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सोमवार, 15 मई 2017

मद्रास-अभिनन्दन का लिखित उत्तर- 'नामरहित, सीमारहित, सनातन धर्म के पक्ष में ! '

[ REPLY TO THE MADRAS ADDRESS (Volume 4) का भावानुवाद/ (वि ० सा ० ख ९-पृष्ठ ३५९ -३८१) यह लेख अत्यन्त सारगर्भित और विचारोत्तेजक है, अतः मैं इस निबन्ध में भारत के कल्याण की दृष्टि स्वामी जी द्वारा कथित समस्त बिन्दुओं को क्रमवार ढंग से सूचीबद्ध करने की चेष्टा करूँगा।  जब अमेरिका में स्वामी जी की सफलता का समाचार भारत में फैल गया तब अनेक सभाएँ की गईं और बधाई के अभिनन्दन पत्र उन्हें भेजे गये। उन्होंने अपना पहला उत्तर मद्रास के हिन्दुओं (सनातन धर्म मानने वालों) के अभिनन्दन के प्रति लिखा- सनातन धर्म के पक्ष में ! सनातन धर्म को आगे लाने का (भारत के लियेअच्छे-दिन लाने का) यही सबसे उपयुक्त समय है।  साथ ही यह ध्यान में रखना भी बेहद महत्वपूर्ण है कि इस निबन्ध को 'हिन्दू धर्म के पक्ष में' कहकर प्रचारित न किया जाए। अगर हम वाकई चाहते हैं कि पूरी दुनिया सनातन धर्म का अभ्यास (२१ जून को प्रति वर्ष योग का अभ्यास)  करे, तो यह बेहद महत्वपूर्ण है कि इसकी पहचान किसी भी पुस्तक (पातंजल योग-दर्शन ग्रन्थ,गीता -उपनिषद या ब्रह्मसूत्र ग्रन्थ आधारित धर्म ) के रूप में स्थापित नहीं होनी चाहिए। बल्कि 'चारो योग मार्गों के आचार्यों ' का निर्माण, या अवैतनिक लोक- शिक्षकों का निर्माण करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए ! 

क्योंकि यह ‘मेरा धर्म बनाम आपका धर्म’ कहकर किसी अन्य धर्म को नीचा दिखाने का मामला नहीं है। वास्तव में 'हिन्दू धर्म' कह कर कोई धर्म तो है ही नहीं ! चारो वेद, १८ पुराण, महाभारत और रामायण किसी भी सनातन या वैदिक धर्म ग्रन्थ में कहीं हिन्दू धर्म का उल्लेख नहीं मिलता है !  जब हम ‘योग’ की बात करते हैं तो हमारा मतलब उन अभ्यासों से है, जिनकी ओर सनातन धर्म के सिद्धांत(अर्थात वैदिक धर्म के षड-दर्शन इशारा करते हैं। 
जिस समय स्वामी जी ने यह निबन्ध लिखा था, उस समय भारत गुलाम था और अंग्रेज लोग हमारे सनातन धर्म का मजाक उड़ाने के लिये इसे हिन्दू धर्म कहते थे। सन्त तुलसीदास जी तो मुगल काल में हुए थे, उन्होंने भी रामायण में कहीं भी हिन्दू-धर्म ग्रन्थ नहीं कहा है ! मानव बुद्धि या समझ की प्रकृति ही खोजने की है; इसलिये सनातन धर्म निरपेक्ष सत्य पर विश्वास करना नहीं, बल्कि निर्विकल्प समाधि में पहुँचकर इन्द्रियातीत परम् सत्य का स्वयं अनुसन्धान करने की शिक्षा देता है ! लोगों के भीतर यह जिज्ञासा इसलिए खत्म होती गई, क्योंकि उन पर विश्वास या मत थोपे गए। उन्हें बताया गया ‘जो कुछ है, यही है’ और अगर आप इस पर विश्वास नहीं करेंगे तो आप जिंदा ही नहीं रह सकते। डर,अपराध-बोध और पसंद का इस्तेमाल करके मानव बुद्धि की प्राकृतिक जिज्ञासा को जबरदस्त तरीके से खत्म कर दिया गया। 
मानवता के परम कल्याण के लिए यह बेहद जरूरी है कि हरेक व्यक्ति के जीवन में जिज्ञासा का एक गहन भाव लाया जाए। यही सनातन धर्म का असली लक्ष्य है। सनातन  धर्म अगर शाश्वत है तो वह सिर्फ इसलिए, क्योंकि इसमें जो कुछ भी बताया गया है, उसे हर विचारशील मनुष्य या वैज्ञानिक सोच रखने वाला मनुष्य अपनी बुद्धि से समझ सकता है, तथा वेदों में कहे ४ महावाक्यों को स्वयं अनुभव करके देख सकता
है।
हिन्दूत्व का विचार ही अपने आप में एक विदेशी अवधारणा है, जो इस देश में कभी मौजूद ही नहीं थी। हिन्दू  शब्द इसकी भौगोलिक पहचान-सिन्धु नदी के उस पार अवस्थित देश होने के चलते सामने आया। जो टेरेरिस्ट लोग अफगानिस्तान और फारस की तरफ से भारत भूमि पर हमला करने आये थे, वे लोग 'स' शब्द का उच्चारण 'ह' कहकर करते थे। उन्होंने 'सिन्धु' को 'हिन्दू' कहा और जब अंग्रेज लोग हमारे शासक बन बैठे, 'सिन्धु नदी' को 'इंडस-रीवर' कहा और भारत को इंडिया कहने लगे। वास्तव में जो भूमि 
सिन्धु नदी के पूरब हिमालय और हिंद महासागर के बीच में पड़ती थी, वह भारतवर्ष थी उसे हिन्दुस्थान कहा गया, जो हिन्दुस्तान हो गया। इसी तरह जो इस धरती पर पैदा हुए वे हिन्दू कहलाये। हिन्दू कोई धर्म नहीं है -यह राष्ट्रीयता या भारतीयता का एक पर्यायवाची शब्द है ! जिस तरह अफ्रीका में पैदा हुआ एक हाथी अफ्रीकन हाथी है, उसी हिन्दुस्तान में पैदा हुआ एक टिड्डा भी हिन्दू-टिड्डा या हिन्दुस्तानी टिड्डा है और इसी आधार पर आप भी हिन्दू माने जाएंगे। ]
मद्रास-निवासी मित्रों, देशबंधुओ और मेरे सहधर्मियो ! 
१. अच्छे दिन - सनातन धर्म के पुनरुत्थान का समय आ चुका है : मुझे यह जानकर परम संतोष है कि अपने धर्म के प्रति मेरी नगण्य सेवा तुम्हें मान्य हुई है। मुझे यह सन्तोष इसलिए नहीं कि तुमने मेरी व्यक्तिगत या दूर विदेश में मेरे किए हुए कार्य की प्रशंसा की है; वरन् यह सन्तोष मुझे इस कारण है कि सनातन धर्म  (जिसे उस समय हिन्दू धर्म कहा जाता था) के पुनरुत्थान में तुम्हारा यह आनन्द यही स्पष्टतः सूचित करता है कि यद्यपि विदेशियों के आक्रमण की आँधी पर आँधी हतभाग्य भारतवर्ष के भक्ति-विनम्र मस्तक पर आघात करती चली गयी है, (whirlwind after whirlwind of foreign invasion) यद्यपि कई शताब्दियों के हमारे उपेक्षा-भाव और हमारे विजेताओं के तिरस्कार-भाव ने हमारे पुरातन आर्यावर्त के वैभव के प्रकाश को धुँधला कर दिया है, यद्यपि सनातन (हिन्दू) -धर्मरूप सौध के अनेक भव्य आधारस्तम्भ बहुतेरी सुन्दर कमानियाँ और बहुतेरे विचित्रतापूर्ण कोने-कोने कई सदियों तक जो देश के प्रलयमग्न करनेवाली बाढ़ें आयीं उनमें बहकर नष्ट हो गये, तथापि उसका केन्द्र सशक्त है, उसकी 
आधार-शिला सुदृढ़ है।
२. सनातन धर्म की आध्यात्मिक बुनियाद:'ईश्वर-भक्ति और सर्वभूत दया' : [सनातन धर्म  की आध्यात्मिक बुनियाद  जिस पर हिन्दू जाति खड़ी है - The spiritual foundation : 'Glory to God and charity to all beings' वह कभी विचलित नहीं हुई, वरन पीढ़ी दर पीढ़ी पूर्ववत सुदृढ़ और सबल बनी रही।] वह आध्यात्मिक भित्ति —जिस पर हिन्दू जाति की ईश्वर-भक्ति और भूतदया का अपूर्व कीर्तिस्तम्भ स्थापित हुआ है वह किंचित् भी विचलित नहीं हुई, वरन् पूर्ववत् सुदृढ़ और सबल बनी हुई है। जिस ईश्वर का सन्देश, भारत तथा समस्त संसार को पहुँचाने का सम्मान मुझ जैसे उनके अत्यन्त तुच्छ और अयोग्य सेवक को मिला है, उस ईश्वर के प्रति तुम्हारा यह आदर-भाव सचमुच अपूर्व है। 
[ जिस ईश्वर (आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार श्रीरामकृष्ण देव का सन्देश)का सन्देश, भारत तथा समस्त संसार को पहुँचाने का सम्मान मुझ जैसे उसके अत्यंत तुच्छ और अयोग्य सेवक (गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित ही नहीं चपरास प्राप्त नरेन्द्र नाथ) को मिला है, उस ईश्वर के प्रति तुम्हारा श्रद्धा-भक्ति का भाव सचमुच अपूर्व है।]
३. दी रिवार्ड ऑफ़ सेंचुरीज ऑफ़ साइलेन्ट सफरिंग : (Tidal Wave of Spirituality Destined at no Distant future),यह तुम 'दक्षिण भारतियों की जन्मजात धार्मिक प्रकृति' है, जिसके कारण तुम उस ईश्वर (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण !) में और उसके सन्देश (मान हूँष तो मानुष !) में मनुष्य-निर्माणकारी सनातन धर्म के उस प्रबल ज्वार-तरंग की प्रथम मर्मर गूँज (T- शुनामि, 'BE AND MAKE ' ब्रह्मवेत्ता मनुष्य'  बनो और बनाओ) का अनुभव कर रहे हो। जो निकट भविष्य में सारे भारत पर एक उन्मुक्त जलप्राप्त (निर्झरेर स्वप्नभंग) की तरह, अपनी सम्पूर्ण अबाध शक्ति के साथ अवश्यमेव फूट पड़ेगी।
और अपनी अनन्त शक्तिसम्पन्न बाढ़ द्वारा जो कुछ दुर्बल और सदोष बचा रह गया है, उसे दूर बहा ले जायगी।  
४.भारत के जीवित बचे रहने का ईश्वर-प्रदत्त मिशन: तथा हिन्दू जाति (वैदिक धर्म मानने वाले सनातनी भारतियों) को उठाकर विधि-नियोजित उस उच्च आसन पर बिठा देगी जहाँ उसका पहुँचना निश्चित और अनिवार्य है! और वह भारत वहाँ (विश्वगुरु या वर्ल्ड लीडर के आसन पर बैठ जाने के बाद) भूतकाल की अपेक्षा  भूतकाल की अपेक्षा और भी अधिक वैभवशाली बनेगा, शताब्दियों की नीरव कष्ट-सहिष्णुता का उपयुक्त पुरस्कार पाएगा और संसार की समस्त जातियों के मध्य अपने उद्देश्य-'आध्यात्मिक प्रकृतिसम्पन्न मनुष्यों का निर्माण' के उत्तरदायित्व —को पूर्ण करेगा।
[व्याख्या : भारत अब भूत काल की अपेक्षा और भी अधिक वैभवशाली बनेगा, क्योंकि अब ईश्वर की ओर से उसे शताब्दियों की नीरव कष्ट-सहिष्णुता (reward of centuries of silent suffering) का उपयुक्त पुरस्कार मिलने का समय आ गया है। क्योंकि हजार वर्षों की गुलामी के दौरान आतंकवादियों ने या टेरेरिस्टों ने सनातन धर्म को नष्ट करने की इच्छा से सोमनाथ ,काशी, अयोध्या, मथुरा के भव्य मन्दिरों का विध्वंश कर उसके ऊपर मस्जिद खड़े कर दिए थे। किन्तु हमारी प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा का ध्वंश नहीं कर सके ! इसीलिए विगत हजार वर्षों में भी निरन्तर गुरु-मुखी (श्रुति) ही बनी रही है ! क्योंकि हमारी मान्यता है कि वेदों की रक्षा के लिये हर युग में भगवान स्वयं गुरु के रूप में अवतरित होते हैं, और वेदों का उद्धार करते हैं। इसीलिये लार्ड मेकाले की पाश्चात्य शिक्षा पद्धति लागु कर देने के बावजूद, दक्षिण भारतीय आचार्यों - "शंकर-रामानुज मध्व" के अथक प्रयास के कारण 'गुरु-शिष्य वेदान्त श्रवण-मनन-निदिध्यासन परम्परा'  पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त होने वाली हमारी प्राचीन 'वेद- विद्या' आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है। कोई भी विदेशी आतततायी शासक लाख कोशिश करने के बावजूद भारत की आचार्य -शिष्य परम्परा को कभी बिल्कुल ध्वस्त नहीं कर सका ! 
भारतवर्ष का ईश्वर प्रदत्त-मिशन है प्राचीन वेदान्तिक साम्य भाव-“एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति ” (ऋग्वेद १/१६४/४६) का सन्देश देने में समर्थ भावी मार्गदर्शक नेता या लोक-शिक्षक उत्पन्न करते रहना, जगतगुरु श्री रामकृष्ण का मिशन है " ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य" से सम्पन्न ब्रह्मवेत्ता मनुष्यों का निर्माण करना; और
महामण्डल का मिशन है, श्री ठाकुर- माँ-स्वामीजी के आशीर्वाद से इसी उद्देश्य को क्रियान्वित कर देना !
क्योंकि पश्चिम बंगाल में आविर्भूत महामण्डल (पूज्य नवनी दा) ने ५ अभ्यासों से '3H' के विकास द्वारा 
'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्तिक साम्य-भाव में स्थित लीडरशिप ट्रेनिंग' की वैज्ञानिक पद्धति - BE AND MAKE -के रूप में दक्षिण भारत में जन्मे आचार्य शंकर की "'श्रवण-मनन-निदिध्यासन परम्परा' के प्रशिक्षण-पद्धति को  पुनरुज्जीवित कर दिया है !
महामण्डल या नवनी द्वारा आविष्कृत लीडरशिप ट्रेनिंग की पूरी प्रक्रिया आपके भीतर प्रश्नों को खड़ा करने के लिए ही है। और सबसे बड़ी बात यह आपके सवालों के- एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलिश सातवें पर्दे में छिपे सत्य को देखने के बाद क्यों अँधा हो गया था ? ददा ने कभी इसका कोई सीधा ‘रेडिमेड जवाब’ नहीं दिया, बल्कि वे मेरे भीतर इस तरह के और भी सवाल खड़े करने की गहनता लाते रहे कि- बताओ धर्म क्या है ? १००० बार पूछा मुझसे ! वे कहते थे मैंने पूछ कर नहीं सीखा -मुझे एक एक प्रश्न का उत्तर खोजने में ४० वर्ष भी लगे हैं ! तुम एक दिन खुद ब खुद इस सवाल भी जवाब का स्रोत तलाश सकोगे। 
महामण्डल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से, लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा हजारों की संख्या में आध्यात्मिक मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने में समर्थ भावी लोक-शिक्षकों (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) का निर्माण करने में समर्थ युवा -आन्दोलन विगत ५० वर्षों से चलाया जा रहा है ! भारत एक बार पुनः संसार के समस्त जातियों के मध्य में विधि द्वारा नियोजित अपने मिशन - 'आध्यात्मिक मानवता का विकास' (God gifted India's mission amongst the races of the world is the evolution of spiritual humanity) के उद्देश्य को सफलता पूर्वक कार्यान्वित करेगा ! और 
इसीलिये भारत को पुरस्कार में एक बार पुनः ईश्वर-प्रदत्त विश्व-गुरु का उच्चासन प्राप्त होगा! ]   
५. उत्तर भारतवासी दक्षिण भारतवासियों के विशेष कृतज्ञ हैं : हजारों वर्षों की गुलामी तथा लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धति लागु होने के बावजूद आज भी भारत में जो वेदान्तिक प्रेरणायें (impulses या चार-महावाक्य विविध योग-मार्ग के आचार्यों के माध्यम से) काम कर रही हैं, उनमें से अधिकांश योग मार्गों का उद्गम इसी दक्षिण भारत से हुआ है ! 
