महामण्डल का " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem)
महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में भाग लेकर, जब कोई व्यक्ति 'स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर अद्वैत शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' या "अचिन्त्य-भेदाभेद अद्वैत परम्परा में 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग प्रणाली" को एक प्रयोग-गत यथार्थ (एक्स्पेरिमेन्टल ट्रूथ) के रूप में उपलब्ध कर लेता है, तब उसके विचार-जगत में एक मौलिक परिवर्तन घटित हो जाता है। जिसके फलस्वरूप शिविर से लौटने के बाद, अब वह केवल एक दिन के लिये '१२ जनवरी ' राष्ट्रीय युवा-दिवस को आवेश-आवेग पूर्ण ढंग से स्वामी विवेकानन्द जयंती के रूप में मना कर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। बल्कि, शिविर से लौटने के बाद, अपने गाँव या शहर में अपने आस-पास रहने वाले कुछ युवाओं को एकत्र कर, ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के लिये, स्वेच्छा से 'विवेकानन्द युवा पाठचक्र ' या महामण्डल की शाखा स्थापित करने के प्रयास में जुट जाता है।
[ "क्योंकि भाव (इन्द्रियगोचर जगत,या सापेक्षिक सत्य) तथा भावातीत (इन्द्रियातीत-ब्रह्म, निरपेक्ष सत्य) ये दोनों राज्य परस्पर कार्य-कारण सम्बन्ध से सदा बन्धे हुए हैं, तथा भावातीत अद्वैत राज्य का भूमानन्द (परमानन्द) ही सीमाबद्ध होकर भावराज्य के दर्शन-स्पर्शन आदि सम्भोगानन्द के रूप में अभिव्यक्त है। अतः भावसाधना की चरम अवस्था में (किसी नेता या संगठन के लिये) अद्वैतभाव को प्राप्त करने का प्रयास युक्ति-युक्त है।" श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग १/३६४ संसार रंगमंच के tv-सीरियल पर अभिनय का जो धारावाहिकत्व चल रहा है, उसके माध्यम से अनजाने में मनुष्य पूर्णत्व की अभिव्यक्ति करके क्रमशः यथार्थ मनुष्य (पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य) बन जाने का खेल, खेल रहा होता है। किन्तु सम्मोहित (हिप्नोटाइज्ड ) अवस्था में अपने ब्रह्मस्वरूप को नहीं जानने के कारण वह उस टी.वी.धारावहिक में अपने द्वारा निभाय जाने वाले किरदार के अभिनय को भी स्वप्न के जैसा ही सत्य समझने लगता लगता है। किन्तु जब 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द अचिन्त्य भेदाभेद वेदान्त 'BE AND MAKE' नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा' में वह स्वयं एक शिक्षक (नेता) के रूप में दूसरों को 'लीडरशिप-ट्रेनिंग' अर्थात 'ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने' का प्रशिक्षण-कार्य (विवेक-प्रयोग सहित महामण्डल के ५ अभ्यास) में जुट जाता है, तो एक दिन उसका अपना स्वप्न-भंग अवश्य होता है, और वह मुक्त भ्रममुक्त (विसम्मोहित या डीहिप्नोटाइज्ड) हो जाता है।]
परम देशभक्त स्वामी विवेकानन्द ने अपने परिव्राजक जीवन में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण करते समय तबके "अखण्ड भारत" को अत्यन्त करीब से देखा था। उन्हों ने ह्रदय से यह अनुभव किया था, कि देवताओं और ऋषियों कि करोड़ो संतानें आज पशुतुल्य जीवन जीने को बाध्य हैं! यहाँ लाखों लोग भूख से मर जाते हैं और शताब्दियों से मरते आ रहे हैं। अज्ञान के काले बादल ने पूरे भारतवर्ष को ढांक लिया है। उन्होंने अनुभव किया था कि मेरे ही रक्त-मांसमय देह स्वरूप मेरे युवाभाई (देशवासी) दिन पर दिन अज्ञान के अंधकार में डूबते चले जा रहे हैं !
'यथार्थ शिक्षा' - अर्थात मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के अभाव ने इन्हें शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक रूप से दुर्बल बना दिया है। उन्होंने पाया था कि हजार वर्ष की गुलामी तथा पाश्चात्य शिक्षा के दुष्प्रभाव से सम्पूर्ण भारतवर्ष एक ओर "घोर- भौतिकवाद" (स्काईला) तो दूसरी ओर इसी के प्रतिक्रिया-स्वरूप उत्पन्न "घोर-रूढिवाद" (चरनबाइडिस) जैसे दो विपरीत ध्रुवों पर केंद्रित हो गया है। जिसके कारण वह प्राचीन भारतीय संस्कृति के चार पुरुषार्थों -" धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष " या अपने जीवन के उद्देश्य को प्रायः भूल चुका है; तथा केवल " लस्ट और लूकर" (कामिनी- कांचन, वीमेन ऐंड गोल्ड) में आसक्त हो कर पशुतुल्य जीवन जी रहा है। भारत कि इस दुर्दशा ने उन्हें विह्वल कर दिया। इस असीम वेदना ने उनके ह्रदय में करुणा का संचार किया उन्होंने इसकी अवनति के मूल कारण को ढूंढ़ निकला: वह कारण था -'आत्मश्रद्धा का विस्मरण'।
देशवासियों के हृदय से उनका आत्मविश्वास लूप्त कैसे हो गया था ? हमलोग यह जानते हैं कि १८३५ ई० तक भारत में ७ लाख ५० हजार ग्राम थे, तथा लगभग प्रत्येक ग्राम में भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य परम्परा' में आधारित गुरुकुल (या टोल) हुआ करता था। जिसमें श्रद्धावान, चरित्रवान मनुष्य बनाने के लिये संस्कृत, के साथ साथ गणित, भूगोल, मनोविज्ञान आदि अन्य १८ विषय भी पढ़ाये जाते थे। लार्ड मेकाले जब भारत आया,तो उसको तत्कालीन भारत में कहीं अनैतिकता -भ्रष्टाचार आदि होता हुआ कहीं दिखाई नहीं दिया। १८३५ ई० में अंग्रेज शासन को स्थायी रखने, तथा भारत को गुलाम बनाये रखने के उद्देश्य से लार्ड मेकाले ने, भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति (गुरु-शिष्य परम्परा) को हटाकर (किरानी या बाबू बनाने वाली) शिक्षा पद्धति को भारत में प्रचलित कर दिया था।
किन्तु लग-भग उसी समय (१८३६ में) माँ जगदम्बा की इच्छा से - सम्पूर्ण मानव-जाति के मार्गदर्शक नेता जगतगुरु श्री रामकृष्णदेव अवतीर्ण होते हैं। और गीता -उपनिषद की शिक्षाओं पर आधारित भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' को आधुनिक विश्व के लिये उपयोगी बनाने के उद्देश्य से , भारत के पाश्चात्य शिक्षा-व्यवस्था में पढ़े-लिखे युवाओं को नरेन्द्रनाथ के नेतृत्व में संघबद्ध कर, उन्हें प्रचलित शिक्षा-व्यवस्था के साथ अपने अभिनव-सिद्धान्त 'दया नहीं -शिवज्ञान से जीव सेवा' को जोड़ने का प्रशिक्षण देते हैं।
तथा १८८६ में अपने नश्वर शरीर का त्याग करने से पूर्व इस नयी शिक्षा-पद्धति का प्रचार-प्रसार करने का 'चपरास' अपने हाथों से एक कागज पर लिखकर 'जय राधे प्रेममयी नरेन्द्र शिक्षा देगा' और उसके नीचे अपने हाथों से एक चित्र-'आवक्ष मुखाकृति के पीछे दौड़ता हुआ मयूर' बनाकर नरेन्द्र के हाथों में सौंप देते हैं। आधुनिक युग में सम्पूर्ण विश्व के लिये उपयोगी 'नेता (लोक-शिक्षक) बनने और बनाने' वाली उसी " रामकृष्ण-विवेकानन्द व्यावहारिक वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' को महामण्डल में 'BE AND MAKE लीडरशिप ट्रेनिंग' कहा जाता है।
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि -" श्री रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है। " ('रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे'/ फ्रॉम दी डेट दैट दी रामकृष्ण इन्कारनेशन वाज बॉर्न, हैज स्प्रंग दी गोल्डन ऐज।) उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? स्वामीजी ने एतेरेय ब्राह्मण की श्रुति 'चरैवेति चरैवेति ' का प्रयोग अपने जीवन पर करके इस बात को निश्चित रूप से जान लिया था, कि हमलोग यदि " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में" निर्देशित ५ अभ्यासों को स्वयं करते हुए दूसरों को भी उसका प्रशिक्षण देने के कार्य में जुट जायेंगे, अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ" 'BE AND MAKE' आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में जुट जायेंगे तो हमलोगों के जीवन का आमूल परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित हो जायेगा। और हमलोगों के जीवन में भी सतयुग का प्रारम्भ हो जायेगा। हमारे शास्त्र ऐतरेय ब्राह्मण (७.१५) में कहा गया है कि युग-परिवर्तन या 'सतयुग का प्रारम्भ' तो मनुष्य के विचार जगत में होता है-
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
(कलिः शयानः भवति, संजिहानः तु द्वापरः। उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति, कृतं संपाद्यते चरन्, चर एव इति।।) -- जो मनुष्य सोया रहता है उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है, वह कली काल में रहता है! नेता या गुरु की पुकार (महावाक्य) सुनकर जिसकी नींद टूट जाती है, जो जागृत हो जाता है, उसका भाग भी जग जाता है, और उसका द्वापर युग शुरू हो जाता है। जो परम्-पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है, और उसके लिये त्रेता युग चलने लगता है। फिर जब वह स्वयं 'मनुष्य बनने और बनाने' की पद्धति का प्रचार-प्रसार करने के लिये परिव्राजक बनकर नगर-नगर चलना शुरू कर देता है, तब उसका भाग्य भी आगे आगे चलने लगता है, और उसके लिये सत्ययुग का प्रारम्भ हो जाता है !
हमें ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी विवेकानन्द -" फ्रॉम दी डेट दैट दी रामकृष्ण इन्कारनेशन वाज बॉर्न, हैज स्प्रंग दी गोल्डन ऐज।" कहकर,शास्त्र-सम्मत भाव से यही कहना चाह रहे थे कि श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने से पहले मनुष्य गहरी सुषुप्ति में था, अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश ने मनुष्यों को संजीवित (पुनरुज्जीवित) करके, उन्हें मनुष्य-जीवन की महती सम्भावना की ओर आगे बढ़ने के लिये अनुप्रेरित कर दिया है।
इसलिये जैसे ही 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पम्परा' का प्रतिष्ठापन होता है, मनुष्य -[५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा शरीर-मन और हृदय (3H) को विकसित करने की] चरित्र-निर्माणकारी मनोवैज्ञानिक शिक्षा पद्धति- "BE AND MAKE " सीखकर अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करके, "वेदान्त केसरी बनने और बनाने" का संग्राम शुरू कर देता है।
" उनके जन्म की तिथि से सत्य युग आरम्भ हुआ है ! इसलिये अब सब प्रकार के भेदों का अन्त है ! और अब सब लोग चाण्डाल सहित उस दैवी प्रेम के भागी होंगे। परुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चाण्डाल - इन सब भेद-भावों को समूल नष्ट करने के अभियान में ही उन्होंने अपने जीवन को खपा दिया था ! वे सर्वधर्म समन्वयाचार्य थे -उनके अवतरण से हिन्दू-मुसलमान का भेद, हिन्दू और ईसाईयों का भेद -सब भूतकाल की बातें हो गयीं हैं। मान-प्रतिष्ठा के लिये (नाम-यश के लिये किसी संगठन में) जो झगड़े होते थे, वे सब दूसरे युग (कली-द्वापर-त्रेता युग में रहने वालों से) सम्बन्धित हैं। इस सत्य युग में श्रीरामकृष्ण के प्रेम की विशाल लहर ने सब को एक कर दिया है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " इस रामकृष्ण अवतार में समस्त प्रकार के नास्तिक विचार 'ज्ञानरूपी तलवार' से नष्ट हो जायेंगे,और सम्पूर्ण जगत भक्ति और प्रेम से एक सूत्र में बँध जायेगा। साथ ही, इस अवतार में रजस अर्थात नाम-यश आदि की इच्छा का सर्वथा अभाव है। इसलिये कोई व्यक्ति चाहे उन्हें अवतार के रूप में माने या न माने, किन्तु यदि वह उनके उपदेशों (ईश्वर प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है, पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे, 'मान'-हूंश, तो मानुष ! आदि) के मर्म को समझकर व्यवहार में लायेगा, तो निश्चित रूप से उसका जीवन धन्य हो जायेगा !" ४/३१७
जो कोई -पुरुष या स्त्री -श्री रामकृष्ण की उपासना करेगा, वह चाहे कितना भी पतित क्यों न हो, तत्काल ही उच्चतम में परिणत हो जायेगा। एक बात और है, इस अवतार में परमात्मा का मातृभाव विशेष स्पष्ट है। वे कभी कभी स्त्रियों के समान वस्त्र पहनते थे-वे मानो हमारी जगन्माता (माँ काली) जैसे ही थे, इसलिये हमें सब स्त्रियों को उसी माँ जगदम्बा की ही मूर्तियाँ माननी चाहिये। चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल, पुरुष हो या स्त्री -सबको उनकी पूजा करने का अधिकार है। जो प्रेम से उनकी पूजा करेगा , उसका सदा के लिये कल्याण हो जायेगा !" ४/३२३ [LXXV(Translated from Bengali )]
ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने ऐतरेय ब्राह्मण के उपरोक्त श्रुति को स्वयं अपने जीवन में प्रयोग करके देखा था कि यहाँ कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा, किसी व्यक्ति की मानसिक अवस्था के तारतम्य को निर्धारित करने के उद्देश्य से ही दी गयी है। क्योंकि मनुष्य का मन हर समय एक ही अवस्था में नहीं रहता, कभी बिल्कुल सोया रहता है, कभी जाग्रत जैसा हो जाता है, या कभी उठ खड़ा होता है, और उसके बाद चलना शुरू कर देता है।
जिस सतयुग को, धर्मराज्य या रामराज्य को लाने की हम कामना करते हैं, वह अपने देशवासियों की खोई हुई श्रद्धा या आस्तिकता को उन्हें वापस लौटा देने से ही सम्भव हो सकती है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"विश्वास, विश्वास ! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा में विश्वास -यही महानता का एकमात्र रहस्य है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर,और जिन देवी- देवताओं को विदेशियों ने बीच बीच में तुम्हारे भीतर घुसा दिया है; उन सब पर भी यदि तुम्हारा विश्वास हो,किन्तु अपने आप पर विश्वास न हो। तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। इसी आत्मविश्वास के बल से अपने पैरों आप खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो! इस समय हमें इसी की आवश्यकता है।
" वेदान्त कहता है, ईश्वर (अद्वैत) के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है। जीवित ईश्वर तुम्हारे भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर,मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो। जबकि, मनुष्यदेह में रहने वाली मानव-आत्मा (3rd-H) ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है ! हाँ, पशु आदि भी भगवान के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है-'ताजमहल' जैसा! एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है -मनुष्य को उसके सच्चे स्वरूप में जानना। और वेदान्त का यही सन्देश है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वररूप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते, तो तुम उस ईश्वर की उपासना कैसे करोगे जो अव्यक्त है?"
महामण्डल के अविर्भूत होने के ५० वर्षों के भीतर देश-वासियों, विशेषकर युवाओं के भीतर,आत्मविश्वासी विवेकी और चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के प्रति ऐसा जो आग्रह दिखाई दे रहा है, उनकी मानसिकता या विचार जगत में यह जो नूतन परिवर्तन दिखलाई दे रहा है, इसका कारण क्या है ? हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान,इस परिवर्तन के पीछे भी ,"महामण्डल" तथा उसके मासिक मुखपत्र "Vivek-Jivan" की एक भूमिका अवश्य रही है !
हमारे जो भाई महामण्डल के इस 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द अचिन्त्य भेदाभेद वेदान्त नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा 'BE AND MAKE' में आधारित इस चरित्र-निर्माण आन्दोलन में जुड़ना चाहते हैं। या महामण्डल के 'लीडरशिप ट्रेनिंग' को एक प्रयोग-गत यथार्थ - एक्स्पेरिमेन्टल ट्रूथ के रूप में उपलब्ध करके, वे भी 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' से सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण करने वाले इस आन्दोलन के भावी मार्गदर्शक नेता (वुड बी लीडर्स) 'बनने और बनाने ' का उत्तरदायित्व ग्रहण करना चाहते हैं। उनके लिये महामण्डल में योगदान करने के पहले इसके आदर्श,उद्देश्य और कार्यक्रम को एक बार पुनः स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है। तथा महामण्डल के 'इस प्रतीक-चिन्ह (Emblem)' में ये सारी बातें समाहित हैं।
नवनी दा अपनी पुस्तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में कहते हैं - " महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, सोंच-विचार कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " निर्धारित किया गया। उसमे जो गोलाई है, वह पृथ्वी है; और सुदूर दक्षिणी भाग में स्थित कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है। जिसके भीतर स्वामी विवेकानन्द को एक परिव्राजक संन्यासी, (छन्नछाड़ा-गोष्ठिर पुरोधा,Itinerant monk रमता योगी) के रूप में दर्शाया गया है।
जिस प्रकार किसी शिल्पकार को मूर्ति को गढ़ने के लिये एक साँचे की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार युवाओं को भी अपना जीवन-गठन करने के लिये, एक प्रेरणास्रोत (Role Model) के रूप में किसी जीवन्त और ज्वलन्त आदर्श को अपने सामने रखना आवश्यक है। आधुनिक युग की युवा पीढ़ी के लिये परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द ही महामण्डल के अनुकरणीय आदर्श हैं। क्योंकि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। जैसा उनका ध्यान सिद्ध था, वैसा कर्म भी था। उनका सम्पूर्ण जीवन 'सत्यंवद-धर्मंचर' का जीवन्त रूप था।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है - धर्मेण हीनः पशुभिः समानः॥"--जो मनुष्य चरित्र से अर्थात "धर्म" से रहित है, वह किसी जानवर से भिन्न नहीं है!' चरित्र का धर्म से गहरा एवं अटूट सम्बन्ध है, क्योंकि धर्म के बिना चरित्र और चरित्र के बिना धर्म कभी कायम नहीं रह सकता। इसलिए मानव समाज में धर्म का विशेष महत्व है, धर्म के बिना (श्रद्धा-रहित, आस्तिकता रहित) मानव-जीवन निष्प्राण एवं पशुतुल्य है।
धर्म क्या है ? स्वामी विवेकानन्द धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं - " मनुष्य में पहले से अन्तर्निहित दिव्यता (ब्रह्मत्व) को अभिव्यक्त करना ही धर्म है। धर्म वह वस्तु जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। धर्म का रहस्य आचरण (चरित्र या व्यवहार) से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों पर भाषण देने से नहीं। " टू डू गुड ऐंड टू बी गुड " - इज होल ऑफ़ रिलिजन। " -अर्थात "भला बनना और भलाई करना" - इसमें ही समग्र धर्म निहित हैं।"
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहते हैं - " शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को अभिव्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this divinity by controlling nature, external and internal." " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।" "हमें ऐसी शिक्षा चाहिये जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे। मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं ! "
और इस शिक्षा-पद्धति को सम्पूर्ण विश्व में लागु करना ईश्वर भक्ति के द्वारा, अटूट श्रद्धा या आस्तिकता की प्रतिष्ठापना के द्वारा ही संभव है। मनुष्य को केवल श्रद्धा ही नहीं चाहिये, बल्कि उसमें बौद्धिक-श्रद्धा भी रहनी चाहिये । अर्थात ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा अद्वैत वेदान्त महावाक्य -'तत्त्वमसि' की प्रयोग-गत यथार्थ की अनुभूति जन्य आस्तिकता से विकसित 'मनुष्य'(सुसमन्वित '3H' शरीर-मन और हृदय) बनना और बनाना चाहिये।
" जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी (3rd' H की) मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव करलेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय - " मृत्यु-भय तथा कामिनी-कांचन में आसक्ति' का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ! (इसी देह में ईश्वर या परमसत्य की अनुभूति हो जाती है !) इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !" (१/४०)
यूरोप का उद्धार (पाश्चत्य-शिक्षा में पले-बढे भारतियों का उद्धार भी) एक ऐसे ही बुद्धिपरक धर्म पर निर्भर है, और वह है अद्वैत-धर्म (दी नॉन-डुअलिटी) अर्थात कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं का बोध, या 'एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' वाला अनुभूतिजन्य एकात्मबोध ! और निर्गुण-निराकार ईश्वर को प्रतिपादित करने वाला यह वेदान्त ही, एक मात्र ऐसा धर्म है -जो किसी बौद्धिक जाति को संतुष्ट कर सकता है। जब कभी धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है तभी इस अवतार का (अद्वैत श्रीरामकृष्णदेव का) आविर्भाव होता है।
धर्म और चरित्र का पतन हो जाने के कारण मानव समाज और देश को भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है। देश की सामाजिक व्यव्स्थाएँ अस्तव्यस्त हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप देश में हिंसा,चोरी, लूट-पाट, कत्ल, झूट, छल, कपट आदि का आतंक छा जाता है। जिससे मानव जीवन अशान्त और दुखमय हो जाता है, तब उसके निवारण हेतु माँ जगदम्बा की इच्छा से, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द जैसे मानवजाति के किसी मार्गदर्शक नेता [चरित्र-सम्पन्न लोक-शिक्षक] को, या 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' जैसे [नेताओं का निर्माण करने में सक्षम] किसी चरित्र-निर्माण कारी संगठन को अविर्भूत होना ही पड़ता है!
उस समय के सभी धर्मों के प्रचारक-गण मुँह से तो कहते थे -मेरा धर्म भी 'प्रेम-दया-क्षमा' की शिक्षा देता है, किन्तु किसी भी धर्म के प्रचारकों के आचरण या चरित्र में ये गुण दीखते नहीं थे ! इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - 'संसार के सभी धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गए हैं, संसार चाहता है-चरित्र। यदि किसी कमरे में १००० वर्ष से अँधेरा है, तो उसके जाने में भी १००० वर्ष नहीं लगते। एक दिया जलाते ही सारा अँधेरा क्षण भर में भाग जाता है ! '
इसीलिये उस गोलाई के नीचे लिखा है -" Be and Make " ! यही महामण्डल का नारा, आदर्श वाक्य या मोटो है ! इसका सरल अर्थ है, 'स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो !' स्वामी जी का यह आह्वान 'बनो और बनाओ ' ही महामण्डल का 'साधन और साध्य' दोनों है ! किन्तु वेदान्त के चारमहावाक्यों के जैसा " Be and Make" का वास्तविक अर्थ भी अत्यन्त सारगर्भित है। मनुष्य बनो ! सुनकर लगता है, हम तो मनुष्य हैं ही (?)-कैसा 'मनुष्य' बनने के लिए कहा जा रहा है ?
इस आदर्श वाक्य में मनुष्य जीवन के दुहरे उद्देश्य " ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य, अर्थात " व्यक्तिगत पूर्णता (ब्रह्म तेज) तथा सामाजिक कार्यक्षमता (क्षात्रवीर्य) का संकेत किया गया है। हमारे वैदिक ऋषिओं ने " ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य " का बहुत गुणगान किया है। वेदों में कहा गया है, जहाँ ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य एक साथ रहते हैं, केवल वहीँ पर पुण्याग्नि के साथ समस्त देवता निवास करते हैं। अतः उन्नत मनुष्य बनने का अर्थ है-वैसा 'मनुष्य' बनना, जिसमें "ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य " दोनों एक साथ रहते हों।
"ब्रह्मतेज" का अर्थ है 'सन्तसुलभ सर्व-प्रेमी बुद्धि' (ऑल-लविंग इन्टेलिजेन्स'ऑफ़ सेंटलीनेस।) एक बार भी अद्वैत बोध में स्थित हो जाने के बाद, जब कोई "कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं" की जो -प्राप्त होती है, उसी को ब्रह्मतेज कहते हैं। क्योंकि उसी तेज या शक्ति से ' एकम सत विप्राः बहुधा वदन्ति ' आत्मा ही परमात्मा है, 'सभी एक है - वन हैज बिकम मेनी, इस बोध या साम्य-भाव (आस्तिकता,श्रद्धा या आध्यात्मिक ज्ञान) का उदय होता है। और "क्षात्रवीर्य" का अर्थ है -वह लौकिक सामर्थ्य या ऊर्जस्वी सदाचार की शक्ति से सम्पन्न पौरुष ( दैट डायनामिक गुडनेस ऑफ़ मैनलीनेस) जो अधोपतित समाज के भीतर भी आस्तिकता या श्रद्धा को पुनः स्थापित कर देने में समर्थ हो! अर्थात वह शौर्य जो 'बनो और बनाओ आंदोलन' को भारतवर्ष के प्रत्येक राज्य में प्रसारित करने में सक्षम हो।
[जैसे दुनिया के ७ आश्चर्य कहे जाते हैं, वैसे प्रत्येक व्यक्ति आश्चर्य जनक है। कोई व्यक्ति तुम्हारे जैसा न कभी हुआ था, न है, न कभी आगे हो सकता है। किसी का अँगूठा भी तुम्हारे अँगूठे जैसा नहीं है। आधारकार्ड में जैसी तुम्हारी आँखें हैं, वैसी किसी दूसरे मनुष्य की नहीं हैं। प्रायः हमलोग दूसरों के साथ अपने 2H की तुलना करके, स्वयं को कभी कम तो कभी ज्यादा आँकते रहते हैं। जबकि हर व्यक्ति अपने आप में अनूठा है।
'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है', और सबमें अपनी अपनी श्रद्धा के तारतम्य के अनुसार अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त कर लेने की क्षमता है। द्वितीयाद्वै भयं भवति (बृ.उप.),वास्तव में डर किसी भी व्यक्ति या वस्तु को 'अपने-आप से' भिन्न मानने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है। हाथी के बच्चे को तो लोहे के सीकड़ से बाँधते हैं -किन्तु बड़ा होते-होते उसको इसकी आदत पड़ जाती है, इसलिये बड़े हाथी को रस्सी से बाँधा जाता है, फिर भी उसे नहीं तोड़ पाता ? श्रद्धा के बल पर आदमी आग पर दौड़ जाता है, जलता नहीं ? यही श्रद्धा से उत्पन्न संकल्प शक्ति है। ]
ऑटोसजेशन: "तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे; बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे ! हमें जो कुछ चाहिये वह यह 'श्रद्धा' या आस्तिकता ही है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है, और हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण भी यही है। एकमात्र इस श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य-मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को दुर्बल और छोटा बना देती है।"
"संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है, जिनमें आत्मविश्वास था। यह विश्वास अन्तःस्थित ब्रह्मत्व (प्रेमस्वरूप या डिविनिटी) को ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, सर्व समर्थ हो जाता है। असफलता तभी होती है, जब तुम अन्तःस्थ अमोघ शक्ति (अद्वैत जन्य प्रेमशक्ति) को अभिव्यक्त करने के लिये यथेष्ट प्रयत्न (पुरुषार्थ) नहीं करते। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है, उसी क्षण उसकी मृत्यु आ जाती है !"
कृष्ण अवतार में (गीता ४.४०) में वे कहते हैं - 'संशयात्मा विनश्यति।' (अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशय आत्मा विनश्यति) विवेक और श्रद्धा रहित- संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है। संशय क्या है? इस संशय का अर्थ डाउट (सन्देह) नहीं है। संशय का अर्थ है -इनडिसीजन। भ्रमित बुद्धि (हिप्नोटाइज्ड आत्मा) जड़-चेतन, शाश्वत-नश्वर में विवेक प्रयोग नहीं कर पाती, इसीलिये अनिर्णय की अवस्था में रहती है। संशयी-आत्मा या हिप्नोटाइज्ड बुद्धि यह निर्णय नहीं ले पाती कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव - '3H' में से (शरीर-मन-आत्मा) कौन सा 'H' मेरा यथार्थ स्वरूप है ? वह संशयी आत्मा संकल्प रहित या विललेस हो जाती है। संशय चित्त की दशा, उस दशा का नाम है, जब मन में यही द्वन्द्व चलता रहे कि, मैं यह (नश्वर, शरीर-मन 2H ) हूँ या वह अविनाशी आत्मा (3rd' H हूँ) ? 'यह या वह', इस भांति सोचता रह जाता है। उसकी पूरी जिंदगी ऐसी ही इनडिसीजन में– 'टु बी आर नाट टु बी', मैं 'ब्रह्मविद मनुष्य' होऊं या न होऊं, बनूँ या न बनूँ? दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करूं या न करूं ? ...करते हुए व्यर्थ में बीत जाती है!
इसीलिये संशयी आत्मा कभी चरित्रवान मनुष्य या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने का 'संकल्प -ग्रहण' नहीं कर पाती। 'बिलीफ-सिस्टम' को दृढ़ करने के लिये स्वामीजी द्वारा प्रस्तावित 'ऑटोसजेशन' का पाठ नहीं करने वाले, आत्म-श्रद्धा रहित व्यक्ति या नास्तिक मनुष्य का पतन हो जाता है!
अतः चरित्र-निर्माण आंदोलन को भारत के गॉंव-गाँव तक प्रचारित कर देने के लिये महामण्डल की 'कैम्पेन पॉलिसी 'अभियान नीति है -'चरैवेति चरैवेति!' जो इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर लिखा है। पूज्य नवनी दा कहते थे - "इस मन्त्र में इतनी शक्ति है, कि जो भी इस चरित्र-निर्माण आंदोलन को भारत के गाँव-गाँव तक पहुँचा देने के कार्य में निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा वह स्वयं यथार्थ मनुष्य बन जायेगा ! उसे मोक्ष (मुक्ति-भक्ति) तक की प्राप्ति स्वतः हो जायेगी, उसके लिये अलग से अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी।"
सम्पूर्ण भारतवर्ष में इस श्रद्धा या आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने हेतु पहला कार्य है, सैकड़ों की संख्या में ऐसे ब्रह्मविद युवाओं, आत्मसाक्षात्कारी, चरित्रवान मनुष्यों, पैगम्बरों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना। जो अपने जीवन को ही उदाहरण बनाकर समाज में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने में सक्षम हों ! "श्रीरामकृष्णदेव-श्रीमाँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द " जैसे डीहिप्नोटाइज्ड कर देने में समर्थ मानव-जाति के मार्गदर्शक नेता (होली ट्रायो) या लोक-शिक्षकों (सदगुरु) का अनुसरण -उनकी शिक्षाओं को अर्थात महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ दैनन्दिन अभ्यासों का स्वयं पालन करते हुए,अपने आस-पास रहने वाले कुछ युवाओं को भी उसके लिए अनुप्रेरित करके ही किया जा सकता है ! क्योंकि अवतारी महापुरुष केवल शिक्षा देने के लिये ही अवतरित होते हैं, नाम-यश के लिये नहीं। उनका अनुसरण करने की पद्धति ही यही है, दूसरा कोई उपाय नहीं है !
स्वामी विवेकानन्द का जो दो आह्वान -' चरैवेति चरैवेति ' तथा ' Be and Make ' जो महामण्डल के एम्ब्लेम में गुथा हुआ है - हमलोगों के व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन को महाजीवन प्रदान करने में समर्थ है! उसको अस्वीकार करके, उसकी उपेक्षा करके हमलोग उनके अमर सन्देश रूपी रतन को खो देंगे ?
यदि हम इसे खोयें नहीं, यदि महामण्डल के इस सन्देश के उचित मूल्य को समझकर उन्हें प्रत्येक युवा अपना आदर्श माने, तभी महामण्डल के आविर्भूत होने की तिथि का अनुपालन सार्थक हो सकता है।
जो मनुष्य 'बाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति' को वशीभूत करके पूर्णतः निःस्वार्थी होकर साम्यभाव में स्थित हो जाता है; वह भगिनी निवेदिता के कथनानुसार - 'दी सेल्फलेस मैन इज दी थंडरबोल्ट' बन जाता है। 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' से सम्पन्न और साम्यभाव में स्थित पूर्णतया निःस्वार्थी मनुष्य (डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य) भी वैसा ही थंडरबोल्ट या वज्र जैसा अप्रतिरोध्य मनुष्य बन जाता है, जिसके विषय में नहीं कहा जा सकता कि मैटर या एनर्जी ?
इस प्रकार या ससीम से असीम बन जाने, बून्द से सागर बन जाने , ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन जाने को हमें भयप्रद क्यों मानना चाहिए ? यह भय केवल अपनी जड़ावस्था (2H) को अचल रखने के दुराग्रहवश उत्पन्न होता है।स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! " इसलिये महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में गोल-घेरे के चारों ओर जो छोटे-छोटे वज्र के निशान अंकित किये गए हैं, वह वास्तव में 'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में वज्र के जैसा पूर्णतः निःस्वार्थी भावी लोक-शिक्षकों या नेताओं के प्रतीक हैं, जो
जो परिव्राजक बनकर सम्पूर्ण पृथ्वी पर सतयुग या आस्तिकता (श्रद्धा) को प्रतिस्थापित करते हुए विचरण करेंगे!
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविता - 'जलप्रपात का स्वप्न टूटा' (निर्झरेर स्वप्नभंग/कैस्केड / নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ/ cascade) में प्रति मुहूर्त " संशय-मुक्त अवस्था " (डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था) में रहते हुए 'वेदान्त केसरी बनो और बनाओ' आन्दोलन के प्रचारक,नेता या लोकशिक्षक के परिव्रजन के आनन्द का चित्रण इस प्रकार किया है - (আজি এ প্রভাতে রবির কর, আমি—ঢালিব করুণা-ধারা, আমি–ভাঙিব পাষাণ-কারা,আমি—জগৎ প্লাবিয়া বেড়াব গাহিয়া আকুল পাগলপারা।শিখর হইতে শিখরে ছুটিব,ভূধর হইতে ভূধরে লুটিব,হেসে খল খল, গেয়ে কল কল, তালে তালে দিব তালি।)
आमि--ढालिबो कोरुना-धारा, आमि भाँगिबो पाषाण-कारा,
आमि- जगत प्लाविया बेड़ाबो गाहिया आकूल पागलपारा।
शिखर होईते शिखरे छुटिबो, भूधर होईते भूधरे लुटिबो,
'हेशे खल खल, गेये कल कल, ताले ताले दिबो ताली। '
और जो मनुष्य, किसी भ्रमणकारी यात्री की तरह (ड्रॉपआउट्स की तरह या छन्नछाड़ा गोष्ठी के पुरोधा की तरह) एक स्थान से दूसरे स्थान तक घूम घूम कर मनुष्य बनने और बनाने BE AND MAKE के लिए महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों के प्रचार-प्रसार में लगा रहता है, एक दिन अवश्य उसके हृदय के बन्द कपाट को फोड़ कर प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है! और वह अपने मन (अहं) के बन्धन से मुक्त - या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने के बाद वह किसी को पराया नहीं मानता, सभी को अपना समझता है। मनुष्य की इसी अवस्था का वर्णन रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता ' निर्झ्रेर स्वप्नभंग' में करते हुए कहते हैं-
'हेशे खोलो खोलो गेये कोलो कोलो ताले ताले दिबो ताली'
(হেসে খলখল গেয়ে কলকল/তালে তালে দিব তালি।)
जब उस उन्मुक्त झरने का स्वप्न भंग हो जाता है, तो वह उन्मुक्त झरने की तरह हँसते -खिलखिलाते अपने छोटे छोटे स्वार्थ और लालच को त्याग करते हुए, सम्पूर्ण रूप से निःस्वार्थ जीवन-समुद्र के साथ एक हो जाता है, अर्थात साम्यभाव में स्थित हो जाता है।
[और कितने आश्चर्य की बात है कि वर्ष २०१६ में बेलुड़ मठ में आयोजित गोल्डेन जुबली कैम्प का थीम भी स्वतः जल-प्रपात के स्वप्न भंग पर ही आधारित था !]
स्वामी जी ने कहा था - "विश्व का कल्याण करना ही भारत की नियति है !" इसीलिये महामण्डल का उद्देश्य है -'भारत का कल्याण!' और केवल साम्यभाव में प्रतिष्ठित मनुष्य ही -अपने पराये का, भाषा-जाति-धर्म का भेदभाव छोड़ कर, सम्पूर्ण भारतवर्ष में घूम-घूम कर सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा, मनुष्यों की आध्यात्मिक दृष्टि खोलने की समाज-सेवा कर सकता है। स्वामी जी इसी सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा को, "शिवज्ञान से जीव सेवा" कहते हैं। इसीलिये महामण्डल के एम्ब्लम में गोलाई के बाकी बचे हिस्से को छोटे छोटे 'वज्र' अर्थात इसी प्रकार के थण्डर बोल्ट तुल्य निःस्वार्थी मनुष्य की शृंखला से सम्पुटित (एनकेप्स्युलेट-encapsulate) किया गया है। बहुत संक्षेप में कहा जाय तो,
१. महामण्डल का उद्देश्य है -भारत का कल्याण
२.उपाय है -मनुष्य निर्माण या चरित्र निर्माण
३.आदर्श हैं- स्वामी विवेकाननन्द
४.आदर्श-वाक्य या मोटो है - ' Be and Make ' मनुष्य बनो और बनाओ !
५. महामण्डल की कैम्पेन पॉलिसी, समर नीति या अभियान मन्त्र है - 'चरैवेति चरैवेति !' -आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो !
महामण्डल का ध्वज : दादा ने 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' पुस्तक में लिखा है, " इस ध्वज के निर्मित होने के पीछे भी स्वामीजी की एक उक्ति का स्मरण हो उठता है! एक बार स्वामीजी से किसी ने प्रश्न किया था- स्वामीजी, आपने इतना कुछ किया है, किन्तु भारत की स्वाधीनता के लिये आपने क्या किया है ? स्वामीजी कहते हैं- " मैं तिन दिनों के भीतर ही भारतवर्ष को स्वाधीनता दिला सकता हूँ। किन्तु भारत में अभी चरित्रवान मनुष्य कहाँ हैं रे? उस स्वाधीनता को अक्षुण कौन रखेगा ? पहले (निःस्वार्थी) मनुष्य तैयार करो !"
दादा आगे कहते हैं, "यह मुझे नहीं पता कि , स्वामी जी की उसी उक्ति से प्रेरणा प्राप्त करके निवेदिता ने स्वाधीन भारत के लिए, भारत के राष्ट्रीय-आदर्श के अनुरूप पताका की रुपरेखा तैयार की थी य़ा नहीं ? " बंगाल में आविर्भूत हुए इस 'मनुष्य निर्माणकारी आंदोलन' को, भारतवर्ष के सभी राज्यों तक फैला देने के लिये एक ऐसे ध्वज की आवश्यकता महसूस हुई, जो भारत-वासियों को भारत के राष्ट्रिय आदर्श -'त्याग और सेवा' के लिए अनुप्रेरित करने में समर्थ हो। ऐसे पताका के बारे में विचार करते करते नवनी दा के मन में विचार आया कि (भगिनी) निवेदिता ने तो स्वाधीन भारत के लिये एक पताका का निर्माण किया था। और उसी गेरुआ कपड़े के बीच दधीचि के हड्डी से बने वज्र के निशान वाले पताका को हमलोगों ने महामण्डल ध्वज के रूप में ग्रहण कर लिया! इसीलिये महामण्डल का जय-घोष है : " निवेदिता वज्र हो अक्षय ! "
महामण्डल का ऐन्थम : महामण्डल का 'संघ-मन्त्र' है- " हे जना:! सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम् !" जिसका हिन्दी भाव है- (हे मनुष्यों) मिलकर चलो । मिलकर बोलो । तुम्हारे मन एक प्रकार के विचार करें । जिस प्रकार प्राचीन देवगण (विद्वान् लोग) एकमत होकर अपना-अपना भाग ग्रहण करते थे, (उसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग ग्रहण करो) । हम अपने सारे निर्णय इस प्रकार एक मन हो कर ही करेंगे, क्योंकि देवता लोग एक मन रहने के कारण ही असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे । अर्थात एक मन बन जाना ही समाज-गठन का रहस्य है ......कैसा अनोखा मन्त्र है.' संजयान ' हो उठना का तात्पर्य है, 'साम्य-भाव' में जाग उठना, और एकमत (अविरोध में स्थित) हो जाना ! इस एन्थम को भी स्वामीजी ने ही ऋग्वेद से उद्धृत किया था ! जिसे महामण्डल ने अपने संघ-गीत के रूप में अपना लिया है।
महामण्डल की अचिन्त्य-भेदाभेद दृष्टि : में आधुनिक युग में इस वैदिक साम्यवाद को स्थापित करने प्रथम युवा नेता, 'अवतार वरिष्ठ' श्रीरामकृष्ण परमहंस हैं। वे आधुनिक युग के वैसे पहले जन-नेता हैं, जो मानव-मात्र को, सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। उनके जीवन में सम्पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है, इसी लिये वे समस्त मानव-जाति, समस्त जीवों, यहाँ तक की जड़ वस्तुओं के साथ भी अभिन्नता का साक्षात्कार करते हैं । उनके जीवन में प्रतिष्ठित यह पूर्ण साम्य -पोलिटिकल पार्टीज के द्वारा मंच पर खड़े होकर, भाषण में कहने वाला साम्य नहीं है, अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतार कर दिखा दिया है। (देवघर का उदाहरण, दो माँझी के झगड़े का उदाहरण, दूब पर चलने से छाती लाल) उन्होंने जन-साधारण के, दीन-दुःखीयों के दारुण दुःख से द्रवित होकर -जनसाधारण की मुक्ति के लिए प्रयास किया है, उन्हें संगठित करने की चेष्टा की है।
इसीलिये महामण्डल भी किसी प्रकार के संकीर्ण-मतवाद या धार्मिक कट्टरता का पक्षधर नहीं है। क्योंकि, स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस कहते थे - " जितने मत उतने पथ'! संसार के सारे धर्म उसी एक अल्ला-ईश्वर या गॉड तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हैं ! जिसको जो मार्ग अच्छा लगता है, वह उसी मार्ग से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। जैसे एक तालाब के चार घाट से पानी लेकर अपनी अपनी रूचि के अनुसार कोई वाटर कोई एक्वा, कोई पानी या कोई जल भी कह सकता है।"
स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं कहा था कि -' मुझे ही देख लो, मैं मुसलमानों के प्रति कोई घृणा नहीं रखता, क्रिश्चियन लोगों से भी कोई घृणा नहीं करता, मैं तो सबों को ग्रहण करता हूँ ! कहो तो क्यों ? क्योंकि मैंने श्रीरामकृष्ण देव के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त की है। '
इसीलिये 'रामकृष्ण- विवेकानन्द अविरोध वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' 'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग प्राप्त स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -'मेरे पास जो कोई भी आयेगा, मैं उसके धर्म को लेकर कोई भेद-भाव नहीं रखूँगा। चाहे वह हिन्दू, हो मुसलमान हो, या पारसी हो, क्रिश्चियन हो, जैन हो, बौद्ध हो या सिक्ख हो - मैं किसी भी धर्म के प्रति विद्वेष का भाव नहीं रखता।" स्वामी जी केवल इतना ही कह कर नहीं रुकते, वे आगे कहते हैं, " मॉर्डर्न साइंटिफिक एज में कुछ लोग बिना प्रयोगशाला में परखे अज्ञात ईश्वर में विश्वास नहीं भी कर सकते हैं; इसीलिये " यदि तुम ईश्वर में विश्वास नहीं भी रखते हो, तब भी तुम मेरे सन्देशों को सुन सकते हो ! तुम बौद्ध हो, क्रिश्चियन हो कि मुसलमान हो -जो भी हो वही रहो, वही होने के बाद भी मैं तुम सबों को ग्रहण करूँगा। केवल इतना ही नहीं यदि तुम किसी भी धर्म में विश्वास नहीं रखते हो, तब भी मेरे हृदय में तुम्हारे लिए स्थान है !"
सुनने से कौतुहल होता है, कि किसी व्यक्ति का ह्रदय इतना विशाल कैसे हो जाता है ? - वह कौन सी वस्तु है जो सभी मनुष्यों को अपना मानकर स्वीकार कर लेती है, किसी को पराया नहीं समझती ?' जो वस्तु सबों को अपना मानकर ग्रहण कर सकती हो, उसी का नाम है, 'अचिन्त्य-भेदाभेद' वेदान्त ! वह वेदान्त क्या है ?श्री रामकृष्ण के शब्दों में -'दया नय-शिवज्ञाने जीब सेबा। 'और स्वामी जी के शब्दों में -" एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है ? " ( ८/३४)
इसीलिये स्वामी जी ने मद्रास के हिन्दुओं को लिखित एक पत्र में कहा था - " वेदान्त -केसरी गर्जना करे, सियार अपने बिलों में छिप जायेंगे !"
'लेट दी लायन ऑफ़ वेदान्ता रोर, ऐंड दी फॉक्सेज विल फ्लाई टू देयर होल्स!'
-उच्च भावों को सब ओर बिखेर दो, और फल अपने आप होता रहेगा। आत्मा की शक्ति का विकास करो, और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो,और (भारत को विश्वगुरु बनने के लिये) जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी। अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (निःस्वार्थपरता) को प्रकट करो, सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो, इतना होने से ही भारत के लिये जो कुछ कल्याणकारी है, वह सब कुछ उसके चारो ओर समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा। ९/३८०
अतः जो मनुष्य स्वामी विवेकानन्द (या नवनीदा) का क्रमानुयायी, या महामण्डल के चरित्रनिर्माण आंदोलन के भावी नेता, " वुडबी लीडर्स" बनना चाहता हो, उसे अपने जीवन-दीपक को प्रज्वलित करके दूसरों के जीवन-दीप को भी प्रज्वलित करा देने का प्रयत्न करना होगा। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- ' चरैवेति चरैवेति '-चलते रहना ही जीवन है, और थम जाना ही मृत्यु है।' फिर कहते हैं- ' उठो, जागो ! अब और स्वप्न मत देखो ! '
यही है स्वामीजी का जीवन-प्रद मन्त्र, जो जड़-पिण्डों (मुर्दों) में भी जान डाल सकता है। युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ' तुम्हें भी अपने जीवन में ' क्षात्र-वीर्य और ब्रह-तेज ' इन दो आपात परस्पर विरोधी भावों का समावेश करके, संसार में नये युग की शुरुआत करनी होगी। भविष्य के गौरवशाली भारत के निर्माण का प्रारम्भ तभी होगा, जब हमारे देश के युवाओं के जीवन में ' क्षात्रवीर्य ' और' ब्रह्मतेज ' (जोश और होश ) साथा-साथ एवं एक सामान आभा बिखेरेंगे।
स्वामीजी ने कहा था- ' भारत झोपड़ियों में वास करता है। ' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को महान बनाने के लिये यहाँ की साधारण जनता को महान भावों से अनुप्राणित करना होगा। इस महा-जागरण की वाणी को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा।
और हमारे युवाओं के समक्ष, (भारत के भावी मार्गदर्शक नेताओं के समक्ष), यही सबसे बड़ी चुनौती, और सबसे ज्यादा कठिन चुनौती भी है। क्योंकि इस चुनौती के लिए उद्यम करने से प्राप्त होने वाला -'जय या पराजय' ही हमारे भविष्य का स्वरूप निश्चित करेगा। इसका सारा उत्तरदायित्व युवाओं के कन्धों पर ही है। वे चाहें तो, अपने को तथा अपनी प्यारी मातृभूमि को संकट में डालने का जोखिम उठा कर ही , इस चुनौती को अनदेखा कर सकते हैं।