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गुरुवार, 25 जनवरी 2024

Ayodhya Ram Mandir : पांच सदी का तप फलित...अयोध्या के पोर-पोर से टपका उत्सव और उल्लास; आकाश से पुष्प वर्षा > साभार >हेमंत शर्मा, अयोध्या Published by: दुष्यंत शर्मा (https://www.amarujala.com/ram-mandir/ayodhya-ram-mandir-five-centuries-of-penance-resulted-2024-01-23)

 >>सार > राजीव गाँधी पीएम बने राजिव गाँधी के कार्यकाल में ही 1986 में  राम मंदिर का ताला खुलते देखा। 1989 में शिलान्यास की राजनीति देखी तो 1990 में कारसेवकों पर बर्बर गोलीकांड। फिर 1992 में 500 साल से इकट्ठा हिंदू भावनाओं का विस्फोट देखा, जिसका फलित बाबरी ध्वसं के रूप में सामने आया। इसे रामलला के संदर्भ में 500 साल का तप या तितिक्षा कहना चाहिए।

>>> सनातन का पुनर्गठन : आजादी के आंदोलन से राजनीतिक स्वाधीनता मिली तो दूसरे से हुआ सनातन का पुनर्गठन :> इतिहास में सबसे लंबे आंदोलनों में भारत की स्वधीनता का संघर्ष करीब 100 साल तक चला। और अयोध्या मंदिर आंदोलन पांच सौ साल। यह एक अनोखा संयोग है कि भारत की स्वाधीनता का राष्ट्रीय आंदोलन भी भावभूमि पर वैष्णव संस्कारों से बुना गया था। उसे आप हिंदू चेतना का आंदोलन कह सकते हैं। गांधी परम वैष्णव थे। राम उनके आदर्श थे। स्वाधीनता की अलख के लिए उन्हें भारतीय सनानत के सत्य, करुणा, समन्वय और शुद्ध कर्म जैसे मूल्य चाहिए थे, जो राम अतिरिक्त और कहां मिलते। इसलिए उन्होंने अपना लक्ष्य रामराज रखा था। भारत के इतिहास को दो सबसे बड़े आंदोलन रामाश्रयी चेतना से अनुप्राणित थे। एक आंदोलन से राष्ट्र की राजनीतिक स्वीधनता मिली और दूसरे से भारतीय सनातन का पुनर्गठन हुआ। और राम का यह मंदिर भारतीयता का अभिनव तीर्थ बन गया, जहां आज उसके पुरुषोत्तम राम विराजे हैं। उनका यह मंदिर प्रतिशोध से नहीं, भारतीयता की नई लोकतांत्रिक प्रेरणा से निकला है।

>>>मंदिर का तप भी राम के जीवन संघर्ष जैसाराम मंदिर के लिए इतना दीर्घतप भी राम के कारण हुआ है। राम अनोखे हैं। कोई मंत्र पुराण यज्ञ से नहीं जुड़े राम। वे दिन, तिथि व वार में नहीं बंधे। किसी मन्नत-मनौती से भी राम का नाम नहीं जुड़ा है। विष्णु के अवतारों में राम सबसे मानवीय हैं या पूर्ण मानवीय हैं। इसलिए राम के मंदिर का तप राम के जीवन के संघर्ष जैसा हो गया। भारतीयों के जीवन में राम की तितिक्षा ही आदर्श है। राम का तप जिस तरह सत्य और न्याय के मूल्यों के लिए था, उनका मंदिर भी इन्हीं मूल्यों की जाज्वलयमान स्थापना है।

>>राजनीति के दृष्टि से कांग्रेस के लिए भी था अवसर :

मंदिर भाजपा के इतिहास के प्रत्येक कालखंड में संकल्पों का हिस्सा रहा, परंतु इसका निर्माण राजनीतिक चुनाव से नहीं न्यायालय के निर्णय से हुआ। यही तो लोकतंत्र है। भारतीय समाज ने अपने पुरुषोत्तम की प्रतिष्ठा प्रतीक को पूरी लोकतंत्रीय गरिमा के साथ स्थापित किया है। विपक्ष को भी इस आयोजन में होना चाहिए था। 

