंदर जब संकरे मुख वाले बर्तन में हाथ डालकर, चने को अपनी मुट्ठी में भर लेता है, और जब हाँथ बाहर निकालना चाहता है,तब  नहीं निकाल पाता, बर्तन उसके हाथों में फंस जाता है, और मदाड़ी उसे पकड़ लेता है। अगर उसी समय बंदर मुट्ठी खोल दे तो वह भाग सकता था। किन्तु वह चने से इतना आसक्त  हुआ रहता है, कि उसे छोड़ना नहीं चाहता और पकड़ा जाता है। इसको कोई पकड़ नहीं सकता था परन्तु भ्रम और इच्छा के कारण वह पकड़ा जाता है। यदि कोई मंकी चने को छोड़ दे तो वह मंक बन जाता है। वेदान्त केवल इतना ही नहीं है, किन्तु इतना समझ लेने से भी जगत की सारी समस्याएं दूर हो जाती हैं।
इस पर एक मजेदार घटना भी है। इन दिनों समाज में साधारण गृहस्थ लोगों का सही मार्गदर्शन करने में समर्थ शिक्षकों, नेताओं का घोर अभाव हो गया है। अधिकांश नेता, शिक्षक और तथाकथित धर्मोपदेशक पेशेवर व्यापारी (Professional businessman) बन गए हैं, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं है। इसीलिए सच्चे साधु/शिक्षक की खोज में पाश्चात्य पर्यटकों के समान कुछ भारतीय लोग भी, आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए, महामण्डल द्वारा वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में आने के बजाए, हिमालय पर रहने वाले सन्यासियों के पास जाना अधिक उपयोगी समझते हैं।
ऐसा ही दिल्ली का कोई युवा व्यवसायी (Young businessman) के शिक्षक बहुत ऊँचे पहाड़ों पर रहते थे। ऐसा माना जाता है, जो साधु जितनी अधिक ऊँचाई पर रहेंगे , उनका ज्ञान भी उतना ऊँचा होगा। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द चाहते थे कि पर्वतों की कन्दराओं और अरण्यों में छिपे वेदान्त को सामान्य नागरिकों किसानो-मजदूरों-खेल के मैदानों, कारखानों तक ही नहीं भारत के द्वार द्वार तक पहुँचा दिया जाये। एक दिन उस युवा कारोबारी ने बहुत ऊँचे पहाड़ पर रहने वाले अपने मार्गदर्शक नेता/शिक्षक  से कहा- 'महाराज, मैं बहुत दुःखी हूँ, मैं बड़े कष्ट में हूँ।' संन्यासी ने पूछा क्या तुम्हें दुःख का अनुभव हो रहा है ? हाँ , तभी तो आपके पास आया हूँ। साधु बोले यदि तुम अपने दुःख का अनुभव कर रहे हो, तो इसका मतलब यह हुआ कि तुम दुःखी नहीं हो, दुःखों  को जानने वाले हो। इस प्रकार वास्तव में तुम स्वयं दुःखी नहीं हो, तुम अपने मन में होने वाले दुःख के ज्ञाता हो।बल्कि अपने मन में होने वाले दुःख को देखने वाले द्रष्टा हो। क्योंकि आध्यात्मिक नियम या वेदान्त का पहला कार्यकारी सिद्धान्त यही कहता है कि ज्ञाता (Subject)  सदैव ज्ञेय वस्तु (object ) से पृथक और असंग होता है। तुम दुःख-सुख को जानने वाले हो, स्वयं दुःखी नहीं हो। जो भय को जानने वाला है, वह कभी भयभीत नहीं होता। मन की उदासी या ख़ुशी को देखने वाला द्रष्टा,उदासी को देखने वाला उदास नहीं है।
युवक मन को अपने अलग करके देखा तो थोड़ा स्थिर हुआ। अब साघु पुनः बोले अब जरा विचार करो कि क्या मन के दुःख-कष्ट क्या तुम्हारे साथ संलग्न हो गए हैं ? स्वयं से पूछ कर देखो कि क्या वे दुःख-कष्ट तुमको belong करते हैं ? या दुःख-कष्ट का अनुभव तुम्हारा मन कर रहा है ? युवक ने कहा - यह ठीक है कि मन मुझसे अलग है, किन्तु इसमें तो कोई संदेह नहीं कि यह मेरा मन है, इसीलिए मैं अपने मन के दुःखी या उदास होने से स्वयं को दुःखी और उदास अनुभव करता हूँ। 
साधु ने पूछा- क्या वास्तव में यह मन तुम्हारा मन है ? ये क्या प्रश्न हुआ ? जरूर यह मेरा मन है, मैं इसकी हर अवस्था को जानता हूँ! साधु बोले नहीं, जरा और ठीक से सोच कर बताओ। मानलो तुम किसी ट्रेन से जा रहे हो। सामने के सीट पर बैठे आदमी से तुम्हारा परिचय हो गया , तुम उसको अच्छी तरह जान गए, वह क्या करता है ? कहाँ रहता है ? सब कुछ तुम जान गए, फिर कुछ घंटों के बाद वह उतर गया। तुम उसको जानते हो, क्या करता है, कैसा दीखता है, सब कुछ तुम जानते हो, किन्तु इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि वह यात्री तुमसे संलग्न हो गया ? वह सहयात्री क्या तुमसे जुड़ गया है - या तुमको belong करता है ? थोड़ी देर सोचने के बाद वह युवक बोला - " महाराज आप ठीक कहते हैं, यह मन मुझे बिल्कुल अलग है,अतः अब मैं बिल्कुल शांत हूँ।
किन्तु कहानी का दिलचस्प हिस्सा यहीं से शुरू होती है; उसको अपने गुरु से असली शिक्षा अब मिलती है।साधु कहते हैं -'नहीं, तुम शान्त नहीं हो। तुम अपने मन की शांति के ज्ञाता हो। 'जिस प्रकार मन के दुःख के साथ जब तुम्हारा 'अहं -बोध या 'मैं'-पन' संलग्न (attach) हो गया था। और  तब तुम अपने को दुःखी सझने लगे थे। किन्तु तुम्हारे जीवन्मुक्त शिक्षक ने, तुम्हें अभी यह समझा दिया कि तुम मन नहीं हो। अतः इस समय गुरु के उपदेश को सुनकर तुम्हारे ऊपर दुःख का प्रभाव कम हो गया है,और तुम दुःख-कष्ट की उपेक्षा करके,मन पर नियंत्रण रखने में अभी समर्थ हो गया है। तुम अभी के उदाहरण से यह समझ गए हो कि, मन और शरीर तुम्हारा सहयात्री है। किन्तु तुम मन के साथ संलग्न नहीं हो, मन तुमसे अलग वस्तु है, और तुम मन के ज्ञाता हो।  तुम मन के भी साक्षी हो, उससे भिन्न हो।
परन्तु तुम अभी जिस प्रकार सतसङ्ग के प्रभाव से इस समय मन की शांति के साथ स्वयं संलग्न (attach) हो कर कह रहा है कि -अब मैं बिल्कुल शांत हूँ ! उसी प्रकार जब यह लौटकर दिल्ली जायेगा तो सांसारिक लोगों के उपदेश को सुनकर - मन के दुःख को अपना दुःख मानकर उस दुःख के साथ भी फिर से संलग्न (attach) हो जाओगे। इसीलिए मैं कहता हूँ - ' तुम शांत नहीं हो, तुम अभी अपने मन में उपस्थित शांति के ज्ञाता हो। जिस प्रकार पहले तुम अपने मन में उपस्थित शांति की कमी या दुःख के ज्ञाता थे! तुम मन की ख़ुशी के ज्ञाता हो, उदासी के ज्ञाता हो, उदास नहीं हो।  तुम दुखी नहीं हो! तुम मन के सुख-दुःख से परे हो! इस  बोध में प्रतिष्ठित हो जाना ही सच्ची शांति है।" 
अपने इस साक्षी स्वरूप (आत्मा) की विस्मृति का सबसे बड़ा कारण क्या है ? यही कि अपरिवर्तनीय, शाश्वत आत्मा (witness  consciousness) ने भ्रम में पड़कर, परिवर्तनशील नश्वर देह के साथ तादात्म्य कर लिया है। इसीको देहध्यास कहते हैं। जब कभी ठोकर लगकर नाख़ून उखड़ जाता है, उस समय जिस शारीरिक दुःख का अनुभव होता है, उस समय क्या कोई सोंच सकता है कि मैं आत्मा हूँ ? वेदान्त कोई एनेस्थीसिया तो नहीं है, घाव का इलाज डॉक्टर ही करेगा।  वेदान्त इस दृष्टिगोचर जगत को बदलने की चेष्टा नहीं करता, बल्कि यह सत्यार्थी को ही भ्रममुक्त या विसम्मोहित करता है। भले अभी हमलोगों को आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ हो, फिर भी यह वेदान्त हमारी सहायता करता है। क्या तुम्हें पेट में दर्द का अनुभव होता है ? हाँ , तब तुम वह हो, जो दर्द का ज्ञाता है। तब तुम अवश्य इस दर्द से पृथक हो।  स्वामी तुरियानन्द जी ने एक बार, मन को देह से कर आत्मा में लीन करके, नासूर (carbuncle) का ऑपरेशन बिना एनेस्थीसिया के करवा लिए था।  किन्तु जब बैंडेज करते समय डॉक्टर ने रुई को खींचा तो कराह पड़े। डॉक्टर ने जब कारण पूछा तो उन्होंने कहा पहले यदि कह देते तो मैं इस समय भी मन और देह से अपने को पहले ही अलग कर लेता। उन्होंने बंगला में कहा था  'बोलबे तो आगे मन तूले निताम।' यह एक स्पष्ट सबूत है कि तुम अपने देह-मन से बिल्कुल अलग है,उसका ज्ञाता है।  clear proof that you exist apart from your mind. एक नए साधु जो अभी सिद्ध नहीं हुए थे -उनकी नकल करने गए तो चिल्ला पड़े।  बोले 'वो शाला किताब का बात किताब में ही रह गया। ' मन के दुःख से से भी बड़ा दुःख  शारीरक दुःख होता है।  पाईल्स या पेट में आँव हो जाय - तो पहले डॉक्टर से मिलो; उसके बाद वेदान्त (लीडरशिप क्लास 😄) के पास आ सकते हो। 
हमें विवेक-प्रयोग करते हुए केवल एक बार -अनुसन्धान वाक्य 'अयं आत्मा ब्रह्म' को परम सत्य को खोज निकालना है, या आत्मसाक्षात्कार कर लेना है। यह अनुभव कर लेना है कि  कि साक्षी चेतना (witness consciousness) ही अविनाशी ब्रह्म है ! कर्मयोग जगत का कल्याण करके चित्त को शुद्ध करने की बात कहता है। भक्तियोग सारा ध्यान ईश्वर पर लगाकर जगत की सेवा करने की बात कहता है। राजयोग मन को बदलने का प्रयास करता है। ज्ञानयोग अज्ञान को दूर करने के लिए केवल बौद्धिक -समझ या सामान्य ज्ञान का प्रयोग करता है। क्योंकि ज्ञान स्वयं ही मन को शांत कर देता है ! knowledge itself calms down the mind !
4. साक्षी दृक् एव न तु दृश्यते-  श्लोक के चौथे चरण में यह समझाया गया है कि, हर अनुभव के अनुभवकर्ता (subject) हम स्वयं हैं, अतः हम स्वयं कभी 'मन-बुद्धि-अहं' के लिए 'object ' या ज्ञेय पदार्थ नहीं हो सकते। वह साक्षी चेतना ही वास्तविक द्रष्टा है, वह किसी के लिए दृश्य नहीं है। क्योंक यह मन-बुद्धि-चित्त -अहंकार जिसे मिलाकर अन्तःकरण कहा जाता है,हमारे लिए बिल्कुल एक ज्ञेय पदार्थ जैसा है। हमलोग जगत और इसके विषयों का अनुभव मन के द्वारा ही करते हैं, अतः यह मन हमारा, सच्चिदानन्द स्वरूप (आत्मा-existence-consciousness-bliss) के दिव्यता की अभिव्यक्ति का केवल उपकरण या साधन है। इससे क्या निष्कर्ष निकला? यही कि हमलोग परिवर्तनशील मन (सूक्ष्म शरीर) और देह (स्थूल शरीर) नहीं हैं, हम इसके अपरिवर्तनीय द्रष्टा,(witness consciousness) ज्ञाता या अविनाशी साक्षी चेतना हैं। और इस परिवर्तनीय देह-मन के माध्यम से कार्य करते हैं। और यह हमारे लिए एक नया और बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन (Revelation) है। क्योंकि इसके पहले हम स्वयं को केवल एक 'body mind complex' मन-शरीर मिश्रित संरचना समझ रहे थे। इसके पहले हम यही समझ रहे थे कि मैं केवल एक व्यक्ति 'individual' हूँ। अर्थात आईने में जो M/ F शरीर दीखता है ,और इसके भीतर एक मन है, जो इस शरीर को स्त्री-पुरुष मानता है,वही मैं हूँ। आमतौर से हम सभी लोग ऐसा ही सोचते हैं कि मेरे शरीर की सीमा बस इस त्वचा (चमड़ी) तक ही है - 'boundary of the body is this skin' केवल इस त्वचा तक ही मैं हूँ! और इस त्वचा के उधर (beyond) जो कुछ है, वह मैं नहीं हूँ। किन्तु यह वेदान्त परिचयात्मक ग्रंथ (विवेक-प्रयोग विद्या) सिखाने वाली यह पुस्तक, हमेंयह  शिक्षा देती है कि हमलोग यह शरीर या मन नहीं हैं, बल्कि हम इसके ज्ञाता, द्रष्टा या अनुभवकर्ता हैं। इसके पहले वाले निबन्ध में भी हमने यह जान लिया था कि हम लोग (2'H') देह, मन नहीं हैं बल्कि हम स्वरूपतः इस देह-मन के साक्षी (आत्मा 3rd'H'witness consciousness ) हैं !
जब इस श्लोक के चौथे चरण पर पहुँचकर जब यह रहस्योद्घाटन हो जाता है कि 'साक्षी दृक् एव न तु दृश्यते' - साक्षी चेतना ( 3rd'H'witness consciousness) ही मन और देह (2'H') का ज्ञाता है; और देह-मन के माध्यम से अपनी दिव्यता (निःस्वार्थपरता) को अभिव्यक्त करता है; तब यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या 'मैं '(अहं-अन्तःकरण जो उस चेतना से ही प्रकाशित है) उस साक्षी चेतना को देख  सकता हूँ या नहीं ? चौथे चरण में लेखक कहते है -साक्षी (आत्मा)  मन से पृथक है और उसका ज्ञाता है। 
इस ग्रंथ के लेखक कहते हैं -नहीं, 'तुम' उसे (3rd'H'witness को)  इस चर्मचक्षु से एक वस्तु (object) की तरह कभी नहीं  सकते कि 'वह' क्या है ? तुम अपने विषय में साधारण बुद्धि का प्रयोग करके कितना और क्या जानते हो ? बस वही परिचय जो तुम्हारे पासपोर्ट में या आधार कार्ड में लिखा है। किन्तु वास्तव में तुम क्या हो ? 
किन्तु क्या यह आत्मा [3rd'H'witness] अभी हमारे लिए सत्य है या हमें इसकी अनुभूति करनी बाकि है? नहीं, इस समय हमें इसकी अनुभूति नहीं है, किन्तु महामण्डल के 5 अभ्यासों को सीखकर भविष्य में अपने स्वरुप की अनुभूति की जा सकती है ? नहीं, तुम स्वयं वह साक्षी चैतन्य (conscious witness) हो, जो इस बुद्धि-अहं को प्रकाशित करता है। It is the sākŝi (the witness, namely, the Ātman) is the seer only, and never the scene.  [चैतन्य-आत्मा] दृक् एव, न तु दृश्यते (न एव दृश्यः)]अभी और यहीं, बल्कि इस समय भी केवल सामान्य बुद्धि (Common sense) या बौद्धिक समझ (intellectual understanding विवेकप्रयोग ) की सहायता से अपने साक्षी स्वरुप का अनुभव किया जा सकता है। वेदान्त के पहले कार्यकारी नियम के अनुसार हम सभी लोग इसी समय एक ज्ञाता (existence-consciousness-bliss) के रूप में सभी ज्ञेय वस्तुओं से (देह-मन से)  पृथक हैं ! तो फिर 'यक्ष -प्रश्न' यह है कि, हमें इसी समय उसकी याने अपने साक्षी स्वरूप की अनुभूति क्यों नहीं हो रही है
इसका उत्तर यही है कि हमने अभी तक निषिद्ध कर्मों का त्याग नहीं किया है। क्योंकि सब कुछ समझने के बाद भी, विवेक-प्रयोग आदि का अभ्यास करने के बाद भी बंदर ने केले/या चने को मुट्ठी में पकड़ा हुआ है। हमने अपने मन से शरीर-इन्द्रियों के साथ तादतम्य कर लिया है। इसीलिए हम अपने को बन्धन में फंसा महसूस करते हैं। 
Mandatory condition  for Rational understanding of Vedanta :
  वेदान्त के केवल तीन कार्यकारी सिद्धान्तों को समझकर ही मनुष्य जीवन को सार्थक किया जा सकता है, और अपना अपना स्वधर्म (वर्णाश्रम धर्म) का पालन करते हुए सफलतापूर्वक जीवन यापन  करने का एक तरीका है-'if it is a way of life' । यदि यह वेदान्त किसी विशेष प्रकार के मतवाद या धार्मिक कर्म-काण्ड पर निर्भर नहीं है, यदि वेदान्त केवल-'साधारण बुद्धि ' (common sense) के द्वारा ही अच्छी तरह से समझा जा सकता है। प्रश्न हो सकता है कि तब ' फिर प्रत्येक मनुष्य उस परम सत्य को, परब्रह्म परमेश्वर के तत्त्व (very simple Highest Truth) को सुनकर, उस परम् सत्य को केवल कॉमन सेन्स के बल पर अनुभव क्यों नहीं कर पाते हैं?
वेदान्त को समझने की पूर्व शर्त क्या है ?   वेदान्त (महावाक्यों) को 'way of life' में, अपनी दिनचर्या में या दैनन्दिन जीवन में ढाल लेने की पूर्व शर्त है - 'लाल सिग्नल्स' देखते ही रुक जाओ ! कुछ भी सोचने, बोलने और करने के पहले विवेक-प्रयोग करके देखो कि वे कहीं शास्त्र-विरोधी या निषिद्ध कर्म की श्रेणी में तो नहीं आते ?'bundles of past bad habits' को या जन्मजन्मान्तर से चरित्रगत दुर्गुणों को त्याग दो।  इस विषय पर मैं कठोपनिषद (1.2.24) में कहा गया है -'
 ना विरतो दुश्चरितात् , ना शान्तो ना समाहितः। 
 ना शान्त मानसो वापि प्रज्ञानेन एनं  आप्नुयात्।
 (न अविरत: दुश्चरितात् ,  न अशांतः, न असमाहितः। न अशान्त मानसः  प्रज्ञानेन अपि एनम्  आप्नुयात्)  [ शब्दार्थ: प्रज्ञानेन अपि = सूक्ष्म बुद्धि द्वारा आत्मज्ञान हो जाने के बाद भी; एनम् = इसे (परमात्मा को); न दुश्चरितात् अविरत: आप्नुयात् =  वह मनुष्य प्राप्त नहीं कर सकता है, जो कुत्सित आचरण से (निषिद्ध कर्म, शस्त्रविरोधी या दुष्कर्म से) अविरत अर्थात् बिल्कुल निवृत्त न हुआ हो; नअशान्त: = न अशान्त मनुष्य (प्राप्त कर सकता है); न असमाहित: = न वह प्राप्त कर सकता है, जो असमाहित अर्थात् एकाग्र न हो, असंयत (असंयमी) हो; वा = और; न अशान्तमानस: = न अशान्त मनवाला ही (उसे प्राप्त कर सकता है); आप्नुयात् = प्राप्त कर सकता है।]
यहाँ आचार्य यम (मिथ्या अहंकार की मृत्यु रूपी गुरु) बालक नचिकेता को यह समझा रहे हैं कि परमात्मा किसे प्राप्त नहीं हो सकते ? वे कहते हैं - कि केवल साधारण बुद्धि के बल पर, अथवा आत्मज्ञान होने से भी तुम परम-सत्य की अनुभूति नहीं कर सकते। जो मनुष्य निषिद्ध कर्मों से विरत नहीं है-अर्थात  जिस मनुष्य ने अपने पाशविक आचरणों के परिणाम को विषतुल्य समझकर, और इसलिए उससे विरक्त होकर उनका त्याग नहीं किया है।  जिसका मन परमात्मा को छोड़ कर दिन-रात सांसारिक भोगों में (कामिनी-कांचन में ही)  भटकता रहता है।-जो मनुष्य दुराचार से निवृत्त नहीं हुआ है, या निषिद्ध कर्मों से-या 'past bad habits' से  विरत नहीं है। जो व्यक्ति कहता है मैं आत्मा हूँ और दूसरों को भी समझाता है -कि तुम भी आत्मा हो। किन्तु दूसरों नजरें बचा कर रोज एक पॉकेट सिगरेट फूँक देता है।   जिसने अपनी इन्द्रियों को जीता नहीं है, जिसका मन एकाग्र नहीं है, जिसका चित्त शान्त नहीं हुआ है-जो असंयमी व्यक्ति है, उसको आत्म-साक्षात्कार कभी नहीं होता है। 
परमात्मा (परमसत्य या इन्द्रियातीत सत्य) की प्राप्ति के लिए उसका अधिकारी होना भी आवश्यक है। अनैतिक एवं कुमार्ग-गामी मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने योग्य मनुष्य या सत्पात्र नहीं होता। नैतिकता या चरित्र-निर्माण ही अध्यात्म -मार्ग का प्रथम सोपान है। जिस मनुष्य का मन भौतिक सुखभोग की वासना तथा सांसारिक पदार्थों की (कामिनी-कांचन की) तृष्णा से ग्रस्त रहता है, जिसका मन राग और द्वेष में फँसा रहता है; और भौतिक आकर्षणो के बन्धन में रहता है, वह सदा अशान्त ही रहता है। अशान्ति के मार्ग पर चलकर मनुष्य शान्ति कैसे प्राप्त कर सकता है? दुष्कर्म में प्रवृत्त, अशान्त मनुष्य परमात्मा को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता।  अशान्त मनुष्य ब्रह्मज्ञान का अधिकारी नहीं होता। चारित्रिक गुणों (नैतिक मूल्यों) की कीमत पर, कोई महान् सफलता अथवा उपलब्धि भी मनुष्य को सच्चा सुख नहीं दे सकती। रेत की बुनियाद पर (चरित्रहीनता की बुनियाद पर) निर्मित अट्टालिका  कदापि स्थिर नहीं रहती। उस परम सत्य को केवल 'बौद्धिक कसरत' के द्वारा नहीं जाना जा सकता। परन्तु वर्तमान समय में आधुनिक पाश्चत्य शिक्षा (ब्रह्मचर्य पालन रहित शिक्षा ?) में पढ़े-लिखे युवाओं के चरित्र में 'साधारण बुद्धि' (common sense),आत्म -श्रद्धा, आत्मसंयम,आत्मविश्वास आदि गुणों के मनांक का स्तर क्या है? 
युवाओं के चरित्र की वर्तमान दशा के संदर्भ में स्वामी जी कहते हैं, " एक क्षण मैं सोचता हूँ कि 'अहं ब्रह्मास्मि'- मेरा अस्तित्व है और कुछ भी मुझे नष्ट नहीं कर सकता। किन्तु दूसरे ही क्षण मृत्यु-भय से मैं काँपने लगता हूँ। कभी सोचते हैं कि हम दूसरों की अपेक्षा बहुत धार्मिक और पवित्र हैं, किन्तु दूसरे ही क्षण एक धक्का लगता है और हम चारों खाने चित हो जाते हैं। इसका कारण ? कारण यही है कि हमारा आत्मविश्वास मर गया है, और हमारी नैतिकता की रीढ़ टूट गयी है।" (७/१८०) इसीलिए कहा गया है  - "आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:।"जो आचार से हीन है, उसे वेद भी पवित्र नहीं करते।"  - अद्वैत वेदान्त को समझने के लिये केवल विवेकशील (Rational) होना ही पर्याप्त नहीं है। द्रष्टा-दृश्य विवेक हो जाने के बाद अपने यथार्थ साक्षी स्वरूप में स्थिर रहने के लिए केवल  विवेकज -ज्ञान (intellectual understanding,बौद्धिक-समझ) ही पर्याप्त नहीं होता। बल्कि उस ज्ञान को चरित्रगत करना 'characterization' भी अनिवार्य है। इसलिये हमें पहले यह समझना होगा कि वेदान्त की तर्क-संगत समझ अर्जित करने की पूर्व शर्त (precondition) क्या है ?
Preliminary Requirement: आधुनिक युग में वेदान्त को समझने की पूर्व शर्त है, महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर जीवन्मुक्त शिक्षकों के सानिध्य में रहते हुए , 'मनुष्य -निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा' और को प्राप्त करना।  
नाम-रूप दृश्य (object) है, और द्रष्टा (subject) आंख है; फिर वह (आँख) दृश्य या ज्ञेय है, मन उसका ज्ञाता है।  फिर मन की वृत्तियाँ (चित्त-मन-बुद्धि -अहंकार) दृश्य है, इसका द्रष्टा साक्षी (आत्मा) है; और साक्षी को कभी नहीं देखा जा सकता। फिर भी यह न समझना कि वह अज्ञात ही रह जाता है।किन्तु फिर भी उसे 3rd'H'witness या साक्षी को अज्ञात या अज्ञेय भी नहीं समझना चाहिये। क्योंकि उसका बोध नहीं प्रतिबोध होता है। यह बुद्धत्व प्राप्त करना असम्भव नहीं है। तीसरी आंख से यह देख सकते हो, क्योंकि वह तुम्हारा स्वरूप है, तुम वही हो। केनोपनिष्द 2.4 कहता है - ' 'प्रतिबोध विदितं मतं अमृतत्वं हि विन्दते।' मनुष्य के अधिकार में ज्ञानोपलब्धि के दो साधन हैं - इन्द्रिय (2'H') और आत्मा (3rd'H') हैं। इन्द्रियों से (अर्थात 2'H' से) जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे बोध कहते हैं, और आत्मा के द्वारा जिस ज्ञान की उपलब्धि होती है, उसे प्रतिबोध कहते हैं। मन की बहिर्मुखी वृति के द्वारा उपलब्ध ज्ञान का नाम ही बोध है, परन्तु जो ज्ञान अन्तर्मुखी वृति के द्वारा प्राप्त हुआ करता है उसे बोध नहीं कह सकते; उसका नाम प्रतिबोध है। इस अन्तर्मुखी वृति का कार्यक्षेत्र आत्मा और परमात्मा होते हैं, इसलिए आत्मा को जो अपने स्वरूप का ज्ञान या  ईश्वर का ज्ञान प्राप्त हुआ करता है, उसी का नाम प्रतिबोध है।
इस प्रकरण ग्रन्थ के पहले श्लोक का चौथा चरण कहता है - [चैतन्य-आत्मा] दृक् एव, न तु दृश्यते (न एव दृश्यः)यह साक्षी (आत्मा) ही सच्चा द्रष्टा है। फिर मन क्या है ? मन है दृश्य वस्तु। साक्षी, इन्द्रिय, शरीर और मन मिलकर इस सम्पूर्ण जगत के द्रष्टा हैं। किन्तु सच्चा द्रष्टा एक मात्र साक्षी चैतन्य ही है। और केनोपनिषद में यह शिक्षा यह दी गई है कि इस प्रतिबोध (आत्मानुभव) से, प्राप्त विज्ञान से, मनुष्य अमरता (मोक्ष‌-डीहिप्नोटाइज्ड या जीवन्मुक्त अवस्था) प्राप्त करता है। उसे अपने पुरुषार्थ से 3H का बल (शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों प्रकार का बल ) विकसित करना चाहिये; और उपलब्ध विज्ञान से अमरता लाभ करना चाहिए। 'दादा कहते थे चरित्र-निर्माण जंगल में बैठकर पकाने की चीज नहीं है !'अपने जीवन के हर कार्य-क्षेत्र में इस अनन्त चैतन्य का अनुभव करने से यह शक्ति विकसित होती है, केवल समाधि में रहने से नहीं होती। और निर्विकल्प समाधि का भी त्याग करके Be and Make आंदोलन से जुड़े रहना बिल्कुल सम्भव है, परन्तु जीवन के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में इस प्रतिबोध की उपलब्धि अहंकार के तिरोहित या नाश होने से ही हुआ करती है।अहंकार के नाश से ममता का नाश होता है और ममता के नाश से मनुष्य (आत्मा) और परमात्मा के बीच से 'द्वैत का परदा' उठ जाता है। यह साक्षी ही एकमात्र ज्ञाता है, बाकी सबकुछ ज्ञेय है। यह साक्षी चैतन्य -मन,बुद्धि अहंकार से अलग है।  मन-बुद्धि-अहंकार शरीर हर कुछ निरंतर बदलता रहता है, साक्षी कभी नहीं बदलता। फिर यह साक्षी एक है -बाकि सब अनेक है। और जिस महापुरुष को अनेक में भी उसी एक सच्चिदानन्द (existence-consciousness-bliss) की उपलब्धि प्रतिबोध में, अर्थात प्रत्येक अनुभूति में होने लगे, " प्रत्येक बोध में अमृतत्व" की उपलब्धि होने लगे, बोध- बोध में ब्रह्मबोध होता हो; तब उस महापुरुष के लिए फिर मरण कैसा?”    
