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रविवार, 19 अगस्त 2018

वेदान्त की कहानियाँ -1 [ स्वामी विश्वाश्रयानन्द एवं स्वामी अमरानन्द द्वारा कथित]

बंगला भाषा में 'गल्पे-वेदान्त' के प्रकाशक का निवेदन 
यदि अद्वैत वेदान्त के माया (शक्ति या Energy) आदि जैसे गूढ़ सिद्धान्तों को आचार्य शंकर, श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द तथा अन्य सत्यद्रष्टा (ब्रह्मवेत्ता) मनीषियों के जीवन की अनेक घटनाओं एवं उनके द्वारा सरल भाषा में कथित कहानियों के माध्यम से समझने की चेष्टा की जाय, तो वेदान्त के कठिन से कठिन सिद्धान्त भी अत्यन्त सहज रूप से बोधगम्य हो जाते हैं।
आम पाठकों के बीच,कथा कहानियों के माध्यम से, धर्म में सन्निहित परम उदार सत्यों एवं उत्कृष्ट शिक्षाओं का पचार-प्रसार करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने भारत में बोली जाने वाली विभिन्न भाषाओँ में एक ' कहानी-पुस्तक ' लेखन प्रतियोगोता का आयोजन किया था। 1960 के दशक में भारत सरकार द्वारा मनोनीत निर्णायक मण्डली ने रामकृष्ण मठ और मिशन के वरिष्ठ सन्यासी स्वामी विश्वाश्रयानन्द द्वारा  बंगला भाषा में लिखी गयी इसी पुस्तक 'गल्पे-वेदान्त' को सर्वोत्तम पुस्तक घोषित किया था। सरकारी विज्ञप्ति में यह भी कहा गया था कि इस सर्वत्तम घोषित पुस्तक का प्रकाशन भी उनके ही द्वारा होगा। किन्तु बाद में उन्होंने किसी अपरिहार्य कारण (शायद तथाकथित क्षद्म धर्मनिरपेक्षता के कारण) से इस पुस्तक के प्रकाशन को, अनिश्चित काल तक के लिए स्थगित रखने का निर्णय लिया था। किन्तु तात्कालीन सरकार ने लेखक को स्वयं इस पुस्तक को प्रकाशित करने की अनुमति देने की कृपा अवश्य प्रदान की थी।   
वहीँ भारत सरकार की विज्ञप्ति में सर्वोत्तम निर्वाचित पुस्तक के रूप में 'गल्पे वेदान्त ' का नाम प्रकाशित हो जाने के कारण, यह पुस्तक प्रकाशित होने के पहले ही विख्यात हो चुकी थी। बहुत से बंगला भाषी वेदान्त दर्शन के जिज्ञासु व्यक्तियों में इस पुस्तक को पाने का विशेष आग्रह दिखाई दे रहा था। इसीलिए बहुत प्रकार की असुविधाओं के रहने पर भी स्वामी विवेकानन्द निर्दिष्ट सेवा-धर्म से अनुप्रेरित होकर श्रीभगवान के चरणों में इसके फल को समर्पित करते हुए यह पुस्तक प्रकाशित हो रहा है। किमधिकमिति। 
स्वामी सन्तोषानन्द ,प्रकाशक, महालया (Bangabda) 1370. 
