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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

🙂भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण परमहंस देव की साधना ! [🙂2nd January, 2024 : प्रभु मैं गुलाम तेरा का भावार्थ - It is the will of the Lord that people of this land have their power of introspection roused ! "आगे फल, तदन्तर फूल; लौकी-कुम्हड़े की तरह। "]

 श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग 

1>>>पुरुषार्थ और उद्यम की आवश्यकता (Need for effort and enterprise): सत्य (ईश्वर या ब्रह्म) भी व्यावहारिक जगत में अवस्था तथा अधिकारी भेद से विभिन्न आकार धारण करता है। ईश्वरेच्छा से ही सर्वदा सब कुछ (16 जनवरी 2007, सरस्वतीपूजा, 2nd January, 2024-अपराजिता सोडियम टेस्ट) हो रहा है, और होता रहेगा। किन्तु बहुत अन्त में जाकर मनुष्य को इस बात का पता चलता है। उन्होंने तुमको जितनी शक्ति दी है, यदि तुम उचित प्रयोग (विवेक-प्रयोग) न करो तो वे उससे और अधिक नहीं देंगे। इसीलिये पुरुषार्थ और उद्यम की आवश्यकता है। सभी को कुछ न कुछ उद्यम करके ही 'ईश्वर-कृपा' (माँ जगदम्बा की कृपा) का अधिकारी बनना पड़ता है।  ऐसा करने पर उनकी कृपा से दस जन्मों के भोग एक ही जन्म में समाप्त हो जाते हैं। किन्तु ['मामनुस्मर युद्धश्च '  (गीता-८.७)  'उन पर' निर्भरशील होकर] कुछ न कुछ उद्यम करना ही पड़ता है।          
'देवो भूत्वा देवं यजेत्'- अर्थात देव बन कर ही देव की पूजा करनी चाहिए । देवत्व में आरूढ़ होकर इस प्रकार से ईश्वर के मायातीत देवस्वरूप का यथार्थ पूजन करने में समर्थ व्यक्तियों की संख्या अत्यन्त विरल है। परमात्मा के मार्ग में चलने की पहली शर्त यह है कि यह हड्डी, मांस, चाम, विष्ठा, मूत्र  की शरीर रूपी जो पोटली है, इसमें  से  अपने ‘मैं’ को निकाल लो। इसमें से अपने ‘मैं’ को निकाल कर देखोगे कि तुम्हारा ‘मैं’ तो व्यापक हो गया, तुम्हारा ‘मैं’ तो द्रष्टा है, भरपूर है। देहाभिमान को छोड़ते ही  इस द्रष्टा 'मैं' की दृष्टि कितनी बड़ी है कि उसमें खुले आँखों से ध्यान करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है; अब वह 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करने की पात्रता' प्राप्त कर लेता है। (अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का नियन्ता अन्तर्यामी  ईश्वर और नियम्यजीव, दोनों उस दृष्टि के पर्दे पर आकर नाचने लगते हैं।) यह अखण्डतत्त्व के साक्षात्कार की विद्या है। हमारे जैसे दुर्बल अधिकारी अभी उससे बहुत दूर हैं। जब तक सब प्रकार के बन्धनों (कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति) से मुक्त होकर, हम स्वयं निर्गुण देवस्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं होते, तबतक जगत्कारण ईश्वर (माँ जगदम्बा) एवं ईश्वर के अवतारों (श्रीठाकुर जी) को भी ' वे हमलोगों में से ही एक थे' अर्थात मनुष्य के रूप में ही चिन्तन तथा ग्रहण करना पड़ेगा। यदि तुम्हारे लिये समाधि के बल से (माँ जगदम्बा की कृपा से ?एकाग्रतासिद्ध योगी बनकर) निर्विकल्प भूमि में पहुँचना सम्भव हो सका हो, तो तुम ईश्वर के यथार्थ स्वरुप की उपलब्धि (माँ जगदम्बा के ब्रह्मस्वरूप की उपलब्धि) तथा धारणा एवं वास्तव में उनका पूजन करने के अधिकारी हो ! 
 
2प्रश्न >>>ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जैसे महापण्डित विद्वान् और दयालु महापुरुष भी मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक या लोकशिक्षक क्यों नहीं बन सके ?  
 उत्तर
१.क्योंकि ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जैसे महापुरुष, महापण्डित या विद्वान् होकर भी गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा (Be and Make) में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त मार्गदर्शक नेता नहीं थे। उनको अपने गुरु से (ईश्वर या C-IN-C से) नेता होने का 'चपरास' प्राप्त नहीं हुआ था। और विष्णु सहस्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम है -नेता ! इसलिए आध्यात्मिक ज्ञान का नियम है कि  कोई 'Uninspired' या  ईश्वर की आज्ञा (चपरास) न पाये हुए गुरु, अनीश्वरोपदिष्ट शिक्षक(नेता) मनुष्य-निर्माण की शिक्षा (धारणा-सिद्ध योगी बनने और बनाने का प्रशिक्षण) नहीं दे सकते!
3.>>>श्रीरामकृष्णवचनमृत : ५ अगस्त १८८२। 
   पण्डित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का जन्मस्थान बीरसिंह गाँव श्री रामकृष्ण के जन्मस्थान जिला हुगली के अन्तर्गत कामारपुकुर गाँव से अधिक दूर नहीं है। उन्हें एक महान विद्वान, शिक्षक, लेखक और परोपकारी व्यक्ति के रूप में जाना जाता है।
   विद्यासागर में अनेक गुण हैं। पहलागुण है-विद्यानुराग। वे आधुनिक बंगला साहित्य के प्रसिद्द रचनाकारों में से एक थे, तथा संस्कृत व्याकरण और साहित्य पर भी समान रूप से पकड़ रखते थे। उनका दूसरा गुण है - सर्व जीवों पर दया। परोपकारी, जन-हितैषी, समाज-सेवी (philanthropist) विद्यासागर दया के सागर हैं। उनकी दानशीलता ने उनके नाम को पूरे बंगाल में मशहूर कर दिया है।  उनकी अधिकांश आय विधवा, अनाथ और गरीब विद्यार्थियों तथा इसी प्रकार के अन्य जरूरतमंद लोगों के बीच दान स्वरुप वितरित कर दी जाती है। उनकी करुणा केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है। उन्होंने वर्षों तक इसलिये दूध पीना त्याग दिया था कि कहीं बछड़ों को अपनी माँ के दूध से वंचित न होना पड़े; वे यह सोचकर टमटम या बग्घी पर नहीं बैठते थे कि उससे घोड़ों को कष्ट होगा। उनमें तीसरा गुण है -स्वाधीनताप्रियता (या आत्मनिर्भरता -Independence or self-reliance)) जिसका परिचय उन्होंने अधिकारियों के साथ एकमत न होने के कारण संस्कृत कॉलेज के लाभप्रद प्रिंसिपल के पद से इस्तीफा देकर दिया था। चौथा गुण - लोगों की निन्दास्तुति की परवाह नहीं थी। एक शिक्षक पर आपका स्नेह था, उनकी बेटी के विवाह के समय उसे उपहार देने के लिये नया वस्त्र बगल में दबाकर उपस्थित हो गए। 
पाँचवा गुण - मातृभक्ति तथा अदम्य इच्छाशक्ति (indomitable spirit)| वे अपनी माँ के परमभक्त थे, तथा उनकी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे। अपनी माँ के इस इच्छा- कि 'भाई के विवाह में तुम्हें अवश्य उपस्थित रहना चाहिये, नहीं आओगे तो मेरे मन में दुःख होगा' को पूर्ण करने के लिये, उन्होंने नाव नहीं रहने के कारण अपने जीवन को संकट में डालकर भी एक प्रचण्ड नदी को तैर कर पार किया। और विवाह की रात्रि को गीले कपड़ों में माँ के सामने जा पहुँचे, कहा, 'माँ, मैं आ गया'। उनका पूरा जीवन अतिशय निष्कपटता का एक आदर्श उदाहरण था। उनके व्यापक पाण्डित्य के आधार पर उन्हें " विद्यासागर " के उपनाम से सम्मानित किया गया था जिसक अर्थ होता है-'पाण्डित्य का महासागर।' 
               श्रीरामकृष्णदेव बाल्यकाल से ही विद्यासागर के परोपकारी स्वभाव की चर्चा सुनते आये थे। दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में भी प्रायः उनके पाण्डित्य और परोपकारिता की बातें सुना करते थे। यह सुनकर कि मास्टर विद्यासागर के स्कूल में पढ़ाते हैं, वे मास्टर से पूछते हैं - " क्या मुझे विद्यासागर के पास ले चलोगे ? मुझे उन्हें देखने की बड़ी इच्छा होती है। " मास्टर ने जब विद्यासागर से यह बात कही तो उन्होंने हर्ष के साथ किसी शनिवार को चार बजे उन्हें साथ लाने को कहा। विद्यासागर ने केवल यही पूछा -" वे कैसे परमहंस हैं ? क्या वे (संन्यासियों जैसा) गेरुए कपड़े पहनते हैं ? 
मास्टर ने कहा - " जी नहीं, वे एक अदभुत पुरुष हैं, लाल-किनारीदार धोती पहनते हैं, कुरता पहनते हैं, पालिश किये हुए स्लीपर पहनते हैं, रानी रासमणि के कालीमन्दिर की एक कोठरी में रहते हैं, जिसमें एक चौकी पर बिस्तर और मच्छरदानी लगी है, उस पर वे लेटते हैं। सन्त ( या ध्यानसिद्ध योगी) होने का कोई बाहरी भेष तो नहीं है, पर सिवाय ईश्वर के और कुछ नहीं जानते, अहर्निश उन्हीं का चिन्तन किया करते हैं। 
विद्यासागर को पूर्वपरिचित की भाँती एकटक देखते हैं और भावावेश में हँसते हैं। विद्यासागर की उम्र लगभग बासठ-तिरसठ की होगी, श्रीरामकृष्ण से वे सोलह-सत्रह वर्ष बड़े होंगे। बोलने के समय उज्ज्वल दाँत नजर आते हैं -सभी दाँत नकली हैं। सिर खूब बड़ा है, ललाट ऊँचा है और कद कुछ छोटा। ब्राह्मण हैं, इसलिये गले में जनेऊ है। १७-१८ वर्ष का एक लड़का अपनी शिक्षा के लिए विद्यासागर से आर्थिक सहायता माँगने आया है -उसको देखते ही ध्यानसिद्ध योगी की ऋषि-दृष्टि से श्रीरामकृष्ण देव यह जान गए कि यह लड़का 'ब्रह्मविद्या' के लिए (सत्य की खोज, या डीहिप्नोटाइज्ड कर देने वाली विद्या-मनःसंयोग सीखने के लिए) जरा भी व्याकुल नहीं है। केवल अर्थकरी विद्या सीखकर अर्थोपार्जन करके 'वासना और धन' के भोगों में लिप्त रहना चाहता है। 
वे भावावेश में कहने लगे, " माँ ! ए छेलेर बड़ संसरासक्ति ! तोमार अविद्यार संसार ! ए अविद्यार छेले !" -  माँ इस लड़के की संसार में बड़ी आसक्ति है, तुम्हारे अविद्या के संसार पर ! यह अविद्या का लड़का है। " एक दूसरे लड़के को देखकर कहते हैं - “ ए छेलेटि बेश सत, आर अन्तःसार जेमन फल्गुनदी, ऊपरे बाली, एकटू खूंड़लेई भीतरे जल बईछे देखा जाय। -" यह लड़का बड़ा अच्छा है, और इसके भीतर सार है, जैसे फल्गु नदी; ऊपर तो रेत है, पर थोड़ा खोदने से ही भीतर पानी बहता दिखाई देता है। " 
विद्यासागर से कह रहे हैं - " तुम विद्यादान और अन्नदान कर रहे हो -यह भी अच्छा है। निष्काम रीति से कर सको तो इससे ईश्वर-लाभ होगा। कोई (समाज-सेवा) करता है नाम-यश पाने के लिये, तो कोई पुण्य अर्जित करके स्वर्ग जाने की इच्छा से, पर उनका कर्म निष्काम नहीं है। ... जो केवल पण्डित हैं, वे सुनने के ही हैं, पर उनकी कामिनी-कांचन (woman and gold) पर आसक्ति होती है, गीध की तरह सड़ी लाशें ढूँढ़ते हैं। 'वासना और धन ' में आसक्त रहना अविद्या-माया से ग्रस्त रहने (हिप्नोटाइज्ड रहने) की पहचान है, दया, भक्ति और वैराग्य ये विद्या के ऐश्वर्य हैं। 
विद्यासागर बड़े पण्डित थे -शायद षड्दर्शन पढ़कर उन्होंने यह देखा है कि ईश्वर के विषय में कुछ भी जानना सम्भव नहीं। फिर क्या करना चाहिये ? वे सोचते थे मनुष्य को इतना महान कर्म करना चाहिये की यदि सभी वैसा दान-पुण करे तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन जाये। हर एक को ऐसी चेष्टा करनी चाहिये जिससे जगत का भला हो। 
4.>>>षडरिपुओं की समस्या से ब्रह्म (हमारा यथार्थ स्वरूप) निर्लिप्त है -जैसे दीपक (सूर्य)!
श्रीरामकृष्ण -" इस जगत में विद्यामाया और अविद्यामाया दोनों हैं, ज्ञानभक्ति भी हैं, और साथ ही कामिनी-कांचन भी हैं, भला भी है और बुरा भी, सत भी है और असत भी, परन्तु ब्रह्म निर्लिप्त है। भला-बुरा (षडरिपु) जीवों के लिये है, वह ब्रह्म को स्पर्श नहीं कर सकता। 
"जैसे दीपक की रौशनी में कोई भागवत पढ़ रहा है, कोई जाली हस्ताक्षर बनाकर चेक लिख रहा है, पर दीपक निर्लिप्त है। " ब्रह्म विद्या और अविद्या दोनों के परे है, वह मायातीत है। "  
"यदि कहो कि दुःख-पाप, अशान्ति ये सब फिर क्या हैं ? -तो उसका जवाब यह है कि वे सब जीवों के लिए है, ब्रह्म निर्लिप्त हैं। साँप में विष है; औरों को डसने से वे मर जाते हैं, पर साँप को उससे कोई हानि नहीं होती। " [षडरिपु =संस्कृत में मन के छः शत्रु बताये गए है इन्हें षड्रिपु (अर्थ:छह शत्रु) कहते है, जो है: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य। इन षड्रिपु ब्राण्ड मदिरा को पीकर मन उस उन्मत्त बानर की तरह चंचल रहता है -जिसे बिच्छू ने डंक मार दिया था और एक भूत सवार हो गया था। लेकिन ये षड्रिपु केवल मोहग्रस्त-हिप्नोटाइज्ड जीव को ही अहं में फंसा सकते हैं। 'आत्मा' (ब्रह्म) देह और 'अहं' से निर्लिप्त है।]  ब्रह्म 'अज्ञात' और 'अज्ञेय' है- वह अनिवर्चनीय है ! (मन-वाणी से परे इन्द्रियातीत है, 'अहं' या 'मैं-पन' आत्मा को नहीं जान सकता, आत्मा ही आत्मा का अनुभव करता है, इसलिये कोई व्यक्ति अपने मुख से नहीं कह सकता।)
 " ब्रह्म क्या है सो मुँह से नहीं कहा जा सकता। सभी चीजें जूठी हो गयी हैं; वेद, पुराण, तन्त्र, षड्दर्षन सब जूठे हो गये हैं। मुँह से पढ़े गए हैं, मुँह से उच्चारित हुए हैं -इसी से जूठे हो गए हैं। पर केवल एक वस्तु जूठी नहीं हुई है-वह वस्तु है ब्रह्म! ब्रह्म क्या है -यह आज तक कोई मुँह से नहीं कह सका।  
विद्यासागर (मित्रों से)- वाह ! यह तो बड़ी सुन्दर बात हुई! आज मैंने एक नयी बात सीखी। 
श्रीरामकृष्ण - " एक पिता के दो लड़के थे। ब्रह्मविद्या (मनःसंयोग) सीखने के लिये पिता ने लड़कों को आचार्य (नेता) को सौंपा। कुछ वर्ष बाद वे गुरुगृह से लौटे (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित होकर लौटे), आकर पिता को प्रणाम किया। पिता की इच्छा हुई कि देखें इन्हें कैसा ब्रह्मज्ञान हुआ। बड़े बेटे से उन्होंने पूछा, 'बेटा तुमने तो सबकुछ पढ़ा है, अब बताओ कि ब्रह्म कैसा है?' बड़ा लड़का वेदों से बहुत से श्लोकों की आवृत्ति करते हुए ब्रह्म के स्वरुप को समझाने लगा; पिता चुप रहे। जब उन्होंने छोटे लड़के से पूछा तो वह सिर झुकाये चुप रहा। मुँह से बात न निकली, तब पिता ने प्रसन्न होकर छोटे लड़के से कहा, 'बेटा, तुम्हीं ने कुछ समझा है। ब्रह्म क्या है -यह मुँह से नहीं कहा जा सकता। वेदों में लिखा है -वह आनन्दस्वरूप है-सच्चिदानन्द। 
5.>>>ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरुप है: " वेद-पुराणों में ब्रह्म के विषय जो कहा गया है, वह किस ढंग का कथन है सो सुनो। एक आदमी के समुद्र देख कर लौटने पर यदि कोई उससे पूछे कि समुद्र कैसा देखा ? तो वह जैसे मुँह बाये कहता है, 'आह ! क्या देखा ! कैसी लहरें ! कैसी आवाज ! बस, ब्रह्म का वर्णन भी वैसा ही है। वेदों में लिखा है -वह आनन्दस्वरुप है - सच्चिदानन्द। शुकदेव आदि ने यह ब्रह्मसागर किनारे पर खड़े होकर देखा और छुआ था। किसी के मतानुसार वे इस सागर में उतरे नहीं। इस सागर में उतरने से फिर कोई लौट नहीं सकता। (माँ की कृपा से कोई विरला यदि लौटता भी है, तो पहले जैसा भ्रमित नहीं रहता, बुद्धि शुद्ध हो जाती है।शुकदेव आदि ने इस ब्रह्मसागर को किनारे पर खड़े होकर देखा और छूआ था। किसी के मतानुसार .... वे इस सागर में उतरे नहीं थे। इस सागर में उतरने से फिर कोई लौट नहीं सकता।  
6.>>>निर्विकल्प समाधि तथा ब्रह्मज्ञान : Once a 'Salt Doll' went to Measure the Depth of the Ocean..... एक नमक का पुतला समुद्र नापने गया ? 
" समाधिस्थ होने से ब्रह्मज्ञान होता है। ब्रह्मदर्शन होता है- उस दशा में विचार बिलकुल बन्द हो जाता है। आदमी मौन हो जाता है। ब्रह्म क्या वस्तु है , यह मुँह से बताने की सामर्थ्य नहीं रहती।
" समाधिस्त होले ब्रह्मज्ञान होय; ब्रह्मदर्शन होय - से अवस्थाये बिचार एकेबारे बन्ध होय जाये, मानुष चुप होय जाये। ब्रह्म की बस्तु मुखे बोलबार शक्ति थाके ना।
" एक नमक का पुतला समुद्र नापने गया ! (सब हँसे।) पानी कितना गहरा है, उसकी खबर देना चाहता था! पर खबर देना उसे नसीब न हुआ। वह (अहं)  पानी में उतरा कि गल गया! बस फिर खबर कौन दे!"
किसीने प्रश्न किया - "क्या समाधिस्थ पुरुष जिनको ब्रह्मज्ञान हुआ है, फिर बोलते नहीं ?
श्रीरामकृष्ण : " लोकशिक्षा के लिये शंकराचार्य ने विद्या का 'अहं' रखा था। ब्रह्मदर्शन होने से मनुष्य चुप हो जाता है। जबतक दर्शन न हो, तभीतक विचार होता है। घी जबतक पक नहीं जाय, तभी तक आवाज करता है। पर पके घी में कच्ची पूरी छोड़ी जाती है, तो फिर एक बार वैसा ही शब्द निकलता है। जब कच्ची पूरी को पका डाला , तब वह फिर चुप हो जाता है। वैसे ही  ..... समाधिस्थ पुरुष लोकशिक्षण के लिए फिर नीचे उतरता है, फिर बोलता है। 
7.>>>ज्ञानी  एवं विज्ञानी (The jnani : the vijnani)  
प्राचीन ऋषि लोग कितना परिश्रम करते थे - देखना (रूप), सुनना (शब्द), छूना (स्पर्श) इन सब विषयों से मन (अहं) को अलग रखते थे, तब कहीं उन्हें (ऋषियों कीआत्मा को) ब्रह्म का बोध होता था। ]
" कलिते अन्नगत प्राण, देहबुद्धि जाय ना। " (কলিতে অন্নগত প্রাণ, দেহবুদ্ধি যায় না।) कलियुग में लोगों के प्राण अन्न पर निर्भर हैं, देहात्मबुद्धि जाती नहीं। इस दशा में 'सोSहं' -मैं ब्रह्म हूँ -कहना अच्छा नहीं। सभी काम किये जाते हैं, फिर भी (आशाराम या रामरहीम जैसे दुष्ट के लिए) 'मैं ही ब्रह्म हूँ' (आमिई ब्रह्म) यह कहना ठीक नहीं। जो विषय का त्याग नहीं कर सकते, जिनका अहं भाव किसी तरह नहीं जाता, उनके लिए (जो 'गृहस्थ' हैं किन्तु अपने को 'बीस्ट' नहीं समझते; वैसे 'ईश्वरोपदिष्ट गृहस्थ शिक्षकों-या वुड बी लीडर्स' के लिये) 'मैं दास हूँ', 'मैं भक्त हूँ' यह अभिमान अच्छा है। भक्तिपथ में रहने से भी ईश्वर (माँ जगदम्बा) का लाभ होता है।  
ज्ञानी 'नेति नेति ' -ब्रह्म यह नहीं, वह नहीं, अर्थात कोई भी ससीम वस्तु नहीं -यह विचार करके सब विषयबुद्धि छोड़े तब ब्रह्म को जान सकता है। जैसे कोई जीने की एक एक सीढ़ी पार करते हुए छत पर पहुँच सकता है। पर विज्ञानी -जिसने विशेष रूप से ईश्वर से (माँ काली से ?) मेल-मिलाप किया है-और भी कुछ दर्शन करता है -वह देखता है कि जिन चीजों से छत बनी है-उन ईंटों, चूने, सुर्खी से जीना भी बना है। 'नेति नेति ' करके जिस ब्रह्मवस्तु का ज्ञान होता है, वही तो 'जीव और जगत' बनकर लीला कर रहे हैं ! विज्ञानी देखता है कि जो निर्गुण हैं, वही सगुण भी है          
"छत पर बहुत देर तक लोग ठहर नहीं सकते फिर उतर आते हैं। जिन्होंने समाधिस्थ होकर ब्रह्मदर्शन किया है वे भी नीचे उतरकर देखते हैं कि वही जीव-जगत हुआ है। सा, रे, ग, म, प, ध, नि। 'नि' में -चरमभूमि में -बहुत देर तक रहा नहीं जाता। (जब समाधि के बाद व्युत्थान की अवस्था में बहुत प्रयत्न करने से भी) जब 'अहं' नहीं मिटता; तब मनुष्य (vijnani) देखता है कि ब्रह्म ही 'मैं', जीव, जगत -(भला-बुरा) सब कुछ हुआ है। इसी का नाम विज्ञान है ! 
"विज्ञानी देखता है कि ब्रह्म अटल , निष्क्रिय, सुमेरुवत है। यह संसार उसके सत्व, रज और तम -इन तीन गुणों से बना है, पर वह निर्लिप्त है। 
"विज्ञानी देखता है कि जो ब्रह्म है वही भगवान (माँ जगदम्बा ) है, -जो गुणातीत है वही षडैश्वर्यपूर्ण भगवान ( the Personal God-ठाकुरदेव) है। यह जीव-जगत, मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार, भक्ति, वैराग्य और ज्ञान सब उसके ऐश्वर्य हैं। (सहास्य) जिस मालिक-बाबू का अपना घरद्वार नहीं है - या तो बिक गया (नौकर को तलब भी नहीं दे सकता) -वह फिर मालिक-बाबू कैसा ! (सब हँसे) ईश्वर षडैश्वर्यपूर्ण है। यदि उसके ऐश्वर्य न होता तो कौन उसकी परवाह करता ? (सब हँसे।)
विभु (As the All-pervading Spirit) के रूप में एक -किन्तु शक्ति-विवेश ! 
विद्यासागर : क्या ईश्वर ने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम ? 
श्रीरामकृष्ण : वह विभु के रूप में (सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध के रूप में) सब प्राणियों में है -चीटियों तक में है। पर शक्ति का तारतम्य होता है (manifestations of His Power are different in different beings)नहीं तो कोई एक आदमी दस आदमियों को कैसे पछाड़ देता है, जबकि दूसरे एक ही आदमी से भी हार जाते हैं ? और ऐसा न हो तो भला तुम्हें ही सब कोई क्यों मानते हैं ? क्या तुम्हारे दो सींग निकले हैं ? (हास्य।And why do all people respect you? Have you grown a pair of horns?) 
8.>>>केवल पाण्डित्य, पुस्तकीय विद्या असार है-भक्ति ही सार है।  श्रीरामकृष्ण -" केवल पण्डिताई हासिल कर लेने (ऊँची डिग्रियाँ प्राप्त कर लेने) से कुछ नहीं होता। लोग किताबें इसलिए पढ़ते हैं कि वे ईश्वर लाभ में सहायता करेंगी-उनसे ईश्वर का (माँ जगदम्बा का ) पता लगेगा। किसी व्यक्ति ने एक साधु से पूछा -'आपकी पोथी में क्या है ?' साधु ने खोल कर दिखाया। हरएक पन्ने में -'ॐ रामः' (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में गुरुमुख से श्रवण किया गया मन्त्र !!) लिखा था और कुछ नहीं। 
" गीता का अर्थ क्या है ? उसे दस बार कहते जाने से जो होता है वही। दस बार 'गीता' 'गीता' कहने से ' त्यागी' 'त्यागी' निकल आता है। गीता यह शिक्षा देती है कि हे जीव, तू सब छोड़कर (चाहे तू प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ है या निवृत्ति मार्गी संन्यासी, कामिनी-कांचन में आसक्ति और नाम-यश की चाह छोड़करईश्वर-लाभ की चेष्टा कर। (माँ काली ही कृष्ण रूप में अवतरित हुई हैं ! हे जीव तू इस सत्य को खुली आँखों से अनुभव करने की चेष्टा कर।) कोई साधु हो चाहे गृहस्थ, मन से सारी आसक्ति दूर करनी चाहिये।       
9.>>>भक्तियोग का रहस्य : (The Secret of Dualism) : श्रीरामकृष्ण - " विज्ञानी क्यों भक्ति लिये रहते हैं ? इसका उत्तर यह है कि 'मैं' नहीं दूर होता। ('I-consciousness' persists.'मैं-चेतना' बनी रहती है।समाधि-अवस्था में दूर तो होता है, परन्तु फिर आ जाता है। साधारण जीवों का 'अहम' नहीं जाता। (In the case of ordinary people the 'I' never disappears.अवतार की बात अलग है ?) पीपल का पेड़ काट डालो, फिर उसके दूसरे दिन फिर फुनगी निकल ही आता है। (सब हँसे।)
" ज्ञानलाभ के बाद भी, (व्युत्थान की अवस्था में भी), न जाने कहाँ से 'मैं' फिर आ जाता है। " स्वप्ने बाघ देखे छिले, तारपोर जागले, तोबुओ तोमार बूक दूड़दूड़ कोरछे।"-  स्वप्न में तुमने बाघ देखा; इसके बाद जगे, तो भी तुम्हारी छाती धड़कती है। जीवों को जो दुःख होता है, 'मैं' (देहाध्यास) से ही होता है। "गोरु 'हम्बा, हम्बा' (हम, हम) कोरे ताई तो एतो यंत्रणा। " बैल 'हम्बा हम्बा' (हम, हम) करता है, इसी से तो इतनी यातना मिलती है। हल में जोता जाता है, वर्षा और धूप साहनी पड़ती है और फिर कसाई लोग काटते हैं, चमड़े से जूते बनते हैं, ढोल बनता है,- तब खूब पिटता है। (हास्य) 
" फिर भी निस्तार नहीं। अन्त में आँतों से तांत बनती है और उसे धुनिया अपने धुनहे में लगाता है। तब वह 'मैं' नहीं कहता, तब कहता है 'तू-ऊँ, तू-ऊँ' (अर्थात तुम, तुम मैं नहीं तुम !) जब 'तुम' 'तुम' कहता है तब निस्तार होता है। हे ईश्वर ! मैं दास हूँ, तुम प्रभु हो; मैं सन्तान हूँ, तुम माँ हो। 
" राम ने पूछा, हनुमान, तुम मुझे किस भाव से देखते हो ? हनुमान ने कहा, राम ! जब मुझे 'मैं' का बोध रहता है, तब देखता हूँ, तुम पूर्ण हो मैं अंश हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; और राम ! जब तत्वज्ञान होता है तब देखता हूँ, तुम्हीं 'मैं' हो और मैं ही 'तुम' हूँ। 
" सेव्य-सेवक भावई भालो। 'आमी' तो जाबार नोय, तोबे थाक शाला 'दास आमी' होय। " सेव्य-सेवक भाव ही अच्छा है। 'मैं' जब मिटने का ही नहीं, तो बना रहने दो साले को 'दास मैं।'   
विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर  वेदान्त लीडरशिप प्रशिक्षण का मुख्य विषय : 

[मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्णदेव द्वारा विद्यासागर को प्रदत्त प्रशिक्षण "मैं और मेरा" अज्ञान है : [বিদ্যাসাগরকে শিক্ষা -- “আমি ও আমার” অজ্ঞান| 'I' and 'mine' — these constitute ignorance. जो सिंह-शावक को भी सम्मोहित कर भेंड़ बना देता है।)]

" मैं और मेरा -ये दोनों अज्ञान हैं। यह भाव कि मेरा घर है, मेरे रूपये हैं, मेरी विद्या है, मेरा इतना ऐश्वर्य है -अज्ञान से (हिप्नोटाइज्ड हो जाने से) पैदा होता है। और यह भाव कि हे ईश्वर, (मैं नहीं) तुम कर्ता हो, और ये सब - 'घर-परिवार,लड़के-बच्चे, स्वजनवर्ग,बन्धु-बान्धव आदि तुम्हारी चीजें हैं' -ऐसी 'विवेक-वृत्ति' यदि सदैव बनी रहे तब इससे मनुष्य को ज्ञान (विवेकजज्ञान) होता है।

" मृत्यु को सर्वदा स्मरण रखना चाहिये। मरने के बाद कुछ भी न रह जायेगा। यहाँ कुछ कर्म करने के लिये आना हुआ है। जैसे कि देहात में घर है, परन्तु काम करने के लिये कलकत्ते आया जाता है। यदि कोई दर्शक धनी मनुष्यों का 'गार्डेन' (होटल) देखने आता है, तो बगीचे का कर्मचारी (मैनेजर) कहता है -यह बगीचा हमारा है, यह तालाब (स्विमिंग-पूल) हमारा है; परन्तु किसी कसूर पर जब वह नौकरी से अलग कर दिया जाता है, तब आम की लकड़ी से बने हुए सन्दूक को ले जाने का भी उसे अधिकार नहीं रह जाता। सन्दूक दरवान के हाथ भेज दिया जाता है। (हास्य )        

[मृत्युके सर्वदा मोने राखा उचित। मोरबार पोर किछुई थाकबे ना।" (মৃত্যুকে সর্বদা মনে রাখা উচিত। মরবার পর কিছুই থাকবে না। माँ जगदम्बा के हाथों में पकड़े हुए नरमुण्ड को सर्वदा स्मरण में रखना चाहिये। यदि माँ काली भवतारिणी की कृपा से  यह भाव 'तोमार कर्म तुमि कोरो माँ, लोके बोले कोरी आमी'- सदा जाग्रत रहे तब माँ का भक्त बेटा, वीर, हीरो या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता स्वयं  सदा डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था या भ्रममुक्त अवस्था में रह सकता है, और वुड बी लीडर्स को भी गुरु-शिष्य वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षण देने का 'चपरास' - या भावमुख अवस्था में रहने की पात्रता प्रदान कर सकता है।] 

" भगवान दो बातों पर हँसते हैं। एक तो जब वैद्य (डॉक्टर) रोगी की माँ से कहता है- ' माँ, डरने की क्या बात है ? मैं तुम्हारे लड़के को अच्छा कर दूँगा। ' उस समय भगवान यह सोचकर हँसते हैं कि मैं मार रहा हूँ और यह कहता है, मैं बचाऊँगा। वैद्य सोचता है -मैं कर्ता हूँ। ईश्वर कर्ता है -यह वह भूल गया है। दूसरा अवसर वह होता है जब दो भाई रस्सी लेकर जमीन नापते हैं, और कहते हैं -" इधर की मेरी है, उधर की तुम्हारी। " तब ईश्वर और एकबार हँसते हैं; यह सोचकर हँसते हैं कि यह विश्व-ब्रह्माण्ड मेरा है, पर ये कहते हैं, यह जगह मेरी है और वह तुम्हारी।

निष्कामकर्म- 'BE AND MAKE' या कर्मयोग और भारत का कल्याण (=जगतकल्याण। জগতের উপকার) - श्रीरामकृष्ण और ईसाई-मिशनरीयों के द्वारा किये जाने वाले परोपकारी कर्म के आदर्श और भारतीय निष्काम कर्म 'BE AND MAKE " का समन्वय। (Sri Ramakrishna and the European ideal of work)]
" पूजा, होम, याग, यज्ञ -ये कुछ नहीं हैं। यदि ईश्वर पर (माँ जगदम्बा पर) प्रीति पैदा हो जाय तो इन कर्मों की अधिक आवश्यकता नहीं। जब तक हवा नहीं चलती तभी तक पंखे की जरूरत होती है। यदि दक्षिणी हवा आप ही आने लगे तो पंखा रख देना पड़ता है। फिर पंखे का क्या काम ? 
(हे विद्यासागर !) तुम जो काम कर रहे हो (दान-धर्म आदि), ये सब अच्छे हैं। यदि 'मैं करता हूँ !' इस भाव को छोड़कर निष्काम भाव से कर्म कर सको तो और भी अच्छा है। (करने वाला 'मैं' क्या है ? मन है -या अहं ? जो दैवी माया या आत्मा की शक्ति है, एक एजेंसी है ?) इस भाव से कर्म करते ईश्वर पर (=माँ भवतारिणी पर) भक्ति और प्रीति होगी। इस प्रकार निष्काम कर्म [ 'BE AND MAKE'] करते जाओ तो ईश्वर-लाभ (माँ का दर्शन या आत्मसाक्षात्कार ?) भी होगा। 
" उन पर जितनी ही भक्ति-प्रीति होगी, उतने ही तुम्हारे काम घटते जायेंगे। गृहस्थ की बहु जब गर्भवती होती है, तब उसकी सास उसका काम कम कर देती है। नौ महीने पूरे होने पर बिलकुल काम छूने नहीं देती। उसे डर रहता है कि कहीं बच्चे को कोई हानि न पहुँचे। सन्तान-प्रसव में कोई विपत्ति न हो। (हास्य) 
(हे विद्यासागर,) तुम अभी जो काम (दान -पुण्य) कर रहे हो, उससे तुम्हारा ही उपकार है ! (इस बात को समझो कि निःस्वार्थ कर्म करने से तुम्हारा हृदय जो बड़ा हो रहा है, सबसे बड़ा लाभ तो तुम्हें यही हो रहा है।) निष्काम भाव से (नाम-यश या पोस्ट पाने की आकांक्षा त्याग कर) कर्म (कैम्प) कर सकोगे तो चित्त की शुद्धि होगी, (माँ की असीम कृपा का अनुभव होगा) और ईश्वर पर (माँ जगदम्बा पर) तुम्हारा प्रेम होगा। प्रेम होते ही तुम उन्हें प्राप्त कर लोगे। संसार का उपकार मनुष्य नहीं करता, वे ही करते हैं जिन्होंने सूर्य-चन्द्र की सृष्टि की, माता-पिता के हृदय में स्नेह दिया, सत्पुरुषों में दया-करुणा-सेवाभाव का संचार किया और साधु-भक्तों को भक्ति दी। जो मनुष्य कामना शून्य होकर कर्म करेगा (अर्थात 'BE AND MAKE' आन्दोलन से जुड़ जायेगा) वह अपना ही हित करेगा। [उसका अहं मिट जायेगा (पतला हो जायेगा) क्योंकि वह समझ जायेगा कि भारत का कल्याण मनुष्य नहीं करता , माँ जगदम्बा की इच्छा से होता रहता है ! ] 
" (हे विद्यासागर,) तुम्हारे भीतर सुवर्ण है, अभी तक तुम्हें इसका बोध नहीं हुआ है। ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी है। यदि एक बार पता चल जाये, तो अन्य काम घट जायेंगे। गृहस्थ की बहु के लड़का होने से वह लड़के को ही लिए रहती है, उसी को उठाती बैठाती है। फिर उसकी सास (ए.पी) उसे घर के काम में हाथ नहीं लगाने देती। (सब हँसे)         

" और भी 'आगे बढ़ो।' लकड़हारा लकड़ी काटने गया था, ब्रह्मचारी ने कहा - आगे बढ़ जाओ। उसने आगे बढ़कर देखा तो चन्दन के पेड़ थे ! फिर कुछ दिन बाद उसने सोचा कि ब्रह्मचारी ने बढ़ जाने को कहा था, सिर्फ चन्दन के पेड़ तक तो जाने को तो नहीं कहा था ? आगे चलकर देखा तो चाँदी की खान थी। फिर कुछ दिन बीतने पर और आगे बढ़ा और देखा तो सोने की खान मिली। फिर क्रमशः हीरे की -मणियों की। वह सब लेकर वह मालामाल हो गया।

" निष्काम कर्म कर सकने से ईश्वर पर (माँ जगदम्बा पर) प्रेम होता है। क्रमशः उनकी कृपा से उन्हें लोग पाते भी हैं। ईश्वर के दर्शन होते हैं, उनसे बातचीत होती है जैसे कि मैं तुमसे वार्तालाप कर रहा हूँ। (सब निःशब्द हैं !) श्रीरामकृष्ण की जिह्वा पर मानो साक्षात् वाग्वादिनी बैठी हुई जीवों के हित के लिये (वुड बी लीडर्स की शिक्षा के लिये) विद्यासागर से बातें कर रही हैं। ..... रात के नौ बजने वाले हैं श्रीरामकृष्ण अब चलने वाले हैं।
10.>>>आमरा जेले डिंगी (fishing boats)। अहेतुक कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता 'L'eader हैं - उन्होंने कहा था "हम तो मछली पकड़ने वाली छोटी नौकायें हैं।"(मिशन और महामण्डल का अन्तर ?)
श्रीरामकृष्ण (विद्यासागर से, सहास्य :)- " ए -जा बललूम, बला बाहुल्य आपनी सब जानेन - तबे खपर नाई। "  এ-যা বললুম, বলা বাহুল্য আপনি সব জানেন -- তবে খপর নাই।  " यह सब जो कहा , वह तो ऐसे ही कहा। आप सब जानते हैं,किन्तु अभी आपको इसकी खबर नहीं। (सब हँसे - स्वयं महापण्डित विद्यासागर हैं !) " वरुनेर भान्डारे कत कि रत्न आछे ! वरून राजार खपर नाई ! "বরুণের ভাণ্ডারে কত কি রত্ন আছে! বরুণ রাজার খপর নাই!" वरुण के भण्डार में कितने ही रत्न पड़े रहते हैं, किन्तु वरुण महाराज को उसका कुछ पता नहीं है।
विद्यासागर (हँसते हुए) - यह आप कह सकते हैं।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य )-हाँ जी, अनेक मालिक बाबू नौकरों के नाम तक नहीं जानते ! (सब हँसते हैं।) घर में कहाँ कौन सी चीज पड़ी है , वे नहीं जानते।
[কথাবার্তা শুনিয়া সকলে আনন্দিত। সকলে একটু চুপ করিয়াছেন। ঠাকুর আবার বিদ্যাসাগরকে সম্বোধন করিয়া কথা কহিতেছেন।Everybody was delighted with the Master's conversation. Again addressing Vidyasagar, he said with a smile: ]
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए मुख से)- " एक बार बगीचा देखने का समय निकालिये, रासमणि का बगीचा! बड़ी अच्छी जगह है। 'एकबार बागान देखते जाबेन, रासमणिर बागान। भारी चमत्कार जायगा। 
[একবার বাগান দেখতে যাবেন, রাসমণির বাগান। ভারী চমৎকার জায়গা।  ... ओह दादा ने कहा था मुझे तुम्हारी याद आती है, क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आती ?" ऐन्यूअल-कैम्प के बाद कामारपुकुर या पातिपुकुर ? जाने का समय निकालिये- 16 जनवरी, 2007 सरस्वतीपूजा के दिन  के नवानुराग  का अनुभव 2nd जनवरी,2024 सोडियम टेस्ट के बाद अहेतुक कृपासिन्धु की भक्ति में रूपांतरण = लीडर! "जब तक जीना, तबतक सीखना ' अनुभव ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। " ]
 
विद्यासागर - जरूर जाऊँगा। आप आये और मैं न जाऊँगा ? 
শ্রীরামকৃষ্ণ -- আমার কাছে? ছি! ছি!
श्रीरामकृष्ण - मेरे पास ? राम! राम ! (दुर-दुर) 
विद्यासागर - यह क्या ? ऐसी बात आपने क्यों कही ? मुझे समझाइये। 
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) -" आमरा जेले डिंगी। " हम लोग छोटी छोटी किश्तियाँ हैं जो खाई, नाले और बड़ी नदियों में भी जा सकती हैं। परन्तु आप हैं जहाज; कौन जानता है, जाते समय रेत में लग जाये ! 
["आमरा जेले डिंगी।" (सभी हँसते हैं) खाल, बिल, आबार बड़ नदीतेउ जेते पारी। किन्तु आपनी जाहाज, कि जानि जेते गिये चड़ाय पाछे लेगे जाय। আমরা জেলে ডিঙি। (সকলের হাস্য) খাল বিল আবার বড় নদীতেও যেতে পারি। কিন্তু আপনি জাহাজ, কি জানি যেতে গিয়ে চড়ায় পাছে লেগে যায়। (সকলের হাস্য)]  
विद्यासागर प्रफुल्ल-मुख किन्तु चुपचाप बैठे हैं। श्रीरामकृष्ण हँसते हैं !
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए)- पर हाँ, इस समय जहाज भी जा सकता है। 
विद्यासागर -(हँसते हुए) - हाँ , ठीक है, यह वर्षाकाल है। 
मास्टर (स्वागत) : 'नव-अनुराग की वर्षा' - जब किसी को नवानुराग होता है, तब मान-अपमान का बोध क्या रह सकता है। 
श्रीरामकृष्ण उठे ...... करजाप कर रहे हैं। जपते हुए भाव के आवेश में आ गए , मानो विद्यासागर के आत्मिक हित के लिए परमात्मा से (माँ काली से?) प्रार्थना करते हों!

[‘आवेश’ उसे कहते हैं कि किसी एक अन्य शरीर में किसी भिन्न शरीरी के गुणों का कुछ काल के लिये आवेश हो जाय। प्रायः लोक में स्त्री-पुरुषों के ऊपर भूत, प्रेत, यक्ष, राक्षस तथा देव-दानवों के आवेश आते देखे गये हैं। सभी के शरीरों में आवेश हो, यह बात नहीं। कभी किसी विरले ही शरीर में आवेश हुआ देखा जाता है। वह क्यों होता है और किस प्रकार होता है, इसका कोई निश्चित नियम नहीं। जो जैसी प्रकृति के पुरुष होते हैं, उनके ऊपर वैसे ही आवेश भी आते हैं। देवताओं का आवेश सात्त्विक प्रकृति के ही लोगों के ऊपर आवेगा। इसके अतिरिक्त भगवान के कलावतार, अंशावतार आदि अवतारों के मध्य में एक आवेशावतार भी होता है।
    जैसे चैतन्यमहाप्रभु  को श्रीनृसिंहावेश (और नवनीदा), तो कभी श्रीवाराहावेश होता था। किसी महान कार्य के लिये किसी विशेष शरीर में भगवान का आवेश होता है और उस कार्य को पूरा करके फौरन ही वह आवेश चला जाता है।  भगवान तो ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ सभी कुछ करने में समर्थ हैं, उनकी इच्छामात्र से बड़े-बड़े दुष्टों का संहार हो सकता है; किंतु भक्तों के प्रेम के अधीन होकर, उन्हें अपनी असीम कृपा का महत्त्व जताने के निमित्त तथा अपनी लीला प्रकट करने के निमित्त वे भाँति-भाँति के अवतारों का अभिनय करते हैं। वास्तव में तो वे नाम, रूप तथा सभी प्रकार के गुणों से रहित हैं। साभार krishnakosh.org]
(५ अगस्त १८८२ या भादो/ नहीं सावन की कृष्णपक्ष की षष्ठी है, अभी चंद्रोदय नहीं हुआ है, श्रीरामकृष्ण उतर रहे हैं; एक भक्त हाथ पकड़े हुए हैं। विद्यासागर स्वजन-बन्धुओं के साथ आगे आगे जा रहे हैं , हाथ में बत्ती लिए रास्ता दिखाते हुए।  )  
भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण फाटक के पास ज्योंही पहुँचे त्योंही एक सुन्दर दृश्य ने सबको चकित कर दिया। सामने एक दाढ़ीवाले, गौरवर्ण पुरुष खड़े थे। उम्र ३६-३७ वर्ष की होगी। बंगालियों की तरह पोशाक थी पर सिर पर सिक्खों की तरह सफ़ेद पगड़ी बंधी थी। उन्होंने श्रीरामकृष्ण को देखते ही भूमि पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। उनके उठ खड़े होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, " बलराम तुम हो ? इतनी रात को ? " 
बलराम (हँसकर) - मैं बड़ी देर से आया हूँ। 
श्रीरामकृष्ण -भीतर क्यों नहीं गए ?
बलराम - जी, लोग आपका वार्तालाप सुन रहे थे। बीच में पहुँचकर क्यों शान्ति भंग करूँ, यह सोचकर नहीं गया। यह कहकर बलराम बसु हँसने लगे। 
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ गाड़ी पर बैठ गए. 
विद्यासागर (मास्टर से धीमी आवाज में )-गाड़ी का किराया क्या दे दें ? 
मास्टर -जी नहीं, दे दिया गया है। 
[विद्यासागर और अन्यान्य लोगों ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया।] गाड़ी चलने लगी। ......सब लोग गाड़ी की ओर देखते हुए खड़े हैं। सोच रहे हैं - ००००० ये महापुरुष कौन हैं ? ये स्वयं ईश्वर पर कितना प्रेम करते हैं; फिर जीवों के घर घर जाकर कहते हैं (वुड बी लीडर को ट्यूशन देने ?)कि-" ईश्वर (माँ जगदम्बा) से प्रेम करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है ! " 
 🙂11.>>>हिन्दुधर्म और श्रीरामकृष्ण :[ यह आलेख 'HINDUISM AND SHRI RAMAKRISHNA' (Volume 6) पहली बार 'हिन्दुधर्म क्या है ?' शीर्षक के साथ भगवान श्रीरामकृष्णदेव के ५६ वें जन्मदिन के अवसर पर पुस्तिका के रूप में प्रकशित हुआ था].....  में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
  
आचण्डालाप्रतिहतरयो यस्य प्रेमप्रवाहः
        लोकातीतोऽप्यहह न जहौ लोककल्याणमार्गम् ।
त्रैलोक्येऽप्यप्रतिममहिमा जानकीप्राणबन्धो
        भक्त्या ज्ञानं वृतवरवपुः सीतया यो हि रामः ॥ १॥

जिनके प्रेम का प्रवाह आचाण्डाल तक अबाध गति से व्याप्त है, जो लोकातीत होते हुए भी सदा लोकहित में रत हैं। जो श्रीजानकी जी के प्राणवल्ल्भ (प्राण के बंधन-स्वरुप) हैं। जिनकी त्रैलोक्य में कोई उपमा नहीं है। जो भक्ति द्वारा आवृत ज्ञानमय-वपु श्रीराम-अवतार हैं। 
 
स्तब्धीकृत्य प्रलयकलितं वाहवोत्थं महांतम्
        हित्वा रात्रिं प्रकृतिसहजामन्धतामिस्रमिश्राम्
गीतं शांतं मधुरमपि यः सिंहनादं जगर्ज
        सोऽयं जातः प्रथितपुरुषो रामकृष्णस्त्विदानीम् ॥ २॥

कुरुक्षेत्र के प्रलयकारी हुंकार को स्तब्ध करते हुए स्वाभाविक महामोह-अन्धकार को दूर कर जिनके गीतारूप सुगम्भीर सिंहनाद का उदय हुआ था। वे ही उत्तम पुरुष इस समय 'श्रीरामकृष्ण' नाम  से आविर्भूत हुए हैं। 
" सत्य के दो भेद हैं, पहला जो हमलोग पंचेन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण करते हैं, उसे 'विज्ञान' कहते हैं। तथा दूसरा, जिस सत्य को हम इन्द्रियातीत योगज शक्ति के द्वारा ग्रहण करते हैं उसे 'वेद' कहते हैं।(अर्थात जिस आत्मबोध को माँ सारदा की कृपा के द्वारा ग्रहण करके पुनः देह-इन्द्रयों में लौट आते हैं उसे 'वेद' कहते हैं।)'सार्वजनीन धर्म (सर्वधर्म-समन्वय) का व्याख्याता एकमात्र 'वेद' ही है !  
'वेद'- नामक अनन्त अनादि अलौकिक ज्ञानराशि सदा विद्यमान है ; स्वयं सृष्टिकर्ता (माँ जगदम्बा-यस्य प्रेमप्रवाहः ) उसकी सहायता से इस जगत के सृष्टि-स्थिति-प्रलय कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। जिन पुरुषों में उस इन्द्रियातीत शक्ति का आविर्भाव होता है उन्हें ऋषि कहते हैं। और उस शक्ति के द्वारा जिस अलौकिक सत्य की उन्होंने ने उपलब्धि की है, उसे वेद कहते हैं। इस ऋषित्व तथा वेद-दष्टृत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जबतक उसका उन्मेष नहीं होता, तब तक 'धर्म' केवल 'कहने भर की बात' है; एवं समझना चाहिये कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान भी पैर नहीं रखा है।      
" वेद अर्थात यथार्थ धर्म और ब्राह्मणत्व अर्थात धर्मशिक्षकत्व की रक्षा के लिये भगवान बारम्बार शरीर धारण करते हैं - यह तथ्य स्मृति आदि में प्रसिद्द है।  हम प्रभु के दास हैं, प्रभु के पुत्र हैं, प्रभु की लीला के सहायक हैं, इस विश्वास को अपने हृदय में धारण कर कार्यक्षेत्र में उतर जाओ। " 
"श्रीरामकृष्णदेव तो सर्वदा सभी परिस्थितियों में मेरे ही हैं -फिर चिंता किस बात की ? बाधा-विपत्तियों  से मैं डरने ही क्यों लगा ? नारदभक्तिसूत्र में इस अहंकार को साधन के अन्तर्गत माना गया है; कहा गया है कि अत्यन्त सौभाग्य से मानव के अन्दर इसका उदय होता है मनुष्य आदतों का गुलाम है -प्रवृत्तियों का दास है। कामिनी-कांचन का सुख तथा भगवद-आनन्द, इन दोनों की प्राप्ति कैसे हो सकती है, उसी की खोज में वह लगा रहता है। महामाया ने मानव को भेंड़ बना रखा है -सिंहशावक चाहे तो अपनी आदत को बदल कर ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकता है, किन्तु माया ने उसे हिप्नोटाइज्ड कर रखा है, वह ठाकुरदेव की शरण में आता ही नहीं ! 

शाबास माँ दक्षिणाकाली, भुवन भेल्कि लागिये दिली। 
तोर भेल्किर गुटि चरण दुटि भवेर भाग्ये फैले दिलि।।

एमन बाजिकरेर मेये, राखलि बाबारे पागल साजाये। 
निजे गुणमयी हये पुरुष प्रकृति हलि। 

मनेते ताई सन्द करि, जे चरण पायनि त्रिपुरारी। 
प्रसाद रे सेई चरण पाबि, तुई ओ बुझि पागल हलि।।  
=========
[সাবাস মা  দক্ষিণাকালী, ভুবন ভেল্কি লাগিয়ে দিলী। 
তোর ভেল্কির গুটি চরণ দুটি ভবের ভাগ্যে ফেলে দিলি।
এমন বাজিকরের মেয়ে, রাখলি বাবারে পাগল সাজায়ে।
নিজে গুণময়ী হয়ে পুরুষ প্রকৃতি হলি।
মনেতে তাই সন্দ করি, যে চরণ পায়নি ত্রিপুরারি। 
প্রসাদ রে সেই চরণ পাবি, তুইও বুঝি পাগল হলি! ] 

-" माँ दक्षिणकाली तू धन्य है ! तूने संसार रूपी जादू का विस्तार किया है। अपने जादू की गोटी (पाशे) के रूप में तूने अपने दोनों श्रीचरणों को संसार के सौभाग्य के लिये प्रदान किया है। तू ऐसे जादूगर की बेटी है कि तूने पिता को पागल बना रखा है; एवं स्वयं गुणमयी होकर तू पुरुष तथा प्रकृति के रूप में परिणत हुई है। इसलिये मेरे मन में यह सन्देह उपस्थित होता है कि त्रिपुरारी ने जिन चरणों को प्राप्त नहीं किया -अरे रामप्रसाद (कवि अपने से कह रहे हैं) क्या तू पागल हो गया है; वे चरण तुझे कैसे प्राप्त हो सकते हैं ?"  

