स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा
[ महामण्डल में 'Be and Make ~ C-in-C, Dy. C-in-C परम्परा' की अवधारणा]
1. "उपनिषदों की शिक्षा ~ अर्थात 'शीक्षा' [दीर्घ 'ई' कार के साथ शिक्षा ] ही समाधान है ! "[दीर्घ 'ई' कार के साथ शिक्षा वह प्रशिक्षण है -जो मनुष्य को रोबोट नहीं, हृदयवान मनुष्य बनाता है।महामण्डल ब्लॉग : मंगलवार, 8 अगस्त 2023/
2. भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द द्वारा कैप्टन सेवियर को दिया गया नेतृत्व का विचार / [18 A] স্বামীজির দেওয়া আদর্শ / The idea of leadership given by Swami Vivekananda to Captain Sevier/ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना / স্বামী বিবেকানন্দ প্রদত্ত নেতৃত্বের আদর্শ / ब्रह्मरूपी सिंह-शावक की धुन - देहाद्यभिमानरहितः पुमान् पञ्जरात्केसरी सिंह इव जगज्जालात् निर्गच्छति।
Vivek- Jivan (Vivek-Anjan) ब्लॉग/शनिवार, 15 अगस्त 2020/
3. Born Again 🔱🙏141th, SPTC : 19-20 July, 2014 ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के १४१ वें स्पेशल आवधिक प्रशिक्षण शिविर पर रिपोर्ट .
' Vivek- Jivan (Vivek-Anjan)/शनिवार, 26 जुलाई 2014/
4.Born Again 🔱🙏 गुरु-परम्परा में समत्व भाव की मूर्ति (Statue of Equality) श्री रामानुजाचार्य की शिक्षाओं पर स्वामी विवेकानन्द के उद्गार /सनातन धर्म का पनुर्जागरण -3/ महामण्डल ब्लॉग /मंगलवार, 15 अगस्त 2023/
5. Born Again 🔱🙏दुर्लभ-त्रय/ " विवेकानन्द और युवा आन्दोलन " /(समस्त 43 निबन्ध/ प्रकाशक का निवेदन।
Vivek- Jivan (Vivek-Anjan) ब्लॉग /बुधवार, 8 फ़रवरी 2012/
6. Born Again 🔱🙏विश्व के महान शिक्षक निर्माण की वेदान्त परम्परा : स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make ~ C-in-C, Dy. C-in-C वेदांत परम्परा' में लीडरशिप ट्रेनिंग। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में समर्थ, स्वयं तरकर दूसरों को पार ले जाने में समर्थ। " मानव - पद " ( Rank of Human- brahmvid) भ्रममुक्त ,जीवनमुक्त, de -hypnotized सिंहशावक नेता ,गुरु, शिक्षक पद को प्राप्त करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है !
>>>तत्त्वमसि महावाक्य (Tatvamasi): तत्त्वमसि (तत् त्वम् असि) भारत के शास्त्रों व उपनिषदों में वर्णित महावाक्यों में से एक है, यह महावाक्य ब्रह्म और आत्मा की एकता का बखान करता है। जिसका शाब्दिक अर्थ है, वह तुम ही हो। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है। यह मंत्र गुजरात प्रान्त के द्वारका धाम या शारदा मठ का भी महावाक्य तत्त्वमसि (तत् त्वम् असि) है, जो कि पश्चिम दिशा में स्थित भारत के चार धामों में से एक है। अगर इस एक वाक्य को ही अनुसरण करते हुए अपनी जीवन की परम स्थिति का अनुसंधान कर लें, तो आपका यह जीवन सार्थक हो जाएगा। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं।
सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
'तत् त्वम् Sसि' का ज्ञान प्रदान करने में सक्षम नेताओं के निर्माण के लिए रामानुज जैसा 'कर्म और भक्ति' का समन्वय करने वाले प्रशिक्षण का प्रमुख विषय होगा, बुढ़ापे में जीवन सूना-सूना सा क्यों प्रतीत होता है ? मानव जीवन को बहुमूल्य क्यों कहा जाता है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? जीवन क्या है ?
"3 फ़रवरी,1900 ई० को पसाडेना, कैलिफोर्निया में " School of Humanistic Studies : मानवतावादी अध्ययन स्कूल - शेक्सपियर क्लब, में स्वामी विवेकानन्द द्वारा महामण्डल के 'Be and Make वेदान्त आन्दोलन ' के अनुसार गायक ऋषियों के निर्माण की गुरु परम्परा, जीवन्मुक्त योगियों, भ्रममुक्त- जीवनमुक्त शिक्षकों, 'नेतावरिष्ठ-उपनेता वरिष्ठ निर्माण की वेदान्त परम्परा।' विषय पर दिया गये अंग्रेजी भाषण का हिन्दी भावानुवाद। (वि०सा० ख० 7/177/(Volume 4, Lectures and Discourses)]
बारह बरस गुरुकुल में वेद आदि ग्रंथों का अध्ययन करके श्वेतकेतु अपने पिता ऋषि उद्दालक आरुणि के पास लौटा। श्वेतकेतु ने कड़ी मेहनत से जो ज्ञान पाया, उसका उसके मन में अहंकार हो गया। ब्रह्मज्ञानी ऋषि उद्दालक अपने पुत्र में पनप चुके इस अहंकार को भांप गए। उससे सवाल किया।
‘पुत्र, यह बताओ क्या तुमने वह ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया, जिसके जानने के बाद, जो कुछ भी अज्ञात है, रहस्यमय है, वह सब समझ में आ जाता है। जिसे जानने के बाद कुछ और जानने को बचा नहीं रहता, क्या ऐसा कोई उपदेश तुम्हारे आचार्य ने तुम्हें दिया है? श्वेतकेतु की जिज्ञासा बढ़ी। वह पिता से पूछता है- यह ब्रह्म ज्ञान किस प्रकार का ज्ञान है?
