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मंगलवार, 13 नवंबर 2018

व्यावहारिक जीवन और धर्म क्या भिन्न -भिन्न हैं ?----------50. VYAVHARIK JIVANE DHARMA.

व्यावहारिक जीवन में धर्म 
साधारणतः लोगों में यह धारणा प्रचलित है कि दैनिक कर्मजीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ धर्म का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, अतः व्यावहारिक (pragmatic ) जीवन में इसका कोई महत्त्व नहीं है। किन्तु हमें यह समझना होगा कि व्यवहारिक जीवन के अलावा धर्म के प्रयोग का अन्य कोई क्षेत्र हो ही नहीं सकता है। धर्म तो व्यावहारिक जीवन के लिये ही है। धर्म का प्रयोग इसी जगत में होता है, एवं जगत हर समय व्यावहारिक ही होता है। स्वामी विवेकानन्द एक बहुमूल्य सत्य की ओर हमलोगों की दृष्टि को आकर्षित करते हुए कहते हैं- "हमारा जीवन एक अखण्ड सत्ता है, यह भिन्न-भिन्न भावों का संकलन नहीं है। जबकि हमलोग यह समझते हैं कि हमलोगों का व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन से भिन्न हो सकता है, सामाजिक जीवन से राष्ट्रिय जीवन अलग होता है। अथवा हमारा एक राजनैतिक जीवन और अर्थनैतिक जीवन है, जो कि चित्त-विनोद के जीवन से सर्वथा पृथक है; और इन सब के अलावा एक धार्मिक जीवन भी होता है। किन्तु जीवन को इस प्रकार से टुकड़ों  में बाँट कर देखना केवल हमारे मन की कल्पना है।"  
श्रीरामकृष्ण ने इस बात को उदाहरण से समझाते हुए कहा था- ' पानी में एक छड़ी डालने से जल इधर-उधर बँटा हुआ दीखता है, किन्तु छड़ी को उठा लेने पर फिर से सारा पानी एक हो जाता है। ' ठीक उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु (3H) को हमलोग विभिन्न रूपों में बँटा हुआ देखते हैं। यह सब हमारे मन की सृष्टि है। वस्तुतः जीवन में उस प्रकार के विभिन्न क्षेत्र या भाव नहीं होते। स्वामी विवेकानन्द ने तो पाश्चात्य देशों (ईसाई धर्मावलम्बी देशों) में जाकर निर्भयतापूर्वक घोषित किया था- प्रत्येक रविवार को गिर्जा-घर में जाकर प्रार्थना कर लेना धर्म है, ऐसी धारणा ठीक नहीं है। सप्ताह के शेष दिनों में मैंने जिस प्रकार चाहा बिताया, और उसके बाद केवल रविवार के दिन चर्च में जाकर प्रार्थना कर आया, इसको तो धर्म नहीं कह सकते। कुछ लोग ऐसा मानते हैं, कि रविवार का दिन भगवान के विश्राम का दिन है। भगवान भी मानो कोई मजदूर हैं, जो सारे सप्ताह परिश्रम करने के बाद रविवार को विश्राम करते हैं, और उस दिन हमलोगों के लिए भी विश्राम का दिन होता है।  बहुत से लोगों में ऐसी धारणा होती है कि आमतौर से रविवार को सामान्य पारिवारिक कार्य नहीं करने पड़ते, अतः उस दिन को मनोरंजन और अमोद-प्रमोद में बिताऊँगा, और इसी बीच एकबार गिरजा-घर में जाकर प्रार्थना भी कर आऊंगा- यही धर्म है ! बहुत से लोग सोचते हैं, कि सुबह-सुबह घर के मंदिर में बैठकर पूजा करके धर्म कर आया, या किसी मन्दिर में जाकर मत्था टेक आया, उसके बाद लौटते समय रास्ते के किनारे भिखारी बैठे रहते हैं, उसके कटोरी में एक सिक्का फेंक दिया। यही तो धार्मिक जीवन है; उसके बाद घर के काम निपटाए, हाट-बाजार कर आये, शाम को दोस्तों के साथ कहीं घूमने निकल गए- यही तो है सक्रीय जीवन या कर्ममय जीवन ! जीवन को इस प्रकार टुकड़ों में बाँट कर जीना ठीक नहीं है। जीवन एक पूर्ण वस्तु है। स्वामीजीने कहा है, धर्म वह वस्तु है जो जीवन को पूर्णतया धारण किये रहती है। धर्म के बिना जीवन का कुछ अर्थ ही नहीं है, हो भी नहीं सकता।
भगिनी निवेदिता ने विवेकानन्द को बहुत हद तक (To a great extent) समझा था। वे स्वामीजी के द्वारा दीक्षित थीं, उनसे अनुप्रेरित (Inspired) थीं, एवं उनके सपनों को साकार बनाने के लिये,अपने प्राण तक को न्योछावर करने को समर्पित थीं- 'निवेदित-प्राणा' थीं ! वे भारतवर्ष की सेवा के लिये,इसके कल्याण के लिये यहाँ आयीं थीं। विवेकानन्द समग्र-साहित्य जब प्रकाशित हुआ, तब भगिनी निवेदिता ने उसकी भूमिका लिखी थी। उस भूमिका में उन्होंने कुछ ऐसी नई बातों का उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने स्वयं स्वामीजी से प्राप्त किया था। भगिनी निवेदिता 'विवेकानंद साहित्य' की भूमिका में लिखती हैं- 'यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य की अभिव्यक्तियाँ हैं, तो केवल उपासना के ही विविध प्रकार नहीं वरन सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के भी सभी प्रकार, सृजन के भी सभी प्रकार, सत्य साक्षात्कार के मार्ग हैं।अतः 'henceforth' अब से, लौकिक जीवन (secular, Pragmatic या व्यावहारिक जीवन) और धार्मिक जीवन (sacred,spiritual आध्यात्मिक जीवन) में कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग है। स्वयं जीवन ही धर्म है।" अर्थात अब से व्यवहारिक जीवन भी धर्म के उपर प्रतिष्ठित होगा।
