इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
ईश्वर को प्राप्त करने से व्यक्ति क्या बन जाता है? क्या उसे दो सींग मिल जाते हैं? नहीं। होता यह है कि व्यक्ति में वास्तविक और अवास्तविक के बीच विवेक विकसित हो जाता है, आध्यात्मिक चेतना आ जाती है और वह जीवन और मृत्यु से परे चला जाता है।
हमेशा विवेकशील बनो। जब भी मन भगवान के अलावा किसी और चीज की ओर जाए, तो उसे क्षणभंगुर समझो और मन को भगवान के पवित्र चरणों में समर्पित कर दो। उस आदमी की तरह बनो जो मछली पकड़ते समय उसमें इतना मग्न हो गया कि उसे बारात के शोर-गुल की जरा भी आवाज सुनाई नहीं दी।
पति, पत्नी या शरीर सब कुछ माया है। ये सब माया के बंधन हैं। जब तक तुम इन बंधनों से मुक्त नहीं हो जाते, तुम संसार के दूसरे किनारे पर नहीं जा पाओगे। शरीर से यह आसक्ति, शरीर के साथ स्वयं की पहचान भी समाप्त होनी चाहिए। यह शरीर क्या है, मेरे प्यारे? यह दाह संस्कार के बाद तीन पाउंड राख के अलावा कुछ नहीं है। इसके बारे में इतना घमंड क्यों? यह शरीर चाहे कितना भी मजबूत या सुंदर क्यों न हो, इसकी परिणति उन तीन पाउंड राख में ही होती है। और फिर भी लोग इससे इतने आसक्त हैं!
जो ईश्वर के लिए सब कुछ त्यागने में समर्थ है, वही जीवित ईश्वर है। यदि कोई ईश्वर की शरण में आ जाए, तो भाग्य के आदेश भी निरस्त हो जाते हैं। भाग्य ऐसे व्यक्ति के लिए जो कुछ लिखता है, उसे अपने हाथों से नष्ट कर देता है।
जो लोग संसार सागर से पार जाने के लिए उत्सुक हैं, वे किसी न किसी तरह अपने बंधन तोड़ ही लेंगे। ऐसे लोगों को कोई नहीं उलझा सकता।
अपने मन का बोझ श्री रामकृष्ण के सामने रख दो। अपने आँसुओं के साथ उन्हें अपना दुख बताओ। तुम पाओगे कि वे तुम्हारी इच्छित वस्तु से तुम्हारी बाँहों को भर देंगे।
श्री रामकृष्ण का जिक्र करते हुए पवित्र माता ने एक बार कहा था, "वास्तव में वे स्वयं भगवान थे। उन्होंने दूसरों के दुख और तकलीफों को दूर करने के लिए यह मानव शरीर धारण किया था। वे ऐसे घूमते थे, जैसे कोई राजा भेष बदलकर अपने शहर में घूमता है। जिस क्षण वे प्रसिद्ध हुए, उसी क्षण वे गायब हो गए।"तुम इतने बेचैन क्यों हो, मेरे बच्चे? जो मिला है, उसी पर क्यों नहीं टिकते? हमेशा याद रखो, "अगर कुछ नहीं है तो कम से कम मेरे पास एक माँ तो है।"
मेरे बच्चे, समय आने पर सब कुछ आ जाएगा। उसके प्रति समर्पित रहो और उसके चरणों में शरण लो। यह याद रखना ही काफी है कि कोई है - उसे पिता या माता कहो - जो हमेशा तुम्हारी रक्षा कर रहा है।
मेरे बच्चे, यह संसार एक गहरे दलदल की तरह है। एक बार जब कोई व्यक्ति इसमें उलझ जाता है, तो उसका बाहर निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है। भगवान का नाम जपें। यदि आप ऐसा करेंगे, तो वे एक दिन आपके बंधन को काट देंगे। क्या कोई मुक्ति पा सकता है, मेरे बच्चे, जब तक कि वह स्वयं बंधनों को न हटा दे? भगवान पर गहरी आस्था रखें। श्री रामकृष्ण को अपना आश्रय मानें, जैसे बच्चे अपने माता-पिता को मानते हैं।
दूसरों के प्रति अपना कर्तव्य हमेशा निभाओ, लेकिन प्रेम केवल भगवान को ही दो। सांसारिक प्रेम हमेशा अपने साथ अनगिनत दुख लाता है।
अगर आप किसी इंसान से प्यार करते हैं तो आपको उसके लिए दुख भोगना ही पड़ेगा। वह व्यक्ति सचमुच धन्य है जो केवल ईश्वर से प्रेम कर सकता है। ईश्वर से प्रेम करने में कोई दुख नहीं है।
अपने हृदय के अंतरतम में हमेशा भगवान का नाम जपें और पूरी ईमानदारी से श्री रामकृष्ण की शरण लें। यह जानने की चिंता न करें कि आपका मन आस-पास की चीज़ों पर कैसी प्रतिक्रिया कर रहा है। और यह गणना करने और चिंता करने में समय बर्बाद न करें कि आप आध्यात्मिकता के मार्ग पर प्रगति कर रहे हैं या नहीं। अपने लिए प्रगति का आकलन करना अहंकार है। अपने गुरु और भगवान की कृपा पर भरोसा रखें।
आप देखिए, पानी का स्वभाव नीचे की ओर बहना है, लेकिन सूर्य की किरणें उसे आकाश की ओर ऊपर उठा देती हैं; इसी प्रकार मन का स्वभाव निम्नतर वस्तुओं की ओर, भोग की वस्तुओं की ओर जाना है, लेकिन ईश्वर की कृपा मन को उच्चतर वस्तुओं की ओर ले जा सकती है।
कुछ न कुछ काम तो करना ही चाहिए। काम से ही कर्म के बंधन से छुटकारा मिलता है, काम से बचकर नहीं। पूर्ण वैराग्य तो बाद में आता है। एक क्षण भी बिना काम के नहीं रहना चाहिए।
गृहस्थों को बाह्य त्याग की आवश्यकता नहीं होती। उन्हें आंतरिक त्याग स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। लेकिन कुछ लोगों को बाह्य त्याग की आवश्यकता होती है।
तुम्हें क्यों डरना चाहिए? अपने आप को श्री रामकृष्ण के सामने समर्पित कर दो और हमेशा याद रखो कि वह तुम्हारे पीछे खड़े हैं।
यह सच है कि भगवान ही सब कुछ कर रहे हैं, लेकिन बहुत कम लोग ऐसा महसूस करते हैं। अहंकार में पागल होकर लोग सोचते हैं कि वे ही सब कुछ कर रहे हैं और भगवान पर निर्भर नहीं हैं। भगवान उस व्यक्ति की सभी खतरों से रक्षा करते हैं जो उन पर निर्भर करता है।
मन ही सब कुछ है। मन ही है, जो शुद्ध और अशुद्ध का अनुभव कराता है। सबसे पहले व्यक्ति को अपने मन को दोषी बनाना चाहिए, तभी वह दूसरे के अपराध देख सकता है। दूसरों के दोष गिनाने से क्या कभी कुछ होता है? इससे केवल आपको ही नुकसान होता है। यह मेरा दृष्टिकोण रहा है। इसलिए मैं किसी के दोष नहीं देख पाता। अगर कोई मेरे लिए कोई छोटा-मोटा काम भी करता है, तो मैं उसके लिए भी उसे याद रखने की कोशिश करता हूँ। दूसरों के दोष देखना! ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। क्षमा करना ही तपस्या है ।
शब्दों से भी दूसरों को दुख नहीं पहुँचाना चाहिए। अनावश्यक रूप से अप्रिय सत्य भी नहीं बोलना चाहिए। कटु वचन बोलने से व्यक्ति का स्वभाव कटु हो जाता है। वाणी पर नियंत्रण न होने से व्यक्ति की संवेदनशीलता नष्ट हो जाती है। श्री रामकृष्ण कहा करते थे, "लंगड़े से यह नहीं पूछना चाहिए कि वह लंगड़ा कैसे हो गया।"
एक बात बता दूँ। अगर तुम मन की शांति चाहते हो तो दूसरों में दोष मत देखो। बल्कि अपने दोष देखो। पूरी दुनिया को अपना बनाना सीखो। कोई भी पराया नहीं है, मेरे बच्चे; पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है।
धरती की तरह धैर्यवान होना चाहिए। उस पर कितने अन्याय हो रहे हैं! फिर भी वह चुपचाप सब सहती रहती है। लोगों को भी ऐसा ही होना चाहिए।
(युवा विधवा को दी गई सलाह): किसी से जान-पहचान मत रखो। परिवार के सामाजिक कार्यों में ज़्यादा हिस्सा मत लो। कहो, "हे मन, हमेशा अपने तक ही सीमित रहो। दूसरों के बारे में जिज्ञासा मत रखो।" धीरे-धीरे ध्यान और प्रार्थना का समय बढ़ाओ और श्री रामकृष्ण की शिक्षाएँ पढ़ो।
(साधु की माँ से) "साधु की माँ होना एक दुर्लभ सौभाग्य है। लोग पीतल के बर्तन तक की आसक्ति नहीं छोड़ सकते। संसार का त्याग करना क्या आसान बात है?
