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बुधवार, 22 अगस्त 2018

भगवान श्रीराम के अवतार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में क्या उपदेश दिया ?

         आध्यात्मिक पूर्णता ' कुरुक्षेत्र में -अर्थात गृहस्थ जीवन में' रहकर भी प्राप्त की जा सकती है !
[ Spiritual Perfection is Within the Reach of All ]
 'अद्वैत वेदान्त' का गूढ़ सिद्धांत है - ' ईश्वर और सत्य का अभेद'; "एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" -सत्य एक ही है ज्ञानी नाना प्रकार से कहते हैं।  जिसे चारों वेदों ने इसी महासत्य को चार प्रकार से परिभाषित किया है। महावाक्य नाम से अभिहित यह परिभाषाएं निम्न प्रकार हैं-
१. प्रज्ञानं ब्रह्म - प्रज्ञा  रूप (उपाधिवाला) आत्मा ब्रह्म है..[ इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है , क्योंकि इसमें ब्रह्म को सर्वव्यापी चैतन्य (संवित या Consciousness) रूप में रखा गया है।'(ऐतरेय उपनिषद - ऋगवेद) Consciousness is Brahman'... Aitareya Upnishad... Rigveda.  ekam sat vipraa bahudhaa vadanti 
२. अहम् ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हू...[(ब्रिह्दारन्यक उपनिषद - यजुर्वेद) 'I am Brahman...' Brahadaranyak Upnishad... Yajurveda.इसे ' अनुभव वाक्य ' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के जरिए हासिल किया जा सकता है। ]
३. तत्वमसि ~ तत + त्वम + असि >वह पूर्ण ब्रह्म तू है... (छान्दोग्य उपनिषद् - सामवेद) You are That... Chhandogya Upnishad... Saamveda.इस महावाक्य ' तत त्वम असि ' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं , तुम भी ब्रह्म ही हो , बल्कि विश्व की हर वस्तु ही ब्रह्म है। इसे उपदेश वाक्य भी कहा जाता है। यह 'उपदेश-वाक्य' इसलिए भी कहा जाता है , क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही , वे दूसरों के प्रति आदर की भावना को भी पैदा करते हैं।] 
४. अयं आत्माब्रह्म ~  यह (सर्वानुभव सिद्ध अपरोक्ष) आत्मा ब्रह्म है... (मांडूक्य उपनिषद - अथर्व-वेद) This Self(Aatma) is Brahman... Maandukya Upnishad... Atharv-veda. ' अयंआत्मा  ब्रह्म ' महावाक्य के जरिए यह जताने की कोशिश हुई है कि आत्मा ही परमात्मा (ब्रह्म या माँ जगदम्बा) है। दरअसल , यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है , इसलिए इसे ' अनुसंधान -वाक्य ' भी कहा जाता है। ] 
किन्तु किसी सामान्य मनुष्य को (जिसका कॉमन सेन्स अभी तक पर्याप्त मात्रा में विकसित नहीं हुआ हो) या बच्चों को वेदान्त के उपरोक्त गूढ़ सिद्धान्तों को कहानियों के माध्यम से ही समझाया जा सकता है। अतः युवा पाठचक्र (Youth Study Circle) में विचार-विमर्श अद्वैत वेदान्त के गूढ़ सिद्धान्तों को समझने के लिये करना चाहिये, कहानी की ऐतिहासिकता को लेकर अधिक माथापच्ची  नहीं करनी चाहिये। 
प्राचीन काल में भारतवर्ष पर विचित्र वीर्य नामक एक राजा का शासन था । उनके तीन पुत्र थे जिनका नाम -धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर था। धृतराष्ट्र बड़े थे, किन्तु जन्मान्ध थे इसीलिए राज्य का उत्तराधिकार उनको न देकर पाण्डु को राज्य-सिंहासन सौंप दिया गया। धृतराष्ट्र को एक सौ लड़के थे, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा लड़का था। पांडू के पाँच पुत्र थे जिनका नाम था- युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकूल और सहदेव, इनमें युधिष्ठिर सबसे बड़े थे। जब ये राजकुमार छोटे ही थे कि पांडू का देहान्त हो गया; इसीलिए, धृतराष्ट्र ने ही अपनी  देख-रेख में अपने सौ पुत्रों के साथ-साथ उनके चचेरे भाइयों की शिक्षा-दीक्षा का भी उचित प्रबंध किया, और सभी राजकुमार एक ही साथ युद्धविद्या एवं शिक्षा आदि ग्रहण करते हुए बड़े हुए। 