[तदनुसार -17 Sept. 1963] 
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अंग्रेजी भाषा में गल्पे-वेदान्त के भाषान्तर के प्रकाशक का निवेदन एवं भूमिका 
मूल बंगला पुस्तक 'गल्पेवेदान्त' के आधार पर ही वर्तमान अंग्रेजी पुस्तक 'Stories From Vedanta' की रचना हुई है। इस पुस्तक का स्वामी अमरानन्द द्वारा किया हुए अंग्रेजी भाषान्तर प्रकाशित हो रहा है। किन्तु इस पुस्तक को 'गल्पे वेदान्त' का अंग्रेजी अनुवाद कहना उचित नहीं होगा, क्योंकि इस पुस्तक में दी गयी कहानियाँ मूल बंगला पुस्तक से भिन्न क्रम में रखी गयीं हैं एवं मूल कहानी में कुछ परिवर्तन एवं नये परिशिष्ट भी जोड़े गए हैं।
लेकिन अपने-आप को बौद्धिक रूप से उन्नत (intellectually advanced) समझने वाले लोगों को भी वेदान्त  के सिद्धान्तों को बहुत सावधानी के साथ समझने की चेष्टा करनी चाहिये। क्योंकि इसमें वर्णित निर्भीक और सूक्ष्म तात्त्विक-ज्ञान अपने उच्चतम स्वरुप में किसी असतर्क मनुष्य के मन में घबड़ाहट उत्पन्न कर सकते हैं, अथवा उनके सिर में चक्कर भी आ सकता है।
सभी युवा छात्र भले ही इसी समय इस पुस्तक में वर्णित कहानियों और उपाख्यानों के दूरगामी प्रभावों को  समझ सकते हों या नहीं, किन्तु यदि वे केवल उनमें निहित मूल सिद्धान्तों को भी पकड़ सकेंगे तो इतने से ही उनका धर्मिक दृष्टिकोण (religious outlook) निश्चित रूप से उदार बन जायेगा। क्योंकि इन कहानियों में वे पायेंगे कि, तार्किकता (rationality) का त्याग किये बिना भी विभिन्न धर्मों के मौलिक सुझावों (fundamental propositions) को स्वीकार करना सम्भव है।
और यदि इन्हें पढ़कर कोई थोड़ा चौंक गया या उसकी मोहनिद्रा थोड़ी भंग भंग हो गयी हो, तो वे भविष्य में वे वेदान्त का अधिक उन्नत अध्यन करने की पात्रता भी अर्जित कर सकेंगे। 
हम 'रामकृष्ण मिशन स्टूडेंट्स होम, बेलघरिया ' के ऋणी हैं, कि उन्होंने कृपापूर्वक अंग्रेजी भाषी पाठकों के कल्याण के लिए अपनी मूल पुस्तक को इस प्रकार उपयोग करने की अनुमति प्रदान की है। हमलोग श्री पीटर श्नाइडर (Peter Schneider) के भी आभारी हैं, जिन्होंने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि को तैयार करने तथा सम्पादित करने में अपना सहयोग दिया है। 
Publisher  
Kolkata 
4 November 2002
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वेदान्त परिचय 

सर आइजैक न्यूटन (Sir Isaac Newton) ने १७ वीं शताब्दी के अंतिम भाग में कुछ महान वैज्ञानिक नियमों का आविष्कार किया था। तब से लेकर आज तक हुई वैज्ञानिक प्रगति ने शिक्षित लोगों को भौतिक जगत के गुप्त रहस्यों को बिल्कुल फ्रंट सीट पर बैठकर स्पष्ट रूप से देखने की क्षमता प्रदान की है। किन्तु इसके साथ ही साथ, इनमें से कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ईश्वर (माँ जगदम्बा) और आत्मा की ओर से अपना मुख मोड़ लिया है, तथा अपनी पीठ को उनकी ओर घुमा दिया है। विशेष रूप से, आध्यात्मिक सत्यों (वेदान्त के चार महावक्यों) के प्रति ऐसी दिखावटी चिढ़ (seeming allergy) 19वीं शताब्दी के अंत और 20 वीं की शुरुआत में अधिक प्रचलित हुई थी।
क्योंकि उस अवधि में न्यूटन के सिद्धान्तों पर निर्मित वैज्ञानिक इमारत में टेक्नोलोजी (प्रौद्योगिकी) की प्रशाखायें भी विकसित हो चुकी थीं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उस समय मोटरकार का व्यावसयिक निर्माण प्रारम्भ हो गया था, और हवाई जहाज के आविष्कार पर कार्य चल रहा था। किन्तु तभी, विज्ञान के कार्यक्षेत्र में एक दूसरा प्रतियोगी भी प्रविष्ट हो गया।
