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बुधवार, 27 सितंबर 2023

🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏

🔱🙏श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहते हैं ?🔱🙏 

विष्णुपद मन्दिर गया और अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण कठ उपनिषद का अर्थ है  'क=ब्रह्म' (इन्द्रियातीत सत्य) , 'ठ= निष्ठा/श्रद्धा! ',  3H-2H= 1H, 1-1=0, लेकिन ∞- ∞ =  ∞ ही रहता है इसमें कोई संशय नहीं है। 

गदाधर परमपद मन्दिर गया के फल्गु नदी में पिण्डदान क्यों होता है? हमको तो लगता है नचिकेता भी बोधगया के ही आसपास ही कहीं रहता होगा !  क्योंकि हमलोग जानते हैं कि गदाधर दर्शन के लिए ठाकुर के पिताजी विष्णुपद मंदिर आये थे।  स्वप्न में भगवान विष्णु ने कहा था -तुम्हारी सत्य में निष्ठा है- मैं तुम्हारे यहाँ आऊंगा! 

जैसी बात होती थी, सबसे महत्वपूर्ण हमारे पास जो चीज है, वो है मन ! सृष्टि कहाँ से शुरू हुई ? ईश्वर, कहते हो, भगवान कहते हो ब्रह्म कहते हो, जो भी धारणा हमारी हो सकती है -सृष्टि वहीं से शुरू हुई। और उनके मन से,  सृष्टि करने की इच्छा से, इच्छा मन में ही आती है। उसी प्रकार हमलोगों के मन से ही सब कुछ बनता है। इसीलिए कहा गया है - 


मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

 बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥

(ब्रह्मबिन्दु/अमृतबिन्दु उपनिषद्- श्लोक 2)

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का कारण है। इन्द्रिय विषयों में आसक्त मन- अर्थात तीनों ऐषणाओं में आसक्त मन बन्धन का और इन्द्रिय विषयों से विरक्त मन मुक्ति (मोक्ष) का कारण कहा गया है।" अतः जो मन निरन्तर ठाकुर, माँ, स्वामीजी के चिंतन मेँ लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है। 
देह (शरीर) की भी जरूरत है, पर इससे बहुत महत्वपूर्ण है हमारा मन। अगर मन को पकड़ा नहीं गया, वशीभूत नहीं किया गया, तो शरीर चाहे कितना भी बलवान हो उससे कोई लाभ नहीं होगा। 
 तो ये सब मन को एकाग्र करने से ही होता है। हमलोग मूल्यवान वस्तु (सोना-चाँदी?) की खोज में इधर-उधर बहुत दौड़ते हैं, पर नहीं जानते कि हमारे भीतर ही सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है हमारा मन। हमलोग बाहर में ढूँढ़ते हैं- लेकिन जब हमलोग " आवृत्त चक्षु: अमृतत्वं इच्छन् " आँखों को बाहर से मोड़कर भीतर की ओर घुमाना चाहिए । 
[पराञ्चिखानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्‌।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैषदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्‌ ॥ 
(कठोपनिषद -२.१.१)
अन्वय : स्वयम्भूः खानि पराञ्चि व्यतृणत् तस्मात् पराङ् पश्यति न अन्तरान्मन्। कश्चित् धीरः आवृत्तचक्षुः अमृतत्वम् इच्छन् प्रत्यगात्मानम् ऐक्षत् ॥
'स्वयंभू' ने देह के द्वारों को, समस्त इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, इसीलिए मनुष्य की आत्मा बाहर की ओर देखती है, 'अन्तरात्मा' को नहीं। यत्र-तत्र विरला ही कोई ज्ञानी पुरुष (धीर पुरुष) होता है जो अमृतत्व की इच्छा करते हुए अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी करके 'अन्तरात्मा' को देखता है।] 

 >>>Two things are necessary Mind and Its Control: How to practice? मन और उसका नियंत्रण > अभ्यास कैसे करें? वैराग्य और अभ्यास दो चीजों की जरूरत है ! 'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।' (यो० सू० 1.12) बाहरी आँखें बंद करके >'वैराग्य' और भीतरी आँखें खोलकर >'अभ्यास' कैसे करें?? 

 Mind and Its Control: How to practice? (Two things are necessary -By closing the outer eyes>'वैराग्य' (Renunciation) and opening the inner eyes > अभ्यास (Practice-Be and Make) कैसे करें??

 विवेकदर्शन या मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए,  मन पर विजय पाने के लिए - या पुनर्मृत्यु पर विजय पाने के लिए दो चीजें आवश्यक हैं: भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं- 'त्याग और अभ्यास ' आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये - शेष सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। ( अर्थात वैराग्य के भाव के साथ सेवा >मनःसंयोग का प्रशिक्षण ..... देते जाइये)
 
>>> साहचर्य का नियम (Law of association):

श्रीमद्भागवत में कहा गया है –   यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथ किसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा, जिसका वह ध्यान करता है।
यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।
स्‍नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥
शब्दार्थ-यत्र यत्र—जहाँ जहाँ; मन:—मन को; देही—बद्धजीव; धारयेत्—स्थिर करता है; सकलम्—पूर्ण एकाग्रता के साथ; धिया— बुद्धि से; स्नेहात्—स्नेहवश; द्वेषात्—द्वेष के कारण; भयात्—भयवश; वा अपि—अथवा; याति—जाता है; तत्-तत्—उस उस; स्वरूपताम्—विशेष अवस्था को।
तात्पर्य- इस श्लोक से यह समझना कठिन नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति निरन्तर भगवान् का ध्यान करता है, तो उसे भगवान् जैसा ही आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होगा। धिया शब्द विशेष अर्थ में पूर्ण बौद्धिक संकल्प [Auto-suggestion- a miracle that obeys you.] को सूचित करता है। इसी तरह सकलम् शब्द मन की एकाग्रता का सूचक है। चेतना की ऐसी तल्लीनता से मनुष्य को अगले जीवन में वैसा ही स्वरूप प्राप्त होगा, जिसका वह चिन्तन करता रहता है। यह अन्य शिक्षा है, जो कीट-जगत से सीखी जा सकती है, जैसाकि अगले श्लोक में बतलाया गया है।
यदि प्राणी स्नेह द्वेष या भय से भी जान-बूझकर एकाग्रता से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का रूप प्राप्त हो जाता हैं । हे राजन् ! जैसे भृंगी एक कीड़े को पकड़ कर दीवाल पर अपने रहने के स्थान पर बन्द कर देती हैं, और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर को बिना त्यागे ही भृंगी के स्वरूप को प्राप्त हो जाता हैं । इसी तरह मनुष्य को अन्य का चिन्तन छोड़कर परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये ।  
अपने मन की वृत्ति को परमात्मा के ध्यान में ऐसी लगानी चाहिये कि विषयों के स्फुरित होने पर भी मन की वृत्ति विषयों में न जा सके और कभी भी हरि के स्मरण को न छोड़ सके । जैसे माता अपने बच्चे को प्रतिक्षण याद करती रहती हैं और घर के कार्यों में व्यासक्त होने पर भी उसको नहीं भूलती । 
जैसे योगी प्रतिक्षण संयम के द्वारा अपने वीर्य बिन्दु की रक्षा का ध्यान रखता है । जैसे कुरुपा नारी सुन्दर रूप का स्मरण करती रहती हैं, जैसे रस्सी पर चढ़ी हुई नटणी पतन के भय से उस पर चलती हुई रस्सी का ध्यान नहीं भूलती । जैसे कच्छपी अपने अण्डों को नेत्र से देखती रहती हैं । जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद से प्रेम करता हैं ।
जैसे कीड़ा भृंगी का ध्यान करता हुआ, भृंग बन जाता हैं उसी शरीर में रहता हुआ । जैसे मृग बाँसुरी के नाद को सुनता हुआ प्रेम से अपने प्राण त्याग देता हैं । जैसे पतंग अग्नि में पड़कर शरीर जला देता हैं । जैसे मछली जल के बिना मर जाती हैं । इसी प्रकार भगवान् का भक्त भी प्रेम से भगवान् को भजता हैं । ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण कहलाता हैं । 
हमारी सभी इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं, लेकिन इसको कभी कभी भीतर भी लेने की कोशिश करनी चाहिये। हमारे भीतर और भी बहुमूल्य सम्पत है। हमारी दृष्टि किसी वस्तु के भीतर जो है, वो तो है; लेकिन हम जिस दृष्टि से उसको देखते हैं - -उससे उसका भाव, उसका महात्म्य भी बढ़ जाता है।"
जब हम आँखों को मूँदकर अर्थात (बाह्य नेत्रों को मूँदकर और भीतर के नेत्रों को खोलकर) जिस दृष्टि से हम किसी वस्तु को देखते हैं -उससे  उसका महत्व और भी बढ़ जाता है। उसका भाव, उसका महात्म्य भी बढ़ जाता है।" मेरी दृष्टि से ऐसा होता है। इसलिए अब हमलोगों को भीतर देखने का अभ्यास करना है - 'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।'  यो० सू० 1 / 12/ 
दो चीज की जरूरत है -Two things are necessary' - पहला है वैराग्य ! यहाँ सूत्र में अभ्यास पहले है , और वैराग्य बाद में है। लेकिन व्यवहार में पहले वैराग्य का भाव रहेगा तब अभ्यास फलदायी होगा। वैराग्य नहीं रहने से कुछ नहीं होगा, अभ्यास बहुत करने से भी कुछ नहीं होगा। बैठा --उठा !  कुछ नहीं हुआ। लेकिन विधिवत 5 -10 मिनट बैठने -उठने से, सही रूप से बैठकर उठने से दृष्टि भी बदल जाएगी- बिलकुल। इसलिए हमें मन के जोर से - संकल्प की दृढ़ता से ये अभ्यास हमें करते जाना चाहिए। कभी इसे बन्द नहीं करना चाहिए। सुबह-शाम नहीं हुआ तो रात को जरूर हम अभ्यास करने बैठेंगे; और किस पर ध्यान रखेंगे 
>>>तो 'रामोकृष्णो' (रामकृष्ण)  का क्या मतलब है ?  {भगवान् (श्रीरामकृष्ण) की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है।}

जैसे यहाँ कहा जाता था , स्वामीजी को हमारा बंधु कहो ,गुरु कहो, शिक्षक कहो, जो भी हो -Swami Vivekananda is our friend, teacher or  Guru; so if we love him, That comes from my heart, I can't think otherwise. ठाकु-माँ-स्वामी जी की भक्ति करना बहुत अच्छी बात है; लेकिन भक्ति करना आसान नहीं है, और प्रेम बिल्कुल सहज है !  Devotion is alright, Very good!  But devotion is also not so easy. -But Love is spontaneous ! यदि मित्र-और गाईड स्वामीजी, माँ और ठाकुर की दया को याद करके हमारे ह्रदय में भी स्वामीजी के प्रति वही प्रेम किसी प्रकार जाग्रत हो जाये , तो हमलोग उनके और नजदीक आ जायेंगे। और जब हमलोग उनके बिल्कुल निकट आकर, बिना कुछ छुपाये उनका चिंतन करने कलगेंगे तो हमलोगों का यह पूरा शरीर -मन और ह्रदय सब कुछ बदल जायेगा; सब कुछ रूपान्तरित हो जायेगा। यह अब स्थूल शरीर (Physical Body) भी नहीं रह जायेगा। इसके लिए हमलोगों को जो अभ्यास करना होगा, पतंजलि योग सूत्र के अनुसार वह आठ चरणों में करना होगा।
पहला है कंट्रोलिंग - शम-दम बाह्य संयम और भीतर का संयम रहना चाहिए, लालच को कम करते जाना चाहिए। आसन - मेरुदण्ड या रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर अर्ध पद्मासन में बैठना चाहिए। पद्मासन का अभ्यास नहीं रहने से शरीर को थोड़ा कष्ट होगा तो मन उधर चला जायेगा। अर्ध पद्मासन में बहुत देर तक बैठा जा सकता है , आधा घंटा -एक घंटा भी बैठ सकते हैं।  शरीर की ओर मन नहीं जायेगा। अर्धपद्मासन में बैठकर फिर चिंतन करना चाहिए। 

क्या चिन्तन, किसका चिंतन करना, किसका ध्यान करना चाहिए ? अभी देखिये - मनःसंयोग के पहले जो रामकृष्ण स्त्रोत्र चल रहा था, उसके बारे में अभी मेरे मन में जो चल रहा था, वो बतलाता हूँ। उसमें रामकृष्ण -रामकृष्ण बार-बार चलता था। रामकृष्ण नाम का  मतलब क्या है ? राम के बारे में रामायण से जानते हैं। कृष्ण के बारे में महाभारत आदि बहुत से ग्रन्थ है। लेकिन रामकृष्ण का क्या मतलब है ?
  वही जो राम का है, जो कृष्ण का है। इसमें राम नाम का क्या मतलब है?कृषि का अर्थ है भू जो भू भी आनन्द देता है।  "One who attracts is Rama." -"जो आकर्षित करे वही राम है।" "रमयति" means one who delights you. जो तुम्हारे ह्रदय को आनन्द से भर दे, यह राम दशरथ के पुत्र ही नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक शक्ति भी हैं- 'आत्मा-राम' हैं (आत्म-ज्योति दर्शन के समय का ब्रह्मानन्द है, वही राम है !) जो प्रत्येक ह्रदय में निवास करते हैं ! आत्मा का आनन्द एक सार्वभौमिक चुंबक है जो हर चीज़ को आकर्षित करती है।" 
>>>तो 'रामोकृष्णो' (रामकृष्ण)  का क्या मतलब है ?  {भगवान् (श्रीरामकृष्ण) की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है।}
 Same thing - राम और कृष्ण , Same thing - रमयति इति राम: (रामो) – जो (परम्)-आनन्द देता है, वो है राम। कृष्ण क्या है -"कृषि भू वाचकः शब्दः णस्य तस्य निवृत्ति वाचकः" कृषि का मतलब भू या पृथ्वी, जो भू को भी आनन्द देता है- वो है कृष्ण । सभी मनुष्यों के मन को जो आनन्द देते हैं, सभी जीवों को जो आनन्द देते हैं -राम  - रमयति इति राम: (रामो) वे हैं राम। और कृष्ण भी वही हैं। सब जीवों को जो 'आ ' आनन्द देते हैं - ये हैं राम, ये हैं कृष्ण ! एक व्यक्ति राम वहाँ का (अयोध्या का) राजा था, दूसरे कृष्ण द्वारिका के राजा थे। केवल इतना ही नहीं।  रामायण-महाभारत पुराण आदि कहानियों के माध्यम से ज्ञान को साधारण जनता तक शिक्षा पहुँचाते हैं। केवल ऐसे कोई व्यक्ति थे या नहीं ? इस पर बहस में न पड़कर, लेकिन इसके पीछे, उनके नाम के बीच में जो भाव है, उसको पकड़ना चाहिए ; वह बहुत सुन्दर है। उनको राम या कृष्ण को एक प्रतीक के रूप में - किसी Image को लेने से यदि हमारे भीतर बहुत सुन्दर कोई बड़ा भाव आ जाता है, जो बहुत आनन्द देता है, वह क्या helpful है या नहीं ? यह देखना है। It is very helpful ' - भले ही ये सब कहानियाँ बच्चों के लिए लिखी गयी हों। 
बच्चे कहानियाँ सुनकर बहुत खुश हो जाते हैं। Stories are very good tutors .in earlier ages  वे इस तरह की कहानियाँ और सुनने के लिए आतुर हो जाते हैं। विश्व के हर देश में हर युग में ऐसी कहानियाँ-  'Aesop's Fables of the West'-पाश्चत्य जगत में बच्चों को नैतिक शिक्षा देने वाली प्रसिद्द " ईसप की दंतकथाएँ " होती हैं। ( ईसप की दंतकथाओं में शामिल कई कहनियां, जैसे लोमड़ी और अंगूर (जिससे “अंगूर खट्टे हैं” मुहावरा निकला) भारत में भी इस तरह की कई बच्चों को नैतिकता की शिक्षा देने वाली पुस्तकें पढ़ी जाती हैं। उन सभी का जड़ किन्तु पुराणों में पाया जाता है। आजकल कुछ भी रिसर्च पेपर छाप कर उसको न्यू फिलॉसफी कहने का चलन बढ़ गया है। लेकिन प्राचीन दर्शन तो सबसे पहले भारत में ही जन्में थे। वेदों और उपनिषदों में हम वास्तविक दर्शन देखते हैं। 
 
(and we see in our own time , the understanding and application of these great ideas shown very beautiful in the life of Sri Ramakrishna, Holy Mother Sarada devi and Swamiji.)  भारत ऐसे सन्त -महात्मा लोग बहुत बड़ी संख्या में आते रहते हैं। और भी देशों में आते हैं -लेकिन इक्के-दुक्के लोग ही आते हैं। भारत में और भी कई महान महापुरुष हुए हैं।  पर यदि हम उनके पास शिक्षा लेने जायेंगे -तो हमलोग उनकी शिक्षाओं और उनके जीवन में थोड़ा अन्तर दिखाई देगा। (Difference in their teachings and their life, Here we have the oldest philosophy) पर ठाकुर-माँ -स्वामीजी के जीवन में ही हमको सबसे प्राचीन दर्शन, 'वेदान्त -दर्शन'  दिखाई देखा। वेदान्त का मतलब क्या है? वेद का अर्थ है ज्ञान ! Veda doesn't mean some books . वेद का अर्थ पुस्तक/ग्रन्थ नहीं समझना चाहिए। They came in book form only the other day- पुस्तक के रूप में तो वे हाल में छापे गए। But they were orals, they came as orals from the mouth of teachers to the students . They used to hear , and after hearing they used to memorize themand recited  again , that is how it has came . लेकिन वे वेद-वाक्य, महावाक्य या ज्ञान शिक्षकों के मुख से विद्यार्थियों तक मौखिक भाषा के रूप में हजारों वर्ष पहले आये हैं । विद्यार्थी लोग उसे सुनते थे और सुनने के बाद उन्हें याद कर लेते थे, और गा कर उसका पाठ करते थे। (तैत्तरीय उपनिषद में तो उगल भी दिए थे)
इसीलिए वेदों को (महावाक्यों को) श्रुति कहा जाता है - शिष्यों ने इसे सुना है। सुनने से आया है। सुनकर याद है और फिर उसे अपने मुँह से निकालता है। उपनिषद क्या है ? उसे वेदान्त भी कहा जाता है। वेदों का जो शास्त्र है , उसके अन्त में जो है। वेदों के अन्त में उपनिषद है। और उसकी शिक्षाओं को अपने जीवन से demonstrate करने वाले महापुरुषों (मार्गदर्शक नेताओं) का भारत में कई बार अवतरण हुआ है। और इनमें से सब से अर्वाचीन हैं - हमारे युग के हैं , आधुनिक काल में जो अवतरित हुए हैं , वे हैं -श्री रामकृष्ण। 
मुझे एक ऐसे व्यक्ति को देखने का सौभाग्य मिला है -जिन्होंने श्रीरामकृष्ण को देखा था। मैंने ऐसे कई लोगों को देखा है , जिन्होंने माँ सारदा देवी को देखा था। और मैं कमसे कम एक व्यक्ति से मिला हूँ जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द को देखा था। इसलिए वे कोई पौराणिक कहानी के पात्र नहीं थे , उनका जन्म हमारे युग में ही हुआ था। हमारे युग में ही वेदों के सिद्धान्त को, उपनिषदों के दर्शन को अपने जीवन से प्रदर्शित करने में पूर्ण सक्षम ठाकु-माँ -स्वामीजी में और उनके १२ शिष्यों में आविर्भूत हुए थे। 
भगवान धरती पर अवतरित हुए होंगे या नहीं, उस युग में हमलोग नहीं थे। पर इस युग में हमारे टाइम में तो ये तीनो - जिनको हमलोग बेलपत्तर का तीन पत्तों वाला त्रयी कहते हैं। वेदों का एक नाम त्रयी भी है। जैसे श्रुति भी वेदों का नाम है , वैसे वेद तो चार हैं , ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद , अथर्व वेद, फिर त्रयी  नाम क्यों हैं ? गद्य ,पद्य और संगीत की त्रयी है उसमें। इन वेदों में कुछ गलत है, ऐसा अभी तक कोई साबित नहीं कर सके हैं। हमलोग इस युग में जन्में हैं -जब मानवशरीर में आकर ये तीनों का त्रयी -Three human lives retold us the whole philosophical idea. तीन मानव जीवनों ने हमें वेदों के संपूर्ण दार्शनिक विचार को पुनः अपने जीवन में उतार कर बताया। हमें इन सिद्धान्तों का उपयोग अपने जीवन में करना चाहिए। इसीलिए हमलोग सुबह शाम कहते हैं - "स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥ " 
श्री रामकृष्ण देव को अवतारवरिष्ठ  क्यों कहते हैं ? बहुत से लोग अपने अपने धर्म के अवतार को मानते हैं, कुछ लोग नहीं मानते हैं। ये अवतरवरिष्ठ कैसे हो गए ? ईसा मसीह भी अवतार हैं। पैगम्बर मोहम्मद अवतार हैं। हमलोग मानते हैं, मुसलमान लोग नहीं भी मान सकते हैं। हमें नहीं मालूम है, हमलोग उनको भी अवतार मानते हैं।  इस देश में कितने अवतार हैं। रामचन्द्र हैं। उनसे भी पहले हुए हैं -दशावतार की बात हमलोग जानते हैं। कितने अवतार हैं , बुद्ध एक अवतार हैं। दस अवतार हैं -आते आते हमारे जमाने में श्री रामकृष्णदेव आये थे। तो स्वामी विवेकानन्द उनको प्राणम -मंत्र में बोलते हैं - अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ! अवतार वरिष्ठ क्यों बोलते हैं ? क्या इसलिए कि वे हमारे गुरु हैं , हमारे भाषा बोलने वाले राज्य से हैं क्या इसलिए ? नहीं ! अवतार लोग क्या किये हैं? वे लोग धर्म प्रचार करते हुए, या किसी नए धर्म की शिक्षा देते हुए , अपने समय में धर्म को स्थापित किये हैं।  समय के प्रवाह में हर चीज में क्षरण होता है। जब धर्म में इतनी ग्लानि हो जाती है कि लोग अपने आध्यात्मिक लाभ के लिए उसका अनुसरण भी नहीं कर सकें , तब कोई शक्ति देह धारण कर अवतरित होती है। एक महामानव धरती पर आविर्भूत होता है , और धर्म को पुनः ऊपर उठाता है। अध्यात्म और धर्म कभी पुराना नहीं होता है, यह सबसे प्राचीन चीज है। सर्वोच्च आत्मा को ब्रह्म कहा जाता है-The highest spirit is called Brahman ! लेकिन यह विचार भी समय के प्रवाह क्षीण हो जाता है। तब कोई अवतार आते हैं क्योंकि - मनुष्य अपने आध्यात्मिक स्वरूप को भूलकर पशु हो जाते हैं। पर मनुष्य साधारण चौपाया जीव नहीं हैं। [25.24मिनट गूढ़ बात ]  मानव जीवन का एक उच्च उद्देश्य है - पशुओं जैसे रहने नहीं आया है। आम तौर पर जानवर चार पैरों से चलते हैं। पर मनुष्य अपने दो पैरों पर सीधा खड़ा हो सकता है, गर्दन उठाकर आसमान को देख सकता है। कोई भी पशु आकाश, तारे और स्वर्ग की तरफ नहीं देख सकता। मानव -शरीर ताजमहल है , ऊंचा उद्देश्य है। देवता भी ईश्वर लाभ नहीं कर सकते पर मनुष्य कर सकता है। कल फ़ारसी कवि रूमी की शायरी पर बात हो रही थी - मैं घास बन था, बढ़ता हुआ मनुष्य बन गया , अब देवता जाऊँगा ! देवता बन जाना ही अन्तिम पड़ाव नहीं है। उससे भी आगे जा सकते हो। हमें देव-शरीर को भी पार कर अनन्त में पहुँचना है। हमलोग कहानी सुनते हैं रामकृष्ण ने ध्यान में देखा था -स्वामीजी को वहाँ से लाये थे जहाँ 7 निवृत्तिमार्ग के ऋषि बैठे थे। हमलोग भी अनन्त तक उठ सकते हैं। ऊपर उठने की कोई सीमा नहीं है। वैसे ही इस मनुष्य अवस्था से गिरने की भी कोई सीमा नहीं हैं -पताल की गहराइयों में भी जा सकते हैं।
 
उपनिषद में एक छोटी सी कहानी है - 'गुरु बृहस्पति और एकान्त में कबूतर काटने की परीक्षा' बृहस्पति को कहा जाता है देव गुरु ! वे अपने जंगल के आश्रम में सभी देवता लोगों को भी शिक्षा देते थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक कई राज्यों में फैली हुई थी। देवता लोग उनके ज्ञान और समझदारी की वजह से उन से प्रभावित होकर बहुत दूर-दूर से उन्हें खोजते हुए इस जंगल में आ जाया करते थे।
tv के सामने बैठने का अभ्यास तो नहीं है। लेकिन अख़बार में कभी -कभी यूनिवर्सिटी या एडुकेशनल इंस्टीटूशन को लेकर फुल-वन पेज एडवर्टिजमेंट देखने को मिलता है। विदेशी यूनिवर्सिटी भारत में आती हैं, भारत की यूनिवर्सिटी विदेश में जाती है। यह कोई डिमाण्ड नहीं है, बल्कि उस शिक्षा को प्रचार के बल पर थोपा जाता है। हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी भी भारत में अपना ब्रांच खोलना चाहते हैं। [इंग्लैण्ड का ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, US के हार्वर्ड से काफी पुराना है क्योंकि इसकी स्थापना लगभग 900 साल पहले 1096 में हुई थी।] वहाँ के कुछ स्टूडेन्ट्स हमलोगों के यहाँ आये थे, सबसे हँसमुख मंत्री है - रेलवे मिनिस्टर द्वारा आविष्कृत कुछ नया क्रन्तिकारी मैनेजमेन्ट (जमीन के बदले नौकरी) सीखने आये थे। मंत्रीजी उनसे हिन्दी में बात किये। वहाँ के लड़के भी बहुत खुश हुए।उपनिषद में एक कहानी है - पहले की शिक्षा व्यवस्था में गुरु गृह वास की पद्धति थी। वे गुरु के घर में उनके साथ रहते थे और उनके परिवार के लिए काम भी करते थे। और शिक्षक उन्हें बिना फ़ीस लिए ही पढ़ाते थे। तो एक नया बैच उनके पास पढ़ने आया
 
1 दिन दो युवक इन महात्मा की खोज में इस जंगल में आ पहुंचे जहां एक बड़े ही सुंदर रमणीय स्थल पर महात्मा अपना गुरुकुल बना कर रहा करते थे। वे दोनों ही इन महात्मा को अपना गुरु स्वीकार कर उनसे शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे।
महात्मा कई युवकों को शिक्षा दे चुके थे लेकिन वे किसी भी युवक को शिक्षा देने से पहले उसकी कसौटी किया करते थे। इन दोनों युवकों को महात्मा ने देखा तो वे उन्हें अच्छे घर से लगे और उनकी परीक्षा लेने की महात्मा ने तय किया।
आप हमलोगों को पढ़ाना कब शुरू करेंगे 
महात्मा ने दोनों युवकों से कहा कि मैं तुम्हें अपना शिष्य जरूर बना लूंगा लेकिन उसके लिए तुम्हें मेरी एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। युवको ने महात्मा से कहा कि आप जो भी कहेंगे हमें मान्य हैं।

महात्मा ने गुरुकुल के कमरे में रख्खि दो कबूतरो की मूर्तियां लाकर चारों युवकों को 1-1 तेज छुरी थमांते हुए कहा इन कबूतरों की मूर्तियों को तुम जीवित कबूतर ही मानो और तुम्हें यह करना है कि जब तुम्हें कोई देख ना रहा हो तब तुम्हें इन कबूतरों की गर्दन काट देनी है! जब तुम ऐसा करने में सफल हो जाओ तो मेरे पास चले आना।

चारो  युवकों ने अपने-अपने कबूतरों को ध्यान से देखा। चारो ही कबूतर बहुत सुंदर से और उन पर बहुत अच्छे से रंग और आकृतियां बनी हुई थी। चारो  के मन में ख्याल आया कि इतनी आसान और सरल परीक्षा से गुरु जी हमें क्या सीखना चाहते होंगे? चारो  ने अपने अपने कबूतर लिए और अलग-अलग दिशा में जंगल में चले गए।
एक युवक जंगल में थोड़ी दूर गया जहां एक सुनसान मैदान उसे दिखा उसने चारों तरफ अपनी नजरें घुमा कर देखा और यह निश्चित करने के बाद की उसे कोई भी नहीं देख रहा है उसने अपने साथ लाए कबूतर की गर्दन काट दी। वह वापस गुरु के पास चला गया।
दूसरा युवक भी जंगल में दूसरी तरफ एक सुनसान जगह पर पहुंचा और एक पेड़ के नीचे खड़ा रहकर हर तरफ से नजरें घुमा कर देखने के बाद जब वह  कबूतर की गर्दन काटने ने लगा तब उसकी नजरें अचानक पेड़ के ऊपर बैठे अन्य पक्षियों पर पड़ी। क्यूकी उसे ऐसा करते हुए वे पक्षी देख रहे थे इसलिए उसने कबूतर की गर्दन नहीं काटी ।
युवक थोड़ी देर सोचने के बाद झाड़ियों में छिप गया और वहां पर कबूतर की गर्दन काटने  की कोशिश करने लगा। लेकिन वहां पर भी उसकी नजर झाड़ियों पर बैठी कीट पतंगे और मक्खियों पड़ गई और वहां पर भी वह यह काम पूरा न कर पाया।

फिर कुछ सोचने के बाद युवक ने एक जमीन में बड़ा सा गड्ढा बनाया और उसमें उतर कर कबूतर की गर्दन तोड़ने लगा। कबूतर की मूर्ति को छूते ही उसने देखा कि कबूतर की आंखें उसे देख रही है इसलिए उसने कबूतर की मूर्ति की आंखें ढक दी। 
फिर उसने सोचा कि वह खुद तो अपने आप को ऐसा करते हुए देख ही रहा है इसलिए उसने अपनी आंखों पर भी पट्टी बांधी ली! अब वह निश्चिंत हो गया कि ना ही कोई अन्य प्राणी या कबूतर की मूर्ति या वो खुद भी उसको ऐसा करते हुए देख पा रहा है। वह कबूतर की गर्दन पर हाथ रख कर काटने ने ही वाला था कि उसके अंदर से एक आवाज आई, वह आवाज उसके अंतरात्मा की थी! युवक अब अच्छे से समझ गया था कि गुरु जी इस छोटी सी सरल सी दिख रही परीक्षा से उन्हें क्या शिक्षा देना चाहते थे!
युवक बिना उस कबूतर की गर्दन मरोड़े ही गुरु के पास पहुंचा! गुरु के पास जाकर युवक ने गुरु से माफी मांगते हुए कहा कि गुरु जी मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं आपका दिया यह काम पूरा नहीं कर पाया क्योंकि जब भी मैं ऐसा करने की कोशिश करता तो मुझे कोई ना कोई देख रहा होता!

