भूमिका :
बंगला पुस्तिका ' एकटि युव आन्दोलन' का प्रथम हिन्दी अनुवाद 'एक युवा आन्दोलन ' के नाम से दिसम्बर 2003 में प्रकाशित हुआ था। उस पुस्तिका का पूरा स्टॉक समाप्त हो जाने के कारण, उसमें आवश्यक सुधार करते हुए उस पुस्तिका का पुनर्प्रकाशन करना आवश्यक प्रतीत हुआ। किन्तु जिस 'एकटी यूव आन्दोलन' नामक मूल बंगला पुस्तिका से 'एक युवा आन्दोलन' नामक हिन्दी पुस्तिका का अनुवाद हुआ था,उसे प्राप्त करने के लिए बंगला प्रकाशन/विक्रय विभाग से सम्पर्क करने पर पता चला कि उस मूल बंगला पुस्तिका का स्टॉक भी पूरा समाप्त हो चुका है। किन्तु हिन्दी भाषी राज्यों के युवा पाठकों में इस पुस्तक के प्रति अत्यन्त आग्रह को देखते हुए, झुमरीतिलैया महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग ने इस पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद अक्टूबर 2018 तक करने का निर्णय लिया है, ताकि वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर के पहले इसे प्रकाशित किया जा सके। तदनुसार 2003 में प्रकाशित 'एक युवा आन्दोलन' के हिन्दी निबन्धों को -बंगला में प्रकाशित पुस्तक 'स्वामी विवेकानन ओ आमादेर सम्भावना' में प्रकाशित निबन्धों से मिलाकर पुनः अनुवादित किया जा रहा है।वास्तव में 'एकटी यूव आन्दोलन' नामक बंगला पुस्तिका, सर्वप्रथम महामण्डल के बंगला प्रकाशन -'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' पुस्तक में परिशिष्ट (appendix) के रूप में प्रकाशित हुई थी। इस मूल पुस्तक में आई हुई बातों को, और अधिक स्पष्ट करने के लिए 'एकटी यूव आन्दोलन' नामक जो बंगला पुस्तिका परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित हुई थी। 'जीवनेर फूल' नामक निबंध उस परिशिष्ट का 5 वां निबंध है। जबकि सभी महामण्डल कर्मियों के लिए अपने दैनंदिन जीवन धारण करना क्यों अत्यंत आवश्यक है, उसके स्पष्टीकरण के लिए स्वतंत्र रूप से बंगला में प्रकाशित पुस्तिका 'एकटी यूव आन्दोलन का यह 6 ठा निबन्ध है। यह गूढ़ निबन्ध गृहस्थ आश्रम में रहने वाले महामण्डल कार्यकर्ताओं के लिए विशेष उपयोगी और उत्साह वर्धक है।
पूर्व हिन्दी पुस्तिका 'एक युवा आन्दोलन' तथा बंगला में प्रकाशित पुस्तक 'स्वामी विवेकानन ओ आमादेर सम्भावना' के निबन्धों की तुलनात्मक विषय-सूचि (table of contents)' इस प्रकार है -
1. आगे बढ़ो,-----------------------------------------67.EGIYE CHALUN!
2. समाज सेवा का उद्देश्य एवं उपाय----------------------59. SAMAJ SEVAR UDDESHY O UPAY.
3. अ০ भा০ वि০ यु০ महामण्डल के गठन की अनिवार्यता----68. MAHAMANDAL KEN ?
4. महामण्डल के उद्देश्य एवं कार्यक्रम ------------------- 69. MAHAMANDKER LAKSHY O KARMDHARA .
5. महामण्डल का स्वरुप एवं कार्य -----------------------70. MAHAMANDLER CHINTA O KAJ.
6. जीवन पुष्प को खिला देने में समर्थ माली बनो और बनाओ--71. JIVNER FUL
7. महामण्डल और जीवन का महाजीवन में रूपान्तरण ------72. MAHAMANDAL O SEI MAHAJIVAN.
8. महाजीवन का संदेश -------------------------------- 09. SWAMI VIVEKANANDER CHINTADHARA.
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['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या 6/ मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना-निबन्ध संख्या -71-'জীবনের ফুল' ]
जीवन पुष्प को खिला देने में समर्थ माली बनो और बनाओ !