यहाँ पर ' अब से ' (henceforth ) कहने का तात्पर्य क्या है ? अर्थात 'अब से' माने 9 /11 के पश्चात् - ब शिकागो के विश्वधर्म महासभा में  स्वामीजी ने अपना सन्देश सम्पूर्ण मानवजाति को सुनाया। किन्तु आधुनिक युग में मानवजाति के पथप्रदर्शक नेता,संदेशवाहक (जीवन्मुक्त प्रशिक्षित माली) स्वामी जी ने वह संदेश कहाँ से प्राप्त किया था ?  स्वामीजीने इस भाव को (ideology या विचारपद्धति को) कहाँ से प्राप्त किया था ? उन्होंने इस विचारधारा को अपने गुरु श्रीरामकृष्ण (पूरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित गुरु) से प्राप्त किया था। वास्तव में " श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द (काशीपुर उद्यानबाटी Be and Make जीवन्मुक्त माली -प्रशिक्षण परम्परा) के प्रारम्भ  समय से ही ' धार्मिक जीवन (आध्यात्मिक जीवन) और धर्म-निरपेक्ष जीवन (व्यावहारिक जीवन) '- के बीच जो कल्पित पार्थक्य था, वह अतीत की बात हो गयी थी, अब वह भेद बिल्कुल समाप्त हो गया।'  इसीलिए यदि उनके जीवन को (अर्थात श्रीमद तोतापुरी-श्रीरामकृष्ण , श्रीरामकृष्ण -स्वामी विवेकानन्द , स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर .....नवनीदा के महाजीवन को )  सही रूप से समझ लिया जाये, तो 'व्यवहारिक जीवन में धर्म' के विषय में हमारी धारणा  बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगी। 
बहुत लोग ऐसा समझते हैं, कि हमलोग अपने व्यवहारिक जीवन को जैसी इच्छा होगी, उसी मुताबिक बिता देंगे, और धर्म नाम से जो एक कुछ है उसका व्यवहार - हमलोग चाहें तो कर सकते हैं, और नहीं भी कर सकते हैं। जिस प्रकार विभन्न व्यंजनों का आहार समाप्त कर लेने के बाद, हमलोग चाहें तो अन्त में चटनी को खा सकते हैं, या नहीं भी खा सकते हैं। उसी प्रकार हमलोग अपने जीवन को जैसे-तैसे बिताकर धर्म को ले भी सकते हैं, नहीं भी ले सकते हैं। किन्तु धर्म कोई ऐसी वैसी चीज नहीं है। जो लोग धर्म को चटनी के जैसा कोई चीज (बुढ़ापा या जीवन के अन्त में खाने की चीज) समझते हैं, वे धर्म के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं
धर्म के विषय में स्वामीजी कहते हैं-" धर्म के बारे में ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि यहाँ का कुछ वहाँ का कुछ विभिन्न स्वाद लेने के लिये चख कर देखने की प्रवृत्ति होती है। यह जो धर्म को चख कर देखने की प्रवृत्ति है, इसके द्वारा किसी को धर्म की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती है। धर्म को श्रद्धा के साथ ही ग्रहण करना पड़ता है। धर्म मनुष्य के जीवन को संपूर्णतः परिवर्तित कर देता है, जीवन- प्रवाह की दिशा को निर्धारित कर देता है, उसे ठीक लक्ष्य की ओर ले जाता है। धर्म मनुष्य को उसके जीवन-लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होना सिखाता है।" यदि किसी व्यक्ति के जीवन का कुछ हिस्सा धर्म की ओर जाय, और शेष अंश अधर्म की ओर जाय तो, तो क्या उसका  जीवन सफल होगा ? जीवन छिन्नभिन्न हो जायेगा। जीवन में पूर्णता नहीं आएगी, और उस दृष्टि से जीवन  सार्थक नहीं होगा, वह जीवन-पुष्प अपने समग्र सौन्दर्य के साथ (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य के साथ) कभी प्रस्फुटित नहीं हो सकेगा । यदि मनुष्य के समग्र जीवन में एक  ' integration ' या एकीकरण नहीं स्थापित हो सका, तो उसका जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण सही रूप में नहीं हो सकता है। 
मनुष्य के जीवन में धर्म का वही महत्व है, जो नाव में पतवार का होता है। नदी में नौका चल रही है, किन्तु उसमें यदि पतवार नहीं हो तो नाव कभी अपने गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँच सकेगी-जहाँ नौका को जाना चाहिए था, वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकेगी। उसी प्रकार जीवन में भी हमलोग बहुत तरह के प्रयत्न कर सकते हैं, जीवन में हमलोग कई प्रकार के कार्य कर सकते हैं। किन्तु हमारे सभी कर्म यदि धर्म पर आधारित नहीं हो, (शास्त्र-सम्मत कर्म नहीं रहें)  तो जीवन अपने निर्दिष्ट लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता है। यदि हमलोगों ने विवेक-प्रयोग के द्वारा निर्णय लेकर कोई पूर्व निर्दिष्ट जीवन-लक्ष्य बना लिया हो, तो अपने चिन्तन, विचार और जीवन को उस लक्ष्य की ओर ले जाने के लिये धर्म ही पतवार है। 
