साम्यभाव : संसार की सारी वस्तुओं (3H) में शरीर हमारे सबसे निकट है, और मन उससे भी निकटतर है। जो प्राण (Energy) संसार में सर्वत्र व्याप्त है, उसका जो अंश इस शरीर और मन (अहंबोध ?) में कार्यशील है, वही अंश हमारे सबसे निकट है। प्रत्येक साधनार्थी को, उसके सबसे समीप जो कुछ है, उसीसे साधना शुरू करनी चाहिये। उस पर विजय पाने की चेष्टा करनी चाहिये। जिन्होंने प्राण को जीत लिया है, उन्होंने अपने मन को ही नहीं, वरन सबके मन को भी जीत लिया है। क्योंकि प्राण ही सारी शक्तियों (समस्त ऊर्जा) की सामान्यीकृत अभिव्यक्ति है। सम्मोहन विद्याविद (hypnotist), मनःशक्ति से आरोग्य करने वाले (mind-healers), विश्वास से आरोग्य करने वाले (faith-healers) सभी मतों की मूल में एक ही बात है। उन्होंने जाने-अनजाने मन की एक शक्ति शक्ति प्राणायाम का आविष्कार कर डाला है, परन्तु उस शक्ति के स्वरूप (माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं -बोध) के संबन्ध में बिल्कुल अज्ञ हैं। योगी जिस शक्ति का उपयोग समझ-बूझ के साथ करते हैं, वे भी बिना जाने-बुझे उसीका उपयोग कर रहे हैं। वह प्राण की शक्ति ही है। यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनी-शक्ति (vital force) के रूप में विद्यमान है। मन की विचारण-क्षमता (Thought ) इसकी सूक्ष्तम और उच्चतम अभिव्यक्ति है। जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) इसका निम्नतम कार्यक्षेत्र है।इसको ही ज्ञानरहित चित्त वृत्ति अथवा मन की अचेतन (या अवचेतन, सुषुप्ति और स्वप्न की भूमि) भूमि (unconscious plane ) कहते हैं। विचारणा का इससे उन्नत स्तर है जिसे मन की चेतन भूमि (conscious plane ) कहते हैं। यहाँ हम युक्ति-तर्क (reason) करते हैं,निर्णय लेते हैं; लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। (The causes of the phenomena intruding themselves in this small limit are outside of this limit.) बहुत से बाहरी तथ्य हमारी युक्ति-तर्क की सीमा से बाहर होने पर भी सहसा इसके भीतर आ जाते हैं। (अचानक एक वैज्ञानिक फॉर्मूला आविष्कृत जाता है!)
योगियों का कहना है कि यह चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है। मन इन दोनों भूमियों से भी उच्चतर भूमि पर विचरण कर सकता है। उस भूमि को हम अतिचेतन भूमि (superconscious) या परम् चैतन्य की भूमि कहते हैं; और वही समाधि (Samâdhi) नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था (perfect concentration, superconsciousness) है। जब मन उस परम् चैतन्य की भूमि में पहुँच जाता है, तब वह युक्ति-तर्क की सीमा के परे चला जाता है। और ऐसे तथ्यों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है, जो जन्मजात प्रवृत्ति और युक्ति-तर्क के द्वारा कभी प्राप्त नहीं है। इस विश्व में अस्तित्व के प्रत्येक स्तर पर एक अखण्ड वस्तुराशि (one continuous substance) दिख पड़ती है। भौतिक संसार की ओर दृष्टिपात करने पर दीखता है कि एक अखण्ड वस्तु ही मानों नाना 'नाम -रूपों' में विराजमान है। [१/ ६१-६२]
अहंभाव>साम्यभाव :विशेषाविशेष-लिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥साधनपाद २/१९॥
यह प्रकृति तीन प्रकार के उपादानों से निर्मित है-सत्व, रज और तम। सृष्टि के पूर्व प्रकृति जिस अवस्था में रहती है, उसे अव्यक्त, अविशेष (तन्मात्रा,अस्मिता) या अविभक्त कहते हैं। इस अवस्था में नाम-रूप का कोई भेद नहीं रहता, इस अवस्था में ये तीनों उपादान पूर्ण साम्यभाव से रहते हैं। जब साम्यावस्था नष्ट होती है, ये तीनों उपादान अलग अलग रूप से परस्पर मिश्रित होते रहते हैं। सांख्य के अनुसार, त्रिगुणमयी प्रकृति का सर्वोच्च प्रकाश है महत या बुद्धितत्व उसे सर्वव्यापी विराट माँ जगदम्बा के मातृहृदय का 'अहं'-बोध ( universal intelligence) कहते हैं। जिसका प्रत्येक व्यष्टि अहं -बोध (मानव-बुद्धि) एक अंश है। सांख्य मनोविज्ञान के अनुसार मनस ( Manas, the mind function) और बुद्धि ( and the function of the Buddhi, intellect. ) के कार्यों में विशेष भेद है। मन का काम है केवल संशय करना, ५ विषयों के आघात से चित्त पर पड़ने वाली इम्प्रेशन्स को इकट्ठा करना और उन्हें बुद्धि (individual Mahat) तक पहुँचा देना। बुद्धि उन सब विषयों का निश्चय करती है। महत से 'अहं' -बोध (egoism या अहंभाव) और 'अहंभाव' से सूक्ष्म भूतों ( fine materials) की उत्पत्ति होती है। ये सूक्ष्म भूत पुनः परस्पर मिलकर बाह्य स्थूल भूतों में परिणत होते हैं, उसीसे बाह्य जगत की उत्पत्ति होती है। सांख्य दर्शन का मत है कि बुद्धि से लेकर पत्थर के एक टुकड़े तक (beginning with the intellect down to a block of stone) सभी एक ही पदार्थ (मनवस्तु -चित्त) से उत्पन्न हुए हैं। उनमें जो भेद है, वह केवल उनको सूक्ष्मता और स्थूलता में है। सूक्ष्म कारण (cause) है और स्थूल कार्य (effect) है। सांख्य दर्शन के अनुसार समग्र प्रकृति के परे पुरुष है, वह जड़ (परिवर्तनशील, नाशवान) नहीं है। यह पुरुष, बुद्धि, मन , तन्मात्रा या स्थूल भूत, इनमें से किसी के सदृश नहीं है। यह सर्वथा अलग है, उसका स्वभाव सम्पूर्णतः भिन्न है। पुरुष को अवश्य मृत्युरहित (immortal), अजर,अमर, अविनाशी होना चाहिये, क्योंकि वह किसी प्रकार के संघात (combination, संयोजन) का परिणाम (result ) नहीं है। और जो किसी प्रकार के संयोजन का परिणाम नहीं है, उसका कभी नाश नहीं हो सकता। ये पुरुष और आत्मा असंख्य है।
अब हम इस सूत्र (विशेषाविशेष-लिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि ॥१९॥) में कहे गए त्रिगुणों की विशेष (भूतेन्द्रिय), अविशेष (तन्मात्रा,अस्मिता), केवल चिन्हमात्र (महत) और चिन्हशून्य (प्रकृति) -इन चारो अवस्थाओं को समझ सकेंगे। [पदार्थ की तीन अवस्था -ठोस, तरल और गैस; चौथा प्लाज्मा।] 'विशेष' (defined-परिभाषित) शब्द उन ठोस या स्थूल पदार्थों को लक्ष्य करता है, जिसकी उपलब्धि हम पंचेन्द्रियों के माध्यम से कर सकते हैं।
