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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

दृग-दृश्य विवेक : अध्याय 5 " जीव की प्रकृति" ( श्लोक 32 से 46 तक)


 ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
 मृत्योर्मा अमृतं गमय । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥  
 Om Asato Ma Sadgamaya, ॐ Lead us from unreal (Illusion, of Transitory Existence) to the real,(Truth of the Eternal Self), 2: Lead us from the Darkness (of Ignorance) to the Light (of Spiritual Knowledge), 3: Lead us from the Fear of Death to the Knowledge of Immortality. 4: Om Peace, Peace, Peace.~ Yajur Veda, Brihadaranyáka Upanishad, 1.3.28
ऋषि प्रार्थना करता है , हे  माँ सारदा ! हे प्रभु श्रीरामकृष्ण ! हम असत्य में हैं (भ्रान्ति में हैं) , अतः हमें सत्य चाहिए(भ्रममुक्त अवस्था चाहिए) , हम अज्ञान-अंधकार में है (हम हिप्नोटाइज्ड हैं) अतः हमें ज्ञान की रश्मि चाहिए (डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना चाहिए) , हम मृत्यु के भय में डुबे हूए हैं (मरणधर्मा शरीर मानकर भेंड की तरह में-में करते हैं) अतः हमें अमरता चाहिए (अपने स्वरूप-सिंहत्व की अनुभूति चाहिए।) कैसे मिले हमें यह सत्य ? कैसे हमारे जीवन में ज्ञान का आलोक फैले ? कैसे हम मृत्यु के भय से मुक्त हों?
यदि स्वरूपतः हम आत्मा (ब्रह्म) हैं, तो वह कौन है जो कार चलाकर इस महामण्डल के पाठचक्र में आया है ? मतलब जीव की प्रकृति क्या है ? यदि हम वास्तव में ब्रह्म हैं तो, इस समय एक गृहस्थ के रूप में हम क्या हैं ? जीव की प्रकृति क्या है ?  इसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए लेखक ने आगे 14 श्लोक और लिखे हैं।  श्लोक 32 -
अवच्छिन्नश्चिदाभासस्तृतीयः स्वप्नकल्पितः ।
विज्ञेयस्त्रिविधो जीवस्तत्राद्यः पारमार्थिकः ॥ ३२॥ 
अवच्छिन्नः, चित्-आभासः, तृतीयः [च] स्वप्न-कल्पितः [इति] जीवः त्रिविधः विज्ञेयः। तत्र आद्यः [अवच्छिन्नः इव जीवः] पारम-अर्थिकः [ब्रह्म-भूतः]॥ 
conceive of an individual : जीव की अवधारणा क्या है ? तीन प्रकार से आता है -वह साक्षी चेतना होता है, जाग्रत अवस्था में वह मन के ऊपर पड़ने वाला साक्षी चेतना का प्रतिबिम्ब होता है, स्वप्नावस्था में मन पर पड़ने वाला साक्षी चेतना का प्रतिबिम्ब होता है। अपने विषय में हमारी तीन प्रकार की अवधारणा रहती है। जीव के विषय में तीन प्रकार की धारणा (conception) है, वह मन का साक्षी/ द्रष्टा है, वही चेतना जाग्रत अवस्था में अंतःकरण में प्रतिबम्बित रहता है , स्वप्नावस्था में सूक्ष्म शरीर से स्वप्न का द्रष्टा होता है। तत्र आद्यः -the first one, पहले वाला जीव पूर्ण चेतना (absolute consciousness) साक्षी है, जो ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं है, उसको पारमार्थिक सत्य (absolute reality-निरपेक्ष सत्य) 
 । वर्तमान अवस्था में ब्रह्म (existence-consciousness-bliss) को हम नहीं समझते, हम केवल इतना समझते हैं, कि फ़ी देकर कैम्प में आये हैं। वेदान्त हमें सहायता करने के लिए इस अवस्था को provisional reality (अस्थायी वास्तविकता) की संज्ञा देता है। इस जगत को व्यावहारिक सत्य कहता है। empirical reality (अनुभवजन्य वास्तविकता),relative reality (सापेक्ष सत्य) कहता है। pragmatic reality (व्यावहारिक सत्य ) कह सकते हैं। transactional world, लेन-देन संबंधी सत्य। तीसरा सत्य है प्रातिभासिक सत्य (appearance- जैसे स्वप्न में देखा गया सत्य या भूल से रस्सी में सर्प देखने वाला सत्य)   वहाँ सर्प प्रातिभासिक सत्य है, और रस्सी व्यावहारिक सत्य है। जब हम जान लेते हैं कि रस्सी है तब सर्प का क्या होता है ? इसकी अनुभूति हो गयी कि वह रस्सी के सिवा और कुछ नहीं है। ज्ञान की अवस्था में व्यावहारिक सत्य भी पूर्ण सत्य में, पारमार्थिक सत्य में resolved या विघटित हो जाता है। ससीम चेतना अनन्त चेतना कैसे बन सकता है ? इसका उत्तर 33 वे श्लोक में है - 
अवच्छेदः कल्पितः स्यादवच्छेद्यं तु वास्तवम् ।
तस्मिन् जीवत्वमारोपाद्ब्रह्मत्वं तु स्वभावतः ॥ ३३॥
अवच्छेदः [परिच्छिन्नत्वं] कल्पितः स्यात्, अवच्छेद्यं [यद् कल्पनेन अवच्छेत्तुं शक्यं] तु वास्तवं [पारम-अर्थिकं सत्यं ब्रह्म एव]। तस्मिन् [पारम-अर्थिके] जीवत्वं [अवच्छिन्नत्वं] आरोपात्, ब्रह्मत्वं [अ-द्वैतं] तु स्व-भावतस्॥
 that which limits is imaginary: जीव की जो सीमायें हैं, वे काल्पनिक हैं, उसने वैसा मान रखा है। जैसे रेगिस्तान में पानी का दिखना मृगमरीचिका है। प्रातिभासिक सत्य पारमार्थिक सत्य को कभी सीमित नहीं कर सकता। काल्पनिक सर्प रस्सी को जहरीला नहीं बना सकता। उसी प्रकार मिथ्या (imaginary) शरीर और मन ब्रह्म को ससीम नहीं बना सकते। तस्मिन् जीवत्वं आरोपात्- अहं-मन, देह उस ब्रह्म पर आरोपित है , सत्य नहीं है। ब्रह्म का जीव के रूप में प्रतीत होना मिथ्या है। हमारा प्रश्न था जो गृहस्थ जीव डीहिप्नोटाइज्ड होने के संघर्ष कर रहा है, इस जीव की प्रकृति क्या है ? मैं स्वयं जो शुद्ध चेतना हूँ, वह मन पर प्रतिबिंबित चेतना बन गयी है , मैं भूल गया था कि मैं शुद्ध चेतना हूँ। अपने को मैंने इसी देह-मन में सीमित कर लिया था। इस देह के साथ मैंने तादात्म्य कर लिया था। वेदान्त कहता है देह-मन दर्पण है जिसमें शुद्ध चेतना प्रतिबिंबित हो रही है। क्या सपने सच होते हैं ? जिस मित्र को सपने में देखा नया चप्पल दे रहा है, वही अगले दिन मिलने कैसे आ गया ? तो क्या तुम अपने मित्र से दो बार मिले थे ? नहीं ! यदि सपने सच होते तो मेरे पास दो जोड़े चप्पल होने चाहिए थे। अद्वैत स्वप्न के भविष्यवाणी पहलु में रूचि नहीं रखता। अद्वैत के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण वह चेतना (consciousness) है, जो स्वप्न के बारे में अवगत (aware) है। अद्वैत स्वप्न (dream) में रूचि नहीं रखता,अद्वैत स्वप्न-द्रष्टा (dreamer) में रूचि रखता है। किन्तु उस चेतना को साक्षी को किसी दृष्टिगोचर पदार्थ के जैसा दृश्य वस्तु समझने की भूल मत करो। consciousness can never be an object of your understanding, चेतना कभी आपके ज्ञान का विषय नहीं हो सकता। विज्ञाता कभी ज्ञेय नहीं हो सकता, क्योंकि जानने वाली बुद्धि स्वयं उसीसे प्रकशित है। the witness can never become a witnessed. अपनी आँख को हम स्वयं नहीं देख सकते, दर्पण में केवल उसके प्रतिबिम्ब को ही देख सकते हैं। आँख है , इसको हम महसूस करते हैं, क्योंकि मैं सबकुछ देखने का अनुभव करता हूँ। उसी प्रकार साक्षी चेतना को भी केवल अनुभव के द्वारा जाना जा सकता है। कोई भी अनुभव सिद्ध करता है कि चेतना का अस्तित्व है। ब्रह्म की परिभाषा है -अनुभवमात्रं परम् ब्रह्म    
 pure experience is brahman, शुद्ध अनुभव ही ब्रह्म है। हर अनुभव किसी ऑब्जेक्ट का ही अनुभव होता है, उस ऑब्जेक्ट को छोड़ देने पर शुद्ध अनुभव ही बच जायेगा। अद्वैत ज्ञान का उद्देश्य क्या है ?आत्यंतिक दुःख निवृत्ति परमार्थ प्राप्ति। compete transcendence of all sorrow and suffering and attainment of pure bliss.अपनी अंतर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करना ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। 

व्यक्ति-मनुष्य (Individual) के अर्थात मेरे और तुम्हारे तीन मौलिक तत्व, या तीन प्रमुख घटक (components) हैं -1. साक्षी चेतना (The Witness) 2. अनुभवजन्य या व्यावहारिक व्यक्ति (The empirical or pragmatic individual M/F) 3. सपने देखने वाला: वह व्यक्ति जिसे हम अपने सपनों में पाते हैं(The Dreamer :That individual whom we find in our dreams.) इन प्रकार के व्यक्तियों के विषय में यहाँ कहा गया है। आत्मा तो ज्ञानस्वरूप है, उसको वेदान्त शिक्षा या आध्यात्मिक शिक्षा की क्या आवश्यकता है ? अज्ञान किसको हुआ है ? आत्मा/ब्रह्म तो ज्ञानस्वरूप हैं !हाँ , मुझे आध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता है। पर आप कहते हैं -मैं ही ब्रह्म हूँ -तत्त्वमसि ! इस समय वह व्यक्ति कौन है जो आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करके भ्रममुक्त होना चाहता है ?