तप, पूजा-पाठ, तीर्थयात्रा, धन कमाना - ये सब जवानी के दिनों में करना चाहिए... बुढ़ापे में शरीर क्षीण हो जाता है। मन अपनी शक्ति खो देता है। क्या उस समय कुछ भी करना संभव है? यह बिलकुल सही है कि हमारे मठ के युवा भिक्षु बचपन से ही अपना मन भगवान की ओर लगाते रहे हैं। उनके लिए ऐसा करने का यही सही समय है। मेरे बच्चे, तप या पूजा-पाठ, ये सब अभी से करो। क्या ये चीजें बाद में संभव होंगी? जो कुछ भी पाना है, अभी पाओ: यही सही समय है।
बिना हिम्मत हारे प्रार्थना करते रहो। समय आने पर सब कुछ हो जाएगा। भगवान को पाने के लिए पुराने ऋषियों ने कितने चक्रों तक तपस्या की, और क्या तुम्हें लगता है कि तुम उन्हें एक झटके में पा लोगे? क्या भगवान को पाना इतना आसान है? लेकिन इस बार श्री रामकृष्ण ने एक आसान रास्ता दिखाया है।
मन को बहुत ज़्यादा जिज्ञासाओं से उलझाए मत रखिए। एक बात को व्यवहार में लाना मुश्किल लगता है, लेकिन मन को बहुत सारी चीज़ों से भरकर हम भटकाव को आमंत्रित करते हैं।
यदि मन को किसी विशेष स्थान पर शांति महसूस हो तो तीर्थ यात्रा की कोई आवश्यकता नहीं है।
श्री रामकृष्ण भगवान के अलावा किसी और के बारे में बात नहीं करते थे। वे मुझसे कहा करते थे, "क्या तुमने इस मानव शरीर पर ध्यान दिया है? आज है और कल नहीं। और इस दुनिया में आने पर यह दुख और पीड़ा से अछूता नहीं रहता। किसी को फिर से जन्म लेने की चिंता क्यों करनी चाहिए? केवल भगवान ही शाश्वत सत्य हैं। अगर कोई उन्हें पुकार सकता है, तो यह अच्छा है। शरीर धारण करने पर व्यक्ति को उसके साथ आने वाली परेशानियों का सामना करना पड़ता है!"
प्रारब्ध कर्म [पिछले जन्मों के कर्म जो इस जन्म में फल देने लगे हैं] का फल अवश्य भोगना पड़ता है। कोई भी इससे बच नहीं सकता। लेकिन भगवान के पवित्र नाम का जप या दोहराव इसकी तीव्रता को कम कर देता है। यह उस व्यक्ति की तरह है जिसका पैर कटना तय है, लेकिन इसके बजाय उसे केवल पैर में कांटा चुभने से तकलीफ होती है।
पवित्र संगति में रहो। शुद्ध रहने की कोशिश करो। और धीरे-धीरे सब कुछ हासिल हो जाएगा। श्री रामकृष्ण से प्रार्थना करो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम क्यों डरते हो? समय आने पर वे तुम्हारे लिए सब कुछ कर देंगे।
"स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " (স্বামী বিবেকানন্দ ও আমাদের সম্ভাবনা ) जुलाई, 2012 में बंगाली भाषा में प्रकाशित ग्रंथ के चतुर्थ संस्करण के 10 अध्यायों में विभक्त समस्त बंगला लेखों की हिन्दी विषयसूची - ब्लॉग प्रकाशन तिथि के साथ। ]
अनुक्रमणिका
अध्याय-1, "स्वामी विवेकानन्द : व्यक्ति और मन " (স্বামী বিবেকানন্দ- ব্যক্তি ও মন )
1. अतीत या भावी युग के नायक ? (অতীত না অনাগত যুগের ?)
ब्लॉग प्रकाशन तिथि - 18 जुलाई, 2012 .
2. अनुसरण ही सच्चा स्मरण -(অনুসরণই যথার্থ স্মরণ)
ब्लॉग प्रकाशन तिथि - 19 जुलाई, 2012 .
3. स्वामीजी का भाव -(স্বামীজীর ভাব )
ब्लॉग प्रकाशन तिथि - 20 जुलाई, 2012 .
4. स्वामीजी के प्रति श्रद्धांजलि - (স্বামীজীর প্রতি শ্রদ্ধাঞ্জলি)
24 जुलाई, 2012
5. स्वामी विवेकानन्द का नव विप्लव - (নববিপল্ব ও স্বামী বিবেকানন্দ)
5 फरवरी, 2020
6. क्या वर माँगना चाहिये -(আমরা কি চাইব )
27 जुलाई, 2012
7. स्वामी विवेकानन्द का आदर्श - अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन - (স্বামীজীর আদর্শ - শক্তির উদ্বোধন )
27 अक्टूबर, 2016
8. स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा एक सम्पूर्ण परिचय -(স্বামী বিবেকানন্দের চিন্তাধারা)
31 जुलाई, 2012
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अध्याय-2 : समस्या और समाधान (সমস্যা ও সমাধান)
1. आशा और निराशा - (আশা ও নিরাশা )
1 अगस्त, 2012
2. विचारणीय बातें -(ভাবনার কথা)
3 अगस्त , 2012
3 . हम क्या कुछ कर सकते हैं ? (আমরা কি কিছু করতে পারি ?)
5 अगस्त, 2012
4. जीवन पंछी का पिंजड़ा - (জীবন পাখির পিঞ্জর )
5 अगस्त, 2012
5. समस्या का समाधान -(সমস্যার সমাধান)
8 अगस्त, 2012
6. "श्रेष्ठतर मनुष्यों का श्रेष्ठतर समाज " (সুন্দরতর মানুষের সুন্দরতর সমাজ)
10 अगस्त, 2012
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अध्याय-3, "स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज " [স্বামী বিবেকানন্দ ও যুব সমাজ ]
1. स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज - (স্বামী বিবেকানন্দ ও যুব সমাজ)
13 अगस्त, 2012
2. युवा जीवन का आदर्श - (যুব জীবনের আদর্শ)
15 जनवरी, 2013
3. स्वामी विवेकानन्द और आज के हमलोग - (স্বামী বিবেকানন্দ ও আজকের আমরা)
8 सितम्बर, 2012
4.स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त अनुकरणीय आदर्श" - (স্বামীজীর দেওয়া আদর্শ )
15 अगस्त, 2020
5. युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द - (যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ)
12 सितम्बर , 2012
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अध्याय -4, शिक्षा : समस्त व्याधियों की रामबाण औषधि !-(শিক্ষা : সকল ব্যাধির মহৌষধ)
1. शिक्षा के सम्बन्ध में स्वामी जी के विचार - (স্বামীজীর শিক্ষা চিন্তা)
13 जनवरी, 2013
2. पुनः शिक्षा पर चर्चा - (আবার শিক্ষার কথা)
13 सितम्बर, 2012
3. चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका (চরিত্র গঠনে শিক্ষার ভূমিকা )
8 फरवरी, 2024 (VJ -Blog date - 8.2.2024)
4. शिक्षा ही समाधान (শিক্ষাই সমাধান)
महामण्डल ब्लॉग - 7 अक्टूबर 2016
5. कैसी शिक्षा चाहिए ? (শিক্ষা চাই)
16 सितम्बर, 2012
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अध्याय -5, धर्म और समाज (ধর্ম ও সমাজ)
1. स्वामीजी का धर्म (স্বামীজীর ধর্ম)
19 जनवरी 2013/ [Blog Date : 21 जुलाई 2012]
2. 'समाज, धर्म और विज्ञान' (সমাজ , ধর্ম ও বিজ্ঞান)
9 अक्टूबर 2012
3. ' समाज में धर्म का स्थान ' (সমাজে ধর্মের স্থান)
10 अक्टूबर 2012
4. 'प्रेम ही धर्म है' - (ভালবাসাই ধর্ম)
12 अक्टूबर 2012
5. 'धर्म सनातन है' (ধর্ম সনাতন)
22 जनवरी 2013
6. 'हमारे जीवन में धर्मलाभ !' (আমাদের জীবনে ধর্মলাভ)
13 अक्टूबर 2012
7. 'युवा मानसिकता के अनुसार धर्म और नैतिकता' (যুব -মানসে ধর্ম ও নীতিবোধ)
15 अक्टूबर 2012
8. " धर्म का परिणाम : मतभेद या समन्वय " (ধর্মের পরিণতি : বিরোধ না সংহতি )
17 अक्टूबर 2012
9. " जीवात्मा और धर्म " (জীবাত্মা ও ধর্ম )
22 अक्टूबर, 2012
10. समन्वय और शान्ति के लिये धर्म ( সমন্বয় ও শান্তির জন্যে ধর্ম)
(VJ) 11 जुलाई, 2022
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अध्याय-6, "जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री " (জীবন গঠনের উপকরণ )
1. "वैश्विक प्राणशक्ति की स्पर्श प्राप्ति" (মহাপ্রাণের স্পর্শলাভ)"
7 नवंबर, 2012
2. 'चरित्र निर्माण की प्रक्रिया '(চরিত্র গঠনের উপায়)
14 नवंबर, 2012
3.'वस्तु ही प्राप्त करने योग्य है !' (বস্তুই লভ্য)
19 नवंबर, 2012
4. 'नानत्व देखना ही पाप है ! ' (বহুত্ব দর্শনই পাপ) ('To see diversity itself is a sin!')
