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शनिवार, 12 सितंबर 2020

@#নেতৃত্বের আদর্শ ও গুণাবলী : ( Leadership : Concept and qualities ) @नेतृत्व की अवधारणा तथा गुण @


 
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नेतृत्व की अवधारणा तथा उद्गम 

( Genesis and concept of Leadership) 

>>>1. सृष्ट जगत में विभिन्नता अनिवार्य  : वर्तमान समय में 'नेता' शब्द इतना बदनाम हो गया है कि 'नेता' शब्द सुनने मात्र से ही मन वितृष्णा से भर उठता है। किन्तु, हमें इसे केवल गलत अर्थों में न लेकर इसके यथार्थ मर्म को भी समझने की चेष्टा करनी चाहिए। आइये, हमलोग यह समझने का प्रयास करें कि नेतृत्व आखिर कहते किसे हैं, क्यों और कहाँ हमें एक नेता की आवश्यकता अनुभव होती है तथा वास्तव में नेता कौन हैं। 

हमलोग यह जानते हैं कि सभी मनुष्य एक ही तत्व के बने होते हैं, किन्तु सभी मनुष्य गुण और सामर्थ्य की दृष्टि से बिल्कुल एक समान कभी नहीं हो सकते। फिर भी हम सभी के मन में हर दृष्टि से बिल्कुल एक सामान हो जाने की इच्छा विद्यमान रहती है।  किन्तु प्राकृतिक तौर पर हम सभी बिल्कुल एक समान हैं ही नहीं। हमारे बीच अन्तर रहता ही है, क्योंकि सृष्ट जगत में स्वाभाविक तौर पर विविधतायें रहती ही है। विभिन्नता ही सृष्टि का आधार है। सृष्टि का अर्थ ही विविधता है। विविधताओं के बिना सृष्टि तो हो ही नहीं सकती। हमारी प्राचीन संस्कृति एवं परम्परा के अनुसार, हमारे अपने ऋषि-मुनियों के दर्शन के अनुसार मूल वस्तु केवल एक है- वह 'उर्ध्व मूल अधो शाखा' वस्तु ही सृष्टि का उद्गम (source-उत्स,श्रोत) है। उसी "एकमेवाद्वितीयं" से यह सारी सृष्टि अस्तित्व में आयी है। इसका अर्थ यह हुआ कि सृष्टि के प्रारम्भ से पहले साम्य एवं  संतुलन की ही अवस्था थी। उस अवस्था में जब केवल एकमेवाद्वितीय वस्तु ही थी तब, स्वाभाविक रूप से समानता थी। किन्तु जैसे ही उस मौलिक या  आदि साम्यावस्था में विक्षोभ हुआ कि सृष्टि प्रारम्भ हो गयी। इसीलिये सृष्टि के किसी भी क्षेत्र में असामनता तथा विभिन्नता अवश्य रहेगी। यह एक स्वयंसिद्ध मौलिक तथ्य है जिसकी हम उपेक्षा नहीं कर सकते, उसे हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा और "इसे" # समझना भी होगा !  [जो अर्थ 'आ' "आनन्द" --- राम और श्याम का है, Shiva Shakti Point का है, परमानन्द स्वरुप सत्यानन्द, वही अर्थ श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा- स्वामी विवेकानन्द का भी है - 'इसे' समझना भी होगा।]     

       >>>2. नेता साम्यभाव लाने का प्रयास करेगा :   किन्तु इस विविधतापूर्ण जगत में हमारा प्रयास सदैव यही होनी चाहिये कि सारे विभेद मिट जायें तथा सतही तौर पर दिखाई पड़ने वाले असमानताओं की उपेक्षा करते हुए हमें एक सार्व-भौमिक समानता एवं वैश्विक -साम्यावस्था [ वसुधैवकुटुम्बकं भाव ] लाने के लिये प्रयासरत रहना चाहिये। यही जीवन का लक्ष्य है, यही वह उद्देश्य है जिसको प्राप्त करने की दिशा में इस विविधता और असमानता से परिपूर्ण जगत को अवश्य आगे बढ़ना चाहिए। यह एक मौलिक सिद्धान्त है तथा इसी मूलभूत सिद्धान्त को आधार बनाकर अपनी उन्नति, समाज कल्याण तथा मानवता के कल्याण के लिए प्रयासरत रहना चाहिये।

>>>3. नेता का जीवन-लक्ष्य :  हमारी सारी योजनायें समस्त कार्यक्रम इसी मूल सिद्धान्त पर आधारित होने चाहिये। किन्तु, इसके साथ ही साथ वस्तुस्थिति को समझते हुए हमें इस (दृष्टिगोचर) जगत में विद्यमान विभिन्नताओं, असमानताओं के साथ-साथ गुणों एवं सामर्थ्य के अन्तर को भी अवश्य स्वीकार करना चाहिये।            
व्यक्तावस्था में विभिन्नताओं की अनिवार्यता के कारण सभी मनुष्यों की सांस्कृतिक, आर्थिक, नैतिक , सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि अवस्थाओं में अन्तर होना स्वाभाविक है। इसी कारण विभिन्न मनुष्यों की आकृतियों, अभिरुचियों तथा शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षमता में असंख्य विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं। जगत में जो कुछ भी  विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती है उसका कारण यही है। जगत में विद्यमान विविधताओं, असमानताओं की वस्तुस्थिति को स्वीकार करते हुए हमें सर्वप्रथम अपनी शक्तियों और क्षमताओं को प्रगति, विकास, पूर्णत्व, समानता एवं साम्यावस्था को प्राप्त करने की दिशा में लगाना होगा। 

>>>4. भवसागर से पार ले जाने में समर्थ नेतृत्व :   इस साम्यावस्था को प्राप्त करने के लिए हमें बहुत गहराई से चिन्तन कर पहले यह पता लगाना होगा कि अपनी शक्तियों और क्षमताओं का नियोजन करना समाज के किस स्तर से प्रारम्भ करें। इस विषय पर चिन्तन करने से हमलोग इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि इसे समाज के बिल्कुल निम्न स्तर पर रहने वाले या सामान्य स्तर पर रहने वाले व्यक्तियों से प्रारम्भ करने की अपेक्षा कुछ उच्च स्तर के व्यक्तियों से प्रारम्भ करना समुचित होगा।         

क्योंकि जो व्यक्ति चेतना, सहानुभूति और समझ की दृष्टि से कुछ उच्चतर अवस्था में हों वे ही समाज के उनलोगों को ऊपर उठा सकेंगे जो चेतना, समझदारी, सामर्थ्य तथा गुणों की दृष्टि से उनकी अपेक्षा अभी निचले सोपान खड़े हों। यहीं पर नेतृत्व की क्षमता उभर कर सामने आ जाती है। सृष्टि या समाज में विद्यमान विषमताओं को स्वीकार करते हुए समता, साम्यावस्था, उन्नति तथा पूर्णता की प्राप्ति हेतु हमलोग भी कुछ प्रयास अवश्य कर सकते हैं। 
अब, हमलोग नेतृत्व की अनिवार्यता तथा सच्चा नेतृत्व # कैसा होता है- जैसे गूढ़ विषय को स्पष्ट रूप से समझने का प्रयास करेंगे। (#मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का नेतृत्व :भवसागर से पार ले जाने में समर्थ नेताओं का नेतृत्व Leadership of the guiding leader of mankind कैसा होता है?) विभिन्नता तथा विषमताओं से परिपूर्ण इस जगत में वैसे कुछ व्यक्ति जो विशेष गुणवान हैं, समझ और योग्यता की दृष्टि से जो अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हैं, वे अपने इन विशिष्ट गुणों का उपयोग समाज में अपने से निचले सोपान पर खड़े मनुष्यों को ऊपर उठाने के लिए कर सकते हैं। सच्चे नेतृत्व का उद्गमबिन्दु (source) यही है। 
हमलोग इस सृष्टि में यह देखते हैं कि यहाँ सभी मनुष्यों में समझदारी, गुण और योग्यता की दृष्टि से कुछ-न-कुछ विभेद या अन्तर अवश्य रहता है, तथा हमें इसे बाध्य होकर स्वीकार भी करना पड़ता है। अब यदि वैसे लोग जिनमें कुछ विशेष शक्ति या सामर्थ्य है ,  अपनी उन विशिष्ट क्षमताओं का उपयोग निम्न सोपान पर खड़े लोगों को ऊपर उठाने तथा आत्मोन्नति के लिए प्रेरित करने में करते हैं तो, वे उन्हें अपनी विशिष्ट क्षमता से ऊपर उठा सकते हैं, और उन्नत मनुष्य बनने में उनकी सहायता कर सकते हैं। यही है नेतृत्व का मूलभूत सिद्धान्त। 

यहाँ हमलोग इस सिद्धान्त को तो समझने का प्रयास करेंगे ही साथ ही साथ इसे व्यवहारिक रूप देकर यथासम्भव इसका उपयोग न केवल मानव समाज की सामान्य उन्नति के लिए करेंगे बल्कि अपने देश भारत की उन्नति में इसको विशेष तौर से उपयोग में लायेंगे। मानव जाति के महान पथ-प्रदर्शक नेताओं में से एक स्वामी विवेकानन्द ने पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के जो उपाय बताये हैं, उस उपाय को हम अपने देश के युवा वर्ग के बीच प्रसारित करेंगे तथा युवाओं को उसी आदर्श पर चलने के लिये सदैव प्रेरित करने का प्रयास करते रहेंगे ! 

>>>5 . नेता शब्द गाली नहीं है : नेता कौन हैं ? नेता कौन बन सकता है ? इस शब्द का प्रयोग हम बड़े ही चलताऊ ढंग से बिना कुछ विचार किये, जिस-तिस के लिए कर देते हैं। अतएव, कुछ लोग नेता होने के विचार से ही नफरत करने लगे हैं। 'नेता ' कहकर सम्बोधित किये जाने पर वे शायद यही सोच कर डर जाते हैं कि लोग, उनके बारे में भी निश्चित ही कोई गलत धारणा बना लेंगे।

  हमारे समाज में इन दिनों यह शब्द एक प्रकार से गाली ही माना जाने लगा है। क्योंकि इन दिनों हम मुख्य रूप से नेता केवल राजनीति के क्षेत्र # में ही दिखाई पड़ते हैं। [तीनों ऐषणाओं के गुलाम फिर भी कट्टर ईमानदार नेता केवल राजनीति के क्षेत्र में ही दिखाई पड़ते हैं।] परन्तु, केवल इसी कारण से मानव जाति के सच्चे नेताओं की उपेक्षा कर मार्गदर्शक प्रकाश सतम्भ -'Lighthouse' के अभाव में अँधेरे में ही भटकते रहना उचित नहीं है। मनुष्य जाति के पथ-प्रदर्शक नेता [जीवनमुक्त शिक्षक] सदा से रहे हैं और आज भी अवश्य होने चाहिये। अतः हमें अपने मन से कुछ शब्द और विचारों के प्रति जो पूर्वाग्रह है उसे निकाल फेंकना चाहिए। शब्दों के सही अर्थों को समझकर, अर्थों में विचलन से मन को हटाकर महान सिद्धान्तों का अपने दैनन्दिन/वास्तविक जीवन में उपयोग करना चाहिए। 
     इस जगत में मनुष्य जाति को ऊपर उठाने, सन्मार्ग दिखलाने तथा नेतृत्व प्रदान करने का दायित्व अपने कन्धों पर उठा लेने वाले सच्चे नेताओं का प्रादुर्भाव शताब्दियों और सहस्त्राब्दियों से होता चला आ रहा है , उन्हीं में से कुछ को हम आज भी श्रीराम , श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, श्रीचैतन्य, श्रीरामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानते हैं। ये सभी मनुष्य जाति के सच्चे नेता हैं। जब हमलोग अंग्रेजी में नेतृत्व शब्द लिखते हैं तो Leader या Leadership लिखने के लिये अंग्रेजी वर्णाक्षर के 'L' से आरम्भ करना पड़ता है। 
      'L' अक्षर से आरम्भ होने वाले जितने भी सुन्दर शब्द हैं, उन सब में 'LOVE' से बढ़कर सुन्दर दूसरा और कोई शब्द नहीं है। एक बार स्वामी विवेकानन्द से बार- बार यह अनुरोध किया जा रहा था कि आप अपने गुरु, अपने प्रियतम, अपने नेता, अपने सर्वस्व श्रीरामकृष्ण के बारे में  कुछ कहिये, जिनके चरणों में आपने अपना जीवन समर्पित कर दिया है। किन्तु, उनके बारे में एक शब्द बोलने में भी स्वामीजी को संकोच हो रहा था , वे मन ही मन अपने को असमर्थ पा रहे थे। अतः स्वामीजी बोले कि मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं बोल पाउँगा। स्वामी जी जगत के विभन्न विषयों पर व्याख्यान दे सकते थे, वे कई ग्रन्थ लिख सकते थे, परन्तु अपने जीवन सर्वस्व के ऊपर एक शब्द भी कहने में हिचक रहे थे। उनको भय था कि उनके मुख से निकला कोई भी शब्द कहीं उनके गुरुदेव की महिमा को, उनकी महानता को सीमित न कर दे। वे  तो इतने महान हैं ! इतने विशाल हैं ! भला समुद्र जैसे अगाध और गगन सदृश अनन्त विस्तार को शब्दों में कैसे व्यक्त किया जा सकता है ? स्वामी विवेकानन्द उस सीमाहीन विस्तार को मापने में तथा उसे शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करने में अपने को असमर्थ पा रहे थे। किन्तु, जब बार-बार अनुरोध किया जाने लगा -तो उन्होंने श्रीरामकृष्ण के सम्पूर्ण अद्भुत व्यक्तित्व को केवल एक शब्द में व्यक्त करते हुए कहा - LOVE ! प्रेम ! " श्रीरामकृष्ण प्रेम हैं !
           कोई भी नेता सच्चा नेता केवल तभी बन सकता है, जब उसके हृदय में इसी  प्रेमाग्नि का एक स्फुलिंग, एक टुकड़ा विद्यमान हो। जिनके ह्रदय में इस प्रेम का एक छोटा सा अंश भी विद्यमान नहीं है, वे किसी भी मनुष्य को उन्नति, पूर्णत्व या विकास की दिशा में नेतृत्व नहीं दे सकते। 
अतः नेतृत्व सम्बन्धी इस नूतन सिद्धान्त के आलोक में हमलोगों को अपने ह्रदय में इसी प्रेम को विकसित तथा प्राप्त करने के लिये प्रयासरत रहना चाहिये। गौतम बुद्ध, ईसा मसीह , मोहम्मद , श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि महापुरुष केवल प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियां मात्र थे। उन विभिन्न रूपों में केवल प्रेम ही मूर्तमान हुआ था।
   >>>6. क्या हमलोग भी नेता नहीं बन सकते ? क्या उस प्रेम के एक छोटे से अंश को भी अपने हृदय में  नहीं धारण कर सकते ? क्या हमलोग अपने आस-पास रहने वाले लोगों से प्रेम नहीं कर सकते ? क्या हम उन्हें इस अनित्य और दुःखपूर्ण संसार के कष्ट, दारिद्रय और विवशता के दलदल से ऊपर नहीं उठा सकते ? निश्चय ही हमलोग ऐसा कर सकते हैं और हमें यह अवश्य करना चाहिए। ऐसा नेता बन जाने के बाद हमलोग कितनी धन्यता का अनुभव करेंगे !  इसी प्रकार के हजारों नेताओं की हमें आवश्यकता है। अभी हम कितना दरिद्र, किंतना अभावग्रस्त, कितना क्षुद्र हैं ! किन्तु, यदि हम स्वयं को बड़ा बनना चाहते हैं,तथा दूसरों को भी बड़ा बनाना  चाहते तो, हमें पहले स्वयं अपने गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करना होगा, तथा अपने आस-पास रहने वाले लोगों को भी इन गुणों तथा क्षमताओं को विकसित करने में सहायता करनी होगी ताकि वे भी बड़े हों। 
      नेतृत्व के सम्बन्ध में इस संक्षिप्त जानकारी से परिचित होकर क्या हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि 'नेतृत्व का सिद्धान्त' एक अनिवार्य तथा महान विषय है ? सचमुच वे लोग नेता थे तथा हम लोग भी नेता बनना चाहते हैं। [श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर, C-IN-C नवनीदा जैसे लोग 'Be and Make वेदान्त लीडरशिप परम्परा' के  महान नेता थे, और हमलोगों को भी नेता बनना चाहते हैं।]   
हमने यह देखा कि इस सृष्ट जगत में विभिन्नतायें रहती ही हैं।  इस वस्तु स्थिति को स्वीकार करते हुए यदि हम कुछ वैसे लोगों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए तैयार कर सकें जो इन सिद्धान्तों को आत्मसात करने में सक्षम हों तो, समाज के दूसरे लोगों की सहायता करने में उनका भी उपयोग किया जा सकता है। 
 श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानन्द यह अभिनव सिद्धान्त - (व्यावहारिक वेदान्त) आज भी क्रियाशील है। जैसा कि अपने जीवन काल में ही भविष्यवाणी करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की थी - " इन अभिनव सिद्धान्तों की तरंगे ऊँची उठ चुकी हैं , उस प्रचण्ड जलोच्छ्र्वास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा। आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है। निर्बाध , निःसीम , सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर अवतरित होता देख रहा हूँ। इस ज्वार ने लगभग सम्पूर्ण विश्व को ही ढँक लिया है। अब, इसे कोई रोक भी नहीं सकता, कोई भी शक्ति इन तरंगों को फिर से वापस समुद्रतल में ढकेल भी नहीं सकती। यह ज्वार आगे बढ़ते हुए सम्पूर्ण धरातल को आच्छादित कर लेगा , ये विचार सभी के मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जायेंगे , सम्पूर्ण मानवता इन विचारों से प्रभावित हो जायेगी। " 
हमलोग इन विचारों को जीवन और व्यवहार में अपनाकर 'सम्पत्तिवान ' बन जायेंगे , अपने जीवन की उच्चतर उपलब्धियों को अर्जित करने की चेष्टा करेंगे तथा कुछ दूसरे सहकर्मियों को भी अपने साथ लेते हुए आगे बढ़ते जायेंगे। हम स्वयं को शारीरिक , मानसिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध करने के प्रयास में व्यस्त रहते हुए दूसरों को कहीं असत विचारों की अग्नि में झुलसते तो नहीं छोड़ दे रहे हैं ? उनको भी साथ-साथ [षट्सम्पत्त से ] समृद्ध बनाते हुए आगे बढ़ना ही नेतृत्व का सार है।        

 श्रीरामकृष्ण कहते थे- " कुछ तख्ते इस प्रकार की लकड़ियों से बने होते हैं कि उस पर यदि एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है; पर कुछ तख्ते ऐसी लकड़ियों से बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ- साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक पहुँचा सकते हैं। " जो नेता होते हैं -वे इसी प्रकार से न डूबने वाले लकड़ी के तख्ते जैसे हैं। वे दूसरों के दायित्व को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं। वे उनका बोझ स्वेच्छा से बिना किसी निजी स्वार्थ, पारिश्रमिक या किसी लाभ की आशा रखे ही (केवल 100 % निःस्वार्थ लोक-कल्याण करने की इच्छा सेउठा लेते हैं। उनके लिये तो दूसरों की उन्नति, सुधार, विकास, समानता और पूर्णत्व की प्राप्ति ही प्रत्यक्ष तौर पर एकमात्र प्रेरक शक्ति हो सकती है,  तथा इन सबके पीछे परोक्ष तौर पर एक मात्र प्रेरणा रहता है -'Love'! और उस परोक्ष प्रेरणा के अपरोक्ष स्रोत रहते हैं - उनके ह्रदय में विद्यमान ईश्वर - क्योंकि God is Love ! ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, तभी तो वे प्रेम के वशीभूत होकर 'मनुष्य ' को देवमानव में (100% Unselfishness में) रूपान्तरित करने के लिए बार-बार धरती अवतरित होते रहते हैं !

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नेतृत्व सम्बन्धी धारणा एवं उसका स्वरुप 

>>>1.आदर्श नेतृत्व के सम्बन्ध में हमें स्वयं अपनी एक धारणा बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नेतृत्व की आवश्यकता होती है, यहाँ तक कि (संयुक्त) परिवार के अन्दर भी । यदि हमारा नेता अर्थात घर का मुखिया योग्य होता है तो पूरा परिवार शांति और आनन्द से एकजुट रहता है तथा हर दृष्टि से समृद्ध होता रहता है ठीक यही स्थिति योग्य नेता के नेतृत्व में किसी समाज, कारपोरेट जगत या संगठन की भी होती है।  राजनीति के क्षेत्र में दिखाई पड़ने वाले नेता इस प्रकार के योग्य या आदर्श नेतृत्व का प्रतिनिधित्व नहीं करते। किन्तु, आजकल प्रायः सभी देशों में यह भ्रान्त धारणा प्रचलित है कि नेता केवल राजनीति के क्षेत्र में ही होते हैं।

>2. Guide : किन्तु यदि हम विश्व -इतिहास का सिंहावलोकन करें, तो पायेंगे कि केवल वैसे ही व्यक्तियों को मानव समाज का सच्चा नेता माना गया है जिनके भीतर सांसारिक ज्ञान के अतिरिक्त एक दूसरी विशिष्ट योग्यता भी थी। वह विशिष्ट योग्यता थी , उन सबों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति। विशेषकर भारत में तो यही नेतृत्व की कसौटी रही है। यहाँ केवल उन्हीं को मानव समाज का पथ-प्रदर्शक नेता (Guide) माना गया है जिनके भीतर सांसारिक ज्ञान के अतिरिक्त एक दूसरी विशिष्ट योग्यता भी थी। वह विशिष्ट योग्यता थी, उन सबों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति। विशेषकर भारत में तो यही नेतृत्व की कसौटी रही है। यहाँ केवल उन्हीं को मानव समाज का नेता माना जाता है, जिनके पास आध्यात्मिक शक्ति अनिवार्य रूप से हो। भारत भूमि पर मानव इतिहास के प्रारम्भ से ही इस प्रकार के असंख्य नेता अवतरित होते रहे हैं, जिन्होंने न केवल भारत का, अपितु पूरी मानव जाति मार्गदर्शन किया है। 
आज न्यूनाधिक हर जगह यह स्वीकार किया जाने लगा है कि मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में , उसकी सच्ची उन्नति के लिये मानव सभ्यता को समृद्धि प्रदान करने में भारत का अंशदान प्रचुर रहा है। यह अंशदान भारत केवल इसी कारण कर सका है कि विगत कुछ हजार वर्षों में, भारत भूमि पर ऐसे महापुरुष अवतरित होते रहे हैं जो मानवजाति के सच्चे नेता थे। उन समस्त महापुरुषों में जो विशेषता अनिवार्य रूप से थी वह यह कि वे सभी आध्यात्मिक महापुरुष थे। परन्तु, इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि भारत केवल अध्यात्मविद्या में ही आगे था; अपितु भारत ने विभिन्न प्रकार के लौकिक विद्या जैसे विज्ञान, औषधि, गणित, शिल्प-कौशल , अभियांत्रिकी आदि में तो कम से कम 5000 वर्ष पहले ही यथेष्ट ज्ञानार्जन कर लिया था। इन सभी लौकिक विषयों का ज्ञान भारत के पास यथेष्ट था तथा दैनंदिन जीवन के हर क्षेत्र में उनका उपयोग भी किया जाता था। किन्तु, इन सबके अतिरिक्त भारत परा विद्या या आध्यात्मिक ज्ञान-सम्पन्न नेताओं की जन्मस्थली भी रहा है। 
यही वह कारण है जिसके चलते उन महापुरुषों ने अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा मानव जाति की न केवल भौतिक उन्नति के लिए मार्गदर्शन किया वरन उचित दिशा में जीवनपुष्प के प्रस्फुटन में भी सच्चे पथ-प्रदर्शक बने रहे हैं। तथा स्वामीजी यह विश्वास करते थे कि यह प्रक्रिया अभी समाप्त नहीं हो गयी है। यह निरन्तर चलती रहेगी और भारत मानव जाति का सच्चा नेता बना रहेगा। 
>3.  आज यदि हमलोग सभी देशों के प्रबुद्ध वर्ग के मस्तिष्क में तरंगायित होने वाले विचार -प्रवाहों का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि प्राचीनकाल की ही तरह आज भी पूरी मानव जाति ज्ञान, प्रकाश तथा मार्गदर्शन के लिए भारत की ओर ही निहार रही है। यहाँ तक कि सामान्य जनों की अपेक्षा बीसवीं सदी के वैज्ञानिकगण शायद इस बात पर अधिक विश्वास करने लगे हैं कि केवल भारत के आध्यात्मिक ज्ञान के साथ आधुनिक विज्ञान की उपलब्धियों का समन्वय कर ही विश्व में शांति स्थापित की जा सकती है और उसे अक्षुण्ण रखा जा सकता है। 
एक आधुनिक फ़्रांसिसी इतिहासकार एमाउरी डी रेनकोर्ट की पुस्तक ' The Eye of Shiva' का अध्यन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत के महान आध्यात्मिक सिद्धान्तों से लेखक कितना अधिक अभिभूत है।  ( De Amaury Riencourt- शिव के तीसरे नेत्र का महत्व - तीसरा नेत्र खुलते ही धरती पर प्रलय आ जाता है, तथा सभी अज्ञान और अँधकार का नाश हो जाता है !) इस सम्पूर्ण/पूरी  पुस्तक में उन्होंने बार-बार श्रीरामकृष्ण के उस अत्यन्त सरल पर अद्भुत जीवन तथा सन्देश का उल्लेख किया है , जिसको स्वामी विवेकानन्द ने अपने पराक्रम और शौर्य के द्वारा पूरे विश्व भर में फैला दिया है। एक अन्य परमाणु वैज्ञानिक डॉ० फ्रिटजॉफ कॉपरा हैं जिन्होंने पूर्व के समस्त आध्यात्मिक सिद्धान्तों पर शोध करते हुए भगवान बुद्ध  के उन सिद्धान्तों का मानवता के प्रति योगदान का विशेष अध्यन किया है , जो वेदान्तिक सिद्धान्तों से ज्यादा भिन्न नहीं हैं। यही वैज्ञानिक कॉपरा अपनी अद्भुत पुस्तक The Tao of Physics में स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक ज्ञानयोग की कुछ उक्तियों को यह दिखाने के लिए उद्धृत करते हैं कि आधुनिक विज्ञान अब बहुत स्पष्ट रूप से पूर्व के रहस्यवादी सिद्धान्तों के निकटतर होता जा रहा है। 
>>>4. किन्तु, वे लोग जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द का अध्यन किया है , उन्हें यह ज्ञात है कि स्वामीजी ने तो बहुत पहले ही घोषणा कर दी थी कि विज्ञान और धर्म में अथवा सच्ची अध्यात्म विद्या (चार महावाक्य आदि) में कभी कोई विरोध था ही नहीं। केवल पश्चिमी जगत के इतिहास में ही विज्ञान और धर्म के बीच यह विरोध हमें दिखाई देता है। क्योंकि न्यूनाधिक पाश्चात्य जगत के सारे धर्म पौराणिक मान्यताओं तथा विश्वासों के ऊपर ही आधारित हैं। जबकि दूसरी ओर भारतीय इतिहास में पौराणिक युग से धर्म अर्थात अध्यात्म सम्पूर्णतः वैज्ञानिक प्रणाली के ऊपर ही आधारित रहा है। 
वैसे कुछ लोग जो भारत के आध्यात्मिक सिद्धान्तों से पूर्व परिचित नहीं रहे हैं, उन्हें यह बात थोड़ी अजीब सी लग सकती है, किन्तु इसमें कुछ भी अजीब नहीं है। 
स्वामी विवेकानन्द जी तो अत्यन्त ही उच्च स्वर में यह घोषणा करते हैं कि यहाँ धर्म के क्षेत्र में भी प्राचीन युग से ही विज्ञान सम्मत प्रणाली का उपयोग होता आया है। वे जोर देकर कहते हैं - " जब हम धार्मिक सिद्धान्तों को परखने के लिए विज्ञान-सम्मत प्रणाली का उपयोग करें और यदि विज्ञान की कसौटी पर परखते हुए किसी धर्म की बुनियाद/स्तम्भ  ही धाराशायी होने लगें तो मानव जाति के लिये अच्छा यही होगा कि उस धर्म को ही अलविदा कह दिया जाये। " उन्होंने तो यह भी कहा है कि " और यह जितनी शीघ्रता से हो सके उतना ही अच्छा है; क्योंकि कोई भी सिद्धान्त यदि विज्ञान-सम्मत प्रणाली और वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित न हो तो वह अधिक दिनों तक न तो टिक सकता है और न उसके द्वारा मानव जाति का सच्चा कल्याण ही हो सकता है। " 
वे पुनः कहते हैं कि भारत में धर्म का प्रादुर्भाव विश्व में क्रियाशील नियमों का वैज्ञानिक पद्धति से निरीक्षण , परीक्षण और तुलनात्मक विश्लेषण करने से ही हुआ है। इस कसौटी पर खरा सिद्ध होने के बाद ही इन नियमों का दैनन्दिन जीवन में उपयोग किया जाता है। अतः ये नियम या धर्म पूरी तरह से वैज्ञानिक हैं , क्योंकि इस प्रकार गवेषणा करने को ही वैज्ञानिक प्रणाली कहते हैं। - वे कहते हैं - " इस धर्म की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति हमें सर्वप्रथम श्रीरामकृष्ण के जीवन में ही देखने को मिलती है। और इसको वे एक वैज्ञानिक धर्म की संज्ञा देते हैं। " 
>>>5. श्रीरामकृष्णदेव एवं नरेन्द्रनाथ के बीच जब पहली बार वार्तालाप हुआ था तब , उन्होंने प्रश्न किया था - " महाशय, क्या आपने ईश्वर को देखा है ? " और इस सीधे प्रश्न का उत्तर भी बहुत ही सरलता से और पूरी दृढ़ता के साथ देते हुए श्रीरामकृष्ण ने कहा था - " हाँ, मैंने देखा है और जिस प्रकार मैं तुम को देख रहा हूँ उससे भी स्पष्टता से मैं ईश्वर को देखता हूँ। और केवल इतना ही नहीं ; यदि तुम चाहो तो तुम्हें भी दिखला सकता हूँ। " यह बिल्कुल एक विज्ञान-सम्मत प्रस्ताव है। गुरु के द्वारा अपने जिज्ञासु शिष्य को दिया गया यह प्रस्ताव - यही प्रकट करता है कि ईश्वर को देखने की कोई न कोई विज्ञानसम्मत प्रणाली अवश्य है ; जो भी व्यक्ति उस प्रणाली का अनुसरण करेगा उसको भी वही परिणाम प्राप्त होगा ! उसमें कभी अन्तर नहीं हो सकता। यदि तुम स्वयं भी उसी लक्ष्य का संधान करो तो तुम्हें भी वही वैज्ञानिक प्रणाली प्राप्त होगी , यहाँ पर वह लक्ष्य है (इन्द्रियातीत-ऊर्ध्वमूल) सत्य का साक्षात्कार, जो कि ईश्वर दर्शन करने के सामान है।   
>>6. हमें अपने व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिकता के महत्व को अवश्य समझ लेना चाहिये, क्योंकि मनुष्य केवल दो पैरों वाला एक बुद्धिमान पशु ही नहीं है, अथवा मनुष्य केवल आर्थिक जीव या केवल एक राजनीतिक कीट भी नहीं है , वास्तव में मनुष्य तो एक आध्यात्मिक प्राणी है। इसीलिए यदि मनुष्य को उन्नत होना है, तथा अपनी अनन्त सम्भावनाओं को अभिव्यक्त करना है, अपने वास्तविक स्वरुप को प्रकट करना है तो उसे 'आध्यात्मिक प्रणाली' के आश्रय में जाना ही पड़ेगा। अन्य कोई रास्ता नहीं है।  
जिसको हमलोग अभी धर्मनिरपेक्ष या सांसारिक ज्ञान [ अपरा विद्या ] कहते हैं, वह भी आध्यात्मिक विद्या [ परा विद्या ] का ही एक अंग है। इस विषय को हमें भली-भाँति समझ लेने का प्रयास अवश्य करना चाहिये। क्योंकि एक ही आध्यात्मिक सत्ता हर वस्तु में परिव्याप्त है जिसे हम आत्मा या ब्रह्म कहते हैं। विज्ञान कभी भी उस सत्ता का अनुसन्धान अपनी प्रयोगशाला में नहीं कर सकता , किन्तु; आधुनिक विज्ञान भी क्रमशः इस सत्य के निकट आता जा रहा है। यह एक दिन इसके अत्यन्त निकट तक भी पहुँच सकता है किन्तु; उस सत्य का साक्षात्कार करने के लिये विज्ञान को अपने पंचेन्द्रिय ग्राह्य माध्यम से इसका संधान करने की जिद छोड़कर अन्ततोगत्वा आध्यात्मिक प्रणाली के आश्रय में आना ही पड़ेगा। [आत्मा तक पहुँचने के लिये ?] विज्ञान को अपनी गाड़ी का त्याग करके 'आध्यात्मिक यान' में कूदना ही पड़ेगा। विज्ञान और धर्म अर्थात अध्यात्म निकटतर होते जा रहे हैं। 
>>>7. बीसवीं शताब्दी के अन्त तक तो ये एक दूसरे के बिल्कुल निकट आ ही चुके हैं , किन्तु; इक्कीसवीं शताब्दी में घटित होने वाली सर्वाधिक महान घटना , जिसका पूर्वानुमान स्वामीजी ने बहुत पहले ही कर लिया था, यही होगी कि अब विज्ञान और धर्म यानि आध्यत्मिकता के बीच एक अत्यन्त प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो जायेगा। हममें से प्रत्येक मनुष्य को अपने यथार्थ स्वरुप पर (अन्तर्निहित पूर्णता और दिव्यता पर) श्रद्धा और विश्वास रखना ही होगा। हम कोई क्षुद्र पदार्थ नहीं हैं। स्वरूपतः हम सभी अत्यन्त महान हैं, हम सबों में अनन्त/अत्यन्त  सम्भावनायें अन्तर्निहित हैं , उसे/ उन्हें अभिव्यक्त करने के लिये हमसबों को अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिये। हमारी यथार्थ सत्ता में अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त प्रेम (Bliss) का एक स्रोत (source-उत्स) विद्यमान है। हमें अपने इसी जीवन में उस स्रोत को अवश्य उद्घाटित कर लेना चाहिये। क्योंकि पथ-प्रदर्शक नेताओं का जीवन उनके उनके आस-पास रहने वाले लोगों को प्रेरणा, उत्साह और शक्ति से भर देने में सक्षम /समर्थ बनना चाहिए। इसीलिए हमें नेतृत्व के सम्बन्ध में इस अनिवार्य क्षमता को ठीक से आत्मसात कर लेना चाहिये। यदि हम नेतृत्व के इस क्षमता को ठीक से आत्मसात कर लेते हैं,  तो हममें से प्रत्येक व्यक्ति ऐसे नेतृत्व को कार्यरूप देने में समर्थ हो जायेंगे। (ऐसा हो जाने के बाद ही)  इस आध्यात्मिक नेतृत्व क्षमता में उन्नत हो जाने के बाद ही हम अपने आस-पास रहने वाले भाइयों की सेवा करने के योग्य हो सकते हैं , और समाज के प्रति हमारी सच्ची सेवा भी यही होगी। 
>>>8. अतः [आध्यात्मिक] नेतृत्व प्रदान करने की योग्यता अर्जित करने के लिये सबसे प्रमुख आवश्यकता यही है कि हमें स्वयं में अन्तर्निहित सारवस्तु [शाश्वत-नश्वर विवेक,  विवेकज- आनन्द, विवेकानन्द या अजर-अमर अविनाशी आत्मा] के बारे में अनुभूतिजन्य धारणा अवश्य रखनी चाहिए। हमें इस देव-दुर्लभ 'मानव-शरीर' का मूल्य अवश्य समझ लेना चाहिये। तथा अपने चरित्र के उत्तम गुणों को अभिव्यक्त करने के लिये सतत् प्रयत्नशील रहते हुए ऐसा जीवन जी कर दिखाना चाहिए जो दूसरों के लिए उदाहरण स्वरुप हो ! "हम अपना ऐसा सुन्दर जीवन किस प्रकार गठित करें कि, हमसे मिलने के बाद प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा लगे कि - आज इनसे मिलकर मेरा जीवन तो धन्य हो गया !" ऐसा जीवन भला हम किस प्रकार गठित कर सकते हैं ? हमें इसकी शिक्षा मानव जाति के सच्चे पथ-प्रदर्शक नेताओं के जीवन से (बेलपत्र जैसे पवित्र त्रिमूर्ति -ठाकुर, माँ, स्वामीजी के जीवन से) ही ग्रहण करनी होगी। या युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के जीवन से हम इस विद्या को सीख सकते हैं - या इसकी शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। अतः यदि हम लोग भी उनके जैसे पथ-प्रदर्शक नेता (Guide) बनना चाहते हों, तो हमलोगों को भी अपने भीतर -'3P' प्रेम, पवित्रता और धैर्य जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए अवश्य ही विशेष ध्यान देना होगा। 
>>>9. वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग :  (अनुभवजन्य विवेकज-ज्ञान का प्रयोग करने के लिए अथवा विवेक-प्रयोग करने के लिए....) हमें अपने मन को अवश्य नियंत्रण में रखना पड़ेगा, अपनी इन्द्रियों को अवश्य वशीभूत करना होगा , लालच को कम करते हुए , भोगाकांक्षाओं को /भोगों में आसक्ति को अवश्य सीमित कर लेना होगा। इसके साथ ही साथ हमारे ह्रदय का विस्तार, या ह्रदय में प्रेम की भी अवश्य ही वृद्धि होनी चाहिए। (अर्थात सर्वेभवन्तुः सुखिनः की प्रार्थना, मनःसंयोग और स्वाध्याय की सहायता से हमारे ह्रदय में -कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं - 'वसुधैवकुटुम्बकम' की भावना का विकास होना चाहिए।) हमें अपने मन से समस्त स्वार्थपूर्ण विचारों, समस्त घृणा , सारी ईर्ष्या को दूर हटा देना होगा। इसी प्रकार (3P से प्रेरित) पवित्र जीवन जीते हुए, अपने सद्गुणों को विकसित करते हुए , जब हम उन्हें अपने विचारों, वचनों तथा कर्मों के द्वारा अपने दैनन्दिन जीवन और आचरण में अभिव्यक्त करने लगेंगे; केवल तभी हमलोग भी अच्छे नेता [पथ-प्रदर्शक] बन पायेंगे और अपने आस-पास रहने वाले लोगों को भी - जीवनगठन के लिए अनुप्रेरित करने में सक्षम हो पायेंगे। 
>>>10. [अतीन्द्रियदृष्टि, पूर्वाभास (premonition) और दूरदृष्टि :  foresight and farsighted] : हमारे अन्दर चिन्तन द्वारा स्पष्ट धारणा बनाने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए। जो दूसरों का नेतृत्व करना चाहते हैं, उनके लिए यह गुण अत्यन्त आवश्यक है। उनको दूर-दृष्टि रखनी चाहिये। उन्हें यह देखने में समर्थ होना चाहिए कि हमारा भविष्य कैसा हो सकता है, हमलोग एकजुट होकर सभी कार्यों को किस प्रकार सम्पादित कर सकते हैं। हम आज अपने लिए जैसा भविष्य चाहते हैं , उसको पाने के लिए हमारी योजनायें कैसी हों ; जिससे कि हम अपनी समस्त ऊर्जा और शक्ति लगाकर उस स्वप्न को साकार कर सकें। हमें केवल अपने व्यक्तिगत भविष्य को ही उज्ज्वल बनाने का प्रयास न करके अपने देश के भविष्य को भी उज्ज्वल बनाने का प्रयास करना चाहिए। किन्तु दुर्भाग्यवश आज हमारे समक्ष विशेष कर भारत में ऐसा नेतृत्व कहीं नहीं दिखाई दे रहा है। 
बकि स्वामी विवेकानन्द ने बार-बार यह कहा था कि- भारत अतीत में बहुत महान था , किन्तु निश्चित तौर उसका भविष्य और भी महान होने वाला है। "  वे कहते थे -" मेरा यह दृढ़-विश्वास है कि भारतवर्ष शीघ्र ही उस उच्चतम श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा , जिसको उसने अभीतक स्पर्श भी नहीं किया है। प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा और आपके पूर्वज अपने वंशधरों की उन्नति को देखकर अत्यन्त सन्तुष्ट होंगे। " भारत का भविष्य ऐसी अपूर्व महिमा से मण्डित होगा कि उसकी तुलना में भूतकाल के सारे गौरव फीके पड़ जायेंगे तथा उसके सामने तुच्छ जान पड़ेंगे।  भविष्य के महिमामण्डित भारत के समक्ष पूर्वकाल के सारे गौरव गायों के खुर से बने निशान जितने छोटे दिखाई पड़ेंगे ! " 
विशेष तौर से भारत युवाओं के मन में भविष्य के भारत का ऐसा ही स्वप्न रहना चाहिए। स्वामीजी ने कहा था - " तुम जड़ (Matter) नहीं हो , जड़ तो तुम्हारा सेवक है। " इस कथन के मर्म से हम सभी (भावी नेताओं -Would Be Leaders) को अवश्य परिचित हो जाना चाहिए। हमें अपनी यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति की ओर सतत ध्यान केन्द्रित रखना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि हमें  सर्वप्रथम स्वयं यथार्थ मनुष्य [ब्रह्मविद मनुष्य] बनने के लिए प्रयत्न करना चाहिए।  क्योंकि केवल तभी हमलोग अपनी आन्तरिक ऊर्जा स्रोत की सहायता से समाज की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने में सक्षम नेता बन सकेंगे।  
>>>11 . समाज [के चरित्र] का वैसा रूपान्तरण केवल भारत के भावी सच्चे नेताओं के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है, और ऐसे ही [ब्रह्मविद ] नेताओं की आवश्यकता हमें हजारों की संख्या में है। ऐसे नेताओं की आवश्यकता केवल केवल देश या राज्य के राजधानियों में ही नहीं है, वरन हजारों की संख्या में इनकी आवश्यकता छोटे-बड़े शहरों, गाँवों, मुहल्लों तथा देश के कोने में है।  
इसी प्रकार के पथप्रदर्शक नेताओं को उत्पन्न करना/ का निर्माण करना महामण्डल का उद्देश्य है, तथा छोटे पैमाने पर ही सही ; यह इसी दिशा में अग्रसर भी है। यदि भारत के कोने-कोने तक ये विचार फ़ैल जायें कि युवाओं चारित्रिक गुणों को विकसित कर, उन्हें शुद्ध और पवित्र जीवन गठन करने के लिए अनुप्रेरित/ प्रशिक्षित किया जा सकता है। और वैसे प्रशिक्षित युवा केवल एक लक्ष्य - " भविष्य का गौरव मण्डित भारत का निर्माण " के लिए एक मन-प्राण होकर/ से स्वयं अपना जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण के प्रयास में लग जायें और दूसरों को भी इसके लिये प्रोत्साहित करने में समर्थ हों, केवल तभी भारत की सच्ची प्रगति हो सकती है ! 
   अभी तो हमने मशीनों को ही अपना भगवान बना लिया और स्वयं मशीनों के [यानि जड़ के] दास बन गये हैं। इतना ही नहीं, हमने स्वयं को भी एक हृदयशून्य मशीन के रूप में ढाल लिया है। हमने अपने यूनिवर्सिटियों में इस प्रकार के हृदयशून्य मशीनी मानवों का निर्माण किया है जो केवल लेना ही जानते हैं , किन्तु; देना नहीं जानते। हम सभी इस प्रकार के मशीनी मानव अर्थात 'रोबोट' बन चुके हैं , जो बड़े ही स्वार्थी हैं तथा भविष्य में घोर स्वार्थी होकर सर्वभक्षक राक्षस बन जाने की कामना रखते हैं। 
यही कारण है कि आजादी के 61 वर्षों / 75 वर्षों के बाद भी [अमृत काल के बाद भी] भारत की सामान्य जनता दुःख और दारिद्रय से त्रस्त है। अब तो कम से कम उस कवि के करून -क्रन्दन को चारों ओर फ़ैल जाना चाहिए - " Make no more giants, God! But elevate the race. " - अर्थात हे ईश्वर ! अब और अधिक राक्षसों को पैदा मत करो बल्कि मानवता को उन्नत करो। पर केवल प्रार्थना करने से ही काम नहीं चलेगा; यह कार्य केवल तभी संभव हो सकता है , जब हम देश के कोने-कोने में, गाँव -देहातों में रहने वाले युवाओं को उसी प्रकार के 'नेता' [ विवेकानन्द जैसे ब्रह्मविद पथप्रदर्शक नेता] के रूप में गढ़ सकें, जिसकी हमने पहले चर्चा की है।  
मोहनिद्रा में निमग्न, दुःख-दारिद्रय में पड़े करोड़ों नागरिकों वाले -[एक अरब 40 करोड़ की विशाल जनसंख्या वाले] इस महान राष्ट्र को केवल वैसे नेता ही उठा सकते हैं जो स्वयं जाग चुके हों। तथा 'महान लक्ष्य'- [ विश्व-कल्याण के लिए भारत के कल्याण का लक्ष्य] पाने के लिये दूसरों को प्राणों को न्योछावर कर देने की आज्ञा देने के पहले ये नेता अपनी प्यारी मातृभूमि भारत माता की चरणों में अपना शीश चढ़ा चुके हों।  केवल रटे-रटाये शब्दों द्वारा दूसरों को अनुप्रेरित करने की चालाकी छोड़कर वे अपने जीवन को उदाहरण स्वरुप बनाकर दूसरों को भी वैसा ही नेता बनने के लिए प्रेरित करेंगे। वे प्रत्येक व्यक्ति में छुपी हुई शक्ति (?) को जगा देंगे। उनके ह्रदय से सभी प्रकार के भय और शंका को दूर हटाकर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने पैरों पर खड़ा होने का सामर्थ्य प्रदान करेंगे। जिससे कि वे जिन्होंने स्वयं को विभिन्न समस्याओं [ऎषणाओं] में उलझा लिया है , उस पर वे स्वयं निर्णय कर उससे बाहर निकल आयेंगे। इसके लिए जो सबसे आवश्यक है, वह है पहले स्वयं को यथार्थ मनुष्य (? ब्रह्मविद ?100 % निःस्वार्थी ?) बना लेना तथा दूसरों को भी मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करना। 
>>>12. 'पूर्णत्व' का अर्थ क्या है :  इसी प्रकार क्रमशः हम उन समस्त सिद्धान्तों से अवगत होते जायेंगे, जिनके ऊपर महामण्डल का यह 'मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' आधारित है। हमें महामण्डल के आदर्श वाक्य Be and Make, अर्थात " मनुष्य बनो और बनाओ "  को अपने ह्रदय में सर्वोच्च स्थान देना होगा। शायद अपने देश और सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए इससे बढ़कर और कोई दूसरा कार्य हम कर भी नहीं सकते हैं।
किन्तु, इस 'मनुष्य निर्माण आन्दोलन ' को भली-भाँति समझ लेना भी आसान नहीं है। इसे सम्पूर्णता में देखने पर ही हमलोग यह समझ सकते हैं कि - हमारा यह आन्दोलन किस प्रकार हमें [पशुत्व से मनुष्यत्व में] उन्नत कराता हुआ, पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर करा रहा है, इसका सारांश समझने के लिए अभी मानवता के इतिहास को लम्बी यात्रा करनी होगी। मनुष्य की 'सम्भावना' ही सामान्य रूप से अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्त करती जा रही है और वह स्वतः ही # पूर्णत्व की ओर आगे बढ़ रही है।  [# Man is marching towards perfection!विभिन्न भूगौलिक घटनाओं : रूस-यूक्रेन, हमास -इस्राइल, हथिया नक्षत्र-सेंट्रल मिनिस्टर कैम्प, सिनेमा-जगत आदि के माध्यम से?] 'पूर्णत्व' का अर्थ क्या है , इसके अभिप्राय को सम्यक रूप से समझ लेना बहुत कठिन है। हमारे शास्त्रों में 'पूर्णता' शब्द आया है। ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ इसका क्या अर्थ है?कहा गया है 'पूर्णमदः' अर्थात् वह ब्रह्म पूर्ण है। अर्थात् उस ब्रह्म के बाहर कोई वस्तु नहीं है; फिर उसके साथ ही कहा गया है - 'पूर्णमिदम्'; यहाँ इदम् का अर्थ है यह अभिव्यक्त जगत् अर्थात् यह जगत् भी पूर्ण है। कैसे ? क्योंकि वही पूर्ण इस विश्व ब्रह्माण्ड में भी परिव्याप्त है। और 'पूर्णस्य पूर्णमादाय' कहने का तात्पर्य यह है कि यदि तुम स्वयं इस सत्य की अनुभूति कर सको कि वही 'पूर्ण' इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण-कण में ओत-प्रोत है तो फिर उस पूर्ण के बाहर शेष बचा क्या ? इसी को कहा गया - 'पूर्णमेवावशिष्यते'; अर्थात् तुम अब हृदय से यह अनुभव करो कि यहाँ जो कुछ भी जगत् के रूप में  दृष्टिगोचर हो रहा है वह भी ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं है। 

