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सोमवार, 5 नवंबर 2018

महामण्डल और जीवन का महाजीवन में रूपान्तरण ![ एक युवा आन्दोलन -7]

महामण्डल और जीवन का महाजीवन में रूपान्तरण !
महामण्डल का उद्देश्य बहुत महान है। (अर्थात महामण्डल आन्दोलन के 'समाज-सेवा' का उद्देश्य बहुत महान है, अत्यन्त विराट है !) किसी 'विराट उद्देश्य ' को जब कम शब्दों में (45 मिनट या 15 मिनट में) कहना पड़ता है तब अनुभव होता है, जैसे कुछ और कहना तो शेष ही रह गया है। और वह उद्देश्य केवल इतना है कि, " हम सबों के मन में, यही संकल्प जाग उठे कि समस्त जगत का कल्याण हो, विश्व के सभी मनुष्यों का मंगल हो!" तथा (स्वयं माँ जगदम्बा की इच्छा से) इसके कल्याण के लिये और इसके मंगल  के लिए, जो प्रयास चलाया जा रहा है, उसमें मैं भी कुछ सहयोग कर सकूँ। एवं जगत के सभी मनुष्यों का कल्याण करने के लिए, अपने को उसके योग्य (competent,अधिकारी) बना सकूँ।"  'জগতের সব মনুষ্যের ভালর জন্যে নিজেকে উপযুক্ত করতে পারি।  इस संकल्प को कार्यरूप देने की प्रेरणा हम सबों के मन में जाग उठे, इसके लिये प्रचण्ड उत्साह के साथ कार्य करते रहना ही महामण्डल का उद्देश्य है।(ঐকান্তিক আকুতি নিয়ে সেই চেষ্টাই করা হোল মহামন্ডের উদ্দেশ্য।) इसीलिये महामण्डल के उद्देश्य को बिन्दुवार क्रम से - 1,2,3, 4......कर बता पाना अत्यन्त ही कठिन है। 
वैधानिक रूप से कम- से- कम 7 व्यक्ति एक साथ मिलकर एक संगठन को बना सकते हैं। इसके लिये, सबसे पहले उन्हें अपने संगठन का उद्देश्य और नियमावली तैयार करके, उसे निबंधित कराने के लिये संबंधित अधिकारी के पास आवेदन करना होता है। यदि सरकारी अधिकारी उस समिति को निबंधित कर लेते हैं, तभी उस संगठन को वैधानिक रूप से स्थापित माना जाता है। महामण्डल के निबंधन के लिये हमलोगों को भी (इसके संस्थापक नवनी दा को भी) इसी प्रक्रिया से गुजरना पड़ा है। क्योंकि देश में रहने वाले नागरिकों के लिए देश के संविधान को मानना आवश्यक होता है। किन्तु, जब हमलोगों ने महामण्डल के उद्देश्य तथा नियमावली को निर्धारित कर तथा उसे लिखकर प्रभारी अधिकारी के पास भेजा, तो उसे देखकर उन्होंने कहा कि इस संगठन को निबंधित नहीं किया जा सकता। क्योंकि आप लोगों ने इस संस्था के उद्देश्य को बिन्दुवार क्रम से 1,2,3,4....करके तो दर्शाया ही नहीं है, तब हम आपके संगठन को कैसे निबंधित कर सकते हैं ?
हमने उन्हें समझाने की चेष्टा करते हुए कहा कि हमारे संगठन का उद्देश्य इतना विराट/विशाल है कि उसे हम 1,2,3, 4... गिनते हुए कभी समाप्त नहीं कर सकते। यह मैं कोई कोरी गप्प नहीं हाँक रहा हूँ, बल्कि बिल्कुल सच्ची घटना को आपके समक्ष रख रहा हूँ। महामण्डल को स्थापित करते समय वास्तव में जो कुछ घटित हुआ था, वही आपको सुना रहा हूँ। हमारे बार-बार समझाने पर भी, निबन्धन के लिए दिये गये हमारे प्रस्ताव को वे वापस लौटाते रहे। अन्ततः उनका निर्देश आ गया कि आपको अपने उद्देश्य बिन्दुवार 1, 2, 3, 4 .... करके देना ही होगा, अन्यथा वैधानिक रूप से हम आपकी संस्था को निबन्धित नहीं कर सकते हैं। इसीलिए बाध्य होकर हमें भी अपने उद्देश्य को बिन्दुवार 1,2,3,4 ...करके लिखकर देना ही पड़ा था। जबकि हम यह अच्छी तरह से जानते थे कि  1,2,3, 4 ....करके इसके विस्तृत उद्देश्य की कभी इति नहीं की जा सकती। किन्तु, फिर भी बाध्य होकर, जितने उद्देश्यों को बिन्दुवार लिखकर दे सके थे, वे आज भी 'संस्था के बहिर्नियम' या 'Memorandum of Association' नामक एक पुस्तिका में उसी रूप में मौजूद हैं। [मानव-जीवन की बगिया को खिला देने में सक्षम एक प्रशिक्षित बागवान/माली/लीडर बनने और बनाने के लिए अपने को कैसे उसके योग्य या उपयुक्त अधिकारी बनाना होगा; वे सारे नियम उस पुस्तिका में आज भी उसी रूप में उपलब्ध हैं। ]  
         मूल रूप से महामण्डल का उद्देश्य है -'जगत के सभी मनुष्यों का कल्याण, उनके सर्वांगीण मंगल'। किन्तु, अपने इसी ज्वलंत इच्छा (Burning Desire) को कार्य में रूपायित करने के लिए, हममें से प्रत्येक सदस्य को पहले स्वयं अपने जीवन को जितना अधिक से अधिक (যতখানি/As much as) उपयुक्त ढंग से गठित करना सम्भव हो उसके लिए प्रयास करना होगा। साथ-ही-साथ 'अपने व्यक्ति जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने की इस ज्वलंत इच्छा को',  इसी लालसा को , इसी प्रेरणा को सभी युवाओं के हृदय में जागृत कर देने के लिए जी-जान से प्रयास भी करते रहेंगे। यही है - 'महामण्डल का कार्य।' किन्तु केवल उत्प्रेरित (inspired) हो जाना ही यथेष्ट नहीं है, उसको कार्य में रूपायित करने के लिए अपने भीतर उपयुक्त ऊर्जा भी लानी होगी। और जिस विज्ञान (Technology) द्वारा वह ऊर्जा, वह शक्ति प्राप्त होती है, (5 Practices: 1.'ऑटो-सजेशन या प्रार्थना', 2.मनःसंयोग 3. व्यायाम 4.'स्वाध्याय' और 5. 'विवेक-प्रयोग' आदि)  उसके लिए हम सभी संगठित होकर प्रयास करेंगे और इस कार्य में परस्पर एक-दूसरे की सहायता करेंगे। इसीलिये हमलोगों ने स्वयं स्वामी विवेकानन्द से अपने आदर्श-वाक्य (motto) - 'Be and Make' (मैं स्वयं बनूँगा और दूसरों को भी बनने में सहायता करूँगा) को  ग्रहण किया है। [अर्थात 'पुरी- अद्वैत 'Be and Make लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में पहले मैं स्वयं एक प्रशिक्षित माली/आध्यात्मिक शिक्षक /नेता बनूँगा और साथ-ही साथ दूसरों को भी 'पुरी परम्परा' में प्रशिक्षित लीडर/माली बनने के कार्य में उसकी सहायता करूँगा।] 
स्वामी जी युवाओं को सदैव उत्साहित करने के लिए कहते थे - 'आगे बढ़ो,आगे बढ़ो !' अर्थात (5 Practices: के मामले में और जितने फूल-'3H' खिल चुके हैं के मामले में), हमलोग अभी जहाँ हैं वहीँ ठहर जाने से काम पूरा नहीं होगा। इसीलिए महामण्डल ने अपना जो प्रतीक चिन्ह निर्धारित किया, उसमें 'ऐतरेय ब्राह्मण' से उन्हीं दो संस्कृत शब्दों को लिया गया है, जिसका प्रयोग स्वामी जी बार -बार करते थे -"चरैवेति, चरैवेति।" अर्थात आगे बढ़ो, आगे बढ़ो ! किन्तु, आगे कहाँ जाना है ? उसी सम्पूर्ण जगत का कल्याण और विश्व-शान्ति के सुदूर स्वप्न को धरातल पर रूपायित करने की दिशा में आगे बढ़ने का आदेश दे रहे हैं। किन्तु, हमारी धरा या पृथ्वी का आकार तो गोल वृत्त के जैसा है, तो फिर हम,'पुरी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित- मनुष्य बनने और बनाने की यात्रा' का प्रारम्भ कहाँ से करेंगे ? स्वामी जी के निर्देशानुसार निर्णय हुआ कि इस यात्रा का प्रारम्भ (परिव्राजक या वानप्रस्थ-यात्रा का प्रारम्भ) हमें इसी पुण्य भूमि भारतवर्ष से ही करना होगा। इसीलिये हमारे प्रतीक चिन्ह के भीतर भारतवर्ष का एक मानचित्र (diagram) भी अंकित हो गया।
अब प्रश्न उठा कि इस बनो और बनाओ के यात्रा-पथ का पथ-प्रदर्शक कौन हो सकता है ?  'एगिए चलार पथे दिशारी के हबे ? এগিয়ে চলার পথে দিশারী কে হবে ? [वह beacon,lighthouse,आकाशदीप, या दृढ़ प्रकाश स्तम्भ कौन हो सकता है, जिसके चरणों से टकरा कर समुद्र अपना क्रोध शान्त करता रहता है, अर्थात जिसका चित्त प्रलोभनों (temptations) के उपस्थित रहने पर भी मोह में नहीं फँसता ?इस मार्ग में चलते समय थक जाने पर, या सुदूर गाँवों में शिक्षण का कार्य करते समय , समाज सेवा करते समय किसी प्रकार का प्रलोभन या बाधा (लस्ट ऐंड लूकर) यदि सम्मुख आ जायें और हम कहीं लड़खड़ा जाएँ,या पतनोन्मुखी होने लगें, तब पुनः हमें मजबूती के साथ अपने पैरों पर खड़े होने के लिए अपने हाथों का सहारा देने वाला हमारा मार्गदर्शक नेता कौन होगा ? इसीलि महामण्डल के प्रतीक चिन्ह के मध्य में 'परिव्राजक या वानप्रस्थी-मुद्रा में स्वामी विवेकानन्द' को  खड़ा करना पड़ा। क्योंकि एक आकाश-दीप,सुहृदबन्धु, ज्ञानमयी-बुद्धि के दाता (Friend, Philosopher and Guide) के रूप में स्वामी विवेकानन्द ही हमारे आदर्श पुरुष हैं। इसीलिये महामण्डल के उद्देश्य को (निबन्धित कराने के लिए) जब बहुत संक्षेप में कहने की चेष्टा की गयी, तब कहना पड़ा कि. 'स्वामी विवेकानन्द के शक्तिदायी विचारों को देश के युवा के बीच प्रचार-प्रसार करना ही महामण्डल का उद्देश्य है।' किन्तु यह कहते समय मन में थोड़ा संकोच भी हुआ, कि कहीं इसके पीछे हमारी 'मतूयार-बुद्धितो छिपी नहीं है ? (हठात विवेकानन्दके केन ? হঠাৎ বিবেকানন্দকে কেন?)  श्रीरामकृष्ण द्वारा व्यवहृत इस शब्द 'मतूयार-बुद्धि' का अर्थ होता है, किसी एक विशेष-मतवाद या किसी व्यक्ति- विशेष (particular person) को जनता के सामने खड़ा करके, उसी का प्रचार करने जैसी चेष्टा (मतान्धता, dogmatism) तो नहीं है ? अचानक विवेकानन्द को ही क्यों ? इसीलिये लगता है, थोड़ा संकोच के साथ कहना पड़ा, कि स्वामी विवेकानन्द के शब्दों और शिक्षाओं के भीतर जो " मनुष्यत्व उन्मेषक एवं चरित्र-निर्माणकारी भाव" (মনুষ্যত্ব উন্মেষক আর চরিত্র গঠনকারী ভাব spirit)" सन्निहित है, उन्हें युवावर्ग के सम्मुख प्रस्तुत कर देना ही महामण्डल का मुख्य-कार्य है।
स्वामी विवेकानन्द की जीवनी के फ्रेंच लेखक रोम्याँ रोलाँ,जो चार मार्ग (चार पुरुषार्थ) हैं, उन मार्गों का उल्लेख करते हुए कहते हैं, इस कार्य -" मनुष्यत्व उन्मेषक एवं चरित्र-निर्माणकारी भाव"  को मूर्त रूप देने के लिये चार घोड़ों वाली बग्गी को सम्पूर्ण विश्व में दौड़ाना होगा!"(चार घोड़ार गाड़ी छोटाते हबे एई काजे!' চার ঘোড়ার গাড়ি ছোটাতে হবে এই কাজে,) अर्थात स्वामी विवेकानन्द के शब्दों और शिक्षाओं में जो 'मनुष्यत्व-उन्मेषक, चरित्र-गठनकारी भावराशि' सन्निहित है, उसे युवाओं के समक्ष सरल भाषा में प्रस्तुत करना होगा, तथा उनके मन की गहराई में स्थापित करा देना होगा। इस कार्य को मूर्त रूप देने के लिये,चारों पथ (पुरुषार्थ) में से अलग -अलग मामले में,  चार घोड़ों वाली बग्गी के चारों घोड़ों - के समान ही 'individual cases' में व्यक्तिगत स्वतंत्र अभिरुचि के अनुसार, एक -एक भाव को ग्रहण करेंगे। किन्तु, उन विचारों को आत्मसात करने या चरित्रगत करने के लिए वे सभी लोग समान रूप से चिन्तन, मनन, अध्यन,'स्व'-स्वरूप का स्मरण और अभ्यास' आदि करते रहेंगे।
['मनुष्यत्व उन्मेषक' अर्थात पुरुषार्थ उन्मेषक (Manliness-awakening, man with capital 'M') चार पुरुषार्थों- 'धर्म, अर्थ,काम और मोक्ष-प्राप्ति उन्मेषक भाव' या भ्रममुक्त, Dehypnotized - spirit/माली /शिक्षक/नेता  बनने और बनाने में समर्थ भाव या प्रशिक्षण-पद्धति (5 अभ्यास : ऑटो-सुझाव या प्रार्थना, धातु एकाग्रता, मुक्त हाथ व्यायाम, स्वाध्याय या आत्म-अध्ययन, विवेक प्रयोग,आदि) निर्धारित है, उसे आत्मसात करने या चरित्रगत करने का अभ्यास सामान भाव से सभी सदस्य एकसाथ संघबद्ध होकर करते रहेंगे ('5 -Practices'(Auto- Suggestion or Prayer, Metal Concentration, free hand Exercise, Self-study, Conscience experimentation या पुण्य-अपुण्य-विवेक आदि चरित्र-निर्माणकारी भाव का अभ्यास) 
             ऑटोसजेशन आदि पाँच निर्देशों का अभ्यास करते-करते उन्हें यह अनुभव हो जायेगा कि 'स्व-स्वरुप के स्मरण या मनन' का कार्य तो मन ही करता है। किन्तु, यह मन तो बहुत चंचल है, इसलिये सर्वप्रथम इसको ही वश में लाने की चेष्टा करनी होगी। एकाग्रता के अभ्यास द्वारा इसको संयमित करने की चेष्टा करनी होगी। इसीलिये उसको इस ज्ञानचर्चा के साथ-साथ 'राजयोग' सीखने की चेष्टा भी करनी होगी। किन्तु जब चंचल मन को संयमित करने के की चेष्टा करने के साथ-साथ, ज्ञान-प्राप्ति के नीरस विचार-विमर्श और सत्य अन्वेषण के प्रयास में निरन्तर रत रहने के कारण हृदय में शुष्कता (monotony या ऊब) का भाव उत्पन्न होगा; तथा नीरस और कठोर अभ्यास जब शरीर और मन को थका देगा या 'exhausted' कर देगा, जब यांत्रिक प्रक्रिया की घड़घड़ाघट से शोर उत्पन्न होगा और सहज, कोमल (smooth, मसृण), सरल गति में व्यावधान (Speed disruption) आयेगा, उस समय मन को फिर से प्रफुल्लित करने एवं मार्ग को मुलायम, सुखकर, नरम, सहज तथा सरल बनाकर आगे बढ़ने में जो मनोभाव चाहिए, उसका निर्माण करेगा एक अन्य मनोभाव। अतः उस मनोभाव की उपेक्षा (negligence) करने से काम नहीं चलेगा। उसी मनोभाव का नाम है,'भक्तिभाव'(Devotion), और इस विशिष्ट मनोभाव या भक्तिभाव को बढ़ाने के अनेक उपाय हैं, जिन्हें व्यवहार में लाया जा सकता है। 
जैसे कि मन्दिर में या अपने घर के किसी कोने में देवता की मूर्ति स्थापित कर, सुगन्धित पुष्प, सुन्दर चन्दन, सुगन्धित हवन-सामग्री (সুন্দর ধূপধুনো /Beautiful incense) आदि को अर्पित कर वहाँ एक सुन्दर परिवेश की रचना की जा सकती है। तथा हृदय प्रफुल्लित कर देने वाले उस परिवेश के विस्मय (amaze) को अपने मन में प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की जा सकती है। और इस प्रकार कर्कश शोर-युक्त नीरस जीवन में एक सुन्दर नरम भाव का प्रलेप चढ़ाकर, उस जीवन-पुष्प के विकसित (प्रस्फुटित) होने की गति को सहज बनाया जा सकता है। 
किन्तु इसके अन्य उपाय भी हैं, भक्तिभाव का अभ्यास करने की दूसरी पद्धतियाँ भी हैं। इसमें बाहर में स्थापित देवमूर्ति को फूल, चन्दन, धूप, नैवेद्य आदि अर्पित करने के बाद, उसी देवमूर्ति को अपने हृदय में (कल्पना में हनुमान जी जैसा) स्थापित करने के बाद, मानसिक रूप से भी फूल, चन्दन, धूप तथा नैवेद्य आदि अर्पित किया जाता है। इस विशिष्ट पूजा-पद्धति के अनुसार भक्तिभाव से अपने मन को अभिषिक्त करने के लिए, मन के माध्यम से ही सब कुछ अर्पित करना होता है। सभी प्रकार की पूजा पद्धतियों में मानसिक पूजा को सर्वश्रेष्ठ पूजा कहा गया है। इस मानसिक पूजा पद्धति में कोई व्यक्ति (या भक्त) अपने मन में कौन से फूल की कल्पना करेगा (अष्टदल रक्तवर्ण कमल), कैसा चन्दन, धूप, दीप, कौन सी बली (অর্ঘ্য, oblation - हव्य)देनी है, या कितने प्रकार के स्नान कराने हैं-यह सब कुछ बतला दिया गया है। ऐसा देखा गया है कि केवल पंचोपचार या षोड्षोपचार ही नहीं अपितु सहस्रोपचार पद्धति के अनुसार भी पूजन सामग्रियों को अपने इष्टदेवता, या अपने हृदय में विद्यमान अनुपम सत्ता को अर्पित किया जाता है। इसी सहस्रोपचार पद्धति के अनुसार पूजित होने पर 'सहस्र दल श्वेत कमल' के समान, मनुष्य के मन के भीतर (सहस्रार में) भी एक कमल खिल उठता है, और उसी कमल को प्रेम का कमल कहते हैं ! [दादा ने प्रश्नोत्तरी का उल्लेख करते हुए एक बार कहा था , किसी लड़के के पिताजी यदि राम-सीता की मूर्ति के नीचे स्थापित स्वामी जी के चित्र को फेंकने का प्रयास करें, तो उन्हें प्रेमपूर्वक यह समझाना चाहिये कि स्वामी विवेकानन्द तो बचपन से ही स्वयं श्रीरामचन्द्र,माँ सीता और हनुमान के भक्त थे। भक्ति निःस्वार्थ होनी चाहिए : जैसे मां का पुत्र के प्रति स्वाभाविक प्रेम होता है।ईश्वर/गुरु रूपी सूर्य को देखकर कमल खिलता है !ईश्वर/गुरु में स्वाभाविक भक्ति होनी चाहिए। गुरु/नेता  विवेकानन्द की शिक्षा की रोशनी से युवाओं का भविष्य संवरता है।]
