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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का जीवन और अमृतमय वचन

तव कथा अमृतं...............
भगवान श्री रामकृष्ण को अवतारवरिष्ठ इसीलिए कहा जाता है कि उन्होंने सभी धर्मों की साधनाएं की हैं।उनका स्पष्ट एवं निश्चित मत था कि ‘सब मार्गों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म सत्य हैं। हिन्दू धर्म में जन्मा कोई व्यक्ति कैसे एक सच्चा हिन्दू बन सकता है, इस्लाम धर्म में जन्मा कोई व्यक्ति कैसे सच्चा मुसलमान बन जाता है, और किसी  ईसाई परिवार में जन्मा व्यक्ति कैसे सही अर्थों में प्रभु ईसा मसीह का अनुयायी बन सकता है। आज जब धर्म एवं सम्प्रदाय के नाम पर समूचा समाज, राष्ट्र एवं विश्व घृणा, विद्वेष एवं आतंक के दावानल में धधक रहा है, उनका सर्वधर्म-समन्वय का संदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है।’ 
अतः हम कह सकते हैं कि श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का जीवन धर्म की एक प्रयोगशाला है। उन्होंने बिल्कुल एक वैज्ञानिक जैसी मानसिकता के साथ भारत में प्रचलित समस्त सारे धर्म, मत और सम्प्रदाय में निर्दिष्ट विभिन्न साधना पद्धतियों का अभ्यास करके देखा था। और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि विभिन्न धर्मों की साधना पद्धतियाँ तो भिन्न-भिन्न हैं, किन्तु सभी धर्मों के भीतर एक ही ईश्वर का वर्णन है, तथा सभी धर्मों का उद्देश्य और गन्तव्य स्थान एक ही है। "जिस प्रकार एक ही जल को कोई 'वारि' कहता है और कोई 'पानी', कोई 'वाटर' कहता है, तो कोई 'ऐक्वा', उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द को देशभेद के अनुसार कोई 'श्रीहरि' कहता है, तो कोई 'अल्लाह', कोई 'गॉड' कहता है, तो कोई ब्रह्म। "
 इसलिए न तो कोई धर्म सबसे अच्छा है और न कोई धर्म बुरा है। विभिन्न नाम वाले धर्म तो एक ही वस्तु ईश्वर, अल्ला या गॉड तक पहुँचने के केवल विविध साधन मात्र हैं, वह साध्य कदापि नहीं हो सकता। अतः एक धर्म के अनुयायी का दूसरे से द्वेष करना या बलपूर्वक धर्म का प्रचार करना, या धर्मान्तरण की चेष्टा करना निरर्थक है। बहुत से लोगों ने कहा था, सभी धर्म सच हैं; लेकिन वह केवल मुख से कहने की बात थी—उनका अपना अनुभव नहीं था। किन्तु ठाकुर श्रीरामकृष्णदेव ने अपने जीवन को ही अध्यात्म की प्रयोगशाला बनाकर यह सिद्ध किया था कि कैसे सभी धर्मों से एक ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है। मनुष्य—जाति के इतिहास में वे अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने सभी धर्मों के मार्ग से सत्य तक जाने की चेष्टा की। आमतौर पर जब कोई व्यक्ति किसी एक योगमार्ग से लक्ष्य तक पहुंच जाता है- 'ब्रह्म' को जान लेता है या आत्मसाक्षात्कार कर लेता है; तब फिर वह दूसरे योग-मार्गों की साधना करना आवश्यक नहीं समझता!परमहंसदेव ही पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने सभी धर्मों की साधना की और सभी धर्मों से उसी शिखर को पा लिया। सर्वधर्म समन्वय की बात बहुत से लोग कहते थे, किन्तु श्री रामकृष्ण ने ही सर्व-प्रथम धर्म-समन्वय का विज्ञान निर्मित किया। रामकृष्ण ने उस मार्ग को तथ्य बनाया; उस मार्ग की साधना के अनुभव पर बल दिया; अपने जीवन से प्रमाणित किया। जैसे कोई व्यक्ति सीमेन्ट की सीढ़ियों से चढ़ कर पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाये; तो फिर दूसरी पगडंडियों से भी उसी चोटी पर चढ़ा जा सकता है, या नहीं ?  इस बात की फ़िक्र उसे क्यों होनी चाहिये ? दूसरे मार्ग वाले भी वहीँ पहुँचते हैं, इस बात की फ़िक्र साधारण नेता लोग नहीं करते हैं— मैं तो पहुंच ही गया! जो पक्की सीढ़ी (वेदान्त के चार महावाक्य), मुझे चोटी तक ले आई, ले आई ! बाकी कच्ची सीढियाँ लाती हों न लाती हों, उसको जानने का प्रयोजन किसे होता है ? जिसको माँ जगदम्बा जगतगुरु बनाने के लिये ही लायी थीं उन अवतारवरिष्ठ श्री रामकृष्ण जगतगुरु को सभी प्रमुख मार्गों को जानने का प्रयोजन था-क्योंकि विश्व के धर्म भी सेक्टेरियन हो गए थे, और सभी का दावा था कि केवल 'मेरा मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ मार्ग' है। इसीलिये वे विभिन्न योग-मार्गों के सहारे बार—बार पहाड़ की चोटी पर पहुंचे, फिर—फिर नीचे उतर आये। फिर दूसरे मार्ग से चढ़े। फिर तीसरे मार्ग से चढ़े। 

जब वे इस्लाम की साधना करते थे तो वे ठीक मुसलमान फकीर हो गये। वे काली -काली कहना भूल गये; नमाज पढ़ने लगे, अल्लाह के ९९ नामों का जप  करन लगे; कुरान की आयतें सुनने लगे। एक मस्जिद के द्वार पर ही पड़े रहते थे। मंदिर के पास से निकल जाते, उधर आंख भी न उठाते। छह महीने तक उन्होंने सखी—संप्रदाय के राधा भाव की साधना की थी। एक मान्यता कि मैं स्त्री हूं—यह मान्यता इतनी प्रगाढ़ता से की गई, यह भाव इतने गहरे तक गुंजाया गया, यह रोएं—रोएं में, कण—कण में शरीर के गुंजने लगा कि मैं स्त्री हूं! इसका विपरीत भाव न रहा। पुरुष की बात ही भूल गई। तो घटना घट गई।(शरीर का पुरुष—ढांचा बदलने लगा। उनके शरीर में स्त्रियों के शरीर जैसा परिवर्तन परिलक्षित होने लगा।उनकी आवाज बदल गई; वे स्त्रियों जैसे चलने लगे, स्त्रियों जैसी उनकी मधुर वाणी हो गई। स्तन उभर आये! ) गीता ४.११ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ' उपासना के सारे रास्ते अन्ततोगत्वा मुझी में आकर मिल जाते हैं!' यह श्रीकृष्ण की बड़ी उदार वाणी है। यही उदार भाव सनातन धर्म की अपनी विशेषता है। सारे देवी-देवता (M/F) उसी एक नारायण के ही विभन्न स्वरुप हैं, इस लिये उन सबकी अर्चना प्रकारान्तर से नारायण की ही अर्चना है। सारतत्व यह है कि साधक अपने मनोनुकूल चाहे जिस रास्ते से भी क्यों न चलें, अन्त में वह उसी एक भगवान (ब्रह्म-अल्ला-गॉड) के पास पहुँच जाता है! (अर्थात उनके साथ अन्तरङ्गता स्थापित कर लेता है।) कहा भी गया है- 'आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्।सर्व देव नमस्कारः केशवं प्रति गच्छति॥आकाश से गिरा हुआ पानी जैसे समुद्र में जाता है, उसी प्रकार किसी भी देवता को किया गया नमस्कार श्रीहरि को ही जाता है। (केशव =ब्रह्मा,विष्णु और महेश को 'केश' कहा जाता है, और इनका जो प्रशासक है वह परमात्मा ही केशव है,आधुनिक युग में विवेकानन्द के गुरु ब्रह्म के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ही केशव हैं,उनको ही जाता है।) इस बार श्रीहरि ने श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतरित होकर इसी सिद्धान्त को अपने जीवन में जीया। उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म सहित विश्व के सभी प्रमुख धर्मों के माध्यम से, ईश्वर को पाने की साधना की और अपनी साधनाओं में सफल भी रहे। उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया कि सारे धर्म, मत और सम्प्रदाय उसी एक ईश्वर के पास जाने के अलग-अलग रास्ते हैं। और अपनी इसी अनुभूति को वाणी देते हुए कहा - 'जितने मत उतने पथ।' श्रीरामकृष्ण का जीवन 'एकं सद-विप्राः बहुधा वदन्ति' की व्याख्या स्वरूप था। इस मंत्र का अर्थ है -'सत्य एक है, ज्ञानीजन उसी एक सत्य को अलग-अलग नाम से पुकारते हैं। 'लार्ड मेकाले ने भारत के जिस शिक्षा तन्त्र को (गुरु-शिष्य परम्परा में नेतृत्व प्रशिक्षण पद्धति को) तोड़ने का प्रयास किया था, श्री रामकृष्ण देव जी ने उसी गीता -उपनिषद पर आधारित अचिन्त्य-भेदाभेद वेदान्त" शिक्षा तंत्र " या लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा को पुन: स्थापित किया। इसीलिये मैक्समूलर ने लिखा है-’यदि श्रीरामकृष्ण न आते तो वेद-शास्त्र आदि अप्रमाणित रह जाते।’ प्रसिद्ध विद्वान रोमाँ रोलाँ श्रीरामकृष्णदेव को ईसामसीह का कनिष्ठ भ्राता कहकर बड़ा सम्मान देते हैं। प्रख्यात् इतिहासकार आर्नोल्ड टायनवी मानते हैं कि श्रीरामकृष्ण का आविर्भाव ठीक उस स्थान और समय पर हुआ, जब उनके संदेश की आवश्यकता थी। उनके अनुभूत धर्म को वे मानवता की रक्षा करने वाली अद्वितीय शक्ति बताते हैं। 

क्रिस्टाँफर ईशरवूड की अनुभूति तो और भी गहरी है। श्री ठाकुर से अविभूत होकर वे कहते हैं-’मैं तो श्रीरामकृष्ण का उपासक हूँ और जैसा कि उनके शिष्य मानते हैं, वे पृथ्वी पर ईश्वर के वरिष्टतम अवतार थे।’रूसी विद्वान् निकोलस रोरिक के शब्दों में-’विश्व के सभी भागों में श्रीरामकृष्ण का नाम आदर से लिया जाता है।’ टॉलस्टाय भी अपने जीवन के अंतिम दशक में श्रीरामकृष्ण एवं विवेकानन्द के विचारों से संपर्क में आये और उनसे गहरी आत्मीयता व्यक्त किये। महर्षि अरविन्द लिखते हैं-’जब नास्तिकता अपने चरम पर पहुँची, तब समय आ गया था कि आध्यात्मिकता आग्रहपूर्वक स्वयं को स्थापित करे। और यह सिद्ध करे कि जगत् का यथार्थ - और कुछ नहीं, आत्मा की ही अभिव्यक्ति है।माँ जगदम्बा के पुत्र और आधुनिक युग में सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक नेता -श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव द्वारा बताये, इसी 'सर्वधर्म-समन्वय' या 'धार्मिक -अविरोध' मार्ग पर चलने से ही, वेदान्त सूत्र - ‘एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति’ के आधार पर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की सनातन परिकल्पना को मूर्त रूप दिया जा सकता है। तथा एक सार्वभौम धर्म, अर्थात 'सार्वभौमिक चरित्रगठन और मनुष्य-निर्माण' की सशक्त आधार- शिला - 'BE AND MAKE', 'मनुष्य बनो और बनाओ' को एक वैश्विक आंदोलन का रूप देने से ही भारत की सनातन संस्कृति की गौरव-गरिमा को भी पुनः प्रतिष्ठित किया जा सकता है। किन्तु इस चिरत्र-निर्माणकारी और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार का प्रारम्भ सर्वप्रथम भारतवर्ष में ही करना होगा -क्योंकि विश्वगुरु बनना ही माँ जगदम्बा द्वारा निर्धारित भारतवर्ष की नियति है।

इसीलिये नवगोपाल घोष के नवनिर्मित गृह में स्वामी विवेकानन्द जी ने श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के अमेरिका से लाये गए चित्र को आधुनिक युग के अवतार (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) के रूप में अपने हाथों से प्रतिष्ठित करते समय निम्नलिखित प्रणाम मंत्र की स्वतःस्फूर्त रचना की थी -ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे।  अवतारवरिष्ठाय   रामकृष्णाय ते  नमः।। अर्थ : सार्वभौमिक धर्म अर्थात वैश्विक मानव-चरित्र के मूर्तमान विग्रह, लोक जीवन मे खोये हुए धर्म अर्थात खोये हुए चरित्र को पुन: स्थापित करने वाले समस्त अवतारों (माँ काली से भावमुख रहने के चपरास प्राप्त समस्त लोक-शिक्षकों) में एक अवतारवरिष्ठ जगतगुरु (श्रेष्ठतम लोकशिक्षक) श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को मेरा नमस्कार है। स्वामीजी के द्वारा परमहंसदेव के लिये दिये गये इस 'अवतारवरिष्ठ' विशेषण को सुनने से मन में कुछ प्रश्न उठने शुरू हो जाते हैं, जो बिल्कुल स्वाभाविक हैं।  क्योंकि पहले हमने तो स्वयं ठाकुदेव के अमृतमय वचनों मुख में सुना है कि सारे धर्म समान हैं,आदि आदि ! सभी धर्मों के अनुयायी स्वयं को किसी न किसी महापुरुष, 'अवतार', ईश्वर के दूत या पैगंबर के अनुयायी मानते हैं। अब यदि उन सबों के बीच केवल श्रीरामकृष्णदेव के लिए 'अवतारवरिष्ठ' का विशेषण लगा दिया जाय, तो अन्य सभी धर्मों या सम्प्रदायों के अनुयायियों के मन में इस प्रकार का प्रश्न, तर्क या सन्देह का उठना स्वाभाविक है कि; क्या -राम, कृष्ण, बुद्ध, की तरह - स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव भी सचमुच भगवान ही हैं ? 