'आचार्य शंकर, रामानुज और मध्व' जैसे मानवजाति के कई मार्गदर्शक नेताओं ने इसी दक्षिण भारत में जन्म लिया था, इसलिये उत्तर भारतवासी तुम दक्षिण भारतवासियों के विशेष कृतज्ञ हैं। संसार का प्रत्येक अद्वैत-वादी आज जिस प्रकार युगप्रवर्तक आचार्य शंकर के सामने ऋणी हो मस्तक झुकाता है; उसी प्रकार वह रामानुजाचार्य का भी ऋणी है, जिनके प्रेमपूर्ण आलिंगन ने पददलित 'पैरिया' लोगों को विशिष्टाद्वैतवादी 'भक्त जाति' या 'अलवार' में रूपान्तरित कर दिया है। उत्तर भारत के एकमात्र महापुरुष श्रीकृष्ण चैतन्य, जिनका प्रभाव सारे भारत में है, उनके अनुयायियों ने भी दक्षिणभारत के महा-विभूति 'मध्वाचार्य' के लीडरशिप को ही स्वीकार किया था। ये सभी आचार्य दक्षिण भारत में ही उत्पन्न हुए।  
इस वर्तमान युग में भी काशी, तथा हिमालय के सुदूरवर्ती शिखरों पर - केदारनाथ, पशुपतिनाथ आदि सभी पवित्र मन्दिरों पर तुम्हारे त्याग का ही अधिकार है। और इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं कि तुम्हारी नसों में ऐसे सन्त महापुरुषों का रक्त प्रवाहित होने के कारण, तथा  'आचार्य शंकर, रामानुज और मध्व' जैसे आचार्यों (मानवजाति मार्गदर्शक नेताओं के) के आशीर्वाद से धन्य जीवन प्राप्त होने के कारण, भारत के अन्य प्रान्तों की अपेक्षा केवल तुम लोग ही आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार भगवान श्री रामकृष्ण के सन्देश -" ईश्वर की खोज करो, मनुष्य जीवन का यही एकमात्र उद्देश्य है। " के मर्म को समझने तथा उसे आदरपूर्वक ग्रहण करने में सर्वप्रथम अग्रसर हो पा रहे हो।
६. (वेद के चार महावाक्य) वेद-विद्या गुरुमुखी 'श्रुति': सदियों से दक्षिण भारत ही "गुरु-शिष्य परम्परा" से प्राप्त होने वाली "वैदिक विद्या " (योगमार्गों) का संग्राहक और प्रचारक (repository) रहा है! इसलिये तुम लोग मेरा यह कहना अवश्य समझ लोगे कि मूर्ख आक्रमणकारियों (टेरेरिस्टों और लार्ड मेकाले संचालित मिशनरियों की शिक्षापद्धति द्वारा वेद को 'गड़ेड़िये का गीत ' कहने के बावजूद) द्वारा पुनः पुनः उपहास उड़ाये जाने के बावजूद; आज भी केवल 'श्रुति' (वेद के चार महावाक्य) ही भारतवर्ष में जन्मे समस्त धर्म-सम्प्रदायों का मेरुदण्ड है। 
स्वामी जी कहते हैं, " वेद के संहिता और ब्राह्मण भागों की महिमा भाषा, विभिन्न प्रकार की ज्यामितिक यज्ञ-वेदियों के निर्माण और 'अग्निमीळे' या 'इषेत्वोर्जेत्वा', या ' शं नो देवीरभीष्टये' आदि वेदमन्त्रों ( ये तीन मंत्र यथाक्रम ऋक्, यजुः तथा अथर्व वेद के प्रथम श्लोक के अंश हैं।) को पढ़कर आहुतियों के संयोग से प्राप्य फलसमूह (स्वर्ग-प्राप्ति यज्ञ) चाहे जितने भी वाँछनीय क्यों न हों, पर ये सब वास्तव में भोग-मार्ग (प्रवृत्ति मार्ग) हैं ! 
इसीलिये किसी भी दक्षिण भारतीय आचार्य ने इसके द्वारा (कर्म-काण्डों को अंतिम पुरुषार्थमोक्ष-प्राप्ति का दावा नहीं किया है। इसी कारण वेदों का ज्ञानकाण्ड जो आरण्यक नामक श्रुति का श्रेष्ठ भाग है और जिसमें 'आध्यात्मिक मनुष्य निर्माण' की पद्धति द्वारा मोक्ष-मार्ग की शिक्षा दी गयी है, उसीका प्रभुत्व भारत में आज तक बना हुआ है, तथा भविष्य में भी बना रहेगा। [वेद के संहिता भाग में देवताओं के स्तुति मंत्र हैं, और
 ब्राह्मण भाग में यह दर्शाया गया है कि किस मन्त्र का प्रयोग किस यज्ञ में किस प्रकार किया जा सकता है? ( जैसे ऐतरेय ब्राह्मण का मंत्र 'चरैवेति- चरैवेति' प्रयोग "आध्यात्मिक मनुष्य निर्माण यज्ञ" में किस प्रकार प्रयोग करना चाहिये ?) किन्तु वेद के आरण्यक भाग में अरण्य में ऋषियों द्वारा आविष्कृत तत्वों (वेदान्त के महावाक्यों) का वर्णन है।उपनिषद भाग या वेदान्त का नाम आरण्यक भी है। संसार के सभी विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि वेद ही इस धरती की प्राचीनतम पुस्तक है। तथा वे वेद जिस भारतीय संस्कृति के मूल हैं, ऐतिहासिक रूप से वही संस्कृति इस पृथ्वी पर सर्वप्रथम उदित हुई थी। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि, यह केवल भारतीय लोगों का ही उचित मार्गदर्शन कर सकती है,अपितु किसी भी भू-भाग के मानवीय गुणों के उत्थान हेतु, या 'आध्यात्मिक मनुष्य निर्माण हेतु ' - हर युग में इसकी चरित्र-निर्माणकारी शिक्षायें फायदेमन्द (Expedient) साबित हो सकती हैं। इसमें किसी भी प्रकार का देशकालिक, धार्मिक, आर्थिक, जातिवर्ण या सामाजिक भेदभाव लागू नहीं होता। हमारी मान्यता है कि वेद औपौरुषेय है उसे ही श्रुति कहा जाता है। उन्हीं श्रुतियों पर आधारित है धर्म शास्त्र जिसे स्मृति कहते हैं। ] 
७. सृष्टि का रहस्य है ‘‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’’: श्रुति वाक्यों में निर्दिष्ट सृष्टि के इस रहस्य (अनेकता में एकता के मूल कारण) को नहीं समझ सकने के कारण ही वर्तमान युग (ब्रिटिश या इटली के गुलाम भारत) का हिन्दू युवक सनातन धर्म के अनेक पन्थों की भूलभुलैयों में भटका हुआ है। उस एकमात्र सनातन-धर्म (हिन्दू धर्म) को—जिसकी सार्वजनीन उपयोगिता तदुपदिष्ट ‘‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’’ ईश्वर का यथार्थ प्रतिबिम्ब है। उस धर्म के मर्म को, अपने भ्रमात्मक पूर्व-धारणाओं और दुराग्रहों के कारण, ग्रहण करने में असमर्थ होने से, जिन राष्ट्रों ने निरी भौतिकता के सिवाय कभी भी और कुछ नहीं जाना उनसे आध्यात्मिक सत्य का पुराना पैमाना उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का व्यर्थ का कष्ट उठाता हुआ अन्त में उस खोज को बिलकुल त्याग देता है। और या तो वह निपट अज्ञेयवादी बन जाता है, या फिर अपनी धार्मिक प्रकृति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में समर्थ नहीं हो पाता तो पाश्चिमात्य भौतिकता के पौर्वात्य गन्धारी कषायों का असावधानी के साथ पान करके श्रुति की भविष्यवाणी ‘‘परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्थाः’’ ( कठोपनिषद् एक अन्धे के द्वारा पथ प्रदर्शित हुए दूसरे अन्धे की तरह मूढ़ इधर-उधर चक्कर लगाते फिरते हैं।) को चरितार्थ करता है ! 
एकमात्र धर्म 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' - के मर्म को समझने में असमर्थ होने के कारण (अनेबल टु ग्रैस्प दी मीनिंग ऑफ़ दी ओनली रिलिजन) अधिकांश उत्तर-भारतीय युवा परमानन्द (अविनाशी निरपेक्ष सत्य), को नश्वर-भोगों में (सापेक्ष सत्य में) खोजने में लगे रहते हैं। जबकि इसी मंत्र में 'आत्मा '(=सत्य या ईश्वर) का निवास स्थान कहाँ है? वह कैसा है- उसका नाम-रूप कैसा है ? उसे कैसे देखा जाता है ? उस आत्मा या ब्रह्म को जान लेने का फल क्या होता है ? इन चारों प्रश्नों का उत्तर  निम्नोक्त मंत्र [यह मंत्र -'अणोरणीयान् महतो महीयान्' -कठ २. २० में (आत्मा की महिमा ) और श्वेता ३-२० में (ईशम् की महिमा) उपनिषद्-प्रेमियों को अत्यन्त प्रिय है, इसलिए प्रत्येक अवैतनिक लोक-शिक्षकों या महामण्डल नेताओं को इसे कण्ठस्थ कर लेना चाहिए।में बहुत सुंदर ढंग से दिया गया है। 

 अणोरणीयान् महतो महीयान्,
 आत्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।
तम् अक्रतुः पश्यति वीतशोकः,
धातुः प्रसादात् महिमानम् आत्मनः ॥ 
[or महिमानम् ईशम् ]

अन्वय : [अणो: अणीयान् (=अणु से भी अति सूक्ष्म), महत: महीयान् (=महान् से भी बड़ा), वह आत्मा
(=परमात्मा श्री ठाकुर या इन्द्रियातीत सत्य वस्तु), गुहायाम् निहितः (= हृदयरूप गुफामें छिपा हुआ है ), अस्य जन्तो: (= मायाबद्ध अवस्था 'हिप्नोटाइज्ड अवसथा' में इस पशु-मानव की आत्मा को जीवात्मा कहते हैं, इसीलिये यहाँ जीवात्मा को 'जन्तु' कहा है), तम् अक्रतुः  (= उस इच्छारहित), आत्मन: = ईशम् तम् महिमानम् (= आत्मा ही परमात्मा=ठुट्ठा जगन्नाथ) की उस महिमा को, उसके स्वरूप को; जो समस्त कर्म करके भी कुछ नहीं करता, केवल अभिचाकशिति), धातुः प्रसादात् (= सबकी रचना करने वाले परमेश्वर -श्री रामकृष्ण की कृपा से) पश्यति (=साक्षात् देख लेता है, स्वयं अनुभव कर लेता है); और तब वह वीतशोकः (=समस्त दुःखों से परे चला जाता है, परम सुखी हो जाता है।] 
व्याख्या: ( वह ) सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म ( तथा ) बृहद से भी बहुत बड़ा परमात्मा इस जीव की हृदय रूप गुफा में छिपा हुआ है, सब की रचना करने वाले प्रमेश्वर की कृपा से (जगदम्बा माँ सारदा देवी की कृपा से) जो मनुष्य उस इच्छारहित परमेश्वर को (और) उसकी महिमा को देख लेता है ( वह आप्त पुरुष) सब प्रकार के दुःखों से रहित (हो जाता है )। 
[ वे परमेश्वर जो'अणोरणीयान् महतो महीयान्' हैं , अर्थात सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म (कीट) और बृहद से भी बहुत बड़े 'ब्रह्म' हैं, इस जीव (बिष्ट bks) की ह्रदय रूपी गुफा में ही छिपे हुए हैं। यद्यपि परब्रह्म पुरुषोत्तम (श्री ठाकुर) उस जीवात्मा के (मिथ्या अहं के) अत्यन्त समीप जहाँ यह स्वयं रहता है, वहीं हृदय में छिपे हुए हैं, तो भी यह उनकी ओर देखता तक नहीं है। मोहवश भोगों में भूला रहता है। इस मंत्र में मनुष्य को 'जन्तु' या बीस्ट कहकर - उसकी बद्धावस्था व्यक्त की गई है।] 
इसीलिये जब आधुनिक हिन्दू युवा अपने भ्रमात्मक पूर्व धारणाओं और दुराग्रहों के कारण इस मंत्र के मर्म को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाता है। तब पाश्चात्य देशों से आध्यात्मिक सत्य- 'आई ऐंड मायी फादर आर वन' का सेकेण्ड हैण्ड पैमाना उधार लेकर वेदान्त के चार महावाक्यों के मर्म को समझने में व्यर्थ का कष्ट उठाता है। जब कुछ नहीं समझ पाता तो अंत में उस 'खतरनाक सत्य' (निरपेक्ष सत्य या निद्रियतीत सत्य) के खोज को बिल्कुल त्याग देता है, (जिसे देखने के बाद एथेंस का सत्यार्थी 'देवकुलिश' अँधा हो गया था !) और निपट अज्ञेयवादी बन जाता है। किन्तु भारत में जन्म लेने के कारण या अपनी धार्मिक-प्रवृतियों की प्रेरणा से जब पशु जीवन बिताने में असमर्थ हो जाता है -तो किसी पाश्चात्य संस्कृति के भोगी-ढोंगी साधु को ही अपना गुरु मानकर श्रुति की भविष्य वाणी -' परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।' को चरितार्थ करता है !
केवल वे युवा ही बच पाते हैं जिनकी आधयात्मिक शक्ति (कुण्डलिनी शक्ति) सद- गुरु के संजीवनी-स्पर्श द्वारा जाग्रत हो चुकी है। [ केवल वैसे युवा ही बच पाते हैं जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति (शक्ति) सद्गुरु -'नवनीदा' या महामण्डल रूपी संगठन का संजीवनी -स्पर्श, मुझ जैसे जड़-पिण्डों में भी जान डाल सकती है; इसे महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने वाला कोई भी युवा "एक प्रयोगगत -यथार्थ" के रूप में अनुभव कर सकता है ! They alone escape whose spiritual nature has been touched and vivified by the life-giving touch of the "Sad-Guru". (The good teacher.) 
८. महात्माओं की संगति मिलना दुर्लभ है : भगवान भाष्यकार ने (वेदान्त के चार महावाक्यों के भाष्यकार जगतगुरु श्री शंकराचार्य ने विवेक-चूडामणि, श्लोक ३ में) कैसी सुन्दर बात कही है :—
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम्। 
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः।।3
—‘‘ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं—मनुष्यजन्म, मोक्ष की इच्छा और महात्माओं की संगति।’ये तीन दुर्लभ हैं और ईश्वर (माँ जगदम्बा) के अनुग्रह से ही प्राप्त होते हैं- मनुष्य शरीर में जन्म, मोक्ष की इच्छा और महात्माओं (महामण्डल) की संगति ( the human birth, the desire for salvation, and the company of the great-souled ones." महामण्डल के आलावा अन्य किसी संगठन में एक साथ इतने महात्माओं का मिलना दुर्लभ है ! भगवन्त दुर्लभ नहीं हैं, सन्त मार्गदर्शक नेता या गुरु विवेकानन्द या महामण्डल का वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर, पाठ-चक्र का आश्रय मिलना दुर्लभ है !!
९. वैदिक षड-दर्शनों के गूढ़ रहस्यों को समझने का एकमात्र आधार ‘श्रुति’ ही  है:  चाहे वह वैश्विकों का सूक्ष्म विश्लेषण ही हो, जिसके परिणाम में परमाणु, द्वयुणु और त्रसरेणु के विचित्र सिद्धान्त (द्वयणु—दो अणुओं की सम्मिलित अवस्था, त्रसरेणु—तीन अणुओं की सम्मिलित अवस्था।) निकाले गए हैं, चाहे वह नैयायिकों का उससे भी विचित्रतर विश्लेषण हो, जो जाति (जाति—वस्तुओं का साधारण धर्म जिसके आधार पर उनका श्रेणी-विभाग किया जा सकता है, जैसे पशुत्व मनुष्यत्व।) , द्रव्य  (द्रव्य—न्याय के मता-नुसार नौ द्रव्य है—पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्, काल, आत्मा और मन।), गुण (न्याय मत  में इन्हें गुण कहते हैं; रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमित, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, अदृष्ट और शब्द।), समवाय (समवाय—जैसे, घट और जिस मृत्तिका से उसका निर्माण होता है, दोनों के बीच समवाय सम्बन्ध है।) की चर्चा में दीख पड़ता है।  चाहे वह परिणामवाद के जन्मदाता सांख्यवादियों के गम्भीर विचारों की प्रगति ही हो, इन सब संशोधनों के परिणामस्वरूप ‘व्याससूत्र’ रूपी परिपक्व फल ही क्यों न हो—मानवी मन के इन विभिन्न विश्लेषणों और संश्लेषणों में वह ‘श्रुति’ ही एकमात्र आधार है। इतना ही नहीं भारत में जन्मे दूसरे प्रत्येक सम्प्रदाय -बौद्ध, जैन, [सिख और इस्लाम की सूफिज़्म शाखा के अमीर खुशरो की क़व्वाली (बल बल जाऊं मैं तोरे रंगरेजवा-सदगुरु)] के अधिकांश ग्रंथों में 'श्रुति' (चार महावाक्यों) का प्रामाण्य पूर्णतः स्वीकार किया गया है। आधुनिक काल में स्वर्गीय महान स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी यही मत प्रतिपादित किया है। 
[हिन्दुओं के छः मुख्य दर्शन है—(१वैशषिक—कणाद प्रणीत, (२) न्याय-गौतम प्रणीत, (३सांख्य—कपिल प्रणीत, (४योग—पतंजलि प्रणीत, (५पूर्व मीमांसा (वैदिक क्रियाकाण्ड की मींमांसा)—जैमिनी प्रणीत, (६वेदान्त या व्याससूत्र—व्यास प्रणीत। [ इसीलिये साधारण मनुष्य (जो एथेंस का सत्यार्थी नहीं है ?) वह यह नहीं समझ पाता कि- " भारतीय चिन्तन-परम्परा में सत्य या ईश्वर की खोज के विभिन्न मार्गों में - जो वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त आदि छ: आस्तिक दर्शन प्रसिद्द हैं; उन समस्त संशोधनों (Modifications) की चरम परिणति 'व्यास-सूत्र' के रूप में प्राप्त होती है ! क्योंकि 'मानवी मन' को इस प्रकार विश्लेषण और संश्लेषण के लिये प्रशिक्षित करने (analyses and syntheses- इच्छानुसार सत्य पर अविनाशी पर लगाने, और नश्वर से हटाने) के पीछे 'श्रुति' (चार महावाक्य) ही एकमात्र आधार है। महर्षि व्यास ने ब्रह्मसूत्र की रचना की जिसे वेदान्त सूत्र, शारीरकसूत्र, शारीरकमीमांसा या उत्तरमीमांसा भी कहा जाता है। साभार प्रकाशक : रामकृष्ण मठ] 

१०. सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) का असली मेरुदण्ड है 'प्रस्थान त्रय' : "the real backbone of Hinduism ? " यदि कोई व्यक्ति भारतीय वैदिक संस्कृति के असली मेरुदण्ड  को खोजना चाहे, यह जानना चाहे कि वह कौन सा विशिष्ट दर्शन है, जिसे केन्द्र मानकर अर्वाचीन और प्राचीन समस्त भारतीय या सनातनी  विचार-प्रणालियाँ झुकी हुई हैं; तो निःसन्देह 'व्यास-सूत्र' की ओर ही निर्देश किया जायेगा। 
चाहे हिमालय के अरण्यों में हृदय की धड़कनों को भी स्तब्ध कर देने वाले (सर्वश्रेष्ठ मत) 'अद्वैत केसरी' की दहाड़ -  “एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति ” (ऋग्वेद १/१६४/४६) में सुनो, या स्वर्गनदी अर्थात उन्मुक्त जल-प्रपात की मेघगर्जन ध्वनि में 'अस्ति,भाति, प्रिय' [Exists (Sat), Shines (Chit), Is beloved (Ânanda)] सत, चित, आनन्द की घोषणा करते हुए सुनो, चाहे वृन्दावन के मनोहारी कुंजों में पक्षियों को 'पिया-पीतम' को बोलते सुनो या अमीर ख़ुसरो के सूफिज़्म आधारित कौवालियों 'खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग। जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।।' में सुनो, चाहे बनारस-पूरी के मठों के संन्यासियों के साथ गहरे ध्यान में मग्न हो जाओ, या चैतन्य महाप्रभु के भक्ति-नृत्य में सम्मिलित हो जाओ, 'बड़केले और तनकेले' (रामानुजाचार्य के दो सम्प्रदाय) विशिष्टाद्वैत के मध्वाचार्य की शरण लो, या सेक्युलर सिक्खों का समरनाद ( martial-मार्शल जयघोष, जय गुरुदेव ! सतयुग आयेगा!) -'वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फ़तह' ही सुनो, या उदासी (नानक पुत्र श्री चाँद द्वारा स्थापित) और निर्मला पंथी लोगों के 'ग्रन्थसाहब' के उपदेशों का श्रवण करो, चाहे कबीरदास के संन्यासी शिष्यों को 'सत साहब' (पूजनीय साधु) कहकर प्रणाम करो, राजपुताना के सन्त दादू से लेकर निश्चलदास के ग्रन्थ 'विचार सागर' को पढ़ो, इन समस्त विभिन्न पन्थों का मूल आधार वही 'अद्वैत मत' (सनातन मत) दिखाई देगा।
 जिसका प्रमाण 'श्रुति' है (गुरु-शिष्य परम्परा में उपनिषद के महावाक्यों का श्रवण -मनन -निदिध्यासन है।), गीता जिसकी दैवी टिका (divine commentary) है,'ब्रह्म -सूत्र' (वेदान्त दर्शन) जिसका संगठित रूप (organised system) है। और भारत के सभी मतमतान्तर - परमहंस परिव्राजकाचार्यों  (चरैवेति चरैवेति करते हुए आध्यात्मिक मनुष्य निर्माण का प्रशिक्षण देने में समर्थ अवैतनिक लोकशिक्षक या महामण्डल नेताओं ) से लेकर 'लालगुरु' के बेचारे तिरस्कृत मेहतर शिष्यों तक के मत -जिसके भिन्न भिन्न रूप हैं ! इस प्रकार यह प्रस्थानत्रय -" उपनिषद, गीता और शारीरक सूत्र" ही द्वैत, विशिष्टाद्वैत, अद्वैत की व्याख्या करने वाले ग्रन्थ ही- सनातन वैदिक धर्म (हिन्दू धर्म) के 'प्रमाणग्रन्थ' हैं, इसलिये मानवजाति के प्रत्येक मार्गदर्शक नेता के लिये इस 'प्रस्थान त्रय' का अध्यन करना अनिवार्य है। क्योंकि उन्हीं के अनुसार शाक्त, शैव, वैष्णव तथा अन्यान्य सम्प्रदायों में उपासना की जाती है। 
११. सभी युवा को 'ऊर्ध्वमूल अधोशाखा' वाले धर्म से परिचित करवा दो : सभी हिन्दू (वैदिक धर्म मानने वाले भारतवासी) अपने 'ऊर्ध्वमूल अधोशाखा' वाले धर्म के विषय में पूर्णतः परिचित हैं? हाँ, मैं ऐसा तो दावा नहीं कर सकता कि सभी हिन्दू (वैदिक धर्म मानने वाले भारतवासी) अपने धर्म के इस मूल के विषय में पूर्णतः परिचित हैं। [जो मनुष्य योनि में जन्म लेने की महिमा -ब्रह्म को जानकर ब्रह्म बन जाने में है, को समझ सकता है ?]  बहुतेरे लोगों ने, विशेष कर लोवर बंगाल के लोगों ने तो सत्य-अनुसन्धान के इन महान वैज्ञानिक प्रणालियों के नाम तक नहीं सुने हैं,  फिर भी जाने-अनजाने सभी वैदिक भारतवासी इसी प्रस्थानत्रय में निर्धारित योजना (योगमार्गों) के अनुसार काम करते हैं। (अर्थात तथाकथित हिन्दू धर्म भारतीय जीवन शैली बन चुकि है !)    
