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मंगलवार, 21 अगस्त 2018

['आधुनिक युग के दो अद्भुत शिक्षक' - स्वामी रंगनाथनंद के अनुसार।

['Two wonderful Teachers of the Modern Era' 
-According to Swami Ranganathananda .] 
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गीतोक्त (5/19) साम्यभाव में अवस्थित प्रथम युवा नेता -श्रीरामकृष्ण 
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "हमारे देश में सबसे अधिक आदर और सम्मान एक शिक्षक को मिलता है,तथा उनके प्रति हमारी ऐसी श्रद्धा रहती है कि शिक्षक मानो साक्षात् ईश्वर ही हैं ! जितनी श्रद्धा हमें अपने शिक्षकों  (जीवन्मुक्त शिक्षक या मार्गदर्शक नेता) के प्रति रहती है; उतनी श्रद्धा हमें अपने माता-पिता के लिए भी नहीं होती। माता-पिता हमें केवल जन्म देते हैं,किन्तु शिक्षक (नेता) हमें अपने जीवन में वेदान्त का अभ्यास सिखाकर मोक्ष का मार्ग दिखाते हैं। " 
[ 'but the teacher shows us the way to salvation'. अर्थात शिक्षक 'सिंह-शावक' को अपना स्वरुप पहचान कर 'भेंड़ होने के भ्रम से मुक्त', जागृत या डी-हिप्नोटाइज्ड (awakened-प्रबुद्ध) हो उठने का मार्ग दिखलाते हैं !]  
श्रीमद्भागवत पुराण में कहा गया है - 'ब्रह्मावलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः॥ ९.२८॥ ( -सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान्सरीसृप पशून्खगदंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥)  जैसे किसी कलाकार की सुन्दर रचना को देखकर कोई यदि प्रसंशा करने वाला नहीं हो तो शिल्प-कार को उतना आनन्द नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा जी को भी-स्थावर,जंगम,उड़ने वाले, डंक मारने वाले हर तरह के जीवों की रचना कर लेने के बाद भी उतना आनन्द नहीं हो रहा था।  तब सबसे अन्त में उन्होंने मनुष्य को बनाया जो उनकी सुन्दर सृष्टि को देखकर केवल प्रसंशा ही नहीं कर सकता था, बल्कि वह अपनी बुद्धि को विकसित करके अपने बनाने वाले ब्रह्म या ईश्वर को भी जान लेने में भी समर्थ था।  इसी से मिलती-जुलती कथा बाइबिल और कुरान में भी है कि मनुष्य को ब्रह्मा जी ने अपने रूप में गढ़ा , और मनुष्य को देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए।  और सभी देवदूतों (फरिस्तों) को बुलवा भेजा तथा उनको आदेश दिया कि तुम सबलोग मनुष्य के सामने सिर झुकाओ-इसको नमस्कार करो ! सभी फरिस्तों ने मनुष्य के सामने अपने सिर को झुकाया, केवल एक फरिस्ता जिसका नाम इब्लीस था,उसने सर नहीं झुकाया तो उसको भगवान ने कहा -दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया।इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार मे मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। निम्नतर सृष्टि, पशु-पक्षी आदि किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते।
 [ देवता भी मनुष्य जन्म लिए बिना, अर्थात गृहस्थ जीवन के कर्तव्यों का पालन किये बिना  "निवृत्ति अस्तु महाफला की धारणा" नहीं कर सकते; अतः मुक्ति-लाभ या 'भ्रममुक्त अवस्था' भी प्राप्त नहीं कर सकते।]
 चाहे हम अपने 'स्व' (यथार्थ स्वरूप) को, 'मैं कौन हूँ ?' को गहराई से जानने की चेष्टा करें;  अथवा बाह्य प्रकृति को, दोनों अवस्थाओं में हमें उसी अनन्त-असीम (लिमिटलैस) का आह्वान सुनाई देता है। बाह्यजगत और अंतःजगत दोनों अथाह (fathomless) हैं, अतः इनकी गहराई को मापा नहीं जा सकता। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं, जो हमें इस मिथ्या व्यक्तित्व या नाम-रूप की सीमा में आबद्ध करना चाहती है। मानवजाति के जो मार्गदर्शक नेता अपने जीवन और उपदेशों के द्वारा इस मिथ्या व्यक्तित्व के अहं-बोध में फँसी आत्मा को.  या शरीर और मन की जाल में फँसी हुई आत्मा को सिंहविक्रम से काटकर मुक्त हो जाने का मार्ग दिखलाते हैं, उनके जीवन से हमलोगों को भी मुक्त होने की प्रेरणा प्राप्त होती है।   
