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शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

" जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित शिक्षक के महाजीवन का संदेश ' ['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 8 ]

['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 8 / मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' निबन्ध संख्या -9 -' স্বামী বিবেকানন্দের চিন্তাধারা !"] 
महाजीवन का संदेश 
'जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में गठित (प्रशिक्षित शिक्षक) स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा (ideology) को सम्यक रूप से समझ लेना बहुत ही कठिन है। उनके किसी एक निबन्ध या भाषण में किसी एक विषय पर, चाहे उसमें जितना भी तथ्यपूर्ण या अर्थपूर्ण  विश्लेषण क्यों न प्रस्तुत किया गया हो, उन विचारों के प्रवाह को एक ही दिशा में प्रवाहित देखकर, यदि यह समझ लिया जाय कि स्वामी जी विचारधारा मात्र यही है; तो उस विचारधारा के संबंध में यह सम्यक अवधारणा नहीं हो सकती। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकों को नियमित रूप से पढ़ना और उसपर मनन करना, फिर उन्हें चरित्रगत करना अत्यन्त आवश्यक है। स्वामी जी को आराम से बैठकर समस्त विषयों के उपर सारगर्भित निबन्ध लिखने का या तो समय मिला था, या उन्होंने इसकी आवश्यकता महसूस नहीं की थी। किन्तु, फिर भी अपने कथोपकथन के द्वारा या भाषणों अथवा पत्रों के माध्यम से, या कभी कुछ अस्फुट नोट आदि लिखकर उन्होंने समस्त विषयों की गहराई में जाकर, उनको हमारे समक्ष अत्यन्त स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया है।
जब हम अन्य विचारकों के द्वारा बहुत से विषयों पर लिखित पुस्तकों का अध्यन करते हैं, तो उन विषयों पर स्पष्ट धारणा बनाने में हमारी बुद्धि भ्रमित हो जाती है। किन्तु, यदि स्वामी जी की विचारधारा (ideology) या  विचार-पद्धति के साथ हमारा सम्यक परिचय हो जाये तो, वे समस्त भ्रम-भ्रान्तियाँ तो दूर होंगी ही, साथ ही साथ हम प्रत्येक विषय के यथार्थ भाव के मूल में पहुँचकर सहजता से उसकी स्पष्ट धारणा भी बना सकेंगे।इतना ही नहीं, हम उस धारणा को हम अपने जीवन में उतार लेने में समर्थ होंगे और हमें यह अवश्य ही करना चाहिये। हमें यह अवश्य समझ लेना चाहिये कि भले ही कोई तात्विक ज्ञान कितना भी महान और सुन्दर क्यों न हो, जब तक वह ज्ञान कार्य में रूपायित नहीं हो जाता, तब तक हमारे जीवन के लिये उसका कुछ भी मूल्य नहीं है। किसी भी ज्ञान का मूल्य उसको व्यवहार में उतारने तथा उससे प्राप्त उसके शुभ फल पर निर्भर करता है। 
[PRACTICAL VEDANTA: "My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy."  " मेरा धर्म सत्यधर्म है, तुम्हारा धर्म पाखण्ड है ! ] 
किसी तात्विक -ज्ञान को व्यवहार में उतारने अथवा उसे चरित्रगत करने के लिए, जब उसके ऊपर गहराई से चिन्तन-मनन किया जाता है, तब उस प्रकार के चिन्तन को " Pragmatic Thinking" या व्यावहारिक चिन्तन कहा जाता है। इसीलिये, 'Pragmatism**' या प्रयोगात्मक सिद्धान्तों को एक दार्शनिक मतवाद के रूप में भी स्वीकार किया जाता है। किन्तु, आजकल किसी के विचार को ठीक से जाने-समझे बिना ही उसके साथ 'ism' या 'वाद' जोड़ देने की प्रथा सी चल पड़ी है। (जैसे श्रीशंकर का अद्वैतवाद, श्रीरामानुज का विशिष्टा-द्वैतवाद, श्री चैतन्य का भेदाभेद-वाद आदि आदि;  एक विश्वास या विश्वास करने की प्रणाली को 'वाद' कहा जाता है।)  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) को भी ठीक से जाने- समझे बिना, उनके लिए कोई विशेष वाद जोड़ने की हड़बड़ी में कह दिया जाता है कि,  स्वामी जी तो एक भावराज्य में विचरण करने वाले, कल्पनावादी या एक आदर्शवादी (Idealistic) मानव थे। हाँ, यह ठीक है कि स्वामी विवकानन्द भावराज्य या मनोराज्य में विचरण करने वाले एक कल्पनाशील (Imaginative) मनुष्य थे, किन्तु उनके लिए इस विशेषण का प्रयोग तभी किया जा सकता है, जब कहने वाले और सुनने वाले यह अच्छी तरह से जानते और समझते हों कि यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड ही मनःकल्पित है ! इसीलिये विचारों को ही सबसे प्रभावकारी वस्तु माना जाता है !
[ ऑटोसजेशन का अभ्यास को Most effective,मति = bias, बुद्धि के पक्षपातपूर्ण झुकाव, पूर्वाग्रह को ही सबसे प्रभावकारी वस्तु माना जाता है। अवधूत गीता -२/२६ में कहा गया है-"अंते या मति: सा गति:" अर्थात जब प्राण निकले, उस क्षण  हमारी जैसे मति हो वैसी ही हम को गति मिलेगी। अंतिम समय में ही मनुष्य के लिए 'मुक्ति या बंधन' तय हो जाता है। 'या मति सा गतिर्भवेत',अपने भेंड़ समझोगे तो भेंड़ ही बने रहोगे, अपने को सिंह समझोगे तो सिंह बन जाओगे !  इसीलिए कहना पड़ेगा कि इस मनःकल्पित जगत में विचार या 'मति' ही सबसे प्रभावकारी वस्तु है।] 
किन्तुस्वामी जी के मतानुसार जीवन के जिस क्षेत्र को हमलोग वास्तविक या व्यावहारिक क्षेत्र (Practical Side) समझते हैं, जिसको हमलोग 'पंचेन्द्रीय ग्राह्य भौतिक जगत' या बाह्य जगत कहते हैं,  यदि हमारा तात्विक-ज्ञान जीवन के उस व्यावहारिक पक्ष के लिये ही उपयोगी न हुआ, या शुभफल प्रदान नहीं करता हो, तो उस तात्विक-ज्ञान या सिद्धान्त का कुछ भी मूल्य नहीं है। इसीलिये यदि गहराई में जाकर देखा जाय, तो स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति या (ideology) भवराज्य की वस्तु न होकर, वास्तव में 'Pragmatic' या व्यवहार-मूलक विचार ही है! बल्कि सच तो यह है कि स्वामी विवेकानन्द जैसा व्यवहारिक विचार-सम्पन्न चिन्तक, या जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र के ऊपर सर्वाधिक जोर देने वाले सिद्धान्तवादी (theoretician) बहुत कम ही हुए हैं। फिरभी हमलोग यदि अधकचरे आलोचकों से प्रभावित होकर यह कहना शुरू करदें कि स्वामी जी एक ऐसे कल्पनावादी विचारक हैं, जो रहते तो धरती पर हैं, किन्तु हमेशा आसमान में ही विचरण करते रहते हैं; तो उससे उनकी शिक्षाओं के विषय में हमारी अज्ञता ही प्रदर्शित होगी। जबकि स्वामी जी की शिक्षा तो यह है कि -'उठो, जागो ! और जबतक लक्ष्य पर न पहुँचो रुको मत !' अर्थात चट्टानी भूमि पर खड़े होकर, साक्षी भाव से संसार की वास्तविकता को समझो ! वे हमें अपने पैरों पर खड़े होने की सीख देते हैं। उनका उपदेश था कि "चट्टानी