कांग्रेस ने ही तो ताला खोलकर राम की पूजा शुरू की थी। राजनीति की दृष्टि से परे यह उसके लिए अवसर था। राजनीति फिर भी तात्कालिक है। इस महान तप का फलित क्या है। रामनुजाचार्य की एक कथा याद आती है। कहते हैं कि रामानुज अपने जीवन के अंतिम वर्षों में श्री रंगनाथ के विग्रह की उपासाना करते थे। मूर्ति का अभिषेक करते हुए उन्हें दिखा कि रंगनाथ की पीठ पर घाव या फोड़ा हो गया है। रामानुजाचार्य को बड़ा कष्ट हुआ। ग्लानि के बीच रंगनाथ स्वप्न में आए। उन्होंने कहा कि यह घाव तुम्हारा ही दिया है। तुम धर्म की बात करने के बजाय अधर्म के खंडन पर अधिक ध्यान देते हो। धर्म मेरा हृदय और अधर्म मेरी पीठ है। इसलिए पीठ पर घाव हो गया। रामनुजाचार्य को बात समझ में आ गई। अधर्म, धर्म का विरोध नहीं है। यदि धर्म होगा तो अधर्म नहीं होगा। हमारे असंख्य संघर्ष सत्य को समग्रता में ग्रहण न करने के कारण शुरू होते हैं। राजनीतिक तो अर्ध सत्यों का अरण्य है। भारतीय सनातन ऋत पर केंद्रित है। ऐसे सत्य पर जो किसी का विरोधी हो नहीं हो सकता। वह सबको जोड़ने समेटने वाला सत्य है

>>युगों-युगों तक चेतना का जाग्रत पुंज रहेगा राममंदिर

राम ऐसे ही सत्य की चेतना लेकर भारतीय मन प्राण में स्थापित हैं। राममंदिर नई पीढ़ी के लिए भारतीय सनातन का अभिनव आशीर्वाद है। यह युगों-युगों तक हमारी चेतना का सबसे जाग्रत पुंज रहेगा। इसलिए राम का गुणगान करिये, राम प्रभु की भद्रता का, सभ्यता का ध्यान धरिये। त्याग और बलिदान के लंबे अतीत के बाद सनातन को अपने आदर्श का मंदिर भी लोकतंत्र की गरिमा के साथ न्याय के माध्यम से मिला। अब इस स्थापना में सब सम्मिलित हैं। सब से हमारा अर्थ राजनीति से नहीं, वरन शास्त्र और लोक से है। भारतीय समाज में राम मंदिर आंदोलन व्यक्तिगत, समूहगत और क्षेत्रगत तीनों स्तरों पर हुआ। इस अभियान को इतना लंबा चलाने वाले जानते थे कि इस मंदिर के लिए तप उनके कर्म का हिस्सा है और कभी न कभी यह फलित होगा। इसलिए फल का इंतजार किए आंदोलन जारी रहा। और आज हम भाग्यशाली लोग इसका फलित देख रहे हैं। धन्य हैं हम जो इस सपने के साकार होता देख रहे हैं।

>>>कर्मफल तय करता है, किसे किस काम का मिलेगा श्रेय

इतिहास का चक्र पलटा है। 2002 से नरेंद्र मोदी को कांग्रेस ने हिंदुत्व के जिन सवालों पर घेर उन पर सेकुलर हथियारों से मुसलसल हमला किया। उन्हें सांप्रदायिक, हिंदुत्ववादी बता राजनीति के हाशिए पर धकेलने की हमेशा कोशिश रही, लेकिन मोदी न डरे, न घबराए, न ही अपना रास्ता बदला। वे चलते रहे और उसी अखाड़े और उन्हीं हथियारों से उन्होंने कांग्रेस को आज चित्त किया है। वे दुनिया में हिंदुत्व के अकेले और अनोखे चैंपियन बने। कांग्रेस अपने बनाए मैदान से ही बाहर हो गई। उन्होंने वह कर दिखाया, जिसका इंतजार पांच शताब्दियों से हिंदू समाज कर रहा था। इतिहास ने उन्हें पहचाना, मौका दिया, पहले मंदिर के लिए...1990 में निकली रथयात्रा के सारथी बनने का। फिर 2019 में अपने नेतृत्व में कोर्ट से फैसला कराने का। फिर 2020 में मंदिर का शिलान्यास करने का और अब इस ऐतिहासिक घड़ी में प्राण प्रतिष्ठा का। इतिहास भी पुरुषार्थियों का ही साथ देता है। विपक्ष चाहे जितने शोर मचाए, पर यह सच है कि पांच सौ साल के संघर्ष में मंदिर आंदोलन को तार्किक परिणति तक पहुंचाने में काल उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा था। कर्मफल तय करता है कि किस काम का श्रेय किसे मिलेगा। राजनीति के मानक पर मंदिर की स्थापना की असंख्य व्याख्याएं होंगी। होने दीजिए क्योंकि राजनीति राष्ट्र की धड़कन है। उससे आप बच कैसे सकते हैं

