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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

मनुष्य और ईसा में अन्तर

पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष : 
 स्वामी विवेकानन्द ने १८९७ में ही कहा था, " पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें छात्रों के ब्रह्मज्ञान को विकसित करने का कोई उपाय नहीं सिखाया जाता है। तुम देखोगे कि अगले ५० वर्षों में ही यह यूरोप, जो आज समस्त भौतिक शक्ति का लीलाक्षेत्र बन बैठा है, यदि अपने को सम्भाल नहीं लेता है, अपनी भौतिकवादी दृष्टि को बदल कर आध्यात्मिकता को ही अपने जीवन का आधार नहीं बना लेता है, तो बर्बाद हो जायेगा, धूल में मिल जायेगा। और यूरोप को यदि कोई शक्ति बचा सकती है तो वह है केवल उपनिषदों का धर्म -या वेदान्त!"
 और उनके इस भविष्य वाणी को सत्य सिद्ध करते हुए ५० वर्षों के भीतर ही दो विश्व-युद्ध हो गए । 
[प्रथम विश्व युद्ध : औद्योगिक क्रांति के कारण सभी बड़े देश  अधिक से अधिक मुनाफा कमाने  के लालच में ऐसे उपनिवेश चाहते थे जहाँ से वे कच्चा माल पा सकें तथा सभी बड़े राष्ट्र यह भी चाहते थे कि अपने देश में मशिनो से बनाई हुई वस्तुओं को उनके देश में बेच सकें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर देश दुसरे देश पर साम्राज्य करने कि चाहत रखने लगा, इससे राष्ट्रों में अविश्वास और वैमनस्य बढ़ा और युद्ध अनिवार्य हो गया।  १९१४ से १९१८ के मध्य मुख्यतः यूरोप में व्याप्त महायुद्ध को प्रथम विश्व युद्ध कहते हैं। करीब आधी दुनिया हिंसा की चपेट में चली गई और इस दौरान अनुमानतः एक करोड़ लोगों की जान गई और इससे दोगुने घायल हो गए। इसके अलावा बीमारियों और कुपोषण जैसी घटनाओं से भी लाखों लोग मरे। उस समय की पीढ़ी के लिए यह जीवन की दृष्टि बदल देने वाला अनुभव था। 
दूसरा विश्व युद्ध: १९३९ से १९४५ तक चलने वाला विश्व-स्तरीय युद्ध,मानव इतिहास का सबसे भयंकर युद्ध था। इसके महत्वपूर्ण घटनाक्रम में असैनिक नागरिकों का नरसंहार- के रूप में होलोकॉस्ट (Holocaust) भी शामिल था, जो समूचे यहूदी लोगों को जड़ से खत्म कर देने का सोचा-समझा और योजनाबद्ध प्रयास था। युद्ध के छह साल के दौरान नाजियों ने तकरीबन 60 लाख यहूदियों की हत्या कर दी, जिनमें 15 लाख बच्चे थे। इस युद्ध में विश्व दो भागों मे बँटा हुआ था - मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने कंधे से कन्धा मिलाकर धूरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली और जापान के विरूद्ध संघर्ष किया था। इस महायुद्ध में ५ से ७ करोड़ व्यक्तियों की जानें गईं क्योंकि इसमें परमाणु हथियारों का एकमात्र इस्तेमाल हुआ था। 
बाइपोलर कोल्ड  वॉर (दो ध्रुवीय शीतयुद्ध)इसमें दोनों पक्षों में आमने सामने आपसी टकराहट  कभी नहीं हुई, पर ये दोनों गुट इस प्रकार का वातावरण बनाते रहे कि युद्ध का खतरा सदा सामने दिखाई पड़ता रहता था। किन्तु युद्ध समाप्त होते ही, एक और ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने लगा। रूस के नेतृत्व में साम्यवादी किन्तु नास्तिक और अमेरिका के नेतृत्व में कट्टर ईसाई किन्तु पूँजीवादी (पैसा ही भगवान है-में विश्वास) देश दो खेमों में बँट गये। 
किन्तु  Russia के पतन के साथ विश्व की ५० % जनसंख्या में व्याप्त साम्यवादी नास्तिकता समाप्त हो गई है। अब बहुत शीघ्र निकट भविष्य में, ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन से निकलने के बाद, अमेरिका की भौतिकवादी नास्तिकता का (पैसा ही सबसे बड़ा भगवान की मानसिकता) पतन देखने को मिलेगा और तब सम्पूर्ण विश्व भारत वेदान्त की दहाड़ से गूँज उठेगा। किन्तु उसके पहले हमें श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा के अनुसार बहुत बड़े पैमाने पर 'ब्रह्मवेत्ता वेदान्ती शेरों' या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना होगा। 
३. मनुष्य और ईसा में अन्तर: प्रकट या अभिव्यक्त रूप से विविध नाम-रूपों वाले प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणी के रूप में तुम ईसा कभी नहीं हो सकते। मिट्टी से मिट्टी का एक हाथी बना लो, उसी मिट्टी से एक चूहा बना लो। उन्हें पानी में डाल दो -वे एक बन जाते हैं। मिट्टी के रूप में वे निरन्तर एक हैं, किन्तु गढ़ी हुई वस्तुओं के रूप में वे निरन्तर भिन्न हैं। उसी प्रकार तत्व के रूप से ब्रह्म ही ईश्वर तथा मनुष्य दोनों का उपादान कारण है। पूर्ण सर्वव्यापी सत्ता के रूप में हम सब एक हैं, परन्तु वैयक्तिक प्राणियों के रूप में प्रभु ईसा मसीह हमारे शाश्वत स्वामी और आराध्य हैं, और हमलोग उनके शाश्वत सेवक हैं।          
" तुम्हारे पास तीन चीजें ( 3H ) हैं- १ शरीर (Hand ) २. मन (Head ) ३. ह्रदय (Heart ) या आत्मा ! आत्मा इन्द्रियातीत है। मन और शरीर जन्म और मृत्यु का पात्र है, और वही दशा शरीर की है। वस्तुतः 
हमलोग वही अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हैं, पर बहुधा हमलोग सोचते हैं कि हम तो केवल शरीर मात्र ही हैं। जब मनुष्य कहता है- ' मैं यहाँ हूँ ' वह शरीर की बात सोचता है;फिर एक दूसरा क्षण आता है, जब तुम उच्चतर अवस्था में होते हो, उस समय तुम यह नहीं कह सकते कि -'मैं केवल यहाँ इसी शरीर में हूँ और जिसकी सेवा कर रहा हूँ उस रोगी के शरीर में नहीं हूँ !' ..किन्तु जब कोई (वह रोगी जिसकी तुम सेवा कर रहे हो), तुम्हें गाली देता है, या तुम्हारा अपमान करता है, और तुम भीतर से क्रोधित नहीं हो जाते, तब तुम आत्मा हो."
 " तुमको यदि कोई अभिशाप देता है, या अपमानित करता है, तो उसको सहो, और उसके प्रति कृतज्ञ होओ. क्योंकि गाली देना, अपशब्द कहना या शाप देना कैसा लगता है, यह दिखाने के लिये उसने मानो तुम्हारे सामने एक दर्पण रख दिया हो, और तुमको आत्मसंयम का अभ्यास करने का एक अवसर प्रदान कर रहा हो. अभ्यास करने का मौका न मिले तो शक्ति का उद्घाटन या प्रस्फुटन भी नहीं हो सकता है. और दर्पण सामने न रहे तो हम अपना चेहरा स्वयं नहीं देख सकते है. " 
विश्व के इतिहास में दो विराट मनुष्य, दो महान दिग्गज व्यक्तित्व या दो ईश्वर हुए हैं-बुद्ध और ईसा। समस्त संसार को वे आपस में बाँटे हुए हैं। संसार में जहाँ कहीं किंचित भी ज्ञान है, वहाँ के लोग या तो बुद्ध या ईसा के सामने सिर झुकाते हैं। इन दोनों के जीवन का अध्यन करो और उनमें प्रकट शान्ति की अभिव्यक्ति को देखो - शान्त और अविरोध की अवस्था में रहने वाले, जेब में एक पाई भी न रखने वाले निःस्वार्थी भिक्षु, आजीवन तिरस्कृत, नास्तिक और मूर्ख कहे जाने वाले -और सोचो, मानव जाति पर उन्होंने कितना महान प्रभाव डाला है ! "  
( वि० सा० ख० १०/४०-४१ एवं ६/१६२)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं , 'सत्य' के दो भेद हैं :  पहला, सापेक्षिक सत्य जिसे हम लोग अपनी पंचेन्द्रियों एवं तदाश्रित अनुमानों  से ग्रहण करते हैं ; और दूसरा, निरपेक्ष या परमसत्य जिसे हम अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति  द्वारा ग्रहण करते हैं, (जो अविनाशी और अपरिवर्तनशील होता है)। प्रथम उपाय (मन-बुद्धि-इंद्रियों) द्वारा संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' और दूसरे प्रकार से संकलित ज्ञान को 'वेद' कहते हैं!  
यह अतीन्द्रिय शक्ति, जिनमें आविर्भूत होती है, उन्हें 'ऋषि' कहा जाता है, और उस शक्ति के द्वारा वे जिस सत्य की उपलब्धि करते हैं -(अपरिवर्तनशील नियमों यामहावाक्यों को आविष्कृत करते हैं, उसका नाम वेद है। यह ऋषित्व और वेद-दृष्टि को प्राप्त कर लेना ही यथार्थ धर्म को अपने अनुभव से जानना है। धर्म अनुभूति का नाम है, और उस अतीन्द्रिय सूक्ष्म शक्ति के द्वारा, वे जिस अलौकिक सत्य (एकं सत्य, विप्राः बहुधा वदन्ति) की उपलब्धि करते हैं-उसका नाम 'वेद' है। जब तक यह 'वेद' स्वयं प्राप्त न कर लिया जाय, तब तक 'धर्म' केवल कहने की बात है, और हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि धर्मराज्य (आध्यात्मिकता) की प्रथम सीढ़ी पर भी हमने पैर नहीं रखा है ! १०/१३९
जिन लोगों को 'सत्य' का दर्शन (ऐब्सलूट ट्रुथ या परम-सत्य) प्राप्त हो जाता है, वे उसे प्रतीकों के द्वारा उन साधारण  लोगों तक पहुँचा देते हैं,जो उसे उसकी नग्न तीव्रता में देख नहीं सकते। उन्हें मालूम है कि हमारे सम्मुख किसी भी युक्तिसंगत तर्क के द्वारा परम सत्य का सच्चा चित्र खड़ा कर पाना असम्भव है। किन्तु आध्यात्मिक रूप से अपरिपक्व लोग मतान्ध होते हैं, और अपने देवताओं से भिन्न किसी अन्य देवता को मानने के लिए तैयार नहीं होते। अपने विश्वास के प्रति उनका प्रेम कट्टरता बन जाती है,और उन्हें परमात्मा की विशालतर एकता के प्रति अन्धा बना देता है। यह धार्मिक विचारों के क्षेत्र में अहंवाद का परिणाम है। इसके विपरीत गीता इस बात की पुष्टि करती है कि भले ही लोगों के विश्वास और व्यवहार अनेक और विविध- रूपी हों, फिर भी आध्यात्मिक उपलब्धि, जिसके लिए, ये सब साधनमात्र हैं, एक ही है। मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं को मार्गों की उस विविधता का ज्ञान है, जिस पर चलकर हम भगवान् तक पहुंच सकते हैं, जो सब रूपों की सम्भाव्यता है। 
शंकराचार्य, जो मुक्ति प्राप्त करने के लिए ज्ञान मार्ग का समर्थन करता है, यह युक्ति प्रस्तुत करता है कि अर्जुन मध्यमाधिकारी व्यक्ति था, जिसके लिए सन्यास ख़तरनाक होता; इसलिए उसे कर्ममार्ग को अपनाने का उपदेश दिया गया। 
सृष्टि के प्रारम्भ से ही मानव मन में यह प्रश्न उठता रहता है कि अपने यथार्थ स्वरूप को नहीं जानने के कारण, मनुष्यों के द्वारा जो सही-गलत आचरण होते रहते हैं, वे पाप हैं भूल ?
 अवतार का सिद्धान्त: सृष्टि और अवतार दोनों का सम्बन्ध व्यक्त जगत् से है, परमात्मा से नहीं। हमें स्वतन्त्र इच्छाशक्ति (विवेक-प्रयोग करने की शक्ति ) प्रदान करने के बाद भी परमात्मा हमें छोड़कर अलग खड़ा नहीं हो जाता कि हम स्वेच्छापूर्वक अपना निर्माण या विनाश कर सकें। जब भी कभी स्वतन्त्रता के दुरूपयोग के फलस्वरूप अधर्म बढ़ जाता है और संसार की गाड़ी किसी लीक में फंस जाती है, तो संसार को उस लीक में से निकालने के लिए और किसी नये रास्ते पर उसे चला देने के लिए वह स्वयं जन्म लेता है। अवतार का उद्देश्य केवल विश्व-व्यवस्था को बनाए रखना ही नहीं है, अपितु मानव-प्रणियों को उनकी अपनी प्रकृति में पूर्ण बनने में उनकी सहायता करना भी है। परमात्मा के मानव-रूप में अवतरण का एक प्रयोजन यह भी है, कि मनुष्य ऊपर उठकर परमात्मा तक पहुंच सके। संसार को धर्म के मार्ग पर चलाते रहने का काम विष्णु, के रूप में (नेता) परमात्मा का है, जो संसार का रक्षक है। जब पाप बढ़ जाता है, तब फिर धर्म की स्थापना करने के लिए वह जन्म लेता है।  प्रत्येक सत्यार्थी व्यक्ति शिष्य है, पूर्णता तक पहुँचने का महत्त्ववाकांक्षी, भगवान् का जिज्ञासु और यदि वह सचाई से श्रद्धा के साथ अपनी खोज जारी रखता है, तो लक्ष्य (परम -सत्य या ) भगवान् ही मार्गदर्शक नेता या भगवान् श्रीरामकृष्ण बन जाता है।
 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।४.७।।
जब भी कभी धर्म का हृास होता है और अधर्म की वृद्धि होती है, हे अर्जुन, तभी मैं (अवतार रूप में) जन्म लेता हूँ। भगवान् यद्यपि अजन्मा और अमर है, फिर भी वह अज्ञान और स्वार्थ की शक्तियों को परास्त करने के लिए मानवीय शरीर में प्रकट होता है।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।४.८।।
सज्जनों की रक्षा के लिए और दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं समय-समय पर जन्म धारण करता रहता हूँ। क्योंकि धर्म (सही) और अधर्म (गलत) के बीच का विवेक-प्रयोग सीखना आवश्यक है। परमात्मा (विवेक) धर्म के पक्ष में कार्य करता है। प्रेम और दया अन्ततोगत्वा द्वेष और क्रूरता की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हैं। धर्म अधर्म को जीत लेगा और सत्य की असत्य पर विजय होगी। मृत्यु, रोग और पाप के पीछे काम कर रही शक्तियाँ उस वास्तविकता द्वारा परास्त कर दी जाएंगी, जो सत, चित् और आनन्द है। इस धारणा से यह अर्थ निकलता है कि आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन में परस्पर कोई विरोध नहीं है।
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।४.९।।
जो व्यक्ति मेरे दिव्य जन्म और कार्यों को इस प्रकार सत्य रूप में जान लेता है, वह शरीर को त्यागने के बाद फिर जन्म नहीं लेता, अपितु अर्जुन, वह मेरे पास चला आता है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
           मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।। गीता ४/११
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो-मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं। हे अर्जुन, मनुष्य सब ओर से मेरे मार्ग का ही अनुगमन करते हैं। मनुष्य सर्वशः सब ओर से या सब प्रकार से, मेरी पूजा के मार्ग पर ही चलता है। परमात्मा प्रत्येक साधक के कृपापूर्वक मिलता है और प्रत्येक को उसकी हार्दिक इच्छा के अनुसार फल प्रदान करता है। वह किसी की भी आशा को तोड़ता नहीं, अपितु सब आशाओं को उनकी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ने में सहायता देता है।
अवतार अपने जीवन को ही उदहारण बनाकर हमें 'वह' बनने में सहायता देता है, जो बन पाना हमारे लिए सम्भव है। अवतार का अर्थ है उतरना, वह जो नीचे उतरा है। दिव्य भगवान् संसार को एक ऊंचे स्तर तक उठाने के लिए पार्थिव स्तर पर उतर आता है। जब मनुष्य को ऊंचा उठाना होता है, तब परमात्मा नीचे उतर आता है।अवतार हमारे सम्मुख आध्यात्मिक जीवन का उदाहरण प्रस्तुत करके हमें वह मार्ग दिखाता है, जिस पर चलकर मनुष्य अस्तित्व के पाशविक स्वरूप (शूकर-जीवन) से उठकर आध्यात्मिक स्वरूप (नरसिंह -जीवन या विवेक-जीवन)  तक पहुंच सकता है।अवतार परमात्मा का मनुष्य में अवतरण है, मनुष्य का परमात्मा में आरोहण नहीं, जैसा कि मुक्त आत्माओं के मामले में होता है।
अवतार, गुरु या मानवजाति का मार्गदर्शक 'नेता' वह है, जो अपने शिष्य को ब्रह्मविद् बनने और उससे भी ऊपर भीतर में छिपे देवत्व को विकसित करने मार्ग दिखला देता है। वह भोगों की समस्त इच्छाओं को नियंत्रित करने के लिये मन पर लगाम कसने अर्थात मन को एकाग्र करने की पद्धति सिखलाकर, हमें जगत के इस मायावी प्रपंच से बचाकर उस परम ‘सत्य’ की ओर ले जाता है। बिना स्वामी विवेकानन्द जैसे गुरु अपना आदर्श या नेता माने; ब्रह्म को जान पाना, अर्थात ब्रह्मविद् मनुष्य बनना असम्भव हैं। इसीलिये भारतीय-संस्कृति में गुरु का स्थान परमेश्वर से भी ऊँचा माना गया है।
मुक्त आत्मा इस मर्त्यभूमि पर अनन्त की एक जीती-जागती प्रतिमा बन जाती है। धर्म का उद्देश्य मनुष्य की यह पूर्णता है और अवतार सामान्यतया अपने आचरण द्वारा इस बात की घोषणा करता है कि वह स्वयं ही सत्य, मार्ग और जीवन है। गौतम बुद्ध ने कहा: वत्सों , इस बात को समझ लो कि समय-समय पर ऐसा तथागत संसार में जन्म लेता है, जो पूरी तरह ज्ञान से प्रकाशित होता है। वह पथभ्रष्ट मनुष्यों  के लिए वह अद्वितीय मार्गदर्शक नेता होता है। महायान बौद्ध-सम्प्रदाय के अनुसार गौतम बुद्ध से पहले भी बहुत- से बुद्ध हो चुके हैं और गौतम के बाद एक और बुद्ध मैत्रेय के रूप में होगा।
स्वयं गौतम  के (जो आगे चलकर बुद्ध बना ) भी अनेक जन्म हुए थे, जिनमें उसने वे गुण संचित किए थे, जिनसे वह सत्य को खोज पाने में समर्थ हुआ। अन्य लोगों के लिए भी ऐसा ही कर पाना सम्भव है। हम देखते हैं कि बौद्धधर्म में दीक्षा लेने वाले लोग बुद्ध का ज्ञान प्राप्त करने की शपथ लेते हैं। यह बौद्ध सम्प्रदाय किसी एक ही विशिष्ट समय में हुई किसी एक ही अनन्य प्रकाशना (अंतिम पैग़म्बर के तर्क? ) में विश्वास नहीं रखते। वे तो युगपत रूप से (simultaneously) नेता, पैगम्बर (ऋषि तुल्य मनुष्य) बनने और बनाने BE AND MAKE में विश्वास करते हैं ! 
आधुनिक युग के 'होली ट्रायो '- भगवान श्री रामकृष्ण देव, माँ श्री श्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द का मानवीय संसार में अवतरण मनुष्य की उस उच्च अवस्था को प्रकट करता है, जिस तक मानवीय आत्माओं को ऊपर उठाना चाहिए। 
 संसार की स्थिति और माया की धारणा: यह संसार ब्रह्म की भाँति कोई मूल अस्तित्व (सत्) नहीं है और न यह केवल अनस्तित्व (असत्) ही है। इसकी परिभाषा सत् या असत्, दोनों में से किसी के भी द्वारा नहीं की जा सकती।  धार्मिक अनुभूतियों द्वारा आत्मा की परम वास्तविकता के आकस्मिक आविर्भाव के कारण हम बहुत बार संसार को अशुद्ध ज्ञान या मिथ्यार्थ ग्रहण के बजाय भ्रम (माया) समझने लगते हैं।असत् क्यों है? पतन, या ‘परम सत्’ से अस्तित्वमान् (नाम-स्वरूप) होने की स्थिति क्यों होती है? यह प्रश्न दूसरे शब्दों में यह पूछना है कि सत् और असत् के मध्य अविराम संघर्ष वाला यह संसार किस लिए बना है? परम सत् एक परमात्मा, संसार के पीछे भी है, परे भी और संसार में भी है। वह साथ ही सर्वोच्च सप्राण परमात्मा भी है, जो संसार से प्रेम करता है और अपनी दया द्वारा उसका उद्धार करता है।भगवान् का कथन है कि भले ही वह वस्तुतः अजन्मा है, परन्तु वह अपनी शक्ति द्वारा, आत्ममायया, जन्म लेता है। माया शब्द ‘मा’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है — बनाना, रचना करना और मूलतः इस शब्द का अर्थ था — रूप उत्पन्न करने की क्षमता। वह सृजनात्मक शक्ति, जिसके द्वारा परमात्मा विश्व को गढ़ता है, वह शक्ति 
योगमाया कहलाती है।
 संसार को भ्रामक इसलिए कहा जाता है, क्योंकि परमात्मा अपने-आप को अपनी सृष्टि के पीछे छिपा लेता है। संसार अपने-आप में धोखा नहीं है, अपितु यह धोखे का निमित्त बन जाता है। परमसत्य या वास्तविकता को जानने के लिए हमें सब नाम-रूपों को छिन्न-भिन्न करके आवरण के पीछे पहुँचना होगा। मनुष्य की प्रवृत्ति अपने मन को स्रष्टा की और प्रेरित करने के बजाय संसार के विषयों की और झुकने की रहती है। परमात्मा एक महान् छलिया प्रतीत होता है, क्योंकि वह इस संसार को और इन्द्रियों के विषयों को उत्पन्न करता है और हमारी इन्द्रियों को बहिर्मुख कर देता है। अपने-आप को धोखा देने की प्रवृत्ति इन्द्रियों के विषयों को भोग करने की इच्छा में निहित है। यह भोग करने की इच्छा वस्तुतः मनुष्य को परमात्मा से दूर ले जाती है। संसार की चमक-दमक हम पर अपना जादू फेर देती है और हम उससे प्राप्त होने वाले पुरस्कारों के दास बन जाते हैं। दैवीय माया अविद्या माया बन जाती है। परन्तु यह केवल हम मर्त्‍यों के लिए, जो सत्य तक नहीं पहुँच सकते, अविद्या माया है; परन्तु परमात्मा के लिए, जो सब-कुछ जानता है और इसका नियन्त्रण करता है, यह विद्या माया है।
प्रकृति में तीन गुण हैं। गुण का शब्दार्थ होता है--रस्सी के धागे। ये गुण विभिन्न उनुपातों में प्रकट होकर विभिन्न प्रकार की वास्तविक सत्ताओं को उत्पन्न करते हैं। भौतिक तत्व के प्रसंग में ये तीन गुण हल्कापन (सत्त्व), गति (रजस्) और भारीपन (तमस्) के रूप में कार्य करते हैं। मानसिक तत्व के रूप में वे क्रमशः अच्छाई , आवेश और मूढ़ता के रूप में कार्य करते हैं। जब आत्मा  यह अनुभव कर लेता है कि वह प्रकृति के साथ सब प्रकार के सम्पर्क से रहित हो गया है, तो वह मुक्त हो जाता है।
जब हम अपनी सत्व प्रकृति के प्रभाव में रहकर कर्म कर रहे होते हैं, तब भी हम पूर्णतया स्वतन्त्र नहीं होते। सत्व-गुण भी हमें उतना ही बांधता है, जितना कि रजस् और तमस्। केवल इतना अन्तर है कि तब हमारी सत्य और पुण्य की कामनाएं अपेक्षाकृत उच्चतर होती हैं। ‘अहम’ की भावना तब भी कार्य कर रही होती है। हमें अपने ‘अहं’ से ऊपर उठना होगा और बढ़ते हुए उस सर्वोच्च आत्मा तक पहुँचना होगा, जिसकी कि अहं भी एक अभिव्यक्ति है। जब हम अपनी व्यक्तिगत सत्ता को भगवान् के साथ एक कर देते हैं, तब हम त्रिगुणात्मक प्रकृति से ऊपर उठ जाते हैं। हम त्रिगुणातीत हो जाते हैं और संसार के बन्धन से मुक्त हो जाते है।
 पूर्णता का लक्ष्य किस प्रकार प्राप्त किया जाए:  परमात्मा अपने-आप में सत्, चित् और आनन्द, अर्थात् वास्तविक, सत्य और परम आनन्दमय है। विद्या या ज्ञान का अर्थ है—अविद्या, काम, कर्म की श्रृंखलाओं से मुक्ति। अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्द कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग कहते हैं  - 
" Progress, man’s distinctive mark alone,
Not God’s, and not the beasts’: God is, they are,
Man partly is and wholly hopes to be." 

