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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

" श्रीरामकृष्ण की अन्त्यलीला"

श्रीरामकृष्ण द्वारा महाकाली की साधना का उद्देश्य ही मानव-मन के अवचेतन में छिपी कामुकता और अन्य सभी विकृतियों से मुक्त होने में सहायता देना है। महाकाली उन सब का नाश कर देती है। जगत्कारण ईश्वर के स्नेहमयी श्रीजगदम्बा के सिवाय संसार में और भी कोई दूसरी वस्तु प्राप्त करने योग्य है या हो सकती है, यह कल्पना क्षण भर के लिए भी उनके मन में उदित नहीं होती थी। जिन्हें प्राप्त करने के लिये साधक योग, तपस्या आदि करता है, उन्हें-माँ जगदम्बा को,  प्राप्त कर लेने के बाद श्रीरामकृष्ण परमहंस को और साधना करने की क्या आवश्यकता थी ? इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं - " जैसे, समुद्र के किनारे सदा निवास करने वाले व्यक्ति के मन में भी कभी कभी कभी कभी यह इच्छा हो जाती है कि देखें तो भला इस रत्नाकर के गर्भ में कैसे कैसे रत्न हैं ?" 
मधुरभाव की साधना में सिद्ध होकर श्रीरामकृष्ण भावसाधना की अन्तिम भूमिका में पहुँच गए थे। भावराज्य (devotional moods/सापेक्षिक सत्य) और भावातीत राज्य (non-dual mood/ निरपेक्ष सत्य ?) में सदैव कार्य-कारण सम्बन्ध देखा जा सकता है। क्योंकि भावातीत अद्वैत राज्य का भूमानन्द ही ससीम बनकर भावराज्य में दर्शन -स्पर्शन आदि संभोगजन्य आनन्द रूप से प्रकट हुआ करता है ! इसी कारण भावराज्य की चरम सीमा तक पहुँच जाने के बाद उनका मन भावातीत अद्वैत भूमिका के अतिरिक्त अन्यत्र कहाँ आकृष्ट होता ? अन्य साधनाओं के समान वेदान्त-साधना के समय भी श्रीरामकृष्ण को गुरु ढूँढ़ना नहीं पड़ा। स्वयं गुरु ही उनके पास आ पहुँचे। 
उन्होंने श्रीरामकृष्ण से कहा -" तुम उत्तम अधिकारी प्रतीत हो रहे हो, क्या तुम वेदान्त साधना करना चाहते हो ? " श्रीरामकृष्ण ने कहा , " मैं वेदान्त साधना करूँ या नहीं यह मैं नहीं कह सकता, यह सब मेरी माँ जानती है। वह कहेगी तो करूँगा। ' 
तोतापुरी - " तो फिर जा और अपनी माँ से शीघ्र पूछ कर आ। " वे सीधा श्रीजगदम्बा के मन्दिर में चले गए। वहाँ भावाविष्ट अवस्था  (मोदक के नशे जैसी अवस्था ?) में उन्होंने सुना श्रीजगदम्बा कह रही हैं -" जाओ सीखो ! तुम्हें सिखाने के लिये ही संन्यासी का यहाँ आगमन हुआ है।" त्रिगुणमयी ब्रह्मशक्ति माया को तोतापुरी केवल भ्रम समझते थे, और ईश्वर की या शक्ति-संयुक्त ब्रह्म के अस्तित्व को मानने की या उसकी उपासना करने की कोई आवश्यकता नहीं है; यही उनका सिद्धान्त था। वे बोले, "वेदान्त साधना की दीक्षा ग्रहण के पूर्व तुझे शिखा-सूत्र का त्याग करके यथाशास्त्र संन्यास ग्रहण करना होगा। " 
फिर शुभ मुहूर्त देखकर श्रीमान तोतापुरी ने श्रीरामकृष्ण को अपने पितृपुरुषों की तृप्ति के लिये श्रद्धादि क्रिया करने को कहा। उसकी समाप्ति के बाद उन्होंने श्रीरामकृष्ण को स्वयं अपना श्राद्ध भी यथाविधि करवाया। इसका कारण यह है कि संन्यास ग्रहण के समय से ही साधक को 'भूः' आदि सब लोकों की प्राप्ति की आशा और अधिकार त्याग देना पड़ता है। अतः इसके पूर्व ही साधक को स्वयं अपना श्राद्ध कर डालना चाहिये, यही शास्त्र की आज्ञा है। (गया के प्राइवेट रामकृष्ण आश्रम के सचिव के सहयोग से दादा के द्वारा भी श्राद्ध क्रिया हुई थी मैं और प्रमोद दा साथ में थे। दादा ने कहा था मेरा श्राद्ध? उनके मुँह सुना था ) 
त्रिसुपर्ण मन्त्राः  (महानारायणोपनिषत्।)  ..... मधुवाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्न-स्सन्त्वोषधीः। मधुनक्तमुतोषसी मधुमत्पार्थिवँ रजः। मधुद्यौ-रस्तु नः पिता। मधुमान्नो वनस्पतिर्-मधुमाँ अस्तु सूर्यः। माध्वीर्गावो भवन्तु नः। य इमं  त्रिसुपर्ण-मयाचितं ब्राह्मणाय दद्यात्। भ्रूणहत्यां वा एते घ्नन्ति। ये ब्रह्मणा-स्त्रिसुपर्णं  पठन्ति। ते सोमं प्राप्नुवन्ति। आसहस्रात् पङ्क्तिं पुनन्ति। ओम्॥ ब्रह्म मेधवा। मधु मेधवा। ब्रह्म-मेव मधु मेधवा  ।.... अखण्ड एकरस मधुमय ब्रह्म वस्तु मुझमें प्रकट हो। हे परमात्मन ! मेरे द्वैतप्रतिभास रूपी सर्व दुःस्वप्नों का विनाश कर।" 
ईश्वरार्थ सर्वस्वत्याग का जो व्रत सनातन काल से गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा के रूप में भारत में प्रचलित है। और जिसके कारण आज भी विश्व भारतवर्ष को ब्रह्मज्ञपद का आदर देता है। शिखासूत्र का भी यथाविधि होम हुआ और  श्री रामकृष्ण अपने  पुरातन काल से प्रचलित परम्परा के अनुसार गुरु श्रीमत परमहंस तोतापुरी जी द्वारा प्रदत्त कौपीन, काषाय-वस्त्र और नाम से विभूषित होकर, उपदेश ग्रहण करने के लिये एकाग्र होकर बैठ गए। 
" .... किन्तु नाम-रूप की सीमा के परे जाने की चेष्टा करते ही माँ जगदम्बा की मूर्ति सामने आ जाती है। मन पूर्णतः निर्विकल्प नहीं होता मैं क्या करूँ ? न्यांगटा को क्रोध आ गया, एक काँच के टुकड़े के सुई के समान अग्र भाग को वह मेरी भौंहों के बीच जोर गड़ाकर मुझसे बोला - इस बिन्दु में अपने मन को समेट लो! ... मेरा मन तीव्र गति से नाम-रूप की चाहारदिवारी के पार चला गया और मुझे समाधि लग गयी।" 