जैसे ही पीएम मोदी ने रामलला के श्रीमुख से वस्त्र हटाया, समूचा देश भय प्रकट कृपाला दीनदयाला, कौशल्या हितकारी के स्वर से गूंज उठा। वाल्मिकी ने कहा था राम धर्म के विग्रह हैं। मूर्ति नहीं। आज सुबह तक गर्भगृह में रामलला की मूर्ति थी। दोपहर बाद वह विग्रह हो गई। मूर्ति निष्प्राण होती है। विग्रह में प्राण होता है। जन्मस्थान मंदिर सिर्फ मंदिर नहीं है। इससे देश का विमर्श बदलेगा। इस विमर्श के केंद्र में रामराज्य के बुनियादी मूल्य होगें। देश से तुष्टीकरण की राजनीति का अंत होगा। जाति वर्ग से परे सर्वसमावेशी समाज की नींव मजबूत होगी, राम के आदर्श, लक्ष्मण रेखा की मर्यादा, लोकमंगल की शासन व्यवस्था, आतंक और अन्यान्य के नाश का यह मंदिर न्यूक्लियस बनेगा। मंदिर उन उद्दात मानवीय मूल्यों का भी ऊर्जा केंद्र बनेगा। जो मूल्य तोड़ते नहीं सिर्फ जोड़ते हैं।

मूर्ति अद्भुत, अपूर्व, मनोहरी है। 16 करोड़ के सिर्फ आभूषणो से सज्जित रामलला अपने बाहरी और भीतरी स्वरूप में इक्ष्वाकु वंश के वैभव का गान कर रहे थे। बालसुलभ मुस्कान के साथ लोकाभिराम, नयनाभिराम। सगुण ब्रह्म स्वरुप सुन्दर, सुजन रंजन रूप सुखकर। यही रामलला का नया स्वरूप है। लगता है अभी बोल देंगे। पांच साल के भगवान की बालसुलभ मुस्कान को देखते ही वहां मौजूद लोग धन्य हुए। किसी को कल्पना भी नहीं थी कि इस जीवन में उसे भारतीय चेतना के सबसे बडे नायक राम का ऐसा मंदिर देखने को मिलेगा। पांच सौ साल पहले तुलसी ने इसी रामलला के इस मनोहर स्वरूप का वर्णन किया था।

वर दंत की पंगति कुंदकली, अधराधर-पल्लव खोलन की।

चपला चमकै घन बीच, जगै छबि मोति माल अमोलन की॥

घुंघरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर, कुंडल लोल कपोलन की।

निवछावरि प्रान करै तुलसी, बलि जाउं लला इन बोलन की॥

कुंदन की कली के समान सुंदर दांतों की पंक्ति पर (हंसते समय) नवीन लाल पत्तों के समान दोनों ओठों के खोलने की सुंदरता पर, बादलों में बिजली के समान चमकती हुई बहुमूल्य मोतियों की माला के सौंदर्य पर, मुख पर लटकती हुई घुंघराली लटों की शोभा पर, गालों पर हिलते हुए कुंडलों की मनोहरता पर और (तोतली) बोली के माधुर्य पर तुलसी कहते हैं, ऐसे मनोहर दृश्य पर तो अपने प्राण को निछावर करता हूं। यह तुलसी की कागद लेखी थी, पर आज मेरी आंखन देखी थी।

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👉'रामो विग्रहवान् धर्मः' 👈 - मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम धर्म [शीक्षा- #] के साक्षात् साकार रूप हैं !