" विकास, एकमात्र मनुष्य की है -विशिष्ट पहचान, न परमात्मा की, और न पशुओं की: परमात्मा (पूर्ण) हैं, वे (पशु पूर्ण) हैं, मनुष्य आंशिक रूप से है, किन्तु पूर्ण रूप से विकसित हो जाने की सम्भावना- प्रत्येक मनुष्य में है !
मनुष्य विभिन्न प्रकारों के होते हैं: चिन्तनशील, भावुक या सक्रिय। परन्तु वे ऐकान्तिक रूप से इनमें से किसी एक ही प्रकार के नहीं होते। अन्त में जाकर ज्ञान, भक्ति और कर्म परस्पर मिल जाते हैं। भारत वासियों की मूर्तिपूजा प्रथा (Hindu idolatry) या सूफ़ी मुसलमानों में प्रचलित किसी पीर -पैगंबर के नाम-रूप में " वैयक्तिक परमात्मा की पूजा"  दुर्बल और निम्न, अशिक्षित और अज्ञानी  सब लोगों के लिए एक सरलतर उपाय के रूप में प्रस्तुत की गई है। “सत्य अद्वैत है; परन्तु द्वैत पूजा के लिए है; और इस प्रकार यह पूजा मुक्ति की अपेक्षा सौगुनी महान् है। इस पूजा पद्धति को ध्यान से देखो, किसी जानकर व्यक्ति से ईष्टदेव-पूजन-पद्धति को सीखो और यह निश्चय करो कि वे उपासक यथार्थ में पूजा कहाँ कर रहे हैं ? -मंदिर में, प्रतिमा में या अपने देह-मन्दिर में ? पहले तो यह निश्चय रूप से जान लो कि पूजा करते समय वे क्या कर रहे हैं ? आधुनिक युग के भगवान श्रीरामकृष्ण देव मूर्तिपूजा की निंदा करने वाले लोगों में से ९० % लोग इस बात को नहीं जानते हैं। और तब वेदान्त की दृष्टि से - 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ' की दृष्टि से विचार करने पर इस मूर्तिपूजा की बात स्वतः समझ में आ जाएगी। भक्ति शब्द ‘भज्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है--सेवा करना; और भक्ति शब्द का अर्थ है--भगवान् की सेवा, शिव ज्ञान से जीव सेवा । यह योगसूत्र का ईश्वरप्रणिधान है। यह परमात्मा के प्रति प्रेमपूर्ण अनुराग है।  
 शंकराचार्य ने भी भक्ति के महत्व को क्रमशः मुक्ति की तैयारी के रूप में स्वीकार किया है। फिर भी यह कर्म अनिवार्य नहीं हैं। मनु ने प्रत्येक वृद्ध को चौथा आश्रम -ग्रहण करने की आज्ञा दी है, चाहे वह वैसा करें या नहीं , उसे सभी कर्मों का त्याग (अपने लाभ के लिए धन कमाने का त्याग )तो करना ही चाहिये।  गीता ४. ३३ में भी कहा गया है -'ज्ञाने परिसमाप्यते'। सभी कर्म ज्ञान में जाकर समाप्त होते हैं।
महर्षि पतंजलि के मतानुसार, योग चित्त की वृत्तियों का रुक जाना है, अर्थात मन की अतिरिक्त चंचलता का दमन करते हुए उसे क्रमशः ईश्वर के किसी मूर्त नाम-रूप में स्थिर रखने का अभ्यास कर उसकी गतिविधियों का दमन है। मनःसंयोग के विषय में मैत्री उपनिषद् का कथन हैः “जैसे ईधन न मिलने पर आग चूल्हे में पड़ी-पड़ी बुझ जाती है, उसी प्रकार जब मन की गतिविधियों (इन्द्रिय विषयों में जाने से रोक दिया जाता है ) का दमन कर दिया जाता है (वृत्तिक्षयात्), तब चित्त अपने स्थान पर पड़ा-पड़ा ही बुझ जाता है।”
छात्रों और युवाओं के लिये अष्टांग योग के पाँच अंग का पालन ही यथेष्ट है : योगी (योग का साधक) चाहे गृहस्थ या गृहत्यागी (सन्यासी)  हो दोनों को उपभोग और संयम की शारीरिक अतियों से दूर रहना होता है। हम अत्यन्त प्रबल संकल्प और विवेक के प्रयोग द्वारा ही कामना-वासना पूर्ण विचारों के कोलाहल और इच्छाओं के उत्पात का दमन करने में समर्थ हो सकते हैं।
 योगी (निवृत्ति मार्गी सन्यासी हो या प्रवृत्ति मार्गी गृहस्थ से कहा जाता है कि वह निरन्तर (यम-नियम का पालन वैराग्य ) तथा प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास के साथ साथ किसी निःस्वार्थ समाज सेवा के कर्म- 
(BE AND MAKE') द्वारा इस संयम को प्राप्त करे। वह किसी ऐसे स्थान पर मनःसंयोग का अभ्यास करता है, जहां बाहर की वस्तुओं के कारण ध्यान न बंटे। वह कोई सुविधाजनक आसन लगाकर बैठता है; अपने गहरा श्वास-प्रश्वास लेता है; अपने मन को बाह्य विषयों से खींचकर (प्रत्याहार) और अपने हृदय में विराजित पूर्व -निर्धारित किसी मूर्त आदर्श या अवतार के नाम-रूप पर मन को एकाग्र (धारणा) करता है।  और इस प्रकार क्रमशः 'साहचर्य के नियमानुसार ' अपने आदर्श को जानकर वही बन जाता है।
विशेष सावधानी :  गौण रूप से योग का विधिवत् अभ्यास करने का परिणाम  यह भी होता है कि साधक को अलौकिक शक्तियां प्राप्त हो जाती है; परन्तु इन शक्तियों को प्राप्त करने के लिए योगाभ्यास करना व्यर्थ और बेकार है। बहुधा इसका परिणाम स्‍नायुरोग और विफलता होता है। आध्यात्मिक जीवन के साधक को यह चेतावनी दी जाती है कि वह अलौकिक शक्तियों के आकर्षण में न फंसे। इन शक्तियों से हमारी सांसारिक उन्नति भले हो जाए, परन्तु वे साधुता की ओर नहीं ले जाती।  कुछ ऐसी क्षमताएं विकसित हो जाती हैं, जिनके कारण वह सामान्य मानव-प्राणियों ऊपर उठ जाता है; ठीक उसी प्रकार, जैसे आधुनिक तकनीक विज्ञान के जानने वाले लोग पुराने ज़माने के किसानों की अपेक्षा अधिक साधन-सम्पन्न होते हैं। परन्तु उसकी यह प्रगति बाह्म दिशा में होता है और आत्मा को अन्तर्मुख करने की ओर नहीं होती। योग का अभ्यास केवल सत्य को प्राप्त करने के लिए, वास्तविकता (ब्रह्म) से सम्पर्क स्थापित करने के लिए किया जाना चाहिए। जब हम आत्मा  को प्रकृति और उसके गुणों से पृथक् पहचान लेते हैं, तब हम मुक्त हो जाते हैं। या समस्‍वरतायुक्त (युक्त-योगी) बन जाता है और कर्म के फल की सब इच्छाओं से अनासक्त हो जाता है। जब वह इस एकत्व को प्राप्त कर लेता है, तब वह अपने सब साथी-प्राणियों के साथ एक पूर्ण सहृदयता अनुभव करने लगता है। इसलिए नहीं कि ऐसा करना उसका कर्त्तव्य है, अपितु इसलिए कि उसे उन सबके प्रति सहानुभूति और प्रेम का अनुभव होने लगता है। सत्य को जानने का अर्थ है—अपने हृदय को भगवान् तक ऊपर उठाना और उसकी स्तुति करना। ज्ञानी ही भक्त भी होता है और भक्तों में सर्वश्रेष्ठ होता है। हमारे सम्मुख गौतम बुद्ध का उदाहरण है, जो सबसे महान् ज्ञानी या ऋषि था और जिसके मानवता के प्रति प्रेम ने उसे चालीस वर्ष तक मानव-जाति की सेवा में लगाए रखा। 