'अविशेष' (undefined -अपरिभाषित) का अर्थ है सूक्ष्मभूत -तन्मात्रा (very fine materials); इन तन्मात्राओं की उपलब्धि साधारण मनुष्य नहीं कर सकते। किन्तु पतंजलि कहते हैं, "यदि तुम योग (मनःसंयोग) का अभ्यास करो, तो कुछ दिनों में तुम्हारी अनुभव शक्ति इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि तुम तन्मात्राओं को भी देख सकने में समर्थ हो जाओगे। " तुमने शायद सुना होगा कि प्रत्येक मनुष्य के चारों ओर एक प्रकार की अपनी ज्योति (aura-प्रभामण्डल,दिव्यज्योति) होती है। प्रत्येक प्राणी से एक प्रकार का प्रकाश बाहर निकलता है। जिसे देखने में केवल योगी ही समर्थ होते हैं, हममें से सभी उसे देख नहीं सकते।जिस प्रकार फूल में से सदैव फूल की सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु स्वरूप तन्मात्राएँ (fine particles) लगातार बाहर निकलती रहती हैं, जिसके द्वारा हम उसकी गन्ध ले सकते हैं। उसी प्रकार हमारे शरीर से भी शुभ या अशुभ किसी न किसी प्रकार की शक्ति राशि बाहर निकलती रहती है। अतएव हम जहाँ कहीं भी जायेंगे, वहाँ का वातावरण इन तन्मात्राओं से परिपूर्ण हो जायेगा। और इसीलिए मन्दिर, मस्जिद, गिरजा आदि बनाने का भाव आया है। भगवान की उपासना तो कहीं भी की जा सकती थी ? उनको भजने के लिए मन्दिर बनाने की क्या आवश्यकता थी ? जहाँ लोग ईश्वर,(अल्ला, गॉड) की उपासना करते हैं, वह स्थान पवित्र तन्मात्राओं से परिपूर्ण हो जाता है। किसी मनुष्य के मन में उतना सत्वगुण नहीं हो, फिर भी यदि वह उपासनागृह में जायेगा, तो वह स्थान उसपर भी अपना असर डालेगा और उसके अन्दर सत्वगुण का उद्रेक कर देगा।अब हम समझ सकते हैं कि मंदिर और तीर्थ आदि इतने पवित्र क्यों माने जाते हैं। पहले मनुष्य ही उस स्थान को पवित्र करते हैं, उसके बाद उस स्थान की पवित्रता (दक्षिणेश्वर में ठाकुर का कमरा ,कोन्नगर की पवित्रता) स्वयं कारण बन जाती है और मनुष्यों को पवित्र बनाती रहती है। ईमारत के गुण से नहीं, वरन मनुष्य के गुण से ही मंदिर पवित्र माना जाता है, पर इस रहस्य को हम सदा भूल जाते हैं। और गाड़ी को बैल के आगे जोतना चाहते हैं। इसीलिये अधिक सत्वगुण-सम्पन्न आध्यात्मिक शिक्षक/नेता (साधु -सन्त) चारों ओर यह सत्वगुण (आध्यात्मिकता) बिखेरते हुए अपने परिवेश पर रातदिन प्रभाव डाल सकते हैं। कोई शिक्षक यहाँ तक पवित्र (आध्यात्मिक) हो सकता है कि उसकी पवित्रता बिल्कुल मूर्त रूप धारण कर लेती है (जैसे नवनी दा !!!) कि जो कोई व्यक्ति उस शिक्षक के संस्पर्श में आता है, वही पवित्र हो जाता है। अब देखें 'चिन्ह मात्र ' ( "the indicated only" केवल संकेत मात्र means the Buddhi, the intellect. ) का अर्थ क्या है ? 'चिन्ह मात्र कहने से बुद्धि (महत या सर्वव्यापी विराट माँ जगदम्बा का अहं बोध) का बोध होता है। वह प्रकृति की पहली अभिव्यक्ति है, उसीसे दूसरी सब वस्तुएं अभिव्यक्त हुई हैं।
त्रि -गुणों की अंतिम अवस्था का नाम है 'अलिंग' या चिन्ह-शून्य (the signless)। इसी बिन्दु पर आधुनिक विज्ञान और समस्त धर्मों के बीच एक भारी अन्तर देखा जाता है। प्रत्येक धर्म का मानना है कि यह सम्पूर्ण जगत (universe) बुद्धि या चैतन्य शक्ति (intelligence) से उत्पन्न हुआ है।ईश्वर हमलोगों के समान कोई व्यक्ति-विशेष हैं (पुरुष हैं या माँ जगदम्बा हैं ?) या नहीं, इस विचार को छोड़कर; केवल मनोविज्ञान (psychological science,डार्विन का क्रमविकासवाद) की दृष्टि से ईश्वरवाद (theism, आस्तिकता) यह है कि चैतन्य-शक्ति (intelligence, या Energy?) ही सृष्टि की आदि वस्तु है। उसी से इन समस्त स्थूल पदार्थों की अभिव्यक्ति हुई है। किन्तु आधुनिक दार्शनिकगण कहते हैं, चैतन्य (शाश्वत-स्पंदन,Consciousness या intelligence) तो सृष्टि की आखरी वस्तु है। अर्थात उनका मत यह है कि अचेतन जड़ वस्तुएँ (unintelligent things) ही धीरे धीरे पशु के रूप में परिणत हुई हैं, और फिर पशु से उन्नत होते होते क्रमशः मनुष्यरूप धारण कर लेते हैं। वे यह दावा करते हैं कि चैतन्य से जगत की सब वस्तुएं प्रसूत नहीं हुई हैं, बल्कि चैतन्य [कृत्रिम चैतन्य, artificial intelligence] ही सृष्टि की आखिरी वस्तु है (intelligence itself is the last to come.)।
यद्यपि धार्मिक (religious) और वैज्ञानिक (scientific) दोनों वक्तव्य ऊपर से एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं; तथापि इन दोनों सिद्धांतों को ही सत्य कहा जा सकता है। एक अनन्त श्रृंखला ( infinite series) को लें जैसे, 'A—B—A—B—A—B, etc.' अब प्रश्न यह है कि इसमें 'A' पहले है या 'B'? यदि तुम इस श्रृंखला को A—B क्रम से लोगे तो 'A' (Energy) को ही प्रथम कहना पड़ेगा। पर यदि तुम इसे B-A क्रम से लोगे तो 'B' को (Matter को) आदि या प्रथम मानना होगा। अतः हम इस जगत को (3H) को जिस दृष्टि से देखेंगे, वह उसी प्रकार का प्रतीत होगा ! [या मतिः सा गतिर्भवेत] चैतन्य (Consciousness या intelligence) ही रूप-परिवर्तन (modification) के अनुलोम-परिणाम को प्राप्त होकर स्थूल पदार्थ (gross matter)बन जाता है, और स्थूल पदार्थ फिर रूप-परिवर्तन के विलोम-परिणाम को प्राप्त होकर चैतन्य-रूप (intelligence) में लीन (merge) हो जाता है, और इस प्रकार क्रम चलता रहता है।
सांख्य और अन्य सब धर्मों के आचार्यगण (साम्यभाव में अवस्थित शिक्षक/नेता) चैतन्य (Energy , 'A' को, Consciousness,या intelligence, माँ जगदम्बा) को ही प्रथम स्थान देते हैं। और उनके अनुसार श्रृंखला इस प्रकार रूप धारण करती है, पहले चैतन्य (Consciousness या Energy) और बाद में जड़ पदार्थ (Matter)| किन्तु (मोटी बुद्धि वाले) वैज्ञानिक सत्य को टटोलते हुए पहले 'B' (Matter) को पकड़ते हैं, और कहते हैं पहले पदार्थ (Matter) बाद में 'intelligence' या चैतन्य (Consciousness,
Energy) पर ये दोनों ही उसी एक श्रृंखला 'A—B—A—B—A—B, etc.' की बात कहते हैं। किन्तु भारतीय वेदान्त दर्शन स्थूल पदार्थ (Matter) और चैतन्य (Energy, या intelligence) दोनों के परे जाकर उस पुरुष या आत्मा का साक्षात्कार करता है, जो ज्ञान (Consciousness या intelligence) के भी अतीत है। यह 'intelligence' (व्यष्टि अहंबोध) तो उस ज्ञानस्वरूप आत्मा (माँ जगदम्बा) से उधार लिए हुए आलोक के समान है।
THE REAL AND THE APPARENT MAN: वास्तविक और प्रतिभाषिक मनुष्य:
सब प्रकार की शक्तियाँ (Energy) प्राण की और सब प्रकार के भौतिक पदार्थ (Matter) आकाश की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। अब आकाश और प्राण को उनके मूल तत्व में समाधित (resolved) करना होगा। उन्हें 'मन' नामक एक उच्चतर सत्ता में समाधित किया जा सकता है। मन अर्थात महत-तत्व या सार्वभौमिक विचार शक्ति (the universally existing thought-power, माँ जगदम्बा का सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध) से प्राण और आकाश दोनों की उत्पत्ति होती है। प्राण और आकाश की अपेक्षा 'विचार' 'अस्तित्व' (being) की और अधिक सूक्ष्मतर अभिव्यक्ति है। विचार स्वयं इन दोनों में विभक्त हो जाता है। प्रारम्भ में यह सर्वव्यापी मन ही था और इसने स्वयं व्यक्त, परिवर्तित और विकसित (manifested, changed, evolved) होकर आकाश और प्राण ये दो रूप धारण किये, और इन दोनों के सम्मिश्रण से सारा जगत बना।
हमारे इस परिवर्तनशील शरीर और मन के पीछे एक स्थिर और अपरिणामी सत्ता (हृदय -आत्मा) है। किन्तु हममें से बहुत कम लोगों ने ही अपने पीछे स्थित उस स्थिर समुद्र का थोड़ा सा आभास पाया होगा। हमारे जैसे साधारण लोगों के लिए तो वह समुद्र सदैव तरंगों से आलोड़ित रहता है और जगत हमें तरंगों (नाम-रूप ) की चंचल राशि मात्र प्रतीत होता है। 3H - आत्मा,मन और शरीर, ये तीनों पृथक पृथक वस्तुएं नहीं हैं। बल्कि वे एक ही हैं, क्योंकि इन तीनों से बना हुआ मनुष्य वस्तुतः एक ही है। एक ही वस्तु कभी शरीर, कभी मन, और कभी शरीर और मन से अतीत आत्मा के रूप में प्रतीत होती है। किन्तु वह एक ही समय में यह तीनों नहीं होती। जो शरीर को देखते हैं, मन को नहीं देख पाते, जो मन को देखते हैं आत्मा को नहीं देख पाते , और जो आत्मा को देख लेते हैं, उनके लिए शरीर और मन दोनों न जाने कहाँ चले जाते हैं। जो केवल गति देखते हैं, वे सम्पूर्ण शांत भाव ( absolute calm ) को नहीं देख पाते, और जो इस सम्पूर्ण शांत भाव को देख लेते हैं, उनके लिए गति न जाने कहाँ चली जाती है। रस्सी में सर्प का भ्रम हुआ। जो व्यक्ति रस्सी में सर्प ही देख रहा होता है, उसके लिए रस्सी उस समय न जाने कहाँ चली जाती है। और जब भ्रान्ति दूर होने पर वह व्यक्ति रस्सी देख लेता है, तो उसके लिए फिर सर्प नहीं रह जाता। जब 'विवेकज ज्ञान' का उदय होता है, तब मनुष्य देखता है कि वास्तव में 'मैं' और 'तुम' कुछ नहीं है, सब एक ही है। 'मैं ही यह परिवर्तनशील जगत हूँ, और मैं ही अपरिणामी, निर्गुण, नित्य पूर्ण, नित्यानन्दमय हूँ !'चाहे कह लो -'सभी मैं हूँ ', या कह लो 'सभी तुम हो। ' यह द्वैत ज्ञान (बिरेन-रनेन आदी सभी तुम हो!) बिल्कुल मिथ्या है , और सारा जगत इसी द्वैत ज्ञान का फल है। [जियो तो ऐसे जिओ जैसे सब तुम्हारा है, मरो तो ऐसे मरो जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं !]
" यह सम्पूर्ण विश्व कभी ब्रह्म में ही था। ब्रह्म से मानो यह निकल आया है, और तबसे सतत भ्रमण करता हुआ यह पुनः अपने उद्गम स्थान पर वापस जाना चाहता है। २/२२० ] 'सहस्रों लोगों में से कुछ ही लोग यह जानते हैं, कि वे मुक्त हो जायेंगे। संसार के असंख्य लोग अपने भौतिक कार्य-कलापों (आहार-निद्रा -भय -मैथुन) से ही संतुष्ट हैं। पर कुछ शिक्षक/नेता ऐसे भी अवश्य मिलेंगे, जो जाग्रत (डीहिप्नोटाइज्ड) हो चुके हैं; और जो संसार-चक्र से ऊब कर भ्रमरहित हो गए हैं। वे अपनी मौलिक साम्य -अवस्था में पहुँचना चाहते हैं। ऐसे विशिष्ट लोग जानबूझकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करते (लीला करते) हैं ! जबकि आम लोग उसमें रत रहते हैं। २/२२१ ]
THE IDEAL OF KARMA-YOGA
पूर्ण साम्यावस्था ( Perfect equilibrium) की प्राप्ति अथवा ईसाई जिसे 'परमेश्वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है' कहते हैं', उसकी प्राप्ति इस जगत में नहीं हो सकती, और न स्वर्ग में अथवा न किसी ऐसे स्थान में जहाँ हमारे मन और विचार जा सकते हैं। क्योंकि यह जगत देश, काल और निमित्त (space, time, and causation.) के बन्धनों में जकड़ा हुआ है। अतएव हमें इस (नाम-रूपात्मक) विश्व के परे जाना होगा। ३/७१]
जब तक हम जीवन (स्त्री/पुरुष शरीर) के प्रति तृष्णा को नहीं छोड़ते, इन क्षणभंगुर इन्द्रिय-विषयों के प्रति, जन्मजन्मांतर के भोग -अभ्यास से सीखी हुई जीवन के प्रति अपनी प्रबल आसक्ति (our transient conditioned existence) का त्याग नहीं करते, तब-तक इस जगत से अतीत उस असीम मुक्ति (डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था ) की एक झलक भी पाने की आशा करना व्यर्थ है।
किन्तु इस संसार (नाम-रूपात्मक जगत) के प्रति घोर आसक्ति का त्याग करना बड़ा कठिन है। बहुत थोड़े लोग ही ऐसा कर पाते हैं। हमारे शास्त्रों में इसके लिये दो मार्ग बताये गए हैं -निवृत्ति और प्रवृत्ति। पहला मार्ग निवृत्ति का है, जिसमें 'नेति','नेति' ["Neti, Neti" (not this, not this)] (यह नहीं, यह नहीं) करते हुए सर्वस्व का त्याग करना पड़ता है। और दूसरा मार्ग प्रवृत्ति का है-जिसमें 'इति','इति' करते हुए सब वस्तुओं का भोग करके फिर उनका त्याग किया जाता है। ३/७१ ]
निवृत्ति मार्ग (negative way) बहुत कठिन है, यह मार्ग केवल 'प्रबल इच्छा-शक्तिसम्पन्न' तथा विशेष उन्नत महापुरुषों ( very highest, exceptional minds and gigantic wills /ईश्वर-कोटि ?) के लिये ही साध्य है। उनके कहने भर की देर है - "No, I will not have this," नहीं, मुझे यह नहीं चाहिये' , कि बस उनका शरीर और मन तुरन्त उनकी आज्ञा का पालन करता है। और वे संसार के बाहर चले जाते हैं -(अर्थात नाम-रूपात्मक संसार में आसक्ति के परे चले जाते हैं !) परन्तु ऐसे लोग बहुत ही दुर्लभ हैं। (इसीलिए ठाकुर निवृत्ति मार्ग के सप्त-ऋषियों में से एक नरेन्द्रनाथ को अपने साथ लाये थे ?) यही कारण है कि अधिकांश लोग प्रवृत्ति -मार्ग (positive way) ही ग्रहण करने की पात्रता रखते हैं। इस मार्ग में उन्हें बन्धनों को तोड़ने के लिये बन्धनों की ही सहायता लेनी पड़ती है।
विवाह आदि भोग करना भी एक प्रकार का त्याग ही है-अन्तर इतना ही है कि यह धीरे धीरे, क्रमशः सब नश्वर भोग-पदार्थों को जानकर, उनका भोग करके उसकी असारता को अपने अनुभव से जानकर, उन भोग पदार्थों में अपनी घोर आसक्ति को त्याग देना पड़ता है। और इस प्रकार क्रमशः वह गृहस्थ साधक भी आसक्ति-शून्य शिक्षक/ नेता बनने में समर्थ हो जाता है। प्रथम मार्ग को ज्ञानयोग (स्वामी विवेकानन्द) और दूसरे को कर्मयोग (स्वामी ब्रह्मानन्द) कहते हैं। ३/७२ ]