१२. मनःसंयोग की व्याख्या करने में जो समर्थ है वही लोकशिक्षक है: दूसरी ओर देखो तो, जहाँ कहीं हिन्दी भाषा बोली जाती है, वहाँ वेदान्त धर्म की जानकारी बंगाल के अपेक्षा अधिक है। परन्तु खेद है कि बंग -वसासियों ने वेद के अध्यन की अत्यन्त उपेक्षा की है। यहाँ तक कि कुछ वर्षों पहले के बंगाल में पतंजलि योग सूत्र का महाभाष्य की व्याख्या करने वाला अवैतनिक लोक-शिक्षक प्रायः मिलता ही नहीं था !
[ Mahâbhâshya of Patanjali/ जिसे आचार्य शंकर ने नहीं वेदव्यास ने लिखा था, बाद में अंग्रेजी में स्वामी विवेकानन्द ने लिखा है ; और हिन्दी अनुवाद के वि० सा ० खण्ड ९ पृष्ठ ३६५ में पाणिनि का व्याकरण भाष्य लिख दिया है, कृपया सुधार कर लें। इसीलिये महामण्डल के लीडरशिप ट्रेनिंग में मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने समर्थ पतंजलि योग सूत्र का महाभाष्य की व्याख्या करने वाला अवैतनिक लोक-शिक्षक या  मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है] 
केवल एक ही बार वे (बंगवासी) भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य के नेतृत्व में उस अनन्त 'अविच्छिन्न अवच्छेदक' के जाल से ऊपर उठ सके।  (न्याय की परिभाषा के दो शब्द -अविच्छिन्न अज्ञान में प्रतिबिम्बित चैतन्य जीव कहलाता है।) उसी समय एक बार बंगाल की आध्यात्मिक तन्द्रा भंग हुई, और कुछ समय तक वह भी भारत के अन्य प्रदेशों के धर्म-जीवन में सहभागी हुआ। [जिस प्रकार पूज्य नवनी दा के नेतृत्व में बंगाल एक बार फिर मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में समर्थ महामण्डल नेताओं का निर्माण करके 'अदर स्टेट आउट साइड वेस्ट बंगाल' (religious life of other parts of India.)का मार्गदर्शक नेता बना है !'] 
आश्चर्य की बात है कि यद्यपि श्री चैतन्य ने संन्यास दीक्षा एक भारती से ग्रहण की थी, और इस कारण वे स्वयं एक भारती थे, पर माधवेन्द्र पूरी के शिष्य ईश्वर पूरी द्वारा ही उनकी आध्यात्मिक प्रतिभा (हृदय का विस्तार) की प्रथम जागृति हुई थी। [आचार्य शंकर ने दशनामी संन्यासी सम्प्रदाय की स्थापना की थी -जिनके नाम है, गिरी,पूरी, भारती, वन, अरण्य, पर्वत, सागर, तीर्थ, सरस्वती और आश्रम।] ऐसा प्रतीत होता है कि बंगदेश में धार्मिक जाग्रति करना मानो पूरी सम्प्रदाय का ही एक विधाता-निर्दिष्ट उद्देश्य था। भगवान श्रीरामकृष्ण को संन्यास आश्रम 'तोता पूरी ' से प्राप्त हुआ था। वल्ल्भाचार्य का सम्प्रदाय (बंबई-गुजरात प्रान्त में इस सम्प्रदाय का खूब प्रचार है) चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय की एक शाखा है। पर बंगाल में उनके शिष्य गद्दी वाले बन गए, पर वे स्वयं भारत में नंगे पैर द्वार द्वार जाकर चाण्डाल तक को उपदेश देते थे, और भगवान के प्रति प्रेमसम्पन्न होने की भीख माँगते थे! 
१३. हेरेडिटेरी गुरुज प्रशिक्षण नहीं दे सकते : वंशानुगत गुरुओं की विचित्र प्रथा प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा के अनुकूल नहीं है। ( unorthodox custom of hereditary Gurus) फिर भी यह अशास्त्रीय वंशानुगत कुलगुरुओं की प्रथा केवल बंगाल प्रान्त में ही प्रचलित है, और यह प्रथा ही बंगाल के भारत के दूसरे प्रान्तों के आध्यात्मिक जीवन से अलग रहने का एक प्रमुख कारण है। (उषा दा के कुलगुरु का पत्र मेरे पास क्यों है ?) सबसे बड़ा कारण तो यह है कि बंगदेशीय जीवन पर ऐसे किसी अद्वैत-वादी संन्यासी वर्ग का प्रभाव ही नहीं पड़ा, जो अतिउच्च 'भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति' के प्रतिनिधि और भण्डारस्वरूप हैं !   
१४. केवल त्यागी और ब्रह्मज्ञ गुरु ही मंत्र-दीक्षा देने के अधिकारी हैं: निवृत्ति मार्गी संन्यासी का वस्त्र धारण किये हों, या प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ;  बंगाल (बिहार) के उच्च वर्ग की रूचि त्याग की ओर नहीं भोग की ओर है। इसलिये वे आध्यात्मिक विषयों में गहरी अन्तर्दृष्टि कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः — एक मात्र त्याग के द्वारा ही अमृतत्व प्राप्त होता है, "By renunciation alone immortality was reached." इसका व्यतिक्रम कैसे हो सकता है ?
दूसरी ओर देखो तो हिन्दी भाषी प्रान्तों के बड़े प्रभावशाली और ब्रह्मविद त्यागी (अवैतनिक) लोक-शिक्षकों (उपदेशकों -नेताओं) की 'लीडरशिप ट्रेनिंग वेदान्त परम्परा ' ने वेदान्त के सिद्धान्तों को द्वार द्वार तक पहुँचा दिया है। विशेषकर पंजाब केसरी रणजीत सिंह के शासन काल में त्यागियों को जो प्रोत्साहन दिया गया था, उसके कारण निचातीनीच जातियों को भी वेदान्त दर्शन के उच्चतम उपदेशों (चार महावाक्यों) को 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन ' की गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा में गुरुमुख से ग्रहण करने जा अवसर प्राप्त हो गया था। १५. सात्विक अभिमान (ट्रू प्राइड = मनुष्य जीवन के लक्ष्य -ब्रह्म या ईश्वर के स्वरुप को अपने अनुभव से जान लेने या आत्मसाक्षात्कार कर लेने के बाद का 'दास अहं' ):  सात्विक अभिमान के साथ पंजाबी कृषक 
पुत्री गाती थी - 'देखो मेरा सूत कातने वाला चरखा भी 'सोsअहम,'सोsअहम' पुकार रहा है। मैंने ऋषिकेश के अरण्यों में मेहतर जाति के गृहस्थ-त्यागियों को भी संन्यासी का वेष धारण किये वेदान्त का अध्यन करते देखा है। और वे कोई मामूली ज्ञानी नहीं हैं, अनेक अभिमानी उच्च जाति के पुरुष भी उनके चरणों में बैठ कर शिक्षा ग्रहण करते हैं- और ऐसा क्यों न हो ? मनुस्मृति २/२३८ में कहा गया है - अन्त्यादपि परं धर्मं - नीचकुलोत्पन्न चण्डाल से भी परम् धरम, मोक्षधर्म, या परमात्म -ज्ञान की शिक्षा (लीडरशिप ट्रेनिंग ) ली जा सकती है।  
१६. महामण्डल के प्रशिक्षित परिव्राजक आचार्य, नेता या लोकशिक्षक के लिए आदर्श वाक्य है -" चरैवेति चरैवेति":  इसी तरह उत्तर-प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब में धार्मिक -शिक्षा (3H में विकसित नेता या लोकशिक्षक या आध्यात्मिक मनुष्य बनने और बनाने का लीडरशिप प्रशिक्षण) बंगाल, बिहार, झारखण्ड, बम्बई या मद्रास की अपेक्षा अधिक है। भिन्न भिन्न सनातनी सम्प्रदायों के सदा काल-प्रवास करने वाले त्यागी - दशनामी, बैरागी, और पंथी लोग [परिव्राजक =The ever-travelling Tyagis of the various orders- जब द्वार द्वार घूमकर आध्यात्मिक मनुष्य निर्माण का लीडरशिप प्रशिक्षण देने लगते हैं तो उनके जीवन में सत्ययुग आ जाता है !] -प्रत्येक के द्वार पर चरित्रवान मनुष्य बनने का उपदेश दिया करते हैं -और उसके लिये समाज को खर्च कितना करना पड़ता है ? --केवल एक टुकड़ा रोटी ! और उनमें से अधिकांश कितने उदार और निःस्वार्थी होते हैं कि अपने लिये नाम-यश की अपेक्षा भी नहीं करते हैं। एक कचू-पन्थी या स्वच्छंद संन्यासी (जो अपने को किसी पंथ में शामिल नहीं करना चाहते थे, दादा कहते थे छन्न छाड़ा गोष्ठिर पुरोधा, या दी ड्रॉप आउट्स !) तो ऐसे थे जिनके द्वारा राजपुताना में सैकड़ो पाठशालायें और दातव्य चिकित्सालय स्थापित हुए हैं।  [Kachu Panthis or independents (who do not identify themselves with any sect)] उन्होंने जंगलों में अस्पताल खोले हैं, और हिमालय के दुर्गम नदियों-पहाड़ों को पार करने के लिये लोहे के पुल बनवाये हैं। और वे एक महापुरुष हैं कि सिक्के को अपने हाथों से कभी छूते तक नहीं हैं और एक कम्बल के सिवा कोई दूसरी संसारी वस्तु अपने पास नहीं रखते हैं-इसलिए लोग उनको 'कमलीवाले बाबा ' के नाम से पुकारते हैं। वे अपना भोजन द्वार द्वार पर जाकर माँग लिया करते हैं। मैंने एक ही घर से अपना पूरा भोजन लेते नहीं देखा है। वे इसी डर या विचार से ऐसा करते हैं कि किसी एक ही गृहस्थ के लिये उनको भिक्षा देना भाररूप न हो जाये। और वे ही एक नहीं हैं, उनके सामान और कितने ही साधु ऐसे हैं। भारत में जब तक ऐसे देव-चरित्र सम्पन्न 'देव-मानव' जीवित रहेंगे, और अपने ऐसे दैवी आचरण द्वारा 'सनातन धर्म' ("Religion Eternal") की रक्षा करते रहेंगे - तब तक क्या भारत कभी मर सकता है ?  
जबकि अमेरिकी लोग अपने पादरियों को २४ रविवार तक केवल २ घंटे तक धर्मोपदेश देने के लिये  ९०००० डॉलर तक वेतन देते हैं, और हमें यही सिखाया गया है कि 'देवतुल्य परम् निःस्वार्थी कमलीवाले बाबा ' सरीखे सन्त, आलसी और आवारा किस्म के लोग होते हैं ? 'मद्भक्तानाञ्च च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः —जो मेरे भक्तों के भक्त हैं, उन्हें मैं अपना श्रेष्ठ भक्त मानता हूँ ! '
१७. लीडरशिप ट्रेनी या प्रशिक्षु भी चरैवेति-चरैवेति का प्रशिक्षण ले सकता है: अच्छा यदि यही मान लो कि कोई घुमन्तु साधु अज्ञानी है (नेता नहीं बन सका है)  किन्तु पक्का वैरागी है। यदि वैसा कोई व्यक्ति भी जब किसी गाँव में पहुँचेगा तो तुलसीकृत रामायण या चैतन्य-चरितामृत और यदि दक्षिणात्य हुआ तो दक्षिण के आलवार ग्रन्थों में से जो कुछ भी वह जानता होगा, उतना ही ग्रामवासियों को सिखाने का भरसक प्रयत्न करेगा। क्या ऐसा करने से कोई उपकार नहीं होता ? और यह सब केवल रोटी के टुकड़े और लंगोटी के कपड़े के बदले में हो जाता है![ अपरिपक्व नेता 'extremely ignorant Vairagi.वैरागी' =महामण्डल का निष्ठावान कर्मी है, जो ५ अभ्यास करता है,किन्तु 'बी ऐंड मेक कक्षा' से 'चरैवेति चरैवेति कक्षा' में नहीं पहुँचा है। वह भी जीवनगठन, चरित्र के गुण, उद्देश्य और कार्यक्रम आदि महामण्डल पुस्तिकाओं से जितना जानता होगा उतना अवश्य बताने की चेष्टा करेगा तो क्या वक्ता-श्रोता दोनों का कोई उपकार नहीं होगा ? और यह भी केवल मुख्य फैकल्टी के आने-जाने के रेलवे टिकट कॉस्ट पर हो जाता है !]  मेरे भाइयो ! इन लोगों की निर्दयता पूर्वक समालोचना करने से पहले यह तो सोचो कि तुमने अपने गरीब देशवासियों के लिए क्या किया है ? जिनके खर्च से तुमने अपनी शिक्षा पायी, जिनका शोषण करके तुम अपने पद-गौरव को कायम रखते हो, और 'बाबा जी लोग केवल आवारा फिरने वाले लोग होते हैं ?'- "Babaji's are only vagabonds".क्या यही सिखाने के लिये अपने प्रोफेसरों को वेतन देते हो ? 
१८. सनातन धर्म का पुनरुत्थान दर्शनिक ग्रन्थों द्वारा नहीं ब्रह्मविद शिक्षकों द्वारा होगा :  A Few Hints to Our Critics: हमारे कुछ बंगदेशीय भाई लोग (TMC,आदि 'सेक्यूलर'?) सनातन धर्म के इस पुनरुत्थान को (महामण्डल द्वारा आयोजित 'आध्यात्मिक मनुष्य- निर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर' को)-भी अज्ञान वश 'हिन्दू धर्म' का नया विकास "A New Development of Hinduism." कह कर उसकी आलोचना करते हैं ! वे इसे 'नया' भले ही कहें-क्योंकि 'सनातन धर्म' - या शिक्षा जो पशुमानव को देवमानव में रूपान्तरित कर दे- केवल अभी ही (१९६७ में महामण्डल स्थापित होने के बाद ही) बंगाल में प्रवेश कर रहा है ! वहाँ तो अब तक धर्म की समग्र कल्पना केवल खान-पान और विवाह संबन्धी देशाचार ( the whole idea of religion was a bundle of Deshâchâras, स्थानीय रीति-रिवाज को ही धर्म समझा जाता था। )   
श्रीरामकृष्ण के शिष्यगण (या युवा महामण्डल)  सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) का जिस रूप में सारे भारत में प्रचार कर रहे हैं, वह सत शास्त्रों के अनुकूल हैं या नहीं (प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा के अनुकूल है या नहीं ?) ऐसे विषय पर विचार करने के लिए इस छोटे से निबंध में पर्याप्त स्थान नहीं है। पर यहाँ मैं अपने उन समालोचकों के सामने (जो महामण्डल के मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन का मजाक उड़ाते हैं) कुछ संकेत रखना अवश्य चाहूँगा, जिससे उन्हें इस निःशब्द चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन को समझने में कुछ सहायता मिल सके !  
