कार्य-कारण सम्बन्ध: पिछले क्लास में हमने देखा कि किसी भी काम में सफलता प्राप्त करने के लिए, या किसी कार्य को बेहतर ढंग से करने के लिए, 'मनः संयोग' सीखना कितना आवश्यक है ! किन्तु कोई यह पूछ सकता है, कि जब हम मनःसंयोग नहीं जानते थे, तब भी क्या हमारा काम नहीं चल रहा था ? नहीं तो, 12 या इण्टर तक सफलता कैसे मिला ? इसका उत्तर यह है कि उस समय भी हम मनःसंयोग ही कर रहे थे, किन्तु अनजाने में कर रहे थे। यदि मन को एकाग्र करने की पद्धति को सीखकर पढाई करते तो रिजल्ट और भी अच्छा हो सकता था। क्योकि मन लगाकर पढ़ाई करते समय मन पढाई में इतना लीन हो जाता है, कि उस समय सामने से कोई चला गया या किसी ने कुछ कहा -तो उसका भी पता नहीं चलता। अब हमलोग मन लगाकर पढ़ने के कार्य को एक उदहारण के द्वारा समझने का प्रयास करेंगे। तुमने ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम सुना होगा। वे बड़े गरीब किन्तु मेधावी छात्र थे, एग्जाम के समय फुटपाथ पर एक लैंप पोस्ट के नीचे बैठ कर पढने में तल्लीन थे। उनके सामने रोड से एक बारात गुजर गई , थोडी ही देर के बाद एक व्यक्ति आकर उनसे पूछता है, क्या आप बता सकते हैं कि अभी-अभी इधर से जो बारात गुजरा वह किस ओर मुड़ा था ? वे मानो नींद से चौंक कर उठे हों, कहते हैं- ' sorry, no ? ' वे बारात को क्यों नहीं देख सके ? आँखें खुलीं थीं, मस्तिष्क भी जाग्रत और क्रियाशील था किन्तु तब उनका मन सड़क देखने में नहीं लगा था, तब उनका मन अध्यन में तल्लीन था ! इसीलिये पूरी बारात गुजर गई पर वे उसे देख नहीं सके। किन्तु हमारी समस्या यह कि हम मन को उसकी चंचलता के कारण एक क्षण के लिए भी किसी एक ही विषय पर केन्द्रीभूत नहीं रख सकते।
कार्य क्या है ? हम सभी लोग जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं,एक सफल और महान मनुष्य (बुद्ध जैसा) बनना चाहते हैं। परन्तु यदि हमने मनःसंयोग की पद्धति नहीं सीखा हो, तो जीवन में सफलता कैसे मिल सकती है? यदि हमलोग मन को अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार किसी एक ही कार्य या विषय में लगाने की तकनीक को सीख जायें, तो सफलता की सम्भावना निश्चित हो जाएगी। अतः हम समझ सकते हैं कि सफल मनुष्य या महान मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग की पद्धति को सीखकर उसका निष्ठापूर्वक 'अभ्यास करना' आवश्यक है। अब प्रश्न है कि 'कार्य' कहने से हम क्या समझते हैं ? आगे हम इसी बात को थोड़ा और बेहतर तरीके से समझने की चेष्टा करेंगे अर्थात इसी विषय पर मनःसंयोग करेंगे।
प्राकृतिक कार्य: जगत में प्राकृतिक रूप से कई प्रकार की घटनायें घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमे से प्रत्येक घटना एक प्रकार का कार्य ही तो है ! जैसे हम देखते हैं कि ऋतुपरिवर्तन होता है, प्रातः काल में सूर्य उदित होता है, रात्रि के अंधकार को दूर हटा कर सूर्य की किरणें जगमगा उठतीं हैं। फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं। बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है, सूर्य के प्रचण्ड ताप से मिट्टी का जल वाष्प बन कर उड़ जाता है,और इसी प्रकार के अन्य कितने ही कार्य होते रहते हैं। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। इनमे से किसी भी कार्य के पीछे मनुष्य की कल्पना, इच्छा, प्रयत्न या उद्यम आवश्यक नहीं होता।
आवश्यक कार्य : फ़िर हम यहाँ कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है। मनुष्य कोई भी कार्य इच्छा और विचार से प्रेरित होकर ही करता है। किसी आवश्यक /अनावश्यक कार्य को करने का विचार जब मनुष्य के मन में उठता है, तब वह अपने शरीर, या अन्य किसी उपकरण या दूसरी चीज की सहायता से अपनी इच्छा को रूप देने की चेष्टा करता है। कार्य करते समय मनुष्य अपनी कल्पना को रूपायित करना चाहता है। पहले हम मन में कल्पना करते हैं, फिर इच्छा-शक्ति (will power) का प्रयोग करते हुए किसी आवश्यक कल्पना को साकार रूप देते हैं। इसी को कार्य करना कहते है। किन्तु उस कार्य का जनक कौन है ? कार्य का कारण कहाँ है ? कार्य का कारण मन में है, विचार में है। मनुष्य की आकांक्षा, इच्छा, और चेष्टा आदि का आधार मनुष्य का मन ही होता है। जैसे हम देखते हैं कि - किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है, श्रमिक-कारीगर लोग कितने प्रकार के कार्य कर रहे हैं, कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है। मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,प्रयत्न, श्रम या पुरुषार्थ करता है।
किसी वस्तु पर कार्य करने से उसके स्वरूप में रपान्तरण हो जाता है: जैसे मैं कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! अब यदि ध्यान पूर्वक देखें तो पायेंगे कि जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि।
दैहिक शक्ति की सीमा है, मानसिक शक्ति असीम है: कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति (will power )कहते हैं। जबकि प्रयत्न करने में या कार्य करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। परन्तु यह शारीरिक शक्ति भी मन को नियोजित करने के बाद ही क्रियाशील होती है। महर्षि कणाद 'मूसल' के उदाहरण द्वारा प्रयत्न या कार्य की उत्पत्ति के क्रम को समझाते हुए वैशेषिक सूत्र 5.1.2 में कहते हैं - 'तथा हस्तसंयोगाच्च मुसले कर्म । ' - और वैसे ही ( कर्म वाले ) हाथ के संयोग से मूसल में क्रिया (होती है)। यहाँ 'मूसल' का उदाहरण देते हुए ऋषि बतलाते है, प्रयत्न आदि की उत्पत्ति का क्रम यह है- ' आत्म जन्या भवदिच्छा इच्छाजन्या भवेद कृतिः । कृतिजन्या भवेचेष्टा तज्जन्यैव क्रिया भवेत्।' आत्मा के साथ मन का संयोग होने से मन में इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा से प्रयत्न उत्पन्न होता है। प्रयत्न से ( सारे शरीर में या किसी एक अङ्ग में) चेष्टा उत्पन्न होती है। चेष्टा से क्रिया-उत्पन्न होती है। आत्मा (pure consciousness) के साथ मन का संयोग होने पर स्वाभाविक रूप से पहले मन में (प्रतिबिंबित चेतना reflected consciousness या अन्तःकरण में) मूसल उठाने की इच्छा उत्पन्न होती है। फिर आत्मा के साथ मन का संयोग रहने से हाथ में (मूसल को ऊपर की ओर उठाने की) चेष्टा-उत्पन्न हुई। उस चेष्टा से मूसल में 'उत्क्षेपण ' क्रिया उत्पन्न हुई। इसी क्रम मे नीचे लाते समय 'अवक्षेपण' क्रियाः उत्पन्न होती है। जिस प्रकार आत्मा के संयोग और प्रयत्न से हाथ में क्रिया होती है, उसी प्रकार हाथ के संयोग से ऊखल में धान कुटने वाले -मूसल में, धान कूटते समय क्रिया उत्पन्न होती है। यहाँ महर्षि कणाद सूत्र में ‘‘च’’ से बतला रहे हैं कि मूसल के गिरने में उसका भारी होना भी एक कारण है। ऋषि अगले सूत्र में कहते हैं - अभिघातजे मुसलादौ कर्मणि व्यतिरेकादकारणं हस्तसंयोगः । वैशेषिक-५,१.३ ।अर्थ : जब मूसल नीचे गिरता है, यद्यपि उस समय हाथ का भी संयोग होता है, परन्तु गिरने में भारी होने के अतिरिक्त पृथ्वी की जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति उसे नीचे की ओर खींचती है, उसमें हाथ की शक्ति (दैहिक शक्ति) नहीं लगानी पड़ती। इसीलिए मूसल के गिरते समय आत्मा को प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती । उसकी युक्ति यह है कि चाहे हाथ का संयोग हो या न हो, भारी होने के कारण गुरुत्वाकर्षण की शक्ति से वह नीचे अवश्य ही गिरेगा। जब हाथ के बिना उसका गिरना आवश्यकीय है क्योंकि यदि गिरते समय प्रयत्न होता है तो वह उसको नीचे गिरने से रोकता न कि गिराता। क्योंकि प्रयत्न हमेशा प्राकृतिक शक्ति के विरूद्ध ही किया जाता है। या प्राकृतिक आकर्षण को उपने बल से चलाने में उसका प्रयोग होता है। इस मूसल के उदाहरण से यह परिणाम भी निकलता है, कि मनुष्य को उन्नति करने में प्रयत्न करने की आवश्यकता है। और यदि उन्नत मनुष्य बनने का यत्न न किया जाये, तो अवनति स्वयं ही हो जाती है। क्योंकि जिस प्रकार भारी वस्तुओं को पृथ्वी की गुर्त्वाकर्षण शक्ति अपनी ओर खींच ही लेती है,उसे गिराने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी प्रकार विषयों की आकर्षण शक्ति इन्द्रियों को बराबर अपनी ओर खींचती है, यदि आत्मा इन्द्रियों को विषय से रोकने का काम न करे तो बलात् आत्मा का विषयों की ओर ले जायेगी। जिस प्रकार भारी वस्तुओं में गुरूत्व पृथ्वी पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से है, इसलिए वह वस्तुओं को अपने कारण पृथ्वी की ओर ले जाता है, इसी प्रकार इन्द्रियां और मन पंचभूतों से उत्पन्न होते हैं और वह प्रत्येक वस्तु को भौतिक विषयों की आर ले जाते हैं।
इसलिए जो लोग ऐसा मानते हैं कि यदि हम बुरा काम न करें तो हमको संध्या अग्नि-होत्र आदि शुभ कर्म अथवा महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 दैनन्दिन अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है ? तो वह बड़ी भारी भूल करते हैं क्योंकि बुराई उनको अवश्य अपनी ओर खींच लेगी। यदि हमलोग मनःसंयोग और विवेक-प्रयोग सीखकर अपने मन को वश में करके मनुष्य बनने और बनाने का अभ्यास न करें तो, हम नीचे गिर कर मानव-पशु ही नहीं मानव-राक्षस भी बन सकते हैं। अतः मानसिक ऊर्जा (mental energy) को पूरी तरह से निवेशित करके कार्य करने से -कोई भी कार्य कम समय में पूर्णता के साथ सम्पन्न हो सकता है। जिस क्रिया के पीछे 'कामना-वासना' नहीं केवल निःस्वार्थपरता हो उनके संस्कार हमें कर्म-बन्धन में नहीं बांधते। इसलिये हमें निःस्वार्थ Be and Make आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने में घोर परिश्रम करना चाहिये। 'नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गए, कश्ती ने रुख मोड़ा तो किनारे बदल गए'! हमें परिणाम की चिंता छोड़कर कर्म करना चाहिए। जब तक विवेक-प्रयोग द्वारा - " चेतन, अवचेतन, अचेतन, तुरीय " को पूरी तरह से जगा नहीं दिया जाता, तब तक मन को वश में नहीं लाया जा सकता। यदि कर्म पूरे मन से किया गया होगा, तो उसका अच्छा फल मिलना निश्चित है। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा कर्म उत्कृष्ट हो। इससे चित्तशुद्धि हो जाती है।
कपटधार्मिकः बकः छद्म-धर्मी बगुला" बाहरी वेशभूषा नहीं, मन में शिव-संकल्प रहना आवश्यक है, कोई सहचारी या संगत में रहने वाला ही सहचारी के व्यवहार को देखकर उसके चरित्र को ठीक ठीक पहचान सकता है। श्री राम और लक्ष्मण एकबार स्नान करने के लिए पंपा सरोवर पहुंचे। श्री राम ने सरोवर में मंथर गति से चलते हुए बगुलों की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मण को कहा कि-“पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकोयंपरमधार्मिकः। शनैः शनैः पदं धत्ते जीवानां वधशंकया॥” अर्थात लक्ष्मण, देख इस पम्पा सरोवर में बगुला कितना धार्मिक है। कहीं मेरे पांवों से जीवों का वधन न हो जाए, इसीलिए कैसा धीरे-धीरे पैर रखते हुए चल रहा है। श्री राम की इस बात को सरोवर में रहने वाली एक मछली सुन लेती है। और वह भगवान राम से कहती है - "सहवासी विजानाति सहवासी विचेष्टितम्।बकोऽयं वर्ण्यते राय तेनाहं निष्कुलीकृतः॥ नहीं नहीं रामजी, आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं ? जिस बगुले की प्रशंसा की जा रही है। उसने हमारा कुल उजाड़ दिया, सारा कुल नष्ट कर दिया। और जब शुद्ध-पवित्र मन केवल शिव-संकल्पों से ही भरा रहता है तब उसकी शक्ति अनन्त गुना बढ़ जाती है। और ऐसे शक्तिशाली उपकरण के तैयार हो जाने के बाद; इसे जिस कार्य में लगा दिया जायेगा वह कार्य भी बड़े सुन्दर ढंग से सम्पन्न होगा,और उसमें निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होगी। इस तथ्य को समझ लेने में अब कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