" अब हमलोग 'समानता के विचार' (idea of equality) पर चर्चा करेंगे। स्वर्णयुग स्थापित करने सम्बन्धी ये धारणायें तथाकथित 'समाज-सेवा' की प्रेरक-शक्ति (motive power) रही हैं। बहुत से धर्म अपने एक अंग के रूप में इस सिद्धान्त (समानता के विचार या idea of equality) का प्रचार भी किया करते हैं। इनकी धारणा है कि 'परमपिता परमेश्वर' इस जगत का शासन करने के लिये स्वयं आ रहे हैं, और उनके आने पर लोगों में लोगों में किसी प्रकार का 'अवस्था भेद' नहीं रह जायेगा। जिन ईसाईयों ने इस भाव का प्रथम प्रचार किया, वे अज्ञानी धर्मान्ध व्यक्ति थे। परन्तु उनका विश्वास निष्कपट था। आजकल स्वर्णयुग की इसी भावना ने समानता (equality) का - स्वाधीनता, साम्य और मैत्री ( liberty, equality, and fraternity.) का रूप धारण कर लिया है। यह भी एक धर्मान्धता (fanaticism) है।
सच्ची समानता (साम्यवाद या True equality) न तो कभी संसार में हुई थी, और न कभी भविष्य में होने की आशा है। सृष्ट जगत में सभी मनुष्य एक समान हो जायें -ऐसा होना असम्भव है। इस प्रकार के थोपी गयी असम्भव साम्य (राजनितिक साम्यवाद - This impossible kind of equality) का परिणाम तो मृत्यु ही होगा। सृष्टि का अर्थ ही विषमता है। विविधता ही सृष्टि का आधार है। जगत विविधता से परिपूर्ण क्यों है ? त्रिगुणों के नष्ट संतुलन (Lost balance) के कारण ही जगत बना है। आद्यावस्था (primal state) में, (सृष्टि से पहले की अवस्था में) -जिसे प्रलय कहा जाता -में ही पूर्ण संतुलन (perfect balance) होना सम्भव है।
तब फिर इन सब सृष्टि निर्माणात्मक शक्तियों ( formative forces) का उद्भव किस प्रकार होता है ? -विरोध, प्रतियोगिता एवं प्रतिद्वन्द्विता ( struggling, competition, conflict.) के द्वारा ही। मानलो संसार के सब भौतिक परमाणु (इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन आदि) सम्पूर्ण साम्यावस्था (equilibrium) में स्थित हो जाएँ -तो फिर क्या सृष्टि की प्रक्रिया हो सकेगी ? विज्ञान हमें सिखाता है कि यह असम्भव है। विषमता (असमानता,ऊँच-नीच, Inequality) सृष्टि की नींव है। असामनता सृजन का आधार है। परन्तु साथ ही साथ खोये हुए साम्यभाव (equality) को पुनर्स्थापित करने की चेष्टा [ विद्याशक्ति, गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा या ('BE AND MAKE '- Leadership Training) भी] उतनी ही आवश्यक है, जितनी कि वे शक्तियाँ (अविद्या शक्ति,असमानता,ऊँच-नीच, Inequality की शक्तियाँ) जो उस साम्यावस्था को नष्ट करने का प्रयत्न करती है।
वह कौन सी चीज है जो मनुष्य मनुष्य में भेद स्थापित करती है ? वह है -'difference in the brain'
मस्तिष्क की भिन्नता। (मन को एकाग्र करने की क्षमता में अन्तर ही एक मनुष्य को दूसरे से भिन्न बना देती है !) आधुनिक युग में एक पागल (lunatic) के अतिरिक्त कोई यह नहीं कह सकता कि हम सब मस्तिष्क की समान शक्ति (एक समान मन को एकाग्र करने की क्षमता) लेकर ही उत्पन्न हुए हैं। हम सब इस संसार में विभिन्न और असमान प्रतिभा (unequal endowments) लेकर के उत्पन्न ही हुए हैं। कोई व्यक्ति प्रतिभा में बड़ा धनी तो कोई छोटा रूप में उत्पन्न ही होता है। और 'जन्म से पूर्व निर्धारित' (prenatally determined) इस प्रतिबंधक (condition) से मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं है। (नहीं तो आदिवासियों ने रॉकेट का निर्माण क्यों नहीं किया ?) सभी मनुष्य पूर्वजन्मों में अर्जित किये गए, अलग अलग प्रकार के संस्कारों (आदतों और दृढ़ हो चुकी प्रवृत्तियों, या संस्कार समष्टि) की गठरी 'different bundles of past impressions' को साथ लेकर उत्पन्न होते हैं, और उसे विकसित करके अभिव्यक्त करते हैं। 'Absolute non-differentiation is death.' - अर्थात आत्यंतिक विभेद-राहित्य ही मृत्यु है। जब तक यह संसार है , तब तक विभेद भी रहने वाला है ! तथा स्वर्णयुग की पूर्ण समता (millennium of perfect equality) तभी आएगी जब कल्प का (cycle of creation) का अन्त हो जायेगा। उसके पहले समानता (equality) नहीं आ सकती।
परन्तु फिर भी स्वर्णयुग को लाने की कल्पना कर्म करने (समाज-सेवा करने) की प्रबल प्रेरक -शक्ति (motive power) है। जिस प्रकार सृष्टि के लिए विषमता (inequality ऊँच-नीच प्रतिभा) आवश्यक है, उसी प्रकार उसे सीमित करने की चेष्टा - 'the struggle to limit it' (BE AND MAKE VEDANTA LEADERSHIP TRAINING) भी नितान्त आवश्यक है। "If there were no struggle to become free and get back to God, there would be no creation either." यदि मुक्ति (भ्रममुक्ति डीहिप्नोटाइज्ड) और ईश्वर (माँ जगदम्बा) के पास लौट जाने की चेष्टा (मनःसंयोग सिखलाने वाला आध्यात्मिक शिक्षक /नेता ) न हों तो सृष्टि भी कायम नहीं रह सकती। इन दोनों शक्तियों -प्रवृत्ति और निवृत्ति के अन्तर से ही, प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो कर्म करने की प्रेरणा का हेतु होता है, उसका निर्धारण किया जा सकता है। कर्म के प्रति प्रबल प्रेरक-शक्तियाँ (विद्या -अविद्याmotives to work) सदा विद्यमान रहेंगी, कुछ (सकाम प्रेरणाएं) बन्धन की ओर ले जाएँगी और कुछ (निष्काम प्रेरणाएं) मुक्ति की ओर।
[दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है।
मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है। निदा फ़ाज़ली]
संसार का यह 'चक्र के भीतर चक्र' (wheel within wheel) एक भीषण (terrible) यंत्र-रचना है ! इस संसार-यंत्र के भीतर एक बार हाथ पड़ा नहीं, कि हम फंसे नहीं और फंसे नहीं कि गए नहीं !(एक बार प्रवृत्ति मार्ग में गए नहीं कि निवृत्ति में आना असम्भव लगने लगता है। चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोये, दो पाटन के बीच में बाकी बचा न कोए ! ) संसार का यह प्रचण्ड शक्तिशाली, जटिल यंत्र हम सभी को खींचे ले जा रहा है। हम सभी सोचते हैं कि अमुक कर्तव्य (certain duty) पूरा होते ही हमें छुट्टी मिल जाएगी, और हम चैन की साँस लेंगे; पर उस कर्तव्य का मुश्किल से एक अंश भी समाप्त नहीं हो पाता कि दूसरा कर्तव्य सिर पर आ खड़ा होता है।
