वरिष्ठ नागरिक होने का सौभाग्य
कई वेदमंत्रों में सूर्य, अग्नि, इंद्र, वरुण इत्यादि देवों के प्रति प्रार्थना का उल्लेख देखने को मिलता है । कुछ मंत्रों में देव शब्द के प्रयोग द्वारा उनकी सामूहिक स्तुति भी व्यक्त की गई । हमारे पूर्वज ऋषियों की मान्यता थी कि ये दृष्टिगोचर समस्त शक्तियां (सूर्य-चंद्र आदि) चेतन हैं और उनकी स्तुति से स्वस्थ तथा सफल जीवन की प्राप्ति संभव है । रोगमुक्त शतायु जीवन की कामना के साथ इनकी प्रार्थना संबंधी मंत्र अथर्व-वेद एवं यजुर्वेद में हम पाते हैं । शुक्लयजुर्वेद
संहिता में पूर्ण आरोग्य के साथ सौ वर्षों या उससे भी अधिक के दीर्घ आयु तक जीने की कामना करते हुए सूर्य देवता को संबोधित प्रार्थना है:
" तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् । (= तत् चक्षुः देवहितं पुरस्तात् शुक्रम् उच्चरत्।) पश्येम शरदः शतं ,जीवेम शरदः शतं ,श्रुणुयाम शरदः शतं, प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ॥(शुक्लयजुर्वेदसंहिता, अध्याय 36, मंत्र 24)
अर्थात 'सूर्य भगवान' - देवताओं के हित में स्थापित हैं (देवहितम्); वे इस जगत् के चक्षु हैं (तत् चक्षुः); शुभ्र, स्वच्छ, निष्पाप हैं (शुक्रम् = शुक्लम्); और वे सामने पूर्व दिशा में उदित होते हैं (पुरस्तात् उच्चरत्)। हम उन सूर्य देवता की प्रार्थना करते हैं । हे सूर्यदेव, हम सौ शरदों (वर्षों) तक देखें, हमारी नेत्रज्योति तीव्र बनी रहे (पश्येम शरदः शतम्); हमारा जीवन सौ वर्षों तक चलता रहे (जीवेम शरदः शतम्); सौ वर्षों तक हम सुन सकें, हमारी कर्णेन्द्रियां स्वस्थ रहें (श्रुणुयाम शरदः शतम्); हम सौ वर्षों तक बोलने में समर्थ रहें, हमारी वागेन्द्रिय स्पष्ट वचन निकाल सके (प्रब्रवाम शरदः शतम्); हम सौ वर्षों तक दीन अवस्था से बचे रहें, दूसरों पर निर्भर न होना पड़े, हमारी सभी इंन्द्रियां – कर्मेन्द्रियां तथा ज्ञानेन्द्रियां, दोनों – शिथिल न होने पावें (अदीनाः स्याम शरदः शतम्); ओर यह सब सौ वर्षों बाद भी होवे, हम सौ वर्ष ही नहीं उसके आगे भी नीरोग रहते हुए जीवन धारण कर सकें (भूयः च शरदः शतात्) । (शरद् का अर्थ है शरद् ऋतु; एक शरद् एक वर्ष का पर्याय है ।)
पश्येम शरदः शतम् ।।१।।(अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७) उल्लिखित सूक्त में यह इच्छा व्यक्त की गयी है कि हमें पूर्ण स्वास्थ्य के साथ सौ वर्ष का जीवन मिले, और यदि हो सके तो सक्षम एवं सक्रिय इंद्रियों के साथ जीवन उसके आगे भी चलता रहे । अवश्य ही सौ वर्षों की आयु सबको नहीं मिलती होगी । इसीलिए सौ वर्ष की आयु को एक मानक के रूप में देखते हुए उसे चार बराबर आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में भी वैदिक चिंतकों ने बांटा होगा ।
शरद् शब्द सामान्यतः छः वार्षिक ऋतुओं में एक के लिए प्रयुक्त होता है । चूंकि प्रति वर्ष एक शरद ऋतु आनी है, अतः उक्त मंत्रों में एक शरद् का अर्थ एक वर्ष लिया गया है । भारतीय प्राचीन पद्धति में पूरे वर्ष को दो-दो मास की ऋतुओं में विभक्त किया गया हैः वसन्त (चैत-वैशाख),
