👉भगवान श्री राम धर्म और 'शी'क्षा # के साक्षात् साकार रूप हैं👈
[तैत्तरीय उपनिषद में दीर्घ 'ई' वाली शीक्षा वल्ली देखें]
500 वर्ष तक संघर्ष करने के बाद पुण्यभूमि भारत के श्री अयोध्याधाम में 22 जनवरी 2024 को रामलला की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा होने जा रही है। यह एतिहासिक अवसर है कि एक कुशल चालक की तरह हमारे युवा समाज रूपी वाहन के बैक मिरर पर भी क्षणिक दृष्टिपात करें ताकि देख सकें कि अतीत में हम क्या थे ? हमारी कमजोरियां व बुराईयां कौन-सी थीं और हमारी शक्ति व अच्छाईयां क्या। अपनी कमजोरियों व बुराइयों को छोड़ अतीत की शक्ति व अच्छाइयों से अपने आप को आत्मसात करें। राममन्दिर के साथ-साथ राष्ट्रमन्दिर के निर्माण में भी जुटें और रामराज्य के गुणात्मक प्रजातान्त्रिक मूल्यों को अपना कर अपने देश के लोकतन्त्र को दुनिया के सबसे बड़ा होने के साथ-साथ गुणात्मक लोकतन्त्र होने का भी गौरव प्रदान करें।
500 वर्ष की प्रतीक्षा के बाद पुण्यभूमि भारत के श्री अयोध्याधाम में रामलला की मूर्ति में 22 जनवरी 2024 को प्राण-प्रतिष्ठा हो जाने के बाद - धर्म और शिक्षा का भेद समाप्त होता है !
अर्थात वाल्मीकि के 'रामो विग्रहवान् धर्मः' - मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं- कहने का तात्पयर्य है राम जैसा उत्तम चरित्र का अधिकारी मनुष्य बन कर उन्हीं गुणों को अपने व्यवहार द्वारा अपने जीवन से प्रकट करने का नाम है 'शी'क्षा।
कुछ बहुमूल्य विचारों को आत्मसात कर लेना चरित्रगत कर लेना (mingle with the blood बना लेना) यानि रक्त -मज्जा से एकीभूत कर लेना - इस प्रकार यथार्थ मनुष्य बनाने वाले धर्म का नाम ही शिक्षा (जैसे चार महावाक्यों - Be and Make) भारतीय सांस्कृतिक चेतना के लोकनायक भगवान श्रीराम के अयोध्याधाम में उनकी रामलला रूप में प्राण-प्रतिष्ठा दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।
छः अध्यायों वाली वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड (3.37.2) में मारीच ने रावण को समझाया कि राम और सीता ब्रह्म और शक्ति के साक्षात् अवतार हैं - कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं - के गुणों का वर्णन किया-- तथा रावण को यह सलाह दी की उसे सीता के अपहरण का विचार त्याग देना चाहिए।
सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः।
अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः।।
(वाल्मिकी रामायण : 3.37.2)
(राजन् O king, प्रियवादिनः sweettongued, पुरुषाः men, सततम् always, सुलभाः easy to find, अप्रियस्य unpleasant to hear, तु but, पथ्यस्य salutary, वक्ता speaker, श्रोता च audience, दुर्लभः is difficult to find.)
हे राजन, सदा प्रिय वचन बोलकर चाटुकारिता करने वाले मनुष्य सर्वत्र बहुतायत में मिलते है; किन्तु जो अप्रिय (कानों के लिए) होने पर भी जीवन गठन में हितकारी हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले लोग सर्वत्र दुर्लभ होते है।
O king, it is always easy to find men who speak pleasing words, but it is difficult to get a speaker and a listener who use words unpleasant (to the ears) but beneficial (in life).
तब रामलला की मूर्ति में प्रतिष्ठा हो जाती है और पुण्यभूमि भारत के सनातन धर्म (शीक्षा) मार्ग पर चलने वालों के जीवन में त्रेता युग चलने लगता है और तब उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है।
रामचरितमानस में कहा गया है कि ‘सबको विश्राम दे, वह राम।’ तो गुरु कृपा से मेरी अपनी समझ यह बनी कि वह चाहे अयोध्या में प्रकट हुए हों, चाहे कोई भी प्रांत में, राम को शायद हम पूरा नहीं समझ पाएं। 'राम' तो परम तत्व का एक नाम हैं। उनसे ही कई विष्णु अवतरित हैं।
(अर्थात अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव के सिद्धान्त -" जे जार इष्ट से तार आत्मा ! " के अनुसार- " जो राम , जो कृष्ण वही रामकृष्ण- इस बार दोनों एक साथ; किन्तु तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं !" इस गुणातीत -श्रद्धा की दृष्टि से राम किसी व्यक्ति नश्वर देह-मन का नाम नहीं है, बल्कि ब्रह्माण्ड की आत्मा - सभी की आत्मा, पूर्णता, दिव्यत्व या ब्रह्मत्व का एक नाम है , उनसे ही कई विष्णु अवतरित होते रहते हैं ! उन्हीं में से एक 'मनुज अवतारी ' विष्णु का नाम है- राम !)