इस संसार यंत्र से बाहर निकलने के केवल दो ही उपाय हैं। एक तो यह कि इस यंत्र से सारा नाता ही तोड़ दिया जाय (निवृत्ति मार्ग) -यह यंत्र केवल चलता रहे, हम इससे अलग हटकर खड़े हो जाएँ और अपनी समस्त वासनाओं का एक झटके में त्याग कर दें। ऐसा कह देना तो अवश्य बड़ा सरल है ,परन्तु इसे अमल में लाना असम्भव जैसा प्रतीत होता है। मैं नहीं कह सकता की बीस लाख (twenty millions) मनुष्यों में से एक भी ऐसा कर सकेगा। दूसरा उपाय है -हम इस संसार क्षेत्र में कूद पड़ें और कर्म का रहस्य (secret of work-BE AND MAKE वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग) जान लें। इसीको कर्मयोग कहते हैं। इस संसार यंत्र से दूर न भागो, वरन इसके अंदर ही खड़े होकर (नाम-रूपों के प्रति अनासक्त और भ्रममुक्त होकर साम्यभाव में अवस्थित रहते हुए निःस्वार्थ भाव से) कर्म करने का रहस्य सीख लो। कर्मयोगी का कथन है कि जो व्यक्ति नाम-यश प्राप्त करने या स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से भी सत-कर्म करता है,वह भी अपने को बन्धन में डाल लेता है। किसी कार्य में यदि थोड़ी सी भी स्वार्थपरता रहे, तो वह कर्म हमें मुक्त करने के बदले हमारे पैरों में और एक बेड़ी डाल देता है। गृहस्थ जीवन के भीतर रहकर भी कौशल से कर्म करके (माँ जगदम्बा का पुत्र -भक्त -हीरो बनके) बाहर निकल आना सम्भव है। इस यंत्र से होकर ही बाहर निकलने का मार्ग (महामण्डल आंदोलन) है। [प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने में हमारे शास्त्र बाधा नहीं देते।]
एकमात्र गौतम बुद्ध ही ऐसे शिक्षक /नेता थे जो 'निःस्वार्थ कर्म-प्रवृत्ति निवृत्ति अस्तु महाफला' के अनुसार प्रवृत्ति मार्ग से होते हुए निवृत्ति में आ खड़े हुए थे। भगवान बुद्ध को छोड़कर मानवजाति के अन्य सभी मार्गदर्शक नेताओं (पैगंबरों) की निःस्वार्थ कर्म-प्रवृत्ति (unselfish action) के पीछे कोई न कोई बाह्य उद्देश्य (external motives) अवश्य था। एकमात्र बुद्ध को छोड़कर संसार के अन्य सभी पैगंबरों को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। एक तो वे जो अपने को संसार में अवतीर्ण भगवान का अवतार (incarnations of God come down on earth) कहते थे, और दूसरे वे जो अपने को केवल ईश्वर का दूत (messengers from God, माँ जगदम्बा का पुत्र ?) मानते थे। वे कहते थे 'भला करो और भला बनो' -बस यही तुम्हें निर्वाण की ओर (भ्रममुक्ति की ओर) या जो कुछ सत्य (इन्द्रियातीत सत्य है) उसकी ओर ले जायेगा। Do good and be good. And this will take you to freedom and to whatever truth there is."
केवल वही व्यक्ति जो साम्यभाव में अवस्थित हो चुका हो, सबकी अपेक्षा उत्तम शिक्षक/नेता के रूप से कार्य करता है, जो पूर्णतया निःस्वार्थी है, जिसे न तो लस्ट और लूकर में आसक्ति हो न नाम-यश पाने की न किसी अन्य वस्तु की। और मनुष्य जब ऐसा करने में समर्थ हो जायेगा, तब वह भी एक बुद्ध (शिक्षक/नेता) बन जायेगा। और उसके भीतर से एक ऐसी आध्यात्मिक शक्ति प्रकट होगी, जो दूसरों के मानसिक जगत में युगपरिवर्तन लाकर,उन्हें भी सत्ययुग में प्रतिष्ठित कर देगी। महामण्डल आंदोलन का वैसा शिक्षक/नेता कर्मयोग के चरम आदर्श का प्रतिक है। This man (Navni da) represents the very highest ideal of Karma-Yoga.३/८६-९० ]
THE IDEAL OF A UNIVERSAL RELIGION :
कौन कहता है, हम सब समान हैं ? केवल पागल। क्या हम बल, बुद्धि, शरीर में समान हैं ? एक व्यक्ति दूसरे की अपेक्षा बलवान है, तो किसी की प्रतिभा दूसरे से अधिक है। फिर भी समता का सिद्धान्त ही हमारे हृदय को स्पर्श करता है। 'विविधता में एकता' सृष्टि का विधान है। (Unity in variety is the plan of the universe.) हम सब लोग मनुष्य होते हुए भी परस्पर पृथक हैं। पुरुष होने के नाते तुम स्त्री से भिन्न हो, किन्तु मनुष्य होने के नाते स्त्री और पुरुष एक ही हैं। ऐसा समय कभी नहीं आएगा , जब सब लोगों का मुँह एक रंग का हो जाय। समस्त संसार में कभी भी एक प्रकार की अनुष्ठान-पद्धति (universal ritual) प्रचलित नहीं हो सकती। ऐसा किसी समय नहीं हो सकता, अगर कभी हो भी जाय, तो सृष्टि लुप्त हो जाएगी। क्योंकि विविधता (variety) ही जीवन की मूल भित्ति है। हमें आकारयुक्त किसने बनाया है ? वैषम्य (Differentiation) ने। सम्पूर्ण साम्यभाव (Perfect balance) होने से हमारा विनाश अवश्यम्भावी है। ३/१४५
सांख्य दर्शन के अनुसार सत्व, रज और तम -जिनकी साम्यावस्था अव्यक्त प्रकृति है और जिनकी वैषम्यावस्था से यह जगत उत्पन्न होता है। इन्हीं गुणों और उपादानों समस्त मानवदेह बनी है। सत्व पदार्थ की प्रधानता ही आध्यात्मिक उन्नति के लिए सबसे आवश्यक है। ४/३८ ] सांख्य दर्शन के अनुसार तमस निम्नतम
शक्ति है जो आकर्षण स्वरूप है, रजस उसकी अपेक्षा उच्तर है -जो विकर्षण स्वरुप है,तथा जो सर्वोच्च शक्ति इन दोनों का सन्तुलस्वरूप है, वही सत्व गुण है। जब प्रकति के तीनों गुण पूर्ण साम्यावस्था में रहते हैं, तब सृष्टि का अस्तित्व नहीं होता। किन्तु ज्योंही यह साम्यावस्था नष्ट होती है, त्योंही उनका संतुलन भंग हो जाता है, और उनमें से एक शक्ति दूसरी शक्तियों की अपेक्षा प्रबलतर हो उठती है, त्यों ही गति का आरम्भ होता है और सृष्टि होने लगती है। साथ ही हर वस्तु में उसी आद्य साम्यावस्था में फिर से लौट जाने की प्रवृत्ति होती है। और ऐसा समय आता है, जब कुछ व्यक्त भावापन्न हुआ था, उसका सम्पूर्ण विनाश हो जाता है।४/१९३ ब्रह्माण्डविज्ञान /Cosmology] अनादिवातं का अर्थ है 'बिना स्पंदन के अस्तित्ववान था। '
"ये तीनों गुण नहीं हैं, जगत के उपादान हैं, जिनसे समग्र विश्व विकसित हुआ है। प्रथम विकास महत (अर्थात सर्वव्यापी विराट बुद्धि) और उससे अहंकार (माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट मातृहृदय का अहं -बोध) की उत्पत्ति होती है। अहंकार को सांख्य एक तत्व मानता है, उस अहंकार से ही पंच कर्मेन्द्रियाँ और पंच ज्ञानेन्द्रियों तथा पांच विषयों रूप,रस, गंध, शब्द स्पर्श आदि के सूक्ष्म परमाणुओं की उपत्ति होती है। उन्हीं तन्मात्राओं से स्थूल पंचभूतों की उत्पत्ति होती है। बुद्धि, अहंकार और मन, इन तीनों के माध्यम से कार्य करने वाला चित्त है, जो पंच-प्राण नामक शक्तियों की सृष्टि करके उन्हें परिचालित कर रहा है।४/२११]