    मनुष्य जीवन का उद्देश्य इसी पूर्णता की अनुभूति कर लेना है। हममें से प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में जितने सारे दुःख और थोड़ी सी खुशियों की अनुभूति करता है वे सभी समग्ररूप से इसी दिशा में अग्रसर होने में सहायता करती हैं। इसी 'पूर्णता' के लक्ष्य तक पहुँच जाना ही मनुष्य के जीवन की सच्ची कहानी है, यही मानव जीवन का इतिहास है । परन्तु; हम यह जानते ही नहीं । इसीलिये प्रत्येक मनुष्य को सचेत रहकर, अपनी पूरी शक्ति से इसी पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए। साधारणतया मनुष्य अज्ञान की अवस्था में रहता है, उसके हृदय में सच्चे ज्ञान की ज्योति नहीं प्रकाशित हो सकी है। इसीलिए तो हम प्रार्थना करते हैं-

तमसो मा ज्योतिर्गमय् ,
असतो मा सद्गमय,
 मृत्योर्मा अमृतं गमय् ।

अर्थात् हे ईश्वर ! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। हमें अविद्या या अज्ञान से निकाल कर सत्य के जगत् में ले चलो। हमें मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। ऐसा हमें स्वयं बनना है तथा प्रत्येक व्यक्ति को इसी प्रगति के पथ पर अग्रसर होने में सहायता करनी है।
     समय - समय पर धरती पर ऐसे मनुष्य आते रहे हैं, जिन्होंने मनुष्यों को इसी शाश्वत प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराने के लिये ही अपना नेतृत्व प्रदान किया है। ऐसे देवमानवों को ही मानव जाति का सच्चा नेता कहा जाता है । परन्तु आज 'नेता' शब्द सुनने मात्र से ही हमारे भीतर वितृष्णा का भाव उत्पन्न हो जाता है। इसका कारण यही है कि 'नेता' शब्द सुनते ही हमारे मन में किसी राजनीतिक नेता का चित्र उभर आता है, जिनका दर्शन हमें सभी समाजों में अक्सर होता रहता है। ऐसे नेता एक अलग प्रकार के झुण्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
>>>13. नरदेव, नर-पशु नेता की अवधारणा :  परन्तु जब हम महामण्डल में 'नेता' के ऊपर चर्चा करते हैं तो हमारी आँखों के सामने वैसे नर- पशुओं का चेहरा नहीं उभरता है। जब यहाँ हमलोग 'नेता' या 'नेतृत्व' शब्द के वास्तविक अर्थ को ठीक से समझ लेते हैं तो हमारी आँखों के समक्ष एक 'नर-देव' रूपी नेता का चित्र उभरता है जिसकी चर्चा हमने ऊपर की है। 'विष्णु सहस्त्रनाम' में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' भी है । निःसंदेह श्रीरामकृष्ण एक 'नेता' थे, बल्कि महान नेता थे! स्वामी विवेकानन्द मानव जाति के महान नेताओं में से एक थे। यीशु क्राईस्ट, पैगम्बर मोहम्मद आदि भी मानव जाति के महान नेता थे। इसी श्रृंखला में भगवान बुद्ध, श्रीचैतन्य, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि नेता थे।  इसीलिये जब हमलोग महामण्डल में नेतृत्व या नेता के ऊपर चर्चा करते हैं तो हमारी आँखों के सामने ऐसे ही नेताओं की छवि रहती है। हम सबों के मन में इन्हीं महान नेताओं के छोटे से अंश जैसा भी, बन पाने की आकांक्षा अवश्य रहनी चाहिए। यही है नेतृत्व की अवधारणा। 
नेतृत्व की इसी अवधारणा को हममें से प्रत्येक को अपने हृदय में अवश्य धारण करना चाहिए तथा इसके एक छोटे अंश के रूप में ही सही, पर वैसा ही बन जाने की इच्छा को अपने भीतर पुष्ट और बलवती बना लेना चाहिए।  हममें से जिन लोगों ने भी स्वामी विवेकानन्द के साहित्य से थोड़ा भी परिचय प्राप्त किया है उन्हें यह ज्ञात होगा कि स्वामीजी बार-बार कहते हैं कि न तो घोर दरिद्र मनुष्य, और न अत्यधिक धनी मनुष्य ही समाज की कोई सच्ची भलाई कर सकता है। 
>>>14. मध्यमवर्ग ही पूर्ण निःस्वार्थी बन सकता है : उसी प्रकार न तो खूब पढ़े-लिखे 'तथाकथित शिक्षित' मनुष्य, न ही अज्ञानी मनुष्य समाज की सच्ची भलाई कर सकते हैं। हर स्थान पर उन्होंने यही कहा है कि धन और शिक्षा की दृष्टि से न तो समाज के निम्नतम स्तर पर रहने वाले और न ही उच्चतम स्तर पर रहने वाले - मनुष्य ही कभी समाज की कोई सच्ची भलाई कर सकते हैं;  बल्कि हर स्थान पर उन्होंने इन दोनों अतियों के मध्य रहने वाले मनुष्यों पर ही विशेष जोर दिया है। क्योंकि अतियों में जीनेवाले मनुष्य कभी भी पूर्णतया निःस्वार्थी नहीं बन सकते हैं। वे कभी दूसरों के कल्याण के लिये अपने-आप को समर्पित करने के लिये आगे नहीं आ सकते हैं। 
    क्योंकि/दूसरी तरफ दुर्भाग्यवश जो लोग बिल्कुल अज्ञान के अंधकार में डूबे हुए हैं [अपने को केवल शरीर M/F समझते हैं] , वे कभी भी मनुष्य या समाज की भलाई के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर देने के महान विचार को अपने अन्तःकरण में धारण ही नहीं कर सकते हैं।  इस तथ्य को ठीक से समझ लेने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हमारे इस चरित्र निर्माण आन्दोलन को सफल बनाने में केवल मध्यमस्तर पर रहनेवाले व्यक्ति ही उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं ।
मध्यम स्तर पर रहने वाले मनुष्यों की गणना हमें इसी दृष्टिकोण को अपने समक्ष रखते हुए करनी चाहिए। सामान्य तौर पर अत्यधिक धन-सम्पत्ति तथा उच्च शिक्षा किसी भी मनुष्य में अहंकार या 'मद' उत्पन्न कर देता है। जिनको यथार्थ शिक्षा [गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में ]  प्राप्त हो गयी है, केवल वे ही जानते हैं कि 'मद' को किस प्रकार 'दम' में परिवर्तित किया जाता है।  महाभारत में कहा गया है कि 'मद' या भोगाकांक्षा को आत्मसंयम में रूपान्तरित करने में समर्थ होने पर ही लोक-कल्याण के लिये हृदय में शक्ति या प्रेम प्रवाहित होने लगता है।
>>> 15.मेरी क्रान्तिकारी योजना: यदि हमारे हृदय में अनन्तज्ञान का एक भी स्फुर्लिंग उपस्थित न हो तो हमारे मन में कभी दूसरों की सहायता करने की शुभ और महान इच्छा का उदय हो ही नहीं सकता है । स्वामी विवेकानन्द द्वारा मद्रास के विक्टोरिया हॉल में दिये गये भाषण का शीर्षक है 'My Plan of Campaign ' ( मेरी क्रान्तिकारी योजना) | स्वामीजी के मन में एक कार्य योजना थी और महामण्डल प्रारंभिक तौर पर भारत के युवाओं के बीच उसी योजना को क्रियान्वित करने के लिये विगत 41/56  वर्षों से प्रयत्न कर रहा है। 
    आखिर वह योजना है क्या ? वह है समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उन्नत मनुष्य बनाना । प्रत्येक मनुष्य को शारीरिक, मानसिक, तथा आर्थिक दृष्टि से उन्नत करने के साथ ही साथ उसके हृदय को इतना उदार बना देना कि उसमें निजी सुख भोग की इच्छा या स्वार्थपरता के लिये थोड़ी भी जगह न रहे। भोगाकांक्षा की गंध भी उस हृदय में शेष नहीं बचे। वहाँ केवल एक अति विशाल सहानुभूतिसम्पन्न उदार हृदय के साथ एक प्रखर मस्तिष्क भी हो । हृदय स्वस्थ और दृढ़ होने के साथ-साथ फूलों जैसा कोमल भी होना चाहिये । "वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि" - अर्थात् अपने संकल्प को पूरा करने के लिये हृदय वज्र की तरह कठोर, किन्तु, अन्य व्यक्तियों के प्रति प्रेम और सहानुभूति का अनुभव करने के लिये पुष्प के समान कोमल भी होना चाहिये । बिल्कुल इसी तरह का पूर्ण हृदय मनुष्य (Heart Whole Man ) हमलोगों को बनना होगा । यदि हमलोग चरित्र के विशुद्ध गुणों से विभूषित मनुष्य बन सकें तो हम भी अपने समाज में नेता के कर्त्तव्य को किसी न किसी रूप में निभा सकते हैं।
>>>16. सनातन धर्म की परिभाषा :  हमलोग जिस समाज में रहते हैं वहीं, अन्य लोगों के साथ-साथ [मुस्लिम?] युवाओं का एक बड़ा वर्ग भी रहता है, जिन्हें इस बात से पूरी तरह अनभिज्ञ रखा गया है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य तथा संभावनाओं को समझ लेने से उनको कितना बड़ा लाभ हो सकता है। उनके पास जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, मनुष्य जीवन के बारे में कोई निजी दृष्टिकोण भी नहीं है, जीवन का कोई उद्देश्य भी नहीं है । अतः हमलोग उन्हें नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं। 
   हम उनके पास जाकर उनसे (इच्छुक और जिज्ञासु भाइयों से) कहेंगे-भाईयों, आओ देखो, यह मनुष्य जीवन अति मूल्यवान् है । शायद आप नहीं जानते हैं कि इस मानव शरीर को प्राप्त करके अपने जीवन का सर्वोत्तम उपयोग कैसे किया जाय? आप अपने जीवन को थोड़ा-थोड़ा करके सुन्दर ढंग से गठित कर लेने को बिल्कुल उत्सुक नहीं हैं। यदि आप भी अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने का प्रयास करते तो यह जीवन अत्यन्त सुन्दर हो जाता। सुन्दर ढंग से गठित मनुष्य जीवन से बढ़कर महामूल्यवान सम्पदा इस जगत् में और कुछ भी नहीं है, जिसके आप स्वामी बन सकते हैं। 
आपको तो 'त्रय -दुर्लभं' में से यह देव दुर्लभ मानव तन पहले से ही  प्राप्त हो चुका है, यदि आप इसको सुन्दर ढंग से गठित करने के प्रति जागरूक होकर इसे विकसित करते हैं तथा इसे क्रमशः दिन पर दिन निर्मित करते हैं तो आप इस जीवन का सर्वोत्तम लाभ या फल प्राप्त कर सकते हैं। इस मानव तन से प्राप्त किया जा सकने वाला वह सर्वश्रेष्ठ लाभ या उपयोग क्या है ? वह यही है कि हमलोग अपने पूरे जीवन को दूसरों के कल्याण के लिये न्यौछावर कर दे सकते हैं। इससे बढ़कर अन्य कोई लाभ इस मानव तन से नहीं उठाया जा सकता है। यही वह 'परम वस्तु' (जन्मसाफल्यं) है जिसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का उद्देश्य है ।

           श्रीमद्भागवत् में श्रीकृष्ण के मुख से एक अत्यन्त ही सुन्दर श्लोक निकला है। तरूण श्रीकृष्ण अपने गोप मण्डली के बीच नेता की भूमिका की लीला कर रहे थे। वे लोग गौएँ चराते हुए जंगल में बहुत दूर तक चले गए थे। दोपहर के समय एक वृक्ष की छाया में विश्राम करती हुई गायों की ओर इंगित करते हुए श्रीकृष्ण अपने मित्रों से कहते हैं- 

पश्यैतान् महाभागान् परार्थेकान्त जीवितान् । 
वात- वर्षा- ताप- हिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ।।

      मेरे प्रिय मित्रों! देखो ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं; इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई के लिये ही होता है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप, पाला सब कुछ सहते हैं, परन्तु हमलोगों की इन सबसे रक्षा करते हैं।
अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम्। 
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिन: ॥ 

(धन्या महीरुहा येभ्यो निराशां यान्ति नार्थिनः ॥)

अहो मैं तो कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन धन्य है, सार्थक है, क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को अपना जीवन निर्वाह करने में सहायता मिलती है । जिस प्रकार किसी सज्जन व्यक्ति के घर से कोई याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी सभी को कुछ न कुछ अवश्य प्राप्त होता है । [https://vivek-anjan.blogspot.com/2018/12/2.html/शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018/भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2] 

पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।
गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान्वितन्वते ॥

ये वृक्ष तो इतने महान हैं कि कामना करने पर अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी गन्ध, गोन्द, राख, कोयला तथा कोपलों से भी लोगों की कामनाओं को पूर्ण करते हैं।

एतावत् जन्म साफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणार्थैधियावाचा श्रेयं आचरणं सदा ।। 

इस प्रकार वृक्ष की उपमा द्वारा श्रीकृष्ण अपने मित्रों को अत्यन्त सरल और सुन्दर ढंग से मानव जीवन की सार्थकता किस बात पर निर्भर करती है, इसको समझाते हुए कहते हैं- मनुष्य जीवन की सार्थकता हमारे द्वारा अपने वचन से धन-सम्पत्ति से, विवेक विचार से, आवश्यकता पड़ने पर अपने प्राण की आहुति देकर भी;  प्रत्येक शरीरधारी का कल्याण करने को तत्पर रहने पर निर्भर करती है। यही तो है सभी धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, धर्मों का वास्तविक रहस्य । धर्मों का सार तत्व भी यही है। इसी तथ्य को उजागर करते हुए महाभारत में भी कहा गया है- 

वेदाहं जाजले धर्म सरहस्यं सनातनम् ।

 सर्वभूतहितं मैत्रयं पुराणं यतू जना विदुः । । 

- मुझे सनातन धर्म के सारतत्व का पता चल गया है ! वह क्या है ? वह है  सब जीवों का कल्याण, सबों के प्रति प्रेम ! यही तो है सनातन धर्म ! जो लोग यथार्थ धर्म का अनुभव कर चुके हैं या जिनको सच्चे धर्म का ज्ञान हो जाता है उनके लिये धर्म की परिभाषा यही होती है।

      सनातन धर्म के इस रहस्य को स्वयं अच्छी तरह से समझ लेने के बाद हमें अपने आस-पास रहने वाले भाई-बन्धुओं के हृदय में भी धर्म की इसी महान ज्योति को प्रज्वलित करने का प्रयत्न करना चाहिए । विशेष रूप से जो भाई महामण्डल आन्दोलन के सम्पर्क में आ चुके हों उन तक तो अवश्य ही ज्ञान के इस प्रकाश को पहुँचा देना चाहिए। 

        किन्तु यह कार्य हर किसी के द्वारा हो पाना संभव नहीं है हालाँकि ऐसा करने की इच्छा हर किसी के मन में रहनी चाहिए। किन्तु हर व्यक्ति विभिन्न कारणों से वैसा करने में समर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि हर व्यक्ति की मानसिक तैयारी तथा सच्ची शिक्षा द्वारा स्वयं की आध्यत्मिक उन्नति इस प्रकार की नहीं होती कि वह दूसरों को इस विषय में मार्गदर्शन दे सकने में सक्षम हो सके कभी-कभी विभिन्न परिस्थितियाँ भी ऐसा करने में बाधक बन जाती हैं।

>>>17. सर्व-श्रेष्ठ समाजसेवा रिलीफ-वर्क नहीं  :   इसीलिये प्रत्येक व्यक्ति पथप्रदर्शक नेता की भूमिका को उचित तरीके से सम्पादित नहीं कर पाता है। किन्तु वे व्यक्ति, जिनके मन में नेता की भूमिका निभाने की व्याकुलता हो और परिस्थितियाँ भी इसकी अनुमति देती हों तथा वे जो इस भूमिका को निभाने में सक्षम हैं, यदि अपना जीवन उचित तरीके से गठित कर लें, यदि स्वयं मानव जाति के किसी सच्चे नेता के सांचे में ढल जायें तो निश्चित ही वे भी दूसरों के 'मन' को बदल डालने का कार्य कर सकते हैं।  यह समाज - सेवा अन्य किसी भी सेवा से अधिक श्रेष्ठ है। क्योंकि सच्चे नेता का कार्य रूग्ण मन को स्वस्थ मन में परिवर्तित करने का ही होता है। नेता का कार्य मुख्यतः दूसरों के मन पर कार्य करना ही होता है। 

साधारण ढंग की समाज-सेवा जैसे भोजन, वस्त्र आदि को जरूरतमन्दों तक पहुँचा देने का कार्य तो सामान्य लोग भी करते ही रहते हैं। मैं भी चन्दा माँग कर दान सामग्रियों का संग्रह कर सकता हूँ, या मैं स्वयं भी धन अर्जित कर अपने धन और अन्य सामग्रियों को दूसरों में बाँट सकता हूँ। ऐसा करना अवश्य ही अच्छा है परन्तु, इससे भी बढ़कर अच्छा कार्य है- लोगों के 'मन' को ही उन्नत करने का कार्य, ताकि दूसरे लोग भी अपने मन में कुछ उच्च, महान तथा कल्याणकारी विचारों को धारण करने में समर्थ हो जायें। स्वामी विवेकानन्द ने इसी ढंग से कार्य करने की प्रेरणा दी है। स्वामीजी ने एक बार कहा था- "मेरे उपदेशों को उसके सच्चे अर्थ में समझो और उसी के आलोक में काम में लग जाओ । ... उपदेश तो तुझे अनेक दिये; कम से कम एक उपदेश को भी तो काम में परिणत कर लो। बड़ा कल्याण जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बातें सुनना सार्थक हुआ है।"

    महामण्डल भी यही चाहता है कि स्वामीजी देखें कि हमने उनके उपदेशों/परामर्शों  को सुना है। उनके उपदेशों  को हम व्यवहारिक धरातल पर लायेंगे, हम अपने जीवन जीने के ढंग को  परिवर्तित कर लेंगे।  जगत् के कल्याण के लिये, भारत के उन करोड़ों दोन-दुखियों के प्रति जिनके लिये स्वामीजी आँसू बहाया करते थे, हम अपने जीवन को समर्पित कर देंगे।

 यह कोई हँसी-ठट्ठे में लिया गया संकल्प नहीं है । यह एक अति अनिवार्य आह्वान है जिसे सुनकर प्रत्येक युवा के हृदय में वेदना/पीड़ा की एक लहर उठनी चाहिए | स्वामीजी ने पहले भी हमें पुकारा था, वे अब भी हमें पुकार रहे हैं और तब तक पुकारते रहेंगे जब तक हम उनकी पुकार को सुन कर समझ न लें। उनकी पुकार को क्या हमें अनसुना करना चाहिए ? उन्होंने हमारा आह्वान करते हुए कहा था - "Let me be happy to see that you embrace death for the good of man" –"मुझे यह देखकर प्रसन्न होने दो कि तुमने लोगों के



