यह प्रश्नोत्तरी परम्परा "भारतीय गुरु-शिष्य ऋषि परम्परा" में इतनी प्रचलित रही है कि हमारे एक उपनिषद का नाम ही 'प्रश्नोपनिषद' है। प्रश्नोपनिषद का सार-संक्षेप इस प्रकार है : पश्नोपनिषद में वर्णन आता है कि एक बार छह ऋषि (सत्यार्थी= ब्रह्म अन्वेषमाणाः = निरपेक्ष्य सत्य के खोजी) परब्रह्म (श्री ठाकुर) को जानने की जिज्ञासा से एक साथ बाहर निकले। इन्होंने सुना था कि पिप्पलाद ऋषि (=महामण्डल) इस विषय को विशेष रूप से जानते हैं। अतः यह सोचकर कि निरपेक्ष सत्य (श्री ठाकुर) के सम्बन्ध में हम जो कुछ जानना चाहते हैं, वह सब वे हमें बता देंगे। अतः वे लोग जिज्ञासु के वेश में हाथों में समिधा लिए हुए महर्षि पिप्पलाद के पास गए । उस ऋषि ने उनसे कहा-'तपस्या, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से युक्त होकर एक वर्ष और निवास करो; फिर अपने इच्छानुसार प्रश्न करना, यदि मैं जानता होऊंगा तो तुम्हें सब बतला दूंगा। एक वर्ष तक गुरुकुल में रहने के पश्चात् गुरूजी के पास जाकर कात्यायन कबन्धी ने पूछा -
प्रश्न १. 'भगवन्! यह सारी प्रजा किससे उत्पन्न होती है?
महर्षि पिप्पलाद ने उत्तर दिया - 'प्रसिद्द है कि प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा वाले प्रजापति ने तप किया। प्रजापति ब्रह्मा ने तप करके 'प्राण' और 'रयि' नामक एक जोड़ा उत्पन्न किया (और सोचा) ये दोनों ही मेरी अनेक प्रकार की प्रजा उत्पन्न करेंगे। निश्चय आदित्य ही प्राण है और रयि ही चंद्रमा है। यह जो कुछ मूर्त (स्थूल) और अमूर्त (सूक्षम)है सब रयि ही है; अतः सारे मूर्त नाम-रूप ही रयि (चन्द्रमा) है। वस्तुत: प्राण (एनर्जी) गति प्रदान करने वाला चेतन तत्त्व है। रयि (आकाश या ईथर मैटर) उसे धारण करके विविध रूप देने में समर्थ प्रकृति है। इस प्रकार ब्रह्मा मिथुन-कर्म द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करता है।
संवत्सर ही प्रजापति है; उसके दक्षिण और उत्तर दो अयन है। जो लोग इष्टापूर्तरूप कर्ममार्ग का अवलंबन करते हैं वे ही पुनः आवागमन को प्राप्त होते है, अतः ये संतानेच्छु ऋषि लोग दक्षिण मार्ग को ही प्राप्त करते हैं। (इस प्रकार) जो पितृयाण है वही रयि है।
उत्तरमार्गावलम्बियों की गति - दिन रात भी प्रजापति है। उनमें दिन ही प्राण है और रात्रि ही रयि है। जो लोग दिन के समय रति के लिए (स्त्री से) संयुक्त होते हैं वे प्राण की ही हानि करते हैं और जो रात्रि के समय रति के लिए (स्त्री से) संयोग करते हैं वह तो ब्रह्मचर्य ही है। जिनमें कि तप और ब्रह्मचर्य है तथा जिनमें सत्य स्थित है उन्हीं को यह ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। जिनमें कुटिलता, अनृत और माया(कपट)नहीं है उन्हें यह विशुद्ध ब्रह्मलोक प्राप्त होता है।
इसके बाद उन पिप्पलाद मुनि से विदर्भदेशीय भार्गव ने पूछा -
यह प्राण ही अग्नि होकर तपता है, यह सूर्य है, यह मेघ है, यही इंद्र और वायु है तथा यह देव ही पृथिवी, रयि और जो कुछ सत, असत एवं अमृत है, वह सब कुछ बना है। हे प्राण! तू ही प्रजापति है, तू ही गर्भ में संचार करता है और तू ही जन्म ग्रहण करता है। यह (मनुष्यादि) सम्पूर्ण प्रजा तुझे ही बलि समर्पण करती है। क्योंकि तू समस्त इन्द्रियों के साथ स्थित रहता है।
तदन्तर, उन (पिप्पलाद मुनि) से अश्वल के पुत्र कौसल्य ने पूछा -
गार्ग्य का प्रश्न - प्रश्न ४.' हे भगवन! सुषुप्ति में कौन सोता है और कौन जागता है ? देह में कौन-सी इन्द्रिय शयन करती है और कौन-सी जाग्रत रहती है? कौन-सी इन्द्रिय स्वप्न देखती है और कौन-सी सुख अनुभव करती है? ये सब इन्द्रियाँ किसमें स्थित है?'