पहले हमलोग यह देखें कि 'भगवान' कहने से हमलोग क्या समझते हैं ? आमतौर से हमलोग भगवान को सबसे महान और सर्वशक्तिमान समझते हैं, जो  इच्छामात्र से सब कुछ कर सकते है। वे ही इस विश्व-ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। उनको ही कोई ईश्वर, कोई गॉड तो कोई अल्ला कहते हैं। गीता ४/७ में भगवान ने स्वयं कहा है -यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम।। --हे भारत (अर्जुन), जब जब धर्म की कमी और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं, संसार के कल्याण का संकल्प लेकर अपनी त्रिगुणात्मिका माया की सहायता से 'तदा आत्मानं सृजामि अहं ' मैं अपने को सृष्ट करता हूँ; अर्थात मनुष्य-देह धारण कर संसार में आविर्भूत होता हूँ! जीव-जगत के कल्याण के लिये उसी सर्वशक्तिमान भगवान का मनुष्यदेह धारण कर के आविर्भूत होना संसार के आध्यात्मिक इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना मानी जाती है। काल के प्रभाव से जब संसार पाप के भार से आक्रान्त हो जाता है, तब वे मानो अपने कर्तव्य पालन करने के उद्देश्य से धर्म की ग्लानि दूर करने के लिए संसार में अवतीर्ण होते हैं। और धर्म के संस्थापन में जो-जो विघ्न सामने आते हैं, वे उन्हें विभिन्न प्रकार से दूर करके धर्म के प्रवाह को बाधा-रहित कर देते हैं। प्रत्येक युग में ऐसा ही होता आया है, जिसकी अनेकों कहानियाँ हमलोगों ने सुनी हैं । किन्तु हमे ऐसा नहीं मान लेना चाहिये कि प्रत्येक युग में धर्म-संस्थापन का कार्य केवल (राक्षसों य़ा) पापियों का वध कर के ही करना पड़ता है। इस बात को श्रीभगवान बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, कि किस युग में किस उपाय से धर्म को संस्थापित करना होगा ? इसलिये प्रत्येक अवतार के धर्मसंस्थापन की पद्धति विभिन्न प्रकार की होती है, -देश, काल और प्रयोजन के अनुसार कार्य-प्रणाली बदल जाति है। 

जिस देश और धर्म में अभी तक जितने भी अवतारों (पैगंबरों/या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं)ने जन्म लिया है, समस्त अवतारों में उसी एक ईश्वर (सत्य नारायण) का अवतरण हुआ है। उनके नाम-रूप और लीला मात्र में भिन्नता है। जिस युग में और जिस स्थान में जिस प्रकार की लीला दिखाना आवश्यक होता है, उस समय एक अवतार आकर वही कार्य करते हैं। ईश्वर के प्रत्येक अवतारों में समस्त कार्यों को करने की शक्ति रहती है, किन्तु समस्त अवतारों के लिए एक ही जैसे कार्यों को कार्य करने की आवश्यकता नहीं होती है।हमलोग इस बात को रंगमंच के दृष्टान्त से अच्छी तरह समझ सकते हैं। हमलोग जानते हैं कि किसी नाट्यरचना (drama) के मंचन में में कई तरह के अभिनेताओं की आवश्यकता होती है। मानलें कि कोई मंजा हुआ अभिनेता केवल कमेडियन (विदूषक) की भूमिका ही निभाता है। पर यदि निर्देशक (director) उसको राजा की, या शिवजी की या अर्जुन के जैसा वेश बनाकर एक्टिंग करने को कहे -तो क्या वह उस भूमिका को नहीं कर सकेगा ? कर सकता है, किन्तु इस कमेडियन का अभिनय करने में, उस सब पात्रों का अभिनय करना तुम्हारे लिए आवश्यक नहीं होती।  उसी प्रकार सर्वशक्तिमान नारायण जिस अवतार में जो कार्य करना आवश्यक होता है, वही सब कार्य करते हैं। किन्तु इस रामकृष्ण-अवतार में, उन्हें विगत समस्त आदर्श अवतारों के खेल को दिखाना आवश्यक था, इसलिए उन समस्त अवतारों का खेल दिखलाये हैं। किन्तु ईश्वर के अवतारों में कोई कनिष्ठ या कोई वरिष्ठ नहीं होता।रामावतार , कृष्णावतार में सैंकड़ों ऐसी आश्चर्य जनक घटनाएं देखने को मिलती हैं -जिसको देखने सुनने से समझा जा सकता है के वे अवतार थे -जैसे पत्थर की मूर्ति देवी अहिल्या बन गयी, गोबर्धन-पर्वत को ऊँगलीपर उठा लिया, कृष्ण-काली बन गए, पूतना राक्षसी को एक शिशु ने मार दिया, कंस का वध हुआ, युद्ध क्षेत्र में गीता का उपदेश दिया था। इसलिये हमलोग राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा, चैतन्यमहाप्रभु या पैगंबर मोहम्मद आदि को भगवान, अवतार या पैगम्बर मानते हैं; और उनके जन्मतिथि -रामनौमी,कृष्ण-जन्माष्टमी, बुद्धपूर्णिमा, दोलपूर्णिमा, क्रिसमस आदि को उत्स्व के जैसा बहुत धूम-धाम के साथ मनाते हैं। जो व्यक्ति किसी एक अवतार को समझ लेता है, वह प्रत्येक अवतार को समझ सकता है।जिसको किसी एक अवतार में विश्वास नहीं है, उसको किसी भी अवतार में विश्वास नहीं है। जिस प्रकार समुद्र के रत्न जल की सतह पर तैरते नहीं रहते, जल के भीतर रहते हैं, गोता लगाकर जैसे उन रत्नों को प्राप्त किया जाता है। उसी प्रकार रामकृष्णलीला-सागर में गोता लगाओ, बहुत सारे-ढेरों निधि या खजाना मिलेगा, और तब उनको 'रत्नाकर' के रूप में पहचान सकोगे। 

आधुनिक युग के भ्रमित बुद्धिजीवी (जो किसी एक अवतार पर भी  विश्वास नहीं करते) पूछते है- श्रीरामकृष्णदेव भगवान हैं, इस बात का प्रमाण क्या है? साधु-महात्मा लोग लोग जिस प्रकार जटाजूट रखते हैं, गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं, शरीर पर राख लगाए रहते हैं, वैसा तो कोई भी लक्षण ठाकुर परमहंसदेव में  दिखाई नहीं पड़ता। और एक चीज इनमें दिखाई देती है, कि इनमें साधु-महात्मा होने जैसा कोई बड़प्पन का अभिमान भी देखने में नहीं आता। बल्कि, दूसरों के प्रणाम करने से पहले, उलटे वे ही लोगों को सिर झुका कर प्रणाम करते हैं। ठाकुर परमहंसदेव कहते थे -'अवतार तो उपलब्धि और साक्षात्कार के विषय हैं।' जब उनसे साक्षात्कार होता है, या उनका दर्शन प्राप्त होता है, केवल तभी 'उनको' जाना जा सकता है। भगवान (सत्य नारायण) जब अवतार बनकर आते हैं, तब उनका एक ही लक्षण होता है। जानते हो वह क्या है ? जिस देह में भगवान होने का थोड़ा भी लक्षण न दिखाई पड़ता हो, 'वे' ही भगवान के अवतार होते हैं। अवतार में ऊपर से तो कोई लक्षण दिखाई ही नहीं पड़ता। वे लक्षणातीत हैं -यही उनका लक्षण है। [वचनामृत ७ सितम्बर १८८३ : श्री रामकृष्ण : उस दिन कलकत्ते गया था, गाड़ी से जाते समय देखा सभी निम्नदृष्टि हैं। सभी को अपने पेट की चिंता लगी हुई थी। सभी अपना पेट पालने के लिए दौड़ रहे थे। सभी का मन कामिनी-कांचन पर था। हाँ, दो-एक को देखा कि वे ऊर्ध्वदृष्टि हैं-ईश्वर की ओर उनका मन है। मास्टर : आजकल पेट की चिंता और बढ़ गयी है। अंग्रेजों का अनुकरण करने में लगे लोगों का मन भोग-विलास की ओर अधिक मुड़ गया है। इसलिये अभावों की वृद्धि हुई है।

श्रीरामकृष्ण -ईश्वर के विषय में उनका कैसा मत है ? मास्टर -वे निराकार वादी हैं। श्रीरामकृष्ण -हमारे यहाँ भी यही मत है। मैंने एक दिन देखा कि एक ही चैतन्य सर्वत्र है -कहीं भेद नहीं है। पहले ईश्वर ने दिखाया कि बहुतसे मनुष्य और जीव जन्तु हैं -उनमें बाबू लोग हैं, अंग्रेज और मुसलमान हैं, मैं स्वयं हूँ, मेहतर है, कुत्ता है, फिर एक दाढ़ीवाला मुसलमान है -उसके हाथ में एक छोटी थाली है, जिसमें भात है। उस छोटी थाली का भात वह सबके मुँह में थोड़ा थोड़ा दे गया। मैंने भी थोडासा चखा। ..... फिर एकबार दिखाया कि 'यहाँ' के अनेक भक्त हैं-पार्षद -अपने जन। ज्योंही आरती का शंख और घंटा बज उठता मैं कमरे की छत पर चढ़कर व्याकुल हो चिल्लाकर कहता , 'अरे, तुम लोग कौन कहाँ हो?  आओ , तुम्हें देखने के लिए मेरे प्राण छटपटा रहे हैं। ' " अच्छा, मेरे इन दर्शनों के बारे में तुम्हें क्या मालूम होता है ? "मास्टर - आप तो बहुत बार कह चुके हैं कि शुद्ध भक्त ऐश्वर्य देखना नहीं चाहता। वह ईश्वर को गोपाल के रूप में देखना चाहता है। पहले ईश्वर चुम्बक पत्थर और उनका भक्त सूई होता है, फिर तो भक्त ही चुम्बक पत्थर और ईश्वर सूई बन जाते हैं। अर्थात भक्त के पास ईश्वर छोटे बन जाते हैं। जैसे ठीक उदय के समय का सूर्य ! अनायास ही देखा जा सकता है। वह आँखों को झुलसाता नहीं है। बल्कि उनको तृप्त कर देता है। भक्त के लिए भगवान के भाव कोमल हो जाते हैं, वे अपना ऐश्वर्य छोड़कर भक्तों के पास आ जाते हैं।.. आपकी कोई तुलना नहीं है। श्रीरामकृष्ण -(सहास्य) अच्छा तुमने 'अनचीन्हा पेड़ ' सुना है ?मास्टर -जी नहीं। श्रीरामकृष्ण -वह है एक प्रकार का पेड़ जिसे देखकर कोई पहचान नहीं सकता।मास्टर -जी,आपको भी पहचानना कठिन है। आपको जो जितना समझने की चेष्टा करेगा, जितना समझेगा वह उतना ही उन्नत होगा। ..... श्री रामकृष्ण जो 'उदय के समय का सूर्य', 'अनचीन्हा पेड़' आदि बातें कहीं, क्या यही अवतार (नेता, लोकशिक्षक) के लक्षण हैं ? क्या इसीका नाम 'नरलीला' है ? क्या श्रीरामकृष्ण अवतार वरिष्ठ हैं ? क्या इसीलिए वे पार्षदों को देखने के लिए व्याकुल होकर कोठी की छत पर चढ़कर पुकारते थे कि अरे, तुम लोग कौन कहाँ हो, आओ ! वचनामृत/२९३]

ठाकुर परमहंसदेव अवतार के तीन लक्षण बतलाते थे, पहली उपमा देते थे कि 'अवतार अचिने गाछ मतो' -अर्थात अवतार उस पेड़ के समान है जिस पेड़ को कोई पहचान ही न सके! एक प्रकार का पेड़ होता है, जिसको कोई पहचान ही नहीं पाता, उसी का नाम है -'अचिने गाछ अर्थात अनजाना पेड़!' दूसरी उपमा में रात्रि में गली-मुहल्ले में लालटेन हाथ में लेकर घूमघूम कर पहरा देने वाले चौकीदार की देते थे। पहरेदारी करते समय चौकीदार अपने हाथ में एक लालटेन रखता है, उसको अँधेरे की बत्ती (जहाज को मार्ग दिखाने वाला लाईट हॉउस?) कहते हैं। इस लालटेन का एक गुण यह है कि जिसके हाथ में यह होता है, वह इस लालटेन के द्वारा सभी को देख सकता है, किन्तु उसको कोई नहीं देख पाता। तथापि यदि पहरेवाला चौकीदार उस लालटेन को यदि अपनी तरफ घुमा दे- केवल तभी उनको देख लेने के बाद पहचाना भी जा सकता है। ठीक उसी प्रकार, वही चैतन्यमय नरदेहधारी भगवान श्रीरामकृष्णदेव जिस शक्ति से स्वयं को छुपाकर इस सम्पूर्ण जीवजगत को देख रहे हैं, यदि वही चैतन्य टोर्च का मुख अपने चेहरे की तरफ अपने चेहरे को दिखाने की कृपा करें, तभी कोई मनुष्य उनका दर्शन कर सकता है, और पहचान सकता है। तीसरा उदाहरण एक वैसे व्यक्ति का देते थे, जिस शरीर के माध्यम से प्रेम-भक्ति की बाढ़ आती हो, जो दिनरात ईश्वर प्रेम में विह्वल रहता हो, वह देहधारी ही ईश्वर का अवतार होता है! (जो कहता है-'हो सकता है कि पुराने वस्त्र की तरह मुझे अपना शरीर त्याग करना पड़े, पर मैं तब तक 'बनो और बनाओ' करता रहूँगा; जबतक प्रत्येक मनुष्य यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है !) किन्तु जब तक कोई स्वयं ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं कर लेता, तब तक वह अवतार (ब्रह्मविद -पैगंबर-नवनीदा ? के)  इस लक्षण को कोई पहचान भी नहीं सकता। 

दूसरे अवतारों के जैसा रामकृष्णदेव को पहचान पाना तो और भी अधिक कठिन है ! क्योंकि इस अवतार में रजोगुण का ऐश्वर्य थोड़ा भी नहीं है, यहाँ तो आदि से अन्त तक -'আগাগোড়া'  (from beginning to end) केवल शुद्ध-सतोगुण का ऐश्वर्य ही देखने को मिलता है। अतः भक्तिभाव की दीनता को धारण करके सतोगुण के ऐश्वर्य को पहचान पाना, और उसके शरणापन्न हो जाना; तथाकथित आधुनिक मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों के लिए तो और भी ज्यादा कठिन है। इस बार की नरलीला में अघासुर-बकासुर जैसे राक्षसों के विध्वंश का दृश्य नहीं है, और न ताड़का-पूतना जैसी किसी राक्षसी के वध की कथा सुनने को मिलती है। यह सब दृश्य आँखों से देखकर और कान से सुनकर लोग अवतार को थोड़ा बहुत समझ भी सकते हैं, किन्तु यहाँ केवल सत्व का ही ऐश्वर्य है, उनको इस चर्मचक्षु से या बाहरी कानों से देखा -सुना नहीं जा सकता।  इसके लिए तो स्वतंत्र (भक्ति से उपजे) आँख और कान चाहिये। इस बार तो भगवान के खजाने में जितने भी हीरे -जवाहरात थे रत्न और मणि थे, जो पहले के अवतारों में महासागर के जल में ही छुपे रह गए थे; -उसकी ही डकैती हो गयी ! रामकृष्णदेव ने अपने शरीर को ही आध्यात्मिक साधनाओं की प्रयोगशाला बनाकर, अनगिनत दुःसाध्य साधन-मंथन के द्वारा उस खजाने के समस्त हीरे -जवाहरात को बाहर निकाल कर चना -चबेना जैसा जगत में बिखेर दिया है। अतः श्रीरामकृष्ण के भगवान होने का प्रमाण है, रामकृष्ण-जीवनलीला का दर्शन और उनकी कृपा का अनुभव !