वेदान्त में साक्षी की परिभाषा: -वेदान्त के साक्षी की परिभाषा देते हुए श्रीरामकृष्णस्तवराजः में कहा गया है- बुद्धेश्चसाक्षी निखिलस्य जन्तोः। यो वेत्ति सर्वं न च यस्य वेत्ता, परात्मरूपो भुवि रामकृष्णः ॥१॥ अर्थात जो सबको जानते हैं उनको कोई नहीं जानता, वह कौन है ? श्री रामकृष्ण ? नहीं , वेदान्त कहता है - 'तत्त्वमसि' -वह तुम ही हो ! तुम ही अपनी बुद्धि और अहं के साक्षी हो। माण्डूक्य उपनिषद में कहा है -" शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥"शान्तं -शिवं -अद्वैतं हमलोगों का ही नाम है। 3rd'H' हृदय (Heart)  या आत्मा का का ही एक नाम शांति है, ऐसा नहीं कि आध्यात्मिक आत्मा शांत होती है,आत्मा स्वभावतः शांति ही है। चाहे तुम्हारा मन (Head) और शरीर (Hand) शांत रहता हो या नहीं रहता हो, जगत शांत हो या सतत् परिवर्तनशील रहता हो, किन्तु तुम (3rd 'H') साक्षी भाव से हमेशा के लिये अक्षुब्ध (undisturbed ) हो । वह शांति -साम्यभाव (equilibrium, संतुलन)  ही तुम्हारा स्वरूप है। मंत्र में जिसे - 'शान्तं, शिवं, अद्वैतं' कहा जा रहा है वह तुम ही हो। और मैं ही वह हूँ। 
 जीवन की चार अवस्थाएँ है - 1. जागृति 2. स्वप्न 3. सुषुप्ति 4. तुर्यगा । तुर्यगा - तीनो अवस्था से मुक्त होना तुर्यगा है। ब्रह्म को जिस इन्द्रियातीत ज्ञान अवस्था मेँ आत्मरुप और अखण्ड जाने वही अवस्था तुर्यगा है।जाग्रत आदि तीन अवस्थाओं से रहित शिव, अद्वैत स्वरूप,निर्विकल्प समाधि की जो चौथी अवस्था है वह तुर्यगा है। यह तुर्यगा अवस्था जीवन्मुक्त पुरुषों में इसी देह में विद्यमान रहती है। यहाँ तक कि तुम जब तुम देह-मन के साथ तादात्म्य करके जगत के साथ तादात्म्य कर लेते हो, अपना मान बैठते हो। और अपने को मन -देह के साथ एकदम संलग्न (attached-आसक्त) समझते हो, और कहते हो मन का दुःख मेरा दुःख है, मन का अज्ञान मेरा मन है, मन का संसारी स्वभाव मेरा स्वभाव है, तब तुम अपने आप से यह सब मिथ्या (false) भाषण करते हो, स्वयं से झूठ बोलते हो। वह ज्ञाता जो मन को भी जान रहा है, वास्तव में हम स्वयं 'शान्तं -शिवं -अद्वैतं' ही हैं।  [सदा सत्य बोलो ! 'मैं वह हूँ !']  यहाँ भी वेदान्त समझने के द्रष्टा या साक्षी को समझने के लिए वेदांत के (विवेक-प्रयोग विद्या) के तीन मौलिक नियमों का प्रयोग करें -
१. वेदान्त का पहला नियम कहता है- द्रष्टा दृश्य से पृथक होता है। यहाँ भी हम देख सकते हैं कि जो 'साक्षी-चेतना ' (Witness consciousness) मन-बुद्धि-अहंकार -चित्त (अन्तःकरण) को देख रही है, वह निश्चित रूप से मन से (अन्तःकरण से) कोई अलग कोई वस्तु है। 
२.वेदान्त का दूसरा नियम कहता है- 'द्रष्टा एक रहता है, दृश्य अनेक होते हैं।' यहाँ भी हम देख सकते हैं कि मन में अनेकों विचार, इच्छायें , भावनायें आती -जाती रहती हैं, विचारों का प्रवाह चलता रहता है, किन्तु उसको जानने वाला साक्षी एक ही होता है। 
३. वेदान्त का तीसरा मौलिक सिद्धान्त यह है कि- 'द्रष्टा अपरिवर्तनीय होने के कारण चैतन्य होता है और दृश्य परिवर्तनीय होने के कारण जड़ होता है। यहाँ भी साक्षी चेतना अपरिवर्तनीय है,  मन में उठने वाले विचार, दृश्य या ज्ञेय विचार, इसकी इच्छायें-आकांक्षाएं  निरंतर परिवर्तन शील है। मन की अवस्था सापेक्षिक रूप से निरंतर बलदती रहती है, किन्तु मन की अवस्थाओं में परिवर्तन को देखने वाला साक्षी नहीं बदलता।  हर परिस्थिति में वह - मन को साक्षी भाव से देखता रहता है। अंतिम निष्कर्ष The seer is ‘aware’ and the seen relative to it is ‘inert’. यह निकला कि द्रष्टा जागरूक (aware या चेतन) और दृश्य सापेक्षिक रूप से जड़ है। 
"अहंकार और प्रतिबिंबित चेतना"
(Ego & Reflected Consciousness) 
 प्रकरण ग्रंथ का -7 वां श्लोक कहता है -छायाऽहङ्कारयोरैक्यं तप्तायःपिण्डवन्मतम् । "अहंकार और प्रतिबिंबित चेतना" (Ego & Reflected Consciousness) रिफ्लेक्टेड चेतना अहंकार के साथ एक कैसे हो जाती है ? जैसे लोहे का गेंद भट्ठी में तपाने से गोल गेंद तप्त और लाल रंग का हो जाता है। किन्तु वह ताप उस गेन्द का अपना नहीं होता। ताप अग्नि से आया है। तप्त-अयस्-पिण्डवत् मतम्। और जो गेंद का गोल आकार है, वह गेन्द का अपना है, अग्नि से प्राप्त नहीं हुआ है। वजन आग से नहीं आया है, लोहे का अपना है। लेकिन अभी दोनों मिलकर एक हो गए हैं। 
ठीक उसी तरह अहंकार (ego) भी लोहे की गेंद की तरह है, मन में रिफ्लेक्टेड चेतना अग्नि की तरह है। 
क्योंकि 'अहंकार' भी विचार की तरह जड़ वस्तु (insentient या निष्प्राण वस्तु) है,और मन चमकदार या प्रकाशित है अतः वह चेतना है। दोनों एक साथ तादात्म्य करके प्रकाशित हो रहे हैं। हम कहने लगते मेरे विचार, मेरी आँखे, मेरी यादाश्त। जड़ अहं रेफ्लेक्टेड चेतन मन के साथ एक हो गया है। इसलिए शरीर भी अपने को चेतन समझने लगता है। 
माया की दो शक्तियाँ हैं 
दृग-दृश्य विवेक ग्रंथ [श्लोक 13 से 21 तक] जब हमलोग वेदान्त के बारे में जानना प्रारम्भ करते हैं तो पहली बार परम सत्य 'ब्रह्म', आत्मा, सच्चिदानन्द [existence-consciousness- bliss] के विषय में सुनते हैं। उसके बाद तुरन्त दूसरा शब्द 'माया' के विषय में सुन रहे हैं। यह माया क्या है ?  माया ही इस जगत का कारण है। माया क्या करती है ?   ब्रह्म में एक शक्ति ऐसी होती है जो ब्रह्म को ही विश्वब्रह्माण्ड के रूप में बाहर प्रक्षेपित करती है।  
दुनिया के हर धर्म में यह विचार मिलता है कि ईश्वर ने ही सृष्टि को रचा है। सभी धर्मों की मान्यता है कि ईश्वर ही हमारा और सृष्टि का सृजन-पालन और संहार करते हैं।  इस धारणा की उत्पत्ति इसी सिद्धान्त से होती है कि ब्रह्म या साक्षी चेतना जो वास्तव में हम हैं -उस शुद्ध चेतना में एक शक्ति होती है; जिसे माया कहते हैं, और वही इस सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड को प्रक्षेपित करती है।
 शक्तिद्वयं हि मायया विक्षेप आवृत्ति रूपकम् ।
विक्षेप शक्तिर्लिङ्गादि ब्रह्माण्डान्तं जगत् सृजेत् ॥ १३॥
'शक्ति-द्वयं हि मायायाः' इस श्लोक में लेखक बता रहे हैं कि माया की दो शक्तियाँ हैं।  माया में दो शक्ति कौन सी है ? आवरण शक्ति और विक्षेप शक्ति।
 तो यह माया क्या है ? माया वह शक्ति है जो ब्रह्म (witness consciousness) में रहती है, और इस जगत को बाहर निकालती है, प्रक्षिप्त करती है।  माया ब्रह्म को सच्चिदानन्द को ही शरीर-मन -जगत के रूप में प्रक्षेपित भी करती है। इसीको विक्षेपशक्ति कहते हैं। हम स्वयं साक्षी चेतना हैं, किन्तु हमें उसका अनुभव नहीं होता। वेदान्त क्लास में साक्षी आत्मा के बारे में सुनते भी हैं, तो भूल जाते हैं। अद्वैत वेदान्त कहता है यह देह-मन और सम्पूर्ण जगत वही साक्षी चैतन्य सच्चिदानन्द है, जिसको हमने पहले श्लोक के दृग -दृश्य विवेक के द्वारा आविष्कृत किया है, या समझा है। देह-मन और बाह्य जगत को देखना समस्या नहीं है, किन्तु यह नहीं समझना कि यह देह-मन और बाह्य जगत भी ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है, और आजीवन सापेक्षिक सत्य (relative truth) को ही परम् सत्य (absolute truth) समझते रहना वास्तविक समस्या है।
यह कोई गूढ़ तात्विक ज्ञान (metaphysical) नहीं है। इन दोनों शक्तियों का अनुभव हमें हर समय होता रहता है। अद्वैत-परिचय ग्रंथों में अक्सर 'रज्जु-सर्प' का  एक अच्छा उदाहरण (classic Advaita example) दिया जाता है।  जैसे कोई व्यक्ति यदि semidarkness या धुँधलेपन के कारण सड़क पर पड़ी रस्सी को सर्प समझ लेता है तो भयभीत हो जाता है। किन्तु जब  प्रकाश  आने पर देखता है तब पता चलता है कि वहां  सर्प नहीं, रस्सी है। यदि मैं अँधेरे में गलती से रज्जु कोसर्प समझ लेता हूँ, तब क्या होता है ? एक तो मैं नहीं जानता था कि यह रस्सी है ,यह अज्ञान ही आवरण शक्ति है, यह रस्सी के स्वरुप को छिपा देती है।  माया की यह आवरण शक्ति अर्थात मेरा अज्ञान रस्सी को मुझसे छुपा देती है।  और माया की दूसरी शरारत (पाजीपन) next mischief- यह है कि वह मेरे सामने सर्प को प्रस्तुत कर देता है।वह उसमें सर्प का भ्रम उत्पन्न कर देती है।  मेरा अज्ञान केवल रस्सी पर आवरण ही नहीं डालता है, हम असली गलती तब करते हैं, जब उसे सर्प समझ लेते हैं।  मैं रस्सी को नहीं जानता, और सर्प देखने लगता हूँ; I mistake to see it as snake. मैंने वहां ६ फुट की रस्सी को पड़ा हुआ नहीं देखा था, इसलिए उसको ६ फुट का सर्प समझने की गल्ती कर रहा था। इस गल्ती का कारण माया है।
क्या यह माया ब्रह्म से भिन्न है या दोनों एक ही हैं ?   यदि यह माया, ब्रह्म से भिन्न है, तब मानना पड़ेगा कि सत्य (reality) दो है। तब आप अद्वैत कह ही नहीं सकते। यदि यह माया ब्रह्म से पृथक है तब यह समस्या उठ खड़ी होगी कि तब दो सत्य को मानना पड़ेगा- ब्रह्म और माया दोनों को स्वीकार करना पड़ेगा। फिर यदि ब्रह्म और माया अलग-अलग हैं, तो फिर आप अद्वैत की बात नहीं कह सकते। वेदान्त कहता है -सत्ता मीमांसा की दृष्टि से, तात्विकता की दृष्टि से (ontologically) ब्रह्म और माया पृथक (different) होकर भी पृथक नहीं हैं। शक्ति और शक्तिमान भिन्न नहीं होते, अग्नि की दाहिका शक्ति अग्नि से भिन्न नहीं है।जैसे शक्ति और शक्तिमान अलग नहीं हैं। अग्नि और उसकी दाहिका-शक्ति अलग नहीं है। अग्नि की दाहिका शक्ति अपने को जलाने की शक्ति और प्रकाशित करने की शक्ति (heat and light) के रूप में अभिव्यक्त करती है। उसी प्रकार ब्रह्म की एक माया शक्ति है जो इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का श्रोत/मूल है। यह क्या करती है ? माया के पास दो शक्ति है, शक्तिद्वयं - आवृति या आवरणशक्ति  (पर्दा /veil) डालने की शक्ति, छिपा देने की शक्ति।  माया अपने आप में नहीं बाँधती, उसकी विक्षेप शक्ति जो ब्रह्म को देह-मन और जगत के रूप में प्रक्षेपित करती है, वह कोई समस्या नहीं है। वास्तविक समस्या आवरण शक्ति है। माया वह शक्ति है जो ब्रह्म को इस शरीर-मन के रूप में, गृष्टिगोचर जगत के रूप में  प्रक्षेपित करती है। 
रेगिस्तान में मुझे प्यास लगी और थोड़ी दुरी पर पानी दिखाई दे रहा है। मैं उसकी तरफ दौड़ पड़ता हूँ , वहाँ पहुँचकर पता चलता है कि वह तो मात्र मृगमरीचिका थी ! रेगिस्तान में मैं प्यासा हूँ, दूर में पानी दिखाई देता है। दौड़ कर नजदीक जाता हूँ, तो देखता हूँ मृगमरीचिका है। मैं फिर आगे बढ़ना प्रारम्भ करता हूँ, थोड़ी देर जाने पर पीछे मुड़ता हूँ तो क्या देखता हूँ ? वही पानी है। आगे बढ़ जाता हूँ फिर मुड़ कर पीछे देखता हूँ, दूर में वही पानी दिखाई देता है। पर अब मैं जानता हूँ कि यह सच्चा पानी नहीं है, गर्म बालू गर्म हवा का रिफ्लेक्शन है, और अब उसके द्वारा मैं ठगा (duped) नहीं जा सकता। इसलिए अब मैं प्यास बुझाने के लिए दौड़ नहीं पड़ता। क्योंकि मैं जान गया कि यह केवल गर्म बालू है, रिफ्लेक्शन के कारण हवा गर्म होकर पानी का भ्रम उत्पन्न कर रही है। स्वामी विवेकानन्द के साथ यह घटित भी हुई थी।
 श्रीरामकृष्ण ने , माँ सारदा देवी ने ,स्वामी विवेकानन्द और रमणमहर्षि ने, बुद्ध ने भी जगत को देखा था, किन्तु बुद्धत्व प्राप्ति के बाद क्या होता है ? हमें हर समय यही अनुभव होता है कि यह सर्प नहीं रज्जु है। जगत भी ब्रह्म ही है। जैसे ही तुमने रस्सी को देख लिया अब वहां सर्प है ही नहीं। समस्या हल हो गयी, अब तुम्हें वहां सर्प नहीं दिखेगा।
'खुली आँखों से ध्यान करने की तकनीक '
(concentration Techniques)


दृग-दृश्य विवेक : श्लोक 22 से 31 तक "एकाग्रता की तकनीक" 
उपेक्ष्य नामरूपे द्वे सच्चिदानन्दतत्परः ।
समाधिं सर्वदा कुर्याद्-हृदये वाऽथवा बहिः ॥ २२॥
यहाँ - " उपेक्ष्य नामरूपे द्वे" नाम और रूप को अस्वीकार करके, उसकी उपेक्षा करके मन को सच्चिदानन्द स्वरुप अपने ईष्टमुर्ति पर ही focused रखने को कहा गया है। 'समाधिं सर्वदा कुर्यात् हृदये वा अथवा बहिः' यहाँ हृदय में और बाह्य जगत में एकाग्रता के अभ्यास की तकनीक बताई गयी है। जगत शब्द से लक्षित नाम-रूपों की उपेक्षा करके अपने हृदय में अथवा बाह्य जगत में सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म को ही सर्वत्र देखते हुए उसी में चित्त को समाहित करने/रखने का सतत प्रयास करना चाहिए। यही है 'खुली आँखों से ध्यान करने की तकनीक !' 
इस श्लोक में मनःसंयोग तकनीक सीखने के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए को कहा जा रहा है कि एकाग्रता के अभ्यास (के साथ-साथ व्यायाम, प्रार्थना, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि 5 अभ्यासों) का उद्देश्य है, ब्रह्म को बाह्यजगत (दृश्य में ब्रह्म) और अंतर्जगत (द्रष्टा या साक्षी में ब्रह्म) दोनों स्थानों में आविष्कृत करना। 
 अंतर्जगत और बाह्य जगत में नाम-रूप की उपेक्षा, या माया की उपेक्षा करके मन को निरंतर ब्रह्म, सच्चिदानन्द 'existing-consciousness-bliss' पर एकाग्र रखना। जैसा श्री रामकृष्ण कहते थे क्या जब आँख मूँदकर देखता हूँ, तो माँ काली हैं, खुली आँखों से माँ काली क्यों नहीं दिखनी चाहिए? दो प्रकार की एकाग्रता का अभ्यास क्यों सीखना है ? क्योंकि हमारे मन का गठन ही इस प्रकार हुआ है कि मन हमेशा swing करता है, उसके साथ इन्द्रियाँ भी हमेशा बहिर्मुखी तो कभी अन्तर्मुखी होते रहते हैं। कभी आंतरिक स्वयं के विषय में सोचता है, कभी बाह्य जगत के विषय में सोचता है। अतः दोनों जगह अपने हृदय में और बाहर भी निरंतर विवेक-दर्शन का अभ्यास करना है। 
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 $$$$$ भारत के पुनर्निर्माण में  माण्डूक्य उपनिषद  का प्रयोग' 
" माण्डूक्य उपनिषद की महिमा " 
(the essence of Vedanta : वेदान्त का सार-स्वामी सर्वप्रियानन्द)
।।ॐ।। असतो मा सदगमय, 
तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।।- वृहदारण्य उपनिषद। 
हे ईश्वर ! मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो। क्योंकि जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं। उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। इसीलिए मृत्यु आए इससे पहले ही, एथेंस के सत्यार्थी को
'गृहस्थ जीवन के लिए अनिवार्य सभी धर्मों कर्तव्यों का पालन करते हुए,' किसी वैज्ञानिक जैसी निष्ठा के साथ  उस परम सत्य की खोज में जुट जाना चाहिए। 
 स्वामी विवेकानन्द ने अन्य साम्प्रदायिक धर्मों की तरह, चन्द "dos and don'ts" क्या करें और क्या नहीं  को ही धर्म नहीं कहा है। वे कहते हैं -" प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करना ही धर्म है। " इस शरीर, इन्द्रिय, मन के पीछे इन सबको प्रकाशित करने वाला जो साक्षी चैतन्य (witness consciousness) या आत्मा है -वही तुम हो, तत्त्वमसि ! तुम वही परम सत्य (Ultimate Reality) हो! मैं-तुम और यह सम्पूर्ण जगत उसी परमसत्य की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। तुम यदि अपने को ब्रह्म स्वरूप की अनुभूति कर लोगे तो सभी दुखों से छुटकारा मिल जायेगा ' आत्यंतिक दुःख निवृत्ति -परमानन्द प्राप्ति (attainment of bliss!)' जगत भी ब्रह्ममय दिखने लगेगा। 
दुनिया के सभी धर्म यही (promise) करते हैं, या विश्वास दिलाते हैं। छान्दोग्य उपनिषद में ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु को शिक्षा देते हैं -श्वेतकेतु तुम वह हो। युवा अवस्था में ही इस आध्यात्मिक अनुभूति को प्राप्त कर लेना जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है, और यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। और मनुष्य जीवन के इसी लक्ष्य को प्राप्त करने में वेदान्त हमारी सहायता करता है। वेदान्त क्या है ? उपनिषदों पर आधारित इसी दर्शन को, अर्थात समस्त उपनिषदों में सन्निहित इसी शिक्षा को वेदान्त कहते हैं। (Vedanta is the teaching embodied in the Upanishads.)
आचार्य शंकर ने माण्डूक्य उपनिषद को सभी उपनिषदों में दी गयी शिक्षाओं का सार कहा है। आकार की दृष्टि से सब से छोटा है किंतु महत्व के दृष्टि से इसका स्थान सबसे बड़ा (ऊँचा) है ! क्योंकि इसमें आध्यात्मिक विद्या के सम्पूर्ण सूत्र भर दिए गए है। इस 12 मंत्रों वाले छोटे से ग्रंथ पर श्रीमद गौड़पादाचार्य  ने चार अध्यायों वाली माण्डूक्य कारिका लिखी है। "अद्वैत वेदांत की परंपरा" [श्रुति परम्परा] में गौड़पादाचार्य को आदि शंकराचार्य के 'परमगुरु' अर्थात् शंकर के गुरु गोविंदपाद के गुरु के रूप में स्मरण किया जाता है।(leader's Leader, teacher's teacher- Commander-in-chief, आचार्य शंकर के दादा गुरु)
माण्डूक्य उपनिषद १२ श्लोकों वाला सबसे छोटा उपनिषद है, लेकिन इसको 'लौंगिया मिर्चा' बंगला में 'ধানি লঙ্কা 'कहा जाता है। क्योंकि माण्डूक्य उपनिषद में- नचिकेता या श्वेतकेतु जैसी कोई कहानी नहीं है, इसमें सीधा सत्य को रख दिया गया है। इसलिए इसको पढ़ने से पहले थोड़ी सावधानी रखनी आवश्यक है। इस सर्वाधिक तीखी मिर्ची तुल्य माण्डूक्य उपनिषद में 'शीक्षा' इतने प्रत्यक्ष रूप से दी गयी है, कि जिस प्रशिक्षणार्थी ने पहले से किसी वेदान्त प्रकरण ग्रंथ (वाक्य-सुधा) आदि और कठोपनिषद को नहीं पढ़ा हो, वह थोड़ा असहज महसूस कर सकता है। और मंत्र के अर्थ को सही रूप में नहीं समझने पर उसका गलत प्रयोग भी कर सकता है। कोई व्यक्ति यदि तेज धार वाली छुरी दूसरे को कैसे पकड़ाई जाती है, ठीक से पकड़ना नहीं सीखे तो तुम खुद को भी घायल कर सकते हो। इस लिए बिल्कुल नए प्रशिक्षुओं को पहले ही दिन इस उपनिषद से प्रशिक्षण आरम्भ नहीं करना चाहिए। 
माण्डूक्य सभी धर्मों को सत्य सिद्ध करता है, उसकी व्याख्या करता है, और हम यह समझ जाते हैं कि महामण्डल द्वारा जो 5 अभ्यास बतलाये गए हैं, उन्हें 'अभ्यास योग' समझकर उनका नियमित अभ्यास  क्यों करने चाहिए ! 'अभ्यास योग'-का कुछ समय तक पालन कर लेने के बाद ही, इस उपनिषद को समझने की चेष्टा करनी चाहिए।  मैं कौन हूँ ? जब बिना किसी संदेह के इस प्रश्न का उत्तर अपने भीतर से ही प्राप्त हो जायेगा, जिस दिन तुम स्वयं को जान जाओगे -अपने यथार्थ स्वरूप की अनुभूति हो जाएगी।  तो परम् सत्य को भी समझ जाओगे। परम सत्य की खोज करने की पद्धति या आत्मविश्लेषण करने की तकनीक माण्डूक्य उपनिषद में बतलायी गयी है।
मेढ़क को संस्कृत में माण्डूक्य कहते हैं मेंढक चलता नहीं है, उछलता -कूदता है। और उछल -उछल कर अपने लक्ष्य में पहुँच जाता है। उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में बैठी हुई जीवात्मा एक ही बार में उछलकर परमात्मा के पास पहुँच जाएगी। इसको मण्डूकप्लुति न्याय या मण्डूक न्याय कहते हैं।  
इसमें आत्मा को चार अवस्थाओं वाला, या चार पक्षों वाला बताया गया है।  -4 aspects of Atman:  
"सर्वं ह्येतद्‌ ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात्‌ ॥२॥ अन्वय -एतत् सर्वं हि ब्रह्म। सः अयम् आत्मा चतुष्पात् ॥यह सम्पूर्ण 'विश्व' 'शाश्वत-ब्रह्म' ही है यह 'आत्मा' 'ब्रह्म' हैं एवं 'आत्मा' चतुर्विध है, इसके चार पाद हैं। आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। तुरीय (चतुर्थ) का शाब्दिक अर्थ है - चौथा। इस 'तुरीय' शब्द का प्रयोग पहली बार गौड़ापादाचार्य (७वीं सदी) ने माण्डूक्य कारिका में किया था। इसमें तीन पहलू के विषय में हम सभी जानते हैं, किन्तु चौथी अवस्था को जानने की तकनीक इसमें दी गयी है। आत्मा कोई गूढ़ चीज नहीं यह तुम्हारी ही चार अवस्थाओं में अभिव्यक्त हो रहा है। 
जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति से हम सभी परिचित हैं। तुम पहले एक अनुभवकर्ता हो और जगत का अनुभव कर रहे हो। जाग्रत अवस्था में ये भौतिक स्थूल शरीर मैं हूँ, इन्द्रियग्राह्य जगत मेरे सामने है और एक स्त्री/पुरुष शरीर की जिंदगी जीना मेरा अपना जीवन है। यह अवस्था तुम्हारी, यानि आत्मा की पहली अवस्था है। तुम जब स्वप्न अवस्था में रहते तो स्वप्न को भी सत्य जैसा अनुभव करते हो। जैसा जाग्रत अवस्था में अनुभव होता है -उतना ही सच स्वप्न भी मालूम होता है ! -यह केवल एक सपना था इसका पता जागने के बाद ही चलता है। स्वप्न में तुम्हारा एक dream body होता है, एक स्वप्न द्रष्टा होता है और एक स्वप्न लोक होता है, जिसमें स्पर्श-छूना चखना, सुनना सूंघना सभी इन्द्रिय विषयों की सच्ची अनुभूति करता है, यह आत्मा की अर्थात तुम्हारी ही दूसरी अवस्था है। 
सुषुप्ति में चेतना नहीं है -इसका अनुभव होता है। इसीलिए जागने पर हम कहते हैं, कितनी अच्छी नींद आयी। ये मेरे-तुम्हारे सभीके अनुभव में नित्य आने वाली तीन अवस्थाएं हैं। इस अवस्था में मन या सूक्ष्म शरीर हमारा अन्तःकरण पूरी तरह निद्रित हो जाता है। इस अवस्था को तुम्हारी causal aspect या कारण शरीर कहा जाता, अर्थात सुषुप्ति अवस्था बरगद के उस छोटे से बीज के सदृश है, जिसमें बरगद का पूरा विशालकाय वृक्ष क्रमसंकुचित अवस्था है। जैसे छोटे से बीज से पौधा निकलता है, उसी प्रकार आत्मा के इस 'कारण पहलू' से ही स्वप्न लोक (सूक्ष्म शरीर)  और जाग्रत लोक (स्थूल शरीर) भी निकलता है। यही कारण शरीर आत्मा की बाकी दोनों अवस्थाओं का कारण है। इस प्रकार तुम्हारी या आत्मा की या मेरी तीन अवस्थाएं हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर। 
जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति को स्पष्ट रूप से समझा देने के बाद, वेदान्त अब मेरी चौथी अवस्था, तुम्हारी या आत्मा की चौथी अपरिवर्तनीय अवस्था, या मेरे सत्य स्वरूप से मेरी चौथी - 'तुरीय अवस्था' से मेरा परिचय करवाना चाहता है। यहाँ से उपनिषद का प्रशिक्षण प्रारम्भ होता है। 
जनक राजा जब महातेजा नहीं हुए थे, अर्थात जब राजा जनक ब्रह्मविद नहीं हुए थे उस समय की एक कहानी है। एक दिन स्वप्न में राजा जनक ने देखा कि भयंकर युद्ध में शत्रु राजा ने उसे पराजित कर दिया है और उसके सैनिक घायल अवस्था में, उन्हें घसीटते हुए शत्रु राजा के सामने ले जा रहे है। शत्रु राजा किसी कारणवश उन्हें फाँसी पर तो नहीं लटकाता, किन्तु देश-निकाला दे देता है। भीख माँगने से भी कोई उसको खाना नहीं देता है, कल तक जो राजा था आज वह दाने -दाने को मोहताज हो जाता है। दो -तीन भूखे प्यासे पैदल चलते हुए राजा जनक अपने राज्य की सीमा लाँघ कर पड़ोसी राज्य में पहुँच जाते हैं। इससे पता चलता है कि उनके राज्य का क्षेत्रफल या सीमा बहुत बड़ी नहीं रही होगी। किसी मंदिर में दरिद्रनारायण को खिचड़ी- भोजन करवाया जा रहा था, फटेहाल जनक भी कतार में बैठ जाते हैं। तब तक खिचड़ी खत्म हो जाती है, परोसने वाला कहता है, भले घर के लगते हो, दुर्भाग्य वश यहाँ आये हो-तुमको बाल्टी खुर्चन ही दे सकता हूँ। राजा जनक इतने भूखे थे कि बोले हाँ -हाँ जो है वही दे दो। पत्तल में कांपते हाथों से राजा जनक खिचड़ी खाने की सोंच ही रहे थे -कि एक चील्ह झपट्टा मारकर उनके पत्तल को धूल में गिरा देता है। हाहाकार करते हुए जनक विलाप करने लगते हैं। उनकी नींद टूट जाती है -तब देखते हैं मैं तो बिस्तर पर अपने महल में ही हूँ ! लेकिन उनकी सांसे उस समय भी जोर जोर से चलती रहती है। अगर वे भी हमलोगों की तरह साधारण गृहस्थ होते तो कहते -ओह, यह सपना था, चलो थोड़ा घूम आते हैं। किन्तु जनक तो दार्शनिक स्वाभाव के थे। 
वे कहते हैं - " मैं अभी जो देख रहा हूँ यह सच है, या जो सपने में देखा वह सच था ? 'वो सच या सच ?' रानी आकर पूछती है क्या हो गया ? सपने इतने जोर से बिगड़ किस पर रहे थे ? उससे भी कहते हैं -वह सच था या यह सच है ? वैद्य को बुलवाती है -उससे भी कहते हैं, यह सच है या वह सच था ? उस समय ट्विटर -फेसबुक नहीं था पर सुबह होते होते पूरे जनकपुर यह खबर फ़ैल गया कि राजा जनक पागल हो गए हैं। उनके गुरु अष्टावक्र जी को समाचार मिलता है कि जनक पागल हो गए हैं। वे जनक से मिलने राजदरबार में जाते हैं , तो देखते हैं मंत्री कोई फाइल साइन करवाने लाते हैं -तो साइन करने के बजाय उन लोगों से भी पूछ रहे हैं -'वह सच था या यह सच है ?' अष्टावक्र जी पूछते हैं राजा जनक आज आप कैसे हैं? उनसे भी कहते हैं -वह सच या यह सच ? अष्टावक्र जी वेदान्ती थे -वे सबों के मन को पढ़ सकते थे। वे उनके स्वप्न की अवस्था को याद दिलाते हुए पूछते हैं, जिस समय तुमको घसीट कर दुश्मन राजा के सामने ले जाया गया था, उस समय क्या तुम्हारे साथ ये सभी दरबारी, मंत्री लोग भी  थे, जो इस समय यहाँ बैठे हुए हैं ? राजा जनक को मानों धक्का लगा, अब वे जगे अर्थात चौंक गए ! अरे नहीं, और बोले  -ये सब तो कोई वहां नहीं थे। उस समय तुमको जिस कारण से भयंकर दुःख, संताप और पश्चाताप का अनुभव हो रहा था, क्या वैसा कोई कारण अभी दीख रहा है ? राजा जनक ने कहा -नहीं, अभी तो मैं आराम से अपने राजमहल में राजसिंहासन पर बैठा हूँ। अष्टावक्र बोले उसी तरह हे राजन, " न ये सच है, न वो सच था !" तब राजा जनक बिल्कुल चौंक पड़ते हैं। और अष्टावक्र जी से पूछते हैं -तो क्या इसका मतलब कुछ भी सत्य नहीं है? 
जाग्रत अवस्था, स्वप्न अवस्था कुछ भी सत्य नहीं है ?
अष्टावक्र कहते हैं -जिस समय तुम्हारे पत्तल को बाज ने धूल में गिरा दिया था -उस समय भी तुम थे या नहीं? तुमने उस समय सब कुछ जीवंत देखा था या नहीं ? जनक बोले हाँ -बिल्कुल देखा था ! इस समय इतना बड़ा राजमहल है , तुम राज सिंहासन पर बैठे हो -यह भी सच नहीं है; किन्तु इसका अनुभवकर्ता तुम इस समय भी हो या नहीं ? हाँ, मैं इसे इंकार नहीं कर सकता मैं राजा हूँ इसका अनुभव कर रहा हूँ। तो तुम वहाँ भी थे और यहाँ भी हो ? न वो सच था न यह सच है किन्तु तुम स्वयं सत्य हो ! 'न ये सच न वो सच तुम ही सच !' (जिस दीठै सब दुःख जाये !)
यह कहानी उपनिषदों के बुनियादी प्रशिक्षण का अच्छा उदाहरण है। वास्तविक मैं कौन हूँ ? जाग्रत अवस्था में, अर्थात इस समय जो 'आत्मा या मैं' हूँ, जो मैं  अभी हूँ; वह स्वप्न अवस्था की आत्मा या मैं नहीं था। किन्तु इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते कि साक्षी चेतना (witness consciousness) या अनुभवकर्ता के रूप में तुम सभी अवस्थाओं में विद्यमान थे ! वह अवस्था सत्य था या मिथ्या ? यह एक अलग प्रश्न है, किन्तु अनुभवकर्ता के रूप में तुम तीनो अवस्थाओं में सामान्य common रूप से विद्यमान थे। जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति की अवस्थाएं आती जाती रहती हैं किन्तु हर अवस्था में तुम अवश्य होते हो। One common awareness एक सामन्य चेतना जो तीनो अवस्थाओं को प्रकाशित करती है, और हर अवस्था में उपस्थित रहती है वेदान्त उसको ही यथार्थ 'मैं' आत्मा की चौथी सत्य अवस्था, या तुरीयं कहता है। किन्तु वह चौथी अवस्था नहीं हैं - वही वास्तविक आत्मा है, वही मैं हूँ, वही तुम हो। बाकी तीन अवस्था -स्थूल आत्मा-जाग्रत, सक्ष्म आत्मा-स्वप्न और कारण आत्मा-सुषुप्ति की आत्मा -प्रतिभासीकआत्मा (apparent self) है। आत्मा की प्रातिभासिक अवस्थाएं ये आती जाती हैं अपना जीवन यापन करती हैं -लीला करती रहती हैं, चली जाती हैं। जो साक्षी आत्मा (witness consciousness) इन सब अवस्थाओं को अनासक्त होकर देखती रहती है -वही तुम हो ! 