श्री रामकृष्ण के गुरु श्री तोतापुरी पर श्रीजगदम्बा की कृपा जन्म से ही थी। महामाया ने उन्हें अपना उग्र रूप कभी नहीं दिखाया था।  इसीकारण श्री तोतापुरी को उद्यम और सतत परिश्रम के द्वारा निर्विकल्प समाधिअवस्था प्राप्त करना बिलकुल सहज बात मालूम पड़ती थी। उन्हें यह कैसे जान पड़े कि श्रीजगदम्बा ने ही स्वयं कृपा करके परमार्थ मार्ग (सर्वोच्च पुरुषार्थ) की सभी अड़चनों को दूर कर उनका मार्ग सुगम कर रखा था! जब कोई व्यक्ति धुनि की आग से चिलम भरने को अंगार लेने लगा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया तथा वे उसे गाली देते हुए चिमटा उठाकर मारने का भय दिखाने लगे।  
What is the motivation of anger (षडरिपू) : हृदय में जो अंधकार है वह षडरिपुओं के कारण है और वह दैवी माया है, इसीलिये यह केवल ज्ञान से दूर नहीं हो सकती। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - "पञ्चभूतेर फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे" - अर्थात " पंचभूतों के चपेटों में पड़कर ब्रह्म रोया करता है। " आँखे मूंदकर कितना भी कहो 'मुझे काँटा नहीं गड़ा, मेरा पैर दर्द नहीं करता' -पर कांटा चुभते ही वेदना से तुरन्त व्याकुल हो जाना पड़ता है। इसी तरह मन को कितना भी सिखाओ कि तेरा जन्म नहीं होता, मरण नहीं होता तेरे लिये शोक है न दुःख....तू जन्मजरा-रहित सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा है- पर शरीर थोड़ा भी अस्वस्थ हुआ या ...... या मन के सामने कामिनी-कांचन का रूप-रस आदि विषय आया और उसके ऊपरी दिखने वाले सुख में भ्रमित होकर हाथ से कोई दुष्कर्म हो गया, तो तुरन्त ही मन में छुपे षडरिपू जाग्रत हो जाते हैं। अब सर्वेश्वरी माँ जगदम्बा के सिवाय दूसरा कौन रक्षक हो सकता है ? 
बिना माँ जगतजननी के भक्ति किये ब्रह्ममय जगत का अनुभव स्थायी नहीं होता, इसीलिये सन्त (नेता) तुलसीदास जी अपनी रचना 'सखा के प्रति' (अर्थात वुड बी लीडर्स के प्रति) कहते हैं - 
* होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
'सखा परम परमारथु एहू।' मन क्रम बचन राम पद नेहू॥
भावार्थ:-विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी  के चरणों में प्रेम होना ( अर्थात आधुनिक युग के अवतारवरिष्ठ श्री रामकृष्ण के चरणों में प्रेम होना), यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ है !
किन्तु जगतजननी माँ सारदा की कृपा प्राप्त किये बिना श्री रामकृष्ण के चरणों में प्रेम नहीं हो सकता, इसलिये हे सखा- सर्वोच्च पुरुषार्थ मोक्ष का अर्थ केवल भ्रममुक्ति ही नहीं बल्कि माँ सारदा देवी की कृपा प्राप्त करना है! क्योंकि माँ सारदा ने रामेश्वरम के शिवमन्दिर में अपने मुख से स्वीकार किया था कि वे ही पूर्वजन्म में माँ सीता थीं। उससे स्पष्ट होता है कि माता जानकी (माँ सारदा देवी) ही जगत की उत्पत्ति, उसके पालन और संहार करने वाली हैं। यह सभी क्लेशों को हरती हैं एवं सभी प्रकार के कल्याणों को प्रदान करती हैं।
Queen of India : भारत की रानी माता सीता (माँ सारदा देवी) की पति-परायणता, त्याग सेवा, संयम, सहिष्णुता, लज्जा, विनयशीलता भारतीय संस्कृति में नारी भावना का चरमोत्कृष्ट उदाहरण तथा समस्त नारी जाति के लिए अनुकरणीय है। मां सीता जी ने ही हनुमान जी को उनकी असीम सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर अष्ट सिद्धियों तथा नव-निधियों का स्वामी बनाया। 
 ‘‘अष्टसिद्धि नव-निधि के दाता। अस वर दीन जानकी माता॥’’ 
माँ जगदम्बा के सीता -रूप की वन्दना करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं - 
* उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्‌।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्‌॥
भावार्थ:-उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥
* ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥ 
भावार्थ:- ज्ञान का मार्ग कृपाण (दोधारी तलवार) की धार के समान है। हे पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती। 
*क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥
भावार्थ:-बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है? माया के वश रहने वाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है?॥111 (ख)॥
* एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥
भावार्थ:-इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥            श्री रामकृष्ण ने कहा- " अभी आपने कहा था एक ब्रह्म के सिवा इस जगत में और दूसरा कुछ भी सत्य नहीं है, संसार की सभी वस्तुएं और व्यक्ति उसी के प्रकाश हैं-और तुरन्त दूसरे ही क्षण आप यह सब भूलकर उस मनुष्य को मारने के लिये तैयार हो गए ? इसीलिए कहता हूँ कि महामाया का प्रभाव कितना प्रबल है ! " तोतातपुरी जी जब चाह कर भी गंगाजी में डूबने लायक पानी न पा सके तब उनके अंतःकरण में एकदम प्रकाश हो गया कि -यह सब जगदम्बा का खेल है ! उनकी इच्छा न रहने पर मरने की शक्ति भी किसी में नहीं है ! " इतने दिनों तक ब्रह्म नाम से पहचान कर जिसका मैं चिन्तन करता था, वही जगदम्बा है ! शिव और शिवशक्ति, ब्रह्म और ब्रह्मशक्ति एक ही है !"  