यदि हम अपने व्यवहारिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना चाहें, तो पहले यह समझ लेना होगा कि जीवन क्या है और व्यक्ति-जीवन में धर्म का स्थान कहाँ है ? जीवन विभिन्न भावों का 'mechanical blending' या मशीनी मिश्रण नहीं है, जीवन एक ही साथ जुड़ा हुआ, 'compound' या यौगिक वस्तु है। जीवन के विभिन्न उपादान (3H ) हो सकते हैं, किन्तु जीवन में वे सभी मिलकर संयुक्त या combined हो गये हैं, जीवन के साथ इस प्रकार घुलमिल गये हैं, वे इस प्रकार जुड़ चुके हैं, कि अब उसके उपादानों को पृथक नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से सामन्जस्यपूर्ण जीवन ही वह जीवन है, जो हमें लक्ष्य तक पहुंचा सकता है। वह जीवन ही यथार्थ जीवन है, जिसकी बुनियाद धर्म पर प्रतिष्ठित है। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में धर्म का उपयोग करने का अर्थ है, अपने चिन्तन-वचन-और कर्म में विवेक-प्रयोग करके ऐसा निर्णय लेंगे जो हमारे समस्त कार्यों को हमारे पूर्व-निर्धारित जीवन लक्ष्य की दिशा में ले जाने में सहायक होगा। विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कर्म (मानसिक,वाचिक,शारीरिक कर्म) करने में सक्षम होना ही व्यावहारिक जीवन में धर्म का प्रयोग करना है
              हमारे देश के प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन में चार पुरुषार्थ करने का सन्देश दिया है। किन्तु हम आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग, 'पुरुषार्थ' या इस प्रकार के अन्य शब्दों से (वर्णाश्रम धर्म आदि शब्दों से ?) परिचित नहीं हैं। यहाँ 'पुरुष' का अर्थ है-मनुष्य; इस शब्द को पुरुष और स्त्री के संदर्भ में नहीं लेना चाहिये। तथा 'अर्थ' का अनुवाद होगा- एक ऐसी प्राप्तव्य वस्तु, एक ऐसा लक्ष्य, एक ऐसी बहुमूल्य सम्पत्ति - जिसे प्राप्त करने की आकांक्षा प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करनी चाहिये, तथा उस लक्ष्य को इसी जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न भी मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष! यही वे चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें इस जीवन में पाने की आकांक्षा प्रत्येक व्यक्ति को करनी चाहिये। पहला पुरुषार्थ है- धर्म। यदि यह पुरुषार्थ जीवन में नहीं हो, या नहीं आ सके, तो हमलोगों के जीवन में अन्य जितने पुरुषार्थ या प्राप्तव्य वस्तुएँ हैं, उन्हें हम नहीं प्राप्त कर सकेंगे, और यदि प्राप्त कर भी लिये, तो उनका कोई मूल्य नहीं होगा। इसीलिये धर्म को सबसे पहले ग्रहण करना चाहिये। यह प्राप्त हो जाय तभी दूसरी वस्तुओं की सार्थकता है। यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है।
हमलोग सभी लोग यह जानते हैं, कि मन में यदि कोई कामना नहीं हो, तो मनुष्य का जीवन अचल हो जायेगा, ठहर जायेगा या गतिशून्य हो जायेगा। यदि ऐसा हो, कि मैं  कुछ भी न चाहूँ; तो फिर मैं ही नहीं रहूँगा। इसीलिये कोई न कोई कामना अवश्य रहेगी, तथा व्यवहारिक जगत के किसी वस्तु को पाने की कामना करें, या प्राप्त करना चाहें, या केवल सामान्य रूप से अपने जीवन का निर्वाह भी करना हो, तो अर्थ की आवश्यकता होगी। हमलोगों के जीवन में अर्थ की आवश्यकता अवश्य होती है, इसीलिये हमारे शास्त्रों में अर्थ की निन्दा, कहीं नहीं की गयी है। बल्कि अर्थ और काम दोनों की प्रशन्सा की गयी है। गीता 7/11 में हम श्रीकृष्ण का एक अद्भुत उद्धरण देखते हैं, वे कहते हैं, धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । " ... भैया अर्जुन,  मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ ! अर्थात ईश्वर ही मनुष्यों के भीतर कामरूप में अर्थात कामना रूप में अवस्थित हैं। वे कहते हैं - " यदि मैं न रहूँ, तो मनुष्य कोई कामना भी नहीं कर सकता, इसीलिये सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही कामरूप में अवस्थित हूँ। "  [हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है। यह शास्त्रसम्मत काम परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है।  ईश्वर प्राणिमात्र के मन में  'स्मर ' या काम के रूप में रहते हैं।  काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है। साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है। (शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं।) ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है। ]  