ज्ञान क्या है ? इस जगत-ब्रह्माण्ड के सुदूर अपरिमेय अंतरिक्ष में खचित विशालकाय ग्रह-नक्षत्र से लेकर सूक्ष्म अणु-परमाणु के मध्य असंख्य ज्ञातव्य या जानने योग्य वस्तुएँ एवं विषय बिखरे हुए हैं। इनमें से जिन वस्तुओं या विषयों की जानकारी (information-आँकड़ा ) हमें प्राप्त है, उसको ही उस वस्तु या विषय का ज्ञान कहा जाता है। किन्तु इनमें से किसी भी वस्तु या विषय का ज्ञान हमें मन की सहायता से ही प्राप्त होता है। बचपन में एक सुन्दर सुगंधित फूल को देखा, तो पिता जी से पूछा -ये कौन सा फूल है ?... ये कमल का फूल, उड़हुल का फूल है; पिता जी ने बता दिया इस फूल को गुलाब कहते हैं। तो उस फूल का रूप और विशिष्ट सुगन्धि मन के खाँचे में संचित हो गया। अब फूलों की प्रदर्शनी में गुलाब के फूल को आसानी से पहचान सकता हूँ।
उसी प्रकार कुछ बड़े होने पर रात्रि के समय चाँद और चाँदनी के प्रकाश को देखा तो पिताजी से पूछा -क्या यह चन्द्रमा का अपना प्रकाश है ? पिताजी ने बता दिया, नहीं यह भी सूर्य का ही प्रकाश है, जो चन्द्रमा से परावर्तित होकर धरती पर उजियाला फैला रहा है। अर्थात चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित हो रहे हैं। फिर पूछा सूर्य किससे प्रकाशित होते हैं ? उन्होंने समझा दिया कि सूर्य -किसी से प्रकाशित नहीं है, वह एक गर्म आग का गोला है, और उसका यह अपना प्रकाश है। सूर्य स्थिर है, न उगता है न डूबता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में एक चक्र पूरा करती है, जिससे दिन-रात आते जाते हैं। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है, जिसके कारण पेड़ से फल टूटने पर नीचे गिरता है,ऊपर नहीं जाता आदि आदि। इस प्रकार जगत-ब्रह्माण्ड के विषय के बारे में हमारे ज्ञान का क्षेत्र क्रमशः बढ़ता जाता है। यह सब ज्ञान आता कहाँ से है ? बाहर से? नहीं यह ज्ञान हमारे भीतर ही था। जब जिस वस्तु या विषय का ज्ञान प्राप्त करना होता है, उस पर मन को एकाग्र करने से उस विषय या वस्तु का ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है। समस्त मानवजाति एक है -इसको पहचान लेना और प्रत्येक मनुष्य के सामने श्रद्धापूर्वक अपने सिर को झुकाना, उसकी कदर करना ही सच्चा ज्ञान है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने मन को एकाग्र करने की तकनीक सीखने को ही शिक्षा का प्रधान तत्व कहा है।
मन क्या है ? सूक्ष्म वस्तु को हम देख नहीं सकते: इसीलिए हमें मन के विषय में स्पष्ट अवधारणा नहीं है। परन्तु हम अनुभव करते हैं, कि मन है। पर वह कार्य कैसे करता है ? हम कहते हैं -मेरा शरीर परिवर्तनशील है,बच्चा-जवान बूढ़ा होता है, लम्बा-नाटा, मोटा-दुबला होता रहता है। मेरी आँखों में नंबर लगेगा या नहीं ? मै बायें कान से कम सुन पाता हूँ - इसकी अवस्था को जानने वाला (knower-ज्ञाता ) कौन है? मेरा मन ही तो है ! इस शरीर और इन्द्रियों की अवस्था को मन जानता है। फिर हम देखते हैं कि मेरा मन भी परिवर्तनशील है, कभी तो यह खुश रहता है, कभी उदास हो जाता है। तो मन की अवस्थाओं को कौन जानता है ? हमलोग कहते हैं -हमलोग मैच जीत गए, मेरा मन आज बहुत प्रसन्न है। मन का भी कोई ज्ञाता है -तो वह कौन है ? मन का भी कोई द्रष्टा है - जो मन को भी देख सकता है -वही हमारी सत्ता है।
जिसको हम अपना वास्तविक 'मैं' कहते हैं, जो कभी नहीं बदलता-पर शरीर का ज्ञाता कहलाने वाले मन की अवस्था को भी जो जानता है, वह कौन है -क्या है ? हमारे देश में उसको आत्मा (existence- consciousness-bliss, सच्चिदानन्द या ब्रह्म) कहा जाता है। भले इस समय उस सत्ता स्पष्ट रूप से नहीं समझ पा रहे हों,फिर भी हमें उस सत्ता पर श्रद्धा रखनी चाहिए। जैसे विज्ञान के भी बहुत से फैक्ट्स को एक्सपेरिमेंट करके हमने अभी स्वयं नहीं देखा है। जल का सूत्र है H2O,अर्थात दो भाग हाइड्रोजन 1 भाग ऑक्सीजन को मिलाने से जल बनाकर हमने नहीं देखा है, किन्तु वैज्ञानिक-खोज से उत्पन्न इस सिद्धान्त पर हममें अधिकांश लोग विश्वास करते हैं।
उसी प्रकार हमलोगों को आध्यात्मिक जगत के वैज्ञानिकों अपने पूर्वज ऋषियों (स्वामी विवेकानन्द) द्वारा भारत निर्माण का आविष्कृत सूत्र 3'H'-विकास पद्धति पर विश्वास करना चाहिए कि हम वास्तव में आत्मा हैं। और यह मन अपरिवर्तनशील आत्मा और परिवर्तनशील जगत के बीच एक पूल के जैसा काम करता है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं - Hand, Head और Heart (3rd H) भी हैं। मनुष्य केवल 2H नहीं 3H है ! इन तीनो शक्तियों को विकसित करने की पद्धति को सीखकर मनुष्य बना जा सकता है। इसीको मनुष्यनिर्माणकारी शिक्षा कहते हैं।
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[नवनी दा 27-12-2005 कैम्प :धर्मलाभ -पहला पुरुषार्थ "मनोतीर्थ में स्नान !" सरिसा रामकृष्ण मिशन आश्रम/ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु]
स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण के पहले तक अंग्रेज लोग वेदों-उपनिषदों को shepherd song (गड़ेरिया का गीत-चरवाहा गीत) कह कर इसका उपहास किया करते थे। परन्तु 2003 में UNESCO ने वेदों उपनिषदों की मौखिक परम्परा को 'मनुष्यजाति की मौखिक और अमूर्त विरासत' " Oral and Intangible Heritage of Humanity." [ दूसरे शब्दों में यूनेस्को के द्वारा 2003 में " आगम -निगम अर्थात शिव-पार्वती संवाद (अथवा उससे निकले जैनिज्म, बुद्धिज्म, सिखिज्म में) या वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रचलित - मौखिक दीक्षा-परम्परा को "मानवता की मौखिक और अमूर्त विरासत" कहकर सम्मानित किया गया है। संस्कृत भाषा में लिखे वेद-उपनिषदों के महत्व को पाश्चात्य जगत या यूनेस्को को समझने में इतना समय क्यों लगा ? क्योंकि प्राचीन समय में पाश्चात्य देशों में संस्कृत की शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं थी।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत चेयर के 'बोडेन चेयर' पद पर प्रतिष्ठित होने वालो सबसे पहले व्यक्ति थे-संस्कृत के विद्वान एच.एच. विल्सन(Horace Hayman Wilson: १७८६-१८६०)। वे भारत में मेडीकल प्रोफेशन के एक सदस्य के रूप में, १८०८ में आये तथा १८३२ तक यहाँ रहे थे। एक भारतीय विद्वान के पत्र के उत्तर में विल्सन साहब ने संस्कृत के माधुर्य के बारे में, संस्कृत के अनुष्टप छन्द में लिखा था-'अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोऽधिकं |देव भोग्यमिदम् यस्माद् देव भाषेती कथ्यते || '' अमृत बहुत मीठा होता है। संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। यह देववाणी कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसी मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक कि भारतवर्ष में विन्ध्य तथा हिमालय है,.....यावत गंगा च कावेरी च तावदहि संस्कृतं। " जब तक गंगा तथा गोदावरी है,तब तक संस्कृत है।'
एक जनश्रुति प्रसिद्द है कि राजा भोज ने एक लकड़हारे के सिर पर बोझ देखकर परदुःख-कातर हो उससे संस्कृत में पूछा- "किम ते भारं बाधति?" तुम्हें यह बोझ कहीं कष्ट तो नहीं पहुंचा रहा है ? और 'बाधति ' क्रिया का प्रयोग किया। इस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया --"भारं न बाधते राजन यथा बाधति बाधते।। "महाराज ! मुझे इस बोझ से उतना कष्ट नहीं हो रहा है जितना ' बाधते ' के स्थान पर आपके बोले हुए 'बाधति ' पद से हो रहा है।' जबकि भारतीय समाज का मेरुदण्ड है - ग्रहस्थाश्रम ; अन्य आश्रमों की स्थिति ग्रहस्थाश्रम के ऊपर ही निर्भर है। इसीलिये संस्कृत साहित्य में गार्हस्थ्य धर्म का सांगोपांग वर्णन पूर्ण तथा हृदयावर्जक रूप से उपलब्ध होता है। संस्कृत साहित्य का आदिमहाकाव्य वाल्मीकिरामायण गार्हस्थ्य धर्म की धुरी पर घूमता है। दशरथ का आदर्श पितृत्व , कौशल्या का आदर्श मातृत्व ,सीता का आदर्श पत्नीत्व ,भारत का आदर्श भातृत्व ,सुग्रीव का आदर्श बन्धुत्व ,तथा सबसे अधिक रामचन्द्र का आदर्श पुत्रत्व भारतीय गार्हस्थ्य धर्म के ही विभिन्न अन्गों के आराधनीय आदर्शों की मधुमय मनोरम अभिव्यक्ति है। भारतीय साहित्य में संस्कृत वाङ्गमय का विशेष महत्त्व है। संस्कृत वाङ्गमय जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष से संबद्ध सभी विषयों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन करता है। जीवन का एसा कोई भी पक्ष नहीं जिसका सूक्ष्म विवेचन संस्कृत वाङ्गमय में ना हो।
वैदिक संस्कृति और संस्कृत भाषा के प्रति यही भाव मानवजाति के सभी मार्गदर्शक नेताओं, अवतारों, या जीवन्मुक्त शिक्षकों में पाया जाता है। मानवजाति के जितने भी मार्गदर्शक नेता आते रहे हैं -उन सबों ने गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में अपने जीवन पुष्प को (चरित्र को) कमल - पुष्प की तरह प्रस्फुटित करने का मार्ग दिखलाया है। स्वामी जी के भाषण को सुनने के बाद वहाँ की एक महिला ने पूछा -Swami ji are you Buddhist? स्वामी जी थोड़ा विनोदी स्वभाव के थे, उन्होंने उत्तर में कहा था - No, I am not a Buddhist, but I am bud'ist ! नहीं, मैं बुद्धिष्ट नहीं हूँ, बल्कि मैं कली को फूल में विकसित होने की शिक्षा देता हूँ। उसी प्रकार इस शिविर में भी जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति सिखाई जाती है। हमलोगों का जीवन भी अभी कली के रूप है, इस जीवन पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति हमें भी सीखना है।
सबसे बड़ा मूर्ख कौन है ? इसके उत्तर में आचार्य शंकर ने कहा है- इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्ति स्वार्थे प्रमाद्यति। दुर्लभम् मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषं।। ( इतः कः नु अस्ति मूढात्मा यः तु स्वार्थे प्रमाद्यति, दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्र अपि पौरुषम्। विवेक-चूड़ामणि ) - "देव- दुर्लभ मनुष्य देह और पौरुष को पाकर भी जो स्वार्थ साधनमें प्रमाद करता है - अर्थात अपने जीवनपुष्प को प्रस्फुटित करने में प्रमाद करता है, उससे अधिक और मूढ कौन होगा ? जो मनुष्य मन को वश करने का कौशल सीखकर अपने को पशुमानव से देवमानव में रूपान्तरित करने की कोई चेष्टा नहीं करता वही तो सबसे अधिक मूर्ख या मोहित व्यक्ति है ! सबसे बड़ा मूर्ख वही है, जो मनुष्यत्व और पौरुष को प्राप्त करके भी अपने जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का प्रयत्न नहीं करता है। देवदुर्लभ मानव-शरीर, उसके भी उपर पौरुष- साहसिकता या यौवन का तेज प्राप्त करके भी जो व्यक्ति आलस्यवश स्वयं के यथार्थ स्वार्थ या सर्वोत्तम हित 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' की साधना की उपेक्षा करता है, उस व्यक्ति से बड़ा मूर्ख (मोहग्रस्त मनुष्य) कौन हो सकता है ?