माण्डूक्य उपनिषद का 7 वां मंत्र सभी उपनिषदों का सार मंत्र है। जिसमें तुम्हारे सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है - 'प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः' नान्तःप्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्। अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ।]
प्रपञ्चोशमम्: यह शरीर पाँच विभिन्न कोषों से बना हुआ जिन्हें अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमयकोष, आनन्दमयकोष के नाम से जाना जाता है। जीवन जीते हुए जब हमारा ध्यान स्थूलशरीर (gross body ) के कार्य-कलापों पर केंद्रित होता है, तब हम उस समय जाग्रतअवस्था में [अन्नमयकोष में जी रहे होते हैं। जब हमारा ध्यान शरीर की प्राणवायु, स्नायु तंत्रों, नाड़ियों आदि पर आधारित कार्य-कलापों से प्रभावित होकर साँस अथवा जीवन संचालिनी वायु पर केंद्रित होता है तब हम प्राणमयकोष में जी रहे होते हैं। जब हमारा ध्यान शरीर की अपेक्षा अपनी मनो भावनाओं पर केंद्रित होता है, तब हम सूक्ष्मशरीर (subtle body) मनोमयकोष में जी रहे होते हैं। जब हमारा ध्यान अपने शरीर, मन की अपेक्षा बौद्धिक और तार्किक प्रक्रियाओं में लगा होता है, तब हम विज्ञानमयकोष में जी रहे होते हैं।] जब हमारे शरीर, मन, बुद्धि सक्रिय नहीं होते हैं उस अवस्था में हम इन सभी के प्रभाव में न होकर शांत, आनन्दावस्था में होते हैं। यह अवस्था कारणशरीर (causal  body) [गहननिद्रा में भी हमें प्राप्त होती है, जिस आनंदमयकोष से हमें अपने नित्य प्रति के जीवन की ऊर्जा मिलती है।]  जब जाग्रत अवस्था में (मनःसंयोग करते समय माँ सारदा देवी की कृपा से) इस क्षण और आने वाले मृत्यु के क्षण के बीच हमारा मन अचल या एकाग्र हो जाये, हमारे तीनों शरीरों (5 कोषों) का प्रपञ्च शांत हो और हम कारणशरीर (causal body या पाँचवें कोष) से प्रभावित होकर निद्रा में न हों, तब उस प्रपञ्चोशमअवस्था, आत्मा की चौथी अवस्था या अपनी तुरीय अवस्था  में पहुँचकर हम 'विवेकज ज्ञान' प्राप्त करके परमात्मा के साथ आत्मा के अद्वैत को जान सकते हैं, और सदा के लिए डीहिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं। "वह साक्षी (witness consciousness या ब्रह) मैं हूँ!" इसकी अनुभूति हो जाती है, और वेदांत चारो महावाक्यों का मर्म स्पष्ट हो जाता है।
शान्तं - परमात्मा शान्त है। यह शान्तं ओम के उच्चारण का अंतिम चरण है। यह शान्त वही स्थिति है जो सभी प्रपञ्चों की समाप्ति की स्थिति है। सृष्टि के आरंभ से पहले भी यही शान्त है और सृष्टि के अंत के पश्चात् भी यही शान्त है। जिस प्रकार पुराने समय एक डण्डे के शीर्ष पर बंधी अग्नि पताका को हाथों से तेज गति से एक चक्र में घुमाया जाता था। उस घूमते चक्र को देखने पर एक वृत्त दिखाई देता था, वहीं जब घुमाने वाले हाथ रुक जाते थे तो वृत्त अदृष्ट हो जाता था। आधुनिक उदाहरण लें तो, मेज पर रखे हवा देने वाले electric fan जब तेज गति से चलकर हवा देता है तो उस समय उसकी पंखी नहीं दिखती, बल्कि एक ठोस वृत्ताकर चकरी दिखती है। उसी प्रकार सारे प्रपञ्च शांत हो जाने पर परमात्मा का ज्ञान सुलभ हो जाता है। ऋषि, मुनि और ज्ञानी लोग सदा कहते हैं कि मन इतना अधिक प्रमथनशील है कि उसकी चकरी अनवरत् चलती रहती है। इस चलती चकरी के कारण शान्त अवस्था नहीं आती और वह परमात्मा सुलभ नहीं होता। जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब योग में शान्तं स्वरूप की अनुभूति हो जाती है।  शिवम् -शिव का अर्थ है कल्याण। चूँकि यह जगत् परमात्मा से ही उद्भव होता है इसलिए स्वाभाविक ही है कि परमात्मा इस जगत् के लिए शिव हैं, कल्याण हैं।स विज्ञेयः अद्वैतं - अद्वैतम् का अर्थ है जिस जैसा कोई दूसरा नहीं है। इसे समझने का एक सरल उपाय है अपने आस-पास दृष्टि दौड़ाना। पृथ्वी के विषय में जब से हमारी जानकारी बढ़ी है, हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी पर फैली सर्वत्र वायु एक ही है, वही वायु एक स्थान से दूसरे स्थान पर आती जाती रहती है, उसके कोई खण्ड नहीं है। ऐसा नहीं है कि भारत की वायु और चीन की वायु अथवा अमेरिका की वायु वास्तव में अलग है और अफ्रीका और यूरोप की वायु अलग। परंतु इससे भी अधिक अच्छा उदाहरण आकाश या वैज्ञानिक शब्दों में कहें तो अंतरिक्ष का है। इसी अंतरिक्ष को हम ब्रह्माण्ड के नाम से भी जानते हैं। हम यह भी जानते हैं कि ब्रह्माण्ड एक ही है। 
अगर ध्यान दें तो ब्रह्माण्ड शब्द स्वयं ब्रह्म अर्थात् परमात्मा के विषय में हमें जानकारी देता है। इसी से हमें पता चलता है कि ब्रह्माण्ड परमात्मा में है , न कि परमात्मा ब्रह्माण्ड में (ब्रह्माण्ड मुझमें है न की मैं ब्रह्माण्ड में हूँ ! मैं '' हूँ !)। जब ब्रह्माण्ड एक है तो परमात्मा भी एक ही है, अद्वैतम् है। सः आत्मा स विज्ञेयः ऋषि कहते हैं, जो शान्त है, शिव है, वही अद्वैत है वही आत्मा की तुरीय अवस्था है, अर्थात मेरी और तुम्हारी चौथी अवस्था  है ? नहीं, वही तुम हो !  वह 'साक्षी आत्मा' (witness consciousness) जिसमें यह सम्पूर्ण जगत अवस्थित है; और उसे ही जानना चाहिए और उसका साक्षात् ज्ञान करना चाहिए न कि मानवीय बुद्धि की सीमाओं में अटककर अपने को बंधनों में बाँधे रहना चाहिए। 
[सौजन्य  https://adhyatm.pustak.org/]
इतना समझ गए तब उपनिषदों का सबसे शक्तिशाली ७ वां मंत्र कहता है -नान्तःप्रज्ञं (dreamer) न बहिष्प्रज्ञं (waker-जाग्रत अवस्था में रहने वाला, जगाने वाला) नोभयतः प्रज्ञं (not an intermediate state, मूर्छित अवस्था, mystical state,ecstatic state में रहने वाली अवस्था भी तुम नहीं हो) न प्रज्ञान घनं (deep sleeper सुषुप्ति अवस्था भी तुम नहीं हो) न प्रज्ञं (awareness of God की अवस्था भी तुम  नहीं हो, हमलोग भगवान से भी परे की अवस्था -reality of God या परम् सत्य हैं। ) नाप्रज्ञम् (तो क्या हम अचैतन्य unconscious पत्थल हैं ? नहीं, तुम अचैतन्य भी नहीं हो)। अदृष्टम् अव्ययवहार्यम् अग्राह्यम् अलक्षणम् अचिन्त्यम् अविपदेश्यम् एकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमम् शान्तं शिवम् अद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः। ७।  
इस मंत्र में प्रज्ञा शब्द का उपयोग कई बार किया गया है।  क्या है प्रज्ञ? प्रज्ञ वह स्थिति है जिसमें एक चेतन प्राणी अपने आस-पास के बारे में समूल जानकारी प्राप्त करता है। सामान्य गृहस्थ जीवन जीने वाले (प्रवृत्ति मार्गी जीवन किन्तु निवृत्ति अस्तु महाफला को श्रेय मानने वाले) साधक का जीवन जीते हुए परमात्मा की खोज करते समय हम अपनी बुद्धि का प्रयोग जीवन पर्यन्त करते रहते हैं। वास्तव में यह बुद्धि ही मनुष्य का सबसे बड़ा अस्त्र है, कल है, औजार है। परंतु इसकी सीमा कहाँ तक है? इस बारे में इस श्लोक में विचार किया गया है। इस प्रकार परम तत्व के विषय में ऋषि कहते हैं कि --परमात्मा यानि 'तुम' अपने अंदर (मन, बुद्धि, अहंकार आदि) को देखने वाली प्रज्ञा नहीं हो । तुम तीनों अवस्थाओं में से कोई नहीं हो। या कोई विशेष मानसिक अवस्था भी नहीं है। किन्तु अचेतन भी नहीं है।  न ही तुम (परमात्मा) बाह्य जगत् में अर्थात् इंद्रियों के प्रयोग से जगत् का अनुभव कर सकने वाली प्रज्ञा हो। हमारे बाहर और अंदर दोनों प्रकार के अनुभवों की पहचान करते हुए एक ही समय में इन दोनों अनुभवों का ज्ञान करने वाली प्रज्ञा भी तुम नहीं हो। परमात्मा प्रज्ञान घन अर्थात् जब गहरी नींद की अवस्था में केवल और केवल प्रज्ञा ही उपलब्ध हो वह प्रज्ञान घन भी तुम नहीं हो । तुम इन सब प्रकार के बुद्धि के रूपों से परे तथा बिना किसी विशेषण वाली प्रज्ञा भी नहीं हो। यहाँ तक कि प्रज्ञा की अनुपस्थिति होती है तब वह स्थिति, मूर्छित अवस्था भी तुम नहीं हो। अंतर, बाह्य और उभय प्रकार की बुद्धियाँ तो सरलता से समझ में आ जाती है, परंतु “न अप्रज्ञं” हमें दिग्भ्रमित कर सकता है। इस हेतु ऋषि यहाँ बल देकर यह कहते हैं कि, हम प्रज्ञ शब्द को जिस भी प्रकार के विचार से सोंच -समझ  सकते हैं, उनमें से तुम कोई भी नहीं हो । बुद्धिवादी व्यक्ति जीवन में बुद्धि को ही अंतिम नियंता समझने लगते है, इसलिए इस श्लोक में ऋषि इसका निषेध करते हैं। तब वास्तव में मैं (परमात्मा) कौन हूँ? 
इसके उत्तर में ऋषि कहते हैं -अदृष्ट:  क्या मैं अपने विचारों को अथवा अनुभवों को देख सकता हूँ ? नहीं! इसीलिए यहाँ जब ऋषि कहते हैं कि, " तुम (परमात्मा) अदृष्ट हो " अर्थात् ज्ञाननेंद्रियों से दिखने वाली चीज नहीं हो , तब हम उसका अर्थ यही समझते हैं कि मेरा यथार्थ स्वरूप (परमात्मा) आँखों को दिखने वाली वस्तु नहीं है। उसके होने या न होने का अनुमान इंद्रियों को नहीं लगता। अव्यवहार्य: ब्रह्म को तुम अपने किसी उपयोग में नहीं ला सकते ! तो क्या यह पूर्णतया कोई बेकार वस्तु है ? Brahman is totally useless? 😎नहीं हंसी में कहा है। जब हम अपनी बुद्धि अथवा मन के द्वारा जब हम किसी अन्य के साथ कोई मानसिक अथवा भौतिक कार्य करते हैं, तब उसे व्यवहार कहा जाता है। हम समझ चुके हैं कि मेरा यथार्थ स्वरूप (परमात्मा) अदृष्ट है, लेकिन वह अव्यवहार्य भी है, अर्थात् परमात्मा के साथ कर्मेन्द्रियों द्वारा कोई लेन-देन नहीं किया जा सकता। उसका सम्मान अथवा अपमान नहीं किया जा सकता। उसे आराम नहीं पहुचाया जा सकता है, उसके साथ अच्छा व्यवहार अथवा अशिष्ट व्यवहार नहीं किया जा सकता। परमात्मा के साथ शिष्ट अथवा अशिष्ट दोनों प्रकार के व्यवहार नहीं किया जा सकता। परमात्मा एक और कोई जीव (मनुष्य, कुत्ता, मछली या अन्य कोई जीव) आदि नहीं है। इसलिए उसके साथ अन्य जीवों की भाँति व्यवहार नहीं हो सकता। अव्यवहार्य कहने के पीछे ऋषि की वास्तविक मंशा यही है कि हम अपने यथार्थ स्वरूप को (परमात्मा को) अन्य जीवों की तरह समझने की त्रुटि न करके अपनी बुद्धि को सामान्यतः की जाने वाली भूल से बचाएँ!
अग्राह्य: मेरा यथार्थ स्वरूप (परमात्मा) भौतिक रूप से ग्रहण की जा सकने वाली- कोई अयोध्या, मक्का या येरुशलम जाकर प्राप्त होने वाली इन्द्रियग्राह्य वस्तु नहीं है। इन्द्रियातीत अवस्था या तुरीय अवस्था में अपने निज स्वरुप में ही मेरे अपने स्वरूप का अनुभव हो सकता है। 
अलक्षण: धुँए को देखने से अग्नि का संकेत मिलता है। अचल को देखकर जड़ और चल को देखकर चेतन वस्तुओं का ज्ञान होता है। परंतु ऋषि कहते हैं कि परमात्मा जड़ और चेतन दोनों से परे भी है और इन दोनों में ही विद्यमान है।  इस विचार से परमात्मा को जानने के लिए कोई निश्चित संकेत नहीं किया जा सकता, इसी कारण से हम दिग्भ्रमित हो जाते हैं।  यह अवश्य है कि ज्ञानियों ने इसके लिए प्रक्रिया बताई है जिसे हम वेदान्त अथवा औपनिषदिक ज्ञान के रूप में जानते हैं।अचिन्त्य: क्या मैं अपने स्वरुप के बारे में कोई कल्पना कर सकता हूँ ?  यहाँ ऋषि कहते हैं कि परमात्मा अचिन्त्य है तो इससे उनका तात्पर्य है कि सोचने मात्र से परमात्मा नहीं प्राप्त होता। हम जानते हैं कि किसी विषय पर विचार करना चिंतन कहलाता है। यह भी स्पष्ट है कि चिंतन बौद्धिक कार्य है। परमात्मा की साधना में बुद्धि और चिंतन काम तो आते हैं, परंत केवल एक सीमा तक। तार्किक विधि से अथवा प्रयोगात्मक विधि से परमात्म ज्ञान नहीं होता। केवल चिंतन से परमात्मा नहीं प्राप्त होता, परंतु चिंतन साधक को इस योग्य बनाता है कि परमात्म ज्ञान की दिशा में यथोचित् प्रगति हो सके।
अविपदेश्य: (unnamable- अनुल्लेखनीय) भाषा में इसे नहीं बताया जा सकता। जिस समय इस उपनिषद् की रचना की गई उस काल में किसी छात्र या शिष्य को ज्ञान देने की प्रशिक्षण पद्धति को ही उपदेश देना कहते थे। किन्तु केवल उपदेश देने या सुनने से मैं स्वयं को या परमात्मा को पूर्णतः तो नहीं समझा जा सकता, परंतु उपदेशों के श्रवण और मनन से साधक को परमात्मा को समझने में सहायता मिलती है। इस प्रकार श्रवण, मनन और निदिध्यासन से परमात्मा को जाना जा सकता है।अद्वैत वेदांत और विरोधाभास की भाषा 'Advaita Vedanta and language of paradox' इस विशेषण का मूल अर्थ यही समझा जा सकता है कि केवल बुद्धि और बौद्धिक तर्कों तथा साधनों के प्रयोग द्वारा परमात्मा को समझना संभव नहीं है।
एकात्मप्रत्ययसारम्: अभी तक नेति-नेति (न इति – न इति अर्थात् यह नहीं, यह नहीं) का प्रयोग करके ऋषि ने आत्मा के या तुम्हारे किन-किन शरीरों या अवस्थाओं को सत्य मानने से इंकार कर दिया (denied) ? यह जागने वाला स्थूल शरीर (waker) नहीं है, स्वप्न देखने वाला सूक्ष्म शरीर (dreamer)नहीं है, या गहरी निद्रा में सोने वाला कारणशरीर (deep sleeper) भी नहीं है। यही मेरी और जगत की सत्यता का वर्णन इस सातवें मंत्र में किया गया है - स्थूल, सूक्ष्म या कारण शरीर इन तीनों शरीरों में से मेरा यथार्थ स्वरूप कोई भी नहीं है। स्वप्नलोक, दृष्टिगोचर लोक,blankness या शून्यता को अस्वीकृत करने के बाद,  नेति -नेति का प्रयोग करने के बाद ऋषि अब बताते हैं कि मैं वास्तव में कौन हूँ ? परमात्मा क्या है ? परमात्मा एक है, परमात्मा सभी प्रत्ययों अर्थात् विचारों का सार है। 'continuous 'I' cognition' एक आत्मा जो प्रत्ययों का सार है।
you can't say I am in deep sleep, if you say that, then you are not in deep sleep 
जिस समय तुम गहरी नींद में सो रहे होते हो, उस समय भी तुम रहते हो, किन्तु उस समय मन नहीं रहता इसलिए तुम नहीं कह सकते कि 'मैं'-गहरी नींद में सो रहा हूँ ! यदि माँ बेटे को जांचने के लिए बोले- 'मेरा मुन्ना सचमुच सो गया है, तो वह जरूर अपना बायाँ पैर हिलायेगा।' और यदि मुन्ना पैर हिला दे तो माँ समझ जाती है कि मुन्ना सोया नहीं है। 'निरंतर 'मैं'-पन  का संज्ञान' इस जाग्रत अवस्था का अनुभव कौन कर रहा है ? 'मैं'! उस रोज स्वप्न देखने वाला 'मैं' स्वप्न में 'राजा जनक' भी उपस्थित था। स्वप्न झूठा हो सकता है, किन्तु स्वप्न देखने वाला ~ पर मैंने स्वप्न देखा था, वह झूठा नहीं होता। -पर उस समय भी तुम रहते हो। जागने पर नहीं कहते -'I slept happily!'  मैं सुखपूर्वक सोया था ! >वह आम 'मैं' कौन है जो प्रतदिन जागने, सपने देखने और गहरी नींद की स्थिति में आने-जाने के बाद भी अस्तित्व में होता है, या जीवित बचा रहता है? (what is that common 'I' which survives the coming and going of the waking, dreaming and deep sleep state?)  
एकात्मप्रत्ययसारम्-वह मैं-पन ही संकेतक (pointer) है, वह मैं-पन भी आत्मा नहीं है, किन्तु आत्मा के अस्तित्व का संकेतक है। उसी पर मन को एकाग्र करो, उसीका अनुसन्धान करो कि -अगले क्षण मरने वाला कौन है ?  तब तुम अपने स्वरूप को 'प्राप्त कर लोगे' - क्योंकि तुम पहले से वही इस सत्य का अनुभव कर लोगे। प्रत्यय सार को समझने के लिए शंकराचार्य कहते हैं कि जिस प्रकार हर लहर का सार जल है उसी प्रकार हर विचार का सार चेतना है। समस्त जगत् में व्याप्त यह चेतना केवल एक ही है जो सभी विचारों, मन, बुद्धि, अहंकार और विभिन्न मानवीय गुणों का मूल कारण है। यह 'मैं' कौन है -जो सभी अवस्थाओं में जो साक्षी है ?वह common 'मैं' ही एकमात्र वस्तु है -जो तुम वास्तव में हो -प्रपंच उपशमम, (silence of universe) तुम्हारी वास्तविक आत्मा ब्रह्मांड की चुप्पी है, शान्तं: परमात्मा शान्त है। 
यह शान्त ओम के उच्चारण का अंतिम चरण है। 
यह शान्त वही स्थिति है जो सभी प्रपञ्चों की समाप्ति की स्थिति है। इन्द्रियातीत अवस्था में अनुभव की जाने वाला परम् सत्य तुम हो। 'your real self is the silence of the universe' तुम्हारी वास्तविक आत्मा ब्रह्माण्ड का शांत हो जाना है। इसीको वेदान्त में 'जगत (नाम-रूप) केवल एक प्रतीति है। माया है। 'ब्रह्मसत्य जगत मिथ्या' यही इस शब्द का अर्थ है। शान्तं -क्योंकि वहाँ जगत का विश्वब्रह्माण्ड का भी अभाव हो जाता है, इसलिए वही शांति की अवस्था तुम हो। इसका अर्थ यह नहीं कि तुम शांतिप्रिय (peaceful) हो, बल्कि तुम स्वरूपतः शांत हो, तुम्हारा नाम ही शांत है। शिवं - तुम कल्याण हो, अर्थात तुम bliss आनंद स्वरूप हो। वेदान्त हमें सर्व दुःखों से बाहर निकाल कर अपने आनंद स्वरूप में प्रतिष्ठित कर देता है। जब हम अपनी चौथी अवस्था का साक्षात्कार लेते हैं, जो शेष तीन अवस्थाओं से परे की अवस्था तुरीय अवस्था है। आनंद समुद्र का जल ही स्थूल-सूक्ष्म-कारण विभिन्न नाम-रूप धारण कर रहा था। वह जल जो तरंग नाम-रूप बन कर उठना गिरना समाप्त कर चुका होता है, वह सर्व दुःखों से परे चला जाता है।
अद्वैतं - दो नहीं, एक ! तुम्हारे सच्चे स्वरूप के सिवा और कोई सत्य नहीं है।  जब सब कुछ एक है, तब जो कुछ भी हम देख रहे हैं, वह सब मैं ही हूँ , 'You are Me in another form !' 49.20 /चतुर्थं मन्यन्ते - ज्ञानी लोग ऐसा मानते हैं कि यही चतुर्थ अवस्था है। उन तीनो अवस्थाओं को भूलना नहीं है, क्योंकि उन तीनो की अपेक्षा यह चौथी अवस्था है। स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीरों की अपेक्षा यह चौथी अवस्था है, ऐसा प्रतीत होता है।  किन्तु उपनिषदों के अनुसार यह तुम्हारी वास्तविक आत्मा है -अष्टावक्र जी ने जनक को कहा तुम वास्तव 'वह' हो! जो तीन अवस्थाओं में आता-जाता प्रतीत होता है। पर ये तीन शरीर सत्य नहीं हैं। जाग्रत अवस्था का जगत और स्वप्नलोक सत्य नहीं हैं, वे उसी तुरीय सत्य की दिखावे, लीला या नाटक (appearances) है ! अपरिवर्तनीय जागरूकता (unchanging awareness), मौलिक चेतना\( fundamental consciousness) ही चार अवस्थाओं में प्रतीत होती है, किन्तु वास्तव में वह केवल एक है। 'तत्त्वमसि!' वह साक्षी चेतना तुम हो !
 इस मंत्र का लक्ष्य था कर्तापन का अभिमान रखने वाला 'मैं'-पन या व्यष्टि-अहं को तुरीय-अहं (सर्वव्यापी विराट माँ जगदम्बा के अहं) में रूपांतरित कर देना। जो तीनो शरीरों से परे है -स आत्मा ! स विज्ञेयः ! 'first hear it then understand it' पहले श्रवण -'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ' ---पहले यह सुन लिया, उसके बाद मनन , सत्य-असत्य-मिथ्या को विवेक-प्रयोग द्वारा मन में जमा लिया; उसके बाद निदिध्यासन - अर्थात मिथ्या वस्तु जगत (नाम-रूप) को त्यागकर, सदवस्तु ब्रह्म (माँ जगदम्बा के अवतार श्रीरामकृष्ण देव) के ध्यान में मन को ऐसा लगा दिया, कि वे हमारे लिए एक 'living reality' जीवंत वास्तविकता बन जाएँ। बस इतना ही। 
हमारा यथार्थ पवित्र स्वरूप इसी समय जीवंत वास्तविकता है, किन्तु अज्ञान के कारण हमें उसका अनुभव नहीं होता है। हमलोग एक प्रकार के अर्ध-निद्रित अवस्था, अर्ध-जाग्रत अवस्था में हैं। पासपोर्ट या आधार कार्ड पर जो मेरा परिचय लिखा है -वही मैं हूँ ? गहरी निद्रा में या कारण शरीर में बीज के जैसा प्रारब्ध छिपा रहता है, जाग्रत अवस्था में उसका फल मिलना प्रारम्भ हो जाता है।  किन्तु ऐसा न कर सुन लिया, समझ लिया किन्तु 'निदिध्यासन' नहीं किया अर्थात जो मिथ्या वस्तु है (देहाध्यास) उसे त्यागने की चेष्टा नहीं की ? अर्थात  प्रवृत्ति मार्ग रहते हुए आध्यात्मिक शिक्षक बन जाने के बाद, 'निवृत्ति अस्तु महाफला' के महत्व को जान लेने के बाद भी, जो निसिद्ध कर्म या नीतिविरुद्ध कर्म है उन्हें त्यागने की चेष्टा नहीं की -कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति को त्यागने की चेष्टा नहीं की।  तो फिर यह सांसारिक लोगों के ज्ञान जैसा है। उस ज्ञान से वस्तु (ब्रह्म) की प्राप्ति नहीं हो सकती। 'यह जगत तीन काल में मिथ्या है ' मुख से वेदान्त चर्चा किन्तु व्यवहार में किसी निषिद्ध कर्म करके (धर्मपत्नी को छोड़ अवैध सम्बन्ध जैसा कर्म करके) कोई यदि यह तर्क दे, जब संसार ही मिथ्या है, तब यह सम्बन्ध भी मिथ्या ही है - तो ऐसे वेदान्तज्ञान में आग लगे ! 'ब्रह्म सत्य तथा जगत मिथ्या का विवेक' यह कहता  श्रेय को पहचान कर सत्य को चुन लेना है, और मिथ्या को व्यावहारिक सत्य समझकर उसकी सेवा में जीवन को न्योछावर कर देना है। इसकी धारणा हो जाना ही वेदान्त है !तुरीय अवस्था की अनुभूति करने के बाद संसार में रहो, तो बाकी तीनों अवस्था का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मृत्यु के भय से मुक्त हो जाओगे। 
क्योंकि आत्मा असङ्ग है  (teflon, न चिपकू पदार्थ non sticking) है। जीवन में कभी दुःख भी आ सकता है, परन्तु तुम्हारा अस्तित्व अवश्य रहेगा। संसार की कितनी समस्याएं आयीं और चली गयीं, लोग मिलते गए -बिछुड़ते गए। अपना यह शरीर भी कितना बदल गया ? तथा कथित 'great lovers !' जो कभी कहते थे, मैं अमुक जर्मन पिल्लै के बिना जी नहीं सकूंगा, उसके घर में -उसी जर्मन पिल्लै के जैसे न जाने कितने पिल्लै बाद में आते रहते हैं, किन्तु वह उन सबसे निरपेक्ष भाव बनाये रखता है। अब वह व्यक्ति बिलकुल बेफिक्र दीखता है।  ये जो महान 'मजनू टाइप प्रेमी' लोग होते हैं, न जाने कितनी 'लैलाओं' के मरने के बाद भी खुद जीवित बचे रहते हैं। [क्योंकि आत्मा असङ्ग है, किसी एक संसारी वस्तु में चिपकती नहीं है, इसीलिए '72 वर्षीय महान प्रेमी टुन्नाजी कुमकुम के मरने के एक वर्ष के भीतर 35 वर्षीय दूसरी पत्नी से शादी कर लेते हैं।] 
क्योंकि साक्षी चेतना अपरिवर्तनीय, शाश्वत या अमर होती है ! इसलिए तुम, आत्मा का तुरीय अवस्था या वास्तविक तुम, बुनियादी रूप से असङ्ग-प्रकाशक -सत्यं है -तीनों शरीरों में किसी शरीर से नहीं चिपकती। क्यों नहीं चिपकती ? क्योकि यह consciousness है, इसको सब अवस्थाओं का प्रकाशक कहा जाता है। मिथ्या सत्य पर कभी प्रभाव नहीं डाल सकता। जैसे रज्जु-सर्प का सर्प कभी काट नहीं सकता। सम्पूर्ण रेगिस्तान के मृगमरीचिका का जल एक बालू के एक कण को भी गीला नहीं कर सकता।  यह तुरीयं  ही दुनिया के जादू शो का महान जादूगर है। तुरीयं वह जादूगर है -जो जादू के तीन खेल दिखाता है -जाग्रत, स्वप्न -सुषुप्ति का खेल। किन्तु इस खेल से जगत रूपी रंगमंच अप्रभावित रहता है। 
विलियम शेक्सपियर के नाटक  'एज़ यू लाइक इट'  का एक प्रसिद्द वाक्यांश है -"All the world's a stage."सारी दुनिया एक रंगमंच है।" सेक्सपियर ने 'all' के भीतर किन्तु आत्मा के चार पक्षों में से केवल जाग्रत अवस्था को सम्मिलित किया है। किन्तु हमलोग वेदान्त के विद्यार्थी हैं, इसलिए हमलोगों को उसके साथ स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्था को भी जोड़कर देखना होगा।  हमारे लिए स्वप्न, हमारी सुषुप्ति यह सब दुनिया के रंगमंच पर हमारे अभिनय मात्र हैं। रंगमंच किन्तु तुम्हारे अभिनय से अप्रभावित (unaffected) रहता है, बुद्ध की तरह छाप नहीं छोड़ता। मानो जगत रूपी रंगमंच पर दो नाटक खेले जा रहे हैं, या जगत रूपी स्क्रीन पर दो प्रकार के सिनेमा (movie-चलचित्र) चल रहे हों। एक 'फिल्म जगना' (waking movie ) और 'फिल्म सपना" (dream movie) बीच में और बीच में सुषुप्ति (गहरी नींद का अँधेरा-darkness of deep sleep ) रूपी मध्यान्तर भी होता है।
जो भी comedies (सुखान्त नाटक) या  tragedies (दुखान्त नाटक) दुनिया के रंगमंच पर खेली जा रही है - या चलचित्र दिखाया जा रहा है, उससे पर्दा (screen -चित्रपट, जगत रूपी ब्रह्म) उससे अप्रभावित रहता है। इस उच्च दृष्टि से देखने पर ज्ञानी के लिए (ज्ञानमयी दृष्टि) या भक्त के लिए (भक्तिमयी दृष्टि से ) सब कुछ एक भगवान की लीला -या मनोरंजन (entertainment) बन जाता है। अब तुम इस जगत में जाग्रत-स्वप्न -सुषुप्ति में जाने -आने वाले मनुष्य जैसा सद्भाव-खुशी और शांति से (harmony-joy and peace)  जीवन यापन कर सकते हो। 
आचार्य गौड़पाद माण्डूक्य कारिका में कहते हैं -यह सब अज्ञानता और त्रुटि (भ्रम -माया की आवरण शक्ति या विवर्त शक्ति) का खेल है। (all this is play of ignorance and 'error') रस्सी के अज्ञान के कारण हम भ्रमवश उसको सर्प समझ लेते हैं। (not knowing the rope we make the 'error' (त्रुटि =भ्रम) that it is snake .)  यह जो भ्रम या त्रुटि हो रही है उसका आधार क्या है ? (what is the basis of making this error ?) अज्ञान -यह अज्ञान ही हमारे किसी भूल के लिए , जो हम अब तक करते आये होंगे उसका आधार है। 
अज्ञान क्या है ? क्या एम.ए. की डिग्री न होना अज्ञान है ? किस चीज का अज्ञान ? ignorance of what? मुझे 'तुरीय अवस्था' का मेरी असली आत्मा का बोध नहीं है,और यही मेरी अज्ञानता है। यह सोचना कि जाग्रत अवस्था में जिसका अनुभव होता है,मैं केवल 2-'H' शरीर और मन हूँ ! यह M/F व्यक्ति हूँ यही 'error' त्रुटि या भ्रम है; इसका आधार केवल अज्ञान है। क्योंकि जाग्रत जीवात्मा ही माया के जादू के वश में आ गया है।- 'The waker is under the spell !' यह 'Waker' कौन है, जो जादू के वश में है ? Waker का क्या अर्थ हुआ ? यही हम लोग जाग्रत जीव हैं ! जो इस समय हैं, इस समय हमलोग पाठचक्र में हैं या लीडरशिप क्लास में हैं, इसलिए हमें कहना चाहिए कि जो भविष्य में दूसरों को जगाने वाला है, वही (हम सभी would be Leaders) जो भविष्य में दूसरों का मार्गदर्शन करने वाले हैं, हमारा जो 'apparent I-ness' मैं-पन, या मेरा अपरिपक्व 'मैं'-पन' जिसे ठाकुर 'काचा आमी' कहते थे (our apparent us) वह इस समय माया के जादू से सम्मोहित (hypnotized) हो गया है ! 
किन्तु हम सभी लोगों का वास्तविक मैं, वही 'तुरीय' है जिसे ठाकुर 'पाका आमी' कहते थे! जादू से ग्रस्त केवल काचा आमी ही हो सकता है, 'पाका आमी' तो स्वयं जादूगर है, माया उसी पाका आमि की शक्ति है, वह 'पाका आमी' को कभी सम्मोहित या हिप्नोटाइज्ड कर ही नहीं सकती। अब हमें अपनी सोंच में बदलाव करना होगा कि मैं काचा आमी नहीं हूँ, मैं पाका आमी हूँ, मैं काचा आमी का साक्षी (witness consciousness) हूँ। यदि मैं एक भावी शिक्षक/माली / नेता होने का दावा करूँ, किन्तु वास्तव में मैं पाका आमी हूँ -या साक्षी हूँ, किन्तु स्वयं को जब तक मैं साक्षी के रूप में अनुभूत नहीं कर लिया हूँ, तब तक मैं,  'ignorance and error' अज्ञानता और भ्रम' दोनों के अधीन हूं। (When I appear as the waker and I don't know myself as a witness, then I am subject to both 'ignorance and error.') क्योंकि मैं नहीं जानता कि वास्तव में मैं तीनों शरीरों का साक्षी आत्मा हूँ। इसलिए मुझे भ्रम हो जाता है कि मैं यह व्यक्ति M/F हूँ, स्थूल शरीर जैसा दीखता है -वही मैं हूँ। स्वप्न देखने वाले सूक्ष्म शरीर (the dreamer) की समस्या भी यही 'अज्ञानता और भ्रम' है,वह नहीं जानता की वास्तव में वह स्वप्न देखते समय भी उसका 'साक्षी' (पाका आमी) है, इसीलिए वह डरावने सपनों को देखकर (माँ जगदम्बा Bh -भेष बदलकर स्पर्श के बंधन में बांधने आती है- तो नींद में ही जोर-जोर से उसके साथ लड़ने लगता हूँ, दूसरे दिन भाई पूछता है क्या रात में किसी से फोन पर बिगड़ रहे थे ? सोने दो ,सोने दो कहकर हल्ला कर रहे थे ?) 