12.>>>समाधितत्व -अर्थात अवतार वरिष्ठ की भक्ति ही साधना का सार है !: (१३ अगस्त १८८२ ) केदार ने दक्षिणेश्वर में उत्सव किया है ....रामचन्द्र दत्त ने एक गायक बुलाया है, उन्होंने गाना गया। श्रीरामकृष्ण समाधितत्व समझा रहे हैं। .....  
" सच्चिदानन्द की प्राप्ति होने पर समाधि होती है, उस समय कर्म का त्याग हो जाता है। मधुमक्खी गुनगुन करती है कब तक ? -जब तक फूल पर नहीं बैठती। ईश्वरप्राप्ति के बाद यदि कोई विचार करता है तो वैसा ही है जैसा मधुमक्खी मधु का पान करती हुई अस्फुट स्वर से गुनगुनाती रहे। "
" जिस मनुष्य में कोई एक बड़ा गुण है, जैसे संगीत-विद्या, उसमें ईश्वर की शक्ति विशेष रूप से वर्तमान है। 
गायक : महाराज, किस उपाय से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ? 
श्रीरामकृष्ण - भक्ति ही सार है। ईश्वर (माँ जगदम्बा) तो सर्वभूतों में विराजमान हैं। तो फिर भक्त किसे कहूँ ? - जिसका मन (अहं) सदा ईश्वर में है। (सर्वव्यापी विराट अहं से युक्त है)  अहंकार, (नाम -रूप में) अभिमान रहने पर कुछ नहीं होता। 'मैं' रूपी टीले पर ईश्वरकृपारूपी जल नहीं ठहरता ; लुढ़क जाता है। मैं यन्त्र हूँ। 

" सब मार्गों से उन्हें प्राप्त किया जा सकता है। सभी धर्म सत्य हैं। छत पर चढ़ने से मतलब है, सो तुम पक्की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, लकड़ी की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो, बाँस की सीढ़ी से भी चढ़ सकते हो। रस्सी के सहारे भी चढ़ सकते हो, और फिर एक गाँठदार बाँस के जरिये भी चढ़ सकते हो। 
" यदि कहो, दूसरे धर्मों में अनेक भूल, कुसंस्कार हैं ; तो मैं कहता हूँ , हैं तो रहे , भूल सभी धर्मों में है। सभी समझते हैं मेरी घड़ी ठीक चल रही है। व्याकुलता होने से ही हुआ। उनसे प्रेम आकर्षण होना चाहिये। वे अन्तर्यामी जो हैं। वे अन्तर की व्याकुलता और आकर्षण को देख सकते हैं। मानो एक मनुष्य के कुछ बच्चे हैं। उनमें से जो बड़े हैं वे 'बाबा', या 'पापा' इन शब्दों को स्पष्ट रूप से कहकर, उन्हें पुकारते हैं। और जो बहुत छोटे हैं वे बहुत हुआ तो 'बा' या 'पा' कहकर पुकारते हैं। 
जो लोग सिर्फ 'बा' या 'पा' कह सकते हैं, क्या पिता उनसे असन्तुष्ट होंगे ? पिता जानते हैं कि वे उन्हें ही बुला रहे हैं, परन्तु वे अच्छी तरह उच्चारण नहीं कर सकते। पिता की दृष्टि में सभी बच्चे बराबर हैं। " फिर भक्तगण उन्हें ही अनेक नामों से पुकार रहे हैं। एक ही व्यक्ति को बुला रहे हैं। एक तालाब के चार घाट हैं। हिन्दू लोग एक घाट का जल पी रहे हैं और कहते हैं जल। मुसलमान लोग दूसरे घाट में रहे हैं- कहते हैं पानी। अंग्रेज लोग तीसरे घाट में पी रहे हैं और कह रहे हैं -वाटर। और कुछ लोग चौथे घाट में पी रहे हैं और कहते हैं आकुवा एक ईश्वर, उनके अनेक नाम हैं। "एक राम हजार नाम "
  
 🙂13. >>A Guardian angel : भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण परमहंस देव की साधना से प्रसन्न होकर "माँ काली - भवानी भवतारिणी" ने उनकी अभिभावक देवदूत /  (Guardian angel -संगरक्षक देवदूत) की भूमिका ग्रहण कर ली थी। माता कालिका:- जो आत्मा को जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करती है। जब न तो सृष्टि थी, न ही सूर्य, चंद्रमा, ग्रह और पृथ्वी,तब केवल अंधकार था और सब कुछ अंधकार से ही बना था।काली का अंधकारमय स्वरूप उस अंधकार का प्रतिनिधित्व करता है जिससे सब कुछ पैदा हुआ...चूंकि दक्षिणा उपहार पारंपरिक रूप से दाहिने हाथ से दिया जाता है। दक्षिणकाली के दो दाहिने हाथों को आमतौर पर आशीर्वाद देने और वरदान देने की मुद्रा में चित्रित किया गया है। कोलकाता के पास दक्षिणेश्वर में स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर उनके इसी रूप  को समर्पित है। हुगली नदी के पूर्वी तट पर स्थित, मंदिर की प्रमुख देवी को  भवतरिणी भी कहा जाता है , जो काली का एक रूप है, जिसका अर्थ है, ' वह जो अपने भक्तों को अस्तित्व के सागर यानी संसार से- जन्म-मृत्यु के चक्र से  मुक्त करती है ।' इस मंदिर का निर्माण 1855 में एक परोपकारी और काली की भक्त रानी रशमोनी ने करवाया था। वर्ष 1847 में, रशमोनी ने देवी मां के प्रति अपनी भक्ति व्यक्त करने के लिए पवित्र हिंदू शहर काशी-बनारस की लंबी तीर्थयात्रा पर जाने की तैयारी की। जैसा कि लोककथा है, रानी को रिश्तेदारों, नौकरों और आपूर्तियों को लेकर चौबीस नावों में यात्रा करनी थी, लेकिन तीर्थयात्रा शुरू होने से एक रात पहले, राशमोनी को सपने में काली के दर्शन हुए। देवी माँ ने यहाँ बताया कि बनारस जाने की कोई आवश्यकता नहीं है और वह गंगा नदी के तट पर एक सुंदर मंदिर में अपनी मूर्ति स्थापित कर सकती हैं और वहाँ उनकी पूजा की व्यवस्था कर सकती हैं और वह स्वयं छवि में प्रकट होंगी और पूजा स्वीकार करेंगी। वह स्थान स्वयं. स्वप्न से अत्यधिक प्रभावित होकर, रानी ने तुरंत दक्षिणेश्वर गाँव में 20 एकड़ का एक भूखंड खोजा और खरीदा। विशाल मंदिर परिसर का निर्माण 1847 और 1855 के बीच किया गया था।
       मुख्य मंदिर के गर्भगृह में भव तरिणी, दक्षिण काली की मूर्ति है, जिसे श्री श्री जगदीश्वरी कालीमाता ठकुरानी कहा जाता है - वह मौलिक ऊर्जा-चेतना-आनंद (primordial energy-consciousness-bliss,) है, वह महामाया है जो ब्रह्मांड का निर्माण करती है और जीव को माया के चंगुल से मुक्त करती है। मंदिर परिसर में, नौ शिखर वाले मुख्य मंदिर के अलावा, मंदिर के चारों ओर एक बड़ा आंगन है, जिसमें चारदीवारी के साथ कमरे हैं। नदी के किनारे, काली के साथी शिव को समर्पित बारह मंदिर हैं, राधा-कृष्ण का एक मंदिर, नदी पर एक स्नान घाट, रानी रशमोनी को समर्पित एक मंदिर है। 'नहबतखाना', शिव मंदिरों के ठीक पीछे उत्तर-पश्चिमी कोने में कक्ष है, जहां रामकृष्ण ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा बिताया था।
मा दुर्गा ने दैत्यों के संहार के लिए काली का रूप धारण किया था। काली काल एवं परिवर्तन की देवी मानी जाती हैं। तंत्र साधना में तात्रिक काली के रूप की उपासना करते हैं। मां काली को भवतारिणी यानी ब्रह्माड के उद्धारक के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है।
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14.>>>श्रीजगदम्बा का प्रथम दर्शन !
       " मुझे एक अनन्त असीम चेतन ज्योतिः समुद्र दिखायी देने लगा .... अचेत होकर मैं गिर पड़ा।" क्या उस समय, उस ज्योतिःसमुद्र के अन्दर उनको 'मूर्ति' का दर्शन भी प्राप्त हुआ था ? [माँ जगदम्बा भवतारिणी के मूर्त रूप का दर्शन भी प्राप्त हुआ था ? स्वामी सरदानन्द जी लिखते है -हमें ऐसा प्रतीत होता है कि अवश्य हुआ होगा। ] क्योंकि हमने सुना है कि प्रथम दर्शन के समय जब उन्हें सामान्य चेतना हुई थी, तभी कातर कण्ठ से उन्होंने 'माँ' 'माँ' शब्द का उच्चारण किया था। मैं इतना बेसुध हो जाता था कि मुझे ' माँ की वराभयकरा चिन्मयी मूर्ति का दर्शन प्राप्त होता था और मैं यह देखता था कि वह मूर्ति हँस रही है, बातें कर रही है और तरह तरह से मुझे सान्त्वना तथा शिक्षा प्रदान कर रही है- 'इस कार्य को करो, उसे न करो' । इस प्रकार कहती हुई मेरे साथ साथ घूम रही हैं। चारों ओर लोगों के खड़े रहने पर भी छाया या चित्रांकित मूर्ति की भाँति वे मुझे अवास्तव जैसे प्रतीत होते थे, इसलिये मेरे मन में किंचिन्मात्र भी लज्जा या संकोच उत्पन्न नहीं होता था।
वे देखते थे कि जिनकी चेतन-सत्ता से समग्र जगत सचेतन बना हुआ है, वे ही चिद्घन मूर्ति धारण कर वराभयकरा रूप से सुशोभित हो वहाँ सर्वदा विराजमान हैं। नाक पर हाथ रखकर मैंने देखा कि माँ वास्तव में श्वास ले रही हैं। श्रीजगन्माता ने जगत के कल्याण के लिए ही उनको शरीर धारण कराया था (शरीर में लौटा दिया था !  समग्र आध्यात्मिक जगत के आचार्यपद (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता-पद) को ग्रहण करने के निमित्त ही, श्रीरामकृष्णदेव को भावावेश में ईश्वर के विभन्न रूपों के दर्शन और आदेश (चपरास) प्राप्त हुआ था।  
किन्तु हलधारी को अपने पाण्डित्य का अभिमान था,उसने श्रीरामकृष्णदेव से कहा -" श्रीकाली माँ तो तमोगुणमयी हैं ,तामसी मूर्ति की उपासना से क्या कभी आध्यात्मिक उन्नति हो सकती है ? तुम उस देवी की आराधना क्यों करते हो ? "अपने इष्टदेवता की निन्दा सुनकर ठाकुर का हृदय अत्यन्त व्यथित हुआ। तदन्तर कालीमंदिर में जाकर अश्रुपूर्ण नेत्रों से उन्होंने श्रीजगन्माता से पूछा , " माँ, हलधारी शास्त्रज्ञ विद्वान् है -वह तुझे तमोगुणमयी कहता है; क्या तू वास्तव में वैसी है ? " माँ के श्रीमुख से उस विषय के यथार्थ तत्व को जानलेने के पश्चात। ....श्री रामकृष्णदेव हलधारी को कहते हैं - " तू माँ को तामसी कहता है ? क्या माँ तामसी हैं ? माँ तो सबकुछ -त्रिगुणमयी और साथ ही साथ शुद्ध सत्वगुणमयी हैं !"  
एक दिन मैं कमरे में बैठकर रो रहा था कि माँ ने मुझे कहीं ठग तो नहीं लिया ? ... कुछ देर बाद देखता हूँ कि फर्श से एकाएक ओस की तरह धुआँ निकलने लगा और सामने कुछ स्थल को उसने ढँक लिया ! तदनन्तर उसके अन्दर वक्षस्थल प्रयन्त लम्बी दाढ़ी युक्त एक गौरवर्ण, सौम्य, जीवन्त मुखमण्डल (ब्रह्माजी ?) दिखाई दिया ! मेरी ओर निश्चल दृष्टि से देखते हुए उस मूर्ति ने गंभीर स्वर से कहा - "अरे, तू भावमुखी रह, भाबमुखी रह, भावमुखी रह ! ' -इस प्रकार तीन बार इन शब्दों का उच्चारण करने के बाद वह मूर्ति धीरे धीरे पुनः उसी ओर विलीन हो गयी और ओस की तरह धुआँ भी अन्तर्निहित हो गया। १/२४८ 
हलधारी की बात सुनकर और एक बार इस प्रकार का सन्देह मेरे मन में उदित हुआ था ,मीमांसा की प्रार्थना करने पर माँ ने उस समय 'रति की माँ ' नाम की एक महिला का वेष धारण कर घट के समीप अविर्भूत हो मुझे उपदेश दिया -' तू भावमुखी रह।' उन्हें उस समय से ही यह अवगत हो चुका था कि अत्यन्त प्राचीन काल से पृथ्वी पर सुपरिचित कोई आत्मा (माँ जगदम्बा) उनके शरीर तथा मन में 'अहं-अभिमान' को धारण कर किसी विशेष प्रयोजन सिद्धि के निमित्त अवस्थित है। 
जब वेदान्त ज्ञान प्राप्त कर श्रीरामकृष्णदेव छः महीने तक निरन्तर निर्विकल्प भूमि में अवस्थान कर रहे थे उस समय उन्हें 'भावमुख' अवस्था में रहने का आदेश तीसरी बार प्राप्त हुआ था।......उस समय श्रीरामकृष्णदेव ने किसी दृष्ट-मूर्ति के मुख से उस बात का श्रवण नहीं किया था। किन्तु तुरीय, अद्वैततत्त्व में एकदम एकीभूत हो अवस्थित न रहकर जब उनका मन (अहं ?) उस तत्व से थोड़ा पृथक होकर सगुण विराट ब्रह्म या श्रीजगदम्बा के अंश रूप से अपने को प्रत्यक्ष कर रहा था उस समय उस सर्वव्यापी विराट 'अहं' में उस प्रकार की इच्छा उन्हें दृष्टिगोचर हुई थी।  वे जान गए थे कि किसी विशेष उद्देश्य के साधन के निमित्त ही श्रीजगदम्बा ने बाह्य-ऐश्वर्य-आडम्बर -रहित ब्राह्मणकुल में निरक्षर रूप से अबकी बार उनको आविर्भूत कराया है। यद्यपि उनके (C-IN-C नवनीदा के  जीवित काल में यद्यपि बहुत चुने हुए (न्यूनसँख्या में) लोग ही उस लीला-रहस्य को समझ सकेंगे, फिर भी उनके शरीर तथा मन के द्वारा जगत में जिस आध्यात्मिक प्रबल तरंग का उदय होगा, वह सर्वथा अमोघ होगी तथा उससे अनन्तकाल तक लोगों का कल्याण होता रहेगा।

 15.🙂
>>>भाव किसे कहते हैं; भावमुख अवस्था में रहने का तात्पर्य क्या है ?  भावमुख अवस्था में पहुँचने पर 'मैं अमुक की सन्तान हूँ, पिता हूँ , ब्राह्मण अथवा शूद्र हूँ, ज्ञानी हूँ, धनी हूँ ' - इत्यादि सारी बातें मन से एकदम दूर हो जाती हैं; तथा अपने मन में सदैव यही अनुभव होता रहता है कि " मैं वही विश्वव्यापी विराट 'अहं' (माँ जगदम्बा) का दास हूँ ! इसीलिये श्रीरामकृष्ण हमें बार बार यही शिक्षा देते हैं कि - " अरे, मैं अमुक का पुत्र हूँ, अमुक का पिता हूँ, ब्राह्मण हूँ, शूद्र हूँ, पण्डित हूँ,धनी हूँ --  ये सब कच्चे अहंकार हैं, उनसे बन्धन में फँस जाना पड़ता है। अतः इस प्रकार की भावनाओं (सम्मोहन या भ्रम) को त्याग कर मैं भगवान श्री रामकृष्ण का दास हूँ, उनका अंश हूँ, माँ सारदा देवी का (पुत्र) भक्त, वीर, या हीरो हूँ, निवृत्ति मार्गी दादा विवेकानन्द का  छोटा भाई हूँ --ऐसी धारणा करनी चाहिये और मन में उसको अच्छी तरह से जमा लेना (निदिध्यासन द्वारा) चाहिये !" साथ ही वे यह भी कहते थे कि " अद्वैत ज्ञान को आँचल में बाँध कर जो इच्छा सो करो ! "     
अर्थात संसार में लोकव्यवहार करते समय सभी परिस्थितियों में यह देखना, धारणा करना या अनुभव करना कि यह व्यष्टि 'मैं'-बोध जब स्वयं को M/F शरीर समझ रहा है तो वह उस सर्वव्यापी विराट 'अहं' का दास अहं है , या जब अपने को जीव समझ रहा है तो पक्का 'अहं' का (माँ जगदम्बा का) अंश या पुत्र/पुत्री अहं है। और जब अपने को सच्चिदानन्द अनुभव करता है , उस समय वह उस जगत्कारण ( ठाकुर-माँ -स्वामीजी) के साथ एकत्व की अवस्था में है। और वही  पाका आमि है। ये समस्त कच्चे अहंकार ही काचा आमि, भ्रम या आत्म-सम्मोहन है!
 किन्तु जो भावमुख अवस्था में रहने, अर्थात 'निदिध्यासन -निवृत्तिस्तु महाफला' का अभ्यास कर के भोगेच्छा का सम्पूर्ण रूप से त्याग नहीं कर देता, वह 'पाका आमि',सिंह-शावक ( माँ का भक्त, वीर या हीरो होकर भी) अपने को 'काचा आमि' समझता रहता है ! लीलाप्रसंग. २.९५ ]
तब क्या श्रीरामकृष्णदेव यथार्थ में अद्वैतवादी नहीं थे ? श्रीजगदम्बा के भीतर स्वगतभेद को स्वीकार कर जब ठाकुर जगन्माता को इस प्रकार 'निर्गुण (जल) और सगुण (बरफ)-उभयभावों में अवस्थित' देखा करते थे, तब तो यह कहना पड़ेगा कि आचार्य शंकर द्वारा प्रतिष्ठित अद्वैतवाद को, जिसमें जगत के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं किया गया है, वे नहीं मानते होंगे ? किन्तु बात ऐसी नहीं है। ठाकुर तो अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत सभी मत को मानते थे। किन्तु वे (समन्वयाचार्य श्रीरामकृष्णदेव) कहते थे कि उक्त तीनों प्रकार के मत मानवमन की उन्नति के अनुसार  उत्तरोत्तर आकर उपस्थित होते हैं। किसी स्थिति में जब द्वैतभाव का उदय होता है-तब ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मानो शेष दो भाव मिथ्या हैं। धर्मोन्नति  के उच्चतर सोपान पर आरूढ़ होने के पश्चात् किसी दूसरी स्थिति में 'विशिष्टाद्वैतवाद' उपस्थित होता है, उस समय ऐसा अनुभव  होता है कि नित्य निर्गुण वस्तु (ब्रह्म) ही लीला में सदा सगुण (माँ जगदम्बा) बनी हुई है। इस अवस्था में द्वैतवाद तो मिथ्या प्रतीत होता ही है, पर अद्वैतवाद के भीतर जो सत्य निहित है -उसकी उपलब्धि भी नहीं होती। और जब मानव साधना (महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासकी सहायता से धर्मोन्नति की अंतिम सीमा पर पहुँचता है -(जीते जी कच्चा 'अहं' की मृत्यु हो जाती है ?) तब श्रीजगदम्बा (के अवतार ठाकुरदेव) के केवल निर्गुण रूप का ही अनुभव होता है; और तब वह उनमें अद्वैतभाव से अवस्थान करता है। उस समय मैं-तुम , जीव-जगत, भक्ति-मुक्ति, पाप-पुण्य, धर्माधर्म -ये सब एकाकार हो जाते हैं। अद्वैतवाद कहने का विषय नहीं है। दो के बिना कहा सुना नहीं जा सकता। जगत में एकमात्र ब्रह्मवस्तु या श्रीजगदम्बा का निर्गुण भाव ही ऐसा है जो कभी उच्छृष्ट नहीं हुआ। 
'भगवान श्री राम, महावीर श्री हनुमान को उपनिषदों का ज्ञान सुनाने के बाद, उनसे पूछते हैं कि, अब बताओ - 'कस्तवम् ' (तुम कौन हो ?) :

देहबुद्‍ध्या त्वद्दासोऽहं जीवबुद्‍ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्‍ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥

 तो हनुमान बोले -  हे प्रभु ! देह भाव से देखूँ तो मैं आपका सेवक (द्वैत) हूँ,  जीव भाव से देखूँ तो मैं आप का अंश (विशिष्ट अद्वैत) हूँ , और यदि आत्म भाव से देखूँ तो मैं आप ही (अद्वैत) हूँ। ऐसा मेरा निश्चय है।
On being asked by Rama what he thought of him, Hanuman said: When I am conscious of my body, I am Thy servant. When aware of myself, I am a part of Thine. When I know my essence, I am verily Thyself. This is my certain belief. 
श्रीरामचन्द्र ने एक बार अपने दास हनुमान जी से पूछा तुम मुझे  किस भाव से देखते हो अथवा चिंतन एवं पूजन किया करते हो ? उत्तर में हनुमान जी ने कहा -
 (देहबुद्ध्या तु दासः अस्मि, जीवबुद्ध्या त्वत्-अंशकः । आत्मबुद्ध्या त्वम् एव अहम्  इति मे निश्चिता मतिः।) अर्थात भगवन जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं यह देह हूँ, तब मैं देखता हूँ कि आप प्रभु हैं, और मैं दास हूँ, आप सेव्य हैं -मैं सेवक हूँ, आप पूज्य हैं -मैं पूजक हूँ। और जब मन-बुद्धि विशिष्ट जीवात्मा (Head) के रूप में अपने को अनुभव करता हूँ, तब मैं देखता हूँ कि आप पूर्ण हैं मैं अंश हूँ (आप समुद्र हैं मैं लहर हूँ, आप मिट्टी के हाथी हैं मैं मिट्टी का चूहा हूँ।) किन्तु जब समाधि में समस्त उपाधिरहित शुद्ध आत्मा के रूप में मैं अवस्थित रहता हूँ तब देखता हूँ जो आप हैं, वही मैं हूँ -मैं और आप एक हैं, दोनों में कोई भेद नहीं है।          
" जब तक 'मैं-तुम 'तथा 'कहना-सुनना' इत्यादि हैं, तब तक 'निर्गुण-सगुण', 'नित्य तथा लीला' इन दोनों भावों को कार्यतः स्वीकार करना ही पड़ेगा। उस समय मुँह से भले अद्वैतवाद की चर्चा की जाय, किन्तु कार्य तथा आचरण में 'विशिष्टाद्वैतवाद' (मैं श्रीरामकृष्ण के दासों का दास हूँ-भाव) ही रखना पड़ेगा ! संगीत में जैसे आरोह और अवरोह होते हैं - सारेगमपधनीसा' इस क्रम से स्वर को चढ़ाने के पश्चात् पुनः 'सानिधपमगरेसा' - इस प्रकार स्वर को नीचे उतारना होता है।  उसी प्रकार समाधि में अद्वैत ज्ञान का अनुभव कर लेने के बाद पुनः नीचे उतरकर 'मेँ'-भाव का अवलम्बन कर अवस्थित रहना है। 
" जैसे बेलफल को हाथ में लेकर यह विचार करना कि खोपड़ा (Hand), बीज (Head) तथा गुदा (Heart)- इनमें से किसको 'बेल' कहा जाय ? पहले खोपड़े को निःसार समझकर फेंक दिया गया, फिर बीजों को भी वैसा ही किया गया और गूदे को अलग निकालकर कहा गया कि यही बेल का सार है - यही असली 'बेल' (यथार्थ मनुष्य) है। फिर यह विचार आया कि जिस वस्तु (बेल, मनुष्य या ब्रह्म) का यह (गूदा-आत्मा) सार है, बीज तथा खोपड़ा भी तो उसी वस्तु के (सूक्ष्म तथा स्थूल बाहरी आवरण) हैं -खोपड़ा, बीज तथा गूदा ये तीनों मिलकर (3H) 'बेल' (मनुष्य) है ! उसी प्रकार नित्य ईश्वर को प्रत्यक्ष करने के उपरान्त (माँ जगदम्बा को या 
उसके आदेश को प्रत्यक्ष सुन लेने के उपरान्त -तू भावमुख रह या डीहिप्नोटाइज्ड होके रह !) यह विचार करना कि जो नित्य हैं (आत्मा में स्वगत भेद से अवस्थित सर्वव्यापी विराट शक्ति या Energy माँ जगदम्बा हैं) वे ही लीला में जगत (शरीर और मन Matter) रूप से अवस्थित हैं ! 
" जैसे प्याज के छिलकों को अलग कर देने पर कुछ भी अवशेष (residual) नहीं रहता, उसी प्रकार 'हू ऐम आइ ?' -मैं कौन हूँ ? यह विचार करने में प्रवृत्त होकर 'शरीर-मन-बुद्धि मैं नहीं हूँ' -क्रमशः आवरण को वस्तु से पृथक कर देने पर यह अनुभव होने लगता है कि 'मैं ' (नाम -रूप का काचा आमि या व्यष्टि अहं) जैसी कोई अलग वस्तु नहीं है- निस्सन्देह सब कुछ वे (ईश्वर/ठाकुर/माँ जगदम्बा ?) ही हैं। जिस प्रकार गंगाजी के कुछ जल को घेर कर कोई कहे यह तो मेरी गंगा है !  
भावमुख अवस्था (डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था) में स्थित रहते समय जब श्रीरामकृष्णदेव को अपने सर्वव्यापी विराट 'अहं' (ईश्वर या माँ जगदम्बा के अहं) का अनुभव होता था उस समय वे उस 'एक' (One) से 'अनेक' (Many) के विकास को समझकर (यह समझकर कि That One () has become Many !) वे श्रीजगदम्बा के निर्गुण भाव से दो-चार कदम नीचे विद्यामाया के राज्य में विचरण किया करते थे। किन्तु उस अवस्था (मेरु-चक्र? कण्ठ -गले के उभरे हुए भाग के ठीक नीचे का बिन्दु?) में 'एक' की अभिव्यक्ति और अनुभूति  इतना अधिक है कि इस ब्रह्माण्ड में जो व्यक्ति जिस कार्य को कर रहा है, सोच रहा है या कह रहा है -तो उसको वे ही कर रहे हैं, सोच रहे हैं तथा कह रहे हैं, ठीक इस प्रकार का अनुभव श्रीरामकृष्णदेव को होता रहता था। एक दिन कोई व्यक्ति घास के ऊपर पैर रखकर चला जा रहा था। दर्द से छटपटा उठे ......... उनका वक्षस्थल लाल हो गया। एक माँझी ने दुर्बल माँझी के पीठ पर चाँटा मारा तो उसका ..... दाग ठाकुरदेव की पीठ पर आ गया, वे चीख पड़े। उस अवस्था से उतरकर माया-राज्य के और भी निम्नस्तर  (अनाहत मेरुचक्र हृदय ?) पर वे रहा करते थे तब 'मैं माँ जगदम्बा का दास हूँ, भक्त, संतान या अंश हूँ' -इस प्रकार का भाव सदा जागृत रहा करता था।उससे भी नीचे (मणिपुर -स्वाधिष्ठान-मूलाधार) षड-रिपुओं का राज्य है। श्रीरामकृष्णदेव ५ अभ्यास के द्वारा उस राज्य को त्याग चुके थे, इसलिये उनका मन कभी उस राज्य में नहीं उतरता था -या यूँ कहें कि माँ जगदम्बा उनके मन को उस राज्य में उतरने ही नहीं देती थीं ? क्योंकि "जिसने माँ को अपना बकलमा दे दिया है -अर्थात जो माँ के ऊपर नितान्त निर्भरशील है , माँ उसके पाँव को कभी बेताल नहीं होने देतीं। " 
" ईश्वर से प्रेम करना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है !  [The End of life: आवा-गमन चक्र की समाप्ति।]  
श्रीरामकृष्ण : " विश्वास और भक्ति से वे (ईश्वर) सहज ही मिलते हैं। वे भाव के विषय हैं।" .... यह बात कहते कहते श्रीरामकृष्ण एक भजन गाने लगते हैं -

मन कि तत्व कोरो तांरे, जेनो उन्मत्त आँधार घरे। 
से जे भावेर विषय भाव व्यतीत, अभावे कि धरते पारे।।  

अग्रे शशि वशीभूत कोरो तव शक्ति-सारे।
ओरे कोठार भीतर चोर-कूठरी, भोर होले से लूकाबे रे।
  
षड्दर्शने ना पाय दरशन, आगम-निगम तन्त्रसारे। 
से जे भक्तिरसेर रसिक, सदानन्दे बिराज करे पूरे।। 

से भाव लागि परम् योगी, योग करे युग-युगान्तरे। 
होले भावेर उदय लोय से जेमन, लोहाके चुम्बक धरे।। 

प्रसाद बोले मातृभावे आमि तत्व करी जांरे।
सेटा चातरे कि भांगबो हाँड़ी, बोझ ना रे मन ठारे ठारे।।
 
" मन तू अँधेरे घर में पागल जैसा उसकी खोज क्यों कर रहा है ? वह तो भाव का विषय है। बिना भाव के, अभाव द्वारा क्या कोई उसे पकड़ सकता है ? पहले अपनी शक्ति द्वारा मन (शशि) में छुपे षडरिपुओं को अपने वश में करो। अरे मन हृदय के भीतर एक गुप्त कमरा है, ज्ञानसूर्य के उदय होने पर यह अहं (माया, षडरिपुओं के साथ) उसमें जाकर छुप जायेगा। उसका दर्शन न तो षड्दर्शनों ने पाया, न निगमागम-तन्त्रों ने। वह भक्तिरस का रसिक है, सदा आनन्दपूर्वक हृदय में विराजमान है। माँ जगदम्बा के प्रति उस भक्ति-भाव को पाने के लिए ही बड़े बड़े योगी युग-युगान्तर से योग कर रहे हैं। जब भाव का उदय होता है, तब ईश्वर भक्त को अपनी ओर खींच लेते हैं। जैसे लोहे को चुम्बक। 'प्रसाद' कहता है कि मैं मातृभाव से जिसकी (परमसत्य की) खोज कर रहा हूँ, उस तत्व का भण्डा क्या मुझे चौराहे पर फोड़ना होगा ? मन, इशारे से ही समझ लो। " 
" जो ब्रह्म हैं, उन्हीं को माँ कहकर पुकारते हैं। प्रसाद कहता है कि मैं मातृभाव से जिसकी खोज कर रहा हूँ उसके तत्व का भण्डा क्या मुझे चौराहे पर फोड़ना होगा ? मन, इशारे ही से समझ लो। [अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव ही अद्वैत (काली-ब्रह्म) हैं!] 

   16. >>>माँ जगदम्बा के मातृ ह्रदय का सर्वव्यापी विराट अहं भाव  :  ईश्वर (माँ जगदम्बा के अवतार C-IN-C ) के साथ कोई सम्बन्ध कर लेने को भाव कहते हैं। उस सम्बन्ध को सर्वदा स्मरण रखना चाहिये; जैसे मैं उनका दास हूँ, सन्तान हूँ, अंश हूँ। इसीको पक्का अहंकार या विद्यायुक्त अहंकार कहते हैं। 'या मतिः सा गतिर्भवेत ।। ~ अष्टावक्र गीता(१:११) जैसा मन वैसा जीवन। 
'जैसा भाव वैसा लाभ, मूल बात है विश्वास ! भाव से ही प्रेम का उदय होता है।  मैं अमुक जाति का 'ब्राह्मण-हरिजन' हूँ, अमुक का पुत्र, अमुक का पिता हूँ - इसको अविद्यायुक्त अहंकार कहते हैं, इन्हें छोड़ना पड़ता है, त्याग देना पड़ता है-नहीं तो अहं(गर्व-अभिमान) बहुत बढ़ जाता है और मनुष्य बन्धन में फँस जाता है। लोकशिक्षक (नेता ) अपने को माँ जगदम्बा के दासों का दास समझता है - और माँ की कृपा से खुली आँखों से ध्यान करना या सर्वभूतों में (भूख-ठंढ से व्याकुल कुत्ते में भी ) नारायण-बुद्धि को स्थायी बना लेना सीख जाता है। ! गीता २/२९ में ऐसे ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता प्रेमस्वरूप लीडर के गुण बतलाते हुए कहा गया है -

अश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनं, आश्चर्यवत् वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रुणोति,  श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥2 . 29||  

यह आत्मा दुर्विज्ञेय कैसे है सो कहता हूँ - 'आश्चर्यवत् पश्यति कश्चित् एनम्' (as a wonder sees some one.)  पहले जो कभी नहीं देखा गया हो, अकस्माद् दृष्टिगोचर हुआ हो, ऐसे अद्भुत पदार्थ का नाम आश्चर्य है उसके सदृशका नाम आश्चर्यवत् है। इस आत्मा को कोई ही 'आश्चर्यमय वस्तु' की भाँति देखता है। 'आश्चर्यवत् वदति तथा एव च अन्यः' (as a wonder speaks of so also an another.) वैसे ही दूसरा  इसको आश्चर्यवत् कहता है। 'अन्यः श्रृणोति श्रुत्वा अपि एनम् वेद न च एव कश्चित्'( another hears, having heard even this  knows not and also any) अन्य (कोई) इसको आश्चर्यवत् सुनता है ; एवं कोई इस आत्मा को सुनकर भी नहीं जानता। अथवा जो इस आत्मा को देखता है वह आश्चर्य के तुल्य है जो इसके विषय में कहता है और जो सुनता है वह भी (आश्चर्य के तुल्य है)। अभिप्राय यह कि अनेक सहस्रों में से कोई एक ही ऐसा होता है। इसलिये आत्मा बड़ा दुर्बोध है।' वह जगत्व्यापी विराट 'अहं'-भाव ही ईश्वर या माँ जगदम्बा का 'अहं'-भाव है, तथा उन्हीं की इच्छा से जगत के समस्त कार्य सम्पन्न होते हैं। मानो एक विराट मन के अन्दर नाना प्रकार की भाव-तरंगें उठ रही हैं, हिलोरे ले रही हैं, खेल रही हैं तथा पुनः उसमें लीन होती चली जा रही हैं। 
पाश्चत्य जड़वादी, भौतिकवादी या अनात्मवादी पण्डितमूर्ख लोग या अल्पबुद्धि लोग (Less Intelligent People) जिस जगच्चैतन्य या विराट शक्ति (कुण्डलिनी शक्ति या वृत्ति-ऊर्जा ) को अपनी बुद्धि तथा बुद्धिजात यन्त्र की सहायता से नापने जाने में प्रवृत्त होकर कह उठते हैं कि 'एक होता भी वह (गॉड पार्टिकल) जड़ है' उस अवस्था में पहुँचकर श्रीरामकृष्ण देव ने उसी के साक्षात् स्वरुप का दर्शन या अनुभव किया कि वह जीवित, जागृत, एकमेवाद्वितीयम, इच्छा तथा क्रिया मात्र की जन्मदात्री अनन्त कृपामयी माँ जगदम्बा हैं ! और उन्होंने यह देखा कि वही 'एकमेवाद्वितीयम' अपने-आप निर्गुण तथा सगुण रूप में विभक्त रहने के कारण - इसी को शास्त्रों में स्वगतभेद कहा गया है - उसके अन्दर एक सर्वव्यापी (आब्रह्मस्तंबव्यापी) विराट 'अहं'-भाव का उदय हो रहा है !! इतना ही नहीं, उस विराट 'अहं'-भाव के विद्यमान रहने के कारण ही विराट मन के अंदर अनन्त भाव-तरंगें उठ रही हैं; और उन्हीं भाव-तरंगों को छोटे-बड़े लहरों के रूप में देखकर मानवों के छोटे-छोटे 'अहं'-भाव बाह्यजगत तथा बाह्यजगत के विभिन्न पदार्थ समझ रहे हैं तथा परस्पर वॉट्सऐप से वार्तालाप आदि कर रहे हैं ! श्रीरामकृष्णदेव ने देखा कि उस विराट 'अहं'-भाव की शक्ति पर ही मानवों के छोटे-छोटे 'अहं'-भाव अवलम्बित हैं तथा वे अपने अपने कार्य कर रहे हैं। किन्तु उस विराट 'अहं'-भाव को प्रत्यक्ष न देख पाने के कारण ही इन छोटे 'अहं'-भावों को ऐसा भ्रम हो रहा है कि वे स्वयं स्वाधीन इच्छायुक्त तथा क्रियाशक्ति सम्पन्न हैं। इसी दृष्टिहीनता को शास्त्रों में अविद्या व अज्ञान कहा है।
 निर्गुण तथा सगुण [जल और बरफ] के बीच जो विराट 'अहं'-भाव विद्यमान है, उसी को भावमुख कहते हैं। ह विराट 'अहं' ही जगज्जननी या ईश्वर का 'अहं' -भाव है। चैतन्य महाप्रभु ने इसी विराट 'अहं' के स्वरुप को 'अचिन्त्यभेदाभेद' स्वरूप ज्योतिर्घनमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण (अवतार) कहा है।
निर्गुण भाव [अहं ब्रह्मास्मि में] में आरूढ़ होते ही  श्रीरामकृष्णदेव  के अनुभव में उस 'एकमेवाद्वितीयम' के अंतर्गत स्वगतभेद का अस्तित्व भी लुप्त हो जाता था। और जब उस सगुण विराट 'अहं' -भाव का [अहं माँ काली अस्मि का] उन्हें बोध होता था, तब उनको यह दिखाई देता था कि जो ब्रह्म हैं, वे ही शक्ति हैं, जो निर्गुण हैं, वे ही सगुण हैं ! जो पुरुष हैं, वे ही प्रकृति हैं ! जो सर्प निश्चल था, वही चलने लगा है। 
जो स्वरुप में निर्गुण हैं, वे ही लीला में सगुण हैं। श्रीजगदम्बा के इस प्रकार 'निर्गुण-सगुण उभय-भावयुक्त स्वरुप' का पूर्ण दर्शन प्राप्त करने के पश्चात् उनको आदेश प्राप्त हुआ 'तू भावमुखी रह' -अर्थात 'अहं'-भाव का एकदम लोप करके निर्गुणभाव में अवस्थित मत हो! क्योंकि जहाँ से विश्व के समस्त भावों (शुद्ध-अशुद्ध, नेट-मंथन के विष-अमृत) का उदय हो रहा है, वह विराट 'अहं' ही तू है, उनकी इच्छा ही तेरी इच्छा है; उनका कार्य ही तेरा कार्य है ! सदा इस भाव का ठीक-ठीक प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए अपना जीवनयापन तथा लोककल्याण साधन करता रह !

मनुष्य के मन में जब उच्च या निम्न स्तर का कोई भी भाव उदित होता है , तो उसके साथ ही साथ किसी न किसी प्रकार का शारीरिक परिवर्तन भी उपस्थित होना अवश्यम्भावी है। उस व्यक्ति को देखते ही लोगों को उसके क्रोधी, कामी या साधु होने का पता चल जाता है। या मति सा गतिर्भवेत- चाहे जैसा भी भाव किसी के मन में क्यों न उदित हो, वह उसके मस्तिष्क में सदा के लिए एक छाप अंकित कर देता है। अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के छापों की समष्टि को लेकर ही उसके चरित्र का निर्माण हुआ है, एवं उसी के आधार पर लोग उसे सज्जन या दुर्जन कहते हैं। 
17.>>>' भावमुख' अवस्था में रहना : अर्थात बकलमा देना क्या वस्तु है ? निर्विकल्प समाधि में 'अहं' ज्ञान का विलोप एवं व्युत्थान। 'बकलमा'-अपना पॉवर ऑफ़ अटर्नी माँ को देना, क्या कोई साधारण बात है ? पग-पग पर देखना पड़ता है कि वह उनपर (भगवान पर ? माँ-ठाकुर -स्वामीजी पर) भार सौंपकर उनकी शक्ति से अपने पैरों को रख रहा है अथवा तुच्छ अहंकार के बल पर उन कार्यों को कर रहा है ? (लीलाप्रसंग-II/पेज १७-२०) जो सम्प्रदाय ईश्वर-प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानकर शिक्षा प्रदान करते हैं उन समस्त सम्प्रदायों (संगठनों) के प्रति उनके हृदय में अपूर्व सहानुभूति का उदय हुआ था। 

किन्तु श्रीरामकृष्ण देव से  पहले ऐसी उदारता और सहानुभूति को किसी भी युग में उच्च कोटि का कोई भी साधक प्राप्त करने में समर्थ नहीं हुआ था। यह र्वधर्मसमन्वय की भावना श्रीरामकृष्ण देव की निजी संपत्ति है ! किन्तु तब से किसी को धर्म के विषय में पक्षपात करते हुए देखते ही उन्हें महान कष्ट होता था ,तथा उसकी हीनबुद्धि को दूर करने के लिये -[अविरोध -मियाँ यदि स्वदेशमन्त्र न पढ़े तब भी] वे सर्वदा प्रयत्नशील रहते थे। अपने मस्तिष्क और इंद्रियों में हमेशा संयम रखा जाये। क्रोध या निराशा में आकर कोई न तो निर्णय करना चाहिये और न ही कोई कार्य प्रारंभ करना अच्छा हैशांत चित्त होकर एक दृष्टा की तरह इस संसार की गतिविधियां देखने से धारणा-सिद्ध योगी की अवस्था मिल जाती है। या वैचारिक सिद्धि-खुली आँखों से ध्यान करने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है। (लीलाप्रसंग-II/ पेज-७/
  
18. >>>हृदय विस्तार का सही रहस्य :        
          संसार में सुख पाने की आशा से प्रेरित होकर मनुष्य संसारी बनता है -विवाह करता है, सन्तान होती है, सन्तान के बड़े होने पर उसका विवाह करता है-इस प्रकार कुछ दिन अच्छी तरह से बीत जाते हैं। तदन्तर कोई बीमार पड़ता है, किसी का किडनैप हो जाता है, किसी की मृत्यु होती है, कोई बुरा रास्ता पकड़ लेता है, -तब नाना प्रकार की चिन्ताओं से चित्त एकदम विचलित हो उठता है। ज्यों- ज्यों संसार में नैराश्य आता है, त्यों-त्यों उसका आक्रोश भी बढ़ता जाता है। गीली लकड़ी ज्यों-ज्यों जलती जाती है, त्यों-त्यों उसका सारा रस उसके पीछे की ओर झाग की तरह उबलने लगता है तथा उसमें ठुस-ठास, फ़ुस-फ़ास की आवाज होती है। संसारी की भी ठीक वैसी ही दशा होती है। इस तरह संसार की अनित्यता तथा असारता को अपने अनुभव से समझ लेने के बाद, जब होश में आकर (डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने के बाद) एकमात्र भगवान के (माँ जगदम्बा के) शरणागत होने पर ही सुख की प्राप्ति हो सकती है।
" मन,मुख तथा आचरण -इन तीनों में एकता होने पर तब कहीं हमारे वाक्य दूसरों के हृदय का स्पर्श करते हैं, तथा उसमें समान भावना का जागरण होता है ! अर्थात दूसरे हृदय में भी मेरे हृदय के भाव प्रतिध्वनित होने लगते हैं !" ओह ! पुत्रशोक के समान क्या और कोई दूसरा दुःख हो सकता है ? पुत्र तो इसी आवरण से (शरीर से) उत्पन्न होता है न ? अतः इस आवरण के साथ जिस किसी आवरण का सम्बन्ध है, और जबतक यह आवरण विद्यमान है, तब तक दुःख बना ही रहता है। .... जो उन्हें (भगवान श्रीरामकृष्ण को) पकड़े रहते हैं वे इस भयानक शोक में एकदम डूब नहीं जाते। कुछ धक्का खाकर सम्हल जाते हैं। 
19.>>>शरीर के साथ तादात्म्य रहते काम विजय असम्भव : 
       जब तक अहं है मन में कभी नहीं सोचना चाहिये कि मैंने काम को जीत लिया है। माँ जगदम्बा के दर्शन के बाद भी जब तक शरीर जीवित रहता है, तब तक कुछ न कुछ काम 
(कामिनी के प्रति लालच का भाव) रहता ही है।  पर अब वह आ जाये तो वह शरीर के स्वभाव से आकर चला जाता है। भगवान से खूब प्रार्थना करना चाहिये, खूब हरिनाम करना चाहिये उसी से काम दूर हो जायेगा। श्रीरामकृष्णदेव जैसे ही कहते थे -" माँ, यह तेरे द्वारा दी हुई वस्तु है, तूँ ही ले ", त्यों ही उनके मन से उन वस्तुओं के प्रति उनकी लालसापूर्ण दृष्टि हट जाती थी। शौच-लघुशंका की प्रवृत्ति के समान ही काम को भी अधिक महत्व नहीं देना चाहिये। धीरे धीरे सब रुक जायेंगे। 
     जिस रमणि-जाति को कोमलता, सन्तान-वात्सल्य आदि मानसिक भावों को प्रकट करने के उद्देश्य से भगवान ने पुरुषों की अपेक्षा एक अंग अधिक प्रदान किया है। उस रमणी-जाति और पुरुष-जाति सभी के प्रति आत्म-दृष्टि रखने में समर्थ नवनीदा के समीप रहते समय सभी का मन इतनी उच्च भूमि में आरूढ़ रहता था कि 'मैं पुरुष हूँ', 'वह रमणी है ' -इस प्रकार का भाव प्रायः मन में उदित ही नहीं होता था।  
आनन्दमयी माँ सारदा देवी की कृपा से आध्यात्मिक-शिक्षकलोकशिक्षक इन्द्रियातीत (अशरीरी) आनन्दस्वरूपता को प्राप्त कर उनमें सदा के लिये विलीन होने के निमित यात्रा कर चुके होते हैं। वे माँ जगदम्बा की आज्ञा को शिरोधार्य कर 'द्वैताद्वैत-विवर्जित' अनिर्वचनीय अवस्था में लीन अपने मन को बलपूर्वक पुनः विद्या के आवरण में आवृत रखते हुए निरन्तर माँ के आदेश का पालन करते हैं। अनंतभावमयी जगत-जननी भी उनपर प्रसन्न होकर शरीरधारी के रूप में एकत्व की इतनी उच्च अवस्था में दादा के मन को सदा के लिए स्थापित कर दिया था कि अनन्त विराट मन के भीतर जितने भावों का उदय हो रहा है, उन सभी भावों को उस स्थिति में अवस्थित रहकर वे सर्वदा अपना समझने लगे। 
तथा नवनीदा पर माँ सारदा देवी का आधिपत्य इस प्रकार स्थापित हुआ था कि उनको देखने से ही ऐसा प्रतीत होता था कि जो माँ सारदा हैं वे ही नवनीदा हैं, जो नवनीदा हैं वे ही माँ सारदा हैं [जो मानवजाति के मार्गदर्शक नेता या लोकशिक्षक होते हैं उनके अन्दर साधारण मानवों के भावों को समझने की शक्ति रहती है, इसलिये छोटे-बड़े सभी कार्यों में उनकी शिक्षा के महत्व का परिचय मिलता है।]  
महामण्डल (रामकृष्ण-विवेकानन्द व्यावहारिक वेदान्त Be and Make-आन्दोलन)  के प्राकट्य से पूर्व अधिकांश हिन्दीभाषी (या गैर बंगाली) लोगों को आध्यात्मिक राज्य की उपलब्धि के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट धारणा नहीं थी। धर्मजगत या 3rd H (Heart) की सूक्ष्म उपलब्धियाँ कभी भी हमारे जैसे साधारण मनुष्यों के लिये बोधगम्य नहीं हो सकती थी यदि पूज्य दादा ने शिविर में मनःसंयोग और चरित्रनिर्माण की प्रशिक्षण पद्धति को सरल भाषा में और पुस्तकाकार में लिखा नहीं होता। यदि पूज्य दादा महामण्डल शिविर के डायनिंग हॉल में लगे 'अमजद को खाना खिलाती माँ सारदा देवी' के चित्र को ऑल इंडिया कैम्प में प्रैक्टिकल यूज करके नहीं दिखा देते; तो मेरे जैसा साधारण व्यक्ति माँ के वेदान्त -' इस जगत में कोई पराया नहीं है, बेटी सबको अपना बनाना सीखो' के मर्म को कभी नहीं समझ सकता था।
 क्योंकि जब तक मन की सारी वृत्तियाँ निरुद्ध होकर मानव निर्विकल्प अवस्था में नहीं पहुँच जाता तथा अद्वैत भाव में अधिष्ठित नहीं होता; या ब्रह्मविद नहीं हो जाता तब तक वह इस जगत को भी ब्रह्ममय देखकर सभी के प्रति प्रेमपूर्ण दृष्टि रखते हुए सेवा करने का योग्यता नहीं प्राप्त कर सकता।  महामण्डल लीडरशिप ट्रेनिंग कैम्प में प्रशिक्षण लेने के बाद  'रसो वै सः' इस ऋषि-वाक्य की उपलब्धि कर प्रशिक्षु युवा धन्य हो जाता है। 
20 .>>>जीवन्मुक्त शिक्षक या नेता के लक्षण  : देवमूर्ति आदि के दर्शन आदि होने लगना धर्मलाभ के परिचायक नहीं, बल्कि त्याग, विश्वास तथा चरित्रबल ही धर्मलाभ के परिचायक हैं। " चिदानन्द रूपः शिवोहं शिवोहं ...न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद: पिता नैव मे नैव माता न जन्म।".....  में एकनिष्ठ बुद्धि, अपने यथार्थ स्वरूप में दृढ़ विश्वास तथा एकमात्र श्रीरामकृष्णदेव में प्रगाढ़ भक्ति की सहायता से जब साधक की समस्त वासनायें क्षीण होकर श्री भगवान (सच्चिदानन्द स्वरूपरामकृष्णदेव) के साथ अद्वैत भाव में अवस्थित होने का समय आ उपस्थित होता है, तब किसी किसी के हृदय में पूर्वसंस्कारवश 'मैं लोक कल्याण करूँगा तथा जिससे सम्पूर्ण संसार के लोग सुखी बने वही करूँगा'---इस प्रकार की शुद्ध वासना का उदय होता है।  उस उच्च भावभूमि को छूकर फिर से 'मैं और मेरा' के राज्य में जब उसका पुनरागमन होता है, तब 'मैं माँ काली के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण देव का दास, सन्तान या अंश हूँ ' यह स्मृति निरंतर बनी रहती है। जिसके कारण अब वह 'मैं ', आजीवन कामिनी-कांचन भोग के निमित्त सदैव लालायित नहीं बना रहता। रूप-रस आदि के जितने अंश उसके उद्देश्य या लक्ष्य के सहायक हैं, उतने का ही वह अपनी इच्छानुसार ग्रहण करता है।जो व्यक्ति पहले बद्ध था (हिप्नोटाइज्ड था ?) तथा बाद में साधना के द्वारा जिन्होंने सिद्धि प्राप्त की है, या अद्वैत भाव में स्वल्पकाल के लिए भी 'तन्मय' होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है -उस प्रकार से तन्मय होने का नाम ही निर्विकल्प समाधि है। जो इस अद्वैतभाव को प्राप्त करके, लोकशिक्षक बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने के निमित्त समाधिभूमि से नीचे उतर आते हैं, उन्हें ईश्वरकोटि और जो अद्वैतभाव को प्राप्त करने के पश्चात् इस जन्म या दूसरे जन्म में लीडरशिप देने के लिये कभी संसार में नहीं आये हैं, उन्हींको जीवकोटि कहा जाता है। अखण्ड सच्चिदानन्दस्वरुप जगत्कारण (माँ काली) के साथ अद्वैतभाव की उपलब्धि में भी तारतम्य विद्यमान रहता है। किसी ने उस भाव-समुद्र का दूर से ही दर्शन किया है, किसी ने कुछ आगे बढ़कर उसका स्पर्श किया है, तथा किसी ने उस समुद्र-जल का थोड़ा सा पान कर लिया है। श्रीरामकृष्ण देव  कहा करते थे " देवर्षि नारद दूर से ही उस सागर को देखकर लौट आये हैं, श्रीशुकदेव जी ने तीन बार उसका स्पर्श मात्र किया है और जगद्गुरु शिव तीन घूँट जल पीने के बाद शव बनकर माँ के चरणकमलों में पड़े हुए हैं !  एवं जो जीवन के अवशिष्ट भाग को किसी भी प्रकार के भगवद्भाव में संलग्न होकर व्यतीत कर रहे हैं।  वे ही जीवन्मुक्त कहलाते हैं।
जगदम्बा अपने भक्त के पाँव को बेताल नहीं होने देती- ठाकुर देव प्रायः पेट के रोग से पीड़ित रहते थे,  शम्भू चन्द्र मल्लिक का एक 'धर्मार्थ औषधालय' भी था। उन्होंने कहा था, मुझसे दवा ले जाना, मैं उससे कहे बिना उसके कर्मचारी से दवा माँगकर ले जा रहा हूँ, इसमें असत्य भाषण और चोरी दोनों दोष विद्यमान हैं, इसलिये माँ मुझे वापस जाने नहीं दे रही हैं ! 'मैं अपना सारा भार माँ पर सौंप चुका हूँ न ? -इसलिये माँ मेरे हाथ पकड़ी हुई है। पाँव को थोड़ा भी बेताल नहीं होने देतीं, इधर-उधर पड़ने नहीं देतीं। ' 
21.>>>प्रबल प्रेम के साथ विवेक-दर्शन का अभ्यास : सत्यानुराग (=ईश्वरानुराग) के प्राबल्य से संसार के किसी भी पदार्थ या व्यक्ति पर मन में कोई लालसा न रहने के कारण ही स्वामी जी के भक्त लिये निर्विकल्प-समाधि-मार्ग में किसी भी तरह की 'ग्रैविटेशनल पुल 'अर्थात सांसारिक आसक्ति बाधक नहीं रह जाती! हमने ठाकुर जी की तरह माँ जगदम्बा की भावमूर्ति को यथार्थ रूप से अपनाया नहीं है, हमने स्वामी जी को हृदय से प्रेम करना नहीं सीखा है। हमारा प्रेम तो अभी केवल इस मांसपिण्ड रूपी शरीर तथा मन पर ही आबद्ध है ! इसलिये मृत्यु या मन के बनावट में आकस्मिक आमूल परिवर्तन  से हम सदा डरते रहते हैं। हमें गुरु-विवेकानन्द के पादपद्मों को ही संसार का सार समझकर प्रेम करना नहीं सीखा है। 
जब ठाकुर ने उस माँ काली की  मूर्ति को भी ज्ञान-खडक से दो टुकड़े कर डाला तब और कौन सा ग्रैविटेशनल पुल था जिसके आश्रय मन संसार में अवस्थित रहता ? एकदम आलम्बनहीन तथा वृत्तिरहित होकर मन निर्विकल्प अवस्था में जा पहुँचता है ! इस निर्विकल्प भूमि में ठाकुर ने छह महीने तक अवस्थान किया था ! साधारण जीव उस अवस्था में पहुँचकर पुनः वहां से वापस नहीं आ सकता। जिस शरीर के द्वारा माँ को अभी बहुत काम करवाना है, इसलिये उस अवस्था के चले जाने के बाद माँ की यह वाणी मुझे सुनायी पड़ी -'अरे, तू भावमुखी रह; लोकशिक्षा के लिये तू भावमुखी रह। ' 
22.>>>शरीर तथा मन का सम्बन्ध : जब तक भगवान श्रीरामकृष्ण से साक्षत्कार, अद्वैत ज्ञान या आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता शरीर मन का गुलाम (चित्त में पड़े छापों का गुलाम) बना रहता है। क्योंकि योगियों का कथन है कि दो प्रकार के भाव  मस्तिष्क में अंकित होकर ही समाप्त नहीं हो जाते, बल्कि भविष्य में पुनः उसे अच्छे या बुरे कर्म में प्रवृत्त कर देने की प्रेरणा शक्ति के रूप परिणत हो जाते हैं। यह सूक्ष्म प्रेरणा शक्ति मेरुदण्ड के निचले छोर पर मूलाधार चक्र में अवस्थित रहती है। जन्म-जन्मांतर से मूलाधार में संचित इस प्रेरणा शक्ति को पूर्व-संस्कार कहते हैं, जो एकमात्र भगवान श्रीरामकृष्ण के साक्षात्कार या निर्विकल्प समाधि होने से नष्ट होते हैं।  अन्यथा जीव दूसरे शरीर में जाते समय भी संस्कारोंकी इस पोटली को 'वायु जैसे गन्ध को ले जाती है' अपने बगल में दबाकर ले जाता है
 (गीता में है-गृहीत्वा  एतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्।'।15.8।। 
(वायुः गन्धान्  इव आशयात्) तथा जब यह जीवात्मा, पहले शरीर से ( निकल कर) दूसरे शरीर को पाता है; तब मन सहित इन छः इन्द्रियों को साथ लेकर जाता है। कैसे लेकर जाता है सो बतलाते हैं -- जैसे वायु गन्ध के स्थानों से यानी पुष्पादि से गन्ध को लेकर जाता है, वैसे ही। इसलिये प्रारंभिक अवस्था में ठाकुर के पास (महामण्डल के निर्जन वास) अधिकाधिक आना-जाना आवश्यक है। छान्दोग्य उपनिषद् में कहा गया है - 
'आहार शुद्धौ सत्वशुद्धि: सत्वशुद्धौ धुवास्मृति: ।
 स्मृति लम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष: ।'
अर्थात् आहार शुद्धि से प्राणों के सत की शुद्धि होती है, सत्व शुद्धि से स्मृति निर्मल और स्थिरमति (जिसे प्रज्ञा कहते हैं) प्राप्त होती है। स्थिर बुद्धि से जन्म-जन्मांतर के बंधनों और ग्रंथियों का नाश होता है और बंधनों और ग्रंथियों से मुक्ति ही मोक्ष है। आहार शुद्ध होने पर अंत:करण शुद्ध होता है, अंत:करण की शुद्धि से निश्चल स्मृति मिलती है, स्मृति की प्राप्ति होने से सम्पूर्ण ग्रंथियाँ खुल जाती हैं।'
आहार केवल मात्र वही नहीं जो मुख से लिया जाए, आहार का अभिप्राय है स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर को पुष्ट और स्वस्थ रखने के लिए इस दुनिया से जो खाद्य लिया जाए।1. कान के लिए आहार है शब्द या ध्वनि।2. त्वचा के लिए आहार है स्पर्श।3. नेत्रों के लिए आहार है दृश्य या रूप जगत।4. नाक के लिए आहार है गंध या सुगंध। 5. जिह्वा के लिए आहार है अन्न और रस।6. मन के लिए आहार है उत्तम विचार और ध्यान। 'चित्तवृत्तियों के निरोध' के मार्ग का मुख्य साधन है- विवेक-दर्शन का अभ्यास और 'निवृत्तिस्तु महाफला' का निरंतर चिंतन या कामिनी-कांचन में आसक्ति अर्थात लालच को कम करते जाना। 'उभयतो वाहिनी चित्तनदी' के स्वरुप का पूर्ण दर्शन प्राप्त करने के पश्चात् नेता को विवेक-आदेश प्राप्त होता है                       
23.>>>साकार बड़ा है या निराकार ? जैसे जल और बरफ निराकार दो प्रकार का है, पक्का तथा कच्चा। पक्का निराकार भाव बहुत ऊँचा है, किन्तु साकार के सहारे ही उस निराकार में पहुँचना पड़ता है। कच्चे निराकार भाव में आँखे बन्द करते ही अन्धकार है - जैसे ब्रह्मसमाज में देखने को मिलता है। साकार मूर्तियों का अवलंबन कर एकाग्रता का अभ्यास करने वाले -'विवेकदर्शन' का अभ्यास करने वाले भक्तों को 'प्रतिमापूजक' या अन्धविश्वासी कहकर उनकी निंदा या द्वेषभाव नहीं रखना चाहिए। जैसे जल और बरफ, भक्ति की शीतलता से अखण्ड सच्चिदानन्द सागर का जल जमकर बरफ की तरह विभिन्न आकारों (शिव या विष्णु ?) में परिणत हो जाता है ! 
श्रीरामकृष्ण की समाधि: 
गाते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो गये, हाथों की अंजलि बँध गयी-देह उन्नत और स्थिर -नेत्र स्पन्दनहीन हो गए। सभी लोग गर्दन ऊँची करके यह अदभुत अवस्था देखने लगे। पण्डित विद्यासागर भी चुपचाप एकटक देख रहे हैं। .... श्रीरामकृष्ण सामान्य अवस्था में लौट आये। लम्बी साँस छोड़कर फिर हँसते हुए बातें कर रहे हैं -"ईश्वर (माँ जगदम्बा) की अनुभूति करने का उपाय है "ecstasy of love and devotion" प्रेम का भावातिरेक और भक्ति (भाव-भक्ति) अर्थात उनको प्यार करना।  “भाव भक्ति, एर माने --तांके भालबासा। जिनिई ब्रह्म ताँकेई 'माँ' बले डाकछे।" जो ब्रह्म हैं उन्हीं को माँ कहकर पुकारते हैं। 
"प्रसाद कहता है कि मैं मातृभाव से जिसकी खोज कर रहा हूँ उसके तत्व का भण्डा क्या मुझे चौराहे पर फोड़ना होगा ? मन, इशारे से समझ लो।  
" रामप्रसाद मन को इशारे ही से समझने के लिये उपदेश करते हैं। यह समझने को कहते हैं कि वेदों ने जिन्हें ब्रह्म कहा है, उन्हीं को मैं माँ कहकर पुकारता हूँ। जो निर्गुण हैं वे ही सगुण हैं; जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं। जब यह बोध होता है कि वे निष्क्रिय हैं तब उन्हें ब्रह्म कहता हूँ और जब यह सोचता हूँ कि वे सृष्टि , स्थिति और प्रलय करते हैं, तब उन्हें आद्याशक्ति काली कहता हूँ। " ब्रह्म और शक्ति अभेद है, जैसे कि अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति। अग्नि कहते ही दाहिकाशक्ति का ज्ञान होता है और दाहिकाशक्ति कहने से अग्नि का ज्ञान। एक को मानिए तो दूसरा भी साथ मान लिया जाता है। " उन्हीं को भक्तजन (वीर या हीरो लोग) माँ कहकर पुकारते हैं। माँ बड़े प्यार की वस्तु हैं न !! ईश्वर को प्यार करने से वे प्राप्त होते हैं। भाव-भक्ति, प्रीति और विश्वास चाहिये। ईश्वर अगम्य (inaccessible) और अपार (spaceless) हैं !  इन्द्रियों के पहुँच से बाहर हैं, मन-वाणी के परे हैं और अपार,असीम,
अनवधि (बिना समय की पाबंदी का, 'spaceless' बिना अन्तर का, बेहद) हैं ! 

