हमारा यह स्थूल शरीर और दृष्टिगोचर विश्व-ब्रह्माण्ड अस्तित्व में कैसे आ गया ? आइये इस रहस्य को हम आधुनिक युग में में ईश्वर (ब्रह्म) के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण द्वारा भारत की प्राचीन ' गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित एवं आधुनिक युग में मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, लोक-शिक्षक,या 'वेदाध्यापक' (टीचर ऑफ़ वेदान्ता) स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में समझने का प्रयास करते हैं। स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं -
" भगवान कपिल ही दर्शन शास्त्र के पितामह हैं, वे व्यासदेव से भी प्राचीन हैं, इसीलिये हम उनकी बात सुनने के लिये बाध्य हैं। कपिल का 'सांख्य-दर्शन' ही विश्व का ऐसा सर्वप्रथम दर्शन है, जिसमें 'युक्ति-विचार पद्धति' से जगत् की उत्पत्ति और लय के सम्बन्ध में विचार किया गया है। विश्व के प्रत्येक तत्त्व जिज्ञाषु- वैज्ञानिक को उनके प्रति श्रद्धांजली अर्पित करनी चाहिये।" (४:२०४) "
" अहं को निकाल डालो , उसका नाश कर डालो, उसे भूल जाओ, अपने द्वारा ईश्वर को कार्य करने दो- यह उन्ही का कार्य है,उन्हें ही करने दो।...." पहले अपने (मन) को जीत लो , फ़िर सम्पूर्ण जगत तुम्हारे पैरों के नीचे आ जायगा ।" (७:२२)
." तुच्छ अहं को नष्ट कर डालो , केवल महत अहं को रहने दो। हम अभी जो कुछ हैं, वह सब अपने चिन्तन का फल है। इसलिए तुम क्या चिन्तन करते हो, इस विषय में ध्यान दो, विशेष ध्यान रखो। शब्द-वाणी तो गौण वस्तु हैं। चिन्तन ही बहुकाल स्थाई है और उसकी गति भी दूर व्यापी है। हम जो कुछ चिन्तन करते हैं, उसमे हमारे चरित्र की छाप लग जाती है."(७:२२)....
" जितनी बार तुम कहते हो, ' तू नहीं मैं' ; उतनी बार तुम अनन्त को यहाँ ( अपने देह-मन के माध्यम से) अभिव्यक्त करने का व्यर्थ में प्रयास करते हो। इसी से संसार में प्रतिद्वंदिता, संघर्ष और अनिष्ट की उत्पत्ति होती है। पर अन्त में 'मिथ्या-मैं' का त्याग होगा, यह 'मैं' मर जायगा। इस तुच्छ पृथक अहंता को नष्ट होना ही चाहिए।" (२:१७७)
" यह जो (अमुक नाम वाले व्यक्ति) के रूप में मेरा नाम- रूपात्मक चेहरा दिख रहा है, इसके पीछे जो असीम विद्यमान है, उसी ने अपने को बहिर्जगत में व्यक्त करने के लिए जैसा रूप धारण करने कि इच्छा की थी- उसी का परिणाम है। इस (नाम-रूपात्मक)- 'मैं' को फ़िर पीछे लौट कर अपने अनन्तस्वरूप में मिल जाना होगा."(२:१७६)
..." अहं - ही वह वज्रदृढ़ प्राचीर है, जिसने हमे बद्ध कर रखा है, और भोग वासना है लाख फन वाला सर्प , हमे उसे कुचलना ही होगा."(७:२३)..
" प्रत्येक वस्तु क्रम-परिवर्तन शील है। यह सारा विश्व ही परिवर्तन शीलता का एक पिंड है।आज के पर्वत कल समुद्र थे , और कल वहां पुनः समुद्र दिखाई देगा। एकमात्र ईश्वर ही ऐसा है, जिसमे कभी परिवर्तन नहीं होता, हम उसके जितने समीप लौटेंगे, प्रकृति का अधिकार हम पर उतना ही कम होता जायगा,उतना ही कम परिवर्तन या विकार हम में होगा। और जब हम उस तक पहुंच जायेंगे- तो हम प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेंगे, प्रकृति के सारे व्यापार हमारे अधीन हो जायेंगे,और हम पर उनका कोई प्रभाव न पडेगा।"(३:१०६)
" जब मैं लड़ता हूँ , कमर कस कर लड़ता हूँ- इसके मर्म को समझता हूँ। श्री रामकृष्ण के दासानुदासों में से कोई न कोई मुझ जैसा अवश्य बनेगा, जो मुझे समझेगा। "(६:३८३)
" इस जन्म-मृत्यु की समस्या की यथार्थ मीमांसा के लिए यदि यम के द्वार पर जा कर भी सत्य का लाभ कर सको तो निर्भय ह्रदय से वहाँ जाना उचित है। भय ही मृत्यु है। भय से पर हो जाना चाहिए। अपने मोक्ष तथा परहित के निमित्त आत्मोसर्ग करने के लिए अग्रसर हो जाओ। ...दधिची के समान औरों के लिए अपना हाड-मांस दान कर दो। जो ब्रह्मज्ञ हैं, जो अन्य को भय से पार ले जाने में समर्थ हैं,वे ही यथार्थ गुरु हैं। "(६:३३)
" वास्तव में पाशविक भाव के उपर विजय प्राप्त कर लेने, तथा जन्म-मरण के प्रश्न को सुलझा लेने और श्रेय -प्रेय के बीच के भेद को जान लेने कि अपेक्षा और श्रेष्ठ है ही क्या ?"(७:२५०)
" स्वयं 'व्यास देव' भी पूर्णत्व प्राप्त करने में , पूर्ण रूप से सफल न हो सके थे, परन्तु उनके पुत्र - ' शुकदेव' जन्म से ही सिद्ध थे।......जो मनुष्य ' विदेह' बन चुका है; जिस मनुष्य ने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, ( मन को पूरी तरह से जीत लिया है ) उसके उपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिए किसी भी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती। उसका मन स्वतन्त्र हो जाता है- और केवल ऐसा पुरूष ही संसार में रहने के योग्य है। "(३:६६)
" जो पूर्ण है , वह किसी के द्वारा कभी अपूर्ण कैसे हो सकता है? जो मुक्त है, वह कभी बंधन में कैसे पड़ सकता है? तुम कभी बंधन में नहीं थे। तुम पूर्ण हो, ईश्वर पूर्ण है, तुम सब पूर्ण हो, सत्ता एक ही हो सकती है, दो नहीं। पूर्ण को कभी अपूर्ण नहीं बनाया जा सकता।......तुम लक्ष्य तक पहुंच चुके हो-जो भी गन्तव्य है। मन को कदापि न सोंचने दो कि - तुम लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाये हो। हम जो कुछ सोंचते हैं, वही बन जाते हैं। यदि तुम अपने को हीन पापी सोंचते हो तो, तुम अपने को सम्मोहित कर रहे हो।...यह सब कौतुक है। " (९:१४३)
" पूर्णता का मार्ग यह है कि, स्वयं पूर्णता को प्राप्त होना ,तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्णता को प्राप्त होने में सहायता करना। फिर मैं भैंस के आगे बीन बजा कर - समय, स्वास्थ्य और शक्ति का अपव्यय क्यों करूँ? "(२:३३२)
" पूर्ण ( या असंख्य) में पूर्ण का भाग दो, पूर्ण जोडो , पूर्ण से पूर्ण में गुना करो, पूर्ण ही रहेगा।"
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुद्च्च्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिष्यते । ।
(संस्कृत भाषा - पूर्णांग भाषा है !) (१०:११७)
" मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता है !"- इस कथन का अर्थ यह नहीं कि, हमे किसी बाहरी सहायता कि आवश्यकता ही नहीं है।..जब ऐसी सहायता प्राप्त होती है तो, उसकी उन्नति वेगवती हो जाती है, और अंत में साधक पवित्र एवं सिद्ध बन जाता है। यह संजीवनी-शक्ति पुस्कों से नहीं मिल सकती। इस शक्ति कि प्राप्ति तो एक आत्मा, एक दूसरी आत्मा से ही कर सकती है, अन्य किसी से नहीं। "(वि०सा० ख० ४:२५)
" जिन्हों ने धर्म-लाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं। वे ही मनुष्य जाती के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं।" (७:२६७)
निस्संदेह भगवान कपिल ही दर्शन शास्त्र के पितामह हैं ! जो हमें सृष्टि के 'देश-काल -निमित्त' टाइम-स्पेस एण्ड कॉज़ैशन में कॉज़ैशन (the act of causing something to happen) या 'अल्टीमेट सोर्स ऑफ़ क्रिएशन' सृष्टि के महान आधार भूत कारण 'महत तत्व' को सांख्य की दृष्टि से समझने में सहायता करते हैं !