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>>>भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं – त्याग और सेवा। [The national ideals of India are renunciation and service.](2.1)>>>Set an example >> of renunciation (non-attachment to desires) and service in your life and inspire others to do the same. अपने जीवन से 'त्याग' (अर्थात  ऐषणाओं में अनासक्ति) और सेवा का उदाहरण प्रस्तुत करो और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करो !
प्रबुद्ध भारत पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, “हमारी कार्य-विधि बहुत सरलता के साथ समझायी जा सकती है। वह है – बस, राष्ट्रीय जीवन को पुन: स्थापित करना। एक राजकुमार होकर भी बुद्ध ने "त्याग" का प्रचार किया था, भारत ने उन्हें सुना और फिर भी  ('त्याग' को आदर्श समझने के बाद भी) केवल छह शताब्दियों में ही वह अपनी समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया। यही रहस्य है। भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं – त्याग और सेवा। आप उसकी इन धाराओं में तीव्रता लाइए और बाकी सब अपने-आप ठीक हो जाएगा।” [राष्ट्रीय आधार पर हिन्दुत्व का पुनर्जागरण : 'प्रबुद्ध भारत'-1898/४.२६५]    
["Our method", said the Swami, "is very easily described. It simply consists in reasserting the national life. Buddha preached renunciation. India heard, and yet in six centuries she reached heir greatest height. The secret lies there. The national ideals of India are renunciation and service. Intensify her in those channels, and the rest will take care of itself."  
[ Reawakening Of Hinduism On A National Basis (Prabuddha Bharata, September, 1898-Volume 5, Interviews)]
भगिनी निवेदिता कहती हैं, “भारत ही स्वामी जी का महानतम भाव था। …भारत ही उनके हृदय में धड़कता था, भारत ही उनकी धमनियों में प्रवाहित होता था, भारत ही उनका दिवा-स्वप्न था और भारत ही उनकी सनक थी। इतना ही नहीं, वे स्वयं भारत बन गए थे। वे भारत की सजीव प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने स्वयं को एकबार ‘घनीभूत भारत’ कहा था। सचमुच वे भारत से एकरूप हो गए थे।
हम सब भी सोचते हैं कि हमारा देश आगे बढ़े और विश्व में अग्रणी हो। हम सोचते हैं कि जब हम दूसरे देशों में जाएँ, तो लोग भारतीय समझकर हमारा सम्मान करें। यहाँ तक तो हमारी देशभक्ति ठीक ही है। किन्तु इसके लिए प्रत्येक को कंधे-से-कंधा मिलाकर चलना होगा। स्वार्थपरता की संकीर्णता से दूर होना होगा। स्वामीजी ने इसे ही 'त्याग और सेवा' का मार्ग कहा है।
      1883 में स्वामी विवेकानन्द और जमशेदजी टाटा की जब जापान के मार्ग में अप्रत्याशित भेंट हुई, तब स्वामीजी ने उनके वहाँ आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा कि वे दियासलाई यहाँ से लेकर भारत में आयात करते हैं। स्वामीजी ने कहा कि यदि वे दियासलाई का कारखाना भारत में खोलते हैं, तो इससे भारत की सम्पत्ति भारत में ही रहेगी और अनेक लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। इसके साथ ही उन्होंने जमशेदजी के साथ भारत में ऐसी व्यवस्था के बारे में चर्चा की, जहाँ विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में अनुसन्धान किया जा सके। इसके बाद हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने Indian Institute of Science. की स्थापना के लिए जमशेदजी टाटा की सहायता भी की थी। 
स्वामीजी चाहते थे कि भारत अपनी कला एवं लघु उद्योगों से उत्पन्न उत्पादों का विदेशों में विक्रय कर आर्थिक स्थिति में सुधार ला सकता है। science and technology के सम्बन्ध में स्वामीजी सदैव उत्सुक रहते थे। उन्होंने कहा था, “एक नवीन भारत निकल पड़े – हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुए, माली, मोची, मेहतरों के कुटीरों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से । निकल पड़े झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों से।” 
   (2.2)>>>Serve and Inspire others: (दूसरों की सेवा करो और प्रेरणा भरो) : तुम अपने सहयोगियों या अधीन काम करने वाले दूसरे लोगों से सम्मान और सेवा लेना चाहते हो, परन्तु क्या तुम अपने छोटे भाइयों या कनिष्ठ सहयोगियों के सम्मान का भी ध्यान रखते हो ? क्या तुम अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करते हो, तथा उन्हें सम्मान देते हो ? तभी, दूसरे लोग तुम्हारा सम्मान करेंगे, तुम्हारी आज्ञा का पालन करेंगे।  क्या तुम स्वयं दूसरों को पूजनीय दृष्टि से देखकर (भक्त की दृष्टि से देखकर) उनकी सेवा कर सकते हो ?  यदि हाँ, तो नेता बनने का पहला गुण तुममें विद्यमान है !  इसी प्रकार प्रत्येक नेता को विनम्र, मधुरभाषी और अहंकार रहित बनने की चेष्टा करनी चाहिये।
         हमें यही सोचना चाहिये कि श्री रामकृष्ण और माँ सारदा देवी के आशीर्वाद से तथा स्वामी विवेकानन्द की कृपा से ही हमें अपने अन्य युवा भाइयों का मार्गदर्शन करने का, उन्हें मनुष्य जीवन का लक्ष्य - और उसे प्राप्त करने का उपाय बता कर उनकी सेवा करने का, सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लेकिन केवल दूसरों की सेवा में स्वयं सदैव तत्पर रहने से ही काम नहीं होगा, बल्कि हमें अपने जीवन में 'वासना और धनदौलत के लालच' (Lust and lucre) को त्याग कर या 'कामिनी-कांचन' में आसक्ति को त्याग कर, अपने आस-पास रहने वाले भाइयों को भी ऐसा करने के लिए उत्साहित तथा उत्प्रेरित करना होगा। ताकि वे भी आगे आयें और, और मेरे उदाहरण से  ऐषणाओं को त्याज्य समझकर उनमें अनासक्त होना सीखें और अपने अन्दर भी वैसा ही सेवाभाव जाग्रत कर सकें। आज हमें इसी प्रकार के नेतृत्व की आवश्यकता है।       
भोगाकांक्षाओं और इन्द्रियसुखों को त्याग कर अपना सुंदर और पवित्र जीवन गठित कर सका हूँ। ताकि वे भी मेरे जीवन को देखकर अनुप्रेरित हों, और यथार्थ मनुष्य बनकर अपने जीवन को दूसरों की सेवा में समर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हों। वे भी नाम-यश पाने के लिये या अपने को The boss बॉस जैसा दिखाने की इच्छा रखे बिना चुप-चाप सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करें। नेता को भगवान के जैसा कार्य करना चाहिये, वे सबकुछ करते हैं -किन्तु कभी सामने दिखाई नहीं पड़ते!
जिस श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में नेतृत्व प्रशिक्षण पद्धति द्वारा स्वामी जी ने अपने भक्तों या अनुयायियों को 'शिष्य' नहीं बनाकर 'नेता' बना दिया था-उसी पद्धति का अनुकरण हमें भी करना चाहिये। आमतौर से सामान्य लोग जिस प्रकार की समाज-सेवा करते हैं,रोड-मुहल्ला सफाई, या प्लेग और बाढ़ से पीड़ित लोगों की सेवा - जैसे समाज सेवा के कार्य स्वामी जी ने भी बहुत किये थे। किन्तु इस समाज-सेवा की अपेक्षा कई गुना अधिक श्रेष्ठ समाज-सेवा है गीता-उपनिषद के सुंदर और अनुप्रेरक विचारों को सुनाकर कई भावी नेताओं के जीवन को इस सीमा तक रूपान्तरित कर देना कि वे भगवान हैं या मनुष्य इसका निर्णय करना कठिन हो जाये! उनके जीवन और सन्देश के प्रभाव से बहुत से लोगों का जीवन मानव- कल्याण की बलि- वेदी पर चढ़ाने योग्य सुंदर नैवेद्य (पुष्प) के समान गठित हो गया था! उनके विचारों से प्रभावित होकर इंग्लैण्ड की मार्गरेट नोबल, भारत माता के कल्याण में निवेदित-प्राणा, भगिनी निवेदिता में रूपांतरित हो गयी थीं। हमलोगों में भी दूसरों के जीवन को इसी प्रकार भारत-कल्याण के नैवेद्य स्वरूप गढ़ देने की क्षमता होनी चाहिये। यही मानवतावादी प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित मानवतावादी नेतृत्व का मौलिक सिद्धान्त है। 
मानवतावादी नेतृत्व का मौलिक सिद्धान्त (Fundamental Principles of Humanistic  Leadership):
दूसरों की सच्ची सेवा करने में समर्थ नेता कैसे बना जाता है ? उसका एक उदाहरण देते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -   " मैं उस महापुरुष का शिष्य हूँ, जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण (चट्टोपाध्याय) होते हुए भी एक पैरिया (चाण्डाल) के घर को साफ करने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। अवश्य वह इस पर सहमत हुआ नहीं -और भला होता भी कैसे ? एक तो सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण, उस पर भी संन्यासी, वे आकर घर सफाई करेंगे ? इस पर क्या वह कभी राजी हो सकता था ? निदान,  एक दिन आधी रात को उठकर गुप्त रूप से उन्होंने उस पैरिया के घर में प्रवेश किया और उसका शौचालय साफ कर दिया, उन्होंने अपने लम्बे बालों से उस स्थान को पोंछ डाला।
और यह काम वे लगातार कई दिनों तक करते रहे, ताकि वे अपने को सबका दास बना सकें ! (श्रीठाकुर के मन में यह बात बैठ जाये कि -अवतार होकर भी मैं सबका दास हूँ !) मैं उन्हीं महापुरुष के चरण कमलों को अपने मस्तक पर धारण किये हूँ ! वे ही मेरे आदर्श हैं -मैं उन्हीं आदर्शपरुष (मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता) श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवन का अनुकरण करने की चेष्टा करूँगा ! सबका सेवक बनकर (शिवज्ञान से जीव सेवा करते हुए ही) ही एक हिन्दू (धर्मरहस्य को जाननेवाला ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) अपने को उन्नत करने (अपने स्वरूप में अटल रहने ) की चेष्टा करता है। हमें इसी रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा के अनुरूप भारत की सर्वसाधारण जनता को उन्नत करना चाहिये न-कि पाश्चात्य समाज-सेवा (रोटरीक्लब जैसी) पद्धति का अनुकरण करके ! हमारे इन सुधारकों या तथाकथित समाज- सेवियों (क्लब और समिति के सदस्यों) में से एक भी, ऐसा जीवन गठन करके दिखाये दिखाये तो सही जो एक पैरिया की भी सेवा के लिए तत्पर हो ! फिर तो मैं भी उसके चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण करूँ, पर हाँ -उसके पहले नहीं ! लम्बी-चौड़ी बातों की अपेक्षा थोड़ा कुछ कर दिखाना लाख गुना अच्छा है ।"५/१०६ 
दो प्रकार का विज्ञान सीखना: हमारे युग के अंग्रेज जीव-विज्ञानी, प्राध्यापक और दार्शनिक सर जूलियन हक्सले, (१८८७- १९७५) कहते हैं -" जिस प्रकार एक 'साइंस ऑफ़ फिजिकल वर्ल्ड' होता है, जिसके द्वारा हमलोग भौतिक पदार्थों और प्राकृतिक शक्तियों का कुशल प्रबंधन करके उन्हें मानवता के लिये उपयोगी बना लेते हैं; उसी प्रकार एक 'साइंस ऑफ़ इन्टरनल वर्ल्ड' भी होता है जिसके द्वारा हमलोग अपने अंतःकरण या अंतःप्रकृति में विद्यमान प्रचुर संसाधनों को मानवता के लिए उपयोगी बनाना सीख सकते हैं। " 
और जैसा कि आप सभी जानते हैं, स्वामी विवेकानन्द ने भी अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिए बाह्य प्रकृति और अंतःप्रकृति दोनों के ऊपर विजय प्राप्त करने का परामर्श दिया है। अंतःप्रकृति में विद्यमान प्राकृतिक संसाधनों को मानवोपयोगी बना लेने वाले विज्ञान को सर जूलियन हक्सले ने 'साइंस ऑफ़ ह्यूमन डेवलपमेन्ट' कहा है। 
[सर जूलियन हक्सले का 'ट्रांस-ह्यूमनिज्म' (परा-मानवतावाद) : "The human species can, if it wishes, transcend itself — not just sporadically, an individual here in one way, an individual there in another way, but in its entirety, as humanity.  We need a name for this new belief. Perhaps 'Trans-Humanism' will serve: man remaining man, but transcending himself, by realizing new possibilities of and for his human nature."] अतः पूर्ण मनुष्य बनने के लिये हमलोगों केवल बाह्य प्रकृति का उपयोग करने वाली टेक्नॉलजि पढ़ने से ही काम नहीं चलेगा, हमलोगों को साइंस ऑफ़ ह्यूमन डेवल्पमेंट -3H विकास द्वारा अंतःप्रकृति को जीतने वाला विज्ञान- या हक्सले का ट्रांस-मानवतावाद भी सीखना होगा! अल्बर्ट आइंस्टीन इन दोनों विज्ञानों को टू-साइंसेज न कहकर टू-रिलीजन्स कहा है। क्योंकि मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने के लिये दोनों आवश्यक हैं | हमारे बाह्य जीवन के मंगल के लिये जिस प्रकार विज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार आन्तरिक जीवन में सुख शान्ति बनाये रखने के लिये अन्तःजगत का विज्ञान - धर्म या आध्यात्म, या विवेक-प्रयोग की पद्धति (मनःसंयोग) सीखना भी आवश्यक है। 
' मुण्डक-उपनिषद ' में एक प्रसंग आता है कि आज से हजारों साल पहले शौनक नामक शिष्य अपने गुरु महर्षि अंगिरा के पास शास्त्र विधि के अनुसार हाथ  समिधा की लकड़ी लेकर श्रद्धा के साथ पहुँचता है, और विनय पूर्वक पूछता है -' कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ' अर्थात, हे भगवन! क्या ऐसी कोई विद्या है, जिसको जान लेने से - ' इदं-सर्वम  ' यह सब कुछ ( गो-गोचर जगत है) निश्चय पूर्वक जाना हुआ हो जाता है ?
उत्तर में  गुरु कहते हैं- " द्वे विद्ये वेदितव्ये " - हाँ, शौनक ! ब्रह्मज्ञ ऋषियों का कहना है कि इसके लिये'दो विद्याओं' को सीखना आवश्यक है, एक है ' परा-विद्या ' और दूसरी है ' अपरा-विद्या '। तुम इस 'अपरा-विद्या' (Science of External World) को सीख कर इस भौतिक जगत के बारे में सबकुछ जान सकते हो, और दूसरी ' परा-विद्या ' को सीख कर तुम आन्तरिक जगत के बारे में भी सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकते हो !
हमारे प्राचीन युग के ऋषि दो प्रकार की विद्या या टेक्नॉलजि सीखने का परामर्श देते हैं, तो आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन दो टेक्नॉलजि की बात न कहकर दो धर्मों को सीखने का परामर्श देते हैं।एक को वे कॉस्मिक रिलिजन (ब्रह्माण्डीय धर्म) कहते हैं, दूसरे को वे 'Religion of internal world' कहते हैं। इस प्रकार हमलोग यह देख सकते हैं कि बीसवीं शताब्दी का अंत आते -आते विज्ञान और धर्म अर्थात आध्यात्मिकता एक-दूसरे के बिल्कुल निकट आ पहुँचे हैं।
 हमलोग जैसा विश्वास करते हैं कि मनुष्य केवल पाँच भौतिक तत्वों का बना यह शरीर मात्र ही नहीं है, मनुष्य इस जड़ शरीर और मन से भिन्न और भी 'कुछ' है। उस और भी 'कुछ' (दिव्यता) को हम तभी अभिव्यक्त कर सकते हैं, जब हमें 'परा-विद्या' अर्थात 'आंतरिक जगत' को जानने का विज्ञान या धर्म भी हो। अतः हमारे नेतृत्व में यह क्षमता अवश्य रहनी चाहिये कि वह आधुनिक जीवन-शैली और पाश्चात्य शिक्षा में पले-बढ़े युवकों और युवतियों को इन दोनों धर्मों से परिचित करा देने में समर्थ हो । क्योंकि सच्चा नेता वही हो सकता है जिसके पास सबल शरीर हो और दूसरों के दुःख को अपने हृदय में अनुभव करने की संवेदना के साथ-साथ इतना प्रखर मस्तिष्क भी हो कि दूसरों के समस्त दुःखों का मूल कारण को खोज कर , उसे हटाने का उपाय बताने में भी सक्षम हो। ऐसा नेता जहाँ कहीं भी जायेगा, वहाँ के युवाओं को एकत्र करके इन्हीं प्रेरणादायक विचारों से उनके मन को जाग्रत करने की चेष्टा करेगा।
टाइम एंड स्पेस से परे (Beyond Time and Space) : (তোর সোহাগ করবো চুরি মন দেবাল দরজা টা তোর খিল দিয়ে রাখিস -শ্যামা সংগীত) मन की चहारदीवारी के दरवाजे से बाहर निकलकर , मन के परे जाकर बाहर से देखने पर यह दुनिया कैसी दिखती होगी ? हमलोग इसका उत्तर अंतरिक्ष विज्ञान और भौतिक विज्ञान में खोजने की चेष्टा करते हैं। जब हम इसको भीतर से देखने की चेष्टा करें तो यह कैसा दिखेगा ? इस प्रश्न का उत्तर हम Non-physical science या गीता-उपनिषद से पाने की चेष्टा करते हैं।  
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
           एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।13.2।।
श्रीभगवान् बोले -- हे कुन्तीपुत्र अर्जुन इस नाम-रूपसे कहे जानेवाले शरीर को क्षेत्र कहते हैं, और इस क्षेत्र को जो जानता है; उसको ज्ञानी लोग क्षेत्रज्ञ नाम से कहते हैं।
व्याख्या: क्षेत्र का शाब्दिक अर्थ है -खेत या जमीन। शरीर को खेत इसीलिये कहा जाता है कि कर्मों का सुख-दुःख रूपी फल (फसल) इसीके माध्यम से काटनी पड़ती है। स्थूल-सूक्ष्म और कारण शरीर (physical, mental and the causal bodies) तीनों से मिलकर यह खेत बनता है। अकेले भौतिक शरीर को ही खेत नहीं कहते हैं। जो ज्ञान के द्वारा इस क्षेत्र को अपने आत्मस्वरूप से पृथक जान लेते हैं, उन्हीं को ज्ञानी लोग क्षेत्रज्ञ कहते हैं।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते -- हमलोग जिस प्रकार अपने से भिन्न किसी भौतिक वस्तु को इंगित करते हुए, इदंता से अर्थात् यह रूप से कहते हैं - यह पशु है, यह पक्षी है, यह वृक्ष है, नदी है, पहाड़ है - किन्तु इस  शरीर को कभी 'मैं' रूप से तथा कभी 'मेरा' रूप से कहते हैं। परन्तु वास्तव में अपना कहलाने वाला शरीर भी इदंता से कहलाने वाला ही है। चाहे स्थूल-शरीर हो, चाहे सूक्ष्म-शरीर हो और चाहे कारण- शरीर हो, पर वे हैं सभी इदंतासे कहलाने वाले ही। हमारा स्थूल शरीर पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश -- इन पाँच तत्त्वोंसे बना हुआ है। इसका दूसरा नाम अन्नमय-कोश भी है क्योंकि यह अन्नके विकारसे ही पैदा होता है और अन्नसे ही जीवित रहता है। अतः यह अन्नमय या अन्न-स्वरूप ही है। इन्द्रियोंका विषय होनेसे यह शरीर इदम् (यह) कहा जाता है।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि -- इन सत्रह तत्त्वों से बने हुए को सूक्ष्मशरीर कहते हैं। इन सत्रह तत्त्वोंमेंसे प्राणों की प्रधानता को लेकर यह सूक्ष्म-शरीर प्राणमय-कोश, मन की प्रधानता को लेकर यह मनोमय-कोश और बुद्धिकी प्रधानताको लेकर यह विज्ञानमय-कोश कहलाता है। ऐसा यह 'सूक्ष्म-शरीर' भी अन्तःकरणका विषय होनेसे 'इदम्' कहा जाता है
अज्ञान को कारण-शरीर कहते हैं। मनुष्य को बुद्धि तक का तो ज्ञान होता है, पर बुद्धि से आगे का ज्ञान नहीं होता, इसलिये उसे अज्ञान कहते हैं। यह अज्ञान सम्पूर्ण शरीरों का कारण होने से कारण-शरीर कहलाता है -- अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणम् (अध्यात्म0 उत्तर0 5। 9)। इस कारण-शरीर को ही आदत, प्रोपेन्सिटी, स्वभाव और प्रकृति भी कहते हैं। और इसी कारण-शरीर को ही आनन्दमय-कोश भी क्यों कहते हैं ?  जाग्रत्-अवस्था (कान्शस-स्टेट ऑफ़ माइंड) में स्थूल-शरीर की प्रधानता होती है और उसमें सूक्ष्म तथा कारणशरीर भी साथ में रहता है। स्वप्न-अवस्था (सब्कान्शस माइन्ड) में सूक्ष्म-शरीर की प्रधानता होती है और उसमें कारण-शरीर भी साथमें रहता है। सुषुप्ति-अवस्था (अन्कान्शस माइन्ड या गहरी नींद की अवस्था) में स्थूल-शरीर का ज्ञान नहीं रहता, जो कि अन्नमयकोश है और सूक्ष्म-शरीर का भी ज्ञान नहीं रहता, जो कि प्राणमय, मनोमय एवं विज्ञानमय-कोश है अर्थात् बुद्धि अविद्या (अज्ञान)में लीन हो जाती है। अतः सुषुप्ति-अवस्था कारण-शरीर की होती है। जाग्रत् और स्वप्नअवस्थामें तो सुख-दुःख का अनुभव होता है, पर सुषुप्ति-अवस्था में दुःख का अनुभव नहीं होता और सुख रहता है। इसलिये कारणशरीरको आनन्दमय-कोश कहते हैं। कारण-शरीर को भी स्वयं का विषय होने, या स्वयं के द्वारा जानने में आनेवाला होने से इदम् कहा जाता है। 

उपर्युक्त तीनों शरीरों को शरीर कहनेका तात्पर्य है कि इनका प्रतिक्षण नाश होता रहता है। इनको कोश कहने का तात्पर्य है कि जैसे चमड़े से बनी हुई थैली में तलवार रखने से उसकी म्यान संज्ञा हो जाती है, ऐसे ही जीवात्मा के द्वारा इन तीनों शरीरों को अपना मानने से; अपने को इनमें रहने वाला मानने से इन तीनों शरीरों की कोश संज्ञा हो जाती है।
शरीर को क्षेत्र कहने का तात्पर्य खेत से है। जैसे खेत में तरह तरह के बीज डालकर खेती की जाती है, ऐसे ही इस मनुष्य शरीर में अहंता-ममता करके जीव, तरह-तरह के कर्म करता है। उन कर्मों के संस्कार,
अन्तःकरण
में पड़ते हैं। वे संस्कार जब फलके रूपमें प्रकट होते हैं, तब दूसरा (देवता- पशुपक्षी- कीटपतङ्ग आदिका) शरीर मिलता है। जिस प्रकार खेतमें जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही अनाज पैदा होता है।  उसी प्रकार इस शरीर में जैसे कर्म किये जाते हैं, उनके अनुसार ही दूसरे शरीर, परिस्थिति आदि मिलते हैं। तात्पर्य है कि इस शरीरमें किये गये कर्मोंके अनुसार ही यह जीव बार-बार जन्म-मरण रूप फल भोगता है। इसी दृष्टिसे इसको क्षेत्र (खेत) कहा गया है। 
घट द्रष्टा घटात भिन्न: अपने वास्तविक स्वरूप से अलग दीखने वाला यह शरीर प्राकृत पदार्थों से, क्रियाओं से,वर्ण-आश्रम आदि से, इदम् (दृश्य) ही है। यह है तो इदम् पर जीव ने भूल से इसको अहम् मान लिया और फँस गया। स्वयं परमात्माका अंश एवं चेतन है, सबसे महान् है। परन्तु जब वह जड (दृश्य) पदार्थोंसे अपनी महत्ता मानने लगता है- (जैसे मैं धनी हूँ, मैं विद्वान् हूँ आदि) तब वास्तवमें वह अपनी महत्ता घटाता ही है। इतना ही नहीं, अपनी महान् बेइज्जती करता है क्योंकि अगर धन, डिग्री आदि से वह अपने को बड़ा मानता है, तो धन विद्या आदि ही बड़े हुए उसका अपना महत्त्व तो कुछ रहा ही नहीं !  वास्तव में देखा जाय तो महत्त्व स्वयं का ही है नाशवान् और जड धनादि पदार्थों का नहीं क्योंकि जब स्वयं उन पदार्थों को स्वीकार करता है, तभी वे महत्त्वशाली दीखते हैं।
इसलिये भगवान् (नेता) श्रीकृष्ण - इदं शरीरं क्षेत्रम् पदों से शरीरादि पदार्थों को अपने से भिन्न इदंता से देखने के लिये कह रहे हैं। एतद्यो वेत्ति -- जीवात्मा इस शरीरको जानता है अर्थात् यह शरीर मेरा है, इन्द्रियाँ मेरी हैं, मन मेरा है, बुद्धि मेरी है, प्राण मेरे हैं -- ऐसा मानता है। यह जीवात्मा इस शरीर को कभी मैं कह देता है अर्थात् मैं शरीर हूँ -- ऐसा भी मान लेता है और यह शरीर मेरा है -- ऐसा भी मान लेता है। 
तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ  इति तद्विदः -- जैसे दूसरे अध्याय के सोलहवें श्लोक में सत्-असत् के तत्त्व को जानने वालों को तत्त्वदर्शी कहा है? ऐसे ही यहाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के तत्त्वको जाननेवालोंको तद्विदः कहा है। क्षेत्र क्या है और क्षेत्रज्ञ क्या है -- इसका जिनको बोध हो चुका है, ऐसे तत्त्वज्ञ महापुरुष इस जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ नाम से कहते हैं। तात्पर्य है कि क्षेत्र की तरफ दृष्टि रहने से, क्षेत्र के साथ सम्बन्ध रहने से ही इस जीवात्मा को वे ज्ञानी महापुरुष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। अगर यह जीवात्मा क्षेत्र के साथ सम्बन्ध न रखे, तो फिर इसकी क्षेत्रज्ञ संज्ञा नहीं रहेगी यह परमात्मस्वरूप हो जायगा (गीता 13। 31)।

यह नियम है कि जहाँ से बन्धन होता है, वहाँ से खोलने पर ही (बन्धनसे) छुटकारा हो सकता है। अतः मनुष्य-शरीर से ही बन्धन होता है और मनुष्य-शरीर के द्वारा ही बन्धन से मुक्ति हो सकती है। अगर मनुष्य का अपने शरीर के साथ किसी प्रकार का भी अहंता-ममता रूप सम्बन्ध न रहे, तो वह संसार से मुक्त ही है। 
अतः भगवान् शरीर के साथ माने हुए अहंता-ममता रूप सम्बन्ध का विच्छेद करने के लिये शरीर को क्षेत्र बताकर उसको इदंता (पृथक्ता) से देखनेके लिये कह रहे हैंजो कि वास्तव में हमारे सच्चे स्वरूप से पृथक् ही है। शरीर को इदंता से देखना केवल अपना कल्याण चाहने वाले साधकोंके लिये ही नहीं, प्रत्युत मनुष्य-
मात्र के लिये परम आवश्यक है।  
कारण कि अपना उद्धार करने का अधिकार और अवसर मनुष्य-शरीर में ही है। यही कारण, है कि गीताका उपदेश आरम्भ करते ही भगवान ने सबसे पहले शरीर और शरीरी का पृथक्ता का वर्णन किया है। इदम् का अर्थ है -- यह अर्थात् अपने से अलग दीखने वाला। सबसे पहले देखने में आता है -- पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश से बना यह स्थूल-शरीर। यह दृश्य है और परिवर्तनशील है। अतः पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका) भी दृश्य हैं। कभी क्षुब्ध और कभी शान्त, कभी स्थिर और कभी चञ्चल -- ये मन में होने वाले परिवर्तन बुद्धि के द्वारा जाने जाते हैं। अतः मन भी दृश्य है। कभी ठीक समझना, कभी कम समझना और कभी बिलकुल न समझना -- ये बुद्धिमें होनेवाले परिवर्तन स्वयं(जीवात्मा) के द्वारा जाने जाते हैं। अतः बुद्धि भी दृश्य है। 

किन्तु बुद्धि आदि के द्रष्टा स्वयं(जीवात्मा) में कभी परिवर्तन हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं और होना सम्भव भी नहीं। वह सदा एकरस रहता है अतः वह कभी किसी का दृश्य नहीं हो सकता।इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को तो जान सकती हैं, पर विषय अपने से पर (सूक्ष्म? श्रेष्ठ और प्रकाशक) इन्द्रियोंको नहीं जान सकते। इसी तरह इन्द्रियाँ और विषय मन को नहीं जान सकते। मन, इन्द्रियाँ और विषय बुद्धि को नहीं जान सकते तथा बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और विषय स्वयं को नहीं जान सकते। न जाननेमें मुख्य कारण यह है कि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि तो सापेक्ष द्रष्टा हैं। अर्थात् एक-दूसरे की सहायता से केवल अपने से स्थूल रूप को देखने वाले हैं किन्तु स्वयं (जीवात्मा) शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि से अत्यन्त सूक्ष्म और श्रेष्ठ होने के कारण निरपेक्ष द्रष्टा है।  अर्थात् दूसरे किसीकी सहायताके बिना खुद ही देखने वाला है। उपर्युक्त विवेचन में यद्यपि इन्द्रियाँ, मन और बुद्धिको भी द्रष्टा कहा गया है, तथापि वहाँ भी यह समझ लेना चाहिये कि स्वयं (जीवात्मा) के साथ रहने पर ही इनके द्वारा देखा जाना सम्भव होता है।  
 कारण कि मन, बुद्धि आदि जड प्रकृति का कार्य होने से स्वतन्त्र द्रष्टा नहीं हो सकते। अतः स्वयं ही वास्तविक द्रष्टा है। दृश्य पदार्थ (शरीर) देखने की शक्ति (नेत्र, मन, बुद्धि) और देखनेवाला (जीवात्मा) -- इन तीनों में गुणों की भिन्नता होने पर भी तात्त्विक एकता है। कारण कि तात्त्विक एकताके बिना देखने का आकर्षण, देखने की सामर्थ्य और देखनेकी प्रवृत्ति सिद्ध ही नहीं होती। यहाँ यह शङ्का हो सकती है कि स्वयं (जीवात्मा) तो चेतन है। फिर वह जड बुद्धि आदिको (जिससे उसकी तात्त्विक एकता नहीं है।) कैसे देखता है इसका समाधान यह है कि स्वयं जड से तादात्म्य करके जड के सहित अपने को मैं मान लेता है। यह 'मैं' (मिथ्या अहं)  न तो जड है और न चेतन ही है। जड में विशेषता देखकर यह जड के साथ एक होकर कहता है कि मैं धनवान हूँ मैं विद्वान हूँ आदि और चेतनमें विशेषता देखकर यह चेतनके साथ एक होकर कहता है कि मैं आत्मा हूँ मैं ब्रह्म हूँ आदि। 

यही प्रकृतिस्थ पुरुष है,जो प्रकृतिजन्य गुणों के सङ्ग से ऊँच-नीच योनियों में बार-बार जन्म लेता रहता है (गीता 13। 21)। तात्पर्य यह निकला कि प्रकृतिस्थ पुरुष में जड और चेतन -- दोनों अंश विद्यमान हैं। चेतन की रुचि परमात्मा की तरफ जाने की है किन्तु भूलसे उसने जडके साथ तादात्म्य कर लिया। तादात्म्यमें जो जडअंश है, उसका आकर्षण (प्रवृत्ति) जडता की तरफ होने से वही सजातीयता के कारण जड बुद्धि आदिका द्रष्टा बनता है।  
यह नियम है कि देखना केवल सजातीयता में ही सम्भव होता है अर्थात् दृश्य, दर्शन और द्रष्टाके एक ही जाति के होने से देखना होता है, अन्यथा नहीं। इस नियम से यह पता लगता है कि स्वयं (जीवात्मा) जबतक बुद्धि आदिका द्रष्टा रहता है, तब तक उसमें बुद्धि की जाति की जड वस्तु है अर्थात् जड प्रकृतिके साथ उसका माना हुआ सम्बन्ध है। यह जड़ शरीर और मन के साथ माना हुआ सम्बन्ध- या तादात्म्य ही सब अनर्थोंका मूल है। इसी माने हुए सम्बन्धके कारण वह सम्पूर्ण जड प्रकृति अर्थात् बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ, विषय, शरीर और,पदार्थोंका द्रष्टा बनता है।
 सत्य अन्तर-जगत और बाह्य जगत को अलग अलग नहीं देखता, यह सर्वदा पूर्ण है। किन्तु सापेक्षिक सत्य भी हमें पूर्ण सत्य को समझने में सहायता प्रदान करता है।  सामान्यतः आधुनिक युवाओं का अपना कोई जीवन-दर्शन नहीं होता, उन्हें इसी भरी जवानी में अपना जीवन का उद्देश्य (नेता बनने और बनाने) निर्धारित करने के लिये उत्साहित करना चाहिये। बहुत से युवा यह नहीं जानते कि मनुष्य-जन्म को महामूल्यवान क्यों कहा जाता है ? अधिकांश यह जानने का भी प्रयास नहीं करते कि यह जीवन क्या है ? वे तो बस यही समझते हैं कि जीवन बस आकस्मिक संयोग से प्राप्त कोई वस्तु है, इसका भरपूर उपयोग करना चाहिये। ईट-ड्रिंक ऐंड बी मेरी - खूब धन कमाना और इंद्रियभोगों में खर्च करना है -बस यही मनुष्य जीवन की सार्थकता है ? यह नीरा पागलपन है, अज्ञान है मूर्खता है ! अलिमृग-मीन-पतंग गज जैसा जीवन को नष्ट करना है !
महामण्डल के लीडरशिप ट्रेनिग से जो नेतृत्व उभर कर सामने आएगा वह इस मूर्खता के मकड़-जाल में फंसे युवक-युवतियों को बाहर खींच लायेगा। उन्हें 'नारद का माया दर्शन' की कहानी सुनायेगा:
 नारद ने एक दिन श्रीकृष्ण से पूछा, " प्रभो, माया कैसी है, मैं देखना चाहता हूँ। " ..... बच्चे जल कहाँ है ? तुम जल लेने गए थे न, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में खड़ा हूँ। तुम्हें गए आधा घण्टा बीत गया। "आधा घण्टा !!" नारद चिल्ला पड़े। उनके मन में तो बारह वर्ष बीत चुके थे, और आधे घण्टे में ही ये सब दृश्य उनके मन से होकर निकल गये ! और यही माया है !
अधिकांश मनुष्य अज्ञानता (अविद्या) के अंधकार में रहते हुए भी खुश रहते हैं। वे इन्द्रियों के बन्धन में हैं, कारागार में हैं किन्तु वही उनको अपना घर प्रतीत होता है। स्वामी जी कहते हैं -" ये सब बातें तो सैकड़ों युगों से लोगों को मालूम है कि हम सब अतीव दुर्दशा में पड़े हैं, यह जगत वास्तव में एक कारागार है, हमारी बुद्धि और मन की चहारदीवारी भी किसी कारागार के ऊँची चहारदीवारी के समान है।  यह सत्य है कि हम सभी माया के दास हैं, हम सभी माया के अन्दर जन्म लेते हैं, और माया के राज्य में जीवित रहते हैं।
 आज २१ वीं शताब्दी में प्रतिद्वंद्विता जितनी तीव्र है, उतनी तीव्र पहले कभी नहीं थी। मनुष्य अपने भाइयों के प्रति आज जितना निष्ठुर है, उतना पहले कभी नहीं था। तब क्या कोई आशा नहीं है ? इस जगत में ही जहाँ जीवन और मृत्यु समानार्थी हैं, एक महावाणी समस्त युगों में समस्त व्यक्तियों के हृदय में गूँजती रहती है - 
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
             मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14।।  
 यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण (श्री रामकृष्ण परमहंस की शरण) में आते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं।। जब मनुष्य को लगता है कि उसका सब कुछ चला जा रहा है, जब उसकी आशा टूटने लगती है, जब अपने बल में उसका विश्वास हटने लगता है, जब सबकुछ उसकी मुट्ठी से फिसल कर भागने लगता है और जीवन एक भग्नावशेष में परिणत हो जाता है, तब वह इस वाणी को सुन पाता है - इसके मर्म को समझ पाता है -और यही धर्म है !
देवोपासना ( किसी मानवजाति के मार्गदर्शक नेता या ठाकुर-देव की पूजा -अर्चना का ?) में कौन सा रहस्य है ? यही कि वे प्रकृति से उन्नत हैं, इस माया के द्वारा वे बद्ध नहीं हैं। जैसे जैसे प्रकृति के सम्बन्ध में हमारी धारणा उन्नत होती जाती है, वैसे वैसे प्रकृति के प्रभु आत्मा के सम्बन्ध में भी हमारी धारणा उन्नत होती जाती है। अंत में हम एकेश्वरवाद -'मैं' अहं नहीं -आत्मा ही सच्चिदानन्द है -में पहुँच जाते हैं ! 
यह वेदान्त माया या प्रकृति को स्वीकार करता है, और जिसके मतानुसार मायाधीश एक ईश्वर (ठाकुर देव जो मेरे हृदय में मेरी आत्मा बनकर बैठे हैं !) ही है ! यह मुक्ति यह स्वाधीनता तुम्हारे अंदर ही है, वह तुम्हारी आत्मा की अन्तरात्मा है। यह मुक्ति बराबर तुम्हारा स्वरूप ही थी, और माया ने तुम्हें कभी बद्ध नहीं किया। तुम पर अधिकार चलाने का सामर्थ्य प्रकृति में कभी नहीं था। डरे हुए बालक के समान तुम स्वप्न देख रहे थे कि प्रकृति तुम्हारा गला दबा रही है। इस भय से मुक्त होना ही लक्ष्य है। " २/८३ 

 "Man must be educated in knowledge of his own divine nature." 'मैन मस्ट बी एजुकेटेड इन नॉलेज ऑफ़ हिज ओन डिवाइन नेचर.'  प्रत्येक युवा को छात्र-जीवन से ही उसकी अपनी दिव्य प्रकृति या यथार्थ स्वरूप के ज्ञान में अवश्य शिक्षित (प्रशिक्षित) किया जाना चाहिए। इसे ही आत्मज्ञान भी कहते हैं। यह हमारे अलग अलग स्त्री-पुरुष में विभक्त अहं-केन्द्रित ज्ञान  या अहंकार-स्वभाव का ज्ञान नहीं है, बल्कि उस विशिष्ट 'स्व' का ज्ञान है -जो सभी का 'स्व' है! उसी स्व में हमलोग अभी रह रहे हैं, उसी में चल रहे हैं, जो हमारा अस्तित्व है, जो हमारी वास्तविक सत्ता है। 
यही वह ज्ञान है, जो हमें उस मुक्ति (प्रकृति या मन की गुलामी से) में पुनः प्रतिष्ठित करा देगा-जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यह मुक्ति हमें प्रकृति के द्वारा उपहार में नहीं प्राप्त होती, या कोई हमें इस मुक्ति को उपहार के रूप में नहीं दे सकता। हमें स्वयं एक दिन यह अनुभूति हो जाती है कि 'OMG' - हम तो सदा से मुक्त ही थे - किन्तु 'ऑर्गेनिक डिफिशिएंसी' [इन्द्रिय-सम्बन्धी त्रुटि, ब्रह्मचर्य का अभाव]  के कारण हमारा शुद्ध-बुद्ध-नित्यमुक्त परमानन्दी स्वरूप हमसे ही विस्मृत हो गया था !!
'माया एवं मुक्ति ' नामक भाषण २/८० में स्वामी जी 'विवेक-प्रयोग का महत्व' बतलाते हुए कहते हैं -
 " ('Hand' या शरीर की शक्ति सेन्ट्री-फ्यूगल फ़ोर्स, अविद्या माया, प्रेय को पाने का लालच) इन्द्रियाँ मनुष्य की आत्मा को बाहर खींच लाती हैं ! मनुष्य ऐसे स्थानों में सुख की खोज करना शुरू कर देता है, जहाँ वह उन्हें कभी नहीं पा सकता। युगों से हम यही शिक्षा पाते आ रहे हैं कि -यह निर्थक और व्यर्थ है; यहाँ (इन्द्रिय विषयों से) हमें सुख नहीं मिल सकता। परन्तु हम सीख नहीं सकते। अपने अनुभव के अतिरिक्त और किसी उपाय से हम सीख नहीं सकते। हम प्रयत्न करते हैं -(विवाह-बाल-बच्चे- करते हैं ?) और हमें एक धक्का लगता है; फिर भी क्या हम सीखते हैं ? नहीं, फिर भी नहीं सीखते।
 (अलि-मृग-मीन-पतंग-गज की एक इन्द्रिय - हालत देखो।) पतिंगे जिस प्रकार दीपक की लौ पर टूट पड़ते हैं, उसी प्रकार हम (पाँच) इन्द्रियों में सुख पाने की आशा से अपने को बार बार झोंकते रहते हैं। पुनः पुनः लौटकर हम फिर से नये उत्साह के साथ लग जाते हैं। बस, इसी प्रकार चलता रहता है और अंत में लूले-लँगड़े होकर,धोखा खाकर हम मर जाते हैं। और यही माया है!"
यही बात हमारी बुद्धि ('Head' चित्त-मन-बद्धि-अहंकार) के सम्बन्ध में भी है। हम अपनी बुद्धि से (विश्व या अपने शरीर) के रहस्य को जान लेने की चेष्टा करते हैं, हम कुछ कदम आगे जाते हैं (तो मृत्यु और बचपन की ओर लौटते हैं तो जन्म ) कि अनादि-अनन्त काल (टाइम) बीच में दीवार की भाँति खड़ा हो जाता है, जिसे हम लाँघ नहीं सकते। कुछ दूर आगे बढ़ते ही असीम देश (स्पेस) का व्यावधान आकर खड़ा हो जाता है। और फिर हम अपने जीवन को ही कार्य-कारण रूपी दीवार (जन्म-मृत्यु चक्र ) द्वारा सुदृढ़ रूप से सीमाबद्ध पाते हैं। हम इस दीवार को लाँघ नहीं सकते। तो भी हम संघर्ष करते रहते हैं। हमें संघर्ष करना ही पड़ता है। और यही माया है।  

हृदय (Heart) की प्रत्येक धड़कन के साथ हम समझते हैं कि हम प्रेम करने को स्वतंत्र हैं, और उसी क्षण हम देखते हैं कि हम स्वतन्त्र नहीं हैं। हम प्रकृति (प्रोपेन्सिटी) के गुलाम हैं। और यही माया है। हम सबका यही हाल है। किसी न किसी रूप में हम सभी इस माया के भीतर हैं। यह बात समझना बड़ा कठिन है - विषय भी बड़ा जटिल है। लोगों के सामने दो मार्ग हैं। इनमें से एक को सभी जानते हैं। वह यह कि -' संसार में दुःख है, कष्ट है-सब सत्य हैं, पर इस सम्बन्ध में बिल्कुल मत सोचो। 'यावत जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत।' इसीको सांसारिक ज्ञान कहते हैं। -' मनुष्य  रूपेण मृगाश्चरन्ति'-  मूविंग अबाउट इन दी फॉर्म ऑफ़ मैन, बट विथ एनिमल स्टिल विदिन .’
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः  ।
                        ते  मृत्युलोके  भुवि  भार भूता  मनुष्य  रूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ – भर्तृहरि नीतिशतक

जिन्होंने न विद्या प्राप्त की है, न तप किया है, न दान दिया है, न ज्ञान अर्जित किया है, न चरित्र-निर्माण करने की चेष्टा की, न गुण सीखे और न ही धर्मानुसार कर्तव्यों का पालन ही किया है- वे इस संसार में पृथ्वी का बोझ बढ़ाने वाले और मनुष्य की सूरत-शक्ल में पशु ही हैं। इसी बात को वेदान्त आध्यात्मिक अंधापन, अंधकार या अज्ञानता कहता है।
इस मोहनिद्रा से युवाओं को जाग्रत करने के लिये महामण्डल का नेता युवाओं से कहेगा - " तुम सभी अव्यक्त ब्रह्म हो, तुम्हारे भीतर अनंत संभावनायें छुपी हुई हैं! उठो ! जागो ! जब तुम आलस्य छोड़कर ५ अभ्यास करके उस दिव्यता को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयासरत हो जाओगे तभी इस महामूल्यवान मनुष्य जीवन के उद्देश्य को समझ पाओगे। जब तुम यह जान जाओगे कि जीवन क्या है, तब तुम्हें भी अपने जीवन से प्रेम हो जायेगा। पूर्ण मनुष्य बन सके तो उससे जीवन का जो पूर्ण आनंद प्राप्त होगा उसकी तुलना में इन्द्रिय विषयों का सुख अत्यंत तुच्छ प्रतीत होगा। एक बार अमेरिका के विख्यात अज्ञेयवादी इंगरसोल ने स्वामी जी से कहा था - ' हमलोग पंचेन्द्रिय ग्राह्य जगत के सिवा अन्य किसी परम् सत्य को जानने की चिंता नहीं करते, अतः हमलोग इस जगत रूपी संतरे को निचोड़ कर उसका पूरा रस ले लेना चाहते हैं। स्वामीजी ने कहा था तुमलोग संतरे का रस निचोड़ते हो और हमलोग आम का रस निकाल कर उसकी गुठली को फेंक देते हैं। ' 
यहीं पर विवेक-प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है। हम सभी लोग सुख पाना चाहते हैं, किन्तु सच्चा सुख कहाँ है -यह नहीं जानने के कारण अक्सर सुख के आवरण में छुपे दुःख को ही भोगते हैं। विवेक-प्रयोग करना ही अन्तः जगत का विज्ञान है। सुख तीन प्रकार के हैं, सात्विक,राजसिक, और तामसिक |सामान्यतः हम सभी लोग पहले तामसिक सुख की तरफ ही दौड़ते हैं, या फिर राजसिक सुख (दाद-दिनाई खुजलाने से पहले सुख बाद में महा पीड़ा ) | "जो सुख आरम्भ में विष की तरह दुःख दायक है, किन्तु परिणाम में अमृत के समान है, और जो सुख आत्मनिष्ठ बुद्धि की प्रसन्नता से उत्पन्न होता है, वह सात्विक सुख है |"(गीता : १८ :३७ )" रूप, रस आदि विषयों और इन्द्रियों के संयोग से जो सुख उत्पन्न होता है, और जो सुख आरम्भ में अमृत तुल्य लगता है, किन्तु परिणाम में विष की तरह दुःख दायक है, उसे राजसिक सुख कहते हैं " (गीता : १८ : ३८ )" जो सुख आरम्भ और परिणाम में बुद्धि का मोह्जनक है, और जो सुख अति निद्रा, आलस्य और असावधानता से उत्पन्न होता है, उसे तामसिक सुख कहते हैं | "(गीता:१८:३९)
तुमने आँवला और हर्रे का नाम सुना होगा, जब इन्हें पहले मुख में डालकर चबाया जाता है तो आरम्भ उनका स्वाद अच्छा नहीं लगता, किन्तु जब इन्हें चबाने के बाद थोडा पानी पी लेते हो तो इसका स्वाद भी अच्छा लगता है और इनसे हमारे शरीर को सच्ची पौष्टिकता भी प्राप्त होती है |अतः यही है सात्विक सुख | 
अतः केवल अपने क्षुद्र सुखों का भोग करने के लिये ही जीवन धारण करना, घोर स्वार्थपरता ही नहीं अपितु देवदुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त कर उसे नष्ट कर देने जैसा है | तथा महामण्डल के नेता अपने आस-पास रहने वाले भाइयों के मन में ऐसे ही उच्च विचारों को भरने के लिये केवल मुख से न बोल कर जीवन से दिखा देते हैं |" मनुष्यों की सच्ची सेवा , उनके मन में उच्च भावों को प्रविष्ट कराकर भी की जा सकती है ! "

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[4 ]
मानवतावादी नेतृत्व का गूढ़ रहस्य
 (The Secret of Leadership )
নেতৃত্বের গোপন কথা 
 'नेता' का विशिष्ट लक्षण (वास्तविक गुण आध्यात्मिकता) विशेष आध्यात्मिक शक्ति-जगत को ब्रह्ममय देखने कि शक्ति (या खुली आँखों से ध्यान करने की शक्ति में) सन्निहित है !    अपरोक्षानुभूति:११६  में आचार्य शंकर कहते हैं, -'नेता' की विशेष आध्यात्मिक शक्ति- " जगत को ब्रह्ममय देखने कि शक्ति या 'खुली आँखों से ध्यान करने की शक्ति' में सन्निहित है! 
दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येत्-ब्रह्ममयं जगत् ।
               सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी ॥ ११६॥      
एक बार भी तुम यदि अपने अनुभव से यह जान  कि- यह जगत प्रत्यक्ष ब्रह्म है ! जिसको भी और जहाँ भी देखो - सभी ईश्वर हैं ! प्रत्येक मनुष्य में वही पवित्रता विद्यमान है।  बिना कुछ बोले, मन ही मन अपने ह्रदय में, प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान पवित्रता को अनुभव करते रहो। तुम केवल अपनी इस अनुभूति के द्वारा ही, दूसरों को भी महान बना सकते हो| हर समय उपदेश देते रहने से कोई लाभ नहीं होगा, बस- हर किसी में अन्तर्निहित पवित्रता का अनुभव करो। 
तुम स्वयं जिस परिमाण में अपने भीतर और प्रत्येक मनुष्य के हृदय में विद्यमान उस दिव्यता (निर्भीकता-पवित्रता-और आत्मश्रद्धा) की उपस्थिति का अनुभव करने में समर्थ बन जाओगे, उसी परिमाण में तुम दूसरों के भीतर भी इस पवित्रता को संचारित कर सकते हो। 
" देख-देख के ऐसा देख, मिट जाए सब, रह जाए एक ! " इस नयी, अनोखी दृष्टि से की गयी समाज-सेवा मुझ मे सहानुभूति, सेवापरायणता, त्याग की भावना को जाग्रत कर देती है।  सेवा के द्वारा निर्भयता अथवा अभिः की प्राप्ति भी अवश्य होनी चाहिये, अतः नेता को सदैव सतर्क हो कर यह देखना चाहिये कि मेरा आत्मविश्वास पहले कि अपेक्षा कई गुना बढ़ गया है, मैं अधिक निःस्वार्थपर हो गया हूँ, अब मेरे मन से सभी प्रकार कि भोगाकांक्षा का समूल नाश हो चुका है !   