 👉भगवान श्री राम धर्म और 'शी'क्षा # के साक्षात् साकार रूप हैं👈

 [तैत्तरीय उपनिषद में दीर्घ 'ई' वाली शीक्षा वल्ली देखें]    

500 वर्ष तक संघर्ष करने के बाद पुण्यभूमि भारत के श्री अयोध्याधाम में  22 जनवरी 2024 को  रामलला की मूर्ति में  प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है।  यह एतिहासिक अवसर है कि एक कुशल चालक की तरह हमारे युवा समाज रूपी वाहन के बैक मिरर पर भी क्षणिक दृष्टिपात करें ताकि देख सकें कि अतीत में हम क्या थे ? हमारी कमजोरियां व बुराईयां कौन-सी थीं और हमारी शक्ति व अच्छाईयां क्या। अपनी कमजोरियों व बुराइयों को छोड़ अतीत की शक्ति व अच्छाइयों से अपने आप को आत्मसात करें। राममन्दिर के साथ-साथ राष्ट्रमन्दिर के निर्माण में भी जुटें और रामराज्य के गुणात्मक प्रजातान्त्रिक मूल्यों को अपना कर अपने देश के लोकतन्त्र को दुनिया के सबसे बड़ा होने के साथ-साथ गुणात्मक लोकतन्त्र होने का भी गौरव प्रदान करें
 500 वर्ष की प्रतीक्षा के बाद  पुण्यभूमि भारत के श्री अयोध्याधाम में रामलला की मूर्ति में  22 जनवरी 2024 को प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद - धर्म और शिक्षा का भेद समाप्त होता  है ! 
अर्थात वाल्मीकि के  'रामो विग्रहवान् धर्मः' - मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम  धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं-  कहने का तात्पयर्य है राम जैसा उत्तम चरित्र का अधिकारी मनुष्य बन कर उन्हीं गुणों को अपने  व्यवहार द्वारा अपने जीवन से  प्रकट करने का नाम है 'शी'क्षा। 
  कुछ बहुमूल्य विचारों को  आत्मसात  कर लेना चरित्रगत कर लेना (mingle with the blood बना लेना) यानि रक्त -मज्जा से एकीभूत कर लेना - इस प्रकार यथार्थ मनुष्य बनाने वाले धर्म का नाम ही शिक्षा (जैसे चार महावाक्यों - Be and Make) भारतीय सांस्कृतिक चेतना के लोकनायक भगवान श्रीराम के अयोध्याधाम में उनकी रामलला रूप में  प्राण-प्रतिष्ठा  दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

छः अध्यायों वाली वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड  (3.37.2) में मारीच ने रावण को समझाया कि  राम और सीता ब्रह्म और शक्ति के साक्षात् अवतार हैं - कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं -  के गुणों का वर्णन किया-- तथा रावण को यह सलाह दी की उसे सीता के अपहरण का विचार त्याग देना चाहिए। 
सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः।

अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।

(वाल्मिकी रामायण : 3.37.2) 

(राजन् O king, प्रियवादिनः sweettongued, पुरुषाः men, सततम् always, सुलभाः easy to find, अप्रियस्य unpleasant to hear, तु but, पथ्यस्य salutary, वक्ता speaker, श्रोता च audience, दुर्लभः is difficult to find.)
हे राजन, सदा प्रिय वचन बोलकर चाटुकारिता करने वाले मनुष्य सर्वत्र बहुतायत में मिलते है;  किन्तु जो अप्रिय (कानों के लिए) होने पर भी जीवन गठन में हितकारी हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले लोग सर्वत्र दुर्लभ होते है। 
O king, it is always easy to find men who speak pleasing words, but it is difficult to get a speaker and a listener who use words unpleasant (to the ears) but beneficial (in life).

तब रामलला की मूर्ति में प्रतिष्ठा हो जाती है और पुण्यभूमि भारत के सनातन धर्म (शीक्षा) मार्ग पर चलने वालों के जीवन में त्रेता युग चलने लगता है और तब उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है।   

रामचरितमानस में कहा गया है कि ‘सबको विश्राम दे, वह राम।’ तो गुरु कृपा से मेरी अपनी समझ यह बनी कि वह चाहे अयोध्या में प्रकट हुए हों, चाहे कोई भी प्रांत में, राम को शायद हम पूरा नहीं समझ पाएं। 'राम'  तो परम तत्व का एक नाम हैं। उनसे ही कई विष्णु अवतरित हैं। 

(अर्थात  अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव  के सिद्धान्त -" जे जार इष्ट से तार आत्मा ! " के अनुसार- " जो  राम , जो कृष्ण वही रामकृष्ण- इस बार दोनों एक साथ; किन्तु तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं !" इस गुणातीत -श्रद्धा की दृष्टि से राम किसी व्यक्ति नश्वर देह-मन का नाम नहीं है, बल्कि ब्रह्माण्ड की आत्मा - सभी की आत्मा, पूर्णता, दिव्यत्व या ब्रह्मत्व का एक नाम है , उनसे ही कई विष्णु अवतरित होते रहते हैं ! उन्हीं में से एक 'मनुज अवतारी ' विष्णु का नाम है- राम !)  
गोस्वामी तुलसीदास जी का भगवान श्रीराम के प्राकट्य के दिन का वर्णन करते हुए लिखा है -