ब्रह्म ज्ञान का विस्तार समझाते हुए ऋषि उद्दालक कहते हैं, ‘मिट्टी के रूप को पूरी तरह जान लेने से उससे बनी हुई किसी भी वस्तु को जाना जा सकता है। मिट्टी के लोंदे से बने हुए बर्तनों में मिट्टी ही मूल तत्व है। बर्तन तो मिट्टी को वाणी द्वारा दिया हुआ सिर्फ नाम है। सत्य तो केवल मिट्टी ही है।’
ऋषि ने आगे कहा, ‘इसी तरह सोने से बने हुए कंगन में सोना ही मूल तत्व है। उससे बने हुए आभूषण तो वाणी द्वारा दिए गए अलग-अलग नाम हैं। सत्य तो केवल सोना ही है। लोहे से बने हुए पदार्थ के लिए भी यही सत्य है। वैसे ही नाम और रूप के पार देखने पर पूरे संसार का जो मूल तत्व लक्षित होता है वह ब्रह्म है।’
श्वेतकेतु को अपनी भूल समझ में आ गई। वह अपने पिता से आग्रह करता है कि इस ज्ञान को विस्तार से समझाएं।
ऋषि उद्दालक अपने पुत्र की जिज्ञासा देख प्रसन्न होते हैं। उसे सबसे गूढ़, सबसे रहस्यमयी ब्रह्म ज्ञान का उपदेश देने का भरोसा दिलाते हुए कहते हैं, ‘मधुमक्खी कितने ही फूलों से रस लेकर शहद बनाती है। कोई नहीं बता सकता कि शहद की कौन-सी बूंद किस फूल के रस से बनी है। कितनी ही नदियों का जल समुद्र में मिलता है, कोई नहीं बता सकता कि समुद्र की कौन-सी बूंद किस नदी से आई है।
वैसा ही संबंध जीव और ब्रह्म का भी है। जब तक जीव ब्रह्म में लीन नहीं होता, नाम और रूप के कारण दोनों में भेद दिखाई देता है। हर जीव के साथ यही होता है। चाहे वह मनुष्य हो, शेर हो, भालू हो या कोई कीड़ा। नाम और रूप के खो जाने पर जो रहता है, वही ब्रह्म है और वही तुम भी हो श्वेतकेतु।’
छांदोग्य उपनिषद में ऋषि उद्दालक, ब्रह्म और आत्मा की एकता इस प्रकार अपने पुत्र श्वेतकेतु को समझाते हैं। उनके उपदेश का सार है, ‘तत् त्वम असि’। वह जो जगत का कारण है, जिससे संपूर्ण जगत प्रकाशमान है, एक मात्र सत्य है, वह ब्रह्म तुम ही हो। ‘तत् त्वम असि’ एक महावाक्य है। इसे उपदेश वाक्य कहा गया है, क्योंकि ऋषि इस सूत्र के द्वारा शिष्यों को ब्रह्म का उपदेश देता है। यह पश्चिम में स्थित द्वारिका मठ का भी आधार वाक्य है।
‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे’ ऐतरेय उपनिषद का यह सूत्र भी ब्रह्म और आत्मा की एकता की बात कहता है। जैसी सृष्टि है, वैसा ही जीव है। जो संसार बाहर है, वही संसार जीव के अंदर भी है। कबीर, आत्मा और ब्रह्म की तुलना बूंद और समुद्र से करते हुए कहते हैं -
बूंद समानी समुंद में, जानत है सब कोई,
समुंद समाना बूंद में, बूझे बिरला कोई।
यह तो सभी जानते हैं की बूंद समुद्र में समाई हुई है, लेकिन कोई बिरला ही देख पाता है की समुद्र भी बूंद में समाया हुआ है।
गुरु नानक कहते हैं - सागर मही बूंद बूंद मही सागरू, कवणु बूझे बिधि जाणै- बूंद में ही सागर है और सागर में ही बूंद यह कोई कैसे जाने और किस विधि समझे।
स्वामी रामतीर्थ ने इसी सिद्धांत को अपनी कविता में कुछ यूं लिखा है :
जो तू है सो मैं हूं, जो मैं हूं सो तू है,
न कुछ आरज़ू है, न कुछ जुस्तजू है।
बसा राम मुझ में, मैं अब राम में हूं,
न इक है ना दू है, सदा तू ही तू है।।
विवेकचूड़ामणि में ‘तत् त्वम असि’ की व्याख्या में शंकराचार्य ने लिखा है, ‘जो जातियों से परे है, जो नीतियों से परे है, जो कुल गोत्र से परे है, जो नाम और रूप से परे है, जो गुण-दोष से परे है, जो देश और समय से परे है और किसी भी विषय से परे है, ऐसा जो ब्रह्म है, वही तुम हो।'
अद्वैत के इतर अन्य दर्शनों में भी इस महावाक्य की व्याख्या की गई है।
रामानुजाचार्य (रामानुज) यह स्वीकार करते है मोक्ष प्राप्ति का सीधा साधन ज्ञान ही है किन्तु वे ज्ञान का तादात्य भक्ति से स्थापित करते हैं। कर्म तथा ज्ञान द्वारा ही भक्ति का उदय होता है। मोक्ष के लिये ईश्वर की कृपा आवश्यक मानी गयी है। कृपा केवल भक्ति के माध्यम से ही मिल सकती है। इस कारण उनका मत विशिष्टाद्वैत (Qualified Monism) कहा जाता है।
ईश्वर की भक्ति उसमें पूर्ण समर्पण (प्रपत्ति) तथा उसका निरन्तर स्मरण है। यह भक्ति एक विशेष प्रकार का ज्ञान है जो सामान्य ज्ञान से भिन्न है। ईश्वर के स्वभाव का प्रेमपूर्वक ध्यान करना ही भक्ति है। भक्ति के लिए बातें आवश्यक बतायी गयी हैं—(1) मन को पूर्णरूपेण ईश्वर में केन्द्रित करना तथा (2) भगवान के स्वरूप का ज्ञान।