तब उस से आचार्य ने कहा - 'हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य की रश्मियां सूर्य के अस्त होते ही सूर्य में सिमट जाती हैं और उसके उदित होते ही पुन: बिखर जाती हैं उसी प्रकार समस्त इन्द्रियां परमदेव मन में एकत्र हो जाती हैं। तब इस पुरुष का बोलना-चालना, देखना-सुनना, स्वाद-अस्वाद, सूंघना-स्पर्श करना आदि सभी कुछ रूक जाता है। तब उसे 'सोता है' ऐसा कहते हैं।
[सुषुप्तिकाल में-'सोते समय' ] इस शरीर रूप पुर में प्राणाग्नि या प्राण-रूप अग्नि ही जाग्रत रहती है। यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है, उच्छ्वास और निःश्वास ये मानो अग्निहोत्र की आहुतियाँ हैं उसी के द्वारा अन्य सोई हुई इन्द्रियां केवल अनुभव मात्र करती हैं, जबकि वे सोई हुई होती हैं। स्वप्नावस्था में यह देव ही अपनी विभूतियों का अनुभव करता है।
जिस समय यह मन तेज से आक्रांत होता है उस समय वह आत्मदेव स्वप्न नहीं देखता। यही द्रष्टा, स्प्रष्ट, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता (मनन करने वाला), बोद्धा और कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष है। जिस प्रकार पक्षी अपने बसेरे के वृक्ष पर जाकर बैठ जाते है उसी प्रकार वह सब (कार्यकरण संघात) सबसे उत्कृष्ट आत्मा में जाकर स्थित हो जाता है। वह अक्षर ब्रह्म में सम्यक प्रकार से स्थित हो जाता है।
प्रश्न ५. सत्यकाम पूछता है —'हे भगवन! जो मनुष्य जीवन भर 'ॐ' का ध्यान करता है, वह किस लोक को प्राप्त करता है?'
पिप्पलाद ने कहा-हे सत्यकाम! यह 'ॐकार' ही वास्तव में 'परब्रह्म' है। जो उपासक त्रिमात्राविशिष्ट 'ॐ' इस अक्षर द्वारा इस परम पुरुष की उपासना करता है वह तेजोमय सूर्य लोक को प्राप्त करता है। सर्प जिस प्रकार केंचुली से निकल आता है उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है। वह साम्श्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है और जीवनघन से भी उत्कृष्ट ह्रदय स्थित परमपुरुष (श्री रामकृष्ण) का साक्षात्कार करता है।
प्रश्न ६. सुकेशा भारद्वाज—'हे भगवन! कौसल देश के राजकुमार हिरण्यनाभ ने सोलह कलाओं से युक्त पुरुष (श्रीरामकृष्ण परमहंस) के बारे में मुझसे प्रश्न किया था, परन्तु मैं उसे नहीं बता सका। मैंने उस कुमार से कहा-'मैं इसे नहीं जानता; यदि मैं इसे जानता होता तो तुझे क्यों न बतलाता? जो पुरुष मथ्य भाषण करता है वह सब और से मूल सहित सूख जाता है; अतः मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता।' तब वह चुप -चाप रथ पर चढ़कर चला गया। सो अब मैं आपसे उस के विषय में पूछता हूँ कि वह पुरुष कहाँ है? क्या आप किसी ऐसे पुरुष के विषय में जानकारी रखते हैं?'