[Jnanadayini Sri Sarada Devi, by Swami Shuddhidananda (in Hindi) स्वामी शुद्धिदानंद द्वारा (हिन्दी में) ]
ज्ञानदायिनी माँ श्री सारदा देवी
(अद्भुत शक्ति- परमेश शक्ति !)
(5.06) मनुष्य- जीवन एकमात्र प्रधान उद्देश्य है- ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना ! ईश्वर -प्राप्ति , भगवत-प्राप्ति, ईश्वर लाभ आदि शब्द हमारे शास्त्रों में हैं। इन सारे शब्दों का मूल तात्पर्य एक ही है , वो है अपने स्वरुप का ज्ञान। आत्मा का ज्ञान ! मूलतः हम कौन हैं ? यही प्रश्न है। उपनिषद इस प्रश्न को हर मनुष्य के सामने रखती है। मैं स्वरूपतः कौन हूँ ? यह जिज्ञासा हमारे अंदर होनी चाहिए। इस जिज्ञासा की अंतिम परिणति है - वो होगा आत्मज्ञान ! अपने आप को जानना , अपने सत्य स्वरुप को पहचानना। हमारा सत्यस्वरूप क्या है ? उस सत्यस्वरूप का कोई अपना नाम नहीं है, न कोई रूप है , लेकिन उसे इंगित करने के लिए उपनिषद उसे ब्रह्म (सच्चिदानन्द-सत, चित -आनन्द) कहते हैं। वह एक ऐसी सत्ता है जो इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का अधिष्ठान रूप या आधार रूप (सिनेमा का पर्दा जैसा ?) है। हमारी आँखों से यहाँ जो दृश्य दिखाई दे रहा है, वो सतत परिवर्तनशील (नश्वर) प्रकार का है। अब उसमें क्या सत्य है -क्या शाश्वत या अविनाशी है , यही खोज है। इस समय मुझे ये शरीर-मन सत्य सा प्रतीत हो रहा है , लेकिन वह सत्य अपने वास्तविक रूप में क्या है ? जब हम इस विचार करते हैं तो चित्र धीरे धीरे बदलने लगता है।[सन्यासियों का मरने के पहले या गृहस्थ का मरने के बाद में जो श्राद्ध होता है वो , अहं (कच्चा मैं) का होता है, 'पक्का मैं' का नहीं होता। ईश्वर का दर्शन करने के बाद जो मैं ईश्वर रख देते हैं - उसे पक्का मैं कहते हैं।] और उपनिषद के शब्द (4 महावाक्य) हमको समझ में आने लगते हैं। वो अधिष्ठान रूपी सत्ता (ब्रह्म) क्या है ? सत्, चित् -आनंद ! एक मेवा द्वितीय ब्रह्म ! जो कि शाश्वत वस्तु है, अविनाशी है, जो मृत्यु-ग्रस्त नहीं है-जो आनंद स्वरुप है (8.26 m) ! ये हमारा स्वभाव है , यही हमारा सत्यस्वरूप है। उपनिषद कहती है -वो एक ही है , उससे भिन्न कुछ भी विद्यमान नहीं है। उपनिषद धीरे धीरे हमारे समक्ष एक बड़ा प्रश्न रख रहा है, वो कहती है उस ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी विद्यमान नहीं है। तो फिर, इतनी विविधताओं से भरी ये जो विश्वप्रपंच हमलोग अनुभव कर रहे हैं , वो कहाँ से आया ? (9.02) इसकी उत्पत्ति कैसे हुई ? अगर ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है , तो फिर ये विश्व-प्रपंच क्या है ? ये जो 'जीव मैं' है - BKS, या आप लोगों का जो भी नाम होगा , M/F हैं , अनेक प्रकार के प्राणी हैं , पेड़-पौधे हैं, आकाश में घूमने वाले इतने सारे गोल-गोल गोले हैं , सूर्य-चन्द्रमा हैं -ये सब क्या हैं ? इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई ? यही आज का मुख्य विषय कैसे है ? आप लोग सोचते होंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ कि यही आज का मुख्य विषय है ? हम जिस आध्यात्मिक विभूति - माँ श्री सारदा देवी की बात करने जा रहे हैं, वह इसके साथ घनिष्ट रूप से सम्बन्धित है। ये जो एकमेवा द्वितीय ब्रह्म - जिसकी हम चर्चा कर रहे थे , यहाँ उपनिषद के ऋषिगण डंके की चोट पर कहते हैं कि उससे अतिरिक्त कुछ भी नहीं विद्यमान नहीं है। विद्यमान सा प्रतीत हो रहा है किन्तु वास्तविक रूप में एक भी विद्यमान नहीं है। और उसका ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य जीवन का प्रधान उद्देश्य है। ये जो एकमेवा द्वितीय ब्रह्म है , वो हमको फिर कैसे इस विविधता-युक्त जगत के रूप में हमको दिखाई देने लगता है ? ये प्रश्न है। तो इसके ऊपर ऋषियों की अनुभूति है, कि वह एक अद्भुत शक्ति है, यह शक्ति ही है जोकि एकमेवा द्वितीय ब्रह्म का, जिससे भिन्न कुछ न होते हुए भी, द्वितीय सा एक चित्र (सिनेमा) हमारे सामने प्रस्तुत करती है ! यह शक्ति का खेल है (लीला -राज्य है ?) जहाँ पर द्वितीय (पीदा) न होते हुए भी हमको ये जगत रूपी द्वितीय वस्तु (रनेनदीप) की प्रतीति हमें करा करके देती है। अच्छा ये शक्ति क्या है ? अद्भुत शक्ति जो ब्रह्म में जगत प्रपंच प्रस्तुत करती है, वह शक्ति क्या है ?ये किसकी शक्ति है ? ये ब्रह्म की अपनी ही शक्ति है। आचार्य शंकर अपनी अद्भुत रचनाओं में कहते हैं - ये परमेश शक्ति है, ये परमात्मा की अपनी शक्ति है।
अनादी अविद्या परमेश्वर कि त्रिगुणात्मक अव्यक्त शक्ति है। (सर्व निर्माण) कार्य कि वह कारण होनेसे श्रेष्ठ है। बुद्धिमान पुरुष कार्य देखकर उसका अनुमान करते है, ऐसी है यह माया ! जिसके कारण चर-अचर जगत् निर्माण होता है।
ये जो सारा विश्व-प्रपंच है इसकी प्रसूति - इसका जन्म , जैसे कोई माता अपने गर्भ से बच्चे का प्रसव कराती है। उसी प्रकार इस विश्व -प्रपंच की प्रसूति इसका उद्गम स्थान क्या है ? वह है परमेश शक्ति -परमात्मा की शक्ति जिसके गर्भ से यह सारा विश्व प्रपंच - आप , मैं, हमसब, यहाँ पर चर-अचर जितने प्राणी हैं , पर्द-पौधे , विश्व -ब्रह्माण्ड की प्रसूति -इस शक्ति के माध्यम से होता है। परमात्मा की अपनी शक्ति -परमेश शक्ति।
परमेश शक्ति का विशेष अवतरण हैं - जगतजननी माँ श्री सारदा देवी , जो ज्ञान दायिनी हैं। सरस्वती हैं वे कौन सा ज्ञान देती हैं ? एकेडमिक नॉलेज भी अपरा विद्या है -चारों वेद, वेदांग, शिक्षा ,निरुक्त ,व्याकरण सब को मुण्डक उपनिषद में अविद्या या अपरा विद्या कहा है।
अपरा विद्या है -जो कुछ ज्ञान हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं -वो सब अपरा विद्या है - जिसको शंकर अविद्या ही कहते हैं ! ये सब निम्नस्तर का ज्ञान है। शाब्दिक ज्ञान -जो शब्दों से उत्पन्न होता है। मन के चहारदीवारी के अन्तर्गत जो ज्ञान होगा, वह सब अपरा विद्या के अन्तर्गत है। इससे भिन्न उच्च स्तर का ज्ञान वो होता है जो मन से परे है -अतीन्द्रिय या जो एक विशिष्ट स्थिति-अवस्था में पहुँचने पर इन्द्रियातीत वस्तु,आत्मा का ज्ञान होता है। आत्मा के साक्षात्कार को ही परा विद्या या उच्च स्तर का ज्ञान कहा जाता है।
