1. आध्यात्मिक पूर्णता स्त्री-पुरुष,गृहस्थ या संन्यासी सबों के पहुंच के भीतर है !
[Spiritual Perfection is Within the Reach of All]
[Two Wonderful Teachers Of Mahabharata period]
आदर्श गृहणी
[Spiritual Perfection is Within the Reach of All]
[Two Wonderful Teachers Of Mahabharata period]
आदर्श गृहणी
प्राचीन भारत के ऋषि-मुनि अरण्यों में रहा करते थे। नगर से मीलों दूर, ऐसे ही किसी घने जंगल में एक तपस्वी जिनका नाम कौशिक था, वे रहा करते थे और अपना अधिकांश समय वेदों का अध्यन करने में बिताया करते थे। कौशिक एक ब्राह्मण परिवार से संबन्धित थे, किन्तु तपस्या और वेदों का अध्यन करने में सुविधा होगी यही सोंचकर, अपने माता पिता की अनुमति प्राप्त किये बिना ही, घर-परिवार छोड़ कर जंगल में एकान्त वास करते हुए हठयोगियों के जैसा कठोर जीवन बिता रहे थे। हाँ, बीच बीच में भिक्षा के लिए उनको जरुर निकट के गाँव में जाना पड़ता था। किन्तु उनका सम्बन्ध गाँव के मनुष्यों के साथ बस इतना ही था। भिक्षा लेकर वे पुनः जंगल में अवस्थित अपनी निर्जन कुटिया में लौट आते थे।
एक दिन जिस पेड़ के नीचे बैठ कर कौशिक वेद मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे, एक छोटा सा बगुला आकर उनके सिर के ऊपर लगे डाल पर आकर बैठ गया। उस छोटे से पक्षी को शायद कौशिक की महानता का पता नहीं था, क्योंकि उसका बीट ठीक कौशिक के सिर के उपर आ गिरा था। यह देख कर वे अत्यन्त क्रोध से भर उठे। यह दुष्कर्म किसने किया है, यह देखने के लिए अपनी आँखों को लाल करके बड़े क्रोध से उपर की ओर देखा। तपस्या के फलस्वरूप कौशिक में थोड़ी अलौकिक शक्ति उत्पन्न हो गयी थी। देखने के साथ ही साथ बगुला जल कर भष्म हो गया।
तपस्या आदि करने से कई बार इस प्रकार की अलौकिक सिद्धियाँ उत्पन्न हो जाया करती हैं। किन्तु इन शक्तियों प्राप्त करने से मन में अहंकार आने की आशंका भी रहती है। तपस्या का मूल उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति है, इस लक्ष्य को ही भूल जाने का भय रहता है। जो लोग अपने लक्ष्य के प्रति सदैव सतर्क रहते हैं, वे इन सब सिद्धियों या मन की शक्तियों की तरफ मुंह उठा कर भी नहीं देखते। वे सीधा अपने लक्ष्य की ओर ही बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार उन लोगों को शिघ्र ब्रह्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का बोध ) प्राप्त हो जाता है।किन्तु, बगुले को भष्म हुआ देखकर कौशिक का मन अचानक प्रसन्नता से भर गया, उन्हें पहली बार यह पता चला कि उनके भीतर एक अलौकिक शक्ति का विकसित हो गयी है; उनको अपनी शक्ति पर बहुत गर्व हुआ।
इस घटना के कुछ दिनों बाद, कौशिक अपनी निर्जन कुटिया से बाहर निकल कर भिक्षा के लिए एक सुदूरवर्ती गाँव में गए। भारतीय लोग तपस्वियों को भिक्षा देना बहुत पुण्य का कार्य समझते हैं। भिक्षा मांगते हुए कौशिक एक गृहस्थ के घर के दरवाजे पर आ पहुँचते हैं। गृहणी बे उनको थोड़ी प्रतीक्षा करने को कहा और अपने घर के भीतर चली गयी। वे भिक्षा में कुछ देने के लिए सोच ही रही थी कि उसी समय उसके पती घर में वापस लौट अये। वह रमणी एक पतिव्रता स्त्रि थी, जिस प्रकार देवता की सेवा की जाती है, उसी भाव से वे अपने पती की भी सेवा करती थीं। अपने पती को भूख से व्याकुल देख कर, उन्होंने अपना पूरा ध्यान पती की सेवा में लगा दिया। उनका हाथ-पैर धो-पोछ कर उनको पंखा झलने बैठ गयीं। थोडा शांत होने पर उनके सामने भोजन परोस कर रख दिया। अचानक उन्हें भिक्षा की प्रतीक्षा में खड़े कौशिक की याद हो आयी। रमणी थोड़ी लज्जित होकर जल्दी जल्दी भिक्षा द्रव्य लेकर कैशिक को देने के लिए बाहर निकलीं।
तब तक कौशिक बाहर खड़े खड़े रमणी के समस्त गतिविधियों को देख रहे थे, और क्रमशः क्रोध से फूलते जा रहे थे। गृहणी के बाहर निकलते ही वे उसके उपर बरस पड़े- " मुझसे तुम 'आगे-बढ़िए' तो कह सकती थी, ' थोडा रुकिए ' कह कर भीतर गयी तो फिर इतनी देर के बाद बाहर आई हो ! इतनी देर तक मुझे खड़े रखने का मतलब क्या है ? " कौशिक को क्रोध से उत्तेजित देख कर गृहणी ने बहुत प्रकार से अनुनय-विनय करके उनको शान्त करने की चेष्टा करने लगीं। उन्होंने कहा- " देखिये मैं अपने पति को परमेश्वर के रूप में देखती हूँ, वे थके हुए वापस लौटे थे और भूख से व्याकुल थे, इसीलिए मैं उनकी थोड़ी सेवा करने में लग गयी थी, जिसके कारण आपको भिक्षा देने में थोड़ी देरी हो गयी है। कृपा करके आप मुझे क्षमा कर दीजिये। "
साधु चिल्ला पड़े - " मेरे सामने बातें न बनाओ ! तुम साधारण गृहस्थ होकर, भला एक ब्राह्मण का इस प्रकार से अपमान कैसे कर सकती हो ! क्या तुम यह नहीं जानती कि ब्राह्मण में कितनी अलौकिक शक्ति होती है, और उसकी क्रोधदृष्टि कितनी भयानक हो सकती है ?