किन्तु हमलोगों का संशयग्रस्त मन बीच बीच में संदेह उठा देता है कि इतने वर्षों महामण्डल के 'रामकृष्ण-विवेकानन्द भक्ति-वेदान्त परम्परा में आधारित युवा प्रशिक्षण शिविर और पाठचक्र में भाग लेता आ रहा हूँ,पर मुझे क्या मिला ? पूज्य नवनीदा जैसे 'ब्रह्मविद मनुष्य' को तिलैया वालों ने आज से लगभग ३० वर्ष पहले, १९८८ में उनको देखा था, उनको छूआ भी था -पर उससे हुआ क्या ?रामकृष्ण-विवेकानन्द का दर्शन करने से (या महामण्डल में ३० साल तक रहने से) भी मेरा कुछ नहीं हुआ, ऐसी बात मन में भी नहीं लानी चाहिये। तुमलोगों बहुत कल्याण हुआ है, पर तुम अभी समझ नहीं पा रहे हो। दुर्लभ वस्तु (फ्री में प्राप्त २ किडनी -पानी -धूप) यदि किसी को आसानी से प्राप्त हो जाये, तो वह उसके वास्तविक मूल्य को समझ नहीं पाता। मनुष्य प्रारम्भ में ठाकुर-माँ-स्वामी की की कृपा के उस मूल्य को समझ भी नहीं सकता, (जिसके चलते वह महामण्डल से जुड़ सका) । हमलोगों को क्या मिला है सुनोगे ? हम सभी लोग भवबन्धन से मुक्त हो चुके हैं, तभी तो उनकी कृपा को प्राप्त किये हैं, और रामकृष्णदेव की महान लीला को सुनने के लिए लालायित हुए हैं, और आज १७-फरवरी २०१८ को उनके जन्मतिथि मना रहे हैं! और सर्वोपरि बात तो यह है कि अब हमलोग उनके स्वरुप को जानने के लिए उतकण्ठित (Eager) हो गए हैं! किसी मनुष्य का इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है ? ईश्वर की दिव्य लीला- कथाओं का श्रवण, और ईश्वर के अवतारों का दर्शन -मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य भी तो यही है।साधारणतौर से प्रत्येक मनुष्य कामिनी-कांचन (लस्ट ऐंड लूकर) का गुलाम होता है, हमेशा कामिनी -कांचन को प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है। हम लोग भी जन्मजन्मांतर से वैसे ही मनुष्य- (नीरव मोदी-विजय माल्या-मेहुल चौकसी-पी.एन.बी. के मैनेजर जैसे मनुष्य) थे, किन्तु जिस कार्य (सत्य को जानने की उतकण्ठा) के फलस्वरूप (काम-कांचन में आसक्ति को छोड़ कर) श्रीभगवान के चरण-कमलों में आसक्त हुए हो, उस कार्य का नाम ही है -रामकृष्णदर्शन !(विवेकदर्शन के  निरंतर अभ्यास का फल है साक्षात् ब्रह्म रामकृष्णदेव-ज्ञान प्राप्ति, ब्रह्मविद बन जाना !)

कोई पूछ सकता है कि हमलोगों ने तो रामकृष्णदेव का दर्शन १२-१३ वर्ष पहले ही कर लिया था, किन्तु मुझे वचनामृत सुनने और उनकी श्रीमूर्ति को फूलों से सजाने की इच्छा अब हो रही है -ऐसा क्यों ?इसके उत्तर में रामकृष्णदेव कहते थे, " फल समयसापेक्ष !" (ফল সময়সাপেক্ষ) जैसे किसी मकान के दुछत्ती पर बीज रखा हुआ था, समय के प्रवाह में  कई वर्षों के बाद वह मकान ध्वस्त हो गया, तब हवा -पानी लगने से उस बीज में से अंकुर फूट पड़ा। हमलोगों लोगों के साथ भी यही बात है, अभी समय हुआ है; फल ठीक समय पर ही प्राप्त होता है -फल समयसापेक्ष है! ठाकुर परमहंसदेव कहते थे कि यदि मेरी बातों को सुनने से तुमलोगों के मन में आशा की किरणें फूट रही हैं, हृदय और मन शीतल हो रहा है। तब समझ लेना कि मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ, वह मेरी बात नहीं है-सब उन्हीं माँ जगदम्बाकी बातें हैं। अभी केवल मेरे मुख से निकल रही हैं। जैसे छत पर बाघ के मुख वाला पाइप बाहर निकला रहता है, वर्षा होने पर लोग कहते हैं कि बाघ के मुख से जल निकल रहा है। किन्तु वह तो बाघ के मुख का जल नहीं होता, वह आकाश का जल होता है। मेरी अपनी कोई बात, शक्ति, बुद्धि इत्यादि कुछ भी नहीं है, जो भी शक्ति है, सब उन्हीं की है। इसका (बाघमुख का) तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण मानवता को अभय-प्रदान करने वाली,मृत्यु के भय से सदा के लिए मुक्त कर देने वाली सत्ता (सर्वव्याप्त विराट 'अहं'-बोध) माँ जगदम्बा के सन्तान (अवतार/यंत्र/चपरास-प्राप्त नेता/लोकशिक्षक) हैं भगवान श्री रामकृष्णदेव। इसलिए उनका नाम जप करने, उनकी लीलाकथा के श्रवण से हम लोगों के भीतर भवबंधन से मुक्त हो जाने या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने की आशा जग रही है। रामकृष्णदेव आनन्दमय हैं, उनकी लीला-कथा में आनन्द का झरना फूट पड़ता है, इसलिए लीलाप्रसंग सुनने से आनन्द तो होगा ही।

उनकी लीला-कथा के श्रवण-कीर्तन का एक ऐसा प्रभाव है कि कोई अतिबद्ध जीव भी उसको सुन ले, या कीर्तन करे, तो वह भी आनन्द के सागर में तैरने लगेगा। संक्षेप इतना समझ लेना चाहिए कि जगत में ऐसा एक भी मनुष्य नहीं है, जो सरल मन से रामकृष्ण-नाम जपे और उसको परमानन्द की प्राप्ति न हो। अभी तक जगत में एक भी ऐसे पाप की रचना नहीं हुई है, जो केवल एक बार सरल मन से रामकृष्ण का नाम लेने से उसी क्षण जल कर राख न बन सके। और जगत में अभीतक ऐसे त्रिताप की रचना भी नहीं हुई है जो एकबार प्रभु श्रीरामकृष्ण लीला का श्रवण करने शीतल न हो जाती हो ! इसीलिए कहा जाता है कि (सत्य नारायण/ब्रह्म) माँ जगदम्बा के अवतार का कोई विशेष लक्षण नहीं होता, (उनके सिर पर दो सिंघ नहीं निकल आते हैं) वे जिसको पहचनवा देते हैं, वही उसको पहचान पाता है। नहीं तो भला कौन ससीम/उन्हें असीम को/ पहचान सकता है ? श्रीरामकृष्णदेव कहते थे, कि राम जब वन को गए थे , तब उनको केवल सात ऋषि ही पहचान सके थे कि, वे वही सनातन-पूर्णब्रह्म (सत्य नारायण/निरपेक्ष सत्य)  हैं, और अन्य दूसरे लोग यही समझते थे कि वे तो -राजा दशरथ के पुत्र हैं! प्राचीन संस्कृत नाटक 'श्रीकृष्ण-रहस्य' में वर्णन मिलता है कि कौरवों की सभा में इस बात पर बहुत चर्चा हुई थी कि श्रीकृष्ण भगवान हैं या नहीं ? और इसी प्रश्न पर काफी वाद-विवाद हुआ था। 

