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गुरुवार, 25 जनवरी 2024

Ayodhya Ram Mandir : पांच सदी का तप फलित...अयोध्या के पोर-पोर से टपका उत्सव और उल्लास; आकाश से पुष्प वर्षा > साभार >हेमंत शर्मा, अयोध्या Published by: दुष्यंत शर्मा (https://www.amarujala.com/ram-mandir/ayodhya-ram-mandir-five-centuries-of-penance-resulted-2024-01-23)

 >>सार > राजीव गाँधी पीएम बने राजिव गाँधी के कार्यकाल में ही 1986 में  राम मंदिर का ताला खुलते देखा। 1989 में शिलान्यास की राजनीति देखी तो 1990 में कारसेवकों पर बर्बर गोलीकांड। फिर 1992 में 500 साल से इकट्ठा हिंदू भावनाओं का विस्फोट देखा, जिसका फलित बाबरी ध्वसं के रूप में सामने आया। इसे रामलला के संदर्भ में 500 साल का तप या तितिक्षा कहना चाहिए।

>>> सनातन का पुनर्गठन : आजादी के आंदोलन से राजनीतिक स्वाधीनता मिली तो दूसरे से हुआ सनातन का पुनर्गठन :> इतिहास में सबसे लंबे आंदोलनों में भारत की स्वधीनता का संघर्ष करीब 100 साल तक चला। और अयोध्या मंदिर आंदोलन पांच सौ साल। यह एक अनोखा संयोग है कि भारत की स्वाधीनता का राष्ट्रीय आंदोलन भी भावभूमि पर वैष्णव संस्कारों से बुना गया था। उसे आप हिंदू चेतना का आंदोलन कह सकते हैं। गांधी परम वैष्णव थे। राम उनके आदर्श थे। स्वाधीनता की अलख के लिए उन्हें भारतीय सनानत के सत्य, करुणा, समन्वय और शुद्ध कर्म जैसे मूल्य चाहिए थे, जो राम अतिरिक्त और कहां मिलते। इसलिए उन्होंने अपना लक्ष्य रामराज रखा था। भारत के इतिहास को दो सबसे बड़े आंदोलन रामाश्रयी चेतना से अनुप्राणित थे। एक आंदोलन से राष्ट्र की राजनीतिक स्वीधनता मिली और दूसरे से भारतीय सनातन का पुनर्गठन हुआ। और राम का यह मंदिर भारतीयता का अभिनव तीर्थ बन गया, जहां आज उसके पुरुषोत्तम राम विराजे हैं। उनका यह मंदिर प्रतिशोध से नहीं, भारतीयता की नई लोकतांत्रिक प्रेरणा से निकला है।

>>>मंदिर का तप भी राम के जीवन संघर्ष जैसाराम मंदिर के लिए इतना दीर्घतप भी राम के कारण हुआ है। राम अनोखे हैं। कोई मंत्र पुराण यज्ञ से नहीं जुड़े राम। वे दिन, तिथि व वार में नहीं बंधे। किसी मन्नत-मनौती से भी राम का नाम नहीं जुड़ा है। विष्णु के अवतारों में राम सबसे मानवीय हैं या पूर्ण मानवीय हैं। इसलिए राम के मंदिर का तप राम के जीवन के संघर्ष जैसा हो गया। भारतीयों के जीवन में राम की तितिक्षा ही आदर्श है। राम का तप जिस तरह सत्य और न्याय के मूल्यों के लिए था, उनका मंदिर भी इन्हीं मूल्यों की जाज्वलयमान स्थापना है।

>>राजनीति के दृष्टि से कांग्रेस के लिए भी था अवसर :

मंदिर भाजपा के इतिहास के प्रत्येक कालखंड में संकल्पों का हिस्सा रहा, परंतु इसका निर्माण राजनीतिक चुनाव से नहीं न्यायालय के निर्णय से हुआ। यही तो लोकतंत्र है। भारतीय समाज ने अपने पुरुषोत्तम की प्रतिष्ठा प्रतीक को पूरी लोकतंत्रीय गरिमा के साथ स्थापित किया है। विपक्ष को भी इस आयोजन में होना चाहिए था। 