रमणी ने थोड़ा हंस कर बोली जानती हूँ ब्राह्मण देवता, मैं सब जानती हूँ। इतना गुस्सा क्यों हो रहे हैं ? थोड़ा सिर को ठंढा कीजिये। मैं भी क्या कोई बगुला हूँ, जिसे आप क्रोध से देखकर भष्म कर देंगे ? इतना उत्तेजित मत होइए। अच्छा आप तो वेद मन्त्रों का पाठ भी करते हैं, फिर तो आप निश्चय ही इस बात को जानते होंगे कि क्रोध आध्यात्मिक विकास का घोर शत्रु है ! फिर भी आपने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई है।
उस गृहणी की बातों को सुन कर कौशिक को बहुत आश्चर्य हुआ। सारा गुस्सा जाने कहाँ चला गया पता भी नहीं चला। वे विचार करने लगे, " यह औरत भी तो कम नहीं मालूम दे रही है ! मैंने कहाँ जंगल में क्या करके आया हूँ, इसको अपने घर में बैठे बैठे ही कैसे पता चल गया ? गृहस्थ जीवन में रहकर भी यह नारी तो आध्यात्मिक विकास में मुझसे बहुत आगे निकल चुकी है। देखता हूँ, कि इसने कुछ मानसिक शक्तियों
(psychic powers)को भी प्राप्त कर लिया है ! "
किन्तु उस गृहणी को केवल मानसिक शक्तियां ही प्राप्त नहीं थीं, वह उतना ही करुणामयी भी थीं। रमणी कहने लगी , " ब्राह्मण देवता, मैं आपके जितना विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों को तो नहीं जानती, किन्तु जी-जान से अपने पातिव्रत्य-धर्म का पालन करती हूँ। अपने पति के प्रति मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या है। पती को परम देवता और उनकी सेवा को ही परम धर्म जान कर मैं वही करती जा रही हूँ। इसीके कारण मैं आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर भी अग्रसर हो रही हूँ। और जहाँ तक मानसिक शक्तियों की बात है, तो उसे भी मैंने घर बैठे ही प्राप्त कर लिया है। और उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी आपको मिल चूका है। आपने दूर घने जंगल में कहाँ क्रोध की अग्नि में बगुले को भष्म कर दिया है, घर बैठे ही मैंने उसको जान लिया है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वास्तव में धर्म क्या है, यह आपने अभी तक सही अर्थ नहीं जाना है। तभी तो पक्षी के भष्म हो जाने की सिद्धि प्राप्त करके आप इतने रोमांचित हो उठे हैं। मेरी बात मानिये और आप मिथिला चले जाइये। वहाँ पर ' धर्म-व्याध ' नामक एक कसाई रहते हैं। उनको धर्म का गूढ़ रहस्य ज्ञात है। वे सत्यवादी हैं, जितेन्द्रिय हैं, एवं माता-पिता के सेवा परायण हैं। आप उनके साथ मिलिए। आपको यथार्थ धर्म के सम्बन्ध में वे ही उपदेश देंगे। "
कौशिक को अपना मन शान्त करने में थोडा वक्त लग गया। किन्तु उन्हें उस रमणी का स्मरण हो आया जोअद्भुत ज्ञानी थीं ! ऐसा प्रतीत हुआ कि उस महिला के निर्देशों का उन्हें पालन करना चाहिए। काफी सोच-विचार करने के बाद, अन्त में उन्होंने यह निर्णय लिया उन्होंने मिथिला जाना चाहिये, और वे पैदल ही मिथिला की लम्बी यात्रा पर निकल पड़े।
कौशिक ने कई छोटे छोटे राज्यों को पार किया। रस्ते में कितने ही गाँव मिलते गये, नदियाँ मिलीं, जंगल और पहाड़ मिले, शहर मिले, हरे-भरे कितने ही मैदान मिले। वे भिक्षा माँग कर खा लेते थे, और बस आगे ही बढ़ते जा रहे थे। कई सप्ताह बीत जाने के बाद अन्त में वे राजर्षि जनक की राजधानी मिथिला नगरी पहुँच गये।
बड़ा ही सुंदर नगर था ! सभी सड़कें साफसुथरी थीं, और नक्शे के अनुरूप बनाई गयी थीं ; सार्वजनिक तालाब के घाटों पर भी पूरी स्वछता दिख रही थी। वहाँ के महलों- घरों, उद्द्यान और स्वच्छ ताल-तलैयों को देखने से आँखे जुड़ा जाती थीं। वहां के नागरिक भी स्वस्थ, सबल, और प्रसन्न दीखते थे। वहां की सड़कों, बाजारों, और सभी के घरों को देखने से ऐसा प्रतीत होता था, मानों वहां कोई उत्सव मनाया जा रहा हो। सर्वत्र ही आनन्द छाया हुआ था। यह सब देख कर वे बड़े प्रसन्न हुए। पूछने पर ज्ञात हुआ कि ब्रह्मज्ञानी राजा जनक के सुशासन (Good Governance) के कारण, राजधानी मिथिला में हर समय इसी प्रकार का आनन्द और सुख-शांति छायी रहती है।
कौशिक अपने जीवन में पहली बार ही मिथिला आये थे, यहाँ पहुंचकर उनको भी आनन्द हो रहा था। किन्तु वहाँ के रास्तों से वे बिल्कुल अनभिज्ञ थे, इसीलिए वे पूछते हुए जा रहे थे कि धर्मव्याध कहाँ मिलेंगे ? वहां के सभी लोग धर्म व्याध को पहचानते थे, उन्होंने कौशिक को सामने की एक छोटे से कसाई की दुकान की तरफ जाने का निर्देश दिया। कौशिक दुकान से थोड़ी दुरी पर खड़े हो गए, बिना जाने कि वे यहाँ किस लिए खड़े थे। किन्तु जिस किसी से पूछा कि धर्मव्याध कहाँ मिलेंगे ? तो सभी लोग सीधा उसी मांस विक्रेता की दुकान की तरफ ईशारा कर देते। कौशिक ने सोंचा कि शायद धर्मव्याध जी दुकान में मीट खरीदने गए होंगे। दुकान पर बड़ी भीड़ थी , जिससे साफ जाहिर हो रहा था कि यह किसी प्रसिद्द कसाई की दुकान है। अचानक कौशिक के मन विचार आया कि यह भारी भीड़ यहाँ इसीलिए है कि यह कसाई एक धार्मिक व्यक्ति है, हो न हो यह धार्मिक व्यक्ति वह धर्मव्याध ही है !