श्रीरामकृष्ण के देहत्याग के थोड़े ही दिन बाद, उनके अस्थि-कलश को सिर पर उठाकर पवित्र लीला की अनेक पुण्य स्मृतियों से भरे हुए काशीपुर उद्यान भवन को छोड़ दिया। और सुरेश मित्र ने उन युवा भक्तों के रहने के लिए वराहनगर में एक मकान ठीक कर दिया। शशि और निरंजन (धर्मेन्द्र सिँह) उस ताम्रपात्र के रक्षक थे। वयोवृद्ध गृहस्थ भक्तों में से एक रामचन्द्र दत्त ने कांकुड़गॉंछि के अपने बगीचे वाले मकान में श्रीगुरुदेव के देहावशेष को स्थापित करके उस पर मन्दिर बनाने का निर्णय लिया। किन्तु नवयुवक भक्तों ने किसी भी तरह गुरुदेव के देहवशेष को गृही भक्तों को देना स्वीकार नहीं किया। 
प्रवृत्ति मार्गी भक्त और निवृत्ति मार्गी भक्त में कोई विवाद न हो और भ्रातृभाव में विच्छेद न हो, इसलिये उन्होंने अपने गुरुभाइयों से कहा-श्रीरामकृष्ण के पवित्र जीवन से गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का जो हमें महान आदर्श मिला है, उसके अनुसार अपने जीवन को गढ़ना ही हमारा प्रधान कर्तव्य है। यदि हमलोग श्री रामकृष्ण का आदर्श- "BE AND MAKE ' को कार्यरूप में परिणत कर सकें, तो देखोगे समग्र जगत भारत की शिक्षापद्धति के पैरों पर लौटेगा। " शशि महाराज ने नरेन्द्र की इस बात का प्रतिवाद नहीं किया, देहावषिष्ट भस्म और अस्थि का कुछ भाग रखकर, बाकी को ताँबे के पात्र के साथ लौटाने के लिए वे सहमत हुए।अन्त में शुभ दिन देखकर श्रीरामकृष्ण के गृही और संन्यासी भक्तों ने एक साथ मिलकर काँकुड़गाछी के 'योगोद्यान' में पवित्र ताम्रपात्र को स्थापित कर दिया।  इस प्रकार नरेन्द्र ने नेतृत्व -कौशल से गुरुभाइयों में मनोमालिन्य होने की सम्भावना को अंकुरावस्था में ही विनष्ट कर दिया। 
परवर्तीकाल में बेलुड़ मठ की नयी खरीदी हुई जमीन पर श्रीरामकृष्ण की पवित्र अस्थियाँ तथा " आत्माराम के कलश" को प्रतिष्ठित करते समय विवेकानन्द ने कहा था - " ठाकुर ने मुझसे कहा था, कि तू अपने कन्धे पर रखकर मुझे जहाँ भी ले जायेगा, मैं वहीँ पर रहूंगा। वह स्थान भले ही पेड़ के नीचे हो या कुटिया में। इसलिए मैं स्वयं उन्हें कन्धे पर लेकर नयी मठभूमि में जा रहा हूँ। तुम निश्चित जानना - बहुत वर्षों तक "बहुजन हिताय ' ठाकुर उस स्थान में रहेंगे। "           
 १९४७ में स्वतन्त्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल सी० राजगोपालाचारी  (१८७८- १९७२) ने कहा था -"जितने प्रकार के राजनैतिक विचार हैं, उन सबों को जान लेने और देश की वर्तमान दुर्दशा को देख लेने के बाद, मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इस देश की उन्नति तब होगी जब हम एक हिन्दू को उत्तम हिन्दू, मुसलमान और ईसाई को उत्तम मुसलमान और ईसाई बना पायेंगे।  उत्तम हिन्दू, मुसलमान और ईसाई बनाने के लिये, देश को बचाने के लिये श्रीरामकृष्ण के उपदेशों पर चलना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है!  "
[Prof. Humayun Kabir may not be a Member of the Legislative Assembly; but he is Secretary to Maulana Abdul Kalam Azad. Now I am also a politician, and we all want to raise India through politics. But though I am a politician, let me tell you, my friends, we are not going to save India through politics. We are not going to make India happy through politics. We are not going to free India through politics. If we have any chance of making India free in the true sense, it is only if we all become good men; and if we want to become good men and women, the only way is to worship Shri Ramakrishna, worship him in the full sense....... my dear friends, after I had gone through all the politics and seen the troubles of the country and listened to many others about the sufferings in our country I have definitely come to the conclusion that we cannot improve the lot of our country unless we really become good Hindus, that is, unless Hindus become good Hindus, Muslims become good Muslims and Christians become good Christians, we cannot save our country, and to become good Hindus or Muslims or Christians there is no better way than to follow the teachings of Sree Ramakrishna. ([Presidential address delivered  by C. Rajagopalachari, at the Birthday Celebration of Sri Ramakrishna at the Ramakrishna Mission, New Delhi in March 1947.)  