प्रथम तो मैंने ऐसी दलील कभी नहीं की कि काशीदास या कृत्तिवास (या तुलसीदास ?) के ग्रन्थों को पढ़कर 'सनातन धर्म' (हिन्दू धर्म) के मर्म को यथार्थ रूप से जाना जा सकता है। यद्यपि उनकी वाणी 'अमृत समान' है और उनको श्रवण करने वाले 'पुण्यवान' हैं! किन्तु वैदिक धर्म या सनातन धर्म का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिये हमें भारत भर के महान आचार्यों और उनके अधिकारी ब्रह्मवेत्ता शिष्यों (चपरास प्राप्त दार्शनिक व्यक्ति या संगठन) के पास जाकर 'लीडरशिप ट्रेनिंग की वेदान्त परम्परा ' में उनके श्रीमुख से वेदों का (चार महावाक्यों का) उपदेश ग्रहण करना चाहिये।  
१९. अलौकिक प्रत्यक्षम् : (super sensuous realisation) ब्रह्मविद मनुष्य, अवैतनिक लोकशिक्षक
या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता बनो और बनाओ: भाइयो! यदि तुम 'गौतमसुत्र' से प्रारम्भ करो, और 'आप्त' -अर्थात जिन्होंने आत्मतत्व या इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार किया है, और मनुष्य स्वभावसुलभ दुर्बलता 'लस्ट ऐंड लूकर' में आसक्ति का त्याग कर दिया है; के सम्बन्ध में उनके सिद्धान्तों को वात्स्यान भाष्य की दृष्टि से पढ़ो। और फिर शबर आदि अन्य भाष्यकारों की सहायता से उत्तर-मीमांसा के मत तक पहुँच जाओ-तब तुमको यह पता चलेगा कि वे "अलौकिक प्रत्यक्षम्" (अपरोक्षानुभूति या अतीन्द्रियानुभूति) के विषय में क्या कहते हैं ? क्या प्रत्येक व्यक्ति 'आप्त' बन सकता है या नहीं ? फिर हमें इतना याद रखना होगा कि 'अलौकिक (इन्द्रियातीत वस्तु) को प्रत्यक्ष ' करने वाले ऐसे आप्त लोग के कारण ही वेदों का प्रामाण्य बना हुआ है ! यदि तुमको यजुर्वेद की महिधरकृत प्रस्तावना पढ़ने का समय हो, तो उसमें तुमको इस बात का और भी स्पष्टीकरण मिलेगा कि " वेद मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन या आन्तरिक-जीवन के नियम हैं' -और इसी कारण वे सनातन और शाश्वत हैं ! (the Vedas being laws of the inner life of man, and as such they are eternal.) सृष्टि के सनातन होने का सिद्धान्त, उसके अनादि और अनन्त होने का सिद्धान्त (अनेकता में एकता का सिद्धान्त) केवल सनातन धर्म या हिन्दू-धर्म का ही नहीं, वरन बौद्ध तथा जैन धर्म का भी मुख्य आधारस्तम्भ है।  
२०.अन्तरा चापि तु तद्दृष्टेः । ( ब्रसू-३,४.३६) के अनुसार  लोक-शिक्षक या नेता त्यागी गृहस्थ और त्यागी संन्यासी दोनों बन सकते हैं : अब (अद्वैत तत्व को अपने अनुभव से जान लेने के बाद) भारत के सभी सम्प्रदाय स्थूल रूप से -ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी -इन दो श्रेणियों में विभक्त किये जा सकते हैं। यदि तुम श्री शंकराचार्य कृत 'शारीरक भाष्य ' की भूमिका को देखो, तो तुमको ज्ञान की निरपेक्षता की पूरी समझ आ जाएगी, कि 'ब्रह्म की अनुभूति और मोक्ष की प्राप्ति ' - किसी अनुष्ठान, मत, वर्ण, जाति या सम्प्रदाय पर अवलम्बित नहीं है।  कोई भी 'साधन-चतुष्टय-सम्पन्न' साधक (महामण्डल के ५ अभ्यास द्वारा 3H का विकास करने वाला युवा) उसका अधिकारी बन सकता है। साधन-चतुष्टय किसी भी धर्म के अनुयायी के चित्तशुद्धि (अहंकार हटाने वाले) करने वाले कुछ अभ्यास मात्र हैं।
भक्तिमार्ग के विषय में तो बंगदेशीय समालोचक भी यह अच्छी तरह से जानते हैं कि भक्तिमार्ग के कई आचार्यों ने यह घोषणा की है कि जाती, वंश, लिंग आदि -यहाँ तक कि मोक्ष प्राप्ति के लिए 'मनुष्य योनि' तक की भी आवश्यकता नहीं है ! केवल एक मात्र आवश्यक वस्तु है -भक्ति ! ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनों मार्गों से ईश्वर-लाभ करने में जाति-धर्म या लिंग का कोई बन्धन नहीं माना गया है। इसी कारण एक भी आचार्य ऐसे नहीं हैं, जिन्होंने मोक्ष-प्राप्ति के लिए विशेष जाति, विशेष पंथ (प्रवृत्ति-निवृत्ति), विशेष वंश या विशेष राष्ट्र में जन्म ग्रहण करने की आवश्यकता बताई हो। इस सम्बन्ध में वेदान्त सूत्र 'अन्तरा चापि तु तद्दृष्टेः।' ( ब्रसू-३,४.३६) - अर्थात अनेक व्यक्ति चार आश्रमों में से किसी भी आश्रम का अवलंबन कर के भी ज्ञान के अधिकारी हुए हैं ! इसी सूत्र पर शंकर, रामानुज और मध्वाचार्य कृत भाष्यों को पढ़ो, समग्र उपनिषदों, या गीता में कहीं भी देखो तुम्हें कहीं भी मोक्ष (उद्धार) के सम्बन्ध में अन्य धर्मों के जैसा संकीर्ण या कट्टर विचार नहीं मिलेंगे। अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता के विषय में सर्वत्र ही उल्लेख है। यहाँ तक कि गीता ३/३६ में भी कहा गया है -"न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्" - जो व्यक्ति कर्म में आसक्त रहने को भक्ति और ज्ञान से श्रेष्ठ मानकर कर्म  ('लस्ट और लूकर ') में ही आसक्त है, उस अज्ञ व्यक्ति को ज्ञान का उपदेश देकर, ज्ञानी पुरुष को उसकी मति विचलित नहीं करनी चाहिये। यही भाव सनातन धर्म में सर्वत्र विद्यमान है।
क्या भारत में कोई भी मनुष्य -जब तक वह सामाजिक नियमों का पालन करता रहा - किसी भी विशिष्ट इष्ट देवता (शिरडी साईं आदि) को मानने के कारण या नास्तिक या अज्ञेयवादी होने के कारण पीड़ित किया गया है ? समाज किसी को सामाजिक नियम (भारतीय संविधान) का पालन न करने के अपराध में भले शासित करे, पर प्रत्येक मनुष्य के लिये -  अति नीच पतित के लिए भी सनातन धर्म में मोक्ष मार्ग कभी बंद नहीं किया गया। उदाहरणार्थ - मालाबार (केरल) में जिस सड़क से उच्च वर्ण का मनुष्य चलता है, उससे चाण्डाल  चलने की मनाही थी, पर यदि वह मुसलमान या ईसाई हो जाये, तो कहीं भी चल सकता था ? -ऐसा नियम हिन्दू राजा (वैदिक धर्म मानने वाला 'बाहुबली-2' राजा) के राज्य में सदियों से रहा है।
अटपटा सा दिखने पर भी 'अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता' का भाव तो स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है

२१. ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति :To know God is to become God."सनातन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण तथ्य : -एक भाव वैदिक धर्म या सनातन धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है। उस भाव को प्रकट करने में ऋषियों ने संस्कृत भाषा के प्रायः समग्र शब्द समूह को निःशेष कर डाला है। वह भाव यह है कि- "मनुष्य को इसी जन्म में ईश्वर प्राप्ति करनी होगी, और अद्वैत ग्रन्थ अत्यन्त प्रमाणयुक्त तर्क के साथ उसमें यह भी जोड़ देते हैं कि -"ईश्वर को जानना ही ईश्वर हो जाना है। "  ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति, 'जानत तुम्हीं तुम्हीं ह्वै जाई' (अयोध्याकाण्ड।) 
इसके अनिवार्य परिणाम स्वरूप यह उदार और अत्यन्त प्रभावशाली मत प्रकट होता है - [ 'बी ऐंड मेक' अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ !] जो न केवल वैदिक ऋषियों के द्वारा घोषित हुआ है, जिसे न केवल महात्मा विदुर या धर्मव्याध आदि ने ही कहा है, वरन अभी कुछ समय पूर्व दादू-पंथी सम्प्रदाय के त्यागी सन्त निश्चलदास ने अपने ग्रन्थ 'विचारसागर' में स्पष्ट रूप से घोषणा की है -

    जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है, ताको वाणी वेद। 
         संस्कृत और भाषा में, करत भरम का छेद।। 
'जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है, और उससे अज्ञान का अन्धकार दूर हट जायेगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोक-भाषा में (मगही-भोजपुरी-मैथली -पंजाबी या गुजराती में)हो !
इस प्रकार द्वैतवादी मतानुसार ईश्वर (श्री ठाकुर) का साक्षात्कार करना,या ब्रह्म की उपलब्धि करना, या अद्वैतवादी मतानुसार -"ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाना " -यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है। और उसके अन्य उपदेश (कर्मकाण्ड) इसी लक्ष्य की ओर प्रगति के लिए सोपान मात्र हैं।  भाष्यकार भगवान शंकराचार्य की महिमा यही है कि उनकी विलक्षण प्रतिभा (ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य) ने महर्षि व्यास के भावों की ऐसी अपूर्व व्याख्या हमारे समक्ष प्रकट की।  
२२. निरपेक्ष सत्य और सापेक्ष सत्य:  ईश्वर, माँ जगदम्बा और जगत कार्य-कारण सम्बन्ध से बन्धा है: "क्योंकि भाव (इन्द्रियगोचर जगत,या सापेक्षिक सत्य) तथा भावातीत (इन्द्रियातीत-ब्रह्म, निरपेक्ष सत्य) ये दोनों राज्य परस्पर कार्य-कारण सम्बन्ध से सदा बन्धे हुए हैं, तथा भावातीत अद्वैत राज्य का भूमानन्द (परमानन्द) ही सीमाबद्ध होकर भावराज्य के दर्शन-स्पर्शन आदि सम्भोगानन्द के रूप में अभिव्यक्त है। अतः (किसी नेता के लिये) भावसाधना की चरम अवस्था में अद्वैतभाव को प्राप्त करने का प्रयास युक्ति-युक्त है।" श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग १/३६४
निरपेक्ष रूप से केवल ब्रह्म ही सत्य है, (और सापेक्षिक जगत ?) किन्तु सापेक्ष सत्य की दृष्टि से भारत और अन्य देशों के सभी विभिन्न मत उसी ब्रह्म के भिन्न भिन्न रूपों के आधार पर बने हुए होने के कारण सत्य हैं। केवल कुछ मत दूसरे अन्य मतों से श्रेष्ठ हैं। मानलो, एक मनुष्य सीधा सूर्य (अद्वैत)  की ओर चलना शुरू करता है। अपनी यात्रा के प्रत्येक सोपान पर वह सूर्य के नवीन नवीन 'दृश्य-आकार, रूप और प्रकाश' - हर क्षण नया नया देखता जायेगा, जब तक कि वह प्रत्यक्ष सूर्य तक न पहुँच जाय। पहले सूर्य जैसा उसे एक बड़े गेंद जैसा दिखाई देता था, वैसा तो वह कभी नहीं था; न वह सूर्य वैसा ही कभी था, जैसा कि उसे वह अपनी यात्रा क्रम में भिन्न भिन्न रूपों में दिखा था।  फिर भी क्या यह सत्य नहीं है कि हमारे उस यात्री ने सदा सूर्य को ही देखा और उस सूर्य के सिवा किसी अन्य वस्तु को नहीं देखा ! उसी तरह ये सभी भिन्न भिन्न मत सत्य हैं - कुछ सन्निकट हैं, तो कुछ यथार्थ सूर्य से अधिक दूर हैं - और वह सूर्य है हमारा 'एकमेवाद्वितीयम् ब्रह्म' — "One without a second" ! एक अद्वितीय ब्रह्म।
और जब वेद ही उस परम-सत्य, निर्विशेष ब्रह्म, या इन्द्रियातीत निरपेक्ष सत्य की शिक्षा देने वाले एकमात्र शास्त्र हैं ;  और ईश्वर के संबन्ध में अन्य सभी मत उसी भूमानन्द निरपेक्ष सत्य की सीमाबद्ध अभिव्यक्तियाँ हैं ! इसीलिये सर्वलोक हितैषिणी श्रुति भगवती धीरे से भक्त का हाथ पकड़ लेती है, और एक श्रेणी से दूसरी में , और क्रमशः अन्य सभी श्रेणियों में से, जहाँ जहाँ से उसे पार होना आवश्यक है, वहाँ से ले जाकर उस
इन्द्रियातीत सत्य या ब्रह्म तक पहुँचा देती है। और जैसा कि अन्य सभी धर्म भी इसी एकमात्र धर्म के विभिन्न अप्रगतिशील या रुद्धगति रूप (unprogressive and crystallized form) में एक या दूसरी श्रेणी मात्र का ही निर्देश करते हैं, तब तो संसार के सभी धर्म उस नामरहित, सीमारहित, सनातन या नित्य वैदिक धर्म  (nameless, limitless, eternal Vedic religion.वेदान्त या जानने का अन्त) के अन्तर्गत ही हैं !
सैकड़ों जीवन तक लगातार प्रयत्न करो, युगों अपने मन के अन्तस्तल में (अचेतन मानस समुद्र की गहराई तक को मथ डालो !) खोजो -तो भी तुमको एक भी ऐसा उदार धार्मिक विचार (सर्वे भवन्तु सुखिनः आदी) दिखाई नहीं देगा जो कि आध्यात्मिकता की उस अनन्त खान ( वेदों= infinite mine of spirituality) में पूर्व से ही अन्तर्निहित न हो।  
२३. "मूर्तिपूजा -प्रथा" ओपन आइड मेडिटेशन की प्राथमिक अवस्था: अब सनातन धर्मावलम्बियों द्वारा [जैन-बौद्ध-हिन्दुओं की मूर्तिपूजा या वैदिक धर्म मानने वालों -अद्वैतवादियों द्वारा मूर्ति पूजा] की जाने वाली "मूर्तिपूजा -प्रथा"  को ले लो, प्रथम तो तुम जाकर उस पूजा के विभिन्न प्रकारों को सीखो और यह निश्चय करो कि वे उपासक यथार्थ में पूजा कहाँ कर रहे हैं ? -मन्दिर में, प्रतिमा में या अपने देह-मन्दिर में? पहले यह तो निश्चय कर लो कि वे कर क्या रहे हैं? (निन्दा करनेवाले ९० % से अधिक लोग इस बात को नहीं जानते) और तब वेदान्त दर्शन की दृष्टि से वह बात (धारणा-ध्यान-समाधि) अपने आप ही समझ में आ जायेगी। [लोगों को नहीं मालूम की कोई मूर्तिपूजक मन्दिर की प्रतिमा को, ऑंखें मूँदकर अपने हृदय के भीतर बैठाकर ही पूजा करता है, और ऑंखें खोलकर अपने आराध्य राम को ही बैठा देखकर, राम-राम दो बार बोलकर दूसरों के देहमन्दिर में भी अपने राम को ही देखकर उसकी सेवा करता है।] 
फिर भी यह कर्म अनिवार्य नहीं है। वरन 'मनु' को खोलकर देखो, जहाँ उसमें प्रत्येक वृद्ध मनुष्य के लिये चतुर्थ आश्रम (संन्यास) ग्रहण करने की आज्ञा है, चाहे वह वैसा करे या नहीं, उसे सभी कर्मों का त्याग 
(लस्ट और लूकर में आसक्ति का त्याग) तो करना ही चाहिये। सर्वत्र यही पुनः पुनः कहा गया है कि ये सभी 'कर्म' (पूजा-जप) 'ज्ञान' में जाकर समाप्त होते हैं - ज्ञाने परिसमाप्यते।  
यथार्थ में तो अन्य देशों के अनेक भद्र लोगों की अपेक्षा किसी भी 'हिन्दू किसान' ? सनातन धर्म में जन्मे किसान को धार्मिक शिक्षा अधिक प्राप्त है। एक ईसाई पादरी ने यह कहा था कि हिन्दू लोग अपने धर्म ग्रन्थों का अर्थ भूल गए हैं, और पादरी लोगों ने ही उसका अर्थ खोज निकाला, पादरियों के उस बृहत समुदाय में मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा न मिला जो संस्कृत का एक वाक्य (श्लोक) भी समझता हो। यह बात सच नहीं कि मैं किसी धर्म का विरोधी हूँ।  किन्तु अमेरिका में ईसाई मिशनरियाँ जिस तरिके से चन्दा से धन एकत्र करते हैं, उसका मैं अवश्य प्रतिवाद करता हूँ। .. बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में ऐसे चित्र छापने का क्या मतलब है ---एक हिन्दू माता अपने बच्चे को गंगा नदी में मगर के मुख में झोंक रही है -माता का रंग काला और बच्चे का रंग गोरा रखा जाता है -ताकि चन्दा अधिक मिले ? आदि आदि पादरी लोग हिन्दुओं के नैतिक पतन, बाल हत्या, और हिन्दू विवाह-पद्धति के दोषों के सम्बन्ध में जितना ही कम बोलें, उतना ही उनके लिये बेहतर होगा। मैंने कई देशों में ऐसे यथार्थ चित्र देखे हैं, जिनके सामने पादरियों द्वारा खींचे हुए हिन्दू समाज के सभी काल्पनिक चित्र फीके पड़ जायेंगे। 
२४. अवैतनिक लोकशिक्षकों का निर्माण :  परन्तु मेरे जीवन का उद्देश्य दूसरे धर्मों की भर्तस्ना करने वाला वैतनिक पन्थ प्रवक्ता ( किसी दल विशेष का paid reviler) बनने का नहीं है। हिन्दू समाज (वैदिक धर्म मानने वाले लोग) पूर्णतः निर्दोष है, ऐसा दावा और कोई करे तो करे, मैं तो कदापि न करूँगा। मेरे समाज की त्रुटियों की, या शताब्दियों के दुर्भाग्य के कारण जिन दोषों ने उसमें जड़े जमा ली है, उनकी जानकारी मुझे औरों की अपेक्षा अधिक है। विदेशी मित्रो ! यदि तुम इस देश में सच्ची सहानुभूति के साथ सहायता देने के लिये -न कि विनाश करने के लिये --आते हो, तो तुमको ईश्वर सफलता प्रदान करे ! परन्तु तुम यदि इस दलित और पतित राष्ट्र के मस्तक पर समय-कुसमय सतत गालियों की बौछार करके, अपने निजी राष्ट्र की नैतिक श्रेष्ठता की विजयपूर्ण घोषणा करना ही तुम्हारा उद्देश्य है, तो मैं तुमको साफ़ साफ़ बतला देना चाहता हूँ कि यदि थोड़ा भी निष्पक्ष होकर तुलना की जाएगी, तो नैतिक आचार में 'हिन्दू लोग' (सनातन धर्म मानने वाले लोग) संसार की अन्य जातियों की अपेक्षा अत्यधिक उन्नत पाये जायेंगे ! भारत में धर्म पर (अर्थात आध्यात्मिक मनुष्यों का निर्माण करने पर) प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया था। किसी भी मनुष्य को अपने इष्टदेव, योग-मार्ग, या गुरु (नेता-preceptor प्रीसेप्टर) चुनने में कोई रोक-टोक नहीं की जाती थी। इसी कारण यहाँ धर्म की जैसी वृद्धि हुई, वैसी कहीं नहीं हुई। दूसरी ओर ऐसा हुआ कि धर्म के इन असंख्य विभेदों के साथ सौहार्द पूर्वक रहने के लिए एक स्थिर-बिन्दु की आवश्यकता हुई और भारत में समाज (पंच-परमेश्वर) ही ऐसा बिन्दु माना गया। परिणाम स्वरूप समाज कड़ा और कठोर तथा प्रायः अचल बन गया। क्योंकि स्वाधीनता ही उन्नति का एकमात्र उपाय है ! ( For liberty is the only condition of growth.) 
