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गुरुवार, 4 जुलाई 2019

माँ

 यह लेख मेरे हृदय को इतना छू गया कि मैं  इसे Share करने से अपने को रोक नहीं कर सका ..... 
रामकृष्ण मिशन के एक 'संन्यासी महाराज' से कुछ दिनों पहले एक भक्त ने पूछा था - " महाराज, स्वाधीनता संग्राम के समय भारतीय उपमहाद्वीप में इतने महापुरुष कैसे जन्म लेते थे ? और अब वैसे महापुरुष क्यों जन्म नहीं लेते ?  
एक असाधारण उत्तर देते हुए महाराज ने कहा, "जैसे बड़े बड़े प्लेन जब आसमान में  उड़ते हैं, वे तो इच्छानुसार जहाँ कहीं भी उतर नहीं सकते ; उनके उतरने के लिए उपयुक्त एयरपोर्ट की आवश्यकता होती हैठीक उसी प्रकार एक समय था जब इस देश में उपयुक्त 'मातायें' हुआ करती थीं। अब वैसे एयरपोर्ट नहीं हैं, इसीलिये बड़े बड़े प्लेन उतरना चाहते हुए भी , उतर नहीं पाते हैं। 
आधुनिक मनो वैज्ञानिकों का भी यह मानना है कि, कोई सन्तान आगे चलकर कैसा मनुष्य बनेगा, यह  85 % निर्भर करता है --माँ के ऊपर। और उसका निर्धारण माँ के गर्भ में सन्तान आने से लेकर जन्म के 5 वर्षों के भीतर ही हो जाता है। सन्तान के गर्भ में रहते समय ही माँ के विचारों का, शब्दों का, पसन्द -नापसन्द का, रूचि , आदर्श आदि का प्रभाव उस शिशु के मन पर पड़ जाता है।
 माँ की परेशानी उसकी परेशानी। माँ की ख़ुशी, उसकी ख़ुशी।  माँ का भोजन, उसका भोजन । फिर उसके माँ की इच्छा, उसकी इच्छा क्यों नहीं होगी ? माँ का आदर्श (श्रीकृष्ण), उसके आदर्श।  माँ का जीवन लक्ष्य उसके सन्तान का जीवन लक्ष्य। गर्भ में रहते समय से ही उसकी शिक्षा भी 3 Idiots फिल्म की  All is Well के तरह प्रारम्भ हो जाती है। 
द्वापर युग की कौशल्या को हमलोग उनके पुत्र राम के कारण आज भी याद करते  हैं। इस युग भुवनेश्वरी देवी को इसलिये पहचानते हैं कि वे स्वामी विवेकानन्द की 'माँ' थीं ! प्रभावती देवी को पहचानते हैं, क्योंकि वे नेताजी सुभाष चन्द्र बसु की 'माँ' थीं। भगवती देवी को पहचानते हैं, क्योंकि वे विद्यासागर की 'माँ' थीं। उषा देवी (तेजपुर, आसाम में जन्म ग्रहण करने वाली उषारानी चट्टोपाध्याय) को पहचानते हैं, क्योंकि वे महामण्डल के संस्थापक सचिव नवनीदा की 'माँ' थीं। 
 युगों युगों से हमलोगों का मार्गदर्शन करने के लिए कई नेता /पैगम्बर/अवतार आते रहे हैं। उनलोगों ने बार बार हमसे कहा है कि तुम यदि अपने जीवन को सार्थक करना चाहते हो, तो 'इस'-पथ (त्याग और आध्यात्मिकता) का अनुसरण करो। किन्तु हमलोग उनकी बात नहीं सुनते बल्कि उनके विपरीत रास्ते पर चलते हैं। वर्तमान समय में कितने माता-पिता हैं, जो ऐसी सन्तान चाहते हैं ? ? हमलोग को अपनी वैज्ञानिक मानसिकता पर, अपने को आधुनिक मानने पर कितना गर्व करते हैं ! 