यहाँ प्रश्न थोड़ा रहस्मय हो जाता है। मेरे गुरुदेव श्रीमद स्वामी भूतेशानन्द जी महाराज, रामकृष्ण मठ मिशन के 12 वें अध्यक्ष के जीवन से जुडी एक घटना है-वे जिस कमरे में रहते थे वहाँ वेदान्त की कक्षा में इतनी भीड़ रहती थी कि नये -वुड बी लीडर्स को बाहर खड़े होकर स्पीकर के माध्यम से सुनना पड़ता था। उस समय महाराज की आयु 98 साल लगभग थी। किन्तु उस उम्र में भी उनकी बुद्धि बहुत प्रखर थी -एकदम चमकदार मानस (luminous mind) था उनका। remarkable combination of the head and the heart, पूर्ण विकसित हृदय और पूर्ण विकसित मन का अनूठा सामंजस्य, अदभुत प्रेम के साथ वैसा आध्यात्मिक अहं-बुद्धि-मन  उनके व्यक्तित्व को अत्यन्त आकर्षणीय बना देता था। सभी वरिष्ठ संन्यासी को भी सहजज्ञान या अन्तर्ज्ञान से यह अनुभव होता था, एक प्रकार की 'intuitive feeling' होती थी, कि अध्यक्ष/गुरु/नेता/ शिक्षक/माली के रूप में हमारे समक्ष एक प्रबुद्ध महात्मा (enlightened soul) उपस्थित हैं। प्रश्न उठा कि ऐसे प्रबुद्ध महात्मा को क्या अनुभव होता है ? If you realise that you are a brahman and everything is brahman, it is One consciousness-existence and bliss  everything is God,  यदि उनको यह अनुभूति हो गयी है कि वे ब्रह्म हैं और हर वस्तु ब्रह्म है, इस दृष्टिगोचर जगत में जो कुछ भी है वह ब्रह्म है, यह सबकुछ वही साक्षी चैतन्य -अस्तित्व-आनन्द स्वरूप है, हर वस्तु भगवान श्रीरामकृष्ण है, तथापि उस प्रबुद्ध महात्मा को हम अपने ऐसा घूमते-टहलते, बातें करते, हँसते-मुस्कुराते, खाते -पीते देखते हैं;अपने हर भक्त को अलग -अलग नाम से पहचानते भी हैं। seeing the differences, he recognises all his devotees separately, he knows what is food and what is not food , where to go where not to go, उनको यह पता है कि क्या खाद्य-वस्तु है और क्या खाद्यवस्तु नहीं है, कहाँ जाना चाहिए और कहाँ नहीं जाना चाहिए, M/F में जो भिन्नता हमें दिखाई पड़ती है, वही भिन्नता उनको भी दीखती थी, तो फिर एक ब्रह्मज्ञ महापुरुष उन भिन्नताओं को किस दृष्टि से देखते होंगे ? यह प्रश्न हमारे मन में था। उनका उत्तर था - that's what you see , बंगला में बोले -से तो तुमरा देखचो, दूसरे छात्र ने तुरंत पूछा -यही तो हमारा प्रश्न है महाराज कि enlightened person, ब्रह्मज्ञ महापुरुष क्या देखते हैं ? उनका उत्तर सुनकर अवाक् रह गया मानो वे सोचकर नहीं स्पष्ट रूप से सामने सत्य को देख रहे हों -कहते हैं - Who see ? बंगाली में उन्होंने कहा था - के देखे ? इसकी व्याख्या मेरा उत्तर होगा, तुम इसका उत्तर स्वयं सोचो। जब हम देखते हैं कि ब्रमज्ञ महापुरुष (नवनीदा) भी हमारे जैसा ही अभिनय कर रहे हैं, उनका उत्तर था -वैसा तो तुमलोग देखते हो। तब प्रश्न हुआ कि ब्रह्मज्ञ महापुरुष क्या देखते हैं ? उनका उत्तर था -कौन देखता है ? भगवत गीता के 13 चैप्टर में लम्बे प्रश्नोत्तरी के बाद यह प्रश्न आया है-यदि मैं ब्रह्म हूँ, तो ब्रह्म में तो अज्ञान नहीं होता, फिर यह अविद्या से ग्रस्त जीव कौन है ? शंकराचार्य इसके उत्तर में कहते हैं -यह प्रश्न तुम क्यों पूछ रहे हो ? इसलिए पूछता हूँ कि मैं नहीं जानता। यदि तुम नहीं जानते, तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम अविद्या से ग्रस्त हो। लेखक कहते है व्यक्ति को तीन रूप में जानो -पारमार्थिक जीव (absolute reality-निरपेक्ष सत्य) , व्यावहारिक जीव (empirical reality,relative reality, pragmatic reality)  -स्वप्नकल्पित या प्रातिभासिक जीव (appearance-रज्जु में सर्प) रूप में समझो। तीन प्रकार के अनुभव हमें होते हैं। इन्द्रियातीत अनुभव, इन्द्रियग्राह्य अनुभव, स्वप्नजगत के अनुभव। परमार्थक जीव साक्षी चैतन्य के सिवा और कुछ नहीं है। द्रष्टा दृग-दृश्य विवेकज ज्ञान में यही वास्तविक द्रष्टा है। स्वामीजी इसको 'वास्तविक मनुष्य और प्रातिभासिक मनुष्य ' कहते हैं। हमारे भीतर की वास्तविकता ही पारमार्थिक जीव है। व्यावहारिक जीव वह है जो जाग्रत अवस्था में लेन-देन का व्यवहार करता है, तब जबकि वह स्वप्न नहीं देख रहा हो। प्रतभासिक जीव वह है, जो स्वप्न देखते समय हम अपने को समझते है। जो शुद्ध चेतना मन के साथ जुड़कर अवच्छिन्नः हो गयी है, वह व्यावहारिक जीव है। वास्तव में असीम चेतना ससीम नहीं हुई है, वह केवल मन-विचार के साथ तादात्म्य कर ली है। घड़े के भीतर का आकाश और घड़े के बाहर का आकाश एक ही है, केवल घड़े के कारण सीमित प्रतीत हो रहा है -" जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है, बाहर भीतर पानी। फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना, यह तथ कथौ गियानी।" इसलिए हम ऐसा नहीं कह सकते कि असीम चेतना घड़े में आकर ससीम हो गयी है। चित (पारमार्थिक जीव) मन से तादात्म्य करके से चिदाभास (व्याहारिक जीव) प्रतीत होता है। प्रातिभासिक या व्यावहारिक जीव M/F का अस्तित्व तभी तक होता है जब तक उसका मन क्रियाशील रहता है। गहरी निद्रा में जब अहं-मन बंद हो जाता है, तब वहाँ व्यावहारिक जीव भी नहीं रहता।किन्तु पारमार्थिक जीव उस समय भी रहता है; पर उसका हमें अनुभव नहीं होता। हम उसके बारे में अवगत, aware , सचेत, सावधान , जानकार -अहं, या व्यावहारिक जीव उस समय नहीं रहता। प्रातिभासिक जीव स्वप्न देखता है। अब जीव के इसी तीन ढाँचे (framework) का उपयोग करके हम व्यक्ति के यथास्थिति 'status quo' को समझने की चेष्टा करेंगे -श्लोक 33,34 साक्षी चेतना की व्याख्या करता है। 17. 12 मिनट / मन के साथ तादात्म्य कर लेने के कारण व्यावहारिक जीव की प्रकृति साक्षी चेतना पर आरोपित हो गयी है। किन्तु इसकी वास्तविक प्रकृति स्वभावतः ब्रह्म ही है। अपने स्वरुप में वह तब भी साक्षी चेतना ही है। श्लोक 34 -19.50मिनट/
अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणैकताम् ।
तत्त्वमस्यादिवाक्यानि जगुर्नेतरजीवयोः ॥ ३४॥
“तद् त्वम् असि” [इति] आदि-वाक्यानि अवच्छिन्नस्य जीवस्य पूर्णेन ब्रह्मणाएकतां जगुः (प्रख्यातवन्ति), न इतर-जीवयोः [चित्-आभास-स्वप्न-कल्पित-जीवयोः – यस्मात् बिम्ब-प्रतिबिम्ब-एक-देशित्वं न शक्यं, यः च कल्पितः सः कल्पिनम् एव च]॥
 व्यावहारिक जीव वास्तव में ब्रह्म ही है। यह सत्य कैसे उजागर होता है ? यह ज्ञान किसी जीवन्मुक्त गुरु/शिक्षक/माली/नेता के मुख से वेदान्त के महावाक्यों -“तद् त्वम् असि” [इति] आदि-वाक्यानि को सुनने से
होता है। सभी उपनिषद एक ही शिक्षा देते है - वह तुम हो ! अब वह तुम कौन वाले तुम हो ? तीन प्रकार के जीव की व्याख्या हमने सुनी है। उन तीन जीवों में पारमार्थिक जीव ही ब्रह्म है। कब ? हर समय।  जब पाठचक्र में या कैम्प में आते हैं तब ? नहीं ब्रह्मणा एकतां हर समय साक्षी ब्रह्म ही है। 4 great statement of identity या स्वरूप पहचान के चार महावाक्य, महान कथन (statement) ब्यौरा है। तत्त्वमसि महावाक्य छान्दोग्य उपनिषद, सामवेद का है।अहं ब्रह्मस्मि -मैं ब्रह्म हूँ। कौन मैं ? वह शुद्ध चेतना जो मन के साथ तादात्म्य कर ली है। प्रज्ञानं ब्रह्म -मेरे भीतर की चेतना ब्रह्म है। ऐतरेय उपनिषद ,ऋग्वेद से ली गयी है। अयमात्मा ब्रह्म -मण्डुक्य उपनिषद अथर्ववेद से ली गयी है। 
यह जीवित व्यक्ति पूर्णेन ब्रह्म है, वह नहीं जो स्वप्न देख रहा था। यह देह नहीं ,पूर्ण रूप से वह साक्षी चेतना ही ब्रह्म है। अर्थात भक्त या अंश के रूप में नहीं साक्षी पूर्णतः ब्रह्म ही हैं ! वास्तविक सत्ता शरीर नहीं है, अल्ला, काली सब शुद्ध चेतना ही हैं, तुम ही हो। सबकुछ ब्रह्म है पर यहाँ चर्चा हो रही है, मैं कौन हूँ -जो इस क्लास में बैठा है ? या जिसका पुनर्जन्म होता है, वह कौन है ? यदि केवल ब्रह्म ही रहते यह सृष्टि नहीं होती या मैं नहीं होता तो क्या होता? उत्तर है माया ![जो मैं न था तो खुदा था, जो मैं न होता- तो ख़ुदा होता। डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!हुआ जब ग़म से यूँ बेहिस[हैरान], तो ग़म क्या सर के कटने का ? न होता गर जुदा तन से, तो ज़ानू[घुटनों] पर धरा होता। हुई मुद्दत के 'ग़ालिब' मर गया, पर याद आता है; वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता?]  
इसका श्लोक 35 में देखें -
ब्रह्मण्यवस्थिता माया विक्षेपावृतिरूपिणी ।
आवृत्यखण्डतां तस्मिन् जगज्जीवौ प्रकल्पयेत् ॥ ३५॥
विक्षेप-आवृति-रूपिणी माया ब्रह्मणि अवस्थिता [न पृथक्-स्थिता]। अ-खण्डतां आवृत्य, [अन्-आदिः माया] तस्मिन् [ब्रह्मणि] जगत्-जीवौ प्रकल्पयेत् [सृजेत् इव]॥
आखिर ब्रह्म व्यावहारिक जीव -प्रातिभासिक जीव -जगत के रूप में दृषिगोचर ही क्यों होते हैं ? क्योंकि शुद्ध चेतना (pure consciousness) में ही इसकी अपरिहार्य अंदरूनी शक्ति-ब्रह्मण्यवस्थिता माया अवस्थित है। माया की दो शक्तियाँ हैं-विक्षेप शक्ति और आवरण शक्ति। यह माया जीव के सच्चे स्वरूप को ढँक देती है, अर्थात यह तुम्हारे सच्चे स्वरूप को ढंक देती है, किसी दूसरे-तीसरे 3rd person singular number की बात नहीं कही जा रही है। हमारे सच्चे स्वरूप को माया ने ढँक दिया है, इसलिए देह-मन के दुःख, रोग से हम स्वयं को पीड़ित महसूस करते हैं। जन्म-मृत्यु के भय से भेंड़ बने रहते हैं।आवृत्यखण्डतां - यह ब्रह्म के अखण्ड एकत्व (Oneness) स्वाभाव - existence-consciousness-bliss' को ढँक देती है। एकत्व को ही नाना नाम -रूपों में प्रक्षिप्त करती है। हम सभी अपने को दूसरे से भिन्न समझने लगते हैं। वह ब्रह्म ही माया रूपी प्रिज़्म (prism या चश्मे) के माध्यम से जीव -जगत होकर भासने लगते हैं। जब एक बार हम जीव बनकर प्रकट हो जाते हैं, तब क्या होता है ? 