आप सोच रहे होंगे कि मैं माँ सारदा देवी के परमेश शक्ति का विशिष्ट अवतरण का उल्लेख करता हुए , इन्द्रियातीत ज्ञान की बात क्यों कर रहा हूँ ? बहुत महत्वपूर्ण बात है , श्रीरामकृष्ण कहते हैं माँ सारदा ज्ञान दायिनी हैं ! ज्ञान देनेवाली हैं - माँ सारदा देवीकिस प्रकार का ज्ञान देती हैं ? ये हमें परा विद्या या इन्द्रियातीत सत्य का ज्ञान देने वाली हैं। ये जो उच्च स्तर का ज्ञान -आत्मज्ञान या आत्मसाक्षात्कार कराने की विद्या देने वाली हैं।
इस आत्मज्ञान का मनुष्य-जीवन में महत्व क्या है ? इसको भी समझ लेना चाहिए। हम अपनी इन्द्रियों से जिस विश्व-प्रपंच को देख रहे हैं वो असत्य या मिथ्या है इसलिए हमलोगों को अपनी पढ़ाई-लिखे , बिजनेस-व्यापार सब छोड़ देना चाहिए। (30.05) इस गलत फहमी में नहीं रहना है। पढ़ना -लिखना तो है ही किन्तु मनुष्य सिर्फ इतने मात्र का ही ज्ञान प्राप्त करके जीवन की पूर्णता या अपने अंतर्निहित देवत्व (100% निःस्वार्थपरता) की अभिव्यक्ति नहीं कर सकता। आप चाहे जितने प्रकार का ज्ञान प्राप्त कर लीजिये लेकिन मनुष्य अपूर्ण का अपूर्ण ही रहता है। मनुष्य मात्र के जीवन में दुःख-कष्ट चलता ही रहता है, उसके जीवन में जो कठिनाइयाँ हैं -जो हमारे मनुष्य जीवन का एक अभिन्न अंग है। सभी के जीवन नदियों के प्रवाह के समान ये दुःख-कष्ट निरंतर बह रहा है। ऐसा कौन सा जीवन है जो दुःख-कष्ट से मुक्त हो ? आपके पास जितना भी धन-सम्पत्ति हो , जितना जमीन-जायदाद बढ़ाना चाहते हों , सब प्राप्त कर लीजिये। लेकिन आत्मा के ज्ञान के बिना व्यक्ति उतना ही अपूर्ण है - जितना कोई निरक्षर -मूर्ख (पशु-मनुष्य-देवत्व में उन्नत नहीं) व्यक्ति है। उसके अंदर पूर्णत्व (देवत्व-(100% निःस्वार्थपरता का भाव) तब आएगा जब वो अपने -आप को जानेगा। अपने सत्यस्वरुप को पहचान लेगा। वह आत्मज्ञान ही मनुष्य को दुःख-कष्ट से मुक्त कराती हैं। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य क्या है ? (चार पुरुषार्थ वाली मुक्ति या मोक्ष, या भेंड़त्व के सम्मोहन से मुक्ति !)
मोक्ष किससे ? ये जो अनात्मा का बंधन है , सांसारिक बंधन है - तीनों ऐषणाओं में मन अटका पड़ा है। हम अपने आप को जो एक छोटे से शरीर (M/F) से बंधे हुए पाते हैं। और 3K (कामिनी-कांचन -कीर्ति )-या मोह निद्रा से जाग नहीं पाते हैं। प्रश्न है कि क्या हम सिर्फ अपने छोटे शरीर तक ही सीमित हैं क्या ? इस बारे में कभी सोचा है आपने ? आत्मनिरीक्षण या आत्मचिंतन कभी करते हैं क्या ? जिस दिन आप इस विषय पर सोचना शुरू कर देंगे , आपका मुक्ति -मार्ग जो प्रस्थान करना है , उसी दिन से वह शुरू हो गया। प्रश्न ये है कि यह जो देह-मन-इन्द्रियों का एक जो छोटा सा संघात - (M/F) शरीर है , हमारी वास्तविक पहचान क्या इस स्त्री- या पुरुष शरीर तक ही केंद्रित है ? हमारी गिद्ध-दृष्टि केवल स्त्री-पुरुष शरीर की विशेषताओं को ही क्यों देखना चाहती है ? क्या मनुष्य सिर्फ छोटे शरीर तक ही सीमित है ? इस संकीर्ण-क्षुद्र दृष्टि से मुक्ति पाकर इसे ज्ञानमयी दृष्टि बनाकर -जगत को राममय देखना नहीं शुरू नहीं करते , रामायण पढ़ते हैं , किन्तु रामचरित को अपनाते नहीं हैं तब तक मनुष्य दुःख कष्ट से मुक्त नहीं हो सकता।
इसीलिए - (32.24) आपलोग आरती में गाते हैंउसके प्रथम तीन शब्द पर कभी ध्यान दिया है? अगर इसी तीन शब्द--'खण्डन भव बन्धन' को समझ लिया जाय तो, आपको पूरी आरती गाने की जरूरत नहीं होगी। प्रथम तीन शब्द में सारी कहानी छिपी हुई है। इस भव-बन्धन का खण्डन करना ही मनुष्य-जीवन का मुख्य उद्देश्य है ! लेकिन इस बन्धन का खण्डन होगा कैसे ? सोच के देखिये क्या कह रहे हैं ? पहले तो यह समझना होगा कि यह भव-बंधन क्या है ? हम किस बंधन में बँधे हुए हैं ? इस बन्धन को काटकर जाल से निकल जाना ही मनुष्य जीवन का प्राथमिक या प्रथम कर्तव्य है। लेकिन इस बन्धन का खण्डन होगा कैसे ?इस भव-बंधन का खण्डन तब होगा जब आत्मा का ज्ञान हमें प्राप्त होगा ! (हमें ? अर्थात मिथ्या अहं को या आत्मा -पक्का मैं ?को प्राप्त होगा?) मनुष्य को आत्मा का ज्ञान प्रदान करने वाली वो शक्ति कौन हैं ? वही जो परमेश-शक्ति हैं , परमात्मा की शक्ति हैं - वही इस बार इस माँ सारदा देवी के नाम-रूप में इस बार बंगाल की पुण्य धरती जयरामवाटी में अवतरित हुई हैं। इसलिए अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्णदेव कहते हैं -अरे वो तो माँ सारदा हैं - सरस्वती हैं ! देखिये सारदा का मतलब ही सरस्वती है। जो विद्या के सार को प्रदान करने वाली हैं , वही माँ सारदा हैं। संस्कृत में 'दा' का मतलब देने वाला -वाली होता है। जो सार देती है , सार क्या है ? इस जीवन-प्रपंच में - विश्व-प्रपंच में सार -स्वरुप वस्तु क्या है ? कभी सोचा है इसके बारे में ? आपके इन्द्रियों से जो दिखाई देता है , रूप-रस-शब्द -गंध और स्पर्श उसमें सार वस्तु क्या है ? वह सबकुछ तो नश्वर है , परिवर्तनशील और क्षणभंगुर है। सबकुछ नष्ट हो रहा है , सबकुछ मृत्यु ग्रस्त है। सार कहाँ हैं ? आप इस M/F शरीर का जितना अधिक आलिंगन करते रहेंगे , उतना ही अधिक दुःख और कष्ट होगा ! दृष्टिगोचर जगत -प्रपंच का सारभूत वस्तु तो ब्रह्म (अधिष्ठान) ही है। ईश्वर ही एकम मात्र सारभूत वस्तु है। इसलिए उपनिषद और आचार्य शंकर कहते हैं - ब्रह्म सत्यं ! सत्य क्या है ? आत्मा , ब्रह्म , ईश्वर आपको जिस शब्द की धारणा हो आप उस शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। शब्द में कुछ नहीं है -एक वस्तु है जो शाश्वत वस्तु है। श्रीरामकृष्ण कहते हैं - 'भगवान ही एकमात्र वस्तु हैं ! यह आत्मा ही एकमात्र वस्तु है ! बाकि सब अवस्तु है !' वचनामृत में आप इस बात को बार बार देखेंगे। आत्मा ही एकमात्र वस्तु है , जो वास्तव में विद्यमान है। बाकि सब चलचित्र के जैसा पर्दे पर विद्यमान तो दिखाई दे रहा है , पर मैं आपसे पूछता हूँ -क्या विद्यमान है यहाँ पर ? सबकुछ बीत रहा है , चला जा रहा है। 'कालो न जातः वयमेव जातः ! ' विद्यमान क्या है ? आपका यह शरीर क्या विद्यमान है ? विद्यमान तो एक ब्रह्म या आत्मा ही है , उस विद्यमान शाश्वत वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना यही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है। और उस ज्ञान को प्रदान करने के लिए -विशेष रूप से वह परमेश-शक्ति ही आज इस माँ सारदा के रूप में अवतरित हुई हैं। इसलिए वे सारदा हैं। सार देने वाली-सरस्वती हैं ! वह ज्ञानदायिनी हैं ! (36.24)