न्यायोचित रूप से (legally) राजकुमार युधिष्ठिर ही राजसिंहासन के उत्तराधिकारी थे, इसलिये दुर्योधन प्रारंभ से ही उन्हें मार डालने का षड्यन्त्र करता रहता था। यह सब देख-सुन कर, भविष्य में कोई बड़ी घटना न घटे, धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों और भतीजों में आधा आधा राज्य बाँट दिया। किन्तु दुर्योधन को यह आधा राज्य मंजूर नहीं था। वह पूरा राज्य ही पाना चाहता था। उसने दुर्योधन को पाँसे का एक ऐसा खेल खेलने का आमन्त्रण भेजा, जिसमें हारने वाले के भाग्य का फैसला करने का अधिकार जीतने वाले के हाथों में होगा। 
दुर्योधन ने धोखे से पाँसे का खेल जीत लिया और यह माँग रखी की द्रौपदी सहित पांचो भाइयों को १४ वर्षों तक वनवास में जाना होगा। युधिष्ठिर तो सत्यवादी थे, उन्होंने वन में जाना सहर्ष स्वीकार कर लिया। इस बीच दुर्योधन के कई अत्याचारों को चुप चाप सहते हुए, वर्षों बाद जंगल से वापस लौटने पर, युधिष्ठिर जब अपना राज्य पुनः वापस लौटा देने का अनुरोध करते हैं। किन्तु दुर्योधन उनके राज्य को वापस लौटने के लिए तैयार नहीं हुआ। तब युधिष्ठिर सारी शत्रुता को समाप्त करने के उद्देश्य से एक समझौते का प्रस्ताव भेजा कि पाँच भाइयों को क्षत्रिय जनोचित भरण-पोषण के लिए केवल पाँच गाँव ही दे दिया जाय। किन्तु युधिष्ठिर उतना भी देने को तैयार नहीं हुआ। उसने स्पष्ट रूप से यह कहा कि बिना बड़े-पैमाने पर युद्ध किये वह सूई की नोक जितनी जमीन भी पाण्डवों को नहीं देगा। 
और इस प्रकार जब शान्ति से न्याय पाने का कोई उपाय नहीं बचा, तब अन्त में कुरुक्षेत्र के मैदान में  दोनों पक्ष की सेनायें युद्ध के लिए आमने -सामने आकर खड़ी हो गयीं। फिर दोनों पक्ष के राजा और सेनापति भी एक दूसरे के सामने आकर अपना अपना स्थान ग्रहण करते हैं। दोनों पक्ष की सेनायें तैयार खड़ी हैं, बस अब थोड़ी ही देर में युद्ध शुरू होने को है। युद्ध के प्रारम्भ होने से पहले, युधिष्ठिर के तीसरे भ्राता महावीर 
अर्जुन अपने सखा और सारथि बने 'भगवान श्रीराम के अवतार' श्रीकृष्ण से कहते हैं-" सखा, तुम मेरे रथ को दोनों दलों की सेना के बीच में ले चलो, मैं यह देखना चाहता हूँ कि युद्ध करने के लिए दोनों पक्ष की ओर से कौन कौन से योद्धा एकत्र हुए हैं? " 
श्रीकृष्ण उनकी इच्छा के अनुसार रथ को बीच में लाकर दोनों दलों के सेनानियों का परिचय देने लगते हैं। अर्जुन ने जब अपने अनेक सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को शत्रु पक्ष की ओर खड़े देखा तो, वह करुणा के वशीभूत हो गया,उसके हाथ-पैर निष्क्रिय हो गये। शरीर कांपने लगा, उसके हाथों से छूट कर धनुष नीचे गिर गया। उसने अश्रु-पूरित नेत्रों से कृष्ण की ओर देख कर कहा - " सखा, थोड़ा सा सांसारिक-सुख प्राप्त करने के लिये, मैं अपने सगे-संबन्धियों की युद्ध में हत्या नहीं करना चाहता। "श्रीकृष्ण सोंचने लगे, यह क्या बात हुई ? इतना सब कुछ हो जाने के बाद अन्तिम क्षणों में अर्जुन ऐसा क्यों कह रहे हैं ? क्योंकि श्रीकृष्ण जानते थे कि अर्जुन कोई कायर व्यक्ति तो हैं नहीं, वे तो एक महापराक्रमी, और साहसी धनुर्धर हैं। इसके पहले भी अनेक युद्धों में उन्होंने अपनी असीम शक्ति और साहस का परिचय दिया है। वास्तव में द्रौपदी ने वर्षों पूर्व स्वयम्बर के समय, कई धनुर्धरों को पर्तिस्पर्धा में हरा देने के बाद ही अर्जुन का वरण अपने पति के रूप में किया था। 