हमलोगों के भद्रता (courtesy) और सभ्यता की पहचान आलमीरे में सजे ढेरों पुस्तकों से, दीवालों में टंगी कई सर्टिफिकेट्स से, अच्छे रहन -सहन, बड़ा फ्लैट, मोटर और बंगला, सूट-बूट से , महँगी साड़ी और गहनो में, इंटरनेट, आई-फोन, आई-पैड, टैब, कैप्सूल ... आदि से होती है। किन्तु, एक छोटा सा देव-शिशु (सिंह -शावक) जो अपने अँधेरे संसार से  कितनी आशा लेकर इस जगत में आया हैं, क्या हम उन्हें सच्चा ज्ञानालोक प्राप्त करने का मार्ग बता पा रहे हैं ? 
उस सत्यानुसन्धान का मार्ग (निरपेक्ष सत्य को देखने का मार्ग) तो हमलोगों के लिए ही अज्ञात है ! छोटा सा नरेन (बिले) तो उस समय भी था, जिसने एक दिन कोई गलत कार्य कर दिया था। माँ ने उसके लिए उसे कोई फटकार नहीं लगाई, कोई दण्ड नहीं देती हैं, उसने क्या गलत किया-केवल उसे लिखकर उसके कमरे के दीवाल पर टाँग देती हैं। चंचल (Restless-अधीर) बिले का मन पढ़ाई करने में नहीं है, माँ स्वयं पढ़ रही हैं, बिले सुन रहा है -और उसे सब पाठ याद होता जाता है। माँ शिक्षा दे रही हैं -" बेटे , जीवन में जिसे सत्य के रूप में जान लेना , उस आदर्श को कभी मत छोड़ना। " इसीलिए तो बाद में हमलोग शिक्षा पाते हैं - " सत्य के लिए सब कुछ का त्याग किया जा सकता है, किन्तु और किसी भी चीज को पाने के लिए सत्य का त्याग नहीं किया जा सकता। " 
"मैंने अपनी माँ से जीवन में बड़ा बनने की सभी शिक्षाओं को बचपन में ही पायी है, इसीलिए अब मैं यह कह सकता हूँ कि  -'सत्य ही मेरा ईश्वर है, सम्पूर्ण विश्व मेरा देश है, जगत के सभी मनुष्य मेरे भाई हैं, मेरा ही खून है। " इसी को कहते हैं - सच्ची 'माँ' की शिक्षा !  
१४-१५ साल के सुभाष बोस अपनी माँ को पत्र में लिखते हैं - " माँ, तुम मुझसे क्या चाहती हो  ? क्या तुम यह चाहती हो कि मैं पढ़-लिखकर डॉक्टर, इंजीनियर बनूँ ? मेरे पास बहुत पैसा हो, मोटर-बंगले हों ? अथवा यह चाहती हो कि मैं विश्व का सबसे गरीब व्यक्ति भले बनूँ। किन्तु, मैं ऐसा मनुष्य -(विश्व का प्रधान सेवक) बनूँगा, जिसके आगे विश्व के सभी मनुष्य श्रद्धा के साथ अपना शीश झुकायेँगे ! " 
हममें से कितने माँ-बाप ऐसे हैं, जो सच्ची ईमानदारी के साथ अपने बच्चों में ऐसा साहस, उत्साह और प्रेरणा भर सकते हैं ? हमलोग तो अपने बच्चों को बस यही शिक्षा देते हैं -' केवल मन लगाकर पढ़ो,अच्छा  रिजल्ट करो- ताकि हमारे बच्चे रुपये कमाने वाले एक मशीन बन जायें। हम उन्हें यह सिखाते हैं कि वे कैसे झूठे (Liar) बन सकते हैं, वे कैसे और अधिक स्वार्थपर बन सकते हैं !छोटे शिशु के कोमल हृदय में इस 'विष-वृक्ष' को हमलोग ही लगा देते हैं। और जब वह सचमुच -एक असंवेदनशील, प्रेम-रहित, विवेक-रहित, मशीन के जैसा आचरण हमारे साथ भी करने लगता है, तो हमलोग अपनी छाती पीटते हैं, और युग खराब होने का रोना रोते हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को एक ऐसे तीव्र गति से चलने वाले, किन्तु ब्रेक-रहित वाहन में बैठा हुआ महसूस कर रहा है, जिसकी गति हमेशा बढ़ती रहती है, कभी घटने का नाम नहीं लेती! हमलोग खुद तो डूब ही रहे हैं, और अपनी सन्तानों को भी -एक दूसरे ब्रेक-फेल हो चुके कार में बैठा दे रहे हैं। क्या यह गाड़ी तब रुकेगी -जब सबकुछ समाप्त हो जायेगा ??