भूमि पर पैरों को दृढ़ता पूर्वक स्थापित कर, बाँहों को फैला लो !" [अर्थात सम्पूर्ण विश्व को ही अपने आलिंगन में भर लो!] स्वामी जी वास्तव में एक उपयोगबुद्धि (resourcefulness, चातुर्य, उपायकुशलता ) सम्पन्न विचारक ही थे, इस बारे में सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं हो सकती है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द के साथ निकट सम्पर्क में आने से, सबसे अधिक लाभ वैसे व्यक्ति ही उठा सकते हैं, जो स्वयं को व्यवहारिकबुद्धि-सम्पन्न समझते हैं, या अपने को Pragmatic, या व्यवहारमूलक व्यक्ति मानते हैं। किन्तु उनकी शिक्षाओं में सन्निहित कूटशब्दों, जैसे "पहले हमें ईश्वर बन लेने दो, फिर दूसरों को ईश्वर बनने में सहायता करेंगे, 'Be and Make' let this be our motto " आदि महावाक्यों को 'decode' करने या समझने के लिए, हमें स्वामी विवेकानन्द के हृदय में प्रवेश करने की चेष्टा करनी होगी। परन्तु, ऐसा कर पाने में समर्थ हो जाना, उसी प्रकार सरल नहीं है, जिस प्रकार कोई मीर्च कितनी तीखी है, उसकी तिक्तता को ज्ञात करने के लिए किसी दूसरे के मुख का उपयोग नहीं किया जा सकता। अतः यदि हमलोग स्वामी जी के साथ निकट का सम्पर्क स्थापित करने के लिये उत्साहित हों, तो इतना जान लेने से ही काम नहीं चलेगा कि, उनके विषय में फलां -फलां व्यक्तियों का कहना है ?  स्वामी जी को जानने के लिये हमें (চর্চা ও চেষ্টা ) स्वयं प्रयत्न करके उनकी शिक्षाओं को आचरण में उतारने का अभ्यास द्वारा स्वामी जी के साथ साक्षात् संबंध स्थापित करना पड़ेगा। स्वामी जी ने स्वयं जो कुछ कहा है या लिखा है, उसके अविकृत (untwisted, un-distorted) अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ने के बाद, उसके उपर परस्पर गहन चिन्तन-मनन करने, और अपने आचरण में उतारने का प्रयत्न करने से ही हमलोग उनका सही परिचय प्राप्त कर सकते हैं, तथा हमारे लिए ऐसा करना प्रयोजनीय भी है। 
यूँ तो स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है, फिर भी उनकी प्रशंसा एक महान देशभक्त के रूप में की जाती है; और निश्चित ही इस विषय में कुछ लोग उनकी निन्दा भी करते हैं।सच पूछा जाये तो स्वामी जी का देशप्रेम सबसे विलक्षण और अनन्य है। एक स्थान पर उन्होंने कहा भी है, कि चाहे भारतवर्ष हो या अमेरिका एक सर्वत्यागी संन्यासी के लिये सभी एक समान हैं। किन्तु, फिर भी जब वे पहली बार विदेश से वापस लौटकर भारत की भूमि पर अपना कदम रखते हैं, तो कहते हैं- " अब मेरे लिये भारतवर्ष का धूल-कण भी पवित्र और महान है तथा वह मुझे प्राणो से भी ज्यादा प्रिय है।" ऐसा उन्होंने क्या सोचकर कहा होगा ? इस बात की व्याख्या कभी शब्दों में नहीं हो सकती।
 जिस विचाधारात्मक परम्परा (Ideological Tradition) में इस धारणा की उपलब्धि का स्रोत सन्निहित है, वही विचारपद्धति (ideology) हमारे निजी जीवन और विश्व भर के मानवों के लिए परम् कल्याणकारी है। उसी विचारधारात्मक परम्परा को "जीवन्मुक्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" या आधुनिक भाषा में " Puri Lineage ' अर्थात नित्य और लीला दोनों को सत्य मानने वाली परम्परा"  भी कहा जा सकता है। [जैसे श्रीमद तोतापुरी-श्रीरामकृष्ण; श्रीरामकृष्ण- स्वामी विवेकानन्द; स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर ....श्रीनवनीदा, श्रीशरदचन्द्र चक्रवर्ती .... आदि, आदि प्रशिक्षित/जीवन्मुक्त शिक्षकों की 'पुरी परम्परा'। इसको ही  महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर में "Be and Make Leadership training tradition" भी कहा जाता है।] 
इस विचारधारात्मक परम्परा (Ideological Tradition)  के जैसी उपादेय, इतना उपकारी भावधारा (ideology) और भी कहीं प्राप्त हो सकती है या नहीं , इसका ज्ञान हमें नहीं है। दूसरे कई विचारकों ने भी बहुत सी अच्छी-अच्छी  बातें कही हैं, जिनके कुछ सदविचारों को हम भी ग्रहण कर सकते हैं। किन्तु, जिनके मुख से जो भी वाणी निकली, वह केवल मानव-कल्याण के लिए ही हों, स्वामी विवेकानन्द (नवनीदा?) के सिवा वैसा कोई दूसरा उदाहरण दिखलायी नहीं पड़ता है। मानव-कल्याण के लिए जितने भी विचार उपयोगी हो सकते हैं, वैसे समस्त विचारों के अकूत भण्डार होने के कारण स्वामी जी अनन्य हो जाते हैं। वे हमारे लिए विस्मय और श्रद्धा के पात्र बन जाते हैं; इसीलिये महामण्डल ने उनको अपने आदर्श के रूप में ग्रहण किया है। सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिये स्वामी जी ने अनेक विषयों के ऊपर अपने विचारों को, अनेक प्रकार से प्रस्तुत किया है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द के उन समस्त विचारों और उक्तियों में  "नित्य और लीला" के बीच एक संगतता (consistency) है, अविरोध की आन्तरिक धारा है, एक आश्चर्यजनक संसर्ग (Exceptional link) है। 
और इसी 'अविरोध' के आधार पर उन्होंने जाति-प्रथा और नारी-शिक्षा से प्रारम्भ कर सभी कल्याणकारी भावों, अन्तरराष्ट्रीय एकता या विश्व-शांति आदि विभिन्न ज्वलंत समस्याओं का अचूक समाधान भी हमारे समक्ष रखा है। किन्तु, अन्य विचारकों के जैसा एक एक विषय (topic) को अलग -अलग ढंग से लेते हुए, उनके बारे में बहुत सोच-सोच कर कुछ नहीं कहा है। इस समग्र विश्व ब्रह्माण्ड का 'सत्य ' उनकी आँखों के सामने मानो हर क्षण तैरता रहता था। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -अर्थात केवल 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' ही नहीं, बल्कि 'नित्य भी सत्य है और लीला भी सत्य' 'वन हैज बिकम दी मेनी!' यह सत्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था। क्योंकि उन्होंने (জগৎ ও জীবনের ভূয়োদর্শন) उन्होंने " जगत और जीवन" का साक्षात् दर्शन ('भूयोदर्शनoutrageous experience, अर्थात  परमसत्य और सापेक्षिक सत्य के बीच एक  चौंका देने वाला अनुभव!) प्राप्त किया था।
क्योंकि वे तो थे ही 'विवेकज ज्ञान' के अधिकारी महापुरुष। इसी अधिकार के बल पर उनके लिए समस्त समस्याओं के तह में जाकर उसका चिरस्थाई निदान (Sustainable Diagnosis) खोज पाना आसान हो गया था। और तभी तो, उनके लिए इतने सारे विषयों के ऊपर , इतने अधिकार पूर्ण ढंग से-व्याख्यान देना सम्भव हो सका था। अतः हमलोगों को पहले यह समझ लेना चाहिए कि शास्त्रविरोधी कर्मों या निषिद्ध कर्मों से विरत हुए बिना,किसी साधारण अविवेकी-मनुष्य के जैसा (पाशविक) जीवन व्यतीत करते हुए,  हम स्वामी विवेकानन्द का सम्यक परिचय कभी नहीं प्राप्त कर सकते। 