उसी प्रकार से हमारे ऋषियों ने अर्थ की भी प्रशंसा की है। महाभारत में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है, गीता-उपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गये तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गये। हालत यह हो गयी कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? क्या युध्ष्ठिर युद्ध नहीं करेंगे, या और कुछ करने जा रहे हैं ? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार हैं। इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गये और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। उन्होंने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार हैं-   
''अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। 
इति सत्यं महाराज, बध्दोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।''
 इसका सीधा अर्थ यही हैं कि ''महाराज, इस जगत में सभी पुरुष अर्थात सभी मनुष्य अर्थ के दास होते हैं। आदमी पैसे का गुलाम होता हैं, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात हैं। इसलिए हे महाराज भाग्य के दोष से अर्थ के कारण ही कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया हैं।''  पितामह भीष्म,  जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें, जब उनके जैसे लोग भी संसार के इस नियम को स्वीकार करते हैं, और इसे अटल (पक्का) नियम मानते हैं, और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल करते हैं, तो मानना ही पड़ेगा कि अप्रिय होने से भी- कि पुरुष अर्थ का दास होता है !' इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हमारे देश के पूर्वज लोग अच्छी तरह से जानते थे, कि हमारे जीवन में अर्थ की कितनी महत्ता है। इसीलिये उन्होंने ने अर्थ की कभी निन्दा नहीं की है। हमलोगों के देश में कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित सुन्दर अर्थशास्त्र बहुत प्रसिद्द था।
उसी प्रकार हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि जीवन में काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। कामनाओं को पूर्ण करने के लिये अर्थ की आवश्यकता अवश्य है; किन्तु अर्थ का उपयोग कहाँ करना है,उसके  व्यवहार को भी नियंत्रित रखना आवश्यक है। जिस प्रकार कामना-वासना के बेलगाम अत्याचार को सहन करते रहना उचित नहीं है; उसी प्रकार अर्थ का बिल्कुल दास बन जाना भी ठीक नहीं है। यदि कामनाओं को अत्यधिक छूट दे दी जाये, और अर्थ की वासना को परिमित नहीं रखा जाय तथा- 'और धन चाहिये', और धन चाहिए, करते रहा जाय तो मनुष्य की हालत कैसी हो जाएगी ?  इसका वर्णन गीता १६/१३ में बहुत अच्छे से किया गया है- 
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌। 
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌
- आज इस समय तो मैंने इतना धन प्राप्त किया है तथा इस धन से अमुक मनोरथ -- मनको संतुष्ट करनेवाला पदार्थ और प्राप्त करूँगा। और अब कल इस मनोरथ को -(बीच बाजार में एक बड़ा सा प्लोट ) प्राप्त कर लूँगा। इतना धन तो मेरे पास है और यह इतना धन मेरे पास अगले वर्ष में फिर हो जायगा? उससे मैं धनवान् विख्यात हो जाऊँगा। 

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।
 ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी
भावार्थ : (इसमें जो एक प्रोपर्टी डीलर बाधक शत्रु था ) आज वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, और कल उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, इस प्रकार मेरा प्रभुत्व क्रमशः बढ़ता जायेगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र के रणांगण में जिस समय अर्जुन को उपदेश देते हैं, कितनी अद्भुत बात कह रहे हैं। उनका  यह कथन बिल्कुल मानो आज के सामाजिक जीवन की अवस्था को उजागर कर रहा है। 