 नहीं, क्योंकि भारत को प्राचीन काल से ही  " श्रुति परम्परा" के माध्यम से प्रवृत्ति और निवृत्ति में सन्तुलन बनाकर चलने का कौशल ज्ञात था! इसलिए अकूत धन-सम्पत्ति अर्जित करना भी कोई दोषपूर्ण कार्य नहीं माना जाता था।  क्योंकि वह धन अपने निजी भोगों या स्वार्थपूर्ण कार्यों में खर्च करने के लिए न होकर, सम्पूर्ण देश वासियों में उनकी आवश्यक्तानुसार वितरण करने के उद्देश्य से ही अर्जित किया जाता था। किन्तु 1000 वर्षों की गुलामी के कारण हमने प्रवृत्ति और निवृत्ति में संतुलन रखने के कौशल को खो दिया था। 
किन्तु 1967 में जिस 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का आविर्भाव हुआ, उससे जुड़े हुए युवा  ऐसे हैं - " जो स्वयं भी डूबना नहीं चाहते , और दूसरों को भी डूबने से बचा लेना चाहते हैं !" क्योंकि  महामण्डल -भारत की प्राचीन श्रुति परम्परा या "Be and Make-- Vedanta Leadership Training tradition" में आधारित अपने वार्षिक युवा प्रशिक्षण-शिविर या अंतर्राज्जीय प्रशिक्षण शिविर में ऐसे ही प्रशिक्षित -जीवनमुक्त नेताओं/शिक्षकों को निर्माण करने का कार्य विगत 52 वर्षों से करता चला आ रहा है। 
श्री रामकृष्ण देव कहते थे - " जब लकड़ी का बड़ा भारी कुन्दा पानी पर बहता है तब उस पर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु किसी सड़ियल लकड़ी पर कोई कौआ भी बैठ जाये , तो वह डूब जाती है। इसी प्रकार जिस समय अवतार-पुरुष या कोई वैसा ही संगठन आविर्भूत होता है, उस समय उस संगठन का आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं ! परन्तु कोई अकेला सिद्ध व्यक्ति हो , तो काफी श्रम करने के बाद किसी तरह स्वयं तरता है। " 
"रेल का इंजन खुद भी गंतव्य को जाता है और अपने साथ माल से लदे कितने ही डिब्बों को खींच ले जाता है।  उसी प्रकार , अवतार या अवतारी संगठन पाप के बोझ से लदे संसरासक्त जीवों को 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' के माध्यम से ईश्वर (परमसत्य या माँ जगदम्बा) के निकट खींच ले जाते हैं।"
" चारदीवारी से घिरी हुई एक जगह थी। .... उसके भीतर क्या है इसका बाहर के लोगों को कुछ भी पता नहीं था। एक दिन चार जनों ने मिलकर सलाह की कि सीढ़ी लगाकर दीवार पर चढ़कर देखा जाय कि भीतर क्या है ? पहला आदमी सीढ़ी (गुरु) के सहारे दीवार पर जैसे ही चढ़ा , वैसे ही 'हा -हा ' कर हँसते हुए भीतर कूद पड़ा। क्या हुआ समझ न पाकर दूसरा आदमी भी दीवार पर चढ़ा और वह भी उसी प्रकार 'हा -हा' कर हँसते हुए भीतर कूद पड़ा। तीसरे आदमी का भी वही हाल हुआ। अन्त में चौथा आदमी चारदीवारी पर चढ़ा। उसने देखा कि भीतर दिव्य उपभोग की वस्तुओं से भरा एक अपूर्व शोभामय उपवन है। उसके मन में भी उन सुन्दर वस्तुओं का उपभोग करने की तीव्र कामना उठी। 
किन्तु दूसरों को भी साथ लेकर उसका आनन्द चखाने की इच्छा से, उसने उस कामना का दमन किया। और वह स्वयं नीचे उतर आया --तथा अब उसे जो भी दिखाई पड़ता -उसीको उस जगह के बारे में बताने लगता! ब्रह्मवस्तु भी इसी उपवन की तरह है, जो उसे एक बार देख लेता है वही आनन्दमग्न होकर उसमें विलीन हो जाता है। परन्तु जो विशेष शक्तिमान महापुरुष (ईश्वर-कोटि के) होते हैं, वे ब्रह्मदर्शन के पश्चात् वापस आकर लोगों को उसकी खबर बताते हैं, और दूसरों को साथ लेकर उस ब्रह्मानन्द में निमग्न होते हैं।
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এই লেখাটা পড়ে এত মন ছুঁয়ে গেল যে Share না করে পারলাম না.....রামকৃষ্ণ মিশনের একজন মহারাজকে কিছু দিন আগে প্রশ্ন করা হয়,"মহারাজ,এত মহাপুরুষ কিভাবে ভারতীয় উপমহাদেশে জন্ম নিতেন ?আর বর্তমানে কেন আর সেই মহাপুরুষরা জন্মায় না ?"