स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) का सम्यक अन्वेषण केवल विवेक-प्रयोग द्वारा ही सम्भव हो सकता है, क्योंकि उनका तो नाम ही विवेकानन्द था; जिसका अर्थ होता है-वह महापुरुष जिसने 'विवेकज-ज्ञान' के माध्यम से 'परमानन्द' के ऊपर अधिकार प्राप्त किया है। [और जैसे नवनीहरण ने नाम का अर्थ है जिसने अद्वैत माखन को चुरा लिया है ?] हमलोग भी उन्हीं के समान अद्वैत ज्ञान  को प्राप्त करना चाहते हैं, 'अमर-आनन्द' के भागीदार (sharers of immortal bliss) बनना चाहते हैं, सभी प्रकार के दुःखों से निवृत्ति चाहते हैं। किन्तु , हमारी मुश्किल यह है कि  हमलोग उनके समान अपनी अन्तर्निहित 'विवेक-शक्ति' का प्रयोग करने की चेष्टा नहीं करते। 
विवेक का प्रयोग कैसे किया जाता है ? इस विद्या को हम यदि सीख लें तो हम भी दुःख के कारणों को समूल नष्ट कर सकते हैं। विवेक का अर्थ होता है, 'सद-असद निर्णय।' अर्थात शाश्वत क्या है, नश्वर क्या है, श्रेय क्या है, प्रेय क्या है- विवेक-प्रयोग करने के बाद इसका निर्णय करना फिर उसे अपने व्यवहार में उतारने की चेष्टा करना। इसी को प्रचलित भाषा में शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित का निर्णय करना कहते हैं। किन्तु उचित-अनुचित का निर्णय करते समय हमलोग अक्सर भ्रमित हो जाते हैं। क्योंकि, हमलोगों की स्वाभाविक वृत्ति ही ऐसी है कि जो विषय इन्द्रियों को अच्छे लगते हैं, मन उसी को अपने लिए अच्छा मानने लगता है, और ग्रहण करना चाहता है। जो इन्द्रियों को अप्रिय लगता है, मन भ्रमित होकर उसी को अपने लिए बुरा मानने लगता है, और उसी को त्याग देना चाहता है। जैसे -रसगुल्ला मुख में रखने से अच्छा लगता है, किन्तु तिक्त वस्तु चाहे दवा ही क्यों न हो, उसे हम खाना नहीं चाहते , उसको त्यागना चाहते हैं।
 इसीलिये गीता 3:42 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।
पण्डित लोग  इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर (श्रेष्ठ) कहते हैं, इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ  है वह है आत्मा। इस चैतन्यस्वरूप आत्मा के परे और कुछ नहीं है। 
इसीलिये महामण्डल में 'चित्तनदी के उभयतोवहिनी प्रवाह' पर वैराग्य का फाटक लगाकर, 'विवेक-दर्शन' का प्रशिक्षण दिया जाता है। जहाँ हम  मनः संयोग करते समय 'विवेक-प्रयोग' के द्वारा शरीर, मन और बुद्धि उपाधियों से अपने तादात्म्य को हटाकर आत्मस्वरूप में स्थित होने का सजग प्रयत्न करना सीखते हैं। 
इस 'विवेक-प्रयोग' विद्या सीखने के साथ-साथ, हमारे लिए यह जानना भी अतयन्त उपयोगी होगा कि   'विवेकज ज्ञान ' किसे कहते हैं ? पातंजलि योगसूत्र (3 :54)  में कहा गया है - 'तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।' (अन्वयः तारकम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् – सबको जानने वाला है,  सर्वथाविषयम् – सब प्रकार से जानने वाला है, च – एवं, अक्रमम् – बिना क्रम के,  वह, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान है।) 
अर्थात वह ज्ञान जो एक साथ समस्त विषयों की जानकारी देने में सक्षम होता है, जिसे प्राप्त कर लेने पर सभी अवस्थाओं की सम्यक जानकारी हो जाती है। और जो समस्त समस्यायों से त्राण प्रदान करता है, मुक्ति दिला सकता है,उसको ही विवेकज ज्ञान कहते हैं। 
जैसा कि सामान्य तौर पर ज्ञान-अर्जित करने के क्षेत्र में, एक के बाद एक करके, ज्ञान क्रमशः प्राप्त होता है, विवेकज-ज्ञान भी उसी प्रकार के क्रम से प्राप्त होने वाले ज्ञान के जैसा नहीं है। वह ज्ञान बिना क्रम के-अर्थात एक मुहूर्त में होता है।  इस प्रकार 'विवेकज ज्ञान' अर्थ हुआ -भूत, भविष्य, और वर्तमान में घटित होने वाली समस्त घटनाओं, समस्त विषयों को एक साथ समग्र रूप से और क्षणभर में परिपूर्ण जानकारी देने वाला ज्ञान। 
 जैसे कोई कमरा यदि हजार वर्षों से बंद है, तो उस कमरे में बंद अंधकार को जाने में हजार वर्ष नहीं लगते। एक दीपक जलाते ही सारा अंधकार क्षण भर में भाग जाता है। उसी प्रकार विवेकज ज्ञान भी वह ज्ञान है, जो क्षणभर में जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति और तुरीय अवस्था का अनुभव कराकर मनुष्य को भवसागर से, मृत्युभय सहित संसार चक्र से, तार देता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त कर देता है, डीहिप्नोटाइज्ड कर देता है। 
उसी यथार्थ ज्ञान को पाने की लालसा (longing,तीव्र इच्छा) मन में रखकर, पूरी श्रद्धा के साथ स्वामी जी के उपदेशों का पहले श्रवण करना होगा, फिर उस पर चिन्तन या मनन करना होगा, तत्पश्चात निदिध्यासन अर्थात उन शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करना होगा। सामान्य रूप से हमलोग जिस उपाय से ज्ञान अर्जित करते हैं, उस ज्ञान को हम अपनी बुद्धि के द्वारा ही अर्जित करते हैं। उस लौकिक ज्ञान अथवा बौद्धिक ज्ञान के द्वारा जिन वस्तुओं या विषयों के सम्बन्ध में जो धारणा प्राप्त होती है, वह क्षणिक या तात्कालिक होती है। और इसीलिए उस ज्ञान को सापेक्षिक ज्ञान (Relative knowledge) या परिवर्तनशील, या 'अनित्य ज्ञान' (Variable knowledge) कहते हैं।
 ज्ञाता और ज्ञेय वस्तु के बीच एक स्थानिक और तात्क्षणिक कार्यकारी सम्पर्क स्थापित करने की घटना (Events) के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा जगत के या मनुष्य-जीवन के आध्यात्मिक प्रश्नों (मृत्यु किसकी होती है ?) का समाधान या परिचय नहीं प्राप्त हो पाता है। जबकि स्वामी जी की शिक्षाओं से हमें वह ज्ञानमयी-दृष्टि प्राप्त हो जाती है, जिसके द्वारा अन्वेषण करने पर हमें एक क्षण में ही हमें समग्र जगत और पूरी सृष्टि (विश्व ब्रह्माण्ड) का परम सत्य (Absolute knowledge) या नित्य-ज्ञान दृष्टिगोचर होने लगता है। स्वामीजी के संदेशों को ठीक से सुनने, मनन करने, और जीवन में उतारने का प्रयत्न करने से जो ज्ञानालोक उद्भासित होता है, उससे समस्या का स्वरुप और समाधान भी प्राप्त हो जाता है। स्वामी जी की शिक्षाओं को ठीक से श्रवण-मनन और निदिध्यासन करने, अर्थात उनके उपदेशों को विश्वास पूर्वक सुनने, मनन करने और जीवन में उतारने से जो ज्ञानालोक उदभासित होता है, उससे 'मृत्यु की समस्या' का स्वरुप और समाधान भी प्राप्त हो जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने पातंजलि योगसूत्र 3 :52 की व्याख्या करते हुए इस विवेकज ज्ञान को प्राप्त करने का उपाय भी बतलाया है -   'क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ।'3.52  (क्षणतत्क्रमयोः – संयमात् –विवेकजम् –ज्ञानम् – क्षण और उसके क्रम में,संयम करने से,  विवेकजनित, ज्ञान उत्पन्न होता है।) - अर्थात एक क्षण के बाद, आने वाले दूसरे क्षण के क्रम के बीच में  मनःसंयम करने पर विवेकजनित ज्ञान उत्पन्न होता है। 