"हमारे पास वेदान्त मत है, लेकिन उसे कार्यरूप में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे ग्रंथों में सार्वभौम साम्यवाद का सिद्धान्त है, किन्तु व्यवहार में महा भेदबुद्धि है। मैंने अपने जैसे क्षुद्र जीवन में यह अनुभव कर लिया है कि महान उद्देश्य, निष्कपटता और अनन्त प्रेम से विश्वविजय की जा सकती है। [सर्वदा साम्यभाव में अवस्थित रहने वाला-] वीर (हीरो) तो वही है जो भ्रम-प्रमाद तथा दुःखपूर्ण संसार-तरंगों के आघात से अविचल रहकर एक हाथ से आँसू पोछता है और दूसरे अकम्पित हाथ से दूसरों के उद्धार का मार्ग प्रदर्शित करता है ! ऐसे गुणों से संपन्न एक भी मनुष्य (वेदान्त केसरी) करोड़ों पाखण्डी एवं निर्दयी मनुष्यों (सियारों) की दुर्बुद्धि को नष्ट कर सकता है। ६/३०७
Cyclic Rest And Change. कल्प -विराम एवं परिवर्तन :
यह समस्त विश्व खोये हुए संतुलन का एक दृष्टान्त है - 'This whole universe is a case of lost balance.' समस्त प्रकार की गतियाँ विक्षुब्ध,अशांत (disturbed) विश्व द्वारा अपनी खोई हुई साम्यावस्था (equilibrium) को पुनः प्राप्त कर लेने के निमित्त संघर्ष है, क्योंकि साम्यावस्था में गति हो ही नहीं सकती।अतः अन्तःजगत (internal world) के क्षेत्र में साम्यावस्था विचार (मन) के परे होगी। क्योंकि विचार स्वयं ही एक गति है। बाह्यजगत और अन्तःजगत के सारे लक्षण (indication या संकेत) प्रसारण (expansion) के द्वारा पूर्ण साम्यावस्था (perfect equilibrium ) प्राप्त कर लेने के पक्ष में है, और समग्र विश्व उसी की ओर धावमान है। अतः हमें यह कहने का कोई अधिकार नहीं कि वह अवस्था (प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में जाने की अवस्था) कभी प्राप्त ही नहीं की जा सकती। फिर यह भी एक तथ्य है कि उस साम्यावस्था में किसी भी प्रकार की विविधता (variety) का होना असम्भव है। साम्यावस्था में एकरूपता (homogeneous) होना अनिवार्य शर्त है; क्योंकि जब तक दो परमाणु भी शेष रहेंगे, वे एक दूसरे को आकृष्ट (attract) और विकृष्ट (repel) करते हुए, उस संतुलन को भंग करने की चेष्टा करते रहेंगे। अतएव यह साम्यावस्था (state of equilibrium) -एकत्व (unity),विराम(rest), और सदृशता (homogeneity) की है। हृदय की भाषा में कहा जाय (In the language of the internal) तो वह साम्यावस्था (समाधि) न विचार है, न शरीर न वह कुछ जिसे हम गुण (attribute) कहते हैं। यदि इस देश-काल -निमत्त से परे की अवस्था (इन्द्रियातीत अवस्था) को कोई नाम देना ही हो तो उस साम्यावस्था को हम 'सच्चिदानन्द' सत (existence)-चित (आत्म-चेतना,आत्मज्ञान self-consciousness) -आनन्द (blissfulness परमानन्द) का नाम दे सकते हैं।
इस प्रकार इस अखण्ड साम्यावस्था में खण्ड (द्वैत का भाव, मैं -तुम -यह -वह) नहीं हो सकता। अनिवार्य रूप से इस अवस्था को अखण्ड ही होना होना चाहिये, और यहाँ पहुँचकर मैं-तू -यह -वह- ( I, thou, etc.)का समस्त काल्पनिक भेद, स्त्री-पुरुष, ऊँच-नीच, हिन्दू मुसलमान आदि विभिन्नतायें (variations) विलुप्त हो जानी चाहिये। क्योंकि यह भेद-सृष्टि तो भ्रमित या हिप्नोटाइज्ड अवस्था या माया ग्रस्त अवस्था में
परिवर्तशील या मिथ्या नाम-रूप (सापेक्षिक सत्य) को ही परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) समझते रहने की अवस्था है। यह कहा जा सकता है कि परिवर्तन की यह अवस्था (state of change-अविनाशी आत्मा होकर भी अपने को नश्वर समझने की हिप्नोटाइज्ड अवस्था। ) आत्मा को अब (साम्यावस्था से पुनः शरीर में लौट जाने के बाद, या जन्म ग्रहण करने के बाद या शरीर में आने के बाद) प्राप्त हुई है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि इसके पूर्व उसकी अवस्था विराम और मुक्ति (संसार-चक्र के विराम या चित्त-वृत्तियों के निरोध के बाद की भ्रममुक्त (state of rest and liberty) की थी। किन्तु अब, इस समय शरीर में लौट आने के बाद विभेदीकरण की अवस्था (state of differentiation-मैं , तुम , यह, वह विभेद देखने की अवस्था) ही एकमात्र सच्ची अवस्था (real state) है। तथा परमसत्य के साथ एकरूपता प्राप्त अवस्था (state of homogeneity) तो आदिम अपरिष्कृत (primitive crudeness,स्टोन युग की आदिम
असभ्यता) अवस्था है। जिससे विकसित होकर यह परिवर्तनशील अवस्था ( changeful state) निर्मित हुई है। (जब मनुष्य चन्द्रमा और मंगल ग्रह में बसने की बात सोच रहा है, सभ्यता की यह कितनी उन्नत अवस्था है !) तथा उस विभेदरहित अवस्था (state of undifferentiation) में पुनः लौट जाना तो मानव-सभ्यता की अधोगति मानी जाएगी।
इस कुतर्क में तभी कोई वजन हो सकता था, जब यह सिद्ध करना सम्भव होता कि एकरूपता और विविधता (homogeneity and heterogeneity) सम्पूर्ण कालखण्ड में केवल एक बार घटित होने वाली दो अवस्थाएं हैं। किन्तु हम देखते हैं कि जो एक बार घटित होता है, वह बारबार घटित होता है ! [ (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में साम्यावस्था बार बार घटित होती है।) इसीलिए कहा जाता है कि इतिहास अपने को बार बार दोहराता है, तथा यह भी सही है कि आप एक ही नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकते, ये दोनों लोकोक्तियाँ विरोधाभाषी प्रतीत होती हैं।] ' Rest is followed by change -- the universe.' विराम का अनुगमन परिवर्तन -विश्व करता है। उस विराम के पूर्व (preceded by)अन्य परिवर्तन हुए होंगे, और इस परिवर्तन के बाद (succeeded by) विराम की अन्य अवस्थाएं घटित होंगी। यह सोचना बेतुका या हास्यास्पद (ridiculous) होगा कि कभी एक पूर्ण विराम की अवधि (period of rest) थी, जिसके बाद यह परिवर्तन आया, और जो अब सदैव चलता ही रहेगा। बाह्यजगत का प्रत्येक कण यह दिखलाता है कि वह बारम्बार नियतकालिक या मीयादी (periodic) विराम (=अस्ति-भाति-प्रिय) और परिवर्तन (=नाम-रूप) को प्राप्त होता रहता है।
विराम की दो समय-अवधियों के बीच के कालान्तर को एक कल्प कहते हैं ! किन्तु यह कल्पीय-विराम (Kalpic rest, प्रलय) ब्रह्म के साथ पूर्ण एकरूपता (perfect homogeneity) का नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा होने से भविष्य में किसी अभिव्यक्ति (सृष्टि,नाम-रूप) का होना ही समाप्त हो जायेगा। यह कहना बिल्कुल असंगत (absurd) है कि परिवर्तन (सृष्टि-नामरूप, मुखड़ा क्या देखे दर्पण में ? तेरे दया-धर्म नहीं मन में।) की वर्तमान अवस्था विराम (अस्ति-भाति-प्रिय) की पूर्वगामी अवस्था (preceding state of rest) की तुलना में अधिक श्रेष्ठ है। क्योंकि तबतो प्रलय या विराम की आने वाली अवधि अधिक सुदूरवर्ती होने के कारण (सच्चिदानन्द) से भी अधिक पूर्ण होगी !