जब कोई मनुष्य अपने भीतर निःस्वार्थ प्रेम को जागृत करने में, या प्रेम-कमल को प्रस्फुटित करने में समर्थ हो जाता है, तो फिर उसे बाहर बगीचे में जाकर खिले -खिले फूलों को चुनने की आवश्यकता नहीं होती। चन्दन के साथ-साथ अपने नाख़ून को घिसने की स्थिति भी नहीं आती। धुप-धुने के धुएँ से आँखों में जलन का अनुभव नहीं करना पड़ता, फल-मूल काटकर देवता पर नैवेद्य अर्पित नहीं करना पड़ता। मानस-सरोवर में उस सहस्रदल प्रेम के कमल को प्रस्फुटित कर लेने से, जिस प्रकार हृदयस्थ भगवान प्रसन्न हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत के मनुष्यों का मन भी एक-दूसरे के निकट आने पर, विगलित होने लगता है, अर्थात एक-दूसरे की दोष-त्रुटियों को  नजरअन्दाज (ignored) करने लगता है। और इस प्रकार हर कोई हर किसी को अपने आलिंगन में बाँधकर, उसे अपना बना सकता है। (एक-दूसरे की गलतियों को नजरअंदाज कर देने से पराये को भी गले लगाकर अपना बनाया जा सकता है -সকলে সকলকে আলিঙ্গন করে আপন করে নিতে পারে।)
इसीलिये महामण्डल कहता है, पुराने ढंग से पूजा करने को यदि बोझ समझते हो, तो उसे अपने से दूर ही रहने दो, तुम यही नयी अभूतपूर्व (unprecedented) 'मानस पूजा' करो न भाई ! तुम तो अपने को आधुनिक युवा (modern youth) समझते हो, तो फिर इसी आधुनिक ढंग की पूजा को प्रारम्भ करो न। तुम अपने मन के कमल को (सहस्रदल श्वेतकमल को) ही थोड़ा खिला लो न भाई ! ईश्वर को खोजने कहाँ जाते हो ? किसी कारण से मन्दिर में जाना उचित नहीं समझते हो, तो कोई बात नहीं, फिर भी, चंदा माँगकर सार्वजनिक कालीपूजा, दुर्गापूजा करके थोड़ा भाँग खाकर या किसी नशे के व्यसन में एक-दो रातें तो तुम बिता ही सकते हो। किन्तु इस विराट जगत के सभी मनुष्यों के भीतर अवस्थित ईश्वर (इष्टदेव) को देखकर, उसको जाग्रत करके, उन दुर्गति भोग रहे देवताओं के आर्तनाद को यदि थोड़ा अपने हृदय में भी अनुभव कर सको, तब तुम कितना विशाल, विश्व-स्तर की सामुदायिक पूजा कर सकोगे ! सार्वजनिक पूजा के नाम पर, जबरन 100-200,500-1000, दो-दो हजार रुपया- झटक लेने के लिये छोटे-छोटे व्यापारियों, ऑटो-टैक्सी ड्राइवरों को क्यों सताते हो ?छोड़ दो ऐसी पूजा। 
देखो, साक्षात् ईश्वर धूल-कीचड़ से सने हुए हैं, धूल में लोट रहे हैं, उन्हें ऊपर उठाकर थोड़ा उनके सिर पर हाथ तो फेर दो। उनके पीड़ा स्थल पर, थोड़ा प्रेम का प्रलेप लगाकर उन्हें अपना बना लेने की चेष्टा तो करो। आओ भाइयों, हमलोग उस परम् सत्ता की आराधना, भक्ति के नये मार्ग से करें। अपने हृदयस्थ परमेश्वर को ही, जन-जन में विराजमान देखकर उस परमेश्वर की पूजा नहीं -'सेवा' करने की नवीन पूजा पद्धति- 'Be and Make' द्वारा आराधना करने में जुट जायें ! इसीलिये महामण्डल के प्रत्येक केन्द्र के साप्ताहिक पाठचक्र में ज्ञान की चर्चा करने और मन की दुस्तर, दुःसाध्य चंचलता की निवृत्ति, या निवारण के लिए कठोर परिश्रम करने के साथ ही साथ हृदय के इस प्रेम-कमल को प्रस्फुटित करने की चेष्टा को भी सम्मिलित कर लिया गया। 
इसके पश्चात् एक और भी कमी महसूस हुई थी। माना कि अब ज्ञान (अपरोक्ष ज्ञान आदि) के विषय में अब सब कुछ समझता हूँ, माना कि दुःसाध्य मन का प्रबल आवेग भी समाप्त हो गया, यह जहाँ कहीं भी विचरण करता है, उसे वहाँ से खींचकर अपने सामने ले आता हूँ, यह मेरी आज्ञा मानने लगा है, मेरे अधीन हो गया है, मैं अब अपने मन का स्वामी बन गया हूँ। हृदय भी प्रेम के सुगन्ध से भर उठा है। किन्तु, प्रश्न है कि इस प्रेम-पुष्प के पराग को अर्पित कहाँ करूँ ? (ये दिल, किसको दूँ ?) यदि इस प्रेम को वितरित नहीं करूँ, यूँ ही पड़े रहने दूँ, तब तो मेरी इस सम्पदा का कोई मोल ही न रहा। यदि इसका कहीं उपयोग न किया तबतो यह अकारथ (ineffective) ही पड़ा रह जायेगा। अतः अपने इस ज्ञान को, अपने इस निवृत्त  (retired, विष-दन्त रहित), आज्ञाकारी (submissive,विनीत,विनम्र), अधिकृत शक्ति (occupied, प्रवृत्त,कब्जे में आयी हुई शक्ति या केवल उपयोगी कार्यों में व्यस्त रहने वाली शक्ति), एवं हृदय में खिले हुए प्रेम-पुष्प के पराग को, इसके सुगन्ध को सर्वत्र फैला देने के लिए (प्रवृत्ति-निवृत्ति धर्म के अनुसार) 'कर्मक्षेत्र' में तो उतरना ही पड़ेगा। 
जीवन को सार्थक करने वाले जिन उपायों (5 -practices) को हमने सीखा है, उसकी प्रभावकारिता (effectiveness) को परख कर देखने के लिये, उन्हें अपने व्यवहार में लाना होगा। उन्हें अपने आचरण में उतारकर, उन भावों को आत्मसात करते हुए अन्य युवाओं के सम्मुख उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत करना पड़ेगा। यदि मैं अपने (भ्रममुक्त) मन के इन समस्त सुन्दर, चित्ताकर्षक (graceful) वृत्तियों के आरोहण को अपने आचरण के द्वारा अभिव्यक्त न कर सका, तो दूसरे युवा यह कैसे समझेंगे कि हृदय में प्रेम-कमल के प्रस्फुटित होने से मनुष्य में कैसा परिवर्तन हो जाता है ? यदि हमलोग इस यथार्थ जगत की तनी हुई भृकुटि को (दुःख-कष्टों को) थोड़ा भी प्रशमित नहीं कर सके तो हमारा यह ज्ञान (साम्यभाव), कठोर साधना द्वारा अर्जित मन की शक्ति और हृदय में प्रस्फुटित प्रेम-कमल का सुगन्ध, क्या सबकुछ व्यर्थ नहीं हो जायेगा?
इसीलिये 'memorandum of association' या महामण्डल 'संस्था के बहिर्नियम' में इन तीनों -'पाठचक्र, मनःसंयोग और हृदय-कमल के प्रस्फुटन' के साथ-साथ 'कर्म' को भी जोड़ दिया गया। अब प्रश्न उठा कि कैसा कर्म किया जाय ? यदि ऐसी जिज्ञासा है, तो केवल उन्हीं कार्यों को हाथ में लो, जिन्हें करना आवश्यक लगता हो, जिसे करने से मनुष्यों का अभाव दूर होता हो, उनका यथार्थ भला होता हो। जैसे गाँव की पगडंडी के किनारे कटीली झाड़ियाँ उग आयी हों, और चलते समय राहगीरों के पैरों में चुभ जाती हों, या शरीर के किसी हिस्से में गड़ जाती हों, तो वैसी दो-चार कटीली झाड़ियों को ही काट दो न। यदि वर्षा के कारण गाँव की गलियों के बीच कहीं-कहीं गड्ढा बन गया हो, या फिसलन आ गयी हो, तो उस पर दो -कड़ाही मिट्टी या राख ही डाल दो न। जिन गरीबों के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हों, उनको एक जगह एकत्र करके, थोड़ा उनको ही पढ़ा दिया करो न। प्रायः व्यस्क लोगों को भी दुनिया के ज्ञातव्य विषयों का ज्ञान नहीं होता है, उन्हें तुम जैविक-कृषि एवं सिंचाई की ड्रिप-एरिगेशन जैसी नई-नई वैज्ञानिक प्रणालियों से अवगत करवा दो न।जो प्रौढ़ लिखना-पढ़ना नहीं जानते, उनके खाली समय में उनके साथ बैठकर उनको थोड़ा पढ़ने-लिखने के लायक बना देने की चेष्टा करो न। सुदूर गाँव-देहात में आमतौर से बेहतर सड़क-सम्पर्क नहीं होता, वहाँ कोई डॉक्टर भी नहीं रहते, तुम स्वयं होमियोपैथी की दो-चार किताबों को पढ़कर सौ-दो-सौ रूपये की दवा खरीदकर अपने पास रखलो, ताकि वक्त-बे-वक्त अचानक किसी की तबियत बिगड़ जाये तो तुम उसकी थोड़ी सेवा कर सको, इतना ही करो न। 
इन्हीं सब छोटे-छोटे कार्यों द्वारा दूसरों की सेवा करते- करते तुम यह समझ सकोगे, कि तुम्हारे मन में यह जो निःस्वार्थ-प्रेम जाग्रत हुआ है, हृदय में जो स्नेह की इच्छा जाग्रत हुई है, उसका मूल्य कितना है, उसकी कीमत क्या हो सकती है ? अर्थात निःस्वार्थ सेवा-मूलक कार्य करते-करते इस बात की परख भी हो जाएगी कि हमारे हृदय का प्रेम कितना सच्चा है, या केवल लोगों को दिखाकर नाम-यश कमाने, या अन्य कुछ पाने के लिए ही है ? ज्ञान (साम्यभाव या ब्रह्मज्ञान) के सम्बन्ध में जो थोड़ा-बहुत हम सीख पाये हैं, उस ज्ञान में प्रतिष्ठित होकर हम कार्य कर पा रहे हैं या यहीं, उसकी जाँच-परख कैसे करेंगे ? इन्हीं सब निःस्वार्थ-सेवामूलक कार्यों के द्वारा सच्चे-प्रेम की परीक्षा भी हो जायेगी!  इसीलिये, महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में,स्वामी जी के जीवन और शिक्षाओं में निहित 'चार घोड़ों' [ चार पुरुषार्थ, चार योगमार्ग ] को एक साथ लेकर- 'ज्ञान चर्चा', 'मनःसंयोग' द्वारा मन को एकाग्र और संयत करने की साधना के साथ-साथ 'हार्दिक स्नेह' -या सबों के प्रति प्रेम जाग्रत कराने, तथा 'कर्म' के माध्यम से, लोक-दिखावन कार्य नहीं, यथार्थ कल्याणकारी कर्मों में इन सबका व्यवहार करके अन्तर्निहित दिव्यत्व को अभिव्यक्त करने का अवसर प्राप्त होता है। सार रूप में यही महामण्डल का उद्देश्य और उपाय है। 
किन्तु, केवल उद्देश्य और उपाय जान लेने से ही काम पूरा नहीं होगा। सदैव आगे बढ़ते रहते रहने के लिए कोई प्रेरणा स्रोत (inspiration) भी होना चाहिये। स्वामी जी से हमने प्रेरणा प्राप्त की है। इसलिए स्वामी जी हमारे आदर्श हैं। क्योंकि पुरुषार्थ प्राप्ति के पथ पर चलते समय बाधाएँ आयेंगी, अवसाद (dejection) या निराशा आयेगी, ढीलापन (laxness) आयेगा। दुर्बलतावश यदि कभी पैर फिसल गया तो, गिर पड़ने की सम्भावना भी है, अतः किसी ऐसे सशक्त हाथ का सहारा चाहिये, जो हमें लड़खड़ाकर गिर पड़ने से पहले ही आकर थाम ले। जो यह कार्य करते हैं, वे ही तो हमारे आदर्श हैं ! अन्धकार में राह दिखाने वाले, ऐसे ही आकाशदीप, प्रकाश -स्तम्भ (lighthouse) या हमारे मार्गदर्शक नेता हैं -स्वामी विवेकानन्द ! वे ही तो ज्योतिस्वरूप हैं, वे ही तो हैं हमारे खेवन-हार। अतः 'उद्देश्य के साथ-साथ उपाय, और उसके बगल में यह आदर्श' -इन तीनों को एकत्रित करना होगा। इसी 'मनुष्यत्व उन्मेषक और चरित्र निर्माणकारी' आदर्श (विवेकानन्दको युवाओं के बीच फैला देना ही महामण्डल का मुख्य कार्य (उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द के जीवन का अध्यन और अनुध्यान) है। 
           किसी वक्ता/शिक्षक के ["पुरी वंश की अद्वैत शिक्षक प्रशिक्षण परंपरा" (Advaita Teacher Training tradition of Puri Lineage) में प्रशिक्षित शिक्षक के] उपदेशों को या शिक्षाओं को भलीभाँति जानने के लिये उसके निजी जीवन में घटित घटनाओं के खबर को भी जानना बेहद जरुरी (Extremely necessary) होता है। क्योंकि, जिस शिक्षक के उपदेशों से उसका अपना जीवन मेल नहीं खाता हो, उसके कर्म और वचन में सच्ची एकरूपता (True kinship) नहीं झलकती हो, वैसे किसी शिक्षक के ऊपर विशेष भरोसा रखना उचित नहीं होता।  
जैसे भाषण देते समय मैं ज्ञान के ऊपर (ब्रह्मज्ञान या साम्यभाव) चर्चा करता हूँ, लोगों को समझाते समय कहता हूँ कि 'एक ही अनेक' बन गए हैं (कण-कण में भगवान, E =M) किन्तु अन्य समय या अन्य स्थान में उस बात पर मैं स्वयं विश्वास नहीं करता- ऐसा ही हाल हमारा हो, तब वह ज्ञान या आदर्श मेरे जीवन में प्रतिबिम्बित नहीं हो सकता। जिसके जीवन में जो आदर्श प्रतिबिंबित नहीं होता, उसके मुख से उस आदर्श 
के ऊपर प्रवचन सुनने से कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि उसमें वक्ता के जीवन का स्पर्श नहीं होता। अपने जीवन के अनुरूप ही यदि कोई उपदेश दिया जाय तो वह प्राणवान हो जाता है, और सीधा श्रोता के हृदय में प्रतिष्ठित हो जाता है। जिस शिक्षक के उपदेशों में उसके जीवन का स्पर्श भी रहता है, वे तात्त्विक ज्ञान (पंचतत्व सुविचार आदि) को अन्य लोगों के बिल्कुल भीतर तक प्रविष्ट करवा दे सकते हैं। इसीलिये किसी पैगम्बर/शिक्षक की शिक्षाओं या विचारों को भलभाँति हृदयंगम करने के लिए, थोड़ा उसके जीवन की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। 
अतः हमलोगों के लिए स्वामी जी के जीवन का गहराई से अवलोकन/অনুধ্যান या चिन्तनशील-विवेचना करना (contemplation), अत्यन्त आवश्यक है। इसीलिये महामण्डल के प्रत्येक केन्द्रों में आयोजित होने वाले पाठ-चक्र हों, या चर्चा-मंडल (Discussion Circle) हों, वहाँ जिस प्रकार स्वामी विवेकानन्द (नवनी दा) के शिक्षाओं को समीक्षा (review) की जाती है, उसी प्रकार हमलोग उनकी जीवनी (विवेकानन्द चरित, और जीवन नदी के हर मोड़ पर) को, उनके यथार्थ जीवन में घटित होने वाली घटाओं को भी जानने की चेष्टा (करते हैं।
स्वामी विवेकानन्द के चित्र का दर्शन करना, अर्थात उनके चित्र को सामने रखकर उन पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना भी अत्यन्त लाभकारी होता है। [क्योंकि महर्षि व्यासदेव के अनुसार -विवेकदर्शना-
भ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यत.... । विवेकदर्शन का अभ्यास अर्थात उनके जीवन पर चिंतन-मनन करते रहने के परिणामस्वरूप (एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध और) विवेकस्रोत (डिस्क्रिमिनेटीव-नॉलेज का स्रोत) उद्घाटित हो जाता है। मानो व्यासदेव 5000 वर्ष पहले ही यह जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द जैसा भव्य व्यक्तित्व का एक मार्गदर्शक नेता भारत में आएगा ! जिसके चित्र पर मन को एकाग्र  करने से युवाओं का विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जायेगा। और मन को वश में करना आसान हो जायेगा।]  
               कितना भव्य और आकर्षक है उनकी मुखाकृति ! उनके आँखों की ओर देखते ही हमारी दृष्टि अनायास वहीँ अटक जाती हैं। चेहरे पर एक अनोखा पौरुष साफ झलकता है। उसी पौरुष के पीछे दो विशाल नेत्रों में एक विलक्षण करुणा, स्नेह, और सहृदयता का एक ऐसा जादुई आकर्षण है, जो न जाने कैसे क्षण भर में ही हमें अपना बना लेता है। इसीलिए स्वामी जी को जानना आवश्यक है, ऐसी प्रेरणा मन में उठती है। हो सकता है कोई उनके अनन्य विद्व्ता या पाण्डित्य के कारण उन्हें जानना चाहता हो, कोई उन्हें उनके निश्छल प्रेम के कारण जानते हों, किन्तु सभी को ऐसा ही लगता है ,कि स्वामी जी बिल्कुल मेरे अपने हैं, मेरे बंधु हैं, और मुझसे गहरा प्रेम करते हैं। हो सकता है कि, भारतवर्ष का युवावर्ग स्वामी जी के जीवन को पूरी तरह से नहीं भी जानता हो, किन्तु उनके चित्र को देखकर विवेकानन्द कहने से उसका अर्थ यदि 'आत्मविश्वास ' समझता हो, विवेकानन्द शब्द का पर्याय यदि 'त्याग' समझता हो, 'निःस्वार्थपरता' समझता हो, यदि विवेकानन्द का अर्थ 'सहानुभूति' और सभी मानवों की 'सेवा' समझता हो, तो फिर उनके लिए और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है।  हो सकता कि मैं स्वामी विवेकानन्द को ठीक से नहीं जानता हूँ ,  यह भी नहीं समझ पाता हूँ कि स्वामी विवेकानन्द का दर्शन और आचार्य शंकर का अद्वैत दर्शन एक दूसरे के कितना निकट है; किन्तु यदि स्वामी जी को मैं अपने हृदय से प्यार करता हूँ, उनके नाम को सुनकर ही मेरा दिल धड़क उठता है, मेरे हृदय में विद्युत् की चमक के समान अचानक कोई उच्च विचार कौंध उठता है, वीरत्व का भाव या करुणा की धारा फूट पड़ती है तो बस - इस भाव को बनाये रखना ही यथेष्ट है।