অসাধারণ উত্তরে মহারাজ বলেছিলেন,"আকাশে প্লেন ওড়ে,সে তো আর যেখানে সেখানে ইচ্ছামত নামতে পারে না !তার নামার জন্য উপযুক্ত এয়ারপোর্ট প্রয়োজন হয় !
ঠিক সেই রকম এক সময় ছিল যখন এই ভারতবর্ষে উপযুক্ত 'মা' ছিল।এখন সেই এয়ারপোর্ট নেই, তাই বড় বড় প্লেন আর নামতে চাইলেও পারছে না"।আধুনিক মনঃ বিজ্ঞানের মতে,সন্তান কেমন মানুষ হবে, সেটা ৮৫% নির্ভর করে মা-এর উপর।আর তা নির্ধারণ হয়ে যায়,মায়ের গর্ভে সন্তান আসাএবং জন্মের ৫ বছরের মধ্যে।মায়ের চিন্তা,কথা,ভালো লাগা- মন্দ লাগা,রুচি,আদর্শ,সন্তানের উপর দারুনভাবে প্রভাব ফেলতে থাকে গর্ভে থাকা অবস্থাতেই। 
মায়ের কষ্ট, তার কষ্ট। মায়ের আনন্দ, তার আনন্দ।মায়ের খাবার, তার খাবার।তাহলে মায়ের ইচ্ছা, তার ইচ্ছা হবে না কেন !!মায়ের আদর্শ, তার আদর্শ,মায়ের জীবনবোধ,সন্তানের জীবন বোধ হবে।সেখান থেকেই তার শিক্ষা শুরু 3 Idiots এর All is Well এর মত। 
আমরা আজও সে যুগের কৌশল্যাকে মনে রাখি পুত্র রামের কারণে।এ যুগে ভুবনেশ্বরী দেবীকে চিনি কারণ,তিনি স্বামী বিবেকানন্দের 'মা' ছিলেন।প্রভাবতী দেবীকে চিনি,কারণ তিনি নেতাজী সুভাষ চন্দ্র বসুর 'মা' বলে ভগবতী দেবীকে চিনি,কারণ তিনি বিদ্যাসাগরের 'মা' ছিলেন।সারদা দেবীকে মনে রেখেছি,কারণ তিনি রবীন্দ্রনাথ ঠাকুরের গর্ভধারিণী ছিলেন। যুগে যুগে কত মহাপ্রান এসেছেন আমাদের পথ দেখানোর জন্যে।বারে বারে তারা আমাদের বলেছেন,যদি জীবন সার্থক করতে চাও,তাহলে এই পথে এসো।আমরা তাদের কথা না শুনে,চলি উল্টো পথে।
এখন কার সময়ে কয়জন বাবা-মা আছেন,যারা এমন সন্তান চান ??আমাদের কি অহঙ্কার -আমরা আধুনিক,আমরা বিজ্ঞান মনস্ক l আমাদের ভদ্রতা -সভ্যতা গাদা-গাদা বই পড়ায়, অনেক সার্টিফিকেটে, ভাল রোজগারে,ফ্ল্যাট,গাড়ি-বাড়ি,স্যুট-বুট,দামি শাড়ি,গয়না,Internet,i-phone,i-pad,Tab, Capsule...etcকিন্তু.....কত আশা নিয়ে ছোট্ট দেব শিশুটি অন্ধকার জগৎ থেকে এলো,তাকে কি আমরা সত্যিকারের আলোর সন্ধান দিতে পারছি ? 