तब तक धर्मव्याध भी अपनी मानसिक शक्ति या आध्यात्मिक सिद्धि के बल पर यह जान चुके थे कि कौशिक मिथिला पहुँच चुके हैं और दुकान के सामने खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनको देख कर, उनका स्वागत करने के लिए झटपट उठकर खड़े हो गये, और उनके निकट आकर प्रेमपूर्वक कहा- " हे ब्राह्मण देवता, मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिये। और कृपाकरके आदेश दीजिये कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ कि आपके पड़ोस में रहने वाली एक पतिव्रता गृहणी ने आपको इस सुदूरवर्ती नगर में भेजा है,और क्यों भेजा है,यह भी मैं जानता हूँ। "
उनकी बातों को सुन कर कौशिक आश्चर्य-चकित हो गये, सोचने लगे- " देखता हूँ यह कसाई (चाण्डाल) भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। मांस-विक्रेता होते हुए भी इसको यौगिक शक्ति प्राप्त हो चुकी है, आध्यात्मिक विकास होने से इसकी अन्तःप्रज्ञा (Intuition faculty) इतनी सक्षम हो गयी है कि इसको भी सारी बातें ज्ञात हैं!" इतना ज्ञानी होने पर भी उस व्याध ने जब उनको ' हे ब्राह्मण देवता ' कहकर संबोधित किया, तो उनकी भद्रता और विनम्रता को देख कर मंत्रमुग्ध हो गए थे।
व्याध के अनुरोध करने पर कौशिक उसके घर जाने को भी तैयार हो गये। घर पहुँचने उनकी खातिरदारी की गयी, फिर हाथ-पैर धोकर दोनों व्यक्ति आराम से बैठ कर वार्तालाप करने लगे। कौशिक ने धर्मव्याध से कहा, " आप जो माँस बेच कर अपनी आजीविका चलाते हैं, मैं इस कार्य को बिलकुल भी पसन्द नहीं करता। आपके जैसे धार्मिक व्यक्ति को, ऐसा नीच कर्म करके अपनी आजीविका नहीं चलानी चाहिए। वास्तव में, इस कार्य को देखने से मेरे मन में जुगुप्सा उत्पन्न होती है। "
तब उस मांस बेचने वाले ने कहा - " यह आजीविका मेरी जाती से सम्बंधित है, मेरे पितर (forefathers) लोग भी मांस ही बेचा करते थे। यही तो मेरा वर्णाश्रय-धर्म (जाती-धर्म) है ! आप इस बात पर इतना नाराज क्यों हो रहे हैं ? मैं तो शास्त्रों के नियम के अनुसार जीवन यापन करता हूँ। माता-पिता आदि गुरुजनों की मन-प्राण से सेवा-सुश्रुषा करता हूँ। सदा सत्य बोलता हूँ, और किसी के भी प्रति अपने मन में विद्वेष नहीं रखता। अपनी आय का बड़ा हिस्सा दीन दुखियों की सेवा में अर्पित करता हूँ। अतिथि सेवा करने में कभी कोई कोताही नहीं करता। देवसेवा हो जाने बाद गुरुजनों, स्वजनों-अतिथियों, यहाँ तक कि नौकर-चाकर आदि का भोजन समाप्त हो जाने के बाद, जितना अन्न शरीर की रक्षा के लिए आवश्यक है, उतना ही ग्रहण करता हूँ। इन सबों की सेवा करना ही मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। पूरी श्रद्धा के साथ मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ।
" और इन सबकी सेवा के लिए धन की आवश्यकता होती है, एवं माँस बिक्री करके धनोपार्जन करना मेरी जाति का धर्म है। तो क्या मैं कोई निषिद्ध कर्म, या शास्त्र-विरोधी कर्म कर रहा हूँ? मैं स्वयं कभी माँस नहीं खाता। स्वयम किसी प्राणी की हत्या भी नहीं करता, शिकारियों द्वारा मारे गये पशुओं को खरीद कर उसका माँस अपनी दुकान पर बिक्री करता हूँ।"
कौशिक के मन में खेद हुआ कि उन्होंने धर्मव्याध को कम करके क्यों आंका ! वे समझ गए कि वे सचमुच एक पवित्र मनुष्य के सानिध्य मैं बैठे हैं। धर्मव्याध क्रमशः कौशिक को धर्म के गूढ़ तत्वों के बारे में, यहाँ तक कि ब्रह्मविद्या के विषय में भी विस्तार से बताने लगे। उनकी वाणी में पूरी ईमानदारी झलक रही थी। इसी प्रसंग में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था, " आत्मज्ञान (अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) ही श्रेष्ठ ज्ञान है, सत्यता (truthfulness) ही परम पवित्र व्रत है। जो सर्वजन हितकारी हो, सबों के लिए कल्याणकर हो, वही सत्य है। सत्य ही परमानन्द (blessedness) प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है। इन्द्रिय संयम करना ही सर्वोच्च तप (तपस्या) है। तपस्या करने का इसके आलावा अन्य कोई मार्ग नहीं है। ....आत्मा (जीव) नित्य है, शरीर अनित्य है; मृत्यू के समय केवल शरीर का ही नाश होता है।"
उनकी बातों को सुन कर धर्मव्याध के बारे में कौशिक की जो धारणा पहले थी वह बदल चुकी था। इस समय तक कौशिक धर्मव्याध के उत्तम चरित्र के विषय में आश्वस्त हो चुके थे, जिनकी वाणी कितनी प्रभावशाली थी ! उन्होंने यह भी महसूस किया कि धर्मव्याध अभी जो कुछ हैं, वह उनके पाण्डित्य के कारण नहीं हैं; किन्तु यह उनका सुंदर आचरण ही है, जिसके कारण उन्हें धर्मव्याध कहा जाता है।