नवमी तिथि मधुमास पुनीता,

 सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।

मध्य दिवस अति सीत न घामा, 

पावन काल लोक बिश्रामा। 

(रामचरितमानस) 
 
भावार्थ:-पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित्‌ मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था॥1॥

राम दोपहर में जन्मे, जिस समय व्यक्ति भोजन कर आराम करता है। तो आदमी को तृप्त कर विश्राम देने के काल में राम का आगमन होता है। नवमी तिथि का दूसरा पक्ष यह भी है कि यह पूर्ण है। नौ का अंक (4005=9) पूर्ण है, दस में तो फिर एक के साथ जीरो जोड़ना पड़ता है। ग्यारह में दो एक करना पड़ता है। एक, दो, तीन, चार, पांच की गिनती में नौ आखिरी तिथि है, इसलिए उसको पूर्ण भी कहा गया है।
मानस में वशिष्ठ जी कहते हैं, ‘जो आनंद का सागर है, सुख की खान है और जिसका नाम लेने से आदमी को विश्राम मिलेगा और मन शांत होगा, उस बालक का नाम राम रखता हूं।’ तो राम महामंत्र है- तारक मंत्र है ! अपने भारत देश में विशेष रूप से काशी के मणिकर्णिका घाट पर आज भी भगवान शिव स्वयं  'तारक मंत्र '- “श्रीराम जय राम जय जय राम” सुनाकर मृतकों को मुक्ति प्रदान करते हैं! वहीँ युद्ध में 'जय श्रीराम ! ' अभिवादन के लिए राम-राम, खेद प्रकट करने के लिए राम-राम-राम और अंत समय “राम नाम सत्य है” कहने का प्रचलन है। यानी जन्म से अंत तक राम का ही नाम अपने समाज में रच-बस गया है। अतः सब ओर राम ही राम है। राम का नाम तो किसी भी समय लिया जा सकता है। इस महामंत्र का जप करने वाले को तीन नियम मानने चाहिए। 
पहला सूत्र- राम नाम भजने वाला किसी का शोषण न करे, बल्कि सबका पोषण करे। दूसरा सूत्र- किसी के साथ दुश्मनी न रखे और दूसरों की मदद भी करे। ऐसा करेंगे, तो राम नाम ज्यादा सार्थक होगा। सुंदर कांड में हनुमान को लंका में जलाने का प्रयास किया गया। जहां (जिस व्यक्ति में) भक्ति का दर्शन होता है, उसे समाज रूपी लंका जलाने का प्रयास करती ही है, लेकिन सच्चे संत को लंका जला नहीं सकती। तीसरा सूत्र है- सबका कल्याण और समाज को जोड़ना। लंका कांड के आरंभ में सेतु बंध तैयार हुआ। दिव्य सेतु बंध के दर्शन कर प्रभु ने धरती पर भगवान रामेश्वर की स्थापना की। यह शिव स्थान हुआ। यह राम नीति है। कल्याणकारी राज्य  की स्थापना करना। शिव यानी भारत का कल्याण। सेतु निर्माण करना  यानी सम्पूर्ण समाज को जोड़ना

>>>रामचरितमानस/ रामकृष्ण लीलाप्रसंग  में कहा गया है कि ‘जो सबको विश्राम दे, वह राम।’ तो गुरु कृपा  से मेरी अपनी समझ यह बनी कि वह चाहे अयोध्या में प्रकट हुए हों, चाहे कोई भी प्रांत- UP हो या WB  में, कोई भी देश में, पाताल में, आकाश में या कहीं भी प्रकट हुए हों, लेकिन वह चंचल मन को आराम को प्रदान करें, विराम को प्रदान करें, विश्राम को प्रदान करें और साथ-साथ अभिराम को प्रकट करें। हमारे आंगन में आराम, विश्राम, विराम और अभिराम- ये चार खेलने लगें, तो समझना चाहिए कि तुलसी का राम चार पैरों से हमारे आंगन में घूम रहा है। 
  आज 22 जनवरी 2024 को रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के शुभ मुहूर्त पर इस अयोध्या में केवल राम मन्दिर निर्माण नहीं - बल्कि राष्ट्र-मन्दिर निर्माण की दृष्टि से भगवान राम के नाम का यही सात्विक-तात्विक अर्थ भी निकालना चाहिए। मानस में स्पष्ट लिखा है कि राम मानव के रूप में आए, ऐसी शर्त है- ‘लीन्ह मनुज अवतार’। चतुर्भुज रूप लेकर प्रकट हुए, तो कौसल्या ने मना कर दिया कि मुझे चार हाथ वाला ईश्वर नहीं चाहिए, मुझे दो हाथ वाला ईश्वर चाहिए।  आज  सिर्फ भारत को ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को  दो हाथ वाले ईश्वर की ज्यादा जरूरत है। यथार्थ मनुष्य के रूप में,  इंसान के रूप में ईश्वर की ज्यादा जरूरत है।  इसलिए तुलसी ने कहा, ‘लीन्ह मनुज अवतार’। 