সে পথ তো আমাদেরই অচেনা।ছোট্ট নরেন (তখনও বিলে) একটা অন্যায় করল।মা তাকে কোন কটু কথা না বলে,কোনও শাস্তি না দিয়ে,একটা কাগজে সেটি লিখে ঘরে টানিয়ে দিলেন।দুরন্ত বিলের পড়ায় মন নেই,মা পড়ছেন,বিলে শুনছে,সব আয়ত্ত হয়ে যাচ্ছে।মা শিক্ষা দিচ্ছেন,"বাবা, জীবনে যেটা সত্য বলে জানবে, কখনও সেই আদর্শ থেকে সরে এস না।"তাই তো পরবর্তীতে আমরা পেলাম "সত্যের জন্যে সব কিছু ত্যাগ করা যায়,কিন্তু কোনও কিছুর জন্য সত্যকে ত্যাগ করা যায় না।""ছোট বেলায় মায়ের কাছেই জীবনে বড় হওয়ার সব শিক্ষা পেয়েছি,তাই বলতে পারি- সত্যই আমার ঈশ্বর,সমগ্র জগৎ আমার দেশ,জগৎ এর সবাই আমার ভাই,আমার রক্ত।"এই হল যথার্থ 'মা' এর শিক্ষা।
১৪ - ১৫ বছরের সুভাষ বসু 'মা' কে চিঠি লিখছেন-"তোমরা আমার কাছে কি চাও মা ?তোমরা কি চাও আমি লেখাপড়া শিখে ডাক্তার- ইঞ্জিনিয়ার হই।আমার অনেক টাকা,বাড়ি-গাড়ি হোক।নাকি এই চাও- আমি পৃথিবীর সবথেকে গরীব হব।কিন্তু এমন মানুষ হব,যেন শ্রদ্ধায় পৃথিবীর প্রতিটা মানুষ মাথা নিচু করে।"
ক'জন বাবা-মা আছি আমরা,সৎ সাহস নিয়ে আমাদের সন্তানদের এই উৎসাহ দিতে পারি! বলি শুধু পড়,ভালো রেজাল্ট করো,টাকা রোজগার করার একটা মেশিন হয়ে ওঠো।আমরা শেখাই,কি করে সে মিথ্যাবাদী হতে পারে,কি করে সে আরও স্বার্থপর হতে পারে। ছোট শিশুর কোমল অন্তরে এই 'বিষ-বৃক্ষ' আমরাই লাগিয়ে দিই। আর সত্যিই এক সময় যখন সে আবেগহীন,ভালবাসা হীন,বিবেকহীন মেশিনের মত আচরণ করে,তখন আমরা বুক চাপড়াই।আমরা প্রত্যেকেই দ্রুত গতির এক ব্রেকহীন গাড়িতে উঠেছি,যার গতি শুধু বাড়তে পারে কমে না।আমরা ভেসে চলেছি......সন্তানদেরও তুলে দিচ্ছি ব্রেক ফেল করা আর এক গাড়িতে।এই গাড়ি কখন থামবে.....??? যখন সব শেষ !!!"( সংগ্রহীত )ধন্যবাদান্তে 
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(बबुआ , मन से कबो हार ना मानलीं, तू जउन चाह लेब , ऊ हो जाई ! मन के हरले हार बा मन के जीतले जीत ! तोहार बाबूजी तो हमरा के देवघर न देखा पइलन, तूँ हमारा आपन गाड़ी से ले चलीह ! शरीर के खूब मजबूत बनाव , कोई के पहिले मत मरिह, बाकि कोई तोहरा के बिनाकारण मारे, तो ओकर हाथ तोड़ दीह ! --अरे माई, हम तोहरा हवाई जहाज से ले जाइब ; लेकिन तोहरा ओहिजे छोड़ देब , काहेकि तूँ हमरा के छोड़ के बाजार काहे गईल रहू ? ) 
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