माया क्या है ? ईश्वर और अविद्यामाया (कामिनी -कांचन) ये दोनों अलग अलग (श्रेय-प्रेय) वस्तुएं हैं, इन दोनों में जो जिसको मन-प्राण से चाहता है, उसको वही वस्तु प्राप्त होती है। जिस प्रकार कोई नदी दोनों किनारों को एक साथ मिलाकर नहीं बह सकती, उसी प्रकार मनुष्य दोनों 'रवि-रजनी' को एक साथ नहीं प्राप्त कर सकता। इच्छा हो तो अमीरी लो, नहीं हो तो फकीरी लो, হয় তেতলা নাও, নয় গাছতলা নাও। जो लोग कामिनी-कांचन को जीवन का उद्देश्य मान लिए हैं, उनके लिए ईश्वर के पथ पर बढ़ने में काँटे ही काँटे मिलेंगे। कामिनी-कांचन में एक नशा है, जो लोग उसके पीछे अत्यन्त आसक्त होकर फंस जाते है (वर्णाश्रम धर्म भूल जाते हैं), और इसी नशे में इतने प्रमत्त (Intoxicated) हो जाते हैं,कि अपना सिर भी नहीं उठा पाते हैं। जिस प्रकार शैवाल (moss या सेवार) जल को ढंक लेता है, बादल जिस प्रकार चन्द्रमा को छुपा लेता है, उसी प्रकार माया ईश्वर को छुपा लेती है। जॉन्डिस (पीलिया) हो जाने के बाद रोगी को केवल पीला ही दीखता है,उसी प्रकार माया रूपी जॉन्डिस से ग्रस्त रोगी को दुनिया में 'कामिनी -कांचन' रंग के सिवा और कोई दूसरा रंग दिखाई ही नहीं देता। अविद्यामाया के नशे की एक दूसरी महिमा यह है कि इस नशे का आदि बन जाने या वशीभूत हो जाने पर, यह माया बुद्धि को तुरन्त भ्रमित (विमूढ़ confused) कर देती है। और मनुष्य के ज्ञान-इन्द्रियों (sense organ) की बली लेकर मनुष्य को तुरन्त भेंड़ बना देती हैं।  उन्हें यह जानने भी नहीं देती कि उनकी आत्म-श्रद्धा तो लुट चुकी है और उनकी (हिप्नोटाइज्ड बुद्धि के) जादू में फंसकर उनका नरकवास चल रहा है ! और एक उदाहरण , किसी पागल व्यक्ति से , या जिसे भूत ने पकड़ा हो उससे यदि पूछा जाय कि, भाई तुम कैसे हो ? तो जैसे वह कहता है -मैं बिल्कुल ठीक हूँ ! आई एम फाइन ! उसी प्रकार ये काम-कांचन पर दीवाने ये संसारी लोग भी कहते हैं, मैं बिल्कुल ठीक हूँ ! आई एम फाइन !ठीक से विवेक-प्रयोग (विवेक-दर्शन का अभ्यास) करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचोगे कि कामिनी-कांचन का नशा उतरे बिना, (प्रवृत्ति से निवृत्ति या विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचर्य पालन किये बिना) ईश्वर के मार्ग पर चलने का अथवा अपने अंतर्न्हित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने का कोई उपाय नहीं है। ऐसा व्यक्ति किसी सिद्ध महापुरुष (अवतार/नेता/लोकशिक्षक) को देखने पर उसके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना तो दूर की बात है, उलटे उससे कपटी ढोंगी कहता है -'सौ सौ चूहे खा के बिल्ली चली हज को ?' जो लोग घोर बद्ध जीव होते हैं, वे लोग ही परमहंसदेव (नेता) को भी कुवाक्य बोलते हैं। यदि ठाकुरदेव से पूछता था कि अविद्यामाया का यह नशा उतरता कैसे है ? रामकृष्ण देव ने एक बहुत अच्छी दवा बतला दी है। आजकल यह दवा उनकी कृपा से बहुत आसानी से मिल जाती है। वे कहते थे - 'ओषधटि साधु-संग।'  अर्थात कामिनी-कांचन में आसक्ति को कम करने की चिकत्सा है, गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी बीच बीच में (सच्चे) संन्यासियों के साथ संपर्क-सम्बन्ध सानिध्य में रहना। जैसे कोई व्यक्ति यदि भाँग या गाँजा का नशा पीकर होश हवाश खो बैठता है, तो उसको चावल का धोया हुआ जल पिलाने से नशा उतर जाता है। ठीक उसी प्रकार जिन लोगों अविद्या माया (कामिनी-कांचन) के नशे में अपना होशो-हवाश खो दिया है , उनके लिये 'साधु-संग'  (महामण्डल का वार्षिक कैम्प और साप्ताहिक पाठचक्र) एक दम काँके मेंटल हॉस्पिटल (दिमागी रूप से अवसादग्रस्त या पागल जैसे हैं, उनके डॉक्टर के.के.सिन्हा) से इलाज करवाने जैसा है।
यदि कोई गृहस्थ भक्त पूछता - यदि कामिनी-कांचन में आसक्ति को कम करने के लिये, बीच बीच में सर्वत्यागी संन्यासियों के साथ सतसङ्ग करना आवश्यक है,तो क्या गृहस्थ लोगों को भी यथार्थतः कामिनी-कांचन छोड़कर,सिर मुंड़वाकर साधु बन चाहिये ? ठाकुर उसकी भर्त्स्ना करते थे, जिसने विवाह किया है, बाल बच्चे हैं, उनका पालन-पोषण कौन करेगा ?सर्वोत्तम उपाय है -'काम-कांचन के अन्तरे ठायीं दीयो ना'-अर्थात कामनी -कांचन को कभी अपने मन में बसने मत देना। [मजनू जैसा -'लैला-लैला करूँ मैं बन में,मेरी लैला बसी मेरे मन में, वैसे ही रातदिन केवल 'लस्ट और लूकर' की चिंता नहीं करना। ] 'काम-कांचनेर ऊपर भेसे बेड़ियो' -अर्थात कामिनी -कांचन के बीच रहते हुए भी उसके ऊपर नाव के समान तैरते रहना होगा। अर्थात 'स्त्री और धनदौलत' की गुलामी करनी छोड़ देनी होगी।  जैसे जल के ऊपर नाव तैरती रहती है, तो उससे नाव को कोई नुकसान नहीं पहुँचता है। किन्तु यदि नाव के भीतर ही जल घुस जाय, तब तो नाव का विनाश ही हो जाता हैउसी प्रकार 'धर्मपत्नी और धर्मपूर्वक अर्जित धन' का त्यागपूर्वक-भोग करो' (अनासक्त बनो अर्थात दूसरों की स्त्री और दौलत का लालच मत करो।) 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा !' रामकृष्णदेव ने गृहस्थों को तो कामिनी-कांचन का बिल्कुल त्याग कर देने के लिये नहीं कहा है! हाँ, यह उन्होंने कामिनी-कांचन में आसक्ति को त्याग करने के लिये (इन्द्रिय विषयों में लालच को कम करने के लिए) अवश्य कहा है। उन्होंने कहा है कि 'धर्मपत्नी के ईश्वरलाभेर सहाय मने करो' -अर्थात अपनी धर्मपत्नी (कामिनी) को ईश्वर-प्राप्ति में सहायक समझो। (या अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने में अपना विशेष हेल्पर समझो।) फिर एक-दो बच्चे हो जाने के बाद भाई-बहन जैसे रहते हैं, उसी प्रकार से रहो, और दोनों सर्वदा भगवान की सेवा करते रहो।'धर्मपत्नीर सहवासे कौन दोष हय ना' - अर्थात अपनी धर्मपत्नी के साथ सम्बन्ध रखने में कुछ भी गलत नहीं है। अपना पारिवार,ससुराल के सम्बन्धियों या मित्रों को छोड़ देने की भी जरुरत नहीं है, क्योंकि दुःख-कष्ट आने पर वे ही सेवा और सहायता करते हैं। यदि तुम इस रास्ते से हट कर कोई दूसरा रास्ता अपनाओगे तो यह सब सुविधा नहीं रहेगी, किन्तु आवश्यकतायें तो बनी रहेंगी।
 'कांचन के डाल -भातेर जोगाड़ मने करो' -अर्थात कांचन रूपी माया को दाल-भात या ब्रेड-ऐंड-बटर का जोगाड़ समझो। ईश्वर प्राप्ति करने के लिये या अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिए घर-परिवार के बीच रहना बहुत सुरक्षित स्थान है। रामकृष्णदेव परिवार में रहने की उपमा को किले के भीतर रह कर युद्ध करने से देते थे। जैसे किसी किले के भीतर रहते हुए युद्ध करने से शत्रुओं की गोलीबारी या हथियारों से शरीर पर घाव लगने का खतरा नहीं रहता, भूख-प्यास लगने पर भोजन -पानी की व्यवस्था हो जाती है।उसी प्रकार घर में राशन-पानी का संचय रहने से ठीक समय पर भोजन प्राप्त हो जाता है। और दूसरी तरफ काम-क्रोध आदि शत्रुओं से युद्द भी किया जा सकता है। किन्तु 'परिवार रूपी किले में रहकर कामक्रोध रूपी शत्रुओं के साथ युद्ध करने' -की उपमा के पीछे भी  एक थीम (विषय topic) है। ठाकुरदेव कहते थे - 'आगे संसार के चिनते हय !' -अर्थात पहले परिवार को पहचान लेना पड़ता है, और तभी गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया जाता है, अन्यथा आगे चलकर भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। " 

जैसे हाथों में तेल लगाकर कटहल काटने से उसका गोंद (glue) हाथों से चिपक नहीं पाता, उसी प्रकार-'मने ज्ञान-भक्ति माखिये संसारे प्रवेश'- अर्थात मन में ज्ञान-भक्ति का तेल मलने के बाद ही गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना चाहिए। कच्चे मनुष्य (कच्चा मैं के साथ) का गृहस्थ जीवन में प्रवेश करना और हाथों में तेल लगाए बिना कटहल काटना -दोनों एक ही बात है। ठाकुरदेव कहते थे -'गाये हलूद माखा थाकले जेमन कुमिरेर भय थाके ना'- अर्थात शरीर पर यदि हल्दी का उबटन लगा हुआ रहे,तो फिर नदी में घड़ियाल का भय नहीं रह जाता। छुई -छुऔवल का खेल खेलते समय पार (ढाई) छू लेने से फिर डर नहीं रहता। एक बार परसपत्थर को छूकर सोना बन जाओ, फिर हजार वर्ष तक मिट्टी के नीचे गड़े रहने पर भी जब मिट्टी से निकाले जाओगे, तो सोना का सोना ही रहोगे। उसी प्रकार विवाह के पहले ही, विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचर्य पालन करते हुए, मन को यदि माँ जगदम्बा की ज्ञान-भक्ति (रूपी हल्दी का उबटन) से सराबोर कर लिया जाय,तो फिर विवाहित जीवन में भी 'कामिनी-कांचन' में आसक्त हो जाने  का भय नहीं रह जाता। (इसलिए भारतीय विवाह परम्परा में विवाह के पूर्व लड़का-लड़की शरीर में हल्दी का उबटन लगाने की परम्परा है)[इन्द्रिय-परितृप्ति के अतिरिक्त विवाह का कोई और महान तथा पवित्र उद्देश्य हो सकता है,-इस बात को आजकल हमलोग लगभग भूल ही चुके हैं ! इसीलिये दिनोंदिन हम पशुओं से अधम बनते चले जा रहे हैं। इस पशुत्व को दूर के उद्देश्य से, श्रीरामकृष्णदेव का विवाह-रूप कार्य भी लोककल्याण के लिए अनुष्ठित हुआ है। ताकि अपने विवाहित जीवन में यथासम्भव ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, महान मेधावी , महान तेजस्वी गुणवान सन्तानों के माता-पिता बनकर तुम दोनों पति-पत्नी धन्य हो सको, तथा भारत के वर्तमान दुर्बल, श्रीरहित तथा सामर्थ्यहीन समाज को भी धन्य बना सको।लीला २/ १२९] 

 श्रीरामकृष्ण देव एक दृष्टान्त और भी देते थे - 'जैसे लकड़ी के खम्भे को पकड़ कर गोल-गोल घूमने से चक्कर खाकर गिर पड़ने का भय नहीं रहता।' उसी प्रकार भगवान/गुरु/नेता  को पकड़ कर (गुरु-शिष्य भक्तिवेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में माँ काली से चपरास शिक्षक जगतगुरु  श्रीरामकृष्णदेव को पकड़ कर) यदि कोई घर-परिवार में रहे, तो फिर उसके पतन की कोई आशंका नहीं रहती। संसार में अर्थात पारिवारिक जीवन में बहुत सावधानी से चलना पड़ता है। कामिनी-कांचन के साथ खेल करना और साँप के साथ खेलना दोनों एक बराबर है। गुरुदेव से महामंत्र और महाऔषधि को सीखे बिना ही, कामिनी-कांचन के साथ खेल करने पर जीवन बचने की कोई सम्भावना नहीं है। [लकड़ी के खम्भे को पकड़ कर गोल-गोल घूमने का तात्पर्य:  यह है कि महामण्डल द्वारा  'रामकृष्ण-विवेकानन्द भक्ति-वेदान्त परम्परा' में आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में मन को एकाग्र करने की पद्धति -मनःसंयोग को सीख लेने के बाद ही गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट होना चाहिये। रामकृष्णदेव कहते थे -  यह संसार पानी है, और मन मानो दूध है। साधना करके मन में ज्ञान -भक्ति रूपी मक्खन प्राप्त करना होगा। उसके बाद जितना भी परिवार में रहो, कोई हानी नहीं। यदि वैसा नहीं किये, तो विपत्ति की आशंका, शोक, दुःख इस सब से अधीर हो जाओगे।  ज्ञान हो जाने पर संसार में रहा जा सकता है। परन्तु पहले तो ज्ञानलाभ करना चाहिये। संसाररूपी जल में मनरूपी दूध (पृथक 'अहं;-बोध) रखने पर दोनों मिल जायेंगे। इसीलिये दूध को निर्जन में (महामण्डल ऐनुअल कैम्प में) दही बनाकर उससे मक्खन निकाला जाता है। जब निर्जन में साधना करके मनरूपी दूध से 'ज्ञान-भक्ति-रूपी-मक्खन' निकल गया, तब वह मक्खन अनायास ही संसार-रूपी पानी में रखा जा सकता है। वह मक्खन कभी संसार-रूपी जल से मिल नहीं सकता -संसार के जल पर निर्लिप्त होकर उतराता रहता है ! इससे यह स्पष्ट है कि साधना  (५ अभ्यास) चाहिए। पहली अवस्था में निर्जन (कैम्प) में रहना जरुरी है।  वचनामृत- ३३८]

किन्तु भारत के गांवों में आज भी जो कनफुँकवा-गुरुजी से जो मंत्रदीक्षा लेने की प्रथा है, उसमें तो गुरु जी  एक मंत्र देने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहते हैं ! मन रूपी दूध को इन्द्रियविषय रूपी पानी या संसार से खींच कर इष्टदेव पर मन को एकाग्र करने, या प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करके ज्ञान-भक्ति रूपी मक्खन निकालने की पद्धति अष्टांग-योग या मनःसंयोग करने की पद्धति का प्रशिक्षण तो नहीं देते हैं ! तो क्या गुरु भी अलग अलग किस्म के होते हैं ? युगावतार श्रीरामकृष्णदेव को छोड़कर टी.वी. पर दिखने वाले 'रामायण-भागवत' के कथावाचकों में किसी आशाराम-रामरहीम जैसे ढोंगी अज्ञानी को बिना-जाँचे परखे गुरु बना लेना ठीक वैसा ही है -जैसे एक अँधा का हाँथ पकड़ कर दूसरे अँधे का चलना, इसके परिणाम स्वरुप दोनों का पतन होना स्वाभाविक है। किन्तु  शिष्य यदि सच्चा सत्यान्वेषी हो, माँ जगदम्बा या ईश्वर का सच्चा प्रेमी (नछोड़बंदा) हो, तो अपने प्रेम के बल से (अर्थात एकाग्रता  शक्ति से) वह उसी ढोंगी (मिथ्या-नश्वर) गुरु के भीतर से भी वास्तविक (अविनाशी) गुरु को प्रकट करवा सकता है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मिथ्या-गुरु एक अलग चीज है, और वास्तविक-गुरु एक अलग वस्तु हैं। वास्तविक गुरु कौन हैं -जानते हो भाई ? इष्टदेव की मूर्ति (ठाकुर देव) ही वास्तविक गुरु हैं। 

मानलो कि किसी पक्षी ने एक अंडा दिया, और कुछ समय तक उस अंडे को सेने के बाद अंडे से एक चूजा बाहर निकला। यहाँ भी ठीक वैसा होता है। गुरु ने कान में कोई मंत्र दिया, उस मंत्र में ही एक इष्ट (मेरे भगवान का नाम) भी हैं। अब उस मंत्र का जप-ध्यान पूजन इत्यादि करते करते उसी बीज मंत्र के भीतर से शिशु-शावक रूपी इष्टदेव की मूर्ति प्रकट हो जाती है। जब इष्टदेव प्रकट हो गए, तो फिर गुरु और नहीं रहते। चूजे के निकल जाने पर जैसे अंडा नहीं रहता। प्रश्न उठता है कि, यदि गुरु (आदर्श/ नेता/ लोकशिक्षक/विवेकानन्द/ नवनीदा) और इष्ट (माँ जगदम्बा)अलग अलग हैं तो फिर जिन लोगों ने सीधा श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव से ही मंत्र-दीक्षा लिया होगा वे लोग ठाकुरदेव को क्या मानते होंगे? यहाँ पर - श्रीठाकुर देव एक ही आधार में गुरु और इष्ट (माँ जगदम्बा) दोनों हैं। जितने दिनों तक पकड़ में न आकर खेल करते हैं, उतने दिनों तक गुरु हैं; जब पकड़ में आ जाते हैं तब इष्ट हो जाते हैं। उस अवस्था (अंडा-चूजा) में जैसे इष्ट की प्राप्ति हो जाने पर गुरुरूप (अंडा) नहीं रहता, यहाँ वैसा नहीं है -इष्ट (माँ जगदम्बा) प्राप्त हो जाने के बाद भी रामकृष्णरूप रहता है ! 

