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🏹 🙋जहाँ रहो, सत्संग (पाठचक्र) करो ! 🏹 🙋
[“सत्संग सदा ही आवश्यक है । गंगाजी (माँ सारदा देवी/जनकराजकिशोरी देवी ) के जितने ही निकट जाओगे, उतनी ही ठण्डी हवा पाओगे। आग (कामिनी-कांचन -कीर्ति) के जितने ही निकट जाओगे उतनी ही गर्मी होगी ।" -श्री रामकृष्ण परमहंस ]
पूज्य संतजन!
आपको मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ। आपको कुछ सुनाकर आनन्दित करूँ, मैं इस योग्य नहीं; क्योंकि आप मुझसे विशेष हैं। सज्जनवृन्द जो उपस्थित हैं, संभवत: ये सब-के-सब कई दिनों से मेरे कथन को सुन रहे हैं। इनसे भी कुछ विशेष कहना नहीं है। केवल कही हुई बातों को पुन: कहकर इन्हें स्मरण दिलाना है। मेरे पूज्य गुरुदेव ने मुझे आज्ञा दी थी कि जहाँ रहो, सत्संग करो।' सत्संग की विशेषता पर अपने देश में घटित प्राचीन काल की एक कथा है-
गोपीचन्द एक राजा थे। उनकी माता बहुत बुद्धिमती और योग की ओर जानेवाली साधिका थीं। वे योग जानती थीं और करती भी थीं। उनके हृदय में ज्ञान, योग और भक्ति भरी थी। गोपीचन्द वैरागी हो गए थे। गुरु ने कहा-“अपनी माता से भिक्षा ले आओ! वे माता से भिक्षा लेने गए। माताजी बोलीं-'भिक्षा क्या दूँ ? थोड़ा-सा उपदेश लेकर जाओ। वह यह है-बहुत मजबूत किले (गढ़) के अंदर रहो। बहुत स्वादिष्ट भोजन करो और मुलायम शय्या पर सोओ। यही भिक्षा है जाओ।' गोपीचन्द बोले-“आपकी ये बातें मेरे लिए पूर्णतः विरुद्ध हैं।
माताजी बोलीं--'पुत्र! तुमने समझा नहीं। मजबूत गढ़ सत्संग है। इससे दूसरा और कोई मजबूत गढ़ नहीं है। जिस गढ़ में रहकर काम-क्रोधादिक विकार सताते हैं, जिससे मनुष्य-मनुष्य नहीं रह जाता और वह पशु एवं निशाचर की तरह हो जाता है, वह गढ़ किस काम का? संतों का संग ही ऐसा गढ़ है, जिसमें रहकर विकारों का आक्रमण रोका जाता है और उनका दमन करते-करते नाश किया जाता है।' फिर सुस्वादु भोजन तथा मुलायम शय्या के लिए माता बोलीं-“कैसा ही सुंदर स्वादिष्ट भोजन क्यों न हो, भूख नहीं रहने से वह स्वादिष्ट नहीं लगेगा। इसलिए खूब भूख लगने पर खाओ। मुलायम बिछावन वह है कि जब तुमको खूब नींद आवे, तब तुम कठोर वा कोमल जिस किसी भी बिछौने पर सोओगे, वही तुम्हें मुलायम मालूम पड़ेगा।' यह शिक्षा सबको धारण करने योग्य है।
गुरु महाराज कहते थे-“ जहाँ रहो, सत्संग करो। स्वयं सीखो और जहाँ तक हो सके, दूसरों को भी सिखाओ,{Be and Make !!}जिससे उनको भी लाभ हो।
लोगों की इच्छा ऐसी है कि दुःख भागे और सुख-ही-सुख मिले। साधारणत: जो मन और इन्द्रियों को सुहाता है, उसे सुख और जो नहीं सुहाता है, उसे दुःख कहते हैं। मन और इन्द्रियों को सुहाने वाले पंच विषय हैं। लोग इन पाँच विषयों को (आजीवन) भोगते हैं, किंतु संतुष्ट नहीं होते हैं। संतों ने कहा है कि विषय-भोग में सुख नहीं है। तुम स्वयं सुख-स्वरूप हो। परमात्मा मन-बुद्धि आदि इन्द्रियों से अगम्य है ,परमात्मा केवल आत्मगम्य है; नित्य सुख का समुद्र है। विषय-सुख क्षणिक और अनित्य है। परमात्मा नित्य है। उसको प्राप्त करने से नित्य सुख मिलेगा, इसलिए उसकी भक्ति करो।
भक्ति का अर्थ भजन-सेवा है। जिसकी भक्ति करेंगे, वह पदार्थ रूप में कैसा है? यह नहीं जानने से उसकी सेवा-भक्ति नहीं की जा सकती। परमात्म-स्वरूप क्या है? इस विषय पर कई दिन कह चुका हूँ। फिर भी समास रूप में कहता हूँ-'इन्द्रियों के द्वारा नहीं, जिसको आप स्वयं (चेतन-आत्मा) पहचानें, वह परमात्मा है। आप शरीर और इन्द्रिय नहीं हैं। शरीर और इन्द्रियाँ आपकी हैं। इनका संग छोड़कर अकेले हो जाइए, तब जो पहचानेंगे, वह परमात्मा है। उस परमात्मा की भक्ति कैसे हो? जैसे गंगाजी स्नान करने अथवा किसी विशेष देवालय में लोग जाते हैं, तो यह जाना गंगा तथा देवालय के देवता की भक्ति है। वैसे ही अपने को जब आप शरीर और इन्द्रियों से छुड़ा सकेंगे, तभी परमात्मा को पाएँगे, यही भक्ति है। इसके लिए गमन करना (transcend करना) होता है। शरीर और इन्द्रियों से ऊपर उठना, यही गमन है-जाना है।
प्रभु सर्वव्यापी हैं, किंतु यहाँ (अपने ह्रदय में) उन्हें पहचान नहीं सकते। यहाँ पहचान हो जाती, तो कहीं जाना नहीं पड़ता। यहाँ हम इन्द्रियों के संग (मूलाधार में) रहते हैं, इसलिए पहचान नहीं सकते। आँख पर रंगीन चश्मा लगाने से संसार के पदार्थ उसी रंग के मालूम होते हैं, जिस रंग का वह चश्मा है। या आँख पर पट्टी लगाने से कुछ भी नहीं देख सकते। हमारे ऊपर जड़ का आवरण है। इसके रहने से कुछ सूझता ही नहीं है। पञ्चइन्द्रियाँ रूप चश्मा लगा है।