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥

भावार्थ:-दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1॥

    हाथ भले दो हो, मनुष्य के रूप में हो, लेकिन चार हाथों का काम करे, ऐसा ईश्वर चाहिए। और ये चार हाथों का काम है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पहला पुरुषार्थ धर्म - यानि स्वामीजी के अनुसार शिक्षा और धर्म एक ही बात है , इसलिए भारत के युवा विश्व में सतयुग के धर्म (मनुष्य -निर्माणकारी शिक्षा) को संस्थापित करें। क्योंकि विवेकानन्द ने कहा था - " श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से -सतयुग का प्रारम्भ हो चुका है ! " सम्पूर्ण जगत में सतयुग स्थापित करने से तात्पर्य है कि इस विश्व में 'अर्थ' हो - याने गरीबी न रहे,  दुनिया में दीनता न रहे, हीनता न रहे, दुनिया संपन्न रहे। काम' हो माने, दुनिया रसपूर्ण और पल-पल का आनंद उठाए। और मोक्ष माने, आखिर में सभी बंधनों से जो मुक्ति की ओर ले जाए, वही दो हाथ वाले राम के चार भुजकर्म हैं- एक अकेला सब पर भारी 
 " साकेत " काव्य के -प्रथम सर्ग में मैथिलीशरण गुप्त जी लिखते हैं -
अयि दयामयि देवि, सुखदे, सारदे,इधर भी निज वरद-पाणि पसारदे।
दास की यह देह-तंत्री तार दे,रोम-तारों में नई झंकार दे।
बैठ मानस-हंस पर कि सनाथ हो,भार-वाही कंठ-केकी साथ हो।
चल अयोध्या के लिए सज साज तू, मां, मुझे कृतकृत्य कर दे आज तू। 