और जो गहरी नींद में सोया हुआ कारण शरीर है, वह तो कुछ भी नहीं जानता, न साक्षी को जानता है, न स्थूल -सूक्ष्म शरीर को जानता है, एकदम खाली भावशून्य (blank) अवस्था में रहता है। इसलिए यह अज्ञानता (ignorance) के बंधन में तो रहता है, किन्तु भ्रम (error) के बंधन में नहीं होता। ध्यान दें -जाग्रत या स्थूल शरीर, और सूक्ष्म शरीर दोनों अज्ञानता और भ्रम के बंधन में रहता है। किन्तु कारण शरीर (deep sleeper) अज्ञानता के बंधन में तो रहता है किन्तु भ्रम (error) के बंधन में नहीं रहता। साक्षी (पाका आमी) को न तो अज्ञानता होती है न भ्रम होता है। साक्षी अवस्था में मन ही मन में यह चिंतन करता हूँ कि मैं पाका आमी हूँ -काचा आमी का द्रष्टा (witness) हूँ ! इसलिए मैं किसी भ्रम (error) के बंधन में नहीं हूँ। शरीर और मन 2-'H' मुझसे ही प्रकट हो सकते हैं, मैं अपने शरीर और मन के द्वारा कार्य कर सकता हूँ। मैं शरीर और मन के माध्यम से कार्य कर सकता हूँ। किन्तु मैं अब भ्रम में नहीं हूँ, कि मैं काचा आमी (शरीर और मन=2H) हूँ। यह स्थूल-सूक्ष्म शरीर अपने धर्म के अनुसार परिवर्तित होता रहेगा, चलता रहेगा और एक दिन यह स्थूल शरीर बूढ़ा होकर मर जायेगा। मैं इसके अपरिवर्तनों से अप्रभावित बना रहूँगा। क्योंकि मैं केवल नहीं जानता कि मैं शरीर और मन नहीं हूँ; बल्कि मैं यह भी जानता हूँ कि लेकिन वे सत्य (real) भी नहीं हैं, वे मुझ साक्षी (witness consciousness) के सामने प्रकट होते हैं। (but they are not even real, they are appearances in me the witness consciousness.) यहाँ एक बात विशेष रूप से ध्यान में रखने की है, कि जब हम आत्मा के चतुष्पाद होने पर चर्चा करते हैं, तो अक्सर हमलोग एक भूल (error) में फंस/फिसल जाते हैं। 
वह भ्रम क्या है ? इसे बहुत ध्यान से समझना चाहिए -यहाँ हम तीन अवस्थाओं--जाग्रत-स्वप्न- सुषुप्ति पर चर्चा  करते हैं ; उस waker को जो अपने को नाम-रूप समझता है, कहाँ पाते हैं ? इस जागृत अवस्था में। स्वप्न देखने वाले dreamer को कहाँ पाते हैं -स्वप्न लोक में। सुषुप्ति में deep -sleeper को पाते हैं। पर जब सुनते हैं 'तुरीयं' -तब तुरंत सोच बैठते हैं कि यह भी एक अवस्था है जहाँ पहुँचकर हम तुरीय (चतुर्थ) को या आत्मा को प्राप्त कर लेंगे। और यही सबसे बड़ी भूल है -इसका अच्छा उदाहरण gold and the ornaments से दिया जाता है, सोना और उससे बने गहनों का उदाहरण दिया जाता है। एक ही सोना तुम्हारे पास हार, कंगन, अंगूठी (necklace,bangle,ring) के रूप में आ सकता है। यदि कोई आकर तुमसे कहे कि सोना (gold) तो चौथी अवस्था में रहता है, तो क्या हम कंगन को फेंककर सोने की खोज कहीं और करेंगे ? नहीं, क्योंकि तुम जानते हो कि कंगन तो सोने का ही बना हुआ है। सोना चौथा आभूषण नहीं है,सोना इन तीनों आभूषणों का सत्य है।(Gold is not an 4th ornament,Gold is the reality of these ornaments.) उसी प्रकार आत्मा की चौथी अभिव्यक्ति को चतुर्थ या तुरीयं कहा जाता है। किन्तु वह कोई अलग अवस्था नहीं है, वह इन तीन अवस्थाओं का सत्य है। यही वह आधारभूत सत्य है-जो जाग्रत,स्वप्न सुषुप्ति के रूप में प्रतीत होता है।
यदि ऐसी बात है-तब तुरीयं कहाँ मिलगा ? अच्छा -जाग्रत कहाँ मिलेगा ? अभी यहीं, तुम जाग्रत हो। किन्तु तुरीयं कहाँ मिलेगा ? उसे तुम परम सत्य(the ultimate reality या इन्द्रियातीत सत्य), शुद्ध चेतना (the pure consciousness), आत्मा, ब्रह्म, भगवान, तुरीयं (चौथा)चाहे जिस नाम से पुकारो, this must you say with confidence,  इसी बात को तुम पूर्ण आत्मविश्वास के साथ कहो - वह परमतत्व अभी और इसी समय लभ्य (available) है ! कहाँ पर उपलब्ध होगा ? ठीक यहीं पर होगा ! और वह कौन है ? मैं ही वह हूँ ! हाहा 😎 ! यही सत्य है, अतः इस बात को तुम पूरे विश्वास के साथ बोलो कि -यह आत्मा (3rd'H') ही ब्रह्म है ! तुरीयं (चौथी अवस्था-स्वर्ग) किसी अन्य स्थान पर उपलब्ध नहीं है, वह इसी समय और यहीं पर उपलब्ध है। आत्मा, भगवान या तुरीयं कोई बाद में (later on - मरने के बाद में), स्वर्ग में  मिलने वाली वस्तु नहीं है। या समाधि के बाद जब मुझे ब्रह्मज्ञान हो जायेगा तब तुरीयं उपलब्ध होगा ? बिल्कुल नहीं ! जब तुम एक सोने के कंगन को हाथ में लेते हो, मैं तुमसे पूछूं अभी उसमें सोना उपस्थित है या नहीं ? मानलो  कोई बच्चा यह समझता है कि यह कंगन है, किन्तु यह नहीं समझता कि सोना क्या होता है ? वह यह नहीं जानता कि यह सोने का है, वह केवल यही जानता है कि यह मेरा बाला है। यदि सोने के बारे में अज्ञानी है, फिर क्या इसी समय उसमें सोना उपलब्ध नहीं है ? उसी प्रकार भले ही हम अपने अज्ञान की अवस्था में कहें कि मैं अपने आत्मा को नहीं जानता; किन्तु वह तुरीयं/आत्मा  इसी समय और यहीं उपलब्ध होना चाहिए। वह परमसत्य 'मैं 'ही होना चाहिए। वह परम् सत्य या आत्मा या भगवान यहाँ उपलब्ध हैं, अभी उपलब्ध हैं, और वह तुम ही हो -भाई श्वेतकेतु ! (It is available here, it is available now and it is you.) 
 इस आत्मबोध के प्रभाव, धर्म, दर्शन आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में, हमारे अपने जीवन में -  जबरदस्त हैं,(its implications are tremendous!) इसलिए किसी भावी शिक्षक को यह गलती कभी नहीं करनी चाहिए कि आत्मा (something else, somewhere else , someone else)मुझसे (पाका आमी से) कोई अलग वस्तु है, मुझसे कोई भिन्न वस्तु है, किसी और स्थान में है, हमसे कुछ अलग प्रकार की वस्तु है, कभी बाद में-आत्मा मरने के बाद में प्राप्त होने वाली वस्तु है। 
एक billboard पर लिखा था -स्वर्ग प्राप्त करना चाहते हैं ? अपने वास्तविक -पता को जानने के लिए कॉल करें -855000 पर !इसका तात्पर्य यह हुआ कि परमसत्य किसी अन्य स्थान पर उपब्ध होगा। किन्तु आत्मा कोई अलग स्थान में नहीं रहता। वह यहीं है। एक दूसरे बोर्ड पर लिखा था -'मरने के बाद तुम भगवान से अवश्य मिलोगे' कॉल 9835| मतलब आप परम् सत्य से दुरी और समय (Time) की दृष्टि से अलग हैं ? मरने के बाद स्वर्ग में, या समाधि के बाद, ज्ञान प्राप्ति के बाद,  भगवान का दर्शन होगा ? वेदान्त कहता है, बाद में नहीं -इसी समय, यहीं पर तुम ही वह हो ! इसीलिए आत्मा को चौथी अवस्था कहने की भूल मत करो। इस माण्डूक्य उपनिषद में आत्मा में अवस्थित होने की तकनीक भी बतलायी गयी है। परमसत्य को समझने में पवित्र कार शब्द की सहायता लो।
भारत में जन्मे सभी धर्मों में ॐ शब्द को सबसे पवित्र शब्द माना जाता है। ओम् के सहारे से ब्रह्म जितनी शीघ्रता से मिलता है, उतना किसी और शब्द से नहीं मिलता । ॐ शब्द में तीन syllable ( शब्दांश-उच्चारण इकाई हैं) अ,उ,उम- को कुछ लोग अंग्रेजी में AUM लिखते हैं , किन्तु इसका वह उच्चारण नहीं है, मंत्र का सही जीवन्मुक्त गुरु से सीखना पड़ता है। माण्डूक्य ने एक चौथी मात्रा (अवस्था)  भी बताई है, जो सबसे गूढ़ है ।  बिन्दु तुरीय दशा का द्योतक है। ओम् के उच्चारण का अन्त होने पर जो नीरवता है, उसे ऋषि ने अव्यवहार्य मात्रा बताया है, जो परमात्मा के निराकार रूप की द्योतक है, जो कि इस प्रपञ्च से अतीत है । इस अवस्था को वेदों ने इस प्रकार कहा है –पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥ यजु० ३१।३ ॥अर्थात् परमात्मा के एक पाद में तो यह समूचा विश्व है, और उसके शेष तीन पादों में वह अपने अमिश्रित, अमृत, प्रकाशमय रूप में स्थित है ।  
ओम् की चार मात्राओं में से यह अन्तिम मात्रा है, वही वास्तव में तीन मात्राओं के बराबर है, जबकि अन्य तीन मात्राएं महत्त्व में एक मात्रा के बराबर हैं !संस्कृत व्याकरण में अ +उ =ओ होता है। ॐ का सही सही उच्चारण करना एक मानसिक व्यायाम (exercise) है। अभी अपने मन में जाग्रत अवस्था और जाग्रत जगत का चिंतन करो, उसको मन ही मन में 'अ' कहो। जो भी सपने देखना तुम पसंद करते हो, मन में उसकी कल्पना करो, जाग्रत अवस्था से स्वप्न में जाने के बाद तुम जैसे भी सपने देखते हो, उसीकी कल्पना करो। और मन ही मन उसको उ से संबद्ध (associate) करो। उसके बाद जाग्रत अवस्था में ही,अभी सुषुप्ति अवस्था को 'उम' से सम्बद्ध करो - और पूर्ण निस्तब्द्धता (absolute blank) का अनुभव करो। इस प्रकार ॐ का उच्चारण करते हुए, मानसिक रूप से इन तीनो अवस्थाओं -जाग्रत-स्वप्न सुषुप्ति/ स्थूल -सूक्ष्म-कारण के अनुभवों का चिंतन करो। mentally go through these experiences, शीघ्रता से चिंतन , जाग्रत गया, स्वप्नद्रष्टा -गया , गहरी नींद वाला काचा आमी -गया! फिर क्रमानुसार एक ॐ का उच्चारण, और बाद वाले ॐ का उच्चारण बोल कर करो या मन ही मन करो, पर यदि बस में हो तो सलाह है कि जरूर मन ही मन करो !
 एक ॐ के बाद जो जो दूसरा ॐ आने वाला है -उसके बीच में नीरवता (silence-शांति) है -उसको मन ही मन तुरीय अवस्था का प्रतिक समझो-अनुभव करो। वह शांति केवल एक ॐ के बाद आने वाले ॐ के बीच में ही नहीं है, हरेक ॐ के तले (underneath) भी वही शांति है। यह वह शांति है जिससे 'अ' निकलता है, 'उ' निकलता है और 'उम' निकलता है। और फिर ये तीनों उसी शांति में - लौट आते हैं, और उसी में वापस विलय (fall back and merge back) हो जाते हैं। वह नीरवता वहाँ सर्वदा रहती है। 
यह वह नीरवता नहीं है, जो ध्वनियों का विरोध करती है। (it is not that silence that contradict sounds, आत्मप्रियानन्द साउंडफ्रुफ ऑफिस में बैठकर घड़ी की टिक-टिक सुनने को शांत अवस्था समझते हैं ?) किन्तु वास्तव में यह वैसी नीरवता है जिससे ध्वनि और नीरवता दोनों उत्पन्न होती हैं। जिसके तले महान शांति निरंतर बनी रहती है। उस नीरवता को मन ही मन अपने तुरीयं (साक्षी चेतना) के सम्बद्ध देखो। ॐ उच्चारण के साथ मन में जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति को सम्बद्ध देखो, अगले आने वाले ॐ के बीच की नरिवता को संबद्ध देखो। अपने साक्षी को उस नीरवता से जोड़े रहो तब माण्डूक्य की अवधारणा स्पष्ट हो जाएगी। और तुम अपने सच्चे स्वरूप में अवस्थित रहने में समर्थ भी हो जाओगे। ॐ को इस प्रकार तीनो अवस्थाओं में मन ही मन घुमाते रहने से साक्षी उससे अलग हो जायेगा और तुम उसे अपने साक्षी स्वरूप में अनुभव कर सकोगे। 
[प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते ॥ मुण्डक ० २।२।४ ॥ ] उस ब्रह्म को जब लक्ष्य करो, तब प्रणव का धनुष बनाओ, अर्थात् ओंकार का जप करो, और आत्मा को बाण बना कर उसपर चढ़ जाओ, और अपने लक्ष्य को बींध दो, प्राप्त कर लो ।  अतः ठाकुर-माँ-स्वामीजी की कृपा के बिना कामिनी-कांचन के सम्बन्ध में मिथ्या ज्ञान का उदय होना, और यथार्थ में जगत को तीनों काल में असत्य समझना असम्भव है !किन्तु ईश्वर की इच्छा से सब कुछ हो सकता है -लाल फूल (निवृत्ति मार्ग) के पेड़ पर सफेद फूल (प्रवृत्ति मार्ग) भी लग सकते हैं ! शिव (नरेन्द्रनाथ-संन्यासी ) तथा विष्णु (श्रीरामकृष्ण-गृहस्थ) के चरित्र ही मानो दो आदर्श साँचे (type or model) हैं एवं इन्हीं दो साँचे में ढाल कर प्रत्येक भक्त (माँ जगदम्बा के भक्त, वीर या हीरो) के मानसिक स्वभाव का गठन होता है।
 महावाक्यों में जब हम सुनते हैं, कि यह जगत ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है, तो उसका तात्पर्य क्या है ?
श्वेतकेतु की कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि इस जगत को किस रूप में देखना चाहिए, दूसरों के साथ हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए ? -उद्दालक ऋषि के पुत्र हुए श्वेतकेतु। उद्दालक ऋषि को अपने एकलौते पुत्र से बड़ी आशायें थी। वे अपने पुत्र को भी बहुत बड़ा विद्वान् बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को पढ़ाना आरम्भ किया। फिर कुछ समय बाद सोचे कि यदि कोई दूसरा व्यक्ति मेरे पुत्र को पढ़ाये तो ज्यादा अच्छा होगा। इसलिये अपने पुत्र को किसी बड़े ऋषि (preceptor) के आश्रम में पढ़ने के लिए भेजा। उस समय श्वेतकेतु की आयु १२ वर्ष थी। उसने अपने गुरु के आश्रम में और १२ वर्षों तक रहते हुए, उस समय में प्रचलित-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष, छन्द आदि  कई विद्याओं को सीखा। और जब वापस लौटा। 
उद्दालक ने देखा कि यह विद्वान् तो बन गया है, किन्तु इसमें अपने ज्ञानी होने का थोड़ा अहंकार भी है। विद्या ददाति विनयं -किन्तु इस लड़के में विनय नहीं है। इसलिए एक दिन उन्होंने श्वेतकेतु को बुलाकर पूछा बताओ बेटे तुमने क्या सीखा है ? उसने जितने शास्त्र सीखे थे उन सभी का पूरा लिस्ट सुना दिया । ऋषि उद्दालक बोले – “श्वेतकेतु ! मुझे नहीं लगता कि तुमने वेदों का मर्म समझा है ! क्या तुमने वह विद्या भी सीखी है, जिसको जान लेने से जो अज्ञेय और अज्ञात (unknowable) है, वह भी ज्ञात हो जाता है ? क्या तुमने उस परम सत्य का अनुभव किया है, जिसका अनुभव इन्द्रियों के द्वारा नहीं किया जा सकता? क्या तुमने उस सत्य को जाना है, जो  इन्द्रियातीत (तुरीयं) है  किन्तु जिसे अपने अनुभव से एक बार भी जान लिया जाय तो जीवन में पूर्ण सन्तुष्टि (complete fulfillmentप्राप्त हो जाती है?  
तब श्वेतकेतु बोला – “ नहीं पिताजी ! मैंने तो इस प्रकार की कोई बात भी नहीं सुनी है। मेरे महान आचार्यों ने मुझे इसकी शिक्षा नहीं दी । यदि वे जानते होते तो उन्होंने मुझे इसकी शिक्षा अवश्य दी होती । अतः आप ही मुझे इस बारे में बताये ?” 
श्वेतकेतु की जिज्ञासा को जानकर ऋषि उद्दालक श्वेतकेतु को घर से बाहर ले गये, और एक पेड़ के नीचे बैठ गये और मिट्टी के एक ढेले को उठाते हुए बोले – “ श्वेतकेतु ! जिस तरह जब तुम मिट्टी के एक ढेले को जान लेते हो, तब तुम मिट्टी से बने सभी बर्तनों को जान लेते हो, कि वह भी मिट्टी स्वरूप ही है । जब तुम स्वर्ण को जान लेते हो, तब तुम स्वर्ण से बने, हार -कंगन -अंगूठी आदि सभी स्वर्णाभूषणों को जान लेते हो, कि वे सोना ही हैं। उसी तरह अब तुम मुझे यह बताओ कि वह मुलभुत तत्व क्या है, जिसको जान लेने से उस तुम सबको जान लेते हो, जिससे यह सम्पूर्ण जगत बना है ।” श्वेतकेतु सोचने लगा, मेरे पिता तो बहुत अदभुत बात कह रहे हैं, किन्तु वह है क्या ? 
उसने अपने पिता से कहा कि , मैं नहीं जानता ;आप उस मूल तत्व के विषय में मुझे समझाकर कहिये। अब इस कहानी को यहीं रोक कर, हमलोग उस मूल तत्व के ऊपर चर्चा करेंगे जिससे यह सृष्टि बनी है। "जब तुम मिट्टी के ढेले (Clay=लसदार चिकनी मिट्टी के पिण्ड को) को जान लेते हो, तब तुम मिट्टी से बने सभी बर्तनों को भी जान लेते हो।" अभी तुम केवल इसी विचार पर मन को एकाग्र रखो। इस कथन का तात्पर्य क्या है ? हम एक मिट्टी के घड़े पर विचार करें। क्या मिट्टी का घड़ा लसदार मिट्टी के पिण्ड से अलग है ? एक विशेष आकार में ढाली गयी मिट्टी को ही घड़ा कहते हैं। मिट्टी के ही एक विशेष नाम और रूप (आकृति) और कार्य के अनुसार बने बर्तन को घड़ा कहते हैं। 'घड़ा' एक अलग नाम-रूप और कार्य में मिट्टी के अलावा और कुछ नहीं है। 
जिसको हम घड़ा कह रहे हैं, वह घड़ा अधिक है या मिट्टी अधिक है?  विवेक -प्रयोग करने से पता चलता है कि यह मिट्टी अधिक है। कैसे ? मिट्टी घड़े के बिना भी अस्तित्व में रह सकती है, किन्तु मिट्टी से अलग घड़े का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। घड़ा मिट्टी ही है, उसका केवल एक अलग नाम और रूप है। यदि घड़े से मिट्टी को निकाल लिया जाय तो क्या घड़ा दिखाई देगा ? इसलिए घड़े का सत्य (reality) मिट्टी है। उसी प्रकार जल से अलग 'तरंग' का कोई अस्तित्व नहीं है। स्वर्ण से अलग आभूषणों का कोई अस्तित्व नहीं है। फिजिक्स में विद्युत चुम्बकीय विकिरण [EM radiation or EMR]से अलग रंग और कुछ भी नहीं है। (It includes radio waves, microwaves, infrared, (visible) light, ultraviolet, X-rays, and gamma rays.] उसी प्रकार ब्रह्म (existence-consciousness-bliss या सच्चिदानन्द ) से अलग यह विश्वब्रह्माण्ड कुछ भी नहीं है। 
”तब  उद्दालक बोले – “ वह सर्वोच्च सत्य सत् (existence अस्तित्व है, चेतना (consciousness) है, परमानन्द (bliss) है। इसी शुद्ध चेतना (pure consciousness) से नाम और रूप के सारे संसार ने जन्म लिया है । जैसे स्वर्ण ही स्वर्णाभूषण है, मिट्टी ही मिट्टी का घड़ा है । वैसे ही साक्षी चेतना (witness consciousness) या अस्तित्व ही तुम्हारे अस्तित्व का मूल तत्व है । इसलिए तत त्वं असि = तत्वमसि ।”  तुम्हारा जब जन्म हुआ था उस समय तुम्हारे ऊपर किसी नाम का लेबल चिपका हुआ नहीं था। नाम तुम्हें बाद में दिया गया है। जब तुम बड़े होते गए अर्थात 'शरीर' बड़ा होता गया तो तुम्हारा शरीर युवा अवस्था को प्राप्त हुआ है, एक M/F का व्यक्तित्व प्राप्त हुआ। यह सब उपाधि है, जो तुम्हारे ऊपर जोड़ा हुआ है। तुम वही ब्रह्म (सत् चेतना-pure consciousness) हो श्वेतकेतु, जो इस समय एक विशेष नाम और रूप में दिखाई दे रहे हो।
 नाम-रूप कार्य सभी परिवर्तनशील हैं, क्या ऐसा नहीं है ? क्या मैं ऐसा कह सकता हूँ कि, घड़ा प्रातिभासिक नाम-रूप में मिट्टी ही है ? (can I say that pot is an appearance of clay ?) क्या हम कह सकते हैं, कोई तरंग चाहे छोटी हो बड़ी हो प्रातिभासिक नाम-रूप में वह जल ही है ? हम कह सकते हैं कि रंग प्रातिभासिक रूप में विद्युत्-चुंबकीय विकिरण (EMR) ही है? मैं कह सकता हूँ कि तुम प्रातिभासिक नाम-रूप में वही ब्रह्म, वही अपरिवर्तनशील सत्य (the supreme reality) ही हो। अद्वैत वेदान्त (उपनिषद) कहता है ,तुम्हारा मौलिक तत्व (essential substance) ब्रह्म (consciousness)ही है, उसको तुम चाहे परम सत्य कहो, ईश्वर कहो, अल्ला कहो, या गॉड कहो, किसी नाम से पुकारो -श्वेतकेतु वह तुम ही हो। यही तुम्हारा वास्तविक परिचय है। तुम्हारा शाश्वत अंश या अपरिवर्तनीय अवयव साक्षी चेतना (वह pure consciousness, निःस्वार्थपूर्ण हृदय 3rd'H' ही है) जैसे जैसे तुम अधिक निःस्वार्थपर होते जाओगे वह अंतर्निहित दिव्यता क्रमशः अधिकाधिक अभिव्यक्त होती जाएगी। इस प्रकार का तर्कसंगत प्रशिक्षण (logical training) उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को दे रहे थे। अपने यथार्थ स्वरूप को या सही पहचान को कैसे जाना जाता है -उस मनःसंयोग की पद्धति को सीखो। अभी तुम एक घड़ा या नाम-रूपधारी शरीर-मन के रूप में कार्य कर रहे हो। 
अभी तुमने अपनी समस्त ऊर्जा को उस रचित वस्तु में लगा रखी है, जिसे घड़ा (2H) कहते हैं। इस शरीर रूप घड़े के नाम-रूप का मूल तत्व ब्रह्म (consciousness) है। अगर तुम केवल घड़े के नाम-रूप और कार्य को ही अधिक महत्व दोगे तो तुम, तुम्हारी  मूल सत्ता, मिट्टी (ब्रह्म 3rdH) तुमसे ओझल होता जायेगा। जब तक मैं कौन हूँ ? तुम अपने को ठीक ठीक पहचानना नहीं सीख लेते, तब तक तुम दूसरों के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव कैसे रख सकते हो ? जब यह बात अपने पुत्र को सुनाये तो उसके कान खड़े हो गए। क्योंकि वह एक बुद्धिमान युवा था। तब श्वेतकेतु बोला – “ लेकिन तात ! एक सत या चेतना से ही विविधता से भरे इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई ?” उसने पिता से कहा मैं कैसे हर समय घड़े को न देखकर मिट्टी को ही देखने में समर्थ हो सकता हूँ -उस विषय में थोड़ा और समझाइये ? 