गोस्वामी तुलसीदासजी के अनुसार -'गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥" हरे, पीले जो देखने में आते हैं, सभी माया हैं। परमात्मा को पहचानने की शक्ति इस चश्मे (इन्द्रिय-बुद्धि) में नहीं है। इस चश्मे को उतारकर देखो। जिस प्रकार रज्जु में सर्प का भ्रम होता है, उसी प्रकार ब्रह्म में जगत् का भ्रम होता है। आचार्य शंकर के ज्ञान के अनुकूल है तथा गोस्वामी तुलसीदासजी ने उसी के अनुकूल कहा है-
रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥ 117॥
भावार्थ-
जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥ 117॥
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दु:ख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दु:ख होई॥
भावार्थ-
इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।
जब तक पूर्व कथित पट्टी और चश्मे नहीं उतरेंगे, तब तक उपर्युक्त भ्रम दूर नहीं होगा। इन पट्टी और चश्मे से परे होना है। हम पर चश्मा और पट्टी नहीं रहे; इन्द्रिय-बुद्धि से अनासक्त होकर हम अकेले हो जायें।
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाई।।
भावार्थ:-हे तात! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिए। यह (रहस्य) समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है॥1॥
* सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥2॥
भावार्थ:-हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई। यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है॥2॥
>>>चेतन-आत्मा पर यदि तीनों ऐषणाओं की (कामिनी-कांचन और लोकैषणा) वश्यता नहीं रहे, तब वह अपने परमात्म-वरूप को पहचान सकती है।
इन आवरणों (ऐषणाओं की माया) से छूटने (मुक्त) होने के लिए चेतन-आत्मा को जहाँ जाना होगा, वहाँ उसे जाना चाहिए। संतों ने कहा- बाहर (अयोध्या-काशी) में जहाँ कहीं भी जाओगे, शरीर और इन्द्रियों के साथ जाओगे। अपने अंदर जाने से (मन इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करने से) शरीर और इन्द्रियों से छूटते हुए जाओगे और अंत में पूर्ण रूपेण इनके बंधन से मुक्त जाओगे।
आसन पर बैठने के बाद नैवेद्य, पुष्प, धूप, दीप लेकर मन को अपने उपास्यदेव (पूर्वनिर्धारित आदर्श) की ओर, एक ओर करते हैं। यदि कोई दूसरा ख्याल नहीं रहे, तो मन अवश्य एक ओर होता है। स्तुति करने में भी एक ओर होता है। जप में भी यही बात होती है। बल्कि स्तुति से जप में विशेष सिमटाव होता है। कारण यह है कि स्तुति करने में बहुत शब्द उच्चारण करने पड़ते हैं। जप में केवल एक ही शब्द को जपते हैं।
पूजाकोटि समं स्तोत्र,स्त्रोत्र कोटि समो जपः ।
जपकोटि समं ध्यानं, ध्यानकोटि समो लयः ।।
अपने उपास्यदेव (इष्टदेव) की एक करोड़ बार की पूजा के बराबर एक बार की उनकी स्तुति-स्तवना-स्तोत्रपाठ है। करोड़ बार की स्तुति-स्तवना के बराबर एक वार का मंत्रजाप है ! करोड़ बार के मंत्रजाप के बराबर एक बार का ध्यान है और करोड़ बार के ध्यान के बराबर केवल एक बार का लय होता है; क्योंकि लय में ध्याता, ध्येय और ध्यान तीनों एक हो जाते हैं ।
ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्म स्वरूपिणे।
अवतार वरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ।।
पढ़ो रे मन ओना मासि धं - ॐ नमः सिद्धं। श्री रामकृष्ण परमहंस ('पूरी'-ठाकुर) - पूरी दुनिया में इनके जैसा एक भी साधक (सिद्ध) नहीं है, एक ही जन्म में ज्ञान, तंत्र, भक्ति और 2 अन्य धर्म की साधना के शिखर तक पहुंचना साधारण बात नहीं है। परम ज्ञानी - 1 दिन में निर्विकल्प समाधि तक पहुंचना। तंत्र सम्राट - 64 तंत्र की संपूर्ण साधना। परम वैष्णव - रामायतनी और कृष्ण भक्ति के सर्वोच्च शिखर "दास" और "महाभाव" की प्राप्ति। सूफी पंथ से इस्लाम में मोहम्मद के दर्शन। कैथोलिक मार्ग के नियमो का पालन करते हुए जीसस का दर्शन । साभार -https://www.facebook.com/AvdhutNath]
चरित्रवान मनुष्य बनो, सदाचारी बनो,पवित्र बनो यानी व्यभिचार, चोरी, नशा, हिंसा और झूठ; इन पाँचो पापों को मत करो। यह संयम है।