को दरिद्रः ? दरिद्र कौन है ? जिसकी तृष्णा विशाला (असीम) होती है वही दरिद्र (निर्धन) होता है ,मन में सन्तोष हो तो कौन धनवान है और कौन निर्धन है? स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला। मनसि तु परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥ वैराग्यशतक /45 जिसके मन में जितनी अधिक तृष्णा है वह उतना बड़ा दरिद्र है। और जब मन में सन्तोष आ जाता है, तब धनी-गरीब का अपने मन में कोइ भेद नहीं होता । विषयों को भोगने की तृष्णा के कारण ही हमलोग सम्मोहित (hypnotized) हो जाते हैं, हमारी बुद्धि मोहित हो जाती है। जन्म लेते ही प्रत्येक मनुष्य सम्मोहित हो जाता है, इसलिए उच्चतम डिग्री प्राप्त मनुष्य की बुद्धि भी मोह-निद्रा में सोयी हुई बुद्धि है। सन्त तुलसी दास जी कहते हैं - 'सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहि जग बारहिं बारा।अर्थात पुत्र धन स्त्री मकान और परिवार आदि तो इस संसार में बार बार प्राप्त होते रहते हैं।विवेक-प्रयोग तथा चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का संकल्प-ग्रहण किये बिना हम कभी विसम्मोहित (Dhypnotized या भ्रममुक्त) नहीं हो सकते; हमारी मती कभी जाग्रत नहीं हो सकती और इसका परिणाम क्या होता है ?शूकर, सियार, स्वान योनियों में जन्म लेना पड़ता है। वैसा जीव अपनी जन्म-दायिनी माता को केवल दुःख देने के लिये ही पैदा हुआ है।
भ्रूण हत्या क्यों ? प्रकृति का कोमल उपहार,भोर की उजली किरण,जीवन की प्रथम कलि,खिलने से पहले ही मुरझाने ko विवश क्यूँ ?' कन्या' ही माँ, बेटी, बहन है जन्मदायिनी माँ की आंख में आंसू क्यूँ ? संकल्प ग्रहण (आत्मसुझाव-Autosuggestion) तथा विवेक-प्रयोग की शिक्षा (प्रशिक्षण) देने से - भ्रूण में पल रही बेटी या बेटा दोनों - Would be Leader of the mankind. भावी सारदादेवी, मीराबाई, सहजोबाई या लक्ष्मी बाई, श्रीरामकृष्ण,बुद्ध ईसा भी बन सकती/सकता है। इसीलिए सहजोबाई कहती हैं -राम तजूं मैं गुरु न बिसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूं। हरि ने जन्म दियो जग माहीं, गुरु ने आवागमन छुड़ाही॥] सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है, तुलसिदास हरि गुरू-करूना बिनु, बिमल विवेक न होई । बिनु विवेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ।। भगवान तथा गुरु (विवेकानन्द ) की कृपा के बिना किसी को शुद्ध-विवेक (clear-discrimination) प्राप्त नहीं होता, और इसके (विवेकानन्द के) बिना कोई व्यक्ति ब्रह्मांड नामित गहरे समुद्र (भव-सागर) को पार नहीं कर सकता। सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥ भावार्थ:-हे तात! सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेक है॥41॥
कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। आतंकवाद को आतंकवाद से नष्ट नहीं किया जा सकता। प्रेम के आधार पर ही नया विश्व बनाना चाहिए। यह काम केवल भारत से होगा। पहले सबके हृदय में परस्पर कितना प्रेम था ! " भूल न जाना हर भारतीय मेरा भाई है !" Forget not every Indian is my brother' - 'वसुधैव कुटुम्ब्कं'- अब ऐसा कौन कहता है ?अब तो केवल अधिक से अधिक धन जमा करने की होड़ मची है। इस गला-काट प्रतियोगिता और आतंकवाद का अंत कैसे होगा ? मनुष्य बनकर और को भी मनुष्य बनने में सहायता करने से होगा। स्वाधीन भारत के किसी नेता ने स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचाना है।
स्वामी जी कहते थे -" जिस प्रकार स्वयं को हिन्दू कहकर अपना परिचय देना आजकल हमलोगों में परिचलित है, उसकी अब कोई सार्थकता नहीं बची है। इसलिए मैं अपने लिए अब हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा।" -५/१९ (क्योंकि पंचानन मिश्रा को पेंचो कहना उसका अपमान करना है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी १८७५ ई ० 'आर्य समाज ' की स्थापना की थी, 'हिन्दू महासभा' की नहीं । क्योंकि हिन्दू शब्द हमें फ़ारसी लोगों से प्राप्त हुआ है। हम अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था में पले -बढ़े लोग स्वामी विवेकानन्द के परामर्श के अनुसार, " गर्व से कहो कि मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतवासी (भारतीय) मेरा भाई है ! कहने के बजाये महामण्डल के अंग्रेजी स्वदेशमन्त्र में भी भारत को India क्यों कहना चाहिए ? [अंग्रेजी शासन-काल में हमारे देश का नाम भारतवर्ष से India कर दिया गया। स्वामी जी के समय में भारत अंग्रेजों का गुलाम था, तब उन्हें 'O India Forget not " कहा था। "every Indian is my brother" कहना भी मजबूरी रही होगी। स्वाधीनता के 70 वर्षों बात भारतियों को अपना परिचय 'Indian' या हिन्दुस्तानी कहकर क्यों देना चाहिए ? क्या यह भी अंग्रेजी परस्ती नहीं है ?]
श्री रामकृष्ण कहते थे -जितने भी 'branded religion' ( ट्रेड-मार्क या बाहरी छाप वाले) जितने भी धर्म हैं, वैसे सभी साम्प्रदायिक धर्म जितना शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाये तो उतनी ही शीघ्रता से मानवजाति का कल्याण सम्भव हो जायेगा। धर्म तो एक ही होता है -[जिसके रहने से पाशविक मानसिकता नष्ट होकर आदमी से इंसान या मनुष्य कहा जाता है।] धर्म कभी दो-चार नहीं हो सकता। देश-काल परिस्थिति के अनुसार पैगंबर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता लोग आविर्भूत होते हैं, और अलग -अलग पद्धति से उसी एक धर्म [अभ्युदय और निःश्रेयस] को अपने आचरण में उतार कर उसका प्रचार करते हैं। " श्री रामकृष्ण देव इस्लामधर्म के सूफ़ी-सम्प्रदाय के औलिया (सन्त) गोविन्द राय से दीक्षा लेकर 'अल्ला' के मंत्र का जप (99 नाम का) किया करते थे। प्रसिद्द सूफी संत (धार्मिक विद्वान) जलालुद्दीन रूमी "आदमी की तरक़्क़ी" नामक नज़्म में कहते हैं, -
ट्रेरिस्टों पर बम गिराने के लिए इराक -अफगानिस्तान कहाँ जा रहे हो ? पाश्चात्य देश अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दानव हो गए है, वे दानव-दलन कैसे करेंगे ? किन्तु जब तुम्हारा सोया हुआ विवेक जाग्रत हो जायेगा, तब तुम यह समझ जाओगे कि हमारे हृदय में ही प्रेमस्वरूप ईश्वर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ) जगत्जननि माँ सारदा देवी, जगतबन्धु स्वामी विवेकानन्द (प्रेम का समुद्र) ज्वार मार रहा है। उसी माँ जगदम्बा के विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध से निसृत जगतग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। जब उस प्रेम को अभिव्यक्त होने की बाधा व्यष्टि अहं से (reflected consciousness या देहाध्यास के अहं-मन से) शुद्ध चेतना (pure consciousness) को विवेक के द्वारा पृथक -पृथक कर लिया जायेगा, तो वह प्रेम सम्पूर्ण विश्व को अपना समझने में समर्थ बना देगा। सभी केवल भाई ही नहीं हैं, सारी मानवजाति एक है ! 'अनेकता में एकता' भारत की विशेषता-Unity in diversity, Oneness of humankind, कोई अलग नहीं है; तुम और मैं एक हूँ !