क्या तुम यह सचमुच अनुभव कर सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में -जानीबीघा का कुन्दन, धनेश्वर या श्रवण अथवा कैलाश माँझी में भी ---पहले से ही पूर्ण सत्य, पूर्ण पवित्रता, पूर्ण ज्ञान,सम्पूर्ण शक्ति विद्यमान है ! यह केवल शास्त्रों में लिखी बातें नहीं है, यह बिल्कुल सत्य है, प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है - जरा इस सत्य को अपने ह्रदय में ही महसूस करने कि चेष्टा तो करो ! तुम जितनी जल्दी इस सत्य का अनुभव करने लगेंगे, वह आधात्मिक शक्ति तुम्हारे भीतर और दूसरों में भी विकसित होने लगेगी। यदि तुम ऐसा प्रयोग करके देख चुके हो, तो अब सचमुच तुम एक सच्चे नेता बन सकते हो! 
श्री रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे ही नेता थे, स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे ही नेता थे, तथा निश्चित रूप से हममें से अनेक लोग सच्चे नेता बन सकेंगे।  केवल इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्य में ऐसा नेता बनने की सम्भावना है! 
आज हमारे समाज का वातावरण जैसा है, विशेष रूप से उसमें रहते हुए कुछ युवाओं के द्वारा व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग अपनी अन्तर्निहित देवत्व को अभिव्यक्त करने के लिये, 3H को विकसित करने के लिये उद्यम करना बहुत कठिन है। यदि कुछ बड़ी संख्या में युवा लोग एक साथ आ जायें,और चरित्र-निर्माण करने के लिये संघबद्ध होकर संगठित प्रयत्न करें, तो निश्चित रूप से वे एक दूसरे को उत्साहित और प्रेरित कर सकते हैं।  यह  संगठन 'अखिल भारत विवेकानंद युवा महामंडल'  इसी कार्य के लिये निर्मित हुआ है, ताकि इस संगठन की बज्रांकित पताका के तले सभी युवा एकत्रित होकर अपने जीवन को गठित करने के लिये एक दूसरे को प्रेरित कर सकें।
 यदि वे युवा, इस तरह के संगठित प्रयास के माध्यम से, भारत के 60  करोड़ युवा जनसंख्या में से केवल 600 (नोबल सिक्स हंड्रेड) युवाओं को 'यथार्थ मनुष्य' में रूपान्तरित कर दें, तो केवल कुछ ही वर्षों में हमारे समाज की अवस्था काफी हद तक बदल जायेगी। [आजादी के बाद से] यदि किसी कमरे में ६५ वर्षों से अँधेरा भरा हो, तो उसके जाने में भी ६५ वर्ष नहीं लगते, एक माचिस की तीली जलाते ही वह सारा अँधेरा भाग जाता है !) और यहीं पर एक ' 3H' को विकसित करने की पद्धति बताने वाले विशेषज्ञ - मानवतावादी नेताओं , लोकशिक्षकों का निर्माण करने वाला 'संगठन और लीडरशिप' अनिवार्य हो जाता है। 

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भावी नेताओं के लिए कुछ मार्ग संकेत
Some Road -signs for  would be leaders 
ভাবী নেতাদের কিছু উপায়-সংকেত
 किन्तु यह प्रशिक्षण देगा कौन ?
वर्तमान  मानव  समुदाय दुखी बना हुआ है। उसका कारण छात्रों-युवाओं को उचित मार्गदर्शन (प्रॉपर लीडरशिप) देने या '3H' को विकसित करने की पद्धति सिखा देने में समर्थ मार्गदर्शक नेताओं या लोक-शिक्षकों का घोर अभाव हो गया है। शंकराचार्य विवेक चूडामणिं/३ में कहते हैं,
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
    मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥ 
' त्रय-दुर्लभं ' --ये तीन चीजें ' मनुष्यत्वं, मुमुक्षुत्वं और महापुरुष संश्रय'- दुर्लभ हैं, और देवताओं के अनुग्रह से ही मिलती हैं। एक तो मनुष्य होना, दूसरा मन की गुलामी से मुक्त होने की इच्छा या मोक्ष की इच्छा रखना, और तीसरा किसी महापुरुष की शरण। अर्थात स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुष की प्राप्ति; अर्थात मानव-जाति के मार्गदर्शक नेता को अपना आदर्श (फ्रैंड-फिलॉस्फर-गाइड) या सदगुरु चुन लेना बहुत दुर्लभ है। भगवन्त दुर्लभ नहीं है, सच्चे सन्त या 'वसन्त ऋतू की तरह निःस्वार्थ परोपकारी नेता' का मिलना दुर्लभ है। क्योंकि मानव-जाति के वैसे नेता ही अपने अनुयायियों को नश्वर शरीर (हृदय) में ['ब्लड पम्पिंग मशीन ' के निकट हॉउस न० १०१सिम्पेथेटिक  गैंगग्लीआ ' में- अवस्थित आत्मा (ब्रह्म श्रीरामकृष्ण) के निवास का पता और उससे साक्षात्कार करने की पद्धति (विवेक-प्रयोग आदि पाँच अभ्यास) सिखला सकते हैं। 
स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त परम्परा में आधारित महामण्डल के युवा नेतृत्व प्रशिक्षण शिविर में दिया जाने वाला लीडरशिप ट्रेनिग इस 'Organic Deficiency' (जैविक अपूर्णता ) के आनुक्रमिक निराकरण (Gradual removal) की पद्धति द्वारा, मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित पवित्रता और पूर्णता  (निर्भीकता और श्रद्धा) की अभिव्यक्ति में क्रमागत उन्नति का ब्यौरा प्रस्तुत करता है। 
ऐसा मानवतावादी नेता, (Humanistic Leader /लोक-शिक्षक या गुरु) जो श्रीकृष्ण-अर्जुन, श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा की विशेषताओं में सम्पन्न हो, जिन्होंने अपने प्रचण्ड तप द्वारा ईश्वरीय सत्ता का साक्षात्कार किया हो, जो बुद्ध की भाँति आत्मबल का धनी हो, जो श्रीकृष्ण की भाँति योग  विभूतियों से सुसम्पन्न हो, श्रीरामकृष्ण की तरह जिसके अंतःकरण से भक्तिरस की धारा प्रस्फुटित होती हो। जब कोई ऐस्पिरेंट या सत्यार्थी  'सत्य' को जानने के लिये इतना व्याकुल हो जाता है, मानो उसके हाथ-पैर बांधकर, उसके पेट के ऊपर किसीने दहकता हुआ चारकोल रख दिया हो, तो वह 'शिष्य' (भावी नेता) बनने की योग्यता को पूरी तरह से अर्जित कर लेता है। और ऐसे भावी नेता (शिष्य) को मार्गदर्शन (दीक्षा) देने वाले नेता (गुरु) को ढूँढ़ने नहीं पड़ता।  विष्णु-सहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' है, वैसे ही ईश्वर-तुल्य सदगुरु पथ-प्रदर्शक युवा नेता (स्वामी विवेकानन्द) स्वयं उसके पास किसी बहाने उपस्थित हो जाते  हैं। 
प्राचीन भारतीय इतिहास कहता है कि जिस समय आश्रमों में गुरु और शिष्य परंपरा थी। उस युग में जब कोई सत्यार्थी, (aspirant या शिष्य) ब्रह्मपद-अभिलाषी, आकांक्षी केवल परमसत्य को जानने के लिये व्याकुल हो जाता था, तब 'सर्वत्यागी गुरु' (मानवजाति का मार्गदर्शक नेता ) स्वयं उस योग्य शिष्य को ढूंढ़कर लाते थे (ठाकुर दक्षिणेश्वर मन्दिर में अपने कमरे की छत पर खड़े होकर पुकारते थे !), और उन्हें नेतृत्व प्रशिक्षण के पाँच अभ्यास द्वारा प्रशिक्षित योग्य-नेता के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करते थे। 
इसके लिए वे हर उस सुख सुविधा का त्याग कर देते थे, जो उन्हें समाज से सहज में प्राप्त हो सकता था। उन महान नेताओं का ऐसा त्याग, ऐसा उत्सर्ग - समाज और राष्ट्र की उन्नति के लिये उस योग्य प्रार्थी या शिष्य के माध्यम से इस 'लीडर ऐंड वुडबी लीडर' गुरु-शिष्य परम्परा को पुनः आगे बढ़ाने के लिये होता था।  
सचमुच जिन्हें ऐसे (स्वामी विवेकानन्द जैसे ) समर्थ नेता नवनीदा (C-IN-C ) का प्रत्यक्ष मार्गदर्शन मिल गया समझना चाहिए कि जीवन लक्ष्य प्राप्ति के लिए की जाने वाली साधना की आधी मंजिल पूरी हो गयी, तथा उत्तरोत्तर गति से आगे बढ़ने का एक सशक्त आधार-अवलम्बन मिल गया।  स्वामी जी युवाओं का आह्वान करते हैं -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है -जीवन की अभिव्यक्ति के उच्चतर सोपानों तक पहुँचने के लिये प्रयत्न और संघर्ष करो ! 'Arise, Awake ! and Stop Not Till the Goal is Reached'~  'उठो, जागो ! और जबतक लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाते -रुको मत -" चरैवेति -चरैवेति " आगे बढ़ते रहो !  यही वजह है कि प्राचीन भारतीय चिंतकों ने मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं को 'गुरु' के उच्च आसन पर बैठाया है -

                                   ‘यह तन विष की बेलरी, गुरु  अमृत की खान।
      शीश दिये जो गुरु  मिले, तो भी सस्ता जान ॥ ’  

अर्थ: यह शरीर एक विष उत्पन्न करने वाले पौधे के सामान है, जिसे एक गुरु रूपी अमृत ही पवित्र बनाकर अमृतत्व प्रदान कर सकता है, गुरु रूपी अमृत प्राप्त करने के लिए यदि अपने जीवन को भी त्यागना पड़े तो भी यह सौदा सस्ता ही है। कबीर ने तो गुरु की वंदना को ज्यादा महत्व देकर उन्हें ईश्वर से भी उंचा स्थान दिया है।   


 ‘गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पांव,
     बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताये’ 

किन्तु कुछ लोग इन दोहों को पढ़कर इतने भावुक हो जाते हैं कि अपना विवेक ही खो देते हैं और दीक्षा लेने के लिये भेड़ों तरह झुण्ड बनाकर-आधुनिक गुरुओं (ठग-वैद्यों) की शरण में चले जाते है। टी.वी चैनल आने के बाद आजकल अपने देश में एक फ़ैशन, या प्रचलन बहुत तेजी से फैल रहा है कि हर किसी मनुष्य को किसी न किसी आश्रम या कहना चाहिए आलीशान आश्रम; में रह रहे किसी गुरु को जाँचे बिना ही अपना मार्ग-दर्शक नेता मान लेना चाहिये। और अर्थ का अनर्थ तो तब हो जाता है, जब वे इन ढोंगी 
गुरुओं के चरित्र को जाँचे बिना दीक्षा भी ले लेते हैं, (किसी जाकिर नाइक के चक्कर में पड़कर धर्म-परिवर्तन भी कर लेते हैं।) 
एक ढोंगी बाबा कहते हैं, भगवान निरकार है इसीलिये किसी भी 'सगुण ब्रहम' ( राम,कृष्ण, ईसा, या  श्रीरामकृष्ण देव-स्वामी विवेकानन्द के गुरु) को अवतार मानने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। पर वहीँ उसके भक्तो के गले में उसी बाबा की तश्वीर वाला लॉकेट होता है, और उनके घरो में उनकी फोटो की पूजा भी होती है। एक बाबा कामिनी-कांचन और 'मोह और वासना' से दूर रहने को कहता है। किन्तु उसकी अपनी दो -दो शादीयाँ हो रखी है! 

स्वामी विवेकानन्द ने ब्रह्म को  आत्मसाक्षात्कार (Direct perception) के द्वारा  जाना था। इतना ही नहीं उन्होंने नरदेह-धारी ईश्वर (श्रीरामकृष्ण) के श्री-चरणों का स्पर्श भी किया था। वे जानते थे कि ईश्वर सर्वत्र विराजमान हैं। वे यह भी जानते थे कि ' अहं ब्रह्मास्मि- मैं ही ब्रह्म हूँ !' इस सत्य को अपने अनुभव से जान लेना ही मनुष्य जीवन की चरम उपलब्धी है।
 फिर भी जब वे अपने गुरु से निर्विकल्प समाधि में लीन रहने की इच्छा व्यक्त किये थे, तो उनके गुरु ने प्रसन्न होने के बजाय उनको हलकी झिड़की लगाई थी।  किन्तु उस झिड़की के बाद ही नरेन्द्र का नव-जन्म हुआ था। वे उसी दिन नरेन्द्र से  विवेकानन्द हो गये थे। 
क्योंकि इस भर्त्सना के बाद ही स्वामीजी उस वेदवाक्य के मर्म को धारण कर सके थे, जिसका अर्थ होता है- " एक श्रेणी के मनुष्य ऐसे होते हैं, जो अमृतत्व प्राप्त करने के लिये मृत्यु तक का वरण कर लेते हैं; किन्तु एक श्रेणी के मनुष्य ( भावी शिक्षक या वुड बी लीडर्स) ऐसे भी होते हैं- जो सभी मनुष्यों का कल्याण करने के उद्देश्य से, अमृतत्व  तक का त्याग कर देते हैं ।" 
'देवेभ्यः कमवृणीत मृत्युं प्रजायै कममृतं नावृणीत ।' 
मृत्यु  और अमृतत्व  अपने मन को आत्मा से संयुक्त कर के निःस्वार्थ कर्म करने के ऊपर निर्भर करता है,  बस  इसीलिए  है 'बी ऐंड मेक' रूपी सर्वोत्तम कर्म योग । जो ऐसा न कर के केवल देह  की  सुन्दर  रचना में आसक्त रहते हैं, वे करते रहते है इन्द्रियों से विविध-भोग और परिणाम होता है विविध रोग ॥
(देवेभ्यः कं मृत्युम् - अवृणीत)  ब्रहस्पति परमात्मा मुमुक्षुजनों के लिए किस मृत्यु को स्वीकार करता है ? अर्थात् किसी भी मृत्यु को नहीं। किन्तु स्वाभाविक जरानन्तर होने वाली मृत्यु को स्वीकार करता है क्योंकि देव तो अमर होते हैं। (प्रजायै कम् – अमृतं न - अवृणीत) देवों से भिन्न  प्रजायमान केवल जन्म धारण करने योग्य प्रजा के लिए किसी भी अमृत को नहीं स्वीकार करता।   
हमलोग यह समझ सकते हैं कि बाद वाला आदर्श ही सर्वोच्च आदर्श है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने मानवमात्र के कल्याण के उद्देश्य से बाद वाले आदर्श, ' अमृतत्व ' (निर्विकल्प समाधि) का त्याग करके जन-कल्याण के लिये अपना जीवन समर्पित कर दिया था। इसीलिये उनके गुरुदेव ने अपने हाथों से एक
' चपरास ' लिखा था- " नरेन् शिक्षा देगा।" तथा सार्वजनिक रूप से घोषित किया था, "नरेन्द्रनाथ वास्तव में नर-रूपी नारायण है ! जीवों की दुर्गति को दूर करने के लिये ही इसने एक बार पुनः शरीर धारण किया है ! " श्रीरामकृष्ण ने कहा था, " इस युग में सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में इतने उच्च कोटि का आधार और कभी नहीं आया  था! "
[ हिरण्यकशिपु के मारने में नृसिंह को बड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ा था। क्योंकि वह न दिन में मर सकता था, न रात में, न जमीन में, न आसमान में और न आदमी से न जानवर से ही। इसीलिए  नर-सिंह  रूप बना के संध्या समय में अपनी जांघ पर रखकर नाखूनों से पेट चीरकर  ही उसे मारने की बात भगवान को सोचनी पड़ी।ऐसा कहा जाता है। आगे भी ऐसी परेशानी न हो इसी खयाल से उन्होंने  प्रह्लाद से कहा कि इस जगत-प्रपंच को  छोड़ के मेरे साथ ही चलो। लोगों को मनःसंयोग, चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया, जीवन-गठन आदि  ज्ञान-ध्यान सिखाना छोड़ो।
 इस पर प्रह्लाद कहते हैं कि भगवन ऐसा तो अकसर होता है कि सभी ऋषि-मुनि दूसरों की परवाह छोड़ के चुपचाप एकांत में चले जाते और अपनी ही मुक्ति की फिक्र में लग जाते हैं। तो क्या मैं भी आपकी आज्ञा मान के ऐसा ही स्वार्थी बन जाऊँ? हरगिज नहीं। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मुझे अकेले मुक्ति नहीं चाहिए। क्योंकि तब तो इन सांसारिक दुखियों-का मार्गदर्शन करने वाला कोई रही न जाएगा। जो आपको इनके हितार्थ बलात इसी तरह खींचे!  
प्रायेण देव मनुय: स्वविमुक्तिकामा मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:।
 नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एकोनान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये॥ (श्रीमद्भागवत)
-Leaving the miserable fellow-beings behind in thraldom (इन्द्रियों की गुलामी) , little do I care to save myself alone. 
प्रह्लाद कहते हैं जनसाधारण की सेवा ही भगवान की पूजा है। उन्हें प्रवृत्तियों (प्रकृति) की गुलामी करते रहने के लिए यहाँ छोड़,ऋषि मुनि लोग तो स्वार्थी बनकर अपनी ही मुक्ति के लिए एकांतवास करते हैं, उन्हें औरों की फ़िक्र नहीं होती। लेकिन मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता। सभी दुखियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए। मैं तो श्री रामकृष्ण विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में मनुष्य बनने और बनाने का युथ लीडरशिप ट्रेनिंग कैम्प  'BE AND MAKE' के साथ मरूँगा और जीऊंगा!] 
इस प्रकार के तरुण मार्गदर्शक ऋषि -नेता इस विश्व में बहुत कम ही होते हैं।  इसी बात को प्राचीन काल के राजा-कवि-दार्शनिक भर्तृहरी एक श्लोक में बड़े सुन्दर ढंग से कहा है - 
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः-
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभि: प्रीणयन्तः। 
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं,
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ॥
अर्थात -ऐसे सन्त समाज में कितने हैं; जिनका मन, कर्म, वचन पुण्यरूप अमृत (पवित्रता ) से परिपूर्ण हैं, और जो सभी मनुष्यों का बहुत प्रकार से कल्याण करके त्रिभुवन को आनन्दित करते हैं? वे लोग त्रिभुवन को  किस उपाय से आनन्दित करते हैं ? किसी के भीतर यदि परमाणु के जितना छोटा भी गुण दिखता है, उसे वे पर्वत के जितना विशाल देखते और बखान करते हैं, और इस प्रकार अपने हृदय को सदैव विकसित करते रहते हैं। राजा कवि भर्तृहरी कहते हैं, ऐसे सन्त जो ' प्रेम-प्रयोग ' करके दूसरों के परमाणु तुल्य या  अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर अपने हृदयों का विकास साधन करते हों, संसार में बहुत कम पाये जाते हैं।आचार्य शंकर ने ( विवेकचूडामणि/ ३९)  भी कहा हैं -
 शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो
    वसन्तवत् लोकहितं चरन्तः  |
   तीर्णाः स्वयं भीम-भवार्णवं  
     जनान् अहेतुना अन्यान् अपि तारयन्तः ॥३७||
 इस भयंकर संसार-सागर से स्वयं तरे हुए शांत और महान् सज्जन पुरुष वसंत ऋतू के समान लोक-हित करते हुए बिना कारण दूसरे लोगों को तारते (making cross) हुए सदा निवास करते हैं। जब कोई मनुष्य इस नश्वर नाम-रूपात्मक जगत के पृष्ठभूमि में अवस्थित अविनाशी सत्य (अस्ति-भाति-प्रिय) का साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस जन्म-मृत्यु के सागर से तर जाते हैं। अर्थात जगत के पदार्थों को 'मैं' और 'मेरा' मानने की प्रवृत्ति या आसक्ति के बंधन से मुक्त हो कर परम शान्ति का अनुभव करते हैं। उनका दिल पिघलना शुरू कर देता है,अर्थात उनका ह्रदय अत्यन्त विशाल और उदार हो जाता है। और तब वे बिना किसी स्वार्थ के (अकारण) ही बसंत-ऋतू की तरह केवल परोपकार करने के उद्देश्य से भारत के गाँव-गाँव तक स्वामीजी के सन्देश "Be and Make " - ' मनुष्य बनो और बनाओ ' को पहुंचा देने के लिये  लोक-कल्याण के कार्य में निरन्तर लगे रहते हैं। 
 'चरित्रवान मनुष्य ' बन जाने के एक निरन्तर संग्राम का नाम है-जीवन । भगिनी निवेदिता के माध्यम से युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, -"मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है। तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे - धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे। 'निर्भीक वाणी'  और उससे अधिक 'निर्भीक' होकर कर्म करने वाले युवाओं की हमें आवश्यकता है। उठो! उठो! संसार दुःख से जल रहा है। क्या तुम सो सकते हो? हम बार - बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान कर्म क्या है?" " Be and Make ! ' मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ'  - यही हमारा उद्देश्य बने। " 
 - वे कहते थे,"अतीत मे भी आत्मत्याग ही कर्म का रहस्य था, अफ़सोस युगों युगों तक ऐसा ही चलता रहेगा।" "उठो, सिंह स्वरूप होकर भी तुमलोग अपने को भेंडो के समान समझ रहे हो, आओ, इस भ्रम को दूर हटा दो! तुम तो अजर-अमर आत्मा हो, मुक्त सनातन और आनन्दमय हो ! तुम लोग जड़ नहीं हो, तुमलोग देह नहीं हो, जड़ तो तुम्हारा दास है। तुमलोग जड़ के दास नहीं हो। यदि तूँ केवल अपनी मुक्ति के लिये साधना करना चाहता है, तो तूँ जहन्नुम में जायेगा। ...यदि दूसरों का कल्याण करने के लिये, यदि तुझे नरक मे भी जाना पड़े तो, तो उसमें हानी ही क्या है ? स्वार्थपरता के साथ स्वयं स्वर्ग प्राप्त करने की अपेक्षा क्या यही ज्यादा अच्छा नहीं है? "  "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं। लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, 'बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः-' यही मेरा धर्म है।" 
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[6 ]
 
नेताओं का निर्माण भी किया जाता है !
[Leaders are also build ]
[নেতা তৈরিও  হয় ]  
ऐसा कहा जाता है कि -“leaders are born, not made”  नेता केवल पैदा होते हैं, उनका निर्माण नहीं किया जाता। लेकिन,बात ऐसी नहीं है , उनका निर्माण भी किया जाता है। चरित्र के विषय में भी इसी तरह की गलत धारणा फैली हुई है। आमतौर से कहा जाता है कि चरित्र जन्मगत (congenital-कन्जेनिटल) होता है। किन्तु चरित्र का निर्माण भी किया जाता है। किन्तु पहले से ही कुछ गुण रहने से , कुछ का निर्माण किया जाता है , उपादान यदि कुछ भी नहीं हो , तो निर्माण भी नहीं हो सकता। चरित्र-निर्माण के क्षेत्र में पहले नचिकेता जैसी श्रद्धा का आवेश रहना युक्तिसंगत (reasonable) है। और नेता का निर्माण करने में भी श्रद्धा ही मूल उपादान है। वास्तव में चरित्र का निर्माण और नेता के निर्माण में बहुत सारी समानतायें हैं। केवल चरित्रवान व्यक्ति ही ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद होकर , लोकमान्य नेता (ब्रह्म) बन सकते हैं !
नेता (ब्रह्मविद-शिक्षक) बनने की पूर्वशर्त (prerequisites) : परमात्मा (ब्रह्म) की प्राप्ति के लिए उसका अधिकारी होना आवश्यक है। नैतिकता अध्यात्म-मार्ग का प्रथम सोपान है। अनैतिक एवं कुमार्गगामी अर्थात शास्त्र-निषिद्ध कर्मों को करने वाला मनुष्य ब्रह्मविद नेता बनने का सत्पात्र नहीं होता। 
1. अशान्त मनुष्य ब्रह्मज्ञान का अधिकारी नहीं होता।
2. मनुष्य को अपने मन को दिशा बदलकर, दृढता से  उन सभी दुष्कर्मों का (शास्त्र -निषिद्ध कर्मों का) त्याग कर देना चाहिए, जो उसे    परमात्मा से विमुख करते हों और घोर अशान्ति एवं दु:ख उत्पन्न करते हों।
कठोपनिषद (1.2.24-25) का यह दोनों मंत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
 नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:। 
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।। २४।।
शब्दार्थ : प्रज्ञानेन अपि = सूक्ष्म बुद्धि से भी, जो असमाहित अर्थात् एकाग्र न हो, असंयत (असंयमी) हो; वा = और; न अशान्तमानस: = न अशान्त मनवाला ही (उसे प्राप्त कर सकता है)
इसे (ब्रह्म को) सूक्ष्म बुद्धि अथवा आत्मज्ञान से भी न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है,जो असंयत हो और न अशान्त मनवाला ही उसे प्राप्त कर सकता है। 
साधारण अशान्ति तो मानव-स्वभाव का अंग है तथा केवल योगी ही सदा शान्त रहते हैं, किन्तु दुष्कर्म में रत मनुष्य अत्यधिक अशान्त अथवा उद्विग्न रहते शान्त हो जाता है। अविचल शांति में स्थित होकर मनुष्य सत्य का संदर्शन प्राप्त करके भी परमात्मा का अनुभव कदापि नहीं कर सकता। आचारहीन को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते।
मनुष्य दुष्कर्म में (शास्त्र-निषिद्ध कर्मों में ) प्रवृत्त रहकर कभी गहन शान्ति (प्रशांतचित्तता ) का अनुभव नहीं कर सकता और जिसका मन शान्त नहीं है, वह न सांसारिक सुख का अनुभव कर सकता है और न आध्यात्मिक आनन्द का ही।  वास्तव में अशान्त रहनेवाला व्यक्ति जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं कर सकता। जिस मनुष्य का मन भौतिक सुखभोग की वासना तथा सांसारिक पदार्थों की तृष्णा से ग्रस्त रहता है,जिसका मन राग और द्वेष में फँसा रहता है और भौतिक आकर्षणो के बन्धन में रहता है,वास्तव में मनुष्य के मन और इन्द्रियों की चंचलता उसे शान्त नहीं रहने देती।
जिसका मन शान्त और समाहित नहीं होता,वह स्थिर और एकाग्र भी नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति सांसारिक सुखभोगों को प्राप्त करके भी दुःखी रहता है।  परमात्मा मनुष्य के भीतर हृदय में ही विराजमान रहता है,मनुष्य समाहित और शान्त होकर अपने भीतर ही उसकी दिव्यता का अनुभव कर सकता है। जिस मनुष्य का मन भोगासक्ति के कारण सत्य के मार्ग को छोड़कर दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है, वह तीर्थयात्रा, व्रत, दान, पूजा-पाठ आदि करके भी अशान्त रहता है । रेत की दीवार कदापि स्थिर नहीं रहती। दुष्कर्षों में प्रवृत्त रहनेवाला मनुष्य केवल ज्ञान के माध्यम से ही परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता,क्योंकि उसका मन अनेक प्रकार के विकारों, दोषों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त रहता है और उसमें शान्ति एवं एकाग्रता नहीं होते। वह अन्तर्मुखी नहीं होता। दुष्कर्म में प्रवृत्त,अशान्त मनुष्य परमात्मा को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता।
सच्चे भाव से भगवान् की शरण - समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।। (गीता,२.७०) विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः। निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।। (गीता,२.७१) —कामना के त्याग से शान्ति प्राप्त होती है।९.३०)
 सम्मुख होइ जीव मोहि जबहीं, जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं। (श्री रामचरितमानस: सुन्दर काण्ड: पद 44) जैसे ही जीव मेरे सम्मुख होता है,वैसे ही उसके करोडो जन्मो के पापो का नाश हो जाता है।तात्पर्य ये है कि प्रभु कि कृपा सहज उपलब्ध होती है, परमात्मा को पाना तो सरल है, जिस प्रकार सूर्य कि किरणों को प्राप्त करने के लिए हमें कुछ नही करना पड़ता, बस हम सूर्य के सम्मुख हो जाते है।उसी तरह उस कृपानिधान कि कृपा प्राप्त करने के लिए हमें कुछ नही करना, बस एक बार प्रेम से कह कर तो देखो- हे प्रभु (ठाकुरदेव) , मैं आपका हूँ, आप मेरे हो
यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्यु: यस्य उपसेचनम् क इत्था वेद यत्र सः॥ २५॥
जिस (आत्मा) के लिए ब्रह्म (बुद्धिबल-ब्राह्मण ) और क्षत्र (बाहुबल-क्षत्रिय)  दोनों पके हुए चावल (भोजन) हो जाते हैं मृत्यु जिसका उपसेचन (चटनी) है वह (आत्मा) जहाँ (या कहाँ) कैसा है, कौन जानता है?
मनुष्य-शरीर में भी धर्मशील ब्राह्मण और धर्मरक्षक क्षत्रिय का शरीर परमात्मा की प्राप्ति के लिए (ब्रह्मविद बनने के लिए उत्तम माना गया है। किन्तु वे भी उन कालस्वरूप परमेश्वर के भोजन बन जाते हैं , फिर साधारण मनुष्य शरीरों की तो बात ही क्या है ? जिस परमात्मा के लिए बुद्धिबल और बाहुबल दोनों भोजन हो जाते हैं, जो सबको मारने वाले मृत्युदेव (यमराज) हैं ,  वे मृत्युदेव भी उन परमेश्वर (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव ) के उपसेचन (लिट्टी -भोजन के साथ खाये जानेवाले व्यंजन-चटनी ,चोखा ) आदि की भाँति हैं !
बुद्धिबल और बाहुबल तथा उनसे संपन्न मनुष्य काल के लिए मानो मात्र भोजन ही हैंमृत्यु जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य प्रकम्पित हो जाते हैं,काल के लिए मात्र उपसेचन (अर्थात चटनी) है जिसे व्यंजन के रूप में भोजन के साथ खाया जाता हैपरमात्मा की दैवी माया शक्ति माँ काली काल को भी खा जाती है। (स्वामी विमोक्षानन्द) काल का भी काल है,महाकाल है तथा वह स्वयं काल से अप्रभावित अकाल पुरुष है। सम्पूर्ण व्यक्त जगत् काल का एक ग्रास ही है। जिसका उपसेचन -चटनी होता है, वह परमात्मा जहाँ कैसा है, कौन जानता है? ऐसे ब्राह्मण-क्षत्रियादि समस्त शरीरों और स्वयं मृत्यु (काल) के संहारक अथवा आश्रयदाता परमेश्वर (असीम, अविनाशी ब्रह्म या महाकाल) को कोई भी मनुष्य इन नश्वर मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा अन्य ज्ञेय -पदार्थों की भाँति कैसे जान सकता है ?
आत्मतत्व को जानने अथवा ब्रह्मविद बनने का बहुत स्पष्ट राजमार्ग है भक्ति। बिना भगवद्नुग्रह  के कभी भी भगवत्स्रूप साक्षात्कार नहीं हो सकता।(अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव या उनके दासों के दास स्वामी विवेकानन्द के कृपा बिना, आत्मसाक्षात्कार नहीं हो सकता। ) तुलसी दास जी महाराज का फैसला है- " सोई जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।।"
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो,
 न मेधया न बहुना श्रुतेन। 
यमेवैष बृणुते तेन लभ्यस्तस्यैव,
 आत्मा विवृणुते तनूँस्वाम्।। 
 [न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन, यम् एव एषः वृणुते तेन लभ्यः, तस्य एषः आत्मा विवृणुते तनुम् स्वाम् ।]
 अर्थात बहुत प्रवचन से ब्रह्मात्म- तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, ऐसा मत समझो। बहुत श्रवण करने से ब्रह्मात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, ऐसा मत समझो। धारणाशक्तिमती मेधा के द्वारा ब्रह्मात्म-तत्त्व समझ में आ जायगा, सो भी नहीं। तब कैसे आयेगा? ‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः’ रामानुजाचार्य जी महाराज की व्याख्या है- भगवान् (ठाकुरदेव या उनके पार्षद स्वामी विवेकानन्द) जिस साधक को (12 जनवरी 1985 को) स्वयं वरण करते हैं, वही उनको पाता है। जो मनुष्य बुद्धिबल अथवा बाहुबल पाकर मदोन्मत्त एवं गर्वित नहीं हो जाते , और केवल माँ सारदा की कृपा की ही प्रतीक्षा करता रहता है , ऐसे माँ जगदम्बा की कृपा पर निर्भर मातृभक्त साधक पर परमात्मा कृपा करते हैं , और योगमाया का परदा हटाकर उसके सामने अपना स्वरुप प्रकट कर देते हैं , तथा वह कृपासिद्ध ब्रह्मविद (पहले फल बाद में फूल देने वाला पौधा) मृत्यु को पार कर लेते हैं।
यहां आत्मा को पाने का अर्थ है आत्मा के वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म ) का ज्ञान प्राप्त करना । धार्मिक गुरुओं के प्रवचन सुनने से, शास्त्रों के विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से, अथवा ढेर सारा शास्त्रीय वचनों को सुनने से यह ज्ञान नहीं मिल सकता है । इस ब्रह्म-ज्ञान का अधिकारी वह है जो मात्र उसे पाने की आकांक्षा रखता है । तात्पर्य यह है कि जिसने भौतिक इच्छाओं (Bh ) से मुक्ति पा ली हो और जिसके मन में केवल उस परमात्मा के स्वरूप को जानने की लालसा शेष रह गयी हो वही उस ज्ञान का हकदार है । जो एहिक सुख-दुःखों, नाते-रिश्तों, क्रियाकलापों, (Bh ) में उलझा हो उसे वह ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता है । जिस व्यक्ति का भौतिक संसार से मोह समाप्त हो चला हो वस्तुतः वही कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और उसका ही परब्रह्म से साक्षात्कार होता है । [साभार krishnakosh.org]
(Lead by Example)अपने जीवन से मिसाल (उदाहरण स्वरुप)पेश करके ही नेता बना जाता है।   :  मैं यदि स्वयं को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित (motivate) कर सकता हूँ , तभी मैं दूसरों को भी अनुप्रेरित कर सकता हूँ। जिनको मानवतावादी महामण्डल आन्दोलन का नेता बनने के लिए आह्वान किया जाता है , उनमें नेतृत्व के लिए आवश्यक मनोभाव - शान्तचित्तता (tranquility) , आत्मविश्वास , अपने प्रति श्रद्धाशील (reverential) और दूसरों के प्रति सहानुभूति एवं प्रेमभाव - संपन्न रहना उचित है। इसके साथ ही साथ अन्य सभी मनुष्यों के दुःख को दूर करने की एक अदम्य इच्छा रहना आवश्यक है। [स्वयं बंधन-मुक्त होकर को बंधन-मुक्त करने की इच्छा रहना अनिवार्य है।] दूसरे शब्दों में हमारा उद्देश्य यदि सभी को अपने हृदय का विस्तार करने के लिए प्रेरित करना हो तो , हमें स्वयं उसी प्रकार बृहद (अनन्त ब्रह्म) को जानकर अपने हृदय को अनन्त तक विस्तारित कर लेना होगा। (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति -अर्थात नेता को अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपान्तरित कर लेना होगा। ) नेता की दृष्टि के सामने उसके जीवन का उद्देश्य तथा उस उद्देश्य को प्राप्त करने का उपाय दोनों बिल्कुल स्पष्ट रहना चाहिये। 
       महामण्डल आंदोलन का उद्देश्य है राष्ट्र को पुनर्जागृत करना , और इसके लिये ऐसे नेताओं की आवश्यकता है , जिसका मन-मुख एक हो और जो इस आंदोलन को सम्पूर्ण भारत तक फैला देने में समर्थ हों।
भावी नेता को महामण्डल की भावधारा ~ 'Be and Make ' भावधारा -को समझना होगा।  [আমরা অঘটন বা দৈব ঘটনার মত ফল চাই না / स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व- प्रशिक्षण (C-IN-C शिक्षक-प्रशिक्षण) परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक बनने और बनाने की परम्परा 'Be and Make ' भावधारा -को समझना होगा।]
हम इस  " Be and Make - नेतृत्व -प्रशिक्षण परम्परा " से कोई, तात्क्षणिक उद्भासन (instantaneous exposure : एक ही जन्म में नवनीदा ? जैसा नेता बन जाने जैसा ) चमत्कारी परिणाम देखने की आशा नहीं करते। बल्कि हमलोग पूरी विनम्रता के साथ, अपनी और दूसरों की दुर्बलताओं को दूर करके स्वामी विवेकानन्द के आदर्श को सामने रखकर मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने के पथ पर आगे बढ़ते रहेंगे। 'मनुष्य निर्माण और चरित्र -निर्माण आन्दोलन एक धीमीगति का आंदोलन है। यह " Be and Make -पद्धति " एक धीमी गति की प्रक्रिया है, जो मनुष्य के चरित्र में परिवर्तन लाएगी (नेता के क्षुद्र व्यष्टि अहं को, माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं '-बोध में रूपांतरित कर देगी और तब) ,चरित्रवान (प्रबुद्ध-enlightened ,ब्रह्मविद ) मनुष्यों का निर्माण करेगी और समाज में परिवर्तन लायेगी।  
किसी भी सामाजिक आंदोलन के विषय में शिक्षित और बुद्धिमान समुदाय में भी एक गलत धारणा देखी जाती है ! वह यह कि किसी आंदोलन को फलदायक (fruitful) होने के लिए, उसका तीव्रगति से प्रचार-प्रसार करना आवश्यक है। जो आंदोलन धीमी गति से चलता हो , वह उनकी दृष्टि से व्यर्थ है। इस प्रकार की विचार-धारा आंदोलन के मुख्य उद्देश्य या लक्ष्य [The main purpose :ब्रह्मविद नेता /शिक्षक बनो बनाओ ] को अपने सामने नहीं रखती। किन्तु , भले ही कोई आंदोलन अत्यन्त तीव्रगति का क्यों न हो ,किन्तु उसका लक्ष्य या मुख्य उद्देश्य पूर्वनिर्धारित न हो , तो उस आंदोलन का कोई अर्थ ही नहीं होता ! जहाँ कणों की गति तो बहुत तीव्र हो , किन्तु गति की दिशा नहीं हो, उस टेढ़ी-मेढ़ी गति को ही विज्ञान में 'Brownian movement ' कहा जाता है, उस प्रकार के बहुत तीव्र किन्तु दिशाहीन आन्दोलन भी फलदायक नहीं होता। [यथा दिशाहीन नक्सल आंदोलन  का फल कानू सान्याल , चारु मजूमदार / उद्देश्य अच्छा किन्तु उपाय-दिशा  शून्य अन्ना हजारे आन्दोलन का फल = केजरीवाल ] लेकिन किसी शुभ, सुचिन्तित और उद्देश्यपूर्ण -अर्थात  “ गैर -ब्राउनियन मूवमेंट” का तो एक मुख्य उद्देश्य और स्थिर लक्ष्य (ब्रह्मविद मनुष्य या मानवतावादी नेता का निर्माण करना ) रहता ही है , भले ही वह धीमी गति से चले या तीव्र गति से चले। 
हमारे राष्ट्र की उन्नति [भारत का कल्याण ] तभी हो सकती  है जब यहाँ के निवासी "मनुष्य" कहलाने लायक मनुष्य के रूप में निर्मित हो जायेंगे। आज की प्रधान आवश्यकता प्रबुद्ध नागरिकों (Enlightened citizens-ब्रह्मवेत्ता मनुष्यों ) का निर्माण करना है। वर्तमान समय में विकास-मूलक जितने भी कार्य हो रहे हैं , वे मनुष्य की बाह्य दशा में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से हो रहे हैं, उसकी आन्तरिक प्रकृति [मन और हृदय ] को उन्नत करने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है। महामण्डल आंदोलन का उद्देश्य इस बहिर्मुखी विकास को अन्तर्मुखी विकास [कच्चा मैं को पक्का मैं में रूपांतरित] करना है, एवं कहना न होगा कि अन्तर्मुखी विकास के आंदोलन की गति बहुत तीव्र नहीं हो सकती। यहाँ एक बहुत बड़ा प्रश्न उठ खड़ा होता है - क्या हमारी थोड़ी सीमित शक्ति के साथ, हमारा यह 'प्रयास' [उन्नतर मनुष्यों का उन्नततर समाज गठन का उद्देश्य ] सफल हो पायेगा ?
 यहाँ  हमलोगों को भी (कठोपनिषद -1.1.5) नचिकेता के समान -[विष्णु सहस्रनाम में भगवान का एक नाम 'नेता ' है ~ वैसा नेता बनने और बनाने के लिए ]'श्रद्धा -आविवेश ' के लिए प्रार्थना करनी होगी : -- " यद्यपि हमलोग सबकुछ (ब्रह्म = 100 % स्वार्थशून्य ) नहीं हैं , तथापि हमलोग कुछ (मनुष्य=50 % स्वार्थशून्य ) तो हैं ! अधम (पशु=0 % स्वार्थशून्य ) तो बिल्कुल नहीं हैं ! " नचिकेता में जिस प्रकार श्रद्धा का आवेश हो गया था , ठीक उसी श्रद्धा से हमलोगों को भी आवेशित हो जाना होगा !
{ नचिकेता में नेतृत्व के गुण [नचिकेतसः गुणवैशिष्टम् ॥ Leadership qualities in Nachiketa] :
 1 . श्रद्धास्तिक्यबुद्धिः (निश्चितबुद्धिः || Determination)~ उशन्ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ || (Katha. Upan. 1.1.1)
भावार्थ: एक बार, स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से के इच्छुक,महर्षि वाजश्रवा (वाज = अन्न , श्रव = उसके दान से प्राप्त यश ) विश्वजीत नामक ऐसा यज्ञ कर रहे थे कि जिसमें उन्होंने अपना सर्वस्व ही दक्षिणा के रुप में पूजनीय ब्रााहृणों को दे देना पड़ता है।  उस समय उनका अपना पुत्र नचिकेता भी सामने बैठा था। वह उनका सर्वस्व दक्षिणा यज्ञ देख रहा था।  पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः || (Katha. Upan. 1.1.3) भावार्थ: जिन गायों (गायों) ने अंतिम बार पानी पीया है, जिनका घास खाना समाप्त हो गया है , जिनका दूध अंतिम बार दूह लिया गया है , जिनकी इन्द्रियाँ नष्ट हो चुकी है। ऐसी मरणासन्न गौओं का दान करने से तो उनको नरक लोक मिलेगा। अतः पिताजी को सावधान करना चाहिए। 
2. दूरदृष्टिः ||दूरदर्शिता ( Farsightedness) : बालक होने पर भी पितृभक्त नचिकेता को 'कर्म का चरित्र पर प्रभाव ' के विषय में पता था ,अनुचित तरीके से किए गए दान के बुरे परिणामों का फल उसके पिता को न भोगना पड़े , उसकी पितृभक्ति ने उसे प्रश्न पूछने के लिए बाध्य कर दिया और उसने अपने पिता से पूछा ~ स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति || -"आप मुझे किसको दान में भेंट करेंगे"।
  नचिकेता अच्छी तरह से जानता था कि  उसके पिता उसके पास मौजूद हर चीज को देने की इच्छा होनी चाहिए, उनका सर्वस्व में तो मैं भी हूँ सब कुछ दक्षिणा में दिये जाने पर पुत्र नचिकेता ने कहा कि "पिता जी! क्या मैं आपका नहीं हूँ?'' निस्सन्देह तू मेरा ही औरस तनय है।  तो फिर आप मुझे क्यों नहीं किसी को दान में भेंट कर देते हैं ? मैं क्या किसी के योग्य नहीं? जब तीनचार बार इसी प्रश्न को पूछा - इस पर रोष में पिता ने कहा- "जा तू यम के पास चला जा।  " 
ये शब्द सुनकर वह बालक एकान्त में विचार करने लगा। पिता जी ने जो मुझे यमराज को सौंप देने की बात कही है वह उचित प्रतीत नहीं होती। उन्होने आवेश वश ऐसा कह दिया है। इस विराट् मानव-समाज में हर एक मनुष्य का अपना विशेष स्थान होता है।   इसी तरह मानव का प्रमुख धर्म है कि वह अपने परमात्मदेव की इस सकल सृष्टि की रचना के चक्र को भलीभाँति घूमने दे। स्वार्थ ही इस यज्ञ का प्रबल शत्रु है। इसलिये आदर्श मानव का कर्तव्य  है कि वह स्वयं सदाचारी शब्दाभ्यासी, गुरु भक्त और जितेन्द्रिय बनकर विश्व को मनुष्य बनने का उपदेश करे।  अपने तपोमय जीवन से सृष्टि के यज्ञ कुण्ड में शुभ कर्मों की आहुति डालता जाये जिससे संसार में उसके पुनीत कार्यों की चारु सुगन्धि दसों दिशाओं में फैले। इसके लिये सन्त सत्पुरुषों की समीपता प्राप्त करे। और उनके पावन सत्संग से अपने जीवन का कल्याण कर ले।
 3 . आत्मपरिशीलनम् || Introspection (आत्मनिरीक्षण) :  नचिकेत: इदानीं बाल: एव | युवक: अपि नास्ति | श्रद्धाविवेश सोऽमन्यत = श्रद्धा आविवेश: = श्रद्धा तस्मिन् प्रवेशं कृता |  नचिकेता में श्रद्धा (आस्तिक्यबुद्धि ) का आवेश (धावा -Charge) हो गया ~ उसने सोचा मैं पिताजी को अनिष्टकारी परिणाम से बचाने के लिए अपना बलिदान कर दूंगा, मैं उनका पुत्र हूँ वे मुझे किसी को भी दान में दे सकते हैं - अतः यही मेरा धर्म है कि मैं 'यम-सदन ' में उनसे मिलने के लिए अवश्य जाऊँ ! कथा कहती है वे यमपुरी गए और उस स्थान वापस लौट आये जहाँ से कोई वापस नहीं लौटता।  
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति ॥ 
 