प्रकृति (2H -शरीर और मन) में कोई उन्नति या अवनति नहीं होती। वह बारम्बार उन्हीं रूपाकारों (नाम-रूपों) को व्यक्त करती रहती है। वस्तुतः 'Law' नियम शब्द का अर्थ ही यह है। 'But there is a progression with regard to souls.' किन्तु आत्माओं (3rd H हृदय) को लेकर एक उन्नति अवश्य होती है। अर्थात आत्मायें अपने स्वरुप के निकटतर आती है, और प्रत्येक कल्प में वे बड़ी संख्या में इस प्रकार चक्कर काटते काटते मुक्ति प्राप्त करते हैं। (भ्रममुक्त होते जाते हैं !)
ऐसा कहा जा सकता है कि जीवात्मायें ( individual soul या नामरूप से सम्मोहित बुद्धि या अहं भाव)
स्वयं प्रकृति और जगत का अंश हैं, और बारम्बार वापस आती रहती हैं। किन्तु आत्मा (ब्रह्म) के लिये मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि उस दशा में सृष्टि को भी विनष्ट करना आवश्यक हो जायेगा। इस विरोधाभास (paradox) का उत्तर यह है कि जीवात्मायें माया के माध्यम से (देश-काल-निमित्त के माध्यम से, माँ जगदम्बा के राज्य में) देखी जाने वाली एक मिथ्या (Assumption या कल्पित) वस्तु हैं। और स्वयं प्रकृति (सापेक्षिक सत्य) से अधिक सत्य नहीं हैं। वस्तुतः यह जीवात्मा भी (नाम-रूप छोड़ देने के बाद) निरुपाधिक निरपेक्ष (पर) ब्रह्म ही है। ('ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।। अर्थात् ... ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्म ही है, कोई अन्य नहीं।)
प्रकृति में जो कुछ सत्य है वह ब्रह्म है। केवल वह माया (नामरूप) के अध्यास (superimposition of Maya) से इस विविधता (variety) या प्रकृति के रूप में भासित होता है। Maya being illusion cannot be said to be real, yet it is producing the phenomena. भ्रम होने के कारण माया (नामरूपों की विविधता) को सत्य नहीं कहा जा सकता; फिर भी यह गोचर प्रपंच की सृष्टि कर देती है। (और पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे) यदि पूछा जाय कि स्वयं भ्रम होते हुए भी माया यह सब किस प्रकार उत्पन्न कर सकती है ? तो हमारा उत्तर यह है कि निर्मितवस्तु (जगत produced ) अविद्या (ignorance) होने के कारण निर्माता (producer) भी अविद्या ही होनी चाहिए।
किन्तु प्रश्न उठेगा कि क्या ज्ञान के द्वारा अज्ञान की उत्पत्ति कभी हो सकती है ? How can ignorance be produced by knowledge? इसका उत्तर यह है कि यह माया (माँ जगदम्बा ही) विद्या (निरपेक्ष ज्ञान) और अविद्या (सापेक्ष ज्ञान) इन दो रूपों में कार्य करती है। और यह विद्या (उमा-हैमवती) कृपा करके अविद्या या अज्ञान को नष्ट करने उपरान्त स्वयं अन्तर्धान हो जाती है ! (जीव और ब्रह्म के बीच से हट जाती है।) यह माया अपने को स्वयं नष्ट कर डालती है, और जो निःशेष बच रहता है -वह है ब्रह्म ! सत का सार तत्व,अस्तित्व - ज्ञान और आनन्द -सच्चिदानन्द !
अतः प्रकृति में जो भी वास्तविकता है वह यह ब्रह्म (Absolute) है, और हमें प्रकृति तीन रूपों में प्राप्त होती है - ईश्वर (माँ जगदम्बा God), चेतन (conscious), अचेतन (unconscious)| अर्थात ईश्वर (माँ जगदम्बा,God), व्यक्तित्व-युक्त आत्मायें (personal souls-माँ जगदम्बा के अवतार या भ्रममुक्त आत्माएं - ठाकुर, माँ और स्वामीजी) और अचेतन प्राणी (unconscious beings. या भविष्य में भ्रममुक्त होने की संभावना से युक्त मुनष्य!)| इन सबकी वास्तविकता ब्रह्म ही है, तथापि माया के कारण वह विविध प्रतीत होता है। किन्तु ईश्वर का दर्शन (नामरूप रहित श्रीरामकृष्ण देव का दर्शन ? vision of God) वास्तविकता के निकटतम और उच्चतम है। व्यक्तित्व-युक्त सगुण ईश्वर (श्रीरामकृष्णदेव) की धारणा मनुष्य के लिए सर्वोच्च सम्भव विचार है। (The idea of a Personal God is the highest idea which man can have.) ईश्वर में आरोपित सभी गुण उसी अर्थ में सत्य हैं, जिस अर्थ में प्रकृति के गुण सत्य हैं। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सगुण ईश्वर (नवनीदा) माया (नामरूप) के माध्यम से देखा जाने वाला ब्रह्म ही हैं ! ७/ ३२६-२८]
" प्यार एहसास है उसे रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो; कोई नाम न दो ! " काम प्रेम की मृत्यु है, अहं प्रेम की मृत्यु है, प्रेम व्यष्टि से समष्टि की ओर , मूर्त से अमूर्त की ओर, अपने व्यष्टि अहं-बोध को सर्वव्यापी विराट माँ जगदम्बा के समष्टि अहं-बोध में रूपांतरित कर लेने में है। प्रत्येक परमाणु अपने पूरक परमाणु के खोज में रत है, जब उसे पा जाता है, शांत हो जाता है। मानवात्मा की प्रकृति और अभीप्सा का एक मात्र पूरक ईश्वर (माँ जगदम्बा) ही है। अपना पूरक, अपनी स्थायी साम्यावस्था - अपनी अनन्त शान्ति की प्राप्ति के लिए मानवात्मा का संघर्ष ही प्रेम है ! ९/३०६-८]
Letter dated 25th September, 1894: ''We must work among the English educated young men. "त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः— Through renunciation alone some (rare ones) attained immortality." Renunciation!—Renunciation!—you must preach this above everything else. There will be no spiritual strength unless one renounces the world....
" श्रेयांसि बहुविघ्नानि' " सत्यमेत्र जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः—Truth alone triumphs, not falsehood. Through Truth lies Devayâna, the path of gods" (Mundaka, III. i. 6). Everything will come about by degrees.कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः। क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥—"Longing for success in action, in this world, (men) worship the deities. For success is quickly attained through action in this world of Man." (Gita, IV.12)
"न लिङ्गम् धर्मकारणं, समता सर्वभूतेषु एतन्मुक्तस्य लक्षणम्—जीव मात्र में समभाव -यही मुक्तात्मा का लक्षण है ! यही भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य की पहचान है। ९/२०८ The external badge does not confer spirituality. It is same-sightedness to all beings which is the test of a liberated soul." "अस्ति अस्ति" (It is, It is), "सोऽहं सोऽहं", "चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं"—"I am He!", "I am Shiva, of the essence of Knowledge and Bliss!" " निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केशरी—He frees himself from the meshes of this world as a lion from its cage!" "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः— This Atman is not accessible to the weak". . . . Hurl yourselves on the world like an avalanche—let the world crack in twain under your weight! Hara! Hara! Mahâdeva! उद्धरेदात्मनात्मानम्—One must save the self by one's own self"—by personal prowess.This has been taking place through eternity, that one (Navni-da) builds a bridge by laying down his own body and thousands of others cross the river through its help. "एवमस्तु, एवमस्तु, शिवोऽहं शिवोऽहं— Be it so! Be it so! I am Shiva! I am Shiva!" It is welcome news that Madras (Vaizag) is in a stir.