परीक्षा और परिणाम : वेदान्ती साम्यवाद, सनातन धर्म के अनुसार सारी मानवजाति एक है! वेदान्त दर्शन की भाषा में इसी Oneness को अद्वैत कहा जाता है। यही सनातन धर्म में है जिसके अनुसार -देश में उत्पादित अन्न से लेकर कल-कारखानों में जो कुछ भी उत्पादन होता है (GDP सकल घरेलू उत्पाद) को सब मनुष्यों में उनकी जरूरत के हिसाब से बँटवारा कर देना चाहिए। सबों में उनकी जरूरतों के हिसाब से वितरण करो, किन्तु उनको अपना इष्टदेव समझकर वितरण करना। अपने भाई-बहनों में पारिवारिक संपत्ति का बँटवारा करते समय भी उनकी जरूरतों के मुताबिक ही बँटवारा करना चाहिए। क्योंकि वे मेरे भाई-बहन ही नहीं हैं, मेरी आत्मा की आत्मा -मेरे इष्टदेव के स्वरूप हैं ! भागवत (7. 11. 10) में सनातन धर्म को परिभाषित करते हुए जहाँ कहा गया है - 'तेष्वात्मदेवताबुद्धिः' अर्थात 'तेषु आत्मदेवता बुद्धिः' को मार्क्स के साम्यवाद में स्वीकार नहीं किया गया। सभी देशवासियों को अपनी आत्मा समझकर कर वितरण करने वाले 'सनातन धर्म' को भी अफीम कह दिया गया। इसीलिए यह आध्यात्मिक साम्यवाद दुनिया में कहीं नहीं आ सका है।
[क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान। मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान। बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध नही होता और बिना अज्ञान के द्वैत बुद्धि नही हो सकती। माया के बशीभूत जड़ जीव क्या कभी ईश्वर के समानहो सकता है।]
सम्पूर्ण भारतियों को जिस 'आत्मदेवता-बुद्धि' से देखते हुए GDP (1947 3 लाख से 2019 98 लाख) को भारतियों में उनकी जरूरतों के हिसाब से वितरण की बात सनातन धर्म में कही गयी है, स्वामी जी की ऋषि दृष्टि भी उसी प्रकार की थी। स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ऐसा कहा है, स्वामीजी निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक थे, किन्तु हमारी दृष्टि वहाँ तक पहुँच नहीं पाती है। वे तो पृथ्वी-लोक के परे ब्रह्मलोक में अखण्ड के घर में बैठकर तपस्या कर रहे थे, ठाकुर उनको समाधि से जगाकर अपना काम कराने के लिये पृथ्वी पर लेकर आये थे. इन बातों को मुँह से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है, किन्तु योग-सूत्र के व्यास भाष्य में भी सप्तर्षियों में से विवेकदर्शर्न का अभ्यास करने कहा गया है। उत्तर आकाश में जो सप्त-ऋषि ध्रुव-तारे या पोल-स्टार की परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, वे सब प्रवृत्ति-मार्ग के ऋषि है। स्वामीजी उनमें से कोई एक नहीं हैं।
कार्य क्या है ? हम सभी लोग जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं,एक सफल और महान मनुष्य (बुद्ध जैसा) बनना चाहते हैं। परन्तु यदि हमने मनःसंयोग की पद्धति नहीं सीखा हो, तो जीवन में सफलता कैसे मिल सकती है? यदि हमलोग मन को अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार किसी एक ही कार्य या विषय में लगाने की तकनीक को सीख जायें, तो सफलता की सम्भावना निश्चित हो जाएगी। अतः हम समझ सकते हैं कि सफल मनुष्य या महान मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग की पद्धति को सीखकर उसका निष्ठापूर्वक 'अभ्यास करना' आवश्यक है। अब प्रश्न है कि 'कार्य' कहने से हम क्या समझते हैं ? आगे हम इसी बात को थोड़ा और बेहतर तरीके से समझने की चेष्टा करेंगे अर्थात इसी विषय पर मनःसंयोग करेंगे।
प्राकृतिक कार्य: जगत में प्राकृतिक रूप से कई प्रकार की घटनायें घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमे से प्रत्येक घटना एक प्रकार का कार्य ही तो है ! जैसे हम देखते हैं कि ऋतुपरिवर्तन होता है, प्रातः काल में सूर्य उदित होता है, रात्रि के अंधकार को दूर हटा कर सूर्य की किरणें जगमगा उठतीं हैं। फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं। बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है, सूर्य के प्रचण्ड ताप से मिट्टी का जल वाष्प बन कर उड़ जाता है,और इसी प्रकार के अन्य कितने ही कार्य होते रहते हैं। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। इनमे से किसी भी कार्य के पीछे मनुष्य की कल्पना, इच्छा, प्रयत्न या उद्यम आवश्यक नहीं होता।
आवश्यक कार्य : फ़िर हम यहाँ कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है। मनुष्य कोई भी कार्य इच्छा और विचार से प्रेरित होकर ही करता है। किसी आवश्यक /अनावश्यक कार्य को करने का विचार जब मनुष्य के मन में उठता है, तब वह अपने शरीर, या अन्य किसी उपकरण या दूसरी चीज की सहायता से अपनी इच्छा को रूप देने की चेष्टा करता है। कार्य करते समय मनुष्य अपनी कल्पना को रूपायित करना चाहता है। पहले हम मन में कल्पना करते हैं, फिर इच्छा-शक्ति (will power) का प्रयोग करते हुए किसी आवश्यक कल्पना को साकार रूप देते हैं। इसी को कार्य करना कहते है। किन्तु उस कार्य का जनक कौन है ? कार्य का कारण कहाँ है ? कार्य का कारण मन में है, विचार में है। मनुष्य की आकांक्षा, इच्छा, और चेष्टा आदि का आधार मनुष्य का मन ही होता है। जैसे हम देखते हैं कि - किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है, श्रमिक-कारीगर लोग कितने प्रकार के कार्य कर रहे हैं, कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है। मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,प्रयत्न, श्रम या पुरुषार्थ करता है।
किसी वस्तु पर कार्य करने से उसके स्वरूप में रपान्तरण हो जाता है: जैसे मैं कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! अब यदि ध्यान पूर्वक देखें तो पायेंगे कि जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि।
दैहिक शक्ति की सीमा है, मानसिक शक्ति असीम है: कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति (will power )कहते हैं। जबकि प्रयत्न करने में या कार्य करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। परन्तु यह शारीरिक शक्ति भी मन को नियोजित करने के बाद ही क्रियाशील होती है। महर्षि कणाद 'मूसल' के उदाहरण द्वारा प्रयत्न या कार्य की उत्पत्ति के क्रम को समझाते हुए वैशेषिक सूत्र 5.1.2 में कहते हैं - 'तथा हस्तसंयोगाच्च मुसले कर्म । ' - और वैसे ही ( कर्म वाले ) हाथ के संयोग से मूसल में क्रिया (होती है)। यहाँ 'मूसल' का उदाहरण देते हुए ऋषि बतलाते है, प्रयत्न आदि की उत्पत्ति का क्रम यह है- ' आत्म जन्या भवदिच्छा इच्छाजन्या भवेद कृतिः । कृतिजन्या भवेचेष्टा तज्जन्यैव क्रिया भवेत्।' आत्मा के साथ मन का संयोग होने से मन में इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा से प्रयत्न उत्पन्न होता है। प्रयत्न से ( सारे शरीर में या किसी एक अङ्ग में) चेष्टा उत्पन्न होती है। चेष्टा से क्रिया-उत्पन्न होती है। आत्मा (pure consciousness) के साथ मन का संयोग होने पर स्वाभाविक रूप से पहले मन में (प्रतिबिंबित चेतना reflected consciousness या अन्तःकरण में) मूसल उठाने की इच्छा उत्पन्न होती है। फिर आत्मा के साथ मन का संयोग रहने से हाथ में (मूसल को ऊपर की ओर उठाने की) चेष्टा-उत्पन्न हुई। उस चेष्टा से मूसल में 'उत्क्षेपण ' क्रिया उत्पन्न हुई। इसी क्रम मे नीचे लाते समय 'अवक्षेपण' क्रियाः उत्पन्न होती है। जिस प्रकार आत्मा के संयोग और प्रयत्न से हाथ में क्रिया होती है, उसी प्रकार हाथ के संयोग से ऊखल में धान कुटने वाले -मूसल में, धान कूटते समय क्रिया उत्पन्न होती है। यहाँ महर्षि कणाद सूत्र में ‘‘च’’ से बतला रहे हैं कि मूसल के गिरने में उसका भारी होना भी एक कारण है। ऋषि अगले सूत्र में कहते हैं - अभिघातजे मुसलादौ कर्मणि व्यतिरेकादकारणं हस्तसंयोगः । वैशेषिक-५,१.३ ।अर्थ : जब मूसल नीचे गिरता है, यद्यपि उस समय हाथ का भी संयोग होता है, परन्तु गिरने में भारी होने के अतिरिक्त पृथ्वी की जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति उसे नीचे की ओर खींचती है, उसमें हाथ की शक्ति (दैहिक शक्ति) नहीं लगानी पड़ती। इसीलिए मूसल के गिरते समय आत्मा को प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती । उसकी युक्ति यह है कि चाहे हाथ का संयोग हो या न हो, भारी होने के कारण गुरुत्वाकर्षण की शक्ति से वह नीचे अवश्य ही गिरेगा। जब हाथ के बिना उसका गिरना आवश्यकीय है क्योंकि यदि गिरते समय प्रयत्न होता है तो वह उसको नीचे गिरने से रोकता न कि गिराता। क्योंकि प्रयत्न हमेशा प्राकृतिक शक्ति के विरूद्ध ही किया जाता है। या प्राकृतिक आकर्षण को उपने बल से चलाने में उसका प्रयोग होता है। इस मूसल के उदाहरण से यह परिणाम भी निकलता है, कि मनुष्य को उन्नति करने में प्रयत्न करने की आवश्यकता है। और यदि उन्नत मनुष्य बनने का यत्न न किया जाये, तो अवनति स्वयं ही हो जाती है। क्योंकि जिस प्रकार भारी वस्तुओं को पृथ्वी की गुर्त्वाकर्षण शक्ति अपनी ओर खींच ही लेती है,उसे गिराने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी प्रकार विषयों की आकर्षण शक्ति इन्द्रियों को बराबर अपनी ओर खींचती है, यदि आत्मा इन्द्रियों को विषय से रोकने का काम न करे तो बलात् आत्मा का विषयों की ओर ले जायेगी। जिस प्रकार भारी वस्तुओं में गुरूत्व पृथ्वी पृथ्वी की आकर्षण शक्ति से है, इसलिए वह वस्तुओं को अपने कारण पृथ्वी की ओर ले जाता है, इसी प्रकार इन्द्रियां और मन पंचभूतों से उत्पन्न होते हैं और वह प्रत्येक वस्तु को भौतिक विषयों की आर ले जाते हैं।
इसलिए जो लोग ऐसा मानते हैं कि यदि हम बुरा काम न करें तो हमको संध्या अग्नि-होत्र आदि शुभ कर्म अथवा महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 दैनन्दिन अभ्यास करने की क्या आवश्यकता है ? तो वह बड़ी भारी भूल करते हैं क्योंकि बुराई उनको अवश्य अपनी ओर खींच लेगी। यदि हमलोग मनःसंयोग और विवेक-प्रयोग सीखकर अपने मन को वश में करके मनुष्य बनने और बनाने का अभ्यास न करें तो, हम नीचे गिर कर मानव-पशु ही नहीं मानव-राक्षस भी बन सकते हैं। अतः मानसिक ऊर्जा (mental energy) को पूरी तरह से निवेशित करके कार्य करने से -कोई भी कार्य कम समय में पूर्णता के साथ सम्पन्न हो सकता है। जिस क्रिया के पीछे 'कामना-वासना' नहीं केवल निःस्वार्थपरता हो उनके संस्कार हमें कर्म-बन्धन में नहीं बांधते। इसलिये हमें निःस्वार्थ Be and Make आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने में घोर परिश्रम करना चाहिये। 'नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गए, कश्ती ने रुख मोड़ा तो किनारे बदल गए'! हमें परिणाम की चिंता छोड़कर कर्म करना चाहिए। जब तक विवेक-प्रयोग द्वारा - " चेतन, अवचेतन, अचेतन, तुरीय " को पूरी तरह से जगा नहीं दिया जाता, तब तक मन को वश में नहीं लाया जा सकता। यदि कर्म पूरे मन से किया गया होगा, तो उसका अच्छा फल मिलना निश्चित है। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा कर्म उत्कृष्ट हो। इससे चित्तशुद्धि हो जाती है।