ध्यानमूलं गुरुमूर्ति, पूजामूलं गुरु पदम् ।
मंत्रमूलं गुरु वाक्यं, मोक्षमूलं गुरु कृपा॥
विकार हेतौ सति, 'विक्रियन्ते येषां न मनांसि' त एव धीराः।।
ध्यानमूलं गुरुमूर्ति, पूजामूलं गुरु पदम् ।
मंत्रमूलं गुरु वाक्यं, मोक्षमूलं गुरु कृपा॥
श्रीमद तोतापुरी का शिक्षण (teaching/ट्रेनिंग) है --' गुरुरूपी श्री भगवान स्व-स्वरुप की पहचान करवा देते हैं।'.... इसके बाद गुरुरूपी भगवान श्रीरामकृष्ण देव कहते हैं - 'नागा ने बाघ और बकरों के झुण्ड की कहानी सुनायी थी।"[ 'तोतापुरीर उपदेश -गुरुरूपी श्रीभगवान स्व-स्वरूपके जानिये देन'/ तथा गुरुरूपी भगवान श्रीरामकृष्ण भक्तों को अपने गुरु के सम्बन्ध में बतलाते हुए कहते हैं - "न्यांगटा बाघ आर छागलेर पालेर गल्प बलेछिल। ...." मूल बंगला कथामृत में 24 दिसम्बर 1883 के व्याख्यान 'नित्य और लीला' दोनों सत्य हैं! .के साथ उसका हिन्दी अनुवाद वचनामृत को मिलाकर पढ़ने से "भगवानरूपी गुरु श्रीमद तोतापुरी" तथा " गुरुरूपी भगवान श्रीरामकृष्ण" के कथन का फर्क समझ में आ जायेगा। Gospel of Shri Ramakrishna Daily-24 December 1883 द्रष्टव्य है। (তোতাপুরীর উপদেশ -- " গুরুরূপী শ্রীভগবান স্ব-স্বরূপকে জানিয়ে দেন") , গুরুরূপী শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে/ ১৮৮৩, ২৪শে ডিসেম্বর/ নিত্য, লীলা -- দুই-ই সত্য| “ন্যাংটা বাঘ আর ছাগলের পালের গল্প বলেছিল!.......]
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🔱🙏जीवन पुष्प का प्रस्फुटन🔱🙏
[🔱1. >>>विकारहेतौ सति 'येषां मनांसि न विक्रियन्ते' ते एव धीराः। "वीर हो धीर बनो! नरलीला कैसी होती है जानते हो ? जैसे किसी व्याघ्रमुख परनाले से होकर (gargoyle से होकर) बड़ी छत का पानी धड़धड़ करते हुए नीचे गिरता है। उसी सच्चिदानन्द की शक्ति मानो परनाले के भीतर से आ रही है। ]
हमारे शास्त्रों में एक अत्यन्त ही सुन्दर शब्द है - 'धीरः' ! महाकवि कालिदास ने अपनी रचना 'कुमार संभव' में भगवान शिव के स्वरुप का वर्णन करते हुए, इसे बहुत ही सुन्दर ढंग से परिभाषित किया है:-
[कुमारसम्भवम् (१. ५९)]
{ यहाँ दादा के बंगला उक्ति `এই ধীররাই কিন্তু জীবনের সত্যকার দৃষ্টি এবং সত্যকারের জীবন লাভ করতে পারেন।' की व्याख्या करना या 'decoding' करना आवश्यक है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि ऐसे धैर्यशाली पुरुष ही मनुष्य-जीवन के प्रति सच्चे दृष्टिकोण को अर्थात 'प्रवृत्ति (गृहस्थ जीवन) और निवृत्ति (संन्यासी जीवन) ' दोनों धर्म हैं, इस बात को सही अर्थों में समझ सकते हैं, तथा अपनी प्रवणता के अनुसार दोनों में किसी भी धर्म का पालन करते हुए इसी जीवन को महाजीवन में रूपांतरित करके शाश्वत जीवन या 'अमरत्व' को भी प्राप्त कर सकते हैं।
दादा कहते थे -Individual life building, वैयक्तिक जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण जंगल के गुफा में बैठकर पकाने की चीज नहीं है, गीता कुरुक्षेत्र (संसार) में ही कही गयी थी। धर्म-सम्मत या (विवेक-सम्मत) 'अर्थ और 'काम' का विरोध भारत में कभी नहीं हुआ है। यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है। गीता में भगवान ने कहा है -'धर्म अविरूद्ध कामोSस्मि!' हे भरतश्रेष्ठ (अर्जुन)! मैं वह काम हूँ, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है। अर्थात धर्म-सम्मत मैथुन सन्तानोन्पति के लिए होना चाहिए, अन्य कार्यों के लिए नहीं।
दादा ने लीडरशिप क्लास में एक बार कहा था -" स्वामीजी से अमेरिका में किसी ने (कैप्टन सेवियर ने ?) पूछा था -'स्वामीजी आर यू अ बूडिस्ट ?' 'Swami ji are you a buddhist?' अर्थात 'स्वामी जी क्या आप एक बौद्ध हैं ?' तब इसके उत्तर में उन्होंने हँसते हुए, थोड़ा मजाकिया ढंग से कहा था -" नो, आइ एम बडिस्ट !' " No, I am a 'bud'-ist ! (budde-tist) " वहाँ वे यही कहना चाह रहे थे कि मैं बालकों,किशोरों, युवाओं के जीवन-पुष्प को सुंदररूप से प्रस्फुटित करा देने में सक्षम एक माली (उद्यान-विद्या विशारद) हूँ !