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात ।

स भूमिं विश्वतो वृत्तत्यतिष्ठदशाङुलम् ॥1॥

 पुरुष(सार्वभौमिक सत्ता) के हजारों सिर, हजारों आंखें और हजारों पैर हैं ( हजारों का मतलब असंख्य है जो सार्वभौमिक सत्ता की सर्वव्यापकता की ओर इशारा करता है। 
[32.33 मिनट
हमलोग सोचते हैं कि हम यहाँ कैम्प में ट्रेनी या ट्रेनर बनकर आ गए हैं - घर के लोग तो देख नहीं रहे कि हम कहाँ जा रहे हैं। किसी कैम्प में ? (?) कुछ लड़के यहाँ आने के बदले बंगाल के पहाड़ी क्षेत्र में चले गए, कुछ मारे गए पर कैसे ? ये अभी तक पता नहीं चला है। कोई नहीं जान सका कि वे कहाँ गए थे ? पर एक आँख है - जो हर जगह हमें देखती है। 
We can't escape those eyes. We all must remember that we are always being watched! our movements , our talks , even our thoughts ! So always you should try to remain pure! So always you should try to remain pure! in thought, in body, in deeds , in words, insight even, in our looks also, we must always try to remain pure . 
हम उन नजरों से बच नहीं सकते. हम सभी को यह याद रखना चाहिए कि हम पर हमेशा नजर रखी जा रही है ! हमारी हरकतें, हमारी बातें, यहां तक कि हमारे विचार भी कोई हर समय देख रहा है। अतएव हमें सदैव पवित्र रहने का प्रयत्न करना चाहिए! तो सदैव पवित्र रहने का प्रयत्न करना चाहिए! विचारों में, शरीर में, कर्मों में, शब्दों में, अंतर्दृष्टि में, यहाँ तक कि अपनी दृष्टि में भी, हमें सदैव पवित्र रहने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि आत्मा पवित्रतम वस्तु है। 
जब मैंने यह सुनिश्चित कर लिया कि बाहरी दुनिया में मुझे कोई देख नहीं रहा है तब भी मेरी अंतरात्मा और वह परमात्मा मुझे देख रहा था इसलिए मैं इस परीक्षा में पूरी तरह असफल हो गया।
कहानी की शिक्षा 
महात्मा ने उस युवक को शाबाशी देते हुए कहा कि तुम इस कसौटी में असफल नहीं बल्कि पूरी तरह से सफल हुए हो! इस कसौटी से मैं तुम दोनों को यही सिखाना चाहता था कि हम जो भी कार्य करते हैं वह उस परमात्मा से, उस परम शक्ति से कभी छुपा नहीं सकते! इसलिए हमे कोई भी कार्य उस परमात्मा को ध्यान में रखकर की करना चाहिए और जब हम ऐसा करते हैं तो हम कभी गलत कार्य नहीं कर पाते। 
हमलोग अवतार वरिष्ठ पर बात कर रहे थे - श्री रामकृष्ण हमारे युग के नवीनतम अवतार हैं-latest incarnation हैं ! सभी अवतार बराबर होने चाहिए थे , स्वामीजी ने श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहा ? अवतारों का same rank - समान पद होना चाहिए , C-IN-C ऑफ़ अवतार क्यों कहा ? जब धर्म की हानि होती है , तब धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए अवतार को आना पड़ता है।   
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। 
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ 

(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7)

पर श्री रामकृष्ण के लिए कहना पड़ता है - दुनिया के सभी धर्मों में जब ग्लानि आ गयी -तब सभी धर्मों को उठाने के लिए यदा वै सर्व धर्मानं ग्लानि बभूव भारत , तदात्मानं स स्रजस्य स - उस समय उन्होंने अपने को प्रकट किया। वे अवतीर्ण हुए। इसीलिए उनको अवतार वरिष्ठ कहा जाता है कि केवल भारत के धर्म में ही नहीं विश्व के सभी धर्मों में जब ग्लानि आ गयी थी , तब -रामकृष्णो ही केवलः ! तब सभी धर्मों को उठाने के लिए अपने को बनाया।  एक नया धर्म देने के लिए नहीं। To revive, regenerate, every religion of the world not one, किसी एक धर्म को नहीं, दुनिया के हर धर्म को पुनर्जीवित करने, मुरझाये धर्म में जान डालने के लिए रामकृष्ण स्वयं अवतरित हुए। 
जैसे गाँव कोई तालाब होता है - एक घाट से हिन्दू पानी लेता है, ईसाई वॉटर, जल, कोई एकवा  लेता है, लेकिन सब एक तालाब के पानी को अलग अलग नाम से -कोई अल्ला , गॉड , ईश्वर कहता है। यह एकत्व आया है रामकृष्ण जी से। इसीलिए उनको अवतार वरिष्ठ रामकृष्णो ही केवलः- इतिहास पुरानेषु समः कोऽपि न विद्यते! उनके बराबर का उदाहरण कोई इतिहास में नहीं है , पुराणों में नहीं है। 
कुछ साल पहले एक जर्मन लेखक ने एक पुस्तक लिखा था -'रामकृष्ण और ईसा मसीह अथवा  अवतार तत्व का विरोधाभास' ! अद्भुत पुस्तक है।  A German author wrote a book  some year back- 'Ramakrishna and Christ or the Paradox of Incarnation' , wonderful book ! उन्होंने रामकृष्ण और ईसामसीह के जीवन को इतनी गहराई से देखा था कि हमलोग नहीं देख पाते। पुस्तक की अंतिम पंक्ति में श्री रामकृष्ण के बारे में वे कहते हैं कि - " श्रीरामकृष्ण देव एक 'पेरुमा' थे (लैटिन शब्द) का अर्थ होता है - पूर्ण परिपूर्णता {Entirety- Perfectness or Wholeness}  जिसमें कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता। और जहां वे यीशु मसीह से मिलते हैं - वे प्रेम है!"  -He says about Sri Ramakrishna, in the last line that - " He was a peruma - The absolute fullness to which nothing can be added. and where he meets Jesus Christ - He is Love! " वह एक पेरुमा थे - पूर्ण पूर्णता जिसमें कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता है। 
इसलिए हमलोग बहुत भाग्यवान हैं जो हमलोग इस युग में जन्म लिए , कि यदि हमलोग वेद-उपनिषद आदि शास्त्र या अन्य किसी भी धर्म का धार्मिक ग्रन्थ नहीं भी पढ़ें -इन तीनों के जीवन और शिक्षाओं को देखें तो बड़े सरल शब्दों में सभी धर्मों के शास्त्रों की शिक्षा मिलेगी। कि अगर कोई बच्चा भी समझने की कोशिश करे तो समझ सकता हैं। इसलिए हमलोग बड़े भाग्यवान हैं , हमलोगों को कठोर परिश्रम करना होगा, ताकि हम भी अपने जीवन को इतने परिपूर्णता से गढ़ सकें कि हमारे जीवन की परिपूर्णता में और कुछ जोड़ा नहीं जा सके।  

स्वामी विवेकानन्द से जुड़ी किसी भी संस्था के नाम को देखकर, महामण्डल के कुछ पुराने और वरिष्ठ सदस्य लोग भी यही समझते हैं कि यह महामण्डल भी मिशन की तरह कोई रिलीफ वर्क या  "अम्फान चक्रवात राहत कार्य " (Amphan cyclone relief work) चैरिटी करने वाला एक संगठन है।  परन्तु महामण्डल का मुख्य काम -'Be and Make' द्वारा या मनुष्य बनने और बनाने के आन्दोलन द्वारा, स्वयं भारत के राष्ट्रीय आदर्श त्याग और सेवा में तीव्रता लाने के अभिप्राय को समझकर 'वैराग्य और अभ्यास' का मुख्य कार्य को पीछे छोड़कर,यदि समाज सेवा करने जायेंगे , कम्प्यूटर ट्रेनिंग स्कूल या अस्पताल खोलेंगे तो वहां भी वैराग्य का भाव नहीं रहने से लालच आएगा। और सारा कार्य बदनाम हो जायेगा। 
"put the cart before the horse": घोड़े के आगे गाड़ी लगाने का क्या मतलब है? यदि आप कहते हैं कि कोई घोड़े के आगे गाड़ी रख रहा है, तो आपका मतलब है कि वे गलत क्रम में काम कर रहे हैं । उदाहरणार्थ  सरकार ने बड़े सुधार करने से पहले (चरित्रवान मनुष्य का निर्माण करने से पहले) भारी निवेश करके गाड़ी को घोड़े के आगे रख दिया। >कठोपनिषद के अनुसार यदि शरीर रथ और इन्द्रियाँ घोड़े हैं तो 'रथ के आगे घोड़ा लगाना उचित होता है, या घोड़ा के आगे रथ लगाना उचित होता है? "

23 सितम्बर, 2023 : कोन्ननगर 56th AGM : के पहले अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के General Secretary सोमनाथ बागची की स्मरण सभा में, सहायक महासचिव- अमित दत्ता ने अचानक मुझे भी कुछ बोलने को कहा गया। मैंने सोमनाथ दा और तुहीन चटर्जी के साथ 15 दिन के गुजरात प्रवास के दौरान जामनगर के शुभेन्दु महतो के घर पर 100 स्त्री-पुरुष की बैठक में महामण्डल के उद्देश्य और कार्यक्रम को बहुत अच्छीतरह रखे जाने का उल्लेख किया था। मुझसे पहले श्रद्धेय दीपक दा ने सभी सदस्यों को शरीर को स्वस्थ रखने का अनुरोध किया था। मैंने भी कहा था 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' इन पंक्तियों का अर्थ इस प्रकार है.. कि शरीर की सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से ही होनी है। लेकिन जैसा मैंने सुना उनका घर श्याम बाजार (मायेर बाड़ी) के निकट था , वे शारीरिक तकलीफ को सह लिए, घाव में सेप्टिक हो गया किसी को बतलाये नहीं, 'रामकृष्ण सेवा -प्रतिष्ठान' के डॉक्टर स्वामी दिव्यानन्द जी के बहुत कहने पर उनका इलाज किये , पर सफल नहीं हुए। तब   मेरे मुख से केन उपनिषद का यह श्लोक आया था - 

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति

(केनोपनिषद- २. ५)

भारतीय फिलॉसफी (उपनिषद की) यह नैतिक शिक्षा कितनी पुरानी है! भूतेषु भूतेषु- सब जीवों में, 'विचित्य' उनको (ईश्वर को) देख कर-उनको समझकर; धीराः प्रेत्य अस्मात् लोकात् अमृता भवन्ति॥ After leaving behind this physical world-they become immortal - what a noble idea !  इस भौतिक संसार को पीछे छोड़ने के बाद वे - अमृता भवन्ति' -वे अमर हो जाते हैं - कितना अच्छा विचार है!
 We have all these teachings  , and these things come from that noble sources. हमारे पास ये सभी शिक्षाएँ हैं, और ये चीज़ें उन्हीं प्राचीन महान स्रोतों से (वेदों -उपनिषदों से) आती हैं। और हम अपने समय में, हमारे युग में अवतरित श्री रामकृष्ण, पवित्र माता सारदा देवी और स्वामीजी के जीवन में इन महान विचारों की समझ और अनुप्रयोग को बहुत सुंदर तरीके से देखते हैं।
  
[क 16. 22मिनट] 

[56th AGM held on '24-9-2023 :  After memorial meeting (স্মরণ সভা) : Assistant  General Secretary- Amit Dutta/Jagdish De मेरे बगल में सोया था ? /Tapan Chatterjee/तीनों डायस पर थे। स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make परम्परा में > Ranen da-President/ Dipak Sarkar da और BKS  VP// हुए। Amit Dutta-GS // Tapan chatterjee /C/O -Pramod da-Vikas da/ Prabal Mohanti, Ranjit Mohanti,  Saumen/ Anindo/-Samir/ Arunabho/ Tuhin/ Ajay/ +2 Ranjit Ghosh ,Abhijit Ghosh included by Ranen da, said Biren da's condition not good-his mouth become filled by saliva -'लारपूरितं मुखम्' सृष्टि का उद्देश्य अहं समाप्ति /दिव्यता /पूर्णत्व का विकास और प्रकाश। 
Uttam Chatterjee fine photographer and audio recordist of Mahamandal. The purpose behind creation is ego annihilation/ man is marching  towards perfection Professor Basudeb of  Ranchi is fine after the operation./  दिपयेन्दु जाना was with pramod da/ सृष्टेः पृष्ठतः  उद्देश्यं अहङ्कारस्य विनाशः अस्ति/ मनुष्यः सिद्धतां प्रति गच्छति रांचीनगरस्य प्रोफेसर बासुदेबः शल्यक्रियायाः अनन्तरं कुशलः अस्ति।] purpose of creation ego annihilation/Professor Basudeb of  Ranchi is fine after the operation.] 
    
{ किसी भी वस्तु को प्रकट होने के लिये स्थल चाहिये । बीज भूमि की अपेक्षा करता है ।
 ‘कृष्ण’ शब्द का मूल अर्थ महाभरत  में लिखा है-

कृषिर्भूवाचकः शब्दः 'ण'श्च निवृतिवाचकः । 

तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।।’

(महाभारत, उद्योग-पर्व 71/4)

‘कृष्’ धातु – भू अर्थात् सत्ता वाचक है; ‘ण’ – शब्द निवृत्ति अर्थात् परमानन्द वाचक है। ‘कृष्’-धातु में ‘ण’–प्रत्यय युक्त करके ‘कृष्ण’ शब्द में परमब्रह्म प्रतिपादित हुआ है। ‘कृष्ण’ शब्द से आनन्दमयी सत्ता को समझना चाहिए। 
 
 कृष् (कृषि) "भू" वाचक है, और "ण" निवृति(आनन्द)वाचक । ध्यातव्य है कि भू- भावसत्ता का ख्यापक है(@@@http://punyarkkriti.blogspot.com/2016/03/blog-post_11.html) 
वेदान्त में इसे ‘आनन्दं ब्रह्म’ (तै. उ.) कहते हैं, अर्थात् ब्रह्म आनन्दमय है, परन्तु कृष्ण में वह आनन्द प्रचुर मात्रा में है, अर्थात् कृष्ण का आनन्द असीम है, जो कि ब्रह्मानन्द-Cosmic Bliss'  का भी आधार है। दूसरी ओर भगवान् रस स्वरूप हैं, सुख स्वरूप एवं आनन्द स्वरूप हैं , " प्रमाण: रसो वै सः। रसं ह्ओवायं? लब्ध्वानन्दी भवति ।।(तैत्तिरीय उपनिषद् 2/7) वे (परम पुरुष कृष्ण) रस स्वरूप हैं। उस रस (आनन्द) का जो पान करते हैं, वे ‘आनन्दी’ होते हैं। उपनिषद् में ‘सः’ शब्द के द्वारा ‘कृष्ण’ को ही इंगित किया गया है
‘कृष्ण’ शब्द के अन्य अर्थ हैं – ‘कृष्’- आकर्षक सत्तावाचक, ‘ण’ आनन्दवाचक (अर्थात् ‘कृष्’ का अर्थ होता है आकर्षण और ‘ण’ का अर्थ आनन्द) – जो आकर्षण करके आनन्द देते हैं और स्वयं आनन्दित होते हैं, वे ही ‘कृष्ण’ हैं। अर्थात् कृष्ण का अर्थ है – सर्वाकर्षक, सर्वानन्ददायक। प्रत्येक विषय में सर्वोत्तम नहीं होने से वे सर्वाकर्षक नहीं हो सकते।
कृष्ण अणु से भी अणु परमात्मा और विभु से भी विभु ब्रह्म हैं।  एवं अनुत्व और विभुत्व को समाहित कर मध्यम स्वरूप से विचित्र प्रकार की अनन्य लीला करने वाले हैं।
‘वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज् ज्ञानमद्वयम्।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।।’
(श्रीमद्भा. 1-2-11)
‘तत्’ अर्थात् अतीन्द्रिय वस्तु के भाव को तत्त्व कहते हैं। अद्वय ज्ञान को ‘ब्रह्म’, ‘परमात्मा’ और ‘भगवान्’ – इन तीन शब्दों के द्वारा कहा जाता है
तत्त्व को जानने वाले उसी अखण्ड ज्ञान या अद्वय ज्ञान (absolute knowledge or infinte knowledge) को ‘तत्त्व’ कहते हैं। वहाँ अद्वय ज्ञान को ‘ब्रह्म’ शब्द द्वारा, ‘परमात्मा’ शब्द द्वारा एवं ‘भगवान्’ शब्द से सम्बोधित किया जाता है। ‘ब्रह्म’ शब्द से ‘वृहत्व’ अर्थात् बड़ा ही नहीं बड़े से भी बड़ा (greatest of the greatest), परमात्मा शब्द से ‘अणुत्व’ अर्थात् छोटा ही नहीं छोटे से भी छोटा व भगवान् से उनका ‘सर्वैश्वर्यमयत्व’ निर्देश होता है :- अर्थात् उनमें वृहत्व, अणुत्व, मध्यत्व व सर्वत्व सभी विद्यमान हैं। ‘भगवान्’ शब्द परतत्त्व के सभी प्रकार के भावों को प्रकाशित करता है। ज्ञानी अद्वयज्ञान तत्त्व को ब्रह्म (व्यक्तित्व रहित अखण्ड ज्ञान/Absolute knowledge without personality) रूप से, योगी परमात्मा रूप से एवं भक्त भगवान् रूप से अनुभव करते हैं। भगवान् अनन्त रूपों से जो अनन्त लीलायें करते हैं उनमें से श्री कृष्ण स्वयं रूप हैं।
“एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे।।”
(श्रीमद्भा.1/3/28)
श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास जी मत्स्य, कूर्म, राम, नृसिंहादि अवतारों के विषय में बोलने के पश्चात् कह रहे हैं कि ये कोई पुरुषोत्तम भगवान् श्रीहरि में अंशावतार, कोई कलावतार और कोई शक्त्यावेश अवतार हैं। प्रत्येक युग में जब भी जगत् असुरों से पीड़ित होता है, तब असुरों के उपद्रव से जगत् की रक्षा करने के लिए ये अवतार हुआ करते हैं। किन्तु, व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण तो साक्षात् स्वयं-भगवान् (अवतारी) हैं।श्री कृष्ण समस्त अवतारों के कारण-–अवतारीं हैं, स्वयं भगवान् हैं
उनका न तो कोई कारण है, न कोई उनके समान है, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः उन भगवान् को जानने के लिये उनकी कृपा के अतिरिक्त किसी अन्य उपाय को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसलिये यदि भगवद्-तत्त्व की उपलब्धि करनी है तो प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा-वृति लेकर तत्त्वदर्शी ज्ञानी गुरु के पास जाना होगा। श्रीमद् भगवद् गीता में भी ऐसा ही निर्देश दिया है:-
“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिनः।।”
(श्रीगी. – 4/34)
“तत्त्वज्ञान प्राप्त करने की विधि बताते हुए कह रहे हैं – अर्जुन! ज्ञान का उपदेश करने वाले गुरु के पास जाकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके जिज्ञासा करो, हे भगवन्! मैं संसार में क्यों फंसा हुआ हूँ? इससे किस प्रकार छुटकारा मिलेगा? इस प्रकार परिप्रश्न (युक्तिसंगत प्रश्न) करने के पश्चात् सेवा पूजा के द्वारा उन्हें प्रसन्न करो।”

 "कृष्ण" में कृष भू वाचक है । "ण" यहाँ निरतिशय अविरल अनन्त आनन्द का वाचक है । 
कृषिर्भूवाचकः शब्दः ण श्च निवृतिवाचकः । तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते ।।  कृष् (कृषि) "भू" वाचक है, और "ण" निवृति(आनन्द)वाचक । ध्यातव्य है कि भू- भावसत्ता का ख्यापक है। 

{ प्राची (पूर्व) दिशा से ही पूर्णचन्द्र उदय होता है । "बंदऊँ कौशल्या दिशि प्राची ।" प्राची रूपी कौशल्या माँ से पूर्णतम आनन्द श्री राम प्रकट हुए । पूर्णचन्द्र को उदय हेतु पूर्ण प्राची दिशा चाहिये । पूर्णिमा के अतिरिक्त पूर्ण पूर्व दिशा से चन्द्र उदय नही होता है । पूर्ण चन्द्र उदय हो रहा है विशुद्ध पूर्व दिशा से और हमारा चित् है आज पाश्चात्य मय हो गया है । 
और भागवत जी में श्रीकृष्ण चन्द्र का प्राकट्य  --
देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः । 
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशिन्दुरिवपुष्कलः । 
देवरूपिणी देवकी (मनुष्य रूपिणी नहीं कहा गया , यह देवत्व पिपासा से प्राप्त निर्मलत्व ही है ) में आनन्दकन्द श्रीकृष्णचन्द्र ऐसे प्रकट हुए जैसे प्राची दिशा से पूर्णचन्द्र । प्राची सम्बोधन का अर्थ है , निर्मल- विशुद्ध-सत्वमय देवकी रूपी  प्राची । ब्रह्म का पूर्ण प्रकाश ब्रह्माकार में समाये हुये परम् सत्वमयी मानसी वृत्ति पर ही पुर्णोत्तम पुरुषोत्तम का प्राकट्य होता है । सात्विकता की पराकाष्ठा से ही पूर्ण स्वरूप का दर्शन सम्भव है , और प्रेम पिपासा से वह अवस्था आज भी सुलभ है । देवकी माँ उसी सात्विकता की अधिष्ठात्री महाशक्ति देवरूपिणी श्री देवकी है और उनमें पूर्णतम तत्व का आनन्दघन श्री कृष्णचंद्ररूप में प्राकट्य हुआ है । 

श्रीरामकृष्ण प्राकट्योत्सव : फाल्गुन शुक्ल द्वितीया > जन्मोत्सव की हार्दिक बधाई जी ।  भगवान जन्म नहीँ लेते अवतार लेते है , अति विशेष भाव रस निर्मल चित् भूमि से ।  भगवतोत्सव ही रस है, और वह अवश्य किसी भी जाल में फंसे जीव को भगवत् रस की ओर लालायित करता है , भगवत् धाम तो नित्य नव नव उत्सवों से ही सजे होते है । सत्-चित्-आनन्द का आनन्द तो नित्य है और वर्धनमान है । 
अतः कृष्ण नाम में कृष् यानी भूमि अधिक और आनन्द उसके उपरान्त एक अक्षरी ही है । भूमि क्या है ? -- सत्ता । सत्ता क्या है -- भाव । भाव क्या है -- अत्यधिक एकात्म होने से अभीष्ट के चित्रण की चित् की द्रविभूत अवस्था । (इसे विस्तार से कभी वाणी माध्यम से भगवत्कृपा से व्यक्त करने का प्रयास रहेगा) । अतः भाव उपरांत आनन्द । भाव की भूमि पर सदा रहने और बढ़ते रहने वाला आनन्द । अतः पहली आवश्यकता है आनन्द के लिये भूमि की, और वह है भाव । भाव क्या है ? -- प्रेम अवस्था , और इस प्रेम अवस्था का मूल सार रस स्वरूप क्या है ? वह है श्री श्यामा जु । किशोरी जु । यशोदा - यश: ददाति इति यशोदा । जो दूसरों को यश दे वह यशोदा है, इस स्वरूप से देने के लिये होना भी चाहिये जिसमें अपार यश वर्षा हो वही स्वरूपा यशोदा है। 
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मंगलवार, 26 सितंबर 2023

🔱🙏 'कारण शरीर' और उसका निर्मूलन : रावण के पूर्वजन्मों की कहानियाँ 🔱🙏 साहचर्य का नियम--यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया । '56th AGM held on '24-9-2023 ' Causal body' and its elimination. 🔱🙏सोमनाथ बागची स्मरण सभा >

 *रावण के पूर्वजन्मों की कहानियाँ*  

रावण अपने पूर्वजन्म में भगवान विष्णु के द्वारपाल हुआ करते थे।  पर एक श्राप के चलते उन्हें तीन जन्मो तक राक्षस कुल में जन्म लेना पड़ा था। आज इस लेख में हम आपको रावण के दो पूर्वजन्मों और एक बाद के जन्म के बारे में बताएँगे।  पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु सनक, सनंदन आदि ऋषि बैकुंठ पधारे। 

परंतु भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें प्रवेश देने से इंकार कर दिया। ऋषि-गण इससे अप्रसन्न हो गए और क्रोध में आकर जय-विजय को शाप दे दिया कि तुम राक्षस हो जाओ। जय-विजय ने प्रार्थना की व अपराध के लिए क्षमा माँगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। 

तब ऋषियों ने अपने शाप की तीव्रता कम की और कहा कि तीन जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना पड़ेगा। और उसके बाद तुम पुनः इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। इसके साथ एक और शर्त थी कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी-स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना अनिवार्य होगा। 

यही शाप वाला प्रसंग राक्षसराज, लंकापति, दशानन रावण के जन्म की आदि गाथा है।

भगवान विष्णु के ये द्वारपाल पहले जन्म में हिरण्याक्षहिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्मे। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था और उसने पृथ्वी को उठाकर पाताल-लोक में पहुँचा दिया था। पृथ्वी की पवित्रता बहाल करने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार धारण करना पड़ा था। फिर विष्णु ने हिरण्याक्ष का वध कर पृथ्वी को मुक्त कराया था।

हिरण्यकशिपु भी ताकतवर राक्षस था और उसने वरदान प्राप्तकर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया था। भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का वध करने की वजह से हिरण्यकशिपु विष्णु विरोधी था और अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद को मरवाने के लिए भी उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। फिर भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का वध किया था। खंभे से नृसिंह भगवान का प्रकट होना ईश्वर की शाश्वत, सर्वव्यापी उपस्थिति का ही प्रमाण है। त्रेतायुग में ये दोनों भाई -हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ही पुनः रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और विष्णु अवतार श्रीराम के हाथो मारे गए

तीसरे जन्म में द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, तब ये दोनों शिशुपाल व दंतवक्त्र (Dantavaktra) नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए थे। इन दोनों का भी वध भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हुआ।

दन्तवक्र का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य 'महाभारत' में हुआ है। महाभारत के अनुसार दन्तवक्र श्रुतदेवी का पुत्र था। श्रुतदेवी का विवाह करूषाधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था और उसका पुत्र था दन्तवक्र। श्रुतदेवी श्री कृष्ण की माता देवकी की छोटी बहन थी। जब शाल्व ने द्वारका पर आक्रमण किया, तब दन्तवक्र भी शाल्व की ओर से कृष्ण के विरुद्ध युद्ध में लड़ा था। 

युधिष्ठिर के 'राजसूय यज्ञ' के समय शिशुपाल को श्रीकृष्ण ने मार दिया था। उस समय उस राजसभा में शिशुपाल के जो मित्र, समर्थक राजा थे, वे सब भय के कारण प्राण लेकर भाग खड़े हुए। दन्तवक्र इन्द्रप्रस्थ से भाग तो गया, किन्तु उसे यह निश्चय हो गया था कि श्रीकृष्ण अवश्य मुझे भी मार देंगे।

बैकुण्ठ में भगवान विष्णु (नारायण) के पार्षद जय-विजय को सनत्कुमार के शाप से असुर योनि प्राप्त हुई थी। कृपालु महर्षि ने तीन जन्म में पुनः बैकुण्ठ लौट आने का इनका विधान कर दिया था। पहले जन्म में दोनों दिति के पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु हुए। हिरण्याक्ष को भगवान ने वराह रूप से और हिरण्यकशिपु को नृसिंह रूप धारण करके मारा। त्रेता युग में दोनों का दूसरा जन्म रावण-कुम्भकर्ण के रूप में हुआ। भगवान श्रीराम के बाणों ने दोनों को रणशैय्या दी।

शिशुपाल और दंतवक्त्र जन्म से ही भगवान कृष्ण से दुश्मनी रखते थे। शिशुपाल ने तो पानी पी-पी कर कृष्ण को गाली दी थी। फिर भी भगवान ने शिशुपाल को परम पद दिया। आखिर इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइए।

हे युधिष्ठिर ! भगवान की भक्ति करने वाले भक्त का उद्धार तो होता ही है, इनसे वैर करने वाले भी इनका चिंतन करते-करते इन्हीं में समा जाते हैं। पूतना, कंस, शिशुपाल, दंतवक्त्र इन लोगो ने द्वेष भाव से भगवान में ध्यान लगाया और हम लोगों ने भक्ति भाव से मन लगाया और सबका कल्याण हुआ। कृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है-“ये यथा माम प्रपद्यंते तान् तथैव भजाम्यहम”

अब द्वापर युग में दोनों शिशुपाल-दन्तवक्र होकर उत्पन्न हुए थे। शिशुपाल को तो श्रीकृष्ण ने सायुज्य मुक्ति दे दिया था । अब दन्तवक्र की नियति उसे उत्तेजित कर रही थी। शिशुपाल से दन्तवक्र की प्रगाढ़ मित्रता थी। शिशुपाल की मृत्यु ने उसे उन्मत्त-प्राय: कर दिया था। लेकिन श्रीकृष्णचन्द्र के जरासंध के साथ सभी युद्धों में दन्तवक्र रहा था और प्रत्यके बार उसे पराजित होकर भागना ही पड़ा।

जब शाल्व अपने विमान से द्वारका पर आक्रमण करने चला गया, तब दन्तवक्र अकेला ही द्वारका पहुँचा। उसने रथ छोड़ दिया और गदा उठाये पैदल ही सेतु पार किया। दन्तवक्र गदा युद्ध करने आया था। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि एक भरपूर गदा वह कृष्ण के वक्ष पर मार सके, बस। श्रीद्वारिकाधीश उसे देखते ही रथ से कूदे और गदा उठाये दौड़े। दन्तवक्र रुका। उसने अपनी भारी वज्र के समान गदा उठाई और श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर भरपूर वेग से प्रहार किया। अब श्रीद्वारिकाधीश ने अपनी कौमोदकी गदा उठाकर दन्तवक्र के वक्ष पर प्रहार किया। सहसा उसके मुख से वैसी ही ज्योति निकली, जैसे शिशुपाल के शरीर से निकली थी। यह ज्योति भी श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में लीन हो गयी।

शिशुपाल -दंतवक्त्र (Dantavaktra) वध का वास्तविक अर्थ है-'कारण शरीर' का निर्मूलन।   मनःसंयोग के अभ्यास और परमात्मा की  कृपा (माँ सारदा की कृपा) से  विष्णु ग्रंथि छेदन। अहंकार मे डुबे हुए साधक को “ तुम नर नही सिंह हो” कहना ही नरसिंहावतार का उद्देश्य है। सिंह-विक्रम जैसा प्रयत्न यानि दृढ प्रयत्न करने से इस भयंकर अहंकार से बाहर आ सकते हो ऐसा उद्भोदन करना ही हिरण्यकशिपु/हिरण्याक्ष वध (स्थूल शरीर निर्मूलन/ब्रह्म ग्रंथि छेदन) का उद्देश्य है। संसार (पानी) मे डुबे हुए साधक को पृथ्वी तत्व (मूलाधार) यानि प्रारंभिक प्रयत्न को ज्ञान के दाँतों से संसारसागर से बाहर लाना ही व(वरिष्ठ) राह(रास्ते पर लाना) वराह अवतार की उद्देश्य है। हिरण्याक्ष (संसारी की आँख)। अहंकार और कामांधता मे स्थित रावण को और कुंभ (बहुत) खाकर, कर्ण (मस्त हो कर कान बान्धकर) गहननिंद्रा मे स्थित कुंभकर्ण ( सूक्ष्म शरीर निर्मूलन/रुद्र ग्रंथि छेदन) वध कर के ध्यान साधना मे आगे बढना ही श्रीराम अवतार का उद्देश्य है। शिशुपाल का मतलब जो शिशु जैसा अनाड़ी हो। दंतावक्रु का मतलब शिशु अवस्था जैसा। परमात्मा के बारे मे साधक के मन मे व्याप्त शिशु अवस्था या अनाड़ीपन को दूर करना ही शिशुपाल और दंतावक्रु का वध यानि कारण शरीर निर्मूलन/विष्णु ग्रंथि छेदन है। श्री कृष्णावतार का यही उद्देश्य है। आखरी बात-  मानव जन्म, मुमुक्षत्व और महापुरुष दर्शन (विवेकानन्द का दर्शन)  यह तीनों चीजे मिलना अत्यंत दुर्लभ है। आज नही तो कल हम सभी लोगो को इस संसार सागर को घूमकर अन्त मे थक-हार कर अपने स्वगृह लौटकर यानि परमात्मा मे ही परमशांति प्राप्त होगी। चोरासी लाख (84 लाख) योनीयो मे केवल मनुष्य योनी में ही विवेकदर्शन के अभ्यास  की साधना से 'धारणा, ध्यान -समाधि' की अवस्था में पहुँच पाना साध्य है।  पशु-पक्षि इत्यादि योनियों में  मनःसंयोग की साधना असाध्य है (उनकी रीढ़ की हड्डी हॉरिजेंटल है) , लेकिन मोक्ष के लिये देवताओ को भी ध्यान साधना की जरूरत होती है, और उस ध्यान साधना को पूरा करने के लिये उन्हे भी मानव जन्म ही लेना पडता है इसीलिए -..........पहले वैराग्य' के साथ .....विवेकदर्शन  का अभ्यास कीजिये, ......अर्थात मनःसंयोग का अभ्यास कीजिये। ध्यान कीजिये.........ध्यान कीजिये ।।http://kriyayogasadhana.blogspot.com/2014/11/blog-post_3.html]

🔱🙏'कारण शरीर' और उसका निर्मूलन :🔱🙏

'Causal body' and its elimination. 

'कारण-शरीर’ और ‘सूक्ष्म-शरीर’ (‘subtle body’) कैसे बनते हैं। और आत्मा के साथ इनका सम्बन्ध कब तक रहता है? (How 'causal body' and 'subtle body' are formed. And how long does their relationship with the soul last?)

कारण शरीर ”प्रकृति” का नाम है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय का नाम प्रकृति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का नाम ‘कारण-शरीर’ है। अब उस प्रकृति रूपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है। 

>>>कपड़ा -धागा - रुई : आपने शरीर पर सूती कुर्ता/ कपड़ा पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कुर्ता ये तीन वस्तु हो गयीं। कुर्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर (gross body), सूक्ष्म शरीर (subtle body) और कारण शरीर (causal body) स्थूल शरीर है कुर्ता, सूक्ष्म शरीर है धागा, और कारण शरीर है- रूई

कारण शरीर के बिना सूक्ष्म शरीर नहीं बनेगा। सूक्ष्म शरीर के बिना स्थूल शरीर नहीं बनेगा। गीता १४/५ में कहा गया हैः- कारण शरीर प्रकृति सत्त्वरजसतमः। 

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।

निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।14.5।।

।।14.5।। हे महाबाहो ! सत्त्व, रज और तम ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण, देही 'आत्मा' को देह के साथ बांध देते हैं।।

 "गुण " शब्द संस्कृत -अध्यात्मशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली का होने के कारण उसका किसी अन्य भाषा में अनुवाद करना कठिन है। विशेषकर अंग्रेजी में उसका समानार्थी कोई शब्द नहीं है। 

संस्कृत आध्यात्मिक साहित्य में सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों को क्रमशः श्वेत, रक्त और कृष्ण वर्ण के द्वारा सूचित किया जाता है। संस्कृत में गुण शब्द का अर्थ रज्जु अर्थात् रस्सी भी होता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्रकृति के ये तीन गुण रज्जु के समान हैं ; जो सच्चित्स्वरूप आत्मतत्त्व को असत् और जड़ अनात्मतत्त्व के साथ बांध देते हैं। ये गुण प्रकृति से उत्पन्न हुये हैं। वे आत्मा को देह के साथ मानो बांध देते हैं, जिसके कारण वह जीव भाव को प्राप्त होकर जीवन और मृत्यु के अविरल चक्र और संसार के दुखों में फँस जाता है। 

सारांशत ये गुण वे तीन विभिन्न प्रकार के भाव या तीन प्रकार की ऐषणा (पुत्र-वित्त-लोक) हैं जिनके वशीभूत् होकर हमारा मन  निरन्तर परिवर्तन - शील परिस्थितियों में विविध प्रकार से अपनी प्रतिक्रियारूपी क्रीड़ा करता रहता है।  जिनके कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों (बीरेन दा, रणजीत दा......) का व्यवहार भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है।

आत्मा और अनात्मा (शरीर+मन) का यह संबंध मिथ्या है, वास्तविक नहीं।  देश-काल-पात्र आदि के परिच्छेदों से मुक्त आत्मा को इन परिच्छेदों से युक्त स्वप्न के समान प्रक्षेपित , जड़ उपाधियों के साथ कभी नहीं बांधा जा सकता।  वह इनके दोषों से (देह-मन या अहं के दोषों से) सदा असंस्पृष्ट ही रहता है, जैसे  स्तंभ अपने में अध्यस्त प्रेत से और जाग्रत् पुरुष स्वप्न द्रष्टा के अपराधों से वस्तुतः अलिप्त ही रहता है

 इसी प्रकार जब तक त्रिगुण जनित बन्धन (शरीर-M/F के अहं के साथ तादात्म्य) बना रहता है, तब तक ऐसा प्रतीत होता है- मानो आत्मा इन अनात्म उपाधियों के संसर्गवशात् जीव भाव (M/F भाव, Bhजय-विजय भाव) को प्राप्त हुआ है। परन्तु यथार्थतः वह [ब्रह्मविद आत्मा] -स्वप्नद्रष्टा के समान अपने स्वप्न से नित्यमुक्त ही रहता है। 

 हे महाबाहो भगवान की  माया से उत्पन्न ये तीनों गुण इस शरीर में शरीरधारी अविनाशी क्षेत्रज्ञ को मानो बाँध लेते हैं। क्षेत्रज्ञ का अविनाशित्व अनादित्वात् इत्यादि श्लोक में कहा ही है।  प्रश्न -- पहले यह कहा है कि देही -- आत्मा लिप्त नहीं होता? फिर यहाँ यह विपरीत बात कैसे कही जाती है कि उसको गुण बाँधते हैं ? उ0 -- इव शब्द का अध्याहार करके हमने इस शङ्का का परिहार कर दिया है। अर्थात् वास्तव में नहीं बाँधते,  बाँधते हुए से प्रतीत होते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से अब यह स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार इन गुणों के स्वरूप तथा उनसे उत्पन्न बन्धन की प्रक्रिया का स्पष्ट ज्ञान -  हमें मुक्ति (अन्तिम पुरुषार्थ -मोक्ष) का अधिकार पत्र प्रदान कर सकता है।

इसी मुक्ति प्रदाता यथार्थ ज्ञान की व्याख्या करते हुए, भगवान श्रीकृष्ण ने गीता -१३/३१ में कहा है  -- जिस समय ( यह विद्वान् ) भूतों के अलग-अलग भावों  को -- भूतों की पृथक्ता को एक आत्मा में ही स्थित देखता है। अर्थात् शास्त्र और आचार्य के उपदेश पर श्रवण-  मनन करके आत्मा को इस प्रकार प्रत्यक्ष-भाव से देखता है, कि यह सब कुछ आत्मा ही है। 

तथा उस आत्मा से ही सारा विस्तार -सब की उत्पत्ति, सृष्टि का विकास देखता है अर्थात् जिस समय आत्मा से ही प्राण, आत्मा से ही आशा, आत्मा से ही संकल्प आत्मा से ही आकाश, आत्मा से ही तेज, आत्मा से ही जल, आत्मा से ही अन्न, आत्मा से ही सबका प्रकट और लीन होना इत्यादि प्रकार से सारा विस्तार आत्मा से ही हुआ देखने लगता है, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है -- ब्रह्मरूप ही हो जाता है।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।

तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।13.31।।

।।13.31।। यह पुरुष (M/F नहीं ब्रह्मविद आत्मा) जब भूतों के पृथक् भावों को एक (परमात्मा) में स्थित देखता है तथा उस (परमात्मा) से ही यह विस्तार हुआ जानता है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।।

किसी वस्तु या घटना के वैज्ञानिक अध्ययन की पूर्णता उसके बौद्धिक विश्लेषण तथा प्रायोगिक प्रत्यक्षीकरण से ही होती है। जब भौतिक विज्ञान में पदार्थ-ऊर्जा (E=Mc2) समीकरण से यह ज्ञात होता है कि परमाणु ही पदार्थ की इकाई है।  तब इस ज्ञान के साथ यह भी समझना चाहिए कि ये परमाणु ही विभिन्न संख्या एवं प्रकारों में संयोजित होकर असंख्य रूप और गुणों वाली वस्तुओं के इस जगत् की रचना करते हैं। 

इसी प्रकार समस्त 'नाम' और 'रूपों' के पीछे एक आत्मतत्त्व ही 'सत्य' (अविनाशी)  है;  यह जानना मात्र आंशिक ज्ञान है। ज्ञान की पूर्णता तो इसमें होगी कि जब हम यह भी जानेंगे कि उसी एक (अविनाशी-अपरिवर्तनशील) आत्मा से यह (परिवर्तनशील नश्वर) विविधता पूर्ण यह सृष्टि किस प्रकार प्रकट हुई है ? जिस प्रकार समुद्र को जानने वाला पुरुष असंख्य और विविध तरंगों का अस्तित्व एक समुद्र में ही देखता है। 

 इसी प्रकार ब्रह्मविद या आत्मज्ञानी पुरुष भी भूतों के पृथक्-पृथक  भाव को एक परमात्मा में ही स्थित देखता है। जैसे समस्त तरंगें समुद्र का ही विस्तार होती हैं। वैसे ब्रह्मविद-या आत्मज्ञानी पुरुष का भी यही अनुभव होता है कि एक आत्मा से ही इस सृष्टि का विस्तार हुआ है

स्वस्वरूपानुभूति के इन पवित्र क्षणों में ज्ञानी पुरुष, ब्रह्मविद स्वयं ब्रह्म बनकर यह अनुभव करता है कि एक ही आत्मतत्त्व अन्तर्बाह्य सब को व्याप्त और आलिंगन किए है।  सबका पोषण करते हुए स्थित है न केवल गहनगम्भीर और असीम-अनन्त में वह स्थित है, वरन् सभी सतही नाम और रूपों में भी वही व्याप्त है।

स्वयं आत्मस्वरूप बनकर ही आत्मा का अनुभव होता है। जिसने यह पूर्णतः जान लिया है कि स्वहृदय में स्थित आत्मा ही सर्वत्र भूतमात्र में स्थित आत्मा (ब्रह्म) है !  तथा किस प्रकार अविद्या के आवरण के कारण विविध नाम-रूपों में सत्य का दीप्तिमान स्वरूप आवृत हो जाता है, वही पुरुष तत्त्वज्ञ और सम्यक दर्शी - विवेकानन्द दर्शी या - साम्यभाव में स्थित (C-IN-C नेता) कहा जाता है।  उस अनुभव के समय में वह (साधारण खोजी) स्वयं उपाधियों से परे ब्रह्म से तादात्म्य को प्राप्त होता है। लेकिन नेता लौटकर शरीर-मन में पुनः आ जाता है, पर उससे निर्लिप्त रहता हुआ Be and Make आन्दोलन में लगा रहता है।  

>>>Subtle Body (सूक्ष्म शरीर) : सत्त्व, रज और तम से जो अठारह चीजें बनी हैं, उसका नाम है- सूक्ष्म शरीर। सृष्टि के आरंभ में जब भगवान ने ये सारी दुनिया बनायी तो 'कारण शरीर' (causal body) प्रकृति से (Nature -सत,रज, तम या माया, देश-काल-निमित्त से) अठारह पदार्थ उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- बुद्धि ,अहंकार, मन, पाँच ज्ञान- इन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रा। इन 18 का नाम सूक्ष्म शरीर है। ये सारे पदार्थ प्रकृति से बनते हैं। 

रूप,रस, गंध, शब्द और स्पर्श आदि पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत बनते हैं। जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, आकाश, इन पाँच महाभूतों के नाम है। इन्हीं पाँच पदार्थों का समुदाय ये स्थूल शरीर बना (Physical Body) हुआ है। जो आपको आँख से दिखता है, वो स्थूल रूप (Physical Form)। तो ये इन तीनों का संबंध है।

जब तक जीवात्मा पुर्नजन्म धारण करेगा, यानी एक शरीर छोड़ दिया, दूसरा शरीर धारण कर लिया, तो स्थूल शरीर छूट जायेगा। अतः मृत्यु होने पर ये छूट जायेगा। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर, ये दोनों जीवात्मा के साथ जुड़े रहेंगे। पुर्नजन्म हुआ फिर नया स्थूल शरीर मिल गया, फिर अगला शरीर, फिर अगला। जब तक मुक्ति नहीं होगी तब तक सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर साथ रहेगा। जब मुक्ति हो जायेगी तब तीनों शरीर छूट जायेंगे। धागा वही रहता है, कुर्ते बदलते रहते हैं। 

>>>'आवृत चक्षु' का आध्यात्मिक प्रलय, एकाग्रता या समाधि  (Spiritual dissolution, concentration or samadhi of covered eyes):

 सूक्ष्म-शरीर और कारण-शरीर तब तक साथ रहेंगे, जब तक पुर्नजन्म होता रहेगा। जब मोक्ष हो जायेगा तब तीनों दूर हो जायेंगे।  अथवा मोक्ष नहीं हुआ और आ गई प्रलय तो प्रलय में तीनों शरीर छूट जायेगा [माँ सारदा देवी की कृपा से कोई-कोई (would be President) प्रलय के बाद भी अपने पुराने शरीर में वापस लौटेगा!]  स्थूल शरीर तो वैसे ही थोड़े-थोड़े दिनों में छूटते रहता है। तब सूक्ष्म शरीर भी टूट-फूट कर नष्ट हो जायेगा और कारण शरीर रूपी प्रकृति बचेगी। सूक्ष्म शरीर वापस टूट-फूट कर कारण शरीर के रूप में परिवर्तित हो जायेगा।

जैसे मिट्टी का हमने ढ़ेला लिया और उसकी ईंट पका ली और फिर ईंट तोड़कर वापस मिट्टी बना दी, तो वापस ये मिट्टी बन गई यानि कारण शरीर बन गया।  प्रलय के समय तो जीवात्मा अलग हो गया पर मुक्ति नहीं मिली। फिर एक नयी सृष्टि बनेगी, तो उसके साथ जीवात्मा को ईश्वर (कुम्हार) फिर दोबारा जोड़ देगा। 

 तब तक वह बंधन की स्थिति में है। जब तक मोक्ष न हो जाये अथवा प्रलय न हो जाये तब तक ये दोनों शरीर आत्मा के साथ जुड़े रहेंगे।  मोक्ष में या प्रलय में ये छूट जायेंगे। मोक्ष होने पर तो फिर हजारों सृष्टियों तक ये तीनों शरीर फिर जुड़ते नहीं हैं।

 अब रही बात राग और द्वेष की। राग और द्वेष भी जीवात्मा की शक्ति है। राग और द्वेष दो प्रकार का है :- एक स्वाभाविक और दूसरा नैमित्तिक। जो स्वाभाविक राग-द्वेष है, वो जीवात्मा से नहीं छूटेगा। वो मुक्ति में भी जीवात्मा में रहेगा। और स्वाभाविक राग-द्वेष में रहते-रहते मुक्ति हो जायेगी। इसमें कोई आपत्ति नहीं है, कोई बाधा नहीं है। जो नैमित्तिक राग-द्वेष है, वो बाधक है। उसे हटाना पड़ेगा, मुक्ति में वो छूट जायेगा।

>>> स्वाभाविक राग-द्वेष क्या है? और नैमित्तिक राग-द्वेष क्या है? उत्तर है कि जीवात्मा को हमेशा सुख चाहिये। यह उसको सूक्ष्म राग है। ये स्वाभाविक राग है। ये मुक्ति में बाधक नहीं है। जीवात्मा को दुःख कभी भी नहीं चाहिये। दुःख में उसको स्वाभाविक द्वेष है। ये भी मुक्ति में बाधक नहीं। ये स्वाभाविक राग और द्वेष रहेंगे, मुक्ति हो जायेगी। कोई परवाह नहीं।

अमुक-अमुक व्यक्ति ने मेरी हानि कर दी, मैं उसकी गर्दन तोडूँगा, ये सोचना नैमित्तिक द्वेष है। खीर, पूड़ी, लड्डू, हलुआ मुझे मिलना चाहिये, मुझे अधिक मिलना चाहिये, उसको कम, ये सोच नैमित्तिक राग है। ये मुक्ति में बाधक है। ये हट जायेगा, फिर मुक्ति होगी। इसके रहते मुक्ति नहीं होगी। इसको छोड़ देंगे तो मुक्ति हो जायेगी

>>>The world appears as one sees: जैसी दृष्टि वैसा (अपना -पराया) नजर आता है संसार

संसार बुरा तब लगता है जब हमारा मन इसे बुरी दृष्टि से-अर्थात  'अपना और पराया की दृष्टि' से देखता है। मन का स्वभाव दुख पकड़ने का है। संसार को कैसे देखा जाए इसके लिए श्रीराम किष्किंधा कांड में बालि की रोती हुई विधवा तारा को समझाते हैं। इस वार्तालाप पर तुलसीदासजी चौपाई लिखते हैं - 

तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।। 

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।। 

तारा को व्याकुल देखकर श्रीरघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। उन्होंने कहा - पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच तत्वों से यह शरीर रचा गया है।' प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ? वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो?

 श्रीराम ने तारा को समझाया कि यह जो शरीर निष्प्राण तुम्हारे सामने पड़ा है यह इसके पूर्व तुम्हारे पति का था। शरीर का अंत होने पर पांचों तत्व अपना हिस्सा ले जाते हैं, लेकिन इसके भीतर जो आत्मा है वह कभी नहीं मरती। श्रीराम तारा को समझाते हैं कि जिस शरीर के लिए तुम रो रही हो क्या इसमें से आत्मा निकल जाने पर इसको रख सकती थी ? इस पूरे वार्तालाप से हम यह समझें कि संसार हमें उसकी समझ के कारण अच्छा या बुरा लगता है, अपना या पराया लगता है

 माँ सारदा देवी की दृष्टि से देखें तो - " यहाँ कोई पराया नहीं है बेटी, सबको अपना बनाना सीखो। दोष देखना हो तो अपना दोष देखो, दूसरे का नहीं ! " श्रीराम की दृष्टि से देखें, तो जिस शरीर का जन्म हुआ हो, उसकी मृत्यु भी होती है, जो आया है वह जाएगा। यदि हमलोग 'आवृत चक्षु ' होकर संसार के कण-कण में परमात्मा देखने लगें तो फिर जब हमें अपनों से बिछड़ना पड़े, या कभी अपनों से ही धोखा खाना पड़े तब हम सुख-दुःख को अलग ढंग से लेने लगेंगे।  क्योंकि परमात्मा प्रत्येक निर्णय में समाया हुआ है। उसे जितना देना था, उसने दिया और जितना लेना था ले लिया। फिर किस बात का शोक करें, क्यों दुःख मनाएं। हम "अमृतस्य पुत्राः " हैं - प्रेममय (CINC- नवनीदा) के हिस्से हैं , हमलोग तो -श्री रामोकृष्णो के हिस्से हैं उसी की तरह प्रसन्न रहें।

हे युधिष्ठिर ! भगवान की भक्ति करने वाले भक्त का उद्धार तो होता ही है, इनसे वैर करने वाले भी इनका चिंतन करते-करते इन्हीं में समा जाते हैं। पूतना, कंस, शिशुपाल, दंतवक्त्र इन लोगो ने द्वेष भाव से भगवान में ध्यान लगाया और हम लोगों ने भक्ति भाव से मन लगाया और सबका कल्याण हुआ। कृष्ण ने गीता में स्वयं कहा है-“ये यथा माम प्रपद्यंते तान् तथैव भजाम्यहम

>>>Law of association>"संसर्गस्य नियमः"

< साहचर्य का नियम : सोमनाथ बागची स्मरण सभा  >

श्रीमद्भागवत में कहा गया है –   यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथ किसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा, जिसका वह ध्यान करता है।

यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।

स्‍नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥

शब्दार्थ-यत्र यत्र—जहाँ जहाँ; मन:—मन को; देही—बद्धजीव; धारयेत्—स्थिर करता है; सकलम्—पूर्ण एकाग्रता के साथ; धिया— बुद्धि से; स्नेहात्—स्नेहवश; द्वेषात्—द्वेष के कारण; भयात्—भयवश; वा अपि—अथवा; याति—जाता है; तत्-तत्—उस उस; स्वरूपताम्—विशेष अवस्था को।

तात्पर्य- इस श्लोक से यह समझना कठिन नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति निरन्तर भगवान् का ध्यान करता है, तो उसे भगवान् जैसा ही आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होगा। धिया शब्द विशेष अर्थ में पूर्ण बौद्धिक संकल्प [Auto-suggestion- a miracle that obeys you.] को सूचित करता है। इसी तरह सकलम् शब्द मन की एकाग्रता का सूचक है। चेतना की ऐसी तल्लीनता से मनुष्य को अगले जीवन में वैसा ही स्वरूप प्राप्त होगा, जिसका वह चिन्तन करता रहता है। यह अन्य शिक्षा है, जो कीट-जगत से सीखी जा सकती है, जैसाकि अगले श्लोक में बतलाया गया है।

यदि प्राणी स्नेह द्वेष या भय से भी जान-बूझकर एकाग्रता से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का रूप प्राप्त हो जाता हैं । हे राजन् ! जैसे भृंगी एक कीड़े को पकड़ कर दीवाल पर अपने रहने के स्थान पर बन्द कर देती हैं, और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर को बिना त्यागे ही भृंगी के स्वरूप को प्राप्त हो जाता हैं । इसी तरह मनुष्य को अन्य का चिन्तन छोड़कर परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये ।  

अपने मन की वृत्ति को परमात्मा के ध्यान में ऐसी लगानी चाहिये कि विषयों के स्फुरित होने पर भी मन की वृत्ति विषयों में न जा सके और कभी भी हरि के स्मरण को न छोड़ सके । जैसे माता अपने बच्चे को प्रतिक्षण याद करती रहती हैं और घर के कार्यों में व्यासक्त होने पर भी उसको नहीं भूलती । 

जैसे योगी प्रतिक्षण संयम के द्वारा अपने वीर्य बिन्दु की रक्षा का ध्यान रखता है । जैसे कुरुपा नारी सुन्दर रूप का स्मरण करती रहती हैं, जैसे रस्सी पर चढ़ी हुई नटणी पतन के भय से उस पर चलती हुई रस्सी का ध्यान नहीं भूलती । जैसे कच्छपी अपने अण्डों को नेत्र से देखती रहती हैं । जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद से प्रेम करता हैं ।

जैसे कीड़ा भृंगी का ध्यान करता हुआ, भृंग बन जाता हैं उसी शरीर में रहता हुआ । जैसे मृग बाँसुरी के नाद को सुनता हुआ प्रेम से अपने प्राण त्याग देता हैं । जैसे पतंग अग्नि में पड़कर शरीर जला देता हैं । जैसे मछली जल के बिना मर जाती हैं । इसी प्रकार भगवान् का भक्त भी प्रेम से भगवान् को भजता हैं । ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण कहलाता हैं । 

पूर्व जीवन के भक्ति के संस्कार मिलना आसान नहीं है : पूर्व -जन्म के संस्कारों के वश से स्वाभाविक ही आप की बुद्धि हरि में लग गई थी । वे जान चुके थे कि, शरीर, मन- बुद्धि, हृदय (3H) में सर्वत्र राम [रामोकृष्णो]  रमण कर रहा हैं । अतः उसी का ध्यान करो । नेत्रों से सदा सर्वत्र राम को ही देखो । कानों से राम सम्बन्धी गुणों को सुनो । प्रतिश्वास राम का स्मरण करो । सब जगह जब राम रमण कर रहा है तो जो भी तुम्हारे सामने आये उन सबको राम ही समझो । सहजावस्था में स्थित होकर राम नाम का रसास्वादन करो । 

हरेक वृत्ति से राम का ध्यान करो क्योंकि राम सब में मौजूद हैं । ऐसे राम को परब्रह्म परमात्मा मानकर उसका आराधन करो । क्योंकि राम सर्वरूप सर्वसंगी हैं । ऐसा जान कर उसी में अपनी मनोवृत्ति को लगावो । बाहर अन्दर सर्वत्र राम ही विराजते हैं । ऐसा जानकर रामनाम के स्मरण से और उसके यशोगान (नाम-रूप -लीला- धाम का गुणगान)  से उसको प्राप्त करो । 

त्रिविध अंकुर का परिचय  - शास्त्रादि के उपदेशरूप आज्ञा लता से तीन प्रकार से साधक रूप अंकुर उत्पन्न होते हैं - १ हरिमुख, २ गुरुमुख, ३ मनमुख । तीसरा मनमुख परमार्थ से दूर ही रहता है ।

हरिमुख- भजन द्वारा हरि के सन्मुख रहने वाले हरिमुख साधक का हृदय निरंतर हरी प्रेम में ही लगा रहता है । हरिमुख के हृदय में हरि का निवास रहता है । हरिमुख साधक रूप अंकुर वर्षाकाल के समान है, जैसे वर्षाकाल में अंकुर की वृद्धि होती है, वैसे ही हरिमुख की वृद्धि होती है। 

गुरुमुख- गुरु की आज्ञा में रहनेवाला गुरुमुख साधक गुरु की संगति करके मोह निद्रा से जग जाता है । गुरुमुख विवेक-प्रयोग या ज्ञान का विचार करता है, इससे उसके हृदय में ब्रह्म प्रकाश प्रकट हो जाता है । गुरुमुख उष्णकाल के अंकुर के सामान है, जैसे उष्णकाल में अंकुर अपनी स्थिति में ही रहता है, बढता नहीं है, वैसे ही गुरुमुख साधक अपनी निष्ठा में ही स्थित रहता है, प्रपंच की और नहीं बढता । 

मनमुख - यानि मन के कहने में चलने वाला मनमुख मूर्ख होता है और ज्ञान- भक्ति रूप महा निधि का त्याग करके विवावादि में प्रवृत होता है । मनमुख जीव तो अपने जन्म को व्यर्थ ही नाश कर डालता है । और मनमुख महान शीतकाल के मध्य के अंकुर के समान है । जैसे अतिशीत से अंकुर की स्थिति होती है वैसे ही मनमुख की होती है । वह परमार्थ से गिर ही जाता है ।

ये हरिमुख, गुरुमुख, मनमुख, तीन प्रकार के अंकुर हमने पहचाने हैं । जो सच्चे संत होते हैं, ये इनको इनकी भावना, वचन और भेष से जान जाते हैं ।]

श्री राम भगवान विष्णु हैं जिन्होंने त्रेता युग में सत युग से बदलते मानव मूल्यों को स्थापित करने हेतु अवतार लिया । मानवता के नए आदर्श प्रस्तुत करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम को अनेक कष्ट झेलने पड़े पर प्रभु कभी विचलित नहीं हुए, कभी आसान मार्ग नहीं अपनाया।  पंडित भीमसेन जोशी द्वारा गाये गए इस अद्भुत भजन- श्री राम कहे समुझाई, सुन लछमन प्यारे भाई.. में  भगवान राम अपने अनुज लक्ष्मण को उपदेश दे रहे है कि किस प्रकार विषम परिस्थिति में भी सम भाव में रहना चाहिए । 

[56th AGM held on '24-9-2023 ' After memorial meeting (স্মরণ সভা) : Ranen da-President/ Dipak Sarkar da VP// Amit Dutta-GS /Pramod da-Vikas da/ Tapan chatterjee /Prabal Mohanti, Ranjit Mohanti,  Saumen/ Anindo/-Samir/ Arunabho/ Tuhin/ Ajay/ +2 Ranjit Ghosh ,Abhijit Ghosh included by Ranen da, said Biren da's condition not good-his mouth become filled by saliva -'लारपूरितं मुखम्' सृष्टि का उद्देश्य अहं समाप्ति /दिव्यता /पूर्णत्व का विकास और प्रकाश-Uttam Chatterjee fine photographer and audio recordist of Mahamandal. The purpose behind creation is ego annihilation/ man is marching  towards perfection Professor Basudeb of  Ranchi is fine after the operation./  दिपयेन्दु जाना was with pramod da/ सृष्टेः पृष्ठतः  उद्देश्यं अहङ्कारस्य विनाशः अस्ति/ मनुष्यः सिद्धतां प्रति गच्छति रांचीनगरस्य प्रोफेसर बासुदेबः शल्यक्रियायाः अनन्तरं कुशलः अस्ति।] purpose of creation ego annihilation/Professor Basudeb of  Ranchi is fine after the operation./   

सदन-कसाई :  सदना'जी जाति के कसाई थे, तो भी उनकी भक्ति की  बात बहुत अच्छी इतिहास बन गई थी । जैसे कसोटी से रगड़ने पर शुद्ध सोने की लकीर अच्छी ही आती है, वैसे ही इन शुद्ध भक्त में दुःख पड़ने पर यह भी परीक्षा में पूरे ही उतरे थे । कसाई कुल में उत्पन्न होने पर भी जीवों को नहीं मारते थे । अपनी कुलपरंपरा का आचरण समझ कर, दूसरे कसाइयों से मांस लाकर बेचा करते थे ।

'सदना कसाई ':  प्रेमपूर्वक हरि नाम स्मरण करते रहते थे। दैवयोग से इनके शालग्राम हाथ लग गये थे। बिना जाने उन्हीं से मांस तोल तोल कर बेचा करते थे। एक दिन इनकी दुकान के पास से एक संत जा रहे थे । उनकी दृष्टि शालग्रामजी पर पड़ गई । उनने नेत्रों में आंसू भरकर इनको कहा- 'ये तो शालग्रामजी हैं इनसे मांस मत तोला करो । लाओ इसको दो हम इनकी सेवा पूजा करेंगे ।' सदनाजी ने दे दिया । 

संत शालग्रामजी को ले आये और पञ्चामृत आदिक संस्कार करके पूजा करने लगे किन्तु उनकी पूजा प्रभु को प्रिय नहीं लगी । रात्रि के समय स्वप्न में संत की आज्ञा दी- "हमको उसी सदना' कसाई के यहाँ पहुँचा दो । वह हमारा नाम और गुण सप्रेम गाता है, सो हम सुनते हैं और उसकी हृदय की सच्चाई पर हम अति प्रसन्न हैं" ॥

मार्ग में एक ग्राम में भिक्षा लेने को एक घर में गये । उस घर की स्त्री इनका सुन्दर रूप देखकर इन पर आसक्त हो गई और बोली- "आप आज यहाँ ही भोजन करो और विश्राम भी यहाँ ही करो ।"

आप ठहर गये । रात्रि के समय वह स्त्री इनके पास आकर खड़ी हो गई और बोली- "मुझ से संग करो ।" आपने कहा- "यदि तू गला भी काट डाले तो भी मुझ से ऐसा नहीं होगा ।"

उसने यह समझकर कि मेरे पति के भय से नटता है । निर्भयता के साथ भीतर जाकर सोये हुए अपने पति का कंठ काट डाला । फिर कामवेग में निमग्न१ होकर आई और बोली - "अब तुम को कोई भय नहीं रहा है, निर्भयता से मेरा संग करो ।"

सदनाजी ने कहा- "मैं तो पहले ही नट गया था, अब भी कहता हूँ कि मेरा तुमसे क्या सम्बन्ध है अर्थात् मैं कदापि संग नहीं करूँगा ।" तब वह रोकर पुकारने लगी कि - "मेरे को अपने साथ ले चलने के लिये इसने मेरे पति की गर्दन काट डाली है ।" यह सुनकर गाँव के लोग इकट्ठे हो गये । 

उस ग्राम के अधिपति ने सदन को पूछा - "इसको तुमने मारा है ।" तब सदनजी ने हँसते हुये कहा - ''हाँ हमने ही मारा है ।" किन्तु इने मुख की प्रसन्नता को देख कर अधिपति को पूरा निश्चय नहीं हुआ कि इनने मारा है । इससे वह कुछ चिन्ता में पड़ गया कि अब मैं क्या करूँ । संशय होने से उसने इनका वध नहीं किया, केवल हाथ काट कर छोड़ दिया ।

कटे हुये हाथों से ही उठकर श्रीहरिजगन्नाथजी के यहाँ जाने वाले मार्ग से पुरी को चल पड़े । बिना दोष ही हाथ कटने का विचार जब हृदय में आया तो विचार किया कि मेरा कोई पूर्व का पाप था, उसका दंड देकर प्रभु ने मुझे (मेरे चित्त को) शुद्ध कर दिया है । शुद्ध होने पर प्रभु का दर्शन होता है । यह निश्चय हृदय में धारण किया ।

उधर श्रीजगन्नाथजी ने सदन को लाने के लिये सामने अपनी पालकी भेजी । पंडे लोग पूछते पूछते सदनाजी के पास पहुंच गये । और बोले - "पालकी पर चढ़ो ।" किन्तु सदनजी प्रभु की पालकी समझकर नहीं चढ़ते थे । पंडों ने कहा - "प्रभु की आज्ञा अमिट है, चढ़ना पड़ेगा ।" तब वे बिना- इच्छा ही कठिनता से उस पर चढे । फिर पंडे उनको प्रभु के पास ले आये । सदनाजी प्रभु का दर्शन करके साष्टांग प्रणाम करने लगे तब उसी क्षण हाथ ज्यों के त्यों हो गये । सब दुःख स्वप्न समान मिट गया । फिर श्रीजगन्नाथजी ने कहा- "तुमने भक्ति का प्रण भली भांति पालन किया है । परीक्षा में पूरे उतरे हो । अब आनन्द पूर्वक हमारी भक्ति का विस्तार करो ।" श्रीजगन्नाथजी ने विप्र रूप से कृपा करके सदनाजी के हाथ कटने का रहस्य भी सदनाजी को बता दिया था । 

ब्राह्मण ने कहा- पूर्व जन्म में तुम काशी में विप्र और पंडित भी थे । एक दिन एक गाय कसाई के घर से निकल कर भागी जा रही थी । पीछे से कसाई भी दौड़ता हुआ आ रहा था । उसने तुमसे पूछा- गाय किधर गई ? तुमने अपने हाथों से उसे बताया था । वही गाय इस जन्म में वह स्त्री हुई है और वह कसाई उसका पति था । कसाई ने गाय का गला काटा था उसी दोष से उस स्त्री ने पति का गला काटा है और तुम्हारे हाथ काटे गये हैं ।

 मैं अपने भक्तों को उनका कर्म भुगता कर निष्पाप कर देता हूँ । यह सुनकर सदनाजी प्रसन्न हुए और ब्राह्मणभेषधारी प्रभु अन्तर्धान हो गये ।

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मंगलवार, 19 सितंबर 2023

🔱🙏यम और नचिकेता की कथा ! 🔱🙏 ["हथिया नक्षत्र"/ पितृपक्ष जानिबिघा तीन दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर ":- 30 सितम्बर,से 2 अक्टूबर -2023" ] "जीवन छोटा है , जीवन को उसकी पूर्णता में जियो" - जीवन को वैराग्य की प्रेरणा से जीओ ! 🔱🙏 "The Idea— Life is short“ Live life to the fullest :

यम-नचिकेता-उपाख्यान  

>>> कठोपनिषद, १० महत्वपूर्ण उपनिषद में से एक है।  इस उपनिषद में जन्म, मृत्यु और आत्मा के रहस्यों का वर्णन है।  अध्याय १ में नचिकेता का यमराज के दरबार में जाने और उनसे मृत्यु के रहस्यों के बारे में जानने की कथा का वर्णन है। 

उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ।

तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥

जीवन की अंतिम अवस्थामें (वृद्धावस्था में) [नचिकेता के पिता] वजस्रवा ने स्वर्ग प्राप्ति की लालसा से पुन्य कमाने के लिए दानयज्ञ का आयोजन किया|

तं ह कुमारं सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाविवेश। सोऽमन्यत॥

यज्ञ में [वृद्ध] गायों को दानस्वरूप दान में दिया जाता देखकर/  बालक नचिकेता के मन में यह विचार उत्पन्न हुए। 

पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरीन्द्रियाः

अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत् ॥

इन [बूढी] गायों ने जितना खाना था,दूध देना था सब दे दिया और अब किसी उपयोग के नही हैं, फिर इन गायों को दान करके कौन से पुण्य की प्राप्ति होगी?

[(बालक नचिकेता ने जब अपने पिता को बूढी और अनुपयोगी गायों को दान देते देखा तो उसके मन में यह प्रश्न उठा के पिताजी इस प्रकार के अनुपयोगी गायों को दान में देकर कौन सा पुन्य कमा रहे हैं, क्यों नही कोई उपयोगी वस्तु दान में देते हैं? उसने सोचा कि पिताजी के लिए सबसे उपयोगी तो मैं ही हूँ, तब उसमे अपने पिता से कहा/ 7th Interstate Youth Training Camp-2019 में AP/PDA /के मार्गदर्शन में कोलकाता से 10 से अधिक faculty का आना और 4 day camp में मनःसंयोग का 2 क्लास , G. S द्वारा उद्घाटन सत्र में अंग्रेजी में भाषण देकर C-IN-C का रूम खाली और PDA को निर्देश देते देखकर, BKS के मन में दादा वाली श्रद्धा का आविवेश हो गया। ] 

स होवाच पितरम् – तात कस्मै मां दास्यसि – इति। द्वितीयं तृतीयं। तं

होवाच – मृत्यवे त्वा ददामि – इति ॥

वह बोला, “पिताजी आप मुझे किसको दान में देंगे?” उसने एक बार, दो बार और तीन बार यही प्रश्न पूछा

आप मुझको किसे दान में देंगे? पिताजी!

(पहले तो पिता ने उसकी बातों को अनसुनी कर दी, लेकिन बार बार जिद करने पर गुस्से में यह कहा)

“जा मै तुझे यमराज को दान में देता हूँ!” पिता ने गुस्से में कहा|

बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।

किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन् मयाद्य करिष्यति ॥

कुछ के लिए मै शायद प्रथम हूँ, कुछ के लिए मध्यम(अर्थात यमराज के पास जाने वालो में शायद मैं पहले हूँ या फिर मेरे पहले ही कई लोग वहां गए हों) | मेरे वहां होने से यमराज के औचिया में क्या परिवर्तन होगा?(अर्थात मेरा यमराज के दरबार में क्या महत्व होगा?)

अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथा परे।

सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ॥

देखो कैसे मकई का एक बीज पृथ्वी पर गिरता है, विलीन होता है और उससे फिर नए पौधे का जन्म होता है | क्या मृत्यु भी ऐसे ही कार्य करती है? यमराज के पास जाते हुए नचिकेता ऐसा विचार कर रहा था|

[रामलोक पहुँचने पर नचिकेता को तीन रातों तक प्रतीक्षा करनी पड़ी | तीसरे दिन यमराज जब लौटे तो उन्होंने अपने दरवाजे पर एक अतिथि को देखा और आदर भेंट की]

तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीत् गृहे मे अनश्नन् ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्यः।

नमस्तेऽस्तु ब्रह्मन् स्वस्ति मेऽस्तु तस्मात् प्रति त्रीन् वरान् वृणिष्व॥

यमराज ने कहा: हे ब्राम्हण! आप एक सम्मानीय अतिथि हैं, आपको नमस्कार है | मेरे दरवाजे पर आपको प्रतीक्षा करनी पड़ी, [अपनी त्रुटि को दूर करने के लिए और] आपकी प्रसन्नता के लिए मैं आपको तीन वरदान देता हूँ|

[पहला वरदान नचिकेता ने माँगा कि “मेरे पिता तो शांति प्राप्त हो”, दूसरा वर माँगा कि मेरे पिता को अग्निदेव की अनुशंषा प्राप्त हो जिससे उनकी स्वर्ग प्राप्ति की कामना पूर्ण हो| यमराज ने दोनों ही वरदान नचिकेता को दिए| यमराज ने तब तीसरा वर मांगने को कहा )

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये अस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।

एतद्विद्यामनुषिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः॥

नचिकेता न पूछा: [हे यमदेव!] जब एक जीव की मृत्यु होती है तो क्या जीव का अस्तिस्त्व फिर भी होता है? कुछ लोग कहते हैं हम मृत्यु बाद भी स्थित होते है, कुछ कहते है कि नही | कृपया आप इसका वर्णन करें |

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः।

अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्॥

यमराज बोले:[हे बालक!] इस प्रश्न का उत्तर तो देवता भी नही जानते | आत्मा बहुत सूक्ष्म होती है और इसको जानना अत्यंत दुर्लभ है | मुझे इसका उत्तर देने के लिए मजबूर मत करो | कोई और वर मांग लो|

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यो यन्न सुविज्ञेयमात्थ।

वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित्॥

नचिकेता ने कहा: [हे देव !] मेरे लिए इससे अधिक मांगने लायक कुछ और नही है, और सिर्फ आप ही हैं जिसको इसका [स्पस्ट] उत्तर दे सकते हैं|

(यमराज ने नचिकेता को कई प्रकार से समझाने का प्रयास किया, उसे कई प्रकार के प्रलोभन भी दिए)

शतायुषः पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्।

भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥

रामराज बोले: मुझसे सैकड़ों साल की आयु, पुत्र, पौत्र, हाथी, घोड़े, सोने, जवाहरात मांग लो | पृथ्वी पर विशाल राज्य ले लो| अपने लिए इक्षानुसार आयु मांग लो|

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च।

महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजं करोमि ॥

अपनी इक्षानुसार पृथ्वी पर अपार धन, सम्पदा और दीर्घ आयु लेकर जीवन व्यतीत करो| मैं तुम्हे वरदान के रूप में दे दूँगा|

ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामांश्छ्न्दतः प्रार्थयस्व।

इमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यैः।

आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षीः॥

कोई भी ऐसी इक्षा जो किसी मनुष्य ने कभी पूरी नही की होगी, वह सब मैं तुम्हे प्रदान करूँगा | सेवक-सेविकाएं, रथ और सारी सुविधाएँ जो किसी मनुष्य ने प्राप्त नही की होंगी| हे नचिकेता यह सब मैं तुम्हे वर के रूप में दे दूँगा परन्तु मृत्यु के बारे में मत पूछो|

श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।

अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते॥

नचिकेता ने कहा:[हे देव!] यह सब अल्पकालिक हैं | आज हैं कल नही होंगे | अपने जो कुछ भी देने को कहा वे सब इन्दिर्यों को भ्रमित  करने वाले हैं | सभी प्रकार के जीवन बहुत छोटे हैंअल्पकालिक हैं| यह सुंदर स्त्रियां, रथ आदि आप रहने दें, मुझे नही चाहिये|

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष चेत्त्वा।

जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वम् वरस्तु मे वरणीयः स एव॥

मनुष्य का तर्पण(उद्धार) धन से नही हो सकता | धन धान्य तो तभी तक उपयोगी हैं जब तक हम जीवित हैं| आयु कितनी भी लंबी हो जाए फिर भी छोटी ही है | मुझे तो वही वर चाहिये अर्थात मुझे मृत्यु का रहस्य बताएं|

अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन् मर्त्यः कधःस्थः प्रजानन्।

अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदा- नतिदीर्घे जिविते को रमेत ॥

उस अमरता को जहाँ कुछ भी क्षय नही होता को छोड़कर कौन[बुद्धिमान] होगा जो नाशवान रंग, रूप, भौतिक सुख को लंबे समय के लिए भोगना चाहेगा[यह जानते हुए कि इन सब का अंत होना ही है]

यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्सांपराये महति ब्रूहि नस्तत्।

योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥

हे रामराज ! मुझे उस रहस्य को बताएं की मृत्यु के बाद क्या होता है | इस गुढ़ रहस्य को जानने से गहरी अज्ञानता भी नष्ट होगी| नचिकेता को इसके सिवाय और कोई वर नही चाहिये|

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नचिकेता का यमराज के साथ यह वार्तालाप लोमहर्षक है| इस कथा का वर्णन महाभारत में भी आता है| मैं भक्तों से निवेदन करूँगा की अपनी तरफ से प्रयास करके इस कथा के बारे में और भी जानकारी प्राप्त करें| 


>>>1. सद्गुरु के तीन रूप {आचार्यो मृत्युः } 

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।  

गुरुर साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।

गुरु को हमने तीन नाम दिए हैं — ब्रह्मा , विष्णु और महेश।  ब्रह्मा का अर्थ हैं जो बनाये , विष्णु का अर्थ हैं जो संभाले और महेश का अर्थ हैं जो मिटाए।  सद्गुरु वही हैं जिसके पास ये तीनो प्रकार की कलाए हैं।  लेकिन हम वैसे गुरु को खोजते हैं जो हमें (हमारे मिथ्या अहं को ) मिटाए नहीं बल्कि सवारे। मगर जिसे मिटाना नहीं आता वो क्या ख़ाक किसी को सवारेगा ? हम उन गुरुओं के पास जाते हैं , जो हमें सांत्वना दे। सांत्वना यानि संभाले। हमारी मलहम पट्टी करे , हमें इस तरह के विश्वास दे , जिससे हमारा भय कम हो जाये , चिंताए कम हो जाये। जहां तुम्हारा मरता -बुझता अहंकार फिर से प्रज्वलित हो उठे, तो ऐसे लोग सद्गुरु नहीं हैं।

जो लोग सांत्वना प्राप्त करने के लिए या चमत्कार देखने की आशा से किसी सद्गुरु की खोज में रहते हैं,  वैसे लोग ही झाड़फूँक करने की आड़ में 'चंगाई दिखाकर' धर्मान्तरण करने वाले ईसाई पादरीयों , गंडा-ताबीज देनेवाले मौलवियों या मदारीगिरी से भभूत बाँटने वाले  पण्डों- पुरोहितों के पास पहुँच जाते हैं ।  यह उनका काम हैं — की आप रोते गए , उन्होंने आपके आंसू पोछ दिए ,  आपको  इस बात का भरोसा दिया कि - आपको जो व्रत-उपाय बता दिया, कोई जल छिड़क दिया, मंत्र बता है उससे कुछ चमत्कार हो सकता है।  पीठ थपथपा दी की मत परेशां हो सब ठीक हो जायेगा। ये सब कार्य पण्डों- पुरोहितो का हैं न की किसी सद्गुरु का। इनमे से कोई भी जीवन को रूपांतरित करने का तरीका नहीं हैं।

सद्गुरु वो हैं जो हमें नया जीवन दे , नया जन्म दे।  लेकिन नया जन्म तो तभी संभव हैं जब गुरु हमें (अर्थात हमारे मिथ्या अहं को)  पहले मिटाए , तोड़े। आचार्य अपने शिष्य के मिथ्या अहंकार को नष्ट करके उसे नवीन जीवन देते हैं, इसीलिए वैदिक-साहित्य में आचार्य को 'मृत्यु' के महत्त्वपूर्ण पद से अलंकृत किया गया है -'आचार्यों मृत्यु: (अथर्ववेद - 11. 5. 14)'- आचार्य मृत्यु है, उत्पत्ति काल से बालक पशु समान तथा शुद्रवृत्तिक होते हैं, आचार्य उसके पशुत्व और शूद्रत्व का विनाश कर उन्हें विद्वान् तथा द्विजन्मा बनाता है, अतः आचार्य मृत्युरूप है वह जो आचार्य हैं , वह जो गुरु हैं वो मृत्यु हैं, जिस किसी ने भी ये सूत्र कहा होगा , उसने जानकार कहा होगा , जी कर कहा होगा। संसार के किसी भी कोने में किसी ने भी गुरु को मृत्यु नहीं कहा हैं। लेकिन हमारे देश ने गुरु को मृत्यु कहा हैं। मनु महाराज कहते हैं- 'जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते।' अर्थात जन्म से सभी मनुष्य शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। 

  द्विज शब्द का प्रयोग किसी एक प्रजाती या किसी जाती विशेष के लिये नहीं किया जाता हैं। मनुष्य जब पैदा होता है तो वो केवल पशु समान होता है परन्तु जब वह संस्कारवान और ज्ञानी होता है तव ही उसका जन्म दुबारा अर्थात असली मनुष्य रुप में होता है।

 ' जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः। 

 वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।

 -द्विज शब्द 'द्वि' और 'ज' से बना है। द्वि का अर्थ होता है दो और ज (जायते) का अर्थ होता है जन्म होना अर्थात् जिसका दो बार जन्म हो उसे द्विज कहते हैं। द्विज शब्द का प्रयोग हर उस मानव के लिये किया जाता है जो एक बार पशु के रुपमे माता के गर्भ से जन्म लेते है और फिर बड़ा होने के वाद अच्छी संस्कार से मानव कल्याण हेतु कार्य करने का संकल्प लेता है। 

हमने सद्गुरु को तीन रूप दिए। पहला - बनाने वाला , दूसरा -सँभालने वाला और गुरु का तीसरा रूप है - मिटाने वाला। गुरु सिर्फ बनाता ही नहीं हैं , वो सिर्फ संभालता ही नहीं हैं और न ही सिर्फ मिटाता हैं। उसके अन्दर तो ये तीनो रूप मौजूद हैं ; इसलिए सद्गुरु के पास केवल वैसे हिम्मत-वाले, साहसी लोग ही पहुँच पाते हैं, जिनकी मरने की तैयारी हो।  जो मिटने के लिए तैयार होता है सिर्फ वही - श्रद्धावान जज्ञासु किसी सद्गुरु # के पास जाने का हिम्मत कर पाता हैं। 

[#जो मिटने के लिए तैयार होते हैं सिर्फ वैसे - श्रद्धावान जज्ञासु ही 'Holy Trinity' पवित्र त्रिदेव : ठाकुर,माँ और स्वामीजी जैसे सद्गुरु के पास जाने का हिम्मत कर पाते हैं। सद्गुरु स्वामी विवेकानन्द या महामण्डल के C-IN-C नवनीदा Be and Make वेदान्त लीडरशिप प्रशिक्षण परम्परा के पास केवल वैसे हिम्मत-वाले, साहसी और श्रद्धावान सत्यार्थी  लोग ही पहुँच पाते हैं, जो ईश्वर या परम् सत्य को जानने के लिए मर जाने, मिट जाने के लिए तैयार रहते हैं। 

सद्गुरु के पास तो जीना और मरना दोनों सीखना होता है। जीवन- गठन अर्थात जीवन को जीना (Life Building) भी एक कला है — जैसे कमल के पत्ते, पानी में होते हुए भी पानी उनपे ठहर तक नहीं पाती और जीते जी मर जाना — यही ध्यान (समाधि) है , यही संन्यास हैं। सद्गुरु हमें यही सिखाते हैं , और ये तीन घटनायें यदि सद्गुरु के सानिध्य में रहते हुए घट जायें, तो चौथी घटना हमारे भीतर स्वतः घटित होती है। इसलिए उस चौथे को- (मृत्यु को) भी हमने सद्गुरु के लिए कहा है। [हमारा यह —शब्द 'समाधि' बड़ा बहुमूल्य है। जब संन्यासी मरता है तो उसकी कब्र को भी हम समाधि कहते हैं। और जब कोई व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध होता है तब भी उसको हम समाधि कहते हैं।

तीन चरणों के बाद, इन तीन चरणों के माध्यम से , इन तीन द्वारों से होके गुजरने के बाद , इन तीन द्वारो में प्रवेश कर के, जो अनुभूति हमारे भीतर होगी, तब जिस इष्टदेव की प्रतिमा से मिलन होगा, उस चौथी अवस्था में —” गुरुर साक्षात परब्रह्म। ”  तब आप जानोगे की आप जिस व्यक्ति के पास बैठे हुए थे वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं था , जिसने भीतर से संभाला, बाहर से मारा- पीटा, मिथ्या अहं को तोड़ा , जगाया —- वह तो कोई व्यक्ति था ही नहीं , उसके भीतर तो परमात्मा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) ही था। और जिस दिन हम लोग अपने सद्गुरु के भीतर परमात्मा को देख लेंगे उस दिन हमें अपने भीतर भी परमात्मा की झलक मिल जाएगी  क्योकि गुरु तो   दर्पण हैं उसमे हमें अपनी ही झलक दिखाई पड़ जाएगी। इस लिए , प्रारंभिक तीन चरण- साधना के सोपान हैं और चौथी मंजिल ! और सद्गुरु के पास चारो चरण पूरे हो जाते हैं।- ........" तस्मै श्री गुरवे नमः। ” इसलिए गुरु को नमस्कार , इसलिए गुरु को नमन ! 

>>>2. स्वामी विवेकानन्द  के जीवन से हमें क्या सीखना चाहिए?  

स्वामी विवेकानन्द जीवन को पूर्णता में जीने की कला, 'क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास 'गरल' -रहते हुए भी जो तोको काँटा बोये ताहि बोई तू फूल' सबको फूल बोने की कला ' सिखाने वाले गुरु हैं, 23 जून 1894 को मैसूर के महाराजा को लिखित एक पत्र में वे कहते हैं  - "यह जीवन क्षणभंगुर है जीवन की सभी सुख सुविधाएं नष्ट होने वाली हैं; केवल वही जीवित हैं जो अन्य लोगों की भलाई के लिए जीते हैं, शेष तो जीवित होने की अपेक्षा मृतक अधिक हैं।" 

Swami Vivekananda is the Guru who teaches the Art of Living Life to the fullest, he says - "This life is short, the vanities of the world are transient, but they alone live who live for welfare of others, the rest are more dead than alive." [Letter to Maharaja of Mysore on June 23, 1894.] 

>प्राचीन धर्म कहते हैं कि नास्तिक वह है जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करता किन्तु आधुनिक धर्म का कहना है कि नास्तिक वह है जो स्वयं पर विश्वास नहीं करता।

>जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, मुझे मुक्ति नहीं चाहिए।

>हमारी शिक्षा प्रणाली हमें भला क्या सिखाती है, अपने पूर्वजों को गाली देना, शिक्षा का उद्देश्य आत्मगौरव की वृद्धि करने वाला होना चाहिए।

> भारत ही हमारा जागृत देवता है।

> उन्हीं महामानव के शब्दों में - "यदि कोई दूसरा विवेकानंद होता तो समझता कि ये विवेकानंद क्या कर गया"

>"सर्वे भवन्तु सुखिनः…"

महामण्डल में सिर्फ दूसरों के लिए जीने की कला सिखाते हुए ही इसके प्रतीक चिन्ह में ही  आदर्श और उद्देश्य निर्धारित कर दिया गया है।  महामण्डल का आदर्श वाक्य  Be and Make सीखने में मानवता को अभी लम्बी यात्रा करनी पड़ेगी ? महामण्डल का उद्देश्य ही है - भारत का कल्याण : Welfare of India ! उपाय - चरित्र-निर्माण !)

>>विचार- "जीवन छोटा है- जीवन को उसकी पूर्णता में जियो !" : the idea— “Life is short“ Live life to the fullest :  

जीवन को जब भी जियो पूरे आनंद और उल्लास के साथ जियो ! जीवन को जब उसकी समग्रता और पूर्णता में जिया जाता है तो उसका आनंद कुछ अलग ही होता है। 

जब किसी त्यौंहार पर घर में रंगोली सजाई जाती है तो हमें अच्छे से पता होता है कि रंगोली दूसरे ही दिन मिटने वाली है। दूसरे दिन तो दूर की बात है, दूसरे ही क्षण मिटने वाली है। एक हल्की सी हवा चली और रंगोली कब उड़ गई पता भी नहीं चला। थोड़ा सा पानी क्या गिरा कि रंगोली कब बह गई कुछ पता ही नहीं चला।

जीवन भी तो कुछ रंगोली जैसा ही है। हमें पता है कि पद, प्रतिष्ठा, वैभव, सगे संबंधी, बचपन, यौवन और यहाँ तक कि जीवन व और जो कुछ भी हमारे पास है, एक दिन कुछ नहीं रहेगा मगर फिर भी उसे रंगोली की तरह जितना हो सके सजाने, संवारने और खूबसूरत बनाने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।

कहने का अभिप्राय केवल इतना कि जितनी भी देर रहो ऊर्जावान बने रहो! जितने भी दिन रहो क्रियावान बने रहो! जितनी भी घड़ी रहो उल्लासित बने रहो! जितने भी पल रहो उत्साहित और आनंदित बने रहो! जितने भी क्षण रहो खिले-खिले और मुस्कुराते रहो ! यही तो इस मानव जीवन की परिपूर्णता है। संत और कवि कबीर ने भी एक दोहा में कहा है - 

कल करे सो आज कर, आज करे सो अब। 

पल में प्रलय होगी, बहुरि करोगे कब।।  

अर्थ – कबीर दास जी इस दोहे में समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि- "जीवन छोटा है, केवल वही जीवित है जो दूसरों के लिए जीता है, शेष तो मृत से भी अधम हैं। इसलिए भारत का कल्याण के कार्य - Be and Make ' के किसी भी काम को कल पर मत छोड़ो ! जो कल करना है उसे आज कर लो और जो आज करना है उसे अभी कर लो। किसी को पता नहीं अगर कहीं अगले ही पल में प्रलय आ जाये तो जीवन का अंत हो जायेगा फिर जो करना है वो कब करोगे।

जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल।

तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल।।

- अर्थात जो व्यक्ति आपके लिए कांटे बोता है, आप उसके लिए फूल बोइये,आपके आस-पास फूल ही फूल खिलेंगे, जबकि उसे वे फूल भी त्रिशूल प्रतीत होंगे। यद्यपि तुम यह न चाहो कि उसे त्रिशूल (कष्ट) मिले) ।।

"सर्वे भवन्तु सुखिनः " प्रार्थना ही कर्म का सिद्धांत है। तुम जैसे कर्म करोगे वैसा ही फल पाओगे। तुम भलाई करना इसलिए मत छोडो की दूसरा बुराई कर रहा है। उसे सजा देना या सुधारना तुम्हारा काम नहीं है। उसे ज़िन्दगी सिखा देगी। तुम अपने व्यवहार का ध्यान रखो क्योंकि उसका फल तुम्हें भोगना है। यदि अमुक  व्यक्ति दुष्ट प्रकृति का है और द्वेषवश हमारी निंदा या बुराई कर रहा है या हमारे साथ बुरा व्यवहार कर रहा है इससे वह हमारा तो कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा, किन्तु वह अपने लिए कांटे बो रहा है । हमें तो उसके साथ भी अच्छा व्यवहार करना चाहिए । उसका भी हितचिंतन करना चाहिए । हमें अपने कर्मों का फल मिलेगा, उसे अपने कर्मों का । 

[जिस प्रकार से किसी का किसी के प्रति प्रेम दूसरे के भीतर प्रेम उपजाता है उसी प्रकार से किसी का किसी दूसरे के प्रति बदले की भावना दूसरे के भीतर भी बदले की भावना ही उपजाती है। बदले की भावना के मूल में बैर होता है और बैर के मूल में क्रोध। "बैर क्रोध का फल  है"। यह बैर ही प्राणी को बदला लेने के लिये उकसाता है। संसार में भला ऐसा कौन है जिसके भीतर कभी बदले की भावना न उपजी हो? मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक के भीतर बदले की भावना उपजती है। यही कारण है कि कुत्ता तक कुत्ते पर और कभी कभी इन्सान पर भी गुर्राने लगता है। विवेक कहता है कि बदला लेने के लिये धैर्य आवश्यक है। लेकिन साधारण गृहस्थ धर्म का पालन करते समय - "क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास जहर हो" !]   

'नचिकेता' का अर्थ है - 'न जाननेवाला, जिज्ञासु', तथा यमराज यमाचार्य है, मृत्यु के सदृश आंखे खोलनेवाले गुरु। मृत्यु [#अर्थात ब्रह्माण्ड प्रलय] विवेकदायिनी गुरु है। अध्येता के मन मे अनेक शंकाएं उत्पन्न होती हैं। क्या नचिकेता यमलोक में सशरीर चला गया? वह तीन दिन तक यम की अनुपस्थिति में यम-सदन में कैसे रहा? वास्तव में यह एक उपाख्यान है, जिसके उपदेश एवं प्रतिपाद्य विषय-वस्तु का ग्रहण करना अभीष्ट है। हम इसके आलंकारिक रुप को ज्यों का त्यों अथवा यथार्थमय मानकर कथ्य को ग्रहण नहीं कर सकते। इसके वाचिक अर्थ न लेकर लाक्षणिक अर्थ लेना विवेकसम्मत है। आख्यायिका-शैली का प्रयोजन उसके तत्त्वार्थ को समझाना है।

साक्षात मृत्यृदेव (यमराज) से ही जीवन और मृत्यु के रहस्य को जानने से बढकर अन्य क्या उपाय हो सकता है?  जिज्ञासु नचिकेता कोई भयत्रस्त या शरणागत, व्यक्ति नहीं है, बल्कि यमराज का पूज्य् अतिथि है- और सम्मानपूर्वक् उपदेश ग्रहण करता है। यह ब्रह्मज्ञान की महिमा है, जो दाता और गृहीता दोनों को पवित्र कर देता है। कठोपनिषद् के ऋषि का कल्पना-कौशल तथा शिक्षण शैली दोनों अनुपम हैं

संक्षेप में कथा कुछ इस प्रकार है –एक बार, नचिकेता के पिता और वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित् नामक एक महान यज्ञ किया जिसमें अपना सर्वस्व, अपना -सब-कुछ दान दे दिया जाता है । आखिर में पिता जब बूढ़ी गाएं भी दान करने लगे, तब बालक नचिकेता ने देखा कि वे तो दूध भी नहीं दे सकती, किसी काम की नहीं है। 

जब दक्षिणाएँ ले जायी जा रही थीं, तब नचिकेता को दुःख हुआ कि ऐसा करके उसके पिता ईमानदारी तो नहीं कर रहे हैं। यह देखते ही 12 साल के बालक नचिकेता के निर्मल अन्तःकरण में- श्रद्धा आविवेश ह। सः अमयन्त ॥  'श्रद्धा'; अर्थात आस्तिक्य-बुद्धि ने प्रवेश किया और वह सोचने लगा :-पीतोदकाः = जो अंतिम बार जल पी चुकी हैं।  जग्धतीर्णाः = जिनका घास खाना समाप्त हो गया है, दुग्धदोहाः =जिनका अंतिमबार दूध दुह लिया गया है। ऐसी गायों को दान करने से, पिताजी को तो यज्ञ का फल, स्वर्ग- प्राप्ति नहीं मिलेगा।


लेकिन बिना इस दोष को कहे, उनको जागरूक करने (चेताने) के लिए, उसने उनसे पूछा कि, मैं भी तो आपका धन हूँ, आप मुझे किसको दे रहे हैं ? पिता कुछ न बोले, सोचा बच्चा है। तो नचिकेता ने दोबारा पूछा । तीसरी बार जब उसने पुनः पूछा, तो पिता ने झल्ला कर कहा, “मैं तुझे मृत्यु को देता हूं !”

वचन मुख से निकलते ही उन्हें पश्चात्ताप हुआ, परन्तु नचिकेता अपने पिता के वचन को झुठलाना नहीं चाहता था । उस काल में मुख से निकले वचन का इतना महत्त्व हुआ करता था। उसने अपने पिता को समझाया-

अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे।

सस्यमिव मर्त्य: पच्यते सस्यमिवाजायते पुन: ॥६॥

अपने पूर्वजों के आचरण (प्राण जाई पर वचन न जाई !) का चिन्तन कीजिये, उसके पश्चात अर्थात वर्तमान में किये गए (श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण) पर भी दृष्टिपात कीजिये, तो पाएंगे कि- असत्य से कोई अजर-अमर नहीं हो सकता। " मर्त्यः सस्यं इव पच्यते सस्यं इव पुनः अजायते।"  मरणधर्मा मनुष्य फसल की भांति पकता है (वृद्ध होता और मृत्यु को प्राप्त होता है ) तथा फसल की भांति ही कर्मवश फिर उत्पन्न होता है इसलिए मेरी मृत्यु पर शोक न करें ।”

किसी तरह नचिकेता यम के महल पर पहुंच जाता है, परन्तु यम उस समय प्रवास कर रहे थे । शायद आत्मा एकत्र करने के लिए घर घर घूम रहे थे। कुमार नचिकेता ने तीन दिन भवन में न तो प्रवेश किया और न ही अन्न-पान ग्रहण किया । यम के लौटने पर उनकी पत्नी बोलीं, 

वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान्‌।

तस्यैतां शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्‌ ॥

 हे सूर्यपुत्र यमराज, ब्राह्मण अतिथि घर में अग्नि की भांति प्रवेश करते हैं। गृहस्थ उनकी जल से शान्ति करते हैं, आप अतिथि के आदर-सम्मान के लिए जल ले जाइये- अर्घ्य, पाद्य, आदि, ले जाइए और अतिथि के कोप को शान्त करिए ।” इस प्रकार अतिथि-सत्कार की प्रथा की झलक हम यहां पाते हैं । कठोपनिषद १/१ -७) 

नचिकेता को प्रसन्न करने के लिए, यम ने प्रत्येक रात्रि जिसके लिए वह रुका, उसके लिए एक-एक वर दिए, अर्थात् तीन वर । नचिकेता ने, बुद्धिमानी का पुनः परिचय देते हुए, पहला वर मांगा,

शान्तसंकल्पः सुमना यथा स्याद्वीतमन्युर्गौतमो माभि मृत्यो।

त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे ॥१०।।

 “(नचिकेता ने उत्तर दिया) हे (यम) मृत्युदेव, जब मैं वापस पिता के पास जाऊं, तो वे गौतम-वंशीय (मेरे पिता) उद्दालक- मुझे देखकर मुझे पहचान लें और मेरे मेरे प्रति शान्त संकल्पवाले, प्रसन्नचित और क्रोधरहित हो जायं, तथा पूर्ववत पूरे स्नेह से बातचीत करें।” (मैं) यह तीन में से प्रथम वर मांगता हूं। यम ने तत्परता से यह वर उसे प्रदान किया । (१/१०) 

[वह ऐसे –१. मैं आपके घर से लौटकर पृथिवीलोक पर पुनः जाऊं । अर्थात पुनः पुनरुज्जीवित हो जाऊँ !२. क्योंकि मैं मर गया था, इसलिए मुझे लोग भूत-प्रेत समझ कर डरकर मेरे साथ अन्यथा व्यवहार कर सकते हैं । ३. विशेषकर, जो मेरे पिता मुझसे रुष्ट थे, उनका कोप शान्त हो जाए, और वे पुनः मुझे प्रेम से ग्रहण करें ।] 

दूसरे वर में, नचिकेता कहता है, “हमने सुना है कि स्वर्गलोक जैसा कोई स्थान है जहां पर बुढ़ापा और मृत्यु का भी मेरे पिताजी उसी के लिए यज्ञ कर रहे थे।  हे मृत्यो ! आप उस स्वर्गलोक प्राप्ति की अग्निविद्या - अर्थात अग्नि उपासना की टेक्निक' के अनुसार त्रिभुजाकार -यज्ञ की वेदी का निर्माण किस प्रकार किया जाता है, उस 'technique' के विषय में मुझ श्रद्धालु को बताइए।”यम सहर्ष उसको इस 'अग्नि-विद्या' Holy Trio" का नाम -मंत्र दान करते हैं।

त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्‌।

स मृत्युपाशान्पुरतः प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥ (१.१.१८) 

[यः त्रिणाचिकतः विद्वान् एतत् त्रयं विदित्वा नाचिकेतम् एव चिनुते स पुरतः मृत्युपाशान् प्रणोद्य शोकतिगः स्वर्गलोके मोदते ॥

इन तीनों (ईंटों के स्वरुप संख्या और चयन-विधि) को जानकर तीन बार नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान करनेवाला जो भी विद्वान पुरुष नाचिकेत अग्नि का चयन करता है, वह (अपने जीवनकाल मे ही) मृत्यु के पाशों को अपने सामने ही काटकर, शोक को पार कर, स्वर्गलोक में आनन्द का अनुभव करता है।

''जब मनुष्य तीन नचिकेता- अग्नियों को प्राप्त करके यह जान जाता है कि ये- 'Holy Trio' -ठाकुर, माँ और स्वामीजी बेल के पत्ते की तरह 'त्रयात्मक' हैं, एक में तीन हैं ! त्रयी है !  (ऋक्, साम, यजु:वेदों) के साथ सम्बन्ध जोड़कर तीनों कर्म (यज्ञ, दान, तप) तथा ऐसा जानते हुए जब 'नचिकेता- अग्नि' का दर्शन करता है, तब वह अपने सामने सें मृत्यु-पाश के जालों का उच्छेदन कर डालता है, वह शोक का अतिक्रमण करके स्वर्गलोक में हर्षित होता है। [साभार @@@https://upanishadas.blogspot.com/2011/06/kathopanishada_21.html

एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण।

एतमग्निं तवैव प्रवक्श्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व ॥

नचिकेतः एषः ते स्वर्ग्यः अग्निः यम् द्वितीयन वरेन अवॄणीथाह्। जनासः एतम् अग्निं तव एव नाम्ना प्रवक्षामि। नचिकेतः अथ तॄतीयं वरम् वृणीस्व ॥

''हे नचिकेता ! यह है स्वर्गिक 'अग्नि' जिसका तुमने द्वितीय वर के रूप में वरण किया है। इस 'अग्नि' के सम्बन्ध में सभी लोग कहेंगे, यह तुम्हारी ही अग्नि है। हे नचिकेता ! अब तृतीय वर का वरण करो।''

५सम्भवतः मनुष्य की त्रिविध सत्ता '3H' ('अ उ-म्') को दिव्यता में उठाने के लिए प्रयुक्त दिव्यशक्ति।

६सम्भवतः, तीन 'पुरुष', दिव्य 'सत्तत्त्व' की तीन आत्मागत- अवस्थाएँ अथवा तीन दिव्य 'व्यक्तित्व' जिनका 'अ उ-म्', इन तीन अक्षरों से संकेत होता है। परमोच्च 'ब्रह्म' ॐकार ध्वनि के तीन अक्षरों से परे है।

७ निम्न सत्ता का दिव्य के प्रति आत्म-यज्ञ जो मनुष्य की भौतिक, प्राणिक तथा मानसिक चेतना की तीन भूमिकाओं पर सम्पन्न होता है।

८'पुरुष' अथवा 'दिव्य सत्तत्त्व', 'क्षेत्रज्ञ' जो सबके अन्तर में निवास करता है और जिसके भोग (आनन्द) के लिए 'प्रकृति' विश्व-लीला को सम्पन्न करती है।

  नचिकेता ने सब विद्या ग्रहण करके, यमराज को हू-ब-हू जैसा का तैसा -पाठ सुना दिया । उसके ध्यान और मेधा-शक्ति से यमराज इतने प्रसन्न हो गए कि उन्होंने उसको एक और वर बिना मांगे ही दे दिया। यम ने कहा कि अब से उस स्वर्गप्राप्ति यज्ञ को नचिकेता के नाम पर नाचिकेताग्नि कहा जायेगा  इसके साथ ही उसको अनेक रूपों वाली रत्नों की एक माला भी दी । (१/१९) 

>>>2.जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलु ( Life and death are two sides of the same coin.)>

जीवन और मृत्यु का रहस्य अनन्तकाल से जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। धर्मग्रन्थों ने तथा मनीषीजनों  ने इसके अगणित समाधान प्रस्तुत किये हैं, तथापि रहस्य का उद्घाटन एक गंभीर समस्या बना हुआ है। 

अज्ञान के कारण मृत्यु एक भयप्रद घटना तथा जीवन निरुउद्देश्य भटकाव प्रतीत होते हैं। जीवन और मृत्यु का यथार्थ जानने पर जीवन एक उल्लास तथा मृत्यु एक उत्सव हो जाते हैं। अज्ञान के ही कारण जीवन मानों मृत्यु की धरोहर प्रतीत होती है, तथा वह इसे चाहे जब विलुप्त कर सकती है। 

जीवन का उद्गम कहां से होता है, जीवन क्या है और मृत्यु क्या है? जीवन के यथार्थ को जानने के लिए मृत्यु के रहस्य को समझना अत्यावश्यक है।  क्योंकि जीवन का स्वाभाविक अवसान मृत्यु के रुप में होता है। जीवन की पहेली का समाधान, मृत्यु के रहस्य का उदघाटन करने मे सन्निहित है।क्योकि सारे संसार को अपने आतंक से प्रकम्पित कर देनेवाले महापराक्रमी मानव-राक्षस भी  क्षणभर में सदा के लिए तिरोहित हो जाते हैं। 

अब समय आया तीसरे वर का तो नचिकेता ने कहा, “ मुझे आप यह बतलाइये कि मृत्यु क्या है, ताकि मैं यह समझ सकूँ कि जीवन क्या है ?  “Please tell me what death is, so that I can understand what life is?  The third boon is interesting and very important to us, तीसरे वर के रूप में वह पूछता है कि मृत्यु क्या होती है ?

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।

एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं , वराणामेष    वरस्तृतीयः  ।।

क.उ.1.1.20।। या इयम् प्रेते  विचिकित्सा (debate) मनुष्ये/ ' एके आहुः अयं अस्ति इति, च एके आहुः न अस्ति इति।'   त्वया अनुशिष्टः एतत् अहं विद्याम् एषः वराणाम् तॄतीयः वरः। 

-tell me about death so that I may understand what is life' ताकि मैं जीवन की परिभाषा को समझ सकूँ। कुछ लोग कहते है कि शरीर के मरने के बाद, सब कुछ समाप्त हो जाता है, और कुछ लोग कहते हैं कि मरने के बाद भी आत्मा रहती है। (क्योंकि वह अजर -अमर अविनाशी है)। तो आप तो मृत्यु के देवता हैं, आप मुझे बतलाइये कि आत्मा का रहस्य क्या है ? आत्मा जैसी कोई वस्तु सचमुच शेष रहती है या सब स्वाहा हो जाता है? इस विषय को आप मुझे सिखाइए  ।” मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है;  'एके आहुः अयं अस्ति इति, च एके आहुः न अस्ति इति' - एतत् विद्याम् अनुशिष्ट: त्वया अहं वराणाम् एष वरः तृतीय: = आपके द्वारा उपदिष्ट मैं; इसे भली प्रकार जान लूं - यह वरों में तीसरा वर है। क्योंकि प्रत्यक्ष देखकर अथवा अनुमान से भी इस परिवर्तनशील देह-मन परिसर (body-mind complex) में कोई आत्मा रहता है यहीं ?  कोई निश्चित ज्ञान मुझे नहीं होता--और तो और मानव जीवन का परम "पुरूषार्थ" भी इसी एक मात्र  प्रश्न पर टिका है!! 

शरीर-मन-परिसर (परिवर्तन-शील/नश्वर) और उससे भिन्न तथा उसका ज्ञाता या उसमें रहने वाला आत्मा अपरिवर्तन-शील अविनाशी है ? किसी मनुष्य का शरीर जब गिर जाता है, तब उसके जीवन की यात्रा समाप्त हो जाती है, तो क्या सब कुछ समाप्त हो जाता है या कुछ आगे carried forward भी होता है? उसकी आगे की यात्रा - सद्गति कैसे होती है? [What is carried forward ? कोई जब मर गया, तो इस संदर्भ में कोई कहता है कि नश्वर शरीर (बाह्य इन्द्रिय) और मन  (अन्तःकरण-चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार) से  भिन्न ' तथा देहान्तर से सम्बन्ध रखने वाला "आत्मा"  रहता है  -और कोई-कोई कहते हैं कि नहीं रहता!! 

इस प्रश्न पर यमराज बहुत विचलित हो जाते हैं और नचिकेता से कोई और वर मांगने का अनुरोध करते हैं, क्योंकि यह विषय विद्वानों के द्वारा भी ज्ञात नहीं होता । अन्यम् वरम् वृणीष्व = अन्य वर मांग लो।  इस विषय में पहले इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि देवताओं को भी संदेह हुआ था। १/२१ ) मा उपरोत्सी: मुझ पर दवाव मत डालो; -  देवता लोग उसे अपूर्व धन, भूमि, आयु, आदि, सभी भौतिक प्रलोभनों से लुभाने का प्रयत्न करते हैं।  यमराज ने उसे दीर्घायुवाले बेटे-पोते, बहुत से गौ आदि पशु, गज, श्यामकर्ण घोड़े, भूमि के विशाल क्षेत्र, स्वयंकी भी यथेच्छा आयु प्राप्त करने का प्रलोभन दिया और समझाया कि वह आत्मविद्या को सीखने के लिए उसे विवश न करे।

नचिकेता भी चतुर तो है ही ! आप जो मुझे भौतिक वस्तुओं का प्रलोभन दे रहे हैं, उनको भोगने के लिए तो एक जीवन भी कम है । कब किसी की इच्छाएं पूरी हुईं हैं ? ये तो केवल इन्द्रियों के तेज को हर लेती हैं और आयु को कम कर देती हैं । Nachiketa concludes : नचिकेता ने निष्कर्ष निकाला :  सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज:। too much indulgence ,It removes vitality of my senses, It removes my energy, बहुत अधिक भोग क्षणभंगुर हैं , जो इन्द्रियों के तेज को क्षीण कर देते हैं। “जब आप ही कह रहे हैं कि यह विषय कठिन है, तो आप जैसा जानने वाला और आप जैसा सिखाने वाला मुझे कहां मिलेगा ?! अब जब आपको देख लिया है तो धन और आयु तो मुझे प्राप्त हो ही जाएंगे । इसलिए मुझे वर तो यही मांगना है ।”२/२९ )  

 >>>3.आत्मा-परमात्मा (शाश्वत-नश्वर) परम् सत्य का ज्ञान प्राप्ति के लिए योग्यता/ श्रद्धा और श्रेयस-प्रेयस विवेक, The Body, Mind-Complex : and Its -indweller?