इसीलिये स्वामी जी एक महान भविष्यद्रष्टा भी हैं। इसी विवेकज-ज्ञान द्वारा प्राप्त ज्ञानमयी दृष्टि से देखते हुए,उन्होंने  भारत के उज्ज्वल भविष्य की ओर भी संकेत दिया था। पूर्ण (नित्य और लीला, ब्रह्म और जगत) को एक साथ देखकर, उसके विभन्न पक्षों के ऊपर उन्होंने जो व्याख्यान दिये थे, उन्हीं के माध्यम से हमलोग अलग अलग विषयों पर दिए गए उनकी शिक्षाओं से लाभान्वित होते हैं, इसीलिये उनके द्वारा कथित शब्दों को इतना मूल्यवान समझते हैं। जिस प्रकार गीता 10 :42 में श्रीकृष्ण कहते हैं - 
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।
भैया अर्जुन, तुम जो इसको-उसको, सब किसी को अलग -अलग रूप से जानने की चेष्टा कर रहे हो, अब तुम्हें उस प्रकार से 'बहुत' (अनेक या many) को जानने की क्या जरूरत है ? तुम तो केवल इतना जान लो कि (One has become Many 'एक या 'नित्य' ही 'लीला' में अनेक बन गए हैं!) 'मैं ही इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।
 [" भैया अर्जुन, देखो, मैं घोड़ों की लगाम और चाबुक पकड़े 'सारथि के वेश' में तेरे सामने बैठा हूँ।  दीखने में तो मैं छोटा सा (शरीर-नवनीदा) दीखता हूँ, पर मेरे इस शरीर के किसी एक अंश में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड, महासर्ग और महाप्रलय -- दोनों अवस्थाओं में स्थित हैं। उन सबको लेकर मैं तेरे सामने बैठा हूँ  और तेरी आज्ञा का पालन करता हूँ,  इसलिये जब मैं स्वयं तेरे सामने हूँ; तब तेरे लिये बहुत सी बातें जानने की क्या जरूरत है ? " https://www.gitasupersite.iitk.ac.in]  
स्वामी विवेकानन्द की विचारपद्धति (ideology) के प्रवाह का वैशिष्ट्य भी यही है ! उनकी समस्त शिक्षाओं का मूल स्वर इतना ही है कि पहले मनुष्य को यथार्थ मनुष्य अर्थात 'पुरुषकार' करने में समर्थ 'मनुष्य' के रूप में गठित करो! उनका कथन है कि तुमलोग समाज को पुनर्गठित करने की बातें करते हो, समाज सुधार करते हो, सेवा करते हो। तुमलोग राजनीति, विज्ञान और अर्थशास्त्र इत्यादि को व्यवहार में लाते हो, इन सबकी आवश्यकता भी है। किन्तु, इतना जान लो कि इन सभी विषयों का प्रयोजन जिस मनुष्य के लिए है, यदि तुम उस मनुष्य को ही अच्छी तरह से गठित नहीं कर सके, उसकी अन्तर्निहित सत्ता (ब्रह्मत्व) को सम्पूर्ण रूप से विकसित कर अभिव्यक्त न करा सके, तो तुम्हारी ये समस्त शिक्षायें -विज्ञान, तकनीकी ज्ञान, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, इतिहास, दर्शन सब के सब विफल सिद्ध होंगे, ये सब किसी काम न आ सकेंगे।
 यदि तुम इस मूल (अद्वैत तत्व ) को जान लो, तो सब कुछ का जानना हो जायेगा। इसी को सच्चा ज्ञान कहते हैं। जैसा कि श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे - " एक को जानने का नाम ज्ञान है, और बहुत को जानने का नाम अज्ञान है। यदि ज्ञान-चर्चा के द्वारा हमलोगों का दृष्टिकोण जब तक यह नहीं होता कि हम उसी एक मूल तत्व (अद्वैत) को जानेंगे, जिसको जान लेने से सब कुछ (अनेक) का ज्ञान भी हो जाता है, तब तक 'नित्य और लीला' दोनों सत्य हैं; इस मूल सत्य - को हम कभी हृदयंगम नहीं कर सकते।
আমাদের দৃষ্টিটা থাকা দরকার যে, আমরা সবটাকে জানব, না হলে মূল সত্যটা হৃদয়ঙ্গম হবে না।'  स्वामी जी के मतानुसार  इस 'सम्पूर्ण' को (पूर्णमदः और पूर्णमिदं दोनों को) जानने का अर्थ है, मनुष्य के यथार्थ स्वरुप को जान लेना और अपनी उसी अभिज्ञता (अद्वैतानुभूति) की नींव पर समस्त आनुषंगिक बाह्य विषयों के ज्ञान को व्यावहारिक जीवन के लिए उपयोगी बना लेना ( अर्थात धर्म,अर्थ, काम आदि को भी लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्ति में सहायक बना लेना)। 
स्वामी जी बार-बार जोर देते हुए कहते हैं कि भारत के पुनर्निर्माण के लिए जो हमारा प्रथम कार्य होना चाहिए वह यही है कि मनुष्य अपने यथार्थ स्वरुप का संधान करना सीखे, अर्थात 'Be and Make leadership training tradition' (या पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) में प्रशिक्षण प्राप्त कर ले।अपनी यथार्थ दिव्यता को विकसित करे तथा अपने व्यावहारिक जीवन में उसको अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहे। किन्तु ऐसा प्रशिक्षण केवल वैसे शिक्षक ही दे सकते हैं जो स्वयं उस परम्परा में प्रशिक्षित होकर जीवन्मुक्त बन चुके हैं। इसी "जीवन्मुक्त शिक्षक प्रशिक्षण-परम्परा " को स्पष्ट करते हुए अपने गृहस्थ शिष्य (वुड बी लीडर) श्री शरत चन्द्र चक्रवर्ती से स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
यह बात यदि सत्य है कि, तूने ही पूर्व जन्म में कर्म करके इस देह को प्राप्त किया है,तो कर्म के द्वारा कर्म को काटकर, तू ही फिर इस शरीर में रहते हुए ही जीवन्मुक्त बनने का (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड होने का) प्रयत्न क्यों नहीं करता ? इस बात को निश्चित रूप से समझ लो कि मुक्ति और आत्मज्ञान तेरे अपने ही हाथ में हैं। यह बात बिल्कुल सत्य है कि, ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) में कर्म का लवलेश भी नहीं है, तथापि जो लोग 
जीवन्मुक्त होकर भी काम करते हैं,( कैप्टन सेवियर,नवनीदा आदि महामण्डल आंदोलन में अपने जीवन को न्योछावर कर देते हैं) तो समझ लेना कि वे दूसरों के हित के लिए ही कर्म करते हैं। वे भले-बुरे परिणाम (नरकभोग आदि) की ओर नहीं देखते। किसी वासना (लोक-पुत्र-वित्त) का बीज उनके मन में नहीं रहता।
किन्तु गृहस्थाश्रम में रहकर इस प्रकार यथार्थ परहित के लिए कर्म करना अत्यन्त कठिन है, एक प्रकार से इसे असम्भव ही समझना। (माँ काली पर विश्वासी बनना आसान नहीं ?) समस्त हिन्दू शास्त्रों में उस विषय में जनक राजा का ही एक नाम हैं, परन्तु तुम लोग अब (शास्त्रविरोधी या निषिद्ध कर्मों से विरत हुए बिना) प्रतिवर्ष बच्चों को जन्म देकर घर घर में विदेह 'जनक ' बनना चाहते हो ! ठाकुर देव कहते थे -