७. महामण्डल का आविर्भाव : किन्तु पाश्चात्य- शिक्षा प्रणाली प्रूफ के बिना अवतार के सिद्धान्त- "संभवामि युगे युगे" को स्वीकार नहीं करता! इसीलिये प्रत्येक छात्र को मनुष्य के तीन प्रमुख कम्पोनेन्ट -हैण्ड,हेड और हर्ट या '3H'-अर्थात शरीर-मन और हृदय को विकसित करने के लिये,और मन को प्रशिक्षित करने या एकाग्र करने के लिये - बहुत बड़े पैमाने पर 'यम-नियम' और 'प्रत्याहार और धारणा' का अभ्यास करने की कोई शिक्षा देने में समर्थ लोक -शिक्षकों या लीडर्स ऑफ़ दी मैन काइंड का निर्माण करना होगा ।
अल्बर्ट आइंस्टीन ने भी कहा है कि -" शिक्षा का महत्व सिर्फ तथ्यों को रट लेना नहीं है, बल्कि इस बात में है कि सोचने (विवेक-प्रयोग करने) के लिये मन को प्रशिक्षित कैसे किया जाता है ?   और इसीलिए ईश्वर का यह सन्देश :
' जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, 
तब तब मैं पुनः धर्म की संस्थापना के लिये अवतीर्ण होता हूँ ! 
 निकट भविष्य में सारे भारत पर अपनी सम्पूर्ण अबाध शक्ति के साथ अवश्यमेव फूट पड़ेगी और अपनी अनन्त शक्तिसम्पन्न बाढ़ द्वारा, जो कुछ दुर्बल और सदोष है,उसको दूर बहा ले जायेगी तथा हिन्दू जाति प्रधान भारतवर्ष को उठाकर विधि-नियोजित उस उच्च आसन पर बिठा देगी, जहाँ उसका पहुँचना निश्चित और अनिवार्य है! इस श्लोक में गीता के धर्म की विस्त्रृत उदारता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। उन्नततर मनुष्यों का उन्नततर समाज निर्मित करने के लिये,अथवा सुन्दरतर
स्वामी विवेकानन्द ने मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं - वुड बी लीडर्स को सम्बोधित करते हुए कहा था -  " संसार के धर्म प्राणहीन और विकृत हो चुके हैं; आज जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है - चरित्र ! संसार को ऐसे लोग चाहिये जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम उनके एक एक शब्द को बज्र के समान प्रभावकारी बना देगा।  मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना । 
जब तुम अपने यथार्थ स्वरुप को जान जाओगे , ब्रह्मविद् बन जाओगे तब तुम्हारे शब्दों का प्रभाव  इस जगत के ऊपर बज्र के समान- आकस्मिक घटना (bolt from the blue) बनकर टूट पड़ेंगे! उन व्यक्तियों में मेरा थोड़ा भी विश्वास नहीं है जो यह पूछते हैं, कि 'क्या मेरे उपदेशों को कोई सुनेगा?'अभी तक जगत में इतना साहस नहीं है, कि वह उस व्यक्ति के उपदेश को सुनने से इनकार कर दे, जिसके पास देने के लिये कोई सन्देश है। मनुष्य जाति को उसके दिव्य का स्वरुप का पता बता दो - जगत उसे सुनने को बाध्य है !"
वेदमूर्ति भगवान श्री रामकृष्ण देव ने इस नये अवतार में, यह दिखलाने के लिये  बाह्य-शिक्षा की प्रायः सम्पूर्ण रूप से उपेक्षा की है, कि गीता -उपनिषद और ब्रह्मसूत्र आदि के अनुसार चारो वेद स्वयं सृष्टि-स्थिति और लयकर्ता भगवान के श्री मुख से निसृत हुए हैं। तथा इस तथ्य को अपने जीवन और आचरण के द्वारा प्रमाणित करने से ही धर्म का रिवाइवल, रेस्टरेशनऔर प्राक्लमेशनधर्म का पुनर्जागरण, पुनःसंस्थापन,
और प्राक्लमेशन, अर्थात उसका प्रचार प्रसार अपना चरित्र गठित करने से ही हो सकता है, केवल भाषण देने से नहीं।  
हे मानव, मुर्दे की पूजा करने के बदले हम जीवित की पूजा (शिवज्ञान से जीवसेवा) के लिए तुम्हारा आह्वान करते हैं; बीती हुई बातों पर माथापच्ची करने के बदले हम तुम्हें भावी युग का नेता बनने और बनाने के आंदोलन में जुट जाने के लिये बुलाते हैं। मिटे हुए मार्ग को खोजने में व्यर्थ शक्तिक्षय करने के बदले -अभी बनाये हुए युवाओं के लिए इस ऑप्टिमम, अनुकूलतम या सर्वोत्कृष्ट (optimum) और एक्सटेरिक या सर्वसुलभ मार्ग (exoteric=  suitable for the general public)-  'BE AND MAKE' के पथ पर चलने के लिये आह्वान करते हैं। बुद्धिमान, समझ लो !

जिस शक्ति (प्रथम युवा नेता-प्रचलित मैकाले पद्धति की शिक्षा को अस्वीकार करने वाले वेदमूर्ति  श्री रामकृष्ण)  के उन्मेष मात्र से दिग्दिगन्त-व्यापी प्रतिध्वनि जाग्रत हुई है, उसकी पूर्णावस्था को कल्पना से अनुभव करो ; और व्यर्थ के सन्देह, दुर्बलता और कापुरुषता के साथ दास-जाति सुलभ ईर्ष्या-द्वेष का परित्याग कर, इस महायुग-चक्र-परिवर्तन में सहायक बनो। हम प्रभु (आधुनिक युग के भगवान श्रीरामकृष्ण) के दास हैं, प्रभु के पुत्र हैं, प्रभु की लीला के सहायक हैं,-यही विश्वास दृढ़ कर कार्यक्षेत्र में उतर पड़ो ! " १०/१४२  
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।4.10।।
[वीतरागभयक्रोधाः  मन्मयाः  माम् उपाश्रिताः बहवः ज्ञानतपसा  पूताः  मद्भावम्  आगताः ]
राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें लीन होकर और मेरी शरण में आकर ज्ञान की तपस्या द्वारा पवित्र हुए बहुत-से लोगों ने,मद्भावम्: उस आधिदैविक अस्तित्व को, जो कि मेरा है। मेरी ही स्थिति को 
प्राप्त कर लिया है; अर्थात् जो कुछ मैं हूँ, वही वे बन गए हैं। 
पूज्य नवनी दा (विवेकानन्द दर्शनम् सारांश '1-16 में)   कहते हैं - " सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है।" और जगत रूपी चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के माध्यम से केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है-'अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ , मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष (या श्री रामकृष्ण देव ही ब्रह्म हैं, आधुनिक युग के भगवान हैं,-यह जानकर) "ब्रह्मविद्-
मनुष्य' बनते हुए देख रहे थे ! 
८. Leadership Taring in Ramakrishna-Vivekananda Vedanta Tradition: 
(श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में लीडरशिप- ट्रेनिंग)   
[भारत माता महामण्डल के जिन प्रवृत्ति मार्गी वेदान्ती-सिंहों पर सवार हैंमहामण्डल के उन युवा ब्रह्मवदिन जो, (श्री रामकृष्ण ही ब्रह्म हैं, आधुनिक युग के अवतार वरिष्ठ हैं, इस सत्य साक्षात्कार करके)ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न लीडर्स (या वुड बी लीडर्स) हैं - कम से कम चार ऐसे वेदान्त-केसरी को दहाड़ने दो, सारे सियार (ठग-वैद्य या ढोंगी परमानन्द) अपने अपने बिलों में छिप जायेंगे ! ]  
पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली में छात्रों के ब्रह्मज्ञान को विकसित करने की कोई सुविधा नहीं है; कहने - से तात्पर्य यह है कि इसमें ह्रदय का विकास- अर्थात प्राचीन युग में आविर्भूत श्री राम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसामसीह और पैगम्बर मोहम्मद के ही समान स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण देव ही ब्रह्म हैं-आधुनिक युग के भगवान हैं- इस ज्ञान को विकसित करने की कोई सुविधा नहीं है ! 
हमारी मान्यता है कि वेद औपौरुषेय है उसे ही श्रुति कहा जाता है। उन्हीं श्रुतियों पर आधारित है धर्म शास्त्र जिसे स्मृति कहते हैं। सनातन परमात्मा ने अपने अंशभूत जीवात्माओं को सनातन अभ्युदय एवं निःश्रेयश परम् पद प्राप्त करने के लिए जिस सनातन मार्ग का निर्देश किया है तदनकूल संस्कृति ही सनातन वैदिक संस्कृति है और वह वैदिक सनातन हिन्दू संस्कृति ही सम्पूर्ण संस्कृतियों की जननी है। 
भूगोल, इतिहास और राज्य व्यवस्थाओं की क्षुद्र संकीर्णताओं के इतर प्रत्येक मानव का अभ्युदय और निःश्रेयस ही भारत का अभीष्ट है। साम्राज्य भारत का साध्य नहीं वरन् साधन है। परिणामतः वैदिक भारत साम्राज्य किसी समाज, देश और पूजा पद्धति को त्रस्त करने में कभी उत्सुक नहीं रहे। यहां तो सृष्टि का कण-कण अपनी पूर्णता और दिव्यता के साथ खिले, इसका सतत् प्रयत्न किया जाता है। आवश्यकतानुरूप त्यागमय भोग ही अभीष्ट है तभी तो नीम के वृक्ष की कुछ कोमल पत्तियों- 'टुसा' को सुबह-सुबह चबाकर रस पीने के लिये तोड़ने के पूर्व हम वृक्ष की प्रार्थना करते हैं और कहते हैं कि-
आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशून् वसूनि च ।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ।।
अर्थ : हे वनस्पति, तुम मुझे आयु, बल, यश, तेजस्विता, प्रजा, पशु, धन, ब्रह्म, प्रज्ञा (ग्रहणशक्ति) और मेधा (धारणाशक्ति) दो ।
जिस व्यक्ति को आत्मा की सच्ची प्रकृति का ज्ञान है, उसे  तो स्वप्न में भी यह सोच पाना सम्भव नहीं है कि  उसे कर्म से कोई वास्ता हो सकता है, जो कर्म सच्चे ज्ञान का इतना विरोधी है और पूर्णतया भ्रान्त ज्ञान पर आधारित है। इस प्रकार शंकराचार्य का कथन है कि अर्जुन का प्रश्न केवल उन लोगों के विषय में है, जिन्हें आत्मा का ज्ञान नहीं हुआ है। जो मनुष्य भगवान् के साथ एक हो गया है और जो तत्व को जानता है, वह देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, चखता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ और सांस लेता हुआ यह समझता है कि ’’मैं कुछ नहीं कर रहा। ’’
अज्ञानियों के लिए संन्यास की अपेक्षा कर्म अधिक अच्छा है। सारी गीता में लेखक का मन्तव्य यह प्रतीत होता है कि जिस कर्म का त्याग किया जाना है, वह केवल स्वार्थपूर्ण कर्म है, जो हमें कर्म की श्रृंखला से बांधता है और सारी गतिविधि त्याग--योग्य नहीं है। यह ठीक है कि हमारा उद्धार केवल कर्मों द्वारा नहीं हो सकता, परन्तु कर्म, उद्धारक ज्ञान के विरोधी नहीं है।
 शास्त्रों द्वारा बताये गये अपने-अपने अधिकारानुसार कर्तव्य कर्म और निषिद्ध कर्म को जानकर आचरण करना ही संस्कृति है। संस्कृति का उद्देश्य मानव जीवन को सुन्दर बनाना है। इस भारतीय संस्कृति का मूल वेदों में है। समाज रचना एवं जीवन पद्धति का समुचित मार्गदर्शन कराने वाला यह रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण (गुरु-शिष्य) परम्परा की असाधारण प्रणाली से उसके मूल स्वरूप में आज तक यथावत् चला आ रहा है।
 जब कोई मनुष्य अपनी वासनाओं और आत्म-इच्छा (अहं ) से मुक्त हो जात है, तब वह भगवान् की इच्छा को प्रतिविम्बित करने वाला दर्पण बन जाता है। मानवीय आत्मा दैवीय शक्ति का शुद्ध माध्यम बन जाती है।
यदि हम केवल शस्त्रों में कहीं गई या गुरु द्वारा बताई गई बातों को बिना विचार किए, केवल विश्वास द्वारा मानते चले जाएं, तो उतने से काम नहीं चलेगा। तर्क को भी सन्तुष्ट किया जाना चाहिए।
 ’’जिस व्यक्ति को स्वयं व्यक्तिगत रूप से ज्ञान नहीं हुआ है, बल्कि जिसने केवल बहुत-सी बातों को सुन-भर लिया है, वह शास्त्रों के अर्थ को ठीक उसी प्रकार नहीं समझ सकता, जैसे चमचे को दाल के स्वाद का पता नहीं चलता है।’’ हमें गुरु के प्रति श्रद्धा की स्वतन्त्र परख और पूछताछ के अधिकतम अनियन्त्रित अधिकार के साथ सम्मिश्रण करना चाहिए। जिन  लोगों  ने सत्य का अनुभव कर लिया है (नेता ने) , उनसे आशा की जाती है कि वे हमें मार्ग दिखलाएंगे।
जिन्होंने तत्व के दर्शन कर लिए हैं, उनका अपने अपेक्षाकृत कम भाग्यशाली बन्धुओं के प्रति कुछ कर्तव्य  हो जाता है और वे उन्हें उस ज्ञान के आलोक को प्राप्त करने का मार्ग दिखाते हैं, जिस तक वे स्वयं पहुंच चुके हैं। प्रत्येक व्यक्ति को खोज आने अन्दर करनी चाहिए। वह अपना केन्द्र स्वयं है और सत्य स्वयं उसके अन्दर विद्यमान है। आवश्यकता इस बात की है कि उसमें उस सत्य को पाने का संकल्प और धैर्य हो । 
नेता या गुरु का काम शिक्षा देना नहीं, अपितु शिष्य को (अपने-आप) मन को वश में करने में सहायता देना है। सच्चा उत्तर स्वयं प्रश्नकर्ता के अन्दर ही विद्यमान होता है; केवल उससे वह उत्तर दिलवाया जाना होता है।
दैनिक आवश्यकताओं के सम्बन्ध में चिन्ता, धन कमाने और उसके व्यय करने की चिन्ता हमारे ध्यान को विचलित करती है और हमें आत्मिक जीवन से दूर ले जाती है। शरीर मर सकता है और संसार नष्ट हो सकता है, परन्तु आत्मिक जीवन चिरस्थायी है। हमारा खजाना संसार की नश्वर वस्तुएं नहीं हैं, अपितु उस परमात्मा का ज्ञान और उसके प्रति प्रेम है, जो अनश्वर है। हमें आत्मा की आनन्ददायक स्वतंन्त्रता प्राप्त करने के लिए वस्तुओं की दासता से बाहर निकलना होगा।
ईसा ने एक धनी आदमी से, जो कहता था कि वह धार्मिक आदेशों का पालन करता है, कहा थाः ’’फिर भी एक चीज तुममें नहीं है: जो कुछ तुम्हारे पास है, उस सबको बेच दो और गरीबों में बांट दो और इससे तुम्हें स्वर्ग में खजाना मिल जाएगा।’’ जब ईसा ने देखा कि यह सुनकर वह धनी आदमी बहुत उदास हो गया, तो उसने कहा: ’’जिनके पास धन है, उनके लिए परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर पाना बहुत कठिन होगा; क्योंकि ऊंट के लिए सुई के छेद में से गुजर जाना आसान है, किन्तु धनी व्यक्ति के लिए परमात्मा के राज्य में प्रवेश कर पाना मुश्किल है।’’ -सेण्ट ल्यूक, 18, 18-23
चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया अपने अन्तर्निहित दिव्यता को आविष्कृत करने और दूसरों में इसे देखने का साधन है। विवेक-प्रयोग अर्थात सही या न्यायोचित-कर्म (ब्रह्मचर्य) तुम्हें उच्चतम ज्ञान के निकट लाता है। अनुचित कर्म (भोग-विलास) तुम्हें इससे दूर ले जाता है। हम में से प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन में प्रकांड व्यक्तिगत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, और वही हमारे विकास का व्यक्तिगत मार्ग है। तथापि, आत्मानुभूति (self-realization) का लक्ष्य सभी के लिए एक ही है।  
श्री रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित मानवजाति के एक आदर्श मार्गदर्शक नेता, गुरु और आचार्य स्वामी विवेकानन्द अमेरकी लोगों को सम्बोधित करते हैं : " चिल्ड्रेन ऑफ़ इम्मॉर्टल ब्लिस" - अमृत के पुत्रों-!कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है यह ! मित्रों, इसी मधुर नाम - अमृत के उत्तराधिकारी से आपको सम्बोधित करूँ, आप मुझे इसकी आज्ञा दें। निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता है। आप तो ईश्वर की संतान हैं, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, यह मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है। आप उठें! हे सिंहों ! आयें , और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनंदमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप हैं दास जड़ के। "
ईसाई और मुसलमानों के मतानुसार, ईश्वर ने देवदूत और अन्य सभी प्रकार के बड़े-छोटे उड़ने वाले, डंक मारने वाले जीव-जन्तुओं की सृष्टि करने के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य का सृजन करके ईश्वर बड़े प्रसन्न हुए, क्योंकि सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठ है, मनुष्य से श्रेष्ठतर और कोई नहीं है। यह देखकर ईश्वर ने सभी देवदूतों को बुलवा भेजा, और मनुष्य के सामने सिर झुकाकर अभिनन्दन और प्रणाम करने के लिये कहा। इबलीस को छोड़कर बाकी सभी फरिश्तों ने वैसा किया। इसलिये ईश्वर ने इबलीस कहा- दूर हटो शैतान ! इससे वह शैतान बन गया। अर्थात जो 'मनुष्य' के सामने आदर से सिर नहीं झुकाता वह शैतान है। हमारे पुराणों में भी कहा गया है -  सृष्ट्वा पुराणि विविधानि अजया आत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृप-पशून्-खग-दंशमत्स्यान्। तैः तैः अतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः॥२८॥
सभी प्राणियों में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो अपने बनाने वाले ईश्वर या ब्रह्म को भी जान लेने में समर्थ है, अर्थात श्री रामकृष्ण देव ही आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार हैं - यह जान लेने या ब्रह्मवेत्ता  बनने का अधिकारी है, इस मनुष्य की रचना करके सृष्टा (श्रीरामकृष्ण देव) प्रसन्न हो गए !
क्योंकि कि अब जगत के सभी मनुष्य यह स्वीकार करना सीख जायेंगे कि-’जिसको कर्म के प्रति निष्ठा रखने वाले ईसाई ईसा मानते हैं और मुसलमान अल्लाह मानते हैं, हिन्दू राम और कृष्ण मानते हैं -वही इस बार हुए हैं, श्रीरामकृष्ण परमहंस ! इसीलिये वेदान्त सभी धर्मों के प्रति सम्मान और श्रद्धा, तथा अविरोध रखने की सीख देता है। अरूप (ब्रह्म ) तक पहुँचने के लिए (श्री रामकृष्ण देव के प्राचीन दशावतारों या में से किसी नाम-रूप -वराह अवतार और नरसिंह अवतार को उसके ) नाम और रूप में अपनाया जा सकता है।
९. पृष्ठभूमि और प्रेरणा: बैकग्राउंड एंड मोटिवेशन: 
सदियों से भारतवर्ष मनुष्य को उसके सच्चे स्वरूप का उपदेश देने में समर्थ आचार्यों, गुरुओं या मानवजाति कई महान मार्गदर्शक नेताओं की जन्मस्थली रही है। श्री राम, श्री कृष्ण, भगवान बुद्ध और चैतन्य महाप्रभु के बाद आधुनिक युग में मानवजाति के सर्वश्रेष्ठ आचार्य, जगतगुरु या मार्गदर्शक नेता हैं -श्री रामकृष्ण परमहंस देव (१८३६-१८८६)। 
"निवृत्ति मार्ग के ऋषि 'नरेन्द्र' और उनके गुरु श्री रामकृष्ण देव"
[सामान्य दृष्टि से प्रवृत्ति मार्ग के गुरु  वस्तुतः आधुनिक युग के अवतार
 भगवान  श्री रामकृष्ण देव के साथ ] 
उनकी गहन आध्यात्मिक अनुभवों ने उस समय के कुछ युवा शिष्यों के एक समूह को - मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने के वेदान्तिक लीडरशिप ट्रेनिंग का कौशल सीखने के लिए अपनी तरफ आकर्षित किया था। उन युवाओं में से एक थे नरेन्द्र नाथ दत्त जो आगे चल कर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए, श्री रामकृष्ण ने उन्हीं के कंधों पर मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने का भार सौंपा था। उन्होंने अपने हाथों से उन्हें एक लिखित 'चपरास' सौंपा था -'नरेन शिक्षा देगा !' 
इसके बाद जब श्रीरामकृष्ण ने अपना शरीर त्याग दिया तो, उनके युवा शिष्यों ने स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में वेदान्त के निवृिति मार्गी सन्यासियों के लिये, श्रीरामकृष्ण मठ मिशन की स्थापना की। ततपश्चात, १८९३ में शिकागो में आयोजित प्रथम विश्व धर्म महासभा में वैदिक धर्म जिसे हिन्दू धर्म कहा जाता है, के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने के लिए स्वामी विवेकानन्द अमेरिका गए थे। वहाँ वेदान्त के ऊपर दिये व्याख्यानों से लोग इतने प्रभावित हुए कि उन्हें कुछ और दिनों तक अमेरिका में ही रहने का अनुरोध किया गया। उन्होंने तीन वर्षों तक अमेरिका के विभिन्न प्रान्तों का दौरा किया, और वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग प्राप्त करने के लिये योग्य शिष्यों, गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्गी) और गृहत्यागी (निवृत्ति मार्गी) स्त्री-पुरुष दोनों को- एकत्र करके उन्हें 'BE AND MAKE' की प्रशिक्षण पद्धति में प्रशिक्षित कर दिया।
श्री भगवान् ने कहा: इस अनश्वर योग में मैंने विवस्वान् (स्वामी विवेकानन्द ?) को बताया था। विवस्वान् ने इसे मनु  को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को बता दिया।
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।।