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥
सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो॥3॥
प्रभु अपने अंदर में पहले मिलेंगे, फिर सर्वत्र। एक बार प्रत्यक्ष मिलने पर फिर वह मिलन कभी नहीं छूटेगा। अन्य सभी पदार्थ मिलकर छूटते हैं; किंतु यह कभी छूटता नहीं। यह साक्षात्कार बराबर बना रहता है। कबीर साहब को वह प्राप्त था। वे कहते हैं-
न पल बिछुड़ें पिया हमसे, न हम बिछुड़ें पियारे से ।
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
बंगाल में बाउल सम्प्रदाय के साधु होते हैं। जैसे बाउल दोनों हाथों से अलग-अलग वाद्ययंत्र बजाता है और मुँह से गाता है। वे एक हाथ से तंबूरा और दूसरे हाथ से करताल बजाते हैं और मुँह से गाना भी गाते हैं। इसी तरह हे सांसारिक जीव (कामिनी-कांचन में आसक्त सोया हुआ मनुष्य)! तुम भी दोनों हाथों से संसार के सब काम करते जाओ, लेकिन मुख से भगवान का नाम लेना मत भूलो।' -श्री रामकृष्ण परमहंस
मतलब यह कि काम करते और चलते-फिरते हुए भी किसी-न-किसी तरह जप या मानस ध्यान द्वारा उस ओर आपका मन लगा रहे। फिर गुरु की सेवा करो। एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंदर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्वय रखो और नित्य सत्संग करो। इन पाँचो को करो और पहले के कहे पाँच पापों को छोड़ो। यदि भूल से पाँच पापों में से कोई हो जाय, तो -पछताओ। ईश्वर से प्रार्थना करो कि फिर ऐसा कर्म मुझसे नहीं बने। स्वयं सचेत रहो और पापों से बचने के लिए शक्ति लगाओ। मन पवित्र करो; क्योंकि पवित्र मनवाले को ही समाधि लगती है। चंचलता में दुःख होता है, स्थिरता में सुख है। ध्यान में स्थिरता होती है, इसमें सुख मिलता है। इसी स्थिरता में सुख पाते हुए अपने अंतर में प्रवेश होता है। अपने भीतर में जाने के लिए खुलासा यह है कि मन को एक ओर करो। जप-ध्यान से मन एकओर होता है। ध्यान पहले रूप का, फिर अरूप का होता है। इष्ट-मूर्ति का ध्यान करो, इसमें मन को लगाओ।
आध्यात्मिकता की ओर चलने से सदाचार का पालन करना अनिवार्य होगा। समाज के लोग सदाचारी बन जाएँगे, मनुष्य जब चरित्रवान या नैतिक बना जायेगा तो सामाजिक नीति अच्छी हो जाएगी। और सामाजिक नीति जब अच्छी होगी, तो राजनीति कभी बुरी नहीं हो सकेगी।
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(2.)
🏹 🙋पिण्ड और ब्रह्माण्ड में एक ही सारतत्त्व व्यापक है🏹 🙋
जिसको अपने तईं का ज्ञान नहीं है, उसको दूसरे का भी ज्ञान नहीं होता। जैसे गहरी नींद में सोए को अपने तईं का ज्ञान नहीं है, तो उसे दूसरे का भी ज्ञान नहीं होता। बुद्धिमान पुरुष अपने को खोजकर पाता है, तो उसे दूसरे की भी ठीक-ठीक खोज मिल जाती है। फिर दूसरी बात यह है कि यह जो जगत् दिखाई पड़ता है, जो देहधारियों के रहने का स्थान मालूम होता है, यह क्या है? इसमें कोई विशेष तत्त्व ऐसा भी है, जो इसके अंदर के अंत-तल पर अन्दर-अन्दर है।
एक-एक पिण्ड में जो व्यापक सार-तत्त्व है, संसार में भी वही व्यापक है। अर्थात् पिण्ड में जो सारतत्त्व व्यापक है, वही ब्रह्माण्ड में भी व्यापक है। यह पता मनुष्य को ही लगा, दूसरे को नहीं; क्योंकि मनुष्य ही यह पता लगाने के योग्य है। इसका पता लगाने से क्या फल? इसका पता जिनको नहीं लगा है, वे सांसारिक-मायिक चीजों में संलग्न हैं। इस संलग्नता में संतुष्टि नहीं, शान्ति नहीं और सुख नहीं है। परंतु जिनको पिण्ड-ब्रह्माण्ड में व्यापक उस एक सार-तत्त्व का पता लगा, उन्होंने कहा कि उस सार-तत्त्व का पता लगते ही सांसारिक-मायिक वस्तुओं (ऐषणाओं) की संलग्नता छूट जाती है, और सार-तत्त्व (ब्रह्म-परमात्मा) में उनकी संलग्नता हो जाती है।
यह शरीर पिण्ड कहलाता है। बाहर विश्व-ब्रह्माण्ड है। जंगम प्राणी में भी मनुष्य के अतिरिक्त दूसरा कोई पिण्ड-ब्रह्मण्ड की खोज कर ही नहीं सकता। शरीर जब मृतक होता है, तब उसे जला देते हैं। उसमें जो सार था, वह कहीं चला गया। इस शरीर में जो अव्यक्त था, जिसे नहीं देखा; वह चला गया। इस संसार के अंदर भी सार है। जो इन्द्रियों के ज्ञान में नहीं आता, वह अव्यक्त है। शरीर में जो सार है और ब्रह्माण्ड में जो सार है; इन दोनों में कुछ अंतर है कि नहीं?