स्वर्ग से भी आज भूतल बढ़ गया,भाग्यभास्कर उदयगिरि पर चढ़ गया।
हो गया निर्गुण सगुण-साकार है;ले लिया अखिलेश ने अवतार है।
राम। तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है॥ 
(मैथिलीशरण गुप्त)
हम राम को पढ़ते हैं, पूजते हैं। उनके जीवन, विचार, संवाद और प्रसंगों को पढ़ते-पढ़ते भावविभोर हो जाते हैं। उनका नाम लेते ही हमारा हृदय श्रद्धा और भक्तिभाव से सराबोर हो जाता है। हमारे सामने श्रीराम की धर्मपत्नी माता सीता का महान आदर्श है जो अद्वितीय है। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जैसा भाई, महावीर हनुमान और शबरी जैसी भक्ति, अंगद जैसा आत्मविश्वासी तरुण, भला और कहां दिखाई देता है! रामायण के प्रमुख पात्रों में जटायु, सुग्रीव, जाम्बवन्त, नल-नील, विभीषण जैसे नायक लक्ष्यपूर्ति के लिए प्रतिबद्ध हैं। वहीं रावण, कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत मेघनाथ जैसे पराक्रमी असुरों का वर्णन भी विकराल है, जिनपर श्रीराम और उनके सहयोगी सैनिकों द्वारा विजय प्राप्त करना सचमुच अद्भुत है। 
रामायण में सीता स्वयंवर, राम-वनवास, सीता हरण, जटायु का रावण से संघर्ष, हनुमान द्वारा सीता की खोज, लंका-दहन, समुद्र में सेतु निर्माण, इन्द्रजीत-कुम्भकर्ण-रावण वध, लंका विजय के बाद विभीषण को लंकापति बनाना, श्रीराम का अयोध्या आगमन, राम-भरत मिलन आदि सबकुछ अद्भुत और अद्वितीय प्रसंग है। अधर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य तथा अनीति पर नीति का विजय का प्रतीक रामायण भारतीय इतिहास की गौरवमय थाती है। रामायण का हर पात्र अपनेआप में श्रेष्ठ हैं पर श्रीराम के साथ ही माता सीता, महावीर हनुमान, लक्ष्मण और भरत का चरित्र पाठक के मनःपटल को आलोकित करता है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने “गोस्वामी तुलसीदास” नामक अपनी पुस्तक में कहा है, “राम के बिना सनातन हिन्दू जीवन नीरस है – फीका है।  यही रामरस ही जिसने शिक्षा और धर्म के वास्तविक  स्वाद को अभी तक बनाए रखा है और आगे भी बनाए रहेगा। राम का ही मुख देख कर हिन्दू जनता का इतना बड़ा भाग हजारों वर्षों की गुलामी के बावजूद  अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा अक्षुण्ण बना रहा। न उसे तलवार काट सकी, न धन-मान का लोभ, न धर्मान्तरण के जेहादी उपदेशों की तड़क-भड़क।”
श्रीराम भारतीय जनमानस में आराध्य देव के रूप में स्थापित हैं और भारत के प्रत्येक जाति, मत, सम्प्रदाय के लोग श्रीराम की पूजा-आराधना करते हैं। कोई भी घर ऐसा नहीं होगा, जिसमें राम-कथा से सम्बंधित किसी न किसी प्रकार का साहित्य न हो।  क्योंकि भारत की प्रत्येक भाषा में रामकथा पर आधारित साहित्य उपलब्ध है। भारत के बाहर भी विश्व के अनेक देश ऐसे हैं जहां के जन-जीवन और संस्कृति में श्रीराम इस तरह समाहित हो गए हैं कि वे अपनी मातृभूमि को श्रीराम की लीलाभूमि एवं अपने को उनका वंशज मानने लगे हैं। 
चीनी भाषा में राम साहित्य पर तीन पुस्तकें प्राप्त होती हैं जिनके नाम “लिऊ तऊत्व”, “त्वपाओ” एवं “लंका सिहा” है जिनका रचनाकाल क्रमशः 251ई., 472ई. तथा 7वीं शती है।  इंडोनेशिया में हरिश्रय, रामपुराण, अर्जुन विजय, राम विजय, विरातत्व, कपिपर्व, चरित्र रामायण, ककविन रामायण, जावी रामायण एवं मिसासुर रामकथा नामक ग्रन्थ लिखे गए। थाईलैंड में “केचक रामकथा”, लाओस में ‘फालक रामकथा’ और ‘पोम्मचाक’, मलेशिया में “हकायत श्रीराम, कम्बोडिया में “रामकीर्ति” और फिलीपिन्स में ‘महरादिया लावना’ नामक ग्रंथ की रचना की गई।
रूस में तुलसीकृत रामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद बारौत्रिकोव ने 10 वर्षों के अथक परिश्रम से किया, जिसे सोवियत संघ की विज्ञान अकादमी ने सन 1948 में प्रकाशित किया। उपर्युक्त देशों की भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, उर्दू, फारसी, पश्तों आदि भाषाओं में भी राम साहित्य की रचना की गई। कहने का तात्पर्य है कि भगवान राम सर्वव्यापक तो हैं ही, साथ ही उनपर लिखे गए साहित्य की व्यापकता भी विश्व की अनेक भाषाओं में उपलब्ध है। यह श्रीराम चरित्र की विश्व लोकप्रियता को प्रतिबिंबित करता है।

महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है ‘रामो विग्रहवान धर्म:’, अर्थात् राम धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं। 
रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः ।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः ॥

 (वाल्मीकि रामायण)