अर्जुन ने कहाः तेरा जन्म बाद में हुआ और विवस्वान् का जन्म पहले हुआ था। तब मैं कैसे समझूं कि तूने शुरू में यह योग उसको बताया था? बुद्ध का दावा था कि वह बीते हुए, युगों में असंख्य बोधिसत्वों का गुरु रह चुका था। 
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।4.4।।
सद्धर्मपुण्डरीक, 15,11 ईसा ने कहा था: ’’जब अब्राहम हुआ था, उससे पहले से मैं हूं।’’ - जान, 8,58 अवतारों का सिद्धान्त। 
श्रीभगवानुवाच 
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।4.5।।
 श्री भगवान् ने कहाः हे अर्जुन, मेरे और तेरे भी बहुत-से जन्म पहले हो चुके हैं। हे शत्रुओं को सताने वाले (अर्जुन), मैं उन सबको जानता हूँ, पर तू नहीं जानता ।
मानव-प्राणियों का देह-धारण स्वैच्छिक नहीं है। अज्ञान के कारण अपनी प्रकृति से पे्रेरित होकर वे बारम्बार जन्म लेते हैं। भगवान् प्रकृति का नियन्त्रण करता है और अपनी स्वतन्त्र इच्छा द्वारा शरीर धारण करता है। प्राणियों के सामान्य जन्म का निर्धारण प्रकृति की शक्तियों द्वारा होता है, अवशं प्रकृतेर्वशात्,  जब कि परमात्मा स्वयं अपनी शक्ति द्वारा जन्म लेता है, आत्ममायया। प्रकृतिम् अधिष्ठायः मेरी अपनी प्रकृति में स्थितर होकर। वह अपनी प्रकृति का एक ऐसे ढंग से प्रयोग करता है, जो कर्म की पराधीनता से स्वतन्त्र है।किस प्रकार मनुष्य अपने-आप को जीवन के उच्चतर स्तर तक उठा सकता है।  धर्म (सही) और अधर्म (गलत) के बीच का प्रश्न निर्णायक प्रश्न है। धर्म का शाब्दिक अर्थ है- 'भूतवैशिष्ट्य' अर्थात किसी वस्तु या प्राणी की विशिष्टता। परमात्मा धर्म के पक्ष में कार्य करता है। प्रेम और दया अन्ततोगत्वा द्वेष और क्रूरता की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हैं। धर्म अधर्म को जीत लेगा और सत्य की असत्य पर विजय होगी। मृत्यु, रोग और पाप के पीछे काम कर ही शक्तियाँ उस वास्तविकता द्वारा परास्त कर दी जाएंगी, जो सत, चित् और आनन्द है।
श्रीरामकृष्ण देव कोई ऐसा 'नेता'  नहीं है, जो कभी पृथ्वी पर चलता-फिरता था और अपने प्रिय मित्र और शिष्य को उपदेश देने के बाद इस पृथ्वी को छोड़कर चला गया है, अपितु वह तो सब जगह विद्यमान है और हम सबके अन्दर विद्यमान है; और वह सदा हमें उपदेश देने को उसी प्रकार तैयार रहता है, जैसा कि वह कभी भी किसी (नरेन्द्रनाथ) को उपदेश देने के लिए तैयार था। वह कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं है, जो कि अब समाप्त हो चुका हो, अपितु वह तो अन्तर्वासी आत्मा है, जो हमारी आध्यात्मिक चेतना का लक्ष्य है। जब यह कहा जाता है कि परमात्मा ने अपने-आप को किसी खास समय या किसी खास अवसर पर प्रकट किया, तो उसका अर्थ केवल इतना होता है कि ऐसा प्रकट होना किसी सीमित अस्तित्व को लेकर होता है।
जब किसी सीमित व्यक्ति में आध्यात्मिक गुण विकसित हो जाते हैं और उसमें गहरी अन्तदृष्टि और उदारता दिखाई पड़ती है, तब वह संसार के भले-बुरे का निर्णय करता है और एक आध्यात्मिक और सामाजिक उथल-पुथल खड़ी कर देता है; तब हम कहते हैं कि परमात्मा ने अच्छाई की रक्षा और बुराई के विनाश के लिए और धर्म के राज्य की स्थापना के लिए जन्म लिया है। 
कौशीतकि उपनिषद्  में इन्द्र प्रतर्दन से कहता हैः“मैं प्राण हूँ: मैं चेतन आत्मा हूँ: मुझे जीवन और प्राण मानकर मेरी पूजा करो। जो मुझे जीवन या अमरता मानकर मेरी पूजा करता है, वह इस संसार में पूर्णजीवन प्राप्त करता है; वह स्वर्गलोक में जाकर अमरता और अनश्वरता प्राप्त करता है।”
 “इसका अर्थ यह है कि इन्द्र ने, जो कि एक देवता हैं, शास्त्रों के अनुसार ऋषियों को प्राप्त होने वाली दृष्टि से अपने-आप को परब्रह्म के रूप में देखते हुए यह कहा है कि ‘मुझे जानो’, ठीक उसी प्रकार जैसे कि इसी सत्य को देखते हुए वामदेव को अनुभव हुआ था कि ‘मैं मनु हूँ, मैं सूर्य हूँ।’ श्रुति में (अर्थात् बृहदाण्यक उपनिषद् में) यह कहा गया है ‘उपासक उस देवता के साथ, जिसे वह सचमुच देखता है, एकरूप हो जाता है’।” 
व्यक्ति के रूप में श्रीरामकृष्ण उन करोड़ों रूपों में से एक है, जिनके द्वारा विश्वात्मा अपने-आप को प्रकट करता है।अवतार मनुष्य के आध्यात्मिक साधनों और प्रसुप्त दिव्यता का प्रदर्शन है। यह दिव्य गौरव का मानवीय रूपरेखा की सीमाओं में संकुचित हो जाना उतना नहीं है, जितना कि मानवीय प्रकृति का भगवान् के साथ एकाकार होकर ईश्वरत्व के स्तर तक ऊँचा उठ जाना। परन्तु ईश्वरवादी स्वामी विवेकानन्द  का कथन है कि श्रीरामकृष्ण एक अवतार है अर्थात् ब्रह्म का मानवीय रूप में अवतरण। यद्यपि भगवान् जन्म नहीं लेता या उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, फिर भी वह बहुत बार जन्म ले चुका है। श्रीरामकृष्ण विष्णु का मानवीय साक्षात् रूप है। वह भगवान् है, जो संसार को ऐसा प्रतीत होता है, मानो उसने जन्म ले लिया है और शरीर धारण कर लिया है। उन्होंने स्वयं अपने मुख्य से यह कहा है। श्रीरामकृष्ण विष्णु का साक्षात् मानवीय रूप हैं  वह भगवान् है, जो संसार को ऐसा प्रतीत होता है, मानो उसने जन्म ले लिया है और शरीर धारण कर लिया है।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2।।
इस प्रकार इस परम्परागत योग को राजर्षियों ने एक-दूसरे से सीखा। अन्त में हे शत्रुओं को सताने वाले (अर्जुन), बहुत काल बीत जाने पर वह योग लुप्त हो गया। राजर्षय: राज-ऋषि। राम, कृष्ण और बुद्ध सब राजा थे, जिन्होंने उच्चतम ज्ञान की शिक्षा दी। कालेन महता: समय का बड़ा व्यवधान पड़ जाने पर। यह उपदेश बहुत काल बीत जाने के कारण लुप्त हो गया है।
मानव -जाति के कल्याण के लिए, श्रद्धा को पुनरुज्जीवित करने के लिए महान् उपदेशक (नेता) उत्पन्न होते हैं। अब श्री रामकृष्ण अपने शिष्य में फिर श्रृद्धा जगाने और उसके अज्ञान को आलोकित करने के लिए उसे यह योग बताते हैं। कोई भी परम्परा उस समय प्रामाणिक होती है, जब कि यह उस वास्तविकता के प्रति, जिसका कि वह प्रतिनिधित्व करती है, पर्याप्त प्रतिभावन जगाने में समर्थ होती है। जब हमारे मन उससे पुलकित और स्पन्दित होते हैं, त बवह सबल होती है। जब वह इस उद्देश्य को पूरा करने में असमर्थ हो जाती है, तब उसमें फिर नयी जान फूकने के लिए नये 'गुरु' (विष्णु जैसा नेता) जन्म लेते हैं।
गुरु (नेता ) बताता है:  कि वह किसी नये सिद्धान्त की स्थापना नहीं कर रहा, जब तक मानवीय हृदय में भक्ति और मित्रता के गुण विद्यमान हैं, तब तक परमात्मा अपने रहस्य उसमें प्रकट करता रहेगा।  
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।

वही प्राचीन योग मैंने तुझे आज बताया है, क्यों कि तू मेरा भक्त है और सखा है; और यह योग सबसे श्रेष्ठ रहस्य है। योगः पुरातनः प्राचीन योग । गुरु बताता है कि वह किसी नये सिद्धान्त की स्थापना नहीं कर रहा, अपितु केवल एक पुरानी परम्परा की, एक सनातन यथार्थता की पुनर्स्थापना - भर कर रहा है, जो गुरुओं द्वारा शिष्यों को दी जाती रही है।
यह उपदेश बहुत पहले विस्मृत हो चुके ज्ञान का पुनर्नवीकरण, पुनरनपुसन्धान, पुनस्र्थापना है। सभी महान् उपदेशकों ने, जैसे गौतम बुद्ध और महावीर, शंकराचार्य और रामानुज ने, यही कहने में सन्तोष अनुभव किया है कि वे पुराने गुरुओं की शिक्षाओं को ही फिर नये सिरे से बता रहे हैं। मिलिन्दपह कहता है कि बुद्ध ने उस प्राचीन मार्ग को ही फिर खोला है, जो बीच में लुप्त हो गया था।  महान् उपदेशक मौलिकता का दावा नहीं करते, अपितु जोर देकर यह कहते हैं कि वे उसी प्राचीन सत्य का प्रतिपादन कर रहे हैं, जो वह अन्तिम प्रमाप है, जिसके द्वारा सब शिक्षाओं का मूल्य आंका जाता है; जो सब धर्मों और दर्शकों का सनातन स्त्रोत है; जो शाश्वत दर्शन या सनातन धर्म है; जिसे आगस्टाइन इन शब्दों में प्रकट करता है; ’’यह वह ज्ञान है , जो कभी बनाया नहीं गया था; पर जो इस समय उसी रूप में विद्यमान है, जैसा कि वह सदा से विद्यमान रहा है और इसी रूप में वह सदा विद्यमान रहेगा। ’’
भक्तोअसि में सखा चेति: तू मेरा भक्त और मेरा मित्र है। प्रकाशना कभी बन्द नहीं रहती। दिव्य आत्म-संचारण  उन सब स्थानों पर सम्भव है, जहां भी ईमानदारी और आवश्यकता की अनुभूति हो। धार्मिक प्रकाशना कोई अतीत की घटना नहीं है। यह एक ऐसी वस्तु है, जो इस समय भी जारी है। यह सब प्राणियों के लिए सम्भव है और केवल कुछ थोड़े-से लोगों का ही विशेषाधिकार नहीं है। ईसा ने पाइलेट से कहा थाः ’’ जो भी कोई सच्चा है, वह मेरी आवाज को सुनाता है। ’’
(भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 108,अध्याय-३ : कर्मयोग या कार्य की पद्धति- फिर काम किया ही किसलिए जाए)
१०.  'अवतार और मुक्त या सिद्ध पुरुष में क्या अन्तर है:   श्री रामकृष्ण देव अवतार हैं या नहीं ? इस बात पर विश्वास क्या कभी जोर-जबरदस्ती करने से होता है? बिना अनुभव के ठीक ठीक विश्वास होना असम्भव है। राजा होने पर फिर खाने-पीने का कष्ट नहीं रहता; किन्तु राजा होना ही तो कठिन है।' १०/३१४  यहाँ पर इस ब्रह्म -सूत्र के सम्बन्ध में कुछ व्याख्या करनी आवश्यक है।
 कामाच्च नानुमानापेक्षा ॥ १. १. १८॥
जब उपनिषद में, जगत्कारण के प्रसंग में ' सोSकामयत' -उन्होंने अर्थात जगत्कारण ने कामना की -- तब 'अनुमानगम्य ' (अचेतन) प्रधान या प्रकृति को जगत्कारण रूप में स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं। 
 कौषीतकी उपनिषद में इन्द्र -प्रतर्दन संवाद नामक एक नीतिकथा है। उसमें लिखा है -प्रतर्दन नामक एक राजा ने देवराज इन्द्र को संतुष्ट और प्रसन्न कर दिया। इन्द्र ने पूछा -बोलो क्या वर मैं तुम्हें दूँ? इस पर प्रतर्दन ने कहा - " आप मनुष्य के लिए जो सबसे अधिक कल्याणकारी समझते हों, वही वर मुझे दीजिये !"  इस पर इन्द्र ने उसे उपदेश दिया -'माम् विजानीहि' -अर्थात  'मुझे जानो '!   
यहां पर सूत्रकार ने यह प्रश्न उठाया है कि -'मुझे' के अर्थ में इन्द्र ने किसको लक्ष्य किया है ? इस सम्पूर्ण नीतिकथा का अध्यन करने पर पहले अनेक सन्देह होते हैं -कहीं उसका आशय 'देवता', कहीं 'प्राण' कहीं पर 'जीव' तो कहीं पर 'ब्रह्म' प्रतीत होता है।
यहाँ इन्द्र के द्वारा स्वयं के बारे यह घोषित किया जाना कि वह और ब्रह्म एक है, यह बोध होना केवल अन्तर्ज्ञान द्वारा होना सम्भव है, जैसा कि वामदेव के विषय में श्रुति द्वारा भी सत्यापित की गई है।
यहां इन्द्र द्वारा जो अपनी उपासना करने का आदेश है- मामुपास्व, मामेव जानीहि कही गई है, इंद्र यहाँ ब्रह्म का ज्ञान की प्रशंसा कर रहे हैं,  इसलिए यह अपने ही स्तुति नहीं है जब वे कहते हैं 'मैं प्राण हूँ, चेतन आत्मा हूँ '। अतः  यह पूरा अध्याय केवल ब्रह्म की महिमा को ही दर्शाता है।अपने को प्राण बतलाना तो वाम-देव की भाँति केवल शास्त्र दृष्टि से है। यहाँ इन्द्रपद वाच्य ईश्वर ही हैं, क्योंकि सभी जीव उसके शरीर हैं।
स्वामीजी अपने गुरुभाई स्वामी प्रेमानन्द जी की ओर देखकर कहने लगे, " देखो तुम्हारे ठाकुर जो अपने को भगवान कहते थे, सो इसी भाव से कहते थे। उन्होंने अपने अंतिम समय में मुझसे कहा था - " जो राम, जो कृष्ण, वही अब रामकृष्ण; किन्तु तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं। "
 शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत्।। १. १. ३० ।। 
'शास्त्र-दृष्टया' बताकर सूत्रकार इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यहाँ 'मुझे ' पद का आशय 'ब्रह्म' से ही है। क्योंकि उपनिषद काल में एक ऋषि जिनका नाम 'वामदेव' था, वे ब्रह्म-ज्ञान लाभ करके बोले थे --'मैं मनु हुआ हूँ ','मैं सूर्य हुआ हूँ'! इन्द्र ने भी इसीप्रकार शास्त्रों में वर्णित ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करके कहा था - 'माम् विजानीहि' (मुझे जानो ); यहाँ पर 'मैं' और 'ब्रह्म' एक ही बात है। यह सूत्र  अद्वैत और विशिष्टाद्वैत दोनों ही वादों का समर्थन करता है।
यदि मनुष्य ब्रह्म का ही एक अंश है, तो उसे उद्धार की आवश्यकता नहीं है, उसे तो केवल अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचानने की आवश्यकता है। यदि उसे यह अुनभव होता है कि वह पापी है, जो परमात्मा से बिछुड़ गया है, तो उसे कोई ऐसी विधि बताई जाने की आवश्यकता है, जिसके द्वारा उसे यह बात याद आ जाए कि वह वस्तुतः परमात्मा का एक अंश है और इसके प्रतिकूल होने वाली कोई भी अनुभूति केवल भ्रान्ति है। 
कौशीतकि उपनिषद् (3) में इन्द्र प्रतर्दन से कहता हैः“मैं प्राण हूँ: मैं चेतन आत्मा हूँ: मुझे जीवन और प्राण मानकर मेरी पूजा करो। जो मुझे जीवन या अमरता मानकर मेरी पूजा करता है, वह इस संसार में पूर्णजीवन प्राप्त करता है; वह स्वर्गलोक में जाकर अमरता और अनश्वरता प्राप्त करता है।
क्या प्रथम युवा नेता - श्रीरामकृष्ण देव जो कभी कभी अपने को भगवान कहकर निर्देश करते थे, सो वह इस ब्रह्मज्ञान की अवस्था प्राप्त होने के कारण करते थे, वे एक सिद्ध पुरुष मात्र थे -अवतार नहीं ? किन्तु उन्होंने तो नरेन्द्र नाथ से स्पष्ट रूप में कहा था - " मैं केवल एक ब्रह्मज्ञ पुरुष ही नहीं हूँ, मैं उसी अर्थ में साक्षात् अवतार हूँ, जिस अर्थ में राम या कृष्ण अवतार थे। " लीला प्रसंग को पढ़ने से यह विश्वास हो जाता है कि 'श्रीरामकृष्ण देव को केवल एक साधु या सिद्ध पुरुष मात्र नहीं कहा जा सकता; यदि उनकी शिक्षाओं पर विश्वास करना है , तो उन्हें एक अवतार कहकर मानना होगा, नहीं तो ढोंगी कहना होगा।"
मेरी यह धारणा थी कि महापुरुषों के शिष्यगण अपने गुरु की बड़ाई करने में अतिरंजना कर देते हैं- किन्तु स्वामी विवेकानन्द जैसा सत्य-निष्ठ व्यक्ति कभी वैसा नहीं कर सकता, यह विचार करने पर मेरी यह धारणा बिल्कुल दूर हो गई। 'जो राम, जो कृष्ण, वही रामकृष्ण -यह बात उन्होंने स्वयं कही है। " स्वामी जी में अपार दया थी, वे हमलोगों से सन्देह छोड़कर, किसी बात पर चट से विश्वास करने को नहीं कहते थे। वे तो कहते थे - " इस अद्भुत रामकृष्ण-चरित्र (लीला-प्रसंग) को तुम लोग अपनी विद्या-बुद्धि के द्वारा जहाँ तक हो सके, आलोचना करो --मैं तो इसका एक लक्षांश भी समझ न पाया। उनको समझने की जितनी चेष्टा करोगे, उतना ही सुख पाओगे, उतना ही उनमें डूब जाओगे !"
 श्रीराम भक्त हनुमान जी ने इन शब्दों में "3H -दर्शन " का सारांश कहा -“शरीर (Hand) के दृष्टिकोण से  मैं तेरा सेवक हूँ, जीव (Head) के दृष्टिकोण से मैं तेरा अंग हूँ और आत्मा (Heart) के दृष्टिकोण से मैं स्वयं तू ही हूँ:, यह मेरा दृढ़ विश्वास है।