हमारे शास्त्रों में काम और अर्थ को त्याज्य नहीं कहा गया है, हमारे पूर्वजों ने केवल उन्हें नियंत्रित रखने या परिमित करने का उपदेश दिया है।  किन्तु अर्थ और काम के  उपर नियंत्रण रखने का उपाय क्या है ? केवल धर्म के द्वारा ही अर्थ और काम को नियंत्रण में रखा जा सकता है। धर्म का आश्रय लेकर, अर्थ और काम का भोग करो। और जब यह बात समझ में आ जाये कि भोगों में ही सबकुछ नहीं है। जब यह दिखाई देने लगे कि भोगों से यथार्थ शान्ति, आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता है, तब उस अवस्था में मनुष्य के चौथे पुरुषार्थ-मोक्ष को प्राप्त करने की आकांक्षा करनी चाहिये, और उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये । किन्तु उन चार पुरुषार्थों में से किसी एक में ही आसक्त नहीं होना चाहिये। षड्जगीता  ३८ में कहा गया है-
 धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या,यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः । 
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं, स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे
 यह जो 'धर्म-अर्थ-काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -मोक्ष के साथ नहीं हो सकती है।  इसलिये इन तीनों में -किसी भी एक प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये, या किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये। जो किसी एक में ही आसक्त हो जाता है, उसको घृणित या निन्दनीय माना जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने भी हमलोगों को ठीक यही सन्देश दिया है, वे हमलोगों को पूर्ण उद्द्य्म के साथ अर्थ-उपार्जन के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं- " धन कमाना चाहता है ? तो अमेरिका चला जा। मैं तुमको व्यापार करने की बुद्धि दूंगा। ....यहाँ बैठे रहने से क्या होगा ? यदि जाने का भाड़ा नहीं हो, तो जहाज का खलासी बनकर विदेश चला जा। देशी कपड़ा, गमझा, चद्दर को गट्ठर बना कर सिर पर लेकर अमेरिका-यूरोप की गलियों में फेरी लगा। कुछ छोटी छोटी वस्तुओं को वहां बेचो। देखोगे यही करते करते थोड़े दिनों में बुद्धि खुल जाएगी। तब देखोगे कि वे लोग भी तुम्हें सहायता देने लगेंगे। " भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को कह रहे हैं, तू सभी लोग मिल कर कमाओ, कहते हैं- क्या तुमलोग जेली,चटनी, आचार बना सकते हो ? इसको भी तुम विदेशों में निर्यात कर सकते हो। ये सब बिजनेस टिप्स स्वामीजी दे रहे हैं। कहते हैं, तुम्हारे पास कल-कारखाने कहाँ हैं ? " आज उनके जाने के १५० वर्ष बाद भी हमलोग बड़े बड़े कल-कारखाने लगाने की चर्चा करते हैं। स्वामीजी ने ये बातें कितने दिनों पहले कही थीं। 
एक बार जहाज से जापान जाते समय स्वामीजी की मुलाकात जमशेदजी टाटा के साथ हुई थी। रास्ते में  बातचीत होने लगी। स्वामीजी के पूछने पर जमशेदजी ने बतलाया कि वे दियासलाई का आयात करने के लिये जापान जा रहे हैं। स्वामीजी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा " आप दियासलाई आयात करने जापान जा रहे हैं ? उसमें क्या रहता है ? पतली सी लकड़ी का बना बॉक्स होता है, भीतर कुछ पतली पतली लकड़ी की कील (सलाई) रहती है, जिसके माथे पर थोड़ा बारूद लगा रहता है। ऐसी साधारण सी चीज का आयात करने जापान जा रहे हैं ? आप इसे भारत में निर्मित क्यों नहीं कर सकते हैं ? भारतवर्ष में ही इसका निर्माण कीजिये न। जो भी उद्द्योग लगाना हो, उसे भारत में ही लगाइये।" इसी मुलाकात के बाद से जमशेदजी के मन में उद्द्योग लगाने का धुन सवार हो गया। इसीके बाद जमशेदजी टाटा ने जमशेदपुर, झारखण्ड में एक बहुत बड़ा उद्द्योग स्थापित किया। उनकी प्रेरणा के श्रोत स्वामीजी ही थे।
आगे चलकर स्वामीजी के परामर्श से ही उन्होंने  विज्ञान के उपर एक शोध-संस्थान भी स्थापित किया था। भारत का प्रथम कृषि शोध-संस्थान भी स्वामीजी की ही प्रेरणा से अल्मोड़ा में स्थापित हुआ था, यह शोध-संसथान भारत के लिये अद्भुत वरदान सिद्ध हुआ है। उस समय स्वामीजी शरीर में ही थे। शोध-संस्थान खोलने के बाद जमशेदजी ने स्वामीजी से अनुरोध किया कि आप ही इसके डाइरेक्टर (directer) बन जाइये। वे समझ गये थे कि स्वामीजी के पास कॉमन सेन्स का भण्डार है, उनके शांत और परिष्कृत मन में इन सब के उपर नये नये विचार उठते ही रहते हैं। स्वामीजी के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। किन्तु स्वामीजी ने बहुत विनय के साथ उनके  डाइरेक्टर होने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। क्योंकि स्वामीजी का यह कार्य था ही नहीं। आज तो भारत में कई शोध-संसथान खुल चुके हैं, किन्तु भारत का प्रथम शोध-संस्थान स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से ही स्थापित हुआ था। वे कहते हैं, " तुमलोग जो कुछ भी करो-अपने देश में ही (स्थापित ) करना। तुमलोग विदेश जाओ और वहाँ से तकनिकी ज्ञान सीख कर अपने देश में कल-कारखाने स्थापित करो। फिर कहते हैं, तुमलोग जापान जाओ, वहां से मशीन निर्माण की कला सीखो, और देश की धरती पर नयी नयी वस्तुओं का उत्पादन करो।"