इसके अतिरिक्त, गंधर्व लोगो के साथ युद्ध, बिराटनगर के राजा की गौओं का हरण करने वालों के साथ युद्ध, आदि प्रत्येक युद्ध में उन्होंने अपनी असीम वीरता का परिचय दिया था। गउओं के हरण के समय तो अर्जुन अकेले ही विपक्ष के समस्त वीरों को पराजित कर के राजा बिराट की समस्त गौओं को छीन कर वापस ले आया था। इसके अतिरिक्त, द्रोणाचार्य, देवराज इन्द्र, एवं देवादिदेव महादेव ने उनको इतने सारे दिव्य अस्त्र-शस्त्र  प्रदान किये हैं, कि ईच्छा होने से ही वे क्षण भर में सम्पूर्ण शत्रु दल को कुरुक्षेत्र में एक साथ ध्वंश कर सकते हैं। अतः अर्जुन के भयभीत हो जाने की सम्भावना तो हो ही नहीं सकती।  उनके मन की शक्ति भी तो कम नहीं है, फिर क्या बात है ? वे केवल  कुछ समय के लिए करुणा के वशीभूत हो गए हैं, और केवल धार्मिक कारणों से (righteous cause) युद्ध लड़ना नहीं चाहते हैं, क्योंकि युद्ध करने उनके अपने सगे-संबन्धी ही मारे जायेंगे।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन के उत्साह को फिर से जगाने की चेष्टा की, ताकि वो रणक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर हो जाये। किन्तु उस समय अर्जुन की मनोदशा ही बिल्कुल भिन्न प्रकार की थी, वह युद्धभूमि को छोड़ कर एक संन्यासी बनना ज्यादा अच्छा समझ रहा था। उसने कहा, " सखा देखो, ये द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, दुर्योधन आदि मेरे चचेरे भाई हैं, बचपन में अपने पितामह भीष्म की पीठ और गोदी में खेलकूद करके मैं बड़ा हुआ हूँ। और येही लोग यहाँ विपक्ष की ओर से युद्ध करने आये हैं। हमलोगों के उपर इनलोगों ने चाहे जितने भी अत्याचार क्यों न किये हों, किन्तु इनकी हत्या करके, इनके खून में सने अन्न को खाकर राज्यभोग करने की अपेक्षा मैं भिक्षा माँग कर खाने को उत्तम समझता हूँ।  इस राज्य की तो बात ही क्या, इन सब को मार कर, मैं स्वर्ग का राज्य भी लेना नहीं चाहूँगा। " 
उधर श्रीकृष्ण उसे युद्ध लड़ने के लिये उत्साहित कर रहे थे, वह भारी असमंजस की स्थिति (dilemma) में फंस गया था। अंत में आन-मान छोड़कर अपने  सार्थी की परामर्श माँगने का निश्चय किया, जो उसके सौभाग्य से ' भगवान श्रीराम के अवतार और स्वयं भगवान' श्रीकृष्ण ही थे! अर्जुन ने कहा- " देखो सखा, इस क्लेशकर और नाजुक परिस्थिति में पड़ कर मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी है, मैं स्वयम अभी सही निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ। इस समय मेरे लिए क्या करना उचित है, और क्या न करना उचित है- मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। तुम मुझे अच्छी तरह से समझा कर बता दो इस समय मेरा कर्तव्य क्या है।"