पिछली शताब्दी के पहले दशक में अल्बर्ट आइंस्टीन नाम के एक व्यक्ति ने दो शोधपत्र प्रकाशित किए, इन दोनों शोधपत्रों ने न्यूटनियन भवन की नींव को हिलाकर रख दिया। रेडिएशन (विकिरण) के विषय में उनकी अभिधारणा तथा रेडियोधर्मी पदार्थों की ओर देखने के उनके तरीके ने दूसरे वैज्ञानिकों के लिए क्वांटम भौतिकी के सिद्धान्तों पर कार्य करने के मार्ग को 20 वर्षों के भीतर ही प्रशस्त कर दिया था
तत्पश्चात अगले 20 वर्षों के भीतर, सूक्ष्माणु जगत के प्राथमिक कणों की खोज तथा प्रति-चक्रीय ब्रह्माण्ड के विचार (the idea of the anti-universe) ने वैज्ञानिकों को ब्रह्माण्ड की न्यूटोनियन व्याख्या को पूर्ण रूप से परित्याग करने के लिये विवश कर दिया। भौतिक विज्ञानियों को यह बात समझ में आ गयी कि उनके द्वारा आविष्कृत नियम (Laws) तो दिमाग के भीतर ही सृजित हुए हैं। उन्होंने यह समझना शुरू कर दिया कि चेतना (होश-consciousness) के साथ यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक परस्पर संबद्ध एवं अखण्ड वस्तु है। [ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं ]
           दूसरी तरफ दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, यूरोप और अन्य जगहों में अभूतपूर्व विपत्तियों के झटकों ने प्रेम, समानता और भाईचारे जैसे कुछ प्राचीन मूल्यों को पुनर्जीवित कर दिया। पाश्चात्य दार्शनिक एवं विद्वान क्रमशः इस विचार पर एकमत होते गए कि ये जीवन-मूल्य उस सत्यानुभूति पर आधारित हैं, जिसे उन आध्यात्मिक शिक्षकों (mystics) ने प्राप्त किया था, जो अलक्ष्य या अतीन्द्रिय चेतना (Imperceptible consciousness) तक पहुँच चुके थे। इस प्रकार भौतिक शास्त्रियों के तेज कदमों, तथा विश्वयुद्ध के घातक परिणामों दोनों एक साथ संयुक्त होकर उच्चतम मानव मनों में मानव चेतना (human consciousness) तथा इसमें अंतर्निहित संभावनाओं को जानने की जिज्ञासा को जाग्रत कर दिया।
जिसके फलस्वरूप भारतीय वेदान्त कई पाश्चात्य हृदयों पर विजय प्राप्त करना प्रारम्भ कर दिया। वास्तव में यह मानवजाति में एक नई पीढ़ी का प्रारम्भ था, यह नयी पीढ़ी विवेक-प्रयोग ऊर्जा (Energy) से युक्त थी तथा भारतीय दर्शन के सारतत्व (quintessence) 'वेदान्त' में भी गहरी रूचि रखती थी। इस नई पीढ़ी के अग्रदूत, वेदान्त के मसीहा का नाम था स्वामी विवेकानन्द ! 
स्वामी विवेकानन्द जब मुम्बई से अमेरिका के लिए रवाना हुए, उसके लगभग आधी सदी पहले ही पर्ल हार्बर (मोती बन्दरगाह) पर आक्रमण होने के कारण शक्तिशाली संयुक्त राष्ट्र पर भी धुंधलापन (gloom) छा चुका था। उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैण्ड में वेदान्त का प्रचार किया, उनके शिक्षण का मुख्य विषय था, शारीरिक और मानसिक दोनों धरातल पर-सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आध्यात्मिक एकता (spiritual oneness of the whole universe !)। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की थी कि नैतिकता का जन्म पैगंबरों के संरक्षण में नहीं होता, नैतिकता को वास्तविक संरक्षण उस अनन्त सत्य से प्राप्त होता है जिसे वैदिक ग्रंथों में आत्मा कहा गया है। उन्होंने कहा था -"तुम और मैं केवल भाई ही नहीं हैं, जैसा कि मुक्ति के लिए मनुष्य को संघर्ष करने की प्रेरणा देने वाले साहित्य में प्रचार किया जाता है, -वास्तव में तुम और मैं बिल्कुल एक और अभिन्न हैं !" 1 /189 उन्होंने मनुष्यजाति को यह चुनौती दी कि तुम स्वयं अपने अनुशासित मन (एकाग्रता) द्वारा यह सत्यापित करके देख लो कि वेदान्ती सत्य (चार महावाक्य) अनुभवजन्य (empirical) सिद्ध होते हैं या नहीं !   