कहते हैं, भारत में तो खनिज पदार्थों की तो भरमार है। विदेशी लोग उसी कच्चे-माल का उपयोग करके, नये रूप में ढाल कर, पुनः उसे भारत में बेचकर  सोना उगा रहे हैं। और तुमलोग देश में इतनी खनिज-सम्पदा रहने पर भी कुछ नहीं कर पा रहे हो ? वे तो यहाँ तक कहते हैं, कि " तुमलोग 'luxury goods' या विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन भी प्रारम्भ करो। कहते हैं, बहुत अधिक भोग में डूबे रहना अवश्य अच्छा नहीं है; किन्तु अधिक परिमाण  में  'consumer goods' का उत्पादन करने से क्या होगा -जानते हो ? इससे देश में नये नये रोजगार के अवसर पैदा होंगे।(3/334) "
स्वामीजी ने अर्थ की निन्दा कभी नहीं की है, और न काम की ही निन्दा किये हैं। उन्होंने अर्थ की उत्पत्ति करने को कहा है, भोग भी करने को कहा है, कहते हैं- सब कुछ करो, किन्तु धर्म के द्वारा उसको नियंत्रण में रखो। स्मरण रहे कि अर्थ और काम का भोग करने में अन्धे होकर धर्म का त्याग नहीं करना है। यदि धर्म को त्याग कर यह सब करोगे तो सब कुछ नष्ट हो जायेगा।अल्बर्ट आईन्स्टाईन एक विश्व-विख्यात वैज्ञानिक हैं, विज्ञान की प्रगति के विषय में विवेचना करते समय एक स्थान पर वे कहते हैं, अच्छा आज विज्ञान में इतनी प्रगति आप देख रहे हैं, उसकी प्रेरणा का श्रोत कहाँ है ? सुनकर आश्चर्य होता है, वे कहते हैं- नूतन वैज्ञानिक अविष्कारों की प्रेरणा का श्रोत है धर्म। यदि धर्म नहीं होता तो विज्ञान में ऐसी प्रगति भी नहीं हो सकती थी।
स्वामीजी कहते है, यदि धर्म को आधार मान कर लोक-व्यवहार करोगे, तो तुम्हारी बुद्धि स्फुरित होने लगेगी, तुमलोगों की कार्यक्षमता (efficiency) बढ़ जाएगी, जीवन का भोग दक्षता के साथ कर पाओगे, बेकार बैठे लोगों को, बेरोजगार लोगों को तुम स्वयं रोजगार देने में समर्थ हो जाओगे। वे एक स्थान पर अत्यंत आश्चर्य जनक बात कहते हैं, कहते हैं-धर्म का अर्थ है भोग ! इसको समझाते हुए कहते हैं, तुम्हारे वेदों में क्या है ? देखो समस्त वेद में है, केवल भोग, भोग और भोग। वेदों के संहिता भाग में केवल यही कहा गया है कि किस प्रकार मनुष्य को इहलोक और परलोक में अधिक से अधिक भोग और सुख प्राप्त हो सकता हैं? स्वामीजी कहते हैं कि भोग पूरा हुए बिना त्याग नहीं हो सकता है। मोक्ष, त्याग या वैराग्य तो सबसे अन्तिम बात है। सामान्य मनुष्यों के लिये पहले भोग को पूरा करना आवश्यक होता है। और इसकेलिये अर्थ उपार्जन करना भी आवश्यक होता है। किन्तु इन दोनों को नियंत्रित रखने के लिये धर्म की आवश्यकता होती है।

व्यवहारिक जीवन में धर्म का अर्थ है, हमलोग बहुत बड़े कर्मवीर बनेंगे, सबकुछ करेंगे, किन्तु धर्म को भी बनाये रखना होगा। स्वामीजीने भारतीय लोगों की तीखे शब्दों में निन्दा भी की है। वे कहते हैं, तुमलोग पूरी तरह से तमोगुण द्वारा भर गये हो। तुमलोग माटी के पुतलों के सदृश्य हो। तुमलोगों के इस जड़ शरीर को हिलाडुला कर जगाने के लिये ही मैं धरती पर आया हूँ। मैं तुमलोगों में रजोगुण का संचार करना चाहता हूँ। कहते हैं, तुमलोग रजोगुण के बल पर खड़े हो जाओ। हम सभीलोग रजोगुण के लक्षण के विषय में जानते हैं, रजोगुण से प्रेरित मनुष्य निरंतर कर्म करने में लगा रहता है। इसीलिये कहते हैं, तुमलोगों में रजोगुण का संचार हो। तुमलोग कर्मठ या कर्मतत्पर मनुष्य बनो। नई नई वस्तुओं का निर्माण करो, जीवन में भोग करो, किन्तु यह सब धर्म के द्वारा संचालित होकर करो; किन्तु  यह भी याद रखना कि समस्त भोग करके भी यथार्थ शान्ति नहीं मिलेगी।