आचार्य उद्दाक बोले – “ जाओ ! कहीं से बरगद के वृक्ष का फल लेके आओ ।” श्वेतकेतु फल लाता है तो आचार्य उद्दालक उसे तोड़ने को कहते है और पूछते है कि इसमें क्या है ? श्वेतकेतु कहता है – “ इसमें बहुत सारे छोटे – छोटे बीज है ।” तब आचार्य उद्दालक बोलते है – “ इसके किसी एक बीज को तोड़के देखो, उसमें क्या है ?” जब श्वेतकेतु ने छोटे से बीज को तोड़के के देखा तो बोला – “ यह तो बिल्कुल शून्य (blank) है, इतना सूक्ष्म है कि इसे देख पाना संभव नहीं ! तात ।” तब आचार्य उद्दालक बोले – यह सूक्ष्म बीज, जिसे तुम देख नहीं सकते । उसी बीज में इतनी शक्ति (potency) अंतर्निहित या क्रमसंकुचित है, जिससे इतना  विशालकाय बरगद का वृक्ष अपनी विभिन्न शाखाओं और फूलों को लेकर उत्पन्न/ क्रमविकसित होता है । उसी तरह उस शुद्ध चेतन तत्व, (existence-consciousness -bliss, जिसे तुम देख नहीं सकते) से ही विविधता से भरा यह जगत उत्पन्न होता है । उस परम सत्य को तुम इन आँखों से नहीं देख सकते, विवेकानन्द कहते थे विशाल बरगद का वृक्ष उस छोटे से बिज के भीतर के उस शून्यता (blankness) में अंतर्निहित शक्ति से क्रमविकसित हुआ है, जो उसमें क्रमसंकुचित थी। उसी तरह किसी भी इन्द्रियों के माध्यम से तुम परम सत्य को जान नहीं सकते, किन्तु मन को अन्तर्मुखी करने की पद्धति 'मनःसंयोग' सीखकर उसकी अनुभूति कर सकते हो। 
ऋषि तुमसे कह रहे है कि “तुम वो ही हो, जो तुम खोज रहे हो ।” तब श्वेतकेतु अपने यथार्थ स्वरूप को जानने के लिए और अधिक उत्सुक हो गया। श्वेतकेतु की ब्रह्म जिज्ञासा को देखकर आचार्य उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक लोटे में जल लाने के लिए कहा,और उसमें थोड़ा नमक घोल दिया। फिर पूछा क्या तुम अब नमक को देख सकते हो ? फिर श्वेतकेतु से लोटे की उपरी सतह से जल पीने को कहा और पूछा कि “ कैसा है ?” जल नमकीन था । फिर उसे लोटे के बीच का जल पीने को कहा । वो भी नमकीन था । अंत में उन्होंने उसे पैंदे का जल पीने को कहा । वो भी नमकीन था । तब आचार्य उद्दालक बोले – “ जिस तरह दिखाई नहीं देते हुए भी जल की प्रत्येक बूंद में नमक समाहित है । उसी तरह दिखाई नहीं देते हुए भी तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व में और सम्पूर्ण विश्व में वही शुद्ध चेतना (pure consciousness) विद्यमान है । उसी के कारण तुम्हारा मन कार्य करने लगता है, तुम्हारी बुद्धि कुशाग्र (brilliant) हो जाती है। तुम्हारा शरीर भी चेतन प्रतीत होने लगता है। और तुम अपने शरीर-मन से तादात्म्य करके सोचते हो मैं यही हूँ। हमें यह विवेक जाग्रत रखना होगा कि मिट्टी ही घड़े के रूप में कार्य कर रही है। तुम वह जल हो जो तरंग के रूप में कार्य कर रहा है। तुम वास्तव में स्वर्ण हो जो आभूषण के रूप में -कुछ समय के लिए (temporarily) कार्य कर रहा है। 
हमारी समस्या यह है कि हमारा मन बहिर्मुखी होकर चेतना (consciousness) को केवल आकार देने के कार्य में इतना अनुरक्त (interested) हो गया है कि उसने अपने मौलिक तत्व को ही विस्मृत कर दिया है। मन को अंतर्मुखी करने की तकनीक है, अपने श्रोत पर मन को एकाग्र करने की विद्या सीखनी होगी। इस प्रकार तर्कसंगत चिंतन करने से निष्कर्ष यही निकलता है कि -तत त्वं असि । तुम ही वह मूल चेतना हो, वही नमक हो जो जल में घुला हुआ है, तुम बीज का वह सार हो जिससे पूरा वृक्ष निकला है, तुम वह मिट्टी का पिण्ड हो जिससे घड़ा आदि बर्तन बने हैं! इस प्रकार जब तुम सदा अपने को चेतना की एक अभिव्यक्ति के रूप में देखते रहोगे, तब दूसरों को भी उसी चेतना की अभिव्यक्ति समझोगे। दूसरों को भी श्रद्धा की दृष्टि से देखना और प्रेमपूर्ण व्यवहार करना सीख जाओगे। यदि तुम अपने को केवल शरीर समझोगे तो दूसरों को भी केवल शरीर समझोगे। 
इसीको विवेकानन्द वास्तविक मनुष्य (पाका आमि) और प्रातिभासिक मनुष्य (काचा आमी) कहते थे। तुमने अपने को चेतना के स्थूल निर्माण (formation of consciousness) के साथ तादात्म्य कर लिया है। वास्तव में तुम आत्मा हो जो शरीर मन के माध्यम से कार्य कर रहा है। अपने को साक्षी चेतना (witness consciousness) के रूप में देखना सीख लो तब विश्व के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण बदल जायेगा। जगत भी ब्रह्ममय दिखने लगेगा। हमलोग पूछते हैं न,आखिर ये जगत क्यों बना है ? विवेकानन्द कहते हैं, यह वह नैतिक व्यायामशाला (gymnasium) है जिसमें व्यायाम करके तुम अपने को शक्तिशाली मनुष्य बना सकते हो। और अपने यथार्थ स्वरूप को जानकर जगत को भी इसी रूप में ब्रह्म समझ सको। सत्य मिट्टी है जो घड़े के रूप में प्रतिभासित हो रही है। अविनाशी सत्य ब्रह्म है जो नश्वर शरीर-मन के रूप में प्रतिभासित हो रहा है। वास्तविक रूप में तुम 'awareness' चेतना हो जो शरीर और मन के माध्यम से कार्य कर रहा है। प्रत्येक मनुष्य भी वही है।
 तुम्हारी आँखों में जो चमक है वह उसी चेतना का प्रकाश (light of awareness)  है जो तुम्हारे शरीर मन के द्वारा कार्य कर रहा है। रमन महर्षि से किसी ने पूछा कि यह सृष्टि क्यों बनी है ? वे बोले क्या तुम्हारी ऑंखें खुद को देख सकती हैं ? अपनी आँखों को देखने के लिए तुम्हें एक दर्पण की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार यह सृष्टि वह दर्पण है जिसमें तुम्हारा 'मैं-पन ' खुद को प्रतिबिंबित होता हुआ देख सकता है। 
दूसरे लोग कौन हैं ? दूसरे नाम-रूपों में वह भी मैं ही हूँ। एक चेतना हर घड़े में स्वयं को प्रकाशित या प्रतिबिंबित कर रही है। 
इसके बाद आचार्य उद्दालक श्वेतकेतु की ब्रह्म जिज्ञासा को देखकर, उसे फूलों के एक बगीचे में ले गये और बोले – “ यहाँ विभिन्न फूलों से शहद इकठ्ठा कर रही मधुमखियों को देख रहे हो श्वेतकेतु ?”श्वेतकेतु – “ हाँ ! तात ।”आचार्य उद्दालक – “ छत्ते में मिलने के बाद क्या वो शहद कह सकता है कि मैं उस फुल का हूँ और मैं उस फुल का हूँ ?”श्वेतकेतु – “ नहीं तात !”आचार्य उद्दालक – “ उसी तरह जब कोई व्यक्ति उस शुद्ध चेतना के साथ एक हो जाता है तो उसकी व्यक्तिगत पहचान (व्यष्टि अहं-M/F)खत्म हो जाती है  ठीक उसी तरह जैसे सागर में मिलने के बाद नदियाँ अपना नाम-रूप खो देती है । वह चेतना ही है जो सबको जोडती है । जिससे तुम, मैं और यह सब चराचर जगत बना है ।” इस तरह मऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को दैनिक जीवन के उदहारण लेकर “तत त्वं असि” महावाक्य की नो बार उद्घोषणा की । जब तक कि श्वेतकेतु इसके अर्थ को हृदयंगम नहीं कर लिया । यह प्रसंग छान्दोग्योपनिषद् के छठे अध्याय में दिया गया ।
           सर्वप्रथम स्वामी स्वामी विवेकानन्द तथा जी ने वेदान्त के जिस सत्य को हमारे समक्ष उद्भाषित किया वो यह है कि “वेदान्त कहता है कि जिस किसी भी चीज का 'नाम- रुप' है, वह अनित्य है, अर्थात उसका आज नही तो कल नाश होना ही है”। अब यदि हम इसी सत्य की कसौटी पर अपनी मान्यताओं को परखें तो एक सबसे बड़ी और घातक मान्यता जो टूटती है वह है “स्वर्ग की अवधारणा !” हमारे समक्ष जितने भी धर्म हुए सभी ने किसी न किसी रुप में पुण्यात्मा के लिए स्वर्ग की परिधारणा की । स्वर्ग अर्थात् उसके “पुण्य का पुरस्कार” । अब यदि हम देखें कि वेदान्त के अनुसार सभी नाम एवं रुपधारी वस्तुएँ अनित्य हैं । वह सब कुछ नश्वर है जिसे हम रुप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श के रुप में अपनी पाँचों इन्द्रियों से अनुभव कर सकते हैं – तो पंडे-पादरी-मुल्लाओं  द्वारा रचा हुआ ये प्रपंच “स्वर्ग या नरक ” भी अनित्य है, नश्वर है। क्योंकि यह भी तो नाम-रुप धारी है तथा इसका भी तो हमें इन्द्रियगत ज्ञान ही मिलता है। वेदान्त का यह स्थिर सिद्धान्त है –जिस किसी भी वस्तु की उत्पत्ति काल में है, स्थिति काल में है तथा विनाश काल में है । वह कभी भी अनन्त नहीं हो सकता । और इसी के विपरीत यदि स्वर्ग की अवधारणा अनित्य है, नश्वर है । यदि हमें किसी सुन्दर स्थान पर परिवारजनों के साथ चिरकाल तक रहने का ये पुरस्कार प्रपंच है तो निश्चित ही इसी प्रपंच और भय की अगली कड़ी “दण्ड अर्थात नरक” की अवधारणा भी अनित्य होगी, नश्वर होगी। वेदान्त का यह स्थिर सिद्धान्त है – अतएव अनन्त स्वर्ग या नरक की धारणा व्यर्थ है। हमारे उपनिषद् बताते हैं कि 'अनन्त स्वर्ग या नरक' की धारणा व्यर्थ है,यह स्वयं का विरोध करने वाला एक वाक्य मात्र है। जिस प्रकार यह पृथ्वी अनन्त नहीं हो सकती उसी प्रकार जिस किसी भी वस्तु की उत्पत्ति काल में है, स्थिति काल में है तथा विनाश काल में है । वह कभी भी अनन्त नहीं हो सकता । स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त को जिस सरलता से व्याख्यायित किया तथा उसके गूढ़ तत्वों का विवेचन किया उससे भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व की अधिकांश समस्या के समाधान पर प्रकाश पड़ता है ।
वेदान्त का ईश्वर क्या है ?– “वह ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं, विचार है, तत्व है” । वेदान्त जिस आत्मन् को ईश्वर कहता है उसे प्रवचन अथवा बुद्धि से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।“नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन । यमेवेष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥” व्याख्या - उपनिषद् की शिक्षा यह है कि वह ईश्वर प्रवचन , बुद्धि अथवा बहुश्रुत होने से प्राप्त नहीं होता । उसे वह मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है जिसे स्वयं वह ( ईश्वर ) छाँट लिया करता है और उसी पर वह अपने स्वरूप को प्रकाशित कर देता है   
प्रश्न यह है कि वह ईश्वर अंधाधुंध किसी को छाँट लेता है या छाँट लेने की कोई मर्यादा है । इस प्रश्न का उत्तर ऋग्वेद की एक ऋचा से मिल जाता है । ऋग्वेद में एक जगह कहा गया है--'न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवाः। -ऋग्वेद (४.३३.११) अर्थात :- देवता श्रम करने वाले के अतिरिक्त किसी और से मित्रता नहीं करते हैं। अभिप्राय यह है कि जब तक मुमुक्षु (मोक्ष का जिज्ञासु) चरैवेति -चरैवेति करते हुए  'Be and Make' आंदोलन से जुड़ कर निष्काम कर्म के द्वारा  चरित्र-निर्माण के 5 अभ्यास और निषिद्ध कर्मों का त्याग करके अपने को (अपने अन्तःकरण आदि को) वेद, उपनिषद् की शिक्षा के अनुकूल शुद्ध करके ईश्वर के दर्शन का अधिकारी नहीं बना लेता , तब तक परमात्मा उसे अपनी गोद में नहीं बैठाता ।  
एक उदाहरण -- इस शिक्षा को स्पष्ट करने के लिये वेदान्त के ग्रन्थों में एक बड़ा सुन्दर उदाहरण एक माता और उसके घुटनों के बल चलने वाले एक छोटे बालक का है । माता एक ओर खड़ी है और उसका छोटा-सा बालक दूसरी ओर खेल रहा था । बच्चे को भूख लगी तो स्वभावतः उसे माता याद आई और वह माता की ओर घुटनों के बल चला और माता के चरणों तक पहुँच , खड़ी हुई माता की ओर आशा भरी दृष्टि से सहायता के लिए देखने लगा । माता ने देखा कि उसका प्यारा बालक भूख से व्याकुल होकर घुटने के बल चलता हुआ उसके चरणों तक पहुँच गया है , परन्तु अब यह उसकी सामर्थ्य से बाहर है कि वह अपने को इतना ऊँचा कर ले जिससे स्तनों तक मुँह पहुँचाकर अपनी भूख को शान्त कर लेवे । माता के हृदय में बालक पर दया करने के भाव जागृत हो उठते हैं और वह प्रेम से बालक को गोद में उठाकर दूध पिलाकर उसे कृतकृत्य कर देती है । ठीक इसी तरह जब मुमुक्षु अपने को , अपने अन्तःकरण आदि को उपनिषद् की शिक्षानुकूल शुद्ध करके ईश्वर के दर्शन का अधिकारी बना लेता है तब उस मुमुक्षुरुप बालक पर उस जगत् जननी जगदम्बा को भी दया आती है और उस मुमुक्षुरुप बालक को गोद में उठाकर आनन्दरुपी दुग्ध का पान कराके कृतकृत्य कर देती है । इसलिए मनुष्यों को सब आलस्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करके सबसे पहले अपने को चरित्रवान मनुष्य  बनाना चाहिए कि उनका जीवन, उपनिषद् की शिक्षानुकूल क्रियात्मक जीवन बने। विश्व का परात्पर ईश्वर, विश्व का स्रष्टा, विधाता और संहर्ता परमेश्वर कोई विशेष व्यक्ति नहीं अपितु निर्विशेष तत्व है। उपनिषद-का अर्थ है आत्मा के निकट बैठो ! या अपनी आत्मा की ही उपासना करो। 
इसलिए जब हमारी आत्मा ही कार्य-कारण, फल-अफल से परे है, अजर -अमर अविनाशी है, तो फिर शरीर-मन की मृत्यु से हमें भय क्यों होना चाहिये ? हमने अपने आप को इतना असहाय और पराश्रित क्यों बना लिया है ? क्योंकि हम स्वयं अपने लिए कुछ करना ही नहीं चाहते । हम अपना प्रत्येक कार्य कराने के लिए किसी ईश्वर , किसी त्राता या किसी पैगम्बर की कामना करते हैं । सहायता प्राप्त करने के लिए दर दर फिरना मूर्खता है बिल्कुल वैसे ही जैसे एक राजा पागल हो गया और फिर सम्पूर्ण नगर में “राजा कहाँ है” का प्रश्न करते हुए भटकता रहा । वेदान्त यही सारभूत करता है कि मनुष्य को कोई सहायता न तो कभी मिली न मिल रही है और न ही मिलेगी । और क्योंकि हम सभी में एक ही तत्व है तो कौन किसकी सहायता कर सकता है। जिस ब्रह्म से सम्पूर्ण विश्व की चैतन्यता व्याप्त है , क्या उस परब्रह्म स्वरुप मानव की कोई सहायता कर सकता है ? कभी नहीं !! फिर भय किससे और सहायता क्यों? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' अर्थात सम्पूर्ण मानवजाति अव्यक्त ब्रह्म है। तुम सब दिव्य हो – बल्कि तुम सबको दिव्य होना ही पडेगा । कोई ग्रन्थ तुम्हारे कार्यों तथा अस्तित्व का प्रमाण नहीं हो सकता, तुम्हीं ग्रन्थों के अस्तित्व का प्रमाण हो । कोई आध्यात्मिक ग्रंथ तुम्हें सत्य की ही शिक्षा देती है यह तुम किस प्रकार जानते हो? क्योंकि तुम स्वयं सत्य स्वरुप हो , नित्य-शुद्ध-बुद्ध हो, और तुम सत्य सुनने या पढ़ने पर वही अनुभव करते हो जो सत्य का अनुभव है । वरना हम - द्रष्टा और दृश्य में, सत्य और असत्य में, श्रेय (good) और प्रेय (pleasant -सुखकर) में अन्तर कैसे कर सकते हैं ? हमारी दिव्य आत्मा ही ईश्वर की दिव्यात्मा का प्रमाण है । वेदान्त कहता है कि यदि तुम वास्तविक महापुरुष नहीं हो तो ईश्वर के सम्बन्ध में भी को बात सत्य नहीं । वेदान्त तुम्हारे कर्म-फल के लिए क्षुद्र देवताओं को उत्तरदायी नहीं बनाता; वह कहता है, तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो। " (२/१४०) यदि “तुम” ईश्वर नहीं हो तो ईश्वर भी नहीं है, और ना ही कभी होगा। यदि पाप नामक कोई वस्तु है तो वह यही है कि हम सदैव अपनी दुर्बलता का मनन करें ।" 
यही वेदान्त का आधार दर्शन है। जन्म से ही हमें यह बताया जाता है कि हम दुर्बल हैं । बच्चों के अन्दर विभिन्न कपोलकल्पित चीज़ों का भय उत्पन्न किया जाता है । किन्तु हमें अपनी शक्ति का ज्ञान, विश्लेषण एवं विचारों के द्वारा ही होता है । इस संसार में जितना ज्ञान है वह कहाँ से आया ? वह हमारे भीतर ही था । हमारे वेद भी श्रुति और स्मृति ही हैं । वहाँ कोई ज्ञान कभी नहीं था । वह हमेशा से हमारे भीतर ही था । आपके सामने जब विशालकाय वटवृक्ष आये तो कल्पना करिएगा कि इतनी ऊर्जा और ऐसा आकार क्या एक सरसों के दाने के समान उसके बीज में ही संचित हो सकता था ? विश्वास करने का मन नहीं होता। लेकिन सत्य क्या है ? ये सम्पूर्ण आकार और ऊर्जा उस बीज में ही तो थी  जिसका परिणाम यह वटवृक्ष है ।
यदि शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक शक्तियों  का भंडार आप खाद्य सामग्रियों या औषधियों को मानते हों तो रोटी और चावल का पर्वत बना दीजिए उसमें उसकी अपनी ऊर्जा है आपकी नहीं । वह ऊर्जा तो हममें पहले से ही है । हम केवल उसे पोषित करते हैं । 'नशा शराब में होती तो नाचती बोतल !' 😎 
इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से हम यह पाते हैं कि सभी धर्मों में लक्ष्य एक ही होने के कारण वेदान्त का किसी से किसी प्रकार का कोई झगड़ा नहीं है । वह सभी धर्मों को उस अखण्ड महासागर की प्राप्ति के लिए अनेक विभिन्न मार्गों से प्रवाहित नदी के रुप में देखता है। वेदान्त किसी की निन्दा नहीं करता क्योंकि मनुष्य जिस रुप में इस समय है इस रुप में वेदान्त उसे नहीं देखता वरन् उसके वास्तविक स्वरुप में उसे देखता है। वेदान्त हमें सिखाता है कि पाप और पुण्य , कर्म और अकर्म कुछ भी नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति कभी न कभी अपने यथार्थ स्वरुप को पहचानेगा और अपने को समस्त ज्ञान , शक्ति और आनन्द के उद्गमस्थान 'ब्रह्म ' के रुप में साक्षात अनुभव करेगा । इच्छा और अनिच्छा पूर्वक प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रत्येक कर्म से होकर उसी परमलक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहा है। कर्म योगी दूसरों की सेवा करके, ज्ञानयोगी अपनी विचार शक्ति का  विकास करके , भक्त अपनी भावना या भक्ति का विकास करके, सभी विकास की उस सर्वोच्च अवस्था अर्थात “अखण्ड ब्रह्म” को प्राप्त करेंगे ही ।
'भारत के पुनर्निर्माण में वेदान्त का प्रयोग'
स्वामी विवेकानन्द अपने 'व्यावहारिक जीवन में वेदान्त' भाषण में कहते हैं -" सिद्धान्त बिल्कुल ठीक होने पर भी यदि उसे कार्य रूप में परिणत नहीं किया जा सकता, तो बौद्धिक व्यायाम के अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं है। वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरूढ़ होना चाहता है, तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिये।  आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है, उसे मिट जाना चाहिए। पहले हमें वेदान्त सिद्धान्त (महावाक्यों) का  परिचय प्राप्त करना होगा और यह समझना होगा कि, ये सिद्धांत किस प्रकार (श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षकों के द्वारा) हिमालय की कंदराओं से निकलकर कोलाहलपूर्ण नगरों की व्यस्तताओं में भी कार्यान्वित हुए हैं। इन सिद्धांतों में एक विशेषता यह है कि इनमें से अधिकांश के प्रणेता जंगलों-पर्वतों में वास करने वाले निवृत्तिमार्गी मंडलेश्वर संन्यासीगण न होकर,राजसिंहासन पर बैठने वाले वैसे राजा-राजर्षि हुए जिन्हें हम सबसे अधिक कर्मण्य (प्रवृत्तिमार्गी) समझते हैं। लाखों मनुष्यों के निरंकुश शासक इन राजाओं की अपेक्षा अधिक कार्यव्यस्त और कौन हो सकता है।
 छान्दोग्योपनिषद में वर्णित  ~ 'राजा प्रवाहण जैवलि और श्वेतकेतु' बीच हुए वार्तालाप को उपरोक्त कथन के प्रमाण स्वरूप लिया जा सकता है। श्वेतकेतु आरुणि ऋषि के पुत्र थे, ये ऋषि मोह को त्याग कर सम्भवतः वानप्रस्थी हो चुके थे।  एक बार श्वेतकेतु पांचालों के नगर में गये और राजा प्रवाहण जैवली की राजसभा में उपस्थित हुए।राजा ने उनसे पूछा,“मरते समय प्राण इस लोक से किस प्रकार गमन करता है, क्या यह जानते हो?” श्वेतकेतु ने कहा- “नहीं महाराज”, “किस प्रकार एवं किस कारण पुनर्जन्म होता है, यह जानते हो” ?श्वेतकेतु ने कहा- “नहीं महाराज”, “पितृयान” और “देवयान” के विषय में कुछ जानते हो ? श्वेतकेतु ने कहा- “नहीं महाराज”। इस प्रकार राजा ने कई प्रश्न किये किन्तु श्वेतकेतु किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका। लौटकर उसने पिता से सब बातें बताईं। तब ऋषि उद्दालक ने कहा- “इन प्रश्नों के उत्तर मुझे भी ज्ञात नहीं, यदि ज्ञात होते, तो तुम्हे भी सिखाता” । तब श्वेतकेतु ने राजा के समक्ष उपस्थित होकर इस गुप्त विषय की शिक्षा देने की प्रार्थना की । तब राजा ने कहा –“यह विद्या, यह ब्रह्म विद्या केवल राजाओं को ज्ञात थी , पुरोहितों को इसका ज्ञान कभी नहीं था। हे गौतम ! परलोक अग्नि (pure consciousness) है, सूर्य ईंधन है, धूम्र किरणें हैं, दिन ज्वाला है, चन्द्रमा भस्म है, तारागण चिंगारियाँ हैं और इस अग्नि में देवता श्रद्धा की आहुति देते हैं” । उसने आगे कहा “ तुम्हारी इस क्षुद्र अग्नि में होम करने का कोई प्रयोजन नहीं, सम्पूर्ण जगत ही यह अग्नि है और दिन रात उसमें होम हो रहा है । देवता, मनुष्य सभी निरंतर उसी की उपासना कर रहे हैं । मनुष्य का शरीर ही अग्नि (witness  consciousness) का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है। अर्थात मनुष्य का शरीर ही देवालय है ! ऐसा कहकर पांचाल देश के राजा प्रवाहण जैवलि ने पंचाग्नि विद्या का उपदेश किया। अब तक यह ज्ञान क्षत्रियों के ही पास था। 
[राजा प्रवाहण (जैवलि) ही प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने क्षत्रिय होकर भी यह परमज्ञान ब्राह्मणों को प्रदान किया। ये ऋषि उद्दालक के  समकालीन थे। सम्भवतः जीवल का वंशज होने के कारण, इन्हें ‘जैवलि’ अथवा ‘जैवल’ उपाधि प्राप्त हुयी होगी । छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-5 खण्ड-3 से 10 इसीलिये हमलोग किसी मनुष्य को केवल  मन और शरीर (2'H') वाला मानकर, किसी विशेष जाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय), नस्ल, रूप-रंग या आकृति को देखकर, या किसी व्यक्ति के मन के गुण -दोषों के आधार पर; अंतिम रूप से यह सर्टिफिकेट नहीं दे सकते कि अमुक व्यक्ति एकदम गयागुजरा है, आगे उसकी उन्नति की कोई सम्भावना नहीं हैं ! क्योंकि जब हम मानव व्यक्ति को और भी गहराई में उतरकर देखते हैं, तो पाते हैं कि जब व्यक्ति अपने हृदय 3rd'Hको विकसित करने की पद्धति को सीख लेता हैं। तथा एकाग्रता आदि 5 अभ्यास के द्वारा जो भी व्यक्ति  मन और शरीर के माध्यम से अपनी अंतर्निहित दिव्यता (pure awareness or consciousness, निःस्वार्थपरता) को जितनी अधिक मात्रा में अभिव्यक्त कर लेता है, वह उतना ही महान मनुष्य स्वयं बन सकता है, और दूसरों को भी महान मनुष्य बनने में सहायता कर सकता है।
मनुष्य केवल ऊपर से देखने पर शरीर और मन युक्त एक रोबोट जैसा दिख जरूर रहा है, किन्तु प्रत्येक मनुष्य के देह-मन के माध्यम से कुछ न कुछ शुद्ध चेतना (awareness,  अंतःप्रज्ञा) भी अपने को अवश्य प्रकाशित कर रही होती है। हम देखते हैं कि जैसे ही कोई  समस्या मनुष्य के सामने आती है, उसकी बुद्धि में अचानक चेतना (अंतःस्फुरण या sudden consciousness) जैसी कोई वस्तु प्रकट हो जाती है, और उसे भीतर से ही अपनी समस्या का तुरंत समाधान भी प्राप्त हो जाता है।
हमारे भारतीय दर्शन में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों की विशेषताएं हैं। यह संसार को देखने के अलग-अलग दरवाजे हैं। निवृत्ति मार्ग पर चलने वालों में तीर्थंकर महावीर, तथागत महात्मा बुद्ध और आदि शंकर हैं। ये लोग सृष्टि को उस दृष्टि से देखते हैं, जो 'निवृत्ति ' वाली दृष्टि और दर्शन है। आज की भाषा में कहें, तो यही कहेंगे कि जब पिज्जा-बर्गर खाकर बीमार पड़ना है और मर जाना है, तो फिर उसे न खाना ही अच्छा है। परहेज से रहो। स्वस्थ रहो। स्वयं में स्थिर रहो। अर्थात सांसारिक दौड़ में शामिल होकर शेष हो जाने से बेहतर है स्थिर हो जाओ। " इसलिए भगवान महावीर की जितनी मूर्तियां हैं - सब स्थिर। निश्चिल। अटल। खड़े हैं स्थिर। दौड़ समाप्त। यही भगवान बुद्ध के ऊपर भी लागू होता है। तमाम मूर्त्तियां स्थिर हैं। ध्यान मुद्रा में तथागत बैठे हैं - स्थिर। निश्चिल। यही मुद्रा देवाधिदेव महादेव (स्वामी विवेकानन्द) की है। नवनीदा के चित्र में भी यही ध्यान मुद्रा है, किन्तु खुली आँखों से जगत को ब्रह्ममय देखने की है। आध्यात्मिक शिक्षक या नेता नवनीदा को देखने से ही यह स्पष्ट रूप में दीखता है, कि वे ऐसे महापुरुष हैं जिनकी सांसारिक दौड़ थम-सी गई है।
लेकिन हमारे शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति मार्ग में आने में कोई बाधा नहीं देते हैं। वे केवल इतना ही कहते हैं, कि गृहस्थों को सदैव यह स्मरण रखना चाहिये कि -" निवृत्ति अस्तु महाफला ! क्योंकि भगवान ने सभी इन्द्रियों को बहिर्मुखी ही बनाया है।  और रूप-रस आदि विषय सामने आते ही हैं -और पूर्वसंस्कार वश उसमें सत्यता का ज्ञान होने से मनुष्य माया के बन्धन में फँस जाता है; अर्थात  'सिंहशावक' हिप्नोटाइज्ड होकर अपने को 'भेंड़' समझने लगता है ! [हमारे यहाँ दो तरहके ब्रह्मचारी होते हैं  ̶  नैष्ठिक और उपकुर्वाण । जो आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वे ‘नैष्ठिक ब्रह्मचारी’ कहालाते हैं और जो विचारके द्वारा भोगेच्छा को नहीं मिटा पाते और जो केवल भोगेच्छा को मिटाने के लिये ही विवाह करते हैं वे ‘उपकुर्वाण ब्रह्मचारी’ कहलाते हैं ।
 तात्पर्य है कि जो विचारके द्वारा भोगेच्छाको न मिटा सके, वह विवाह करके देख ले, जिससे यह अनुभव हो जाय कि यह भोगेच्छा भोग भोगने से कभी मिटने वाली नहीं है । ( भोगेच्छा ?) इसीलिये गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम में जाने का विधान किया गया है ।अतः जैसे सरकारी कर्मचारी नौकरी से रिटायर होते हैं, ऐसे ही मनुष्य को भी समय आने पर भीगी -जीवन से से रिटायर हो जाना चाहिये। और बेटों-पोतों को काम-धंधा सौंपकर घर में रहते हुए ही महामण्डल द्वारा संचालित चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन के प्रचार -प्रसार में जुट जाना चाहिए। युवाकाल में ही बाह्य-प्रकृति को वश में कर लेने से, इतना धन अवश्य संचित हो जायेगा कि आजीवन उनके भोजन, वस्त्र, का तथा महामण्डल के कैम्प फी आदि का निर्वाह आजीवन होता रहेगा। पेंशन केवल सरकारी नौकरी में ही नहीं मिलती, जो गृहस्थ बिजनेस करने के बाद महामण्डल आंदोलन से जुड़ते हैं, उनको माँ सारदा देवी (जगदम्बा) की अनुकम्पा से सारा इंतजाम हो जाता है। उनको  मेरा निर्वाह कैसे होगा, इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि‒
प्रारब्ध   पहले  रचा ,  पीछे  रचा   सरीर ।
तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुवीर ॥
सदा गृहस्थ-जीवन में ही रहकर आजीवन भोग भोगते रहना मनुष्यता नहीं है । जिसके मन में तीव्र भोगेच्छा है अथवा जो वंश-परंपरा चलाना चाहता है और (वंश-परंपरा चलानेके लिये ) उसका कोई भाई नहीं है; उसको केवल भोगेच्छा मिटाने के उद्देश्य से अथवा वंश-परम्परा चलाने के लिये विवाह कर लेना चाहिये । अगर उपर्युक्त दोनों इच्छाएँ न हों तो विवाह करनेकी जरुरत नहीं है । शास्त्रो में निवृति को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है‒‘निवृत्तिस्तु महाफला ।’ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास‒इन चारों आश्रमोंकी सेवा करना गृहस्थका खास धर्म है; क्योंकि गृहस्थ ही सबका माँ-बाप है, पालक है, संरक्षक है अर्थात् गृहस्थसे ही ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी उत्पन्न होते हैं और पालित एवं संरक्षित होते हैं । अतः चारों आश्रमों का पालन-पोषण करना गृहस्थ का खास धर्म है । सानन्दं सदनं सुताश्च  सुधियः कांता न दुभाषिणी, सन्मित्रं सुधनं स्वयोषिति रतिश्चाज्ञापराः सेवकाः ।आतिथ्यं शिवपूजनं   प्रतिदिनं   मृष्टान्नपानं   गृहे,साधोःसङ्गमुपासते हि सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः ॥ ‘घरमें सब सुखी हैं, पुत्र बुद्धिमान्‌ हैं, पत्नी मधुरभाषिणी है, अच्छे मित्र हैं, अपनी पत्निका ही संग है, नौकर आज्ञापरायण हैं, प्रतिदिन अतिथि-सत्कार एवं भगवान्‌ शंकरका पूजन होता है, पवित्र एवं सुन्दर खान-पान है और नित्य ही संतोंका संग किया जाता है  ̶  ऐसा जो गृहस्थाश्रम है, वह धन्य है !’[सौजन्य- http://satcharcha.blogspot.in]
आधुनिक युवाओं के समक्ष सबसे चुनौतीपूर्ण समाज सेवा क्या है ? 
[ JSR-2016 camp:  गुजरात यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेन्ट ऑफ़ सोसल सर्विस का प्रश्न था -]  
स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित 'BE AND MAKE-के  निहितार्थ  को स्वयं समझना और दूसरों को समझाना 'सर्वोत्कृष्ट समाजसेवा' का कार्य है। और महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम भी यही है। 
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा क्षेत्रीय और राज्य-स्तरीय,अन्तर्राज्य -स्तरीय एवं अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित होने वाले समस्त 'युवा प्रशिक्षण शिविर' में चर्चाओं का मूल विषय (theme) है- 'BE AND MAKE' ! इस अति संक्षिप्त उक्ति का अर्थ क्या है ?स्वामी विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत इस 'व्यावहारिक वेदान्त सूत्र' - " BE AND MAKE " का अर्थ, वेदों के चार महावाक्यों के ही समान, बहुत व्यापक है। यह महावाक्य महान विचारों को जन्म देती है। इस छोटे से सूत्र में ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य और उसे प्राप्त करने का उपाय छिपा हुआ है। यदि कोई व्यक्ति केवल इसी एक विचार को संकल्प के रूप में ग्रहण कर ले, और उसे इसी जीवन में उसे पूर्ण कर सके -तो कहा जा सकता है कि उस व्यक्ति का मनुष्य-जीवन सार्थक हो गया है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" सामाजिक दोषों के निराकरण का कार्य (Making) उतना (ऑब्जेक्टिव ) वस्तुनिष्ठ नहीं है जितना आत्मनिष्ठ (सब्जेक्टिव)। हम कितनी भी लम्बी चौड़ी डिंग क्यों न हाँकें समाज के दोषों को दूर करने का कार्य जितना स्वयं के लिए शिक्षात्मक है, उतना समाज के लिये वास्तविक नहीं। "५/१०९]  इसीलिये 'BE AND MAKE' को ' साइमल्टैनीअस्ली' या साथ साथ कियान्वित करना, 'मनुष्य' बनने का सबसे अच्छा उपाय है। क्योंकि स्वयं 'मनुष्य बनने'  का प्रयास करने वाला कोई व्यक्ति (अर्थात अपने जीवन और चरित्र को गठित करने के लिए उद्यम करने वाला युवा), अपने आप में ही  दूसरों के लिए एक उदाहरण और प्रेरणा का एक स्रोत बन जाता है। और यदि हम अपने स्वरूप के प्रति जागृत होकर, इसी विषय में दूसरों की भी थोड़ी सी सहायता करते हैं, तो यह निःस्वार्थ-सेवा हमारे अपने आत्म-विकास के प्रयास को प्रोत्साहित (बूस्ट) करती है। इसलिए  'बनने' के साथ ही साथ यदि हम 'बनाने'  (Make =लोक-कल्याण) का थोड़ा प्रयास भी  करते हैं, तो अपने 'बनने' (Being =आत्मकल्याण) के मामले हमें कुछ खोना नहीं पड़ता है।
किन्तु यहाँ केवल एक सावधानी बरतनी आवश्यक हो जाती है। यदि हम स्वयं मनुष्य बनने की दिशा में कोई प्रयास नहीं करते, और इस विषय में केवल दूसरों को ही उपदेश देते रहते हैं, तो इससे किसी को  कोई लाभ न होगा। यह दूसरों के लिए अधिक सहायक तो नहीं ही होगा, मैं भी निश्चित रूप से उसका कोई लाभ नहीं उठा पाउँगा। मैं जहाँ था वहीँ रुका रहूंगा, या हो सकता है कि एक या दो सोपान नीचे भी उतर जाऊँ। क्योंकि, उस अवस्था में मुझे अपने विषय में यह 'खुशफहमी' हो सकती है कि मैं ऊँचे स्तर में पहुँच गया हूँ, जिससे मेरा अहंकार बढ़ जायेगा , (और गुरुगिरि करने के चक्कर में) और मैं अपने यथार्थ स्वरूप से नीचे गिर जाऊँगा। इस 'मनुष्य बनने की प्रक्रिया' (५-अभ्यास) को आत्मसात करने में दृढ़ संकल्प , अविचलता, धैर्य, अध्यवसाय, और अत्यधिक सावधानी के साथ आजीवन - 'टिल दी गोल इज रीच्ड' - 'जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न जाये, तब तक' प्रयास-रत रहने की आवश्यकता होती है। 
स्वामी जी डॉ० नजुन्दाराव को ३० नवम्बर १८९४ के पत्र में लिखते हैं- " परन्तु वत्स इस (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के मार्ग में) मार्ग में बाधाएँ भी हैं। जल्दीबाजी से कोई काम नहीं होता। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय (3P) इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है, और सर्वोपरि है प्रेम। तुम्हारे सामने अनन्त समय है, अतएव अनुचित शीघ्रता आवश्यक नहीं। यदि तुम पवित्र और निष्कपट हो तो सब काम ठीक हो जायेंगे।
हमें तुम्हारे जैसे हजारों (जीवन्मुक्त गृहस्थ शिक्षकों) की आवश्यकता है, जो समाज पर टूट पड़ें और जहाँ कहीं वे जायें, वहीँ नये जीवन और नयी शक्ति का संचार कर दें! "
 'मनुष्य बनने की प्रक्रिया' में 'कॉशन ऐंड केयर मस्ट बी कॉन्सटेंट-अनरिलेन्टींग' कठोरता पूर्वक विवेक-प्रयोग करने के लिये निरन्तर सतर्क और सावधान रहना ही पड़ता है!  'यथार्थ मनुष्य' बन जाना इतना आसान नहीं है कि किसी दिन मैं सुबह सुबह उठकर यह घोषणा कर दूँ -कि " मैं तो अब 'मनुष्य' कहा जाने योग्य मनुष्य (महात्मा बुद्ध) बन गया हूँ!" क्योंकि, जिस प्रकार जल को जहाँ से, और जब कभी नीचे गिरने का मार्ग मिल जाता है, जल वहीँ से नीचे की ओर बहने लगता है; यदि मनःसंयोग का अभ्यास नियमित तौर से नहीं करते रहा जाय तो, मानव-मन का स्वभाव भी ठीक उसी प्रकार नीचे की ओर गिरने का होता है। 
यहाँ इसी विषय के ऊपर एक उपाख्यान को सुनना हमारे लिये लाभप्रद हो सकता है। वाराणसी के एक मठ में एक सन्यासी (महंत जी ) रहा करते थे। वे प्रतिदिन गंगा-स्नान करने के लिए जाया करते थे। वहाँ से वापस लौटते समय एक स्त्री (?) प्रतिदिन उनके मार्ग में खड़ी होकर पूछती थी -'बाबा, मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ !' संन्यासी  जी कभी उसका कोई उत्तर नहीं देते थे, और बिना रुके अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाते थे।इसी प्रकार अनेक वर्ष बीत गये और जब महंत जी के मृत्यु का समय आ गया तब  उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि उस स्त्री को बुला कर मेरे पास ले आओ। उन्होंने वैसा ही किया और सन्यासी ने उसके आध्यात्मिक जिज्ञासा का उचित देकर उसे संतुष्ट कर दिया। आश्चर्यचकित होकर शिष्यों ने पूछा - 'महाराज, आपने इतने दिनों तक उस स्त्री की आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान क्यों नहीं किया ? तब संन्यासी जी ने उत्तर दिया, ' अभी तक मेरे मन के नीचे उतरने का खतरा सदैव बना हुआ था।' इसीलिये मैं आजीवन सतर्क रहता था, 'मैं अब यह जानता हूँ कि मैं जीवित नहीं रहूँगा'। 
हममें से बहुत से लोगों को ऐसी सावधानी अत्यधिक (टू मच या बेहद ज्यादा) प्रतीत हो सकती है। ''But we can learn a lot from this' (बट वी कैन लर्न अ लॉट फ्रॉम दिस) जो महामण्डल कर्मी  गृहस्थ जीवन में रहते हुए, भी ' श्रीरामकृष्ण की पताका (महामण्डल -ध्वज) हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिए विचरण करने की इच्छा रखते हैं, उन्हें इस उपाख्यान से स्वामी जी 'कभी फूलों से भी कोमल और कभी तीर के समान चुभने वाले' शब्दों (are you a beast ? का मर्म समझ में आ जाता है।
 स्वामी जी चाहते थे कि युवाओं को शारीरिक,मानसिक तथा आर्थिक दृष्टि उन्नत मनुष्य बनने का प्रशिक्षण देने के साथ ही साथ उनके हृदय को इतना उदार बना दिया जाय कि उसमें निजी भोगाकांक्षा या स्वार्थपरता के लिये थोड़ी सी भी जगह न रहे! क्षणिक-सुख भोगने की हल्की सी गन्ध में उसके हृदय शेष नहीं बचे ! उन्हें स्वस्थ शरीर और सबल मन के साथ साथ ' बज्र से भी कठोर और पुष्प से भी हृदय'  विकसित बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर लेना चाहिए। 
उत्तर राम-चरित में महाकवि भवभूति कहते हैं - वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि ।लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विक्षातुमर्हति ॥ वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित जीवन्मुक्त शिक्षकों (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं)  का हृदय अति विशिष्ठ प्रकार से गढ़ा हुआ होता है, (बाहर से) वज्र जैसे कठोर और भीतर से पुष्प जैसा कोमल होता है। (इसी विशिष्टता के लिये ही वे समाज में प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध 'नेता' होते हैं।)  ऐसे लोकोत्तर अंतःकरण को कौन समझ सकता है ?वे स्वयं के १२ दोषों को निकालने और २४ सद्गुणों को अर्जित करने के संकल्प पर अटल रहने में विवेक-प्रयोग करते समय आवश्यकतानुसार वज्र के समान कठोर होते हैं।  किन्तु दूसरों को निरन्तर विवेक-प्रयोग करने में उनकी असमर्थता को देखकर उनके प्रति प्रेम और सहानुभूति का अनुभव करते हुए पुष्प के समान कोमलता के साथ उनकी सहायता करते हैं। (वे किसी तेज छात्र को दूसरे कमजोर छात्र की कान पकड़ कर चाटा मारने का हुक्म नहीं सुनाते हैं।)प्रश्न है कि ऐसे- 'वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि' आपात विरोधावासी  हृदय का विकास कैसे किया जाता है ? स्वामी विवेकानन्द ने धर्म को परिभाषित करते हुए कहा था, "धर्म एक ऐसी वस्तु है जो, ' पशु-मानव (अ-विवेकी मनुष्य को) मनुष्य में और मनुष्य (विवेकी मनुष्य) को परमात्मा (पूर्ण निःस्वार्थपरता) में उन्नत कर देता है! और मनुष्य के सर्वांगीन विकास के लिये ऐसा होना अपरिहार्य है।
हमलोग जानते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव या कम्पोनेंट्स होते हैं - शरीर (बाहुबल Hand), मन (बुद्धिबल या Head) और हृदय (सहानुभूति शक्ति -Heart) इन तीनों अवयवों को विकसित कर लेने से यथार्थ मनुष्य बना जा सकता है। इसी आधार पर मनुष्य-निर्माण का सूत्र देते हुए उन्होंने कहा था,  '3H -निर्माण' ! हम जानते हैं कि पंच भूतों से निर्मित हमारा यह शरीर एक स्थूल जड़ पदार्थ है, और मन एक सूक्ष्म जड़ पदार्थ है। इसीलिये पौष्टिक आहार और व्यायाम के द्वारा शरीर को विकसित करना आसान है। किन्तु मन अत्यंत सूक्ष्म वस्तु है, इसलिए बुद्धि को विकसित करने के लिये मन को वशीभूत करना थोड़ा कठिन तो अवश्य है, किन्तु असम्भव नहीं है। (डबल प्रेजेंस ऑफ़ माइंड के कारण मन को मन के माध्यम से ही पकड़ना सम्भव है) मनःसंयोग का अभ्यास और पौष्टिक मानसिक आहार द्वारा बुद्धिबल को भी विकसित किया जा सकता है।
  किन्तु, हृदय (3rd'H') कोई अन्य चीज है, जो चित्त,मन, बुद्धि अहंकार (अन्तःकरण) से भी सूक्ष्मतर है; और किसी भी तरह से उसे भौतिक पदार्थ (ऐन्द्रिक वस्तु) तो बिल्कुल नहीं कहा जा सकता है। हम हृदय को, किसी भी बाह्य उपकरण के जैसा आसानी से नहीं समझ सकते हैं। हम जानते हैं कि हमारा मन एक ऐसा साधन (इंस्ट्रुमेंट) है, जिसका उपयोग हम स्वयं मन को भी देखने (या पकड़ने) के लिये कर सकते हैं। लेकिन, हृदय का उपयोग या व्यवहार करने के लिये, ठीक उसी के सामान कोई दूसरा साधन या उपकरण हमारे पास नहीं है। "Heart Can Only Respond to Heart from a Distance."