और इस कार्य के लिये स्वामी प्रभानन्द लिखित " श्रीरामकृष्ण की अन्त्यलीला" ग्रंथ में लिखित घटनाओं पर विशेष रूप से परिचर्चा करना नितान्त आवश्यक होगा। काशीपुर का यह उद्यानभवन श्रीरामकृष्ण की अन्तिम लीला का स्थान था। वहाँ श्रीरामकृष्ण आठ महीने रहे। कैन्सर के कारण अन्तिम लीला व्यथापूर्ण थी। परन्तु श्रीरामकृष्ण अवतार की प्राणदायनी जीवनधारा कल्याणमयी होकर प्रतिक्षण मानव कल्याण के लिए ही प्रवाहित हुई है, वह बात यहीं पर दृष्टिगोचर हुई है। यहीं पर प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में 'मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी प्रशिक्षण देने में समर्थ भावी लोकशिक्षकों (नेताओं) के निर्माण के लिए 'BE AND MAKE ' अन्दोलन के पचार-प्रसार करने वाले 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त टीचर्स ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में निवृत्ति मार्गियों के लिए रामकृष्ण-मठ और मिशन तथा प्रवृत्ति मार्गियों के लिये 'विवेकानन्द युवा महामण्डल' की नींव पड़ी। 
उच्च शिक्षा और उच्च वंश की गौरव बुद्धि से रहित युवक संन्यासियों ने मधुकरी भिक्षा से प्राप्त अन्न को प्रसाद के समान ग्रहण किया। संन्यास ग्रहण के पश्चात प्राचीन भारत के युगप्रवर्तक संन्यासियों -भगवान बुद्ध, आचार्य शंकर आदि की जीवनी और उपदेशों की चर्चा ही नरेन्द्र का लक्ष्य बन गया। भगवान बुद्धदेव का अपूर्व त्याग, उनकी अलौकिक साधना और असीम करुणा नरेन्द्र की रातदिन  चर्चा का विषय बन गयी। जन्म-जरा-व्याधि -मृत्यु दुःख की निर्मम पीड़ा से प्रवृत्ति की चपेटों में फंसे हुए जीवों (भोगी संसारियों) का कातर हाहाकार देखकर करुणाविगलित राजपुत्र सिद्धार्थ गौतम के विशाल हृदय में जो अपूर्व वेदना हुई थी, उसका वर्णन करते समय नरेन्द्र की ऑंखें डबडबा उठती थीं ! (और यही 3rd H को विकसित करने का व्यायाम है !)   ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसी समय श्रीरामकृष्ण उनके निर्वाचित लोकशिक्षक नरेन्द्रनाथ को सम्मुख रखकर अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हुए थे।  काशीपुर में ही ठाकुर श्रीरामकृष्ण के निर्मल प्रेम के बंधन में गुरु-शिष्य वेदान्त लोकशिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित वुड बी लीडर्स की एक युवा मण्डली संगठित हो गई।
श्रीरामकृष्ण ईश्वर के अवतार हैं। संसार के सन्तप्त मनुष्यों के परित्राण के लिये वे आये। ईश्वर की शक्ति के द्वारा ही मनुष्य के अन्दर छिपी हुई सम्पूर्णता का विकास (पूर्ण =अर्थात सोलह आने) होता है ! परन्तु पशुवृत्ति विघ्न डालती है। अवतारों के आगमन से पाशविक शक्ति का दमन होता है और ईश्वरीय शक्ति (आत्मा की शक्ति) जाग उठती है। श्रीरामकृष्ण नवजागरण के शक्ति तथा आधार-स्वरूप हैं (प्रथम नेता) हैं ! परन्तु उनके गले में व्याधि होने से कुछ भक्तों में भ्रम पैदा हो गया। जिनका विश्वास कम था, वे हट गये। जो निष्ठावान थे उनका विश्वास और अधिक दृढ़ हो गया। अवतारी पुरुष की व्याधि, रोग-दुःख, सब कुछ संसार में लोकशिक्षा के लिए होती है। इसी व्याधि के समय में भावी युवा लोकशिक्षकों के निर्वाचन और रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त टीचर्स ट्रेनिंग ट्रेडिशन में उनकी शिक्षा-दीक्षा या प्रशिक्षण का कार्य आरम्भ हुआ। 
" ठाकुर के भीतर दो प्रकार के भाव थे। पहला था मनुष्य भाव और दूसरा ईश्वरीय भाव। मनुष्य भाव में वे सभी के प्रति अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण थे। जो कोई उनके समीप आता वे उसके दुःखों को दूर करने की कोशिश करते थे। किन्तु, ऐसा करने के लिए जैसे ही वे ईश्वरीय भाव में आरूढ़ होते तो देखते कि अभी उसके दुःखों को दूर करने का समय नहीं आया है। जगन्माता की इच्छा नहीं है !" 
"फिर देखता हूँ मैं ही सबकुछ हूँ "-ईश्वर की लीला को मनुष्य नहीं समझ सकता।  माँ दिखा रही है (अपने शरीर को दिखाते हुए) कि  इसके भीतर ऐसी शक्ति आ गयी है कि अब इसे किसी को स्पर्श भी नहीं करना पड़ेगा, तुम लोगों को स्पर्श करने के लिये कहूँगा, तुम लोग स्पर्श कर दोगे -उसीसे दूसरों को चैतन्य हो जायेगा ! (अर्थात जिसे स्पर्श करोगे वह डीहिप्नोटाइज्ड या भ्रममुक्त हो जायेगा।लीलाप्रसंग /३/२३२ ) 
महामाया की विचित्र लीला -आज से १५० वर्ष पहले के कलकत्ता यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट होकर भी नरेन्द्र नौकरी नहीं जुटा सके, तब वकालत की पढ़ाई के लिये फ़ीस भर दिया। अपने कमरे में बैठकर पढाई कर रहे थे कि अचानक उनमें भाव का परिवर्तन हो गया। जैसे पढ़ना एक भय का विषय हो, छाती धड़कने लगी। आज के समान ऐसा कभी नहीं रोया। फिर पुस्तक को फेंक दिया और बगीचे की ओर दौड़ पड़ा।  गिरीश चंद्र के भाई ने उन्हें नंगे पैर रास्ते पर जाते देखकर कारण पूछा था। इसके उत्तर में स्वामी जी ने कहा था - ' मेरा मैं मर गया है' (और उसका श्राद्ध ?) 