कपटधार्मिकः बकः छद्म-धर्मी बगुला" बाहरी वेशभूषा नहीं, मन में शिव-संकल्प रहना आवश्यक है, कोई सहचारी या संगत में रहने वाला ही सहचारी के व्यवहार को देखकर उसके चरित्र को ठीक ठीक पहचान सकता है। श्री राम और लक्ष्मण एकबार स्नान करने के लिए पंपा सरोवर पहुंचे। श्री राम ने सरोवर में मंथर गति से चलते हुए बगुलों की ओर इशारा करते हुए लक्ष्मण को कहा कि-“पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकोयंपरमधार्मिकः। शनैः शनैः पदं धत्ते जीवानां वधशंकया॥” अर्थात लक्ष्मण, देख इस पम्पा सरोवर में बगुला कितना धार्मिक है। कहीं मेरे पांवों से जीवों का वधन न हो जाए, इसीलिए कैसा धीरे-धीरे पैर रखते हुए चल रहा है। श्री राम की इस बात को सरोवर में रहने वाली एक मछली सुन लेती है। और वह भगवान राम से कहती है - "सहवासी विजानाति सहवासी विचेष्टितम्।बकोऽयं वर्ण्यते राय तेनाहं निष्कुलीकृतः॥ नहीं नहीं रामजी, आप किसकी प्रशंसा कर रहे हैं ? जिस बगुले की प्रशंसा की जा रही है। उसने हमारा कुल उजाड़ दिया, सारा कुल नष्ट कर दिया। और जब शुद्ध-पवित्र मन केवल शिव-संकल्पों से ही भरा रहता है तब उसकी शक्ति अनन्त गुना बढ़ जाती है। और ऐसे शक्तिशाली उपकरण के तैयार हो जाने के बाद; इसे जिस कार्य में लगा दिया जायेगा वह कार्य भी बड़े सुन्दर ढंग से सम्पन्न होगा,और उसमें निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होगी। इस तथ्य को समझ लेने में अब कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
ज्ञान क्या है ? इस जगत-ब्रह्माण्ड के सुदूर अपरिमेय अंतरिक्ष में खचित विशालकाय ग्रह-नक्षत्र से लेकर सूक्ष्म अणु-परमाणु के मध्य असंख्य ज्ञातव्य या जानने योग्य वस्तुएँ एवं विषय बिखरे हुए हैं। इनमें से जिन वस्तुओं या विषयों की जानकारी (information-आँकड़ा ) हमें प्राप्त है, उसको ही उस वस्तु या विषय का ज्ञान कहा जाता है। किन्तु इनमें से किसी भी वस्तु या विषय का ज्ञान हमें मन की सहायता से ही प्राप्त होता है। बचपन में एक सुन्दर सुगंधित फूल को देखा, तो पिता जी से पूछा -ये कौन सा फूल है ?... ये कमल का फूल, उड़हुल का फूल है; पिता जी ने बता दिया इस फूल को गुलाब कहते हैं। तो उस फूल का रूप और विशिष्ट सुगन्धि मन के खाँचे में संचित हो गया। अब फूलों की प्रदर्शनी में गुलाब के फूल को आसानी से पहचान सकता हूँ।
उसी प्रकार कुछ बड़े होने पर रात्रि के समय चाँद और चाँदनी के प्रकाश को देखा तो पिताजी से पूछा -क्या यह चन्द्रमा का अपना प्रकाश है ? पिताजी ने बता दिया, नहीं यह भी सूर्य का ही प्रकाश है, जो चन्द्रमा से परावर्तित होकर धरती पर उजियाला फैला रहा है। अर्थात चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित हो रहे हैं। फिर पूछा सूर्य किससे प्रकाशित होते हैं ? उन्होंने समझा दिया कि सूर्य -किसी से प्रकाशित नहीं है, वह एक गर्म आग का गोला है, और उसका यह अपना प्रकाश है। सूर्य स्थिर है, न उगता है न डूबता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर 24 घंटे में एक चक्र पूरा करती है, जिससे दिन-रात आते जाते हैं। पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है, जिसके कारण पेड़ से फल टूटने पर नीचे गिरता है,ऊपर नहीं जाता आदि आदि। इस प्रकार जगत-ब्रह्माण्ड के विषय के बारे में हमारे ज्ञान का क्षेत्र क्रमशः बढ़ता जाता है। यह सब ज्ञान आता कहाँ से है ? बाहर से? नहीं यह ज्ञान हमारे भीतर ही था। जब जिस वस्तु या विषय का ज्ञान प्राप्त करना होता है, उस पर मन को एकाग्र करने से उस विषय या वस्तु का ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है। समस्त मानवजाति एक है -इसको पहचान लेना और प्रत्येक मनुष्य के सामने श्रद्धापूर्वक अपने सिर को झुकाना, उसकी कदर करना ही सच्चा ज्ञान है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने मन को एकाग्र करने की तकनीक सीखने को ही शिक्षा का प्रधान तत्व कहा है।
मन क्या है ? सूक्ष्म वस्तु को हम देख नहीं सकते: इसीलिए हमें मन के विषय में स्पष्ट अवधारणा नहीं है। परन्तु हम अनुभव करते हैं, कि मन है। पर वह कार्य कैसे करता है ? हम कहते हैं -मेरा शरीर परिवर्तनशील है,बच्चा-जवान बूढ़ा होता है, लम्बा-नाटा, मोटा-दुबला होता रहता है। मेरी आँखों में नंबर लगेगा या नहीं ? मै बायें कान से कम सुन पाता हूँ - इसकी अवस्था को जानने वाला (knower-ज्ञाता ) कौन है? मेरा मन ही तो है ! इस शरीर और इन्द्रियों की अवस्था को मन जानता है। फिर हम देखते हैं कि मेरा मन भी परिवर्तनशील है, कभी तो यह खुश रहता है, कभी उदास हो जाता है। तो मन की अवस्थाओं को कौन जानता है ? हमलोग कहते हैं -हमलोग मैच जीत गए, मेरा मन आज बहुत प्रसन्न है। मन का भी कोई ज्ञाता है -तो वह कौन है ? मन का भी कोई द्रष्टा है - जो मन को भी देख सकता है -वही हमारी सत्ता है।
जिसको हम अपना वास्तविक 'मैं' कहते हैं, जो कभी नहीं बदलता-पर शरीर का ज्ञाता कहलाने वाले मन की अवस्था को भी जो जानता है, वह कौन है -क्या है ? हमारे देश में उसको आत्मा (existence- consciousness-bliss, सच्चिदानन्द या ब्रह्म) कहा जाता है। भले इस समय उस सत्ता स्पष्ट रूप से नहीं समझ पा रहे हों,फिर भी हमें उस सत्ता पर श्रद्धा रखनी चाहिए। जैसे विज्ञान के भी बहुत से फैक्ट्स को एक्सपेरिमेंट करके हमने अभी स्वयं नहीं देखा है। जल का सूत्र है H2O,अर्थात दो भाग हाइड्रोजन 1 भाग ऑक्सीजन को मिलाने से जल बनाकर हमने नहीं देखा है, किन्तु वैज्ञानिक-खोज से उत्पन्न इस सिद्धान्त पर हममें अधिकांश लोग विश्वास करते हैं।
उसी प्रकार हमलोगों को आध्यात्मिक जगत के वैज्ञानिकों अपने पूर्वज ऋषियों (स्वामी विवेकानन्द) द्वारा भारत निर्माण का आविष्कृत सूत्र 3'H'-विकास पद्धति पर विश्वास करना चाहिए कि हम वास्तव में आत्मा हैं। और यह मन अपरिवर्तनशील आत्मा और परिवर्तनशील जगत के बीच एक पूल के जैसा काम करता है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं - Hand, Head और Heart (3rd H) भी हैं। मनुष्य केवल 2H नहीं 3H है ! इन तीनो शक्तियों को विकसित करने की पद्धति को सीखकर मनुष्य बना जा सकता है। इसीको मनुष्यनिर्माणकारी शिक्षा कहते हैं।
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[नवनी दा 27-12-2005 कैम्प :धर्मलाभ -पहला पुरुषार्थ "मनोतीर्थ में स्नान !" सरिसा रामकृष्ण मिशन आश्रम/ॐ सहनाववतु सहनौभुनक्तु]
स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण के पहले तक अंग्रेज लोग वेदों-उपनिषदों को shepherd song (गड़ेरिया का गीत-चरवाहा गीत) कह कर इसका उपहास किया करते थे। परन्तु 2003 में UNESCO ने वेदों उपनिषदों की मौखिक परम्परा को 'मनुष्यजाति की मौखिक और अमूर्त विरासत' " Oral and Intangible Heritage of Humanity." [ दूसरे शब्दों में यूनेस्को के द्वारा 2003 में " आगम -निगम अर्थात शिव-पार्वती संवाद (अथवा उससे निकले जैनिज्म, बुद्धिज्म, सिखिज्म में) या वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रचलित - मौखिक दीक्षा-परम्परा को "मानवता की मौखिक और अमूर्त विरासत" कहकर सम्मानित किया गया है। संस्कृत भाषा में लिखे वेद-उपनिषदों के महत्व को पाश्चात्य जगत या यूनेस्को को समझने में इतना समय क्यों लगा ? क्योंकि प्राचीन समय में पाश्चात्य देशों में संस्कृत की शिक्षा देने की कोई व्यवस्था नहीं थी।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत चेयर के 'बोडेन चेयर' पद पर प्रतिष्ठित होने वालो सबसे पहले व्यक्ति थे-संस्कृत के विद्वान एच.एच. विल्सन(Horace Hayman Wilson: १७८६-१८६०)। वे भारत में मेडीकल प्रोफेशन के एक सदस्य के रूप में, १८०८ में आये तथा १८३२ तक यहाँ रहे थे। एक भारतीय विद्वान के पत्र के उत्तर में विल्सन साहब ने संस्कृत के माधुर्य के बारे में, संस्कृत के अनुष्टप छन्द में लिखा था-'अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोऽधिकं |देव भोग्यमिदम् यस्माद् देव भाषेती कथ्यते || '' अमृत बहुत मीठा होता है। संस्कृत उससे भी अधिक मीठी है, क्योंकि देवता इसका सेवन करते हैं। यह देववाणी कहलाती है। इस संस्कृत में ऐसी मिठास है जिसके कारण हम विदेशी लोग इसके सदा दीवाने रहते हैं। जब तक कि भारतवर्ष में विन्ध्य तथा हिमालय है,.....यावत गंगा च कावेरी च तावदहि संस्कृतं। " जब तक गंगा तथा गोदावरी है,तब तक संस्कृत है।'
एक जनश्रुति प्रसिद्द है कि राजा भोज ने एक लकड़हारे के सिर पर बोझ देखकर परदुःख-कातर हो उससे संस्कृत में पूछा- "किम ते भारं बाधति?" तुम्हें यह बोझ कहीं कष्ट तो नहीं पहुंचा रहा है ? और 'बाधति ' क्रिया का प्रयोग किया। इस पर लकड़हारे ने उत्तर दिया --"भारं न बाधते राजन यथा बाधति बाधते।। "महाराज ! मुझे इस बोझ से उतना कष्ट नहीं हो रहा है जितना ' बाधते ' के स्थान पर आपके बोले हुए 'बाधति ' पद से हो रहा है।' जबकि भारतीय समाज का मेरुदण्ड है - ग्रहस्थाश्रम ; अन्य आश्रमों की स्थिति ग्रहस्थाश्रम के ऊपर ही निर्भर है। इसीलिये संस्कृत साहित्य में गार्हस्थ्य धर्म का सांगोपांग वर्णन पूर्ण तथा हृदयावर्जक रूप से उपलब्ध होता है। संस्कृत साहित्य का आदिमहाकाव्य वाल्मीकिरामायण गार्हस्थ्य धर्म की धुरी पर घूमता है। दशरथ का आदर्श पितृत्व , कौशल्या का आदर्श मातृत्व ,सीता का आदर्श पत्नीत्व ,भारत का आदर्श भातृत्व ,सुग्रीव का आदर्श बन्धुत्व ,तथा सबसे अधिक रामचन्द्र का आदर्श पुत्रत्व भारतीय गार्हस्थ्य धर्म के ही विभिन्न अन्गों के आराधनीय आदर्शों की मधुमय मनोरम अभिव्यक्ति है। भारतीय साहित्य में संस्कृत वाङ्गमय का विशेष महत्त्व है। संस्कृत वाङ्गमय जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष से संबद्ध सभी विषयों का साङ्गोपाङ्ग वर्णन करता है। जीवन का एसा कोई भी पक्ष नहीं जिसका सूक्ष्म विवेचन संस्कृत वाङ्गमय में ना हो।
वैदिक संस्कृति और संस्कृत भाषा के प्रति यही भाव मानवजाति के सभी मार्गदर्शक नेताओं, अवतारों, या जीवन्मुक्त शिक्षकों में पाया जाता है। मानवजाति के जितने भी मार्गदर्शक नेता आते रहे हैं -उन सबों ने गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में अपने जीवन पुष्प को (चरित्र को) कमल - पुष्प की तरह प्रस्फुटित करने का मार्ग दिखलाया है। स्वामी जी के भाषण को सुनने के बाद वहाँ की एक महिला ने पूछा -Swami ji are you Buddhist? स्वामी जी थोड़ा विनोदी स्वभाव के थे, उन्होंने उत्तर में कहा था - No, I am not a Buddhist, but I am bud'ist ! नहीं, मैं बुद्धिष्ट नहीं हूँ, बल्कि मैं कली को फूल में विकसित होने की शिक्षा देता हूँ। उसी प्रकार इस शिविर में भी जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति सिखाई जाती है। हमलोगों का जीवन भी अभी कली के रूप है, इस जीवन पुष्प को प्रस्फुटित करने की पद्धति हमें भी सीखना है।
सबसे बड़ा मूर्ख कौन है ? इसके उत्तर में आचार्य शंकर ने कहा है- इतः को न्वस्ति मूढात्मा यस्ति स्वार्थे प्रमाद्यति। दुर्लभम् मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषं।। ( इतः कः नु अस्ति मूढात्मा यः तु स्वार्थे प्रमाद्यति, दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्र अपि पौरुषम्। विवेक-चूड़ामणि ) - "देव- दुर्लभ मनुष्य देह और पौरुष को पाकर भी जो स्वार्थ साधनमें प्रमाद करता है - अर्थात अपने जीवनपुष्प को प्रस्फुटित करने में प्रमाद करता है, उससे अधिक और मूढ कौन होगा ? जो मनुष्य मन को वश करने का कौशल सीखकर अपने को पशुमानव से देवमानव में रूपान्तरित करने की कोई चेष्टा नहीं करता वही तो सबसे अधिक मूर्ख या मोहित व्यक्ति है ! सबसे बड़ा मूर्ख वही है, जो मनुष्यत्व और पौरुष को प्राप्त करके भी अपने जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने का प्रयत्न नहीं करता है। देवदुर्लभ मानव-शरीर, उसके भी उपर पौरुष- साहसिकता या यौवन का तेज प्राप्त करके भी जो व्यक्ति आलस्यवश स्वयं के यथार्थ स्वार्थ या सर्वोत्तम हित 'चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' की साधना की उपेक्षा करता है, उस व्यक्ति से बड़ा मूर्ख (मोहग्रस्त मनुष्य) कौन हो सकता है ?