 'जनक राजा महातेजा, तार कीशेर छीलो त्रुटि; 
एदिक् ओ दिक् दू-दिक् रेखे (नित्य-लीला दोनों सत्य), 
खेये छीलो दुधेर बाटी!
शिष्य - महाराज, आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे आत्मानुभूति की प्राप्ति इसी शरीर में हो जाये। 
स्वामी जी - भय क्या है ? मन में अनन्यता आने पर , मैं निश्चित रूप से कहता हूँ, इस जन्म में ही आत्मानुभूति हो जाएगी। परन्तु पुरुषकार चाहिये !  (मनुष्यत्व का उन्मेषक किसी मार्गदर्शक नेता को अपना बना लेना चाहिए !) 
पुरुषकार क्या है , जानता है ? आत्मज्ञान प्राप्त करके ही रहूँगा; इसमें जो बाधा-विपत्ति सामने आयेगी, उस पर अवश्य विजय प्राप्त करूँगा -इस प्रकार के दृढ़ संकल्प का नाम ही पुरुषकार है। माँ, बाप, भाई, मित्र, स्त्री, पुत्र मरते हैं मरें , यह देह रहे तो रहे, न रहे तो न सही , मैं किसी भी तरह से पीछे नहीं देखूँगा। जब तक आत्मदर्शन नहीं होता , तब तक इस प्रकार सभी विषयों की उपेक्षा कर, एक मन से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करने का नाम है पुरूषकार ; नहीं तो दूसरे पुरुषकार (आहार ,निद्रा, भय , मैथुन) तो पशु -पक्षी भी कर रहे हैं। मनुष्य ने 'विवेक-बुद्धि सम्पन्न यह मानव-शरीर' केवल उसी आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्राप्त किया है। संसार में अधिकांश लोग जिस रास्ते से जा रहे हैं, क्या तू भी उसी स्रोत में बहकर चला जायेगा ? तो फिर तेरे पुरुषकार (मनुष्यत्व-उन्मेष) का मूल्य क्या है ? सब लोग तो मरने बैठे हैं, पर तू तो मृत्यु को जीतने आया है ! महावीर की तरह अग्रसर हो जा। किसीकी परवाह न कर। कितने दिनों के लिए है यह शरीर ? कितने दिनों के लिए हैं ये सुख-दुःख ? यदि मानव शरीर को ही प्राप्त किया है तो भीतर की आत्मा को जगा, और बोल -मैंने मृत्यु के भय को जीत लिया है, मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है। बोल - मैं वही सर्वव्यापी विराट आत्मा (माँ जगदम्बा का अहं बोध) हूँ, जिसमें मेरा पहले वाला क्षुद्र 'अहं भाव' डूब गया है। इसी तरह पहले तू सिद्ध (प्रशिक्षित शिक्षक) बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे , उतने दिन दूसरों को यह महवीर्यप्रद अभय वाणी सुना- " तत्त्वमसि , उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान निबोधत ! ('तू वही है', 'उठो, जागो और लक्ष्य (विवेकज-आनन्द) प्राप्त करने तक रुको नहीं !) यह होने पर तब जानूँगा कि तू वास्तव में  ' पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित एक सच्चा 'पूर्वी बंगाली' है।" 6/179]               
विदेश भ्रमण से लौटने के बाद स्वामी जी को ' भारतवर्ष का प्रत्येक धूल-कण पहले से भी अधिक पवित्र और प्राणों से भी प्यारी' लगने लगी थी, वह इसीलिये कि,समस्त मानव जाति के कल्याण करने में समर्थ महान तात्विक ज्ञान -" एकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति" का महान सूत्र,इसी भारतवर्ष में आविष्कृत हुआ था। उन्हें इस बात की अनुभूति हुई थी, वे यह समझ सके थे कि यदि विश्व की सम्पूर्ण मानवजाति का कल्याण होना है, तो उसके लिए इसी तात्विक ज्ञान की आवश्यकता है।
 जो ईश्वरीय विधानवश इसी देश के ऋषियों ने प्राचीन ' गुरु-शिष्य ध्यान-मनन प्रशिक्षण परम्परा' के प्रत्यक्ष आलोक में हजारों वर्ष पूर्व ही आविष्कृत कर लिया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि यदि भारतवर्ष पुनः' पुरी अद्वैत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में अन्तः चक्षु के सामने उद्भासित या उपलबध होने वाले इस महान तात्विक ज्ञान (विवेकज-ज्ञान) प्राप्त करने की,  प्रशिक्षण पद्धति- "Be and Make Leadership training tradition " को यदि सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों तक पहुँचा देने में समर्थ बन जाये, तभी जगत का यथार्थ कल्याण साधित हो सकता है। स्वामी जी पृथ्वी के सभी मनुष्यों से बहुत प्रेम करते थे, और उसी प्यार से अनुप्रेरित होकर उनके हृदय से वैसा उद्गार निकला था, और भारतवर्ष की मिट्टी उनके लिये पुण्यभूमि में प्रकट हो गयी थी। 
अपने स्वरुप -अनुसन्धान करने, वास्तविक सत्ता को विकसित करने तथा अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने" की उसी प्रशिक्षण पद्धति को, जो प्राचीनकाल की दुर्बोध भाषा में लिपिबद्ध थी; अरण्यों के आश्रमों तक ही सीमित थी, पर्वतों की गुफाओं में ही आबद्ध थी, केवल सन्त -महात्माओं के चर्चा की विषय बनकर ही रह गयी थी। उसी प्राचीन आत्मानुसंधान पद्धति को महामण्डलने 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत-आश्रम, मायावती, हिमालय शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के नये रूप में ढाल कर भारत के सुदूर ग्रामों तक बोधगम्य बना दिया है। [C-in-C, Dy C-in-C Training Tradition.जहाँ डेपुटी सी-इन-सी, सी-इन-सी को उसी प्रकार करेक्ट कर सकता है, जैसे श्रीरामकृष्णदेव 😇 हँसते हुए अपने गुरु श्रीमद तोतापुरी जी को 'नित्य और लीला' दोनों को सत्य मानने की शिक्षा देते समय करेक्ट किया करते थे, फिर भी श्रीमद तोतापुरी उनपर नाराज नहीं होते थे।]   इसीलिये स्वामी जी ने राष्ट्र का आह्वान करते हुए कहा था - " उपनिषदों में सन्निवेशित इस आत्मानुसंधान शिक्षक -प्रशिक्षण पद्धति को, अरण्य के आश्रमों से निकालकर, मठों की चहारदीवारियों को भेदकर, उन ज्ञान के तत्वों को साधारण जनता के सामने बिखेर देना होगा। उन्हें लाना होगा , हाट -बाजारों में, कल -कारखानों में और खेल के मैदानों में। इस प्रकार वह तात्त्विक ज्ञान  जंगल-झाड़ , पर्वत-पहाड़ से निकल कर आ पहुँचेगा, साधारण जनताकी झोपड़ियों में। और केवल तभी भारतवर्ष विवेकज-ज्ञान की महाशक्ति से तेजस्वी बनकर किसानों के हल से तथा कारखानों के श्रमिकों के बल से पुरुज्जीवन प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़ा समृद्ध राष्ट्र बन जायेगा।"  