श्लोक 36 -
जीवो धीस्थचिदाभासो भवेद्भोक्ता हि कर्मकृत् ।
भोग्यरूपमिदं सर्वं जगत् स्याद्भूतभौतिकम् ॥ ३६॥
चित्-आभासः धी-स्थः, भोक्ता कर्म-कृत् [च] हि (यस्मात्), [प्रसिद्धः व्यावहारिकः] ‘जीवः’ भवेत्। इदं सर्वं भूत-भौतिकं भोग्य-रूपं ‘जगत्’ स्तात्॥
तुम जो मन के द्रष्टा थे, शुद्ध चेतना थे, पारमार्थिक जीव या  जब एक व्यक्ति के रूप में जन्म ले लेते हो, तब तुम्हारा वह शुद्ध-मुक्त -बुद्ध स्वाभाव माया की आवरण शक्ति द्वारा ढंक लिया जाता है। और तुम स्वयं जीव बनकर मन में प्रतिबिंबित होने लगते हो। as if the awareness in the mind has forgotten his true nature.मानो मन की जागरूकता (awareness, होश) उसकी असली प्रकृति को भूल गई हो ! और वह साक्षी -पारमार्थिक जीव अपने को व्यावहारिक जीव समझने लगता है। यह व्यावहारिक जीव कौन है ? दर्पण में दिखने वाला चेहरा है, वास्तविक चेहरा नहीं है, जीवो धीस्थचिदाभासोजीवः धीस्थः 
चित्-आभासः  --the consciousness reflected in the mind- यह वह चेतना है जो मन में प्रतिबिंबित हो रही है। हमलोग अभी जो अपने को M/F समझ रहे हैं, वह हम नहीं हैं, वह हमारे सच्चे स्वरुप का प्रतिबिम्ब है। when we get emancipation, when we get salvation,we don't  get freedom, we get freedom from ourselves! जब हमलोग मुक्त हो जाते हैं, मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं -तब हम अपने आप से मुक्त हो जाते हैं। अपने को देह-मन मानने के भ्रम से, अपने को यह ससीम व्यक्ति M/F समझने के भ्रम से मुक्त -जीवन्मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं। you burst out of it इस ससीम व्यक्तित्व से आप फूट पड़ते हैं -निर्झर का स्वप्न भंग हो जाता है,अहं-मन के हटते ही हृदय से प्रेम का झरना फूट पड़ेगा ! तुमको यह अनुभव हो जायेगा कि तुम वह वास्तविक चेहरा हो, जो दर्पण में कभी नहीं था। दर्पण यदि गंदा होगा तो उसमें पड़ने वाला शुद्ध-चेतना का प्रतिबिम्ब भी धुंधला हो जायेगा।उसी प्रकार बैल-जीव 'भवेद् भोक्ता ही कर्म कृत' मन के सुख-दुःख के साथ तादातम्य करके कहता है, मैं सुखी हूँ -मैं दुःखी हूँ। क्योंकि mind is intimately connected with bodyमन शरीर के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। शरीर बूढ़ा तो मैं बूढ़ा ? शरीर रोगी तो मैं रोगी ? शरीर मरा तो मैं मरा ? यह सब शरीर की समस्याएं हैं, पर क्योंकि मैं शरीर के साथ एक बन गया हूँ इसलिए कहता मैं मरूँगा। क्योंकि यह बैल-जीव या व्यावहारिक जीव अपने को कर्ता -भोक्ता समझ लेता है। तब कर्म के नियम में फँस जाता है। कारण है तो कार्य होगा -धर्म? -पुण्य / पुण्य -सुख / अधर्म ?-पाप ! पाप -दुःख ! वह व्यावहारिक बैल-जीव क्या अनुभव करता है ? इदं सर्वं भोग्य-रूपं ‘जगत्’ स्तात्॥ उसको लगता है यह सारा जगत उसके भोग के लिए ही बना है। यह जगत M/F  क्या ?  भूत-भौतिकं'पंच भूतों के सिवा और कुछ नहीं है। इसका अनुभव करता है ? व्यावहारिक बैल-जीव इसके खट्टे -मीठे फलों को खाता रहता है। संसार ऐसा बैंक है जो कोई कमीशन नहीं लेता, जो हम इसे देते हैं, वह उसे ठीक उसी तरह लौटा देता है। यह बैल-जीव भाव मुझ ब्रह्म में कब आया होगा ? श्लोक 37 देखें - 
अनादिकालमारभ्य मोक्षात् पूर्वमिदं द्वयम् ।
व्यवहारे स्थितं तस्मादुभयं व्यावहारिकम् ॥ ३७॥
मोक्षात् पूर्वं, इदं द्वयं [जीव-जगत्] अन्-आदि-कालं आरभ्य व्यवहारे स्थितं। तस्मात् उभयं व्यावहारिकं॥
अविद्या का प्रारम्भ कब हुआ होगा ?अन्-आदि-कालं आरभ्य' there is no start ! अनादि काल से, beginning-less! समय से। क्योंकि space and time are also projections of mind, देश और काल भी मन के प्रक्षेपण हैं। काल के पहले क्या था ? काल के बाद क्या होगा ? यह प्रश्न ही तब उठेगा जब तुम काल के भीतर चले आओगे। before the concept of time , you can not use the word before, काल (समय) की अवधारणा से पहले, आप before (पहले) शब्द का उपयोग भी नहीं कर सकते हैं। उसी प्रकार देश (space) के परे -उस पार क्या है ? अंतरिक्ष के उस पार भी अंतरिक्ष ही है। किन्तु समझने वाली मुख्य बात यह है कि इस process flow को रोका जा सकता है, जन्म-मृत्यु चक्र को समाप्त किया जा सकता है। Time must have a stop काल का भी एक अन्त होना चाहिए।जीवन सिनेमा का 'THE END' अन्त क्या है ? God realisation! Realization of yourself as pure consciousness,स्वयं को ही शाश्वत-चैतन्य existence-consciousness -bliss, सच्चिदानन्द,  
महाकाल -माँ काली ! के रूप में अनुभव कर लेना। मोक्षात् पूर्वं- भ्रममुक्त अवस्था के प्राप्त होने तक, up-to moksha up-to freedom . इदं द्वयं [जीव-जगत्] प्रतिबिंबित चेतना और विश्वब्रह्माण्ड जन्म-जन्मांतर तक जारी रहेगा। नाट्यकार गिरीश घोष की कविता की पृष्ठभूमि है -युवा राजकुमार सिद्धार्थ गौतम, अब गौतम बुद्ध बनने जा रहे हैं। बुद्ध  बैठे हुए ध्यान में हैं -और आकाश में गंधर्व लोग गीत गा रहे हैं - हम जीवन नदी में कबसे बहे चले जा रहे हैं ? कहाँ से हम आ रहे हैं, हम नहीं जानते। हम कहाँ जा रहे हैं, हम नहीं जानते। आदिकाल से हम इसी प्रकार बहे चले जा रहे हैं। इच्छाओं, पापों का कितना बड़ा भारी बोझ लादे हुए हैं। यही संसार है। यह तब तक चलेगा जब तक हम भी बुद्ध के जैसा 'enlightenment' ज्ञानालोक, प्रबोधन नहीं प्राप्त कर लेते ! जीव और जगत ये दोनों व्यावहारिक, सापेक्षिक सत्य है - व्यवहारे स्थितं ये सब अनुभव की वस्तुएं हैं, empirical-प्रयोगसिद्ध, या अनुभवजन्य हैं। इसीका वेदान्तिक नाम है -मिथ्या ! जगत-मिथ्या ! व्यावहारिक जगत मिथ्या है ? जो जगत मिथ्या होकर भी अनादि काल से प्रवाहित हो रहा है। कैसे प्रमाणित करेंगे कि जो कुछ दिख रहा है सब माया ने प्रक्षेपित किया है, अज्ञान के कारण वैसा दिख रहा है ? अज्ञान को प्रमाणित करने की चेष्टा मत करो बच्चे ! इसको जीतने की चेष्टा करो। प्रमाणित करने के लिए प्रमाण होना चाहिए। ज्ञान का प्रत्येक श्रोत अज्ञान के विपरीत है। जैसे कोई पूछे " किस लाईट से मैं डार्कनेस को देख सकता हूँ ?" दीपक जलाते ही अँधेरा भाग जायेगा। 
42.57 /अभी तक हमने पारमार्थिक जीव और व्यावहारिक जीव के बारे में सुना। अब हर दिन स्वप्न में जो नया नया जीव रहता है , वह कौन है ?  38 वां श्लोक-
चिदाभासस्थिता निद्रा विक्षेपावृतिरूपिणी ।
आवृत्य जीवजगती पूर्वे नूत्ने तु कल्पयेत् ॥ ३८॥
[यथा माया ब्रह्मणि] निद्रा चित्-आभास-स्थिता विक्षेप-आवृति-रूपिनी। पूर्वे व्यावहारिके जीव-जगती आवृत्य, [निद्रा] नूत्ने तु [प्रति-नवे स्वप्ने जीव-जगती] कल्पयेत्॥
प्रतिबिंबित चेतना जाग्रत अवस्था में हमेशा अहं-मन में रहती है,मन का क्रियाशील अवस्था में रहना ही जाग्रत अवस्था है। जब हम स्वप्न देख रहे होते हैं, उस समय भी हमारा मन क्रियाशील रहता है। स्वप्न आ रहे हैं, अर्थात मन क्रियाशील है। मन कब क्रियाशील नहीं रहता ? जब तक दर्पण सामने रहेगा, उसमें प्रतिबिम्ब अवश्य बनेगा। जब दर्पण को उलट देंगे प्रतिबम्ब नहीं बनेगा। उसीप्रकार गहरी नींद में मन की क्रियाएँ बंद हो जाती हैं। जब मन क्रियाशील है उसमें पड़ने वाली reflected consciousness को, या परिलक्षित चेतना को व्यावहारिक जीव कहते हैं। जिस समय मन स्वप्नावस्था में रहता है, उस समय वही परिलक्षित चेतना dream individual, स्वप्नद्रष्टा व्यक्ति कहलायेगा। उस समय मन स्वप्न-लोक dream world को प्रक्षेपित करेगा। स्वप्न जगत किन पदार्थों का बना होता है ? वह भूत -भौतिकम पंचभूतों का बना नहीं होता है। जाग्रत अवस्था में चित्त पर जो संस्कार के छाप जमा होते रहते हैं, मन स्वप्नावस्था में उन स्मृतियों का उपयोग करके virtual world, आभासिक जगत का निर्माण करता है। किसी महल की आकृति को देखने के बाद भी स्मृति में लाना कठिन होता है, किन्तु स्वप्नावस्था में मन उस महल को एकदम स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करता है। घर-नदी-पहाड़ -घटना -लोग सबकुछ वास्तविक दिखाई देता है। स्वप्न को देखने वाला प्रातिभासिक जीव रोज नया नया -नूत्ने तु' होता है। ड्रीम में जो रसगुल्ला फ़्रीज में रख दिया था, अगले दिन उसको जाग्रत अवस्था में खाने का कोई सम्भावना नहीं है। व्यावहारिक जगत में दिन-प्रतिदिन निरन्तरता बनी रहती है, किन्तु स्वप्न लोक हर रात्रि में नया -नया बनता है, जिसे रोज कोई नया नया प्रतिभासिक व्यक्ति देखता है। श्लोक 39 -
प्रतीतिकाल एवैते स्थितत्वात् प्रातिभासिके ।
न हि स्वप्नप्रबुद्धस्य पुनः स्वप्ने स्थितिस्तयोः ॥ ३९॥
प्रतीति-काले (दृष्ट-काले) एव स्थितत्वात्, एते [नूत्ने जीव-जगती] प्रातिभासिके, स्वप्न-प्रबुद्धस्य हि (यस्मात्) [च] 
पुनर्-स्वप्ने (अपर-स्वप्ने) तयोः [पूर्व-जीव-जगतोः] न स्थितिः (अनुवृत्तिः), [तस्मात् एते न सा-तत्य-व्यावहारिके]॥
स्वप्न में प्रतिदिन आप जिस दृश्य को देखते हैं , और जो स्वप्न देखने वाला व्यक्ति होता है, तुम स्वप्न में जो बने होते हो, वह नहीं जो तकिये पर सर रखकर सो रहा होता है। बल्कि वह स्वप्नद्रष्टा जिसका निर्माण मन करता है,उसका अस्तित्व तभी तक होता है जबतक तुम स्वप्न देख रहे होते हो. व्यावहारिक जगत में क्लास समाप्त होने के बाद अपने अपने रूम में रहेंगे, अस्तित्व समाप्त नहीं होगा। पर स्वप्न में जिस व्यक्ति से बात हो रही थी, वह तभी तक रहेगा जब तक तुम स्वप्न देख रहे होंगे। अगले स्वप्न में फिर उसी व्यक्ति के साथ अपनी वार्ता को आगे जारी नहीं रख सकोगे।  प्रतीतिकाल एवैते -केवल स्वप्न देखने के समय में ही वह व्यक्ति रहेगा। इसलिए उसको प्रातिभासिक जीव कहा जाता है। स्वप्नप्रबुद्धस्य ' जब कोई स्वप्न से जाग उठता है चाहे भयानक स्वप्न हो या लॉटरी टिकट जीतने का स्वप्न हो -पुनर्-स्वप्ने (अपर-स्वप्ने) तयोः [पूर्व-जीव-जगतोः] न स्थितिः, अगले रात जो स्वप्न आएगा उसमें पिछले स्वप्न देखा गया व्यक्ति या दृश्य नहीं होगा। 
श्लोक 40-  
प्रातिभासिकजीवो यस्तज्जगत् प्रातिभासिकम् ।
वास्तवं मन्यतेऽन्यस्तु मिथ्येति व्यावहारिकः ॥ ४०॥
यः प्रातिभासिक-जीवः तद् प्रातभासिकं जगत् वास्तवं [सत्यं] मन्यते, अन्यः तु व्यावहारिकः [जीवः उभे प्रातिभासिके] मिथ्या [अ-सत्यतया] इति [मन्यते]॥
स्वप्न में हमलोग अपने आप को -प्रातिभासिक  जीव को और जगत को वास्तविक सत्य समझ लेते हैं। स्वप्न से जग जाने पर हम अपने को व्यावहारिक जीव समझते हैं। और जब रात में देखे हुए स्वप्न के बारे में सोचते हैं-तो कहते हैं मिथ्या था ![सन्त तुलसी दास कहते हैं - जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥  श्रीरामचरितमानस /बालकाण्ड/ शिव-पार्वती संवाद।]
 श्लोक 41 
व्यावहारिकजीवो यस्तज्जगद्व्यावहारिकम् ।
सत्यं प्रत्येति मिथ्येति मन्यते पारमार्थिकः ॥ ४१॥
यः व्यावनारिक-जीवः तद् व्यावहारिकं जगत् सत्यं प्रत्येति [मन्यते]। पारमार्थिकः [जीवः एभे व्यावहारिके] मिथ्या इति मन्यते॥