ग्रीष्म (जेठ तथा आषाढ), वर्षा (प्रावृष्-वर्षा ऋतु या मानसून, सावन एवं भादों), शरद् (आश्विन तथा कार्तिक), हेमन्त (अगहन एवं पौष या पूस), और शिशिर (माघ तथा फाल्गुन या फागुन)
हमारे पूर्वज (वैदिक ऋषि) प्रकृति को चेतन (शक्ति) मानते थे । प्रकृति के उन सभी महत्वपूर्ण घटकों, जो प्राणियों के जीवन को प्रभावित करते रहे हैं, में चैतन्य (Consciousness) या सचेतनता (sentience) की कल्पना करते थे । स्थूल भौतिक तत्वों के नियंता स्वरूप देवताओं की कल्पना उनके विचार में दिखाई देती है । सूर्य इन्हीं में से एक है । अग्नि, वायु, जल, आदि से संबद्ध अघिष्ठात्री देवताओं की बात वैदिक चिंतन में लक्षित होती हैं । सूर्य (सविता-जनक), को जीवन का आधार माना गया है, वह जीवनदाता है । उसी सूर्य से प्रार्थना की गयी है कि उसकी कृपा से हम शतायु बनें और हमारा पूरा जीवनकाल रोगमुक्त बीते ।
प्रकृति के विविध जड़ प्रतीकों -सूर्य, चाँद (Matter) में चेतनामय दैवी शक्तियों (Energy) की कल्पना करना क्या विज्ञानसम्मत कहा जा सकता है ? 1000 वर्ष की गुलामी में श्रद्धा खो देने वाला भारत, इसका उत्तर नहीं दे सकता किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने आइंस्टीन से पहले बता दिया था कि पदार्थ और ऊर्जा अंतरपरिवर्तनीय हैं -'interconvertible' यानि (E = mc2) हैं।
इसके आलावा प्राकृतिक शक्तियों (सूर्य या चन्द्रमा) को पूजने और उनके प्रति प्रार्थना-भाव व्यक्त करने में प्रकृति के प्रति सम्मान एवं कृतज्ञता की अभिव्यक्ति अवश्य होती है। इस प्रकार की प्रार्थना में प्रकृति के साथ अंतरंग तथा मधुर संबंध बनाये रखने की लालसा झलकती है । प्रकृति को मात्र शोषण की वस्तु मानकर चलने के बजाय उसे एक संरक्षक के रूप में देखना मानव हित में है । इस युग में इस प्रकार की सोच की अतीव आवश्यकता है।
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
(ऋग्वेद मंडल 1, सूक्त 89, मंत्र 8)
(भद्रम् कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रम् पश्येम अक्षभिः यजत्राः स्थिरैः अङ्गैः तुष्टुवांसः तनूभिः वि-अशेम देव-हितम् यत् आयुः ।)
भावार्थ: हे देववृंद, हम अपने कानों से कल्याणमय वचन सुनें । जो याज्ञिक अनुष्ठानों के योग्य हैं (यजत्राः) ऐसे हे देवो, हम अपनी आंखों से मंगलमय घटित होते देखें । नीरोग इंद्रियों एवं स्वस्थ देह के माध्यम से आपकी स्तुति करते हुए (तुष्टुवांसः) हम प्रजापति ब्रह्मा द्वारा हमारे हितार्थ (देवहितं) सौ वर्ष अथवा उससे भी अधिक जो आयु नियत कर रखी है उसे प्राप्त करें (व्यशेम) । तात्पर्य है कि हमारे शरीर के सभी अंग और इंद्रियां स्वस्थ एवं क्रियाशील बने रहें और हम सौ या उससे अधिक लंबी आयु पावें ।
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्र नश्चक्र जरसं तनूनाम् ।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥
(ऋग्वेद मंडल 1, सूक्त 89, मंत्र 9)
(शतम् इत् नु शरदः अन्ति देवाः यत्र नः चक्र जरसम् तनूनाम् पुत्रासः यत्र पितरः भवन्ति मा नः मध्या रीरिषत आयुः गन्तोः ।)