इसीलिए हमलोग बार बार इस बात को समझाने का प्रयास करते हैं कि , महामण्डल की स्थापना स्वामी विवेकानन्द (या नवनीदा के)  नाम का प्रचार करने के लिए नहीं हुई है। 
महामण्डल आन्दोलन से जुड़ने का  अर्थ यह कदापि नहीं है कि, हमलोग स्वामी जी वाणी को सब जगह फैला देंगे, विवेकानन्द साहित्य/महामण्डल साहित्य की सभी पुस्तकों को बेच डालेंगे। हमारा उद्देश्य तो मात्र इतना ही है कि यदि स्वामी जी के निकट बैठने मात्र से 'मनुष्यत्व-उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी भाव' हमलोगों को प्राप्त हो जाते हैं, तो हमलोग स्वामी जी के चरणों में अपना शीश अवश्य झुकायेंगे! अर्थात यदि केवल स्वामी विवेकानन्द के दर्शन का अभ्यास तथा उनकी शिक्षाओं और उनके जीवन में घटित घटनाओं का श्रवण,मनन और निदिध्यासन करने से ही, हमारा विवेक-स्रोत उद्घाटित हो जाता है, तथा हमें उस महान 'विवेकज-ज्ञान' की प्राप्ति सरलता पूर्वक हो जाती है, जो त्राण करती है, जीवन्मुक्त, भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइड कर देती है ! तब  हम अपने जीवन में घटित रूपांतरण की अनुभूति करके, स्वामी जी के/नवनीदा के चरणों में श्रद्धापूर्वक अपना शीश अवश्य झुकायेंगे! 
            अब यह प्रश्न उठाया जा सकता है, कि जिन 'मनुष्यत्व-उन्मेषक और चरित्र-निर्माणकारी' विचारों के प्राप्त होने की बात कही जा रही है, क्या वे विचार सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द के मन में ही उपजे थे? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। इस प्रकार के विचार एवं अन्य महान विचार पृथ्वी पर अति प्राचीन काल से थे, तथा आज भी प्रचलन में हैं। तो फिर हम इन्हें स्वामी जी के विचार क्यों कहते हैं ? वह इसीलिए कि, स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवनरूपी यज्ञ के द्वारा, समस्त जगत के तात्विक-ज्ञान समूहों का मंथन किया था, और मंथन के फलस्वरूप जो 'अमृत-कलश' निकला था, उसमें भरा था मृत मनुष्य को भी पुनरुज्जीवित कर देने में समर्थ ये अमृततुल्य विचार ! स्वामी जी ने सम्पूर्ण जगत के सभी श्रेष्ठ मानव-मन के उन ज्ञानामृत सदृश निष्कर्षों को चुन-चुन कर ' हस्तामलकवत' (यानि उठाकर देखो,इसीको 'विवेकज-ज्ञान' कहते हैं !) हमारे हाथ पर लाकर रख दिया था। यह कार्य स्वामी जी ने अपने व्यक्तिगत जीवन को ही एक महान यज्ञ के रूप में रूपान्तरित करके पूरा किया था। उनके जीवन को ही 'यज्ञ' इसीलिए कहना पड़ता है, कि यज्ञ का अर्थ होता है -त्याग! स्वामी जी के जीवन-यज्ञ  में क्या हुआ था ? उन्होंने स्वयं का (मिथ्या अहं का) तिल -तिल कर त्याग करते हुए उस महान यज्ञ को सम्पादित किया था। 
आइये हम स्वामी विवेकानन्द के यज्ञमय-जीवन को देखने का प्रयास करते हैं। स्वामी विवेकानन्द तात्कालीन भारत की राजधानी कोलकाता के आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा सम्पन्न, अत्यन्त प्रगतिशील परिवार की सन्तान थे। चाँदी के चम्मच को मुख में लेकर ही, स्वामी जी ने धरती पर जन्म ग्रहण किया था। उस ज़माने जब मोटरकार का अविष्कार भी नहीं हुआ था उनके पिता जो सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील थे, अपनी निजी बग्घी में चढ़कर अदालत जाया करते थे। उनके घर का रहन-सहन धनाढ्यों जैसा ही था, और उसी प्रकार के उच्चवर्गीय लोगों (posh) के रिहायशी मुहल्ले -कोलकाता के शिमुलिया मुहल्ले में उन्होंने जन्म ग्रहण किया था। उस समय के आधुनिक युवाओं जैसा ही, उनका लालन-पालन हुआ था। उनकी प्रतिभा सर्वतोन्मुखी थी।वे फुटबॉल खेलते थे, क्रिकेट खेलते थे, जिम्नास्ट थे, मुक्केबाजी करते थे, kung fu (एक चीनी मार्शल आर्ट) जानते थे , बहुत अच्छा गा सकते थे, नाटकों में अभिनय करते थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र, विज्ञान, इतिहास, एनाटॉमी, समाज-विज्ञान, आदि विविध विषयों के विभिन्न पुस्तकों का अध्यन किया था। तथा उन विषयों पर बौद्धिक चर्चा भी किया करते थे। तात्विक-बहस में किसी के लिए उन्हें हरा पाना सहज नहीं था। युक्ति-तर्क से किसी विषय को जाँचने के बाद ही उसे ग्रहण करते थे। उन्होंने अपने शरीर को भी सुदृढ़ बना लिया था। इस प्रकार जीवन-यापन करते-करते हठात समय का चक्र घूम जाता है, भाग्य पलटा खाता है। असमय ही पिता की मृत्यु हो जाती है, लिखना-पढ़ना लभगभग छूट ही जाता है। 
                अब, यहाँ से स्वामी जी का जीवन यज्ञ में रूपान्तरित होना प्रारम्भ करता है। उनके पिता को खुले हाथों से दान करने की आदत थी। अतः उनके परलोक सिधारते ही रुपया,पैसा, जमीन-जायदाद, सब कुछ हाथ से बाहर हो  जाता है। जब उनके पिता संसार से गए तो वस्तुतः अपने बच्चों के लिए कुछ भी छोड़कर नहीं गए थे। नरेन्द्रनाथ अपने भाई-बहनों के साथ अनाथ हो गये। केवल एक विधवा माँ घर पर थीं।  एक बार नरेन्द्रनाथ ने अपने पिता से पूछा था, ' मेरे लिए आपने कुछ छोड़ा भी है या नहीं ? क्या छोड़कर जायेंगे आप मेरे लिये ?' पता नहीं क्या सोचकर, बिल्कुल किसी मनोवैज्ञानिक जैसी भंगिमा में, जैसा कभी कभी मनोवैज्ञानिक लोग किया करते हैं, वे भी नरेन्द्रनाथ को एक आदमकद शीशे के सामने ले जाकर खड़ा करते हुए कहते हैं - "  इसे देखो, यही छोड़कर जाऊँगा। " जबकि विश्वनाथ दत्त ने विवेकानन्द की तरह वाह्यविषयों में उत्कर्ष (excellence) प्राप्त करने की कोई चेष्टा नहीं प की थी। वे तो कानून के ज्ञाता थे, उसी व्यवसाय से जुड़े हुए भी थे, किन्तु पता नहीं क्या विचार कर, नरेन्द्रनाथ को दर्पण में उन्हीं की छवि उनको दिखलाते हुए कहा था - " इसे देखो, यही वह है,  जिसको मैं तुम्हारे लिए छोड़ कर जा रहा हूँ;  मैं तुम्हारे लिए 'तुम्हें' (नेता/शेर को?) ही छोड़ जाता हूँ। " 
अमेरिका में घटित एक सच्ची घटना का वर्णन मनोविज्ञान की एक बहुचर्चित पुस्तक [The Law of Success *]  में इस प्रकार से लिपिबद्ध है..... अमेरिका का एक धनाड्य व्यवसायी अचानक किसी बहुत बड़े आर्थिक संकट में फंस जाता है। उसका अच्छाखासा जमा-जमाया व्यवसाय किसी कारण से ठप्प हो जाता है, और वह आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त दरिद्र हो जाता है। हमारे  देश में तो बहुत सारे लोग दरिद्र ही हैं, कितने लोग तो 'B.P. L.'(below poverty line,) गरीबी रेखा से नीचे भी वास कर लेते हैं। किन्तु पाश्चात्य जगत के कुछ देश आर्थिक दृष्टि से इतने अतिसंपन्न हैं, कि वहाँ कोई धनाढ्य व्यक्ति यदि किसी कारणवश, फिर से कभी गरीब हो जाता है; तब 
उसमें फिर जीवित बचे रहने की क्षमता ही नहीं बचती।  किन्तु,हमारे देश के गरीब लोग, जिन्हें भरपेट दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती, जो फाकाकशी करने पर मजबूर हैं, वे जीर्णशीर्ण शरीर के होते हुए भी, दीर्घकाल तक कैसे जीवित रह पाते हैं ? क्योंकि हमारे देश की साधारण जनता के मन भी दरिद्र लोगों के प्रति, आज भी प्रचूर सहानुभूति, करुणा, सहृदयता और दानशीलता तक बची हुई है। इसीलिए, यहाँ के गरीबों की सहायता करके, किसी भी प्रकार उनके जीवन को नष्ट होने से अवश्य बचा लिया जाता है। 
          किन्तु पाश्चात्य देशों में, वहाँ के गरीब व्यक्तियों को अत्यन्त तुच्छ समझा जाता है, वे बिल्कुल उपेक्षित जीवन जीने को बाध्य रहते हैं। धनदौलत से सपंन्न वहाँ की साधारण जनता, उन लोगों को  जिनके पास धनदौलत नहीं होता, उसकी ओर तो आँख उठाकर भी नहीं देखते। इसी कारण अमेरिका के यह सम्भ्रान्त और धनाड्य व्यवसायी, जो अब  किसी दुर्दैववश अचानक गरीब हो गए थे, उन्होंने यह विचार किये बिना कि उनके नहीं रहने के बाद इनकी पत्नी और बच्चे कैसे रहेंगे, क्या खाएंगे, कैसे जीवित रहेंगे? अपने घर-परिवार को छोड़कर बाहर निकल गए; तथा यह निश्चय कर लिया कि वे मिशिगन स्थित झील में डूबकर आत्महत्या कर लेंगे।  उन्हें जीवित रहने का कोई उपाय ही नहीं सूझ रहा था। 
जब वे इसी निश्चय को कार्यरूप देने की बात सोचते हुए सड़क के किनारे से चले जा रहे थे, कि तभी जाते -जाते एक अचानक एक धटना घटित होती है। यह घटना हमें अलौकिक या चमत्कारपूर्ण  लग सकती है, किन्तु, स्वामीजी कहा करते थे जीवन में अलौकिक घटना जैसी कोई चीज घटित नहीं होती है। फिर भी हमलोग अपने अनुभव से जानते हैं, कि जीवन में कभी-कभी ऐसी कुछ घटनायें घटित हो जाती हैं, जो हमलोगों को अलौकिक, चमत्कार या 'miracle' से थोड़ी भी कम प्रतीत नहीं होती। ..... हठात एक व्यक्ति कहीं से आता है, और विपन्न अवस्था में पड़े उस अमेरिकी सज्जन के ओवर कोट की जेब में एक छोटी पुस्तक डालकर चला जाता है। 
                  वे सज्जन उस पुस्तक को जेब से बाहर निकाल कर देखते हैं, तो उसके ऊपर लिखा था - 'आत्मविश्वास'  (Self-Confidence )| पुस्तक के पन्नों को पलटते हुए वे सज्जन सोचने लगते हैं, कि आत्महत्या तो खैर करना ही है, किन्तु इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही आत्महत्या करूँगा। ऐसा विचार करके सड़क के किनारे लगे एक बेंच पर बैठकर, उस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ को पलटते हैं, तो वहाँ लिखा था - " तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो !" (You are the creator of your own destiny!) इसीलिए तुम्हारे निराश होने का कोई कारण नहीं हो सकता।  जीवन में चाहे जैसी भी विषम परिस्थित क्यों न उपस्थित हो जाय, पर उसमें विचलित हो जाना किसी मनुष्य को शोभा नहीं देता। अपने आत्मस्वरुप को जाग्रत करो, उस पर विश्वास करो और चाहे जैसी भी परिस्थिति क्यों न हो उस पर विजय प्राप्त करो ! " उस सज्जन की आत्मश्रद्धा थोड़ी जाग्रत हो जाती है, और वे निर्णय करते हैं कि आत्महत्या के विचार को कम-से-कम आज के दिन तक तो टाल ही दिया जाय। पुस्तक को उलट-पुलट कर उसके लेखक का नाम खोजने लगे। देखा तो उसमें लेखक के नाम (नेपोलियन हिल) के साथ, उनका पता भी लिखा था, और परिचय में लिखा था कि एक प्रसिद्द मनोविज्ञानिक (Psychologist) हैं। 
                उस सज्जन ने विचार किया कि जिस पुस्तक को पढ़ने के बाद मुझे आज तक के लिए ही सही, आत्महत्या के विचार को स्थगित कर देना पड़ा है; इस पुस्तक के लेखक चलकर कम-से-कम एक बार ' Thank-you' बोलना तो बनता है। क्योंकि पाश्चात्य जगत के नागरिकों में  कृतज्ञता ज्ञापित करने का भाव (curtsy) थोड़ाबहुत ही क्यों न हो, रहता अवश्य है। किसी व्यक्ति से सामान्य सी सहायता प्राप्त होने पर भी 'Thanks' कहने की आदत उनमें ऐसा घर कर चुकी है, जो व्यक्ति आज ही आत्महत्या करने पर आमादा था, वह भी सोचने लगता है, कि बिना उसको धन्यवाद दिए ही आत्महत्या कर लेना उचित नहीं होगा। मरने से पहले इस लेखक को धन्यवाद कहने का पूरा कर ही लेना चाहिए। 
उस पुस्तक में लिखे पते को ढूँढ़ते हुए वे सज्जन उस लेखक (नेपोलियन हिल) के कार्यालय में पहुँच जाते हैं। एक कुर्सी खींचकर उनके सामने बैठते हुए पूछते हैं, कि " श्रीमान, क्या इस पुस्तक को आपने ही लिखा है ?" लेखक के 'हाँ'-कहते ही वे सज्जन पूछते हैं, " महाशय, क्या आप मेरे लिए कुछ कर सकते हैं ? लेखक ने पूछा -'आपकी समस्या क्या है?' आप मुझे अपनी कैसी सेवा करने का अवसर देना चाहते हैं ? आपकी कोई भी सेवा करके मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी !' वे सज्जन उस लेखक के समक्ष अपनी आप बीती सुनाते हैं,....कि  इस- इस प्रकार से सर्वस्व खो चुकने के बाद, अब मैंने आत्महत्या करने का निश्चय किया है। क्या आप मुझे कुछ और थोड़े दिनों तक जीवित रहने का उपाय बतला सकते हैं ? 
              तब वह मनोविज्ञानी लेखक (नेपोलियन हिल) कहते हैं, 'महाशय, मुझे क्षमा करें, मेरे लिए वैसा कर पाना बिल्कुल भी सम्भव नहीं नहीं होगा। " अब तो उस सज्जन के लिए मानो आशा का अंतिम दीपक भी बुझ गया, वे हताश होकर सोफे पर टिका कर सोचने लगे, अब यहाँ से उठकर सीधे मिशिगन झील में ही डूब -मरना होगा, क्योंकि आत्महत्या करने के सिवा दूसरा कोई पथ बचा ही नहीं है। कहाँ तो वे उस मनोवैज्ञानिक -लेखक के पास यही सोचकर आये थे, कि जिसके कलम द्वारा लिखित शब्दों से मुझे इतनी हिम्मत मिली है, उसका साक्षात्कार करने से हो सकता है, वे मुझे कोई नया मार्ग बतला देंगे। किन्तु, जब इस लेखक ने भी सपाट स्वर में यह कह दिया कि अब वह भी कुछ नहीं कर सकता, तब वे हताशा से बिल्कुल टूट ही गए। 
किन्तु, फिर भी थोड़ा साहस बटोरकर, दुबारा प्रश्न किये -' क्या सचमुच, आप भी मेरे लिए कुछ नहीं कर सकते ?' तब उस मनोवैज्ञानिक लेखक ने कहा, ' अच्छा देखता हूँ। बगल के कमरे में ही एक अन्य सज्जन रहते हैं, चलिए उनसे ही कुछ करने को कहता हूँ। ' इतना सुनते ही, वे सज्जन उठ खड़े हुए और बोले, -"चलिए, चलिए, उनके पास ही ले चलिए, मुझसे उनका परिचय करवा दीजिये, मैं अभी तुरंत उनसे मिलना चाहता हूँ। " 
    मनोविज्ञानी लेखक उस सज्जन को अपने ऑफिस के पीछेले दरवाजे को खोलकर, पास वाले कमरे में ले गए। वहाँ एक आदमकद दर्पण लगा था और वह एक पर्दे से (मिथ्या भेँड़त्व के अहं से ?) ढँका हुआ था। लेखक ने, उस दुःखी, हताश सज्जन को ले जाकर उस दर्पण के सामने खड़ा कर दिया।  और पर्दा को खींचकर उस सज्जन के प्रतिबिम्ब को दिखलाते हुए कहा - " इनसे मिलिए, यही वे सज्जन हैं ! (शेर सिंह), जो आपकी मदद कर सकते हैं !" जब उस सज्जन ने दर्पण में (भेंड़-शिशु ने तालाब के जल में) कई दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ अपना विषादपूर्ण चेहरा देखा; तब वे मानो चौंक कर जाग उठे ! (स्व-स्वरूप का स्मरण हो आया ?) और बोल पड़े- " ओह ! अब मैं समझ गया हूँ, तथा उपाय भी जान गया हूँ।"  यह कह क वे पागलों की तरह वहाँ से बाहर निकल गए। " 