हमारा यह दृष्टिगोचर जगत, वह जगत जिसमें हमलोग अभी रह रहे हैं, इसको वास्तविक जगत समझते हैं। कैसे मैं यहाँ कुर्सी पर बैठा हूँ यह वास्तविक है, टेबल वास्तविक है। व्यावहारिक जीव- मन में प्रतिबिंबित चेतना -empirical individual, अपने देह-मन को पारमार्थिक जीव या वास्तविक जीव समझ लेता है। और जगत को भी वास्तविक समझकर एक-दूसरे के साथ मनमुताबिक व्यवहार करता है। इस्लाम में 4 शादी की अनुमति है। when that individual gets enlightenment, जब उस व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तब वह अपने यथार्थ साक्षी शुद्ध चेतन स्वरुप के प्रति जाग उठता है।  वह जब फिर इस जगत के मोहनी रूप को देखता है, तब समझ लेता है कि यह -मिथ्या (appearance) है। यही स्वप्न-लोक और पृथ्वीलोक का यही अंतर् है जब तुम स्वप्न से जागते हो, तो स्वप्नलोक गायब हो जाता है, किन्तु सापेक्षिक जगत ही उसे वास्तविक सत्य के रूप में दीखता है।   किन्तु निर्विकल्प समाधि से लौट आने के बाद, या आत्मसाक्षात्कार हो जाने के बाद फिर से शरीर-मन में लौट आते हो, तब वह ब्रह्मज्ञ व्यक्ति जब जगत को देखता है, तब देह-मन जगत सब उसी प्रकार से दिखाई पड़ता है।  जैसा पहले था, यार-दोस्त सब दिखाई देते हैं। किन्तु वह व्यक्ति नाम-रूप को मिथ्या मानता है केवल ब्रह्म को ही सत्य समझता है। वह स्पष्ट रूप से देखता है कि एकमात्र ब्रह्म ही नाना नाम-रूप में लीला कर रहे हैं। दृष्टि बदल जाती है, पहले जगत दृष्टि थी -अब ब्रह्मदृष्टि प्राप्त हो जाती है। और जगत ब्रह्ममय दीखता है, अपने -पराये का भेद समाप्त हो जाता है। तुम जानो या न जानो, तुम मानो या न मानो तुम ही राम हो ! और जगत राममय है !  इसलिए माँ सारदा कहती थीं - " यदि शान्ति चाहती हो, बेटी, तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है !" (श्रीमाँ सारदा देवी /पेज-६२१/) ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय 


दृग-दृश्य विवेक का 42 वां श्लोक - -
पारमार्थिकजीवस्तु ब्रह्मैक्यं पारमार्थिकम् ।
प्रत्येति वीक्षते नान्यद्वीक्षते त्वनृतात्मना ॥ ४२॥
पारमार्थिक-जीवः तु [जीव-]ब्रह्म-ऐक्यं पारमार्थिकं प्रत्येति। [सः ज्ञानी] अन्यद् [भेद-वस्तु] न [सत्यतया] वीक्षते (मन्यते), अन्-ऋत-आत्मना [अ-सत्यतया] तु वीक्षते॥साक्षी आत्मा जब अपने ब्रह्म स्वरूप को जान जाती है, (अहं-बुद्धि -मन जड़ है उसको आत्मज्ञान नहीं हो सकता) वह केवल ब्रह्म को ही सत्य समझती है, और जगत को मिथ्या समझती है -इस कथन का तात्पर्य क्या है ? यह समझ लेने के बाद कि मैं साक्षी चेतना सच्चिदानन्द (existence-consciousness -bliss) स्वरुप हूँ ; तो इस समय इस देह-मन के नाम-रूप से (M/F) दिखाई देने वाला जो व्यक्ति है -वह व्यक्ति कौन है ? वह व्यक्ति कौन है,जो अज्ञान में फंसा है, और मुक्त होने के लिए (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के लिए) अभी महामण्डल द्वारा आयोजित पाठचक्र और ['स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा'] में आयोजित
महामण्डल का वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर में आया हुआ है?  यदि मैं ब्रह्म हूँ, तो ब्रह्म को वेदान्त प्रशिक्षण लेने की आवश्यकता क्या है? ब्रह्म को तो अज्ञान हो नहीं सकता वह तो स्वयं ज्ञान स्वरूप है ? ब्रह्म को चरित्रवान मनुष्य बनने या मोक्ष प्राप्त करने की चेष्टा क्यों करनी चाहिये ? अतः प्रश्न उठना बहुत स्वाभाविक है कि इस मेरे वक्तिगत देह-मन और अलग-अलग शरीरों में अवस्थित व्यक्तिगत आत्मा  (Individual Self) का स्वभाव क्या है ? अथवा 'व्यक्तिगत स्व' की प्रकृति क्या है- What is the nature of the Individual Self? यह प्रश्न उठना अनिवार्य (inevitable) है।इसके उत्तर में लेखक कहते हैं -तुम यह विचार करो कि एक (मनुष्य) व्यक्ति के रूप में तुम स्वयं को क्या अनुभव करते हो ? (वे कहते हैं) हमलोग अपने होने के विषय में तीन तरीके से विचार करते हैं। हमलोगों को अपने विषय में तीन तरह के व्यक्ति होने का अनुभव होता है। एक तरीका है -अपने सपने में हम जिस तरह से स्वयं का अनुभव करते हैं, one is the way we experience ourselves in our dream. जब हम सोने जाते उस समय हम स्वप्न देखते हैं, और स्वप्न देखते समय हम अपने स्वप्न के विषय में स्वयं सचेत (aware,जागरूक) रहते हैं। स्वप्न देखते समय भी मन की तरंगों को जान रहे होते हैं we are aware in our own dreams! हम एक स्वप्न-लोक (dream-world) का निर्माण करते हैं, और जब हम स्वप्न देख रहे होते हैं, उस समय हमें यह होश नहीं रहता कि हम स्वप्न देख रहे हैं, हमें हर सपना सच्चा लगता है ! हम भी उस सपने में उपस्थित रहते हैं, और स्वयं उस सपने का एक हिस्सा होते हैं। हमें अपने विषय में एक स्वप्न-द्रष्टा व्यक्ति (dreamer individual )होने का एक अनुभव होता है।फिर जब हम स्वप्न से जाग उठते हैं, तब हम अपने को इस जाग्रत जगत (waking world) को देखने वाला व्यक्ति, जागृत अवस्था में रहने वाला व्यक्ति (individual in the waking world) होने का अनुभव करते हैं। इस दो प्रकार का व्यक्ति (स्वप्नद्रष्टा और जागृत व्यक्ति)  होने का अनुभव हम सभी को होता है, भले हम महामण्डल के पाठचक्र में या कैम्प में नहीं आएं तब भी होता है। किन्तु अब तक इस पुरे ग्रंथ में यही कहा गया कि वास्तव में हमलोग स्वयं साक्षी चेतना (witness consciousness) या साक्षी हैं। हम वह परिवर्तनीय M/F देह-मन धारी व्यक्ति मात्र नहीं हैं, जिसके होने का हम अनुभव करते हैं -We are not this person we experience to be| यह जो अपने विषय में श्रीमान फलाना व्यक्ति, या श्रीमती फलानि व्यक्ति (individual) होने का अनुभव होता है,वह व्यक्ति भी हमारे लिए एक दृश्य वस्तु है,अभिज्ञता की वस्तु है।  this person Mr. so and so and Mrs So and so, this person is also an object of our awareness. हम उस व्यक्ति के विषय में भी अवगत रहते हैं, जो इस कैम्प में आया है, उसकी life history क्या है -उसकी आशाओं -आकांक्षाओं से, कुंठाओं से हम परिचित रहते है, इन सब बातों से हम अवगत रहते हैं। इस व्यक्ति को भी कोई देख रहा है, इस व्यक्ति को भी जो देख रहा है, वह कौन है ? वह चेतना जो इस शरीर और मन से भी परे है, जो इस देह-मन का साक्षी है -उस चेतना को इस ग्रन्थ में साक्षी चेतना या साक्षी की उपमा दी गयी है। हम अनुभव में आने वाले उस तीसरे प्रकार के साक्षी व्यक्ति (witness individual ) को जानने की चेष्टा कर रहे हैं। तीन प्रकार के व्यक्ति -स्वप्नद्रष्टा-व्यक्तिजागृत-व्यक्ति और वेदान्त की सहायता से स्वयं को उस साक्षि-व्यक्ति के रूप में अनुभव करना चाहते हैं। स्वप्नद्रष्टा व्यक्ति को प्रातिभासिक जीव कहते हैं, जागृत व्यक्ति को व्यावहारिक जीव कहते हैं, और इस ग्रंथ में जिसको शुद्ध चेतना या साक्षी कहा गया है उसको पारमार्थिक जीव (The absolute self,पूर्ण आत्मा) की उपमा दी गयी है। इस श्लोक में पूर्ण आत्मा का वर्णन किया जा रहा है। इसमें कहते हैं पूर्ण आत्मा ब्रह्म के साथ अभिन्न है। हम अपने को पूर्ण आत्मा के रूप में तभी अनुभव कर सकते हैं ,जब हम यह ब्रह्म के साथ अपने अद्वैत का अनुभव करते हैं। शुद्ध चेतना जो अहं-मन का द्रष्टा है, वह साक्षी ब्रह्म के साथ अभिन्न है। वेदान्त के चार महावाक्यों -तत्त्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि, अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करने से हमें पूर्ण आत्मा के साथ ब्रह्म के अद्वैत का अनुभव हो जाता है। इन सभी महावाक्यों में एक ही बात कही गयी है कि -तुम ब्रह्म हो ! यहाँ जिस 'तुम' के ब्रह्म होने की बात कही जा रही है वह 'स्वप्नद्रष्टा तुम' नहीं है; और 'जागृत तुम' वह 'साक्षी तुम' को ही ब्रह्म के साथ अभिन्न होने की बात कही जा रही है। प्रतभासिक जीव ब्रह्म के साथ अभिन्न नहीं है, व्यावहारिक जीव भी ब्रह्म के साथ एक नहीं है। व्यावहारिक जीव अपने को यह शरीर-मन समझता है। पारमार्थिक जीव, साक्षी ही ब्रह्म के साथ अभिन्न है। इसलिए जब श्रुति (उपनिषद) जीवन्मुक्त शिक्षक कहते हैं - 'तत त्वम असि ' तुम वह (श्रीरामकृष्ण) हो ! तो उनके कहने का तात्पर्य होता है -वह ब्रह्म -सच्चिदानन्द (existence consciousness bliss) पारमार्थिक जीव 'साक्षी तुम' हो। क्या यह पारमार्थिक जीव जगत को नहीं देखता ? यदि देखता है तो किस रूप में देखता है ? यह श्लोक कहता है कि जब कोई व्यक्ति अपने सच्चिदानन्द स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है, तब उसको ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं दीखता। निर्विकल्प समाधि के समय उसको बाह्य जगत का अनुभव नहीं होता होगा -यह बात समझ में आती है। किन्तु समाधि से व्युत्थान के बाद क्या उस ब्रह्मज्ञ व्यक्ति को क्या दीखता है ? श्रीरामकृष्ण के जीवन में देखते हैं, जब उनको समाधि होती थी, तब वे बाह्य जगत से बिल्कुल कट जाते थे। उनको अपने शरीर का भी अनुभव नहीं होता था। एक डॉक्टर ने उनकी समाधि का परीक्षण किया था। वे एक पिक्चर की तरह निस्तब्ध थे। डॉक्टर ने अपनी ऊँगली से उनकी आँखों की पुतली को छू कर देखा था कि उसमें कोई हलचल होती है नहीं ? नाड़ी परीक्षण किया -नब्ज नहीं चल रही थी। इतनी गहरी उनकी समाधि थी। मानो गहरी समाधि में बाह्यजगत का वे कोई अनुभव नहीं कर रहे थे।किन्तु इसका गहरा अर्थ है। केवल समाधि नहीं , यहाँ अर्थ है जब कोई व्यक्ति ब्रह्म की अनुभूति प्राप्त कर लेता है, तो वह प्रत्येक वस्तु को ब्रह्म ही अनुभव करता है। इसलिए वह किसी को अपने से भिन्न नहीं देखता। जब समाधि नहीं है, ऑंखें खुली हैं -दूसरों से बातचीत कर रहा है, घूमफिर रहा है, खा-पी रहा है, छू रहा है -सूंघ रहा है, किन्तु किसी भी चीज को वह ब्रह्म से, आपने स्वयं की आत्मा से  भिन्न नहीं देखता है। उसको भी विभिन्न नानरूप दीखते हैं, किन्तु उन्हें वह अपनी आत्मा से अभिन्न जानता है। यदि कोई अन्य रूप दीखता भी है तो उसको वह ब्रह्म से भिन्न वस्तु के रूप में नहीं देखता -अन्यद् न वीक्षते,उन्हें वह वस्तु रज्जु में सर्प की प्रतीति जैसा दीखता है। रेगिस्तान में मृगमरीचिका जैसा देखता है। वह जानता है कि पानी नहीं है, भ्रम हो रहा है। वास्तव में दूसरा कोई नहीं है। तीन प्रकार के जीव को हमने समझा है -प्रातिभासिक जीव, व्यावहारिक जीव और परमार्थिक-जीव। इसकी तुलना अगले श्लोक में -पानी,लहर और बुलबुला झाग से किया गया है। शांत जल जब ऊँची लहर बन जाती है, तब उस लहर के शीर्ष पर छोटा छोटा फेन दिखाई देता है। झाग उस प्रातिभासिक जीव की तरह है जिसका अनुभव हमें स्वप्न में होता है। सपने में जो 'मैं' दीखता है, उस समय हम नहीं पहचान पाते कि यह एक सपना है, हम सोचते हैं कि यही वास्तविक 'मैं' है। ['I' in my own dream, not recognizing that it is a dream , thinking it that it is real] जिस 'मैं' का अस्तित्व उतने ही समय तक रहता है जितनी देर तक स्वप्न चलता है। ठीक उस फेन की तरह जिसके नीचे तरंग रहती है। तरंग अर्थात हम सभी लोग नाना नाम-रूप, जब यह तरंग नीचे बैठ जाएगी (subside) तब क्या रहेगा ? - वही शांत पानी (the calm water)! तरंग बनने के पहले क्या था ? शांत जल। 'तरंग' का  नाम-रूप चले जाने के बाद क्या बचेगा ? शांत जल ! शांत जल की तुलना पारमार्थिक जीव से की गयी है। इस तरह से समझें-जब यह तरंग रूप था , उस समय वह जल था या नहीं ? जल ही था ! जब लहर के ऊपर फेन या झाग रूप में था, उस समय भी वह जल था या नहीं ? हाँ, जल ही था ! जब झाग लहर में लुप्त (disappear) हो गया, मिट गया समाहित हो गया,उस समय भी वह जल ही था। जब तरंग मिट गया या शांत समुद्र में लौट गया तब वह जल ही है। शांत-जल, तरंग, बुदबुदा; calm water-wave-foamये सभी एक ही जल की तीन अवस्थाएं हैं। ठीक उसी प्रकार जब हम अपने को स्वप्नद्रष्टा या प्रातिभासिक जीव समझते है, या जाग्रत अवस्था में व्यावहारिक जीव समझते है, वर हर समय पारमार्थिक जीव (existence-consciousness-bliss) ही रहता है। इस श्लोक में कुछ उदाहरण से समझाया है - जैसे जल के कुछ गुण होते है। यह शांत जल तरल पदार्थ (fluid) है, शीतल है, स्वाद मीठा होता है। तरलता,शीतलता माधुर्य यह जल का धर्म है, उसमे स्वतः रहता है। जल जब तरंग बन जाता है, तब भी उसमें मीठापन रहता है, (हाँ वह क्षीरसागर का जल होगा, साधारण समुद्र जल तो खारा लगेगा😊] शीतलता रहती है, और वह तरल ही रहता है। जब वह लहर की शीर्ष पर स्थित बुदबुदा बन जाता है तब भी उसमें जल के सारे गुणधर्म रहते हैं। ठीक इसी प्रकार ब्रह्म का 'existence-consciousness-bliss' रूपी गुणधर्म हमारे वर्तमान जाग्रत अवस्था में और स्वप्नावस्था में अभिव्यक्त होता है। चेतनता जैसे पानी में तरलता होती है, चेतनता ब्रह्म से भिन्न नहीं है। यह ब्रह्म ही जो नाम-रूप के द्वारा ढँक दी गयी है। जिस अस्तित्व का अनुभव हमें अपने भीतर होता है, और बाह्य जगत में जिस अस्तित्व का अनुभव होता है-वह ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है। इस जगत में किसी ख़ुशी या आनन्द का हमें अनुभव होता है, चाहे वह सांसारिक ख़ुशी (कामिनी-कांचन से प्राप्त होने वाली) हो, spiritual ecstasy आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूतियाँ हों वे सभी ब्रह्म के परमानन्द की प्रतिच्छाया हैं। स्वप्न में जो अपना अस्तित्व दीखता है,स्वप्न में जो सचेतनता अनुभव होती है, स्वप्न में जो आनन्द मिलता है वह सब ब्रह्म है हैं। जाग्रत अवस्था में भी ब्रह्म ही देह-मन के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। यही बातें श्लोक 43 और 44 में बतलायी गयी हैं। 