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" भगवान कपिल ही दर्शन शास्त्र के पितामह हैं, वे व्यासदेव से भी प्राचीन हैं, इसीलिये हम उनकी बात सुनने के लिये बाध्य हैं। कपिल का 'सांख्य-दर्शन' ही विश्व का ऐसा सर्वप्रथम दर्शन है, जिसमें 'युक्ति-विचार पद्धति' से जगत् की उत्पत्ति और लय के सम्बन्ध में विचार किया गया है। विश्व के प्रत्येक तत्त्व जिज्ञाषु- वैज्ञानिक को उनके प्रति श्रद्धांजली अर्पित करनी चाहिये।" (४:२०४) "
" ... वयोवृद्ध और अत्यन्त पवित्र महर्षि भी इन प्रश्नों (सृष्टी-रचना के सिद्धान्त) का समाधान करने में असमर्थ हो रहे हैं; पर तभी एक ' युवक ' - उनके बीच खड़ा हो कर घोषणा करता है- ' हे अमृत के पुत्र सुनो, हे दिव्यधाम के निवासी सुनो - मुझे मार्ग मिल गया है ! जो अंधकार या अज्ञान के परे है, उसे जान लेने पर ही हम मृत्यु के परे जा सकते हैं, अन्य कोई मार्ग नहीं है। " (श्वेताशतर२/५/३-८) (वि० सा० ख० २:५८)
" कपिल का प्रधान मत है, 'परिणाम-वाद'। इस कार्य-कारण वाद या ' परिणाम- वाद ' से तात्पर्य है- 'कार्य' भी अन्य रूप में परिणत ' कारण ' मात्र ही है। जैसे ' घड़ा ' कार्य है, और ' मिट्टी ' है उसका कारण। कपिल के अनुसार अव्यक्त प्रकृति से ले कर चित्त,मन, बुद्धि, अहंकार तक कोई भी वस्तु पुरूष अर्थात भोक्ता या प्रशासक नहीं है। स्वरूपतः मन में चैतन्य नहीं है; किन्तु हम देखते हैं कि वह तर्कना करता है।अतएव उसके परे, निश्चित रूप से ऐसी कोई ' सत्ता ' होनी चाहिए, जिसका आलोक- महत्, बुद्धि, अहं-ज्ञान और अन्य परवर्ती परिणामों में व्याप्त है। इस सत्ता को कपिल ' पुरूष ' कहते हैं, वेदान्ती उसी को 'आत्मा' कहते हैं।...बुद्धि स्वतः क्रियाशील नहीं है- उसकी पृष्ठ भूमि में जो पुरूष विद्यमान हैं, उसीसे मानो उसमे कार्यशीलता आती है। " (४:२१२)
" हमारे दो जगत हैं, बाह्य-जगत और अन्तर्जगत। यह सम्पूर्ण बाह्य-जगत्, अन्तर्जगत् या सूक्ष्मजगत् का स्थूल विकास मात्र है। विकसित होने या अभिव्यक्त होने की प्रक्रिया की सभी अवस्थाओं में सूक्ष्म को 'कारण' और स्थूल को 'कार्य' समझना होगा। इस नियम से, बाह्य-जगत् कार्य है और अन्तर्जगत् कारण। " (१:४२)
' बाह्य-जगत्' तो तुम्हे अपने मन के अध्यन में प्रेरित करने के लिए एक उद्दीपक तथा अवसर मात्र है। सेब के गिरने ने न्यूटन को एक उद्दीपक प्रदान किया, उसने अपने मन का अध्यन किया और गुरुत्वाकर्षण का नियम मिल गया। ' (३:४)
" एक पत्थर गिरा और हमने प्रश्न किया- इसके गिरने का कारण क्या है? हम यह निश्चित रूप से जानते हैं कि - बिना कारण कुछ कुछ भी घटित नहीं होता। मेरा अनुरोध है कि इस ' क्यों ' कि धारणा को खूब स्पष्ट रूप से समझ लो। जब हम यह प्रश्न करते हैं कि यह घटना क्यों हुई? तब यह मान लेते हैं, कि सभी घटनाओं का एक ' क्यों ' रहता ही है। अर्थात उसके घटित होने के पूर्व और कुछ अवश्य हुआ होगा, जिसने कारण का कार्य किया। इसी पूर्ववर्तिता और परवर्तिता के अनुक्रम को ही ' निमित्त ' अथवा कार्य-कारणवाद कहते हैं। " (२:८६)
" शापेनहावर ने यह निष्कर्ष निकला कि ' इच्छा ' (Will) ही सभी चीजों का कारण है। ' होने ' की इच्छा से ही हमारी अभिव्यक्ति होती है"- किन्तु हम इससे इन्कार करते हैं। वास्तव में इच्छा और प्रेरक-नाड़ी (Motor-nerve) एक रूप है। जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, तो इसमे इच्छा की कोई बात नहीं होती, जब इसकी संवेदनायें मस्तिष्क में स्थित दर्शन इन्द्रिय तक पहुँचती हैं- तब प्रतिक्रिया स्वरूप बुद्धि निर्णय करती है - 'यह करो ' अथवा ' यह न करो '। अहं तत्व की इस अवस्था को ही इच्छा कहते हैं। इच्छा का एक भी कण ऐसा नहीं है, जो प्रतिक्रिया का फल न हो। अतएव ' इच्छा ' के पूर्व बहुत सी वस्तुयें रहनी आवश्यक हैं। यह ' इच्छा ' अहं तत्व से निर्मित कोई प्रतिक्रिया मात्र है। और अहं तत्व का सृजन - उससे भी ऊँची वस्तु बुद्धि से होती है। और वह बुद्धि भी अविभक्त प्रकृति का परिणाम है। मनुष्य में महत्, महान् तत्व ( the Great Principle) या बुद्धि (the Intelligence) सम्बन्धी बात को समझना बहुत आवश्यक है। " (वि० सा० ख ० ४: २०४ )
" देश-काल-निमित्त या नाम-रूप के साँचे से जब ' वह ' जो इच्छा रूप में परिणत हो जाता है, जो पहले इच्छा के रूपमें नहीं था, परन्तु बाद में देश-काल-निमित्त के साँचे में पड़ने से जो मानवीय इच्छा हो गया, वह अवश्य स्वाधीन है। और जब यह इच्छा इस वर्तमान नाम-रूप या देश-काल-निमित्त के साँचे से मुक्त हो जायगी तो ' वह ' पुनःस्वतंत्र हो जाएगा। " (३:६९)
" अतएव ' इच्छा ' के पूर्व बहुत सी वस्तुयें जरुरी है। यह इच्छा- अहं तत्त्व से निर्मित कोई प्रतिक्रिया मात्र है। औरअहं तत्व का सृजन उससे भी ऊँची वस्तु बुद्धि से होती है। और यह बुद्धि भी अविभक्त प्रकृति का परिणाम है।"(४:२०४)
" इसे (परिणामवाद E=M को) समझना तुम्हारे लिए अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि समस्त विश्व में कोई ऐसा दर्शन नहीं है जो कपिल का ऋणी न हो। पाइथागोरस भारत आये और उन्होंने इस दर्शन का अध्यन किया। और वही ग्रीक लोगों के दार्शनिक विचारों का समारंभ था। " (४:२०४)
" आधुनिक विकास-वाद का सिद्धांत कहता है, हर कार्य पूर्ववर्ती कारण की आवृत्ति मात्र है। परिस्थिति या परिवेश के कारण रूप-परिवर्तन होता है। योनी-परिवर्तनों के कारण को खोजने सृष्टि से बाहर जाने की जरुरत नहीं है। कार्य में ही कारण श्रृंखला विद्यमान है। विश्व का मूल कारण, ऐसी कोई शक्ति नहीं है, या कोई सत्ता नहीं है, जो इससे अलग रह कर रिमोट से इसको चला रही है। " (२:२८२)
" क्रमविकास-वाद क्या है? उसके दो अवयव क्या हैं ? एक है प्रबल अन्तर्निहित शक्ति, जो अपने को व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, और दूसरा है बाहर की परिस्थितियाँ, जो उसे अवरुद्ध किए हुये है, या वह परिवेश है जो उसे व्यक्त होने नहीं देता। अतः इन परिस्थितियों से युद्ध करने केलिये यह ' शक्ति ' नये नये शरीर धारण कर रही है। एक अमीबा इस संघर्ष में एक और शरीर धारण करता है, और कुछ बाधाओं पर जय-लाभ करता है, और इस प्रकार भिन्न भिन्न शरीर धारण करते हुये अन्त में मनुष्य में परिणत हो जाता है। " (२:९१)
" प्रकृति या Nature का अधिक वैज्ञानिक नाम है- ' अव्यक्त '। जो अभिव्यक्त या प्रकट नहीं या भेदात्मक नहीं है, उससे ही सब पदार्थ उत्पन्न हुये हैं। उसीसे अणु-परमाणु, जड़-पदार्थ, शक्ति, मन, बुद्धि सब प्रसूत हुये हैं। सांख्यों ने अव्यक्त का लक्षण बताया है, त्रि-शक्तियों की (तीन शक्ति -सत्, रज, तम) साम्यावस्था। जब आकर्षण-शक्ति (Centripetal-force) अर्थात ' तमस ' और विकर्षण-शक्ति (Centrifugal-force) अर्थात ' रजस ' - जब पूरी तरह से ' सत्व ' के द्वारा संयत रहतीं हैं, अथवा पूर्ण साम्य की अवस्था में रहतीं हैं, तब सृष्टि का अस्तित्व नहीं रहता। किन्तु यह साम्यावस्था ज्योंही नष्ट होती है, उनका संतुलन भंग हो जाता है, और उनमे से एक शक्ति दूसरे से प्रबलतर हो उठती है, त्योंही गति (प्राण) का आरम्भ होता है और सृष्टि होने लगती है ।" (४:१९३)