के जाने काली केमन ? षड्दर्शने ना पाय दरशन।।  
मूलाधारे सहस्रारे सदा योगी करे मनन। 
काली पद्मबने हंस-सने, हंसिरुपे करे रमन।।  
आत्मारामेर आत्मा काली प्रमाण प्रणवेर मतन। 
तिनि घटे घटे बिराज करेन, इच्छामयी इच्छा जेमन।। 
मायेर उदरे ब्रह्माण्ड भाण्ड, प्रकाण्ड ता जानो केमन। 

महाकाल जेनेछेन कालीर मर्म, अन्य केबा जाने तेमन।।   
प्रसाद भाषे लोके हासे, संतरणे सिन्धु-तरण। 
आमार मन बुझेछे प्राण बुझे ना धरबे शशि होय बामन।।  

(মায়ের উদরে ব্রহ্মাণ্ড ভাণ্ড, প্রকাণ্ড তা জানো কেমন ।
মহাকাল জেনেছেন কালীর মর্ম, অন্য কেবা জানে তেমন ৷৷
প্রসাদ ভাষে লোকে হাসে, সন্তরণে সিন্ধু-তরণ ।
আমার মন বুঝেছে প্রাণ বুঝে না ধরবে শশী হয়ে বামন ৷৷)  

" कौन जानता है कि काली कैसी है ? षड्दर्शनों ने उसका दर्शन नहीं पाया। मूलाधार और सहस्रार में योगी लोग (धारणासिद्ध योगी लोग) सदा उसका ध्यान करते हैं। वह पद्मवन में हंस के साथ हंसी जैसे रमण करती है। वह आत्माराम की आत्मा है, प्रणव का प्रमाण है। वह सर्वव्यापी विराट इच्छामयी अपनी इच्छा के अनुसार घट घट में विराजमान है। माँ जगदम्बा के जिस उदर में यह ब्रह्माण्ड समाया हुआ है, समझो कि वह कितना बड़ा हो सकता है !! काली (श्रीचण्डी) का माहात्म्य महाकाल ही जानते हैं। वैसा और कोई नहीं समझ सकता। उसको जानने का लोगों को प्रयास देखकर 'प्रसाद' हँसता है। अपार सागर क्या कोई तैर कर पार कर सकता है ? यह मेरा मन समझ रहा है, परन्तु फिर भी 'जी' नहीं मानता, वामन होकर चन्द्रमा की ओर हाथ बढ़ाता है। ' 
[Who is there that can understand what Mother Kali is? Even the six darsanas are powerless to reveal Her. It is She, the scriptures say, that is the Inner Self Of the yogi, who in Self discovers all his joy; She that, of Her own sweet will, inhabits every living thing. The macrocosm (विश्व-ब्रह्माण्ड) and microcosm (सूक्ष्म जगत) rest in the Mother's womb; Now do you see how vast it is? In the Muladhara The yogi meditates on Her, and in the SahasraraWho but Siva has beheld Her as She really is? Within the lotus wilderness She sports beside Her Mate, the Swan. (Siva the Absolute) When man aspires to understand Her, Ramprasad must smile; To think of knowing Her, he says, is quite as laughable As to imagine one can swim across the boundless sea. But while my mind has understood, alas! my heart has not; Though but a dwarf, it still would strive to make a captive of the moon.] 
" क्या तुमने रामप्रसादि गाने के इस लाइन पर ध्यान दिया ?  "Did you notice?  कहते हैं - ' माँ काली के जिस उदर में ब्रह्माण्ड (The macrocosm and microcosm) समाया हुआ है, समझो कि वह कितना बड़ा है ' और यह भी कहते हैं कि षड्दर्शनों ने उसका दर्शन नहीं पाया। पाण्डित्य द्वारा उसे प्राप्त करना असम्भव है। 
[फिर कहते हैं-" उसको जानने का लोगों को प्रयास देखकर 'प्रसाद' हँसता है। अपार सागर क्या कोई तैर कर पार कर सकता है ? यह मेरा मन समझ रहा है, परन्तु फिर भी 'जी' नहीं मानता, वामन होकर चन्द्रमा की ओर हाथ बढ़ाता है। ... (धारणा-सिद्ध ?) योगी लोग मूलाधार और सहस्रार में सदा उसका ध्यान करते हैं। इसका क्या तात्पर्य है ?  यहाँ 'मन' (Mind) और 'जी' (Heart- से युक्त अहं?) में क्या अंतर है ? इसे समझने के लिए मानव मन और मस्तिष्क में क्या अंतर है-इसे समझना होगा। क्या मन (mind) और मस्तिष्क (brain) एक है ? यह प्रश्न कभी ना कभी आपके दिमाग में अवश्य आया होगा । संपूर्ण ब्रह्मांड में जो भी है वह द्रव्य एवं ऊर्जा (आकाश और प्राण का Matter and Energy) का संगम है। मस्त दृश्य एवं अदृश्य इन्ही दोनो के संयोग से घटित होता है। हम और हमारा मस्तिष्क इसके अपवाद नहीं हैं। जिनका खून ठंडा होता है, जिनके खून में उबाल नहीं होता, क्रियाशीलता नहीं होती, वह लोग अक्सर आलसी और डरपोक किस्म के पाए जाते है, उनके मन में प्रश्न भी नहीं जागते । सत्य को हर कीमत पर जान लेने का साहस भी पैदा नहीं होता। उसी तरह जिन लोगो के न्यूरोंस भी ठंडे होते है, क्रियाशीलता नहीं होती है, वह भी मंदबुद्धि पायें जाते है । अतः किसी का शक्तिशाली और बुद्धिमान होना उसके अपने हाथ में है । चाहे तो अपने खून और न्यूरोंस को क्रियाशील बनाकर वीर। साहसी और बुद्धिमान बने या फिर ठंडे ही पड़े रहने देकर डरपोक, मुर्ख, चम्पू और आलसी ही बने रहे । आपकी मर्ज़ी !छोटे बच्चों में मस्तिष्क के अधिकांश न्यूरोंस क्रियाशील रहते है अतः वह बहुत शीघ्रता से दैनिक जीवन के अनुभवों को ग्रहण करते है । आप देख सकते है ! एक बच्चे को जितना हम १० साल में सीखा सकते है उतना एक प्रोढ़ व्यक्ति हो अगले १०० साल में भी नहीं सीखा सकते है । इसलिए बेकार की बातों में ध्यान देने की बजाय अपने बच्चों पर ध्यान दीजिये । जितना हो सके उसको समय दीजिये, नयी – नयी चीज़े सिखाइए । ताकि जब वह बड़ा होकर समाज में जाये तो कोई उसे मुर्ख ना कह सके ।
 किन्तु क्या आप जानते है कि मन और मस्तिष्क में क्या अंतर है ? मस्तिष्क के अलग – अलग भाग होते है जो मनुष्य के विभिन्न अन्तः स्त्रावी ग्रंथियों को नियंत्रित करते है । शरीर के विभिन्न भागों में सूचनाओं का आदान – प्रदान करते है । किन्तु मस्तिष्क तभी तक क्रियाशील रहता है जब तक शरीर में चेतना है । जैसे शरीर  से चेतना निकली ! राम नाम सत्य है !! यह चेतना ही है जो मन और मस्तिष्क को जोडती है।
मानव मस्तिष्क के मुख्य भाग को अग्रिम मस्तिष्क (cerebrum/भेजा) या प्रमस्तिष्क कहा जाता है । यह मानव मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग होता है । यह मस्तिष्क का  सबसे ऊपरी हिस्सा होता है, जो खोपड़ी के ठीक नीचे पाया जाता है । मन (mind) का सम्बन्ध आत्मा (soul) से है जबकि मस्तिष्क (brain), शरीर (body) का एक अंग है । मन (mind) में विचार (thoughts), चेतना (consciousness), ज्ञान (intellect), इच्छाएं (desires), अनुभव (experience), अनुभूतियाँ (cognition) और भावनाएं (feelings) होती है।  जबकि मस्तिष्क (brain), शरीर के विभिन्न अंगो को तंत्रिका तंत्र (nervous system) द्वारा सूचनाएं पहुँचाने वाला यंत्र (device) है ।  इसमें करोड़ों – अरबों  न्यूरोंस (neurons) होते है । न्यूरोंस की संख्या ही मनुष्य के बुद्धिमान और बुद्धिहीन होने का निर्धारण करती है । जिस तरह शरीर की ताकत का अनुमान खून क्रियाशीलता से लगाया जाता है ठीक उसी तरह मस्तिष्क की बुद्धिमत्ता का अनुमान इन न्यूरोंस की क्रियाशीलता से लगाया जाता है। प्रमस्तिष्क, भेजा या 'cerebral cortex' के स्थान पर ही सूक्ष्म शरीर में सहस्रार-चक्र पाया जाता है, जो ब्रह्माण्डीय शक्तियों (cosmic energy) का प्रवेश द्वार है । सहस्रार चक्र सीधा मेरुदण्ड में स्थित इड़ा-पिंगला- सुषुम्ना नाड़ियों से जुड़ा रहता है, जिसमें प्राण उर्जा (chi energy) का आवागमन होता है । कुछ योगी लोग ध्यानयोग (meditation), चक्र जागरण और Tai chi आदि क्रियाओं के माध्यम से प्राण उर्जा (chi energy) को प्रमस्तिष्क में पहुँचा देते है, जो वहाँ के सोये हुए न्यूरोंस को क्रियाशील बना देती है । जिससे उन्हें दैवीय बुद्धिमता या ऋतंभरा प्रज्ञा ( divine wisdom) प्राप्त होती है ।
सुषुम्नावर्त्म: श्रीभगवान तक पहुँचने का मार्ग मानवमात्र के शरीर में विद्यमान है: योगियों का कथन है कि मस्तिष्क के मध्य में स्थित "ब्रह्म रन्ध्र” (सहस्रार) के आकाश में अखण्ड सच्चिदानन्द परमात्मा या भगवान श्रीरामकृष्ण देव साक्षात् अपने ज्ञानस्वरूप में अवस्थित रहते हैं। उनके प्रति इस कुण्डलिनी शक्ति या पूर्व-संस्कारों (instinct) का विशेष अनुराग होता है, अथवा यह समझें कि ईश्वर (श्रीरामकृष्ण देव या माँ जगदम्बा) उसे निरन्तर अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। किन्तु जागृत न रहने के कारण कुण्डलिनी-शक्ति को उस आकर्षण का अनुभव नहीं हो रहा है। जागृत होते ही उसको वह आकर्षण अनुभव होने लगेगा तथा वह उनके समीप पहुँच जाएगी। कुण्डलिनी शक्ति के श्रीभगवान रामकृष्ण के समीप पहुँचने का मार्ग हममें से प्रत्येक के शरीर में विद्यमान है। सहस्रार से लगाकर मेरुदण्ड के बीच से होकर वह मार्ग सीधे मेरुदण्ड के निम्न भाग में अवस्थित 'मूलाधार' नामक मेरु चक्र तक विद्यमान है। उस मार्ग को ही योगशास्त्र में 'सुषुम्ना वर्त्म'  [वर्त्म =मार्ग, रास्ता,लीककहा गया है। 
 पाश्चत्य शरीरविज्ञान (physiology) में इसी मार्ग को The Human Central Canal of the Spinal Cord: (canalis centralis) कहा गया है। किन्तु उसके क्रियात्मक रूप या मनुष्यों के लिये उसकी आवश्यकता को पाश्चत्य वैज्ञानिक अभी तक खोज नहीं सके हैं। (canalis centralis runs throughout the entire length of the medulla spinalis. It is the cerebrospinal fluid-filled space that runs longitudinally through the length of the entire spinal cord. The central canal is continuous with the ventricular system of the brain.) उसी मार्ग से कुण्डलिनी पहले परमात्मा [माँ जगदम्बा] से वियुक्त होकर मस्तिष्क (सहस्रार) से नीचे आकर मूलाधार चक्र में आकर निद्रित हुई है। पुनः उसी मार्ग से वह मेरुदण्ड के बीच में क्रमशः ऊपर की ओर अवस्थित छः मेरु-चक्रों का अतिक्रम कर अन्त में मस्तिष्क (सहस्रार) में आकर उपस्थित होती है। योग शास्त्र में इन छः मेरुचक्रों के नाम तथा विशेष-विशेष आवास-स्थलों का उत्तरोत्तर निर्देश इस प्रकार है -१. मेरुदण्ड के अन्तिम भाग में 'मूलाधार' २. उससे ऊपर लिंग-मूल में 'स्वाधिष्ठान' ३. उससे ऊपर नाभि-स्थल में 'मणिपुर' ४. उससे ऊपर हृदय में 'अनाहत' (तारा-निकेतन ?) ५. उससे ऊपर कण्ठ में 'विशुद्ध' ६. उससे ऊपर भौहों में मध्यमभाग में 'आज्ञाचक्र' विद्यमान है। किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि ये छहो चक्र मेरुदण्ड के भीतर स्थित सुषुम्ना मार्ग (canalis centralis) में ही विद्यमान हैं। अतः 'हृदय', 'कण्ठ', नाभि आदि शब्दों से उनके विपरीत दिशा में अवस्थित मेरुदण्ड के भीतर के स्थलों को ही समझना चाहिये। कुण्डलिनी जागृत होकर क्रमशः ज्यों ही मस्तिष्क में पहुँचती है, त्यों ही जीव को धर्म-जीवन की चरम उपलब्धि या अद्वैत तत्व 'कारणं कारणानाम् ' (माँ जगदम्बा) के साथ तन्मयता की अनुभूति होती है। उस समय जीव को भाव की भी चरम उपलब्धि होती है, या जिस महाभाव का अवलम्बन कर मानव मन में अन्यान्य भावों का सर्वदा उदय हो रहा है, उस भावातीत भाव (सर्वव्यापी विराट अहं बोध) के साथ वह एक हो जाता है।  
.... शरीर मन और आत्मा (3H)  तीनों का अंतर समझ में आ जाए तो सफलता की यात्रा में परिश्रम कम लगेगा और शांति अधिक मिलेगी। हम कोई काम करते हैं, तो सबसे ज्यादा उसमें शरीर को झोंकते हैं। सब कुछ इतना शरीर केंद्रित हो जाता है कि परिणाम आते-आते स्थितियां बदल जाती हैं। कई लोग तो अपनी सफलता का सुख भोग भी नहीं पाते। तन अस्वस्थ हो जाता है या फिर मन उदास। सबकुछ मिलने के बाद भी कुछ खोया-खोया सा लगता है।
वास्तव में मन और मस्तिष्क उसी तरह होते है जिस तरह सूक्ष्म शरीर (psychic body) और स्थूल शरीर (physical body) होते है । अतः हम कह सकते है कि मन सूक्ष्म शरीर का भाग है और मस्तिष्क स्थूल शरीर का भाग है ।
मन, शरीर के साथ आत्मा के अभिव्यक्ति (expression) का माध्यम है जबकि मस्तिष्क, भौतिक जगत के साथ आत्मा के कर्म करने का साधन है । सामान्यतया मानव अपने मस्तिष्क का ५ – १० प्रतिशत उपयोग करता है किन्तु जैसे – जैसे वह अपने मस्तिष्कीय न्यूरोंस को क्रियाशील बनाता जाता है, उसकी बुद्धिमता निरंतर बढती रहती है । जो कोई भी जागृत प्राण उर्जा का प्रयोग करना सीख जाता है उसके लिए मानसिक शक्तियों के द्वार खुल जाते है । यह कोई आशीर्वाद और भीख नहीं है अपनी ही मेहनत से कमाई हुई ब्रह्माण्डीय पूंजी (cosmic capital) है । सब कुछ विज्ञान है ( everything is science)।]  " विश्वास और भक्ति चाहिये। विश्वास (=ऑटोसजेशन ) कितना बलवान है, सुनो। 'Let me tell you how powerful faith is. A man was about to cross the sea from Ceylon to India.' 
किसी मनुष्य को समुद्र पार करके सिलोन से भारत आना था। विभीषण ने उससे कहा -" इस वस्तु को अपने धोती के छोर में बाँध लो, तो तुम बिना किसी बाधा के समुद्र पार हो जाओगे, जल के ऊपर से चल कर जा सकोगे; परन्तु खोलकर न देखना, खोलकर देखोगे तो डूब जाओगे। वह मनुष्य आनन्दपूर्वक समुद्र के ऊपर से चला जा रहा था, विश्वास की ऐसी शक्ति है। कुछ रास्ता पार करने के बाद वह सोचने लगा कि विभीषण ने ऐसा क्या बाँध दिया, जिसके बल से मैं पानी के ऊपर चला जा रहा हूँ ! यह सोचकर उसने गाँठ खोली और देखा तो एक पत्ते पर केवल 'रामनाम' लिखा था ! तब वह मन ही मन कहने लगा -अरे बस यही है ! ज्योंही यह सोचा कि डूब गया। " यह कहावत प्रसिद्द है कि रामनाम पर हनुमान का इतना विश्वास था कि विश्वास ही के बल से वे समुद्र लाँघ गये, परन्तु स्वयं राम को सेतु बाँधना पड़ा था। " यदि उनपर विश्वास हो तो चाहे पाप करे और चाहे महापातक ही करे, किन्तु किसी से भय नहीं होता। यह कहकर श्रीरामकृष्ण भक्त के भावों से मस्त होकर माँ जगदम्बा पर विश्वास का माहात्म्य गा रहे हैं - 

" आमि दुर्गा दुर्गा बोले माँ यदि मोरी। 
आखेरे ए-दीने, ना तारो केमोने, जाना जाबे गो शंकरी। "

 "दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं, जब मेरे निकलेंगे प्राण। देखूँगा मैं तुम्हें शंकरी कैसे नहीं तारती, होकर तुम करुणा की खान। .... गाते अहं (को मिटाने=दास मैं बनाने) का उपाय -माँ जगदम्बा में विश्वास और माँ की भक्ति का बल : (कच्चा 'मैं' या 'अहं' भी दैवी माया अर्थात माँ जगदम्बा का अंश है, स्वयं माँ काली है।) 
श्रीरामकृष्ण- उन्हें क्या कोई विचार द्वारा जान सकता है ? दास होकर -शरणागत होकर उन्हें पुकारो। उन्हें (ईश्वर को या इस सर्वव्यापी विराट 'अहं' को?) पाण्डित्य द्वारा विचार करके कोई जान नहीं सकता। विश्वास और भक्ति चाहिये।" उपाय -पहले विश्वास उसके बाद भक्ति : एक निर्गुनिया भजन और सुनो -
 
भावीले भावेर उदय होय। 

(ओ से-या मति सागतिर्भवेत ) जेमन भाव, तेमनी लाभ, 
मूल से प्रत्यय।  

कालीपद-सुधाहृदे, चित्त यदि रय (यदि चित्त डूबे रय।)
 
 तबे पूजा, होम, यागयज्ञ, किछुई किछू नय।

-" चिन्तन करने से भाव का उदय होता है। (जीवन की कुछ अदभुत घटनाओं पर चिन्तन करने से माँ के प्रति अटूट विश्वास का उदय होता है, फिर अपनी माँ जैसा प्रेम-भक्ति उत्पन्न होती है।) जैसा भाव होगा, लाभ भी वैसा होगा, मूल है प्रत्यय (=आत्मविश्वास, या माँ जगदम्बा में विश्वास ? And faith is the root of all.)। माँ काली के चरण-सुधासागर में यदि चित्त डूब जाय तो पूजा-होम, याग-यज्ञ -कुछ भी आवश्यक नहीं।"
" चित्त तदगत होउआ, तांके खूब भालोबासा।" -विवेकदर्शन का अभ्यास करते करते चित्त को उन्हीं में तल्लीन कर देना चाहिये, उनसे बहुत प्यार करना चाहिये। वे 'प्रेमस्वरूप' हैं अर्थात 
सुधासागर हैं; अमृतसिन्धू हैं; इसमें डूबने से मनुष्य मरता नहीं, अमर हो जाता है। (हर जन्म में जो हमारी माता हैं, उन्हीं माँ भवतारिणी के चरण-सुधासागर के प्रेम में डूब जाने वाला, मरता नहीं है, भवसागर से पार हो जाता है।)।
किसी किसी का यह विचार है कि ईश्वर को ज्यादा पुकारने से मस्तिष्क बिगड़ जाता है, पर बात ऐसी नहीं। यह तो सुधासमुद्र है, अमृतसिन्धु है। वेदों में इसे अमृत कहा है। इसमें डूब जाने से कोई मरता नहीं, अमर हो जाता है। ( केउ केउ मने करे, बेशी ईश्वर ईश्वर करले माथा खाराप हये जाय। ता नय। ए-जे सूधार हृद ! अमृतेर सागर। वेदे ताँके 'अमृत' बलेछे, एते डूबे गेले मरे ना -अमर हय।)           
[मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि। किंवदंतीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्।। जिसे मुक्त होने का अभिमान या गौरव है, वह सदैव मुक्त ही है और जो 'मैं बद्ध हूँ' ऐसी भावना रखता है, जिसे बद्ध या बंधनग्रस्त होने का अभिमान या गौरव है, वह निश्चय ही बंधन में बंधता है। संसार में भी यह किंवदंती सत्य प्रचलित है कि जिसकी जैसी मति (बुद्धि) होती है, उसकी वैसी ही गति होती है।
24 . >>>ईश्वरलाभ के लक्षण -सप्तभूमि तथा ब्रह्मज्ञान  (श्रीरामकृष्णवचनामृत : २८ अक्टूबर,१८८२) 
" वेदों में ब्रह्मज्ञानी की अनेक प्रकार की अवस्थाओं का वर्णन है। ज्ञानमार्ग बड़ा कठिन मार्ग है। विषय-वासना, कामिनी-कांचन के प्रति आसक्ति का लेशमात्र रहते ज्ञान नहीं होता। यह पथ कलिकाल में साधना करने योग्य नहीं। " इस विषय में वेदों में सप्त भूमि (Seven Planes) का उल्लेख है। मन इन सात सोपानों पर विचरण किया करता है। जब वह संसार में रहता है तब लिंग,गुदा और नाभि उसके निवासस्थल हैं। तब वह उन्नत दशा पर नहीं रहता -केवल कामिनी-कांचन में लगा रहता है। मन की चौथी भूमि है हृदय। तब चैतन्य का उदय होता है; और मनुष्य को चारों ओर ज्योति दिखलायी पड़ती है। तब वह मनुष्य ईश्वरी ज्योति देखकर सविस्मय कह उठता है , " यह क्या है, यह क्या है ?" तब फिर नीचे (संसार की ओर-पशुमानव बने रहने से विरक्ति होने लगती है -आर यू अ बीस्ट ?) मन नहीं मुड़ता। 
"मन की पंचम-भूमि है कण्ठ जिसका मन कण्ठ तक पहुँचा है उसकी सारी अविद्या, सम्पूर्ण अज्ञान दूर हो गया है (भ्रममुक्त हो गया है या डीहिप्नोटाइज्ड हो चुका है !) ईश्वरी प्रसंग के सिवा और कोई बात न तो सुनने को और न कहने को उसका जी चाहता है। यदि कोई व्यक्ति दूसरी चर्चा (संसारी-राजनीति) तो वह वहाँ से उठ जाता है। 
मन की छठीभूमि कपाल (forehead) है मन वहाँ जाने से दिनरात ईश्वरी रूप के दर्शन होते हैं (माँ जगदम्बा के अवतार का साकार रूप ?) उस समय भी कुछ 'मैं' रहता है। वह मनुष्य उस अनुपम रूप को देखकर मतवाले की तरह उसे छूने तथा गले लगाने को बढ़ता है, परन्तु पाता नहीं। जैसे लालटेन के भीतर बत्ती को जलते देखकर, मन में आता है कि छूना चाहें तो हम इसे छू सकते हैं, परन्तु काँच के आवरण के कारण हम उसे छू नहीं पाते। सहस्रार (the top of the head) सप्तम भूमि है। वहाँ मन जाने से समाधि होती है और ब्रह्मज्ञानी (अहं नहीं आत्मा ही ) ब्रह्म का प्रत्यक्ष दर्शन करता है। परन्तु उस अवस्था में शरीर अधिक दिन नहीं रहता है। सदा बेहोश (तल्लीन?), कुछ खाया नहीं जाता, मुँह में दूध डालने से गिर जाता है। इस भूमि में रहने से इक्कीस दिन के भीतर मृत्यु होती है। यही ब्रहमज्ञानियों की अवस्था है। 
         [ सहस्रार =हजार, अनंत, असंख्य; इसे "हजार पंखुडिय़ों वाले कमल”, "ब्रह्म रन्ध्र” (ईश्वर का द्वार) या "लक्ष किरणों का केन्द्र” भी कहा जाता है, क्योंकि यह सूर्य की भांति प्रकाश का विकिरण करता है।सहस्रार चक्र का कोई विशेष रंग या गुण नहीं है। यह विशुद्ध प्रकाश है, जिसमें सभी रंग हैं। अन्य कोई प्रकाश सूर्य की चमक के निकट नहीं पहुंच सकता।  सभी नाडिय़ों की ऊर्जा इस केन्द्र में एक हो जाती है, जैसे हजारों नदियों का पानी सागर में गिरता है। यह चक्र योग के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता है- आत्म अनुभूति और ईश्वर की अनुभूति, जहां व्यक्ति की आत्मा ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ जाती है। सहस्रार चक्र के जाग्रत होने का अर्थ दैवी चमत्कार और सर्वोच्च चेतना का दर्शन है। सहस्रार चक्र में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति - मेधा शक्ति है। मेधा शक्ति एक हार्मोन है, जो मस्तिष्क की प्रक्रियाओं जैसे स्मरण शक्ति, एकाग्रता और बुद्धि को प्रभावित करता है।          
यह ऐसा स्थान नहीं है, जहां आप भौतिक शरीर में बने रह कर धरती पर मौजूद रह सकते हैं। वह आनंदपूर्ण और शानदार अवस्था है, मगर वह शरीर में बने रहने लायक स्थान नहीं है, वह ‘जाने वाला’ स्थान है। आप बीच-बीच में उसे छूकर वापस आ सकते हैं। जब कोई व्यक्ति वहां लंबे समय तक रहता है, तो उसका शरीर साथ छोड़ देता है। क्या परमानंद में तैरना अच्छी बात नहीं है? यह बहुत बढ़िया है मगर उस स्थिति में आप न तो काम कर सकते हैं और न ही कुछ प्रकट कर सकते है। यह स्थिति नशे जैसी होती है।         
       उस समय हम संसार को पूरी तरह भूल जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं। सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है।  क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है? वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं।  यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है। अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें। यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है। वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है।  इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है। इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं। परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है। 
 इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखे व धीरे-धीरे समाधी का अभ्यास करता रहे और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, करता रहे और ईश्वर पर (माँ जगदम्बा पर) पूर्ण भरोसा रखे।  साथ ही इस समय उसे  तत्त्वज्ञान की भी आवश्यकता होती है (अपने गुरु या आचार्य से मार्गदर्शन की भी आवश्यकता होती है , कि यह आत्मसाक्षात्कार उसे नहीं आत्मा को ही परमात्मा का बोध हुआ था !!) जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ।  इसके लिए इस अवस्था में योगवाशिष्ठ (महारामायण) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें। उसमे बताई गई युक्तियों "जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, मिट्टी ही मिट्टी की सेना है; जिस प्रकार सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर ही यह जगत है। " का बारम्बार चिंतन करता रहे तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है।  सारा संसार ईश्वर का रूप प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है। चित्तनदी के उर्ध्वमुखी प्रवाह का अमृतसिन्धु (सहस्रार-चक्र) में डूब जाने या तल्लीनता का तात्पर्य क्या है ? जिसे यह उपलब्धि मिल जाती है, वह सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है - पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र से पूरी तरह स्वतंत्र। ध्यान में योगी निर्विकल्प समाधि (समाधि का उच्चतम स्तर) सहस्रार चक्र पर पहुंचता है, यहां मन पूरी तरह निश्चल हो जाता है और ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय एक में ही समाविष्ट होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं। ] "तुम लोगों के लिये भक्तिपथ है। भक्तिपथ बड़ा अच्छा और सहज है। "  (श्रीरामकृष्णवचनामृत/१४ सितम्बर १८८४/ : )
" ज्ञान कहता है, यह संसार धोखे की टट्टी है; और जो ज्ञान और अज्ञान के पार चले गए हैं, वे कहते हैं , यह आनन्द की कुटिया है ! वह देखता है ईश्वर (माँ जगदम्बा -सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध) ही जिव-जगत और चौबीस तत्व हुए हैं।
" जो नित्य में पहुँचकर लीला में रहता है, उसका ज्ञान पक्का है, उसकी भक्ति भी पक्की है। 
" नारदादि ने ब्रह्मज्ञान के पश्चात् भक्ति ली थी, इसी का नाम विज्ञान है। 

[पेज-६०३ :श्रीरामकृष्णवचनामृत"२२ फरवरी, १८८५: सुरेन्द्र के प्रति उपदेश। ]
25. >>>संन्यासी हो कि गृहस्थ लोटा तो रोज रगड़ना चाहिये : (Sannyasi's discipline — Householder's discipline)  : " बीच बीच में आते रहना। नागा कहा करता था, लोटा रोज रगड़ना चाहिये, नहीं तो मैला पड़ जायेगा। साधुसंग सदैव ही आवश्यक है।
" कामिनी-कांचन का का त्याग संन्यासी के लिए है, तुम लोगों के लिए वह नहीं। तुम लोग बीच-बीच में निर्जन जाना (कम से कम साप्ताहिक पाठचक्र और एन्युअल कैम्प जाना) और उन्हें (माँ जगदम्बा को) व्याकुल होकर पुकारना। तुम लोग मन में त्याग करना। (कामिनी -कांचन के प्रति आसक्ति या लालच को कम करते जाना, अर्थात सर्वदा यह याद रखना कि- ' निवृत्तिस्तु महाफला !') 
" माँ जगदम्बा का भक्त या वीर (हीरो) हुए बिना कोई व्यक्ति ' भगवान तथा संसार' दोनों ओर ध्यान नहीं रख सकता। जनक राजा साधन-भजन के बाद सिद्ध होकर संसार में रहे थे। वे एक साथ दो तलवारें घुमाते थे -ज्ञान और कर्म। 
यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं - 
एई संसार मजार कुटि। 
आमि खाई दाई आर मजा लूटी।।
जनक राजा महातेजा तार किसे छिल त्रुटि। 
से जे येदिक -उदिक दूदिक् रेखे खेयाछील दूधेर बाटि।। 

এই সংসার মজার কুটি।
   আমি খাই দাই আর মজা লুটি।।
জনক রাজা মহাতেজা তার কিসে ছিল ত্রুটি।
সে যে এদিক-ওদিক দুদিক রেখে খেয়াছিল দুধের বাটি।।

-" यह संसार आनन्द की कुटिया है। यहाँ मैं खाता, पीता और मजा लूटता हूँ। राजा जनक महातेजस्वी थे। उन्हें किस बात की कमी थी ! उन्होंने दोनों बातों को  (क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज को) सम्भालते हुए दूध पिया था। " 
" तुम्हारे लिये चैतन्यदेव ने जो कहा था (व्यावहारिक वेदान्त- त्याग और सेवा )  - " जीवे दया, भक्तसेवा आर नामसंकीर्तन" जीवों पर दया, भक्तों की सेवा, अर्थात शिव ज्ञान से जीव-सेवा और नाम-संकीर्तन
" तुम्हें क्यों कह रहा हूँ ? तुम हॉउस में काम कर रहे हो (ब्रिटिश सौदागरों की नौकरी करते हो)| अनेक प्रकार के काम करने पड़ते हैं, इसलिये कह रहा हूँ। 
" तुम ऑफिस में झूठ बोलते हो, फिर भी तुम्हारी चीजें क्यों खाता हूँ ? तुम दान-ध्यान जो करते हो। 
बारह हाथ ककड़ी का तेरह  हाथ बीज ! [मुहावरा का अर्थ - "अनहोनी बात, दूर की हाँकना। "]
" कंजूस की चीज मैं नहीं खाता हूँ। उनका धन निम्न तरीकों से नष्ट हो जाता है -मामला -मुकदमा से।  चोरों-डकैतों से, डाक्टरों में, फिर बदचलन लड़के सब धन उड़ा देते हैं, आदि आदि। .... जबकि दानी-दाता के धन की रक्षा होती है, सत्कर्म में जाता है।

 कमारपुकुर में किसान लोग नाला काटकर खेत में जल लाते हैं। कभी कभी जल का इतना वेग होता है कि खेत का बाँध टूट जाता है और जल निकल जाता है। अनाज बर्बाद हो जाता है; इसलिए किसान लोग बीच बीच में सुराख़ बनाकर रखते हैं; इसे 'घोघी' कहते हैं। जल थोड़ा थोड़ा करके घोघी से होकर निकल जाता है , तब जल के वेग से बाँध नहीं टूटता और खेत पर मिट्टी की परतें जम जाती हैं। उससे खेत उर्वर बन जाता है और बहुत अनाज पैदा होता है। जो दान-ध्यान करता है वह बहुत फल प्राप्त करता है -चतुर्वर्ग फल (धर्म-अर्थ -काम और मोक्ष!) 
सुरेन्द्र - मैं ठीक से मनःसंयोग आदि ५ अभ्यास नहीं कर पाता। बीचबीच में 'माँ माँ ' कहता हूँ। और सोते समय 'माँ माँ ' कहते कहते सो जाता हूँ। 
श्रीरामकृष्ण -ऐसा होने से ही काफी है। स्मरण-मनन तो है न ? 
मनोयोग और कर्मयोग। ['मामनुस्मर युद्धश्च '  (गीता-८.७)] योगी लोग जो एकाग्रता का अभ्यास, स्मरण-मनन करते हैं उसका नाम है मनोयोग (मनःसंयोग) और जनक आदि जो कर्म करते हैं उसका नाम है कर्मयोग। फिर पूजा, तीर्थ, शिवज्ञान से जीवसेवा आदि तथा गुरु के उपदेश के अनुसार कर्म करने (महामण्डल आंदोलन से जुड़े रहने) का नाम है कर्मयोग। 
" फिर कालीमन्दिर में जाकर सोचता हूँ, 'माँ , मन (अहं ?) भी तो तुम हो !' इसलिये शुद्ध मन (दास अहं), शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा एक ही चीज है। 
'या मति सा गतिर्भवेत' ; जिसके फलस्वरूप नेता सभी लोगों के मन के समस्त भावों जान सकते हैं। क्योंकि माँ सारदा के उस विराट 'अहं' का आश्रय लेकर ही जगत के सभी जीवों में सब प्रकार के भावों का उदय हो रहा है। माँ सारदा देवी का विश्वव्यापी 'अहं'-भाव ही पूज्य नवनीदा के भीतर अभिव्यक्त होकर महामण्डल के मार्गदर्शक नेता के रूप से प्रकट होता था। अतः उस समय कैम्प में मनःसंयोग का क्लास लेते समय केवल नेत्रों द्वारा ही वुड बी लीडर्स की कुण्डलीनी 
जाग्रत करा देने का सामर्थ रखते थे। 'तुझे चैतन्य प्राप्त हो कि तू ही प्रत्यक्ष ब्रह्म है !' तब वे (कैम्प ध्वजा-रोहण के समय मठ मीशन के प्रेसिडेन्ट के साथ खड़े होकर रैली निकालते समय-बढ़ी हुई दाढ़ी पुराने कपड़े ? जैसा) 'दीनातिदीन' के रूप में दिखाई नहीं देते थे। उस समय कल्पतरु -रूप धारण कर कहते थे - " विवाह किया है तो क्या तू पशु हो गया ? नहीं, तो सदा याद रखना कि 'निवृत्तिस्तु महाफला' क्योंकि तू एक शिक्षक (वुड बी लीडर ?) है!" [लस्ट-लूकर में आसक्ति बिलकुल त्याग दे !]
वुड बी लीडर या लोकशिक्षक जब अपने कच्चे 'अहं'-भाव को माँ सारदा के भक्त रूपी पक्के 'अहं' भाव में रूपान्तरित कर लेता है, तब वह नेता अपने को'विश्वव्यापी अहं' या माँ सारदा देवी की असीम प्रेमशक्ति को प्रकट करने का यंत्रस्वरूप समझकर सबका सेवक या 'दीन से भी दीन' -दास बन जाने में समर्थ हो जाता है। इस तरह अवतार-पुरुषों (निर्विकल्प समाधि से रिटर्न पुरुषों) का कच्चा 'अहं'-भाव, जब पक्के 'अहं'-भाव में रूपान्तरित हो जाता है, तभी उनके जीवन में 'लीडरशिप क्वालिटीज' और प्रेमस्वरूप भगवान विष्णु, नेता या माँ जगदम्बा जैसी नेतृत्व शक्ति का विकास होता है। 
नेता में (नवनीदा में) मनुष्य-बुद्धि रखने से (अर्थात नवनीदा को अपने जैसा साधारण मनुष्य समझने से) धर्म या ईश्वर-लाभ नहीं होता। मन्त्रदीक्षा प्रदान करने वाले गुरुदेव की स्तुति करते हुए जैसे हमलोग कहते हैं -
'गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः। 

गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

'गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नव जन्म देता है। गुरु, विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है गुरु, साक्षात महेश्वर भी है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार भी करता है। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण देव की पूजा शेष रह जाती है, किंतु अपने मार्गदर्शक नेता (पूज्य नवनीदा या) सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती। हमें अपने 'दीक्षा-गुरु और मार्गदर्शक दादा' (नवनीदा) द्वारा सिखाये एवं दिखाए गए 'Be and Make ' मार्ग का प्रचार-प्रसार करने में सदैव तत्पर रहना चाहिये। 
जिस प्रकार शरीर रक्षा के लिए जल,वायु तथा भोजन अनिवार्य है, उसी तरह मायाजाल (जन्म-जरा-मृत्यु के जाल) में फँसे त्रिताप दग्ध मानवमन के समस्त ज्वालाओं की निवृत्ति भी अनिवार्य है; अतः माँ जगदम्बा ( माँ सारदा देवी) उसका ही उपाय स्वरुप बनकर स्वयं नवनीदा जैसे अहंकारशून्य नेता में पूर्ण रूप से प्रकट हो जाती हैं ! फिर महामण्डल आंदोलन से जुड़े जिस कर्मी का मन जितनी मात्रा में अहंकार या कच्चे 'अहं-भाव' को त्यागने में समर्थ होता है,उतनी ही मात्रा में वह 'जीवन्मुक्त नेता' माँ जगदम्बा की लीडरशिप शक्ति के विकास का यंत्र स्वरुप बन जाता है। मानवजाति के जितने भी महान मार्गदर्शक नेता हुए हैं -श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्धदेव, प्रभु ईसा मसीह, चैतन्य महाप्रभु, आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द,या हमलोगों के समकालीन युग में पूज्य नवनीदा के भीतर जब उस प्रेमस्वरूप, पूर्णतया निःस्वार्थी दिव्य शक्ति माँ जगदम्बा की अपूर्व लीलायें (सिंहाचलम पर्वत पर नवनीदा का तुच्छ वाराह शरीर में अवतरित होना।) अत्यन्त सौभाग्यवश किसी को दृष्टिगोचर होती हैं, तब वह हृदय से यह अनुभव करने लगता है कि नवनीदा में जो लीडरशिप विकसित हुआ है वह मानवीय शक्ति का विकास नहीं है, अपितु साक्षात् माँ जगदम्बा के ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ (अवतार) हैं। ऐसे ही संगठन के निष्काम कर्मी बनने ,पर किसी भवरोग-ग्रस्त, मार्ग-भ्रष्ट, किन्तु सत्यार्थी -जिज्ञासु मानव के मोह-मालिन्य दूर हो जाते हैं.
माँ जगदम्बा ही गुरु हैं ! वे अपनी जिस शक्ति के द्वारा 'गुरु शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' में भावी पीढ़ी की अज्ञान-मलीनता को दूर कर चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ भावी लोक-शिक्षकों का निर्माण करती हैं, उस महान शक्ति का नाम ही 'नेतृत्व शक्ति' है। 
इस प्रकार यह नेतृत्व क्षमता माँ जगदम्बा की शक्ति है, और यह लीडरशिप क्वालटी समस्त मनुष्यों के मन में सुप्त या व्यक्त रूप से निहित रहने के कारण ही लीडर (अवतार) का भक्तिपरायण साधक अन्त में एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जब मन ही मार्गदर्शक नेता बन जाता है ! और यह मन ही धर्म के जटिल गूढ़ तत्वों का रहस्य बतलाता जाता है,तब साधक को किसी और से पूछकर धर्मविषयक किसी सन्देह को दूर करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। (जब मन शुद्धसत्त्व पवित्र होकर ईश्वर की उच्च शक्ति (मार्गदर्शक नेता की शक्ति) के विकास का यन्त्रस्वरूप बन जायेगा, जिस शुद्ध मन के माध्यम से माँ जगदम्बा ही कार्य करने लगेंगी तो उसके भक्त का पैर बेताल कैसे पड़ सकता है ? किन्तु जबतक मन ईश्वर (सहस्रार) से विमुख हो भोगसुख तथा काम-क्रोध आदि में मत्त बना रहना चाहता है - नीचे के तीन मेरु-चक्र में स्थित रहता है, निर्जनवास और नेता का सानिध्य अनिवार्य है।
" गुरु मानो सखी है -जब तक श्रीकृष्ण के साथ श्रीराधिका का मिलन नहीं होता, तब तक सखी अथक प्रयास किया करती है; ठीक उसी प्रकार जब तक इष्टदेव के साथ साधक का मिलन नहीं हो जाता,तब तक गुरु का कार्य भी समाप्त नहीं होता। 'एक दिन अपने नेता नवनीदा से विच्छेद होना अनिवार्य है  .....यह सोचकर किसी 'अनुगत-भक्त' ने व्यथित होकर पूछा - "महाराज यह बतलाइये कि उस समय गुरुदेव(मन या शुद्ध विश्वव्यापी 'अहं' नवनीदा कहाँ चले जाते हैं ? "   

" गुरु ( नेता, अवतार, शुद्ध मन ?) इष्टदेव में लीन हो जाते हैं ! गुरु, कृष्ण तथा वैष्णव -ये तीनों एक हैं , एक ही तीन हैं !!

 " Never mind, उपेक्षितव्यं तद्वचनं भवत्सट्टशानां महात्मनाम्। अपि कीटदंशनभीरुका वयं रामकृष्ण तनयास्तदूहृदयरुधिरपोषिताः। “अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकं निन्दन्ति मन्दाश्चरितं महात्मनाम् — Great men like you should pay no heed to what he says. Shall we, children of Shri Ramakrishna, nourished with his heart’s blood, be afraid of worm-bites? “The wicked criticise the conduct of the magnanimous, which is extraordinary and whose motives are difficult to fathom”(Kalidasa’s Kumârasambhavam.) — remember all this and forgive this fool. [These fools-?]  It is the will of the Lord that people of this land have their power of introspection roused, and does it lie in anybody to check His progress? I want no name — I want to be a voice without a form. " I do not require anybody to defend me — कोऽहं तत्पादप्रसरं प्रतिरोद्धुं समर्थयितुं वा, के वान्ये? तथापि मम हृदयकृतज्ञता तान् प्रति  who am I to check or to help the course of His march? And who are others also?
Still, my heartfelt gratitude to them. 
“यस्मिंस्थितौ न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते” — नैषः प्राप्तवान् तत्पदवीमिति मत्वा करुणादृष्ट्या द्रष्टव्योऽयमिति — “Established in which state a man is not moved even by great misfortune” (Gita :6.23) — that state he has not reached; think of this and look upon him with pity. Through the Lord’s will, the desire for name and fame has not yet crept into my heart, and I dare say never will. I am an instrument, and He is the operator. Through this instrument He is rousing the religious instinct in thousands of hearts in this far-off country. Thousands of men and women here love and revere me. . . . “मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घते गिरिम् — He makes the dumb eloquent and makes the lame cross mountains.” I am amazed at His grace. Whichever town I visit, it is in an uproar. They have named me “the cyclonic Hindu”. Remember, it is His will — I am a voice without a form. The Lord knows whether I shall go to England or any other blessed place (यम लैण्ड) . He will arrange everything. 
हम रामकृष्ण-तनय (सिंह-शावक) हैं, उन्होंने अपने हृदय के रुधिर से हमें हृष्ट-पुष्ट किया है। क्या हम कीड़ों के काटने से डर जाने वाले हैं ?  I want no name — I want to be a voice without a form. I do not require anybody to defend me प्रभु श्रीरामकृष्णदेव की इच्छा है कि इस देश के लोगों की अन्तर्दृष्टि जाग्रत हो। फिर क्या कोई लाख कोशिश करे उनकी गति को रोक सकता है ? मुझे नाम की आवश्यकता नहीं - मैं  आकारहीन आवाज-( 'निवृत्तिस्तु महाफला' मार्ग के प्रथम प्रवक्ता नवनीदा का  ) बनना चाहता हूँ ! मैं इंग्लैण्ड जाऊँगा या यमलैण्ड जाऊँगा, प्रभु जाने। वही सब बन्दोबस्त कर देगा।
>>प्रीतिः परमसाधनम् (love is the best instrument) : "Can a leader be made my brother? A leader is born. Do you understand? And it is a very difficult task to take on the role of a leader. — One must be accommodate a thousand minds." 
दादा लीडर 'नेता ' क्या कभी बनाया जा सकता है ? नेता पैदा होता है ! समझते हो भाई ? और फिर मार्गदर्शक नेता बनना बहुत कठिन काम है-दासस्य दासः -'दासों का दास' और हजारों आदमियों का मन रखना। There must not be a shade of jealousy or selfishness, then you are a leader. जब तुम्हारे मन में किसी के प्रति थोड़ी भी ईर्ष्या और स्वार्थपरता न हो, तभी तुम नेता बन सकते हो। 
First, by birth, and secondly, unselfish — that's a leader. पहले तो ' by birth' अर्थात जन्मजात फिर निःस्वार्थी (स्वार्थशून्य) हो तभी कोई नेता बन सकता है !'A leader is always born and never created .' 

Everything is going all right, everything will come round. He casts the net all right, and winds it up likewise वयमनुसरामः वयमनुसरामः, प्रीतिः परमसाधनम् — ours is but to follow; love is the best instrument. Love conquers in the long run. It won’t do to become impatient — wait, wait — patience is bound to give success. . . .

>>Unity in Variety-विविधता में एकता, Unity in diversity-अनेकता में एकता  :   I tell you, brother, let everything go on as it is, only take care that no form becomes necessary — unity in variety — see that universality be not hampered. Everything must be sacrificed, if necessary, for that one sentiment, universality. Whether I live or die, whether I go back to India or not, remember this especially, that universality — perfect acceptance, not tolerance only — we preach and perform. Take care how you trample on the least rights of others. Many a huge ship has foundered in that whirlpool. Remember, perfect devotion minus its bigotry — this is what we have got to show. Through His grace, everything will go all right. . . . Everybody wants to be a leader, but it is the failure to grasp that he is born, that causes all this mischief. 
  … It is not at all necessary that all should have the same faith in our Lord as we have, but we want to unite all the powers of goodness against all the powers of evil. … 
>>संन्यासियों के लिए सबसे बड़ा पाप है (अपनी मठ व्यवस्था गुटबाजी पर गर्व करना।
 A besetting sin with Sannyasins is taking pride in their monastic order. That may have its utility during the first stages, but when they are full-grown, they need it no more. One must make no distinction between householders and Sannyasins — then only one is a true Sannyasin. . . .
A movement which half a dozen penniless boys set on foot and which now bids fair to progress in such an accelerated motion — is it a humbug or the Lord’s will? If it is, then let all give up party-spirit and jealousy, and unite in action. A universal religion cannot be set up through party faction. . . .
If all understand one day for one minute that one cannot become great by the mere wish, that he only rises whom He raises, and he falls whom He brings down then all trouble is at an end. But there is that egotism — hollow in itself, and without the power to move a finger: how ludicrous of it to say, “I won’t let anyone rise!” That jealousy, that absence of conjoint action is the very nature of enslaved nations. But we must try to shake it off. 
>>>लोकशिक्षक (जीवनमुक्त नेता)  की अनिवार्य शर्त : A bird, in the course of its flight, reaches a spot whence it looks on the ground below with supreme calmness, Have you reached that spot? He who has not reached there has no right to teach others. Relax your limbs and float with the current, and you are sure to reach your destination
Cold is making itself scarce by degrees, and I have been almost through the winter. Here (at Delhi) in winter the whole body becomes charged with electricity. In shaking hands one feels a shock, accompanied by a sound. You can light the gas with your finger. And about the cold I have written to you already. I am coursing through the length and breadth of the country, but Chicago is my “Math” (monastery), where I always return after my wanderings. I am now making for the east. He knows where the bark will reach the shore. . . .  Yes, brother, the distinction between Sannyasin and layman is a fiction. 
“मूकं करोति वाचालं” etc. — “He makes the dumb fluent,” etc. My friend it is difficult to judge what is in a particular individual. Shri Ramakrishna has spoken highly of him; and he deserves our respect. Fie upon you if you have no faith even after so much experience. लीडरशिप (लोकशिक्षण) का पहला विकास  (लीलाप्रसंग -पेज १२३) जो वुड बी लीडर्स होते हैं, बाल्य अवस्था से ही उनमें लीडरशिप क्वालिटीज का विकास दिखाई देता है। ध्यात्मिक संगठनों में नेता का चुनाव वोट से नहीं होता, ज्यों ही वे (ईश्वरकोटि, जीवनमुक्त या अवतार) लोगों के समक्ष खड़े होते हैं , सामान्य लोगों का मन उनके प्रति भक्तिभाव से पूर्ण हो उठता है , और लोग आज्ञाकारी बनकर उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगते हैं। (नवनीदा की वाराहावतार लीला का स्मरण करें ! और अपनी वराह अवतार लीला 16 जनवरी सरस्वतीपूजा Bh का तुलनात्मक अध्यन   करवाकर माँ सारदा देवी ही वैराग्य को दृढ़ करवा देती हैं !)
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
                                   स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।
अर्थ: श्रेष्‍ठ पुरुष ( अर्थात् पूज्य नवनीदा: आत्‍मज्ञानी होने के साथ ही साथ कर्मयोगी Be and Make आंदोलन का नेता) जैसा-जैसा आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही करते हैं ! जो आदर्श -'निवृत्तिस्तु महाफला ' वे प्रस्तुत करते हैं, समस्त मनुष्य उसी का अनुगमन करने लगते हैं ! 
मैनेजमेंट सूत्र की व्याख्या
-  सामान्य लोगों को सदैव एक ऐसे मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता होती है, जो स्वयं अपने व्यावहारिक आचरण द्वारा जनता को शिक्षा दे सके। यदि गुरु ही 'लस्ट और लूकर' में आसक्त हो अर्थात  कामुक तथा धनलोलुप हो तो वह गृही शिष्यों को यथासाध्य ब्रह्मचर्य पालन और लालच का त्याग करने  की शिक्षा नहीं दे सकेगा ! अत: लोक-शिक्षक या नेता को चाहिए कि सामान्यजन को शिक्षा देने के लिए स्वयं शास्त्रीय सिद्धांतों (यम-नियम) का पालन करे। यदि आप सदगुणों को प्रस्तुत करते हो तो सदगुण अपनाएँ जाते है, यदि दुर्गुण पेश करते हो तो दुर्गुण अपनाएँ जाते है !
इसलिए यदि घर का मुखिया या पिता ही शराबी है तो वो अपने बेटे को शराब पीने से मना नहीं कर सकेगा ! यदि देश के नेता भ्रष्टाचारी हो तो वो जनता हो सदाचार का पाठ नहीं पढ़ा सकेंगे ! यहां भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है कि -श्रेष्ठ पुरुष को सदैव अपने पद व गरिमा के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए, क्योंकि वह जिस प्रकार का व्यवहार करेगा, सामान्य मनुष्य भी उसी की नकल करेंगे। जब कोई प्रधानमंत्री या किसी मंत्रालय का एक चीफ सेक्रेटरी पारदर्शिता व ईमानदारी का आचरण करता है, तो उसके अधीन विभागों के सारे मुखिया और दूसरे अधीनस्थ कर्मचारी भी उस व्यवहार का अनुकरण करने लगते हैं। लेकिन अगर उच्च अधिकारी काम को टालने लगेंगे तो कर्मचारी उनसे भी ज्यादा आलसी हो जाएंगे। 
श्रीरामकृष्ण कहते थे- " कुछ तख्ते इस प्रकार की लकड़ियों से बने होते हैं कि उस पर यदि एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है; पर कुछ तख्ते ऐसी लकड़ियों से बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ- साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक पहुँचा सकते हैं। "
जो लोग मनुष्य जाति के सच्चे नेता होते हैं -वे इसी प्रकार के न डूबने वाले तख्ते जैसे होते हैं। वे दूसरों के भार (५ अभ्यासों के लिए अनुप्रेरित करते रहने के दायित्व) को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं। तथा इसके बदले में वे कोई पारिश्रमिक, लाभ या पुरष्कार पाने की आशा नहीं रखते बल्कि केवल लोक-कल्याण की इच्छा से दूसरों का भार उठाते हैं ।
उनके सामने जीवन का केवल एक ही लक्ष्य रहता है - दूसरों की उन्नति, सुधार, विकास, समानता और पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने में सहायता करना, तथा इस उद्देश्य के पीछे इच्छा और आग्रह का जो प्रेरणा श्रोत होता है, वह होता है -'LOVE'! प्रेम ही ईश्वर है ! भगवान प्रेमस्वरूप हैं, तभी तो वे मनुष्य को भगवान बनाने के लिये बार बार इस धरती पर मनुष्य के रूप में अवतरित होते रहते हैं ! (उसके हृदय में विद्यमान यह अनंत प्रेम उसे अपना ईश्वरत्व -या विष्णुत्व या नेतापन भूलने ही नहीं देता। हमारे हृदय में विद्यमान आधुनिक युग के भगवान श्रीठाकुर)
श्रीमद्भागवत महापुराण, दशम स्कन्ध, अध्याय 22, श्लोक 31-35 में,मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीकृष्ण ने वृक्षों के माध्यम से अपनी 'ग्वाल-मण्डली' (महामण्डल) के वुड बी लीडर्स या भावी लोकशिक्षकों को बहुत सुंदर उपदेश दिया है। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये । ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष के नीचे गौएँ विश्राम कर रही थीं। उन सबके  ऊपर वृक्ष के पत्ते छाता का काम कर रहे थे। वृक्षों को छाया करते देख किशोर श्रीकृष्ण ने ग्वाल बालकों का नेतृत्व करते हुए कहा -
 हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन् सुबलार्जुन ।
 विशालर्षभ तेजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप ॥ ३१ ॥

 पश्यतैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।
 वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ॥ ३२ ॥
 अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
 सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥ ३३ ॥ 

‘मेरे प्यारे मित्रों! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला - सब कुछ सकते हैं, परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं । मैं कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं,अर्थात इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है। जैसे कोई सज्जन पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष भी लोगों को खाली हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। वृक्ष किस प्रकार दूसरों के कल्याण में अपना सबकुछ न्योछावर कर देते हैं? यह सहब विस्तारपूर्वर समझाते हुए श्री कृष्ण आगे कहते हैं-
पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।
गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान्वितन्वते ॥ ३४ 
अर्थात् ये वृक्ष पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, छाया, मूल (जड़), वल्कल (छाल), दारू या लकड़ी, गंध, निर्यास या गोंद, भस्म (राख), अस्थि (कोयला), तोक्म (बीज) आदि पदार्थों के द्वारा हमारा उपकार करते हैं। 
एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥ ३५ 
इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' अपने शब्दों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के द्वारा, और यदि आवश्यक हो तो प्राणैः - अपने जीवन का बलिदान या अर्थ का त्याग करके भी केवल सद्कर्म ही करना चाहिये। 
इतने सरल शब्दों में वे अपने गाय चराने वाले मित्रों के नेता के रूप में अपने भाइयों को मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या है, उसे समझा रहे हैं। 
कहते हैं, मेरे प्यारे मित्रों! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सफलता इतने में ही है-  कि जहाँ तक हो सके-इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' अपने शब्दों या विचारों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के विवेक-विचार से, अर्थ का त्याग करके, और आवश्यकता पड़ने पर- प्राणैः, अर्थात अपने प्राणों की आहुति देकर भी केवल ऐसे  कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरों की भलाई हो। यही तो है संसार के समस्त धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, या धर्म का वास्तविक रहस्य ! जैसा कि महाभारत में  'धर्म का रहस्य' बतलाया गया है -
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तुलाधार वैश्य और जाजलि ऋषि की कथा -'धर्म का रहस्य' :  जाजलि नामके एक ऋषि थे। एक बार वे महातपस्वी ऋषि निराहार रहकर केवल वायु-भक्षण करते हुए काष्ठ की भाँति अविचलभाव से खड़े हो घोर तपस्या में प्रवृत्त हुए । उस समय उन्हें कोई ठूँठ समक्षकर एक चिड़िये का जोड़ा उनकी जटाओं में अपने रहने का घोंसला बनाकर कभी-कभी तो पाँच-दस दिन बाद भी लौटता था, पर ऋषि बिना हिले-डुले ही खड़े रहते थे।
एक बार-जब वे पक्षी उड़ने के बाद एक महीने तक वापस नहीं लौटे तब भी जाजलि ऋषि ज्यों- के- त्यों खड़े रहे। अपने मस्तक पर चिड़ियों के पैदा होने और बढ़ने आदि की बातें याद करके वे अपने को महान धर्मात्मा समझ आकाश की ओर देखकर बोल उठे, मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया । इतनें में आकाश वाणी हुई- जाजलि तुम धर्म में तुलाधार की बराबरी नहीं कर सकते । काशीपुरी का धर्मात्मा तुलाधार भी ऐसी बात नहीं कहता ।
जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे तुलाधार को देखने काशी आये । वहाँ पहुँच कर उन्होंने तुलाधार को सौदा बेचते हुए देखा । तुलाधार भी जाजलि को देखते ही उठकर खड़े हो गये फिर आगे बढ़कर बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्होंने जाजलि का स्वागत करते हुए कहा- आप मेरे पास आ रहें हैं यह बात मुझे मालुम हो गयी थी । आपने समुद्रतट पर एक वन में रहकर बड़ी भारी तपस्या की है। उसमें सिद्धि प्राप्त होने के बाद आपने मस्तक पर चिड़ियों के बच्चे पैदा हुए, बड़े हुए और आपने उनकी भलीभाँति रक्षा की। जब वे इधर-उधर चले गये तब अपने को धर्मात्मा समझ कर आपको बड़ा गर्व हो गया। विप्रवर आज्ञा दीजिये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करुँ जाजलि ने 
तुलाधार की बातों से अत्यन्त प्रभावित होकर उनके धर्म का रहस्य जानने की इच्छा व्यक्त की। रस, गन्ध, वनस्पति, ओषधि, मूल और फल आदि बेचने वाले तुलाधार को धर्म में निष्ठा रखने वाली बुद्धि कैसे प्राप्त हुई- यह जाजलि के लिये आश्चर्य की बात थी।
तुलाधार ने कहा –
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।। 

 - हे जाजले ! मुझे सनातन धर्म सार-तत्व का पता चल गया है । मैंरम प्राचीन और सबका हित करने वाले सनातन धर्म को उसके गूढ़ रहस्यों सहित जानता हूँ।  वह क्या है ?  ‘जो चीज सबको संभाले और मिलाए रखे-वही धर्म है। जिस बात से किसी को भी दुःख न पहुंचे वही धर्म है। जो व्यक्ति सर्वभूतों के सुहृत हैं और निरन्तर समस्त जीवों का हित करने में लगे रहते हैं, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है। जो लोग सच्चे धर्मज्ञ हैं, जो सनातन या प्राचीनतम धर्म को सर्वभूत के लिये हितकर रूप में जान लेते हैं, वे अपने निकट आने वाले मनुष्यों को भी यही सनातन धर्म समझाते हैं -अर्थात सभी मनुष्यों के लिए मंगल कामना करने और सभी मनुष्यों से प्रेम करने की ही शिक्षा देते हैं।  किसी भी प्राणी से द्रोह न करके जीविका चलाना श्रेष्ठ माना गया हैं। 
मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हूँ। काठ और घास-फूँस से छाकर मैंने अपने रहने के लिये यह घर बनाया है। छोटी-बड़ी चीजें तो बेचता हूँ, पर मदिरा नहीं बेचता। सब चीजे मैं दूसरों के यहाँ से खरीदकर बेचता हूँ, स्वयं तैयार नहीं करता। माल बेचने में किसी प्रकार की ठगी या छल-कपच से काम नहीं लेता। मैं न किसी से मेल-जोल बढ़ाता हूँ, न विरोध करता हूँ, मेरा न कहीं राग हैं, न द्वेष, सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति मेरे मन में एक-सा भाव है। यही मेरा व्रत है। 
मेरा तराजू सबके लिये बराबर तौलता है। मैं दूसरों के कार्यो की निन्दा या स्तुति नहीं करता। मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में भेद नहीं मानता। अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म मानता हूँ। धर्म का तत्व अत्यन्त सूक्ष्म हैं, कोई भी धर्म निष्फल नहीं होता। लोगों की देखा-देखी नहीं करता। जो मुझे नहीं मानता हैं तथा जो मेरी प्रशसां करता है, वे दोनों ही मेरे लिये समान हैं, मैं उनमें से किसी को प्रिय और अप्रिय नहीं मानता। 

28 >>>विपत्ति में आशीर्वाद छिपा है. (blessings are hidden in adversity.)