ज्ञान प्रदान करने की दो प्रक्रियाएं हैं। धीरे धीरे हम इस विषय की गहराई प्रवेश कर रहे हैं। आपलोग जानते हैं कि आत्मा का ज्ञान अगर प्राप्त करना हो तो कुछ शर्तों का पालन करना पड़ता है। उन शर्तों को पूरा किये बिना ये ज्ञान प्राप्ति - या उस आत्मज्ञान में उसमें स्थिति ! सम्भव नहीं है। उन शर्तों को पूरा करना ही आध्यात्मिक जीवन है। आध्यात्मिक जीवन सिर्फ मंदिरों में जाना या -कर्मकांडी अनुष्ठान करना ही नहीं है। एक ऐसी जीवनशैली है जिसमें पूरा जीवन सम्मिलित है। एक विशिष्ट्प्रकार का जीवन जो आत्म केंद्रित हो, ईश्वर केंद्रित हो। जिसमें यह संसार नश्वर है , क्षणभंगुर है , यह दुःख दायी है।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।8.15।।महात्मालोग मुझे प्राप्त करके दुःखालय और अशाश्वत पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते; क्योंकि वे परमसिद्धि को प्राप्त हो गये हैं अर्थात् उनको परम प्रेम की प्राप्ति हो गयी है।
अतः जीवन का लक्ष्य पुनर्जन्म का अभाव होना चाहिए। पुनर्जन्म का स्वप्न और उसके अपरिहार्य कष्ट मिथ्या अहंकार आदि जीव को ही होते हैं। अजन्मा आत्मा ही जड़ उपाधियों के साथ तादात्म्य से जीवभाव को प्राप्त होता है। इसी प्रकार अन्तःकरण की उपाधि से विशिष्ट अथवा परिच्छिन्न आत्मा ही जीव कहलाता है उसको ही जन्म वृद्धि व्याधि क्षय और मृत्यु के सम्पूर्ण दुःख और कष्ट सहने होते हैं। उपाधि के लय होने पर अर्थात् उससे हुए तादात्म्य के निवृत्त होने पर जीव अनुभव करता है कि वह स्वयं ही चैतन्य स्वरूप आत्मा है।
आत्मज्ञानी पुरुष जानता है कि उसका मन और बुद्धि से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। जैसै जाग्रत् पुरुष का स्वप्न में देखे हुए पत्नी और पुत्रों से कोई सम्बन्ध नहीं होता ठीक वैसे हीआत्मस्वरूप के प्रति जाग्रत् होने पर अहंकार (जीव) अपने दुःखपूर्ण परिच्छिन्न जीवन के साथ ही समाप्त हो जाता है। तत्पश्चात् वह पुनः किसी देह विशेष में जन्म लेकर परिच्छिन्न विषयों में अनन्त सुख की व्यर्थ खोज नहीं करता।]
कितने ही प्रकार से श्रीकृष्ण गीता में बताते रहते हैं - इस संसार में आसक्ति का त्याग कर दो , इसमें सिर्फ दुःख है। इस संसार में सुख का एक बूँद भी नहीं है। सुनने में थोड़ा कठिन लगेगा , और इसको मानने या इसका पालन करने में और भी कठिन लगेगा। यहाँ पर जितने भी लोग हैं सभी सुख के पीछे दौड़ रहे हैं। लेकिन हम जानते नहीं कि वास्तविक सुख कहाँ है ? यदि हम जान जाएँ की इस संसार में सुख का एक बूँद भी नहीं है , तब हमारा दृष्टिकोण , हमरे दृष्टि की जो दिशा है - पूर्णतः बदल जाती है।
सुख कहाँ है ? जहाँ एक बूँद पानी नहीं है - वहाँ पर (मृगमरीचिका में) हमलोग पानी खोज रहे हैं। और हमलोग प्यासे के प्यासे ही रह जाते हैं। मनुष्य जब जन्म लेता है , तब प्यास में ही जन्म लेता है , और प्यास से ही उसकी मृत्यु भी होती है। ये प्यास बुझेगी कैसे ? 'करतल भिक्षा तरुतल वास:। तदपि न मुंचति आशा पाश:।।' मनुष्य अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशा-बन्ध नहीं त्याग पाता है। बाल उड जाते है,दन्त पन्क्तिया उखड जाती है,डन्डे के सहारे चलने लगता है,फिर भी इंसान आशाओ के पाश से नही निकलता। भज गोविदं , भज गोविन्दं मूढ़ मते। भज गोविन्दं का मतलब और कुछ नहीं - केवल आत्मा का ज्ञान प्राप्त करो ! आत्मा का ज्ञान प्राप्त करो। समय बीत रहा है - मृत्यु दहलीज पर खड़ी हुई है। कब मृत्यु आएगी यह कोई नहीं जानता। अंतिम घड़ी आने से पहले अपने जीवन का सदुपयोग कर लीजिये। आत्मज्ञान की प्राप्ति और स्थिति में इसको लगाइये। इस आत्मज्ञान की प्राप्ति (स्थिति) में सबसे बड़ा शर्त क्या है ? हमारे मन की जो अशुद्धियाँ है - उसको दूर किये बगैर इस आत्मा के ज्ञान में स्थित रहना सम्भव नहीं है। जगत के इन्द्रिय-भोगवस्तुओं के प्रति हमारी जितनी भी कामनाएं हैं , वासनाएं हैं - ऐषणाओं में जो आसक्ति है , हम इस भौतिक जगत से जो चिपके हुए हैं। आसक्ति का मतलब कुछ और नहीं है - जगत से चिपकना मना है। मैं अक्सर कहता हूँ - गीता का मूल सार है - चिपकना मना है ! The essence of the Gita is - clinging is prohibited ! इस नश्वर, अशाश्वत विश्व-प्रपंच से चिपकिये मत। (40.25) अगर चिपकिये गा तो फिर दुःख ही पाइयेगा। अनासक्त होकरके इसको बहुत ही बुद्धि पूर्वक -जीवन यापन करना -यही भगवत गीता हमें सिखाती है। मन शुद्ध और पवित्र हुए बगैर आत्मज्ञान की प्राप्ति या उसमें स्थिति सम्भव नहीं है। तो ये ज्ञानदायिनी जो माँ सारदा है - उनके जीवनी को देखिये। हमने पहले वेदान्त के कुछ मुख्य सिद्धांतों को समझा , अब उसी दृष्टि से माँ सारदा की जीवनी पढ़ने/देखने से समझ में आएगा कि वे जिस प्रकार ज्ञानदायिनी हैं , उसी प्रकार पापनाशिनी भी हैं। वे ऐसी आध्यात्मिक विभूति हैं कि उनके सम्पर्क में जो भी आए, वे उसके अंदर के दोषों को , उसके जो पाप हैं , उसको पहले खत्म करती है। और फिर उसके माध्यम से वे ज्ञान को प्रदान करती हैं ! ज्ञान प्रदान करने की उनकी यह अद्भुत प्रक्रिया है। यह अद्भुत प्रक्रिया हम माँ सारदा देवी के जीवन में देख पाते हैं।