आधुनिक युग के दो अद्भुत शिक्षक श्रीरामकृष्णदेव और स्वामी विवेकानन्द: आधुनिक युग में दो ऐसे आश्चर्यजनक शिक्षक हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन से हमें यह शिक्षा दी है कि वेदान्त केवल मुख से कहने भर की बात नहीं है; इसे अपने दैनंदिन जीवन में अपनाना चाहिये; तथा स्वयं इसका अभ्यास करके उन्होंने इसे कार्यरूप देकर दिखा भी दिया है। श्रीरामकृष्ण तो धर्म क्षेत्र के एक महान वैज्ञानिक ही थे। ठीक किसी वैज्ञानिक की तरह जो अपनी प्रयोगशाला में अनुसंधान करने में व्यस्त रहता है, उन्होंने भी दक्षिणेश्वर के भवतारिणी मंदिर में १२ वर्षों तक परम् सत्य का अनुसंधान या आध्यात्मिक साधना करने के दौरान, सभी धर्मों की साधना करके यह देख लिया था कि "सभी धर्मों का मुख्य भाव यही है कि, 'मैं कुछ नहीं -तू ही सब कुछ है', जो कुछ है सो तू ही है! तथा जो कहता है -'मैं नहीं', बस उसीके हृदय को ईश्वर परिपूर्ण कर देते हैं। (हृदय से अंहकार के हटते ही माँ जगदम्बा वहाँ बैठ जाती हैं।) यह क्षुद्र अहंभाव जितना ही कम होता है,उतनी ही उसमें ईश्वर की अभिव्यक्ति होने लगती है। "७/२५५ 
अद्वैतभाव में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाने के लिए श्रीरामकृष्णदेवने कई प्रकार के प्रयोग किये थे; किन्तु उनमे से एक प्रयोग सबसे अद्भुत (Wonderful )था। अपने जीवन में अद्वैतवाद को प्रतिष्ठित करने के लिए वैसा 'अद्भुत -प्रयोग'  उनसे पहले के किसी भी शिक्षक, नेता, पैगम्बर या  मानवजाति के मार्गदर्शक नेता ने नहीं किया था। जबकि श्री रामकृष्ण ने अपने जीवन को ही अद्वैत वेदान्त उदाहरण बनाकर हम लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया है : 
एक दिन मध्य रात्री में श्रीरामकृष्ण उठ गए, और मंदिर के समीप रहने वाले एक चाण्डाल (sweeper caste'  वाल्मीक) के घर जाकर उसके शोचालय (latrine) को साफ कर दिए। यदि वे इस कार्य को दिन में करना चाहते तो नहीं कर पाते। क्योंकि वह चाण्डाल (वाल्मीक)उन्हें वैसा करने नहीं देता। क्योंकि अत्यंत प्राचीन काल से ही, भारत में उच्च जाति और निम्न जाति दोनों वर्ग के लोगों के दिमाग में यह विचार भर दिया गया है कि,  जिस मनुष्य का शरीर ब्राह्मण-कुल में जन्मा है, वह जन्मजात रूप से ही सर्वश्रेष्ठ जाति का है, या उच्च जाति का है।  उसी प्रकार जिन मनुष्यों का शरीर निम्न जाति के कुल में जन्मा है, वे जानते हैं कि वे निम्न जाति के हैं। और जो जन्मजात रूप से निम्न जाति के हैं, उन्हें आजीवन निम्न जाति में ही रहना होगा। दोनों वर्ग के लोगों के मन में यह विचार पूरी गहराई से घर कर चुका है। किन्तु यह प्राचीन भारतीय समाज में व्याप्त एक वंशानुगत पारम्परिक कुसंस्कार था, जिसे आधुनिक भारत या नए भारत में मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण ने तोड़ कर दिखा दिया है। 
वे कहा करते थे कि -" जन्म से ही प्रत्येक मनुष्य   'घृणा,लज्जा, भय, कुल,शील,मान, जाति तथा अहंकार (पंचक्लेश)' -इन अष्टपाश में आबद्ध है, यज्ञोपवीत भी 'मैं ब्राह्मण तथा सबसे श्रेष्ठ हूँ '-इस प्रकार के मिथ्या अहंकार (arrogancy) का चिन्ह होने के कारण यह भी एक पाश है,(अतः वर्णाश्रम धर्म की रक्षा करने के लिए ?) साधना करने के बाद पुनः यज्ञोपवीत को धारण कर लूँगा "  ! ईश्वर (माँ जगदम्बा ) को पुकारने के लिये इन पाशों (superimpositions) को त्यागकर, एकाग्रता के साथ उन्हें पुकारना पड़ता है। केवल स्थूल रूप से जनेऊ त्याग कर ही वे सन्तुष्ट नहीं हो गए थे। 