ऐसा होने का कारण क्या है ? पैगम्बरों, लोक-शिक्षकों नेताओं का तुच्छ स्वार्थमय 'अहं'-भाव (कच्चा आमि) का सदा के लिये विनाश हो जाता है ,और उसके स्थान पर विश्वव्यापी विराट -भावाभिमुखी 'अहं'-भाव का विकास होने लगता है। और सब के कल्याण की खोज करना तो उस 'अहं'-भाव का स्वभाव है। जैसे ही फूल खिल जाता है -भ्र्मर को सादर आमन्त्रित नहीं करना पड़ता। जैसे ही किसी के अन्दर उस विराट 'अहं'-भाव का विकास (मातृहृदय का विकासहोता है-संसार के दुःखसंत्पत लोग  अपने-आप, पता नहीं किस तरह उसका पता लगाकर, शान्ति प्राप्त करने के निमित्त दौड़कर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं !
यदि लोकशिक्षक का मन पवित्रता तथा महान लक्ष्य के साथ सदैव युक्त रहता है तो 'जन्म-जरा-व्याधि -मृत्यु -दुःख अनुदर्शन' ही उसे निरन्तर वैराग्यवान बनाये रखता है ! कामिनी-कांचन, नाम-यश उपाधि-पद के लालच से नेता निर्विकार रहता है। इसीलिये स्वार्थगन्ध रहित विराट 'मैं'-भाव (माँ जगदम्बा का हृदय) प्राप्त लोकशिक्षकों में जिस समय मार्गदर्शक नेता का भाव उदय होता है, उस समय इच्छा न रहने पर भी साधारण मानव को उसके समक्ष नतमस्तक होने को स्वतः बाध्य होना पड़ता है। 
तुच्छ स्वार्थमय 'अहं'-भाव (कच्चा आमि) को जगदव्यापी विराट 'अहं'-भाव में तल्लीन कर देने के बाद ही  दूसरों को मायराज्य के पार के मार्गप्रदर्शक नेता बनने और बनाने की योग्यता प्राप्त होती है। नवनीदा सदैव कहते थे, " मैं कुछ नहीं हूँ, कुछ भी नहीं जानता हूँ, -मेरी माँ सारदा देवी ही सब कुछ जानती हैं। 

29 >>>नवनीदा का अलौकिक जीवन ही साधारण जीवन-निर्माण का साँचा के जैसा है। वुड बी लीडर्स नवनीदा के आदर्श साँचे का अवलम्बन कर अपने जीवन-गठन का प्रयास किया करते हैं, और सदा करते रहेंगे। क्योंकि समस्त दुर्बल अहंकारी जीव के प्रति नवनीदा की करुणा तथा प्रेम आश्चर्यजनक था। नवनीदा को विविध भोग-सुख तथा आराम पहुँचाने के लिए कोननगर में ऐ.सी. लगाने का प्रस्ताव आया, मुझसे भी कहलवाया गया, किन्तु वे कुछ स्वीकार नहीं किये, उनका मन सर्वदा अपने लक्ष्य में निमग्न रहता था। 
नेता ही भवरोग-वैद्य हैं। 'यदि अचल को सचल न बना सके तो वह नेता कैसा ?' "अहंकार को ही शास्त्रों में चित-जड़ की ग्रंथि (चिज्जड़-ग्रंथि) कहा गया है। चित -अर्थात ज्ञानस्वरूप आत्मा और जड़ यानि देह-इन्द्रियादि ; उस अहंकार ने ही इन दोनों को एक साथ बाँध रखा है। तथा मानव-मन में "मैं देह-बुद्धि आदि विशिष्ट जीव हूँ'- इस भ्रम से हिप्नोटाइज्ड कर रखा है। इस 'हिप्नोटिक नॉट' या 'चिज्जड़-ग्रंथि' रूपी सम्मोहन गाँठ (Hypnotic knot) को काटे बिना लोकशिक्षक नहीं बना जा सकता है। उसे त्यागना ही पड़ेगा। सिद्धियाँ विष्ठा की तरह हेय हैं। १२ साल तक साधना करके नदी को चलकर पार करने की सिद्धि पाने से  अच्छा है चार आना में नाव से ही नदी पार हुआ जाय, ईश्वर प्राप्ति से भिन्न किसी सिद्धि पर  कभी ध्यान नहीं देना चाहिये। और उनकी प्राप्ति भी उनकी कृपा के बिना सम्भव नहीं है। 
'अभीः' -अर्थात सम्पूर्ण भयहीन होने का एकमात्र उपाय : है अपने अनुभव से यह जानलेना कि वह स्वयं जन्म-मृत्यु रहित अखण्ड सच्चिदानन्द स्वरुप आत्मा है ! 'ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं'-  इस ज्ञान को सुनकर सीखने, देखकर सीखने तथा स्वयं संकट में पड़कर सीखने में बहुत अन्तर है। ब्रह्मज्ञान की गहराई की परख माँ जगदम्बा के राज्य में ही होती है -"पंचभूतेर फाँदे, ब्रह्म पड़े काँदे" -अर्थात पंचभूतों के फन्दे में फँसकर ब्रह्म रोया करता है ! ज्योंही सूगर, बी.पी, सोडियम, पोटैसियम कम-ज्यादा  हुआ या कामिनी-कांचन के आपात सुख से मोहित हुए कि पुनः भेंड़ बनते देर न लगेगी ! यह निश्चित जानना कि ईश्वर (माँ जगदम्बा) की कृपा के बिना, माया द्वारा दरवाजा छोड़े बिना, किसी को भी आत्मज्ञान प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति नहीं हो सकती! 
30 >>>आवरण के रिश्तेदारों को बताओ वर्णाश्रम धर्म क्यों जरुरी है ? : प्राचीन काल में सामाजिक व्यवस्था के दो स्तंभ थे - वर्ण और आश्रम। जिसमें स्म्यक्‌ प्रकार से श्रम किया जाए वह आश्रम है अथवा आश्रम जीवन की वह स्थिति है जिसमें कर्तव्यपालन के लिए पूर्ण परिश्रम किया जाए। 'आश्रमात्‌ आश्रमं गच्छेत्‌' अर्थात्‌ एक आश्रम से दूसरे आश्रम को जाना चाहिए, इस सिद्धांत को मनु ने दृढ़ कर दिया। प्रथम तीन आश्रमों ओर उनके कर्त्तव्यों के पालन के पश्चात्‌ ही मनु संन्यास की व्यवस्था करते हैं: जीवन को सार्थक बनाने के लिए उन्होंने चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष-की अवधारणा  की थी। प्रथम तीन पुरुषार्थ साधनरूप से तथा अंतिम साध्यरूप से व्यवस्थित था। मोक्ष परम पुरुषार्थ, अर्थात्‌ जीवन का अंतिम लक्ष्य था, किंतु वह अकस्मात्‌ अथवा कल्पनामात्र से नहीं प्राप्त हो सकता है। उसके लिए साधना द्वारा क्रमश: जीवन का विकास और परिपक्वता आवश्यक है। 
इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय समाजशास्त्रियों ने आश्रम संस्था की व्यवस्था की। आश्रम वास्तव में जीव का शिक्षणालय अथवा विद्यालय है। ब्रह्मचर्य आश्रम में धर्म का एकांत पालन होता है। ब्रह्मचारी पुष्टशरीर, बलिष्ठबुद्धि, शांतमन, शील, श्रद्धा और विनय के साथ युगों से उपार्जित ज्ञान, शास्त्र, विद्या तथा अनुभव को प्राप्त करता है। सुविनीत और पवित्रात्मा ही मोक्षमार्ग का पथिक्‌ हो सकता है।  
31 . >>>सद्योद्वाहा (तुरंत विवाहयोग्य) और ब्रह्मवादिनी (आजीवन ब्रह्मोपासना में लीन)
ब्रह्मचर्य आश्रम के पश्चात्‌ व्यक्ति को यह विकल्प करने की स्वतंत्रता है कि वह गार्हस्थ्य आश्रम में प्रवेश करे अथवा सीधे संन्यास ग्रहण करे। समावर्तन से संदर्भ में ब्रह्मचारी दो प्रकार के बताए गए हैं। (१) उपकुर्वाण, जो ब्रह्मचर्य समाप्त कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता था और (२) नैष्ठिक, जो आजीवन गुरुकुल में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता था। इसी प्रकार स्त्रियों में ब्रह्मचर्य के पश्चात सद्योद्वाहा (तुरंत विवाहयोग्य) और ब्रह्मवादिनी (आजीवन ब्रह्मोपासना में लीन) होती थीं।
हमारे यहाँ दो तरहके ब्रह्मचारी होते हैं  ̶  नैष्ठिक और उपकुर्वाण । जो आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वे ‘नैष्ठिक ब्रह्मचारी’ कहालाते हैं और जो विचार के द्वारा भोगेच्छा को नहीं मिटा पाते और केवल भोगेच्छा को मिटानेके लिये ही विवाह करते हैं, वे ‘उपकुर्वाण ब्रह्मचारी’ कहलाते हैं । तात्पर्य है कि जो विचार के द्वारा भोगेच्छा को न मिटा सके, वह विवाह करके देख ले, जिससे यह अनुभव हो जाय कि यह भोगेच्छा भोग भोगने से मिटानेवाली नहीं है । गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम में जाने का विधान किया गया है । सदा गृहस्थ में ही रहकर भोग भोगना मनुष्यता नहीं है । 
गार्हस्थ्य में धर्म पूर्वक अर्थ का उपार्जन तथा काम का सेवन होता है। संसार में अर्थ तथा काम के अर्जन और उपभोग के अनुभव के पश्चात्‌ ही त्याग और संन्यास की भूमिका प्रस्तुत होती है। संयमपूर्वक भोग ग्रहण किये बिना त्याग का प्रश्न उठता ही नहीं। वानप्रस्थ तैयार होती है। संन्यास के सभी बंधनों का त्याग कर पूर्णत: मोक्षधर्म का पालन होता है। इस प्रकार आश्रम संस्था में जीवन का पूर्ण उदार, किंतु संयमित नियोजन था। 
वैदिक यज्ञ के द्वारा प्रवृत्ति मार्ग में अवस्थित मानव-मन को क्रमशः भोग-वासना रहित बनाने की चेष्टा की जाती थी, इसीलिये मनुस्मृति (अध्‍याय ५, श्‍लोक ५६) में कहा गया है -

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ।

  मनु की इस उक्ति का अर्थ यह है कि मांस खाना, मद्यपान करना व स्री सहवास के उपभोग में दोष नहीं है। ये तो सभी प्राणीमात्रों के सहज स्वभाव की बातें हैं (Instinct) परंतु जो मनुष्य इससे आगे का विकास साध्य करता है, व तप से इन इंद्रियजन्य वासनाओं से मुक्त होता है, वह श्रेष्ठ दर्जे का मानव बनता है।  अर्थात् नैसर्गिक मानवी प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करना अधिक हितकारक माना गया है। 
32 . >>>बौद्ध-धर्म का दुष्प्रभाव : किन्तु बौद्धधर्म आने के बाद ,वर्णाश्रम धर्म के अनुसार प्रवृत्ति मार्गी मानवमन को क्रमशः -ब्रह्मचर्य,गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास लेने की परम्परा को छोड़ दिया गया। और जो मनुष्य निवृत्तिमार्ग के अधिकारी नहीं थे  उनको भी नैष्ठिक ब्रह्मचारियों का गेरुआ वस्त्र पहना दिया गया। जो सनातन धर्म उसे धीरे धीरे प्रवृत्ति से निवृत्ति में जाने में सहायता कर रहा था-बाहर से उच्छेद हो गया किन्तु भीतर ही भीतर निस्तब्ध गहरी रात्रि में निर्जन स्थानों में तन्त्रोक्त साधनाप्रणाली 'हीनयान' का प्रचलन बढ़ गया। 
किन्तु तान्त्रिक अनुष्ठान पद्धति की प्रत्येक क्रिया अद्वैतज्ञान के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध है। उदाहरणार्थ -जब तुम पूजन करने बैठते हो, उस समय सर्वप्रथम कुलकुण्डलिनी (स्वार्थमय 'अहं'-भाव) को मस्तकस्थित सहस्रार में चढ़ाकर तुम्हें ईश्वर (=माँ जगदम्बा ? जगदव्यापी विराट 'अहं' भाव) के साथ अद्वैत रूप से अवस्थान करने का चिन्तन करना पड़ता है; तदन्तर पुनः उनसे अलग होकर तुमने जीव भाव धारण किया एवं ईश्वर (माँ काली) ज्योतिस्वरूप घनीभूत होकर तुम्हारे पूज्य इष्ट देवता (श्रीरामकृष्णदेव) के रूप में प्रकट हुए और तब तुम उनको अपने भीतर से बाहर लाकर पूजन करने लगे-तुमको इस प्रकार चिंतन करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य - प्रेम के द्वारा माँ जगदम्बा के साथ एकाकार हो जाने का कैसा सुंदर प्रयास दिखाई देता है ! 
यह अवश्य है कि हजारों में सम्भवतः कोई एक उन्नत /साहसी साधक ही इस प्रक्रिया को ठीक ठीक अपना पाता है, किन्तु जो कोई उसका (विवेक-दर्शन का) थोड़ा प्रयास भी करता है, उसे भी (श्रेय-प्रेय) विवेक-जाग्रत रखने में बहुत सहायता मिलती हैं ! क्योंकि साधक को अपने चरम लक्ष्य का स्मरण होता रहता है। 
33 . >>>तन्त्र मार्ग में वीराचार "
रमणीर संगे थाके ना करे रमण।" की उत्पत्ति  :  प्रवृत्ति पारायण मानव-मन स्थूल रूप-रस आदि विषयों का अल्पाधिक भोग करता ही रहेगा, किन्तु यदि उसके भीतर उसकी प्रिय भोग्यवस्तु पर (नारी-शरीर पर) आन्तरिक श्रद्धा उत्पन्न की जा सके , तो वह चाहे कितना भी भोग क्यों न करता रहे, यह निश्चित है कि उस तीव्र श्रद्धा के कारण वह थोड़े ही समय में संयमादि चारित्रिक गुणों का अधिकारी बन जायेगा। 
इसीलिये विवाह के समय कन्या की इन्द्रिय को '' प्रजापतेः द्वितीयं मुखं " -अर्थात सृष्टिकर्ता की सृष्टि का दूसरा मुख कहा जाता है। एतदर्थ 'गर्भं धेहि सिनीवाली' -हे सिनीवाली देवी, इस स्त्री में गर्भ उत्पन्न करें ! (सिनीवाली गर्भप्रसव की अधिष्ठात्री देवी मानी गई है ।) इसलिए कन्या की उस इन्द्रिय को पवित्र रूप से देखने का विशेष विधान किया है। तथा आदेश दिया कि " नारी का शरीर पवित्र तीर्थ स्वरुप है, अतः नारी में मनुष्य-बुद्धि को त्याग कर सर्वदा 'देवी-बुद्धि' रखनी चाहिये। और प्रत्येक नारी मूर्ति को माँ जगदम्बा की विशेष शक्ति का प्रकाश देखकर सदा उसके प्रति श्रद्धा-भक्ति करनी चाहिये। -यस्याः अंगे महेशानि (शिवस्य भार्या/महेश की पत्नी) सर्वं तीर्थानि सन्ति वै। आगे चलकर अद्वैतज्ञान लाभ के बजाय सिद्धि पाने के चक्कर में फंस कर तान्त्रिक साधनपद्धति में भूतप्रेत आदी की उपासना प्रविष्ट हो गयी। 
इसीलिये वैष्णवाचार्यों ने यह निश्चय किया कि साधारण लोगों में द्वैतवाद का प्रचार ही मंगलमय है। अतः श्रीचैतन्य महाप्रभु ने साधारण जनता में यह प्रचारित किया कि 'नाम (शब्द) ही ब्रह्म है'-इस विश्वास के साथ केवल श्री भगवान का नाम (श्रीरामकृष्णदेव का गुरुप्रदत्त नाम) जप करने से ही जीव कृतार्थ हो सकता है। किन्तु उनके तिरोभाव के कुछ ही समय बाद जन्मजात रूप से  प्रवृत्तिपरायण मानव-मन ने चैतन्यमहाप्रभु द्वारा प्रवर्तित शुद्ध मार्ग को भी कलुषित कर डाला। परकीया प्रेम में अपनी उपपत्नी (paramour) पर जो आन्तरिक आसक्ति होती है, उसे मातृहृदय के प्रेम में रूपान्तरित करने हेतु अपने इष्टदेव (ईश्वर माँ जगदम्बा के अवतार भगवान श्रीरामकृष्णदेव) के प्रति उसका आरोप न करते हुए स्थूल रूप से प्रकिया स्त्री को ही ग्रहण कर बैठा। 
क्योंकि उसमें योग तथा भोग -इन दोनों के मिश्रित भाव को ग्रहण करने की योग्यता ही उनमे थी। यद्यपि वह ब्रह्मज्ञान पाना चाहता था किन्तु साथ ही इन्द्रिय-विषयों (मिल्क -चॉकलेट) की भोगलालसा भी उसमें विद्यमान थी। इसीलिये वैष्णव-सम्प्रदाय में कर्ताभजा, आउल, बाउल, दरवेश, साईं इत्यादि मतों का उद्भव हुआ एवं उसी के अनुरूप गुप्त साधन पद्धति प्रचलित हुई। 
इन सम्प्रदायों के लोग ईश्वर या ब्रह्म को 'आलेक' (अलक्ष्य) कहते हैं। उनका यह विश्वास था कि वह 'आलेक' (माँ जगदम्बा) ही नेता या लोकशिक्षक के शुद्धसत्विक -मन में प्रविष्ट होकर उसे संचालित कर रही हैं ! ये लोग अपने नेता (कर्ता) को 'सहज' उपाधि प्रदान करते हैं। ये अपने नेता के प्रति भक्ति से ओतप्रोत होकर उन्हें ही उपास्य रूप से भजते हैं; इसीकारण इस सम्प्रदाय को 'कर्ताभजा-सम्प्रदाय' कहते हैं ! विशुद्ध मानव (माता जानकी की कृपाप्राप्त निर्विकल्प से लौटा नेता)  में माँ जगदम्बा सारदा के सम्बन्ध में इनका कहना है - 

"आलेके आसे, आलेके जाय.
आलेकेर देखा केउ ना पाय। 

आलेक के चिनेछे जेई,
तीन लोकेर ठाकुर सेई। "

-अर्थात सब के अलक्ष्य ही वे आते हैं एवं सब से अलक्षित होकर ही वे चले जाते हैं। किसी को अलक्ष्य का दर्शन नहीं मिलता है।  अलक्ष्य को जिसने जान लिया है, तीनों लोकों का वह प्रभु है।  'सहज मानव' या नेता का लक्षण है -अवतार वरिष्ठ नेता सर्वदा 'अटूट' बना रहता है, अर्थात सर्वदा रमणी के साथ रहने पर भी, धैर्यच्युत न होकर  विदेह रहता है शरीर से भी कोई मतलब नहीं रखता केवल जनकल्याण में अपने जीवन को न्योछावर कर देते हैं। वे कहते हैं -"रमणीर संगे थाके ना करे रमण। " -अर्थात रमणी के साथ रहकर भी वे रमण नहीं करते हैं। तन्त्र की शिक्षा है कि 'युवा शक्ति साधक' बनेंविद्यार्थी जीवन तपस्वी जीवन माना गया है।
 
34 . >>>Observing the female body with divine intelligence? 
नारीमूर्ति में 'लम्बोदर जननी महेशानि' बुद्धि :  ( कितने लोग नारीशरीर को सास-बहु, भाभी-ननद , ससुर -बहु, देवरानी-जेठानी बुद्धि से न देखकर  'देवीबुद्धि'  'लम्बोदर जननी महेशानि बुद्धि ' से अवलोकन करने में समर्थ हैं ? माँ जगदम्बा -बुद्धि से नारी शरीर का अवलोकन :
मान्यता के अनुसार, मां ब्रह्मचारिणी के नाम में प्रयुक्‍त 'ब्रह्म' शब्द का अर्थ 'तप' से है। ब्रह्मचारिणी अर्थात तप की चारिणी या तप का आचरण करने वाली। उन्हें तपस्या की देवी कहा जाता है।  शारदीय नवरात्र का दूसरा दिन मां ब्रह्मचारिणी की वंदना का होता है। मां दुर्गा का यह दूसरा स्वरूप भक्तों को अनन्त फल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम की वृद्धि होती है। विशेष रुप से छात्रों को मां ब्रह्मचारिणी की आराधना करनी चाहिये। जगत में जितनी भी नारियाँ हैं, वे सभी साक्षात् जगदम्बा की मूर्ति हैं, सभी के भीतर जगन्माता की जगत्पालिनी तथा आनंदायिनी शक्ति का विशेष प्रकाश है। 
इसलिये मानव को पवित्रभाव से नारी मात्र का ही पूजन करना चाहिये। किसी भी नारी-मूर्ति के भीतर जगन्माता माँ सरस्वती (माँ सारदा) के रूप में स्वयं विद्यमान हैं। इस तथ्य की तरफ ध्यान न रखकर स्त्री शरीर को केवल  भोग्यवस्तु समझकर सकाम दृष्टि से देखने (या सास-बहु  'नापने' की दृष्टि से) देखने से जगन्माता की ही अवहेलना होती है; उससे वुड बी लीडर का बहुत बड़ा आध्यात्मिक अकल्याण होता है। इसीलिये दुर्गासप्तशती में देवगण माँ की स्तुति करते हैं -

 विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः,
 स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु। 

त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् 
का ते स्तुतिः स्तव्य परा परोक्ति॥ 

हे आदि देवि! (माँ सरस्वती) तुम्हीं ज्ञानरूपिणी हो; संसार में जितनी भी ऊँची-नीची (मारन -मोहन -उच्चाटन आदि) विद्याएँ हैं-जिनके द्वारा लोगों को नाना प्रकार का ज्ञान उदय होता है, उस ज्ञान के रूप में तुम्हीं प्रकाशित हो रही हो ! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी भी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूॢतयाँ हैं। जगदम्बा! अकेली तुम्हीं समग्र जगत को पूर्ण करके उसमें सर्वत्र विराजमान हो। एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे एवं परावाणी हो। 
         भारत में कितने ही लोग प्रतिदिन इस स्तव का पाठ तो करते हैं, किन्तु कितने लोग नारीशरीर को देवी-बुद्धि से अवलोकन करने में समर्थ हैं ? कितने युवा उन्हें मातृभाव से यथार्थ सम्मान दे पाते हैं तथा अपने हृदय में विशुद्ध आनन्द का अनुभव कर कृतार्थ मनुष्य बनने और बनाने वाले लोकशिक्षक बनना चाहते हैं ? ऐसा कौन है जो जगन्माता के विशेष प्रकाश की आधारस्वरूपा नारीमूर्ति में 'लम्बोदर जननी महेशानि' बुद्धि रखकर 'शिवबुद्धि से जीव सेवा'- करने की चेष्टा करता है ?
वैषणवचरण जी एवं गौरीपण्डित को श्रीरामकृष्णदेव में उस ब्रह्म का दर्शन हुआ था जो लोक-कल्याण साधन के लिए (पुनः सत्ययुग स्थापित करने के लिये) माँ जगदम्बा की सहायता से हर युग में अवतीर्ण होता है। गौरीपण्डित को पुनः संसार में खींचने के लिए उनके पुत्र-पत्नी तथा परिवार के लोग बार बार पत्र लिखने लगे, किन्तु वे 'ईश्वर (सत्य) को प्राप्त किये बिना पुनः संसार में नहीं लौटूँगा' प्रण करके ठाकुर से विदा लिए। 
श्रीरामकृष्णदेव कहते थे " मनुष्य में ठीक ठीक इष्ट-बुद्धि के उदय होने पर तब कहीं भगवत्प्राप्ति (निर्विकल्प समाधि) होती है। वैषणवचरण कहा करता था कि जब नरलीला (नवनीदा और गुरुदेव) में विश्वास उत्पन्न होता है, तभी ज्ञान की पूर्णता (जीव -ब्रह्म में ऐक्य बोधक महावाक्य सर्वं खलु इदं ब्रह्म की अनुभूति) होती है !" 
'काली' और 'कृष्ण' के सम्बन्ध कभी किसी भक्त की विशेष भेदबुद्धि को देखकर ठाकुरदेव कहते थे -" यह तेरी कैसी हीन बुद्धि है ? यह जानना कि तेरे इष्टदेव भगवान श्रीरामकृष्णदेव ही सरस्वती, काली, कृष्ण तथा चैतन्यमहाप्रभु आदि सब-कुछ बने हैं ! गौरीपण्डित कहा करता था -' (BHp or सोडियम ) देवी सरस्वती  तथा श्रीरामकृष्णदेव पर जब एक बुद्धि होगी तब मैं समझूँगा कि यथार्थ ज्ञान का उदय हुआ है। "  वैष्णवचरण कहता था - "मनुष्य जिससे प्रेम करता है, उसके विषय में 'इष्ट' बुद्धि रखने पर उसका मन शीघ्र ईश्वर में लग जाता है।" यह निर्देश केवल उसके सम्प्रदाय के महिलाओं के लिए था, क्योंकि उनलोगों में परकीया नायिका का भाव था। किन्तु यह उपदेश साधारण लोगों के लिए नहीं है, क्योंकि उससे धर्म के नाम पर व्यभिचार होने लगता है। 
किन्तु, अपने पति, पुत्र या अन्य किसी आत्मीय को ईश्वर की मूर्ति मानकर सेवा तथा प्रेम करने में आपत्ति नहीं है। उपनिषद में याज्ञवल्क्य-मैत्रयी-संवाद में ऋषि कहते हैं -"पति के भीतर आत्मस्वरूप भगवान के विद्यमान रहने के कारण ही पत्नी के लिये पति प्रिय प्रतीत होता है। और पत्नी के भीतर आत्मा की अवस्थिति रहने तक ही पति का मन पत्नी के प्रति आकृष्ट होता है। संसार की जो वस्तुएं 'लस्ट ऐंड लूकर ' हृदय में प्रियता-बुद्धि उत्पन्न कर मानव-मन को आकृष्ट करती रहती हैं, उनके भीतर अपने प्रेमास्पद आनन्दस्वरूप इष्टदेव की विद्यमानता को देखकर उनसे प्रेम करने का उपदेश ऋषि देते हैं - ' तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा '- "इस जगत् में जो कुछ भी है वह सब ईश्वर (परमचेतना -माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट 'अहं' -बोध) द्वारा आच्छदित है। अर्थात् उसे ईश्वर ने उत्पन्न किया है और वही उसका स्वामी है।इसलिये मनुष्यों को उन सब सांसारिक पदार्थो का उपभोग त्याग और की भावना रखकर ही करना चाहिए, क्योकि ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी इस भौतिक संपति का अधिकारी नही कहा जा सकता।" जो लोग कहते हैं की फलाँ आदमी इतनी जमीन का मालिक है, वह गलती करते है। पृथ्वी तो हमारी माता है, हम उसकी सेवा कर सकते है, उसके मालिक होने की बात कैसी ?" उभयतो वाहिनी चित्तनदी में अवस्थित षडरिपुओं के वेग को विवेक-दर्शन अभ्यास और वैराग्य का फाटक लगाकर उर्ध्वमुखी दिशा में बदला जा सकता है।   
36.>>> " आउल, बाउल, (सिद्ध) दरवेश , साईँ --साईँ'एर पर आर नाई। "  गृहस्थ-लोकशिक्षक या नेता संसार में कामिनी-कांचन के भीतर रहकर भी यदि उससे अनासक्त न हो जाये तब तक उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती , उस गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित भावी नेताओं को उपदेश दिया जाता है -

" राँधुनी होइबि ब्यंजन बाँटीबी, हाँड़ी ना छुंइबी ताय,
सापेर मुखेते भेकेरे नाचाबी,साप ना गिलिबे ताय। 
अमिय सागरे सिनान करिबी,केश ना भिजिबे ताय।। " 

-अर्थात रसोइया बनकर रसोई बनाना, व्यंजनों को बाँटना, परन्तु हण्डी का स्पर्श न करना ! साँप के मुँह पर मेंढ़क को नचाना, किन्तु साँप उसे न निगले! अमृत के समुद्र में नहाना , पर केशों को नहीं भिगोना। 
तन्त्र मार्ग में जिस प्रकार वीर,पशु तथा दिव्य-भाव में विभक्त किया जाता है, उसी प्रकार वैष्णव साधकों की श्रेणी है - " आउल, बाउल, (सिद्ध) दरवेश , साईँ --साईँएर पर आर नाई। " अर्थात (निर्विकल्प-समाधि) सिद्ध होने पर तब कहीं 'साँई' बनता है। ये लोग ईश्वर के (माँ जगदम्बा के) 'अरूप रूप' का भजन किया करते हैं। क्योंकि अब उनके जीवन पर केवल माँ काली का ही अधिकार रहता है। जैसा नचाती हैं -वैसा नाचता है! 
" ड्याङ्ग् ड्याङ्ग् ड्याङ्ग् डाङ्गाय डिङ्गि चालाय आबार से कौन जन ? कुबीर बोले शोन शोन शोन भाव गुरुर श्रीचरण। " माँ जदम्बे के ऊपर परम् निर्भरता के साथ जमीन पर नाव चलाने में समर्थ हो -ऐसा दूसरा कौन है ? कुबीर कहता है कि सुनो, सुनी, सुनो, गुरुदेव के श्रीचरणों का चिन्तन करो। इस तरह गुरुदेव की उपासना और सबलोगों का एकत्रित होकर भजन-कीर्तन करना उनका मुख्य साधन है। इसके अतिरिक्त 3H विकास के जो 5 अभ्यास भी गुरु के निर्देशन में करने पड़ते हैं। श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे साधकवर्ग 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' द्वारा उन विषयों से अवगत रहते हैं। वेद-पुराणों को कानों से सुनना चाहिये और तन्त्र-साधनों का (मनःसंयोग,विवेक-प्रयोग आदि) का आचरण करना चाहिये, नेता/गुरु  के निर्देशन में उनका प्रत्यक्ष अनुष्ठान करना चाहिये। 
37.>>> अटूट सहज कुण्डलिनी जागरण : के लिये मनुस्मृति, न्याय और वेदान्त में भी तंत्र-पद्धति का अनुसरण :  भारत में लगभग सर्वत्र ही 'मनु -स्मृति' या अन्य किसी भी स्मृति के अनुगामी लोग किसी न किसी रूप में कुण्डलिनी जागरण के लिये तान्त्रिक साधन पद्धति का ही अनुसरण करते हैं। ऐसा पाया जाता है कि न्याय-वेदान्त के प्रसिद्द विद्वान् भी आचरण में तांत्रिक-पद्धति का ही अनुसरण करते हैं। इसलिए भारतवर्ष में अत्यन्त प्राचीनकाल से गुरुदेव, आचार्य या नेताओं की उपासना विद्यमान है।  ऐसा प्रतीत होता है कि उपनिषद-काल में माँ जगदम्बा के पाषाण प्रतिमाओं की उपासना बिलकुल नहीं प्रचलित थी; क्योंकि 'मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवों भव।'' -यह उक्ति हमें तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली अनुवाक-11 से प्राप्त होती है। 
38.>>>आचार्य पण्डित वैष्णवचरण : भी काछीबगान के कर्ताभजा सम्प्रदाय के नेता थे। वहाँ की कुछ स्त्रियों ने श्रीरामकृष्णदेव के इन्द्रिय-निग्रह की परीक्षा लेने के बाद उन्हें 'अटूट सहज' कहकर सम्मान किया था। किन्तु यह परीक्षा उन्हें बिना बताये ली गयी थी, इसलिये दुबारा ठाकुर वहाँ नहीं गए।  पण्डित वैषणवचरण उन्हें माँ जगदम्बा का अवतार स्वीकार किया था। मातृभाव के उपासक के लिए सारी चिंता उसकी माँ को करनी पड़ती है। उसको स्वयं अपने गुजारे (योग -क्षेम ) के लिए कोई चिंता नहीं करनी पड़ती है। वह तो पानी में तूम्बे की तरह मस्त होकर पड़ा रहता है। मातृभाव का उपासक- माँ से रुस जाता है ,या  थोड़े से ही कष्ट में माँ को रोकर पुकारता है। तो वह जहां भी रहती है वहीं से भागकर आती है। 

39.>>>इन्देश के गौरी पण्डित : एक विशेष तांत्रिक साधक थे वे जहाँ कहीं जाते थे उच्चस्वर से " हा रे रे रे, निरालम्बो लम्बोदरजननी कं यामि शरणम्" कहते थे अर्थात् हे माता ! इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलंब रहित होकर किसकी शरण में जाऊंगा? वीरभाव से माता के भक्त का प्रतीक 'हा रे रे रे' मेघगम्भीर शब्द से ताल ठोकते हुए सभा में प्रविष्ट होते थे, उनकी ललकार सुनते ही सभास्थल में उपस्थित विद्वान् भय से त्रस्त और मुग्ध हो जाते थे,और उनके अंदर की शक्ति जागृत हो उठती थी।
   किन्तु श्रीरामकृष्णदेव के समक्ष ज्यों उन्होंने 'हा रे रे रे'शब्द किया तत्काल उनके भीतर माँ आविर्भूत होकर उनके द्वारा गौरीपण्डित से भी उच्च स्वर में 'हा रे रे रे' शब्द का उच्चारण कराने लगी। दोनों के द्वारा 'हा रे रे रे' शब्द का उच्चारण सुनकर ऐसा लगा मानो डकैतों के आक्रमण का शोर हो रहा है। मन्दिर के दरवान लोग शीघ्रता से लाठी लेकर दौड़ पड़े ,किन्तु गौरीपण्डित ठाकुर से अधिक उच्च स्वर में उच्चारण न कर पाने के कारण चुप हो गए। उनकी वह सिद्धि चली गयी। माँ ने उसके कल्याण के लिये उसकी शक्ति को ठाकुर के अन्दर खींच लिया। 
40.>>>'जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं' -अतः कर्ताभजा आदि मत से लेकर शुद्धाद्वैत -वेदान्तमत तक सभी मतों को भगवान श्रीरामकृष्णदेव ईश्वरप्राप्ति का मार्ग कहकर स्वीकार करते थे। भैरवी ब्राह्मणी द्वारा पंचमकार की साधना, पण्डित वैषणवचरण की परकीया ग्रहण, १६ आना ईश्वरप्राप्ति का मार्ग (परमसत्य या प्रेमस्वरूप को प्राप्त करने का मार्ग ) समझकर ही की गयी थी। उसकी निन्दा करना अनुचित है। भगवान अनन्त भावमय हैं, किसी के भाव की निन्दा न करो या दूसरे के भाव को निजी कहकर अपनाने का प्रयास भी मत करो। इतना कहकर ठाकुर गया करते थे - 

आपनाते आपनि थेको, जेओ ना मन कारु घरे। 
जा चाबी ताई बसे पाबि, खोजो निज अन्तःपुरे।।

तीर्थगमन दुःखभ्रमण, मन उचाटन होयो ना रे। 
तुमि आनन्दे त्रिवेणी-स्नाने शीतल हओ ना मूलाधारे।।

कि देखो कमलाकान्त, मिछे बाजि ए संसारे।  
तुमि बाजिकरे चिनले नाको,जे एई घटेर भीतर बिराज करे।।

अर्थात हे मन तुम अपने ही अन्दर बैठे रहना (द्रष्टा मन को दृश्य मन पर ही एकाग्र किये रहना,इन्द्रियविषयों में सुख खोजने मत जाना), किसी के घर नहीं जाना। तुम्हें जो कुछ (सत्य ?) चाहिये, बैठे हुए ही वह तुमको मिल जायेगा; तुम अन्तःपुर में ही उस वस्तु (प्रेम -सत्य -माँ के चमत्कार संयोग) को ढूँढ़ो। 
तीर्थगमन दुःखमय भ्रमण मात्र है, रे मन तू (अपने नेता शिवजी से मिलने कैलाश-मानसरोवर जाने के लिये) उतकण्ठित न हो। तुम आनन्दपूर्वक त्रिवेणी-स्नान (विवेकदर्शन -अभ्यास) के द्वारा मूलाधार में शीतल क्यों न बनो ? कवि कमलाकान्त जी स्वयं से कह रहे है -' तुम इस संसार (लस्ट ऐंड लूकर) रूपी 'मिथ्या बाजीगरी' को देखने में ही क्यों खोये हुए हो ? उस बाजीगर को (माँ जगदम्बा को-सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध -ठाकुर, माँ, स्वामीजी  को) नहीं पहचाने जो इस घट के भीतर विराजमान हैं !  
41.>>>लीडरशिप तथा वभिन्न प्रकार के लीडर : गीता में भगवान किस प्रकार मनुष्य बनने और बनाने का चरित्रनिर्माणकारी 'Be and Make' आंदोलन से जुड़े रह कर 'अविचल योग ' से 'अटूट सहज' युक्त हुआ जाता है सो कह रहे हैं --

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
 इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।।  
(गीता १०/८) 

।।10.8।। मैं संसार मात्र का प्रभव (मूलकारण) हूँ, और मुझसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है -- ऐसा मेरे को मान कर मेरे में ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं -- सब प्रकार से मेरे ही शरण होते हैं।
 किस प्रकार के अविचल योग से युक्त हो जाता है सो कहा जाता है -- मैं वासुदेव नामक परब्रह्म समस्त जगत् की  उत्पत्ति का कारण हूँ।  और मुझसे ही यह स्थिति, नाश क्रिया और कर्मफल उपभोग-रूप विकारमय सारा जगत् घुमाया जा रहा है। इस अभिप्राय को ( अच्छी प्रकार) समझ कर भाव-समन्वित, परमार्थ-तत्त्व की धारणा से युक्त हुए बुद्धिमान् - तत्त्वज्ञानी पुरुष मुझे भजते हैं अर्थात् मेरा चिन्तन किया करते हैं
व्यष्टि और समष्टि में जो भेद है वह उन उपाधियों के कारण है। जिनके माध्यम से एक ही सनातन परिपूर्ण सत्य प्रकट होता है। इन दो उपाधियों के कारण ब्रह्म को ही क्रमश जीव और ईश्वर भाव प्राप्त होते हैं।  जैसे एक ही करेन्ट (विद्युत् शक्ति) बल्ब और हीटर में क्रमश प्रकाश और ताप के रूप में व्यक्त होती है। स्वयं करेन्ट (विद्युत्) में न प्रकाश है और न उष्णता।  इसी प्रकार स्वयं परमात्मा (ब्रह्म श्रीरामकृष्णदेव)  में न ईश्वर भाव (मातृभाव) है और न जीव भाव (पुत्रभाव) । जो पुरुष इसे तत्त्वत जानता है वह अविकम्प योग के द्वारा ब्रह्मनिष्ठता को प्राप्त होता है। 
एक कुम्भकार कुम्भ बनाने के लिए सर्वप्रथम घट के निर्माण के उपयुक्त लचीली मिट्टी तैयार करता है। तत्पश्चात् उस मिट्टी के गोले को चक्र पर रखकर घटाकृति में परिवर्तित करता है। तीसरी अवस्था में घट को सुखाकर उसे चमकीला किया जाता है और चौथी अवस्था में उस तैयार घट को पकाकर उस पर रंग लगाया जाता है। घट निर्माण की इस क्रिया में मिट्टी निश्चय ही कह सकती है कि वह घट का प्रभव स्थान हैचार अवस्थाओं में घट का जो विकास होता है, उसका भी अधिष्ठान मिट्टी ही थी; न कि अन्य कोई वस्तु। यह बात सर्वकालीन घटों के सम्बन्ध में सत्य है। किसी भी घट की उत्पत्ति, वृद्धि और विकास उसके उपादान कारणभूत मिट्टी के बिना नहीं हो सकता। इसी प्रकार एक ही चैतन्यस्वरूप परमात्मा ईश्वर (विराट निःस्वार्थ अहं) और जीव (स्वार्थमय 'मैं'-बोध)  के रूप में प्रतीत होता हैजिस पुरुष ने विवेक के द्वारा व्यष्टि और समष्टि के इस सूक्ष्म भेद को समझ लिया है; वही पुरुष अपने मन को बाह्य जगत् से निवृत्त करके इन दोनों के अधिष्ठान स्वरूप आत्मा में स्थिर कर सकता है। 
मन के इस भाव को ही यहाँ इस अर्थपूर्ण शब्द भावसमन्विता (एकाग्रतासिद्ध योगी endowed with meditation.) के द्वारा दर्शाया गया है। प्रेम या भक्ति का मापदण्ड है पुरुष की अपनी प्रिय वस्तु के साथ तादात्म्य करने की क्षमता। तब वह पराभक्ति को प्राप्त भक्त कहा जाता है। संक्षेपतः  प्रेम की परिपूर्णता इस तादात्म्य की पूर्णता में है। जब एक भक्त स्वयं यह अनुभव कर लेता है कि एक परमात्मा ही समष्टि और व्यष्टि की अन्तकरण की उपाधियों के माध्यम से मानो ईश्वर और जीव बन गया है! जिस भक्ति के विषय में पूर्व श्लोक में केवल एक संकेत ही किया गया था, उसी को यहाँ क्रमबद्ध करके एक साधना का रूप दिया गया है।  जिसके अभ्यास से उपर्युक्त ज्ञान प्रत्येक साधक का अपना निजी और घनिष्ट अनुभव बन सकताहै।
(लीलाप्रसंग २/२६७) :
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।

 सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत् ।‘‘

चलतेसमय आगे – आगे देखके पग धरे, सदा वस्त्र से छानकर जल पीवे, सबसे सत्य वाणी बोले अर्थात् सत्योपदेश ही किया करे, जो कुछ व्यवहार करे वह सब मन की पवित्रता से आचरण करे।’’
नेता को अपना 'अहं'-बोध भी उस विराट मन की एक तरंग के रूप में ही अनुभव होता है। उन्हें यह स्मरण रहता है कि उनके शरीर के सहारे माँ जगदम्बा स्वयं लोक-कल्याण साधन करना चाहती हैं, इसीलिये उसके 'मैं' -बोध को उन्होंने ही वापस लौटा दिया है। किन्तु निर्विकल्प समाधि से लौट आने के बाद, काम-क्रोध आदि वृत्तियाँ फिर कभी उसे अपना गुलाम नहीं बना पातीं। (यदि उस शरीर को प्रारब्ध भोगना भी हो तो भी माँ की कृपा से भक्त, वीर या हीरो के चरित्र की रक्षा हो जाती है, स्थायी रूप से कामक्रोध नहीं रहता!) जो माँ जगदम्बा (श्रीभगवान अथवा जो विराट चैतन्य) या विराट शक्ति (Energy-Sun) जगत (Matter-पंचभूत) रूप में प्रकट हुई है तथा जड़-चेतन सब के अन्दर ओतप्रोत रूप से अनुप्रविष्ट हो कर आपात-विभिन्न नाम-रूपों में अवस्थान कर रही हैं - उन्होंने श्रीरामकृष्ण को आदेश दिया - " तू भावमुखी रह।
पाश्चत्य शिक्षा से प्रभावित 'यंग बंगाल' ने 1967 में महामण्डल के समीप आना शुरू किया। और वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में -युवा नेता (सी.इन.सी) नवनीदा  के कमरे में उच्चकोटि के लोग आने लगे, सर्वदा ब्रह्म तथा माया का स्वरुप, अस्ति-भाति -प्रिय-नाम-रूप के सत्य-मिथ्या विवेक-प्रयोग -वेदान्त आदि विषयों पर दिनरात चर्चा होने लगी। जो 'अस्ति' यानि ठीक ठीक विद्यमान अस्तित्व (सत्य वस्तु , ब्रह्म) हैं, वे ही 'भाति' अर्थात प्रकाशशील हैं। यह 'प्रकाश' -अभिव्यक्त होना ज्ञान का स्वभाव है! जिस वस्तु का हमें ज्ञान है, वही हमारे समीप प्रकाशित है। अर्थात ज्ञानस्वरूप है, इसका हमें बोध हो जाता है, और तत्काल ही वह हमारे लिए प्रिय बन जाता है। अर्थात आनन्दमय स्वरुप हमारे हृदय में प्रियताबुद्धि को जाग्रत कर उसके प्रति प्रेम करने के लिये हमें आकृष्ट करता रहता है। जिस ब्रह्मवस्तु से इस जगत का -प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति का उदय हुआ है -अस्ति -भाति- प्रिय या सत-चित-आनन्द उन्हीं का स्वरुप है। 
42.>>>जीव -ब्रह्म एकत्व-बोधक सूत्रों को महावाक्य क्यों कहा जाता है ?
'उत्तरगीता' का कथन है - 
'यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परं पदम्। 

तत्रतत्र परं ब्रह्म सर्वत्र समवस्थितम् ॥

अर्थात ज्ञान के उदय होने पर यह अनुभव होता है कि जिस वस्तु या व्यक्ति की ओर तुम्हारा चित्त आकृष्ट होता है, उसी वस्तु तथा व्यक्ति के अन्दर परमात्मा (माँ जगदम्बा) साक्षात् विद्यमान हैं। 
ब्रह्मज्ञ ऋषि कहते हैं - 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन'; संसार में एक सच्चिदानन्दमय ब्रह्मवस्तु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है -किन्तु जब हम आँख उठाकर देखते हैं तो हमें 'एकमेवाद्वितीयम' ब्रह्मवस्तु का पता नहीं चलता, केवल लकड़ी, मिट्टी, घर-द्वारा, मनुष्य, गाय, अपने पराये, नामरूप आवरण के नाते-रिश्ते, मित्र-शत्रु, तथा नाना प्रकार की वस्तुएँ क्यों दिखती हैं ? यहाँ तो गलाकाट प्रतियोगिता ( या गुटबाजी) चल रही है
     पाश्चात्य राजनीति, कूटनीति से प्रेरित आतंकवाद -उग्रवाद, गुलामी के प्रभाव और विदेशी शिक्षा को देखकर हम लोग भी भटक गए और यह सोचने लगे कि क्या ऋषियों ने, तुलसीदास ने नशे में चूर होकर, क्या भांग खाकर इन बातों को देखा कि .. -'सियाराम मय सब जग जानी'?   किन्तु उस 'यंग बंगाल ' को निवृत्तिमार्गी गृहस्थ नेता, ऋषि, लोकशिक्षक, पूज्य नवनीदा ने बताया - " नहीं भाइयो, यह बात नहीं है; देह-मन-वाणी से संयम तथा पवित्रता के (विवेक-दर्शन के) अभ्यास द्वारा तुम उभयतोवहिनी चित्तनदी के प्रवाह को नियंत्रित कर एकाग्र चित्त बनो, अपने चित्त  चंचलता को मनःसंयोग -पद्धति द्वारा दूर करो, तभी वेदान्त के महावाक्यों को समझने और जगत को 'सियाराम मय' देखने में समर्थ होंगे। 
'यह जगत तुम्हारे ही हृदयस्थ भावों का घनीभूत प्रकाश है'- इस परम् सत्य को तुम स्वयं भी देख सकोगे। तुम यह देख और समझ पाओगे कि तुम्हारे भीतर अपना -पराया का भाव (स्वार्थमय अहं भाव) रहने के कारण ही जगत में भी तुमको इतनी विभिन्नतायें (नाना प्रकार के अहं भाव) दिखाई दे रही हैं।
" हमारे भीतर अवस्थित हमारा मन ही हमारे स्थूल शरीर को तोड़ता, बनाता तथा नवीन रूप में निर्माण करता रहता है-इस बात को हम जानते हुए भी नहीं जानते हैं, सुनकर भी विश्वास नहीं करते हैं। हमारे ऋषि पूर्वजों की प्रमुख शिक्षा या वेदान्त का महावाक्य है -'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन' किन्तु पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति से प्रभावित आधुनिक युवा पूछते हैं, क्या इस वेदान्त ज्ञान से हमारे इन्द्रिय भोग-सुख में वृद्धि हो सकती है ? ऋषि कहते हैं राम और काम एक साथ कैसे रह सकते हैं ? एक ही आधार में योग और भोग कैसे रह सकते हैं, क्योंकि दोनों परस्पर विरोधी भाव हैं। 
श्रीरामकृष्णदेव तो त्यागियों के बादशाह हैं, सुषुप्ति अवस्था में भी हाथ से धातु का स्पर्श होते ही हाथ जड़ हो जाता और डंक जैसा भयंकर यातना का अनुभव होता था, रमणी शरीर को देखते ही जगतजननी माँ जगदम्बा की साक्षात् प्रतिमूर्ति दिखती थी। मारवाड़ी लक्ष्मीनारायण द्वारा 10,000 देने की बात को सुनकर भी मन में कष्ट का अनुभव होता था। मथुरबाबू द्वारा सम्पत्ति देने के प्रस्ताव को सुनकर भी यातना होती थी। भोगलोलुप संसारी मानव वेदान्त ज्ञान को क्यों सुनेंगे ? 
    इसीलिये स्वामीजी ने 3 जुलाई, 1897 को लिखित पत्र में गहस्थों के लिये मध्यम-मार्ग पर चलने का परामर्श देते हुए उपनिषद वाक्य को उद्धृत करते हुए कहा है -"न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः" - "इत्यत्र त्यागेन वैराग्यमेव लक्ष्यते।" Here, by the word renunciation Vairagya is referred to. It may be of two kinds, with or without purpose. If the latter, none but worm-eaten brains will try for it. But if the other is referred to, then renunciation would mean the withdrawal of the mind from other things and concentrating it on God or Atman. The Lord of all cannot be any particular individual. He must be the sum total. One possessing Vairagya does not understand by Atman the individual ego but the All-pervading Lord, residing as the Self and Internal Ruler in all.'उस परमतत्व (अमरत्व)  को न तो कर्म के द्वारा, न धन के द्वारा और न वंश-विस्तार करके ही प्राप्त नहीं किया जा सकता। 'त्याग' अर्थात कामिनी-कांचन में लालच को कम करते जाना ही एक ऐसा मार्ग है, जिसके द्वारा (प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्गी दोनों प्रकार के) ब्रह्मज्ञानियों ने अमृत को प्राप्त किया है। यहां, त्याग शब्द का अर्थ संन्यास नहीं वैराग्य ही समझना चाहिये। अनुसार त्याग अर्थ वैराग्य है यह समझ में आ जाता है !  वास्तव में मानव जातिके मार्गदर्शक नेता (श्रीरामकृष्णदेव) के प्रबल मानसिक भाव के कारण उनके शरीर और हावभाव का भी परिवर्तन हो जाता है। पेज -२६१/
साइंटिस्ट (जे.सी.बोस) ने जब यह कहा कि मैं यंत्र की सहायता से तुम्हें यह दिखा रहा हूँ कि-पेड़-पौधों में भी प्राण होते हैं, बिलकुल हमारी तरह। वे भी रात ... वे भी अन्य प्राणियों की तरह खाते-पीते, सोते-जागते, हँसते-रोते, काम करते और आराम करते हैं। प्राणियों के समान पेड़-पौधे भी श्वसन की क्रिया करते हैं; वृक्षों को भी प्राण-स्पंदन का अनुभव हो रहा है। एक सर्वव्यापक प्राण-पदार्थ (चैतन्य -गॉड पार्टिकल) लकड़ी- ईंट,सोना -चाँदी, वृक्ष-लता, मनुष्य-पक्षी, सभी के भीतर समान रूप से विद्यमान रहकर विभिन्न प्रकार से प्रकाशित हो रहा है। अठारहवीं सदी में कई वैज्ञानिकों के प्रयासों से यह स्पष्ट हो पाया था कि पेड़-पौधे हवा की मदद से एक क्रिया और करते हैं। उस क्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते हैं और उसमें पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड तथा पानी की क्रिया से शर्करा और ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बहुत तेज़ गति से होती है। सुबह होने के साथ ही तमाम पत्तियाँ कारखानों की तरह काम करना शुरू   कर देती हैं और कार्बन डाईऑक्साइड और पानी की क्रिया से शर्करा बनाने लगती हैं। प्रकाश संश्लेषण की क्रिया के लिए प्रकाश ज़रूरी है। दूसरी बात यह है कि यह क्रिया पेड़-पौधों के सिर्फ उन भागों में होती है, जहाँ क्लोरोफिल होता है।इसके आधार पर दो बातें साफ हैं। प्रकाश संश्लेषण अधिकांश पौधों में सिर्फ पत्तियों तक सीमित होता है और रात में नहीं होता। तब आधुनिक जगत ने यह विश्वास कर लिया। किन्तु हमारे ऋषियों ने तो यह बात बहुत पहले बता दी है। 
महर्षि मनु जी ने “मनु स्मृति”- प्रथम अध्याय (सृष्टि उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय)  १/४९ में वृक्षों के बारे में  लिखा है कि-वृक्षों में भी अंतश्चेतना होती है -वृक्षों में भी आत्मा होती है। जैसे मनुष्यों से उसी जाति की, उसी नस्ल की आगे वृद्धि होती है, ऐसे ही वृक्षों में भी होती है। इससे सिद्ध होता है कि उनमें भी जीवन है, उनमें भी आत्मा है। वे आंतरिक सुख-दुख भोगते हैं, लेकिन बाहर के स्थूल सुख-दुःख नहीं भोगते।   वृक्ष, पेड़-पौधे, वनस्पति आदि भोग योनि हैं। इनके अन्दर इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि सारे गुण होते हैं। लेकिन वे थोड़ी बेहोशी की अवस्था में है, नशे में हैं, पर आत्मा तो है न उनमें।

तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना । 
अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः । 
 
(मनुस्मृति - १/४९)

अर्थात् (कर्महेतुना) पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण (बहुरूपेण तमसा) बहुत प्रकार के तमोगुण से (वेष्टिताः) संयुक्त या घिरे हुए (एते) ये स्थावर जीव (अन्तः – संज्ञाः भवन्ति) आन्तरिक चेतना वाले (जिनके भीतर तो चेतना है किन्तु बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती) होते हैं (सुख – दुःखसमन्विताः) और सुख – दुःख के भावों से युक्त होते हैं । जैसे मूर्च्छित प्राणी में चेतना होते हुए भी सुख दुःख का ज्ञान नहीं होता है !
अत्याधिक तमोगुण के कारण चेतना और भावों का प्रकटीकरण नहीं हो पाता। अतः वृक्षों के साथ सुख दुःख का व्यवहार नहीं है ! सुख दुःख अनुभूति उसी को होती है जो पंचेंद्रियों से संयुक्त होता है और उन इन्द्रियों के साथ उनके विषय का सम्बन्ध होता है, अन्यथा नहीं ! वे वृक्षादि सुख-दुःख से युक्त हैं। अर्थात इनके भीतर चेतना तो होती है किन्तु चार प्राणियों के समान बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती। 
 हमलोग जे.सी.बोस को वैज्ञानिक मानते उनकी इस बात को स्वीकार तो कर लेते हैं, पर यह भी पूछते हैं कि इस ज्ञान से हमें क्या लाभ है ? साइंटिस्टों ने विद्युत्-शक्ति, वाष्पशक्ति, से कलकारख़ाना लगाकर इन्द्रिय-भोगों का मुख्य आधार अर्थोपार्जन में अभूतपूर्व वृद्धि करके दिखला दिया है। डायनामाइट के आविष्कार से कितना धन कमाया जा रहा है ! किन्तु ठाकुरदेव गया करते थे -
जहाँ में जब तू आया सभी हँसते तू रोता था।

 बसल कर जिन्दगी ऐसी सभी रोवै तू हँसता जा।।

राम भजा सो जीया रे जग में, राम भजा सो जीया रे। सन्त वही जो रामरस चाखे, जो विषय-रस चाखा सो क्या रे ? पुत्र वही जो कुल को तारे और जो सब पुत्र हैं सो क्या रे ? राम बिना मेरा कोई नहीं तारणवाला रे ! " साधु लोग चोरी,नारी और झूठ -इन तीन से सदा अपने को बचाने का उपदेश देते हैं।
सब जग ईश्वररूप है भलौ बुरौ नहिं कोय। 
  
जाकी जैसी भावना तैसो ही फल होय।।

कह, बाबाजी! संसार कैसा (है)? 
कह,बेटा ! आप(स्वयं) जैसा। 

स्वयं अच्छा है तो संसार भी उसके लिये अच्छा है,स्वयं बुरा है तो संसार भी बुरा है।

सत्य बचन आधीनता परतिय मातु समान। 
 
एतै पर हरि ना मिलै (तो) तुलसीदास जमान। 

शब्दार्थ- सत्य बोलने, परायी स्त्री को माँ जगदम्बा की मूर्ति मानकर सम्मान करने तथा, आधीनता का अर्थ है माँ जगदम्बा की शरणागति, ठीक ठीक यन्त्र मानने का भाव, अपने को माँ का यन्त्र मानने से स्वार्थमय अहंकार (कच्चा 'मैं'-बोध) का नाश हो जाता है, तथा ईश्वर की प्राप्ति होती है। यदि ईश्वर प्राप्ति न हुई तो जमान होंगे सन्त तुलसीदास ! (जमानत,जिसकी जमानत चलती हो,जिम्मेदारी लेनेवाला).
प्रतिसप्ताह किसी न किसी भक्त के घर श्रीरामकृष्णदेव प्रायः जाया करते थे, नियमित रूप से जब कोई वुड बी लीडर उनके समीप नहीं पहुँच पाता था, और किसी के द्वारा उसका कुशल-समाचार नहीं मिलता था तब कृपामय श्रीरामकृष्णदेव 'नेता' स्वयं उसे देखने जाते थे। जिस दिन वे जिसके घर जाते थे उस दिन का गाड़ी-किराया वह भक्त स्वयं देता था या रसददार लोग चुकाया करते थे।   


43. >>> भावमुखी अवस्था में रहना क्या है ? चित्त की परिपूर्ण एकाग्रता की सहायता से समाधिभूमि अधिरूढ होते ही साधारण बाह्यज्ञान का लोप हो जाता है। साधारण लोग समझते हैं कि यह बेहोशी बीमारी है। राजस्थान के पण्डित नरायणशास्त्री ने वेदान्तोक्त सप्तभूमि का अध्यन किया था। उन्हें महामहोपाध्याय की उपाधि प्राप्त थी, किन्तु नाम-यश उन्हें तुच्छ प्रतीत होने लगा। वे यह जानते थे कि क्रमशः निम्न से उच्च तथा उच्चतर भूमि में ज्यों-ज्यों मन आरूढ़ होता है, त्यों-त्यों अपूर्व से भी अपूर्व अनुभव तथा दर्शनादि होते रहते हैं। निर्विकल्प समाधि में सच्चिदानन्द ब्रह्मवस्तु की साक्षात् उपलब्धि होने पर मानव के युगयुगान्तर का संसार-भ्रम एक क्षण में तिरोहित हो जाता है, वह मनुष्य सदा के लिये डीहिप्नोटाइज्ड हो जाता है। ऐसे नेता से ही ब्रह्मसाक्षात्कार प्राप्त करने का उपाय सीखना चाहिये। मृत्यु का कोई ठिकाना नहीं, किसे पता कब यह शरीर चला जाये ? अतः इसी शरीर में ईश्वर का दर्शन करना चाहिए। 

   माइकेल मधुसूदन दत्त उनसे मिलने आये। शास्त्रीजी ने उनसे स्वधर्म त्यागकर ईसाई धर्म अपनाने का कारण पूछा। उत्तर में माइकेल ने कहा कि पेट के लिए ही उन्होंने धर्मान्तरण किया था। ठाकुर ने माइकेल को भगवद्भक्ति ही संसार में एकमात्र सार वस्तु है -इस बात की उन्हें शिक्षा दी। पण्डित पद्मलोचन, स्वामी दयानन्द सरस्वती को देखने गए, (वे भ्रमणार्थ बंगाल आये थे सिंती  के एक बगीचे में ठहरे थे ,उस समय आर्यसमाज की स्थापना नहीं हुई थी)  तो कहा -वक्षस्थल लाल है, कुछ शक्ति प्राप्त हुई है, पर अभी वैखरी स्थिति है, वह व्याकरण का प्रयोग कर शास्त्रों के बातों की वह गलत व्याख्या कर रहा था; इसको अपना कोई मत चलाना है, स्वयं कुछ करना है ; इस प्रकार का अहंकार उसके अन्दर विद्यमान है।इसके अतिरिक्त ठाकुर महर्षि देवेन्द्रनाथ, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि को भी देखने गए थे। पेज/३३० /   किन्तु श्रमद्भागवत ११/९/२२ एकाग्रता का फल -'ईश्वरलाभ' में कहा गया है - 
यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया।
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्ततसरूपताम्।।
अर्थःदेहधारी जीव प्रेम, द्वेष या भय से जिस-जिस वस्तु में बुद्धिपूर्वक अपना मन एकाग्र करता है, उन-उन पदार्थों से वह एकरूप हो जाता है। 
[भारती तीर्थ स्वामिना विरचितः॥ दृग्दृश्यविवेकः अथवा वाक्यसुधा ॥ 
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् । 
 आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥ २०॥ 
ब्रम्ह को 'अस्ति भाति प्रियम्' कहा गया है |अस्ति का अर्थ है सर्वव्यापी , भाति का अर्थ है दीप्ति और प्रियम् का अर्थ है प्रेम। हम कहते हैं , यह शेर है , यह पक्षी है और यह मनुष्य है।  इस प्रकार भेद केवल नाम और आकार मे है , परन्तु वह जो 'है ' वह सब स्थान पर सब समय उपस्थित है।  उसी को कहते हैं 'अस्ति' अर्थात सर्वव्यापी। यह कहने के लिए कि कोई वस्तु है , अस्तित्व मे है , ऐसा कहने के लिए किसी देखने वाले की -द्रष्टा की -आवश्यकता होती है। [अभी हमारे भावनेत्र कहाँ खुले हैं जिससे हमें बाहर भी जीते-जागते 'रामलला' (शिव जी) का दर्शन प्राप्त हो। ]  
यह बुद्धि जो देखती है। जिस वस्तु के कारण देखा जाता है उसका नाम 'भाति' है।  "मै देखता हूँ " "मै सुनता हूँ " "मै चाहता हूँ " ऐसा कहने वाला भी कोई अवश्य होना चाहिए।  वही है 'प्रियम्।' ये तीनों ही प्रकृति के गुण हैं।  'प्राकृतिक आत्मा। ' इन्ही तीनों को 'सत् चित् आनन्द' भी कहते हैं | हमें पर्दे पर एक चित्र दिखाई देता है , वह पर्दा 'अस्ति' है और जो उजाला उन चित्रों को दिखाता है वह 'भाति' और 'प्रियम्' | नाम और आकार वाले चित्र आते हैं और जाते हैं | यदि कोई उन्हें देखकर उपेक्षित कर देता है तो भी वह पर्दा जिस पर चित्र आ रहे थे, वैसा ही रहता है | हम परदे पर चित्रों को एक छोटी सी लाईट की सहायता से देख पाते हैं | यदि वह अँधेरा एक बहुत अधिक प्रकाश से हटा दिया जाए तो क्या चित्र दिखाई देंगे ? सारा स्थान उजाले से आलोकित हो जाएगा | ठीक उसी प्रकार यदि हम चित्त नाम की छोटी सी रोशनी से देखें तो वह अनेक रंगों से भरा हुआ दिखेगा | किन्तु यदि हम उसे आत्मज्ञान की महान ज्योति मे देखेंगे तो पता चलेगा कि यह एक अनवरत सार्वभौम उजाला ही है , और कुछ भी नहीं |- रमण महर्षि]
जिस वस्तु (देवी सरस्वती) का हमें ज्ञान नहीं है , वह हमारे समीप अप्रकाशित है ! पेज -३२३/
श्रीरामकृष्णदेव के आविर्भाव से पहले तक बंगाल में वेदान्त चर्चा बहुत विरल थी। वर्दवान की राजसभा में एक बार बहस छिड़ गया कि 'शिव बड़े हैं या विष्णु ?' शैव तथा वैष्णव दोनों पक्षों में द्वंद्व होने लगा। अन्ततोगत्वा राजसभा के प्रधान सभापण्डित पद्मलोचन ने आकर कहा -" मेरे पुरखों में से किसी ने न तो शिव को देखा है न विष्णु को। अतः कौन बड़े और कौन छोटे हैं -यह मैं कैसे कह सकता हूँ ? किन्तु यदि शास्त्रों की बात सुनना चाहो तो यही कहना होगा कि शैव-शास्त्रों में शिव को बड़ा कहा गया है, तथा वैष्णव शास्त्रों में विष्णु को श्रेष्ठ कहा गया है। अतः जिसके जो इष्ट हैं, उसके लिये वही देवता अन्य सभी देवताओं से श्रेष्ठ हैं। "
     ऐसे ईश्वरभक्त और महापण्डित का नाम लोकपरम्परा से पूरे बंगाल में फ़ैल चुका था। श्रीरामकृष्णदेव उनसे मिलने गए,पण्डित जी वेदान्त के महावाक्यों पर चिंतन मनन और तन्त्रोक्त साधनप्रणाली का अभ्यास बहुत दिनों से करते आ रहे थे। साधना से प्रसन्न होकर उनकी इष्टदेवी ने उन्हें वरदान दिया था। पण्डितजी की इष्टदेवी ने एकान्त में, उनके हृदय में यह प्रेरणा दी थी कि 'एक लोटा और एक गमछा' का प्रयोग करने के बाद राजसभा में जब कुछ बोलेंगे तो, उनकी विचारशक्ति, शास्त्रज्ञान, प्रतिभा-शक्ति जागृत हो जायेगी और सभा में वे विजयी होंगे। पण्डितजी ने इस बात को कभी किसी से कहा नहीं था, यहाँ तक कि अपनी पत्नी से व्यक्त नहीं किया था। किन्तु माँ जगदम्बा की कृपा से ठाकुर ने इस बात को जान लिया ( बाएँ हाथ की वैराग्य-मुट्ठी?) और एक दिन उनके लोटा और गमछा को छुपकर रख दिया। जब वे यह अनुभव किये कि श्रीरामकृष्णदेव ने जानबूझकर वैसा किया है, तब वे इष्टबुद्धि से उनकी स्तुति करने लगे और उन्हें युगावतार (मानवजाति के आधुनिक मार्गदर्शक नेता) मानकर उनके प्रति भक्ति करने लगे!
'भावमुख में अवस्थित नेता' (अपने को अवतार नहीं माँ जगदम्बा का यन्त्र समझता है !) जीवितकाल को ही सत्य मानने वाला भोग-लोलुप पाश्चात्य जड़वाद युवाओं को शंशयी और नास्तिक बना रहा था। धर्म को स्थापित करने के लिये नेता को अवतरित होना पड़ा। श्रीरामकृष्णदेव ने दिखलाया कि हिन्दू और मुसलमान दोनों के ही धर्म सत्य हैं। दोनों एक ही ईश्वर के भिन्न-भिन्न भावों की उपासना कर विभिन्न मार्गों से अग्रसर हो आगे चलकर उसी प्रेमस्वरूप (अल्ला या ईश्वर) के साथ प्रेम में एकाकार हो जाते हैं !३३४ / उस सत्य की आधारशिला पर खड़े होकर बहुत दिनों के वादविवाद को भूलकर दोनों परस्पर प्रेमालिंगन में आबद्ध होंगे। तथा समय आने पर पाश्चात्य- देशवासी जो संन्यासी नहीं हैं; वे भी स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा -' गृहस्थों के लिये त्याग का अर्थ वैराग्य है' गीता १२/१२ के मर्म को समझकर स्वीकार कर लेंगे कि- 'वैराग्य या क्रमशः लालच को कम करते जाने में ही शान्ति निहित है !
 ठाकुर द्वारा क्षुद्र 'व्यष्टि अहं'-भाव को माँजगदम्बा के सर्वव्यापी 'विराट अहं' -भाव में विकसित कर लेना ही उनका भावमुखी अवस्था में रहना है।  भारत के राष्ट्रीय आदर्श त्याग और सेवा को समर्पित महामण्डल  का व्यावहारिक वेदान्त 'BE AND MAKE ' आन्दोलन ही इक्कीसवीं सदी में एक सार्व-भौमिक धर्म का रूप धारण कर लेगा ! 