को दरिद्रः ? दरिद्र कौन है ? जिसकी तृष्णा विशाला (असीम) होती है वही दरिद्र (निर्धन) होता है ,मन में सन्तोष हो तो कौन धनवान है और कौन निर्धन है? स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला। मनसि तु परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्रः॥ वैराग्यशतक /45 जिसके मन में जितनी अधिक तृष्णा है वह उतना बड़ा दरिद्र है। और जब मन में सन्तोष आ जाता है, तब धनी-गरीब का अपने मन में कोइ भेद नहीं होता । विषयों को भोगने की तृष्णा के कारण ही हमलोग सम्मोहित (hypnotized) हो जाते हैं, हमारी बुद्धि मोहित हो जाती है। जन्म लेते ही प्रत्येक मनुष्य सम्मोहित हो जाता है, इसलिए उच्चतम डिग्री प्राप्त मनुष्य की बुद्धि भी मोह-निद्रा में सोयी हुई बुद्धि है। सन्त तुलसी दास जी कहते हैं - 'सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहि जग बारहिं बारा।अर्थात पुत्र धन स्त्री मकान और परिवार आदि तो इस संसार में बार बार प्राप्त होते रहते हैं।विवेक-प्रयोग तथा चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का संकल्प-ग्रहण किये बिना हम कभी विसम्मोहित (Dhypnotized या भ्रममुक्त) नहीं हो सकते; हमारी मती कभी जाग्रत नहीं हो सकती और इसका परिणाम क्या होता है ?शूकर, सियार, स्वान योनियों में जन्म लेना पड़ता है। वैसा जीव अपनी जन्म-दायिनी माता को केवल दुःख देने के लिये ही पैदा हुआ है।
भ्रूण हत्या क्यों ? प्रकृति का कोमल उपहार,भोर की उजली किरण,जीवन की प्रथम कलि,खिलने से पहले ही मुरझाने ko विवश क्यूँ ?' कन्या' ही माँ, बेटी, बहन है जन्मदायिनी माँ की आंख में आंसू क्यूँ ? संकल्प ग्रहण (आत्मसुझाव-Autosuggestion) तथा विवेक-प्रयोग की शिक्षा (प्रशिक्षण) देने से - भ्रूण में पल रही बेटी या बेटा दोनों - Would be Leader of the mankind. भावी सारदादेवी, मीराबाई, सहजोबाई या लक्ष्मी बाई, श्रीरामकृष्ण,बुद्ध ईसा भी बन सकती/सकता है। इसीलिए सहजोबाई कहती हैं -राम तजूं मैं गुरु न बिसारूं, गुरु के सम हरि को न निहारूं। हरि ने जन्म दियो जग माहीं, गुरु ने आवागमन छुड़ाही॥] सन्त तुलसीदास जी ने भी कहा है, तुलसिदास हरि गुरू-करूना बिनु, बिमल विवेक न होई । बिनु विवेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई ।। भगवान तथा गुरु (विवेकानन्द ) की कृपा के बिना किसी को शुद्ध-विवेक (clear-discrimination) प्राप्त नहीं होता, और इसके (विवेकानन्द के) बिना कोई व्यक्ति ब्रह्मांड नामित गहरे समुद्र (भव-सागर) को पार नहीं कर सकता। सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥ भावार्थ:-हे तात! सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेक है॥41॥
कीचड़ को कीचड़ से साफ नहीं किया जा सकता। आतंकवाद को आतंकवाद से नष्ट नहीं किया जा सकता। प्रेम के आधार पर ही नया विश्व बनाना चाहिए। यह काम केवल भारत से होगा। पहले सबके हृदय में परस्पर कितना प्रेम था ! " भूल न जाना हर भारतीय मेरा भाई है !" Forget not every Indian is my brother' - 'वसुधैव कुटुम्ब्कं'- अब ऐसा कौन कहता है ?अब तो केवल अधिक से अधिक धन जमा करने की होड़ मची है। इस गला-काट प्रतियोगिता और आतंकवाद का अंत कैसे होगा ? मनुष्य बनकर और को भी मनुष्य बनने में सहायता करने से होगा। स्वाधीन भारत के किसी नेता ने स्वामी विवेकानन्द को नहीं पहचाना है।
स्वामी जी कहते थे -" जिस प्रकार स्वयं को हिन्दू कहकर अपना परिचय देना आजकल हमलोगों में परिचलित है, उसकी अब कोई सार्थकता नहीं बची है। इसलिए मैं अपने लिए अब हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं करूँगा।" -५/१९ (क्योंकि पंचानन मिश्रा को पेंचो कहना उसका अपमान करना है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी १८७५ ई ० 'आर्य समाज ' की स्थापना की थी, 'हिन्दू महासभा' की नहीं । क्योंकि हिन्दू शब्द हमें फ़ारसी लोगों से प्राप्त हुआ है। हम अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था में पले -बढ़े लोग स्वामी विवेकानन्द के परामर्श के अनुसार, " गर्व से कहो कि मैं भारतीय हूँ और प्रत्येक भारतवासी (भारतीय) मेरा भाई है ! कहने के बजाये महामण्डल के अंग्रेजी स्वदेशमन्त्र में भी भारत को India क्यों कहना चाहिए ? [अंग्रेजी शासन-काल में हमारे देश का नाम भारतवर्ष से India कर दिया गया। स्वामी जी के समय में भारत अंग्रेजों का गुलाम था, तब उन्हें 'O India Forget not " कहा था। "every Indian is my brother" कहना भी मजबूरी रही होगी। स्वाधीनता के 70 वर्षों बात भारतियों को अपना परिचय 'Indian' या हिन्दुस्तानी कहकर क्यों देना चाहिए ? क्या यह भी अंग्रेजी परस्ती नहीं है ?]
श्री रामकृष्ण कहते थे -जितने भी 'branded religion' ( ट्रेड-मार्क या बाहरी छाप वाले) जितने भी धर्म हैं, वैसे सभी साम्प्रदायिक धर्म जितना शीघ्रातिशीघ्र नष्ट हो जाये तो उतनी ही शीघ्रता से मानवजाति का कल्याण सम्भव हो जायेगा। धर्म तो एक ही होता है -[जिसके रहने से पाशविक मानसिकता नष्ट होकर आदमी से इंसान या मनुष्य कहा जाता है।] धर्म कभी दो-चार नहीं हो सकता। देश-काल परिस्थिति के अनुसार पैगंबर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता लोग आविर्भूत होते हैं, और अलग -अलग पद्धति से उसी एक धर्म [अभ्युदय और निःश्रेयस] को अपने आचरण में उतार कर उसका प्रचार करते हैं। " श्री रामकृष्ण देव इस्लामधर्म के सूफ़ी-सम्प्रदाय के औलिया (सन्त) गोविन्द राय से दीक्षा लेकर 'अल्ला' के मंत्र का जप (99 नाम का) किया करते थे। प्रसिद्द सूफी संत (धार्मिक विद्वान) जलालुद्दीन रूमी "आदमी की तरक़्क़ी" नामक नज़्म में कहते हैं, -
" बेजान चीज़ों (खनिज आदि) से मर गया, पौधा बन गया।
फिर पौधों से मर गया, हैवान बन गया।
हैवानों (पशु -मानव) से मर गया और आदमी (इंसान -चरित्रवान मनुष्य) हो गया।
डरूँ क्यों, कि कब मर कर कम हो गया?
अगली दफ़े आदमियों (इंसानों) के बीच से मर जाऊँ।
ताकि फ़रिश्तों के बीच पर व पंख उगाऊँ।
और फ़रिश्तों में से भी चाहिये निकल जाना कि सिवा उसके; हर शै को है -फ़ना हो जाना।
एक बार फिर फ़रिश्तों से क़ुरबां हो जाऊँगा। फिर जो सोच में नहीं आता, वो हो जाऊँगा!
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"द्वार पर दस्तक तो दो सही- देखो फिर वो द्वार अपने खोल देगा;
तुम 'ना कुछ' हो जाओ [100 % unselfish हो जाओ !]
, - ओर वो तुम्हे सबकुछ बना देगा।"
एक बार फिर रूमी अपनी प्रेमिका के दरवाजे पर गए और दरवाजा खटखटाया। अंदर से आवाज आई - ‘कौन है?’ इस बार रूमी ने कहा, ‘तुम, सिर्फ तुम। रूमी अब कहीं नहीं है।’ दरवाजा खुल गया..."