देह्बुद्ध्या तु दासोअहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः |
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः || 
' मैं जब देह से अपना तादात्म्य करता हूँ तो मैं आपका दास हूँ, आपसे सदैव पृथक हूँ. जब मैं अपने को जीव समझता हूँ तो मैं उसी पूर्ण ब्रह्म या दिव्य प्रकाश की चिनगारी हूँ. जो कि तू है. किन्तु जब अपने को आत्मा से तदाकार करता हूँ तो मैं और तू एक हो ही जाते हैं. " (६/२६७-६८)  ' तब भी इष्ट-निष्ठा विशेष रूप से आवश्यक है. भक्तश्रेष्ठ हनुमान ने कहा है-
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि |
तथापि मम सर्वस्वं रामः कमल लोचनः || 
-' मैं जानता हूँ, जो परमात्मा लक्ष्मीपति हैं, वे ही जानकीपति हैं, तथापि कमललोचन श्रीराम ही मेरे सर्वस्व हैं ' (५/२४९)
उसी प्रकार ईसामसीह भी ईश्वर को कभी कभी अपना स्वर्गस्थ-पिता कहते हैं, फिर कभी कहते हैं-' स्वर्ग का
 राज्य तुम्हारे ह्रदय मे है. ' फिर वे भी कहते हैं- ' मैं और मेरा पिता एक हैं '.ईसा ने अपना जीवन एकान्त-प्रार्थना, ध्यान और सेवा में बिताया था। वह भी हम लोगों का भाँति प्रलोभित हो जाता था। उसे महान् रहस्यवादियों की भाँति आध्यात्मिक अनुभूतियां होती थी और एक बार आत्मिक यन्त्रण के क्षण में, जब उसे परमात्मा की उपस्थिति की अनुभूति होनी बन्द हो गई, वह चिल्ला उठाः “मेरे परमात्मा, तूने मुझे क्यों छोड़ दिया है?” (मार्क 15, 34)।
स्वामी जी कहते हैं - एक भाव हिन्दू धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है -वह भाव है मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी और अद्वैतग्रन्थ अत्यन्त प्रमाण युक्त तर्क के साथ उसमें यह जोड़ देते हैं कि "To know God is to become God." 'ईश्वर को जानना ही ईश्वर हो जाना है' -जानत तुमहिं तुमहिं ह्वै जाई'। दादू-पंथी सम्प्रदाय के त्यागी संत निश्चलदास ने अपने विचार सागर ग्रन्थ में कहा है -
जो ब्रह्मविद् वही ब्रह्म ताको वाणी वेद। 
संस्कृत और भाषा में करत भरम का छेद॥ 

'जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है, और उससे अज्ञान का अंधकार दूर हट जायेगा, चाहे उसकी वाणी संस्कृत में हो या किसी लोकभाषा में हो।

तेजोऽसितेजो मयि धेहि, वीर्यम् असि वीर्यम् मयि धेहि, 
बलम् असि बल मयि धेहि, ओजोऽसि ओजो मयि धेहि, 
मन्युरसि मन्यु मयि धेहि, सहोऽसि सहो मयि धेहि। 
शुक्ल यजुर्वेद, 19, 9


 “तू जो तेजस्वी है, मुझे भी तेज से भर दे; तू जो वीर्यवान् है, मुझे वीर्ययुक्त कर देः तू जो बलयुक्त है, मुझे भी बल दे; तू जो ओजस्वी है, मुझे भी ओजमय कर दे; तू जो (अनुचित के विरूद्ध) रोष से परिपूर्ण है, मुझमें भी वह रोष भर दे; तू जो सहनशील है, मुझे भी सहनशीलता से भर दे।”


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[  १५  मई २०१६ को १५० वाँ OTC : टीचर्स : सोमनाथ विश्वास , बारासात यूनिट एवं अनूप हाजरा , बालीभारा यूनिट] 

धर्म क्या है ?

" ध्रियते  लोकोऽनेन इति धर्मः।" -  अर्थात् जो लोक को धारण करता  है वह धर्म है। अथवा जो  धारण करने के योग्य है, वह धर्म है। आचार्य शंकर ने श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य भूमिका के प्रारम्भ में ही सनातन वैदिक धर्म की परिभाषा देते हुए कहा है- 'जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षादभ्युदयनिः श्रेयसहेतुर्यः स धर्मो ब्राह्मणाद्यैर्वर्णिभिराश्रमिभिश्च श्रेयोर्थिभिरनुष्ठीयमानः ।।' जो जगत् की स्थिति का कारण  है तथा  प्राणियों के अभ्युदय ( उन्नति ) तथा  निःश्रेयस (मोक्ष)  का  साक्षात् हेतु (कारण ) है, एवं ब्राह्मणादि -वर्णाश्रम-अवलाम्बियों  द्वारा  जिसका  अनुष्ठान किया  जाता  है, उसका नाम 'धर्म' है।
-तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मज्ञान प्राणियों के अभ्युदय (उन्नति) तथा निःश्रेयस अर्थात 'भ्रममुक्त-अवस्था'  या डीहिप्नोटाइज्ड' हो जाने का साक्षात् हेतु (कारण) है, तथा आद्य ऋषियों की सनातन गोत्र-परम्परा या 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में ब्राह्मणादि -वर्णाश्रम-अवलाम्बियों द्वारा जिसका अनुष्ठान किया जाता है, उस शिक्षापद्धति का नाम ' धर्म 'है। तथा यह सनातन शिक्षापद्धति या धर्म ही ( वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में अर्जित विवेकज-ज्ञान या ब्रह्मज्ञान से उत्पन्न साम्यभाव ही) जगत् की स्थिति का कारण है।  
 सनातन वैदिक धर्म के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए आदि गुरु श्री शंकराचार्य भगवान् ने समझाया है कि - स भगवान् सृष्ट्वेदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन् अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं धर्मं ग्राहयामास वेदोक्तम् । ततः अन्यान् च सनकसनन्दनादीन् उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्मं ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राहयामास । (श्रीमद्भगवद्गीता-उपोद्घातः)- अर्थात श्रीमन्नारायण नामक भगवान् ने पहले मरीच्यादि ऋषियों को उत्पन्न कर उनको प्रवृत्ति-परक वैदिक धर्म ग्रहण कराया, अनन्तर सनक-सनन्दनादि को उत्पन्न कर उनको निवृत्तिपरक वैदिक धर्म ग्रहण कराया । 
इस प्रकार श्री आद्य शंकराचार्य  भगवान् हमें यह समझा रहे हैं कि सनातन वैदिक धर्म (सनातन युवा प्रशिक्षणपद्धति) शिष्यों की पात्रता के अनुसार दो प्रकार का है -द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः, प्रवृत्ति लक्षणो निवृत्ति लक्षणश्च, जगतः स्थितिकारणम्, प्राणिनां साक्षादभ्युदयनिश्रेयशहेतुः। (श्रीमद्भगवद्गीता-उपोद्घातः) श्री शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति-मार्गी या संन्यासी थे; किन्तु  अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही कह रहे हैं कि श्री शंकराचार्य के पूर्व से ही प्रचलित हुए वैदिक धर्म के अनुसार दो भेद – प्रवृत्ति और निवृत्ति हैं।  अर्थात एक मार्ग यह है कि ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) की प्राप्ति हो जाने पर सब कर्मों का संन्यास अर्थात त्याग कर दे;  और दूसरा यह कि ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भी सब कर्मों को न छोड़े, उनको जन्म भर ऐसी युक्ति के साथ करता रहे कि उनके पाप–पुण्य की बाधा न होने पाए।
सामान्यतः प्रवृत्ति लक्षण धर्म को समग्र इष्ट भोगों का देनेवाला माना जाता है और निवृत्ति लक्षण धर्म को मोक्षदाता माना जाता है । जैसे याता-यात करने के लिये 'डाउन-लाइन और अप-लाइन' दोनों रहते हैं, दोनों टर्मिनल (अंतिम-स्टेशन) पर मिलते हैं। उसी प्रकार जीवन के ये दो प्रकार हैं, जो दोनों ही वेदों द्वारा समर्थित हैं- एक है प्रवृत्तिमूलक मार्ग और दूसरा निवृत्तिमूलक मार्ग। इन्हीं दो मार्गों को गीता में  संन्यास और कर्मयोग (निष्काम कर्म) कहा है। 'प्रवृत्ति लक्ष्णो योगः ज्ञानं सन्यासलक्षणम्। 'अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। साधारणतः जो मानव-प्रजाति इस उक्त आद्य ऋषियों की 'गोत्र-परम्परा' या 'सनातन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परमरा' में पूर्ण विश्वास रखती है, उन सनातन धर्मी मनुष्यों को वर्तमान युग में हिन्दू-प्रजाति के नाम से जाना जाता है।  
वास्तव में यह संसार एक बहुत बड़ी पाठशाला है । इसमें अगणित जीव शिक्षा ग्रहण करने के लिये आते हैं, और यथाधिकार -- 'प्रवृत्ति मार्ग या निवृत्ति मार्ग' में निर्दिष्ट काल तक शिक्षा - लाभ कर चले जाते हैं, और फिर कुछ विश्राम के पश्चात् पुन: नये वेशभूषा के साथ इसमें आकर प्रवेश करते हैं । मनुष्य के जीवन का एक जन्म उसके लिये इस पाठशाला का एक अध्ययन दिवस है । जब तक कोई यहां की पूरी पढ़ाई समाप्त न कर ले तब तक उससे मुक्ति (भ्रममुक्त अवस्था-मन की डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था)  दूर ही रहती है - उसे बार बार जन्म मरण के बंधन में पड़ना ही पड़ता है। 
यह पाठशाला अनादिकाल से चली आ रही है । अत्यंत आदर्श पाठशाला है, अति विचित्र है और अति प्राचीन होने पर भी नित्य नवीन है । शिक्षा का ढंग भी ऐसा अद्भुत है कि विद्यार्थियों को यह पता भी कठिनता से लग पाता है कि उन्हें शिक्षा मिल रही है । स्वल्पबोध छात्रों को तो स्नेहमयी प्रकृति जननी अपनी गोद में लेकर शिक्षा देती हैं, और प्रौढ़ विद्यार्थियों (स्वामी विवेकानन्द आदि)  को स्वयं परमपिता-(जगद्गुरु श्रीरामकृष्णदेव) की वाणी सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है । 
यह वाणी जिस मूर्ति के द्वारा सुनी जाती है उसे - " आध्यात्मिक शिक्षक " या गुरु कहते हैं, क्योंकि वह शिष्य के अज्ञान (भ्रम या देहाध्यास) का नाश करती है । ‘गु’ का अर्थ है अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है निरोध, अर्थात् जो अंधकार का नास करता है, देहाध्यास के भ्रम से मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है,  वह गुरु कहलाता है। किन्तु वास्तव में कोई व्यक्ति दूसरे मनुष्य का गुरु नहीं हो सकता । सबका गुरु तो वहीं एक परमात्मा (माँ जगदम्बा) हैं, जो किसी शरीर के द्वारा  दूसरे को उपदेश देता है । उसी निमित्त कारण को हम लोग गुरु मानकर उसका आदर करते हैं, और वस्तुत: वही हमारे लिये परमेश्वर (माँ जगदम्बा) की मूर्ति है। 
" नैतिक धारणाओं की उन्नति के साथ साथ ( या चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की भावना के साथ साथ) मनुष्य के मन में एक संग्राम उत्पन्न हो जाता है, मानो उसके भीतर एक नयी इन्द्रिय (छठी इन्द्रिय विवेक-प्रयोग शक्ति) का आविर्भाव हो जाता है। कोई कहता है यह ईश्वर की वाणी है, कोई कहता है यह जन्मजन्मांतर से प्राप्त शिक्षा का फल है। जो भी हो, यह विवेक-शक्ति मनुष्य के स्वाभाविक संवेगों को नियंत्रित करने वाली शक्ति के रूप में कार्य करती है। हमारे मन का एक संवेग कहता है, 'करो' ; इसके पीछे एक दूसरा स्वर उठता है जो कहता है, 'मत करो !' हमारे चित्त में पूर्व जन्मों के संचित धारणाओं का एक समूह है, जो सर्वदा पंचेन्द्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करता है, और उनके पीछे , चाहे कितना भी क्षीण क्यों न हो, एक स्वर कहता रहता है-'रे मन ! इन्द्रिय-विषयों के पीछे बाहर मत जाना।' (अर्थात एक अंतर्निहित शक्ति मन को आदेश देने के लिए उठ खड़ी होती है - मन तू बहिर्मुखी न होना !) इन दो बातों को संस्कृत में प्रवृत्ति और निवृत्ति कहा जाता है। प्रवृत्ति ही हमारे समस्त कर्मों का मूल है। और निवृत्ति से धर्म का आरम्भ है। धर्म आरम्भ होता है इसी 'मत करना' से; आध्यात्मिकता भी इसी 'मत करना ' से आरम्भ होती है। जिस मनुष्य में 'यह मत करना' (निषिद्ध कर्म मत करना) यह 'विवेक-प्रयोग' शक्ति विकसित नहीं हुई है, जान लेना कि उसमें अभी धर्मबोध या आध्यात्मिकता का आरम्भ ही नहीं हुआ। "२/६३ 
व्यवहारिक जीवन में धर्म का अर्थ है, हमलोग बहुत बड़े कर्मवीर बनेंगे, सब कुछ करेंगे, किन्तु धर्म को भी बनाये रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द 'वेदान्त का उद्देश्य ' नामक भाषण में कहते हैं, " पाश्चत्य देशों के जितने भी महान विचारशील व्यक्ति हैं, वे अच्छी तरह समझ गये है कि चाहे जैसी भी राजनितिक या सामाजिक उन्नति क्यों न हो जाये, उससे मनुष्य-जीवन की बुराइयाँ दूर नहीं हो सकतीं। उन्नततर जीवन के लिये आमूल हृदय-परिवर्तन की आवश्यकता है; केवल इसीसे मानव-जीवन का सुधार सम्भव है। चाहे जैसी बड़ी से बड़ी शक्ति का प्रयोग किया जाय, चाहे कड़े से कड़े कायदे-कानून का आविष्कार ही क्यों न किया जाये, पर इससे किसी जाति की दशा बदली नहीं जा सकती। समाज या जाति की असद-प्रवृत्तियों (बैड प्रोपेनसिटी)  को सद्-प्रवृत्तियों की ओर फेरने की शक्ति तो केवल आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति में ही है।
स्वामी विवेकानन्द एक स्थान पर धर्म के विषय में अत्यंत आश्चर्य जनक बात कहते हैं, कहते हैं-धर्म का अर्थ है भोग ! इसको समझाते हुए कहते हैं, तुम्हारे वेदों में क्या है ? देखो समस्त वेद में है, केवल भोग, भोग और भोग। वेदों के संहिता भाग में केवल यही कहा गया है कि किस प्रकार मनुष्य को इहलोक और परलोक में अधिक से अधिक भोग और सुख प्राप्त हो सकता हैं? स्वामीजी कहते हैं कि भोग पूरा हुए बिना त्याग नहीं हो सकता है। मोक्ष, त्याग या वैराग्य तो सबसे अन्तिम बात है। सामान्य मनुष्यों के लिये पहले भोग को पूरा करना आवश्यक होता है। और इसके लिये अर्थ उपार्जन करना भी आवश्यक होता है। किन्तु इन दोनों को नियंत्रित रखने के लिये धर्म की आवश्यकता होती है। 