उस से महर्षि पिप्पलाद ने कहा - 'हे सोम्य! जिस में इन सोलह कलाओं (२४ गुणों का) का प्रादुर्भाव होता है वह पुरुष इस शरीर के भीतर ही वर्तमान है। उस पुरुष ने सर्वप्रथम 'प्राण' का सृजन किया। तदुपरान्त प्राण से 'श्रद्धा', 'आकाश', 'वायु', 'ज्योति', 'पृथ्वी', 'इन्द्रियां', 'मन' और 'अन्न' का सृजन किया। अन्न से 'वीर्य' , 'तप', 'मन्त्र', 'कर्म', 'लोक' एवं 'नाम-रूप ' आदि सोलह कलाओं का सृजन किया।'जिस प्रकार समुद्र की और बहती हुई ये नदियां समुद्र में पहुँच कर अस्त हो जाती है, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे 'समुद्र' ऐसा कहकर ही पुकारी जाती है। इसी प्रकार इस सर्वद्रष्ट की ये सोलह कलायें, जिनका अधिष्ठान पुरुष ही है, उस पुरुष को प्राप्त होकर लीन हो जाती है।
तब उनसे उस (पिप्पलाद मुनि)- ने कहा - इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ। इससे अन्य और कुछ (ज्ञातव्य) नहीं है। तब उन छहो ऋषियों ने स्तुतिपूर्वक आचार्य की वंदना करते हुए कहा -
उत्तरमार्गावलम्बियों की गति - दिन रात भी प्रजापति है। उनमें दिन ही प्राण है और रात्रि ही रयि है। जो लोग दिन के समय रति के लिए (स्त्री से) संयुक्त होते हैं वे प्राण की ही हानि करते हैं और जो रात्रि के समय रति के लिए (स्त्री से) संयोग करते हैं वह तो ब्रह्मचर्य ही है। जिनमें कि तप और ब्रह्मचर्य है तथा जिनमें सत्य स्थित है उन्हीं को यह ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। जिनमें कुटिलता, अनृत और माया(कपट)नहीं है उन्हें यह विशुद्ध ब्रह्मलोक प्राप्त होता है।
इसके बाद उन पिप्पलाद मुनि से विदर्भदेशीय भार्गव ने पूछा -
प्रश्न २. 'भगवन! इस प्रजा को कितने देवता धारण करते हैं?
उनमें से कौन-कौन इसे प्रकाशित करते हैं? और कौन उनमें सर्वश्रेष्ठ है?
महर्षि पिप्पलाद बोले - 'पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, प्राण, वाणी, नेत्र और श्रोत्र आदि सभी देव हैं। ये जीव के आश्रयदाता है। सभी देवताओं में प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है। सभी इन्द्रियां प्राण के आश्रय में ही रहती हैं।'यह प्राण ही अग्नि होकर तपता है, यह सूर्य है, यह मेघ है, यही इंद्र और वायु है तथा यह देव ही पृथिवी, रयि और जो कुछ सत, असत एवं अमृत है, वह सब कुछ बना है। हे प्राण! तू ही प्रजापति है, तू ही गर्भ में संचार करता है और तू ही जन्म ग्रहण करता है। यह (मनुष्यादि) सम्पूर्ण प्रजा तुझे ही बलि समर्पण करती है। क्योंकि तू समस्त इन्द्रियों के साथ स्थित रहता है।
तदन्तर, उन (पिप्पलाद मुनि) से अश्वल के पुत्र कौसल्य ने पूछा -
प्रश्न ३. 'हे महर्षि! इस 'प्राण' की उत्पत्ति कहां से होती है?
यह शरीर में कैसे प्रवेश करता है,
और कैसे बाहर निकल जाता है?
तथा कैसे दोनों के मध्य रहता है?'
उससे आचार्य पिप्पलाद ने कहा - ' इस प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है। जैसे शरीर की छाया शरीर से उत्पन्न होती है और उसी में समा जाती है, उसी प्रकार प्राण आत्मा से प्रकट होता है और उसी में समा जाता है। यह प्राण मनोकृत संकल्पादि से इस शरीर में प्रवेश करता है। मरणकाल में यह आत्मा के साथ ही बाहर निकलकर दूसरी योनियों में चला जाता है।'
तब उस से आचार्य ने कहा - 'हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य की रश्मियां सूर्य के अस्त होते ही सूर्य में सिमट जाती हैं और उसके उदित होते ही पुन: बिखर जाती हैं उसी प्रकार समस्त इन्द्रियां परमदेव मन में एकत्र हो जाती हैं। तब इस पुरुष का बोलना-चालना, देखना-सुनना, स्वाद-अस्वाद, सूंघना-स्पर्श करना आदि सभी कुछ रूक जाता है। तब उसे 'सोता है' ऐसा कहते हैं।
[सुषुप्तिकाल में-'सोते समय' ] इस शरीर रूप पुर में प्राणाग्नि या प्राण-रूप अग्नि ही जाग्रत रहती है। यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है, उच्छ्वास और निःश्वास ये मानो अग्निहोत्र की आहुतियाँ हैं उसी के द्वारा अन्य सोई हुई इन्द्रियां केवल अनुभव मात्र करती हैं, जबकि वे सोई हुई होती हैं। स्वप्नावस्था में यह देव ही अपनी विभूतियों का अनुभव करता है।
जिस समय यह मन तेज से आक्रांत होता है उस समय वह आत्मदेव स्वप्न नहीं देखता। यही द्रष्टा, स्प्रष्ट, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता (मनन करने वाला), बोद्धा और कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष है। जिस प्रकार पक्षी अपने बसेरे के वृक्ष पर जाकर बैठ जाते है उसी प्रकार वह सब (कार्यकरण संघात) सबसे उत्कृष्ट आत्मा में जाकर स्थित हो जाता है। वह अक्षर ब्रह्म में सम्यक प्रकार से स्थित हो जाता है।
प्रश्न ५. सत्यकाम पूछता है —'हे भगवन! जो मनुष्य जीवन भर 'ॐ' का ध्यान करता है, वह किस लोक को प्राप्त करता है?'