रामानुज सामान्य तथा विशेष भक्ति में विभेद स्थापित करते हुये कहते हैं कि सामान्य भक्ति ईश्वर का निरन्तर ध्यान है, जबकि विशेष भक्ति ईश्वर का ज्ञान है। प्रपत्ति तथा सतत ध्यान से परम भक्ति (ईश्वर के ज्ञान)का उदय होता है। रामानुज कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग में समन्वय स्थापित करते हैं तथा भक्ति को परम साध्य मानते है।
रामानुज का मत है कि ईश्वर की कृपा प्राप्त करना ही मोक्ष का सर्वोत्तम साधन है इसके लिये साधक को ईश्वर में अपने को पूर्ण समर्पित करना होता है। इस पूर्ण समर्पण को प्रपति अथवा 'शरणागति' कहा गया। शरणागत जीव को ईश्वर ही अपनी कृपा-दृष्टि प्रदान करता है और ऐसा भक्त उसका परमप्रिय पात्र बन जाता है। ईश्वर साधक की भक्ति ओर प्रपत्ति से प्रसन्न होकर उसकी सभी भव-बाधाओं को दूर कर देता है तथा उसे अपनी शरण में ले लेता है। यही मोक्ष की अवस्था है इस प्रकार जहाँ शंकर ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार करते हैं वहाँ रामानुज भक्ति को वह स्थान देते ह
उपनिषदों में ब्रह्म तथा आत्मा सम्बन्धी अभेदसूचक वाक्य 'तत्वमसि' रामानुज इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं।
"ऐतदात्म्यं इदं सर्वम्। तत्सत्यम्। स आत्मा। तत्वमसि श्वेतकेतो"
-छांदोग्य उपनिषद (VI.8.7)
उनके अनुसार इस वाक्य का अर्थ यह कदापि नहीं है कि व्यक्ति के अन्तर में स्थित आत्मा ही ब्रह्म है। बल्कि इसका अर्थ यह है कि तत् अर्थात् वह सर्वज्ञ परमात्मा और त्वम् अर्थात् वह परमात्मा जो अचेतन शरीर से युक्त जीव के रूप में स्थित है, दोनों एक है। यहाँ एक ही ब्रह्म के दो विभिन्न रूपों में एकता स्थापित की गयी है, न कि ब्रह्म तथा आत्मा में । इस प्रकार रामानुज का मत विशिष्टाद्वैत अर्थात् अद्वैत में द्वैत का मत है। इसमें तीन तत्वों को नित्य माना गया है ईश्वर (ब्रह्म), जीव (आत्मा) तथा प्रकृति परमतत्व की कल्पना तीन तत्वों की संगठित समष्टि के रूप में की गयी है। ईश्वर एक होते हुए भी चित् जीव तथा अचित् प्रकृति से विशिष्ट या समन्वित है। वह इस समष्टि का आंतरिक नियन्ता अथवा उसकी परमात्मा है जो चित् तथा अचित् की एकता को बनाये रखता है। प्रकृति के तीन गुण है— सत्व, रज तथा तम। इसी कारण सभी सांसारिक वस्तुओं में इन तीनों गुणों का मिश्रण देखने को मिलता है। प्रलयावस्था में जब प्रकृति सूक्ष्म रूप से ईश्वर में विद्यमान रहती है तब उसे 'अव्यक्त' कहा जाता है। ईश्वर की इच्छा होते ही यह तीन तत्वों में विभाजित हो जाती है- तेज, जल तथा पृथ्वी इनमें क्रमशः सत्व, रज तथा तम, ये तीनों गुण पाये जाते हैं। रामानुज मायावाद को मानते हैं किन्तु उनका मत शंकर के मायावाद से भिन्न है। शंकर के मायावाद की तो वे कटु आलोचना करते हैं। उनके अनुसार इनका कोई आधार नहीं है। 'माया' से रामानुज का तात्पर्य ईश्वर की सृजन-शक्ति (Power of Creation) से है । माया का अर्थ अद्भुत विषयों का सृजन करने वाली शक्ति' है।
माधवाचार्य वेदांत के द्वैत दर्शन के प्रमुख दार्शनिक हुए हैं। द्वैत दर्शन में जीवात्मा का ब्रह्म से स्वतंत्र अस्तित्व है। उन्होंने व्याकरण के बहुत छोटे-से फेर से इस महावाक्य का बिलकुल ही अलग अर्थ प्रस्तुत किया। ‘स आत्मा अतत् त्वम् असि’- वह आत्मा तुम नहीं हो। मायावाद के खंडन में उन्होंने इस महावाक्य के अर्थ में कहा की ‘जीव ब्रह्म का सेवक है’।
अक्षर पुरुषोत्तम परंपरा में पुरुषोत्तम, अक्षर, ईश्वर, माया और जीव पांचों का स्वतंत्र और अनंत अस्तित्व है। जीव माया से तभी मुक्त हो सकता है, जब वह पुरुषोत्तम की उपासना कर अक्षर स्वरूप हो जाता है।
शुद्धाद्वैत में ‘ब्रह्मसत्यं जगत्सत्यं अंशोजीवोहि नापरः’ कहा गया है, जिसका अर्थ है - ब्रह्म सत्य है, जगत सत्य है, जीव ब्रह्म का अंश है। यहां ब्रह्म स्वतंत्र तत्व है। जीव उसका अंश है और अनेक होकर प्रकट होता ब्रह्म भी मिथ्या नहीं है।
वेदांत दर्शन की सभी शाखाओं ने अपने सिद्धांतों के अनुसार इस महावाक्य की व्याख्या की है। बाइबल में अपने विरोधियों को समझाते हुए ईसा मसीह कहते हैं, ईश्वर की सत्ता यहां वहां कहीं बाहर नहीं, वह तुम्हारे भीतर है। कबीर इसी ईश्वर की सत्ता के बारे में कहते हैं :