कालिदास के उपरोक्त 'सविस्तार' दिए गए तर्क (comprehensive logic) के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि, किसी योगी के 'मनोनिग्रह' या मानसिक एकाग्रता में उसकी दक्षता की जाँच, उसके कर्मों में रत रहते समय ही की जा सकती है। और इस प्रकार स्वयं उस कार्यकर्ता को, तथा अन्य लोगों को भी, यह ज्ञात हो जाता है कि उस योगी का 'मनोनिग्रह' (मनःसंयोग) पूर्ण हुआ है या नहीं ? इस दृष्टि से देखने पर भी यही सिद्ध होता है कि महामण्डल के किसी कुशल कार्यकर्ता (Skilled worker नेता या जीवनमुक्त शिक्षक) को (माँ सारदा की इच्छा से) अपने सामने आ गए कर्ममय जीवन से मुख नहीं मोड़ना चाहिए। बल्कि किसी भी धर्म-अविरुद्ध कर्तव्य-कर्म (चारो पुरुषार्थ), पठन-पाठन, खेती-व्यापार आदि जीविका सम्बन्धी समस्त कर्मों को शास्त्र की मर्यादा के अनुसार आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके अवश्य करना चाहिये।
श्रीरामकृष्ण कहते हैं, " नित्य और लीला'- दोनों सत्य हैं। (साकार -निराकार दोनों सत्य हैं !) ईश्वर नित्य हैं; फिर वे लीला भी करते हैं-ईश्वरलीला, देवलीला, जगत-लीला, नरलीला। नरलीला में वे अवतार बनकर आते हैं। नरलीला कैसी होती है जानते हो ? जैसे व्याघ्रमुख परनाला से होकर (gargoyle से होकर) बड़ी छत का पानी धड़धड़ करते हुए नीचे गिरता है। उसी सच्चिदानन्द की शक्ति मानो परनाले के भीतर से आ रही है। श्रीरामकृष्णदेव कहते थे -'पौधों में साधारणतः पहले फूल आते हैं, बाद में फल, परन्तु लौकी, कुम्हड़े आदि के बेलों (लत्तर) में पहले फल और उसके बाद फूल होते हैं। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वरलाभ होता है किन्तु जो नित्यसिद्ध श्रेणी के योगी होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है; साधना बाद में करनी पड़ती है।"]
अवतार को (नित्यसिद्ध श्रेणी के योगी को) सब लोग नहीं पहचान सकते। रामचन्द्र को अवतार के रूप में भरद्वाज आदि केवल 7 ही ऋषियों ने ही (प्रवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों ने ही) पहचाना था। ईश्वर मनुष्य को ज्ञान-भक्ति सिखाने के लिये नररूप धारण कर अवतीर्ण होते हैं। .....जब लकड़ी का बड़ा भारी कुन्दा पानी पर बहता है तब उस पर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी पर एक कौआ भी बैठने से वह डूब जाती है। इसी प्रकार जिस समय अवतार -महापुरुष आते हैं उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं, परन्तु सिद्ध पुरुष काफी श्रम करके किसी तरह स्वयं तरता है। [माँ सारदा देवी की कृपा से ईश्वरकोटि के C-IN-C नवनी दा दूसरों को ज्ञान-भक्ति की शिक्षा देने के लिए निर्विकल्प समाधि से लौट आते हैं ..... लेकिन (जीवकोटि का साधक) वापस नहीं लौट पाता ? " इस प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म को विस्तार से समझने के लिए इस पुस्तिका का 9 वां निबन्ध 'व्यावहारिक जीवन और धर्म क्या भिन्न -भिन्न हैं ?' ব্যাবহারিক জীবনে ধর্ম/ को देखें। क्योंकि 'जीवन ही धर्म हैं'- इस तथ्य को कुछ (मुट्ठीभर) धैर्यशाली लोग ही यह समझ सकते हैं; तथा इसे समझ लेने के बाद इसी जीवन में वे शाश्वत जीवन (अमरत्व) को भी प्राप्त कर सकते हैं। दादा कहते थे - "तुम वीर हो धीर बनो !" ]}
इसीलिये धीर बनने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम हमलोग धीर भाव से जीवन का अवलोकन करने की चेष्टा करेंगे। केवल इतना ही नहीं, इस धीर भाव को इतना अधिक विकसित कर लेंगे कि इसका प्रभाव हमारे व्यक्तिगत जीवन में तथा सामाजिक जीवन में भी - स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगेगा। हम इस बात पर भी चिन्तन करेंगे कि इस 'धीर भाव' को हम कैसे अपने दैनन्दिन जीवन में, कर्म में या आचरण में धारण कर सकते हैं, और साथ-ही-साथ उसके प्राप्ति पथ को भी देखने की चेष्टा करेंगे। इसीलिए किसी भी प्रकार की उच्छृंखलता (धर्मविरुद्ध आचरण या निषिद्ध कर्म में ), किसी प्रकार से शक्ति का क्षय हमलोग नहीं करेंगे। क्योंकि वैसा करने से उस जीवन (शाश्वत जीवन या अमरत्व) के प्रति हम अपना सही दृष्टिकोण नहीं बना पायेंगे, जिस जीवन को प्राप्त करने के लिए हमें पहले धीर बनना पड़ता है। तथा जो दृष्टि धीर भाव रखने से ही प्राप्त होती है, उसके पथ का संधान भी हम नहीं कर पायेंगे।