यम नचिकेता से कहता है कि धीर पुरुष श्रेय कौ और मन्द अज्ञानी पुरुष सांसारिक सुख की दृष्टि  से केवल प्रेय को अपना ध्येय बनाते हैं परन्तु तूनें विषयभोग की निस्सारता पर विचार करके उन्हे छोड़ दिया जिनमें बहुत लोग फंस जाया करते हैं।   यमदेव आचार्य के रूप में नचिकेता की परीक्षा लेकर आश्वस्त हो जाते हैं कि वह आत्मज्ञान-प्राप्ति का सुपात्र है। नचिकेता कर्मकाण्ड (यज्ञ आदि) की सीमा को जानता है तथा वह असीम ज्ञान की प्राप्ति के लिए सन्नद्ध है। यमाचार्य स्वयं भी कर्मकाण्ड को आध्यात्मिक ज्ञान की अपेक्षा तुच्छ मानते हैं। इस दूसरी वल्ली से ज्ञानोपदेश का प्रारंभ होता है। ब्रह्मविद्या का उपदेश उत्तम अधिकारी को ही दिया जा सकता है, अनधिकारी को कदापि नहीं।

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।

श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥१/२/२॥

शब्दार्थ = श्रेयस् च प्रेयस् च = श्रेय और प्रेय ये दोनों ही/ मनुष्यम् एतः - मनुष्य के सामने आते हैं/  धीर: =श्रेष्ठबुद्धि सम्पन्न पुरुष/ तौ सम्परीत्य  = उन दोनों के स्वरुप पर भलीभाँति विचार करके / विविनक्ति - उनको पृथक्-पृथक् समझ लेता है/ (और) धीरः = वह श्रेष्ठबुद्धि सम्पन्न मनुष्य/ श्रेयः हि = परम् कल्याण के साधन को ही/ प्रेयसः = भोग-साधन की अपेक्षा/ अभिवृणीते=  श्रेष्ठ समझकर ग्रहण करता है /( लेकिन)  मन्दः = मन्दबुद्धि वाला अविवेकी मनुष्य /योगक्षेमात्= लौकिक योगक्षेम (3K ऐषणा)  की आसक्ति से प्रेरित होकर / प्रेयः वृणिते=  भोगों के साधन के रूप में प्रेय को (कामिनी-कांचन और कीर्ति में आसक्ति को ) अपनाता है।         

अर्थात, प्रत्येक मनुष्य श्रेय (healthy-स्वस्थकर, लाभकारी) और प्रेय (pleasant-सुखकर, मजेदार) दोनों में से एक विकल्प का चयन करने के लिए स्वतंत्र है। [जैसे आँवला और ईमली में से किसी एक का चयन सहनाई बजाने वाले को सामने से ईमली दिखाकर ललचाया जाये, तो उसका परिणाम क्या होगा ? इसीलिए ] श्रेष्ठबुद्धिसम्पन्न पुरुष (prudent- विवेकशील, प्राज्ञ या दूरदर्शी मनुष्य) विचार करके पहले उन्हें पृथक्-पृथक् समझता है। श्रेष्ठबुद्धिवाला अर्थात वैराग्य की प्रेरणा से जीवन जीने वाला मनुष्य प्रेय की अपेक्षा श्रेय को ही ग्रहण करता है। जबकि मन्दबुद्धि-वाला लौकिक योगक्षेम (कामिनी-कांचन या 3K) की इच्छा से प्रेरित होकर जीवन जिने वाला अविवेकी मनुष्य  प्रेय (शाश्वत आनन्द को त्याग कर नश्वर सुख) का ग्रहण करता है।

[सन्दर्भः इस मंत्र को कण्ठस्थ कर लेना चाहिए। उपनिषदों तथा भगवद् गीता में अनेक स्थानों पर धीरपुरुष (विवेकशील पुरुष) की प्रशंसा की गयी है। धीर को ज्ञानी एवं विद्वान भी कहा गया है।]

जीवन में हर समय हमारे सामने दो विकल्प रहते हैं – एक जो प्रिय लगता है और एक जो श्रेयस्कर होता है । अधिकांश मनुष्य तो पुनर्जन्म में विश्वास न होने के कारण इन विषयों पर विवेक-विचार नहीं करते , और भोगों में आसक्त होकर (3K की ऐषणाओं में आसक्त होकर) अपने देवदुर्लभ मनुष्य-जीवन को पशुवत भोगों को भोगने में - आहार, निद्रा , भय और मैथुन में ही समाप्त कर देते हैं। किन्तु जिनका पुनर्जन्म में और परलोक में विश्वास है, उन धीर अर्थात विवेकशील मनुष्यों के सामने जब ये श्रेय और प्रेय दोनों आते हैं , तब वे इन दोनों के गुण -दोषों पर विचार करके दोनों को पृथक -पृथक समझने की चेष्टा करते हैं। और नीर-क्षीर विवेकी परम् हंस की तरह प्रेय की उपेक्षा करके श्रेय को ही ग्रहण करता है। परन्तु  (3K में आसक्ति वश)  जिस मनुष्य में श्रद्धा और विवेक-प्रयोग शक्ति का अभाव होता है;  वह श्रेय के फल (अमरत्व) में अविश्वास करके प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले लौकिक योगक्षेम या लोकोन्नति को अपना लक्ष्य (ध्येय) बना लेता है। और दुखों की अत्यन्त निवृति रूप असली ध्येय से गिर जाता हैं |       

श्रेयस्कर हम किसे कहते हैं ? - जो good या अच्छा होता है।--that which is preferable, और प्रेय that which is pleasurable, जो सुखद या मजेदार हैं लेकिन कल्याण प्रद नहीं हैं। विवेकी व्यक्ति कभी प्रेयस को नहीं चुनता है -decision making के लिए विवेकी होना अनिवार्य है। क्योंकि if you can't demarcate between goodness and pleasure यदि आप कल्याणकारी और सुखद के बीच अन्तर नहीं कर सकते तो निर्णय कैसे लेंगे?  पुनर्जन्म में विश्वासी भारतीय संस्कृति का यह विचार अपने आप में अनूठा है।  जो श्रेय होता है, वह अनेक बार अप्रिय लगता है[जैसे आँवला और ईमली] क्योंकि प्रिय और अप्रिय, ये इन्द्रिय-जनित अनुभव होते हैं, जबकि श्रेय बुद्धि और आत्मा पर श्रवण-मनन-निदिध्यासन से विवेक उत्पन्न होता है । अधिकांश मनुष्य तो पुनर्जन्म में विश्वास नहीं होने के कारण इस श्रेय-प्रेय पर विवेक-विचार नहीं करते , देवदुर्लभ मनुष्य जीवन को पशुवत भोगों को भोगने में ही समाप्त कर देते हैं। प्रिय अविद्या होती है, और श्रेय विद्या होता है । ये दोनों आत्मा को विपरीत दिशाओं में ले जाते हैं । जहां अविद्या इस संसार में बांधे रखती है, वहां विद्या मोक्ष प्राप्त कराती है । यह यजुर्वेद का प्रसिद्ध सन्देश ही है – अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतम्श्नुते (४०।१४) ।

>>'श्रद्ध्या सत्यं आप्यते ' -बचपन से ही ईश्वर और पुनर्जन्म में श्रद्धा रहने से यानि आस्तिक्य बुद्धि रखने से परम्-सत्य की प्राप्ति होती है ! " पूज्य नवनीदा अपनी आत्मकथा 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' के -[25 JNKHMP] 'श्रद्धा आविवेश की दीक्षा' शीर्षक रचना में कहते हैं - 

" मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि बचपन से ही भगवान के साकार रूप पर आस्था रखने य़ा मूर्ति में साक्षात् गोपाल को देखने, गोपाल के मूर्त विग्रह का पूजन करने, भगवान को भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करने, कांसे का घन्टा बजाने, य़ा आरती करने से मुझे कोई क्षति हुई हो ! बल्कि ठीक इसके विपरीत मुझे इससे कुछ लाभ ही हुआ है। ऐसा मैं निश्चय पूर्वक कह सकता हूँ।  

 बचपन से ही पवित्र परिवेश में पालन-पोषण होने  और किशोरावस्था तथा युवावस्था में भी ऐसे ही वातावरण में रहने, घर के सदस्यों तथा परिचितों के त्यागपूर्ण जीवन या कुछ विस्मयजनक घटनाओं आदि को देखने से जितने भी शुभ और पवित्र संस्कार मन पर पड़ते हैं, वे सब मनुष्य जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने में (Life Building में) बहुत ही सहायक होते हैं। किसी भी चीज को प्रत्यक्ष देख लेने के बाद उस पर विश्वास करना उचित ही है।  हम सभी को  अपने जीवन में ऐसे ही अद्भुत किन्तु सत्य घटनाओं का प्रत्यक्ष अनुभव कभी न कभी अवश्य ही होता है। कौन बता सकता है कि ' कलयुग में गोपाल-काली एक हैं ' कहानी में वह सब कैसे घटित हुआ हुआ होगा।  

पितामह ने जो कृष्णनगर के राजबाड़ी की कहानी सुनाई थी, य़ा फिर उस दिन की आखों-देखी घटना को आखिर कैसे झुठलाया जा सकता है ! 

 माँ ने तो मुझे सांत्वना देने के लिये कह दिया था-" माँ कालीर झूड़ी थेके खेये नेबे गोपाल !"(गोपाल,  माँ काली की टोकरी से स्वयं ही पूरियाँ निकालकर खा लेंगे) और सुबह में घर के सभी लोगों ने वह दृश्य देखा कि - माँ काली की टोकरी में पूरियाँ नहीं बची हैं एवं पूरियाँ छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त होकर गोपाल की चौकी तक एक कतार में बिछी थीं। " 

विश्वास होना य़ा न होना, एक बात है और ऐसा होना संभव है य़ा नहीं,  वह दूसरी बात है। किन्तु किसी घटना को प्रत्यक्ष देख लेने पर जो विश्वास होता है - वह अलग ही श्रेणी का होता है। क्योंकि स्वयं प्रत्यक्ष कर लेने पर एक भिन्न प्रकार की श्रद्धा जाग्रत हो जाती है ! स्वामीजी कठोपनिषद में नचिकेता के भीतर इसी तरह के  " श्रद्धा-आविवेश " का उदाहरण दिया करते थे। " नचिकेता के पिता यज्ञ कर रहे हैं ! बहुत बड़े पैमाने पर यज्ञ कर रहे हैं, किन्तु उसमे जो दान दे रहे हैं उसमे वे चुन- चुन कर उन गौओं को दे रहे हैं जो ' दुग्धदोहा निरिन्द्रिया: ' हो चुकी हैं। अर्थात वे गौएँ ' निरिन्द्रिय ' हैं या अब और दूध देने के योग्य नहीं हैं, वे अब संतान भी उत्पन्न नहीं कर सकतीं। 

यह देख कर नचिकेता कहता है- " पिताजी आप इस तरह की गौओं का दान क्यों कर रहे हैं? आपको तो श्रेष्ठ वस्तु दान में देनी चाहिए। मैं आपका पुत्र हूँ, क्या मैं श्रेष्ठ वस्तु नहीं हूँ? मुझको आप किसे दान कर रहे हैं? " दो-तीन बार पूछने पर उसके पिताजी ने नाराज होकर कह दिया - " जा, मैं तुझको यम को देता हूँ! " इस कहानी को प्रायः सभी जानते हैं की इसके बाद नचिकेता यम से मिलने चल देते हैं, और सशरीर ही यम के घर पहुँच जाते हैं! 

तब यम कहीं बाहर गये हुए थे (शायद आत्मा कलेक्ट करने?), इसलिए नचिकेता तीन दिनों तक उनके लौटने की प्रतीक्षा में बैठे रहते हैं।  यम जब लौट आते हैं तो नचिकेता के साथ उनकी मुलाकात होती है।  वह उनसे आत्म-तत्व के विषय में प्रश्न करता है। तब यमाचार्य नचिकेता को  'उर्ध्वमूलः अवाक्शाखः' वाला आत्मतत्व --जिसका तीनों कालों में भी नाश नहीं होता, समझा देते हैं!  इस प्रकार जब वह अपने यथार्थ स्वरूप को जान जाता है, तब उसका ह्रदय में "श्रद्धाविवेश" #होता है।  ["श्रद्धाविवेश"# एई जे एई रकम जखन हलो, तखन से बलछे "श्रद्धाविवेश।" (please see जीबन नदीर बाँके बाँके बंगला पेज 49)]अर्थात उस बालक के निर्मल अंतःकरण में श्रद्धा  (आस्तिक्य बुद्धि) जाग्रत हो जाती है! जब तक किसी मनुष्य में श्रद्धाजाग्रत नहीं हो जाती तबतक पशुमानव यथार्थ मनुष्य नहीं बन सकता।  [श्रद्धा और विवेक -प्रयोग शक्ति के अभाव में कोई व्यक्ति  पशुत्व से मनुष्य में और मनुष्यत्व से देवत्व में उन्नत नहीं हो सकता।]  यह श्रद्धा जाग्रत कैसे होती है - इस बात को वेदों में भी समझाया गया है कि सर्वप्रथम किसी किसी उद्देश्य के लिए व्रती होना पड़ता है। यजुर्वेद में कहा है :- 

व्रतेन दीक्षामाप्नोति, दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। 

दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति, श्रद्ध्या सत्यमाप्यते।। 

यजुर्वेद 19|30 ||

अर्थ : व्रत धारण करने से मनुष्य दीक्षित होता है। दीक्षा से उसे दक्षता, निपुणता प्राप्त होती है। दक्षता की प्राप्ति से श्रद्धा का भाव जागृत होता है और श्रद्धा से ही सत्य स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति होती है। 

व्रतेन....व्रत क्या है ? अवगुणों को छोड़कर गुणों को धारण करने का नाम व्रत है। बुरी आदतों से निवृत्त होकर सद्गुणों को धारण करना ही उपवास है। भूखे रहकर शरीर को सुखाने का नाम उपवास नहीं है। व्रत का अर्थ है ऐसे आचार, विचार, व्यवहार तथा शुभ संकल्प (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का संकल्प-स्वपरामर्ष सूत्र) जिन्हें अपने जीवन गठन के लिए या जीवन को शुद्ध, पवित्र, उच्च और महान बनाने के लिए स्वीकार किया जाए। व्रत धारण  करने से मनुष्य को श्रेष्ठ अधिकार व योग्यता [C-IN-C चपरास] की प्राप्ति होती है ;  इससे मनुष्यों का आदर, सत्कार बढ़ जाता है। समाज और संगठन में सम्मान प्राप्त होने से निष्काम कर्मों के प्रति (Be and Make के प्रति) श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न होता है। 

सर्वप्रथम किसी कार्य को (मनुष्य बनने और बनाने को) व्रत समझकर, उसी में लग जाने से धीरे धीरे विश्वास आता है, और उससे श्रद्धा आती है।  एवं श्रद्धा के जाग्रत होने पर ही सत्य को प्राप्त किया जाता है। यदि बचपन से ही इस श्रद्धा को जाग्रत करने कि चेष्टा  प्रारम्भ न किया जाय, शैशव काल में श्रद्धा नहीं रहे,  यौवन में भी श्रद्धा यदि नहीं आ सके, श्रद्धा को यदि युवावस्था में भी जाग्रत नहीं किया जा सके तो किसी मनुष्य को जीवन में सच्ची-श्रद्धा य़ा सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती।

हम सोचते हैं कि मृत्यु जीवन की दुश्मन है, लेकिन सत्य बिलकुल विपरीत है। मृत्यु के बिना जीवन हो ही नहीं सकता। यह जो कहा गया है कि एकमात्र उदगम (Source) से सब कुछ अस्तित्व में आया है, उस मूल को ही सत्य वस्तु कहते हैं। वह जो एकमेवाद्वितीयं वस्तु है; 'वही'  पूरी सृष्टि के सभी नाम-रूपों में समाया हुआ है। उस वस्तु की उपमा गीता (१५:१) में अधोमुख पीपल वृक्ष-रूपी संसार " उर्ध्वमूलं अधः शाखम " - से की गयी है। तथा वेदान्त में  (कठ: ३:२:१) में उसी को - " उर्ध्वमूलः अवाक्शाखः एषो अस्वत्थः सनातनः " कहा है। मानवजाति को पुनरुज्जीवित करने की जड़ीबूटी ऊर्ध्वमूलः आध्यात्मिकता में अन्तर्निहित है !  और उसी 'उर्ध्वमूलः अवाक्शाखः सत्य ' को प्राप्त करने के लिए व्रत, दीक्षा, दक्षिणा और श्रद्धा के चार सोपानों को पार करना होता है। 

ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः।

तदेव शुक्रं तद्‌‌ ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।

तस्मिंल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्‌।। 

(कठोपनिषद्-2.3.1)।।

''यह सनातन अश्वत्थ है जिसका मूल ऊपर है, किन्तु इसकी शाखाएँ नीचे हैं। 'वही' तेजोमय है, 'वही' एकमेव 'ब्रह्म' 'वही' 'अमृत' कहलाता है; 'उसी' में समस्त लोक आश्रित हैं, कोई भी 'उसके' परे नहीं जाता। 

[ऊर्ध्व-मूलः अवाक-शाखः = उपर की ओर मूलवाला और नीचे की ओर शाखावाला;  एषः अश्वत्थः सनातनः = यह दृष्टिगोचर जगत सनातन पीपल का वृक्ष है  जिसको Botany में 'Ficus religiosa' (फाइकस रिलिजिओसा) कहते हैं और इसीको संस्कृत में  अश्वत्थः  कहते हैं;  [तन्मूलं]  तत् एव शुक्रम् =  इसका जो मूलभूत तेजोमय कण है वह (परमेश्वर -He the Bright One,God particle , ब्रह्म-कण या अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव) ही विशुद्ध तत्व (अद्वैत तत्व) है;  तत् ब्रह्म = वही ब्रह्म है(और);  तत् एव अमृतम् उच्यते = और वही अमृत कहलाता है (अर्थात जन्म और मृत्यु से मुक्त  free from birth and death कहलाता है) ; सर्वे लोकाः तस्मिन् श्रिताः  = सारे लोक-परलोक उसी के आश्रित हैं ; कश्चन उ तत् न अत्येति = कोई भी उसको लाँघ नहीं सकता-(none Transcend beyond Him' देश-काल-निमित्त (माया) के पार तो जाया जा सकता है किन्तु सच्चिदानन्द स्वरुप  परम् पुरुष ठाकुर देव के परे नहीं जाया जा सकता);  एतत् वै तत्  =  हे नचिकेता  यही वह परमात्मा है- जिसके विषय में तुमने पूछा था। [ हे एथेंस के सत्यार्थी !  एतत् वै तत् # यही वह महावाक्य है - परम् सत्य या इन्द्रियातीत सत्य है- जिसे तुम 1967 से खोज रहे थे, और प्रलय के पहले जो सच्चिदानन्द स्वरुप जीव ? था - वही सत्य है।  this is the thing thou seekest; जिसे देखकर देवकुलिश अँधा हो गया था, जिसके विषय में तुमने मृत्यु के क्षण में भी पूछा था- यदि मैं सच्चिदानन्द स्वरुप आत्मा हूँ , तो देखता हूँ अभी मरता कौन है ? । ] 

जिसका मूलभूत परब्रह्म पुरुषोत्तम (अवतार वरिष्ठ ठाकुर देव,..... C-IN-C नवनीदा)  ऊपर है अर्थात सर्वश्रेष्ठ, सबसे सूक्ष्म और सर्वशक्तिमान है, और जिसकी प्रधान शाखा ब्रह्मा तथा अवान्तर शाखाएं देव, पितर, मनुष्य , पशु-पक्षी आदि क्रम से नीचे हैं। ऐसा यह जगत-ब्रह्माण्ड रूपी पीपल-वृक्ष अनादिकालीन -सदा से है। कभी प्रकट रूप से और कभी अप्रकट रूप से अपने कारणरूप परब्रह्म में नित्य स्थित रहता है, अतः सनातन है। इसका जो मूल कारण है , जिससे यह उत्पन्न होता है, जिस से यह सुरक्षित रहता है , और जिसमें विलीन होता है वही विशुद्ध दिव्यतत्त्व, वही ब्रह्म है, उसीको 'अमृत' कहते हैं तथा सब लोक उसीके आश्रित हैं। कोई भी उसका अतिक्रमण करने में समर्थ नहीं है। नचिकेता ! यही वह तत्व , जिसके सम्बन्ध तुमने पूछा था। 

[# नचिकेता = मानवजाति का मार्गर्शक नेता, जो भारतवर्ष को 'उत्तिष्ठत, जाग्रत !' का मंत्र सुनाकर, सोये हुए सनातनियों में भी जागने वाला उड़ान भरता है। 

य एषु सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः।

तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।

तस्मिंल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्‌ ॥ 

#(कठोपनिषद,अध्याय 2 वल्ली 2,श्लोक 8) 

This that waketh in the sleepers creating desire upon desire, this Purusha, Him they call the Bright One, Him Brahman, Him Immortality, and in Him are all the worlds established; none goeth beyond Him. This is the thing thou seekest.

''वह 'पुरुष' जो नानाविध कामनाओं की सृष्टि करते हुए सोते हुओं में भी जागता रहता है, 'वही' 'ज्योतिर्मय पुरुष', 'वही' 'ब्रह्म', 'वही' 'अमृतत्व' कहलाता है। 'उसमें' ही समस्त लोक-लोकान्तर आश्रित हैं; कोई भी 'उससे' परे नहीं जाता। यही है 'वह' जिसकी तुम्हें अभीप्सा है।

["या एषु  सुप्तेषु जागर्ति "-#नोट यह ICAI (द इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया) का आदर्श वाक्य (motto) है। 'Ya Aeshu Suptaeshu Jagruti'  यह  कठोपनिषद ,अध्याय 2, वल्ली 2 का 8 वां मंत्र है।  इसे 1949 में इसके गठन के समय श्री अरबिंदो द्वारा इसके प्रतीक के रूप में ICAI  को दिया गया था। (CA. C. S. Shastri, a Chartered Accountant from Chennai went to Sri Aurobindo and requested him through a letter to give an emblem to the newly formed Institute of which he was an elected member from the Southern India. In reply to this request, Sri Aurobindo gave him the emblem with a Garuda, the mythical eagle in the centre and a quotation from the Upanishad:Ya Aeshu Suptaeshu Jagruti. साभार https://www.facebook.com/suktisindhu]   

>>सत्य क्या है ? [मानवजाति को पुनरुज्जीवित करने की जड़ीबूटी ऊर्ध्वमूलः सत्य में अन्तर्निहित है ! [26 JNKHMP] 

🔱सांसारिक भ्रम (माया -देश,काल, पात्र) से पार पाना ही परमानंद🔱

>>>जगत में ब्रह्म को कैसे देखना है ?

क्या देखना है और किस तरह से देखना है? क्या सुनना है और किस तरह से सुनना है? इन दो सवालों का सही जवाब अगर पता हो तो मनुष्य के जीवन के लगभग सभी संताप समाप्त हो जाएं। यह उस भारतीय ज्ञान परम्परा का निष्कर्ष (अरण्यों के गुरुगृह वास गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा का निष्कर्ष) है जिसने हजारों साल तक अपने सिद्धांतों को परीक्षण करके पकाया। यह किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों का मंतव्य भर नहीं।  

दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद्ब्रह्ममयं जगत् ।

सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी ॥ 

(अपरोक्षानुभूति-AA-116)  

 --ज्ञानमयी दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए। वही सर्वोत्तम दृष्टि है, न कि वह जो बस नाक की नोक तक निर्देशित होती है।

देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक। 

आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥ 

देहबुद्धि से तो मैं ठाकुरदेव का दास हूँ, जीवबुद्धि से आपका (Holy Trio-ठाकुर,माँ, स्वामीजी का) अंश ही हूँ और आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ 

 जिस एकमात्र उदगम (Source) से सब कुछ अस्तित्व में आया है, उस मूल को ही सत्य वस्तु कहते हैं। वह जो एकमेवाद्वितीयं वस्तु है; 'वही'  पूरी सृष्टि के सभी नाम-रूपों में समाया हुआ है। उपनिषद में उस सर्वानुस्यूत सत्य के विषय में कहा गया है -' पूरा स पक्षीभूत्वा प्राविशत। ' मानो सृष्टि के पहले वही ब्रह्म वस्तु मानो पक्षी जैसा बन कर सभी कुछ (पूरे विश्व ब्रह्माण्ड) में प्रविष्ट हो गये थे। इस भौतिक जगत में जिस प्रकार बाहर से भीतर प्रवेश किया जाता है,  सृष्टि के भीतर प्रविष्ट होने को भी उस अर्थ में नहीं समझना चाहिये। तैत्तरीय उपनिषद में कहा गया है-

 तत-सृष्ट्वा तत एव अनुप्राविशत !

 तत अनुप्रविश्य सत च त्यत अभवत।

विज्ञानम च अविज्ञानम च,

 सत्यम च अनृतम च, इदम यत किम च; तत सत्यम ।। " 

( तैत्तरीय उपनिषद : वल्ली :२: अनुवाक : ६)

- सर्ग के आदि में [जब सबकुछ मृत्यु से ढका हुआ था] परब्रह्म पुरोषत्तम ने यह विचार किया कि मैं नाना रूपों में उत्पन्न होकर बहुत हो जाऊँ ! यह विचार करके उन्होंने तप किया अर्थात जीवों के कर्मानुसार सृष्टि उत्पन्न करने के लिये संकल्प किया। संकल्प करके यह जो कुछ भी देखने, सुनने और समझने में आता है, इसी जड़-चेतनमय सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की, अर्थात अपने ही संकल्पमय स्वरूप को बाहर प्रकट कर दिया।  उसके बाद स्वयं भी उसमे प्रविष्ट हो गये।

फिर जिसका वर्णन किया जा सकता है और जिसका नहीं किया जा सकता ; ऐसे विभिन्न नाना पदार्थों के रूप में हो गए। इसी प्रकार आश्रय देने वाले और आश्रय न देने वाले, चेतन और जड़ इन सब के रूप में वे एकमात्र पुरुषोत्तम ही बहुत से नाम-रूप धारण करके व्यक्त हो गए। वे एक सत्यस्वरूप परमात्मा ही सत्य (आत्मा) और मिथ्या (देह-मन)  के रूप में प्रकट हुए। 

इसीलिये ज्ञानीजन कहते हैं कि ' यह जो कुछ देखने, सुनने और समझने में आता है, वह सब-का-सब सत्यस्वरूप परमात्मा ही हैं! बल्कि यह पूरा विश्व ब्रह्माण्ड उसी से निर्मित हुआ है - अर्थात वह ब्रह्म वस्तु ही जगत का उपादान कारण है। वही ब्रह्म वस्तु सम्पूर्ण सृष्टि में अनुस्यूत य़ा ओत-प्रोत है। अतः वही एकमात्र वस्तु है ! जिस प्रकार स्वर्ण के विभिन्न आभूषणों में स्वर्ण ही एक मात्र वस्तु है!

"इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो 

दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।

एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि

यमं मातरिश्वानमाहु: ।।

- ऋग्वेद (1-164-43)

 अर्थात जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्व है। ब्रह्म ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है और विश्व का आधार है। इसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और नष्ट होने पर विश्व उसी में विलीन हो जाता है।

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।

अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः॥

(ब्रह्म ज्ञानावली माला-BJM-20)

-अर्थात् ब्रह्म 'सत्य' है, ब्रह्माण्ड 'मिथ्या' है (यानि इस जगत-ब्रह्माण्ड को सत्य या असत्य के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है)। जीव ही ब्रह्म है और भिन्न नहीं। इसे ही सही शास्त्र के रूप में समझा जाना चाहिए। ऐसा वेदान्त ने घोषित किया है।

[Brahman is real, and the universe is mithya (it cannot be categorized as either real or unreal). The jiva is Brahman itself and not different. This should be understood as the correct Sastra. This is proclaimed by Vedanta.]

 एक विद्वान ने जगत के मिथ्या होने का अंग्रेजी में बड़ा खूबसूरत अनुवाद किया है: 'The world is a passing reality.' यानी ऐसी रियल्टी जो इतनी तेजी से हमारी आंखों के आगे दौड़ती है, पता ही नहीं चलता कि क्या हमारे समझ आया, क्या नहीं? एक फिल्मी गीत की पंक्ति इस आध्यात्मिक तथ्य को बेहतर तरीके से कहती है। पंक्ति है- ‘आदमी ठीक से देख पाता नहीं और परदे पर मंजर बदल जाता है।’ संसार के परदे पर बिजली की रफ्तार से बदलता मंजर मनुष्य के अंदर मतिभ्रम की स्थिति पैदा करता है। कभी यह सच लगता है… कभी वो सच लगता है। आज जो सच है, वो कल झूठ भी लगता है। अधिकांश लोगों ने अपनी अधिकांश ऊर्जा मिथ्या को (नश्वर वस्तुओं 3K ) के पीछे भागने में लगा दी है। अगर मनुष्य खुद को चेतना के अलावा (सच्चिदानन्द के आलावा) सिर्फ अपने नाम-रूप (M/F) से ही पहचाने, संसार की वस्तुओं से जोड़कर पहचाने तो उसका आनंद समाप्त हो जाता है

इसका समाधान क्या है? भारतीय मनीषियों ने समाधान में ऐसा कतई नहीं कहा कि आप संसार की तेज गति से बनती बिगड़ती रियलिटी को देखना ही बंद कर दो। सिर्फ इतना स्वीकार कर लें कि संसार के परदे पर चल रही चीजों को लेकर (हमास - इस्राइल युद्ध, रूस -यूक्रेन युद्ध को लेकर)  ज्यादा ज्यादा यही निष्कर्ष निकलता है कि, मनुष्य अपने भूलों-भ्रमों को त्यागता हुआ पूर्णत्व -प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर है ! -'Man is marching towards perfection!  यह तय मानकर चलें कि मिथ्या प्रकृति का जगत आपको कोई पक्का निष्कर्ष निकालने ही नहीं देगा।

>>>(Indian knowledge tradition) भारतीय ज्ञान परम्परा में  में ब्रह्म को सत्य कहा गया है।  अर्थात गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में ; जैसे  "श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द गुरुगृहवास वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षक परम्परा" में, या "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make निर्जनवास लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में ब्रह्म को सत्य कहा गया हैब्रह्म यानी जीव का ही सत‍्-चित और आनंद स्वरूप। मनुष्य की चेतना (Existence-knowledge -Bliss) , उसके अपने होने का आनंद और उसके अस्तित्व का अहसास ब्रह्म है। भारतीय ज्ञान, अध्यात्म परम्परा के अनुसार मनुष्य विशुद्ध चेतना है, इसलिए जीव को ब्रह्म कहा है। 

दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है। इन दृश्यमान जगत में सत्य क्या है, मिथ्या क्या है तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर क्या संबंध है- इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर है इसमें। इस सृष्टि में ब्रह्म ही अनुस्यूत है ! संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म से है- यही श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है। जो था, जो है और जो सदैव रहेगा- वही तो ब्रह्म है। 

उपरोक्त श्लोक में मिथ्या शब्द असत् से भिन्न है। इस समय मिथ्या शरीर की जो प्रतीति सत्य वस्तु के रूप में हो रही है, वह परिवर्तनशील है, यह हमेशा रहने वाली -सनातन सत्य 'वस्तु' नहीं है। यही मिथ्यात्व है। इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है। संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही [प्रलय की अवस्था में]  ‘जीव’ का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे जागने पर स्वप्नकाल के द्रष्टा और दृश्य का को लोप हो जाता है

लेकिन हम जैसे साधारण मनुष्यों के लिए ब्रह्म (परमेश्वर- शक्ति या Energy) अदृश्य है, और  जगत (पदार्थ, Matter) हमें दृष्टिगोचर होता है। इसलिए अज्ञानी कहता है--जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। ज्ञानी कहता है--ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। उल्टा  हो जाता है।

 जब कोई व्यक्ति जीवन की इस प्रक्रिया को उल्टा करता है [# अर्थात 'कश्चित धीरः आवृत चक्षुः अमृतत्व इच्छन' नेत्रों को मूँद कर भीतर की ओर देखने का प्रयास करता है], तो पदार्थ अदृश्य होने लगता है और परमात्मा दृश्य होने लगता है। और जिस दिन पदार्थ (Time-Space - Causation)  पूरी तरह अदृश्य हो जाता है, सिर्फ परमात्मा दृश्य रह जाता है, उस दिन जानना कि सत्य की अनुभूति हुई। 

>>मन-शरीर रथ अगर मतवाला हाथी है, तो बुद्धि अंकुश है, आत्मा रथी है ! 

इसीलिए कठोपनिषद में 'देह-मन भवन' ( अर्थात बॉडी माइंड कॉम्प्लेक्स या परिसर) में निवास करती हुई आत्मा को 'रथी' और देह को 'रथ' कहा गया है, मन को लगाम और इन्द्रियों को घोड़े की संज्ञा दी गयी है। बुद्धि को 'सारथी' कहा गया है - क्योंकि यह बुद्धि ही है जो मन पर लगाम लगा पाती है। वरना दुनिया में कोई भी मन पर लगाम नहीं लगा पाता। क्योंकि मन अगर मतवाला हाथी है, तो बुद्धि अंकुश है ! मन तो बुद्धि और विवेक के बस में ही है, क्योंकि बुद्धि और विवेक मन से अधिक ताकतवर है। अगर हमलोग बुद्धि- विवेक से काम लेते हैं तो मतवाले हाथी जैसा मन भी हमारा गुलाम बन जाता है। मन वही करता है जो बुद्धि और विवेक चाहते हैं, बुद्धि और विवेक के स्तर पर ही हमें जीना चाहिए। 

कठोपनिषद में आत्मा के सत्य तक- हमारे अपने स्वरुप तक पहुँचने का उपाय भी बताया है। आचार्य यम शरीर की तुलना रथ से करते हुए कहते हैं - 

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।

बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥३॥

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।

आत्मेन्द्रियमनोयक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ॥४॥

अन्वय -आत्मानं रथिनं विद्धि। शरीरं रथं एव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि। मनः प्रग्रहम् एव च॥इन्द्रियाणि हयान् आहुः विषयान् तेषु गोचरान्। आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं तम् आत्मनं भोक्ता इति मनीषिणः आहुः ॥

“हे नचिकेता ! तू आत्मा को रथ का स्वामी जान, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथि, मन को लगाम और इन्द्रियों को अश्व जो कि अपने विषयों में विचरती हैं (कठ० १।३।३-४) ।” 

गीता में आए शरीर रूपी रथ की उपमा भी यहां पाई जाती है – जीवात्मा को रथ का स्वामी समझो और शरीर को ही रथ (समझो) और बुद्धि को सारथि (रथ चलानेवाला) समझो और मन को ही लगाम समझो। मनीषीजन इन्द्रियों को घोड़े कहते हैं विषयों (भोग के पदार्थों) को उनके गोचर (विचरने का मार्ग) कहते हैं।  शरीर, इन्द्रिय और मन से युक्त (जीवात्मा) को भोक्ता है, ऐसा कहते हैं। (कठोपनिषद वल्ली १. ३. ३-४)  

इस प्रकार आत्मा बुद्धि द्वारा मन की लगाम से इन्द्रिय-अश्वों को वश में रखती है । यह उपमा, कुछ भेद से, यजुर्वेद में पाई जाती है – सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान् नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव (३४।६) – अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा सारथि लगाम से अश्वों को मन-वाञ्छित स्थान पर ले जाता है, वैसे ही मन मनुष्यों को इधर-उधर ले जाता है । 

>>>4.दो चीजों की जरूरत पड़ती है - 'वैराग्य और अभ्यास': इसी पर आधारित है भारत के जुड़वाँ राष्ट्रीय आदर्श - 'त्याग और सेवा'! 