पीर मरे पैगम्बर मरिहैं, मरिहैं ज़िंदा जोगी।
चंदा मरिहैं सूरज मरिहैं, मरिहैं धरणि आकासा।
नाम अनाम अनंत रहत है, दूजा तत्व न होइ।
सत्य का ज्ञान बांचने वाले पीर पैगंबर मर जाते हैं। योगी मर जाते हैं। एक समय आएगा जब सूरज, चांद, धरती, आकाश जैसी अटल और अमर्त्य दिखने वाली वाली चीजें भी नहीं रहेंगी। नाम अकेला तत्व है जो हमेशा रहेगा। यही वह तत्व है, जिसके मिलने पर और कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता।
[साभार /आवाज़ : रोहित उपाध्याय/ https://navbharattimes.indiatimes.com/navbharatgold/spirituality/one-of-the-the-pillar-of-hindu-dharma-is-tatvamasi/story/76372281.cms]
कर्म का रहस्य ( Secret of Work) :
स्वामी जी कहते हैं - " शायद तुम सभी ने यह अनुभव किया होगा कि - मनुष्य जब बुरे कर्मों को करता रहता है (महामण्डल में आने से पहले), तो क्रमशः वह अधिकाधिक बुरा बनता जा रहा था और इसी प्रकार जब वह अच्छे कार्य (5 अभ्यास) करने लगता है, तो दिनोदिन सबल होता जाता है और उसकी प्रवृत्ति (tendency) सदैव सत्कार्य करने की ओर झुकती जाती है। "
महामण्डल का सदस्य बन जाने के बाद सत्कार्यों को करने के प्रति हमारे झुकाओ (tendency) का तीव्रीकरण कैसे हो गया ? इसकी व्याख्या केवल एक ही वैज्ञानिक सिद्धांत के आधार पर की जा सकती है कि -'we can act and react upon each other.' प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे के मन पर क्रिया-प्रतिक्रिया करने में समर्थ है ! जब
मैं कोई कार्य करता हूँ , तो कहा जा सकता है कि मेरा मन एक विशेष प्रकार
की कंपनावस्था में होता है; उस समय अन्य जितने मन उस प्रकार की अवस्था में
होंगे , उनकी यह प्रवृत्ति (tendency) होगी कि वे मेरे मन से प्रभावित हो जायें।
सोनोमीटर प्रयोग जैसा - यदि एक कमरे में भिन्न भिन्न वाद्य-यंत्र एक सुर (Be and Make) में बाँध दिये जायें , तो तुम सबने देखा होगा कि एक को छेड़ने से अन्य सभी की प्रवृत्ति उसी प्रकार का सुर निकालने की होने लगती है। इसी प्रकार जो-जो मन एक ही सुर में बँधे हैं, उन सबके ऊपर एक विशेष विचार का समान प्रभाव पड़ेगा।
स्वामी विवेकानन्द श्री सिंगरावेलु मुदलियार उर्फ़ 'किडी' को 3 मार्च 1894 को लिखित एक पत्र में कहते है - .... मैं तुमसे यहाँ तक सहमत हूँ कि [माँ जगदम्बा या अपने इष्टदेव पर] श्रद्धा (faith-विश्वास जन्य भक्ति ) रखने से एक अद्भुत अन्तर्दृष्टि मिलती है , और केवल विश्वास से ही मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। पर उससे धर्मान्धता उत्पन्न होकर उन्नति में बाधा पड़ने की आशंका रहती है। ज्ञानमार्ग (सांख्य ) अच्छा है, परन्तु उसके शुष्क तर्क (dry intellectualism -IQ,तार्किक बुद्धिवाद) में परिणत हो जाने का डर रहता है। प्रेम (राधा-कृष्ण भक्ति ) बड़ी ही उच्च वस्तु है , पर निरर्थक भावुकता या रसिकता (meaningless sentimentalism) में परिणत होकर उसके विनष्ट होने का भय रहता है।
हमें इन सबका समन्वय ही अभीष्ट है - 'A harmony of all these is the thing required.' श्री रामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत में बहुत कम आते हैं। परन्तु उनके जीवन और उपदेश को आदर्श के रूप में सामने रखकर हम ईश्वरत्व प्राप्ति (निःस्वार्थपरता) की ओर आगे बढ़ सकते हैं ! यदि हम में से प्रत्येक व्यक्तिगत रूप से उस आदर्श [नवनीदा ] की पूर्णता को अपने जीवन में प्रकटित न कर सकें , तो भी हम उसे सामूहिक रूप से परस्पर एक दूसरे के परिमार्जन , संतुलन , आदान-प्रदान, से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई व्यक्तियों के समूह द्वारा साधित होगा और यह अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों (भावप्रचार परिषद आदि) की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा।
पाप या अधर्म वही है , जो उन्नति में (स्वार्थशून्य होने में ) बाधा डालता हो, या पतन में (पशु जैसा घोर स्वार्थी बनने में ) सहायता करता हो ; और धर्म वही है , जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि में सहारा मिले।
" शिक्षा का अर्थ है , उस पूर्णता की अभिव्यक्ति , जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है !"