[ ধীরভাবে পাওয়া যে সেই দৃষ্টির জীবন তার পথও জানতে পারব না।] यदि हमें किसी प्रकार उस शाश्वत जीवन (अमरत्व) प्राप्त करने के पथ का पता चल भी गया किन्तु, हम यदि धीर न बन सके, तो हम कभी भी उस 'पथ' पर (ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने के पथ पर) अग्रसर नहीं हो पाएंगे। इसलिए इस 'धीर भाव' को सतत् बनाये रखना आवश्यक है।
[🔱2. >> युवा प्रशिक्षण-शिविर (Individual life building) में बाह्य अनुशासन का पालन ही आत्मानुशासन में परिणत होकर हमें विराट साम्य (मतैक्य) में प्रतिष्ठित कर देता है।]
कई तरह के बाह्य अनुशासन (NCC-परेड,गार्ड-ड्यूटी, किचेन-डिस्ट्रीब्यूशन आदि) का निष्ठा-पूर्वक पालन करते हुए, हमें पहले अपने जीवन को अनुशासित करना सीखना होगा। महामण्डल की प्रार्थना (anthem या संघगीत) में हमलोग गाते हैं- 'एक साथ चलेंगे, एक बात कहेंगे', या परेड के समय एक साथ कदम से कदम मिलाते हुए चलते हैं बायाँ -दायाँ, बायाँ -दायाँ एक साथ ही सभी के कदम उठते तथा गिरते हैं। यदि हम अपने संघ-गीत का अर्थ केवल इतना ही समझें कि अपने पैरों को बायाँ-दायाँ करके साथ-साथ उठाने-गिराने से ही हममें एकत्व का भाव आ गया , तो यह कभी नहीं होगा। यह तो एक बाह्य अनुशासन मात्र है, जिस प्रकार पैरों को बाहर में एक-साथ आगे-पीछे रखने के लिए सतर्क होकर मन को भी अनुशासन में रखना जरुरी होता है, उसके लिए भीतर ही भीतर ताल से ताल मिलाने की चेष्टा करनी पड़ती है। [ভেতরের যে পা ফেলা সেটাকে মেলাতে হবে।] भीतर के ताल को बाहरी स्तर पर भी अनुशासित रखने के लिए सैनिकों को इस प्रकार से बाह्य प्रशिक्षण दिया जाता है। बाह्य जीवन को अनुशासन में रखने का प्रयास करते हुए, हमें अपने आन्तरिक जीवन में प्रवेश करना पड़ेगा। किन्तु बाहर से अनुशासन पालन करते हुए चलें, लेकिन भीतर में उसके विपरीत चिंतन चल रहा हो, तो वह समदृष्टि हमें नहीं प्राप्त हो सकेगी।
इसीलिए हमारे संघगीत में हर छन्द के बाद दुहराया जाता है , ' एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे। ' उसके बाद वाले छन्द में है -"हमारे हृदय समान होंगे, हमारी भावनायें एक जैसी होंगी, हमारी अभिलाषायें समान होंगी, हमारे संकल्प समान होंगे, हमारी प्राप्ति समान होगी; एवं जो कुछ प्राप्ति होगी उसे हम आपस में एक समान बाँटकर ग्रहण करेंगे। " कैसी सुन्दर है, यह प्रार्थना ! और यही हमें सीखना है कि किस प्रकार हमलोग संघ-बद्ध होकर कार्य कर सकते हैं। हमारी यह प्रार्थना ऋग्वेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा है। जो शास्त्र मानवजाति का सबसे प्राचीन शास्त्र है, उसी ऋग्वेद संहिता की यह अन्तिम ऋचा है।
ऋग्वेद में बहुत सारे देवताओं की कथाएं हैं। अग्नि देवता से लेकर ईन्द्र देवता तक जितने सारे देवता हैं, कथायें हैं एवं समस्त देवताओं की स्तुतियाँ भी हैं। एक एक ऋचाओं को सूक्त कहा जाता है। उन समस्त सूक्तों को भिन्न -भिन्न देवताओं को समर्पित किया गया है। किन्तु, ऋग्वेद के इस अंतिम सूक्त (१०.१९१)- में जिस देवता की स्तुति की जा रही है, उस देवता का नाम हुआ - 'मतैक्य। ' इस ऐक्य को हमें प्राप्त करना ही होगा।
इतने प्राचीन काल के ऋषि, हमें क्या उपदेश दे रहे हैं ? वे कहते हैं - संगच्छध्वं संवदध्वं.... तुम सभी लोग एक मन हो जाओ, सभी एक विचार वाले बन जाओ। क्योंकि अत्यन्त ही प्राचीन काल में एक मन होने के कारण देवताओं को 'हवि' की प्राप्ति होता था। अर्थात देवता लोग मनुष्यों के द्वारा इसीलिए पूजे गए थे कि वे एक मत थे, एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। अग्नि में जिस 'हवि ' की आहुति दी जाती थी , उसे सभी देवगण आपस में समान भाग में बाँटकर ही ग्रहण करते थे। हमलोग भी उन्हीं के समान, इस जगत के धन-ऐश्वर्य आदि प्राप्त होने पर उसे समान रूप से बाँट कर ही ग्रहण करेंगे। इसीलिये हमलोग यह प्रार्थना करते हैं, कि हमारा ऐक्य बना रहे ताकि हम अपनी समस्त उपलब्धियों को समान भाग में बाँट कर ही भोग करें। इसी विराट साम्य को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना ही भारतवर्ष की अति प्राचीन विरासत का लक्ष्य है। उस प्राचीन विरासत से हमें यही शिक्षा मिलती है, एवं उसी महान मतैक्य की ओर, उसी विराट साम्य की ओर हमलोग अग्रसर होंगे।
गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने योग की शिक्षा दी है, सभी के प्रति सहानुभूति रखने की शिक्षा भी दी गयी है, उसी तरह इस विराट साम्य को समझाते हुए यह उपदेश दिया गया है कि हमें महासाम्य में प्रतिष्ठित होना होगा। उसमें ब्रह्म को 'साम्य स्वरूप' भी कहा गया है। हमारा उद्देश्य भी इसी साम्य को प्राप्त करना है। प्रश्न यह है कि, कब हमलोग उस महासाम्य की स्थिति में पहुँच सकेंगे ? हमलोग साम्य की स्थिति को तभी प्राप्त कर सकेंगे जब हम अपने समस्त क्षुद्र स्वार्थों का [तीनों ऐषणाओं का ] परित्याग कर देंगे। जब तक हममें ऐसी क्षुद्रता बनी रहेगी, तब तक हमलोग इस साम्य भाव की कल्पना भी नहीं कर सकते। साम्य भाव की कल्पना करते ही, हमें इस प्रकार की समस्त क्षुद्रताओं को विसर्जित कर देना होगा, समस्त स्वार्थों की बली चढ़ा देनी होगी ; तभी हमलोग इस महान साम्य भाव को प्राप्त कर सकेंगे।
गीता (5:19) में कहा गया है -
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥
जिसका मन सबके भीतर स्थित ब्रह्म में अविचल रूप से प्रतिष्ठित है, उनके लिए यह सृष्ट संसार, इसी लोक में रहते हुए या शरीर में रहते समय ही विसर्जित हो जाता है। क्योंकि ब्रह्म सभी में समान रूप से दोष-गुण से रहित होकर अवस्थित हैं। इसी कारण वे समदर्शी लोग सदा ब्रह्मभाव में अवस्थित रहते हैं।
तात्पर्य यह है कि इसी लोक में, इसी जीवन में अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है। पर उसे केवल वही प्राप्त कर सकते हैं, जिनका मन साम्य में अवस्थित हो चुका है। अतः यदि मन में यह प्रश्न उठे कि इस लोक में अमर कौन है ? तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा कि वही जिन्होंने सम्पूर्ण साम्य की स्थिति को प्राप्त कर लिया है,जो लोग सभी प्रकार के भेदभाव को भुला चुके हैं, जो अपने समस्त क्षुद्र स्वार्थों का विसर्जन कर चुके हैं। गीता में वर्णित इसी स्थिति को हमें प्राप्त करना होगा , तथा इसी महान उपदेश को समस्त युवाओं के समक्ष पहुँचा देना होगा। यही महामण्डल का कार्य है। अतः हमारे सामने यही महान उद्देश्य है।
[एक बार दादा ने लीडरशिप क्लास में कहा था -'I bow down my head to the would be 'LEADERS' (माली) of India......स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा, 'Be and Make' में प्रशिक्षित प्रत्येक युवक को स्वामी जी द्वारा (3H विकास के 5 अभ्यास के माध्यम से)'Individual Life- building' जीवन-गठन या जीवन-पुष्प खिला देने में सक्षम 'माली बनने और बनाने' का कार्य सौंपा गया है, इस गूढ़ रहस्य को समझ लेने के बाद]
इसे समझ लेने के बाद सारा आलस्य त्यागकर इसी भाव को प्राप्त करने के उपायों [3H विकास के 5 अभ्यास ] पर चर्चा करके तथा पूरे अध्यवसाय के साथ अपने जीवन में प्रयोग करते रहेंगे। ताकि हमलोग इसी महान साम्य की ओर अग्रसर होते रहें। यदि हम सभी लोगों का ध्येय एक ही निश्चय पर अटल रहे तो हम स्वतः अपनी जरूरतों को पूरा करने करने के लिए धीर-शांत बनकर स्वेच्छा से अनुशासित जीवन-यापन करने लगेंगे। आत्मानुशासन का प्रारम्भ यहाँ से ही करना होगा , पहले स्वयं व्यक्तिगत रूप से अनुशासित होना होगा। किन्तु संघबद्ध होकर इस अनुशासन का पालन करने के लिए युवाओं की बिखरी हुई (तीनों ऐषणाओं में बिखरी हुई) इच्छा शक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाना होगा। इसके लिए हमें बिना थके, बिना किसी व्यतिक्रम के, निरन्तर प्रयासरत होना होगा।