[You can Cognize your mind : Memory ko connect कौन कर रहा है। आप अपने मन को देख सकते है, पहचान  सकते हैं। देह रथ के रथी आत्मा को अपने स्वरुप तक पहुँचा देने के लिए, सारथी बुद्धि को,  दो चीजों की जरूरत पड़ती है - 'वैराग्य और अभ्यास': इसी पर आधारित है भारत के जुड़वाँ राष्ट्रीय आदर्श - 'त्याग और सेवा'! ] 

पतञ्जलि के योग सूत्र -योगः चित्तवृत्ति निरोधः  के समान, यह उपनिषद् भी बताता है कि जब शरीर, इन्द्रियां, मन व बुद्धि – सभी स्थिर हो जाते हैं, कोई चेष्टा नहीं करते, तो उसे योगावस्था कहा जाता है । इस अवस्था को कैसे प्राप्त करें, यह भी बताया गया है । ब्रह्म से आत्मीयता होने पर सब दु:ख दूर हो जाते हैं, सब कामनाएं छूट जाती हैं और हृदय की सब ग्रन्थियां (संशय) खुल जाती हैं । उपनिषद् बताता है कि मुक्तात्मा मूर्धा को जाने वाली एक नाड़ी से निकलता है और मृत्यु उसके वश में होती है – वह जब चाहे तब तक शरीर में वास कर सकता है, और जब चाहे छोड़ सकता है । इसको अन्यत्र जीवन्मुक्त दशा कहा गया है । अन्य आत्माएं अन्य दिशाओं में जाने वाली नाड़ियों से शरीर-त्याग करती हैं ।

आपका जो वास्तविक परिचय है, उसका द्रष्टा आप स्वयं हैं - और जो अविनाशी है ! देह-मन परिसर हमारा instrument है।  आप स्वयं Consciousness हैं जो इस देह-मन परिसर रूपी यंत्र मन-बुद्धि को देख सकते हैं , नियंत्रित कर सकते हैं। (21 मिनट) हमलोग बाहर में ढूँढ़ते हैं-मूल्यवान वस्तु (सोना-चाँदी?) की खोज में बाहर में इधर-उधर बहुत दौड़ते हैं, पर नहीं जानते कि हमारे भीतर ही सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है हमारा मन। उपरोक्त 'देह-मन भवन' की तुलना रथ के साथ करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि हमें हमारे 'स्वरुप' (पवित्र त्रयी ठाकुर, माँ, स्वामीजी) तक पहुँचने की यात्रा अपने से बाहर किसी अन्य स्थान तक पहुँचने से पूरी होगी। 

 लेकिन यह सब मन को एकाग्र करने से ही होता है। इसलिए रथी आत्मा अब विवेक-सम्पन्न सारथी बुद्धि को आदेश देगी- भाई यदि अमरत्व तक यात्रा करनी है तो- " अमृतत्वं इच्छन्, आवृत्त चक्षु: " तुम्हें आँखों को बाहर से मोड़कर भीतर की ओर घुमाना चाहिए।

पराञ्चिखानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्‌।

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैषदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्‌ ॥ 

(कठोपनिषद -२.१.१)

अन्वय : स्वयम्भूः खानि पराञ्चि व्यतृणत् तस्मात् पराङ् पश्यति न अन्तरान्मन्। कश्चित् धीरः आवृत्तचक्षुः अमृतत्वम् इच्छन् प्रत्यगात्मानम् ऐक्षत् ॥

'स्वयंभू' ने देह के द्वारों को, समस्त इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, इसीलिए मनुष्य की आत्मा बाहर की ओर देखती है, 'अन्तरात्मा' को नहीं। यत्र-तत्र विरला ही कोई ज्ञानी पुरुष (धीर पुरुष) होता है जो अमृतत्व की इच्छा करते हुए अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी करके 'अन्तरात्मा' को देखता है।

पहले वैराग्य फिर अभ्यास ! लालच को कम करते हुए प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करें - सब कुछ मिलेगा। 

इसका एक कारण यह भी है कि परमात्मा ने हमारी इन्द्रियों को बलात् बहिर्मुख कर दिया है और कोई ही ऐसा धीर होता है जो इन्द्रियों के द्वार बन्द करके अन्दर झांकता है । इसीलिए मोक्ष के मार्ग का प्रवचन करने वाले विरले होते हैं, और उसको समझने वाले भी । मोक्षमार्ग पर अग्रसर होने के लिए गुरु से दिशा-निर्देश प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, उपनिषद् यह बताता है। 

और जो इस मार्ग पर एक बार आ गया उसके लिए चेतावनी है कि इसी जन्म में परमात्मा को प्राप्त कर लो तो अच्छा है, नहीं तो पुनः अनेकों जन्म में घूमना पड़ेगा क्योंकि अगले जन्म में क्या हो, किसे क्या पता ?!

>>>5.आश्चर्यो वक्ता,  लब्धा कुशलः 

श्रवणाय अपि बहुभिः न लभ्यः, श्रृण्वन्तोपि बहवो न विद्युः।

आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धा श्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः॥ कठ -१.२.७॥

इस गूढ आत्मतत्त्व का वक्ता महापुरुष आश्चर्यमय होता है। उसकी जीवनशैली असामान्य होती है। मनुष्य उसे देखकर आश्चर्य करते हैं। आत्मतत्त्व के विवेचन को समझने और ग्रहण करनेवाला मनुष्य भी एक दुर्लभ महापुरुष होता है। १/२/७ )

 यमराज कहते हैं, हे नचिकेता तुम विवेकी हो , इसलिए तुमने श्रेयस को चुना है। अतएव मैं तुम्हें आत्मज्ञान (self-knowledge) दूँगा। लेकिन यह ज्ञान बहुत विरल है- श्रेय-बुद्धि सरलता से नहीं उत्पन्न होती है, बहुत विरल है।

वचनामृतः = जो (आत्मतत्त्व) बहुत से मनुष्यों को सुनने के लिए भी नहीं मिलता, यह आत्मतत्व क्या चीज है इसके बारे हमलोग आजकल कहीं सुनते हैं क्या ? विशेषकर  आजकल की स्कूली शिक्षा में तो कोई इसकी चर्चा भी नहीं सुनाई पड़ती। फिर कहते हैं यदि कहीं से सुनने को मिल जाए त बहुत से मनुष्य सुनकर भी नहीं समझ पाते, क्योंकि इसका कहनेवाला आश्चर्यमय है, ग्रहण करनेवाला परम बुद्धिमान् है, उससे शिक्षित ज्ञाता पुरुष आश्चर्यमय है। आत्मतत्व का नाम कहने वाले ज्ञानी 'गुरु' आसानी से नहीं मिलते, और शिष्य भी वैसा ही होना चाहिए। क्योंकि यह आध्यात्मिक 'शीक्षा' है, यह आत्मबोध गुरु शिष्य से रटवाते नहीं हैं , it is not just telling something, बल्कि शिष्य को छूकर 'transmit' या संचारित कर देते हैं। One mind transmit to another mind , it is not giving lecture.it is tuning the mind in that order. यमाचार्य भी नचिकेता में एक भावी नेता /गुरु को देख लेते है जो दूसरों में सीधा आत्मज्ञान संचारित कर सकता है, विवेकी नचिकेता बहुत अच्छा युवा आदर्श हो सकता है। 10मिनट 7 सेकंडक्योंकि यह तर्कादि के परे है । इसमें जन्म-जन्मान्तर के शुभकर्म और उनसे उत्पन्न आत्मा की पवित्रता ही कारण हैं । कठोपनिषद १/२/७-९)

>>>Actual Methodology in Kathopanishad to reach at the truth of  the self : कठोपनिषद में बताया गया है कि स्वयं के यानि आत्मा के सत्य तक पहुँचने की वास्तविक पद्धति क्या है ? उसमे से एक है -सन्दर्भ: = ओम् की महिमा का गान है। यमराज जो संक्षेप में इस मार्ग का स्वरूप बताते हैं, सो वह एक पद में ही समा जाता है – ओम् उस पदवाच्य परमात्मा की सुन्दर स्तुति पूरे उपनिषद् में भरी हुई है ।

सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ १.२.१५॥

 वचनामृत: सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप में कहता हूँ, - वह परमपद ओम् है। यह अक्षरब्रह्म तथा शब्दब्रह्म है। यह एक अक्षऱ ब्रह्म का वाचक अथवा प्रतीत है। 

>>>How to meditate on OM? आप क्या जानते हैं की ॐ क्या है ? - OM is YOUR real name वह आपका (बिजय-बिनय का भी) वास्तविक नाम है ! इसका नाम जपने और ध्यान करने से - मन स्वतः अन्तर्मुखी हो जाता है। It leads you to your real self !  यह तीन मूल ध्वनियों अ, उ, म्, का संयोजन है। यही उसका आदि है, यही अन्त और यही मध्य है । इसी को लक्ष्य करके पथिक को राह पकड़नी होती है, जिससे कि अक्षर ब्रह्म और अनन्त सुख की प्राप्ति होती है । नाम (श्रीरामकृष्ण परमहंस देव) तथा नामी (माँ काली- रामोकृष्णो) में अभेद होता है तथा वे एक होते हैं, नाम से नामी का उल्लेख होता है। ओम् ब्रह्म का नाम है, साक्षात् ब्रह्म ही है। यमाचार्य फिर यह भी बताते हैं कि आत्मज्ञान कैसे नहीं प्राप्त हो सकता है ? 

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥

वचनामृत: यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसे स्वीकार कर लेता है, उसको ही प्राप्त हो सकता है। यह परमात्मा उसे अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है। तात्पर्य यह है कि केवल आत्मलाभ के लिए ही प्रार्थना करनेवाले निष्काम पुरुष को आत्मा के द्वारा ही आत्मा की उपलब्धि होती है। किस प्रकार वह उपलब्ध होता है, इस पर कहते हैं—परमात्मा ही जिसे स्वीकार कर लेता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। 

 Do you know what attention is?  [परेड में कमाण्ड मिलता है - Attention -Stand At EaseIt may be called only from the position of Attention. वो वाला attention नहीं, exam के समय वाला attention!] क्या आप जानते हैं ध्यान क्या है? ध्यान आत्म-जागरूकता से जुड़ा है। आपके लिए attention बहुत जरुरी है। 11 मिनट) 

attention is connected to self-awareness ! Awareness when full bloom it chooses to whom it will give itself ? वास्तव में परमात्मा स्वयं ही स्वयं को प्रकट करता है। परमात्मा का दर्शन एवं अनुभव परमात्मा के प्रसाद से अथवा उसकी कृपा से (अहं का त्याग हो जाने से) ही होता है। सूर्य का प्रकाश तो हमारे द्वार तक स्वयं ही आता है, किन्तु द्वार खोलने पर ही हम उसका दर्शन कर सकते हैं। मन को निर्मल करने पर अथवा मन के द्वार  खोल देने पर परमात्मा का दिव्य प्रकाश प्रकट हो जाता है, जो मनुष्य के हृदय की गुहा में निगूढ रहता है तथा जीवन का स्त्रोत एवं आधार होता है। (२सो जानइ जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई।)

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥ २४॥

इसे (परमात्मा को) सूक्ष्म बुद्धि अथवा आत्मज्ञान से भी न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो दुराचार से निवृत्त न हुआ हो; न अशान्त व्यक्ति ही उसे प्राप्त कर सकता है, जो असंयत हो और न अशान्त मनवाला ही उसे प्राप्त कर सकता है। (एक अन्य अर्थ है कि प्रज्ञान से ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। )

सन्दर्भ: परमात्मा की प्राप्ति के लिए उसका अधिकारी होना आवश्यक है। नैतिकता- मनुष्यनिर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा अध्यात्म-मार्ग का प्रथम सोपान है। अनैतिक एवं कुमार्गगामी सत्पात्र नहीं होता।

दूसरी ओर जो भौतिक कामनाओं में फंसे रहते हैं, वे मृत्यु के चंगुल से छूट नहीं पाते । गीता में लगभग उसी प्रकार पाए गए प्रसिद्ध श्लोकों – न जायते म्रियते वा विपश्चिन् (कठ १।२।१८, गीता २।२०) और हन्ता चेन्मन्यते हन्तुम् (कठ १।२।१९, गीता २।१९) – के द्वारा यम बताते हैं कि जीवात्मा भी अनादि व अनन्त है (इन्हीं समानताओं के कारण, कई लोगों की मान्यता है कि भगवद्गीता कठोपनिषद् की व्याख्या है)जहां वह अणु है, वहां ब्रह्म उससे भी अणुतर है और उसकी गुहा में निहित है । यह उपदेश भी वेदों में कई बार इसी प्रकार आता है, यथा – त्रीणि पदानि निहिता गुहास्य (यजु० ३२।९) । 

एक और संकेत देते हैं - तुम्हारा वास्तविक स्वरुप क्या है ? योग का अब अभ्यास करें स्वरुप की झलक मिलेगी। यदि आपके पास सबकुछ है, पर अपनी पहचान नहीं है - तो उससे क्या हुआ ?  

एष  सर्वेषु  भूतेषु  गूढोत्मा  न  प्रकाशते ।

दृश्यते त्वग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः #॥१२॥

यह आत्मा (परमपुरुष) सब प्राणियों में छिपा हुआ रहता है, प्रत्यक्ष नहीं होता। सूक्ष्म दृष्टिवाले पुरुषों के द्वारा (ही) सूक्ष्म, तीक्ष्ण बुद्धि से (उसे) देखा जाता है। (कठोपनिषद वल्ली १. ३. १२)

 सूक्ष्मदर्शिभिः # कठोपनिषदKath Upanishad) कठ उपनिषद  ' कठ + उपनिषद'  का अर्थ  है मृत्यु या ब्रह्माण्डीय प्रलय के अनुभव से नश्वर शरीर और अविनाशी आत्मा में विवेकी-बुद्धि द्वारा  अपरिवर्तनीय सत्य 'क=ब्रह्म' (इन्द्रियातीत सत्य) के प्रति 'ठ' में निष्ठा या श्रद्धा' करने की यह महान नैतिक शिक्षा कितनी प्राचीन भारतीय फिलॉसफी है । ( 3H-2H= 1H, 1-1=0, लेकिन ∞- ∞ =  ∞ ही रहता है इसमें कोई संशय नहीं है।) ]इस प्रकार हम पाते हैं कि भारतीय फिलॉसफी (Indian Philosophy) कठोपनिषद्  में कही गयी  यह महान नैतिक शिक्षा कितनी अच्छी और प्राचीन (good and ancient) है! 

ठोपनिषद् अध्यात्म-ज्ञान का भण्डार है । इसमें वेदों के सत्य इतने सुन्दर रूप में प्रस्तुत किए गए हैं कि भगवद्गीता जैसे ग्रन्थों ने इसके श्लोक जैसे-के-तैसे उद्धृत किए हैं । इसके अधिकतर श्लोक स्मरणीय हैं और दैनिक सन्ध्या में जोड़ने योग्य हैं, क्योंकि वे भक्ति-रस से छलक रहे हैं ।

कठोपनिषद् में जो आलंकारिक नचिकेता और यम की कथा है, वह वैसे तो अध्यात्म-अध्येताओं में सुप्रसिद्ध है, परन्तु, जैसा मैंने हाल में ही वक्ता के रूप में अनुभव किया, सामान्य जन इससे अनभिज्ञ हैं । और कुछ नहीं तो, कम-से-कम यह कथा हमें घर-घर तक पहुंचानी चाहिए । बच्चों की पुस्तकों में इसे सम्मिलित करना चाहिए ।

>>>तैत्तिरीय ब्राह्मण में ब्रह्माण्ड -प्रलय का अनुभव :  तैत्तिरीय ब्राह्मण में में जहां नचिकेता को यमराज तीन वरदान देता है-अतिथिदेवो भव (तै० उप० १.११.२)] में यह उपाख्यान कुछ विकसित रुप में वर्णित है।वहाँ नचिकेता ने तीसरे वर में अन्तिम पुरुषार्थ 'मोक्ष' या मुक्ति या प्राप्ति का साधन,अर्थात पुनर्मृत्यु पर विजय-प्राप्ति का साधन पूछा है - " तृतीयं वृणीष्वेति। पुनर्मृत्योर्मेऽपचितिं ब्रूहि"#वहाँ  तैत्तिरीय ब्राह्मण में जन्म-मृत्यु पर विजय-प्राप्ति के साधन को # 'means to overcome Rebirth (birth and death) को ब्रह्माण्ड-प्रलय कहा है , मृत्यु  नहीं।   

"What was there before anything was there?" इस दृष्टिगोचर विश्व-ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने से पहले क्या था ?  सृष्टि से पूर्व सब कुछ मृत्यु से ही आवृत था (मृत्युनैवेदमावृतमासीत्)। 'वहां कुछ भी नहीं था! सब कुछ केवल 'मृत्यु' से ढका हुआ था।' 'Nothing was there! Everything was covered by 'death' alone.' - This is a random thought chosen from an Upanishad."  - यह बृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया- ऋषि दृष्टि के सम्मुख एक सहसा उत्पन्न  विचार (महावाक्य) है।

बृहदारण्यक उपनिषद् (अध्याय १, ब्राह्मण २, मंत्र १) मे कहा है कि- नैवेह किंचनाग्र आसीन् मृत्युनैवेदमावृतमासीदशनाययाऽशनाया,  हि मृत्युस्तन्मनोऽकुरुताऽऽत्मन्वी स्यामिति । सोऽर्चन्नचरत्/तस्यार्चत आपोऽजायन्तार्चते वै मे कमभूदिति। तदेवार्क्यस्यार्कत्वम् । कꣳ ह वा अस्मै भवति य एवमेतदर्कस्यार्कत्वं वेद ॥ १॥ {मन्त्र १ [I.ii.1]} 

पुन: (मंत्र १, २, ७) कहा है-सोऽकामयत ..... पुनर्मृत्युं जयति नैनं मृत्युराप्नोति मृत्युरस्याऽऽत्मा भवत्येतासां देवतानामेको भवति ॥ [I.ii.7] ईश्वर के संकल्प को जानने वाला उपासक मृत्यु को जीत लेता है तथा मृत्यु उसे पकड़ नहीं सकती। 

आगे (मंत्र १, ३, २८) कहा है- असतो मा सद् गमय, तमसों मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमय  [I.iii.28]

हे प्रभो, मुझे असत् से सत् तम से ज्योति और मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो, मुझे अमृतस्वरुप कर दो। 

"स एकाकी न रमते। स द्वितीयमैच्छत्।

स आत्मानं द्वेधा पातयत्। पतिश्च पत्नीश्चाभवत्।"  

बृहदारण्यक -[I.iv.3] 

ये सभी श्रुतिवचन कहते हैं:--वे अकेले रमण नहीं करते।-उन्होंने दूसरे की इच्छा की।-उन्होंने अपने में से ही दूसरा स्वरूप प्रकट किया।-वे ही पति भी बने और, वे ही पत्नी भी बने।

>>>मानव ज़ीवन की सार्थकता  किसमें है ? 

मानवजीवन की सफलता ईश्वर को प्राप्त करने -कराने में है ।  Be and Make -आंदोलन अर्थात 'ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन' के प्रचार-प्रसार में लगे रहने से जीवन सार्थक हो जाता है। दादा कहते थे - मुक्त हो जाओगे अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी। हमें विवेक-प्रयोग  शक्ति को निरन्तर जागृत रखना चाहिये। इस उद्दीपन की बहुत आवश्यकता है।

याद रखें, यदि इसी मनुष्य जन्म में आप भगवान का साक्षात्कार न कर सके, अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य नहीं बन सके तो ‘महतौ विनष्टिः’ सर्वस्वनाश हो जायगा। क्योंकि, जब दो रुपये की हानि की आशंका से रात को नींद नहीं आती तो सर्वस्व-नाश की आशंका होने पर आलस्य कैसे सतायेगा?

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति

(केनोपनिषद- २. ५)

 अर्थात-  इस वर्तमान जीवन में हमने अपने लक्ष्य को जान लिया अर्थात इस मनुष्य का शरीर रहते हुए ही यदि उस लक्ष्य को पहचान लिया तो इस मनुष्य जीवन की, इस शरीर की सार्थकता है। और यदि हमने उस लक्ष्य को ना जाना तो फिर महाविनाश है। बहुत बड़ी हानि है। यह शरीर रहते सत्य (ब्रह्म) को जान लिया तो शुभ है, यानि उस व्यक्ति का जीवन (अस्तित्व) सार्थक हुआ है।  यह शरीर रहते नहीं जाना तो महा विनाश है।  ज्ञानीजन (ब्रह्मविद मनुष्य) पुरुष प्राणिमात्र में ब्रह्म को समझकर इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं।

क्योंकि बहुत पुण्य कर्मों के फलस्वरूप यह मनुष्य जीवन हमें प्राप्त होता है। और यदि हमने इसको यूं ही व्यर्थ गंवा दिया तो बहुत हानि होने वाली है। इसलिए हमें अपने जीवन के लक्ष्य के प्रति सजग व सावधान रहना चाहिए। और नित्य निरंतर अपने जीवन के लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना चाहिए। सांसारिक एषणाओं को हम कम करते जाएं, और जितना जितना हम विवेक( यथार्थ ज्ञान) और वैराग्य ( सांसारिक वस्तुओं से मोह त्याग) को जागृत करते जाएंगे उतना उतना अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले जाएंगे। तभी इस जीवन का अभीष्ट लक्ष्य हम सबको प्राप्त हो सकता है।

सामान्य रूप से यह बात सभी को निश्चित है कि एक दिन अवश्य मरना होगा। परन्तु यह निश्चय रहते हुए भी साठ-सत्तर वर्ष के बूढ़े भी दुराचार, दम्भ और पाप से निवृत्त नहीं होते। इसमें क्या हेतु है?- मोह। मोह ही उन्हें मृत्यु की घड़ी का विस्मरण करा देता है हमें जो काम करना है उसकी आवश्यकता का अनुभव करना चाहिये। अतः हमें ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिये कि हम परमार्थ-विषय को जानते ही हैं, हमें सत्पुरुष सच्छास्त्रों के संग की, गुरुगृहवास या कैम्प में जाने की  क्या आवश्यकता है? यदि तुम ऐसा सोचोगे तो तुम्हारी प्रगति शिथिल पड़ जायेगी। नहीं, साधु-संग या कैम्प तो विवेक और वैराग्य उद्दीपन करने वाला है।  और उसकी उपेक्षा में सर्वनाश है-जब तक ऐसा सुदृढ़ निश्चय न होगा, भजन में प्रगति कैसे होगी? 

 यदि कोई व्यक्ति इस मनुष्य तन में, जो कर्तव्य और भोक्तव्य दोनों के साथ सम्बन्ध रखता हुआ, भोगों से अनासक्त होकर  ईश्वर को जान ले, तो गृहस्थ अवस्था में भी मुक्ति प्राप्त हो सकती है। जो मनुष्य अभी से, अर्थात  अपने इसी वर्तमान जीवन में अपने लक्ष्य की ओर ठीक - ठीक प्रवृत हो गया,  धर्म-अधर्म, श्रेयस्कर -प्रेयस्कर/ Preferable-pleasurable, /Cosmic Bliss- transient pleasure,/ विवेक-प्रयोग में रत होकर परमात्मा को जानने का यत्न करता है, वही सफल होता है। इसके विपरीत जो मनुष्य जीवन को केवल संसारी कार्यों में लगाये रखता है, वह अपनी महती हानि कर रहा है।यदि इस शरीर को केवल भोग - भावना में ही लगाये रखे और परमात्मा के जानने के स्थान में दिन रात केवल शरीर की पुष्टि का यत्न करे तो उस अवस्था में बड़ी हानि होती है।  क्योंकि मानव-शरीर छूटते ही स्वतंत्रता अथार्त विवेकपूर्ण कर्तव्य की शक्ति समाप्त हो जाती है।  फिर अनेक जन्मों तक भोग योनियों अर्थात् ज्ञानशून्य देहों में धक्के खाने पड़ते हैं, तब कही मनुष्य जन्म पुन: प्राप्त होता है। इसलिए धर्मात्माजन प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ में कर्मफलप्रदाता और गतिप्रदाता आनन्दस्वरूप परमात्मा को विवेक की दृष्टि से देखते हैं और कर्म करने में स्वतंत्रता का प्रयोग करते हैं। 

[और रामकृष्ण-विवेकानन्द परम्परा Be and Make रूपी ज्ञान से ? भारत को प्रकम्पित कर देने वाले C-IN-C नवनीदा जैसे महाज्ञानी, देव- मानव इतिहास में अमर हो जाते हैं !! दादा कहते थे शरीर जाने के बाद जितना दिन जनमोत्स्व होता है -वही वास्तविक जन्मदिन है !

>>>'सो अकामयत एको अहं बहुस्याम-' @@@@ विवेक-जीवन ब्लॉग > मंगलवार, 2 नवंबर 2010.  "मनुष्य को पुनरुज्जीवित करना होगा ! (Revivification of men )" 

"स एकाकी न रमते। स द्वितीयमैच्छत्।

स आत्मानं द्वेधा पातयत्। पतिश्च पत्नीश्चाभवत्।"  

बृहदारण्यक -[I.iv.3] 

ये सभी श्रुतिवचन कहते हैं:--वे अकेले रमण नहीं करते।-उन्होंने दूसरे की इच्छा की।-उन्होंने अपने में से ही दूसरा स्वरूप प्रकट किया।-वे ही पति भी बने और, वे ही पत्नी भी बने।

इन सभी श्रुतिवचनों की यथार्थता को प्रत्यक्ष दिखानेवाली लीला के दर्शन करके ही अष्टछाप महानुभाव गाते हैं:-"श्यामा को सिंगार श्याम को...एक प्राण वपु दोय।"दंडवत् प्रणाम श्रीयुगलसरकार के चरणकमलों में...!!

भगवान का अकेले में मन नहीं लगा- ‘एकाकी न रमते’ , इसलिए उन्होंने अपने साथ खेलने के लिए मनुष्य शरीर की रचना की। खेल तभी होता है, जब दोनों तरफ के खिलाड़ी स्वतंत्र होते हैं। अतः भगवान ने मनुष्य शरीर देने के साथ-साथ इसे स्वतंत्रता भी दी और विवेक भी दिया। दूसरी बात, अगर इसे स्वतंत्रता और विवेक न मिलता, तो यह पशु की तरह हो होता, इसमें मनुष्यता की किञ्चिन्मात्र भी कोई विशेषता नहीं होती। इस विवेक के कारण असत् को असत् जानकर भी मनुष्य ने मिली हुई स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया और असत् में आसक्त हो गया। असत् में आसक्त होने से ही भूल हुई है।

असत् को असत् जानकर भी यह उसमें आसक्त क्यों होता है? कारण कि असत् के संबंध से प्रतीत होने वाले तात्कालिक सुख की तरफ तो यह दृष्टि रखता है, पर उसका परिणाम क्या होगा, उस तरफ अपनी दृष्टि रखता ही नहीं। इसलिए असत् के संबंध से ही भूल पैदा हुई है। इसका पता कैसे लगता है? जब यह अपने अनुभव में आने वाले असत् की आसक्ति का त्याग करके परमात्मा के सम्मुख हो जाता है, तब यह भूल मिट करके स्मृति जाग्रत हो जाती है, इससे सिद्ध हुआ कि परमात्मा से विमुख होकर जाने हुए असत् में आसक्ति होने से ही यह भूल हुई है।

असत् को महत्त्व देने से होने वाली भूल स्वाभाविक नहीं है। इसको मनुष्य ने खुद पैदा किया है। जो चीज स्वाभाविक होती है, उसमें परिवर्तन भले ही हो, पर उसका अत्यंत अभाव नहीं होता। परंतु भूल का अत्यंत अभाव होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस भूल को मनुष्य ने खुद उत्पन्न किया है; क्योंकि जो वस्तु मिटने वाली होती है, वह उत्पन्न होने वाली ही होती है। इसलिए इस भूल को मिटाने का दायित्व भी मनुष्य पर ही है। भूल मिटते ही अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति अपने आपमें ही जाग्रत हो जाती है और मनुष्य सदा के लिए कृतकृत्य, ज्ञात ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाता है। राजा -कवि भर्तृहरि कहते हैं इस विश्व में 4 प्रकार के लोग होते हैं,

" एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परितज्य ये

सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये ।

 तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, 

      ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के ? न जानीमहे ।। " 

[They may be called- The Break Tester or Buffalo !] 

भावार्थ - संसार में उत्तम कोटि के सज्जन पुरुष भी है जो नि:स्वार्थ भाव से सदैव दुसरो की भलाई में ही लगे रहते है । मध्यम श्रेणी के -कुछ सामान्यजन कुछ ऐसे भी हैं, जो अपने स्वार्थ की रक्षा करते हुए दुसरो के हित साधन में लगे रहते है।  और अधम श्रेणी के है जो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए दुसरो को हानि पहुँचाते है, वे मनुष्य के रूप में राक्षस ही हैं। परन्तु जो , भले उनका कोई स्वार्थ पूरा नहीं होता हो, फिर भी सदैव ही दुसरो के हितों का नाश किया करते है, वे कौन है?  उनको किस नाम से पुकारू यह मैं भी नही जानता

>>>मनुष्य बनने का अर्थ-  'विश्वमित्र मनुष्य का निर्माण ' :- " वेद से विवेकानन्द तक पहुँचा हुआ मनुष्य " विश्वमित्र बनकर 'वसुधैव कुटुंबकम' का प्रचार -प्रसार, पाकिस्तान-चीन को छोटा किये बिना- मुस्लिम देशों की सहायता से  'इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर' (IMEC) नामक रेल कॉरिडोर बड़ी लकीर खींच देने वाला 'विश्वमित्र मनुष्य का निर्माण'। 

स्वामी विवेकानन्द कहते थे- " मैं पुरुष य़ा स्त्री हूँ, मैं अमुक देशवासी हूँ, यह सब कहना केवल मिथ्या है। सभी देश मेरे हैं, सारा विश्व मेरा है; ...सारा विश्व ही मानो मेरा शरीर हो गया है।  किन्तु हम देखते हैं कि संसार में बहुत से लोग ये सब बातें मुख से कहने पर भी आचरण में सभी प्रकार के अपवित्र कार्य करते रहते हैं; ... जब तक अशुभ-वेग एकदम समाप्त नहीं हो जाता, जब तक पहले की अपवित्रता बिल्कुल दग्ध नहीं हो जाती, तब तक कोई भी सत्य का साक्षात्कार और उसकी उपलब्धि नहीं कर सकता।  अतएव जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिये अतीत जीवन के शुभ संस्कार, शुभ वेग ही बच रहता है।  शरीर में वास करते हुए भी  वे केवल सत्कर्म ही करते हैं और अनवरत कर्म करते हुए भी; उनके मुख से सब के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है। उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सत्चिन्तन ही कर सकता है, उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी रहे सर्वत्र मानव जाती के लिये महान आशीर्वाद होती है| " (२: ३८) 

मेरे इष्टदेव , जगतगुरु श्री रामकृष्ण साक्षात मृत्यृदेव ? से ही जीवन और मृत्यु के रहस्य को जानने से बढकर अन्य क्या उपाय हो सकता है? > (मेरे यमराज-मेरे जीवित अवस्था में ही मेरे क्षुद्र शरीर और अहंकार के मृत्यु देव >12 जनवरी, 1985 स्वामी विवेकानन्द > 27 मई 1987 मेरे गुरुदेव >श्री रामकृष्ण का वास्तविक नाम -जप पद्धति ग्रहण > 26 दिसम्बर 1987, बेलघड़िया कैम्प: नवनीदा से > दादा के जाने के बाद > 24 दिसम्बर, 2022 कैम्प, 'रामराजतला' और इस जन्म में  'आन्दुलमौरी हाई स्कूल के प्रिंसिपल' दादा के पितामह (श्रीशचन्द्र मुखोपाध्याय) थे उनके यमराज !! दादा  पूर्वजन्म में जब कैप्टन सेवियर थे तब उनके यमराज थे स्वयं स्वामी विवेकानन्द। विजय के यमराज थे स्वयं स्वामी विवेकानन्द और इस जन्म में बेलघड़िया कैम्प में तांत्रिक स्वामी अमलानन्द  मेरे प्राण -बचाने वाली माँ सारदा के शिष्य स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज > दादा और वर्तमान अध्यक्ष स्वामी स्मरणानन्द> दीपक सरकार दा, वीरेन दा, रनेन दा, प्रमोद दा, मिन्टू दा, रामराजतला तपन चटर्जी, का सम्बन्ध स्वामी अमलानन्द से था?  मेरे जीवन और मृत्यु के रहस्य को जानने - का सम्बन्ध -  आन्दुल मौरी भ्रमण महामण्डल-जीप, kjn सिंह के साथ- 2022 कैम्प में  डेकोरेशन थीम  'सौमेन दा का सन्देश - भारत का उत्थान शारीरिक शक्ति से नहीं आत्मा की शक्ति के द्वारा होगा 'थीम पर मंच का 2022 श्री भूदेव बंद्योपाध्याय के पुत्र श्री .....सुशान्तो के साथ पूरा आन्दुल भ्रमण, राजमहल देखना, माँ काली-और माँ सारदा का,  के घर पर स्वामीजी के माँ के गुरु > श्यामा संगीत, आन्दुल के प्रणेता> प्रेमिक महाराज और दादा के पितामह के सम्बन्ध को जानने से बढकर अन्य क्या उपाय हो सकता है? List of photocopies handed over to Mr. Vijay Singh of Jhumritalaiyya / Jharkhand on 25/12/2022.

>>>6. विष्णुपद मन्दिर गया और अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण["हथिया नक्षत्र"/ पितृपक्ष जानिबिघा तीन दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर ":- 30 सितम्बर,से 2 अक्टूबर -2023" : अश्विन माह के अंतिम सप्ताह में लगातार बारिश होती है।  इसे हथिया नक्षत्र कहते हैं। यह नक्षत्र सितंबर के दूसरे पखवाड़े से लेकर अक्तूबर के पहले पखवाड़े में आता है।  हथिया नक्षत्र का किसानों को बेसब्री से इंतजार रहता है क्योंकि ...