'विवेकज-दृष्टि' से प्राप्त होने वाले, वे महा-मूल्यवान तत्व क्या हैं ? वह ज्ञानमयी दृष्टि हमसे यही कहती है, कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर अनन्त शक्ति है, अनन्त ज्ञान है, अनन्त प्रेम से भरपूर महासमुद्र है। हमलोगों को अपने  हृदय में विद्यमान इस दिव्य सत्ता को जानना होगा, फिर उस दिव्यता को अपने जीवन में अभिव्यक्त करना होगा। हम दीन -हीन नहीं हैं, नश्वर शरीर मात्र ही नहीं हैं, हमलोग अजर-अमर अविनाशी आत्मायें हैं, हमारे भीतर अनन्त शक्ति है ! हमलोग महाभ्रम में पड़कर या हिप्नोटाइज्ड होकर स्वयं को क्षुद्र, नश्वर-शरीर मान रहे हैं, और श्रीमद तोता द्वारा कथित कहानी के बाघ-शिशु  होकर भी स्वयं को ছাগল/ बकरा समझकर मृत्यु के भय से में-में कर रहे हैं ! इसी दुर्दान्त हीन-मन्यता ने हमलोगों को लघु (बौना) बना दिया है, अब हमलोगों को स्वयं अपने प्रयास के द्वारा ही, लघुकृत (diminished) मनुष्यों को दीर्घिकृत (विराट,विशालकाय या mammoth) बनाना होगा।  নিজেদের দ্বারাই খর্ব-কৃত মানুষ কে দীর্ঘায়ত করতে হবে।  सम्पूर्ण मानव जाति को उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति, अनन्त प्रेम से मण्डित कराकर, उसे अपनी महिमा में प्रतिष्ठित कराना होगा। 
स्वामी जी की उस प्रसिद्द कथन से लगभग हम सभी परिचित हैं -उन्होंने कहा था, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है!" अर्थात अपने यथार्थ स्वरुप में हम सभी मनुष्य ब्रह्म ही हैं, इसीलिए हममें से प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य है -उसी ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करना। इसके लिए हमें अन्तःप्रकृति और बाह्य-प्रकृति को अपने नियंत्रण में लाकर, दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। 
प्रश्न है कि ऐसा कर पाने में हमलोग समर्थ कैसे होंगे ? इसमें हमलोग कृतकार्य हो सकते हैं -कर्म के द्वारा, मन को अपने नियंत्रण में लाकर, मानसिक एकाग्रता के प्रशिक्षण के द्वारा, ज्ञान के अभ्यास द्वारा, सत्यानृत-विवेक या सत्य-असत्य और मिथ्या विवेक, या सद-असद निर्णय के द्वारा, तथा सभी प्राणियों की निःस्वार्थ सेवा में अपने प्राणों को न्योछावर करके। किन्तु, आज का मनुष्य विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति को (भोग-सामग्रियों को ) जितनी मात्रा में नियंत्रित करता जा रहा है, उतनी मात्रा में ही वह अपनी अन्तःप्रकृति के समक्ष पराजित भी होता जा रहा है। भावी पीढ़ी की इस मानसिक दरिद्रता (penury) को भविष्यद्रष्टा स्वामी विवेकानन्द ने अपने मानसचक्षु के आलोक में स्पष्ट रूप से देख लिया था, इसीलिए उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था - " तुम लोगों ने आज विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लिया है, इसीलिए तुम लोग विज्ञान पर गर्व कर रहे हो, किन्तु तुम्हारी अन्तः प्रकृति तुम्हें अपने वश में लेकर कैसा कैरम (ricochet- ठोकरें खाने वाला) खेल रही है, उसका तुम्हें बोध भी नहीं है। ओह, इतनी अनोखी ऐश्वर्यमान मानव-मूर्ति अपने यथार्थ स्वरुप को नहीं जानने के कारण धूल-कीचड़ में अवलुण्ठित, उपेक्षित होकर बिल्कुल दीप्तिहीन (lustreless) हो गयी है। इतना महामूल्यवान यह मनुष्य जीवन व्यर्थ होकर मिट्टी में मिलने जा रही है। This can not be allowed-to Be! ऐसा होने की अनुमति नहीं दी जा सकती। तुम लोग (जीवन्मुक्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में) अन्तः प्रकृति को वशीभूत करने का प्रशिक्षण प्राप्त करो,अन्तः प्रकृति पर विजय प्राप्त करना सीखो। स्वयं को जगाओ, इस देहाध्यास के सम्मोहन या भ्रम से अपने को मुक्त करो, और ऊर्जावान बन जाओ। उस अन्तर्निहित दिव्य शक्ति से शक्तिवान बनकर (एक प्रशिक्षित शिक्षक, नेता ,माली बनकर) उस दिव्यता को अपने व्यवहार में अभिव्यक्त करो। किन्तु, इस अकूत ऊर्जा को प्राप्त करने पर (जीवन्मुक्त शिक्षक बन जाने पर) कभी गर्व न करना। बल्कि सभी मनुष्यो में विद्यमान किन्तु प्रसुप्त उसी अकूत ऊर्जा को जाग्रत करने कार्य में, सबों की पूजा और सेवा करने के कार्य में स्वयं को खपा दो। निषिद्ध कर्मों या शास्त्र विरोधी कर्मों द्वारा इन्द्रियसुख प्राप्त करने, अधिकाधिक सांसारिक धन-दौलत प्राप्त करने के चक्कर में पड़े रहने से; या स्वार्थपरता और नाम-यश के अहं में  चूर, सीमाबद्ध संकीर्ण पाशविक जीवन व्यतीत करते रहने से, वह दिव्य ऊर्जा जाग्रत नहीं हो सकती। बल्कि इन समस्त क्षणिक सुखों के पीछे दौड़ते रहने से अन्ततोगत्वा अन्तःप्रकृति की गुलामी करने को ही बाध्य होना पड़ता है। 
इसीलिये स्वामी जी कहते हैं - 'यथार्थ रूप से तो केवल वही मनुष्य जीवित है, जो दूसरों के लिए जीता है; शेष तो मुर्दे से भी ज्यादा निकृष्ट हैं। ' स्वामी जी के इसी कथन में छिपा हुआ है, वह आदर्श सूत्र जिसमें स्वामी जी कहते हैं -" यथार्थ मनुष्य,  (Man with capital 'M' या भ्रममुक्त मनुष्य) के रूप में शक्तिशाली बनो और चट्टानी भूमि पर अपने पैरों को जमा कर, दोनों बाँहों को फैला दो !" आदर्श मानव का यही वह महान साँचा है, जिसे स्वामी जी ने भारत के सभी युवाओं के समक्ष रखा है। यथार्थ मनुष्य के रूप में जीवित रहने के लिए, हमें केवल दूसरों के लिये जीना सीखना होगा, अर्थात "Be and Make Leadership training tradition " में प्रशिक्षित होना होगा। सभी एक-दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बाँध लेंगे, भ्रममुक्त मनुष्य बनने के लिए परस्पर एक दूसरे की सहायता करेंगे। एक प्रशिक्षित नेता /शिक्षक या सर्वांग सुन्दर मनुष्य वही बन सकता है, जो स्वार्थशून्य, सेवापरायण और प्रेम से परिपूर्ण हृदय रखता है। जो व्यक्ति चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण प्राप्त करके सचमुच चरित्रवान मनुष्य बन सका है, केवल वैसे व्यक्ति के जीवन में अग्रगति सम्भव है, और वही मानवजाति की प्रगति और कल्याण का संदेशवाहक (मार्गदर्शक नेता) बन सकता है। 