इसके आलावा ऐसी धारणा बना लेना बिल्कुल गलत है कि भारत में साधारण जनता के लिए सदा से सादगी पूर्ण जीवन जीने की परम्परा रही है। यदि हम अपने प्राचीन साहित्य को देखें और उस पर विश्वास कर सकें , तो वहाँ हम पाते हैं कि हमारे पूर्वज विलासिता की ऊंचाई तक आनंद लिया करते थे। इस तथ्य के समर्थन में कितने ही प्रमाण दिये जा सकते हैं। फिर भारत को वर्तमान युग में अपने उस आदर्श का त्याग क्यों करना चाहिये? कुछ लोग कहते हैं कि सादा जीवन और उच्च विचार भारत का आदर्श होना चाहिए।  हम सोचते हैं , नहीं बल्कि यह विश्वास करते हैं कि ऐसा कहकर भी हमलोग स्वामी विवेकानन्द का ही अनुसरण कर रहे हैं। किन्तु स्वामीजी ने कहा है कि ऐसी मान्यता के लिये केवल इस्लामी शासन ही उत्तरदायी है। स्वामीजी निश्चित रूप से भारत की घोर दरिद्रता को जारी रखने के पक्षधर नहीं थे।भारत की साधारण -जनता को भौतिक जीवन में सादगी के तथाकथित प्राचीन आदर्श का पालन नहीं करना चाहिये । वे कहते हैं साधारण जनता को आनन्द का भरपूर उपभोग करना चाहिये।

भौतिक सभ्यता की समृद्धि को हमारे कोशने और बुरा-भला कहने पर स्वामी जी  १८ नवंबर, १८९४ को  आलासिंगा  पेरूमल को लिखे पत्र में कहते हैं - " हम मूर्खों की तरह भौतिक सभ्यता की निन्दा किया करते हैं। अंगूर खट्टे हैं न ! उस मुर्खोचित बात को यदि स्वीकार भी कर लिया जाय, तो भी सम्पूर्ण भारतवर्ष में (जनसंख्या ३० करोड़ में ) केवल एक लाख नर -नारी ही यथार्थ रूप से धार्मिक हो सकते हैं। क्या केवल इन मुट्ठीभर लोगों की धार्मिक उन्नति के लिये भारत के तीस करोड़ अधिवासियों को बर्बर का सा जीवन व्यतीत करना और भूखों मरना होगा ? क्यों कोई भूखों मरे ? मुसलमानो के लिए हिन्दुओं को जीत सकना कैसे सम्भव हुआ ? यह हिन्दुओं के भौतिक सभ्यता का निरादर करने के कारण ही हुआ। भौतिक सभ्यता की तो बात क्या, यहाँ तक कि विलासमयता (लग्जरी) की भी जरूरत होती है -क्योंकि उससे गरीबों को काम मिलता है। " ३/ ३३४
वे हमलोगों को पूर्ण उद्द्य्म के साथ अर्थ- उपार्जन के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं- " धन कमाना चाहता है ? तो अमेरिका चला जा। मैं तुमको व्यापार करने की बुद्धि दूंगा। ....यहाँ बैठे रहने से क्या होगा ? यदि जाने का भाड़ा नहीं हो, तो जहाज का खलासी बनकर विदेश चला जा। देशी कपड़ा, गमझा, चद्दर को गट्ठर बना कर सिर पर लेकर अमेरिका-यूरोप की गलियों में फेरी लगा। कुछ छोटी छोटी वस्तुओं को वहां बेचो। देखोगे यही करते करते थोड़े दिनों में बुद्धि खुल जाएगी। तब देखोगे कि वे लोग भी तुम्हें सहायता देने लगेंगे। " भारत के सभी स्त्री-पुरुषों को कह रहे हैं, तू सभी लोग मिल कर कमाओ, कहते हैं- क्या तुमलोग जेली,चटनी, आचार बना सकते हो ? इसको भी तुम विदेशों में निर्यात कर सकते हो। ये सब बिजनेस टिप्स स्वामीजी दे रहे हैं। कहते हैं, तुम्हारे पास कल-कारखाने कहाँ हैं ? " 