कुछ घटनाओं को देखें -माँ जब जयराम बाटी में हुआ करती थीं। या कलकत्ते के बागबजार मायेर बाड़ी में हुआ करती थीं। तब लोगों की वहाँ लम्बी कतार लगती थी। उनको प्रणाम करने के लिए भक्तों की लम्बी कतार लगती थी। संसार में सब प्रकार के लोगों का प्रणाम माँ स्वीकार करती थीं। अच्छे लोग , धार्मिक लोग भी होते हैं , किन्तु कई प्रकार के दुराचरण करने वाले लोग भी उनको प्रणाम करने जाते थे। शास्त्र-निषिद्ध कर्म करने के बाद भी जो कोई माँ को प्रणाम करने आता था , वे माँ के चरण को स्पर्श करके प्रणाम करने आते थे। एक दिन जब माँ लोगों का प्रणाम स्वीकार कर रही थीं , तब वे बीच -बीच में उठकर के अपने पैरों को गंगाजल से धो रही थीं। तो उनके पास उनकी जो शिष्या थीं , उन्होंने पूछा कि आप बार बार अपने पैरों को गंगाजल से क्यों धो रही हैं ? क्या करूँ बेटी कितने ही प्रकार के लोग आते हैं - और मुझे स्पर्श करते हैं। और उनके स्पर्श से मेरे पुरे शरीर में आग सी लग जाती है , मेरा शरीर जलने लगता है। इसीलिए कि हम उन्हें माँ कहते हैं , उनके माँ के रूप को देख रहे हैं। ये केवल इसी रूप की बात नहीं है - वास्तव में ही परमेश शक्ति हैं। यह ब्रह्म की अपनी शक्ति है , जो एक विशेष उद्देश्य से उसका जब अवतरण होता है , मनुष्य के कल्याण के लिए इसी प्रकार वो काम करती हैं। वो परमेश शक्ति क्या कर रही हैं ? सब लोगों के पाप को ले रही हैं। और उनको पापमुक्त कर रही हैं ! पापमुक्त करके उसको ज्ञान के लिए प्रस्तुत कर रही हैं। आत्मज्ञान प्राप्त करने के योग्य बना रही हैं। यह है माँ सारदा देवी के ज्ञान देने की अद्भुत प्रक्रिया। हमें ठाकुर , माँ स्वामीजी को बेलपत्र की तरह ही एक में तीन मानना चाहिए। स्वामीजी या ठाकुर कोई माँ से अलग नहीं हैं -किन्तु परमेश शक्ति को समझने में सुविधा हो इसलिए कहते हैं। (44. 48) हम कहानियाँ गढ़ते हैं , लेकिन तत्व तो तत्व ही होता है। कहानी -कहानी होती है। लेकिन हम कह सकते हैं कि श्रीरामकृष्ण भी इस प्रकार अपने चरण स्पर्श करने की अनुमति नहीं देते थे। ठाकुर बड़े सल्केटिव थे -चूजी थे। कुछ लोग ही उनके चरणों का स्पर्श कर सकते थे। लेकिन श्रीमाँ कभी भी किसी को नकारती नहीं थीं। चाहे वो कितना भी गिरा व्यक्ति क्यों न हो , कितना भी पापी हो उसको स्वीकार करती थी। यह उनका अनोखा स्नेह था अपने संतानों के प्रति , ठाकुर भी नहीं करते थे। लेकिन कोई कितना भी पापी हो कितना भी गलत काम किया हो , माँ सबको स्वीकार करती थीं , किसीको नहीं नहीं कहती थीं। ऐसी अद्भुत शक्ति माँ में थी। क्योंकि तात्विक दृष्टि से देखने पर वे वही परमेश शक्ति हैं- जिनसे यह समस्त जगत उत्पन्न हुआ है -यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते।। सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड की प्रसूति जहाँ से होती है , वही शक्ति माँ सारदा देवी के रूप में अवतरित हुई हैं। केवल वही यह काम कर सकती हैं , कोई साधारण व्यक्ति यह नहीं कर सकता।
दूसरा उदाहरण देखें कलकत्ते की एक महिला थी (46.27) तरुण अवस्था में उसकी मति भ्रष्ट हो गयी थी। वह महिलाओं के लिए जो अनुचित है -वैसे काम करने में लग गयी थी। जिसको हमलोग व्यभिचार कहते हैं -वैसा काम करने लगी थी। कई वर्षों के बाद वह जब अत्यंत दुःख और पश्चाताप से माँ के पास गयी थी। आज हमलोग मॉडर्न होने के नाम पर बहुत कुछ गलत करते हैं , खास कर युवा -युवती को इस पर ध्यान देना चाइये। आधुनिक बनने से बहुत सावधान रहिये। आधुनिक होने का मतलब यह नहीं है कि पशु जैसा स्वछन्द होकर जीवन यापन करने लगें। लज्जशीलता और विनम्रता , शिष्टाचार हर मनुष्य का सौंदर्य उसके लज्जाशीलता और विनम्रता में है। शारीरिक सौंदर्य नहीं , व्यक्ति का जो वास्तविक सौंदर्य है -उसके लज्जाशीलता और उसके शिष्टाचार में। आज हम पाश्चात्य विचार धारा और जीवनशैली से इतने प्रभावित हो गए हैं कि मोह में पड़कर उन्हीं की विचारधारा में - लिविंग रिलेशन में बहने लग गए हैं। उसीका परिणाम आज भारतवर्ष में दिखाई पड़ता है। ठाकुर कहते थे माँ सारदा देवी का एक और उद्देश्य था पूरे विश्व के सामने एक आदर्श नारी-जीवन का मॉडल प्रस्तुत करना। स्त्रियों का जीवन कैसा होना चाहिए इसको दिखाने के लिए भी श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा देवी का आविर्भाव हुआ था। एक आदर्श महिला के लिए लज्जाशीलता उसका गहना होता है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - माँ सारदा की तुलना एक मात्र माँ जानकी की लज्जाशीलता से की जा सकती है। सीता इतिहास में एक ही हैं , उनके जैसी कोई दूसरी तो हुई ही नहीं। उसी सीता का द्वितीय रूप है माँ सारदा देवी। सीता , सारदा देवी या सावित्री देवी में हमें क्या देखने को मिलता है ?(49. 00) आज हमारा समाज इस आदर्श से कितना दूर निकल गया है -यह हमारे सामने एक प्रश्नचिन्ह है , खासकर युवा -युवतियों के लिए। हम लोग अभी उसी प्रकार एक महिला जो सतपथ से भटक गयी थी , और पशाताप की अग्नि में जल रही थी। क्योंकि उसको समझ में आया कि उसका जीवन व्यर्थ हो गया। वो माँ के दरवाजे पर खड़ी रहती है , अंदर नहीं आती। वह कहती है - हे माँ तुम बस एक बार अपने दरवाजे पर खड़ी हो जाओ , मुझे दर्शन दो ! मैं अंदर नहीं आ सकती , मेरी योग्यता नहीं है की कमरे के अंदर पैर भी रखूं। क्योंकि मैंने कुछ अनुचित काम कर दिया है। पश्चाताप के भाव से जब वो महिला दरवाजे के पास खड़ी थी , तो माँ सिर्फ दरवाजे पर ही नहीं आती , सीधे सीढ़ियों से उतरकर नीचे आती है जहाँ वह महिला खड़ी थी। उसके कंधे पर हाँथ रखकर उसको अपने कमरे के अंदर ले आती हैं। और सीधा कहती हैं - बेटी क्या तुम दीक्षा लोगी मुझसे ? देखिये माँ ज्ञानदायिनी हैं ! हम ज्ञानदायिनी माँ सारदा की बात कर रहे हैं। वह पापकर्म की अग्नि से प्रज्ज्वलित महिला के बारे माँ सबकुछ जानती हैं , बेटी आज तक जो गलती की है -अब दुबारा मत करना। मुझसे दीक्षा लो और इस मंत्र को जपो - ध्यान रखना कि अब तुम एक शिक्षक हो -पशु नहीं हो ! यह थी माँ सारदा के ज्ञान देने की प्रक्रिया। व्यक्ति के अन्तःकरण में पाप के जो संस्कार हैं, उसको पहले धोने की व्यवस्था करती थी। फिर उसको ज्ञान प्रदान करती थीं। इसीलिए माँ यदि ज्ञानदायिनी हैं , तो वे पाप नाशिनी भी हैं। क्योंकि पापों का विनाश कर हमारे अंदर स्वयं को M/F शरीर मानने का जो कुसंस्कार है , उन संस्कारों का नाश किये बगैर कोई भी व्यक्ति आत्मज्ञान में स्थित होकर शिक्षक की भूमिका नहीं निभा सकता।
अतएव हमें भी यह सीखना है कि आज से हम भी बहुत सावधान रहें कि दुबारा कोई भूल न हो जाये ! हमेशा सतर्क हो कर देखें की हम क्या कर रहे हैं , और किस प्रकार के विचारों को सोंच रहे हैं। मन में यदि अशुद्ध विचार हो तो कोई भी व्यक्ति आत्मज्ञान में स्थित शिक्षक नहीं बन सकता। इसलिए माँ सारदा देवी को पवित्रता स्वरूपिणी कहा गया है। ऐसी थी माँ सारदा कि उनको छूने से गंगा स्नान करने का प्रयोजन नहीं होता था।