भावार्थ: हे देवो, मनुष्य की आयु की सम्यक् समाप्ति सौ वर्ष (शरदः) की नियत की गयी है, जिसमें वृद्धावस्था (जरसं) की व्यवस्था की है (चक्र) और जिसमें हमारे पुत्र (पुत्रासः) स्वयं पिता बन सकें, अर्थात् हम पौत्रवान् बन जावें । ऐसे उस पूर्ण आयु की अंतकाल (अन्ति) से पहले बीच के काल में ही हमारी हिंसा न करें, यानी हमें क्षति न पहुंचाएं (रीरिषत), हमें क्षीणकाय न बनावें ।
(ऋग्वेद 1.89.9/ ऋग्वेद के सायणभाष्य के आधार पर प्रस्तुत)
अस्सी वर्ष की आयु से ही व्यक्ति को शतायु कहा जाता है और उसके बाद के जीवन में स्वास्थ्य और शांति की पुष्टि के लिए कई आशीर्वाद मंत्र, वेद और अन्य शास्त्र हैं। प्रार्थना सिद्धि का अचूक उपाय है जो एक वरदान और बोनस है ।
वानप्रस्थ को शतायु होने का सबसे अच्छा समय माना जाता है । यह मन को ऊपर उठाने और शांति और आत्मसंतुष्टि के लिए योग, पूजा, ध्यान, जप, प्राणायाम और अधिक जैसे आध्यात्मिक अभ्यासों को अपनाने का चरण है । जब कोई व्यक्ति वृद्ध हो जाता है, तो उसे व्यक्तिगत उत्थान में भाग लेना पड़ता है जो वह अपनी तूफानी उम्र के दौरान नहीं कर सकता था। वृद्धावस्था में वेदांत की ओर मुड़ना और ईश्वरीय रुचि के साथ जुड़ना आवश्यक है ।
भारतीय ज्ञान-परम्परा में जीवन-व्यवस्था: हमारा जीवन व्यवस्थित होना चाहिए। वैदिक संस्कृति, सभ्यता में पूरे मानव-जीवन को व्यवस्थित किया गया है। मानव-जीवन की औसत आयु 100 वर्ष मानकर इसे चार भागों में बाँटा गया हैः—ब्रह्मचर्य-आश्रम, गृहस्थ-आश्रम, वानप्रस्थ-आश्रम और संन्यास-आश्रम। ऐसा व्यवस्थित जीवन किसी अन्य सभ्यता में कहीं नहीं मिलता। इन चारों आश्रमों के कर्त्तव्य-कर्म निर्धारित किए गए। इनकी पृथक्-पृथक् व्याख्या भी की गई।
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् ।
वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ॥
(रघुवंशम् -श्लोकः १.८)
अर्थः—-शैशवकाल में हमें विद्या का अभ्यास करना चाहिए। यौवनकाल में विधिपूर्वक धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति करनी चाहिए। वृद्धावस्था में मुनि की वृत्ति धारण कर लेनी चाहिए और जीवन के अन्तिम काल में योग के द्वारा शरीर का त्याग कर देना चाहिए।
(1.) जीवन के प्रारम्भिक काल में 1 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक (सामान्य रूप से, आगे-पीछे भी हो सकता है, अपनी व्यवस्था के अनुसार) हमें विद्या का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। जो व्यक्ति इस समय विद्या का अभ्यास नहीं करता, उसका सम्पूर्ण जीवन अस्त-व्यस्त रहता है। वह दीन-हीन बना रहता है, क्योंकि विद्या के बिना इस भूमण्डल में कुछ होता ही नहीं। आचार्य शंकर ने “प्रश्नोत्तररत्नमालिका” में कहा भी है कि मरण क्या है ? इसका उत्तर दिया है कि “मरण मूर्खता है।” विद्या न पढना मूर्खता है और मूर्खता ही मृत्यु है। मूर्ख व्यक्ति को कोई भी नहीं पसन्द करता, इसलिए विद्या का अभ्यास अवश्य करें। विद्याहीन व्यक्ति ही शूद्र हो जाता है।