उन्होंने देखा कि उनके उपदेशों की वे जितना ही सुन रहे हैं, मन का संशय उतना ही मिटता जा रहा है; उनका हृदय ज्ञान के आलोक से उतना ही उद्भाषित हो उठा है। ब्रह्म विद्या के बारे में धर्म व्याध ने जो कुछ भी कहा, उनके मन ने उसे बिना किसी शंका के स्वीकार कर लिया। तब उनके समझ में आ गया कि धर्म व्याध को ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है। क्योंकि स्वयं दुश्चरित्र से या निषिद्ध कर्मों से निवृत्त हुए बिना, किसी दूसरे को चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए अनुप्रेरित करना असम्भव है। किसी आदर्श को अपने जीवन में प्रतिफलित किये बिना, केवल प्रवचन देकर दूसरों को उस आदर्श के अनुरूप जीवन गठन करने के लिए अनुप्रेरित कर पाना अव्यवहारिक (Impracticable) भी है।
भक्तिभाव (reverentially) से दोनों हाथ जोड़कर कौशिक ने धर्मव्याध से कहा, " धर्म का कोई भी तत्व आपके लिए अविदित नहीं है। आज मैंने एक ऋषि को ढूंढ़ निकाला है। आपकी बातों को सुनने से, आप किसी महर्षी की तरह प्रतीत होते हैं। मैं यह समझ सकता हूँ कि उपरी तौर से एक मांस-विक्रेता (meat -seller या बिजनेसमैन) होने की पहचान बनाये रखते हुए भी आपको पूर्णता (सिद्धि) प्राप्त हो चुकी है। " इसके बाद धर्मव्याध ने कौशिक को 'कर्म का रहस्य ' (The Secret of Work) सिखलाते हुए कहा - कि " सही दृष्टिकोण - निवृत्ति अस्तु महाफला" के साथ अपने लिए निर्धारित कर्म को करना - "to do one's duty with right attitude' ही कर्म का रहस्य है। जो किसी कर्मयोगी को ब्रह्ज्ञान में उन्नत (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है। इसलिए किसी को यदि सिद्धि (पूर्णता) प्राप्त करनी हो, या चरित्रवान मनुष्य बनना हो तो उसे जंगल में जाकर तपस्या करने की आवश्यकता नहीं होती।
[चरित्र एकांत में या जंगल में जाकर पकाने की चीज नहीं है -दादा] गृहस्थ जीवन में सगे-सम्बन्धियों, समाज या परिवार के बीच रहते हुए ही निषिद्ध कर्मों को करने से या शास्त्र-विरोधी कर्मों को करने से बचा जा सकता है। घरपरिवार में रहते हुए अनासक्त होकर किस प्रकार से रहना होता है, इन सब बातों को धर्मव्याध ने बहुत विस्तार से, कई प्रकार के उदहारण देकर कौशिक को समझा दिया।
इसके बाद सबसे अन्त में अपने माता-पिता से परिचय करवा देने के बाद कौशिक से कहा - " मैं इन्हें साक्षात् देवता (शिव-पार्वती ) के रूप में देखता हूँ और उसी रूप में बड़े प्रेम से उपासना समझ कर इनकी सेवा करता हूँ। इतनी साधना से ही मुझे सबकुछ प्राप्त हो गया है। मैंने अपने गृहस्थ धर्म और वर्णाश्रय -धर्म (जाति का धर्म) का पालन करके ही पूर्णता प्राप्त की है। आप भी अपने घर-परिवार में वापस लौट जाइये और वहाँ रहते हुए ही धर्म-प्राप्ति (अपने सच्चे स्वरुप को जानने ) की साधना करते रहिये। माता-पिता की अनुमति लिए बिना उनको घर में असहाय छोड़ कर, जंगल में वेद-पाठ करने के लिए चले आकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया है। घर लौट कर पहले उनको प्रसन्न कीजिये। मैं सोचता हूँ, इसीसे आप आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकेंगे। "
कौशिक ने कहा- " उस पतिव्रता नारी ने जब आपको ' महाधार्मिक ' की संज्ञा दी थी; तो मैंने उनकी बातों पर शंका की थी। किन्तु अब देखता हूँ, उन्होंने ठीक ही कहा था। आपकी बातों को सुनने से मेरे मन के सारे संशय मिट चुके हैं, अब मैं ईमानदारी से आपके उपदेशों का पालन करूँगा। इतना कहकर कौशिक, धर्मव्याध से विदा लेकर अपने घर वापस लौट गए। और मांस-विक्रेता ने जो करने का उपदेश उसे दिया था ,शास्त्रोचित कर्म तथा देवता ज्ञान से अपने माता-पिता की सेवा करके वह ब्राह्मण-कुमार कौशिक भी भी ब्रह्मविद (Wise या बुद्ध) बन चुके थे !
स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे कि ' यदि हमें अपने देव-स्वरुप की उपलब्धी करनी हो, या सभी जीवों में स्वयं को प्रत्यक्षतः अनुभव करना चाहते हों, तो 'प्रत्येक मनुष्य की सेवा ईश्वर की उपासना' समझते हुए प्रतिपादित की जानी चाहिए। किन्तु प्रारम्भ में ही प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर के रूप में आदर देना कठिन है। यदि तुम प्रारंभ में सबों को यदि ईश्वर ज्ञान से नहीं देख सको तो, अपने परिवार के सभी लोगों को, या कम से कम परिवार के एक व्यक्ति को लेकर, उस ज्ञानमयी दृष्टि के साथ आरम्भ कर सकते हो। मन में ऐसा दृढ निश्चय लेकर आगे बढना होगा कि उनको प्रेम करने से ईश्वर को ही प्रेम कर रहा हूँ, उनकी सेवा से ईश्वर की ही सेवा हो रही है। क्रमशः सम्पूर्ण समाज को, फिर सम्पूर्ण राष्ट्र को भी अपने परिवार के रूप में देखना चाहिए। महाभारत में दी गयी इस कहानी को स्वामी विवेकानन्द अपने पाश्चात्य देशों के अनुयायिओं को सुनाया करते थे। वे कहते थे - ' ऐसी कोई आजीविका (career या पेशा) नहीं है, जो ईश्वर प्राप्ति का मार्ग न हो। ईश्वर प्राप्ति का प्रश्न, माँ जगदम्बा को (या उनके अवतार को पहचान कर), अपने अंतिम आश्रय के रूप में उन्हें ही प्राप्त करने की आत्मा की व्याकुलता पर निर्भर करता है। " There is no career which might not be the path to God .The question of attainment depends only , in last resort, on the thirst of the soul ."