माधुर्यद्रवशैत्यानि नीरधर्मास्तरङ्गके ।
अनुगम्याथ तन्निष्ठे फेनेऽप्यनुगता यथा ॥ ४३॥
साक्षिस्थाः सच्चिदानन्दाः सम्बन्धाद्व्यावहारिके ।
तद्द्वारेणानुगच्छन्ति तथैव प्रातिभासिके ॥ ४४॥
यथा माधुर्य-द्रव-शैत्यानि नीर-धर्माः (जल-धर्माः) तरम्-गके (तरम्-गे) अनुगम्य (अन्तर् स्थित्वा), अथ (इत्था च) तद्-निष्ठे [जल-निष्ठे] फेने अपि अनुगताः, तथा एव सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] साक्षि-स्थाः सम्बन्धात् [स्व-अधिष्ठानेन नाम-रूप-दृश्यस्य मिथ्या-विवर्त-सम्बन्धात् नाम-धेयतया], [न सत्य-परिणाम-सम्बन्धात्] व्यावहारिके अनुगच्छन्ति, तद्-द्वारेण [व्यावहारिक-सम्बन्धेन च] प्रातिभासिके (अनुगच्छन्ति)॥माधुर्य,तरलता, शीतलता ये सब जल के गुणधर्म हैं। तरंग में और फेन में भी जल के यही गुणधर्म स्पष्टता से परिलक्षित होते हैं। ये गुण तरंग जल से उधार लेता है, और बुदबुदा इन गुणों को तरंग से उधार लेता है। ठीक उसी प्रकार हमलोग जाग्रत अवस्था में व्यावहारिक जगत में रहते समय अपना अस्तित्व-चेतना और आनन्द ब्रह्म से उधार लेते हैं। स्वप्नावस्था में सीधा ब्रह्म से अस्तित्व-चेतना-आनन्द को उधार नहीं लेते है, बल्कि इस व्यावहारिक जगत से अस्तित्व-चेतना-आनन्द को उधार लेते हैं। जाग जाने के बाद क्या होता है ? परिभासिक-जीव या स्वप्न द्रष्टा व्यक्ति -व्यवहारीक जीव में समाहित हो जाता है। स्वप्नद्रष्टा का अहं-मन मेरा अहं-मन था यह मैं था जो स्वप्न देख रहा था। ठीक उसी प्रकार जब हमें आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा, तब हम जान जायेंगे कि हम ही वह अस्तित्व-चेतना -आनन्द, सच्चिदानन्द हैं जो इस व्यवहारिकजीव और प्रातिभासिक जीव में अभिव्यक्त हो रहा था !  जब हम अपने साक्षी स्वरूप में जाग्रत हो जाते है, परमार्थक जीव के प्रति जागृत हो जाते हैं, तब समझ पाते हैं कि परमार्थिकजीव ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यह व्यक्ति जिसने आत्मसाक्षाकार किया वह व्यक्ति मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा। उसे अपने व्यक्ति होने (M/F) होने के भ्रम से छुटकारा मिल जायेगा। यह न समझना कि - " मैं 'बिकसिंह'- मोक्ष प्राप्त कर अब भ्रममुक्त व्यक्ति बन गया हूँ !"  ऐसा नहीं हुआ है। वास्तव में अब मैं अपने को 'बिकसिंह' (M/F) समझने के भ्रम से मुक्त होकर शुद्ध चेतना, साक्षी, (existence -consciousness-bliss) हो गया हूँ, जिसे वह तथाकथित व्यवहारिकजीव 'बिकसिंह' उधार में लिया था। 
दृग -दृश्य विवेक का श्लोक 45 देखें -
 लये फेनस्य तद्धर्मा द्रवाद्याः स्युस्तरङ्गके ।
तस्यापि विलये नीरे तिष्ठन्त्येते यथा पुरा ॥ ४५॥
यथा पुरा (पूर्वं) [विपर्यासेन], फेनस्य लये [प्रकृत्या ज्ञानेन वा सति], द्रव-आद्याः तद्-धर्माः [फेन-अधिष्ठान-धर्माः] तरम्-गके स्युः (तिष्ठेयुः)। तस्य [तरम्-गस्य] अपि विलये, एते [अधिष्ठान-धर्माः] नीरे (जले) तिष्ठन्ति॥जिस प्रकार बुदबुदा तरंग में लीन हो जाता है, तब फेन के गुण माधुर्य, तरलता, शीतलता, जिसे उसने तरंग से उधार लिया था, तरंग में बनी रहती है। या तरंग जब शांत जल में समाहित हो जाता है तो जो तरलता,शीतलता माधुर्य उस तरंग ने उधार लिया था, शांत जल में बनी रहती हे। ठीक उसी प्रकार जब हम स्वप्न से उठकर जाग्रत अवस्था में आते हैं, और इस जाग्रत अवस्था से उठकर, प्रबुद्ध अवस्था या साक्षी अवस्था में आते हैं -तब हमारा क्या होता है ? यह अगले श्लोक 46 में कहा गया है।
प्रातिभासिकजीवस्य लये स्युर्व्यावहारिके ।
तल्लये सच्चिदानन्दाः पर्यवस्यन्ति साक्षिणि ॥ ४६॥[तथा] 
प्रातिभासिक-जीवस्य [तद्-जगतः च] लये [प्रबोधनेन सति], सत्-चित्-आनन्दाः [लक्षणानि] व्यावहारिके स्युः (तिष्ठेयुः)। तद्-लये [व्यावहारिक-लये ज्ञानेन सति], [सत्-चित्-आनन्दाः लक्षणानि] साक्षिणि पर्यवस्यन्ति (निष्ठां प्राप्नुवन्ति) [एषा ब्राह्मी स्थितिः] (BhG.2.72); [तदा द्रष्टुः स्व-रूपे अवस्थानम् (YS.1.3)]॥जैसे ही प्रतिभासिकजीव व्यवहारिकजीव में लीन हो जाता है, जब हम स्वप्नावस्था से जागकर उठखड़े होते हैं और यह महसूस करते हैं -अरे, मैं स्वप्न देख रहा था ? ठीक उसी प्रकार जब व्यवहारिक जीव को आत्मसाक्षात्कार हो जाता है ,यह छोटा सा देहात्मबोध जिसे मैं अपने को M/F मान रहा था, वह वापस अपने साक्षी स्वरुप में लीन हो जाता है। या यह अनुभव हो जाता है कि 'बिकसिंह' ब्रह्म से भिन्न कुछ भी नहीं है। पर ऐसा मत सोचना कि तुम्हारा आकार नाम-रूप गल कर कोई और रूप धारण कर लेगा। शरीर गायब हो जायेगा। ऐसा कुछ नहीं होगा। मानसिक रूप से तुम अनुभव करोगे कि सदा से सच्चिदानन्द था, हूँ और रहूँगा। यह ससीम देह-मन तब तक कार्य करता रहेगा , जब तक इसका प्रारब्ध समाप्त नहीं हो जाता।और जगत की हर वस्तु सच्चिदानन्द के रूप में अपने से अभिन्न अनुभव होगी। अविद्या या अज्ञान जब तक व्यावहारिक जीव में बना रहता है,तब तक हम अपने को अनन्त साक्षी चैतन्य के रूप में अनुभव नहीं कर सकते। हमलोग हमेशा अपने को यह व्यक्ति M/F ही समझते रहेंगे , जो बचपन से सत्यार्थी था अपरिवर्तनीय सत्य की खोज में लगा हुआ था, यही समझते रहेंगे। किन्तु अपने को कभी ब्रह्म या परमसत्य के साथ अपने अद्वैत का अनुभव नहीं कर सकेंगे। जब तक हम अपने को एक व्यक्ति M/F समझते रहेंगे हमारे मन में इच्छा रहेगी ! अपने को अपूर्ण -ससीम अनुभव करते रहेंगे। सुखद वस्तु को पाने की इच्छा और अप्रिय वस्तु को दूर करने की प्रवृत्ति मन में बनी रहेगी। उस व्यक्ति को जो सुखद (pleasant)अनुभव होगा और जो अप्रिय (unpleasant) अनुभव होगा, उसको पाने -छोड़ने के प्रयास में लगा रहेगा। और कार्य-कारण के बंधन में फंस जायेगा , जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसा रहेगा। कर्तापन के अभिमान से किये गए कर्मों का फल धर्म-पुण्य-सुख, अधर्म -पाप -दुःख फल तो भोगना ही पड़ेगा। एक बार भी जब हम अपने सच्चिदानन्द स्वरुप का अनुभव कर लेते हैं, तब हम पहले वाले व्यवहारिक जीव नहीं बने रहते हैं।और अविद्या सदा के लिए समाप्त हो जाती है। इसलिए दुनिया से कुछ पाने की इच्छा भी नहीं रहती। अतः इच्छा पूर्ण करने की प्रेरणा से कोई काम भी नहीं करना पड़ता है। उस अनासक्ति पूर्वक किये कर्म का कोई फल नहीं होता। और कारण-कार्य नियम से मुक्त हो जाने पर बार-बार जन्म-मृत्यु का बंधन समाप्त हो जाता है। संस्कृत में है -अविद्या -काम (इच्छा)-कर्म; फलस्वरूप जन्म-मृत्यु चक्र। एक स्थूल शरीर चले जाने के बाद सूक्ष्म शरीर बार बार जन्मता-मरता रहेगा। अद्वैत वेदांत में वास्तविकता के तीन स्तर कहे जाते हैं - पारमार्थिक सत्य, व्यावहारिक सत्य, पारभासिक सत्य। कर्म का सम्बन्ध व्यावहारिक दुनिया, लेन-देन की दुनिया से रहता है। Karma pertains to- केवल व्यावहारिक अवस्था में रहने वाले बैल-जीव से रहता हैं।  यदि गहराई से सोचें की ' कर्म के नियम क्या हैं ?' What is Law of Karma ? तो सरल भाषा में कहेंगे-यह केवल कार्य-कारण सम्बन्ध हैं ! It is simply causality! सच पूछा जाय तो यह कार्य-कारण सम्बन्ध (causality-निमित्त) ही हमारे सभी युक्ति-तर्कों का आधार है। in fact it is the very basis of all our reasoning,सभी प्रकार के वैज्ञानिक तर्कों या किसी भी प्रकार के विवेक-प्रयोग का आधार यह कार्य-कारण सम्बन्ध ही है। हमारे दैनंदिन जीवन में यह कारणता (causality) सुख-दुःख का जिम्मेवार है।जब कोई पूछता है -मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ ? इसका मतलब है कि वह कारण को जानना चाहता है। कारणकार्य-सम्बन्ध (causality) के आलावा कर्म का नियम और कुछ नहीं है। हर कार्य का एक कारण होता है, हर कारण के पीछे कार्य होता है। अतः मनुष्य को विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करना उचित है, इसको कोई बहुत बड़ी माँग नहीं समझना चाहिए। शंकराचार्य का अद्वैत वाद, उन्होंने उन्होंने स्वयं कर्म के नियम को काट दिया है -और कहा है ब्रह्म ही एकमात्र वास्तविकता है। कर्म का बंधन अज्ञान अवस्था में मनुष्य को बांध सकता है। इस अंतिम श्लोक में लेखक कहते हैं जिस प्रकार जाग्रत अवस्था में आते ही प्रातिभासिक जीव, व्यावहारिक जीव में समाहित हो जाता है, उसी प्रकार व्यावहारिक जीव ज्ञान होने पर पारमार्थिक जीव या साक्षी, जो ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं है - में समाहित हो जाता है। दूसरे शब्दों में हम यह अनुभव करते हैं कि वास्तव में हम शुद्ध अस्तित्व, शुद्ध चेतना और शुद्ध आनन्द स्वरूप है।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।2.72।
यह उपर्युक्त अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होने वाली स्थिति है। अर्थात् सर्व कर्मों का संन्यास करके केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो जाना है। हे पार्थ इस स्थिति को पाकर मनुष्य फिर मोहित नहीं होता। अर्थात् मोह को प्राप्त नहीं होता।अन्तकाल में अन्त के वय में भी इस उपर्युक्त ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर मनुष्य ब्रह्म में लीनता रूप मोक्ष को लाभ करता है। फिर जो ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यास ग्रहण करके जीवन पर्यन्त ब्रह्म में स्थित रहता है वह ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त होता है इसमें तो कहना ही क्या है।यह दृग-दृश्य विवेक तक पहुँचने की यात्रा थी , जिसे हमने साथ-साथ तय किया है। यह वेदान्त के साथ परिचय प्राप्त करने का अध्यन था। यह वेदान्त परिचय श्रृंखला (Vedanta introduction series) इसी पुस्तक के साथ समाप्त नहीं होती है। अब तो यह प्रारम्भ ही हुई है। यदि तुमने ऐसा सोचा हो कि यह तो बहुत सूक्ष्म दर्शन या परिकल्पना है, जिसे समझ पाना बड़ा कठिन है। तो कहूँगा कि अभी तुमने केवल पहली सीढ़ी पर ही कदम रखा है। अभी तो पार्टी शुरू हुई है ! 😉 इस वेदान्त परिचय श्रृंखला की अगली पुस्तक होगी अपरोक्ष अनुभूति। अर्थात 'Direct Realization of the Absolute' या हिन्दी में कहें तो पूर्ण-ब्रह्म  का प्रत्यक्ष अहसास ! यह पुस्तक भी वेदान्त परिचय ग्रन्थ ही है, किन्तु आचार्य शंकर द्वारा लिखित वह पुस्तक,  इस ग्रन्थ से कई सोपान ऊपर की ग्रन्थ है।[ इस बोतल से बहुत गहरा नशा चढ़ेगा। यह पुस्तक पोखरा नेपाल में वर्षों पहले 1994 में पढ़ चुका हूँ।] 
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मंगलवार, 13 नवंबर 2018

व्यावहारिक जीवन और धर्म क्या भिन्न -भिन्न हैं ?----------50. VYAVHARIK JIVANE DHARMA.