                       अमेरिका में घटित इस घटना के विषय में, श्री विश्वनाथ दत्त ने नहीं ही पढ़ा होगा, यह बात तो बिल्कुल निश्चित है, क्योंकि यह पुस्तक 'The Law of Success' उनके स्वर्गीय हो जाने के बहुत वर्षों बाद -1928 ई ० में प्रकाशित हुई थी। किन्तु यह देखकर विस्मय होता है कि श्री विश्वनाथ दत्त भी नरेन्द्रनाथ के समक्ष नाटकीय तरीके यही दृश्य प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- " शायद तुमलोग ऐसा समझते थे कि तुमलोगों के लिए मैं काफी धन-संपत्ति छोड़ जाऊँगा। किन्तु, मैं ऐसा कुछ भी नहीं करने जा रहा हूँ। इस दर्पण में स्वयं को देख लो। मैं, तुम्हारी सहायता के लिए, इसको ही रखकर जा रहा हूँ। [दर्पण में जो दिखता है, वो तुम नहीं हो; तुम तो अजर-अमर अविनाशी आत्मा हो, तुम्हारे भीतर अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है!] आत्मशक्ति में विश्वास करो ! आत्मविश्वासी बनो ! 'तुम सब कुछ कर सकते हो, यही थाती तुम्हें सौंपकर जा रहा हूँ-  तुम तो हो !" 
अमेरिका में रहने वाले उस सज्जन ने जब दर्पण में स्वयं को ही अपने 'सच्चे सहायक' के रूप में देखा था, तब उनके भीतर भी नचिकेता के जैसी श्रद्धा जाग्रत हो गयी थी, और वे बोल पड़े थे " अभी तो मैं हूँ, मैं सब कुछ कर सकता हूँ !" (उत्तम यदि नहीं हूँ, तो मृत शरीर जैसा अधम भी नहीं हूँ ! मुझमें जीवन है, पौरुष है! मैं धर्म,अर्थ, काम, मोक्ष सब कुछ प्राप्त कर सकता हूँ ! कहानी में वर्णित यह सच्ची घटना कहती है की  उस सज्जन ने अपने उसी आत्म-विश्वास (Self -Confidence) की शक्ति से भरकर जब 'विवेकसम्पन्न बुद्धि' को विकसित करके पुनः उद्यम और परिश्रम करना शुरू किया, तब आत्महत्या तो नहीं ही किया, बल्कि अपनी परिस्थितियों को फिर से पलट दिया और एक सफल व्यवसायी बन गए !
..... इस प्रकार की कहानियों को कहानी-लेखन की विधा में (comedy) या सुखान्त कहानी कहा जाता है। प्राचीन भारत के संस्कृत काव्यों में तो दुःखान्त नाटक (tragedy) लिखना बिल्कुल ही वर्जित। तथापि हमलोगों के निजी जीवन में तो, ट्रैजडी या दुःखद घटनायें घटित होती ही रहती हैं। हमलोगों के सांस्कृतिक इतिहास में जितने भी बड़े बड़े नट (নট,actor) या रंगमंच के अभिनेता हुए हैं, जिन्होंने अपने बड़े बड़े जीवन-रूपी नाटक में शानदार अभिनय से अपना अमिट छाप छोड़ा है, उन सभी महानायकों [श्री राम,श्रीकृष्ण,बुद्ध,ईसा..... आदि को अपने जीवन में अभिनय के लिये मिली हुई पटकथायें तो केवल त्रासदियों की शृंखला मात्र हैं। उसी प्रकार के बहुत बड़े त्रासदी नायक (Tragedy King) हुए हैं -स्वामी विवेकानन्द ! जरा विचार कीजिये ठाकुर श्री रामकृष्णदेव उनको किस विषाद-सागर में डुबो कर चले गए थे! क्योंकि, अब तो सम्पूर्ण विश्व के सभी मनुष्यों के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में उन्हें भी चिरकाल तक वहन करना पड़ेगा। फिर भी हमलोग (शिक्षक/नेता) उसी प्रकार के त्रासदी -नायकों के जैसी पटकथा प्राप्त होने की कामना करते हैं।
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"जब भ्रम का नाश होता है , तो उसमें कितना समय लगता है ? पलक झपकने में जितनी देर लगती है, उतनी। जब मैं सत्य को अपने अनुभव से जान लेता हूँ , तो इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता कि असत्य पूरी तरह से गायब हो चुका होता है। मैंने रस्सी को साँप समझा था और अब मैं जानता हूँ कि वह रस्सी है। प्रश्न केवल आधे सेकंड का है। और सब कुछ हो जाता है ! तू 'वह' -है ! तू वास्तविकता है (तू स्वरूपतः इन्द्रियातीत सत्य ब्रह्म है !)  इसे जानने में कितना समय लगता है ? इसका पता लगने में युग नहीं लगना चाहिए कि हम सदा से क्या रहे हैं, और अब क्या हैं ? ३/१९०  इसीलिए स्वामी जी कहते थे -' "मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं, लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, वसन्तवत लोकहितं चरन्तः -यही मेरा धर्म है। २/३६३  यदि एक व्यक्ति की मुक्ति के लिए भी मुझे,100 बार नरक में जाना पड़े ?  ...... ट्रेजडिकिंग का शानदार अभिनय करने वाले अवतारों, प्रशिक्षित नटों, नेताओं, शिक्षकों  को अपना ईश्वरत्व कभी नहीं भूलता। संत तुलसी दासजी दुःखान्त नाटकों के नायकों के रूपान्तरित जीवन का कारण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, 'जौं सपनें सिर काटै कोई, बिनु जागें दुःख (tragedy) दूरि न होई। ' -जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता। मोहनिद्रा से जागे बिना अर्थात अपने यथार्थ स्वरुप को पहचाने बिना, कोई भी साधारण मनुष्य इतना जीवंत ट्रेजडि-किंग का अभिनय क्यों नहीं कर सकता  ? क्योंकि अपने को मरणधर्मा शरीर समझने वाला ये जो सोया हुआ जीव है, या जो जीव हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहता है, वह हर समय मृत्यु के भय से डरता रहता है, और नाना प्रकार के दु:खों से परेशान रहता है। स्त्री/पुरुष का अभिनय ? जैसे ही उसको आत्म-साक्षात्कार हो जाता है, और नींद टूट जाती है, वह डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता है। तब उसका स्वप्न भी भंग हो जाता है, और वह आध्यात्मिक मनुष्य सदा के लिए सुखी हो जाता है।]  
                  किन्तु उस अमेरकी सज्जन की कहानी वहाँ जाकर समाप्त होती है, जब वे सम्भ्रान्त सज्जन अपने 'उद्यम और पौरुष ' से अपना भाग्य बदल लेने के बाद, एक दिन जब रास्ते से गुजरते समय अचानक उस मनोवैज्ञानिक लेखक 'नेपोलियन हिल' को अचानक पुनः देखते हैं; तो तुरंत अपनी जेब से चेक-बुक निकाल कर, उसमें 1000 डालर की रकम भर कर, उस दिन पहुँचाई गयी सहायता के लिए परामर्श शुल्क 'consultancy fee'  के रूप में प्रदान करते हैं। इस प्रकार इस कहानी का सचमुच ही सुखद समापन होता है। 
किन्तु स्वामी विवेकानन्द को अपने जीवन में जीवंत अभिनय दिखाने के लिए मिली  पटकथा (Script) की दृष्टि से देखें, तो उनकी कहानी घोर दुःखान्त है। अपने सन्तानों के लिए श्री विश्वनाथ दत्त जी ने अपने बाद कोई सम्पत्ति नहीं छोड़ी। किन्तु अपने पीछे एक ऐसे 'प्रेमपूर्ण हृदय वाले मनुष्य', 'Heart Whole Man' को छोड़ जाते हैं, जिसने आत्मविश्वास की शक्ति से, पूरे जगत को जीत लिया ! किन्तु निजी या वैयक्तिक (personal) बोलने से जो कुछ भी समझा जाता है, उन सबों को उन्होंने खो दिया । यही तो है विश्वविजयी स्वामी विवेकानन्द का जीवन ! 
             श्रीरामकृष्ण के जाने के बाद पदयात्रा करते हुए वे पूरे भारत का दर्शन करते हैं ! (चार शेरों वाले रथ पर सवार, एक हाथ आशीर्वाद मुद्रा में और दूसरे में महामण्डल ध्वज लिए भारतमाता का दर्शन करते हैं ?)हिमालय से कन्याकुमारी तक की यात्रा में उन्होंने राजा के महलों से लेकर दरिद्रों की कुटिया तक में निवास किया था; ये बातें हमलोग उनकी जीवनी पर बोलते समय प्रायः कहते हैं। किन्तु, सच्चाई यह है कि वे केवल दरिद्रों के झोपड़ियों तक में ही निवास नहीं किये थे, बल्कि उससे भी ज्यादा निम्नतम अवस्था में उन्हें रहना पड़ा था। जिनके रहने का कोई ठिकाना नहीं होता, जो भिखारी खुले आसमान के नीचे धूप-वर्षा सहने को विवश होते हैं, स्वामी जी उनके भी बीच जाकर बैठते हैं। तीन-तीन दिनों तक अनाहार ही रह जाते हैं। वे उनके साथ बैठकर उनके जीवन के दुःख भरी बातों को सुनते हैं, और उनसे शांति प्रदान करने वाली बातों को कहते हैं, उनके जीवन में शांति की प्रार्थना करते हैं।
यही है स्वामी जी का जीवन। तभी तो वे सारी पृथ्वी पर अपने व्याख्यानों द्वारा एक अग्नि शिखा प्रज्ज्वलित कर चले जाते हैं। यह सब कहने के लिये कौन उनको बाध्य कर रहा है वे स्वयं नहीं जानते, कहाँ पर क्या बोलना है -कुछ भी नहीं जानते। कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचना 'जीवन देवता' में वर्णित पात्र के जैसा न जाने कौन उनके हृदय में बैठकर उनसे भाषण दिलवाता है, और फिर उसी अज्ञात की अग्निवाणी से सम्पूर्ण विश्व में कैसी चिंगारी फैला देते हैं ? अमेरिका में पाप के सिर पर तो वज्र गिराकर ही लौटते हैं। मानव की जो सत्ता शुद्ध-बुद्ध-निरंजन स्वरुप है, उसी को पापी कहकर कलंकित करने का जो षड्यंत्र वहाँ के पुरोहितों (पादरियों) के द्वारा चलाया जा रहा था, उसके विरूद्ध अपनी वाणी द्वारा जिहाद करते हुए विश्व-रंगमंच को प्रकम्पित करने के बाद ही स्वदेश वापस लौटते हैं। और यहाँ आने पर, हमारा देश जो उस समय जड़ता, क्लीवता तथा तमोगुण से आछन्न होकर मोहनिद्रा में निमज्जित था, उसके स्थान पर रजोगुण की स्थापना कर देते हैं। उनके भीतर आत्मविश्वास जगा देते हैं। वे सम्पूर्ण विश्व को ही अपना मानते थे, इसलिए पाश्चात्य में जिस चीज का अभाव उन्हें दिखा उसको दूर करते हैं, प्राच्य में जिस चीज का अभाव दिखा उसको दूर करने की सामग्री द्वारा, विचारों के द्वारा परिपूर्ण करने के बाद यह 'महावीर' सृष्टि लीला के रंगमंच से प्रस्थान कर जाते हैं।
 अपनी रचनाओं में सारी मानवजाति के लिए कैसे- कैसे कल्याणकारी विचारों को वे छोड़कर गए हैं ! उन महान विचारों को पढ़-सुनकर अवाक् हो जाना पड़ता है।  वे महान भाव क्या हैं ? वे हैं -आत्मविश्वास की अनुभूति, निर्भीकता का भाव, त्याग के विचार, निःस्वार्थपरता का भाव, सहानुभूति के विचार, और बिना डरे (unflinchingly) जगत की  सेवा करने का भाव। उन्होंने कहा था - 'एक बार फिर से धर्म क्या है ? इसे समझना होगा और अपने जीवन में धारण करना होगा।' पुराना धर्म , जहाँ वेदों में और ईश्वर में विश्वास करने को आस्तिक्य कहता था, अब नया धर्म कहेगा -'आत्मविश्वास ही वास्तविक आस्तिकता है!' (अपने स्व-स्वरूप में, 'सिंह'-स्वरूप में विश्वास करना ही आस्तिकता है।) उन्होंने कहा था मन्दिर, मस्जिद और गिरजे में ईश्वर का अन्वेषण करने के बजाय मनुष्य के भीतर ही ईश्वर की खोज क्यों नहीं करते ? और कहा था -'तुमलोगों ने शास्त्रों में पढ़ा है -'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव' , मैं कहता हूँ -'दरिद्र देवो भव, मूर्ख देवो भव !' 'क्रोध ,यदि न्यायोचित भी हो , तो एक जघन्य पाप है !' २/३७८ "सारा संसार आलोक चाहता है। उसे भारत से बड़ी आशा है। एकमात्र भारत में ही यह आलोक है ! " ३/३९६   इस बात में कुछ सन्देह नहीं कि 'इस जगत में जो कुछ है, वह ईश्वर ही हैं - ईशावास्यं इदं सर्वं', किन्तु इन गरीबों के भीतर, इन मूर्खों के भीतर, वे अधिक मात्रा में प्रकाशित हैं। तुमलोग इन्हीं साक्षात् ,जीवंत ,जाग्रत देवी-देवताओं की पूजा करते हुए अपने प्राणों का त्याग करने का सौभाग्य प्राप्त करो। तभी तुम्हें 'अक्षय-स्वर्ग' की प्राप्ति होगी। अन्य कोई स्वर्ग कहीं नहीं है। 'अमरत्व' (शाश्वत जीवन) भी कहीं नहीं है, वह भी इसी 'शिव-ज्ञान से जीव सेवा' द्वारा ही प्राप्त होता है। अफीम के नशा जैसा किसी अन्य प्रकार की 'तथाकथित मुक्ति' की खोज में तुमलोग पागल नबनो! " सभी से पूछना -19 /3 /1894 / क्या सभी लोग ईर्ष्या त्यागकर एक-साथ रह सकेंगे या नहीं ? यदि नहीं, तो जो ईर्ष्या किये बिना नहीं रह सकता , उसके लिये वापस चले जाना ही अच्छा  होगा, और इससे सभी का भला होगा। और यही हमारा राष्ट्रीय दोष है ! इस देश (अमेरिका) में वह नहीं है , इसीसे ये इतने बड़े हैं। और हम ? हम 'आर्यवंशी' जो ठहरे !! वंश (Arya -Lineage) कहाँ है , यह नहीं मालूम ! एक लाख लोगों के दबाने से तीस करोड़ लोग कुत्ते के समान घूमते हैं, और वे 'आर्यवंशी' हैं! "
'श्रीरामकृष्ण की सन्तान' होने की पहचान [पूरी- अद्वैत शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित शिक्षक/माली/ नेता होने की पहचान] उन्होंने कहा था -' जो लोग मेरे अनुगामी बनेंगे, और अपनी मुक्ति के लिए 'अलग से चेष्टा'  भी करते रहेंगे, तब वे लोग नरक में जायेंगे। ' श्रीरामकृष्ण की सन्तानें वे लोग (M/F) ही हैं -जिनके हृदय में जीवों के लिए इतनी करुणा होती है, कि वे उनके कल्याण के लिये स्वयं नरक में भी जाने को तैयार रहते हैं। इतरे कृपणाः -दूसरों को (ब्राह्मण होकर भी) हीनबुद्धिवाला समझना। उनका चरित्र, उनकी शिक्षा, इस समय चारों ओर फैलाते जाओ -यही साधन है, यही भजन है, यही साधना है, यही सिद्धि है! आगे बढ़ो , आगे बढ़ो ! नाम का समय नहीं, यश का समय नहीं है, मुक्ति का समय नहीं है, भक्ति का समय नहीं है।  श्री रामकृष्ण की सन्तानों की पहचान यही है कि वे विश्व के सभी मनुष्यों के दुःख से विह्वल होकर अपना सर्वस्व -अपने प्राणों तक को न्योछावर कर देने को सदा प्रस्तुत रहते हैं। तथा जो वैसा नहीं करेंगे, चाहे वे उनके गुरुभाई होकर ही क्यों न आगे आ चुके हैं, या जो उनके बाद आगे आना चाहते हों, उन सबको कठोर चेतावनी देते हुए कहते हैं- जिन्हें अपने ही आराम की सूझ रही है, जो आलसी हैं, जो अपने जिद के सामने सबका सिर झुका हुआ देखना चाहते हैं, वे हमारे  कोई नहीं हैं। उन्होंने कहा था - " जो कोई भी मनुष्य  इस महान आध्यात्मिक प्लावन की सन्धिवेला 'great spiritual juncture' में हृदय में प्रचण्ड साहस भरकर खड़ा हो जायेगा, गाँव -गाँव में, घर घर में, उनका संवाद देता फिरेगा वही मेरा भाई है -वही उनकी सन्तान है। This is the test, he who is Ramakrishna's child does not seek his personal good. " the point of death." यही परीक्षा है - (इस बात कि कसौटी है) कि जो श्रीरामकृष्ण की सन्तानें हैं , वे अपने लिए मुक्ति-भक्ति की कामना नहीं करते, प्राण निकल जाने पर भी दूसरों का कल्याण, सम्पूर्ण जगत का कल्याण चाहते हैं- प्रराणात्ययेऽपि परकल्याण-चिकीर्षवः (=चाहने वाले) । " 
 " My brother , what experiences I have had in the South, of the upper classes torturing the lower ! What Bacchanalian orgies (मद्योत्सव संबंधित व्यभिचार-Wine related adultery) within the temples ! Is it a religion that fails to remove the misery of the poor and turn man into Gods!" या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेषु, अलक्ष्मीः पापात्मानं , त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्व ह्रीः , या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, यत्र नार्यअस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवताः , यथातथ्यतो आयुरथान व्यधतात, त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी, कालः सुप्तेषु जागर्तिं कालो ही दुरतिक्रमः। "  
तुममें से प्रत्येक के जीवन में एक महत्तर आदर्श है, महत्तर उद्देश्य है, अपनी मुक्ति को तुच्छ वस्तु समझकर उसे धूलि में फेंक दो। जगत की मुक्ति हो, जगत का कल्याण हो, जो नीचे गिरे हुए हैं उनको ऊपर उठाने के लिए स्वयं के जीवन  दृढ़तापूर्वक गठित कर लो। और इसी चेष्टा में अपने प्राण त्यागो। तुमलोगों के लिये मेरा यही निर्देश या यही आदेश है ! वे कहते हैं, यही दुःख, यही त्याग, वैसी ही महामृत्यु मैं तुम्हें आशीर्वाद के रूप में दिए जा रहा हूँ। तुमलोग अपने जीवन में उसका वहन करो। स्वामी जी के जीवन और संदेश की सार बात यही है, यदि हम इसे अपने हृदय में बसा सकें , तभी उनके जीवन और संदेश हमारे जीवन को भी अनुप्राणित कर पाएंगे। किन्तु पुस्तक में उनके जीवन की घटनाओं को पढ़कर कंठस्थ करके, पूरी भावुकता के साथ उसके ऊपर भाषण दें, किन्तु उनके उपदेशों की मर्यादा मेरे जीवन से अभिव्यक्त नहीं होती हो, हमारे दैनन्दिन जीवन में प्रतिफलित नहीं होती हो, तो वैसे खोखले उपदेशों से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। स्वामी जी स्वयं कहते हैं -" संसार सिद्धान्तों की कुछ भी परवाह नहीं करता। यहाँ लोग व्यक्तियों की ही पूजा करते हैं। जो व्यक्ति उन्हें प्रिय होगा, जिसका मन-वचन-कर्म एक होगा , उसके वचन वे शांति से सुनेंगे, चाहे वे कैसे भी निरर्थक क्यों न हों -परन्तु जिस मनुष्य का चरित्र उन्हें अप्रिय होगा, उसके वचन नहीं सुनेंगे। इस पर विचार करो और अपने आचरण में तदनुसार परिवर्तन करो। सब कुछ ठीक हो जायेगा। यदि तुम शासक बनना चाहते हो, तो सबके दास बनो। यही सच्चा रहस्य है !" २/३५९  यदि उनका जीवन और उपदेश हमारे भीतर साम्यभाव में स्थित, भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने की यथार्थ प्रेरणा जागृत कर सकें, केवल तभी हमारा स्वाभाविक उद्देश्य सफल हो पायेगा। 
" We as a nation have lost our individuality , and that is the cause of all mischief in India .We have to give back to the nation its lost individuality and raise the masses . again the force to raise them must come from inside , that is from the orthodox HINDUS. To effect this , the first thing we need is men, and the next is funds....Selfishness Personified -are they to spend anything ? Therefor I have come to America , to earn money myself. ...I give them spirituality ,and they give me money. "
   