इसके विपरीत पाश्चात्य देशों में विभिन्न भावों के विकास का क्षेत्र ( field of variation) समाज था और स्थिर (constant point) बिन्दु था धर्म। इसलिए मतैक्य (conformity) ही यूरोपीय धर्म का मूलमंत्र बन गया और अभी भी बना हुआ है। और प्रत्येक नये परिवर्तन को अपने लिए थोड़ा भी स्थान प्राप्त करने के लिये रक्त की नदी में से तैर कर जाना पड़ता है। परिणामस्वरूप वहां का सामाजिक संगठन तो अपूर्व है, परन्तु धर्म अत्यन्त स्थूल जड़वाद  (grossest materialistic conceptions.) से आगे नहीं बढ़ा है।     आज पश्चिम भी अपनी आवश्यक्ताओं के विषय में जाग्रत हो रहा है, और पाश्चत्य ईश्वरतत्वान्वेषियों का मूल मंत्र  'मनुष्य का सच्चा स्वरूप' या उसकी 'आत्मा '  "true self of man and spirit" को जानना हो गया है। संस्कृत दर्शन का विद्यार्थी जानता है कि वायु किधर से (RSS ?) बह रही है ; शक्ति कहीं से भी आये, जबतक वह नवीन जीवन का संचार करती रहे, उस पर कोई आपत्ति नहीं की जा सकती! 
उसी समय भारत में नयी परिस्थितियों (महामण्डल अवतार) के कारण सामाजिक संगठन के पुनः संशोधन की आवश्यकता विशेष रूप से प्रतीत होने लगी। पिछले पौन -सौ वर्षों से भारत में सुधार -सभाओं और समाजसुधारकों की बहुत चहलपहल रही है। पर शोक की बात यह है कि उनमें से प्रत्येक असफल रहा। उनलोगों को तो समाज-सुधार का यथार्थ रहस्य पता ही नहीं था ! उन्होंने यथार्थ में सीखने लायक सबसे महत्वपूर्ण बात को तो सीखा ही नहीं, किन्तु उतावलेपन में सारा उत्तरदायित्व धर्म के मत्थे मढ़ दिया ! और कथा में वर्णित अपने मित्र के कपाल पर बैठे हुए मच्छर को मारने की इच्छा करने वाले मूढ़ व्यक्ति की तरह मच्छर और मनुष्य दोनों को एक साथ मार डाला होता । परन्तु सौभाग्य से प्राचीन गुरु शिष्य वेदान्त परम्परा से टकरा कर स्वयं मर गए ! 
आओ, हम उन्हें आशीर्वाद दें और उनके अनुभवों से लाभ उठायें ! उस समय निद्रामग्न समाजरूपी कुम्भकर्ण को मोहनिद्रा से जगाने के लिए वैद्युतिक आघातों की अत्यन्त आवश्यकता थी !(जेपी -अन्नाहजारे ?केजरी-लालू आन्दोलन) पूर्णतः विनाशात्मक थे, रचनात्मक नहीं ; और इसी कारण मरणशील थे , अतः मर भी गए ! 
२५.क्रमविकासवाद और दशावतार आन्दोलन :  उन्होंने यह पाठ पढ़ा ही नहीं था कि 'मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित दिव्यता का विकास भीतर से प्रारम्भ होकर बाहर उसकी परिणीति या अभिव्यक्ति होती है; और सभी क्रमविकास (evolution)पूर्ववर्ती किसी क्रमसंकोच (involution) का पुनर्विकास मात्र है। (all evolution is only a manifestation of a preceding involution.) वे यह नहीं जान पाये कि बीज अपने चारों ओर के तत्वों से उपादान ग्रहण करता है, पर वृक्ष तो अपनी ही प्रकृति में उगेगा ! जब तक सम्पूर्ण हिन्दू जाति (Hindu race) निर्मूल न हो जाये, और उसकी भूमि को नई जाति (इस्लामिक स्टेट ?)अधिकृत अधिकृत न कर ले, तब तक समाज के ऐसे विप्लवकारी संस्कार (अन्ना -केजरी, जेपी -लालू जैसे एक्स्पोजे या सम्पूर्णक्रांति बिना संस्कार-निर्माण असम्भव है? अतः उनका ) का स्वतः समाप्त होना निर्दिष्ट है!  
२६. 'एथेन्स का सत्यार्थी ' ब्रह्मविद नेताओं के रहते क्या भारत कभी मर सकता है ?: Try East or West, India can never be Europe until she dies : चाहे पूर्व (के आतंकवादी ) प्रयत्न करे चाहे पश्चिम (पाश्चत्य भौतिक सभ्यता की आँधी)  -भारत कभी यूरोप नहीं बन सकता, जब तक कि वह मर-मिट न जाये। और क्या वह कभी मर भी जायेगा
वह भारत जो प्राचीनकाल से सभी उत्कृष्टता, नैतिकता, और आध्यात्मिकता (दशावतार-भक्ति) का जन्मस्थान रहा है, वह देश जिसमें ऋषिगण विचरण करते हैं, 'जिस भूमि में देवतुल्य मनुष्य ' कमलीवाले बाबा' अभी भी जीवित और जाग्रत हैं,क्या मर जायेगा ? I will borrow the 'Lantern of the Athenian Sage' and follow you, my brother ! एथेंस के ऋषि डायोजिनीज*  की लालटेन को उधार लेकर, मैं (देवकुलिश !) तुम्हारे पीछे पीछे इस विशाल संसार के शहरों, ग्रामों, मैदानों और अरण्यों में चलूँगा -मुझे अगर दिखा सकते हो, तो -ऐसे पुरुष (नवनी दा, प्रमोद दा जैसे 'कमलीवाले बाबा' -ड्रॉपआउट्स छन्न छाड़ा गोष्ठिर पुरोधा) मुझे दूसरे देशों में भी दिखा दो ! 
[डायोजिनीज* या एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलिश -जो सात पर्दों में छुपे सत्य को देखकर अन्धे हो गए थे*? नहीं वास्तव में वे अन्धे नहीं हुए थे;  नवीं कक्षा से लेकर आजतक जिस प्रश्न का उत्तर खोज रहा था, वह अब समझ में आया -वास्तव में डायोजिनीज* (Cynic सीनिक सम्प्रदाय के ऋषि) यह मानते थे कि संसार में यथार्थ 'मनुष्य' (ब्रह्मविद मनुष्यों) की संख्या बहुत कम है; और अपने इसी भाव को प्रकट करने के लिये वे दिन में भी लालटेन जला कर उस यथार्थ 'मनुष्य' या 'आध्यात्मिक मनुष्य' का चेहरा देखने के लिये 
इधर-उधर घूमा करते थे, जो जगत को भी ब्रह्म का व्यक्त रूप समझकर शिवज्ञान से जीवसेवा करने -BE AND MAKE ! की कोशिश करता हो ! 
"ब्रह्मवलोकधिषणं पुरुषं विधाय मुदमाप देवः " - यह मनुष्य जीवन, विशेष रूप से परम सत्य (निरपेक्ष सत्य) के बारे में जिज्ञासा करने के लिए है । पशु जीवन में हम ऐसा नहीं कर सकते । बड़े, बड़े जानवर, बाघ और शेर और हाथि हैं, और बड़े, बड़े पेड़ भी, वे भी जीव हैं । बड़ी, बड़ी व्हेल मछली समुद्र के भीतर, बहुत विशाल । बड़े, बड़े पहाड़ । पहाड़, उन्मे भी जीवन है । लेकिन वे भगवान के बारे में जिज्ञासा नहीं कर सकते हैं,यह संभव नहीं है । तुम मनुष्य जीवन में भगवान के बारे में जिज्ञासा कर सकते हो, बस । इसलिए किसी भी सभ्य समाज में भगवान की एक जिज्ञासा होती है, जिसे धर्म कहा जाता है। November 14, 2012/ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना (35) 'चरित्र निर्माण का प्रक्रिया '(The way to build characterजीवन-गठन की निर्माण-सामग्री)]
२७. फलेन परिचीयते: सत्य ही कहा है - " Tree is known by its Fruits"- 'फलेन परिचीयते' -वृक्ष की पहचान उसके फलों से ही होती है ! उसी तरह ये देव-मानव (these Man-Gods: नवनी दा, प्रमोद दा जैसे 'कमलीवाले बाबा' -ड्रॉपआउट्स छन्न छाड़ा गोष्ठिर पुरोधा) वैदिक धर्म या सनातन धर्म के यथार्थ स्वरूप का परिचय दे रहे हैं ! वैसे देवतुल्य मनुष्यों का जीवन और चरित्र ही सनातन जातीय वृक्ष (racial tree) की प्रकृति, शक्ति और सम्भावनाओं को स्पष्ट रूप से प्रकाशित करते हैं ! हमारा वह सनातन जातीय वृक्ष 'ऊर्ध्वमूल अधोशाखा' होने के कारण कई शताब्दियों की सभ्यता देखी है, उस वृक्ष ने हजारों वर्षों तक टेरेरिस्ट-आक्रमणकारियों के झंझावात को सहन किया है, और फिर भी यह सनातन यौवन (eternal youth) की अक्षुण्ण शक्तियों से भरा हुआ खड़ा है ! 
[" किसी भी शास्त्र की परीक्षा है कि हम परमेश्वर के लिए प्रेम में स्वयं कैसे विकसित होते जा रहे हैं । फलेन  परिचीयते-- यदि तुम पाते हो कि कुछ धार्मिक सिद्धांतों का पालन करके, तुम भगवान के लिए अपने प्यार को विकसित कर रहे हो, तो उसका यह फल सही है । कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह बाइबिल है या कुरान या भगवद गीता ।" साभार HI/Prabhupada 0487] 
क्या भारत मर जायेगा ? तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता का समूल नाश हो जायेगा, सारे सदाचारपूर्ण आदर्श जीवन का विनाश हो जायेगा, धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जायेगी, सारी भावुकता का भी लोप हो जायेगा।
और उसके स्थान पर कामरूपी देव और विलसितारूपी देवी राज्य करेगी। धन उनका पुरोहित होगा। प्रतारणा, पाशविक बल और प्रतिद्वंद्विता, ये ही उनकी पूजा पद्धति होगी और मानवात्मा उनकी बलिसामग्री हो जायेगी। 
ऐसी दुर्घटना (माँ जगदम्बा के राज्य में) कभी हो ही नहीं सकती। क्रियाशक्ति (power of doing) की अपेक्षा सहनशक्ति (power of suffering) कई गुना बड़ी होती है। प्रेम की शक्ति घृणा की शक्ति की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक है।
२८. क्वैन्ट फिनामनान : "विलक्षण घटना" : (Quaint Phenomenon: manifestation of patriotic impulse, revival of Hinduism.) जो यह समझते हैं कि "सनातन धर्म और हिन्दुस्तानी राष्ट्रवाद" का वर्तमान पुनरुत्थान  (मोदी-योगी राज्य में,  बाहुबली -२ का रिलीज होना और १० हजार करोड़ का बिजनेस करना?) केवल देशभक्ति के आवेग का एक प्रकटीकरण मात्र है, वे भ्रम में हैं!  
आओ, सर्वप्रथम हम इस अदभुत व्यापार को समझने का प्रयत्न करें ! 
क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि वर्तमान वैज्ञानिक खोज के प्रबल आक्रमण से, मिस्र और यूनान की प्राचीन सभ्यता तो नष्ट हो गयी किन्तु १००० वर्ष की गुलामी के बावजूद यह वैदिक सभ्यता अपने गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा के कारण आज तक जीवित बची हुई है ? आधुनिक विज्ञान के हथौड़े की चोटें उन धार्मिक मतों को चीनी-मिट्टी के बर्तनों की तरह चूर चूर कर रही हैं, जिनका आधार केवल यह विश्वास था कि सातवें आसमान में बैठा ईश्वर निष्ठुर राजा के सामान किसी को नरक की आग में झोंक देगा या किसी को पुरष्कृत करेगा। पाश्चात्य धर्म समूह अति उग्र आधुनिक विचारों की बाढ़ में अपनी बुद्धि का दिवाला निकाल चुका है,अधिकांश विचारशील व्यक्ति चर्च के साथ अपना तोड़ कर अशान्ति के समुद्र में गोते खा रहे हैं।
पाश्चत्य देशों में कई चर्च बन्द हो चुके हैं।
दूसरी ओर वेदान्त ज्ञान के जलप्रपात से जीवनामृत (water of life) पीने वाले, वेदों से उत्पन्न केवल 
हिन्दू और बौद्ध धर्म ही पुनरुज्जीवित हो रहे हैं ! (श्रीलंका में जो अन्तर्राष्ट्रीय वैशाख दिवस -बुद्ध -पूर्णिमा मनाया गया उसमें भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी मुख्य अतिथि थे, और वहाँ के राष्ट्रपति ने अपने वेलकम ऐड्रेस में स्वामी विवेकानन्द द्वारा बुद्ध पर व्यक्त उनके उद्गार को कोट भी किया ! ) पश्चमी देशों के बेचैन नास्तिक (atheist /श्रद्धारहित) और अज्ञेयवादी (agnostic/संशयी आत्मा) बुद्धिजीवियों को 'गीता ' और 'धम्मपद' केवल इन्हीं दो ग्रन्थों (सूफिज़्म समेत भारत में जन्मे सभी धर्म-सम्प्रदायों में भी ) में ऐसा स्थान मिलता है, जहाँ वे थोड़ी देर के लिए शान्ति का अनुभव करते हैं। 
२९. अब पाँसे पलट गये हैं : The tables have been turned : जो हिन्दू (हिन्दुस्तानी) निराशा के आँसू बहाता हुआ अपने पुराने निवास-गृह को अतातायियों द्वारा प्रज्ज्वलित अग्नि से परिवेष्टित देख रहा था, आज जबकि आधुनिक विचार के शोधक प्रकाश ने धुएँ के अंधकार को हटा दिया है, तब वही हिन्दू या हिन्दुस्तानी जो धर्म बदलने के बाद भी अपने पूर्वज श्रीराम) को नहीं बदल सका - देख रहा है कि उसी का घर "भारतवर्ष " तो अपनी पूरी दृढ़ता के साथ खड़ा हुआ है ! (इसीलिए अब कोई हिन्दुस्तानी अब पाकिस्तान जाकर बसना पसन्द नहीं करता !) और शेष सब लोग या तो मर मिटे या अपने घर को पुनः हिन्दू नमूने (सूफिज़्म) के अनुसार नए सीरे से बना रहे हैं !
यह देखकर उस हिन्दुस्तानी ने अपने ऑंसू पोंछ डाले और यह जान लिया कि "ऊर्ध्वमूलमधःशाखामश्वत्थं प्राहुरव्ययम्" (गीता १५.१) - सनातन वृक्ष को जड़ तक काट देने की कोशिश करने वाली वह कुल्हाड़ी तो अन्ततोगत्वा चिकित्स्क सर्जन की शल्य क्रिया करने वाली हितकारी छुरी ही साबित हुई। (जाति-पाति भेद मिटाकर सारे हिन्दू एक हो गए !) 