" धर्म का अर्थ है उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति , जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक /नेता का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। जैसा मैं सर्वदा कहा करता हूँ - हस्तक्षेप बंद करो (शाकाहारी -मांसाहारी /विवाहित -अविवाहित प्रत्येक अपना मार्ग स्वयं चुन ले। ) सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है रास्ता साफ़ कर देना -शेष सब भगवान (शिवजी स्वयं) करते हैं।
Education is the manifestation of the perfection already in man.
Religion is the manifestation of the Divinity already in man.
Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest.
जो शुभ कर्मों (साप्ताहिक पाठचक्र) में भी कुछ न कुछ अशुभ तथा अशुभ कर्मों (कोरोना - वेबिनार) में भी कुछ न कुछ शुभ देखता है, वास्तव में उसीने कर्म का रहस्य समझा है। हम चाहे निरंतर कार्य करते रहें , परन्तु कर्मफलों में इस शुभ और अशुभ के अपरिहार्य साहचर्य का अंत नहीं होगा। तब फिर पूर्णता (perfection) का अर्थ क्या है ? सच पूछा जाय तो 'पूर्ण जीवन ' (Perfect life या आदर्श जीवन) शब्द ही स्वविरोधात्मक ( "square circle" जैसा contradiction in terms) है।
Religion is the manifestation of the Divinity already in man.
Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest.
जीवन कोई आसानी से चलने वाला सरल चीज नहीं है - यह तो एक प्रकार का
मिश्रित परिणाम है। बहिर्जगत और अन्तर्जगत का घोर संघर्ष ही जीवन कहलाता
है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक बाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरन्तर
संघर्ष है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जब यह संघर्ष समाप्त जायेगा , तो
जीवन का भी अन्त हो जायेगा।
84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य शरीर प्राप्त होता है, तो
क्या हमलोग केवल इन्द्रिय-लोलुप मनुष्य बनने के लिये ही संघर्ष कर रहे थे ?
तब हमारे सैकड़ो वर्ष तक का प्रयास क्या व्यर्थ हो गया ? क्या कभी
इन्द्रियाँ जीवन का लक्ष्य हो सकती हैं? क्या भोग-सुख मनुष्य जीवन का
अंतिम लक्ष्य हो सकता है ? यदि डार्विन के विकासवाद का सिद्धान्त 'मानव-शरीर' को पशुओं से श्रेष्ठ नहीं
मानता, तब यह कहा जा सकता है कि मानवशरीर प्राप्त करना ही एक बड़ी भयंकर
भूल है। ' बार-बार जन्म लेना और मर जाना' - क्या ऐसा जीवन आत्मा का लक्ष्य हो सकता है ? यदि मनुष्य का भाग्य यही है, तब तो इससे अच्छा तो यह होता कि हम वृक्ष और पत्थर या कुत्ते -बिल्ली ही बने रहते।
[मानव,पशु ,वृक्ष-शरीर~ What are we here for?]
क्या तुमने कभी गाय को झूठ बोलते सुना है ? अथवा वृक्ष को चोरी करते देखा है ? वे पूर्ण मशीने हैं। वे भूल नहीं करते। वे ऐसे संसार में रहते हैं , जहाँ सब कुछ पूर्ण है। लेकिन हम मनुष्य-शरीर धारण करके यहाँ, इस भारतभूमि पर किस लिए आये हैं ?
What are we here for? हम यहाँ मुक्ति के लिये आये हैं।[देहध्यास के भ्रम से मुक्त
होने, D- Hypnotized हो कर जीवनमुक्ति का आनन्द लेने के लिए आये हैं।] ज्ञान के लिये आये हैं। हम अपने
को मुक्त करने के लिये ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। हमारा जीवन मुक्ति
के लिए एक विश्वव्याप्त चीत्कार है। क्या कारण है कि पौधा बीज से उगता है ,
धरती को चीर कर अंकुरित हो जाता है और अपने को आकाश में उठाता है ? तुम्हारा जीवन भी क्या है ? मुक्ति के लिये संघर्ष है। प्रकृति हमें चारों ओर से दमित करने का प्रयत्न कर रही है , और एक अंतर्निहित शक्ति, आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है।
प्रकृति के साथ संघर्ष चल रहा है। बाह्य-प्रकृति और अन्तःप्रकृति के उस
दबाव को हटाकर , अपनी अंतर्निहित दिव्यता (आत्मशक्ति) को प्रकट कर देना ही
जीवन है। ~ Life
is the unfoldment and development of a being under circumstances
tending to press it down.