साम्यभाव अवस्थित रहने या 'समस्त जीवों में उपस्थित शिव' का अनुभव करने या के लिए श्रीरामकृष्णदेव अपने सिर के लम्बे बालों से उस अछूत चाण्डाल के शोचालय को धोकर स्वच्छ बना देने की साधना किया करते थे।  चाण्डाल जाति में जन्मे (मेहतर) का शौचालय  साफ़ करते समय श्रीरामकृष्ण माँ जगदम्बा से प्रार्थना भी किया करते थे," हे जगन्माता, मुझे चाण्डाल का दास बना दो और मुझे यह अनुभव कर लेने दो कि मैं उससे भी हीन हूँ। " तुम मेरे मन में छिपे इस भाव को दूर हटा दो, कि एक ब्राह्मण शरीर में जन्म लेने के कारण मैं अन्य सभी जातियों से श्रेष्ठ हूँ। तुम मुझे अपने को 'सभी का दास'- सर्वेंट ऑफ़ ऑल, मनुष्य मात्र का सेवक समझने की सद-बुद्धि दो ! यह एक अदभुत प्रार्थना है! किंतना सुंदर विचार है- नेता/शिक्षक  सभी का (अपने छात्रों -या भावी शिक्षकों का भी ?) दास होता है! जिस चाण्डाल (वाल्मीक या Sweeper) को अन्य लोग अत्यंत अपवित्र मानकर सर्वथा परित्याग करते हैं, श्रीरामकृष्ण मध्य रात्रि में जब उस चाण्डाल के शौचालय को, जब उसके घर के सभी लोग सो रहे होते, धो-पोछकर साफ कर दिया करते थे। ताकि वह चाण्डाल उन्हें शौचालय साफ़ करते हुए कहीं देख न ले। क्योंकि देख लेने से तो वह भी मना ही कर देता। 
अद्भुत शिक्षक श्रीरामकृष्ण की इस लीला का ये तो एक पहलु हुआ, दूसरा पहलु है, जिस रूढ़िवादी वंश-परम्परा में पले-बढ़े होने के कारण, भारत के सभी लोग छुआछूत (untouchability या अस्पृश्यता) को सदियों से सही मानते चले आ रहे हैं। उनके लिये यह इतना स्वाभाविक बन चुका है, कि अब वे इसके विपरीत वे कुछ सोंच ही नहीं सकते। इसीलिए युगावतार श्रीरामकृष्ण अपने जीवन द्वारा इस कुसंस्कार को मिटाकर व्यावहारिक वेदांती या सच्चा आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने के लिए अनुप्रेरित करते हैं। 
              ७० साल पहले किसी यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार ने स्वामी रंगनाथानन्द जी को भाषण में जब यह कहते सुना कि श्रीरामकृष्ण स्वयं ब्राह्मण होकर भी, १५ दिनों तक  एक अछूत मेहतर (वाल्मीक या चाण्डाल) का शौचालय साफ़ किया करते थे ! तो इतना सुनते ही उन्होंने अपने दोनों कानों को हाथ से ढँक लिये, और कहा -" रुक जाइये, रुक जाइये - ऐसी बात मुख से भी मत निकालिये।" किन्तु वक्ता ने जब कहा कि सच्चाई तो यही है कि ठाकुरदेव ने ऐसा किया था ! यदि ऐसा किया भी था तो यह बात आप दूसरों को मत बताइये। यह तो ब्राह्मण जाति के लिये बड़े अपमान की बात है ! वक्ता ने कहा जहाँ तक मैंने आध्यात्मिकता को समझा है, ऐसा करना तो किसी 'यथार्थ ब्राह्मण' के लिए सबसे बड़े गौरव की बात है ! किन्तु वे दोनों एक सामान्य तर्कसंगत धरातल पर नहीं पहुँच सके, क्योंकि बहस करते समय एक खतरे से बचकर दूसरे में पड़ने का भय था। क्योंकि आज भी समाज में एक ओर जहाँ वंश-परम्परा से चले आ रहे पुरातन-पंथी कुसंस्कार हावी हैं, वहीँ अल्ट्रा मॉडर्न आधुनिक समाजसुधारक समस्या की जड़ में गए बिना ही अपने निजी स्वार्थ या राजनितिक कारणों से अगड़ा-पिछड़ा, दलित-स्वर्ण, कहकर परस्पर विद्वेष फैलाते रहते हैं। 
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 वर्तमान युग के दूसरे महान शिक्षक स्वामी विवेकानन्द !