१७ वीं शताब्दी में शहजादा दारा शिकोह (बादशाह शाहजहाँ जिसने ताजमहल बनवाया था, का बड़ा बेटा) ही वह पहला व्यक्ति था जिसने कुछ उपनिषदों का अनुवाद किसी गैर-भारतीय भाषा (पर्सियन भाषा) में करवाया था। यह उसके द्वारा सम्पादित फ़ारसी भाषा में लिखे उपनिषद के संस्करणों का यूरोपीय भाषा में किया गया अनुवाद ही था, जिसके कारण यूरोप को पहली बार वेदान्त के मूल ग्रंथ उपलब्ध हो सके थे। किन्तु, जिस आंदोलन ने वेदान्त दर्शन (अर्थात आध्यात्मिकता) को पाश्चात्य जगत के गैर-हिन्दू समुदाय (non-Hindu community of the West ?) के समक्ष जीवन्त एवं प्रभावकारी (असर डालने वाले-something living and potent) व्यावहारिक वेदान्त के अनुकरणीय रूप में प्रस्तुत कर दिया था; उस वेदान्तिक आंदोलन के अग्रदूत/नेता विवेकानन्द और उनके अनुयायी ही थे !  
अतीतकाल में ऋषियों, विद्वानों और मनीषियों ने भी वेदान्त के ऊपर चर्चा की थी, किन्तु स्वामी विवेकानन्द के अवतरित होने से पहले के मानवजाति के इतिहास में, चन्द विद्वान् लोग  इसके ऊपर चर्चा किया करते थे; तथा इक्के-दुक्के अरण्यों, मठों, गुफाओं में रहने वाले संन्यासी, सूफ़ी, बाउल आदि- MYSTICS (या रहस्यवादी /वुड बी लीडर्स ?) इसे जीते थे, और कोई कोई-कोई विलक्षण व्यक्ति ही इस पर शास्त्रार्थ करने के योग्य होते थे। इसीलिए विवेकानन्द के अवतरण के पहले तक वेदान्त के सूक्ष्म सत्य (चार महावाक्यों के अपरोक्षानुभूति करने की व्यावहारिक पद्धति) सामान्य जनता के लिए दुश्प्राप्य, मायावी (elusive कभी हाथ न आने वाले) ही साबित हो रहे थे! 
अपनी शिक्षाओं के गूढ़ तत्वों को साधारण जनता को समझाने तथा उनके जीवन पर असर डालने के उद्देश्य से 'प्राचीन भारत' के ऋषि-मुनि तथा बुध्द, ईसा और रामकृष्ण जैसे अवतार (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) आदि, अक्सर मनुष्यों के दैनन्दिन जीवन में प्रयुक्त होने वाले कहावतों, किस्से-कहानियों तथा दृष्टान्तों का प्रयोग किया करते थे। वेदान्त साहित्य में या उपनिषदों में इस प्रकार के अनेकों दृष्टान्त और बोध-कथायें भरी पड़ी हैं। क्योंकि  साधारण मनुष्यों के लिए ऐसी उपमाओं या जीवंत उदाहरणों को देखे-सुने बिना,
वेदान्त के सूक्ष्म विचारों (महवाक्यों में अन्तर्निहित ब्रह्मज्ञान) की स्पष्ट अवधारणा बना पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। उपमान (analogies-समरूपता, समवृत्तिता ) के द्वारा संकल्पनात्मक सत्यों (conceptual truths-वैचारिक धारणा) में अंतर्निहित विशेषताओं के विषय में कुछ ऐसे जगातिक-संकेत प्राप्त हो जाते हैं, जिसके कारण साधारण मनुष्य भी उन्हें आसानी से समझ पाते हैं। (analogies nudge conceptual truths into a world where ordinary people can perceive them.) 