कांग्रेस ने ही तो ताला खोलकर राम की पूजा शुरू की थी। राजनीति की दृष्टि से परे यह उसके लिए अवसर था। राजनीति फिर भी तात्कालिक है। इस महान तप का फलित क्या है। रामनुजाचार्य की एक कथा याद आती है। कहते हैं कि रामानुज अपने जीवन के अंतिम वर्षों में श्री रंगनाथ के विग्रह की उपासाना करते थे। मूर्ति का अभिषेक करते हुए उन्हें दिखा कि रंगनाथ की पीठ पर घाव या फोड़ा हो गया है। रामानुजाचार्य को बड़ा कष्ट हुआ। ग्लानि के बीच रंगनाथ स्वप्न में आए। उन्होंने कहा कि यह घाव तुम्हारा ही दिया है। तुम धर्म की बात करने के बजाय अधर्म के खंडन पर अधिक ध्यान देते हो। धर्म मेरा हृदय और अधर्म मेरी पीठ है। इसलिए पीठ पर घाव हो गया। रामनुजाचार्य को बात समझ में आ गई। अधर्म, धर्म का विरोध नहीं है। यदि धर्म होगा तो अधर्म नहीं होगा। हमारे असंख्य संघर्ष सत्य को समग्रता में ग्रहण न करने के कारण शुरू होते हैं। राजनीतिक तो अर्ध सत्यों का अरण्य है। भारतीय सनातन ऋत पर केंद्रित है। ऐसे सत्य पर जो किसी का विरोधी हो नहीं हो सकता। वह सबको जोड़ने समेटने वाला सत्य है

>>युगों-युगों तक चेतना का जाग्रत पुंज रहेगा राममंदिर

राम ऐसे ही सत्य की चेतना लेकर भारतीय मन प्राण में स्थापित हैं। राममंदिर नई पीढ़ी के लिए भारतीय सनातन का अभिनव आशीर्वाद है। यह युगों-युगों तक हमारी चेतना का सबसे जाग्रत पुंज रहेगा। इसलिए राम का गुणगान करिये, राम प्रभु की भद्रता का, सभ्यता का ध्यान धरिये। त्याग और बलिदान के लंबे अतीत के बाद सनातन को अपने आदर्श का मंदिर भी लोकतंत्र की गरिमा के साथ न्याय के माध्यम से मिला। अब इस स्थापना में सब सम्मिलित हैं। सब से हमारा अर्थ राजनीति से नहीं, वरन शास्त्र और लोक से है। भारतीय समाज में राम मंदिर आंदोलन व्यक्तिगत, समूहगत और क्षेत्रगत तीनों स्तरों पर हुआ। इस अभियान को इतना लंबा चलाने वाले जानते थे कि इस मंदिर के लिए तप उनके कर्म का हिस्सा है और कभी न कभी यह फलित होगा। इसलिए फल का इंतजार किए आंदोलन जारी रहा। और आज हम भाग्यशाली लोग इसका फलित देख रहे हैं। धन्य हैं हम जो इस सपने के साकार होता देख रहे हैं।

>>>कर्मफल तय करता है, किसे किस काम का मिलेगा श्रेय

इतिहास का चक्र पलटा है। 2002 से नरेंद्र मोदी को कांग्रेस ने हिंदुत्व के जिन सवालों पर घेर उन पर सेकुलर हथियारों से मुसलसल हमला किया। उन्हें सांप्रदायिक, हिंदुत्ववादी बता राजनीति के हाशिए पर धकेलने की हमेशा कोशिश रही, लेकिन मोदी न डरे, न घबराए, न ही अपना रास्ता बदला। वे चलते रहे और उसी अखाड़े और उन्हीं हथियारों से उन्होंने कांग्रेस को आज चित्त किया है। वे दुनिया में हिंदुत्व के अकेले और अनोखे चैंपियन बने। कांग्रेस अपने बनाए मैदान से ही बाहर हो गई। उन्होंने वह कर दिखाया, जिसका इंतजार पांच शताब्दियों से हिंदू समाज कर रहा था। इतिहास ने उन्हें पहचाना, मौका दिया, पहले मंदिर के लिए...1990 में निकली रथयात्रा के सारथी बनने का। फिर 2019 में अपने नेतृत्व में कोर्ट से फैसला कराने का। फिर 2020 में मंदिर का शिलान्यास करने का और अब इस ऐतिहासिक घड़ी में प्राण प्रतिष्ठा का। इतिहास भी पुरुषार्थियों का ही साथ देता है। विपक्ष चाहे जितने शोर मचाए, पर यह सच है कि पांच सौ साल के संघर्ष में मंदिर आंदोलन को तार्किक परिणति तक पहुंचाने में काल उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहा था। कर्मफल तय करता है कि किस काम का श्रेय किसे मिलेगा। राजनीति के मानक पर मंदिर की स्थापना की असंख्य व्याख्याएं होंगी। होने दीजिए क्योंकि राजनीति राष्ट्र की धड़कन है। उससे आप बच कैसे सकते हैं