बहूनां एमि प्रथमः । बहूनां एमि मध्यमः। कदापि अधम: न अभवत्| यमस्य किं स्वित् कर्तव्यं यत् मया अद्य करिष्यति ॥ 
अर्थात् मैं इस शिष्य मंडली में कितनों से उत्तम हूँ और किन्हीं के बराबर भी- अधम तो मैं बिल्कुल नहीं हूँ ,ऐसा क्या हो सकता है जो यम करना चाहते हैं जिसे वे आज मेरे द्वारा सम्पन्न करेंगे ।
व्याख्या : शिष्यों और पुत्रों की तीन श्रेणियाँ होती हैं -- उत्तम, मध्यम और अधम। जो गुरु या पिता का मनोरथ समझकर उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा किये बिना ही उनकी रुचिके अनुसार कार्य करने लगते हैं, वे उत्तम हैं। जो आज्ञा पाने पर कार्य करते हैं, वे मध्यम हैं और जो मनोरथ जान लेने और स्पष्ट आदेश सुन लेने पर भी तदनुसार कार्य नहीं करते, वे अधम हैं। 
मैं बहुत से शिष्यों में तो प्रथम श्रेणी का हूँ, प्रथम श्रेणी के आचरण पर चलने वाला हूँ क्योंकि उनसे पहले ही मनोरथ समझकर कार्य कर देता हूँ।  बहुत से शिष्यों से मध्यम श्रेणी का भी हूँ।  मध्यम श्रेणी के आचार पर भी चलता आया हूँ परंतु अधम श्रेणीका तो हूँ ही नहीं। आज्ञा मिले और सेवा न करूँ? ऐसा तो मैंने कभी किया ही नहीं। फिर, पता नही, पिताजी ने मुझे ऐसा क्यों कहा ? मृत्युदेवता का भी ऐसा कौन सा प्रयोजन है? जिसको पिताजी आज मुझे उनको देकर पूरा करना चाहते हैं। सम्बन्ध -- सम्भव है पिताजी ने क्रोध के आवेश में ही ऐसा कह दिया हो परंतु जो कुछ भी हो; पिताजीका  वचन तो सत्य करना ही है।
4. रघुकुल रीति ~ पितृवाक्य-पालनम् ( Treading the path of Truth): सत्य के मार्ग पर चलना ही सनातन धर्म है > 
    अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथा परे ।
 सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः ॥ ६॥  
अर्थ: नचिकेता  कहता है कि " पितामह आदि पूर्वजों, तथा अपने गुरुजनों के आचरण को ध्यान में रखते हुए उन्हीं के कदमों का अनुसरण करना  चाहिए। असत्य के मार्ग पर चलकर कोई अजर-अमर नहीं होता।मनुष्य मरणधर्मा है। पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार यह मकई के एक दाने के सामान  मिट्टी में मिल कर मर जाता है और कर्मवश पुनः मकई की तरह ही जन्म ले लेता है। 
सम्बन्ध - अतएव इस अनित्य जीवन के लिए मनुष्य को कभी अपने कर्तव्य -धर्म का त्याग करके मिथ्या आचरण नहीं करना चाहिए। आप शोक-मोह का त्याग कीजिये और अपने कुल-परम्परा से चले आ रहे सत्य-वचन का पालन करते हुए मुझे यमपुरी (मृत्यु के पास ) जाने की अनुमति दीजिये। इस प्रकार सत्य की रक्षा के लिए नचिकेता ने मृत्यु को दान करने का संकल्प भी पिता से पूरा करवा लिया। तब नचिकेता यमराज को खोजते हुए यमलोक पहुंच गया।
कथा कहती है कि यमसदन पहुँचने पर नचिकेता को पता चला कि यमराज कहीं बाहर गए हुए हैं वहां नहीं है, फिर भी उसने हार नहीं मानी और तीन दिन तक वहीं पर बिना खाए-पिए बैठा रहा। और यमराज की प्रतीक्षा करता रहा। यमराज के लौटने पर उनकी पत्नी ने कहा - साक्षात अग्नि के तेज से दीप्त एक ब्राह्मणकुमार आपकी प्रतीक्षा में बिना अन्न-जल ग्रहण किये आपकी प्रतीक्षा में बैठा है। बालक की पितृभक्ति और कठोर संकल्प से वे बहुत खुश हुए।
 यमराज ने नचिकेता की पिता की आज्ञा के पालन और तीन दिन तक कठोर प्रण करने के लिए तीन वर मांगने के लिए कहा। तब  नचिकेता ने प्रथम वर से अपने पिता के क्रोध का परिहार तथा वापस लौटने पर उनका वात्सल्यमय व्यवहार मांगा।  दूसरा अग्नि विद्या (स्वर्ग -प्राप्ति यज्ञ की पद्धति) को जानने के बारे में था। उस अग्नि विद्या को एक बार सुनकर ही नचिकेता ने उसका  विवेचन करके दिखा दिया , तब नचिकेता के ज्ञान से प्रसन्न होकर यमराज ने उसे एक और वर प्रदान किया। और कहा कि आज से इस यज्ञ का नाम नचिकेतस यज्ञ होगा। 
नचिकेता ने तीसरे वर से मृत्यु रहस्य ( जन्म-मरण) तथा ब्रह्म  (आत्म-ज्ञान ) को जानने की इच्छा  प्रकट की। 
~ येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके हे यमराज, मृतक व्यक्ति के सम्बन्ध में कोई कहता है कि मृत्यु के उपरान्त उसके आत्मा का अस्तित्व रहता है, और कोई कहता है कि कुछ भी नहीं रहता, आप तो मृत्यु के देवता हैं, कृपया मुझे इसका रहस्य समझा दें। 
एक बालक से ऐसे गूढ प्रश्न की आशा नहीं की जा सकती। अतएव यमदेव ने नचिकेता के सच्चा अधिकारी अथवा सुपात्र होने की परीक्षा ली। 
  यम ने आखिरी वर को टालने की भरपूर कोशिश की और नचिकेता को आत्मज्ञान के बदले कई सांसारिक सुख-सुविधाओं को देने का लालच दिया। यमराज ने उसे दीर्घायुवाले बेटे-पोते, बहुत से गौ आदि पशु, गज, श्यामकर्ण घोड़े ले लो - इसका कान ऐंठोगे तो यह आसमान में उड़ने लगेगा। भूमि के विशाल क्षेत्र, स्वयंकी भी यथेच्छा आयु प्राप्त करने का प्रलोभन दिया और समझाया कि वह आत्मविद्या को सीखने के लिए उसे विवश न करे। यमदेव ने नचिकेता से कहा - यह विषय तो अत्यन्त गूढ है तथा सुगम नहीं है। अत: तुम कोइ अन्य वर मांग लो और इस वर को मुझे ही छोड़ दो। नचिकेता ने सभी सुख-सुविधाओं को नाशवान जानते हुए नकार दिया।  उनके अनेक प्रलोभन देने पर भी नचिकेता मृत्यु के रहस्य को जानने का आग्रह नहीं छोड़ा। कठोपनिषद् का पहला उपदेश नचिकेता के मुख से निस्सृत हुआ है : "न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:" को कण्ठस्थ करके इसके सारतत्त्व को ग्रहण कर लेना चहिए।  मनुष्य की आत्यन्तिक तृप्ति कभी धन-सम्पत्ति से नहीं हो सकती। मनुष्य धन से सुख-सुविधा के साधनों को प्राप्त कर सकता है, किन्तु हमेशा सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। मनुष्य के जीवन में धन बहुत कुछ है, किन्तु सब कुछ नही है। इच्छाओं की तृप्ति भोग से नहीं होती, जैसे कि अग्नि की शान्ति घृत डालने से नहीं होती, बल्कि वह अधिक उद्दीप्त हो जाती है।
अंत में विवश होकर यमराज को 'मृत्यु' का रहस्योद्घाटन करते हुए ब्रह्म के स्वरूप, जन्म-मरण, विद्या, अविद्या तथा मृत्यु आदि के रहस्य का उद्घाटन करना पड़ा। 
 
[ कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति/२९ ]
 
मरणोपरांत की आत्मा अस्तित्व में है या नहीं,
इस विषय का ज्ञातव्य ज्ञान, कहें प्रभो! इच्छा यही।

वर आत्म ज्ञान का गूढ़, सत्य है, पर यही वर चाहिए,
सब प्रलोभन व्यर्थ मुझको , आत्म ज्ञान ही चाहिए॥


 उपरोक्त प्रसंग के चिन्तन से एक बात स्पष्ट होती है कि - ब्रह्म को जान कर ब्रह्मविद होना या आत्म-ज्ञान जीवन की सर्वोत्तम आध्यात्मिक लब्धि (SQ) है । नचिकेता के सम्मुख आत्मज्ञान के बदले में संसार का वैभव दिया जाता है लेकिन वह धीर पुरुष आत्मज्ञान को ही अपना लक्ष्य रखता है । और यही बात आज संसार के लोगों के सम्मुख रखी जाय तो आत्मज्ञान को चुनने वाले विरले ही मिलेंगे, संसार का वैभव पाने वाले ही अधिकतर होंगे। और इनमें भी सही रास्ते से धन कमाने वाले  अब कम हो गये हैं , किसी भी तरह धन आये आज तो ऐसे लोगों की संख्या अधिक है।
यमराज- नचिकेता संवाद : यमराज जब परीक्षा लेकर देख लिए कि नचिकेता ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी है तब उपदेश आरम्भ करने से -ब्रह्मज्ञान के लिए विवेक-प्रयोग (श्रेय-प्रेय विवेक) के महत्व को प्रकट करते हुए यमराज बोले - 
 अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥

श्रेय ~  कल्याण साधन अलग हैं, और प्रेय , भोग भी अलग हैं,
भिन्न फलदाता हैं दोनों, इनसे मानव सलग हैं।
श्रेय कल्याणक अलौकिक, परे सुख संसार है,
श्रेय नित्य है सौख्य सिंधु, प्रेय  दुःख व्यापार है॥ [ १ ]
 
 श्रवणायापि बहुरभिर्यो न लक्ष्यः श्रृण्वन्तोपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ।। ७ ।।

अधिकांश को तो आत्म तत्व का श्रवण भी नहीं साध्य है,
कुछ श्रवण करते फिर भी उनका, ग्रहण तत्व दुसाद्धय है॥
विरला ही कोई यथार्थ ज्ञाता, विरला ही कोई गहे,
ऋत आत्म तत्व के ज्ञान का, ज्ञाता परम दुर्लभ महे॥ [ ७ ]
 तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम् ।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति ॥ १२ ॥

सबके ह्रदय की गुफा में , प्रभु सर्व व्यापी व्याप्त हैं,
वह योग माया के आवरण में, है छिपा नहीं ज्ञात है।

जग गहन दुर्गम विपिन सम, सत्ता अगोचर की महे,
जो धीर साधक सतत चिन्तक, वे हर्ष शोक नहीं गहें॥ [ १२ ]

 सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपाँसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदँ संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥ १५ ॥

जिस परम पद का वेद पुनि -पुनि कथन प्रतिपादन करें,
सम्पूर्ण तप जिस परम पद का लक्ष्य और साधन करें।
जिसके लिए ही ब्रह्मचर्य का, कठिन व्रत साधक करे,
वह परम तत्व है "ॐ " अक्षर महत उद्धारक नरे॥
[ १५ ]
 एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् ।
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ॥ १६ ॥

यह "ॐ " अक्षर प्रणव अक्षय, ब्रह्म का ही स्वरूप है,
यही परम पुरुषोत्तम जनार्दन, परम ब्रह्म अनूप है।
ब्रह्म और परब्रह्म का ही, नाम तो ओंकार है,
ऋत तत्व साधक को सुलभ, परब्रह्म दोनों प्रकार है
॥ [ १६ ]

 
किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन? मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है, जो ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के हृदय में रहते हैं। इस रहस्य को समझकर जो मनुष्य ध्यान और चिंतन करता है, उसे किसी प्रकार का दुख नहीं होता है। ऐसा ध्यान और चिंतन करने वाले लोग मृत्यु के बाद जन्म-मृत्यु के बंधन से भी मुक्त हो जाता है। 
क्या आत्मा मरती या मारती है? जो लोग आत्मा को मारने वाला या मरने वाला मानते हैं, वे असल में आत्मा को नहीं जानते और भटके हुए हैं। उनकी बातों को नजरअंदाज करना चाहिए, क्योंकि आत्मा न मरती है, न किसी को मार सकती है। कैसे हृदय में माना जाता है परमात्मा का वास? मनुष्य का हृदय ब्रह्म को पाने का स्थान माना जाता है।
 न जायते म्रियते वा विपश्चिन्
नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
१८ ॥

है जन्म मृत्यु विहीन आत्मा, कार्य कारण से परे,
यह नित्य शाश्वत अज पुरातन कैसे परिभाषित करें।
क्षय वृद्धिहीन है आत्मा और नाशवान शरीर है,
आत्मा पुरातन अज सनातन मूल है अशरीर है॥
[ १८ ]
 
यमदेव ने बताया मनुष्य ही परमात्मा को पाने का अधिकारी माना गया है। उसका हृदय अंगूठे की माप का होता है। इसलिए इसके अनुसार ही ब्रह्म को अंगूठे के आकार का पुकारा गया है और अपने हृदय में भगवान का वास मानने वाला व्यक्ति यह मानता है कि दूसरों के हृदय में भी ब्रह्म इसी तरह विराजमान है। इसलिए दूसरों की बुराई या घृणा से दूर रहना चाहिए। क्या है आत्मा का स्वरूप? यमदेव के अनुसार शरीर के नाश होने के साथ जीवात्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह अनन्त, अनादि और दोष रहित है। इसका कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न मरती है। 
 नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः
तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्
॥ २३ ॥

परब्रह्म ना ही बुद्धि ना ही वचन, श्रुति अतिरेक से,
ना तर्क गर्व प्रमत्त से, अथ ना सुलभ प्रत्येक से।
करते स्वयम स्वीकार जिसको, प्रभु उन्हें उपलब्ध है,
जो विकल व्याकुल भक्त जिनके भक्तिमय प्रारब्ध हैं॥ [ २३ ] 

 नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ २४ ॥


जो शास्त्र -निषिद्ध कर्मों से विरत नहीं, मन उसका प्रशान्त नहीं ,
कटु वृतिमय ज्ञानाभिमानी भी, प्रभु रस हीन हैं।
है वशीभूत मन जिनका नहीं, और आचरण न ही शुद्ध है,
नहीं प्रभु कृपा उन पर रहे, वह चाहे कितना प्रबुद्ध है॥
[ २४ ]
 
 यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः ।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः ॥ २५

 
बुद्धिबल (ब्राह्मणशरीर ) और बाहुबल (क्षत्रिय शरीर) भी  जिसका भोजन हों,
और जिसके लिए मृत्यु भी चटनी के सामान हो। 
उस काल का भी भक्षण करने वाले महाकाल  को भला कैसे कोई,
क्या जान पाये सृष्टि में उपजा नहीं, विरला कोई॥ [ २५ ]

  आत्मानँ रथितं विद्धि शरीरँ रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ ३ ॥

नचिकेता प्रिय जीवात्मा को, रथ का रथी  मान लो,
एस पान्च्भौतिक देह को तुम रथ के जैसा जान लो। 
मन लगाम रथ का है ,  बुद्धि को समझो सारथी,
पांचो इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन के नियंत्रक है आत्मा रथी ॥ [ ३ ]
 
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥ १० ॥

इन्द्रियों से अति अधिक तो शब्द विषयों में वेग है,
विषयों से भी बलवान मन का, प्रबल अति संवेग है|
 इस मन से भी बुद्धि परम और बुद्धि से है आत्मा,
अतः मानव आत्म बल संयम से हो परमात्मा॥ [ १० ]
 