 श्रीरामकृष्ण साधक की व्याकुलता पर विशेष महत्व देते थे। व्याकुलता के रहने पर उनकी कृपा होती है। "ईश्वर के लिये प्राणो को छटपटाते रहने पर समझना कि अब दर्शन में देरी नहीं है। अरुणोदय के समय जब पूर्व में लाली छा जाती है, तो समझा जाता है कि अब सूर्योदय होगा।  ईश्वर को व्याकुल होकर खोजने पर उनके दर्शन होते हैं, उनसे आलाप भि  होता है, बातचीत होती है, जैसे मैं तुमसे बातचीत कर रहा हूँ। सत्य कहता हूँ, उनके दर्शन होते हैं ! " ज्ञानोदय की प्रेरणा से किस प्रकार व्याकुल होकर वे केवल एक धोती पहने हुए और नंगे पैर किसी उन्मत्त के समान कलकत्ता शहर के रास्ते पर दौड़ते हुए काशीपुर आकर अपने मार्गदर्शक नेता के चरणों में उपस्थित हुए।
श्रीरामकृष्ण कहते हैं - " नरेन्द्र मानो उन्मुक्त तलवार है -अर्थात वैराग्य की दीप्ति से उनका व्यक्तित्व (personality) ज्योतिपूर्ण है ! संसार को सम्पूर्ण रूप से त्याग करना ही होगा। सांसारिकता को मिटाकर ही भ्रममुक्त अवस्था में रहा जा सकता है। लाखों में एक या दो ही ठीक-ठीक त्याग कर सकते हैं। उनके अन्तःकरण में संसार के लिये नाममात्र भी लगाव नहीं है-सबकुछ वैराग्य की अग्नि से भस्मीभूत हो गया है। बहुत समय तक चुप रहने के बाद महिमा से बोले - " उन्हें आममुख्तारी दे दो। संसार-बन्धन टूटना (चैतन्य होना या भ्रममुक्त होना) ईश्वर की करुणा पर निर्भर करता है ! " 
" दुर्योधन ने भी विश्वरूप देखा था, अर्जुन ने भी देखा था। अर्जुन को विश्वास हुआ किन्तु दुर्योधन ने उसे जादू समझा। यदि वे ही न समझायें तो और किसी प्रकार से समझने का उपाय नहीं है। किसी किसी को बिना कुछ देखे सुने ही पूर्ण विश्वास हो जाता है; और किसी को ५० वर्षों तक प्रत्यक्ष सामने रहकर नाना प्रकार की विभूतियाँ देखकर भी सन्देह में पड़े रहना होता है। सारांश यह है कि उनकी कृपा चाहिये, परन्तु लगे रहने से ही उनकी कृपा होती है। " ६/५०  
" यदि तुम पर उनकी कृपा न होती तो तुम यहाँ क्यों आते ? श्रीगुरुदेव कहा करते थे , " जिन पर भगवान की कृपा हुई है, उनको यहाँ अवश्य ही आना पड़ेगा। वे कहीं भी क्यों न रहें, कुछ भी क्यों न करें, यहाँ की बातों से और यहाँ के भावों से उन्हें अवश्य अभिभूत होना होगा। " ६/५१ 
यदि मनुष्य अपने कर्मों को अनुशासित और सुनियोजित कर आन्तरिक सांस्कृतिक विकास को सम्पादित करना चाहता हो; तो उसे अत्याधिक साहस, प्रयोजन का सातत्य, आत्मविश्वास तथा बौद्धिक क्षमता, और भाग्य (अर्थात महापुरुष काआश्रय) की आवश्यकता होती है। गीता १८ /१३ -१४ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि - किसी भी लौकिक अथवा आध्यात्मिक कर्म को सम्पादित करने के लिए पाँच कारणों की अपेक्षा होती है। अधिष्ठान (शरीर), कर्ता, विविध करण (इन्द्रियादि), विविध और पृथक्पृथक् चेष्टाएं तथा पाँचवा हेतु है भाग्य। त्रैय दूर्लभं - भगवन्त दुर्लभ नहीं हैं, किसी महापुरुष का आश्रय मिलना दुर्लभ है। गुरुमुख से नाम सुनकर वेदान्त में उपदिष्ट आत्मज्ञान के होने पर अहंकार का अन्त हो जाता है और उसी के साथ उसके कर्मों की समाप्ति हो जाती है। इसलिए, वेदान्त का विशेषण कृतान्त कहा गया हैं। कृतान्त का अर्थ है कर्मों का अन्त। 
महाभारत के उद्योगपर्व में कौरवों की राजसभा में शान्ति-प्रस्ताव लेकर जाने वाले थे तब अर्जुन ने कहा था -आप चाहें तो शांति स्थापित कर सकते हैं। इसपर भगवान ने कहा था -  मैं यथासाध्य प्रयत्न कर सकता हूँ। परन्तु भाग्य पर मेरा जोर नहीं है। 
दैवे च मानुषे चैव संयुक्तं लोककारणम् ।। 
देवं तु न मया शक्यं कर्म कर्तुं कथंचन ।।
"उपजाऊ जमीन जोत कर बीज बो देने के बावजूद जबतक वर्षा न हो, पैदावार नहीं हो सकती है। सिंचाई की व्यवस्था होने से भी किसी न किसी कारण जमीन सूख सकती है। प्राचीन ऋषियों का कहना है - समय आये बिना कुछ नहीं होता। कार्य-सिद्धि के लिये भाग्य और उद्द्यम दोनों आवश्यक हैं।  
[कोन्नगर के सुभाष के साथ एक पानवाला आता था, वो मुझे तांत्रिक ग्रुप का आदमी लगता था, दादा के पास जाकर उन्हें पान देते और नाश्ता देते देखा तो मेरे मन आशंका हुई थी किन्तु दादा को उसमें भी कोई दोष नजर नहीं आता था ?] 