व्यावहारिक जीवन में धर्म 
साधारणतः लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि दैनिक कर्मजीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ धर्म का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, अतः व्यावहारिक (pragmatic ) जीवन में इसका कोई महत्त्व नहीं है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि व्यवहारिक जीवन के अलावा धर्म के प्रयोग का अन्य कोई क्षेत्र हो ही नहीं सकता है। धर्म तो व्यावहारिक जीवन के लिये ही है। धर्म का प्रयोग इसी जगत में होता है, एवं जगत हर समय व्यावहारिक ही होता है। स्वामी विवेकानन्द एक बहुमूल्य सत्य की ओर हमलोगों की दृष्टि को आकर्षित करते हुए कहते हैं- "हमारा जीवन एक अखण्ड सत्ता है, यह भिन्न-भिन्न भावों का संकलन नहीं है। जबकि हमलोग यह समझते हैं कि हमलोगों का व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन से भिन्न हो सकता है, सामाजिक जीवन से राष्ट्रिय जीवन अलग होता है। अथवा हमारा एक राजनैतिक जीवन और अर्थनैतिक जीवन है, जो कि चित्त-विनोद के जीवन से सर्वथा पृथक है; और इन सब के अलावा एक धार्मिक जीवन भी होता है। किन्तु जीवन को इस प्रकार से टुकड़ों  में बाँट कर देखना केवल हमारे मन की कल्पना है।"  
श्रीरामकृष्ण ने इस बात को उदाहरण से समझाते हुए कहा था- ' पानी में एक छड़ी डालने से जल इधर-उधर बँटा हुआ दीखता है, किन्तु छड़ी को उठा लेने पर फिर से सारा पानी एक हो जाता है। ' ठीक उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु (3H) को हमलोग विभिन्न रूपों में बँटा हुआ देखते हैं। यह सब हमारे मन की सृष्टि है। वस्तुतः जीवन में उस प्रकार के विभिन्न क्षेत्र या भाव नहीं होते। स्वामी विवेकानन्द ने तो पाश्चात्य देशों (ईसाई धर्मावलम्बी देशों) में जाकर निर्भयतापूर्वक घोषित किया था- प्रत्येक रविवार को गिर्जा-घर में जाकर प्रार्थना कर लेना धर्म है, ऐसी धारणा ठीक नहीं है। सप्ताह के शेष दिनों में मैंने जिस प्रकार चाहा बिताया, और उसके बाद केवल रविवार के दिन चर्च में जाकर प्रार्थना कर आया, इसको तो धर्म नहीं कह सकते। कुछ लोग ऐसा मानते हैं, कि रविवार का दिन भगवान के विश्राम का दिन है। भगवान भी मानो कोई मजदूर हैं, जो सारे सप्ताह परिश्रम करने के बाद रविवार को विश्राम करते हैं, और उस दिन हमलोगों के लिए भी विश्राम का दिन होता है।  बहुत से लोगों में ऐसी धारणा होती है कि आमतौर से रविवार को सामान्य पारिवारिक कार्य नहीं करने पड़ते, अतः उस दिन को मनोरंजन और अमोद-प्रमोद में बिताऊँगा, और इसी बीच एकबार गिरजा-घर में जाकर प्रार्थना भी कर आऊंगा- यही धर्म है ! बहुत से लोग सोचते हैं, कि सुबह-सुबह घर के मंदिर में बैठकर पूजा करके धर्म कर आया, या किसी मन्दिर में जाकर मत्था टेक आया, उसके बाद लौटते समय रास्ते के किनारे भिखारी बैठे रहते हैं, उसके कटोरी में एक सिक्का फेंक दिया। यही तो धार्मिक जीवन है; उसके बाद घर के काम निपटाए, हाट-बाजार कर आये, शाम को दोस्तों के साथ कहीं घूमने निकल गए- यही तो है सक्रीय जीवन या कर्ममय जीवन ! जीवन को इस प्रकार टुकड़ों में बाँट कर जीना ठीक नहीं है। जीवन एक पूर्ण वस्तु है। स्वामीजीने कहा है, धर्म वह वस्तु है जो जीवन को पूर्णतया धारण किये रहती है। धर्म के बिना जीवन का कुछ अर्थ ही नहीं है, हो भी नहीं सकता।
भगिनी निवेदिता ने विवेकानन्द को बहुत हद तक (To a great extent) समझा था। वे स्वामीजी के द्वारा दीक्षित थीं, उनसे अनुप्रेरित (Inspired) थीं, एवं उनके सपनों को साकार बनाने के लिये,अपने प्राण तक को न्योछावर करने को समर्पित थीं- 'निवेदित-प्राणा' थीं ! वे भारतवर्ष की सेवा के लिये,इसके कल्याण के लिये यहाँ आयीं थीं। विवेकानन्द समग्र-साहित्य जब प्रकाशित हुआ, तब भगिनी निवेदिता ने उसकी भूमिका लिखी थी। उस भूमिका में उन्होंने कुछ ऐसी नई बातों का उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने स्वयं स्वामीजी से प्राप्त किया था। भगिनी निवेदिता 'विवेकानंद साहित्य' की भूमिका में लिखती हैं- 'यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य की अभिव्यक्तियाँ हैं, तो केवल उपासना के ही विविध प्रकार नहीं वरन सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के भी सभी प्रकार, सृजन के भी सभी प्रकार, सत्य साक्षात्कार के मार्ग हैं।अतः 'henceforth' अब से, लौकिक जीवन (secular, Pragmatic या व्यावहारिक जीवन) और धार्मिक जीवन (sacred,spiritual आध्यात्मिक जीवन) में कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग है। स्वयं जीवन ही धर्म है।" अर्थात अब से व्यवहारिक जीवन भी धर्म के उपर प्रतिष्ठित होगा।
यहाँ पर ' अब से ' (henceforth ) कहने का तात्पर्य क्या है ? अर्थात 'अब से' माने 9 /11 के पश्चात् - ब शिकागो के विश्वधर्म महासभा में  स्वामीजी ने अपना सन्देश सम्पूर्ण मानवजाति को सुनाया। किन्तु आधुनिक युग में मानवजाति के पथप्रदर्शक नेता,संदेशवाहक (जीवन्मुक्त प्रशिक्षित माली) स्वामी जी ने वह संदेश कहाँ से प्राप्त किया था ?  स्वामीजीने इस भाव को (ideology या विचारपद्धति को) कहाँ से प्राप्त किया था ? उन्होंने इस विचारधारा को अपने गुरु श्रीरामकृष्ण (पूरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित गुरु) से प्राप्त किया था। वास्तव में " श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द (काशीपुर उद्यानबाटी Be and Make जीवन्मुक्त माली -प्रशिक्षण परम्परा) के प्रारम्भ  समय से ही ' धार्मिक जीवन (आध्यात्मिक जीवन) और धर्म-निरपेक्ष जीवन (व्यावहारिक जीवन) '- के बीच जो कल्पित पार्थक्य था, वह अतीत की बात हो गयी थी, अब वह भेद बिल्कुल समाप्त हो गया।'  इसीलिए यदि उनके जीवन को (अर्थात श्रीमद तोतापुरी-श्रीरामकृष्ण , श्रीरामकृष्ण -स्वामी विवेकानन्द , स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर .....नवनीदा के महाजीवन को )  सही रूप से समझ लिया जाये, तो 'व्यवहारिक जीवन में धर्म' के विषय में हमारी धारणा  बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी। 
बहुत लोग ऐसा समझते हैं, कि हमलोग अपने व्यवहारिक जीवन को जैसी इच्छा होगी, उसी मुताबिक बिता देंगे, और धर्म नाम से जो एक कुछ है उसका व्यवहार - हमलोग चाहें तो कर सकते हैं, और नहीं भी कर सकते हैं। जिस प्रकार विभन्न व्यंजनों का आहार समाप्त कर लेने के बाद, हमलोग चाहें तो अन्त में चटनी को खा सकते हैं, या नहीं भी खा सकते हैं। उसी प्रकार हमलोग अपने जीवन को जैसे-तैसे बिताकर धर्म को ले भी सकते हैं, नहीं भी ले सकते हैं। किन्तु धर्म कोई ऐसी वैसी चीज नहीं है। जो लोग धर्म को चटनी के जैसा कोई चीज (बुढ़ापा या जीवन के अन्त में खाने की चीज) समझते हैं, वे धर्म के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं
धर्म के विषय में स्वामीजी कहते हैं-" धर्म के बारे में ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि यहाँ का कुछ वहाँ का कुछ विभिन्न स्वाद लेने के लिये चख कर देखने की प्रवृत्ति होती है। यह जो धर्म को चख कर देखने की प्रवृत्ति है, इसके द्वारा किसी को धर्म की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है। धर्म को श्रद्धा के साथ ही ग्रहण करना पड़ता है। धर्म मनुष्य के जीवन को संपूर्णतः परिवर्तित कर देता है, जीवन- प्रवाह की दिशा को निर्धारित कर देता है, उसे ठीक लक्ष्य की ओर ले जाता है। धर्म मनुष्य को उसके जीवन-लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होना सिखाता है।" यदि किसी व्यक्ति के जीवन का कुछ हिस्सा धर्म की ओर जाय, और शेष अंश अधर्म की ओर जाय तो, तो क्या उसका  जीवन सफल होगा ? जीवन छिन्नभिन्न हो जायेगा। जीवन में पूर्णता नहीं आएगी, और उस दृष्टि से जीवन  सार्थक नहीं होगा, वह जीवन-पुष्प अपने समग्र सौन्दर्य के साथ (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य के साथ) कभी प्रस्फुटित नहीं हो सकेगा । यदि मनुष्य के समग्र जीवन में एक  ' integration ' या एकीकरण नहीं स्थापित हो सका, तो उसका जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण सही रूप में नहीं हो सकता है। 
मनुष्य के जीवन में धर्म का वही महत्व है, जो नाव में पतवार का होता है। नदी में नौका चल रही है, किन्तु उसमें यदि पतवार नहीं हो तो नाव कभी अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँच सकेगी-जहाँ नौका को जाना चाहिए था, वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेगी। उसी प्रकार जीवन में भी हमलोग बहुत तरह के प्रयत्न कर सकते हैं, जीवन में हमलोग कई प्रकार के कार्य कर सकते हैं। किन्तु हमारे सभी कर्म यदि धर्म पर आधारित नहीं हो, (शास्त्र-सम्मत कर्म नहीं रहें)  तो जीवन अपने निर्दिष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता है। यदि हमलोगों ने विवेक-प्रयोग के द्वारा निर्णय लेकर कोई पूर्व निर्दिष्ट जीवन-लक्ष्य बना लिया हो, तो अपने चिन्तन, विचार और जीवन को उस लक्ष्य की ओर ले जाने के लिये धर्म ही पतवार है। 
यदि हम अपने व्यवहारिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना चाहें, तो पहले यह समझ लेना होगा कि जीवन क्या है और व्यक्ति-जीवन में धर्म का स्थान कहाँ है ? जीवन विभिन्न भावों का 'mechanical blending' या मशीनी मिश्रण नहीं है, जीवन एक ही साथ जुड़ा हुआ, 'compound' या यौगिक वस्तु है। जीवन के विभिन्न उपादान (3H ) हो सकते हैं, किन्तु जीवन में वे सभी मिलकर संयुक्त या combined हो गये हैं, जीवन के साथ इस प्रकार घुलमिल गये हैं, वे इस प्रकार जुड़ चुके हैं, कि अब उसके उपादानों को पृथक नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से सामन्जस्यपूर्ण जीवन ही वह जीवन है, जो हमें लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। वह जीवन ही यथार्थ जीवन है, जिसकी बुनियाद धर्म पर प्रतिष्ठित है। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में धर्म का उपयोग करने का अर्थ है, अपने चिन्तन-वचन-और कर्म में विवेक-प्रयोग करके ऐसा निर्णय लेंगे जो हमारे समस्त कार्यों को हमारे पूर्व-निर्धारित जीवन लक्ष्य की दिशा में ले जाने में सहायक होगा। विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कर्म (मानसिक,वाचिक,शारीरिक कर्म) करने में सक्षम होना ही व्यावहारिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना है
              हमारे देश के प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन में चार पुरुषार्थ करने का सन्देश दिया है। किन्तु हम आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग, 'पुरुषार्थ' या इस प्रकार के अन्य शब्दों से (वर्णाश्रम धर्म आदि शब्दों से ?) परिचित नहीं हैं। यहाँ 'पुरुष' का अर्थ है-मनुष्य; इस शब्द को पुरुष और स्त्री के संदर्भ में नहीं लेना चाहिये। तथा 'अर्थ' का अनुवाद होगा- एक ऐसी प्राप्तव्य वस्तु, एक ऐसा लक्ष्य, एक ऐसी बहुमूल्य सम्पत्ति - जिसे प्राप्त करने की आकांक्षा प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करनी चाहिये, तथा उस लक्ष्य को इसी जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न भी मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष! यही वे चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें इस जीवन में पाने की आकांक्षा प्रत्येक व्यक्ति को करनी चाहिये। पहला पुरुषार्थ है- धर्म। यदि यह पुरुषार्थ जीवन में नहीं हो, या नहीं आ सके, तो हमलोगों के जीवन में अन्य जितने पुरुषार्थ या प्राप्तव्य वस्तुएँ हैं, उन्हें हम नहीं प्राप्त कर सकेंगे, और यदि प्राप्त कर भी लिये, तो उनका कोई मूल्य नहीं होगा। इसीलिये धर्म को सबसे पहले ग्रहण करना चाहिये। यह प्राप्त हो जाय तभी दूसरी वस्तुओं की सार्थकता है। यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है।