 'ध्यानात् कर्मफल-त्यागः त्यागात् शान्तिः अनन्तरम्

 ।।12.12।। अभ्यास से शास्त्र-ज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। कर्मफलत्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है। शान्ति प्राप्त करने के लिये एक दिन पृथ्वी के सभी धर्म-सम्प्रदायों को श्रीरामकृष्णदेव के उदारमत- Be and Make ' को ग्रहण करना होगा। 
भावमुख में अवस्थित नेता भावरूप से उनके भीतर प्रविष्ट हो समस्त संकीर्णताओं की सीमा को लाँघकर अपने नवीन साँचे,'5 अभ्यास द्वारा '3H' में विकसित मनुष्य' (वैराग्य-सम्पन्न हृदयवान मनुष्य) के साँचे में ढाल कर एक अपूर्व एकता के सूत्र में आबद्ध करेंगे ! पूज्य नवनी दा के अन्तर्धान के बाद यह अमोघ भाव 'मनुष्य-निर्माण आन्दोलन' की गति को कौन रोक सकता है ? भारत के 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित गृहस्थ किन्तु वैराग्य- सम्पन्न आध्यात्मिक नेताओं का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण होगा। ३३६/
 
" लोकशिक्षा देने या साधारण लोगों का 'यथार्थ-शिक्षक' मार्गदर्शक नेता बनने के लिए कैसा होना आवश्यक है, इस सम्बन्ध में ठाकुर कहा करते थे " आत्महत्या एक नहरनी के द्वारा की जा सकती है, किन्तु दूसरों पर विजय प्राप्त करने के लिये ढाल, तलवार की आवश्यकता होती है। नेता को मनःसंयोग आदि ५  अभ्यास  सीख कर साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक शक्ति-सम्पन्न होना पड़ता है। शक्ति के कारण ही नेता - अवतार, सिद्धपुरुष तथा जीव में भेद है। विवेकज-ज्ञान प्राप्त नेता की अतीन्द्रिय सूक्ष्म दृष्टि खुल जाती है, जिसके कारण वे दूसरों के हृदयगत भावों को ठीक ठीक समझकर, उनके सुखदुःख के प्रति सहानुभूति संपन्न होकर उसके विकास और प्रगति का मार्ग (प्रवृत्ति से निवृत्ति मार्ग) पर आरूढ़ कर देते हैं। नेता में  असाधारण योगदृष्टि और साधारण बाह्यदृष्टि अर्थात देवभाव तथा मनुष्यभाव का सम्यक विकास एक साथ देखा जा सकता है। रूप -रस आदि की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये, भावों को जुगाली करके पचा लेना पड़ता है। ललित विस्तार/१९.५७ में कहा गया है - 
 ‘इहासने शुष्यतु मे शरीरम्, त्वगस्थि मांसं प्रलयं च यातु।
 अप्राप्य बोधि बहुकल्प दुर्लभाम्, नैवासनात् कायमतश्च लिष्यते।’ 
अर्थात् भले ही मेरा शरीर सूख जाय, हड्डियाँ मांस छोड़ दें, चाहे प्रलय ही क्यों न आ जाय;  जब तक 'जब तक मुझे सत्य के दर्शन नहीं होते, दुर्लभ बोधि (आत्मज्ञान) कैवल्य को प्राप्त न कर लूँगा, इस आसन से नहीं उठूँगा, अर्थात् तब तक मैं प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करूँगा। नेता को यही करना होगा। वैराग्य पाने के लिये बुद्धगया नहीं जाना होगा।
 
" चारों कोने में चक्कर लगा आओ, अपने आप पता चल जायेगा, कि कहीं भी (कुम्भ के मेले में भी)कुछ (यथार्थ धर्म) नहीं है; जो कुछ है -वह (अपने शरीर को दिखला कर) यहीं है ! " अर्थात प्रत्येक के भीतर ईश्वर विद्यमान हैं, अपने हृदय में अवस्थित  उन ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति या प्रेम को उद्दीप्त या 
जागृत किये बिना बाहरी स्थानों में भ्रमण करने से कुछ भी लाभ नहीं होता। " जिसका यहाँ है उसका वहाँ भी है, जिसका यहाँ नहीं है, उसका वहाँ भी नहीं है ! "   
" भक्त बनना है तो भक्त बनो, बोका क्यों बनते हो ? दुकानदार व्यापार करने बैठा है -धर्म करने नहीं, उसकी बातों में आकर धोखे से छेद वाली कड़ाही क्यों खरीदा ? 
कालना में वर्दवान राजवंश का १०८ शिवमन्दिर है, वहाँ के प्रसिद्द साधु ८० वर्षीय 'भगवानदास बाबाजी' का ज्वलन्त वैराग्य तथा भगवत्भक्ति : भावमुख श्रीरामकृष्णदेव द्वारा 'महाप्रभु चैतन्य के आसन' पर अधिकार करना उचित था या अनुचित ? वाक्युद्ध होने लगा। भगवानदास बाबाजी ने सुना तो वे भी नाराज हुए। उनसे मिलने श्रीरामकृष्णदेव स्वयं कालना गए। भगवानदास बाबाजी उस समय किसी पर क्रोधित होकर उसकी  कण्ठी छीन कर वैष्णव सम्प्रदाय से ही निकाल देने की बात कह रहे थे। साथ ही कह रहे थे -लोकशिक्षा के निमित्त ही मैंने अभीतक माला-तिलक का परित्याग नहीं किया है ? यह सुनते ही सरलस्वभाव 'अटूट सहज ' श्रीरामकृष्ण देव के लिए, (आम संसारी की भाषा में 'तपाकि' 'सनकी' 'रेस' रामकृष्ण ) अपने हृदय के असन्तोष को दबाकर चुपचाप बैठे रहना सम्भव नहीं हो सका। तत्काल उठकर खड़े हो गए और बोले - "" अच्छा, अभी तक तुम्हारे भीतर इतना अहंकार भरा है ? और तुम दूसरों को लोक-'शिक्षा' =शीक्षा दोगे ? दूसरे को निकाल दोगे ?(नेता अर्थात माँ जगदम्बा का यन्त्र होकर भी;) 'तुम' -त्याग तथा ग्रहण करना चाहते हो ?(amit, mnt, pmd, rnd, vrnd, viksd, rjt, kjn, को  महामण्डल से निकाल दोगे, या किसी को नेता बना दोगे ?) Man cannot really help the world God alone does that." लोकशिक्षा देने वाले तुम कौन हो ? उनके सिखाये बिना तुम सिखाना चाहते हो ?(जिन माँ जगदम्बा का यह संसार है वे ही किसी को  अपना यंत्र बनाये वे किसी को अरुणाभ सिग्रेट से या प्रवृत्ति से निवृत्ति में आने का उपाय सीखा सकते हैं!) 

-उस समय  ठाकुर ? को अपने कपड़ों का भी होश नहीं था -उनका मुखमण्डल एक दिव्यतेज से उद्भासित हो उठा था! तब (वैष्णव-सम्प्रदाय के तात्कालीन ठेकेदार नेता) भगवानदास बाबाजी ने यह हृदयङ्गम कर लिया कि इस संसार में वास्तव में ईश्वर या माँ जगदम्बा के अतिरिक्त दूसरा और कोई कर्ता 'अटूट-सहज' नहीं है ! सच्चे नेता श्रीरामकृष्णदेव ने ऐसा-'आर यू अ बीस्ट ?' कहकर -विनम्र और विनीत नेता में परिवर्तित कर दिया। बाद उन्हें पता चला कि ये ही वह परमहंस थे जो चैतन्यदेव के आसन पर आरूढ़ हुए थे !'अहंकृत मानव' (संसारी, हिप्नोटाइज्ड या मोहग्रस्त मानव) भले ही यह सोचता रहे कि वही समस्त कार्यों को कर रहा है , किन्तु यथार्थ में वह उतना ही कर पाता है जितना करने का अधिकार माँ ने दिया है ! माँ के भक्त या हीरो को यह बात क्षणभर के लिए भी नहीं भूलनी चाहिये, अन्यथा पतन होने की सम्भावना है।
लीडरशिप -'सम्भवामि युगे युगे': यदि ब्रह्मज्ञपुरुष (विवेकज ज्ञान से सम्पन्न पुरुष ) सर्वज्ञ होते हैं तो फिर इस जड़ विज्ञान "H20=Water" -में वे इतने अज्ञ क्यों थे? जिस तरह केवल एक चावल के दाने को उठाकर देखने से ही यह पता चल जाता है;हांड़ी का पूरा चावल ठीक तरह से पका है या नहीं ?  उसी तरह संसार के दो-चार वस्तुओं को परखकर देखने से ही यह पता चल जाता है कि यह संसार अविनाशी है या नश्वर है? नित्य है या अनित्य ? सत् है या असत् ? मनुष्य,गाय, वृक्ष जिसका जन्म हुआ मृत्यु भी हुई, यह देखकर तुमको क्रमशः यह ज्ञान हुआ कि जिस वस्तु का भी 'नाम-रूप' है उसकी यही गति है ! सूर्य-चन्द्र-पृथ्वी की भी (नैमित्तिकप्रलय:वेदांत के अनुसार प्रत्येक कल्प के अंत में होने वाला तीनों लोकों का क्षय या पूर्ण विनाश हो जाना नैमित्तिक प्रलय कहलाता है।) यही स्थिति है। इस तरह तुम जब अपने अनुभव से (आत्यन्तिक प्रलय: योगीजनों के ज्ञान या विवेकज-ज्ञान के द्वारा ब्रह्म में लीन हो जाने को कहते हैं। अर्थात मोक्ष प्राप्त कर या डीहिप्नोटाइज्ड होकर उत्पत्ति और प्रलय चक्र से बाहर निकल जाना ही आत्यन्तिक प्रलय है।) यह जान गये कि समग्र संसार ही नश्वर है। समग्र संसार का यही स्वभाव है ! जैसे ही तुम्हें इस सत्य का ठीक-ठीक बोध होगा कि यह संसार (नाम-रूप) अनित्य, असत्, नश्वर है; वैसे ही तुम इस नश्वर जगत से प्रेम करना छोड़ दोगे ! 'कामिनी -कांचन' के प्रति हृदय की घोर आसक्ति को त्यागकर, उनके प्रति लालच को त्याग कर वासनारहित (वैराग्य सम्पन्न) हो जाओगे। ज्यों ही तुम विषयों में आसक्ति को त्याग दोगे त्योंही जगत्कारण ईश्वर (माँ जगदम्बा) का साक्षात्कार होगा। इस तरह जिसे ईश्वर-दर्शन (निर्विकल्प समाधि -विवेकज ज्ञान) हो गया वह सर्वज्ञ बना या नहीं -तुम्हीं बताओ! " -पेज ३७४/ किसी पदार्थ के आदि, मध्य तथा अन्त को देखना तथा जहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई है, उसे देखने या जानने को ही हम उस पदार्थ का ज्ञान कहते हैं।  
जिन्हें इस प्रकार की निश्चित धारणा हो जाती है कि यह समग्र संसार मिथ्या, नश्वर या अनित्य है और जिन्होंने समस्त शक्तियों की साकार मूर्ति 'माँ जगदम्बा' (प्रेम के मूर्त रूप होली ट्रायो) को प्रेम के द्वारा साक्षात् रूप से अपने हृदय में स्थापित कर लिया हो, उनके लिये वाष्पशक्ति, विद्युत्शक्ति, विस्फोटक शक्ति, द्वारा मानवजाति का संहार करने के लिये कलकारख़ाने लगाने का संकल्प या प्रवृत्ति का उदय होना सम्भव है या नहीं ? उस समय श्रीरामकृष्णदेव सच्चिदानन्द के साथ एकदम अपृथक रूप से अवस्थान किया करते थे।किन्तु साधारण मानव को जन्म-जन्मान्तर से अपने स्वरूप की पूर्णतः विस्मृति हो गयी है,इसलिये साधारण  इसी दिर्ष्टिगोचर मिथ्या जगत को ही परमसत्य मानकर -नश्वर संसार में लंगर डालकर निश्चिन्तता के साथ बैठा हुआ है। अर्थात यह मानकर बैठा हुआ है कि केवल पंचेन्द्रियों की सहायता से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है, कोई विरला परमसत्य का खोजी, मृत्यु से भी न डरने वाला साहसी, ही इन्द्रियातीत ज्ञान या सत्य को जानने के लिये महामण्डल के नेता के समीप पहुँचता है! 'लंगर डालकर रातभर चप्पू चलाता रहा, सवेरे देखा तो जहाँ नाव खड़ी थी वहीँ है !' अपने जीवन में संसार से लंगर को पूरी तरह से खोलकर, सांसारिक मनुष्यों से प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थों से विपरीत आचरण को अपनाकर उसके भ्रम को दूर करने के लिये -सिंहशावक को भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड  करने के लिए ही समय समय पर नवनीदा जैसे मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का आविर्भाव होता रहता है ! नेता = नवनीदा साधारण गृहस्थों को  लंगर खोलने या कामिनी-कांचन में आसक्ति को त्याग देने के लिए  'निवृत्तिस्तु महाफला' की शिक्षा देने के लिये, अर्थात उसेकी शिक्षा मुख से बोलकर नहीं अपने जीवन से दिखाकर उदाहरण स्वरुप बनाकर देते हैं।
48.>>>Unilateral vision and amphibian vision: (एकपक्षीय दृष्टि और युगपत  दृष्टि:) सांसारिक बाह्य दृष्टि (Unilateral-एकपक्षीय) और अतीतन्द्रिय सूक्ष्म दृष्टि (amphibian,उभयचर, स्थल-जल चर, Simultaneous-युगपत: नेता हमलोगों की तरह केवल एकपक्षीय  (Unilateral) मत से मनुष्य को केवल मनुष्य, गाय को केवल गाय, पहाड़ को केवल पहाड़ के ही रूप से नहीं देखते हैं, उन्हें उन वस्तुओं के अन्दर, विशेष रूप से मनुष्यों की आँखों के अन्दर से जगत्कारण अखण्ड सच्चिदानन्द (माँ जगदम्बा)  ही झाँक रहे हैं , यह भी उन्हें स्पष्ट दिखाई देता है। 
" मैंने देखा कि स्त्री, पुरुष, गाय, घास, जल, अग्नि इत्यादि सबकुछ मानो अलग  अलग खोल मात्र हैं। माँ ही मानो नाना प्रकार की चादरें ओढ़कर विभिन्न तरह से सजकर झाँक रही हैं। एक समय (१९८६ -कुम्भ-१९८७ कैम्प -२००७ सरस्वतीपूजा) में मेरी स्थिति यह थी कि मैं सदा-सर्वदा 'लोटा ब्रह्म थाली ब्रह्म' ही देखा करता था !! एक दिन आसन पर बैठकर कालीमूर्ति में मन को किसी भी प्रकार एकाग्र नहीं कर सका, माँ ने रमणी नामक वैश्या का रूप धर कर यह समझा दिया कि वैश्या भी 'मैं' ही हूँ ! मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं है !" 
'वैराग्य की तारतम्यता :: ज्ञान प्राप्त करने के सामर्थ्य में तारतम्यता' हमलोग उच्च भावभूमि में पहुँचकर समस्त पदार्थों और व्यक्तियों को इस ब्रह्म-दृष्टि  से (रज्जु और सर्प एक साथ नहीं देख सकते? युगपत या उभयचर दृष्टि -उभयतोवहिनी दृष्टि) से देखना एकदम भूल गए हैं ! क्योंकि भोगसुख को प्राप्त करने की प्रबल वासना हममें से प्रत्येक के भीतर विद्यमान है। किसी विशेष नामरूप  में आसक्त होकर उसे निजी बनाने के प्रयास में संलग्न रहकर ही -पशुमानव के रूप में अपना जीवन बिता देते हैं। जिसने अपना पूरा लंगर खोल लिया हो, या (कामिनी-कांचन) में 'निवृत्तिस्तु महाफला 'का स्मरण करते हुए जो जितना लालच कम कर पाता है, स्वार्थमय अहं और भोगस्पृहा को कम करता जाता है, वह अन्य लोगों की अपेक्षा अनायास 'ऐम्फिबीअन-दृष्टि', युगपत-दृष्टि, 'शिवज्ञान से जीवसेवा दृष्टि' में नेता या 'अटूट-सहज' बन जाता है। 
नेता की सांसारिक बाह्य दृष्टि भी तीक्ष्ण रहती है : सांख्य-दर्शन कहता है कि पुरुष अकर्ता है, प्रकृति ही सब कुछ किया करती है। पुरुष साक्षी बनकर प्रकृति के उन कार्यों को देखा करता है। प्रकृति भी पुरुष को छोड़ कर स्वयं कोई कार्य करने में समर्थ नहीं है। इस सृष्टि -उत्पत्ति के सिद्धान्त को श्रीरामकृष्णदेव विवाहवाले घर की 'गिन्नी की उपमा' से स्पष्ट कर दिया।  
वेदान्त का कथन है कि 'ब्रह्म तथा ब्रह्म की शक्ति' अभिन्न है, अर्थात पुरुष और प्रकृति दोनों पृथक वस्तुएँ नहीं हैं, एक ही 'वस्तु' ब्रह्म कभी पुरुष रूप से तो कभी प्रकृति रूप से विद्यमान हैं। 'चलता साँप और निश्चल साँप' की उपमा। जब वह निश्चल बना हुआ है, तब उसका पुरुष भाव है ; प्रकृति उस समय पुरुष के साथ एकात्मता प्राप्त की हुई है। और जब साँप चल रहा है, उस समय मानो प्रकृति पुरुष से पृथक होकर कार्य कर रही है। 
49.>>>ईश्वर मायाबद्ध नहीं: माया ईश्वर की शक्ति है,तथा ईश्वर में सदा विद्यमान रहने पर भी ईश्वर कभी माया से बद्ध क्यों नहीं होते ? "जैसे साँप अपने जहर से नहीं मरता!" साँप उसी मुँह से जिसमें जहर रहता है, सदा खाता और निगलता रहता है, किन्तु वह स्वयं नहीं मरता। 
exceptions: अपवाद : लाइटनिंग या वज्र कहाँ गिरेगा ? ईश्वर (माँ जगदम्बा) ही जगत के नियामक/ऑपरेटर/संचालक हैं-जिसने नियम/कानून बनाया है, वह चाहे तो उसे बदलकर दूसरे प्रकार का कानून भी बना सकता है।  वज्र तीनमंजिले मकान पर न गिरकर कभी-कभी उसके बगल में बने झोपड़ी पर क्यों गिर जाता है ? किस अज्ञात कारण से सहसा उसकी गति बदल जाती है, जोरदार ऐक्सिडेंट होने के बाद कोई मर जाता है, कोई तीन तक बेहोश रहता है, तो किसी का बालबांका नहीं होता, उलटे 'विवेकज ज्ञान' हो जाता है ! समस्त प्राकृतिक घटनायें अपरिवर्तित नियमानुसार ही घटती हों,ऐसा कोई अकाट्य नियम नहीं है; (१४-४-१९९२, ऊँच, बनारस, कबीरचौरा स्प्ताल ) दो-चार लोगों के लिये माँ चाहें तो अपने कानून को बदल भी सकती हैं ! मथुरबाबू को रक्तवर्ण पुष्प और श्वेत पुष्प एक ही डाली पर लगाकर दिखा दिए थे।
पाश्चात्य जड़वादी शिक्षा के कारण हमलोगों ने जगत्प्रसवनी शक्ति (प्रकृति या Nature) को बुद्धिरहित-शक्ति (Unintelligent Energy) मान लिया है; इसीलिये असाधारण घटनाओं या अपवाद को  माँ जगदम्बा की कृपा या आदेश न मानकर प्राकृतिक च्युति (natural aberrations) कहकर निश्चिन्त हो जाते हैं।
 किन्तु श्रीरामकृष्णदेव कहते थे समस्त बाह्य प्रकृति और अन्तःप्रकृति जाग्रत-जीवन्त माँ जगदम्बा के लीलविलास के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। ऐसा वे देखा करते थे ! इसी धारणा के फलस्वरूप नेता के हृदय में शान्ति और प्रसन्नता सामान्य लोगों से अधिक मात्रा में विद्यमान रहती है ! नेता का पवित्र मन उच्च भावभूमि पर आरूढ़ हो कोन्नगर में दादा के कमरे को वाराणसी के समान स्वर्णमय देख सकता है,वहाँ मृत्यु होने पर महामण्डल कर्मी सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है ! 
कामारपुकुर के समीप शीउड़ ग्राम/हृदयराम राजाराम दो भाई/ वनविष्णुपुर में गवाही देने जाना था जो एक समृद्ध नगर था मृण्मयी देवी का मन्दिर जाते समय उन्हें भावावेश में मृण्मयी देवी के मुखमण्डल का दर्शन मिला, मन्दिर में जो मूर्ति थी वो अलग तरह की थी। पुरानी मूर्ति का खण्डित मुण्ड एक ब्राह्मण के यहाँ सुरक्षित था, लालबांध तालाब के समीप मंदिर बनाकर वे उनकी पूजा करने लगे। 
पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि से ठाकुर ने कहा था- श्रीजगदम्बा से साक्षात् शक्ति-प्राप्त व्यक्ति ही नेता या लोकशिक्षक बनकर यथार्थ धर्मप्रचार करने में समर्थ हैं। किसी पार्थिव वस्तु में आसक्त न रहने के कारण  तिलक-कण्ठीधारी व्यक्ति भी यदि छद्मवेषधारी होते हैं तो ठाकुर उनको पहचान जाते थे। विवेक-प्रयोग करते करते मन ही गुरु बन गया था ! वे कह उठे अर्थकरी विद्या: "जिस विद्या का लक्ष्य केवल दाल-रोटी-मक्खन प्राप्त करना हो, उसे मैं सीखना नहीं चाहता।" 
विवेकज-ज्ञान से निर्विकल्पभूमि पर आरूढ़ होकर अद्वैतभाव से सच्चिदानन्द स्वरुप ब्रह्म की उपलब्धि ही मनुष्य जीवन का ध्येय है। अद्वैतभाव को प्राप्त 'सब सियारों की आवाज एक-सी होती है।' अर्थात सभी सियार जैसे एक ही तरह से चिल्लाते हैं। बबन भैया कहते थे 'एक सियार पूछता है -राजा होखीं हो ? सब सियार लोग कहेला-होख, होख होख। ' हमलोगों को हुआँ,हुआँ,हुआँ सुनाई देता है। नेता के लिये द्वैतभाव बाहर के दाँत, अद्वैत भाव भीतर के दाँत होते हैं।
स्वसंवेद्य और परसंवेद्य दर्शन : पेज ३९८/ चैतन्यदेव के तिरोभाव के उपरान्त बंगाल में शाक्त और वैष्णवों के बीच परस्परिक विद्वेष का प्रारम्भ। शाक्त आचार्य रामप्रसाद जी काली और कृष्ण को अभिन्न मानते थे।श्रीरामकृष्णदेव जानते थे कि धर्महीनता जनित अहंकार ही शाक्त-वैष्णवों के इस विद्वेष का कारण है। बचपन से ही ठाकुर शिव और विष्णु दोनों आदर्शों के प्रति समान अनुराग रखते थे। वे विष्णुमन्त्र तथा शक्तिमन्त्र दोनों के प्रति समान आस्था रखते थे। 

सम्राट अशोक ने बौद्धधर्म ग्रहण करने के बाद भारत में पहली बार साधूलोग द्वारा गौशाला और जड़ीबूटी से इलाज की व्यवस्था की थी। किन्तु साधुओं की आध्यात्मिक अवनति के कारण बाद में यह सब एक धन्धा बन गया। " जो साधु  दवा देता है, झाड़फूँक करता है, रुपया लेता है, भस्म-तिलक आदि का विशेष आडम्बर रचता है, खड़ाऊँ पहनकर मानो 'साइनबोर्ड' लगाकर दूसरों के समक्ष अपने को श्रेष्ठ साधु के रूप में प्रचार करता है, उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये ! ४०१/ 

ईश्वर के लिये सर्वस्व त्याग देना ही सच्चे साधु का या गृहस्थ के लिए वैराग्य या लालच को कम करते जाना ही उनके व्यक्तिगत चरित्र का मापक है। आप्त पुरुषों या नेताओं का जीवन ही वेद की व्याख्या है। जो सचमुच अद्वैत भूमि में प्रतिष्ठित हो चुके हों, वे अन्यमार्ग के अनुयायियों को हीन-अधिकारी मानकर उनसे घृणा कैसे कर सकता है, या दूसरों को अहंकारपूर्ण करुणा की दृष्टि से कैसे देख सकता है ? किसी व्यक्ति में एकपक्षीय कट्टरता का जन्म,उसकी धर्महीनता (अद्वैत ज्ञान की अनुपलब्धि) का परिचायक है ! 

तांत्रिकों का 'कारण' पीकर अशिष्ट आचरण, दण्डी स्वामी होकर भी नाम-यश पाने की स्पर्धा, वैष्णव वैरागियों द्वारा नारियों के साथ क्षद्म परकीया प्रेम का प्रदर्शन- ब्लाउज में पिन से नोट टाँकते एक वैष्णव-गुरु । क्योंकि निर्विकल्प अद्वैत्तत्व में प्रतिष्ठित नेता की आँखों के समक्ष उजागर हो जाता है। मनुष्य जीवन का चरमलक्ष्य उनकी आँखों से ओझल ही नहीं होता है। कौन साधु कहाँ तक अग्रसर हो पाया है -स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। महान सत्यनिष्ठ नेता कभी साधारण मनुष्यों को तीर्थाटन करने या साकार मूर्ति पूजा से रोकते नहीं उलटे उत्साहित ही करते हैं !
 प्रवृत्तिमार्गी सामान्य पशुभावापन्न मन के लिये मार्गदर्शक नेताओं की शिक्षा के बिना निवृत्तिस्तु महाफला समझना बहुत कठिन है; क्योंकि अवतार-पुरुषों या ईश्वरकोटि नेताओं का मन रजोगुण तथा तमोगुण रहित और शुद्ध-सत्वगुण द्वारा निर्मित कहा गया है! सभी धर्ममत समान रूप से सत्य हैं, और विभिन्न स्वभाव विशिष्ट मानवों को विभन्न मार्गों से एक ही लक्ष्य 'अद्वैतानुभूति' पर पहुँचा देने में सक्षम हैं। फिर माँ जगदम्बा का दास बनकर लोकशिक्षक बनने और बनाने के कार्य में कूद पड़ने को अनुप्रेरित भी करते हैं, किन्तु एकपक्षीय नेता देश-काल-पात्र को देखे बिना अपने मत का नुकसान ही करते हैं। 
50.>>>मेरे नेता नवनीदा के द्वारा भाषा - धर्म-जाति के आधार पर पूर्णतया एकपक्ष-तुष्टिकरण रहित, दुर्भावना-रहित (अविरोध) में स्थित होकर, विवेकानन्द-सिस्टर निवेदिता वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा 'BE AND MAKE' को प्रवृत्तमार्गी गृहस्थों भारत के हिन्दू-मुस्लिम -ईसाई सबके के लिए मनुष्य बनने और बनाने की प्रशिक्षण पद्धति '3H विकास के 5 अभ्यास' का अखिलभारतीय वार्षिक युवप्रशिक्षण आयोजित कर के सर्वसुलभ बना देना -यह भाव संसार के लिये बिल्कुल 'अन्प्रीमेडिटेटिड -unpremeditated,अपूर्वदृष्ट या 'पहले किसी के द्वारा न सोचा हुआ' भाव है। यह चरित्र-निर्माण आन्दोलन तथा उसकी पद्धति नवनीदा की निजी सम्पत्ती है। नवनीदा को माँ सारदादेवी ने इसी कार्य को करने के लिये  नेता -हीरो, माँ के भक्त जैसा 'भावमुख अवस्था' में रहने का चपरास २१ वर्ष की आयु में दिया था। 
" समस्त धर्म ही सत्य हैं -जितने मत हैं, उतने ही पथ हैं !" इस महान सन्देश को सुनकर संसार मुग्ध हुआ है। ठाकुर से पहले अन्य किसी आचार्य ने अपने जीवन में प्रत्येक मत के अनुसार साधना में प्रवृत्त होकर प्रत्येक मत के निर्दिष्ट लक्ष्य पर पहुँचकर एक ही सत्य का साक्षात्कार नहीं किया था। उनसे पहले किसी ने भी यह प्रचार नहीं किया था कि भिन्न भिन्न मार्गों से भी एक ही लक्ष्य - (चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ !) पर पहुंचा जा सकता है। धर्म की उपलब्धि (चरित्रवान मनुष्य बन जाना) केवल मुख से कहने भर की बात नहीं है, अपितु साधन-सापेक्ष है अर्थात '3H विकास के 5 अभ्यास' पर निर्भर है। साथ ही वैराग्य के साथ विवेकदर्शन का दीर्घकालीन अनुष्ठान के द्वारा धर्मसंचय करने के पश्चात् (चरित्र-निर्माण और जीवनगठन करने के पश्चात्।) दूसरों के भीतर उसका (एकाग्रता का ) संचार किया जा सकता है-चपरास दिया जा सकता है; 'आर यू अ बीस्ट ? सोचना कि तुम एक शिक्षक हो ! यह शक्ति नवनी दा में भी संचित थी।  
 बाल्य अवस्था से ही नवनीदा के जीवन में भी इस उदार भाव का परिचय मिलता है।  सम्पूर्ण भारत को धर्म-प्रदान करना पड़ेगा -अर्थात मनुष्य बनने और बनाने की शिक्षा देनी होगी, भारत में चरित्रनिर्माण आन्दोलन का नेता बनना पड़ेगा, यह कार्य जगदम्बा के बालक को करना ही पड़ता है। वे समझजाते हैं कि माँ जगदम्बा ही उनके शरीर-मन की नियंत्रक बनकर नवीन लीला प्रारम्भ कर रही हैं। हमलोगों की तरह अहंकार से वशीभूत होकर नेता (उपाध्यक्ष या सी.इन.सी का पद) आचार्यपद को स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं - 'माँ सारदादेवी का कार्य माँ ही करती हैं ! संसार को चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने वाला मैं कौन हूँ ?'यह भाव नवनीदा में आजीवन रहा है !
निरन्तर भावमुख में अवस्थित रहना, अर्थात अपने को माँ सारदादेवी का यन्त्र समझना, और सर्वमान्य नेता के रूप में स्वीकृत होना सम्भव हुआ है। अहंकृत होकर सचिव/अध्यक्ष पद को ग्रहण करना नवनीदा के लिये एकदम असम्भव था। जिस आचार्य-पद या नेता के पद को पाने के लिये रदादीदावीदा इतने लालायित हैं, उसे अत्यन्त तुच्छ समझकर नवनीदा लौटा लेने के लिये 'बनवारी' से हमेशा गा कर कहते थे -'तुझे वारी बनवारी सैंया जाने को दे !' ऐसे जंगली लोगों को तूँ यहाँ क्यों लाती है ? एक सेर दूध में आधापाव या पावभर जल हो तो जलाकर खोआ बनाया जा सकता है-किन्तु ऐसा न होकर एक सेर दूध में पांच सेर जल -चूल्हे में ईंधन झोंकने में ही ऑंखें जल जाएँगी। मुझसे यह काम न होगा। पर माँ जगदम्बा के सामने किसी की चलती नहीं ! नवनीदा ने देखा कि भारत में महामण्डल के अतिरिक्त अन्य कोई भी संस्था चरित्रनिर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित नहीं कर रही है;तो जैसे अधिक गर्मी पड़ने पर बादल छा जाते हैं, चरित्र के ह्रास के बाद वृद्धि होती है, वैसे ही माँ जगदम्बा की अहैतुक करुणा घनीभूत होकर नेता के रूप में महामण्डल संगठन के भीतर ही आविर्भूत हुई हैं। नेता सरकारी आदमी=चपरास प्राप्त 'ईश्वर कोटि' के मनुष्य  होते हैं ! जीवकोटि के साधारण साधकों जैसा निर्विकल्प समाधि में जाने के २१ दिनों के भीतर उनका शरीर सूखे पत्ते जैसा झड़ नहीं जाता है। 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' में नवनीदा और महामण्डल जैसे 'वुड बी लीडर' को जैसे बंगाल प्रान्त में अविर्भूत होना पड़ता है। उसी प्रकार जगदम्बा की जमीन्दारी में या भारत के विभिन्न अबंगला भाषी राज्यों में या विदेशों में जहाँ कहीं गड़बड़ी होगी, चारित्रिक पतन होगा (आत्मनिरीक्षण की शक्ति में ह्रास होगा)  वहाँ उन 'अदर-स्टेट्स' में भी महामण्डल को (PR के भीतर) आविर्भूत होना ही पड़ेगा। माँ जगदम्बा ने महामण्डल का 'PR' बनने के लिये किनको-किनको और किन राज्यों में चिन्हित कर रखा है ? माँ उन्हें ऐनुअल कैम्प में कब लायेंगी ? वे प्रवृत्ति मार्ग रहते हुए गृहस्थ होकर भी 'जनकराजा महातेजा'  जैसा क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से युक्त नेता बनेंगे ? या बुढ़ापे तक 'कामिनी-कांचन' में आसक्ति को न छोड़ पाने के कारण 10 लाख का FD करवाने के बाद 'अविवाहित प्रवृत्तिमार्गी साधु' का चोला ओढ़कर गुरुगिरी करने लगेंगे ? नवनीदा अपने अन्तरंग लोगों या 'वुड बी लीडर्स' को देखते ही पहचान जाते थे ! वे कहते थे जो कोई व्यक्ति महामण्डल का निष्ठावान कर्मी (PR) बनेगा वह इसी जीवन में मुक्त हो जायेगा उसे अन्य कोई साधना नहीं करनी होगी! [Ask for the PR name and phone number of all mhamandal 43 units on 19th may meeting at Konnagar from Prabal]

अघटनघटनापटीयसी माँ नशेड़ी-भंगेड़ी-मोहग्रस्त-या अनपढ़ किस शरीर-मन को माध्यम
 (PR) बनाकर महामण्डल रूपी कैसी अद्भुत क्रीड़ा का आयोजन किया है ! इसलिए गाना पड़ता है -' मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥' जिनकी कृपा से गूंगे बोलने लगते हैं, लंगड़े पहाड़ों को पार कर लेते हैं, उन सच्चिदानन्द स्वरुप भगवान श्रीरामकृष्णदेव की मैं वंदना करता हूँ॥ (क्योंकि कलियुग में 'काली' माँ जगदम्बा का विराट 'अहं' बोध और कृष्ण या 'नेता' का विराट हृदय का अहंबोध एक हो जाता है !) By whose grace dumbs start talking, lame men climb mountains, I worship that Sri Krishna, the supreme bliss.
  'जिनका अन्तिम जन्म है वही यहाँ (महामण्डल में) आएगा,ईश्वर या परमसत्य को प्राणों की कीमत चुकाकर प्राप्त करने का जिसमें साहस (क्षात्रवीर्य) होगा उसे अवश्य ही यहाँ (ब्रह्मतेज पाने के लिए महामण्डल में नवनीदा के समीप) आना पड़ेगा!' पेज ४१५/जगदम्बा की इच्छा से नवनीदा के भीतर लीडरशिप 'लोकशिक्षक' का 'अटूट-सहज' गुण - 'दूसरों के प्रति निर्हेतुक करुणा' उनके आचरण, वचन, व्यवहार से जानिबीघा में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। वे करुणावश केवल आँखों में देखकर या आशीर्वाद में सिर को 'ठोक' कर किसी वुड बी लीडर (योग्य पात्र) के भीतर धर्म-शक्ति (इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार या प्रभुदर्शन करने की शक्ति) को पूर्णतया जागृत कर उसे तत्काल ही समाधिस्त कर सकते हैं। वे 'शाक्ति' और 'शाम्भवी' बेलघड़िया कैम्प में दोनों प्रकार की दीक्षा देने में समर्थ हैं! परस्पर के दर्शन मात्र से ही आचार्य के हृदय में सहसा करुणा उदित होकर शिष्य (वुड बी लीडर) पर कृपा करने की उनकी इच्छा होती है, एवं उसी से भावी लोकशिक्षक के भीतर इन्द्रियातीत अद्वयवस्तु का ज्ञानोदय होकर वह अपने नेता का दास बन जाता है। इस दिव्यभाव के आवेग ने उनको 'बेलघरिया के बगीचे' में ले जाकर भक्तप्रवर (प्रणवदा) केशवचन्द्र सेन से उनकी भेंट करा दी। इस घटना के  बाद ही 'यंग बंगाल' आने लगा !                    
51.>>>'दर्शन बनाम फिलॉसफी' (देखें 'जीवननदी के हर मोड़ पर' १७)/ 'स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर अद्वैत  शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' ( गुरु-शिष्य प्रभुदर्शन या आत्मसाक्षात्कार  परंपरा)
[letter [March 1899] to Swami Swarupananda, editor of Prabuddha Bharata, Mayavati, on the way the Ashram was to be conducted:
MY DEAR S, I have no objection whether Mrs. Sevier's name goes on top or mine or anybody else's; the Prospectus ought to go in the name of the Seviers, mustering my name also if necessary. I send you few lines for your consideration in the prospectus. The rest are all right.I will soon send the draft deed.The lines for the prospectus are given below.
In Whom is the Universe, Who is in the Universe, Who is the Universe; in Whom is the Soul, Who is in the Soul, Who is the Soul of Man; knowing Him — and therefore the Universe — as our Self, alone extinguishes all fear, brings an end to misery and leads to Infinite Freedom. 
Wherever there has been expansion in love or progress in well-being, of individuals or numbers, it has been through the perception, realisation, and the practicalisation of the Eternal Truth — THE ONENESS OF ALL BEINGS. "Dependence is misery. Independence is happiness." 
The Advaita is the only system which gives unto man complete possession of himself, takes off all dependence and its associated superstitions, thus making us brave to suffer, brave to do, and in the long run attain to Absolute Freedom. 
Hitherto it has not been possible to preach this Noble Truth entirely free from the settings of dualistic weakness; this alone, we are convinced, explains why it has not been more operative and useful to mankind at large. 
To give this ONE TRUTH a freer and fuller scope in elevating the lives of individuals and leavening the mass of mankind, we start this Advaita Ashrama on the Himalayan heights, the land of its first expiration. 
Here it is hoped to keep Advaita free from all superstitions and weakening contaminations. Here will be taught and practiced nothing but the Doctrine of Unity, pure and simple; and though in entire sympathy with all other systems, this Ashrama is dedicated to Advaita and Advaita alone.
[कृत्रिम बुद्धिमत्ता (अंग्रेज़ी:आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस/एआई/और न्यूरो साइंस पर रिसर्च चल रहा है। ) का अर्थ है कृत्रिम तरीक़े से विकसित की गई बौदि्धक क्षमता। कृत्रिम तरह से एक ऐसा सिस्टम विकसित करना जो इंसान की तरह कार्य कर सके, सोच सके एवं अपनी प्रतिक्रिया दे सके है। इसे तीन भागो में विभाजित किया गया है। एआई को चार भागों में विभाजित कर सकते हैं।1- इंसान की तरह सोचना 2- इंसान की तरह व्यवहार करना 3- तर्क एवं विचारो युक्त मतलब संवदेनशील, बुद्धिमान,  तथ्यों को समझना एवं तर्क एवं विचारों पर अपनी प्रतिक्रिया भी देना। ये इतना सफल रहा है कि मई 1997में आईबीएम का संगणक 'डीप-ब्लू' ने विश्व के सबसे नामी शतरंज खिलाड़ी गैरी कास्परोव को हरा चुका है। ऑटो पायलट मोड पर वायुयान, मशीन द्वारा संचालित किये जाते हैं। कंप्यूटरों में ध्वनियां और आवाजों को पहचानने की क्षमता होती है। किन्तु कृत्रिम बुद्धिमत्ता एक रूप से सीमित भी है, क्योंकि इसका सामर्थ्य इसकी प्रोग्रामिंग पर निर्भर करता है। लेकिन मानवीय मस्तिष्क में ऐसी कोई सीमा निश्चित नहीं होती है। एआई के प्रमुख एप्लीकेशन निम्न है 1- एक्सपर्ट सिस्टम 2 - गेम प्लेयिंग 3 - स्पीच रिकग्निशन 4 - नेचुरल लैंग्वेज 5 - कंप्यूटर विज़न 6 - न्यूरल नेटवर्क 7 - रोबोटिक्स 8 - फाइनेंस 9 - कंप्यूटर साइंस 10 - मौसम का पूर्वानुमान 11 - उड्डयन। किन्तु कृत्रिम बुद्धिमत्ता एक रूप से सीमित भी है, क्योंकि इसका सामर्थ्य इसकी प्रोग्रामिंग पर निर्भर करता है। लेकिन मानवीय मस्तिष्क में ऐसी कोई सीमा निश्चित नहीं होती है।
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53.>>>श्रीविद्या-कल्पलता:(डॉ० राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी-सनातन धर्म कॉलेज, पानीपत (हरियाणा))
तन्त्रशास्त्र की परंपरा वैदिक-परंपरा की तरह ही गहन और व्यापक है। तांत्रिक परंपराओं का प्रभाव इतना व्यापक है कि बौद्ध, जैन, सिद्ध , वैष्णव, संत और योगी, सभी की उपासना- प्रणालियों में उनको जीवंत रूप में देखा-समझा जा सकता है। शैव-शाक्तों की तो पृष्ठभूमि ही तांत्रिक है। शाक्त-तन्त्रों का वर्ग करण दश महाविद्याओं के आधार पर किया जाता है तथा “श्रीविद्या: ललिता '' को शाक्ततन्त्रों का हृदय माना जाता है -- हदये ललिता देवी। 
श्रीविद्या उस अनंत सत्ता से तादात्म्य प्राप्त करने की विद्या है। श्रीविद्या स्वात्म को विश्वात्म, देह को देवालय तथा पिंड को ब्रह्मांड बना लेने की विद्या है। श्रीविद्या चराचर के अस्तित्व तथा गति के तत्वज्ञान की विद्या है। श्रीविद्या ध्यान-ध्यातृ-ध्येय” के एकाकार-एकरस हो जाने की विद्या है। श्रीविद्या जीवसत्ता के शिवसत्ता में संक्रमण की विद्या है। श्रीविद्या जडता को लांघ कर चिन्मयत्व प्राप्त करने की विद्या है। श्रीविद्या ब्रह्मविद्या है,  सृष्टिविद्या है, आत्मविद्या है और विश्वविद्या है। श्रीविद्या प्रकृति और शक्ति की उपासना है, पूर्ण की उपासना है, सर्व की उपासना है और विराट की उपासना है। 
श्रीविद्या आनंद की उपासना है, सौंदर्य और माधुर्य की उपासना है। श्रीविद्या करुणा की उपासना है। श्रीविद्या उस अचिंत्य ऊर्जा की उपासना है, जिससे विश्व-ब्रह्मांड तथा व्यष्टि और समष्टि का जीवन संचालित हो रहा है। वायु चल रही है, सुगंधि बिखर रही है, मेघ आ रहे हैं, वर्षा हो रही है, ऋतुएं घूम रही हैं, नक्षत्र घूम रहे हैं, कालचक्र चल रहा है, हिमखंड पिघल रहे हैं, नदियां बह रही हैं, श्वास-प्रश्वास चल रहा है, बीज वृक्ष बन रहा है और वृक्ष पुन: बीज रूप में समाहित हो रहा है। 
>>>श्रीचक्र विश्वचक्र का प्रतीक है। प्रकृति, मन, जीवन, काल-अंतरिक्ष और विश्व की व्याख्या श्रीचक्र के द्वारा की जाती है। यह देह पिंडात्मक श्रीयंत्र है और ब्रह्मांड विश्वात्मक श्रीयंत्र है। श्रीयंत्र की रचना देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि एक कोण दूसरे कोण से संस्पृष्ट और सापेक्ष है, ठीक इसी प्रकार सम्पूर्ण चराचर-सृष्टि में सब-कुछ सब-कुछ से जुड़ा है, कोई भी किसी से विच्छिन्न नहीं है। प्राकृतिक प्रक्रिया हो या मानवीय- प्रक्रिया, भौतिक प्रक्रिया हो या मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया, व्यष्टि प्रक्रिया हो या सामाजिक प्रक्रिया, भाव प्रक्रिया हो या विचार प्रक्रिया -- कोई भी अपने आप में स्वतंत्र नहीं है। इतिहास में घटित होने वाली युद्ध और शांति की घटना हो, अणु में घटने वाली इलेक्ट्रोन-प्रोटोन  की प्रक्रिया हो, या अनन्त में घटने वाली ब्रह्मांडीय-प्रक्रिया हो -- सभी एक टूसरे पर अवलबित हैं।
 >>>श्रीचक्र में सृष्टिक्रम भी है और संहार क्रम भी है, बिंदु से भूपुर और भूपुर से बिंदु तक छत्तीस तत्वों का विलास है -- परमशिव, शक्ति, सदाशिव ; ईश्वर, शुद्धविद्या, माया, अविद्या, राग, कला, काल, निय॑ति, जीव , प्रकृति, मन, बुद्धि, अहंकार, आकाश, वायु, तेज, रस (जल), पृथ्वी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, श्रोत्र, त्वक्‌, चश्चु, जिहवा, प्राण तथा वाक्‌, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ। सम्पूर्ण जीवों में चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, धृति, दया, क्षमा, स्मृति, तृष्णा, तृप्ति, श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, शांति, कांति, लज्जा आदि उस महाशक्ति के ही प्रत्यक्ष रूप हैं। 
 54.>>>" भगवती का शरीर हाड़-मांस का नहीं है, उनका दिव्य-विग्रह चिन्मय है, ज्ञामनमय और आनंदमय है। वे करुणामय और हास्यमुख आनंदमूर्ति हैं। “हमको तो कामधेनु, वांछाचिंता-मणि का भरोसा है, वही कुशलक्षेम करने वाली है, उसके हाथ में इस नाव की पतवार  है, वही कर्णधार है।' किसी की आशा न करके ईश्वर की ही आशा करे। ज्यादा से ज्यादा खुशामद उसी सहस्रभुजी की की जाय। परमात्मा कोमल-हदय और परमार्थी है। मां दया के मद से मस्त रहती है। नित्यक्लिन्ना का अर्थ है, नित्य दया का स्रोत बहता रहे और जो पात्र है, वह उसे ग्रहण करे।' 
राष्ट्र को मातृ के रूप में  ग्रहण करने की अवधारणा (माताभूमि: पुत्रोड्हं पृथिव्या:) बहुत प्राचीन है, तंत्रों में पंचाशत्पीठ रूपिणी भारत माता को जगदंबा के श्रीविग्रह रूप में नमन किया गया है। स्वतंत्रता के राष्ट्रीय-आंदोलन में “वन्देमातरम्‌' की अवधारणा ने जो संबल प्रदान किया था, वह सर्वविदित है।
 नि:संदेह “श्रीविद्या कल्पलता '' उपासकों को लक्ष्य करके ही लिखी गयी है, इसलिये इसकी शैली विवेचनात्मक परिचयात्मक है, अनुसंधानात्मक नहीं, फिर भी शोधकर्ताओं के लिए इससे श्रीविद्या संबंधी अनुसंधान की व्यापक संभावनाएं स्पष्ट होंगी। श्रीविद्या-उपासना युग-युगों से भारत के राष्ट्रीय जीवन की अभिन्‍न निधि रही है, इसलिये युगों-युगों के प्रतीक और चिंतन श्रीविद्या में अन्तर्भुक्त हुए हैं। यहां बौद्धों का शून्य भी है, सिद्धों का सहज भी है और वज्र -यानियों की वज्रेश्वरी भी है। यहां लिंग और योनि भी है तथा कुंडलिनी भी है। महर्षि दुर्वासा और अगस्त्य से गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ और शंकराचार्य और फिर वहां से श्री रामकृष्ण परमहंस और महर्षि अरविंद तक के चिंतन में  अनुसंधान का विषय है। 
55.>>>कांची कामकोटिपीठ श्रीविद्या-उपासना की प्राचीनतम पीठों में से एक है। वहां के पीठाधिपति जगद्गुरु शंकराचार्य श्री जयेन्द्र  सरस्वती जी महाराज  श्रीविद्या के तत्ववेत्ता उपासक हैं। उनको अपना कार्य दिखलाने के लिए मैं कई महीनों से प्रयासशील था। जगदंबा की कृपा, कि हरिद्वार-यात्रा के क्रम में वे अकस्मात्‌ पानीपत पधारे। यहां के देवीमंदिर में विराजमान होकर उन्होंने श्रीविद्याकल्पलता की पांडुलिपि को जहां-तहां से देखा, कई प्रसंग मैंने स्वयं पढ़ कर सुनाये। मां राजराजेश्वरी की चर्चा उन्हें स्वभाव से ही प्रिय है, इन प्रसंगों को सुनकर वे आनंद से गद्गद्‌ हो गये और बोले -- “तू भाग्यशाली है तुझे आशीर्वाद लिखने के लिए 'हम स्वयं ही पानीपत आ गये हैं।'' दूसरे दिन प्रात:काल उन्होंने 'स्वस्तिवाक्‌'” लिखवाने की कृपा की। उनके श्रीचरणों में श्रद्धामय प्रणाम। 
>>>'स्वस्तिवाक्‌' : हमारा धर्म वैदिक धर्म है। वैदिक धर्म का पुनरुत्थान श्री जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने किया है।  आदिशंकराचार्य ने अद्वैतवाद सिद्धान्त के साधन रूप में षण्मतस्थापन किया। गणेश, कीर्तिकेय, शिव, मां पार्वती, विष्णु, सूर्य -- इन छह देवों की पूजा की व्यवस्था हुई। शाक्त-संप्रदाय और देवी-संप्रदाय एक है। शाक्त-संपद्राय में वामाचार और दक्षिणाचार दो प्रकार के विधान हैं। आदिशंकराचार्य ने वामाचार का खंडन-मंडन किया तथा दक्षिणाचार कौलाचार-पद्धति को सुव्यवस्थित किया। आजकल देवीपूजा-पद्धति का यही क्रम प्रचलित है। शंकराचार्य-पीठों में सन्यस्थ  और गृहस्थ इसी परंपरा के अनुसार प्रूजा-पाठ करते हैं। नव आवरण-पूजा और दशमहाविद्या इसी परंपरा में हैं।
दश महाविद्याओं में श्रीविद्या की उपासना बहुत व्यापक है। त्रिपुरा, ललिता, त्रिपुरसुन्दरी, श्रीसुन्दरी आदि श्रीविद्या के ही नाम हैं। भगवती राजराजेश्वरी श्रीललिता विग्रहात्मक रूप हैं, व्यापक रूप में संपूर्ण विश्व ही श्रीविद्या का विग्रह है। यत्रात्मक रूप में श्रीयन्त्र, सूक्ष्म मनत्रात्मक रूप में श्रीविद्या और परमरूप में भगवती मनोमय हैं। ब्रह्मविद्याँ और आत्मविद्या भी वही हैं। वे ही सौंदर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री हैं। भारतवर्ष के उपासकों और तत्त्ववेत्ताओं ने समग्र और पूर्ण की जो व्याख्या की है, वह श्रीविद्या की व्याख्या में समाहित है। श्रीविद्या के संबंध में आजकल विश्व के अनुसंधान-संस्थानों में शोधकार्य चल रहा है। रूस, अमेरिका, जर्मन, इंग्लैंड आदि के विद्वानों ने इस संबंध में अध्ययन किया है। यह बड़ा शुभ है। 
मथुरा निवासी पं. हरिहर शास्त्री चतुर्वेदी के पुत्र डा. राजेंद्ररंजन चतुर्वेदी (जो कि यहां पानीपत में सनातन धर्म महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं। वैसे भी मथुरा कृष्णभक्ति के साथ देवी की उपासना से जुड़ा था। इस क्षेत्र में चर्चिका, दुर्गा, चामुण्डा, कात्यायनी तथा अम्बिका से जुड़े अनेक स्थान हैं।विद्वानों की यह भी मान्यता है कि राधाकृष्ण की युगल-साधना प्रकारान्तर से कामकला का पर्याय है। भगवान कृष्ण कामराजबीज से जुड़े हैं, वे स्वयं कामेश्वर हैं और षडक्षरीमंत्र की नायिका श्रीराधा स्वयं कामेश्वरी हैं और दोनों का गहरा सम्बंध वृन्दावन महारास की परिकल्पना से है, जो सहस्रार में शिव शक्ति के संयोग का ही पर्याय है। गौरवर्णीय श्रीराधा कृष्ण की आह्वादिनी शक्ति है। ) 

ने आज मुझे “श्रीविद्या कल्पलता ' नामक अपनी पुस्तक की पांडुलिपि दिखाई है, इन्होंने लीला, आनन्द, वाक्‌, ज्योति, ऐश्वर्य, मन, भाव, सौंदर्य, माधुर्य , प्रकृति आदि अवधारणाओं के आधार पर  वर्गीकरण करके २० निबंध लिखे हैं। इनमें मनोमय , भावनामय , विद्यामय, ज्योतिर्मय , आत्मविद्यात्मक एवं चक्रात्मक रूपों के साथ ही पिंड-ब्रह्मांड परिकल्पना आदि पर विवेचन किया है तथा प्राचीन ग्रंथों के उद्धरण दिये हैं। श्रीराधा और श्रीललिता का साम्य दिखा कर वैष्णवों और शाक्तों के अन्त:संबंध को रेखांकित किया है। इस प्रकार इन्होंने अपने पिताश्री की परंपरा को आगे बढ़ाया है। इनके परिश्रिम को देख कर मुझे प्रसन्नता हुई है। मैं राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी को आशीर्वाद प्रदान करता हूं तथा आशा करता हूं कि ये श्रीविद्या-उपासना संबंधी अध्ययन-अनुसंधान के कार्य को निरंतर आगे बढ़ाते रहेंगे और शाक्त-परंपरा में जो लोग आयेंगे, वे इनकी ' पुस्तकों का लाभ उठावेंगे। हमारा आशीर्वाद है। 
भूमिका : 
 56.>>>'श्री' की परिकल्पना जगदम्बा के श्रेष्ठतम स्वरूप में की गई है, जो वस्तुत: अव्यक्त, अचिन्त्य और सर्वव्यापी मानी गई है। वह सर्वशक्तिमयी है। वह अपनी इच्छा से ही सृष्टि करती है, पालन करती है और वही लय शक्ति है। वही श्रेष्ठतम मंत्रशक्ति है और बीजाक्षरों में निरन्तर विद्यमान रहती है, क्योंकि वही परावाक्‌ है। श्रीविद्या को कामेशी, राजराजेश्वरी, त्रिपुरा, बाला, ललिता, महात्रिपुर- सुन्दरी और षोडशी आदि विभिन्‍न नामों और स्वरूपों से जाना जाता हैं।
       भगवती श्री या ललिता को चिदग्निकुण्डसम्भूत अर्थात्‌ महाकामकलात्मक त्रिकोणरूपी कुण्ड की अग्नितत्व से आविर्भूत  देवी कहा जाता है। काली ब्रह्माण्ड की लय या संहारशक्ति मानी जाती है और श्री  सृष्टिशक्ति, किन्तु मूलत: महाशक्ति एकसत्तात्मक अचिन्त्य सत्ता है। श्री का सम्बंध संसार की रचना से है। इसीलिये उसका वर्ण सिन्दूर जैसा लाल है। उसके पाश एवं इक्षुधनु जैसे आयुध आकर्षण और कामतत्व की प्रधानता  दर्शाते हैं। उसके एक हाथ में पांच बाण हैं, जो रूप, रस, गंध , शब्द और स्पर्श  आदि पांच तम्मात्राओं के प्रतीक हैं और दूसरे हाथ में स्थित अंकुश क्रोध का। 'वह पांच प्रेतों या पंचब्रह्यों के आसन पर बैठी हैं। ये सम्भवत: पांच तत्वों के प्रतीक हैं। ललिता या श्री सृष्टितत्त्वात्मक सत्ता मानी गयी है। इसलिये उसे ब्रह्मविद्या भी कहा गया है। 
     महाशक्ति के रूप में वह सर्वव्यापी है और उसकी स्थिति आकाशतत्व से भी परे है। इसलिये उसका नाम परा है, वह परावाक्‌ भी कहलाती है। वाणी के माध्यम से ही उसका अवतरण होता है और वह बिन्दु के रूप में दृष्टिगोचर होकर सृष्टि-रचना प्रारम्भ करती है। श्रीविद्या के साधक का मुख्य उद्देश्य कुण्डलिनी जागरण है, जो गुरुकृपा बिना सम्भव नहीं है।  
57.🙂>>>"गुरु"  : संशय का निवारण और विश्वास का जागरण "
      मन में हर समय तर्क-वितर्क चलते रहते हैं। किसी एक बात पर मन स्थिर नहीं होता और कार्य के परिणाम के सम्बन्ध में चिन्ता तथा आशंका बनी रहती है। अनेक प्रकार के संशय, सन्देह और भ्रान्तियां मन को घेर लेती हैं। जैसे कोई पक्षी पिंजड़े में पंख फड़फड़ाता है, उड़ नहीं पाता वैसे ही मन में कुछ करने की इच्छा छटपटाती है किन्तु महाभारत के मैदान में पहुंच करके भी धनुष उठता नहीं। और जब मन की ऐसी स्थिति होती है, तो 'कोई' आता है और मन में बुने हुए शंका, संदेह और भ्रान्तियों के जाले को हटा देता है और विश्वास जगा देता है। बस उसी का नाम गुरु है।
      परमहंस रामकृष्ण कहते थे कि किसी जीवन्त विश्वास को एक स्थूल रूप में दिया और ग्रहण किया जा सकता है तथा इस दान और ग्रहण के समान सत्य वस्तु दुनियां में और कोई नहीं है।' विश्वास को देने वाला गुरु और ग्रहण करने वाला शिष्य। गुरु और शिष्य का यह संबंध संसार में अनोखा है। गुरु और शिष्य का संबंध सांसारिक नहीं है, वह समस्त सांसारिक संबंधों से परे है। जब शिष्य को गुरु और गुरु को शिष्य मिलते हैं तो संसार में अघटित घटना घटती है। प्रेम और आनंद का समुद्र उमंगता _ है और सारे तर्क-वितर्क तथा संशय छिन्न -विच्छिन्न हो जाते हैं। शिष्य के सामने एक लक्ष्य स्थिर हो जाता है और उसके मन का विश्वास हिमालय की चट्टान की तरह से दृढ बन जाता है। गुरु तभी मिलते हैं, जब भगवान की कृपा होती है, सौभाग्य जगता है। ज्ञानेश्वर महाराज का कथन है कि जब कर्मसाम्य की अवस्था आती है, तब सद्गुरु स्वयं ही आकर मिलते हैं।' 
 नरेन्द्र कितना हठी था, अशान्त और नास्तिक युवक । अपने उदण्ड और छिलछोरे मित्रों के दल के साथ रामकृष्ण के पास पहुँचा। परमहंस की  आज्ञा से संगीत सुनाया। संगीत समाप्त होने पर रामकृष्ण खड़े हो गये और  आनन्द-विभोर होकर रोने लगे। नरेन्द्र का हाथ पकड़ लिया, जैसे दीर्घकाल  से घनिष्टता हो। सुबकियां लेने लगे- ओह, मेरी कितनी साध है कि मैं अपने मन की कथा किसी ऐसे योग्य व्यक्ति के हृदय में डाल सकूं, जो है मेरे आन्तरिक अनुभवों को ग्रहण कर सके।' 
रामकृष्ण ने मां से प्रार्थना की थी कि- "मां, मैंने जो कुछ उपलब्धि की है, उसमें संदेह करने वाले किसी व्यक्ति को मेरे पास भेज दे।'और नरेन्द्र ऐसा ही था। हिन्दू देवी-देवताओं को अस्वीकार करता था, अद्वैतवाद का विरोधी था और भाव-प्रवण भक्ति से घृणा करता था। धर्मशास्त्रों का खुले तौर पर मजाक उड़ाता था। परन्तु रामकृष्ण एक मनोवैज्ञानिक मुहूर्त की प्रतीक्षा में थे और एक दिन ऐसे ही क्षण में, अर्ध्वाह्य -अवस्था में आये तथा नरेन्द्र को स्पर्श किया और उनके स्पर्श-मात्र से ही नरेन्द्र के मन में एक आध्यात्मिक तूफान उठा। मुहूर्त भर में नरेन्द्र की आखों में हर वस्तु बदल गयी। उसने विस्मय के साथ देखा कि ईश्वर के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व है ही नहीं। वही नरेन्द्र इतना बदला कि आगे चलकर विवेकानन्द बन गया। 
    भारत के इतिहास में गुरु-शिष्य के अलौकिक सम्बन्धों के ऐसे असंख्य उदाहरण हैं। गुरु वह है, जिसके मिलने पर मन के स्वर और ताल बदल जाय। मन की गति बदल जाय। मन की ऋतु बदल जाय। अंधे सूरदास आगरा-मथुरा मार्ग पर स्थित गौघाट पर रहते हुए भजन गाया करते थे-- 'मो सम कौन कुटिल खल कामी।' 
      महाप्रभु वललभाचार्य जब भ्रमण करते हुए उधर पधारे और सूरदास का भजन सुना तो बोले-- सूर होकर इतना क्यों घिघियाते हो, भगवान की लीला का वर्णन करो।' ओर इस एक वाक्य से सूर की कविता बदल गयी, सूर की धुन बदल गयी, जीवन बदल गया। तभी तो उन्होंने कहा था कि-  "अपुनपौ आपुन ही में पायो ।शब्दहिं शब्द भयो उजियारो , सतगुरु भेद बतायो । "