कोई कहता है अंतर नहीं, एक ही है। यही शंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत है। दूसरा मध्वाचार्य का द्वैतवाद वह सिद्धान्त है, जो कहता है कि पिण्ड-ब्रह्माण्ड में एक ही ईश्वर (निःस्वार्थपरता-प्रेम) व्यापक तो है, किंतु पिण्ड में ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा और भी है, जिसे जीव कहते हैं। हमारे यहाँ ऐसे विचार के ज्ञान को ही वेदान्त-दर्शन कहते हैं। इसके आचार्यो ने तीन प्रमुख सिद्धांत बताए हैं-अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत। ये तीनों विचार आज तक आपफस में लड़ते हैं, परंतु ये सब मिल-जुलकर एक सिद्धांत पर नहीं आए हैं। इनमें के एक-एक के दूसरे-दूसरे पर ऐसे-ऐसे प्रश्न हैं, जिनका पूर्ण समाधान कर देने के उत्तर नहीं मिलते हैं।
एक कहता है कि माया देश-काल के ज्ञान से अनादि हैं, किंतु उपज ज्ञान से सादि हैं; क्योंकि यह ब्रह्म से उपजी हुई है। जहाँ देश होगा, वहाँ समय जरूर होगा। माया कब से है, बता नहीं सकते, किंतु उसका अंत है, इसलिए उसे अनादि सांत कहते हैं। माया को भ्रम कहे, चाहे इसकी स्थिति माने या न माने, किंतु दोनों माया के पार होने कहते हैं। [ मन की चहारदीवारी (मिथ्या अहं) के दूसरी ओर समाधि में जाकर लौट आने वाला अवतार , या ईश्वरकोटि नेता, पैगम्बर ही लौट सकता है ?)
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी॥
इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं॥4॥
भावार्थ
प्रकृति से परे, प्रभु (सर्वसमर्थ), सदा सबके हृदय में बसने वाले, इच्छारहित विकाररहित, अविनाशी ब्रह्म हैं। यहाँ (श्री राम में) मोह का कारण ही नहीं है। क्या अंधकार का समूह कभी सूर्य के सामने जा सकता है?॥4॥
अद्वैतवादी के ऊपर यह प्रश्न होता है कि यदि एक-ही-एक है, दूसरा कुछ नहीं है, तो भ्रम किसको हुआ? सर्प और रस्सी दोनों को देखता है, तब उसकी धुँधली रोशनी में भ्रम होता है; किंतु जिसने कभी साँप को देखा नहीं है, उसको भ्रम क्यों होगा? यहाँ अद्वैत सिद्धांत भी ठण्ढा पड़ जाता है।
द्वैतवाले से प्रश्न होता है कि आप ब्रह्म को स्वरूप से अनादि मानते हैं कि देश-काल-ज्ञान से अनादि मानते हैं? तो कहेंगे कि वह सब तरह से अनादि है। तत्त्वरूप से अनादि-अनंत है तो फिर प्रश्न होगा कि अनादि- अनंत एक ही हो सकता है कि दो? तो कहना पड़ेगा कि अनंत एक ही हो सकता है। इन सब झगड़ों से अलग रहो। द्वैत मत वाले अपने मत को जबर्दस्त और अद्वैत मत वाले अपने मत को जबर्दस्त बताते हैं। दोनों अपने-अपने मत पर अड़े हैं। किन्तु नम्रतापूर्वक कहो कि एक परमात्मा ही सब तरह से अनादि-अनंत है, तो इसको सब मानते हैं। इसकी खोज में चलो। खोजकर निर्णय हो जाएगा कि सत्य क्या है? उसको प्राप्त करने से जिस सुख के लिए अभी ललचते हो, उसको प्राप्त कर लोगे, नित्य सुख मिलेगा। उसके पास जाओगे कैसे, इसको जानो। पहले यह जानो कि जिस इन्द्रिय-मन बुद्धि से तुम संसार को पहचानते हो, यह जानते ही हो कि इससे तुम ईश्वर को नहीं पहचान सकते। तुम इन्द्रिय-ज्ञान से संसार को जानते-पहचानते हो, इस इन्द्रिय -ज्ञान से ईश्वर को नहीं पहचानोगे। इन्द्रियों से युक्त होकर जो ज्ञान होना चाहिए, वह तुम जानते हो। इन्द्रियों से अलग होकर जो ज्ञान होना चाहिए, वह ज्ञान तुमको नहीं है। इसलिए इन्द्रियों से अलग होकर - इन्द्रियातीत होकर केवल आत्मा से देखो।
पंचभूतात्मक संसार के विषयों -रूप,रस, गंध ,शब्द और स्पर्श -ज्ञान के लिए पांच अलग इन्द्रियाँ आँख,कान, नाक, जीभ और त्वचा है। जैसे संसार (कामिनी - कांचन) के रूप-ज्ञान के लिए नेत्र है। गंध को ग्रहण करने के लिए नाक है। जिसकी घ्राण-शक्ति खराब हो गई है,वह नेत्र से गन्ध ग्रहण नहीं कर सकता। एक-एक विषय के लिए एक-एक इन्द्रिय है। उसी प्रकार तुम्हारे निज के लिए अर्थात् आत्मा के लिए भी कोई विषय है। सब इन्द्रियों को छोड़कर, मन (अहं) -बुद्धि को छोड़कर तुम्हारा विषय केवल परमात्मा है। वह परमात्मा बुद्धिगम्य नहीं -आत्मगम्य है। आत्मा से उन्हें तब पहचानोगे, जब इन्द्रियों से छूट जाओगे। इन्द्रियों से छूटने का उपाय- मनःसंयोग करना -(अष्टांग) सीखो। बाहर कहीं भी जाओ - हिमालय पर्वत पर जाओ या मक्का जाओ या पवित्र स्थान में जाओ या जगनन्नाथजी जाओ; इन्द्रियाँ साथ रहेंगी। अतः यम-नियम (सदाचार) का पालन करते हुए अपने अंदर चलो। पहले स्थूल इन्द्रियों (कर्मेन्द्रियों) से फिर सूक्ष्म इन्द्रियों (ज्ञाननेंद्रियों) से छूटोगे। जाग्रत में बाह्य इन्द्रियों के संग रहते हो। स्वप्न में बाहर की इन्द्रियाँ छूट जाती हैं। अपने अंदर में प्रवेश करो।