पिप्पलाद ने कहा-हे सत्यकाम! यह 'ॐकार' ही वास्तव में 'परब्रह्म' है। जो उपासक त्रिमात्राविशिष्ट 'ॐ' इस अक्षर द्वारा इस परम पुरुष की उपासना करता है वह तेजोमय सूर्य लोक को प्राप्त करता है। सर्प जिस प्रकार केंचुली से निकल आता है उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है। वह साम्श्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है और जीवनघन से भी उत्कृष्ट ह्रदय स्थित परमपुरुष (श्री रामकृष्ण) का साक्षात्कार करता है।
प्रश्न ६. सुकेशा भारद्वाज—'हे भगवन! कौसल देश के राजकुमार हिरण्यनाभ ने सोलह कलाओं से युक्त पुरुष (श्रीरामकृष्ण परमहंस) के बारे में मुझसे प्रश्न किया था, परन्तु मैं उसे नहीं बता सका। मैंने उस कुमार से कहा-'मैं इसे नहीं जानता; यदि मैं इसे जानता होता तो तुझे क्यों न बतलाता? जो पुरुष मथ्य भाषण करता है वह सब और से मूल सहित सूख जाता है; अतः मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता।' तब वह चुप -चाप रथ पर चढ़कर चला गया। सो अब मैं आपसे उस के विषय में पूछता हूँ कि वह पुरुष कहाँ है? क्या आप किसी ऐसे पुरुष के विषय में जानकारी रखते हैं?'
उस से महर्षि पिप्पलाद ने कहा - 'हे सोम्य! जिस में इन सोलह कलाओं (२४ गुणों का) का प्रादुर्भाव होता है वह पुरुष इस शरीर के भीतर ही वर्तमान है। उस पुरुष ने सर्वप्रथम 'प्राण' का सृजन किया। तदुपरान्त प्राण से 'श्रद्धा', 'आकाश', 'वायु', 'ज्योति', 'पृथ्वी', 'इन्द्रियां', 'मन' और 'अन्न' का सृजन किया। अन्न से 'वीर्य' , 'तप', 'मन्त्र', 'कर्म', 'लोक' एवं 'नाम-रूप ' आदि सोलह कलाओं का सृजन किया।'जिस प्रकार समुद्र की और बहती हुई ये नदियां समुद्र में पहुँच कर अस्त हो जाती है, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे 'समुद्र' ऐसा कहकर ही पुकारी जाती है। इसी प्रकार इस सर्वद्रष्ट की ये सोलह कलायें, जिनका अधिष्ठान पुरुष ही है, उस पुरुष को प्राप्त होकर लीन हो जाती है।
तब उनसे उस (पिप्पलाद मुनि)- ने कहा - इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ। इससे अन्य और कुछ (ज्ञातव्य) नहीं है। तब उन छहो ऋषियों ने स्तुतिपूर्वक आचार्य की वंदना करते हुए कहा -
ते तमर्चयन्तः त्वं हि नः पिता योऽस्माकं अविद्यायाः
परं पारं तारयसीति । नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥ ८ ॥
तब उन्होंने उन की पूजा करते हुए कहा - आप तो हमारे पिता है जिन्होंने की हमें अविद्या के दूसरे पार पर पहुंचा दिया है; आप परमर्षि को हमारा नमस्कार है, नमस्कार है।
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