तब श्रीकृष्ण प्रारम्भ में ही कई प्रकार से वेदों में कहे 'प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म' की चर्चा करते हुए, अर्जुन को यह बात समझा देते हैं कि अर्जुन एक क्षत्रिय राजकुमार है, और अपने राज्य तथा प्रजा की रक्षा करना ही क्षत्रिय का धर्म है।  हजारों हजार लोगों की रक्षा और पालन करने का दायित्व उसीके कन्धों पर है, इस समय राज्य की ओर से जो अन्याय हो रहा है, उसका प्रतिकार वह नहीं करेगा, तो फिर कौन करेगा ? इतना ही नहीं, इस कर्तव्य का पालन करने के लिए यदि आवश्यक हुआ तो उसे कठोरता के साथ पितामह आदि गुरुजनों के साथ भी युद्ध करना पड़ेगा। उपरी तौर पर युद्ध में किसी की हत्या करना अति गर्हित कर्म जैसा प्रतीत होता है; किन्तु किसी व्यक्ति का चाहे जो भी स्वाभाविक धर्म अर्थात कर्तव्य है, उस स्वधर्म का पालन यदि कोई व्यक्ति पूर्णतः अनासक्त होकर, निष्काम भाव से करे, तो वह आध्यात्मिक-उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुँच सकता है। इन सब कार्यों को करने से भी मनुष्य अधर्म नहीं करता; बल्कि उचित मनोभाव लेकर इन कर्मों को करने में सक्षम होने से ही, आत्मज्ञान ( अर्थात अपने सच्चे स्वरुप का ज्ञान, आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त करके मनुष्य मोक्षधर्म में उन्नत  हो जाता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त हो जाता है या सदा के लिए डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता है।
श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझाया कि - ' जब तुम किसी व्यक्ति [दुष्ट,आतातायी व्यक्ति (Terrorists) आदि] की हत्या कर देते हो, तो तुम उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर रहे हो ' ऐसा सोंचने का कोई ठोस आधार नहीं है; क्योंकि अद्वैत-वेदान्त के अनुसार मनुष्य की आत्मा तो अजर-अमर और अविनाशी (immortal) है। (जिसे शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि जिसे जला नहीं सकती और वायु जिसे सूखा नहीं सकता।) अतः एक शरीर के समाप्त होने के बाद आत्मा एक और शरीर धारण कर लेगी। वेदान्त के अनुसार आत्मा (Heart) , शरीर (Hand) और मन (Head) के जाल (THE NET) में बन्दी हो गयी है (स्वेच्छा से =माँ की इच्छा से ?), जिसके कारण अहंकार की भावना बढ़ जाती है। किन्तु यह अहंकार किसी बुद्धिमान व्यक्ति (विवेक-प्रयोग करने में दक्ष-मनीषी) के सूक्ष्म परीक्षण (scrutiny) या अनुसंधान का सामना नहीं कर सकता [ "Sri Krishna also told Arjuna that there was no sound basis for the idea that when you slay a man, you are ending his existence; for the soul being immortal , it will take another body. The soul, according to Vedanta , is caught in THE NET of body and mind, giving rise to a sense of ego.This ego does not withstand the scrutiny of an intelligent person."-Swami Amarananda, Stories form Vedanta.page -26] 

 थोड़ा विवेक-प्रयोग करने से ही अहंकार भाग जाता है।  श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं  कि साधारण तौर से भ्रमित अवस्था में (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में) सभी मनुष्य ऐसा अवश्य सोचते हैं कि मैंने अमुक व्यक्ति की हत्या कर डाली है, या अमुक के हाथों मैं मारा गया हूँ;  किन्तु वास्तव में वह सत्य नहीं है। जिस प्रकार प्राकृतिक नियमों के अनुसार बाह्यप्रकृति में आँधी आती है या वर्षा होती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य की अन्तःप्रकृति - 'मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार' आदि भी प्राकृतिक नियमों के अनुसार ही परिचालित होकर उससे सारे कर्म करवा लेते हैं। हमलोगों का व्यष्टि अहं-भाव' मैं '-बोध (अपने नाम-रूप का देहध्यास) इस 'शरीर, मन, बुद्धि,चित्त अहंकार' के जाल में फँस कर भ्रमित हो चुका है, इसीलिए सम्मोहित अवस्था में हमलोग ऐसा समझते हैं कि हमलोग स्वयं ही यह सब कर रहे हैं। 