माशूक़ ही है सब कुछ, आशिक़ है बस परदा।
माशूक ही बस जी रहा है, आशिक़ तो एक मुरदा॥
सूर्य की किरणें चन्द्रमा पर गिरती हैं, और चन्द्रमा चमकने लगता है. पर वास्तव में यह उसकी अपनी चमक नहीं है, ठीक इसी प्रकार इस दुनिया में हर चीज़ की अपनी खुद की कोई खूबी नहीं है। इसलिए तुम उस स्रोत (विवेक-श्रोत) की तलाश करो, जो की हमेशा अपनी खुद की रौशनी से चमकता है ।
[जलालुद्दीन रूमी के मज़ार पर ये पंक्तियाँ लिखी हैं ” जब में मर जाऊ तो मेरे मकबरे को ज़मीन में मत खोजना, उसे लोगों के दिलों में खोजना” रूमी की दो रचनाये बहुत मशहूर हुई, एक “मसनवी” और “दीवान ए शम्स तबरेज़”। ]
रूमी के प्रसिद्द नज्म "आदमी की तरक़्क़ी" का तात्पर्य डार्विन के Evolution (क्रम-विकासवाद) को आगे बढ़ाना है। वे कहते हैं विभिन्न योनियों से उन्नत होते हुए अन्त में मनुष्य शरीर प्राप्त होता है। किन्तु यहीं पर क्रम-विकास का अन्त नहीं हो जाता है। क्रमविकास अब भी चलना चाहिए, मनुष्य को देवता में उन्नत होना चाहिए। जो घोर स्वार्थपर है- वह पशुमानव की अवस्था में है, जब धर्म (विवेक-प्रयोग) सीखकर वह सहानुभूति (sympathy) सम्पन्न होता है, तब वह क्रमशः निःस्वार्थपर (unselfish) मनुष्य होने लगता है। जब कोई व्यक्ति पूर्णतः निःस्वार्थपर (100 % unselfish) हो जाता है, वह विकसित हृदय वाला मनुष्य -अर्थात समानुभूति (empathy) सम्पन्न हृदय वाला मनुष्य [Empowered heart] या देवता बन जाता है। देवता होने के लिए मनुष्य को स्वर्ग-नरक में जाना नहीं पड़ता। देवता (ईश्वर) होने के बाद भी मनुष्य धरती पर ही रहते हैं। यदि हमारे मन में ईर्ष्या-द्वेष या "असूया" (दूसरे के गुण में भी दोष निकालना) के भाव अधिक मात्रा में भरे हुए हों, तो दूसरों के दुःख में भीतर से खुश रहकर बाहर से सहानुभूति का दिखावा करना आसान है। (राहुल बीमार परिकर को देखने जाते हैं ?) पर दूसरों की उन्नति देखकर, ठीक उन्हीं के जैसा आनन्द का अनुभव करने को Empathy -समानुभूति, हमदर्दी (दूसरे की भावनाओं को समझने और साझा करने की क्षमता।) कहते हैं। यह गुण (संवेदना) यदि हममें बिल्कुल नहीं हो, तो ईर्ष्या का बिच्छू बहुत डंक मारेगा, और (अहंकार का भूत भी सिर पर सवार हो जायेगा।) हम नरकवास (कलयुग) करने लगेंगे। परन्तु यदि दूसरों की उन्नति सुनकर मन में सच्चा आनन्द होता है, तो हमारा स्वर्गवास (स्वर्णयुग-सत्ययुग)
चल रहा है।
पर यह भी विकासवाद का अन्त नहीं है ! शास्त्रों में कहा गया है कि यह स्वर्ग का सुख भी सच्चा सुख नहीं है, पुण्य क्षीण होने पर वहाँ से भी गिरना पड़ता है। गीता 9 /21 में कहा गया है - 'क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (enter) |' जो स्वर्गलोक प्राप्त करता है उसे दीर्घ जीवन तथा विषय-सुख की श्रेष्ठ सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। तो भी उसे वहाँ सदा नहीं रहने दिया जाता। पुण्यकर्मों के फलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज दिया जाता है। जैसा कि वेदान्तसूत्र में इंगित किया गया है, (जन्माद्यस्य यतः) जिसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं किया या जो समस्त कारणों के कारण (माँ जगदम्बा के अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) को नहीं समझता, वह जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। वह बारम्बार स्वर्ग को तथा फिर पृथ्वी-लोक को जाता-आता रहता है,मानो वह किसी चक्र-हिण्डोले पर स्थित हो, जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता है। सारांश यह है कि वह वैकुण्ठलोक (रामकृष्णलोक) न जाकर स्वर्ग तथा मृत्युलोक के बीच जन्म-मृत्यु चक्र में घूमता रहता है। अच्छा तो यह होगा कि इसी जीवन में, दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत या 'दृष्टिं भगवानमयी कृत्वा पश्येत भगवानमय जगत' देखने और सच्चिदानन्द-मय जीवन भोगने के लिए वैकुण्ठलोक की प्राप्ति (= रामकृष्ण-लोक, महामण्डल कर्मी का जीवन) की जाये, क्योंकि वहाँ से इस दुखमय संसार में लौटना नहीं होता। वह रामकृष्ण-लोक जिस उपाय से प्राप्त होता है, उसीका नाम है -मनःसंयोग। अभ्यास और वैराग्य के द्वारा किस प्रकार मन को वश में लाया जाता है, उसी पद्धति को सीखना चाहिए।
Function of Heart: 3'H' विकास का प्रशिक्षण का अर्थ है जिस अवयव का जो function है, उसे विकसित करने की चेष्टा करते रहना ! मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं- शरीर,मन और आत्मा। परन्तु आत्मा क्या है, अभी हमलोग आत्मा कहने से उसका अर्थ नहीं समझ पाते हैं। इसलिए सरलता से समझाने के लिए स्वामी जी आत्मा नहीं कहकर -Heart कहते हैं, और मनुष्य की तरक्की के लिए 3'H' विकास - अर्थात Hand, Head, Heart के विकास का सूत्र देते हैं। प्रश्न उठता है कि स्वामी जी आत्मा को Heart क्यों कहते हैं ? हम सभी जानते हैं कि मर्माहत होने पर, या सुख-दुःख की संवेदना (परानुभूति) होने पर हाथ अपने आप यहाँ जाता है। क्योंकि ह्रदय में केवल sympathy ही नहीं empathy को भी विकसित करना चाहिये। अर्थात दूसरों के दुःख सहानुभूति का दिखावा तो कोई भी कर सकता है, परन्तु हृदय को विकसित करने का अर्थ है-दूसरों के सुख-सम्पत्ति को देखकर, अपने हृदय में भी बिल्कुल उसके ही जैसा सुखी और आनन्द की उत्फुल्लता का अनुभव, करने में सक्षम होना चाहिए।
Function and nature of Hand: शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।' - शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन (Instrument) है। [ body is tool to carry the work of soul (existence-consciousness-bliss)] -अर्थात शरीर आत्मा के कार्य को करने के लिए एक उपकरण है। इसीलिए शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है। शरीर को निरोगी, स्वस्थ और कर्मठ बनाये रखना पहला धर्म है। इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर पर ही दिनरात मन को लगाये रखना होगा । ठाकुर (श्रीरामकृष्ण देव) कहते थे, "दिन में ढूंस-ढूंसकर खा लो, रात में कम खाना। दिन में पेट भरकर खाओ, सब हजम हो जाएगा। रात में कम खाने से शरीर हल्का रहेगा, ध्यान-भजन की भी खासी सुविधा रहेगी। " शरीर को हमलोग अपने दिनचर्या में परिवर्तन लाकर, नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा हमलोग निरोग और स्वस्थ रहना सीखते हैं। यहाँ इसके लिये प्रशिक्षण भी दिया जाता है. इसके लिए पौष्टिक आहार , व्यायाम और दिनचर्या को नियमित करके हमलोग स्वस्थ और निरोग रह सकते हैं। कैसे आहार संयम और व्यायाम के द्वारा कर्मठ बने रह सकते हैं। इसके लिए भी यहाँ प्रशिक्षण दिया जाता है।
Function of Mind and nature of Mind : कहा गया है Healthy mind in healthy body -स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि हम मन के गुलाम न हों, मन तो हमारा यंत्र है, उसे हमारे इच्छा और आज्ञा का पालन करना चाहिए। मन को अपनी मुट्ठी में करने की क्षमता को ही पुरुषार्थ कहते हैं। परन्तु अभी मेरे मन की हालत, उसकी उदण्डता तो इतनी बढ़ी हुई कि वह बिना मुझसे अनुमति लिए, मेरे चाहे बिना ही -इसी क्षण मुझे किसी दूसरे ग्रह में, बुरे स्थानों में, इंटरनेट वीडियो-बार में या डांसबार में ले जा सकता है; या मन्दिर में भी ले जा सकता है। क्योंकि अभी यह मर्कट की तरह चंचल है। हमेशा इधर-उधर उछल-कूद मचाता रहता है। कामिनी-कांचन का अत्यधिक लालच, इन्द्रियविषयों को भोगने की इच्छा रूपी मदिरा को पीकर मन मर्कट उन्मत्त हो गया है। क्योंकि हृदय का विस्तार नहीं होने से हमलोग empathy नहीं कर पाते और दूसरों की उन्नति सुख-सम्पत्ति को देखकर ईर्ष्या का बिच्छू डंक मारता रहता है। फिर जब दूसरों को नीचा दिखा देने का अहंकार रूपी भूत भी सवार हो जाता है, तब वैसे मन को शान्त करना , मन को अपने से दूर हटाकर उसे देखना और संयम में रखना बहुत कठिन हो जाता है। किन्तु असम्भव नहीं है, 'अभ्यास और वैराग्य के द्वारा उसको वश में लाया जा सकता है।' मन को वश में करने का यही उपाय- गीता, भागवत और योगसूत्र में कहा गया है। यह यम-नियम का अभ्यास हर रोज 24 घंटे (24 X 7) करते रहना चाहिए।
मनःसंयोग (दृग-दृश्य विवेक): अर्थात मन को अपने से अलग हटाकर उसे देखने का अभ्यास : The practice of seeing the person apart from his mind. आसन-प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार सुबह और शाम करना चाहिये। आसन पर बैठकर जब हम मन से अपने को थोड़ा दूर हटाकर उसको देखने का प्रयास करते हैं, बहिर्मुखी मन को खींच कर अपने सामने लाने का प्रयास करते हैं, तब मालूम पड़ता है कि मन कितना चंचल है, कहाँ कहाँ न दौड़ता रहता है ! जैसे किसी चंचल बालक को शान्त करने के लिये उसको प्यार से अपने सामने बैठाकर समझा-बुझाकर शान्त करना पड़ता है, उसी तरह मन को भी सामने बैठाकर साधना पड़ता है।
उपनिषदों में मन को बन्दर की तरह नहीं कहा गया है। 'लालयेत चित्त बालकम' उसको प्रेम के साथ धीरे -धीरे समझा-बुझाकर शान्त करो, जबरदस्ती करने से मन बिगड़ भी सकता है।[मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देह-मन भाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव (देहाध्यास)से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। चाणक्य नीति में लिखा है - लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत् । प्राप्तेषु षोडषे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत् ॥ पुत्र को [ यह उक्ति संतान मात्र के लिए है वो चाहे पुत्र हो या पुत्री )जन्म से लेकर पांच वर्ष तक सिर्फ दुलारते हुए ही पालन करना चाहिए ,पांच वर्ष से दश वर्ष की अवस्था बच्चो के सीखने की अवस्था होती है अत; पूर्ण से अनुशाषित रखना चाहिए और जब सन्तान सोलह वर्ष की अवस्था को प्राप्त हो जाए तब हर तरह से हमें मित्रवत व्यवहार करना चाहिए।]
इसलिए मन को प्रेम से समझाते हुए कहो - " यहाँ मेरे सामने आओ, बैठो -देखो हर समय इतना दौड़ते रहना अच्छा नहीं है। तुम्हारे बिना कोई कार्य नहीं कर पाउँगा, अतः तुम मेरा साथ दो, मेरा कहना मानो। तुम्हारी सहायता से मैं दुनिया को अच्छा बना सकता हूँ, उसका विध्वंश भी कर सकता हूँ। Atom Bomb का विस्फोट करके दुनिया में 'धर्म' का राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता। प्रेम के द्वारा ही सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में बाँधा जा सकता है। आज देश की अवस्था इतनी खराब इसीलिए लग रही है कि हम सभी लोग स्वार्थी बन गए हैं। आपस में प्रेम, सद्भाव, सहानुभूति, समानुभूति नहीं है। मन को वशीभूत करने से यह सब हो सकता है। घर के अभिभावक लोग सोचते हैं, धन कमा लेने से सबकुछ मिल जायेगा। परन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है, घरों में सुख-शांति तभी आएगी जब हमारा मन हमारे वश में रहेगा। किसी की प्रशंसा या कटुवचन को सुनकर प्रतिक्रिया दिखाना -सुखी-दुःखी होना छोड़ देगा। इसलिए महाभारत (विदुरनीति 2.56-57) में कहा गया है -
अविजित्य य आत्मानममात्यान् विजिगीषते।
अमित्रान् वाऽजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते।
जो राजा अपनी इंद्रियों और मन को जीते बिना अपने मंत्रियों को जीतना चाहता है तथा मंत्रियों की जीते बिना अपने शत्रुओं को जीतना चाहता है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।
आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण यो जयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांशच न मोघं विजिगीषते।।
जो राजा अपनी इंद्रियों व मन को ही अपना सबसे बड़ा शत्रु समझकर पहले उन्हें जीत लेता है, फिर अपने मंत्रियों और शत्रुओं को जीतने का प्रयास करता है, तो उसे अवश्य सफलता मिलती है। ट्रेरिस्टों पर बम गिराने के लिए इराक -अफगानिस्तान कहाँ जा रहे हो ? पाश्चात्य देश अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए दानव हो गए है, वे दानव-दलन कैसे करेंगे ? किन्तु जब तुम्हारा सोया हुआ विवेक जाग्रत हो जायेगा, तब तुम यह समझ जाओगे कि हमारे हृदय में ही प्रेमस्वरूप ईश्वर (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ) जगत्जननि माँ सारदा देवी, जगतबन्धु स्वामी विवेकानन्द (प्रेम का समुद्र) ज्वार मार रहा है। उसी माँ जगदम्बा के विराट सर्वव्यापी 'अहं'-बोध से निसृत जगतग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। जब उस प्रेम को अभिव्यक्त होने की बाधा व्यष्टि अहं से (reflected consciousness या देहाध्यास के अहं-मन से) शुद्ध चेतना (pure consciousness) को विवेक के द्वारा पृथक -पृथक कर लिया जायेगा, तो वह प्रेम सम्पूर्ण विश्व को अपना समझने में समर्थ बना देगा। सभी केवल भाई ही नहीं हैं, सारी मानवजाति एक है ! 'अनेकता में एकता' भारत की विशेषता-Unity in diversity, Oneness of humankind, कोई अलग नहीं है; तुम और मैं एक हूँ !