पाश्चात्य देशों में घूमकर पहले एकबार देख आ, उनका जीवन कितना उद्यमशील है, उनमें कितनी कर्म- तत्परता है, कितना उमंग और उत्साह है ! रजोगुण का कितना विकास है। तुम्हारे देश के लोगों के देह में शक्ति नहीं, हृदय में उत्साह नहीं, मस्तिष्क में प्रतिभा नहीं। क्या होगा रे इन जड़ पिण्डों से ? इसीलिये मैं रजोगुण की वृद्धि कर कर्म-तत्परता के द्वारा इस देश के लोगों को पहले इहलौकिक जीवन संग्राम के लिये समर्थ बनना चाहता हूँ । जा, गाँव-गाँव में , प्रान्त-प्रान्त में सभी को पकड़ पकड़ कर सुना -'तुमलोग अमित वीर्यवान हो- अमृत के अधिकारी हो। ' इसी प्रकार पहले  रजःशक्ति की उद्दीपन कर, जीवन-संग्राम के लिये सब को कार्यक्षम बना इसके पश्चात उन्हें परजन्म में मुक्ति प्राप्त करने की बात सुना। पहले भीतर की शक्ति को जागृत करके देश के लोगों को अपने पैरों पर खड़ा कर , अच्छे भोजन-वस्त्र तथा उत्तम भोग आदि करना वे पहले सीखें। इसके बाद उन्हें उपाय बता दे कि किस प्रकार सब प्रकार के भोग-बन्धनों से वे मुक्त हो सकेंगे। " ६/१५३-१५५ 
25 वीं जनवरी, 1897 को रामनाड भाषण में स्वामीजी कहते हैं - " मन इन्द्रियों की ओर मानो चक्रवत् अग्रसर हो रहा है,....  'सर्कलिंग फॉरवर्ड ' उसे फिर पीछे लौटाना होगा। प्रवृत्ति-मार्ग का त्याग कर उसे फिर निवृत्ति-मार्ग का आश्रय ग्रहण करना होगा। यही भारतीय आदर्श है। किन्तु कुछ भोग भोगे बिना इस आदर्श तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता। बच्चों को त्याग की शिक्षा नहीं दी जा सकती। संसार की असारता समझने के लिये उन्हें पहले कुछ भोग भोगना पड़ेगा, तभी वे वैराग्य धारण करने में समर्थ होंगे। हमारे शास्त्रों में इन लोगों के लिये यथेष्ट व्यवस्था है। दुःख का विषय है कि परवर्ती काल में समाज के प्रत्येक मनुष्य को संन्यासी के नियमों में आबद्ध करने की चेष्टा की गयी-यह एक भारी भूल हुई। भारत में जो दुःख और दरिद्रता दिखाई पड़ती है, उनमें से बहुतों का कारण यही भूल है। गरीब लोगों के जीवन को इतने कड़े धार्मिक एवं नैतिक बन्धनों में जकड़ दिया गया है जिनसे उनका कोई लाभ नहीं है। हैन्ड्स ऑफ ! उन्हें भी संसार का थोड़ा आनन्द लेने दीजिये। आप देखेंगे कि वे क्रमशः उन्नत होते जाते हैं और बिना किसी विशेष प्रयत्न के उनके हृदय में आप ही आप त्याग का उद्रेक होगा।"(५/४६)
वे कहते हैं, तुमलोग पूरी तरह से तमोगुण द्वारा भर गये हो। तुमलोग माटी के पुतलों के सदृश्य हो। तुमलोगों के इस जड़ शरीर को हिलाडुला कर जगाने के लिये ही मैं धरती पर आया हूँ। मैं तुमलोगों में रजोगुण का संचार करना चाहता हूँ। कहते हैं, तुमलोग रजोगुण के बल पर खड़े हो जाओ। हम सभीलोग रजोगुण के लक्षण के विषय में जानते हैं, रजोगुण से प्रेरित मनुष्य निरंतर कर्म करने में लगा रहता है। इसीलिये कहते हैं, तुमलोगों में रजोगुण का संचार हो। तुमलोग कर्मठ या कर्मतत्पर मनुष्य बनो। नई नई वस्तुओं का निर्माण करो, जीवन में भोग करो, किन्तु यह सब धर्म के द्वारा संचालित होकर करो; किन्तु  यह भी याद रखना कि समस्त भोग करके भी यथार्थ शान्ति नहीं मिलेगी।"  इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। मनु महाराज  (मनुस्मृतिः५.५६) कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि - निवृत्तिस्तु महाफला। 
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । 
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला।।
अर्थ-मांसभक्षण,मद्यपान और मैथुन में दोष नहीं है।  भोग की प्रवृत्ति केवल मनुष्य के लिए ही नहीं, किन्तु प्राणीमात्र के लिए स्वाभाविक हैं – 'प्रवृत्तिरेषा भूतानाम्। 'मनुष्यों में यह गुण प्रकृति प्रदत्त हैं, किन्तु हमें इस बात को सदैव स्मरण रखना चाहिये कि इन सबसे निवृत्ति लेना अधिक श्रेष्ठ है; क्योंकि 'दुश्चरितात निवृत्ति' ही सबसे बड़ा फल है ! श्रुति भगवती बहुत दयालु है, ऐसा कहकर आचार्य और शास्त्र हमें निषिद्ध कर्मों को 
करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, बल्कि इस प्रकार वे सामान्य मनुष्यों के भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं। 
चारे में जब मछली फंसती है, तो वह डोर को ही खींचने लगती है, उस समय डोर को ढील देनी पड़ती है; डोर को ढील देते हुए मछली को थोड़ी देर तक चारा खाने का समय  देना पड़ता है, बाद में मछली को खींच लिया जाता है; पहले ही बंशी खींचने से डोरी टूट जाएगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में लस्ट और लूकर के प्रति अधिक आसक्ति देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है ! " जीवन की इन दोनों पद्धतियों का मूल्य समान है। यदि सभी वुड बी लीडर्स या भावी शिक्षकों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग से ही शिक्षक बनने और बनाने की बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। गृहस्थाश्रम में रहकर भी भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हुआ जा सकता है, " गोत्र-परम्परा " या 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित आध्यात्मिक शिक्षक (ब्रह्मज्ञऋषि अथवा मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) बना जा सकता है! 
[“ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः | गीता 17.23- सृष्टि के आदिकाल से ऊँ तत् सत् ये तीन शब्द परब्रह्म को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे हैं ।  ॐ तत् सत् ये तीन शब्द विशेष रूप में परम सत्य भगवान् के सूचक हैं ।अतः इस मन्त्र का अत्यधिक महत्त्व है । अतएव भगवद्गीता के अनुसार कोई भी कार्य ॐ तत् सत् के लिए, अर्थात् भगवान् के लिए, किया जाना चाहिए। वैदिक मन्त्रों में ॐ शब्द सदैव रहता है। अतएव गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में यथाधिकार प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों के आध्यात्मिक शिक्षकों के द्वारा उसी एक सिद्धान्त का पालन किया जाता रहा है । ] 
 जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि 'तेरा कौन–सा धर्म है?'  तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिए किस मार्ग – वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुहम्मदी या पारसी से चलता है; और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है। नित्य व्यवहार में 'धर्म' शब्द का उपयोग केवल 'पारलौकिक कल्याण का मार्ग' इसी अर्थ में किया जाता है। परन्तु 'धर्म' शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है। 
एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का भिन्नत्व उसके विचारों द्वारा निश्चित किया जाता है। इन विचारों का स्तर गुण दिशा आदि व्यक्ति की वासनाओं पर निर्भर करते हैं। यही है मनुष्य का स्वभाव अथवा धर्म। इसके अलावा  राजधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि सांसारिक नीति–बंधनों को भी धर्म कहते हैं।  'व्यवहारिक कर्त्तव्य अथवा नियम के अर्थ में 'धर्म' शब्द का हमेशा उपयोग किया जाता है। कुलधर्म और कुलाचार, दोनों ही शब्द समानार्थक समझे जाते हैं। समाज–धारणा के लिए अर्थात् सब लोगों के कल्याण के लिए इस स्वाभाविक आचरण का उचित प्रतिबंध करना ही धर्म है। गीता में भगवान कहते हैं -"स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।" क्या इसका अर्थ यह हुआ कि धर्मान्तरण करके हिन्दू से ईसाई बन जाना या ईसाई से हिन्दू बन जाना भयावह है ? नहीं, वास्तव में धर्म शब्द का अर्थ है - 'भूत वैशिष्ट्य। ' जिन गुणों के कारण किसी वस्तु का अपना अस्तित्व सिद्ध होता है वह उस वस्तु का धर्म कहलाता है। जैसे अग्नि का धर्म है ताप, यदि अग्नि से ठंढक निकले तो उसे अग्नि नहीं कह सकते। गोल्ड का धर्म है लोचदार (ductile) होना, कड़ा गहना बनाने के लिये उसमें खाद मिलाना पड़ता है। पशु का गुण (धर्म) है घोर स्वार्थपरता, मनुष्य जैसे जैसे निःस्वार्थपर बनता जाता है, वह मनुष्यत्व में उन्नत होता जाता है, जब कोई मनुष्य पूर्णतः निःस्वार्थी बन जाता है तब वह ईश्वर बन जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने ईश्वर को परिभाषित करते हुए कहा है - 'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। '[ Unselfishness is God.अतः मनुष्य का धर्म (विशिष्ट गुण) हुआ क्रमशः अंतर्निहित पूर्णता, निःस्वार्थपरता या ईश्वरत्व को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होते रहना।] 
इसीलिये हमारे देश के प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन में चार पुरुषार्थ करने का सन्देश दिया है। वे चार पुरुषार्थ हैं- धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष ! किन्तु हम आधुनिक शिक्षा प्राप्त लोग, 'पुरुषार्थ' या इस प्रकार के अन्य शब्दों से परिचित नहीं हैं। 'पुरुष' का अर्थ है-मनुष्य; इस शब्द को पुरुष और स्त्री के संदर्भ में नहीं लेना चाहिये। पुरुषार्थ से तात्पर्य मानव के लक्ष्य या उद्देश्य से है। पुरुषार्थ = पुरुष+अर्थ = अर्थात मानव को 'क्या' प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यही चार वस्तुयें ऐसी हैं जिन्हें इस जीवन में पाने की आकांक्षा करनी चाहिये। तथा 'अर्थ' का अनुवाद होगा- एक ऐसी प्राप्तव्य वस्तु, एक ऐसा लक्ष्य, एक ऐसी बहुमूल्य सम्पत्ति - जिसे प्राप्त करने की आकांक्षा प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करनी चाहिये, तथा उस लक्ष्य को इसी जीवन में प्राप्त करने का प्रयत्न भी मनुष्य को अवश्य करना चाहिये। जिस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा उसके मन में होती है उसे 'पुरुषार्थ' कहते हैं। धर्म शब्द के दो अर्थों को यदि पृथक करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को 'मोक्षधर्म' अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' और व्यवहारिक धर्म को केवल धर्म कहा करते हैं। उदाहरणार्थ; चतुर्विध पुरुषार्थों की गणना करते समय हम लोग 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’' कहा करते हैं। इसके पहले यदि 'धर्म 'शब्द में ही 'मोक्ष 'का समावेश हो जाता तो अन्त में मोक्ष को पृथक पुरुषार्थ बतलाने की आवश्यकता न रह जाती।
पहला पुरुषार्थ है- धर्म। यदि यह पुरुषार्थ जीवन में नहीं हो, या नहीं आ सके, तो हमलोगों के जीवन में अन्य जितने पुरुषार्थ या प्राप्तव्य वस्तुएँ हैं, उन्हें हम नहीं प्राप्त कर सकेंगे, और यदि प्राप्त कर भी लिये, तो उनका कोई मूल्य नहीं होगा। इसीलिये धर्म को सबसे पहले विद्यार्थी-जीवन में ही ग्रहण कर लेना चाहिये। यह प्राप्त हो जाय तभी दूसरी वस्तुओं की सार्थकता है। 
स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार - 'धर्म वह वस्तु है जो पशुमानव को मनुष्य में और मनुष्य को ईश्वर में उन्नत कर देती है।' इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि निःस्वार्थपरता ही वह वस्तु है जो पशुमानव को मनुष्य में, और मनुष्य को ईश्वर में उन्नत कर देता है।  अतः निःस्वार्थपर मनुष्य बनने के लिए मनःसंयोग आदि अभ्यास 
नियमित रूप से करना तो व्यावहारिक धर्म की श्रेणी में आता है, जिनका पालन प्रत्येक मनुष्य को ही करना चाहिये, क्योंकि ये सभी के स्वधर्म हैं। स्वाभाविक- कर्म और व्यावहारिक धर्म (महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यास) दोनों ही स्वधर्म के अन्तर्गत आते हैं। 
यदि महामण्डल आन्दोलन रूपी गुरु-पाठशाला या युवा-प्रशिक्षण शिविर में केवल प्रवृत्ति लक्षण धर्म या शिक्षापद्धति - 'BE AND MAKE लीडरशिप  ट्रेनिंग' के अंतर्गत सौंपे गए जिम्मेदारियों का अनुपालन पूर्णतः निःस्वार्थ भाव से किया जाये, तो यह चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन -मनुष्य बनो और बनाओ या 'BE AND MAKE ' ही दोनों फलों (अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों फलों को) को दे सकता है। क्योंकि वेदान्त (गीता, उपनिषद आदि) की शिक्षाओं पर आधारित महामण्डल आंदोलन के  समस्त प्रशिक्षण कार्यक्रमों में अर्थात ५ अभ्यासों में (प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि दैनंदिन अभ्यासों में भी) इन दोनों प्रकार के धर्मों - प्रवृत्ति और निवृत्ति का निरूपण है। इसीलिये जीवन के प्रारंभ में ही धर्म शब्द के दोनों अर्थों - को पृथक-पृथक रूप से समझ लेना अत्यंत आवश्यक है।
  पारलौकिक धर्म (TranscendentalReligion, इन्द्रियातीत, उत्तमोत्तम धर्म) को 'मोक्षधर्म' (Moksha-dharma) अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' (Salvation, भ्रममुक्ति या देहाध्यास से डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना) कहते हैं; तथा व्यावहारिक धर्म (Practical Religion) को केवल धर्म (righteousness=the quality of being morally right or justifiable, or adhering to moral principles) कहा जाता है। धर्म शब्द के इन दोनों रूपों को अपने अनुभव से जानकर, जीवन के समस्त कार्यों को इसी के आलोक में सम्पादित करना हमलोगों का कर्तव्य है। 
स्वामी जी कहते हैं -  " भारत में 'धर्म' (Practical Religion,righteousness) और 'मोक्ष' (Transcendental Religion) का सामंजस्य करना होगा। यहाँ पहले मोक्षाकांक्षी व्यास, शुक तथा सनकादिक के साथ-साथ  'धर्म-के-उपासक' युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन, भीष्म और कर्ण भी वर्तमान थे। बुद्ध के बाद धर्म की बिल्कुल उपेक्षा हुई तथा केवल मोक्षमार्ग ही प्रधान बन गया। ... भोग न होने से त्याग नहीं होता, पहले भोग करो, तब त्याग होगा। बौद्ध कहते हैं -'मोक्ष से बढ़कर और क्या है, देश के सभी लोगों को मोक्ष प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये। मैं पूछता हूँ, क्या यह सम्भव है ?  तुम गृहस्थ अर्थात (प्रवृत्ति -मार्गी) हो, तुम्हारे लिये वे सब बातें बहुत आवश्यक नहीं हैं, तुम अपने धर्म का आचरण करो,हमारे शास्त्र यही कहते हैं। एक हाथ भी नहीं लाँघ सकते, तो समुद्र लाँघ कर लंका कैसे पहुँचोगे ? दो मनुष्यों के साथ राय मिलाकर एक जनहित का काम तो कर नहीं सकते, पर मोक्ष लेने दौड़ पड़ते हो ? 
हिन्दू शास्त्र कहते हैं, कि धर्म की अपेक्षा मोक्ष अवश्य ही बहुत बड़ा है, किन्तु पहले धर्म करना होगा।अहिंसा ठीक है, निश्चय ही बड़ी बात है; कहने-सुनने में अच्छी लगती है, पर शास्त्र कहते हैं, तुम गृहस्थ हो, तुम्हारे गाल पर यदि कोई थप्पड़ मारे, और यदि उसका जवाब तुम १० थप्पड़ों से न दो, तो तुम पाप करते हो। वीरभोग्या वसुन्धरा -वीर्य प्रकाशित करो, साम -दाम-दण्ड -भेद (कन्सिलीऐशन-ब्राइबरी-डिसेन्शन (फूट)-ओपेन वार) की नीति को प्रकाशित करो, पृथ्वी का भोग करो, तब तुम धार्मिक होगे। अन्याय मत करो, अत्याचार मत करो, यथासाध्य परोपकार करो। किन्तु गृहस्थ के लिये अन्याय सहना पाप है, उसी समय उसका बदला चुकाने की चेष्टा करनी होगी। बड़े उत्साह के साथ अर्थोपार्जन कर स्त्री तथा परिवार के दस प्राणियों का पालन करना होगा, दस जन-हितकारी कार्यों में योगदान करना होगा। ऐसा न कर सकने पर तुम मनुष्य किस बात के ? जब तुम सही गृहस्थ ही न बन सके, फिर तो मोक्ष की बात ही क्या ? " (१०/५१-५२ ) 
आधुनिक युग में वेद और ब्राह्मणत्व (अर्थात सनातन आद्य ऋषियों की गोत्र-परम्परा या 'सनातन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परमरा') की रक्षा के लिये आदिकर्ता नारायण (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव) ने कामारपुकुर ग्राम में चन्द्रामणि देवी और क्षुदिराम चट्टोपाध्याय के घर में अवतार घारण किया है । और वर्तमान समय की पाठशाला में  एक अति गुणी छात्र, निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषिओं में से एक नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द) को अपने अपने साथ लेकर अवतरित हुए हैं। जगद्गुरु श्रीरामकृष्णदेव ने उस योग्य पात्र -स्वामी विवेकानन्द को निवृत्ति लक्षण धर्म का उपदेश दिया और स्वामी ब्रह्मानन्द जी को प्रवृत्ति लक्षण धर्म का उपदेश दिया। जिसे श्री म (मास्टर महाशय) ने श्रीरामकृष्ण वचनामृत पुस्तक में व्यक्त किया है।उस ग्रंथ में वर्णित पाठ्यक्रम ही संक्षेप में जगद्गुरु "श्रीरामकृष्णदेव -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा" है। स्वामी विवेकानन्द ने आधुनिक युग में निवृत्ति मार्ग के पुरुष ऋषियों (आध्यात्मिक शिक्षकों) का निर्माण करने के लिए १८९७ ई ० में 'रामकृष्ण मठ और मिशन' की स्थापना की; तथा निवृत्ति मार्ग की स्त्री ऋषियों का निर्माण करने के लिए 'सारदा मठ और मिशन' की स्थापना की।  क्योंकि निष्कामभाव के साथ कर्म करने से  चित्त शुद्धि होती है और चित्त शुद्धि से निवृत्ति लक्षण धर्म की भी योग्यता आ जाती है जिससे मुक्ति होती है । यह 'रामकृष्ण वचनामृत ग्रंथ' जगद्गुरु श्रीरामकृष्णदेव ने स्वयं अपने श्रीमुख से कही है, इसी से इसकी इतनी महिमा है ।  आदिगुरु, प्रथम युवा नेता भगवान श्रीरामकृष्ण देव ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज से सदा संपन्न हैं, सर्व भूतों के ईश्वर हैं, नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाव हैं । उनका जन्म तो होता नहीं, वे नित्य अव्यय हैं, अत: अपनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया, मूल प्रकृति को वश में करके उसी माया द्वारा जन्म लिये हुए की भांति प्रतीत हुए और शरीर की तरह अनुग्रह करते हुए दिखायी देते हैं ।  इस पाठशाला में आने वाले अधिसंख्यक विद्यार्थियों को उस जगद्गुरु के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, इसके लिये खेद करने की आवश्यकता नहीं है । वह रूप तो कालविशेष और प्रयोजन-विशेष के लिये ही प्रकट हुआ था । अत: कार्य पूरा होने पर अंतर्धान हो गया । पर यह नित्यरूप वचनामृत ज्ञान तो सदा के लिये इस युवा महामण्डल रूपी  पाठशाला में बना ही हुआ है। ( युवा-प्रशिक्षण शिविर रूपी ज्ञानदान यज्ञ में भाग लेते रहने से )इसलिये जिसे यहां आकर, अर्थात 'महामण्डल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में आकर' भी जगद्गुरु श्रीरामकृष्ण देव के इस ज्ञानमय रूप का दर्शन नहीं हुआ उसका जन्म निष्फल हुआ, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।  इस प्रकार यह प्रवृत्ति धर्म भी निष्कामभाव पूर्वक करने से परंपरा से मोक्ष का कारण है । क्योंकि जीव का परम पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्त करना है ।और जिसने  अद्वैत आश्रम, मायावती हिमालय के प्रोस्पेक्ट्स में आधारित ' विवेकानन्द-कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर प्रवृत्ति लक्षण ' Be and Make वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' को अपने हृदय में स्थान दिया उसके हृदय में जगद्गुरु श्री रामकृष्णदेव (ही नवनीदा के रूप में ) स्वयं  विराजमान हैं, इसमें भी कोई संदेह नही। 
किन्तु अच्छे अच्छे पंडितों को भी कभी–कभी स्वाभाविक-कर्म के विषय में अर्थात 'क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?' यह प्रश्न चक्कर में डाल देता है। परन्तु कर्म–अकर्म की चिन्ता में कर्म को ही छोड़ देना उचित नहीं है। जैसे केवल अपना कर्तव्य समझकर (स्वार्थ द्वेष आदिके बिना) शूरवीरतापूर्वक युद्ध करना क्षत्रिय का स्वाभाविक कर्म होने से इसमें पाप दीखते हुए भी वास्तव में पाप नहीं होता। स्वाभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् (गीता 18। 47)। सामान्य धर्म के सिवाय दूसरे का स्वाभाविक कर्म (परधर्म) भयावह है क्योंकि उसका आचरण शास्त्र-निषिद्ध और दूसरे की जीविका को छीनने वाला है। जैसे युद्ध के समय क्षात्रधर्म ही अर्जुन के लिए 'विहित्त कर्म' या  'कर्त्तव्य कर्म' था। यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा। स्वामीजीने भारतीय लोगों की तीखे शब्दों में निन्दा भी की है।