रामकृष्णदेव कहते हैं - 'गुरु (लीडर=matchmaker) घटक हैं'। नायक -नायिका का मिलाप करवा देने के लिए जैसे एक घटक या मैचमेकर की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार भगवान और जीव के मिलन में गुरु की आवश्यकता होती है। वही गुरु हैं -रामकृष्णदेव ! तुमने सुना होगा कि वे कृपा करके जिसको एक बार केवल छू देते थे , वह तत्काल अपने इष्ट को उनके भीतर ही देखने लग जाता था। यदि वे स्वयं भगवान नहीं होते , तो किसकी इतनी मजाल है कि वह दूसरे को भगवान दे सके ? वे शक्तिपात से या 'स्पर्श के द्वारा शक्ति देकर' स्वयं के स्वरुप को दिखला देते थे।  ['A Leader is always born and never created' :लोग किसी मनुष्य को गुरु या नेता नहीं बनाते हैं -जो गुरु या नेता होते हैं, वे उस अधिकार को साथ लेकर ही जन्म ग्रहण करते हैं। इस सम्बन्ध में भगवान ने गीता ३/२१ में कहा है -'स यत प्रमाणं कुरुते लोकः तत् अनुवर्तते।  --अर्थात वे अपने जीवन द्वारा जिसे प्रमाणित करते हैं लोग उसी का अनुसरण करते हैं। केवल धर्मग्रन्थ पढ़ने से ही काम नहीं चलता। आदर्श जीवन कैसा होता है- उसे स्वयं जी करके दूसरों को दिखाना भी होता है! उनके जीवनादर्श से शिक्षा पाकर लोग धर्ममार्ग का अनुसरण करते हैं। वे जो कुछ करते हैं, वही सत्कार्य का प्रमाण बन जाता है, तथा सभी लोग तदनुसार आचरण करने लगते हैं।  (गीता ४: ७ के) उपरोक्त श्लोक का संस्कृत भाषा में पुनः भावानुवाद करते हुए पूज्य नवनीदा ने लिखा है -यदा ही सर्वधर्मानाम ग्लानिर्वभूव भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं ससर्ज सः।हे भारतवासी, जब पृथ्वी के समस्त धर्म अधोपतित हो गये थे एवं उसके साथ जब अधर्म का भी अभ्युत्थान हो गया था; तब उस विकट परिस्थिति में ' उन्होंने '(अद्वैत ब्रह्म परमहंसदेव ने) स्वयं को सृष्ट किया था ! अर्थात जब अलग अलग देशों का धर्म पतित हुआ था, तब उस उस देश के धर्मों को  उठाने के लिये अलग अलग अवतार आये थे। किन्तु जब सम्पूर्ण पृथ्वी के धर्म अधोपतित हो गये एवं समग्र पृथ्वी में- 'अभ्युत्थानमधर्मस्य '- अधर्म का अभ्युत्थान हो गया तब ' धर्म-वस्तु ' का नवोत्थान करने के लिये उन्होंने (परमहंसदेवजी) स्वयं को रचा था। इसीलिये श्रीरामकृष्ण अवतार वरिष्ठ हैं !स्वामीजी ने उस दिन क्या सोंच कर ठाकुर को (परमहंसदेवजी को)'अवतारवरिष्ठ' कहा होगा- यह तो केवल स्वामीजी जानते होंगे। किन्तु ठंढे दिमाग से (पूर्वाग्रह से रहित होकर) यदि हम चिन्तन-मनन करें तो हमलोग इस 'अवतारवरिष्ठ' विशेषण को - अत्यन्त आनन्द के साथ ग्रहन कर सकते हैं। एवं यह घोषणा भी कर सकते हैं कि, सम्पूर्ण जगत के मानव-समाज के परित्राण के लिये वर्तमान युग में उपाय - एकमात्र श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव से ही प्राप्त किया जा सकता है।  एवं उनके उपदेश- स्वामी विवेकानन्द के जीवन में जिस प्रकार उक्त, व्यक्त, और प्रचारित तथा आचरित हुए हैं, उनका थोड़ा भी अनुसरण करने से अपने जीवन में भी उतार सकते हैं।  अतः कह सकते हैं-  " अवतारवरिष्ठस्तत रामकृष्णो हि केवलः।   इतिहासपुराणेषू समः कोअपि न विद्यते।।"   

जब से सृष्टि बनी है, तब से लेकर आज तक मानव इतिहास में "परमहंसदेव" (ठाकुर) के जैसा (त्यागी) दूसरा कोई नहीं हुआ है. किसी भी देश य़ा किसी भी धर्म का पुराण क्यों न हो - किसी भी देश के पुराण में, " श्रीरामोकृष्णो " के जैसा और दूसरा कोई नहीं हुआ है। ऐसा कहना - किसी को छोटा करना य़ा बड़ा करना नहीं है, किसी के साथ तर्क-कुतर्क य़ा झगड़े में पड़ने की कोई जरुरत नहीं है। क्योंकि जगतगुरु (लीडर/घटक/लोकशिक्षक/) का तुच्छ स्वार्थपूर्ण 'अहं'-भाव का सदा के लिए विनाश हो जाता है, और उसके स्थान पर सर्वव्यापी विराट भावामुखी 'अहं'-भाव का विकास होने लगता है। सब के कल्याण की खोज करना ही उस 'भावामुखी अहं-भाव' का स्वभाव है। जैसे ही किसी के अन्दर उस विराट 'अहं'-भाव का विकास होता है, तत्काल ही संसार के दुःख-सन्तप्त लोग अपने आप पता नहीं किस तरह; उसका पता लगाकर शान्ति प्राप्त करने के निमित्त दौड़कर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। लीला २/ १३४] 'एकमेवाद्वितीयम'-वस्तु (ब्रह्म) के अन्दर निर्गुण तथा सगुण रूप से जो एक विराट 'अहं'-भाव विद्यमान रहता है ,वह सर्वव्यापी विराट 'अहं'-भाव ही ईश्वर या माँ जगदम्बा का 'अहं'-भाव है, तथा उसी के द्वारा विश्व-ब्रह्माण्ड संचालित हो रहा है। और जो माँ जगदम्बा (विराट चैतन्य, विराट शक्ति या अनन्त ऊर्जा) जड़ -चेतन सबके अन्दर ओत-प्रोत रूप से अनुप्रविष्ट होकर विभिन्न नाम-रूप धारण कर अवस्थान कर रही हैं;  तथा गो-गोचर जगत के रूप में प्रकट है, उसी माँ जगदम्बा ने ['रति की माँ ' नामक महिला का वेश धारण कर घट के समीप आविर्भूत हो] अपने पुत्र (शिक्षक या लीडर-वरिष्ठ) श्रीरामकृष्ण देव को आदेश दिया कि - 'बेटे, तू भाव मुखी रह!' 

जो माँ जगदम्बा, (सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध, विराट शक्ति या अनन्त ऊर्जा) जड़ -चेतन सबके अन्दर ओत-प्रोत रूप से अनुप्रविष्ट होकर विभिन्न नाम-रूप धारण कर अवस्थान कर रही हैं; तथा गो-गोचर जगत के रूप में प्रकट है। उसी सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध, अनन्त शक्ति,अनन्त ऊर्जा या माँ जगदम्बा को पाश्चात्य जड़वादी वैज्ञानिक (पण्डितमूर्ख) अपनी बुद्धि तथा बुद्धिजात यंत्र आदि की सहायता से प्रयोगशाला में नाप लेने की जिद में आकर कह उठते हैं, कि 'विविधता में एकता' होने के बावजूद, उस एकत्व का मूल कारण जड़ है ! जड़वादी वैज्ञानिक यह तर्क देते हैं कि यद्यपि 'एक से ही अनेक' [E=M] विकसित हुआ है; 'अनेकता में एकता' है, किन्तु इस एकत्व का मूल कारण-माँ जगदम्बा (सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध, ॐ, या ईश्वर) नहीं, बल्कि कोई जड़ वस्तु (गॉड-पार्टिकल) है ! [सी.ई.आर.एन.– सर्न अर्थात  'यूरोपीय नाभिकीय अनुसन्धान संगठन' क्वांटम भौतिकी या कण-भौतिकी की विश्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला है, जो  फ्रांस और स्विट्जरलैंड की सीमा के पास जिनेवा में स्थित है। जिसे धरती के 100 मीटर नीचे 27 किलोमीटर लंबी सुरंग के रूप में स्थापित किया गया है।  इस संस्था में बीस यूरोपीय सदस्य देश हैं। नवंबर 2016 में भारत भी यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन का एसोसिएट सदस्य बन गया है। इस समय लगभग 2600 स्थाई कर्मचारी एवं दुनिया भर के कोई 500 विश्वविद्यालयों एवं 80 राष्ट्रों के लगभग 7930 वैज्ञानिक एवं अभियन्ता यहाँ कार्यरत हैं।  दरअसल वर्ष 2008 में सर्न ने विश्व के सबसे बड़े कण त्वरक पार्टिकल कोलाइडर या लार्ज हेड्रान कोलाइडर एल.एच.सी की शुरुआत की।यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन ने 10 साल की कड़ी मेहनत के बाद इस कोलाइडर को तैयार किया जिसका मकसद विज्ञान के अनसुलझे रहस्यों से पर्दा हटाना है। इस विशाल सर्न-प्रयोगशाला में वैज्ञानिक उपकरणों और गणन प्रणालियों के माध्यम से ब्रह्मांड की मौलिक संरचना पर अनुसन्धान कार्य चलाया जा रहा है। इसकी मदद से वैज्ञानिकों  ने 4 जुलाई, 2012 को 'गॉड पार्टिकल' की खोज की घोषणा की है। किन्तु इसी २१ वीं सदी में एक दिन सर्न अर्थात  'यूरोपीय नाभिकीय अनुसन्धान संगठन' के वैज्ञानिकों को यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि 'गॉड पार्टिकल'= ॐ, ईश्वर,अल्ला, ब्रह्म या गॉड' को सर्न की प्रयोगशाला में कभी चिमटे से पकड़ कर नहीं दिखाया जा सकता कि -लो देखो यही ब्रह्म है ! किन्तु ॐ, सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध, या इटर्नल वाइब्रेशन को केवल 'एकाग्रता की सहायता से  इन्द्रियातीत अवस्था' में पहुंचकर अनुभव किया जा सकता है।] हमलोग 'श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग' में पढ़ते हैं कि साधना के प्रारम्भ में ही, श्रीरामकृष्णदेव ने श्रीजगन्माता से यह प्रार्थना की थी - " माँ,  मुझे क्या करना चाहिये यह मैं कुछ नहीं जानता हूँ; तू मुझे जो सिखायेगी, मैं वही सीखूँगा। " इस प्रकार श्रीजगदम्बा के बालक श्रीरामकृष्णदेव, तब उनपर पूर्णतया निर्भर होकर उनकी ओर दृष्टि आबद्ध किये अपने दिन बिता रहे थे, तथा वे जहाँ, जैसे उनको घुमा-फिरा रहीं थी, परमानन्दित हो कर वे भी उनका अनुसरण कर रहे थे। 

" एक दिन वे विष्णु-मन्दिर के बरामदे में बैठकर श्रीमद्भागवत की कथा सुन रहे थे। सुनते सुनते भावाविष्ट हो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के जीवन्त रूप का दर्शन हुआ। तदन्तर उस मूर्ति के चरणों से रस्सी की तरह एक ज्योति निकली, जिसने पहले श्रीमद्भागवत को स्पर्श किया, उसके बाद उनके वक्षस्थल में संलग्न होकर तीनों वस्तुओं को कुछ देर के लिये बाँधे रखा। श्री रामकृष्णदेव कहते थे कि इस प्रकार के दर्शन से उनके मन यह दृढ़ धारणा हुई थी कि 'भागवत, भक्त और भगवान ' -तीनों भिन्न रूप से प्रकट रहते हुए भी एक ही हैं, अथवा एक ही वस्तु के तीन रूप हैं! भागवत (शास्त्र), भक्त और भगवान -तीनों एक हैं तथा एक ही तीन हैं!' लीला०प्र० १/३५६ (शास्त्र -जीवन नदी के हर मोड़ पर, बी.के.,अवतार-एनदा, तीनों एक हैं, तथा एक ही तीन हैं) इस-प्रकार भावसाधना की पराकाष्ठा में भावराज्य की चरमभूमि 'एक ही वस्तु के तीन रूप हैं ' -  में पहुँच जाने के बाद, श्रीरामकृष्ण देव का मन स्वाभाविक रूप से भावातीत अद्वैत भूमि की ओर आकृष्ट होने लगा। क्योंकि भाव तथा भावातीत राज्य (इन्द्रियगोचर- इन्द्रियातीत राज्य) ये दोनों सदा परस्पर कार्य-कारण सम्बन्ध से बन्धे हुए हैं ! इन्द्रियातीत अद्वैत राज्य का भूमानन्द (परमानन्द) ही सीमाबद्ध होकर भावराज्य (मानवरूप में) दर्शन-स्पर्शन आदि सम्भोगानन्द के रूप में अभिव्यक्त होकर हमारी बुद्धि को भ्रमित करता रहता है! १/३६४ठीक इसी समय माँ जगदम्बा की इच्छा से, श्री ठाकुर को वेदान्त श्रवण कराने के लिये ब्रह्मज्ञ श्री तोतापुरी जी दक्षिणेश्वर पधारते हैं। वे श्रीरामकृष्ण का निरीक्षण करने के बाद उनसे पूछते हैं -" तुम उत्तम अधिकारी प्रतीत हो रहे हो, क्या तुम वेदान्त साधना करना चाहते हो ?"श्रीठाकुर - "करने न करने के बारे में मैं कुछ नहीं जानता -मेरी माँ सब कुछ जानती हैं, उनका आदेश मिलने पर कर सकता हूँ !"श्री तोतापुरी - " तो फिर जाओ, अपनी माँ से पूछकर जवाब दो; क्योंकि दीर्घकाल तक मैं यहाँ नहीं ठहरूँगा।" श्री ठाकुर श्रीजगदम्बा के मन्दिर में उपस्थित हुए और भावाविष्ट अवस्था में माँ को बोलते सुना - " जाओ सीखो, तुम्हें सिखाने के लिये ही इस संन्यासी का आगमन यहाँ हुआ है।" हर्षोत्फुल्ल होकर श्री ठाकुर श्री तोतापुरी जी के समीप पहुँचे तथा माँ की अनुमति मिलने की बात कही। श्रीरामकृष्णदेव मन्दिर में प्रतिष्ठित देवी को ही प्रेम वश माँ कह रहे हैं, इस सरलता पर वे मोहित तो हुए किन्तु सोचे उनका यह आचरण अज्ञता और कुसंस्कार जन्य है ! क्योंकि श्री तोतापुरी जी की तीक्ष्ण बुद्धि वेदान्त-प्रतिपादित कर्मफल-प्रदाता ईश्वर (अल्लाह या ब्रह्म) के अतिरिक्त अन्य किसी देव-देवी के सम्मुख सिर नहीं झुकाती थी। तथा त्रिगुणात्मिका ब्रह्म-शक्ति माया तो केवल भ्रम मात्र है, ऐसी धारणा रखने वाले श्री तोतापुरी जी उनके व्यक्तिगत अस्तित्व में विश्वास करना और उनकी उपासना करना वे अनावश्यक समझते थे। एवं लोग भ्रान्त संस्कारवश ही ऐसा किया करते होंगे, ऐसा उनका मत था।