एक दिन जिस पेड़ के नीचे बैठ कर कौशिक वेद मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे, एक छोटा सा बगुला आकर उनके सिर के ऊपर लगे डाल पर आकर बैठ गया। उस छोटे से पक्षी को शायद कौशिक की महानता का पता नहीं था, क्योंकि उसका बीट ठीक कौशिक के सिर के उपर आ गिरा था। यह देख कर वे अत्यन्त क्रोध से भर उठे। यह दुष्कर्म किसने किया है, यह देखने के लिए अपनी आँखों को लाल करके बड़े क्रोध से उपर की ओर देखा। तपस्या के फलस्वरूप कौशिक में थोड़ी अलौकिक शक्ति उत्पन्न हो गयी थी। देखने के साथ ही साथ बगुला जल कर भष्म हो गया।
तपस्या आदि करने से कई बार इस प्रकार की अलौकिक सिद्धियाँ उत्पन्न हो जाया करती हैं। किन्तु इन शक्तियों प्राप्त करने से मन में अहंकार आने की आशंका भी रहती है। तपस्या का मूल उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति है, इस लक्ष्य को ही भूल जाने का भय रहता है। जो लोग अपने लक्ष्य के प्रति सदैव सतर्क रहते हैं, वे इन सब सिद्धियों या मन की शक्तियों की तरफ मुंह उठा कर भी नहीं देखते। वे सीधा अपने लक्ष्य की ओर ही बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार उन लोगों को शिघ्र ब्रह्मज्ञान (अपने सच्चे स्वरुप का बोध ) प्राप्त हो जाता है।किन्तु, बगुले को भष्म हुआ देखकर कौशिक का मन अचानक प्रसन्नता से भर गया, उन्हें पहली बार यह पता चला कि उनके भीतर एक अलौकिक शक्ति का विकसित हो गयी है; उनको अपनी शक्ति पर बहुत गर्व हुआ।
इस घटना के कुछ दिनों बाद, कौशिक अपनी निर्जन कुटिया से बाहर निकल कर भिक्षा के लिए एक सुदूरवर्ती गाँव में गए। भारतीय लोग तपस्वियों को भिक्षा देना बहुत पुण्य का कार्य समझते हैं। भिक्षा मांगते हुए कौशिक एक गृहस्थ के घर के दरवाजे पर आ पहुँचते हैं। गृहणी बे उनको थोड़ी प्रतीक्षा करने को कहा और अपने घर के भीतर चली गयी। वे भिक्षा में कुछ देने के लिए सोच ही रही थी कि उसी समय उसके पती घर में वापस लौट अये। वह रमणी एक पतिव्रता स्त्रि थी, जिस प्रकार देवता की सेवा की जाती है, उसी भाव से वे अपने पती की भी सेवा करती थीं। अपने पती को भूख से व्याकुल देख कर, उन्होंने अपना पूरा ध्यान पती की सेवा में लगा दिया। उनका हाथ-पैर धो-पोछ कर उनको पंखा झलने बैठ गयीं। थोडा शांत होने पर उनके सामने भोजन परोस कर रख दिया। अचानक उन्हें भिक्षा की प्रतीक्षा में खड़े कौशिक की याद हो आयी। रमणी थोड़ी लज्जित होकर जल्दी जल्दी भिक्षा द्रव्य लेकर कैशिक को देने के लिए बाहर निकलीं।
तब तक कौशिक बाहर खड़े खड़े रमणी के समस्त गतिविधियों को देख रहे थे, और क्रमशः क्रोध से फूलते जा रहे थे। गृहणी के बाहर निकलते ही वे उसके उपर बरस पड़े- " मुझसे तुम 'आगे-बढ़िए' तो कह सकती थी, ' थोडा रुकिए ' कह कर भीतर गयी तो फिर इतनी देर के बाद बाहर आई हो ! इतनी देर तक मुझे खड़े रखने का मतलब क्या है ? " कौशिक को क्रोध से उत्तेजित देख कर गृहणी ने बहुत प्रकार से अनुनय-विनय करके उनको शान्त करने की चेष्टा करने लगीं। उन्होंने कहा- " देखिये मैं अपने पति को परमेश्वर के रूप में देखती हूँ, वे थके हुए वापस लौटे थे और भूख से व्याकुल थे, इसीलिए मैं उनकी थोड़ी सेवा करने में लग गयी थी, जिसके कारण आपको भिक्षा देने में थोड़ी देरी हो गयी है। कृपा करके आप मुझे क्षमा कर दीजिये। "
साधु चिल्ला पड़े - " मेरे सामने बातें न बनाओ ! तुम साधारण गृहस्थ होकर, भला एक ब्राह्मण का इस प्रकार से अपमान कैसे कर सकती हो ! क्या तुम यह नहीं जानती कि ब्राह्मण में कितनी अलौकिक शक्ति होती है, और उसकी क्रोधदृष्टि कितनी भयानक हो सकती है ?