" प्रकृति या अव्यक्त ...एक सर्वव्यापी जड़-राशिस्वरूप है। इसी अव्यक्त या प्रकृति में बाह्य-जगत् के समस्त वस्तुओं के ' कारण ' विद्यमान हैं। व्यक्त अवस्था की सूक्ष्म दशा को- ' कारण ' कहते हैं, यह उस वस्तु की अन्-अभिव्यक्त अवस्था है, जो अभिव्यक्ति को प्राप्त होती है।...कारण में प्रत्यावर्तन का नाम ही विनाश है। " (४:२०१)
' नाशः कारणलयः ' - नाश (मृत्यु) का अर्थ है कारण में लय हो जाना। (वि० सा० ख० २:१०१)
" अव्यक्त (Nature) अर्थात एक अखण्ड, अविभक्त (द्रव्य या ) जड़-राशि के उस सर्वव्यापी विस्तार की कल्पना करो - जो प्रत्येक वस्तु की प्रथम अवस्था है, और यह उसी प्रकार परिवर्तित होने लगता है, जिस प्रकार दूध परिवर्तित हो कर दही बन जाता है। ब्रह्माण्ड (Cosmos) में इस Nature या अव्यक्त की प्रथम अभिव्यक्ति को सांख्य के शब्दों में-' महत्' कहा जाता है।' महत् ' तत्त्व का शाब्दिक अर्थ है, 'द अल्टीमेट सोर्स' (The Ultimate Source) ' महान आधारभूत कारण - हम इसे बुद्धि (Intelligence) कह सकते हैं। अर्थात प्रकृति में जो प्रथम परिवर्तन हुआ उससे ' बुद्धि ' की उत्पत्ति हुई।
मैं उस ' महान आधारभूत कारण ' या महत् को अंग्रेजी में चेतना, होश,या आत्म-चेतना (Self-Consciousness) नहीं कह सकता, क्योंकि वह ग़लत होगा। चेतना तो इस ' सार्वभौम बुद्धि ' का अंशमात्र है। महत् तत्व सर्वव्यापी है, चेतन (जाग्रतअवस्था -Consciousness), अवचेतन (स्वप्नावस्था Sub-Consciousness), अचेतन (सुषुप्ति -Unconsciousness)और अतिचेतन(तुरीयावस्था Super-Consciousness) सब (मन-बुद्धि के सारे स्तर) इसके अर्न्तगत आ जाते हैं। इसीलिये इस महत् या बुद्धि के 'अल्टीमेट सोर्स' या महान आधारभूत कारण के लिए चेतना की किसी अकेली अवस्था मात्र के लिए प्रयुक्त करना पर्याप्त नहीं माना जाएगा। फ़िर यह महत् पदार्थ या ' बुद्धि ' जब (दूध से दही के समान) स्थूलतर पदार्थ (Grosser Matter) में परिवर्तित होता है, तब प्रकृति या अव्यक्त के दुसरे परिवर्तन को 'अहं-तत्व' (Egoism) कहते हैं।
फिर यह अव्यक्त (नेचर या प्रकृति) अपने तीसरे और अन्तिम परिवर्तन में स्वयं को -' सार्वभौम संवेदक इन्द्रियों' (Universal Sense-Organs) तथा 'सार्वभौम तन्मात्राओं' (Universal Fine-Particles) के रूप में अभिव्यक्त करती है। और ये अन्तिम वस्तुएं पुनः संयुक्त हो कर इस स्थूल-' बाह्य जगत् ' में परिणत हो जातीं हैं। इस प्रकार वह सूक्ष्म ' महत् ' तत्त्व ही बाह्य ' जगत् ' के रूप में परिणत हो गया है। जड़-पदार्थों और मन में परिणामगत भेद के अतिरिक्त कोई भेद नहीं है। सूक्ष्म एवं स्थूल स्वरूप में एक ही पदार्थ है, एक ही दुसरे में बदल जाता है। ... मन (mind) और मस्तिष्क(Brain) में अन्तर नहीं है, दोनों जड़ पदार्थ हैं, मन सूक्ष्म जड़ है, मस्तिष्क स्थूल जड़ है। " (वि० सा० ख० ४: २०२)
" सत्व,रज और तम- जगत के उपादान हैं, जिनसे समग्र विश्व विकसित हुआ है। कल्प के प्रारम्भ में ये साम्यावस्था में रहते हैं। सृष्टि का आरम्भ होने पर ही ये उपादान परस्पर अनन्त प्रकार से संयुक्त हो कर इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं। इसका प्रथम विकास महत् अथवा सर्वव्यापी बुद्धि है, और उससे अंहकार की उत्पत्ति होती है। अंहकार से मन अथवा सर्वव्यापी मनस-तत्व का उद्भव होता है। इस अहंकार से ही, मस्तिष्क में अवस्थित ज्ञान और कर्म के इन्द्रियों या स्नायू-केन्द्रों तथा तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। तन्मात्राओं को प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता, किन्तु वे जब स्थूल परमाणु बन जाते हैं, तब हम उन्हें अनुभव और इन्द्रियगोचर कर सकते हैं। बुद्धि, अंहकार और मन - इन तीन माध्यमों से कार्य करने वाला, ' चित्त ' - ही प्राण नामक शक्तियों की सृष्टि कर के उन्हें परिचालित कर रहा है। तुम्हे इस कुसंस्कार को अवश्य त्याग देना चाहिए कि प्राण केवल श्वास-प्रश्वास (Breath) है, श्वास-प्रश्वास तो प्राण का कार्य मात्र है। प्राण ही वायु पर कार्य कर रहा है, वायु प्राण के ऊपर नहीं। " (४:२११)
" प्राण का अभिप्राय है ऊर्जा (Energy)- जो सभी तरह की गति या सम्भाव्य गति, शक्ति या आकर्षण के रूपों में अपने को अभिव्यक्त करता है। "(४:१५२)
"आजकल हम जिसे जड़-पदार्थ (matter) कहते हैं, उसे प्राचीन हिंदू भूत अर्थात बाह्य तत्व कहते थे। उनके मतानुसार एक तत्व नित्य है, शेष सब इसी एक से उत्पन्न हुए हैं। इस मूल तत्व को ' आकाश ' की संज्ञा प्राप्त है। आजकल ईथर शब्द से जो भाव व्यक्त होता है, यह बहुत कुछ उसके सदृश है, यद्दपि पुर्णतः नहीं। इस मूलभूत आकाश-तत्व के साथ प्राण नाम की आद्य उर्जा भी रहती है। प्राण (Energy) और आकाश (Matter) संघटित और पुनः संघटित हो कर शेष तत्वों (वायु,अग्नि,जल,पृथ्वी) का निर्माण करते हैं। कल्पान्त में सबकुछ प्रलयगत हो कर आकाश और प्राण में लौट जाता है। " (४:१९४)
" ब्रह्माण्ड में जो उर्जा व्याप्त है, उसका नाम है प्राण और वह इन भूतों में शक्ति के रूप में निवास करती है। प्राण के प्रयोग का महान उपकरण है मन। मन भी भौतिक पदार्थ है। मन से परे है आत्मा, जो प्राण को धारण करता है। आत्मा वह ' विशुद्ध बुद्धि ' है जिससे प्राण नियंत्रित और निर्दिष्ट होता है। मन अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थ है, जो प्राण को अभिव्यक्त करने का एक उपकरण है। अभिव्यक्ति के लिए ऊर्जा या शक्ति (Energy) को भौतिक पदार्थ (Matter) की आवश्यकता होती है। " (४:९७)
" कॉस्मिक-प्लान या ब्रह्माण्ड का विधान है-' यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे ' - जो ब्रह्माण्ड में है, वह अवश्य पिण्ड में भी होगी। (What is in The Cosmos must also be microcosmic.) उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति (Individual) को लो; उसमे निहित वह भौतिक प्रकृति (अव्यक्त) इस ' सार्वभौम-बुद्धि ' या महत् के एक लघु कण में परिवर्तित हो जाती है। फ़िर उस सार्वभौम बुद्धि का एक लघु कण ' अहं-तत्त्व ' में परिणत हो जाता है, यह ' अहं ' ही उस व्यक्ति के स्थूल एवं सूक्ष्म भौतिक शरीर का संयोजन और निर्माण करते हैं। " (४:२०३)
" मैं तुम लोगों को देख रहा हूँ। इस दर्शन-क्रिया के लिए किन किन बातों की आवश्यकता है ? पहले तो आँख --आँखें रहनी ही चाहिए। मेरी अन्य सब इन्द्रियाँ भले ही अच्छी रहें, पर यदि मेरी आँखें न हों, तो मैं तुम लोगों को न देख सकूँगा। अतएव पहले मेरी आँखें अवश्य रहनी चाहिए। दुसरे, आंखों के पीछे और कुछ रहने की आवश्यकता है, और वास्तव में वही तो दर्शन-इन्द्रिय है। यह यदि हममे न हो, तो दर्शन -क्रिया असंभव है।