(हार्ट कैन ओनली रेस्पॉन्ड टु हार्ट फ्रॉम अ डिस्टेंस.) अर्थात  एक हृदय, दूसरे हृदय को केवल दूर से ही प्रत्युत्तर दे सकता है। It's Something Like Resonance .--(इट इज  समथिंग लाइक रेजोनेंस.) अर्थात --यह कुछ-कुछ अनुगूँज या अनुकम्पन के जैसी चीज है। जैसे, किसी रेडियो स्टेशन से एक निश्चित मेगाहर्ट्ज़ फ्रीक्वेंसीज के रेडियो तरंगों को संचारित (ट्रांसमिट) किया जाता है। और किसी दूरस्थ स्थान पर एक ट्रांजिस्टर (इलेक्ट्रॉनिक रिसीवर) होता है जो प्रेषित ध्वनि तरंगों को डिटेक्ट कर लेता है, या पकड़ लेता है, और उसे ऐम्प्लीफाइ करता है, अर्थात उसकी आवाज को बढ़ा देता है। और हमलोग घर बैठे रेडिओ प्रसारण केन्द्र से प्रसारित होने वाले भाषण या विविध संगीत को सुन सकते हैं।
 हमारा हृदय भी ठीक उसी प्रणाली से कार्य करता है।
 तुमने फिजिक्स में 'Phenomenon of the Resonance' या 'अनुकम्पन की अद्भुत घटना'  के विषय में पढ़ा होगा। किसी स्ट्रिंग वाले (तार वाले) वाद्य यंत्र जैसे गिटार- के एक तार को एक विशेष Frequency  या आवृत्ति, मान लें 240 - आवृत्ति के कम्पन के लिये ट्यून कर दो । और गिटार के एक अन्य तार को भी उसी समान आवृत्ति 240 आवृत्ति पर स्थिर या सेट कर दो । और बस एक तार को छेड़ दो । यदि तुम इस परीक्षण को करते हो, तो तुम देखेंगे कि दूसरा तार भी स्वतः कंपन करना शुरू देता है, और वही स्वर (ध्वनि) उत्पन्न कर रहा है, जो स्वर पहले वाले तार से बहार निकल रहा है। ठीक इसी प्रकार- तुम अपने हृदय  को दूसरों के हृदय की धड़कन या फीलींग्स (सुख-दुःख के कम्पन)  के साथ अट्यून करके, उस हृदय के सुर के साथ अपने हृदय के सुर को मिला सकते हो! 
(मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा !) किसी भी (सचेतन) प्राणी के हृदय पर कार्य करने की एकमात्र प्रणाली यही है। 'We Can tune Your Heart to the Heart Beats or  the feelings  of Others!'( वी कैन अट्यून ऑवर हार्ट टू दी  हार्ट बीट्स आर दी  फीलिंग्स ऑफ अदर्स !') 'हम अपने हृदय को भी दूसरों के हृदय की धड़कनों को सुनने या दूसरों के हृदय की  भावनाओं को सुनने के लिए एक ही Frequency  पर ट्यून कर सकते हैं!'
 उदाहरण के लिये, जब अपने किसी प्रिय व्यक्ति- के पैर में काँटा गड़ जाता है, या बटन लगाते समय कभी माँ की ऊँगली में सुई चुभ जाता है, तो उसकी पीड़ा का अनुभव, हम लोग अपने हृदय में करते हैं। इसीलिये समाज सेवा करते समय समाज-सेवी को अपने 'राईट मोटिवेशन' या उचित अभिप्रेरणा पर सतर्क दृष्टि रखनी चाहिये। और उचित प्रकार से समाज -सेवा करके अपने हृदय को ' वज्र से भी कठोर और पुष्प से भी कोमल ' विकसित करने के उद्देश्य ही से ही दूसरों की सहायता और सेवा करने के लिये आगे आना चाहिये। 
स्वामी जी कहते हैं  - "तुम्हारी पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक-शिक्षा (Head) के ही पीछे पड़े हो, हृदय (Heart) की ओर ध्यान ही नहीं देते। इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है। यही तुम्हारे नाश का कारण होगा। यदि हृदय (Heart) और बुद्धि (Head)  में विरोध उत्पन्न हो, तो हृदय का अनुसरण करो, क्योंकि बुद्धि केवल एक तर्क के क्षेत्र में ही काम कर सकती है। वह उसके परे नहीं जा सकती।केवल हृदय ही हमें उच्चतम भूमि में ले जाता है, जहाँ बुद्धि कभी नहीं पहुँच सकती।"  हमारा हृदय ही बुद्धि का अतिक्रमण कर जिसे हम 'अन्तःस्फुरण' कहते हैं, उसे पा लेता है। बुद्धि कभी अन्तःस्फुरित (इंस्पायर्ड) नहीं हो सकती। केवल उद्बोधित हृदय ही अन्तःस्फुरित हो सकता है !जिस तरह बुद्धि (Head)  ज्ञान का साधन है, उसी तरह हृदय (Heart) भी अन्तःस्फुरण का साधन (instrument) है। केवल बुद्धिप्रधान, किन्तु शुष्क-हृदय मनुष्य कभी अन्तःस्फूर्त [इन्स्पाइअर्ड या सेल्फ-पल्सेशन ? / self-pulsation,] नहीं बन सकता। प्रेममय पुरुष (लोक-शिक्षक या नेता ) की समस्त क्रियायें उसके हृदय से ही अनुप्राणित होती हैं, वह एक ऐसा उच्चतर साधन प्राप्त कर लेता है, जिसे बुद्धि कभी नहीं दे सकती, और वह साधन है हृदय का अन्तःस्फुरण।" 
किन्तु इसीलिये उसे सदैव सतर्क रहने की आवश्यकता भी होती है। इसीलिये स्वामीजी भगिनी निवेदिता को ३ नवम्बर १८९७ को लिखे पत्र में कहते हैं, "अत्यधिक भावुकता कार्य में बाधा उत्पन्न करती है, 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि' हमारा मूलमंत्र होगा।" पार्थसारथी श्रीकृष्ण गीता ६/३२ में परम् योगी (सच्चे नेता) को परिभाषित करते हुए कहते हैं -आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।। " हे अर्जुन,  सच्चा योगी वही है, जो ' आत्मा-उपम्येन'- अपने साथ तुलना करके दूसरों के दुःख-संताप को अपने हृदय में महसूस करता है।और समान रूप से शोकाकुल हो जाता है, और दूसरों के आनंदित होने से, उसके आनन्द को भी ठीक उसी के समान महसूस करके, उसके आनन्द में सहभागी बन सकता  है।" सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का बोध होना - दुर्लभ अवस्था है। उनका प्रेम दिखावे वाला बाहरी विश्व-भ्रातृत्व नहीं बल्कि यह प्रेम योगी को आत्मज्ञान से विश्व-सेवा, जीव-सेवा या समाज-सेवा करने के लिये अभिप्रेरित करता है। यही विश्व-प्रेम अर्थात आत्मस्वरूप ब्रह्म का सभी प्राणियों में दर्शन को ही- अहं ब्रह्मास्मि कहा जाता है, खुली आँखों से ध्यान करते समय दैनन्दिन जीवन में ऐसी अनुभूति ही योगी को विश्वप्रेमिक बना देती है। ब्रह्म-स्वरुप अहं या 'पक्का मैं' की सीमा उस समय विश्वमय हो जाती है; उस अवस्था में योगी भुवनमंगल रूप होकर विराजमान रहते हैं। इस दृष्टि से देखने पर स्वामी विवेकानन्द जी  एक महान योगी थे, किन्तु हमलोगों को भी कम से कम छोटा योगी तो अवश्य बनना चाहिये। हमें भी दूसरे के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में थोड़ा बहुत अवश्य महसूस करने की चेष्टा करनी चाहिये, और उस दृश्य का उपयोग अपने हृदय को विकसित करने में करना चाहिये।
स्वामी विवेकानन्द ऐसा विश्वास करते थे कि श्रीरामकृष्ण परमहंस देव मात्र अपने कृपा-कटाक्ष द्वारा मिट्टी के ढेले से हजारों विवेकानन्द का निर्माण कर सकते हैं! बाद में जगतजननी माँ काली के विषय में बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-'She Can Make Heroes Out of Stone!'अर्थात "माँ काली पत्थर को भी नायक (मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) के रूप गढ़ सकती है !"(We should not read this meaning of 'making', When We Are Concerned.)  हमलोगों को जब अपने विषय में 'मेकिंग' या 'मनुष्य बनने में सहायता करने' का तात्पर्य समझना हो, तो हमें 'बनाने' के कार्य को इस प्रकार नहीं देखना चाहिये। हमारे लिये तो अपने आस-पास रहने वाले लोगों को 'मनुष्य बनने में सहायता करने ' ('Making) का अवसर प्राप्त होने का अर्थ, स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने के प्रयास में श्रीठाकुर देव के कार्य ( या स्वामी विवेकानन्द की क्रान्तिकारी योजना) को धरातल पर उतारने में एक अत्यन्त छोटा सा सहायक बनने (रामसेतु बन्धन में गिलहरी जैसा सहायक बनने ) का सौभाग्य प्राप्त करके अपने जीवन को धन्य करने जैसा है।
 क्योंकि स्वामी विवेकानन्द के अनुसार -'The Dynamism of the Whole World is for the making of Man!' अर्थात सम्पूर्ण विश्व की निरन्तर गतिशीलता के पीछे 'मनुष्य निर्माण' (पशुमानव से मनुष्य और मनुष्य से देवमानव में रूपान्तरित होने) की एक ईश्वरीय -योजना है। 'And We Were All watching the making of Man and That Alone'  उन्होंने ने कहा था -' और हमलोग केवल मनुष्यों को निर्मित होता हुआ देख रहे थे।' महामण्डल की पुस्तिका 'विवेकानन्द दर्शनम्' में कहा गया है-
 नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम्।
 मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते।।    
सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और जगत रूपी चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के माध्यम से केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है। यही कि  " अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष, ऋषि या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !
किन्तु हमारे लिये 'मनुष्य निर्माण' करने का तात्पर्य केवल दर्शक बनकर मनुष्य बनते हुए देखते रहना ही नहीं है, किन्तु हमें मनुष्यों का निर्माण करने वाले  इस विश्व-रंगमंच पर सतत चलते रहने वाले जीवन्त नाटक में एक छोटे से कलाकार की भूमिका भी निभानी है। 
जब हम अपने अंतःप्रकृति को या अपने 'स्व' को (यथार्थ स्वरूप को)  गहराई से जानने की चेष्टा करते हैं, अथवा बाह्य प्रकृति को, तो दोनों अवस्थाओं में हमें उसी अनन्त-असीम (लिमिटलैस) का आह्वान सुनाई देता है। बाह्यजगत और अंतःजगत दोनों अथाह (fathomless) हैं, इनकी गहराई को मापा नहीं जा सकता। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं, जो हमें नाम-रूप की सीमा में आबद्ध करना चाहती है। हमें ऐसा महसूस होता है कि स्वयं को विश्व के अन्य मनुष्य के सुख-दुःख से काट कर एकाकी (isolated) बना लेना एक पाप है, इसीलिये हम स्वयं को दूसरों में खो देना चाहते हैं। हम अपने साथ दूसरे लोगों को जोड़ते चले जाते हैं, पहले अपने माता-पिता, बन्धु-बान्धव , जो हमारे अपने स्वजन सगे-संबंधियों में स्वयं को प्रसारित करने की चेष्टा करते हैं। 
विवाह होने के बाद जो नये नाते-रिश्ते बनते हैं, उनमें भी अपने को खो देना चाहते हैं। और इस प्रकार क्रमशः हमें बोध होता है कि हमारी सबसे बड़ी विजय तो स्वयं को जीत लेने में है, ( नाम-रूप के देहाध्यास या अहंकार से परे चले जाने में है) जिसके फलस्वरूप हम अपने कामोन्माद या अपने परिवेश के गुलाम न होकर स्वयं के स्वामी बन जाते हैं। 
समाज के वर्तमान संकटपूर्ण अवस्था का मूल कारण यही है कि हमने स्वयं के ऊपर, अपनी अंतर्निहित दिव्यता के ऊपर विश्वास को ही खो दिया है, इसके साथ ही साथ हमने अपनी अन्तर्निहित अनन्त शक्ति और पवित्रता पर श्रद्धा को भी खो दिया है। इस खोये हुए आत्मविश्वास और श्रद्धा को सशक्त करने से ही हम इस विकट समस्या पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। और यहीं 'Be' अर्थात अपने यथार्थ स्वरुप में अवस्थित होने या यथार्थ मनुष्य बनने के लिए व्यक्तिगत प्रयास करने की आवश्यकता होती है। 'Freedom is our nature ' मुक्ति (स्वतंत्रता) ही हमारा स्वभाव है! एवं सम्पूर्ण मानव-जाति के साथ रक्त-सम्बन्धियों जैसी अपनापन की भावना रहने के कारण, अपने आस-पास रहने वालों के प्रति हमारा प्रेम - उन सबों को मुक्त देखने के लिये अनुप्रेरित करता है। और यहीं पर अपने यथार्थ स्वरूप (मुक्ति) में अवस्थित होने की हमारी व्यक्तिगत चेष्टा (इण्डिभिजुअल एफर्ट- 'BE') एक सामाजिक प्रयास (सोशल एफर्ट-'MAKE') में रूपान्तरित हो जाती है।
 इसी व्यावहारिक वेदान्त को स्वामी विवेकानन्द ने अपने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित वाणी (महावाक्य)- 'BE AND MAKE' के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, या मुक्त-स्वभाव है, इसी विचार के साथ थोड़ा और आगे बढ़ने पर हम पाते हैं कि वे इसी बात को इंगित करते हुए कह रहे हैं -" भारत में हमारे पास  'Social communism ' अर्थात सामाजिक साम्यवाद है, जो अद्वैत वेदान्त (नॉन-डुअलिज्म, कोई पराया नहीं) की भावना से प्रकाशित है।  इसीको आध्यात्मिक व्यक्तिवाद " स्पिरिचुअल इंडिविजुलिज्म" कहते हैं ।  (सूक्तियाँ एवं सुभाषित -८/१३४) इसी आध्यात्मिक व्यक्तिवाद 'Spiritual Individualism' को सामाजिक प्रयत्न Social Effort  में परिवर्तित करने के लिये, उन्होंने भारत के जनसाधारण को सर्वप्रथम 'शिक्षा एवं संस्कृति' प्रदान करने का परामर्श दिया था। 
क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते थे कि भारत के जनसाधारण तक गीता और उपनिषदों की शिक्षा को पहुँचाये बिना, एक महान राष्ट्र 'विश्वगुरु भारत' के रूप में हमारा 'Collective-Existence'(सामूहिक-अस्तित्व) बिल्कुल मिथ्या हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " विगत शताब्दी तक जितने भी सुधारवादी आन्दोलन हुए हैं उनमें से अधिकांश का सम्बन्ध केवल भारत के प्रथम दो वर्णों से रहा है, शेष दो से नहीं। जो जनसाधारण का तिरस्कार करके स्वयं शिक्षित बने हैं । पर यह तो सुधार नहीं कहा जा सकता। सुधार करने में चीज भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ । आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एक 'अखंड भारतीय राष्ट्र' संगठित करो ! " 
" किन्तु उच्च वर्णों को नीचे उतार कर इस 'जातिप्रथा की समस्या' की मीमांसा न होगी, किन्तु नीची जातियों को ऊँची जातियों के बराबर उठाना होगा। अच्छा, तो वह योजना -वह प्रणाली क्या है ? उस आदर्श का एक छोर ब्राह्मण है और दूसरा छोर दलित, और सम्पूर्ण कार्य दलित को उठाकर ब्राह्मण बनाना है । ५/१८८[यही 'BE AND MAKE' का निहितार्थ है!] " 
इसी वर्ण-व्यवस्था प्रणाली से सभी जातियाँ धीरे धीरे उठेंगी। आज जो हजारों जातियाँ हैं, उनमें से कुछ तो ब्राह्मणों में शामिल भी हो रही हैं। कोई जाति अगर (अपना चरित्र निर्माण करके) अपने को ब्राह्मण कहने लगे तो इस पर कोई क्या कर सकता है ? जाति-भेद कितना भी कठोर क्यों न हो, वह इसी रूप में क्रमशः सृष्ट होता गया है ! और शंकराचार्य आदि शक्तिशाली युग-प्रवर्तक नेता ही बड़े बड़े वर्ण-निर्माता थे। कभी कभी उन्होंने दल के दल 'बलूच' लोगों (बलूचिस्तान में रहकर भी भारत माता की जय कहने वाले आधुनिक 'ब्रह्मदग बुगती' 10 साल पहले पाकिस्तानी आर्मी द्वारा एनकाउंटर में मारे गए बलूच राष्ट्रवादी नेता, नवाब अकबर खान बुगती के पोते और बलूच रिपब्लिकन पार्टी के नेता) को क्षणभर में क्षत्रिय बना डाला! दल के दल धीवरों (मछुओं) को लेकर क्षणभर में ब्राह्मण बना दिया। वे सब ऋषि मुनि थे,(ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद मनुष्य बन चुके थे) और हमें उनकी स्मृति के सामने अपने सिर को झुकाना ही होगा। (नहीं तो इब्लीस के सामान शैतान बन जाओगे !)
तुम्हें भी ऋषि बनना होगा -अपने मनुष्य जीवन को सार्थक करने का यही गूढ़ रहस्य है। न्यूनाधिक सबको ही ऋषि होना होगा। ऋषि के क्या अर्थ हैं ? ऋषि का अर्थ है पवित्र आत्मा। पहले पवित्र बनो (देह, इन्द्रिय,मन पर विजय प्राप्त करके आत्मसाक्षात्कार कर लो), तभी तुम शक्ति पाओगे। 'मैं ऋषि हूँ '(अहं ब्रह्मsस्मि, या मैं ब्राह्मण हूँ !) कहने मात्र से न होगा, किन्तु जब तुम यथार्थ ऋषित्व (नेतृत्व) लाभ करोगे (अपना ईश्वरत्व कभी नहीं भूलोगे और सदा पवित्र जीवन जीने लगोगे) - तो देखोगे, दूसरे आप ही आप तुम्हारी आज्ञा मानते हैं। तुम्हारे भीतर से कुछ रहस्यमय वस्तु निःसृत होती है, जो दूसरों को तुम्हारा अनुसरण करने को बाध्य करती है। जिससे वे तुम्हारी आज्ञा का पालन करते हैं। यहाँ तक कि अपनी इच्छा के विरुद्ध अज्ञात भाव से वे तुम्हारी योजना (मनुष्य बनो और बनाओ योजना) की कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं। और यही ऋषित्व है !" ५/ १८९ 
इसीलिये उन्होंने कहा था - " अपने निम्न श्रेणी वाले भाइयों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य  है -उनको शिक्षा देना, उनके खोये हुए श्रद्धा को लौटाकर, उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए सहायता करना। मनुष्य को सदैव दुर्बलता की याद कराते रहना उसकी दुर्बलता का प्रतिकार नहीं है-बल्कि उसे अपने बल का (अपनी अंतर्निहत अनंत शक्ति का) स्मरण करा देना ही उसके प्रतिकार का उपाय है। उनमें जो बल पहले से ही विद्यमान है - उसका उन्हें स्मरण करा दो ! "
" ब्राह्मण जाति का कर्तव्य है कि वह भारत की दूसरी जातियों के उद्धार की चेष्टा करे। यदि वह ऐसा करती है और जब तक ऐसा करती रहती है, तभी तक वह ब्राह्मण है। और अगर वह (रिटायरमेंट के बाद भी ) धन कमाने के चक्कर में पड़ी रहती है तो वह ब्राह्मण नहीं है। युगों से संचित 'शिक्षा और संस्कृति'  जिनके ब्राह्मण संरक्षक होते आये हैं, अब साधारण जनता को देना पड़ेगा। ....इधर ब्राह्मणेत्तर जातियों से कहता हूँ, ठहरो, जल्दी मत करो, ब्राह्मणों से लड़ने का मौका मिलते ही उसका उपयोग मत करो। ... तुम्हें आजसंस्कृत सीखने और आध्यात्मिकता का उपार्जन करने से कौन रोक सकता है ? अपने ही घर में इस तरह लड़ते-झगड़ते न रहकर -जो कि पाप है, ब्राह्मणों के समान संस्कार प्राप्त करने के लिये अपनी सारी शक्ति लगा दो। तुम क्यों संस्कृत के पण्डित नहीं होते ? जिस समय तुम यह कार्य करोगे, उसी क्षण तुम ब्राह्मणों के बराबर हो जाओगे। भारत में शक्ति-लाभ का यही रहस्य है ! " ५/१९१ 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" मैं उस महापुरुष का शिष्य हूँ, जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण (चट्टोपाध्याय? इस युग में मुखोपाध्याय !) होते हुए भी एक पैरिया (चाण्डाल) के घर को साफ करने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। अवश्य वह इस पर सहमत हुआ नहीं -और भला होता भी कैसे ? एक तो सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, उस पर भी संन्यासी, वे आकर घर सफाई करेंगे ? इस पर क्या वह कभी राजी हो सकता था ? निदान,  एक दिन आधी रात को उठकर गुप्त रूप से उन्होंने उस पैरिया के घर में प्रवेश किया और उसका शौचालय साफ कर दिया, उन्होंने अपने लम्बे बालों से उस स्थान को पोंछ डाला।और यह काम वे लगातार कई दिनों तक करते रहे, ताकि वे अपने को सबका दास बना सकें !
[सच्चे नेता या - आचार्य शब्दों से उपदेश देने से अधिक अपने आचरण द्वारा शिक्षित करते हैं ! ताकि मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं के मन में यह बात बैठ जाये कि - जब दृष्टि ज्ञानमयी हो जाने के बाद जगत ब्रह्ममय है (पवित्र ट्रिनिटी है) तो मैं आस-पास रहने वाले सभी स्वजनों, बन्धुबान्धव, जिज्ञासुओं का दास हूँ, नेता को दास बनकर- उपदेश नहीं व्यव्हार से विद्यादान करने का अभ्यास करना चाहिये !]  मैं उन्हीं महापुरुष के चरण कमलों को अपने मस्तक पर धारण किये हूँ ! वे ही मेरे आदर्श हैं -मैं उन्हीं आदर्शपरुष श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवन का अनुकरण करने की चेष्टा करूँगा ! क्योंकि सबका सेवक बनकर ही एक हिन्दू (= नेता) अपने को उन्नत करने की चेष्टा करता है।  [क्योंकि एक आध्यात्मिक शिक्षक/नेता  अपने ईश्वरत्व  (और दूसरों के अन्तर्निहित ईश्वरत्व) को कभी नहीं भूलता, और अपने स्वरूप में अटल रहने के लिये -कहीं 'नेतागिरी' या 'गुरुगिरि' का अहंकार न हो जाय, केवल विद्या का अहंकार, दास मैं, या भक्त मैं की सहायता से ईश्वर (परमसत्य) से जुड़ने में भावी नेताओं का सेवक बनकर नेतृत्व प्रदान करने की चेष्टा करता है।]
हमें इसी प्रकार (त्याग और सेवा के माध्यम से ) भारत की सर्वसाधारण जनता को उन्नत करना चाहिये न-कि पाश्चात्य समाज-सेवी क्लबों जैसी पद्धति का अनुकरण करके ! हमारे इन सुधारकों या तथाकथित समाज- सेवियों (क्लब और समिति के सदस्यों) में से एक भी, ऐसा जीवन गठन करके दिखाये दिखाये तो सही जो एक पैरिया की भी सेवा के लिए तत्पर हो ! फिर तो मैं भी उसके चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण करूँ, पर हाँ -उसके पहले नहीं ! लम्बी-चौड़ी बातों की अपेक्षा थोड़ा कुछ कर दिखाना लाख गुना अच्छा है।"५/१०६ 
मनुष्य बनने (Being) को लेकर कुछ लोगों के मन में यह शंका उठती है, क्या हमें पहले 'मनुष्य' शब्द का जो सही अर्थ है, वैसा-  यथार्थ मनुष्य (ब्रह्म वेत्ता मनुष्य) बन जाना चाहिये, और केवल तभी दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करने की बात सोंचनी चाहिये ?यह बात कई बार दोहराई जा चुकी है कि यद्यपि दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करने से पहले स्वयं एक 'यथार्थ मनुष्य' बन जाना एक आदर्श बात होगी।  किन्तु यदि हम लोग 'मनुष्य बनने' के लिये पहले स्वयं महामण्डल द्वारा निर्देशित पाँच अभ्यासों को ठीक से समझकर उनका पालन करना शुरू कर दें। और उसके साथ ही साथ अपने आस-पास रहने वाले कुछ दूसरे भाइयों को भी मनुष्य बनने में सहायता करने के उद्देश्य से इन अभ्यासों का पालन करने के लिये निष्काम भाव से अनुप्रेरित करते रहें, तो पहले हमारी चित्त-शुद्धि हो जायेगी और हमें ही मनुष्य बनने में सहायता प्राप्त होगी ! निःस्वार्थपरता ही  ईश्वर है। एक मनुष्य चाहे सोने के सिंहासन पर आसीन हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्ण रूप से निःस्वार्थ है तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु एक दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो, चिथड़े ही क्यों न पहनता हो, सर्वथा दीनहीन ही क्यों न हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे वह संसार में घोर रूप से लिप्त है। "
"जिन्हें आत्माराम की कृपा (नवनीदा की कृपा) प्राप्त हुई है, उनकी मन-बुद्धि फिर किसी तरह संसार में (प्रवृत्ति में) आसक्त नहीं हो सकती। कृपा की परीक्षा तो है 'लस्ट और लूकर' में अनासक्ति ! वही यदि किसी को नहीं हुई तो, उसका अर्थ यही होगा कि उसने आत्माराम की कृपा अभी तक ठीक ठीक प्राप्त नहीं की है !" ६/२२४-२३२ /
 अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा विभिन्न स्तरों पर, यथा क्षेत्रीय और राज्य-स्तरीय,अन्तर्राज्य -स्तरीय और अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित होने वाले 'युवा प्रशिक्षण शिविर' में समस्त चर्चाओं का मूल-विषय (theme) है- 'BE AND MAKE' ! इस अति संक्षिप्त उक्ति का अर्थ क्या है ? स्वामी विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत इस 'अचिन्त्य-भेदाभेद व्यावहारिक वेदान्त सूत्र' या महावाक्य का अर्थ बहुत व्यापक है। यह महावाक्य उन महान विचारों को जन्म देती है, जो समस्त वेदों, या गीता -उपनिषदों के सार में छिपा हुआ है। यदि कोई व्यक्ति केवल इसी एक विचार को संकल्प के रूप में ग्रहण कर ले, और उसे इसी जीवन में उसे पूर्ण कर सके -तो कहा जा सकता है कि उस व्यक्ति का मनुष्य-जीवन सार्थक हो गया है। आत्मकल्याण (Be) और लोककल्याण (Make) दोनों परस्पर संबद्ध हैं!
मनुष्य बनने  को लेकर कुछ लोगों के मन में यह शंका उठती है, कि हम तो पहले से ही मनुष्य हैं,फिर हमें मनुष्य बनने के लिए क्यों कहा जा रहा है ?  हमें पहले 'मनुष्य' शब्द का जो सही अर्थ है, वैसा-  यथार्थ मनुष्य (ब्रह्म वेत्ता मनुष्य, आध्यात्मिक शिक्षक) बन जाना चाहिये, और केवल तभी दूसरों को मनुष्य बनने  में (आध्यात्मिक शिक्षक बनने में) सहायता करने की बात सोंचनी चाहिये ?
महामण्डल को स्थापित हुए 51 वर्ष बीत चुके हैं। इसकी स्थापना १९६७ में बंगाल के कुछ प्रबुद्ध युवाओँ ने पूज्य नवनीदा के नेतृत्व में  मिलकर की थी। इस चरित्रनिर्माण आन्दोलन की गहराई को क्रमशः बंगाल के बाहर के प्रान्तों के युवा भी समझ रहे हैं, कि वास्तव में यह आध्यात्मिक शिक्षकों के निर्माण का महान आंदोलन। इसलिये यह आन्दोलन बंगाल से प्रारम्भ होकर अब भारत के विभिन्न प्रान्तों में भी फैलता जा रहा है। "विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make'-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन- में 'निवृत्ति अस्तु महाफला' द्वारा आध्यात्मिक शिक्षक/लीडर  या पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य  बनने और बनाने की पद्धति को सीखना होगा।  मनुष्य (आध्यात्मिकशिक्षक) बनने के लिये, पहले 'निःस्वार्थी' मनुष्य बनना सीखना होगा।  इसीलिये 'स्वार्थशून्य मनुष्य' बन जाने की शिक्षा ही यथार्थ शिक्षा या आध्यात्मिक शिक्षा है।  इस शिक्षा को -  कब तक सीखना होगा ?