>>श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय- 13 में क्षेत्र (प्रकृति) -क्षेत्रज्ञ (=पुरुष) विवेक- विचार दिया है। क्षेत्र माने खेत और क्षेत्रज्ञ माने खेत को जाननेवाला। श्रीमद्भगवद्गीता (भक्तियोग -12.7) में भगवान ने प्रतिज्ञा की है -
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥6॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥7॥
" परन्तु जो भक्तजन मुझे (भारत कल्याण के उद्देश्य से सगुण ब्रह्म को या अवतार वरिष्ठ को) ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्य-योग के द्वारा मेरा ही ध्यान करते हैं। हे पार्थ ! मुझमें जिनका चित्त निविष्ट है-स्थिर अचल है अपने उन भक्तों को मैं मृत्युरूप संसार सागर से शीघ्र उद्धार करता हूँ।"
और (समाधि =) आत्मज्ञान हुए बिना अज्ञान-नाश असम्भव है, इस कारण अज्ञान का नाशक -'तत्वज्ञान' [Oneness और Inherent Divinity] का उपदेश देने के लिए इस प्रकृति-पुरुष विवेक रूपी गीता के कठिन 13 वें अध्याय का आरम्भ हुआ है।
आत्मविश्वास को पाने के लिए महामण्डल कर्मी (साधक) को साधनाभ्यास करने के लिए प्रारम्भ में अपने गुरु से आवश्यक आश्वासन तथा प्रोत्साहन पाने की आवश्यकता होती है। "जो समस्त कर्मों को मुझे अर्पण करते हैं" यहाँ अर्पण करने या संन्यास करने का अर्थ है, अपनी व्यक्तिगत सीमाओं को नष्ट करना (मिथ्या अहं M/F शरीर के साथ तादात्म्य को नष्ट करना) तथा अपने आदर्श (इष्टदेव) से सीधा तादात्म्य स्थापित रखना। किसी संस्था, आदर्श अथवा राजसत्ता के लिए विदेशों में स्वराष्ट्र के देशभक्त राजदूत के रूप में कोई सामान्य नागरिक भी- अपने समस्त कर्मों को इस प्रकार करता है कि- "दासस्य दासोऽहं " तब उसका एक शक्तिशाली व्यक्तित्व निखर उठता है । क्योंकि वह (नेता विवेकानन्द) अपने भाषण कर्म और विचारों के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र का या अपने संगठन का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार जब कोई देशभक्त (विवेकानन्द कन्याकुमारी शिला पर बैठकर ) अपने आप को पूर्णत ईश्वर (भारतमाता =श्रीरामकृष्ण) के चरणों में अर्पण कर देता है और फिर ईश्वर के दूत अथवा ईश्वरी संकल्प Be and Make के प्रतिनिधित्व के रूप में कार्य करता है तब वह दैवी शक्ति से सम्पन्न हो जाता है। क्योंकि उसे अपने प्रत्येक कार्य में ही परमात्मा (इष्टदेव, गुरु या C-IN-C नवनीदा) की उपस्थिति और अनुग्रह का भान बना रहता है।
जो मुझे (=भारत कल्याण आन्दोलन Be and Make को) ही अपने जीवन का परम लक्ष्य समझता है : तो एक नर्तकी को जैसे कभी साथ के मृदंग के ताल और लय का विस्मरण नहीं होता। एक संगीतज्ञ को तानपूरे की श्रुति का भान सदा बना रहता है। इसी प्रकार एक (देश) भक्त को उपदेश दिया जाता है कि वह ईश्वर (श्रीरामकृष्ण = भारतमाता) को ही अपने जीवन का परम लक्ष्य माने और जीवन में सदैव उसे ही प्राप्त करने का (भारत के कल्याण का) प्रयत्न करे।धर्म को (अर्थात स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make महामण्डल आन्दोलन को) अतिरिक्त-समय का एक मनोरंजन अथवा दैनिक कार्यों से क्षणभर की मुक्ति का साधन नहीं समझना चाहिए। सारांश में हमें यह उपदेश दिया जाता है कि सांस्कृतिक पूर्णत्व के उच्चतर शिखरों पर आरोहण करने के लिए ( अर्थात माँ सारदा का 100 % निःस्वार्थी पुत्र बनने की ओर अग्रसर होते रहने के लिये) आवश्यक है कि हम अपने जीवन के सम्पर्कों व्यवहारों एवं अनुभवों का उपयोग उस परमात्मा की उपलब्धि के लिए करे जिसकी उपासना हम उसके सगुण साकार रूप में (शिवज्ञान से जीव सेवा-मुष्य मात्र से मनसि, वचसी, काये, पुण्यपीयूष-पूर्णा विनम्रतापूर्वक बातचीत द्वारा पूजा रूप में) करते हैं।
अनन्य-योग के द्वारा वे सभी प्रयत्न योग कहलाते हैं जिनके द्वारा हम अपने मन का तादात्म्य अपने पूर्णत्व के लक्ष्य के साथ स्थापित कर सकते हैं। अपने मन को उसके वर्तमान विक्षेपों तथा अपव्ययी प्रवृत्तियों से ऊँचा उठाकर विशाल आनन्द और पूर्ण ज्ञान के श्रेष्ठतर लक्ष्य की ओर प्रवृत्त करना ही योग है। यह शक्ति हम सबमें निहित है [यानि अपने मन या व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृ- हृदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं' रूपांतरित प्रेम की ओर प्रवृत्त करने की शक्ति हम सबमें निहित है।] और उसका सदैव हम उपयोग भी कर रहे हैं। परन्तु योग का परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि हमलोग कौन से लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहे हैं ? (आत्मविश्लेषण > हमलोग कौन से लक्ष्य -ऐषणा, समाधि या ईश्वरलाभ-अपने ब्रह्मस्वरूप को अभिव्यक्त करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं ?) दुर्भाग्य से प्राय हमारा लक्ष्य Oneness या अन्तर्निहित