दर-दर की ठोकरें खाने वाला, सब जगह उपेक्षा और तिरस्कार पाने वाला वह 'राजापुर का कुसौन' माना जाने वाला तुलसी मूल-नक्षत्र में उत्पन्न होने का पाप भोग रहा था और ऐसे में मिल गये उसे बाबा नरहरिदास, हो गया कल्याण और वह तुलसी जगद्वन्द्य गोस्वामी बन गये। रामचरित मानस गा रहा है-- “बन्दों गुरु पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि।' सन्‍त कवि कबीर की वाणी है- "गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागों पांय। बलिहारी गुरु आपनें गोविंद दियौ बताय। 
अद्बयमार्ग में प्रश्नकर्ता शिष्य और प्रतिवक्ता गुरु को अभिन्‍न माना गया है। वहां बताया गया है कि संशय और निश्चय वास्तव में एक हैं। सामान्य प्रतीति संशयात्मिका तथा विशेष प्रतीति निश्चयात्मिका होती है। 'तत्त्वमुक्ताकलाप ' में वेदांतदेशिकाचार्य ने कहा है कि अभिनय-छल से ईश्वर ही आचार्य एवं शिष्य की भूमिका ग्रहण करते हैं।
तन्त्रशास्त्र का निष्कर्ष है कि मन्त्र और पूजा का मूल गुरु हैं- मन्त्रमूल गुरोर्वाक्यं, पूजा-मूल गुरो: पदम्‌। तन्त्रशास्त्र के अनुसार जो देवता है, वही मन्त्र है और जो मन्त्र है वही गुरु है। गुरु अखंड मंडलाकार चणाचर विश्व के परमपद का निर्देश करते हैं। वे ज्ञान रूप अंजन-शलाका से अज्ञान रूपी अंधकार में अंधी बनी शिष्य की आँखें खोल देते हैं। नयी दृष्टि मिल जाती है।  गुरु कौन है? जो दरस-परस अथवा शब्द के द्वारा शिष्य की देह में शिवभाव का आवेश जगा सके- कोई एक जीव तो दूसरे जीव का उद्धार कर नहीं सकता, स्वयं परमात्मा ही आचार्य की देह में अधिष्ठित होकर जीव की बन्धन्मुक्ति करते हैं-- गुरुदीक्षा से साधक की ऐसी मनःस्थिति बन जाती है कि लक्ष्य को पाये बिना पलभर भी चैन नहीं मिलता। लक्ष्य की प्राप्ति के बिना संसार सूना दिखाई पड़ता है। मन में अनुकूल या प्रतिकूल कल्पनाऐं नहीं उठती और उसे चिन्ता नही होती। फल की प्राप्ति, अप्राप्ति, शीघ्रता से अथवा विलंब से लक्ष्य प्राप्ति में उसका चित्त सम-अवस्था वाला हो जाता है तथा संतोष-पूर्वक साधना में लगा रहता है। और सिंद्धियां स्वयं उसका वरण करने को आती हैं। इस त्रिभुवन में ज्ञानदाता सद्‌गुरु के लिये देने योग्य कोई उदाहरण या दृष्टांत नहीं है। उन्हें पारसमणि कहें तो यह ठीक नहीं, क्योंकि पारस लोहे से सोना तो बनाता है परन्तु पारसमणि नहीं बना पाता। जबकि सद्गुरु के चरणों का आश्रय करने वाले शिष्य को-सद्गुरु अपने जैसा हीं बना लेते हैं। 
58.>>>देवत्व मातृत्व से परे नहीं है। देवत्व की चरम सीमा मातृत्व है। देवता में ऐसा क्‍या है, जो माता में नहीं है? प्रेम का वह अनंत उल्लास, जिसका ओर है न छोर, उसी का नाम तो मां है। वात्सल्य का वह भावातिरिक है, जो मां के स्तनों में पहुंच कर जीवन का रस बन जाता है, वही तो है अमृत। यदि वह न हो तो संसार में जीव की सत्ता कैसे हो? जिन कारणों से देवता मनुष्य से बड़ा है, वे सभी कारण मातृत्व में प्रत्यक्ष हैं। ओ मां तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी?
       यह मातृत्व ही करुणा-भाव का विस्तार है। यदि करुणा का भाव न होता तो समाज नहीं बनता। यह करुणा ही भगवती का रूप है।  मां से अधिक दयालु कौन है? मां के गर्भ में जब बच्चा लात चलाता है तो वह दया के कारण ही उस पर ध्यान नहीं देती, फिर वही दया दूध बन कर (दया का स्रोत) उमंगने लगता है। जब जाड़ों की रात में बच्चा  पेशाब कर लेता है, तो मां उसी दया के वशीभूत होकर स्वयं तो गीले में सो जाती है तथा बालक को सूखे भाग पर सुला देती है। मनुष्य यदि जल पर पूरी तरह से निर्भर हो जाये तो वह डूब नहीं सकता। जल के ऊपर आश्वस्त होकर सो जाने से नाक और मस्तक का कुछ अंश जल के बाहर रहता है परंतु यदि मनुष्य इधर-उधर करता है, घबराता है तो उसी क्षण डूब जाने का खतरा उपस्थित हो जाता है। इसी प्रकार यदि कोई साधक सर्वतोभावेन जगदंबा पर निर्भर हो जाता है तो फिर वह महाशक्ति उसकी रक्षा करती है। जैसे बालक मां के बिना एक पल भी नहीं रह सकता, उसी प्रकार उपासक प्रतिक्षण यही अनुभव करता है कि वह मां की गोद में बैठा हुआ है। 
        छोटे से बच्चे को मां किसी काम से छोड़ कर चली गयी। बच्चा खेल में व्यस्त था। जब खेल खत्म हुआ तो उसे मां की याद आई। मां को न पाकर वह रोने लगा तो मां आ गयी। बालक बोला- तू इतनी देर मुझे छोड़ कर कहां चली गयी थी और मां को काटने लगा। पिता ने कहा-- बालक, तू बड़ा ढीट है, मां को मारता है? बालक बोला- नहीं, मैंने तो मां को मारा नहीं। मां ने भी उसे गोद में उठा लिया और उसे चूमा, बोली-- बेटा, मैं तुझे छोड़ कर कहीं नहीं गयी। बेटा और मां का प्यार ऐसा होता है। मां भी भूल गयी, बेटा भी भूल गया।

    यह है मातृत्व और वात्सल्य का रस। मातृ-प्रेम में आश्वस्त बालक देखता है कि मैं पूर्ण की संतान हूं, मुझे कोई कमी नहीं है, कोई भय नहीं है, क्योंकि मेरी माता सर्वदा सर्वतो- भावेन मेरी रक्षा करती है। मेरी मां असीम सत्तामयी है। कोई व्याप्र उस पर आक्रमण करे, तो वह मां के पास दौड़ा आता है। मां है, इसलिये बालक को किसी प्रकार के अभाव का बोध नहीं होता। अभाव होते ही वह रो> उठता है ओर उसके रोने मात्र से मां उसके अभाव को पूर्ण कर देती है। "मां” शब्द जगदंबा को बड़ा प्रिय है। मां शब्द सुनते ही वह गदगद हो जाती है। वह करुणारससागर है। कोई भक्त (जाती) भगवती की जात देने चला तो भगवती को एक-एक क्षण ऐसा लगे कि बहुत समय बीत गया अभी भक्त आया नहीं। क्या संकट पड़ गया मार्ग में? क्‍या बाधा आ गयी? और यह जानने के लिये भगवती ऊंचे पेड़ पर चढ़ कर देखती हैं कि-- “मेरौ जाती कहां बिलमौ? '” भगवती ऐसी भोरी है। 

परमहंस रामकृष्ण जब मां-मां पुकारते थे तो शरीर की सुध भूल जाते थे, विहल हो जाते थे। मां शब्द में ऐसा प्रेमामृत है कि मां उसे सुनती है, तो गद्गद्‌ हो जाती है। मां सौम्यता, दया और प्रेम की मूर्ति हैं और मां को देख कर ही आनंद का वह समुद्र उमड़ पड़ता है कि मां को अधिकाधिक प्यार किये बिना रहा ही नहीं जाता। मातृत्व वह स्रोत है, जो सदा अक्षुण्ण अबाध रूप में बहता रहता है। वह करुणा और वात्सल्य का अनन्त सागर है, प्रेम का वह अनंत भंडार है।  संसार के दूसरे प्रेम-संबंध संशयास्पद, वासनामय, प्रतिदान-लिप्सा तथा लज्जामिश्रित हैं पर मातृप्रेम निःस्वार्थ, वासनाहीन।  प्रतिदान की इच्छा से परे और गंगा की धारा से भी शुद्ध है। मां के मन में बस एके ही चाह है कि अबोध शिशु धूल से धूसरित तुतलाता हुआ मां-मां करता हुआ छोटी-छोटी बांहों से आलिंगन कर ले। मां की सारी थकान सारे दुःख बालक की मुसकान को देख कर शांत हो जाते हैं। वह शिशु-कौतुक ही मां के हृदय की अनंत तृप्ति है। संतान पर जरा सा भी कष्ट पड़ता है तो मां अपने सभी कष्टों को विस्मृत कर देती है। जिस समय सारा संसार सोता है, उस समय मां अपने बालक का रुदन सुन कर चौंक उठती है। वह दयामयी है। भगवान्‌ की दया किस पर हो, यह बात निश्चय ही भगवती के अधीन है। 
जब व्यष्टि मां इतनी दयालु होती है तो वह समष्टि मां (मातृ समष्टि) वह ब्रह्मांड-जननी कितनी करुणामयी होगी, उसकी कल्पना कैसे की जा सकेगी? वह जगद्‌ का भरण-पोषण करने वाली होने के कारण ही अन्नपूर्णा और जगद्धात्री है। वह जगज्जननी और प्रसवित्री है। क्षमापन-स्तोत्र का वाक्य है-- क्षुधा तृषार्त्ता: जननीं स्मरन्ति। बालक खेलता रहता है और मां को भी अपने खेल में भूल जाता है किन्तु जब उसे भूख और प्यास लगती है तो मां का स्मरण करने लगता है। 
जगदंब विचित्रमत्र कि परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि, 
अपराधपर परावृत्तं न हि माता समुपेक्षते सुतम। 
मेरी भोरी मैया ! इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं कि इतना बड़ा अपराधी होते हुए भी (मैं तो मां को भूल जाता हूं पर मां तो मुझे नहीं भूलती) मां मुझ पर करुणामय ही बनी रहती हैं, क्योंकि यदि पुत्र अपराध कर के भी मां के पास आवे तो भी मां उसके अपराधों को गिनती नहीं, उसके कुशलक्षेम की कामना करती है। उसके 'प्रति दयाभाव से भर जाती है और उसका हृदय पुत्र को सब कुछ देकर उसे निहाल करने को बेचैन बन जाता है। जैसे वात्सल्य से भरी हुई गाय अपने बछड़े के पीछे-पीछे रंभाती हुई चलती है, वही स्थिति तो जगज्जननी माँ सारदा  की है कि वह शरणागत भक्त के पीछे-पीछे चलती है। 
जो भगवती पुण्यवान्‌ धर्मात्माओं के भवन में ऐश्वर्यमयी महालक्ष्मी के रूप में विराजमान है, वही पापात्माओं के यहां अलक्ष्मी रूप है। मेधावियों की मेधा वही है और सज्जनों के हृदय में वही श्रद्धा बन कर विराजमान है, जो संभ्रान्त कुलीन परिवार के हैं, उनकी लाज भगवती ही हैं। जगत्‌ की संपूर्ण विद्या भगवती का ही भेद हैं और संपूर्ण स्त्रियां भी उसी का अंग हैं। वही भगवती संपूर्ण प्राणियों में इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है, और समस्त कार्य शक्ति से ही होते हैं-- कि तत्कार्य जगत्य॑स्मिन्‌ यत्तु शक्त्या न सिद्धयति। दया, क्षमा, निद्रा, स्मृति, श्लुधा, तृष्णा, तृप्ति, श्रद्धा, भक्ति, धृति, मति, तुष्टि, पुष्टि, शांति, कांति, छज्जा आदि भगवती के ही रूप हैं। वही तपस्वियों का तप, ब्रह्मचारियों का ब्रह्मतेज, गृहस्थों की सर्वाश्रम आश्रयता, वानप्रस्थों की संयमशीलता, संन्यासियों का त्याग, महापुरुषों की महत्ता तथा मुक्त पुरुषों की मुक्ति है। शूरों का बल, दानियों की उदारता, माता-पिता का वात्सल्य, साधुओं की साधुता, लेखकों की लेखन शक्ति, कवियों की कल्पना, ज्ञानियों का ज्ञान, राजाओं की राज्यलक्ष्मी, धनवानों की सौभाग्य- लक्ष्मी तथा सज्जनों की शोभालक्ष्मी भगवती राजराजेश्वरी की ही कलाऐं हैं। 
59.>>>भवानी भावनागम्या = > भगवती की महिमा का विस्तार अछोर है परन्तु भावना से वे ऐसी बंधी हैं कि इतनी छोटी हो जाती हैं कि गोद में लेकर आप उन्हें दुलारने लगें। हिमालय ने तपस्या करके वरदान मांगा कि मैं तो उस अनन्तानन्द- शक्ति-रूपा भगवती को गोद में खिलाना चाहता हूं, लाढ़ लड़ाना चाहता हूं। यदि कन्यैव मे भूयात्तन्मे त्वं तनुजा भव। वत्सलो लालयिष्यामि मुग्ध- लीलाउवलोकक :।' 
देवर्षि नारद पर्वतराज के यहां उस कन्या के रूप, गुण और प्रभाव को जानने की इच्छा से आये। पर्वतराज ने स्वयं ऋषि का सत्कार किया फिर गौरी से कहा-- बेटी, तुम मुनिश्रेष्ठ को नमस्कार करो।  उस समय के दृश्य का वर्णन करते हुए त्रिपुरारहस्यकार' कहते हैं कि- प्रणाम करती हुई उस पराम्बा को देवर्षि मन ही मन प्रणाम कर रहे हैं। जो देवताओं के लिये भी रहस्य है, उस रहस्य को नारद किसी से कह नहीं रहे , बस प्रणाम कर रहे हैं। फिर सावधान होकर कहते हैं-- पर्वतराज, यह तो बता, कि तू इसका संबंध किससे करता चाहता है?' नारद का प्रश्न सुना, तब हिमालय को आभास हुआ कि बेटी डर सचमुच विवाह के योग्य हो गयी है, सयानी हो गयी है। और हिमवान्‌ तथा मेनका चिन्ता में पड़ गये। नारद ने समझाया कि शिव तो अमंगल रूप हैं, सांपों के आभूषण पहनता है, भांग पीता है, श्मशान पर डोलता है, भस्म रमाता है, नंगा रहता है। वह इस कन्या के बिल्कुल योग्य नहीं है।'' हिमालय की समझ में बात आ गयी, परंतु जब भगवती गौरी को यह ज्ञात हुआ तो वे चार सखियों के साथ गहन वन में जाकर तपस्या करने लग गयी। बालू के कामेश्वर शिव बनाये और उनके अंक में अपने को (भगवती ललिता को) विराजमान कर लिया और उपासना करने लग गयीं। एक रूप से बालुका रूप बन कर कामेश्वर के अंक में विराजमान हैं तथा दूसरे रूप से उपासना में संलग्न हैं।
पर्वतराज कहीं से आये तो देखा कि गौरी घर में नहीं है। मेनका से पूछा-- बेटी कहां गई है आज? मेनका बोली-- अपनी सखियों के साथ कहीं बाहर खेल रही होगी!! सहेलियों के घर में होगी!! वाटिका में होगी।! पर्वतराज बेचैन हो गये। बहुत ढूंढने पर गौरी मिली और उसकी बात सुनी तो मान गये पर अबकी बार मेनका रूठ गयी, बोली-- हम नहिं आज रहब इह आंगन जो बुढ़ होय जमाई गे माई। 'पर्वतराज! हम अब इस आंगन में नहीं रहेंगे, आप एक बूढ़े को जमाई बनाने जा रहे हैं।।!' 
हिमालय और मेनका के इस वात्सल्य-भाव ने उस अनंतानंत शक्ति को अपने लाढ़ से बांध लिया। ठीक उसी प्रकार से जैसे मां यशोदा ने हरि को बांध लिया था--'जसुमति भाग सुहागिनी हरि कों सुत जानें।' जाकौ ब्रह्म अंत न पावै तापै नंद की नारि जसोदा घर की टहल कराबै। देवता लोग देखते हैं तो परेशान हो जाते हैं कि वह अनंतानंद तत्त्व जसोदा ने ऊखल से बांध दिया है। प्रश्न यह है कि बिना भाव के वह अनादि, अनंत, अखंड तत्त्व ग्राह्म] बनेगा कैसे ? इसीलिये वह भावना-गम्य है -- भवानी भावना-गम्या। भावना की जो शक्ति है उसका आकलन नहीं किया जा सकता। उस शक्ति का विस्तार अकल्पित है। भावना से एक क्षण में साक्षात्कार हो जाता है और एक क्षण में खंभे को फाड़ कर नृसिंह का प्रादुर्भाव हो जाता है। भाव की साधना सबसे बड़ी साधना है। भाव नहीं है तो कुछ भी नहीं है। भाव की अनुपस्थिति का नाम ही अभाव है। अभाव को केवल भाव से ही भरा जा सकता है। 
60.>>> भाव के द्वारा  सब तरह के लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। भाव के द्वारा देवता के दर्शन प्राप्त होते हैं और भाव के द्वारा परम ज्ञान का बोध होता है। रुद्रयामल का वाक्य है -- भावेन लभते सर्व भावेन देव-दर्शनम्‌, भावेन परम ज्ञानं तस्माद्‌ भावावलंबनम्‌। भगवान को भाव का भूखा कहा जाता है-- भाव के भूखे हैं भगवान, भाव है तो सब कुछ है। समस्त सिद्धियां भाव में ही निहित हैं। भाव ही रूपांतरित होकर प्रत्यक्ष भौतिक पदार्थ बन जाता है। भाव ऊर्जा है। भाव मनोवैज्ञानिक शक्ति है। भाव न हो तो मां, मां नहीं है, बेटा, बेटा नहीं है, भाई, भाई नहीं है और बहिन, बहिन नहीं है। भाव नहीं है तो परिवार नहीं है, कुछ भी नहीं है, क्योंकि सबका निवास भाव में ही है। भावना से ही युद्ध किये जाते हैं और भावना जगा कर ही संधि की जाती है। शत्रुता और मित्रता भावना में है। ऐश्वर्य भावना में निहित है। वैराग्य भाव के आने पर संपूर्ण वैभव मिट्टी के कण से अधिक महत्त्व का नहीं रहता। ऐश्वर्य को ऐश्वर्य बनाया ही भावना ने है। भावना न हो तो न हाथ हिले और न पैर हिले।
61.>>>ईश्वर या देवता का निवास भावना में ही है--“न काष्ठे विद्यते देवो, न पाषाणे न मृण्मये। भावे हि विद्यते देवों तस्माद्‌ भावस्तु कारणम्‌। " देवता न लकड़ी की मूर्ति में है, न पत्थर और मिट्टी की मूर्ति में। वह तो भावना में निहित है इसीलिये मूल कारण भावना ही है। जिस तरह गुड़ का मिठास जीभ ही जान सकती है, उसी तरह भाव को मन ही जान सकता है। भाव ही तो सब कुछ है। एक ही कार्य में भावना के भेद से कार्य भिन्‍न होता है। मनुष्य जिस भाव से कान्ता का चुंबन करता है और जिस भाव सें कन्या का चुंबन करता है, वहां भावना के भेद से तात्पर्य भिन्न है -- भावेन चुम्बिता कान्ता  भावेन दुहिताननम्‌। 
 62.>>>भावजगत्‌ उतना ही वास्तविक है जितना भौतिक जगत्‌। भावजगत्‌ का भौतिक जगत्‌ से अविच्छिन्न संबंध है। भौतिक जगत्‌ को जान लेना भावजगत्‌ को जानने से अधिक सुलभ है, जबकि भावजगत्‌ अत्यंत गहन है और बिना भावसाधना के उसका जानना संभव नहीं है। भाव की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है। ब्रह्मा  भी भाव की इस जटिलता को नहीं समझ सके थे, तभी तो चकित हो गये कि वह परमतत्व इन ग्वालों के चक्कर में कैसे फंस गया? र बूढ़े ब्रह्मा गाय, वत्स और ग्वालों को चुरा ले गये। यह भाव तो जन्म-जन्मान्तरों के संस्कार के फलस्वरूप प्राप्त होता है। इस पर किसी का वश नहीं और जिसे वह भाव मिल जाता है, उसके लिये इन्द्र भी दरिद्र जैसा लगता है-- न भावेन बिना देव यन्त्र मन्त्रा: फलप्रदा:। भाव के बिना यन्त्र-तन्त्र निष्फल हैं। लक्ष-लक्ष वीर-साधनाओं से क्या लाभ? भाव के बिना पीठ-पूजन का क्‍या मूल्य? कन्या भोजनादि से क्या होने वाला है? जितेन्द्रिय भाव और कुलाचार-कर्म का महत्त्व ही क्या है? अगर कुल परायण व्यक्ति भाव-विशुद्ध नहीं है। भाव से ही मुक्ति मिलती है। भाव से कुल की वृद्धि होती है, भाव से गोत्र की वृद्धि और शरीर की वृद्धि होती है। अगर भाव ही नहीं उत्पन्न हुआ, तो न्‍्यास-विस्तार और भूतशुद्धि-विस्तार या व्यर्थ पूजा-पाठ का क्‍या मूल्य है? कबीर ने जब तीर्थ, ब्रत, उपवास, यज्ञ और मूर्ति-पूजा आदि का विरोध किया था, तो उसके पीछे भाव का हीं रहस्य था। वह कहता था-- “कर का मनका डार कर, मन का मनका' फेर।” भाव इस मन ही का मनका तो है। तीर्थ से क्या लाभ, अगर मन की शुद्धि न हो। कर्मकांड का हेतु ही क्या, यदि भावों का जागरण नहीं होता
मीरा मतवाली बनी क्यों घूमा करती थी, उसे यह भाव मिल गया था -- ए री मैं तो दरद दिवानी मेरा दरद न जानें कोय।” जाके सिर मोर मुकट मेरौ पति सोई।' उस मीरा के पास इस भावना का ही तो सत्य था कि राणा के द्वारा भेजा गया जहर का प्याला अमृत बन गया। राणा को लोग भूल गये पर मीरा मतवाली तो वृंदावन की गलियों में आज भी गा रही है-- 'मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरों न कोई।' भाव के बिना सब सूना है।
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68.>>>भगवती भावना गम्या यत्त्ररज की साधना हो या पंचदशी की उपासना और कुंडलिनी- साधना। भावना की वहां मुख्य भूमिका है। इसलिये पद्धति में सर्वत्र 'भावयेत्‌' शब्द आता है। भावना के द्वारा ही भगवती सहज सुलभ हो सकती हैं। इसीलिये ललिता सहस्रनाम  का वचन है- स वा एष आत्मा वाङ्मयी (Lefty)!चिन्ताराज्य के भी ऊपर परावाक्‌ है, जो चिन्तन से रहित है। यह अभिधेय बुद्धि का बीज है। इसका स्वरूप ज्योतिर्मय तथा प्रत्येक पुरुष में भिन्‍न है। सुषुप्ति अवस्था में भी इसकी निवृत्ति नहीं होती। यही मुख्य विवेक ज्ञान है। जब तक इस विवेक का उदय नहीं होता, तब तक शब्दानुविद्ध ज्ञान से परे जो निर्विकल्प ज्ञान” है। उसकी उपलब्धि नहीं होती। परा का अनुभव परम ज्ञानियों को ही संभव है। 
     वाक्‌ की चार अवस्थाएं मिल कर मूलत्रिकोण अथवा महायोनि है। परावाक्‌ त्रिकोण का केन्द्रबिन्दु है। जिस प्रकार मयूर के अंडे के रस में उसके पंखों के तरह-तरह के रंग अव्यक्त रूप से रहते हैं, उसी प्रकार परावाक्‌ में स्थूल वाणी का संपूर्ण वैचित्रय अव्यक्त रूप से अभिन्‍न होकर रहता है। 
विश्व का संपूर्ण प्रपंच वैखरी से ही चल रहा है। शब्द-व्यापार के बिना विश्व-प्रपंच की गति एक कदम भी आगे कैसे बढ़ सकती है। इसलिये वह वाक्‌ संचालिका शक्ति है। सारे संसार के प्राणी शब्द में जन्म | लेते हैं तथा शब्द में ही लय हो जाते हैं। वही वाक्‌ अपने सूक्ष्मतम रूप  में पर है और वही परात्पर शक्ति है-  शक्ति: परा गीयते। जिस प्रकार किरणों के द्वारा हम सूर्य का अनुभव कर सकते हैं,  उसी प्रकार शब्दात्मक जगत्‌ उस परावाक्‌ का विलास है। वैयाकरणों का मत है कि “एक: शब्द: सम्यग्ज्ञात: सम्यक्‌ प्रयुक्त: इहलोके परलोके च द कामधुक्‌ भवति।”' शब्द में कितनी बड़ी शक्ति है। शब्द समाज को प्रेरित करता है। शब्द विश्वास जमा सकता है और शब्द ही निराश कर सकता है। वरदान और शाप दोनों ही शब्द रूप हैं। शब्द मन को उल्लसित अथवा व्यग्र बना सकता है। भगवती कामेश्वरी तथा भगवान्‌ शिव के लिये कालिदास  ने 'वागर्थाविव संपृक्‍तौ'” बताया है। तुलसीदास जी कहते हैं कि -- गिरा हि अरथ जल वीचि सम, कहियत भिन्‍न न भिन्‍न। वेदान्ती भी शब्द ब्रह्म कहते हैं। संगीतज्ञ नाद-ब्रह्म कहते हैं। शब्द-ब्रह्म में क्रम से गहरे और गहरे उतरते चले जाते हैं, वे जो योगी होते हैं। और इस प्रक्रिया में जब वे परावाक्‌ तक पहुंच जाते हैं तब उन्हें भगवती त्रिपुरसुन्दरी का साक्षात्कार हो जाता है !
>>>मनस्त्वम्‌ : हे मां, आप ही मन हैं। इच्छा-शक्ति का उद्भव मन में ही होता है। आप मनोमयी हैं, मनमय प्रतिमा हैं। आप वह मनोभूमि हैं, जहां अभाव  नहीं है, जहां चिंता नहीं है, जहां अहंकार नहीं है, जहां भेद समाप्त हो जाते हैं। वह मन जो संशय, लोभ, मोह-ममता तथा राग से रहित है तथा सर्वत्र एक रूप है, वही सर्वान्तर्यामी तथा सर्वभूतांतरात्मा' है। नंदिनी, सदातृप्ता, विरागिणी, परमोदा, स्वभाव-मधुरा तथा धीरा आदि नाम उस सच्चिदानंद- मयी मनोभूमि की ही व्याख्या करते हैं। वही प्राज्ञात्मिका, महाबुद्धि, सौम्या, स्वभाव-मधुरा, शांता, शांतिमती, शमाश्रिता, मनस्विनी, संतोषी तथा शुद्ध-मानसा है। गोस्वामी तुलसीदास ने भगवती का साक्षात्कार श्रद्धा भावना के रूप में किया है-- भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ। 
>>>मन के बंधन : जब तक मन क्षुद्रताओं में बंधा है, तब तक ही दुःख है। जब तक मन में वासना, कामना, ममता, मोह, राग, द्वेष, भ्रम, संशय, क्रोध, लज्जा, घृणा, भय, पाप और पुण्य है, तब तक उसकी संज्ञा जीव है और जब वह इन क्षुद्र  बंधनों से मुक्त हो जाता है, तभी जीव शिवत्व प्राप्त कर लेता है। पाशुपात तंत्र का वचन है- 

घृणा शंका भयं लज्जा जुगुप्सा चेति पंचमी। 
कुल जातिश्च शील च अष्टो पाशाः प्रकीर्तिता:। 

सप्तशती अध्याय ८ श्लोक ४, ५, ६ में ये आठ पाश ही आठ दैत्यवंशों के रूप में वर्णित हैं। उदायुध घृणा है। मैं बड़ा कुलीन और ज्ञानी हूं तथा दूसरे अकुलीन और अज्ञानी हैं, ऐसी दृष्टि से घृणा का भाव आता  है, घृणा के छियासी आलंबन माने गये हैं। लज्जा का कारण भेद-ज्ञान है। चौदह करणों को आश्रय करके षाट्कौशिक देह में प्रकट होने से इसकी संख्या चौरासी है। कोटि- वीर्य ही भय है। अपने अस्तित्वनाश के भय के कारण न तो जीव दिल खोल कर भोगों को भोगने देता है और न ही वैराग्य पथ पर ही तत्पर होता है। दस इंद्रियों और पांच कोश इस असुर-कुल के प्रकाश स्थान हैं, इसलिये ये संख्या में पचास हैं। विपर्यय ज्ञान या शंका ही धूप्रछलोचन का धौम्र है। भय अपने अस्तित्व-नाश की आशंका है और शंका अपने से संबंधित पदार्थों के विनाश की आशंका। निन्‍दा और छिपाने की इच्छा जुगुप्सा काछक नामक असुर है। अभिमान ही दोहईद है। शील मौर्य है। अद्बय-पद तक पहुंचने में यह शील अर्थात्‌ स्वभाव या प्रकृति अंतराय है। जाति ही कालकेय है, भेदज्ञान से ही जात्यभिमान पुष्ट होता है। कुल, शील, जाति आदि प्रत्यय अत्यंत कठिनाई से दूर होते हैं। वासना, कामना ये मानसिक रोग हैं। बलिदान नामक अनुष्ठान के प्रसंग में आता है कि-- कःम-क्रोधौ द्वौ पशू इमामेव मनसा बलिमर्पयेत्‌।  कामक्रोधौ विघ्नकृती बलि दत्वा जप चरेत। 
एक दूसरी व्याख्या में मन के तीन मल बताये गये हैं - आणव- मल, मायीय मल तथा कर्ममल। मैं अपूर्ण हूं, यह ज्ञानाभास अनात्मभाव का अभिमान आणव मल है। मैं कृश हूं या स्थूल हूं, यह ज्ञानाभास मायामल है तथा मैं यज्ञ करता हूं, यह ज्ञानाभास कर्ममल है। जब तक ये मल हैं, तब तक सुख दु:ख हैं, क्योंकि इनके कारण स्वतंत्र चिद्घन आत्मा का स्वरूप आच्छन्न, परिच्छिन्न, परतंत्र तथा देहमयभाव युक्त बना रहता है। जब मल- विक्षेप का नाश होता है तभी चित्त शुद्ध होता है, स्थिर होता है तथा नित्य-अनित्य का विवेक होता है, वैराग्य उत्पन्न होता है ज्ञान समकाल मुक्त: । कैवल्यं याति हतशोक:।
कर्म के फल हैं। जब कर्मक्षय हो जाता है तो पाप-पुण्य की भावना भी नहीं रहती है और जब पाप-पुण्य की भावना समाप्त हो जाती है तो आत्मा सुख-दु:ख के परे द्वन्द्रातीत हो जाती है। वह सभी जीवों में अन्तर्यामी कां साक्षात्‌ करने लग जाता है। जब मनुष्य को कोई कामना नहीं रहती, तब वह जीवन्मुक्त हो जाता है। अनादि स्वप्न भ्रम का निवारण हो जाता है। माया का निरास तत्त्वज्ञान से होता है।
>>>शुभसंकल्प :यह मन बड़ा चंचल, बड़ा बलवान, दृढ़ और मथने वाला है। इसको रोक कर स्थिर करना वायु की गति को मुट्ठी में कर लेने के समान अत्यंत कठिन है, मन बड़ा बलवान है। सहस्रों हाथियों के पांवों में जंजीर डाल देना या सहसौरों सिंहों को पिंजड़े में बंद रखना आसान है पर इसे स्थिर करना आसान नहीं है। मन ने ही भगवान्‌ शिव की समाधि भंग कर दी, विश्वामित्र और अगस्ति जैसे महातपस्वियों को पृथ्वी पर पटक दिया, देवर्षिनारद को मोहनास्त्र में बांध लिया और भगवान्‌ रामचन्द्र तक को पत्नी-वियोग से रुला दिया। मन सारी इंद्रियों को अपने अधीन करके सारे शरीर में खलबली मचा देता है। जब यह मन शुभ संकल्पों वाला होता है, तब वह अनंत सुख का कारण होता है। इसकी बिखरी हुई सब कृतियां जब किसी स्थान में एकत्र निरुद्ध होती हैं, तब मनुष्य अनंत शक्तिशाली होता है।
>>> बंध या मोक्ष : दोनों का कारण मन ही है। कालिथर्थन नाम के अंग्रेज लेखक ने मन को शैतान का राज्य कहा है। विचलित मन आशा और तृष्णामय होता है तथा प्रशांत- मन आशा और तृष्णा से रहित होता है। यदि हमारा मन हमारे पूर्ण नियंत्रण में है, तो हम सभी अवस्थाओं में अनंत आनंद का उपभोग कर सकते हैं। मन वैराग्य और अभ्यास से वश में आता है। जब चाहे किसी विषय पर विचार लगाया जा संके और जब चाहे किसी विषय से विचार हटाया जा सके, यह बलवान मन का लक्षण है।
68.>>>" मन को साधने का अभ्यास-टाका माटी- माटी टाका" :यूनान का एक प्रसिद्ध दार्शनिक था-- डायोजिनीज। वह सुकरात का शिष्य था। वह अपना जीवन एक नाद में ही व्यतीत करता था। उसने अपने लिये घर बांधना आवश्यक नहीं समझा। एक बार किसी युवक ने उसे एक पत्थर की मूर्ति से देर तक भीख मांगते देखा। उस युवक ने पूछा डायोजिनीज, पत्थर की मूर्ति से तुम क्‍यों भीख मांगते हो? क्या वह तुम्हें भीख दे सकती है? डायोजिनीज ने उत्तर दिया कि - मैं इस मूर्ति से भीख मांग कर किसी पुरुष के द्वारा भीख न देने पर शांत चित्त रहने का अभ्यास कर रहा हूं। इसी प्रकार रामकृष्ण परमहंस एक हाथ में रुपया लेते और दूसरे में मिट्टी और टाकामाटी-टाकामाटी कई बार कहते-कहते दोनों को फैंक देते
 >>> मन साधने का अभ्यास-अम्बव्यवहार :स्वामी रामतीर्थ को सेव बहुत प्रिय थे, उनका मन बार-बार कोई गंभीर विचार करते हुए सेवों पर चला जाता था। एक दिन स्वामीजी ने कुछ सेव लाकर अपने सामने रख लिये ताकि उनकी नजर उन्हीं के ऊपर पड़े। मन बार-बार सेव की और जाता था और वे बार-बार उसे खींच कर दूसरी और लगाते थे। इस प्रकार आठ दिन तक अन्तर्द्धन्द्र चलता रहा, जब सेव सड़ गये, तब उन्होंने वे फेंक दिये। इस प्रकार मन को साधने का अभ्यास किया जाता है। 
>>>तंत्र-शासत्र भावना के अभ्यास का मार्ग है। न्यास, भूतशुद्धि, अन्तर्याग, कुंडलिनी योग, मन्त्रजप भावना का ही तो अभ्यास है। इसीलिये तो कहा है कि - भवानी भावनागम्या अथवा भावे हि विद्यते देवो तस्माद्‌ भावस्तु 'कारणम्‌। 

न देवो विद्यते काष्ठे,न पाषाणे न मृण्मये।
भावेषु विद्यते देवः, तस्मात् भावो हि कारणम्॥

(गरुड़पुराण, उत्तर. ३/१०)


‘देवता न तो काष्ठमें रहते हैं, न पत्थरमें और न मिट्टीमें रहते हैं । भावमें ही देवताका निवास है, इसलिये भाव को (प्राणप्रतिष्ठा को)  ही मुख्य मानना चाहिये ।’
God can not be found in a wood piece, stone, or mud idol. It is the belief that makes us feel the presence of God. Hence, only the feeling matters – not the material.
देवता न तो काष्ट (लकडी ) की न पत्थर की और न मिट्टी की मूर्ति में रहते हैं।  यह तो भक्तों की भावना है जिस से वे इन मूर्तियों में देवता की उपस्थिति मान कर उनको पूजते हैं। अतः यह भावना ही पूजा करने का प्रमुख कारण है। न ही लकड़ी या पत्थर की मूर्ति में , न हि मिट्टी में देवता का निवास होता है,अपितु देवता का निवास तो भावों यानि हृदय में होता है, अतः भाव हि सर्वोपरि कारण है, (हृदय में ही देवता का निवास है।)
>>>तंत्र की विशेषता : दान, गुरुपूजा, देवपूजा, नाम-संकीर्तन, श्रवण, ध्यान, समाधि, योग, जप, तप, स्वाध्याय सब का लक्ष्य मन को ही तो वश में करना है। तंत्र की यह विशेषता है कि वह भोगप्रवण मन को बलपूर्वक अकस्मात्‌ धक्का देकर त्याग के मार्ग पर नहीं ठेलता अपितु भोग के अंदर से ही मन की स्वाभाविक गति का मुख मोड़ देता है। भावना और चिंतन से जीवन का निर्माण मनोविज्ञान का नियम है कि जो जैसा अपने को समझता है, वह वैसा ही बन जाता है। जो बात (गुरु मुख सुना हुआ महावाक्य ) बार-बार मन में चला करे, वह विश्वास के रूप में बदल जाती है और अपने मन और शरीर के संबंध में जैसा जिसका विश्वास होता है, वैसे ही लक्षण प्रकट होने लगते हैं। "देवे  तीर्थे  द्विजे  मन्त्रे  दैवज्ञे  भेषजे  गुरौ। यादृशी  भावना  यस्य  सिद्धिर्भवति  तादृशी" अर्थ-देव, तिर्थक्षेत्र, ब्राह्मण, मन्त्र , ज्योतिषी, और  गुरु इन सब के बारे  में 'जैसी जिसकी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि होती है। 
     मनोवैज्ञानिक एमीलो का कथन है कि रात्रि को सोते समय अन्तर्मन में जिस भावना का चिन्तन करते हुए हम निद्रा में प्रवेश करते हैं, हमारे जीवन का निर्माण उसी भावना और चिंतन के अनुकूल होता है। हमारा अन्तर्मन हमारी स्मरण शक्ति का भंडार है। इसमें जीवन के प्रत्येक क्षण में होने वाली घटना तथावत्‌ अंकित रहती है। प्रत्येक भावना जों हमारे मन में आती है, उसको यदि अमन्तर्मन की अचेतन वृत्ति ग्रहण कर लेती है तो वह सत्त्वस्थ होकर हमारे जीवन की एक स्थायी वृत्ति हो जाती है। इसलिये भावना का महत्त्व बहुत अधिक होता है। 
भावना एक ठोस वास्तविकता है और उसका प्रभाव और परिणाम भी ठोस होता है। भावना को छू कर नहीं देखा जा सकता या आंखों से प्रत्यक्ष नहीं किया जा सकता। इस कारण बहुत से लोगों क्रे लिये "भावना” मात्र अहसास है। अवश्य ही भाव का उदय और लय मन में ही होता है। मनस्युत्पद्यते भावो मनसि हि प्रलीयते। “ भाव” शब्द की व्याख्या अत्यन्त दुरूह है; क्योंकि यह मन का धर्म है ----“ भावस्तु मनसो धर्म:”मन के धर्मों को कैसे पकड़ पायेंगे? भाव तो मन में उत्पन्न होता है और वहीं विलीन हो जाता है ---“ मनस्त्यत्पद्यते भावो मनस्येव प्रलीयते” 
    जिस तरह गुड़ की मिठास को जीभ ही जान सकती है, उसी तरह भाव को मन ही जान सकता है। रुद्रयामल- तंत्र में लिखा गया—

"भावेन लभते सर्वं भावेन देवदर्शनम्।
भावेन परमं ज्ञानं तस्माद्भावावलम्बनम्।।

“अर्थात् भाव से सब कुछ प्राप्त होता है, देवता का दर्शन, ज्ञान की प्राप्ति , इसलिये भाव का अवलम्बन लेना चाहिए। भावचूड़ामणि में कहा गया :बहुजापात् तथा होमात्कायक्लेशादिविस्तर:।
न भावेन विना देवो यन्त्र मन्त्रा: फलप्रदा: ।।अर्थात् कितना ही अधिक जप, होम, तथा कायक्लेश आदि किये जायें, परन्तु भाव के विना देवता, मन्त्र, यन्त्र फलप्रद नहीं होते
भगवती कल्पतरु (वृक्षों) से घिरे हुए चिंतामणि-मंदिर में विराजमान हैं। वहां प्रवेश करते ही संपूर्ण मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। साधक पूर्णकाम तथा आप्तकाम बन जाता है। भगवती कुलकामधेनु हैं।' जो भगवती का उपासक है, वह न किसी से याचना करता है, न किसी दूसरे की सेवा-चाकरी करता है तथा न ही किसी से छीनता है फिर भी- उसकी दीनता नष्ट हो जाती है। दरिद्रता समाप्त हो जाती है, उनके यहां किसी चीज का अभाव नहीं है। राजराजेश्वरी हैं। वे ही सम्राटों को साम्राज्य देती हैं। भय, रोग, दुःख, दुर्भाग्य, अज्ञान, शोक, ज्वर, महामारी, उन्माद , आग्नेय संताप, मृत्यु, दरिद्रता, कलह, अशांति, असंतोष , भ्रम, शत्रु तथा विघ्नों को नष्ट कर देने वाली जगदंबा हैं। ललितासहख्रनाम में रोग पर्वत- दंभोलि, मृत्युदारु कुठारिका, भयापहा, मृत्युमथनी, दौर्भाग्यतूल वातूला, जराध्वांतरविप्रभा, भवरोगघ्नी, तापत्रयाग्निसंतप्त समाल्हादचंद्रिका, विघ्न- नाशिनी, कालहंत्री, कलिकल्मष-नाशिनी, सर्वव्याधिप्रशमनी , बंधमोचनी, पापारण्य दवानला तथा सर्वापद्विनिवारिणी के रूप में भगवती राजराजेश्वरी का स्मरण किया गया है। 
           भगवती को प्रणाम वही कर सकता है, जिसका सौभाग्य जगने वाला हो, क्योंकि भगवती प्रणत- जन सौभाग्यजननी है।'” भगवान्‌ शंकराचार्य अपनी रचना  "सौन्दर्य लहरी ~  Waves of Beauty"In order to praise The supreme Goddess " शक्ति , परमेश्वरी , राज राजेश्वरी ' & other forms of the देवि , श्री आद्यगुरु शँकराचार्य had written 100 श्लोक . This is The opening stanza of साैंदर्य लहरी , Which literally means ' Waves of Beauty ' .
हरिद्वार को मायापुरी नाम से भी पुकारा जाता है। इसका कारण यह है कि यहां भगवती मायादेवी का मंदिर स्थित है। मायादेवी भगवती सती का ही एक स्वरूप हैं जिन्होंने अपने पिता दक्ष प्रजापति द्वारा किए गए यज्ञ में खुद सहित भगवान शिव को न बुलाए जाने पर यज्ञाग्रि द्वारा देहोत्सर्ग कर दिया था-भारत की सुप्रसिद्ध मोक्षदायिनी सप्तपुरियों में से एक मायापुरी है। 

गरुड़ पुराण के अनुसार सप्तपुरियां निम्न हैं-अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, काञ्ची, अवन्तिका, पुरी, द्वारावती चैव, सप्तैता मोक्षदायिका। वर्तमान समय में विशेष प्रसिद्ध नाम हरिद्वार है क्योंकि कनखल, ज्वालापुर, भीमगोड़ा नाम की पुरियां सम्मिलित हैं। इनके केन्द्रीय स्थान मायापुर अर्थात प्राचीन मोक्षदायिका मायापुरी स्थित है। शेष अन्य चारों स्थान इसकी अंगभूता उपनगरियों के समान हैं। इसका नाम मायापुरी इसलिए भी है कि इसकी अधिष्ठात्री भगवती मायादेवी हैं। इस मायापुरी क्षेत्र में पुरातन काल से ही तीन शक्तिपीठ इस प्रकार से स्थित हैं कि उनके द्वारा एक त्रिकोण बन जाता है। इस त्रिकोण के उत्तरी कोण में मंसादेवी, दक्षिण कोण में शीतला देवी और पूर्वी कोण में चंडी देवी स्थित हैं। इस त्रिकोण के मध्य में पूर्वाभिमुख स्थित होने पर वामपाश्र्व अर्थात् उत्तर दिशा में अधिष्ठात्री भगवती मायादेवी, दक्षिण पाश्र्व में माया के अधिष्ठाता भगवान शिव दक्षेश्वर महादेव के रूप में स्थित हैं। 
यह मंदिर जिन भगवती माया देवी का है उनका वेदांत दर्शन की अनिवर्चनीय (मिथ्यारूप) माया से कोई संबंध नहीं है। यह तो परमब्रह्म परमात्मा भगवान शिव से  अभिन्न उनकी स्वरूप युक्त पराशक्ति है। इसके विषय में आद्य शंकराचार्य ने कहा है-
शिव: शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्त: प्रभवितुम् ।
न चेदेवेम् देवो न खलु कुशल: स्पन्दितुमपि ।।
अतस्त्वाम् आराध्याम् हरि हर विरित्र्चादिभिरपि ।
प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृत पुण्य: प्रभवति ।।
कहते हैं जो अकृतपुण्य है, जिन्होंने पुण्य का संचय नहीं किया, भला वे तुम्हें प्रणाम कैसे कर सकते हैं- 
भगवती सौभाग्यरत्नाकर हैं। अविद्या अज्ञान दूर करने के लिये जगदंबा मिहिरद्वीपनगरी हैं। (सूर्यद्रीपा)। दरिद्रों के लिये वे चिन्तामणि हैं। वे भुवनभय भंग व्यसनिनी . हैं अर्थात्‌ उनका यह व्यसन है, शौक है कि सांसारिक भयों से मुक्त कर देती हैं। उनके चरण इच्छा से भी अधिक ' फल देने में निपुण हैं। फलमपिच वांछा समधिकम्‌। जब भगवान्‌ शिव ने काम को भस्म कर दिया तब रति विलाप करने लगी तो भगवती पसीज गयी, करुणा भाव से विहल हो गयी और महादेव जी से कहा -- नाथ, इसको जीवन दीजिये और शंकराचार्य कहते हैं कि हे गिरिजे ! फूलों का धनुष और भ्रमर पंक्ति की प्रत्यंचा वाला अशरीरी कामदेव सारे संसार पर विजयी बन गया, यह आप ही की कृपा है।  
धनुः पौष्पं मोर्वी मधुकरमयी पंच विशिखा 
वसंत सामंतो मलय मरुदा योधन रथ:। 
तथाप्येक: सर्व हिमगिरिसुते कामपि कृपा- 
मपांगात्ते लब्ध्वा जगदिदमनंगो विजयते। 
है भगवती, आपका उपासक सरस्वती पर वाचस्पतित्व प्राप्त करके ब्रह्मा का, श्री लक्ष्मी पतित्व प्राप्त करके विष्णु का भी ईर्ष्यापात्र बन जाता  है। आपके उपासक के रूप को देखकर रति उसके कामदेव होने के संदेह में पड़ जाती है-- सरस्वत्या लक्ष्म्या विधि हरि सपत्नो विहरते-- 
रते: पातिव्रत्य शिथिलयति रम्येण वपुषा। 
चिरं जीवन्नेव क्षपित पशुपाश व्यतिकर: 
परानंदाभिख्य रसयति रस त्वद्भजनवान। 
'सप्तशती में देवता लोग भगवती की वंदना करते हुए कहते हैं कि-- मां, दुख और दरिद्रता दूर करने तथा सबका उपकार करने के लिये सदा ही दयाभाव उच्छलछ रहने वाला आपके सिवा और कौन है--
 दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेष जन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्य दुःख भयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकार करणाय सदार्द्रचित्ता ।।
वे संपूर्ण मंगलों की केन्द्र हैं, सर्व-मंगल मांगल्य हैं तथा दया उनका _ स्वभाव है, इसलिये शरण में आये हुए दीनों और पीड़ितों की रक्षा में सदा तत्पर हैं- शरणागत दीनारत्तपरित्राण परायणे 'भगवती प्रसन्न होती है, तो संपूर्ण रोग नष्ट हो जाते हैं, संपूर्ण अभीष्ट प्राप्त हो जाते हैं। भगवती के आश्रित जनों को कभी विपत्ति का मुख नहीं देखना पड़ता - त्वामश्रितानां न विपन्नराणाम्‌। रोगानशेषानपहंसि तुष्टा ददासि कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌ त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति। साधना के अनेक क्षेत्र हैं, परंतु जहां भोग है, वहां मोक्ष नहीं है, बंधन है और जहां मुक्ति है वहां भोग नहीं है परंतु यह तो भगवती त्रिपुरसुंदरी का ही पंथ है, जहां भोग और मोक्ष दोनों विद्यमान हैं-- यत्रास्ति भोगो न हि तत्र मोक्ष:, यत्रास्ति मोक्षो न हि तत्र भोग:। श्रीसुदरीसाधनतत्पराणां भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव। 
या मोक्षदायिनी विद्या न सा भोगप्रदायिनी। 
भोगदा नैव मोक्षाय श्रीविद्या तृभयात्मिका।। 
भगवती के उपासक के लिये न तो कुछ भी दुर्लभ है तथा न ही असंभव, क्योंकि उसके मन की गति तथा विकास को बांधने वाली ग्रन्थियां (असंभावना तथा विपरीत भावनारूपा) टूट चुकी होती हैं। वह निर्द्धन्द्र, नि:संदेह तथा संकल्प और इच्छाशक्ति से भरा हुआ रहता है। अणिमादि आठ प्रकार की सिद्धियां तो भगवती की द्वारपालिका हैं, और वे तो भगवती के द्वार पर जाने से ही मिल जाती हैं। क्षमापराधन-स्तोत्र के शब्द हैं कि हे मां ! हे अपर्णे ! आपके मंत्र का एक बीज भी कान में पड़ जाने पर मूर्ख चांडाल भी मधुपाक के समान अमृतवाणी का उच्चारण करने वाला उत्तम वक्ता बन जाता है तथा दीन भी करोड़ों मुद्राओं का स्वामीं बन कर चिरकाल तक निर्भय विहार करता है। तब जो लोग विधि-सहित जप में लगे रहते हैं, उनके जप से प्राप्त होने वाले उत्तम फल को कौन जान सकता है-- श्वपाका जल्पाको भवति मधुपाकोपम गिरा निरातंकों रंको विहरति चिरं कोटि कनकै:। हे 
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं || 
जन: को जानीते जननि जपनीय जपविधौ। > 
हरिवंशपुराण में प्रसंग है कि जब श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को बाणासुर ने कारागार में बंदी बना लिया तब उसने भगवती दुर्गा की प्रार्थना की। वे निर्धन को धन, निःसंतान को संतान, रोगी को स्वस्थ नीरोग काया, भयभीत को अभय, युद्ध में रत को विजय और सर्वोपरि अपने चरणों में आश्रय देने वाली हैं। वे ही कैवल्यपद दायिनी हैं। कन्याओं के लिये भगवती अभीष्ट वर देने वाली हैं। जिस समय जानकी के विवाह का स्वयंवर हुआ तब वहां बहुत से राजा आये, जिनमें रावण और बाणासुर जैसे बलवान भी थे। सभी के मन में सीता से विवाह करने की अभिलाषा थी किन्तु जानकी तो राम को मन ही मन वरण कर चुकी थी। जानकी ने जब बहुत से राजाओं को देखा तो वे चिंता में पड़ गयीं।  
    तभी उन्होंने सोचा कि भगवती जगदंबा परम दयालु हैं, उनके सिवा मेरी कामना को पूर्ण करने वाला कोई नहीं है। यह सोच कर जानकी ने भगवती में मन लगाया और गौरी-पूजा करने को चली। रामचरितमानस में लिखा है कि- पूजन गौरि सखी ले आई। राम का स्यामल रूप देखकर वे विचार करती हैं कि शिव का धनुष तो बहुत कठिन है। चलो, भगवती से ही प्रार्थना करती हूं -गई भवानी-भवन बहोरी, बंदि चरन बोली कर जोरी।
 
जय जय गिरिबरराज किसोरी।
जय महेस मुख चंद चकोरी॥

जय गजबदन षडानन माता।
जगत जननि दामिनी दुति गाता॥

देवी पूजि पद कमल तुम्हारे।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥

मोर मनोरथ जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबही कें॥

कीन्हेऊँ प्रगट न कारन तेहिं।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥

बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मुरति मुसुकानि॥

सादर सियँ प्रसादु सर धरेऊ।
बोली गैरी हरषु हियँ भरेऊ॥

सुनु सिय सत्य असीस हमारी।
पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥

नारद बचन सदा सूचि साचा।
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एही भाँती गौरी असीस सुनी सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥
जानकी बोली -- हे गिरिगज किशोरी आपकी जय हो। हे भगवान- शिव के मुखचंद्र की चकोरी आपकी जय हो। आपके शरीर का प्रकाश करोड़ों दामिनियों के प्रकाश के समान है। आपका आदि--अंत नहीं है। 
"मोर मनोरथ जानहु नीके, बसहु सदा उरपुर सब ही के।
इसी प्रकार कुंडनपुर नामक स्थान के भीष्मक नामक राजा की बेटी रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण की प्रशंसा सुनी, तभी से उनके मन में द्वारकानाथ कृष्ण को पति रूप में पाने की अभिलाषा जाग गयी, उसका मन रात-दिन श्यामसुंदर के चरणों में लगा रहता था। जबकि उसका भाई रुक्‍मी शिशुपाल के साथ उसका विवाह करना चाहता था। ऐसी स्थिति में रुक्मिणी ने भगवती-जगदंबा 
की प्रार्थना की कि-- 
नमस्येत्वाम्बिकेडभीक्ष्णं स्वसन्तानयुतां शिवाम्‌। 
भूयात्‌ पतिरमेंभगवान्‌ कृष्णस्तदनुमोदताम्‌ ।। (भागवत १० / ५३ / ४६) 
ब्रज की गोपकन्याओं ने भी श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करने के लिये भगवती की ही उपासना की थी। 
कात्त्यायनि महामायेमहायोगिन्यधीश्वरि। 
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:॥ 
एवं मास ब्रत॑ चेरु: कुमार्य: कृष्णचेतस:। 
भद्गरकालीसमानर्चु भूयाननंदसुतःपति:।। (भागवत १०/२२/४--५) 
69.>>>आभा :" येन भासा सर्वमिदम्‌ विभाति ": 
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥
(कठोपनिषद् 2.2.15)/(मुण्डकोपनिषद् 2.2.11)
वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।
धुप्प के घटाटोप में न सूरज था, न चंदा था और न ग्रह--नक्षत्र ही  दीखते थे। सृष्टि की उस आदिम-अवस्था में अग्निदेव से साक्षात्‌ हो ही नहीं सका था और उस समय मनु ने देखा कि कड़कड़ शब्द हुआ और बिजली चमकी। जरा कल्पना करिये मनु के उस मन की, जो बिजली की चकाचौंध में आश्चर्य, भय, आनंद और न जाने कैसे-कैसे भावों से भर जाता था। मनु ने बिजली की उस चमक में अनंत की सत्ता देखी थी और जब-जब बिजली चमकती तो उस आदिम-मानस को भगवती योगमाया का साक्षात्कार होता। 
दामिनी :वह गोरी-गोरी बिजली स्वामी हरिदास जी को 'राधारानी ' सी दीखी और फिर दामिनी ने स्वयं कहा कि सच्ची दामिनी तो राधा ही हैं, मैं तो उसकी एक विंब मात्र हूं, दामिनी कहत मेघ सों हमारी उपमा देंहि ते झूठे एई बीजुरी सांची। 