हमें इसके लिये एकता के सूत्र में बँधकर, संघबद्ध प्रयास करना सीखना होगा। यदि हर जगह पर दो-चार जन (यदि गुट बनाकर) अलग-अलग ढंग से समाज-सेवा के कार्य करते रहें तो यह भाव [सेवा करने के पहले life building] सर्वव्यापी नहीं हो सकेगा। समस्त कार्यों में यदि सम्मिलित प्रयास नहीं किया जाय, यदि उनके बीच समन्वय न हो तो, यह कार्य द्रुत गति से आगे नहीं बढ़ सकेगा। इसको तीव्र गति देने के लिए संगठित होकर प्रयास करना होगा। संघबद्ध होकर कार्य करना ही होगा। स्वामी विवेकानन्द का कथन है -" यदि भारत को महान बनाना है,उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है तो उसके लिए आवश्यकता है संगठन की , शक्ति संग्रह की और 30 करोड़ मनुष्य जो अपनी डफली, अपना राग आलापते रहते हैं-उन सबकी बिखरी हुई इच्छा-शक्ति और संकल्प को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। यदि तुम स्वर्ण -असवर्ण जैसे तुच्छ विषयों को लेकर तू-तू, मैं-मैं करोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोध- भाव बढ़ाते रहोगे, तो समझ लो कि तुम उस शक्ति संग्रह के लक्ष्य से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। इस बात को याद रखो कि भारत का भविष्य सम्पूर्णतः इसी बात पर निर्भर करता है। बस संकल्पशक्ति और इच्छाशक्ति को समन्वित और संगठित कर उनको एकोन्मुखी रखने में ही सफलता का सारा रहस्य छिपा है।" हमें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये कि किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने का गुप्त रहस्य है उसमें संलग्न कार्यकर्ताओं की इच्छाशक्ति और संकल्प को एकोन्मुखी करना। सभी को लक्ष्य प्राप्ति हेतु, एकताबद्ध होना होगा, संघबद्ध होना होगा।
अन्य देशों के साथ-साथ हमारे देश में भी बहुत से समाज-सुधारकों का जन्म हुआ था। यह ठीक है कि उन्होंने बहुत से बड़े-बड़े कार्य किये थे। किन्तु, हर समाज सुधारक ने समाज की एक-एक समस्या को लेकर,उनको सुधारने का प्रयास किया था। किन्तु, स्वामी विवेकानन्द इस प्रकार एक-एक छोटी समस्याओं का सुधार करना नहीं चाहते थे , इस प्रकार के समाजसुधार में उनका विश्वास भी नहीं था। पैबन्द लगाने या ऊपरी तौर पर हल्के-फुल्के सुधार (দাগরাজি কাজ-Lightweight social -reform) करने के पक्षधर वे नहीं थे। वे आमूल-चूल सुधार, जड़ से ही सुधार करना थे। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमारे अधिकांश समाज सुधार आंदोलन, केवल पाश्चात्य कार्य प्रणाली के विवेकशून्य अनुकरण मात्र हैं। इस कार्यप्रणाली के द्वारा भारत का कोई उपकार होना सम्भव नहीं है। तुम समाज सुधार की बातें करते हो, पर वास्तव में तुम करते क्या हो ? तुम्हारे समाज सुधार का अर्थ होता है -'विधवा विवाह, स्त्री स्वातंत्र्य, खटमल के लिए अस्पताल, या ऐसी ही 'कोई और बात'? इस तरह के सुधारों से कुछ लोगों का भला अवश्य ही होता है, पर देश की साधारण जनता को या राष्ट्र को इससे क्या लाभ ? इसे तो आमूल-चूल सुधार नहीं कहा जा सकता। सुधार करने के लिए हमें समस्त समस्यायों की जड़ तक पहुँचना चाहिये। इसीको मैं आमूल-चूल सुधार कहता हूँ। जड़ में आग लगाओ, और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एकीकृत भारत राष्ट्र को संगठित करो। मैं यह मानता हूँ कि रोग को समूल नष्ट किया जाये। रोग के कारणों को जड़ से नष्ट किया जाये, रोगों को दबाया न जाये, नहीं तो वह फिर से बढ़ जायेगा। सभी स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन उसके भीतर कार्यशील आध्यात्मिक शक्तियों की वाह्य प्रकटीकरण मात्र हैं। अतः तथाकथित समाज सुधार के चक्कर में पड़कर अपनी ऊर्जा को नष्ट मत करो; क्योंकि सबसे पहले जनसाधारण का आध्यात्मिक सुधार हुए बिना, अन्य कोई भी सुधार टिकाऊ (sustainable) नहीं हो सकता।" स्वामी जी आमूल-सुधार या जड़ से सुधार करने के इच्छुक थे।
[🔱🙏>>>প্রত্যেক জীবনের চর্যা করতে হবে মালীর মত, একেবারে নিজে কে ভুলে গিয়ে সমস্ত স্বার্থকে জলাঞ্জলি দিয়ে।) अब हमलोगों को अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरी तरह से विसर्जित कर , यहाँ तक कि स्वयं को भूल कर किसी कुशल माली के समान प्रत्येक जीवन पुष्प को खिला देने के लिए, बहुत प्यार से उसका (চর্যা /cherish) लालन -पालन करना होगा।]
इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ( Be and Make माली-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित भावी 'माली' उद्यान-विद्या विशारदों का आह्वान करते हुए) कहते हैं-" वृक्ष के जड़ में पानी दो। वृक्ष के तने को धो-पोंछकर उसके पत्तों पर जल डाल कर, उसको साफ-सुथरा और सुन्दर दिखाने का प्रयत्न तो बहुत से लोग करते हैं। किन्तु वैसा करने से वह वृक्ष सचमुच स्वस्थ और सुंदर नहीं हो पाता, यहाँ तक कि ज्यादा दिनों तक जीवित भी नहीं रह सकता। वृक्ष को यदि सुन्दर और स्वस्थ रखना चाहते हों, तो वृक्ष की जड़ों को स्वच्छ और स्वस्थ रखना आवश्यक है। उसे जल से सींचना पड़ेगा, खाद देना होगा, व्यर्थ में उग आये खर-पतवारों को उखाड़ फेंकना होगा। तब कहीं वृक्ष स्वतः अपनी जीवनी शक्ति से बड़ा हो जायेगा।
[शिक्षा या माँ-रूपी गुरु से प्रशिक्षण लेने की उम्र कहाँ से शुरू होती है ? इस सम्बन्ध में स्वामीजी पालने में झूलने (Dangling in the cradle) की उम्र से ही, ही रानी मदालसा की तरह या शिशु अवस्था से 'तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप अमित है तेरा निज प्रताप !' की लोरी सुनाते हुए बच्चों को आध्यात्मिक शिक्षा देने के पक्षधर थे।]
शिक्षा के विषय में विवेकानन्द बार-बार कहते हैं- " जैसे तुम किसी पौधे को खींच-तान करके बड़ा नहीं कर सकते, उसी तरह तुम किसी बच्चे को भी जबरन नहीं सिखा सकते। तुम उसके स्वतः विकसित होने में केवल सहायता मात्र दे सकते हो। ज्ञान तो आन्तरिक अभिव्यक्ति है, वह स्वतः विकसित होता है, तुम केवल बाधाओं को दूर कर सकते हो। तुम किसी पौधे को ऐसी जमीन पर नहीं ऊगा सकते जो उपजाऊ न हो। बालक अपने-आप ही सीख लेता है। तुम केवल उसके मार्ग की कठिनाइयों को दूर कर सकते हो , पर ज्ञान की क्रमशः उन्नति स्वाभाविक रूप से स्वतः हो जाती है। बाधा हट जाने पर शेष सब उसके प्रकृति के भीतर से अपने-आप अभिव्यक्त होता है। यही बात बालकों की शिक्षा के संबन्ध में है।" बालक अपने आप को स्वयं ही शिक्षा देता है। " तुम केवल एक माली के जैसा कार्य कर सकते हो। " माली वृक्ष की जड़ को साफ-सुथरा रखता है। वहाँ पानी डालता है, उसमें खाद देता है। उसे कोई जानवर चर न जाये, इसके लिए चारों ओर से घेरा डाल देता है। हम भी बालक के लिए केवल इतना ही कर सकते हैं।
[किशोर अवस्था से ही उसके चारों और ज्ञान-भक्ति का घेरा डाल सकते हैं। श्रीराकृष्णदेव कहते थे - " माया (अहं) को हटा देने से वह फिर आ खड़ी होती है; परन्तु यदि उसे हटाकर ज्ञान-भक्ति का घेरा डाल दिया जाय तो फिर वह नहीं आ पाती। तभी भगवान प्रकाशित होते हैं। "]
महामण्डल के माध्यम से हमें ऐसा प्रयास करना होगा, जिससे हमारा अपना जीवन, शिशु-जीवन, किशोरों का जीवन तथा युवाओं का जीवन -' बाह्य-परिस्थितियों के दबाव को हटाकर' एक खिले हुए पुष्प के पौधे की भाँति ही विकसित हो उठे। पौधों के लिये तरह तरह के जल और खाद की व्यवस्था करनी होगी। सूर्य के प्रकाश के कृत्रिम आभाव के कारण सुंदर-सुंदर पौधे मुरझाते जा रहे हैं, उनका विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। ठीक इसी प्रकार की अवस्था हमारे समाज की भी है।
जब कोई शिशु इस धरा पर आता है,उसमें सुन्दर जीवन की सभी सम्भावनायें निहित रहती हैं। हर शिशु सुन्दर ही दीखता है किन्तु ,समाज की विषम परिस्थितियाँ उस पर प्रभाव डालती हैं।आजकल जिस प्रकार जल, वायु सभी प्रदूषित हो गए हैं, पवित्र गंगा का जल भी आज प्रदूषित हो गया है। बड़े बड़े शहरों की आबो-हवा विषाक्त होती गयी है, उसे स्वच्छ रखने के लिये वैज्ञानिक उपाय खोजे जा रहे हैं। रासयनिक कल-कारखानों के लिए प्रदूषण नियंत्रक संयन्त्र लगाना अनिवार्य कर दिया गया है, वरना कारखानों का लाइसेंस रद्द कर दिया जायेगा। ऐसी चेतावनियाँ सभी उद्योगों को दी जा रही हैं। किन्तु, सामाजिक वातावरण और जीवन को प्रदूषित होने से बचाने की दिशा में हम क्या कर रहे हैं ?