दिव्यता (ब्रह्मत्व-सर्वग्रासीप्रेम) को अभिव्यक्त करना नहीं होता। किन्तु केवल वैषयिक-आनन्द (तीनो ऐषणाओं) के लिए ही प्रयत्न करना भोग है योग नहीं। सामान्यतः हमारा लक्ष्य निरन्तर परिवर्तित होता रहता है और इस कारण सतत संघर्षरत होने पर भी हम किसी भी निश्चित स्थान को नहीं पहुंचते हैं। यहाँ प्रयुक्त अनन्ययोग शब्द का तात्पर्य यह है कि जिसमें साधक का लक्ष्य निश्चित और स्थिर है तथा उसके मन में लक्ष्य के प्रति अन्य भाव नहीं है; अर्थात् जिसमें साधक और साध्य का एकत्व (Oneness) है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि हमारे मन का विघटन जीवन -लक्ष्य के प्रति अन्य भाव के कारण हो सकता है, या ध्येय को त्यागकर अन्य विषयों में मन के विचरण के कारण भी हो सकता है। इस प्रकार जो भक्तजन (क) सब कर्मों का संन्यास मुझमें करते हैं, या अपने समस्त कर्मों को मुझे समर्पण करते हैं अर्थात अपनी व्यक्तिगत सीमाओं को (मिथ्या अहं M/F शरीर- मन के साथ तादात्म्य को त्यागकर) अपने आदर्श (इष्टदेव-भारतमाता) से सीधा तादात्म्य स्थापित रखते हैं। (ख) जो मुझे (भारत-कल्याण) को ही परम लक्ष्य मानते हैं और (ग) जो अनन्ययोग से उपासना ध्यान करते हैं वे मेरे उत्तम भक्त हैं।
यह पहले भी कहा जा चुका है कि उपासना का वास्तविक अर्थ है लक्ष्य के साथ तादात्म्य करने का प्रयत्न करके तत्स्वरूप ही बन जाना। यही साधक का लक्ष्य है और इसी में उसकी कृत्कृत्यता है। भगवान् श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि उक्त गुणों से सम्पन्न साधकों को ध्यानाभ्यास के समय इस बात की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है कि किस प्रकार वे अपने दुःख, विक्षेप और अपूर्णताओं के परे जा सकते हैं। क्योंकि मैं उनका उद्धारकर्ता बनूंगा। यह स्वयं भगवान् का दिया हुआ वचन है।
यह संभव है कि वर्षों की दीर्घकालीन साधना के पश्चात् भी यदि कोई साधक आत्मानुभव (समाधि) के कहीं समीप भी नहीं पहुंचे तो वे अधीर हो जायेंगे। अत भगवान् का आश्वासन आवश्यक है। भगवान् यहाँ यह भी वचन देते हैं कि शीघ्र ही मैं उनका उद्धारकर्ता बनूंगा।
"जिनका मन मुझमें स्थित है" - सामान्यतः मन अपनी ध्येय वस्तु का आकार ग्रहण करता है। जब निरन्तर साधना के फलस्वरूप विजातीय प्रवृत्तियों (जड़-देह, इन्द्रिय-मन-बुद्धि) का सर्वथा त्यागकर सजातीय वृत्ति प्रवाह (आत्मा अवलोकन में परमात्मा दर्शन , विवेकदर्शन) को बनाये रखने की क्षमता साधक में आ जाती है, तब उसका मन अनन्त ब्रह्मरूप ही बन जाता है।
"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः'' विषयों में आसक्त (ऐषणाओं में आसक्त) मन बन्धन का और ऐषणाओं से रहित मन ही मोक्ष (मुक्ति) का कारण कहा गया है ॥ यह मन ही है जो हमारे जीवभाव (M/F -पुत्र, पुत्री, भाई, शत्रु-मित्र) के परिच्छेदों (व्यष्टि मैं) का आभास निर्माण करता है, और यही मन अपने अनन्तत्व का आत्मरूप से साक्षात् अनुभव भी करता है। बन्धन और मोक्ष दोनों मन के ही हैं। आत्मा तो नित्यमुक्त है कदापि बद्ध नहीं।
अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।13.1।।
अर्जुन ने कहा -- हे केशव ! मैं, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञेय को जानना चाहता हूँ।।
प्रकृति और पुरुष इन दोनों के संयोग से ही सृष्टि का निर्माण हुआ है इन्हें अर्जुन जानना चाहता है। ज्ञाता , ज्ञान और ज्ञेय इस अध्याय में ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस पवित्र अन्तःकरण से है, जिसके द्वारा ही आत्मतत्त्व का अनुभव किया जा सकता है। यह आत्मा ही ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य वस्तु है। अर्जुन की इस जिज्ञासा के उत्तर को जानना सभी साधकों को लाभदायक होगा।
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।13.6।।
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.7।।
भावार्थ
पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (तीनों गुणों की अप्रकट अवस्था-अव्यक्त ही वह अदृष्ट कारण है जिससे यह दृश्य जगत् कार्यरूप में व्यक्त हुआ है।), दसों इन्द्रियाँ तथा एक मन, पाँच इन्द्रियविषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, (चेतना= जीवन के लक्षण तथा धृतिः= धैर्य) - इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र कहा जाता है ।
द्रष्टा (साक्षी) से भिन्न जो कुछ भी है (देह-मन-बुद्धि इन्द्रियआदि) वह सब दृश्य है- क्षेत्र है। इसे गीता में अत्यन्त संक्षिप्त वाक्य 'इदं शरीरं' के द्वारा दर्शाया गया है। इस सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करने वाला चैतन्यस्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहलाता है।