श्रीरामकृष्ण परमहंस देव में वह गुरु-शक्ति या आध्यात्मिक शक्ति विद्यमान थी जिसे वे किसी योग्य आधार का चयन कर के, उसके भीतर संचारित कर सकते थे। और उस आध्यात्मिक शक्ति से वह निर्वाचित नेता स्वयं भ्रममुक्त लोकशिक्षक बनकर दूसरों को भी भ्रममुक्त करने में समर्थ लोकशिक्षक या नेता बन जाता था । वे आशीर्वाद देते समय यदि केवल " तुम्हें चैतन्य हो " बोलकर  किसी को स्पर्श कर देते थे, तो उसी क्षण उसे निर्विकल्प समाधि का लाभ होकर सभी संशयों से सदा के लिए मुक्त हो जाता था। उसे मोक्ष मिल जाता था, अर्थात वह भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता था। इसीलिये उन्हें जगतगुरु श्रीरामकृष्ण कहा जाता है। उनके आगमन के फलस्वरूप इस देश का पुनर्जागरण हुआ, हताश और भूले-भटके भारतवासी फिर से स्वधर्म और आत्मविश्वास को प्राप्त करने में समर्थ हुए। देश प्रगति के रास्ते आगे बढ़ा।
अतः प्रत्येक भावी लोकशिक्षक 'वुड बी लीडर्स ' को हिन्दू, मुसलमान और ईसाई बनने के पहले एक उत्तम मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने वाली ' BE AND MAKE-शिक्षापद्धति में प्रशिक्षित होकर चरित्रवान मनुष्य या पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य बनने और बनाने वाले महामण्डल आन्दोलन का निष्ठवान कर्मी बनना चाहिये। श्रीरामकृष्णदेव ने इसी वुड बी लीडर्स या भावी लोकशिक्षकों को जीवन-गठन का प्रशिक्षण 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लोकशिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' (गुरु-शिष्य लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन) में प्रदान करने में समर्थ प्रथम युवा नेता (लोकशिक्षक) के रूप नरेन्द्रनाथ को निर्वाचित किया था। यही रामकृष्ण महिमा का वह गतिशील हिस्सा था (Dynamic Part of the Mission) जिस हिस्से का लीडरशिप और 'श्री रामकृष्ण पताका' (Main Standard-Bearer सैन्य परेडों में यूनिट का मुख्य मानक-ध्वज)  का संवहन करने के लिये उन्होंने नरेन्द्रनाथ को निर्वाचित किया था।
[बुद्धदेव के ध्यान में विभोर नरेन्द्रनाथ, एक दिन तारक और कालीप्रसाद के साथ चुपचाप बोधगया पहुँच गए। भगवान बुद्ध ने जिस बोधिवृक्ष के नीचे जन्म-जरा-व्याधि-मृत्यु से प्रताड़ित जीवों ' पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे-साक्षात् ब्रह्म को रोता हुआ देखकर ' उनके दुखों का निवारण करने का उपाय खोजते खोजते स्वयं समाधिमग्न होकर निर्वाण प्राप्त किया था; उसी पवित्र प्रस्तरासन पर नरेन्द्रनाथ ध्यानस्थ हुए। (एक दिन मेरे और प्रमोद दा के सामने नवनी दा भी ध्यानस्थ हुए थे, उनके नेत्र बन्द थे पर जब अश्रुकी धार बहने लगी तो उठ गए। गुरु खोजने के लिए १९८६ के कुम्भ मेला जाने और वहाँ से लौटने के बाद जिस प्रकार मैंने दीक्षा का फॉर्म भर दिया था..... उसीप्रकार ) बुद्धगया से लौटकर नरेन्द्रनाथ मानो यह समझ सके कि एथेंस का सत्यार्थी जिस अतृप्त पिपासा (खतरनाक सत्य को जानने) से कातर होकर वे इधर-उधर दौड़धूप कर रहे हैं, वह एकमात्र श्रीरामकृष्ण (अवतार- गुरु- नेता स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज के मंत्र और नवनी दा या माँ सारदा) की कृपा के बिना किसी तरह तृप्त नहीं हो सकती। वि० च० पृ ७१]  
साधनापथ में काफी दूर अग्रसर होने के बाद नरेन्द्रनाथ अन्त में यह समझे कि निर्विकल्प-समाधि के प्राप्ति बिना उनकी यह हृदय को सोख लेने वाली आध्यात्मिक पिपासा शान्त नहीं होने की। दिन पर दिन बीतते गए, पर पूर्ण उद्यम के साथ प्रयत्न करने पर भी उनकी इच्छा पूर्ण न हुई। गम्भीर रात्रि है, आज नरेन्द्रनाथ संकल्प करके आये है कि जिस उपाय से हो, वे निर्विकल्प समाधि लेकर रहेंगे। जिस नरेन्द्र ने कुछ वर्ष पूर्व वेदान्त शास्त्रों का अध्यन करने से इंकार करते हुए कहा था -" जिस ग्रन्थ में में मनुष्य को भगवान कहने की शिक्षा दी गयी है, उसे पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। " आज वही नरेन्द्रनाथ वेदोक्त सर्वोच्च अनुभूति पाने के लिए लालायित है। सुदीर्घ छः वर्षों तक उन्होंने गुरुदेव श्रीरामकृष्ण के साथ और अपनी अन्तःप्रकृति के साथ कैसा अविराम संग्राम किया ! श्रीरामकृष्ण सस्नेह उसकी ओर ताकते हुए बोले , " नरेन्द्र, तू क्या चाहता है ? उपयुक्त अवसर समझकर नरेन्द्रनाथ ने उत्तर दिया , " शुकदेव की तरह निर्विकल्प समाधि के द्वारा सदैव सच्चिदानन्द -सागर में डूबे रहना चाहता हूँ। " 
श्री रामकृष्ण -" बार बार यही बात कहते तुझे लज्जा नहीं आती ? समय आने पर कहाँ तू वटवृक्ष की तरह बढ़कर सैकड़ों लोगों को शांति की छाया देगा, और कहाँ आज अपनी ही मुक्ति के लिए व्यस्त हो उठा है ? इतना क्षुद्र आदर्श है तेरा ? " 
नरेन्द्र की विशाल आँखों में आँसू आ गए। वे अभिमान के साथ कहने लगे , "निर्विकल्प समाधि न होते तक मेरा मन किसी भी तरह शांत नहीं होने का और यदि वह न हुआ तो मैं वह सब कुछ न कर सकूँगा। " 
" तू क्या अपनी इच्छा से करेगा ? जगदम्बा तेरी गर्दन पकड़ कर करा लेगी। तू न करे ? -तेरी हड्डियाँ करेंगी। " श्रीरामकृष्ण ने अंत में कहा, ' अच्छा जा, निर्विकल्पसमाधि होगी। " 