हमलोग सभी लोग यह जानते हैं, कि मन में यदि कोई कामना नहीं हो, तो मनुष्य का जीवन अचल हो जायेगा, ठहर जायेगा या गतिशून्य हो जायेगा। यदि ऐसा हो, कि मैं  कुछ भी न चाहूँ; तो फिर मैं ही नहीं रहूँगा। इसीलिये कोई न कोई कामना अवश्य रहेगी, तथा व्यवहारिक जगत के किसी वस्तु को पाने की कामना करें, या प्राप्त करना चाहें, या केवल सामान्य रूप से अपने जीवन का निर्वाह भी करना हो, तो अर्थ की आवश्यकता होगी। हमलोगों के जीवन में अर्थ की आवश्यकता अवश्य होती है, इसीलिये हमारे शास्त्रों में अर्थ की निन्दा, कहीं नहीं की गयी है। बल्कि अर्थ और काम दोनों की प्रशन्सा की गयी है। गीता 7/11 में हम श्रीकृष्ण का एक अद्भुत उद्धरण देखते हैं, वे कहते हैं, धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । " ... भैया अर्जुन,  मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ ! अर्थात ईश्वर ही मनुष्यों के भीतर कामरूप में अर्थात कामना रूप में अवस्थित हैं। वे कहते हैं - " यदि मैं न रहूँ, तो मनुष्य कोई कामना भी नहीं कर सकता, इसीलिये सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही कामरूप में अवस्थित हूँ। "  [हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है। यह शास्त्रसम्मत काम परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है।  ईश्वर प्राणिमात्र के मन में  'स्मर ' या काम के रूप में रहते हैं।  काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है। साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है। (शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं।) ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है। ]  
उसी प्रकार से हमारे ऋषियों ने अर्थ की भी प्रशंसा की है। महाभारत में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है, गीता-उपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गये तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गये। हालत यह हो गयी कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? क्या युध्ष्ठिर युद्ध नहीं करेंगे, या और कुछ करने जा रहे हैं ? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार हैं। इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गये और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। उन्होंने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार हैं-   
''अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। 
इति सत्यं महाराज, बध्दोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।''
 इसका सीधा अर्थ यही हैं कि ''महाराज, इस जगत में सभी पुरुष अर्थात सभी मनुष्य अर्थ के दास होते हैं। आदमी पैसे का गुलाम होता हैं, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात हैं। इसलिए हे महाराज भाग्य के दोष से अर्थ के कारण ही कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया हैं।''  पितामह भीष्म,  जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें, जब उनके जैसे लोग भी संसार के इस नियम को स्वीकार करते हैं, और इसे अटल (पक्का) नियम मानते हैं, और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल करते हैं, तो मानना ही पड़ेगा कि अप्रिय होने से भी- कि पुरुष अर्थ का दास होता है !' इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हमारे देश के पूर्वज लोग अच्छी तरह से जानते थे, कि हमारे जीवन में अर्थ की कितनी महत्ता है। इसीलिये उन्होंने ने अर्थ की कभी निन्दा नहीं की है। हमलोगों के देश में कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित सुन्दर अर्थशास्त्र बहुत प्रसिद्द था।
उसी प्रकार हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि जीवन में काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। कामनाओं को पूर्ण करने के लिये अर्थ की आवश्यकता अवश्य है; किन्तु अर्थ का उपयोग कहाँ करना है,उसके  व्यवहार को भी नियंत्रित रखना आवश्यक है। जिस प्रकार कामना-वासना के बेलगाम अत्याचार को सहन करते रहना उचित नहीं है; उसी प्रकार अर्थ का बिल्कुल दास बन जाना भी ठीक नहीं है। यदि कामनाओं को अत्यधिक छूट दे दी जाये, और अर्थ की वासना को परिमित नहीं रखा जाय तथा- 'और धन चाहिये', और धन चाहिए, करते रहा जाय तो मनुष्य की हालत कैसी हो जाएगी ?  इसका वर्णन गीता १६/१३ में बहुत अच्छे से किया गया है- 
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌। 
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌
- आज इस समय तो मैंने इतना धन प्राप्त किया है तथा इस धन से अमुक मनोरथ -- मनको संतुष्ट करनेवाला पदार्थ और प्राप्त करूँगा। और अब कल इस मनोरथ को -(बीच बाजार में एक बड़ा सा प्लोट ) प्राप्त कर लूँगा। इतना धन तो मेरे पास है और यह इतना धन मेरे पास अगले वर्ष में फिर हो जायगा? उससे मैं धनवान् विख्यात हो जाऊँगा। 

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
 ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी
भावार्थ : (इसमें जो एक प्रोपर्टी डीलर बाधक शत्रु था ) आज वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, और कल उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, इस प्रकार मेरा प्रभुत्व क्रमशः बढ़ता जायेगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र के रणांगण में जिस समय अर्जुन को उपदेश देते हैं, कितनी अद्भुत बात कह रहे हैं। उनका  यह कथन बिल्कुल मानो आज के सामाजिक जीवन की अवस्था को उजागर कर रहा है। 
हमारे शास्त्रों में काम और अर्थ को त्याज्य नहीं कहा गया है, हमारे पूर्वजों ने केवल उन्हें नियंत्रित रखने या परिमित करने का उपदेश दिया है।  किन्तु अर्थ और काम के  उपर नियंत्रण रखने का उपाय क्या है ? केवल धर्म के द्वारा ही अर्थ और काम को नियंत्रण में रखा जा सकता है। धर्म का आश्रय लेकर, अर्थ और काम का भोग करो। और जब यह बात समझ में आ जाये कि भोगों में ही सबकुछ नहीं है। जब यह दिखाई देने लगे कि भोगों से यथार्थ शान्ति, आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता है, तब उस अवस्था में मनुष्य के चौथे पुरुषार्थ-मोक्ष को प्राप्त करने की आकांक्षा करनी चाहिये, और उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । किन्तु उन चार पुरुषार्थों में से किसी एक में ही आसक्त नहीं होना चाहिये। षड्जगीता  ३८ में कहा गया है-
 धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या,यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः । 
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं, स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे
 यह जो 'धर्म-अर्थ-काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -मोक्ष के साथ नहीं हो सकती है।  इसलिये इन तीनों में -किसी भी एक प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये, या किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये। जो किसी एक में ही आसक्त हो जाता है, उसको घृणित या निन्दनीय माना जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने भी हमलोगों को ठीक यही सन्देश दिया है, वे हमलोगों को पूर्ण उद्द्य्म के साथ अर्थ-उपार्जन के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं- " धन कमाना चाहता है ? तो अमेरिका चला जा। मैं तुमको व्यापार करने की बुद्धि दूंगा। ....यहाँ बैठे रहने से क्या होगा ? यदि जाने का भाड़ा नहीं हो, तो जहाज का खलासी बनकर विदेश चला जा। देशी कपड़ा, गमझा, चद्दर को गट्ठर बना कर सिर पर लेकर अमेरिका-यूरोप की गलियों में फेरी लगा। कुछ छोटी छोटी वस्तुओं को वहां बेचो। देखोगे यही करते करते थोड़े दिनों में बुद्धि खुल जाएगी। तब देखोगे कि वे लोग भी तुम्हें सहायता देने लगेंगे। " भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को कह रहे हैं, तू सभी लोग मिल कर कमाओ, कहते हैं- क्या तुमलोग जेली,चटनी, आचार बना सकते हो ? इसको भी तुम विदेशों में निर्यात कर सकते हो। ये सब बिजनेस टिप्स स्वामीजी दे रहे हैं। कहते हैं, तुम्हारे पास कल-कारखाने कहाँ हैं ? " आज उनके जाने के १५० वर्ष बाद भी हमलोग बड़े बड़े कल-कारखाने लगाने की चर्चा करते हैं। स्वामीजी ने ये बातें कितने दिनों पहले कही थीं। 
एक बार जहाज से जापान जाते समय स्वामीजी की मुलाकात जमशेदजी टाटा के साथ हुई थी। रास्ते में  बातचीत होने लगी। स्वामीजी के पूछने पर जमशेदजी ने बतलाया कि वे दियासलाई का आयात करने के लिये जापान जा रहे हैं। स्वामीजी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा " आप दियासलाई आयात करने जापान जा रहे हैं ? उसमें क्या रहता है ? पतली सी लकड़ी का बना बॉक्स होता है, भीतर कुछ पतली पतली लकड़ी की कील (सलाई) रहती है, जिसके माथे पर थोड़ा बारूद लगा रहता है। ऐसी साधारण सी चीज का आयात करने जापान जा रहे हैं ? आप इसे भारत में निर्मित क्यों नहीं कर सकते हैं ? भारतवर्ष में ही इसका निर्माण कीजिये न। जो भी उद्द्योग लगाना हो, उसे भारत में ही लगाइये।" इसी मुलाकात के बाद से जमशेदजी के मन में उद्द्योग लगाने का धुन सवार हो गया। इसीके बाद जमशेदजी टाटा ने जमशेदपुर, झारखण्ड में एक बहुत बड़ा उद्द्योग स्थापित किया। उनकी प्रेरणा के श्रोत स्वामीजी ही थे।
आगे चलकर स्वामीजी के परामर्श से ही उन्होंने  विज्ञान के उपर एक शोध-संस्थान भी स्थापित किया था। भारत का प्रथम कृषि शोध-संस्थान भी स्वामीजी की ही प्रेरणा से अल्मोड़ा में स्थापित हुआ था, यह शोध-संसथान भारत के लिये अद्भुत वरदान सिद्ध हुआ है। उस समय स्वामीजी शरीर में ही थे। शोध-संस्थान खोलने के बाद जमशेदजी ने स्वामीजी से अनुरोध किया कि आप ही इसके डाइरेक्टर (directer) बन जाइये। वे समझ गये थे कि स्वामीजी के पास कॉमन सेन्स का भण्डार है, उनके शांत और परिष्कृत मन में इन सब के उपर नये नये विचार उठते ही रहते हैं। स्वामीजी के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। किन्तु स्वामीजी ने बहुत विनय के साथ उनके  डाइरेक्टर होने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। क्योंकि स्वामीजी का यह कार्य था ही नहीं। आज तो भारत में कई शोध-संसथान खुल चुके हैं, किन्तु भारत का प्रथम शोध-संस्थान स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से ही स्थापित हुआ था। वे कहते हैं, " तुमलोग जो कुछ भी करो-अपने देश में ही (स्थापित ) करना। तुमलोग विदेश जाओ और वहाँ से तकनिकी ज्ञान सीख कर अपने देश में कल-कारखाने स्थापित करो। फिर कहते हैं, तुमलोग जापान जाओ, वहां से मशीन निर्माण की कला सीखो, और देश की धरती पर नयी नयी वस्तुओं का उत्पादन करो।"कहते हैं, भारत में तो खनिज पदार्थों की तो भरमार है। विदेशी लोग उसी कच्चे-माल का उपयोग करके, नये रूप में ढाल कर, पुनः उसे भारत में बेचकर  सोना उगा रहे हैं। और तुमलोग देश में इतनी खनिज-सम्पदा रहने पर भी कुछ नहीं कर पा रहे हो ? वे तो यहाँ तक कहते हैं, कि " तुमलोग 'luxury goods' या विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन भी प्रारम्भ करो। कहते हैं, बहुत अधिक भोग में डूबे रहना अवश्य अच्छा नहीं है; किन्तु अधिक परिमाण  में  'consumer goods' का उत्पादन करने से क्या होगा -जानते हो ? इससे देश में नये नये रोजगार के अवसर पैदा होंगे।(3/334) "
स्वामीजी ने अर्थ की निन्दा कभी नहीं की है, और न काम की ही निन्दा किये हैं। उन्होंने अर्थ की उत्पत्ति करने को कहा है, भोग भी करने को कहा है, कहते हैं- सब कुछ करो, किन्तु धर्म के द्वारा उसको नियंत्रण में रखो। स्मरण रहे कि अर्थ और काम का भोग करने में अन्धे होकर धर्म का त्याग नहीं करना है। यदि धर्म को त्याग कर यह सब करोगे तो सब कुछ नष्ट हो जायेगा।अल्बर्ट आईन्स्टाईन एक विश्व-विख्यात वैज्ञानिक हैं, विज्ञान की प्रगति के विषय में विवेचना करते समय एक स्थान पर वे कहते हैं, अच्छा आज विज्ञान में इतनी प्रगति आप देख रहे हैं, उसकी प्रेरणा का श्रोत कहाँ है ? सुनकर आश्चर्य होता है, वे कहते हैं- नूतन वैज्ञानिक अविष्कारों की प्रेरणा का श्रोत है धर्म। यदि धर्म नहीं होता तो विज्ञान में ऐसी प्रगति भी नहीं हो सकती थी।