यह बिल्कुल सत्य है कि उच्चतम वेदान्तिक अनुभूति किसी व्यक्ति द्वारा अस्तित्व या निरपेक्ष सत्य (Thing -in-itself , or the Absolute), जिसे वेदान्त में आत्मा या ब्रह्म कहा जाता है- के अपरोक्षानुभूति में समाहित है। किन्तु भारत के पवित्र ऐतिहासिक ग्रंथों (पुराण आदि) में तथा जगत के अन्य भागों में भी 
मनुष्य के अंतर्ज्ञान (अंतःप्रज्ञा) की आंतरिक शक्ति के क्रमविकास के दूसरे चरणों को भी कालक्रम के अनुसार लिपिबद्ध (chronicled ) किया गया है ! हमारे उपनिषदिक और पौराणिक कथाओं में ब्रह्मवेत्ताओं में सहजज्ञान से संबन्धीत मन की शक्ति के (intuitive faculty के) इस क्रमविकास के सभी चरणों को बड़े आश्चर्यजनक रूप से उदाहरण देकर समझाया गया है। 
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार, अंतःप्रज्ञा (अथवा सहजज्ञान से संबन्धित मन की शक्ति) में क्रमविकास के ये सभी चरण आत्मा द्वारा ग्रहण किये गए वे दृष्टिकोण (viewpoints या नज़रिया) हैं, जिसे आध्यात्मिक देशान्तर -यात्रा की ऊँची उड़ान के विभिन्न चरणों में वह (आत्मा, अहं नहीं?) सुगमता से ग्रहण कर लेता  है। (according to Swami Vivekananda they are simply viewpoints taken by the soul as it soars to different stages in its spiritual flight.)
किन्तु कोई सामान्य साधक (seeker,सत्यान्वेषी, जिज्ञासु, या एथेंस का किशोर सत्यार्थी) इतनी ऊँची उड़ान लेने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं ? ऐसा अदम्य साहस और उत्साह वे निरंतर कैसे बनाये रह सकते हैं? वेदान्त के आचार्य या आध्यात्मिक शिक्षक कहते हैं- " इस ऊँची उड़ान का प्रारम्भ , तुम्हें अपने हृदय से करना होगा, हृदय में जन्म-जन्मांतर से जमी हुई स्वार्थपरता (पशुता ) को दूर हटाते हुए, उसे क्रमशः मनुष्य और फिर पूर्णतया  निःस्वार्थी मनुष्य (ईश्वर) बन जाने का प्रयास करते रहना होगा (महामण्डल द्वारा निर्देशित-5 अभ्यास करते रहना होगा)। और तब (हृदय शुध्द हो जाने के बाद, या चित्त-शुद्धि के बाद, स्वार्थरहित हृदय बन जाने के बाद) अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा (energy) मन को इतना अनुशासित बना देने में लगा देनी चाहिए, कि वह युगों युगों से ऋषियों द्वारा वर्णित उस भव्य दृष्टि (जगत को ब्रह्ममय देखने वाली ज्ञानमयी दृष्टि) को प्राप्त करने के योग्य बन जाये !
 (and then should direct their energy towards making their minds fit for receiving the grand vision described by seers throughout the ages.)