तन्त्रशास्त्र ने भी जब भगवती दुर्गा को खोजा तो उसे भी वह विद्युद्दाम समप्रभाम्‌ के रूप में दिखी। ललितासहस्रनाम ने त्रिपुरसुंददी को ओट में से दिखाया तो वे भी कैसी दिखीं-- तडिल्लता- समरुचि:। उनका मुख बिजली के समान प्रकाश से युक्त है। बिजली तो चमक कर छिप जाती है परन्तु मुख की प्रभा तो सतत्‌ देदीप्यमान है। और बिजली भी एक नहीं -- कोटि तडिल्लता। तडित्कोटिप्रभादीप्ताम्‌। करोड़ों बिजलियों की प्रभा से प्रदीप्त। ऐसे महाप्रकाश के ध्यान से उपासक के अन्त:स्थ अंधकार का नाश हो जाता है। मन में सौंदर्ययोध का अगाध रससिंधु हिलोरैं लेता है। 
आभा ; येन भासा सर्वमिदय्‌ विभाति।
 शिवभावापनन सूर्य ही संसार का प्रभव है। शिवात्मक सूर्य ही पृथिवी अंतरिक्ष, द्यौरूप त्रैलोक्य का एवं उसमें रहने वाली प्रजा का निर्माण करता है। नूनं जनाः सूर्येण प्रसूताः ('ऋक) इस शिवात्मक सूर्य शक्ति का नाम ही षोडशी है। एक ही शिव द सूर्य, पांच दिशाओं में व्याप्त होकर तत्पुरुष (पूर्व) सद्योजात (पश्चिम) वामदेव (उत्तर) अघोर (दक्षिण) तथा ईशान (ऊर्ध्व) पंचमुख हो जाता है।
चंद्रमा तो आह्वाद का द्योतक है। शरद-पूर्णिमा का चंद्र भगवान श्रीकृष्ण के रास का साक्षी है। उस चंदा को निहार कर गांव की साधारण और अबोध बालाओं का मन भी रस से आप्लावित हो जाता है और वे गा उठती हैं- ओ चंदा, तेरी निरमल कहियै चांदनी। वह चांदनी भी भगवती की मुस्कान है। अष्टमी का चंद्रमा भगवती के मस्तक पर विराजमान है, जो न घटता है, न बढ़ता है। दोनों पक्षों में अष्टमी का चन्द्रमा एक जैसा ही होता है। इसलिये अष्टमी-चंद्र विभ्राजदलिकस्थल शोभिता। सूर्य चन्द्र विद्युत दिशा में स्थित ज्योति हैं। 
अग्नि -धरती की तैजसात्मिका शक्ति है अग्नि। जिस दिन अंगिरा को अग्निदेव मिले थे, उस दिन धरती का कायाकल्प हुआ था। नयी सभ्यता का उदय हुआ था। ये अग्निदेव ब्रह्मा के रूप में ब्रह्मर्षि को प्राप्त हुए। इसलिये भगवती को वहिमंडलऊ-वासिनी कहा है। यही ज्वालादेवी है। भगवती के तीन नेत्र ये ही तीन ज्योति हैं -- सूर्य, चंद्र तथा अग्नि। 
70.>>>येन भासा सर्वमिदं विभाति : परन्तु आगे कहते हैं। सूर्य सच्चा सूर्य नहीं है, सच्चे सूर्य का प्रतिविंब है, इसी प्रकार वह सच्चा सूर्य, चंद्र और अग्नि - "स जयति महान् प्रकाशो यस्मिन् दृष्टे न दृश्यते किमपि । कथमिव तस्मिञ्ज्ञाते सर्वं विज्ञातमुच्यते वेदे ॥"  Glory to that great Prakasha (Supreme Divine Effulgence), beholding which nothing else is seen, How then it is said in the Vedas that knowing which everything else is known? जिसके तेज से ये समस्त तेजस्वी तेजयुक्त हैं वह है पराशक्ति, वह है परावाक्‌। वही है कुंडलिनी और वही विंदु है। 
71.>>>How can physics solve spiritual problems? आत्मविद्या महाविद्या : भौतिक-विज्ञान ने ज्ञान की एक पद्धति ( निरीक्षण, परीक्षण और निष्कर्ष) का विकास किया और समझ लिया कि संपूर्ण सत्ता की व्याख्या इसी पद्धति से की जा सकती है। भौतिक-विज्ञान ने अपनी विकासयात्रा का आरंभ इस मान्यता को लेकर किया था कि चरम सत्य अवश्य ही भौतिक और बाह्य होगा और वह 'मैटर' या पदार्थ” रूपी चरम सत्य समस्त आंतरिक आत्मगत घटनाओं की व्याख्या कर देगा। 
जड़ तत्त्व (Matter) : भौतिकविज्ञान ने बताया कि यह सारा जगत्‌ ऊर्जा की क्रीडा-मात्र है और उस ऊर्जा को उसने “जड भौतिक '' ऊर्जा (Energy)  के रूप में देखा-समझा। भौतिक-विज्ञान समाधान नही।  जब जड तत्त्व! के प्रादुर्भाव की व्याख्या का प्रश्न आया तो विश्वीय किरणों की बात कही गयी। "Sir Oliver Lodge said that life on Earth came from another planet and thus he took the problem one step further." सर ओलिवर लॉज (Sir Oliver Lodge) ने कहा कि पृथ्वी का जीवन किसी अन्य ग्रह से आया और इस प्रकार उन्होंने समस्या को एक कदम और बढ़ा दिया। 
१. जड़ शक्ति में कोर्ट एजन (hold court -cord root) करने की क्षमता न होती तो  भौतिक--जगत ही नहीं होता। आधुनिक विज्ञान भी  स्वीकार करता है कि- “ जड़तत्व कार्यशील ऊर्जा है।" “inertia (निष्क्रियता, आलस्य या जड़त्व) is working energy. What is energy? Power of consciousness." ऊर्जा क्या है? चेतना की शक्ति। इस प्रकार जड़तत्व अचेतन है  पर क्रियाशक्ति से हीन नहीं है। एक अतर्ग्रस्त शक्ति और चेतना इसके अंदर कार्य करती है, (An underlying power and consciousness works within it,) जिसे मनोवैज्ञानिक अचेतना कहते हैं। पर वास्तव में वह अचेतना नहीं है। प्रकृति जो स्थूल  जगत्‌ में जड़ प्रतीत होती है, वास्तव में आत्मा की सचेतन शक्ति  है। उपरि तलीय बाहरी अचेतनंता के कारण हम उसकी उपस्थिति का अहसास नहीं कर पाते। तो उसे पीछे ठेल कर छुट्टी पा ली। 
    चलो, दूसरे ग्रह से ही आया सही, परंतु उस दूसरे ग्रह पर जीवन कहां से आया?” यह प्रश्न लटका ही रहा। सर जेम्स-जीन्स (Sir James-Jeans)  ने इसे एक आकस्मिक घटना (accidental event) बताया कि जीवन (Life)  प्रकट हो गया। ये तो एक छिछले स्तर की कल्पना वाली बातें हुई कि जीवन दूसरे ग्रह से आया होगा या अकस्मात्‌ प्रकट हो गयायदि जीवन देवयोग से प्रकट हो गया तो जगत्‌ भी देवयोग से प्रकट हो गया होगा। सच बात यह है कि यह भौतिकवादी चिंतन हमें तर्क-हीनता में ढकेल देता है तथा कहीं भी आगे तक नहीं ले जा पाता। प्रश्न विज्ञान की उपलब्धियों का नहीं, प्रश्न अध्यात्म-विद्या और भौतिक-विज्ञान के द्वारा उसके निर्णायक होने का है। आज के जमाने में जब नाक का डाक्टर पेट के दर्द (Internal Medicine) की दवा नहीं देता, तो भौतिकविज्ञान आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान कैसे कर सकता है
72.>>>Willpower in molecules: (अणुओं में इच्छाशक्ति) : इसमें संदेह नहीं कि आधुनिकयुग के महान्‌ वैज्ञानिक आइंस्टीन ने गणितीय विधियों से (mathematical methods से ) यह सिद्ध कर दिया था कि द्रव्य ऊर्जा है तथा ऊर्जा द्रव्य है (matter is energy and energy is matte E=MC2, gross and subtle substances of all matter are the changed forms of Shakti.); अर्थात्‌ समस्त चराचर के स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ शक्ति के ही बदले हुए रूप हैं। द्रव्य (Matter या ऊर्जा) का कभी नाश नहीं होता, उसका रूपांतर ही होता है। रसायन-विज्ञान (Chemistry) ने बताया कि द्रव्य अविनाशी है (matter is indestructible) इसलिये ऊर्जा शक्ति भी अविनाशी है (energy power is also indestructible.)। 
 73.>>>दिक्‌ और काल (space and time)  अभिन्‍न (inseparable.) है :  भौतिक वैज्ञानिकों का कथन है कि दिक्‌ और काल (space and time)  अभिन्‍न (inseparable.) है। उन्होंने परमाणु की संरचना में धनात्मक आवेश और ऋणात्मक आवेश तथा न्यूट्रोन के द्वारा उसके परिक्रमण की भी बात बतलायी। (positive charge and negative charge in the structure of the atom and its rotation by the neutron.परमाणु में होने वाली यह घटना ब्रह्मांड में भी हो रही है। (This phenomenon happening in the atom is also happening in the universe.) इसी के साथ जर्मन जड़वादी हेकेल (German fundamentalist Haeckel) ने अणु में विद्यमान इच्छाशक्ति की भी बात कही थी। (the will power present in the molecule.)
 74.>>>“point” and “cycle”  इस दृष्टि से आप विचार करें तो "बिंदु” और चक्र” की परिकल्पनाओं तथा वेदांत के निष्कर्षों के आसपास पहुंचने का श्रेय भौतिक विज्ञान को भी दिया जाना चाहिये। (the hypotheses of “point” and “cycle” and the conclusions of Vedanta. तक पहुँचने के श्रेय भौतिक विज्ञान को भी दिया जाना चाहिये। ) आज अधिकांश यूरोपीय वैज्ञानिकों ने इस विचार को त्याग दिया है कि जगत्‌ के मूलतत्त्वों की व्याख्या भौतिकविज्ञान कर सकता है। वे मानने लगे हैं कि यह कार्य विज्ञान का नहीं है और न ही यह उसके साधनों के वश की बात है। इस प्रकार १९वीं शताब्दी के वैज्ञानिकों की धारणा आज टूट चुकी है। भौतिक-विज्ञान केवल यही खोज सकता और बतला सकता है कि भौतिक शक्ति वस्तुओं के भौतिक भाग में कैसे कार्य करती है और उसकी क्रियाओं कीं पद्धति क्‍या है? 
75.>>>God (परम् सत्य) : beyond the limits of physics (ईश्वर : भौतिक विज्ञान की सीमा के बाहर): भौतिक-विज्ञान यह निश्चय नहीं कर सकता कि वस्तुओं का सत्य क्या है अथवा उनका यथार्थ स्वभाव क्‍या है अथवा भौतिक व्यापार के पीछे क्‍या है? वह केवल भौतिक वस्तुओं की प्रक्रिया को देख सकता है अथवा यह जान सकता है कि वे कैसे घटित होती है अथवा मनुष्य कैसे उनका उपयोग कर सकते हैं ? 
   आध्यात्मिक समस्याओं से संबंधित प्रश्न उसके क्षेत्र से बाहर है। इसलिये आध्यात्मिक प्रश्नों के समाधान के लिये भौतिक-वैज्ञानिकों को संतुष्ट करने की इच्छा निरर्थक है। जब किसी वैज्ञानिक ने कहा था कि -- “ईश्वर एक कल्पना (fantasy) है, जिसकी अब कोई आवश्यकता नहीं है।” तो वह अपने क्षेत्र से बाहर जा कर बोल रहा था (then he was speaking out of his field), क्योंकि ईश्वर भौतिकविज्ञान की समस्या तो है नहीं और फिर उसे चीर-फाड़ करके या अणुवीक्षण-यंत्र से या चिमटे से पकड़कर तो दिखाया भी नहीं जा सकता था। 
    76.>>>मन की शक्ति क्या अन्धविश्वास है ? : कई लोग अपनी साधना के उच्चस्तर पर सामान्य तथा असंभव लगने वाले कार्यों को संभव कर दिखाते हैं, जैसे हवा से फल-फूल, मिठाई इत्यादि मँगवा लेते है। किंतु जो लोग संदेहशील हैं, उनके संदेह को दूर कैसे किया जा सकता है ? क्योंकि वे विश्वास न करने के लिये दृढसंकल्प हैं। परंतु जब कोई वैज्ञानिक एक ओर “अंधविश्वास" (superstition) शब्द की गदा घुमा कर आध्यात्मिक विश्वासों (spiritual beliefs-चार महावाक्यों पर ) पर पिल पड़ता है, यह सोचता नहीं कि उनमें से कितने विश्वास मिथ्या, अर्धसत्य और सत्य हैं? दूसरी ओर वह वैज्ञानिक-अंधविश्वासों का प्रचलन करने के लिये ऐसी बहकाने वाली बात भी करता है कि जीवन (प्राण या Life) , चेतना और मन विद्युतकणों के एक जड़-समुदाय से प्रारंभ होता है, जो एक-जैसे होते हैं और केवल व्यवस्था तथा संख्या में ही भिन्‍न होते हैं। कैसी चक्कर में डालने वाली बात है! 
     हम उसे चैतन्य इच्छाशक्ति का विकास और अघटन- घटन पटीयसी के रूप में निश्चित और स्पष्ट रूप में समझने की कोशिश कर रहे थे, आपने विद्युतकणों की अस्त-व्यस्त और आकस्मिक घटना का गड़बड़ और रहस्यवादी परिणाम बता कर उलझन खड़ी कर दी। सच बात यह है कि वास्तव में विज्ञान यह नहीं जान सका कि असंभव संभव कैसे हो गया? विज्ञान की समस्त विजयों और चमत्कारों के बावजूद व्याख्यात्मक तत्त्व, मूल कारण, संपूर्ण यथार्थ-तात्पर्य अंधकार में ही रह गया-(एक ही दवा से सोडियम लेवल किसी में -95 से 135 कैसे पहुँच गया और किसी में क्यों नहीं पहुंचा ?) अपितु कहा जा सकता है कि मूल वस्तु को तो भौतिक-विज्ञान ने खो ही दिया। भौतिक-विज्ञान चरम सत्य तक नहीं पहुंच सकता है, क्योंकि वह उसका क्षेत्र नहीं है
77.>>> आध्यात्मिक सत्य अतींद्रिय है और ऋषि -अतीन्द्रिय दर्शी (clairvoyant)
आध्यात्मिक खोज को भौतिक-विज्ञान की खोज की तरह संपन्न नहीं किया जा सकता। विचार करने की बात है कि वैज्ञानिक खोज भी स्थूल इंद्रियों की खोज के परे चले जाती हैं और अनंत तथा सूक्ष्म के राज्य में  प्रविष्ट हो जाती है- 'God Particle' को स्वीकार करना पड़ता है। विद्युद्‌ अणु (इलैक्ट्रोन) को कोई कैसे छू सकता है? हम आंखों से देखते हैं कि सूर्य घूमता है परंतु वास्तव में सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं कर रहा। इस प्रकार इंद्रिय दृष्टि और वस्तुओं के ऊपरी रूप को विज्ञान ने खंडित किया है। तो इसी प्रकार आध्यात्मिक खोज इंद्रिय-बुद्धि की सीमा से आबबद्ध नहीं है। आध्यात्मिक सत्य अतींद्रिय है। 
78.>>>limits of rationality (तर्कबुद्धि की सीमा): -परात्पर तत्त्व को  जानने में बुद्धि अमसर्थ है। (supreme essence- माँ सारदा भवानी भावना गम्या को जानने में बुद्धि असमर्थ है !) मन परम सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता (अहं नहीं आत्मा ही परमात्मा को प्राप्त करता है !) जब तक हम केवल बुद्धि के राज्य में रहते हैं, तब-तक केवल एक दार्शनिक विश्वास की रचना कर सकना ही संभव है। भारत के तत्त्वज्ञानियों ने उच्चतम सत्य के स्वरूप को बुद्धि के द्वारा निर्धारित करने का प्रयास जरूर किया, परंतु वे तत्त्वज्ञानी होने या तात्विक  विवेचन (metaphysical analysis) करने  से पहले योगी थे। 'And yoga is not a field of intellectual reasoning.' और योग बौद्धिक तर्क-वितर्क का क्षेत्र नहीं है। चेतना के सोपानों (levels of consciousness) के क्षेत्र में बुद्धि को जज नहीं माना जा सकता, क्‍योंकि बुद्धि संदेहशील है और 'संदेह-बुद्धि' ('doubting-intellect' या मन) का काम ही संदेह करना है। संदेह को कभी तृप्त नहीं किया जा सकता। वह तो संदेह है, योग (समाधि) नहीं है 
79.>>>Yoga progresses through internal influence (श्रद्धा) . योग आंतरिक प्रभाव (श्रद्धा)  के द्वारा अग्रसर होता है। चेतना का विकास वह कार्य कर डालता है, जो हजारों तर्क-वितर्क  नहीं कर सकते। जब तक हम एक सुनिश्चित अन्तर्दृष्टि तक नहीं पहुंचते तब तक तर्कबुद्धि की आवश्यकता रहेगीरंतु उतनी ही आवश्यकता श्रद्धा की भी होगी। चेतना के उच्च सोपान को पाने के लिये एक दृढ विश्वास का होना आवश्यक है, भले ही वह विश्वास अपनी ही तर्क-बुद्धि का क्‍यों न हो? यदि हम लाखों पृष्ठ लिख दें तो भी संदेह को संतुष्ट नहीं किया जा सकता, वह संतुष्ट होगा भी परंतु तुरंत ही फिर संदेह करेगा, क्योंकि वह संदेह है। बुद्धि जो कुछ अनुभव करती है, जो कुछ जानती है, उसी के आधार पर वह विंब बनाती है और उन विंबों के सहारे ही वह सारी चीजों को समझती और व्याख्या करती है। शब्दों का निर्माण बुद्धि ने किया है और बुद्धि की सीमा है, इसलिये उस तत्त्व को जो अनुभूति से ही जानने योग्य है, शब्दों में बताया भी नहीं जा सकता। चेतना की गतिविधियों के विस्तार को मन की भाषा में कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है
80.>>>आनंदमय कोष : बुद्धि-राज्य के आगे जब हमारा लक्ष्य मन और बुद्धि के अनुभव क्षेत्र से परे परात्पर (sublime-अनिर्वचनीय)  की अनुभूति करना हो, तब कोई यह कहे कि उस अनुभूति को बुद्धिवाद द्वारा समझिये, या तर्क-वितर्क करो तो यह ऐसी बात है कि हमारे पैर बांध दिये जाये और फिर कहा जाये कि पहाड़ पर चढ़ो। अलौकिक अनुभव लौकिक तरकों से संभव नहीं। आप किसी को उड़ने का आदेश दें फिर कहें कि अपने पैर धरती पर रखना। तार्किक बुद्धि केवल बाह्य-बोध दे सकती है। योगी जब कुंडलिनी जगाता है अथवा विज्ञान और आनंदमय कोष (state of knowledge and bliss) में पहुंचता है तो वह बुद्धि के राज्य से आगे होता है। 
81.>>>आध्यात्मिक अनुभूति (spiritual experience) ही प्रमाण है  : इसलिये आध्यात्मिक-मार्ग में आध्यात्मिक-साधकों के प्रमाण ही सर्वोच्च प्रमाण हैं। सैकड़ों-हजारों उपासकों ने जिस आध्यात्मिक अनुभव को प्रमाणित (certified) किया, वही प्रमाण है। आध्यात्मिक अनुभव को यदि भौतिक पदार्थ (material thing) की तरह सिद्ध करने की जिद मान ली जाये तो मानव-संस्कृति का अत्यंत मूल्यवान्‌ सत्य (most valuable truth of human culture-चार महावाक्य ) ही बिखर जायेगा। जिस सत्य और शांति, जिस आनंद और रस का अनुभव संसार के महान योगियों ने किया , वह चाहे अदृश्य सत्य है, परंतु वह सत्य है। अन्ध-विश्वास (superstition), धर्मान्धता (fanaticism), मिथ्या-अध्यात्म (false spirituality) का समर्थन करना नही है। यदि आप कहें कि विश्वास सत्य का मापदंड नहीं है तो फिर अविश्वास ही सत्य का मापदंड कैसे हो सकता है? 
संसार के महानतम और बुद्धिशाली लोगों ने (आधुनिक युग में - विवेकानन्द और उनके गुरु श्रीराकृष्ण परमहंस ने) उस अनिर्वचनीय शांति का अनुभव किया है, भले ही उसकी संख्या कम है। जन सामान्य की पहुंच से परे है और बुद्धिमान लोग भी उसे ग्रहण नहीं कर पाते केवल इसीलिये किसी तथ्य को कपोल-कल्पित कह देना अयुक्तिसंगत है। किंतु ज्ञान-विरोधी सांप्रदायिक धर्मान्धता तथा मिथ्या-आध्यात्मिकता पर विज्ञान ने जो प्रहार किये हैं और समाजसुधारकों ने पाखंड पर जो प्रहार किये हैं, वे सर्वथा उचित है। मिथ्या विश्वासों का समर्थन नहीं किया जाना चाहिये। वस्तुत: श्रद्धा वह नहीं है जो अज्ञानमय होती है। वास्तव में तो श्रद्धा एक प्रकार का अन्तर्ज्ञान  है। ज्योति में की जाने वाली ज्योतिर्मयी श्रद्धा, श्रद्धा है। निर्बल श्रद्धालुता तो अबौद्धिक और अनाध्यात्मिक होती है। विवेकहीन मानसिक विश्वास का पोषण अग्राह्म है। अपने अंदर विद्यमान पथ प्रदर्शन करने वाली ज्योति के प्रति अंतरात्मा की निष्ठा - आध्यात्मिक शक्ति (spiritual power) ही वरेण्य है। 
     परंतु ऐसे मिथ्या विश्वास जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से ही विदा करने योग्य हैं। कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों को वेदवाक्य मान कर मानव इतिहास को समस्त घटनाओं में जान बूझ कर कोई आर्थिक कारण ढूंढ निकालने का अधविश्वास भी ऐसा ही है। मनुष्य की प्रकृति इतनी सरल और एक सूत की बनी हुई नहीं है कि हर जगह आप आर्थिक सिद्धांतों को ही इस्तेमाल करें? आध्यात्मिक शक्ति में सभी लोगों को विश्वास करना ही चाहिये, ऐसा आग्रह भला कोई क्‍यों करे? परंतु आध्यात्मिक शक्ति मन को बदल सकती है, उसकी शक्तियों का विकास कर सकती है। ज्ञान के यये क्षेत्रों को उत्पन्न कर सकती है, स्वभाव को बदल सकती है, मनुष्यों और वस्तुओं को प्रभावित कर सकती है, शारीरिक अवस्थाओं और क्रियाओं पर नियंत्रण कर सकती है तथा घटनाओं को परिवर्तित कर सकती है, इसमें हमें संदेह नहीं है।
  आध्यात्मिक अनुभव के क्षेत्र में केवल तार्किक बुद्धि को प्रमाण नहीं माना जा सकता। हमारे प्रमाण आध्यात्मिक पुरुषों के अनुभव हैं, योगियों के अनुभव हैं। देह चेतना (Body Consciousness) और अन्‍न्तश्चेतना (Subconsciousness) बाहरी चेतना देह की सीमा में और देह पर आश्रित व्यक्तिगत मन (individual mind) तथा इंद्रियों से आबद्ध है और बाहरी वस्तुओं को देखती है, जबकि आंतरिक-चेतना (inner-consciousness) वस्तुओं के पीछे विश्वगत क्रीड़ा (the cosmic play) को भी देख सकती है। भौतिक चेतना (Material consciousness)  आध्यात्मिक (spiritual) अनुभव नहीं कर सकती। 
    अंग्रेजी में  साइकिक (psychic) शब्द  बाहरी मन, प्राण और शरीर से भिन्‍न  या अधिक गंभीर किसी चीज के अर्थ में प्रयुक्त होता है। शरीर केवल स्थूल भौतिक शरीर ही नहीं है बल्कि सूक्ष्म शरीर भी है। जब स्थूल शरीर समाप्त होता है तो अंतरात्मा प्राणमय और मनोमय कोष में कुछ समय तक बनी रहती है। प्राण-शक्ति (The vital power) प्राणलोक (world of life) में चली जाती है और मनः शक्ति (mental power) मनोमय-कोष (mental sheath)  में, मनोमय जगत्‌ में चली जाती है। अंतरात्मा प्राणमय कोष से मनोमय कोष में चली जाती है और अंत में मनोमय कोष को भी छोड़ कर विश्रामस्थल में चली जाती है। "When the soul merges with the mental, vital and physical body, it takes a new birth and a new body." मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक शरीर से विलय होने पर अंतरात्मा नया जन्म नया-शरीर धारण करती है। अंतरात्मा विगत जीवन और व्यक्तित्व के मुख्य संस्कारों के साथ नवीन-जीवन और नया-व्यक्तित्व (new personality) प्राप्त कर लेती है। 
 82.>>>spark of that great fire : अंतरात्मा उस महा अग्नि की चिनगारी रूप है। वह शक्ति, ज्योति, ज्ञान तथा आनंद रूपी महासमुद्र का बिंदु है, वह अपने विशिष्ट रूप में भगवती का ही स्वरूप है और उसे पाने के लिये साधक को अपनी चेतना को मन और प्राण के स्तर से ऊंचा उठाना पड़ता है। जिसमें कामनाएं उत्पन्न होती हैं, वह प्राण पुरुष है। ये कामनाएं मनुष्य पर शासन करती हैं। लोग उस प्राणपुरुष को अंतरात्मा (conscience) समझ लेते हैं, जबकि आत्मा विशुद्ध, निष्कलंक, कामना, अहंकार और अविद्या से निर्लिप्त है। वह व्यक्ति का सच्चा स्वरूप है, वह सबके अंदर विद्यमान है, विश्व में विद्यमान है, वह व्यक्ति और विश्व से ऊपर है। इस प्रकार आत्मसत्ता (self-existence-आत्मा ) का परात्पर (the Supreme-परमात्मा ) से सीधा संबंध है। जो लोग अपने आपको जानने का प्रयास करते हैं, वे ही आत्मसत्ता (power of self)  का अनुभव कर पाते हैं, अन्यथा प्राय: मन, प्राण और शरीर की सत्ता को ही लोग अंतिम समझ लेते हैं। जबकि मन, प्राण और शरीर अंतरात्मा तथा बाहरी विश्व के बीच की एक कड़ी है ( link between the inner soul and the external world )। मन, प्राण और शरीर प्रकृति के यंत्र (instruments of nature) हैं, जिनके द्वारा अंतरात्मा दिव्य ज्योति (divine light) की और बढ़ने का प्रयास करती है। आत्मा का आनंदमय कोष है, यह विराट ब्रह्मांड (This vast universe) । उसका प्राणमय-कोष है सृष्टि-स्थिति-क्रियाशक्ति । उसका मनोमय कोश है, नाना भावों में व्यक्त होने का संकल्प। उसका विज्ञानमयकोष है, वह ज्ञान जो बहुत्व के संकल्प को धारण करता है तथा उसका आनंदमय कोष है निरानंदमय। 
83.>>>consciousness of consciousness :चेतना की भी चेतना : जो लोग अन्त:करण या अंतर्जगत  को मन कह देते हैं वे अपनी ही अवस्थाओं और क्रियाओं को नहीं समझ पाते, परंतु जिन लोगों ने आत्मविद्या के राज्य में प्रवेश पा लिया था, उनका अनुभव है कि निर्वैयक्तिक , सार्वभौम चेतना (universal consciousness,) है, जो अनंतत: फैली हुई है। जिसे हम “मैं” कहते हैं, अपने सच्चे रूप में वह मैं विश्व की तरह विशाल है, उससे भी अधिक विशाल है और अपने अंदर विश्व की सृष्टिचेतना की शक्तिचेतना की गति और चेतना के स्पंदन का परिणाम है। भौतिकवादियों के मैटर”' का जन्म भी चेतना से होता है। When that consciousness itself forgets itself, it becomes an electron, an atom and a physical object.'वह चेतना ही जब अपने को भुला देती है, तो वह विद्युत्कण, परमाणु तथा भौतिक वस्तु बन जाती है। वही प्राण (life) बन कर पशु, वनस्पति और मानव के रूप में प्रकट होती है। 
जो सब चराचर प्राणियों का जीवन रूप है--चेतनश्चेतनानाम्‌ , वही आत्मा है और वही आत्मा है। वही देखने, जानने और समझने की वस्तु है-- 'एकात्म प्रत्ययसार:'। आत्मा वा अरे दृष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्य:। वृहदारण्यक-उपनिषद्‌ में कहा गया है कि-- पुत्र, धन, गृह, परिवार आदि स्वतंत्र रूप से प्रिय नहीं हैं।' वे आत्मा के प्रियत्व के कारण ही प्रिय हैं।' इसलिये 'आत्मानमेवप्रि-यमुपासीत।  यह आत्मज्ञान ही सबसे बड़ा लाभहै-- नात्मलाभाद्‌ अपरोलाभ:। इस आत्मबोध को जानने वाला समस्त दु:खों का पार पा लेता है-- तरति शोकमात्मविद्‌। 
84.>>>श्रीविद्या : विश्वचेतना ( Universal Consciousness) :
   श्रीविद्या के उपासकों ने विश्वचेतना का साक्षात्कार किया है, अपने में विश्व को और विश्व में अपने को व्याप्त देखा है, विश्व विश्वात्मा और विश्वानुभूति के साथ समतुल्यता और संबद्धता तथा एकरूपता की अनुभूति की है। मुक्त, अनंत, निष्काम, सबमें एक तथा सबसे परे आत्मा का अनुभव किया है एवं विश्वात्मिका शक्ति के इच्छा, ज्ञान और क्रियात्मक विग्रहों को निरखा-परखा है। उसने विश्वशक्ति, विश्वमानस की शक्ति, विश्वप्राण की शक्ति, जड़तत्व की विश्वव्यापी शक्तियों की क्रीडाओं को देखा है फिर स्वयं अपने को देखा है, अन्नमयकोष से लेकर आनन्दमय- कोष की गहराई तक। उन्होंने अनुभव किया है कि मनुष्य के स्थूल भौतिक शरीर के अतिरिक्त और भी सूक्ष्मतर कोष या शरीर हैं। अध्यात्मविद्या की अनुभूति का छोटे से छोटा अंश भी आनन्द भाव से ओतप्रोत कर सकता है। 
श्रीचक्र : विश्व चक्र  : तत्त्व  चक्र  शब्द और देहमयी सृष्टि , पिंड- ब्रह्मांड सम्पूर्ण ब्रह्मांड मंडल श्रीयन्त्र है और श्रीयन्त्र संपूर्ण ब्रह्मांडमंडल का प्रतीक है। (whatever is in the body, is in the universe and what is in the universe, is in the body.) 'यत्पिंडे तद्‌ ब्रह्मांडे' अर्थात्‌ जो पिंड में है, वही ब्रह्मांड में है और जो ब्रह्मांड में है, वही पिंड में है। 'नवचक्रमयो देह:।' यह पिंड अर्थात्‌ स्व-शरीर भी श्रीयन्त्र है और श्रीयंत्र पिंड का प्रतीक है। ब्रह्मांड विश्व है तो पिंडांड भी विश्व है और श्रीयन्त्र भी विश्व है। तत्त्वमयी सृष्टि में श्रीचक्र ही विश्वरूप में प्रत्यक्ष है तथा चक्रमयी सृष्टि में वह विश्व ही श्रीयन्रराज  है। संसाररूपी चक्र में जहां मूल शक्ति है, वहीं श्रीयन्त्र है। शब्दमयी सृष्टि  में श्रीविद्या विश्वविद्या है और वही विश्वविद्या यत्रमयी सृष्टि में श्रीयन्त्र  है। देहमयी सृष्टि में वही विश्वविद्या श्री महात्रिपुरसुन्दरी है। देवता अर्थात्‌ श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी, विश्व, गुरु, मन्त्र, श्रीविद्या, यन्त्रश्रनीचक्र और साथक में रंचमात्र भेद नहीं है।? “भैरवयामल' का वाक्य है कि यत्रराज विश्वचक्र क्‍ है-- चक्र त्रिपुरसुन्दर्या: ब्रह्मांडाकारमीश्वरि
85.>>>देहचक्र (body cycle) :ये नौ मूल प्रकृति इस चक्र की मूल भूमिकाएं हैं, इनको ही नवयोनि कहा जाता है, ये नौ धातुओं की सूचक हैं। देह में त्वक्‌, असृक, मांस, मेदा, अस्थि-- ये पांच शक्तिमूलक माता की धातु हैं तथा प्राण, मज्जा, शुक्र, जीव ये चार धातु श्रीकंठ पिता के अंग से आती हैं। शरीर में भ्रूमध्य (आज्ञा) में महाबिन्दु चक्र है। लंबिका इन्द्रयोनि में त्रिकोण है। कंठ (विशुद्ध) में अष्टार है। हदय (अनाहत) में अन्तर्दशार है। नाभि (मणिपूर) में बहिर्दशार है। वस्ति (स्वाधिष्ठान) में चतुर्दशार है। मूलाधार में अष्टदल, तदधोदेश में षोडशदल तथा तदधोदेश में भूपुर या चतुष्कोण है। इस प्रकार स्वदेह श्रीचक्र है। 
विश्वविकास की प्रक्रिया में बिन्दु मूल कारण है। त्रिकोण आद्या विमर्शशक्ति की सर्गेच्छा अथवा शब्द-अर्थ-रूप-सृष्टि की कारणात्मिका इच्छा, ज्ञान और क्रियाशक्ति है। महायोनि और जीवतत्त्व का उदय है। अष्टार पुर्यष्टक अथवा लिंगशरीर' का कारण शरीर है। अन्तर्दशार' इंद्रिय-वासना अथवा लिगशरीर है। 'बहिर्दशार' इद्धिय विषय, तन्मात्रा तथा पंचभूत (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी) है। चतुर्दशार' जाग्रत स्थूल शरीर है। अष्टदल ' में “अष्टार वासना” तथा षोडशदल में दशारद्वय वासना है। 'भूपुर' में पशुपद की प्रकृति- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा शिवपद की प्रकृति शुद्धविद्यादि-तत्त्व-चतुष्टय का सामरस्य है। जिसे जीवात्मा कहते हैं। जिसका वाचक मैं” है। हृदयदेश दहराकाश में अग्ष्ठ-प्रमाण तथा अणु परमाणुमय लिग-शरीर है। मूलशक्ति चराचरजगत्‌ का लालनपालन और शासन करती है। माता-मान-मेय तथा सोम-सूर्यानलात्मक बिन्दुचक्र' शिव की मूल प्रकृति होने से प्रकृति-स्वरूप है, शेष आठ चक्र प्रकृति-विकृति उभयात्मक हैं। बिंदु, त्रिकोण, अष्टार और अष्टद्ल आग्नेय खण्ड प्रमातृपुर हैं। 'दशारद्वय” और 'चतुरस्र” रूप सौर-खण्ड प्रमाणपुर हैं। तथा चतुर्दशार एवं षोडशदल चांद्रखंड प्रमेयपुर हैं। इस प्रकार श्रीचक्र माता, मान और मेयात्मक एवं सोम-सूर्यानलात्मक है। चक्रराज्य । कामकलाविलास ' ग्रन्थ का मत है कि वह परा-महेश्वरी जब चक्राकार में परिणत हो जाती है, तब उसके शरीर के अवयव आवरणदेवताओं के रूप में परिणत हो जाते हैं। पराशक्ति की विद्याकला श्रीचक्ररूपिणी है। 
श्रीचक्र की रचना मात्र रेखागणितीय रचना नहीं है, वह एक दार्शनिक  रचना है। संपूर्ण विश्व की रचना कितनी संश्लिष्ट है, जितनी जल-प्रवाह की एक लहर से दूसरी लहर। एक व्यक्ति अपने को अलग समझे, स्वतंत्र | समझे तो यह उसका अज्ञान है। श्रीचक्र की रचना स्पष्ट करती है कि सृष्टि का सब कुछ कितना अविच्छिन्न और निश्चित है। जिन्हें इतिहासकार संयोग कहता है, वे भी नियति के द्वारा नियंत्रित हैं- रेखाओं के समान। प्राकृतिक परिवेश हो या सामाजिक परिवेश हो, वह समग्र इस बिन्दु, रेखा, वृत्त, त्रिकोण और चतुष्कोण रचनाओं के द्वारा परिभाषित है। जो कुछ बाह्य है, वह आन्तरिक का विंब है। मूल रूप अन्तर में विद्यमान है। तथा आन्तरिक है, वही बिन्दु है। जिन विकासवादियों ने विकास की प्रक्रिया को रेखा के रूप में जाना है , उन्होंने श्रीयनत्र की रेखा का अंश तो देखा किन्तु वृत्त, त्रिकोण, बिंदु आदि को नहीं देखा। श्रीयन्त्र में आविर्भाव से तिरोभाव और तिरोभाव से आविर्भाव, एवम्‌ सृष्टि-स्थिति-प्रलय तीनों दशाओं की व्याख्या है। तैतालीस कोण, अट्ठाईस मर्म और चौबीस संधि युक्त श्रीचक्र की रचना जिनती मनोहर है, उतनी ही जटिल है। इसमें त्रिकोण से चतुर्दशार पर्यन्त जो पांच अवयव हैं, वे परस्पर इस तरह अनुस्यूत हैं कि इससे कई अवांतर कोण और रेखाएं बन जाती हैं। चतुर्दशार के जो कोण हैं, उनकी भी नोंकें अष्टदल के साथ मिली हैं, अष्टदल के दलों की नोंकें षोडशदल से और षोडशदल की प्रथम वृत्त से। रचना के इस स्वरूप के कारण कई कोष्ठ और कोण बन जाते हैं, जिनको स्पन्दीचक्र कहा जाता है। 
86.>>>श्रीचक्र : संपूर्ण की उपासना ( Worship of the whole) : पांच शिव त्रिकोण और चार शक्ति-त्रिकोणों के मिलने से तैतालीस कोण बन जाते हैं। अट्ठाईस मर्म स्थान (तीन रेखाओं के मिलने के स्थान) तथा चौबीस संधियां (दो रेखाओं के मिलने के स्थान) हैं। पांच शिव त्रिकोण और चार शक्ति त्रिकोण अर्थात्‌ नौ त्रिकोण और बिन्दु। एक से नौ तक की संख्या और बिन्दु अर्थात्‌ शून्य। नौ और फिर शून्य। इस नौ और शूत्य में सम्पूर्णता है। आप वैज्ञानिक हैं तो इसकी वैज्ञानिक व्याख्या कर सकते हैं और दार्शनिक हैं तो इसकी दार्शनिक व्याख्या कर लें। इसीलिये कहा जाता है कि श्रीयन्त्र की उपासना सम्पूर्ण की उपासना है। संपूर्णता जो भी है, उसकी उपासना। रेखा-गणित से करें, संख्या (अंक) गणित से करें अथवा बीजगणित से करें। स्वर और व्यंजन पचास वर्ण हैं और संपूर्ण बैखरी वाणी: (संपूर्ण भाषाएं) इन पचास वर्णों का ही विकास है। आप सब कुछ कह दें, वह सब कुछ मात्र वैखरी ही तो होगा परंतु श्रीविद्या तो फिर वैखरी के आगे मध्यमा, पश्यन्ती और फिर परा है। जिस प्रकार बिन्दु से ही समस्त रेखाएं और कोण बनते हैं, उसी प्रकार मूलतत्त्व से इस ब्रह्मांड की सृष्टि होती है। 
श्रीयन्त्र : वृन्दावन 
यत्त्रराज भगवती महात्रिपुरसुंदरी की उपासना का स्थान है। दिव्यधाम है, दिव्यरथ है। वह वृंदावन, रासस्थान और माणिद्वीप है-- सुधासमुद्र से घिरा, कल्पवक्षों के नंदनवन में रत्नप्राकार और फिर चिंतामणि महल तथा उसमें रत्नसिंहासन। एक सौ तिरेपन देवता श्रीयत्रराज में एक सौ तिरेपन देवताओं का अधिष्ठान है। बिंदु के चारों ओर षडंग युवतियां (६) महात्र्यस्त्र रेखाओं में षोडशनित्या (१६) पृष्ठभाग में दिव्य सिद्ध, इसी के साथ त्रैलेक्यमोहन, सर्वाशापरिपूरक, सर्वसंक्षोभण, सर्वसौभाग्यदायक, सर्वरक्षा कर, सर्वरोगहर, सर्वसिद्धिप्रद तथा सर्वानन्दमय चक्रों में क्रमश: २८ प्रकट, १६ गुप्त, ८ गुप्ततर, १४ संप्रदाय, १० कुलकौल, १० निगर्भ, ८ रहस्य, ८ अति रहस्य तथा एक परापर- रहस्ययोगिनी है। नौ आवरणों के नौ चक्रेश्वर हैं। सोम: सूर्य और अग्निकलाः तैतालीस श्रीचक्र सोम-सूर्यानलात्मक है। सौर गणना से द्वादश आदित्य, द्वादश सूर्यकला, द्वादशऋषि, तीन वेद और चार स्वर- ये तेतालीस सौरकला हैं। चन्द्रणणना से सोलह चन्द्रकला, सत्ताईस नक्षत्र का योग अर्थात्‌ तेतालीस सोमकला हैं। त्रिकोण अग्नि का प्रतीक; चतुर्दशार के चौदह भुवन, बहिर्दशार की दश अग्नि विभूति, अंतर्दशार अग्नि की दश कला तथा अष्टकोण में आठ मूर्ति हैं। इस प्रकार अग्नि-कला भी तेतालीस हैं। ज्ञान, ज्ञेय  और ज्ञाता का अभेद-भावन भावनोपनिषद्‌ में श्रीचक्र का प्रतिपादन इस प्रकार किया गया है-- 'आत्मानमखंड-मंडलाकारमावृत्य सकलब्रह्मांड-मंडल स्वप्रकाशं ध्यायेत्‌। श्रीगुरु: सर्वकारणभूता शक्ति:। तेन नवरम्ररूपो देह:। नवशक्तिरूपं श्रीचक्रम्‌। वाराही पितृरूपा, कुरुकुलल्‍ला बलिदेवता माता।' ''पुरुषार्था: सागरा:। देहो नवस्त्न द्वीप-। आधार नवक मुद्रा शक्तय:। त्वगादि सप्तधातुभिरनेकै: संयुक्ता: कल्पतरव:। तेज: कल्पकोद्यानम्‌। रसनया भाव्यमाना मधुराम्लतिक्तकटठकषायलवणभेदा: षड्सा षडऋतव:। 
क्रियाशक्ति पीठम्‌। कुंडलिनी ज्ञानशक्तिगृर्हम्‌। इच्छाशक्तिम॑हात्रिपुरसुन्दरी। ज्ञाता होता ज्ञान अग्नि: ज्ञेयं हवि:। ज्ञातृ-ज्ञान-ज्ैयानामभेदभावनम्‌श्रीचक्रपूजनम्‌। नियति सहिता: श्रृंगागदयो नवरसा: अणिमादय:।” _काम क्रोध लोभ मोह मद मात्सर्य पुण्य पाप यथा ब्राह्मीआद्यष्ट शक्तय:। पृथिव्यप्तेजो वायुआकाश्ज श्रोत्रत्वक्‌ चक्षुर्जिह्मप्राण वाक्पाणि पाद-पायूपस्थानि मनोविकारा: घोडश शक्तय:। वचनादानगमन विसगनिन्द हानोपादानोपेक्षा बुद्धयो उनंग कुसुमांदि शक्तयोउष्टौ। अलंबुसा कुहूर्विश्वोदरा वरुणा हस्ति जिह्ला यशस्वत्यश्विनी गांधारी पूषा शंखिनी सरस्वतीडा पिंगला सुषुम्नाचेति चतुर्दशनाड्य:। सर्व संक्षोभिण्यादि चतुर्दशारगा देवता:।'' अर्थात्‌ समस्त क्रियाओं की कारणभूता शक्ति ही गुरु है, शरीर में जो नवरश्न हैं, वे नौ गुरु हैं- एक मुख और दो कान दिव्यौध गुरु, दो नाक छिद्र और उपस्थ सिद्धौघ, नेत्र और पायु ये तीन मानवौध गुरु हैं। देह में स्थित ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेद्धिय, बुद्धि आदि माता-पिता के अस्थिमांसादि जो अंश हैं, वे ही श्रीचक्रस्थ पितृरूप वाराही और मातृरूपा कुरुकुल्ला हैं। देह में स्थित रस-रक्‍त आदि सात धातु तथा त्वक्‌ तथा रोम ही नवरलद्दीप हैं। मन ही कल्पवृक्ष वन है। जिह्ला से आस्वाद्य षड्रस ही छः ऋतुएं हैं। ज्ञान अर्घ्य है, जो ज्ञेय है वही हवि है और ज्ञान ही होता' है। ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का अभेदभावन ही श्रीचक्र का पूजन है। देह में स्थित पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश - पंचभूत दस इंद्रिय तथा अशुद्ध मन - ये ' सवशापरिपूरक चक्र” में पूजनीय कामाकर्षिणी आदि सोलह शक्तियां हैं। कर्मेच्धियों के (वचन, आदान , गमन, विसर्ग और आनन्द) पांच विषय तथा हान (त्याग) उपादान (ग्रहण) तथा उपेक्षा ये तीन प्रकार की बुद्धि -- ये आठ अनंग कुसुमादि आठ शक्ति हैं, जो सर्वसंक्षोमण चक्र' में पूजनीय हैं। शरीर में स्थित चौदह नाड़ियां (अलबुषा, कुहू, विश्वोदरा, वारणा, हस्तिजिह, यशोवती, पयस्विनी, गांधारी, पूषा, शंखिनी, सरस्वती, इडा, पिंगला और सुषुम्णा) ही 'सर्व सौभाग्यदायक चक्र' की सर्वसंक्षोेभिणी आदि ही चौदह शक्तियां हैं।
शरीर में स्थित दस प्रकार की जठराग्नि पांच प्राण-प्राधान्य तथा पांच नाग-प्राधान्य : क्षारक, उद्गारक, क्षोभक, जृभंक , मोहक, भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेहय, पेय, पंचविध अन्न को पचानेवाली अग्नि ही सर्वरक्षाकर-चक्र की सर्वज्ञादि दस शक्तियां हैं। 
सर्वरोगहर चक्र अष्टार की वशिनी आदि आठ शक्तियां शरीर में स्थित आठ पदार्थ हैं -- शीत, उष्ण, सुख, दुःख, इच्छा तथा सत्व, रज, तम। शब्दादि पंच तम्मात्रा ही पुष्पबाण हैं, मन ही इश्लु-कोदंड है, राग ८ ही पाश है तथा द्वेष ही अंकुश है। अव्यक्त प्रकृति, महत्तत्व तथा अहंकार सर्वसिद्धिप्रदचक्र के भीतर पूजनीय कामेश्वरी, वज्रेश्वरी तथा भगमालिजनी हैं। शुद्ध चैतन्य ही सर्वानंदमय' बिंदुचक्र है, जो कामेश्वर-रूप है। स्वात्म-स्वरूप कामेश्वर के अंक में सदानंदपूर्णा ललिता त्रिपुरसुंदरी विराजमान हैं। अनन्य चित्तता ही मुद्रासिद्धि है तथा अभेद-भावना ही उपचार, होम, तर्पण है। 
87.>>>सृष्टि विद्या :सृष्टिविद्या को समझने के लिये बिन्दु से भूपुर-पर्यन्त नौ चक्रों की व्याख्या की जाती है परन्तु जीवत्व से शिवत्व प्राप्ति के चिन्तन की प्रक्रिया अथवा ध्याता-ध्यान-ध्येय की एकात्म प्रक्रिया भूपुर से बिंदु (छय प्रक्रिया) की ओर बढ़ती है। गुरुपरंपरा में आवरणपूजा का यही क्रम प्रचलित है, इसलिये अब भूपुर से बिन्दु की ओर प्रत्येक चक्र की परंपरा-प्राप्त व्याख्या पर अपना ध्यान केद्द्रित करते हैं। 
चतुष्कोण: भूपुर:, त्रैलोक्यमोहन-चक्र की शक्तियां है त्रैलोक्यमोहनचक्र' की शक्तियां प्रकट-योगिनी कहलाती हैं तथा । चक्रेश्वरी त्रिपुरा है। शुक्ल, अरुण तथा पीतवर्ण की तीन रेखाओं से चार घाटों वाले सरोवर के समान जो चतुरस्र है, इसमें चार दिशाओं के चार द्वार तथा चार कोण हैं। इसमें सबसे पहली रेखा पर दस सिद्धियां विराजमान हैं- अणिमा, लघिमा, महिमा, ईशत्व, वशित्व, प्राकाम्य, भुक्ति, इच्छा, प्राप्ति तथा सर्वकाम सिद्धि। इस प्रकार सिद्धियां तो भगवती की देहरी पर ही मिल जाती हैं- “तव द्वारेपान्त क्‍ स्थितिभिरणिमाषछ्याभिरमरा:।” ये दस सिद्धियां रक्‍तवर्णा तथा चंद्रकला से विभूषित हैं। दक्षिण हस्त में भक्तों के मन की अभिलाषा-पूर्ति हेतु चिन्तामणियों  का समूह है और वामहस्त में अभयमुद्रा है।चतुरस्न की दूसरी रेखा पर (चार द्वार तथा चार कोण, आठ लोकमाताऐं विराजमान हैं : ब्राह्मी, मोहश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, ऐंद्री, चामुंडा तथा महालक्ष्मी, ये शक्तियां तमाल के समान श्यामला हैं और रक्तवस्त्रों से सुसज्जित हैं। लाल कमल और अमृतपूर्ण पानपात्र करों में धारण करती हैं तथा सुंदर आभूषण युक्त हैं। 
88.>>>सच्चिदानन्द : शिव के स्वरूपगत भाव भी तीन हैं -- सत्‌, चित्‌ और आनन्द। सत्‌ में संधिनी, चित्‌ में संवित्‌ और आनंद में आल्हादिनी शक्ति के तीन अनुभावों का समाहार है। आत्मा, देवता और भूत एक ही आद्याशक्ति की त्रिविध अवस्था हैं। कारण, लिंग तथा स्थूल एक ही मूलसत्ता के तीन परिणाम हैं। सृष्टि, स्थिति और संहार विश्व की अवस्थाएं भी तीन हैं। नाद ही निर्गत होकर त्रिकोण-रूप धारण करता है। यही अहम्‌ नामक बिंदु-नादात्मक प्रकाश-विमर्श का शरीर हैं। इसमें प्रकाश शुक्लबिंदु है, विमर्श रक्त बिंदु है तथा दोनों का पारस्परिक अनुप्रवेशात्मक साम्य मिश्र- बिंदु है। कामकला कहने से तीनों बिंदुओं का बोध होता है। इन तीन बिंदुओं का समष्टिभूत त्रिकोण आद्याशक्ति का रूप है। मध्य में रवि बिंदु देवी का मुख है तथा अग्नि और सोमबिन्दु स्तनद्वय है। यह हार्थकला और योनि भी कही जाती है। बिंदुलिंग है तथा त्रिकोण योनि है। इसी से समस्त तत्त्वों और पदार्थों की उत्पत्ति होती है। यह त्रिकोण अष्टआवरण में सर्वसिद्धिप्रद चक्र है।त्रिपुरांबा चक्रेश्वरी है तथा बिंदु त्रिकोणचक्र में बाणशक्ति, धनुःशक्ति, पाशशक्ति और अंकुश शक्ति का अर्चन होता है। तदुपरान्त इसमें महाकामेश्वरी, महावज्ेश्वरी तथा महाभगमालिनी की पूजा सर्वबीजमुद्रा के साथ होती है। यहीं मित्रेशनाथ, षष्ठीशनाथ, उड्डीशनाथ तथा चर्यानंदनाथ हैं। यहीं आत्मतत्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व हैं। इस त्रिकोण को योनिचक्र, शक्तिचक्र और जीवचक्र भी कहते हैं।
89.>>>महाबिन्दु Shiv-Shakti Point : शक्ति और शिव की साम्यभावापन्न अवस्था बिंदु है। यही बिन्दु कामरूपपीठ अथवा ज्योतिलिंग है। इसमें अभिव्यक्त चैतन्य स्वयंभूलिंग के नाम से प्रसिद्ध है। यह शक्तिपीठ एक मात्रा शक्तिअंश तथा एक मात्रा शिवांश से समभाव में संघटित है। यह परावाक्‌ है तथा यहीं से शब्द-राज्य की सूचना होती है। पराशक्ति इस भूमि में आत्मगर्भस्थ विश्व को नित्य वर्तमान रूप में देखती है। यहां न तो दूर और पास का भाव है, न भूत, भविष्य, वर्तमान काल की खंडित सत्ता है। यहां मनोराज्य का अंत है, इसलिये मन, काल, देश, तत्त्व, देवता तथा कार्यकारण, भाव भी बिंदु में तिरोहित हैं। यह बिंदु नित्य वृंदावन है, जहां श्यामाश्याम की नित्यकेलि का स्थान है। इस बिंदु में ही अनादिकाल से दिव्य मिथुन शिवशक्ति का विलास चल रहा है। इस अवांग मनस गोचर सत्ता को शास्त्र में परमपद कहा गया है। इसमें प्रकाश और विमर्श अविनाभूत रूप में है। इस तत्त्वातीत साम्यावस्था में ही अनादि शक्ति परमशिव के साथ सामरस्य-भावापन्न है। वस्तुत: यह बिंदु ही शव रूपी सदाशिव है, जिसके ऊपर चिच्छक्ति अथवा चित्कला स्वतंत्र क्रीडा करती है-- आसीना बिंदु मध्ये चक्रे सा त्रिपुरसुंदरी देवी। कामेश्वरांक-निलया कलया चंद्रस्य कल्पितोत्तंसा। 
कामकलाविलास ' में बिंदु का वर्णन करते हुए कहा है -सा जयति शक्तिराद्या निज सुखमय नित्य निरुपमाकारा। भावि चराचर बीज शिवरूप विमर्श निर्मलादर्श:। पर शिव रविकर निकरे प्रतिफलति विमर्श दर्पणे विशदे। प्रति रुचि रुचिरे कुड्ये चित्तमये निविशत महाबिन्दु:। यह बिंदु शिव शक्ति मिथुन पिंड है। प्रलयकाल में सुषुप्ति-अवस्था में सकल स्थूल-सूक्ष्म जगत्‌ परमकारण में लीन हो जाता है। उस समय भास्य-भासक तथा सृष्टव्य-सृष्टभाव नहीं बचतायही शिव-विश्राम है और यही दशा महाबिंदु है। 
यहीं वह आदि विमर्शमयी महाशक्ति विश्व को अपने गर्भ में लीन करके प्रकाशमय हो जाती है और देशकाल से सर्वविध परिच्छेद-शून्य होकर निस्तब्ध रूप से विश्राम करती है। जब कभी विश्व- सृजन की इच्छा से पुनः प्रकाश से बाहर सी होकर परमशिव के सम्मुख होती है ओर शिव को अपने सम्मुख करती है, तब दोनों दर्पणवत्‌ निर्मल होने के कारण परस्पर प्रतिविंबित हो जाते हैं। तब शिवशक्ति के संपुट रूप से अहम्‌ विमर्शमयी शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। यही ईक्षण, स्फुरण तथा विश्वसृजन की प्रक्रिया का प्रादुर्भाव है। इस शिवशक्ति-मिथुन के संबंध में “कामकला विलास”” का वाक्य है-- चित्तमयो5हंकार सुव्यक्ताहार्ण समरसाकार:। शिवशक्तिमिथुन पिंड: कवलीकृत भुवनमंडलो जयति। बिंदुचक्र पूर्णाहन्ता अथवा शिवभाव का प्रतीक है। 'मातृकाचक्र- विवेक के अनुसार - 'सुप्ताह्ययं किमपि विश्रमणं शिवस्य '', श्रुति ने कहा है कि -- सुषुप्ति काले सकले विलीने तमोड्भिभूत: सुखरूपमेति। भैरवयामल ने कहा है- तन्मध्ये बैन्दवस्थान तत्रास्ते परमेश्वरी। सदाशिवेन संपृक्ता सर्वतत्त्वातिगा सती। बिन्दु की व्याख्या दूसरे शब्दों में इस प्रकार की जाती है कि शिव अग्नि-स्वरूप है तथा शक्ति सोम-स्वरूप। दोनों का साम्य ही तांत्रिक भाषा. में बिंदु है। इस बिंदु का ही दूसरा नाम रवि अथवा काम है।
90.>>>breach of equilibrium: साम्य का भंग : साम्यावस्था भंग होने पर, क्षोभ होने पर सृष्टि का प्रारंभ होता है। साम्यावस्था में रक्त और शुक्ल बिंदु अभिन्न  है। क्षुब्ध होने पर चित्कला का आविर्भाव होता है। अग्नि के ताप से जैसे घृत पिघल कर बहने लगता है, उसी प्रकार प्रकाश रूप अग्नि के संबंध से विमर्शरूपा शक्ति का स्राव होता है। महाबिंदु के स्पंदन से तीनों बिंदु (जो महाबिन्दु में विलीन हो जाते हैं) पुन: अलग अलग होकर रेखा रूप में परिणत हो जाते हैं, फिर इस त्रिकोण (योनि) से ही शिव से लेकर पृथ्वी पर्यन्त ३६ तत्त्वों' से बने समस्त विश्व का आविर्भाव होता है। श्रीचक्र में उपासना करते समय भावना की जाती है कि बिंदुरूप में अवस्थित वही अद्वितीय चिच्छक्ति श्रीचक्र के समस्त आवरण-देवताओं में अभिव्यक्त है। इस बिन्दु को ही सर्वानंदमयचक्र कहते हैं। ललिता महात्रिपुरसुंदरी चक्रेश्वरी हैं तथा नौँंवे आवरण में यहां ललितामहात्रिपुस्सुंदगी की पूजा होती है। 
91.>>>Research work on Shriyantra in Moscow University (मास्को-विश्वविद्यालय में श्रीयंत्र पर शोधकार्य )
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही श्रीयंत्र की ओर विश्व के अनेक दार्शनिकों तथा संस्कृति-शास्त्रियों का ध्यान आकर्षित हो गया था। ब्रिटिश-विद्वान सर जॉन बुडरफ (Sir John Woodroffe) ने इस दिशा में बहुत कार्य किया था और उनके शोधपत्रों तथा पुस्तकों से जर्मन के भारतविदों का ध्यान तंत्रशास्त्र की ओर आकर्षित हुआ। जर्मन-विद्वान हेनरिक झिझेर (Heinrich Schiese) का कार्य इस क्षेत्र में उल्लेखनीय है। ब्रिटिश शोधकर्मी निकोलस जे० बोल्टन और डॉ० निकोल जे मैकिलयॉड ( Dr. Nicole J. MacLeod) इन दो विद्दानों ने श्रीयंत्र के संरचनात्मक पक्ष ( structural aspect of Sriyantra ) का विश्लेषण करने का प्रयास किया है, किंतु पिछले वर्षो में मास्को-राज्य-विश्वविद्यालय में भौतिकशास्त्र और गणित के शोधकर्मी अलेकसेई कुलाइचेव (Alexei Kulachev) ने श्रीयंत्र के संबंध में 'अल्गरिद्म” (algorithm') तैयार किया है। वैज्ञानिक डां० कुलाइशेव ने गहन शोधकार्य और कम्प्यूटर के प्रयोग से जो निष्कर्ष निकाला है, उससे अनेक देशों के इतिहासकारों, मानवशास्त्रियों और वैज्ञानिकों को श्रीयंत्र संबंधी शोधकार्य में प्रवत्त होने की प्रेरणा मिली है। मास्को राज्यविश्वविद्यालय में इतिहासकारों और गणितज्ञों की बैठक में जो तथ्य डॉ० कुलाइशेव ने प्रस्तुत किये, वे इस बात के प्रमाण हैं कि प्राचीन भारत का गणितीय चिंतन अब तक किये गये अनुमान से अधिक गहन और जटिल था। 
विश्व के गणितज्ञों के सामने यह समस्या है कि प्राचीन भारत में श्रीयंत्र जैसी रेखाकृति का उद्भव कैसे संभव हो सका? लोग किस प्रकार जान सके कि नौ त्रिकोणों को एक ऐसे व्यवस्थित ढंग से रखा जा सकता है कि वे एक दूसरे को काट सकें और उनके अनेकानेक काठने वाले बिन्दु एक रूप हों? कुलाइशेव के शब्दों में -- श्रीयंत्र का निर्माण परंपरागत विधियों से नहीं किया जा सकता। आधुनिक उच्चतर बीजगणित, आंकिकी विश्लेषण और ज्यामिति के साथ ही वर्तमान गणितीय विधियां जैसे सटीक विज्ञान के सर्वांगीण ज्ञान से सफलता सुनिश्चित हो सकती है, किंतु मैं लक्षित करना चाहूंगा कि वैज्ञानिकी और प्रौद्योगिकी के वर्तमान स्तर का ज्ञान कभी कभी श्रीयंत्र के उसी तारे की संरचना का विश्लेषण करने और उसकी संभावित आकृतियों की संख्या निर्धारित करने के लिये अपर्याप्त है। उनके विश्लेषण के लिये बीजगणित संबंधी समीकरण की पेचीदा प्रणाली और संजटिल संगणन की आवश्यकता है, जिसे कम्प्यूटरों की वर्तमान पीढ़ी पूरा करने में असमर्थ है।''

डॉ० कुलाइशेव ने सिद्ध किया है कि श्रीयंत्र का प्रचार ईसा से एक हजार वर्ष पहले तक भारतवर्ष में था, इसे मानने के पर्याप्त कारण हैं। श्रीयंत्र का प्रचार चीन, जापान, तिब्बत और नेपाल में भी हुआ था। उनके अनुसार इस दुर्लभ ज्यामितीय रेखाकृति श्रीयंत्र का प्राचीन ज्यामितीय और दार्शनिक शिक्षा से गहन संबंध है। डां० कुलाइशेव के कथनानुसार श्रीयंत्र आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान के तथ्यों की रहस्यमय समरूपता उजागर करता है। ब्रह्मांड के सार्वभौमिक सिद्धान्त (जिसे सामान्यतया ब्रह्मांड के विकास का सिद्धांत कहा जाता है अर्थात्‌ ब्रह्मांड में अतीत में तत्त्व का अत्यधिक घनत्व और ताप एवं विकिरण था के साथ श्रीयंत्र की आश्चर्यजनक संनिकटता है। 
मास्को विश्वविद्यालय के एशियांई और अफ्रीकी देशों के संस्थान के अग्रणी सोवियत प्राच्यविद Dr. Dega de Opiek “डा० देगा दे ओपिक”” का कथन है कि श्रीयंत्र में ऐसे कई पेचीदे गुणधर्म हैं, जो आधुनिक विज्ञान के लिये भी समस्या प्रस्तुत करते हैं। विशेष रूप से इसके उद्भव, तिथि-निर्धारण, संसृति विज्ञान और मानवशास्त्र की अवधारणाओं से इसके संबध का विश्लेषण ऐसी पहेली ' है, जिसे सुलझाने के लिये इतिहासकारों (historians) , मानवशास्त्रियों (anthropologists)  और गणितत्ञों (mathematicians) के संयुक्त प्रयास की आवश्यकता है। 
92.>>>महाताण्डव-साक्षिणी : महाकल्प (महाप्रलय काल)  में महेश्वर का महातांडव, जो विश्व को समेट कर अकेला रहने के आनन्द से किया जाता है, उस समय दूसरे  किसी के न रहने के कारण एक मात्र साक्षिणी भगवती ही हैं। पंचदशी-स्तव में कहा गया है कि “देव खंडपरशु परमभैरव सृष्टि को समेटने के लिये तांडवनृत्य करते हैं, उस समय पाश, अंकुश, इक्षु-धनुष और बाण वाली | तुम्हारी ही मूर्ति साक्षिणी रूप में बनी रहती है। योगवसिष्ठ में (सर्ग ८१) | भैरव-भैरवी के अति भयंकर नृत्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ! डिम्बं डिम्बं सुडिम्बं पच पच सहसा झम्य झम्य॑ प्रझम्य नृत्यन्त्या: शब्दवाद्यै: स्जमुरसि शिरः शेखर तार्ष्यपक्षै: | पूर्ण रक्तासवानां यम महिष महाश्रृंगमादाय पाणौ 4 पायाद्वो वद्यमान: प्रलयमुदिता भैरव: कालरात्न्या:। । अर्थात्‌ गरुडपक्ष का मुकुट और हृदय पर मुंडमाला धारण कर नाचती हुई देवी के वाद्यों के शब्द से सहसा डिमडिम पचपच' झमझम शब्द होता है। रक्त और आसव से पूर्ण यमराज के महामहिष के श्रृंग को हाथ । में लेकर प्रछय के कारण प्रसन्‍न कालरात्रि के साथ नृत्य करते हुए वंद्यमान | भैरव रक्षा करें। 'प्रदोष-स्तोत्रम' में कहा गया है कि-- ! कैलास शैल भुवने त्रिजगज्जनित्रीं गौरीं निदेश्य कनकाचित रत्न पीठे नृत्यं विधातुमभिवांछति शूलपाणौ देवा: प्रदोष समयेड्नुभजन्ति सर्वे। वाग्देवी  धृत वलल की शतमखो वेणु द्धत्पंद्यज | अर्थात्‌ कैलासपर्वत प्रान्त पर जगदंबिका गौरी को रत्नरंजित सिंहासन पर बैठा कर शूलपाणि संध्या समय जब नृत्य करने की अभिलाषा करते हैं, तब सभी देवगण उनकी सेवा में उपस्थित हो जाते हैं। वाग्देवी हाथ में वीणा और इन्द्र वेणु ले लेते हैं। ब्रह्म ताल देते हैं, भगवती रमा गाने में संलग्न हो जाती हैं तथा विष्णु मृदंग-वादन करते हैं। प्रदोषकाल में मृडानीपति को घेर कर खड़े होकर देवगण उनकी सेवा में उपस्थित हो जाते हैं। 
93.>>>“चिदम्बरम्‌”' में शिवनृत्य की दक्षिण भारतीयशैली की नटराज- प्रतिमाओं का मूल सिद्धान्त ध्यातव्य है। शिव की इन नृत्यमूर्तियों में चार भुजाएं हैं। केशपाश बंधे हुए और रत्नों से अलंकृत हैं। नीचे की जटाएं नृत्यकाल में घूम रही हैं। बालों में कपाल, लिपटा हुआ एक सर्प और गंगा की मूर्ति, चंद्रमा और पत्रों की एक माला दिखाई पड़ती है। दाहिने कान में पुरुषों का और बांये में स्त्रियों का कुंडल है। वे हार कंकण रत्न-खचित मेखला और अंगूठियों से अलंकृत हैं। कसा हुआ कटि वस्त्र, उड़ता हुआ अंगवस्त्र और उपवीत ही उनके प्रधान परिधान हैं। एक दाहिने हाथ में डमरू है और टूसरा अभयमुद्रा में ऊपर उठा हुआ है। एक बायें हाथ में अग्नि है, दूसरा उठे हुए पैर की ओर संकेत करता हुआ नीचे झुका है। दाहिना पैर छोटे दैत्य मुयझछक (अपस्मार पुरुष) पर पड़ा है, जो अपने हाथ में एक काला सांप पकड़े हुए है। बांयां पैर ऊपर की ओर उठा है। मूर्ति पद्मपीठ पर है, जिसमें ज्वालमाल से अलंकृत एक बहुत बड़ा प्रभामंडल लगा है। 
नृत्य वास्तव में ईश्वर की पंचक्रियाओं -- सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह का द्योतक है। उणमाइविलक्कम्‌' में बताया गया है कि -- डमरू से सृष्टि होती है, अभय हस्त से रक्षा होती है, अग्नि से संहार होता है और ऊर्ध्व पद से मुक्ति मिलती है। मुक्ति अर्थात्‌ अनुग्रह। चिदंबा मुम्माणी कोवई' में आता है कि -- ' प्रभो, दिव्य डमरूवाले आपके हाथ ने द्यावा-पृथ्वी, अनन्त लोकों और असंख्य जीवात्माओं की सृष्टि की है। आपका ऊर्ध्व हस्त चेतन और अचेतन रूप प्रपंच की सृष्टि की रक्षा करता है। आपके अग्नि वाले हस्त से इन लोकों में परिर्वतन होता है  भूमि पर आरोपित आपका पवित्र चरण कर्मबन्धन में छटपटाते हुए आत्मा को शरण देता है। जो आपकी शरण में जाता है, उन्हें आपका ऊर्ध्वचरण निर्वाण प्रदान करता है।'' 
डा० कुमारस्वामी ने नटराज के नृत्य के तीन प्रधान भाव स्पष्ट समझाये हैं, प्रथम -- शिव का नृत्य इनके नियमित कार्यकलापों का प्रतिरूप है , ब्रह्मांड में जो कुछ वस्तु मिलती है, उसको हिलानेवाली शक्ति का मूलस्रोत यह नृत्य है। द्वितीय -- असंख्य जीवों को माया के बंधन से मुक्त करना ही इस नृत्य का उद्देश्य है तथा तृतीय -नृत्य का स्थान विश्व का केन्द्र चिदंबरम्‌' हृदय के भीतर है। 
नटराज-प्रतिमा के संबंध में वे कहते हैं कि -- “कल्मर्मज्ञ जिन ऋषियों ने पहले ऐसी वस्तु की कल्पना की, वास्तविक सत्य की प्रतिमा का निर्माण किया, जीवन की जटिलताओं की कुंजी तैयार की, प्रकृति के ऐसे सिद्धान्त ढूंढ निकाले, जो केवल एक ही जाति या परिवार को संतोष प्रदान नहीं करते और न एक ही शताब्दी के मनीषियों को मान्य हैं वरन्‌ सभी काल और सभी देशों में दार्शनिकों, भक्तों और कलाकारों के हृदय में अधिकार कर लेते हैं, उनकी कल्पनाशक्ति, विचारशक्ति और सहदयता कितनी विशाल और अद्भुत थी ? आज इस विशेषज्ञता के युग में हमें विचार- समष्टि की आदत नहीं, किन्तु जिन्होंने इन मूर्तियों का दर्शन किया, उनकी दृष्टि में, जीवन में और विचार शक्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं हो सकता।''
वास्तव में नटराजप्रतिमा का अभिप्राय दिशा और काल का विशाल विस्तार है। डमरू और अग्नि दृश्य-परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रतीक है, वास्तव में यह ब्रह्म का दिन और रात्रि है। ब्रह्मा के रात्रिकाल में प्रकृति निश्चल रहती है और जब तक शिव की इच्छा नहीं होती, तब तक वह नहीं नाचती। जब शिव अपनी समाधि से जगते हैं और उनका नृत्य जगाने वाले शब्दों की तरंगों को निश्चल प्रकृति में उत्पन्न करता है। प्रकृति भी उसके चतुर्दिक्‌ प्रभामंडल के रूप में प्रकट होकर नाचने लगती है और नृत्य करता हुआ यह उसके नाना रूप की रक्षा करता है। नृत्य करता हुआ ही शिव संहारक बन कर प्रकृति को विश्राम देता है। यह दर्शन का सार है, यही काव्य है और यही विज्ञान का सत्य है। नटराज केवल सत्य ही नहीं, प्रेम भी हैं।  