मुक्ति के लिए इस संघर्ष में बहुत सी वस्तुयें कुचल जायेंगी और टूट जायेंगी। [मुक्ति के लिए इस संघर्ष में = मानव-पद को प्राप्त करने की चेष्टा में, परम् सत्य को जानने की चेष्टा में , अपने यथार्थ स्वरुप को जानने की चेष्टा में , पहले एक प्रकाश-स्तम्भ जैसे मार्गदर्शक नेता /गुरु /जीवनमुक्त शिक्षक स्वामी विवेकानन्द को आदर्श चुन लेना होगा ,और पुराने फ़िल्मी आदर्श अमिताभ-रेखा -जया के स्वप्न से जाग उठना होगा,
दुर्गा, काली , कृष्ण में श्रद्धा रखते हुए भी अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव का भक्त बन जाने पर, मानव-पद प्राप्त हो जाने पर, कितनी ही- देहध्यास जन्य पुरानी
मान्यतायें ~ यथा मैं हिन्दू , राजपूत हूँ , बिहारी हूँ , पुरुष/स्त्री देह/भेंड़ हूँ का देहाध्यास समाप्त हो जायेगा। ]
और यही तुम्हारे सभी दुःखों का (मृत्यु भय का भी) वास्तविक कारण है। कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि में बहुत
सी धूल और गर्द भी उठेगी। प्रकृति कहती है , "मैं विजयी होऊँगी !" आत्मा कहती
है -"विजयी मुझे होना है." प्रकृति कहती है , " ठहरो ! मैं तुम्हें भेंड़ बनाये रखने के लिए अब कुछ अभूतपूर्व सुखभोग (मिल्क-टॉफी) दूँगी। " आत्मा
(सिंहशावक) को थोड़ा मजा आता है , क्षण भर के लिए वह धोखे में पड़ जाती है;
पर दूसरे ही क्षण वह मुक्ति के लिए फिर से चीत्कार करने लगती है।
क्या
तुमने युगों से प्रत्येक हृदय में उठ रहे इस , इस अविराम चीत्कार की ओर कभी
ध्यान दिया है ? हम कभी गरीबी से धोखा खा जाते हैं। हम धनवान बनते है और
धन से धोखा खाते हैं। [गरीब किन्तु ईमानदार टीचर के घर में जन्म लेते हैं
तब्ब ..... हम प्रयत्न करके धनवान बनते हैं, माँ -ठाकुर-स्वामीजी के 'भक्त' = 'विदेह' नहीं बनते इसलिए धन से धोखा खाते
हैं।] हम अज्ञानी हैं। हम पढ़ते और जानते हैं , और ज्ञान से भी धोखा खाते
हैं। [हम तो बड़े भारी पण्डित हो गए -इस अहं से धोखा खाते हैं।
कोई मनुष्य
कभी संतुष्ट नहीं होता, और ... यह एक विश्वसनीय संकेत भी है !! अनन्त
मानवात्मा स्वयं अनन्त के अतिरिक्त और किसी वस्तु से कभी संतुष्ट नहीं हो
सकती।.... अनन्त इच्छा केवल अनन्त ज्ञान से संतुष्ट हो सकती है , उससे कम
से नहीं। संसार आएंगे और चले जायेंगे। उससे क्या ? आत्मा रहती है और सदा
विस्तार को प्राप्त होती है। संसारों को आत्मा में आना होगा। संसारों को
आत्मा में ,समुद्र की बूँद की भाँति विलीन हो जाना होगा। और ऐसा यह संसार ही
जीवात्मा का लक्ष्य बने ! ३/१७३
[पशु पूर्ण हैं, वृक्ष पूर्ण हैं --ईश्वर भी पूर्ण हैं ; उन्हें और कुछ नहीं बनना है । लेकिन मनुष्य चाहे तो मानुषराक्षस या देवमानव के रूप में अपना शरीर त्याग सकता है।-कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये, ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।]
(What
is the goal of life? Is enjoyment the goal of life? Were it so, it
would be a tremendous mistake to become a man at all. ... What a
mistake then to become a man! Vain have been my years — hundreds of
years — of struggle only to become the man of sense-enjoyments. Can senses ever be the goal? Can enjoyment of pleasure ever be the goal? Can this life ever be the goal of the soul?
it would just mean that we go back to being trees and stones and things
like that. Did you ever hear a cow tell a lie or see a tree steal? They
are perfect machines. They do not make mistakes. They live in a world
where everything is finished. What are we here for?
We are here for freedom, for knowledge. We want to know in order to
make ourselves free. That is our life: one universal cry for freedom. What is the reason the . . . plant grows from the seed, overturning the ground
and raising itself up to the skies? What is your life? The same
struggle for freedom. Nature is trying all around to suppress us, and
the soul wants to express itself. The struggle with nature is going on. Many things will be crushed and broken in this struggle for freedom. That is your real misery.
Large masses of dust and dirt must be raised on the battlefield. Nature
says, "I will conquer." The soul says, "I must be the conqueror." Nature says, "Wait! I will give you a little enjoyment to keep you quiet." The soul enjoys a little, becomes deluded a moment, but the next moment it [cries for freedom again]. Have you marked the eternal cry going on through
the ages in every breast? We are deceived by poverty. We become wealthy
and are deceived with wealth. We are ignorant. We read and learn and
are deceived with knowledge. No man is ever satisfied. That is the cause of misery, but it is also the cause of all blessing. That is the sure sign.
How can you be satisfied with this world? . . . If tomorrow this world
becomes heaven, we will say, "Take this away. Give us something else."