इस पुस्तक में सुप्रसिद्ध वेदान्तिक कहानियों के साथ-साथ ऋषियों और मनीषियों के जीवन से जुड़े उन उपाख्यानों (anecdotes -लघुकथाओं) को भी समावेशित किया गया है, जो उन छात्रों के लिये विशेष लाभकारी हैं, जो पहली बार वेदान्त-दर्शन के सम्पर्क में आये हैं।
हम पूरी दृढ़ता के साथ यह विश्वास करते हैं कि यह सार्वभौमिक और तर्कसंगत दर्शन (universal and rational philosophy) प्रत्येक व्यक्ति को (प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्ग के जिज्ञासुओं को), जगत का त्याग किये बिना ही, इसका अभ्यास करने के लिए अनुप्रेरित करेगा। वे अपने घरों में, खेत-खलिहानों में, कारखानों में भी इसका अभ्यास करेंगे। और शयद वे इन उभरते हुए वेदान्त-मतावलम्बियों को अपना धन्यवाद भी ज्ञापित करेंगे, कि अब हमें वेदान्तिक युग के अरुणोदय का लम्बे समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी !  
Swami Amarananda 
Centre Vedantique 
Geneva, Switzerland 
2 October 2002 
 [स्वामी अमरानन्द, सेंटर वेदांतिक, जिनेवा, स्विट्जरलैंड, 2 अक्टूबर 2002]
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हिन्दी अनुवादक का निवेदन 
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा विगत 50 वर्षों से 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' में आयोजित 'BE AND MAKE ' लीडरशिप ट्रेनिंग के माध्यम से, ''वर्तमान भारत' में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे जिज्ञासु पाठक तैयार हो गए हैं;  जिन्हें इस प्रकार के पुस्तकों की आवश्यकता है, और जो गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्गी) होते हुए भी ऐसी पुस्तकों को समझने की योग्यता रखते हैं।
इस पुस्तक में वर्णित अमूल्य कहानियों को हिन्दी-भाषी युवा छात्र -छात्राओं को पढ़ने-सुनने से उनके चरित्र-निर्माण में निश्चित रूप से सहायता मिलेगी, इसी विचार से इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी माँ सारदा देवी  के चरणों में समर्पित है। 
हमारा विश्वास है कि यह पुस्तक असंख्य गृहस्थ स्त्री-पुरुषों को, 'भावी आध्यात्मिक शिक्षक/वुड बी लीडर्स बनने और बनाने' में सहायक सिद्ध होगी। 
विजय कुमार सिंह, उपाध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल। 

18 अगस्त 2018,
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प्रार्थना
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्‍योतिर्गमय । 
                  मृत्‍योर्मा अमृतं गमय । ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:। - वृहदारन्यक उपनिषद।
हे परमात्मन् , मुझे असत्य से सत्य की अोर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की अोर तथा मृत्य से अमृतत्व की अोर ले चलो। 
असत राह से मुझे सत राह पर लो,
ज्ञान आलोक से मन का अँधेरा हटाओ। ....
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रुद्र - यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ।।
हे जगत् जननी माँ जगदम्बा हमें शक्ति दो, हमारा सर्वस्व अापकी प्रेम सुधा से भर जाने दो। तुम्हारा अाश्रय हमें सदा प्राप्त होता रहे। अापकी कृपा सदा बरसती रहे। पूरा श्लोक इस प्रकार है - 
अजात इत्येवं कश्चिद्भीरुः प्रपद्यते। 
रुद्र यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम्‌॥ (श्वेताश्वतरोपनिषद्. ४-२१॥ 