वस्तुतः आँखें इन्द्रिय नहीं हैं, वे तो दृष्टि की यंत्र मात्र हैं। यथार्थ इन्द्रिय आंखों के पीछे, हमारे मस्तिष्क में अवस्थित इसका नाड़ी-केन्द्र (Optic- nerve) है। यदि यह केन्द्र किसी प्रकार नष्ट हो जाये, तो दोनों आँखें रहते हुए भी मनुष्य कुछ देख न सकेगा।अतएव दर्शन क्रिया के लिए इस असली इन्द्रिय का अस्तित्व नितान्त आवश्यक है। हमारी अन्यान्य इन्द्रियों के बारे में भी ठीक ऐसा ही है। बाहर के कान धवनी-तरंगों को भीतर ले जाने के यन्त्र मात्र हैं, पर उस ध्वनी-तरंग को मस्तिष्क में अवस्थित उसके नाड़ी-केन्द्र या श्रवण - इन्द्रियों तक अवश्य पहुंचना चाहिए।
पर इतने से ही श्रवण-क्रिया पूर्ण नहीं हो जाती। कभी-कभी ऐसा होता है कि पुस्तकालय में बैठ कर तुम ध्यान से कोई पुस्तक पढ़ रहे हो,घड़ी में बारह बजने का टंकार पड़ता है, पर तुम्हे वह ध्वनी सुनायी नहीं देती। क्यों ? वहाँ ध्वनी तो है, वायु-स्पन्दन, कान और केन्द्र भी वहाँ हैं और कान के मध्यम से मस्तिष्क में अवस्थित उसके नाड़ी-केन्द्र तक स्पन्दन पहुँच भी गए हैं, पर तो भी तुम उसे सुन नहीं सके। किस चीज कि- कमी थी ? इस इन्द्रिय के साथ मन का योग नहीं था।
अतएव हम देखते हैं कि मन का रहना भी नितान्त आवश्यक है। पहले चाहिए यह बहिर्यंत्र, जो मानो विषय को वहन करके नाड़ी-केन्द्र या इन्द्रिय के निकट ले जाता है। फ़िर(स्थूल शरीर में अवस्थित) उस इन्द्रिय (Optic-nerve) के साथ (सूक्ष्म-शरीर में अवथित) मन को भी युक्त रहना चाहिए। जब मस्तिष्क में अवस्थित इन्द्रिय से मन का योग नहीं रहता, तब कर्ण-यन्त्र और मस्तिष्क के केन्द्र पर भले ही कोई विषय आकर टकराये, पर हमें उसका अनुभव न होगा।
मन भी केवल एक वाहक है, वह इस विषय की संवेदना को और भी आगे ले जा कर बुद्धि को ग्रहण कराता है। बुद्धि उसके सम्बन्ध में निश्चय करती है, पर इतने से ही नहीं हुआ। बुद्धि को उसे फ़िर और भी भीतर ले जाकर (स्थूल और सूक्ष्म दोनों) शरीर के राजा आत्मा के पास पहुँचाना पड़ता है। उसके पास पहुँचने पर वह आदेश देती है, ' हाँ, यह करो' या 'मत करो'। तब जिस क्रम में वह विषय संवेदना आत्मा तक गयी थी, ठीक उसी क्रम से वह बहिर्यंत्र में आती है- पहले बुद्धि में, उसके बाद मन में, फ़िर मस्तिष्क-केन्द्र में और अन्त में बहिर्यंत्र में; तभी विषय-ज्ञान की क्रिया पूरी होती है। " (२: १०९-१०)
" ये सब यंत्र आँख, कान, नाक आदि और उनका मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्र अथवा ' इन्द्रिय ' मनुष्य के स्थूल देह में अवस्थित है, पर मन और बुद्धि नहीं। मन और बुद्धि तो उसमें है, जिसे हिंदूशास्त्र - 'सूक्ष्म-शरीर' कहते हैं और इसाई शास्त्र 'आध्यात्मिक-शरीर' कहते हैं। वह इस स्थूल शरीर से अवश्य बहुत ही सूक्ष्म है, परन्तु फ़िर भी आत्मा नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार शरीर कभी सबल कभी दुर्बल होता है, उसी प्रकार मन भी कभी सबल कभी निर्बल हो जाता है। अतः मन आत्मा नहीं है, क्योंकि आत्मा कभी जीर्ण या क्षयग्रस्त नहीं होती। आत्मा इन सबके अतीत है। "(२:११०)
"जब मन किसी बाह्य-वस्तु का अध्यन करता है, तब वह उससे अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है, और स्वयं लूप्त हो जाता है। यह 'मन' आत्मा का ' दिव्य चक्षू ' है ! हमारा मन उस स्फटिक खंड के समान है, जो अपने निकट की वस्तुका रंग ग्रहण कर लेता है। हम लोगों ने शरीर का रंग ग्रहण कर लिया है,अर्थात शरीर के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लिया है, और भूल गये हैं कि हम क्या हैं। ....हम लोग उसी प्रकार शरीर नहीं हैं, जिस प्रकार स्फटिक ' लाल फूल ' नहीं है।... आत्मा की स्वस्थतम अवस्था - तब है जब वह 'स्व' का चिन्तन कर रही हो और अपनी गरिमा में स्थित हो।" (४:१३१)
" मनुष्य दिव्य है, यह दिव्यता ही हमारा स्वरूप है। अन्य जो कुछ है वह अध्यास मात्र है। उसके दिव्य स्वरूप का कभी भी नाश नहीं होता। यह जिस प्रकार ' परम-संत ' में है, वैसे ही ' महा-अधम ' व्यक्ति में भी है। हमे अपने इसदेव-स्वभाव का केवल आह्वान करना होगा, और वह स्वयं ही अपने को प्रकट कर देगा। चकमक पत्थर और सूखी- लकड़ी में आग रहती है, पर उस आग को बाहर निकालने के लिये घर्षण आवश्यक था। नीचे धरती पर रेंगने वाला क्षुद्र कीड़ा और स्वर्ग का श्रेष्ठतम देवता इन दोनों में ज्ञान का भेद प्रकार्गत नहीं, परिणाम गत है। " (२:१८२)
" अगर कोई व्यक्ति हत्यारा है, तो उसमे प्रतिफलक (मन-दर्पण) बुरा है, न कि आत्मा। दूसरी ओर अगर कोई साधू है तो उसमे प्रतिफलक शुद्ध है। सत्ता केवल एक ही है जो कीट से लेकर पूर्णतया विकसित मनुष्य (बुद्ध या ईशा) तक में प्रतिबिम्बित है। इस तरह सम्पूर्ण विश्व एक एकत्व, एक सत्ता है- भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक, हर दृष्टि से। इस एक सत्ता को ही हम विभिन्न रूपों में देखते हैं। " (२:११२)
" जगत को विचार कि दृष्टि से देखने पर.… प्रतीत होगा कि, इसका एक-एक आदमी एक-एक विशेष मन है। तुम एक मन हो, मैं एक मन हूँ, प्रत्येक व्यक्ति केवल एक मन है। फ़िर इसी जगत को ज्ञान कि दृष्टि से देखने पर,.... अर्थात जब आंखों पर से मोह का आवरण हट जाता है, जब मन शुद्ध और पवित्र हो जाता है, तब यही पहले के एक-एक मन उसी अखंड पूर्णस्वरूप 'पुरूष' के विभिन्न रूप प्रतीत होते हैं।" (२:३२) " अहं को निकाल डालो , उसका नाश कर डालो, उसे भूल जाओ, अपने द्वारा ईश्वर को कार्य करने दो- यह उन्ही का कार्य है,उन्हें ही करने दो।...." पहले अपने (मन) को जीत लो , फ़िर सम्पूर्ण जगत तुम्हारे पैरों के नीचे आ जायगा ।" (७:२२)
." तुच्छ अहं को नष्ट कर डालो , केवल महत अहं को रहने दो। हम अभी जो कुछ हैं, वह सब अपने चिन्तन का फल है। इसलिए तुम क्या चिन्तन करते हो, इस विषय में ध्यान दो, विशेष ध्यान रखो। शब्द-वाणी तो गौण वस्तु हैं। चिन्तन ही बहुकाल स्थाई है और उसकी गति भी दूर व्यापी है। हम जो कुछ चिन्तन करते हैं, उसमे हमारे चरित्र की छाप लग जाती है."(७:२२)....
" जितनी बार तुम कहते हो, ' तू नहीं मैं' ; उतनी बार तुम अनन्त को यहाँ ( अपने देह-मन के माध्यम से) अभिव्यक्त करने का व्यर्थ में प्रयास करते हो। इसी से संसार में प्रतिद्वंदिता, संघर्ष और अनिष्ट की उत्पत्ति होती है। पर अन्त में 'मिथ्या-मैं' का त्याग होगा, यह 'मैं' मर जायगा। इस तुच्छ पृथक अहंता को नष्ट होना ही चाहिए।" (२:१७७)
" यह जो (अमुक नाम वाले व्यक्ति) के रूप में मेरा नाम- रूपात्मक चेहरा दिख रहा है, इसके पीछे जो असीम विद्यमान है, उसी ने अपने को बहिर्जगत में व्यक्त करने के लिए जैसा रूप धारण करने कि इच्छा की थी- उसी का परिणाम है। इस (नाम-रूपात्मक)- 'मैं' को फ़िर पीछे लौट कर अपने अनन्तस्वरूप में मिल जाना होगा."(२:१७६)
..." अहं - ही वह वज्रदृढ़ प्राचीर है, जिसने हमे बद्ध कर रखा है, और भोग वासना है लाख फन वाला सर्प , हमे उसे कुचलना ही होगा."(७:२३)..