हमारे देश की बहुत प्राचीन कथा है, राजा ययाति की कहानी को हम सभी लोग जानते हैं। हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ है, रजा भरत के नाम पर। वे उसी राजा भरत के पूर्वज थे। उनका नाम ययाति था। राजा ययाति की कहानी वेदों में है, पुराणों में भी है, विभिन्न धर्मग्रंथों के माध्यम से भी हमलोगों में से अधिकांश उसकी कहानी सुने हैं। वे धर्म को भूल कर केवल अर्थ और काम में डूबे रहते थे। उनकी अवस्था ऐसी होगयी थी कि जीवन में बहुत भोग करने के बाद भी उनको तृप्ति नहीं हुई, उनको शान्ति नहीं मिली। एक बार उन्होंने कोई  बहुत बड़ा दुष्कर्म कर दिया, उससे अभिशप्त होकर बुढ़ापे से ग्रस्त हो गये थे। बुढ़ापा के कारण वे संसार के सामान्य भोग करने में वे असमर्थ हो गये थे। जिस व्यक्ति ने उनको शाप दिया था, उसके पास जाकर वे बहुत अनुनय-विनय करने लगे कि उनको किसी प्रकार इस बुढ़ापे से मुक्ति प्राप्त हो जाय। उन्होंने कहा एक बार जब शाप दे दिया हूँ, तो उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। किन्तु एक उपाय हो सकता है। यदि कोई दूसरा व्यक्ति, या कोई युवा तुम्हारे बुढ़ापे को ले ले, और अपना यौवन तुमको प्रदान करदे, तब तुम फिर से अपनी जवानी को वापस प्राप्त कर सकते हो। वे भला किससे यह बात कह सकते थे ? उन्होंने अपने पुत्र से ही यह बात कही, और उसके यौवन के बदले अपना सम्पूर्ण राज्य देने का वादा किये। उनका सबसे छोटा पुत्र इसके लिये तैयार हो गया। उसने ययाति से उसका बुढ़ापा ग्रहण करके अपना यौवन उसको सौंप दिया। कहा जाता है कि अपने पुत्र के यौवन को लेकर राजा ययाति ने जगत के हर सुख का भोग किया। सबकुछ का भोग करने के बाद भी देखे कि उसमें शान्ति नहीं है। काम का उपभोग करके कामना को प्रशमित नहीं किया जा सकता है। काम का उपभोग करते रहने से कामना भी उसी प्रकार क्रमशः बढ़ती जाती है, जिस प्रकार आग में घी डालने से आग क्रमशः और भी बढ़ती जाती है। उसी प्रकार कामना को परिपुष्ट करते रहने से, वह कभी प्रशमित नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। इससे कभी शान्ति नहीं मिलती। संसार में जितने भी भोग्य वस्तुयें हैं, जितना भी ऐश्वर्य है, जितनी भी सम्पदा है, वह सब का सब किसी एक ही मनुष्य को दे दिया जाय फिरभी उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है। यह जान लेने के बाद अन्त में सभी मनुष्यों कामना-वासना का त्याग करना ही पड़ता है। यही है हमलोगों के देश की शिक्षा।
इसीलिये हमलोगों के व्यावहारिक जीवन में धर्म का क्या स्थान है- इसे भली भाँति समझ लेना आवश्यक है। धर्म की सहयता लिये बिना यदि हमलोग भोग के जीवन, अर्थ उपार्जन और व्यबहार के जीवन को जीते रहें, तो हमलोगों का जीवन अन्तिम अवस्था में अशान्ति से भर जायेगा। हममें से अधिकांश लोगो के जीवन में यही हो रहा है। जीवन में धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर लिये, गाड़ी-जमीन-मकान-दुकान, रुपया-पैसा बहुत कम लिये। किन्तु अन्तिम अवस्थामे जीवन में घोर अशान्ति छा गयी। पेट फुल गया, बदहजमी का शिकार बन गये, ब्लडप्रेशर,सुगर इत्यादि रोग पकड़ लिया, और लड़के-बच्चों में धन-दौलत को लेकर झगड़ा और केस-मुकदमा चलने लगा। कुछ खा नहीं सकते हैं, ठीक से चल नहीं पाते हैं, रात में नीन्द नहीं आती है। किन्तु धन के घड़ियाल हैं। घर में हर प्रकार की भोग-सामग्री है, किन्तु शान्ति नहीं है, कुछ भी नहीं है। उसी टेन्टलस के नरक जैसी अवस्था है। गले तक जल में ही डूबा हुआ हूँ, किन्तु एक बून्द जल मुख में डालने का उपाय नहीं है। तृष्णा से छाती फटी जा रही है, किन्तु किन्तु उसको मिटाने के लिये, एक बून्द जल ग्रहण करने का उपाय नहीं है। चारो और भोग की वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं, देख-देख कर ललचा रहे हैं, किन्तु भोग करने की हिम्मत नहीं है, फिर भोग की इच्छा बनी हुई है, शान्ति नहीं मिलती है। इसीलिये जीवन के प्रारंभ में ही धर्म क्या है, इसे ठीक से समझकर जीवन के समस्त कार्यों में उसका ही सहारा लेकर चलना हमलोगों का कर्तव्य है।
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मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना-निबन्ध संख्या -50 - 'ব্যবহারিক জীবনে ধর্ম'
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[The institute was established at Kolkata by Padma Bhushan late Prof. Boshi Sen on July 4, 1924 and named it as Vivekananda Laboratory.  The Laboratory was permanently shifted to Almora in 1936 and was being run on donations and grants till it was handed over to Uttar Pradesh Government in 1959. On October 1, 1974, ICAR took it over and rechristened it as Vivekananda Parvatiya Krishi Anusandhan Sansthan.]