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DEAR AND BELOVED, (The brother-disciples at Alambazar monastery.)(Summer?) १८९४.Arise! Awake! and stop not till the goal is reached." Life is ever expanding, contraction is death. The self-seeking man who is looking after his personal comforts and leading a lazy life — there is no room for him even in hell. He alone is a child of Shri Ramakrishna who is moved to pity for all creatures and exerts himself for them even at the risk of incurring personal damnation — others are vulgar people. Whoever, at this great spiritual juncture,will stand up with a courageous heart and go on spreading from door to door, from village to village, his message, is alone my brother, and a son of his. This is the test, he who is Ramakrishna's child does not seek his personal good. " the point of death." Those that care for their personal comforts and seek a lazy life, who are ready to sacrifice all before their personal whims, are none of us; let them pack off, while yet there is time. Propagate his character, his teaching, his religion.This is the only spiritual practice, the only worship, this verily is the means, and this the goal. Arise! Arise! A tidal wave is coming! Onward! Men and women, down to the Chandâla (Pariah) — all are pure in his eyes. Onward! Onward! There is no time to care for name, or fame, or Mukti, or Bhakti! We shall look to these some other time. Now in this life let us infinitely spread his lofty character, his sublime life, his infinite soul. This is the only work — there is nothing else to do. Wherever his name will reach
" श्रीरामकृष्ण-जयन्ती वहाँ हर्षोल्लास पूर्वक मनाया गया, यह अच्छी बात है। उनके नाम का जितना ही विस्तार हो, उतना ही अच्छा है। परन्तु एक बात याद रखो -अवतार लोग शिक्षा देने के लिए ही धरती पर जन्म ग्रहण करते हैं, नाम-यश पाने के लिये नहीं। किन्तु उनके कुछ वैसे चेले /शिष्य जो अपनी सिगरेट-स्मोकिंग जैसे कई 'past bad habits' को नहीं छोड़ पाते हैं, वे उनके उपदेशों को पानी में बहाकर पद और नाम के लिए हाथापाई करने लग जाते हैं; बस यही संसार का इतिहास है।  लोग उनका (नवनीदा का) नाम लें या नहीं , इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं , केवल उनके उपदेश, जीवन और शिक्षायें  जिस उपाय से संसार में प्रचारित हों, (विवेक-वाहिनी,किशोर-वाहिनी, सारदा नारी संगठन, युवा पाठचक्र, युवा प्रशिक्षण शिविर etc), उसी के लिए प्राणों का होम कर प्रयत्न करता रहूँगा।['I am ready to lay down my life to help his teachings, his life, and his message 'Be and Make '-Leadership Training Tradition.) spread all over the world.
किन्तु मुझे सबसे अधिक भय ठाकुर-घर का है। ठाकुर-घर बनवाना अपने आप में बुरी बात नहीं, परन्तु उसी को यथा सर्वस्व समझकर पुराने ढर्रे के अनुसार काम कर डालने की जो एक प्रवृत्ति होती है , उसी वृत्ति से मुझे परेशानी है। .... समाज में, संसार में , बिजली की शक्ति के समान काम करना होगा। बैठे बैठे गप्पे लड़ाने, और घण्टी हिलाने से काम नहीं चलेगा। हमें कुछ प्रशिक्षित शिक्षक/लीडर/माली चाहिये -वीर युवक -समझे ? -बुद्धि के तीव्र और हिम्मत हिम्मत के पूरे -यम का सामना करने वाले-तैर कर समुद्र पार करने को तैयार -समझे ? हमें ऐसे सैकड़ों चाहिये -स्त्री और पुरुष दोनों। [अद्वैत पूरी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में] नेताओं का चरित्र-निर्माण हो जाये, फिर मैं तुमलोगों के बीच आता हूँ। .... आध्यात्मिकता की बड़ी भारी बाढ़ आ रही है, साधारण व्यक्ति महान बन जायेंगे, अनपढ़ उनकी कृपा से बड़े बड़े पण्डितों के भी आचार्य बन जायेंगे। .. उत्तिष्ठत जाग्रत - उठो, जागो और जब तक लक्ष्य पर (साम्यभाव में ) न पहुँचो तब तक विश्राम मत करो। सदा अपने हृदय का विस्तार करते रहना ही जीवन है, और सिकुड़न (contraction, हर्ट भेन में बलॉकेज या जकड़ाव) ही मृत्यु। जो अपना ही स्वार्थ देखता है, आरामतलब और आलसी है, उसके लिए नरक में भी जगह नहीं।   
 " भर्तृहरि ने ठीक ही कहा है: 'ये विघ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे' -जो नाहक औरों के हित के बाधक होते हैं, वे किस श्रेणी के हैं यह हमें नहीं मालूम। भाई, सब दुर्गुण मिट जाते हैं, पर यह अभागी ईर्ष्या नहीं मिटती ! यही हमारा 'राष्ट्रीय-दोष' (National defect,राष्ट्रीय बुराई) है -केवल परनिन्दा और ईर्ष्या। वे (तथाकथित बड़े -बड़े नेता,ब्राह्मण-पुरोहित, वानप्रस्थी -निवृत्तिमार्गी) सोचते हैं कि हम ही बड़े हैं-दूसरा कोई बड़ा न होने पाये। "  
"हमारी हिन्दूजाति अपनी 'स्वतन्त्र सत्ता' [अर्थात आत्मश्रद्धा या (PARTICULAR- INDIVIDUALITY-व्यक्तित्व या वैयक्तिकता -व्यक्तिगत विशिष्ट पौरुष] खो बैठी है, और यही भारत के सारे अनर्थ का कारण है। हमें अपनी हिन्दू -जाति को उसकी खोई हुई स्वतन्त्र सत्ता वापस देनी ही होगी और निम्न -जातियों को 
(SC /ST/कन्वर्टेड ईसाई,मुस्लिम,जैन,सिख,बौद्ध....सबको ) उठाना होगा। हिन्दू, मुसलमान,ईसाई सभी (राजाओ/नवाबों/नेताओं) ने उनको पैरों तले रौंदा है। उनको उठाने वाली शक्ति भी अन्दर से अर्थात सनातनमार्गी हिन्दुओं से ही आयेगी! हमारे देश में जो सामाजिक बुराइयाँ हैं, वे धर्म के कारण नहीं, बल्कि धर्म को न मानने के कारण ही विद्यमान रहती हैं। अतः धर्म का कोई दोष नहीं, बल्कि धर्म को न मानने/जानने के कारण ही विद्यमान रहती हैं। अतः धर्म का दोष नहीं, दोष मनुष्य का है। इसे करने के लिए पहले मनुष्य (माली/शिक्षक/नेता) चाहिये , फिर धन गुरु भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा से, ऐसे मनुष्य (माली या पैगंबर) तो मुझे प्रत्येक शहर में 10 -15  मिल ही जायेंगे। जैसे हमारे देश में सामाजिक सद्गुणों का अभाव है, वैसे ही पाश्चात्य देशों में आध्यात्मिकता का अभाव है। मैं इन अमीर देशों को आध्यात्मिकता प्रदान कर रहा हूँ और ये मुझे धन दे रहे हैं। स्वयं प्राणपण चेष्टा से धन-संग्रह करके अपना उद्देश्य सफल करूँगा, अथवा उसी के लिये मर मिटूँगा। 'सन्निमित्ते वरं त्यागो' --अरे, जब मृत्यु निश्चित है, तो किसी सत्कार्य के लिए मरना ही श्रेयस्कर है।    [दादा के पितामह मॉर्निग वॉक से लौटे तब उनके शरीर पर शॉल नहीं था !'मृत्युभय को सामने देखकर भी बेघड़ीया कैम्प 1987, तालाब, तांत्रिक-तालाब में डुबाने का प्रयत्न करने पर माँ वहाँ स्वयं चली आती हैं !     
"आपने मेरे गुरुभाइयों को देखा है। मुझे सारे भारत में ऐसे निःस्वार्थ , अच्छे एवं शिक्षित /प्रशिक्षित सैकड़ों नवयुवक मिल सकते हैं। दरवाजे दरवाजे पर धर्म को ही नहीं , शिक्षा को भी पहुँचाने के लिए इन लोगों को गाँव -गाँव में घूमने दीजिये। इसीलिए विधवाओं/अविवाहिताओं / प्रशिक्षित महिलाओं को भी शिक्षिकाओं /मालीन के रूप में संगठित करने के लिए मैंने एक छोटे से दल -SNS का गठन कर दिया है। " २/३६६ 
भक्ति निःस्वार्थ होनी चाहिए : शरीर के सात मूल चक्रों के लिए कमल के सात तरह के फूलों को प्रतीक चिह्न माना गया है।  हर इंसान के अंदर कमल के फूल की तरह खिलने और जीने की काबिलियत होती है; योग तो केवल एक तरीका है, खिलते-फूलते जीवन जीने का एक वैज्ञानिक तरीका।  आपको एक कमल के फूल की तरह बनना होगा और गंदे हालात से अनछुए बाहर निकल कर कमल के फूल की तरह खिलना होगा। सूर्य की किरणों के स्पर्श से कमल का फूल खिलता है। गुरु विवेकानन्द की शिक्षा की रोशनी से शिष्य का भविष्य संवरता है। ईश्वर/गुरु में स्वाभाविक भक्ति होनी चाहिए। जैसे मां का पुत्र के प्रति स्वाभाविक प्रेम होता है। सूर्य के उदय हो पर कमल क्यों खिलता है। चन्द्रमा को देखकर चकोर एकटक क्यों हो जाता है। चन्द्रमा के उदय होने पर कुमुदनी क्यों विकसित होती है। इस पर क्यों का कोई जवाब नहीं है। यह उसका स्वाभाविक प्रेम है। इसी प्रकार यदि भगवान में स्वाभाविक प्रेम हो जाय तो व्यक्ति का वैराग्य अपने आप हो जाएगा।

