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शुक्रवार, 9 मई 2025

'महा उपनिषद ' ~ किमज्ञ इव रोदिषि ?(-तुम अज्ञानी की तरह क्यों रो रहे हो?)~ "महोपनिषद्" Why are you crying like an ignorant man? ( https://upanishads.org.in/otherupanishads/62)

महोपनिषद -भूमिका 

महोपनिषद (महा-उपनिषद्) और योगवासिष्ठ 

( = महा + उपनिषद् ) सामवेदीय शाखा के अन्तर्गत एक लघु उपनिषद है। इसमें कुल छः अध्याय हैं। यह वैष्णव उपनिषद की श्रेणी में आता है। महत् स्वरूप वाला यह उपनिषद् श्री शुकदेव जी एवं महाराज जनक तथा ऋभु एवं निदाघ के प्रश्नोत्तर के रूप में है। महोपनिषद् में कुल - 558 श्लोक हैं।  केवल पहिला, छोटा सा भूमिकामय अध्याय छोड़ कर सारा महोपनिषद् योगवासिष्ठ के ही (५१० के लगभग ) श्लोकों से बना है। भारतीय संस्कृति का मूलमन्त्र, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसी उपनिषद में है।

[1. संक्षिप्त योगवासिष्ठ- https://ia801202.us.archive.org/7/items/HindiBookSankshiptYogaVasisthaByGitaPress/Hindi%20Book-Sankshipt%20yoga%20vasistha%20%20by%20gita%20press%20%28Complete%29.pdf] 

[2.- https://ignca.gov.in/Asi_data/29201.pdf] 

[3. लखुयोगवासिष्टम्https://www.ebharatisampat.in/read_chapter.php?bookid=NjczNDk5NTc1ODU3MDQy] 

अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥६-७१॥

- यह बन्धु है, यह बन्धु नहीं है - ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है। उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है। 

1.महोपनिषद के प्रथम अध्याय  के (24) श्लोकों में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। 

2. द्वितीय अध्याय के  (77) श्लोकों में  जीवन मुक्ति और विदेहमुक्ति के  स्वरूप का वर्णन है।  

3. तृतीय अध्याय के (57) श्लोकों में  वैराग्य-वर्णन दिया गया है। 

4. चतुर्थ अध्याय के (131) श्लोकों में आत्मज्ञान का उपदेश दिया गया है। 

5. पञ्चम अध्याय-(186) श्लोकों में अज्ञान और ज्ञान सम्बन्धी सप्तभूमिकाओं की चर्चा है। 

6. षष्ठ अध्याय के  (83) श्लोकों में शून्य की प्रकृति, माया, ब्रह्म, शिव, पुरुष, ईशान और नित्य आत्मा नाम के विषय में उपदेश है। 

[महोपनिषद में कुल 6 अध्याय इस प्रकार है - अध्याय 1 - 24 श्लोक। अध्याय 2 - 77 श्लोक। अध्याय 3 - 57 श्लोक। अध्याय 4 -131 श्लोक। अध्याय 5 -186 श्लोक। अध्याय 6 - 83 श्लोक।  कुल - 558 श्लोक।]  

 महोपनिषद : 

अध्याय (1) 'नारायण' का स्वरूप एवं सृष्टि का उत्पत्ति क्रम  - 24 श्लोक। 

1.'नारायण' का स्वरूप : महोपनिषद के प्रथम अध्याय  के (24) श्लोकों में 'नारायण' का स्वरूप तथा सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम का वर्णन है। इस अध्याय में सर्वप्रथम 'श्रीनारायण' की अद्वितीयता एवं ईशत्व का विवेचन है। उसके उपरान्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंन्द्रियों का विवेचन है।  यज्ञीय स्तोम की उत्पत्ति, चौदह पुरुष एवं एक कन्या की उत्पत्ति, पच्चीस तत्त्वात्मक पुरुष की उत्पत्ति, रुद्र की उत्पत्ति, चतुर्मुख ब्रह्मा के जन्म का कथानक है, व्याहृति, छन्द, वेद और देवताओं की उत्पत्ति, नारायण की विराट् रूपता तथा नारायण (अवतार वरिष्ठ) की उपलब्धि का स्थान हृदय बताया गया है।

सृष्टि के आदि में एकात्र भगवान् नारायण ही थे। उन (विराट् पुरुष) को एकाकी रहना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा ॥ भगवान नारायण ने ध्यान किया। उन (विराट् पुरुष) का अन्तःकरण में स्थित ध्यान ‘यज्ञस्तोम' अर्थात् श्रेष्ठ यज्ञ कहलाया। पितामह चतुर्मुखी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्माजी ने (चारों दिशाओं में भिन्न-भिन्न देवों का) ध्यान किया। जिन (विराट् पुरुष) के सहस्त्रों सिर, सहस्त्रों नेत्र हैं,  ऐसे उन भगवान् नारायण का ब्रह्माजी ने ध्यान किया ॥  उस (विराट् शरीर) में ही परमात्मरूप आदिपुरुष ने प्रवेश किया। यहाँ पितामह के द्वारा जिन-जिनके ध्यान करने का उल्लेख है, वे सभी उसी ध्यान प्रक्रिया से प्रादुर्भूत होते चले गये।  परमात्मा या इष्टदेव का वासस्थान ह्रदय में है। जहाँ pacemaker, and sympathetic ganglia लगे हुए हैं ?  गायत्री मंत्र का पहला भाग "ॐ भूः भुवः स्वः" होता है।  भूः व्याहृति,  पृथ्वी, अंतरिक्ष और स्वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याहृति: का अर्थ है "कथन" या "भाषण।"  व्याहृतियां, विशेष रूप से "स्व:", हमें अपनी आंतरिक आत्मा में परमात्मा की खोज के लिए प्रेरित करती हैं। महः व्याहृति: का अर्थ है "महान उद्घोष" या "महा- वाक्य। " जिन्हें 4 वेदों में पाया जाता है। 

[ॐकार को ब्रह्म कहा है। यह परमात्मा का स्वयं सिद्ध नाम है। योग विद्या के आचार्य समाधि अवस्था में पहुंच कर जब ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं तो उन्हें प्रकृति के उच्च अन्तराल में एक ध्वनि होती हुई परिलक्षित होती है। जैसे घड़ियाल में चोट मार देने से वह बहुत देर तक झनझनाती रहती है, इसी प्रकार बार बार एक ही कम्पन उन्हें सुनाई देते हैं। यह नाद ‘ॐ’ ध्वनि से मिलता जुलता होता है। उसे ही ऋषियों ने ईश्वर का स्वयं सिद्ध नाम बताया है और उसे ‘शब्दब्रह्म’ कहा है। इस शब्द ब्रह्म से रूप बनता है। इस शब्द के कम्पन सीधे चलकर दाहिनी ओर मुड़ जाते हैं। शब्द अपने केन्द्र की धुरी पर भी घूमता है, इस प्रकार वह चारों ओर घूमता रहता है। इस भ्रमण, कम्पन, गति और मोड़ के आधार पर स्वस्तिक बनता है यह स्वस्तिक ॐकार का रूप। ॐकार को प्रणव भी कहते हैं। यह समस्त मंत्रों का सेतु है क्योंकि इसी से समस्त शब्द और मंत्र बनते हैं। प्रणव से व्याहृतियां उत्पन्न हुई और व्याहृतियों में से वेदों का आविर्भाव हुआ। 

तैलधारामिवाछिन्नं दीर्घघंटा निनादवत् । उपास्यं प्रणवस्याग्रं यस्तं वेद स वेदवित् ।। (शौनक शिक्षा -६३) निरन्तर गिरती तेल की धार के समान या घड़ी के शब्द के समान यथार्थ सदा ॐ की विचारधारा में जो निमग्न रहता है वही वेदवेत्ता है।साभार >>>https://www.awgp.org/en/literature/book/gayatri_ka_mantrarth/v1.4] 

महोपनिषद : अध्याय (2) जीवन-जगत क्या है? - 77 श्लोक। 

जीवन-जगत क्या है?

इसके द्वितीय अध्याय में शुकदेव जी स्वयं उद्भूत पारमार्थिक ज्ञान-तत्वज्ञान के होते हुए भी,व्यास जी के उपदेशों के प्रति 'जगत के प्रपंच-रूप के प्रकटीकरण (सृष्टि) और विनाश (प्रलय) ' विषय को लेकर (इस जगत रचना का उद्देश्य क्या है ?)  अनादर भाव प्रकट करते हैं। शंका-समाधान के लिए वे राजा जनक के पास जाते हैं। राजा जनक पहले शुकदेव जी को समस्त भोग-विलासों के मध्य रखकर उनकी परीक्षा लेते हैं। जब भोग-विलास शुकदेव जी को नहीं डिगा पाते, तो राजा जनक उनकी इच्छा पूछकर, उनकी शंका का समाधान करते हैं, परन्तु शुकदेव जी कहते हैं कि उनके पिता ने भी ऐसा ही कहा था कि 'मन के विकल्प से ही प्रपंच उत्पन्न होते हैं और उस विकल्प के नष्ट हो जाने पर प्रपंचों का विनाश हो जाता है।' यह जगत् निन्दनीय और सार-रहित है, यह निश्चित है। तब यह जीवन क्या है? इसे बताने की कृपा करें। इस पर राजा जनक के तत्त्व-दर्शन का उपदेश शुकदेव जी को देते हैं। विदेहराज ने कहा-'हे वत्स! यह दृश्य जगत् है ही नहीं, ऐसा पूर्ण बोध जब हो जाता है, तब दृश्य विषय से मन की शुद्धि हो जाती है। ऐसा ज्ञान पूर्ण होने पर ही उसे निर्वाण प्राप्त होता है व शान्ति मिलती है। जो वासनाओं का त्याग कर देता है, समस्त पदार्थों की आकांक्षा से रहित हो जाता है, जो सदैव आत्मा में लीन रहता है, जिसका मन एकाग्र और पवित्र है, जो सर्वत्र मोह-रहित है, निष्कामी है, शोक और हर्षोल्लास में समान भाव रखता है, जिसके मन में अहंकार, ईर्ष्या व द्वेष के भाव नहीं हैं, जो त्यागी है, जो धर्म-अधर्म, सुख-दु:ख, जन्म-मृत्यु आदि के भावों से परे है, वही पुरुष जीवन-मुक्त कहलाता है। ऐसी विदेह-मुक्ति गम्भीर और स्तब्ध होती है। ऐसी अवस्था में सर्वत्र प्रकाश और आनन्द ही अनुभव होता है। यही शिव-स्वरूप चैतन्य है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है।' विदेहराज राजा जनक के इस तत्त्व-दर्शन को सुनकर शुकदेवजी संशय-रहित होकर परमतत्त्व आत्मा में स्थित होकर शान्त हो गये।

 इस प्रथम अध्याय की कथा में शुकदेव का जनक के पास जाना, जनक द्वारा शुक की परीक्षा, शुक-जनक संवाद, बन्धन-मोक्ष का विवेक, जीवन्मुक्त स्थिति, विदेहमुक्त स्थिति, शुकदेव के भ्रम का निवारण तथा शुकदेव को विश्रान्ति की प्राप्ति आदि विषयों का विवेचन प्राप्त होता है। यह कहानी हमें सिखाती है कि जिसे परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य)  का या भगवान का ज्ञान हो जाता है वह सुख और दुख में एक जैसा रहता है। 7 -सात दिनों तक मान-अपमान में सम रहने की परीक्षा में सफल रहने के बाद।  पुनः आठ दिनों के बाद शुक को राजा जनक के दरबार में लाया गया। राजा जनक अपने सिंहासन पर बैठे थे और दरबार में नृत्य-संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। राजा जनक ने शुक को दूध से भरा एक प्याला दिया। उन्होंने शुक से दूध की एक भी बूँद गिराए बिना  दरबार के सात चक्कर लगाने को कहा। शुक को इसी शोरगुल के बीच यह मुश्किल काम पूरा करना था। उन्होंने अपना मन शांत रखा और पूरा ध्यान प्याले पर रखते हुए सफलता से यह काम पूरा किया। शुरू से अंत तक राजा जनक शुक की परीक्षा ही ले रहे थे और हर परीक्षा में शुक सफल रहे। राजा जनक शुक की एकाग्रता और अपने मन को काबू में रख पाने की उनकी शक्ति से बहुत खुश हुए। राजा जनक समझ गए कि उन्हें सत्य  और भगवान का (सच्चिदानन्द स्वरूप युगावतार का) पूरा ज्ञान है। जिसे परम् सत्य  या भगवान का ज्ञान (आत्मसाक्षात्कार) हो जाता है;  वह सुख और दुख में एक जैसा रहता है। बाहरी माहौल का उसके मन पर कोई असर नहीं पड़ता।

महोपनिषद : अध्याय (3)संसार नश्वर है - 57 श्लोक।

तृतीय अध्याय का आरम्भ 'निदाघ' के विचार के साथ हुआ है। यह अध्याय 'निदाघ' मुनि के विचार- 'संसार नश्वर है' का प्रतिपादन करता है। इसमें मायावी जगत् को अनित्य बताया गया है। तृष्णा और देह की निन्दा की गयी है। संसार को दु:खमय सिद्ध किया गया है और वैराग्य से तत्त्व जिज्ञासा का शमन किया गया है। तदुपरान्त जगत् का अनित्यत्व, अहंकार, तृष्णा आदि की अनर्थकता, देह तथा उसकी अवस्था की निन्दा, संसार की दुःखमयता, स्त्री निन्दा, दिशाओं आदि की क्षणभंगुरता तथा वैराग्य से तत्त्व जिज्ञासा आदि विषयों का विवेचन है।

महर्षि ऋभु के विषय में ऐसा माना जाता है कि वे ब्राहृा जी के मानस-पुत्र थे। उन्होंने पूर्ण तत्त्ववेत्ता अपने ज्येष्ठ भ्राता सनत्सुजात का शिष्यत्व ग्रहण किया और अत्यन्त श्रद्धा, निष्ठा एवं प्रेम से उनकी सेवा की। उनसे आत्मज्ञान की प्राप्ति करके वे सदा आत्मिक स्थिति में अवस्थित रहने लगे। कुछ समय के उपरान्त उन्होंने एक स्थान पर रहने की अपेक्षा भ्रमण करने का विचार किया। भ्रमण करते हुए वे एक दिन उस ओर जा निकले, जहाँ पुलस्त्य ऋषि का आश्रम था। उस समय वहाँ पुलस्त्य ऋषि का पुत्र निदाघ वेदाध्ययन कर रहा था। महर्षि ऋभु को देखकर निदाघ तुरन्त अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ, आगे बढ़कर अत्यन्त श्रद्धा से उन्हें प्रणाम किया, तत्पश्चात् आसन पर विराजमान होने के लिए विनय की। उसे संस्कारी एवं अधिकारी जानकर महर्षि ऋभु ने प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिया और बोले-केवल सद्ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लेने से ही जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता। जीवन का वास्तविक उद्देश्य तो आत्मज्ञान की प्राप्त करके आवागमन के चक्र से मुक्ति प्राप्त करना है। आत्मज्ञान की प्राप्ति पूर्ण तत्त्वेत्ता सद्गुरु की कृपा से ही सम्भव है। आत्मज्ञान के बिना सभी ज्ञान थोथे हैं, परन्तु आत्मज्ञान की प्राप्ति यदि हो जाये तो फिर समझ लो कि सब कुछ जान लिया।

जो यह एक न जानिया, तो बहु जाने का होय।

एकै  तें  सब  होत  है , सब तें एक न होय।।

[ * कबीर जी कहते हैं , '' यदि तुमने उस परमात्मा (परम सत्य) के बारे में तो कुछ नहीं जाना ओर संसार की वस्तुओं  के बारे में - (कार का इंजन कैसे बनता है, बालूशाही कैसे बनती है ?) अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त कर लिया तो तुमने वास्तव में कुछ नहीं जाना।  क्यूंकि उस एक परमात्मा से ही सब कुछ बना है , सब कुछ मिल कर परमात्मा को नहीं बना सकते ,कबीर जी यहाँ सांसारिक ज्ञान की अपेक्षा परमात्मा के ज्ञान को अधिक महत्त्व देते हैं। ]

महर्षि ऋभु की प्रेरणा से निदाघ के ह्मदय में आत्मतत्त्व को जाने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। महर्षि के शरणागत होकर वह उनके साथ भ्रमण करते हुए हित्तचित्त एवं श्रद्धा से उनकी सेवा करने लगा। उसकी सेवा से महर्षि ऋभु प्रसन्न हो गए। उन्होंने उसे आत्मज्ञान का उपदेश देकर घर वापस जाने का आदेश दिया। गुरुदेव की आज्ञा शिरोधार्य कर निदाघ अपने घर वापस चला गया। कुछ दिन के उपरांत उसके पिता पुलस्त्य ऋषि ने उसका विवाह कर दिया। अपने पिता के आश्रम से कुछ दूरी पर एक कुटिया बनाकर निदाघ अपनी पत्नी के साथ वहीं रहने लगा। शनैः शनैः वह पूरी तरह माया के चक्कर में फँस गया और गुरुदेव के उपदेश को भूल गया। महापुरुषों में यह विशेष गुण होता है कि जो एक बार उनकी शरण ग्रहण कर लेता है, महापुरुष सदा के लिए उसके ज़िम्मेवार बन जाते हैं। वे सदैव ही उसे माया से बचाते हैं।

कबीर माया मोहिनी , सब जग घाला घानि।

सतगुरु की किरपा भई, नातर करती हानि।।

भली भई  जो  गुरु मिले , नातर होती हान।

दीपक जोति पतंग ज्यों, परता आय निदान।।

[सन्त कबीर जी कहते है कि यह जग माया मोहिनी है जो लोभ रूपी कोल्हू में पीसती है । इससे बचना अत्यंत दुश्कर है । कोई विरला ज्ञानी सन्त ही बच पाता है जिसने अपने अभिमान को तोड़ दिया है । माया , दीपक की लौ के समान है और मनुष्य उन पतंगों के समान है जो माया के वशीभूत होकर उन पर मंडराते है । इस प्रकार के भ्रम से, अज्ञान रूपी अन्धकार से कोई विरला ही उबरता है जिसे गुरु का ज्ञान प्राप्त होने से उद्धार हो जाता है ।] 

     निदाघ जब गुरु के उपदेश को भूलकर माया में लिप्त हो गया, तो उसे सचेत और सावधान करने के लिए महर्षि ऋभु वेष बदल कर उसकी कुटिया पर जा पहुँचे। निदाघ ने, जो अब गृहस्थी बन चुका था, गृहस्थ-धर्म के अनुसार उनका आदर-सत्कार कर उन्हें भोजन कराया। महर्षि ऋभु के भोजन कर चुकने पर निदाघ ने कहा-ऋषिदेव! आपका निवास स्थान कहाँ है? इस समय आप कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ जाने का आपका विचार है? क्या भोजन से आपकी भूख की निवृत्ति हुई? क्या आप पूर्णतया तृप्त हो गये?

         निदाघ के इस प्रकार प्रश्न करने पर महर्षि ऋभु ने हँसते हुए कहा-तुमने मेरे निवास और आने-जाने के विषय में पूछा, सो आता-जाता तो शरीर है और मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ, आत्मा तो सर्वव्यापक है, हर जगह विद्यमान है, इसलिए उसका कहीं आना-जाना नहीं होता। इसलिए वत्स! आकाश की तरह सर्वव्यापक होने से मैं सब जगह विद्यमान हूँ, न कहीं आता हूँ और न ही कहीं जाता हूँ, भूख-प्यास के विषय में तुमने पूछा, सो भूख-प्यास भी शरीर को लगती है। मैं चूँकि शरीर नहीं हूँ। इसलिए मुझे भूख-प्यास लगने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रही तृप्त होने की बात, सो तृप्ति एवं अतृप्ति तो मन के धर्म हैं, मेरा उनसे कोई सम्बन्ध नहीं। फिर तृप्ति अतृप्ति के हेतु संसार के सभी रस परिवर्तनशील एवं अस्थायी है। मन का स्वभाव भी पल-पल बदलता रहता है। कभी रुचिकर पदार्थ भी मनुष्य को अरुचिकर प्रतीत होने के कारण उसे तृप्त नहीं कर सकते और कभी ऐसा भी होता है कि अरुचिकर पदार्थ भी उसके लिए तृप्तिकारक बन जाते हैं। इसलिए इन परिवर्तनशील एवं विषम स्वभाव वाले सांसारिक अथवा मायिक रसों पर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए। आम संसारी मनुष्य माया के चक्र में पड़कर और स्वयं को शरीर समझकर जीवनपर्यन्त इन रसों के दीवाने बने रहते हैं और अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। माया के चक्कर में आकर वे अपने वास्विक स्वरुप को सदैव भूले रहते हैं। किन्तु निदाघ! तुम माया के चक्कर में पड़कर अपने वास्तविक स्वरुप को मत भूलो।

     ये वचन सुनकर निदाघ उनके चरणों में गिर पड़ा। तब महर्षि ऋभु ने स्वयं को उसके सामने प्रकट कर दिया। गुरुदेव के दर्शन कर निदाघ अत्यन्त प्रसन्न हुआ। महर्षि ऋभु उसे पुनः उपदेश देकर अन्यत्र चले गये। कुछ दिनों के उपरान्त महर्षि ऋभु पुनः वेष बदल कर निदाघ के पास गये। संयोगवश उस समय वहाँ से राजा की सवारी निकल रही थी जिस कारण लोगों की वहाँ भीड़ लगी थी। निदाघ भी वहीं एक स्थान पर खड़ा था। महर्षि ऋभु उसके निकट जाकर खड़े हो गए,फिर पूछा-यहाँ भीड़ क्यों लगी है? निदाघ ने उनकी ओर दृष्टि उठाकर देखा, परन्तु उन्हें पहचान न सका। उसने उत्तर दिया-सामने देखो! राजा की सवारी निकल रही है, उसे देखने के लिए ही यहाँ लोग जमा हैं।

     महर्षि ऋभु ने पूछा-इनमें राजा कौन है? निदाघ ने उत्तर दिया-वह जो विशालकाय हाथी के ऊपर सवार है, वही राजा है। महर्षि ऋभु ने कहा-ऊपर और नीचे से तुम्हारा क्या अभिप्राय है, मुझे अच्छी तरह समझाकर बताओ। यह सुनकर निदाघ चिढ़ गया। वह तुरन्त महर्षि की पीठ पर सवार हो गया और बोला-मैं राजा की भाँति ऊपर हूँ और आप हाथी की भाँति नीचे हैं। महर्षि ने हँसते हुए कहा-यह तो ठीक है कि तुम राजा की भाँति ऊपर हो और मैं हाथी की भाँति नीचे हूँ, परन्तु तुम कौन हो और मैं कौन हूँ?

     ये शब्द सुनते ही निदाघ चौंक उठा। वह झट महर्षि ऋभु की पीठ से उतरकर उनके चरणों में गिर पड़ा और रोकर विनय करने लगा-आप अवश्य ही मेरे गुरुदेव हैं, जो बार-बार मुझे उपदेश देकर सन्मार्ग दर्शाते हैं। प्रभो! मैंने अनजाने में आपके प्रति बड़ा भारी अपराध किया है, आप कृपालु हैं, क्षमाशील हैं, मेरा अपराध क्षमा करें। सन्त महापुरुष स्वभाव से ही क्षमाशील, दया के सागर एवं करुणा के अवतार होते हैं। कथन हैः-

सद कृपाल दुख परिहरन, वैर भाव नहिं कोय।

छिमा ज्ञान सत भाखहीं, हिंसा रहित जो होय।

   महर्षि ऋभु ने निदाघ को क्षमा कर दिया और पुनः आत्मतत्त्व का उपदेश किया। उनकी कृपा से निदाघ आत्मज्ञान प्राप्त कर अपनी सहज अवस्था में अवस्थित हो गया।

     महापुरुषों की यह कितनी महान कृपा होती है कि वे बार-बार अपने हितकारी एवं मंगलमय उपदेशों द्वारा जीव को वास्तविकता का बोध कराते हैं, आज भी करा रहे हैं। जब उनकी हम जीवों पर इतनी कृपा है और वे अपने पावन तन पर कष्ट सहन कर दिन-रात हमारे आत्म कल्याण के कार्य में संलग्न हैं, तो फिर हमारा भी कर्तव्य हो जाता है कि उनकी चरण-शरण ग्रहण कर उनसे आत्मज्ञान की प्राप्ति करें और अपनी आत्मा का कल्याण करके अपना जन्म सफल एवं सकार्थ करें।

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खंड ।

सद्गुरु की किरपा भई , नातर करती भांड ।।

माया के स्वरुप का वर्णन करते हुए संत कबीर दास जी कहते है कि माया बहुत ही लुभावनी है । जिस प्रकार मीठी खांड अपनी मिठास से हर किसी का मन मोह लेती है उसी प्रकार माया रूपी मोहिनी अपनी ओर सबको आकर्षित कर लेती है । वह तो सद्गुरु की कृपा थी कि हम बच गये अन्यथा माया के वश में होकर अपना धर्म कर्म भूलकर भांड की तरह रह जाते ।

एक नगर में धंदतु नाम के एक धर्मात्मा सेठ रहते थे । एक बार वहाँ नट ने आकर खेल दिखाया । सेठ का इकलौता पुत्र इलायती कुमार उस नट की लड़की के रूप पर आसक्त हो गया और उससे विवाह करवाने के लिए उसने सेठ से निवेदन किया । सेठ ने उसे बहुत समझाया पर वह नहीं माना । बेटे की हठ देख सेठ ने भगवान से प्रार्थना कीः ‘प्रभु ! अब तू ही ऐसी कुछ कृपा करना कि मेरे बेटे का भला हो ।’

ईश्वर पर विश्वास रख से सेठ निश्चिंत हो गये और विवाह-प्रस्ताव लेकर नट के पास पहुँचे । नट को सारी बात बतायी तो वह बोलाः “सेठ जी ! आपका बेटा 12 वर्ष नटविद्या सीखकर जब तक किसी राजा से पुरस्कृत न हो जाय तब तक मैं अपनी बेटी का विवाह उससे नहीं कर सकता ।”

कामासक्त युवक लोक-लज्जा छोड़ के उस नट के साथ रह के नटविद्या सीखने लगा। 12 वर्ष में वह नटविद्या में निपुण हो गया । एक दिन वह काशी के राजा के दरबार में अपनी कला दिखा रहा था । उसकी कला राजा को इतनी तो भायी कि खेल पूरा होने के पहले ही राजा ने पुरस्कार की घोषणा कर दी । युवक एक बहुत बड़े स्तम्भ पर चढ़ के कला दिखा रहा था । 

उसी समय दरबार में एक चित्ताकर्षक आवाज सुनाई दीः “भिक्षां देहि ।” दासी एक बड़े थाल में सामग्री लेकर महात्मा को देने पहुँची तो उन्होंने कहाः “मुझे तो अपनी भूख के अनुसार थोड़ा ही भोजन चाहिए ।” दासी आग्रह कर रही थी तथा संत मना कर रहे थे । संत के मधुर वचन इलायती कुमार के कानों में पड़े तो वह उनकी ओर देखने लगा । संत ने एक मीठी दृष्टि उस पर डाल दी । वह तुरंत ही खम्भे से नीचे उतरा और उन महापुरुष के चरणों में पड़ गया । नट ने आकर इलायती कुमार से कहाः “अब मैं तैयार हूँ अपनी बेटी से विवाह करवाने को ।” संत-दर्शन से सेठ-पुत्र का मन बदल चुका था । वह बोलाः “तेरी लड़की एक साधारण नटनी है, जिसकी आसक्ति में फँसकर मैं 12 साल से बंदर की तरह नाच रहा हूँ।  परंतु यह मायारूपी नटनी तो कितने ही जन्मों से नचा रही है और समस्त त्रिलोकी को नचा रही है । अब मैं इसके खेल से पार होने के लिए इन महापुरुष की शरण में ही रहूँगा।”

जहां काम तहां नहिं , जहां नाम नहिं काम ।

दोनों कबहू ना मिलै , रवि रजनी इक ठाम ।।

जिस व्यक्ति के ह्रदय में विषय रूपी काम का वस् होता है उस स्थान पर सद्गुरु का नाम एवम् स्वरुप बोध रूपी ज्ञान नहीं ठहरता।  और जहाँ सद्गुरु का निवास होता है वहाँ काम के लिए स्थान नहीं होता जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश और रात्रि का अंधेरा दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते उसी प्रकार ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते। 

परारब्ध पहिले  बना , पीछे बना शरीर ।

कबीर अचम्भा है यही , मन नहिं बांधे धीर ।।

कबीर दास जी मानव को सचेत करते हुए कहते है कि प्रारब्ध की रचना पहले हुई उसके बाद शरीर बना । यही आश्चर्य होता है कि यह सब जानकर भी मन का धैर्य नहीं बंधता अर्थात कर्म फल से आशंकित रहता है ।

प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर, 

तुलसी चिन्ता क्यों करे भज ले श्री रघुवीर। 

पहले इस देह का प्रारब्ध बना है, बाद में देह बनी है। केवल मनुष्य का शरीर ही ईश्वर लाभ का साधन है।  तुम्हारे इस साधन की जो आवश्यकता है उसकी पहले व्यवस्था हुई है, बाद में देह बनी है। अगर ऐसा न होता तो जन्मते ही तैयार दूध नहीं मिलता। उस दूध के लिए तुमने-हमने कोई परिश्रम नहीं किया था। माँ के शरीर में तत्काल दूध बन गया और बिल्कुल बच्चे के अनुकूल। ऐसे ही हवाएँ हमने नहीं बनाईं, सूर्य के किरण हमने नहीं बनाये, प्राणवायु हमने नहीं बनाया लेकिन हमारे इस साधन को जो कुछ चाहिए वह सब तो सृष्टिकर्त्ता ने पहले बनाया। अतः इस शरीररूपी साधन की जो नितान्त आवश्यकता है उसके लिए चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। सृष्टिकर्त्ता की सृष्टि में आवश्यकता पूरी करने की व्यवस्था है। अज्ञानजनित इच्छा-वासनाओं का तो कोई अन्त ही नहीं है। वे ही भटकाती हैं सबको।

इच्छाएँ हमारी बेवकूफी से पैदा होती हैं और आवश्यकताँ सृष्टिकर्त्ता के संकल्प से पैदा होती हैं। शरीर बना कि उसकी आवश्यकताएँ खड़ी हुईं। सृष्टिकर्त्ता का संकल्प है कि तुम मनुष्य जन्म पाकर मुक्त हो जाओ। अगर तुम अपने को सृष्टिकर्त्ता के संकल्प से जोड़ दो तो तुम्हारी मुक्ति आसानी से हो जाएगी। तुम अपनी नई इच्छाएँ बनाकर चिन्ता करके अपने को कोसते हो तो तुम कर्म के भागी बन जाते हो।

*श्री बाँके बिहारी जी मंदिर, श्री धाम वृंदावन, मथुरा के आशीष गोस्वामी ने भेजी है यह सुंदर कथा- 

एक व्यक्ति हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करता था। धीरे धीरे वह काफी बुजुर्ग हो चला था इसीलिए एक कमरे मे ही पड़ा रहता था। जब भी उसे शौच. स्नान आदि के लिये जाना होता था, वह अपने बेटों को आवाज लगाता था और बेटे ले जाते थे।धीरे धीरे कुछ दिन बाद बेटे कई बार आवाज लगाने के बाद भी कभी-कभी आते और देर रात तो नहीं भी आते थे। इस दौरान वे कभी-कभी गंदे बिस्तर पर ही रात बिता दिया करते थे।

अब और ज्यादा बुढ़ापा होने के कारण उन्हें कम दिखाई देने लगा था। एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही उन्होंने आवाज लगायी, तुरन्त एक लड़का आता है और बड़े ही कोमल स्पर्श के साथ उनको निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लेटा जाता है। अब ये रोज का नियम हो गया। एक रात उनको शक हो जाता है कि पहले तो बेटों को रात में कई बार आवाज लगाने पर भी नहीं आते थे। लेकिन ये तो आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाता है। बड़े कोमल स्पर्श से सब निवृत्त करवा देता है। एक रात वह व्यक्ति उसका हाथ पकड़ लेता है और पूछता है कि सच बता तू कौन है ? मेरे बेटे तो ऐसे नही हैं।

तभी अंधेरे कमरे में एक अलौकिक उजाला हुआ और उस लड़के रूपी ईश्वर ने अपना वास्तविक रूप दिखाया। वह व्यक्ति रोते हुये कहता है – हे प्रभु आप स्वयं मेरे निवृत्ति के कार्य कर रहे हैं। यदि मुझसे इतने प्रसन्न हो तो मुक्ति ही दे दो ना। प्रभु कहते हैं कि जो आप भुगत रहे हैं वो आपके प्रारब्ध है। आप मेरे सच्चे साधक है। हर समय मेरा नाम जप करते हैं, इसलिये मैं आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूँ।

व्यक्ति कहता है कि क्या मेरे प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बड़े है। क्या आपकी कृपा मेरे प्रारब्ध नहीं काट सकती है । प्रभु कहते है कि, मेरी कृपा सर्वोपरि है। ये अवश्य आपके प्रारब्ध काट सकती है, लेकिन फिर अगले जन्म मे आपको ये प्रारब्ध भुगतने फिर से आना होगा। यही कर्म नियम है। इसलिए आपके प्रारब्ध मैं स्वयं अपने हाथों से कटवा कर इस जन्म-मरण से आपको मुक्ति देना चाहता हूँ ।

ईश्वर कहते हैं- प्रारब्ध तीन तरह के होते हैं-मन्द, तीव्र तथा तीव्रतम। मन्द प्रारब्ध- मेरा नाम जपने से कट जाते है । तीव्र प्रारब्ध किसी सच्चे संत का संग करके श्रद्धा और विश्वास से मेरा नाम जपने पर कट जाते है। तीव्रतम प्रारब्ध भुगतने ही पड़ते हैं। लेकिन जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से मुझे जपते हैं, उनके प्रारब्ध मैं स्वयं साथ रहकर कटवाता हूँ और तीव्रता का अहसास नहीं होने देता हूँ ।

सीख

प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर ।

तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्री रघुवीर।

प्रस्तुतिः आशीष गोस्वामी

श्री बाँके बिहारी जी मंदिर, श्री धाम वृंदावन, मथुरा

संसार नश्वर है - तृतीय अध्याय का आरम्भ 'निदाघ' के विचार के साथ हुआ है। यह अध्याय 'निदाघ' मुनि के विचारों को प्रतिपादन करता है। इसमें मायावी जगत् को अनित्य बताया गया है। तृष्णा और देह की निन्दा की गयी है। संसार को दु:खमय सिद्ध किया गया है और वैराग्य से तत्त्व जिज्ञासा का शमन किया गया है। तदुपरान्त जगत् का अनित्यत्व, अहंकार, तृष्णा आदि की अनर्थकता, देह तथा उसकी अवस्था की निन्दा, संसार की दुःखमयता, स्त्री निन्दा, दिशाओं आदि की क्षणभंगुरता तथा वैराग्य से तत्त्व जिज्ञासा आदि विषयों का विवेचन है।

महोपनिषद :  अध्याय (4)मोक्ष क्या है? -131 श्लोक। 

मोक्ष क्या है?

इस अध्याय में 'मोक्ष' के चार उपायों का वर्णन है। ये चार-'शम' (मनोनिग्रह), 'विचार,' 'सन्तोष' और 'सत्संग'- हैं। यदि इनमें से एक का भी आश्रय प्राप्त कर लिया जाये, तो शेष तीन स्वयमेव ही वश में हो जाते हैं। इस नश्वर जगत् से 'मोक्ष' प्राप्त करने के लिए 'तप,' 'दम' (इन्द्रियदमन), 'शास्त्र' एवं 'सत्संग' से सतत अभ्यास द्वारा आत्मचिन्तन करना चाहिए।

गुरु एवं शास्त्र-वचनों के द्वारा अन्त:अनुभूति से अन्त:शुद्धि होती है। उसी के सतत अभ्यास से आत्म-साक्षात्कार किया जा सकता है। शुभ-अशुभ के श्रवण से, भोजन से, स्पर्श से, दर्शन से और एवं ज्ञान से जिस मनुष्य को न तो प्रसन्नता होती है और न दु:ख होता है, वही मनुष्य शान्त औ समदर्शी कहलाता है। सन्तोष-रूपी अमृत का पान कर ज्ञानी जन आत्मा के महानाद (परमानन्द) को प्राप्त करते हैं। जब इस दृश्य जगत् की सत्ता का अभाव, बोधगम्य हो जाता है, तभी वह संशयरहित ज्ञान को समझ पाता है। यही आत्मा का कैवल्य रूप है। यह जगत् तो मात्र मनोविलास है। मुक्ति की आकांक्षा रखने वाले साधक को 'ब्रह्मतत्त्व' के बाद-विवाद में न पड़कर उसका चिन्तन-भर करना चाहिए।' यहाँ मेरा कुछ नहीं है, सब उसी का है। उसी की शक्ति से आबद्ध हमारा यह अस्तित्त्व है।' ऐसा समझना चाहिए।

चतुर्थ अध्याय में मोक्ष के चार उपाय, शास्त्रादि द्वारा आत्मावलोकन विधि, समाधि का स्वरूप, जीवन्मुक्त स्थिति, दृश्य जगत् का मिथ्यात्व, आसक्ति तथा अनासक्ति से बन्धन और मोक्ष की स्थिति, संसार की मनोमयता, जगत् का मिथ्यात्व, शान्त मनःस्थिति से ब्रह्म प्राप्ति, निर्विशेष ब्रह्मज्ञान की महिमा, वासना के परिहार से मोक्ष की प्राप्ति, बन्ध-मोक्ष का मूल संकल्प तथा अनात्माभिमान के त्याग की विधि इत्यादि विषयों का विशद विवेचन किया गया है।

महोपनिषद :  अध्याय (5)ज्ञान-अज्ञान की भूमिका :-186 श्लोक।

ज्ञान-अज्ञान की भूमिका 

इस अध्याय में ज्ञान-अज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख है। महर्षि ऋभु अपने पुत्र से कहते हैं कि 'अज्ञान' और 'ज्ञान' की सात-सात भूमिकाएँ हैं। अहं भाव 'अज्ञान' का मूल स्वरूप है। इसी से 'यह मैं हूं और यह मेरा है' का भाव उत्पन्न होता है। अज्ञान से ही राग-द्वेषादि उत्पन्न होते हैं और जीव मोहग्रस्त होकर आत्म-स्वरूप से परे हट जाता है।

ज्ञान की पहली भूमिका 'शुभेच्छा' से प्रारम्भ होती है। सत्संगति से वैराग्य उत्पन्न होता है, सदाचार की भावनाएं जाग्रत होत हैं और भोग-वासनाओं की आसक्ति क्षीण हो जाती है। ज्ञानी जन सत्कर्मों में संलग्न रहकर सनातन सदाचरण की परम्परा का निर्वाह करते हैं। ऐसे ज्ञानी पुरुष देहत्याग के पश्चात् 'मुक्ति' के अधिकारी होते हैं।

पाँचवें अध्याय में अज्ञान एवं ज्ञान की भूमिका, 'स्वरूप' में स्थिति, मोक्ष और 'स्वरूप' से नष्ट होना, बन्धन, ज्ञान एवं अज्ञान की सात भूमिकाएँ, जीवन्मुक्त का आचरण, ज्ञान भूमिका का अधिकारी, ब्रह्म की अनुभूति ही ब्रह्म प्राप्ति का उपाय, मनोलय होने पर चैतन्य की अनुभूति, जगत् के भ्रामक ज्ञान को शान्त करने का उपाय, विषयों से उपरामता, तृष्णा को नष्ट करने का उपाय अहंभाव का त्याग, मन के अभ्युदय एवं नाश से बन्धन मुक्ति, चित् (चैतन्य) विद्या का अधिकारी, माया से बचकर ही ब्रह्म प्राप्ति सम्भव, ब्रह्म की सृष्टि माया के अधीन तथा संकल्प (इच्छा -आकांक्षा) के नष्ट होने से संसार का मूलोच्छेदन सम्भव जैसे विषयों का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है।

महोपनिषद : अध्याय (6)समाधि और जीवन-मुक्त : - 83 श्लोक।

समाधि और जीवन-मुक्त 

इस अध्याय में समाधि से परमेश्वर की प्राप्ति, ज्ञानियों की उपासना-विधि, अज्ञानियों की दु:खद स्थिति, वासना-त्याग के उपाय, जीवन्मुक्त व्यक्ति की महिमा आदि का वर्णन किया गया है। किसी भी प्रज्ञावान पुरुष में जगत् की नश्वरता का भाव, निर्भयता, समता, नित्यता, निष्काम दृष्टि, सोम्यता, धैर्य, मैत्री, सन्तोष, मृदुता, मोहहीनता आदि का समावेश रहता है। ऐसा व्यक्ति ही 'जीवन्मुक्त' होता है।

महोपनिषद् के छठे अध्याय में समाधि के अभ्यास से परमेश्वरत्व की प्राप्ति, ज्ञानियों की उपासना पद्धति, अज्ञानियों की दुःखद स्थिति, मनोनाश का उपाय, वासना त्याग का उपाय, जीवन्मुक्त की महिमा, तृष्णा की त्याग विधि, चार प्रकार के निश्चय, अद्वैतनिष्ठ व्यक्ति के लिए संसार का अभाव, मुमुक्षु की ब्रह्मनिष्ठता और अन्त में इस उपनिषद् शास्त्र के पठन-पाठन का प्रतिफल वर्णित है। इस प्रकार महोपनिषद् का संक्षिप्त परिचय प्राप्त होता है।

'परिचय' - रामधारी सिंह "दिनकर"

मैं क्या हूँ ? 

सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं

स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं

बँधा हूँ, स्वप्न हूँ, लघु वृत हूँ मैं

नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं


समाना चाहता, जो बीन उर में

विकल उस शून्य की झंकार हूँ मैं

भटकता खोजता हूँ, ज्योति तम में

सुना है ज्योति का आगार (कोष) हूँ मैं


जिसे निशि खोजती तारे जलाकर

उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं

जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन

अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं


कली की पंखुडीं पर ओस-कण में

रंगीले स्वप्न का संसार हूँ मैं

मुझे क्या आज ही या कल झरुँ मैं

सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं


मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण! जब से

लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं

रुंदन अनमोल धन कवि का,

इसी से पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं


मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का

चिता का धूलिकण हूँ, क्षार हूँ मैं

पता मेरा तुझे मिट्टी कहेगी

समा जिसमें चुका सौ बार हूँ मैं


न देंखे विश्व, पर मुझको घृणा से

मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृंगार हूँ मैं

पुजारिन, धुलि से मुझको उठा ले

तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं


सुनुँ क्या सिंधु, मैं गर्जन तुम्हारा

स्वयं युग-धर्म की हुँकार हूँ मैं

कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि (बिजली) का

प्रलय-गांडीव की टंकार हूँ मैं


दबी सी आग हूँ भीषण क्षुधा का

दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं

सजग संसार, तू निज को सम्हाले

प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं


बंधा तूफान हूँ, चलना मना है

बँधी उद्याम निर्झर-धार हूँ मैं

कहूँ क्या कौन हूँ, क्या आग मेरी

बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं।।


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 महोपनिषद : 

अध्याय (1) 'नारायण' का स्वरूप एवं सृष्टि का उत्पत्ति क्रम  - 24 श्लोक। 

1.'नारायण' का स्वरूप : महोपनिषद के प्रथम अध्याय  के (24) श्लोकों में 'नारायण' का स्वरूप तथा सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम का वर्णन है। इस अध्याय में सर्वप्रथम 'श्रीनारायण' की अद्वितीयता एवं ईशत्व का विवेचन है। उसके उपरान्त ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंन्द्रियों का विवेचन है।  यज्ञीय स्तोम की उत्पत्ति, चौदह पुरुष एवं एक कन्या की उत्पत्ति, पच्चीस तत्त्वात्मक पुरुष की उत्पत्ति, रुद्र की उत्पत्ति, चतुर्मुख ब्रह्मा के जन्म का कथानक है, व्याहृति, छन्द, वेद और देवताओं की उत्पत्ति, नारायण की विराट् रूपता तथा नारायण (अवतार वरिष्ठ) की उपलब्धि का स्थान हृदय बताया गया है।

सृष्टि के आदि में एकात्र भगवान् नारायण ही थे। उन (विराट् पुरुष) को एकाकी रहना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा ॥ भगवान नारायण ने ध्यान किया। उन (विराट् पुरुष) का अन्तःकरण में स्थित ध्यान ‘यज्ञस्तोम' अर्थात् श्रेष्ठ यज्ञ कहलाया। पितामह चतुर्मुखी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। ब्रह्माजी ने (चारों दिशाओं में भिन्न-भिन्न देवों का) ध्यान किया। जिन (विराट् पुरुष) के सहस्त्रों सिर, सहस्त्रों नेत्र हैं,  ऐसे उन भगवान् नारायण का ब्रह्माजी ने ध्यान किया ॥  उस (विराट् शरीर) में ही परमात्मरूप आदिपुरुष ने प्रवेश किया। यहाँ पितामह के द्वारा जिन-जिनके ध्यान करने का उल्लेख है, वे सभी उसी ध्यान प्रक्रिया से प्रादुर्भूत होते चले गये।  परमात्मा या इष्टदेव का वासस्थान ह्रदय में है। जहाँ pacemaker, and sympathetic ganglia लगे हुए हैं ?  गायत्री मंत्र का पहला भाग "ॐ भूः भुवः स्वः" होता है।  भूः व्याहृति,  पृथ्वी, अंतरिक्ष और स्वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याहृति: का अर्थ है "कथन" या "भाषण।"  व्याहृतियां, विशेष रूप से "स्व:", हमें अपनी आंतरिक आत्मा में परमात्मा की खोज के लिए प्रेरित करती हैं। महः व्याहृति: का अर्थ है "महान उद्घोष" या "महा- वाक्य। " जिन्हें 4 वेदों में पाया जाता है। 

[ॐकार को ब्रह्म कहा है। यह परमात्मा का स्वयं सिद्ध नाम है। योग विद्या के आचार्य समाधि अवस्था में पहुंच कर जब ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं तो उन्हें प्रकृति के उच्च अन्तराल में एक ध्वनि होती हुई परिलक्षित होती है। जैसे घड़ियाल में चोट मार देने से वह बहुत देर तक झनझनाती रहती है, इसी प्रकार बार बार एक ही कम्पन उन्हें सुनाई देते हैं। यह नाद ‘ॐ’ ध्वनि से मिलता जुलता होता है। उसे ही ऋषियों ने ईश्वर का स्वयं सिद्ध नाम बताया है और उसे ‘शब्दब्रह्म’ कहा है। इस शब्द ब्रह्म से रूप बनता है। इस शब्द के कम्पन सीधे चलकर दाहिनी ओर मुड़ जाते हैं। शब्द अपने केन्द्र की धुरी पर भी घूमता है, इस प्रकार वह चारों ओर घूमता रहता है। इस भ्रमण, कम्पन, गति और मोड़ के आधार पर स्वस्तिक बनता है यह स्वस्तिक ॐकार का रूप। ॐकार को प्रणव भी कहते हैं। यह समस्त मंत्रों का सेतु है क्योंकि इसी से समस्त शब्द और मंत्र बनते हैं। प्रणव से व्याहृतियां उत्पन्न हुई और व्याहृतियों में से वेदों का आविर्भाव हुआ। 

तैलधारामिवाछिन्नं दीर्घघंटा निनादवत् । उपास्यं प्रणवस्याग्रं यस्तं वेद स वेदवित् ।। (शौनक शिक्षा -६३) निरन्तर गिरती तेल की धार के समान या घड़ी के शब्द के समान यथार्थ सदा ॐ की विचारधारा में जो निमग्न रहता है वही वेदवेत्ता है।साभार >>>https://www.awgp.org/en/literature/book/gayatri_ka_mantrarth/v1.4 /

>>>लखुयोगवासिष्टम्- https://www.ebharatisampat.in/read_chapter.php?bookid=NjczNDk5NTc1ODU3MDQy

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॥ श्री हरि ॥ ॥अथ महोपनिषद् ॥ ॥ हरिः ॐ ॥


 महोपनिषद् -प्रथमोऽध्यायः

अथातो महोपनिषदं व्याख्यास्यामः ॥ ||१||

तदाहुरेको ह वै नारायण आसीन्न ब्रह्मा नेशानो नापो, 

 नाग्नीषोमौ नेमे द्यावापृथिवी न नक्षत्राणि न सूर्यो न चन्द्रमाः ॥ ||२||

 एकाकी न रमते ।।||३|| 

अथातो = अब (ईश प्रार्थना के बाद) महोपनिषद् के व्याख्यान का शुभारम्भ किया जा रहा है। सृष्टि के आदि में एक मात्र भगवान् नारायण ही थे। इनके अतिरिक्त ब्रह्मा, रुद्र, आपः (जल), अग्नि एवं सोम आदि देवगण नहीं थे। वे द्युलोक तथा पृथ्वीलोक भी नहीं थे और न ही नक्षत्र, चन्द्रमा एवं सूर्य आदि ही थे। ऐसी स्थिति में उन (विराट् पुरुष) को एकाकी रहना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा ॥ ॥१-३

तस्य ध्यानान्तःस्थस्य यज्ञस्तोममुच्यते ॥ ||४||

तस्मिन् पुरुषाश्चतुर्दश जायन्ते एका कन्या दशेन्द्रियाणि मन एकादशं

 तेजो द्वादशोऽहंकारस्त्रयोदशकः प्राणश्चतुर्दश आत्मा पञ्चदशी बुद्धिः 

  भूतानि पञ्च तन्मात्राणि पञ्च महाभूतानि स एकः पञ्चविंशतिः पुरुषः ॥ ||५||

तत्पुरुष पुरुषो निवेश्य नास्य प्रधानसंवत्सरा जायन्ते । संवत्सरादधिजायन्ते ॥ ||६||

उन (विराट् पुरुष) का अन्तःकरण में स्थित ध्यान ‘यज्ञस्तोम' अर्थात् श्रेष्ठ यज्ञ कहलाया। उनके द्वारा एक कन्या एवं चौदह पुरुष प्रादुर्भूत हुए। जिनमें से चौदह पुरुष ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय सहित दस इन्द्रियाँ, एकादश -तेजस्वी मन, द्वादश अहंकार, तेरह और चौदह क्रमशः प्राण और आत्मा हैं तथा पन्द्रहवीं बुद्धि कन्या के नाम से कही गयी है। इनके अलावा पाँच सूक्ष्मभूत रूपी तन्मात्राएँ एवं पाँच महाभूत आदि इन पच्चिस तत्वो के संयोग से एक विराट् पुरुष के शरीर का निर्माण हुआ। उस (विराट् शरीर) में ही परमात्मरूप आदिपुरुष ने प्रवेश किया। (इन पच्चीस तत्वों से संयुक्त पुरुष से) प्रधान संवत्सर आदि प्रकट नहीं होते। (अपितु) आदि पुरुष के कालरूप संवत्सर से ही (संवत्सर- संवत्सर का अर्थ है 'वर्ष' या 'वर्षीय काल'।) प्रादुर्भूत हुए हैं ॥ ॥४-६

अथ पुनरेव नारायणः सोऽन्यत्कामो मनसा घ्यायत ।तस्य 

ध्यानान्त:स्थस्य ललाटात्त्र्यक्षः शूलपाणिःपुरुषो जायते ।

बिभ्रच्छ्रियं यशः सत्यं ब्रह्मचर्यं तपो वैराग्यं मन ऐश्वर्यं सप्रणवा व्याहृतय

 ऋग्यजुःसामाथर्वाङ्गिरसः सर्वाणि छन्दांसि तान्यङ्गे 

समाश्रितानि। तस्मादीशानो महादेवो महादेवः॥(७) 

तदनन्तर उन (विराट् पुरुष) भगवान् नारायण ने एक अन्य कामना से संकल्प युक्त हो अन्तःस्थ मन से ध्यान किया। अन्त:स्थ होकर ध्यान करने से उनके ललाट से त्रिनेत्रयुक्त, हाथ में त्रिशूल धारण किये हुए पुरुष की उत्पत्ति हुई। उस ऐश्वर्यशाली पुरुष के शरीर में यश, सत्य, ब्रह्मचर्य, तप, वैराग्य, नियन्त्रित मन, श्रीसम्पन्नता एवं ओंकार व्याहृतियाँ , ऋग्, यजुः, साम, अथर्व आदि चारों वेद तथा समस्त छन्द प्रतिष्ठित थे। इसी कारण वह ईशान एवं महादेव के नाम से प्रख्यात हुए ।।7 

अथ पुनरेव नारायणः सोऽन्यत्कामो मनसा ध्यायत । 

तस्य ध्यानान्तःस्थस्य ललाटात्स्वेदो-ऽपतत्।ता इमा: प्रतता आपः । 

ततस्तेजो हिरण्मयमण्डम्। तत्र ब्रह्मा चतुर्मुखोऽजायत ॥ ||८||

इसके पश्चात् पुनः उन भगवान् नारायण ने अन्य कामना से अन्त में स्थित होकर ध्यान किया। उस अन्त:स्थ ध्यान में लीन नारायण के ललाट से पसीने की बूँदें नि:सृत होने लगीं। वह पसीना ही चारों ओर फैलकर आपः (प्रकृति का मूल क्रियाशील द्रव्य) रूप में परिणत हो गया। उस आपः से ही तेजोमय हिरण्यगर्भरूप अण्ड को उत्पत्ति हुई और उसो तेज से चतुर्मुख ब्रह्माजी प्रकट हुए ।।

सोऽध्यायत् । पूर्वाभिमुखो भूत्वा भूरिति व्याहृतिर्गायत्रं छन्द ऋग्वेदोऽग्निर्देवता।

पश्चिमाभिमुखो भूत्वा भुवरिति व्याहृतिस्त्रेष्टुभं छन्दो यजुर्वेदो वायुर्देवता।  

 उत्तराभिमुखो भूत्वा स्वरिति व्याहृतिर्जागतं छन्दः सामवेदः सूर्यो देवता।

दक्षिणाभिमुखो भूत्वा मह इति व्याहृतिरानुष्टुभं छन्दोऽथर्ववेदः सोमो देवता॥ ||९||

उन पितामह भगवान् ब्रह्माजी ने (चारों दिशाओं में भिन्न-भिन्न देवों का) ध्यान किया। पूर्व दिशा की तरफ मुख करके उन्होंने भूः व्याहृति, गायत्री छन्द, ऋग्वेद तथा अग्निदेव का ध्यान किया। पश्चिमाभिमुख होकर भुव:व्याहृति, त्रिष्टुप् छन्द, यजुर्वेद सहित वायुदेव का ध्यान किया। उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होकर स्व: व्याहृति, जगती छन्द तथा सामवेद सहित सूर्य (सविता) देव का ध्यान किया और दक्षिण की तरफ अभिमुख होकर महः व्याहृति, अनुष्टुप् छन्द तथा अथर्ववेद सहित सोम देवता का ध्यान किया ॥

[यहाँ पितामह के द्वारा जिन-जिनके ध्यान करने का उल्लेख है, वे सभी उसी ध्यान प्रक्रिया से प्रादुर्भूत होते चले गये।]

सहस्त्रशीर्ष देवं सहस्त्राक्ष विश्वशंभुवम् ।

विश्वतः परमं नित्यं विश्वं नारायणं हरिम् ॥ ||१०||

जिन (विराट् पुरुष) के सहस्त्रों सिर, सहस्त्रों नेत्र हैं, जो सभी तरह से कल्याणकारी हैं, सर्वत्र संव्याप्त हैं, परात्पर हैं, नित्य हैं, सभी रूपों में प्रतिष्ठित हैं, ऐसे उन भगवान् नारायण का ब्रह्माजी ने ध्यान किया ॥

विश्वमेवेदं पुरुषस्तद्विश्वमुपजीवति।

पतिं विश्वेश्वरं देवं समुद्रे विश्वरूपिणम्॥ ||११||

ये भगवान् नारायण ही सम्पूर्ण विश्व के स्वरूप हैं, इन्हीं विराट् पुरुष पर समस्त जगत् का जीवन आश्रित है। ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण जगत् के पालक, विश्वरूप, विश्वेश्वर को तथा क्षीर सागर में योगनिद्रा का आश्रय लेने वाले भगवान् श्रीनारायण का ध्यानावस्था में दर्शन प्राप्त किया ॥

पद्मकोशप्रतीकाशं लम्बत्याकोशसंनिभम्

 हृदयं चाप्यधोमुखं संतत्यै सीत्कराभिश्च ॥ ||१२||

इस श्लोक में हृदय की तुलना कमल से की गयी है। पद्मकोश-प्रतीकाशम् -"पद्म" का अर्थ है कमल, "कोश" का अर्थ है कोश या खोल। "प्रतीकाशं" का अर्थ है समान। इसलिए, "पद्मकोशप्रतीकाशं" का अर्थ है कमल के कोश के समान। लम्बत्याकोशसंनिभम्-  कमल के फूल की अधोमुखी -उलटी कली के समान है "आकोश" का अर्थ है कोश या खोल। "संनिभम्" का अर्थ है समान।  हृदयं चाप्यधोमुखं संतत्यै सीत्कराभिश्च' - इसमें हृदय की स्थिति का वर्णन है कि, अधोमुख हृदय या हृदय नीचे की ओर है, और  जिससे  शीतल श्वास के साथ, निरंतर सीत्कार शब्द ("सी-सी" की आवाज, जो तेजी से सांस लेने या खींचने से उत्पन्न होती है।) नि:सृत होता रहता है। 

[Somatic heat is the sign of the presence of life. When the body loses all warmth, life has departed. A great Fire is thus at the root of life. Its place is within the narrow space of the heart or Suṣumnā

उस (ज्वाला) के केन्द्र में अग्नि की जीभ निवास करती है, जो सभी सूक्ष्म वस्तुओं में सबसे ऊपर है। शरीर विज्ञान के अनुसार हृदय के मध्य में एक स्थल होता है—— ‘पेसमेकर', जहाँ से हृदय को गति देने वाले लयबद्ध स्पंदन उभरते रहते हैं। हृदय की धड़कन पैदा करने वाले मूल कारण की वैज्ञानिक अभी तक स्पष्ट नहीं कर सके हैं। ऋषि ने संभवतः उसी स्थल को चैतन्य प्वाला के रूप में अनुभव किया है। 

The cardiac pacemaker is the heart's natural electrical pacemaker, and sympathetic ganglia are part of the autonomic nervous system that can influence heart rate.]