अविद्या दशा में यह जीव शरीर आदि क्षेत्र को ही अपना स्वरूप अर्थात् क्षेत्रज्ञ समझता है। इस कारण उसे अपने शुद्ध आत्मस्वरूप का बोध कराने के लिए सर्वप्रथम जड़ (नश्वर) और चेतन (शाश्वत) का विवेक कराना आवश्यक है। इसीलिए यहाँ क्षेत्र को इतने विस्तार पूर्वक बताया गया है।
अब अगले पाँच श्लोकीय प्रकरण में ज्ञान को बताया गया है जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है यहाँ ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस अन्तःकरण से है जो आत्मज्ञान के लिए आवश्यक गुणों से सम्पन्न हो। क्योंकि शुद्ध अन्तःकरण (सदाचार) के द्वारा ही आत्मा का अनुभव सम्भव होता है। अत अब प्रस्तुत प्रकरण में भगवान् श्रीकृष्ण चरित्र के बीस गुणों को बताते हैं जो सदाचार और नैतिक नियम हैं। चरित्र के वे गुण हैं-
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥13.8॥
।।13.8।। अमानित्व (=स्वयं को पूजनीय व्यक्ति समझना मान कहलाता है। उसका अभाव अमानित्व है।), अदम्भित्व (=अदम्भित्व अपनी श्रेष्ठता का प्रदर्शन न करने का स्वभाव।), अहिंसा ( शरीर , मन और वाणी से किसी को पीड़ा न पहुँचाना) , क्षान्ति (अर्थात् सहनशक्ति= किसी के अपराध किये जाने पर भी मन में विकार का न होना क्षान्ति है।) क्षमा, आर्जव (= हृदय का सरल भाव, निष्कपटता- अकुटिलता।), आचार्योपासना (=गुरु की केवल शारीरिक सेवा ही नहीं वरन् उनके हृदय की पवित्रता और बुद्धि के तत्त्वनिश्चय के साथ तादात्म्य करने का प्रयत्न ही वास्तविक आचार्योपासना है।) शौचम् (=शरीर, वस्त्र, बाह्य वातावरण तथा मन की भावनाओं, विचारों, उद्देश्यों की पवित्रता भी इस शब्द से अभिप्रेत है।) स्थिरता (= जीवन के लक्ष्य >चारित्रिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्य > को प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय और एकनिष्ठ प्रयत्न।) आत्मसंयम (=जगत् के साथ व्यवहार करते समय इन्द्रियों तथा मन पर संयम होना।)
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥13.9॥
इन्द्रियों के विषय के प्रति वैराग्य (=जो व्यक्ति विषयों से दूर भागकर कहीं जंगलों में बैठकर उनका चिन्तन करता रहता है वह तो अपनी वासनाओं का केवल दमन कर रहा होता है, ऐसे पुरुष को भगवान् ने मिथ्याचारी कहा है। वैराग्य इसका अर्थ जगत् से पलायन करना नहीं है। विषयों के साथ रहते हुए भी मन से उनका चिन्तन न करना तथा उनमें आसक्त न होना, यह वैराग्य का अर्थ है।), अहंकार का अभाव (माँ काली की कृपा =अहंकार का अभाव M/F जीवभाव का उदय केवल तभी होता है जब हम शरीरादि उपाधियों के साथ तथा उनके अनुभवों का द्रष्टा न रहकर उसके साथ तादात्म्य करते हैं। अपने शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए आवश्यक पूर्व गुण यह है कि हम इस मिथ्या तादात्म्य को विवेक-विचार के द्वारा नष्ट कर दें। जन्म, मृत्यु, वृद्धवस्था, व्याधि और दुःख में दोष दर्शन..> प्रत्येक शरीर को ये विकार प्राप्त होते हैं। हमें उन कष्टों के संबंध में निरन्तर विचार करना चाहिए जो भौतिक जगत में जीवन के अविभाज्य अंग हैं। यह वही सिद्धान्त है जिसके कारण सिद्धार्थ गौतम को गौतम बुद्ध बनने की प्रेरणा मिली। उन्होने एक रोगी व्यक्ति को देखा और सोचा कि संसार में रोग है, “मैं भी एक दिन रोग ग्रस्त हो जाऊंगा" फिर उन्होंने एक बूढ़े व्यक्ति को देखा और कहा, “यहाँ बुढ़ापा भी है तब मैं भी एक दिन बूढ़ा हो जाऊंगा" तत्पश्चात उन्होंने एक मृत व्यक्ति को देखा और अनुभव किया कि “मृत्यु भी जीवन का एक सत्य है। इसका तात्पर्य है कि मुझे भी एक दिन मरना होगा।" बुद्ध की बुद्धि इतनी सचेतन थी कि उन्होंने परम् सत्य की खोज में संसार त्याग करने का निश्चय कर लिया। क्योंकि हमारे पास ऐसी निर्णायक बुद्धि नहीं है इसलिए हमें बार-बार इन सत्यों का चिन्तन करना चाहिए ताकि संसार की नीरसता के सत्य को अपने हृदय में स्थिर कर सकें।
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥13.10॥
।।13.10।। अनभिष्वंग - जब किसी शरीर-विशेष के प्रति सामान्य प्रीति बढ़कर आसक्ति का रूप ले लेती है तब उसे अभिष्वंग कहते हैं। पुत्र, भार्या और गृहादिक में आसक्ति का अभाव ही अनभिष्वंग कहलाता है। इस आसक्ति का लक्षण है यह है कि मनुष्य को अपनी प्रिय वस्तु या व्यक्ति के साथ इतना तादात्म्य हो जाता है कि उनके सुख-दुःख उसे अपने ही अनुभव होते हैं। इस प्रकार की आसक्ति के कारण व्यक्ति के मन में सदा विक्षेप बना रहता है और वह कार्य करने में भी अकुशल हो जाता है। हमें अपने आन्तरिक व्यक्तित्व ( प्रभुजी ! जो हम भले-बुरे सो तेरे ! स्वामीजी के 'दास का दास' हूँ वाले व्यक्तित्व) के चारों ओर विवेक की ऐसी दीवार खड़ी करनी चाहिये कि ये सभी विक्षेप हमसे दूर रहें। पुत्र, स्त्री, घर आदि में तादात्म्य (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का नित्य सम रहना।