जैसे, आसमान में जब बदली छा गयी हो और कोई बादल का टुकड़ा यदि यह सोचने लगे कि मैं तो अपनी इच्छा से इधर-उधर उड़ता रहता हूँ, और जल बरसाता हूँ, तो उसका ऐसा सोचना हमलोगों को जितना हास्यास्पद प्रतीत होगा, ब्रह्मज्ञानी लोगों को-(अर्थात जिन लोगों ने अपने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपान्तरित कर लिया है, और जिनका मन साम्यभाव में प्रतिष्ठित हो गया हो, अथवा जिन्होंने श्रीरामकृष्णदेव की 'भावमुख-अवस्था' में रहने का तात्पर्य समझ लिया है, उन लोगों को) हमलोगों द्वारा ऐसा कहना कि ' अमुक कार्य मैंने किया है ' - भी ठीक उतना ही हास्यास्पद प्रतीत होगा। श्री कृष्ण ने यह भी समझाया कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लेने के पहले तक जो 'वास्तविक मनुष्य' (जीव) है, वह मरता नहीं है। बल्कि, मृत्यु के समय वह सूक्ष्म शरीर (अन्तःकरण) को अपने साथ लेकर देह (मृत शरीर) से बाहर निकल जाता है। फिर वह एक नया देह धारण करके जन्म लेता है- जैसे फटा-पुराना वस्त्र फेंक कर हमलोग नया वस्त्र धारण कर लेते हैं।
इस प्रकार मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्री कृष्ण ने अर्जुन को आध्यात्मिक क्रमविकास (Spiritual Evolution) के विभिन्न मार्गों का दिग्दर्शन कराया, जिन्हें संक्षेप में योग (Yogas) कहा जाता है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को यह भी समझा दिया कि चूँकि विभिन्न मनुष्यों की विचारधारा एवं रूचि भिन्न भिन्न प्रकार की होती है, इसीलिए परम सत्य, ईश्वर (पूर्ण निःस्वार्थपरता) में पहुँचने के लिए भी विभिन्न प्रकार के योग-मार्ग उत्पन्न हुए हैं।
ये सभी मार्ग अलग अलग प्रतीत होने पर भी, सभी मार्गों का उद्देश्य और लक्ष्य एक ही है। अतः इनमें से किसी एक मार्ग का अनुशरण करके, या चारों मार्गों का अनुशरण करते हुए कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में धन्यता (blessedness, परमानन्द, मोक्ष या भ्रममुक्त अवस्था) का अनुभव कर सकता है। नाम-रूप या शरीर मन के जाल में बंदी क्षुद्र व्यष्टि अहं' कच्चा मैं '-बोध की सीमा को, क्रमशः बढ़ाते हुए, और छोटी छोटी संकीर्णताओं (लींग, जाती, भाषा, धर्म आदि के आधार पर ' मैं और मेरा ' मानने की संकीर्णता) को क्रमशः दूर हटाते हुए माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध में (पक्का मैं) रूपान्तरित कर लेने से, ये सभी योगमार्ग अन्त अन्त में मनुष्य को वेदान्तोक्त उसी 'सर्वव्यापी चैतन्य' (प्रज्ञा ,संवित या Consciousness) में पहुंचा देते हैं। श्री कृष्ण की इन शिक्षाओं को ही भगवद गीता के नाम से जाना जाता है।
भक्तियोग (path of devotion) का पथिक यह कल्पना करता है कि परम सत्य (Highest Reality ,इन्द्रियातीत सत्य, ईश्वर या माँ जगदम्बा ने) ही 'मानव-रूप' ----(मेरे इष्टदेव या शुभ्र-पुरुष श्री रामकृष्ण परमहंसदेव का रूप) धारण किया है, इसलिये वह पूरे दिलोजान से इस 'नवमानव- रूप' से प्रेम करने लगता है।  प्रेम करना क्या है, या मातृभाव क्या है -- इस बात से कमोबेश हम सभी लोग परिचित हैं। इसीलिए इस पथ पर चलना सबों के लिए आसान है। यह जान कर कि इस जगत में सब कुछ उनकी (माँ जगदम्बा की) ईच्छा से ही हो रहा है, भक्त-हृदय प्रत्येक घटना के पीछे उनका ही मुखड़ा देखते हुए सबकुछ करता चला जाता है। (ईश्वरेच्छा से प्राप्त समस्त भूमिकाओं को आनन्दपूर्वक निभाता चला जाता है।) इसप्रकार उसकी समस्त इच्छायें और क्रियाकलाप इसी सतत वर्धमान (ever-increasing) स्नेह (affection-मातृभाव) का हिस्सा बन जाते हैं। जैसे जैसे भक्त का प्रेम गहरा होता जाता है, वह अपने इष्टदेव की भक्ति में डूबता चला जाता है, उसका अपना पुराना व्यक्तित्व क्रमशः लुप्त (disappear) होने लगता है, और अंततोगत्वा वह अपने प्रेमास्पद (beloved) में विलीन हो जाता है।  