['गुरु-शिष्य संवाद' का एक प्रसंग द्रष्टव्य है:वर्ष-१९०२, स्थान: बेलूड़ मठ]
वेदान्त को अर्थात 'शिव ज्ञान से जीव-सेवा' को कार्यरूप देने वाले दूसरे महान शिक्षक हैं -स्वामी विवेकानन्द। उन्होंने कहा है, " मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि - जीव जीव में वे ही अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है।  'Who serves jiva serves God indeed!'
 पूर्व बंगाल से लौटने के बाद स्वामी जी मठ  में ही रहा करते हैं ...... उस समय उन्होंने मठ में कुछ गाय, हंस, कुत्ते और बकरियाँ पाल रखी थीं। एक बड़ी बकरी को 'हंसी' कहकर पुकारा करते और उसी के दूध से प्रातःकाल चाय पीते। बकरी के एक छोटे बच्चे को 'मटरू' कहकर पुकारा करते। उन्होंने प्रेम से उसके गले में घुंघरू पहना दिये थे। बकरी का वह बच्चा  प्यार पाकर स्वामी जी के पीछे पीछे घूमा करता और स्वामीजी उसके साथ पांच वर्ष के बच्चे की तरह दौड़ दौड़कर खेला करते थे। 
मठ देखने के लिये नये नये आये हुए व्यक्ति विस्मित होकर कहा करते थे, "क्या ये ही विश्व-विजयी स्वामी विवेकानन्द हैं!कुछ दिनों बाद 'मटरू' के मर जाने पर स्वामी जी ने दुःखी होकर शिष्य से कहा था -" देख, मैं जिससे भी जरा प्यार करने जाता हूँ, वही मर जाता है। (या उनलोगों का ट्रांसफर हो जाता है ?)" 
... मठ की जमीन सफाई तथा मिट्टी खोदने और बराबर करने के लिये कुछ संथाल स्त्री-पुरुष रेजी-रेजा या कुली आया करते थे। उनके साथ स्वामीजी कितना हँसते-खेलते रहते और उनके सुख-दुःख की बातें सुना करते थे। संथालों में एक व्यक्ति का नाम था 'केष्टा।' स्वामीजी केष्टा को बड़ा प्यार करते थे। बात करने के लिये आने पर केष्टा कभी कभी स्वामी जी से कहा करता था -"अरे स्वामी बाप, तू हमारे काम के समय यहाँ पर न आया कर-तेरे साथ बात करने से हमारा काम बन्द हो जाता है और बूढ़ा बाबा (स्वामी अद्वैतानन्द) आकर फटकारता है।  
यह सुनकर स्वामी जी की आँखे भर आती थीं और वे कहा करते थे , "नहीं, बूढ़ा बाबा फटकार नहीं लगायेगा, तुम अपने गाँव की दो -एक बातें मुझे और सुना।' और यह कहकर उसके पारिवारिक सुख-दुःखों की बातें छेड़ देते थे। एक दिन स्वामी जी ने केष्टा से कहा -" अरे, तुमलोग हमारे यहाँ खाना खाओगे ?" (हजारों वर्षों से अपने को निम्नजाति का हूँ विश्वास दिलाता आया) केष्टा बोला, " हम अब और तुमलोगों का छुआ नहीं खाते, ब्याह जो हो गया है। तुम्हारा छुआ 'नमक' खाने से जात जायेगी रे बाप। " स्वामी जी ने कहा, " नमक क्यों खायेगा रे? बिना नमक डालकर तरकारी पका देंगे, तब तो खायेगा न ? केष्टा उस बात पर राजी हो गया। 
इसके बाद स्वामी जी के आदेश से मठ में उन सब संथालों के लिए पूड़ी- बुंदिया, तरकारी, मिठाई,दही आदि का प्रबंध किया गया और वे उन्हें बैठकर खिलाने लगे। खाते खाते केष्टा बोला -" हाँ रे , स्वामी बाप, तुमने ऐसी चीजें कहाँ से पायी हैं -हमलोगों ने कभी ऐसा नहीं खाया।" स्वामी जी ने उन्हें तृप्ति भर भोजन कराकर कहा - " तुमलोग तो नारायण हो, आज मैंने साक्षात् नारायण को भोग दिया। " भोजन के बाद जब संथाल लोग आराम करने गए, तब स्वामी जी ने शिष्य से कहा " इन्हें देखा, मानो साक्षात् नारायण हैं -ऐसा सरल हृदय, ऐसा निष्कपट सच्चा प्रेम कभी नहीं देखा था।"