क्योंकि करुणावृष्टि करना अर्थात्‌ असंख्य जीवात्माओं को मुक्ति प्रदान करना उनके नृत्य का उद्देश्य है। योगवसिष्ठ के नियति-नृत्य तथा कालगरात्रि-नृत्य के वर्णन में नृत्य की विस्तृत व्याख्या है -- तृण से ब्रह्मा तक स्पंदन का नियन्त्रण करने वाली जो शक्ति है, वह नियति है। नियति नित्य है, उद्वेग वर्जित है और अपरिमार्जित है। यह संसार के जंजाल का नृत्य करती रहती है। इसमें चक्राकार घूमने (विवर्त) का अभिनय है। नृत्य के समाप्तिकाल (कल्पक्षण) में अनेक पुष्कर और आवर्त (प्रलयकालीन मेघ) का घोर नाद' ताल है। बारंबार की जलवृष्टि इस नियतिनर्तकी के पसीने की बूंदें हैं। नीले मेघ लोटने से नीलांबर का भ्रम होता है। सातों समुद्र के विशुद्ध रत्नों से जड़े हुए इसके कंकण और चूड़ियां हैं। प्रहर, पक्ष, दिन उसकी आंखों के कटाक्ष हैं। इस निरंतर परिवर्तनशील संसार नामक चिर नाटक के नाट्य-नियति के विलास में सदा प्रकाश-स्वरूप परम-ईश्वर अकेले देखते रहते हैं। न वे इस नियति के साथ हैं, न उससे भिन्न  हैं। 
योगवासिष्ठ के ८१ वें सर्ग में वसिष्ठ जी कहते हैं कि तब मंत्र और विशाल आकृतिवाले रुद्र को महाकाश में नृत्य में प्रवृत्त देखा। अपने व्यापकत्व में वह आकाश था, मेघ जैसा कोला और दशों दिशाओं को भरने वाला उनका विशाल रूप था। सूर्य, चंद्र और अग्नि उनके तीन नेत्र . थे। दिशाएं ही उनके वस्त्र थीं। इतने में देखा कि उनके शरीर से नृत्य का अनुसरण करती हुई छाया की तरह निकली और नृत्य करने लगी। नृत्य के आवेश में उनका बढ़ता हुआ शरीर सारे आकाश में व्याप्त हो गया। कालगरात्रि का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि तीनों लोक उन अंग-प्रत्यंग में आदर्श की तरह पड़े थे। कानों में हिमवान्‌ और मेरु की चांदी और सोने की मुद्रिका थी और ब्रह्मांड-मंडलों की माला केटि की मेखला थी। उनके अंगों में पुर, नगर, ऋतु, तीनों लोक, मास, दिन और रात की मालाएं दीख पड़ती थी। गंगा-यमुना आदि नदियां मुक्तामाला थीं और कानों में धर्म-अधर्म के कर्णभूषण थे। उनके चार स्तन थे (वेद), जिनमें धर्म रूपी दूध टपक रहा था। चार संख्या वाले बेद शास्त्रों के अर्थ उनके चूचुक थे।
 चौदहों विद्या, देवता और प्राणी उनके शरीर की रोमावलियां थी। उनके शरीर में पड़े हुए नगर ग्राम-पर्वतादि उसके नाचते समय प्रसन्नता से नाचने लगते हैं कि उनका पुनर्जन्म हुआ है। नृत्यलीला में यों ही घूमने के चक्कर में बड़े-बड़े पर्वत और पृथ्वी तृण की तरह उड़ रही थी। नील मेघ रूपी नीले रेशमी वस्त्र के उड़ने से आकाश में घुंघुम शब्द हो रहा था। मेरु नाच रहा था। चंचल बड़े-बड़े कुलपर्वत इसकी बड़ी-बड़ी भुजाएं थीं। घूमते हुए बादल उसके वस्त्र थे और इसके शरीर के साथ कल्पवृक्षादि इसके रोएं झुकते और सीधे हो रहे थे। मर्यादा को धारण करते हुए समुद्र और वृक्ष पृथ्वी से आकाश और आकाश से पृथ्वी पर आ-जा रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था कि चंद्र, सूर्य, दिन, रात उनके नखों के प्रकाश में समा गये थे। --- तारामंडल चक्र पर पड़े हुए घूमते हुए सहस्रों दीप जैसे थे और मणि बरसने से जो शोभा होती है, वैसे ही सुंदर दिखाई पड़ते थे। मालम होता था कि प्रेम से विद्याधर और देवगण भीतर-बाहर फूल बरसा रहे हों। सृष्टि और संहार दिन और रात्रि के भाग उसके शरीर पर चांदी के टुकड़े पर उजले और काले बिन्दु की तरह लगते थे। शुक्ल और कृष्णपक्ष उजले और काले रंगों वाले रत्न जैसे थे, जो दर्पण पर जड़े रहते हैं। कालरात्रि के घूमते-समय सूर्य चंद्रादि संसार के सभी मणि झमझम घनघन शब्द कर रहे थे। जितने ग्रह-नक्षत्र थे, वे हस्तपादादि के आभूषण के रूप में ऊपर नीचे हो रहे थे। हवा के झोंके से जिस तरह मच्छर अस्तव्यस्त हो जाते हैं, देवी के नृत्यभ्रमण में ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, महादेव, अग्नि, सूर्य, चंद्र इत्यादि देव-दानव एक दूसरे के ऊपर गिर उठ रहे थे। संहार-सृष्टि, सुख-दुःख, भव-अभव, इच्छा-अनिच्छा, विधि-निषेध, जन्म-मरण परस्पर विपरीत होने पर भी मिश्रित और पृथक रूप से देवी के शरीर में वर्तमान रहते हैं। उत्पात-शांति, मरण-उत्सव, युद्ध-साम्य, राग-द्वेष, भय-विश्वास आदि देवी के शरीर में रत्न समूह की तरह शोभा पाते हैं। नाना प्रकार के रसों की यह सृष्टि-परंपरा है। बच्चे जिस तरह घरोंदा बनाते और बिगाड़ते हैं, उसी तरह नृत्यक्रिया के अंतर्गत जगत्‌ के विषय प्रतिक्षण पूर्वस्थिति को छोड़ कर अन्य स्थिति को ग्रहण कर रहे थे, उसका रूप प्रतिक्षण बदल जाता था, क्षण भर में अंगुष्ठ-मात्र थी तो क्षण भर में वह आकाश में भर जाती थी। महती भैरवी भैरव-आकार वाले कल्पान्त रुद्र के सामने नाचती रहती है। उसके अनुनय से वह आकाश-भैरव भी उसकी तरह ही विस्तृत रूप धारण कर उसी वेग से नाचता है। श्रीकृष्ण का नटवर रूप भी उस नटराज का प्रतिरूप है। दिक्‌ पीतांबर है । कालिय काल है, जिसको उपकरण बना कर नटवर महानृत्य करते हैं। नटराज का ज्वालामाल युक्त आभा-चक्र गोपीमंडल है, जो उसके पैरों के ताल और वंशी की तान पर थिरकता रहता है। यही नटवर का नित्य विश्वनृत्य रास है, जो चिदानंद के महास्फोट का प्रतीक है। भगवान्‌ ने कालिय के मस्तक पर चित्रतांडव नृत्य किया था-- अर्थात्‌ इस कालिय के मस्तकों पर रत्नों के स्पर्श से उनका चरण- कमल प्रगाढ रक्‍तवर्ण वाला हो गया और अखिल कलाओं के आदि गुरु नृत्य करने लगे। उनको उस समय नृत्य के लिये उद्यत देख कर गंधर्व, सिद्ध, सुर, चारण और देववधूगण प्रेम से मृदंग, पणव, आणकवाद्य, गीत, पुष्पोपहार और स्तुति के साथ घेर कर खड़ी हो गईं। उस चित्र तांडव में कालिय के फैले हुए फण पीड़ित और क्षत-विक्षत हुए और वह रक्‍त वमन करने लगा। नटराज के प्रदोष नृत्य की भांति भागवत ने नटवर कृष्ण के रास- नृत्य का वर्णन इस प्रकार किया है- तत्रारभत गोविन्दो रासक्रीड़ामनुव्रतैः। स्त्रीरत्नैरन्वित: प्रीतैरन्योन्या-बद्ध बाहुभि:। रासोत्सव: संप्रवृत्तो गोपीमंडल मंडित:। योगेश्वरेण कृष्णेन तासां मध्ये द्वयो्यो:। (भागवत १० / ३३/ २-१०) 
अर्थात्‌ गोविन्द ने रासक्रीड़ा आरंभ की। अनुरूप सुंदरी स्त्रियों ने हाथों में हाथ डाल कर उन्हें घेर लिया। गोपीमंडल से मंडित रासोत्सव का आरंभ हुआ। दो-दो के बीच कृष्ण सम्मिलित हुए। स्त्रियों सहित मुग्ध देवगण के सैकड़ों विमानों से आकाश भर गया। तब दुंदभी बजने लगी और पुष्पवृष्टि होने लगी। गंधर्व-दंपती उनके यश का गान करने लगे। 

स्त्रियों के कंकण-किंकिणी और नूपुर से रासमंडल में तुमुल शब्द होने छगा। उन सबके बीच भगवान्‌ इस तरह सुशोभित हुए जैसे कनकमणि के बीच महामरकत शोभता है। पदन्यास, भुजनिश्षेप, मुसकान के साथ भ्र्‌ संचालन, कपड़ों के मोड़, गाल पर हिलते हुए कुंडल, मुख पर स्वेदबिन्टु, कमर और केश बंधे हुए और गाती हुई गोपियां, बादल में बिजली की तरह चमकने लगीं। नाचती हुई प्रेममग्ना गोपियां कृष्ण की निकटता से मुदित होकर भाव-भरे उच्च स्वरसे गाने लगी और गीत से उसे ढंक लिया। कोई मुकुन्द के साथ स्वर और लय न मिला कर गेय को आगे ले चली, कृष्ण ने साधु-साधु कह कर उसका सम्मान किया फिर ध्रुवपद को आगे बढ़ा कर उसका बहुत मान किया। सूर सागर में इस नृत्य का वर्णन इस प्रकार है-- 
"नृत्यत स्याम स्यामा हेत। 
मुकुट लटकनि भूकुटि मटकनि नारि मन सुख देत। कबहूं चलत सुथ्ंग गति सों कबहूं उघटत बैन। लोल कुंडल गंड मंडल चपल नैननि सैन। सूरदास जी कहते हैं कि इस क्रीड़ा में भोर-निशा का ज्ञान नहीं है, यह नृत्य कालातीत है-
बृंदावन हरि यहि विधि क्रीडत सदा राधिका संग। 
भोर निसा कबहूं नहिं जानत सदा रहत इक रंग। 
केलिमाल की श्रीराधा भी कृष्ण को नचा रही है और श्रीलाल बहुत सुंदर नृत्य कर रहे हैं। स्वयं श्री श्यामा औघर ताल दे रही हैं तथा प्रियतम के साथ ताथेई-ताथेई बोल रही हैं। तांडव और लास तथा नृत्य संगीत के अन्यान्य अंगों की गणना और कौन कर सकता है। जो-जो रुचि श्री प्रिया की हैं, उनका ठाठ जम रहा है। श्री हरिदास के स्वामी श्यामा-श्याम का मेल इतना सरस बना है कि अन्य जितने भी संगीत-निपुण गुणी हैं, वे सब फीके पड़ गये हैं-
कुंज बिहारी नाचत नीकें नचाबत लाड़ली नीके। 
औघधर ताल धरें श्री श्यामा ताताथेई ताताथेई बोलत संग पीके। 
तांडव-लास और अंग को गनें री जे-जे रुच उपजत जी के। 
श्री हरिदास के स्वामी स्यामा को मेर सरस बन्यों और रसगुनी परे फीके। 
शास्त्रों में तांडव और लास्य के भेदोपभेद भी मिलते हैं, जैसे नृत्त, चतुरनृत्य, तालसंफोटित, भंगिनाट्य, भ्रमरापित नाट्य, उद्दंड-तांडव, चंड-तांडव, ऊर्ध्वतांडव, सव्यतांडव, महातांडव, परमानंदतांडव, महाप्ररूय-तांडव, महोग्रतांडव, परिभ्रमण तांडव .और प्रचंड तांडव (इसी प्रकार लास्य के भेद हैं -- गेयपद, स्थित पास्य, आसीन, पुष्पगंडिका, प्रच्छेदक, त्रिगूढ, सैंधव, द्विगूढ, उत्तमोत्तम, अन्यदुक्त, प्रत्युक्त, चर्चरी और देशिक आदि। इन नृत्यों की विश्वसृष्टिपरक व्याख्या भी शास्त्रों में प्राप्त होती है। 
उद्धत नृत्य का नाम तांडव है, जिसके आदि प्रवरत्तक शिव हैं तथा मूदु नृत्य लास्य की प्रविर्तिका पार्वती है। मातंगी शतनाम में मातंगी को महोललासिनी, लास्यलीला नतांगी अर्थात्‌ महा आनंद स्वरूपा और लास्य नर्तन में झुके हुए अंगों वाली कहा है। धूमावती जहां-- द _नटनायक संसेव्या नर्तकी नर्तक प्रिया। नाट्यविद्या, नाट्यकर्मी , नादिनी नादकारिणी” हैं, वहीं छिन्नममस्ता भी नृत्यप्रिया, नृत्यव्रता, नृत्यगीत-परायणा, नृत्येश्वरी नर्तकी च नृत्यरूपा निराश्रया हैं। स्वयं त्रिपुरा का नाम नटेश्वरी है। वे नटेश्वर चिदंबर के अनुकरण में हैं-- 
जंघा कांडोरुनालो नख किरण लसत्केसराली कराल:। 
प्रत्यग्रालक्तकाभा प्रसर किसलयो मंजुमंजीर भूंग:। 
भत्तुर्नुत्तानुकारे जयति निज तनुस्वच्छ लावण्य वापी 
संभूताभोज शोभां विदधदभि नवोददंडपादो भवान्या:। 
अपने स्वामी के नृत्य के अनुकरण में उठे हुए भगवती के चरण कमल हैं, यह कमल अपने शरीर के स्वच्छ लावण्य वापी में उत्पन्न हुआ है। जंघ इस कमल का कांड है और उरु नाल है। नख से छिटकती किरणें केसर हैं तथा अलक्तक की प्रभा नूतन पत्र हैं, बजते हुए नूपुर भेरे हैं।
सृष्टिकाल में शिवशिवा परस्पर साक्षी बनकर नृत्य करते हैं अर्थात्‌ जब शिव नृत्य करते हैं, तब शिवा साक्षिणी रहती है और जब शिवा नृत्य करती हैं तो शिव साक्षी रहते हैं। किन्तु प्रछयकाल में परभैरव सृष्टि को समेट कर आत्मसात्‌ करते जाते हैं और नाचते जाते हैं। अंत में सब कुछ कर महाशक्ति में विलीन हो जाते हैं। निष्क्रिय ब्रह्म साक्षी रूप से जब आसन के नीचे अथवा पैरों के नीचे पड़ा रहता है तो शक्ति त्रिगुणात्मक सृष्टि के रूप में नृत्य करती रहती है और प्रलय काल में सब कुछ समेट कर साकार सृष्टि को निराकार में लीन कर शिव के रूप में स्थिर हो जाती हैं। यही शिवशिवा वा शक्तिशिव का अथवा केवल शक्तिमान्‌ या शक्ति का नृत्य है। इसलिये नृत्य हो, रास हो, लास्य हो, तांडव हो अथवा कालिय नृत्य -- यह नित्य लीला : का स्वरूप है। 
महाकवि कालिदास का कथन है-- 
देवानामिदमामनन्ति मुनय: शान्‍्तं क्रतु चाक्षुष 
रूद्रेणेदमुमाकृत व्यतिकरे स्वांगे विभक्त द्विधा 
त्रैगुण्योट्भवमत्र लोकचरितं नानारसं दृश्यते 
नाट्य भिन्‍न रुचेर्जनस्य बहुधाप्येक॑ं समाराधकम्‌। 
अर्थात्‌ नृत्य देवताओं का प्रत्यक्ष और शांत यज्ञ है। रुद्र ने उमा से मिल कर इसे अपने अंग में ही दो भागों में विभक्त किया। इसमें त्रिगुण से उत्पन्न नाना रस वाले लोकचरित दिखाई पड़ते हैं। भिन्‍न रुचि वाले लोगों को नाना प्रकार से प्रसन्‍न करने वाला एक नाट्य ही है। नटवर के आनंद के स्फोट महारास में, पार्वती के लास्य में, नटराज के प्रचंड-तांडव में और कालरात्रि के नृत्य में एक ही वस्तु के विभिन्‍न रूप हैं। इसलिये महाशक्ति स्वयं नर्तकी-नर्तक प्रिया, नाट्य विद्या, नृत्य-गीत परायणा, नृत्येश्वरी और नृत्यरूपा हैं। वे नटेश्वरी हैं और महातांडव-साक्षिणी हैं।
>>>यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे ~ "अविद्या " संतों ने उस तत्त्व को चुटकियों में समझ लिया था और चुटकियों में समझा दिया था, जिसे समझ लेने पर उस आनंद-साम्राज्य का द्वार खुल जाता है, जहां दुःख नहीं है क्योंकि क्षुद्रता नहीं है, छोटापन नहीं है। तात्त्विक रूप से छोटा' कुछ है ही नहीं। जिसे छोटा समझा जाता है, वह विराट है। छोटे मानसिक-परिवेश ' के कारण वह विराट ही अपने को छोटा समझ रहा है। यह परिवेश एक शीशे की भांति है, जिसमें वह अपना विंब देखता है और उसे अपने छोटेपन का भ्रम हो जाता है। यह अविद्या है, जिसके कारण वह यह नहीं देखता कि वह छोटा नहीं, वह शीशा छोटा है, जिसमें वह अपने विंब को देख रहा है, सारे विराट को देख रहा है। अंगूठी के शीशे में भी तो मुख का विंब दीखत है और विशाल शीशे में भी मुख का विंब दीखता है। दिल्‍ली की व्यापार-प्रदर्शनी में एक बार ऐसे पंडाल में जानो का अवसर मिला, जिसमें सैकड़ों प्रकार के दर्पण थे और हम दोनों-भाई उसमें जब अपना विंब देखते थे तो हमें हंसी आ जाती थी। किसी दर्पण में हमारा मुंह लंबा, तो किसी में सिर एक इंच का और ठोड़ी एक मीटर की नजर आ रही थी। सिर ड्रम के बराबर का था और धड़ गिलास के बराबर। उन शीशों में तो हम विभिन्न प्रकार के कार्टूनों जैसे दीख रहे थे। जब कि हम वैसे हैं नहीं। अब हम हैं कि उस शीशे को ही देख रहे हैं, बार बार देख रहे हैं और भ्रांत हैं कि हम ऐसे ही हैं। वही हमारे सामने है। आध्यात्मिक लोग इस शीशे को ही अविद्या कहते हैं। 
 94.🙂>>>जीवन्मुक्त : विद्या > महाराज (राजर्षि) जनक के लिये रामचरितमानस ने कहा था कि "करतल भोगु जोगु जग जेही॥  जिन सीता के पिता राजा जनक हैं, इस जगत में भोग और योग दोनों ही जिनकी मुट्ठी में हैं, उन जनक को मैं किसकी उपमा दूँ? देवीं भागवत में कथा है-- शुकदेव और व्यास जी का वार्तालाप चल रहा था। शुकदेव जी ने कहा कि यह बात तो मेरे मन में बिल्कुल दंभ जैसी प्रतीत हो रही है कि “राजा जनक राज्य करते हुए भी जीवन्मुक्त हैं। भला जो राज्य करता है, वह विदेह कैसे हुआ ?”
” शुकदेव जी ने पूछा कि जिसे भोग लिया गया है, वह अभुक्त रह जाये और जिसे कर लिया है, वह अकृत रह जाये, यह कैसे हो सकता है? माता, पुत्र, सती और कुलटा में भेद एवं अभेद क्‍यों न किया जाये और यदि किया जाये तो फिर मुक्तता कहां रही? यदि कडुआ, नमकीन, तिक्त, कषाय और मीठा आदि रसों को जीभ जानती है और मनुष्य के द्वारा उत्तम-उत्तम पदार्थ भोगे जा रहे हैं, सर्दी-गरमी, सुख-दुःख को वह भली भांति जानता है। तो वह जीवन्मुक्त कैसे हुआ? जो शत्रु है उसके प्रति द्वेष तथा मित्र के प्रति प्रेम नैसर्गिक नियम है। राजा जनक गृहस्थ रह कर भी जीवन्मुक्त हैं, यह मेरे मन में शंका है। और इस शंका के निवारण के लिये श्री शुकदेव जी व्यास जी से आज्ञा लेकर जनकपुरी चल दिये। मिथिला पहुंचे तो वहां नगर-रक्षक द्वारपाल ने रोक दिया। द्वारपाल ने पूछा - ब्रह्मन जी सुख और दु:ख का क्या रूप है? (आप इस रिसेप्शन की तुलना किसी सरकारी दफ्तर अथवा कारखानों के रिसेप्शन-ऑफिस से न करें। उस जमाने में राजाओं के रिसेप्सनिष्ट इसी प्रकार परिचय पूछते थे। अब द्वारपाल को समझाने लगे शुकदेव जी। 
१. यत्रास्ति भोगो न च तत्र मोक्षो, यत्रास्ति मोक्षो न च तत्र भोग:।
श्रीसुन्दरीसेवन-तत्पराणां भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एव।।
अर्थात यह सिद्धांत है कि जहां भोग है, वहां मोक्ष नही है, ओर जहां मोक्ष है वहां भोग नही है। किंतु जो लोग भगवती श्रीत्रिपुरसुन्दरी की सेवा में सलग्न है, उनके लिए भोग और मोक्ष दोनो ही करतलगत है। (भोगश्च मोक्षश्च करस्थ एवं यहां लोकोत्तर भोग की चर्चा है।) हे माँ! कृपा कर। (https://lifeyogshri.wordpress.com/2018/02/07/
राग और विराग : शुकदेव ने कहा कि जिसका संसार में राग” है, वही 'रागी' कहा जाता है और उसे अनेक प्रकार के सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं। स्त्री, पुत्र, धन, प्रतिष्ठा और विजय षाकर वह सुखी होता है। जब ये नहीं मिलते तब प्रतिक्षण वह दुःख का अनुभव करने लगता है।रन्तु जो विरणगी' होता है, वह काम, क्रोध और प्रमाद को शत्रु समझता है तथा संतोष ही उसका मित्र है और इसके सिवा त्रिलोकी में दूसरा कोई भी हितैषी नहीं। अब द्वारपाल ने शुकदेव को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया और प्रार्थना की कि वे नगर को पवित्र करें। इस प्रकार राजा जनक के समीप पहुंच कर शुकदेव ने उनका सत्कार स्वीकार किया। शुकदेव और राजा जनक का वार्तालाप हुआ। 
95.>>>मन : भेदबुद्धि-  राजा जनक ने कहा कि 'सुख और दुःख के अगाध सागर में डुबाने वाला यह मन ही है। इसके शुद्ध हो जाने पर सभी इंद्रियों में विकार का अभाव हो जाता है। मनुष्यों को बंधन में डालने और मुक्त करने में देह, जीवात्मा और इंद्रियां कोई भी कारण नहीं है। केवल मन ही उन्हें मुक्त करने और फंसाने में निमित्त है। बंधन और मोक्ष तो मन में रहते हैं। जगत्‌ में अविद्या फैली है, इसीसे जीव और ब्रह्म में भेद-बुद्धि प्रतीत होती है। यह अविद्या (भेद बुद्धि) विद्या की महत्ता जानने में बाधा है।' शुकदेव जी राजा जनक से पूछते हैं कि -- राजन्‌ ! संपूर्ण प्राणियों के साथ सदा मैत्री होनी चाहिये, यह आदर्शावाद की बात है गृहस्थ इसका यथार्थ में पालन कैसे कर सकता है? आप आसक्तियों से युक्त होकर तरह-तरह की बातें सोचते रहते हैं और कहते हैं कि मैं जीवन्मुक्त हूं। क्या यह दंभ नहीं है? आपको शत्रु-विषयक, धन-विषयक, और सेना-विषयक चिन्ता नहीं सताती? 
राजा जनक ने कहा -- “बंधन शरीर तथा घर में नहीं है। यह तो अहंता-ममता में है। ममता नहीं तो कहीं कोई बंधन नहीं। यह देह मेरी है, यही बंधन और यह देह मेरी नहीं है, यही मुक्तता है। ऐसे ही धन, गृह और राज्य में जो अपनी ममता स्थापित कर दी जाती है, वही निस्संदेह बंधन है। मेरे मन में ममता नहीं है, संदेह नहीं है। संकल्प-विकल्प को त्याग चुका हूं।  यही अहंकार का उदात्तीकरण है। जीवत्व से शिवत्व की ओर उठने की प्रक्रिया यहीं से आरंभ होती है। यही आत्मविद्या की पहली कक्षा है। 
यत्पिंडे तदुब्रह्मांडे  >>मानव अंतत: प्रकृति की रचना होने के कारण प्रकृतिमय है। स्वयं प्रकृति है। ब्रह्मांडमंडल में जो प्रकृति है, वह उसके पिंड में भी है। पिंड मानो ब्रह्मांड का संक्षिप्त संस्करण है - ब्रह्मांडवर्ति यतकिचित्‌, तत्पिंडेउप्यस्ति सर्वधा। इस विश्वचेतना के साक्षात्कार का नाम ही विद्या अथवा श्रीविद्या है। सर्वसाम्याश्रयात्मक स्वात्मभाव। दृश्यमान सब कुछ आभास मात्र सार-शक्ति विलास है। यह समझ कर निर्भय, निः:संशय हो जाना। स्वतंत्रतंत्र' में कहा गया है कि आत्मा ही विश्वात्मिका ललिता देवी है। जब इस तत्त्व का ज्ञान होता है तो मन की धुन बदल जाती है। मन घटाकाश से निकल कर महाकाश और चिदाकाश में पहुंच जाता है। घड़े में जो आकाश है, वहां से हम भूताकाश में रहते हैं। भूताकाश से बड़ा तत्वाकाश और चिदाकाश है। उसके भी आगे चित्ताकाश, महाकाश, पराकाश, अव्याकृताकाश और फिर अनंताकाश। जिसे पुराने जमाने के कई लोग सातवां आसमान भी कहते थे और वहां पहुंच कर कबीर लाल को लाली को सब जगह देखने लगता है। जिधर देखता हूं उधर तू ही तू है। 'लाली  मेरे लाल की जित देखूं तित लाल। लाली देखन मैं गयी मैं भी हो गयी लाल। 'जहां पहुंच कर यह लाली दीख जाय, वहीं ललिता है-- लोहितां ललितां वाण चाप पाश श्रृणिं करै:।' लोहित-वर्ण विर्टता का प्रतीक है।
वही मणिद्वीप है, जहां क्षुद्रता का प्रवेश नहीं है। वहां पहुंचते-पहुंचते सारे दर्पण छूट जाते हैं और सत्य जैसा है, वैसा दिखाई पड़ने लगता है। सदेह होते हुए भी वह विदेह होता है। सर्वत्र आत्मा का प्रकाश दिखाई देने लगता है और मन्‌ आनंद ही आनंद से भर जाता है। 
मूलप्रकृति >आइंस्टीन ने अपने सापेक्षता-सिद्धान्त के माध्यम से उस विराट का ही साक्षात्कार किया था, जो प्रकृतिरूपा है। जो सदसद्रूपिणी है, जिसमें विरुद्ध धर्मश्रयत्व है। वही सर्वाधारा, सर्वज्ञा, सर्वारूपा है। वही त्रिगुणात्मिका है, उसे ही माया कहते हैं। वही पंचतत्त्व और तीन गुणों की व्यवस्थापिका हैं। महामाया, पराविद्या वाले ऊर्ध्वजगत्‌” की व्यवस्थापिका हैं। हिरण्यगर्भ' में साकारता, विभिन्‍नता तथा प्रत्येक आकार का महत्त्व योगमाया प्रदर्शित करती है। योगमाया हिरण्यगर्भ में निवास करती है। मांया, महामाया और योगमाया इच्छाशक्ति से उद्भूत है। मायाख्याया: कामधेनोर्वत्सौ जीवेश्वरावुभौ। इस मूलप्रकृति को सहस्रनाम में विभिन्‍न प्रकार से समझाने का प्रयास किया गया है। निरालंबा, निराधारा, निर्गुणा, निरंजना, निर्लेपा, निर्मला, निरुपाधि, निरीश्वरा, निष्कामा, निर्विकारा, नित्यशुद्धा, नित्यबुद्धा, अव्यक्ता, निरत्यया, निर्नाशा, निर्विकल्पा, नामरूपविवर्जिता, कार्यकारण-निर्मक्ता, मनोवाचामगोचरा, अचिंत्य हेतु, दृष्टांतवर्जिता (न इसका कारण ही है और 5 न ही उसका कोई दूसरा उदाहरण) अप्रमेया, कल्पना रहिता, निष्कामा, वेद्यवर्जिता, साक्षि-वर्जिता, स्वतंत्रा, अमेया, शाश्वती, चराचर जगन्नाथा, व्यापिनी आदि उसी तत्त्व की व्याख्या हैं, जो तत्त्व अपरिभाषेय है --. अवाच्यमुच्येत्‌ -.कथं पदं तत्‌ अचिन्त्यमप्यस्ति कथं विचिंतये। अतो यदस्त्येव तदस्ति तस्मे | नमोस्तु कस्मै बत नाथ तेजसे। ॥ इस तत्व की प्राप्ति शुद्ध पवित्र विमल, निर्मल चित्त के द्वारा ही | संभव है, जब आशा, तृष्णा, जुगुप्सा, भय, घृणा, मान, लज्जा तथा क्रोध रूपी मल मन से निकल जाते हैं, पुण्य और अपुण्य दोनों की भावना समाप्त हो जाती है। 
श्रीमट्देवीभागवत में वेदों ने देवी की स्तुति करते हुए कहा है कि- नमो देवि महामाये विश्वोत्पत्तिकरे शिवे। निर्गुणे सर्वभूतेशि मात: शंकर कामदे। त्वं भूमि: सर्वभूतानां प्राण: प्राणवर्ता तथा। थी: श्री: कान्तिः क्षमा शान्ति: श्रद्धा मेधा धृति: स्मृति:। त्वमुदगीथे<र्थमात्रासि गायत्री व्याहतिस्तथा। जया च विजया धात्री लज्जा कीर्ति: स्पृह्ठा दया। हे देवि, आप महामाया हैं, जगत्‌ की सृष्टि करना आपका स्वभाव है, आप कल्याणमय विग्रह धारण करने वाली हैं, संपूर्ण जगत्‌ की नियन्त्री आप हैं। संपूर्ण प्राणियों को आश्रय देने के लिये आप पृथ्वी स्वरूपा, प्राणधारियों के प्राण आप ही हैं। धी, श्री, कान्ति, क्षमा, शान्ति श्रद्धा, मेधा, धृति और स्मृति-ये सभी आपके नाम हैं। 
माया >>भगवती देवी ने हिमालय गिरि से अपना तात्विक-स्वरूप का वर्णन इस प्रकार किया
 है - अहमेवा स पूर्व तु नान्यत्‌ किचिन्नगाधिप। तदात्मरूप॑ चित्सवित्‌ परब्रह्मेक नामकम्‌। अप्रतर्क्यमनिर्देश्यमनौपम्यमनामयम्‌ .   तस्य काचित्‌ स्वतः सिद्धाशक्तिमयिति विश्वुता।। 
पर्वतराज पहले केवल मैं ही थी, मेरे सिवा दूसरी कोई वस्तु नहीं थी। उस समय मेरा वह चेतना रूप विज्ञान-आनंदमय अद्वितीय परब्रह्म था। वह रूप अप्रतर्क्य, अनिर्देश्य, अनौपम्य और अनामय है, उसी से कोई एक शक्ति स्वत: प्रकट हो गयी। उसी का नाम माया प्रसिद्ध हुआ। हे हिमालय, मेरी माया शक्ति ने संपूर्ण चराचर जगत्‌ की रचना कौ है। परमार्थ दृष्टि से तो वह माया भी मुझसे कोई भिन्न वस्तु नहीं है। व्यवहार की दृष्टि से वही विद्या और माया नाम से प्रसिद्ध है। तात्विक दृष्टि से कोई अंतर नहीं।'” यह बताते हुए भगवती शिवा ने अपना विराट रूप दिखाया। 
भगवती का विराट रूप >आकाश श्री देवी का मस्तक था, चंद्रमा सूर्य अग्नि नेत्र थे, दिशाएं कान थीं, वेद वाणी तथा वायु प्राण थे। विश्व हृदय था। पृथ्वी जांघ थी। पाताल नाभि और ज्योतिश्चक्र छाती थी। महलोंक ग्रीवा तथा जनलोक मुख था। इंद्र प्रभति बांह थे। शब्द श्रोत्र था। गन्ध प्राण इंद्रिय थी। दिन और रात दोनों पलकें थी। ब्रह्मा भ्रू के स्थान पर थे। रस जिह्मा बना था। माहेश्वरी के दांत स्नेह थे। माया हंसी थी। सृष्टि कटाक्ष थे। लज्जा ओंठ थी। समुद्र पेट था। पर्वत हड्डी थे, नदी नाड़ियां थीं, वृक्ष रोमकूप थे। प्रात: और सायं संध्या भगवती के वस्त्र थे। मन चंद्रमा था, हरि विवेकशक्ति तथा रुद्र अन्त:करण थे। अतल से लेकर पाताल तक जितने लोक हैं, वे जगदंबा के कमर के नीचे के भाग थे।”' देवी भागवत में भगवती श्रीदेवी कहती हैं कि. -- ‘सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्’ अर्थात् यह सब कुछ मैं ही हूँ और दूसरा कोई भी सनातन नहीं है॥ यह सारा जगत्‌ मैं ही हूं, मेरे सिवा दूसरी कोई अविनाशी वस्तु नहीं। ललितासहस्रनाम में क्षेत्रेशी, क्षेत्रस्वरूपा, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-पालिनी, वेदविद्या, वेदजननी, श्रुति सीमंतसिंदूरी , निजाज्ञारूपनिगमा, सर्वोपनिषदद्घुष्ट, छन्द:सारा, शास्त्रसारा, श्रुति संस्तुत वैभवा, शास्त्रमयी, सर्वतंत्र रूपा, सर्वतंत्रेशी, सकलागम संदोहशुक्ति संपुट मौक्तिका, सर्व वेदांत-गामिनी, श्रुति, वेदमाता कह कर ब्रह्मा और विद्या को एकात्म बताया गया है - ब्रद्मात्मैक्य स्वरूपिणी। ब्रह्म और आत्मतत्व की एकता ही जिसका स्वरूप है। 
 देवीभागवत में सूत जी कहते हैं कि -- “ब्रह्मा में जो सर्जनशक्ति है, विष्णु में जो पालन-शक्ति है तथा शिव में जो संहार शक्ति है, सूर्य में जो प्रकाश-शक्ति है, अग्नि में जलाने और वायु में सुखाने, जल में गलाने की जो शक्ति है वही सनातनी आद्या-शक्ति है-- द्रहिणे सृष्टिशक्तिश्व हरौ पालनशक्तिता। हरे संहारशक्तिश्च सूर्ये शक्ति: प्रकाशिका। 
ललिता : विश्वविग्रहा /
निर्गुणसगुणात्मक अचिन्त्यस्थाप्रमेयस्य निर्गुणस्य गुणात्मन:। 
उपासकानां सिद्धयर्थ ब्रह्मणो रूप-कल्पना। 
जो समग्र विश्व की कारणभूता है, जो विश्व जननी है, विश्वधारिणी है, विश्वग्रासा और विश्वरूपा है, वही भक्तों के मन में ललितादेवी के रूप में विराजती है और भक्तों के मनोरथों को पूरा करती हैं। भक्तों के मनोरथों को पूरा करना, उनके कष्टों का निवारण करना भगवती का स्वभाव है। भुवन-भय भंग-व्यसनिनी। उसे यह शौक है, यह उसका व्यसन है, उसकी आदत है कि जहां कहीं भी भव-भय देखती है, वहां उसका निराकरण कर देती हैं। इस प्रकार भगवती राजराजेश्वरी निर्गुण होते हुए भी सगुण और सगुण होते हुए भी निर्गुण हैं। वे निर्गुण और सगुण दोनों है। 
करुणामयी -दय दारुणापांगाम्‌। भगवती ने करुणा का मद पिया है, वह करुणा के मद से विहल है - अदभुत करुणा कौ मद नैनन में सोहै। वह दयामयी है, भक्तों का कष्ट देखती हैं तो तुरंत पिघल जाती हैं। विधि का विधान जो भी हो, भक्तों का कष्ट मिटाने के लिए वे उस विधान को भी तोड़-मरोड़ देती हैं। भगवती के चरणों की शक्ति कैसी है कि  भयात्रातु दातुं फलमपि च वांछासमधिकम्‌ | '” उस बेचारे की इच्छा होगी ही कितनी, जितनी भक्तों को निहाल करने की भगवती की इच्छा है। भक्तानुग्रहकातरा। भक्तों पर कृपा करने के लिये जो कातर हैं। उन्हें बेचेनी ही यह है कि किसी पर कृपा करें। ऐसी कृपामयी सच है, जगज्जननी, राजरणाजेश्वरी। वैष्णवी भगवान्‌ हरि के जो दस अवतार हैं, वे तो भगवती के दस कर-नखों से उट्भूत है -- करांगुलि नखोत्पन्न नारायण दशाकृति:। 
सौंदर्यलहरी: आनन्दलहरी : माथुर्यमयी 
भगवती ललिता के श्रीविग्रह का वर्णन करते हुए सौंदर्यलहरी में शंकराचार्य कहते हैं कि सूर्यादि-मणियों से जटित मुकुट तथा अर्द्धचन्द्र सिर पर सुशोभित है। नीलकमल वन के सदृश सघन केश हैं, जिनमें सिंदूर-रेखा है। ललाट की कान्ति चन्द्रमा जैसी है। भगवती की भोंहेँ कामदेव के वामहस्त के मणिबंध और मुष्टिका द्वारा धारण किये हुए धनुष की डोरी को ढीला कर देती हैं। कानों तक लंबे नेत्र शिव के अंत:करण में कामरस का संचार कर देने वाले हैं तथा भगवती की दयादृष्टि की किरण से गंगा-यमुना और सरस्वती का उद्गम हो रहा है, महादेव को मोहित करने वाली कर्णपाली तथा निर्मल और प्रफुल्ल कपोल। सरस्वती की अमृतधारा रूप वाणी। नासाग्र पर मोती। हिमालय ने पुत्री-वात्सल्य से जिस चिकुर को अपनी हस्तांगुलि से दुलणाया, स्पर्श किया, उसकी उपमा के लिये संसार में कोई वस्तु है ही नहीं। 
06.>>>कुंडलिनी का ज्ञान परम रहस्यमय है तथा जिस पर गुरुकृपा हो तथा जगदंबा जिस पर अनुकूल हो, वही .आत्मशक्ति के मूल रूप कूंडलिनी के तत्व को समझ पाता है। जिस केन्द्र में समस्त जीवमनोभाव संगृहीत रहते हैं, उसे मूलाधारचक्र कहते हैं।हे कूंडलिनी, आप निद्रा को छोड़कर सचेत हों तथा मुझे ज्ञान, अमृत और आनन्द प्रदान करने के लिये अभ्युत्थान करें। मेरी विषय-वासना का अंधकार हरण कर लें।  इस विद्या को संकेतविद्या कहते हैं और शास्त्रों में इसे संकेत के द्वारा ही समझाया गया है। जो इसे जान लेता है, वह अपने में अपने को पा जाता है- वह पूर्णकाम और शिव रूप हो जाता है। तंत्रशास्त्र में जप की बड़ी महिमा बतायी गयी है। जप तीन प्रकार का बताया गया है -- वाचिक, उपांशु और मानस। तन्त्रशास्त्र भी श्रीविद्या को परम गोपनीय मानता है -- अन्य विद्या सामान्या हैं तथा श्रीविद्या कुलवधू की भांति असूर्यपश्या है।! इसी प्रकार श्रीराधा रहस्य भी परमगोप्य है -- श्री शुकव्यास प्रकट नहिं भाख्यौं परम सार कौ सार। श्रीमद्भागवत में प्रकट रूप से राधा का नाम नहीं है। 
97.>>>भारत-त्रिकोण : तन्त्रराज में श्रीचक्र का देशचक्र से साम्य प्रतिपादित करते हुए बताया गया है कि भारत-त्रिकोण शीर्षबिंदु कन्याकुमारी है, जहां से एक रेखा बलूचस्थान होती हुई पश्चिम हिमालय से मिल जाती है और टूसरी कलिंग और बंग से होती हुई असमदेश में पूर्व हिमालय में मिल कर त्रिकोण बनाती है। दक्षिण से देखने से भारत शक्ति-त्रिकोण है तथा उत्तर से देखने से यह शिव-त्रिकोण है। लंका हकारार्ध अर्धमात्रा मेखलां अथवा स्वस्तिक है। इस प्रकार यह पवित्र भारतवर्ष भगवती का श्रीविग्रह होने के कारण भारत माता के रूप में प्रणम्य है। भारत भूमि का प्रत्येक रजकण माता सती के अंगों के परमाणुओं से पवित्र है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने वंदेमातरम्‌ गीत में इस पंचाशत्पीठरूपिणी भगवती की ही वंदना की है। बंकिम चंद्र कहते हैं कि हे भारत माता ! तू सुंदर जल, सुंदर फल, शीतलमंद सुगंध पवन, हरीभरी धरती, उज्ज्वल चांदनी, प्रफुल्ल रात्रि, प्रसन्‍न प्रफुल्ल फूलों से युक्त वृक्षावली रूपा है। तू ही सुंदर हास्य वाली, मधुरवाणी वालो, सुख और अभीष्ट वर देने वाली मां है। तीस करोड़ कंठों से निनाद करने वाली तथा साठ करोड़ भुजाओं से पराक्रम करने वाली अपराजिता तू ही है। तेरे सामने शत्रु टिक नहीं सकता, तेरा अपार बल है। शरीर में प्राणों के रूप में तू ही है। भुजाओं और हृदय में विराजमान शक्ति के रूप में तू ही स्थित है। तू ही विद्या है, तू ही धन है और सर्वत्र मंदिरों में लोग तेरी ही आराधना करते हैं। टुर्गा, कमला और सरस्वती तू ही है। तू ही सरल मुसकान वाली जगदंबा है- 
वन्दे  मातरम्‌ 
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां शस्यश्यामलाम्‌ मातरम्‌। 
शु भ्रज्योत्स्नापुछकितयामिनीं फुल्लकुसुमितद्मदलशोभिनीम्‌। 
सुहासिनीं सुमधुर॑भाषिणीं सुखदां वरदां मातरम्‌। वदे मातरम्‌। 
त्रिंशकोटिकण्ठकलकलनिनादकराले द्वित्रिंश कोटि भुजैधृतखर करवाले, 
के बले मा! तुमि अबले ? 
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं रिपुदल वारिणीं मातरम्‌। वर्दे० 
तुमि विद्या, तुमि धर्म, तुमि हृदि, तुमि मर्म, त्वं हि प्राणा: शरीरे। 
बाहुते तुमि मा! शक्ति, हृदये तुमि मा! भक्ति। 
तोमारई प्रतिमा गड़ि मंदिरे, मंदिरे मातरम्‌! वदे मातरम्‌। 
त्वं हि दुर्गा दश प्रहरण धारिणी, कमला कमल दल विहारिणी, 
वाणी विद्यादायिनी नमामि त्वाम्‌। 
नमामि कमलां अमलां अतुलां सुजलां सुफलां मातरम्‌। वन्दे मातरम्‌   
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिता धरणीं भरणीं मातरम्‌। वंदे मातरम्‌। 
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>>>98. मंगलम् पुंडरीकाक्ष मंगलाय तनो हरी॥
 
॥मंगल भवन अमंगल हारी॥

मंगलम् भगवान विष्णु मंगलम् गरुड़ ध्वज,
मंगलम् पुंडरीकाक्ष मंगलाय तनो हरी॥

🌻🙏🌻

भागवान् विष्णु मंगल हैं (मंगल अर्थात् जो मंगलमय हैं, शुभ हैं, कल्याणप्रद हैं।), गरुड़ वाहन वाले मंगल हैं, कमल के समान नेत्र वाले मंगल हैं,हरि मंगल के भंडार हैं।

राम ब्रह्म चिन्मय अबिनासी सरब रहित सब उर पुर बासी।
(रामचरितमानस)
🌻🙏🌻

परम भगवान श्रीराम अविनाशी और सबसे परे हैं। वे सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं।
प्रभु राम अवतार में एक भाई दूसरे भाई को जीता कर खुश है और दूसरा भाई अपने भाई से जीत कर दुःखी है। इसीलिए कहते है खुशी लेने में नहीं बल्कि देने में है। जिस घर में भाई – भाई मिल कर रहते है।भाई – भाई एक दूसरे का हक नहीं छीनते उसी घर में राम का वास है। जहां बड़ों की इज्जत है।बड़ों की आज्ञा का पालन होता है, वहीं राम है। जब एक भाई ने दूसरे भाई के लिए हक छोड़ा तो रामायण लिखी गई।   और जब एक भाई ने दूसरे भाई का हक मारा तो महाभारत हुई। इसीलिए असली खुशी देने में है, छीनने में नहीं। हमें कभी किसी का हक नहीं छीनना चाहिए,ना ही झूठ और बेईमानी का सहारा लेना चाहिए। जो भी काम करें उसमें “सत्य निष्ठा” हो और यही सच्चा जीवन है। यही राम कथा का सार।

प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं,
काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।
तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा,
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः
🌻🙏🌻
जीव हिंसा न करना,पराया धन हरण करने से मन को रोकना,सत्य बोलना,समय पर सामर्थ्यनुसार दान करना, पर-स्त्रियों की चर्चा न करना और न सुनना,तृष्णा के प्रवाह को तोडना,गुरुजनो के आगे नम्र रहना और सब प्राणियों पर दया करना-सामान्यत:,सब शास्त्रों के मत से ये सब मनुष्य के कल्याण के मार्ग हैं॥-{नीति शतक -२६}
बिषई साधक सिद्ध सयाने। त्रिबिध जीव जग बेद बखाने॥
राम सनेह सरस मन जासू।साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥
🌻🙏🌻
विषयी,साधक और ज्ञानवान सिद्ध पुरुष-जगत् में तीन प्रकार के जीव वेदों ने बताए हैं।इन तीनों में जिसका चित्त श्री रामजी के स्नेह से सरस (सराबोर) रहता है,साधुओं की सभा में उसी का बड़ा आदर होता है॥
(श्री रामचरित मानस:अयोध्या काण्ड :२)

सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।

श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥

हे उमा,सुनो वह कुल धन्य है,दुनिया के लिए पूज्य है और बहुत पावन (पवित्र) है,जिसमें श्री राम (रघुवीर) की मन से भक्ति करने वाले विनम्र लोग जन्म लेते हैं।

 मङ्गल भवन अमङ्गल हारी।
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी॥
अर्थ :- जो मंगल करने वाले और अमंगल हो उसे दूर करने वाले है, वो दशरथ नंदन श्रीराम है वह मुझपर कृपा करे॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अर्थ :-जो भगवान श्री राम ने पहले से ही रच रखा है, वही होगा। हमारे कुछ करने से वो बदल नहीं सकता॥
॥जानकी नाथ सहाय करें…॥

जानकी नाथ सहाय करें जब कौन बिगाड़ करे नर तेरो।
सुरज मंगल सोम भृगु सुत बुध और गुरु वरदायक तेरो।

राहु केतु की नाहिं गम्यता संग शनीचर होत हुचेरो॥
दुष्ट दु:शासन विमल द्रौपदी चीर उतार कुमंतर प्रेरो।

ताकी सहाय करी करुणानिधि बढ़ गये चीर के भार घनेरो॥
जाकी सहाय करी करुणानिधि ताके जगत में भाग बढ़े रो।

रघुवंशी संतन सुखदायी तुलसीदास चरनन को चेरो॥

॥श्री राम-वन्दना॥

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम्‌।
 लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्‌॥ 

सर्वसुख प्रदान करने वाले और समस्त आपदाओं से दूर रखने वाले जगतप्रिय,सबसे सुंदर उन भगवान श्री रामचंद्र को बार-बार नमन करते हैं।
रामायण के सात काण्ड मानव की उन्नति के सात सोपान हैं, इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नवत है:-

>>>1.-बालकाण्ड:- बालक प्रभु को प्रिय है क्योकि उसमेँ छल,कपट,नही होता विद्या,धन एवं प्रतिष्ठा बढने पर भी जो अपना हृदय निर्दोष निर्विकारी बनाये रखता है,उसी को भगवान प्राप्त होते है। बालक जैसा निर्दोष निर्विकारी दृष्टि रखने पर ही राम के स्वरुप को पहचान सकते है। जीवन मेँ सरलता का आगमन संयम एवं ब्रह्मचर्य से होता है। बालक की भाँति अपने मान अपमान को भूलने से जीवन मेँ सरलता आती है बालक के समान निर्मोही एवं निर्विकारी बनने पर शरीर अयोध्या बनेगा। जहाँ युद्ध,वैर,ईर्ष्या नहीँ है,वही अयोध्या है

>>>2. अयोध्याकाण्ड >व्यावहारिक वेदान्त सबसे पहले अपने घर के ही सभी प्राणियों में  भगवद् भाव रखना चाहिए, घर के सभी सदस्यों के प्रति त्याग और सेवा को प्रयोग में लाकर, बिना बोले अपने जीवन से  उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।  यह काण्ड मनुष्य को निर्विकार बनाता है । जब जीव भक्ति रुपी सरयू नदी के तट पर हमेशा निवास करता है,तभी मनुष्य निर्विकारी बनता है। भक्ति अर्थात् प्रेम, अयोध्याकाण्ड प्रेम प्रदान करता है। रामका भरत प्रेम, राम का सौतेली माता से प्रेम आदि,सब इसी काण्ड मेँ है। राम की निर्विकारिता इसी मेँ दिखाई देती है। अयोध्याकाण्ड का पाठ करने से परिवार मेँ प्रेम बढता है। उसके घर मेँ लडाई झगडे नहीँ होते। उसका घर अयोध्या बनता है। कलह का मूल कारण धन एवं प्रतिष्ठा है। योध्याकाण्ड का फल निर्वैरता है।

>>>3.-अरण्यकाण्ड:-यह निर्वासन प्रदान करता है। इसका मनन करने से वासना नष्ट होगी।बिना अरण्यवास(जंगल) के जीवन मेँ दिव्यता नहीँ आती। रामचन्द्र राजा होकर भी सीता के साथ वनवास किया। वनवास मनुष्य हृदय को कोमल बनाता है।तप द्वारा ही कामरुपी रावण का बध होगा।इसमेँ सूपर्णखा (मोह ) एवँ शबरी (भक्ति) दोनो ही है। भगवान राम सन्देश देते हैँ कि मोह को त्यागकर भक्ति को अपनाओ

>>>4. -किष्किन्धा काण्ड:-जब मनुष्य निर्विकार एवं निर्वैर होगा तभी जीव की ईश्वर से मैत्री होगी। इसमे सुग्रीव और राम अर्थात् जीव और ईश्वर की मैत्री का वर्णन है। जब जीव सुग्रीव की भाँति हनुमान अर्थात् ब्रह्मचर्य का आश्रय लेगा तभी उसे राम मिलेँगे। जिसका कण्ठ सुन्दर है वही सुग्रीव है। कण्ठ की शोभा आभूषण से नही बल्कि राम नाम का जप करने से है। जिसका कण्ठ सुन्दर है,उसी की मित्रता राम से होती है किन्तु उसे हनुमान यानी ब्रह्मचर्य की सहायता लेनी पडेगी

>>>5- सुन्दरकाण्ड:-जब जीव की मैत्री राम से हो जाती है तो वह सुन्दर हो जाता है ।इस काण्ड मेँ हनुमान को सीता के दर्शन होते है। सीताजी पराभक्ति है,जिसका जीवन सुन्दर होता है उसे ही पराभक्ति के दर्शन होते है । संसार समुद्र पार करने वाले को पराभक्ति सीता के दर्शन होते है। ब्रह्मचर्य एवं रामनाम का आश्रय लेने वाला संसार सागर को पार करता है। संसार सागर को पार करते समय मार्ग मेँ सुरसा बाधा डालने आ जाती है,अच्छे रस ही सुरसा है,नये नये रस की वासना रखने वाली जीभ ही सुरसा है।संसार सागर पार करने की कामना रखने वाले को जीभ को वश मे रखना होगा । जहाँ पराभक्ति सीता है वहाँ शोक नही रहता, जहाँ सीता है वहाँ अशोकवन है

>>>6.-लंकाकाण्ड:- जीवन भक्तिपूर्ण होने पर राक्षसो का संहार होता है काम क्रोधादि ही राक्षस हैँ। जो इन्हेँ मार सकता है,वही काल को भी मार सकता है। जिसे काम मारता है उसे काल भी मारता है,लंका शब्द के अक्षरो को इधर उधर करने पर होगा कालं । काल सभी को मारता है किन्तु हनुमान जी काल को भी मार देते हैँ । क्योँकि वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैँ पराभक्ति का दर्शन करते है।

>>>7.-उत्तरकाण्ड:- इस काण्ड मेँ काकभुसुण्डि एवं गरुड संवाद को बार बार पढना चाहिए। इसमेँ सब कुछ है। जब तक राक्षस , काम  का विनाश नहीँ होगा तब तक उत्तरकाण्ड मे प्रवेश नही मिलेगा। इसमेँ भक्ति की कथा है। भक्त कौन है? जो भगवान से एक क्षण भी अलग नही हो सकता वही भक्त है पूर्वार्ध मे जो काम रुपी रावण को मारता है उसी का उत्तरकाण्ड सुन्दर बनता है, वृद्धावस्था मे राज्य करता है। जब जीवन के पूर्वार्ध मे युवावस्था मे काम को मारने का प्रयत्न होगा तभी उत्तरार्ध-उत्तरकाण्ड सुधर पायेगा। अतः जीवन को सुधारने का प्रयत्न युवावस्था से ही करना चाहिए।

॥जय श्रीराम। जय श्रीहनुमान
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः ! शान्तिः॥

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हे प्रभु :सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने।

हे ईश्वर हमें ऐसा आशीवार्द दो !
ॐ शान्तिः ! शान्तिः ! शान्तिः॥
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🙂शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018/महामण्डल ब्लॉग/ भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2https://vivek-jivan.blogspot.com/2014/07/blog-post.html/

 🙂गुरुवार, 30 नवंबर 2023/ महामण्डल ब्लॉग />>सिल्क्यारा टनल- रैट माइनर्स->>>Arnold Dix : कौन हैं -  हनुमान 🔱"विज्ञान पर विश्वास और आस्था (आत्मा) पर भरोसा (आशा ,श्रद्धा) "🔆 >> मनुष्य के (अहंकार रहित) पुरुषार्थ का साथ आस्था (श्रद्धा) से जोरदार मिलन है -🔱🔆 स्वदेश मंत्र और उसकी व्याख्या  स्वामीजी का समकालीन भारत (Swamiji's Contemporary India : स्वामीजी का वर्तमान भारत )

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018/🙂भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण परमहंस देव की साधना ! [🙂2nd January, 2024 : प्रभु मैं गुलाम तेरा का भावार्थ ]

141 th SPTC : 19-20 July, 2014 ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के १४१ वें स्पेशल आवधिक प्रशिक्षण शिविर पर रिपोर्ट '/ 

@@@https://vivek-jivan.blogspot.com/2015/05/blog-post.html/रविवार, 3 मई 2015 को प्रकाशित / ' २० वां बिहार-झाड़खण्ड त्रिदिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर, जानिबिघा , गया (बिहार)'@@@ अभी मैं पुराना blogs देख रहा था। उसमे देखा कि 20th बिहार झारखंड शिविर तो नवनी दा के सानिध्य में, 18,  19, और 20 अप्रैल 2015 को आयोजित हुआ था। जो शिविर अभी हुआ  🙂" हथिया नक्षत्र " वाला 2023 का जानिबीघा शिविर 21st शिविर था। लगता है डेट देने में भूल हुई है। 

🙂🔱🙏 परिच्छेद-125,  श्रीरामकृष्ण तथा डाक्टर सरकार  /🙂2nd January, 2024 :  प्रभु मैं गुलाम तेरा का भावार्थ - [( 24 अक्टूबर, 1885)-  श्री रामकृष्ण वचनामृत-125 ]  🙂डॉ० सरकार के साथ 'तुलनात्मक शरीर रचना विज्ञान'  पर चर्चा 🙂 🙏

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