उसने यह देख लिया कि अपने धर्म की रक्षा के लिये न तो उसे शास्त्र-वाक्यों को तोड़मरोड़ करनी है, और न किसी अन्य प्रकार की बौद्धिक बेईमानी ही। इतना ही नहीं , वह तो अपने शास्त्रों में जो कुछ निम्न श्रेणी का (कर्मकांडीय, तान्त्रिक-अनुष्ठान) है, उसे निम्न कहकर ही स्वीकार कर सकता है।  क्योंकि शास्त्रकारों ने निम्न स्तर के अधिकारीयों के लिये "अरुन्धती दर्शन न्याय " *  के अनुसार वैसा ही (धर्म का सूक्ष्म भाव समझने के लिए पहले स्थूल भाव की सहायता लेनी पड़ती है !) जान-बूझ कर रखा है।
[अरुन्धती *एक इतना छोटा तारा है, जो शीघ्र नहीं दिखाई देता। जब सिन्दूरदान समय उसे दिखाना पड़ता है, तो पहले दूल्हे की दृष्टि उस तारे के निकट स्थित बड़े चमकीले तारे की ओर ले जाकर क्रमशः उसे छोटे अरुन्धती तारे को दिखलाया जाता है। ] 
धन्य हैं हमारे वे पुरातन ऋषि ! जिन्होंने अपने भावी सन्तति के लिये ऐसा सर्वव्यापी, निरन्तर प्रसरणशील
धर्मप्रणाली (all-pervading, ever-expanding system of religion)  को अविष्कृत किया और (ज्ञान की गुरु-शिष्य परम्परा) विरासत में छोड़ी है। सनातन वेदान्त परम्परा के अन्तर्गत आजतक भौतिक जगत में जितने आविष्कार चुके हैं और जो कुछ भविष्य में होनेवाला है, उन सबका सादर समावेश हो सकता है। 
३०. discoveries are but re-discoveries:  अब तो हिन्दू अपने शास्त्रों का आदर पुनः नये भाव से करने लगा है, और उसने यह नयी जानकारी प्राप्त की है कि जो वैज्ञानिक आविष्कार प्रत्येक संकीर्ण-मत रखने छोटी छोटी धर्म-प्रणाली के लिये घातक सिद्ध हुए, वे सब नूतन वैज्ञानिक आविष्कार उसके पूर्वजों के ध्यान-समाधि लब्ध, इन्द्रियातीत अवस्था में पाये गये सत्यों ( truths which his ancestors discovered ages ago in the higher plane of intuition and super-consciousness.) के बुद्धि और इन्द्रियजन्य व्यावहारिक ज्ञानक्षेत्र में पुनराविष्कार मात्र है !  
अतः वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं या हिन्दुस्तानियों को न तो किसी वस्तु का त्याग ही करना है और न किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिये इधर-उधर भटकना ही है। उसके लिये बस इतना ही पर्याप्त है कि वह अपने पूवजों से उत्तराधिकार में प्राप्त अनन्त कोष में से केवल थोड़ा सा (3'H' विकास के ५ अभ्यास) को निकाल कर अपने उपयोग में लाये। और उससे अपनी आवश्यकता की पूर्ति करे। और उसने ऐसा करना आरम्भ भी कर दिया है, और भविष्य में वह और भी अधिकाधिक करता रहेगा ! 
[ १९६७ में महामण्डल के आविर्भूत होने के बाद भारत की युवा मानसिकता में परिवर्तन : 
१. उसने उनका  (3'H' विकास के ५ अभ्यास) अभ्यास करके 'लीडर बनना और बनाना' प्राम्भ भी कर दिया है, और निकट भविष्य में यह 'नेता ( अवैतनिक आध्यात्मिक लोकशिक्षक) बनो और बनाओ '- आंदोलन सम्पूर्ण भारतवर्ष में फ़ैल जायेगा। क्या यही इस सनातन धर्म और हिन्दू-राष्ट्रवाद (हिन्दूइज्म -मोदी-योगी) के पुनरुत्थान का सच्चा कारण नहीं है ?  
२. जो हिन्दू युवा- एथेंस का सत्यार्थी पढ़कर, खतरनाक सत्य की खोज में (मनुष्य को अँधा कर दे ) पहले इधर-उधर (कुम्भ में देवराहा बाबा से लेकर नक्सलबाड़ी तक) भटकता -टटोलता फिर रहा था, उसने महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर यह समझ लिया कि धूर्त राजनीतिज्ञों के चक्कर में फंस-कर उसे आरक्षण को लेकर जाति-विद्वेष नहीं फैलाना है, केवल आध्यात्मिक मनुष्य या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देकर ब्राह्मणेत्तर समस्त जातियों को ब्राह्मण में रूपान्तरित कर देना है। उसे न तो किसी विदेशी से धर्मज्ञान प्राप्त करना है, न किसी दूसरे धर्म में कन्वर्ट होने की जरूरत है।  
३. हिन्दू युवा 'गीता -उपनिषद-ब्रह्मसूत्र' आदि 'प्रस्थान-त्रय और पतंजलि योगदर्शन' आदि शास्त्रों का आदर पुनः नए भाव से करने लगा है। इतना ही नहीं, उसे यह नयी जानकारी भी प्राप्त हुई कि हमारा वेदान्त इन्द्रियातीत -सत्य की अनुभूति तो विज्ञान पर भी भारी पड़ रहा है !  
सर्न प्रयोगशाला में ‘हिग्स बोसॉन’ या उस 'मायावी कण या  'गॉड पार्टिकल' की खोज हो चुकी  है; जिस सूक्ष्म कणों की प्रकृति और उनसे संबंधित बलों के कारण ब्रह्मांड की हर चीज का आकार बना।  दुनिया भर के अधिकांश भौतिक विज्ञानी आज इस सिद्धांत से सहमत हैं कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति ‘बिग बैंग’ यानी महाविस्फोट से हुई। महाविस्फोट से जिस ब्रह्मांड का जन्म हुआ उसकी हर चीज सूक्ष्म कणों से बनी। (वेद भी कहता है कि सृष्टि 'शब्द ब्रह्म ॐ ' के टंकार से हुई !) ईशावास्योपनिषद मन्त्र -१. ईशा वास्यम् इदम् .. में स्पष्ट घोषणा करता है कि कण -कण में भगवान् है! आधुनिक वैज्ञानिक भी अब  इसी कण को अस्तित्व का कारण मान रहे हैं । 
४. भारत सम्पूर्ण विश्व का केवल धार्मिक नेता ही नहीं वैज्ञानिक नेता भी है : अर्थात आज का विज्ञान भी इन्द्रियातीय सत्य या आध्यात्म के अदृश्य स्वरुप के अस्तित्व को (अतिचेतन अवस्था को)  सत्य मान रहा है! गॉड -पार्टिकल का आविष्कार उसी इन्द्रियातीत सत्य को बुद्धि और इन्द्रियगोचर व्यावहारिक चेतना के क्षेत्र में पुनराविष्कार (rediscoveries) मात्र हैं ! आज जिस 'ब्रह्म कण' (हिग्सबोसॉन) को वैज्ञानिक लोग भी सत्यापित करते दिख रहे हैं, वह भारतीय वेद में हजारों वर्ष पहले से ही वर्णित है ! यानी हम विश्व के धर्म गुरु ही नहीं है, हम सम्पूर्ण जगत के वैज्ञानिक गुरु भी हैं ! सर्न की प्रयोगशाला में जिस 'गॉड पार्टिकल' को खोज लेने का दावा, आज का विज्ञान  कर रहा है, उस परमसत्य को तो हमारे पूर्वज ऋषियों ने प्राचीन काल में समाधि द्वारा उपलब्ध, अतिचेतन अवस्था या इन्द्रियातीत अवस्था में पहले ही प्राप्त कर लिया था। 
५. जो नित्यनूतन वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं, वे केवल पाश्चात्य संकीर्ण किन्तु स्वमतान्ध धर्म-प्रणाली के लिये ही घातक सिद्ध हुए हैं। 
आधुनिक विचारों की वैज्ञानिक सर्चलाइट [भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ए.एस.आई) की शोधक रौशनी] ने तो बिल्कुल बाजी ही पलट दी है, वही हिन्दू जो कभी अपने प्राचीन मन्दिरों को आतंकवादियों (बाबर-औरंगजेब आदि) द्वारा ध्वस्त कर उसके ऊपर मस्जिद बना देखकर आँसू बहाता था। वही हिन्दू आज देख रहा है कि (स्वाधीनता मिलते ही) केवल उसीका भग्न 'सोमनाथ मन्दिर' पूरी भव्यता के साथ  पुनः खड़ा हो चुका है। (और अब ए.एस.आई की शोधक रौशनी एवं नासा के रामसेतु के वैज्ञानिक खोज द्वारा प्रमाणित होने के बाद अयोध्या, मथुरा, काशी में पहले ही से भव्य मन्दिर बने हुए थे। अतः अति शीघ्र 'श्रीराम लला' का भव्य राम-मन्दिर भी पुनर्निर्मित होने के कागार तक पहुँच चुका है।]
६. अब पाँसे पलट गए हैं : यह देख कर उस हिन्दू युवा ने यह जान लिया है कि सनातन धर्म रूपी वृक्ष का मूल तो उर्ध्व (ब्रह्म) में है , और उसकी हजारों शाखा-प्रशाखायें निम्न की ओर फैली हुई हैं- "ऊर्ध्वमूलमधः शाखामश्वत्थं प्राहुरव्ययम्" (गीता १५.१) ! इसीलिये सनातन धर्म की जड़ तक को काट देने के लिये आतंकवादी बाबर के सेनापति कट्टर टेरेरिस्ट मीर बाकी ने जिस कुल्हाड़ी से अयोध्या के राम मन्दिर (और इटली ने श्रीलंका के रामसेतु वजूद) को मिटा देने की कोशिश की थी, टरेरिस्ट बाबर और इटली की 
वही कुल्हाड़ी (माँ जगदम्बा की इच्छा से-यूपी और दिल्ली के चुनाव में भारी जीत के बाद अब २०१९ का आम चुनाव के द्वारा) भारत के पुनरुत्थान के लिये मानो चीर -फाड़ करने वाले चिकितस्क सर्जन की हाथों में रहने वाली हितकारी छुरी  (Merciful Knife) ही साबित होने जा रही है

३१ . "यंग मेन ऑफ़ बंगाल; टू यू आई स्पेशियली अपील-"Be and make." : (First, let us be Gods, and then help others to be Gods. "Be and make." Let this be our motto.) मद्रास के युवाओं को लिखित पत्र में स्वामी जी ने बंगाल के युवाओं को " आध्यात्मिक मनुष्य बनो और बनाओ" का सन्देश क्यों दिया था ?)
बंगाल के नवयुवको ! तुम लोगों से मैं खास तौर पर अपील करता हूँ; भाइयो ! कि जिन सच्ची बुराइयों के चलते विदेशी लोग पूरे हिन्दू जाति को बदनाम करते हैं, यह जानने के बाद हमें लज्जा होती है कि उन अधिकांश बुराइयों के कारण हम लोग ( तथाकथित सेक्यूलर ममता दीदी की तुष्टिकरण नीति, इमाम बरकती को लालबत्ती देना ?)  ही हैं। माँ जगदम्बा के आशीर्वाद से हमलोग इस बात समझ चुके हैं, और उन्हीं के आशीर्वाद से न केवल अपने को शुद्ध कर लेंगे, अपितु सारे भारत को सनातन धर्म उपदिष्ट आदर्शों को प्राप्त करने में सहायता देंगे ! 
[ स्वामी विवेकानन्द के इस आह्वान को १९६७ में महामण्डल ने सुना -समझा और युवा प्रशिक्षण के व्यावहारिक रूप में ढालकर सम्पूर्ण भारत में फैला दिया; "और उसने ऐसा करना आरम्भ भी कर दिया है, और भविष्य में वह और भी अधिकाधिक करता रहेगा ! " 
 सच्चे धर्म -चरित्रवान मनुष्य 'बनो और बनाओ' को प्रसारित करने में इस प्रकार सहायता दे सकते हैं -    
१.सबसे पहले तो - उस इर्ष्यरूपी कलंक को धो डालने के लिये भगवान से प्रतिदिन प्रार्थना करो; जिसे प्रकृति ही गुलामों के ललाट में लगा देती है। किसी (मोदी-योगी) से ईर्ष्या मत करो। 'भला बनना और भलाई करना ' -इसीमें धर्म का सर्वस्व है; इसीलिये निःस्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई करने के काम में लगे, प्रत्येक व्यक्ति को अपने हाथ का सहारा दो।  तीनों लोकों के जीव मात्र के लिये मंगल कामना करो।कहो - " हे प्रभु, संसार के सभी मनुष्य सुखी हों,शांति और आनन्द में रहें और सभी को ईश्वर की प्राप्ति हो !"            
२. फिर अपने धर्म के केन्द्रवर्ती सत्य (central truth) -उस महान श्रद्धा या आस्तिकता पर खड़े हो जाओ, जो घोषणा करती है - "प्रत्येक मानव-आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है"- जो अज, अविनाशी, सर्वव्यापी अनन्त है, जिसकी महिमा का वर्णन वेद भी नहीं कर सकते ! जो भारत में जन्मे प्रत्येक धर्म - " हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन या सूफिज़्म " के लिये समान पैतृक विरासत (common heritage) है ! प्रत्येक मनुष्य अपने-आप में अनूठा है, किसी के अंगूठे और आँखों की पुतली का निशान दूसरे से नहीं मिलता! प्रत्येक मानव-आत्मा के वैभव के सामने, सूर्य-चन्द्र, तारागण और आकाशगंगायें के साथ यह सम्पूर्ण जगत भी मानो केवल- एक बूँद (drop) जितना है ! एक मनुष्य में दूसरे मनुष्य में अन्तर प्रकार (किस्म) में नहीं, केवल उस आत्मश्रद्धा के तारतम्य में है ! प्रत्येक स्त्री-पुरुष, यही नहीं उच्चतम देवों से लेकर पैरों के नीचे रंगने वाले कीट पर्यन्त -सब वही आत्मा, विकसित या अविकसित है। अन्तर प्रकार में नहीं केवल परिमाण में है।  
३. रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग मेथड : अपने राजयोग ग्रन्थ की भूमिका मे स्वामीजी कहते है- " जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण ओर नित्यशुद्ध है, तब उसको फिर दुख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। मृत्यु का भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था प्रकट होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल मे नहीं है, तब उसे फिर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण-द्वय का अभाव हो जाने फिर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये एकमात्र उपाय है -एकाग्रता !" (१/४०)   
" आत्मा अविद्या (अविवेक) के कारण प्रकृति के साथ संयुक्त हो गयी है; प्रकृति के पंजे से छुटकारा पाना ही हमारा उद्देश्य है। यही सारे धर्मों का अर्थात चरित्र-निर्माण का एक मात्र लक्ष्य है।"
" आत्मा (3rd'H) की इस अनन्त शक्ति (प्रेम)  का प्रयोग जड़ वस्तु ('Hand 'जड़ शरीर) पर होने से - मैटेरियल डेवलपमेन्ट या भौतिक उन्नति होती है।  विचार (Head-खोपड़ी) पर होने से बुद्धि का विकास होता है, और अपने (Heart) पर ही होने से मनुष्य स्वयं परमात्मा (पूर्णतः निःस्वार्थी) ईश्वर में रूपान्तरित हो जाता है।   
इस प्रकार [ 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा' में (५ अभ्यास द्वारा 3H को विकसित करने का प्रशिक्षण प्राप्त करके] 
'फर्स्ट, लेट अस बी गॉड्स, 
ऐंड देन हेल्प अदर्स टु बी गॉड्स !' 
'BE AND MAKE' - लेट दिस बी आवर मोटो
पहले हमें ईश्वर ( पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य, अवैतनिक लोक-शिक्षक, ब्रह्मविद मनुष्य या भगवान विष्णु जैसा नेता) बन लेने दो। ततपश्चात दूसरों को भी ईश्वर (ब्रह्मविद मनुष्य) बनने में सहायता देंगे। ' बनो और बनाओ'-- यही हमारा मूल-मन्त्र रहे ! 
४. 'जापानी बालिकायें जैसे गुड़िया नहीं तोड़ती'- किसी भी मनुष्य (हिन्दू हो या मुसलमान) को पापी मत कहो। उसे यह बताओ कि तू ब्रह्म है। यदि कोई शैतान (चंद्रवंशी-यदुवंशी में कुन्दन, सिकन्दर) भी हो, तो भी हमारा कर्तव्य यही है कि हम उसके हृदय गुफा छिपे ब्रह्म (परमात्मा होने की सम्भावना) का ही स्मरण करें, शैतान ( वर्तमान की जन्तु अवस्था) का नहीं। हमें यह समझ लेना चाहिये कि अभी किसी व्यक्ति में जो कुछ नकारात्मक, हानिकारक या आलोचना करने योग्य दिख भी रहा है, तो एक दिन उसका अन्त होना अवश्यम्भावी है! और उसमें जो कुछ सकारात्मक है, प्रशंसापूर्ण है- वह एक दिन प्रकट होकर रहेगा - वही अमर है और वही सदा रहेगा।
यदि किसी कमरे में १००० वर्ष से अँधेरा है, तो उसके जाने में भी १००० वर्ष लगेगा -ऐसा कोई नियम नहीं है; एक दीपक जला दो, अँधेरा तुरन्त भाग जायेगा ! यदि कोठरी में अन्धकार है , तो सदा अन्धकार का अनुभव करने, और अंधकार-अंधकार चिल्लाते रहने से तो वह दूर नहीं होगा, बल्कि अपने हृदय की कोठरी में श्री रामकृष्ण परमहंस नाम का दिया बार लो, तब वह अन्धकार सदा के लिये दूर हो जायेगा। 
५. संशयी आत्मा विनश्यति ! ऑटो सजेशन: तुम जो कुछ सोचोगे वही हो जाओगे !  हम अपने आप से सदा यही कहते रहें ["We are" and "God is"and "We are God", "Shivoham, Shivoham", and march on.man partly is and fully hopes to BE] अंग्रेजी के कवि ब्राउनिंग की कविता -हम पशु नहीं हैं, पशु पूर्ण है और ईश्वर भी पूर्ण हैं, हमें ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद मनुष्य बन जाना है।"
'हम हैं' -"ईश्वर हैं और हम ईश्वर हैं " शिवोहं शिवोहं -कहते हुए "चरैवेति चरैवेति" निरन्तर पूर्णत्व प्राप्ति की ओर आगे बढ़ते चलो ! 