ज्ञान के बिना कर्म , कर्म के बिना ज्ञान ,  भक्ति के बिना ज्ञान और कर्म ? भक्ति का उदय हो कैसे ? अवतार वरिष्ठ से प्रेरित नेता के अनुयायी बनने से ही ठाकुर और माँ में भक्ति दृढ़ हो सकती है। तों (ब्रह्म -माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट हृदय के मैं '-बोध) से बड़ो है कौन ? मो सो (व्यष्टि अहं) कौन छोटो ? तों सो खरो है कौन ? मो सो कौन खोटो ? मूर्तित्रयं ही ज्ञान-कर्म और माँ जगदम्बा की भक्ति के 'संगम' का मूर्त रूप है।  
यदि कोई व्यक्ति (आत्मा-परमात्मा) के ज्ञान, उसके प्रचार-प्रसार का कर्म और वर्तमान युग के अवतारवरीष्ठ मूर्तित्रयं में भक्ति -विश्वास नहीं करता  है तो उसे कैसे फल भोगना पड़ते हैं? 
जिस तरह बारिश का पानी एक ही होता है, लेकिन ऊंचे पहाड़ों पर बरसने से वह एक जगह नहीं रुकता और नीचे की ओर बहता है, कई प्रकार के रंग-रूप और गंध में बदलता है। उसी प्रकार एक ही परमात्मा से जन्म लेने वाले देव, असुर और मनुष्य भी भगवान को अलग-अलग मानते हैं और अलग मानकर ही पूजा करते हैं। बारिश के जल की तरह ही सुर-असुर कई योनियों में भटकते रहते हैं। 
कैसा है 'ब्रह्म' [विष्णु भगवान जैसे मार्गदर्शक नेता ] का स्वरूप  और वे कहां और कैसे प्रकट होते हैं? ब्रह्म प्राकृतिक गुणों से एकदम अलग हैं, वे स्वयं प्रकट होने वाले देवता (नेता =ठाकुर ) हैं। इनका नाम वसु है। वे ही मेहमान बनकर हमारे घरों में आते हैं। यज्ञ में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले भी वसु देवता ही होते हैं। इसी तरह सभी मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि हो या पर्वतों में नदी, झरने और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस प्रकार ब्रह्म प्रत्यक्ष देव हैं। 
आत्मा निकलने के बाद शरीर में क्या रह जाता है? जब आत्मा शरीर से निकल जाती है तो उसके साथ प्राण और इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता है। मृत शरीर में क्या बाकी रहता है, यह नजर तो कुछ नहीं आता, लेकिन वह परब्रह्म उस शरीर में रह जाता है, जो हर चेतन और जड़ प्राणी में विद्यमान हैं। 
मृत्यु के बाद आत्मा को क्यों और कौन सी योनियां मिलती हैं? यमदेव के अनुसार अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के माध्यम से देखी-सुनी बातों के आधार पर पाप-पुण्य होते हैं। इनके आधार पर ही आत्मा मनुष्य या पशु के रूप में नया जन्म प्राप्त करती है। जो लोग बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे मनुष्य और पशुओं के अतिरिक्त अन्य योनियों में जन्म पाते हैं। अन्य योनियां जैसे पेड़-पौध, पहाड़, तिनके आदि।  
क्या है आत्मज्ञान और परमात्मा का स्वरूप? मृत्यु से जुड़े रहस्यों को जानने की शुरुआत बालक नचिकेता ने यमदेव से धर्म-अधर्म से संबंध रहित, कार्य-कारण रूप प्रकृति, भूत, भविष्य और वर्तमान से परे परमात्म तत्व के बारे में जिज्ञासा कर की। यमदेव ने नचिकेता को ‘ॐ’ को प्रतीक रूप में परब्रह्म का स्वरूप बताया। उन्होंने बताया कि अविनाशी प्रणव यानी ऊंकार ही परमात्मा का स्वरूप है। ऊंकार ही परमात्मा को पाने के सभी आश्रयों में सबसे सर्वश्रेष्ठ और अंतिम माध्यम है। सारे वेद कई तरह के छन्दों व मंत्रों में यही रहस्य बताए गए हैं। नश्वर जगत में अविनाशी परमात्मा के इस नाम व स्वरूप की शरण लेना ही सबसे बेहतर उपाय है
    " रामबाण उपाय है मन की गुलामी से मुक्ति -भेंड़त्व के भ्रम से मुक्ति , ब्रह्म ['ॐ ' मूर्तित्रयं] विद बनो और बनाओ "   प्रत्येक युवा को अपनी शारीरिक लब्धि, मानसिक लब्धि , और आध्यात्मिक लब्धि के व्यापक विकास के मूलकार्य (groundwork) को सम्पन्न करके आत्मबलिदान के लिए प्रेरकशक्ति का पुंज (Dynamo = बिजली पैदा करने का यंत्र) बनकर इस आन्दोलन [मानवतावादी नेता बनो और बनाओ (Be and Make ) -आन्दोलन] को भारत के गाँव -गाँव तक फैला देना होगा। अभी कोविड -19 महामारी का वर्तमान अन्तराष्ट्रीय और अंतर्राज्यीय परिदृश्य इस कार्य के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है ! " इच्छाशक्ति का समन्वय ही सफलता का रहस्य है " - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है , इसलिए हर एक युवा के भीतर निश्चित रूप से अनन्तशक्ति [आत्मबलिदान की शक्ति-स्वार्थशून्य बन जाने की शक्ति ] निहित है , लेकिन उनको केवल उस भण्डार की खिल्ली को खिसकाने वाली चाबी या कुँजी (latchkey=मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास ) की आवश्यकता है ! अपने देशवासियों की शारीरिक , मानसिक और आध्यात्मिक दुःख-दैन्य को दूर कर सम्पूर्ण राष्ट्र की सर्वव्यापक उन्नति (all-embracing development) के लिए इन वैयक्तिक ऊर्जा भण्डारों में सामंजस्य स्थापित करने से ही सर्वोत्तम फल की प्राप्ति की जा सकती है।
        हमलोगों को निम्नस्तर की स्वाधीनता से और भी उच्च स्तर की श्रेणी की स्वाधीनता चाहिए। राजनैतिक स्वाधीनता तो हमने 70 वर्ष पहले प्राप्त कर ली है , हमारा अपना संविधान है। लेकिन अब हमें नैतिक और आध्यात्मिक स्वाधीनता - मन और इन्द्रियों की गुलामी से स्वाधीनता चाहिये। [स्वामी विवेकानन्द जैसे सिंह-गुरु की शिक्षाओं के अलोक में स्वयं को (सिंहशावक को) भेंड़त्व के सम्मोहन से  विसम्मोहित कर मन और इन्द्रियों की गुलामी से मुक्त करना होगा !] लेकिन इतने दिनों तक हमलोगों ने स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा-पद्धति  [स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नेता /शिक्षक बनो और बनाओ ] की अवहेलना करते आये हैं , इसीलिये वह भारत जो अब राजनितिक रूप से स्वाधीन हो चुका है; उसने उससे भी बड़ी स्वाधीनता ~ "सत्य के लिए आत्मबलिदा देने के लिए प्रेरणा देने में सक्षम मानवतावादी नेताओं का निर्माण" नहीं प्राप्त कर सके हैं। ' मनुष्य ' को उसकी महिमा में प्रतिष्ठित करने के लिए , जो अपना सबकुछ त्याग कर दे ,अपने प्राणो को भी न्योछावर कर दे ऐसा कोई है ? हो सकता है कि वैसा एक भी व्यक्ति न हो। किन्तु स्वामी जी ऐसे ही आत्मबलिदानी नेताओं का जत्था निर्माण करना चाहते थे। इसीलिए वे हमारे नेता हैं। भारत-कल्याण के लिए और भी बड़ी स्वाधीनता , और भी महान स्वाधीनता प्राप्त करने के उद्देश्य से, महामण्डल विगत 53 वर्षों से स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा -'Be and Make' नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा को कार्य में रूपांतरित करता चला आ रहा है।
क्या हमलोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के सुख-भोग में ही डूबे रहना चाहेंगे ? क्या हम इतने गए -बीते हैं कि भूमानन्द [ब्रह्मविद होकर ब्रह्मानन्द] पाने के बदले , क्षणभंगुर अल्प -सुख को पाने की इच्छा करेंगे ? चिरस्थायी सुख (Eternal happiness-अनन्त, असीम आनन्द) तो हमें तभी प्राप्त होगा, जब हम अपने व्यक्तिगत सुख-दुःख को  सम्पूर्ण पीड़ित और हताश मानवजाति के सुख -दुःख से एकाकार कर दें। [अर्थात अपने 'व्यष्टि अहं ' को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी -विराट 'मैं '-बोध में रूपान्तरित न कर दें। 
क्या देश की व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए महामण्डल भी भारत के संसद में अपने सांसदों को भेजकर भारतीय संविधान में कोई नया परिवर्तन करना चाहता है ? नहीं , ऐसी सोंच महामण्डल विचारधारा से हजारों हाथ दूर है। महामण्डल आंदोलन इस प्रकार कार्य नहीं करता। महामण्डल तो समाज के ताने -बाने (In the fabric of society) में ही परिवर्तन लाना चाहता है , जिससे जगत को देखने के प्रति समाज का दृष्टिकोण ही सम्पूर्णतया परिवर्तित हो जाये। [नित्य भी सत्य लीला भी सत्य -दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत ] यदि ऐसे उत्कृष्ट चरित्र के कुछ 'ब्रह्मवेत्ता ' मनुष्यों का निर्माण किया जाए, तो वैसे मानवतावादी नेता अन्य युवाओं को भावी नेता बनने और बनाने के लिए अनुप्रेरित कर सकेंगे। (जब भारत के सभी राज्य इस महामारी जूझ रहे हैं -  अधिक से अधिक संख्या में युवाओं को महामण्डल आन्दोलन का सदस्य बनना चाहिये।) और उनके ही द्वारा देश में शुभ-परिवर्तन आएगा। और भारत माता विश्व सभा में अपने गौरवशाली सिंहासन पर पुनः विराजमान हो जाएगी ! 
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महामण्डल के भावी नेताओं से क्या उम्मीद की जाती है
महामण्डल के भावी नेताओं को क्या करना चाहिए ?
মাহামণ্ডলের নেতাদের কী চাই ?
(What is expected from would be Mahamandal Leaders)  
    राष्ट्र को पुनर्जाग्रित करने के लिए स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा को कार्य में रूपायित करना बहुत कठिन है , लेकिन महामण्डल ने इसी कार्य को पूरा करने का बीड़ा उठा लिया है ! किसी भी बड़े कार्य को , बड़े तरीके से प्रारम्भ किया जाता है , विशेषरूप से भौतिकवादी कार्य (Materialistic work) बहुत तड़क -भड़क के साथ शोर-गुल मचाकर प्रारम्भ होता है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द तथा उनके संगी गुरुभाइयों ने बहुत विनम्रता के साथ अपने कार्य [निवृत्ति-मार्ग के गुरु  बनने और बनाने के कार्य ] का प्रारम्भ किया था। उनके आंदोलन को शक्तिशाली रूप धारण करने में काफी लम्बा समय [1897 -2020 =223 साल ] लगा है। उसी प्रकार महामण्डल भी अपने कार्य को [प्रवृत्ति मार्ग के नेता बनने और बनाने के कार्य को ] सभी तरह के प्रचार और प्रोपगेंडा को अस्वीकार करके बहुत छोटे रूप में प्रारम्भ करके समय बीतने के साथ बड़ा आंदोलन का रूप लेना चाहता है। 
      महामण्डल के भावी नेताओं को सबसे पहले अपने मन को जानना होगा। वे इस आन्दोलन में क्यों शामिल हो गए हैं ? क्या वे नाम-यश के लिये, अथवा अन्य किसी व्यक्तिगत स्वार्थ को पूर्ण करने की इच्छा से तो महामण्डल में शामिल नहीं हो गए हैं ? यदि वैसी ही कोई बात हो , तो उनके लिए इस मानवतावादी महामण्डल आन्दोलन से अपना सम्बन्ध तोड़ लेना ही उचित होगा , अथवा इस आंदोलन को नष्ट-भ्रष्ट करने के उद्देश्य से भी इसके साथ अपने को और जोड़े रहना भी ठीक नहीं होगा। ( उन्हीं के स्वास्थ्य के लिए क्षतिकारक होगा।) दूसरी तरफ अपने मन का अवलोकन करने से यदि उन्हें अपने भीतर त्याग का भाव , देश-सेवा का भाव दीखता हो , विशेष रूप से जो गरीब और निम्न-स्तर पर जीवनयापन करने वाले या उच्चभाव से दरिद्र लोग हैं , उनके प्रति यदि श्रद्धा हो; स्वामी विवेकानन्द और उनके आदर्श [Be and Make] के प्रति यदि श्रद्धा हो , तो महामण्डल उनका स्वागत करेगा। 
            सृष्टि (अनेकता) का यही नियम है कि कोई भी दो मनुष्य , सभी विषयों में  बिल्कुल एक समान स्वभाव के कभी नहीं हो सकते ! अतः महामण्डल के नेताओं के बीच भी असहमति [মতানৈক্য=
disagreement] रहेगी, किन्तु नेता की सतर्क दृष्टि इस बात पर रहेगी कि हमारी असहमति कहीं दलबन्दी (grouping) का रूप तो नहीं धारण कर रही है ? यदि कभी ऐसा ही दिखाई पड़े, तो यह समझना होगा कि हमलोग महामण्डल का संघगीत (Anthem) केवल मुख से ही गा रहे हैं - "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् .... " लेकिन हमारा मन और मुख एक नहीं है। 
[ इन दिनों (कोविड -19 युग में ) लोगो की कथनी व करनी में बहुत अंतर हो रहा है , जिसके फलस्वरूप  सभी लोग हिंसात्मक प्रवृत्तियों  तथा नैतिक पतन की और अग्रसर हो रहे है । विशेष कर संकुचित स्वार्थ भावना वाले संप्रदायों के लोग मानवता को भूलते जा रहे है । सबको निडरता से जीने के अवसर देने के स्थान पर घृणा व ईष्या से भयभीत करने की धृणित मनोवृत्ति  बढ़ती जा रही है । अतः हमें यही सोचना है कि हम न तो हिन्दू है न मूसलमान न कोई पिछड़ी जाति का है, न कोई अगड़ी जाति का है - सभी भारतवासियों का धर्म केवल मानवतावादी धर्म है - और वह है  ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद मनुष्य , सभी मनुष्यों में आदर्श मनुष्य " ब्राह्मण " में रूपांतरित हो जाना ! ('ब्रह्म' अर्थात 'अल्ला' को जानने वाला 'अल्ला ' ही बन जाता है !)
महामण्डल के नेताओं को मन, वचन और कर्म में मनोवांछित सामंजस्य (আকাঙ্খিত = desired= इष्ट -For the harmony of work, words and thoughts) प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित गुणों को विकसित करना उचित होगा :
  1.  महामण्डल आंदोलन के भावी नेताओं में यदि नेता /(गुरु -जीवनमुक्त शिक्षक ) बनने बनने की इच्छा हो तो उन्हें पहले अपने नेता (स्वामी विवेकानन्द ) का अनुयायी या शिष्य बनना होगा। पहले उनका अनुसरण करने मनोभाव रखना होगा। [ स्वयं (भेंड़त्व से सिंहत्व में ) जगकर दूसरों को जगाने (D-hypnotized करने ) में अपने जीवन को न्योछावर कर देना होगा।] 
  2. नेता को मनुष्य मात्र के प्रति [संभावित ब्रह्म हैं ! अतः सभी के प्रति] सच्चा प्रेम और सहयोगियों के प्रति कोमल मनोभाव तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार रखना होगा। 
  3. भावी नेताओं में देश/संगठन के लिए बहुत उपयोगी (Being very useful-খুব কাজের হওয়া) बनने में लगातार  परिश्रम की पराकाष्ठा करने की क्षमता होनी चाहिए। 
  4. नेता को अपना सिर ठंढा रखना होगा , तथा किसी भी घटना का सामना भावनाओं पर नियंत्रण (EQ) रखते हुए और आवेगहीन (dispassionate -अपक्षपाती ) ढंग से करना होगा। 
  5. नेता में स्पष्ट-निर्णय  लेने की क्षमता (পরিষ্কার বিচারশক্তি) रहनी चाहिए , ताकि किसी भी विषय की आन्तरिक उलझाव या गुत्थियों (The inner complications) को समझा जा सके। 
  6. इसी स्पष्ट-निर्णय लेने की क्षमता के आधार पर त्वरित निर्णय लेने की क्षमता (Quick decision making ability ) रहनी चाहिए। 
  7. संगठन के हित में किसी का सही उपयोग कहाँ और कैसे हो सकता है, यह जानना चाहिए। स्थान , काल और पात्र (योग्यता) के आधार पर सामान ढंग से उपयोग करना चाहिए। 
  8. नेता को अनिवार्य रूप से आज्ञाकारी होना चाहिए। उसमें  संगठन के नियमों का निष्ठापूर्वक पालन करने का मनोभाव अवश्य रहना चाहिए। केवल इतना ही नहीं , वह अपने से छोटों के द्वारा जिस प्रकार के व्यवहार किये जाने की अपेक्षा रखता है , उसी प्रकार श्रद्धा के साथ अपने से बड़ों का आदेश पालन करना होगा। 
  9. उसको संघ के अनुशासन को स्वीकार करके चलना होगा। उसका कोई व्यवहार ऐसा नहीं होना चाहिए, जो किसी भी तरह उसको दूसरों की नजर में या सदस्यों की नजर में छोटा बनाते हों। 
  10. नेता को अंतिम साँस तक एक विद्यार्थी बने रहना चाहिए , उसे हर घटना से कुछ न कुछ अवश्य सीखना चाहिए ! [जावत बाँची तावत सीखी -ठाकुर ]
  11. महामण्डल आंदोलन के नेता  को, भारत के विभिन्न राज्यों में अवस्थित महामण्डल केन्द्रों सम्बन्धीत समस्त प्रकार के कार्क्रमों के साथ-साथ,अन्तर्राष्ट्रीय ,राष्ट्रीय ,राज्य एवं स्थानीय सभी प्रकार के समाचारों से अद्यतन अवगत रहना होगा। 
  12. उसको अपने मन से राजनैतिक ,सामाजिक , दार्शनिक , व्यक्तिगत और नीतिगत क्षेत्रों के विषय में एक-पक्षीय या पक्षपातपूर्ण (One-sided) धारणा को दूर कर देना होगा। 
  13. सभी क्षेत्र के नेताओं में एक गुण का रहना अत्यंत आवश्यक है -वह है स्वच्छता (cleanliness-शुचिता) का गुण। नेता को अपना शरीर,मन , वाणी , क्रियाकलाप और आय-व्यय के हिसाब सहित समस्त विषयों में शुचिता बनाये रखना होगा। 
  14. महामण्डल आंदोलन के नेता को अनिवार्य रूप से अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित होना होगा 5 अभ्यास के दैनन्दिन नियम और प्रक्रिया (Rules and procedures) के प्रति निष्ठा नहीं होने से परिश्रमी (Hardworking) नहीं हुआ जा सकता। 
  15. प्रत्येक सफल नेता के लिए मन-वचन और कर्म में एकरूपता रखना अनिवार्य है। 
  16. दूसरों को त्याग (अनासक्त) के लिए कहने से पहले स्वयं त्याग  करना होगा। 
  17. नेताओं को दूसरों को कार्य करने का आदेश देने से पहले स्वयं कार्य करना होगा। 
  18. उसके मन में यह विश्वास रहना चाहिये कि 'मैं सचमुच एक सफल नेता बन सकता हूँ ' -यह आत्मविश्वास नेता में अवश्य होना चाहिए। 
  19. किन्तु नेतृत्व लेने के लिये उसको जब तक पुकारा न जाये , तब तक उसे केवल आदेश का पालन करते रहना चाहिये। 
  20. लेकिन जैसे ही कहीं कार्य करने की आवश्यकता होगी, वैसे ही वह आगे बढ़कर अपने कंधों को भिड़ा देगा , भले ही कोई महत्वपूर्ण पद उसे मिला हो या नहीं। 
  21. नेता (सेवक) कभी अपने को दूसरों (सेव्य) से बड़ा नहीं मानेगा। 
  22. कार्य में उद्यम और आत्मसंयम के साथ विनयशील भी रहना होगा। 
  23. नेता को हर विषय पर बोलना आना चाहिए , लेकिन बकवादी नहीं होना चाहिए। 
  24. नेता को दूरदर्शी (farsighted) होना चाहिए , भविष्य में क्या घटित हो सकता है ,  (50 साल बाद महामण्डल क्या रूप धारण करेगा ?) उसे पहले ही देख लेने की क्षमता रहनी चाहिए। 
  25. विवेक-प्रयोग शक्ति रहना आवश्यक है , एक ही प्रकार की बहुत सी वस्तुओं के बीच पार्थक्य कहाँ है ,इसको समझने की क्षमता रहनी चाहिए। 
  26. नेता में पूर्व कल्पनाशक्ति के आधार पर योजना बनाने की क्षमता (foresightedness) भी रहनी चाहिए। 
  27. समाजसेवा के प्रति सही मनोभाव -' दाता की अपेक्षा ग्रहीता महान होता है ' का अधिकारी होना होगा !  
  28. उसको यह सदैव स्मरण रखना चाहिये कि भारत माता की सेवा में उसका जितना दायित्व है, उसका निर्वहन उसको ही करना होगा। 
  29. उसको यह भी स्मरण रखना जरुरी है कि महामण्डल ध्वज के नीचे अनुष्ठित होने वाले अच्छे अच्छे कार्यक्रमों का कोई मूल्य नहीं , यदि उसका उद्देश्य मनुष्य-निर्माण करना न हो। 
  30. महामण्डल के प्रतीक भावी नेता को , प्रथम मानवतावादी नेता श्री रामकृष्ण , माँ सारदा देवी और विशेषकर स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और उनके साहित्य को प्रतिदिन नियमपूर्वक मन लगाकर पढ़ना चाहिए। 
  31. महामण्डल द्वारा हिन्दी में प्रकशित समस्त पुस्तिकाओं तथा महामण्डल का मासिक मुखपत्र 'विवेक-अंजन ' के साथ साथ अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तिकाओं और अंग्रेजी मुखपत्र 'Vivek-Jivan' को नियमित रूप से बार बार पढ़ना चाहिये।  
  32.  महामण्डल के केन्द्रीय कार्यालय के साथ नियमित सम्पर्क बनाये रखना चाहिए। और सबसे मुख्य बात अपनी उन्नति के लिए नियमित प्रयास करते रहना चाहिए।
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सभी गुणों को विकसित करने की आवश्यकता है
All qualities need to be developed
সকল গুনের বিকাশ প্রয়োজন   
     महामण्डल में नेतृत्व करने का अर्थ : (What does it mean to lead?): आदर्शरूप से नेता में कोई दोष न होकर केवल गुण ही गुण रहना उचित है , यदि कोई ऐसा व्यक्ति हो तभी उसको आदर्श नेता कहा जा सकता है। यद्यपि वैसा [पूर्णतः दोष-रहित] बन जाना अत्यंत कठिन है , फिरभी हमलोग प्रयास करते रहेंगे , क्योंकि हमलोग दूसरों का नेतृत्व करना चाहते हैं। और अब तक हमने यह भी जान लिया है कि महामण्डल में नेतृत्व करने का अर्थ क्या होता है ? 
हमलोग ऐसा नेता बन सकते हैं , जो खुद का प्रभुत्व (Dominance) प्रदर्शित करने की चेष्टा नहीं करता, किसी विशेषाधिकार का भोग नहीं करना चाहता, बल्कि केवल दूसरों की और अधिक सेवा करने के अवसर का लाभ उठाने के लिए नेता बनना चाहता है। हम सभी लोग यहाँ एक दूसरे की सेवा करने के लिए ही आये हैं , किन्तु नेता लोग को और भी कई प्रकार से अधिक सेवा करने का अवसर प्राप्त होता है। नेता इसी विशेष-सेवा करने के अधिकार का भोग करना चाहते हैं। यदि नेतृत्व का यह रहस्य उनके सामने बिल्कुल स्पष्ट हो तो वे हर दृष्टि से अच्छे नेता बन सकते हैं। 
उनके भीतर कुछ विशेष सद्गुणों का रहना आवश्यक है। यदि उनके भीतर मानवतावादी नेता के ये कुछ मौलिक (Essential) गुण नहीं हैं, तो वे नेता  का दायित्व नहीं निभा सकते। यदि उनके भीतर मानवता ,सद्चरित्रता , आदर्श को समझने की क्षमता , नेता बनने के पीछे उनका परम् ध्येय यदि स्पष्ट न हो तो वे स्वयं को ही सन्मार्ग पर नहीं रख सकते , फिर दूसरों का मार्गदर्शन करने की तो बात ही क्या है ! वैसा होने से क्या होगा ? कठोपनिषद में कहा गया है - "अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः" जिसकी स्वयं आँखें नहीं हों, वैसा व्यक्ति यदि नेत्र हीन लोगों का मार्गदर्शन करने लगे , और मार्ग में कहीं गड्ढा आ गया तो सभी एक साथ गड्ढे में जा गिरेंगे। अनेक क्षेत्रों में उसी प्रकार हमलोग भी स्वयं अनजान रहते हुए दूसरों का नेतृत्व करना चाहते हैं। हमें मनुष्य जीवन और उसके लक्ष्य के विषय में स्वयं कुछ पता नहीं होता, लेकिन दूसरों को जीवन में सफल होने का मार्ग दिखलाने लगते हैं।ऐसा करना उचित कैसे हो सकता है ? 
 [अर्थात चार पुरुषार्थ , चार वर्ण , चार आश्रम , चार महावाक्य आदि  महत्वपूर्ण के विषयों  बारे स्वयं कुछ पता नहीं होता; अन्तर में अविद्या का वास है ,फिर भी जो स्वयं को ज्ञानी कहे , वो ज्ञानाभिमानी मूढ़ भोगी, विविध योनी में रहे। अंधे को अंधा मार्ग दर्शक मिल गया, तो उनकी गति ठीक उन्हीं के समान -बहु योनियों की दुखद भटकन और , जीवन का अंतिम पुरुषार्थ या लक्ष्य (मोक्ष-भ्रममुक्ति ) कैसे मिल सकता है ? ]
     अतः  ऐसे गुण जो मानवमात्र के लिए अपरित्याज्य (indispensable) हैं, यथा "यम और नियम " आदि , नेताओं में रहना परमावश्यक है।  और यदि ये सभी गुण जब आ जाएँ , तब हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि हमने  दूसरों की सेवा करने का अधिकार (The right to serve others) अभी केवल प्राप्त ही किया है। अब हम मानवतावादी नेता (Humanistic leader) के रूप में तभी स्वीकृत होंगे जब -हम कुछ भावी नेताओं के मन को इस प्रकार गठित कर दें , ताकि वे भी आगे चलकर दूसरों की सेवा करने के योग्य बन जायें। हमारी ज्वलंत इच्छा यही होनी चाहिए कि दूसरों की और अधिक सेवा करने (ज्ञान-चक्षु खोलने ) का जो अवसर मुझे प्राप्त हुआ है , उसके दायरे को और अधिक विस्तृत कर दूँ ! तभी हमलोग दूसरों को भी मानवतावादी नेता बनने के लिए अनुप्रेरित कर सकते हैं। 
और फिर हमारे भीतर कुछ अतिरिक्त गुण भी रहना चाहिए जिन्हें अर्जित करना सचमुच बहुत कठिन है। इसके लिए हमें कई प्रकार विषयों का अध्यन-अध्यापन करने में पारदर्शी होना होगा। महामण्डल आंदोलन गीता-उपनिषद की शिक्षाओं पर आधारित 'मनुष्य-निर्माणकारी ' आंदोलन है। अतः इनकी विषयवस्तु के सम्बन्ध में इसके नेता को भी पारदर्शी होना होगा। उसे प्राथमिक रूप से (Primarily) 'मनःसंयोग करने का विज्ञान ' , 'शरीर को स्वस्थ और निरोग रखने का विज्ञान ', 'चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया ' का अध्यन करना होगा। इसके साथ ही नेता को विशेष मावतावादी अध्यन के लिये किस प्रकार मनुष्य की सेवा की जाती है , "खालीपेट धर्म नहीं होता "  इसे समझकर - आमलोगों को किस वस्तु की तत्काल  आवश्यकता है ,उसे पूरा करने में यथासंभव उनकी सहायता करनी चाहिये।
    ये सब साधारण बातें हैं, लेकिन यदि हम लोग नेतृत्व के मौलिक गुणों को अपने जीवन में धारण करना चाहते हों , तब केवल कुछ त्राण कार्यों (Relief Work) को करके ही हमें सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। इन गुणों के अतिरिक्त हमलोग शक्ति लब्धि (IQ -EQ -SQ) के साथ कार्यनिष्पादन-क्षमता (Performance efficiency) भी चाहते हैं।अतः प्रत्येक नेता को और अधिक अध्यन करने का प्रयास करना चाहिये।सामान्य ज्ञान, भाषा विज्ञान , दुनिया के बड़े बड़े धर्मों में निहित सामान्य तत्व के सम्बन्ध में जानना चाहिए ,इतिहास,भूगोल , अर्थशास्त्र , समाजविद्या  ,मनोविज्ञान -इन सब विषयों का ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है।अच्छा नेता बनने के लिए और अधिक अध्यन करने की आवश्यकता है। विज्ञान और तकनीक (Science and technology) के क्षेत्र में कौन से नए आविष्कार हुए हैं , चिकित्सा और आर्थिक  क्षेत्र में भारत ने क्या क्या उपलब्धि की है, इन समस्त विषयों का ज्ञान महामण्डल आंदोलन का नेतृत्व करने वाले भावी नेताओं में भरपूर रहना चाहिए। यदि उनके पास इस सबका ज्ञान है, तो वे अपनी योजनाओं को साकार करने में उसका भी उपयोग कर सकते हैं। सभी कार्यक्रमों और सहकर्मियों को और अच्छी तरह से मार्गदर्शन  कर सकते हैं।     

     अभी मानलेते हैं कि कोई व्यक्ति बहुत ज्ञानी नेता है , किन्तु उसको बोलना नहीं आता -अपनी बातों को ठीक से समझाना नहीं आता। तब उस नेता में यह कमी कमी मानी जाएगी। उसे बहुत बातों का ज्ञान है, कई बातें सिखला सकता है , कई कार्य करवा सकता है , किन्तु उसको अभिव्यक्त नहीं कर सकता। तो इस कमी को दूर करने का उपाय भी उसे सीखना चाहिए। यह बहुत कठिन है , फिर भी इसे सीखा जा सकता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं , जो स्वभाव से शर्मीले होते हैं। उनको माइक पर बोलने की आदत नहीं होती , इसलिए वे सोचते हैं कि शायद वे क्लास में भी पढ़ा नहीं सकेंगे। यहाँ तक कि नेता के दायित्व का निष्पादन करते समय उसे अपनी मातृभाषा के आलावा भारत के अन्य राज्यों की भाषा में भी कुछ -कुछ बोलना और लिखना पड़ सकता है ,ताकि साधारण लोग भी मुख्य बातों से अवगत हो जाएँ ! उनके सामने आध्यात्मिक तत्व भी सरल  भाषा में उनके लिए बोधगम्य भाषा में  रखना चाहिए। इसलिए इसप्रकार लिखना और बोलना चाहिए जिसे कोई बालक भी समझ सके। पाचनशक्ति यदि कमजोर है , उसको गरिष्ठ भोजन परोस दिया जाए तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होता है। श्री रामकृष्ण और श्री श्री माँ सारदा देवी कहते थे - जिसकी जैसी रूचि और जितनी पाचनशक्ति हो , उसको वैसा ही भोजन परोसना चाहिए। नेताओं को इसे समझकर ही कुछ लिखने या बोलने का प्रयास करना चाहिए। 

 महामण्डल आंदोलन का लक्ष्य और उपाय आसानी से समझ में आ जाये , इसी हिसाब तौल कर और सोचसमझकर बोलने  और लिखने की अपनी क्षमता को, अभ्यास करने से कोई भी व्यक्ति - यथेष्ट रूप से बढ़ा भी सकता है। स्वामी रंगनाथानन्द जी का नाम आप सभी ने सुना होगा। वे एक विश्वप्रसिद्ध वक्ता थे।  विभिन्न महादेशों के कई विश्वविद्यालयों में उन्होंने अपना व्याख्यान दिया है। कई विश्व-विद्यालयों के दीक्षान्त समारोह को उन्होंने सम्बोधित किया है। स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं और वेदान्त के बड़े सशक्त प्रवक्ता माने जाते हैं। लेकिन उन्होंने किसी विद्यालय या विश्विद्यालय में  नाम  लिखाकर कोई औपचारिक शिक्षा नहीं प्राप्त की थी। अपनी प्रबल इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प के बल पर उन्होंने इतना अधिक अध्यन-अध्यापन , चिंतन-मनन किया था कि वे जब किसी विषय पर व्याख्यान देते थे , सभी श्रोता सम्मोहित हो जाते थे। नेतृत्व के लिए वे एक आदर्श उदाहरण हैं , नेता बनने के लिए उनका अनुसरण किया जा सकता है। 

यदि आपलोग भी इसी तरह के नेता बनना चाहते हों , जिसकी चर्चा हमलोगों ने यहाँ की है ; तो आपको भी वही मनोभाव रखना होगा। मैं अपना नाम या यश के लिए कुछ नहीं बोल रहा हूँ , बल्कि अपने भाइयों तक मुक्ति का सन्देश वहन करने के लिए , हमारे पुरुषार्थ ,पवित्रता , असीम त्याग करने की क्षमता , वंचितों को सहायता करने की क्षमता , यहाँ तक कि दूसरों के कल्याण के लिए अपने जीवन को खपा देने की क्षमता हमलोगों के भीतर आ जाये -यही बात अपने भाइयों को बोलना चाहता था , इसीलिए मैं बोलना चाहता हूँ। " ~ यदि ऐसा मनोभाव रखते हुए कोई बोलने का प्रयास करे तभी वह दूसरों को अनुप्रेरित करने और प्रभावित करने योग्य भाषण-शक्ति अर्जित कर सकता है। 

कुछ लोग पत्र-पत्रिकाओं में इसलिए लेख लिखना चाहते हैं कि उसके द्वारा उन्हें कुछ धन प्राप्त होगा। ऐसे कई लोग हैं। किन्तु मैं धन कमाने की इच्छा से कुछ लिखना नहीं चाहूँगा , मेरे भीतर लिखने की एक तीव्र प्रेरणा उठती है, इसलिए मैं इस प्रकार से लिखूंगा जिसको पढ़ने से सभी को प्रेरणा प्राप्त होगी। " यदि इस मनोभाव के साथ कोई कुछ लिखे तो उसकी रचना शक्तिशाली होगी। 

हम में से प्रत्येक व्यक्ति भाषण देने , लिखने और शिक्षा में उन्नत होना चाहते हैं। आत्मावलोकन करें क्यों ? क्या अपने नाम यश के लिए -या इसलिए कि मुझे इससे दूसरों की सेवा (पूजा ) करने का और अधिक अवसर प्राप्त होगा ! प्रत्यधि देवताओंका स्थापन करते समय  जिस प्रकार बायें हाथमें अक्षत लेकर दाहिने हाथसे अक्षत छोड़ते हुए एक-एक प्रत्यधि देवताका आवाहन-स्थापन किया जाता है -  इहागच्छ, इह तिष्ठ इन्द्राय नमः, इन्द्रमावाहयामि, स्थापयामि । (अग्निकोणमें) अग्निका आवाहन और स्थापन -. ॐ अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे । देवॉं२ आ सादयादिह ॥" मनुष्य की सेवा करते समय महामण्डल के नेता-मण्डली  के मन में इसी प्रकार "उपासक और उपास्य " ~ 'Worshipper and worshipped' का सेवा का विशेष मनोभाव (Special attitude of service) रहना उचित है।  

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नेतृत्व में स्वतंत्रता
Freedom in leadership
নেতৃত্বে স্বাধীনতা  
 बस,केवल इसी मनोभाव - ["उपासक और उपास्य " ~ 'Worshipper and worshipped'] को , इसी उद्दीपना (stimulus) को धारण किये रहने की आवश्यकता है। शेष सबकुछ अपने आप हो जायेगा। नेतृत्व के केवल मौलिक भाव को पकड़ लेना ही प्राथमिक कार्य है , इसके हर पहलु का विस्तृत वर्णन नहीं किया जा सकता , और ऐसा करना भी नहीं चाहिए। 
     इस समय विभिन्न राज्यों में महामण्डल के एक सौ से अधिक केन्द्र कार्यरत हैं। हम सब कुछ निर्देशित नहीं करते हैं, हमलोग केवल प्रोजेक्ट देखते हैं , कार्यक्रम के स्क्रिप्ट में यह देखते हैं कि सभी छोटे छोटे विभाग अपने कार्य कर रहे हैं या नहीं। हम इस नजर रखते हैं कि महामण्डल की सभी शाखाएं बुनियादी सिद्धान्तों एवं विचारों (Basic Principles Ideas) का पालन करते हैं या नहीं। इतना पर्याप्त है। उनका कार्यान्वयन विभिन्न प्रकार से होता है , बल्कि यही उचित भी है। इसमें कुछ भी गलत नहीं , यही सही है - जैसे सत्य की अनुभूति (आत्मोलब्धि SQ) के लिये मार्ग भी विभिन्न प्रकार के होते हैं। यदि सभी केन्द्र में कार्यों को एक ही निर्दिष्ट पद्धति के अनुसार किया जाये , तो विभिन्न व्यक्तियों के जो विभिन्न मनोभाव , विविध दृष्टिकोण और विभिन्न पहलु होते हैं वे अज्ञात और अनाविष्कृत ही रह जायेंगे।
उस स्थिति में पूर्ण सत्य की अनुभूति जन्य धारणा (perception) से जिस परमानन्द की प्राप्ति होती है , वे तो उस आनन्द से वंचित ही रह जायेंगे। विशेष रूप से हमारे देश में धर्म के क्षेत्र में ( कृष्ण-सुदामा को एक साथ शिक्षा दान की परम्परा में ) इसी प्रजातान्त्रिक या इच्छाशक्ति (मर्जी)  में समन्वय की भावना (The sense of coordination in Will)  की अनुभूति की गयी है। अब तक हमलोग धर्म , दर्शन और आध्यात्मविज्ञान (metaphysics) के क्षेत्र में एकसत्तावाद (dictatorship-तानाशाही ) ही देखते आ रहे थे ; किन्तु श्रीरामकृष्ण देव ने धर्म और आध्यात्मिकता के क्षेत्र भी में गौरवशाली लोकतंत्र को स्थापित  कर दिया है। 
उसी प्रकार सभी मामलों में यथेष्ट प्रजातान्त्रिक पद्धति आवश्यक है ,(अन्तर्निहित दिव्यत्व के ) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनिवार्य है।  एकमात्र वस्तु मूल सिद्धांत या आदर्श है -शिव ज्ञान से जीव सेवा।  "  हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह आदर्श कभी नीचे न गिरे , लक्ष्य -भ्रष्ट न हो जाये , और आदर्श से  समझौता कर उसे कभी  तरलीकृत (diluted ) न किया जाये। यह सावधानी हर समय रखनी होगी। लेकिन जहाँ तक योजना कार्यान्वन का प्रश्न है, उसमें किसी प्रकार की कट्टरता या प्रतिबन्ध लागु नहीं होगा। 
इसी सिद्धान्त को नेतृत्व के क्षेत्र में भी अपनाया जायेगा। जीवन के किसी भी क्षेत्रों में एक ही प्रकार के छाप वाले नेता नहीं होना चाहिए । नेताओं में भी विविधता रहनी चाहिए , यदि सभी नेता एक ही प्रकार के होंगे तो कार्य बहुत अच्छे ढंग से सम्पादित नहीं हो सकेगा। यदि महामण्डल के उद्देश्य और कार्यक्रम को कार्यान्वित करने, या देखभाल करने के लिए , या केन्द्रीय समिति के कार्यों का प्रबंधन करने के लिए दो सौ प्रधान (chiefs या सरदार) हों ,... और यदि सभी अधिकारी (महामण्डल नेता ) एक दूसरे की हूबहू प्रतिलिपि (carbon copy) हों ; तो हो सकता है कि कई लोग कहेंगे - " Wow what a beautiful ~  वाः कितना सुन्दर !" सब कुछ 'एक' का ही  परिपूर्ण प्रतिलिपि (नकल ) है। उस स्थिति में नेता का कोई दूसरा पहलु भी नहीं होगा -लेकिन यह बिल्कुल गलत है।  [ कौरव 100 भाई , सभी एक जैसे बदमाश थे। 5 पाण्डव विभिन्न पहलु के थे, ॐ गोल है, समग्र अखण्ड आकार है]
यदि महामण्डल आंदोलन के सभी अधिकारी अच्छे मनुष्य हों ,महामण्डल के सिद्धान्तों को [उद्देश्य,आदर्श,उपाय , आदर्शवाक्य ,अभियान मंत्र ,महामण्डल पताका या , प्रतीक चिन्ह में पृथ्वी , भारत का मानचित्र , 7वज्र निशान आदि के महत्व को] स्पष्ट और अलग -अलग करके ( clearly and distinctly) समझने में सक्षम हों , तो उसका परिणाम और भी अच्छा होगा।  उन अधिकारीयों में से प्रत्येक व्यक्ति यदि अलग-अलग अपना पदचिन्ह बनायें , उनकी विशिष्टता (individuality-वैयक्तिकता ) , योजनायें , कार्यान्वन आदि में महामण्डल की मूल विचारधारा अलग -अलग तरीकों से प्रतिबिम्बित होती हो , तब अलग-अलग लोगों के लिए एक ही वीचारधारा  अलग-अलग तरीकों से अभिव्यक्त होगी । 
यदि हमलोग किसी व्यक्ति को एक ही भोज्य पदार्थ खाने को दूँ , चाहे वह कितना भी महंगा और स्वादिष्ट ही क्यों न हो , उससे उसको संतुष्टि नहीं होगी। लेकिन सस्ता होने से भी कई प्रकार के व्यंजन परोस दूँ , तो सभी प्रसन्नता से भोजन करेंगे। श्रीरामकृष्ण देव स्वयं कहा करते थे - " मिश्री को केवल एक ही तरफ से क्यों खाया जाये ? मैं जानता हूँ कि सत्य एक ही है , किन्तु मैं उसका अनेक स्वाद चखना चाहता हूँ। " 
        इसमें कोई हानि नहीं है। बल्कि, नेतृत्व में इस स्वाधीनता के फलस्वरूप वे विभिन्न योजनाओं और नई रचनाओं के लिए नए विचारों के साथ आएंगे। केवल एक चीज जो देखने की जरूरत है, वह यह है कि नवीनता के नाम पर मूल आदर्शों से किसी भी तरह से कोई समझौता तो नहीं हो रहा है ?  हम कहीं महामण्डल के बुनियादी सिद्धांतों और मानदंडों (basic principles and norms) से पथभ्रष्ट होकर तो कुछ नहीं कर रहे हैं? या कहीं हमारे सिद्धान्त तरल (dilute -फीका ) तो नहीं हो रहे हैं ? वे लोग इस पर खुद विचार-विमर्श करके सटीक निर्णय लेंगे। यह और भी अच्छा होगा। हमलोग यह नहीं कहते कि एक व्यक्ति समस्त निर्देश देगा। तुम अपनी सारी समस्याओं को लेकर उसके पास जाओं। वे समस्त समस्याओं का समाधान कर देंगे , सारे निर्णय वे ही लेंगे , और जो कुछ वे कहेंगे , सभी को उसका पालन करना होगा।नहीं , यह हमारी पद्धति नहीं है। 
हमारी पद्धति है, हर कोई मिलकर एक साथ बैठेंगे, सभी क्षेत्रों से प्रस्ताव आएंगे, और इस तरह से धीरे-धीरे प्रत्येक प्रस्ताव पर चिंतन -मनन करके हम सही निर्णय ले सकेंगे । बस हमें दूर से ही देखना चाहिए, कि क्या वह सही निर्णय ले सकता है या नहीं ? बस दूर से देखते रहो ,  ताकि किसी के गलत निर्णय से कहीं पूरा आयोजन ही बर्बाद न हो जाये ।
         हमें स्वयं अपना  नेता बनने की कोशिश करनी चाहिए। क्योंकि यह हमारा कर्तव्य भी है।  " मुझे दूसरों की अपेक्षा अधिक कार्य करना होगा "-नेता में ऐसा ही  मनोभाव रहना चाहिए। हर कोई दूसरों की तुलना में थोड़ा अधिक  काम करेगा, लेकिन उनमें से कुछ लोग यह सोचेंगे, कि "मैं उतने मात्र से संतुष्ट नहीं रहूंगा - मैं हर व्यक्ति से अधिक  कार्य करूंगा।" मैंने संघ में सिर्फ उपस्थिति दर्ज करवाई , कुछ काम भी  किया और सन्तुष्ट हो गया - यह अच्छा है। लेकिन उनके बीच कुछ कार्यकर्ता ऐसे होंगे, जो सोचेंगे - मेरी जिम्मेदारी दूसरों से अधिक जिम्मेदारी लेने की है, मुझे कठोर परिश्रम करना होगा और दूसरों को कार्य में प्रेरित करना होगा। पथप्रदर्शन करना , एवं यह देखना कि वे कैसे अधिक और बेहतर तरीके से कार्य कर  सकते हैं - ताकि यह (ब्रह्मविद) मनुष्य बनने और बनाने का आंदोलन दूर-दूर तक फैल जाये और हमारी सम्पूर्ण  मातृभूमि आध्यात्मिकता की बाढ़ से प्लावित हो जाये ! 
“जो बोले, सो निहाल, सत् श्री अकाल”। 
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 स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर- अद्वैत " मानवतावादी नेतृत्व - प्रशिक्षण परंपरा में प्रशिक्षित नेता (C-IN-C) "~ ' बनो और बनाओ ' ~   " Be and Make  Trained Leaders  (C-IN-C)"in Swami Vivekananda - Captain Sevier - Advaita "Humanistic  Leadership Training Tradition."
 ” चिड़ियों से मै बाज लडाऊ गीदड़ों को मैं शेर बनाऊ. सवा लाख से एक लडाऊ तभी गोबिंद सिंह नाम कहउँ,” भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन।
अधिदेवता या अधिदेवी: हिन्दू धर्म में कई प्रकार के अधिदेव हुआ करते हैं। गाँवों के अधिदेवों को 'ग्राम देवता' भी कहा जाता है। परिवारों के अधिदेवों को 'कुलदेवता' और 'इष्टदेवता' कहा जाता है। किसी प्रान्त या समुदाय के देवता को 'लोकदेवता' कहा जाता है। अंग्रेज़ी में अधिदेवता या अधिदेवी को 'ट्यूटेलरी' (tutelary-रक्षक ) कहा जाता है।  ऐसे देवता या देवी को कहते हैं। जो किसी स्थान, परिवार, गाँव, शहर, व्यक्ति, राष्ट्र, व्यवसाय या अन्य चीज़ का रक्षक होने के लिए विशेष मान्यता रखता हो। उदाहरण के लिए हिन्दू धर्म में ज्ञान की अधिदेवी सरस्वती हैं। 
गुरु
 आजकल भारत में सांसारिक अथवा पारमार्थिक ज्ञान देने वाले व्यक्ति को गुरु कहा जाता है। इनकी पांच श्रेणिया हैं। १.शिक्षक - जो स्कूलों में शिक्षा देता है। २.आचार्य - जो अपने आचरण से शिक्षा देता है। ३.कुलगुरु - जो वर्णाश्रम धर्म के अनुसार संस्कार ज्ञान देता है। ४.दीक्षा गुरु - जो परम्परा का अनुसरण करते हुए अपने गुरु के आदेश पर आध्यात्मिक उन्नति के लिए मंत्र दीक्षा देते हैं। ५. गुरु -वास्तव में यह शब्द समर्थ गुरु अथवा परम गुरु के लिए आया है। गुरु का अर्थ है भारी। 
गुरुवार: गुरुवार सप्ताह का पाँचवा दिन है। इसे बृहस्पतिवार, वीरवार या बीफ़े भी कहा जाता है। यह बुधवार के बाद और शुक्रवार से पहले आता है। मुसलमान इसे ज़ुमेरात कहते हैं क्योंकि यह जुम्मा (शुक्रवार) से एक दिन पहले आता है। .
देवता :

   
देवता, दिव् धातु, जिसका अर्थ प्रकाशमान होना है, से निकलता है। अर्थ है कोई भी परालौकिक शक्ति का पात्र, जो अमर और पराप्राकृतिक है और इसलिये पूजनीय है। देवता अथवा देव इस तरह के पुरुषों के लिये प्रयुक्त होता है और देवी इस तरह की स्त्रियों के लिये। हिन्दू धर्म में देवताओं को या तो परमेश्वर (ब्रह्म) का लौकिक रूप माना जाता है, या तो उन्हें ईश्वर का सगुण रूप माना जाता है। बृहदारण्य उपनिषद में एक बहुत सुन्दर संवाद है जिसमें यह प्रश्न है कि कितने देव हैं। उत्तर यह है कि वास्तव में केवल एक है जिसके कई रूप हैं। पहला उत्तर है ३३ करोड़; और पूछने पर ३३३९; और पूछने पर ३३; और पूछने पर ३ और अन्त में डेढ और फिर केवल एक। वेद मन्त्रों के विभिन्न देवता है। प्रत्येक मन्त्र का ऋषि, कीलक और देवता होता है। 
अंकोरवाट के मन्दिर में चित्रित समुद्र मन्थन का दृश्य, जिसमें देवता और दैत्य बासुकी नाग को रस्सी बनाकर मन्दराचल की मथनी से समुद्र मथ रहे हैं। 
धर्मग्रंथों में देवताओं की 33 कोटि बताई गई है ( करोड़ ) नहीं। जिस प्रकार एक ही शब्द को अलग अलग स्थान पर प्रयोग करने पर अर्थ भिन्न हो जाता है। उसी प्रकार देवभाषा संस्कृत में कोटि शब्द के दो अर्थ होते हैं। कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता है लेकिन यहां कोटि का अर्थ प्रकार है, करोड़ नहीं।  प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, योनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ़्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानि श्रेणियाँ हैं, जिसमें इतने इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। समग्र संसार ही विष्णुरूप है, रुद्ररूप है, देवीरूप है। भेद भी है और अभेद भी है।
देवताओं का वर्गीकरण तीन कोटियों में किया गया है : पृथ्वी-स्थानीय, अंतरिक्ष स्थानीय और द्यु-स्थानीय। स्थान क्रम से वर्णित देवता — द्युस्थानीय यानी ऊपरी आकाश में निवास करने वाले देवता, मध्यस्थानीय यानी अन्तरिक्ष में निवास करने वाले देवता, और तीसरे पृथ्वीस्थानीय यानी पृथ्वी पर रहने वाले देवता माने जाते हैं।  अग्नि, वायु और सूर्य क्रमश: इन तीन कोटियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हीं त्रिदेवों के आधार पर पहले 33 और बाद को 33 कोटि देवताओं की परिकल्पना की गई है। इस बात के समर्थन में वे यह भी कहते हैं कि ग्रंथों को खंगालने के बाद कुल 33 प्रकार के देवी-देवताओं का वर्णन मिलता है। ये निम्न प्रकार से हैं:-12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 प्रकार के देवता होते हैं।
[विष्णु-लक्ष्मी : विष्णु के 24 अवतार हैं। वहीं राम है और वही कृष्ण भी। बुद्ध भी वही है और नर-नारायण भी वही है। विष्णु जिस शेषनाग पर सोते हैं वही नाग देवता भिन्न-भिन्न रूपों में अवतार लेते हैं। लक्ष्मण और बलराम उन्हीं के अवतार हैं।यद्यपि मूलरूप में वैदिक देववाद एकेश्वरवाद पर आधारित है, किंतु बाद को विशेष गुणवाचक संज्ञाओं द्वारा इनका इस रूप में विभेदीकरण हो गया कि उन्होंने धीरे धीरे स्वतंत्र चारित्रिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। उनका स्वरूप चरित्र में शुद्ध प्राकृतिक उपादानात्मक न रहकर धीरे धीरे लोक आस्था, मान्यता और परंपरा का आधार लेकर मानवी अथवा अतिमानवी हो गया।]
 देवगुरु बृहस्पति : जिन्हें देवगुरु (देवताओं के गुरु) कहा जाता है , उन्हें  "प्रार्थना या भक्ति का स्वामी" भी  माना गया है।  इन्हें शील और धर्म का अवतार माना जाता है और ये देवताओं के लिये प्रार्थना और बलि या हवि के प्रमुख प्रदाता हैं। इस प्रकार ये मनुष्यों और देवताओं के बीच मध्यस्थता करते हैं।  ये नवग्रहों के समूह के नायक भी माने जाते हैं तभी इन्हें गणपति भी कहा जाता है। ये ज्ञान और वाग्मिता के देवता माने जाते हैं। इन्होंने ही बार्हस्पत्य सूत्र की रचना की थी। इनका वर्ण सुवर्ण या पीला माना जाता है और इनके पास दण्ड, कमल और जपमाला रहती है। ये सप्तवार में बृहस्पतिवार के स्वामी माने जाते हैं। ज्योतिष में इन्हें बृहस्पति (ग्रह) का स्वामी माना जाता है। और दैत्य गुरु शुक्राचार्य के कट्टर विरोधी रहे हैं। पद्मपुराण के अनुसार देवों और दानवों के युद्ध में जब देव पराजित हो गए और दानव देवों को कष्ट देने लगे तो बृहस्पति ने शुक्राचार्य का रूप धारणकर दानवों का मर्दन किया और नास्तिक मत का प्रचार कर उन्हें धर्मभ्रष्ट किया। ये अत्यंत परोपकारी थे जो शुद्धाचारणवाले व्यक्ति को संकटों से छुड़ाते थे। इन्हें गृहपुरोहित भी कहा गया है, इनके बिना यज्ञयाग सफल नहीं होते। वेदोत्तर साहित्य में बृहस्पति को देवताओं का पुरोहित माना गया है।