सिद्धेश्वर सिंह ने अपनी कविता :'जवाहिर चा' का 'हथिया नक्षत्र' में कहा है -   

हथिया के न बरसने का अर्थ है-

धान की लहलहाती फसल की अकाल मृत्यु

हथिया के न बरसने का अर्थ है-

कोठार और कुनबे का खाली पेट

हथिया के न बरसने का अर्थ है-

जीवन और जगत का अर्थहीन हो जाना।

श्री क्षुदिरामजी की पुत्री कात्यायनी का विवाह कामारपुकुर से एक कोस दूर 'आनुड़' ग्राम में श्री केनाराम बन्दोपाध्याय के साथ हुआ था, तथा उनके पुत्र रामकुमारजी का विवाह जिस दिन केनारामजी की बहन के साथ हुआ था, उसी दिन से उनकी भाग्योन्नति होने लगी। 1849 में एक पुत्र अक्षय को जन्म देने के बाद वे दिवंगत हुईं।  उनकी भानजी श्रीमती हेमांगनी देवी के पुत्र श्री हृदयराम मुखोपाध्याय ने उनके गयाधाम जाने के कारण के सम्बन्ध एक अद्भुत घटना का हमसे उल्लेख किया है।  [नवनीदा के साथ 'गया श्राद्ध' में प्रमोद दा भी मेरे साथ थे - गया मिशन आश्रम के बंगाली सचिव ने श्राद्ध का मंत्र पढ़ते हुए उन्होंने इनका नाम - हेमांगनी देवी भी क्यों लिया था ? इनका टाइटिल मुखोपाध्याय है तो क्या दादा के परिवार से भी उनका सम्बन्ध रहा होगा ? दादा ने बाद में यह भी कहा था कि मैं अपना पिण्डदान करना तो भूल ही गया !] अपनी  पुत्री श्रीमती कात्यायनी देवी की  अत्यन्त बीमारी का  समाचार पाकर, एक दिन श्री क्षुदिरामजी  'आनुड़' ग्राम गए हुए थे। बीमार कन्या के हावभाव को देखकर उन्हें यह निश्चय हो गया कि उनमें किसी भूत-प्रेत का आवेश हुआ है। तब एकाग्र चित्त से श्री भगवान का स्मरण कर अपनी कन्या में आविष्ट जीव को लक्ष्य कर वे कहने लगे - ' तुम चाहे देवता हो अथवा और कोई, मेरी कन्या को इस प्रकार कष्ट क्यों दे रहे हो ? तुरंत ही इसे छोड़कर अन्यत्र चले जाओ। ' उनकी बात सुनकर उस जीव ने उनकी पुत्री के शरीर को अवलम्बन कर उत्तर दिया , " गयाधाम में पिण्ड देकर यदि आप मुझे इस कष्ट से मुक्त करने का वचन दें , तो मैं चला जाऊंगा। " श्री क्षुदिरामजी उस जीव के दुःख से दुःखित होकर बोले, 'मैं शीघ्रताशीघ्र ही गयाधाम जाकर तुम्हारी अभिलाषा को पूर्ण करूँगा। " तभी से श्रीमती कात्यानी देवी भी रोग मुक्त हो गयीं। ठाकुर देव के पिता श्री क्षुदिराम जी ने अपने पितरों के उद्धारार्थ (श्राद्ध करने के लिए) श्री गयाजी जाने का संकल्प किया। 60 वर्ष की आयु होने पर भी गया तक पैदल यात्रा करने में उन्हें किसी प्रकार का भय या संकोच नहीं हुआ। 

1835 ई० के शीत ऋतू के पितृपक्ष में गयाधाम में उन्होंने श्री गदाधरदेव के श्रीपादपद्मों में पिण्ड दान किया। इस प्रकार शास्त्रानुसार श्राद्ध कर्म (पितृकृत्य) सम्पन्न करने के बाद रात में स्वप्न में उन्होंने देखा कि भगवान विष्णु उनसे कह रहे हैं - " क्षुदिराम, तुम्हारी भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, पुत्र के रूप में तुम्हारे घर पर अवतीर्ण होकर मैं तुम्हारी सेवा ग्रहण करूँगा। " किन्तु अपनी निर्धनता की बात सोचकर श्री क्षुदिराम जी बोले - ' मेरे पुत्र होकर जन्म लेने पर मुझ निर्धन से आपकी क्या कभी सेवा हो सकती है ? ' तब भगवान विष्णु के अवतार श्रीगदाधर ने उनसे कहा, " क्षुदिराम, डरने की कोई बात नहीं है , तुम जो कुछ प्रदान करोगे, मैं सन्तोष के साथ उसे ही ग्रहण करूँगा।" उसी समय उनकी नींद खुल गयी। "  उन्हीं दिनों शिवमन्दिर में चन्द्रादेवी को भी कुछ दिव्यदर्शन तथा अनुभव हुए।  वापस घर लौटने पर श्री क्षुदिरामजी ने देखा कि श्रीमती चन्द्रादेवी (ठाकुर देव की माता जी) अब अपने कुलदेवता श्रीरघुबीर को बिल्कुल अपने पुत्र जैसा देखने लगी हैं ! इससे पहले उनकी सेवा-पूजा करते समय उनका ह्रदय जिस श्रद्धायुक्त भय से सर्वदा पूर्ण रहता था, वात्सल्य प्रेम के आविर्भाव से अब वह भय न जाने कहाँ अन्तर्हित हो चुका था। तब क्षुदिरामजी ने उनसे कहा कि " गयाधाम में रहते समय मुझे भी श्रीगदाधर ने अलौकिक रूप से दर्शन देकर यह बतला दिया है कि हमें पुनः पुत्रमुख देखना पड़ेगा। "  45 वर्ष की आयु में क्षुदिराम की पत्नी श्रीमती चन्द्रादेवी पुनः गर्भवती हुईं। 17 फरवरी 1836, शुक्लपक्ष, बुधवार रात को ब्रह्ममुहूर्त में , यानि 18 फरवरी फाल्गुन शुक्ल द्वितीया को जिस बालक ने जन्म लिया उसका नाम राशि के अनुसार श्री शम्भुचन्द्र तथा गयाधाम के विचित्र स्वप्न की बात का स्मरण कर बालक के पुकार का नाम 'श्री गदाधर ' निश्चित किया गया।(श्री रामकृष्ण लीला-प्रसंग -40,44..... 57)   

जगतनियन्ता देव श्री विष्णु के दशावतारों एवं चौबीस अवतारों के अतिरिक्त एक अन्य अवतार की चर्चा पुराणों में की गई है, वह है-जगत के पालनहार विष्णु जी का गदाधर रूप। भगवान विष्णु के गदाधर रूप के अवतरण स्थल गया धाम को श्राद्ध एवं पिण्ड दान का उत्तम स्थल कहा जाता है।यहां एक विशाल मंदिर भी मौजूद है, जिसे लोग गदाधर मंदिर के नाम से जानते है ।भक्तों की मान्यता है कि सभी अवतारों के बाद इस लोक में अपने शेष कार्यों को पूर्ण करने के उद्देश्य  से कलियुग प्रारम्भ होने के ठीक पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने अपने जिस नाम से जगत का उद्धार किया, वह ‘गदाधर’ कहलाता है और उनकी उस अवतार स्थली को ‘गया’ कहा गया है।इस संबंध में एक महिमामयी रोचक कथा पुराणों से प्राप्त होती है, जिसमें बताया गया है कि प्राचीनकाल में गय नाम का एक असुर था, जो केवल तपस्या में ही रूचि रखता था। वह दीर्घकाल तक निष्काम भाव से तप करता रहा। भगवान नारायण ने उसे वरदान दिया कि उसकी देह समस्त तीर्थ से भी अधिक पवित्र हो जाएगा । इस वरदान के पश्चात भी असुर तपस्या करता ही रहा। उसके तप से त्रिलोकी भी संतप्त होने लगी। देवता संत्रस्त हो उठे।

अंत में भगवान विष्णु के आदेश से ब्रह्मा जी ने गय के पास जाकर यज्ञ करने के लिये देह मांगी। गय सो गया और उसके शरीर पर यज्ञ किया गया, किंतु यज्ञ पूरा होने पर असुर फिर उठने लगा। उस समय देवताओं ने धर्मव्रती शिला गयासुर के ऊपर रख दी। इतने पर भी असुर उठने लगा तो स्वयं भगवान विष्णु गदाधर के अवतार के रूप में उत्पन्न हो कर उसके ऊपर स्थित हो गये। अन्य देवता भी वहां प्रतिष्ठित हो गये।

श्री गदाधर की कृपा से यह अवतरण स्थली ‘गया’ नामक पुण्य क्षेत्र हो गया । वायु पुराण से स्पष्ट होता है कि गया तीर्थ गया गय, गयादित्य, गायत्री, गदाधर, गया एवं गयासुर-इन छः रूपों में मुक्तिदायक है । मोक्ष भूमि गया के छः मुक्तिदायी स्थलों में मौजूद एक गदाधर भी है। जहां तक गदाधर नाम के आशय की बात है तो वायु पुराण (105।60)-से स्पष्ट होता है कि श्री हरि को  आदि गदाधर इसीलिये कहा जाता है क्योंकि उन्होंने यहीं पर सर्वप्रथम गदा को धारण किया , जिसके आश्रय से विष्णु भक्त गयासुर के चलायमान शरीर को स्थिर किया गया। ऐसा भी कहा गया है कि गदा नामक असुर की अस्थियों से बने अस्त्र को सर्वप्रथम धारण करने के कारण विष्णु जी का नाम ‘गदाधर’ है। गया तीर्थ की पुण्यतोया फल्गु को भी जलधारा के रूप में आदि गदाधर कहा गया है।

विद्वज्जनों की मान्यता है कि गया की भूमि ज्ञान की भूमि है और यह मूल विद्या का क्षेत्र है तथा पितृ कर्म के लिये सर्वोत्तम स्थल है। भगवान ने यहां गदाधर के रूप में अवतार धारण किया।

गया में फल्गुजी के अनेक घाटों में एक का नाम ‘गदाधर-घाट’ होना इस बात का सूचक है कि यहां प्राचीन काल से गदाधर जी पूजनीय रहे हैं । भगवान गदाधर की इस अवतरण स्थलों के विषय में कहा गया है कि गया में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जो तीर्थ न हो। यहां सभी तीर्थों का सामीप्य है; अतः गया तीर्थ सर्वश्रेष्ठ है । माता-पिता एवं अपने पूवर्ज पितरो की सदगति के लिये पुत्र द्वारा गया में पिण्ड दान करने का विशेष महत्व है तथा सत-पुत्र के लिये यह अनिवार्य भी है। भगवान गदाधर ही गया के अधिष्ठात देवता हैं

साभार @@@ /https://rahasyamaya.com/lord-vishnu-incarnation-in-gaya-tirth/                    

बिहार के गयाधाम में भगवान विष्णु के पदचिह्नों पर मंदिर बना है।  कहा जाता है कि विष्णुपद मंदिर वही स्थान है जहां भगवान विष्णु ने गयासुर के शरीर पर अपने पैर दबाए थे, जिससे चट्टानी सतह पर उनके पैरों की छाप रह गई थी। जिसे विष्णुपद मंदिर कहा जाता है। विष्णुपद मंदिर के शीर्ष पर 50 किलो सोने का कलश और 50 किलो सोने की ध्वजा लगी है। 18 वीं शताब्दी में महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर का जीर्णोद्वार कराया था, लेकिन यहां भगवान विष्णु का चरण सतयुग काल से ही है।    माना जाता है कि विश्व में विष्णुपद ही एक ऐसा स्थान है, जहां भगवान विष्णु के चरण का साक्षात दर्शन कर सकते हैं। इस पदचिह्न में विभिन्न प्रतीक भी हैं जो भगवान विष्णु के शंख, चक्र और गदा जैसी विशेषताओं से जुड़े हैं।  

 विष्णुपद मंदिर सोने को कसने वाला पत्थर कसौटी से बना है, जिसे जिले के अतरी प्रखंड के पत्थरकट्‌टी से लाया गया था।  फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर श्रद्धालुओं के अलावा पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। मंदिर में भगवान के चरणों का श्रृंगार रक्त चंदन से किया जाता है और ये काफी पुरानी परंपरा बताई जाती है। यहां भगवान विष्णु के चरण चिन्ह के स्पर्श से ही मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं।  यहां पितृपक्ष के अवसर पर श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है और इसे धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है।

 श्राद्ध कर्म (Shraddha ritual) की मूल कल्पना वैदिक दर्शन के कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद पर आधारित है। विश्व के लगभग सभी धर्मों में यह माना गया है कि मृत्यु के पश्चात् व्यक्ति की देह का तो नाश हो जाता है लेकिन उनकी आत्मा कभी भी नहीं मरती है। पवित्र गीता के अनुसार जिस प्रकार स्नान के पश्चात् हम नवीन वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार यह आत्मा भी मृत्यु के बाद एक देह को छोड़कर नवीन देह धारण करती है। हमारे पित्तरों को भी सामान्य मनुष्यों की तरह सुख दुख मोह ममता भूख प्यास आदि का अनुभव होता है। यदि पितृ योनि में गये व्यक्ति के लिये उसके परिवार के लोग श्राद्ध कर्म तथा श्रद्धा का भाव नहीं रखते है तो वह पित्तर अपने प्रियजनों से नाराज हो जाते है।

पितरों के लिए श्राद्ध कर्म करने का महापर्व पितृपक्ष शुरू हो गया है। मान्यता है कि अगर पितर नाराज हो जाएं तो व्यक्ति का जीवन भी खुशहाल नहीं रहता और उसे कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।  यही नहीं घर में अशांति फैलती है और व्यापार व गृहस्थी में भी हानि झेलनी पड़ती है।  ऐसे में पितरों को तृप्त करना और उनकी आत्मा की शांति के लिए पितृ पक्ष में श्राद्ध करना जरूरी माना जाता है।  भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन कृष्ण की अमावस्या तक कुल 16 दिन तक श्राद्ध रहते हैं। भारतीय शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते हैं।  पितृ पक्ष 29 सितंबर से 14 अक्टूबर तक चलेंगेजानिबिघा कैम्प भी पितरपख में 30 सितम्बर से 2 अक्टूबर तक  चलेगा। इन दिनों में श्राद्ध, तर्पण, धूप-ध्यान, पिंडदान करने के साथ ही कौए, गाय और कुत्ते को भोजन खासतौर पर कराया जाता है। 

शास्त्र का वचन है-“श्रद्धयां इदम् श्राद्धम्” अर्थात पितरों के निमित्त श्रद्धा से किया गया कर्म ही श्राद्ध है। कहा गया है कि आत्मा अमर है, जिसका नाश नहीं होता।  श्राद्ध का अर्थ अपने देवता अपने देवताओं, पितरों और वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद प्रेत योनी से बचाने के लिए पितृ तर्पण का बहुत महत्व है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि अगर कोई गया जी में एक बारे अपने पितरों का श्राद्ध कर आए तो मृतक की आत्मा को सदा के लिए मोक्ष मिल जाता है और फिर बार-बार श्राद्ध भी नहीं करना पड़ता है। 

यमराज के संदेश वाहक हैं कुत्ते >माना जाता है कि मृत्यु के बाद इंसानों की आत्मा यमराज के यमलोक में वास करती हैं। पितृपक्ष घर-परिवार के मृत सदस्यों को याद करने का, उनके लिए पुण्य कर्म करने का पर्व है। इन दिनों में यमराज के संदेश वाहक यानी कुत्ते को भोजन कराया जाता है, ताकि यमलोक में रहने वाले हमारे पूर्वजों की आत्मा को शांति मिल सके। इस परंपरा को श्वान बलि कहा जाता है। कुत्ते के अलावा कौए को भी भोजन कराते हैं, इसे यम बलि कहते हैं। इनके साथ गाय को भी खाना खिलाते हैं, क्योंकि गाय के शरीर में सभी देवी-देवताओं का वास है

>>>7. रोबोट का मनुष्य में रूपांतरण : साहचर्य का नियम और विवेक दर्शन का अभ्यास (Law of Association and Practice of Viveka Darshana):  साहचर्य के नियम का प्रयोग करके वैराग्यपूर्वक जीना सीखो ! और विवेकदर्शन का अभ्यास भी करो !  श्रीमद्भागवत में कहा गया है –   यदि देहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भयवश अपने मन को बुद्धि तथा पूर्ण एकाग्रता के साथ किसी विशेष शारीरिक स्वरूप में स्थिर कर दे, तो वह उस स्वरूप को अवश्य प्राप्त करेगा, जिसका वह ध्यान करता है

यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया।

स्‍नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्स्वरूपताम् ॥ २२ ॥

शब्दार्थ-यत्र यत्र—जहाँ जहाँ; मन:—मन को; देही—बद्धजीव; धारयेत्—स्थिर करता है; सकलम्—पूर्ण एकाग्रता के साथ; धिया— बुद्धि से; स्नेहात्—स्नेहवश; द्वेषात्—द्वेष के कारण; भयात्—भयवश; वा अपि—अथवा; याति—जाता है; तत्-तत्—उस उस; स्वरूपताम्—विशेष अवस्था को।

तात्पर्य- इस श्लोक से यह समझना कठिन नहीं है कि यदि कोई व्यक्ति निरन्तर भगवान् का ध्यान करता है, तो उसे भगवान् जैसा ही आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होगा। धिया शब्द विशेष अर्थ में पूर्ण बौद्धिक संकल्प [Auto-suggestion- a miracle that obeys you.] को सूचित करता है। इसी तरह सकलम् शब्द मन की एकाग्रता का सूचक है। चेतना की ऐसी तल्लीनता से मनुष्य को अगले जीवन में वैसा ही स्वरूप प्राप्त होगा, जिसका वह चिन्तन करता रहता है। यह अन्य शिक्षा है, जो कीट-जगत से सीखी जा सकती है, जैसाकि अगले श्लोक में बतलाया गया है।

यदि प्राणी स्नेह द्वेष या भय से भी जान-बूझकर एकाग्रता से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का रूप प्राप्त हो जाता हैं । हे राजन् ! जैसे भृंगी एक कीड़े को पकड़ कर दीवाल पर अपने रहने के स्थान पर बन्द कर देती हैं, और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर को बिना त्यागे ही भृंगी के स्वरूप को प्राप्त हो जाता हैं । इसी तरह मनुष्य को अन्य का चिन्तन छोड़कर परमात्मा का ही चिन्तन करना चाहिये । 

जैसे योगी प्रतिक्षण संयम के द्वारा अपने वीर्य बिन्दु की रक्षा का ध्यान रखता है । जैसे कुरुपा नारी सुन्दर रूप का स्मरण करती रहती हैं, जैसे रस्सी पर चढ़ी हुई नटणी पतन के भय से उस पर चलती हुई रस्सी का ध्यान नहीं भूलती । जैसे कच्छपी अपने अण्डों को नेत्र से देखती रहती हैं । जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद से प्रेम करता हैं

जैसे कीड़ा भृंगी का ध्यान करता हुआ, भृंग बन जाता हैं उसी शरीर में रहता हुआ । जैसे मृग बाँसुरी के नाद को सुनता हुआ प्रेम से अपने प्राण त्याग देता हैं । जैसे पतंग अग्नि में पड़कर शरीर जला देता हैं । जैसे मछली जल के बिना मर जाती हैं । इसी प्रकार भगवान् का भक्त भी प्रेम से भगवान् को भजता हैं । ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण कहलाता हैं । 

जैसे यहाँ कहा जाता था , स्वामीजी को हमारा बंधु कहो ,गुरु कहो, शिक्षक कहो, जो भी हो -Swami Vivekananda is our friend, teacher or  Guru; so if we love him, That comes from my heart, I can't think otherwise. ठाकु-माँ-स्वामी जी की भक्ति करना बहुत अच्छी बात है; लेकिन भक्ति करना आसान नहीं है, और प्रेम बिल्कुल सहज है !  Devotion is alright, Very good!  But devotion is also not so easy. -But Love is spontaneous ! यदि मित्र-और गाईड स्वामीजी, माँ और ठाकुर की दया को याद करके हमारे ह्रदय में भी स्वामीजी के प्रति वही प्रेम किसी प्रकार जाग्रत हो जाये , तो हमलोग उनके और नजदीक आ जायेंगे। और जब हमलोग उनके बिल्कुल निकट आकर, बिना कुछ छुपाये उनका चिंतन करने कलगेंगे तो हमलोगों का यह पूरा शरीर -मन और ह्रदय सब कुछ बदल जायेगा; सब कुछ रूपान्तरित हो जायेगा। 

यह अब स्थूल शरीर (Physical Body) भी नहीं रह जायेगा। इसके लिए हमलोगों को जो अभ्यास करना होगा, पतंजलि योग सूत्र के अनुसार वह आठ चरणों में करना होगा।पहला है कंट्रोलिंग - शम-दम बाह्य संयम और भीतर का संयम रहना चाहिए, लालच को कम करते जाना चाहिए। आसन - मेरुदण्ड या रीढ़ की हड्डी सीधी रखकर अर्ध पद्मासन में बैठना चाहिए। पद्मासन का अभ्यास नहीं रहने से शरीर को थोड़ा कष्ट होगा तो मन उधर चला जायेगा। अर्ध पद्मासन में बहुत देर तक बैठा जा सकता है , आधा घंटा -एक घंटा भी बैठ सकते हैं।  शरीर की ओर मन नहीं जायेगा। अर्धपद्मासन में बैठकर फिर चिंतन करना चाहिए। 

क्या चिन्तन, किसका चिंतन करना, किसका ध्यान करना चाहिए ? अभी देखिये - मनःसंयोग के पहले जो रामकृष्ण स्त्रोत्र चल रहा था, उसके बारे में अभी मेरे मन में जो चल रहा था, वो बतलाता हूँ। उसमें रामकृष्ण -रामकृष्ण बार-बार चलता था। रामकृष्ण नाम का  मतलब क्या है ? राम के बारे में रामायण से जानते हैं। कृष्ण के बारे में महाभारत आदि बहुत से ग्रन्थ है। लेकिन रामकृष्ण का क्या मतलब है ?

>>>8. 'रामोकृष्णो' (श्रीरामकृष्ण) को अवतार वरिष्ठ कहने का क्या मतलब है?  { What does it mean to call 'Ramokrishno' (Sri Ramakrishna) as the senior incarnation? भगवान् (श्रीरामकृष्ण) की आराधना करने के लिये भगवद्-तत्त्व को समझने की जरुरत है। हमको तो लगता है नचिकेता भी, जानिबिघा,  बोधगया के ही आसपास ही कहीं रहता होगा !  क्योंकि हमलोग जानते हैं कि गया के फल्गु नदी के किनारे गदाधर परमपद मन्दिर में गदाधर दर्शन और पिण्डदान करने के लिए ठाकुर देव के पिता श्रीक्षुदिराम जी  जब विष्णुपद मंदिर आये थे, तब स्वप्न में भगवान विष्णु ने कहा था -तुम्हारी सत्य में निष्ठा है- मैं तुम्हारे यहाँ आऊंगा! 

जैसी बात होती थी, सबसे महत्वपूर्ण हमारे पास जो चीज है, वो है मन ! सृष्टि कहाँ से शुरू हुई ? जिनको तुम ईश्वर, कहते हो, भगवान कहते हो, ब्रह्म कहते हो, अवतार वरिष्ठ की जो भी धारणा हमारी हो सकती है -सृष्टि वहीं से शुरू हुई। और उनके मन से, ठाकुरदेव के मन में सृष्टि करने की इच्छा से, इच्छा मन में ही आती है। उसी प्रकार हमलोगों के मन से ही सब कुछ बनता है। इसीलिए कहा गया है - 

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।

 बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥

(ब्रह्मबिन्दु/अमृतबिन्दु उपनिषद्- श्लोक 2)

मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन एवं मोक्ष का कारण है। इन्द्रिय विषयों में आसक्त मन- अर्थात तीनों ऐषणाओं में आसक्त मन बन्धन का और इन्द्रिय विषयों से विरक्त मन मुक्ति (मोक्ष) का कारण कहा गया है।" अतः जो मन निरन्तर ठाकुर, माँ, स्वामीजी के चिंतन मेँ लगा रहता है, वही परम मुक्ति का कारण है। 

देह (शरीर) की भी जरूरत है, पर इससे बहुत महत्वपूर्ण है हमारा मन। अगर मन को पकड़ा नहीं गया, वशीभूत नहीं किया गया, तो शरीर चाहे कितना भी बलवान हो उससे कोई लाभ नहीं होगा। तो ये सब मन को एकाग्र करने से ही होता है। हमलोग मूल्यवान वस्तु (सोना-चाँदी?) की खोज में इधर-उधर बहुत दौड़ते हैं, पर नहीं जानते कि हमारे भीतर ही सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है हमारा मन।

 'स्वयंभू' ने देह के द्वारों को, समस्त इन्द्रियों को बहिर्मुखी बनाया है, इसीलिए मनुष्य की आत्मा बाहर की ओर देखती है, 'अन्तरात्मा' को नहीं। यत्र-तत्र विरला ही कोई ज्ञानी पुरुष (धीर पुरुष) होता है जो अमृतत्व की इच्छा करते हुए अपनी दृष्टि को अन्तर्मुखी करके 'अन्तरात्मा' को देखता है।] हमलोग बाहर में ढूँढ़ते हैं- लेकिन जब हमलोग- किसी धीर व्यक्ति के समान "कश्चित् धीरः अमृतत्वम् इच्छन् आवृत्तचक्षुः" आँखों को बाहर से मोड़कर भीतर की ओर घुमाना चाहिए ।  वही जो राम का है, जो कृष्ण का है। इसमें राम नाम का क्या मतलब है? 'रामयति इति रामः'"रमयति"   "One who attracts is Rama." -"जो आकर्षित करे वही राम है।"  means one who delights you. जो तुम्हारे ह्रदय को आनन्द से भर दे, यह राम दशरथ के पुत्र ही नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक शक्ति भी हैं- 'आत्मा-राम' हैं (आत्म-ज्योति दर्शन के समय का ब्रह्मानन्द है, वही राम है !) जो प्रत्येक ह्रदय में निवास करते हैं ! आत्मा का आनन्द एक सार्वभौमिक चुंबक है जो हर चीज़ को आकर्षित करती है। कृष्ण का क्या अर्थ है ? कृष्ण का भी वही अर्थ है - कृषि का अर्थ है भू जो भू भी आनन्द देता है

 तो 'रामोकृष्णो' (रामकृष्ण)  का क्या मतलब है ?   Same thing - राम और कृष्ण , Same thing - रमयति इति राम: (रामो) – जो (परम्)-आनन्द देता है, वो है राम। कृष्ण क्या है -"कृषि भू वाचकः शब्दः णस्य तस्य निवृत्ति वाचकः" कृषि का मतलब भू या पृथ्वी, जो भू को भी आनन्द देता है- वो है कृष्ण । सभी मनुष्यों के मन को जो आनन्द देते हैं, सभी जीवों को जो आनन्द देते हैं -राम  - रमयति इति राम: (रामो) वे हैं राम। और कृष्ण भी वही हैं। सब जीवों को जो 'आ '.... 'आ'  आनन्द देते हैं - ये हैं राम, ये हैं कृष्ण ! एक व्यक्ति राम वहाँ का (अयोध्या का) राजा था, दूसरे कृष्ण द्वारिका के राजा थे। केवल इतना ही नहीं। 

रामायण-महाभारत पुराण आदि कहानियों के माध्यम से ज्ञान को सम्पूर्ण विश्व के साधारण जनता तक शिक्षा पहुँचाते हैं। केवल ऐसे कोई व्यक्ति थे या नहीं ? इस पर बहस में न पड़कर, लेकिन इसके पीछे, उनके नाम के बीच में जो भाव है, उसको पकड़ना चाहिए ; वह बहुत सुन्दर है। उनको राम या कृष्ण को एक प्रतीक के रूप में - किसी Image को लेने से यदि हमारे भीतर बहुत सुन्दर कोई बड़ा भाव आ जाता है, जो बहुत आनन्द देता है, वह क्या helpful है या नहीं ? यह देखना है। It is very helpful ' - भले ही ये सब कहानियाँ बच्चों के लिए लिखी गयी हों। 

बच्चे कहानियाँ सुनकर बहुत खुश हो जाते हैं। Stories are very good tutors .in earlier ages  वे इस तरह की कहानियाँ और सुनने के लिए आतुर हो जाते हैं। विश्व के हर देश में हर युग में, पाश्चत्य जगत में भी बच्चों को नैतिक शिक्षा देने वाली " ईसप की दंतकथाएँ " ऐसी  प्रसिद्द कहानियाँ-  'Aesop's Fables of the West'- होती हैं। ( ईसप की दंतकथाओं में शामिल कई कहनियां, जैसे लोमड़ी और अंगूर (जिससे “अंगूर खट्टे हैं” मुहावरा निकला) भारत में भी इस तरह की कई बच्चों को नैतिकता की शिक्षा देने वाली पुस्तकें पढ़ी जाती हैं। उन सभी का जड़ किन्तु पुराणों में पाया जाता है। 

>>>9. वेदान्त का अर्थ 'New Philosophy' नहीं है आजकल कहीं से कुछ भी रिसर्च पेपर छाप कर उसको न्यू फिलॉसफी कहने का चलन बढ़ गया है। लेकिन प्राचीन दर्शन तो सबसे पहले भारत में ही जन्में थे। वेदों और उपनिषदों में हम वास्तविक दर्शन देखते हैं। भारत ऐसे सन्त -महात्मा लोग बहुत बड़ी संख्या में आते रहते हैं। और भी देशों में आते हैं -लेकिन इक्के-दुक्के लोग ही आते हैं। भारत में और भी कई महान महापुरुष हुए हैं।  पर यदि हम उनके पास शिक्षा लेने जायेंगे -तो हमलोग उनकी शिक्षाओं और उनके जीवन में थोड़ा अन्तर दिखाई देगा। (Difference in their teachings and their life, Here we have the oldest philosophy) पर ठाकुर-माँ -स्वामीजी के जीवन में ही हमको सबसे प्राचीन दर्शन, 'वेदान्त -दर्शन'  दिखाई देखा। 

वेदान्त का मतलब क्या है? वेद का अर्थ है ज्ञान ! Veda doesn't mean some books . वेद का अर्थ पुस्तक/ग्रन्थ नहीं समझना चाहिए। They came in book form only the other day- पुस्तक के रूप में तो वे हाल में छापे गए। But they were orals, they came as orals from the mouth of teachers to the students . They used to hear , and after hearing they used to memorize them, and recited  again , that is how it has came . लेकिन वे वेद-वाक्य, महावाक्य या ज्ञान शिक्षकों के मुख से विद्यार्थियों तक मौखिक भाषा के रूप में हजारों वर्ष पहले आये हैं । विद्यार्थी लोग उसे सुनते थे और सुनने के बाद उन्हें याद कर लेते थे, और गा कर उसका पाठ करते थे। (तैत्तरीय उपनिषद में तो उगल भी दिए थे)

इसीलिए वेदों को (महावाक्यों को) श्रुति कहा जाता है - शिष्यों ने इसे सुना है। सुनने से आया है। सुनकर याद है और फिर उसे अपने मुँह से निकालता है। उपनिषद क्या है ? उसे वेदान्त भी कहा जाता है। वेदों का जो शास्त्र है , उसके अन्त में जो है। वेदों के अन्त में उपनिषद है। और उसकी शिक्षाओं को अपने जीवन से demonstrate करने वाले महापुरुषों (मार्गदर्शक नेताओं) का भारत में कई बार अवतरण हुआ है। और इनमें से सब से अर्वाचीन हैं - हमारे युग के हैं , आधुनिक काल में जो अवतरित हुए हैं , वे हैं -श्री रामकृष्ण। 

मुझे एक ऐसे व्यक्ति को देखने का सौभाग्य मिला है -जिन्होंने श्रीरामकृष्ण को देखा था। मैंने ऐसे कई लोगों को देखा है , जिन्होंने माँ सारदा देवी को देखा था। और मैं कमसे कम एक व्यक्ति से मिला हूँ जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द को देखा था। इसलिए वे कोई पौराणिक कहानी के पात्र नहीं थे , उनका जन्म हमारे युग में ही हुआ था। हमारे युग में ही वेदों के सिद्धान्त को, उपनिषदों के दर्शन को अपने जीवन से प्रदर्शित करने में पूर्ण सक्षम ठाकु-माँ -स्वामीजी में और उनके १२ शिष्यों में आविर्भूत हुए थे। 

भगवान धरती पर अवतरित हुए होंगे या नहीं, उस युग में हमलोग नहीं थे। पर इस युग में हमारे टाइम में तो ये तीनो - जिनको हमलोग बेलपत्तर का तीन पत्तों वाला त्रयी कहते हैं। वेदों का एक नाम त्रयी भी है। जैसे श्रुति भी वेदों का नाम है , वैसे वेद तो चार हैं , ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद , अथर्व वेद, फिर त्रयी  नाम क्यों हैं ? गद्य ,पद्य और संगीत की त्रयी है उसमें। इन वेदों में कुछ गलत है, ऐसा अभी तक कोई साबित नहीं कर सके हैं। हमलोग इस युग में जन्में हैं -जब मानवशरीर में आकर ये तीनों का त्रयी -Three human lives retold us the whole philosophical idea. तीन मानव जीवनों ने हमें वेदों के संपूर्ण दार्शनिक विचार को पुनः अपने जीवन में उतार कर बताया। हमें इन सिद्धान्तों का उपयोग अपने जीवन में करना चाहिए। इसीलिए हमलोग सुबह शाम कहते हैं -

"स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे । 

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥ " 

श्री रामकृष्ण देव को अवतारवरिष्ठ  क्यों कहते हैं ? बहुत से लोग अपने अपने धर्म के अवतार को मानते हैं, कुछ लोग नहीं मानते हैं। ये अवतारवरिष्ठ कैसे हो गए ? ईसा मसीह भी अवतार हैं। पैगम्बर मोहम्मद अवतार हैं। हमलोग मानते हैं, मुसलमान लोग नहीं भी मान सकते हैं। हमें नहीं मालूम है, हमलोग उनको भी अवतार मानते हैं।  इस देश में कितने अवतार हैं। रामचन्द्र हैं। उनसे भी पहले हुए हैं -दशावतार की बात हमलोग जानते हैं। कितने अवतार हैं , बुद्ध एक अवतार हैं। दस अवतार हैं -आते आते हमारे जमाने में श्री रामकृष्णदेव आये थे। तो स्वामी विवेकानन्द उनको प्राणम -मंत्र में बोलते हैं - अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ! 