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥13.11॥
।।13.11।। अनन्ययोग के द्वारा मुझ में अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि।।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥13.12॥
।।13.12।।अध्यात्मज्ञान में नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सब जगह देखना -- यह (पूर्वोक्त साधन-समुदाय) तो ज्ञान है; और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है -- ऐसा कहा गया है।
आप क्षेत्र नहीं हैं, क्षेत्रज्ञ हैं। क्षेत्र के सब तत्त्वों से जीवात्मा या क्षेत्रज् अलग हो जाय, तो आप अकेले हो जाओगे। अब अकेले में जो पहचान हो, वही परमात्मा है। इसके लिए बाहर में कहीं जाने से क्षेत्र से नहीं छूट सकते। स्वप्न में जाने से स्थूल शरीर और स्थूल इन्द्रियाँ छूट जाती हैं। यह थोड़ा-सा नमूना है कि अंतर्मुख होने से स्थूल शरीर और इन्तद्रियों से छूटते हो। इस प्रकार अंदर-ही-अंदर चलने से तुम सब शरीरों (स्थूल-सूक्ष्म -कारण आदि) और सब इन्द्रियों से छूटकर अकेले होकर रहोगे, तब तुम अपने को और परमात्मा को पहचान सकोगे। देह के सब अंगों को आँख से देखते हो किंतु आँख को देखने के लिए एक मात्र आँख ही है। वैसे ही परमात्मा को आत्मा से ही पहचानोगे।
बाहर से भीतर जाने में सब ख्यालों को (मिथ्या अहं M/F की नाट्यलिला में आसक्ति को) छोड़ना होगा। इसके लिए अनेक पीढ़ियों के संस्कार की, दीर्घकालिक परिश्रम की तथा दृढ़ ध्यानाभ्यास की अत्यंत आवश्यकता है। इसी शरीर में जैसा संस्कार बैठाओगे, अगले जन्म में वैसा ही शरीर मिलेगा। मानवीय संस्कार मन में बैठाओगे, तो मनुष्य-शरीर मिलेगा। भजन में (साधना में) पूरे हो जाने से ईश्वर को प्राप्त कर लोगे। पूरा भजन नहीं होने से (योगभ्रष्ट होने से) फिर मनुष्य का शरीर मिलेगा; क्योंकि भजन-संस्कार को बढ़ानेवाला - मनुष्य शरीर के आलावा दूसरा कोई शरीर नहीं है। यदि पाशविक विचार (स्वार्थी विचार) का संस्कार हृदय में रखोगे, तो अगले जन्म में पशु का शरीर हो जाएगा। जैसे राजा भरत को हुआ था। ( राजा भरत जंगल में तप करते थे। उनको हरिण के बच्चे से प्रेम हो गया था। पूर्व जन्म के तप के कारण उनका ज्ञान नष्ट नहीं हुआ था। इस शरीर को पाकर वे बहुत पश्चात्ताप करते थे। उनका वह हरिण का शरीर छूटने पर ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ और उनका नाम जड़भरत पड़ा। ) ईश्वर का भजन करो, सदाचार का जीवन बिताओ। भजन में अपूर्ण रहने से (24 गुणों में अपूर्ण रहने से या 100 % निःस्वार्थी मनुष्य बन जाने में अपूर्ण रहने से) दूसरे जन्म में मनुष्य होना ध्रुव है।
शरीर-रहित जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार होगा। इसलिए जिस युक्ति से (मनःसंयोग या राजयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग से हो) सब शरीरों से रहित होओगे, वह यत्न करो। सदाचार का पालन करो। चरित्रवान-मनुष्य बनो और बनाओ ' Be and Make ' यह सबके लिए हित की बात है।
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[मेरे पिता श्रीरामचन्द्र जी के भक्त थे -रामायण की समस्त महत्वपूर्ण चौपाइयाँ उन्हें कठस्थ थीं, वे भगवान राम के निर्गुण -निराकार रूप पर विश्वास करते थे। किन्तु मेरी माँ -मेरी प्रथम गुरु! भगवान श्रीकृष्ण के सगुण साकार रूप की भक्त थीं। सुबह उठने के बाद सबसे पहले भगवान की इसी छवि 👇को प्रणाम करके हम लोग उठते और सोने के पहले प्रणाम करके सोते थे। हम सभी भाई-बहन अपने मित्रों के संग श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर झूलन लगाकर श्रीकृष्ण भोग भी चढ़ाते थे।
जौ हम भले बुरे तौ तेरे - श्री सूरदास, सूरसागर
जौ हम भले बुरे तौ तेरे ।
तुम्हैं हमारी लाज-बड़ाई, बिनती सुन प्रभु मेरे ॥ [1]
सब तजि तुम सरनागत आयौ, दृढ़ करि चरन गहेरे ।
तुम प्रताप-बल बदत न काहूँ, निडर भए सब चेरे ॥ [2]
और देव सब रंक भिखारी, त्यागे बहुत अनेरे ।
सूरदास प्रभु तुम्हरी कृपा तै, पाए सुख जु घनेरे ॥ [3]
- श्री सूरदास, सूरसागर
सब को त्याग कर ही मैं आपकी शरण में आया हूँ, अब आपके श्री चरणों को दृढ़ता से पकड़ लिया है।आपकी महिमा के बल से मैं किसी की परवाह नहीं करता । आपके समस्त सेवक आपकी महिमा के भरोसे निर्भय हो गये हैं । [2]
और सब देवता तो बेचारे भिखारियों के समान हैं, सबको मैंने निकम्मा समझकर त्याग दिया है। श्री सूरदास जी कहते हैं, "हे भगवान कृष्ण, आपकी ही कृपा से तो मैंने अत्यधिक सुख प्राप्त किया है ।" [3]