बहरहाल, विरजाहोम आदि संस्कार के बाद ब्रह्मज्ञ तोतापुरी जी ने श्रीरामकृष्णदेव को (नादब्रह्म ॐ कार 'श्रीरामकृष्ण') नाम ? प्रदान किया। और वेदान्त प्रतिपादित 'नेति नेति ' उपाय का अवलंबन कर, उन्हें अपने ब्रह्मस्वरूप में अवस्थित होने के लिए प्रोत्साहित करते हुए कहा -" नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव, देश-काल (शरीर-मन या नाम-रूप) आदि द्वारा सर्वदा अपरिच्छिन्न एकमात्र ब्रह्मवस्तु (ॐ आत्मा 3rd'H) ही सदा सत्य (अपरिवर्तनशील-निरपेक्ष सत्य) है ! अघटन-घटन-पटियसी माया अपने प्रभाव से उनको नाम-रूप के द्वारा खण्डितवत् प्रतीत कराने पर भी वे (आत्मा) कभी उस प्रकार नहीं हैं ; क्योंकि समाधि-अवस्था में मायाजनित देश-काल या नाम-रूप की  किँचिन्मात्र भी उपलब्धि नहीं होती है। अतः नाम-रूप की सीमा के भीतर जो कुछ अवस्थित है, वह कभी नित्य नहीं हो सकता, उसको दूर से त्याग दो। नाम-रूप से बने लोहे के पिंजड़े को 'सिंह-विक्रम' से भेदकर बाहर निकल आओ ! अपने हृदय में अवस्थित आत्मतत्व के अन्वेषण में डूब जाओ ! समाधि के सहारे उसमें अवस्थित रहो; ऐसा करने पर देखोगे कि उस समय यह 'नामरूपात्मक-जगत' न जाने कहाँ विलुप्त हो चुका है। उस तुच्छ अहं-बोध (करन अहं और कर्ता अहं दोनों) न जाने कहाँ विलुप्त हो चूका है।  उस समय तुच्छ अहं-ज्ञान बिराट (आत्मा या ब्रह्म) में लीन व स्तब्ध हो जायेगा, तथा अखण्ड सच्चिदानन्द को अपना स्वरूप साक्षात् रूप से प्रत्यक्ष कर सकोगे ! " (वही १/३७०) 

फिर (छान्दोग्य उप.७-२३,२४) को सुनाते हुए कहा - "यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखं। " जिस ज्ञान का अवलंबन करके एक व्यक्ति दूसरे को (जटिला-कुटिला को) देखता है, जानता है, या दूसरों की बातों को सुनता है, वह 'अल्प' है या तुच्छ है ! अर्थात उसमें परमानन्द नहीं है; किन्तु जिस ज्ञान में अवस्थित होकर एक व्यक्ति दूसरे को (मधु-कैटभ को) नहीं देखता है, नहीं जानता है, या दूसरों की वाणी को (कटु-मधुर वचनों को) इन्द्रियगोचर नहीं करता है, -वही 'भूमा' या महान है, उसके सहारे परमानन्द की अवस्थिति होती है। जो सदा सबके भीतर 'विज्ञाता' (जानने वाला) के रूप में विराजमान हैं, उनको किस मन-बुद्धि के द्वारा जाना जा सकता है ? " [" अहंकार का अर्थ है, अपने को अस्तित्व से पृथक जानना। और परमात्मा के अनुभव का अर्थ है अपने को अस्तित्व (परमसत्य या खतरनाक-सत्य) के साथ—एकाकार हो जाना। जहाँ भूमा है वहाँ 'द्वैत' का भाव नहीं है, क्योंकि द्वैत का भाव तो नाम-रूप से आच्छन्न 'अहं' ही हो सकता है। इसीलिये जहाँ द्वैत का अभाव है, जहाँ 'अहं' नहीं है, 'आमी यंत्र तुमि यंत्री'  का भाव है -  वहीं भक्ति का अद्वैत है!]उपरोक्त वेदान्त- सिद्धान्तों की सहायता से श्री तोतापुरी ने श्रीरामकृष्णदेव को समाधिस्त करने का प्रयास किया, किन्तु प्रयत्न करने पर भी वे अपने मन को निर्विकल्प न कर सके, यानि नाम-रूप की सीमा से मुक्त न कर सके। तब उन्होंने कहा -"मुझसे ये सम्भव नहीं है, मन को पूर्णतया निर्विकल्प करके आत्मचिंतन करने में असमर्थ हूँ। " तब न्यांगटा (तोतापुरी जी) उत्तेजित होकर तीव्र तिरस्कार करते हुए बोले -" क्यों नहीं होगा ? एक काँच के टुकड़े के नुकीले भाग को उनके भौहों के बीच गड़ाकर बोले -" इस बिन्दु में अपने मन को समेट लो !" पुनः जब श्री रामकृष्णदेव दृढ़संकल्प लेकर ध्यान करने बैठे तथा पहले की भाँति श्रीजगदम्बा की मूर्ति मन में उदित हुई, वैसे उन्होंने ज्ञान को खड़क रूप में कल्पना कर (विवेक-प्रयोग द्वारा) मन को दो टुकड़े कर डाला। फिर मन में कोई विकल्प न रहा; तीव्र गति से उनका मन नाम-रूप के इन्द्रियगोचर जगत के परे चला गया, इन्द्रियातीत भूमि में चला गया और वे समाधि में निमग्न हो गए। तीन दिनों तक वे उसी अवस्था में रहे। यह देखकर श्री तोतापुरी सोचने लगे -" यह कैसी दैवी माया है ? जो अवस्था ४० वर्ष की कठोर साधना से मुझे मिली, उसे इस महापुरुष ने एक ही दिन के भीतर कैसे अपने अधिकार में ले लिया ? " फिर समाधि से व्युत्थान -मंत्र सुनाकर लगातार ११ महीने तक दक्षिणेश्वर में रहते हुए, माँ जगदम्बा के शक्ति-स्वरूप को स्वीकार करने के बाद ही विदा हो सके। 'आनन्दमयी माँ जगदम्बा के निष्कलंक मानसपुत्र श्रीठाकुर - समाधि बल द्वारा अशरीरी (इन्द्रियातीत) आनन्दस्वरूपता को प्राप्त कर उनमें सदा के लिए विलीन होने के निमित्त यात्रा कर चुके थे ! किन्तु वहाँ पहुँचकर उनको यह विदित हुआ कि जगदम्बा का अभिप्राय उनको लोकशिक्षक बनाने का है, और उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करने के आलावा कोई उपाय नहीं है! अतः अपने मन को बलपूर्वक पुनः विद्या के आवरण में आवृत कर वे निरन्तर माँ जगदम्बा के आदेश का पालन करने लगे। 

उन पर प्रसन्न होकर अनन्तभावमयी जगदम्बा ने भी उनको शरीर में अवस्थित रखकर भी, उनके पृथक 'अहं'-बोध को, सदा के लिए विराट 'अहं'-बोध के साथ एकत्व की इतनी उच्च अवस्था में स्थापित कर दिया कि सर्वव्यापी विराट मन या 'अहं'-बोध के भीतर जितने भावों का उदय हो रहा है, उन सभी भावों को उसी स्थिति में अवस्थित रहकर वे सर्वदा अपना समझने लगे। इसीलिये श्री ठाकुर को जब अपने 'लोकशिक्षक श्रीरामकृष्णदेव' होने का 'अहं'- बोध उत्पन्न होता था, उस समय यह जगत उन्हें वैसा नहीं दिखाई देता था -जैसा हमलोग अभी देख रहे हैं। वे देखते थे - ' मानो एक 'विराट मन' है, जिसके अन्दर नाना प्रकार की भाव-तरंगे (थॉट वाइब्रेशंस) उठ रही हैं, हिलोरे ले रहीं हैं, खेल रही हैं, तथा उसमें पुनः लीन होती चली जा रही हैं ! (माँकाली काल को भी खा रही है ?) दूसरों के तुच्छ 'अहं'-भाव (नश्वर नाम-रूप को 'मैं' समझने की बेवकूफी) का तो कहना ही क्या ? उन्हें अपने शरीर, मन(अपने मिथ्या नाम-रूप में ) 'अहं'-बोध का अनुभव भी -'उसी विराट 'अहं'-भाव की एक तरंग' के रूप में होता था। जिस अतिचेतन अवस्था में पहुँचकर ज्ञाता,ज्ञेय और ज्ञान एक हो जाते हैं, या साधारण नमक का पुतला समुद्र में घुल जाता है,अर्थात अपना 'अहं'-बोध खो देता है ? उसी अवस्था में पहुँचकर - श्रीरामकृष्णदेव ने माँ जगदम्बा का साक्षात् दर्शन किया, या अनुभव किया कि वह तो बिल्कुल एकमेवाद्वितीयम, जीवन्त,जागृत, इच्छा तथा क्रिया मात्र की जन्मदात्री अनन्त कृपामयी जगज्जननी है। फिर उन्होंने यह देखा कि उस" विराट 'अहं'-भाव" की शक्ति पर ही मानवों के छोटे-छोटे 'अहं'-भाव अवलम्बित हैं, किन्तु उन्हें यह भ्रम हो रहा है कि वे स्वयं 'स्वाधीन-इच्छा' से युक्त और 'स्वाधीन-क्रियाशक्ति' से सम्पन्न हैं !(क्योंकि हिप्नोटाइज्ड अवस्था में उन्हें विराट 'अहं'-भाव का अनुभव और प्रत्यक्ष नहीं हो पाया है ?) इसी दृष्टिहीनता (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहने को) शास्त्रों में अविद्या (माया) और अज्ञान कहा गया है। इसीलिए उस विराट 'अहं' भाव के भीतर जो खण्ड-खण्ड रूप से मानवों के छोटे-छोटे 'अहं'-भाव हैं वे एक-दूसरे को बाह्यजगत तथा बाह्यजगत के विभिन्न पदार्थ समझते हैं, और परस्पर वार्तालाप आदि करते हैं ! उस सर्वव्यापि विराट 'अहं'-भाव का ही नाम 'भावमुख' है। क्योंकि उसका ही आश्रय लेकर संसार के सब प्रकार के भावों का उदय हो रहा है ! यह 'विराट अहं' ही माँकाली या ईश्वर का 'अहं'-भाव है। इसी विराट अहं को श्री चैतन्य का अचिन्त्य-भेदाभेद कहते हैं। 

जब श्री ठाकुर का 'अहं'-बोध एकदम लोप हो जाता था, उस समय वे इस विराट 'अहं'-भाव की सीमा से बाहर अवस्थित माँकाली के निर्गुण भाव में अवस्थान करते थे। उस समय उनको उस विराट 'अहं'-भाव तथा उसकी अनन्त भावतरंगों को जिसको हम जगत कहते हैं - उसके अस्तित्व का उन्हें कुछ भी अनुभव नहीं होता था। और जब अपने उस सगुण विराट 'अहं'-भाव का उन्हें बोध होता था, तब उनको यह दिखाई देता था -कि जो ब्रह्म हैं , वे ही शक्ति हैं ! जो निर्गुण हैं, वे ही सगुण हैं, जो पुरुष हैं, वे ही प्रकृति हैं; जो सर्प निश्चल था, वही चलने लगा है , अथवा जो स्वरुप में निर्गुण हैं, वे ही लीला में सगुण हैं ! 'तू भाव मुखी रह ' -अर्थात एकदम 'अहं'-भाव का लोप कर निर्गुण भाव में अवस्थित न हो, क्योंकि जहाँ से विश्व के समस्त भावों का उदय हो रहा है, वह विराट 'अहं' तू ही है, उनकी इच्छा ही तेरी इच्छा है, उनका कार्य ही तेरा कार्य है, -सदा इसी भाव का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए, अपना जीवनयापन तथा लोक-कल्याण साधन करता रह ! 'भावमुख-अवस्था ' में पहुँच जाने पर -मैं अमुक जाति-धर्म  का हूँ, इत्यादि बातें मन से एकदम दूर हो जाती हैं, तथा अपने मन में सर्वदा यही अनुभव होता है कि " मैं वही विश्वव्यापी विराट 'अहं' हूँ ! कच्चा मैं -अर्थात मैं देह हूँ, का अहंकार रखने से उसके बंधन में फंस जाना पड़ता है। इस प्रकार देहाध्यास की  भावनाओं को त्यागकर ऐसी धारणा करनी चाहिए कि मैं भगवान श्रीरामकृष्णदेव का भक्त हूँ, माँ सारदा का बेटा हूँ ! उनका अंश हूँ ! और इस विचार से ही अपने मन को सदैव भरे रखना चाहिए।" लीलाप्रसंग२/९५] (माँ सारदा के मातृभाव का आधिपत्य नवनीदा पर ऐसा स्थापित हुआ था कि उनको देखने से ही ऐसा प्रतीत होता था कि जो माँ (सारदा) हैं, वही सन्तान (नवनी दा) हैं; और जो सन्तान (नवनी दा) हैं, वे ही माँ (सारदा) हैं! 'भावमुख' अवस्था में रहने के कारण, उनको समग्र जगत सदा-सर्वदा भावमय प्रतीत होता था, कि स्त्री-पुरुष, गाय-घोड़े, लकड़ी-मिट्टी -सभी मानो उसी एक सर्वयापी विराट 'अहं'-बोध से विभिन्न नाम-रूपों में उत्थित और फिर उसी में विलीन हो रहे हैं। श्री ठाकुर (नवनी दा) स्त्रियों के समीप स्त्री तथा पुरुषों के समीप पुरुष के सदृश होकर उनके मन के प्रत्येक भाव को ठीक-ठीक समझ जाते थे। किसी स्त्रीभक्त से उन्होंने कहा था - " लोगों को देखते ही मैं यह जान जाता हूँ कि, कौन कैसा है, कौन अच्छा है, कौन बुरा, किसको धर्म-लाभ होगा, किसको नहीं, कौन सुजन्मा है और कौन कूजन्मा है, कौन ज्ञानी है, कौन भक्त है; किन्तु किसी से कुछ कहता नहीं कि उनके मन को कष्ट होगा।"  लीला २/ ३०-३६] 