रमणी ने थोड़ा हंस कर बोली जानती हूँ ब्राह्मण देवता, मैं सब जानती हूँ। इतना गुस्सा क्यों हो रहे हैं ? थोड़ा सिर को ठंढा कीजिये। मैं भी क्या कोई बगुला हूँ, जिसे आप क्रोध से देखकर भष्म कर देंगे ? इतना उत्तेजित मत होइए। अच्छा आप तो वेद मन्त्रों का पाठ भी करते हैं, फिर तो आप निश्चय ही इस बात को जानते होंगे कि क्रोध आध्यात्मिक विकास का घोर शत्रु है ! फिर भी आपने अभी तक क्रोध पर विजय नहीं पाई है।
उस गृहणी की बातों को सुन कर कौशिक को बहुत आश्चर्य हुआ। सारा गुस्सा जाने कहाँ चला गया पता भी नहीं चला। वे विचार करने लगे, " यह औरत भी तो कम नहीं मालूम दे रही है ! मैंने कहाँ जंगल में क्या करके आया हूँ, इसको अपने घर में बैठे बैठे ही कैसे पता चल गया ? गृहस्थ जीवन में रहकर भी यह नारी तो आध्यात्मिक विकास में मुझसे बहुत आगे निकल चुकी है। देखता हूँ, कि इसने कुछ मानसिक शक्तियों
(psychic powers)को भी प्राप्त कर लिया है ! "
किन्तु उस गृहणी को केवल मानसिक शक्तियां ही प्राप्त नहीं थीं, वह उतना ही करुणामयी भी थीं। रमणी कहने लगी , " ब्राह्मण देवता, मैं आपके जितना विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठानों को तो नहीं जानती, किन्तु जी-जान से अपने पातिव्रत्य-धर्म का पालन करती हूँ। अपने पति के प्रति मेरा कर्तव्य ही मेरी तपस्या है। पती को परम देवता और उनकी सेवा को ही परम धर्म जान कर मैं वही करती जा रही हूँ। इसीके कारण मैं आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर भी अग्रसर हो रही हूँ। और जहाँ तक मानसिक शक्तियों की बात है, तो उसे भी मैंने घर बैठे ही प्राप्त कर लिया है। और उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी आपको मिल चूका है। आपने दूर घने जंगल में कहाँ क्रोध की अग्नि में बगुले को भष्म कर दिया है, घर बैठे ही मैंने उसको जान लिया है। इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वास्तव में धर्म क्या है, यह आपने अभी तक सही अर्थ नहीं जाना है। तभी तो पक्षी के भष्म हो जाने की सिद्धि प्राप्त करके आप इतने रोमांचित हो उठे हैं। मेरी बात मानिये और आप मिथिला चले जाइये। वहाँ पर ' धर्म-व्याध ' नामक एक कसाई रहते हैं। उनको धर्म का गूढ़ रहस्य ज्ञात है। वे सत्यवादी हैं, जितेन्द्रिय हैं, एवं माता-पिता के सेवा परायण हैं। आप उनके साथ मिलिए। आपको यथार्थ धर्म के सम्बन्ध में वे ही उपदेश देंगे। "
वर्णाश्रय -धर्म का पालन करने वाला 'मांस विक्रेता - धर्मव्याध'
कौशिक ने उस रमणी के उपदेश को सुना और भिक्षा लेकर अपने जंगल की कुटिया में लौट आये। अभी तक जितने लोगों से वे मिले थे, उनमें से यह गृहणी सबसे आश्चर्यजनक प्रतीत हो रही थी। उसके उपदेशों पर कौशिक गहराई से विचार करने लगे। किन्तु एक परेशानी थी, 'धर्मव्याध' नाम से तो वह व्यक्ति ब्राह्मण प्रतीत नहीं होता ? और कोई ब्राह्मण-कुमार ज्ञान प्राप्त करने के लिए भला इस प्रकार के नाम वाले व्यक्ति के पास कैसे जा सकता है ! मिथिला जाकर एक व्याध (या कसाई जो मांस बेचकर अपनी आजीविका चलता था) से ज्ञान प्राप्त करने के विचार से ही वे बेचैन हो उठे। कौशिक को अपना मन शान्त करने में थोडा वक्त लग गया। किन्तु उन्हें उस रमणी का स्मरण हो आया जोअद्भुत ज्ञानी थीं ! ऐसा प्रतीत हुआ कि उस महिला के निर्देशों का उन्हें पालन करना चाहिए। काफी सोच-विचार करने के बाद, अन्त में उन्होंने यह निर्णय लिया उन्होंने मिथिला जाना चाहिये, और वे पैदल ही मिथिला की लम्बी यात्रा पर निकल पड़े।
कौशिक ने कई छोटे छोटे राज्यों को पार किया। रस्ते में कितने ही गाँव मिलते गये, नदियाँ मिलीं, जंगल और पहाड़ मिले, शहर मिले, हरे-भरे कितने ही मैदान मिले। वे भिक्षा माँग कर खा लेते थे, और बस आगे ही बढ़ते जा रहे थे। कई सप्ताह बीत जाने के बाद अन्त में वे राजर्षि जनक की राजधानी मिथिला नगरी पहुँच गये।
बड़ा ही सुंदर नगर था ! सभी सड़कें साफसुथरी थीं, और नक्शे के अनुरूप बनाई गयी थीं ; सार्वजनिक तालाब के घाटों पर भी पूरी स्वछता दिख रही थी। वहाँ के महलों- घरों, उद्द्यान और स्वच्छ ताल-तलैयों को देखने से आँखे जुड़ा जाती थीं। वहां के नागरिक भी स्वस्थ, सबल, और प्रसन्न दीखते थे। वहां की सड़कों, बाजारों, और सभी के घरों को देखने से ऐसा प्रतीत होता था, मानों वहां कोई उत्सव मनाया जा रहा हो। सर्वत्र ही आनन्द छाया हुआ था। यह सब देख कर वे बड़े प्रसन्न हुए। पूछने पर ज्ञात हुआ कि ब्रह्मज्ञानी राजा जनक के सुशासन (Good Governance) के कारण, राजधानी मिथिला में हर समय इसी प्रकार का आनन्द और सुख-शांति छायी रहती है।
कौशिक अपने जीवन में पहली बार ही मिथिला आये थे, यहाँ पहुंचकर उनको भी आनन्द हो रहा था। किन्तु वहाँ के रास्तों से वे बिल्कुल अनभिज्ञ थे, इसीलिए वे पूछते हुए जा रहे थे कि धर्मव्याध कहाँ मिलेंगे ? वहां के सभी लोग धर्म व्याध को पहचानते थे, उन्होंने कौशिक को सामने की एक छोटे से कसाई की दुकान की तरफ जाने का निर्देश दिया। कौशिक दुकान से थोड़ी दुरी पर खड़े हो गए, बिना जाने कि वे यहाँ किस लिए खड़े थे। किन्तु जिस किसी से पूछा कि धर्मव्याध कहाँ मिलेंगे ? तो सभी लोग सीधा उसी मांस विक्रेता की दुकान की तरफ ईशारा कर देते। कौशिक ने सोंचा कि शायद धर्मव्याध जी दुकान में मीट खरीदने गए होंगे। दुकान पर बड़ी भीड़ थी , जिससे साफ जाहिर हो रहा था कि यह किसी प्रसिद्द कसाई की दुकान है। अचानक कौशिक के मन विचार आया कि यह भारी भीड़ यहाँ इसीलिए है कि यह कसाई एक धार्मिक व्यक्ति है, हो न हो यह धार्मिक व्यक्ति वह धर्मव्याध ही है !