६. वेदान्त केसरी गर्जना करे :   (Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes.) जड़ (शरीर-मन) नहीं वरन चैतन्य (आत्मा निरपेक्ष सत्य का दर्शन करना) हमारा लक्ष्य है। नाम-रूप वाले सभी सापेक्षिक सत्य उसी इन्द्रियातीत सत्य या नामरूप हीन निरपेक्ष के साथ कार्य-कारण संबन्ध में जुड़ा हुआ और उसके अधीन है ! इसी सनातन सत्य की शिक्षा श्रुति,(प्राचीन गुरु -शिष्य वेदान्त परम्परा) देती चली आ रही है ! प्रकाश को ले आओ,अन्धकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा -[ दी टास्क फॉर यंग मेन ऑफ़ बंगाल  - लाइटहॉउस जैसे प्रकाश-स्तम्भ समुद्री जहाज का मार्गदर्शन करते हैं, वैसे ही 
'महामण्डल यूथ लीडर  शिप ट्रेनिंग ' के माध्यम से 'आध्यात्मिक मनुष्य' या ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने में समर्थ लीडर्स या प्रकाश-सत्मभ तुल्य "अवैतनिक-लोकशिक्षको" का निर्माण विशाल संख्या में करो ! नेता (सद्गुरु या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) युगों-युगों की अन्धकार-काराओं-ह्रदय को अन्तर के प्रकाश से आलोकित करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। सच्चे नेता (जगतगुरु) बड़े दु:साहसी और विपरीत धारा के तैराक होते हैं। वे बड़े मरजीवड़े होते हैं। वे मृत्यु के मुख से अमरता की मणि " सर्वग्रासी प्रेम"  को जबरन निकालकर अपना  शीशमुकुट बना लेते हैं। " कोई मनुष्य सच्चा नेता केवल तभी बन सकता है, जब उसके हृदय में इसी प्रेमाग्नि का एक स्फुलिंग, इस प्रेम का एक छोटा सा अंश विद्यमान हो। जिसके हृदय में मानवमात्र के लिये ऐसा ही प्रेम नहीं छलकता हो, वह किसी भी व्यक्ति के जीवन -गठन या पूर्णत्व की दिशा में अग्रसर होने में कोई मार्गदर्शन नहीं दे सकता है। भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुध्द, ईसा मसीह, हजरत मोहम्मद, भगवान वेदव्यास, आचार्य शंकर, श्रीरामकृष्ण परमहंस, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानन्द आदि मानवजाति के मार्गदर्शक ' नेता ' इसी प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ मात्र थे। ]   
'लेट दी लायन ऑफ़ अद्वैत वेदान्ता रोर,
   ऐंड दी फॉक्सेज विल फ्लाई टू देयर होल्स!' 
वेदान्त परम्परा में प्रशिक्षित अवैतनिक लोक-शिक्षक या नेता महामण्डल के 'वेदान्त केसरी' - गर्जना करे, सियार अपने बिलों में छिप जायेंगे ! उच्च विचारों को गाँव गाँव में बिखेर दो और फल अपने आप होता रहेगा। भिन्न भिन्न रासयनिक पदार्थों को एक साथ डाल दो, उसकी सम्मिश्रण-क्रिया आप ही आप होती रहेगी।
आत्मा की शक्ति को विकसित करो , और सारे भारत में उसे ढाल दो, और जिस स्थिति की आवश्यकता है, वह आप ही आप प्राप्त हो जायेगी। अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व को प्रकट करो, और उसके चारो ओर सब कुछ समन्वित होकर विन्यस्त होजायेगा।
७. वेदों में बताये हुए 'इन्द्र और विरोचन ' के उदाहरण का स्मरण रखो।  दोनों को अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व का बोध कराया गया था। परन्तु असुर विरोचन अपने शरीर को ही ब्रह्म मान बैठा ? इन्द्र तो देवता थे, वे समझ गए कि वास्तव में आत्मा ही ब्रह्म है ! (सत्य का अनुभव देवकुलिश के अहं को नहीं उसकी आत्मा को ही हुआ था ?) तुम तो इंद्र की सन्तान हो, तुम देवताओं के वंशज हो।  जड़ पदार्थ तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं बन सकता। शरीर तुम्हारा ईश्वर कभी नहीं हो सकता। 
"भारत का पुनरुत्थान होगा,पर वह जड़ की शक्ति से नहीं,वरन आत्मा की शक्ति द्वारा। वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं, वरन शान्ति और प्रेम की ध्वजा से -परिव्राजक संन्यासियों के वेश से, धन की शक्ति से नहीं, बल्कि भिक्षापात्र की शक्ति से सम्पादित होगा। 
८. ऐसा मत सोचो कि हम तो गृहस्थ हैं, हम भला क्या कर सकते हैं ? : तो क्या हम दुर्बल और कमजोर बीस्ट हैं ? घोर स्वार्थी पशुतुल्य हैं ? आत्मा चाहे गृहस्थ की हो या संन्यासी की -आत्मा सर्वशक्ति-मान है ! श्रीरामकृष्ण के चरणों के दैवी स्पर्श से जिनमे विवेकज-ज्ञान का अभ्युदय हो गया है, (महामण्डल के ) उन मुट्ठीभर नवयुवकों की ओर देखो।  उन्होंने उनके उपदेशों का प्रचार आसाम से सिन्ध तक और हिमालय से कन्याकुमारी तक कर डाला है। वे लोग हिमालय पर्वत को २०,००० फुट की ऊँचाई पर से पैदल ही बर्फ पर से लाँघकर तिब्बत के रहस्यमय प्रदेश में प्रविष्ट हो गए? उन्होंने अपनी रोटी भिक्षा के द्वारा प्राप्त की और अपने अंग चीथड़ों से ढाँके। उनपर कितने ही अत्याचार किये गए, पुलिस ने उनका पीछा किया, वे जेल में डाले गए, पर अंत में जब अंग्रेज सरकार को उनकी निर्दोषिता का निश्चय हो गया , तब वे मुक्त कर दिए गए। 
उनकी संख्या अभी २० है। कल उनकी संख्या दो हजार बना दो। बंगदेश के युवकों ! तुम्हारे देश को इसकी आवश्यकता है। सारे संसार को चरित्रवान मनुष्यों की आवश्यकता है ! अपने अन्तःस्थित ब्रह्म को जगाओ, जो तुम्हें भी क्षुधा-तृष्णा , शीत-उष्ण सहन करने में समर्थ बना देगी।  विलासपूर्ण भवनों में बैठे बैठे जीवन की सभी सुख सामग्री से घिरे हुए रहना और धर्म की थोड़ी चर्चा कर लेना अन्य देशों में भले ही शोभा दे ; पर भारत को तो स्वभावतः सत्य को पहचान लेने की शक्ति प्राप्त है। भारत तो स्वाभाव से ही सत्य-प्रेमी है। वह किसी ढोंगी के कपटवेश को अपने अंतःशक्ति से ताड़ लेता है। तुम लोग गृहस्थ होकर भी 'लस्ट और लूकर' में आसक्ति का त्याग कर दो ! महान बनो ! कोई भी बड़ा कार्य बिना त्याग के नहीं होता। स्वयं पुरुष ने भी सृष्टि की रचना करने के लिए स्वार्थ-त्याग किया, अपने को बलिदान किया।अपने आरामों का , अपने सुखों का, अपने नाम -यश और पदों का -इतना ही नहीं , अपने जीवन  तक का -त्याग करो ; और मनुष्य-रूपी श्रृंखलाओं से ऐसा पुल बनाओ: , जिस पुल पर से करोड़ो लोग इस भवसागर को पार कर जाएँ।
समस्त मंगलकारी शक्तियों को एकत्र करो। किस ध्वजा के नीचे तुम अग्रसर हो रहे हो, इसकी परवाह मत करो। तुम्हारी ध्वजा का रंग हरा, नीला या लाल कुछ भी हो, उसकी चिंता मत करो, बल्कि सभी रंगों को एक में मिला दो और उससे उज्ज्वल श्वेत रंग का निर्माण करो -जो प्रेम का रंग है। हमें तो कर्म ही करना है, फल अपने आप होता रहेगा। 
यदि कोई पारिवारिक या सामाजिक बन्धन तुम्हारे ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में बाधक है, तो आत्मशक्ति के सामने अपने आप ही वह टूट जायेगा। भविष्य मुझे दीखता नहीं, और मैं उसे देखने की चेष्टा भी नहीं करता। परन्तु मैं अपने सामने एक जीवन्त दृश्य तो अवश्य देख रहा हूँ, कि हमारी यह प्राचीन भारत माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर नवयौवनपूर्ण और पूर्व की अपेक्षा अधिक महा महिमान्वित होकर विराजी है। शांति और आशीर्वाद के वचनों के साथ सारे संसार में उसके नाम की घोषणा कर दो ! 
सेवा और प्रेम में सदा तुम्हारा , -विवेकानन्द !
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गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

Sri Nabaniharan Mukhopadhyay : A SHORT BIOGRAPHY

1. The call of the nation :
Two decades after Independence, when our country was facing a worst crisis of object poverty on both material and psychological planes, when hopes of a new dawn for the masses were dwindling, and youth's discontent started erupting its rage through destructive channels, there arose a necessity in our national life of a new light, which was destined to come from Vivekananda. The situation was preparing the country's youths to rediscover their Messiah.
A nationwide youth movement with light from Vivekananda was thus the need of the hour. Not for a select few of high intellectual or spiritual caliber, but for one and all. Not for a specific ethnic group or community, but for the the whole country. Not for solving problems one by one separately, but to go to the root of all problems and put the fire there. The power of youth was to be awakened, directed, vivified, organised to bring fulfillment to each individuals life and to society at large.An organisation-a well -structured and disciplined one with a clear set of ideas, methods, and policies-led by men of character and caliber and speaking the language of the common man was the key to materialize such a vision. An organisation that will reach youths wherever they are, bring them with gentleness of loving care towards a better understanding of life, offer them simple, practical methods that can be applied in groups as well as in individual life to verify their efficacy. Such an organization was nowhere, such a systematic guidance for youths was not in existence , yet this was the fundamental need.

This was the genesis of the Mahamandal. It was October 1967. A young man of lofty and dynamic character in his thirties was chosen to lead the effort Tall, Well-built, and intelligent, from an orthodox family of scholarly culture, he was modern and liberal in outlook and practical in approach - आशिष्ठ, बलिष्ठ ,मेधावी -as Vivekananda wanted for his work. His magnificent personality could enthrall youths and invigorate them to work towards higher ideals. This man was Nabaniharan Mukhopadhyay, fondly called Nabani Da. 
2. Birth and Ancestry :
He was born on 15 August 1931 after midnight at his paternal grandmother's house at 100, Cossipore Road, Kolkata. The grandma's father, Sri Mahima Charan Chakraborty, was one of those devotees of Sri Ramakrishna, who visited him many times and touched his holy feet. Later in his life Nabaniharan would feel proud to have been coddled, as baby, by the grandma, Tushar Vasini Devi, as if the touch of Sri Ramakrishna percolated to him through her via her father.
The family of Nabaniharan belonged to the lineage of Sri Harsha, one of the five Brahmins who left Kannauj to settle in Banga. Other prominent figures of the pedigree include Krittibas Ojha (Mukhopadhyay), famous for his Bengali version of the Ramayna, Pandit Kamadeva who brought Sri Nityananda to live at Khardah, and the great poet -saint Ramprasad . 
His grandfather, Shirish Chandra Mukhopadhyay, was a great scholar with spiritual orientation, particularly inclined to the Tantra practices.He lived in a joint family at Khardah, now in the North 24 Parganas district, with his erudite elder brother, Jatish Chandra Vidyarnava. Both studied at the then Presidency College, Calcutta.  Shirish  Chandra became the Headmaster of Andul HC School (now Mohiary kundu Chowdhury Institution.) at Andul Mouri in 1901 and served in that position till 1953. He was also associated with music and drama. He knew Girish Chandra Ghosh and Sir Ashutosh Mukhopadhyay very well. He even saw Swami Vivekananda at Dakshineshwar on 7th March 1897, after the latter's return from the West. Swami ji delivered a lecture there in English. 
Shirish Chandra wed Nalini Devi, who deceased soon after marriage.Latter he was married to Tusharvasini Devi. Their son, Indibar, and his wife, Usharani Devi, had two sons- Karabibaran and Nabaniharan and one daughter -Devipriya. Imdibar was a Homeopathic doctor, who received an MD from the All India Homoepathic Practitioner's Association. He taught at Calcutta Homeopathic
 Medical College. Like Shirish Chandra, Indibar was also fond of Shakespeare and could recite his all plays from memory.    
The joint family lived at their ancestral house, 'Bhuban-Bhavan', named after Nabaniharan's great grandfather, Bhuban Chnadra was a student of Ishwar Chandra Vidyasagar, who visited this house once. Afterwards this was to be registered office of the Mahamandal.
3. Formative years and Schooling:
Nabaniharan grew up in the family that was deeply devoted to the traditional
spiritual heritage of India, especially to the ideals of Sri Ramakrishna, Holy Mother Sri Sarda Devi, and Swami Vivekananda. The foundation of life is laid in the family in one's childhood, especially by the mother, and his was no exception. His mother was a lady of lofty idealism, and she was from an educated family. The child Nabaniharan had the first lessons of life from her. She would tell him stories of Dhruva and Prahlada and tales from the Ramayna and the Mahabharta. The child was particularly fond of Dhruva. After going to bed at night he used to listen to the story with rapt attention and weep and then fall asleep. We can understand the kind of education he got from his mother from the following incident. 
One day his mother was cleaning drains. When he saw that, he objected. The loving mother softly replied, 'As you clean the drains outside, purify the mind inside.' All work was thus transfigured into worship! 
Nabaniharan read no novel, perhaps except one, in his life. But, his mother read the Ananda Math by Bankim Chandra to him passage by passage . 
He never went to school before the Seventh Stander. Then he was admitted to the school where his grandfather was the headmaster. So he had several teachers whose erudition and exemplary character had a sustained impact on his life. He learned Sanskrit at the school level only, and that enabled him to write wonderful Sanskrit verses later in life! He also imbibed burning patriotism at the school. 
He became adept at the Indian martial arts like stick fighting with long staff (lathi khela), sword fighting, and knife fighting, and also skilled swimming and gymnastics. In these things he was more interested than in studies. The physical strength and stamina he developed in these days helped him work very hard throughout his life. 
He passed the Matriculation Examination from this school in 1947. On 14 August that year the boy went to the banks of the Ganga to see the last sunset of enslaved India. He visualized Mother India as a living mother, whenever he looked at the map. From midnight he joined the whole nation in all excitement to celebrate the new dawn of Independence. The hope was all around -the hope of brighter days ahead for one and all -the hope that was only to be shattered as years passed by. 
4. Higher education and service :
Nabaniharan studied for two years the Intermediate of Science (I.Sc.) course at the Scottish Church College in Calcutta.Swami Vivekananda and Subhash Chandra Bose graduated from this college. Immediately after the results were out, he had to join a service in the stone crushing industry at a remote place. He was only 17. Eager to pursue higher studies, he managed to get himself transferred to the Calcutta Office of the company. Then only he could do B.Sc. (Evening Course), Calcutta. 
When he was just stepping into adulthood, he wrote to his father in a letter, "I know I was not born for nothing." The future was already glimmering in the idealism of early youth. A sense of purpose was already in blossom. 
Those days the undergraduate course was of four years. At the end of the third year he had small pox and lay unconscious for about 22 days. During that period he had a strange vivid dream, in which he saw his own death and cremation in a mountain region. After many years , when he visited  Mayavati, he was amazed to discover similarity of the place and the trees and flowers seen in that dream with the area where now stands a commemorative plaque to Mr Savier, the devoted friend and follower of Swami Vivekananda, who, with his wife, came here from England and started the Advaita Ashrama at Mayavati to fulfill the wishes of Swami Vivekananda. 
During his college days a renowned doctor who established a temple at Khardah taught him to play harmonium and organ. These were his first lessons in music. There he used to join the evening prayers and play the organ and sing the hymns for an hour every evening. 
He now joined another job in the laboratory of Central Fuel Research Institute, Calcutta. He wanted to do M.Sc., but there was no evening course, except in mathematics, in which he was not particularly interested. So, he decided to take Special B.A.Exams and study M.A. in philosophy from Calcutta University. Philosophy he liked most since his adolescence. When he was in the Eighth Standard in school, a teacher asked him, 'which philosophy do you like? The boy replied confidently, ' I have my own philosophy. I don't bother my head with other's philosophies.' 
Much later in life, in 1997, he delivered a lecture at a seminar at a seminar at the department of Philosophy at Jadavpur University. It was a gathering of learned professors and students. A professor asked him after the lectures, during a question-answer session that followed, if he could explain the very essence of the Vedanta philosophy in simple words. He did it, but in the words of an almost illiterate, rustic woman: " If you want peace of mind, do not find fault with others. Rather see your own faults. Learn to make the whole world your own. No one is stranger. The whole world is your own.' Those were the last gospels of the Holy Mother. The whole audience responded cheerfully. 
Finally, he joined state government services and was posted at the 
New Secretariat, Calcutta. 
5.Association with the Ramakrishna Movement : 
At the instance of an office colleague Nabaniharan visited the Ramakrishna Vedanta Math on the day of Swami Abhedananda's birth anniversary celebration. Swami Sadatmananda, a disciple of Swami Abhedananda, was the President of the Math at that time. The Swami loved him very much, and he started to visit the Math now and then. Gradually, he was given the charge of editing Visva-Vani, the magazine of the Math.
Here he came to know an eminent singer, Bireshwar Chakraborty , who was a staunch devotee of Sri Ramaknotesrishna. He would become the music teacher of Nabaniharan and, in course of time, the Sangeet-Acharya of the Mahamandal. Both the teacher and the student belonged to a high order of perfection. Music was a form of spiritual practice for them- the highest form, and never a cheap commodity to toy with or to buy and sell. They would now conduct the evening prayers of the Math. Another renowned scholar and musicologist, Swami Prajnananananda, then Secretary of the Math, loved him very much and highly valued his genius. 
Nabaniharan attended lectures of great speakers after office hours at every opportunity. He listened to Sarvapalli Radhakrishnan, Jawaharlal Neharu, Ramesh Chandra Majumdar, Suniti Kumar Chatterji, and  many others. He would take notes, meet them to discuss issues, and developed  personal rapport with many of them. 
One such occasion was a lecture by Swami Ranganathananda at the Ramakrishna Mission Institute of Culture, Golpark, Calcutta. He was amazed; never before did he listen to such a wonderful lecture. He met the Swami after the crowds dispersed, and the Swami asked him to come again. Here also, gradually, he became a close associate of the monks and Brahmacharis. Many years later, he would travel through the length and breadths of Odisha with Swami Ranganathananda on a lecture tour organized by the Odisha State Branch of the Mahamandal. 
in the initial days, after Nabaniharan had completed the M.A., Swami Ranganathananda asked , 'So, Nabani, what are you going to do now? And he hastened to add, 'Certainly you will now choose a subject for a Ph.D.! Nabaniharan was bold; ' Who told you so ?' The Swami said, ' No.no, it's true you never told me that, but Bengalee boys cannot think of anything else.' And he continued, ' I say, don't do it, do Swamiji's work.' 