 जैसा ठाकुर ने बताया है - ' जावत बाँची '-तब तक ! अर्थात अंतिम साँस बाकी है तब तक।जबतक व्यष्टि अहं बोध को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के अहं बोध में रूपान्तरित नहीं हो जाता तब तक, अंतिम साँस तक 5 अभ्यास करते रहना होगा।' विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make 'निवृत्ति अस्तु महाफला' वेदान्त  शिक्षक-प्रशिक्षण परंपरा' की अवधारणा:  भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन आत्मा की शक्ति द्वारा होगा। ऐसा मत कहो हम दुर्बल हैं, कमजोर हैं। आत्मा तो सर्वशक्तिमान है! अपने अन्तस्थ ब्रह्म को जगाओ, जो तुम्हें क्षुधा-तृष्णा, शीत-उष्ण सहन करने में समर्थ बना देगा। 
विलासपूर्ण भवनों में बैठकर जीवन की सभी भोग-सामग्रियों से घिरे हुए रहना, और धर्म की थोड़ी सी चर्चा कर लेना; अन्य देशों में भले शोभा दे,  पर भारत को तो 'अवतारों' को पहचानने की एक विशिष्ठ दृष्टि प्राप्त है। यह अपने सहज ज्ञान से क्षद्मवेशी बाबाओं (ढोंगी उपदेशकों) को देखते ही पहचान लेता है।  (India has a truer instinct. It intuitively detects the mask.)मानवजाति के मार्गदर्शक नेता भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीरामकृष्णदेव या माँ श्रीसारदादेवी के नाम के साथ हम "श्री" शब्द का प्रयोग करते हैं,  बिना "श्री" के तो लगता है मानो हम कहीं ईश निंदा तो नहीं कर रहे हैं ? श्रीलक्ष्मी और श्रीविष्णु के नाम में 'श्री' शब्द उनके 'नेता अथवा लोकशिक्षक' के  व्यक्तित्व, कार्य, महानता और अलौकिकता को प्रकट करता है।जिस किसी व्यक्ति में भी विकास (अर्थात 5 अभ्यास द्वारा 3H का विकास) की और परम सत्य का खोज करने की शक्ति होती है, वह 'श्री' युक्त माना जाता है।
 संस्कृत के “श्री” शब्द का अर्थ होता है लक्ष्मी, समृद्धि, सम्पत्ति, धन, ऐश्वर्य आदि। 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष'-चारो पुरुषार्थ भी इसमें शामिल हैं। किसी भी (प्रवृत्ति धर्म को मानने वाले ) नवनी दा जैसे अधिकार-प्राप्त (चपरास प्राप्त) शिक्षक जो 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में, भावी शिक्षकों को प्रशिक्षित करने में समर्थ थे, वे अपने नाम के आगे ‘श्री’ शब्द लगाकर हस्ताक्षर किया करते थे। सच तो यह है कि जो व्यक्ति पुरुषार्थ नहीं करता, वह श्रीमान कहलाने का अधिकारी नहीं है। क्योंकि "श्री" के बिना भगवान साकार रूप ले ही नहीं सकते। प्रवृत्ति धर्म मानने वाले शिक्षक के लिये ‘श्री’ शब्द सम्मान, प्रतिष्ठा, या ऐश्वर्यवत्ता का द्योतक है और नामों के साथ आदरसूचक संबोधन के तौर पर प्रयुक्त होता है।  पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था लागू हो जाने के कारण जब भारतीय युवाओं की आत्मश्रद्धा और आस्तिकता लुप्त होने लगी, तो उसे फिर से प्रतिष्ठापित करने के लिये, आधुनिक भारत का प्रथम युवा नेता जगतगुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ने अपने युवा शिष्यों को 'काशीपुर उद्यान भवन' में एकत्र कर; भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' में गुरु-गृहवास करते हुए 'वेदान्तिक-लीडरशिप ट्रेनिंग पद्धति' [ अर्थात ५अभ्यास से 3H विकास करके, आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने में सक्षम शिक्षक या 'नेता (विष्णु जैसा) बनने और बनाने' वाली शिक्षा पद्धति में पहला युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया था।एवं स्वामी विवेकानन्द को  सम्पूर्ण विश्व में आस्तिकता (थीइज़म,theism/ईश्वरवाद/ अवतारवाद) का प्रचारक 'नेता' (ब्राह्मणेत्तर जातियों को भी ब्राह्मण बनाने में सक्षम, या खुली आँखों से ध्यान' करने वाला ब्रह्मवेत्ता-मनुष्य,चरित्रवान-मनुष्य, यथार्थ मनुष्य) बनने और बनाने की "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" में, प्रशिक्षण-पद्धति में प्रशिक्षित करने का चपरास दिया था।
श्रीरामकृष्ण के जीवन के कुछ उदाहरण अपने हृदय को विकसित करने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं। काशी के मार्ग में जाते हुए, बैद्यनाथ धाम में आकाल-पीड़ित सैकड़ों नर-नारियों के कंकाल समान चेहरे और प्रायः नग्न शरीर को देखकर श्रीरामकृष्ण रो पड़े थे। रानी रासमणि के बड़े दामाद मथुरानाथ विश्वास से उन्होंने रोते हुए कहा -" इन्हें भरपेट खिलाओ, नये वस्त्र दो, सिर पर तेल दो ।" मथुर बाबु कुछ आपत्ति जताकर बोले -" बाबा, तीर्थ में अनेक खर्चे हैं, ये तो बहुत से आदमी हैं, इन्हें खिलाने-पहनाने में रूपये घट जायेंगे।" श्रीरामकृष्ण देव ने रोते हुए कहा - " तुमलोग जाओ, मैं काशी नहीं जाऊँगा, मैं इन्हीं के पास रहूँगा" -इतना कहकर वे दरिद्रों के साथ जाकर बैठ गये। लाचार होकर मथुर बाबु ने उन सबको भरपेट खिलाया, सिर में तेल दिया और हरेक एक-एक नया वस्त्र दिया। इससे उन दरिद्रों के मुख पर हँसी देखकर ठाकुर वहाँ से उठ आये।  यही है विश्व को आत्मवत देखना, तथा दूसरों के दुःख से द्रवित होकर  दुःख का अनुभव करना। एक व्यक्ति दक्षिणेश्वर कालीबाड़ी के बाग के नयी दूब के ऊपर से पैदल चला जा रहा था, देखकर श्रीठाकुर असहनीय यन्त्रणा का अनुभव कर एकदम विकल हो पड़े। 
 बाद में उन्होंने कहा था -" छाती पर से कोई मनुष्य चला जाये तो जैसी वेदना का अनुभव होता है, उस समय मैंने वैसी ही वेदना का अनुभव किया था। " वह अनुभूति दो घन्टे तक थी। कालीबाड़ी के गंगा किनारे एक नाव पर दो माँझी झगड़ा कर रहे थे, उनमें से जो बलवान था, उसने दुर्बल मांझी की पीठ पर जोर से थप्पड़ मारा। उसे देखते ही ठाकुर चिल्लाकर रो पड़े। हृदयराम मामाजी की रुलाई सुनकर वहां दौड़ कर आ गये, उनकी पीठ पर बाम उखड़ आया था, उनकी पीठ लाल होकर फूल उठी है देखकर घबड़ाने लगे।  मांझी के पीठ के आघात का चिन्ह श्रीठाकुर के पीठ पर देखकर हृदयराम आश्चर्यचकित हुए। श्रीठाकुर एकदिन पूजा के लिये दूब और बेलपत्र चुनने गए थे। दूब चुनते हुए उन्हें अनुभव होने लगा सर्वत्र चैतन्य है, दूर्वादल भी छिन्न होकर कष्ट का अनुभव कर रहे हैं!  बेलपत्र चुनते समय पत्ती के साथ उस वृक्ष की थोड़ी छाल निकल आयी, उसमें वृक्ष को जो वेदना का अनुभव हो रहा था उसे समझकर वे फिर बेलपत्र नहीं चुन सके। 
किन्तु श्रीठाकुर देव की तरह सर्वत्र चैतन्य ही हैं - ऐसा महसूस करने के बाद भी , हमें केवल हाथ पर हाथ रखे बैठे नहीं रहना चाहिये। बल्कि व्यावहारिक वेदान्त सूत्र - ' बनो और बनाओ'  के अनुसार अपने आस-पास रहने वाले भाइयों की सहायता और सेवा के लिये अपने हाथों को आगे बढ़ा देना चाहिये। तुम तत्काल उसके दुःख को कम करने का प्रयत्न करो, और वैसा करने के बाद तुम्हें जो ज्ञान प्राप्त होगा वह स्थाई बन जायेगा, तुम्हारे हृदय में बस जायेगा, और तुम्हारे साथ सदैव बना रहेगा (तुम अपने ईश्वरत्व को कभी भूल नहीं पाओगे।)। उसी प्रकार 'मनुष्य बनाने' (मेकिंग) की अवधारणा भी बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिये। महामण्डल का सम्पूर्ण  कार्य मनुष्य-निर्माण करना ही है। किन्तु यह 'मनुष्य-बनाने' का कार्य 'Makeing' किसी भी अवस्था में 'मनुष्य बनने' के कार्य 'Being' से बिल्कुल भी पृथक नहीं है। इसी प्रधान सन्देश को हमें महामण्डल के आदर्श वाक्य -"Be and Make" में का 'सॉस्टेनूटो इन दी मौटो' समझना चाहिये! (sostenuto= संगीत का वह स्वर, 'वादी-स्वर' जिसे लम्बे समय तक बजाया जाता है। 'of a passage of music' to be played in a sustained or prolonged manner.)
 हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि महामण्डल द्वारा प्रस्तावित 'मनुष्य-निर्माण आंदोलन' एक मन्दगति का आंदोलन है। एक ही दिन में रेल-सड़क जाम करके अपनी मांगे मनवा लेने जैसा राजनितिक आंदोलन नहीं है। क्योंकि आध्यात्मिक 'मनुष्य बनने की प्रक्रिया' - एक अत्यन्त धीमी गति की प्रक्रिया है, इसमें अग्रगमन धीरे धीरे होता है।  यह किसी  निश्चित समयावधि में निश्चित सिलेबस (तीन साल का डिग्री-कोर्स) को पढ़कर एक दिन ग्रेजुएट बन जाने जैसी प्रक्रिया नहीं है। या जैसे कोई कली सुबह में अचानक खिल कर फूल बन जाती है, और जिसे देखने से बड़ा आनन्द होता है, चरित्र-कमल का खिल जाना भी उतनी सहज प्रक्रिया नहीं है। इसके लिये पहले मन को आधुनिक में यथार्थ मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ साँचा भगवान के अवतार श्रीरामकृष्ण की मूर्ति या छवि पर मन को एकाग्र रखने की पद्धति मनःसंयोग का अभ्यास करना बहुत उपयोगी सिद्ध होता है।
 [ किन्तु हमलोग पाश्चात्य शिक्षा के कूप्रभाव से मूर्ति-पूजा की निंदा करने को मॉडर्न होना समझने लगे हैं, इसीलिये अपने आदर्श का चयन नहीं कर पाते]  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " आजकल मूर्ति-पूजा को गलत बताने की प्रथा सी चल पड़ी है, और सब लोग बिना किसी आपत्ति के उसमें विश्वास भी करने लग गये हैं। मैंने भी एक समय ऐसा ही सोचा था और उसके दण्डस्वरूप मुझे ऐसे व्यक्ति के चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी, जिन्होंने सब कुछ मूर्ति-पूजा के द्वारा ही प्राप्त किया था, मेरा अभिप्राय श्रीरामकृष्ण परमहंस से है। यदि मूर्ति-पूजा के द्वारा श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे महापुरुष (नेता) का निर्माण हो सकता है, तब तुम क्या पसन्द करोगे सुधारकों का धर्म (कम्युनिस्ट), या मूर्ति-पूजा ? मैं इस प्रश्न का उत्तर चाहता हूँ। यदि मूर्ति पूजा के द्वारा इस प्रकार के श्रीरामकृष्ण परमहंस उत्पन्न हो सकते हों, तो और हजारों मूर्तियों की पूजा करो। प्रभु तुम्हें सिद्धि दें। जिस किसी भी उपाय से हो सके इस प्रकार के महापुरुषों (श्री रामकृष्ण जैसे नेताओं) का निर्माण करो ! और इतने पर भी मूर्ति-पूजा की निंदा की जाती है! क्यों? यह कोई नहीं जानता। शायद इसलिये कि हजारों वर्ष पहले किसी यूहीदी ने अपनी मूर्ति को छोड़कर और सब मूर्तियों की निंदा की थी ? "५/११  जब सनातन धर्म के इस गूढ़ रहस्य को हमलोग अच्छी तरह से समझ लिये हैं, तब हमारे आस-पास जितने युवा भाई रहते हैं, उनके हृदय में भी धर्म-ज्ञान की इस ज्योति को प्रज्ज्वलित करने का प्रयत्न करना चाहिये।किन्तु दूसरों के मन को परिवर्तित करने का कार्य वही व्यक्ति कर सकता है, जिसने स्वयं अपने मन को को वशीभूत कर लिया हो! क्योंकि सच्चे नेता का कार्य दुर्बल मन को बलशाली मन में परिवर्तित करने का ही होता है।
 साधारण ढंग की समाज सेवा -चन्दा माँगकर या अपने धन से भोजन-वस्त्र आदि से बाढ़ पीड़ितों तक या जरूरत-मन्दों तक पहुँचा देने का कार्य बहुत सी समाजसेवी संस्थायें और सरकारी एजेंसियाँ करती ही रहती हैं। और ऐसा करना बहुत अच्छा भी है, किन्तु सबसे उत्कृष्ट समाज सेवा है, दूसरों के मन को उन्नत बना देना। ताकि हमारे युवा भाई उच्च और महान विचारों को आत्मसात करके स्वयं यथार्थ मनुष्य बन जायें और दूसरों को भी 'मनुष्य' बनने में सहायता कर सकें।उन्होंने सुस्पष्ट रूप से भविष्यवाणी करते हुए  कहा था - [" आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है। निर्बाध, निःसीम, सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर अवतरित होता देख रहा हूँ। इस ज्वार ने लगभग सम्पूर्ण विश्व को ही ढक लिया है। अब इसे कोई रोक नहीं सकता, कोई भी शक्ति इन प्रेम-तरंगों को फिर से वापस समुद्रतल में ढकेल नहीं सकती। यह ज्वार आगे बढ़ते हुए सम्पूर्ण धरातल को आच्छादित कर लेगा, ये विचार सभी के मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जायेंगे, सम्पूर्ण मनुष्य जाति (जाति-धर्म का भेदभाव किये बिना) इन विचारों से प्रभावित हो जायेगी। "] " हमारी साधारण जनता अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व  के प्रति ज्यों-ज्यों जागृत-दर-जागृत होती जाएगी, और इसी जन-जागरण के दौरान वह यदि अपेक्षित 'शिक्षा और संस्कृति'  भी अर्जित कर लेती है, तो उस बाढ़ का हिलोरा उतर जाने के बाद, 'ह्यूमैन अल्लुवियम' अर्थात यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद मनुष्य) रूपी जलोढ़क जमाव (एलुवियल डिपाजिट) द्वारा यह भारत भूमि अत्यन्त उपजाऊ बन जायेगी। और यह उर्वरता ऐसे हजारों सुंदर फूलों को खिला देगी, जो स्वयं मुरझा जाने से पहले, एक एक सर्वाधिक पुष्टिकर फलों (ब्रह्मविद्तर मनुष्यों-नोबल सिक्स हंड्रेड ) को जन्म देते जायेंगे! 
          1967 में महामण्डल के आविर्भूत होने के पहले तक गीता और उपनिषदों (तैत्तरीय उपनिषद) में वर्णित तथा जीवन्मुक्त गुरु -शिष्य परम्परा में उपलब्ध होने वाली यह वेदान्त 'सा एषा भार्गवी वारुणी विद्या'केवल अरण्यों, पर्वत की कन्दराओं और मठों में रहने वाले संन्यासियों की पैतृक-संपत्ति (बपौती या legacy) समझी जाती थी।
 इसीलिए आधुनिक युग में एक बार फिर स्वामी विवेकानन्द द्वारा अविष्कृत उपनिषदों की उसी  "भार्गवी (भृगु की) विद्या, और वारुणी (वरुण की) विद्या" जिसका नाम 'आरण्यक' हो गया था,को भारत में सर्वसाधारण के बीच 'Leadership Training' के तौर पर प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा। 
महामण्डल द्वारा 'Be and Make विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में चरित्र-निमार्ण और मनुष्य-निर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर विगत 52 वर्षों से आयोजित किया जा रहा है। [तब एक दिन 'मनुष्य बनो और बनाओ विवेकानन्द- कप्तान सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" (Be and Make Vivekananda - Captain James Henry Sevier Vedanta Leadership Training Tradition) में प्रशिक्षण पाने वाला भावी शिक्षक (Would be Leader of Vedanta movement) अपने जीवनमुक्त प्रशिक्षक 'नवनी दा' से पूछता है - क्या मैं उस साक्षी चेतना (ब्रह्म-रामकृष्ण को  existence-consciousness-bliss) को जान सकता हूँ? जीवन्मुक्त प्रशिक्षक कहते हैं -भागवत में कहा गया है -'ब्रह्मवलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवा।' अर्थात यह देखकर ब्रह्मा जी खुश हो गए कि यह पुरुष (M/F] नहीं, 'मनुष्य' अपने बनाने वाले ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव कर सकता है। (3rdH आत्मा  100 % unselfishness= pure consciousness,3rd'H'या witness consciousness'आत्मा ही परमात्मा है का अनुभव केवल मनुष्य ही कर सकता हैं। ) तब उन्होंने सभी देवदूतों को बुलाकर कहा कि मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाओ, इसे सलाम करो। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य में यह सम्भावना है कि वह अपने बनाने वाले ब्रह्म को जान ले अर्थात 100 % निःस्वार्थी बन जाये ! जिस एक फ़रिश्ते इब्लीस ने मनुष्य के सामने अपना सिर नहीं झुकाया उसको भगवान ने कहा तू शैतान हो जा, और वह शैतान बन गया। 
इस प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर, कोई भी चरित्रवान मनुष्य (जिसने निषिद्ध कर्मों को त्याग दिया हो) केवल अपने सामान्य ज्ञान (common sense,बौद्धिक समझ), तर्कसंगत सोच (rational thinking) द्वारा 'दृग-दृश्य विवेक' ग्रन्थ के उपरोक्त श्लोकों में वर्णित सत्य - मिथ्या का पृथक्करण (विवेक-प्रयोग) की तकनीक (technique) को सीख सकता है।
और स्पष्ट रूप से यह समझ सकता है कि 'आनन्द' ही 'ब्रह्म' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि केवल 'आनन्द' से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं तथा उत्पन्न होकर आनन्द के द्वारा ही ये जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करके वे उस 'आनन्द' में ही समाविष्ट हो जाते है; जिसकी परम व्योम द्युलोकः में सुदृढ प्रतिष्ठा है।" http://upanishads.org.in] 
"स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित एक आधुनिक उपनिषत्कार श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने 1967 ई में  हमारे आधुनिक सुधारकों के समान यज्ञादि तथा अनुष्ठानों को मिथ्या अथवा पाखण्ड कहकर उसका मजाक नहीं बनाया और ना तो इसके विरुद्ध बोलने एवं प्रचार करने को ही अपना धर्म मान लिया । बल्कि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल नामक 'मनुष्यत्व-उन्मेषक और चरित्रनिर्माणकारी' एक नया युवा आन्दोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने उन्हीं कार्मकाण्डों का एक उच्चतर तात्पर्य समझाकर एक यथायोग्य विचारधारा को, ' Be and Make जीवन्मुक्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित शिक्षक/नेता/ माली बनने और बनाने की नई शिक्षापद्धति को-  हमारे मनन करने को हमारे सम्मुख रख दिया है। उन्होंने यह नहीं कहा कि “अग्नि में हवन मत करो” । उन्होंने कहा “अग्नि में हवन करो, बहुत अच्छी बात है । किन्तु इस पृथ्वी पर दिन रात हवन हो रहा है। यह तुम्हारा क्षुद्र मन्दिर है , ठीक है ! किन्तु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड  ही हमारा मन्दिर है । हम कहीं भी उपासना कर सकते हैं । तुम वेदी पर अपनी पूजा चढाते हो, किन्तु जीवित, चेतन मनुष्यदेह रुपी वेदी वर्तमान है। हम सभी की और इस मनुष्य देह रुपी वेदी पर की गयी पूजा,दूसरी अचेतन, मृत जड़ प्रतीक की पूजा की अपेक्षा श्रेयस्कर है । 
[सुमित सिंह दीक्षित के निबंध 'वेदांत पण्डितों की बपौती नहीं है'.....पर आधारित।  http://aksharabharat.blogspot.com] 
 ईसाई और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने पैगम्बरों-फरिश्तों और अन्य सभी प्रकार के बड़े-छोटे उड़ने वाले, डंक मारने वाले जीव-जन्तुओं की सृष्टि करने के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य का सृजन करके ईश्वर बड़े प्रसन्न हुए, क्योंकि सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठ है, मनुष्य से श्रेष्ठतर और कोई नहीं है। यह देखकर ईश्वर ने सभी देवदूतों को बुलवा भेजा, और मनुष्य के सामने सिर झुकाकर अभिनन्दन और प्रणाम करने के लिये कहा। इबलीस को छोड़कर बाकी सभी फरिश्तों ने वैसा किया। इसलिये ईश्वर ने इबलीस कहा- दूर हटो शैतान ! इससे वह शैतान बन गया। अर्थात जो 'मनुष्य मात्र' के सामने आदर से सिर नहीं झुकाता वह शैतान है। हमारे श्रीमद्भागवत महापुराण में भी कहा गया है - ' सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृप-पशून्-खग-दंशमत्स्यान्।तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥'सभी प्राणियों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो ब्रह्मवेत्ता बनने का अधिकारी है, जो अपने बनाने वाले  ईश्वर या ब्रह्म को भी जान लेने में समर्थ है, ऐसे मनुष्य की रचना करके सृष्टा प्रसन्न हो गए !"
महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' की भाषा में कहें, तो गीता तथा समस्त उपनिषदों में सन्निहित शिक्षाओं के सार पर आधारित  "Be and Make Leadership Training tradition" अर्थात  "मनुष्य बनें और बनायें नेतृत्व प्रशिक्षण परंपरा" में प्राप्त होने वाली शिक्षा ही भारत के पुनर्निर्माण में व्यावहारिक वेदान्त का  प्रयोग  है। अतः किसी जीवन्मुक्त शिक्षक/नेता /माली से "दृग-दृश्य विवेक" जैसे प्रकरण ग्रंथों का श्रवण,मनन, निदिध्यासन करते हुए साक्षी चेतना (Witness consciousness) का साक्षात्कार करना ही वेदान्त का उद्देश्य है।
विराट पुरुष :जैसे नरेन्द्रनाथ दत्त ( स्वामी विवेकानन्द) के गुरु मानवजाति का सच्चा नेता - श्रीरामकृष्ण परमहंस ने अपने भौतिक शरीर को छोड़ने से दो दिन पहले अपने 'विष्णु का अवतार' होने के रहस्य को प्रकट करते हुए कहा था -" ओ नरेन्, अभी तक तुझे विश्वास नहीं हुआ ? ' जो राम, जो कृष्ण, वही अब की बार एक ही आधार में रामकृष्ण; हुए हैं।' किन्तु तेरे वेदांत की दृष्टि से नहीं- साक्षात् !" 
[झूठी विनम्रता या दिखावटी शिष्टाचार नहीं, उस अद्वैती तर्कसंगत विनम्रता और शिष्टाचार-युक्त अवस्था में रहने को ही, अद्वैत वेदान्ती नवनी दा 'जीवनमुक्ति' कहते थे!] आवश्यकता केवल इसे समझने भर की है कि - "हम सब सगुण ईश्वर हैं। और मनुष्य बनकर लीला कर रहे हैं !" सच्चाई यही है कि हम सभी हिप्नोटाइज्ड हो गए हैं, स्वयं को मरणधर्मा शरीर समझकर भ्रम में जी रहें हैं । और आश्चर्य की बात यह है कि कोई भी उस भ्रम की स्थिति से बाहर नहीं आना चाहता । हम सभी देह, मन और आत्मा (3-H) को अलग-अलग मान लेते हैं । किन्तु वास्तविकता में एक ही सत्ता है जो हम सभी में व्याप्त है। अन्धेरे से तथा अन्य किसी कारण से लोग रस्सी को साँप समझ लेते हैं किन्तु इसका ज्ञान होने पर “सर्प भ्रम” मिट जाता है तथा उन्हें अपनी गलती का आभास होता है और केवल रस्सी दिखाई देती है । इस उदाहरण से हम यह समझ सकते हैं कि जब सर्पज्ञान होता है तब रज्जुज्ञान मिट जाता है तथा जब रज्जुज्ञान होता है तब सर्पज्ञान मिट जाता है ।  स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित विशिष्टाद्वैत वेदान्त के अनुसार ' तुम्हीं ब्रह्म रामकृष्ण'। रामकृष्ण तुम विराट पुरुष धारण प्रेम की  काया (यू ट्यूब में)। अपरब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जिसमें अनन्त शुभ गुण हैं । वो पूजा का विषय है, इसलिये उसे ही ईश्वर माना जाता है । अद्वैत वेदान्त के मुताबिक ब्रह्म को जब इंसान मन और बुद्धि से जानने की कोशिश करता है, तो ब्रह्म माया की वजह से ईश्वर हो जाता है  ब्रह्म या विराट पुरुष स्वतंत्र तत्व है। सच्चिदानंद श्री रामकृष्ण ही ब्रह्म हैं और जीव तथा जगत्‌ उनके अंश हैं। वही " अणोरणीयान्‌ तथा महतो महीयान्‌"  है। वह एक भी है, नाना भी है। वही अपनी इच्छा से अपने आप को जीव और जगत्‌ के नाना रूपों में प्रकट करता है। माया उसकी शक्ति है जिसी सहायता से वह एक से अनेक होता है। परंतु अनेक मिथ्या नहीं है। श्रीठाकुर जी  से जीव-जगत्‌ की स्वभावत: उत्पत्ति होती है। इस उत्पत्ति से श्री रामकृष्ण में कोई विकार नहीं उत्पन्न होता। जीव-जगत्‌ तथा ईश्वर का संबंध चिनगारी आग का सबंध है। ईश्वर के प्रति स्नेह भक्ति है। सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य लेकर ईश्वर में राग लगाना जीव का कर्तव्य है। ईश्वर के अनुग्रह से ही यह भक्ति प्राप्य है, भक्त होना जीव के अपने वश में नहीं है। ईश्वर जब प्रसन्न हो जाते हैं तो जीव को (अंश) अपने भीतर ले लेते हैं या अपने पास नित्यसुख का उपभोग करने के लिए रख लेते हैं।
 इस भक्तिमार्ग को पुष्टिमार्ग भी कहते हैं। संसार उसी का प्रकाश है अत: मिथ्या नहीं है। मोक्ष में जीव का अज्ञान नष्ट होता है पर संसार बना रहता है। सारी अभिलाषाओं को छोड़कर श्री रामकृष्ण का अनुसेवन ही भक्ति है। वेदशास्त्रानुमोदित मार्ग से ईश्वरभक्ति के अनंतर जब जीव ईश्वर के रग में रँग जाता है तब वास्तविक भक्ति होती है जिसे रुचि या रागानुगा भक्ति कहते हैं। राधा (विवेकानन्द) की भक्ति सर्वोत्कृष्ट है। वृंदावन धाम (कामारपुकुर) में सर्वदा श्री रामकृष्ण का आनंदपूर्ण प्रेम प्राप्त करना ही मोक्ष है।
कारण ब्रह्म :  या परम् आत्मा (संस्कृत : ब्रह्मन्) हिन्दू (वेद परम्परा, वेदान्त और उपनिषद) दर्शन में इस सारे विश्व का परम सत्य है और जगत का सार है । वो दुनिया की आत्मा है । वो विश्व का कारण है, जिससे विश्व की उत्पत्ति होती है , जिसमें विश्व आधारित होता है और अन्त मे जिसमें विलीन हो जाता है । वो एक और अद्वितीय है । वो स्वयं ही परमज्ञान है, और प्रकाश-स्त्रोत की तरह रोशन है। वो निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत है । ब्रह्म सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है । ब्रम्ह हिन्दी में ब्रह्म का ग़लत उच्चारण और लिखावट है । परब्रह्म या परम-ब्रह्म ब्रह्म का वो रूप है, जो निर्गुण और असीम है । "नेति-नेति" करके इसके गुणों का खण्डन किया गया है, पर ये असल मे अनन्त सत्य, अनन्त चित और अनन्त आनन्द है । अद्वैत वेदान्त में उसे ही परमात्मा कहा गया है, ब्रह् ही सत्य है,बाकि सब मिथ्या है। 'ब्रह्म सत्यम जगन मिथ्या,जिवो ब्रम्हैव ना परः। ' वह ब्रह्म ही जगत का नियन्ता है।]
स्वामी विवेकानन्द युवाओं को सर्वोत्कृष्ट-समाजसेवा करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं -" भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर,  मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीन कर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें -उत्तर से दक्षिण और पूर्व  पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें । सबसे पहले हमें यही करना होगा- पहले इसे सुनना होगा, फिर मनन करना होगा और उसके बाद निदिध्यासन। 
और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्रों के महान सत्यों को -(चार महावाक्यों को) दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा -वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान कोई दूसरा कर्म ही नहीं है। महर्षि व्यास ने कहा है, इस कलियुग में मनुष्यों के एक ही कर्म शेष रह गया है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं का कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही एकमात्र कर्म है। और दानों में धर्मदान, अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है। अतः जो युवा श्रीरामकृष्ण पताका (महामण्डल ध्वज) को हाथ में लेकर सारे भारत को यह सुनायेगा कि 'स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस ही आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार हैं ! केवल वेदान्त की दृष्टि से नहीं,साक्षात्!' वही सर्वश्रेष्ठ  समाज-सेवा, विद्या और अविद्या में समन्वय रखने की आध्यात्मिक युक्ति को समझकर अपना जीवन सार्थक कर सकेगा। "५/११६
पराशरस्मृतिः १/२३ में भी कहा गया है -  तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानं उच्यते ।द्वापरे यज्ञं एवाहुः दानं एव कलौ युगे ।।  " इसीलिये, मेरे मित्रो, मेरा विचार है कि मैं भारत में कुछ ऐसे शिक्षालय (पाठचक्र और युवा प्रशिक्षण शिविर) स्थापित करूँ, जहाँ हमारे नवयुवक अपने शास्त्रों के ज्ञान में दीक्षित होकर भारत तथा भारत के बाहर अपने धर्म का प्रचार कर सकें। ' मनुष्य' , केवल मनुष्य भर चाहिये। बाकि सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धा-सम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जायें, तो संसार का कायाकल्प हो जाय। इच्छाशक्ति संसार में सबसे बलवती है। उसके सामने दुनिया की कोई चीज नहीं ठहर सकती; क्योंकि वह भगवान -साक्षात श्रीठाकुर जी के पास से आती है। विशुद्ध और दृढ़ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है! क्या तुम इसमें विश्वास नहीं करते ? सबके समक्ष अपने धर्म के सनातन सत्यों का प्रचार करो, संसार इसकी प्रतीक्षा कर रहा है!" ५/११८
बुद्ध के आविर्भाव के पूर्व भारत में नास्तिकता अति प्रबल हो उठी थी। जो शिक्षा देती थी -खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ; ईश्वर,आत्मा या स्वर्ग कुछ भी नहीं है; धर्म कुछ धूर्त, दुष्ट पुरोहितों की कपोल-कल्पना मात्र है- यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत। अर्थात जब तक जीवन है सुखों का उपभोग कर लेना चाहिए। बुद्ध ने वेदान्त को प्रकाशित किया, और उनका जनसाधारण में प्रचार करके भारतवर्ष की रक्षा की। (बुद्ध के आने से पहले तक) भारत में अद्वैतवाद का प्रचार साधारण लोगों के बीच कभी होने नहीं दिया गया। संन्यासी लोग ही अरण्य में उसकी साधना करते थे, इसी कारण वेदान्त का एक नाम 'आरण्यक' भी हो गया। अन्त में भगवान की कृपा से बुद्धदेव ने आकर सर्वसाधारण के बीच इसका प्रचार किया। " 
 वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम में प्रवेश करने पर आरण्यकों की आवश्यकता होती थी, वन में रहते हुए लोग जीवन तथा जगत् की पहेली को सुलझाने का प्रयत्न करते थे। यही उपनिषद् के अध्ययन तथा मनन की अवस्था थी।  
 श्रीरामकृष्ण कहते थे- " कुछ तख्ते इस प्रकार की लकड़ियों से बने होते हैं कि उस पर यदि एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है; पर कुछ तख्ते ऐसी लकड़ियों से बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ- साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक पहुँचा सकते हैं। "जो लोग मनुष्य जाति के सच्चे नेता होते हैं -वे इसी प्रकार के न डूबने वाले तख्ते जैसे होते हैं। वे दूसरों के भार (५ अभ्यासों के लिए अनुप्रेरित करते रहने के दायित्व) को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं। तथा इसके बदले में वे कोई पारिश्रमिक, लाभ या पुरष्कार पाने की आशा नहीं रखते बल्कि केवल लोक-कल्याण की इच्छा से दूसरों का भार उठाते हैं ।उनके सामने जीवन का केवल एक ही लक्ष्य रहता है - दूसरों की उन्नति, सुधार, विकास, समानता और पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने में सहायता करना, तथा इस उद्देश्य के पीछे इच्छा और आग्रह का जो प्रेरणा श्रोत होता है, वह होता है -'LOVE'! प्रेम ही ईश्वर है ! भगवान प्रेमस्वरूप हैं, तभी तो वे मनुष्य को भगवान बनाने के लिये बार बार इस धरती पर मनुष्य के रूप में अवतरित होते रहते हैं ! (उसके हृदय में विद्यमान यह अनंत प्रेम उसे अपना ईश्वरत्व -या विष्णुत्व या नेतापन भूलने ही नहीं देता। हमारे हृदय में विद्यमान आधुनिक युग के भगवान श्रीठाकुर।)
भागवत में जब तरुण श्रीकृष्ण अपने गोप मण्डली के बीच लीडरशिप या नेता की भूमिका निभा रहे थे, उस समय उनके मुख से एक बहुत सुन्दर श्लोक निकला है, (श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध के २२ वें अध्याय में श्लोक ३२-३५ ) - एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी और ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये । ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष के नीचे गौएँ विश्राम कर रही थीं। उन सबके  ऊपर वृक्ष के पत्ते छाता का काम कर रहे थे। वृक्षों को छाया करते देख किशोर श्रीकृष्ण ने ग्वाल बालकों का नेतृत्व करते हुए कहा - पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान् ।वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति नः ॥अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥ ‘मेरे प्यारे मित्रों! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला - सब कुछ सकते हैं, परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं । मैं कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं,अर्थात इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है। जैसे कोई सज्जन पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष भी लोगों को खाली हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। वृक्ष किस प्रकार दूसरों के कल्याण में अपना सबकुछ न्योछावर कर देते हैं? यह सहब विस्तारपूर्वर समझाते हुए श्री कृष्ण आगे कहते हैं -पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान्वितन्वते ॥अर्थात् ये वृक्ष पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, छाया, मूल (जड़), वल्कल (छाल), दारू या लकड़ी, गंध, निर्यास या गोंद, भस्म (राख), अस्थि (कोयला), तोक्म (बीज) आदि पदार्थों के द्वारा हमारा उपकार करते हैं। 
एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु । 
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥
इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' अपने शब्दों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के द्वारा, और यदि आवश्यक हो तो प्राणैः - अपने जीवन का बलिदान या अर्थ का त्याग करके भी केवल सद्कर्म ही करना चाहिये।इतने सरल शब्दों में वे अपने गाय चराने वाले मित्रों के नेता के रूप में अपने भाइयों को मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या है, उसे समझा रहे हैं। कहते हैं, मेरे प्यारे मित्रों! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सफलता इतने में ही है-  कि जहाँ तक हो सके-इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' अपने शब्दों या विचारों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के विवेक-विचार से, अर्थ का त्याग करके, और आवश्यकता पड़ने पर- प्राणैः, अर्थात अपने प्राणों की आहुति देकर भी केवल ऐसे  कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरों की भलाई हो। यही तो है संसार के समस्त धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, या धर्म का वास्तविक रहस्य ! (वे कभी आतंकी जाकिर नाईक के जैसा किसी निर्दोष व्यक्ति को  सुसाईड बॉम्बर बनने की सीख नहीं दे सकते हैं।)
जैसा कि महाभारत में कहा है - 
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।। 
- हे जाजले ! मुझे सनातन धर्म सार-तत्व का पता चल गया है । वह क्या है ? जो व्यक्ति सर्वभूतों के सुहृत हैं और निरन्तर समस्त जीवों का हित करने में लगे रहते हैं, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है। जो लोग सच्चे धर्मज्ञ हैं, जो सनातन या प्राचीनतम धर्म को सर्वभूत के लिये हितकर रूप में जान लेते हैं, (जैसे जाजले ऋषि जानते थे) वे अपने निकट आने वाले मनुष्यों को भी यही सनातन धर्म समझाते हैं -अर्थात सभी मनुष्यों के लिए मंगल कामना करने और सभी मनुष्यों से प्रेम करने की ही शिक्षा देते हैं। जीवन को सार्थक बनाने के विषय में स्वामी विवेकानन्द भी हमें ठीक ऐसी ही सलाह देते हैं । वे कहते हैं- 
"यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोगों का जीना तो मुर्दों की तरह जीने जैसा है। "
 वेदान्त के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्त:
"  एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है, 'मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरूप में जानना,' और उसका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, व्यक्त ईश्वर की -उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है ? एक शब्द में इसका (वेदान्त का) उपदेश है 'तत्त्वमसि' -'तुम्हीं वह ब्रह्म हो! 