स्वामीजी कहते है, यदि धर्म को आधार मान कर लोक-व्यवहार करोगे, तो तुम्हारी बुद्धि स्फुरित होने लगेगी, तुमलोगों की कार्यक्षमता (efficiency) बढ़ जाएगी, जीवन का भोग दक्षता के साथ कर पाओगे, बेकार बैठे लोगों को, बेरोजगार लोगों को तुम स्वयं रोजगार देने में समर्थ हो जाओगे। वे एक स्थान पर अत्यंत आश्चर्य जनक बात कहते हैं, कहते हैं-धर्म का अर्थ है भोग ! इसको समझाते हुए कहते हैं, तुम्हारे वेदों में क्या है ? देखो समस्त वेद में है, केवल भोग, भोग और भोग। वेदों के संहिता भाग में केवल यही कहा गया है कि किस प्रकार मनुष्य को इहलोक और परलोक में अधिक से अधिक भोग और सुख प्राप्त हो सकता हैं? स्वामीजी कहते हैं कि भोग पूरा हुए बिना त्याग नहीं हो सकता है। मोक्ष, त्याग या वैराग्य तो सबसे अन्तिम बात है। सामान्य मनुष्यों के लिये पहले भोग को पूरा करना आवश्यक होता है। और इसकेलिये अर्थ उपार्जन करना भी आवश्यक होता है। किन्तु इन दोनों को नियंत्रित रखने के लिये धर्म की आवश्यकता होती है।

व्यवहारिक जीवन में धर्म का अर्थ है, हमलोग बहुत बड़े कर्मवीर बनेंगे, सबकुछ करेंगे, किन्तु धर्म को भी बनाये रखना होगा। स्वामीजीने भारतीय लोगों की तीखे शब्दों में निन्दा भी की है। वे कहते हैं, तुमलोग पूरी तरह से तमोगुण द्वारा भर गये हो। तुमलोग माटी के पुतलों के सदृश्य हो। तुमलोगों के इस जड़ शरीर को हिलाडुला कर जगाने के लिये ही मैं धरती पर आया हूँ। मैं तुमलोगों में रजोगुण का संचार करना चाहता हूँ। कहते हैं, तुमलोग रजोगुण के बल पर खड़े हो जाओ। हम सभीलोग रजोगुण के लक्षण के विषय में जानते हैं, रजोगुण से प्रेरित मनुष्य निरंतर कर्म करने में लगा रहता है। इसीलिये कहते हैं, तुमलोगों में रजोगुण का संचार हो। तुमलोग कर्मठ या कर्मतत्पर मनुष्य बनो। नई नई वस्तुओं का निर्माण करो, जीवन में भोग करो, किन्तु यह सब धर्म के द्वारा संचालित होकर करो; किन्तु  यह भी याद रखना कि समस्त भोग करके भी यथार्थ शान्ति नहीं मिलेगी।
हमारे देश की बहुत प्राचीन कथा है, राजा ययाति की कहानी को हम सभी लोग जानते हैं। हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ है, रजा भरत के नाम पर। वे उसी राजा भरत के पूर्वज थे। उनका नाम ययाति था। राजा ययाति की कहानी वेदों में है, पुराणों में भी है, विभिन्न धर्मग्रंथों के माध्यम से भी हमलोगों में से अधिकांश उसकी कहानी सुने हैं। वे धर्म को भूल कर केवल अर्थ और काम में डूबे रहते थे। उनकी अवस्था ऐसी होगयी थी कि जीवन में बहुत भोग करने के बाद भी उनको तृप्ति नहीं हुई, उनको शान्ति नहीं मिली। एक बार उन्होंने कोई  बहुत बड़ा दुष्कर्म कर दिया, उससे अभिशप्त होकर बुढ़ापे से ग्रस्त हो गये थे। बुढ़ापा के कारण वे संसार के सामान्य भोग करने में वे असमर्थ हो गये थे। जिस व्यक्ति ने उनको शाप दिया था, उसके पास जाकर वे बहुत अनुनय-विनय करने लगे कि उनको किसी प्रकार इस बुढ़ापे से मुक्ति प्राप्त हो जाय। उन्होंने कहा एक बार जब शाप दे दिया हूँ, तो उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। किन्तु एक उपाय हो सकता है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति, या कोई युवा तुम्हारे बुढ़ापे को ले ले, और अपना यौवन तुमको प्रदान करदे, तब तुम फिर से अपनी जवानी को वापस प्राप्त कर सकते हो। वे भला किससे यह बात कह सकते थे ? उन्होंने अपने पुत्र से ही यह बात कही, और उसके यौवन के बदले अपना सम्पूर्ण राज्य देने का वादा किये। उनका सबसे छोटा पुत्र इसके लिये तैयार हो गया। उसने ययाति से उसका बुढ़ापा ग्रहण करके अपना यौवन उसको सौंप दिया। कहा जाता है कि अपने पुत्र के यौवन को लेकर राजा ययाति ने जगत के हर सुख का भोग किया। सबकुछ का भोग करने के बाद भी देखे कि उसमें शान्ति नहीं है। काम का उपभोग करके कामना को प्रशमित नहीं किया जा सकता है। काम का उपभोग करते रहने से कामना भी उसी प्रकार क्रमशः बढ़ती जाती है, जिस प्रकार आग में घी डालने से आग क्रमशः और भी बढ़ती जाती है। उसी प्रकार कामना को परिपुष्ट करते रहने से, वह कभी प्रशमित नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। इससे कभी शान्ति नहीं मिलती। संसार में जितने भी भोग्य वस्तुयें हैं, जितना भी ऐश्वर्य है, जितनी भी सम्पदा है, वह सब का सब किसी एक ही मनुष्य को दे दिया जाय फिरभी उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है। यह जान लेने के बाद अन्त में सभी मनुष्यों कामना-वासना का त्याग करना ही पड़ता है। यही है हमलोगों के देश की शिक्षा।
इसीलिये हमलोगों के व्यावहारिक जीवन में धर्म का क्या स्थान है- इसे भली भाँति समझ लेना आवश्यक है। धर्म की सहयता लिये बिना यदि हमलोग भोग के जीवन, अर्थ उपार्जन और व्यबहार के जीवन को जीते रहें, तो हमलोगों का जीवन अन्तिम अवस्था में अशान्ति से भर जायेगा। हममें से अधिकांश लोगो के जीवन में यही हो रहा है। जीवन में धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर लिये, गाड़ी-जमीन-मकान-दुकान, रुपया-पैसा बहुत कम लिये। किन्तु अन्तिम अवस्थामे जीवन में घोर अशान्ति छा गयी। पेट फुल गया, बदहजमी का शिकार बन गये, ब्लडप्रेशर,सुगर इत्यादि रोग पकड़ लिया, और लड़के-बच्चों में धन-दौलत को लेकर झगड़ा और केस-मुकदमा चलने लगा। कुछ खा नहीं सकते हैं, ठीक से चल नहीं पाते हैं, रात में नीन्द नहीं आती है। किन्तु धन के घड़ियाल हैं। घर में हर प्रकार की भोग-सामग्री है, किन्तु शान्ति नहीं है, कुछ भी नहीं है। उसी टेन्टलस के नरक जैसी अवस्था है। गले तक जल में ही डूबा हुआ हूँ, किन्तु एक बून्द जल मुख में डालने का उपाय नहीं है। तृष्णा से छाती फटी जा रही है, किन्तु किन्तु उसको मिटाने के लिये, एक बून्द जल ग्रहण करने का उपाय नहीं है। चारो और भोग की वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं, देख-देख कर ललचा रहे हैं, किन्तु भोग करने की हिम्मत नहीं है, फिर भोग की इच्छा बनी हुई है, शान्ति नहीं मिलती है। इसीलिये जीवन के प्रारंभ में ही धर्म क्या है, इसे ठीक से समझकर जीवन के समस्त कार्यों में उसका ही सहारा लेकर चलना हमलोगों का कर्तव्य है।
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मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना-निबन्ध संख्या -50 - 'ব্যবহারিক জীবনে ধর্ম'
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[The institute was established at Kolkata by Padma Bhushan late Prof. Boshi Sen on July 4, 1924 and named it as Vivekananda Laboratory.  The Laboratory was permanently shifted to Almora in 1936 and was being run on donations and grants till it was handed over to Uttar Pradesh Government in 1959. On October 1, 1974, ICAR took it over and rechristened it as Vivekananda Parvatiya Krishi Anusandhan Sansthan.]
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 " If the many and the One be indeed the same Reality, then it is not all modes of worship alone, but equally all modes of work, all modes of struggle, all modes of creation, which are paths of realisation. No distinction, henceforth, between sacred and secular. To labour is to pray. To conquer is to renounce. Life is itself religion. To have and to hold is as stern a trust as to quit and to avoid.

" आध्यात्मिक (spiritual ) और व्यावहारिक (practical ) जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है, उसे मिट जाना चाहिये; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड जीवन (सत्ता) के सम्बन्ध में उपदेश देता है-वेदान्त कहता है कि एक प्राण सर्वत्र विद्यमान है। अतः धर्म के आदर्शों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रविष्ट करना चाहिए, हमारे प्रत्येक विचार में प्रविष्ट करना चाहिये और कर्म को अधिकाधिक प्रभावित करना चाहिये। पहले हमें अपने दैनन्दिन जीवन में तात्विक ज्ञान का प्रयोग करना चाहिए, और यह समझना चाहिये कि ये सिद्धान्त किस तरह पर्वतों की गुफाओं और अरण्यों, मठों की चहारदीवारियों में से निकलकर किस प्रकार कोलाहल पूर्ण नगरों, और जीवन के व्यस्ततम कार्यक्षेत्रों में भी कार्यान्वित किये गए हैं ? इन सिद्धान्तों, वेदान्त के महावाक्यों - की एक विशेषता यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यों में तपस्या करने से प्राप्त नहीं हुए हैं, किन्तु जिन व्यक्तियों को हमलोग सर्वाधिक व्यस्त या कर्मण्य मानते हैं, वैसे राजसिंहासन पर बैठे राजर्षि जनक, दसरथ आदि अनेक राजा -महाराजा ही तात्विक ज्ञान के प्रणेता हैं ! " 8/3   
PRACTICAL VEDANTA/ PART I:  " the fictitious differentiation between religion and the life of the world must vanish, for the Vedanta teaches oneness — one life throughout. The ideals of religion must cover the whole field of life, they must enter into all our thoughts, and more and more into practice....  we must first apply ourselves to theories and understand how they are worked out, proceeding from forest caves to busy streets and cities; and one peculiar feature we find is that many of these thoughts have been the outcome, not of retirement into forests, but have emanated from persons whom we expect to lead the busiest lives — from ruling monarchs."

The Vedanta recognises no sin, it only recognises error.....  Every time you think in that way, you, as it were, rivet one more link in the chain that binds you down, you add one more layer of hypnotism on to your own soul. Therefore, whosoever thinks he is weak is wrong, whosoever thinks he is impure is wrong, and is throwing a bad thought into the world. This we must always bear in mind that in the Vedanta there is no attempt at reconciling the present life — the hypnotised life, this false life which we have assumed — with the ideal; but this false life must go, and the real life which is always existing must manifest itself, must shine out. No man becomes purer and purer, it is a matter of greater manifestation. The veil drops away, and the native purity of the soul begins to manifest itself. Everything is ours already — infinite purity, freedom, love, and power. वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, भ्रम स्वीकार करता है। ... जो व्यक्ति अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है, जो अपने को अपवित्र मानता है, वह भ्रान्त है। वह जगत में एक असत विचार प्रवाहित करता है। हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि वेदान्त में हमारे इस वर्तमान हिप्नोटाइज्ड-जीवन, हमारे द्वारा सम्मोहित होकर स्वयं को केवल शरीर मानकर, मृत्यु के भय से भेंड़ के समान 'में- में' करते हुए मिमियाने वाले मिथ्या जीबन का -भेंड़त्व का त्याग कर अपने यथार्थ सिंह-स्वरुप में प्रतिष्ठित हो जाने का उपदेश देता है। ऐसा होने पर इस वर्तमान परिवर्तनशील हिप्नोटाइज्ड जीवन के पीछे जो शाश्वत अविनाशी भ्रममुक्त, जीवन सदा वर्तमान है, वह अमरत्व, वह जीवनमुक्ति अपने को प्रकाशित करने लगेगी। यह नहीं कि मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक पवित्र हो जाता है, बात केवल स्वरुप या सिंहत्व के अधिकाधिक अभिव्यक्ति की है। विवेक-प्रयोग करते रहने से आवरण क्रमशः हटता जाता है, और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है। यह अनन्त पवित्रता , जीवन्मुक्त स्वभाव , प्रेम और ऐश्वर्य पहले ही से हममें में है।       
    मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थिति और अभाव की तारतम्यता पर निर्भर है। ... जिसमें आत्मविश्वास नहीं है, वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर और धार्मिक शास्त्रों ( वेद, बाइबिल ,कुरान,आदि में विश्वास नहीं करता , वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है , जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस व्यष्टि अहं बोध या क्षुद्र 'मैं'-बोध को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। 8/12     
हमारे आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है , उसे मिट जाना चाहिये; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है -वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण सर्वत्र विद्यमान है।केवल एक ही जीवन है, एक ही जगत है, और वही हमलोगों के सामने अनेकवत प्रतीत होता है। यह अनेकता स्वप्न सदृश है।