श्रीराम विग्रहवान धर्म हैं, वे साधु और सत्यप्रक्रमी हैं। जैसे इन्द्र समस्त देवताओं के अधिपति हैं वैसे वे सम्पूर्ण जगत के राजा हैं।
उन्होंने किसी दण्डात्मक प्रणाली के तहत नहीं बल्कि धर्म को केन्द्र में रख कर लोकतान्त्रिक प्रणाली में रामराज्य की व्यवस्था की थी । लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सर्वाधिक मूल्यवान मानी जाती है, अभिव्यक्ति अर्थात् बोलने की आजादी जिसको लेकर आजकल लम्बी-चौड़ी बहस छिड़ती रही है। अपने देश के संविधान में स्वतन्त्रता का अधिकार मूल अधिकारों में सम्मिलित है। इसकी 19, 20, 21 तथा 22 क्रमांक की धाराएं नागरिकों को बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सहित 6 प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान करतीं हैं- जैसे संगठित होना, संघ या सहकारी समिति बनाने की स्वतन्त्रता, सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतन्त्रता, कहीं भी बसने की स्वतन्त्रता, कोई भी उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता। किन्तु इस स्वतन्त्रता पर राज्य मानहानि, न्यायालय-अवमान, सदाचार, राज्य की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध, अपराध-उद्दीपन, लोक व्यवस्था, देश की प्रभुता और अखण्डता को ध्यान में रख कर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है। उसी तरह रामराज्य के दौरान भी धर्म एक ऐसा अंकुश था जिसका पालन शासक वर्ग के साथ-साथ हर नागरिक भी आत्मप्रेरणा से करते थे। अपनी संस्कृति में कहा गया है- "सत्यम वद, धर्मं चर"-अर्थात् सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।

प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्म: सनातन:॥

भाव यह कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो। अप्रिय नहीं बोलना चाहिये चाहे वह सत्य ही क्यों न हो। प्रिय बोलना चाहिए परन्तु असत्य नहीं; यही सनातन धर्म है। 

रामराज्य में इस पर कितना जोर दिया गया वह उस युग के लिए ही नहीं बल्कि आधुनिक काल के लिए भी अद्भुत है। रामराज में जनसाधारण को भी बोलने व राजा तक का परामर्श मानने या ठुकराने की कितनी स्वतन्त्रता थी इसके बारे तुलसीदास जी कहते हैं-

सुनहुसकल पुरजन मम बानी। कहउं न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।

श्रीराम अपने गुरु वशिष्ठ जी, ब्राह्मणों व जनसाधारण को बुला कर कहते हैं कि संकोच व भय छोड़ कर आप मेरी बात सुनें। इसके बाद अच्छी लगे तो ही इनका पालन करें।

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।

वो ही मेरा श्रेष्ठ सेवक और प्रियतम है जो मेरी बात माने और यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूं तो भय भुला कर बेखटके से मुझे बोलते हुए रोक दे। श्रीराम अपनी प्रजा को केवल अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही नहीं देते बल्कि अपनी निन्दा व आलोचना करने वाले को अपना प्रियतम सेवक भी बताते हैं। 
धोबी द्वारा माता सीता को लेकर दिये गए उलाहने का प्रकरण बताता है कि उन्होंने यह बात केवल कही ही नहीं बल्कि इसे अपने जीवन में उतारा भी। एक साधारण नागरिक के रूप में धोबी की बात मानने की उनकी कोई विवशता नहीं थी। वे चाहते तो इसे धृष्टता बता कर दण्ड भी दे सकते थे, या विद्वानों-धर्मगुरुओं से जनसाधारण को इसका स्पष्टीकरण भी दिलवा सकते थे परन्तु उन्होंने इन सबकी बजाए अपनी प्राण प्रिय सीता के त्याग का मार्ग चुना। एक राजा द्वारा जन-अपवाद के निस्तारण का इससे श्रेष्ठ उदाहरण आज तक नहीं सुना गया।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जो स्वयं धर्म स्वरूप हैं; उनका वर्णन करनेवाले तुलसीदास ने स्वयं ही कह दिया –
“नाना भांति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।
रामहि केवल प्रेम पियारा। जानि लेउ जो जाननिहारा।।”
अर्थात राम का जीवन अपरम्पार है, उसे समझना कठिन है। पर राम को जाना जा सकता है – केवल प्रेम के द्वारा। आइए, अंतःकरण के प्रेम से भगवान श्रीराम का स्मरण करें।
अपनी रचना ‘पौलस्त्य वध’ के लेखक  लक्ष्मण सुरि ने श्रीराम का वर्णन करते हुए कहा है, “हाथ से दान, पैरों से तीर्थ-यात्रा, भुजाओं में विजयश्री, वचन में सत्यता, प्रसाद में लक्ष्मी, संघर्ष में शत्रु की मृत्यु – ये राम के स्वाभाविक गुण हैं।”
साभार – लखेश्वर चन्द्रवंशी “लखेश”,नागपुर / https://punyabhumibharat.wordpress.com/2019/04/14/
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