जैसे ही पीएम मोदी ने रामलला के श्रीमुख से वस्त्र हटाया, समूचा देश भय प्रकट कृपाला दीनदयाला, कौशल्या हितकारी के स्वर से गूंज उठा। वाल्मिकी ने कहा था राम धर्म के विग्रह हैं। मूर्ति नहीं। आज सुबह तक गर्भगृह में रामलला की मूर्ति थी। दोपहर बाद वह विग्रह हो गई। मूर्ति निष्प्राण होती है। विग्रह में प्राण होता है। जन्मस्थान मंदिर सिर्फ मंदिर नहीं है। इससे देश का विमर्श बदलेगा। इस विमर्श के केंद्र में रामराज्य के बुनियादी मूल्य होगें। देश से तुष्टीकरण की राजनीति का अंत होगा। जाति वर्ग से परे सर्वसमावेशी समाज की नींव मजबूत होगी, राम के आदर्श, लक्ष्मण रेखा की मर्यादा, लोकमंगल की शासन व्यवस्था, आतंक और अन्यान्य के नाश का यह मंदिर न्यूक्लियस बनेगा। मंदिर उन उद्दात मानवीय मूल्यों का भी ऊर्जा केंद्र बनेगा। जो मूल्य तोड़ते नहीं सिर्फ जोड़ते हैं।

मूर्ति अद्भुत, अपूर्व, मनोहरी है। 16 करोड़ के सिर्फ आभूषणो से सज्जित रामलला अपने बाहरी और भीतरी स्वरूप में इक्ष्वाकु वंश के वैभव का गान कर रहे थे। बालसुलभ मुस्कान के साथ लोकाभिराम, नयनाभिराम। सगुण ब्रह्म स्वरुप सुन्दर, सुजन रंजन रूप सुखकर। यही रामलला का नया स्वरूप है। लगता है अभी बोल देंगे। पांच साल के भगवान की बालसुलभ मुस्कान को देखते ही वहां मौजूद लोग धन्य हुए। किसी को कल्पना भी नहीं थी कि इस जीवन में उसे भारतीय चेतना के सबसे बडे नायक राम का ऐसा मंदिर देखने को मिलेगा। पांच सौ साल पहले तुलसी ने इसी रामलला के इस मनोहर स्वरूप का वर्णन किया था।

वर दंत की पंगति कुंदकली, अधराधर-पल्लव खोलन की।

चपला चमकै घन बीच, जगै छबि मोति माल अमोलन की॥

घुंघरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर, कुंडल लोल कपोलन की।

निवछावरि प्रान करै तुलसी, बलि जाउं लला इन बोलन की॥

कुंदन की कली के समान सुंदर दांतों की पंक्ति पर (हंसते समय) नवीन लाल पत्तों के समान दोनों ओठों के खोलने की सुंदरता पर, बादलों में बिजली के समान चमकती हुई बहुमूल्य मोतियों की माला के सौंदर्य पर, मुख पर लटकती हुई घुंघराली लटों की शोभा पर, गालों पर हिलते हुए कुंडलों की मनोहरता पर और (तोतली) बोली के माधुर्य पर तुलसी कहते हैं, ऐसे मनोहर दृश्य पर तो अपने प्राण को निछावर करता हूं। यह तुलसी की कागद लेखी थी, पर आज मेरी आंखन देखी थी।

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