[ अन्वय - कश्चित् भीरुः अजात इति एवं प्रपद्यते। हे रुद्र यत् ते दक्षिणं मुखं तेन मां नित्यं पाहि॥ ] 

कदाचित् कोई आश्चर्यभाव से भरकर इसे, अर्थात माँ भवतारिणी को 'अजात' (अजन्मा ,Unborn) मानकर इसकी शरण में जाता है। हे रुद्र, आपका जो कल्याणकारी दक्षिणमुख है, उससे सर्वदा मेरी रक्षा कीजिये।
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प्रस्तावना (Prologue) : 
'मिमियाता हुआ सिंह शावक' 
  [The Bleating Lion Cub] 
हरेन एक गड़ेरिया लड़का (चरवाहा shepherd) था, जो प्रतिदिन अपनी भेड़ों को चराने के लिये घास के मैदान में ले जाया करता था। निकट में ही घना जंगल था, अतः उसे बहुत सतर्कता के साथ अपने भेंड़ों के झुण्ड की रखवाली करनी पड़ती थी। एक ओर वह चरवाहा लड़का तथा उसकी भेड़ें थी तो दूसरी ओर बहुत सारे जंगली पशुओं से भरा हुआ जंगल था; और दोनों के बीच एक छोटी सी नदी बहती थी। 
एक दिन नदी के दूसरे छोर पर एक सिंहनी दिखाई पड़ी। हरेन जब उसको देखा तो वह सतर्क हो गया। भेंड़ों के झुण्ड ने भी जैसे ही उस सिंहनी को देखा, सभी जान बचाकर घर की ओर दौड़ने लगीं। सिंहनी ने तुरन्त एक छलाँग लगायी, और नदी को पार करके इस तरफ आ गयी। हरेन भयभीत हो गया, कि अब तुरन्त कोई दुर्घटना जरुर होगी, वह उससे कुछ सौ फिट ही दूर थी ! किन्तु कुछ हुआ नहीं ? वह सिंहनी वास्तव में गर्भवती थी और आसन्न-प्रसवा थी। किन्तु वह बहुत भूखी थी, इसीलिये नदी को फांद तो गयी, किन्तु वहीं उसे बच्चा हो गया, और प्रसव देने के बाद वह मर गयी। इस अवस्था में छलांग लगाने में जो परिश्रम उसे करना पड़ा, उसे वह बर्दास्त न कर सकी थी
हरेन उस छोटे से सिंह शिशु को अपने घर ले आया। सिंहनी का वह बच्चा भेड़ों की झुण्ड के साथ रहते रहते उसी झुण्ड का एक सदस्य बन गया। जन्म से ही भेड़ों के झुण्ड में पलने-बढ़ने के कारण वह ' सिंह-शिशु ' भेड़ों की तरह ही घास चरना सीख लिया, और भेड़ों की ही तरह में -में करना भी सीख लिया। जब उसकी उम्र बढ़ने लगी तो वह एक छोटे सिंह के समान दिखता अवश्य था, किन्तु ठीक अपने संगी-साथी भेंड़ों की तरह ही मिमियाता था। 
कुछ दिनों तक इसी प्रकार जीवन बिताने के बाद, एक दिन दोपहर के समय हरेन एक वृक्ष की छाँव में बैठा ऊँघ रहा था। इतने में किसी दूसरे सिंह ने आकर भेड़ों के झुण्ड पर आक्रमण कर दिया। सिंह इतने आकस्मिक और अनपेक्षित ढंग से झपटा था, की सारी भेड़ें भय से में-में करते हुए भागने लगीं। हरेन जाग गया और अपनी भेंड़ों के पीछे पीछे दौड़ने लगा। किन्तु उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने यह देखा कि वह शेर किसी भेंड़ का पीछा नहीं कर रहा था , बल्कि उसने उस सिंह-शावक को अपने मुख में दबा रखा था। और उसे अपने साथ लेकर वह नदी के दूसरी ओर चला गया। 
किसी सिंह के लिए घास खाना और मिमियाना अपने आप में बहुत लज्जाजनक (disgraceful या शर्मनाक) बात है। इसीलिये वह सिंह-शावक को यह समझाने का प्रयास कर रहा था कि वे दोनों तो एक ही प्रजाति के शक्तिशाली मांसाहारी पशु हैं। " सुनो, मैं जिस प्रकार दहाड़ लगाता हूँ, तुम भी वैसे ही दहाड़ लगाओ" -ऐसा कहकर सिंह ने जोरदार गर्जना की- शेर की दहाड़ से जंगल गूँज उठा और दूरस्थ पहाड़ों से टकराकर उसकी गड़गड़ाहट प्रतिध्वनित होने लगी। किन्तु वह भयभीत शावक तो स्वयं को भेंड़ ही समझता आया था -उसको यकीन नहीं हुआ। 