The infinite human soul can never be satisfied but by the Infinite
itself .... Infinite desire can only be satisfied by infinite knowledge — nothing short of that. Worlds will come and go. What of that? The soul lives and for ever expands. Worlds must come into the soul. Worlds must disappear in the soul like drops in the ocean. And this world to become the goal of the soul! (The Practice of Religion.Volume 4) हिन्दी खंड
३ /धर्म की साधना -१/
Goal of Life:
Each Soul is potentially divine. The goal is to manifest this divinity
within by controlling nature, external and internal. Do this either by
work, or worship, or psychic control, or philosophy---by one or more or
all of these--and be free. )
Life is not a simple and
smoothly flowing thing, but it is a compound effect. This complex
struggle between something inside and the external world is what we call
life. Life itself is a state of continuous struggle between ourselves
and everything outside. So it is clear that when this struggle ceases,
ther`e will be an end of life."
युवा महामण्डल (Organization and Anthem ~ संगठन और संघमंत्र ) की आवश्यकता :दुनिया की सहायता करके हम अपनी ही सहायता करते हैं। (By helping the world we help ourselves.) :
[2]
अनासक्ति ही पूर्ण देहध्यास के त्याग (स्वार्थशून्यता) में परिणत हो जाता है !
(NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION.)
(NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION.)
दूसरों के लिये किये गये कार्य का मुख्य फल है - आत्मशुद्धि याने आत्मपहचान !
दूसरों के प्रति निरन्तर शुभ कर्म करते रहने से हमारा हमारा क्षुद्र
अहंकार (देह और मन या नाम-रूप में आसक्ति) क्रमशः दूर होती जाती है। और यह अहमविस्मृति ही एक बहुत बड़ी शिक्षा है ,
जो हमें जीवन में सीखनी है। परोपकार का प्रत्येक कार्य , सहानुभूति का
प्रत्येक विचार , दूसरों की सहायतार्थ किया गया प्रत्येक कर्म , प्रत्येक
निःस्वार्थ शुभ कार्य हमारे क्षुद्र अहंभाव को प्रतिक्षण घटाता रहता है ,
और हम में यह भावना उत्पन्न करता है कि हम तो उपासक (सेवक-worshipper) हैं और यह जगत हमारा उपास्य (worshipped)
है ! और इसलिये यह सब कार्य (महामण्डल आंदोलन से जुड़े रहना) सर्वश्रेष्ठ
समाज-सेवा है। ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों इस बिन्दु पर मिलते हैं। यह सम्पूर्ण आत्मत्याग (अहमविस्मृति) ही सारी नैतिकता की नींव है।
पशु , मनुष्य, देवता (पैगम्बर -नेता -जीवनमुक्त शिक्षक या गुरु
विवेकानानन्द, नवनीदा, या अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) सबके लिए यही एक
मूलभाव है , जो समस्त नैतिक विधानों में व्याप्त है।
राजर्षि (Poet King -राजाकवि) भर्तृहरि-
एक राजा थे और साथ में एक कवि भी । कहा जाता है कि कतिपय अनुभवों के
पश्चात् उनके मन में वैराग्यभाव जाग गया और उन्होंने राजपाठ अपने छोटे भाई
(कदाचित् विक्रमादित्य) को सोंपकर संन्यास ग्रहण कर लिया । उनकी रचनाओं में
से एक, शतकत्रयम्, काफी चर्चित रही है, जिसके तीन खंड हैं:
नीतिशतकम्, शृंगारशतकम् एवं वैराग्यशतकम् । प्रत्येक में सौ से कुछ अधिक
श्लोक सम्मिलित हैं । भर्तृहरि विरचित नीतिशतकम् (75) में मनुष्यों की चार श्रेणियाँ बताई गयी हैं।
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परितज्य ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।।
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।।
You will find various classes of men in this world. First, there are the God-men, whose self-abnegation is complete,
and who do only good to others even at the sacrifice of their own
lives.These are the highest of men. If there are a hundred of such in
any country, that country need never despair. But they are unfortunately
too few.Then there are the good men who do good to others so long as it
does not injure themselves. And there is a third class who, to do good to themselves, injure others. It is said by a Sanskrit poet that there is a fourth un-namable class of
people who injure others merely for injury's sake. Just as there are at
one pole of existence the highest good men, who do good for the sake of
doing good, so, at the other pole, there are others who injure others
just for the sake of the injury. They do not gain anything thereby, but
it is their nature to do evil.