[जबकि भूख मिटी ही नहीँ तो थाली हटा देने से आप स्वयं को तृप्त घोषित नहीँ कर सकते । हम ईश्वर से प्रतिकुल बहते है , उनकी और पीठ रहती है । विशुद्ध भोग जगते ही हम घूम कर ईश्वर की ओर अर्थात निःस्वार्थपरता की ओर बहने लगते है। यह बहाव ही व्याकुल यात्रा है , इस पथ में प्रतिकूल बहना माया और अनुकूल और गहन बहना ब्याकुलता है । विरह है । इस यात्रा में अनुकूल व्याकुल बहने पर एक समय निश्चित मिलन है और उसके बाद हम बह कर बहेगें नहीँ । मिलन की स्थिति आनन्द और उसके बाद की जीवन यात्रा निवृत्ति है । वैसे ही भोग रूपी प्रवृत्ति धर्म के पूर्ण होने पर तृप्त भाव का आविर्भाव होने के कारण निवृत्ति धर्म का उदय होता है। इसलिये निवृत्ति धर्म की कोई साधना नहीँ । यह स्वभाव के नियम से स्वतः होता है , हाँ साधना अग्नि की तीव्रता से गति तीव्र और आकर्षक होती है । अन्य कोई चेष्टा नहीँ चाहिये ।“Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this divinity by controlling nature, external and internal. Do this either by work, or worship, or psychic control, or philosophy - by one, or more, or all of these - and be free. This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.”]
हमारे पूर्वज ऋषियों ने बतलाया है कि युग परिवर्तन तो मनुष्यों के विचार जगत में होता है। जो युवा स्वामी विवेकानन्द के '2 आह्वान' - 'उठो, जागो और 'लक्ष्य' प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो!' तथा 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, तथा अपने ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करना (अभिव्यक्त करना) ही मानवजीवन का 'चरम-लक्ष्य' है ! " को सुनकर जो युवा मोहनिद्रा से जाग उठते हैं -उनके जीवन में द्वापर युग का प्रारम्भ हो जाता है -'संजिहानस्तु द्वापरः'| और स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनकर दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करने के कार्य में लग जाते हैं (महामण्डल के चित्र-निर्माण आंदोलन के साथ जुड़ जाते हैं) उनके जीवन में सत्ययुग का प्रारम्भ हो जाता है।  
 कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः । 
 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
 इस मंत्र के ऋषि ने बताया है कि - जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और यथार्थ मनुष्य बन जाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे चलना शुरू कर देता है , उसका भाग्य भी आगे आगे चलने लगता है, इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! "आगे बढो ,आगे बढ़ते रहो !" 
जो अविद्यारूपी निद्रा में सो रहा है अर्थात् जो अत्यन्त मूढ़ पुरुष है, देहाध्यास से हिप्नोटाइज्ड अवस्था में जी रहा है , वही कलियुग में जीना है। जो स्वामी विवेकानन्द के आह्वानों को सुनकर 3H (शरीर-मन और हृदय) को विकसित करने की आवश्यकता को देखता और समझता है, जो उस अज्ञान-निद्रा से आधा जग गया है, उस पुरुष के जीवन में  द्वापरयुग आ जाता है। और जो कल्याण की प्राप्ति के लिये सदा सजग रहकर प्रयत्न करता है(महामण्डल द्वारा निर्देशित पाँच अभ्यास करने लगता है) , उस साधक के मानसिक जगत में त्रेतायुग चलने लगता है। और जो माँ जगदम्बा (भगवान् श्रीरामकृष्णदेव) का अत्यन्त भक्त है, सदा भक्ति के पथ पर ही चलता है, अर्थात दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ आध्यात्मिक शिक्षक बनने और बनाने के 'BE AND MAKE ' आंदोलन के साथ जुड़ जाता है, वह स्वयं कृतकृत्य (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड) हो जाता है, अर्थात उस आध्यात्मिक शिक्षक के जीवन में कृतयुग अथवा सत्ययुग चलने लगता है।
 मनुष्यशरीर केवल माँ जगदम्बा की प्राप्ति के लिये ही मिला है। इस दृष्टि से मनुष्यमात्र साधक है। अतः दैवीसम्पत्ति के जितने भी सद्गुणसदाचार हैं, वे सभी के लिए अपने होने से मनुष्यमात्र के लिये स्वधर्म हैं। परन्तु आसुरीसम्पत्ति के जितने भी दुर्गुणदुराचार हैं, वे मनुष्यमात्र के लिये न तो स्वधर्म हैं और न परधर्म ही हैं। वे तो सभी के लिये निषिद्ध कर्म हैं, त्याज्य हैं। क्योंकि वे अधर्म हैं। दैवीसम्पत्ति के गुणों को धारण करनेमें और आसुरीसम्पत्ति के पापकर्मों का त्याग करनेमें सभी स्वतन्त्र हैं। सभी सबल हैं, सभी अधिकारी हैं कोई भी परतन्त्र, निर्बल तथा अनधिकारी नहीं है। अतः माँ जगदम्बा की प्राप्ति के उद्देश्यवाला मनुष्य स्व को अर्थात् अपने को जो मानता है, उसका धर्म (कर्तव्य) स्वधर्म है। जैसे कोई अपने को मनुष्य मानता है,  तो मनुष्यता का पालन करना अर्थात निःस्वार्थपर मनुष्य बनने और बनाने की चेष्टा करना ही उसके लिये स्वधर्म है। 
ऐसे ही कर्मों के अनुसार अपने को कोई विद्यार्थी (वुड बी लीडर) या अध्यापक (लीडर) मानता है तो पढ़ना या पढ़ाना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपनेको साधक मानता है, तो साधन करना उसका स्वधर्म हो जायगा। कोई अपनेको भक्त, जिज्ञासु और सेवक मानता है तो भक्ति, जिज्ञासा और सेवा उसका स्वधर्म हो जायगा। इस प्रकार जिसकी जिस कार्य में नियुक्ति हुई है और जिसने जिस कार्य को स्वीकार किया है, उसके लिये उस कार्यको साङ्गोपाङ्ग करना स्वधर्म है। सत्त्व, रज और तम -- इन तीनों गुणों को लेकर जो स्वभाव बनता है , उस स्वभाव के अनुसार जो कर्म नियत किये जाते हैं, वे स्वभावनियत कर्म कहलाते हैं। उन्हींको  स्वभावज कर्म, स्वकर्म और सहज कर्म कहा है। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का भिन्नत्व उसके विचारों द्वारा निश्चित किया जाता है। इन विचारों का स्तर गुण दिशा आदि व्यक्ति की वासनाओं पर निर्भर करते हैं। यही है मनुष्य का स्वभाव अथवा धर्म। स्वधर्म और परधर्म यहाँ स्वधर्म का अर्थ किसी जाति विशेष में जन्म लेने पर प्राप्त होने वाले कर्तव्य से नहीं है। 
स्वधर्म का सही तात्पर्य है स्वयं की वासनायें। स्वयं की सहज और स्वाभाविक रुझानों के अनुसार कार्य करने से ही जीवन में शांति और आनन्द सफलता और सन्तोष का अनुभव होता है। तथा परधर्म का अर्थ है दूसरे के स्वभाव के अनुसार व्यवहार और कर्म करना जो भयावह होता है इसमें दो मत नहीं हो सकते। गीता में अर्जुन के स्वभाव को देखते हुये भगवान् उसे युद्ध करने का स्पष्ट उपदेश देते हैं। जन्मजात राजकुमार अर्जुन ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही साहस और शूरवीरता का प्रदर्शन किया था और धनुर्विद्या में निपुणता भी प्राप्त की थी। अत युद्ध जैसा खतरनाक कर्म उसके स्वभाव के अनुकूल ही था। अर्जुन ने संभवत अपने प्रारम्भिक शिक्षणकाल में यह सुना और समझा था कि संन्यास और त्याग का अर्थात् ब्राह्मण का जीवन उसके जीवन से श्रेष्ठतर है। इसीलिये युद्धभूमि पलायन से गुफाओं में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की उसकी इच्छा हो रही थी। श्रीकृष्ण उसे स्मरण दिलाते हैं कि स्वधर्म पालन में कुछ कमी रहने पर भी उसी का पालन उसके आत्मविकास के लिये श्रेयष्कर है। 
 यदि मोक्ष को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर, तथा धर्म के द्वारा मार्गदर्शित होकर- अर्थ और काम का उपभोग किया जाय, तो वैसा अर्थ और काम हमें क्षति नहीं पहुंचा सकता है। अर्थ से तात्पर्य धन और सम्पत्ति से है अर्थ पर मनुष्य का जीवन निर्भर करता है।  मनुष्य के अस्तित्व और उसके विकास के लिए,  मानव जीवन के सुचारु यापन के लिए अर्थ अनादिकाल से ही एक नितांत आवश्यक वस्तु मानी गई है। अतः यदि अर्थ या द्रव्य पाना हो तो 'धर्म के द्वारा' अर्थात् समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी 'धर्म से ही’ करो।  इसलिए  हमलोगों के व्यावहारिक जीवन में धर्म का क्या स्थान है- इसे भली भाँति समझ लेना आवश्यक है। धर्म की सहयता लिये बिना यदि हमलोग भोग के जीवन, अर्थ उपार्जन और व्यबहार के जीवन को जीते रहें, तो हमलोगों का जीवन अन्तिम अवस्था में अशान्ति से भर जायेगा।
 हममें से अधिकांश लोगो के जीवन में यही हो रहा है। जीवन में धन-दौलत का अम्बार खड़ा कर लिये, गाड़ी-जमीन-मकान-दुकान, रुपया-पैसा बहुत अर्जित कर लिये हैं। किन्तु अन्तिम अवस्था आते आते जीवन में घोर अशान्ति छा गयी। पेट फुल गया, बदहजमी का शिकार बन गये, ब्लडप्रेशर,सुगर इत्यादि रोग पकड़ लिया, और लड़के-बच्चों में धन-दौलत को लेकर झगड़ा और केस-मुकदमा चलने लगा। कुछ खा नहीं सकते हैं, ठीक से चल नहीं पाते हैं, रात में नीन्द नहीं आती है। किन्तु धन के घड़ियाल हैं। घर में हर प्रकार की भोग-सामग्री है, किन्तु शान्ति नहीं है, कुछ भी नहीं है। उसी टेन्टलस के नरक जैसी अवस्था है। गले तक जल में ही डूबा हुआ हूँ, किन्तु एक बून्द जल मुख में डालने का उपाय नहीं है। तृष्णा से छाती फटी जा रही है, किन्तु किन्तु उसको मिटाने के लिये, एक बून्द जल ग्रहण करने का उपाय नहीं है। चारो और भोग की वस्तुएं बिखरी पड़ी हैं, देख-देख कर ललचा रहे हैं, किन्तु भोग करने की हिम्मत नहीं है, फिर भोग की इच्छा बनी हुई है, शान्ति नहीं मिलती है। 
हमलोग यह जानते हैं, कि मन में यदि कोई कामना नहीं हो, तो मनुष्य का जीवन अचल हो जायेगा, ठहर जायेगा या गतिशून्य हो जायेगा। यदि ऐसा हो, कि मैं  कुछ भी न चाहूँ; तो फिर मैं ही नहीं रहूँगा। इसीलिये कोई न कोई कामना अवश्य रहेगी, तथा व्यवहारिक जगत के किसी वस्तु को पाने की कामना करें, या प्राप्त करना चाहें, या केवल सामान्य रूप से अपने जीवन का निर्वाह भी करना हो, तो अर्थ की आवश्यकता होगी। हमलोगों के जीवन में अर्थ की आवश्यकता अवश्य होती है, इसीलिये हमारे शास्त्रों में अर्थ की निन्दा नहीं की गयी है। बल्कि अर्थ और काम दोनों की प्रशन्सा की गयी है। गीता में हम श्रीकृष्ण का एक अद्भुत उद्धरण देखते हैं, " वे कहते हैं, यदि मैं न रहूँ, तो मनुष्य कोई कामना भी नहीं कर सकता, इसीलिये सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही कामरूप में अवस्थित हूँ। " [" प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः " प्रजनः [among the progenitor (I) am Kamadeva प्रोजेनिटर च अस्मि कंदर्पः कामः] अर्थात ईश्वर ही मनुष्यों के भीतर कामरूप में अर्थात कामना रूप में अवस्थित हैं। 
हमारे पूर्वज  ऋषियों ने भी अर्थ की प्रशंसा की है। महाभारत में एक सुन्दर उदाहरण दिया गया है, गीता-उपदेश के बाद जब अर्जुन लड़ने को तैयार हो गये तो एकाएक देखते हैं कि युधिष्ठिर कवच वगैरह उतार के नंगे पाँव कौरवों की सेना की ओर तेजी से बढ़े जा रहे हैं। देखते ही अर्जुन आदि सभी घबरा गये। हालत यह हो गयी कि ये पाँचों भाई कृष्ण के साथ उनके पीछे-पीछे दौड़े जा रहे हैं और कहते जा रहे हैं कि राम, राम, यह क्या कर रहे हैं? ऐन वक्त पर आप यह कहाँ चले? क्या युध्ष्ठिर युद्ध नहीं करेंगे, या और कुछ करने जा रहे हैं ? जब युधिष्ठिर न रुके, तो कृष्ण ने ताड़ लिया और लोगों को समझा दिया कि भीष्म आदि गुरुजनों से लड़ने के पहले आज्ञा लेने जा रहे हैं। यही शिष्टाचार हैं।
इसी बीच युधिष्ठिर सभी के साथ ही पहले भीष्म के पास और पीछे क्रमश: द्रोण, कृप और शल्य के पास गये; और चारों को प्रणाम करके लड़ने की आज्ञा तथा सफलता की शुभेच्छा चाही। उन्होंने युधिष्ठिर को आज्ञा दी और शुभेच्छा भी जाहिर की। मगर सभी ने एक बात ऐसी कही जो विचारणीय हैं। चारों के मुख से एक ही श्लोक निकला, जो इस प्रकार हैं-  
''अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। 
इति सत्यं महाराज, बध्दोऽस्म्यर्थेन कौरवै:।'' 
इसका सीधा अर्थ यही हैं कि ''महाराज, इस जगत में सभी पुरुष अर्थात सभी मनुष्य अर्थ के दास होते हैं। आदमी पैसे का गुलाम होता हैं, न कि आदमी का गुलाम पैसा, यही पक्की बात हैं। इसलिए हे महाराज भाग्य के दोष से अर्थ के कारण ही कौरवों ने हमें गुलाम बना लिया हैं।''  जिन्हें मौत पर भी कब्जा हो और जो अपनी मर्जी के खिलाफ न तो हार सकें और न मर सकें, वे लोग भी जब संसार के इस नियम को स्वीकार करते हैं, और इसे अटल (पक्का) नियम मानते हैं, और हिम्मत के साथ तदनुकूल ही अपनी स्थिति कबूल करते हैं, तो मानना ही पड़ेगा कि अप्रिय होने से भी- कि पुरुष अर्थ का दास होता है !' गीता इस कठोर सत्य को खूब मानती हैं। वह इसे स्वीकार करके ही आगे बढ़ी हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हमारे पूर्वज लोग अच्छी तरह से जानते थे, कि हमारे जीवन में अर्थ की कितनी महत्ता है। इसीलिये उन्होंने ने अर्थ की कभी निन्दा नहीं की है। हमलोगों के देश में कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा लिखित सुन्दर अर्थशास्त्र बहुत प्रसिद्द है।
 उसी तरह हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। कामनाओं को पूर्ण करने के लिये अर्थ की आवश्यकता अवश्य है; किन्तु अर्थ के व्यवहार को भी नियंत्रित रखना आवश्यक है। जिस प्रकार कामना-वासना के बेलगाम अत्याचार को सहन करते रहना उचित नहीं है; उसी प्रकार अर्थ का बिल्कुल दास बन जाना भी ठीक नहीं है। यदि कामनाओं को अत्यधिक छूट दे दी जाये, और अर्थ की वासना को परिमित नहीं रखा जाय तथा- 'और धन चाहिये', और धन चाहिए, करते रहा जाय तो मनुष्य की हालत कैसी हो जाएगी ?  इसका वर्णन गीता १६/१३ में बहुत अच्छे से किया गया है-इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥भावार्थ : आज इस समय तो मैंने यह द्रव्य प्राप्त किया है तथा अमुक मनोरथ -- मनको संतुष्ट करनेवाला पदार्थ और प्राप्त करूँगा। और अब कल इस मनोरथ को -(बीच बाजार में एक बड़ा सा प्लोट ) प्राप्त कर लूँगा। इतना धन तो मेरे पास है और यह इतना धन मेरे पास अगले वर्ष में फिर हो जायगा? उससे मैं धनवान् विख्यात हो जाऊँगा।असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि। ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥भावार्थ :   (इसमें जो एक प्रोपर्टी डीलर बाधक शत्रु था ) आज वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया, और कल उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा, इस प्रकार मेरा प्रभुत्व क्रमशः बढ़ता जायेगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ॥14॥ 
राजा ययाति की कहानी वेदों में है, पुराणों में भी है, विभिन्न धर्मग्रंथों के माध्यम से भी हमलोगों में से अधिकांश उसकी कहानी सुने हैं। वे धर्म को भूल कर केवल अर्थ और काम में डूबे रहते थे। उनकी अवस्था ऐसी होगयी थी कि जीवन में बहुत भोग करने के बाद भी उनको तृप्ति नहीं हुई तब उन्होंने कहा -
" न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।। "
काम का उपभोग करते रहने से कामना भी उसी प्रकार क्रमशः बढ़ती जाती है, जिस प्रकार आग में घी डालने से आग क्रमशः और भी बढ़ती जाती है। उसी प्रकार कामना को परिपुष्ट करते रहने से, वह कभी प्रशमित नहीं होती, बढ़ती ही जाती है। इससे कभी शान्ति नहीं मिलती। संसार में जितने भी भोग्य वस्तुयें हैं, जितना भी ऐश्वर्य है, जितनी भी सम्पदा है, वह सब का सब किसी एक ही मनुष्य को दे दिया जाय फिरभी उसको कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है। यह जान लेने के बाद अन्त में सभी मनुष्यों कामना-वासना का त्याग करना ही पड़ता है। यही है हमलोगों के देश की शिक्षा। 
"केवल धर्म (शिक्षा-विवेक-प्रयोग) के द्वारा ही अर्थ और काम को (लस्ट ऐंड लूकर में आसक्ति को) नियंत्रण में रखा जा सकता है।" धर्म का आश्रय लेकर, अर्थ और काम का भोग करो। और जब यह बात समझ में आ जाये कि भोगों में ही सबकुछ नहीं है। जब यह दिखाई देने लगे कि भोगों से यथार्थ शान्ति, आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता है, तब उस अवस्था में मनुष्य के चौथे पुरुषार्थ-मोक्ष को प्राप्त करने की आकांक्षा करनी चाहिये, और उसके लिये प्रयत्न करना चाहिये। किन्तु उन चार पुरुषार्थों में से किसी एक में ही आसक्त नहीं होना चाहिये। इसीलिए, हमारे शास्त्रों में- 'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ' ये चार प्रकार के पुरुषार्थ की बात कही गयी है। केवल एक ही पक्ष को लेकर चलने से नहीं होगा। जो समाज एक को ही लेकर रहता हो, उसे 'निन्दनीय' या 'जघन्य ' भी कहा गया है। ऐसा कहने से भी, चौथे पुरुषार्थ 'मोक्ष' के समकक्ष कोई भी नहीं है। [निवृत्ति अस्तु महाफला ज्ञान के समकक्ष कुछ भी नहीं है ! षड्जगीता  ३८ में कहा गया है-
धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या
यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः ।
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं
स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे ॥ ३८॥
 यह जो 'धर्म-अर्थ-काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -मोक्ष के साथ नहीं हो सकती है।  इसलिये इन तीनों में -किसी भी एक प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये, या किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये। जो मनुष्य किसी एक पुरुषार्थ में ही आसक्त हो जाता है, उसको घृणित या निन्दनीय माना जाता है। इसी तरह धर्म, अर्थ और काम में परस्पर संतुलन बने रहना मानसिक स्वास्थय एवं सुखी जीवन के लिए परमावश्यक है। इन तीनों में संतुलन बनाए रखने के लिए ही वैदिक ऋषियों ने गृहस्थाश्रम का महत्व प्रतिपादित किया है। इन तीनों में सुसामन्जस्य या तालमेल बनाये रखना ही मानसिक और शारीरिक स्वास्थय का मूल रहस्य है। हमारे  पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम या कामना को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है। हितोपदेश में कहा गया है - निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् || -'आत्माराम की मंजूषा'  की कृपा से जिस सद गृहस्थ के हृदय से 'लस्ट ऐंड लूकर' में आसक्ति, अर्थात सांसारिक भोगों की लालसा, राग, आसक्ति समाप्त हो जाती है, उनका घर ही तपोवन बन जाता है।
जनक के दिखलाए हुए मार्ग का नाम 'योग' है। अर्थात योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है।  इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास और कर्मयोग कहा है। इसलिए राजा जनक क्षत्रीय होकर भी ब्राह्मणों के आचार्य बने क्योंकि वे प्रवृत्ति मार्गी (सद्गृहस्थ) होकर भी  निवृत्ति मार्गी (संन्यासी) के जैसा मृत्यु से भी प्रेम करने के अधिकारी थे । शंकराचार्य ने भी कहा है कि जनक आदि ने इसलिए कर्म किए कि जिससे साधारण लोग मार्ग से न भटक जाएं। वे लोग यह समझ कर काम करते थे कि उनकी इन्द्रिया-भर कार्यों में लगी हुई हैं, गुणा गुणेषु वर्तन्ते। हमारे जैसे जिन लोगों ने सत्य को नहीं जाना है, उन्हें आत्मशुद्धि के लिए 'BE AND MAKE' का कर्म अनवरत करते रहना चाहिये, दादा कहते थे जो इस चरित्र-निर्माण आंदोलन से जुड़ जायेगा, उसे 'मुक्ति-भक्ति' सब कुछ प्राप्त हो जायेगा, अलग से कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी !
 किन्तु एक आध्यात्मिक शिक्षक या मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने वाले नेता के रूप में सर्वोत्कृष्ट समाज-सेवा का नेतृत्व करते समय कर्तापन का अहंकार यदि दंभ बन जाये तो, नाम-यश के चक्कर में पड़कर हमारा घोर पतन हो भी सकता है।  इसी बात से सावधान करते हुए जीवन्मुक्त अष्टावक्र जी महाराज कहते हैं-
निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्तिः उपजायते। 
प्रवृत्तिरपि धीरस्य, निवृत्तिफलदायिनि॥ " 
" मूढ़मती लोगों के लिये अर्थात जिनकी बुद्धि मोहनिद्रा में सोयी हुई है, जो स्वयं को केवल शरीर समझते हैं, के लिये निवृत्ति भी प्रवृत्ति को ही उत्पन्न करने वाली होती है, तथा उसी प्रकार ज्ञानी, धीमान या बुद्दिमानों के लिये कर्म (प्रवृत्ति) ही निवृत्ति का फल प्रदान करता है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। अच्छा बनना तथा अच्छा व्यवहार करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है। यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी। (वि.स.१/३८०)
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