परीक्षा और परिणाम : वेदान्ती साम्यवाद, सनातन धर्म के अनुसार सारी मानवजाति एक है! वेदान्त दर्शन की भाषा में इसी Oneness को अद्वैत कहा जाता है। यही सनातन धर्म में है जिसके अनुसार -देश में उत्पादित अन्न से लेकर कल-कारखानों में जो कुछ भी उत्पादन होता है (GDP सकल घरेलू उत्पाद) को सब मनुष्यों में उनकी जरूरत के हिसाब से बँटवारा कर देना चाहिए। सबों में उनकी जरूरतों के हिसाब से वितरण करो, किन्तु उनको अपना इष्टदेव समझकर वितरण करना। अपने भाई-बहनों में पारिवारिक संपत्ति का बँटवारा करते समय भी उनकी जरूरतों के मुताबिक ही बँटवारा करना चाहिए। क्योंकि वे मेरे भाई-बहन ही नहीं हैं, मेरी आत्मा की आत्मा -मेरे इष्टदेव के स्वरूप हैं ! भागवत (7. 11. 10) में सनातन धर्म को परिभाषित करते हुए जहाँ कहा गया है - 'तेष्वात्मदेवताबुद्धिः' अर्थात 'तेषु आत्मदेवता बुद्धिः' को मार्क्स के साम्यवाद में स्वीकार नहीं किया गया। सभी देशवासियों को अपनी आत्मा समझकर कर वितरण करने वाले 'सनातन धर्म' को भी अफीम कह दिया गया। इसीलिए यह आध्यात्मिक साम्यवाद दुनिया में कहीं नहीं आ सका है।
[क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान। मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान। बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध नही होता और बिना अज्ञान के द्वैत बुद्धि नही हो सकती। माया के बशीभूत जड़ जीव क्या कभी ईश्वर के समानहो सकता है।]
सम्पूर्ण भारतियों को जिस 'आत्मदेवता-बुद्धि' से देखते हुए GDP (1947 3 लाख से 2019 98 लाख) को भारतियों में उनकी जरूरतों के हिसाब से वितरण की बात सनातन धर्म में कही गयी है, स्वामी जी की ऋषि दृष्टि भी उसी प्रकार की थी। स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ऐसा कहा है, स्वामीजी निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक थे, किन्तु हमारी दृष्टि वहाँ तक पहुँच नहीं पाती है। वे तो पृथ्वी-लोक के परे ब्रह्मलोक में अखण्ड के घर में बैठकर तपस्या कर रहे थे, ठाकुर उनको समाधि से जगाकर अपना काम कराने के लिये पृथ्वी पर लेकर आये थे. इन बातों को मुँह से बोलकर नहीं समझाया जा सकता है, किन्तु योग-सूत्र के व्यास भाष्य में भी सप्तर्षियों में से विवेकदर्शर्न का अभ्यास करने कहा गया है। उत्तर आकाश में जो सप्त-ऋषि ध्रुव-तारे या पोल-स्टार की परिक्रमा करते दिखाई देते हैं, वे सब प्रवृत्ति-मार्ग के ऋषि है। स्वामीजी उनमें से कोई एक नहीं हैं।
ब्रह्मा जी ने जब इतने सुन्दर सृष्टि की रचना की तो सोचने लगे, इतने सुन्दर जगत को देखने वाला भी तो कोई होना चाहिए। उन्होंने सोचा प्रजा की रचना करने से वे इस सुन्दर सृष्टि को देखकर खुश हो जाएँगी। तब उन्होंने अपनी इच्छा से प्रवृत्ति-मार्ग के सप्त-ऋषियों की रचना की. किन्तु उन्होंने सोचा कि यदि ये लोग भी प्रवृत्ति में फँस कर अपने स्वरुप को ही भूल गए, तो उनको फिर सही मार्ग पर कौन लायेगा ? इसीलिये सभी लोगो को सही मार्ग दिखलाने के लिये उन्होंने निवृत्ति-मार्ग के सप्त ऋषियों की रचना की. इस पूरी कहानी को समझ लेना बहुत कठिन है। भगवान क्या है ? मेरे मन में जो विचार उठ रहा है, वह भी भगवान का ही विचार है. भगवान भी शरीर-धारी चैतन्य ही हैं. ' चैतन्यात सर्वं उत्पन्न्म '! यहाँ कुछ भी जड़ नहीं है, सबकुछ चैतन्य ही है। इस सत्य की धारणा करने के लिये विषय-भोग की इच्छा, कामना-वासना का त्याग करना होगा, पवित्र होने के लिये गंगा-सागर तीर्थ या केदारनाथ धाम नहीं जाना होगा।
उस मनुष्य का मन ही सबसे बड़ा तीर्थ है, जिसमें वह अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण -माँ सारदादेवी -स्वामी विवेकानन्द का निरंतर दर्शन करता रहता है, एक ऐसे अवतार का - जिसके दर्शन मात्र से प्राणियो के, घट घट के संताप, दु:ख, पाप मिट जाते है। 'यस्मिन वेदश्च देवश्च '- जहाँ समस्त वेदों और देवताओं की सब पवित्रता मिलकर एक हो गया हो, उस मन के सरोवर में स्नान करने से तुम अमृत हो जाओगे। -दिल के आईने में है तस्वीर-ए-यार। जब ज़रा गर्दन झुकाई देख ली।
कर्मयोग में स्वामीजी एक कहानी कहते थे, - किसी गाँव में एक साधू झोपड़ी बनाकर रहते थे. उसी गाँव में एक बहुत भयंकर डकैत भी रहता था. किन्तु साधुसंग करने से उसके मन में पाश्चाताप उत्पन्न हुआ. वह साधू के पास रहकर उनकी सेवा करने की अनुमति मांगता है, कुछ दिनों तक वह रहने के बाद एक रोज साधू से कहता है, ' आप तो सब पर कृपा करते हैं, मुझे भी तीर्थ जाने की अनुमति दीजिये। मैंने सुना है कि तीर्थों में जाने से सारे पाप चले जाते हैं. ' किन्तु मैं यह कैसे समझूंगा कि मेरे सारे पाप चले गये हैं ? तब उस साधू ने कहा कि तुम एक गज साफ धुल हुआ श्वेत कपड़ा ले आओ. उसे काले रंग की स्याही में डुबो दो. इस काले कपड़े को सदा अपने साथ रखना, जब तुम किसी तीर्थ से स्नान कर के लौटना तो उस काले कपड़े को देखना कि उसका काला रंग अभी गया है या नहीं ? वह डकैत कई तीर्थों में भटका किन्तु कपड़ा जस-का तस ही रहा. वह बहुत दुखी मन से अपने गाँव की तरफ लौट रहा था. तभी उसे एक जंगल के भीतर से किसी औरत के रोने की आवाज सुनाई देती है. कोई डकैत उस औरत को अकेली पाकर उसका गहना लूट रहा था. यह देखकर उस डकैत को बहुत गुस्सा आ गया. तुरन्त उसने एक फरसे से उस डकैत का सिर उसके धड़ से अलग करते हुए कहा- ' जैसा बावनवां वैसा तिरपनवाँ ' फिर डकैत से उस युवती को बचाकर वह डकैत उसके गाँव तक छोड़ आया. फिर साधू के आश्रम में लौट आया.साधू ने पूछा - क्या तुम्हारा पाप चला गया ? उस डकैत ने कहा नहीं महाराज कई तीर्थों में नहा कर मैंने देख लिया, पर जब खोला तो वह काला का काला ही था. तब साधू ने पूछा रस्ते में तुमने क्या किसी असहाय स्त्री को बचाया भी था ? डकैत ने जब पूरी रामकहानी सुना दी, तो साधू ने कहा तू एकबार उस कपड़े को निकाल कर देखो। देखता है- तो कपड़ा सफ़ेद हो चूका था ! तब आश्चर्य से उस नवसाधु ने कहा कि मैंने तो सिर काटा था, ऐसा कैसे हुआ ? तब साधू बोले, नहीं तुमने उस औरत को बचाने के लिये वैसा किया था, उसमे तुम्हारा अपना कुछ स्वार्थ नहीं था। तुम्हारे ह्रदय में जो निःस्वार्थ प्रेम रूपी धर्म का झरना फूट पड़ा था, उसी धर्म के कारण तुम्हारे सारे पाप धुल गये हैं। '
ये जो मानस-सरोवर है, हमारा मन है, इस मन को वैसा ही तीर्थ बना लेना चाहिये और उसमें स्नान करके अमृत बन जाना चाहिये। यही स्वामीजी का आह्वान है, सभी मनुष्य उस मनोतीर्थ में स्नान करके अमृत हो सकते हैं। उस मनोतीर्थ के घाट पर हिन्दू-मुसलमान में कोई अन्तर नहीं रहता, नास्तिक भी अलग नहीं है. सभी धर्म यही कहते हैं, कि मन को पवित्र रखना चाहिये तथा उसे प्रेम से भर देना चाहिये। यही धर्म है, इस धर्म का लाभ हो जाने पर, यहाँ से जाते समय हम भी कह सकेंगे कि - वास्तव में यह जगत ईश्वर की सुन्दर रचना है ! यह तभी संभव होगा जब हमलोग उस आह्वान का अनुसरण करेंगे जो जगत-बन्धु स्वामी विवेकानन्द ने दिया था कि -आओ हम अपने मन के स्वामी बने, आओ हम यथार्थ मनुष्य बनें ! इसीलिए स्वामी जी कहते थे - " तुम्हारी पाश्चात्य-शिक्षा पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक शिक्षा की ही चिंता करते हो, हृदय की ओर ध्यान नहीं देते. इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है। अपने तन-मन और वाणी को ‘जगद्धिताय’ अर्पित करो. तुमने पढ़ा है, ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अपनी माता को ईश्वर समझो, पिता को ईश्वर समझो- परंतु मैं कहता हूं ‘दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव’- गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुखी को ईश्वर मानो।"
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