(52.26) इसी प्रकार हम माँ के जीवन की एक और घटना देखते हैं। माँ रात -रात भर बैठकर जप किया करती थीं। माँ को जप करने की क्या जरूरत है ? आप -हम जप करेंगे , लेकिन जो स्वयं परमेश शक्ति हैं , इस माँ सारदा रूप में आयी हुई हैं , वह नींद को छोड़कर रात भर जप क्यों करती थीं ? उनके शिष्य ने पूछा आप क्यों जप कर रही है ? उनको जाप से क्या प्राप्त करना है ? क्या करूँ बेटे -जितने भी मुझसे दीक्षा लेने आते हैं , किन्तु दीक्षा के बाद जो कमसेकम जप करना है , वह भी नहीं करती हैं। उनका अमंगल न हो , इसीलिए मैं बैठकर जप करती हूँ। उनके जीवनमे अध्यात्म विकास में जो भी बाधाएँ हैं वो दूर हो जाएँ। सचमुच ज्ञान दायिनी सरस्वती हैं - कितने ही प्रकार से वह मुझ जैसे आप जैसे - जो साधारण दुर्बलता से युक्त मनुष्य हैं ! हमारे जीवन में एक परिवर्तन घटे ! क्या परिवर्तन ? हमारा मन और भी शुद्ध हो , और हम आत्मज्ञान के लिए योग्य होकर शिक्षक बने -इसके लिए माँ सतत प्रयत्नशील रहती थी। इस प्रकार से वो ज्ञान को प्रदान करती थीं। माँ के जीवन में तो घटनाओं का एक बाढ़ ही है।
और एक घटना बताकर अपने वक्तव्य को समाप्त करूँगा। (54.30) तीन ऐसे व्यक्ति राजा महाराज के पास गए थे। स्वामी ब्रह्मानंद जी से उन्होंने दीक्षा की प्रार्थना की। राजा महाराज उनको देखते ही पहचान गए कि तीनो अत्यंत ही गलत रास्ते पर चलने वाले लोग थे , जिनका जीवन सतपथ पर नहीं था। राजा महाराज ने उन्हें नकार दिया और दीक्षा देने से मना कर दिया। दीक्षा देने की हिम्मत नहीं थी ऐसा हम कह सकते हैं। क्योंकि दीक्षा अगर देना हो तो सारा पाप का भार भी लेना पड़ता है। ये मूल सिद्धांत है , इसके लिए बहुत बड़ी क्षमता की जरूरत होती है। उन्होंने उन तीनो को माँ के पास जयराम बाटी भेज दिया। इनको सिर्फ माँ ही स्वीकार कर सकती है। पहले माँ भी नकार देती हैं , बहुत दुखी होकर वे तीनों लोग कमरे से बाहर निकल जाते हैं। दुबारा माँ के पास रोकर याचना करते हैं। दुबारा माँ नकार देती हैं। तीसरे बार जब आकर वे लोग माँ से प्रार्थना करते हैं -तब माँ दीक्षा देने तैयार हो जाती हैं। वे अपने से बात क्र रही थी , देखो बच्चे विदेश से अपनी माँ के लिए सबसे अच्छी अच्छी चीजें भेजते हैं। और देखो मेरा राखाल क्या भेजता है। माँ उन तीनों को दीक्षा दे देती हैं। वापस लौटकर ये तीनों राजा महाराज से कहते हैं - वो जानते थे इनको दीक्षा देने का मतलब क्या है ? तब वहां बाबूराम महाराज जो खड़े थे। कहते हैं इन लोगों को दीक्षा देने का मतलब जहर पीने के सामान है। माँ ऐसे जहर पीती रहती हैं -जिसका एक बूँद भी अगर हमें पीना पड़े तो हम जल कर राख हो जाएँ। लेकिन माँ सबकुछ पचा लेती है। इस प्रकार माँ सारदा देवी पापनाशिनी हैं। पाप को नाशकरके ज्ञान प्रदान करती हैं। ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता , ज्ञान में स्थित रहने की योग्यता प्रदान करती हैं। माँ के जीवनी की जितने भी लेखक हैं - उन्होंने माँ के ऐसे विभिन्न पहलुओं को हमारे सामने रखा है। वे भक्तों की जननी हैं -माँ हैं ! वे गुरु हैं और वे देवी जगदम्बा हैं ! ये जो तीन भिन्न पहलु हैं , किसी एक को देखने से दूसरे सभी पहलु भी चले आते हैं। देखिये गुरु (शिक्षक -नेता) कौन हो सकता है ? गुरु का मतलब क्या है ? जो हमें ज्ञान प्रदान करते हैं , हमारे अंदर जो अज्ञान रूपी अंधकार है , उस अंधकार को दूर करते हैं। और आत्मा का ज्ञान प्रदान करती हैं। और इस ज्ञान को प्रदान करने के पीछे एक माँ का ह्रदय काम कर रहा होता है। गुरु ही हमारी माता हैं , गुरु ही हमारे पिता भी हैं ! माँ अपने संतान को क्या देती हैं ? सबसे अच्छी चीज देती है या नहीं ? हर माँ अपने बच्चे को सबसे उत्तम चीज ही प्रदान करती हैं। गुरु विवेकानंद जो हमें प्रदान करते हैं - उस आत्मज्ञान से बढ़कर उत्तम चीज कोई है क्या ? तो वे जो माँ हैं वही गुरु हैं ! माँ शब्द से मेरा तात्पर्य उस परमेश शक्ति से है - माँ सारदा देवी से है ! वे माँ भी हैं और गुरु भी हैं और माँ और गुरु के पीछे वो एक परमेश शक्ति देवी भी हैं। वही परमेश शक्ति ज्ञान प्रदान करके माँ की तरह पूरे जगत का कल्याण करने में सतत लगी हुई हैं। और वे आज भी लगी हुई हैं ! आज भले ही माँ अपने स्थूल रूप में भले जी न हो , परन्तु वह परमेश शक्ति सदैव काम कर रही है। उनका अनुग्रह , उनकी जो कृपा है - उनकी कृपा से ही हम इस संसार सागर को पार कर सकेंगे। मोक्ष का द्वारा ये त्रिदेव ही खोल सकते हैं। भगवान शंकराचार्य कहते हैं -क्या है ये परमेश शक्ति ? ' मोक्षद्वार-कपाट-पाटनकरी काशीपुराधीश्वरी. भिक्षां देहि कृपावलम्बनकरी माताऽन्नपूर्णेश्वरी।। हे माता अन्नुपूर्णेश्वरी - माता हैं , अन्नपूर्णा हैं ! सर्वश्रेष्ठ अन्न हम क्या प्रदान कर सकते हैं ? ज्ञान रूपी अन्न ही सर्वश्रेष्ठ अन्नदान है। आचार्य शंकर कहते है , आप ज्ञान रूपि अन्न प्रदान करके मोक्ष द्वार खोलने का काम यही परमेश शक्ति माँ सारदा ही कर सकती हैं , तो माँ सारदा से हमारी एक ही प्रार्थना है कि हे ,माँ ! इस मोक्ष के द्वारा को केवल तुम्हीं खोल सकती हो। इस मृत्युग्रस्त संसार में जो हमलोग बंधे हुए हैं , इस बंधन से हमें मुक्त कर दो।
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[राममय जगत : विश्व-रंगमंच पर 'राम' (ठाकुर देव) ही 'हनुमान' (स्वामी विवेकानन्द) का अभिनय कर रहे है ? और श्री राम अपने मुख से हनुमान जी की महिमा गा रहे हैं ?
भरत भाई, कपि से उरिन हम नाहीं,
कपि से उरिन हम नाहीं। भरत भाई, कपि से उरिन हम नाहीं;
सौ योजन, मर्याद समुद्र की , ये कूदी गयो छन माहीं।
लंका जारी, सिया सुधि लायो, पर गर्व नहीं मन माहीं॥
कपि से उरिन हम नाहीं,
भरत भाई, कपि से उरिन हम नाहीं।
शक्तिबाण, लग्यो लछमन के, हाहा कार भयो दल माहीं।
धौलागिरी, कर धर ले आयो भोर ना होने पाई॥
कपि से उरिन हम नाहीं,
भरत भाई, कपि से उरिन हम नाहीं।
अहिरावन की भुजा उखारी, पैठी गयो मठ माहीं।
जो भैया, हनुमत नहीं होते, मोहे, को लातो जग माहीं॥
कपि से उरिन हम नाहीं,
भरत भाई, कपि से उरिन हम नाहीं।
आज्ञा भंग, कबहुं नहिं कीन्हीं, जहाँ पठायु तहाँ जाई।
तुलसीदास, पवनसुत महिमा, प्रभु निज मुख करत बड़ाई॥
[जैसे ठाकुर देव स्वामी विवेकानन्द की महिमा गाते थे !]