(2.) जीवन के द्वतीय पड़ाव पर धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति और धनार्जन करना चाहिए। यह गृहस्थ का काल होता है। आजकल लोग गृहस्थ को मुख्य रूप से स्त्री को भोग की वस्तु समझने लग गए हैं। जबकि गृहस्थ में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। यदि आप धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति करते हैं तो यह ब्रह्मचर्य का ही रूप है। वैसे भी हमारे शरीर का सबसे अमूल्य वस्तु तो वीर्य ही है। इसकी रक्षा अवश्य करनी चाहिए। दुर्भाग्य से आजकल के डॉक्टर कहने लगे हैं कि वीर्य को निकालने से हानि नहीं होती। यह बहुत बडी मूर्खता है। यदि समाज चरित्रवान् होगा तभी समाज, राष्ट्र आगे बढ पाएगा। नहीं तो बलात्कार जैसी घटनाएँ होती रहेंगी। आज इसके लिए नैतिक-शिक्षा की आवश्यकता है।
(3.) जीवन के तीसरे चरण में अपने जीवन को मुनि की वृत्ति जैसी बना लेना चाहिए। आप जहाँ भी रहे, निर्लेप, निर्द्वन्द्व भाव से रहें। वन में तो जाने से रहे। घर में भी रहते हैं तो घर के कामों में अधिक टोका-टाकी न करें, माँगने पर सलाह अवश्य दें, किन्तु ये विचार अपने मन में रखें कि मेरी बात मान ली ही जानी चाहिए। ऐसी वृत्ति रखेंगे तो पछताने के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा। आपके पुत्र-पुत्रवधू, पौत्र अब सभी योग्य हो गए हैं, उन्हें अपना काम स्वतन्त्रतापूर्वक करने दीजिए। हमारा जीवन ऐसा हो कि जैसे तालाब में कमल होता है, निर्लेप। उसके ऊपर कीचड और पानी का कोई प्रभाव नहीं पडता। ऐसा हमारा जीवन होना चाहिए। घर-संसार में रहते हुए भी घर-संसार से पृथक् रहें, वैरागी की तरह।
अभिप्राय यह है कि घर में, घर की वस्तुओं में, पुत्र-पौत्रों में रिश्ते-सम्बन्धों में मोह न करें, अनुराग न रखें, प्यार सबसे करें, व्यवहार सबसे करें, बातें करें, किन्तु चिपक न जाएँ । अपना जीवन ऐसा बना लें कि उनके बिना भी आप जी सकें। उनके ऊपर सर्वथा निर्भर न हो जाएँ, ऐसा न कर लें कि उनके बिना जिया न जा सके। कोशिश करें कि अपना काम स्वयं कर लें। इस समय शरीर कमजोर होता है, इसलिए जिह्वा पर नियन्त्रण रखें और सक्रिय (Active) रहें।
(4.) जीवन के अन्तिम पड़ाव पर 75 वर्ष से ऊपर होने पर आप संन्यासियों की तरह रहें। वैसे नियम तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को संन्यास लेना चाहिए, क्योंकि आपने संन्यास जैसा जीवन बनाया नहीं, तो कम-से-कम घर में भी त्यागपूर्वक रहें। जहाँ जाएँ दूसरों को सही सलाह दें, विद्यालयों में जाकर बच्चों को निश्शुल्क पढाएँ। हो सके तो धार्मिक संस्थाओं में जाकर सेवा करें, योग करें, ध्यान करें, प्राणायाम करें। यदि दान कर सकते हैं तो निर्धन बालकों को पढने की व्यवस्था करें, गुरुकुलों में जाएँ और विद्यादान करें, वहाँ से स्वयं भी कुछ (योग) सीखें।
प्रथमेनार्जिता विद्या,
द्वितीयेनार्जितं धनं ।
तृतीयेनार्जितः कीर्तिः,
चतुर्थे किं करिष्यति ॥
अर्थात- मनुष्य के जीवन में चार पड़ाव या आश्रम होते है ब्रम्हचर्य, गृहस्थ ,वानप्रस्थ और सन्यास। जिसने पहले तीन आश्रमों में निर्धारित कर्तव्य का पालन किया, उसे चौथे आश्रम (सन्यास) में-योगाभ्यास के द्वारा शरीर त्यागने की तैयारी करनी चाहिए। बाद में आत्मा को शरीर से निकालकर मोक्ष (Emancipation-बंधनमुक्ति) प्राप्त करना चाहिए। उसे मोक्ष के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता है।