गोस्वामी तुलसीदास जी का भगवान श्रीराम के प्राकट्य के दिन का वर्णन करते हुए लिखा है -
नवमी तिथि मधुमास पुनीता,
सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।
मध्य दिवस अति सीत न घामा,
पावन काल लोक बिश्रामा।
(रामचरितमानस)
भावार्थ:-पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित् मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था॥1॥
राम दोपहर में जन्मे, जिस समय व्यक्ति भोजन कर आराम करता है। तो आदमी को तृप्त कर विश्राम देने के काल में राम का आगमन होता है। नवमी तिथि का दूसरा पक्ष यह भी है कि यह पूर्ण है। नौ का अंक (4005=9) पूर्ण है, दस में तो फिर एक के साथ जीरो जोड़ना पड़ता है। ग्यारह में दो एक करना पड़ता है। एक, दो, तीन, चार, पांच की गिनती में नौ आखिरी तिथि है, इसलिए उसको पूर्ण भी कहा गया है।
मानस में वशिष्ठ जी कहते हैं, ‘जो आनंद का सागर है, सुख की खान है और जिसका नाम लेने से आदमी को विश्राम मिलेगा और मन शांत होगा, उस बालक का नाम राम रखता हूं।’ तो राम महामंत्र है- तारक मंत्र है ! अपने भारत देश में विशेष रूप से काशी के मणिकर्णिका घाट पर आज भी भगवान शिव स्वयं 'तारक मंत्र '- “श्रीराम जय राम जय जय राम” सुनाकर मृतकों को मुक्ति प्रदान करते हैं! वहीँ युद्ध में 'जय श्रीराम ! ' अभिवादन के लिए राम-राम, खेद प्रकट करने के लिए राम-राम-राम और अंत समय “राम नाम सत्य है” कहने का प्रचलन है। यानी जन्म से अंत तक राम का ही नाम अपने समाज में रच-बस गया है। अतः सब ओर राम ही राम है। राम का नाम तो किसी भी समय लिया जा सकता है। इस महामंत्र का जप करने वाले को तीन नियम मानने चाहिए।
पहला सूत्र- राम नाम भजने वाला किसी का शोषण न करे, बल्कि सबका पोषण करे। दूसरा सूत्र- किसी के साथ दुश्मनी न रखे और दूसरों की मदद भी करे। ऐसा करेंगे, तो राम नाम ज्यादा सार्थक होगा। सुंदर कांड में हनुमान को लंका में जलाने का प्रयास किया गया। जहां (जिस व्यक्ति में) भक्ति का दर्शन होता है, उसे समाज रूपी लंका जलाने का प्रयास करती ही है, लेकिन सच्चे संत को लंका जला नहीं सकती। तीसरा सूत्र है- सबका कल्याण और समाज को जोड़ना। लंका कांड के आरंभ में सेतु बंध तैयार हुआ। दिव्य सेतु बंध के दर्शन कर प्रभु ने धरती पर भगवान रामेश्वर की स्थापना की। यह शिव स्थान हुआ। यह राम नीति है। कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना। शिव यानी भारत का कल्याण। सेतु निर्माण करना यानी सम्पूर्ण समाज को जोड़ना।
>>>रामचरितमानस/ रामकृष्ण लीलाप्रसंग में कहा गया है कि ‘जो सबको विश्राम दे, वह राम।’ तो गुरु कृपा से मेरी अपनी समझ यह बनी कि वह चाहे अयोध्या में प्रकट हुए हों, चाहे कोई भी प्रांत- UP हो या WB में, कोई भी देश में, पाताल में, आकाश में या कहीं भी प्रकट हुए हों, लेकिन वह चंचल मन को आराम को प्रदान करें, विराम को प्रदान करें, विश्राम को प्रदान करें और साथ-साथ अभिराम को प्रकट करें। हमारे आंगन में आराम, विश्राम, विराम और अभिराम- ये चार खेलने लगें, तो समझना चाहिए कि तुलसी का राम चार पैरों से हमारे आंगन में घूम रहा है।
आज 22 जनवरी 2024 को रामलला की प्राणप्रतिष्ठा के शुभ मुहूर्त पर इस अयोध्या में केवल राम मन्दिर निर्माण नहीं - बल्कि राष्ट्र-मन्दिर निर्माण की दृष्टि से भगवान राम के नाम का यही सात्विक-तात्विक अर्थ भी निकालना चाहिए। मानस में स्पष्ट लिखा है कि राम मानव के रूप में आए, ऐसी शर्त है- ‘लीन्ह मनुज अवतार’। चतुर्भुज रूप लेकर प्रकट हुए, तो कौसल्या ने मना कर दिया कि मुझे चार हाथ वाला ईश्वर नहीं चाहिए, मुझे दो हाथ वाला ईश्वर चाहिए। आज सिर्फ भारत को ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को दो हाथ वाले ईश्वर की ज्यादा जरूरत है। यथार्थ मनुष्य के रूप में, इंसान के रूप में ईश्वर की ज्यादा जरूरत है। इसलिए तुलसी ने कहा, ‘लीन्ह मनुज अवतार’।