[श्रीरामकृष्णदेव के प्रत्येक भक्त को उनके भीतर 'स्त्री-पुरुष' दोनों भावों के एकत्र-समावेश की कुछ न कुछ उपलब्धि अवश्य होती है। उसकी उपलब्धि करने के बाद श्री गिरीश चन्द्र ने पूछ ही डाला -" महाराज, कृपया यह बताइये कि आप पुरुष हैं प्रकृति ?" आत्मवेत्ता या ब्रह्मविद पुरुष जिस तरह कहा करते हैं, श्रीरामकृष्णदेव' ने भी कहा था  -"मैं पुरुष भी नहीं हूँ, स्त्री भी नहीं हूँ"-- स्त्री-पुरुषों के प्रति उनका समान भाव था।एक बार श्री ठाकुर अपने चौकी से उतर कर परिचित महिला भक्त के समीप जा बैठे। इससे संकुचित होकर जब थोड़ा हटकर बैठने लगीं, तब श्रीरामकृष्णदेव बोले -'संकोच की क्या बात है, (हाथ से दिखाकर) तुम जो हो, मैं भी वही हूँ। फिर भी (अपनी दाढ़ी के बालों को दिखाकर) -ये हैं, इसीलिये लज्जा हो रही है-सच है न?  फिर वह स्त्री भी स्त्री-पुरुष के भेद को भूलकर निःसंकोच भाव से प्रश्न करने लगीं, जब वे जाने लगीं तब श्री ठाकुरदेव ने कहा - " सप्ताह में एकबार यहाँ अवश्य आना। पहले पहल यहाँ पर अधिक आना-जाना अच्छा है। किन्तु कुछ स्त्रि-पुरुषों के वाइब्रेशन को बहुत देर तक सहन नहीं कर पाते थे, अधिक समय तक बैठे रहने पर कह देते थे, 'जाओ एकबार मन्दिर के दर्शन कर आओ। मन क्या है ? तत्त्वदर्शियों ने मन के दो भेद बताये हैं। एक समष्टिगत मन और दूसरा व्यष्टिगत मन। ब्रह्म का मन समष्टिगत है और समस्त प्राणियों का मन व्यष्टिगत। सृष्टि की उत्पत्ति भी ब्रह्म की इच्छा से हुई। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त (१०/१२९) में कहा गया है- कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।जब सृष्टि बनने लगी तो सबसे पहले काम  इच्छा की उत्पत्ति हुई। यह काम (इच्छा ) ही मन का रेतस् अर्थात् वीर्य है।'लस्ट ऐंड लूकर' की इच्छा ही  मन का बीज या अंकुर है । 'लस्ट और लूकर' के पीछे दौड़ने से बारम्बार एक ही भोगी रूप में जन्म लेने से कई जीवन व्यर्थ हुए होंगे ? इस सच्चाई को जान लेने के बाद संसार में फँसाने वाली तीनों प्रकार की एषणाओं (लोक-पुत्र-वित्त) के पीछे दौड़ने और  बार-बार एक ही तरह जन्म लेने और मरने की विफलता अच्छी तरह से समझ में आ जाती है। फलतः  उन लोगों के मन में भोग की इच्छाओं के प्रति तीव्र वैराग्य का उदय होता है। और उस वैराग्य के सहारे उनका हृदय सब तरह की वासना से एकदम मुक्त हो जाता है। इसके फलस्वरूप ऐसे योगियों में सर्वप्रकार की विभूतियों और सिद्धियों का स्वतः ही उदय होता है।

समाधिपाद के ५० वें सूत्र में कहा गया है -तज्जः संस्कारोऽन्यसंस्कार प्रतिबन्धी।। ५०। [तज्जः – उससे जनित/उत्पन्न, संस्कार – संस्कार, अन्यसंस्कारप्रतिबन्धी – दूसरे संस्कारों का बाध करने (हटाने) वाला होता है। ] यह समाधिजात संस्कार दूसरे सब संस्कारों का प्रतिबन्धी होता है, अर्थात दूसरे संस्कारों को फिर से आने नहीं देता।हमलोगों ने उपरोक्त सूत्र में देखा कि उस अतिचेतन भूमि पर जाने का एकमात्र उपाय है-एकाग्रता! हमने श्री ठाकुर के जीवन में यह भी देखा है कि, पूर्व संस्कार ही उस प्रकार की एकाग्रता (नाम-रूप की सीमा मुक्त एकाग्रता) पाने में हमारे प्रतिबन्धक हैं। तुम सबों ने गौर किया होगा कि ज्यों ही तुमलोग मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करते हो, त्यों ही तुम्हारे अन्दर नाना प्रकार के विचार उमड़ने लगते हैं। ज्यों ही ईश्वर-चिंतन करने की चेष्टा करते हो, ठीक उसी समय ये सब संस्कार जाग उठते हैं। दूसरे समय उतने कार्यशील नहीं रहते; किन्तु ज्यों ही तुम उन्हें भगाने की कोशिश करते हो, वे अवश्यमेव आ जाते हैं, और तुम्हारे मन को बिल्कुल आच्छादित कर देने का भरसक प्रयत्न करते हैं।इसका कारण क्या है ? इस एकाग्रता के अभ्यास के समय ही वे इतने प्रबल क्यों हो उठते हैं ? इसका कारण यही है कि जब तुम उनको दबाने की चेष्टा करते हो,वे पुराने संस्कार भी अपने सारे बल से प्रतिक्रिया करते हैं। अन्य समय में वे इस प्रकार अपनी ताकत नहीं लगाते। इन सब पूर्व संस्कारों की संख्या भी कितनी अधिक है !चित्त के किसी स्थान में वे चुपचाप बैठे रहते हैं, और बाघ के समान झपटकर आक्रमण करने के लिये मानो हमेशा घात में रहते हैं। उन सबको रोकना होगा, ताकि हम जिस भाव को मन में रखना चाहें, वही आये और पहले के सारे भाव चले जाएँ। पर ऐसा न होकर वे सब तो उसी समय आने के लिए संघर्ष करते हैं। मन की एकाग्रता में बाधा देनेवाली ये ही संस्कारों की विविध शक्तियाँ हैं। अतः समाधि-जन्य जो संस्कार हैं, उन्हें प्राप्त करने का अभ्यास करते रहना ही सबसे उत्तम है; क्योंकि वह पूर्व जन्मों के संस्कारों को रोकने में समर्थ है।[ सृष्टि के २ अरब वर्ष हुए हैं, मानलो किसी को ४२ वर्ष की उम्र में निर्विकल्प की समाधि हुई, तो इसके पूर्व जन्मों के जो संस्कार संचित थे वे सभी आने लगते हैं।]  इस समाधि के अभ्यास से जो संस्कार उत्पन्न होगा, वह सत्य को देखने के कारण इतना शक्तिमान होगा कि वह अन्य सब संस्कारों का कार्य रोक कर उन्हें वशीभूत करके रखेगा।  

अद्भुत सिद्धियों को प्राप्त करने पर भी उनके हृदय में लेशमात्र वासना न रहने के कारण वे कभी उन सिद्धियों का प्रयोग नहीं करते। लोककल्याण के निमित्त माँ कृपा करके पुनः शरीर में लौटा देती है, वे पूर्णतया श्री ठाकुर के इच्छाधीन रहकर 'बहुजन-हिताय' ही कभी कभी उन शक्तियों का प्रयोग किया करते हैं। उनकी संसार में स्थिति “लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाSम्भसा।। गीता ५/१० ” जल में कमल की भाँति होती है। मन पर उनका पूरा नियन्त्रण होता है वे मन को स्थूल जगत में लिप्त होने का अवसर ही नहीं देते। बाह्य प्रभाव उनके मन पर अंकित नहीं हो पाते। अतः अब वह योगी अंतर्जगत या अचेतन मन की गहराई में प्रवेश करता और मनःसमुद्र से ऐसे अमूल्य रत्न खोज लाता है कि सामान्य बुद्धि जिस पर आश्चर्य किये बिना नहीं रहती।अब हमलोग यह समझ सकते हैं, कि सब कुछ भगवच्चरणों में समर्पण कर देने के फलस्वरूप सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त होने के कारण ही, इतने अल्प समय में श्रीरामकृष्णदेव के लिये 'ब्रह्मज्ञान की निर्विकल्प भूमि' (अद्वैत) में आरूढ़ और दृढ़-प्रतिष्ठित होना सम्भव हुआ था। साथ ही अपने पूर्वजन्म के वृत्तान्तों को जानकर उन्होंने स्पष्ट रूप से अनुभव किया था कि पूर्व पूर्व युगों में 'श्रीराम' तथा 'श्रीकृष्ण' के रूप में आविर्भूत होकर जिन्होंने लोक-कल्याण साधन किया था, वे ही वर्तमान युग में पुनः शरीर धारण कर 'श्रीरामकृष्ण' के रूप में अवतरित हुए हैं।तब पूर्व जन्म की घटनाओं का स्मरण कर समझ गए कि, वे 'नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाववान' आत्मा (ब्रह्म) के अवतार हैं, तथा वर्तमान युग की धर्मग्लानि दूर कर, लोक-कल्याण साधन के निमित्त (भारत के युवाओं की खोई हुई श्रद्धा या आस्तिकता को लौटा देने के निमित्त) ही श्रीजगदम्बा ने उनको भारत की तात्कालीन राजधानी कोलकाता के दक्षिणेश्वर मन्दिर का निरक्षर-पुजारी बनाया है, और वहाँ के सर्वोच्च शिक्षित लोगों को उनका शिष्य बनाया है।

अद्वैतभावभूमि में आरूढ़ होकर उन्होंने और एक सत्य को हृदयंगम किया था कि अद्वैत भाव में सुप्रतिष्ठित होना ही समस्त साधनों का चरम लक्ष्य है। क्योंकि अद्वैत-भावभूमि में अवस्थित होने के बाद उन्होंने भारत में प्रचलित समस्त मुख्य धर्म-सम्प्रदायों (शाक्त-शैव-वैष्णव-इस्लाम-ईसाई आदि) के मतानुसार साधना करके यही अनुभव किया था कि प्रत्येक धर्मपंथ उसी अद्वैत-भूमि की ओर साधक को अग्रसर करता रहता है। क्योंकि संसार के सभी प्रचलित धर्म प्रेम-दया और क्षमा की शिक्षा देते हैं !" निर्विकल्प भूमि में प्रतिष्ठित रहने के फलस्वरूप द्वैत-भूमि की सीमा में अवस्थित कुछ घटनाओं और व्यक्तियों को देखकर अक्सर श्री ठाकुरदेव की "अद्वैत-स्मृति " जाग्रत हो उठती थी, और वे तुरीयभाव में लीन हो जाते थे ![अरे अद्वैत ज्ञान को आँचल में बाँधकर जो इच्छा सो करो ! किन्तु यह तो सबसे अन्तिम बात है ! जब तक 'मैं -तुम' तथा 'कहना-सुनना' इत्यादि भाव मन में उठते रहते हैं, (जब तक शरीर में हैं) तब तक 'निर्गुण -सगुण', 'नित्य तथा लीला ' इन दोनों भावों को - अर्थात व्यावहारिक वेदान्त को कार्यतः अपनाना ही पड़ेगा। शरीर में रहने तक, भले ही अद्वैतभाव की चर्चा मूँह से की जाये, किन्तु कार्य तथा आचरण में 'विशिष्टाद्वैत-वादी' ही बने रहना होगा ! संगीत में जिस प्रकार आरोह और अवरोह होते हैं -'सा रे ग म प ध नि सा ' इस क्रम से स्वर को चढ़ाने के बाद पुनः 'सा नि ध प म ग रे सा ' -इस प्रकार स्वर को नीचे उतारना होता है। उसी प्रकार निर्विकल्प समाधि में 'अद्वैत-ज्ञान' का अनुभव करने के बाद पुनः नीचे उतरकर 'मैं'-भाव का अवलंबन कर अवस्थित रहना है।  