['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या- 7/ मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' निबन्ध संख्या -72-' মহামণ্ডল ও সেই মহাজীবন'/ Trained Leaders / teachers in 'Be and Make Puri Vedanta Leadership-Training Tradition' And the test of there life transformed into a great life! 'Be and Make पुरी वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित महामण्डल लीडर्स/टीचर्स  तथा उनके महाजीवन में रूपान्तरित जीवन की कसौटी ! 
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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

🔱🙏"जीवन पुष्प को खिला देने में समर्थ माली बनो और बनाओ " 🔱🙏[एक युवा आन्दोलन -6]

भूमिका :
बंगला पुस्तिका ' एकटि युव आन्दोलन' का प्रथम हिन्दी अनुवाद 'एक युवा आन्दोलन ' के नाम से दिसम्बर 2003 में प्रकाशित हुआ था। उस पुस्तिका का पूरा स्टॉक समाप्त हो जाने के कारण, उसमें आवश्यक सुधार करते हुए उस पुस्तिका का पुनर्प्रकाशन करना आवश्यक प्रतीत हुआ। किन्तु जिस 'एकटी यूव आन्दोलन' नामक मूल बंगला पुस्तिका से 'एक युवा आन्दोलन' नामक हिन्दी पुस्तिका का अनुवाद हुआ था,उसे प्राप्त करने के लिए बंगला प्रकाशन/विक्रय विभाग से सम्पर्क करने पर पता चला कि उस मूल बंगला पुस्तिका का स्टॉक भी पूरा समाप्त हो चुका है। किन्तु हिन्दी भाषी राज्यों के युवा पाठकों में इस पुस्तक के प्रति अत्यन्त आग्रह को देखते हुए, झुमरीतिलैया महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन विभाग ने इस पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद अक्टूबर 2018 तक करने का निर्णय लिया है, ताकि वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर के पहले इसे प्रकाशित किया जा सके। तदनुसार 2003 में प्रकाशित 'एक युवा आन्दोलन' के हिन्दी निबन्धों को -बंगला में प्रकाशित पुस्तक 'स्वामी विवेकानन ओ आमादेर सम्भावना' में प्रकाशित निबन्धों से मिलाकर पुनः अनुवादित किया जा रहा है।
वास्तव में  'एकटी यूव आन्दोलन'  नामक बंगला पुस्तिका, सर्वप्रथम महामण्डल के बंगला प्रकाशन -'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' पुस्तक में परिशिष्ट (appendix) के रूप में प्रकाशित हुई थी। इस मूल पुस्तक में आई हुई बातों को, और अधिक स्पष्ट करने के लिए 'एकटी यूव आन्दोलन' नामक जो बंगला पुस्तिका परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित हुई थी।  'जीवनेर फूल' नामक निबंध उस परिशिष्ट का 5 वां निबंध है। जबकि सभी महामण्डल कर्मियों के लिए अपने दैनंदिन जीवन धारण करना क्यों अत्यंत आवश्यक है, उसके स्पष्टीकरण के लिए स्वतंत्र रूप से बंगला में प्रकाशित पुस्तिका 'एकटी यूव आन्दोलन का यह 6 ठा निबन्ध है। यह गूढ़ निबन्ध  गृहस्थ आश्रम में रहने वाले महामण्डल कार्यकर्ताओं के लिए विशेष उपयोगी और उत्साह वर्धक है। 
 पूर्व हिन्दी पुस्तिका 'एक युवा आन्दोलन' तथा बंगला में प्रकाशित पुस्तक 'स्वामी विवेकानन ओ आमादेर सम्भावना' के निबन्धों की तुलनात्मक  विषय-सूचि (table of contents)' इस प्रकार है -  
'एक युवा आन्दोलन' -----------------------------------' स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना' 
1. आगे बढ़ो,-----------------------------------------67.EGIYE CHALUN!
2. समाज सेवा का उद्देश्य एवं उपाय----------------------59. SAMAJ SEVAR UDDESHY O UPAY. 
3. अ০ भा০ वि০ यु০ महामण्डल के गठन की अनिवार्यता----68. MAHAMANDAL KEN ?
4. महामण्डल के उद्देश्य एवं कार्यक्रम ------------------- 69. MAHAMANDKER LAKSHY O KARMDHARA .  
5. महामण्डल का स्वरुप एवं कार्य -----------------------70.  MAHAMANDLER CHINTA O KAJ.
6. जीवन पुष्प को खिला देने में समर्थ माली बनो और बनाओ--71.  JIVNER FUL  
7. महामण्डल और जीवन का महाजीवन में रूपान्तरण ------72.  MAHAMANDAL O SEI MAHAJIVAN.
8. महाजीवन का संदेश -------------------------------- 09. SWAMI VIVEKANANDER CHINTADHARA. 
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['एक युवा आन्दोलन' -निबन्ध शंख्या 6/ मूल बंगला पुस्तक 'स्वामी विवेकानन्द ओ आमादेर सम्भावना-निबन्ध संख्या -71-'জীবনের ফুল' 
 जीवन पुष्प को खिला देने में समर्थ माली बनो और बनाओ !  
ध्यानमूलं गुरुमूर्ति, पूजामूलं गुरु पदम् । 
मंत्रमूलं गुरु वाक्यं, मोक्षमूलं गुरु कृपा
श्रीमद तोतापुरी का शिक्षण (teaching/ट्रेनिंग) है --' गुरुरूपी श्री भगवान स्व-स्वरुप की पहचान करवा देते हैं।'.... इसके बाद गुरुरूपी भगवान श्रीरामकृष्ण देव कहते हैं - 'नागा ने बाघ और बकरों के झुण्ड की कहानी  सुनायी थी।"'तोतापुरीर उपदेश -गुरुरूपी श्रीभगवान स्व-स्वरूपके जानिये देन'/  तथा गुरुरूपी भगवान श्रीरामकृष्ण भक्तों को अपने गुरु के सम्बन्ध में बतलाते हुए कहते हैं - "न्यांगटा बाघ आर छागलेर पालेर गल्प बलेछिल। ...." मूल बंगला कथामृत में 24 दिसम्बर 1883 के व्याख्यान  'नित्य और लीला' दोनों सत्य हैं! .के साथ उसका हिन्दी अनुवाद वचनामृत को मिलाकर पढ़ने से "भगवानरूपी गुरु श्रीमद तोतापुरी"  तथा " गुरुरूपी भगवान श्रीरामकृष्ण" के कथन का फर्क समझ में आ जायेगा।  Gospel of Shri Ramakrishna Daily-24 December 1883 द्रष्टव्य है। (তোতাপুরীর উপদেশ -- " গুরুরূপী শ্রীভগবান স্ব-স্বরূপকে জানিয়ে দেন") , গুরুরূপী শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে/ ১৮৮৩, ২৪শে ডিসেম্বর/ নিত্য, লীলা -- দুই-ই সত্য|   “ন্যাংটা বাঘ আর ছাগলের পালের গল্প বলেছিল!.......] 

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🔱🙏जीवन पुष्प का प्रस्फुटन🔱🙏 

 [🔱1. >>>विकारहेतौ सति 'येषां मनांसि न विक्रियन्ते' ते एव धीराः। "वीर हो धीर बनो! नरलीला कैसी होती है जानते हो ? जैसे किसी व्याघ्रमुख परनाले से होकर  (gargoyle से होकर) बड़ी छत का पानी धड़धड़ करते हुए नीचे गिरता है। उसी सच्चिदानन्द की शक्ति मानो परनाले के भीतर से आ रही है। ]  

हमारे शास्त्रों में एक अत्यन्त ही सुन्दर शब्द है - 'धीरः' ! महाकवि कालिदास ने अपनी रचना 'कुमार संभव' में भगवान शिव के स्वरुप का वर्णन करते हुए, इसे बहुत ही सुन्दर ढंग से परिभाषित किया है:-

विकार हेतौ सति, 'विक्रियन्ते येषां न मनांसि'  एव धीराः।। 

[कुमारसम्भवम् (१. ५९)]  
 