" प्रत्येक वस्तु क्रम-परिवर्तन शील है। यह सारा विश्व ही परिवर्तन शीलता का एक पिंड है।आज के पर्वत कल समुद्र थे , और कल वहां पुनः समुद्र दिखाई देगा। एकमात्र ईश्वर ही ऐसा है, जिसमे कभी परिवर्तन नहीं होता, हम उसके जितने समीप लौटेंगे, प्रकृति का अधिकार हम पर उतना ही कम होता जायगा,उतना ही कम परिवर्तन या विकार हम में होगा। और जब हम उस तक पहुंच जायेंगे- तो हम प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेंगे, प्रकृति के सारे व्यापार हमारे अधीन हो जायेंगे,और हम पर उनका कोई प्रभाव न पडेगा।"(३:१०६)
" हमारा यह शरीर वृद्धि और क्षय के नियमों से बद्ध है, - जिसकी जन्म और वृद्धि है, उसका क्षय भी अवश्यमेव होगा। परन्तु देहमध्यस्त आत्मा तो असीम एवं सनातन है, वह अनादी और और अनन्त है। ...काल कि गति काशाश्वत सत्ता पर कोई असर नहीं होता।....मानव-बुद्धि के लिये सर्वथा अगम्य जो 'अतीन्द्रिय-भूमि ' है, वहाँ न तो 'भूत' है न 'भविष्य'। वेदों का कथन है कि मानव कि आत्मा अमर है। "(१:२५४)
'सूक्ष्म-शरीर' क्या है ? " मन, अहं-बोध, मस्तिष्क स्नायु-केन्द्र या इन्द्रिय, और प्राण - इन सबके संयोग से ' सूक्ष्म-शरीर ' बनता है, जिसे इसाई दर्शन में मानव का आध्यात्मिक देह कहते हैं। इस देह (सूक्ष्म शरीर या मन ) को ही उद्धार और दण्ड प्राप्त होता है, इसका ही बार- बार जन्म और पुनर्जन्म होता है। " (४:२१३)
"परन्तु मुझमे कुछ अहं था, इसीलिए उस समाधि कि अवस्था से लौट आया था." (६:९९)..." जब मैं लड़ता हूँ , कमर कस कर लड़ता हूँ- इसके मर्म को समझता हूँ। श्री रामकृष्ण के दासानुदासों में से कोई न कोई मुझ जैसा अवश्य बनेगा, जो मुझे समझेगा। "(६:३८३)
" इस जन्म-मृत्यु की समस्या की यथार्थ मीमांसा के लिए यदि यम के द्वार पर जा कर भी सत्य का लाभ कर सको तो निर्भय ह्रदय से वहाँ जाना उचित है। भय ही मृत्यु है। भय से पर हो जाना चाहिए। अपने मोक्ष तथा परहित के निमित्त आत्मोसर्ग करने के लिए अग्रसर हो जाओ। ...दधिची के समान औरों के लिए अपना हाड-मांस दान कर दो। जो ब्रह्मज्ञ हैं, जो अन्य को भय से पार ले जाने में समर्थ हैं,वे ही यथार्थ गुरु हैं। "(६:३३)
" यह मानव आत्मा देह से देहान्तर में संक्रमित हो रही है, इस प्रवास में वह कितने ही भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हुई है एवं होगी। आध्यात्मिक विकास के उस महान नियमानुसार वह अधिकाधिक अभिव्यक्त हो रही है। परन्तु जब वह सम्पूर्ण अभिव्यक्त हो जायेगी, तब उसमे और अधिक परिणाम न होगा। (१:२५४)
" (यदि कार्य-कारण वाद या परिणाम वाद सच है) तो हमे अपने पूर्व जन्मों का कुछ भी स्मरण क्यों नहीं है?मनः समुद्र की उपरी सतह का नाम ही चेतन अवस्था है। किन्तु उसकी गहराई में (अवचेतन मन में) संचित है, मानव के समस्त सुखात्मक और दुखात्मक अनुभव। मानव आत्मा कुछ ऐसी वस्तु पाने की इच्छा करती है, जोअचल हो, अविनाशी हो। जबकि हमारा यह शरीर और मन ही क्या, नाना रूपात्मक यह समस्त प्रकृति ही अनवरत परिवर्तनशील है। पर हमारी अन्तरात्मा की सर्वोच्च अभिलाषा (या तड़प) यही है, कि उसे कुछ ऐसा प्राप्त हो जाये, जिसका परिवर्तन नहीं होता, जो चिर(शान्ति) पूर्णता को पा चुकी हो। और यही है उस असीम के लिये मानवात्मा कि अभीप्सा ! हमारा नैतिक और मानसिक विकास (अर्थात चरित्र-निर्माण) जितना ही सूक्ष्मतर होता जायेगा, उस अपरिवर्तनशील सत्ता के प्रति हमारी अभीप्सा (व्याकुलता) भी उतनी ही दृढ़ होती जायेगी। "(१:२५५)
" हमारे ऋषि तो यह कहते हैं, कि इन्द्रियजन्य सुखों में तृप्त रहना उन कारणों में से एक है, जिसने सत्य और हमारे बीच परदा सा डाल दिया है। केवल कर्म-कांडों में रूचि, इन्द्रियों में तृप्ति तथा नाना प्रकार मतवादों ने हमारे और सत्य के बीच एक आवरण डाल रखा है।' एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति ' - सत्ता केवल एक है, ऋषिगण उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं।...सत्य तो चिरकाल से ही विद्यमान था, केवल इस (नाम-रूप) के आवरण ने ही उसे ढँक रखा था। " (१:२५५)
"हम विश्व के रहस्य को हल करने की चेष्टा करते हैं। ऐसा लगता है कि यह सब हमे अवश्य जान लेना चाहिए, हमे ऐसा कभी महसूस नहीं होता कि 'ज्ञान' कोई प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है। ....किन्तु अति बलवान इन्द्रियाँ मनुष्य की आत्मा को, 'अवशीभूत मन' - रूपी शत्रु की सहायता से बाहर की विषयों में खींच लातीं हैं। और मनुष्य ऐसे स्थान में सुख की खोज करने लगता है, जहाँ वे हैं ही नहीं, जहाँ वह उन्हें कभी पा नहीं सकता। ...हम कुछ कदम आगे जाते हैं, कि अनादी-अनन्त कालरुपी प्राचीर व्यवधान बन जाता है; जिसे हम लाँघ नहीं सकते। कुछ दूर बढ़ते ही असीम देश का व्यवधान खड़ा हो जाता है, फ़िर यह सब कार्य-कारण रूपी दीवार द्वारा सुदृढ़ रूप से सीमा-बद्ध है !...तो भी हम संघर्ष करते हैं !" (२:७४)
" इन्द्रियपरायण जीवन से अतीत होने की हमारी असमर्थता, और शारीरक विषय-भोगों के लिये उद्यम ही संसार में सभी प्रकार के आतंकों (भ्रष्टाचार) तथा दुखों का कारण है। "(४:११४)
." हमारे चारो ओर अनेक मोह रूपी जाल हैं, कुछ क्षण के लिए हमे प्रतीत होता है कि हम स्वर्गीय दिव्य ज्योति में तन्मय हो जाएंगे , परन्तु कुछ ही देर बाद कोई दृश्य या स्मृति हमारे पाशविक भाव को भड़का देती है।" (७:२४९)" वास्तव में पाशविक भाव के उपर विजय प्राप्त कर लेने, तथा जन्म-मरण के प्रश्न को सुलझा लेने और श्रेय -प्रेय के बीच के भेद को जान लेने कि अपेक्षा और श्रेष्ठ है ही क्या ?"(७:२५०)
" स्वाधीनता ही उच्च जीवन की कसौटी है।आध्यात्मिक जीवन उस समय प्रारम्भ होता है, जिस समय तुम अपने को इन्द्रिय बन्धनों से मुक्त करलेते हो। जो इन्द्रियों के अधीन है, वही संसारी है, वही दास है। " (४:४३)
" एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिये - अविराम चेष्टा कर रही है, और बाह्य परिवेश उसको दबाये रखने के लिये प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जानेकी इस चेष्टा का नाम ही जीवन है।" (विवेकानन्द चरित-पृष्ठ १०८)
"सच पूछा जाय तो 'पूर्ण-जीवन' शब्द ही स्वविरोधात्म्क है। जीवन तो हमारे एवं प्रत्येक वाह्य वस्तु के बीच एक प्रकार का निरन्तर संघर्ष है।" (३:५९)
" मैं जीवन से उच्चतर कोई वस्तु हूँ; जीवन सदैव दासता है। हम (और जीवन ) सदा घुल-मिल जाते हैं। "(४:१३६)
" हम सबों में मुक्ति की भावना-स्वाधीनता की भावना हुआ करती है, उसी से यह संकेत मिलता है कि हमारे अन्तराल में, शरीर(Hand) और मन (Head) से परे भी कुछ और है। हमारी अन्तर्यामी आत्मा(Heart) स्वरूपतः स्वाधीन है और वही हममे मुक्ति की इच्छा जाग्रत करती है। " (१:२५६)
" प्रकृति हमे चारो ओर से दमित करने का प्रयास कर रही है, और आत्मा अपने को अभिव्यक्त करना चाहती है। प्रकृति कहती है - ' मैं विजयी होउंगी ' ; आत्मा कहती है- ' विजयी मुझे होना है '। प्रकृति कहती है- ठहरो, मैं तुम्हे चुप रखने के लिये थोड़ा सुख भोग दूंगी। आत्मा को थोड़ा मज़ा आता है, क्षण भरके लिये वह धोखे में पड़ जाती है, पर दुसरे ही क्षण वह फ़िर मुक्ति के लिये चीत्कार कर उठती है।" (३:१७३)