" यह ब्रह्म (सार्वभौमिक आत्मा) एकमेव आद्वितीय है, यह पूर्ण और अविभाज्य है-अनन्त में अनन्त घटाओ तो अनन्त ही बचता है। हालाँकि ब्रह्म अवैयक्तिक, नाम और रूप से परे है, किन्तु अपने दिव्य-उपस्थिति को हमारे समक्ष प्रकट करने के लिये, वह स्त्री और पुरुष दोनों रूप धारण करके पृथ्वी पर अवतरित होता है। 
"सब जीवों में उसी ब्रह्म का दर्शन करना मनुष्य का आदर्श है। यदि सब वस्तुओं में उनको देखने में तुम सफल न होओ,तो कम से कम एक ऐसे व्यक्ति में, जिसे तुम सबसे अधिक प्रेम करते हो, उनको देखने का प्रयत्न करो, उसके बाद दूसरे व्यक्ति में दर्शन करने का प्रयत्न करो। इसी प्रकार तुम आगे बढ़ सकते हो। आत्मा के सामने तो अनन्त जीवन पड़ा हुआ है- अध्यवसाय के साथ लगे रहने पर तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। "  
" हमने जीवन में ऐसे सैकड़ों कार्य किये हैं, जिनके बारे में हमें बाद में पता लगता है कि वे न किये जाते, तो अच्छा होता, पर तब भी इन सब कार्यों ने हमारे लिये महान शिक्षक का कार्य किया है। अतएव पहले हमें यह आत्म-तत्व सुनना होगा, तब तक सुनना होगा जब तक वह हमारे रक्त में प्रवेश कर उसकी एक एक बूँद में घुल-मिल नहीं जाता।
" नेवर माइन्ड दी स्ट्रगल्स, दी मिस्टेक्स" - विगत जीवन में हुए संघर्षों और भूलों के लिये स्वयं को दोषी न मानो। मैंने एक गाय को कभी झूठ बोलते नहीं सुना, पर वह सदा गाय ही रहती है, मनुष्य कभी नहीं हो जाती। अतएव यदि बार-बार असफल हो जाओ, तो भी क्या ? कोई हानि नहीं, हजार बार इस आदर्श (श्रीरामकृष्ण या नवनी दा) को हृदय में धारण करो, और यदि हजार बार भी असफल हो जाओ, तो एक बार फिर प्रयत्न करो ! 
"दी रेमीडी फॉर वीकनेस इज नॉट ब्रूडिंग ओवर वीकनेस, बट थिंकिंग ऑफ़ स्ट्रेंथ." -दुर्बलता को दूर करने का उपाय, सदैव उसका ही चिंतन करते रहना नहीं है, वरन बल का चिंतन करना है। मनुष्य में जो अनन्त शक्ति पहले से ही विद्यमान है- उसे उसकी शिक्षा दो। टीच मेन ऑफ़ दी स्ट्रेंथ दैट इज आलरेडी विदिन देम!" 
"तुम्हारा प्रथम और प्रधान कर्तव्य है -सत्य को जान लेना, उसको प्रत्यक्ष कर लेना। जिस क्षण तुम कहते हो,- 'आइ एम ए लिटिल मोर्टल बीइंग"; ' मैं तो एक तुच्छ मरण-धर्मा शरीर मात्र हूँ' - तुम झूठ बोलते हो, तुम मानो सम्मोहन के द्वारा अपने को दुर्बल और डरपोक (भेंड़) बना डालते हो। कभी 'नहीं' मत कहना, 'मैं नहीं कर सकता'-यह कभी न कहना, क्योंकि तुम अनन्त स्वरूप हो! तुम्हारे स्वरूप की तुलना में देश और काल भी कुछ नहीं हैं। तुम सब कुछ करने में समर्थ हो, तुम ऑल्माइटी हो, सर्वशक्तिमान हो !"
" तुम तो ईश्वर (श्रीरामकृष्ण परमहंस) की सन्तान हो, अमर आनन्द के सहभागी हो-पवित्र और पूर्ण आत्मा हो ! तुम इस मर्त्यभूमि पर दिव्य आत्मा हो-तुम भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है। तुम उठो ! हे सिंहो ! आओ, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो, कि तुम भेंड़ हो। तुम तो अजर-अमर-अविनाशी, आनंदमय और नित्य-मुक्त आत्मा हो!"  
" अपने निम्न श्रेणी वाले भाइयों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य  है -उनको शिक्षा देना, उनके खोये हुए श्रद्धा को लौटाकर, उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए सहायता करना। 
" मनुष्य को सदैव दुर्बलता की याद कराते रहना उसकी दुर्बलता का प्रतिकार नहीं है- बल्कि उसे अपने बल का (अंतर्निहित ब्रह्मत्व का) स्मरण करा देना ही उसके प्रतिकार का उपाय है। उनमें जो बल पहले से ही विद्यमान है - उसका उन्हें स्मरण करा दो!
"भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो महान सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब  ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर  निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा।ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें -उत्तर से दक्षिण और पूर्व  पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें । सबसे पहले हमें यही करना होगा।
" अत्यधिक भावुकता कार्य में बाधा उत्पन्न करती है, 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि' हमारा मूलमंत्र होगा।"
"धर्म एक ऐसी वस्तु है जो, पशु-मानव को मनुष्य में और मनुष्य को परमात्मा  में उन्नत कर देता है! धर्म का मुख्य सिद्धांत ही है -क्रमविकासवाद ! नाना प्रकार की अवस्थाओं (द्वैत-विशिष्टाद्वैत-अद्वैत) में से होकर आत्मा उच्चतम लक्ष्य तक पहुँचती है। 
" आजकल मूर्ति-पूजा को गलत बताने की प्रथा सी चल पड़ी है, और सब लोग बिना किसी आपत्ति के उसमें विश्वास भी करने लग गये हैं। यदि मूर्ति-पूजा के द्वारा श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे महापुरुष का निर्माण हो सकता है,तो और हजारों मूर्तियों की पूजा करो। जिस किसी भी उपाय से हो सके, लाखों की संख्या में इसी प्रकार के मनुष्यों का निर्माण करो ! 
" 'मनुष्य', केवल (श्रीरामकृष्ण जैसा) मनुष्य भर चाहिये। बाकि सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धा-सम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जायें, तो संसार का कायाकल्प हो जाय।
" परन्तु वत्स इस (मनुष्य बनने के) मार्ग में बाधाएँ भी हैं। जल्दीबाजी से कोई काम नहीं होता। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय (3P) इन्हीं तीन गुणों से सफलता मिलती है, और सर्वोपरि है प्रेम। यदि तुम पवित्र और निष्कपट हो तो सब काम ठीक हो जायेंगे। 
" हमें तुम्हारे जैसे हजारों की आवश्यकता है, जो श्रीरामकृष्ण पताका (महामण्डल ध्वज) हाथ में लेकर समाज पर टूट पड़ें और जहाँ कहीं वे जायें, वहीँ नये जीवन और नयी शक्ति का संचार कर दें!
" श्रीरामकृष्ण कहते थे- " कुछ तख्ते इस प्रकार की लकड़ियों से बने होते हैं कि उस पर यदि एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है; पर कुछ तख्ते ऐसी लकड़ियों से बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ- साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक पहुँचा सकते हैं।"
 " प्रत्येक स्त्री-पुरुष वही आत्मा हैं; कोई विकसित है कोई अविकसित है। अन्तर प्रकार में नहीं, केवल परिमाण में है। आत्मा की इस अनन्त शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु (शरीर-Hand)  पर होने से - भौतिक उन्नति होती है, विचार (Head) पर होने से बुद्धि का विकास होता है, और अपने (हृदय-Heart) पर ही होने से मनुष्य स्वयं परमात्मा में रूपान्तरित हो जाता है।पहले इसे सुनना होगा, फिर मनन करना होगा और उसके बाद निदिध्यासन " 
" 'पहले हम स्वयं ईश्वर बनने का प्रयत्न करें, ततपश्चात दूसरों को भी ईश्वर बनने में सहायता देंगे। ' बनो और बनाओ'-- यही हमारा मूल-मन्त्र रहे ! "First, Let Us Be Gods, and Help Help Others to Be God's! Be And Make "- Let This Be Our Motto!" फर्स्ट, लेट अस बी गॉड्स, ऐंड देन हेल्प अदर्स टु बी गॉड्स ! "बी ऐंड मेक "- लेट दिस बी आवर मोटो !
वेदान्त केसरी (वेदान्त के शेर) : स्वामी विवेकानन्द की ही प्रेरणा से अनुप्राणित होकर उनके मद्रासी शिष्यों - एम.सी. ननजुन्दा राव,जी. वेंकटरंगा राव, और अलासिंगा पेरुमल आदि गृहस्थ युवाओं के एक समूह द्वारा १४ सितम्बर, १८९५ को 'ब्रह्मवादिन' नामक एक मासिक पत्रिका का प्रारम्भ किया गया था। 'ब्रह्मवादिन' का अर्थ होता है - परम सत्य का सन्देश वाहक या अग्रदूत! 'दी मेसेंजर ऑफ़ हाइएस्ट ट्रुथ'! यह पत्रिका लगातार १४ वर्षों तक प्रकाशित होती रही, किन्तु १९०९ में श्री आलासिंगा के निधन के बाद, १९०९ से १९१४ तक 'ब्रह्मवादिन' का प्रकाशन बिल्कुल अनियमित हो गया। इसका अंतिम अंक १९१४ (मार्च-अप्रैल) में प्रकाशित हुआ था।इसके तुरन्त बाद श्री रामकृष्ण मठ चेन्नई द्वारा 'ब्रह्मवादिन' के विरासत के रूप में एक नई पत्रिका 'वेदान्त केसरी' का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ जो तबसे लेकर अभी तक नियमित रूप से प्रकाशित होता चला आ रहा है। वेदान्त केसरी नामक पत्रिका श्री रामकृष्ण-विवेकानद वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा में प्रकाशित होने वाली एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मासिक पत्रिका है, जिसे श्री रामकृष्ण मठ, मायलापुर, चेन्नई, से १९१४ के बाद से ही प्रकाशित किया जा रहा है। वेदान्त केसरी २०१४ में श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द प्रशिक्षण परम्परा में समग्र रूप से आध्यात्मिक मनुष्य-निर्माण करने की सेवा में एक शताब्दी मना रहा है। इस सांस्कृतिक पत्रिका को प्रत्येक माह की २४ वीं तिथि को पोस्ट किया जाता है।
Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. 
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  || मनीषा पञ्चकं ||
मानव इतिहास का अंधकार युग वही होता है जब समाज में चारित्रिक मूल्यों में ह्रास दिखाई देता है।  और इस प्रकार चारित्रिक मूल्यों का विनाश होने से मानव सभ्यता प्रायः नष्ट हो जाती है। किन्तु जिस संस्कृति की जड़ें बहुत गहरे तक गयी हैं, उसमें ह्रास के समय भी कोई महापुरुष  जन्मग्रहण करता है, या कोई मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी संगठन आविर्भूत होता है । वह अपनी प्रतिभा और उत्साह के बल पर सांस्कृतिक ह्रास या चारित्रिक मूल्यों में ह्रास की गति को रोक कर, समाज में पुनः नैतिक मूल्यों की स्थापना करता है, और राष्ट्र का पुनर्निर्माण करता है। 
सातवीं शताब्दी के मध्य में भारतीय संस्कृति बड़ी कठिन अवस्था में थी। वर्णाश्रम धर्म को ठीक से नहीं समझने के कारण  रूढ़ि वादी जाति-प्रथा और कर्मकाण्ड का विशाल आडम्बर समाज की रक्षा करने में असमर्थ हो रहा था। धनाढ्य लोग जो बेहद खर्चीले याग-यज्ञ आदि करते रहते थे, वे भी इस प्रकार के यज्ञ (१००० कुण्डी आदि) की सार्थकता समझने में असमर्थ थे। बौद्धधर्म भी अनेक सम्प्रदायों (हीनयान -महायान आदि) में बँट गया था और वे सभी  आपस में लड़ रहे थे। बौद्ध बिहारों में तांत्रिक साधना के नाम पर अनाचार फैला हुआ था। उनके कठिन कठिन तर्क और वादविवादों के शोर में भगवान बुद्ध की जनसाधारण के लिए व्यावहारिक और सरल शिक्षा विलीन हो गयी थी।
ऐसे सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों के ह्रास और विभ्रम के समय केरल के उच्च नम्बूदरी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न एक बालक में राष्ट्र-निर्माण की आशा दिखाई दी। अदि शंकराचार्य ने उन सभी भारतियों को सनातन वैदिक धर्म में आधारित स्पष्ट जीवन -दर्शन दिया जो धर्मान्तरित होकर बौद्ध अदि बन गए थे।  उन्हें पुनः गीता, उपनिषद आदि की शिक्षा दी। उसे समस्त राष्ट्र ने स्वीकार किया। उपनिषदों के मूल स्रोत से निकले अद्वैत-वेदान्त दर्शन ने समाज की आशा पूर्ण की, समाज कर्मकाण्ड की जाल से बाहर निकला और समाज ने  प्राचीन भारतीय संस्कृति या श्रुति-परम्परा के कल्याणकारी "Be and Make" - वेदान्त शिक्षक - प्रशिक्षण-पद्धति " को स्वीकार कर लिया। 
"गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित और पूर्णता प्राप्त आचार्यगण ही वे पवित्र पुरुष अर्थात भ्रममुक्त  (de-hypnotized) शिक्षक/नेता हैं,  जिनके माध्यम से परमात्मा विकास-क्रम को आगे बढ़ाने के लिए , जगत में शांति और संतुलन को बनाये रखने का कार्य करता है। परमात्मा के साथ (माँ जगदम्बा के साथ) पूर्ण तादाम्य रखने वाले पुरुषों/शिक्षकों/ नेताओं के माध्यम से ईश्वरेच्छा बड़ी सरलता के साथ कार्य करती है। इसलिए ऐसे ही श्रेष्ठ पुरुषों (शिक्षकों/नेताओं) के द्वारा परमात्मा का दिव्य कार्य [ "Be and Make"] सम्पन्न होता है।          
सभी शिल्पकारों के लिए उनके उपकरण ही सबसे अधिक मूल्वान साधन होते हैं। इसलिए वे अपने उपकरणों की बड़ी देख-भाल करते हैं। वे उन्हें धोते-पोंछते हैं, धार रखते हैं, काट-छांटकर ठीक रखते हैं। और बड़े प्रेम से उनको कसते- कसाते रहते हैं। जगदीश्वर प्रभु (माँ जगदम्बा) भी अपने सेवकों /संतानों की ऐसी ही देखभाल करती हैं।
आदि शंकराचार्य के साथ भी  यही  नियम कार्य कर रहा था। ईश्वर (माँ जगदम्बा) उनके मन के तार को बार बार कसकर , उन्हें अपना संगीत सुनाने के लिए तैयार कर रहा था। मनीषा पञ्चकं की रचना के पीछे भी ऐसी ही एक परम्परागत आख्यायिका/पौराणिक कथा [ Legend -किंवदंती] प्रसिद्द है। जो इस प्रकार है ---    
एक दिन आचार्य शंकर प्रातःकाल अपने शिष्यों के साथ परम पवित्र गंगा जी में स्नान कर काशी विश्वनाथ मन्दिर की ओर जा रहे थे । गंगा स्नान के बाद जब वे वापस लौट रहे थे तो उन्हें एक चाण्डाल चार कुत्तों को साथ लिए उसी रास्ते में आता दिखाई दिया । उन दिनों भारत में लोग वर्णाश्रम धर्म का सही अर्थ नहीं समझने के कारण कट्टर जाति-प्रथा के विश्वासी बन चुके थे। प्रत्येक व्यक्ति अपने युग में प्रचलित सामाजिक मूल्यों का दास होता है।  यद्यपि आचार्य शंकर अद्वैत वेदान्त मत के प्रवक्ता थे, किन्तु केरल अति उच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न नम्बूदरी ब्राह्मण होने के कारण संस्कारवश, कभी कभी उनमें भी  शरीर की जाति को अपनी जाति समझने का भ्रम हो जाया करता था। इसीलिए अचानक सामने से चार कुत्तों को साथ लिए चाण्डाल को आता देखकर ; आचार्य शंकर  रुक कर एक किनारे खड़े हो गये। ताकि कहीं उनसे चाण्डाल छू न जाय अन्यथा वे अपवित्र हो जायेंगे और उच्च स्वर में बोले, " दूर हटो, दूर हटो ।"
               यह सुनकर चण्डाल ने विनम्रता पूर्वक प्रतिप्रश्न किया – " ब्राह्मण देवता, आप तो वेदान्त के अद्वैतवादी मत का प्रचार करते हुए भ्रमण करते हैं । फिर आपके लिये यह अस्पृश्यता-बोध (छुआ-छूत), भेद-भाव दिखाना कैसे संभव होता है ? मेरा शरीर छू जाने से आप अपवित्र हो जायेंगे, यह सोच कर आप आशंकित हैं ; किन्तु क्या हमदोनों का शरीर एक ही पंचतत्व के उपादानों से निर्मित नहीं है ? आपके भीतर जो आत्मा हैं और मेरे भीतर जो आत्मा हैं, वे एक नहीं हैं क्या ? हम दोनों के भीतर, सभी प्राणियों के भीतर क्या एक ही शुद्ध आत्मा विद्यमान नहीं हैं ? 
चाण्डाल के शरीर की ८० किलो की भौतिक गठरी, निश्चय ही आचार्य शंकर के भौतिक शरीर से अलग हो सकती थी ; किन्तु आचार्य की भौतिक गठरी उन पंच महाभूतों से अलग कैसे हो सकती जिनसे आसपास का समस्त भौतिक जगत बना है ?  क्या कोई भौतिक वस्तु भौतिक जगत के बाहर जा सकती है  ? वह जाए तो कहाँ जाए ? स्मृति का स्पष्ट कथन है -
 जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः। 
वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः। 
जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज (ब्रह्मण), वेद के पठान-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जनता है वो ब्राह्मण कहलाता है।  यहाँ ब्राह्मण को कर्म से बताया है । ब्रह्म का ज्ञान जरुरी है । केवल ब्राहमण के वहा पैदा होने से ब्राह्मण नहीं होता । अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। एक मछुआ (निषाद) मां की संतान व्यास महर्षि व्यास बने। आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। 
आचार्य शंकर तत्क्षण समझ गए कि यह कोई साधारण चांडाल नहीं है और चांडाल के वेश में स्वयं भगवान् विश्वनाथ है । आचार्य उन्हें दंडवत प्रणाम किया और उनकी स्तुति की। आचार्य ने जिन श्लोको से चाण्डाल वेशधारी भगवान् विश्वनाथ की स्तुति वे श्लोक "मनीषा पंचकं" के नाम से प्रसिद्द हैं । इस स्त्रोत्र के प्रत्येक स्तुति के अन्त में कहा गया है-चांडालोSस्तु स तु द्विजोSस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम। " इस सृष्टि को जिस किसी ने भी अद्वैत-दृष्टि से देखना सीख लिया है, वह चाहे कोई ब्राह्मण हो चण्डाल हो; वही मेरा सच्चा गुरु है । "इन श्लोको कि संख्या पांच है और प्रत्येक के अंत में 'मनीषा' शब्द आता है इसीलिए इन्हें "मनीषा पंचकं" कहा गया है । जो इस प्रकार हैं -
अन्नामयादान्नमयम्थ्वा चैतन्यमेव चैतान्यात । 
द्विजवर दूरीकर्तु वाञछसि किं ब्रूहि गच्छ गच्छेति ॥
ओ महात्मन आप किसको किससे दूर हटाना चाहते हैं ? यदि आप इस पञ्चभौतिक अन्नमय शरीर को दूर हटाना चाहते हैं, तो संसार में जितने भी शरीर हैं, सबके सब पञ्च तत्व से निर्मित हैं | किन्तु यदि आप चेतन को चेतन से दूर हटाना चाहते हैं, तो वह कैसे हटाया जा सकता है, आप ही बताएं ?
(हे द्विज श्रेष्ठ ! " दूर हटो, दूर हटो" इन शब्दों के द्वारा आप किसे दूर करना चाहते हैं ? क्या आप (मेरे) इस अन्नमय शरीर को अपने शरीर से जो कि वह भी अन्नमय है अथवा शरीर के अंतर्गत स्थित उस चैतन्य (चेतना) को जो हमारे सभी क्रिया कलापों का दृष्टा और साक्षी है ? उस साक्षी चेतना को (witness consciousness) को कैसे दूर हटाया जा सकता है - कृपया आप ही बताएं !)
किं गंगाम्बुनि बिम्बितेअम्बरमनौ चंडालवाटीपयः
पूरे वांतरमस्ति कांचनघटी मृत्कुम्भयोर्वाम्बरे ।
प्रत्यग्वस्तुनि निस्तारन्ग्सह्जान्न्दाव्बोधाम्बुधौ
विप्रोअयम्श्व्प्चोअय्मित्य्पिमहन्कोअयम्विभेद्भ्रमः ॥
(हे ब्राह्मण देवता ! कृपया मुझे बताएं कि क्या ब्राह्मण अथवा चांडाल सभी के शरीरो का साक्षी और दृष्टा एक नहीं है भिन्न है ? क्या साक्षी में नानात्व है ? क्या वह एक और अद्वितीय नहीं है ? आप (जैसे विद्वान) इस नानात्व के भ्रम में कैसे पड़ सकते हैं ? कृपया मुझे यह भी बताएं कि क्या एक सोने के बर्तन और एक मिट्टी के बर्तन में विद्यमान खाली जगह के बीच कोई अंतर है ? और क्या गंगाजल और मदिरा में प्रतिबिंबित सूर्य में किसी प्रकार का भेद है ? सूर्य के प्रतिबिम्ब भिन्न हो सकते हैं, पर बिम्ब रूप सूर्य तो एक ही है। भगवान् भास्कर का प्रतिबिम्ब पवित्र गंगाजल में दिखाई दे अथवा घाट पर एकत्रित दूषित जल में, मिट्टी के घड़े में या स्वर्ण कलश में, इन जड़ वस्तुओं के संयोग से भगवान सूर्य को कोई दोष कैसे स्पर्श कर सकता है ? हे द्विज श्रेष्ठ | जो प्रज्ञानघन है, तरंगों से रहित सिन्धु के समान विक्षेपों से सर्वथा रहित परमानंद स्वरुप है, उसमें चांडाल और ब्राह्मण का भेद कैसा ?

  || मनीषा पञ्चकं ||
जाग्रत्स्वप्न सुषुत्पिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते
या ब्रह्मादि पिपीलिकान्त तनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी।
सैवाहं न च दृश्य वस्त्विति दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचेत
चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥
जो चेतना (उज्ज्रिम्भते = भ्रमण  करती हुई) , जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओँ (के सभी अनुभवों ) को प्रकट करती है, जो ब्रह्मा से लेकर चीँटी ( आदि) तक सभी शरीरोँ में व्याप्त जगत् साक्षिणी है, वह ही मैं हूँ, मैं कोई दृश्य  वस्तु नहीं हूँ - ऐसी जिसकी द्रिढ़ प्रज्ञा (प्रक्रिष्ट ज्ञान) है , वह (शरीर से) चाण्डाल (शव जलाने वाला-डोम) हो या ब्राह्मण (समिधा जलाने वाला) हो, वही मेरा गुरु है  ऐसी मेरी मनीषा है । 
(जो चेतना जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि तीनों अवस्थाओं के ज्ञान को प्रकट करती है जो चैतन्य विष्णु, शिव आदि देवताओं में स्फुरित हो रहा है वही चैतन्य चींटी आदि क्षुद्र जन्तुओ तक में स्फुरित है । जिस दृढबुद्धि पुरुष कि दृष्टि में सम्पूर्ण विश्व आत्मरूप से प्रकाशित हो रहा है वह चाहे ब्राह्मण हो अथवा चांडाल हो, वह वन्दनीय है यह मेरी दृढ निष्ठा है । जिसकी ऐसी बुद्धि और निष्ठा है कि "मैं चैतन्य हूँ यह दृश्य जगत नहीं" वह चांडाल भले ही हो, पर वह मेरा गुरु है॥१॥)
ब्रह्मैवाहमिदं जगच्च सकलं चिन्मात्रविस्तारितं
सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणयाशेषं मया कल्पितम् ।
इत्थं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले
चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥
मैं ब्रह्म ही हूँ और यह सारा जगत् (मुझ) चेतन का ही विस्तार है , और यह सब कुछ त्रिगुणमयी (सत्व रज तम से युक्त) अविद्या से मेरे द्वारा ही कल्पित् है ऐसी जिसकी द्रिढ़ मति है कि मैं सुख से इतर (परे) नित्य परम निर्मल हूँ - वह (शरीर से) चाण्डाल हो या ब्राह्मण हो, वही मेरा गुरु है ऐसी मेरी मनीषा है ॥ (मैं ब्रह्म ही हूँ चेतन मात्र से व्याप्त यह समस्त जगत भी ब्रह्मरूप ही है । समस्त दृष्यजाल मेरे द्वारा ही त्रिगुणमय अविद्या से कल्पित है । मैं सुखी, सत्य, निर्मल, नित्य, पर ब्रह्म रूप में हूँ जिसकी ऐसी दृढ बुद्धि है वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है॥२॥)
शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः
नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना ।
भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके
प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥
जिसने शांत आत्मा से गुरु के वचनों पर विवेक-विचार करके यह निश्चय कर लिया है कि समस्त विश्व शाश्वत रूप से नश्वर ही है और ब्रह्म नित्य (हमेशा) निरंतर (लगातार) है । जिसने ज्ञान अग्नि में भूत और भविष्य के पापोँ को जलाकर खत्म कर दिया तथा अपने शरीर को प्रारब्ध के हाथों समर्पित कर दिया है (वही मेरा गुरु है) ऐसी मेरी मनीषा है ॥ (जिसने अपने गुरु के वचनों से यह निश्चित कर लिया है कि परिवर्तनशील यह जगत अनित्य है । जो अपने मन को वश में करके शांत आत्मना है । जो निरंतर ब्रह्म चिंतन में स्थित है । जिसने परमात्म रुपी अग्नि में अपनी सभी भूत और भविष्य की वासनाओं का दहन कर लिया है और जिसने अपने प्रारब्ध का क्षय करके देह को समर्पित कर दिया है । वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है॥३॥)
या तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते
यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतो चेतनाः ।
ताम् भास्यैः पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावय
न्योगी निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥
जो पशु, मनुष्य, देवता आदि सभी प्राणियोँ में 'अहं-अहं' रूप से प्रकट है, जिसकी चेतना के प्रकाश में स्वयं जङ होते हुए भी इन्द्रियाँ, देह और उनके विषय चेतन प्रतीत होते हैं जो बादलों के पीछे छिपे सूर्य की तरह अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित कर रहा है - उस परम तत्व में जिस योगी का शांत मन सदा स्थिर रहता है . . वही मेरा गुरु है ऐसी मेरी मनीषा है ॥ 
(सर्प आदि तिर्यक, मनुष्य देवादि द्वारा "अहम्" मैं ऐसा गृहीत होता है । उसी के प्रकाश से स्वत: जड़, हृदय, देह और विषय भाषित होते हैं । मेघ से आवृत सूर्य मंडल के समान विषयों से आच्छादित उस ज्योतिरूप आत्मा की सदा भावना करने वाला आनंदनिमग्न योगी मेरा गुरु है । ऐसी मेरी मनीषा है॥४॥)
यत्सौख्याम्बुधि लेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता
यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः।
यस्मिन्नित्य सुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद्
यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥
जिस आनंद सागर के लेश मात्र से इंद्र आदि भी शेष सब बिसार देते हैं, जिसमें चित्त लगाकर मुनि सदा शांति में पहुँचकर निर्व्रित्त हो जाते हैं । नित्य सुख सागर में जिसकी बुद्धि लीन हो गई है, ऐसे, देवेन्द्र द्वारा पूजित चरणों वाले कोई 'ब्रह्मविद' नहीं बल्कि साक्षात 'ब्रह्म' ही हैं। .( यही मेरे गुरु हैं) ऐसी मेरी मनीषा है ॥
(प्रशांत काल में एक योगी का अंत:करण जिस परमानंद कि अनुभूति करता है जिसकी एक बूँद मात्र इन्द्र आदि को तृप्त और संतुष्ट कर देती है । जिसने अपनी बुद्धि को ऐसा परमानंद सागर में विलीन कर लिया है वह मात्र ब्रह्मविद ही नहीं स्वयं ब्रह्म है । वह अति दुर्लभ है जिसके चरणों की वन्दना देवराज भी करते हैं वह मेरा गुरु है । ऐसी मेरी मनीषा है॥५॥)
[चार महावाक्यों  "ॐ प्रज्ञानं ब्रह्म 2 ॐ अहं ब्रह्माऽस्मि 3 ॐ तत्त्वमसि और 4 ॐ अयमात्मा ब्रह्म हैं।" की व्याख्या सम्पूर्ण होती है 1 ] 
|| इति श्रीमत शंकर भगवतः कृतौ मनीषा पञ्चकं सम्पूर्णं ||
[ साभार http://smishra18.blogspot.com/]
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 आध्यात्म के बिना शिक्षा अधूरी है!/ विवेकानन्द दर्शनम् १८. /Wednesday, August 13, 2014/ब्रह्मचर्य मानवजाति  का मार्गदर्शक नेता बनने की पूर्वशर्त है !/Sunday, June 22, 2014/ प्रसंग :  [ ' सामाजिक सम्मलेन भाषण' ९/ २८८ एवं विवेकानन्द चरित- पृष्ठ २९२ (THE SOCIAL CONFERENCE ADDRESS Volume 4,Writings: Prose गृहस्थ शिष्य डॉ. नंजुन्दा राव को   ३० नवम्बर १८९४ का पत्र ]ब्रह्मचर्य मानवजाति  का मार्गदर्शक नेता बनने की पूर्वशर्त है !/Sunday, June 22, 2014/ प्रसंग :  [ ' सामाजिक सम्मलेन भाषण' ९/ २८८ एवं विवेकानन्द चरित- पृष्ठ २९२ (THE SOCIAL CONFERENCE ADDRESS Volume 4,Writings: Prose गृहस्थ शिष्य डॉ. नंजुन्दा राव को   ३० नवम्बर १८९४ का पत्र ]/ परार्थ कर्म को निवृत्ति कहते हैं/Friday, January 4, 2013/ $$@$$ वैदिक धर्म के दो भेद – 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति' / महामण्डल का " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem)/महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर: आदर्श, उद्देश्य और पाठ्यक्रम !/    $$$ माँ जगदम्बा के विश्व-संचालन का कानून 
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