They say, "Have faith in this fellow or that fellow", but I say, "Have faith in yourself first", that's the way. Have faith in yourself—all power is in you—be conscious and bring it out. Say, "I can do everything." "Even the poison of a snake is powerless if you can firmly deny it." Beware! No saying "nay", no negative thoughts! Say, "Yea, Yea," "So'ham, So'ham"—"I am He! I am He!
"किन्नाम रोदिषि सखे त्वयि सर्वशक्तिरामन्त्रयस्व भगवन् भगदं स्वरूपम्। त्रैलोक्यमेतदखिलं तव पादमूले आत्मैव हि प्रभवते न जडः कदाचित्।।—"What makes you weep, my friend? In you is all power. Summon up your all-powerful nature, O mighty one, and this whole universe will lie at your feet. It is the Self alone that predominates, and not matter."To work, with undaunted energy! What fear! Who is powerful enough to thwart you!"कुर्मस्तारकचर्वणं त्रिभुवनमुत्पाटयामो बलात् , किं भो न विजानास्यस्मान् रामकृष्णदासा वयम्— We shall crush the stars to atoms, and unhinge the universe. Don't you know who we are? We are the servants of Shri Ramakrishna." Fear?
I am the child of the Infinite, the all-powerful Divine Mother.What means disease, or fear, or want to me? Stamp out the negative spirit as if it were a pestilence, and it will conduce to your welfare in every way. No negative, all positive, affirmative. I am, God is, everything is in me. I will manifest health, purity, knowledge, whatever I want. Well, these foreign people could grasp my teachings, and you are suffering from illness owing to your negative spirit! Who says you are ill—what is disease to you? Brush it aside!वीर्यमसि वीर्य मयि धेहि, बलमसि बलं मयि धेहि, ओजोऽसि ओजो मयि धेहि, सहोऽसि सही मयि धेहि—Thou art Energy, impart energy unto me. Thou art Strength, impart strength unto me. Thou art Spirituality, impart spirituality unto me. Thou art Fortitude, impart fortitude unto me!"
दिव्य प्रज्ञा का सन्देश : ९/३१५ माँ जगदम्बा की इच्छा ही एकमात्र नियम है और, क्योंकि उससे कभी चूक हो नहीं सकती, अतः प्रकृति के नियम -उसकी इच्छा -कभी बदली नहीं जा सकती। कर्म-विधान अथवा कारण विधान का प्राण वही है। प्रत्येक कर्म को फलप्रद बनाने वाली वही है। उसीके निर्देशन में हम अपने कर्मों द्वारा अपने अपने जीवनों का निर्माण कर रहे हैं। मुक्ति ही इस विश्व की प्रेरक है, और मुक्ति ही इसका लक्ष्य है। प्रकृति के नियम ऐसी पद्धतियां हैं, जिनके द्वारा हम माँ जगदम्बा के निर्देशन में उस मुक्ति (साम्यावस्था) तक पहुँचने का संघर्ष करते हैं। वह मुक्ति (साम्यावस्था) तीन प्रकार से प्राप्त होती है-
(१.) कर्म -दूसरों की सहायता करने और दूसरों से प्रेम करने का सतत अविरत प्रयत्न -'BE AND MAKE' आध्यात्मिक शिक्षक बनना और बनाना ही सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा है।
(२.) उपासना -प्रार्थना -वन्दना, गुणगान और ध्यान।
(३.) ब्रह्मज्ञान - जो एकाग्रता का अभ्यास सीखने के बाद खुली आँखों से ध्यान करने से उत्पन्न होता है। ९/३१५]
कृष्ण ने गीता ५/१९ में कहा था -" जिसका मन साम्यभाव में अवस्थित है, उसने जीवित अवस्था में ही संसार पर विजय प्राप्त कर लिया है। जब तक मानव इस साम्य-ज्ञान को प्राप्त नहीं करता तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता। आप राजपूत लोग ही प्राचीन भारत के गौरव स्वरुप रहे हैं ! वास्तव में तो सर्वत्र एक ही वस्तु विद्यमान है। 'श्वेताश्वतर उपनिषद' में ऋषि परमात्मा की स्तुति करते हुये कहते हैं, “त्वं स्त्री त्वं पुमान् असि, त्वं कुमार उत वा कुमारी” अर्थात, 'हे परमेश्वर, तुम्हीं स्त्री हो, तुम्हीं पुरुष का रूप धारण करती हो और तुम्हीं कुमार या कुमारी हो। ' बहुत से लोग कहेंगे, 'इस प्रकार सोचना तो निवृत्ति मार्गी संन्यासी को ही शोभा देता है, उनके लिए ही यह ठीक है, किन्तु हम सब तो प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ हैं। ' ठीक है कि गृहस्थों को दूसरे अनेक कर्तव्यों का पालन करना पड़ता हे, अतः वे साम्यभावमें इतना स्थित नहीं रह सकता। परन्तु जो लोग महामण्डल आंदोलन के वुड बी लीडर्स हैं - भावी शिक्षक हैं, उनका आदर्श यही होना उचित है।
९/३५७-८]
योगी के अतिरिक्त अन्य सभी लोग हिप्नोटाइज्ड हैं अर्थात गुलाम हैं, खाने-पीने के गुलाम, अपनी स्त्री के गुलाम, अपने लड़के -बच्चों के गुलाम, रूपये-पैसे के गुलाम, नाम-यश के गुलाम, स्वदेशवासियों के गुलाम, जलवायु के गुलाम, इस संसार के हजारों विषयों के गुलाम! जो मनुष्य इन बंधनों में से किसी में आसक्त नहीं है, वे ही यथार्थ योगी हैं, उन्हीं का मन साम्यावस्था में सदैव रहता है। गीता ५/१९ में कहा गया है - जिनका मन साम्यभाव में अवस्थित है, उन्होंने जन्म-मृत्यु पर इस शरीर में रहते हुए ही विजय प्राप्त कर लिया है। इस सम्मोहित भाव को दूर करना होगा de-hypnotaised होना होगा।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥
[ भाति (shines) न चन्द्रतारकम् - and the moon has no splendour and the stars are blind | इमाः विद्युतः - there these lightnings न भान्ति (flash not) कुतः - how then? | अयम् अग्निः - this earthly fire shall burn | तम् भान्तम् एव - when he shines | सर्वम् अनुभाति - all that is shines after that | तस्य भासा - with his light | इदम् सर्वम् - all this universe | विभाति - is effulgent |]
वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।
इस आत्मसाक्षात्कार को सम्मोहन (hypnotism) नहीं कह सकते। यह तो अपसम्मोहन (de-hypnotisation) है| प्रत्येक धर्म जो इस जगत प्रपंच को भोग करने की शिक्षा देता हो, वह एक प्रकार से सम्मोहन का प्रयोग कर रहा है। एकमात्र अद्वैतवाद ही यह कहता है कि द्वैतवाद से सम्मोहन या मोह उत्पन्न होता है। इसीलिए अद्वैतवादी कहते हैं, ' वेदों को भी अपरा विद्या समझकर उनके अतीत हो जाओ। सगुण ईश्वर से भी परे चले जाओ, सारे विश्वब्रह्माण्ड को भी दूर फेंक दो। इतना ही नहीं अपने शरीर -मन से भी परे चले जाओ, किसी भी नामरूप में आसक्ति नहीं रहनी चाहिये , तभी तुम सम्पूर्ण रूप से भ्रममुक्त डीहिप्नोटाइज्ड हो जाओगे।
'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कदाचन।'
-मन के सहित वाणी जिसे न पाकर जहाँ से लौट आती है, उस ब्रह्म के आनन्द को जानने पर फिर किसी प्रकार का भय नहीं रह जाता। यही है डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था -अपसम्मोहन। १०/३८८
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['the Peace that passeth all understanding' तब परमेश्वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे विचारों को मसीह यीशु में सुरिक्षत रखेगी॥ फिलिप्पियों4/7]
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