एक दूसरा मार्ग है ज्ञानयोग - या 'तात्विक अनुसन्धान' का मार्ग (The path of Philosophical Scrutiny)। केवल कॉमन सेन्स या सामान्य ज्ञान के बल पर बहुत गहराई से चिन्तन करने के परिणाम-स्वरूप कोई भी व्यक्ति इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि शरीर,मन बुद्धि आदि जड़ इंस्ट्रूमेंट्स से वह तत्वतः नितान्त पृथक है, तथा जन्म-मृत्यु से मुक्त है। विवेक-विचार करते हुए, गहराई से चिन्तन करते करते उसे  इस बात की स्पष्ट धारणा हो जाएगी, कि वह शरीर, मन, बुद्धि आदि जड़ पदार्थों से बिलकुल भिन्न - नित्यमुक्त, शाश्वत चैतन्य सत्ता है, उसका जन्म-मृत्यू तो है ही नहीं, और वही सबों के भीतर विद्यमान है। इस प्रकार से विचार-विश्लेषण करने में जिन मनुष्यों की बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण होगी और जो 'कामिनी-कांचन' प्रति बिल्कुल अनासक्त होंगे,वे स्वाभाविक रूप से इसी मार्ग पर चलना चाहेंगे। क्योंकि जो लोग अत्यधिक  चिन्तनशील होते हैं, वे प्रेम-विरह आदि कोमल मनोवृत्तियों को मानवीय -दुर्बलता समझते हैं, इसलिए उनको इस पथ पर चलने में बड़ी आसानी होती है। और केवल सामान्य ज्ञान का प्रयोग करते रहने से ही एक दिन उनको ब्रह्मज्ञान तक प्राप्त हो जाता है।  
एक तीसरा मार्ग है राजयोग (Raja-Yoga,- the path of mind control.) या मनःसंयोग अर्थात मन को नियंत्रण में रखने का मार्ग। जो युवा विद्यार्थी जीवन में ( अर्थात ब्रह्मचर्य-आश्रम के कालखण्ड में) इच्छा मात्र  से अपने मन को बाह्य विषयों से खीँच कर, किसी प्रयोजनीय विषय पर मन को एकाग्र रख सकते हों, यह मार्ग वैसे युवाओं के लिए बहुत अनुकूल है। हमलोगों का शरीर मानों एक बर्तन है, और मनवस्तु (mind-stuff) जिससे मन बनता है उसको चित्त कहते हैं, वही चित्त मानों इस पात्र में भरा हुआ जल है। जैसे किसी शांत सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है, उसी प्रकार चित्त में 5 विषयों (रूप-रस-गन्ध -शब्द और स्पर्श) का ढेला गिरता रहता है, जिससे वह तरंगायित होकर मन बन जाता है, और यह क्या है ? -वह क्या है? करता रहता है। मन का कार्य ही है प्रश्न पूछना -कानों के माध्यम से कोई ध्वनि चित्त में गयी, तो मन प्रश्न करेगा कि मैंने अभी जो शब्द सुना वह किसी पंछी की कूक थी या मोटर का हॉर्न था ? अब बुद्धि निर्णय करेगी कि यह तो कोयल की कूक ही है! जैसे ही बुद्धि निर्णय लेती है, वैसे ही अहंकार 'मैं'-बोध आ जाता है - मैं जानता हूँ कि यह कोयल की आवाज है। वास्तव में ये सब हमारे (आत्मा के) उपकरण हैं। किन्तु मन में हर समय विचार तरंगें उठती रहती हैं, इसीलिए उसमें हमलोगों का स्वरुप ठीक तरह से प्रतिबिम्बित नहीं हो पाता है। जैसे बर्तन का जल स्थिर होते ही, उसमें सूर्य के स्पष्ट प्रतिबिम्ब को देखा जा सकता है, उसी प्रकार जैसे ही हमारा चित्त जब बिल्कुल शांत और स्थिर हो जाता है, वैसे ही चित्त के भीतर सत्य स्पष्ट रूप से दिखलाई देने लगता है। 