" हम वस्तुतः वही अनन्तस्वरूप हैं- अपने उसी अनन्त स्वरूप को अभिव्यक्त कर रहे हैं। यहाँ तक तो ठीक है। पर इसका क्या मतलब कि, जब तक हम सब पूर्ण नहीं हो जाते, अनन्त क्रमशः अधिकाधिक व्यक्त होता रहेगा ? पूर्णता का अर्थ है-अनन्त , और अभिव्यक्ति का अर्थ है- ससीम। तो क्या हम असीम रूप से ससीम बन जायेंगे ? पर यह स्वविरोधी वाक्य है। (तात्पर्य यह है कि )....हम अपने ईश्वर भाव को भूल कर, पशु जैसे हो गये थे। अब हम फ़िर उन्नत्ति के मार्ग पर चल रहे हैं, और इस बंधन से बाहर होने का प्रयत्न कर रहे हैं, हम प्राणपन से उसकी चेष्टा कर रहे हैं,....पर अन्त में एक समय आएगा, जब हम देखेंगे कि - जब तक हम इन्द्रियों के गुलाम बने हुए हैं, तब तक पूर्णता कि प्राप्ति असंभव है। तब हम अपने मूल अनन्तस्वरूप कि ओर लौटना शुरू करेंगे। यही त्याग है, यही नैतिकता है। "(२:१७५)
" यह चित्त अपनी स्वाभाविक पवित्र अवस्था को फ़िर से प्राप्त कर लेने के लिये सतत् चेष्टा कर रहा है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर खींचे रहती हैं। चित्त में बाहर जाने और विषय भोगों में चिपके रहने की जो प्रवृत्ति है- उसका दमन करना होगा और उसके बहिर्मुखी प्रवाह (पर वैराग्य का फाटक लगा कर, या लालच को कम करके ) को आत्मा की ओर मोड़ देना होगा। यही योग का पहला सोपान है। "(१:११८)
" असीम शक्ति का एक स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुण्डली मारे विद्यमान है, और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। और ज्यों ज्यों यह फैलता है, त्यों त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है, वह उनका परित्याग कर उच्चतर शरीर धारण करता है। यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता या प्रगति का इतिहास। वह भीमकाय ' प्रोमिथियस ' (एक यूनानी देवता जिसने olampious से चुराई हुई अग्नि मनुष्य को दिया और जिसे दंड स्वरूप जंजीरों में जकड़ दिया गया) मानो अपने को बंधन मुक्त कर रहा है। " (९:१५६)
" मेरी ही यह 'विश्वजनीन बुद्धि' - क्रमसंकुचित हुई थी, और वही क्रमशः अपने को अभिव्यक्त कर रही है, जब तक कि वह पूर्ण मानव में परिणत नहीं हो जाती। फ़िर वह अपने उत्पत्ति-स्थान में लौट जायगी , ब्रह्मलीन हो जायेगी । धर्म तत्वज्ञ इस विश्वव्यापी बुद्धि को ही ईश्वर कहते हैं।" (२:१०६)
" हमारे इस अविराम,कठोर जीवन-संग्राम का लक्ष्य है, अंत में उनके निकट पहुँच कर उनके साथ एकीभूत हो जाना। " (४:५०)
" पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, केवल उसके किवाड़ बंद हैं, वह अपना यथार्थ रास्ता नहीं पा रही है, यदि कोई इस बाधा को दूर कर सके तो, उसकी स्वभाविक पूर्णता अपनी शक्ति के बल से अभिव्यक्त होगी ही। मनःसंयोग का अभ्यास और चरित्र निर्माण की साधना ही उस पूर्णता के किवाड़ को खोल देता है, जो हमारा स्वभाव है,वह दिव्यता प्रकट हो जाती है।" (१:२०६)" स्वयं 'व्यास देव' भी पूर्णत्व प्राप्त करने में , पूर्ण रूप से सफल न हो सके थे, परन्तु उनके पुत्र - ' शुकदेव' जन्म से ही सिद्ध थे।......जो मनुष्य ' विदेह' बन चुका है; जिस मनुष्य ने स्वयं पर अधिकार प्राप्त कर लिया है, ( मन को पूरी तरह से जीत लिया है ) उसके उपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती, उसके लिए किसी भी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती। उसका मन स्वतन्त्र हो जाता है- और केवल ऐसा पुरूष ही संसार में रहने के योग्य है। "(३:६६)
" जो पूर्ण है , वह किसी के द्वारा कभी अपूर्ण कैसे हो सकता है? जो मुक्त है, वह कभी बंधन में कैसे पड़ सकता है? तुम कभी बंधन में नहीं थे। तुम पूर्ण हो, ईश्वर पूर्ण है, तुम सब पूर्ण हो, सत्ता एक ही हो सकती है, दो नहीं। पूर्ण को कभी अपूर्ण नहीं बनाया जा सकता।......तुम लक्ष्य तक पहुंच चुके हो-जो भी गन्तव्य है। मन को कदापि न सोंचने दो कि - तुम लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाये हो। हम जो कुछ सोंचते हैं, वही बन जाते हैं। यदि तुम अपने को हीन पापी सोंचते हो तो, तुम अपने को सम्मोहित कर रहे हो।...यह सब कौतुक है। " (९:१४३)
" पूर्णता का मार्ग यह है कि, स्वयं पूर्णता को प्राप्त होना ,तथा कुछ थोड़े से स्त्री-पुरुषों को पूर्णता को प्राप्त होने में सहायता करना। फिर मैं भैंस के आगे बीन बजा कर - समय, स्वास्थ्य और शक्ति का अपव्यय क्यों करूँ? "(२:३३२)
" पूर्ण ( या असंख्य) में पूर्ण का भाग दो, पूर्ण जोडो , पूर्ण से पूर्ण में गुना करो, पूर्ण ही रहेगा।"
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुद्च्च्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा वशिष्यते । ।
(संस्कृत भाषा - पूर्णांग भाषा है !) (१०:११७)
" जीवन का अर्थ ही वृद्धि अर्थात विस्तार यानि प्रेम है। इसलिए प्रेम ही जीवन है, यही जीवन का एकमात्र नियम है, और स्वार्थपरता ही मृत्यु है। परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना ही मृत्यु है। ...जीसमे प्रेम नहीं वह जी भी नहीं सकता। ( ३:३३३)
" एकमात्र परोपकार को ही मैं कार्य मानता हूँ, बाकि सब कुकर्म है। " (४:२९८)
" जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों कि सेवा में न्योछावर कर दिया जाये।"(४:५८)
" तुमलोग चारो ओर फ़ैल जाओ , अर्थात जगह जगह शाखाएं स्थापित करने का प्रयत्न करो। मौका खाली न जाने पाये, मद्रासियों (हर प्रांत वालों), से मिल कर जगह जगह समिति आदि की स्थापना करनी होगी। ( हिन्दी में महामंडल पुस्तिकाओं- पत्रिकाओं ) के ग्राहक क्यों नहीं बढ़ रहे ? अपनी बहादुरी तो दिखाओ। प्रिय भाई, मुक्ति न मिली, तो न सही, दो-चार बार नर्क ही जाना पडे,तो हानि क्या है ? क्या यह बात असत्य है ?--
-'मनसी वचसी काये पुण्यपियूष पूर्णाः,त्रिभुवनम उपकारश्रेणीभिः प्रीण यन्तः ।
परगुण परमाणुंग पर्वतीकृत्य नित्यं,निजहृदि विकसंतः सन्ति सन्तः कियन्तह।।
अर्थात ऐसे साधू कितने हैं, जिनके कार्य , मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं, और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन की प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणु तुल्य - अर्थात अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर अपने हृदयों का विकास साधन करते हैं ? श्री परमहंस देव के प्रति श्रद्धासम्पन्न १० व्यक्ति भी जहाँ हैं, वहीं एक सभा स्थापित करो। हरी-सभा इत्यादि को धीरे धीरे स्वाहा करना होगा।
'परोपकाराय हि सतां जीवितं , परार्थ प्राग्य उत्सृजेत -' साधुओं का जीवन परोपकार के लिए ही है, प्राज्ञ व्यक्तियों को दूसरों के लिए सब कुछ न्योच्छावर कर देना चाहिए।" (४:३०७)
-'मनसी वचसी काये पुण्यपियूष पूर्णाः,त्रिभुवनम उपकारश्रेणीभिः प्रीण यन्तः ।
परगुण परमाणुंग पर्वतीकृत्य नित्यं,निजहृदि विकसंतः सन्ति सन्तः कियन्तह।।
अर्थात ऐसे साधू कितने हैं, जिनके कार्य , मन तथा वाणी पुण्यरूप अमृत से परिपूर्ण हैं, और जो विभिन्न उपकारों के द्वारा त्रिभुवन की प्रीति सम्पादन कर दूसरों के परमाणु तुल्य - अर्थात अत्यंत स्वल्प गुण को भी- पर्वत प्रमाण बढ़ा कर अपने हृदयों का विकास साधन करते हैं ? श्री परमहंस देव के प्रति श्रद्धासम्पन्न १० व्यक्ति भी जहाँ हैं, वहीं एक सभा स्थापित करो। हरी-सभा इत्यादि को धीरे धीरे स्वाहा करना होगा।