एक बार मन्दिर में प्रसाद लेने के निमित्त आये भिखारियों को नारायण मानकर श्रीठाकुर ने उनकी जूठन को ग्रहण कर लिया था; यह देखकर हलधारी (श्रीठाकुर के चचेरे भाई, राधागोबिन्द मन्दिर के पुजारी थे), बहुत नाराज हुए, और कहा - " मैं देखूँगा कि तेरी सन्तानों का विवाह कैसे होगा ?" श्रीठाकुर ने कहा -'वाह रे पोंगा पण्डित, शास्त्रव्याख्या करते समय तू क्या यह नहीं कहता, कि 'ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा सर्वभूतों में ब्रह्मदृष्टि करनी चाहिए ? शायद तू यह सोंचता होगा कि मैं भी तेरी तरह जगत को मिथ्या कहूँ, और ऊपर से मुझे लड़के -बच्चे भी होते रहें ? धिक्कार है तेरे शास्त्रज्ञान को !" हलधारी की बात सुनकर जब उनके मन में सन्देह उत्पन्न हुआ तब माँ जगदम्बा से उन्हों ने अत्यन्त आग्रह पूर्वक प्रार्थना की थी, माँ ने उस समय 'रति की माँ' नामक महिला का वेश धारण कर घट के समीप आविर्भूत हो श्रीठाकुर को उपदेश दिया था , 'बेटे, तू भावमुखी रह !'भावमुख में अवस्थित रहते समय जब श्री ठाकुर को अपने 'सर्वव्यापी विराट 'अहं' का अनुभव होता था, उस समय 'एक' से 'अनेक' के विकास को देखकर - (अर्थात ब्रह्म ही जगत बने हैं -यह समझकर)वे श्रीजगदम्बा के निर्गुण भाव से दो-चार स्टेप नीचे 'विद्यामाया' के राज्य में विचरण किया करते थे। किन्तु उस राज्य में 'ऐक्य के भाव' की अनुभूति और अभिव्यक्ति इतनी तीव्र है कि इस ब्रह्माण्ड में जो व्यक्ति जो कुछ सोंच रहा है, बोल रहा है, या जिस कार्य को कर रहा है-उसको वे ही सोंच रहे हैं, बोल रहे हैं, या कर रहे हैं; ठीक इसी प्रकार का अनुभव श्रीरामकृष्णदेव  को होता था। .... एक दिन कोई व्यक्ति घास के ऊपर पैर रखकर चला जा रहा था और उन्हें अपने छाती पर अत्यंत आघात का अनुभव हो रहा था। लीला २/९७-९८ ] 

१.वृद्ध घसियारा : मंदिर-प्रांगण से बिना मूल्य घास लेने की अनुमति मिलने पर दिनभर घास काटता रहा, शाम को जब गट्ठर बाँधकर बेचने के लिये बाजार जाने को तैयार हुआ। श्री रामकृष्ण ने देखा लोभ के वशीभूत होकर उस वृद्ध ने इतनी घास काट ली थी कि उस वृद्ध के लिये गट्ठर उठाना भी सम्भव न था। फिर भी बार बार उसको उस बोझ को रखने का प्रयास तो कर रहा था, पर वजन इतना था कि उठा नहीं पा रहा था ! किन्तु वजन की तरफ गरीब घसियारे का कोई ध्यान न था।  यह देखकर श्रीरामकृष्णदेव - यह सोचते हुए भावाविष्ट हो गए, कि " भीतर पूर्ण ज्ञानस्वरूप आत्मा रहने पर भी, बाहर ऐसी निर्बुद्धिता, इतना अज्ञान! हे राम , तुम्हारी कितनी विचित्र लीला है ! " पंचभूते फाँदे ब्रह्म पड़े कांदे !" --और इस प्रकार कहते हुए समाधिस्त हो गए !!२. नये दूर्वादल पर चलने का दर्द अपने हृदय में३. दो मल्लाहों का झगड़ा४. देवघर में अकाल-पीड़ितों को कपड़ा -तेल देने की ज़िद ५. घायल पतिंगा। 

जब भारत में चरित्र-निर्माण, मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा व्यवस्था के बदले "बाबु -निर्माणकारी शिक्षा व्यवस्था" लागु हो गयी, तब यथार्थ शिक्षा या धर्म को पुनः स्थापित करने के लिये भगवान विष्णु (नेता) को पुनः विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के रूप में अवतार लेना पड़ा। उन्होंने अपने अंतिम समय में विवेकानन्द (तबके नरेन्द्रनाथ) के समक्ष स्वयं अपने मुख से कहा था - " ओ नरेन्, तुम्हें अब भी विश्वास नहीं हुआ ? जो राम जो कृष्ण, वही रामकृष्ण -इस बार दोनों एक साथ; किन्तु तेरे वेदान्त  दृष्टि से नहीं ! एकदम साक्षात्!"    इसीलिये अद्वैत भाव के विषय में पूछने पर वे बारम्बार यही कहते थे -" वह तो अन्तिम बात है रे, अन्तिम बात, ईश्वरप्रेम की चरम परिणति में स्वतः ही एक दिन 'वह' भाव -(तत्त्वमसि का प्रयोगगत यथार्थ का अनुभव), साधक के जीवन में आकर उपस्थित होता है। उन समस्त मतों के अनुसार 'अद्वैत या तत्त्वमसि' का अनुभव हो जाना अन्तिम बात है, एवं -'जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !"  (सभी मत अद्वैत तक पहुँचने के ही पथ हैं !)इस प्रकार से अद्वैत भाव की उपलब्धि कर लेने के बाद,श्रीरामकृष्णदेव के हृदय में अपूर्व उदारता और सहानुभूति का उदय हुआ। जो कोई धर्म-सम्प्रदाय -" ईश्वरप्राप्ति को ही मानवजीवन का चरम लक्ष्य" मानकर शिक्षा प्रदान करते हैं, उन सभी सम्प्रदायों के प्रति उनमें अपूर्व सहानुभूति का उदय हुआ था। किसी को धर्म के विषय पक्षपात करते देख कर उन्हें महान कष्ट होता था, तथा उस हीनबुद्धि को दूर करने के लिये वे हमेशा सचेष्ट रहते थे।

[हम लोग भाग्यवान हैं कि हम लोगों ने भी माँ जगदम्बा के एक पुत्र (ब्रह्मविद लोकशिक्षक/नेता / बाघमुख /नवनीदा का) प्रत्यक्ष दर्शन किया है। उनको छूआ है, उनके भोग प्रसाद को ग्रहण किया है, हम लोगों को तो 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' सुनने से आनन्द होगा ही। जिन लोगों ने नवनीदा का दर्शन तो किया है, किन्तु वे भी एक नेता/अवतार/ भगवान हैं -इस प्रकार से पहचान नहीं सके हैं, तब ऐसी अवस्था में उन सब दर्शकों को ईश्वर-दर्शन हुआ या नहीं ? तन्दुर की भट्ठी के निकट कोई व्यक्ति सो रहा हो, और गहरी निद्रा में उसका हाथ तन्दुर की भट्ठी से छू जाये, तो उसका हाथ जलेगा या नहीं ? जैसे अनजाने में भी आग में हाथ डालने से जल जाता है, उसी प्रकार अनजाने में भी ईश्वर का दर्शन करने से -ईश्वरदर्शन कार्य क्यों नहीं होगा ?]हमलोगों ने अबतक जन्मे जितने अवतारों का जीवन-चरित पढ़ा है, या उनकी लीलाओं- रावणवध,पूतनावध,कालियामर्दन आदि कथा को सुना है, इसीलिए वे भगवान हैं -इस बात पर विश्वास करते हैं। उसी प्रकार जब हमलोग रामकृष्णदेव की लीला को भी सुनोगे, तब रामकृष्ण्देव कौन हैं -यह समझ सकेंगे। जिस प्रकार  हमलोग राम और कृष्ण की लीलाओं को देख-सुन कर उनके अवतार होने पर विश्वास करते हैं, उसी प्रकार  रामकृष्णदेव की लीला को देख-सुन कर उन्हें भी 'अवतरवरिष्ठ' विशेषण साथ स्वीकार कर सकते हैं। 

वर्तमान युग में भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने अपनी साधना और आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा पृथ्वी पर विद्यमान सभी धर्मों की ग्लानि को दूर किया है।  साथ ही धर्म के संस्थापन के लिये अत्यन्त करुणा करके इसबार उन्होंने अनेक पापियों का पाप-भार अपने ऊपर ले कर उनको भी धर्मात्मा बनने का मौका दिया है। और अपनी भूल को सुधार कर साधु यथार्थ मनुष्य बनने की शिक्षा दी है; उसी प्रकार साधु पुरुषों के साधन-मार्ग के विघ्न को दूर कर उन्हें साधु बनाया है।  
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 শ্রীরামকৃষ্ণ কথামৃত : ঈশ্বরলাভ /श्रीरामकृष्ण परमहंस का जीवन और सन्देश/शुक्रवार, 15 सितंबर २०१७/पंचम वेद - [1] " युवाओं का एकमात्र काम है- डिस्ट्रीब्यूशन एंड प्रापगैशन ऑफ़ थॉट- करेन्ट्स."Saturday, July 11, २०१५/
ठाकुरदेव  अमृतमय शिक्षायें : उपदेश महामंत्र या महवाक्य / १. 'विवेक-दर्शन का फल समय सापेक्ष' होता है ! / महावाक्य :'ईश्वर आर अविद्यामाया (कामिनी -कांचन में आसक्ति) ए दूटी जिनिस'  ঈশ্বর আর অবিদ্যামায়া (কাম-কাঞ্চন) এ দুটি জিনিস। /महामंत्र ३. 'ओषधटि साधु-संग।'/महामंत्र ४ : 'कामिनी-कांचन के अन्तरे ठायीं दीयो ना'/ 'काम-कांचनेर ऊपर भेसे बेड़ियो'/'धर्मपत्नी के ईश्वरलाभेर सहाय मने करो'/'कांचन के डाल -भातेर जोगाड़ मने करो' /[महामंत्र ५:'आगे संसार के चिनते हय' / - अर्थात शाश्वत आधुनिक अवतार और नश्वर शरीर के हृदय में बैठे ठाकुर को विवेक-प्रयोग -दर्शन से पहचान लेना होगा)  'आगे 'मने ज्ञान-भक्ति माखिये संसारे प्रवेश।ज्ञान भक्ति अर्जन,पश्चात संसारे प्रवेश'/ प्रकार- ''गाये हलूद माखा थाकले जेमन कुमिरेर भय थाके ना'/रामकृष्ण देव पर -मनःसंयोग द्वारा अवतार के प्रति ज्ञान-भक्ति रूपी हल्दी का उबटन लगाने की पद्धति सीखो।]/[प्रश्न : आशाराम-रामरहीम जैसे ढोंगी गुरुओं द्वारा प्रचलित कनफुँकवा-गुरुपरम्परा के ढोंगी गुरुओं से बचने का उपाय क्या है ? चूजे के निकल जाने पर जैसे अंडा नहीं रहता।]/[महावाक्य:'आमी जा के धरब, ताके निजेर बरन धरिये छाड़बो'/'आमी जात-सांप, जाके एक बार छोबलाबो, ताके तीन डाकेर बेशी आर डाकते हबे ना!'][पेज/३३/महवाक्य : 'सर्वघटे विराज करे,इच्छामयी इच्छा जेमन'] / [पेज /३३ /  सांख्य-आधारित-भक्तिवेदान्त का सिद्धान्त 'राम ब्रह्म परमारथ रूपा ! ']/ [प्रश्न : माया क्या है ? स्पष्ट कीजिये !/ 'ता उ बटे, ना उ बटे'/ 'ईश्वरीय अवस्थार इति हय ना']/प्रश्न :अवतार के दो प्रकार :पेज-३५ /प्रश्न :ठाकुर-माँ -स्वामीजी के समधिस्त विग्रह की महत्ता (সমাধিস্ত কলেবর )/
इसीलिए सम्पूर्ण भारत में रामकृष्ण-विवेकानन्द भक्तिवेदान्त परम्परा में चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा का प्रसार करने में सक्षम लोकशिक्षकों (माँ काली से चपरास प्राप्त अवतार-नेता -पैगम्बर) का निर्माण करना ही महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम है। राजीनीति के साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।  
[ प्रश्न १.ड्रग एडिक्शन क्यों है ? आजकल के युवा लोग प्रतिभाशाली वकील,डाक्टर,इंजीनियर,टीचर, उद्यमी या बिजनेस-मैन होकर भी शराब, या  भाँग-गाँजा के नशा के आदि क्यों हो जा रहे हैं ?(सावन में देवघर-तारकेश्वर जाते समय भी ? क्योंकि भगवान स्वयं मनुष्य रूप में अब भी अवतरित हुए हैं, पर वे उनको नहीं पहचान पाते हैं।)]
[प्रश्न २: बलराम बसु के घर में परमहंस -ठाकुर को देखने के लिए पधारे किसी नवागन्तुक के प्रणाम करने से पूर्व ही श्रीरामकृष्णदेव स्वयं सिर को झुककर उस आगन्तुक व्यक्ति को प्रणाम क्यों करते थे ?]
[प्रश्न ३: मोड़ घुमाना किसे कहते हैं ? और ठाकुरदेव कृपा करके किसी मनुष्य का मोड़ कैसे घुमा देते थे ? ठाकुर देव की कष्ट-निवारण महिमा को देखें !]
[प्रश्न ४ : 'अवतार उपलब्धि ओ प्रत्यक्षेर विषय' (অবতার উপলব্ধি ও প্রত্যক্ষের বিষয়।)'  रामकृष्ण भगवान हैं, इस बात का प्रमाण क्या है?एक दिन विशाखापट्नम जाते समय भावी लोकशिक्षक को सिम्हाचलम पर्वत पर माँ जगदम्बा के कृपाप्राप्त भक्त नवनीदा के नरसिंह-वराह अवतार रूप का दर्शन प्राप्त हुआ! इस बात का प्रमाण क्या है? ]
[प्रश्न ५ : मनःसंयोग पुस्तक के अनुसार कार्य क्या है ? यदि विवेकदर्शन ही मनुष्य का मुख्य कार्य है -तो इसका फल क्या है ? रामकृष्ण लीलाप्रसंग और वचनामृत में एकत्व का दर्शन का फल क्या है ?तुम जब मन को एकाग्र करने की पद्धति में प्रशिक्षित होकर इस 'बी ऐंड मेक'-मार्ग से होकर चलने लगोगे तो स्वयं ही समझ जाओगे ! आदत से प्रगाढ़ प्रवृत्ति कैसे बन जाती है, या चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया कैसे कार्य करती है-इस बात को समझते हो न भाई ?][प्रश्न 6: मनुष्य का सबसे बड़ा सौभाग्य क्या है ?]
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