 बृहस्पति के अधिदेवता इंद्र और प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैं। महाभारत के आदिपर्व में उल्लेख के अनुसार, बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। ये अपने प्रकृष्ट ज्ञान से देवताओं को उनका यज्ञ भाग या हवि प्राप्त करा देते हैं। असुर एवं दैत्य यज्ञ में विघ्न डालकर देवताओं को क्षीण कर हराने का प्रयास करते रहते हैं। इसी का उपाय देवगुरु बृहस्पति रक्षोघ्र मंत्रों का प्रयोग कर देवताओं का पोषण एवं रक्षण करने में करते हैं तथा दैत्यों से देवताओं की रक्षा करते हैं।  बृहस्पति ने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और वास्तुशास्त्र पर ग्रंथ लिखे। आजकल ८० श्लोक प्रमाण उनकी एक स्मृति (बृहस्पति स्मृति) उपलब्ध है। बृहस्पति को देवताओं के गुरु की पदवी प्रदान की गई है। 
धनु राशि : युवाओं के पथ प्रदर्शक स्‍वामी विवेकान्‍द धनु लग्‍न के जातक थे, तो आपके दिमाग में धनु लग्‍न अथवा धनु राशि से प्रभावित जातकों की छवि तुरंत बन जाएगी। धनु राशि का स्‍वामी गुरु है। इन जातकों की खासियत यह होती है कि ये विपरीत परिस्थिति में बेहतरीन प्रदर्शन करते हैं। ये जातक बहुत अधिक सोचते हैं। इस कारण निर्णय करने में देरी भी करते हैं, लेकिन एक बार जिस निर्णय पर पहुंच जाए उससे डिगते नहीं हैं। सत्‍य के साथ रहते हैं और किसी के साथ अन्‍याय हो रहा हो तो उसके साथ जा खड़े होते हैं। बोलने में इतने मुंहफट होते हैं कि यह जाने बिना कि सामने वाले पर क्‍या बीत रही होगी, बोलते जाते हैं। इन लोगों की बोली में ही व्‍यंग्‍य समाया हुआ होता है। सीधी बात कहने की बजाय टोंटिंग में ही बोलते नजर आएंगे। अच्‍छे चेहरे मोहरे, सुगठित शरीर, लम्‍बा चौड़ा ललाट, ऊंची और घनी भौंहों वाले आकर्षक व्‍यक्तित्‍व को देखकर ही समझा जा सकता है कि यह धनु लग्‍न या धनु राशि प्रधान व्‍यक्ति है। ये निडर, साहसी, महत्‍वाकांक्षी, अति लोभी और आक्रामक होते हैं। इन लोगों को जिंदगी में अनायास लाभ नहीं होता है। ये रिश्‍तेदारों के प्रति निर्मम और अपरिचितों के लिए नम्र होते हैं। ये तेजी से मित्र बनाते हैं और लम्‍बे समय तक उसे निभाते भी हैं।  
[साभार https://hi.unionpedia.org/
 
 एक बिन और सकल नाम-रूप बेकाम [1000000  without 1 evrything is 0]- अनन्त श्री दरियाव जी महाराज की वाणी :  
आदि अंत मेरा है राम, उन बिन और सकल बेकाम॥
कहा करूँ तेर बेद-पुराना, जिन है सकल सकत बरमाना।
कहा करूँ तेरी अनुभौ बानी, जिनतें मेरी बुद्धि भुलानी॥
कहा करूँ येमान-बड़ाई, राम बिना सब ही दुखदाई।
कहा करूँ तेरा सांख्य औ जोग, राम बिना सब बंधन रोग॥
कहा करूँ इन्द्रिनका सुक्ख, राम बिना देवा सब दुक्ख।
‘दरिया’ कहै, राम गुरु मुखिया,
 हरि बिन दुखी, रामसँग सुखिया॥ -दरियाव साहेब 
धर्म/शिक्षा  तो केवल मानवतावादी धर्म या शिक्षा ही है :संसार मे धर्म तो केवल मानव धर्म ही है अन्य जीतने भी धर्म है वे तो भिन्न रुचि व पूजा पद्धतियों में बंटे हुए समुदाय है । धर्मो के आपसी भेद भाव समाप्त किये बिना सदभावना स्थापित नही हो सकेगी। इसके लिए यदि धर्म गुरु नेता , शिक्षक व माता पिता मिलकर सही दिशा में सुधार का प्रयास करे तो आशा जनक एकता स्थापित हो सकती है ।
रामस्नेही सम्प्रदाय ? और मानवतावादी धर्म ? के आदि आचार्य श्री दरियावजी महाराज : सन्त दरियावजी :इनका जन्म जैतारण में १६७६ ई० में हुआ था। इनके गुरु का नाम प्रेमदास जी था। इन्होंने कठोर साधना करने के बाद अपने विचारों का प्रचार किया।
सन्त दरियावजी ने समाज में प्रचलित आडम्बरों, रुढियों एवं अंधविश्वासों का भी विरोध किया उनका मानना था कि तीर्थ यात्रा, स्नान, जप, तप, व्रत, उपवास तथा हाध में माला लेने मात्र से ब्रह्म को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
 वे मूर्ति पूजा तथा वर्ण पूजा के घोर विरोधी थे। क्यों थे ? 1000 की गुलामी से अपने वेद-उपनिषद-गीता  पर से उनका विश्वास उठ गया था ? उन्होंने कहा कि इन्द्रिय सुख दु:खदायी है, अत: लोगों को चाहिए कि वे राम नाम का स्मरण करते रहें। उनका मानना था कि वेद, पुराण आदि भ्रमित करने वाले हैं। इस प्रकार दरियावजी ने राम भक्ती का अनुपम प्रचार किया।
उन्होंने राम शब्द में हिन्दू – मुस्लिम की समन्वय की भावना का प्रतीक बताया। उन्होंने कहा कि “रा”शब्द तो स्वयं भगवान राम का प्रतीक है, जबकि ‘म’ शब्द मुहम्मद साहब का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि गृहस्थ जीवन जीने वाला व्यक्ति भी कपट रहित साधना करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसके लिए गृहस्थ जीवन का त्याग करना आवश्यक नहीं है। दरियावजी ने बताया है कि किस प्रकार व्यक्ति निरन्तर राम नाम का जप कर ब्रह्म में लीन हो सकता है।
[/https://dariyavji.wordpress.com/2013/09/15/]
["पकी खेती देखिके, गरब किया किसान। अजहूं झोला बहुत है, घर आवै तब जान। " -पकी हुई फसल देखकर ही किसान अति आत्मविश्वास से भर जाते हैं कि अब तो काम हो गया। लेकिन जब तक सफलता पूरी ना मिल जाए, लापरवाही नहीं करनी चाहिए। जब तक इस महामारी की वैक्सीन नहीं आ जाती, हमें अपनी इस लड़ाई को कमजोर नहीं पड़ने देना है।
रामचरितमानस (अरण्यकाण्ड ) का एक प्रसिद्द चेतावनी देने वाला सोरठा है -
रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥21 क॥
भावार्थ
शत्रु ( पाकिस्तान और चीन ), बीमारी (महामारी -कोबिड 19) , आग , पाप (शास्त्रनिषिद्ध कर्म ), स्वामी (गुरु, जीवनमुक्त शिक्षक या नेता, C-IN-C नवनीदा ) और सर्प को छोटा करके नहीं समझना चाहिए- अर्थात
कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए।  ऐसा कहकर शूर्पणखा अनेक प्रकार से विलाप करके रोने लगी॥21 (क)॥
বিশ্বাস করুন,আমি কবি হতে আসিনি,আমি নেতা হতে আসি নি-আমি প্রেম দিতে এসেছিলাম,প্রেম পেতে এসেছিলাম-সে প্রেম পেলামনা বলে আমি এই প্রেমহীন নীরস পৃথিবী থেকে নীরব অভিমানে চির দিনের জন্য বিদায় নিলাম। —— কাজী নজরুল ইসলাম।
স্বপ্ন সেটা নয় , যেটা মানুষ ঘুমিয়ে ঘুমিয়ে দেখে সপ্ন সেটাই যেটা পূরণের প্রত্যাশা মানুষকে ঘুমাতে দেয় না ——— ডঃ এ.পি.জে.আব্দুল কালাম।
 
अनुबन्द चतुष्टयम्

[वेद पठनस्य पूर्वं तस्य वेदस्य ऋषिः देवता छन्दस् ज्ञातव्यम् | तादृशम् एव किमपि ग्रन्तस्य पठनात् पूर्वम् अनुबन्द चतुष्टयं किमिति ज्ञातव्यम् | तथापि एव करतलन्यस्थ आमलक वत् प्रकाशत्वेन अवगम्य शास्त्राद्ययनं कर्तुं शक्नुम: | ]

    विषय: – ग्रन्थप्रतिपाद्यवेद्य वस्तु विषया विद्या | परब्रह्मविद्या |
    अधिकारी – जिज्ञासुः | एषा विद्या अवगन्तुम् इच्छव: |
    (व्यासस्य ब्रह्मसूत्रे प्रथमसूत्रं “अथातो ब्रह्म जिज्ञासा” | ब्रह्मं ज्ञातुं इच्छा एव जीवनस्य मुख्य कार्यम् | अत्र “अथ” इत्युक्ते साधन चतुष्टयम् (Four Means of practice) कृत्वा इत्यर्थः | )
    प्रयोजनम् – ब्रह्मज्ञानम् | आद्यन्तिकी संसार निवृत्ति: , ब्रह्म प्राप्ति: लक्षणम् |
    संबन्द: – प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव संबन्द: | (proving the hypothesis)
 
क्या देवी की विशाल मूर्तियाँ बनाकर उनके सम्मुख मद्यपान कर ध्वनिप्रदूषण करते हुये कामुक नृत्य करना हिन्दुओं का धार्मिक अनुष्ठान है ?   
उत्तर – हे वत्स ! भारत में यह जो स्थूल नेत्रों से दृष्टिगोचर हो रहा है वह सब हिन्दू धर्म है, और जो दृष्टव्य नहीं है, प्रत्युत चेतना के विषयरूप में अनुभवगम्य है वही सनातन धर्म है । दुर्गा देवी के मूर्ति विसर्जन में मद्यपान कर “कामुक नृत्य” करते किशोर-किशोरियों के झुण्ड अपना परिचय हिन्दू धर्मानुयायी कहकर देते हैं किंतु “ब्राउनियन मूवमेंट” (Brownian movement) :किसी तरल के अन्दर तैरते हुए कणों की टेड़ी-मेढ़ी गति को ही ब्राउनी गति (Brownian motion या pedesis) कहते हैं। ये कण तरल के तीव्रगामी कणों से टकरा-टकरा कर टेढ़ी-मेढ़ी गति करते हैं।) नृत्य की वे मुद्रायें हैं जो केवल सनातन ही हो सकती हैं । परमाणु के ऑर्बिट्स में इलेक्ट्रॉन्स का सतत नृत्य सनातन है । शिव का लास्य और रौद्र ताण्डव सनातन है जो डार्क-मैटर और एनर्जी की माया का खेल खेलता है । मूर्ति ... जो दृष्टव्य है ... वह उनके लिए है जिनके लिए सूक्ष्म अकल्पनीय है । मूर्ति का नाम है, सूक्ष्म का कोई नाम नहीं होता । हे वत्स ! जिसका नाम है वह हिन्दू है और जिसका कोई नाम नहीं है वह सनातन है ।   
नेता पैदा होते हैं या बनते हैं? यह नेतृत्व के बारे में सबसे अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न में से एक है।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध द्वारा प्रस्तुत सबसे अच्छा अनुमान यह है कि नेतृत्व लगभग एक तिहाई पैदा होता है और दो तिहाई बनाया जाता है।
[Are Leaders born or made? This is one of the most often-asked question about leadership. Research by psychologists has proved that, in the main, Leaders are ‘mostly made.' The best estimates offered by research is that leadership is about one-third born and two-thirds made.
 
 
अपनी 'Intelligence Quotient (IQ), Emotional Quotient (EQ) and Spiritual Quotient (SQ), The power of self realization.' को कैसे विकसित करें? ]
[08/08, 08:07] Ranenda Watsap: I found some apparent mistakes in the Inaugural speech of Birenda printed in it.On the upper part of second column it has been indicated the name of Swami Abhayananda as General Secretary .But he was never a G.S of RKM. At that time Swami Vireswrananda  and Swami Gambhirananda were President and GS respectively. Sw. Abhayananda (Bharat Maharaj) was Manager. I feel you couldn't properly understood or the mistake was committed by the person who wrote the speech in long hand from recorder.
[08/08, 08:27] Ranenda Watsap: But the above named senior monks did not take part in the January 1968 meeting of the Mahamandal, but they always  guided us in different ways.Swami  Smarananda (Present President),Swami Budhananda(the then President,Advaita Ashrama), Swami Joyananda (Sukdev Maharaj)were generally attending our meetings held at Advaita including the second one. I was also generally attending such meetings almost from the beginning.  
       Vivek Anjan was originally started to bring out Hindi translation of all what is published in Vivek Jiban mainly for circulation for the benefit of Mahamandal boys of Hindi belt. Initially it was working fine.Of late,some people are reporting that you are referring to Mandukya Upanishad to make the boys understand the concept of Swamiji's "BE AND MAKE". My request to you would be to avoid such things(which may create confusion)in future and use simple quotations from Ramkrishna Vivekananda literature only. Better stick to Hindi translation of VJ for Vivek Anjan,as you were doing so long.
http://vivek-anjan.blogspot.com/2020/07/18-be-and-make.html
[09/08, 13:57] Bijay Kumar Singh: Correct! In future I will take care of it. Actually I was doing this for my own benefit,  I thought boys will not like to read Mandukya Upnishad.  So it will not harm them.
[09/08, 14:16] Bijay Kumar Singh: It is not published in our magazine,  but in my blogspot,  I will withdraw all the post which I had sent to some selected boys. But it seems they too couldn't digest.  Today I will withdraw  all the blogs which I had sent them.
[09/08, 14:29] Ranenda Watsap: I don't mind if you do it for your own benefit. But what you have already posted,you should not withdraw.That may give a wrong message.
[09/08, 14:29] Ranenda Watsap: In future you may post to selected persons only.
[09/08, 14:49] Bijay Kumar Singh: Actually this upnishad was taught at Beur Math by Swami Vishwatmananda of Kailash Ashram , Haridwar in Hindi. Which helped me to understand the meanings of Om . I think the Adwait Ashram Maharaj may know Swami Vishwatmananda of Puri Order Sanyasi.
[09/08, 14:52] Ranenda Watsap: I shall talk to over phone later.Now take a little rest.
[11/08, 11:41] Ranenda Watsap: I have come to know from different sources that Raunak is not taking adequate interest in Mahamandal work now a days.Apart from his office work and business,now he is more busy in the work of RKM (particularly,of its Ulsoor(Halasuru) Ashrama near Bengaluru. Naturally, you don't expect anything more from him now.
[11/08, 11:54] Ranenda Watsap: I don't know what exactly  you want to mean!!Arunabha is a well read person and was trained by Nabani Da personally,when he was alive. But Raunak never had that opportunity.
[11/08, 11:58] Bijay Kumar Singh: But finally Nabani da was not happy about him. I had suggested his name for Asst Secretary,  but he refused and chose Amit in his place. Perhaps you were also present in that meeting.
[11/08, 12:01] Ranenda Watsap: Rather,when Raunak lost his earlier job,he came to Andul for sometime but hardly visited Mahamandal office. Sometimes I met him at Belur Math talking to some of my known monks.
[11/08, 12:04] Bijay Kumar Singh: Yes you are right,  I don't expect much from Suvendu and Raunak type boys , who without reading Dakshinamurti Stotram wants to be teacher in Mahamandal .
[11/08, 12:07] Ranenda Watsap: This was for some other reasons.He wanted to start a separate organization with the ideals of Netaji and we advised him to leave Mahamandal before that.Ultimately,he kept him separate for sometimes.
[11/08, 12:12] Ranenda Watsap: Nabani Da was always reluctant to change members of the Executive Committee frequently.Arunabha was too young at time and therefore Amit was inducted as an Asst. Secy.
[23/08, 14:42] Ranenda Watsap: Everything cannot be controlled by a few at the city office. You have to trust the next level of  experienced workers to make use of the enthusiasm and talents of boys. But, the main hindrance to that is: there is a trust deficit and an anxiety-driven approach. No positive vision is driving the work. It's just going on with the momentum acquired long back.
[23/08, 14:50] Ranenda Watsap: This post I have received from a young Mahamandal worke while chatting with him in connection with an important issue. Do you agree with his view?
[23/08, 17:35] Ranenda Watsap: Nabani Da sacrificed almost his entire life for the common people through Mahamandal and then only this Organization took a sound shape/footings.Do you think that the present few persons of City Office ,who are now controlling the affairs are  Ihaving positive vision in taking decisions and having trust on  the next level of experienced and talented workers?The young man's feeling is that "the momentum acquired long back" ie at the time of Nabani Da is still the force acting and the new comers in the management are not in the position to understand and follow what Dada wanted.
[23/08, 17:43] Ranenda Watsap: Do you think that they all understand the significance of VAJRA on M ahamandal flag and acquired the quality of SACRIFICE for the cause of the Organization?
[23/08, 18:30] Bijay Kumar Singh: I want to see any person from next level to be the General Secretary of the Mahamandal,  who understand the significance of Vajra and transformed  his life accordingly. I agree that the present C-IN-C of Mahamandal is quite unfit for the post. If I  had been present in that executive body meeting,  certainly I would've objected his name for the CHAPRAS of C-IN-C to a person like the present one.
[23/08, 18:45] Ranenda Watsap: This  will be decided in the next AGM  by the General Body of the Organization. I and you are simply two individuals of that Body.
That's the Spiritual power of Vajra , (Wisdom and Compassion) which will select right person to hold the Mahamandal's Flag. I am sure of this miracle that is going to happen!
[24/08, 11:24] Ranenda Watsap: My understanding regarding significance of VAJRA is, it mainly represents "SACRIFICE AND STRENGTH". While making our flag,the sacrifices made by the famous mythological saint Dadhichi for God's (good)to concur the battle against  Danabas(evils) was in our mind.As you are aware Vajra was made from the bones of the dead body of the saint,who sacrificed  his life for the ultimate welfare of mankind.
[24/08, 11:42] Ranenda Watsap: To run our organization properly, we require such a person who is having an attitude to sacrifice for others apart from organizational power and love,as wanted by Swamiji. Love for each and everyone plays the role of the main bondage for any organization.If one can love the others all other things like discipline, obedience, respect,interest to work seriously will automatically come.
[30/08, 10:05] Bijay Kumar Singh: With respect I want to ask , what you think, how a students personality can be developed?

[30/08, 10:32] Ranenda Watsap: What I suggest,you better attend today's programme and thereafter we can discuss.You are aware that I am not a well read person like you.Still I shall try to tell you my opinion about the way how a student can develop his personality in the way suggested by Mahamandal.
[30/08, 10:46] Ranenda Watsap: How you can conclude that this will not be on the way suggested by  Mahamadal unless you attend it.We should not be so much conservative in our approach to make others understand our own stand. So, you attend today's webinar and thereafter we can discuss and tell the organizers subsequently if we find any deviation.
[30/08, 10:58] Bijay Kumar Singh: Jahan tak mai samajhta hu, Mahamandal ka uddeshya to " BRAHM bid Maushya bn na aur banana hai.
Upnishad me kaha gaya hai - Brahmbid Brahmaiv bhawti. 
Bina apne swarup ko jane , chaar mahawakya ka Shravan, Manan,  Nididhyasan ya Samadhi me atma-sakshtakar kiye kisi ki Leadership wali personality nahin ban sakti . Navani da isko " Individuality " kehte the, personality to is Neta ka Aura ko kehte hain.
[30/08, 11:10] Ranenda Watsap: Tum to bhujte agey barh giya! If you tell this to junior boys and other common people jey tumio personality develop korbena liye tumko brhhmbid banna hai.to oh turnt uhase vag jayega. Gradually you are proceed to take him to that ultimate stage.
[30/08, 11:14] Bijay Kumar Singh: Kya Mahamandal ke senior members yah jante hain ki hamlogo ka Anthem,  Rigved se liya gaya hai, lekin Atharvaved me bhi thoda badal kar yahi mantra diya hua hai, aur Swami Vivekanand apne Bhashan me Atharvaved ki Richa ka hi ullekh kyon kiya tha ?
[30/08, 11:31] Ranenda Watsap: Please don't think that even the seniors of Mahamandal  are having conceptual ideas like you and all of them had a close contact with Nabani Da,as you had. That's why I always tell you to share your ideas to other workers in a way they can accept and not to make hurry in this regard.
[30/08, 11:34] Bijay Kumar Singh: Thank's dada , I agree with you. But I can't dilute my principal's.
[30/08, 11:47] Ranenda Watsap: If you agree with my view and hear the deliberations of the webinar. I your principle will be diluted!This you can call an Orthodox/conservative approach of looking things. You should have the catholicity to hear others' oppinion and thereafter to react. Don't do the same thing which Dipak did in the last Executive.Committee Meeting.
[30/08, 12:09] Bijay Kumar Singh: Sab koi  Instant coffee type formula khoj raha hai, jisko karne se turant sabko uska khoya hua vyaktitiva mil jaye. Lekin 5 abhyas jo dada ne bataya hai,  usko kiye bina Atma Shraddha kaise aa sakta hai? Ye main nahin janta. 
Main yah janta hun ki jo koi nam -yash ka chinta ya post ka chinta chor kar is 5 abhyas se Brahm ko khojne ke andolan me laga rahega, usko jarur Ishwar laabh hoga.
[30/08, 12:12] Bijay Kumar Singh: If it is your order , then I will obey it !
[30/08, 17:11] Bijay Kumar Singh: I couldn't join the meeting as my new Samsung phone is not supporting the above mentioned meet ID.
[30/08, 18:40] Bijay Kumar Singh: Any way I could join the program at 5.30 PM and listening till last at 6.40 PM.
[ Inaugural speech of Sri Birendra Kumar Chakraborty, General Secretary of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal delivered at the occasion of Seventh Interstate Youth Training Camp 2019 held at Jhumritelaiya, Jharkhand.
Respected my beloved friend Sri Bijay Singh, who actually started spreading the ideas of Mahamandal in this area and country since 1987 and from then he has been working tirelessly covering a big part of India spreading the man making idea of Mahamandal and Swami Vivekananda. I also express my thanks and gratitude to all the speakers who all spoke so well that I have learnt from them and they also reduced my task. In inaugural programs of Mahamandal, we do not permit any lengthy speeches. Since campers have come from different areas, They feel tired. They have been provided very light tiffin in the evening and now they are restless so I think that it is not necessary to make the speech lengthy and I would like to sum up in short. I thought that not only as an inaugurator of the camp but as the General Secretary of this organization, I will introduce the Mahamandal to them because most of the campers are new. 
Mahamandal was established in the year 1967, twenty years after attaining India independence in 1947. The idea was to spread the man making and character building ideas of Swami Vivekananda among young men because following an agrarian movement in the eastern part of India. Young men in around West Bengal and some other eastern states and some the south mostly in Andhra Pradesh. 
young man in discipline and some senior monks of Ramakrishna Mission order and founder secretary of Mahamandal Sri Nabani Haran Mukhopadhyay who came here many times took the decision to establish an organization and started movement to spread this man making and character building idea of Swami  Vivekananda among the young men. In this way the work started in later part of 1967.So far I remember that it was 25 of October. 
The first meeting was held four-five month later in January 1968. They sat together. Very senior monk, the president of Ramakrishna Mission, General Secretary Swami Abhayananda, Assistant General Secretary Swami Bhuteshananda and a very senior monk Swami Ranganathananda who also subsequently became president of Ramakrishna Mission took part in that meeting. They all advised it will have to spread the man making ideas of Swami Vivekananda. This is the idea behind establishing Mahamandal
{ NB :[08/08, 08:07] Ranenda Watsap: I found some apparent mistakes in the Inaugural speech of Birenda printed in it. On the upper part of second column it has been indicated the name of Swami Abhayananda as General Secretary .But he was never a G.S of RKM. At that time Swami Vireswrananda  and Swami Gambhirananda were President and GS respectively. Sw. Abhayananda (Bharat Maharaj) was Manager. I feel you couldn't properly understood or the mistake was committed by the person who wrote the speech in long hand from recorder.} 

Then the next was to contemplate what was the way ? How was the idea to be spread ? They decided that youth training camps should be organized periodically and in these training camps, man making and character building ideas will be taught. The first training camp was possibly held five months after Mahamandal started. According to Swami Vivekananda the necessary things in order to be real men are simultaneous development of body, mind and heart. Youth should have strong body, intellect mind and expanded heart. They should not leave self centred life. They should lead a life for the sake of all. 
In this camp, campers will start from tomorrow morning attending a class on concentration of mind. Swami Vivekananda emphasized more to be educated how to concentrate the mind. Various classes on man making and character building education will be held thereafter. Theoretical ideas are not enough, practical method is essential which will be also taught here. Therefore I appeal all the campers not to miss any class of the camp. 
Swamiji used to narrate a story of pearl oyster. Be like the pearl oyster. There is a pretty Indian fable to the effect that if it rains when the star Swati is in the ascendant, and a drop of rain falls into an oyster, that drop becomes a pearl. The oysters know this, so they come to the surface when the star shines and wait to catch the precious rain￾drop. When a drop falls into them, quickly the oysters close their shells and dive down to the bottom of the sea, there to patiently develop the drop into the pearl. 
So this camp may be assumed this occasion where you can get the pearl like valuable things to be absorbed. Believe, this evening, when the camp was inaugurated by flag hoisting, the Swati star has raised on the sky of this camp periphery and it will sustain till the end of the camp. I fervently hope, you all will take the maximum advantage of the camp to make your life better grasping the man making and character building ideas of Swami Vivekananda. " 
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[2-A ]
नेतृत्व की अवधारणा और प्रकृति
 (The concept and nature of leadership)
[নেতৃত্বের ধারণা ও প্রকৃতি] 
   Let's see what our own ideas about leadership say:आइए देखें कि नेतृत्व के बारे में हमारे अपने विचार क्या कहते हैं : जीवन के हर क्षेत्र में नेतृत्व की आवश्यकता होती  है। यहां तक कि अगर हमारे परिवार में भी यदि अच्छा नेता हों , तो पूरा परिवार खुश और शांति में रहता है और हर  संभव तरीकों से प्रगति करता है। समाज और किसी भी सामुदायिक जीवन में ऐसा ही होता है। सभी प्रकार के संघों और संगठनों  में भी कुशल नेतृत्व आवश्यक है । लेकिन राजनीतिक नेता अपने जीवन से आदर्श और अनुप्रेरक नेतृत्व का प्रदर्शन नहीं करते । वर्तमान में, सभी देशों में लोग यही सोचते हैं कि केवल राजनीतिक नेता ही नेता हो सकते हैं ; और दुनिया के सारे नेता एक ही प्रकार के नेता है। या एक ही थैली के चट्टे -बट्टे हैं !
नेता की विशिष्ट शक्ति: 
लेकिन विश्व के इतिहास का सिंहावलोकन करने से हमें पता चलता है कि केवल वैसे ही व्यक्तियों को मानवजाति का सच्चा मार्ग-दर्शक नेता माना गया है, जिनके भीतर सांसारिक ज्ञान के अतिरक्त एक दूसरी विशिष्ट योग्यता भी थी। और वह विशिष्ट योग्यता थी, उन सबों में विद्यमान आध्यात्मिक शक्ति! विशेष रूप से भारत में तो आध्यात्मिक शक्ति को नेतृत्व की कसौटी मानने की परम्परा रही है भारत में केवल उसी व्यक्ति को मानव-समाज का नेता माना जाता है, जिनके भीतर आध्यात्मिक शक्ति (SQ)अनिवार्य रूप से रहती है मानव इतिहास के प्रारम्भ से ही भारत भूमि पर इस प्रकार के कई नेता आविर्भूत हुए हैं, जिन्होंने न केवल भारत का अपितु सम्पूर्ण मानवजाति को ज्ञान के प्रकाश द्वारा मार्गदर्शन किया है। 
 आज न्यूनाधिक सम्पूर्ण विश्व में यह स्वीकार किया जाने लगा है कि मानव-सभ्यता को ज्ञान के आलोक द्वारा समृद्धि प्रदान करने में भारतवर्ष का अंशदान प्रचुर रहा है; और इसका सबसे ताजा प्रमाण है UNO द्वारा 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित करना ! किन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझ लेना चाहिये कि भारत केवल योग-विद्या,अध्यात्म-विद्या या उपनिषद-विद्या में ही अग्रणी देश था, अपितु भारत ने उपग्रह विज्ञान, चिकित्सा-विज्ञान, शिल्प-कौशल, इंजिनयरिंग के विभिन्न क्षेत्रों में तो कम से कम 5000 वर्ष पूर्व ही यथेष्ट ज्ञान अर्जित कर लिया था। किन्तु इन सबके अतिरिक्त भारत योग-विद्या, परा-विद्या या आध्यात्मिक ज्ञान सम्पन्न ऋषियों-मुनियों की जन्मस्थली भी रहा है। यही वह कारण है जिसके चलते भारत के महापुरुषों ने अपने जीवन और सन्देश के द्वारा न केवल भौतिक उन्नति के लिये मार्गदर्शन किया है, अपितु आत्मविकास के द्वारा जीवन पुष्प को प्रस्फुटित करने में भी मनुष्य जाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता बने रहे हैं।
तथा स्वामी जी का मानना था कि जैसे सच्चे धर्म और विज्ञान में कोई विरोध नहीं है , उसी प्रकार विज्ञान और सच्ची आध्यात्मिकता में भी कोई विरोध नहीं है। केवल पाश्चात्य इतिहास में ही हमलोग धर्म और विज्ञान के बीच शत्रुता और वैर-विरोध देखते हैं। उसका कारण यह है कि पाश्चात्य धर्म केवल विश्वास के ऊपर आधारित है, और भारत का धर्म प्रारम्भ से ही वैज्ञानिक अन्वेषण  पद्धति (Scientific Discovery Method ) के ऊपर प्रतिष्ठित है।
स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग धर्म के क्षेत्र में भी किया जाना चाहिए। और जो धर्म वैज्ञानिक-परीक्षण की  कसौटी पर खरे नहीं उतरते उनका समाप्त हो जाना ही उचित है। उसी में मनुष्यों का कल्याण है। जो धर्म वैज्ञानिक प्रणाली के ऊपर प्रतिष्ठित नहीं हैं, वे चिरकाल तक टिक नहीं सकते, एवं मनुष्यों का कल्याण भी नहीं कर सकते। अतः जितनी जल्दी हो सके उन्हें अलविदा कर दिया जाना अच्छा है। 
अवतार -जिज्ञासु परम्परा या श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में हमलोग व्यावहारिक वेदान्त को या वैज्ञानिक धर्म का दैनन्दिन जीवन में प्रयोग होते हुए देख सकते हैं। जब श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द का प्रथम साक्षात्कार होता है,उसी समय जिज्ञासु (एथेंस का सत्यार्थी)  नरेंद्रनाथ, आधुनिक युग में प्रथम मानवतावादी नेता (साम्यभाव में प्रतिष्ठित मानवजाति के मार्गदर्शक नेता -जगतगुरु , जीवनमुक्त शिक्षक ) अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण से पूछते हैं -' महाशय, आपने क्या ईश्वर को देखा है ? तब आन्तरिक विश्वास के साथ सरल उत्तर मिलता है, ' हाँ, देखा हूँ, तुमको जिस प्रकार देख रहा हूँ, उससे भी स्पष्ट रूप से देखा हूँ, और चाहोगे तो तुम्हें दिखा भी सकता हूँ !'  
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्रनाथ के समक्ष एक बिल्कुल विज्ञानसम्मत प्रस्ताव रखते हैं इस प्रस्ताव से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि परमसत्य (ब्रह्म या ईश्वर) को जानने की एक सार्वजनिक वैज्ञानिक पद्धति अवश्य है ! और विश्व का  जो कोई भी मनुष्य इस सार्वभौमिक वैज्ञानिक पद्धति से अग्रसर होगा, उसे एक ही परिणाम प्राप्त होगा इस पद्धति में कोई मनुष्य - स्त्री हो पुरुष, बहिष्कार करने योग्य नहीं है या अपवाद स्वरूप कोई नहीं है! इसको ही कहते हैं, (गीता-उपनिषद की गुरु-शिष्य पम्परा में) धर्म के क्षेत्र में भी वैज्ञानिक प्रणाली से अग्रसर होना।
यदि तुम स्वयं भी इस विज्ञानसम्मत पद्धति -महामण्डल के ५ अभ्यास  के द्वारा यम-नियम का पालन करते हुए मन को वाह्य विषयों से खींचकर अपने हृदय में विद्यमान अल्ला, गॉड या भगवान अथवा आत्मा में एकाग्र करने का अभ्यास करो तो तुम्हें भी वही आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होगी, जो तुमसे पहले योग-विद्या क्षेत्र के वैज्ञानिकों या ऋषियों को प्राप्त हुई थी। (तुम भी यदि स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर नेता बनने और बनाने  (Be and Make ) वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक बनो, तो  तुम्हें भी उसी 'एकमेवाद्वित्य ब्रह्म' (परम-सत्य) की अनुभूति होगी जो तुमसे पहले असंख्य ऋषियों को हो चुकी है। ) जो कोई भी इस पद्धति 'श्रीरामकृष्ण-नरेन्द्रनाथ वेदान्त परम्परा के पथ से अग्रसर होगा, उसे एक ही परिणाम प्राप्त होगा - उसे अपरिवर्तन- शील या अविनाशी परमसत्य की उपलब्धि कहें, या अल्ला, ईश्वर, गॉड किसी भी नाम से पुकारें। अतः हिन्दू हो या मुसलमान, स्त्री हो पुरुष - प्रत्येक मनुष्य को व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिक-शक्ति (SQ) प्राप्त करने महत्व को समझना जरूरत है। क्योंकि मनुष्य केवल एक जन्तु या विवश होकर अधीन रहने वाला दो पैरों से चलने वाला कोई बुद्धिमान पशु ही नहीं है। अथवा मनुष्य आर्थिक नियमों द्वारा चालित, कोई राजनितिक प्राणी भी नहीं है, वास्तव में प्रत्येक मनुष्य ही -'अव्यक्त ब्रह्म है' या एक आध्यात्मिक सत्ता है ! 
मनुष्य को यदि अपनी अन्तर्निहित सम्भावना को विकसित करना हो, अपने यथार्थ स्वरूप को अनावृत करना हो, महान बनना हो तो, उसे इस विज्ञानिक-आध्यात्मिक पद्धति की सहायता लेनी ही होगी। अन्य कोई उपाय नहीं है। जिसको हमलोग धर्मनिरपेक्ष-शिक्षा (अपरा विद्या-IQ और EQ कहते हैं, वह भी धार्मिक-शिक्षा (परा विद्या SQ ) का ही एक अंग है। 
     इस बात को समझने की चेष्टा करनी होगी। क्योंकि एक ही अध्यात्मिक 'सत्ता' जिसको हमलोग आत्मा, ब्रह्म, परमसत्य या अल्ला कहते हैं, प्रत्येक वस्तु में परिव्याप्त हैं ! उस सर्वव्याप्त सत्ता को  विज्ञान कभी अपनी प्रयोगशाला में आविष्कृत नहीं कर सकता। किन्तु आधुनिक विज्ञान क्रमशः परमसत्य के निकट आता जा रहा है। यह किसी दिन इसके अत्यन्त निकट तक भी पहुँच सकता है (हाल ही में गॉड-पार्टिकल को खोजने का दावा किया है किन्तु अन्ततोगत्वा विज्ञान को भी - प्रयोगशाला में वैज्ञानिक उपकरणों और भौतिक इन्द्रियों के माध्यम से उस परमसत्य (आत्मा -जिससे सब वस्तु निकली है, जिसमें स्थित है, जिसमें लीन हो जाती है) का अनुसन्धान करने की ज़िद को छोड़कर इस विज्ञानसम्मत आध्यात्मिक प्रणाली 'व्यावहारिक वेदान्त' की शरण में आना ही पड़ेगा।  एक दिन विज्ञान को अपनी छुक-छुक गाड़ी का त्याग करके आध्यात्मिक-राकेट (मनःसंयोग रूपी प्रक्षेपास्त्र) में कूदकर चढ़ना ही पड़ेगा। इक्कीसवीं शताब्दी में जो सबसे बड़ी घटना घटने वाली है, वह है 'विज्ञान और धर्म' एक दूसरे से हाथ मिलाकर आगे बढ़ेंगे, विज्ञान और आध्यात्मिकता के बीच एक प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो जायेगा दोनों का सम्मिलन होगा-स्वामी विवेकानन्द ने यह भविष्यवाणी उन्नीसवीं सदी में ही कर दी थी। [ Higgs Boson (हिग्स बोसोन) : ईश्वरीय कण की खोज करने वाली मशीन लार्ज हेड्रोन कोलाइडर ईश्वरीय कण की खोज करने वाली मशीन (The Large Hadron Collider LHC ) को दो साल के लिए बंद कर दिया गया था , अब वह पुनः 2021 में खुलेगी। सर्न के महानिदेशक फैबिओला जियानोती (Fabiola Gianotti ( born October 29, 1960) is an Italian experimental particle physicist, and the first woman to be Director-General at CERN (European Organization for Nuclear Research) in Switzerland. ) ने कहा, 'हिग्स बोसोन एक विशेष कण है, जो अब तक ज्ञात सभी कणों से अलग है। इसकी खूबियां भौतिकी के क्षेत्र में नए सिद्धांतों का रास्ता खोल सकती हैं।' ]

मशीनी मानव को हृदयवान मनुष्य में रूपांतरित करना 
हममें से प्रत्येक मनुष्य को अपने अंतर्निहित दिव्यता या ब्रह्मत्व के ऊपर, नचिकेता के समान अटूट श्रद्धा और विश्वास रखते हुए 'बाह्य-प्रकृति और अंतःप्रकृति' को चारों योगों (या ५-अभ्यासके माध्यम से वशीभूत करके उस ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के प्रयत्न में जुट जाना होगा ! 
अब हमें अपने जीवन को इस प्रकार गढ़ना होगा जो दूसरों के लिए उदाहरण स्वरुप हो। मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेताओं के जीवन और सन्देश से हमें यह शिक्षा ग्रहण करनी ही होगी। 
हममें से प्रत्येक के भीतर अनंत-प्रेम, अनंत ज्ञान और अनंत ऊर्जा का एक श्रोत (श्रीठाकुर ) विद्यमान है, यह मानव-जीवन उसी श्रोत को उद्घाटित करने के लिए प्राप्त हुआ है; अतः हमें अपने हृदय में पड़े अहं रूपी पत्थर या अवरोध को हटाकर उस श्रोत को अवश्य उद्घाटित कर लेना चाहिए ! 
क्योंकि महामण्डल के नेताओं का अपना जीवन और चरित्र इतने सुंदर रूप से गठित होना चाहिये, उनका हृदय उस आध्यात्मिक शक्ति -अनन्तप्रेम से इतना भरा हुआ होना चाहिए- कि वह उनके आस-पास रहने वाले लोगों में चरित्र-निर्माण के लिये प्रेरणा, उत्साह और शक्ति को संचारित करने में समर्थ हो ! यदि हमलोग नेतृत्व के सम्बन्ध इस आध्यात्मिक-शक्ति (अनन्तप्रेम) की अनिवार्य क्षमता आत्मसात कर लेते हैं, तो हममें से प्रत्येक व्यक्ति मानवजाति का सच्चा पथ-प्रदर्शक या नेता बनने की योग्यता अर्जित कर सकता है। इस आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त कर लेने के बाद ही हमलोग अपने आस-पास रहने वाले भाइयों को भी भावी नेता बनने के लिये अनुप्रेरित कर सकते हैं। और समाज के प्रति हमारी सच्ची सेवा भी यही होगी। 
प्रत्येक सच्चे नेता में जो एक विशिष्ट आध्यात्मिक शक्ति रहती है, वह उन्हें अपनी अंतर्निहित सार-वस्तु, (आत्मा के ब्रह्मत्व) की अनुभूति जन्य धारणा से ही प्राप्त होती है ! 
अतः हमें इस दुर्लभ मानव-जीवन के मूल्य को अवश्य समझना चाहिये, तथा अपनी अन्तर्निहित दिव्यता या चरित्र के उत्तम २४ गुणों को अभिव्यक्त करने,और १२ दोषों को दूर हटाने के लिये सतत प्रयत्नशील रहते हुए ऐसा पवित्र-जीवन जी कर दिखाना चाहिये-जो दूसरों के लिये उदाहरण स्वरूप हो। ऐसे पवित्र-जीवन को हम किस प्रकार गठित कर सकते हैं ? हमें इसकी शिक्षा -- आधुनिक युग में मानवजाति के तीन सच्चे मार्गदर्शक नेता'श्रीठाकुर-माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द' जिन्हें 'होली ट्रिनिटी' या पवित्र-त्रिदेव भी कहा जाता है, के जीवन और सन्देशों से ही ग्रहण करनी होगी :
जगजननी के दर्शन अर्चन से तन मन धन पावन करना है,

जगजनी की संतान सभी क्या होगा न इसका ज्ञान कभी ,
इंसान सभी भाई भाई इस धर्म को धारण करना है,

जगजननी के दर्शन.....