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी॥1॥
भावार्थ:-दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1॥
हाथ भले दो हो, मनुष्य के रूप में हो, लेकिन चार हाथों का काम करे, ऐसा ईश्वर चाहिए। और ये चार हाथों का काम है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। पहला पुरुषार्थ धर्म - यानि स्वामीजी के अनुसार शिक्षा और धर्म एक ही बात है , इसलिए भारत के युवा विश्व में सतयुग के धर्म (मनुष्य -निर्माणकारी शिक्षा) को संस्थापित करें। क्योंकि विवेकानन्द ने कहा था - " श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से -सतयुग का प्रारम्भ हो चुका है ! " सम्पूर्ण जगत में सतयुग स्थापित करने से तात्पर्य है कि इस विश्व में 'अर्थ' हो - याने गरीबी न रहे, दुनिया में दीनता न रहे, हीनता न रहे, दुनिया संपन्न रहे। काम' हो माने, दुनिया रसपूर्ण और पल-पल का आनंद उठाए। और मोक्ष माने, आखिर में सभी बंधनों से जो मुक्ति की ओर ले जाए, वही दो हाथ वाले राम के चार भुजकर्म हैं- एक अकेला सब पर भारी ।
" साकेत " काव्य के -प्रथम सर्ग में मैथिलीशरण गुप्त जी लिखते हैं -
अयि दयामयि देवि, सुखदे, सारदे,इधर भी निज वरद-पाणि पसारदे।
दास की यह देह-तंत्री तार दे,रोम-तारों में नई झंकार दे।
बैठ मानस-हंस पर कि सनाथ हो,भार-वाही कंठ-केकी साथ हो।
चल अयोध्या के लिए सज साज तू, मां, मुझे कृतकृत्य कर दे आज तू।
स्वर्ग से भी आज भूतल बढ़ गया,भाग्यभास्कर उदयगिरि पर चढ़ गया।
हो गया निर्गुण सगुण-साकार है;ले लिया अखिलेश ने अवतार है।
राम। तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है। कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है॥
(मैथिलीशरण गुप्त)
हम राम को पढ़ते हैं, पूजते हैं। उनके जीवन, विचार, संवाद और प्रसंगों को पढ़ते-पढ़ते भावविभोर हो जाते हैं। उनका नाम लेते ही हमारा हृदय श्रद्धा और भक्तिभाव से सराबोर हो जाता है। हमारे सामने श्रीराम की धर्मपत्नी माता सीता का महान आदर्श है जो अद्वितीय है। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जैसा भाई, महावीर हनुमान और शबरी जैसी भक्ति, अंगद जैसा आत्मविश्वासी तरुण, भला और कहां दिखाई देता है! रामायण के प्रमुख पात्रों में जटायु, सुग्रीव, जाम्बवन्त, नल-नील, विभीषण जैसे नायक लक्ष्यपूर्ति के लिए प्रतिबद्ध हैं। वहीं रावण, कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत मेघनाथ जैसे पराक्रमी असुरों का वर्णन भी विकराल है, जिनपर श्रीराम और उनके सहयोगी सैनिकों द्वारा विजय प्राप्त करना सचमुच अद्भुत है।
रामायण में सीता स्वयंवर, राम-वनवास, सीता हरण, जटायु का रावण से संघर्ष, हनुमान द्वारा सीता की खोज, लंका-दहन, समुद्र में सेतु निर्माण, इन्द्रजीत-कुम्भकर्ण-रावण वध, लंका विजय के बाद विभीषण को लंकापति बनाना, श्रीराम का अयोध्या आगमन, राम-भरत मिलन आदि सबकुछ अद्भुत और अद्वितीय प्रसंग है। अधर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य तथा अनीति पर नीति का विजय का प्रतीक रामायण भारतीय इतिहास की गौरवमय थाती है। रामायण का हर पात्र अपनेआप में श्रेष्ठ हैं पर श्रीराम के साथ ही माता सीता, महावीर हनुमान, लक्ष्मण और भरत का चरित्र पाठक के मनःपटल को आलोकित