[अन्वयः विकारहेतौ सति येषां चेतांसि (मनांसि) न विक्रियन्ते, ते एव धीराः।] -अर्थात 'जिन कारणों से चित्त में विकार (लालच) उत्पन्न होता है, वे कारण (temptation, प्रलोभन) अथवा भोग-विषय दृष्टि के सम्मुख रहने पर भी जिनका अन्त:करण मोह (अविवेक) के पंजे में नहीं फँसता वे पुरुष ही धैर्यशाली कहे जाते हैं। (कुमार सम्भव 1.59) ऐसे धीर पुरुष ही जीवन के प्रति यथार्थ दृष्टि तथा शाश्वत जीवन (अमरत्व) प्राप्त कर सकते हैं। 
{ यहाँ दादा के बंगला उक्ति `এই ধীররাই কিন্তু জীবনের সত্যকার দৃষ্টি এবং সত্যকারের জীবন লাভ করতে পারেন।' की व्याख्या करना या 'decoding' करना आवश्यक है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि ऐसे धैर्यशाली पुरुष ही मनुष्य-जीवन के प्रति सच्चे दृष्टिकोण को अर्थात  'प्रवृत्ति (गृहस्थ जीवन) और निवृत्ति (संन्यासी जीवन) ' दोनों धर्म हैं, इस बात को सही अर्थों में समझ सकते हैं, तथा अपनी प्रवणता के अनुसार दोनों में किसी भी धर्म का पालन करते हुए इसी जीवन को महाजीवन में रूपांतरित करके शाश्वत जीवन या 'अमरत्व' को भी प्राप्त कर सकते हैं।
   दादा कहते थे -Individual life building, वैयक्तिक जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण जंगल के गुफा में बैठकर पकाने की चीज नहीं है, गीता कुरुक्षेत्र (संसार) में ही कही गयी थी। धर्म-सम्मत या (विवेक-सम्मत) 'अर्थ और 'काम' का विरोध भारत में कभी नहीं हुआ है। यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है। गीता में भगवान ने कहा है -'धर्म अविरूद्ध कामोSस्मि!' हे भरतश्रेष्ठ (अर्जुन)! मैं वह काम हूँ, जो धर्म के विरुद्ध नहीं है। अर्थात धर्म-सम्मत मैथुन सन्तानोन्पति के लिए होना चाहिए, अन्य कार्यों के लिए नहीं। 
        दादा ने लीडरशिप क्लास में एक बार कहा था -" स्वामीजी से अमेरिका में किसी ने (कैप्टन सेवियर ने ?) पूछा था -'स्वामीजी आर यू अ बूडिस्ट ?' 'Swami ji are you a buddhist?'  अर्थात 'स्वामी जी क्या आप एक बौद्ध हैं ?' तब इसके उत्तर में उन्होंने हँसते हुए, थोड़ा मजाकिया ढंग से कहा था -" नो, आइ एम बडिस्ट !' "  No, I am a 'bud'-ist ! (budde-tist) "  वहाँ वे यही कहना चाह रहे थे कि मैं बालकों,किशोरों, युवाओं के जीवन-पुष्प को सुंदररूप से प्रस्फुटित करा देने में सक्षम एक माली (उद्यान-विद्या विशारद) हूँ ! 
       कालिदास के उपरोक्त 'सविस्तार' दिए गए तर्क (comprehensive logic) के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि, किसी योगी के 'मनोनिग्रह' या मानसिक एकाग्रता  में उसकी दक्षता की जाँच, उसके कर्मों में रत रहते समय ही की जा सकती है। और इस प्रकार स्वयं उस कार्यकर्ता को,  तथा अन्य लोगों को भी, यह ज्ञात हो जाता है कि उस योगी का 'मनोनिग्रह' (मनःसंयोग) पूर्ण हुआ है या नहीं ?  इस दृष्टि से देखने पर भी यही सिद्ध होता है कि महामण्डल के किसी कुशल कार्यकर्ता (Skilled worker नेता या जीवनमुक्त शिक्षक) को (माँ सारदा की इच्छा से) अपने सामने आ गए कर्ममय जीवन से मुख नहीं मोड़ना चाहिए। बल्कि किसी भी धर्म-अविरुद्ध कर्तव्य-कर्म (चारो पुरुषार्थ), पठन-पाठन, खेती-व्यापार आदि जीविका सम्बन्धी समस्त कर्मों को शास्त्र की मर्यादा के अनुसार आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करके अवश्य करना चाहिये। 
श्रीरामकृष्ण कहते हैं, " नित्य और लीला'- दोनों सत्य हैं। (साकार -निराकार दोनों सत्य हैं !) ईश्वर नित्य हैं; फिर वे लीला भी करते हैं-ईश्वरलीला, देवलीला, जगत-लीला, नरलीला। नरलीला में वे अवतार बनकर आते हैं। नरलीला कैसी होती है जानते हो ? जैसे व्याघ्रमुख परनाला से होकर  (gargoyle से होकर) बड़ी छत का पानी धड़धड़ करते हुए नीचे गिरता है। उसी सच्चिदानन्द की शक्ति मानो परनाले के भीतर से आ रही है। श्रीरामकृष्णदेव कहते थे -'पौधों में साधारणतः पहले फूल आते हैं, बाद में फल, परन्तु लौकी, कुम्हड़े आदि के बेलों (लत्तर) में पहले फल और उसके बाद  फूल होते हैं। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वरलाभ होता है किन्तु जो नित्यसिद्ध श्रेणी के योगी होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है; साधना बाद में करनी पड़ती है।"] 
     अवतार को (नित्यसिद्ध श्रेणी के योगी को) सब लोग नहीं पहचान सकते। रामचन्द्र को अवतार के रूप में भरद्वाज आदि केवल 7 ही ऋषियों ने ही (प्रवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों ने ही) पहचाना था। ईश्वर मनुष्य को ज्ञान-भक्ति सिखाने के लिये नररूप धारण कर अवतीर्ण होते हैं। .....जब लकड़ी का बड़ा भारी कुन्दा पानी पर बहता है तब उस पर चढ़कर कितने ही लोग आगे निकल जाते हैं, उनके वजन से वह डूबता नहीं। परन्तु सड़ियल लकड़ी पर एक कौआ भी बैठने से वह डूब जाती है। इसी प्रकार जिस समय अवतार -महापुरुष आते हैं उस समय उनका आश्रय ग्रहण कर कितने लोग तर जाते हैं, परन्तु सिद्ध पुरुष काफी श्रम करके किसी तरह स्वयं तरता है। [माँ सारदा देवी की कृपा से ईश्वरकोटि के C-IN-C नवनी दा दूसरों को ज्ञान-भक्ति की शिक्षा देने के लिए निर्विकल्प समाधि से लौट आते हैं ..... लेकिन (जीवकोटि का साधक) वापस नहीं लौट पाता ? "  इस प्रवृत्ति और निवृत्ति धर्म को विस्तार से समझने के लिए इस पुस्तिका का 9 वां निबन्ध 'व्यावहारिक जीवन और धर्म क्या भिन्न -भिन्न हैं ?' ব্যাবহারিক জীবনে ধর্ম/ को देखें। क्योंकि  'जीवन ही धर्म हैं'- इस तथ्य को  कुछ (मुट्ठीभर) धैर्यशाली लोग ही यह समझ सकते हैं; तथा इसे समझ लेने के बाद इसी जीवन में वे शाश्वत जीवन (अमरत्व) को भी प्राप्त कर सकते हैं। दादा कहते थे - "तुम वीर हो धीर बनो !" ]}
इसीलिये धीर बनने की आवश्यकता है। सर्वप्रथम हमलोग धीर भाव से जीवन का अवलोकन करने की चेष्टा करेंगे। केवल इतना ही नहीं, इस धीर भाव को इतना अधिक विकसित कर लेंगे कि इसका प्रभाव हमारे व्यक्तिगत जीवन में तथा सामाजिक जीवन में भी - स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होने लगेगा। हम इस बात पर भी चिन्तन करेंगे कि इस 'धीर भाव' को हम कैसे अपने दैनन्दिन जीवन में, कर्म में या आचरण में धारण कर सकते हैं, और साथ-ही-साथ उसके प्राप्ति पथ को भी देखने की चेष्टा करेंगे। इसीलिए किसी भी प्रकार की उच्छृंखलता (धर्मविरुद्ध आचरण या निषिद्ध कर्म में ), किसी प्रकार से शक्ति का क्षय हमलोग नहीं करेंगे। क्योंकि वैसा करने से उस जीवन (शाश्वत जीवन या अमरत्व) के प्रति हम अपना सही दृष्टिकोण नहीं बना पायेंगे, जिस जीवन को प्राप्त करने के लिए हमें पहले धीर बनना पड़ता है। तथा जो दृष्टि धीर भाव रखने से ही प्राप्त होती है, उसके पथ का संधान भी हम नहीं कर पायेंगे।
[ ধীরভাবে পাওয়া যে সেই দৃষ্টির জীবন তার পথও জানতে পারব না।] यदि हमें किसी प्रकार उस शाश्वत जीवन (अमरत्व) प्राप्त करने के पथ का पता चल भी गया किन्तु, हम यदि धीर न बन सके, तो हम कभी भी उस 'पथ' पर (ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने के पथ पर) अग्रसर नहीं हो पाएंगे। इसलिए इस 'धीर भाव' को सतत् बनाये रखना आवश्यक है।
 [🔱2. >> युवा प्रशिक्षण-शिविर (Individual life building) में बाह्य अनुशासन का पालन ही आत्मानुशासन में परिणत होकर हमें विराट साम्य (मतैक्य) में प्रतिष्ठित कर देता है।]    
        कई तरह के बाह्य अनुशासन (NCC-परेड,गार्ड-ड्यूटी, किचेन-डिस्ट्रीब्यूशन आदि) का निष्ठा-पूर्वक पालन करते हुए, हमें पहले अपने जीवन को अनुशासित करना सीखना होगा। महामण्डल की प्रार्थना (anthem या संघगीत) में हमलोग गाते हैं- 'एक साथ चलेंगे, एक बात कहेंगे', या परेड के समय एक साथ कदम से कदम मिलाते हुए चलते हैं बायाँ -दायाँ, बायाँ -दायाँ एक साथ ही सभी के कदम उठते तथा गिरते हैं। यदि हम अपने संघ-गीत का अर्थ केवल इतना ही समझें कि अपने पैरों को बायाँ-दायाँ करके साथ-साथ उठाने-गिराने से ही हममें एकत्व का भाव आ गया , तो यह कभी नहीं होगा। यह तो एक बाह्य अनुशासन मात्र है, जिस प्रकार पैरों को बाहर में एक-साथ आगे-पीछे रखने के लिए सतर्क होकर मन को भी अनुशासन में रखना जरुरी होता है, उसके लिए भीतर ही भीतर ताल से ताल मिलाने की चेष्टा करनी पड़ती है। [ভেতরের যে পা ফেলা সেটাকে মেলাতে হবে।] भीतर के ताल को बाहरी स्तर पर भी अनुशासित रखने के लिए सैनिकों को इस प्रकार से बाह्य प्रशिक्षण दिया जाता है। बाह्य जीवन को अनुशासन में रखने का प्रयास करते हुए, हमें अपने आन्तरिक जीवन में प्रवेश करना पड़ेगा। किन्तु बाहर से अनुशासन पालन करते हुए चलें, लेकिन भीतर में उसके विपरीत चिंतन चल रहा हो, तो वह समदृष्टि हमें नहीं प्राप्त हो सकेगी।  
इसीलिए हमारे संघगीत में हर छन्द के बाद दुहराया जाता है , ' एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे। ' उसके बाद वाले छन्द में है -"हमारे हृदय समान होंगे, हमारी भावनायें एक जैसी होंगी, हमारी अभिलाषायें समान होंगी, हमारे संकल्प समान होंगे, हमारी प्राप्ति समान होगी; एवं जो कुछ प्राप्ति होगी उसे हम आपस में एक समान बाँटकर ग्रहण करेंगे। " कैसी सुन्दर है,  यह प्रार्थना ! और यही हमें सीखना है कि किस प्रकार हमलोग संघ-बद्ध होकर कार्य कर सकते हैं। हमारी यह प्रार्थना ऋग्वेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा है। जो शास्त्र मानवजाति का सबसे प्राचीन शास्त्र है, उसी ऋग्वेद संहिता की यह अन्तिम ऋचा है।
        ऋग्वेद में बहुत सारे देवताओं की कथाएं हैं। अग्नि देवता से लेकर ईन्द्र देवता तक जितने सारे देवता हैं, कथायें हैं एवं समस्त देवताओं की स्तुतियाँ भी हैं। एक एक ऋचाओं को सूक्त कहा जाता है। उन समस्त सूक्तों को भिन्न -भिन्न देवताओं को समर्पित किया गया है। किन्तु, ऋग्वेद के इस अंतिम सूक्त (१०.१९१)- में जिस देवता की स्तुति की जा रही है, उस देवता का नाम हुआ - 'मतैक्य। ' इस ऐक्य को हमें प्राप्त करना ही होगा। 
       इतने प्राचीन काल के ऋषि, हमें क्या उपदेश दे रहे हैं ? वे कहते हैं - संगच्छध्वं संवदध्वं.... तुम सभी लोग एक मन हो जाओ, सभी एक विचार वाले बन जाओ। क्योंकि अत्यन्त ही प्राचीन काल में एक मन होने के कारण देवताओं को 'हवि' की प्राप्ति होता था। अर्थात देवता लोग मनुष्यों के द्वारा इसीलिए पूजे गए थे कि वे एक मत थे, एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। अग्नि में जिस 'हवि ' की आहुति दी जाती थी , उसे सभी देवगण आपस में समान भाग में बाँटकर ही ग्रहण करते थे। हमलोग भी उन्हीं के समान, इस जगत के धन-ऐश्वर्य आदि प्राप्त होने पर उसे समान रूप से बाँट कर ही ग्रहण करेंगे। इसीलिये हमलोग यह प्रार्थना करते हैं, कि हमारा ऐक्य बना रहे ताकि हम अपनी समस्त उपलब्धियों  को समान भाग में बाँट कर ही भोग करें। इसी विराट साम्य को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना ही भारतवर्ष की अति प्राचीन विरासत का लक्ष्य है। उस प्राचीन विरासत से हमें यही शिक्षा मिलती है, एवं उसी महान मतैक्य की ओर, उसी विराट साम्य  की ओर हमलोग अग्रसर होंगे।
              गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने योग की शिक्षा दी है, सभी के प्रति सहानुभूति रखने की शिक्षा भी दी गयी है, उसी तरह इस विराट साम्य को समझाते हुए यह उपदेश दिया गया है कि हमें महासाम्य में प्रतिष्ठित होना होगा। उसमें ब्रह्म को 'साम्य स्वरूप' भी कहा गया है। हमारा उद्देश्य भी इसी साम्य को प्राप्त करना है। प्रश्न यह है कि, कब हमलोग उस महासाम्य की स्थिति में पहुँच सकेंगे ? हमलोग साम्य की स्थिति को तभी प्राप्त कर सकेंगे जब हम अपने समस्त क्षुद्र स्वार्थों का [तीनों ऐषणाओं का ] परित्याग कर देंगे। जब तक हममें ऐसी क्षुद्रता बनी रहेगी, तब तक हमलोग इस साम्य भाव की कल्पना भी नहीं कर सकते। साम्य भाव की कल्पना करते ही, हमें इस प्रकार की समस्त क्षुद्रताओं को विसर्जित कर देना होगा, समस्त स्वार्थों की बली चढ़ा देनी होगी ; तभी हमलोग इस महान साम्य भाव को प्राप्त कर सकेंगे। 
गीता (5:19) में कहा गया है - 
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । 
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥

 जिसका मन सबके भीतर स्थित ब्रह्म में अविचल रूप से प्रतिष्ठित है, उनके लिए यह सृष्ट संसार, इसी लोक में रहते हुए या शरीर में रहते समय ही विसर्जित हो जाता है। क्योंकि ब्रह्म सभी में समान रूप से दोष-गुण से रहित होकर अवस्थित हैं। इसी कारण वे समदर्शी लोग सदा ब्रह्मभाव में अवस्थित रहते हैं।   
               तात्पर्य यह है कि इसी लोक में, इसी जीवन में अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है। पर उसे केवल वही प्राप्त कर सकते हैं, जिनका मन साम्य में अवस्थित हो चुका है। अतः यदि मन में यह प्रश्न उठे कि इस लोक में अमर कौन है ? तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा कि वही जिन्होंने सम्पूर्ण साम्य की स्थिति को प्राप्त कर लिया है,जो लोग सभी प्रकार के भेदभाव को भुला चुके हैं, जो अपने समस्त क्षुद्र स्वार्थों का विसर्जन कर चुके हैं। गीता में वर्णित इसी स्थिति को हमें प्राप्त करना होगा , तथा इसी महान उपदेश को समस्त युवाओं के समक्ष पहुँचा देना होगा। यही महामण्डल का कार्य है। अतः हमारे सामने यही महान उद्देश्य है। 
[एक बार दादा ने लीडरशिप क्लास में कहा था -'I bow down my head to the would be 'LEADERS' (माली)  of India......स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा, 'Be and Make' में प्रशिक्षित प्रत्येक युवक को स्वामी जी द्वारा (3H विकास के 5 अभ्यास के माध्यम से)'Individual Life- building' जीवन-गठन या जीवन-पुष्प खिला देने में सक्षम 'माली बनने और बनाने' का कार्य सौंपा गया है, इस गूढ़ रहस्य को समझ लेने के बाद]
           इसे समझ लेने के बाद सारा आलस्य त्यागकर इसी भाव को प्राप्त करने के उपायों [3H विकास के 5 अभ्यास ] पर चर्चा करके तथा पूरे अध्यवसाय के साथ अपने जीवन में प्रयोग करते रहेंगे। ताकि हमलोग इसी महान साम्य की ओर अग्रसर होते रहें। यदि हम सभी लोगों का ध्येय एक ही निश्चय पर अटल रहे तो हम स्वतः अपनी जरूरतों को पूरा करने करने के लिए धीर-शांत बनकर स्वेच्छा से अनुशासित जीवन-यापन करने लगेंगे। आत्मानुशासन का प्रारम्भ यहाँ से ही करना होगा , पहले स्वयं व्यक्तिगत रूप से अनुशासित होना होगा। किन्तु संघबद्ध होकर इस अनुशासन का पालन करने के लिए युवाओं की बिखरी हुई (तीनों ऐषणाओं में बिखरी हुई) इच्छा शक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाना होगा। इसके लिए हमें बिना थके, बिना किसी व्यतिक्रम के, निरन्तर प्रयासरत होना होगा।  
          हमें इसके लिये एकता के सूत्र में बँधकर, संघबद्ध प्रयास करना सीखना होगा। यदि हर जगह पर दो-चार जन (यदि गुट बनाकर) अलग-अलग ढंग से समाज-सेवा के कार्य करते रहें तो यह भाव [सेवा करने के पहले life building] सर्वव्यापी नहीं हो सकेगा। समस्त कार्यों में यदि सम्मिलित प्रयास नहीं किया जाय, यदि उनके बीच समन्वय न हो तो, यह कार्य द्रुत गति से आगे नहीं बढ़ सकेगा। इसको तीव्र गति देने के लिए संगठित होकर प्रयास करना होगा। संघबद्ध होकर कार्य करना ही होगा। स्वामी विवेकानन्द का कथन है -" यदि भारत को महान बनाना है,उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है तो उसके लिए आवश्यकता है संगठन की , शक्ति संग्रह की और 30 करोड़ मनुष्य जो अपनी डफली, अपना राग आलापते रहते हैं-उन सबकी बिखरी हुई इच्छा-शक्ति और संकल्प को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। यदि तुम स्वर्ण -असवर्ण जैसे तुच्छ विषयों को लेकर तू-तू, मैं-मैं करोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोध- भाव बढ़ाते रहोगे, तो समझ लो कि तुम उस शक्ति संग्रह के लक्ष्य से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। इस बात को याद रखो कि भारत का भविष्य सम्पूर्णतः इसी बात पर निर्भर करता है। बस संकल्पशक्ति और इच्छाशक्ति को समन्वित और संगठित कर उनको एकोन्मुखी रखने में ही सफलता का सारा रहस्य छिपा है।"  हमें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये कि किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने का गुप्त रहस्य है उसमें संलग्न कार्यकर्ताओं की इच्छाशक्ति और संकल्प को एकोन्मुखी करना। सभी को लक्ष्य प्राप्ति हेतु, एकताबद्ध होना होगा, संघबद्ध होना होगा।
              अन्य देशों के साथ-साथ हमारे देश में भी बहुत से समाज-सुधारकों का जन्म हुआ था। यह ठीक है कि उन्होंने बहुत से बड़े-बड़े कार्य किये थे। किन्तु, हर समाज सुधारक ने समाज की एक-एक समस्या को लेकर,उनको सुधारने का प्रयास किया था।  किन्तु, स्वामी विवेकानन्द इस प्रकार एक-एक छोटी समस्याओं का सुधार करना नहीं चाहते थे , इस प्रकार के समाजसुधार में उनका विश्वास भी नहीं था। पैबन्द लगाने या ऊपरी तौर पर हल्के-फुल्के सुधार (দাগরাজি কাজ-Lightweight social -reform) करने के पक्षधर वे नहीं थे।  वे आमूल-चूल सुधार, जड़ से ही सुधार करना थे। इसीलिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमारे अधिकांश समाज सुधार आंदोलन, केवल पाश्चात्य कार्य प्रणाली के विवेकशून्य अनुकरण मात्र हैं। इस कार्यप्रणाली के द्वारा भारत का कोई उपकार होना सम्भव नहीं है। तुम समाज सुधार की बातें करते हो, पर वास्तव में तुम करते क्या हो ? तुम्हारे समाज सुधार का अर्थ होता है -'विधवा विवाह, स्त्री स्वातंत्र्य, खटमल के लिए अस्पताल, या ऐसी ही 'कोई और बात'? इस तरह के सुधारों से कुछ लोगों का भला अवश्य ही होता है, पर देश की साधारण जनता को या राष्ट्र को इससे क्या लाभ ? इसे तो आमूल-चूल सुधार नहीं कहा जा सकता। सुधार करने के लिए हमें समस्त समस्यायों की जड़ तक पहुँचना चाहिये। इसीको मैं आमूल-चूल सुधार कहता हूँ। जड़ में आग लगाओ, और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एकीकृत भारत राष्ट्र को संगठित करो। मैं यह मानता हूँ कि रोग को समूल नष्ट किया जाये। रोग के कारणों को जड़ से नष्ट किया जाये, रोगों को दबाया न जाये, नहीं तो वह फिर से बढ़ जायेगा। सभी स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन उसके भीतर कार्यशील आध्यात्मिक शक्तियों की वाह्य प्रकटीकरण मात्र हैं। अतः तथाकथित समाज सुधार के चक्कर में पड़कर अपनी ऊर्जा को नष्ट मत करो; क्योंकि सबसे पहले जनसाधारण का आध्यात्मिक सुधार हुए बिना, अन्य कोई भी सुधार टिकाऊ (sustainable)  नहीं हो सकता।" स्वामी जी आमूल-सुधार या जड़ से सुधार करने के इच्छुक थे। 
[🔱🙏>>>প্রত্যেক জীবনের চর্যা করতে হবে মালীর মত, একেবারে নিজে কে ভুলে গিয়ে সমস্ত স্বার্থকে জলাঞ্জলি দিয়ে।) अब हमलोगों को अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरी तरह से विसर्जित कर , यहाँ तक कि स्वयं को भूल कर किसी कुशल माली के समान प्रत्येक जीवन पुष्प को खिला देने के लिए, बहुत प्यार से उसका (চর্যা /cherish) लालन -पालन  करना होगा।]
इसीलिए स्वामी विवेकानन्द  ( Be and Make माली-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित भावी 'माली' उद्यान-विद्या विशारदों का आह्वान करते हुए) कहते हैं-" वृक्ष के जड़ में पानी दो। वृक्ष के तने को धो-पोंछकर उसके पत्तों पर जल डाल कर, उसको साफ-सुथरा और सुन्दर दिखाने का प्रयत्न तो बहुत से लोग करते हैं। किन्तु वैसा करने से वह वृक्ष सचमुच स्वस्थ और सुंदर नहीं हो पाता, यहाँ तक कि ज्यादा  दिनों तक जीवित भी नहीं रह सकता। वृक्ष को यदि सुन्दर और स्वस्थ रखना  चाहते हों, तो वृक्ष की जड़ों को स्वच्छ और स्वस्थ रखना आवश्यक है। उसे जल से सींचना पड़ेगा, खाद देना होगा, व्यर्थ में उग आये खर-पतवारों को उखाड़ फेंकना होगा। तब कहीं वृक्ष स्वतः अपनी जीवनी शक्ति से बड़ा हो जायेगा। 
          [शिक्षा या माँ-रूपी गुरु से प्रशिक्षण लेने की उम्र कहाँ से शुरू होती है ?  इस सम्बन्ध में स्वामीजी पालने में झूलने (Dangling in the cradle) की उम्र से ही,  ही रानी मदालसा की तरह या शिशु अवस्था से 'तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप अमित है तेरा निज प्रताप !' की  लोरी सुनाते हुए बच्चों को आध्यात्मिक शिक्षा देने के पक्षधर थे।]
  शिक्षा के विषय में विवेकानन्द बार-बार कहते हैं- " जैसे तुम किसी पौधे को खींच-तान करके बड़ा नहीं कर सकते, उसी तरह तुम किसी बच्चे को भी जबरन नहीं सिखा सकते। तुम उसके स्वतः विकसित होने में केवल सहायता मात्र दे सकते हो। ज्ञान तो आन्तरिक अभिव्यक्ति है, वह स्वतः विकसित होता है, तुम केवल बाधाओं को दूर कर सकते हो। तुम किसी पौधे को ऐसी जमीन पर नहीं ऊगा सकते जो उपजाऊ न हो। बालक अपने-आप ही सीख लेता है। तुम केवल उसके मार्ग की कठिनाइयों को दूर कर सकते हो , पर ज्ञान की क्रमशः उन्नति स्वाभाविक रूप से स्वतः हो जाती है। बाधा हट जाने पर शेष सब उसके प्रकृति के भीतर से अपने-आप अभिव्यक्त होता है। यही बात बालकों की शिक्षा के संबन्ध में है।" बालक अपने आप को स्वयं ही शिक्षा देता है। " तुम केवल एक माली के जैसा कार्य कर सकते हो। " माली वृक्ष की जड़ को साफ-सुथरा रखता है। वहाँ पानी डालता है, उसमें खाद देता है।  उसे कोई जानवर चर न जाये, इसके लिए  चारों ओर से घेरा डाल देता है।  हम भी बालक के लिए केवल इतना ही कर सकते  हैं।
[किशोर अवस्था से ही उसके चारों और ज्ञान-भक्ति का घेरा डाल सकते हैं। श्रीराकृष्णदेव कहते थे - " माया (अहं) को हटा देने से वह फिर आ खड़ी होती है; परन्तु यदि उसे हटाकर ज्ञान-भक्ति का घेरा डाल दिया जाय तो फिर वह नहीं आ पाती। तभी भगवान प्रकाशित होते हैं। "]
         महामण्डल के माध्यम से हमें ऐसा प्रयास करना होगा, जिससे हमारा अपना जीवन, शिशु-जीवन, किशोरों का जीवन तथा युवाओं का जीवन -' बाह्य-परिस्थितियों के दबाव को हटाकर' एक खिले हुए पुष्प के पौधे की भाँति ही  विकसित हो उठे। पौधों के लिये तरह तरह के जल और खाद की व्यवस्था करनी होगी। सूर्य के प्रकाश के कृत्रिम आभाव के कारण सुंदर-सुंदर पौधे मुरझाते जा रहे हैं, उनका विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। ठीक इसी प्रकार की अवस्था हमारे समाज की भी है। 
     जब कोई शिशु इस धरा पर आता है,उसमें सुन्दर जीवन की सभी सम्भावनायें निहित रहती हैं। हर शिशु सुन्दर ही दीखता है किन्तु ,समाज की विषम परिस्थितियाँ उस पर प्रभाव डालती हैं।आजकल जिस प्रकार जल, वायु सभी प्रदूषित हो गए हैं, पवित्र गंगा का जल भी आज प्रदूषित हो गया है। बड़े बड़े शहरों की आबो-हवा विषाक्त होती गयी है, उसे स्वच्छ रखने के लिये वैज्ञानिक उपाय खोजे जा रहे हैं। रासयनिक कल-कारखानों के लिए प्रदूषण नियंत्रक संयन्त्र लगाना अनिवार्य कर दिया गया है, वरना कारखानों का लाइसेंस रद्द कर दिया जायेगा। ऐसी चेतावनियाँ सभी उद्योगों को दी जा रही हैं। किन्तु, सामाजिक वातावरण और जीवन को प्रदूषित होने से बचाने की दिशा में हम क्या कर रहे हैं ?
        जिस स्वच्छ वायु या ऑक्सीजन को ग्रहण कर मानव अपनी आत्मा -मन तथा प्राण  को खिला सकता है- वही वायु आज कितनी प्रदूषित हो गई है। जिसके कारण मानव-समाज का स्वास्थ्य निरंतर खराब होता जा रहा है। देश के विभिन्न महानगरों में प्रदूषित वातावरण के कारण जिस प्रकार से अपने प्राकृतिक सौन्दर्य से पूर्ण पुष्प नहीं खिल पाते ठीक उसी प्रकार से समाज के प्रदूषित वातावरण के कारण हमारा जीवन-पुष्प भी नहीं खिल पा रहा है। किन्तु, जब कभी सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में जाते हैं, तो वहां जिस प्रकार के पवित्र,सद्यःजात, पूर्ण रूप से खिले हुए तथा सौरभ बिखेरते हुए पुष्प देखने को मिलते हैं, वैसे फूल बड़े-बड़े औद्योगिक नगरों में क्यों नहीं खिले हुए मिलते ? इसलिए, क्योंकि वहाँ की आबोहवा प्रदूषित हो गयी है, उसी प्रकार से जीवन-पुष्प की कलियाँ भी मुरझाती जा रही हैं,या खिलती हैं तो उनमें वो जीवन्तता, वैसी प्राण शक्ति  दिखाई नहीं पड़ती। 
        इस वर्तमान दशा में यदि हम सुधार लाना चाहते हों तो जड़ से ही कार्य को प्रारम्भ करना होगा। जिस प्रकार पौधों को रोपने से पूर्व ही उनके जड़ों को परिशोधित कर लेना होता है। तभी हम पूर्ण विकसित पौधों में सुन्दर पुष्प खिलने की आशा करते हैं, उसी प्रकार से मनुष्य के जीवन रूपी सुंदर पुष्प को पूर्ण रूप से खिला देने हेतु भी हमें उसके जड़ अर्थात मानव चरित्र, मनुष्य का स्वभाव तथा आचरण को शुद्ध कर लेना होगा। मनुष्य को अपने "स्वभाव" में प्रतिष्ठित कराना होगा। यही महामण्डल आंदोलन का उद्देश्य है। इस कार्य को,सर्वत्र फैला देना होगा। हमारा राष्ट्र एक उन्नत राष्ट्र नहीं बन पा रहा है , महान राष्ट्र के रूप में खड़ा नहीं हो पा रहा है, इसका मूल कारण यही है कि हममें से अधिकांश मनुष्यों को उपयुक्त विधि से अपना जीवन गठित करने की कला नहीं आती। क्योंकि आज के समाज में उच्च विचारों का अभाव हो गया है। किन्तु उन्नत राष्ट्र या 'एक भारत , श्रेष्ठ भारत ' के निर्माण हेतु हमें पहले स्वयं को तैयार करना होगा- अपने व्यक्तिक जीवन का गठन करना होगा। और भारत का कल्याण या हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण करने के लिए हमें अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरी तरह से विसर्जित कर , यहाँ तक कि स्वयं को भूलकर भी एक प्रशिक्षित या कुशल माली के समान बनना होगा। 
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[स्वाधीनता प्राप्त करने के बाद भारतवर्ष में बालकों,किशोरों, युवाओं के जीवन-पुष्प को खिला देने में समर्थ प्रशिक्षित मालियों (पुरी वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षकों/ या मानवजाति के सच्चे मार्ग-दर्शक नेताओं) का घोर अभाव हो गया है।  जिसके कारण जनसाधारण को उपयुक्त विधि से  (5 अभ्यास के द्वारा) अपना जीवन-गठन करने (3H) को विकसित करने की कला सिखाने वाले, पूर्णतः निःस्वार्थ शिक्षक कहीं देखने को भी नहीं मिलते। शिक्षकों का अपना जीवन उनकी शिक्षाओं का उदाहरण नहीं है, मन-वचन-कर्म से वे वैसा ही नहीं करते जैसा करने का परामर्श वे दूसरों को देते हैं, इसीलिए उनकी शिक्षाओं का प्रभाव भी नहीं पड़ता।
अतः अब युवाओं को स्वयं, केवल 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' को जानने  वाला तत्व-ज्ञानी ही नहीं, बल्कि BE AND MAKE' तोतापुरी-रामकृष्ण पंचवटी वेदान्त माली -प्रशिक्षण परम्परा "*** में " एक और अनेक" को,  'नित्य'(E) और 'लीला' (M) को अभिन्न समझने वाला  एक प्रशिक्षित माली/ शिक्षक/ नेता बनाना होगा। ('प्रत्येक जीवनेर चर्या करते हबे मालीर मत,एकेबारे निजे के भूले गिये समस्त स्वार्थ के जलांजलि दिये! तथा अपने स्वार्थों को पूरी तरह से विसर्जित कर , यहाँ तक कि स्वयं को भूल कर किसी कुशल माली के समान प्रत्येक जीवन पुष्प को खिला देने के लिए, बहुत प्यार से उसका लालन -पालन (চর্যা /cherish) करना होगा। [अर्थात इसी प्रकार हमलोगों को भी  बहुत बड़ी संख्या में "BE AND MAKE' तोतापुरी-रामकृष्ण, रामकृष्ण -विवेकानन्द, विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर  पंचवटी वेदान्त (निवृत्ति अस्तु महाफला) माली -प्रशिक्षण परम्परा " वैसा  प्रशिक्षित माली बनने और बनाने के लिए हम सभी को संघबद्ध होकर, संगठित होकर, प्रयास करना होगा।] ऐसा होने से सभी मनुष्यों का जीवन एक सुन्दर पुष्प के रूप में प्रस्फुटित हो उठेगा। 
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आधुनिक हिन्दी संज्ञान सूक्त  

(साभार श्री मोहन भागवत) 

 'स्वयं अब जाग कर हमको, जगाना देश है अपना !'  
नही हे अब समय कोई , गहन निद्रा में सोने का ।

 जतन हो संगठित हिन्दु-मुस्लिम में, साम्यभाव भरने का ।
जगाना देश है अपना,..... . 
 
नही हे अब समय कोई , गहन निद्रा में सोने का 
  समय है एक होने का , न मतभेदों में खोने का । 
 बढ़े बल राष्ट्र का जिससे , वो करना मेल है अपना ।

  जगाना देश है अपना........

    जगाने राष्ट्र की भक्ति , उत्तम कार्य करने का ।
    राष्ट्र सर्वांग उन्नत हो , यही उद्देश्य है अपना ।
    जगाना देश है अपना........
व्यावहारिक जीवन में धर्म: ব্যবহারিক জীবনে ধর্ম /SV-HS (50)]
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