एक दिन सायंकाल ध्यान करते करते नरेन्द्रनाथ अप्रत्याशित रूप से निर्विकल्प समाधि में डूब गए। इन्द्रियप्रत्यक्ष द्वैतप्रपंच मानो महाशून्य में विलीन हो गया। टाईम-स्पेस-कॉजेशन से परे अवस्थित निज-बोध-स्वरूप आत्मा अपनी महिमा में स्थित हुई। काफी देर बाद उनकी समाधि भंग हुई। उन्होंने अनुभव किया कि उनका मन उस स्थिति में परमानन्द में डूबा रहने पर भी , कोई अलौकिक शक्ति उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध, जबरदस्ती पंचेन्द्रीय बाह्य जगत में उतारकर ला रही है। अनुभव किया -"बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय कर्म करूँगा। अपरोक्षानुभूति द्वारा उपलब्ध सत्य का प्रचार करूँगा। " ---इसी महती कामना का सूत्र पकड़ कर उनका मन निर्विकल्प स्थिति से लौट आया।  उन्होंने अनुभव किया जन्म-जरा-व्याधि-मृत्यु के दुःख और दैन्य से पीड़ित, मोह-भ्रान्त, स्वयं को भेंड़ समझने वाले 'हिप्नोटाइज्ड सिंह-शावकों ' को स्वयं ज्ञानामृत से परितृप्त होकर (अपने यथार्थ स्वरूप में स्थित 'BE' होकर) उस अमृत का पान कराने के लिये भारत के प्राचीन ऋषियों की तरह उन्हें भी मेघ-गंभीर स्वर से पुकारना होगा -  
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः ।

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् ।

तमेव विदित्वाSति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । 

-' हे विश्ववासी अमृतपुरुषों के पुत्रगण, हे दिव्यधाम निवासी देवतागण, सुनो -मैंने आदित्य समान दैदीप्यमान उस महान पुरुष को जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार के परे है। केवल उसे जानकर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त मृत्युंजय होने का अन्य कोई मार्ग नहीं।' (श्वेताश्वत्तरोपनिषद्-२/५ , ३/८)  

आज नरेन्द्र के हृदय की सारी अशान्ति और आकांक्षाओं का अन्त हो गया। उनका मुखमण्डल ब्रह्मवेत्ता मनुष्य (ब्रह्मविद) की तरह दिव्य ज्योति से उद्भासित हो उठा। श्रीरामकृष्ण ने हँसते हुए कहा - " तो फिर अभी के लिये ताला बन्द रहा, कुंजी मेरे हाथ में है। काम समाप्त होने पर- फिर खोल दिया जायेगा। नरेन्द्र के युवा मित्रों के आनन्द का ठिकाना नहीं था। उधर श्रीरामकृष्ण माँ काली के पास कातर होकर प्रार्थना करने लगे, " माँ, नरेन्द्र की अद्वैत अनुभूति को तू मायाशक्ति के द्वारा ढक कर रख। माँ, अभी तो मुझे उससे अनेक काम कराने हैं। " 

श्रीरामकृष्ण कहा करते थे - " सोने में मिलावट के बिना उससे गहना नहीं बनता। " उस समय कच्चा मैंपन नहीं रहता, 'पक्का मैं' -अर्थात मैं प्रभु का दास हूँ, उनकी लीला का सहयक हूँ। ऐसा मैंपन रखना ही पड़ता है !
 नेता की मानसिक अवस्था : २५ दिसंबर १८९२ का दिन था। स्वामी विवेकानंद भारत माता की तत्कालीन दशा से अत्यधिक क्षुब्ध और व्यथित थे। उन्हें बहुत पीड़ा हो रही थी।  ईश्वर से बस यही जानना चाहते कि पुण्यभूमि भारत का पुनः उत्थान कैसे हो ? उस समय वे तमिलनाडु के दक्षिणी छोर पर कन्याकुमारी में थे। अभीप्सा की प्रचंड अग्नि उनके ह्रदय में जल रही थी। उनसे और रहा नहीं गया और उन्होंने समुद्र में छलांग लगा ली और प्राणों की बाजी लगाकर उथल पुथल भरे समुद्र की लहरों में तैरते हुए दूर एक बड़े शिलाखंड पर चढ़ गए। उनके ह्रदय में बस एक ही भाव था कि भारत का उत्थान कैसे हो ! उस शिलाखंड पर तीन दिन और तीन रात वे समाधिस्थ रहे। उसके बाद उन्हें ईश्वर से मार्गदर्शन मिला और उनका कार्य आरम्भ हुआ। 
 भारत का भविष्य सनातन धर्म पर निर्भर है, पूरी पृथ्वी का भविष्य भारत के भविष्य पर निर्भर है, और पूरी सृष्टि का भविष्य पृथ्वी के भविष्य पर निर्भर है। भारत के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद से समस्त सृष्टि का कल्याण होगा क्योंकि इससे सनातन धर्म की पुनर्स्थापना और प्रतिष्ठा होगी। भारत में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का अभ्युदय नहीं हुआ तो पूरी मानवता ही अन्धकार में चली जायेगी। भगवान कभी भी नहीं चाहेंगे की ऐसा हो अतः वे निश्चित रूप से भारत की रक्षा करेंगे। आध्यात्मिक राष्ट्रवाद ही भारत का भविष्य है। 
यह संसार एक ऐसी विचित्र लीला है जिसे समझना बुद्धि की क्षमता से परे है। सभी प्राणी परमात्मा के ही अंश हैं, और परमात्मा ही कर्ता है। परमात्मा के संकल्प से सृष्टि बनी है अतः वे सब कर्मफलों से परे हैं। पर अपनी संतानों के माध्यम से वे ही उनके फलों को भी भुगत रहे हैं। हम कर्म फलों को भोगने के लिए अपने अहंकार और ममत्व के कारण बाध्य हैं। माया के बंधन शाश्वत नहीं हैं, उनकी कृपा से एक न एक दिन वे भी टूट जायेंगे।  वे आशुतोष हैं, प्रेम और कृपा करना उनका स्वभाव है। वे अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते। जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है। उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता| प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है।  वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है।  प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं। 
परमात्मा के पास सब कुछ है पर एक ही चीज की कमी है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं, और वह है ..... हमारा प्रेम। कभी न कभी तो हमारे प्रेम में भी पूर्णता आएगी, और कृपा कर के हमसे वे हमारा समर्पण भी करवा लेंगे। कोई भी पिता अपने पुत्र के बिना सुखी नहीं रह सकता। जितनी पीड़ा हमें उनसे वियोग की है, उससे अधिक पीड़ा उनको भी है। वे भी हमारे बिना नहीं रह सकते।  हमारा भी एकमात्र सम्बन्ध परमात्मा से ही है। हम एक-दूसरे के रूप में स्वयं से ही विभिन्न रूपों में मिलते रहते हैं। एकमात्र "मैं" ही हूँ, दूसरा अन्य कोई नहीं है| अन्य सब प्राणी मेरे ही प्रतिविम्ब हैं। एक न एक दिन तो वे आयेंगे ही अवश्य आयेंगे। हे परम प्रिय प्रभु, हमारे प्रेम में पूर्णता दो, हमारी कमियों को दूर करो। अज्ञानता में किये गए कर्मों के फलों से मुक्त करो। ॐ ॐ ॐ।[साभार http://yogodaya.blogspot.in] 