कपि से उरिन हम नाहीं
भरत भाई, कपि से उरिन हम नाहीं।
[रामायण में कौन था अहिरावण जो देना चाहता था भगवान राम और लक्ष्मण की बलि?
रामायण में रावण के कई रिश्तेदार बेहद बलशाली और अहम् भूमिका में होने के होने के कारण बेहद प्रचलित हैं, जैसे कि कुम्भकर्ण, विभीषण, शूर्पनखा, मंदोदरी, मेघनाद वगैरह। लेकिन आपमें से बेहद कम लोगों ने अहिरावण के बारे में सुना होगा। दरअसल, अहिरावण का जिक्र 'कृतिवास रामायण' में मिलता है, (श्री कृतिवास ओझा - खरदह में दादा के परिवार में जन्मे थे) जिसके अनुसार अहिरावण , रावण का ही भाई था और पाताल लोक का राजा था। जिसकी रक्षा एक बालक मकरध्वज ने की थी , जिसका जन्म हनुमान के पसीने की बूंदों से हुआ था।
अहिरावण की योजना
अहिरावण ने राम और लक्ष्मण को पाताल लोक में बंदी बना लिया और वहां यज्ञ की तैयारी करने लगा. उसका मकसद था कि राम और लक्ष्मण की बलि देकर अमरत्व प्राप्त कर ले। लेकिन भगवान राम के परम भक्त हनुमान जी को इसका आभास हो गया।
हनुमान जी का साहस
हनुमान जी को जब पता चला कि अहिरावण राम और लक्ष्मण को पाताल लोक ले गया है, तो उन्होंने तुरंत वहां पहुंचने की योजना बनाई. हनुमान जी ने अपनी गदा उठाई और पाताल लोक की ओर चल पड़े। लेकिन पाताल लोक में घुसना आसान नहीं था, चारों तरफ पहरेदार खड़े थे। हनुमान जी ने अपनी बुद्धि से उनका ध्यान भटकाया और पाताल लोक में प्रवेश कर लिया।
अहिरावण का वध
हनुमान जी ने पाताल लोक में पहुंचकर देखा कि अहिरावण यज्ञ की तैयारी कर रहा था. राम और लक्ष्मण बंदी बने हुए थे. हनुमान जी ने तुरंत अपनी ताकत और बुद्धि का इस्तेमाल किया. उन्होंने अहिरावण को चुनौती दी और दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ. अहिरावण की माया शक्तियों के आगे हनुमान जी तनिक भी विचलित नहीं हुए। अपनी गदा के प्रहार से हनुमान जी ने अहिरावण का वध कर दिया और राम और लक्ष्मण को मुक्त करवा लिया।
हनुमान जी का अद्भुत बल
हनुमान जी के इस साहसिक कार्य ने यह साबित कर दिया कि वे सिर्फ बलशाली ही नहीं, बल्कि अत्यधिक बुद्धिमान भी थे. उनकी भक्ति और समर्पण भगवान राम के प्रति अडिग थी, और उन्होंने हर विपत्ति में राम और लक्ष्मण की रक्षा की. चाहे वह संजीवनी बूटी लाना हो या फिर अहिरावण का वध करना, हनुमान जी हर बार अपने कर्तव्यों को पूरा करने में सफल रहे.
रावण का वध
जब हनुमान जी ने अहिरावण का वध कर राम और लक्ष्मण को बचा लिया, तो इसके बाद राम और रावण के बीच निर्णायक युद्ध हुआ. इस युद्ध में भगवान राम ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर रावण का वध किया और लंका को उसके अत्याचारी शासन से मुक्त कराया.
रामनवमी का महत्व
रामनवमी भगवान राम के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। इस दिन लोग उपवास रखते हैं, राम कथा सुनते हैं, और भगवान राम की पूजा करते हैं। रामनवमी का त्योहार अच्छाई और बुराई के संघर्ष की याद दिलाता है और हमें यह सिखाता है कि - जीत हमेशा धर्म और सत्य की ही होती है !]
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“देह धरे का दंड है सब काहू को होय ।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय॥
(― कबीर दास)
भावार्थ: देह धारण करने का दंड–भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है। अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए, दुखी मन से सब कुछ झेलता है।”
भाव - यह है कि अज्ञानी दुःख की वेदना से व्यथित होता है और ज्ञानी (आत्मज्ञानी जिन्होंने इन्द्रियातीत सत्य या परम् सत्य को सीख लिया है) उसे सहजता से स्वीकार कर लेता है ।
बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है।
हम अक़्सर अपनी किसी बात - किसी घटना या अपने किसी काम के परिणाम की जिम्मेवारी नहीं लेना चाहते। ख़ास तौर पर अपने दुःख और कष्टों के लिए किसी और को जिम्मेवार और दोषी ठहरा कर हमें कुछ राहत और सांत्वना सी महसूस होती है। लेकिन अगर हम अपने भाग्य एवं परिस्थितियों के लिए स्वयं को जिम्मेवार समझेंगे तो आगे के लिए हर काम को समझदारी से करने की कोशिश करेंगे।
बड़ें भाग मानुष तनु पावा।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।
पाइ न जेहिं परलोक (पुनर्जन्म) सँवारा॥
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताई।
कालहिं कर्महिं ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाइ॥
(राम चरित मानस - उत्तरकाण्ड)
अर्थात बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथ कहते हैं कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। यह (मनुष्य शरीर) साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है। (यह मनुष्य शरीर-जो गर्दन उठाकर आसमान को भी देख सकता है, और कोई पशु नहीं देख सकता , अर्थात पशु के जैसा आहार,निद्रा -भय मैथुन के लिए नहीं किसी उच्च उद्देश्य के लिए मिला है- ईश्वरलाभ के लिए मिला है।) इसे पाकर भी जिस ने (ईश्वरलाभ या आत्मानुभूति का प्रयास नहीं किया ) परलोक न संवारा, वह हमेशा दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है। तथा अपना दोष न समझकर उल्टे काल पर, भाग्य पर या ईश्वर पर मिथ्या ही दोष लगाता रहता है॥
अगर हम ये अच्छी तरह से समझ लें कि हमारे कर्म ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं तो हम हमेशा अच्छे कर्म ही करने की कोशिश करेंगे। वर्तमान के शुभ कर्मो के द्वारा पिछले कर्मों के दुष्परिणाम को भी बहुत हद तक बदला जा सकता है। इसीलिए धर्म ग्रन्थ और संत महात्मा हमेंसत्संग, भक्ति, नम्रता और सेवा भावना इत्यादि की प्रेरणा देते रहते हैं।
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः
स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥
(अध्यात्मरामायण )
अर्थात सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। कोई दूसरा (हमें सुख और दुःख) देने वाला है - ऐसा समझना कुबुद्धि - मंदबुद्धि और अल्प-ज्ञान का सूचक है। 'मैं ही सब का कर्ता हूँ ' यह मानना भी मिथ्याभिमान है । हमारा समस्त जीवन और संसार स्वकर्म - अपने कर्म के सूत्र में बँधा हुआ है ।
यही बात तुलसीकृत रामायण में भी कही गई है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
(राम चरित मानस - अयोध्या काण्ड)
अर्थात सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। हे भाई - सब अपने अपने कर्मों के अनुसार ही सुख दुःख भोगते हैं। अर्थात् अपने सुख-दुःख के उत्तरदायी हम स्वयं ही हैं - कोई दूसरा नहीं । जो जैसा करता है वह वैसा ही भरता है। किसी दूसरे को जिम्मेदार ठहराना गलत है। लेकिन अगर किसी का भला नहीं कर सकते तो कम-अज़-कम किसी का बुरा तो न करें। वेद कहते हैं:
मा गृधः कस्यस्विद्धनम्
(ईशोपनिषद )
अर्थात किसी का धन - किसी का हक़ छीनने की कभी कोशिश न करो।
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(4th अप्रैल, 2025 : राँची से लौटते समय माँ ने अपने हाथों से छट्ठी मैया का प्रसाद दिया। वैराग्य पूर्वक विवेक-दर्शन का अभ्यास करते रहने से जब उभयतोवहिनी चित्तनदी का विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जाता है, तब अपने प्रत्येक कार्य में अंतर्निहित दिव्यता को या अपने वास्तविक स्वरुप को अभिव्यक्त किया जा सकता है!)