 ... हाय ! देश के लोग पेट भर भोजन भी नहीं पा रहे हैं, फिर हम किस मुँह से मालपूआ खाते हैं ?         उस देश में जब गया था तब माँ जगदम्बा से कितना कहा, " माँ ! यहाँ पर लोग फूलों की सेज पर सो रहे हैं, तरह तरह के खाद्य-पेयों का उपभोग कर रहे हैं, इन्होंने कौन सा भोग बाकी रखा है ! और हमारे देश के लोग भूखों मर रहे हैं। माँ, उनके उद्धार का कोई उपाय न होगा ?" उस धर्म महासभा में धर्म-प्रचारक के रूप में जाने का मेरा एक उद्देश्य यह भी था कि मैं इस देश के लिये अन्न का प्रबन्ध करूँ। "
" देश के लोगों को दो वक्त का भोजन भी खाने के लिए नहीं मिलता, यह देखकर कभी कभी मन में आता है कि घंटी हिलाना, शंखबजाना, शास्त्र पाठ करना सब कुछ छोड़ दूँ, और चरित्र तथा साधना के बल पर धनी लोगों को अनुप्रेरित कर धन संग्रह करके ले आऊँ और दरिद्रनारायण की सेवा में ही जीवन बिता दूँ। देश में इन गरीब-दुःखियों के कल्याण की चिन्ता करने वाला कोई भी नहीं है ! जो गरीब किसान-मजदूर हमारे राष्ट्र की रीढ़ हैं, जिनके परिश्रम से अन्न पैदा हो रहा है, जिन मेहतर-डोमों के एक दिन के लिये भी काम बन्द करने पर  शहर भर में हाहाकार मच जाता है- हाय ! हम क्यों न उनके इस महान सेवा के लिए उन्हें सम्मान दें ? उनके सुख-दुःख में उन्हें सान्त्वना दें? उनके साथ सहानुभूति रखें ? क्या देश में उनके साथ सहानुभूति रखने वाला कोई भी नहीं है रे !  
 यही देखो न -अपने स्वर्ण (ब्राह्मण) हिन्दू भाइयों की सहानुभूति न पाकर दक्षिण भारत में हजारों पैरिया (Pariahs -शूद्र वर्ण के लोग, 'ब्राह्मण' में रूपान्तरित होने अर्थात ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की पात्रता रखते हुए भी धर्मान्तरित करके ईसाई बनाये जा रहे हैं। पर ऐसा न समझना कि वे (पैरिया लोग) केवल पेट के कारण ईसाई बनते हैं; वास्तव में वे हमारे द्वारा सहानुभूति और सम्मान न दिए जाने की प्रतिक्रिया वश ईसाई या मुसलमान धर्म में धर्मान्तरित हो जाते हैं। हमलोग दिन-रात उनसे केवल यही कहते हैं कि -`Don't touch us! Don't touch us!'  "हमें मत छूना, हमें मत छूना। 'Let us open their eyes.' आओ, हम सब मिलकर इनकी ऑंखें खोल दें- मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ, "इनके और मेरे भीतर एक ही ब्रह्म -एक ही शक्ति विद्यमान है, केवल अभिव्यक्ति की न्यूनाधिकता है ! (the one Brahman in all, in them and in me -- one Shakti (Energy) dwells in all.) मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि - जीव जीव में वे (माँ जगदम्बा)  ही अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। जो व्यक्ति जीव-सेवा को परोपकार के रूप में नहीं, ‘जीव में उपस्थित शिव की सेवा’ समझकर पूजा भाव से करता है, उसी ने ईश्वर को ठीक ठीक समझा है।
[भारत और विश्व के कल्याण के लिए " विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'BE AND MAKE' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में  'कर्म के रहस्य' (Secret of Work-'निवृत्ति अस्तु महाफला' में प्रशिक्षित गृहस्थ (या प्रवृत्ति मार्गी) युवाओं को अपना घर-परिवार छोड़े बिना, ऐसा ही 'शिक्षक/नेता बननेऔर बनाने' के लिए अनुप्रेरित (inspire) करना महामण्डल द्वारा आयोजित इस युवा प्रशिक्षण शिविर का मुख्य उद्देश्य है। 'BE AND MAKE ' ]
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 [मूढ़ी खाने के लिए पूर्ण महाराज, राँची आश्रम, ने भी १९८५ में ठीक ऐसा ही कहा था ?] 


























 (In our country a teacher is a most highly venerated person, he is regarded as God Himself.) 




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