'परोपकाराय हि सतां जीवितं , परार्थ प्राग्य उत्सृजेत -' साधुओं का जीवन परोपकार के लिए ही है, प्राज्ञ व्यक्तियों को दूसरों के लिए सब कुछ न्योच्छावर कर देना चाहिए।" (४:३०७)
" बुद्धदेव की जीवनी, ' ललित-विस्तार ' के प्रसिद्द गीत में कहा गया है - बुद्ध ने मनुष्य जाती के परित्राता या मार्गदर्शक ' नेता ' के रूप में जन्म लिया; किन्तु जब राज-प्रासाद की विलासिता में वे अपने को भूल गये, तब उनको जगाने के लिये देवदूतों ने एक गीत गाया, जिसका मर्मार्थ इस प्रकार है - ' हम एक प्रवाह में बहते चले जा रहे हैं; हम अविरत रूप से परिवर्तित हो रहे हैं- कहीं निवृत्ति नहीं है, कहीं विराम नहीं है; सारा संसार मृत्यु की ओर चला जा रहा है-सभी मरते हैं ! हमारी सभी प्रगति, व्यर्थ का आडम्बरी जीवन, हमारे समाज-सुधार ! हमारी विलासिता, हमारे ऐश्वर्य, हमारा ज्ञान - इन सबकी मृत्यु ही एक मात्र गति है ! हम क्यों इस जीवन में आसक्त हैं ? क्यों हम इसका परित्याग नहीं कर पाते ?... यह हम नहीं जानते ! और यही माया है !! " (२:४७)
" भारतीय कुशल-प्रश्न है, ' आप स्वस्थ तो हैं ? '- जिसका अर्थ है आप अपने में स्थित हैं या देह में?...ध्यान करने का तात्पर्य है- आत्मा का अपने में (या स्व में) स्थित होने के लिए यत्न करना। "
" आगे बढ़ो ! सैकड़ो युगों तक संघर्ष करने से एक चरित्र का गठन होता है। निराश न होओ! सत्य के एक शब्द का भी लोप नहीं हो सकता। सत्य अविनाशी है, पुण्य अनश्वर है,पवित्रता अनश्वर है। मुझे सच्चे मनुष्य की आवश्यकता है, मुझे शंख-ढपोर चेले नहीं चाहोये। ... सदाचार सम्बन्धी जिनकी उच्च अभिलाषा मर चुकी है, भविष्य की उन्नति के लिए जो बिल्कुल चेष्टा नहीं करते, और भलाई करने वालों को धर दबाने में जो हमेशा तत्पर हैं- ऐसे ' मृत-जड़पिण्डों ' के भीतर क्या तुम प्राण का संचार कर सकते हो ? क्या ' तुम ' उस वैद्य की जगह ले सकते हो, जो लातें मारते हुए उदण्ड बच्चे के गले में दवाई डालने की कोशिश करता हो ? भारत को नव-विद्युत की आवशयकता है, जो राष्ट्र की धमनियों में नविन चेतना कासंचार कर सके। यह काम हमेशा धीरे धीरे हुआ है, और होगा। " ( ३:३४४)
'गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा' के अनुसार चपरास प्राप्त वेदाध्यापकों या मानव-जाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने की अनिवार्यता पर स्वामी विवेकानन्द जी के विचार :
" जिन्हों ने धर्म-लाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं। वे ही मनुष्य जाती के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं।" (७:२६७)
" मनुष्य को पहले चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए और उसके बाद फल स्वयं मिल जाता है। ...अतः अपने विचारों का दूसरो में प्रचार करने के लिए जल्दी नहीं करनी चाहिए, पहले हमारे पास देने के लिए कुछ होना चाहिए। "(७:२५८)
" प्रथम तुम स्वयं आत्मज्ञानी हो जाओ तथा संसार को कुछ देने के योग्य बन जाओ और फ़िर संसार के सम्मुख देने के लिए खडे होओ ।"(७:२६०)
" स्वयं आध्यात्मिक सत्य कि उपलब्धी करने और दूसरों में उसका संचार करने का एक मात्र उपाय है- हृदय और मन कि पवित्रता।"(४:२२)
" शिक्षा (=शीक्षा) देना केवल लेक्चर देना नहीं है, और न सिद्धांत बघारना ही शिक्षा है, इसका अर्थ है -सम्प्रेष्ण !" (७:२५८)
विद्या-गुरुमुखी: " जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है, वह गुरु (नेता ) कहलाता है। और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचारित होती है, उसे शिष्य (या भावी वेदाध्यापक या वुड बी लीडर) कहते हैं।"(४:१७).
" सच्चे गुरु वह हैं , जिनके द्वारा हमको अपना आध्यात्मिक जन्म प्राप्त हुआ है। वे ही वह साधन हैं , जिसमे से हो कर आध्यात्मिक प्रवाह हम लोगों में प्रवाहित होता है।" (७:१००)॥
" एक लोकप्रिय गीत , जो मेरे गुरु देव सदा गाया करते थे, मुझे इस समय याद आ रहा है- ' दिल जिस से मिल जाता है, वह जन अपनी आंखों से व्यक्त कर देता है ! हैं ऐसे दो-एक जन , जो करते विचरण - जगत की अनजानी राहों पर.' (७:३६९)...
" गुरु वह आभामय चेहरा है, जिसे ईश्वर हम तक पहुँचने के लिए धारण करता है। जब हम एकटक उसे निहारते हैं तो, धीरे-धीरे वह चेहरा गिर जाता है और ईश्वर प्रकट हो जाते हैं।" (३:१९९)
गुरु (या नेता) का चुनाव करते समय पहले उनको जाँच कर देखो, जो वे कहते हैं स्वयं उनका जीवन उस प्रकार का है या नहीं ? कथनी और करनी में कहीं अन्तर तो नहीं है ? हर एक आदमी गुरु होना चाहता है। एक भिखारी भी चाहता है कि लाखों का चेक दान में काट कर देदे। जैसे हास्यास्पद ये भिखारी हैं, वैसे ही ये गुरु भी हैं।"(४:१९)
" बहुत से लोग ऐसे हैं, जो स्वयं तो बडे अज्ञानी हैं, परन्तु फ़िर भी अंहकार वश अपने को सर्वज्ञ समझते हैं; इतना ही नहीं , बल्कि दूसरो को भी अपने कन्धों पर ले जाने को तैयार रहते हैं। इस प्रकार जो स्वयं अँधा है वही अन्य अंधों का अगुवा- 'पथ प्रदर्शक' (नेता) बन जाता है, फलतः दोनों ही गड्ढे में गिर पड़ते हैं।"
" कुछ अपवाद -स्वरूप आत्माएँ , पहले से ही मुक्त हैं, और जो संसार की भलाई के लिए, संसार को सहायता देने के लिए यहाँ जन्म लेतीं हैं। वे पहले से ही मुक्त होतीं हैं, उन्हें अपनी मुक्ति की चिंता नहीं होती, वे केवल दूसरो की सहायता करना चाहती हैं। वे तो उन अभिनेताओं के समान हैं, जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चुका है। "(७:८)॥
"साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते हैं, वे हैं- इस संसार में ईश्वर के अवतार। वे केवल स्पर्श से, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही आध्य्मिकता प्रदान कर सकते हैं। वे गुरुओं के भी गुरु हैं। हम उनकी उपासना किए बिना रह नहीं सकते, हम उनकी उपासना करने को विवश हैं। "(४:२५)
..."ईश्वर है पारस मणि, उसके स्पर्श से मनुष्य एक क्षण में सोना बन जाता है."(७:१३) ..." एक सच्चा गुरु शिष्य से कहेगा- जा अब और पाप न कर। और शिष्य अब पाप नहीं कर सकता।"(३:१९८)
...वे उन प्रथम दीपों के समान हैं, जिनसे अन्य दीप जलाये जाते हैं,..उनके सम्पर्क में आने वाले मनो उनसे अपना दीप जला लेते हैं, परन्तु वह 'प्रथम दीप' अमंद ज्योति से जगमगाता रहता है।" (३:१९६)
" बौद्धों कि एक उदार प्रार्थना है- ' पृथ्वी के सभी पवित्र मनुष्यों के समक्ष (मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं के समक्ष ) मैं नतमस्तक हूँ।'... जब तुम जैसे पवित्र और आनंदित लोगों के दर्शन मिलते हैं -जिसके मस्तक पर प्रभु अपनी ऊँगली से 'यह मेरा है' स्पष्ट रूप से अंकित कर दिए होते हैं तब मुझे इस प्रार्थना के सही अर्थ का बोध होने लगता है। "(२:३३३)
.." पैगम्बर धर्म का प्रचार करते हैं, किंतु ईसा, बुद्ध, श्री रामकृष्ण आदि के समान अवतार पुरूष धर्म प्रदान करते हैं। उनका मात्र एक स्पर्श, या एक दृष्टि-पात ही पर्याप्त होता है। इसाई धर्म में इसी को - पवित्र आत्मा की शक्ति (Power of holy ghost) को दूसरो में संचारित करना (by the lying of hands) कहते हैं। प्रभु ईसा ने अपने शिष्यों के भीतर सचमुच शक्ति का संचार किया था। इसी को गुरु-परम्परा गत शक्ति कहते हैं। यही यथार्थ 'Baptism' दीक्षा है और अनादी काल से चली आ रही है। "(७:१४)....