प्रथम तो वे ‘सत्पुरुष’ या देव-मानव (God-men, whose self-abnegation is complete) हैं, जो पूर्ण आत्मत्यागी होते हैं (जिनका व्यष्टि अहं सर्वव्यापी विराट अहं में रूपांतरित हो चुका है) , वे अपने जीवन की भी बाजी लगाकर दूसरों का भला करते हैं। (दूसरों के हित के लिए स्वार्थ का ही त्याग कर जाते हैं।) ये सर्वश्रेष्ठ (Best) पुरुष हैं। यदि किसी देश में ऐसे 100 मनुष्य भी हों , तो फिर उस देश को फिर किसी बात की चिन्ता नहीं। परन्तु खेद है , ऐसे जन वास्तव में बिरले ही होते हैं । अर्थात स्वार्थशून्य लोगों की संख्या बहुत ही कम ही होती है।
दूसरे वर्ग में ‘सामान्य’ जन (good men) आते
हैं, जो इस बात का ध्यान रखते हैं कि अपनी स्वार्थसिद्धि से दूसरों का
अहित तो नहीं हो रहा है । वे दूसरों की भलाई तब तक करते हैं, जब तक उनकी
स्वयं की कोई हानि न हो। अर्थात् वे स्वार्थ तथा परार्थ क बीच तालमेल बिठाकर चलते हैं । अधिसंख्य जन इसी प्रकार के होते हैं ।
और
तीसरे वे आसुरी प्रकृति के लोग हैं, जो अपनी भलाई के लिये दूसरों की हानि
तक करने में नहीं हिचकते। जो इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि क्या
उनकी स्वार्थपूर्ति अन्य लोगों के हित की कीमत पर तो नहीं हो रही है । यानी
दूसरे का नुकसान हो भी रहा हो तो कोई बात नहीं अपना तो फायदा है । ऐसे
लोगों की संख्या कम ही रहती है पर वे समाज में होते अवश्य हैं । और आज के
भोगयुग में इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है । राजाकवि इनको ‘मानुषराक्षस’ (Manush Monster) की संज्ञा देते हैं।
राजाकवि
भर्तृहरि कहते हैं वे तीन प्रकार के लोगों का वर्ग-नामकरण तो सरलता से कर
लेते हैं। किन्तु एक चौथी श्रेणी के मनुष्य भी होते हैं जिसको हम कोई नाम
नहीं दे सकते। ये लोग ऐसे होते हैं कि अकारण ही दूसरों का अनिष्ट केवल
अनिष्ट करने के लिये ही करते रहते हैं। जिस प्रकार निःस्वार्थपरता के
सर्वोच्च स्तर को प्राप्त हो चुके देव-मानव या नेता भला करने के लिये ही
भला करते हैं, उसी प्रकार सबसे निम्नस्तर पर ऐसे लोग (पशुमानव-Beasts ) भी हैं, जो केवल बुरा करने के लिये ही दूसरों का बुरा करते रहते हैं। कहा जाता है कि रोम के ‘नीरो’ नाम का एक बादशाह किसी-किसी आदमी को भूखे शेर से लड़ने अखाड़े में छोड़ देता था और उस लड़ाई का आनंद उठाता था । ऐसा करने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता - लेकिन वे आदत (Bad tendencies, बुरी प्रवृत्ति- bad propensities, ) से लाचार होते हैं। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- ' Upon ages of struggle a Character is built'. -अर्थात ' युगों-युगों तक संघर्ष करने के बाद ही एक चरित्र का निर्माण होता है '। अतः सत्चरित्र का निर्माण करनेके लिए अपने मन के साथ हमारा संघर्ष निरंतर, आजीवन चलते रहना चाहिए , क्षण भर कि लापरवाही भी चरित्र-निर्माण कि प्रक्रिया को ध्वस्त कर सकती है। '
[जीवन सूना भक्ति बिना , भक्ति सूनी ज्ञान बिना ]
' विवेकानन्द - दर्शनम् ' : [अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित।
In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The
ideas, of course, are all his. इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये
शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं। ]
नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||
' विवेकानन्द वचनामृत '-14
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नूनमुभे तु कर्मणि ।
प्रवृत्तिः स्वार्थ बुद्ध्याश्च निवृत्तिस्तद्विसर्जने ।।
' Both Pravritti and Nivritti are of the nature of work. The one is Pravritti,....the natural tendency of every human being; taking everything from everywhere and heaping it around one centre, that centre being man's own sweet self..... Nivritti is the fundamental basis of all morality and all religion, and the very perfection of it is entire self-abnegation, readiness to sacrifice mind and body and everything for another being. ' (NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION)
संस्कृत में दो शब्द हैं - प्रवृत्ति और निवृत्ति, और दोनों कर्म स्वरुप हैं । प्रवृत्ति का अर्थ है 'revolving towards' -किसी वस्तु की तरफ गमन; और निवृत्ति का अर्थ है - ' revolving away ' किसी वस्तु से निवर्तन या प्रत्यागमन। ' किसी वस्तु की ओर प्रवर्तन "revolving towards" का अर्थ है हमारा यह संसार यह 'मैं ' और 'मेरा' ~ "I
and mine”; इस 'मैं ' के नाम-यश , धन-सम्पत्ति, वंशविस्तार [तीन ऐषणाएँ]
को बढ़ाते रहने का यत्न करना। जो कुछ मिले, उसीको पकड़ रखना- 'grasping nature'।
सदैव सभी वस्तुओं को इस 'मैं '-रूपी केन्द्र में ही संगृहीत करना -इसीका
नाम है प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति ही मनुष्य मात्र का स्वाभाविक भाव है -
चारो तरफ से जो कुछ मिले उसे उठा लेना और इस "myself" - मिथ्या अहं (man's own sweet self) रूप केंद्र में संगृहीत करते जाना।
जब यह अहंवृत्ति ( "I and mine” ~ tendency) घटने लगती है, जब इस क्षुद्र अहं से निवृत्ति या "going away from काचा आमी " का उदय होता है , तभी नैतिकता और धर्म का आरम्भ होता है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही कर्मस्वरूप हैं। एक
असत कर्म है और दूसरा सत कर्म है। निवृत्ति ही सारी नैतिकता एवं सारे
धर्म की नींव है ,और इसकी पूर्णता ही सम्पूर्ण आत्मत्याग है। जिसके प्राप्त
हो जाने पर मनुष्य दूसरों के लिए अपना तन-मन-धन यहाँ तक कि अपना सर्वस्व
न्योछावर कर देता है। ( This Nivritti is entire self-abnegation, readiness to sacrifice mind and body and everything for another being.) और जब कोई व्यक्ति उस अवस्था को प्राप्त हो जाता है ,तभी उस व्यक्ति को कर्मयोग में सिद्धि प्राप्त होती है। यह अच्छे कार्यों का सर्वोच्च फल है।
एक उपासक (worshipper) अपने हृदय में निरंतर ईश्वरी भाव एवं साधुभाव