तब तक धर्मव्याध भी अपनी मानसिक शक्ति या आध्यात्मिक सिद्धि के बल पर यह जान चुके थे कि कौशिक मिथिला पहुँच चुके हैं और दुकान के सामने खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनको देख कर, उनका स्वागत करने के लिए झटपट उठकर खड़े हो गये, और उनके निकट आकर प्रेमपूर्वक कहा- " हे ब्राह्मण देवता, मेरा प्रणाम स्वीकार कीजिये। और कृपाकरके आदेश दीजिये कि मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ कि आपके पड़ोस में रहने वाली एक पतिव्रता गृहणी ने आपको इस सुदूरवर्ती नगर में भेजा है,और क्यों भेजा है,यह भी मैं जानता हूँ। "
उनकी बातों को सुन कर कौशिक आश्चर्य-चकित हो गये, सोचने लगे- " देखता हूँ यह कसाई (चाण्डाल) भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। मांस-विक्रेता होते हुए भी इसको यौगिक शक्ति प्राप्त हो चुकी है, आध्यात्मिक विकास होने से इसकी अन्तःप्रज्ञा (Intuition faculty) इतनी सक्षम हो गयी है कि इसको भी सारी बातें ज्ञात हैं!" इतना ज्ञानी होने पर भी उस व्याध ने जब उनको ' हे ब्राह्मण देवता ' कहकर संबोधित किया, तो उनकी भद्रता और विनम्रता को देख कर मंत्रमुग्ध हो गए थे।
व्याध के अनुरोध करने पर कौशिक उसके घर जाने को भी तैयार हो गये। घर पहुँचने उनकी खातिरदारी की गयी, फिर हाथ-पैर धोकर दोनों व्यक्ति आराम से बैठ कर वार्तालाप करने लगे। कौशिक ने धर्मव्याध से कहा, " आप जो माँस बेच कर अपनी आजीविका चलाते हैं, मैं इस कार्य को बिलकुल भी पसन्द नहीं करता। आपके जैसे धार्मिक व्यक्ति को, ऐसा नीच कर्म करके अपनी आजीविका नहीं चलानी चाहिए। वास्तव में, इस कार्य को देखने से मेरे मन में जुगुप्सा उत्पन्न होती है। "
तब उस मांस बेचने वाले ने कहा - " यह आजीविका मेरी जाती से सम्बंधित है, मेरे पितर (forefathers) लोग भी मांस ही बेचा करते थे। यही तो मेरा वर्णाश्रय-धर्म (जाती-धर्म) है ! आप इस बात पर इतना नाराज क्यों हो रहे हैं ? मैं तो शास्त्रों के नियम के अनुसार जीवन यापन करता हूँ। माता-पिता आदि गुरुजनों की मन-प्राण से सेवा-सुश्रुषा करता हूँ। सदा सत्य बोलता हूँ, और किसी के भी प्रति अपने मन में विद्वेष नहीं रखता। अपनी आय का बड़ा हिस्सा दीन दुखियों की सेवा में अर्पित करता हूँ। अतिथि सेवा करने में कभी कोई कोताही नहीं करता। देवसेवा हो जाने बाद गुरुजनों, स्वजनों-अतिथियों, यहाँ तक कि नौकर-चाकर आदि का भोजन समाप्त हो जाने के बाद, जितना अन्न शरीर की रक्षा के लिए आवश्यक है, उतना ही ग्रहण करता हूँ। इन सबों की सेवा करना ही मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। पूरी श्रद्धा के साथ मैं अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ।
" और इन सबकी सेवा के लिए धन की आवश्यकता होती है, एवं माँस बिक्री करके धनोपार्जन करना मेरी जाति का धर्म है। तो क्या मैं कोई निषिद्ध कर्म, या शास्त्र-विरोधी कर्म कर रहा हूँ? मैं स्वयं कभी माँस नहीं खाता। स्वयम किसी प्राणी की हत्या भी नहीं करता, शिकारियों द्वारा मारे गये पशुओं को खरीद कर उसका माँस अपनी दुकान पर बिक्री करता हूँ।"
कौशिक के मन में खेद हुआ कि उन्होंने धर्मव्याध को कम करके क्यों आंका ! वे समझ गए कि वे सचमुच एक पवित्र मनुष्य के सानिध्य मैं बैठे हैं। धर्मव्याध क्रमशः कौशिक को धर्म के गूढ़ तत्वों के बारे में, यहाँ तक कि ब्रह्मविद्या के विषय में भी विस्तार से बताने लगे। उनकी वाणी में पूरी ईमानदारी झलक रही थी। इसी प्रसंग में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था, " आत्मज्ञान (अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान ) ही श्रेष्ठ ज्ञान है, सत्यता (truthfulness) ही परम पवित्र व्रत है। जो सर्वजन हितकारी हो, सबों के लिए कल्याणकर हो, वही सत्य है। सत्य ही परमानन्द (blessedness) प्राप्त करने का सर्वोत्तम उपाय है। इन्द्रिय संयम करना ही सर्वोच्च तप (तपस्या) है। तपस्या करने का इसके आलावा अन्य कोई मार्ग नहीं है। ....आत्मा (जीव) नित्य है, शरीर अनित्य है; मृत्यू के समय केवल शरीर का ही नाश होता है।"
उनकी बातों को सुन कर धर्मव्याध के बारे में कौशिक की जो धारणा पहले थी वह बदल चुकी था। इस समय तक कौशिक धर्मव्याध के उत्तम चरित्र के विषय में आश्वस्त हो चुके थे, जिनकी वाणी कितनी प्रभावशाली थी ! उन्होंने यह भी महसूस किया कि धर्मव्याध अभी जो कुछ हैं, वह उनके पाण्डित्य के कारण नहीं हैं; किन्तु यह उनका सुंदर आचरण ही है, जिसके कारण उन्हें धर्मव्याध कहा जाता है।