जिस व्यक्ति ने जीवन के पहले आश्रम (ब्रह्मचर्य आश्रम) में जिसने 'विद्या' (मुक्त करने वाली विद्या:मन को परमात्मा से जोड़ने वाली विद्या राजयोग) अर्जित नहीं की, द्वितीय अर्थात् गृहस्थ-आश्रम में जिसने धन अर्जित नहीं किया, तृतीय अर्थात् वानप्रस्थ-आश्रम में जिसने अपने शरीर को नहीं तपाया, मुनियों जैसा नहीं बनाया,ऋषियों-मुनियों के समान आचरण नहीं किया, और पुण्य अर्जित नहीं किया, तो वह - 75 वर्ष के बाद चतुर्थ आश्रम (संन्यास आश्रम ) में क्या करेगा ? दुःखी होगा और क्या करेगा। घर परिवार से कोई सहयोग नहीं मिलेगा। ऐसे लोगों को ही उसके अपने बच्चे सताते हैं।
आइए, हम सब अपना-अपना जीवन वैदिक बनाए, वेदानुकूल जिएँ और जीवन को सार्थक करें। प्रभु करे आप सबके जीवन में खुशियाँ आएँ, धन-सम्पदा से आपका परिवार पूर्ण हों।
त्यागाय संभृतार्थानां सत्याय मितभाषिणाम् ।
यशसे विजिगीषूणां प्रजायै गृहमेधिनाम् ॥
रघुवंश -7 ॥
इसका अर्थ है कि रघुवंशी राजा धन का संग्रह त्याग (दान) के लिए करते थे, न कि अपने व्यक्तिगत सुख के लिए। सत्य के लिए कम बोलते थे, ताकि उनके मुख से कोई असत्य बात न निकल जाए। यश के लिए युद्ध करते थे, अर्थात वे विजय की इच्छा रखते थे, लेकिन अपने यश के लिए, न कि दूसरों को जीतने के लिए। और संतानोत्पत्ति के लिए गृहस्थ जीवन जीते थे, न कि केवल भोग-विलास के लिए। यह श्लोक रघुवंशी राजाओं के उच्च आदर्शों और गुणों को दर्शाता है, जो त्याग, सत्य, यश और संतानोत्पत्ति (परिवार) को महत्व देते थे।
अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥
--समझदार मनुष्य को 'स्वयं अजर और अमर रहनेवाला है' ऐसा मानकर विद्या और संपत्ति प्राप्त करने के लिए सोचते रहना चाहिए । और मृत्यु ने ले जाने के लिए जैसे अभी ही केश पकड़ रखा है- ऐसा मानकर (प्रत्येक क्षण का उपयोग करते हुए) धर्म का-सत्कर्म का आचरण करते रहना चाहिए।
आचार्य शंकर अपने साधन -पंचकम के एक स्तोत्र में सलाह देते हैं- 'कृपया अहंकार और गर्व को हर रोज थोड़ा-थोड़ा करके कम करें ताकि शून्य स्तर पर पहुँच जाएँ ( आहारहर वा गर्वं परित्यज्यतम) । जब अहंकार दूर हो जाता है तो लाभ की संभावना बढ़ जाती है। यहाँ, शंकर संकेत देते हैं कि अहंकार और नकारात्मकता को खुद से दूर करना हमारे हाथ में है।
ब्रह्मैवास्मि विभाव्यतां अहरहः गर्वः परित्यज्यतां।
देहेऽहंमतिरुज्झ्यतां बुधजनैः वादः परित्यज्यताम् ।।
'मैं ब्रह्म हूँ ' इस वाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें। 'मैं ब्रह्म हूँ ' ऐसा विचार करते हुए मैं रुपी अभिमान का त्याग करें, मैं शरीर हूँ, इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें ॥(आचार्य शंकर /साधन पंचकम्३॥)
श्री कृष्ण ने इस तथ्य को महत्व दिया कि व्यक्ति को खुद को ऊपर उठाना चाहिए क्योंकि स्वयं ही सब कुछ है और कभी भी खुद को नीचा नहीं दिखाना चाहिए।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन: ||गीता 6.5||
आत्मा महान है और व्यक्तिगत भी। बुजुर्ग लोग जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं, जिसका मतलब है कि अब बाहर निकलने का समय करीब है। इस बात को समझते हुए, उन्हें अपने समय का ध्यान रखना चाहिए और पूरी लगन से काम लेना चाहिए। उन्हें तभी सहायता लेनी चाहिए जब उन्हें इसकी जरूरत हो। व्यक्ति को स्वयं को ऊपर उठाने के लिए स्वयं की सहायता करनी चाहिए। कभी भी स्वयं को नीचा नहीं दिखाना चाहिए। स्वयं ही स्वयं का मित्र है, लेकिन स्वयं ही स्वयं का शत्रु है। कृष्ण का अर्थ है कि यहाँ आत्मनिर्भरता ही सुख का सूत्र है और यह तब और भी अधिक हो जाता है जब लोग वृद्धावस्था में पहुँच जाते हैं। रिश्तेदार आमतौर पर अनुरोधों की उपेक्षा करते हैं।
किसी भी वरिष्ठ व्यक्ति के लिए, बिना किसी परेशानी के मृत्यु और बिना किसी निर्भरता के जीवन वांछनीय है। ये दोनों तभी संभव हैं जब हम आध्यात्मिक बनें और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखें। यह सौभाग्य योग से प्राप्त होता है, जिसमें ध्यान और उसके सहायक साधन सम्मिलित हैं। साथ ही, मन की प्रवृत्ति वैराग्य की भावना के लिए अपनानी चाहिए । शरीर, घर और बस्ती आदि के बारे में हमेशा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। सच तो यह है कि हमारा शरीर एक यात्री का बंगला है जिसे कुछ समय के लिए किराए पर लिया गया है। लेकिन इसका आनंद लेते समय तालाब में कमल के पत्ते की तरह तटस्थ और निश्चल रहें ( पद्मपत्र इव अम्भसा)। इस जीवन पद्धति को अपनाने के लिए मन को अनुशासित करना पड़ता है और यह गुरु के निर्देश और उनके नियमित अभ्यास से संभव है।
भौतिक समस्याओं से आध्यात्मिकता और अमरता के अंतिम मार्ग की ओर बढ़ें
ॐ असतो मा सद्गमय , तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ,ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥
अर्थात हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।
जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं। उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है। अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।
जब भगवान की कृपा होती है तो किसी व्यक्ति को वरिष्ठ नागरिक कहलाने की उम्र तक पहुँचने का सौभाग्य मिलता है , बुजुर्ग का जीवन सौभाग्य और सच्चा बोनस होता है । ऐसा इसलिए है क्योंकि पृथ्वी, भूलोक , लोकों में सबसे सुंदर लोक है। हमें महान ऋषियों, कालीदास, बाण और विश्व साहित्य के कई अन्य लेखकों के कार्यों में प्रमाण मिले हैं। इसके अलावा खुशी और निर्वाण के उच्च स्तरों को प्राप्त करने के लिए मूर्खताओं और पापों को धोने की गुंजाइश होगी ।
संक्षेप में कहें तो, ईश्वर द्वारा प्रदत्त वरिष्ठ नागरिक की पूर्ण आयु प्राप्त करना एक वरदान है। इसे भावनाओं पर नियंत्रण करके व्यक्तिगत और सार्वभौमिक कल्याण के लिए उचित रूप से नियोजित किया जाना चाहिए। प्रासंगिक शास्त्रों का अध्ययन करके मन को प्रसन्न रखा जा सकता है। उसे भोग , भाग्य , सौभाग्य और मोक्ष का अनुभव करने की गुंजाइश होगी ।
(साभार /डॉ. सी.एल. प्रभाकर , प्रोफेसर, संस्कृत एवं अध्यक्ष, वेव्स, बैंगलोर चैप्टर)/https://vedicwaves.wordpress.com/2020/11/28/the-fortune-of-being-a-senior-citizen/
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