एक और मार्ग भी है- कर्मयोग, निष्काम भाव से कर्म करने का मार्ग। अर्थात कोई व्यक्ति चाहे जो कुछ भी कर्म करता हो, उसके फल से नहीं जुड़े नहीं होने का मार्ग-अर्थात 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझ लेने का मार्ग। परिणाम में सुख मिले या दुःख, चाहे ख़ुशी मिले या गम दोनों अवस्थाओं में शांत रहना, दोनों में से किसी भी परिणाम से अनासक्त रहना; तथा अपने कर्मों के परिणामों से निर्लिप्त रहना ही इस योगमार्ग का सर्वस्व है। इस योगमार्ग का साधक यह अनुभव करता है कि, यह प्रकृति ही है जो शरीर तथा मन को संचालित कर रही है। अथवा इस मार्ग का साधक भक्ति के  मनोभाव के साथ भी कर्म कर सकता है कि मैं जो कुछ भी कर्म करता हूँ वह ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने की दृष्टि से करता हूँ; और मानसिक रूप से वह अपने समस्त कर्म को ईश्वर को समर्पित करता जाता है।
अथवा बदले में किसी फल की आशा (नाम-यश या अन्य कोई भी एषणा) किये बिना वह मानवता की सेवा भी कर सकता है। कर्म करते समय कर्मयोगी ऐसा मनोभाव रखता है कि- 'मैं कर्ता नहीं हूँ, प्रकृति के गुणों के द्वारा (सत-रज-तम के द्वारा) ही सभी कार्य हो रहे हैं !'  या फिर यह मनोभाव रखता है कि, 'मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह  ईश्वर (ठाकुर) को प्रसन्न करने के लिए ही कर रहा हूँ, जैसी उनकी इच्छा है वे मुझसे वैसा करवा ले रहे हैं।' यदि कोई व्यक्ति ईश्वर (माँ जगदम्बा या ब्रह्म और शक्ति में) के अस्तित्व में विश्वास नहीं भी रखता हो, किन्तु अपने  लिए कुछ भी पाने की इच्छा किये बिना, पूर्णतया निःस्वार्थभाव से केवल दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करता रहे तो उसके क्षुद्र व्यष्टि अहं की सीमा भी टूट जाती है और वह आध्यात्मिक मार्ग में उन्नत हो जाता है। इस प्रकार निष्काम भाव से कर्म करते रहने से एकदिन मनुष्य के व्यष्टि अहं ' मैं '-बोध की सीमा टूट जाती है, और वह सर्वव्यापी विराट मातृहृदय के अहं बोध में या आत्मस्वरूप (अपने यथार्थ स्वरुप) में प्रतिष्ठित हो जाता है।
श्रीकृष्ण के इन उपदेशों ने अर्जुन की बुद्धि में जमे भ्रम को दूर कर दिया। वह समझ गया कि युद्ध भी यदि उचित मनोभाव के साथ (कर्मयोग के रहस्य - निवृत्ति अस्तु महाफला को समझकर) लड़ा जाय, तो वह मेरी आध्यात्मिक प्रगति के रास्ते में बाधक सिद्ध नहीं होगा।अतः प्रारब्ध (destiny-भवितव्यता या अदृष्ट) के संग्राम में (in the battle of his destiny.) उसने अपने क्षत्रियोचित कर्तव्य का दृढ़ता पूर्वक पालन करने का संकल्प किया। और बड़े उत्साह के साथ यूद्ध करने को तैयार हो गये। सिंहविक्रम के साथ उन्होंने अपने धनुष को उठा लिया, तथा प्रत्यंचा चढ़ाकर एक जोरदार टंकार दिया, जिसकी अनुगूँज से सारा रणक्षेत्र थर्रा उठा ! इनदिनों तथाकथित सेक्यूलरवादियों  और समाजसुधारकों के बीच एक लोकप्रिय आलोचना (popular criticism) है कि धर्म ने ही भारत को आज इतना दब्बू, निष्क्रिय (passive) या बदतर बना दिया है, कि सम्पूर्ण राष्ट्र ही शक्तिहीन, कर्मविमुख कायरों के जाति में परिणत हो गया है। गीता की यह कहानी उस गलत और तथ्यहीन छिद्रान्वेषण का एक उपयुक्त जवाब है। [ तथा हमारे दो-भारतरत्न  आध्यात्मिक नेता अटलजी और वैज्ञानिक होकर भी आध्यात्मिक नेता A.P.J Abdul Kalam ने पोखरण में एक के बाद एक तीन परमाणु बमों का विस्फोट करके प्रमाणित भी कर दिया है !]  
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