तस्य मध्ये महानर्चिर्विश्वार्चिर्विश्वतोमुखम्। 

तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता ॥ ||१३||

और उसके भीतर एक महान ज्योति है, जो विश्व को प्रकाशित करती है। उस हृदय के मध्य में एक महान् ज्वाला प्रदीप्त हो रही है। वही ज्वाला दीपशिखा की भाँति दसों दिशाओं में अविनाशी प्रकाश तत्त्व को वितरित करती हुई सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित कर रही है। उसी ज्वाला के बीच में थोड़ी दूर ऊर्ध्व की ओर उठी हुई एक पतली सी वह्निशिखा स्थित है।  

तस्याः शिखाया मध्ये पुरुषः परमात्मा व्यवस्थितः । 

स ब्रह्मा स ईशानः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् 

॥ इति महोपनिषत् ॥ ||१४||

 उसी शिखा  ( "आग की लौ" या "आग की ज्वाला") के मध्य में उस विराट् पुरुष परमात्मतत्त्व का वास-स्थान है। वे ही ब्रह्मा हैं, वे ही एवं ईशान हैं, और वे ही देवराज इन्द्र हैं। वे ही अविनाशी, अक्षर एवं परम स्वराट्- भी हैं। (स्वराट्-शब्द का अर्थ है "स्वयं प्रकाशक", जो अक्सर भगवान या सर्वोच्च सत्ता अवतार वरिष्ठ को संदर्भित करता है जो अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र है, किसी अन्य पर निर्भर नहीं है।) यही महोपनिषद् है॥ 14/

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[योगवासिष्ठ का अध्याय -२: मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण :   

 इस दूसरे अध्याय में शुकदेव का जनक के पास जाना, जनक द्वारा शुक की परीक्षा, शुक-जनक संवाद, बन्धन-मोक्ष का विवेक, जीवन्मुक्त स्थिति, विदेहमुक्त स्थिति, शुकदेव के भ्रम का निवारण तथा शुकदेव को विश्रान्ति की प्राप्ति आदि विषयों का विवेचन प्राप्त होता है। 

शुकदेवजी सम्पूर्ण शात्रों के ज्ञाता थे। वे एक दिन मन-ही-मन इस लोकयात्रा (जागतिक व्यवहार) पर विचार कर रहे थे। उस समय उनके हृदयमें  विवेक का उदय हुआ। उन महामना शुकदेवने अपने विवेक से स्वयं ही चिरकाल तक (नेति-नेति ) विचार करके जो परम मनोहर परमार्थ सत्य वस्तु ( या परमार्थ-साधनकी उच्च स्थिति ) है, उसे प्राप्त कर लिया।  उस परम् सत्य को प्राप्त करके भी उनके हृदयमें 'यही परमार्थ वस्तु ( सच्चिदानन्दघन परमात्मा या परम सत्य ) है। ऐसा पूर्ण विश्वास नहीं हुआ; इसलिये उस परम वस्तुके स्वतः  प्राप्त हो जानेपर भी उनके मन को शान्ति नहीं मिली। इतना अवश्य हुआ कि उनके चित्त की चञ्चलता दूर हो गयी और जैसे चातक वर्षा की जलधारा (स्वाति नक्षत्र की बून्द) के अतिरिक्त अन्य जलधाराओं से मुँह मोड़ लेता है, उमी प्रकार उनका मन अत्यन्त क्षणभंगुर भोगों से विरत हो गया । 

एक दिन निर्मल बुद्धि वाले शुकदेवजी ने मेरुगिरि पर एकान्त स्थान में बैठे हुए अपने पिता मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास से भक्तिभाव के साथ पूछा- मुने ! यह जगत-प्रपंच (संसाररूपी आडम्बर)  कैसे उत्पन्न  हुआ है ? सृष्टि का प्रकटीकरण कैसे हुआ , इसकी शान्ति या विनाश (प्रलय) में कैसे  होता है ? (इस जगत रचना का उद्देश्य क्या है ?) यह कितना बड़ा है ? किसका है ! और कब तक रहेगा ?   पुत्रके इस प्रकार प्रश्न करने-पर आत्मज्ञानी मुनिवर व्यासने उन्हें जो कुछ बताने योग्य बात थी, वह सब यथावत् एवं विशुद्ध रूपसे बता दी। उनका उपदेश सुनने के अनन्तर शुकदेवजीने सोचा, यह तो मैं पहले ही जान 'गया था । ऐसा विचारकर उन्होंने पिताजीके उस उपदेश-वाक्य का अपनी शुभ बुद्धिके द्वारा अधिक आदर नहीं किया ।

 भगवान् व्यास भी अपने पुत्रके इस अभिप्राय को समझकर उससे बोले- 'बेटा । भूतलपर जनक नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं, जो जानने योग्य तत्त्व( सचिदानन्दघन परमात्मा को) यथार्थरूप से जानते हैं। उनसे तुम्हें सम्पूर्ण तत्वज्ञान प्राप्त हो जायगा। पिता के ऐसा कहने पर शुकदेव जी सुमेरु पर्वत से उतरकर पृथ्वी पर आये और महाराज जनक के द्वारा पालित विदेहपुरी में जा पहुँचे । वहाँ छड़ीदार पहरेदारों या द्वारपालों ने महात्मा जनक को यह सूचनादी- 'राजन् । राजद्वार पर व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी खड़े हैं ।' उन्होंने शुकदेवजी की परीक्षा लेनेके लिये द्वारपालों से अवहेलना पूर्वक कहा- 'शुकदेवजी आये हैं तो वहीं ठहरें।'  

ऐसा कहकर राजा सात दिनों तक चुपचाप बैठे रहे-- उनकी कोई खोज खबर नहीं ली। तत्पश्चात् राजा जनकने शुकदेवजी को राजमहल के आँगन में बुलवाया । वहाँ आने पर भी शुकदेवजी पूरे सात दिनों तक उसी प्रकार उपरत होकर बैठे रहे। इसके बाद जनकने शुकदेवजी को अन्तःपुर में ले आने की आज्ञा दी, किंतु वहाँ भी राजा ने सात दिनों तक उन्हें दर्शन नहीं दिया । वे चन्द्रमा के समान मुख वाले शुकदेवजी का अन्तः पुर में यौवन के मद से उन्मत्त कमनीय कान्तिवाली सुन्दरियों द्वारा भाँति-भांति के भोजनों तथा भोग-सामग्रियों से लालन-पालन कराते रहे। परंतु जैसे मन्द गति से बहने वाली वायु दृढ़ मूल अविचल वृक्ष को नहीं उखाड़ सकती, उसी प्रकार वे भोग तथा अनादर एवं उपेक्षा जनित दुःख भी व्यास-पुत्र के मन को अपनी ओर खींच न सके, उसमें विकार पैदा न कर सके । शुकदेव वहीं पूर्ण चन्द्रमा के समान निर्विकार,भोग और अनादर में भी समान ( हर्ष विषाद से रहित), स्वस्थ, मौन तथा प्रसन्न-चित्त बने रहे। 

इस प्रकार परीक्षण द्वारा शुकदेव जी के स्वभाव को जानकर राजा जनकने उन्हें सादर अपने पास बुलवाया। और प्रसन्नचित्त देखकर प्रणाम किया । तत्पश्चात् शीघ्रतापूर्वक उनका स्वागत  करके राजा ने उनसे कहा- ब्रह्मन् ! जगत में परम पुरुषार्थ (मोक्ष) की सिद्धि के लिये जो जो आवश्यक कर्तव्य हैं, वे सब आपने पूर्ण कर लिये हैं। सारे मनोरथों को प्राप्त कर दिया है ( इस तरह आप कृतकृत्य तथा आप्तकाम हो चुके हैं)। अब आपको किस वस्तुकी इच्छा है  ?  

श्रीशुकदेवजी ने कहा - महाराज ! मैं जानना चाहता हूँ कि यह संसार रूपी  आडम्बर कैसे उत्पन्न हुआ है और इसकी शान्ति या विनाश (महाप्रलय ?) कैसे होता है। आप शीघ्र ही मुझ से इस विषय का यथावत् रूप से प्रतिपादन कीजिये । इस प्रकार पूछे जानेवर राजा जनक ने शुकदेवजी को उस समय वही बात बतायी, जो पहले उनके महात्मा पिता व्यासजी के द्वारा बतायी गयी थी । तब  शुकदेव जी ने कहा- वक्ताओं में श्रेष्ठ महाराज ! मैंने पहले विवेक से स्वयं ही यह बात जान ली थी। फिर जब पिताजी से इसके विषय में पूछा, तब उन्होंने भी मुझे यही बात बतायी और आज आपने भी यही बात कही है। शास्त्रों में महावाक्यों का जो   अर्थ दृष्टिगोचर होता है, वह इस प्रकार है-  'यह विनाशशील संसार अपने संकल्प (इच्छाओं) से उत्पन्न हुआ है और संकल्प का आत्यन्तिक विनाश होने से नष्ट हो जाता है। अतः सर्वथा निस्सार है। यही  शास्त्रों का निश्चय है। महाबाहो! क्या यही अविचल सत्य है ? यदि हाँ, तो इसका इस तरह उपदेश कीजिये, जिससे यह मेरे  हृदयमें अचल- असंदिग्ध रूप से बैठ जाय । संसार विषयों में भटकते हुए चित्त के द्वारा इधर-उधर भटकाया  जाता हुआ मैं आज आपसे शान्ति लाभ करना चाहता हूँ। 

राजा जनकने कहा-मुने ! इस ब्रह्माण्ड में एक अखण्ड  चिन्मय परम पुरुष परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आपने स्वयं  विवेक के द्वारा इस तत्व को जाना है और फिर गुरु स्वरुप पिता के मुख से इसको सुना  है। इससे बढ़कर दूसरा कोई निश्चय (जानने योग्य तत्व) नहीं है। मुनिकुमार ! आप बालक होते हुए भी विषय भोगों के त्याग में शूरवीर होने के कारण महान् वीर हैं। आपकी बुद्धि दीर्घकालतक बने रहनेवाले रोगरूपी भोगों  से पूर्णतः विरक्त हो गयी है। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ब्रह्मन्  ! जो प्राप्त करने योग्य वस्तु है, उसे पूर्णरूप से आपने पा लिया है। आपका चित्त पूर्णकाम हो गया है। आप दृश्य वस्तु (बाह्य विषय) की ओर दृष्टिपात नहीं करते हैं, अतः मुक्त है। अभी और कुछ पाना या जानना शेष रह गया है, इस भ्रम को त्याग दीजिये।  

      महात्मा जनक के द्वारा इस प्रकार उपदेश पाकर शुकदेव जी अत्यन्त शुद्ध परम वस्तु परमात्मा में चुपचाप स्थित हो गये। उनके शोक, भय  और भ्रम - सभी नष्ट हो गये।  वे सर्वथा निरीह एवं सशय-रहित हो गये। तदनन्तर वे मेरु गिरि के  प्रशस्त शिखर पर समाधि लगानेके लिये  चले गये। वहाँ दस हजार वर्षों तक निर्विकल्प समाधि में स्थित रहे और जैसे तेल समाप्त होने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार वे प्रारब्ध क्षीण हो जाने पर परमात्मा में लीन हो गये।  राजा जनक पहले शुकदेव जी को समस्त भोग-विलासों के मध्य रखकर उनकी परीक्षा लेते हैं। जब भोग-विलास शुकदेव जी को नहीं डिगा पाते, तो राजा जनक उनकी इच्छा पूछकर, उनकी शंका का समाधान करते हैं, परन्तु शुकदेव जी कहते हैं कि उनके पिता ने भी ऐसा ही कहा था कि 'मन के विकल्प से ही प्रपंच उत्पन्न होते हैं और उस विकल्प के नष्ट हो जाने पर प्रपंचों का विनाश हो जाता है।' यह जगत् निन्दनीय और सार-रहित है, यह निश्चित है। तब यह जीवन क्या है? इसे बताने की कृपा करें। 

   विदेहराज ने कहा-'हे वत्स! यह दृश्य जगत् है ही नहीं, ऐसा पूर्ण बोध जब हो जाता है, तब दृश्य विषय से मन की शुद्धि हो जाती है। ऐसा ज्ञान पूर्ण होने पर ही उसे निर्वाण प्राप्त होता है व शान्ति मिलती है। जो वासनाओं का त्याग कर देता है, समस्त पदार्थों की आकांक्षा से रहित हो जाता है, जो सदैव आत्मा में लीन रहता है, जिसका मन एकाग्र और पवित्र है, जो सर्वत्र मोह-रहित है, निष्कामी है, शोक और हर्षोल्लास में समान भाव रखता है, जिसके मन में अहंकार, ईर्ष्या व द्वेष के भाव नहीं हैं, जो त्यागी है, जो व्यक्ति धर्म-अधर्म, सुख-दु:ख, जन्म-मृत्यु आदि के भावों से परे है, वही पुरुष जीवन-मुक्त कहलाता है। ऐसी विदेह-मुक्ति गम्भीर और स्तब्ध होती है। ऐसी अवस्था में सर्वत्र प्रकाश और आनन्द ही अनुभव होता है। यही शिव-स्वरूप चैतन्य है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है।' विदेहराज राजा जनक के इस तत्त्व-दर्शन को सुनकर शुकदेवजी संशय-रहित होकर परमतत्त्व आत्मा में स्थित होकर शान्त हो गये।

यह कहानी हमें सिखाती है कि जिसे परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य)  का या भगवान का ज्ञान हो जाता है वह सुख और दुख में एक जैसा रहता है।  राजा जनक अपने सिंहासन पर बैठे थे और दरबार में नृत्य-संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। राजा जनक ने शुक को दूध से भरा एक प्याला दिया। उन्होंने शुक से दूध की एक भी बूँद गिराए बिना  दरबार के सात चक्कर लगाने को कहा। शुक को इसी शोरगुल के बीच यह मुश्किल काम पूरा करना था। उन्होंने अपना मन शांत रखा और पूरा ध्यान प्याले पर रखते हुए सफलता से यह काम पूरा किया। शुरू से अंत तक राजा जनक शुक की परीक्षा ही ले रहे थे और हर परीक्षा में शुक सफल रहे। राजा जनक शुक की एकाग्रता और अपने मन को काबू में रख पाने की उनकी शक्ति से बहुत खुश हुए। राजा जनक समझ गए कि उन्हें सत्य  और भगवान का (सच्चिदानन्द स्वरूप युगावतार का) पूरा ज्ञान है। जिसे परम् सत्य  या भगवान का ज्ञान (आत्मसाक्षात्कार) हो जाता है;  वह सुख और दुख में एक जैसा रहता है। बाहरी माहौल का उसके मन पर कोई असर नहीं पड़ता। 

महोपनिषद : अध्याय (2) जीवन-जगत क्या है? - 77 श्लोक। 

जैसे बरगद के छोटे से बीज में पूरा वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार जगत की सत्ता आत्मा (ब्रह्म) से पृथक नहीं है। मन वाणी से परे होने के कारण ,  या नाम  रहित तथा मन और नेत्र आदि छः ज्ञानेन्द्रियों से अगम्य होनेके कारण आकाश से भी सूक्ष्म चिन्मात्र परमात्मा ही 'अणु' शब्द से कहा गया हैअणुके भी अणु सच्चिदानन्दघन परमात्मा के अंदर अज्ञानियों की दृष्टि से सत्-सा और ज्ञानियों की दृष्टि से असत्-सा स्थित हुआ यह जगत्; बीज के भीतर वृक्ष की सत्ता के समान स्फुरित होता है  वही 'एक' परमात्मा है और सम्पूर्णजीवों के अन्तःकरण में आत्मारूप से अनुभूत होने के कारण अनेक भी है। वही अपने संकल्प से इस सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है। 

यह सचिदानन्दघन परब्रह्म नेत्रों से नहीं देखा जा सकता; क्योंकि वह अनुभवरूप, हृदय मन्दिर को प्रकाशित करने वाला, सब को सत्ता देने वाला, अनन्त और परम प्रकाश स्वरुप  बताया गया है। आकाश आदि देश, काल और क्रिया आदि की सत्ता एवं जगत् उसी ज्ञान स्वरूप परमात्मा में प्रतीत होते हैं। वही सबका स्वामी, कर्ता, पिता और भोक्ता है। 

चेतन 'परमात्मा' (माँ जगदम्बा) का संकल्प ही अन्यान्य वस्तुओं के रूप स्थित है,  इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। इस प्रकार जगत् के मिथ्यात्व का उपपादन करनेवाले न्यायों (युक्तियों) की बारंबार भावना-रूप अभ्यास के द्वारा निर्मल हुए मन से जिसने पारमार्थिक वस्तु 'ब्रह्म' (आत्मा)  का दर्शन कर लिया है, उस पुरुष की अविद्या का नाश हो जाने के कारण चिदाकाश में उसे फिर संसार की प्रतीति नहीं होती। 

जैसे बरगद के बीज के भीतर स्थित बट-वृक्ष की सत्ता अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आकाश के तुल्य है, उसी तरह परमात्मा (ईश्वर-माँ काली, श्रीरामकृष्ण) ब्रह्म के भीतर स्थित हुए जगत्‌ का साक्षी है; इसलिये जगत का साक्षी से पृथक् प्रतीति न होने के कारण सचिदानन्द रूप से ही उसकी स्थिति है। ज्ञान शब्द का पर्यायवाची जो चित्-शब्द है, वह स्त्रीलिंग है अर्थात् परमात्मा में चिद्रूपता उसके 'स्त्रीभाव' माँ काली -जगदम्बा रूप को सूचित करती है। ब्रह्म की शक्ति, ईश्वर-माँ काली, श्रीरामकृष्ण) शान्त, सर्वात्मक, जन्मरहित, अद्वितीय, आदि और मध्य से शून्य, निर्द्वन्द्व, माया के कार्य से रहित, जगत रूप में नाना-सा प्रतीत होता हुआ भी बास्तव में एक, विशुद्ध, ज्ञान स्वरुप, अजन्मा, सच्चिदानन्दधन ब्रह्म ही है। उसमें किसी प्रकार की कोई कल्पना किसी तरह भी सम्भव नहीं है।

जगत्‌ की प्रतीति का अभाव ही जिस (परमात्मा-आत्मा ) के स्वरुप का परम अनुभव है, सम्पूर्ण संकल्पों (इच्छाओं)  का त्याग ही चित्त के द्वारा जिसका संग्रह (चिन्तन) है, जिसके संकोच से संसार का प्रलय और विकास से उसकी सृष्टि होती है, जो वेदान्त वाक्यों - महावाक्यों का परम तात्पर्य एवं वाणी का अविषय है,  यह चराचर जगत् जिनकी चिन्मयी लीला है तथा विश्वरूप होने पर भी जिसकी अखण्डता कभी  खण्डित नहीं होती, वही सन्मात्र शाश्वत ब्रह्म कहा गया है।

वह अणुसे भी अणु परमात्मा अपने संकल्प से 'वायु' होता है। किंतु उसकी वह भ्रमरूपता है, भ्रांतिमूलक सृष्टि है;  अतः वास्तव में वह वायु आदि ( पंचभौतिक  भौतिक देह ) कुछ भी नहीं है, केवल शुद्ध चेतन (pure consciousness)ही है। वही परमात्मा शब्द के संकल्प द्वारा शब्द बनता है; किंतु उसकी शब्दरूपता का दर्शन भ्रममूलक है। वास्तव मे तो वह शब्द और शब्दार्थ की दष्टि से बहुत दूर है। उस परमात्मा की प्राप्ति के सैकड़ों साधन हैं। उसके प्राप्त होनेपर कुछ भी पाना शेष नहीं रहता । वही परम प्राप्तव्य है। उसके सिवा कुछ भी नहीं है। 

महा उपनिषद - द्वितीयोऽध्यायः

शुको नाम महातेजाः स्वरूपानन्दतत्परः । 

जातमात्रेण मुनिराड् यत्सत्यं तदवाप्तवान् ॥ ||१||

तेनासौ स्वविवेकेन स्वयमेव महामनाः । 

प्रविचार्य चिरं साधु स्वात्मनिश्चयमाप्तवान्॥ ||२||

 शुक नामक महातेजस् सम्पन्न एक मुनीश्वर सतत आत्मा के आस्वादन में संलग्न रहते थे। जन्म के तुरन्त बाद ही उन्हें सत्य एवं तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो गई थी। इस कारण से उन्होंने अपने विवेक से स्वयं ही चिरकाल तक चिन्तन-मनन करने के पशात् आत्मा के स्वरूप को जानने की निश्चित धारणा बनाई ॥॥१-२॥

अनाख्यत्वादगम्यत्वान्मनः षष्ठेन्द्रियस्थितेः । 

चिन्मात्रमेवमात्माणुराकाशादपि सूक्ष्मकः ।। ||३||

चिदणोः परमस्यान्तःकोटिब्रह्माण्डरेणवः । 

उत्पत्तिस्थितिमभ्येत्य लीयन्ते शक्तिपर्ययात्॥ ||४||

आकाशं बाह्यशून्यत्वादनाकाशं तु चित्त्वतः ।

 न किंचिदयदनिर्देश्यं वस्तु सत्तेति किंचन ॥ ||५||

चेतनोऽसौ प्रकाशत्वाद्वैद्याभावाच्छिलोपमः ।

 स्वात्मनि व्योमनि स्वस्थे जगन्मेषचित्रकृत् ॥ ||६||

वचनों से परे होने के कारण, अगम्य होने के कारण तथा मन रूपी छठी इन्द्रिय में प्रतिष्ठित होने के कारण यह आत्मा अणु के आकार वाला, चिन्मात्र एवं आकाश से भी अतिसूक्ष्म है। इस परम् चिदरूप अणु के अन्दर कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड रूपी रेणुकाएँ शक्ति क्रमानुसार प्रकट एवं प्रतिष्ठित होकर विलीन होती रहती हैं। आत्मा बाह्य शून्यता के कारण आकाशरूप है और चिद्रूपता के कारण अनाकाशरूप है। [ ज्ञान शब्द का पर्यायवाची जो चित्-शब्द है, वह स्त्रीलिंग है अर्थात् परमात्मा में चिद्रूपता उसके स्त्रीभाव(-माँ काली ???) को सूचित करती है।] इसके रूप का वर्णन न हो सकने के कारण यह वस्तुरूप नहीं है, किन्तु सत्ता होने से वस्तुरूप है। प्रकाशरूप होने के कारण वह चेतन है तथा वेदना का विषय न होने से वह शिला के सदृश (जड़) है। अपने अन्त में स्थित आत्माकाश में वह चित्र-विचित्र विभिन्न प्रकार के जगत् का उन्मेष (सृजन) करता/करती है॥

तद्भामात्रमिदं विश्वमिति न स्यात्ततः पृथक् ।

 जगद्भेदोऽपि तद्भानमिति भेदोऽपि तन्मयः ।। ||७||

सर्वगः सर्वसंबन्धो गत्यभावान्न गच्छति। 

 नास्त्यसावाश्रयाभावात्सद्रूपत्वादथास्ति च ॥ ||८||

विज्ञानमानन्दं ब्रह्म रातेर्दतुः परायणम् ।

 सर्वसंकल्पसंन्यासचेतसा यत्परिग्रहः ॥ ||९||

जाग्रतः प्रत्ययाभावं यस्याहुः प्रत्ययं बुधाः ।

 यत्संकोचविकासाभ्यां जगत्प्रलयसृष्टयः ॥ ||१०||

निष्ठा वेदान्तवाक्यानामथ वाचामगोचरः ।

अहं सच्चित्परानन्दब्रह्मैवास्मि न चेतरः ॥ ||११||

यह जगत (विश्व-ब्रह्माण्ड) उसी आत्मा का प्रकाशमात्र होने के कारण उस आत्मतत्त्व से पृथक् नहीं है। जो विश्वभेद आत्मा में दृष्टिगोचर होता है, वह भी उस आत्मा से अलग नहीं है । सभी से सम्बद्ध होने से उस आत्मा की गति यत्र-तत्र सर्वत्र है; किन्तु उसमें गति न होने के कारण वह चलायमान नहीं है। वह आत्मा आश्रयरहित होने से नास्ति रूप है; किन्तु सत्स्वरूप होने के कारण वह अस्तिरूप है। वही धन-प्रदाता (दानी ) की परमगति है। जो ब्रह्म आनन्दमय और विज्ञानमय है तथा चित्त द्वारा सारे संकल्पों का परित्याग ही जिसका ग्रहण है। जाग्रत् अवस्था की प्रतीति के अभाव को ही ज्ञानीजन जिसकी प्रतीति बताते हैं, जिसके संकोच एवं विकास से जगत् का विनाश एवं सृजन होता है। जो वेदान्त-वाक्यों की निष्ठास्वरूप तथा वाणी के लिए अकथनीय है, मैं वही सत्चित्-आनन्द स्वरूप परमात्मा ब्रह्म हूँ और अन्य दूसरा कुछ भी नहीं हूँ॥॥७-११

स्वयैव सूक्ष्मया बुद्ध्या सर्वं विज्ञातवाञ्छुकः । 

स्वयं प्राप्ते परे वस्तुन्यविश्रान्तमनाः स्थितः ॥ ||१२||

इदं वस्त्विति विश्वास नासावात्मन्युपाययौ ।

 केवलं विररामास्य चेतो विषयचापलम्। 

भोगेभ्यो भूरिभङ्गेभ्यो धाराभ्य इव चातकः ॥ ||१३||

 इस प्रकार अपनी सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा श्री शुकदेव मुनि ने सभी कुछ जान लिया तथा स्वयं प्राप्त हुए परमात्मतत्व में वे अविश्रान्त सतत लगे रहने वाले मन से प्रतिष्ठित हुए। इस प्रकार का विश्वास उनकी आत्मा में प्राप्त हो गया कि ‘यही वस्तु है', इससे भिन्न और कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार जलद (बादल या मेघ) के धारा प्रपात से सन्तुष्ट हुए चातक की चंचलता दूर हो जाती है, उसी प्रकार शुकदेव जी का चित्त विभिन्न तरह के भोगों से प्रादुर्भूत विषय-चापल्य से विरत होकर कैवल्यावस्था को प्राप्त हो गया ॥ [कहावत भी है कि जब स्वाति नक्षत्र में बादल या मेघ का जल की बूँद सीप पर गिरती है तो मोती बनता है। दरअसल मोती नहीं बनता बल्कि ऐसा जातक मोती के समान चमकता है।] ॥१२-१३॥

एकदा सोऽमलप्रज्ञो मेरावेकान्तसंस्थितः। 

पप्रच्छ पितरं भक्त्या कृष्णद्वैपायनं मुनिम्॥ ||१४||

संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं मुने।

 कथं च प्रशमं याति किं यत्कस्य कदा वद ॥ ||१५||

एक बार उन प्रज्ञावान् मनीषी श्री शुकदेव जी ने मेरु-पर्वत पर एकान्त में प्रतिष्ठित अपने पिता श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनि के आश्रम में जाकर भक्तिपूर्वक अर्चना करके पूछा-हे श्रेष्ठ मुने! इस जगत् रूप प्रपञ्च का प्राकट्य किस प्रकार हुआ और इसका विनाश कैसे होता है? यह क्या है? किसका है और इसकी उत्पत्ति कब हुई ? यह सभी कुछ कृपापूर्वक हमें बताने का अनुग्रह करें ॥॥१४-१५

एवं पृष्टेन मुनिना व्यासेनाखिलमात्मजे।

 यथावदखिलं प्रोक्तं वक्तव्यं विदितात्मना।। ||१६|| 

अज्ञासिषं पूर्वमेवमहमित्यथ तत्पितुः । 

स शुकः स्वकया बुद्धया न वाक्यं बहु मन्यते ॥ ||१७|| 

व्यासोऽपि भगवान्बुद्ध्वा पुत्राभिप्रायमीदृशम् । 

प्रत्युवाच पुनः पुत्रं नाहं जानामि तत्त्वतः ॥ ||१८||

 जनको नाम भूपालो विद्यते मिथिलापुरे। 

यथावद्वेत्त्यसौ वेद्यं तस्मात्सर्वमवाप्स्यसि ॥ ||१९|| 

पित्रेत्युक्तः शुकः प्रायात्सुमेरोर्वसुधातलम् । 

विदेहनगरी प्राप जनकेनाभिपालिताम्॥ ||२०|

शुकदेव जी के इस प्रकार पूछे जाने पर आत्मज्ञानी व्यासजी ने उन्हें सभी बातें यथावत् बतला दीं, लेकिन ये सभी बातें तो दीर्घकाल से ही मालूम हैं, ऐसा जानकर शुकदेव जी ने अपने पिता श्रीव्यास जी की बातों को अपनी बुद्धि से वैसा विशेष सम्मान नहीं दिया। शुकदेव जी के इस भाव को व्यास जी समझकर बोले-हे पुत्र । मैं तुम्हारी इन सभी बातों को तत्वत: नहीं जानता हूँ। अत: यदि इस विषय की विशेष जानकारी चाहते हो, तो मिथिलापुरी में ‘जनक' नाम के एक राजा राज्य करते हैं, वे तुम्हारी इन सभी बातों को अच्छी तरह से जानते हैं। ‘हे पुत्र! तुम उनसे सभी कुछ प्राप्त कर सकते हो। ‘पिता के द्वारा ऐसा कहे जाने पर शुकदेव जी सुमेरु-पर्वत से उतर कर समतल भूखण्ड पर आये और महाराज जनक के द्वारा संरक्षित मिथिलापुरी में प्रविष्ट हुए ॥॥१६-२०॥

आवेदितोऽसौ याष्टीकैर्जनकाय महात्मने । 

द्वारि व्याससुतो राजञ्छुकोऽत्र स्थितवानिति ॥ ||२१||

 जिज्ञासार्थं शुकस्यासावास्तामेवेत्यवज्ञया। 

उक्त्वा बभूव जनकस्तूष्णीं सप्त दिनान्यथ ॥ ||२२|| 

ततः प्रवेशयामास जनकः शुकमङ्गणे।

 तात्राहानि स सप्तैव तथैवावसदुन्मनाः ॥ ||२३||

 ततः प्रवेशयामास जनकोऽन्तःपुराजिरे।

 राजा न दृश्यते तावदिति सप्त दिनानि तम्॥ ||२४||

तत्रोन्मदाभिः कान्ताभिर्भोजनैर्भोगसंचयैः । 

जनको लालयामास शुकं शशिनिभाननम् ॥ ||२५||

ते भोगास्तानि भोज्यानि व्यासपुत्रस्य तन्मनः । 

नाजह्रुर्मन्दपवनो वद्धपीठमिवाचलम् ॥ ||२६|| 

केवलं सुसमः स्वच्छो मौनी मुदितमानसः। 

संपूर्ण इव शीतांशुरतिष्ठदमलः शुकः ॥ ||२७||

तदनन्तर शुकदेव मुनि को आया हुआ देखकर द्वारपालों ने राजा जनक को यह संदेश दिया कि हे राजन् ! राजद्वार पर व्यास जी के पुत्र श्रीशुकदेव जी आपसे मिलने के लिए आये हैं, उन (शुकदेव) मुनि की परीक्षा के लिए महाराज जनक ने अवज्ञापूर्वक मात्र इतना ही कहा कि उनसे कहो कि ‘वे वहीं पर रुकें', इतना कहने के उपरान्त राजा सात दिनों तक पूरी तरह से शान्त रहे इसके पश्चात् उन्होंने शुकदेव मुनि को अपने राज-प्राङ्गण में आमन्त्रित किया और वहाँ भी वे सात दिनों तक उसी तरह शान्त रहे। इसके अनन्तर राजा ने उन्हें अपने अन्तःपुर के आँगन में ससम्मान बुलवाया तथा वहाँ पर भी सात दिनों तक वे उनके समक्ष नहीं आये । विदेहरा जनक ने अन्त:पुर में युवती स्त्रियों, विभिन्न तरह के सुस्वादु पकवान एवं भोज्य पक्वा, सहित उन श्रेष्ठ मुनि शुकदेव जी का स्वागत-सत्कार किया। वे समस्त भोग एवं भोज्य सामग्री उन व्यास पुत्र शुकदेव जी के मन को ठीक वैसे ही नहीं डिगा सके, जैसे कि मन्द-मन्द प्रवाहित पवन दृढ़तापूर्वक प्रतिष्ठित हुए पर्वत को गतिशील नहीं कर सकता। वहाँ उस अन्त:पुर में ज्ञानी शुकदेव जी असङ्ग, समभाव वाले, निर्मल एवं पूर्णचन्द्र के सदृश प्रतिष्ठित बने रहे ॥

परिज्ञातस्वभावं तं शुकं स जनको नृपः।

आनीय मुदितात्मानमवलोक्य ननाम ह॥ ||२८||

निःशेषितजगत्कार्यः प्राप्ताखिलमनोरथः । 

किमीप्सितं तवेत्याह कृतस्वागतमाह तम्॥ ||२९||

संसाराडम्बरमिदं कथमभ्युत्थितं गुरो।

कथं प्रशममायाति यथावत्कथयाशु मे ॥ ||३०||

यथावदखिलं प्रोक्तं जनकेन महात्मना।

तदेव यत्पुरा प्रोक्तं तस्य पित्रा महाधिया ॥ ||३१||

स्वयमेव मया पूर्वमभिज्ञातं विशेषतः ।

एतदेव हि पृष्टेन पित्रा में समुदाहृतम् ॥ ||३२||

भवताप्येष एवार्थः कथितो वाग्विद वर ।

एष एव हि वाक्यार्थः शास्त्रेषु परिदृश्यते ॥ ||३३||

मनोविकल्पसंजातं तद्विकल्पपरिक्षयात् ।

 क्षीयते दग्धसंसारो निःसार इति निश्चितः ॥ ||३४||

तत्किमेतन्महाभाग सत्यं ब्रूहि ममाचलम्। 

त्वत्तो विश्रममाप्नोति चेतसा भ्रमता जगत् ॥ ||३५||

इस प्रकार जब राजा जनक ने श्रीशुकदेवजी के चरित्र की भली-भाँति परीक्षा ले ली, तब उन्हें अपने समीप बुलाया। उन्हें प्रसन्नचित्त देखकर राजा ने प्रणाम किया और उनका सत्कार करते हुए बोले- हे शुकदेव जी! आपने अपने सांसारिक कृत्यों को समाप्त कर दिया है तथा आपको सभी मनोरथ प्राप्त हैं, कृपया बताने का अनुग्रह करें कि अब आपकी क्या अभिलाषा है? श्रीशुकदेव जी ने जिज्ञासा भाव से कहा-हे गुरुवर! कृपया मुझे यह बताने की कृपा करें कि यह सांसारिक प्रपञ्च कैसे प्रादुर्भूत हुआ है तथा किस तरह से विलय को प्राप्त होता है? तब महान् ज्ञानी राजा जनक ने श्रीशुकदेव जी को सभी बातें तत्त्वत: बतला दी, इन्हीं बातों को उनके परम ज्ञानवान् पिता श्रीव्यास जी पहले ही बता चुके थे। इस पर श्रीशुकदेव जी ने कहा-हे गुरुश्रेष्ठ! हमने स्वयं ही इसकी विशेष रूप से जानकारी प्राप्त की थी, पूछने पर हमारे पिता श्रीव्यास जी ने भी यही बातें बतलायी थी। आपने भी यही बातें हमें बतायी हैं तथा ठीक ऐसा ही शास्त्रों का भी मत है। मन के विकल्प से ही प्रपञ्च की उत्पत्ति होती है और उस विकल्प के विनष्ट हो जाने पर इस (प्रपञ्च) का भी विनाश हो जाता है। यह जगत् निन्दनीय एवं सार-रहित है, ऐसा निश्चित है, तब हे महान् ज्ञानी राजन् । यह सब (जीवन आदि) क्या है? कृपा करके मुझे यथार्थ रूप से समझाने की कृपा करें। मेरा यह चित्त जगत् के विषय में दिग्भ्रान्त हो रहा है, अत: आपके सदुपदेश से ही शान्ति मिल सकती है।।॥२८-३५॥

शृणु तावदिदानीं त्वं कथ्यमानमिदं मया। 

श्रीशुक ज्ञानविस्तारं बुद्धिसारान्तरान्तरम्॥ ||३६|| 

यद्विज्ञानात्पुमान्सद्यो जीवन्मुक्तत्वमाप्नुयात् ॥ ||३७|| 

दृश्यं नास्तीति बोधेन मनसो दृश्यमार्जनम्।

 संपन्नं चेत्तदुत्पन्ना परा निर्वाणनिर्वृतिः ॥ ||३८||

 अशेषेण परित्यागो वासनाया य उत्तमः ।

 मोक्ष इत्युच्यते सद्भिः ¬स एव विमलक्रमः ॥ ||३९||

ये शुद्धवासना भूयो न जन्मानर्थभागिनः। 

ज्ञातज्ञेयास्त उच्यन्ते जीवन्मुक्ता महाधियः ॥ ||४०|| 

पदार्यभावनादाढर्यं बन्ध इत्यभिधीयते । 

वासनातनवं ब्रह्मन्मोक्ष इत्यभिधीयते ॥ ||४१||

इसके पश्चात् राजा जनक ने कहा-हे शुकदेव जी! अब मैं आपके प्रति सम्पूर्ण ज्ञान को विस्तारपूर्वक कहता हूँ- सुनो, यह ज्ञान समस्त ज्ञानों का सार एवं सभी रहस्यों का रहस्य है, अत: इसके जान लेने से वह पुरुष अतिशीघ्र जीवन -मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। विदेहराज राजर्षि जनक ने कहा कि यह दृश्य जगत् है ही नहीं, ऐसा पूर्ण बोध जब हो जाता है, तब दृश्य विषय से मन की शुद्धि हो जाती है। तब यह ज्ञान पूर्ण हो जाता है और तभी उसे निर्वाण रूपी परम शान्ति मिल जाती है। जो वासनाओं का (इच्छाओं, ऐषणाओं का) नि:शेष परित्याग कर देता है, वही वास्तविक श्रेष्ठ त्याग है, उसी विशुद्धावस्था को ज्ञानीजनों ने मोक्ष कहा है।श्रीराम ! विदेहमुक्ति ही मुक्ति कहलाती है। इसी को ब्रह्म कहा गया है और इसी को निर्वाण कहते हैं। इसकी प्राप्ति कैसे होती है, यह बता रहा हूँ; सुनो  । 'मैं' , 'तुम', 'यह', 'वह'  इत्यादि रूपसे जो यह दृश्य-प्रपञ्च दिखायी देता है, यह यद्यपि सत्-रूपसे प्रतीत होता है, तथापि वन्ध्यापुत्र के समान इसकी कभी उत्पत्ति हुई ही नहीं - ऐसा निश्चय हो जाने पर यह मुक्ति प्राप्त होती है।] पुनः जो शुद्ध वासनाओं से युक्त (परमसत्य को जानने की इच्छा आत्मावलोकन की इच्छा से युक्त) हैं, जो अनर्थ शून्य जीवन वाले हैं और जो ज्ञेय तत्त्व के ज्ञाता हैं, हे महान् ज्ञानी शुकदेव जी ! वे ही मनुष्य पूर्ण जीवन्मुक्त कहे जाते हैं। पदार्थों की भावनात्मक दृढ़ता को ही बंधन [कामिनी -कांचन और नाम-यश में घोर आसक्ति 100 % को ही बन्धन]  और वासनाओं की क्षीणता [स्वार्थपरता 0 %] को ही मोक्ष कहा गया है ।। 

जीवनमुक्ति का लक्षण

[ योग वाशिष्ठ (मुमुक्षुब्यवहार-प्रकरण) - जो अविद्यारूपी आवरण से रहित है, जिसका अन्तःकरण एकाग्र (समाधिलाभ) हो चुका है, जिसके सभी संकल्पविकल्प शान्त हो चुके हैं तथा जो स्वरुप भूत सारतत्त्व (सच्चिदा-नन्दधन)- मय हो गया है, वह विद्वान पुरुष परम शान्तिरूपी (supreme peace) अमृत से तृप्त रहता है। 

 समुद्र की जलराशि शान्त हो या उत्ताल तरङ्गों से युक्त, दोनों दशाओं में उसकी जलरूपता समान ही है- उसमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। उसी तरह देह के रहते हुए और उसके न रहने पर भी मुक्त महात्मा मुनि की स्थिति एक-सी ही होती है, उसमें कोई भेद नहीं होता है। 

 सदेह मुक्ति हो या विदेह-मुक्ति, उसका विषयों से कोई सम्बन्ध नहीं है। जिसने सत्य मानकर भोगों का आस्वादन ही नहीं किया, उस पुरुषमें भोगों की अनुभूति कहाँ से होगी? जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त दोनों ही प्रकार के महात्मा बोध-स्वरूप हैं। उनमें क्या भेद है ? (इन दोनोंमें भेद कराने वाला है अज्ञान । उसके नष्ट हो जानेपर जब केवल ज्ञान ही अवशिष्ट रह जाता है, तब उन दोनोंमें भेद कौन हो सकता है !) जैसे समुद्र की तरङ्गावस्था में जो जल है, वही उसकी प्रशान्ता-वस्थामें भी है-- उसमें कोई अन्तर नहीं है। सदेह और विदेहमुक्त में थोड़ा-सा भी भेद नहीं हैपवन सस्पन्द ( वेगवान्) हो या निष्पन्द (शान्त अथवा वेगहीन ),दोनों ही दशाओं में वह है वायु ही। (यो०वा० -पेज ६९-७०/ म०उप० -३८-४०)   

 महाप्रलय होनेपर सम्पूर्ण कारणों का भी कारण परब्रह्म परमात्मा ही शेष रहता है। उसका वर्णन किया जाता, है, सुनो । समाधि में निरोध के द्वारा जब मन की वृत्तियों का क्षय हो जाता है, तब मन के अपने स्वरूप का नाश करके जो अनिर्वचनीय स्व-प्रकाश सदरूप अवशिष्ट रहता है, वही उस अनन्त चिन्मय परमार्थ-वस्तु का रूप है। जब दृश्य जगत् नहीं रहता और दृश्य के अभाव से द्रष्टा भी विलीन हुआ-सा प्रतीत होता है, उस समय जो द्रष्टा,दृश्य और दर्शन इस त्रिपुटी के लय का प्रकाशक 'साक्षी' रूप से अवशिष्ट रहता है, वह चिन्मय ब्रह्म ही उस परमार्थ-वस्तुका खरूप है। जीव स्वरूपा  चित्-सत्ता का जो अचिन्तनीय चिन्मय निर्मल एव शान्त स्वरूप है, वही उस परमार्थ बस्तु या परमात्मा का  रूप है। पेज १०८

(भगवान) श्रीराम जी ने  पूछा- ब्रह्मन् । जो 'इदम्' रूपसे प्रत्यक्ष दिखायी दे रहा है और जिसका आप ब्रह्म में अभाव कहते हैं हैं, वह यह दृश्य जगत् महाप्रलय होने पर कहाँ स्थित होता है ?

श्रीवसिष्ठजी ने कहा-रघुनन्दन । जैसे बन्ध्या के पुत्र और आकाश में वन कभी नहीं होते, उसी प्रकार यह सम्पूर्ण दृश्य जगत् तीनों काल में कभी अस्तित्व में नहीं आता । जगत् न कमी उत्पन्न हुआ है और न उसका कभी नाश ही होता है। जिसकी पहले सत्ता ही नहीं है, उसकी उत्पत्ति कैसी, और उसके विनाश की चर्चा कैसी  ? 

श्रीराम जी ने पूछा- बन्ध्यापुत्र और आकाश वृक्ष की कल्पना तो की ही जाती है। यह कल्पना जैसे उत्पत्ति और विनाश से युक्त है, उसी प्रकार यह जगत भी जन्म और नाश से युक्त क्यों  नहीं होगा? 

श्रीवसिष्ठजीने कहा-जैसे सोने के कँगन में सुस्पष्ट दिखायी देनेवाला यह  कंगनत्व  वास्तव मे है नहीं, सुवर्ण ही उसके रूप मे मासित होता है ; उसी प्रकार परब्रह्म परमात्मा में जगत् नाम की कोई वस्तु नहीं है  (जिसे हम जगत् कहते हैं, वह ब्रह्म ही है)।

जिनके चित्त परमात्म-चिन्तन में लगे हुए हैं, जिनके प्राण उन्हीं में रम रहे हैं, जो परस्पर परमात्म-तत्त्व का बोध कराते हुए सदा परमात्मा की ही चर्चा करते हैं।  उसीसे ही संतुष्ट होते हैं और उसी में निरन्तर रत रहते हैं, एकमात्र ज्ञान में ही जिनकी निष्ठा है तथा जो सदा परमात्म-ज्ञान का ही विचार करते हैं।  उन पुरुषों (श्री राम और श्री वशिष्ठ जी की तरह के)  को  ही वह जीन्मुक्ति प्राप्त होती है  जो देहत्यागके अनन्तर त्रिशुद्ध मुक्ति ही है।

    जिसमें अहंकार का भाव नहीं है , जिसकी  बुद्धि कर्म करते समय कर्तृत्व के और न करते समय अकर्तृत्व के अभिमान से लिप्त नहीं होती वह जीवन्मुक्त कहलाता है ।(अर्थात जिसकी बुद्धि में श्रीहनुमान जी के जैसा "देहबुद्ध्या दासोऽहं " का भाव सदा बना रहता है; का चुप साध रहे हनुमाना? सुनकर ?  समुद्र लाँघते समय भी बना रहता हो, वह जीवन्मुक्त कहलाता है । कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥2॥ ऋक्षराज जाम्बवान ने श्री हनुमान जी से कहा- हे हनुमान्‌! हे बलवान्‌! सुनो, तुमने यह क्या चुप साध रखी है? तुम पवन के पुत्र हो और बल में पवन के समान हो। तुम बुद्धि-विवेक और विज्ञान की खान हो॥2॥

 जिससे लोगोंको (श्रीहनुमान जी/या विवेकानन्द की तरह- समुद्र लाँघने में) उद्वेग नहीं होता और जिसको लोगों से उद्वेग नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष और भयसे रहित है, वह पुरुष जीवन्मुक्त कहा जाता है। जिसकी संसारके प्रति सत्यता-बुद्धि नष्ट हो गयी है, जो दूसरोंकी दृष्टि में अवयवसे युक्त होने पर भी वास्तव में अवयवरहित है तथा जो चित्तयुक्त होकर भी वस्तुतः चित्तसे शून्य है, यह जीवन्मुक्त कहलाता है।]

(योगवासिष्ठ ५/उपशम प्रकरण : पेज- २६६) 

वासना का त्याग (इच्छाओं या ऐषणाओं में आसक्ति का त्याग) ज्ञेय और ध्येय के भेद से दो प्रकार का बताया जाता है। सबको ब्रह्म रूप से समान समझ कर मनुष्य ममता से रहित हो जिस वासनाक्षय का सम्पादन करके शरीर का त्याग करता है, वह ज्ञेय नामक वासनाक्षय कहा गया है। जो अहंकारमयी वासना का त्याग करके, लोकसंग्रहोचित व्यवहार Be and Make में संलग्न रहता है, वह ध्येय नामक वासनाक्षय से युक्त हुआ पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। मूल अज्ञान के सहित संकल्प रूप वासना का त्याग करके जो शान्ति को प्राप्त हुआ है, उस जीवन्मुक्त पुरुष को ज्ञेय नामक वासना त्याग से सम्पन्न समझ ।

 जनक आदि महात्मा पुरुष ध्येय नामक वासना- त्याग का सम्पादन करके जीवन्मुक्त हो लोकसंग्रह के लिये व्यवहार में  स्थित हुए हैं। ज्ञेय नामक वासना-त्यागको सम्पन्न करके शान्ति को प्राप्त हुए विदेहमुक्त पुरुष परावरखरूप परब्रह्म परमात्मा में ही स्थित होते हैं।  पूर्वोक्त दोनों का ही त्याग समान हैं। दोनों ही सामान प्रकार के त्यागवाले पुरुष  मुक्त- पद पर प्रतिष्ठितहैं। ये दोनों ही ब्रह्म-भाव  को प्राप्त हैं और दोनों ही चिन्ता एवं ताप से छुटकारा पा चुके हैं। एक (राजर्षि जनक जैसा 'Be and Make' "ध्येय नामक वासना" क्षय से युक्त) पुरुष इस देह के रहते हुए ही जीवन्मुक्त होकर शोक और चिन्ता से रहित हो जाता है। 

और (दूसरा ज्ञेय नामक वासना-क्षय से युक्त) पुरुष देहत्याग के अनन्तर मुक्त (ब्रह्म के स्वरूप  में स्थित होता है ( उसे विदेहमुक्त कहते हैं) । जो समयानुसार निरन्तर प्राप्त होनेवाले सुखों और दुःखों में हर्ष और शोक के वशीभूत नहीं होता, वही इस लोक में मुक्त कहा जाता है। जिस पुरुष का दृष्ट वस्तुओं में राग और अनिष्ट वस्तुओं में द्वेष  नहीं होता, वह मुक्त कहलाता है। जिस पुरुष का अहंता -ममता को लेकर ग्रहण और त्याग रूप संकल्प क्षीण हो गया है, वह जीवन मुक्त कहलाता है। हर्ष, अमर्ष, भय, क्रोध, काम और कायरता की दृष्टियों से जो रहित है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है। वासना (इच्छा या ऐषणा)  ही मनुष्य के बन्धन में कारण है। यह वासना द्विविधा कही गयी है। शुद्धा व मलिना। मलिना वासना जन्म का कारण और शुद्धावासना जन्म का विनाश करने वाली है और सम्पूर्ण रूप से वासना का त्याग ही मोक्ष का कारण होता है।

   श्री शुकदेवजी ने जनक से कहा- हे ऋषिवर ! इस संसार मे जो मन भ्रमित हो रहा है उसका विश्राम किस उपाय से हो सकता है ? जनक जी बोले, हे प्राज्ञ ! सनातन चित्त स्वरूप 'आत्मा' ही एक ज्ञातव्य है, जो अपने ही संकल्प से बद्ध और संकल्पहीनता से मुक्त होता है। जब मन में विषयों को भोगने की इच्छा होती है तो व्यक्ति भोग के वशीभूत होकर लक्ष्य से विचलित हो जाता है। जीवन्मुक्त होने के लिए भोगों को पूर्णत: छोड़ना होगा।

भुवि भोगा न रोचन्ते, स जीवन्मुक्त उच्यते ।। (मुमुक्षु ३-८)

हमेशा मनुष्य को 'ज्ञेय' को जानने का प्रयास करना चाहिए 'ज्ञेय' केवल आत्मा है। विषयों से मुक्त होने का यही सर्वोत्तम उपाय है।

जो व्यक्ति इस संसार में आत्मतत्त्व को दृष्टि में रखकर विचरण करता है वह कभी भी किसी कर्म के फलाफल से बाधित नहीं होता। उसे किसी तरह के पक्षपात से कुछ लेना-देना नहीं रहता। वह सर्वदा सर्वत्र सुख का ही अनुभव करता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष को चाहिए कि हमेशा आत्मोपासना में लीन रहे।

योगवासिष्ठ के अनुसार जिस ब्रह्मा, विष्णु आदि को हम सब परमेश्वर कहते हैं वे भी आत्म-तत्वज्ञान से ही परमेश्वर बने हैं। आत्मस्वरूप का चिन्तन-मनन सत्शास्त्र के सेवन से  संभव है। यह आत्मब्रह्म महाप्रलय में भी विनष्ट नहीं होता। यह अजर, अनन्त विज्ञानमात्र है। न इनकी कोई वासना या उपाधि है, इसलिए इसे निरुपाधि कहा जाता है। यही अनादि ब्रह्म सबका कारण है। परन्तु इनका कोई कारण नहीं है।" उस आत्मा का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है। जो मुक्तों का विषय है जिसे 'आत्मा' कहा जाता है। जिसे सांख्यवादी पुरुष के नाम से वेदान्ती- ब्रह्म नाम से बौद्ध शून्य नाम से क्षणिक विज्ञानवादी जैन-विज्ञान के नाम से जानते है।" उस आत्मब्रह्म के अन्वेषण में हमें दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, वह सर्वदेहस्थ है। देहस्थ का अर्थ यही नहीं कि वह देहपरिमाण वाला है। वह सबका अधिष्ठान विश्वरूप है। वह केवल कार्यात्मक विश्वरूप नहीं अपितु, कारणरूप विश्व है। वह चिन्मात्र है, उसे ही योगवासिष्ठ की भाषा में "जीव" कहा गया है।"

छान्दोग्योपनिषद् (8.12.1) में जो इन्द्र-विरोचन के प्रकरण से "आत्मज्ञान की महिमा" का प्रतिपादन करते हुए भगवती श्रुति कहती है--

"अशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः।"

एक सौ एक वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके सेवा द्वारा शुद्ध अन्तःकरण वाले इन्द्र से ब्रह्मा जी बोले- "इन्द्र !  यह मरण-धर्मा शरीर मृत्यु द्वारा ग्रसित है तथा मृत्यु से रहित  'शरीरी' या आत्मा अशरीर , देह का अधिष्ठान है। देहाध्यास  से ग्रसित होने के कारण शरीर के अनुकूल तथा प्रतिकूल, प्रिय-अप्रिय वस्तुएं शरीर को स्पर्श करती हैं  तथा जब तक देहाध्यास बना रहेगा, तब तक शरीर को प्रिय-अप्रिय से छुटकारा नहीं मिल सकता।"

यह आत्मा स्थूल, सूक्ष्म कारणाख्य देहरहित है। उसे प्रिय व अप्रिय संसर्ग नहीं होता। उस आत्मतत्त्व को समझने से (आत्मसाक्षात्कार करने से ) मूल अज्ञान का नाश होता है। उसके नाश होने से अज्ञान का जो कार्य है (अहं) उसका अन्त हो जाता है अर्थात् हृदय की ग्रन्थी खुल जाती है और सब संशय का अभाव हो जाता है। 

शरीर से मुक्त होने के बाद, यानि मोक्ष की अवस्था में, आत्मा पर न तो सुख और न ही दुःख का कोई प्रभाव पड़ता है।

"इस कथा से यह सिद्ध होता है कि देवताओं के स्वामी इन्द्र को भी इन्द्रपद का अभिमान त्याग कर गुरु-सेवा से आत्मज्ञान प्राप्त हुआ, तो सर्वसाधारण की तो बात ही क्या ! इससे आत्मज्ञान की महिमा प्रकट होती है।" [https://www.facebook.com/dineshchandrashuklaviveknagarsultanpur/posts/-परमात्म-चिंतन's post] 

परमात्मा सद्रूप है (यत् खलु प्रमाणैर्यथा- वगम्यते तत्तथैव सत् न रूपान्तरेण) यह आकाश के समान सर्वव्यापी है। यह योगवासिष्ठ आत्मज्ञान का ही शास्त्र है। 'तुरीय आत्मा' हो जाता है। तुरीय एक (चतुर्थ अवस्था) दार्शनिक शब्द है। जाग्रत स्वप्न, सुषुप्ति के अतिरिक्त यह सबसे उत्तमावस्था है। 'तुरीयमेव केवलम्' इसको जीवन्मुक्त कहा गया है। वह शोक, मोह, मरणादि से पृथक् हो जाता है। जैसे घट के टूटने पर घटाकाश की क्षति नहीं होती वैसे ही शरीर छूटने पर आत्मा पर प्रभाव नहीं पड़ता।

उपशम प्रकरण में ३५, ३६वें अध्याय में आत्मतत्त्व का विस्तार से वर्णन आता है। प्रह्लाद कहते हैं ॐकार को चित्त में अवस्थित करके विकारों से रहित होकर जगत् की प्रत्येक वस्तु को आत्मभाव से देखना चाहिए। मोहभाव का त्याग होना आत्म लाभ है। आत्मा को प्राप्त किया जाता है.और यह नियम, साधन से सम्भव है। जब तक वह प्राप्त नहीं है, तब तक अभक्त जन्म-मरण से दुःखित होता है। जो आत्मप्राप्त भक्त है,उनकी रक्षा होती है।"

 निर्वाण प्रकरण के उत्तरार्द्ध में वशिष्ठ जी राम को कहते हैं कि व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा का जगत्'के साथ सम्बन्ध होता है। मृत पुरुष का प्राण निकल जाता है, यह लोक वेद प्रसिद्ध है। प्राण और चित्त के अन्दर जगत होता है। मनुष्य के मरने के बाद शरीर से निःसृत प्राणवायु बाह्य आकाश में पूर्णवायु के साथ मिलता है। आकाशवायु से आकृष्ट होकर वह जगत भी प्राणों के साथ इतस्ततः भ्रमण करने लगता है। जगत की गुरुता भी आकाशवायु के समान लघुरूप होकर वहने में समर्थ हो जाता है।"

समष्टिजीव मोक्षपद को प्राप्त है, जो अनन्त चेतनाकाश है जो प्राणों को धारण करता है जो चतु आदि इन्द्रियों के द्वारा चेतनायुक्त है, उसी का अपर नाम जीव है। समष्टि व व्यष्टि जीव का व्यावहारिक भेद है। समष्टि जीव सत्यसंकल्प होने के कारण जब जहाँ जैसे चाहता है, वैसे ही होताहै परन्तु व्यष्टिजीव जहाँ रहता है,तदनुसार कार्य करता है।"

वह जीव अपनी अनन्तता को भूल जाता है और अपने आपको जड़ सत्तावाला ही समझने लगता है। शीघ्र ही वही जड़ता जीव को वरण कर लेती है। उस जड़ शरीर में भोग करने के लिए मन सहित इन्द्रियपञ्चक होते हैं। इनके पांच विषय होते हैं।इसमें मन को अनन्ताकार कहा गया है। मन रूप वह आत्मा है जो किसी भी प्रकार से दोषावह नहीं है। यह वेदान्त के पञ्चीकरण के सिद्धान्त पर आधारित है। समष्टिरूप में तो वह सदाशिव शान्त है। यह आत्मतत्त्व गतिमान् व स्थिर स्वयं होता है। विकसित एवं संकुचित भी स्वयं होता है। सब प्रकार से यह स्वतन्त्र है। यह व्यष्टिगत जीव हाथी व चींटी के शरीर में तद्रूप होता है। व्यवहारतः ये प्रक्रियाएं सत्य हैं। पारमार्थिक दृष्टि से कुछ भी नहीं है। इनके आठ अंग कहे गए है- पांच ज्ञानेन्द्रिय, प्राण, मन व अहंकार । व्यष्टिरूप जीव की उत्पत्ति में चन्द्रमा को कारण माना गया है। चन्द्रमा के अमृतत्त्व से अन्नादि और अन्नादि से शुक्र शोणितरूप जीव की उत्पत्ति है। उस चन्द्रमण्डल को सम्राट् जीव कहा गया है।

इच्छाओं को नियन्त्रित करना चाहिए। जैसे-जैसे इच्छाओं का शमन होता है। वैसे-वैसे वह जीव कल्याण की ओर अग्रसर होता है। यदि निर्विवेकी आत्मा की इच्छाएँ पूर्ण की जाती हैं तो संसाररूपी विषवृक्ष का सेचन के समान सर्वनाश की ओर अग्रसर होना है। 

अपनी आत्मा (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव) ही परमेश्वर हैं। उस आत्मदेव से प्रेरित होकर विवेक रूपी दूत अधिकारी के हृदयकन्दरा में आकर वास करता है, जब तक ज्ञान स्थिर होता है। वही जगत्- प्रसिद्ध बोधात्मा ही आन्तरात्मा है। वह वासनात्मा कदापि नहीं है, वही परमेश्वर है। प्रणव (ॐकार) इसी का वाचक है। संसार सागर से पार होने के लिए विवेक को एक पोत कहा गया है। विवेकी पुरुष बहुत कम होते हैं। वृक्ष तो बहुत है, परन्तु कल्पद्रुम विरला होने से कही-कही मिलता है। योगवासिष्ठ का सन्देश है कि आत्मा ही सर्वाधार है। वेदादिशास्त्रों का प्रतिपाद्य है। गुरुपदेश से वही ज्ञातव्य है, वह द्वन्द्वमुक्त परम शिव है- 

ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,

द्वंद्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिल्क्ष्यम्

एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षीभूतं,

भवतीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि

(भावातीतं त्रिगुणरहितं श्री वासिष्ठं नताः स्मः ।।) 

मैं सद्गुरु को नमन करता हूँ, जो ब्रह्म के आनन्द स्वरूप हैं और सर्वोच्च आनन्द के दाता हैं। वे निरपेक्ष हैं। वे साक्षात् ज्ञान हैं। वे द्वैत से परे हैं, आकाश की तरह सर्वव्यापी हैं, और महान उपनिषदिक कथन- महावाक्य 'तत्त्वमसि, श्वेतकेतु' >"तू ही वह है" का उद्देश्य हैं। वे एक हैं। वे शाश्वत हैं। वे शुद्ध हैं। वे स्थिर हैं। वे सभी विचारों के साक्षी हैं। वे मन और शरीर की सभी वृत्तियों से परे हैं और तीनों गुणों से मुक्त हैं । (साभार - डॉ. शम्भु कुमार झा- प्रवक्ता, दर्शन एवं वैदिक अध्ययन विभाग,वनस्थली विद्यापीठ, टोंक,राजस्थान।)  

तपः प्रभृतिना यस्मै हेतुनैव विना पुनः । 

भोगा इह न रोचन्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४२॥

आपतत्सु यथाकालं सुखदुःखेष्वनारतः । 

न हृष्यति ग्लायति यः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४३॥

 हर्षामर्षभयक्रोधकामकार्पण्यदृष्टिभिः ।

 न परामृश्यते योऽन्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४४॥ 

अहंकारमयीं त्यक्त्वा वासनां लीलयैव यः ।

 तिष्ठति ध्येयसंत्यागी जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४५॥

तप आदि साधनों के अभाव में, जिसे स्वभाववश ही सांसारिक भोग अच्छे नहीं लगते,वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो प्रतिपल प्राप्त  होने वाले सुखों या दुःखों में आसक्त नहीं होता जो न हर्षित होता है और न ही दुःखी होता है,वही जीवन्मुक्त कहलाता है । जो हर्ष, अमर्ष, भय,काम, क्रोध एवं शोक आदि विकारों से मुक्त रहता है,वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जो अहंकार युक्त वासना को अति सहजता से त्याग देता है तथा चित्त के अवलम्बन में जो शम्यक् रूप से त्याग भाव रखता है, वही वास्तव में जीवन्मुक्त कहलाता है ।।४२-४५

[https://www.thearyasamaj.org/uploads/magazine/2021/02/LH74HG_vishv_jyoti_Feb_2021.pdf] 

ईप्सितानीप्सिते न स्तो यस्यान्तर्वर्तिदृष्टिषु । 

सुषुप्तिवद्यश्चरति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४६॥

अध्यात्मरतिरासीनः पूर्णः पावनमानसः ।

 प्राप्तानुत्तमविश्रान्तिर्न किंचिदिह वाञ्छति ।

यो जीवति गतस्नेहः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४७॥

संवेद्येन हृदाकाशे मनागपि न लिप्यते ।

 यस्यासावजडा संवित्स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४८॥

रागद्वेषौ सुखं दुःखं धर्माधर्मौ फलाफले ।

 यः करोत्यनपेक्ष्यैव स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ४९॥

मौनवान्निरहंभावो निर्मानो मुक्तमत्सरः ।

 यः करोति गतोद्वेगः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५०॥

जो सदैव अन्तर्मुखी दृष्टिवाला, पदार्थ की आकांक्षा से रहित और किसी भी वस्तु की अपेक्षा अथवा कामना से रहित सुषुप्ति के समान अवस्था में विचरण करता रहता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त कहलाता है। जो सदैव आत्मा में लीन रहता है, जिसका मन पूर्ण एवं पवित्र है, अत्यन्त श्रेष्ठ एवं शान्त स्वभाव को प्राप्त कर जो इस नश्वर संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखता, जो किसी के प्रति आसक्ति न रखता हुआ उदासीन भाव से भ्रमण करता रहता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जिसका हृदय किसी भी पदार्थ में लिप्त नहीं होता तथा जो चेतन संवित् ( सद्ज्ञानमुक्त)स्वरूप वाला है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो पुरुष राग-द्वेष, सुख-दु:ख, मान-अपमान, धर्म-अधर्म एवं फलाफल की इच्छा-आकांक्षा न रखता हुआ सदैव अपने कार्यों में व्यस्त रहता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त कहलाता है। जो अहंभाव को त्याग करके, मान एवं मत्सर से रहित, उद्वेगरहित तथा संकल्पविहीन रहकर कर्म करता रहता है,उसी पुरुष को ज्ञानीजन जीवन्मुक्त कहते हैं।। ॥४६-५०॥

सर्वत्र विगतस्नेहो यः साक्षिवदवस्थितः ।

निरिच्छो वर्तते कार्ये स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५१॥

येन धर्ममधर्मं च मनोमननमीहितम् ।

सर्वमन्तः परित्यक्तं स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५२॥

यावती दृश्यकलना सकलेयं विलोक्यते ।

सा येन सुष्ठु संत्यक्ता स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५३॥

कट्वम्ललवणं तिक्तममृष्टं मृष्टमेव च ।

सममेव च यो भुङ्क्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५४॥

जरामरणमापच्च राज्यं दारिद्र्यमेव च ।

रम्यमित्येव यो भुङ्क्ते स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५५॥

धर्माधर्मौ सुखं दुःखं तथा मरणजन्मनी ।

धिया येन सुसंत्यक्तं स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५६॥

 जो सर्वत्र मोहरहित होकर साक्षी भाव से जीवनयापन करता है तथा बिना किसी फल की कामना किये ही अपने कर्तव्य कर्म में रत रहता है, वही जीवन्मुक्त है।जिसने धर्म-अधर्म का, सांसारिक विषय के चिन्तन का तथा सभी तरह की कामनाओं का परित्याग कर दिया है, उसे ही जीवन्मुक्त कहा गया है। यह समस्त दृश्य प्रपञ्च जो दृष्टिगोचर हो रहा है, उसका जिसने पूरी तरह से परित्याग कर दिया है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है।जो ज्ञानी पुरुष खट्टे, चरपरे, कड़वे, नमकीन, स्वादयुक्त एवं अस्वाद को एक जैसा मानकर भोजन ग्रहण करता है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जरा, मृत्यु, विपत्ति, राज्य एवं दारिद्रय आदि में से जो समान भाव रखते हुए हर स्थिति में सन्तुष्ट रहता है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जिसने धर्म-अधर्म, सुख-दुःख एवं जन्म-मृत्यु आदि का अपने हृदय से पूर्णरूपेण परित्याग कर दिया है, वही वास्तव में जीवन-मुक्त कहलाता है ॥५१-५६

उद्वेगानन्दरहितः समया स्वच्छया धिया ।

न शोचते न चोदेति स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५७॥ 

सर्वेच्छाः सकलाः शङ्काः सर्वेहाः सर्वनिश्चयाः । 

धिया येन परित्यक्ताः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५८॥

जन्मस्थितिविनाशेषु सोदयास्तमयेषु च ।

सममेव मनो यस्य स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ५९॥

 न किंचन द्वेष्टि तथा न किंचिदपि काङ्क्षति । 

भुङ्क्ते यः प्रकृतान्भोगान्स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६०॥ 

शान्तसंसारकलनः कलावानपि निष्कलः ।

 यः सचित्तोऽपि निश्चित्तः स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६१॥

 यः समस्तार्थजालेषु व्यवहार्यपि निःस्पृहः ।

 परार्थेष्विव पूर्णात्मा स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ६२॥

 जो मनुष्य उद्वेग एवं आनन्द से रहित है तथा शोक और हर्षोल्लास में समान भाव एवं परिष्कृत बुद्धि से सम्पन्न है। सभी तरह की इच्छाओं एवं आकांक्षाओं, कामनाओं तथा सारे निश्चयों को जिसने मन से पूर्णत: त्याग दिया है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। उत्पत्ति, पालन एवं प्रलय की अवस्था में तथा प्रगति और अवनति में जिस पुरुष का मन समान रहता है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है। जो किसी के प्रति ईर्ष्या-द्वेष आदि के भाव नहीं रखता है, जो न किसी की इच्छा-आकांक्षा करता है। जो केवल प्रारब्धवश प्राप्त भोगों का उपभोग करने वाला है, वही जीवन्मुक्त कहलाता है।जिसने सांसारिक विषयों की प्राप्ति की कामना को त्याग दिया है, जो चित्त में रहते हुए भी चित्तरहित हो गया है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है। जो पुरुष जगत् के सम्पूर्ण अर्थ जाल के बीच में प्रतिष्ठित होकर भी उससे पराये धन से अलग रहने वाले धर्मात्मा के सदृश अनासक्त रहता है, निश्चय ही वह आत्मा में ही परमात्मतत्त्व की अनुभूति करने वाला महान् पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है ॥॥५७-६२॥

जीवन्मुक्तपदं त्यक्त्वा स्वदेहे कालसात्कृते ।

विशत्यदेहमुक्तत्वं पवनोऽस्पन्दतामिव ॥ ६३॥

विदेहमुक्तो नोदेति नास्तमेति न शाम्यति ।

 न सन्नासन्न दूरस्थो न चाहं न च नेतरः ॥ ६४॥

वह पुरुष अपने शरीर के काल-कवलित हो जाने के पश्चात् जीवन्मुक्त स्थिति का परित्याग करके गतिहीन पवन के सदृश विदेहमुक्त स्थिति को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में जीव की न तो उन्नति होती है। और न ही अवनति तथा उसका विनाश भी नहीं होता। उसकी वह अवस्था सत्-असत् से परे होती है और वह किसी के दूरस्थ-समीपस्थ भी नहीं होता ।।॥६३-६४॥

ततः स्तिमितगम्भीरं न तेजो न तमस्ततम्।

 अनाख्यमनभिव्यक्तं सत्किचिदवशिष्यते ॥ ||६५||

न शुन्यं नापि चाकारि न दृश्यं नापि दर्शनम्।

न च भूतपदार्थोघसदनन्ततया स्थितम् ॥ ||६६||

किमप्यव्यपदेशात्मा पूर्णात्पूर्णतराकृतिः।

न सन्नासन्न सदसन्न भावो भावनं न च ॥ ||६७||

चिन्मात्रं चैत्यरहितमनन्तमजरं शिवम् । 

अनादिमध्यपर्यन्तं यदनादि निरामयम् ॥ ||६८||

 विदेहमुक्ति गम्भीर एवं स्तब्ध अवस्था को कहते हैं। इस अवस्था में न सर्वत्र प्रकाश व्याप्त होता है और न ही अन्धकार । उसमें नामविहीन एवं अभिव्यक्त न होने वाला एक तरह का सत् तत्त्व अवशिष्ट रहता है।वह शून्य एवं साकार भी नहीं होता है। दृश्य एवं दर्शन रूप भी नहीं होता है। उसमें ये भूत एवं पदार्थ- समूह भी नहीं होते हैं। केवल वह सत् अन्तरहित स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है। वह ऐसा आश्चर्ययुक्त तत्त्व होता है कि जिसके रूप का निर्देशन नहीं किया जा सकता है। उसकी आकृति एवं प्रकृति पूर्ण से भी पूर्णतर होती है। वह न सत् होता है और न असत् तथा सत्-असत् दोनों भी नहीं होता। वह भाव एवं भावना से परे होता है। वह मात्र चैतन्य ही होता है; किन्तु चित्तविहीन एवं अनन्त भी होता है। वह जरारहित, शिवस्वरूप एवं आत्मकल्याण - प्रद होता है। उसका आदि, मध्य एवं अन्त भी नहीं होता। वह अनादि एवं दोषरहित होता है ॥॥६५-६८॥

द्रष्ट्रदर्शनदृश्यानां मध्ये यद्दर्शनं स्मृतम्।

नातः परतरं किंचिन्निश्चयोऽस्त्यपरो मुने ॥ ||६९||

स्वयमेव त्वया ज्ञातं गुरुतश्च पुनः श्रुतम् । 

स्वसंकल्पवशाद्बद्धो निःसंकल्पाद्विमुच्यते ॥ ||७०||

तेन स्वयं त्वया ज्ञातं ज्ञेयं यस्य महात्मनः। 

भोगेभ्यो ह्यरतिर्जाता दृश्याद्वा सकलादिह ।। ||७१||

प्राप्तं प्राप्तव्यमखिलं भवता पूर्णचेतसा। 

स्वरूपे तपसि ब्रह्मन्मुक्तस्त्वं भ्रान्तिमुत्सृज।। ||७२||

अतिबाह्य तथा बाह्यमन्तराभ्यन्तरं धियः । 

शुक पश्यन्न पश्येस्त्वं साक्षी संपूर्णकेवलः ।। ||७३||

द्रष्टा, दृश्य एवं दर्शन की त्रिपुटी के मध्य में मात्र वह दर्शन स्वरूप ही कहा गया है । हे श्रीशुकदेव जी । इस सन्दर्भ में इसके अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा निश्चय नहीं किया जा सकता। आपने इस तत्त्वज्ञान को स्वयमेव समझ लिया है और अपने पिता श्रीव्यास जी से भी श्रवण कर लिया है कि जीव अपनी संकल्प [इच्छा]  से ही बन्धन में पड़ता है और संकल्प से ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतः आपने स्वयं ही उस तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लिया है, जिसे जानने के पश्चात् इस नश्वर जगत् में साधुजनों को सभी दृश्यों से अथवा भोगों से विरक्ति पैदा हो जाती है। अपने पूर्ण चैतन्यावस्था में पहुँच कर सभी प्राप्त होने वाले पदार्थों को भी प्राप्त कर लिया है।  आप तप:श्वरूप में स्थित हैं। हे ब्रह्मन्! आप मुक्तावस्था को प्राप्त हो चुके हैं, अतः भ्रान्ति का परित्याग कर दें। हे शुकदेव जी ! बाय एवं अति बाह्य, अन्त: में एवं उसके भी अन्तरंग को देखते हुए भी आप नहीं देखते हैं। आप सर्वदा पूर्ण कैवल्यावस्था में साक्षी भाव से विद्यमान हैं॥॥६९-७३॥

विशश्राम शुकस्तूष्णीं स्वस्थे परमवस्तुनि ।

 वीतशोकभयायासो निरीहश्छिन्नसंशयः ॥ ||७४||

जगाम शिखरं मेरोः समाध्यर्थमखण्डितम् ॥

तत्र वर्षसहस्त्राणि निर्विकल्पसमाधिना। ||७५||

देशे स्थित्वा शशामासावात्मन्यस्त्रेहदीपवत्॥ ||७६||

व्यपगतकलनाकलङ्कशुद्धः स्वयममलात्मनि पावने पदेऽसौ ।

सलिलकण इवाम्बुधौ महात्मा विगलितवासनमेकतां जगाम ॥ ||७७||

विदेहराज जनक के इस तत्त्वदर्शन को सुनने के पश्चात् त्रीशुकदेव शोक, भय एवं श्रमविहीन होकर, संशयरहित और कामनारहित होकर परमतत्त्वरूप आत्मा में स्थित होकर शान्त भाव से विश्राम को प्राप्त हुए। अखण्ड समाधि हेतु वे सुमेरु पर्वत की चोटी की ओर वापस चले गये। वहाँ सहस्रो वर्षों तक स्न्नेहरहित दीपक के सदृश उन शुकदेव मुनि ने अन्तर्मुखी होकर निर्विकल्प समाधि द्वारा परमशान्ति लाभ प्राप्त किया। इस प्रकार संकल्प रूपी दोषों से मुक्त, शुद्ध स्वरूप, पवित्र,निर्मल एवं वासना रहित होकर, या सांसारिक ऐषणाओं (इच्छाओं) से विरत होकर, जन्म-जन्मान्तर के कलंक से शुद्ध होकर, वे महान् ज्ञानी- महाप्राण शुकदेव जी शुकदेव जी अपने आत्मपद में वैसे ही एकाकार हुए (आत्मा ही परमात्मा है की पवित्र अवस्था में वैसे ही डूब गये),जैसे कि जलकण या नमक का पुतला महासागर में विलीन होकर समुद्र रूप हो जाते हैं ।।॥७४-७७॥

इति महोपनिषत् । इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ 

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योग वासिष्ठ -वैराग्य प्रकरण : सर्ग -१२, पेज -३५

तीर्थयात्रा करने के अनन्तर मेरा मन विवेक से पूर्ण हो गया, जिससे मेरी बुद्धि भोगों की ओरसे नीरस (विरक्त ) हो गयी और उसके द्वारा मैंने इस प्रकार विचारना आरम्भ किया-.... 

   यह जो संसार का विस्तार है, इसमें क्या सुख है ? (कुछ भी तो नहीं है।) चर और अचर प्राणियों की चेष्ठाओं के विषय तथा केवल वैभवकाल में ही रहनेवाले ये जितने भोग के साधनभूत पदार्थ है, सब-के-मब अस्थिर (क्षणभंगुर), आपत्तियों के खामी (अर्थात् केवल विपत्तिमें ही डालनेवाले) तथा पाप स्वरुप हैं। जैसे मरीचिका में जल न होने पर भी भ्रम से उसे जल समझकर उसके द्वारा मोहित हुए मृग वनमें बहुत दूर तक खिचे चले जाते है, उसी प्रकार मूढबुद्धि हुए लोग संसार के पदार्थों में सुख न होने पर भी उनमें सुख मानते हैं और उसी के लोभ से आकृष्ट होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं।  

यद्यपि यहाँ लोग किसी के द्वारा बेचे नहीं गये हैं तथापि बिके हुएके समान परवश हो रहे हैं। इस बातको जानते हुए भी कि यह सब कुछ मायाका खेल है, हम सब लोग मूढ बने बैठे हैं ( इस माया से मुक्त होनेका प्रयत्न नहीं करते ), यह कितने खेदकी बात है !

संसारके इस प्रपञ्चमें जो अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण भोग दिखायी देते हैं, ये क्या है इसपर विचार करना चाहिये। सब लोग व्यर्थ ही उनके मोह में पड़कर भ्रान्तिवश अपने को बद्ध (भेंड़) मानकर बैठे हुए हैं। जैसे बन में किसी गड्ढे के  भीतर गिरे हुए, मूढ़ मृग/ भेंड़  दीर्घकाल के पश्चात् यह जान पाते हैं कि हम गड्ढे में पड़े हैं, उसी प्रकार लोगों ने बहुत समय के बाद यह जाना है कि हम मूढ जीव व्यर्थ ही मोह में पड़े हुए हैं। 

     मुझे राज्य से क्या लेना है, और भोगों से  मेरा क्या प्रयोजन है ? मैं कौन हूँ ?  यह दृश्य-प्रपञ्च क्या है ? और किस लिये सामने आया है ? जो मिथ्या है, वह मिथ्या ही रहे। उसके मिथ्या होने से किसकी क्या हानि होनेवाली है?  ब्रह्मन् । जैसें यत्र तत्र भ्रमण करनेवाले पथिक को मरुभूमि से विरक्ति हो जाती है, वैसे ही इस प्रकार विचार करते-करते सभी भोग्य पदार्थों से मेरी अरुचि हो गयी है।

 सब लोग अचेतन से होकर प्राण नामधारी पवन से प्रेरित हो व्यर्थ ही शब्दोच्चारण कर रहे हैं, जैसे कीचक नामक बाँस अपने छेदों में हवा भर जाने से बाँसुरी की सी ध्वनि करने लगते हैं। संसार की सम्पदाएँ सदा सबकी वंचना करती रहती हैं। 

अज्ञानरूपी रात्रि में तीव्र मोहरूपी कुहरे से लोगों की ज्ञानरूपी ज्योति के नष्ट हो जाने पर दूसरों को दुःख देने में परम चतुर विषय रूपी सैकड़ों चोर हर समय और प्रत्येक दिशामें विवेक रूपी श्रेष्ठ रत्न का अपहरण करनेके लिये जी जानसे लगे हुए हैं। युद्ध में उन्हें मार भगाने के लिये तत्त्वज्ञानी पुरुष को छोडकर दूसरे कौन-से सुभट  समर्थ हो सकते हैं ( तत्त्वज्ञानी गुरु ही उनको नष्ट करने में समर्थ हैं, दूसरे नहीं)। 

महोपनिषद् -तृतीयोऽध्यायः

महोपनिषद : अध्याय (3) 

[संसार नश्वर है - 57 श्लोक।] 

निदाघो नाम मुनिराट् प्राप्तविद्यश्च बालकः।

 विहृतस्तीर्थयात्रार्थं पित्रानुज्ञातवान्स्वयम्॥ ||१||

सार्धत्रिकोटितीर्थेषु स्न्नात्वा गृहमुपागतः । 

स्वोदन्तं कथयामास ऋभु नत्वा महायशाः ॥ ||२||

साधंत्रिकोटितीर्थेषु स्नानपुण्यप्रभावतः ।

 प्रादुर्भूतो मनसि मे विचारः सोऽयमीदृशः ॥ ||३||

अपने पिता (ऋभु) से अनुमति लेकर निदाघ नामक श्रेष्ठ मुनिपुत्र एकाकी ही तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े। साढ़े तीन करोड़ तीर्थ-स्थलों में स्नान आदि सम्पन्न कर लेने के पश्चात् वे श्रेष्ठ मुनि अपने घर वापस लौट आए। उन महान् यशस्वी मुनि ने घर आकर अपने पिता ऋभुमुनि से अपनी समस्त यात्रा का वृत्तान्त कह सुनाया। उन्होंने कहा- हे पिताजी ! साढ़े तीन करोड़ तीर्थस्थलों में स्नान करने के पश्चात् जो पुण्य-फल प्राप्त हुआ है, उसके प्रतिफल स्वरूप हमारे अन्त:करण में इस तरह के श्रेष्ठ विचार प्रादुर्भूत हो रहे हैं॥॥१-३॥

जायते मृतये लोको म्रियते जननाय च। 

अस्थिराः सर्व एवेमे सचराचरचेष्टिताः ॥ ||४||

सर्वापदां पदं पापा भावा विभवभूमयः। 

अयःशलाकासदृशाः परस्परमसङ्गिनः । 

श्लिष्यन्ते केवला भावा मन:कल्पनयानया॥ ||५|| 

भावेष्वरतिरायाता पथिकस्य मरुष्विव। 

शाम्यतीदं कथं दुःख-मिति तप्तोऽस्मि चेतसा ॥ ||६|| 

चिन्तानिचयचक्राणि नानन्दाय धनानि मे। 

संप्रसूतकलत्राणि गृहाण्युग्रापदामिव॥ ||७||

इयमस्मिन् स्थितोदारा संसारे परिपेलवा।

 श्रीर्मुने परिमोहाय सापि नूनं न शर्मदा ॥ ||८||

आयुःपल्लवकोणाग्रलम्बाम्बुकणभङ्गुरम्। 

उन्मत्त इव संत्यज्य याम्यकाण्डे शरीरकम् ॥ ||९||

विषयाशीविषासङ्गपरिजर्जरचेतसाम्।  

अप्रौढात्मविवेकानामायुरायास-कारणम्॥ ||१०||

 यह जगत् उत्पन्न होता है मरने (विनष्ट होने) के लिए, पुनः मरता है जन्मने के लिए। समस्त चराचर प्राणियों की चेष्टा के साथ यह सारा प्रपञ्च (जगत्) अस्थिर एवं क्षणिक है । ऐश्वर्य की भूमि में प्रकट होने वाले ये समस्त पदार्थ आपत्तियों के मूलभूत कारण हैं। ये सभी पदार्थ लौह शलाका के सदृश परस्पर पृथक् रहते हुए मानसिक कल्पना रूपी चुम्बक द्वारा एकत्रित होते रहते हैं। जिस तरह मार्ग में गमन करने वाला व्यक्ति मरुस्थल में चलते-चलते (कष्ट के कारण) विरक्त हो जाता है, उसी तरह मैं भी इन सांसारिक पदार्थों से विरक्त हो रहा हूँ: क्योंकि ये सांसारिक भोग-पदार्थ मुझे दुःखदायी प्रतीत होने लगे हैं। अब इन समस्त दु:खों का शमन किस प्रकार होगा, ऐसा सोचकर मेरा हृदय अत्यधिक संतप्त हो रहा है।ये ऐश्वर्य रूपी धन-जिनके पीछे चिन्ताओं के समूह चक्र की भाँति घूमते रहते हैं, मुझे आनन्दप्रद नहीं लग रहे हैं। स्त्री-पुत्रादि समस्त स्वजन सम्बन्धी मानो उग्र आपदाओं के घर हैं। हे मुनीश्वर ! इस जगत् में उदारता को प्रतिमूर्ति, अत्यन्त कोमलांगी ये श्रीलक्ष्मी जी भी परम मोह को उत्पन्न करने वाली हैं। निश्चय ही इनके द्वारा जीव को आनन्द नहीं मिल सकता। जिस प्रकार पल्लव के अग्रभाग में जल कनिका बुँदरूप में लटकती हैं. वह क्षणिक है। उसी प्रकार मनुष्य की आयु भी जल की बूंद के सदृश क्षणभंगुर है। इस नाशवान् शरीर को असमय ही छोड़कर उन्मत्त की भाँति मुझे प्रस्थान करना ही पड़ेगा। जिनका चित्त विषय-वासना रूपी सर्प के सङ्ग से जर्जर हो गया है तथा जिन्हें प्रौढ़ आत्मिक ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ है, उनका जीवन कष्ट का ही हेतु बना है॥ ॥४-१०॥

युज्यते वेष्टनं वायोराकाशस्य च खण्डनम् ।

 ग्रन्थनं च तरङ्गाणामास्था नायुषियुज्यते ॥ ||११|| 

प्राप्यं संप्राप्यते येन भूयो येन न शोच्यते। 

पराया निर्वृतेः स्थानं यत्तज्जीवितमुच्यते ॥ ||१२||

तरवोऽपि हि जीवन्ति जीवन्ति मृगपक्षिणः

 स जीवति मनो यस्य मननेनोपजीवति ॥ ||१३||

जातास्त एवं जगति जन्तवः साधुजीविताः । 

ये पुनर्नेह जायन्ते शेषा जरठगर्दभाः ।। ||१४||

 भारो विवेकिनः शास्त्रं भारो ज्ञानं च रागिणः । 

अशान्तस्य मनो भारो भारोऽनात्मविदो वपुः ॥ १५॥

 'वायु को बांधा जा सकता है, आकाश के टुकड़े किए जा सकते हैं, तरंगों को धागे में पिरोया जा सकते हैं लेकिन आयुष्य का विश्वास किया जाए ऐसा नहीं है।' अर्थात - वायु का लपेटना, आकाश को खण्ड-खण्ड करना एवं जल की लहरों का गुन्धन भले ही सम्भव हो जाए, किन्तु जीवन में आस्था एवं विश्वास रखना सम्भव नहीं हो पाता। जिसके द्वारा प्राप्त करने योग्य वस्तु को (सम्यक् रूप से) प्राप्त कर लिया जाता है, जिसके कारण शोक न करना पड़े और जिसमें परम शान्ति की उपलब्धि हो जाए, वही तो वास्तविक जीवन कहलाता है।यों तो वृक्ष, मृग एवं पक्षी भी जीवन धारण किये रहते हैं; किन्तु यथार्थ में वही जीवित है, जिसका मन निरन्तर आत्मचिन्तन में लीन रहता है।  इस नश्वर जगत् में उत्पन्न हुए उन्हीं प्राणियों का जीवन उत्कृष्ट है, जिन्हें पुनः आवागमन के चक्र में नहीं पड़ना पड़ता है। इससे भिन्न तो जरावस्था को प्राप्त गधे के सदृश हैं, जो कि अशक्त होते हुए भी भार ढोने के लिए विवश हैं । ज्ञानवान् मनुष्य के लिए शास्त्र, भार होने के सदृश है। राग-द्वेष में लिप्त मनुष्य के लिए ज्ञान भारस्वरूप है, अशान्त मनुष्य का मन तो स्वयं में ही भारस्वरूप होता है तथा जो आत्मज्ञानी नहीं हैं, उनके लिए यह शरीर भी बोझा ढोने के सदृश ही है ॥११-१५॥  

 अहंकार तथा चित्त (mind stuff-मन वस्तु) के दोष 

[वैराग्य प्रकरण :  

     जैसे चन्द्रमा को राहु निगल जाता है, जैसे आम के मंजर को और कमल के फूलों  को ओलो की वर्षा नष्ट कर देती है, और जैसे शरद ऋतु मेघों का विध्वंस कर डालती है, उसी प्रकार मनुष्य के 'चित्त' या मनवस्तु (mind stuff) से बनी और भ्रमित हुई बुद्धि से उपजा मिथ्या अहंकार उसकी शान्ति, क्षमा, दया तथा प्राणिमात्र के प्रति समभाव को -(जगत को ब्रह्ममय देखने वाली ज्ञानमयी दृष्टि को) नष्ट कर देता है। अतएव यह M/F वाला मिथ्या अहंकार ही मनुष्य की शान्तिरूपी चन्द्रमा को निगलने के लिये राहु का मुख है, पुण्य रूपी कमलों का विनाश करनेके लिये हिमरूप वज्र है, और सब भूतों में समदर्शिता रूपी (जगत को सियाराम मय देखने की दृष्टि रूपी) मेघ का विध्वंस करने के लिये शरद ऋतु है। ऐसे अहंकार का मैं त्याग करता हूँ। न मैं 'अमुक' नाम वाला/वाली M/F हूँ, न  इन्द्रिय विषयों में मेरी रुचि है और न यह चित्त (मन-वस्तु) ही मेरा है। मैं शान्त होकर मन को जीतने वाले महात्मा पुरुष की भाँति अपने-आप में ही स्थित (आत्मा में आत्मा द्वारा संतुष्ट) रहना चाहता हूँ।  यदि अहंकार रहता है तो आपत्तिकाल में मुझे दुःख होता है और यदि नहीं रहता तो मैं निरन्तर सुख का अनुभव करता हूँ। इसलिये अहंकार-रहित हो जाना ही श्रेष्ठ है । 

 जैसे वायु के प्रवाह में पड़कर मोर- पंख का अग्रभाग वेग से हिलता रहता है, उसी प्रकार यह चञ्चल चित्त भी अत्यन्त व्यग्र  होकर व्यर्थ ही इधर-उधरदौड़ता रहता है। जैसे कुत्ता अपना पेट भरने के लिये व्याकुल हो गाँव में दूर- से- दूर तक के घरों या स्थानों का चक्कर लगाया करता है, वही दशा इस चञ्चल मन की है। इस विक्षिप्त मन को कहीं भी कोई अनुकूल वस्तु नहीं प्राप्त होती, इसलिये यह दीन बना रहता है। यदि इसे कभी विशाल धन का भंडार प्राप्त हो जाय, तो भी यह भीतर से तृप्त नहीं होता। जैसे बॉस या बेंत की बनी हुई पिटारी कभी जल से नहीं भरती, उसी प्रकार धन से मनुष्य का जी नहीं भरता । 

जैसे मांसभक्षी पक्षी मांस पर टूट पड़ता है, उसी प्रकार मन भी इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध होने वाले विषयों की ओर दौड़ पड़ता है। परंतु जैसे बालक पहले तो खिलौने की ओर ललकता है, फिर उसे पाकर थोड़ी ही देर में  उससे मूँह मोड़ लेता है, उसी तरह यह मन प्राप्त हुए विषय से क्षणभर में ही विरत हो जाता है, और नए नए विषय की खोज करने लगता है। जैसे चुल्लू में समुद्र को पी जाना, सुमेरु पर्वत को जड़ से उखाड़ फेंकना तथा अग्नि का ही आहार करना ये महान एवं दुस्साध्य कार्य हैं।  परंतु चंचल चित्त को वश में कर लेना इनसे भी महान एवं कठिन कार्य है। सम्पूर्ण पदार्थों का कारण चित्त ही है।  जब तक चित्त है, तभी तक तीनों लोकों की सत्ता है।  उसके क्षीण  होते ही जगत क्षीण हो जाता है। इसलिये उस चित्त रूपी रोग की चिकित्सा यत्न-पूर्वक करनी चाहिए। (संक्षिप्त योगवासिष्ठ-पेज ३९)]  

अहंकारवशादापदहंकाराद्दुराधयः । 

अहंकारवशादीहा नाहंकारात्परो रिपुः ॥ ||१६||

अहंकारवशाद्यद्यन्मया भुक्तं चराचरम् ।

 तत्तत्सर्वमवस्त्वेव वस्त्वहंकाररिक्तता ॥ ||१७||

 इतश्चेतश्च सुव्यग्रं व्यर्थमेवाभिधावति ।

 मनो दूरतरं याति ग्रामे कौलेयको यथा ।। ||१८|| 

क्रूरेण जडतां याता तृष्णाभार्यानुगामिना ।

 वशः कौलेयकेनैव ब्रह्मन्मुक्तोऽस्मि चेतसा ॥ ||१९|| 

अप्यब्धिपानान्महतः सुमेरून्मूलनादपि । 

अपि वह्नयशनाद्ब्रह्मन्विषमश्चित्तनिग्रहः ॥ ||२०||    

 चित्तं कारणमर्थानां तस्मिन्सति जगत्त्रयम्। 

तस्मिन्क्षीणे जगत्क्षीणं तच्चिकित्स्यं प्रयत्नतः ।। ||२१||

अहंकार ही समस्त विपत्तियों के आगमन का हेतु है। इसी से मनोविकार उत्पन्न होते हैं और तरह-तरह की इच्छा-आकांक्षाओं का प्रादुर्भाव होता है। इस कारण मनुष्य का अहंकार से बढ़कर और कोई भी शत्रु नहीं है। अंहकार के वशीभूत होकर मैंने चराचर रूप जिन-जिन भोगों का उपभोग किया है, वे सभी मिथ्या, भ्रमरूप थे। अहंकार का शून्य होना ही जीवन की यथार्थता है । वस्तु तो मात्र अहंकार शून्यता ही है। यह मन व्यर्थ ही परेशान होकर (व्यर्थ की इच्छाओं से परेशान होकर) यत्र-तत्र दौड़ता रहता है। व्यर्थ ही दूर-से -दूर तक भ्रमण करता रहता है। इसका स्वभाव गाँव में इधर-उधर घूमने वाले कुत्ते की तरह है। मैं भी तृष्णारूपी कुतिया के पीछे-पीछे कुत्ते की भाँति भटकता हुआ इस प्रकार क्रूर मन के वशीभूत होकर जड़वत् हो गया था। हे ब्रह्मन् ! अब मैं उसके प्रभाव से पूर्णरूपेण मुक्त हो गया हूँ। हे ब्रह्मन्! चित्त को नियंत्रित करना, समुद्र को पूरी तरह पीने से भी कठिन है, सुमेरु पर्वत को उखाड़ फेंकने से भी कठिन है और अग्नि के भक्षण से भी कठिन है। यह चित्त  बाह्य एवं अन्त:करण में विषय भोगों को ग्रहण करने वाला है, उसके आधार पर ही जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति रूप तीनों अवस्थाओं से युक्त संसार की स्थिति निर्भर है। चित्त  (=मन वस्तु) के नष्ट होने पर यह जगत् नष्ट हो जाता है। अतः प्रयासपूर्वक चित्त की ही चिकित्सा करनी चाहिए ॥१६-२१॥ 

[" सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, मन का अपरिमित बल चाहिए। अध्यवसायसील साधक कहता है, " मैं चुल्लू में समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर चूर हो जायेंगे।" इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो, और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त करोगे। "- स्वामी विवेकानन्द (१/९०)] 

To succeed, you must have tremendous perseverance, tremendous will. “I will drink the ocean”, says the persevering soul; “at my will mountains will crumble up.” Have that sort of energy, that sort of will; work hard, and you will reach the goal." (प्रत्याहार और धारणा/ राजयोग/१/९०)]

यां यामहं मुनिश्रेष्ठ संश्रयामि गुणश्रियम् । 

तां तां कृन्तति मे तृष्णा तन्त्रीमिव कुमूषिका ॥ ||२२||

 पदं करोत्यलङ् घ्येऽपि तृप्ता विफलमीहते । 

चिरं तिष्ठति नैकत्र तृष्णा चपलमर्कटी ॥ ||२३|| 

क्षणमायाति पातालं क्षणं याति नभ:स्थलम् ।

 क्षणं भ्रमति दिक्कुञ्जे तृष्णा हृत्पद्मषट्पदी ॥ ||२४||

 सर्वसंसारदुःखानां तृष्णैका दीर्घदुःखदा। 

अन्तःपुरस्थमपि या योजयत्यतिसंकटे ॥ ||२५|| 

तृष्णाविषूचिकामन्त्रश्चिन्तात्यागो हि स द्विज। 

स्तोकेनानन्दमायाति स्तोकेनायाति खेदताम्॥ ||२६||

हे श्रेष्ठ मुने! मैं जिन श्रेष्ठ सद्गुणों का आश्रय प्राप्त करता हूँ, मेरी तृष्णा उन श्रेष्ठ गुणों को ठीक वैसे ही काट देती है, जैसे कि दुष्ट मूषिका (चुहिया) वीणा के तारों को काट देती है।यह तृष्णा चञ्चल बँदरिया के समान है, जो न लाँघने योग्य स्थान पर भी अपना पैर टिकाना चाहती है। वह तृप्त होने पर भी भिन्न-भिन्न फलों की इच्छा करती रहती है। एक जगह पर लम्बे समय तक नहीं रुकती। क्षणमात्र में ही वह आकाश एवं पाताल की सैर कर डालती है, क्षण मात्र में ही दिशारूपी कुञ्जों में भ्रमण करने लगती है। यह तृष्णा हृदय कमल में विचरण करने वाली भ्रमरी के समान है।  यह तृष्णा ही इस नश्वर जगत् के समस्त दुःखों में दीर्घ काल तक दु:ख देने वाली है, जो अन्त:पुर में निवास करने वालों को भी महान् संकट में डाल देती है। यह तृष्णा एक महामारी-हैजा है। विषय-चिन्तन का त्याग ही तृष्णारूपिणी विसूचिका (हैजा) के निवारण का मंत्र कहा गया है। इस तृष्णा को वही द्विज *(श्रेष्ठ ब्राह्मण) नष्ट कर सकता है, जिसने विषय-चिन्तन का पूरी तरह से परित्याग कर दिया है। यदि  विषय-चिन्तन का थोड़ा भी परित्याग कर दिया जाए, तो अत्यधिक आनन्द की प्राप्ति होती है। यदि थोड़ी-सी भी विषय-चिन्ता मन में शेष रही, तो उससे असीम दु:ख की प्राप्ति होती है ॥ २२-२६॥ 

[विषयों का चिंतन - भोग की इच्छाओं को त्याग देने से ही हम अपने सम्पूर्ण दुःखों को दूर कर सकते हैं। इन्द्रिय -सुख  की इच्छाओं को त्याग देना ही तृष्णा रूपी हैजा का निवारण मंत्र कहा गया है।]

शरीर -निन्दा 

नास्ति देहसमः शोच्यो नीचो गुणविवर्जितः ॥ ||२७||

कलेवरमहंकारगृहस्थस्य महागृहम् । 

लुठत्वभ्येतु वा स्थैर्यं किमनेन गुरो मम॥ ||२८||

पङ्क्तिबद्धेन्द्रियपशुं वल्गत्तृष्णागृहाङ्गणम्। 

चित्तभृत्यजनाकीर्णं नेष्टं देहगृहं मम॥ ||२९||

जिह्वामर्कटिकाक्रान्तवदनद्वारभीषणम् । 

दृष्टदन्तास्थिशकलं नेष्टं देहगृहं मम ॥ ||३०|| 

देह के सदृश तुच्छ, गुणरहित तथा शोक करने योग्य अन्य दूसरा कोई नहीं ।यह 'शरीर' ही 'अहंकार' रूपी 'गृहस्थ' का विशाल गृह है। [इस शरीर रूपी गृह का स्वामी -अहंकार है या इसका स्वामी 'शरीरी' है ?] इस शरीर रूपी विशाल गृह में अहंकाररूपी गृहस्थ निवास करता है । यह शरीर चाहे दीर्घकाल तक रहे अथवा शीघ्र ही नष्ट हो जाए, उसकी मुझे ? (M/F अहं को शरीरी का दास होना होगा) किञ्चित् मात्र भी चिन्ता नहीं हैं। जिस शरीर रूपी घर में इन्द्रियरूपी पशु कतार बाँधकर खड़े रहते हैं तथा जिसके घर- आँगन में तृष्णा रूपी गृहस्वामिनी बारम्बार डोलती-फिरती है, जिसमें चित्त-वृत्तिरूप भृत्यों का समावेश है। ऐसा शरीर रूपी घर मुझे अभीष्ट नहीं है । जिसके मुख रूपी दरवाजे पर जिह्वा रूपिणी बँदरी सदा डटी रहती है, इसलिए मुख भयंकर प्रतीत है, तथा दन्तरूपी हड्डियों के टुकड़े स्पष्टतः दिखाई पड़ते हैं, ऐसा यह शरीररूपी घर मुझे प्रिय नहीं लगता है ॥॥२७-३०॥  

रक्तमांसमयस्यास्य सबाह्याभ्यन्तरे मुने। 

नाशैकधर्मिणो ब्रूहि कैव कायस्य रम्यता ॥ ||३१||

तडित्सु शरदभ्रेषु गन्धर्वनगरेषु च ।

 स्थैर्यं येन विनिर्णीतं स विश्वसितु विग्रहे ॥ ||३२||

 हे मुनीश्वर ! यह शरीर बाहर एवं अन्दर रक्त एवं मांसादि से संव्याप्त है, तो इस नश्वर शरीर में रमणीयता कहाँ से आई? जिस पुरुष ने बिजली, शरद ऋतु के बादलों और गन्धर्व नगर के चिरस्थायी होने का निर्णय कर लिया है, वही इस नश्वर शरीर की स्थिरता (नित्यता) पर विश्वास करे (मैं तो नहीं कर सकता।)   

बाल्यावस्था के दोष 

शैशवे गुरुतो भीतिर्मातृतः पितृतस्तथा। 

जनतो ज्येष्ठबालाच्च शैशवं भयमन्दिरम्॥ ||३३||

 बाल्यकाल में गुरु से, माता-पिता से, लोगों से, अयु में बड़े लड़कों से एवं अन्य दूसरे लोगों से भी भय लगता है, अत: यह बाल्यावस्था भय का ही घर है। 

युवावस्था के दोष 

स्वचित्तविलसंस्थेन नानाविभ्रमकारिणा ।

 बलात्कामपिशाचेन विवश: परिभूयते ॥ ||३४||

युवावस्था के आने पर अपने ही चित्त रूपी गुफा में निवास करने वाले, भिन्न-भिन्न तरह के भ्रमों में फँसाने वाले इस काम रुपी पिशाच से बलपूर्वक विवश होकर व्यक्ति पराजय को प्राप्त हो जाता है।

[बड़े-बड़े मगरों से भरे हुए महासागर को आसानी से पार किया जा सकता है, किंतु विषय-चिन्तन आदि महा तरङ्गों के कारण उमड़े हुए और दुर्गुण दुराचार रूप अनेक दोषों से भरे हुए इस  निन्दनीय यौवन के पार जाना बहुत ही कठिन है। ब्रह्मन् ! विनय से अलंकृत, श्रेष्ठ पुरुषों को आश्रय देने वाला, करुणा से प्रकाशित तथा शम, दम, क्षमा, दया, शान्ति, संतोष, सरलता आदि विविध चारित्रिक गुणों से युक्त उत्तम यौवन इस संसार में उसी तरह दुर्लभ है, जैसे आकाश में वन ।] 

वृद्धावस्था की दुःखरूपता 

दासाः पुत्राः स्त्रियश्चैव बान्धवाः सुहृदस्तथा।

 हसन्त्युन्मत्तकमिव नरं वार्धककम्पितम् ॥ ||३५||

 दैन्यदोषमयी दीर्घा वर्धते वार्धके स्पृहा। 

सर्वापदामेकसखी हृयदि दाहप्रदायिनी ॥ ||३६||

वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर उन्मत की भाँति काँपते हुए व्यक्ति को देखकर दास, पुत्र-पुत्रियाँ, स्त्रियाँ एवं बन्धु-बान्धव भी हँसी करते हैं। वृद्धावस्था में शरीर असमर्थ हो जाने पर इच्छा-आकांक्षाएँ अत्यधिक बढ़ जाती हैं। यह वृद्धावस्था हृदय में दाह प्रदान करने वाली सारी आपत्तियों की प्रिय सहेली है 36/

काल के स्वरुप का चिंतन 

क्वचिद्वा विद्यते यैषा संसारे सुखभावना। 

आयुः स्तम्बमिवासाद्य कालस्तामपि कृन्तति ||३७|| 

तृणं पांसुं महेन्द्रं च सुवर्णं मेरुसर्षपम्। 

आत्मंभरितया सर्वमात्मसात्कर्तुमुद्यतः । 

कालोऽयं सर्वसंहारी तेनाक्रान्तं जगत्त्रयम् ॥ ||३८||

इस नश्वर जगत् में रहने वाले सांसारिक प्राणी जिस सुख की भावना करते हैं, आखिर वह कहाँ है? काल आयु को तृण के सदृश काटता ही जा रहा है। वह काल छोटे से तृण एवं रजःकण को महेन्द्र एवं स्वर्णमय सुमेरु जैसे विशाल पर्वतों को भी सरसों के समान बना देने में समर्थ है। यह सभी का संहार करने में सक्षम तथा अपनी उदरपूर्ति के लिए सभी को आत्मसात् करने को उद्यत है। इस काल के द्वारा तीनों लोक आक्रान्त हैं।॥३७-३८॥

स्त्री-शरीर 

मांसपाञ्चालिकायास्तु यन्त्रलोलेऽङ्गपञ्जरे।

 स्नाय्वस्थिग्रन्थिशालिन्याः स्त्रियः किमिव शोभनम् ॥ ||३९||

यंत्रवत् चञ्चल अङ्गरूपी पिंजड़े में मांस की पुतली की भाँति, स्न्नायु एवं हड्डियों की ग्रन्थि से बनी हुई इस स्त्रीदेह में ऐसी कौन सी-वस्तु है, जो शोभनीय कही जा सकती है

त्वङमांसरक्तबाष्पाम्बु पृथक्कृत्वा विलोचने

 समालोकय रम्यं चेत्किं मुधा परिमुसि ।। ||४०||

आँखों में स्थित त्वचा, मांस, रक्त एवं अश्रु आदि इन सबको अलग-अलग करके अवलोकन करो; इनमें कौन सी वस्तु आकर्षक प्रतीत होती यदि कोई भी वस्तु आकर्षक नहीं, तो फिर व्यर्थ में मोह करने से क्या लाभ है ? 

मेरुशृङ्गटोल्लासिगङ्गाचलरयोपमा । 

दृष्टा यस्मिन्मुने मुक्ताहारस्योल्लासशालिता ॥ ||४१|| 

शमशानेषु दिगन्तेषु स एव ललनास्तनः । 

श्वभिरास्वाद्यते काले लघुपिण्ड इवान्धसः ।। ||४२||

हे मुने। जो नारी सुमेरु पर की चोटियों से उल्लसित होने वाली भगवती माँ गंगा की चञ्चल गति की भाँति है; जो मुक्ताहार से पूर्णरूपेण शुशोभित देखी गई है; कालचक्र के समीप आने पर उसी नारी के मांस पिण्डरूप स्तन को श्मशान में कुत्ते भक्षण करते हैं।

केशकज्जलधारिण्यो दुःस्पर्शा लोचनप्रियाः । 

दुष्कृताग्निशिखा नार्यो दहन्ति तृणवन्नरम्॥ ||४३||

 जो नारियों केश एवं काजल धारण करने वाली तथा देखने में प्रिय लगने वाली होने पर भी न जिनका स्पर्श दुःख देने वाला होता है, वे ही विधाता की दुष्कृति रूप अग्नि की ज्वाला के समान दग्ध कर देने वाली नारियाँ पुरुष को तिनके की भाँति जला डालती हैं 43

ज्वलतामतिदूरेऽपि सरसा अपि नीरसाः । 

स्त्रियो हि नरकाग्नीनामिन्धनं चारु दारुणम्॥ ||४४||

कामनाम्ना किरातेन विकीर्णा मुग्धचेतसः । 

नार्यो नरविहङ्गानामङ्गबन्धनवागुराः ॥ ||४५||

ये दूरस्थ प्रज्वलित नरकाग्नियों की तरह अशोभनीय एवं दुःखदायी ईंधनस्वरूपा हैं। ये रसयुक्त प्रतीत होने पर भी वस्तुतः रसहीन हैं। कामदेव नामक किरात ने पुरुष रूपी मृगों को आबद्ध कर लेने के लिए स्त्री रूपी पाश को विस्तृत कर रखा है। कामदेव रूपी बहेलिये ने पुरुष रूपी पक्षियों को आबद्ध करने के लिए हृदय को मोहित कर देने वाला स्त्रीरूपी जाल बिछा रखा है ॥ "नार्यो नरविहङ्गानामङ्गबन्धनवागुराः" का अर्थ है "पुरुष (नर) के लिए नारी (नार्यो) बंधन (अंगबन्धन) की तरह हैं , जैसे कि पक्षी (विहंग) के लिए जाल (वागुरा) होता है"। 

जन्मपल्वलमत्स्यानां चित्तकर्दमचारिणाम्। 

पुंसां दुर्वासनारज्जुर्नारी बडिशपिण्डिका॥ ||४६||

सर्वेषां दोषरत्नानां सुसमुद्गिकयानया । 

दुःखशृङ्खलया नित्यमलमस्तु मम स्त्रिया ॥ ||४७||

 ये पुरुष जीवनरूपी तलैया के मत्स्य हैं, जो चित्तरूपी कीचड़ में सतत विचरते रहते हैं। इन मास्यरूपी पुरुषों को अपने बाहुपाश में फँसाने के लिए नारी दुर्वासना रूपी रस्सरी में बँधी पिण्डिका अर्थात् चारे की भाँति है। यह नारी समस्त दोषरूपी रत्नों को प्रकट करने वाले सागर की भाँति है। यह दु:खों की जंजीर सदैव हमसे दूर रहे। 

 यस्य स्त्री तस्य भोगेच्छा नि:स्त्रीकस्य क्व भोगभूः । 

स्त्रियं त्यक्त्वा जगत्त्यक्तं जगत्त्यक्त्वा सुखी भवेत् ॥ ||४८||

जिस पुरुष के पास नारी है, उसे भोग की इच्छा प्रादुर्भूत होती है और जिसके पास नारी नहीं है, उसके लिए भोग का कोई कारण ही नहीं है। जिसने स्त्री  का परित्याग कर दिया, उसका संसार छूट गया और वास्तव में इस नश्वर जगत् का परित्याग करके ही मनुष्य सुख को प्राप्त कर सकता है, वही सचमुच सुखी हो सकता है ॥ ४८

दिशोऽपि न हि दृश्यन्ते देशोऽप्यन्योपदेशकृत्।

 शैला अपि विशीर्यन्ते शीर्यन्ते तारका अपि ।। ||४९||

शुष्यन्त्यपि समुद्राश्च ध्रुवोप्यधुवजीवनः । 

सिद्धा अपि विनश्यन्ति जीर्यन्तो दानवादयः ।। ||५०||

(यह जगत् नश्वर है, जब यह अव्यक्त स्थिति में चला जाता है, तब) दिशाएँ भी अदृश्य हो जाती हैं, देश भी दूसरों के लिए उपदेश-प्रद बन जाते हैं अर्थात् काल के गाल में विलीन हो जाते हैं, पर्वत भी खण्ड-खण्ड हो जाते हैं तथा तारागण भी टूक-दूक होकर गिर जाते हैं, ध्रुव-नक्षत्रादि का जीवन भी अस्थिर हो जाता है। सिद्धयोगी जन भी विनष्ट हो जाते हैं, दानवादि भी जराग्रस्त शक्तिरहित होकर नष्ट हो जाते हैं। [यहाँ ध्रुव सिंह  भी अध्रुवजीवी बनजाते हैं, और अमर सिंह भी मरण को प्राप्त होते हैं।]     

परमेष्ठयपि निष्ठावान्हीयते हरिरप्यजः । 

भावोऽप्यभावमायाति जीर्यन्ते वै दिगीश्वराः ॥ ||५१||

 ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च सर्वा वा भूतजातयः । 

नाशमेवानुधावन्ति सलिलानीव वाडवम् ॥ ||५२|| 

 दीर्घकाल तक स्थायी रूप से निवास करने वाले पितामह ब्रह्मा जी एवं जन्मरहित भगवान् विष्णु भी अन्तर्धान हो जाते हैं, स्मस्त भाव अभाव में परिणत हो जाते हैं, दिशाओं के अधिपति भी जरा-जीर्ण हो जाते हैं। बड़े-बड़े देवगण एवं समस्त प्राणिसमूह वैसे ही विनाश की ओर दौड़ते चले जाते हैं, जिस प्रकार सागरों का जल बड़वानल की ओर दौड़ता चला जा रहा है। 

आपदः क्षणमायान्ति क्षणमायान्ति संपदः । 

क्षणं जन्माथ मरणं सर्वं नश्वरमेव तत्॥ ||५३||

क्षण में विपदाएँ आती हैं,क्षण में सम्पदाएँ आती हैं,क्षण में जन्म अथवा मरण होता है।एवं सब विनाशशील है। विपदाएँ क्षणभर में विपत्तिग्रस्त बना देती हैं, तो क्षणभर में समस्त वैभवसम्पदाएँ समीप में एकत्रित हो जाती हैं। क्षणभर में मृत्यु एवं क्षणभर में जन्म हो जाता है। ये सभी प्रपञ्च नश्वर हैं । [सभी मनुष्यों के प्रारब्ध के अनुसार पुण्य के फलस्वरूप सम्पत्तियाँ अणिमा आदि सिद्धियों को साथ लिए सदा वेगपूर्वक चली आती हैं और पाप के फलस्वरूप विपत्तियाँ भी निरंतर अपनेआप आ जाती हैं।  

अशूरेण हताः शूरा एकेनापि शतं हतम्।

 विषं विषयवैषम्यं न विषं विषमुच्यते ॥ ||५४|| 

जन्मान्तरघ्ना विषया एकजन्महरं विषम् ।

इति मे दोषदावाग्निदग्धे संप्रति चेतसि ॥ ||५५||

 इस जगत् में कायर पुरुषों के द्वारा शूरवीरों का संहार होता है, कभी-कभी एक के द्वारा सैकड़ों-हजारों का विनाश हो जाता है । विषय-वासना अर्थात  विषय- भोगों की इच्छा के द्वारा चित्त में जो विषमता आ जाती है, वही असली विष है । क्योंकि विष तो एक जन्म का ही नाश करता है विषयों में आसक्ति तो जन्म-जन्मांतर को नष्ट कर देते हैं। प्रत्यक्ष विष इतना भीषण विष नहीं कहा जाता; क्योंकि वह विष तो मात्र एक ही जन्म को नष्ट करता है और विषय-भोग तो जन्म-जन्मान्तर को ही विनष्ट कर देते हैंअतः इस समय दोषरूपी दावानल से जला मेरा चित्त ऐसा ही प्रतीत हो रहा है ।। 55[लोकप्रसिद्ध विष को वास्तव में विष नहीं कहा जाता , क्योंकि वह विष एक ही शरीर का नाश करता है - जिस शरीर के द्वारा उसका सेवन किया गया है ;उसी शरीर का नाश करता है। किन्तु पंचेन्द्रिय ग्राह्य विष जन्मजन्मान्तरों तक जीव को मौत के मुँह में डालते रहते हैं। (संक्षिप्त योगवाशिष्ठ सर्ग -२९)] 

स्फुरन्ति हि न भोगाशा मृगतृष्णासर:स्वपि । 

अतो मां बोधयाशु त्वं तत्त्वज्ञानेन वै गुरो ।। ||५६||

 नो चेन्मौनं समास्थाय निर्मानो गतमत्सरः । 

         भावयन्मनसा विष्णु लिपिकर्मार्पितोपमः ॥ ||५७||

मृगमरीचिका (तृष्णा) के सरोवर में खड़े होने के बाद भी मुझमें भोग-लिप्सा की स्फुरणा नहीं हो रही है। अतः हे पिता, हे गुरु! आप मुझे तत्त्वज्ञानात्मक बोध शीघ्रातिशीघ्र प्रदान करने की कृपा करें। अन्यथा मैं मान एवं मत्सर का परित्याग कर अपने चित्त में भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए चित्रलिखित की तरह से मौनव्रत स्वीकार कर लूँगा ॥ ॥५६-५७॥

इति महोपनिषत् । इति तृतीयोऽध्यायः ॥ 

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॥ महा उपनिषद॥ 

चतुर्थोऽध्यायः

निदाघ तव नास्त्यन्यज्ज्ञेयं ज्ञानवतां वर।

 प्रज्ञया त्वं विजानासि ईश्वरानुगृहीतया। 

चित्तमालिन्यसंजातं मार्जयामि भ्रमं मुने ॥ ||१||

अपने पुत्र निदाघ मुनि की सभी बातें सुनकर ऋषिवर ऋभु ने कहा-हे प्रभु! तुम ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ हो ।अब तुम्हारे लिए कुछ भी जानकारी के योग्य शेष नहीं रह गया है। तुम ईश्वर की महती कृपा से अपनी ही प्रज्ञा-बुद्धि के द्वारा सभी कुछ समझ गये हो। फिर भी हे मुने! तुम्हारे चित्त में मलिनता के द्वारा जो भी भ्रम प्रादुर्भूत हुआ है, उसका मैं निवारण करूँगा।

[योग वाशिष्ठ का >मुमुक्षुव्यवहार-प्रकरण

४- 'मुमुक्षु' यानि 'साधक' =सत्यार्थी का जीवनऊपर बतलाया जा चुका है कि जीवन के सभी दुःख अज्ञान जनित हैं। और ज्ञान से, विशेषतः आत्मज्ञान से, सब दुःखों का नाश और परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिये परम पुरुषार्थ करना चाहिए। क्योंकि, बिना पुरुषार्थ के यहाँ पर किसी भी अर्थ की प्राप्ति नहीं होती । अब वसिष्ठ जी ने रामचन्द्रजी को यह बतलाया कि आत्मज्ञान द्वारा दुःखों से मोक्ष पाने और परमा नन्द के अनुभव की सिद्धि के लिये किस प्रकार के पुरुषार्थ की आवश्यकता है

(१) चित्तशुद्धि:-

सबसे पहली बात जो साधक को करनी चाहिये वह है मन की शुद्धि । क्योंकि बिना चित्त के शुद्ध हुए उसमें आत्मा का प्रकाश नहीं होता । मन शुद्ध हुए बिना न शास्त्र ही समझ में आते हैं और न गुरु के वाक्य; आत्मानुभव होना तो दूर रहा। हे राम ! सबसे पहले शास्त्रों के श्रवण से, सज्जनों के सत्सङ्ग से और परम वैराग्य से मन को पवित्र करो। शास्त्राध्ययन, सज्जनों के सङ्ग और शुभ कर्मों (Be and Make) के करने से जिनके पाप दूर हो गए हैं , उनकी बुद्धि दीपक के समान चमकने वाली होकर सार वस्तु को पहचानने योग्य हो जाती है। जब भोगों की वासनाएँ/ ऐषणाओं / इच्छाओं को  त्याग देने पर, इन्द्रियों की कुत्सित वृत्तियों के रुक जाने पर, मन शान्त हो जाता है,  तब ही गुरु की शुद्ध वाणी मन में प्रवेश करती है। 

(२) मोक्ष के चार द्वारपाल :- चित्त शुद्धि के लिये साधक को चार साधनों का या उनमें से किसी एक  का भी आश्रय लेना चाहिए। इन्हीं को वसिष्ठ जी ने मोक्ष के द्वारपाल कहा है। मनुष्य को चाहिये कि वह विवेकहीन, अज्ञानी और दुर्जनों से प्रेम करने वाले मनुष्य का दूर से ही परित्याग करके साधु-महात्माओंकी सेवा करे; क्योंकि सदा सज्जनों के सम्पर्क रहनेसे विवेक की उत्पत्ति होती है यह विवेक एक वृक्ष के समान है और भोग तथा मोक्ष उसके फल कहे गये हैं। 

 उस मोक्ष के द्वार पर निवास करने गले चार पहरेदार / द्वारपाल बतलाये जाते हैं जिनके नाम हैं-शम, विवेक-विचार, संतोष और चौथा साधुमंगम । मनुष्यको इन चारोंका ही प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये; क्योंकि इनका भलीमौति सेवन होने पर ये मोक्षरूपी राजमहल के द्वार को खोल देते हैं। यदि चारोंका सेवन न हो सके तो तीन का या दो का मेवन अवश्य करना चाहिये। दो का भी सेवन न हो सके तो सभी उपाय द्वारा प्राणों की बाजी लगाकर भी एक का आश्रय तो अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि जब एक वशमें आ जाता है, तब शेष तीनों भी अधीन हो जाते हैं। पृष्ठ ८१/

मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः ।

        शमो विवेकः सन्तोषः चतुर्थः साधुसंगमः ॥ ||२||

एकं वा सर्वयत्नेन सर्वमुत्सृज्य संश्रयेत्। 

एकस्मिन्वशगे यान्ति चत्वारोऽपि वशं गताः ॥ ||३||

शम (मनोनिग्रह), विवेक, संतोष और चौथा सत्संग या साधु समागम-ये मोक्षद्वार के चार द्वारपाल /पहेरेदार कहे गये हैं। यदि इनमें से किसी एक का भी आश्रय प्राप्त कर लिया जाये, तो शेष तीनों द्वारपाल सहजतापूर्वक स्वयमेव ही अपने वश में हो जाते हैं॥

शम (मनोनिग्रह)जिस विवेकी पुरुष को सम्यग्दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) की उपलब्धि हो चुकी है, वह पुरानी केचुल का त्याग करके संताप  रहित हुए सर्प की भाँति मानसिक व्यथाओं से परिपूर्ण इस संसार से आसक्ति  का परित्याग करके संताप रहित हो जाता है। उसका अन्तः करण शीतल हो जाता है। वह सम्पूर्ण जगत्‌ को विनोद पूर्वक इन्द्रजाल की तरह सुखरूप (ब्रह्ममय -सिया-राम मय)  देखता है; परन्तु जो उस सम्यग्दृष्टि से रहित है, उसके लिये यह संसार परम दुःखदायी ही है।

 सत्पुरुषों के साथ शास्त्र-चिन्तन करने से जिसका देहाभिमान (देहाध्यास) नष्ट हो गया है, उसे तत्व का ज्ञान हो जाने से सर्वव्यापक आत्मा (शरीरी) का स्वरूप विदित हो जाता है। वह शुद्ध बुद्धि द्वारा पर-ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है और अज्ञानरूपी घने बादल के विलीन हो जाने पर उसके मोह का (देहाध्यास का) विनाश हो जाता है। फिर तो उसके किये इस  जगत  में विचरण करना रमणीय हो जाता है। 

जिन्हें आत्म खरूप का (शरीरी का) ज्ञान हो गया है, ऐसे उत्तम बुद्धि-सम्पन्न महापुरुष इस पूर्वोक्त दृष्टि (ज्ञामयी दृष्टि ) का अवलम्बन करके इस ससार में विचरते हैं। उन्हें न शोक होता है, न कामना होती है और न वे शुभाशुभ इच्छाओं की याचना ही करते हैं।  वे इस संसार में सब कुछ करते हुए भी अकर्ता के  समान रहते हैं। वे हेय और उपादेय के पक्षपात से रहित होकर अपने आत्मा में स्थित रहते हैं।  पवित्रता से रहते हैं और सत्-शास्त्रों में प्स्च्छ कर्म करते हुए सन्मार्गपर चलते हैं। /मुमुक्षु ० पृष्ठ 83/

इसलिये जो शम और संतोष का साधन है, उस मनो-जय (चित्तवृत्ति निरोध)  की प्राप्ति के लिये उपाय (अष्टांग योग) का अभ्यास करना चाहिये । उससे वह आनन्द उपलब्ध होता है, जो परमात्मा के साथ एकात्मकता के अनुभव से मिलता है। अतः देवता, दानव, राक्षस और मनुष्य को बैठते, चलते, गिरते-पड़ते अथवा घूमते हुए सदा ही मनोजय-जनित (समाधि जनित ) उस परम सुख को अवश्य प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि वह शान्तिरूप विकसित पुष्पों से लदे हुए विवेकरूप महान् वृक्ष का फल है।पूर्ण रूप से शान्त मन अत्यन्त निर्मल और भ्रमरहित हो जाता है। उस विश्रान्त मन (शम -सहज, शांत, रुका हुआ मन)  में किसी प्रकार की स्पृहा (इच्छा-कामना या लालसा ?) नहीं रह जाती । उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। उस समय वह न तो किसी वस्तुकी अभिलाषा करता है और न किसी का त्याग ही करता है।  शम मङ्गलमय, शान्तिदायक और भ्रम (शरीरी के देहाध्यास या भेंड़त्व) का निराकरण करने वाला है। शम से परम कल्याण की प्राप्ति होती है और शम ही परम पद है । शम की प्राप्ति से पूर्णतया तृत हुए जिस पुरुष का चित्त शम से विभूषित होने के कारण शीतल एवं निर्मल हो गया है, उसका शत्रु भी मित्र बन जाता है।शम परायण पुरुष (नवनीदा-गुरुदेव) के दर्शन से सभी प्राणियों का मन जैसा अल्हादपूर्ण एवं प्रसन्न होता है, वैसा चन्द्रमा के दर्शन से नहीं होता। इस जगत में जैसे अपनी माता पर सभी का विश्वास होता है , उसी प्रकार शमयुक्त पुरुष पर दुरात्मा अथवा धर्मात्मा सभी प्राणी विश्वास करते हैं।(मुमुक्षु ० पृष्ठ 85/)  

   शमयुक्त अंतःकरण वाले पुरुष  का दर्शन करने से मनुष्य को जो शांति प्राप्त होती है, वह प्राणो से भी अधिक प्रिय खजाने को मिलने से भी उपलब्ध नहीं होती। जो प्रयत्न पूर्वक 11 इन्द्रियों को अपने वश में करके समस्त प्राणियों के साथ समतापूर्ण व्यवहार करता है, तथा न तो भविष्य की आकांक्षा करता है, और न प्राप्त का परित्याग करता है, वही 'शान्त' कहलाता है। जिसका मन मृत्यु, उत्सव, और युद्ध के अवसर भी व्याकुल न होकर चन्द्रमा के समान निर्मल आभा से युक्त रहता है, वह 'शान्त' कहा जाता है। जिसकी दृष्टि अमृत-प्रवाह के जैसी सुखदायिनी और प्रेमपूर्ण होकर सभी प्राणियों पर समानरूप से पड़ती है, उसी को शांत कहते हैं। जिसका अन्तःकरण शीतल हो गया है एवं जिसकी बुद्धि मोहाच्छन्न नहीं है तथा जो लौकिक विषयों के साथ व्यवहार करता हुआ भी उसमें आसक्त नहीं होता, उसे लोग शान्त कहते हैं। तपस्वियों, बिद्वानों , गुणियों के समुदाय में शमयुक्त - शान्त पुरुषकी विशेष शोभा होती है। जिस गुणशाली मनुष्य का मन 'शम' में आसक्त हो गया है,उसके चित्त से निवृत्ति का उदय ठीक वैसे ही होता है , जैसे चन्द्रमा से चाँदनी प्रकट होती है। मुमुक्षु ० पृष्ठ 86 / 

विवेक- 'नेति, नेति,' विचार> विचारपूर्वक स्वयं ही अपनी बुद्धि (विवेकयुक्त बुद्धि) द्वारा अपने मन को वश में करके मोहमय संसार-सागर से अपने मन रूपी मृग का उद्धार करना चाहिये । " मैं कौन हूँ ?(आत्मा ? या देह ?) और (फिर) यह संसार-नामक दोष (जन्म-मृत्यु) मेरे निकट कैसे आ गया?" -इस विषयमें न्यायपूर्वक किया गया अनुसंधान 'विचार' कहलाता है। नेति-नेति विचार से ही तत्त्व का ज्ञान होता है, तत्त्व ज्ञान से मन की निश्चलता प्राप्त होती है।  और मनके शान्त हो जाने से सम्पूर्ण दुःखों का सर्वथा विनाश हो जाता है। आत्मविषयक विचार करने से बुद्धि तीव्र होकर परमपद का साक्षात्कार कर लेती है। जगत के सारे पदार्थ तभी तक रमणीय प्रतीत होते हैं , जब तक विवेक-विचार नहीं किया जाता। वस्तुतः उनका कोई अस्तित्व नहीं है, अतः विचार करने पर वे नष्ट हो जाते हैं। विवेकी -विचारशील पुरुष गयी हुई वस्तु की उपेक्षा कर देते हैं , और प्राप्त वस्तु का शास्त्रानुसार उपयोग करता है।  बुद्धिमान पुरुष को आपत्तिकाल में भी 'मैं कौन हूँ ? यह संसार किसका है ?' यूँ उसके प्रतीकार के लिये प्रयत्नपूर्वक विचार करना चाहिये । विचार से ही तत्व का ज्ञान होता है। तत्वज्ञान से मनकी निश्चलता प्राप्त होती है, और मन के शान्त हो जाने से सम्पूर्ण दुखों का सर्वथा विनाश हो जाता है। जैसे रात्रि में भूतल पर पदार्थो का ज्ञान दीपक से होता है, उसी प्रकार परमात्म स्वरूप में स्थिति प्राप्त करने के लिये वेद-वेदान्त के सिद्धान्तों- महावाक्यों की स्थितियों का निर्णय विवेक-विचार द्वारा होता है। विवेक-विचार रूपी सुन्दर नेत्र अन्धकार में नष्ट नहीं होता, उग्र तेजस्वी सूर्य आदि की ओर देखनेपर भी उसकी ज्योति प्रतिहत नहीं होती और वह व्यवधानयुक्त पदार्थों को भी देख लेता है। जैसे पक जानेके कारण मधुर रससे परिपूर्ण आम का फल सब के लिये रुचिकर होता है, उसी तरह उत्तम विचार से युक्त पुरुष, सामान्य जनों की तो बात ही क्या, महापुरुषों के लिये भी आदरणीय हो जाता है। विचार द्वारा जिनकी बुद्धि विशुद्ध हो गयी है और जिसे नेति-नेति विचार से ही जिन्हें ज्ञानमार्ग में जाने की युक्ति ज्ञात है, वह मनुष्य नाना प्रकार के दुःख रूप गड्ढों  में बार-बार नहीं गिरते अर्थात् आवागमन से मुक्त हो जाते हैं। (योग वषिष्टपेज ८७-८८)]

                संतोष सन्तुष्ट आदमी की सेवा में महान ऋद्धियाँ  (अलैकिक शक्ति, सफलता , भाग्य) इस प्रकार उपस्थित होती हैं जिस प्रकार राजा की सेवा में राजा के नौकर चाकर।  संतुष्ट वह कहलाता है जो अप्राप्त वस्तु की वांछा को छोड़कर प्राप्त वस्तु में समभाव से बर्तता है और जिसको कभी भी खेद और हर्ष का अनुभव नहीं होता ।  जैसे मलिन दर्पण में मुख की छाया नहीं दीखती, उसी प्रकार आशा की परवशता से व्याकुल एवं संतोष रहित चित्त में ज्ञान का प्रतिबिम्ब नहीं पडता । जब तक मन आत्मा के द्वारा आत्मा में सन्तुष्ट नहीं हो जाता , तबतक उस मन रूपी गड्ढे से आपत्तियां निकलती हैं। जब संतोष से सम्पन्न पुरुष (मिथ्या अहं -चित्त) अपनी आत्मा में आत्मा द्वारा स्वस्थ रूप से (चित् रूप से) से स्थित हो जाता है, उस समय उसकी सारी मानसिक व्यथाएँ उसी प्रकार अपने-आप शीघ्र ही समूल विनष्ट हो जाती है, जैसे वर्षा ऋतु में धूल शान्त हो जाती है। 

    अन्य को संताप दिये बगैर, खलपुरुष के घर गये बगैर (लाचारी किये बगैर) और स्वयं को अति कष्ट दिये बगैर जो थोडा भी मिले उसे काफी समझ लेना चाहिए। जो सुख शांतचित्त लोगों को अमृतस्वरुप संतोष से मिलता है, वह धनलोलुप यहाँ वहाँ भागनेवालों को कहाँ ? लक्ष्मण कहते है, "हे भुवनपति ! बिभीषण को बिना खजाने की लंका दीजिए", तब रघुपति यह वाक्य बोले, "विक्रीते करिणि किमङ्कुशे विवादः।।" -- हाथी को बेचने के बाद अंकुश के बारे में विवाद क्या करना ?" संतोष ही परम श्रेय है और संतोष परम सुख भी कहा जाता है। संतोष-युक्त पुरुष परम विश्राम को प्राप्त होता है। जो शान्त पुरुष संतोषामृत के पान से पूर्णतः तृप्त हो चुके हैं, उनके लिये यह अपरिमित भोग-सम्पत्ति विष सी जान पड़ती है। रागादि दोषों का विनाशक तथा अत्यन्त मधुर आस्वाद से युक्त संतोष जैसा सुखद होता है, वैसा सुख ये अमृत रस की लहरियां भी  नहीं दे सकतीं। जो अप्राप्त वस्तु की आकांक्षा का परित्याग करके प्राप्त हुई वस्तु में समभाव रखने वाला है तथा जिसमें हर्ष-शोक के विकार परिलक्षित नहीं होते, वह मनुष्य इस लोक में संतुष्ट कहा जाता है। 

 सतसङ्ग = साधुसङ्ग, महामण्डल का पाठचक्र - सज्जनों का संग इस लोक में सन्मार्ग दिखाने वाला और हृदय के अन्धकार को दूर करने वाला ज्ञानरूपी सूर्य  का प्रकाश है। जो सत्संगति रूपी शीतल और निर्मल गङ्गा (Be and Make आंदोलन) में स्नान करता है उसको किसी तीर्थ, दान, तप और यज्ञ से क्या लेना है; अर्थात सत्संगति इन सबसे बढ़कर है। यदि रागशून्य, राग रहित (या स्वार्थ शून्य), और संशयरहित (गत संदेह शरीरी) है, तथा चिज्जड़ ग्रंथियाँ (हृदय की गाँठें) विनष्ट हो चुकी हैं, ऐसे संत (पैगम्बर या नेता) धरती पर  विद्यमान हैं तो  फिर किसी तीर्थ पर जाने की अथवा तप करने की क्या आवश्यकता है ? अर्थात वे फल तो उन संतों की संगति से ही प्राप्त हो सकते है। इसलिये जिन कर्मियों की चिज्जड-ग्रन्थियों का विनाश हो गया है एवं जो ब्रह्मज्ञानी हैं, वैसे मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं, या सर्व-सम्मत सन्तों की सभी उपायो द्वारा भलीभाँति सेवा करनी चाहिये, क्योंकि वे भवसागर से पार होनेके लिये साधन -नौका हैं। किंतु जो लोग नरकाग्नि को बुझाने के लिये मेघस्वरुप संतों को अवहेलना-की दृष्टि से देखते हैं, वे खय उस नरकाग्नि की सूखी लकड़ी बन जाते हैं।

 बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास ।

 तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास ॥ 

-- तुलसीदास/यदि बुरी संगति करके कोई सफलता तथा समाज से प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा रखता है तो उसे आजीवन कुछ भी हाथ नहीं लगेगा और उसकी इच्छा केवल इच्छा मात्र रह जाएगी। जिस प्रकार मगध के नजदीक बसने के कारण विष्णुपद तीर्थ का नाम 'गया' रखा गया। 2025 में भाजपा के कारण 'गयाजी' हो गया ! 

शास्त्रैः सज्जनसम्पर्कपूर्वकैश्च तपोदमैः ।

आदौ संसारमुक्त्यर्थं प्रज्ञामेवाभिवर्धयेत् ॥ ४॥

स्वानुभूतेश्च शास्त्रस्य गुरोश्चेवैकवाक्यता । 

यस्याभ्यासेन तेनात्म सततं चावलोक्यते ॥ ५॥

सर्वप्रथम इस नश्वर जगत् से मोक्ष प्राप्त करने के लिए तप, दम (इन्द्रिय निग्रह), शास्त्र एवं सत्संग के द्वारा अपने सद्ज्ञान को बढ़ाया जाना चाहिए। अपनी आत्मा के अनुभव, शास्त्रों एवं गुरु के वचनों के उपदेश से सतत अभ्यास द्वारा आत्मचिन्तन करना चाहिए ॥ ॥४-५॥

संकल्पाशानुसंधानवर्जनं चेत्प्रतिक्षणम्। 

करोषि तदचित्तत्वं प्राप्त एवासि पावनम्॥ ||६||

 चेतसो यदकर्तृत्वं तत्समाधानमीरितम् ।

तदेव केवलीभावं सा शुभा निर्वृतिः परा॥ ||७|| 

चेतसा संपरित्यज्य सर्वभावात्मभावनाम्। 

यथा तिष्ठसि तिष्ठ त्वं मूकान्धबधिरोपमः ॥ ||८||

 सर्वं प्रशान्तमजमेकमनादिमध्यमाभास्वरं स्यदनमात्रमचैत्यचिह्नम्।

 सर्वं प्रशान्तमिति शब्दमयी च दृष्टिर्बाधार्थमेव हि मुधैव तदोमितीदम्॥ ||९||

सर्वं किंचिदिदं दृश्यं दृश्यते चिज्जगद्गतम्। 

चिन्निष्पन्दांशमात्रं तन्नान्यदस्तीति भावय॥ ||१०|| 

नित्यप्रबुद्धचित्तस्त्वं कुर्वन्वापि जगत्क्रियाम्। 

आत्मैकत्वं विदित्वा त्वं तिष्ठाक्षुब्धमहाब्धिवत् ॥ ||११||

 यदि तुमने सदैव के लिए संकल्प एवं आशा के अनुसन्धान का परित्याग कर दिया है, तो तुम्हें वह कैवल्य की प्राप्ति हो ही गयी होगी। जो चित्त का अकर्तृत्व है, वही चित्त-वृत्तियों का निरोध अर्थात् समाधि कही गयी है। यही कैवल्यावस्था एवं परम कल्याणस्वरूपा परम शान्ति कहलाती है।इस जगत् के सम्पूर्ण पदार्थों में आत्म भावना का सम्यक् रूप से त्याग करके संसार में गूँगे, अंधे एवं बधिरों के समान तुम्हारे रहने से ही यह संभव है सभी कुछ प्रशान्त है, एक है, जन्मरहित है, केवल अनुभवगम्य है, चित्तरहित है आदि जो शब्दरूप दृष्टि है, वह व्यर्थ ही है। आत्मबोध में बाधास्वरूप है। जो कुछ भी प्रपञ्च में दृष्टिगोचर होता है तत्त्वत: वही प्रणवरूप है। यहाँ पर जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है- वही दृश्य चिद्-जगत् में भी दृष्टिगोचर होते हैं, वह चित् के निष्पन्द का एक अंशरूप ही है। अतः चित् से (चैतन्य से) अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, तुम ऐसी ही भावना करो । सांसारिक कार्यों को सतत करते हुए भी नित्य प्रबुद्धचित्त होकर आत्मा के एकत्व को जानकर प्रशान्त रहने वाले महासागर के सदृश निश्चल एवं स्थिरचित्त बने रहो ऐसे ही कार्य करने में कल्याण की सम्भावनायें हैं ॥ ॥६-११॥

तत्त्वाववोध एवासौ वासनातृणपावकः ।

प्रोक्तः समाधिशब्देन न तु तूष्णीमवस्थितिः ॥ ||१२||

निरिच्छे संस्थिते रत्ने यथा लोकः प्रवर्तते । 

सत्तामात्रे परे तत्त्वे तथैवायं जगद्गणः ॥ ||१३||

अतश्चात्मनि कर्तृत्वमकर्तृत्वं च वै मुने । 

निरिच्छत्वादकर्तासौ कर्ता संनिधिमात्रतः ॥ ||१४|| 

ते द्वे ब्रह्मणि विन्देत कर्तृताकर्तृते मुने।

 यत्रैवैष चमत्कारस्तमाश्रित्य स्थिरो भव ॥ ||१५|| 

तस्मान्नित्यमकर्ताहमिति भावनयेद्धया । 

परमामृतनाम्नी सा समतैवावशिष्यते ॥ ||१६||

यह आत्मज्ञान (आत्मतत्त्वाववोध =आत्मतत्त्व अवबोध / self realization/आत्मा की अनुभूति/ आत्मसाक्षात्कार) वासनारूपी तृण को दग्ध कर देने वाले अग्नि के सदृश है। इसे ही समाधि कहते हैं। केवल मौन रहकर बैठे रहना ही समाधि नहीं है। जैसे रत्न के इच्छारहित होकर पड़े रहने पर भी मनुष्य उसकी तरफ आकृष्ट होते ही हैं, वैसे ही मात्र सत्तारूप में विद्यमान परमात्म तत्व की ओर भी सम्पूर्ण विध आकृष्ट होता है। अतः हे पुत्र! इस आत्मा में ही कर्तृत्व एवं अकर्तृत्व दोनों ही स्थित हैं। कामनाविहीन रहने पर ही आत्मा अकर्ता है और सन्निधि मात्र से वह कर्ता बन जाता है हे मुने ! कर्तृत्व एवं अकर्तृत्व इन दोनों को ही निवास अविनाशी परमात्मा में है। तुम्हें यह चमत्कार जिसमें भी परिलक्षित हो, उसी में प्रतिष्ठित हो जाओ। ‘मैं नित्य ही अकर्ता हूँ' ऐसी भावना दृढ़ करने पर केवल परमअमृत नामक सत्ता ही शेष रह जाती है ॥ ॥१२-१६॥ /

[ "‘मैं नित्य ही अकर्ता हूँ' ऐसी भावना दृढ़ करने पर केवल परमअमृत नामक सत्ता ही शेष रह जाती है ॥" एक भाव को पकड़ो , उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव लेकर उसीमें मत्त रह सकते हैं, उन्हीं के ह्रदय में सत्य-तत्व का उन्मेष होता है। ...... एक विचार लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ-उसी का चिंतन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसीमें जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क , स्नायु, शरीर के सर्वांग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है।....

" सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, मन का अपरिमित बल चाहिए। अध्यवसायसील साधक कहता है, " मैं चुल्लू में समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर चूर हो जायेंगे।" इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो, और तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त करोगे। "- स्वामी विवेकानन्द (१/९०) गीता २/२१

वेद अविनाशिनं नित्यं य एनम् अजम् अव्ययम्। 

कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।2.21।।

[वेद, अविनाशिनम्, नित्यम्, यः, एनम्, अजम्, अव्ययम् । कथम्, सः, पुरुषः, पार्थ, कम्, घातयति, हन्ति, कम् ॥

BG 2.21 : हे पार्थ! जो व्यक्ति इस 'शरीरी ' को अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा (जन्मरहित) और अपरिवर्तनीय (अव्यय) जानता है, वह कैसे किसी को मार सकता है या किसी को मरवा सकता है?

आध्यात्मिक रूप से उन्नत आत्मा उस अहंकार को दबा देती है जो हमें यह एहसास कराता है कि हम अपने कार्यों के कर्ता हैं। [ 'देहबुद्ध्या -'दासोऽहं' के भाव से उन्नत व्यक्ति, उस अहंकार को दबा देता है जो हमें यह एहसास कराता है कि हम अपने कार्यों के कर्ता हैं।] उस अवस्था में, व्यक्ति देख सकता है कि भीतर बैठा 'शरीरी' आत्मा वास्तव में कुछ भी नहीं करता है। ऐसी उन्नत आत्मा, सभी प्रकार के कर्म करते हुए भी उनसे कभी कलंकित नहीं होती। श्रीकृष्ण अर्जुन को सलाह दे रहे हैं कि उसे स्वयं को उस प्रबुद्ध स्तर तक ऊपर उठाना चाहिए, स्वयं को अकर्ता के रूप में देखना चाहिए, अहंकार से मुक्त होना चाहिए, और अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, न कि उससे विमुख होना चाहिए। 'शरीरी' युद्ध में मारने वाला नहीं बनता क्योंकि इसमें कर्तापन नहीं है। जब 'शरीरी' मारने वाला अर्थात् 'कर्ता' नहीं बन सकता, तब यह मरने वाला अर्थात् 'क्रिया का विषय (कर्म) ' भी कैसे बन सकता है। तात्पर्य यह है कि यह शरीरी किसी भी क्रिया का कर्ता और कर्म नहीं बनता। अतः मरने -मारने में शोक नहीं करना चाहिये प्रत्युत शास्त्र की आज्ञा के अनुसार प्राप्त कर्तव्य-कर्म का पालन करना चाहिये। 'शरीरी' या 'आत्मा' कर्ता क्यों नहीं हो सकता? क्योंकि वह न मरता है , न मार सकता है। ]  

स्थिति प्रकरण ?       

निदाघ शृणु सत्त्वस्था जाता भुवि महागुणाः ।

ते नित्यमेवाभ्युदिता मुदिताः ख इवेन्दवः ॥ ||१७||

नापदि ग्लानिमायान्ति निशि हेमाम्बुजं यथा। 

नेहन्ते प्रकृतादन्यद्रमन्ते शिष्टवर्मनि ॥ ||१८||

आकृत्यैव विराजते मैत्र्यादिगुणवृत्तिभिः ।

समाः समरसाः सौम्य सततं साधुवृत्तयः ॥ ||१९|| 

अब्धिवद्धृतमर्यादा भवन्ति विशदाशयाः । 

नियतिं न विमुञ्चन्ति माहान्तो भास्करा इव ॥ ||२०||

अतः हे निदाघ! जो प्राणी सत्व में स्थित होकर इस लोक में प्रकट हुए हैं, वे ही महान् गुणवान् हैं । वे ही सदा उन्नतिशील होते हुए आकाश में स्थित चन्द्रमा के समान हर्षित होते रहते हैं। [यह सब कुछ मन ही है। इस मन की चिकित्सा हो जाने पर, जगज्जालरूपी सारी व्याधियों की चिकित्सा हो जाती है। चित्त यानि मनवस्तु के मौजूद रहते दृश्य-जगत का शमन होना सम्भव नहीं है।  सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य स्वर्णिम कमल की भाँति रात्रिकालरूप आपत्तियों में कुम्हलाते नहीं हैं वे प्राप्त भोगों के अतिरिक्त अन्य पदार्थों की इच्छा नहीं करते, वरन् शास्त्रोक्त मार्ग में ही भ्रमण करते रहते हैं। वे स्वतः अपने मन के अनुकूल रहकर ही मैत्री, करुणा, मुदिता एवं उपेक्षा आदि गुणों से विभूषित होते रहते हैं । हे सौम्य ! वे समान भाव में रहते हुए सतत साधु वृत्ति में एकरस बने रहते हैं । मर्यादा से परे होकर भी वे समुद्र के समान विशाल हृदय वाले हो जाते हैं। वे भगवान् भास्कर की भाँति अपने नियत-पथ पर हमेशा गमन करते रहते हैं॥ ॥१७-२०॥ 

कोऽहं कथमिदं चेति संसारमलमाततम् ।

 प्रविचार्यं प्रयत्नेन प्राज्ञेन सह साधुना ॥ ||२१||

नाकर्मसु नियोक्तव्यं नानार्येण सहावसेत् । 

द्रष्टव्यः सर्वसंहर्ता न मृत्युरवहेलया ॥ ||२२||

शरीरमस्थि मांसं च त्यक्त्वा रक्ताद्यशोभनम्। 

भूतमुक्तावलीतन्तुं चिन्मात्रमवलोकयेत्॥ ||२३|| 

उपादेयानुपतनं हेयैकान्तविसर्जनम्। 

यदेतन्मनसो रूपं तद्ब्राह्यं विद्धि नेतरत्॥ ||२४||

गुरुशास्त्रोक्तमार्गेण स्वानुभूत्याच चिद्घने । 

ब्रह्मैवाहमिति ज्ञात्वा वीतशोको भवेन्मुनिः ।। ||२५||

प्राज्ञोंसंतजनों के साथ प्रयत्नपूर्वक यह चिन्तन करना चाहिए कि ‘मैं कौन (क्या) हूँ?' यह विराट् विश्व-प्रपञ्च किस प्रकार प्रादुर्भूत हुआ ? कभी निरर्थक कार्यों में न लगा रहे तथा अनार्य पुरुष के संग से सदैव अपने को बचाता रहे। सभी को संघारक, मृत्यु के प्रति उपेक्षा भाव से न देखे। यदि उपेक्षा करनी ही है, तो शरीर, अस्थि, मांस एवं रक्त आदि को घृणास्पद जानकर उनकी उपेक्षा करनी चाहिए। जिस प्रकार मोती की लड़ियों में सूत्र पिरोया जाता है, उसी प्रकार प्राणियों में पिरोये हुए परमपिता परमात्मा पर ही दृष्टि रखे उपयोगी वस्तु की ओर भागना एवं अनुपयोगी वस्तु का सदैव के लिए त्याग कर देना ही मन का स्वभाव है। वह बाह्य है, आन्तरिक नहीं, इसे जानना चाहिए। परमात्मतत्त्व के विषय में गुरु एवं शास्त्र के अनुसार बताये हुए मार्ग से तथा स्वानुभूति से ‘मैं ही ब्रह्म हूँ', ऐसा जानकर शोक-रहित हो जाए ॥ ॥२१-२५॥

यत्र निशितासिशतपातनमुत्पलताडनवत्सोढव्यमग्निदाहो हिमसेचनमिवाङ्गारावर्तनं चन्दनचर्चेव निरवधिनाराचविकिरपातो निदाघविनोदनधारागृहशीकरवर्षणमिव स्वशिरश्छेदः सुखनिद्रेव मूकीकरणमाननमुद्रेव बाधिर्यं महानुपचय इवेदं नावहेलनया भवितव्यमेवं दृढवैराग्याद्बोधो भवति । गुरुवाक्यसमुद्भूतस्वानुभूत्यादिशुद्धया। यस्याभ्यासेन तेनात्मा सततं चावलोक्यते ॥ ||२६||

ऐसी अवस्था में खड्ग जैसा कठोर आघात, कमल के कोमल अधिात के सदृश तथा अग्नि द्वारा दग्ध किये जाने का प्रभाव, शीतल जल में स्नान करने की भाँति सहन करने योग्य हो जाता है। आग के दहफते अंगारों पर लेटना, चन्दन के लेप के समान शीतल प्रतीत होता है। शरीर पर सतत बाणों के समूह का आघात, गर्मी को शान्त करने वाले फव्वारे के जलकणों की वर्षा के सदृश बन जाता है। सिर का काटा जाना, सुखप्रदायिनी निद्रा के समान; (जिह्वा आदि काटकर) गूँगा हो जाना, मौनावलम्बन के समान;बधिर हो जाना, उन्नति के समान सुख प्रदायी होता है; लेकिन यह अवस्था उपेक्षा करने से नहीं मिलती । इसकी प्राप्ति दृढ़निश्चयी होकर वैराग्यजनित आत्मज्ञान से ही सम्भव है। गुरु एवं शास्त्र वचनों के अनुसार तथा अन्तः अनुभूति के माध्यम आदि से ओ अन्तः की शुद्धि होती है, उसी के सतत अभ्यास से आत्म-साक्षात्कार किया जा सकता है ।। 26

विनष्टदिग्भ्रमस्यापि यथापूर्व विभाति दिक् । 

तथा विज्ञानविध्वस्तं जगन्नास्तीति भावय ॥ ||२७||

न धनान्युपकुर्वन्ति न मित्राणि न बान्धवाः। 

न कायक्लेशवैधुर्यं न तीर्थायतनाश्रयः।

 केवलं तन्मनोमात्रमयेनासाद्यते पदम् ॥ ||२८||

जैसे दिशा-भ्रम नष्ट हो जाने से पूर्व की भाँति ही दिशाबोध होने लगता है, वैसे ही विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) के द्वारा अज्ञान नष्ट हो जाने पर जगत् की स्थिति नहीं रहती, ऐसी भावना करनी चाहिए । मनुष्य का उपकार न धन से,न मित्रों से, न बान्धवों  से; न शारीरिक क्लेश के नष्ट होने से और न ही तीर्थ-स्थल में निवास करने से ही मनुष्य लाभान्वित होता है; वह तो चिन्मात्र में विलीन होकर ही परमपद प्राप्त कर सकता है ॥ 28

यानि दुःखानि या तृष्णा दुःसहा ये दुराधयः ।

शान्तचेतःसु तत्सर्वं तमोऽर्केष्विव नश्यति ॥ २९॥

मातरीव परं यान्ति विषमाणि मृदूनि च । 

विश्वासमिह भूतानि सर्वाणि शमशालिनि ॥ ३०॥

 न रसायनपानेन न लक्ष्म्यालिङ्गितेन च । 

न तथा सुखमाप्नोति शमेनान्तर्यथा जनः ॥ ३१॥

 श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च भुक्त्वा च दृष्ट्वा ज्ञात्वा शुभाशुभम् । 

न हृष्यति ग्लायति यः स शान्त इति कथ्यते ॥ ३२॥

 तुषारकरबिंबाच्छं मनो यस्य निराकुलम् ।

 मरणोत्सवयुद्धेषु स शान्त इति कथ्यते ॥ ३३॥ 

तपस्विषु बहुज्ञेषु याजकेषु नृपेषु च।

 बलवत्सु गुणाढ्येषु शमवानेव राजते ॥३४।। 29-34  

स्थिर शान्तचित्त वाले व्यक्तियों के जितने भी दु:ख, तृष्णायें एवं दु:सह दुश्चिन्तायें हैं, वे और समस्त विकार ठीक वैसे ही विनष्ट हो जाते हैं, जैसे कि सूर्य की किरणों से अन्धकार विनष्ट हो जाता है। इस नश्वर जगत् में शम (मनोनिग्रह) से युक्त मनुष्य के कठोर एवं मृदु स्वभाव को समस्त प्राणी-जन वैसे ही विश्वास करते हैं, जैसा माता पर उसके पुत्र विश्वास करते हैं। अमृत-पान एवं लक्ष्मी के आलिङ्गन से वैसा सुख नहीं प्राप्त होता, जैसा सुख व्यक्ति अपने मन की शान्ति से प्राप्त करता है। शुभ एवं अशुभ के श्रवण से, भोजन से, स्पर्श से, दर्शन से एवं जानने से, जिस मनुष्य को न तो प्रसन्नता होती है और न ही दु:ख होता है, वही मनुष्य शान्त कहलाता है। चन्द्रमा के मण्डल की भाँति जिसका मन सदा स्वच्छ रहता है एवं मरण-काल, मांगलिक उत्सव तथा युद्ध में जिसका मन व्यग्र नहीं होता, वही मनुष्य शान्त कहलाता है। वह (शम प्रधान) पुरुष तपस्वी जनों में, बहुश्रुतों में, याज्ञिकों में राजाओं में, वन में वास करने वालों में एवं गुणज्ञों में भी शोभायमान होता है ॥॥२९-३४॥

 सन्तोषामृतपानेन ये शान्तास्तृप्तिमागताः ।

 आत्मारामा महात्मानस्ते महापदमागताः ॥ ३५॥ 

अप्राप्तं हि परित्यज्य सम्प्राप्ते समतां गतः ।

अदृष्टखेदाखेदो यः सन्तुष्ट इति कथ्यते ॥ ३६॥ 

नाभिनन्दत्यसम्प्राप्तं प्राप्तं भुङ्क्ते यथेप्सितम् । 

यः स सौम्यसमाचारः सन्तुष्ट इति कथ्यते ॥ ३७॥ 

रमते धीर्यताप्राप्ते साध्वीवाऽन्तःपुराजिरे । 

सा जीवन्मुक्ततोदेति स्वरूपानन्ददायिनी ॥ ३८॥

जो सन्तोषरूपी अमृत को पीकर शान्त एवं सन्तुष्ट हो जाते हैं, वे ही ज्ञानीजन आत्मा में रमण करते हुए ‘महापद (परमात्मपद) को प्राप्त करते हैं। जो प्राप्त न होने वाली वस्तु के प्रति चिन्तित नहीं होता और प्राप्त होने वाली वस्तु के प्रति समान (हर्ष रहित) रहता है, जिसने सुख एवं दुःख का अवलोकन नहीं किया, वास्तव में वही सन्तुष्ट कहा जाता है । जो अप्राप्त वस्तु की कभी आकांक्षा नहीं करता तथा उपलब्ध वस्तु का आवश्यकतानुसार ही उपभोग करता है, वही सौम्य एवं समभाव से श्रेष्ठ आचरण करने वाला व्यक्ति सन्तुष्ट कहा जाता है । अन्त:पुर के प्राङ्गण में जिस तरह साध्वी पत्नी प्रसन्न रहती है, वैसे ही सहज क्रम में प्राप्त वस्तु में जब बुद्धि रमण करने लगती है, तभी वह स्वरूपानंद प्रदायी जीवन्मुक्त स्थिति कहलाती है।35 -38

यथाक्षणं यथाशास्त्रं यथादेशं यथासुखम् । 

यथासंभवसत्सङ्गमिमं मोक्षपथक्रमम् । 

तावद्विचारयेत्प्राज्ञो यावद्विश्रान्तिमात्मनि ॥ ||३९||

समय एवं देश के अनुसार शास्त्रानुकूल आनन्दपूर्वक यथाशक्ति सत्संग में ही विचरण करते हुए इस मोक्षपथ के क्रम का तब तक ज्ञानीजन चिन्तन करते रहें, जब तक कि उन्हें आत्मिक विश्रान्ति न मिल जाये।

तुर्यविश्रान्तियुक्तस्य निवृत्तस्य भवार्णवात्। 

जीवतोऽजीवतश्चैव गृहस्थस्याथवा यतेः ।। ||४०||

 नाकृतेन कृतेनार्थो न श्रुतिस्मृतिविभ्रमैः। 

निर्मन्दर इवाम्भोधिः स तिष्ठति यथास्थितः॥ ||४१||

सदगृहस्थ हो अथवा संन्यासी, जो भी व्यक्ति तुरीयावस्था की विश्रान्ति से सम्पन्न है एवं इस संसार सागर से निवृत्त हो गया है, वह चाहे सांसारिक जीवन में व्यस्त रहे अथवा न रहे, उसे कोई भी कार्य करने या न करने से कोई मतलब नहीं है। उसे श्रुति-स्मृति के भ्रमजाल में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। वह तो मन्दराचल से विहीन (शान्त) सागर की भाँति आत्म-स्थित रहते हुए सभी कुछ प्राप्त कर लेता है ॥ 41/ (योग वा:  मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण- किसी भी युक्ति से महावाक्यार्थ का आश्रय लेना चाहिए। विद्वान् पुरुष को तबतक विचार करते रहना चाहिए, जबतक पुनः नष्ट न होने वाली तुर्यपद नामक शांतिमयी आत्मविश्रान्ति प्राप्त न हो जाये।)

सर्वात्मवेदनं शुद्धं यदोदेति तदात्मकम्

 भाति प्रसृतिदिक्कालबाह्यं चिद्रूपदेहकम्॥ ||४२|| 

एवमात्मा यथा यत्र समुल्लासमुपागतः ।

 तिष्ठत्याशु तथा तत्र तद्रूपश्च विराजते ॥ ||४३|| 

जब सभी के प्रति शुद्ध आत्मतत्त्व की अनुभूति की तदात्मक (एकत्व) वृत्ति का उदय हो जाता है, तब दिशा एवं काल में विस्तीर्ण हुआ सम्पूर्ण बाह्य जगत्, चिद्रूपात्मक ही प्रतीत होता है। इस तरह आत्मा जहाँ जिस रूप में उल्लास को प्राप्त होता है, वहाँ शीघ्र ही उसी रूप में वह अवस्थित हो जाता है एवं तदनुरूप ही विराजमान हो जाता है ॥ 43/

यदिदं दृश्यते सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्।

 तत्सुषुप्ताविव स्वप्नः कल्पान्ते प्रविनश्यति ॥ ||४४||

 ऋतमात्मा परं ब्रह्म सत्यमित्यादिका बुधैः । 

कल्पिता व्यवहारार्थं यस्य संज्ञा महात्मनः ॥ ||४५||

 यथा कटकशब्दार्थः पृथग्भावो न काञ्चनात्। 

न हेम कटकात्तद्वज्जगच्छब्दार्थता परा॥ ||४६||

जो भी कुछ स्थावर एवं जंगम दृश्यरूप यह सम्पूर्ण जगत् परिलक्षित होता है, वह प्रलय के समय में ठीक वैसे ही विनष्ट हो जाता है, जैसे सुषुप्तावस्था में स्वप्न अदृश्य हो जाता है। यह आत्मा ऋत (आदिकारण) रूप है, परब्रह्म परमेश्वर है। वह सत्यरूप है। ये समस्त संज्ञायें विद्वज्जन एवं महान् आत्माओं ने व्यवहार के लिए कल्पित की हैं। जैसे कङ्कण (हाथ का आभूषण) शब्द एवं उसका अर्थ स्वर्ण से अलग अस्तित्व नहीं रखता और कङ्कण से प्रतिष्ठित स्वर्ण कङ्कण से अलग अपना अस्तित्व नहीं रखता, ठीक वैसे ही ‘जगत्' शब्द का तात्पर्य भी परब्रह्म ही होता है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं॥॥४४-४६॥

[जैसे जल से पृथक उसकी लहरें नहीं स्थित हो सकती वैसे ही सृष्टियाँ भी आत्मा से पृथक स्थित नहीं हो सकतीं । जैसे पवन से उसका स्पन्दन कभी अन्य नहीं है, स्पन्दन सदा वायुही है, वैसे ही जगत् भी ब्रह्म से अन्य वस्तु नहीं है।

तेनेयमिन्द्रजालश्रीर्जगति प्रवितन्यते । 

द्रष्टुर्दश्यस्य सत्तान्तर्बन्ध इत्यभिधीयते ॥ ||४७||

द्रष्टा दृश्यवशाद्बद्धो दृश्याभावे विमुच्यते। 

जगत्त्वमहमित्यादिसर्गात्मा दृश्यमुच्यते ॥ ||४८||

मनसैवेन्द्रजालश्रीर्जगति प्रवितन्यते । 

यावदेतत्संभवति तावन्मोक्षो न विद्यते ॥ ||४९||

उस अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर ने जगत् के रूप में यह इन्द्रजाल विस्तीर्ण किया है। द्रष्टा का दृश्य श्री सत्ता से अन्त: सम्बद्ध होना ‘बन्ध' कहा जाता है दृश्य के वशीभूत होकर ही द्रष्टा बन्धन में पड़ता है और दृश्य के अभाव में ही वह मोक्ष प्राप्त करता है। यह जगत्, ‘मेरा-तेरा’ रूप भाव वाली सृष्टि, दृश्य कहलाती हैइस संसार में प्रपञ्चरूपी इन्द्रजाल मन के द्वारा ही प्रबुद्ध होता है। जब तक मन की यह कल्पना समाप्त नहीं होती, तब तक मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता नहीं दिखलाई पड़ता ॥ ॥४७-४९॥ 

ब्रह्मणा तन्यते विश्वं मनसैव स्वयंभुवा। 

मनोमयमतो विश्व यन्नाम परिदृश्यते ॥ ||५०||

 न बाह्ये नापि हृदये सद्रूपं विद्यते मनः। 

यदर्थं प्रतिभानं तन्मन इत्यभिधीयते ।। ||५१||

संकल्पनं मनो विद्धि संकल्पस्तत्र विद्यते ।

 यत्र संकल्पनं तत्र मनोऽस्तीत्यवगम्यताम्॥ ||५२||

 संकल्पमनसी भिन्ने न कदाचन केनचित्। 

संकल्पजाते गलिते स्वरूपमवशिष्यते ॥ ||५३||

यह संसार स्वयंभू ब्रह्मा जी को मानसिक सृष्टि है, अत: दृष्टिगोचर होने वाले इस विश्व को मनोमय ही समझना चाहिए । ब्रह्म अथवा अन्तःकरण में कहाँ पर भी यह मन सरूप में अवस्थित नहीं है। विषय वस्तुओं का बोध ही मन कहलाता है। संकल्प-विकल्प होना ही मन का स्वभाव है; क्योंकि वह संकल्प में ही रमण कर रहा है। अतः जो संकल्प है, वही मन है, ऐसा जानना चाहिए। आज तक कोई भी संकल्प (इच्छा) और मन को पृथक् नहीं कर सका। समस्त संकल्पों के विनष्ट हो जाने पर आत्मस्वरूप ही शेष रहता है॥५०-५३॥

अहं त्वं जगदित्यादौ प्रशान्ते दृश्यसंभ्रमे।

 स्यात्तादृशी केवलता दृश्ये सत्तामुपागते ॥ ||५४|| 

महाप्रलयसंपत्तौ ह्यसत्तां समुपागते । 

अशेषदृश्ये सर्गादौ शान्तमेवावशिष्यते ॥ ||५५||

अस्त्यनस्तमितो भास्वानजो देवो निरामयः। 

सर्वदा सर्वकृत्सर्वः परमात्मेत्युदाहृतः ॥ ||५६||

यतो वाचो निवर्तन्ते यो मुक्तैरवगम्यते ।

यस्य चात्मादिकाः संज्ञाः कल्पिता न स्वभावतः ।। ||५७||

‘मेरा-तेरा' एवं इस जगत् आदि दृश्य प्रपञ्च (इद्रजाल) के शान्त हो जाने पर दृश्य जय सत्ता को अर्थात् परमतत्व को प्राप्त कर लेता है, तब तदनुरूप ही वह कैवल्यावस्था को प्राप्त कर लेता है। महाप्रलय की स्थिति आने पर जब सम्पूर्ण दृश्य जगत् अस्तित्व रहित हो जाता है, तब उस समय सृष्टि के पूर्वकाल में केवल प्रशान्त आत्मा मात्र ही शेष रहता हैजो आत्मारूपी सूर्य (सविता) कभी अस्ताचल की ओर गमन नहीं करता, जो अजन्मा एवं सर्वदोषरहित देव है, सदैव सर्वकर्ता तथा सर्वरूप है; जहाँ वाक्शक्ति जाकर वापस आ जाती है; जिसे मुक्त पुरुष ही जानते हैं और जिसकी आत्मा आदि संज्ञाएँ कल्पना मात्र हैं, स्वाभाविक नहीं है: (वे ही अविनाशी परब्रह्म परमेश्वर कहे जाते हैं)।। ॥५४-५७॥ 

चित्ताकाशं चिदाकाशमाकाशं च तृतीयकम्।

 द्वाभ्यां शून्यतरं विद्धि चिदाकाशं महामुने।। ||५८||

देशाद्देशान्तरप्राप्तौ संविदो मध्यमेव यत्। 

निमेषेण चिदाकाशं तद्विद्धि मुनिपुङ्गव॥ ||५९||

तस्मिन्निरस्तनि:शेषसंकल्पस्थितिमेषि चेत् ।

 सर्वात्मकं पदं शान्तं तदा प्राप्नोष्यसंशयः ।। ||६०||

उदितौदार्यसौन्दर्यवैराग्यरसगर्भिणी। 

आनन्दस्यन्दिनी यैषा समाधिरभिधीयते ।। ||६१||

दृश्यासंभवबोधेन रागद्वेषादितानवे।

 रतिर्बलोदिता यासौ समाधिरभिधीयते ।। ||६२||

दृश्यासंभवबोधो हि ज्ञानं ज्ञेयं चिदात्मकम् । 

तदेव केवलीभावं ततोऽन्यत्सकले मृषा ॥ ||६३||

जगत में तीन प्रकार के आकाश हैं- एक भूताकाश (भौतिक आकाश), दूसरा चित्ताकाश और तीसरा चिदाकाश (सर्वव्यापक पदार्थ)है। हे मुने! इन तीनों में से चिदाकाश अति सूक्ष्म बतलाया गया है । हे मुनिश्रेष्ठ ! (ज्ञान के क्षेत्र में) एक विषय (देश)  से दूसरे विषय (देश) की प्राप्ति के मध्य में जिस अवकाश का क्षणभर के लिए अनुभव होता है उसको चिदाकाश समझो ।यदि तुम उस चिदाकाश में समस्त संकल्पों से रहित होकर प्रतिष्ठित हो जाओ तो उस परमपद को प्राप्त हो जाओगे जो कि परमतत्त्व और सबका आत्मा है। भेदभाव को त्यागकर भौतिक आकाश, चित्ताकाश और चिदा-काश तीनों को एक ही समझना चाहिये । यदि तुम उस अतिश्रेष्ठ चिदाकाश में सभी संकल्पों को छोड़कर प्रतिष्ठित होते हो, तो निश्चय ही सर्वात्मक शान्त पद को प्राप्त करोगे ।चिदाकाश की स्थिति तक पहुँच जाने के बाद जिस सुन्दर, उदार एवं वैराग्यरस से ओत-प्रोत आनन्दमय अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे ही सहज समाधि कहा जाता है। जब यह बोध हो जाता है कि दृश्य पदार्थों की सत्ता है ही नहीं और राग-द्वेष आदि समस्त दोषों की समाप्ति हो जाती है; तब उस समय अभ्यास बल के द्वारा जो एकाग्र-रति (भानन्द) प्रादुर्भूत होती है, उसे ही समाधि कहा जाता है । दृश्य जगत् की सत्ता का अभाव अब अन्त:करण में बोधरूप में आता है, तभी वह संशयरहित ज्ञान का स्वरूप कहलाता है। वह ही चिदात्मक ज्ञेयतत्त्व है, वही आत्म कैवल्य रूप है, इसके सिवाय अन्य सभी कुछ असत्य है॥५८-६३॥

मत्त ऐरावतो बद्धः सर्षपीकोणकोटरे ।

 मशकेन कृतं युद्धं सिंहौधैरेणुकोटरे ॥ ||६४||

पद्माक्षे स्थापितो मेरुर्निगीर्णो भृङ्गसूनुना। 

निदाघ विद्धि तादृक्त्वं जगदेतद्भ्रमात्मकम्॥ ||६५||

जिस प्रकार मदोन्मत्त ऐरावत हाथी का सरसों के एक किनारे के छिद्र में बाँधा जाना असंभव है, एक धूलिकण के बिल में मच्छरों का सिंहों के साथ युद्ध करना शक्य नही है और कमल की पंखुडी में प्रतिष्ठित सुमेरुपर्वत को भ्रमर के बच्चे द्वारा निगले जाने की कथा मिथ्या हैउसी प्रकार यह विश्व भी अस्तित्व में नहीं जा सकता। अतः हे निदाघ । तुम्हें इसकी सत्ता को भ्रमात्मक ही जानना चाहिए॥६४-६५॥/  

योग वासिष्ठ -उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग १११ /पेज-२०१ चित्त रूपी रोग की चिकित्सा के उपाय तथा मनोनिग्रह के लाभ। 

यह 'चित्त' (mind stuff या मनवस्तु) एक महान रोग है। इसकी चिकित्सा के लिये अभीष्ठ-साधक, निश्चित रूप से लाभ पहुँचाने वाली, परम स्वादिष्ट, एक बहुत बड़ी औषध है, जो अपने ही अधीन है; उसे बता रहा हूँ, सुनो। अपने ही पुरुषार्थमय प्रयत्न से बाह्य इन्द्रिय विषयों के प्रति राग का परित्याग करके 'परमात्म-चिन्तन' करने से अर्थात वैराग्य के साथ विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से चित्त रूपी वैताल पर शीघ्र विजय पायी जाती है (पतंजलि के अनुसार प्रिय या सुखद वस्तु की ओर आसक्ति, आकर्षण या प्रवृत्ति को राग कहते हैं जिसका मूल अविद्या ओर परिणाम क्लेश है।) जो मनुष्य अभीष्ट वस्तु (बाह्य विषयभोग, या ऐषणाओं में आसक्ति) को त्यागकर चित्त के राग आदि रोगों से रहित हो कर 'स्वस्थ' बना रहता है, उसने अपने मन को उसी प्रकार जीत लिया है, जैसे मजबूत दाँतों वाला हाथी खराब और कमजोर दाँतवाले हाथी को जीत लेता है । 

वशिष्ठ जी ने कहा है 'लालयेत्‌ चित्त बालकम्‌' -चित्त रूपी शिशु का आत्म-संवेदन (आत्मा या परमात्मा का सतत चिंतन) के प्रयत्न से पोषण किया जाता है, अर्थात् उक्त प्रयत्न से उसके मोह, चंचलता आदि रोगों का उपचार कर उसे स्वस्थ बनाया जाता है। उसे असत् (असत् या जड़ वस्तु) से खींचकर वस्तु (सत्य या आत्म-तत्त्व - विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास) में लगाया जाता है तथा बोध के साथ उसे पूर्ण किया जाता है।

स्व-संवेदन  (आत्मा या परमात्मा के निरन्तर चिन्तन ) रूपी प्रयत्न से चित्तरूपी बालक का पालन किया जाता है अर्थात् उक्त यत्नसे उसके राग ओर चपळता आदि रोगोंकी चिकित्सा करके उसे खस्थ बनाया जाता है। उसे अवस्तु (मिथ्या अथत्रा अनात्मवस्तु) से हटाकर वस्तु (सत्य अयत्रा आत्मतत्त्व) में लगाया जाता है तथा उसे बोध से सम्पन्न किया जाता है। 

{वशिष्ठ जी ने कहा है 'लालयेत्‌ चित्त बालकम्‌': स्व-संवेदन [self- contemplation, आत्म-चिंतन या परमात्मा  (ठाकुर-माँ -स्वामीजी) का निरन्तर चिन्तन।] रूपी प्रयत्न से चित्त रूपी बालक का पालन किया जाता है। अर्थात् उक्त यत्न से  (विवेकदर्शन के अभ्यास से) चित्त के राग (attachment-मोह या आसक्ति) ओर चपलता (fickleness-अस्थिरता) आदि रोगों की चिकित्सा करके उसे स्वस्थ बनाया जाता है। उसे अवस्तु (मिथ्या अथवा जड़ या अनात्मवस्तु) से खींचकर वस्तु (सत्य अथवा आत्म-तत्त्व- विवेकानंद-दर्शन के अभ्यास) में लगाया जाता है तथा उसे आत्मबोध से सम्पन्न किया जाता है।} 

जैसे बालक को प्यार या भय दिखाकर बिना प्रयत्न के ही इधर-उधर जहाँ चाहे लगाया जा सकता है, उसी प्रकार भावों से (गुरु प्रदत्त नाम या महावाक्यों से) मन को भी अनायास ही अन्तरात्मा में लगाया जा सकता है। ऐसा करने में कठिनाई ही क्या है ? भविष्य में अभ्युदय-रूपी फल को देने वाले सत्कर्म (समाधि के अभास) में लगे हुए मन को अपने पुरुषार्थ से ही चेतन परमात्मा के साथ संयुक्त करे । 

जो सर्वथा अपने अधीन और परम हितकर है, वह अभीष्ट वस्तु (इन्द्रिय विषय भोग) का त्यागरूपी वैराग्य जिसके लिये कठिन हो गया है, वह मनुष्य नहीं, विषयों का कीड़ा है। उसे धिक्कार है।  जैसे कोई  पहलवान  किसी बालक को अनायास ही पछाड़ देता है, उस प्रकार अपनी बुद्धि से अरम्य विषय-समूह में परम रमणीय परब्रह्म परमात्मा की भावना करके मन को बिना यत्नके ही जीत लिया जा सकता है ।

पौरुष रूपी प्रयत्न से चित्त को शीघ्र ही जीत लिया जाता है। जो मनुष्य चित्त को जीतकर उसके प्रभाव  से रहित हो गया है, वह बिना किसी प्रयास के परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। अपने 'चित्त पर आक्रमण करके उसे वश कर लेना'- मात्र जो सहजसाध्य और स्वाधीन कार्य है, उसे ही जो लोग नहीं कर सकते, वे पुरुष नहीं, गीदड़ हैं। उन्हें धिक्कार है। एकमात्र अपने पौरुष से ही सिद्ध होने वाला जो अभीष्ट वस्तु (भोग-सुख ) का त्यागरूपी मनोनिग्रह-कर्म है, उसके बिना शुभगति नहीं हो सकती। 

   अभीष्ट बाह्य विषयों का स्मरण न करना अथवा मनो-वाञ्छित मोक्ष सुखकी प्राप्ति कराना जिसका स्वरूप है, उस मुख्य साधन मनोनिग्रह-या मनःसयोग का अभ्यास किये बिना गुरु का उपदेश, शास्त्र के अर्थका चिन्तन और मन्त्र आदि सारे साधन या युक्तियाँ तिनको के समान व्यर्थ हैं।

संकल्पों का परित्याग (इच्छाओं का परित्याग)-रूपी शस्त्र  से जब चित्त रूपी वृक्ष का समूल उच्छेद हो जाता है, तब साधक सर्व-स्वरूप सर्वव्यापी शान्त ब्रह्मरूप हो जाता है । श्रीराम ! जैसे दिग्भ्रम होने पर पूर्व में पश्चिम की प्रतीति होने लगती है और वह अनुभव के विपरीत बुद्धि उस समय बिल्कुल स्थिर हो जाती है। परंतु विवेक-प्रयोग रूपी पुरुष- प्रयत्न (पौरुष) से उस 'misconceptions'- भ्रान्त बुद्धि (भेंड़त्व) का भी शीघ्र ही निवारण किया जा सकता है, उसी तरह मनको भी वैराग्यरूपी पुरुष प्रयत्न से शीघ्र ही जीता जा सकता है। मनमें उद्वेग का न होना राज्य आदि सम्पत्ति का मूल कारण है। उद्वेग या उकताहट न होनेसे ही जीव को अपने मन पर विजय प्राप्त होती है, जिससे तीनों लोको पर विजय पाना तृण के समान सहज हो जाता है। 

जो नराधम (wretched people-उद्विग्न) अपने मन के निग्रह में भी समर्थ नहीं हैं, वे व्यवहार दशाओं (practical situations) में व्यवहार का निर्वाह कैसे कर सकेंगे ? अपने विषय में इस प्रकार की कुदृष्टियाँ (मान्यतायें -evil views) :  मैं पुरुष/स्त्री हूँ, मैं मर गया, पुनः उत्पन्न हुआ हूँ और जी रहा हूँ,  इत्यादि चञ्चल चित्त की वृत्तियाँ ही प्रतीत होती हैं, जो बिना हुए ही प्रकट हुई हैं। यहाँ न तो किमी की मृत्यु होती है और न कोई जन्म ही लेता है। मन (अहं?) स्वयं ही अपने मरण का तथा लोकान्तरगमन का  संकल्प मात्र से अनुभव करता है।

जो नित्य सत्, सबका हितकारी, मायामयी मलिनता से रहित और सर्वव्यापी परमात्मा हैं, उनमें चित्त का लय हुए बिना मुक्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है। इस बात को ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल के लोकों में रहने वाले तत्वदर्शी विद्वानो ने बारंबार विचार किया है और सब के सब इसी निश्चयपर - पहुँचे हैं कि चित्त की शान्ति के सिवा मुक्ति का दूसरा कोई उपाय है ही नहीं। ऋत, सत्य, व्यापक और निर्मल ज्ञान का हृदय में उदय होने पर मन के लय होने मात्र से परम शान्ति प्राप्त हो जाती है। यदि आपातरमणीय विषय को तुम-जैसे विद्वान ने अरमणीय वस्तुओं की कोटि में  समझ लिया है, तब तो मेरा विश्वास है कि तुमने चित्त के सारे अङ्ग काट डाले हैं।

 यह सामने दिखायी देनेवाला  जो वह (पिता से उत्पन्न ) शरीर है , वह मैं हूँ और यह जो घर,दुकान , होटल,  खेत आदि धन है, यह सब मेरा है। यह 'मैं' और 'मेरा' ही मन है। यदि यह में और मेरेपन की भावना न की जाय तो उससे मन उसी तरह कट जाताहै, जैसे हँसियासे तृण। जैसे शरद ऋतुमें आकाशमेंबिखरे हुए बादलोंके टुकडे वायुद्वारा उड़ा दिये जातेहैं, उसी प्रकार में और मेरेपनकी कल्पना या भावनान करनेसे मन मी उड़ा दिया जाता है- नष्ट कर दियाजाता है। जैसे शरद ऋतु में आकाश में बिखरे हुए बादलों के टुकडे वायु द्वारा उड़ा दिये जाते हैं , उसी प्रकार 'में ' और 'मेरे' -पन की कल्पना या भावना न करने से मन मी उड़ा दिया जाता है- नष्ट कर दिया जाता है। 

 इसलिए कोई विज्ञ पुरुष जैसे अपने बालक पुत्र को अच्छे कर्म में लगाता है, उसी तरह विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह अपने मन को कल्याण में लगाये । जिसका नाश होना कठिन है तथा जो नूतन या, बालक न होकर सयाना और दर्पसे भरा हुआ है, उस मन रूपी सिंह को, जो ससार का विस्तार करने वाला है, जो लोग मार डालते हैं, वे निर्वाणपद का उपदेश देने वाले महात्मा जन इस ससारमें धन्य हैं। उनकी सदा ही विजय होती है। भले ही प्रलयकाल के प्रचण्ड पवन प्रवाहित हों, चारों समुद्र एक में मिलकर एकार्णव हो जायें और बारहों सूर्य एक साथ तपने लगें; परंतु जिसका मन शान्त हो गया है, उस पुरुष की कभी कोई हानि नहीं होती।

चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशदूषितम्।

तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ।। ||६६||

मनसा भाव्यमानो हि देहतां याति देहकः । 

देवासनया मुक्तो देहधर्मेनं लिप्यते ॥ ||६७||

कल्पं क्षणीकरोत्यन्तः क्षणं नयति कल्पताम् । 

मनोविलाससंसार इति में निश्चिता मतिः ।। ||६८||

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः । 

नाशान्तमनसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ ||६९||

राग-द्वेष आदि के विकारों से दूषित चित्त ही जगत् है। वही चित्त समस्त दोषों से मुक्त हो जाता है, तभी इसे जगत् का अन्त यानी मोक्ष की प्राप्ति होना कहा जाता है। मन के द्वारा शरीर (M/F) की भावना किये जाने पर ही आत्मा देहात्मक बनती है। जब वह शारीरिक वासनाओं से मुक्त होती है, तभी वह (मन) शरीर के धर्मों में लिप्त नहीं होती। यह मन ही कल्प को क्षण बना देता है और क्षण में कल्पत्व भर देता है। अतः मेरी समझ में यह जगत् केवल मनोविलास अर्थात् मन का खेल मात्र ही है। जो मनुष्य दुश्चरित्रता से विलग नहीं हुआ है, एकाग्रचित्त नहीं है और जिसका चित्त अभी शान्त नहीं हुआ है, ऐसे पुरुष को आत्मसाक्षात्कार नहीं होता (कठोपनिषद् 1.2.24) ॥ ॥66-69॥

तद्ब्रह्मानन्दमद्वन्द्व निर्गुणं सत्यचिद्धनम्। 

विदित्वा स्वात्मनो रूपं न बिभेति कदाचन ॥ ||७०|| 

परात्परं यन्महतो महान्तं स्वरूपतेजोमयशाश्वतं शिवम्।

 कविं पुराणं पुरुषं सनातनं सर्वेश्वर सर्वदेवैरुपास्यम् ॥ ||७१|| 

अहं ब्रह्मेति नियतं मोक्षहेतुर्महात्मनाम् ।

 द्वे पदे बन्धमोक्षाय निर्ममेति ममेति च। 

ममेति बध्यते जन्तुर्निर्ममेति विमुच्यते ।। ||७२||

उस आनन्द स्वरूप, द्वन्द्वों से परे, गुणरहित (गुणों से परे), सत् स्वरूप, चिद्घन परब्रह्म को अपना-निज स्वरूप जान लेने के पश्चात् मनुष्य को किञ्चित् भी भय नहीं होता। जो महान् से महानतम एवं श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम, तेज:स्वरूप, शाश्वत, कल्याण-प्रद, सर्वज्ञ, पुराणपुरुष, सनातन, सर्वेश्वर तथा सभी देवगणों के द्वारा सम्पूजित एवं उपास्य है, वह अविनाशी ब्रह्म मैं हूँ- ऐसा निश्चय महात्माओं के लिए मुक्ति का माध्यम होता है । बन्धन एवं मोक्ष के दो ही कारण बनते हैं, जिनमें प्रथम है-ममता एवं द्वितीय ममतारहित होना । ममता के द्वारा जीव बन्धन में पड़ता है और ममता से रहित हो जाने के पश्चात् वह (जीव) मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।। ॥७०-७२॥

जीवेश्वरादिरूपेण चेतनाचेतनात्मकम्।

 ईक्षणादिप्रवेशान्ता सृष्टिरीशेन कल्पिता।

जाग्रदादिविमोक्षान्तः संसारो जीवकल्पितः ॥ ||७३||

त्रिणाचिकादियोगान्ता ईश्वरभ्रान्तिमाश्रिताः । 

लोकायतादिसांख्यान्ता जीवविभ्रान्तिमाश्रिताः ॥ ||७४||

तस्मान्मुमुक्षुभिर्नैव मतिर्जीवेशवादयोः ।

कार्या किंतु ब्रह्मतत्त्वं निश्चलेन विचार्यताम्॥ ||७५||

जीव रूप एवं ईश्वररूप से ईक्षण अर्थात् ब्रह्म के संकल्प से प्रारम्भ होकर तथा ब्रह्म में प्रवेश के अन्त वाले इस सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक सृष्टि की कल्पना ईश्वर के द्वारा ही की गई है। जाग्रत् अवस्था से लेकर मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त सम्पूर्ण जगत् जीव के द्वारा ही कल्पित है। कठोपनिषद् के अन्तर्गत त्रिणाचिकेताग्नि से लेकर श्वेताश्वतर का योगपर्यन्त ज्ञान ईश्वरीय भ्रान्ति के आश्रित है। चार्वाक मत से लेकर कपिल के सांख्यसिद्धान्त तक का दार्शनिक ज्ञान (सांख्य आदि दर्शनों में प्रतिपादित ज्ञान) जीव भ्रान्ति का आधार है। अतः जो पुरुष मुक्ति की आकांक्षा करता है, वह जीव तथा ईश्वर के वाद-विवाद में बुद्धि को भ्रमित न करे, वरन् उसे दृढ़तापूर्वक ब्रह्मतत्त्व का ही निरन्तर चिन्तन करना चाहिए।।73 - 75

अविशेषेण सर्वं तु यः पश्यति चिदन्वयात् । 

स एव साक्षाद्विज्ञानी स शिवः स हरिर्विधिः ।। ||७६||

दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम्। 

दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरोः करुणां विना॥ ||७७||

 उत्पन्नशक्तिबोधस्य त्यक्तनि:शेषकर्मणः।

 योगिनः सहजावस्था स्वयमेवोपजायते ॥ ||७८|| 

यदा ह्येवैष एतस्मिन्नल्पमप्यन्तरं नरः ।

 विजानाति तदा तस्य भयं स्यान्नात्र संशयः ॥ ||७९||

सर्वगं सच्चिदानन्दं ज्ञानचक्षुर्निरीक्षते ।

 अज्ञानचक्षुर्नेक्षेत भास्वन्तं भानुमन्धवत् ॥ ||८०||

 प्रज्ञानमेव तद्ब्रह्म सत्यं प्रज्ञानलक्षणम् ।

 एवं ब्रह्मपरिज्ञानादेव मर्योऽमृतो भवेत् ॥ ||८१||

 भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।

 क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे॥ ||८२||

ज्ञानवान् पुरुष वही है, जो सम्पूर्ण दृश्य-जगत् को निर्विशेष चित् रूप मानता हो । वही (कल्याणकारी) शिव है, वही ब्रह्मा एवं विष्णु भी वही है। विषय वासनाओं का त्याग अत्यन्त दुर्लभ है, तत्त्वज्ञान को प्राप्त करना भी अत्यन्त कठिन है और सदगुरु की अनुकम्पा के बिना सहजावस्था को प्राप्त करना भी अत्यधिक दुःसाध्य है। जिसने अपनी बोधात्मिका शक्ति को जाग्रत् कर लिया है और अपने समस्त कर्मों का परित्याग कर दिया है, ऐसा योगी स्वयमेव सहजावस्था को प्राप्त कर लेता है; जब तक व्यक्ति को इसमें थोड़ा भी अन्तर मालूम पड़ता है, तब तक उसके लिए भय है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। सर्वरूप-परब्रह्म परमेश्वर को ज्ञान के नेत्रों से देखा जा सकता है, जिसके पास ज्ञान के नेत्रों का अभाव है, वह अविनाशी ब्रह्म को ठीक वैसे ही नहीं देख सकता, जिस प्रकार अंधे व्यक्ति को प्रकाशमान सूर्य (सवितादेवता) के दर्शन नहीं होते। वह ब्रह्म प्रज्ञान स्वरूप है। सत्य ही प्रज्ञान का लक्षण है। अतः ब्रह्म के परिज्ञान से ही मर्त्य जीव अमरत्व को प्राप्त करता है। उस कार्यकारण स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार होते ही मनुष्य के हृदय की गाँठे खुल जाती हैं, सभी संशय समाप्त हो जाते हैं और समस्त कर्म (प्रारब्धादि) क्षीणता को प्राप्त हो जाते हैं।।॥76-82॥  

अनात्मतां परित्यज्य निर्विकारो जगत्स्थितौ । 

एकनिष्ठतयान्तःस्थः संविन्मात्रपरो भव ॥ ||८३||

मरुभूमौ जलं सर्वं मरुभूमात्रमेव तत्।

 जगत्त्रयमिदं सर्वं चिन्मात्रं स्वविचारतः ॥ ||८४||

लक्ष्यालक्ष्यमतिं त्यक्त्वा यस्तिष्ठेत्केवलात्मना।

शिव एवं स्वयं साक्षादयं ब्रह्मविदुत्तमः ।। ||८५||

अधिष्ठानमनौपम्यामवाड्मनसगोचरम्।

नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं च तदव्ययम् ॥ ||८६||

सर्वशक्तेर्महेशस्य विलासो हि मनो जगत्।

 संयमासंयमाभ्यां च संसारः शान्तिमन्वगात् ॥ ||८७||

हे पुत्र निदाघ! अनात्म भाव को त्यागकर, सांसारिक स्थिति में विकाररहित होकर अनन्य निष्ठापूर्वक अन्त में प्रतिष्ठित होकर आत्म-चैतन्य में ही रमण करते रहो। जिस प्रकार मरुभूमि में भ्रम से दिखाई देने वाला जल मरुस्थल मात्र ही रहता है, उसी प्रकार जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्तावस्था से युक्त यह सम्पूर्ण जगत् आत्मविचार से ही चिन्मय जानना चाहिए। जो लक्ष्य एवं अलक्ष्य बुद्धि का परित्याग करके केवल आत्मनिष्ठ हो जाता है, वही श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी एवं स्वयं साक्षात् शिवरूप है। इस जगत् का अधिष्ठान अद्वितीय है, वाणी एवं मन की पहुँच से परे है। नित्य, विभु, सर्वगत, सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अव्यय स्वरूप से युक्त है। यह विश्व सर्वशक्तिमान् भगवान् महाशिव का मनोविलास मात्र ही है। संयम (धारणा, ध्यान, समाधि) एवं असंयम (सहज ज्ञान) के द्वारा ये सभी सांसारिक प्रपञ्च शान्ति को प्राप्त होते हैं ॥ 83-87/

मनोव्याधेश्चिकित्सार्थमुपायं कथयामि ते।

 यद्यत्स्वाभिमतं वस्तु तत्त्वजन्मोक्षमश्नुते ॥ ||८८||

स्वायत्तमेकान्तहितं स्वेप्सितत्यागवेदनम्। 

यस्य दुष्करतां यातं धिक्तं पुरुषकीटकम् ॥ ||८९||

स्वपौरुषैकसाध्येन स्वेप्सितत्यागरूपिणा।

 मनः प्रशममात्रेण विना नास्ति शुभा गतिः ।। ||९०||

असंकल्पनशस्त्रेण छिन्नं चित्तमिदं यदा। 

सर्वं सर्वगतं शान्तं ब्रह्म संपद्यते तदा।। ||९१||

भव भावनया मुक्तो मुक्तः परमया धिया। 

धारयात्मानमव्यग्रो ग्रस्तचित्तं चितः पदम् ॥ ||९२||

हे निदाघ मुने! मैं तुम्हारे मन में प्रादुर्भूत होते हुए विकारों की चिकित्सा के लिए उपाय बतलाता हुँ। जिन-जिन इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति के लिए मन चंचल हो, उन पदार्थों का त्याग ही मानव के मोक्ष-प्राप्ति का साधन है। जिसके लिए अभिलषित सांसारिक पदार्थों के त्याग की भावना, एकान्त प्रिय होना एवं आत्मा की अधीनता दुष्कर हो जाती है, ऐसे उस मनुष्य रूपी कीट (कीड़े) को धिक्कार है। अपनी इच्छित वस्तुओं एवं पदार्थों का प्रयत्नपूर्वक परित्याग करना ही वास्तविक मन की शान्ति का श्रेष्ठ मार्ग है। इसके अतिरिक्त कोई अन्य दूसरी गति नहीं है। सङ्कल्पशून्यता रूपी शस्त्रास्त्रों से जब इस चित्त का कर्तन कर दिया जाता है, तब सर्वस्वरूप सर्वान्तर्यामी, शान्तिरूप ब्रह्म की उपलब्धि होती है। इसलिए प्रपञ्च की भावना से रहित होकर प्रज्ञासम्पन्न होकर तथा चित्त को नियन्त्रित करके चिन्मात्र में प्रतिष्ठित हो जाओ।। ॥88-92॥ 

परं पौरुषमाश्रित्य नीत्वा चित्तमचित्तताम्। 

ध्यानतो हृदयाकाशे चिति चिच्चक्रधारया।

 मनोमारय निःशङ्कं त्वां प्रबधन्ति नारयः ॥ ||९३||

 अयं सोऽहमिदं तन्म एतावन्मात्रकं मनः । 

तदभावनमात्रेण दात्रेणेव विलीयते ॥ ||९४||

छिन्नाभ्रमण्डलं व्योम्नि यथा शरदि धूयते । 

वातेन कल्पकेनैव तथान्तर्भूयते मनः ॥ ||९५|| 

कल्पान्तपवना वान्तु यान्तु चैकत्वमर्णवाः । 

तपन्तु द्वादशादित्या नास्ति निर्मनसः क्षतिः॥ ||९६|| 

असंकल्पनमात्रैकसाध्ये सकलसिद्धिदे। 

असंकल्पातिसाम्राज्ये तिष्ठावष्टब्धतत्पदः ॥ ||९७||

श्रेष्ठ पौरुष रूप अभ्यास एवं वैराग्य का आश्रय प्राप्त करके तथा चित्त को अधितावस्था में ले जाकर आकाश रूपी हृदय में चिन्तन करते हुए बराबर चैतन्य तत्व में लगे हुए चित्त रूपी चक्र की तीक्ष्ण धार से मन का दमन कर देना चाहिए: ऐसा करते ही तुम्हारी सभी शंकायें निर्मूल हो जायेंगी तथा कामादिरूप शत्रु, बन्धन में न बाँध सकेंगे। यह वह है, मैं यह हुँ, वे समस्त पदार्थ मेरे हैं, यह भवना ही मन है। इन्हीं भावनाओं के त्याग से मन को (काटने के उपकरण द्वारा काटने की तरह) विनष्ट किया जा सकता है। जैसे शरत्-काल के आकाश में छिन्न-भिन्न हुर बादलों के समूह वायु की ठोकरों से विलीन हो जाते हैं, वैसे ही सद्विचारों के द्वारा ही मन अन्तर्हित हो जाता है। चाहे प्रलयंकारी उनचास पवन एक साथ प्रवाहित हों अथवा सभी सागर एक साथ सम्मिलित होकर एकार्णवरूप हो जायें। चाहे द्वादश आदित्य भी एक साथ मिलकर क्यों न तपने लगे; किन्तु फिर भी मन से विहीन मनुष्य को किसी प्रकार को क्षति नहीं हो सकती। केवल संकल्पहीनता रूपी एक साध्य ही सम्पूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति का साधन है। अतः तत्पद का आश्रय ग्रहण करके संकल्पहीनता के विस्तृत साम्राज्य में प्रतिष्ठित हो जाओ ॥93-97

योग वासिष्ठ -उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११२ /पेज-२०२ -२०४/  :

मनोनाश के उपाय की औषधि वासना- त्याग का उपदेश, अविद्या-वासना दोष तथा इसके विनाश के उपाय की जिज्ञासा। 

 इस जगत में  कहीं भी चपलता से रहित मन नहीं देखा जाता । जैसे उष्णता अग्नि का धर्म है, वैसे ही चञ्चन्ता मन का । चेतन तत्त्व में जो यह चञ्चल क्रियाशक्ति विद्यमान है, उसी को तुम जगत्‌ का आडम्बर रूप मानसी शक्ति समझो । जैसे स्पन्दन और अस्पन्दन के बिना वायु के अस्तित्व का पता ही नहीं चलता, वैसे ही चञ्चल स्पन्दन (चेष्टा) के बिना चित्त का अस्तित्व ही नहीं है। जो मन चञ्चलता से रहित है, वही मरा हुआ कहलाता है। वही तप है और वही शास्त्र का सिद्धान्त भूत मोक्ष  कहलाता है। मन के विनाश मात्र से सम्पूर्ण दुःखों  की शान्ति हो जाती है और मन के संकल्प मात्र से परम दुख की प्राप्ति होती है।

मन की जो यह चपलता है, वह अविद्या से उत्पन्न होने के कारण अविद्या कही जाती है। उस अविद्या का ही दूसरा नाम वासना पद (इच्छाओं में आसक्ति) है।  उसका विचार के द्वारा नाश कर देना चाहिये। विषय-चिन्तन का त्याग कर देने से अविधा और वासनामयी उस चित्त सत्ता का अन्तः करण में लय हो जाता है और ऐसा होने से परम श्रेय ( मोक्ष-सुख) की प्राप्ति होती है। पौरुष और प्रयत्न (manly effort) के द्वारा मन को जिस वस्तु में भी लगाया जाता है, उसी को प्राप्त होकर वह अभ्यासवश तद्रूप हो जाता है

जो संसार सागर के वेग में पड़कर तृष्णारूपी ग्राह की दाढ़ों में फँस गये हैं और भ्रमरूपी आवर्तों (चक्रवात) द्वारा दूर बहाये जा रहे हैं, उनके वहाँ से पार जाने के लिये अपना जीता हुआ मन ही नौकारूप है। जिसने परम बन्धनकारी मनरूपी पाश का अपने (जीते हुए ) मनके द्वारा ही काट कर आत्मा का उद्धार नहीं कर लिया, उसे दूसरा कोई बन्धनसे नहीं छुड़ा सकता । विद्वान् पुरुष को चाहिये कि हृदय को वासित करनेवाली जो जो वासना (इच्छा -कामना), जिसका दूसरा नाम मन है, उदित होती है उस उसका परित्याग करे-उसे मिथ्या समझकर छोड दे। इससे ( वासनात्मक मनके साथ ही) अविद्याका भी क्षय हो जाता है। भावना इच्छाओं की भावना न करना ही वासना का क्षय है। इसीको मनका नाश एवं अविद्या का नाश भी कहते हैं।

जैसे मृगतृष्णा उन भोले-माले मृगों को ही धोखेमें डालती है- मनुष्यो को नहीं, उसी प्रकार यह अविद्या अज्ञ पुरुषों को ही धोखा देती है, विज्ञ पुरुषों को नहीं ।  जैसे नौका (या रेल)  द्वारा यात्रा करनेवाले लोगों को तटवर्ती वृक्षों  में भी गतिशीलता की प्रतीति होती है, वैसे ही यहाँ (देहाध्यास)  इस अविद्या का उत्थान हुआ है। यह अविधा अविद्यमान (असत) है, अत्यन्त तुन्छ है और मिथ्या भावनारूप है, तो भी इसने कोमलाङ्गी  युवती की भाँति सारे जगत को  अंधा बना रक्खा है- यह बड़े आश्चर्यकी बात है। इसका न कोई रूप है न आकार । यह सुन्दर चेतन से भी रहित है और असत होकर मी नष्ट नहीं हो रही है। इसने  सारे जगत् को अंधा बना रक्खा है, यह कैसा आश्चर्य है। 

न हि चञ्चलताहीनं मनः क्वचन दृश्यते ।

 चञ्चलत्वं मनोधर्मो वह्नेर्धर्मो यथोष्णता ॥ ||९८|| 

एषा हि चञ्चला स्पन्दशक्तिश्चित्तत्वसंस्थिता।

 तां विद्धि मानसीं शक्तिं जगदाडम्बरात्मिकाम्॥ ||९९|| 

यतु चञ्चलताहीनं तन्मनोऽमृतमुच्यते । 

तदेव च तपः शास्त्रसिद्धान्ते मोक्ष उच्यते ॥ ||१००||

तस्य चञ्चलता यैषा त्वविद्या वासनात्मिका।

 वासनाऽपरनाम्नीं तां विचारेण विनाशय ॥ ||१०१||

अचञ्चल मन कहीं पर नहीं दीखता, चञ्चलता मन का सहज धर्म है, जैसे अग्नि का सहज धर्म गर्मी प्रदान करना है। यही चन्चल स्वभाव वाली स्पन्दन शक्ति चित्त का स्वाभाषिक धर्म है। इसी मानसिक शक्ति को सांसारिक प्रपञ्च का सहजस्वरूप जानना चाहिए। जो मन अचञ्चल हो जाता है, वही अमृतस्वरूप कहा जाता है, वही तप है। उसे ही शास्त्रीय-सिद्धान्त की दृष्टि से मोक्ष कहते हैं। मन की चञ्चलता ही अविद्या है और वासना उसका स्वरुप है। शरूपी वासना को विवेक-विचारों के द्वारा काट देना चाहिए ॥98-101॥ 

पौरुषेण प्रयत्नेन यस्मिन्नेव पदे मनः। 

योज्यते तत्पदं प्राप्य निर्विकल्पो भवानघ॥ ||१०२||

अतः पौरुषमाश्रित्य चित्तमाक्रम्य चेतसा ।

 विशोकं पदमालम्बय निरातङ्कः स्थिरो भव ॥ ||१०३||

मन एव समर्थं हि मनसो दृढनिग्रहे। 

अराज्ञा कः समर्थः स्याद्राज्ञो निग्रहकर्मणि॥ ||१०४||

तृष्णाग्राहगृहीतानां संसारार्णवपातिनाम् । 

आवर्तरूह्यमानानां दूरं स्वमन एव नौः ।। ||१०५|| 

मनसैव मनश्छित्वा पाशं परमवन्धनम् । 

भवादुत्तारयात्मानं नासावन्येन तार्यते ॥ ||१०६||

हे निष्पाप मुने! मन को पुरुषार्थ के द्वारा जिस उद्देश्य में स्थिर करो, उसे प्राप्त करके निर्विकल्प समाधि को अर्जित करो। अतएव प्रयासपूर्वक चित्त को चित्त से वशीभूत करके शोकरहित अवस्था के आश्रय से, आतंक से दूर रहकर शान्ति प्राप्त करो । विषय विकारों से रहित मन ही मन का पूर्णरूपेण निरोध करने में समर्थ हो सकता है। किसी राजा को पराजित करने में कोई राजा ही समर्थ होता है। जो तृष्णारूपी ग्राह के द्वारा ग्रसित किये जा चुके हैं, जो संसार-सागर में गिरकर भँवरों के जाल में फँसकर अपने लक्ष्य से दूर भटक गये हैं, उन्हें बचाने के लिए विषय-विकारों से रहित मन ही समर्थ है, वही नौका का रूप धारण करके पार लगा सकता है है मुने! इस प्रकार के विकार-रहित मन के द्वारा इस विशाल बन्धनरूपी जाल को विनष्ट कर दो। स्वयमेव संसार-सागर से पार हो जाओ। अन्य और किसी के द्वारा यह संसार रूप सागर नहीं पार किया जा सकता।। ॥102-106॥

 [रहना नहिं देस बिराना है, सतगुरु नाम ठिकाना है॥

सियाराम बोलो , राधे-श्याम बोलो -

यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।

यह संसार काँट की बाड़ी, उलझ-पुलझ मरि जाना है।

यह संसार झाड़ औ झाँखर, आग लगे बरि जाना है।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु नाम ठिकाना है॥

सियाराम बोलो , राधे-श्याम बोलो -सतगुरु नाम ठिकाना है> (अवतार वरिष्ठ)श्रीरामकृष्ण नाम ठिकाना है ! 

[सारोदा -रामकृष्णेर नामेर बान डेकेछे रे भाई ! राग - 'जयजयवंती' :  एक हिंदुस्तानी शास्त्रीय राग है। गुरु ग्रंथ साहिब के अनुसार, यह राग दो अन्य रागों का मिश्रण है: बिलावल और सोरठ ।ताल कहरवा -में 8 मात्राएँ और 2 विभाग होते हैं। इसमें पहली मात्रा पर ताली और पांचवीं मात्रा पर खाली होती है।यह हल्के शास्त्रीय संगीत जैसे भजन, ठुमरी और ग़ज़ल में बहुत लोकप्रिय है। ]

सारदा -रामकृष्ण नामेर बान डेकेछे रे भाई 

(राग -जयजयवंती, ताल - कहरवा)  

सारदा -रामकृष्ण नामेर बान डेकेछे रे भाई।  

विश्वभूवन भेसे गेल, आहा बलिहारी जाई।।   

युगेर हावा लागलो पाले ,जीवन-तरी (Lifeboat) दे ना खूले।  

["Untie the anchor" 'लंगर खोल दो ':  'युग की हवा' (युगावतार श्रीरामकृष्ण) ने जीवन-नौका के पालों को पकड़ लिया है ! बादशाही अमल का सिक्का,अंग्रेजी राज में नहीं चलता।]

'सारदा -रामकृष्ण ' बले हेसे खेले चले जाई। 

माँ , माँ , माँ बले मायेर कोले चले जाई।। 

- स्वामी चण्डिकानन्द  

 সারদা-রামকৃষ্ণ নামের বান ডেকেছে রে ভাই

জয় জয়ন্তী—কাহারবা

সারদা-রামকৃষ্ণ নামের বান ডেকেছে রে ভাই।

বিশ্বভুবন ভেসে গেল, আহা বলিহারি যাই॥

যুগের হাওয়া লাগলো পালে, 

(The wind of the age has taken hold of the sails)

জীবন-তরী (Lifeboat) দে না খুলে,

‘সারদা-রামকৃষ্ণ’ বলে হেসে খেলে চলে যাই।

(মা, মা, মা বলে মায়ের কোলে চলে যাই)॥

       —স্বামী চণ্ডিকানন্দ

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या योदेति मनोनाम्नी वासना वासितान्तरा। 

तां तां परिहरेत्प्राज्ञस्ततोऽविद्याक्षयो भवेत्॥ ||१०७||

भोगैकवासनां त्यक्त्वा त्यज त्वं भेदवासनाम्। 

 भावाभावौ ततस्त्यक्त्वा निर्विकल्पः सुखी भव॥ ||१०८||

एष एव मनोनाशस्त्वविद्यानाश एव च। 

यत्तत्संवेद्यते किंचित्तत्रास्थापरिवर्जनम्। 

अनास्थैव हि निर्वाणं दुःखमास्थापरिग्रहः ॥ ||१०९||

अविद्या विद्यमानैव नष्टप्रज्ञेषु दृश्यते। 

नाम्नैवाङ्गीकृताकारा सम्यक्प्रज्ञस्य सा कुतः ॥ ||११०||

जब-जब अन्त:करण (ह्रदय) को आच्छादित करने वाली मनरूपी (सांसारिकभोग-इच्छा रूपी) वासना का प्राकट्य हो, तब-तब उसका परित्याग करना ज्ञानी मनुष्य का परम कर्तव्य हो जाता है क्योंकि ऐसा करने से अविद्या का विनाश हो जाता है। सर्वप्रथम भोगरूपी वासना का त्याग करो, फिर भेदरूपी वासना का त्याग करो, उसके पश्चात् भाव-अभाव दोनों का ही त्याग करके निर्विकल्प होकर पूर्ण सुखी हो जाओ। मन (भोग की इच्छा) का विनाश हौ अविद्या का विनाश कहा गया है। मन द्वारा जो कुछ भी अनुभूति में आता हो, उस-उसमें आस्था कदापि न होने दो। आस्था का परित्याग करना ही निर्माण है और आस्था के आश्रित रहना ही दु:ख है। जो प्रज्ञा से रहित है,उन्हीं में अविद्या प्रतिष्ठित रहती है। सम्यक् प्रज्ञासम्पन्न मनुष्य नाम मात्र के लिए भी कहीं अविद्या को स्वीकार नहीं करते॥107-110॥/

योग वासिष्ठ -उत्पत्ति प्रकरण, सर्ग ११४ / पेज-२०४/  :

अविद्या (मोह ) के विनाश का उपाय है - आत्मावलोकन की इच्छा, अन्य इच्छा मात्र बन्धनकारी है।  

श्रीरामचन्द्र जी ने पूछा- ब्रह्मन् । अविद्या के प्रभाव से उत्पन्न हुआ जो पुरुष का गहन एवं महान् अंधापन है, उसका निवारण कैसे होता है ? 

श्रीवसिष्ठ जी ने कहा-रघुनन्दन ! जैसे ओस या पाले की एक कणिका सूर्य का दर्शन होने से क्षणभर में नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार (आत्मा=) परमात्मा का साक्षात्कार होने से इस अविद्या  का तत्काल नाश हो जाता है। यह अविद्या संसाररूपी पर्वतशिखरों के तटवर्ती स्थानों में, जो गहन दुःखरूपी काँटों से सुशोभित होते हैं, अपने साथ देहाभिमानी जीव को तभी तक नीचे गिराने के लिये आन्दोलित करती रहती है, जब तक उसका विनाश करनेवाली और मोह को क्षीण बना देने वाली परमात्मसाक्षात्कार की इच्छा (या इन्द्रियातीत सत्य को देखने की इच्छा-या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की इच्छा या दृढ़संकल्प) स्वयं ही उत्पन्न नहीं हो जाती । जैसे सभी दिशाओं में बारह सूर्यो के एक साथ उदित होने पर छाया अपने-आप नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार ज्ञान स्वरुप सर्व्यापी परमात्मा (सच्चिदानन्द) का साक्षात्कार होने पर यह अविद्या स्वयं ही विलीन हो जाती है ।

 रघुनन्दन ! बाह्य विषयों की इच्छा मात्र को यहाँ अविद्या कहा गया है ( क्योंकि अविद्या से ही इच्छा उत्पन्न होती है)। इच्छा-मात्र का नाश ही मोक्ष कहलाता है। वह मोक्ष संकल्प (इच्छा) के अभाव मात्र से सिद्ध होता है। जैसे सूर्य का उदय होने पर रात न जाने कहाँ चली जाती है, उसी प्रकार परमात्मा के यथार्थ ज्ञान का उदय होने पर अविद्या न जाने कहाँ बिलीन हो जाती है। 

श्रीरामजी ने पूछा- ब्रह्मण, यह जो कुछ भी दृश्यप्रपञ्च है, वह (अविद्या से उत्पन्न होने के कारण) अविद्या ही है और वह अविद्या परमात्मा के चिन्तन से नष्ट हो जाती है। तब कृपापूर्वक यह बताइये कि वह परमात्मा कैसा है ?

श्री वसिष्ठजी ने कहा- श्रीराम ! जो विषयों के संसर्ग से रहित, असाधारण और अनिर्वचनीय चेतन तत्व (conscious element) है, वह परमेश्वर ही आत्मा या परमात्मा शब्द से कहा गया है। ब्रह्मा से लेकर कीट पतंग एव पेड़-पौधों- तक जो यह तृण आदिरूप जगत् है, वह सब सदा परमात्मा ही है। यहाँ अविद्या कहीं नहीं है। यह सब नित्य चैतन्यधन अविनाशी एव अखण्ड ब्रह्म ही है। यहाँ मन नाम की कोई दूसरी कल्पना है ही नहीं। यहाँ तीनों लोकों में न कोई जन्म लेता है और न मरता ही है। जन्म-मरण आदि भाव विकारों का कहीं अस्तित्व ही नहीं है।

 इस संसार में केवल  अद्वितीय एकमात्र ज्ञान स्वरुप, समानभाव से सब में व्यापक, अखण्ड और विषय-संसर्ग से रहित सच्चिदानन्दधन परमात्मा ही है।  अविद्यारूप आवरण से मलिन हुआ चेतन जीवात्मा ही मन के रूप में परिणत होने के कारण 'मन' नाम से कहा गया है। 

" मैं कृश हूँ, अत्यन्त दुखी हूँ, बँधा हुआ हूँ तथा हाथ-पैर आदि अवयवों से युक्त हूँ।"-- इस भावना के अनुरूप व्यवहार से जीवात्मा बन्धन में पड़ता है। 'मेरा दुःखसे कोई सम्बन्ध नहीं है, यह शरीर भी मेरा नहीं है; भला किस आत्मा को बन्धन प्राप्त हुआ है - किसीको भी नहीं,आत्मा नित्य-मुक्त स्वरुप  है। इस भावना के अनुरूप व्यवहार से जीवात्मा की मुक्ति होती है। 

 अहो । यह कितने आश्चर्य की बात है कि जो सत्य (इन्द्रियातीत) है, उस ब्रह्म को तो लोग मूल गये हैं और जो असत्य अविद्या नामक वस्तु (इन्द्रियग्राह्य) है, उसी का निश्चितरूप से निरन्तर स्मरण हो रहा है ! (सर्ग~ ११४)  

तावत्संसारभृगुषु स्वात्मना सह देहिनम्। 

आन्दोलयति नीरन्धं दुःखकण्टकशालिषु ॥ ||१११|| 

अविद्या यावदस्यास्तु नोत्पन्ना क्षयकारिणी। 

स्वयमात्मावलोकेच्छा मोहसंक्षयकारिणी ।। ||११२||

 अस्याः परं प्रपश्यन्त्याः स्वात्मनाशः प्रजायते ।

दृष्टे सर्वगते बोधे स्वयं ह्येषा विलीयते ॥ ||११३||

 इच्छा मात्रमविद्येयं तन्नाशो मोक्ष उच्यते । 

स चासंकल्पमात्रेण सिद्धो भवति वै मुने ॥ ||११४|| 

मनागपि मनोव्योम्नि वासनारजनीक्षये। 

कलिका तनुतामेति चिदादित्यप्रकाशनात्॥ ||११५||

इस दुःखरूपी कंटक से ओत-प्रोत संसार रूपी भ्रमजाल में तभी तक अविद्या अपने साथ देहधारी को निरन्तर भ्रमाती है, जब तक इसको विनष्ट करने वाली मोहनाशिनी आत्मसाक्षात्कार की आकांक्षा (परम् सत्य को जानने की तीव्र इच्छा) स्वयं ही उत्पन्न नहीं होती यह अविद्या जब परमात्मतत्व की ओर देखती है, तब इसका स्वयं ही नाश हो जाता है। सर्वात्मिबोध के दर्शन होते ही अविद्या स्वयं ही लुप्त हो जाती है। केवल इच्छा मात्र ही अविद्या का स्वरूप है और इच्छा का पूरी तरह से नष्ट होना ही मोक्ष कहा गया है । हे मुने! किन्तु इच्छा तभी समाप्त होती है, जब संकल्प को पूर्णरूपेण विनाश हो जाये, अन्यथा इच्छा का नाश असम्भव है। चित् रूपी सूर्य के प्रकाश से कलिरूपी अन्धकार क्षीण हो जाता है ॥111-115॥/

                             चैत्यानुपातरहितं सामान्येन च सर्वगम्। 

यच्चित्तत्वके मनाख्येयं स आत्मा परमेश्वरः ।। ||११६|| 

सर्वं च खल्विदं ब्रह्म नित्यचिद्धनमक्षतम्। 

कल्पनान्या मनोनाम्नी विद्यते नहि काचन ।। ||११७|| 

न जायते न म्रियते किंचिदत्र जगत्त्रये। 

न च भावविकाराणां सत्ता क्वचन विद्यते ॥ ||११८|| 

केवलं केवलाभासं सर्वसामान्यमक्षतम्। 

चैत्यानुपातरहितं चिन्मात्रमिह विद्यते ॥ ||११९||

तस्मिन्नित्ये तते शुद्धे चिन्मात्रे निरुपद्रवे। 

शान्ते शमसमाभोगे निर्विकारे चिदात्मनि ॥ ||१२०||

यैषा स्वभावाभिमतं स्वयं संकल्प्य धावति ।

चिच्चैत्यं स्वयमम्लानं मननान्मन उच्यते ॥ ||१२१||

जब चित्त विषय (तीन ऐषणाओं भोग की इच्छाओं) वासनाओं का  त्याग कर देता है तथा सर्वत्र गमन करने वाला बन जाता है, तब उसकी ऐसी अनिर्वचनीय अवस्था ही आत्मा एवं परमात्मा के नाम से अभिहित होती है। अवश्य ही यह सभी कुछ ब्रह्म है। वह नित्य एवं चिद्घन स्वरूप है। वही अव्यय है। इसके अतिरिक्त जो अन्य मन नाम की कल्पना की जाती है, उसका कहीं पर भी अस्तित्व नहीं है। वह तो मात्र भ्रम ही है। इन तीनों लोकों में न तो किसी का जन्म होता है और न ही मृत्यु । ये जो भी भाव-विकार दृष्टिगोचर होते हैं, ये सभी अस्तित्वहीन हैं । एकमात्र केवलाभासरूप, सर्वव्यापी, अव्यय तथा चित्त के विषयों का अनुगमन न करने वाले केवल चिन्मात्र की ही सत्ता यहाँ विद्यमान है। उस नित्य, सर्वव्यापी, शुद्ध, चिन्मात्र, उपद्रव-रहित, शान्तस्वरूप एवं शमरूप में स्थित विकाररहित चिदात्मा में स्वयंचित्त ही स्वभावानुसार संकल्पपूर्वक गमन करता है, चित्त की यही संकल्परूप अवस्था स्वयं निर्दोष होते हुए भी मनन करने के कारण मन कही जाती है॥116-121॥

अतः संकल्पसिद्धेयं संकल्पेनैव नश्यति । 

नाहं ब्रह्मेति संकल्पात्सुदृढाद्बध्यते मनः। 

सर्वं ब्रह्मेति संकल्पात्सदढान्मुच्यते मनः ।। ||१२२|| 

कृशोऽहं दुःखबद्धोऽहं हस्तपादादिमानहम्। 

इति भावानुरूपेण व्यवहारेण बध्यते ॥ ||१२३|| 

नाहं दुःखी न मे देहो बन्धः कोऽस्यात्मनि स्थितः।

इति भावानुरूपेण व्यवहारेण मुच्यते ॥ ||१२४|| 

नाहं मांसं न चास्थीनि देहादन्यः परोऽस्म्यहम्। 

इति निश्चितवानन्तः क्षीणाविद्यो विमुच्यते ॥ ||१२५|

इस कारण संकल्प (इच्छाओं)  के द्वारा सिद्ध मन संकल्प (इच्छा) द्वारा ही विनष्ट हो जाता है ‘मैं ब्रह्म नहीं हूँ' ऐसा सुदृढ़ संकल्प हो जाने से मन बन्धन-ग्रस्त नहीं होता और ‘यह सभी कुछ ब्रह्म ही है', ऐसा दृढ़ निश्चयी संकल्प हो जाने पर मन मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। ‘मैं क्षीणकाय हूँ, दुःखों से ग्रस्त हूँ, मैं हाथ पैर से युक्त हूँ, इस प्रकार के भावानुकूल व्यवहार से प्राणी बन्धनग्रस्त हो जाता है। मैं दु:खी नहीं हूँ, मेरा शरीर नहीं, आत्मतत्त्व में प्रतिष्ठित मुझमें बन्धन कहाँ?' इस प्रकार के व्यावहारिक जीवन से ओत-प्रोत मन मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। ‘मैं मांस नहीं हूँ', अस्थि नहीं हूँ, ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर जिसके अन्तस् से अविद्या नष्ट हो गयी है, वही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ।॥122-125॥ 

कल्पितेयमविद्येयमनात्मन्यात्मभावनात्। 

परं पौरुषमाश्रित्य यत्नात्परमया धिया। 

भोगेच्छा दूरतस्त्यक्त्वा निर्विकल्पः सुखी भव ॥ ||१२६||

 मम पुत्रो मम धनमहं सोऽयमिदं मम। 

इतीयमिन्द्रजालेन वासनैव विवल्गति ॥ ||१२७|| 

मा भवाज्ञो भव ज्ञस्त्वं जहि संसारभावनाम्। 

अनात्मन्यात्मभावेन किमज्ञ इव रोदिषि ॥ ||१२८|| 

कस्तवायं जडो मूको देहो मांसमयोऽशुचिः। 

यदर्थं सुखदुःखाभ्यामवशः परिभूयसे॥ ||१२९||

अहो नु चित्रं यत्सत्यं ब्रह्म तद्विस्मृतं नृणाम्। 

तिष्ठतस्तव कार्येषु मास्तु रागानुरञ्जना॥ ||१३०|| 

अहो नु चित्रं पद्मोत्थैर्बद्धास्तन्तुभिरद्रयः । 

अविद्यमाना या विद्या तया विश्वं खिलीकृतम् (व्यर्थ या शक्तिहीन बनाना) 

 इदं तद्वज्रतां यातं तृणमात्रं जगत्त्रयम् ॥ ||१३१||

आत्म-रहित पदार्थों में आत्मभावना होना ही अविद्या जनित कल्पना है। अभ्यास एवं वैराग्य का आश्रय प्राप्त करके बुद्धिमत्तापूर्वक यत्न से भोग की आकांक्षा को दूर से ही छोड़कर, निर्विकल्प होकर पूर्ण सुखमय जीवन व्यतीत करो। यह ‘मेरा पुत्र’ ‘मेरा धन' ‘मैं यह हूँ' ‘मैं वह हूँ', ‘यह मेरा है' आदि समस्त वासनायें ही प्रपञ्च फैलाकर भिन्न-भिन्न क्रीड़ा कर रही हैं। तुम अज्ञानी मत बनो, ज्ञानवान् बनो, समस्त सांसारिक भावनाओं को (ऐषणाओं में आसक्ति को )विनष्ट कर दो। अनात्म विषयों में आत्मभावना से युक्त होकर मूर्खो की तरह क्यों रो रहे हो? यह मांस का पिण्ड, अशुद्ध, मूक, जड़ शरीर तुम्हारा कौन है, जिसके लिए बलपूर्वक दुःख-सुख से अभिभूत हो रहे हो ? अरे! कितना महान् आश्चर्य है कि जो अविनाशी ब्रह्म सत्य है, उसे मनुष्य ने विस्मृत कर दिया है। तुम अपने कर्तव्य-कर्मों में सदा लगे रहो। मन को अविद्यादि कर्मों में लिप्त न होने दो। अरे! कितने आश्चर्य की बात है। कि कमलनाल के तन्तुओं को रस्सी मानकर उनसे पर्वत आबद्ध कर दिये गये हैं। जो अविद्या अस्तित्व रहित है, उसी के द्वारा यह विविध रूपात्मक जगत् अभिभूत हो रहा है। इस अविद्या के प्रभाव से तृणवत् तुच्छ, जाग्रत्, सुषुप्तावस्था आदि तीनों जगत् वज्र के समान दृढ़ परिलक्षित हो रहे हैं ।। ॥126-131॥(महोपनिषद : 4.131) 

॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥ 

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॥ महा उपनिषद॥ पञ्चमोऽध्यायः

अथापरं प्रवक्ष्यामि शृणु तात यथायथम्। 

अज्ञानभूः सप्तपदा ज्ञभूः सप्तपदैव हि ॥ ||१||

पदान्तराण्यसंख्यानि प्रभवन्त्यन्यथैतयोः । 

स्वरूपावस्थितिर्मुक्तिस्तभ्रंशोऽहंत्ववेदनम् ॥ ||२||

शुद्धसन्मात्रसंवत्तेः स्वरूपान्न चलन्ति ये ।

 रागद्वेषादयो भावास्तेषां'नाज्ञत्वसंभवः ॥ ||३|| 

स्वरूपपरिभ्रंशश्चैत्यार्थे चितिमज्जनम्। 

एतस्मादपरो मोहो न भूतो न भविष्यति ॥ ||४||

अर्थादर्थान्तरं चित्ते याति मध्ये तु या स्थितिः । 

सा ध्वस्तमननाकारा स्वरूपस्थितिरुच्यते ॥ ||५|

संशान्तसर्वसंकल्पा या शिलावदवस्थितिः ।

 जाग्रन्निद्राविनिर्मुक्ता सा स्वरूपस्थितिः परा ॥ ||६||

अहन्तांशे क्षते शान्ते भेदनिष्पन्दचित्तता।

अजडा या प्रचलति तत्स्वरूपमितीरितम् ॥ ||७||

पुनः महर्षि ऋभु ने कहा-हे पुत्र! मेरे द्वारा कहे वचनों को भली प्रकार सुनो। अज्ञान और ज्ञान इन दोनों की सात-सात भूमिकायें हैं। इनके बीच में अनेक दूसरी भूमिकायें उत्पन्न होती हैं। अहंभाव ही मूल स्वरूप से पृथक करने वाला है। स्वरूप में अवस्थित होना ही मुक्ति है। शुद्ध सत्तारूप बोध ही आत्मा का रूप है, जो उस बोध की अवस्था से हटते नहीं, ऐसे साधकों को अज्ञान से पैदा हुए राग-द्वेषादि दूषित विकार प्रभावित नहीं कर पाते । आत्मस्वरूप से हटकर वासनात्मक स्वरूप में जो चित् का डूबना है, इससे अधिक मोहग्रस्त होना दूसरा नहीं कहा जाएगा और न हो सकता है। एक विषय से दूसरे विषय में प्रवेश करते हुए जो मध्य में मन की अवस्था होती है, उसे ‘ध्वस्तमनन' के स्वरूप वाली स्थिति समझा जाता है, लेकिन सभी संकल्पों (सान्सारिक ऐषणाओं के प्रति) के पत्थर की शिला के समान भली प्रकार शान्त हो जाने पर निश्चेष्ट अवस्था जिसमें जाग्रत् और स्वप्नावस्था भी प्रायः चेष्टारहित होती है, वही परास्वरूप स्थिति कहलाती हैं। अहं भाव के क्षीण (स्वामि विवेकानन्दस्य दासोऽहं) हो जाने पर शान्त, चेतन तथा भेदभाव से रहित चित्त की स्थिति ही स्वरूप अवस्था कहलाती है ।। (1-7 )/ 

बीजजाग्रत्तथा जाग्रन्महाजाग्रत्तथैव च। 

जाग्रत्स्वप्नस्तथा स्वप्नः स्वप्नजाग्रत्सुषुप्तिकम् ॥ ||८||

इति सप्तविधो मोहः पुनरेष परस्परम् । 

श्लिष्टो भवत्यनेकाग्रयं शृणु लक्षणमस्य तु ॥ ||९||

 प्रथमं चेतनं यत्स्यादनाख्यं निर्मलं चितः। 

भविष्यच्चित्तजीवादिनामशब्दार्थभाजनम्॥ ||१०||

बीजरूपस्थितं जाग्रद्बीजजाग्रत्तदुच्यते । 

एषा ज्ञप्तेर्नवावस्था त्वं जाग्रत्संस्थितिं शृणु॥ ||११||

प्रथम ‘बीज जाग्रत् अवस्था' वह है, जो नामरहित शुद्धचेतन की भविष्यत् में घटित होने वाली,चित्तजीव आदि नाम के शब्दार्थरूप सम्बोधन से युक्त अवस्था है। वह बीजरूप में स्थित जाग्रत्-अवस्था बीज जाग्रत् नाम से प्रसिद्ध है। यह ज्ञाता की नूतन अवस्था है। अब आप जाग्रत् अवस्था की यथार्थ स्थिति सुनें ॥5.11/

नवप्रसूतस्य परादयं चाहमिदं मम ।

 इति यः प्रत्ययः स्वस्थस्तज्जाग्रत्प्रागभावनात्॥ ||१२||

अयं सोऽहमिदं तन्म इति जन्मान्तरोदितः ।

 पीवरः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजाग्रदिति स्फुटम् ॥ ||१३||

अरूढमथवा रूढं सर्वथा तन्मयात्मकम्। 

यज्जाग्रतो मनोराज्यं यज्जाग्रत्स्वप्न उच्यते ॥ ||१४||

द्विचन्द्रशुक्तिकारूप्यमृगतृष्णादिभेदतः ।

 अभ्यास प्राप्य जाग्रत्तत्स्वप्नो नानाविधो भवेत्॥ ||१५||

नवजात जीव के अन्तरंग में ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है' अर्थात् मैं और मेरेपन के भावों की स्थिति ही मोह की दूसरी ‘जाग्रत् अवस्था' कही जाती है; क्योंकि उससे पूर्व यह भावना नहीं थी। ‘महाजाग्रत्' अवस्था वह है, जिसमें ‘यह वह व्यक्ति है, यह मैं हूँ, वह मेरी चीज है' आदि भावनाएँ पूर्व-जन्मों  के संस्कार सहित विदित होती है। अप्रचलित (अरूढ़) अथवा प्रचलित (रूढ़) एवं तन्मय होकर जो मन की काल्पनिक रचना जाग्रत् अवस्था में होती है, वह ‘जाग्रत्-स्वप्न' कही गयी है। एक चन्द्रमा की जगह दो चन्द्रमाओं का, सीप में चाँदी का तथा मृग-मरीचिका में (बालू में) जल का आभास होना इत्यादि (जाग्रत् अवस्था में) अभ्यास को प्राप्त हुए जाग्रत्-स्वप्न के विभिन्न प्रकार हैं ॥15

अल्पकालं मया दृष्टमेतन्नोदेति यत्र हि ।

 परामर्शः प्रबुद्धस्य स स्वप्न इति कथ्यते ॥ ||१६||

चिरं संदर्शनाभावादप्रफुल्लं बृहद्वचः । 

चिरकालानुवृत्तिस्तु स्वप्नो जाग्रदिवोदितः ॥ ||१७||

स्वप्नजाग्रदिति प्रोक्तं जाग्रत्यपि परिस्फुरत् । 

षडवस्थापरित्यागे जडा जीवस्य या स्थितिः ॥ ||१८|| 

भविष्यद्दुःखबोधाढ्य सौषुप्तिः सोच्यते गतिः। 

जगत्तस्यामवस्थायामन्तस्तमसि लीयते ॥ ||१९||

‘स्वप्नावस्था' वह कहलाती है, जिसमें कुछ समय पूर्व देखा गया दृश्य पुनः दृष्टिगोचर न हो और जागने पर उस दृश्य की मनुष्य को स्मृति मात्र शेष रहे। इसके पश्चात् ‘स्वप्न जाग्रत्' अवस्था वह है, जिसमें पूरे विकास को न प्राप्त हुआ स्वप्न जो अनेक क्रिया-कलापों द्वारा देर तक टिके तथा जो जाग्रत् की तरह ही उत्पन्न हो अथवा जागते हुए भी स्वप्न दिखाई दे। इन छ: अवस्थाओं को पारकर जब जीव की जड़ात्मक स्थिति में प्रतिष्ठापना होती है, उस बीते हुए दु:खबोध से युक्त अवस्था को ही ‘सुषुप्ति' कहा गया है। उस स्थिति में यह संसार आन्तरिक अंधकार में विलीन हो जाता है॥16-19॥/  

सप्तावस्था इमाः प्रोक्ता मया ज्ञानस्य वै द्विज। 

एकैका शतसंख्यात्र नानाविभवरूपिणी ॥ ||२०||

इमां सप्तपदां ज्ञानभूमिमाकर्णयानघ । 

नानया ज्ञातया भूयो मोहपङ्के निमज्जति ॥ ||२१||

हे ब्रह्मन् मैंने तुम्हारे प्रति अज्ञानजनित मोह को सात भूमिकाओं को बतलाया। इसमें से प्रत्येक भूमिका विभिन्न ऐश्वर्ययुक्त, विभिन्न अवस्थाओं के रूप में विविध रूप धारण करने वाली है । हे निष्पाप पुत्र! अब मैं तुम्हें ज्ञान की जो सात भूमिकायें हैं, उन्हें सुनाता हूँ, जिन्हें जान लेने पर मनुष्य मोहपङ्क में नहीं फँसता ।।॥20-21॥/  

वदन्ति बहुभेदेन वादिनो योगभूमिकाः ।

मम त्वभिमता नूनमिमा एवं शुभप्रदाः ॥ ||२२|| 

अवबोधं विदुर्ज्ञानं तदिदं साप्तभूमिकम् । 

मुक्तिस्तु ज्ञेयमित्युक्ता भूमिकासप्तकात्परम् ॥ ||२३||

ज्ञानीजनों ने योग भूमिकाओं के बहुविध भेद बतलाये हैं, परन्तु मैं तो इन सात भूमिकाओं को ही विशेष लाभप्रद मानता हूँ। इस प्रकार इन सात भूमिकाओं द्वारा उत्पन्न होने वाला अवबोध ही ‘ज्ञान' कहलाता है। इन सात भूमिकाओं के अन्तर्गत होने वाली मुक्ति 'ज्ञेय' कही जाती है23/

ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता। 

विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसी ॥ ||२४|| 

सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका। 

पदार्थभावना षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ।। ||२५||

आसामन्तःस्थिता मुक्तिर्यस्यां भूयो न शोचति।

 एतासां भूमिकानां त्वमिदं निर्वचनं शृणु॥ ||२६||

पहली ज्ञान भूमिका को ‘शुभेच्छा' नाम दिया गया है। दूसरी ‘विचारणा', तीसरी ‘तनुमानसी', चौथी ‘सत्यापत्ति', पाँची ‘असंसक्ति', छठवीं ‘पदार्थभावना' तथा सातवीं ‘तुर्यगा' है। इन भूमिकाओं में पुनः शोकाकुल न होने देने वाली मुक्ति निहित है। अब तुम इन भूमिकाओं का विस्तार सुनो ॥ ॥24-26॥/

स्थितः किं मूढ एवास्मि प्रेक्षेऽहं शास्त्रसज्जनैः। 

वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः ॥ ||२७||

शास्त्रसज्जनसंपर्कवैराग्याभ्यासपूर्वकम् ।

 सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा॥ ||२८||

मैं भ्रमितमति क्यों हूँ? शास्त्र तथा श्रेष्ठ जनों से मैं इस सम्बन्ध में चर्चा करूँगा-इस प्रकार से वैराग्य धारण करने से पूर्व जो अभिलाषा जागती है, उसे ज्ञानियों ने ‘शुभेच्छा' नाम दिया है । इसके बाद शास्त्र तथा श्रेष्ठ जनों के सान्निध्य लाभ (सत्संग -पाठचक्र) से अध्ययन आदि के द्वारा अभ्यास एवं वैराग्य भावना से सदाचार की प्रवृत्तियों का प्राकट्य होता है, उसे ही ‘विचारणा' नाम दिया है ॥27-28॥ 

विचारणाशुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेषु रक्तता। 

यत्र सा तनुतामेति प्रोच्यते तनुमानसी ॥ ||२९||

भूमिकात्रियाभ्यासाच्चित्ते तु विरतेर्वशात् । 

सत्त्वात्मनि स्थिते शुद्धे सत्त्वापत्तिरुदाहृता ॥ ||३०||

शुभेच्छा और विचारणा द्वारा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति जब क्षीण हो जाती है, ऐसी अवस्था को ‘तनुमानसी' कहा गया है। इन तीन भूमिकाओं के अभ्यास द्वारा वैराग्य भाव के प्राबल्य से जब चित्त निर्मल सत्त्वरूप में स्थित होता है, इसी अवस्था को ‘सत्वापत्ति' कहते हैं ॥ 30

दशाचतुष्टयाभ्यासादसंसर्गकला तु या। 

रूढसत्त्वचमत्कारा प्रोक्ताऽसंसक्तिनामिका॥ ||३१||

भूमिकापञ्चकाभ्यासात्स्वात्मारामतया दृढम्। 

आभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात्॥ ||३२|| 

परप्रयुक्तेन चिरं प्रयत्नेनावबोधनम् ।

पदार्थभावना नाम षष्ठी भवति भूमिका ॥ ||३३|

इन सभी भूमिकाओं का अभ्यास हो जाने पर चमकने वाली संसर्गहीन कला सत्त्वारुढ़ होती है, वही ‘असंसक्ति' कहलाती है। इन पाँचों भूमिकाओं के अभ्यास के फलस्वरूप अपनी चेतना में ही रमते रहने तथा बाह्याभ्यन्तर पदार्थों की भावना के नष्ट होने पर ‘पदार्थ भावना' नामक छठी भूमिका में पदार्पण होता है॥31-33॥

भूमिषट्कचिराभ्यासाद्भेदस्यानुपलम्भनात् ।

 यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः ॥ ||३४||

एषा हि जीवन्मुक्तेषु तुर्यावस्थेति विद्यते । 

विदेहमुक्तिविषयं तुर्यातीतमतः परम् ॥ ||३५||

इन छ: भूमियों के परिपक्व हो जाने पर भेद-बुद्धि का क्षय हो जाता है और आरम-भाव में ही साधक की दृढ़निष्ठा हो जाती है, यही ‘तुर्यगा' अवस्था कही गयी है। इस तुर्यावस्था को जीवन्मुक्त पुरुष ही उपलब्ध कर पाते हैं। इसके बाद तुर्यातीत अवस्था हैं, जो विदेह मुक्ति का विषय है ।।॥34-35॥

ये निदाघ महाभागाः सप्तमीं भूमिमाश्रिताः । 

आत्मारामा महात्मानस्ते महत्पदमागताः ।। ||३६||

 जीवन्मुक्ता न मज्जन्ति सुखदुःखरसस्थिते ।

 प्रकृतेनाथ कार्येण किंचित्कुर्वन्ति वा न वा ।। ||३७||

हे निष्पाप ! जो अति भाग्यवान् पुरुष सप्तमी तुर्यगावस्था को प्राप्त कर लेते हैं, वे आत्मा में रमणशील महात्मा महत्पद (परमपद) को ग्रहण कर चुके हैं। ऐसी जीवन्मुक्त आत्मायें सुख-दुःख के अनुभवों से सर्वथा निर्लिप्त रहती हैं। वे कर्तव्य कर्मो में संलग्न रहकर भी उनसे लिप्त नहीं होतीं॥36-37॥

पार्श्वस्थबोधिताः सन्तः पूर्वाचारक्रमागतम्। 

आचारमाचरन्त्येव सुप्तबुद्धवदुत्थिताः ॥ ||३८||

भूमिकासप्तकं चैतद्धीमतामेव गोचरम्।

 प्राप्य ज्ञानदशामेतां पशुम्लेच्छादयोऽपि ये॥ ||३९||

 सदेहा वाप्यदेहा वा ते मुक्ता नात्र संशयः। 

ज्ञप्तिर्हि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन्सति विमुक्तता।। ||४०||

अपने निकटस्थ परिजनों के सचेत किये जाने पर जैसे मनुष्य सोते से जाग पड़ता है, वैसे ही वे ज्ञानीजन सरकर्मो में संलग्न रहकर सनातन आचरण की परम्परा निभाते हैं। इन सात भूमिकाओं को यदि पशु और म्लेच्छ आदि भी जान लें, तो वे भी देह रहते या देहत्याग के पश्चात् मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं, इसमें सन्देह की गुंजायश नहीं । हृदय-ग्रन्थियों का खुल जाना ही ज्ञान है और ज्ञान प्राप्ति हो जाने पर मुक्ति सुनिश्चित है 38-40. 

मृगतृष्णाम्बुबुद्धयादिशान्तिमात्रात्मकस्त्वसौ। 

ये तु मोहार्णवात्तीर्णास्तैः प्राप्तं परमं पदम् ॥ ||४१||

 ते स्थिती भूमिकास्वासु स्वात्मलाभपरायणाः ।

मनः प्रशमनोपायो योग इत्यभिधीयते ॥ ||४२||

जैसे मृग-तृष्णा में जल की भ्रान्ति होती है, इसे ही अविद्या कहा गया है, अविद्या का नाश ही मुक्ति है। परमपद के अधिकारी वही हैं, जो मोहरूपी सागर से पार हो चुके हैंआत्मसाक्षात्कार के प्रयत्नों में संलग्न पुरुष ही इन भूमिकाओं में प्रतिष्ठित होते हैं। मन की पूर्णतया शान्ति के साधन को योग कहा गया है ॥41-42॥ 

सप्तभूमिः स विज्ञेयः कथितास्ताश्च भूमिकाः । 

एतासां भूमिकानां तु गम्यं ब्रह्माभिधं पदम् ॥ ||४३||

त्वत्ताऽहन्तात्मता यत्र परता नास्ति काचन।

न क्वचिद्भावकलना न भावाभावगोचरा॥ ||४४||

सर्वं शान्तं निरालम्बं व्योमस्थं शाश्वतं शिवम्। 

अनामयमनाभासमनामकमकारणम् ॥ ||४५||

न सन्नासन्न मध्यं तं न सर्वं सर्वमेव च। 

मनोवचोभिरग्राह्यं पूर्णात्पूर्णं सुखात्सुखम् ॥ ||४६||

असंवेदनमाशान्तमात्मवेदनमाततम् ।

सत्ता सर्वपदार्थानां नान्या संवेदनादृते ।। ||४७||

योग की इन सात भूमिकाओं को ज्ञानभूमि के अन्तर्गत ऊपर बतलाया जा चुका है। इन भूमिकाओं का लक्ष्य है—ब्रह्मपद की प्राप्ति । जहाँ तेरा-मेरा और अपने-परायेपन का संकीर्ण भाव मिट जाता है, उस समय न तो भावात्मक बुद्धि अवशेष रहती है और न ही भाव-अभाव का चिन्तन हो पाता है; क्योंकि जागतिक वस्तुओं की सत्ता आत्मसंवेदन मात्र है, इससे अतिरिक्त कुछ नहीं। सर्वथा शान्त, आलम्बन रहित, आकाशस्वरूप, शाश्वत, शिव, दोषरहित, भासमान रहित, अनिर्वचनीय, कारणरहित, न सत्, न असत्, न मध्य, सम्पूर्णतारहित और सम्पूर्ण भी, मन-वाणी से अग्राह्य, पूर्ण से पूर्ण, सुख से सुखतरस्यरूप, संवेदन की पहुँच से परे, पूर्ण शान्त, आत्मानुभूतिरूप तथा व्यापकता यह ब्रह्म का स्वरूप हैं। सभी पदार्थों की सत्ता के अतिरिक्त यह चैतन्य भिन्न नहीं है और इसकी प्राप्ति का आधार एक मात्र सम्यक् अनुभूति है ॥43-47॥ 

संबन्थे द्रष्टुदश्यानां मध्ये दृष्टिहिं यद्वपुः । 

द्रष्टृदर्शनदृश्यादिवर्जितं तदिदं पदम् ॥ ||४८||

 देशाद्देशं गते चित्ते मध्ये यच्चेतसो वपुः । 

अजाड्यसंविन्मननं तन्मयो भव सर्वदा॥ ||४९||

अजाग्रत्स्वप्ननिद्रस्य यत्ते रूपं सनातनम्।

 अचेतनं चाजडं च तन्मयो भव सर्वदा ॥ ||५०|| 

जडतां वर्जयित्वैकां शिलाया हृदयं हि तत् । 

अमनस्कस्वरूपं यत्तन्मयो भव सर्वदा ।

 चित्तं दूरे परित्यज्य योऽसि सोऽसि स्थिरो भव ॥ ||५१||

 पूर्वं मनः समुदितं परमात्मतत्त्वात्तेनाततं जगदिदं सविकल्पजालम्। 

शून्येन शून्यमपि विप्र यथाम्बरेण नीलत्वमुल्लसति चारुतराभिधानम्॥ ||५२||

द्रष्टा और दृश्य का सम्बन्ध हो जाने पर मध्य में दृष्टि का जो स्वरूप परिलक्षित होता है, वह द्रष्टा, दृश्य और दर्शन से भिन्न साक्षात्काररूप स्थिति ही है। चित्त के एक देश से दूसरे में प्रवेश करने के मध्य जो अवस्था होती है, उस जड़तारहित चेतनरूप चिन्तन में निरन्तर तन्मय रहना चाहिए। जाग्रत् -स्वप्न और सुषुप्ति से परे जड़-चेतन विहीन जो सनातनरूप है, उसी में हमेशा स्थित रहो । जड़ता ही हृदयं की पाषाणवत् स्थिति है, उसका परित्याग करने पर जो अमनस्क अवस्था है, उसी में सदैव लीन रहो । चित्त को दूर से ही त्यागकर जिस अवस्था में हो, उसी में स्थिर रहो। परमात्म तत्व से सर्वप्रथम मन की उत्पत्ति हुई, पश्चात् उसी मन से विकल्पजलरूप यह संसार उत्पन्न हुआ। हे विप्न! शून्य से भी शून्य की उत्पत्ति होती है, जैसे- आकाश शून्य है, परन्तु इसी से मनोहर दिखलाई पड़ने वाली नीलिमा प्रकट होती है॥48-52॥

संकल्पसंक्षयवशाद्गलिते तु चित्ते संसारमोहमिहिका गलिता भवन्ति।

स्वच्छं विभाति शरदीव खमागतायां चिन्मात्रमेकमजमाद्यमनन्तमन्तः ॥ ||५३||

संकल्प (इच्छा)  के विनष्ट हो जाने पर चित्तवृत्तियाँ भी गल जाती हैं और इसी के साथ संसार का मोहरूपी कुहरा भी छँट जाता है। ऐसे में शरद्ऋतु के आगमन पर स्वच्छ आसमान की तरह वह अजन्मा, आद्य, अनन्त, एक, चिन्मात्ररूप ब्रह्म ही अन्तिम रूप से सुशोभित होता है ।। 53/  

अकर्तृकमरङ्गं च गगने चित्रमुत्थितम् । 

अद्रष्टृकं स्वानुभवमनिद्रस्वप्नदर्शनम् ॥ ||५४||

साक्षिभूते समे स्वच्छे निर्विकल्पे चिदात्मनि। 

                           निरिच्छे प्रतिबिम्बन्ति जगन्ति मुकरे यथा ॥ ||५५||

बिना कर्ता और रङ्ग के आकाश चित्रित सा प्रतीत होता है। बिना द्रष्टा के स्वयं अनुभूत निद्राहीन स्वप्न दिखलाई देता है। यह चिदात्मा साक्षिरूप, सम (सबके प्रति समान रहने वाला), स्वच्छ, निर्विकल्प तथा दर्पणवत् है, उसमें बिना किसी आकांक्षा के तीनों लोक प्रतिबिम्बित हो रहे हैं ॥54-55॥

एकं ब्रह्म चिदाकाशं सर्वात्मकमखण्डितम्। 

इति भावय यत्नेन चेतश्चाञ्चल्यशान्तये ॥ ||५६||

रेखोपरेखावलिता यथैका पीवरी शिला।

 तथा त्रैलोक्यवलितं ब्रहमौकमिह दृश्यताम्॥ ||५७||

सर्वस्वरूप, चिदाकाशरूप और अखण्डित ब्रह्म एक है, चित्त को चपलता शान्त करने के लिए प्रयत्नपूर्वक ऐसी भावना करनी चाहिए। तीनों लोकों से युक्त ब्रह्म के दर्शन उसी प्रकार करने चाहिए, जैसे एक मोटी पत्थरशिला पर रेखायें-उपरेखाएँ खिंची होती हैं॥56-57॥

द्वितीयकारणाभावादनुत्पन्नमिदं जगत्।

 ज्ञातं ज्ञातव्यमधुना दृष्टं द्रष्टव्यमद्भुतम् ॥ ||५८||

विश्रान्तोऽस्मि चिरं श्रान्तश्चिन्मात्रान्नास्ति किंचन।

 पश्य विश्रान्तसंदेहं विगताशेषकौतुकम्॥ ||५९||

ब्रह्म से भिन्न किसी अन्य कारण के न होने पर इस जगत को उत्पत्ति नहीं हुई (खरगोश के सींग की तरह यह त्रिकालबाधित है)। इस प्रकार मैंने (ऋभु का आत्मकथन) जो ज्ञातव्य था, उसे जान लिया, जो विलक्षणता देखनी थी, उसे देख लिया और चिरकाल से थका मैं अब विश्रान्ति को प्राप्त हो चुका हूँ। (हे। निदाघ!) इस सम्पूर्ण जागतिक माया से विमुक्त होकर तथा संशयविहीन होकर तुम चिन्मात्र के दर्शन करो। चिन्मात्र के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, ऐसा समझो ॥58-59.

निरस्तकल्पनाजालमचित्तत्वं परं पदम्। 

त एव भूमतां प्राप्ताः संशान्ताशेषकिल्बिषाः ।। ||६०||

 महाधियः शान्तधियो ये याता विमनस्कताम् ।

 जन्तोः कृतविचारस्य विगलद्वृत्तिचेतसः ।। ||६१||

 मननं त्यजतो नित्यं किंचित्परिणतं मनः । 

दृश्यं संत्यजतो हेयमुपादेयमुपेयुषः ।। ||६२|| 

द्रष्टारं पश्यतो नित्यमद्रष्टारमपश्यतः । 

विज्ञातव्ये परे तत्त्वे जागरूकस्य जीवतः ॥ ||६३||

 सुप्तस्य घनसंमोहमये संसारवर्त्मनि। 

अत्यन्तपकववैराग्यादरसेषु रसेष्वपि ॥ ||६४|| 

संसारवासनाजाले खगजाल इवाधुना । 

त्रोटिते हृदयग्रन्थौ श्लथे वैराग्यरंहसा ॥ ||६५||

कातकं फलमासाद्य यथा वारि प्रसीदति ।

तथा विज्ञानवशतः स्वभावः संप्रसीदति ॥ ||६६||

जिन्होंने संकल्प-बन्धन को काट दिया है, जो चित्तत्वरहित महान् पद पा चुके हैं, ऐसे ही साधक निष्पाप होकर ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। मन को वश में करके जो विमनस्क हो गये हैं, शान्तचित्तता उनकी प्रखर मेधा की परिचायिका है। वेदान्त के विषय में चिन्तनशील मनुष्य, जिनकी चित्तवृत्तियों का क्षय हो चुका है और मानसिक संकल्पों के त्याग में अभ्यस्त होने से जिनका मन सुस्थिर हो चुका है। जो मुमुक्षु पुरुष हेय और उपादेय दोनों तरह के दृश्यों का परित्याग कर रहे हैं, जो नित्य द्रष्टा अर्थात् आत्मज्ञान के साक्षात्कार में संलग्न तथा अद्रष्टा अर्थात् प्रपञ्च को न देखने वाले हैं, जो ज्ञातव्य परमतत्त्व में विशेषरूप से जागरुक रहकर जीवन यापन करते हैं, जो रसयुक्त तथा रसहीन इन सभी पदार्थों के प्रति अति सुस्थिर वैराग्य भाव से सघन मोहात्मक संसार पथ में सोये हुए हैं। वैराग्य की प्रबल भावना से चूहे द्वारा काटे गये पक्षी के पाश की तरह जिनकी सांसारिक वासना-तृष्णा का पाश कट चुका है और हृदय की ग्रन्थियाँ ढीली पड़ गई है, ऐसे साधकों का स्वभाव विशिष्ट ज्ञान से उसी प्रकार परिष्कृत-निर्मल हो जाता है, जिस प्रकार कातक (निर्मली) फल से जल निर्मल हो जाता है॥60-66॥ 

नीरागं निरुपासङगं निर्द्वन्दवं निरुपाश्रयम्। 

विनिर्याति मनो मोहाद्विहङ्गः पञ्जरादिव॥ ||६७|| 

शान्तसंदेहदौरात्म्यं गतकौतुकविभ्रमम् ।

 परिपूर्णान्तरं चेतः पूर्णेन्दुरिव राजते ॥ ||६८||

मन के रागरहित, अनासक्त, द्वन्दव से रहित तथा निरालम्ब हो जाने पर पिंजड़े से मुक्त हुए पक्षी की तरह ही मोह-बन्धन से मन की मुक्ति हो जाती हैसंशय रूप दुरात्मभावना जिनको शान्त हो चुकी है, जो प्रपञ्च कौतुक से विमुक्त हैं, उनका चित्त पूर्णमासी के चन्द्र के समान विशेष शोभा पाता है॥67-68॥

नाहं न चान्यदस्तीह ब्रहमौवास्मि निरामयम् । 

इत्थं सदसतोर्मध्याद्यः पश्यति स पश्यति ॥ ||६९||

अयत्नोपनतेष्वक्षिदृग्दृश्येषु यथा मनः। 

नीरागमेव पतति तद्वकार्येषु धीरधीः ॥ ||७०||

परिज्ञायोपभुक्तो हि भोगो भवति तुष्टये। 

विज्ञाय सेवितश्चोरो मैत्रीमेति न चोरताम्॥ ||७१||

न मैं स्वयं और न अन्य कुछ ही यहाँ है, मैं तो सभी दोषों से रहित मात्र ब्रह्म हूँ, जिसकी दृष्टि सत्-असत्, के मध्य इस प्रकार की है, वहीं वास्तव में ब्रह्म साक्षात्कार करने वाला है। जिस प्रकार दर्शनीय दृश्यों की तरफ मन स्वाभाविक रूप से बिना आसक्ति के ही खिंच जाता है, उसी प्रकार धीमति पुरुष कर्तव्य कर्मों के निर्वाह में संलग्न रहते हैं। भली प्रकार सोच-समझकर भोगा गया भोग उसी तरह संतुष्टि का निमित्त बनता है, जिस तरह जान-बूझकर सेवा में संलग्न चोर चौर्यकार्य को छोड़कर मित्रता ही निभाता है॥69-71॥

अशङ्कितापि संप्राप्त ग्रामयात्रा यथाऽध्वगैः ।

 प्रेक्ष्यते तद्वदेव ज्ञैर्भोगश्रीरवलोक्यते ॥ ||७२||

 मनसो निगृहीतस्य लीलाभोगोऽल्पकोऽपि यः । 

तमेवालब्धविस्तारं क्लिष्टत्वाद्बहु मन्यते ॥ ||७३||

बद्धमुक्तो महीपालो ग्रासमात्रेण तुष्यति । 

परैरबद्धो नाक्रान्तो ने राष्ट्रं बहु मन्यते ।। ||७४||

जिस ग्राम में जाने का मन में कभी विचार भी नहीं था, ऐसे ग्राम में अचानक आ जाने पर यात्री जिस आश्चर्य भरी दृष्टि से उसे देखता है,उसी दृष्टि से ज्ञानीपुरुष भोग-ऐश्वर्यों पर दृष्टिपात करता है। बिना श्रम से उपलब्ध हुई स्वल्पमात्र भोग सामग्री को नियन्त्रित मन वाला साधक बहुत अधिक समझते हुए कष्टदायी मानकर त्याग देता है। शत्रु के बन्धन से मुक्त होने पर जो राजा -भोजन के एक ग्राम से सन्तुष्ट हो जाता है.वही राजा शत्रु द्वारा आक्रान्त और आबद्ध न किये जाने पर राज्य के विशाल वैभव को भी तुच्छ ही मानता है ॥72-74॥

हस्तं हस्तेन संपीड्य दन्तैर्दन्तान्विचूर्ण्य च। 

अङ्गान्यङ्गैरिवाक्रम्य जयेदादौ स्वकं मनः ॥ ||७५||

मनसो विजयान्नान्या गतिरस्ति भवार्णवे। 

महानरकसाम्राज्ये मत्तदुष्कृतवारणाः । 

आशाशरशला-काढ्या दुर्जया हीन्द्रियारयः ॥ ||७६||

हाथ से हाथ को मलकर, दाँत से दाँत को पीसकर तथा अङ्गों से अङ्गों को दबाकर अर्थात् स्वकीय सम्पूर्ण पराक्रम और साहस द्वारा मन को जीतने का प्रयास करे इस संसार सागर में मन पर विजय पाने से बढ़कर अन्य उपाय नहीं है। इस भयंकर नरक रूपी साम्राज्य में दुष्कृत रूपी मतवाले हाथी भ्रमण करते हैं। आशारूपी बाणों और कटारों से सुसज्जित इन्द्रियरूपी वैरियों को जीतना अत्यन्त मुश्किल है ॥75-76॥

तावन्निशीव वेताला वसन्ति ह्यदि वासनाः । 

एकतत्त्वदृढाभ्यासाद्यान्न विजितं मनः ॥ ||७८||

 भृत्योऽभिमतकर्तृत्वान्मन्त्री सर्वार्थकारणात्।

 सामन्तश्चेन्द्रियाक्रान्तेर्मनो मन्ये विवेकिनः ॥ ||७९||

जो इन्द्रियरूपी वैरियों को अपने वशीभूत कर चुके हैं तथा जिन्होंने चित्त के अहंभाव को विनष्ट कर दिया है, उनकी भोग लिप्साएँ (ऐषणाओं में घोर आसक्ति) उसी प्रकार समाप्त हो जाती हैं, जैसे हेमन्त ऋतु में कमल का पौधा सूख जाता है। एकत्व के दृढ़ अभ्यास द्वारा जब तक मन को नियन्त्रित नहीं कर लिया जाता, तब तक ही रात्रि में बेताल की तरह हृदय में वासना टिकी हुई रहती है ।  विवेकशील व्यक्ति अपने मन को अभीष्ट सिद्धि के लिए सेवक के समान सभी प्रयोजनों की पूर्ति के लिए मन्त्रीरूप तथा सम्पूर्ण इन्द्रियों को स्वनियन्त्रित करने के लिए सामन्तरूप बना लेते हैं, ऐसा मेरा विचार है।॥77-79॥

{एकत्व Oneness आत्मा या गुरुप्रदत्त इष्टदेव के नाम -रूप के साथ एकत्व का दृढ़ अभ्यास के द्वारा जब तक मन को नियन्त्रित नहीं कर लिया जाता, तब तक ही रात्रि में बेताल की तरह हृदय में वासना टिकी हुई रहती है । 

मन्त्री-रूप   आमात्य, परामर्श देनेवाला, सलाह देनेवाला, सचिव -  वह पुरुष जिसके परामर्श से राज्य के कामकाज होते हों । शतरंज की एक गोटी का नाम-यह गोटी राजा से छोटी मानी जाती है। यह टेढी सीधी सब प्रकार की चालें चलती है । इसे वजीर या रानी भी कहते हैं ।  सामन्त-रूप मध्य काल में राजाओं के मातहत बड़े भू-स्वामी और योद्धा क्षत्रिय सरदारों, जमींदारों को सामन्त (knight) कहा जाता था। श्रेष्‍ठ काम के लिए राजा या रानी द्वारा Sir की उपाधि से सम्‍मानित पुरुष या महिला जो इस  'नाइट' (रायसाहब) उपाधि -का अपने नाम से पहले प्रयोग कर सकता है , घोड़े के सिर की शकल का शतरंज का एक मोहरा, शतरंज का घोड़ा जो सम्पूर्ण इन्द्रियों को = पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पांच कर्मेन्द्रियों को (कुल 10 इन्द्रियों को) स्वनियन्त्रित करने में समर्थ बड़े भू-स्वामी और योद्धा सरदारों क्षत्रिय -जमींदार को सामन्त को (knight) कहा जाता था।  जैसे इंग्लैण्ड के राजा या रानी द्वारा श्रेष्‍ठ काम के लिए Sir की उपाधि से सम्‍मानित पुरुष या महिला इस 'knight' या 'रायबहादुर' की उपाधि का प्रयोग अपने नाम से पहले कर सकता है , घोड़े के सिर की शकल का शतरंज का एक मोहरा, शतरंज का घोड़ा, मंत्री-रूप और सामंत-रूप बना लेते हैं, ऐसा मेरा विचार है ।।} 79

लालनात्स्निग्धललना पालनात्यालकः पिता । 

सुहृदुत्तमविन्यासान्मनो मन्ये मनीषिणः ॥ ||८०|| 

स्वालोकतः शास्त्रदृशा स्वबुद्धया स्वानुभावतः ।

 प्रयच्छति परां सिद्धिं त्यक्त्वात्मानं मन:पिता॥ ||८१||

 सुहृष्टः सुदृढः स्वच्छः सुक्रान्तः सुप्रबोधितः।

  स्वगुणेनोर्जितो भाति हृदि हृद्यो मनोमणिः ॥ ||८२|| 

एनं मनोमणिं ब्रह्मन्बहुपङ्कलङ्कितम् । 

विवेकवारिणा सिद्धयै प्रक्षाल्यालोकवान्भव।। ||८३||

मेरे विचार से मनीषी का मन लालन करने के फलस्वरूप स्नेहमयी ललना-स्वरूप और पालन करने से पितृतुल्य है। (शास्त्रनिषिद्ध कर्मों का विष के समान त्याग और)  शास्त्रानुकूल आचरण से, स्वयं के एकत्रित अनुभवजन्य ज्ञान प्रकाश से तथा विवेक बुद्धि से मन-रूपी पिता परमसिद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। अति हृष्ट-पुष्ट, सुदृढ़, निर्मल, स्वशीभूत, भली प्रकार चैतन्य तथा आत्मिक सद्गुणों (24 गुणों)  से प्रखर-तेजस्विता युक्त सुन्दर मनरूपी मणि हृदय में विराजमान हैहे ब्रह्मन् । (मोहजनित मल लाग विविधविधि-कोटिजतन नहीं जाहिं।) बहुविध वासना-तृष्णा के कीचड़ से सने इस मनरूपी मणि को विवेक-प्रयोग रूपी जल से निर्मल करके साधन-सिद्धि के लिए चमकदार (परिष्कृत) बनायें ।। ॥80-83॥  

विवेकं परमाश्रित्य बुद्ध्या सत्यमवेक्ष्य च । 

इन्द्रियारीनलं छित्त्वा तीर्णो भव भवार्णवात्॥ ||८४||

सद्विवेक का अवलम्बन लेकर, बुद्धि से यथार्थ सत्य का अनुसन्धान करके इन्द्रियरुपी वैरियों को तुम छिन्न-भिन्न कर पाओगे, इसी से संसार रूपी भवसागर से तुम पार उतरने में सक्षम हो सकोगे ।।84

आस्थामात्रमनन्तानां दुःखानामाकरं विदुः । 

अनास्थामात्रमभितः सुखानामालयं विदुः ।। ||८५|| 

वासनातन्तुबद्धोऽयं लोको विपरिवर्तते ।

 सा प्रसिद्धातिदुःखाय सुखायोच्छेदमागता ॥ ||८६|| 

धीरोऽप्यतिबहुज्ञोऽपि कुलजोऽपि महानपि ।

 तृष्णया बध्यते जन्तुः सिंहः शृङ्खलया यथा ॥ ||८७||

 परमं पौरुषं यत्नमास्थायादाय सूद्यमम्।

यथाशास्त्रमनुद्वेगमाचरन्को न सिद्धिभाक् ॥ ||८८||

संसार में मात्र आस्था (=आशा) ही अनेक कष्टों की उत्पत्ति का कारण है और अनास्था (आशा-अपेक्षारहित जीवन) ही सुख का घर समझना चाहिए। वासनाओं (सांसारिक इच्छाओं में आसक्ति) के सूत्र से बँधा हुआ यह संसार पुनः- पुनः उत्पन्न होता है। वह प्रख्यात वासना अति कष्टदायिनी बनकर समस्त सुखों का पूरी तरह से उच्छेदन करने के लिए आती है। जंजीर से सिंह के बाँधने के समान वासना के मोहपाश में धीर, कुलीन, अति बहुश्रुत तथा महान् व्यक्ति भी बँध जाते हैं। शास्त्रानुकूल आचरण (एक पत्नीव्रत का पालन) करता हुआ, परम पुरुषार्थ का अवलम्बन लेकर और श्रेष्ठ उद्यम करते हुए कौन सिद्धि को प्राप्त नहीं करता ? ॥85-88॥

अहं सर्वमिदं विश्वं परमात्माहमच्युतः । 

नान्यदस्तीति संवित्त्या परमा सा ह्यहंकृतिः ।। ||८९|| 

सर्वस्माद्वयतिरिक्तोऽहं वालाग्रादप्यहं तनुः । 

इति या संविदो ब्रह्मन्दिवतीयाहंकृतिः शुभा॥ ||९०||

मोक्षायैषा न बन्धाय जीवन्मुक्तस्य विद्यते ॥ ||९१||

मैं समस्त विश्वरूप हूँ, मैं अच्युत परमात्मस्वरूप हूँ, मेरे अतिरिक्त शेष कुछ भी नहीं-इस तरह के बोधात्मक अहं भाव को उत्तम माना गया है‘मैं सभी प्रपञ्च से भिन्न हूँ,'मैं बाल के अग्रभाग से कहीं अधिक सूक्ष्म हूँ-इस प्रकार का दूसरा अहं भाव मोक्ष को देने वाला है, बन्धन में फँसाने वाला नहीं। जीवन्मुक्त आत्मायें ही ऐसे अहंभाव से युक्त होती हैं।।89-91.  

पाणिपादादिमात्रोऽयममित्येष निश्चयः । 

अहंकारस्तृतीयोऽसौ लौकिकस्तुच्छ एव सः ।। ||९२||

जीव एव दुरात्मासौ कन्दः संसारदुस्तरोः । 

अनेनाभिहतो जन्तुरधोऽधः परिधावति ॥ ||९३|| 

अनया दुरहंकृत्या भावासंत्यक्तयाचिरम्। 

शिष्टाहंकारवाञ्जन्तुः शमवान्याति मुक्तताम्॥ ||९४||

मैं हाथ-पैर वाला मात्र स्थूल शरीरधारी (M/F) हूँ- इस प्रकार की मान्यता जो तीसरे लौकिक अहंकार में होती है, उसे अत्यन्त निकृष्ट कहा गया है। अहंकार से युक्त दुरात्मा प्राणी ही कष्टमय संसार रूपी वृक्ष का मूल कारण है। इससे प्रताड़ित प्राणी निरन्तर पतन की ओर बढ़ता है। इस तृतीय दुःखमय अहंभाव का परित्याग करके लम्बे समय से शुभ अहंभाव में संलग्न प्राणी शान्तचित्त होकर मुक्ति प्राप्त करते हैं ।॥92-94॥ 

प्रथमौ द्वावहंकारावड़ीकृत्य त्वलौकिकौ। 

तृतीयाहंकृतिस्त्याच्या लौकिकी दु:खदायिनी ॥ ||९५||

अथ ते अपि संत्यज्य सर्वाहंकृतिवर्जितः ।

 स तिष्ठति तथात्युच्चैः परमेवाधिरोहति ॥ ||९६||

प्रारम्भिक दो अलौकिक अहंकारों को स्वीकार करके तीसरे दुःखप्रद लौकिक अहंकार को त्याग दे। साधन शक्ति की वृद्धि पर इन सब प्रकार के अहंकारों को त्यागकर निरहंकारिता ग्रहण करे, उसी से उत्तमपद को प्राप्ति सम्भव है॥95-96॥

भोगेच्छामात्रको बन्धस्तत्त्यागो मोक्ष उच्यते। 

मनसोऽभ्युदयो नाशो मनोनाशो महोदयः।

 ज्ञमनो नाशमभ्येति मनोऽज्ञस्य हि शृङ्खला ॥ ||९७||

 नानन्दं न निरानन्दं न चलं नाचलं स्थिरम्। 

न सन्नासन्न चैतेषां मध्यंज्ञानिमनो विदुः ॥ ||९८||

 यथा सौक्ष्म्याच्चिदाभास्य आकाशो नोपलक्ष्यते। 

तथा निरंशश्चिद्भावः सर्वगोऽपि न लक्ष्यते ॥ ||९९||

भोगेच्छा को ही बन्धन कहा गया है और उसका परित्याग ही मोक्ष कहलाता है। मन की प्रगति का कारण इसका नष्ट होना है। 'मनोनाशो महोदयः'-  मन का नाश सौभाग्यवान् पुरुषों की पहचान है। ज्ञानी पुरुषों के मन का नाश हो जाता है। अज्ञानी के लिए मन बन्धन का कारण है। ज्ञानी पुरुषों के लिए मन न तो आनन्द रूप है और न ही आनन्दरहित है। उनके लिए वह चल, अचल, स्थिर, सत्, असत् भी नहीं है अथवा इसके मध्य की स्थिति वाला भी नहीं है। अखण्ड चेतनसत्ता सर्वव्यापक होते हुए भी उसी प्रकार दृष्टिगोचर नहीं होती, जिस प्रकार चित्त में आलोकित होने वाला आकाश सूक्ष्मता के कारण दिखाई नहीं देता॥97-99॥ 

सर्वसंकल्परहिता सर्वसंज्ञाविवर्जिता। 

सैषा चिदविनाशात्मा स्वात्मेत्यादिकृताभिधा॥ ||१००|| 

आकाशशतभागाच्छा ज्ञेषु निष्कलरूपिणी । 

सकलामलसंसारस्वरूपैकात्मदर्शिनी॥ ||१०१|

नास्तमेति न चोदेति नोत्तिष्ठति न तिष्ठति । 

नच याति न चायाति न च नेह न चेह चित्॥ ||१०२||

सभी संज्ञाओं से रहित और समस्त संकल्पों (भोग की इच्छाओं) से रहित यह चिदात्मा अविनाशी तथा स्वात्मा आदि नामों से जाना जाता है। वह समस्त निर्मल संसार के रूप में एकमात्र स्वयं को ही दर्शाता है। ज्ञानियों की दृष्टि में वह आकाश से भी सौ गुना स्वच्छ, निर्मल तथा निष्कलरूप है। वह चेतनासत्ता (सिनेमा का पर्दा ?) न तो कभी उदय होती है और न ही अस्त होती है, वह गमन-आगमन से रहित, न उठती और न स्थिर बैठी ही रहती है। यह न तो यहाँ और न ही वहाँ ही है ॥100-102॥ 

सैषा चिदमलाकारा निर्विकल्पा निरास्पदा॥ ||१०३|| 

आदौ शमदमप्रायैर्गुणैः शिष्यं विशोधयेत्। 

पश्चात्सर्वमिदं ब्रह्म शुद्धस्त्वमिति बोधयेत् ॥ ||१०४|| 

अज्ञस्यार्थप्रबुद्धस्य सर्वं ब्रह्मेति यो वदेत्। 

महानरकजालेषु स तेन विनियोजितः।। ||१०५|| 

वह चिदात्मा आश्रयहीन, विकल्परहित और शुद्धस्वरूप है। प्रारम्भ में शम-दम आदि गुणों द्वारा शिष्य के अन्तः का परिष्कार करना गुरु के लिए आवश्यक है, तत्पश्चात् उसे बोधस्वरूप यह ब्रह्मज्ञान प्रदान करे-यह सभी कुछ ब्रह्मरूप है और तुम निर्मल ब्रह्मरूप होअपरिपक्व बुद्धिवाले और अज्ञानी के समक्ष सब कुछ ब्रह्ममय है, ऐसा कहना उसे मानो घोर नरक में धकेलने की तरह है ॥ 

[ऋषि कहते हैं कि प्रारम्भ में ही शिष्य-साधक को अभेद (इष्टदेव के साथ Oneness) का उपदेश नहीं करना चाहिए। इसे पहले वाञ्छित (श्रेय ,सद इच्छा) -अवांञ्छित (प्रेय, बुरी इच्छा) का भेद बताकर शम-दम आदि द्वारा वित्त शुद्धि करानी चाहिए। जब तक चित्त शुद्ध नहीं हो जाता, तब तक अभेद समझाने के प्रयास में वह अवाञ्छित का त्याग कर पाता। आज के उपदेशक ऐसी को कुपथ्य दे बैठते हैं।] ॥१०३-१०५॥

प्रबुद्धबुद्धेः प्रक्षीणभोगेच्छस्य निराशिषः । 

नास्त्यविद्यामलमिति प्राज्ञस्तूपदिशेद्गुरुः । ||१०६||

सति दीप इवालोकः सत्यर्क इव वासरः । 

सति पुष्प इवामोदश्चिति सत्यं जगत्तथा ॥ ||१०७||

जिस व्यक्ति की भोग कामनाएँ क्षीण हो चुकी हैं, आकांक्षाएँ समाप्तप्राय हैं तथा बुद्धि जागरुक है, उसी को वेदान्त का उपदेश प्राज्ञ गुरु प्रदान करे। अविद्यारूपी विकार का कोई अस्तित्व नहीं। जैसे सूर्योदय होने पर दिवस, दीपक से प्रकाश तथा पुष्य से सुगन्धि की स्थिति का होना निश्चित है, वैसे ही चैतन्य पर संसार विद्यमान है106-107 

प्रतिभासत एवेदं न जगत्परमार्थतः। 

ज्ञानदृष्टौ प्रसन्नायां प्रबोधविततोदये ॥ ||१०८||

यथावज्ज्ञास्यसि स्वस्थो मद्वाग्वृष्टिबलाबलम्। 

अविद्ययैवोत्तमया स्वार्थनाशोधमार्थया॥ ||१०९|| 

विद्या संप्राप्यते ब्रह्मन्सर्वदोषापहारिणी।

 शाम्यति ह्यस्त्रमस्त्रेण मलेन क्षाल्यते मलम् ॥ ||११०|| 

शमं विषं विषेणैति रिपुणा हन्यते रिपुः । 

ईदृशी भूतमायेयं या स्वनाशेन हर्षदा ॥ ||१११||

वास्तव में यह संसार अस्तित्व रहित है, यह तो मात्र आभासित होता है। अब तुम्हारी ज्ञान-दृष्टि आवरण शून्य हो जायेगी और ज्ञान के प्रकाश से ओत-प्रोत होगी, ऐसे में तुम स्वयमेव अपने स्वरूप में स्थित हो जाओगे। तभी तों में उपदेश की सत्यता का भली प्रकार बोध होगा। हे ब्रह्मन्! सब दोषों को दूर करने वाली विद्या की प्राप्ति स्वार्थ भावना को विनष्ट करने के लिए प्रयत्नशील अविद्या द्वारा ही सम्भव होती है। अस्त्र द्वारा अस्त्र को निस्तेज किया जाता है और मल द्वारा मल धुलता है। विष द्वारा विष का शमन तथा शत्रु द्वारा शत्रु का हनन होता है। यह भूतमाया (मिथ्या अहं भाव, भोगने की इच्छा ) भी इसी प्रकार की है, जो अपने क्षय पर स्वयं हर्षित होती है ,108-111./

न लक्ष्यते स्वभावोऽस्या वीक्ष्यमाणैव नश्यति । 

नास्त्येषा परमार्थेनेत्येवं भावनयेद्धया ॥ ||११२||

सर्वं ब्रहोति यस्यान्तर्भावना सा हि मुक्तिदा।

भेददृष्टिरविद्येयं सर्वथा तां विसर्जयेत् ॥ ||११३||

आसानी से इसका (M/F देहात्मबोध ? अहं का ?)  स्वरूप देखने में नहीं आता, परन्तु दिखाई देते ही यह नाश को प्राप्त होती है। भेद दृष्टि का होना ही अविद्या है, इसका सर्वथा त्याग करना ही कल्याणप्रद है। वस्तुतः माया का अस्तित्व है ही नहीं- सख कुछ ब्रह्ममय है, ऐसी दृढ़ निश्चय से की गई आन्तरिक भावना ही मोक्षप्राप्ति का उपाय है॥112-113॥

मुने नासाद्यते तद्धि पदमक्षयमुच्यते । 

कुतो जातेयमिति ते द्विज मास्तु विचारणा ॥ ||११४|| 

इमां कथमहं हन्मीत्येषा तेऽस्तु विचारणा । 

अस्तं गतायां क्षीणायामस्यां ज्ञास्यसि तत्पदम्॥ ||११५||

चत एषा यथा चैषा यथा नष्टेत्यखण्डितम् । 

तदस्या रोगशालाया यत्नं कुरु चिकित्सने ॥ ||११६||

हे मुनि श्रेष्ठ ! माया द्वारा जो नहीं पाया जाता, वह अक्षय पद के नाम से जाना जाता है। हे द्विज! इस माया (मिथ्या अहं -भोगेच्छा) की उत्पत्ति किससे हुई, इसके बारे में तुम्हें विचार नहीं करना चाहिए: अपितु विचार यही रहे कि किस प्रकार इसे नष्ट करूँ? इसके क्षीण होकर विनष्ट हो जाने पर तुम क्षयरहित पद को पा सकोगे। इसके प्रकट होने का लक्षण इसका स्वरूप और इसके नष्ट करने के उपाय पर विचार करते हुए इस रोग के मूलकारण के निदान का प्रयास करना चाहिए ॥114-116॥ 

यसैषा जन्मदुःखेषु न भूयस्त्वां नियोक्ष्यति ।

 स्वात्मनि स्वपरिस्पन्दैः स्फुरत्यच्छैश्चिदर्णवः ॥ ||११७|| 

एकात्मकमखण्डं तदित्यन्तर्भाव्यतां दृढम्। 

किंचित्क्षुभितरूपा सा चिच्छक्तिश्चिन्मयार्णवे ॥ ||११८||

 तन्मयैव स्फुरत्यच्छा तत्रैवोर्मिरिवार्णवे। 

आत्मन्येवात्मना व्योग्नि यथा सरसि मारुतः ॥ ||११९||

तथैवात्मात्मशक्त्यैव स्वात्मन्येवैति लोलताम्। 

क्षणं स्फुरति सा दैवी सर्वशक्तितया तथा ॥ ||१२०||

जिससे यह तुम्हें आवागमन के जन्मचक्र में बारम्बार न डाले और चित् रूपी समुद्र निर्मल आत्म - स्पन्दन से विभासित हो सके। यह चिदात्मा अविभाजित रूप वाली है, अपने भीतर इस प्रकार का दृढ़ निश्चय करना चाहिए। यह चिदात्मा चिन्मय सागर में कुछ क्षोभयुक्त हो रही है। सागर में लहरों । तरफ निर्मल चिन्मय लहरें उठ रही हैं। आकाश सरोवर में जिस प्रकार वायु स्वयमेव लहराती है, उसी प्रकार अपनी आत्मा में आत्मबल से आत्मा तरंगित होती हैसर्वशक्तिमान् सत्ता द्वारा इस प्रकार की दैवी स्फुरणा क्षण मात्र के लिए होती है॥११७-१२०॥ 

देशकालक्रियाशक्तिर्न यस्याः संप्रकर्षणे।

स्वस्वभावं विदित्वोच्चैरप्यनन्तपदे स्थिता ॥ ||१२१||

जिस चेतनशक्ति (Consciousness power) को देश, काल और क्रियाशक्ति (Time, Space and action power)  चलायमान करने में अक्षम है, वही चेतनशक्ति अपनी स्वाभाविक स्थिति को जानकर उच्च अनन्त पद पर प्रतिष्ठित है ॥121

रूपं परिमितेनासौ भावयत्यविभाविता।

यदैवं भावितं रूपं तया परमकान्तया ॥ ||१२२||

 तदैवैनामनुगता नामसंख्यादिका दृशः । 

विकल्पकलिताकारं देशकालक्रियास्पदम् ॥ ||१२३||

यह चेतन शक्ति अज्ञान स्थिति में सीमित सी होकर रूप भावना वाली होती है । उस विलक्षण परमसत्ता में जब रूप की भावना (आत्मा स्वभाव से स्थूल रूप धारण करना चाहती है ?) समाविष्ट होती है। उस समय उसके साथ नाम और संख्या आदि उपाधियाँ जुड़ जाती हैं ॥122-123॥

चितो रूपमिदं ब्रह्मक्षेत्रज्ञ इति कथ्यते । 

वासनाः कल्पयन्सोऽपि यात्यहंकारतां पुनः ।। ||१२४|| 

अहंकारो विनिर्णेता कलङ्की बुद्धिरुच्यते । 

बुद्धिः संकल्पिताकारा प्रयाति मननास्पदम् ॥ ||१२५||

हे ब्रह्मन्! चेतनशक्ति का वह रूप जो देश, काल और क्रिया का आश्रयरूप है तथा विकल्परूप को ग्रहण करने वाला है, वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है । पुनः वही वासनात्मक चिन्तन से अहंकाररूप कहा जाता है जब अहंकार भी निश्चयात्मक और दोषपूर्ण हो जाता है, तो बुद्धि कहलाता है। बुद्धि भी जब संकल्परूप में परिणत हो जाती है, तो मननशील मन का रूप धारण करती है 124-125॥

मनो घनविकल्पं तु गच्छतीन्द्रियतां शनैः । 

पाणिपादमयं देहमिन्द्रियाणि विदुर्बुधाः ।। ||१२६||

मन के गहरे विकल्प में डूबने पर धीरे-धीरे इन्द्रियस्वरूप की झलक मिलती है। मेधावी पुरुष हस्तपाद युक्त स्थूल शरीर को ही इन्द्रिय मानते हैं।। 126

एवं जीवो हि संकल्पवासनारज्जुवेष्टितः।

 दुःखजालपरीतात्मा क्रमादायाति नीचताम् ॥ ||१२७|| 

इति शक्तिमयं चेतो घनाहंकारतां गतम्।

 कोशकारक्रिमिरिव स्वेच्छया याति बन्धनम्॥ ||१२८||

संकल्प और वासना की रस्सी से बँधा हुआ जीव दुःख-जाल में फँसकर निरन्तर दुर्गति की ओर बढ़ता हैरेशम बनाने वाले कीड़े की तरह शक्तिमय चित् घनीभूत अहंभाव (M/F शरीर भाव)  को प्राप्त करके स्वेच्छा से बन्धन में बँधता है॥127-128॥/

स्वयं कल्पिततन्मात्राजालाभ्यन्तरवर्ति च। 

परां विवशतामेति शृङ्खलाबद्धसिंहवत्॥ ||१२९||

चित् - शक्ति अपने ही द्वारा संकल्पित तन्मात्रा रूपी पाश में जकड़कर जंजीर से बँधे हुए सिंह के समान अत्यन्त लाचार हो जाती है ॥129/

क्वचिन्मनः क्वचिदबुद्धिः क्वचिज्ज्ञानं क्वचित्क्रिया।

 क्वचिदेतदहंकारः क्वचिच्चित्तमिति स्मृतम्॥ ||१३०||

क्वचित्प्रकृतिरित्युक्तं क्वचिन्मायेति कल्पितम्। 

क्वचिन्मलमिति प्रोक्तं क्वचित्कर्मेति संस्मृतम्॥ ||१३१||

क्वचिद्बन्ध इति ख्यातं क्वचित्पुर्यष्टकं स्मृतम्। 

प्रोक्तं क्वचिदविद्येति क्वचिदिच्छेति संमतम् ॥ ||१३२||

इसी आत्मा को कहीं मन, कहीं बुद्धि, कहीं ज्ञान, कहीं क्रिया, कहीं अहंकार और कहीं चित्तरूप में जाना जाता है। यही कहीं प्रकृति और कहीं माया कहलाती है। कहीं बन्धन तो कहीं पुर्यष्टक (सूक्ष्मशरीर) कहा जाता है। इस आत्मा को ही कहीं अविद्या और कहीं इच्छा नाम से जाना जाता है॥130-132॥ 

इमं संसारमखिलमाशापाशविधायकम् । 

दधदन्त:फलैर्हीनं वटधाना वटं यथा ॥ ||१३३||

यह आशा रूपी जाल का रचयिता (मन? स्थूल रूप धारण की इच्छा ?) सम्पूर्ण विश्व को वैसे ही धारण करता है, जैसे फलरहित वट का बीज वटवृक्ष को धारण करता है133

चिन्तानलशिखादग्धं कोपाजगरचर्वितम्।

कामाब्धिकल्लोलरतं विस्मृतात्मपितामहम्॥ ||१३४||

यह मन चिन्तारूपी अग्निज्वाला से दग्ध हुआ, क्रोधरूपी अजगर द्वारा काटा गया और कामरूपी सागर के भंवर में फँसा हुआ है, यह अपने पितामह आत्मा को विस्मृत कर चुका है 134

समुद्धर मनो ब्रह्मन्मातङ्गमिव कर्दमात्। 

एवं जीवाश्रिता भावा भवभावनयाहिताः ॥ ||१३५||

 ब्रह्मणा कल्पिताकारा लक्षशोऽप्यथ कोटिशः।

संख्यातीताः पुरा जाता जायन्तेऽद्यापि चाभितः ।। ||१३६||

उत्पत्स्यन्तेऽपि चैवान्ये कणौघा इव निर्झरात्। 

केचित्प्रथमजन्मानः केचिज्जन्मशताधिकाः ॥ ||१३७|| 

केचिच्यासंख्यजन्मानः केचिद्वित्रिभवान्तराः । 

केचित्किन्नरगन्धर्वविद्याधरमहोरगाः ।। ||१३८||

हे ब्रह्मन् ! कीचड़ (दल-दल) में फँसे हाथी के समान ही इस मन का उद्धार करो। जीव के आश्रित भाव ब्रह्म द्वारा लाखों; करोड़ों तथा असंख्य रूपों में कल्पित होकर पहले भी पैदा हो चुके हैं और आज भी पैदा हो रहे हैं तथा निर्झर से जलबिन्दुओं की उत्पत्ति के समान और भी उत्पन्न होते रहेंगे। कुछ प्रथम बार, कुछ सौ से अधिक बार, कुछ असंख्य बार जन्म धारण कर चुके हैं और किन्हीं के तो दो-तीन ही जन्म हुए हैं। कोई किन्नर, गन्धर्व, विद्याधर एवं नागरूप में उत्पन्न हैं॥135-138॥ 

केचिदर्केन्दुवरुणास्त्र्यक्षाधोक्षजपद्मजाः ।

 केचिद्ब्राह्मणभूपालवैश्यशूद्रगणाः स्थिताः ।। ||१३९||

केचित्तृणौषधीवृक्षफलमूलपतङ्गकाः ।

 केचित्कदम्बजम्बीरसालतालतमालकाः ॥ ||१४०||

केचिन्महेन्द्रमलयसह्यमन्दरमेरवः । 

केचित्क्षारोदधिक्षीरघृतेक्षुजलराशयः ॥ ||१४१||

कोई सूर्य, चन्द्र, वरुण, हरि, शिव एवं ब्रह्मरूप धारण किये हुए हैं। कुछ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि रूप में स्थित हैं। कोई औषधि, तृण, वृक्ष, फल, मूल एवं पत्ते के रूप में हैं। तो कोई जम्बीर (नींबू), कदम्ब, आम, ताड़ तथा तमाल पेड़ के रूप में हैं। कुछ महेन्द्र, मलय, सह्य, मन्दर, मेरु आदि पर्वतों के रूप में विद्यमान हैं। कोई खारे सागर, कोई दूध, घृत, गन्ने के रस तथा जलराशि के रूप में स्थित हैं॥139-141॥ 

केचिद्विशालाः ककुभः केचिन्नद्यो महारयाः। 

 विहरन्त्युच्चकैः केचिन्निपतन्त्युत्पतन्ति च ॥ ||१४२|

कन्दुका इव हस्तेन मृत्युनाऽविरतं हताः। 

भुक्त्वा जन्मसहस्त्राणि भूयः संसारसंकटे॥ ||१४३||

 पतन्ति केचिदबुधाः संप्राप्यापि विवेकताम्। 

दिक्कालाद्यनवच्छिन्नमात्मतत्त्वं स्वशक्तितः ॥ ||१४४||

 लीलयैव यदादत्ते दिक्कालकलितं वपुः । 

तदेव जीवपर्यायवासनावेशतः परम्॥ ||१४५||

मनः संपद्यते लोलं कलनाकलनोन्मुखम्। 

कलयन्ती मन:शक्तिरादौ भावयति क्षणात्॥ ||१४६|| 

आकाशभावनामच्छां शब्दबीजरसोन्मुखीम् । 

ततस्तनद्घनतां यातं घनस्पन्दक्रमान्मनः ॥ ||१४७||

भावयत्यनिलस्पन्दं स्पर्शबीजरसोन्मुखम् । 

ताभ्यामाकाशवाताभ्यां दृढाभ्यासवशात्ततः ॥ ||१४८||

कोई द्रुतवेग वाली नदियों के रूप में प्रवाहित हैं, तो कोई विस्तृत दिशाओं का रूप धारण किये हुए हैं। कुछ ऊपर उठते हैं.कुछ नीचे गिरते हैं तथा कुछ पुनः ऊर्ध्वगमन करते हैं। हाथ से गेंद को बार-बार गिराने- उछालने के समान कुछ मृत्यु द्वारा ताड़ित होकर आसमान में उठते और गिरते रहते हैं। अनेक ऐसे हैं जो विवेकवान् होकर भी शुभकर्म करते और हजारों जन्म ग्रहण कर लेने पर भी उनका संसार सागर से आवागमन नहीं मिटता । दिशा और काल से अनवच्छिन्न आत्मतत्त्व जब अपनी सामर्थ्य से शरीर धारण करता है, तब यही जीव वासना के वशीभूत होकर संकल्प को ओर जाने वाले चञ्चल मन का रूप ग्रहण कर लेता है। वह संकल्प से युक्त मन:शक्ति क्षणमात्र में ही स्वच्छ करा की भावना करती है, उसमें शब्दबीज अंकुरित होने लगते हैं। तत्पश्चात् वही मन अधिक सघन होकर घने स्पन्दन के क्रम से वायुस्पन्दन की भावना में लीन होता है।॥142-148॥/  

शब्दस्पर्शस्वरूपाभ्यां संघर्षाज्जन्यतेऽनलः। 

रूपतन्मात्रसहितं त्रिभिस्तैः सह संमितम्॥ ||१४९||

मनस्तादृग्गुणगतं रसतन्मात्रवेदनम् । 

क्षणाच्चेतत्यपां शैत्यं जलसंवित्ततो भवेत्॥१५० 

उसमें स्पर्शरूप बीज के अंकुर फूटते हैं। उसके बाद दृढ़ अभ्यास द्वारा शब्द-स्पर्श रूप आकाश एवं वायु के टकराने से अग्नि उत्पन्न होती है। तीनों गुणों से ओत-प्रोत मन रस तन्मात्रा की अनुभूति करता हुआ क्षण भर में जल की ठण्डक का विचार करता है, इससे उसे जल का अनुभव होता है ॥ [आकाश में वायु की गतिशीलता से जो घर्षण क्रिया होती है। उससे विद्युत् विभव (इलैक्ट्रिकल चार्ज) के रूप में अग्नि का उद्भव होता है। वायु के घटकों (हाइड्रोजन+आक्सीजन) को अग्नि संयुक्त करके जल रूप देता है। विज्ञान वह क्रिया स्थूल पदार्थ रूप में ही समझ पाता है, ऋषि इसे सूक्ष्म तन्मात्राओं के रूप में भी अनुभव करते हैं।]॥149-150॥/

ततस्तादृग्गुणगतं मनो भावयति क्षणात्। 

गन्धतन्मात्रमेतस्माद्भूमिसंवित्ततो भवेत् ॥ ||१५१||

अर्थत्थंभूततन्मात्रवेष्टितं तनुतां जहत् । 

वपुर्वह्निकणाकारं स्फुरितं व्योम्नि पश्यति ।। ||१५२||

फिर चार गुणों से संयुक्त होकर मन अगले ही क्षण गन्ध तन्मात्रा का भाव कर लेता है, इससे उसे पृथ्वी का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार पाँच तन्मात्राओं से युक्त होकर वह मन अपनी सूक्ष्मता त्यागकर आसमान में अग्निकणों की शक्ल में स्फुरित होते हुए शरीर का दर्शन करता है ॥
[ऋषि सूक्ष्म से क्रमशः स्थूल के विकास का चित्रण कर रहे हैं। यहाँ सूक्ष्म मनोमय से अपेक्षाकृत स्थूल अग्निकणों के रूप में प्राणमय कोश के विकास का क्रम बतलाया गया है। यह प्राणमय ही परिपक्व होकर स्थूल काया का रूप लेता है। आप इस क्रिया की उपमा स्वर्णकणों को गलाकर वाञ्छित आकार में डालने की क्रिया से दे रहे हैं।]
॥151-152॥

हंकारकलायुक्तं बुद्धिबीजसमन्वितम्। 

तत्पुर्यष्टकमित्युक्तं भूतहृत्पद्मषट्पदम् ॥ ||१५३||

तस्मिंस्तु तीव्रसंवेगाद्भावयद्भासुरं वपुः ।

 स्थूलतामेति पाकेन मनो बिल्वफलं यथा ॥ ||१५४||

वह शरीर ही अहंकार कलाओं से युक्त और बुद्धि बीज से संयुक्त ‘पुर्यष्टक' नाम से जाना जाता है, जो प्राणियों के हृदय कमल में मँडराने वाले भौरे के सदृश है। पाक (परिपूर्णावस्था) की स्थिति में बिल्वफल (बेल)  की तरह ही तीव्र संवेगात्मक तेजस्वी शरीर की भावना किये जाने पर, मन स्थूल हो जाता है।॥153-154॥

मूषास्थद्रुतहेमाभं स्फुरितं विमलाम्बरे। 

संनिवेशमथादत्ते तत्तेजः स्वस्वभावतः ॥ ||१५५||

 ऊर्ध्वं शिरः पिण्डमयमधः पादमयं तथा।

 पार्श्वयोर्हस्तसंस्थान मध्ये चोदरधर्मिणम्॥ ||१५६||

कालेन स्फुटतामेत्य भवत्यमलविग्रहम्। 

बुद्धिसत्त्वबलोत्साहविज्ञानैश्वर्यसंस्थितः ॥ ||१५७||

निर्मल आकाश में वह तेज, मूषा (सोना गलाने के पात्र) में पिघले हुए स्वर्ण के समान स्फुरित होकर अपनी प्रकृति के अनुसार गठित होने लगता है। ऊपर से वह सिर की तरह, नीचे से पैरों की तरह, पार्श्वो में भुजाओं की तरह तथा मध्य में उदर की तरह समय आने पर अभिव्यक्ति को प्राप्त होकर पूर्ण शरीर के आकार को प्राप्त हो जाता है। बुद्धि, वीर्य, बल, उत्साह, विज्ञान और वैभव से सम्पन्न हो जाता है।॥155-157॥ 

स एव भगवान्ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः । 

अवलोक्य वपुर्ब्रह्मा कान्तमात्मीयमुत्तमम्॥ ||१५८||

चिन्तामभ्येत्य भगवांस्त्रिकालामलदर्शनः। 

एतस्मिन्परमाकाशे चिन्मात्रैकात्मरूपिंणि॥ ||१५९||

अदृष्टापारपर्यन्ते प्रथमं किं भवेदिति । 

इति चिन्तितवान्ब्रह्मा सद्योजातामलात्मदृक् ॥ ||१६०||

वही शरीर सब लोकों का पितामह भगवान् ब्रह्मा बन जाता है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान के प्रत्यक्ष द्रष्टा भगवान् ब्रह्माजी ने अपनी उत्तम और मनोहर छबि को निहारकर विचार किया कि इस चिन्मात्र आत्मरूपी परमाकाश का कोई आदि-अन्त दृष्टिगोचर नहीं होता। सर्वप्रथम क्या होना चाहिए? इस प्रकार का विचार करते ही तत्काल उन्हें पवित्र आत्मदृष्टि प्राप्त हुई॥158-160॥

अपश्यत्सर्गवृन्दानि समतीतान्यनेकशः। 

स्मरत्यथो से सकलान्सर्वधर्मगुणक्रमात् ॥ ||१६१|| 

लीलया कल्पयामास चित्राः संकल्पतः प्रजाः ।

 नानाचारसमारम्भा गन्धर्वनगरं यथा ।। ||१६२||

 तासां स्वर्गापवर्गार्थं धर्मकामार्थसिद्धये। 

अनन्तानि विचित्राणि शास्त्राणि समकल्पयत्।। ||१६३||

उन्हें अतीतकाल में हुई सृष्टि के असंख्य सर्ग दिखाई दिये, इससे समस्त धर्मों एवं गुणों के क्रम उनके स्मृति पटल पर उभर आये। उन्होंने माया से ही विभिन्न प्रकार के आचारों से समन्वित अनेक रूप-रंग की प्रजा को अन्तरिक्ष में गन्धर्वलोक के समान ही संकल्प-शक्ति से प्रादुर्भूत कर दिया। उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए उन्होंने अनेक चित्र-विचित्र शास्त्रों और स्वर्ग-नरकादि की कल्पना (रचना) कर दी ॥161-163॥

विरञ्चिरूपान्मनसः कल्पितत्वाज्जगत्स्थितेः । 

तावस्थितिरियं प्रोक्ता तन्नाशे नाशमाप्नुयात् ॥ ||१६४||

न जायते न म्रियते क्वचित्किचित्कदाचन। 

परमार्थेन विप्रेन्द्र मिथ्या सर्वं तु दृश्यते ॥ ||१६५||

कोशमाशाभुजङ्गानां संसाराडम्बरं त्यज। 

असदेतदिति ज्ञात्वा मातृभावं निवेशय ॥ ||१६६||

ब्रह्मारुपी मन की कल्पना द्वारा संसार की स्थिति होने से ब्रह्मा के जीवन के साथ इसका (मन का) जीवन है। ब्रह्माजी के आयुष्य समाप्ति के साथ इस मन की भी समाप्ति है । हे द्विज श्रेष्ठ | वास्तव में न तो कोई कहीं जन्म हीं ग्रहण करता है और न अवसान को ही प्राप्त होता है यह सब मिथ्या है, जो प्रत्यक्ष दिखाई देता हैयह प्रपंचात्मक संसार आशारूपी सर्पिणियों की पिटारी है, इसे त्यागना ही उचित है । इसे ‘असत्' मानकर मातृभाव में स्थिर होना श्रेयस्कर है ॥164-166॥

[संक्षिप्त योगवासिष्ठ - 4 स्थिति-प्रकरण : सर्ग-४६,४७ पेज २४१ ]   -सांसारिक वस्तुओं से वैराग्य एवं जीवन्मुक्त महात्माओं के उत्तम गुण का उपदेश,बारंबार होने वाले ब्रह्मा, ब्रह्माण्ड एवं विविध भूतों की सृष्टि-परम्परा तथा ब्रह्म में उसके अत्यन्ताभाव का कथन। 

 रमणीय धन और स्त्री आदि की प्राप्ति एवं वृद्धि होने पर हर्ष से फूल  उठने का क्या अवसर है ? क्या मृगतृष्णा के जल की वृद्धि होने पर जल के इक्षुक पुरुषों को आनन्द प्राप्त होता है ?  कदापि नहीं । घन और स्त्री आदि के बढ़ने पर तो उन्हें परमार्थ में बाधक समझकर दुःख का अनुभव करना चाहिये, संतोष मानना तो कदापि उचित नहीं । 

जिन भोगों के बढ़ जाने पर मूढ़ मनुष्य को राग होता है, उन्हीं की वृद्धिसे विवेकशील पुरुष  के मन में वैराग्य होता है। नश्वर धन और स्त्री आदि के सुलभ होने में हर्ष का क्या कारण है ? जो मनुष्य इनके परिणाम को देख पाते हैं, उन साधु पुरुषों को तो इनसे वैराग्य ही होता है। अतः रघुनन्दन । संसार के व्यवहारों में जो- जो वस्तु नश्वर प्रतीत हो, इसकी तो तुम उपेक्षा करो और जो न्यायतः प्रात हो जाय, उसे यथायोग्य व्यवहारमें लाओ; क्योंकि तुम तत्त्वज्ञ हो । अप्राप्त भोगों की स्वभावतः कभी इच्छा न होना और दैवात् प्राप्त हुए भोग को यथायोग्य व्यवहार में लाना- यह ज्ञानवान‌ का लक्षण है

जिस किसी भी युक्ति अथवा साधन से जिस पुरुष का जड़ दृश्य से राग (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति या आकर्षण ) चला  जाता है, उसकी परमात्मा में दृढ़ विश्वास रखने वाली बिमल बुद्धि कभी मोहरूपी सागर में नहीं डूबती। यह सब असत है, ऐसा समझकर जिसकी समस्त सांसारिक वस्तुओं में आस्था नहीं रह गयी है,उस सर्वज्ञ को मिथ्या अविद्या कभी अपने चंगुल में नहीं  फँसा सकती ।

 यह संसार-सागर वासनाओं के जल से (कामनी कांचन और नामयश में आसक्ति)  भरा हुआ है। जो शुद्ध बुद्धिरूप नौका पर आरूढ़ हैं, वे ही इसके पार जा सके हैं। दूसरे लोग तो डूब ही गये हैं। जो नित्य तृप्त, शुद्ध एवं तीक्ष्ण बुद्धि-वाले  जीवन्मुक्त महात्मा हैं, उन्हीं के आचारों का अनुसरण करना चाहिये, भोग- लम्पट, दीन- हीन, शठ -लोफर (रोटरी -चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स) के आचरणों का नहीं। महात्मा पुरुष सब कुछ नष्ट हो जाने पर भी खिन्न नहीं होते, देवताओं के उद्यान में भी आसक्त नहीं होते और शास्त्र -मर्यादा का कभी त्याग नहीं करते

महात्मा पुरुष इच्छारहित तथा न्यायप्राप्त व्यवहार का अनासक्त भाव से अनुसरण करने वाले होते हैं। वे देहरूपी रथ का आश्रय ले परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो आसक्ति- शून्य होकर विचरते हैं। परम सुन्दर श्रीराम ! तुम भी यथार्थ एवं विस्तृत विवेक (विवेकज-ज्ञान)  को प्राप्त कर चुके हो। अपनी इस पवित्र एवं तीक्षण बुद्धि के बल से सदा विज्ञानानन्दघन आत्मस्वरूप में स्थित हो ।["विज्ञानानन्दघन" का अर्थ है -विज्ञान: ज्ञान, बुद्धि, समझ./आनन्द: खुशी, आनंद, प्रसन्नता/घन: सार, रूप, समाहित.'विवेकज-ज्ञान और आनंद ' का समाहित रूप, जो शिव (विवेकानन्द) के स्वरूप का वर्णन करता है।  ]

गन्धर्वनगरस्यार्थे भूषितेऽभूषिते तथा। 

अविद्यांशे सुतादौ वा कः क्रमः सुखदुःखयोः ॥ ||१६७||

धनदारेषु वृद्धेषु दुःखयुक्तं न तुष्टता। 

वृद्धायां मोहमायायां कः समाश्वासवानिह ॥ ||१६८||

 यैरेव जायते रागो मूर्खस्याधिकतां गतैः ।

 तैरेव भागैः प्राज्ञस्य विराग उपजायते ।। ||१६९|| 

गन्धर्व नगर चाहे सुसज्जित हो या असुसज्जित, वह कैसा भी क्यों न दिखाई दे, वह तुच्छ ही है। उसी तरह अविद्या के अंशरूप ये पुत्र आदि भी प्रपंचरूप हैं, इनके प्रति आसक्ति होना दुःख का कारण है। धन-स्त्री आदि की वृद्धि के प्रति सुख-दुःख का भाव रखना निरर्थक है। इसमें सन्तोष मानने की कहीं गुंजायश नहीं। मोह-माया की वृद्धि होने पर इस लोक में कौन सुख-शान्ति का अधिकारी बना है जिन पदार्थों की बहुतायत से अज्ञानी जन सुख अनुभव करते हैं, उन्हीं से ज्ञानी पुरुष विरक्त रहते हैं ॥167-169॥

अतो निदाघ तत्त्वज्ञ व्यवहारेषु संसृतेः । 

नष्टं नष्टमुपेक्षस्व प्राप्तं प्राप्तमुपाहर ॥ ||१७०||

 अनागतानां भोगानामवाञ्छनमकृत्रिमम् ।

आगतानां च संभोग इति पण्डितलक्षणम्॥ ||१७१||

 शुद्ध सदसतोर्मध्यं पदं बुद्धवावलम्ब्य च। 

सबाह्याभ्यन्तरं दृश्यं मा गृहाण विमुञ्च मा॥ ||१७२||

हे तत्त्वज्ञानी निदाघ! सांसारिक व्यवहार में जिस-जिसका अभाव होता जाए, उसकी इच्छा न करे और जो-जो सहजता से उपलब्ध हो, उसे स्वीकार करे। अप्राप्त की इच्छा न करना और प्राप्त उपभोग्य सामग्री का उपयोग करना यही पण्डित्य हैसत् और असत् के बीच शुद्ध पद को जानकर, उसका अवलम्बन ग्रहण  के बाह्याभ्यन्तरिक दृश्यों को न तो ग्रहण करे और न ही त्यागे॥170-172॥ 

यस्य चेच्छा तथाऽनिच्छा ज्ञस्य कर्मणि तिष्ठतः। 

न तस्य लिप्यते प्रज्ञा पद्मपत्रमिवाम्बुभिः ॥ ||१७३||

यदि ते नेन्द्रियार्थश्रीः स्पन्दते हृदि वै द्विज। 

तदा विज्ञातविज्ञेयः समुत्तीर्णो भवार्णवात् ॥ ||१७४||

उच्चै:पदाय परया प्रज्ञया वासनागणात् । 

पुष्पाद्ग्न्धमपोह्यारं चेतोवृत्तिं पृथक्कुरु ॥ ||१७५||

इच्छा और अनिच्छा को समान मानने वाले ज्ञानी पुरुष कर्म करते हुए भी उसमें उसी प्रकार लिप्त नहीं होते, जैसे कीचड़ में कमलपत्र पड़ा रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता। हे द्विज! यदि आपके हृदय में इन्द्रियजन्य विषय हलचल पैदा नहीं करते, तो आप ज्ञातव्य पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर संसार रूपी समुद्र से पार हो गये विशिष्ट ज्ञानयुक्त होकर वासनारूपी फूलों की सुगन्ध से अपनी चित्तवृत्ति को जल्दी ही दूर कर लिया जाए, तो महान् पद की प्राप्ति हो सकती है 173-175

संसाराम्बुनिधावस्मिन्वासनाम्बुपरिप्लुते ।

ये प्रज्ञानावमारूढास्ते तीर्णाः पण्डिताः परे॥ ||१७६||

न त्यजन्ति न वाञ्छन्ति व्यवहारं जगद्गतम्।

 सर्वमेवानुवर्तन्ते पारावारविदो जनाः ॥ ||१७७||

अनन्तस्यात्मतत्त्वस्य सत्तासामान्यरूपिणः।

चितश्चेत्योन्मुखत्वं यत्तत्संकल्पाङ्कुरं विदुः ॥ ||१७८||

लेशतः प्राप्तसत्ताकः स एव घनतां शनैः।

याति चित्तत्वमापूर्य दृढं जाड्याय मेघवत्॥ ||१७९||

वासनारूपी जल से युक्त इस संसार-सागर में जो सद्ज्ञान रूपी नौका पर आरूढ़ हैं, वे ज्ञानीजन इससे पार हो गये। सांसारिक प्रपञ्च के जानकार पुरुष सांसारिक व्यवहार का न तो परित्याग करते हैं और न ही उसकी कामना करते हैं; अपितु वे उनके प्रति अनासक्ति का ही व्यवहार करते हैं, ज्ञानियों ने संकल्प का अंकुरित होना ही अनन्त आत्मतत्त्वरूप चेतन का विषयास होना माना है। वही संकल्प अल्पमात्र स्थान प्राप्त करके धीरे-धीरे सघन होते हैं; तत्पश्चात् वे मेघ की तरह सुदृढ़ होकर चित्ताकाश को ढककर जड़त्व भाव का संचार करते हैं॥ १७६-१७९॥

भावयन्ति चितिश्चैत्यं व्यतिरिक्तमिवात्मनः।

 संकल्पतामिवायाति बीजमङ्कुरतामिव॥ ||१८०| 

संकल्पनं हि संकल्पः स्वयमेव प्रजायते । 

वर्धते स्वयमेवाशु दु:खाय न सुखाय यत्॥ ||१८१||

मा संकल्पय संकल्पं मा भावं भावयस्थितौ ।

 संकल्पनाशने यत्तो न भूयोऽननुगच्छति ॥ ||१८२||

बीज के अंकुरावस्था को प्राप्त करने के समान ही चेतन विषयों को स्वयं से अलग-सा मानते हुए वह संकल्पावस्था को प्राप्त होता है। संकल्प (इच्छा)  से उसकी क्रिया अपने आप ही प्रकट होती है और स्वयं ही शीघ्रातिशीघ्र वृद्धि को प्राप्त होती है। लेकिन वह दुःख का ही कारण बनती है, सुख देने वाली नहीं होती। चित्त में उत्पन्न होने वाली संकल्प (भोग की इच्छा) क्रिया को रोके। उसमें पदार्थ भावना न करे, जिसने संकल्प को विनष्ट करने का निश्चय किया है, उसे पुन: उसका अनुगमन करना उचित नहीं॥180-182॥ 

भावनाऽभावमात्रेण संकल्पः क्षीयते स्वयम्।

 संकल्पेनैव संकल्पं मनसैव मनो मुने ॥ ||१८३||

छित्त्वा स्वात्मनि तिष्ठ त्वं किमेतावति दुष्करम्।

 यथैवेदं नभः शून्यं जगच्छून्यं तथैव हि ॥ ||१८४||

तण्डुलस्य यथा चर्म यथा ताम्रस्य कालिमा। 

नश्यति क्रियया विप्र पुरुषस्य तथा मलम्॥ ||१८५||

जीवस्य तण्डुलस्येव मलं सहजमप्यलम्। 

नश्यत्येव न संदेहस्तस्मादुद्योगवान्भवेत्॥ ||१८६||

भावना का अभाव होते ही संकल्प स्वयमेव समाप्त हो जाता है। हे मुनिश्रेष्ठ! संकल्प द्वारा संकल्प को और मन द्वारा मन को नष्ट कर डाले। आकाश की तरह ही यह जगत् भी शून्य है। हे विप्र ! जिस तरह ताँबे को कालिमा और धान का छिलका प्रयत्नपूर्वक क्रिया विशेष से नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पुरुष का विकार रुपी दोष प्रयत्न से दूर हो जाता है, धान के छिलके के समान जीव पर मल-विकाररूपी दोष प्रकृतिगत हैं, तो भी उनका नष्ट होना निश्चित है-इसमें रत्तीभर सन्देह नहीं। अतएव आत्मस्वरूप में स्थित होकर उद्योगी पुरुष बनने का प्रयत करो, इसमें असम्भव जैसी स्थिति है ही नहीं

[चेतन के ऊपर चढ़े विकार की तुलना धान के छिलके से की गई है। विकार हटाये बिना चावल सेवन करने योग्य नहीं होता और पुनः फलित होने के लिए छिलका-विकार आवश्यक है। छिलका-विकार हटते ही वह ज्ञानी के लिए सेव्य है तथा पुनर्जन्म के चक्र की संभावना भी समाप्त हो जाती है।]॥183-186॥  

॥ पांचवां अध्याय समाप्त ॥

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॥ महा उपनिषद॥ षष्ठोऽध्यायः

अन्तरास्थां परित्यज्य भावश्रीं भावनामयीम्। 

योऽसि सोऽसि जगत्यस्मिल्लीलया विहरानघ॥ ||१||

 सर्वत्राहमकर्तेति दृढभावनयानया ।

परमामृतनाम्नी सा समतैवावशिष्यते ॥ ||२||

हे निष्पाप! अन्तरंग की आस्था एवं भावनायुक्त भावों की सम्पदा का परित्याग करके आप अपने वास्तविक रूप में संसार में सुखपूर्वक विचरण करें। सभी जगह स्वयं को अकर्ता मानें, इस सुदृढ़ भावना से परम अमृत नाम की समता (एकरसता) ही अवशिष्ट रहती है ॥1-2॥ 

खेदोल्लासविलासेषु स्वात्मकर्तृतयैकया । 

स्वसंकल्पे क्षयं याते समतैवावशिष्यते ॥ ||३||

समता सर्वभावेषु यासौ सत्यपरा स्थितिः। 

तस्यामवस्थितं चित्तं न भूयो जन्मभाग्भवेत्।। ||४||

दुःख और उल्लास-विलास से मनुष्य द्वारा स्वतः उत्पादित हैं। अपने संकल्प के क्षय होने पर समता भाव ही अवशेष रहता है। सभी पदार्थों में समता की वास्तविक स्थिति को चित्त में निष्ठापूर्वक धारण कर लेने पर आवागमन का चक्र समाप्त हो जाता है॥3-4॥ 

अथवा सर्वकर्तृत्वमकर्तृत्वं च वै मुने।

सर्वं त्यक्त्वा मनः पीत्वा योऽसि सोऽसि स्थिरो भव ॥ ||५||

शेषस्थिरसमाधानो येन त्यजसि तत्त्यज। 

चिन्मन:कलनाकारं प्रकाशतिमिरादिकम्॥ ||६||

वासनां वासितारं च प्राणस्पन्दनपूर्वकम्। 

समूलमखिलं त्यक्त्वा व्योमसाम्य: प्रशान्तधीः।। ||७||

हे मुने! सभी कर्तव्य तथा अकर्तव्य का त्यागकर,मन का पान कर आप अपने वास्तविक स्वरूप में स्थिर हों। बाद में समाधिस्थ होकर जिससे आप त्याग किया करते हैं, उसे भी छोड़ दें। चेतन ने ही मानसिक संकल्प का आकार धारण कर रखा है,वही प्रकाश और अंधकार का रूप धारण किये हुए है। अतः प्राणस्पन्दन के साथ-साथ वासना का सम्पूर्ण परित्याग करके आकाश की तरह निर्मल और शान्त मन वाले बनें॥5-7॥

हृदयासंपरित्यज्य सर्ववासनपङ्क्तयः । 

यस्तिष्ठति गतव्यग्रः स मुक्तः परमेश्वरः ॥ ||८||

दृष्टं द्रष्टव्यमखिलं भ्रान्तं भ्रान्त्या दिशो दश। 

युक्त्या वै चरतो ज्ञस्य संसारो गोष्पदाकृतिः ॥ ||९|| 

सबाह्याभ्यन्तरे देहे ह्यध ऊर्ध्वं च दिक्षु च। 

इत आत्मा ततोऽप्यात्मा नास्त्यनात्ममयं जगत्॥ ||१०||

मुक्त और शान्त वही है,जो हृदय से सभी वासनाओं को छोड़ देता है,वही परमेश्वर है। वह दसों दिशाओं में घूमते हुए भ्रान्तिवश द्रष्टव्य पदार्थों को देखने में सक्षम है । प्रयत्नपूर्वक आचरणशील ज्ञानीपुरुषों के लिए यह संसार गोष्पद (गाय का खुर) की तरह सहज ही पार उतरने योग्य बन जाता है। शरीर के बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे तथा सभी दिशाओं में सर्वत्र आत्मा ही विद्यमान है,उसके निमित्त यह संसार अनात्ममय नहीं होता ॥8-10॥

न तदस्ति न यत्राहं न तदस्ति न तन्मयम्।

 किमन्यदभिवाञ्छामि सर्वं सच्चिन्मयं ततम् ॥ ||११||

समस्तं खल्विदं ब्रह्म सर्वमात्मेदमाततम्।

 अहमन्य इदं चान्यदिति भ्रान्तिं त्यजानघ॥ ||१२||

तते ब्रह्मघने नित्ये संभवन्ति न कल्पिताः। 

न शोकोऽस्ति न मोहोऽस्ति न जरास्ति न जन्म वा॥ ||१३||

हे निष्पाप ! ‘यह और है' ‘मैं अन्य हूँ' , इस प्रकार की भ्रान्त-धारणा का परित्याग कर दे। ऐसा कोई स्थल नहीं, जहाँ मेरा अस्तित्व नहीं, उस वस्तु का अभाव है, जो आत्मरूप न हो। मैं ऐसी कौन सी वस्तु की कामना करूँ ? सब में सत् और चित्य तत्त्व संव्याप्त हैयह सब कुछ ब्रह्ममय ही है, सबमें आत्मा का ही विस्तार है। सर्वव्यापी और नित्य सच्चिदानन्द घन ब्रह्म में काल्पनिक भावो की सम्भावना नहीं है। यह तत्त्व शोक, मोह, जरा और जन्म से रहित है॥11-13॥

चदस्तीह तदेवास्ति विज्वरो भव सर्वदा। 

यथाप्राप्तानुभवतः सर्वत्रानभिवाञ्छनात् ॥ ||१४||

त्यागादानपरित्यागी विज्वरो भव सर्वदा। 

यस्येदं जन्म पाश्चात्त्यं तमाशवेव महामते ॥ ||१५|| 

विशन्ति विद्या विमला मुक्ता वेणुमिवोत्तमम् ।

 विरक्तमनसां सम्यकप्रसङ्गादुदाहृतम् ॥ ||१६||

द्रष्टुर्दृश्यसमायोगात्प्रत्ययानन्दनिश्चयः । 

यस्तं स्वमात्मतत्त्वोत्थं निष्पन्दं समुपास्महे ।। ||१७||

द्रष्टृदर्शनदृश्यानि त्यक्त्वा वासनया सह । 

दर्शनप्रत्ययाभासमात्मानं समुपास्महे ।। ||१८|

आत्मतत्व में जो विद्यमान है, वही सब कुछ है। अतएव हमेशा सभी जगह किसी पदार्थ की अभिलाषा न करते हुए सहज में जो उपलब्ध हो, उसी का आसक्तिरहित होकर उपभोग करते हुए शोकरहित होकर रहना चाहिए। किसी वस्तु का न तो परित्याग और न ग्रहण- इस प्रकार सन्तापहीन होकर रहना चाहिए। हे महामते। जिस व्यक्ति का यह जन्म आखिरी है (अर्थात् आगे जिसका जन्म नहीं होना है), उसमें शीघ्र ही श्रेष्ठ प्रजाति की मुक्ता के समान निर्मल विद्या प्रविष्ट होती है। जिनके मन में वैराग्य भाव है, ऐसे ज्ञानियों द्वारा अपने अनुभवजन्य ज्ञान से यह अभिव्यक्त किया गया है कि द्रष्टा को दृश्य के माध्यम से जो निशयारिणका सुखानुभूति होती है, वह आत्मतत्व से प्रकट हुआ स्पन्दन है, जिसकी हम उत्तम रीति से उपासना करते हैं ॥॥14-18.   

 द्वयोर्मध्यगतं नित्यमस्तिनास्तीति पक्षयोः ।

 प्रकाशनं प्रकाशानामात्मानं समुपास्महे ॥ ||१९||

िासिात्मक नचिि के साथ द्रष्टा, दृश्य और दशथि इि तीिों का पररत्याग करके प्रकाशमाि आत्मा के हम उपासक हैं। अन्तस्त-िान्तस्त के बीच निद्यमाि प्रकाशों के भी प्रकाशक सिाति आत्मा के हम उपासक हैं॥१९॥

संत्यज्य हृद्गुहेशानं देवमन्यं प्रयान्ति ये। 

ते रत्नमभिवाञ्छन्ति त्यक्तहस्तस्थकौस्तुभाः ॥ ||२०||

उत्थितानुत्थितानेतानिन्द्रियारीन्पुनः पुनः। 

हन्याद्विवेकदण्डेन वज्रेणेव हरिर्गिरीन्॥ ||२१||

हमारे हृदय में वह आत्मतत्त्व महेश्वर के रूप में विद्यमान है। जो पुरुष इस आत्मा को त्यागकर अन्य वस्तु की प्राप्ति हेतु यत्नशील हैं, वे अपने हाथ में स्थित कौस्तुभमणि को छोड़कर अन्य रस की अभिलाषा करते हैं। इन्द्र द्वारा वज्र से पर्वतों को तहस-नहस करने की तरह इन्द्रियरूपी शत्रु -चाहे बलवान हों या कमजोर, उन्हें विवेकरूपी दण्डप्रहार से बारम्बार प्रताड़ित करना चाहिए ॥20-21॥

संसाररात्रिदुःस्वप्ने शून्ये देहमये भ्रमे । 

सर्वमेवापवित्रं तद्दृष्टं संसृतिविभ्रमम् ॥ ||२२||

अज्ञानोपहतो बाल्ये यौवने वनिताहतः ।

 शेषे कलत्रचिन्तार्तः किं करोति नराधमः ॥ ||२३||

सतोऽसत्ता स्थिता मूर्ध्नि रम्याणां मूर्ध्न्यरम्यता। 

सुखानां मूर्ध्नि दुःखानि किमेकं संश्रयाम्यहम्॥ ||२४||

संसाररूपी रात्रि के दु:स्वप्नरूप और सर्वथा शून्यवत् इस शरीररूपी भ्रम में जो भी कुछ मायाजाल का प्रसार देखा है, वह सभी पवित्रता से परे है। बाल्यकाल में अज्ञानता से ग्रसित रहा, युवाकाल में वनिता (स्त्री) के द्वारा आहत किया गया और अब अन्तिम अवस्था में यह अधम मनुष्य स्त्री-पुत्रादि की चिन्ता में आर्त्त (दु:खी) होकर आखिर अपना क्या उपकार कर सकता है ? सत् के मूदर्धा (सिर) पर असत् का बोलबाला है। रमणीकता के ऊपर कुरूपता चढ़ी हुई है। सुखों के ऊपर दुःख प्रतिष्ठित हैं। ऐसी स्थिति में मैं किस एक का अवलम्बन प्राप्त करूँ?॥22-24॥

येषां निमेषणोन्मेषौ जगतः प्रलयोदयौ । 

तादृशाः पुरुषा यान्ति मादृशां गणनैव का ॥ ||२५||

संसार एव दुःखानां सीमान्त इति कथ्यते । 

तन्मध्ये पतिते देहे सुखमासाद्यते कथम् ॥ ||२६|| 

जिनके निमेष एवं उन्मेष से इस संसार का विनाश एवं उत्पत्ति निश्चित है। इस प्रकार के सर्वश्रेष्ठ पुरुष भी अब काल-कवलित हो जाते हैं, तब मुझ जैसे सामान्य पुरुषों की तो गणना ही क्या है। इस नश्वर जगत् को ही दुःखों की अन्तिम परिधि माना गया है, उसमें शरीर के पड़े रहने पर सुखास्वादन किस प्रकार हो सकता है?॥25-26॥ 

प्रबुद्धोऽस्मि प्रबुद्धोऽस्मि दुष्टश्चोरोऽयमात्मनः । 

मनो नाम निह्न्म्येनं मनसास्मि चिरं हृतः ॥ ||२७||

 मा खेदं भज हेयेषु नोपादेयपरो भव ।

 हेयादेयदृशौ त्यक्त्वा शेषस्थ: सुस्थिरो भव ॥ ||२८||

मैं प्रबुद्ध हो गया हूँ, मैं जाग गया हूँ। मेरी आत्मा को चुराने वाला दुष्ट चोर मेरा यह दूषित मन (इच्छा) ही है। इसने न जाने मुझे कब अति दीर्घकाल से चुराकर अपने वश में कर लिया है। अब मैं इसे आन गया हूँ। अतः इसको विनष्ट कर डालूँगा। हेय पदार्थों के लिए दुःखित मत हो और उपादेय पदार्थों के प्रति आसक्त मत हो। हेय एवं उपादेय से सम्बन्धित दृष्टि का परित्याग करके शेष में प्रतिष्ठित होकर अवस्थित हो जाओ ॥27-28॥

निराशता निर्भयता नित्यता समता ज्ञता। 

निरीहता निष्क्रियता सौम्यता निर्विकल्पता॥ ||२९| 

धृतिर्मैत्री मनस्तुष्टिर्मृदुता मृदुभाषिता। 

हेयोपादेयनिर्मुक्ते ज्ञे तिष्ठन्त्यपवासनम् ॥ ||३०||

गृहीततृष्णाशबरीवासनाजालमाततम् ।

 संसारवारिप्रसृतं चिन्तातन्तुभिराततम् ॥ ||३१|| 

अनया तीक्ष्णया तात छिन्धि बुद्धिशलाकया।

 वात्ययेवाम्बुदं जालं छित्त्वा तिष्ठ तते पदे ॥ ||३२||

इस नश्वर जगत् की ओर से निराशा, निर्भयता, नित्यता, अभिज्ञता, समता, निष्कामता, निष्क्रियता, सौम्यता, धृति, निर्विकल्पता, मैत्री, सन्तोष, मृदुता एवं मृदुभाषण आदि गुण वासनारहित तथा हेय (हीन) और उपादेय (उपयोगी) के प्रभाव से रहित प्रज्ञावान् पुरुष में निवास करते हैं। तृष्णारूपिणी भीलनी के द्वारा विस्तीर्ण किये हुए वासना रूपी जाल से तुम आबद्ध किये गये हो, चिन्ता रूपी रश्मियों के द्वारा संसार रूपी मृग-मरीचिकात्मक जल चतुर्दिक फैला दिया गया है। हे पुत्र निदाघ! जिस तरह बवण्डर से मेघ रूपी जाल छिन्न-भिन्न हो जाते है, वैसे ही इस ज्ञानरूपी तीव्र बर्छी से उसे नष्ट करके अपने व्यापक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाओ॥29-32॥

मनसैव मनश्छित्वा कुठारेणेव पादपम्। 

पदं पावनमासाद्य सद्य एव स्थिरो भव ॥ ||३३||

तिष्ठन्गच्छन्त्स्वपञ्जाग्रन्निवसन्नुत्पतन्पतन्। 

असदेवेदमित्यन्तं निश्चित्यास्थां परित्यज॥ ||३४||

दृश्यमाश्रयसीदं चेत्तत्सच्चित्तोऽसि बन्धवान्। 

दृश्यं संत्यजसीदं चेत्तदाऽचित्तोऽसि मोक्षवान्॥ ||३५||

जिस प्रकार वृक्ष द्वारा प्रदत्त बेंट का सान्निध्य पाकर कुल्हाड़ी वृक्ष को ही काट डालती है, उसी प्रकार मन के द्वारा ही मन को काटकर परम पावन अविनाशी पद को अतिशीघ्र प्राप्त करके स्थिर हो जाओ । खड़े रहते, चलते, जागते, सोते, निवास करते, बैठते, उठते तथा गिरते समय भी ये सभी कुछ असत् ही है; इस प्रकार का दृढ़ निश्चय रखो। दृश्य पदार्थों से आस्था का परित्याग कर दो; क्योंकि यदि दृश्य पदार्थ का आश्रय प्राप्त करते हो, तो चित्तमय होकर बन्धन में पड़ते हो तथा यदि दृश्य पदार्थ का पूरी तरह से त्याग करते हो, तो चित्त शून्यता के कारण मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी बनते हो॥33-35॥

नाहं नेदमिति ध्यायंस्तिष्ठ त्वमचलाचलः । 

आत्मनो जगतश्चान्तर्द्रष्टृदृश्यदशान्तरे ॥ ||३६||

दर्शनाख्यं स्वमात्मानं सर्वदा भावयन्भव।

 स्वाद्यस्वादकसंत्यक्तं स्वाद्यस्वादकमध्यगम् ॥ ||३७||

 स्वदनं केवलं ध्यायन्परमात्ममयो भव। 

अवलम्ब्य निरालम्बं मध्येमध्ये स्थिरो भव ॥ ||३८||

न मैं स्वयं हूँ और न ही यह संसार है, ऐसा चिन्तन करते हुए तुम पर्वत की भाँति अडिग होकर निवास करो। आत्मा एवं जगत् के मध्य द्रष्टा एवं दृश्य आदि इन दोनों स्थितियों के मध्य अपने आपको सदैव दर्शन स्वरूप आत्मा को ही मानते रहो । स्वादयुक्त पदार्थ एवं उस स्वाद युक्त पदार्थ के चखने वाले ‘कर्त्ता' से भिन्न और इन दोनों के बीच में केवल स्वाद का चिन्तन करते हुए परमात्मस्वरूप होकर प्रतिष्ठित हो जाओ।बीच- बीच में अवलम्बन रहित स्थिति का आश्रय प्राप्त करके एक स्थान पर स्थित हो जाओ ॥36-38॥

रज्जुबद्धा विमुच्यन्ते तृष्णाबद्धान केनचित् । 

तस्मान्निदाघ तृष्णां त्वं त्यज संकल्पवर्जनात्॥ ||३९|| 

एतामहंभावमयीमपुण्यां छित्त्वाऽनहंभावशलाकयैव।

स्वभावजां भव्यभवान्तभूमौ भव प्रशान्ताखिलभूतभीतिः ॥ ||४०|| 

अहमेष पदार्थानामेते च मम जीवितम्। 

नामेभिर्विना किंचिन्न मयैते विना किल ।। ||४१||

इत्यन्तर्निश्चयं त्यक्त्वा विचार्य मनसा सह।

 नाहं पदार्थस्य न मे पदार्थ इति भाविते ॥ ||४२||

अन्तःशीतलया बुद्धया कुर्वतो लीलया क्रियाम्। 

यो नूनं वासनात्यागो ध्येयो ब्रह्मन्प्रकीर्तितः ॥ ||४३||

उठो, जागो ! और जीवन-संग्राम के सभी क्षेत्र में स्वाभाविक प्राप्त कर्मों को करते हुए-

इच्छाओं या ऐषणाओं से अनासक्त हो जाना या तृष्णा को त्याग देना  ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है ; इसे प्राप्त होने तक विश्राम मत लो ! रज्जु (रस्सी) से बँधे हुए लोग तो मुक्त हो जाते हैं, लेकिन तृष्णा से आबद्ध प्राणि-समूह किसी के द्वारा भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कराये जा सकतेइसलिए हे पुत्र निदाघ! तुम संकल्प का (ऐषणाओं का) त्याग करते हुए तृष्णा को छोड़ने का प्रयास करो। अहं भाव से रहित इस बर्छी के द्वारा अहंभाव से युक्त, स्वभावतः प्रादुर्भूत हुई पापमयी इस तृष्णा को काटकर समस्त प्राणिवर्ग को उत्पन्न होने वाले भय से निर्भय होकर सौन्दर्ययुक्त परमार्थ लोक में भ्रमण करो। मैं इन समस्त पदार्थों का हूँ और ये सभी मेरे जीवन हैं, इनके अभाव में मैं कुछ भी नहीं हूँ और न ही ये मेरे बिना कुछ हैं; अपने अन्तर्मन के द्वारा इस संकल्प को छोड़ दो। मन से विचार करो कि मैं इन पदार्थों का नहीं हैं और ये पदार्थ मेरे नहीं हैं, इस प्रकार की दृढ़ भावना करो । स्थिर शान्त चित्त से चिन्तन करते हुए विचारपूर्वक अपने कार्यों को सामान्य ढंग से सम्पन्न करते हुए जो वासना का का त्याग ( ऐषणाओं अनासक्त होना) किया जाता है, हे ब्रह्मन् ! वही वास्तविक ध्येय (Real Goal) कहा गया है।।॥39-43॥

[O Brahman, the renunciation of desires while carrying out one's tasks in a normal manner is said to be the Real Goal ! ...... Stop not till the Goal is reached !] 

{ "Arise, awake, and stop not till the goal is reached !" is a well-known quote attributed to Swami Vivekananda. This Mahavakya emphasizes the need to make conscious efforts to wake up from the slumber of illusion and free oneself from the inactivity (due to the fear of death) of considering oneself as only a mortal body. This mahavakya suggests taking charge of one's life or taking the responsibility of life on one's shoulders and continuing to try to achieve the goal until the goal is achieved. Just like the Samudra Manthan continued until Amrit was found!

"उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्त होने तक विश्राम मत लो !" -यह स्वामी विवेकानंद का एक प्रसिद्ध उद्धरण है। स्वामीजी के इस महावाक्य में मोहनिद्रा से जाग उठने और स्वयं को केवल नश्वर शरीर समझकर, (मृत्यु-भय के कारण ) निष्क्रियता से मुक्त होने के लिए सचेत प्रयास करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है । यह महावाक्य अपने जीवन का प्रभार स्वयं ग्रहण करने (taking charge) या जीवन की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने तथा लक्ष्य प्राप्त कर लेने तक, लक्ष्य को प्राप्त करने की कोशिश जारी रखने का सुझाव देता है। जैसे अमृत मिलने तक समुद्रमंथन जारी रहा था ! 

Arise, awake:

This part calls for a conscious effort to break free from complacency and inaction. It suggests taking charge of one's life and actively pursuing goals. 

उठो, जागो ! 

यह वाक्यांश में मोहनिद्रा से जाग उठने और स्वयं को केवल नश्वर शरीर समझकर, (मृत्यु-भय के कारण ) निष्क्रियता से मुक्त होने के लिए 'सचेत प्रयास करने' की आवश्यकता पर बल दिया गया है ।  “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥” (कठोपनिषद 1.3.14) से लिया गया है। इसमें  “ उठो, जागो ! और श्रेष्ठ ज्ञानियों के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करो। अर्थात गुरु-शिष्य वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित योग्य गुरु से मन को वश में करने का प्रशिक्षण प्राप्त करने की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। यह आत्मज्ञान और आत्मोन्नति का मार्ग अत्यंत कठिन है वैसे ही जैसे तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलना।

Stop not till the goal is reached:

This is the core message of the quote. It emphasizes the importance of persistence and unwavering dedication in achieving one's objectives. It suggests that setbacks and challenges should not deter individuals from continuing their journey. 

"लक्ष्य प्राप्त होने तक विश्राम मत लो !" यह भाग स्वामी जी के महावाक्य का मुख्य सन्देश है। इस उद्धरण में किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए चरित्र के दो आवश्यक गुणों - अध्यवसाय और अटल सत्यनिष्ठा (unwavering dedication) पर जोर देता है। जैसे समुद्र-मंथन के समय पहले विष निकला था, किन्तु देवताओं ने अमृत मिलने तक एकमत होकर समुद्रमंथन जारी रखा था, उसी हमें भी (अमृतत्व  'परम् सत्य' प्राप्त करने) या आत्मसाक्षात्कार करने तक - किसी भी असफलता और चुनौती से घबड़ाये बिना अपनी यात्रा को जारी रखना चाहिए।             

Swami Vivekananda's philosophy:

" Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal. Do this either by work, or worship, or psychic control, or philosophy — by one, or more, or all of these —(Become detached from your desires for lust and lucre  or give them up!and be free. This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details." 

Vivekananda believed that humans possess immense power and potential within themselves. He encouraged people to recognize this power and use it to achieve greatness. The quote is a powerful reminder of this belief and serves as an inspiration to strive for excellence. 

स्वामी विवेकानंद का दर्शन:

" प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर (अपनी ऐषणाओं से अनासक्त हो जाओ या त्याग दो ! फिर ..... ) अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है।-- स्वामी विवेकानन्द {वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद}

विवेकानंद का मानना ​​था कि मनुष्य के भीतर अपार शक्ति और क्षमता होती है। उन्होंने लोगों को इस शक्ति को पहचानने और महानता प्राप्त करने के लिए इसका उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह उद्धरण इस विश्वास की एक शक्तिशाली याद दिलाता है और उत्कृष्टता के लिए प्रयास करने के लिए प्रेरणा के रूप में कार्य करता है।

Impact and influence:

The quote has become a widely recognized symbol of determination and perseverance, inspiring individuals from all walks of life to pursue their goals with unwavering commitment. It is often used in motivational contexts, particularly in educational settings, and is celebrated on National Youth Day. 

असर और प्रभाव:

स्वामी विवेकानन्द यह उपदेश, 'उत्तिष्ठत , जाग्रत !' सम्पूर्ण मानवजाति के लिए - मनुष्य जीवन के उद्देश्य तथा उसे प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प और अध्यवसाय (perseverance) का एक सर्वग्राह्य सिद्धान्त है; जो कठोपनिषद से लिया गया है। यह सिद्धान्त जीवन के सभी क्षेत्रों के व्यक्तियों को अटूट प्रतिबद्धता के साथ अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। इसका उपयोग अक्सर स्वामीजी के मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर में तथा राष्ट्रीय युवा दिवस मनाते समय किया जाता है।} [महोपनिषद 6-॥39-43॥]  

सर्वं समतया बुद्ध्या यः कृत्वा वासनाक्षयम्।

 जहाति निर्ममो देहं नेयोऽसौ वासनाक्षयः ॥ ||४४|| 

अहंकारमयीं त्यक्त्वा वासनां लीलयैव यः । 

तिष्ठति ध्येयसंत्यागी स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ||४५||

जो पुरुष समत्व बुद्धि के द्वारा सदैव के लिए वासना (lust and lucre) का परित्याग करके ममतारहित हो जाता है, उसी से शरीर के बन्धनो का भी त्याग किया जा सकता है। इस कारण वासना का त्याग ही परम कर्तव्य है। (Renunciation of lust and lucre is the ultimate duty.) जो मनुष्य (M/F) अहंकार से युक्त वासना को सहजतापूर्वक त्याग करके, ध्येय वस्तु का सम्यक् रूपेण परित्याग करके प्रतिष्ठित होता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है ॥6.॥44-45॥  

निर्मूलं कलनां त्यक्त्वा वासनां यः शमं गतः।

ज्ञेयं त्यागमिमं विद्धि मुक्तं तं ब्राह्मणोत्तमम्॥ ||४६||

जो मनुष्य संकल्परूप वासना (भोगसुख) को मूलसहित छोड़कर परमशक्ति को प्राप्त होता है, उसी का वह श्रेष्ठ त्याग समझने योग्य है। उसी को मुक्त हुआ तथा ब्रह्मवेत्ताओं में अनुपम जानो ॥46

द्वावेतौ ब्रह्मतां यातौ द्वावेतौ विगतज्वरौ । 

आपतत्सु यथाकालं सुखदुःखेष्वनारतौ ॥ ||४७||

संन्यासियोगिनौ दान्तौ विद्धि शान्तौ मुनीश्वर ।

 ईप्सितानीप्सिते न स्तो यस्यान्तर्वर्तिदृष्टिषु ॥ ||४८|| 

सुषुप्तवद्यश्चरति स जीवन्मुक्त उच्यते । 

हर्षामर्षभयक्रोधकामकार्पण्यदृष्टिभिः ॥ ||४९||

न हृष्यति ग्लायति यः परामर्शविवर्जितः । 

बाह्यार्थवासनोद्भूता तृष्णा बद्धेति कथ्यते ॥ ||५०||

ये दोनों -(शम-दम से युक्त संन्यासी एवं योगी) ही ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त करते हैं, ये ही दोनों-सांसारिक ताप से मुक्त हैं। हे मुने! शम-दम से युक्त संन्यासी एवं योगी किसी भी काल में आ पड़ने वाले सुखों व दु:खों से युक्त नहीं होते। जिसके अन्तःकरण में इच्छा एवं अनिच्छा दोनों ही समाप्त हो गई है और जो सुषुप्तावस्था का आचरण करता है, वही पुरुष जीवन्मुक्त कहलाता है; जो वासनाओं से रहित है, वह हर्ष, अमर्ष, भय, क्रोध, काम एवं कार्पण्य की दृष्टि से न तो आनन्दित होता है और न ही दु:खी होता है जो तृष्णा बाहर के विषयों की वासना से प्रकट होती है, वह बन्धन डालने वाली कही गयी है॥47-50॥ 

सर्वार्थवासनोन्मुक्ता तृष्णा मुक्तेति भण्यते । 

इदमस्तु ममेत्यन्तमिच्छां प्रार्थनयान्विताम्॥ ||५१|| 

तां तीक्ष्णशृङ्खलां विद्धि दुःखजन्मभयप्रदाम् । 

तामेतां सर्वभावेषु सत्स्वसत्सु च सर्वदा॥ ||५२||

संत्यज्य परमोदारं पदमेति महामनाः। 

बन्धास्थामथ मोक्षास्थ सुखदुःखदशामपि ॥ ||५३|| 

त्यक्त्वा सदसदास्थां त्वं तिष्ठाक्षुब्धमहाब्धिवत्। 

जायते निश्चयः साधो पुरुषस्य चतुर्विधः ॥ ||५४||

आपादमस्तकमहं मातापितृविनिर्मितः

 इत्येको निश्चयो ब्रह्मन्बन्धायासविलोकनात्॥ ||५५||

अतीतः सर्वभावेभ्यो वालाग्रादप्यहं तनुः । 

इति द्वितीयो मोक्षाय निश्चयो जायते सताम् ॥ ||५६||

जगज्जालपदार्थात्मा सर्व एवाहमक्षयः।

तृतीयो निश्चयश्चोक्तो मोक्षायैव द्विजोत्तम ॥ ||५७||

जो तृष्णा सभी तरह के विषयों की वासना से रहित होती है, वह मोक्ष प्रदाता होती है प्रार्थना के द्वारा किसी भी वस्तु के प्राप्ति की कामना ही दु:ख, भय एवं जन्म प्रदात्री होती है। उसे घोर बन्धनस्वरुपा जानो। महात्माजन सत्-असतरूप समस्त पदार्थों की इच्छा-आकांक्षा का हमेशा के लिए पूर्णरूपेण परित्याग करके परम-उदार पद को प्राप्त करते हैं। बन्धन की सत्ता में आस्था एवं मोक्ष की आस्था तथा सुख-दु:ख स्वरूपा सत् एवं असत् की आस्था-विश्वास का सदैव के लिए त्याग करके प्रशान्त महासागर के सदृश प्रतिष्ठित हो जाओ। जायते निश्चयः साधो पुरुषस्य चतुर्विधः ||५४||हे महात्मन् ! पुरुष के चार तरह के निश्चय होते हैं, जिनमें से प्रथम निश्चय यह है कि ‘पैर से सिर तक मेरी संरचना मेरे माता-पिता के संयोग से हुई है। हे ब्रह्मन् ! अब द्वितीय निश्चय सुनें । बन्धन में दुःखों का अवलोकन कर ‘मैं सभी तरह के जागतिक-प्रपञ्चों-विकारों से परे बाल के अग्रभाग से भी अतिसूक्ष्म आत्मा हूँ।’ यह निक्षय ज्ञानीजनों को मोक्ष दिलाने वाला कहा गया है। हे विप्रवर! तृतीय निश्चय यह है कि ‘मैं सम्पूर्ण चराचर जगत् के पदार्थों की आत्मा हूँ, सर्वरूप एवं क्षयरहित हूँ' इस प्रकार से यह तीसरा निश्चय मनुष्य की मुक्ति का विशेष कारण होता है॥51-57॥

अहं जगद्वा सकलं शून्यं व्योम समं सदा। 

एवमेष चतुर्थोऽपि निश्चयो मोक्षसिद्धिदः ॥ ||५८||

एतेषां प्रथमः प्रोक्तस्तृष्णया बन्धयोग्यया।

 शुद्धतृष्णास्त्रयः स्वच्छा जीवन्मुक्ता विलासिनः ॥ ||५९||

 सर्वं चाप्यहमेवेति निश्चयो यो महामते । 

तमादाय विषादाय न भूयो जायते मतिः ॥ ||६०||

अब चौथा निश्चय सुनें, ‘मैं या जगत् सभी कुछ आकाश की भाँति शून्य है।' यह चतुर्थ निश्चय पुरुष के लिए मोक्ष प्रदान करने वाला कहा गया है। इनमें से प्रथम निश्चय बन्धन में बाँधने वाला तथा तृष्णा (बन्धनभूता) से युक्त है। शेष तीनों निश्चय स्वच्छ, शुद्ध तृष्णा (बन्धनरहित) से समन्वित होते हैं तथा इन तीनों निश्चयों से युक्त मनुष्य जीवन्मुक्त एवं आत्मतत्व में विलास करने वाले होते हैं। हे परमश्रेष्ठ ज्ञानवान् मुने! ‘मैं ही सभी कुछ हूँ।' ऐसा जो दृढ़ निश्चय (संकल्प) है, उसे धारण करके बुद्धि पुनः विषाद को प्राप्त नहीं करती ॥58-60॥

शून्यं तत्प्रकृतिर्माया ब्रह्मविज्ञानमित्यपि। 

शिवः पुरुष ईशानो नित्यमात्मेति कथ्यते ।। ||६१||

द्वैताद्वैतसमुद्भूतैर्जगन्निर्माणलीलया। 

परमात्ममयी शक्तिरद्वैतैव विजृम्भते ॥ ||६२|| 

सर्वातीतपदालम्बी परिपूर्णेकचिन्मयः । 

नोद्वेगी न च तुष्टात्मा संसारे नावसीदति ॥ ||६३||

'आत्मा' के नाम से कहा जाने वाला 'शून्य' ही प्रकृति, माया, ब्रह्मज्ञान, पुरुष, ईशान, शिव, नित्य एवं ब्रह्मज्ञान आदि के नाम से जाना जाता हैपरमात्मस्वरूपा अद्वैत शक्ति ही द्वैत, (विशिष्टाद्वैत ?)  एवं अद्वैत से प्रादुर्भूत हुए पदार्थों से संसार के निर्माण की लीला करके विकसित हो रही है। जो सभी तरह के मायाजाल से परे आत्मरूपी पद का आश्रय प्राप्त करके एक पूर्णरूपेण चिन्मयस्थिति में रहकर न कोई उद्योग करते हैं और न ही संतुष्ट होते हैं। इस जागतिक शोक में वे कभी नहीं पड़ते।।॥61-63॥ 

प्राप्तकर्मकरो नित्यं शत्रुमित्रसमानदृक् । 

ईहितानीहितैर्मुक्तो न शोचति न काङ्क्षति ॥ ||६४||

सर्वस्याभिमतं वक्ता चोदितः पेशलोक्तिमान्। 

आशयज्ञश्च भूतानां संसारे नावसीदति ।। ||६५||

हे पुत्र ! जो मनुष्य नित्य प्राप्त कर्मों को करता है, शत्रु एवं मित्र को सम्यक् दृष्टि से देखता है और इछा-अनिच्छा से मुक्ति प्राप्त कर चुका है, न विषाद करता है, न किसी भी तरह की वस्तुएँ पाने की आकांक्षा करता है, मृदुभाषी है, प्रश्नों के पूछने पर नम्रतापूर्वक उत्तर देता है तथा समस्त प्राणियों के भावों को जानने में सक्षम है; वही मनुष्य इस विश्व में विषाद को प्राप्त नहीं होता6॥64-65॥  

 पूर्वां दृष्टिमवष्टभ्य ध्येयत्यागविलासिनीम्। 

जीवन्मुक्ततया स्वस्थो लोके विहर विज्वरः ॥ ||६६||

अन्त:संत्यक्तसर्वाशो वीतरागो विवासनः ।

 बहि:सर्वसमाचारो लोके विहर विज्वरः ॥ ||६७||

प्रथम दृष्टि (आत्मदृष्टि) को लक्ष्य करके विलास की कामना का त्याग करके,  सांसारिक ताप से रहित होकर तथा अन्तरात्मा में प्रतिष्ठित होकर, इस संसार में जीवन्मुक्त की तरह से भ्रमण करो। सभी प्रकार की आशाओं को हृदय से निकाल कर, वीतराग तथा वासना-रहित होकर बाह्य-मन से सभी सांसारिक रीति-रिवाजों का सम्यक् रूप से पालन करते हुए जगत् में तापविहीन होकर निरन्तर प्रवहमान रहो॥66-67॥ 

बहि:कृत्रिमसंरम्भो हृदि संरम्भवर्जितः। 

कर्ता वहिरकर्तान्तर्लोके विहर शुद्धधीः ॥ ||६८||

त्यक्ताहंकृतिराश्वस्तमतिराकाशशोभनः।

 अगृहीतकलङ्काङ्को लोके विहर शुद्धधीः ॥ ||६९||

बाह्य वृत्ति से बनावटी क्रोध का अभिनय करते हुए एवं हृदय से क्रोधरहित, बाहर से कर्ता एवं अन्दर से अकर्ता बने रहकर शुद्धभाव से जगत् में सर्वत्र रमण करो। अहं को त्यागकर शान्त चित्त हो, कलङ्क रुपी कालिमा से सदैव के लिए मुक्त हो जाओ। आकाश के सदृश शुद्ध-परिष्कृत जीवन प्राप्त करके पवित्र सद्बुद्धि को धारण करके लोक में विचरण करो ॥ 6॥68-69॥

उदारः पेशलाचारः सर्वाचारानुवृत्तिमान्। 

अन्त:सङ्गपरित्यागी बहिःसंभारवानिव॥ ||७०||

 अन्तर्वैराग्यमादाय बहिराशोन्मुखेहितः। 

अयं बन्धुरयं नेति गणना लघुचेतसाम्॥ ||७१||

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्। 

भावाभावविनिर्मुक्तं जरामरणवर्जितम् ॥ ||७२|| 

प्रशान्तकलनारम्यं नीरागं पदमाश्रय।

 एषा ब्राह्मी स्थितिः स्वच्छा निष्कामा विगतामया ॥ ||७३||

उदार एवं उत्तम आचरण से सम्पन्न, सभी श्रेष्ठ आचार-विचारों का अनुगमन करते हुए अन्दर से आसक्ति -रहित होते हुए भी बाहर से सतत प्रयत्न करता रहे । अन्त:करण में पूरी तरह से वैराग्य को धारण करते हुए बाहर से आशावादी बनकर श्रेष्ठ व्यवहार करे। यह (अमुक) मेरा अपना (मित्र) है और वह (तुमुक-सुरकंत) नहीं है, ऐसे निकृष्ट विचार क्षुद्र मनुष्यों के होते हैं। उदार चरित वालों के लिए तो समस्त वसुधा ही अपना परिवार है। जो व्यक्ति भाव-अभाव से मुक्ति प्राप्त कर सका है, जन्म-मृत्यु से परे है, जहाँ पर सभी संकल्प सम्यक् रूप से शान्ति को प्राप्त हो जाते हैं, ऐसे रागविहीन तथा रमणीक पद का अवलम्बन ग्रहण करो। यह पवित्र, निष्काम, दोषरहित ब्राह्मी स्थिति है ॥70-73॥ 

आदाय विहरन्नेवं संकटेषु न मुह्यति। 

वैराग्येणाथ शास्त्रेण महत्त्वादिगुणैरपि ।। ||७४||

यत्संकल्पहरार्थं तस्वयमेवोन्नयन्मनः । 

वैराग्यात्पूर्णतामेति मनो नाशयशानुगम् ॥ ||७५||

आशया रक्ततामेति शरदीव सरोऽमलम् ।

 तमेव भुक्तिविरसं व्यापारौघं पुनःपुनः ।। ||७६||

 दिवसे -दिवसे कुर्वन्प्राज्ञः कस्मान्न लज्जते । 

चिच्चैत्यकलितो बन्धस्तन्मुक्तौ मुक्तिरुच्यते ॥ ||७७||

इसको (ब्राह्मणी -स्थिति को) स्वीकार करके विहार करता हुआ मनुष्य विपत्तिकाल में भी मोहग्रस्त नहीं होता। शास्त्रों के ज्ञान से या फिर वैराग्य से और महान् सद्गुणों के द्वारा जिस संकल्प को विनष्ट किया जाता है, उससे मन स्वत: ही उन्नतावस्था को प्राप्त होने लगता है। निराशा के वश में हुआ जो मन वैराग्य के द्वारा पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, वही आशान्वित होने पर शरत्कालीन ऋतु में स्वच्छ सरोवर की भाँति राग युक्त हो जाता है; किन्तु भोगों से रिक्त हुए मन को बार-बार प्रत्येक दिन रागादि व्यापारों में डालते हुए ज्ञानी पुरुष लज्जित क्यों नहीं होते ? चित् एवं विषय का योग ही बन्धन कहलाता है। उस योग से छुटकारा प्राप्त करना ही मोक्ष कहलाता है ॥74-77॥

चिदचैत्या किलात्मेति सर्वसिद्धान्तसंग्रहः । 

एतन्निश्चयमादाय विलोकय धियेद्धया।। ||७८||

स्वयमेवात्मनात्मानमानन्दं पदमाप्स्यसि ।

 चिदहं चिदिमे लोकाश्चिदाशाश्चिदिमाः प्रजाः ॥ ||७९||

दृश्यदर्शननिर्मुक्तः केवलामलरूपवान्।

नित्योदितो निराभासो द्रष्टा साक्षी चिदात्मकः ।। ||८०||

निश्चय पूर्वक विषयरहित चित् को ही आत्मा कहा गया है, यही समस्त वेदान्त-सिद्धान्त का सार है। इस विचार को सत्य मानकर प्रदीप्त अन्त:करण के द्वारा स्वयमेव अपने आप को देखो। इसमें असीम आनन्द पद की प्राप्ति होगी। मैं चित् स्वरूप हूँ। ये समस्त लोक चित् हैं, दिशाएँ एवं ये सभी प्राणि-समुदाय भी चित् स्वरूप है। दृश्य एवं दर्शन से छुटकारा प्राप्त करके, मात्र परिष्कृत स्वरूप वाला साक्षी रूप चिदात्मा आभासरहित एवं नित्य प्रादुर्भूत होकर द्रष्टा बन रहा है॥78-80॥  

चैत्यनिर्मुक्तचिद्रूपं पूर्णज्योतिःस्वरूपकम्। 

संशान्तसर्वसंवेद्यं संविन्मात्रमहं महत् ॥ ||८१||

संशान्तसर्वसंकल्पः प्रशान्तसकलैषणः । 

निर्विकल्पपदं गत्वा स्वस्थो भव मुनीश्वर ॥ ||८२||

मैं विषय वासनाओं से मुक्त होकर पूर्णरूपेण ज्योतिरूप होकर समस्त संवेदना से पूरी तरह से मुक्त होकर चितस्वरूप और महान् संवित् (ज्ञानमय) हूँ। हे मुने! सभी संकल्पों को पूर्णरूपेण शान्त करके, सभी कामनाओं को त्यागकर निर्विकल्प पद में प्रविष्ट होकर आत्मा में प्रतिष्ठित हो जाओ॥81-82॥ 

य इमां महोपनिषदं ब्राह्मणो नित्यमधीते। अश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति। 

अनुपनीत उपनीतो भवति। सोऽग्निपूतो भवति।स वायुपूतो भवति। 

स सूर्यपुतो भवति।स सोमपूतो भवति। स सत्यपूतो भवति। 

स सर्वपूतो भवति। स सर्वैर्देवैर्ज्ञाजतो भवति। 

स सर्वेषु तीर्थेषु स्न्नातो भवति। स सर्वैर्देवैरनुध्यातो भवति। 

स सर्वक्रतुभिरिष्टवान्भवति। गायत्र्याः षष्टिसहस्त्राणि जप्तानि फलानि भवन्ति।

इतिहासपुराणानां रुद्राणां शतसहस्त्राणि जप्तानि फलानि भवन्ति। 

प्रणवानामयुतं जप्तं भवति।आचक्षुषः पङ्क्तिं पुनाति। 

आसप्तमान्पुरुषयुगान्पुनाति। इत्याह भगवान्हरण्यगर्भः।

 जप्येनामृतत्वं च गच्छतीत्युपनिषत् ॥ ||८३||

जो श्रेष्ठ ब्राह्मण इस महोपनिषद् का प्रतिदिन पाठ करता है, वह यदि अश्रोत्रिय होता है, तो श्रोत्रिय हो जाता है। यदि वह उपनीत नहीं है, तो उपनीत (सदृश) हो जाता है। 

वह अग्नि के समान पवित्र होता है, वायु की भाँति परिष्कृत तथा वह सोमपूत और सत्यपूत हो जाता है। वह सर्वथा पूर्णशुद्ध हो जाता है। 

वह समस्त देवों में सुपरिचित हो जाता है। उसे सभी तीर्थ-स्थलों के स्नान का फल प्राप्त हो जाता है। वह सभी यज्ञों का अनुष्ठान संकल्प कर लेने में समर्थ हो जाता है। 

सहस्त्रो गायत्री महामन्त्र के जप का फल उसे इस उपनिषद् के अध्ययन.से मिल जाता है। सहस्त्रो इतिहास-पुराण एवं रुद्र पाठ का फल उसे प्राप्त हो जाता है।

 दस सहस्त्र प्रणव (ओंकार) के जप का फल उसे प्राप्त हो जाता है। जहाँ तक उसकी दृष्टि जाती है, वहाँ तक उस पंक्ति को वह पवित्र कर देता है।

 भगवान् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ने कहा है कि इस (उपनिषद्) का जप करने मात्र से अमृतत्व की प्राप्ति हो जाती है। यही इस उपनिषद् का रहस्य है

॥ छठा अध्याय समाप्त ॥

॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥

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योगवासिष्ठ का सार : 

१०८ प्रसिद्ध उपनिषदों में से कुछ उपनिषद ऐसे हैं जो कि सब के सब अथवा जिनके कुछ (प्रधान) भाग - योगवासिष्ठ में से चुने हुए श्लोकों से ही बने हैं, अथवा जिनमें कहीं कहीं पर योगवासिष्ठ के श्लोक भी पाए जाते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि प्राचीन काल में हस्तलिखित पुस्तकें होने से योगवासिष्ठ जैसा बड़ा ग्रंथ आसानी से उपलब्ध न होने के कारण, लोगों ने इसमें से अपनी-अपनी रुचि के अनुसार श्लोकों को छाँट कर उनका संग्रह करके उसका नाम उपनिषत् रख लिया । इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि भारतीय दर्शन में योगवासिष्ठ का बहुत ऊँचा स्थान है और भारतीय दर्शन के इतिहास में इसका महत्व उपनिषद और भगवद्गीता से किसी प्रकार कम नहीं वरन् अधिक ही रहा है। 

योगवासिष्ठ का सार

आत्मा को नष्ट करने वाला केवल मन है। मन का स्वरूप मात्र संकल्प है। मन की यथार्थ प्रकृति वासनाओं में निहित है। मन की क्रियाएँ ही वस्तुतः कर्म नाम से विहित होती हैं। सृष्टि ब्रह्म-शक्ति के माध्यम से मन की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मन शरीर का चिन्तन करता हुआ शरीर-रूप ही बन जाता है, फिर उसमें लिप्त हुआ उसके द्वारा कष्ट पाता है।

मन ही सुख अथवा दुःख की आकृति में बाहरी संसार के रूप में प्रकट होता है। कर्तृत्व-भाव में मन चेतना है। कर्म-रूप में यह सृष्टि है। अपने शत्रु विवेक के द्वारा मन ब्रह्म की निश्चल व शान्त स्थिति प्राप्त कर लेता है । यथार्थ आनन्द वह है, जो शाश्वत ज्ञान के द्वारा मन के वासना रहित हो कर अपना सूक्ष्म रूप खो देने पर उदय होता है। संकल्प और वासनाएँ जो तुम उत्पन्न करते हो, वे तुम्हें जंजाल में फँसा लेती हैं। परब्रह्म का आत्म-प्रकाश ही मन अथवा इस सृष्टि के रूप में प्रकट हो रहा है।

आत्म-विचार से रहित मनुष्यों को यह संसार सत्य प्रतीत होता है, जो संकल्पों की प्रकृति के सिवाय कुछ नहीं है । इस मन का विस्तार ही संकल्प है। अपनी भेद-शक्ति के द्वारा संकल्प इस सृष्टि को उत्पन्न करता है। संकल्पों का नाश ही मोक्ष है।

आत्मा का शत्रु यही अशुद्ध मन है, जो अत्यधिक भ्रम और सांसारिक विचारों समूह से भरा रहता है। इस विरोधी मन पर नियन्त्रण करने के अतिरिक्त पुनर्जन्म-रूपी महासागर से पार ले जाने वाला पृथ्वी पर कोई जहाज (बेड़ा) नहीं है।

यदि मोक्ष-द्वार के चार प्रहरियों — शान्ति, विचार, सन्तोष और सत्संग से मित्रता कर ली जाये, तो अन्तिम निर्वाण प्राप्ति में कोई बाधा नहीं आ सकती। यदि इनमें से एक से भी मित्रता हो जाये, तो वह अपने शेष साथियों से स्वयं ही मिला देगा

यदि तुम्हें आत्मा का ज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान हो जाता है, तो तुम जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाओगे। तुम्हारे सब संशय दूर हो जायेंगे और सारे कर्म नष्ट हो जायेंगे। केवल अपने ही प्रयत्नों से अमर, सर्वानन्दमय ब्रह्म-पद प्राप्त किया जा सकता है।

पुनर्जन्मों के कोमल तनों सहित, इस दुःखदायी अहंकार के मूल अंकुर 'तेरा मेरा' की लम्बी शाखाओं सहित सर्वत्र फैल जाते हैं और मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था एवं क्लेश-रूपी अपक्व फल देते हैं। ज्ञानाग्नि से यह वृक्ष समूल नष्ट किया जा सकता है।

इन्द्रियों के माध्यम से दिखायी देने वाले समस्त विभिन्न प्रकार के दृश्य पदार्थ मिथ्या हैं; जो सत्य है, वह परब्रह्म अथवा परम आत्मा है।

यदि मोहित करने वाले सारे पदार्थ आँख की किरकिरी (पीड़ाकारक) बन जायें और पूर्व-भावना के विपरीत प्रतीत होने लगें, तो मनोनाश हो जाये । तुम्हारी सारी सम्पत्ति व्यर्थ है । सारी धन-दौलत तुम्हें खतरे में डालने वाली है। वासनाओं से मुक्ति तुम्हें शाश्वत, आनन्दपूर्ण धाम पर ले जायेगी।

वासनाओं और संकल्पों को नष्ट करो। अहंकार को मार डालो। इस मन का नाश कर दो। अपने-आपको 'साधन - चतुष्टय' से सम्पन्न करो। शुद्ध, अमर, सर्वव्यापक आत्मा का ध्यान करो। आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके अमरता, अनन्त शान्ति, शाश्वत सुख, स्वतन्त्रता और पूर्णता प्राप्त करो ।

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