अब वह सिंह उस शावक को खींचते हुए नदी के तट पर ले गया, जहाँ क स्वच्छ-निर्मल जल में दोनों अपने अपने प्रतिबिम्ब देख सकते थे।  प्रतिबिम्ब को दिखलाते हुए सिंह ने कहा," देखो मेरे बेटे, अब देखो - ये दोनों प्रतिबम्ब कितने समरूप हैं ! मैं जो हूँ,तुम भी वही हो । मेरे चेहरे से अपने चेहरे की तुलना करो।   देखो, मेरा मुख हांड़ी की तरह है, तेरा मुख भी वैसा ही है न ? मेरे गर्दन पर जैसे अयाल (mane या केसर जैसे घने बाल)वह , तुम्हारी गर्दन पर भी हैं, मूँछें भी बिल्कुल एक समान हैं - इस सबसे एक ही सत्य प्रकट होता है कि तुम भेंड़ नहीं हो ! "
शावक को अब बात समझ में आ रही थी ! इस प्रकार प्रत्यक्ष देख लेने के फलस्वरूप उसने कहा " अरे, यह तो बिल्कुल ठीक बात है, हमदोनों का चेहरा तो बिल्कुल एक जैसा है!"अब उस सिंह ने कहीं से थोड़ा मांस लाया और उसका एक टुकड़ा अपने मुख में डाला, और एक टुकड़ा शावक के मुख में डाल दिया। मांस का स्वाद चखते ही शावक निश्चित रूप यह जान गया कि, वह तो सिंहों के परिवार का सदस्य है। ख़ुशी के मारे उसने गर्जना शुरू कर दिया। फिर वह अपने नए 'अनुकरणीय आदर्श' का अनुशरण करते हुए घने जंगलों के बीच चला गया। 
हममें से अधिकांश मनुष्य स्वयं को दुर्बल और शक्तिहीन मानकर (मरणधर्मा शरीर समझकर) उसी भ्रमित (मोहग्रस्त या hypnotized) शावक की तरह व्यवहार करते हैं। अपने स्वयं के विषय में अपनी मान्यताओं में (देहाध्यास में) बदलाव लाने के लिए किसी महान ज्ञानी व्यक्ति (ब्रह्मविद **) या आध्यात्मिक शिक्षक की आवश्यकता होती है। सामान्य मनुष्यों को मनीषी लोग साहस और ब्रह्ज्ञान में प्रतिष्ठित कर सकते हैं। इसी प्रकार व्यष्टिमनुष्य (individuals) को अपने स्वरुप के प्रति जाग्रत [ भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड)] करते जाने से सम्पूर्ण राष्ट्र को जाग्रत किया जा सकता है !   
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म]- का पूर्णत्व लेकर (अपने मे लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो। यहाँ 'पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते' को यों समझा जाता है कि अनन्त से अनन्त घटाने पर भी अनन्त ही शेष रहता है।  वह ईश्वर जो दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से विश्व बहिर्गत हुआ। यह अनंत विश्व उस अनंत से बहिर्गत होने पर भी अनंत ही रह गया।
हजारों की संख्या में ऐसे ब्रह्मविद** या आध्यात्मिक शिक्षकों का निर्माण करना ही महामण्डल आंदोलन का मुख्य लक्ष्य है। जिन लोगों ने अपने सच्चे स्वरुप को जान लिया है, जो लोग शरीर-मन के जाल से आत्मा को मुक्त कर चुके हैं' अथवा भ्रम-जाल को सिंह-विक्रम से फाड़ कर मुक्त हो चुके हैं, वे आध्यात्मिक शिक्षक ही हिप्नोटाइज्ड या देहाध्यास से सम्मोहित मनुष्यों को विसम्मोहित या भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर सकते हैं। वे लोग दूसरों को भी आत्मज्ञान दे सकते हैं, वे उनको उनका स्वरुप दिखा दे सकते हैं। उनके संस्पर्श में आ जाने से लोगों को चैतन्य होता है।अज्ञान का जो आवरण हमारे स्वरुप को ढांक देता है, उसका शास्त्रीय नाम है माया। बाद वाले कहानियों में माया का स्वरुप पर चर्चा की गयी है। 
[That is how individuals -and whole nations-become awakened! ]
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