अतः हमलोगों को पहले अपना चरित्र गठित करना होगा, डीहिप्नोटाइज्ड या भ्रममुक्त मनुष्य बनना होगा, निषिद्ध कर्मों का परित्याग करके अपने जीवन को महान बना लेना होगा, केवल तभी हम 'विवेकज आनन्द' पर अधिकार प्राप्त करके महाजीवन प्राप्त करने के महालक्ष्य (मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य -शाश्वत जीवन या अमरत्व) की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। इस 'विवेकज आनन्द ' का अधिकारी बनने पर ही मनुष्य जीवन की सार्थकता निर्भर है ! अन्य जो कुछ भी तात्विक सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उन सबका मूल्य इसी लक्ष्य तक पहुँचने के उपाय या साधन होने के कारण ही है। 
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारात्मक परंपरा  'Ideological Tradition' अर्थात " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर अद्वैत-आश्रम, मायावती, हिमालय शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" से सम्यक परिचय हो जाने पर यही मूल सत्य (अविनाशी विवेकज -आनन्द) प्रकट हो जाता है। इसी अपरिवर्तनशील सत्य को जानना होगा, समझना होगा और जीवन में उसका प्रयोग करना होगा। इसी कारण वर्तमान युग का मुख्य कार्य यही है -कि  हम सभी को 'विवेक' की शरण में जाकर, सत्य -असत्य-मिथ्या के निर्णय द्वारा, पूरी निष्ठा के साथ स्वामी जी के जीवन और संदेशों का अनुध्यान या श्रवण -मनन करके उन्हें अपने जीवन में उतारना होगा। केवल इसी प्रकार अपना चरित्र गठित होगा, और जगत का यथार्थ कल्याण भी सम्भव हो सकेगा।                          
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**"My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy." मेरा धर्म सत्यधर्म है, तुम्हारा धर्म पाखण्ड है !
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जिस प्रकार "orthodox" शास्त्रसम्मत या 'सत्यधर्मावलम्बी' शब्द की व्याख्या विभिन्न रूपों में तोड़-मरोड़ कर की जाती है, उसी प्रकार 'practical' (pragmatic) शब्द की व्याख्या भी तोड़-मरोड़ कर की जाती है। जो मैं समझता हूँ, वही धर्म है, जो तुम समझते हो वो पाखण्ड है। अर्थात जिस तात्विक सिद्धान्त को मैं कार्यरूप में परिणत करने के योग्य समझता हूँ, जगत में एकमात्र वही सिद्धान्त व्यावहारिक है, ऐसी मेरी धारणा होती है। उदाहरणार्थ यदि मैं एक दुकानदार हूँ, तो सोचता हूँ कि संसार में दुकानदारी ही एकमात्र व्यावहारिक कर्म है। यदि मैं एक चोर हूँ तो यही सोचता कि व्यावहारिक बनने के लिये चोरी करना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है; जो ऐसा नहीं करते वे व्यावहारिक मनुष्य नहीं हैं।  इस प्रकार तुम देख सकते हो कि हमलोग व्यावहारिक शब्द का प्रयोग केवल उन्हीं कर्मों के लिये करते हैं, जिनकी ओर हमारी प्रवृत्ति है,जो हमसे किये जा सकते हैं। इसीलिये मैं चाहूँगा कि तुम वेदान्त को सही रूप में समझने का प्रयास करो, यद्यपि वेदान्त पूर्ण रूप से व्यावहारिक (pragmatic-व्यवहार्य) है, तथापि साधारण अर्थ में नहीं, बल्कि आदर्श के दृष्टिकोण से।
वेदान्त के चार महावाक्य में निहित आदर्श चाहे कितना ही उच्च क्यों न प्रतीत होता हो, वह किसी असम्भव आदर्श को हमारे सामने नहीं रखता; बल्कि यही सर्वश्रेष्ठ आदर्श है, और इसी जीवन में आत्मानुभूति करके उसकी सत्यता को परखा जा सकता है। एक शब्द में वेदान्त का सार उपदेश है -'तत्त्वमसि'- तुम्हीं वह ब्रह्म हो ' "Thou art That". 
वेदान्त के ऊपर समस्त बौद्धिक तर्क-कुतर्क, वादविवाद के बाद यही तात्विक निष्कर्ष मिलेगा कि मानवात्मा शुद्ध स्वभाव और सर्वज्ञ (pure and omniscient) है, " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है; आत्मा के सम्बन्ध में जन्म और मृत्यु की बात करना निरर्थक बकवास (nonsense) है। आत्मा का न कभी जन्म होता है, न मृत्यु; मैं मर जाऊँगा या मरने में डर लगता है'- यह सब केवल कुसंस्कार (superstitions) हैं। मैं इस सत्य (इन्द्रियगोचर परिवर्तनशील सत्य, सापेक्षिक सत्य) को स्वयं जान सकता हूँ, उस इन्द्रियातीत सत्य (निरपेक्ष सत्य-अविनाशी आत्मा) को नहीं जान सकता, ये सब भी कुसंस्कार हैं। मनुष्य के लिए सब कुछ जानना सम्भव है !
 वेदान्त सबसे पहले मनुष्य को अपने आप पर विश्वास करने के लिए कहता है। जिस प्रकार संसार के कुछ धर्म कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने से बाहर किसी सगुण  ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक है, उसी प्रकार वेदान्त भी कहता है कि-  जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है।
अपनी आत्मा के बारे में विश्वास न करने को ही नास्तिकता कहते हैं। बहुत से लोगों के लिए यह, निःसंदेह एक भीषण विचार है( ऐसा कहना 'ईशनिन्दा ' प्रतीत हो सकता है) और हममें से अधिकांश सोचते हैं कि इस आदर्श को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता, किन्तु वेदान्त जोर देकर कहता है, कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को इसी जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है। ८/६ 