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 " If the many and the One be indeed the same Reality, then it is not all modes of worship alone, but equally all modes of work, all modes of struggle, all modes of creation, which are paths of realisation. No distinction, henceforth, between sacred and secular. To labour is to pray. To conquer is to renounce. Life is itself religion. To have and to hold is as stern a trust as to quit and to avoid.

" आध्यात्मिक (spiritual ) और व्यावहारिक (practical ) जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है, उसे मिट जाना चाहिये; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड जीवन (सत्ता) के सम्बन्ध में उपदेश देता है-वेदान्त कहता है कि एक प्राण सर्वत्र विद्यमान है। अतः धर्म के आदर्शों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रविष्ट करना चाहिए, हमारे प्रत्येक विचार में प्रविष्ट करना चाहिये और कर्म को अधिकाधिक प्रभावित करना चाहिये। पहले हमें अपने दैनन्दिन जीवन में तात्विक ज्ञान का प्रयोग करना चाहिए, और यह समझना चाहिये कि ये सिद्धान्त किस तरह पर्वतों की गुफाओं और अरण्यों, मठों की चहारदीवारियों में से निकलकर किस प्रकार कोलाहल पूर्ण नगरों, और जीवन के व्यस्ततम कार्यक्षेत्रों में भी कार्यान्वित किये गए हैं ? इन सिद्धान्तों, वेदान्त के महावाक्यों - की एक विशेषता यह कि इनमें से अधिकांश निर्जन अरण्यों में तपस्या करने से प्राप्त नहीं हुए हैं, किन्तु जिन व्यक्तियों को हमलोग सर्वाधिक व्यस्त या कर्मण्य मानते हैं, वैसे राजसिंहासन पर बैठे राजर्षि जनक, दसरथ आदि अनेक राजा -महाराजा ही तात्विक ज्ञान के प्रणेता हैं ! " 8/3   
PRACTICAL VEDANTA/ PART I:  " the fictitious differentiation between religion and the life of the world must vanish, for the Vedanta teaches oneness — one life throughout. The ideals of religion must cover the whole field of life, they must enter into all our thoughts, and more and more into practice....  we must first apply ourselves to theories and understand how they are worked out, proceeding from forest caves to busy streets and cities; and one peculiar feature we find is that many of these thoughts have been the outcome, not of retirement into forests, but have emanated from persons whom we expect to lead the busiest lives — from ruling monarchs."

The Vedanta recognises no sin, it only recognises error.....  Every time you think in that way, you, as it were, rivet one more link in the chain that binds you down, you add one more layer of hypnotism on to your own soul. Therefore, whosoever thinks he is weak is wrong, whosoever thinks he is impure is wrong, and is throwing a bad thought into the world. This we must always bear in mind that in the Vedanta there is no attempt at reconciling the present life — the hypnotised life, this false life which we have assumed — with the ideal; but this false life must go, and the real life which is always existing must manifest itself, must shine out. No man becomes purer and purer, it is a matter of greater manifestation. The veil drops away, and the native purity of the soul begins to manifest itself. Everything is ours already — infinite purity, freedom, love, and power. वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, भ्रम स्वीकार करता है। ... जो व्यक्ति अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है, जो अपने को अपवित्र मानता है, वह भ्रान्त है। वह जगत में एक असत विचार प्रवाहित करता है। हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि वेदान्त में हमारे इस वर्तमान हिप्नोटाइज्ड-जीवन, हमारे द्वारा सम्मोहित होकर स्वयं को केवल शरीर मानकर, मृत्यु के भय से भेंड़ के समान 'में- में' करते हुए मिमियाने वाले मिथ्या जीबन का -भेंड़त्व का त्याग कर अपने यथार्थ सिंह-स्वरुप में प्रतिष्ठित हो जाने का उपदेश देता है। ऐसा होने पर इस वर्तमान परिवर्तनशील हिप्नोटाइज्ड जीवन के पीछे जो शाश्वत अविनाशी भ्रममुक्त, जीवन सदा वर्तमान है, वह अमरत्व, वह जीवनमुक्ति अपने को प्रकाशित करने लगेगी। यह नहीं कि मनुष्य पहले की अपेक्षा अधिक पवित्र हो जाता है, बात केवल स्वरुप या सिंहत्व के अधिकाधिक अभिव्यक्ति की है। विवेक-प्रयोग करते रहने से आवरण क्रमशः हटता जाता है, और आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता प्रकाशित होने लगती है। यह अनन्त पवित्रता , जीवन्मुक्त स्वभाव , प्रेम और ऐश्वर्य पहले ही से हममें में है।       
    मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थिति और अभाव की तारतम्यता पर निर्भर है। ... जिसमें आत्मविश्वास नहीं है, वही नास्तिक है। प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर और धार्मिक शास्त्रों ( वेद, बाइबिल ,कुरान,आदि में विश्वास नहीं करता , वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है , जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस व्यष्टि अहं बोध या क्षुद्र 'मैं'-बोध को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। 8/12     
हमारे आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है , उसे मिट जाना चाहिये; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बन्ध में उपदेश देता है -वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण सर्वत्र विद्यमान है।केवल एक ही जीवन है, एक ही जगत है, और वही हमलोगों के सामने अनेकवत प्रतीत होता है। यह अनेकता स्वप्न सदृश है। 





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