विष्णु सहस्र नाम में भगवान विष्णु का एक नाम है नेता।  इसलिये नेता या लोक-शिक्षक को संसार के रुप-रस आदि सभी भोग्य पदार्थों " लस्ट और लूकर " की आसक्ति से दूर रहना पड़ता है। तुलसीदास जी ने अपने भक्ति-सिद्धान्त में कहा है–
जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम । 
तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम ।।  
 "काम" (घोर-स्वार्थपरता, ०% निःस्वार्थपरता ही पशुता है) और "राम" (१००% निःस्वार्थपरता) दोनों विपरीत बिंदु हैं। यह जीवन काम (वासना-स्वार्थपरता) और राम (परमात्मा-निःस्वार्थपरता ) के मध्य की यात्रा है।  जिस प्रकार सूर्य और रात्री एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही काम और राम एक साथ नहीं रह सकते। 
सबसे बड़ा पाश जिसने हमें पशु बना रखा है वह है ..... "लस्ट और लूकर" में घोर आसक्ति। परमात्मा (पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य) बन जाने के मार्ग में काम-वासना सबसे बड़ी बाधा है। कामजयी ही राम को पा सकता है। "मन-जीता जगजीत" अर्थात जिसने काम को जीता, उसने जगत को जीता। ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा तप है, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं।  मनुष्य जीवन की सार्थकता भेड़ बकरी की तरह अंधानुक़रण करने में नहीं है, अपितु सत्य का अनुसंधान करने और उसके साथ डटे रहने में है। 
जहाँ कामवासना है, वहाँ पराभक्ति, ब्रहम चिन्तन या ध्यान साधना की कोई संभावना ही नहीं है।  वहाँ वैराग्य और मोक्ष की कामना बालू मिट्टी में से तेल निकालने के प्रयास जैसी ही है। कामुक व्यक्ति को न तो शान्ति मिल सकती है और न सन्तोष।  वह कभी दृढ़ निश्चयी नहीं हो सकता।  उसकी सारी साधनाएँ व्यर्थ जाती हैं।  वह कभी आत्मानुभूति या परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। 
विवेक-प्रयोग : मेरुदण्ड में तीन प्रमुख नाडियाँ हैं-सुषुम्ना (बोधिनी अथवा प्राणतोषिणी सरस्वती), इडा (गंगा) और पिंगला (यमुना) जो सत्, रज और तम की भी सूचक हैं। योगी त्रिवेणी से मानसिक स्नान करते हैं। मेरुदण्ड जीवन का परिचालक, पोषक एवं धारक होता है। मानव-देह में मेरुदण्ड के अधोभाग में स्थित मूलाधार चक्र में अनन्त शक्ति (सूक्ष्म नाड़ी तन्तुरुप) कुण्डली लगाये हुए सर्प की आकृति में स्थित है। मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में वासनाएँ नीचे के तीन चक्रों में रहती हैं।  गुरु का स्थान आज्ञाचक्र ओर सहस्त्रार के मध्य है।  परमात्मा की अनुभूति सहस्त्रार से भी ऊपर होती है। साधक को ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि और रूद्रग्रंथि का भेदन करना पड़ता है।  मणिपूर चक्र के नीचे ब्रह्म ग्रन्थि, वहाँ से विशुद्धि चक्र तक विष्णु ग्रन्थि, तथा उससे ऊपर रुद्र ग्रन्थि है। दुर्गासप्तशती में भी असुर वध ..... ह्रदय ग्रंथि भेदन का ही प्रतीक है।  स्पष्ट है कि ग्रन्थिभेदन अत्यंत महत्वपूर्ण है।  ह्रदय कहाँ है ? .....जो योग मार्ग के साधक हैं उनके चैतन्य में ह्रदय का केंद्र भौतिक ह्रदय न रहकर, आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य हो जाता है। आधुनिक युग में हमारे ह्रदय के एकमात्र राजा भगवान श्रीरामकृष्ण देव हैं। उन्होंने ही सदा हमारी ह्रदय भूमि पर दशावतार के विभिन्न रूपों में राज्य किया है, कभी राम बनकर तो कभी कृष्ण बनकर। और सदा वे ही हमारे राजा रहेंगे। अन्य कोई हमारा राजा नहीं हो सकता। वे ही हमारे परम ब्रह्म हैं। 
हमारे ह्रदय की एकमात्र महारानी, ब्रह्म की शक्ति माँ सारदा देवी (सीता जी) हैं। वे हमारे ह्रदय की अहैतुकी परम प्रेम रूपा भक्ति हैं। वे ही हमारी गति हैं।  वे ही सब भेदों को नष्ट कर हमें श्रीरामकृष्ण परमहंस से मिला सकती हैं| अन्य किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं है।  परमात्मा प्रदत्त विवेक (स्वामी विवेकानन्द) हमें प्राप्त है।  उस विवेक के प्रकाश में ही उचित निर्णय लेकर सारे कार्य करने चाहिएँ। वह विवेक ही हमें एक-दुसरे की पहिचान कराएगा और यह विवेक ही बताएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। 
जीवन एक ऊर्ध्वगामी और सतत विस्तृत प्रवाह है कोई जड़ बंधन नहीं। इन सब पाशों से मुक्त होकर अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित होना ही "मुक्ति" है, और उपरोक्त पाशों से से मुक्त होना ही "ज्ञान" है। जो इन पाशों से मुक्त है वही वास्तविक "ज्ञानी" है। जो विद्या हमें इस मार्ग पर ले चलती है वही "पराविद्या" है और जो उसका उपदेश देकर हमें साथ ले चलता है वही "सद्गगुरु" है, अर्थात मानवजाति का मार्गदर्शक नेता या लोकशिक्षक है।  श्रीरामकृष्ण का अपना जीवन इस भक्ति-सिद्धान्त का सबसे उत्तम उदाहरण है। 
श्रीरामकृष्ण माँ भवतारिणी की उपासना करते समय अपने शारीरिक सुख-दुःख और रूप-रस आदि बाह्य विषयों को भूलकर, केवल आदर्श (अभीष्ट विषय) के ऊपर ही  मन को निरन्तर  एकाग्र रखने का  इतना अभ्यास हो गया था कि,  थोड़ा प्रयत्न करने से ही वे अपने मन को सभी विषयों से खींच कर किसी भी इष्ट विषय प्रविष्ट करके उसमें तन्मय होकर आनन्द का अनुभव करते थे।
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