Nabaniharan gradually came in close contact with many highly revered monks of the Ramakrishna Order, including Swami Vireshwarananda, Swami Abhayananda (Bharat Maharaj), Swami Gambhirananda, Swami Bhureshananda, and many others. When the Mahamandal was started, it received blessings from all of them. At the Ramkrishna Math and Ramakrishna Mission Convention 1980 , Swami Gambhirananda held that the Mahamandal was a part of the Ramakrishna Movement. Swami Bhuteshananda considered it a sign of the Satya Yuga that had started, according to Swami Vivekananda , with the advent of Sri Ramakrishna. Bharat Maharaj approved the line of work -lying stress on understanding Vivekananda first, instead of Sri Ramakrishna. The annual rally of the Mahamandal was held at the foot of Shahid Minar, Calcutta at the instance of Swami Ranganathananda, who said to Nabaniharan, 'Bring Swami ji to Maidan.' 
Nabaniharan had very good relationship with many eminent people associated with the movement, including Dr Rama Chaudhary and Dr Santwana Dasgupta of the Nivedita Vrati Sangha and Sri Eknath Ranade and Dr M. Lakshmi Kumari of the Vivekananda Kendra, Kanyakumari. 
6. Genesis of the Mahamandal :  
Once some distinguished monks of the Ramakrishna Order, including Swami Bhashyanananda, Swami Ranganathananda, and Swami Niramayananda, came to Nabaniharan's house to see his grandfather, because the latter had seen Swami Vivekananda. Amongst them was Swami Smarnananda, now a Vice President of the Ramakrishna Math and Ramakrishna Mission. At that time the Swami was at the Advaita Ashram, Calcutta. He invited Nabaniharan to the Ashrama. Now Nabaniharan became a frequenter at the Ashrama. He would have long discussions and brief walk almost every evening with Swami Ananyananda and Swami Smarnananda. 
All these happenings contributed to make the ground ready for a new mission. All the right chemicals were put together, as it were. And the spark, the proposal, came from the two Swamis of the Advaita Ashrama. It was suggested that an organization was needed to carry the light and life of Swami ji to youths everywhere, but it was to be done, not by monks, but by lay persons. 
Soon several meetings were arranged at the Advaita Ashrama, Calcutta, with some individuals and youth associations working in the name of Swami Vivekananda or with his ideals. About the name of the proposed organization, Nabaniharan insisted on three points: it should have the name of Vivekananda; it should mention it is for the youth; its scope of work must be the whole of India. Finally, ' Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal' was name chosen, and the organization was established on 25 October 1967 with clearly defined aims and objectives : Organizing young men with complete focus on 'man-making, character-building', to channelize youthful energy into nation-building activities. The eternal values of the hoary cultural heritage of India were to be disseminated in society. The ideas were generally drawn from Swami Vivekananda. None were to leave their family or normal avocation for the work, but apply the ideas in all walks of life, so as to set example and galvanize people's outlook. Politics was to be shunned- members of political parties were barred from its membership. Principal Amiya Kumar Majumdar, who was a favorite student of Dr Radhakrishnan and Dr SN Dasgupta(?), became the President. Nabaniharan was made the Secretary. He served the organization in that position for over four decades and was made its President subsequently.
7. On a new mission: 
Nabniharan was a young man of 36 then. He captured the vision of Swami Vivekananda to bring the Vedanta from estoric depths of forests and lofty heights of mountains to the everyday life of the common people as a living force that actually transforms life of society. He thought day and night how it could be actualized. Often he felt as if the ideas and solutions he needed flashed spontaneously in his mind. He believed all his life that it was the Holy Mother Sri Sarda Devi who gave him all the right ideas and knowledge.             
He laid out , almost single-handedly during the initial years, the ideas and ideals, the methods and guidelines for self-development and for organizing the work. He laboured unceasingly, along with others in the group, to reach out to youths in villages, towns, and cities, organizing them, and inspire them with the fiery ideal that blazed through the life and teachings of Vivekananda. And under his able leadreship the organisation grew from a small seed into a mammoth banyan with over three hundred units spread over many states. It thrives, as he firmly believed, with the Will of Sri Ramakrishna, the blessings of the Holy Mother Sri Sarda Devi, and the enthusiasm of Swami Vivekananda behind it. Many distinguished monks of the Ramakrishna Order and many lay persons aided the effort directly or indirectly. A sister organization -Sarda Nari Sangathan - for women grew side by side later, where his role was of indirect help from distance. 
8 . Life that flowed through words: 
As the seed sprouted and gradually grew through the subsequent decades, thousands of youths came forward to partake of the nectar, some of them taking up the mantle. The Organization spread from Calcutta to various parts of India. Magnetic was the personality of the man who led from the front, and the language spoken was as lucid as it was modern and captivating to young minds. The words came flowing like a stream of new life, every word bearing the stamp of deep feeling, adorned with a few Sanskrit verses uttered now and then from the Vedas, The Gita, the Mahabharta or perhaps the Bhagvata- with a serene beauty of intonation to give the young ones some glimpses of the wisdom of yore. 
Often his inimitable sense of humor and quick wit would make spellbound audience burst into laughter. Sometimes he spoke about the recent strides in scientific discovery to elucidate the ideas taught, sometimes of the hoary culture of India, but always did he stand on the most catholic and rational grounds of religious harmony and the Unity and Glory of human soul. 
A little light of the Sun of Vedanta was perhaps shining on his mind, for he was adept at making the essential ideas easy for all to comprehend. He spoke so convincingly, so full of conviction, of the essence of the true scriptures that to a new student it appeared most obvious. The profound wisdom of sages seemed to find a fit vehicle in him to reach many lay people of the holy land, which was about to forget her hard-earned invaluable treasures in the transient glare of materialism.
9. Renunciation and service:
Though a lay person in government services till retirement, a life-long bachelor, he lived a life of renunciation in a small room filled with books, computer, etc. and an ordinary small cot at one end, with hardly any belonging beyond a bare minimum, discharging all familial responsibilities with little attachment, but utmost sincerity. Like a few other organizers of the Mahamandal, he had to travel extensively for the work -normally low cost travels offering no comfort even in the summer. 
At other times he had to write many reply letters regularly, mostly by hand. He used to read newspapers very minutely every day, not only to keep himself abreast of the events and trends around the world, but also to connect with his heart. He used to say it was a spiritual practice, a form of साधना for him. He would visualize the suffering humanity with a feeling of deep empathy and encourage the organizers of the Mahamandal to do the same. 'Feel the pulse of the world at least thrice a day' was his advice (for expansion of Heart?). 
He knew no rest, for life was held in dedication. Despite a hectic schedule, he could keep calm and concentrate on the work at hand because of great discipline and superb time management. Even in the government office where he worked, he would finish off his work quickly with his characteristic efficiency and find time for the Mahamandal. All time is social time, he belived,and this life is short. Whether on a long train journey or in a youth training camp, he utilized every opportunity by studying, writing, or editing. Sometimes he had to work with other organizers for several days at a stretch for arranging the youth training camps, to make sure that everything was as perfectly done as possible. The mission had to be accomplished-no cost was too high. 
A workable plan was spelt out so that all youths, without distinction, could work it out themselves. Elaborate arrangements were made to train them for the purpose through youth training camps - with minimum funds, but with exemplary structure, discipline, and devotion. And a monthly,  bilingual organ, Vivek-Jivan, was started as soon as possible. Small scale social service activities were taken up by the units, where ever feasible, but the focus was to be on the right motive behind work, not the quantum. 
10. Literary Work : 
Vivek-Jivan was considered very important in the scheme as a medium of communication with individual members and admirers outside its ambit. It regularly disseminated the ideas, methods, and news of the organization, in English and Bengali. He was the editor all through. He was skilled and experienced, because he had done editorial work before. His love for perfection in everything was all the more pronounced in meticulous editing. Untiringly he presented right ideas through the Vivek-Jivan with great care. A Hindi organ of the Mahamandal, Vivek-Anjan, was started later, which published many of his writings translated into Hindi. 
A prolific writer himself both in English and in Bengali, often he wrote for it; sometimes he edited the lectures delivered at the camps of the Mahamandal by eminent scholars, including some senior monks of the Ramakrishna Order; sometimes he edited his own lectures and answers given to questions at various camps. 
Apart from the central ideas, he loved to write editorials on many areas that might interest youths and enrich them, and these ranged from modern physics and astronomy to socioeconomic trends. Often he would make just a few comments on some current issue of import to set serious readers thinking, yet the comments carried indications enough to clarify many intricacies. A thought-provoking section was the 'Chiaroscuro', in which he would present an idea by artfully depicting contrasts. The editorials and 'By Questioning'- the question and answer section-were by far the most popular.
Many of his writings were later compiled into books and booklets and translated into different Indian Languages, including Hindi, Oriya,Telugu, Kannada, Marathi, and Gujarati. Of the Sanskrit verses he composed, the Vivekananda-Darshanam is perhaps par excellence. The verses would spontaneously come to his mind, often while commuting by tram or bus. It was originally published in the Udbodhan, the Bengali monthly organ of the Ramakrishna Order, and subsequently brought out as a booklet. He wrote a few poems also in Bengali for Udbodhan. A Bengali article on the relevance of Swami Vivekananda in the present age came out in the great collection of essays on the ideas of Swami Vivekananda, 'Chintanayak Vivekananda', published by the Ramakrishna Mission Institute of Culture, Golpark, Calcutta. He also contributed a few English articles to the Prabuddha Bharta,the English monthly of the Advaita Ashrama. In 1985, the International Youth Year, he wrote on ' Youth Problem and Swami Vivekananda ' for the magazine.' Swami Vivekananda : A Profile' was published in the Centenary Volume of the Prabuddha Bharata in January 1995. Another article, 'Religion for Harmony or Discord ?' came out in the magazine at a time of heightened communal tension in the country, which was published later as a booklet by the Mahamandal. 
Of the large number of books to his credit, most notable are 'Swami Vivekananda O Amader Sambhavna ' in Bengali, and 'Swami Vivekananda and the the World of Youth' in English. On management and leadership, ' Leadership-Its Concept & Qualities ' in English and 'Swami Vivekananda O Yuva Andolan' in Bengali contain unique guidelines for organizing youth movements in the truest sense of the term. His booklets on Character Building and 'Mental Concentration' have helped innumerable youths in their journey of life. 
His articles on music and dance have also been acclaimed by many. 'The Philosophy of Dance' by him, which was published in the Facets of Indian Culture: A Commemoration Volume in Celebration of the Birth Centenary of Swami Prajnananda (in 2 volumes) by Bhartiya Kala Prakashan, Delhi. The huge treasure of literature that he has left behind will remain a beacon of light for youths of this country, especially those of the Mahamandal, for a long time to come. 
11. Organizer and Crusader :
As an organizer he was meticulous, even fastidious, But, everybody around him was fond of the rebuke, for with it always came an important lesson, and a lot of affection. Even through highly respected by so many people around him, he was humble, friendly, and sometimes child-like. He could not speak from a high pedestal of vanity even to new trainees. With praise and positive feedback he would instil confidence in them. The dhoti-clad dignified figure, boldly proclaiming the ideal at every step, easily inspired awe and adoration among the youths, but as soon as they came close to him, he could bridge the gap in no time with his natural friendliness. Absence of vanity gives one the capacity to love, to dedicate oneself at the alter. And completeness of sacrifice is ever adorned with success of the Cause one lives and dies for. 'THE SELFLESS MAN IS THE THUNDERBOLT', as Sister Nivedita put it. 
He was against doing 'something' in the name of Ramakrishna-Vivekananda, without comprehending their teachings, without any serious effort to put the ideas into practice to transform one's own life. He was quite candid and vehement in his disapproval. He knew no compromise and was outspoken; so, many people were apt to misunderstand him. His focus was set once for all. The main ideas, methods, and policies were defined once for all. And all these were gleaned from the teachings of Sri Ramakrishna, The Holy Mother, and Swami Vivekananda.No digression, no compromise, no confusion, no fear of unfavorable criticism. 
He did not care for name and fame and recognition. Not even for the organization he worked for. Yet, more and more youths should come to know about the ideal through such men.Jesus Christ said to his disciples , ' You are the light of the world. A city set on a hill cannot be hidden.' So are the brave followers of Vivekananda. 
12 . Devotion deep within:
The versatile genius of the charismatic personality was soaked to the core with love for suffering humanity and for the boundless Love that took finite, human forms, as it were, as Sri Ramakrishna, Sri Sarada Devi, and Swami Vivekananda. He felt a personal bonding with them deep within and looked upon them as the father, mother, and elder brother respectively. 
He held that all the previous Incarnations and Prophets came to spirituality uplift only a section of humanity with only some aspects of religion and, therefore, their scope of work was relatively limited, whereas Sri Ramakrishna appeared in age of globalization for the whole of humanity and for rejuvenating all religions. According to him, Sri Ramakrishna could be called the 'अवतार वरिष्ठ ', the greatest among the Incarnations, for that reason. 
At home he spent hours every day in the worship room. He worshiped the family deities also and continued with the family traditions of ceremonially performing Durga Puja, Kali puja, etc. every year. Fasting for the whole day he would worship on these special occasions till old age. But, he did not mix up this personal perdilection with the organization, as its explicit policy is to avoid rituals to ensure its universal appeal to youths of different tastes and capacities. And he would never skip the daily practices for life building, which he advised youths to do, even when he fell seriously ill. 
Music was irrevocably fused with the devotion. He would sometimes sing a devotional song, pouring his whole soul in its emotional appeal. Sometimes he guided young singers to improve their voice, modulation, style, etc. The noble emotions of each song were to resound in the heart of both the singer and the listener. Music assumed an important role in the scheme of the movement. And it included prayers suitable for the organization, patriotic songs, classical music, and rhymes for kids of Vivek Vahini, the children's wing of the Mahamandal.      Though he held the banner of Advaita up, he would quote from a verse supposed to be of Madhusudana Saraswati : "भक्त्यर्थं कल्पितं द्वैतं अद्वैतादपि सुन्दरम्।।"
(भक्ति के लिए जो कल्पित द्वैत है वो अद्वैत से भी सुन्दर है ।) the dream of duality projected for the purpose of भक्ति is even more beautiful than the supreme truth of Oneness without multiplicity. 
In a hymn to the Holy Mother, which Nabaniharan composed he called her 'मुक्ति-भक्ति-प्रदायनी'. He showed it to Swami Ranganathananda, who asked him why भक्ति is mentioned after मुक्ति-the summum bonum of human life.? Nabaniharan insisted that भक्ति is superior to mukti, and the Swami remained silent, presumably in approval. 
For the true devotee loves all, seeing them as embodiments of his Beloved, the Divinity. Not even a trace of selfishness remains in him. How can he then want liberation for himself alone ? Nabaniharan would often quote the words of Prahlada, the greatest among devotee, from the भागवत -(श्रीमद्‌भागवत महापुराण ७.९.
४४)
प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामा
मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ।
नैतान्विहाय कृपणान्विमुमुक्ष एको
नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥ 
- Often, O God, the sages roam in silence and solitude without dedication for the good of others. But, as I see no other refuge for humans than You, I am not ready to leave them behind to be liberated alone. 
So the highest worship to Nbaniharan was the work of Swami ji through the Mahamandal . A humble servant of the Holy Trio is all he wanted to be, never soiling their teachings that he -and the organization - worked to make easily accessible to youths. Never was the purpose to preach the personalities per se, but to cast, in the spirit of worship, the life and character of children and youths in the mold prepared prepared by them. 
It may be that the prayer of Sister Nivedita echoed in the deeper recesses of his heart : 'God grant me to speak brave true words of my Guru's name before I die, words with his life flowing through them, untainted, unimpaired -that I may feel, passing into Eternity, that I have not disappointed him !' 
13. Towards the end :
He spent his last few years at the Mahamandal Bhavan, Konnagar. One can hardly guess if he had a premonition of the approaching end, as he completed 85 and the organization approached its fiftieth year. But his mind appeared more and more withdrawn. Now he would say, 'Look, as you should be able to attach the mind somewhere, you must also learn to detach it completely. I've already detached my mind from all this. It's now for you to carry on.' Yet, as a soldier of Swami Vivekananda, he fought till the end. He went to Jamshedpur to attend the 5th Interstate Youth Training Camp of the Mahamandal held from 10 to 12 September 2016. There he delivered a short lecture in Hindi. On 24 and 25 September a Periodical Special Training Camp for organizers was held at Konnagar, in which also he participated. After the camp, on 25 September, he presided over a meeting of the Executive Committee of the Mahamandal held in the afternoon. 
14. The body falls:
He passed away the very next day-on 26 September 2016- at the Mahamandal Bhavan, Konnagar, West Bengal. The end came all on a sudden in the afternoon, when he was taking rest after lunch- after a brief spell of nousea followed by a massive heart attack. Immediate medical care was of no avail. All was over by 4.05 pm. The news spread in no time, and Mahamandal workers came pouring in from various places to pay respect. Swami Divyananda, Trustee of the Ramakrishna Math and Ramakrishna Mission and Secretary of Sarada -Pitha, Belur Math, who is also a good friend of the Mahamandal, came with some Brahmacharis with a special arghya offered to Bhagavan Sri Ramakrishna at Belur Math, which was prayerfully placed on the chest. Hymn from the Vedas and verses from the Gita were chanted. Then devotional songs were sung, and portions from Sri Sri Ramakrishna Kathamrita were read. 
Next day the body was taken to his ancestral home at Khardah. In Accordance with his last wishes the body was cremated at the cremation ground near his house, where his ancestors were also cremated. The body, duly dressed and garlanded, was carried there by commanders of Vivek Vahini, followed by a huge, disciplined procession. Cremation was complete by 3.30 pm. 
15. Brighter burns the flame :
The body has fallen, but the spirit burns brighter. The call that rang through him has gained in strength, for it came from Vivekananda, unadulterated. His radiant  personality remains unforgettable to many of us, as it emanated love that defies death. Who among those that saw him from near can forget the graceful, loving smile, the fury of feeling, the glory of genius ? Some of us feel we have indeed seen a great life of selfless service - a Thunderbolt in the hands of Vivekananda.We fervently hope that the fruits of his selfless labour will come forth in abundance, as surely as the heroic soldier of Vivekananda, with his comrades, sowed the seeds with their life's blood.
The mantra given by Swami ji inspired him most through out life: ' They alone live who live for others, the rest are more dead than alive.' The mission to carry this light to every youth, the gigantic scheme of rebuilding the foundation of the nation, which was initiated nearly five decades back through him, is now calling for our dedication for its progress and fulfillment. Our whole-hearted answer to the call would be the best adoration for the man and the right way to pay our homage to his memory. 
Let us, therefore, utter the earnest prayer to carry the Cross forward, in the words from The Imitation of Christ: ' We have taken up the Cross, thou hast laid it upon us and grant us strength that we bear it unto death. Amen !'       
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