धन धानये भरे हो ग्राम नगर,
सुख के दिन रजनी जगर मगर,
आनंदित करना है हर घर,
गीतत हर आँगन करना है,

जगजननी के दर्शन

जो जाहा रहे वो रहे सुखी,
सूरज नर नारी चन्दर मुखी,
धरती ही नहीं गगन आंगन को तुलसी वृन्दावन करना है,

 
'मन ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण है' - अतः हमें अपने मन को अवश्य नियंत्रण में रखना होगा, अपनी इन्द्रियों को वशीभूत करना होगा, लालच को कम करते हुए भोगाकांक्षाओं को अवश्य सीमित करना होगा, इसके साथ साथ हृदय (अनन्तप्रेम) को भी विस्तृत करना होगा -खुली आँखों से ध्यान करते हुए यह समझना होगा कि कोई पराया नहीं है, सभी मेरे अपने हैं ! हमें अपने मन से समस्त स्वार्थपूर्ण विचारों, समस्त घृणा और सारी ईर्ष्या को दूर हटा देना होगा। केवल तभी हमलोग अच्छे नेता बन सकते हैं। जब हमारे मन-वचन और कर्मों से पवित्र-जीवन और आचरण अभिव्यक्त होने लगेगा केवल तभी हम एक अच्छे नेता बन पायेंगे और अपने आस-पास रहने वाले लोगों (या भावी नेताओं) को भी अनुप्रेरित करने में अपना प्रभाव डाल सकेंगे। हमारा सच्चा स्वरूप आत्मा है, हमलोग जड़ शरीर और मन ही नहीं हैं, जड़ तो हमारा दास है - हमलोग मन के ऊपर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे यही विश्वास हममें से प्रत्येक के मन रहनी चाहिए !
 जो लोग नेता बनना चाहते हैं उनको दूर-दृष्टि अवश्य रखनी चाहिये। उन्हें यह देखने में समर्थ होना चाहिये कि यदि हमलोग संघबद्ध होकर यदि लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ें तो इस प्रकार के सच्चे नेताओं के निर्मित होने में कितना समय लगेगा ? हमें अपनी चिंतन-क्षमता को विकसित कर इसकी एक स्पष्ट धारणा बना लेनी चाहिये। स्वामी विवेकानन्द विश्वास करते थे कि " भारत अतीत में बहुत महान था, किन्तु निश्चित तौर पर उसका भविष्य और भी महान होने वाला है!" वे कहते थे-" मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि भारतवर्ष शीघ्र ही उस उच्चतम श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा, जिसका स्पर्श उसने अभी तक नहीं किया है। प्राचीन ऋषियों की अपेक्षा श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा और तुम्हारे पूर्वज अपने वंशधरों की उन्नति को देखकर अत्यन्त सन्तुष्ट होंगे। भारत का भविष्य ऐसी अपूर्व महिमा से मण्डित होगा कि उसकी तुलना में भूतकाल के सारे गौरव फीके पड़ जायेंगे।" 
इस कार्य की जिम्मेवारी उन्होंने भारत के युवाओं के ऊपर ही सौंपी है। अतः हमें अपनी यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति की ओर ओर सतत ध्यान केन्द्रित रखना चाहिये और आत्म-साक्षात्कार करके यथार्थ मनुष्य बन जाना चाहिये। क्योंकि केवल तभी हमलोग अपनी आंतरिक ऊर्जा श्रोत, या आध्यात्मिक शक्ति की सहायता से समाज की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने में सक्षम नेता बन सकेंगे! और आज हमें इसी प्रकार के हजारों नेताओं की आवश्यकता है। ऐसे नेताओं की आवश्यकता केवल देश और राज्य की राजधानियों में ही नहीं है, वरन छोटे-बड़े शहरों के गली-मुहल्लों, गाँवों तथा देश के कोने कोने में है। तथा ऐसे ही नेताओं का निर्माण करना महामण्डल का उद्देश्य है! और चाहे कम परिमाण में ही सही -इस प्रकार के मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने की दिशा में अग्रसर भी है। 
यथार्थ मनुष्य बनना और बनाना - यही सर्वश्रेष्ठ समाज सेवा है! किन्तु, अभी हम लोगों ने स्वयं मनुष्य बनने के बजाये, मशीनों को ही अपना ईश्वर बना लिया है, और स्वयं उसके दास बन गए हैं। इसीलिये, हमलोग स्वयं भी एक हृदयहीन मशीन में रूपान्तरित हो गए हैं। 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के बजाये, पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के द्वारा हमने इस प्रकार के हृदय शून्य मशीनी मानवों का निर्माण किया है, जो केवल लेना ही जानते हैं, किन्तु देना नहीं जानते ! (देश से भी दामाद की तरह केवल लेना चाहते हैं, पुत्र की तरह निःस्वार्थ सेवा नहीं करना चाहतेवर्तमान शिक्षा के द्वारा हम सभी इस प्रकार के मशीनी-मानव या 'रोबोट' बन चुके हैं -जो अभी अत्यन्त स्वार्थी है, तथा भविष्य में आइ.ए.एस परीक्षा पास करके या उच्च पदों पर आसीन होकर घोर-स्वार्थी नरभक्षी राक्षस बन जाने की कामना रखते हैं ! 
यही कारण है कि आजादी के ६५ वर्ष बाद भी भारत की सामान्य जनता दुःख और दारिद्र से त्रस्त है। अभी हाल ही में उड़ीसा के कालाहाँडी में एक गरीब आदिवासी को एम्बुलेंस के आभाव में पत्नी की लाश को १० km तक कन्धों पर लाद कर पैदल चलना पड़ा है! कम से कम अब भी तो रॉबर्ट ब्राउनिंग की कविता के उस करुण-क्रंदन को चारों ओर फ़ैल जाना चाहिये, जहाँ वे कहते हैं - " Make no more giants, God! But elevate the race at once!" अर्थात हे ईश्वर ! कम से कम अब तो और अधिक राक्षसों को पैदा मत करो, बल्कि मनुष्य-जाति को अविलम्ब उन्नत करो ! 
किन्तु केवल करुण-स्वर से प्रार्थना करते रहने से ही काम नहीं चलेगा, मानव-जाति का मार्ग-दर्शक नेता बनने और बनाने को एक आंदोलन के रूप में देश के कोने कोने तक पहुँचा देना होगा। इस सोये हुए विशालकाय तिमिंगिल को जागृत करना होगा। ये सभी ऋषि मुनियों की संताने हैं, किन्तु अभी अपनी महिमा के प्रति सोये हुए हैं। इस सवा सौ अरब की जनसँख्या वाले राष्ट्र को केवल वैसे युवा ही जाग्रत कर सकते हैं, जो स्वामी विवेकानन्द के आह्वान को सुनकर स्वयं जाग चुके हैं! इसके लिये सर्वप्रथम आवश्यक कार्य है स्वयं यथार्थ मनुष्य (५ अभ्यास के द्वारा ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बन जाना, और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने की वैज्ञानिक पद्धति समझाकर नेता बनने के लिये अनुप्रेरित करना। 
इस प्रकार महामण्डल के कार्यों को करते करते हमारी चित्त-शुद्धि होगी और जैसे जैसे हमारा जीवन पवित्र होता जायेगा, हमलोग "श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परामें लीडरशिप ट्रेनिंग के उन समस्त सिद्धान्तों से अवगत होते जायेंगे, जिनके ऊपर महामण्डल का यह 'मनुष्य-निर्माण आंदोलन' आधारित है। हमें महामण्डल के आदर्श वाक्य -'BE AND MAKE' को अपने हृदय में सर्वोच्च स्थान देना चाहिये क्योंकि इससे बढ़कर कोई समाज-सेवा नहीं है, और देश तथा मानवता के लिये इससे अधिक श्रेष्ठ कोई दूसरा कार्य भी नहीं है। 
किन्तु इस 'मनुष्य निर्माण आंदोलन' के वास्तविक मर्म को भली-भाँति समझ लेना उतना आसान भी नहीं है। श्रीरामकृष्ण-नरेन्द्रनाथ वेदान्त परम्परा में आधारित इस 'मनुष्य निर्माण आंदोलन' को सम्पूर्णता की दृष्टि से देखने पर ही हमलोग यह समझ सकते हैं कि हमारा यह आंदोलन इससे जुड़े सभी कर्मियों को उन्नततर मनुष्य में रूपांतरित करके, किस प्रकार उनके अंतर्निहित पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने की दिशा अग्रसर करा देता है; इसके गूढ़ रहस्य या सारांश को समझने के लिये मानवता के इतिहास को अभी लम्बी यात्रा करनी होगी। 
मनुष्य अंतर्निहित अनंत सम्भावना ही जीवन के साथ साथ सामान्य रूप से ही पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होती जा रही है। किन्तु इस 'पूर्णत्वशब्द को सम्यक रूप से समझ लेना बहुत कठिन है , हमारे शास्त्रों (ईशावास्योपनिषद के शान्ति पाठ) में परमसत्य (ब्रह्म) को 'पूर्ण' कहा गया है -

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

'पूर्णमदः' अर्थात वह ब्रह्म पूर्ण हैं- ब्रह्म से बाहर कुछ भी नहीं है। फिर देखते हैं -'पूर्णमिदं'-इदं का अर्थ है यह (शरीर) अभिव्यक्त जगत । यह जगत भी पूर्ण है ! कैसे ? क्योंकि वही 'पूर्ण ' इस विश्व ब्रह्माण्ड में भी परिव्याप्त हैं। एवं ' पूर्णस्य पूर्णमादाय ' का अर्थ है यदि तुम स्वयं इस तथ्य की अनुभूति कर सको कि वही 'पूर्ण' या देश- कालातीत सत्य इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण कण में ओत-प्रोत है (यह जगत 'ऐज इट इज' अभी जैसा भी दीखता हो 'ब्रह्ममय' ही है), तो इस दृष्टि से -ज्ञानमयी दृष्टि से, उस पूर्ण के बाहर शेष क्या बचा ? इसी को कहा गया - ' पूर्णमेवावशिष्यते'! अर्थात अब तुम तो खुली आँखों से ध्यान करते हुए यह देखने की चेष्टा करो कि यहाँ जो कुछ भी जगत के रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है जगत (शरीर-मन आदि सापेक्षिक सत्य) भी ब्रह्म (निरपेक्ष सत्य) के सिवा और कुछ नहीं है ! 
सभी मनुष्यों के जीवन का लक्ष्य इसी पूर्णता को प्राप्त करना है -अर्थात हृदय में पहले से विद्यमान इस 'पूर्णत्व' को अभिव्यक्त करना है ! मनुष्यों के जीवन में जो सुख-दुःख आदि की घटनाएं घटती रहती हैं, वे उसे क्रमशः इसी पूर्णता तक पहुँचने में सहायता करती हैं। मनुष्य क्रमशः पूर्ण बनने की ओर अग्रसर हो रहा है- 'मैन इज मार्चिंग टुवर्ड्स परफेक्शन ' -यही है मनुष्य के जीवन की सच्ची कहानी, यही मानव-सभ्यता का सच्चा इतिहास है ।    
किन्तु साधारण मनुष्य इस बात को नहीं समझते, उनके पास सच्चे ज्ञान का आलोक नहीं पहुँच पाता है -इसीलिए उपनिषदों (बृहदअरण्यक उपनिषद-१.३.२८)। में ऋषि प्रार्थना करते हैं - 
'ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्माऽमृतं गमय। 
हे प्रभु! मुझे अन्धकार से प्रकाश की और ले चलो, अचैतन्य अवस्था (बेहोशी या अचेतावस्था) से मुझे सत्य के जगत में ले चलो, मृत्यु से अमरता की ओर मेरी गति हो। यही है क्रमशः उन्नततर मनुष्य बनने का मार्ग, इसी उन्नति के मार्ग पर हमें स्वयं भी चलना होगा, और अपने साथ साथ दूसरों को भी ले चलने की चेष्टा करनी होगी। 
[गीता-उपनिषद परम्परा, या अवतार-जिज्ञासु वेदान्त परम्परा में ] यह देखा गया है कि युगों युगों से इस धराधाम पर भगवान स्वयं मनुष्य शरीर धारण करके अवतरित होते रहे हैं, तथा साधारण जिज्ञासु शिष्यों या भक्तों को इसी चिरस्थाई या शाश्वत उत्थान के पथ पर आरूढ़ करा देने समर्थ होते हैं , इसीलिये उनको 'युग-नायक' या मानवजाति का सच्चा नेता कहा जाता है।
परन्तु, आज 'नेता' शब्द सुनते ही किसी राजनैतिक नेता का चेहरा सामने आ जाता है, और मन वितृष्णा से भर उठता है। किन्तु ऐसे (१५० दागी) नेता एक अलग प्रकार के अलीबाबा टाइप नेता, या गिरोह के सरदार होते हैं, नेता नहीं होते हमलोग महामण्डल में जब नेता के विषय में चर्चा करते हैं, तो उसका तात्पर्य 'विष्णुसहस्रनाम' में विष्णु का एक नाम है 'नेता'! उससे है; और उन्हीं के जैसे किसी नेता का चेहरा या जीवन को अपने सामने रखना होगा। जैसे बुद्ध, ईसा, मोहम्म्द, श्री चैतन्य और श्रीरामकृष्ण जो आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार हैं -यह बात उन्होंने नरेन्द्रनाथ से स्वयं कही थी ! हममें से प्रत्येक के मन में यह इच्छा रहना उचित होगा कि -मैं चाहे कुछ ही अंशों में सही पर उन्हीं के जैसा नेता बनूँगा! यही है लीडरशिप की सच्ची अवधारणा। 
अधिक धन होने और ऊँची डिग्री: हममें से प्रत्येक व्यक्ति को, चाहे छोटे से अंश के रूप में ही सही वैसा नेता बन जाने की चाहत अपने मन में अवश्य रखनी चाहिये। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि न तो कोई घोर दरिद्र व्यक्ति और न कोई अत्यधिक धनी-मानी व्यक्ति ही समाज की सच्ची भलाई कर सकते हैं। उसी प्रकार न तो कोई उच्च डिग्री प्राप्त तथाकथित रूप से अत्यन्त शिक्षित व्यक्ति और न कोई घोर अज्ञानी व्यक्ति ही समाज की सच्ची भलाई कर सकते हैं। धन और शिक्षा की दृष्टि से समाज के निम्नतम स्तर पर रहने वाले मनुष्य और न समाज के उच्चतम स्तर पर रहने मनुष्य ही कभी समाज की सच्ची भलाई कर सकते हैं; बल्कि इन दोनों अतियों में मध्य में रहने वाला व्यक्ति ही समाज को सही दिशा देने का कार्य कर सकता है। क्योंकि दोनों प्रकार के अतियों में जीने वाले व्यक्ति कभी पूर्णतया निःस्वार्थी नहीं बन सकते हैं। क्योंकि सामान्य तौर से अत्यधिक धन और अत्यधिक डिग्रियां किसी भी मनुष्य को अहंकार या 'मद' से भर देता है।   
किन्तु जिनको श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द उपनिषद परम्परा में प्रशिक्षण प्राप्त होता है, वे ५ अभ्यास की पद्धति को सीखकर 'मद' उलटकर 'दम' में परिवर्तित कर लेते हैं। महाभारत में कहा गया है -कोई राजा जब 'मद' या अपनी भोगाकांक्षाओं को आत्मसंयम के द्वारा 'दम' में रूपांतरित कर लेता है, तभी उसके हृदय में लोक-कल्याण की इच्छा प्रेम बनकर प्रवाहित होने लगती है। 
यदि हमारे हृदय में अनन्तप्रेम का एक छोटा सा कण भी उपस्थित न हो, तो हमारे मन में बिना किसी स्वार्थ के दूसरों की सहायता करने या निष्काम सेवा करने की शुभ और अत्यन्त महान इच्छा का उदय हो ही नहीं सकता। इसी प्रेम से अनुप्रेरित होकर स्वामी विवेकानन्द ने मद्रास के एक भाषण में भारतवर्ष के कल्याण के लिये जिस योजना को भारत के युवाओं के सामने प्रस्तुत किया था, उसका शीर्षक है 'My Plan of Campaign' अर्थात 'मेरी क्रन्तिकारी योजना'! और महामण्डल विगत ५० वर्षों से उसी कार्य-योजना को क्रियान्वित करने के लिये प्रयासरत है
 आखिर क्या थी वह योजना ? यही कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को महापुरुष या उन्नततर मनुष्य में रूपांतरित कर दोस्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " परिवर्तन अचानक नहीं हो सकते (मन को एक ही दिन में वशीभूत नहीं किया जा सकता !) इस समय प्रचलित धर्म को धीरे धीरे (चरित्र-निर्माण प्रशिक्षण द्वारा) उच्चतम आदर्श मनुष्य (ब्रह्मविद ऋषि ) तक पहुँचा देना ही एक मात्र उपाय है। क्योंकि सनातन धर्म का प्रधान सिद्धान्त ही हैक्रम-विकासवाद! हमारे धर्म का मूल तत्व यही है कि इन सब नाना प्रकार की अवस्थाओं (८४ लाख) में से होकर ही आत्मा उच्चतम लक्ष्य पर पहुँचती है। (परमसत्य और सापेक्षिक सत्य को स्पष्ट रूप से देखने वाला ऋषि -ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने और बनाने में समर्थ नेता) अतः ये सभी अवस्थायें आवश्यक और मनुष्य बनने में हमारी सहायक हैं ! भला कौन इनकी (वाराहावतार और नरसिंह अवतार की)  निन्दा कर सकता है ? आजकल मूर्ति-पूजा को गलत बताने की प्रथा सी चल पड़ी है, और सब लोग बिना किसी आपत्ति के उसमें विश्वास भी करने लग गये हैं मैंने भी एक समय ऐसा ही सोचा था और उसके दण्डस्वरूप मुझे ऐसे व्यक्ति के चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी, जिन्होंने सब कुछ मूर्ति-पूजा के द्वारा ही प्राप्त किया था, मेरा अभिप्राय श्रीरामकृष्ण परमहंस से है।   
यदि मूर्ति-पूजा के द्वारा श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे महापुरुष (नेता) उत्पन्न हो सकते हैं, तब तुम क्या पसन्द करोगे सुधारकों का धर्म (कम्युनिस्ट), या मूर्ति-पूजा ? मैं इस प्रश्न का उत्तर चाहता हूँ। यदि मूर्ति पूजा के द्वारा इस प्रकार के श्रीरामकृष्ण परमहंस उत्पन्न हो सकते हों, तो और हजारों मूर्तियों की पूजा करो। प्रभु तुम्हें सिद्धि दें। जिस किसी भी उपाय से हो सके इस प्रकार के महापुरुषों (नेताओं) का निर्माण करो ! और इतने पर भी मूर्ति-पूजा की निंदा की जाती है ! क्यों? यह कोई नहीं जानता। शायद इसलिये कि हजारों वर्ष पहले किसी यूहीदी ने अपनी मूर्ति को छोड़कर और सब मूर्तियों की निंदा की थी ? "५/११३     
[ If such Ramakrishna Paramahamsas are produced by idol-worship, what will you have — the reformer's creed or any number of idols? I want an answer. Take a thousand idols more if you can produce Ramakrishna Paramahamsas through idol worship, and may God speed you! Produce such noble natures by any means you can. Yet idolatry is condemned! Why? Nobody knows. Because some hundreds of years ago some man of Jewish blood happened to condemn it?]
स्वामी जी की योजना है कि युवाओं को इस प्रकार से प्रशिक्षित किया जाय कि शारीरिक,मानसिक तथा आर्थिक दृष्टि उन्नत मनुष्य बनने के साथ ही साथ उनके हृदय को इतना उदार बना दिया जाय कि उसमें निजी भोगाकांक्षा या स्वार्थपरता के लिये थोड़ी सी भी जगह न रहे! क्षणिक-सुख भोगने की हल्की सी गन्ध में उसके हृदय शेष नहीं बचे ! स्वस्थ शरीर और सबल मन के साथ साथ फूलों से भी कोमल और बज्र से भी कठोर हृदय विकसित बनाने के लिए प्रशिक्षण देना चाहिए। भगिनी निवेदिता को 3 नवम्बर 1897 को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था, "अत्यधिक भावुकता कार्य में बाधा उत्पन्न करती है, 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि' (वज्र से भी कठोर और पुष्प से भी कोमल) हमारा मूलमंत्र होगा।" 
वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि ।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विक्षातुमर्हति ॥ 
 
 महापुरुषों का हृदय अति विशिष्ठ प्रकार से गढ़ा हुआ होता है(बाहर से) वज्र जैसे कठोर और भीतर से पुष्प जैसा कोमल होता है। (इसी विशिष्टता के लिये ही वे समाज में प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध 'नेता' होते हैं।)    
ऐसे लोकोत्तर अंतःकरण को कौन समझ सकता है ?

वे स्वयं को उन्नततर मनुष्य में रूपांतरित करने के संकल्प पर अटल रहने में आवश्यकतानुसार वज्र के समान कठोर होते हैं, किन्तु दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करते समय, उनकी असमर्थता को देखकर उनके प्रति प्रेम और सहानुभूति का अनुभव करने में पुष्प के समान कोमल भी हो जाते हैं, (मुर्गा बनने को नहीं कहते, कान पकड़ कर चाटा मारने का भी हुक्म नहीं सुनाते हैं)
प्रत्येक नेता के हृदय में यह अति विशिष्ट आध्यात्मिक शक्ति अवश्य होती है (श्रीठाकुर में अनंत थी काली-मंदिर की छत पर चढ़ कर युवाओं को ऐसा ही 'हृदयवान-नेता' बनने का आह्वान किये थे, जो आजतक युवाओं को आकर्षित कर रहा है !) हमलोग जिस समाज में रहते हैं, वहाँ हमारे आस-पास बहुत से ऐसे युवा रहते हैं -जिन्हें इन सब बातों बिल्कुल अनभिज्ञ रखा गया है। उन्होंने कभी सुना ही नहीं है कि मनुष्य में अंतर्निहित अनंत संभवनाओं तथा मनुष्य जीवन के लक्ष्य को समझ लेने से उन्हें कितना बड़ा लाभ हो सकता है-उनका मनुष्य जीवन भी धन्य हो सकता हैवे नहीं जानते कि जीवन क्या है ? मनुष्य-जीवन को देव-दुर्लभ क्यों कहा जाता है ? मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ? इसीलिये न तो मनुष्य जीवन के बारे में उनका अपना कोई दृष्टिकोण है, और न उन्होंने अभी तक अपने जीवन का कोई लक्ष्य ही निर्धारित किया है। 
अतः हमलोग अपने आस-पास रहने वाले युवा भाइयों को नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं । हमलोग उनके पास जाकर कहेंगे- भाइयों आओ हमारे पाठचक्र और युवा-प्रशिक्षण शिविर में, आकर देखो अपने घर-परिवार में रहते हुए भी कैसे, 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द उपनिषद परम्परा' में अपने तीनों प्रमुख अवयवों -शरीर, मन और हृदय को विकसित करके यथार्थ मनुष्य बना जा सकता है !
शायद तुम नहीं जानते कि मनुष्य जीवन कितना मूल्यवान है, शायद तुम नहीं जानते कि इस मानव-देह को प्राप्त करके इसका सर्वोत्तम उपयोग कैसे किया जाता है ! तुम यदि अपनी पढाई-लिखाई करने के साथ-
साथ अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित करने का ५ अभ्यास करते रहो, तो अपने जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकोगे और अपने घर-परिवार और देश के लिये बहुत बड़ी सम्पदा बन सकते हो। अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर लेने के बाद ही हमलोग परिवार, समाज और देश की सर्वोत्तम सेवा करने के योग्य बन सकते हैं। इसीलिये चरित्रवान मनुष्य बनना और बनाना सबसे उत्कृष्ट समाज सेवा है। शायद तुम इस बात को नहीं समझते कि मनुष्य शरीर प्राप्त होने वाला सर्वश्रेष्ठ लाभ क्या है ? ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हुआ जा सकता है ! हमलोग भी मानवजाति के महान नेताओं -बुद्ध, और होली ट्रिनिटी की तरह अपने 'सम्पूर्ण जीवन' को दूसरों के कल्याण के लिए न्योछावर करके अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं ! हमलोग वैसे नेता बन सकते हैं - और हममें से प्रत्येक के मन में मानवजाति का सच्चा नेता बनने की महत्वाकांक्षा अवश्य रहनी चाहिये ! इसी को अपने जीवन का लक्ष्य बना लेना चाहिये ! इससे बढ़कर और कोई सौभाग्य की बात नहीं है। यही है मनुष्य जीवन का चरम उद्देश्य या लक्ष्य !
भागवत में जब तरुण श्रीकृष्ण अपने गोप मण्डली के बीच लीडरशिप या नेता की भूमिका निभा रहे थे, उस समय उनके मुख से एक बहुत सुन्दर श्लोक निकला है, (श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध के २२ वें अध्याय में श्लोक ३२-३५ ) एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी और ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये । ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष के नीचे गौएँ विश्राम कर रही थीं। उन सबके  ऊपर वृक्ष के पत्ते छाता का काम कर रहे थे। वृक्षों को पशुओं पर छाया करते देख किशोर श्रीकृष्ण ने ग्वाल बालकों का नेतृत्व करते हुए कहा - 
  
पश्यतैतान्महाभागान्परार्थैकान्तजीवितान् ।
वातवर्षातपहिमान्सहन्तो वारयन्ति नः ॥
अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥

‘मेरे प्यारे मित्रों! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला - सब कुछ सकते हैं, परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं । मैं कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं,अर्थात इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है। जैसे कोई सज्जन पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष भी लोगों को खाली हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं।
वृक्ष किस प्रकार दूसरों के कल्याण में अपना सबकुछ न्योछावर कर देते हैं? यह सहब विस्तारपूर्वर समझाते हुए श्री कृष्ण आगे कहते हैं-
पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।
गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान्वितन्वते ॥

एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥

अर्थात् ये वृक्ष पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, छाया, मूल (जड़), वल्कल (छाल), दारू या लकड़ी, गंध, निर्यास या गोंद, भस्म (राख), अस्थि (कोयला), तोक्म (बीज) आदि पदार्थों के द्वारा हमारा उपकार करते हैं। इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' अपने शब्दों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के द्वारा, और यदि आवश्यक हो तो प्राणैः - अपने जीवन का बलिदान या अर्थ का त्याग करके भी केवल सद्कर्म ही करना चाहिये। 
इतने सरल शब्दों में वे अपने गाय चराने वाले मित्रों के नेता के रूप में अपने भाइयों को मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या है, उसे समझा रहे हैं। कहते हैं, मेरे प्यारे मित्रों! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सफलता इतने में ही है-  कि जहाँ तक हो सके-इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' अपने शब्दों या विचारों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के विवेक-विचार से, अर्थ का त्याग करके, और आवश्यकता पड़ने पर- प्राणैः, अर्थात अपने प्राणों की आहुति देकर भी केवल
ऐसे  कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरों की भलाई हो। यही तो है संसार के समस्त धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, या धर्म का वास्तविक रहस्य ! जैसा कि महाभारत में कहा है - 
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।।
 - हे जाजले ! मुझे सनातन धर्म सार-तत्व का पता चल गया है । वह क्या है ? जो व्यक्ति सर्वभूतों के सुहृत हैं और निरन्तर समस्त जीवों का हित करने में लगे रहते हैं, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है। जो लोग सच्चे धर्मज्ञ हैं, जो सनातन या प्राचीनतम धर्म को सर्वभूत के लिये हितकर रूप में जान लेते हैं, (जैसे जाजले ऋषि जानते थे) वे अपने निकट आने वाले मनुष्यों को भी यही सनातन धर्म समझाते हैं -अर्थात 
सभी मनुष्यों के लिए मंगल कामना करने और सभी मनुष्यों से प्रेम करने की ही शिक्षा देते हैं (वे कभी आतंकी  जाकिर नाईक के जैसा किसी को सुसाईड बॉम्बर बनने की सीख नहीं दे सकते हैं।)
जीवन को सार्थक बनाने के विषय में स्वामी विवेकानन्द भी हमें ठीक ऐसी ही सलाह देते हैं । वे कहते हैं- "यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोगों का जीना तो मुर्दों की तरह जीने जैसा है। "  
जब सनातन धर्म के इस गूढ़ रहस्य को हमलोग अच्छी तरह से समझ लिये हैं, तब हमारे आस-पास जितने युवा भाई रहते हैं, उनके हृदय में भी धर्म-ज्ञान की इस ज्योति को प्रज्ज्वलित करने का प्रयत्न करना चाहिये।
किन्तु दूसरों के मन को परिवर्तित करने का कार्य वही व्यक्ति कर सकता है, जिसने स्वयं अपने मन को को वशीभूत कर लिया हो! क्योंकि सच्चे नेता का कार्य दुर्बल मन को बलशाली मन में परिवर्तित करने का ही होता है। साधारण ढंग की समाज सेवा -चन्दा माँगकर या अपने धन से भोजन-वस्त्र आदि से बाढ़ पीड़ितों तक या जरूरत-मन्दों तक पहुँचा देने का कार्य बहुत सी समाजसेवी संस्थायें और सरकारी एजेंसियाँ करती ही रहती हैं। और ऐसा करना बहुत अच्छा भी है, किन्तु सबसे उत्कृष्ट समाज सेवा है, दूसरों के मन को उन्नत बना देना। ताकि हमारे युवा भाई उच्च और महान विचारों को आत्मसात करके स्वयं यथार्थ मनुष्य बन जायें और दूसरों को भी 'मनुष्य' बनने में सहायता कर सकें।

स्वामी जी ने इसी ढंग की समाज-सेवा करने की प्रेरणा दी है। वे कहते हैं -" भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा।
सबसे पहले हमें यही करना होगा। और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्रों के महान सत्यों को -(चार महावाक्यों को) दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा -वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान कोई दूसरा कर्म ही नहीं है। महर्षि व्यास ने कहा है, " इस कलियुग में मनुष्यों के एक ही कर्म शेष रह गया है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं का कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही एकमात्र कर्म है। और दानों में धर्मदान, अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है। "५/११६ पराशरस्मृतिः १/२३ में भी कहा गया है -  
तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानं उच्यते ।
द्वापरे यज्ञं एवाहुः दानं एव कलौ युगे ।।
 
विवेकानन्द कहते हैं - " इसीलिये, मेरे मित्रो, मेरा विचार है कि मैं भारत में कुछ ऐसे शिक्षालय (युवा प्रशिक्षण शिविर) स्थापित करूँ, जहाँ हमारे नवयुवक अपने शास्त्रों के ज्ञान में दीक्षित होकर भारत तथा भारत के बाहर अपने धर्म का प्रचार कर सकें। ' मनुष्य' , केवल मनुष्य भर चाहिये। बाकि सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धा-सम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जायें, तो संसार का कायाकल्प हो जाय। इच्छाशक्ति संसार में सबसे बलवती है। उसके सामने दुनिया की कोई चीज नहीं ठहर सकती; क्योंकि वह भगवान -साक्षात श्रीठाकुर जी के पास से आती है। विशुद्ध और दृढ़ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है! क्या तुम इसमें विश्वास नहीं करते ? सबके समक्ष अपने धर्म के सनातन सत्यों का प्रचार करो, संसार इसकी प्रतीक्षा कर रहा है!" ५/११८
महामण्डल यही चाहता है कि स्वामीजी देखें कि हमने उनके परामर्शों को सुना है। १२ राज्यों में अपने ३१५ युवा पाठचक्र और युवा प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से मनुष्य बनने और बनाने के कार्य में विगत ५० वर्षों से लगा हुआ है। स्वामी जी का अनुयायी होने का यह अर्थ नहीं है कि हम उनके जन्म-दिवस को बड़े धूम-धाम से मनाते रहें और बड़े नामी-गिरामी लोगों को बुलवाकर जनता को भाषण पिलवा दिया जाय। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम जगह-जगह स्वामी जी की मूर्ति या मन्दिर स्थापित करते रहें। उनका अनुयायी बनने का अर्थ है, ५ दैनन्दिन अभ्यासों का पालन करके अपने जीवन को सुंदर ढंग से गठित कर यथार्थ मनुष्य बन जाना। और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने के लिये उनके हृदय को उदार और सुंदर विचारों से परिपूर्ण कर देने में सक्षम नेता बन जाना ! 
आज भारत में इसी प्रकार के नेताओं की आवश्यकता सैकड़ो-हजारों में है। महामण्डल इसी प्रकार के नेताओं का निर्माण करने का आंदोलन है। इस वर्ष यह आंदोलन अपना स्वर्ण जयंती वर्ष -५० वाँ वर्ष मना रहा है। किन्तु किसी राष्ट्र के जीवन में केवल ५० वर्ष की क्या गणना है ? भारतवर्ष को केवल आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा ही पुनरुज्जीवित किया जा सकता है। और एक बार फिर से आध्यात्मिकता के प्रचण्ड ज्वार के फाटक को श्रीठाकुर देव ने खोल दिया है। और अपने हृदय को विस्तृत और उदार बना लेना ही आध्यात्मिक मनुष्य बन जाना है। स्वार्थपरता, और भोगाकांक्षा पर संयम रखने के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है। सम्पूर्ण मानवता के प्रति प्रेम और परहित में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने के सिवा आध्यात्मिकता और कुछ नहीं है। 
अतः आइये, हम सभी लोग आध्यात्मिक मनुष्य बनें, हम सभी पूर्ण हृदयवान मनुष्य बनें ! आइये हमलोग अपने आस-पास रहने वाले सभी युवा भाइयों को इसी प्रकार का आध्यात्मिक मनुष्य बन जाने के लिए अनुप्रेरित करें। हमलोगों को स्वामीजी के आदेशानुसार " हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो अपूर्व सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा, ताकि ये सत्य (४ महावाक्य-५ अभ्यास) दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें-उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे वेदान्ती सिद्धांत धधक उठें ! सभी को इन सब शास्त्रों में निहित उपदेश सुनाने में समर्थ नेताओं का निर्माण करने के लिए ही महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा है! " अतः  इसी कार्य को (पहले सुनने -फिर मनन करने और उसके बाद निदिध्यासन) करने में समर्थ नेता हमें स्वयं बनना है और दूसरों को भी ऐसा ही मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन जाने के लिए अनुप्रेरित करना है !

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