" श्री रामकृष्ण देव जैसे पुरुषोत्तम ने इससे पहले जगत में और कभी जन्म नहीं लिया। संसार के घोर अंधकार में अब यही महापुरुष ज्योतिस्वरूप हैं। इनकी ही ज्योति से मनुष्य संसार-समुद्र के पार चले जायेंगे।"(६:४७,४९)
" श्रीरामकृष्ण के जीवन का पूर्वार्ध धर्मोपार्जन में लगा रहा तथा उत्तरार्ध उसके वितरण में।....दूसरों के प्रति उनमे अगाध प्रेम था।" (७:२६५)......" श्री रामकृष्ण का संदेश है-' प्रथम स्वयं धार्मिक बनो और सत्य की उपलब्धी करो। उनका सिद्धांत था कि, मनुष्य को प्रथम चरित्रवान होना चाहिए तथा आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जब तुम्हारा चरित्र रूपी कमल पूरी तरह खिल जायगा ,तब देखोगे कि सारे फल तुम्हे अपने-आप प्राप्त हो रहे हैं."(७:२५८)
" आधुनिक संसार के लिए श्री रामकृष्ण का संदेश यही है---' मतवादों,आचारों, पंथों, तथा गिरजाघरों एवं मन्दिरों की चिंता न करो। प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सार वस्तु ; अर्थात आत्म-तत्व विद्यमान है, इसकी तुलना में ये सब तुच्छ हैं, और मनुष्य के अंदर यह भाव जितना ही अधिक अभिव्यक्त होता है, वह उतना ही जगत् कल्याण के लिए सामर्थ्यवान हो जाता है। प्रथम इसी धर्म-धन का उपार्जन करो, किसी में दोष मत खोजो, क्योंकि; ' सभी मत , सभी पथ ' अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय , वरन इसका अर्थ होता है-'आध्यात्मिक-अनुभूति।' जिन्हें अनुभव हुआ है, वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्य जाती के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं-- केवल वे ही ज्योति की शक्ति हैं।" (७:२६७)
"श्री रामकृष्ण ने अपने पूजा-पाठ का प्रचार करने का उपदेश मुझे कभी नहीं दिया। वे साधना पद्धति, ध्यान-धारणा तथा अन्य ऊँचे धर्म भावों के सम्बन्ध में जो सब उपदेश दिए हैं, उन्हें पहले अपने में अनुभव कर के, फ़िर सर्व-साधारण को उन्हें सिखाना होगा। 'मत अनंत हैं; पथ भी अनंत हैं '। सम्प्रदायों से भरे जगत में और एक नवीन सम्प्रदाय पैदा कर देने के लिए मेरा जन्म नहीं हुआ। "
" यह ख्याल रखना कि इन सारे कार्यों की देख-भाल तुमको ही करनी होगी, पर 'नेता' बन कर नहीं 'सेवक' बन कर।"(२:३९४)...
" मेरा सिद्धांत है कि प्रत्येक अपनी सहायता आप करता है। नारी या पुरूष एक दूसरे पर शासन क्यों करें ? प्रत्येक स्वतंत्र है। यदि कोई बंधन है, तो वह प्रेम का। नारियाँ स्वयं अपने भाग्य का विधान कर लेंगी, पुरुषों का स्त्रियों के भाग्य का विधान अपने हाँथ में रखना- नारियों कि अवमानना है। ....मैं ऐसी गलती के साथ प्रारम्भ नहीं करना चाहता, क्योंकि यही गलती फ़िर समय के साथ बडी होती जायगी , इतनी बडी कि अन्ततोगत्वा उसके अनुपात को सम्भालना असम्भव हो जाएगा ।अतः यदि स्त्रियों के कार्य में पुरुषों को लगाने की भूल मैंने की , तो स्त्रियाँ कभी भी मुक्त न हो सकेंगी - वह एक खानापूर्ति जैसा कार्य होगा। माँ (श्रीसारदा देवी) हमारी 'संघ-नेत्री' हैं, पर वे कभी हम पर शासन नहीं करतीं। "(१० :२०)
" स्त्रीयों में जो ईश्वरत्व वास करता है, उसे हम कभी ठग नहीं सकते।...वह सदैव ही अचूक रूप से बेईमानी तथा ढोंग को पहचान लेता है।...पश्चिम में स्त्रियों की पूजा प्रायः उनके तारुण्य तथा लावण्य के कारण होता है। किंतु पथ-प्रदर्शकों (यथार्थ नेताओं) के लिए प्रत्येक स्त्री का मुखार्विन्द , उस आनन्दमयी माँ का ही मुखार्विन्द है."(७:२५७)
" श्री रामकृष्ण माँ सारदा से कहते हैं - ' जगन्माता ने मुझे यह समझा दिया है कि, वह प्रत्येक स्त्री में निवास करती है, और इसीलिए मैं हर स्त्री को माँ रूप में देखता हूँ। यही एक दृष्टि है, जिससे मैं तुम्हे भी देख सकूंगा, परन्तु यदि तुम्हारी इच्छा मुझे संसाररूपी मायाजाल में खींचने की हो, क्योंकि मेरा तुमसे विवाह हो चुका है, तो मैं तुम्हारी सेवा में उपस्थित हूँ।' माँ बोली -' आपको सांसारिक जीवन में घसीटने कि मेरी इच्छा कदापि नहीं है, बस, इतना ही चाहती हूँ कि मैं आपके समीप रहूँ,आपकी सेवा करूं तथा आपसे शिक्षा ग्रहण करूं।' (७:२५४)
" ह्रदय सरोवर में एक अष्टदल रक्त-वर्ण कमल है, धर्म उसका मूल देश है, ज्ञान उसकी नाल है, योगी कि अष्ट-सिद्धियाँ उस कमल के आठ दलों के समान हैं, और वैराग्य उसके अंदर की कर्णिका है। जो योगी अष्ट सिद्धियाँ आने पर भी उनको छोड़ सकते हैं, वे ही मुक्त हो सकते हैं। इसीलिए अष्ट-सिद्धियों को बाहर के आठ दलों के रूप में, तथा अंदर कि कर्णिका को 'परम वैराग्य' - अर्थात अष्ट सिद्धियाँ आने पर भी, उनके प्रति वैराग्य के रूप में वर्णन किया है। विषय की लालसा, भय और क्रोध छोड़ कर जो प्रभु के शरणागत हुए है,उन्हीं में तन्मय हो गए हैं, जिनका ह्रदय पवित्र हो गया है, वे भगवान के पास जो कुछ चाहते हैं, भगवान उसी समय उसकी पूर्ति करते हैं। अतः तुम उनसे कहो, हे प्रभु -तुम मुझे ,भक्ति दो, विवेक दो , वैराग्य दो ,ज्ञान दो। "(१:१०४)
" तमेवैकं जानथ आत्मानम् अन्या वाचो विमुंचथ "- (मुण्डक उ ० २। २। ५ ) अर्थात- उसका, केवल उसका ध्यान करो अन्य सब बातों को त्याग दो।" जो लोग केवल उन्ही की चर्चा करते हैं, वे भक्त को मित्र के समान प्रतीत होते हैं। और जो लोग अन्य विषयों की चर्चा करते हैं , वे उसको शत्रु के समान लगते हैं। उस प्रियतम का चिन्तन हृदय में सदैव बने रहने के कारण ही उसे जीवन इतना मधुर प्रतीत होता है। ...इसको 'तद अर्थप्राणसंस्थान ' कहा है। तदियता तब आती है जब, साधक श्री भगवान् के चरण-कमलों को स्पर्श कर लेता है, तब उसकी प्रकृति विशुद्ध हो जाती है, सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। "(४:५५)
[ 'BE AND MAKE ' का अर्थ है , गुरु-शिष्य वेदाध्यापक प्रशिक्षण परम्परा में स्वयं एक वेदाध्यापक (पैगम्बर, नेता, लोक-शिक्षक) बनो और दूसरों को भी वेदाध्यापक बनने में सहायता करो ! ] ..." अंगूर कि लता पर जिस प्रकार गुच्छों में अंगूर फलते हैं, उसी प्रकार भविष्य में सैंकडो ईसाओं का आविर्भाव होगा."(७:१२)
" जिस देश में ऐसे मनुष्य जितनी अधिक संख्या में पैदा होंगे, वह देश उतनी ही उन्नत अवस्था को पहुँच जायगा।....वे चाहते थे कि तुम अपने भाई-स्वरूप समग्र मानवजाति के कल्याण के लिए सर्वस्व त्याग दो। 'universal brotherhood' पर सेमीनार नहीं करो,अपने शब्दों को सिद्ध करके दिखा दो। त्याग तथा प्रत्यक्ष अनुभूति का समय आ गया है, और इनसे ही तुम जगत के सभी धर्मों में सामंजस्य देख पाओगे।"(७:२६८)
इस प्रकार हमलोग यह समझ सकते हैं कि सांख्य शास्त्र का उद्देश्य तत्वज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्त करना या डीहिप्नोटाइज्ड होना है ! (अर्थात अपने -पराये के भ्रम से मुक्त होना है।) कपिलवस्तु, जहाँ बुद्ध पैदा हुए थे, कपिल के नाम पर बसा नगर था। इससे कम-से-कम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि बुद्ध के पहले कपिल का नाम फैल चुका था।
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