जिस स्वच्छ वायु या ऑक्सीजन को ग्रहण कर मानव अपनी आत्मा -मन तथा प्राण को खिला सकता है- वही वायु आज कितनी प्रदूषित हो गई है। जिसके कारण मानव-समाज का स्वास्थ्य निरंतर खराब होता जा रहा है। देश के विभिन्न महानगरों में प्रदूषित वातावरण के कारण जिस प्रकार से अपने प्राकृतिक सौन्दर्य से पूर्ण पुष्प नहीं खिल पाते ठीक उसी प्रकार से समाज के प्रदूषित वातावरण के कारण हमारा जीवन-पुष्प भी नहीं खिल पा रहा है। किन्तु, जब कभी सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में जाते हैं, तो वहां जिस प्रकार के पवित्र,सद्यःजात, पूर्ण रूप से खिले हुए तथा सौरभ बिखेरते हुए पुष्प देखने को मिलते हैं, वैसे फूल बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों में क्यों नहीं खिले हुए मिलते ? इसलिए, क्योंकि वहाँ की आबोहवा प्रदूषित हो गयी है, उसी प्रकार से जीवन-पुष्प की कलियाँ भी मुरझाती जा रही हैं,या खिलती हैं तो उनमें वो जीवन्तता, वैसी प्राण शक्ति दिखाई नहीं पड़ती।
इस वर्तमान दशा में यदि हम सुधार लाना चाहते हों तो जड़ से ही कार्य को प्रारम्भ करना होगा। जिस प्रकार पौधों को रोपने से पूर्व ही उनके जड़ों को परिशोधित कर लेना होता है। तभी हम पूर्ण विकसित पौधों में सुन्दर पुष्प खिलने की आशा करते हैं, उसी प्रकार से मनुष्य के जीवन रूपी सुंदर पुष्प को पूर्ण रूप से खिला देने हेतु भी हमें उसके जड़ अर्थात मानव चरित्र, मनुष्य का स्वभाव तथा आचरण को शुद्ध कर लेना होगा। मनुष्य को अपने "स्वभाव" में प्रतिष्ठित कराना होगा। यही महामण्डल आंदोलन का उद्देश्य है। इस कार्य को,सर्वत्र फैला देना होगा। हमारा राष्ट्र एक उन्नत राष्ट्र नहीं बन पा रहा है , महान राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं हो पा रहा है, इसका मूल कारण यही है कि हममें से अधिकांश मनुष्यों को उपयुक्त विधि से अपना जीवन गठित करने की कला नहीं आती। क्योंकि आज के समाज में उच्च विचारों का अभाव हो गया है। किन्तु उन्नत राष्ट्र या 'एक भारत , श्रेष्ठ भारत ' के निर्माण हेतु हमें पहले स्वयं को तैयार करना होगा- अपने व्यक्तिक जीवन का गठन करना होगा। और भारत का कल्याण या हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण करने के लिए हमें अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरी तरह से विसर्जित कर , यहाँ तक कि स्वयं को भूलकर भी एक प्रशिक्षित या कुशल माली के समान बनना होगा।
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[स्वाधीनता प्राप्त करने के बाद भारतवर्ष में बालकों,किशोरों, युवाओं के जीवन-पुष्प को खिला देने में समर्थ प्रशिक्षित मालियों (पुरी वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षकों/ या मानवजाति के सच्चे मार्ग-दर्शक नेताओं) का घोर अभाव हो गया है। जिसके कारण जनसाधारण को उपयुक्त विधि से (5 अभ्यास के द्वारा) अपना जीवन-गठन करने (3H) को विकसित करने की कला सिखाने वाले, पूर्णतः निःस्वार्थ शिक्षक कहीं देखने को भी नहीं मिलते। शिक्षकों का अपना जीवन उनकी शिक्षाओं का उदाहरण नहीं है, मन-वचन-कर्म से वे वैसा ही नहीं करते जैसा करने का परामर्श वे दूसरों को देते हैं, इसीलिए उनकी शिक्षाओं का प्रभाव भी नहीं पड़ता।
अतः अब युवाओं को स्वयं, केवल 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' को जानने वाला तत्व-ज्ञानी ही नहीं, बल्कि BE AND MAKE' तोतापुरी-रामकृष्ण पंचवटी वेदान्त माली -प्रशिक्षण परम्परा "*** में " एक और अनेक" को, 'नित्य'(E) और 'लीला' (M) को अभिन्न समझने वाला एक प्रशिक्षित माली/ शिक्षक/ नेता बनाना होगा। ('प्रत्येक जीवनेर चर्या करते हबे मालीर मत,एकेबारे निजे के भूले गिये समस्त स्वार्थ के जलांजलि दिये! तथा अपने स्वार्थों को पूरी तरह से विसर्जित कर , यहाँ तक कि स्वयं को भूल कर किसी कुशल माली के समान प्रत्येक जीवन पुष्प को खिला देने के लिए, बहुत प्यार से उसका लालन -पालन (চর্যা /cherish) करना होगा। [अर्थात इसी प्रकार हमलोगों को भी बहुत बड़ी संख्या में "BE AND MAKE' तोतापुरी-रामकृष्ण, रामकृष्ण -विवेकानन्द, विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर पंचवटी वेदान्त (निवृत्ति अस्तु महाफला) माली -प्रशिक्षण परम्परा " वैसा प्रशिक्षित माली बनने और बनाने के लिए हम सभी को संघबद्ध होकर, संगठित होकर, प्रयास करना होगा।] ऐसा होने से सभी मनुष्यों का जीवन एक सुन्दर पुष्प के रूप में प्रस्फुटित हो उठेगा।
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आधुनिक हिन्दी संज्ञान सूक्त
(साभार श्री मोहन भागवत)
'स्वयं अब जाग कर हमको, जगाना देश है अपना !'
नही हे अब समय कोई , गहन निद्रा में सोने का ।
जतन हो संगठित हिन्दु-मुस्लिम में, साम्यभाव भरने का ।
जगाना देश है अपना,..... .
नही हे अब समय कोई , गहन निद्रा में सोने का
समय है एक होने का , न मतभेदों में खोने का ।
बढ़े बल राष्ट्र का जिससे , वो करना मेल है अपना ।
जगाना देश है अपना........
जगाने राष्ट्र की भक्ति , उत्तम कार्य करने का ।
राष्ट्र सर्वांग उन्नत हो , यही उद्देश्य है अपना ।
जगाना देश है अपना........व्यावहारिक जीवन में धर्म: ব্যবহারিক জীবনে ধর্ম /SV-HS (50)]