उन्होंने देखा कि उनके उपदेशों की वे जितना ही सुन रहे हैं, मन का संशय उतना ही मिटता जा रहा है; उनका हृदय ज्ञान के आलोक से उतना ही उद्भाषित हो उठा है। ब्रह्म विद्या के बारे में धर्म व्याध ने जो कुछ भी कहा, उनके मन ने उसे बिना किसी शंका के स्वीकार कर लिया। तब उनके समझ में आ गया कि धर्म व्याध को ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है। क्योंकि स्वयं दुश्चरित्र से या निषिद्ध कर्मों से निवृत्त हुए बिना, किसी दूसरे को चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए अनुप्रेरित करना असम्भव है। किसी आदर्श को अपने जीवन में प्रतिफलित किये बिना, केवल प्रवचन देकर दूसरों को उस आदर्श के अनुरूप जीवन गठन करने के लिए अनुप्रेरित कर पाना अव्यवहारिक (Impracticable) भी है।
भक्तिभाव (reverentially) से दोनों हाथ जोड़कर कौशिक ने धर्मव्याध से कहा, " धर्म का कोई भी तत्व आपके लिए अविदित नहीं है। आज मैंने एक ऋषि को ढूंढ़ निकाला है। आपकी बातों को सुनने से, आप किसी महर्षी की तरह प्रतीत होते हैं। मैं यह समझ सकता हूँ कि उपरी तौर से एक मांस-विक्रेता (meat -seller या बिजनेसमैन) होने की पहचान बनाये रखते हुए भी आपको पूर्णता (सिद्धि) प्राप्त हो चुकी है। " इसके बाद धर्मव्याध ने कौशिक को 'कर्म का रहस्य ' (The Secret of Work) सिखलाते हुए कहा - कि " सही दृष्टिकोण - निवृत्ति अस्तु महाफला" के साथ अपने लिए निर्धारित कर्म को करना - "to do one's duty with right attitude' ही कर्म का रहस्य है। जो किसी कर्मयोगी को ब्रह्ज्ञान में उन्नत (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है। इसलिए किसी को यदि सिद्धि (पूर्णता) प्राप्त करनी हो, या चरित्रवान मनुष्य बनना हो तो उसे जंगल में जाकर तपस्या करने की आवश्यकता नहीं होती।
[चरित्र एकांत में या जंगल में जाकर पकाने की चीज नहीं है -दादा] गृहस्थ जीवन में सगे-सम्बन्धियों, समाज या परिवार के बीच रहते हुए ही निषिद्ध कर्मों को करने से या शास्त्र-विरोधी कर्मों को करने से बचा जा सकता है। घरपरिवार में रहते हुए अनासक्त होकर किस प्रकार से रहना होता है, इन सब बातों को धर्मव्याध ने बहुत विस्तार से, कई प्रकार के उदहारण देकर कौशिक को समझा दिया।
इसके बाद सबसे अन्त में अपने माता-पिता से परिचय करवा देने के बाद कौशिक से कहा - " मैं इन्हें साक्षात् देवता (शिव-पार्वती ) के रूप में देखता हूँ और उसी रूप में बड़े प्रेम से उपासना समझ कर इनकी सेवा करता हूँ। इतनी साधना से ही मुझे सबकुछ प्राप्त हो गया है। मैंने अपने गृहस्थ धर्म और वर्णाश्रय -धर्म (जाति का धर्म) का पालन करके ही पूर्णता प्राप्त की है। आप भी अपने घर-परिवार में वापस लौट जाइये और वहाँ रहते हुए ही धर्म-प्राप्ति (अपने सच्चे स्वरुप को जानने ) की साधना करते रहिये। माता-पिता की अनुमति लिए बिना उनको घर में असहाय छोड़ कर, जंगल में वेद-पाठ करने के लिए चले आकर आपने अच्छा कार्य नहीं किया है। घर लौट कर पहले उनको प्रसन्न कीजिये। मैं सोचता हूँ, इसीसे आप आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर सकेंगे। "
कौशिक ने कहा- " उस पतिव्रता नारी ने जब आपको ' महाधार्मिक ' की संज्ञा दी थी; तो मैंने उनकी बातों पर शंका की थी। किन्तु अब देखता हूँ, उन्होंने ठीक ही कहा था। आपकी बातों को सुनने से मेरे मन के सारे संशय मिट चुके हैं, अब मैं ईमानदारी से आपके उपदेशों का पालन करूँगा। इतना कहकर कौशिक, धर्मव्याध से विदा लेकर अपने घर वापस लौट गए। और मांस-विक्रेता ने जो करने का उपदेश उसे दिया था ,शास्त्रोचित कर्म तथा देवता ज्ञान से अपने माता-पिता की सेवा करके वह ब्राह्मण-कुमार कौशिक भी भी ब्रह्मविद (Wise या बुद्ध) बन चुके थे !
स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे कि ' यदि हमें अपने देव-स्वरुप की उपलब्धी करनी हो, या सभी जीवों में स्वयं को प्रत्यक्षतः अनुभव करना चाहते हों, तो 'प्रत्येक मनुष्य की सेवा ईश्वर की उपासना' समझते हुए प्रतिपादित की जानी चाहिए। किन्तु प्रारम्भ में ही प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर के रूप में आदर देना कठिन है। यदि तुम प्रारंभ में सबों को यदि ईश्वर ज्ञान से नहीं देख सको तो, अपने परिवार के सभी लोगों को, या कम से कम परिवार के एक व्यक्ति को लेकर, उस ज्ञानमयी दृष्टि के साथ आरम्भ कर सकते हो। मन में ऐसा दृढ निश्चय लेकर आगे बढना होगा कि उनको प्रेम करने से ईश्वर को ही प्रेम कर रहा हूँ, उनकी सेवा से ईश्वर की ही सेवा हो रही है। क्रमशः सम्पूर्ण समाज को, फिर सम्पूर्ण राष्ट्र को भी अपने परिवार के रूप में देखना चाहिए। महाभारत में दी गयी इस कहानी को स्वामी विवेकानन्द अपने पाश्चात्य देशों के अनुयायिओं को सुनाया करते थे। वे कहते थे - ' ऐसी कोई आजीविका (career या पेशा) नहीं है, जो ईश्वर प्राप्ति का मार्ग न हो। ईश्वर प्राप्ति का प्रश्न, माँ जगदम्बा को (या उनके अवतार को पहचान कर), अपने अंतिम आश्रय के रूप में उन्हें ही प्राप्त करने की आत्मा की व्याकुलता पर निर्भर करता है। " There is no career which might not be the path to God .The question of attainment depends only , in last resort, on the thirst of the soul ."
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें