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बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

" प्रश्नोपनिषद"

यह प्रश्नोत्तरी परम्परा "भारतीय गुरु-शिष्य ऋषि परम्परा" में इतनी प्रचलित रही है कि हमारे एक उपनिषद का नाम ही 'प्रश्नोपनिषद' है। प्रश्नोपनिषद का सार-संक्षेप इस प्रकार है :  पश्नोपनिषद में वर्णन आता है कि एक बार  छह ऋषि (सत्यार्थी= ब्रह्म अन्वेषमाणाः = निरपेक्ष्य सत्य के खोजी) परब्रह्म (श्री ठाकुर) को जानने की जिज्ञासा से एक साथ बाहर निकले। इन्होंने सुना था कि पिप्पलाद ऋषि  (=महामण्डल) इस विषय को विशेष रूप से जानते हैं। अतः यह सोचकर कि निरपेक्ष सत्य (श्री ठाकुर) के सम्बन्ध में हम जो कुछ जानना चाहते हैं, वह सब वे  हमें बता देंगे। अतः वे लोग जिज्ञासु के वेश में हाथों में समिधा लिए हुए महर्षि पिप्पलाद के पास गए । उस ऋषि ने उनसे कहा-'तपस्या, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से युक्त होकर एक वर्ष और निवास करो; फिर अपने इच्छानुसार प्रश्न करना, यदि मैं जानता होऊंगा तो तुम्हें सब बतला दूंगा। एक वर्ष तक गुरुकुल में रहने के पश्चात् गुरूजी के पास जाकर कात्यायन कबन्धी ने पूछा - 
 प्रश्न १. 'भगवन्!  यह सारी प्रजा किससे उत्पन्न होती है?
महर्षि पिप्पलाद ने उत्तर दिया - 'प्रसिद्द है कि प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा वाले प्रजापति ने तप किया। प्रजापति ब्रह्मा ने तप करके  'प्राण' और 'रयि' नामक एक जोड़ा उत्पन्न किया (और सोचा) ये दोनों ही मेरी अनेक प्रकार की प्रजा उत्पन्न करेंगे। निश्चय आदित्य ही प्राण है और रयि ही चंद्रमा है। यह जो कुछ मूर्त (स्थूल) और अमूर्त (सूक्षम)है सब रयि ही है; अतः सारे मूर्त नाम-रूप ही रयि (चन्द्रमा) है। वस्तुत: प्राण (एनर्जी)  गति प्रदान करने वाला चेतन तत्त्व है। रयि (आकाश या ईथर मैटर) उसे धारण करके विविध रूप देने में समर्थ प्रकृति है। इस प्रकार ब्रह्मा मिथुन-कर्म द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करता है।
संवत्सर ही प्रजापति है; उसके दक्षिण और उत्तर दो अयन है। जो लोग इष्टापूर्तरूप कर्ममार्ग का अवलंबन करते हैं वे ही पुनः आवागमन को प्राप्त होते है, अतः ये संतानेच्छु ऋषि लोग दक्षिण मार्ग को ही प्राप्त करते हैं। (इस प्रकार) जो पितृयाण है वही रयि है।
उत्तरमार्गावलम्बियों की गति - दिन रात भी प्रजापति है। उनमें दिन ही प्राण है और रात्रि ही रयि है। जो लोग दिन के समय रति के लिए (स्त्री से) संयुक्त होते हैं वे प्राण की ही हानि करते हैं और जो रात्रि के समय रति के लिए (स्त्री से) संयोग करते हैं वह तो ब्रह्मचर्य ही है। जिनमें कि तप और ब्रह्मचर्य है तथा जिनमें सत्य स्थित है उन्हीं को यह ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। जिनमें कुटिलता, अनृत और माया(कपट)नहीं है उन्हें यह विशुद्ध ब्रह्मलोक प्राप्त होता है।
इसके बाद उन पिप्पलाद मुनि से विदर्भदेशीय भार्गव ने पूछा -
प्रश्न २.  'भगवन! इस प्रजा को कितने देवता धारण करते हैं? 
उनमें से कौन-कौन इसे प्रकाशित करते हैं? और कौन उनमें सर्वश्रेष्ठ है?
महर्षि पिप्पलाद बोले - 'पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, प्राण, वाणी, नेत्र और श्रोत्र आदि सभी देव हैं। ये जीव के आश्रयदाता है। सभी देवताओं में प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है। सभी इन्द्रियां प्राण के आश्रय में ही रहती हैं।'
यह प्राण ही अग्नि होकर तपता है, यह सूर्य है, यह मेघ है, यही इंद्र और वायु है तथा यह देव ही पृथिवी, रयि और जो कुछ सत, असत एवं अमृत है, वह सब कुछ बना है। हे प्राण! तू ही प्रजापति है, तू ही गर्भ में संचार करता है और तू ही जन्म ग्रहण करता है। यह (मनुष्यादि) सम्पूर्ण प्रजा तुझे ही बलि समर्पण करती है। क्योंकि तू समस्त इन्द्रियों के साथ स्थित रहता है।
तदन्तर, उन (पिप्पलाद मुनि) से अश्वल के पुत्र कौसल्य ने पूछा -
प्रश्न ३. 'हे महर्षि! इस 'प्राण' की उत्पत्ति कहां से होती है? 
यह शरीर में कैसे प्रवेश करता है, 
और कैसे बाहर निकल जाता है? 
 तथा कैसे दोनों के मध्य रहता है?'
उससे आचार्य पिप्पलाद ने कहा - ' इस प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है। जैसे शरीर की छाया शरीर से उत्पन्न होती है और उसी में समा जाती है, उसी प्रकार प्राण आत्मा से प्रकट होता है और उसी में समा जाता है। यह प्राण मनोकृत संकल्पादि से इस शरीर में प्रवेश करता है। मरणकाल में यह आत्मा के साथ ही बाहर निकलकर दूसरी योनियों में चला जाता है।'
गार्ग्य का प्रश्न प्रश्न ४.' हे भगवन! सुषुप्ति में कौन सोता है और कौन जागता है ? देह में कौन-सी इन्द्रिय  शयन करती है और कौन-सी जाग्रत रहती है? कौन-सी इन्द्रिय स्वप्न देखती है और कौन-सी सुख अनुभव करती है? ये सब इन्द्रियाँ किसमें स्थित है?'
तब उस से आचार्य ने कहा - 'हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य की रश्मियां सूर्य के अस्त होते ही सूर्य में सिमट जाती हैं और उसके उदित होते ही पुन: बिखर जाती हैं उसी प्रकार समस्त इन्द्रियां परमदेव मन में एकत्र हो जाती हैं। तब इस पुरुष का बोलना-चालना, देखना-सुनना, स्वाद-अस्वाद, सूंघना-स्पर्श करना आदि सभी कुछ रूक जाता है।  तब उसे 'सोता है' ऐसा कहते हैं।
[सुषुप्तिकाल में-'सोते समय' ]  इस शरीर रूप पुर में प्राणाग्नि या प्राण-रूप अग्नि ही जाग्रत रहती है। यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है, उच्छ्वास और निःश्वास ये मानो अग्निहोत्र की आहुतियाँ हैं उसी के द्वारा अन्य सोई हुई इन्द्रियां केवल अनुभव मात्र करती हैं, जबकि वे सोई हुई होती हैं। स्वप्नावस्था में यह देव ही अपनी विभूतियों  का अनुभव करता है। 
जिस समय यह मन तेज से आक्रांत होता है उस समय वह आत्मदेव स्वप्न नहीं देखता। यही द्रष्टा, स्प्रष्ट, श्रोता, घ्राता, रसयिता, मन्ता (मनन करने वाला), बोद्धा और कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष है। जिस प्रकार पक्षी अपने बसेरे के वृक्ष पर जाकर बैठ जाते है उसी प्रकार वह सब (कार्यकरण संघात) सबसे उत्कृष्ट आत्मा में जाकर स्थित हो जाता है। वह अक्षर ब्रह्म में सम्यक प्रकार से स्थित हो जाता है। 
प्रश्न ५. सत्यकाम पूछता है —'हे भगवन! जो मनुष्य जीवन भर 'ॐ' का ध्यान करता है, वह किस लोक को प्राप्त करता है?' 
पिप्पलाद ने कहा-हे सत्यकाम! यह 'ॐकार' ही वास्तव में 'परब्रह्म' है। जो उपासक त्रिमात्राविशिष्ट 'ॐ' इस अक्षर द्वारा इस परम पुरुष की उपासना करता है वह तेजोमय सूर्य लोक को प्राप्त करता है। सर्प जिस प्रकार केंचुली से निकल आता है उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है। वह साम्श्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है और जीवनघन से भी उत्कृष्ट ह्रदय स्थित परमपुरुष (श्री रामकृष्ण) का साक्षात्कार करता है। 
प्रश्न ६. सुकेशा भारद्वाज—'हे भगवन! कौसल देश के राजकुमार हिरण्यनाभ ने सोलह कलाओं से युक्त पुरुष (श्रीरामकृष्ण परमहंस) के बारे में मुझसे प्रश्न किया था, परन्तु मैं उसे नहीं बता सका। मैंने उस कुमार से कहा-'मैं इसे नहीं जानता; यदि मैं इसे जानता होता तो तुझे क्यों न बतलाता? जो पुरुष मथ्य भाषण करता है वह सब और से मूल सहित सूख जाता है; अतः मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता।' तब वह चुप -चाप रथ पर चढ़कर चला गया। सो अब मैं आपसे उस के विषय में पूछता हूँ कि वह पुरुष कहाँ है? क्या आप किसी ऐसे पुरुष के विषय में जानकारी रखते हैं?'
उस से महर्षि पिप्पलाद ने कहा - 'हे सोम्य! जिस में इन सोलह कलाओं (२४ गुणों का)  का प्रादुर्भाव होता है वह पुरुष इस शरीर के भीतर ही वर्तमान है। उस पुरुष ने सर्वप्रथम 'प्राण' का सृजन किया। तदुपरान्त प्राण से 'श्रद्धा', 'आकाश', 'वायु', 'ज्योति', 'पृथ्वी', 'इन्द्रियां', 'मन' और 'अन्न' का सृजन किया। अन्न से 'वीर्य' , 'तप', 'मन्त्र', 'कर्म', 'लोक' एवं 'नाम-रूप ' आदि सोलह कलाओं का सृजन किया।'जिस प्रकार समुद्र की और बहती हुई ये नदियां समुद्र में पहुँच कर अस्त हो जाती है, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे 'समुद्र' ऐसा कहकर ही पुकारी जाती है। इसी प्रकार इस सर्वद्रष्ट की ये सोलह कलायें, जिनका अधिष्ठान पुरुष ही है, उस पुरुष को प्राप्त होकर लीन हो जाती है। 

तब उनसे उस (पिप्पलाद मुनि)- ने कहा - इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ। इससे अन्य और कुछ (ज्ञातव्य) नहीं है। तब उन छहो ऋषियों ने स्तुतिपूर्वक आचार्य की वंदना करते हुए कहा - 
ते तमर्चयन्तः त्वं हि नः पिता  योऽस्माकं अविद्यायाः
परं पारं तारयसीति । नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥ ८ ॥
तब उन्होंने उन की पूजा करते हुए कहा - आप तो हमारे पिता है जिन्होंने की हमें अविद्या के दूसरे पार पर पहुंचा दिया है; आप परमर्षि को हमारा नमस्कार है, नमस्कार है। 
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गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

'स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर अद्वैत शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा'

महामण्डल का " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem)
महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में भाग लेकर, जब कोई व्यक्ति 'स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर अद्वैत शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' या "अचिन्त्य-भेदाभेद अद्वैत परम्परा में 'Be and Make' लीडरशिप ट्रेनिंग प्रणाली" को एक प्रयोग-गत यथार्थ (एक्स्पेरिमेन्टल ट्रूथ) के रूप में उपलब्ध कर लेता है, तब उसके विचार-जगत में एक मौलिक परिवर्तन घटित हो जाता है। जिसके फलस्वरूप शिविर से लौटने के बाद, अब वह केवल एक दिन के लिये '१२ जनवरी ' राष्ट्रीय युवा-दिवस को आवेश-आवेग पूर्ण ढंग से स्वामी विवेकानन्द जयंती के रूप में मना कर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। बल्कि, शिविर से लौटने के बाद, अपने गाँव या शहर में अपने आस-पास रहने वाले कुछ युवाओं को एकत्र कर, ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा  चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के लिये, स्वेच्छा से 'विवेकानन्द युवा पाठचक्र ' या महामण्डल की शाखा स्थापित करने के प्रयास में जुट जाता है।
[ "क्योंकि भाव (इन्द्रियगोचर जगत,या सापेक्षिक सत्य) तथा भावातीत (इन्द्रियातीत-ब्रह्म, निरपेक्ष सत्य) ये दोनों राज्य परस्पर कार्य-कारण सम्बन्ध से सदा बन्धे हुए हैं, तथा भावातीत अद्वैत राज्य का भूमानन्द (परमानन्द) ही सीमाबद्ध होकर भावराज्य के दर्शन-स्पर्शन आदि सम्भोगानन्द के रूप में अभिव्यक्त है। अतः भावसाधना की चरम अवस्था में (किसी नेता या संगठन के लिये) अद्वैतभाव को प्राप्त करने का प्रयास युक्ति-युक्त है।" श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग १/३६४ संसार रंगमंच के tv-सीरियल पर अभिनय का जो धारावाहिकत्व चल रहा है, उसके माध्यम से अनजाने में मनुष्य पूर्णत्व की अभिव्यक्ति करके क्रमशः यथार्थ मनुष्य (पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य) बन जाने का खेल, खेल रहा होता है। किन्तु सम्मोहित (हिप्नोटाइज्ड ) अवस्था में अपने ब्रह्मस्वरूप को नहीं जानने के कारण वह उस टी.वी.धारावहिक में अपने द्वारा निभाय जाने वाले किरदार के अभिनय को भी स्वप्न के जैसा ही सत्य समझने लगता लगता है। किन्तु जब 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द अचिन्त्य भेदाभेद वेदान्त 'BE AND MAKE' नेतृत्व-प्रशिक्षण परम्परा' में वह स्वयं एक शिक्षक (नेता) के रूप में दूसरों को 'लीडरशिप-ट्रेनिंग' अर्थात 'ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने' का प्रशिक्षण-कार्य (विवेक-प्रयोग सहित महामण्डल के ५ अभ्यास) में जुट जाता है, तो एक दिन उसका अपना स्वप्न-भंग अवश्य होता है, और वह मुक्त भ्रममुक्त (विसम्मोहित या डीहिप्नोटाइज्ड) हो जाता है।]
परम देशभक्त स्वामी विवेकानन्द ने अपने परिव्राजक जीवन में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भ्रमण करते समय तबके "अखण्ड भारत" को अत्यन्त करीब से देखा था।  उन्हों ने ह्रदय से यह अनुभव किया था, कि देवताओं और ऋषियों कि करोड़ो संतानें आज पशुतुल्य जीवन जीने को बाध्य हैं! यहाँ लाखों लोग भूख से मर जाते हैं और शताब्दियों से मरते आ रहे हैं। अज्ञान के काले बादल ने पूरे भारतवर्ष को ढांक लिया है। उन्होंने अनुभव किया था कि मेरे ही रक्त-मांसमय देह स्वरूप मेरे युवाभाई (देशवासी) दिन पर दिन अज्ञान के अंधकार में डूबते चले जा रहे हैं !
'यथार्थ शिक्षा' - अर्थात मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के अभाव ने इन्हें शारीरिक,मानसिक और आध्यात्मिक रूप से दुर्बल बना दिया है। उन्होंने पाया था कि हजार वर्ष की गुलामी तथा पाश्चात्य शिक्षा के दुष्प्रभाव से सम्पूर्ण भारतवर्ष एक ओर "घोर- भौतिकवाद" (स्काईला) तो दूसरी ओर इसी के प्रतिक्रिया-स्वरूप उत्पन्न "घोर-रूढिवाद" (चरनबाइडिस) जैसे दो विपरीत ध्रुवों पर केंद्रित हो गया है। जिसके कारण वह प्राचीन भारतीय संस्कृति के चार पुरुषार्थों -" धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष " या अपने जीवन के उद्देश्य को  प्रायः भूल चुका है; तथा केवल " लस्ट और लूकर" (कामिनी- कांचन, वीमेन ऐंड गोल्ड) में आसक्त हो कर पशुतुल्य जीवन जी रहा है। भारत कि इस दुर्दशा ने उन्हें विह्वल कर दिया। इस असीम वेदना ने उनके ह्रदय में करुणा का संचार किया उन्होंने इसकी अवनति के मूल कारण को ढूंढ़ निकला: वह कारण था -'आत्मश्रद्धा का विस्मरण'। 
देशवासियों के हृदय से उनका आत्मविश्वास लूप्त कैसे हो गया था ? हमलोग यह जानते हैं कि १८३५ ई०  तक भारत में ७ लाख ५० हजार ग्राम थे, तथा लगभग प्रत्येक ग्राम में भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य परम्परा' में आधारित गुरुकुल (या टोल) हुआ करता था। जिसमें श्रद्धावान, चरित्रवान मनुष्य बनाने के लिये संस्कृत, के साथ साथ गणित, भूगोल, मनोविज्ञान आदि अन्य १८ विषय भी पढ़ाये जाते थे। लार्ड मेकाले जब भारत आया,तो उसको तत्कालीन भारत में कहीं अनैतिकता -भ्रष्टाचार आदि होता हुआ कहीं दिखाई नहीं दिया। १८३५ ई० में अंग्रेज शासन को स्थायी रखने, तथा भारत को गुलाम बनाये रखने के उद्देश्य से लार्ड मेकाले ने,  भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति (गुरु-शिष्य परम्परा) को हटाकर (किरानी या बाबू बनाने वाली) शिक्षा पद्धति को भारत में प्रचलित कर दिया था। 

किन्तु लग-भग उसी समय (१८३६ में) माँ जगदम्बा की इच्छा से - सम्पूर्ण मानव-जाति के मार्गदर्शक नेता  जगतगुरु श्री रामकृष्णदेव अवतीर्ण होते हैं। और गीता -उपनिषद की शिक्षाओं पर आधारित भारत की  प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' को आधुनिक विश्व के लिये उपयोगी बनाने के उद्देश्य से , भारत के पाश्चात्य शिक्षा-व्यवस्था में पढ़े-लिखे युवाओं को नरेन्द्रनाथ के नेतृत्व में संघबद्ध कर, उन्हें प्रचलित शिक्षा-व्यवस्था के साथ अपने अभिनव-सिद्धान्त 'दया नहीं -शिवज्ञान से जीव सेवा' को जोड़ने का प्रशिक्षण देते हैं। 
तथा १८८६ में अपने नश्वर शरीर का त्याग करने से पूर्व इस नयी शिक्षा-पद्धति का प्रचार-प्रसार करने का 'चपरास' अपने हाथों से एक कागज पर लिखकर 'जय राधे प्रेममयी नरेन्द्र शिक्षा देगा' और उसके नीचे अपने हाथों से एक चित्र-'आवक्ष मुखाकृति के पीछे दौड़ता हुआ मयूर' बनाकर नरेन्द्र के हाथों में सौंप देते हैं। आधुनिक युग में  सम्पूर्ण विश्व के लिये उपयोगी 'नेता (लोक-शिक्षक) बनने और बनाने' वाली उसी रामकृष्ण-विवेकानन्द व्यावहारिक वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' को महामण्डल में 'BE AND MAKE लीडरशिप ट्रेनिंग' कहा जाता है। 
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि -" श्री रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है। "  ('रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे'/ फ्रॉम दी डेट दैट दी रामकृष्ण इन्कारनेशन वाज बॉर्न, हैज स्प्रंग दी गोल्डन ऐज।) उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? स्वामीजी ने एतेरेय ब्राह्मण की श्रुति 'चरैवेति चरैवेति ' का प्रयोग अपने जीवन पर करके इस बात को निश्चित रूप से जान लिया था, कि हमलोग यदि  " श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में"  निर्देशित ५ अभ्यासों को स्वयं करते हुए दूसरों को भी उसका प्रशिक्षण देने के कार्य में जुट जायेंगे, अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ" 'BE AND MAKE'  आन्दोलन के प्रचार-प्रसार में जुट जायेंगे तो हमलोगों के जीवन का आमूल परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित हो जायेगा। और हमलोगों के जीवन में भी सतयुग का प्रारम्भ हो जायेगा। हमारे शास्त्र ऐतरेय ब्राह्मण (७.१५) में कहा गया है कि युग-परिवर्तन या 'सतयुग का प्रारम्भ' तो मनुष्य के विचार जगत में होता है-
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः। 
 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥

(कलिः शयानः भवति, संजिहानः तु द्वापरः।  उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति, कृतं संपाद्यते चरन्, चर एव इति।।) -- जो मनुष्य सोया रहता है उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है, वह कली काल में रहता है! नेता या गुरु की पुकार (महावाक्य) सुनकर जिसकी नींद टूट जाती है, जो जागृत हो जाता है, उसका भाग भी जग जाता है, और उसका द्वापर युग शुरू हो जाता है। जो परम्-पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है, और उसके लिये त्रेता युग चलने लगता है। फिर जब वह स्वयं 'मनुष्य बनने और बनाने' की पद्धति का प्रचार-प्रसार करने के लिये परिव्राजक बनकर नगर-नगर चलना शुरू कर देता है, तब उसका भाग्य भी  आगे आगे चलने लगता है, और उसके लिये सत्ययुग का प्रारम्भ हो जाता है ! 
हमें ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी विवेकानन्द -" फ्रॉम दी डेट दैट दी रामकृष्ण इन्कारनेशन वाज बॉर्न, हैज स्प्रंग दी गोल्डन ऐज।" कहकर,शास्त्र-सम्मत भाव से यही कहना चाह रहे थे कि श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने से पहले मनुष्य गहरी सुषुप्ति में था, अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश ने मनुष्यों को संजीवित (पुनरुज्जीवित) करके, उन्हें मनुष्य-जीवन की महती सम्भावना की ओर आगे बढ़ने के लिये अनुप्रेरित कर दिया है।
इसलिये जैसे ही 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पम्परा' का प्रतिष्ठापन होता है, मनुष्य  -[५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा शरीर-मन और हृदय (3H) को विकसित करने की] चरित्र-निर्माणकारी मनोवैज्ञानिक शिक्षा पद्धति- "BE AND MAKE " सीखकर अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करके, "वेदान्त केसरी बनने और बनाने" का संग्राम शुरू कर देता है।

" उनके जन्म की तिथि से सत्य युग आरम्भ हुआ है ! इसलिये अब सब प्रकार के भेदों का अन्त है ! और अब सब लोग चाण्डाल सहित उस दैवी प्रेम के भागी होंगे। परुष और स्त्री, धनी और दरिद्र, शिक्षित और अशिक्षित, ब्राह्मण और चाण्डाल - इन सब भेद-भावों को समूल नष्ट करने के अभियान में ही उन्होंने अपने जीवन को खपा दिया था ! वे सर्वधर्म समन्वयाचार्य थे -उनके अवतरण से हिन्दू-मुसलमान का भेद, हिन्दू और ईसाईयों का भेद -सब भूतकाल की बातें हो गयीं हैं। मान-प्रतिष्ठा के लिये  (नाम-यश के लिये किसी संगठन में) जो झगड़े होते थे, वे सब दूसरे युग (कली-द्वापर-त्रेता युग में रहने वालों से) सम्बन्धित हैं। इस सत्य युग में श्रीरामकृष्ण के प्रेम की विशाल लहर ने सब को एक कर दिया है। 
स्वामी विवेकानन्द ने  कहा था - " इस रामकृष्ण अवतार में समस्त प्रकार के नास्तिक विचार 'ज्ञानरूपी तलवार' से नष्ट हो जायेंगे,और सम्पूर्ण जगत भक्ति और प्रेम से एक सूत्र में बँध जायेगा। साथ ही, इस अवतार में रजस अर्थात नाम-यश आदि की इच्छा का सर्वथा अभाव है। इसलिये कोई व्यक्ति चाहे उन्हें अवतार के रूप में माने या न माने, किन्तु यदि वह उनके उपदेशों (ईश्वर प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है, पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे, 'मान'-हूंश, तो मानुष ! आदि) के मर्म को समझकर व्यवहार में लायेगा, तो निश्चित रूप से उसका जीवन धन्य हो जायेगा !" ४/३१७  
जो कोई -पुरुष या स्त्री -श्री रामकृष्ण की उपासना करेगा, वह चाहे कितना भी पतित क्यों न हो, तत्काल ही उच्चतम में परिणत हो जायेगा। एक बात और है, इस अवतार में परमात्मा का मातृभाव विशेष स्पष्ट है। वे कभी कभी स्त्रियों के समान वस्त्र पहनते थे-वे मानो हमारी जगन्माता (माँ काली) जैसे ही थे, इसलिये हमें सब स्त्रियों को उसी माँ जगदम्बा की ही मूर्तियाँ माननी चाहिये। चाहे ब्राह्मण हो या चाण्डाल, पुरुष हो या स्त्री -सबको उनकी पूजा करने का अधिकार है। जो प्रेम से उनकी पूजा करेगा , उसका सदा के लिये कल्याण हो जायेगा !"  ४/३२३ [LXXV(Translated from Bengali )] 
ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने ऐतरेय ब्राह्मण के उपरोक्त श्रुति को स्वयं अपने जीवन में प्रयोग करके देखा था कि यहाँ कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा, किसी व्यक्ति की मानसिक अवस्था के तारतम्य को निर्धारित करने के उद्देश्य से ही दी गयी है। क्योंकि मनुष्य का मन हर समय एक ही अवस्था में नहीं रहता, कभी बिल्कुल सोया रहता है, कभी जाग्रत जैसा हो जाता है, या कभी उठ खड़ा होता है, और उसके बाद चलना शुरू कर देता है। 
जिस सतयुग को, धर्मराज्य या रामराज्य को लाने की हम कामना करते हैं, वह अपने देशवासियों की खोई हुई श्रद्धा या आस्तिकता को उन्हें वापस लौटा देने से ही सम्भव हो सकती है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"विश्वास, विश्वास ! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा में विश्वास -यही महानता का एकमात्र रहस्य है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर,और जिन देवी- देवताओं को विदेशियों ने बीच बीच में तुम्हारे भीतर घुसा दिया है; उन सब पर भी यदि तुम्हारा विश्वास हो,किन्तु अपने आप पर विश्वास न हो। तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। इसी आत्मविश्वास के बल से अपने पैरों आप खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो! इस समय हमें इसी की आवश्यकता है। 
" वेदान्त कहता है, ईश्वर (अद्वैत) के सिवाय दूसरा कुछ भी नहीं है। जीवित ईश्वर तुम्हारे भीतर रहते हैं, तब भी तुम मन्दिर,मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो। जबकि, मनुष्यदेह में रहने वाली मानव-आत्मा (3rd-H) ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है ! हाँ, पशु आदि भी भगवान के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है-'ताजमहल' जैसा! एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है -मनुष्य को उसके सच्चे स्वरूप में जानना। और वेदान्त का यही सन्देश है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वररूप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते, तो तुम उस ईश्वर की उपासना कैसे करोगे जो अव्यक्त है?" 
महामण्डल के अविर्भूत होने के ५० वर्षों के भीतर देश-वासियों, विशेषकर युवाओं के भीतर,आत्मविश्वासी  विवेकी और चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के प्रति ऐसा जो आग्रह दिखाई दे रहा है, उनकी मानसिकता या विचार जगत में यह जो नूतन परिवर्तन दिखलाई दे रहा है, इसका कारण क्या है ? हमारा यह दृढ़ विश्वास है कि रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान,इस परिवर्तन के पीछे भी ,"महामण्डल" तथा उसके मासिक मुखपत्र "Vivek-Jivan" की एक भूमिका अवश्य रही है !
हमारे जो भाई महामण्डल के इस 'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द अचिन्त्य भेदाभेद वेदान्त नेतृत्व-प्रशिक्षण  परम्परा 'BE AND MAKE' में आधारित इस चरित्र-निर्माण आन्दोलन में जुड़ना चाहते हैं। या महामण्डल के 'लीडरशिप ट्रेनिंग' को एक प्रयोग-गत यथार्थ - एक्स्पेरिमेन्टल ट्रूथ के रूप में उपलब्ध करके, वे भी 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' से सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण करने वाले इस आन्दोलन के  भावी मार्गदर्शक नेता (वुड बी लीडर्स) 'बनने और बनाने ' का उत्तरदायित्व ग्रहण करना चाहते हैं। उनके लिये महामण्डल में योगदान करने के पहले इसके आदर्श,उद्देश्य और कार्यक्रम को एक बार पुनः स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है। तथा महामण्डल के 'इस प्रतीक-चिन्ह (Emblem)' में ये सारी बातें समाहित हैं। 
नवनी दा अपनी पुस्तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' में कहते हैं - " महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, सोंच-विचार कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " निर्धारित किया गया। उसमे जो गोलाई है, वह पृथ्वी है; और सुदूर दक्षिणी भाग में स्थित कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है। जिसके भीतर स्वामी विवेकानन्द को एक परिव्राजक संन्यासी, (छन्नछाड़ा-गोष्ठिर पुरोधा,Itinerant monk रमता योगी) के रूप में दर्शाया गया है।
जिस प्रकार किसी शिल्पकार को मूर्ति को गढ़ने के लिये एक साँचे की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार युवाओं को भी अपना जीवन-गठन करने के लिये, एक प्रेरणास्रोत (Role Model) के रूप में  किसी जीवन्त और ज्वलन्त आदर्श को अपने सामने रखना आवश्यक है। आधुनिक युग की  युवा पीढ़ी के लिये परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द ही महामण्डल के अनुकरणीय आदर्श हैं। क्योंकि उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। जैसा उनका ध्यान सिद्ध था, वैसा कर्म भी था। उनका सम्पूर्ण जीवन 'सत्यंवद-धर्मंचर' का जीवन्त रूप था। 
हमारे शास्त्रों में कहा गया है - धर्मेण हीनः पशुभिः समानः॥"--जो मनुष्य चरित्र से अर्थात "धर्म" से रहित है, वह किसी जानवर से भिन्न नहीं है!' चरित्र का धर्म से गहरा एवं अटूट सम्बन्ध है, क्योंकि धर्म के बिना चरित्र और चरित्र के बिना धर्म कभी कायम नहीं रह सकता। इसलिए मानव समाज में धर्म का विशेष महत्व है, धर्म के बिना (श्रद्धा-रहित, आस्तिकता रहित) मानव-जीवन निष्प्राण एवं पशुतुल्य है।
 धर्म क्या है ? स्वामी विवेकानन्द धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं - " मनुष्य में पहले से अन्तर्निहित दिव्यता (ब्रह्मत्व) को अभिव्यक्त करना ही धर्म है। धर्म वह वस्तु जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। धर्म का रहस्य आचरण (चरित्र या व्यवहार) से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों पर भाषण देने से नहीं। " टू डू गुड ऐंड टू बी गुड " - इज होल ऑफ़ रिलिजन। " -अर्थात "भला बनना और भलाई करना" - इसमें ही समग्र धर्म निहित हैं।"
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहते हैं - " शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को अभिव्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this divinity by controlling nature, external and internal." " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।" "हमें ऐसी शिक्षा चाहिये जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े, बुद्धि विकसित हो, और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे। मेरे विचार से तो शिक्षा का सार मन की एकाग्रता प्राप्त करना है, तथ्यों का संकलन नहीं ! " 
और इस शिक्षा-पद्धति को सम्पूर्ण विश्व में लागु करना ईश्वर भक्ति के द्वारा, अटूट श्रद्धा या आस्तिकता की प्रतिष्ठापना के द्वारा ही संभव है। मनुष्य को केवल श्रद्धा ही नहीं चाहिये, बल्कि उसमें बौद्धिक-श्रद्धा भी रहनी चाहिये । अर्थात ५ अभ्यासों के प्रशिक्षण द्वारा अद्वैत वेदान्त महावाक्य -'तत्त्वमसि' की प्रयोग-गत यथार्थ की अनुभूति जन्य आस्तिकता से विकसित 'मनुष्य'(सुसमन्वित '3H' शरीर-मन और हृदय)  बनना और बनाना चाहिये। 

" जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है,  जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी (3rd' H की) मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव करलेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय - " मृत्यु-भय तथा कामिनी-कांचन में आसक्ति' का अभाव हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ! (इसी देह में ईश्वर या परमसत्य की अनुभूति हो जाती है !) इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !" (१/४०)    
यूरोप का उद्धार (पाश्चत्य-शिक्षा में पले-बढे भारतियों का उद्धार भी) एक ऐसे ही बुद्धिपरक धर्म पर निर्भर है, और वह है अद्वैत-धर्म (दी नॉन-डुअलिटी) अर्थात कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं का बोध, या 'एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति ' वाला अनुभूतिजन्य एकात्मबोध ! और निर्गुण-निराकार  ईश्वर को प्रतिपादित करने वाला यह वेदान्त ही, एक मात्र ऐसा धर्म है -जो किसी बौद्धिक जाति को संतुष्ट कर सकता है। जब कभी धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है तभी इस अवतार का (अद्वैत श्रीरामकृष्णदेव का) आविर्भाव होता है।
 धर्म और चरित्र का पतन हो जाने के कारण मानव समाज और देश को भयंकर परिणाम भुगतना पड़ता है। देश की सामाजिक व्यव्स्थाएँ अस्तव्यस्त हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप देश में हिंसा,चोरी, लूट-पाट, कत्ल, झूट, छल, कपट आदि का आतंक छा जाता है।  जिससे मानव जीवन अशान्त और दुखमय हो जाता है, तब उसके निवारण हेतु माँ जगदम्बा की इच्छा से, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, श्रीरामकृष्ण,  स्वामी विवेकानन्द जैसे मानवजाति के किसी मार्गदर्शक नेता [चरित्र-सम्पन्न लोक-शिक्षक] को, या 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' जैसे [नेताओं का निर्माण करने में सक्षम] किसी चरित्र-निर्माण कारी संगठन को अविर्भूत होना ही पड़ता है!
उस समय के सभी धर्मों के प्रचारक-गण मुँह से तो कहते थे -मेरा धर्म भी 'प्रेम-दया-क्षमा' की शिक्षा देता है, किन्तु किसी भी धर्म के प्रचारकों के आचरण या चरित्र में ये गुण दीखते नहीं थे ! इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - 'संसार के सभी धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गए हैं, संसार चाहता है-चरित्र। यदि किसी कमरे में १००० वर्ष से अँधेरा है, तो उसके जाने में भी १००० वर्ष नहीं लगते। एक दिया जलाते ही सारा अँधेरा क्षण भर में भाग जाता है ! '
इसीलिये उस गोलाई के नीचे लिखा है -" Be and Make " !  यही महामण्डल का नारा, आदर्श वाक्य या मोटो है ! इसका सरल अर्थ है, 'स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो !' स्वामी जी का यह आह्वान 'बनो और बनाओ ' ही महामण्डल का 'साधन और साध्य' दोनों है ! किन्तु वेदान्त के चारमहावाक्यों के जैसा " Be and Make" का वास्तविक अर्थ भी अत्यन्त सारगर्भित है। मनुष्य बनो ! सुनकर लगता है, हम तो मनुष्य हैं ही (?)-कैसा 'मनुष्य' बनने के लिए कहा जा रहा है ?
इस आदर्श वाक्य में मनुष्य जीवन के दुहरे उद्देश्य " ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य, अर्थात " व्यक्तिगत पूर्णता (ब्रह्म तेज) तथा सामाजिक कार्यक्षमता (क्षात्रवीर्य) का संकेत किया गया है। हमारे वैदिक ऋषिओं ने " ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य "  का बहुत गुणगान किया है। वेदों में कहा गया है, जहाँ ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य एक साथ रहते हैं, केवल वहीँ पर पुण्याग्नि के साथ समस्त देवता निवास करते हैं। अतः उन्नत मनुष्य बनने का अर्थ है-वैसा 'मनुष्य' बनना, जिसमें  "ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य " दोनों एक साथ रहते हों। 
"ब्रह्मतेज" का अर्थ है  'सन्तसुलभ सर्व-प्रेमी बुद्धि' (ऑल-लविंग इन्टेलिजेन्स'ऑफ़ सेंटलीनेस।) एक बार भी अद्वैत बोध में स्थित हो जाने के बाद, जब कोई  "कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं" की जो  -प्राप्त होती है, उसी को ब्रह्मतेज कहते हैं। क्योंकि उसी तेज या शक्ति से ' एकम सत विप्राः बहुधा वदन्ति ' आत्मा ही परमात्मा है, 'सभी एक है - वन हैज बिकम मेनी, इस बोध या साम्य-भाव (आस्तिकता,श्रद्धा या आध्यात्मिक ज्ञान) का उदय होता है। और "क्षात्रवीर्य" का अर्थ है -वह लौकिक सामर्थ्य या ऊर्जस्वी सदाचार की शक्ति से सम्पन्न पौरुष ( दैट डायनामिक गुडनेस ऑफ़ मैनलीनेस) जो अधोपतित समाज के भीतर भी आस्तिकता या श्रद्धा को पुनः स्थापित कर देने में समर्थ हो! अर्थात वह शौर्य जो 'बनो और बनाओ आंदोलन' को भारतवर्ष के प्रत्येक राज्य में प्रसारित करने में सक्षम हो।
[जैसे दुनिया के ७ आश्चर्य कहे जाते हैं, वैसे प्रत्येक व्यक्ति आश्चर्य जनक है। कोई व्यक्ति तुम्हारे जैसा न कभी हुआ था, न है, न कभी आगे हो सकता है। किसी का अँगूठा भी तुम्हारे अँगूठे जैसा नहीं है। आधारकार्ड में जैसी तुम्हारी आँखें हैं, वैसी किसी दूसरे मनुष्य की नहीं हैं। प्रायः हमलोग दूसरों के साथ अपने 2H की तुलना करके, स्वयं को कभी कम तो कभी ज्यादा आँकते रहते हैं। जबकि हर व्यक्ति अपने आप में अनूठा है। 
'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है', और सबमें अपनी अपनी श्रद्धा के तारतम्य के अनुसार अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त कर लेने की क्षमता है। द्वितीयाद्वै भयं भवति (बृ.उप.),वास्तव में डर  किसी भी व्यक्ति या वस्तु को 'अपने-आप से' भिन्न मानने के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है।  हाथी के बच्चे को तो लोहे के सीकड़ से बाँधते हैं -किन्तु बड़ा होते-होते उसको इसकी आदत पड़ जाती है, इसलिये बड़े हाथी को रस्सी से बाँधा जाता है, फिर भी उसे नहीं तोड़ पाता ? श्रद्धा के बल पर आदमी आग पर दौड़ जाता है, जलता नहीं ? यही श्रद्धा से उत्पन्न संकल्प शक्ति है। ]
ऑटोसजेशन: "तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे; यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे; बलवान सोचोगे तो बलवान बन जाओगे ! हमें जो कुछ चाहिये वह यह 'श्रद्धा' या आस्तिकता ही है। दुर्भाग्यवश भारत से इसका प्रायः लोप हो गया है, और हमारी वर्तमान दुर्दशा का कारण भी यही है। एकमात्र इस श्रद्धा के भेद से ही मनुष्य-मनुष्य में अन्तर पाया जाता है। इसका और दूसरा कारण नहीं। यह श्रद्धा ही है, जो एक मनुष्य को बड़ा और दूसरे को दुर्बल और छोटा बना देती है।"
"संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है, जिनमें आत्मविश्वास था। यह विश्वास अन्तःस्थित ब्रह्मत्व (प्रेमस्वरूप या डिविनिटी) को ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, सर्व समर्थ हो जाता है। असफलता तभी होती है, जब तुम अन्तःस्थ अमोघ शक्ति (अद्वैत जन्य प्रेमशक्ति) को अभिव्यक्त करने के लिये यथेष्ट प्रयत्न (पुरुषार्थ) नहीं करते। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है, उसी क्षण उसकी मृत्यु आ जाती है !" 
कृष्ण अवतार में (गीता ४.४०) में वे कहते हैं -  'संशयात्मा विनश्यति।' (अज्ञः च अश्रद्दधानः च संशय आत्मा विनश्यति) विवेक और श्रद्धा रहित- संशयात्मा मनुष्य का पतन हो जाता है।  संशय क्या है? इस संशय का अर्थ डाउट (सन्देह) नहीं है। संशय का अर्थ है -इनडिसीजन। भ्रमित बुद्धि (हिप्नोटाइज्ड आत्मा) जड़-चेतन, शाश्वत-नश्वर में विवेक प्रयोग नहीं कर पाती, इसीलिये अनिर्णय की अवस्था में रहती है। संशयी-आत्मा या हिप्नोटाइज्ड बुद्धि यह निर्णय नहीं ले पाती कि मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव - '3H' में से (शरीर-मन-आत्मा) कौन सा 'H' मेरा यथार्थ स्वरूप है ?  वह संशयी आत्मा संकल्प रहित या विललेस हो जाती है। संशय चित्त की दशा, उस दशा का नाम है, जब मन में यही द्वन्द्व चलता रहे कि, मैं यह (नश्वर, शरीर-मन 2H ) हूँ या वह अविनाशी आत्मा  (3rd' H हूँ) ? 'यह या वह', इस भांति सोचता रह जाता है। उसकी पूरी जिंदगी ऐसी ही इनडिसीजन में– 'टु बी आर नाट टु बी', मैं 'ब्रह्मविद मनुष्य' होऊं या न होऊं, बनूँ या न बनूँ? दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करूं या न करूं ? ...करते हुए व्यर्थ में बीत जाती है!
इसीलिये संशयी आत्मा कभी चरित्रवान मनुष्य या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने का 'संकल्प -ग्रहण' नहीं कर पाती। 'बिलीफ-सिस्टम' को दृढ़ करने के लिये स्वामीजी द्वारा प्रस्तावित 'ऑटोसजेशन' का पाठ नहीं करने वाले, आत्म-श्रद्धा रहित व्यक्ति या नास्तिक मनुष्य का पतन हो जाता है
अतः चरित्र-निर्माण आंदोलन को भारत के गॉंव-गाँव तक प्रचारित कर देने के लिये महामण्डल की 'कैम्पेन पॉलिसी 'अभियान नीति है -'चरैवेति चरैवेति!' जो इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर लिखा है। पूज्य नवनी दा कहते थे - "इस मन्त्र में इतनी शक्ति है, कि जो भी इस चरित्र-निर्माण आंदोलन को भारत के गाँव-गाँव तक पहुँचा देने के कार्य में  निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा वह स्वयं यथार्थ मनुष्य बन जायेगा ! उसे मोक्ष (मुक्ति-भक्ति) तक की प्राप्ति स्वतः हो जायेगी, उसके लिये अलग से अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी।"
सम्पूर्ण भारतवर्ष में इस श्रद्धा या आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने हेतु पहला कार्य है, सैकड़ों की संख्या में ऐसे  ब्रह्मविद युवाओं, आत्मसाक्षात्कारी, चरित्रवान मनुष्यों, पैगम्बरों या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना। जो अपने जीवन को ही उदाहरण बनाकर समाज में आस्तिकता को प्रतिष्ठापित करने में सक्षम हों ! "श्रीरामकृष्णदेव-श्रीमाँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द " जैसे डीहिप्नोटाइज्ड कर देने में समर्थ मानव-जाति के मार्गदर्शक नेता (होली ट्रायो) या लोक-शिक्षकों (सदगुरु) का अनुसरण -उनकी शिक्षाओं को अर्थात महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ दैनन्दिन अभ्यासों का स्वयं पालन करते हुए,अपने आस-पास रहने वाले कुछ युवाओं को भी उसके लिए अनुप्रेरित करके ही किया जा सकता है ! क्योंकि अवतारी महापुरुष केवल शिक्षा देने के लिये ही अवतरित होते हैं, नाम-यश के लिये नहीं। उनका अनुसरण करने की पद्धति ही यही है, दूसरा कोई उपाय नहीं है ! 
स्वामी विवेकानन्द का  जो दो आह्वान -' चरैवेति चरैवेति ' तथा ' Be and Make ' जो महामण्डल के एम्ब्लेम में गुथा हुआ है - हमलोगों के व्यक्तिगत  और राष्ट्रीय जीवन को महाजीवन प्रदान करने में समर्थ है!  उसको अस्वीकार करके, उसकी उपेक्षा करके हमलोग उनके अमर सन्देश  रूपी रतन को खो देंगे ?
 यदि हम इसे खोयें नहीं, यदि महामण्डल के इस सन्देश के उचित मूल्य को समझकर उन्हें प्रत्येक युवा अपना आदर्श माने, तभी महामण्डल के आविर्भूत होने की तिथि का अनुपालन सार्थक हो सकता है। 
जो मनुष्य 'बाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति' को वशीभूत करके पूर्णतः निःस्वार्थी होकर साम्यभाव में स्थित हो जाता है; वह भगिनी निवेदिता के कथनानुसार - 'दी सेल्फलेस मैन इज दी थंडरबोल्ट' बन जाता है। 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' से सम्पन्न और साम्यभाव में स्थित पूर्णतया निःस्वार्थी मनुष्य (डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य) भी वैसा ही थंडरबोल्ट या वज्र जैसा अप्रतिरोध्य मनुष्य बन जाता है, जिसके विषय में नहीं कहा जा सकता कि मैटर या एनर्जी ?  
इस प्रकार या ससीम से असीम बन जाने, बून्द से सागर बन जाने , ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन जाने को हमें भयप्रद क्यों मानना चाहिए ? यह भय केवल अपनी जड़ावस्था (2H) को अचल रखने के दुराग्रहवश उत्पन्न होता है।स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! " इसलिये महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में गोल-घेरे के चारों ओर जो छोटे-छोटे वज्र के निशान अंकित किये गए हैं, वह वास्तव में 'BE  AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में वज्र के जैसा पूर्णतः निःस्वार्थी भावी लोक-शिक्षकों या नेताओं के प्रतीक हैं, जो 
जो परिव्राजक बनकर सम्पूर्ण पृथ्वी पर सतयुग या आस्तिकता (श्रद्धा) को प्रतिस्थापित करते हुए विचरण करेंगे 
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी कविता - 'जलप्रपात का स्वप्न टूटा' (निर्झरेर स्वप्नभंग/कैस्केड / নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ/ cascade) में प्रति मुहूर्त " संशय-मुक्त अवस्था " (डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था)  में रहते हुए 'वेदान्त केसरी बनो और बनाओ' आन्दोलन के प्रचारक,नेता या लोकशिक्षक के परिव्रजन के आनन्द का चित्रण इस प्रकार किया है - (আজি এ প্রভাতে রবির কর, আমি—ঢালিব করুণা-ধারা, আমি–ভাঙিব পাষাণ-কারা,আমি—জগৎ প্লাবিয়া বেড়াব গাহিয়া আকুল পাগলপারা।শিখর হইতে শিখরে ছুটিব,ভূধর হইতে ভূধরে লুটিব,হেসে খল খল, গেয়ে কল কল, তালে তালে দিব তালি।)


आमि--ढालिबो कोरुना-धारा, आमि भाँगिबो पाषाण-कारा, 
आमि- जगत प्लाविया बेड़ाबो गाहिया आकूल पागलपारा।  
शिखर होईते शिखरे छुटिबो, भूधर होईते भूधरे लुटिबो, 
'हेशे खल खल, गेये कल कल, ताले ताले दिबो ताली। ' 
और जो मनुष्य, किसी भ्रमणकारी यात्री की तरह (ड्रॉपआउट्स की तरह या छन्नछाड़ा गोष्ठी के पुरोधा की तरह) एक स्थान से दूसरे स्थान तक घूम घूम कर मनुष्य बनने और बनाने BE AND MAKE के लिए महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों के प्रचार-प्रसार में लगा रहता है, एक दिन अवश्य उसके हृदय के बन्द कपाट को फोड़ कर प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है! और वह अपने मन (अहं) के बन्धन से मुक्त - या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने के बाद वह किसी को पराया नहीं मानता, सभी को अपना समझता है। मनुष्य की इसी अवस्था का वर्णन रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता ' निर्झ्रेर स्वप्नभंग' में करते हुए कहते हैं-  
'हेशे खोलो खोलो गेये कोलो कोलो ताले ताले दिबो ताली' 
(হেসে খলখল গেয়ে কলকল/তালে  তালে দিব তালি।) 
जब उस उन्मुक्त झरने का स्वप्न भंग हो जाता है, तो वह उन्मुक्त झरने की तरह हँसते -खिलखिलाते अपने छोटे छोटे स्वार्थ और लालच को त्याग करते हुए, सम्पूर्ण रूप से निःस्वार्थ जीवन-समुद्र के साथ एक हो जाता है, अर्थात साम्यभाव में स्थित हो जाता है। 
[और कितने आश्चर्य की बात है कि वर्ष २०१६ में बेलुड़ मठ में आयोजित गोल्डेन जुबली कैम्प का थीम भी स्वतः जल-प्रपात के स्वप्न भंग पर ही आधारित था !]  
स्वामी जी ने कहा था - "विश्व का कल्याण करना ही भारत की नियति है !" इसीलिये महामण्डल का उद्देश्य है -'भारत का कल्याण!' और केवल साम्यभाव में प्रतिष्ठित मनुष्य ही -अपने पराये का, भाषा-जाति-धर्म का भेदभाव छोड़ कर, सम्पूर्ण भारतवर्ष में घूम-घूम कर सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा, मनुष्यों की आध्यात्मिक दृष्टि खोलने की समाज-सेवा कर सकता है। स्वामी जी इसी सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा को, "शिवज्ञान से जीव सेवा" कहते हैं। इसीलिये महामण्डल के एम्ब्लम में गोलाई के बाकी बचे हिस्से को छोटे छोटे 'वज्र' अर्थात इसी प्रकार के थण्डर बोल्ट तुल्य निःस्वार्थी मनुष्य की शृंखला से सम्पुटित (एनकेप्स्युलेट-encapsulate) किया गया है। बहुत संक्षेप में कहा जाय तो,
१. महामण्डल का उद्देश्य है -भारत का कल्याण 
२.उपाय है -मनुष्य निर्माण या चरित्र निर्माण 
३.आदर्श हैं- स्वामी विवेकाननन्द
४.आदर्श-वाक्य या मोटो है - ' Be and Make ' मनुष्य बनो और बनाओ ! 
५. महामण्डल की कैम्पेन पॉलिसी, समर नीति या अभियान मन्त्र है - 'चरैवेति चरैवेति !' -आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो !
महामण्डल का ध्वज :  दादा ने 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' पुस्तक में लिखा है, " इस ध्वज के निर्मित होने के पीछे भी स्वामीजी की एक उक्ति का स्मरण हो उठता है! एक बार स्वामीजी से किसी ने प्रश्न किया था- स्वामीजी, आपने इतना कुछ किया है, किन्तु भारत की स्वाधीनता के लिये आपने क्या किया है ? स्वामीजी कहते हैं- " मैं तिन दिनों के भीतर ही भारतवर्ष को स्वाधीनता दिला सकता हूँ। किन्तु भारत में अभी चरित्रवान मनुष्य कहाँ हैं रे? उस स्वाधीनता को अक्षुण कौन रखेगा ? पहले (निःस्वार्थी) मनुष्य तैयार करो !"  
दादा आगे कहते हैं, "यह मुझे नहीं पता कि , स्वामी जी की उसी उक्ति से प्रेरणा प्राप्त करके निवेदिता ने स्वाधीन भारत के लिए, भारत के राष्ट्रीय-आदर्श के अनुरूप  पताका की रुपरेखा तैयार की थी य़ा नहीं ? " बंगाल में आविर्भूत हुए इस 'मनुष्य निर्माणकारी आंदोलन' को, भारतवर्ष के सभी राज्यों तक फैला देने के लिये एक ऐसे ध्वज की आवश्यकता महसूस हुई, जो भारत-वासियों को भारत के राष्ट्रिय आदर्श -'त्याग और सेवा' के लिए अनुप्रेरित करने में समर्थ हो। ऐसे पताका के बारे में विचार करते करते नवनी दा के मन में विचार आया कि (भगिनी) निवेदिता ने तो स्वाधीन भारत के लिये एक पताका का निर्माण किया था। और उसी गेरुआ कपड़े के बीच दधीचि के हड्डी से बने वज्र के निशान वाले पताका को हमलोगों ने महामण्डल ध्वज के रूप में ग्रहण कर लिया! इसीलिये महामण्डल का जय-घोष है : " निवेदिता वज्र हो अक्षय ! "
महामण्डल का ऐन्थम : महामण्डल का 'संघ-मन्त्र' है- " हे जना:! सं गच्छध्वम्, सं वदध्वम् !" जिसका हिन्दी भाव है- (हे मनुष्यों) मिलकर चलो । मिलकर बोलो । तुम्हारे मन एक प्रकार के विचार करें । जिस प्रकार प्राचीन देवगण (विद्वान् लोग) एकमत होकर अपना-अपना भाग ग्रहण करते थे, (उसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग ग्रहण करो) ।  हम अपने सारे निर्णय इस प्रकार एक मन हो कर ही करेंगे, क्योंकि देवता लोग एक मन रहने के कारण ही असुरों पर विजय प्राप्त कर सके थे । अर्थात एक मन बन जाना ही समाज-गठन का रहस्य है ......कैसा अनोखा मन्त्र है.' संजयान ' हो उठना का तात्पर्य है, 'साम्य-भाव' में जाग उठना, और एकमत (अविरोध में स्थित) हो जाना ! इस एन्थम को भी स्वामीजी ने ही ऋग्वेद से उद्धृत किया था ! जिसे महामण्डल ने अपने संघ-गीत के रूप में अपना लिया है। 
महामण्डल की अचिन्त्य-भेदाभेद दृष्टि :  में आधुनिक युग में इस वैदिक साम्यवाद को स्थापित करने प्रथम युवा नेता, 'अवतार वरिष्ठ'  श्रीरामकृष्ण परमहंस हैं। वे आधुनिक युग के वैसे पहले जन-नेता हैं, जो मानव-मात्र को, सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। उनके जीवन में सम्पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है, इसी लिये वे समस्त मानव-जाति, समस्त जीवों, यहाँ तक की जड़ वस्तुओं के साथ भी अभिन्नता का साक्षात्कार करते हैं । उनके जीवन में प्रतिष्ठित यह पूर्ण साम्य -पोलिटिकल पार्टीज के द्वारा मंच पर खड़े होकर, भाषण में कहने वाला साम्य नहीं है, अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतार कर दिखा दिया है। (देवघर का उदाहरण, दो माँझी के झगड़े का उदाहरण, दूब पर चलने से छाती लाल) उन्होंने जन-साधारण के, दीन-दुःखीयों के दारुण दुःख से द्रवित होकर -जनसाधारण की मुक्ति के लिए प्रयास किया है, उन्हें संगठित करने की चेष्टा की है।

इसीलिये महामण्डल भी किसी प्रकार के संकीर्ण-मतवाद या धार्मिक कट्टरता का पक्षधर नहीं है। क्योंकि, स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस  कहते थे - " जितने मत उतने पथ'! संसार के सारे धर्म उसी एक अल्ला-ईश्वर या गॉड तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हैं ! जिसको जो मार्ग अच्छा लगता है, वह उसी मार्ग से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। जैसे एक तालाब के चार घाट से पानी लेकर अपनी अपनी रूचि के अनुसार कोई वाटर कोई एक्वा, कोई पानी या कोई जल भी कह सकता है।" 

स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं कहा था कि -' मुझे ही देख लो, मैं मुसलमानों के प्रति कोई घृणा नहीं रखता, क्रिश्चियन लोगों से भी कोई घृणा नहीं करता, मैं तो सबों को ग्रहण करता हूँ ! कहो तो क्यों ? क्योंकि मैंने श्रीरामकृष्ण देव के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त की है। ' 

इसीलिये 'रामकृष्ण- विवेकानन्द अविरोध वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा'  'BE AND MAKE' लीडरशिप ट्रेनिंग प्राप्त स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -'मेरे पास जो कोई भी आयेगा, मैं उसके धर्म को लेकर कोई भेद-भाव नहीं रखूँगा। चाहे वह हिन्दू, हो मुसलमान हो, या पारसी हो, क्रिश्चियन हो, जैन हो, बौद्ध हो या सिक्ख हो - मैं किसी भी धर्म के प्रति विद्वेष का भाव नहीं रखता।" स्वामी जी केवल इतना ही कह कर नहीं रुकते, वे आगे कहते हैं, " मॉर्डर्न साइंटिफिक एज में कुछ लोग बिना प्रयोगशाला में परखे अज्ञात ईश्वर में विश्वास नहीं भी कर सकते हैं; इसीलिये  " यदि तुम ईश्वर में विश्वास नहीं भी रखते हो, तब भी तुम मेरे सन्देशों को सुन सकते हो ! तुम बौद्ध हो, क्रिश्चियन हो कि मुसलमान हो -जो भी हो वही रहो, वही होने के बाद भी मैं तुम सबों को ग्रहण करूँगा। केवल इतना ही नहीं यदि तुम किसी भी धर्म में विश्वास नहीं रखते हो, तब भी मेरे हृदय में तुम्हारे लिए स्थान है !" 

सुनने से कौतुहल होता है, कि किसी व्यक्ति का ह्रदय इतना विशाल कैसे हो जाता है ? - वह कौन सी वस्तु है जो सभी मनुष्यों को अपना मानकर स्वीकार कर लेती है, किसी को पराया नहीं समझती ?' जो वस्तु सबों को अपना मानकर ग्रहण कर सकती हो, उसी का नाम है, 'अचिन्त्य-भेदाभेद' वेदान्त ! वह वेदान्त क्या है ?श्री रामकृष्ण के शब्दों में -'दया नय-शिवज्ञाने जीब सेबा। 'और स्वामी जी के शब्दों में -" एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है ? " ( ८/३४)
इसीलिये स्वामी जी ने मद्रास के हिन्दुओं को लिखित एक पत्र में कहा था - " वेदान्त -केसरी गर्जना करे, सियार अपने बिलों में छिप जायेंगे !" 

'लेट दी लायन ऑफ़ वेदान्ता रोर, ऐंड दी फॉक्सेज विल फ्लाई टू देयर होल्स!'
-उच्च भावों को सब ओर बिखेर दो, और फल अपने आप होता रहेगा। आत्मा की शक्ति का विकास करो, और सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो,और (भारत को विश्वगुरु बनने के लिये) जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी। अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (निःस्वार्थपरता) को प्रकट करो, सारे भारत के विस्तृत क्षेत्र में उसे ढाल दो, इतना होने से ही भारत के लिये जो कुछ कल्याणकारी है, वह सब कुछ उसके चारो ओर समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा। ९/३८०
अतः जो मनुष्य स्वामी विवेकानन्द (या नवनीदा) का क्रमानुयायी, या महामण्डल के चरित्रनिर्माण आंदोलन के भावी नेता, वुडबी लीडर्स" बनना चाहता हो, उसे अपने जीवन-दीपक को प्रज्वलित करके दूसरों के जीवन-दीप को भी प्रज्वलित करा देने का प्रयत्न करना होगा। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- ' चरैवेति चरैवेति '-चलते रहना ही जीवन है, और थम जाना ही मृत्यु है।' फिर कहते हैं- ' उठो, जागो ! अब और स्वप्न मत देखो ! '
यही है स्वामीजी का जीवन-प्रद मन्त्र, जो जड़-पिण्डों (मुर्दों) में भी जान डाल सकता है। युवाओं का आह्वान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ' तुम्हें भी अपने जीवन में ' क्षात्र-वीर्य और ब्रह-तेज ' इन दो आपात परस्पर विरोधी भावों का समावेश करके, संसार में नये युग की शुरुआत करनी होगी। भविष्य के गौरवशाली भारत के निर्माण का प्रारम्भ तभी होगा, जब हमारे देश के युवाओं के जीवन में ' क्षात्रवीर्य ' और' ब्रह्मतेज ' (जोश और होश ) साथा-साथ एवं एक सामान आभा बिखेरेंगे।
स्वामीजी ने कहा था- ' भारत झोपड़ियों में वास करता है। ' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को महान बनाने के लिये यहाँ की साधारण जनता को महान भावों से अनुप्राणित करना होगा। इस महा-जागरण की वाणी को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा।
और हमारे युवाओं के समक्ष, (भारत के भावी मार्गदर्शक नेताओं के समक्ष), यही सबसे बड़ी चुनौती, और सबसे ज्यादा कठिन चुनौती भी है। क्योंकि इस चुनौती के लिए उद्यम करने से प्राप्त होने वाला -'जय या पराजय' ही हमारे भविष्य का स्वरूप निश्चित करेगा। इसका सारा उत्तरदायित्व युवाओं के कन्धों पर ही है। वे चाहें तो, अपने को तथा अपनी प्यारी मातृभूमि को संकट में डालने का जोखिम उठा कर ही , इस चुनौती को अनदेखा कर सकते हैं।
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शनिवार, 10 दिसंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [9] " विवेकानन्द की विचारधारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय "

'विवेकज-आनन्द' का अधिकार प्राप्त कर लेने से जीवन सार्थक हो जाता  है !"
स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेना बहुत कठिन है। किसी एक व्याख्यान को सुनकर, भले ही उसमें कितना भी ज्ञानवर्धक विश्लेषण क्यों न हो, स्वामीजी की विचारधारा के समस्त पहलुओं के विषय में सम्पूर्ण अवधारणा नहीं हो सकती। इसके लिये नियमित रूप से 'विवेकानन्द साहित्य ' को पढ़ने और समझने की चेष्टा करने के साथ साथ उन्हें आचरण में उतारने का अभ्यास करना भी बहुत आवश्यक है।
स्वामीजी के पास या तो इतना अवसर नहीं था, या उन्होंने इसकी कोई आवश्यकता महसूस नहीं की होगी कि एक ही स्थान पर बैठकर समस्त विषयों के उपर कुछ लिख पाते। किन्तु व्याख्यान देने के क्रम में, या पत्राचार करते समय, अथवा गुरु-शिष्य संवाद, वार्तालाप आदि के क्रम में उन्होंने समस्त गूढ़ विषयों के बिल्कुल जड़ में पहुंचकर, बहुत सुन्दर तरीके से और अत्यन्त स्पष्ट में रूप समझा दिया है। दूसरे  विचारकों के द्वारा लिखित कई पुस्तकों को पढने से उन विषयों की स्पष्ट धारणा तो नहीं हो पाती, उल्टे हम लोग कई बार और अधिक दिगभ्रमित हो जाते हैं। किन्तु स्वामीजी के साथ परिचय क्रमशः बढ़ते जाने के साथ-साथ समस्त प्रकार की भ्रम और भ्रान्तियाँ दूर होती जाती हैं, और प्रत्येक विषय के आधारभूत तथ्य को जानकर, हम अपने मन में उन विषयों की स्पष्ट धारणा भी बना सकते हैं । तथा हम यदि प्रयत्न करें, जो हमें अवश्य करना भी चाहिये, तो उस धारणा को हम अपने आचरण में उतार भी सकते हैं।
हमें इस बात को अवश्य समझ लेना चाहिये कि कोई भी विद्या या ज्ञान, चाहे वह कितना भी महान या सुन्दर क्यों नहो, यदि उसे कार्यरूप नहीं दिया जा सके तो उसका कोई मूल्य नहीं है। किसी भी ज्ञान, विद्या या सिद्धान्त का मूल्य उसका जीवन में प्रयोग करने और अच्छा फल प्राप्त करने के ऊपर निर्भर करता है। इस तरह के विचार को ही अनुभवजन्य (empirical) या प्रैग्मेटिक (Pragmatic) या प्रायौगिक कहा जाता है। प्रैग्मटिज़म, यथार्थवाद या व्यावहारिकता को तो एक दार्शनिक मतवाद के रूप में स्वीकार भी किया गया है।किन्तु आजकल गहराई से सोच-विचार किये बिना ही किसी भी व्यक्ति के लिये 'आदर्शवादी' (idealist),जैसे कुछ शब्दों का प्रयोग किया जाता है। 
सही अर्थ को समझे बिना ही किसी शब्द का व्यवहार करने की आदत बन जाने के कारण, कई बार विवेकानन्द के विषय में भी कह दिया जाता है कि वे एक आदर्शवादी अथवा  कल्पना-लोक में विचरण करने वाले मनुष्य थे। किन्तु विवेकानन्द को कल्पनालोक या भावराज्य का मनुष्य, हमलोग तभी कह सकते हैं जब हमारे समझ में यह आ जाय; कि जिसको हमलोग 'भौतिक जगत' कहते हैं, जिसे हमलोग जीवन की वास्तविकता या व्यावहारिक पक्ष (Practical Side) समझते हैं,जीवन के वैसे समस्त कर्म-क्षेत्र तथा यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड भी केवल केवल एक मनःकल्पित वस्तु या भाव-राशी ही है ! और स्पष्ट विचारण-प्रक्रिया (श्रवण-मनन-निदिध्यासन) ही सबसे मूल्यवान वस्तु है।
स्वामी विवेकानन्द जी के मतानुसार, वैसा ज्ञान अथवा कोई सिद्धान्त जो हमारे वास्तविक या व्यावहारिक जीवन के लिये उपयोगी न हो, या उस ज्ञान का प्रयोग करने से कोई शुभ फल भी प्राप्त नहीं होता हो, तो वैसी विद्या या सिद्धान्त का मूल्य कुछ भी नहीं है। अतः हमलोग यह निश्चित रूप से समझ सकते हैं कि स्वामीजी की सम्पूर्ण विचारधारा ही पॉजिटिव या व्यावहारिक विचारधारा है, जिसका प्रयोग हमलोग केवल अपने वास्तविक जीवन या व्यावहारिक जीवन में ही कर सकते हैं। यदि हमलोगों के पास सत्यान्वेषी दृष्टि हो, तो हमलोगों यह समझ पाएंगे कि, स्वामीजी के जैसा व्यावहारिक और सकारात्मक सोच रखने वाले मनुष्य वास्तव में बहुत कम ही पैदा हुए हैं।  किन्तु उनसे स्वयं परिचित हुए बिना, केवल दूसरों के मुख से सुन कर , यदि हमलोग भी यह कहने लगें कि स्वामीजी तो एक आदर्शवादी व्यक्ति थे (व्यावहारिक नहीं थे ?), और हर समय वे कल्पनालोक में ही विचरण करते रहते थे। तो इस कथन के द्वारा हम अपनी अज्ञानता का ही परिचय देंगे। 
क्योंकि स्वामीजी ने तो हमलोगों को बिल्कुल व्यावहारिकता या सत्य की कठोर बुनियाद पर खड़े हो जाने का उपदेश दिया है; यहाँ तक कि अपने पैरों पर खड़े होने का निर्देश दिया है। उनका उपदेश था- " अपने पैरों को यथार्थ के धरातल पर स्थापित कर लो , और जो अभी तुमसे निचले सोपान पर खड़े हैं, उन्हें अपने हाथों का सहारा देकर उपर खीँच लो ! " अतः इस बात में थोड़ा में भी सन्देह नहीं रहना चाहिये कि स्वामीजी उपयोग-बुद्धि या व्यावहारिक-बुद्धि से सम्पन्न महापुरुष थे। 
इसीलिये, जो लोग अपने को व्यावहारिक बुद्धि सम्पन्न मनुष्य या एक टेक्नोक्रेटिक व्यक्ति (या Technocracy में विश्वास रखने वाले) समझते हैं, स्वामी विवेकानन्द से प्रत्यक्ष संपर्क में आने के बाद-
वास्तव में वैसे ही लोग सर्वाधिक लाभान्वित भी हो सकते हैं। किन्तु उनके बारे में 'अमुक' व्यक्ति ने क्या कहा है, 'तमुक' व्यक्ति ने क्या कहा है... ?  इन सब के ऊपर चर्चा करके स्वामीजी के साथ परिचय प्राप्त करने की चेष्टा करना- ' दूसरों के मुख से मिर्ची खाना ' जैसा कभी संभव नहीं होगा। हमलोगों को उनके विचारों को स्वयं समझने तथा उन्हें अपने आचरण में उतारने की चेष्टा करके स्वामीजी के साथ प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करना होगा। 
स्वामीजी ने स्वयं जो कुछ कहा है या लिखा है, उसके अविकृत (undistorted) अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ कर, उसके उपर गहन चिन्तन-मनन करने से ही हमलोग उनका सही परिचय प्राप्त कर सकते हैं। और उनकी विचारधारा को समझने के लिये, ऐसा करना नितान्त आवश्यक भी है। स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है। किन्तु लोग उनको एक महान देशप्रेमी के नाम से भी जानते हैं। हाँ, कुछ लोग इसी विषय को लेकर उनकी निन्दा भी किया करते हैं। परन्तु स्वामीजी का देश-प्रेम वास्तव में अतुलनीय था। वे कहते हैं, चाहे वे भारत में हों या अमेरिका में उनके लिये सारे देश एक समान हैं। सही मायने में स्वामीजी सम्पूर्ण मनुष्य-जाति को ही अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करने में समर्थ थे। किन्तु इतना होने पर भी, जब पहली बार विदेश से वापस लौटे, तब उन्होंने कहा था- भारतवर्ष का प्रत्येक धूलि-कण मेरे लिये और भी अधिक महान हो गया है, भारत मुझको अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय प्रतीत हो रहा है। उन्होंने ऐसा क्यों कहा होगा ? इस बात पर बोलने से -कभी अन्त नहीं होगा। 
जिस विचार-धारा [रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त (परमहंस) परम्परा] में प्रशिक्षित होने पर किसी व्यक्ति को ऐसी उपलब्धी हो जाती है, वैसे व्यक्ति हमारे अपने व्यक्ति-जीवन के लिये,तथा समस्त मानव जाति के लिये अत्यन्त मूल्यवान होते हैं। इतना स्वादिष्ट, ऐसा पौष्टिक इतना सर्वजन-हितकारी विचार एक साथ अन्य किसी व्यक्ति से मिल सकता होगा या नहीं, यह बात हम नहीं जानते। अन्य कई लोगों ने भी, अनेकों अच्छी बातें अवश्य कही हैं, किन्तु यदि किसी व्यक्ति के मुख से उसके सम्पूर्ण जीवन में, जो भी बात निकली है, वे केवल मनुष्य के कल्याण के लिए हो, ऐसा कोई दूसरा उदाहरण (स्वामी जी के आलावा) दिखाई नहीं देता (नवनी दा ?) है।
स्वामी विवेकानन्द सभी मनुष्यों के कल्याण के विचारों से भरे, एक ऐसा अक्षय भण्डार हैं, जो अतुलनीय है। इसलिये वे अनुपम हैं और उनका व्यक्तित्व अचम्भित कर देने वाला है, इसीलिये वे हमारे श्रद्धा के पात्र हैं। इसीलिये हमें उनको अपना आदर्श मान कर ग्रहण करना चाहिए। 

सम्पूर्ण मानव-जाति के सार्वभौमिक कल्याण के लिये स्वामीजी ने कई विषयों पर अपने विचार विभिन्न प्रकार से व्यक्त किये हैं। किन्तु उन्होंने जो कुछ कहा है, उसके भीतर सबों को जोड़ने वाली एक अद्भुत कड़ी, दिखाई देती है, एक प्रकार की तारतम्यता अवश्य देखि जा सकती है। जाति-प्रथा, नारी-कल्याण, शिक्षा से आरम्भ करके राष्ट्रिय-एकता, अन्तरराष्ट्रीय-एकता इत्यादि विभिन्न विषयों पर उन्होंने बहुत कुछ कहा हैं। किन्तु एक- एक मुद्दों के उपर अलग से सोच-विचार करने बाद कुछ नहीं कहा है। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -(वन हैज बिकम दी मेनी ) क्या है, यह तथ्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था।  उन्होंने जगत और जीवन के भ्रम-रहित रूप का या इसके सच्चे स्वरुप का साक्षात् दर्शन किया था। क्योंकि वे विवेकज-ज्ञान के अधिकारी थे, और उसी अधिकार के बल पर वे ऐसा कर सके थे।

अतः हमलोगों को पहले ही यह समझ लेना होगा, कि अविवेकी की तरह अनुसन्धान करके हमलोग स्वामीजी का परिचय नहीं प्राप्त कर सकते हैं।
उनका तो नाम ही था -' विवेकानन्द !', उन्होंने आनन्द के अधिकार को विवेक-प्रयोग के द्वारा प्राप्त किया था। हमलोग भी ज्ञान पाना चाहते हैं, आनन्द पाना चाहते हैं, सभी प्रकार के दुःखों से अत्यन्तिक निवृत्ति पाना चाहते हैं। किन्तु हमलोग विवेक का प्रयोग नहीं करते। विवेक क्या है, तथा इसका व्यव्हार जीवन में किस प्रकार किया जाता है, इसको सीख लेने से ही हमलोग अपने समस्त दुःखों के कारण को ही नष्ट कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर क्या उपाय है ? उपाय है विवेक -सदसत विचार। इस विवेक ज्ञान को दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस संयम का उपदेश दीया गया है-
- क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ।।52।।  
 क्षण का अर्थ है, काल का सूक्ष्तम अंश। एक क्षण के पहले जो क्षण बीत चूका है, और उसके बाद क्षण प्रकट होगा- इस लगातार सिलसिले को ' क्रम ' कहते हैं। अतः उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिये क्षण और उसके क्रम में संयम करना होगा। क्षणतत्क्रमयोः – क्षण और उसके क्रम में, संयमात् – संयम करने से, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान उत्पन्न होता है। (विवेकानन्द साहित्य खण्ड 1/80)]
विवेक का अर्थ है- सद-असद विचार, कौन शाश्वत है और कौन नश्वर है-इसका परिक्षण करके अच्छे-बुरे का निर्णय करना। [ सत्य (निरपेक्ष -सत्य = ब्रह्म-आत्मा-अविनाशी-अपरिवर्तन शील=अव्यक्त शक्ति),
असत्य और मिथ्या (सापेक्षिक सत्य = शरीर-मन-आकाश-प्राण -परिवर्तनशील) के अन्तर को समझने की चेष्टा)  इसी को सरल भाषा में या प्रचलित भाषा में शुभ-अशुभ या भला-बुरा में अन्तर करना भी कह सकते हैं।
किन्तु अच्छे और बुरे का निर्णय करने के समय अक्सर हमलोग भ्रम में पड़ जाते हैं। क्योंकि हमलोगों की प्रकृति या इन्द्रियों को जो अच्छा प्रतीत होता है, हमलोग उसी को अपने लिए भी अच्छा मान कर ग्रहण करते हैं, और इन्द्रियों को जो अच्छा नहीं लगता, उसको खराब समझते हैं, और उसे त्याग देना चाहते हैं। मिठाई यदि मुख में जाता है तो अच्छा कहते हैं, किन्तु तीखा नहीं खाना चाहते हैं। विवेकानन्द के नाम का तात्पर्य को याद रखते हुए विवेक-प्रयोग करके स्वामीजी को जानने के लिये उन्हीँ के उपर मनोनिवेश करने का अभ्यास करना होगा। विवेकज-ज्ञान किसे कहते हैं? पातंजलि योगसूत्र  विभुतिपाद में कहा गया है- 

तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।।54।। 
   तारकम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है, सर्वविषयम् – सबको जानने वाला है,  सर्वथाविषयम् – सब प्रकार से जानने वाला है, च – एवं, अक्रमम् – बिना क्रम के,  वह, विवेकजम् – विवेकजनित, ज्ञानम् – ज्ञान है।इस ज्ञान का नाम तारक-ज्ञान  इसीलिये है कि यह योगी को जन्म-मृत्यु के सागर से तारण करता है। समस्त  प्रकृति (वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति दोनों) की सूक्ष्म और स्थूल सर्वविध अवस्थाएँ इस ज्ञान की ग्राह्य हैं। इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है।
'विवेकज-ज्ञान ' ऐसा ज्ञान है- जो हमें समस्त विषयों, समस्त अवस्थाओं, समस्याओं से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। जो भूत, भविष्य और वर्तमान समस्त अवस्थाओं का ज्ञान हो उसे - ' अक्रमम ' बिना क्रम में गये, अर्थात एक ही क्षण में परिपूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया जाय -वही है विवेकज ज्ञान। जैसे किसी कमरे में हजार वर्ष से अँधेरा हो तो माचिस जलाने पर अँधेरा धीरे-धीरे नहीं जाता है,(बिना क्रम में गये ) एक ही बार में चला जाता है। जैसे साधारण ढंग से ज्ञान अर्जन के क्षेत्र में होता है, एक के बाद एक करके नहीं जानना पड़ता है।
अर्थात उसी ज्ञान को जान लेने की ज्वलन्त इच्छा लेकर, पूरी श्रद्धा रखते हुए स्वामीजी के सन्देशों को पढ़ना होगा, उसपर गहन चिन्तन करना होगा और जीवन में प्रयोग करना होगा। आम तौर से जो भी ज्ञान हमलोग प्राप्त करते हैं, उसे हम केवल अपनी बुद्धि का प्रयोग करके प्राप्त करते हैं। उस लौकिक ज्ञान या बौद्धिक ज्ञान के द्वारा किसी वस्तु या विषय की जितनी जानकारी मिलती है, वह क्षणिक और सामयिक होती है, अतः वह बौद्धिक जानकारी  सापेक्षिक और परिवर्तनशील होती है। 
ज्ञाता और ज्ञेय वस्तुओं के बीच एक आकाशीय और तात्क्षणिक [স্থানিক ও তাৎক্ষণিক, स्पेस ऐंड  इन्स्टन्टैनीअस-टाइम] प्रभावोत्पादक-सम्बन्ध स्थापित करने की घटना से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा जगत के या मनुष्य-जीवन की निपट समस्या (मृत्युभय) के मूल कारण का परिचय नहीं मिलता। जिस दृष्टि में, जिस सत्यानुसन्धान की प्रक्रिया में, मात्र एक क्षण में समग्र जगत, समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड भास उठता है, उसी ज्ञानप्रसूत समस्या का स्वरुप और समाधान-सूत्र हमलोग एक साथ स्वामीजी से प्राप्त करते हैं। 
इसीलिये निश्चित रूप से विवेकानन्द एक भविष्यद्रष्टा भी हैं। उन्होंने अपनी वैश्विक दृष्टिकोण के आधार पर ही भविष्य के मार्ग का संकेत दिया था। उन्होंने सब कुछ को (ज्ञाता-ज्ञेय और ज्ञान को) एक साथ देखने के बाद उसी सत्य को टुकड़ों टुकड़ों में करके जो कुछ कहा था,उनके उन्हीं संदेशों के द्वारा हमलोग विभिन्न प्रकार के विषयों जान पाते हैं, और इसीलिये हमें उनकी बातें इतनी मूल्यवान लगती हैं। जिस प्रकार गीता में श्रीकृष्ण ने कहा था -
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
                 विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।।गीता: 10: 42।। 
' अथवा हे अर्जुन ! तुम अनेक को जानने की चेष्टा कर रहे हो। -यह क्या है, वह क्या है- इस प्रकार अलग अलग रूप से जानने की क्या आवश्यकता है! केवल इतना ही जान लो की मेरे एक ही अंश में यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड अवस्थित है।
और स्वामीजी की विचार-धारा का वैशिष्ट भी यही है। उनके समस्त संदेशों के भीतर जो मूल बात है, वह है मनुष्य को मनुष्य के रूप में गढ़ लेना। वे कहते हैं, तुमलोग समाज का पुनर्गठन करो, समाज का नवीकरण करो, समाज की सेवा करो। तुम लोग राजनीती का उपयोग करो, विज्ञान का, आर्थिकनीति को उपयोग में लाओ -इन सभी चीजों की आवश्यकता है। किन्तु इतना समझ लो कि इन समस्त क्षेत्रों के जो भी विविध योजनायें है, वे सभी मनुष्यों के कल्याण के लिए ही हैं। इसलिये यदि तुम मनुष्य को ही पूर्ण मनुष्य के रूप में नहीं गढ़ सको, उसकी अन्तर्निहित सत्ता को यदि सम्पूर्ण विकसित और प्रकाशित (अभिव्यक्त) नहीं करा सको, तो वैसे विज्ञान,प्रयोद्द्गिकी, अर्थशास्त्र, समाज-विज्ञान, राजनीति, इतिहास, दर्शन - ये सभी किसी काम के न होंगे। यदि इस इस मूल को तुम जान लो, तो बाकी सब कुछ को जान लोगे। यही है सच्चा ज्ञान।
 श्रीरामकृष्ण जैसा कहते थे, " एक को जानने का नाम है ज्ञान, और बहुत को जानने का नाम है अज्ञान।" हमलोगों की आकांक्षा यह होनी चाहिये कि हम सबकुछ को जान लेंगे, नहीं तो मूल सत्य हृदयंगम नहीं होगा। स्वामीजी के अनुसार इसी सब कुछ को जान लेने का अर्थ है- मनुष्य के (अपने) सच्चे स्वरूप को जान लेना एवं उसी ज्ञान की बुनियाद पर उससे संलग्न बाह्य विषयों को उचित रूप से अपने लिये उपयोगी बना लेना। स्वामीजी ने मनुष्य के स्वरुप का अन्वेषण करके, उसकी वास्तविक सत्ता का विकास और अभिव्यक्त करने की साधना को ही प्राथमिक कार्य कहकर, उन्होंने इसी कार्य को करने पर बार बार जोर दिया है। 
सार्वभौमिक-कल्याण के महान तत्व (वसुधैव कुटुम्बकम) का अविष्कार पृथ्वी पर सर्वप्रथम भारतवर्ष में ही हुआ था, इसीलिये विदेश से वापस लौट आने के बाद स्वामीजी भारत के प्रत्येक धूल-कणों को पहले से भी अधिक पवित्र कहकर और अधिक प्रेम किये थे। वे यह देख पाने में समर्थ थे, कि भारत का कल्याण (अर्थात समस्त जगत का कल्याण) करने के उद्देश्य से, जिस मौलिक तत्व (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म हैं-'एकं सत्य ' विप्रा: बहुधा वदन्ति ) को जानने की आवश्यकता होती है, उसका आविष्कार हजारों वर्ष पूर्व भारतवर्ष में ही यहाँ के ऋषि-मुनियों ने अपने मनन-लोक में, प्रत्यक्ष आत्मानुभूति के लोक में अकस्मात
कर लिया था। तथा उन्होंने यह भी समझ लिया था कि यदि हृदय के आलोक में उद्भासित, उस महान तत्व को, भारतवर्ष समग्र विश्व के मनुष्यों तक वहन करके पहुँचा सके, केवल तभी जगत का यथार्थ कल्याण संभव होगा
स्वामीजी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों, समस्त मानव-जाति को ही अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते थे, इसीलिये वे भारत वासियों से, विशेष कर युवाओं से यह अपेक्षा रखते थे कि हमलोग उस तत्व को जानने और अभिव्यक्त करने की साधना करेंगे, और स्वयं उसकी अनुभूति प्राप्त करके, एक दिन सम्पूर्ण विश्व में उस ज्ञानालोक को फैला देंगे ! और अपनी ऋषि दृष्टि से मानवजाति के उन भावी मार्गदर्शक नेताओं को भारत-भूमि से बाहर निकल कर सम्पूर्ण विश्व में 'BE AND MAKE' के आदर्श का प्रचार करता हुआ देखने से -  भारत की धरती उनके नेत्रों के समक्ष एक पुण्यभूमि के रूप में प्रकट हो गयी थी। और इसीलिये जो तात्विक-ज्ञान (वेदान्त के महावाक्य) प्राचीन युग में हमलोगों के लिये जटिल भाषा में लिपिबद्ध था, जो अरण्यों, पर्वत की कन्दराओं में छुपा हुआ था, जिसे केवल साधू-महात्माओं के चर्चा का विषय समझा जाता था, उसी महान तत्व को स्वामीजी ने हमलोगों के निकट, भारत के अपने क्रमानुयायीओं के निकट अति सरल भाषा में प्रस्तुत कर दिया था। 
स्वामीजी ने अपने भावी संतानों से यह अपेक्षा की थी, कि उनकी भावी पीढ़ी उपनिषदों में वर्णित उसी महान तत्व को अरण्यों से निकालकर जनारण्य तक ले जाएगी। उस तत्व को जंगल-झाड़, पर्वत-पहाड़ से निकाल कर साधारण मनुष्यों तक, किसानों के झोपड़ियों तक, हाट-बाजार में, खेतों में, मैदानों में, कल-कारखानों में सर्वत्र प्रचारित और प्रसारित कर देगी। और तब किसानों के हल से, कारखाने के श्रमिकों से, एक नया महान तेजस्वी भारत-एक महाशक्ति के रूप में, उठ खड़ा होगा।
वह तत्व क्या है ? हम सभी लोगों के भीतर अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, एक अनन्त प्रेम का महासागर, प्रेम-सिन्धु ठांठे मार रहा है। उसे जानना होगा, उस सर्वग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना होगा। हमलोग दीनहीन नहीं हैं, हमलोग बहुत शक्तिशाली हैं, हमारा अमित प्रताप है। हमलोग मोह-वश, महाभ्रम के कारण अपने को असहाय मरण-धर्मा शरीर मात्र (भेड़) समझ लिये हैं। इस असहनीय हीन भावना (Inferiority complex) के कारण ही हमलोगों ने स्वयं को अपने विराट स्वरुप से गिराकर एक छोटा-मनुष्य,एक पशु-मानव में परिणत कर लिया है।  जिस मनुष्य ने भ्रम के कारण, अज्ञान के कारण अपने को संकुचित कर लिया है, उसे एक बार पुनः बिराट स्वरुप (सिंह-स्वरुप ) में प्रतिष्ठित करा देना होगा। उसको ज्ञान आलोक से शक्ति-सम्पन्न करना होगा, और उसके जीवन को प्रेम-सिन्धु के रूप में गठित करना होगा। 
स्वामीजी के द्वारा कथित उस विख्यात उपदेशसे हम सभी अवगत हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म-भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।कर्म,उपासना,मनः संयम या ज्ञान, इनमें से एक, या एक से अधिक उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह-भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, अथवा अन्य बाह्य कर्म-काण्ड तो उसके गौण संकेत मात्र हैं। " 
वे कह रहे हैं, कि हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्मवस्तु हैं, और हमलोगों का लक्ष्य - अपनी प्रकृति को नियंत्रित करके, उसके उपर विजय प्राप्त करके,उस ब्रह्मवस्तु को अभिव्यक्त कर लेना है। इसके लिये हमें अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। और हमलोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को, कर्म के द्वारा, मन को वशीभूत करने की साधना के द्वारा,  संयम के द्वारा, ज्ञान की चर्चा के द्वारा, सत्यानृत या सदसत विवेक-विचार द्वारा, तथा समस्त मनुष्यों की स्वार्थहीन सेवा में आत्मबलिदान के द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं।
आधुनिक मनुष्य, विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति के उपर जितना अधिक नियंत्रण प्राप्त करता जा रहा है, उसी अनुपात में वह अन्तःप्रकृति के सामने मानो अपनी पराजय भी स्वीकार करता जा रहा है। मनुष्य की इस कंगाली (indigence) का चित्र स्वामीजी के मानस-चक्षुओं के समक्ष स्पष्ट रूप से उभर आया था, इसीलिये उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमने बाह्य प्रकृति को जीत लिया  है , इसीलिये विज्ञान की बड़ाई करते नहीं अघाते, किन्तु तुम्हारी अन्तःप्रकृति तुम्हारे साथ बिलियर्ड के बॉल के जैसा (ricochet) ठोकर-पर-ठोकर मारने का खेल, खेल रही है, और तुम्हारी महा-मूल्यवान परिसम्पत्ति रास्ते की धूल में यहाँ-वहाँ गच्चे खा रही है। ऐसी बेमिसाल, अनुपम वैभवशाली मूर्ति (देव-दुर्लभ मानव शरीर) वृत्तियों में उलझकर, धूल-कीचड़ से सन कर, उपेक्षित होकर, मुरझाती जा रही है ! ऐसा होते रहने नहीं दिया जा सकता है। तुमलोग आन्तरिक प्रकृति को जीत लो, वशीभूत करो, आन्तरिक शक्ति के उपर अधिकार प्राप्त करके, बाह्य जीवन में प्रकट करो। स्वयं को मोह-निद्रा से जाग्रत करो और आन्तरिक उर्जा से परिपूर्ण हो जाओ। किन्तु उस शक्ति का घमण्ड मत करना। शक्तिवान होकर, स्वयं को सबों की पूजा में, सबों की सेवा में, सबों के भीतर छूपी उसी शक्ति को जाग्रत करने के कार्य में, समर्पित कर दो। अपनी इन्द्रियों के सुख-भोग में निमग्न रहने से, भौतिक-सम्पदा को अधिकाधिक बढ़ाते जाने से, या नाम-यश स्वार्थपरता की छोटे से दायरे बंधा जीवन जीने से-वह शक्ति जाग्रत नहीं हो सकती; ऐसे जीवन को जीते रहने वाला मनुष्य अन्तः प्रकृति का (इन्द्रियों का) गुलाम बन जाता है।
 स्वामीजी कहते हैं, 'सचमुच में वही जीवित रहता है, जो दूसरों के लिये जीता है-बाकी लोगों का जीवन तो मृतक से भी अधम है।' उनके इसी सन्देश में -शक्तिमान मनुष्य (नेता) बनने का आदर्श,  सूत्र-रूप से सन्निहित है- जो हमें 'अपने पैरोंको जमीन पर जमा कर, दूसरों को अपने हाथों का सहारा देकर उपर उठा लेने में समर्थ' मनुष्य बन जाने के लिये अनुप्रेरित करता रहता है। स्वामीजी ने इसी आदर्श को हमारे समक्ष रखा है। यदि हमलोग यथार्थ मनुष्य के रूप में जीना चाहते हैं, तो हमें दूसरों के लिये जीना सीखना पड़ेगा। हम सभी भारतवासी परस्पर एक दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बांध लेंगे, एक दूसरे को उपर उठाने का प्रयास करेंगे, आपस में सहयोग का भाव रखेंगे। स्वार्थ-शून्य, सेवापरायण, प्रेमी मनुष्य ही शक्तिमान होता है, और देखने में भी सर्वांग-सुन्दर मनुष्य प्रतीत होता है। उसीके जीवन में विकास संभव है, कल्याणकारी नव-विप्लव और प्रगति का अग्रदूत वही बन सकता है,जो वास्तव में चरित्रवान मनुष्य है। 
इसीलिये हमलोगों को अपना चरित्र गढ़ना होगा, (हिन्दू-मुसलमान-ईसाई या ब्राह्मण-क्षत्रिय,वैश्य-शूद्र,बंगाली -बिहारी नहीं) यथार्थ 'मनुष्य' बनना होगा, महाजीवन के विवेकज आनन्द का अधिकार प्राप्त करने के महान लक्ष्य (मृत्यु के भय को सदा के लिए समाप्त करके शाश्वत जीवन) पर पहुँचने के लिये अपने जीवन को महान रूप से गठित करना होगा। जीवन की सार्थकता इसी कार्य (विवेकज ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी) मनुष्य बन जाने पर निर्भर है ! अन्य जितने  भी सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है।
स्वामीजी की विचार-धारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेने पर यह आधारभूत तथ्य या मूल सत्य प्रकटित हो जाता है। उसी सत्य को जानना होगा, समझना होगा और अपने जीवन में प्रयोग करना होगा।इसीलिये विवेक-प्रयोग की सहायता से सत्य-असत्य-मिथ्या का परिक्षण करके निष्ठा के साथ स्वामीजी के  जीवन और सन्देश की ध्यान-जन्य विवेचना, एवं उनके विचारों पर मनोनिवेश का अभ्यास करना वर्तमान युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। और इसी से चरित्र गठित होगा, तथा जगत का यथार्थ कल्याण भी संभव होगा।
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