करता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने “गोस्वामी तुलसीदास” नामक अपनी पुस्तक में कहा है, “राम के बिना सनातन हिन्दू जीवन नीरस है – फीका है। यही रामरस ही जिसने शिक्षा और धर्म के वास्तविक स्वाद को अभी तक बनाए रखा है और आगे भी बनाए रहेगा। राम का ही मुख देख कर हिन्दू जनता का इतना बड़ा भाग हजारों वर्षों की गुलामी के बावजूद अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा अक्षुण्ण बना रहा। न उसे तलवार काट सकी, न धन-मान का लोभ, न धर्मान्तरण के जेहादी उपदेशों की तड़क-भड़क।”
श्रीराम भारतीय जनमानस में आराध्य देव के रूप में स्थापित हैं और भारत के प्रत्येक जाति, मत, सम्प्रदाय के लोग श्रीराम की पूजा-आराधना करते हैं। कोई भी घर ऐसा नहीं होगा, जिसमें राम-कथा से सम्बंधित किसी न किसी प्रकार का साहित्य न हो। क्योंकि भारत की प्रत्येक भाषा में रामकथा पर आधारित साहित्य उपलब्ध है। भारत के बाहर भी विश्व के अनेक देश ऐसे हैं जहां के जन-जीवन और संस्कृति में श्रीराम इस तरह समाहित हो गए हैं कि वे अपनी मातृभूमि को श्रीराम की लीलाभूमि एवं अपने को उनका वंशज मानने लगे हैं।
चीनी भाषा में राम साहित्य पर तीन पुस्तकें प्राप्त होती हैं जिनके नाम “लिऊ तऊत्व”, “त्वपाओ” एवं “लंका सिहा” है जिनका रचनाकाल क्रमशः 251ई., 472ई. तथा 7वीं शती है। इंडोनेशिया में हरिश्रय, रामपुराण, अर्जुन विजय, राम विजय, विरातत्व, कपिपर्व, चरित्र रामायण, ककविन रामायण, जावी रामायण एवं मिसासुर रामकथा नामक ग्रन्थ लिखे गए। थाईलैंड में “केचक रामकथा”, लाओस में ‘फालक रामकथा’ और ‘पोम्मचाक’, मलेशिया में “हकायत श्रीराम, कम्बोडिया में “रामकीर्ति” और फिलीपिन्स में ‘महरादिया लावना’ नामक ग्रंथ की रचना की गई।
रूस में तुलसीकृत रामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद बारौत्रिकोव ने 10 वर्षों के अथक परिश्रम से किया, जिसे सोवियत संघ की विज्ञान अकादमी ने सन 1948 में प्रकाशित किया। उपर्युक्त देशों की भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, उर्दू, फारसी, पश्तों आदि भाषाओं में भी राम साहित्य की रचना की गई। कहने का तात्पर्य है कि भगवान राम सर्वव्यापक तो हैं ही, साथ ही उनपर लिखे गए साहित्य की व्यापकता भी विश्व की अनेक भाषाओं में उपलब्ध है। यह श्रीराम चरित्र की विश्व लोकप्रियता को प्रतिबिंबित करता है।
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है ‘रामो विग्रहवान धर्म:’, अर्थात् राम धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं।
रामो विग्रहवान् धर्मः साधुः सत्यपराक्रमः ।
राजा सर्वस्य लोकस्य देवानाम् इव वासवः ॥
(वाल्मीकि रामायण)
श्रीराम विग्रहवान धर्म हैं, वे साधु और सत्यप्रक्रमी हैं। जैसे इन्द्र समस्त देवताओं के अधिपति हैं वैसे वे सम्पूर्ण जगत के राजा हैं।
उन्होंने किसी दण्डात्मक प्रणाली के तहत नहीं बल्कि धर्म को केन्द्र में रख कर लोकतान्त्रिक प्रणाली में रामराज्य की व्यवस्था की थी । लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सर्वाधिक मूल्यवान मानी जाती है, अभिव्यक्ति अर्थात् बोलने की आजादी जिसको लेकर आजकल लम्बी-चौड़ी बहस छिड़ती रही है। अपने देश के संविधान में स्वतन्त्रता का अधिकार मूल अधिकारों में सम्मिलित है। इसकी 19, 20, 21 तथा 22 क्रमांक की धाराएं नागरिकों को बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सहित 6 प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान करतीं हैं- जैसे संगठित होना, संघ या सहकारी समिति बनाने की