अवतार वरिष्ठ क्यों बोलते हैं ? क्या इसलिए कि वे हमारे गुरु हैं , हमारे भाषा बोलने वाले राज्य से हैं क्या इसलिए ? नहीं ! अवतार लोग क्या किये हैं? वे लोग धर्म प्रचार करते हुए, या किसी नए धर्म की शिक्षा देते हुए , अपने समय में धर्म को स्थापित किये हैं।  समय के प्रवाह में हर चीज में क्षरण होता है। जब धर्म में इतनी ग्लानि हो जाती है कि लोग अपने आध्यात्मिक लाभ के लिए उसका अनुसरण भी नहीं कर सकें , तब कोई शक्ति देह धारण कर अवतरित होती है। एक महामानव (या एक महान संगठन महामण्डल)  धरती पर आविर्भूत होता है , और धर्म को पुनः ऊपर उठाता है। 

हमलोग अवतार वरिष्ठ पर बात कर रहे थे - श्री रामकृष्ण हमारे युग के नवीनतम अवतार हैं-latest incarnation हैं ! सभी अवतार बराबर होने चाहिए थे , स्वामीजी ने श्री रामकृष्ण को अवतार वरिष्ठ क्यों कहा ? अवतारों का same rank - समान पद होना चाहिए , C-IN-C ऑफ़ अवतार क्यों कहा ? जब धर्म की हानि होती है , तब धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए अवतार को आना पड़ता है।   

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ 

(चतुर्थ अध्याय, श्लोक 7)

पर श्री रामकृष्ण के लिए कहना पड़ता है - दुनिया के सभी धर्मों में जब ग्लानि आ गयी -तब सभी धर्मों को उठाने के लिए यदा वै सर्व धर्मानं ग्लानि बभूव भारत , तदात्मानं स स्रजस्य स - उस समय उन्होंने अपने को प्रकट किया। वे अवतीर्ण हुए। इसीलिए उनको अवतार वरिष्ठ कहा जाता है कि केवल भारत के धर्म में ही नहीं विश्व के सभी धर्मों में जब ग्लानि आ गयी थी , तब -रामकृष्णो ही केवलः ! तब सभी धर्मों को उठाने के लिए अपने को बनाया।  एक नया धर्म देने के लिए नहीं। To revive, regenerate, every religion of the world not one, किसी एक धर्म को नहीं, दुनिया के हर धर्म को पुनर्जीवित करने, मुरझाये धर्म में जान डालने के लिए रामकृष्ण स्वयं अवतरित हुए। 

जैसे गाँव कोई तालाब होता है - एक घाट से हिन्दू पानी लेता है, ईसाई वॉटर, जल, कोई एकवा  लेता है, लेकिन सब एक तालाब के पानी को अलग अलग नाम से -कोई अल्ला , गॉड , ईश्वर कहता है। यह एकत्व आया है रामकृष्ण जी से। इसीलिए उनको अवतार वरिष्ठ रामकृष्णो ही केवलः- इतिहास पुरानेषु समः कोऽपि न विद्यते! उनके बराबर का उदाहरण कोई इतिहास में नहीं है , पुराणों में नहीं है। 

कुछ साल पहले एक जर्मन लेखक ने एक पुस्तक लिखा था -'रामकृष्ण और ईसा मसीह अथवा  अवतार तत्व का विरोधाभास' ! अद्भुत पुस्तक है।  A German author wrote a book  some year back- 'Ramakrishna and Christ or the Paradox of Incarnation' , wonderful book ! उन्होंने रामकृष्ण और ईसामसीह के जीवन को इतनी गहराई से देखा था कि हमलोग नहीं देख पाते। पुस्तक की अंतिम पंक्ति में श्री रामकृष्ण के बारे में वे कहते हैं कि - " श्रीरामकृष्ण देव एक 'पेरुमा' थे (लैटिन शब्द) का अर्थ होता है - पूर्ण परिपूर्णता {Entirety- Perfectness or Wholeness}  जिसमें कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता। और जहां वे यीशु मसीह से मिलते हैं - वे प्रेम है!"  -He says about Sri Ramakrishna, in the last line that - " He was a peruma - The absolute fullness to which nothing can be added. and where he meets Jesus Christ - He is Love! " वह एक पेरुमा थे - पूर्ण पूर्णता जिसमें कुछ भी नहीं जोड़ा जा सकता है। 

इसलिए हमलोग बहुत भाग्यवान हैं जो हमलोग इस युग में जन्म लिए , कि यदि हमलोग वेद-उपनिषद आदि शास्त्र या अन्य किसी भी धर्म का धार्मिक ग्रन्थ नहीं भी पढ़ें -इन तीनों के जीवन और शिक्षाओं को देखें तो बड़े सरल शब्दों में सभी धर्मों के शास्त्रों की शिक्षा मिलेगी। कि अगर कोई बच्चा भी समझने की कोशिश करे तो समझ सकता हैं। इसलिए हमलोग बड़े भाग्यवान हैं , हमलोगों को कठोर परिश्रम करना होगा, ताकि हम भी अपने जीवन को इतने परिपूर्णता से गढ़ सकें कि हमारे जीवन की परिपूर्णता में और कुछ जोड़ा नहीं जा सके

सनातन धर्म या अध्यात्म  कभी पुराना नहीं होता है, यह सबसे प्राचीन चीज है। सर्वोच्च आत्मा को ब्रह्म कहा जाता है-The highest spirit is called Brahman ! लेकिन यह विचार भी समय के प्रवाह क्षीण हो जाता है। तब कोई अवतार आते हैं क्योंकि - मनुष्य अपने आध्यात्मिक स्वरूप को भूलकर पशु हो जाते हैं। पर मनुष्य साधारण चौपाया जीव नहीं हैं। [25.24मिनट गूढ़ बात ]  मानव जीवन का एक उच्च उद्देश्य है - पशुओं जैसे रहने नहीं आया है। आम तौर पर जानवर चार पैरों से चलते हैं। पर मनुष्य अपने दो पैरों पर सीधा खड़ा हो सकता है, गर्दन उठाकर आसमान को देख सकता है। कोई भी पशु आकाश, तारे और स्वर्ग की तरफ नहीं देख सकता। मानव -शरीर ताजमहल है , ऊंचा उद्देश्य है। देवता भी ईश्वर लाभ नहीं कर सकते पर मनुष्य कर सकता है। 

कल फ़ारसी कवि रूमी की शायरी पर बात हो रही थी - मैं घास बन था, बढ़ता हुआ मनुष्य बन गया , अब देवता जाऊँगा ! देवता बन जाना ही अन्तिम पड़ाव नहीं है। उससे भी आगे जा सकते हो। हमें देव-शरीर को भी पार कर अनन्त में पहुँचना है। हमलोग कहानी सुनते हैं रामकृष्ण ने ध्यान में देखा था -स्वामीजी को वहाँ से लाये थे जहाँ 7 निवृत्तिमार्ग के ऋषि बैठे थे। हमलोग भी अनन्त तक उठ सकते हैं। जैसे ऊपर उठने की कोई सीमा नहीं है। वैसे ही इस मनुष्य अवस्था से गिरने की भी कोई सीमा नहीं हैं -पताल की गहराइयों में भी जा सकते हैं

और हम अपने समय के अवतारों के जीवन में- आनन्द स्वरुप श्री रामकृष्ण, होली मदर माँ सारदा देवी और स्वामीजी के जीवन में देखते हैं कि इन महान विचारों की समझ और अनुप्रयोग को बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है। (and we see in the life of Incarnations of our own time, the understanding and application of these great ideas shown very beautifully in the life of Sri Ramakrishna, Holy Mother Sarada Devi, and Swamiji.)  

हमारी सभी इन्द्रियाँ बहिर्मुखी हैं, लेकिन इसको कभी कभी भीतर भी लेने की कोशिश करनी चाहिये। हमारे भीतर और भी बहुमूल्य सम्पत है। हमारी दृष्टि किसी वस्तु के भीतर जो है (ब्रह्म है !), वो तो है; लेकिन हम जिस दृष्टि से उसको देखते हैं - -उससे उसका भाव, उसका महात्म्य भी बढ़ जाता है।"  बाहरी आँखें बंद करके >जगत के प्रति 'वैराग्य' और भीतरी आँखें खोलकर >विवेक दर्शन का 'अभ्यास' कैसे करें??  जब हम आँखों को मूँदकर अर्थात (बाह्य नेत्रों को मूँदकर और भीतर के नेत्रों को खोलकर) जिस दृष्टि से हम किसी वस्तु को देखते हैं -उससे  उसका महत्व और भी बढ़ जाता है। उसका भाव, उसका महात्म्य भी बढ़ जाता है।" मेरी दृष्टि से ऐसा होता है !! अतएव रोबोट (मशीनी मानव) का वास्तविक मनुष्य में रूपान्तरण करने के लिए, अभ्यास कैसे करें? वैराग्य और अभ्यास दो चीजों की जरूरत है !अबसे हमलोगों को अपने सभी भाइयों (ईर्ष्यालु भाईयों) के भीतर भी प्रेममय ठाकुर को ही देखने का अभ्यास करना चाहिए। और इसके लिए दो चीजों की जरूरत है !   - 'अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः ।' (यो० सू० 1.12) अभ्यास कैसे करेंगे ? को अधिक स्पष्ट करते हुए व्यास-भाष्य  में कहा गया है - मन के चार पार्ट हैं - चित्त, मन, बुद्धि -अहंकार -आचार्यो मृत्युः " - आचार्य या गुरु विवेकानन्द अपने भक्त के अहंकार की मृत्यु हैं, क्योंकि यम और नचिकेता की तरह  - चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी वहति पापाय च वहति कल्याणाय च।  " चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च। या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा। संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते। इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः। By closing the outer eyes>'वैराग्य' and opening the inner eyes >'अभ्यास'  कैसे करें?? (Transformation of Robot into the real man)

 विवेकदर्शन या मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए,  मन पर विजय पाने के लिए - या पुनर्मृत्यु पर विजय पाने के लिए दो चीजें आवश्यक हैं: भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं- 'त्याग और अभ्यास ' आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये - शेष सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। ( अर्थात वैराग्य के भाव के साथ सेवा >मनःसंयोग का प्रशिक्षण ..... देते जाइये)

अपने मन की वृत्ति को परमात्मा के ध्यान में ऐसी लगानी चाहिये कि विषयों के स्फुरित होने पर भी मन की वृत्ति विषयों में न जा सके और कभी भी हरि के स्मरण को न छोड़ सके ।  जैसे माता अपने बच्चे को प्रतिक्षण याद करती रहती हैं और घर के कार्यों में व्यासक्त होने पर भी उसको नहीं भूलती । को दरिद्रः ? 

वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलैः

सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः  ।

स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला

मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः ॥

(- वैराग्यशतक, भर्तृहरि,  श्लो.४५) 

 भावार्थ– मुनि राजा से कहता है कि हे राजन् !  हम (ascetics- तपस्वी लोग) वृक्षों की छाल से बने वस्त्रों (valkala) को पहिन कर सन्तुष्ट हैं और तुम सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात जड़े सिल्क के वस्त्र को पहन करके सन्तुष्ट हो। इस प्रकार हम दोनों का सन्तोष तो समान ही है, क्योंकि सन्तोष में कोई भेद नहीं है। संसार में दरिद्र तो वह व्यक्ति होता है जिसकी तृष्णाएं बहुत होती हैं। मन के सन्तुष्ट होने पर कौन निर्धन है और कौन धनवान् ?

Here, we (ascetics) are happy in our tree bark clothes (valkala) and you are happy in your silken robes. The contentment is equal, nothing special about that. He is poor whose thirst is endless. When there is contentment at heart - who is rich, who is poor?

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णास्,

            त्रिभुवनमुपकार-श्रेणिभिः प्रीणयन्तः।

      परगुण-परमाणून्पर्वतीकृत्य नित्यं,

            निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।

                  (भर्तृहरिकृत- नीतिशतक, श्लो. ७४)

       भावार्थ– मन, वचन और शरीर के द्वारा प्राणिमात्र का कल्याण करने की भावना से युक्त हुए, शुभकर्मों से तीनों लोकों का उपकार करके सबको तृप्त करने वाले तथा दूसरों के छोटे छोटे गुणों को अभी पर्वत के समान बड़ा मान कर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले महात्मा संसार में कितने हैं? अर्थात् बहुत कम हैं।

 [साभार  @@@http://vivek-anjan.blogspot.com/- 2018/04/blog-post.html" हृदय में सोना दबा पड़ा है "ड्रिलिंग की पद्धति को मनःसंयोग कहते हैं। @@@ https://vivek-jivan.blogspot.com/2014/11/१५.' परीक्षा और परिणाम ' १६." सीपियों की तरह होना होगा " [ " मनःसंयोग " लेखक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय ]@@@https://www.indianvedas.net/article/upanishads/]/साभार /दिव्य चैतन्यजी/@@@http://tantraphilosophy.blogspot.com/ /2009/02/blog-post_1214.html-]

tv के सामने बैठने का अभ्यास तो नहीं है। लेकिन अख़बार में कभी -कभी यूनिवर्सिटी या एडुकेशनल इंस्टीटूशन को लेकर फुल-वन पेज एडवर्टिजमेंट देखने को मिलता है। विदेशी यूनिवर्सिटी भारत में आती हैं, भारत की यूनिवर्सिटी विदेश में जाती है। यह कोई डिमाण्ड नहीं है, बल्कि उस शिक्षा को प्रचार के बल पर थोपा जाता है। हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी भी भारत में अपना ब्रांच खोलना चाहते हैं। [इंग्लैण्ड का ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, US के हार्वर्ड से काफी पुराना है क्योंकि इसकी स्थापना लगभग 900 साल पहले 1096 में हुई थी।] वहाँ के कुछ स्टूडेन्ट्स हमलोगों के यहाँ आये थे, सबसे हँसमुख मंत्री है - रेलवे मिनिस्टर द्वारा आविष्कृत कुछ नया क्रन्तिकारी मैनेजमेन्ट (जमीन के बदले नौकरी) सीखने आये थे। मंत्रीजी उनसे हिन्दी में बात किये। वहाँ के लड़के भी बहुत खुश हुए।

>>>10.'देवगुरु बृहस्पति और एकान्त में कबूतर काटने की परीक्षा' :  उपनिषद में एक छोटी सी कहानी है - 'देवगुरु बृहस्पति और एकान्त में कबूतर काटने की परीक्षा' बृहस्पति को कहा जाता है देव गुरु ! पहले की शिक्षा व्यवस्था में गुरु गृह वास की पद्धति थी। वे गुरु के घर में उनके साथ रहते थे और उनके परिवार के लिए काम भी करते थे। और शिक्षक उन्हें बिना फ़ीस लिए ही पढ़ाते थे। वे भी अपने जंगल के आश्रम में सभी देवता लोगों को भी शिक्षा देते थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक कई राज्यों में फैली हुई थी। देवता लोग उनके ज्ञान और समझदारी की वजह से उन से प्रभावित होकर बहुत दूर-दूर से उन्हें खोजते हुए इस जंगल में आ जाया करते थे।

 तो एक दिन चार युवकों एक नया बैच उनके पास पढ़ने आया। महात्मा कई युवकों को शिक्षा दे चुके थे लेकिन वे किसी भी युवक को शिक्षा देने से पहले उसकी कसौटी किया करते थे।  इन महात्मा की खोज में इस जंगल में आ पहुंचे जहां एक बड़े ही सुंदर रमणीय स्थल पर महात्मा अपना गुरुकुल बना कर रहा करते थे। वे चारो  ही इन महात्मा को अपना गुरु स्वीकार कर उनसे शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे।  महात्मा ने इन जब चारो युवकों को देखा तो वे उन्हें अच्छे घर से लगे, परन्तु महात्मा ने पहले उनकी परीक्षा लेने की तय किया। बहुत रोज तक आश्रम में काम करने के बाद उन युवकों ने महात्माजी से पूछा -आप हमलोगों को पढ़ाना कब शुरू करेंगे ? महात्मा ने दोनों युवकों से कहा कि मैं तुम्हें अपना शिष्य जरूर बना लूंगा लेकिन उसके लिए तुम्हें मेरी एक शर्त पूरी करनी पड़ेगी। युवको ने महात्मा से कहा कि आप जो भी कहेंगे हमें मान्य हैं।

महात्मा ने गुरुकुल के कमरे में रख्खि चार कबूतरो की मूर्तियां लाकर चारों युवकों को 1-1 तेज छुरी थमांते हुए कहा इन कबूतरों की मूर्तियों को तुम जब जीवित कबूतर ही मानोगे तो वे जीवित हो जाएँगी ; और तुम्हें यह करना है कि जब तुम्हें कोई देख ना रहा हो तब तुम्हें इन कबूतरों की गर्दन काट देनी है! जब तुम ऐसा करने में सफल हो जाओ तो मेरे पास चले आना। चारो  युवकों ने अपने-अपने कबूतरों को ध्यान से देखा। चारो ही कबूतर बहुत सुंदर से और उन पर बहुत अच्छे से रंग और आकृतियां बनी हुई थी। चारो  के मन में ख्याल आया कि इतनी आसान और सरल परीक्षा से गुरु जी हमें क्या सीखना चाहते होंगे? चारो  ने अपने अपने कबूतर लिए और अलग-अलग दिशा में जंगल में चले गए।

 एक युवक जंगल में थोड़ी दूर गया जहां एक सुनसान मैदान उसे दिखा उसने चारों तरफ अपनी नजरें घुमा कर देखा और यह निश्चित करने के बाद की उसे कोई भी नहीं देख रहा है उसने अपने साथ लाए कबूतर की गर्दन काट दी। वह वापस गुरु के पास चला गया।

दूसरा युवक भी जंगल में दूसरी तरफ एक सुनसान जगह पर पहुंचा और एक पेड़ के नीचे खड़ा रहकर हर तरफ से नजरें घुमा कर देखने के बाद जब वह  कबूतर की गर्दन काटने ने लगा तब उसकी नजरें अचानक पेड़ के ऊपर बैठे अन्य पक्षियों पर पड़ी। क्यूकी उसे ऐसा करते हुए वे पक्षी देख रहे थे इसलिए उसने कबूतर की गर्दन नहीं काटी ।

युवक थोड़ी देर सोचने के बाद झाड़ियों में छिप गया और वहां पर कबूतर की गर्दन काटने  की कोशिश करने लगा। लेकिन वहां पर भी उसकी नजर झाड़ियों पर बैठी कीट पतंगे और मक्खियों पड़ गई और वहां पर भी वह यह काम पूरा न कर पाया। फिर कुछ सोचने के बाद युवक ने एक जमीन में बड़ा सा गड्ढा बनाया और उसमें उतर कर कबूतर की गर्दन काटने लगा। कबूतर की मूर्ति को छूते ही उसने देखा कि कबूतर की आंखें उसे देख रही है इसलिए उसने कबूतर की मूर्ति की आंखें ढक दी। फिर उसने सोचा कि वह खुद तो अपने आप को ऐसा करते हुए देख ही रहा है इसलिए उसने अपनी आंखों पर भी पट्टी बांधी ली

अब वह निश्चिंत हो गया कि ना ही कोई अन्य प्राणी या कबूतर की मूर्ति या वो खुद भी उसको ऐसा करते हुए देख पा रहा है। वह कबूतर की गर्दन पर हाथ रख कर काटने ने ही वाला था कि उसके अंदर से एक आवाज आई, वह आवाज उसके अंतरात्मा की थी! युवक अब अच्छे से समझ गया था कि गुरु जी इस छोटी सी सरल सी दिख रही परीक्षा से उन्हें क्या शिक्षा देना चाहते थे!

युवक बिना उस कबूतर की गर्दन काटे  ही गुरु के पास पहुंचा! गुरु के पास जाकर युवक ने गुरु से माफी मांगते हुए कहा कि गुरु जी मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं आपका दिया यह काम पूरा नहीं कर पाया क्योंकि जब भी मैं ऐसा करने की कोशिश करता तो मुझे कोई ना कोई देख रहा होता था ! जब मैंने यह सुनिश्चित कर लिया कि बाहरी दुनिया में मुझे कोई देख नहीं रहा है तब भी मेरी अंतरात्मा और वह परमात्मा मुझे देख रहा था इसलिए मैं इस परीक्षा में पूरी तरह असफल हो गया।

कहानी की शिक्षा 

महात्मा ने उस युवक को शाबाशी देते हुए कहा कि तुम इस कसौटी में असफल नहीं बल्कि पूरी तरह से सफल हुए हो! इस कसौटी से मैं तुम दोनों को यही सिखाना चाहता था कि हम जो भी कार्य करते हैं वह उस परमात्मा से, उस परम शक्ति से कभी छुपा नहीं सकते! इसलिए हमे कोई भी कार्य उस परमात्मा को ध्यान में रखकर की करना चाहिए और जब हम ऐसा करते हैं तो हम कभी गलत कार्य नहीं कर पाते। 

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात ।

स भूमिं विश्वतो वृत्तत्यतिष्ठदशाङुलम् ॥1॥

 पुरुष(सार्वभौमिक सत्ता) के हजारों सिर, हजारों आंखें और हजारों पैर हैं ( हजारों का मतलब असंख्य है जो सार्वभौमिक सत्ता की सर्वव्यापकता की ओर इशारा करता है। [32.33 मिनट

हमलोग सोचते हैं कि हम यहाँ कैम्प में ट्रेनी या ट्रेनर बनकर आ गए हैं - घर के लोग तो देख नहीं रहे कि हम कहाँ जा रहे हैं। किसी कैम्प में ? (?) कुछ लड़के यहाँ आने के बदले बंगाल के पहाड़ी क्षेत्र में चले गए, कुछ मारे गए पर कैसे ? ये अभी तक पता नहीं चला है। कोई नहीं जान सका कि वे कहाँ गए थे ? पर एक आँख है - जो हर जगह हमें देखती है। हम उन नजरों से बच नहीं सकते. हम सभी को यह याद रखना चाहिए कि हम पर हमेशा नजर रखी जा रही है ! हमारी हरकतें, हमारी बातें, यहां तक कि हमारे विचार भी कोई हर समय देख रहा है। अतएव हमें सदैव पवित्र रहने का प्रयत्न करना चाहिए! तो सदैव पवित्र रहने का प्रयत्न करना चाहिए! विचारों में, शरीर में, कर्मों में, शब्दों में, अंतर्दृष्टि में, यहाँ तक कि अपनी दृष्टि में भी, हमें सदैव पवित्र रहने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि आत्मा पवित्रतम वस्तु है। [We can't escape those eyes. We all must remember that we are always being watched! our movements , our talks , even our thoughts ! So always you should try to remain pure! So always you should try to remain pure! in thought, in body, in deeds , in words, insight even, in our looks also, we must always try to remain pure . ]

>>>11. 'Be and Make' के माध्यम से महामण्डल भी श्री गदाधर अवतार है !   "Don't put the cart before the horse": घोड़े के आगे गाड़ी लगाने का क्या मतलब है? यदि आप कहते हैं कि कोई घोड़े के आगे गाड़ी रख रहा है, तो आपका मतलब है कि वे गलत क्रम में काम कर रहे हैं । उदाहरणार्थ  सरकार ने बड़े सुधार करने से पहले (चरित्रवान मनुष्य का निर्माण करने से पहले) भारी निवेश करके गाड़ी को घोड़े के आगे रख दिया। >कठोपनिषद के अनुसार यदि शरीर रथ और इन्द्रियाँ घोड़े हैं तो 'रथ के आगे घोड़ा लगाना उचित होता है, या घोड़ा के आगे रथ लगाना उचित होता है? 

23 सितम्बर, 2023 : कोन्ननगर 56th AGM : के पहले अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के General Secretary सोमनाथ बागची की स्मरण सभा में, सहायक महासचिव- अमित दत्ता ने अचानक मुझे भी कुछ बोलने को कहा गया। मैंने सोमनाथ दा और तुहीन चटर्जी के साथ 15 दिन के गुजरात प्रवास के दौरान जामनगर के शुभेन्दु महतो के घर पर 100 स्त्री-पुरुष की बैठक में महामण्डल के उद्देश्य और कार्यक्रम को बहुत अच्छीतरह रखे जाने का उल्लेख किया था। मुझसे पहले श्रद्धेय दीपक दा ने सभी सदस्यों को शरीर को स्वस्थ रखने का अनुरोध किया था। मैंने भी कहा था 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' इन पंक्तियों का अर्थ इस प्रकार है.. कि शरीर की सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से ही होनी है। लेकिन जैसा मैंने सुना उनका घर श्याम बाजार (मायेर बाड़ी) के निकट था , वे शारीरिक तकलीफ को सह लिए, घाव में सेप्टिक हो गया किसी को बतलाये नहीं, 'रामकृष्ण सेवा -प्रतिष्ठान' के डॉक्टर स्वामी दिव्यानन्द जी के बहुत कहने पर उनका इलाज किये , पर सफल नहीं हुए। तब   मेरे मुख से केन उपनिषद का यह श्लोक आया था - 

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।

भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।

(केनोपनिषद- २. ५)

भारतीय फिलॉसफी (उपनिषद की) यह नैतिक शिक्षा कितनी पुरानी है! भूतेषु भूतेषु- सब जीवों में, 'विचित्य' उनको (ईश्वर को) देख कर-उनको समझकर; धीराः प्रेत्य अस्मात् लोकात् अमृता भवन्ति॥ After leaving behind this physical world-they become immortal - what a noble idea !  इस भौतिक संसार को पीछे छोड़ने के बाद वे - अमृता भवन्ति' -वे अमर हो जाते हैं - कितना अच्छा विचार है!

 We have all these teachings  , and these things come from that noble sources. हमारे पास ये सभी शिक्षाएँ हैं, और ये चीज़ें उन्हीं प्राचीन महान स्रोतों से (वेदों -उपनिषदों से) आती हैं। और हम अपने समय में, हमारे युग में अवतरित श्री रामकृष्ण, पवित्र माता सारदा देवी और स्वामीजी के जीवन में इन महान विचारों की समझ और अनुप्रयोग को बहुत सुंदर तरीके से देखते हैं।

"स्वामी विवेकानन्द से जुड़ी किसी भी संस्था के नाम को देखकर, महामण्डल के कुछ पुराने और वरिष्ठ सदस्य लोग भी यही समझते हैं कि यह महामण्डल भी मिशन की तरह कोई रिलीफ वर्क या  "अम्फान चक्रवात राहत कार्य " (Amphan cyclone relief work) चैरिटी करने वाला एक संगठन है।  परन्तु महामण्डल का मुख्य काम -'Be and Make' द्वारा या मनुष्य बनने और बनाने के आन्दोलन द्वारा, स्वयं भारत के राष्ट्रीय आदर्श त्याग और सेवा में तीव्रता लाने के अभिप्राय को समझकर 'वैराग्य और अभ्यास' का मुख्य कार्य को पीछे छोड़कर,यदि समाज सेवा करने जायेंगे , कम्प्यूटर ट्रेनिंग स्कूल या अस्पताल खोलेंगे तो वहां भी वैराग्य का भाव नहीं रहने से लालच आएगा। और सारा कार्य बदनाम हो जायेगा। 

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🔱🙏श्यामा संगीत -आन्दुल के प्रेमिक महाराज और दादा के पितामह🔱🙏 

( শ্যামা সঙ্গীত ) 

 (भारतमाता की स्तुति : माँ सारदा देवी के रूप में !) 

बंगाली भक्ति गीतों की एक शैली है जो माँ श्यामा  या माँ काली को समर्पित है। 'श्यामा' शब्द माँ काली की त्वचा के रंग को संदर्भित करता है (आमतौर पर काले या गहरे नीले रंग में चित्रित किया जाता है।) शाब्दिक रूप से, इसका मतलब सांवली माँ होता है। वे सर्वोच्च सार्वभौमिक देवी दुर्गा या पार्वती का ही एक रूप हैं। इसे शक्तिगीति या दुर्गास्तुति के नाम से भी जाना जाता है। 

श्यामा संगीत आम आदमी को आकर्षित करता है क्योंकि यह माँ और उसके सन्तान के बीच शाश्वत और उत्कृष्ट प्रेम और संरक्षण के रिश्ते का संगीतमय प्रतिनिधित्व करता है। यह पूजा के सामान्य अनुष्ठानों और तंत्र की गूढ़ साधना (esoteric practices)  से भी मुक्त है । 

12वीं-13वीं शताब्दी के दौरान जब बंगाल में शाक्तधर्म  का प्रसार हुआ, तो इसने कई कवियों को माँ काली पर कविताएँ लिखने के लिए प्रेरित किया। कविकंकन या 'कवियों के रत्न' के रूप में जाने जाने वाले मुकुंदराम ने 1589 में अपनी मुख्य कविता, महाकाव्य चंडी लिखी थी। 18 वीं शताब्दी के मध्य में, कवि रामप्रसाद सेन ने इसमें नया जीवन डाला और इसे बंगाली गाने की एक विशिष्ट शैली में बदल दिया। 

राम प्रसाद सेन (1723–1775) बंगाल के अद्भुत, अद्वितीय मातृभक्त संत  थे। इनके लिखे माता आद्याशक्ति के भजन को श्यामा-संगीत कहा जाता है। इन्हें रामप्रसादी भी कहते हैं। इनके भजन माँ काली स्वयं सुनती थीं  ये भजन सहज ही माता के चरण शरण प्रदान करनेवाले हैं, ऐसा अनुभव किया गया है। एकदिन संत रामप्रसाद मध्याह्न संध्या-वंदन के लिए गंगा स्नान को जा रहे थे। रास्ते में 'माता अन्नपूर्णा' (भारत माता) ने बालिका वेश में इनसे भजन सुनाने का आग्रह किया संत रामप्रसाद, संध्या-वन्दन तक इन्तजार करने को कह कर गंगा स्नान चले गये। लौटने पर ध्यान में पता चला की माता आकर लौट गईं। 

संत व्याकुल होकर, बनारस के लिए चल पड़े किन्तु त्रिवेणी (प्रयाग) पहुंचने पर माता ने आदेश दिया - तुम वहीं भजन सुनाओ,मैं सर्वत्र हूँ एक दिन माँ काली के भक्त रामप्रसाद अपने बगीचे (बगान बाड़ी) का छप्पर छा रहे थे, छप्पर का बंधन देने में माता ने पुत्री की अनुपस्थिति में, स्वयं पुत्री रूप में आकर सहयोग दिया। श्यामा-संगीत, साहित्यिक बंगला भाषा में है। जो अत्यंत मधुर, मैथिली से मिलती-जुलती,संस्कृत-निष्ठ एवं हिंदी भाषियों के लिये भी बोधगम्य है

[रामप्रसाद के बाद कमलाकांत भट्टाचार्य (1772-1821), महाराजा हरेंद्र नारायण (1783-1839), महाराजा शिवेंद्र नारायण (1839-1847), रसिकचंद्र रे (1820-1893), रामचंद्र दत्त (1861-1899) जैसे कई संगीतकार आए। नीलकंठ मुखोपाध्याय (1842-1911) और भाबा पगला (1902-1984)। आधुनिक समय में रवीन्द्रनाथ टैगोर और काजी नजरूल इस्लाम दोनों ने श्यामा संगीत शैली की कविताओं की रचना की है।] 

श्यामा संगीत में माँ काली की अवधारणा एक दिव्य माँ जगदम्बा के ही एक रूप  प्रेमपूर्ण -जगतजननी माँ सारदा देवी के रूप में की गई है।  और गायक उसी माँ सारदा देवी के प्रेम के लिए तरस रहा है। ये गीत न केवल अपने भक्ति पक्ष के लिए, बल्कि अपनी मानवीय अपील के लिए भी लोकप्रिय हुए हैं। 

आगमनी और विजया गीतों का विषय और अवसर इस प्रकार हैं। हिमालय और मेनका की बेटी पार्वती (उमा या गौरी) का विवाह कैलाश के स्वामी शिव से हुआ था। देवी दुर्गा (जो जगतजननी हैं, वे ही माँ जगदम्बा या सर्वोच्च सार्वभौमिक मातृ-देवी, माँ सारदा देवी।) के रूप में माँ पार्वती हर साल अपने ससुराल से अपने माता-पिता से मिलने आती हैं। उसी अवसर पर बिहार-यूपी तीज व्रत सुहागिनें निर्जला रहकर व्रत करती हैं-राजस्थान में भी हरितालिका तीज होता है।

यहां माँ सारदा देवी को - जयराम बाटी गाँव में रहने वाली एक साधारण लड़की - 'सारू' के रूप में चित्रित किया गया है, जो अपनी मां से बहुत दूर- (कोलकाता के दक्षिणेश्वर मन्दिर) में रहती है और अपने ससुराल (कामारपुकुर) में लंबे समय तक रहने के बाद घर वापस आने पर खुशी महसूस करती है। ये गीत भी अपनी मानवीय अपील के कारण अत्यधिक लोकप्रिय हैं और इन्हें अपने माता-पिता से दूर रहने वाली किसी भी विवाहित लड़की के साथ आसानी से पहचाना जा सकता है।

 रामप्रसादि गीत रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत से अधिक लोकप्रिय हुए हैं।  'किसान और पंडित' दोनों  उनके गीतों का समान रूप से आनंद लेते हैं। वे निराशा की घड़ी में और यहां तक ​​कि मृत्यु के क्षण में भी उनसे सांत्वना प्राप्त करते हैं। गंगा तट पर लाया गया मरणासन्न व्यक्ति अपने साथियों से 'रामप्रसादी गीत' गाने के लिए कहता है, रवींद्रसंगीत गाने के लिए नहीं कहता। टैगोर के गीत आचार्य केशवसेन के ब्रह्म समाज द्वारा भारत की तत्कालीन राजधानी कोलकाता के अंग्रेजी पढ़े-लिखे उच्च बाबू वर्ग में व्यापक रूप से फैलाए गए थे। इसीलिए  कलकत्ता की सड़कों पर और जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र समुदाय में आज भी सुने जाते हैं। किन्तु टैगोर के गीत  बंगाल के गांवों में अज्ञात हैं, जबकि रामप्रसादि संगीत के सुर हर जगह सुनाई देते हैं। रामप्रसादि गीत के बोल १४ से १८ वर्ष तक के बंगाली तरुणों के मुखपर रहते हैं। अतएव राष्ट्रकवि रवीन्द्रनाथ नहीं रामप्रसाद को कहना चाहिए। 

श्यामा संगीत श्री रामकृष्ण परमहंस के समय में अधिक लोकप्रिय हो गया, जो स्वयं जगतजननी माँ काली के एक कट्टर भक्त थे। रामप्रसाद सेन, गिरीशचंद्र घोष और प्रेमिक महाराज सहित अन्य ने कई अन्य लोगों श्यामा संगीत की रचना की है। किन्तु भारत का राष्ट्रीय गीत -'वंदे मातरम्'/ Hail to the Mother',( हेल टू द मदर), जिसके बोल बंकिमचंद्र चटर्जी/चट्टोपाध्याय ने लिखे थे और जिसका संगीत रवीन्द्रनाथ ठाकुर/टैगोर ने तैयार किया था। यह 'वंदे मातरम्' सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण माँ दुर्गा की स्तुति  है।  जो  हमें अपनी प्यारी भारतीय मातृभूमि को 'भारत माता ' को ही जगतजननी माँ दुर्गा का ही एक रूप मानकर और "भारत माता" कहकर पुकारने और उसकी जय-जयकार करने को प्रेरित करता रहता है। 

रवीन्द्रनाथ ठाकुर/टैगोर के 'जन गण मन', भारतीय राष्ट्रगान (Indian national anthem) में एक पंक्ति है, "स्नेहमयी तुमी माता"-which literally means India is a loving mother ("Bharat Mata").  जिसका शाब्दिक अर्थ है कि भारत एक प्यारी माँ है अर्थात "भारत माता" है। 

... रवीन्द्रनाथ ठाकुर/टैगोर ने एक राष्ट्र-गीत भी लिखा है - ' आमार  सोनार बांग्ला '/'माई गोल्डन बंगाल')  यह गीत पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के विभाजन से पहले लिखा गया था।   जिसमें वे संपूर्ण बंगाल (अविभाजित बंगाल) का जिक्र करते हैं , और जिसे बाद में भारत माता के शरीर को तीन टुकड़ों में खण्डित करने  के नाते, बांग्लादेश का राष्ट्रगान चुना गया। 

New Shyama Sangeet 2022 || Mother, no one knows who you are || Andul Kalikirtan Society

न्यू श्यामा संगीत 2022 || माँ तू कौन है- ये कोई नहीं जानता || अंडुल कालीकीर्तन सोसायटी

নিউ শ্যামা সঙ্গীত || মা তুমি কে কেউ জানে না || আন্দুল কালীকির্ত্তন সমিতি

Song Credit :-

Song - Mother, no one knows who you are

Singer - Andul Kali-kirtan Society

Lyricist - Premik Maharaj 

Composer - Andul Kalikirtan Society

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