प्राचीन धर्मों के अनुसार जो ईश्वर और धार्मिक शास्त्रों ( वेद, बाइबिल ,कुरान,आदि ) में विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है। नूतन धर्म कहता है , जो आत्मविश्वास नहीं रखता, वही नास्तिक है। किन्तु यह विश्वास केवल इस व्यष्टि अहं बोध या क्षुद्र 'मैं'-बोध को लेकर नहीं है, क्योंकि वेदान्त एकत्ववाद की भी शिक्षा देता है। 8/12     

PRACTICAL VEDANTA: 
 the word "orthodox" has been manipulated into various forms, so has been the word "practical". "My doxy is orthodoxy; your doxy is heterodoxy." So with practicality. What I think is practical, is to me the only practicality in the world. If I am a shopkeeper, I think shopkeeping the only practical pursuit in the world. If I am a thief, I think stealing is the best means of being practical; others are not practical. You see how we all use this word practical for things we like and can do. Therefore I will ask you to understand that Vedanta, though it is intensely practical, is always so in the sense of the ideal. It does not preach an impossible ideal, however high it be, and it is high enough for an ideal. In one word, this ideal is that you are divine, "Thou art That". This is the essence of Vedanta; after all its ramifications and intellectual gymnastics, you know the human soul to be pure and omniscient, you see that such superstitions as birth and death would be entire nonsense when spoken of in connection with the soul. The soul was never born and will never die, and all these ideas that we are going to die and are afraid to die are mere superstitions. And all such ideas as that we can do this or cannot do that are superstitions. We can do everything. The Vedanta teaches men to have faith in themselves first. As certain religions of the world say that a man who does not believe in a Personal God outside of himself is an atheist, so the Vedanta says, a man who does not believe in himself is an atheist. Not believing in the glory of our own soul is what the Vedanta calls atheism. To many this is, no doubt, a terrible idea; and most of us think that this ideal can never be reached; but the Vedanta insists that it can be realised by every one. There is neither man nor woman or child, nor difference of race or sex, nor anything that stands as a bar to the realisation of the ideal, because Vedanta shows that it is realised already, it is already there.
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"In that distant time the sage arose and declared, एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति — "He who exists is one; the sages call Him variously."  This is one of the most memorable sentences that was ever uttered, one of the grandest truths that was ever discovered. And for us Hindus this truth has been the very backbone of our national existence. For throughout the vistas of the centuries of our national life, this one idea — एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति — comes down, gaining in volume and in fullness till it has permeated the whole of our national existence, till it has mingled in our blood, and has become one with us..THE MISSION OF THE VEDANTA. 


            

         
  

   


   



   

  
   














        

  

  


  
                         



   





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