स्वतन्त्रता, सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतन्त्रता, कहीं भी बसने की स्वतन्त्रता, कोई भी उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता। किन्तु इस स्वतन्त्रता पर राज्य मानहानि, न्यायालय-अवमान, सदाचार, राज्य की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध, अपराध-उद्दीपन, लोक व्यवस्था, देश की प्रभुता और अखण्डता को ध्यान में रख कर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है। उसी तरह रामराज्य के दौरान भी धर्म एक ऐसा अंकुश था जिसका पालन शासक वर्ग के साथ-साथ हर नागरिक भी आत्मप्रेरणा से करते थे। अपनी संस्कृति में कहा गया है- "सत्यम वद, धर्मं चर"-अर्थात् सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्म: सनातन:॥
भाव यह कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो। अप्रिय नहीं बोलना चाहिये चाहे वह सत्य ही क्यों न हो। प्रिय बोलना चाहिए परन्तु असत्य नहीं; यही सनातन धर्म है।
रामराज्य में इस पर कितना जोर दिया गया वह उस युग के लिए ही नहीं बल्कि आधुनिक काल के लिए भी अद्भुत है। रामराज में जनसाधारण को भी बोलने व राजा तक का परामर्श मानने या ठुकराने की कितनी स्वतन्त्रता थी इसके बारे तुलसीदास जी कहते हैं-
सुनहुसकल पुरजन मम बानी। कहउं न कछु ममता उर आनी।।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।।
श्रीराम अपने गुरु वशिष्ठ जी, ब्राह्मणों व जनसाधारण को बुला कर कहते हैं कि संकोच व भय छोड़ कर आप मेरी बात सुनें। इसके बाद अच्छी लगे तो ही इनका पालन करें।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई।।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।।
वो ही मेरा श्रेष्ठ सेवक और प्रियतम है जो मेरी बात माने और यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूं तो भय भुला कर बेखटके से मुझे बोलते हुए रोक दे। श्रीराम अपनी प्रजा को केवल अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही नहीं देते बल्कि अपनी निन्दा व आलोचना करने वाले को अपना प्रियतम सेवक भी बताते हैं।
धोबी द्वारा माता सीता को लेकर दिये गए उलाहने का प्रकरण बताता है कि उन्होंने यह बात केवल कही ही नहीं बल्कि इसे अपने जीवन में उतारा भी। एक साधारण नागरिक के रूप में धोबी की बात मानने की उनकी कोई विवशता नहीं थी। वे चाहते तो इसे धृष्टता बता कर दण्ड भी दे सकते थे, या विद्वानों-धर्मगुरुओं से जनसाधारण को इसका स्पष्टीकरण भी दिलवा सकते थे परन्तु उन्होंने इन सबकी बजाए अपनी प्राण प्रिय सीता के त्याग का मार्ग चुना। एक राजा द्वारा जन-अपवाद के निस्तारण का इससे श्रेष्ठ उदाहरण आज तक नहीं सुना गया।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जो स्वयं धर्म स्वरूप हैं; उनका वर्णन करनेवाले तुलसीदास ने स्वयं ही कह दिया –
“नाना भांति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा।।
रामहि केवल प्रेम पियारा। जानि लेउ जो जाननिहारा।।”
अर्थात राम का जीवन अपरम्पार है, उसे समझना कठिन है। पर राम को जाना जा सकता है – केवल प्रेम के द्वारा। आइए, अंतःकरण के प्रेम से भगवान श्रीराम का स्मरण करें।
अपनी रचना ‘पौलस्त्य वध’ के लेखक लक्ष्मण सुरि ने श्रीराम का वर्णन करते हुए कहा है, “हाथ से दान, पैरों से तीर्थ-यात्रा, भुजाओं में विजयश्री, वचन में सत्यता, प्रसाद में लक्ष्मी, संघर्ष में शत्रु की मृत्यु – ये राम के स्वाभाविक गुण हैं।”
साभार – लखेश्वर चन्द्रवंशी “लखेश”,नागपुर / https://punyabhumibharat.wordpress.com/2019/04/14/
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